PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 34 उच्च न्यायालय

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 34 उच्च न्यायालय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 34 उच्च न्यायालय

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य के उच्च न्यायालय की रचना की व्याख्या करो।
(Discuss the composition of a State High Court.)
अथवा राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएं, कार्यकाल एवं वेतन बताओ।
(Explain the qualifications, appointment, tenure and salaries of the Judges of a State High Court.)
उत्तर-
संविधान द्वारा प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक राज्य का अपना अलग उच्च न्यायालय हो। संसद् दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक सामान्य उच्च न्यायालय की भी व्यवस्था कर सकती है। इस समय पंजाब और हरियाणा का एक ही उच्च न्यायालय है। उच्च न्यायालय राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय होता है और राज्य के अन्य सभी न्यायालय इसके अधीन होते हैं। __ रचना (Composition)-राज्य के उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ अन्य न्यायाधीश होते हैं। अन्य न्यायाधीशों की संख्या निश्चित नहीं है। उनकी संख्या समय-समय पर राष्ट्रपति निश्चित कर सकता है।

राष्ट्रपति नियमित न्यायाधीशों (Regular Judges) के अतिरिक्त उच्च न्यायालय में कुछ अतिरिक्त न्यायाधीश (Additional Judges) भी नियुक्त कर सकता है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति (Appointment of the Judges)-उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय उसे सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल से भी परामर्श लेना पड़ता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति प्रायः वरिष्ठता (Seniority) के आधार पर की जाती है।

1974 को पंजाब तथा हरियाणा के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी० के० महाजन के रिटायर होने पर जस्टिस नरूला को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया जिस पर उनसे सीनियर प्रेमचन्द पण्डित ने अपना रोष प्रकट करते हुए न्यायाधीश पद से त्याग-पत्र दे दिया। मि० नरूला की नियुक्ति यद्यपि संवैधानिक थी, परन्तु इससे स्थापित परम्परा का उल्लंघन हुआ।

27 जनवरी, 1983 को केन्द्रीय सरकार ने यह घोषणा की कि देश के सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश राज्य के बाहर के होंगे। सरकार ने यह भी निर्णय लिया कि भविष्य में सब राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश दूसरे राज्यों के उच्च न्यायालयों से वहां पर उनकी वरिष्ठता तथा योग्यता के आधार पर लिये जाएंगे। ऐसे वरिष्ठ न्यायाधीश को, जिसकी सेवा निवृत्ति में एक वर्ष या उससे कम रह गया हो और इस अवधि में यदि वह मुख्य न्यायाधीश बन सकता है, वरिष्ठता के आधार पर मुख्य न्यायाधीश बनाने का विचार किया जा सकता है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (Decision of Supreme Court with regard to the Appointment of Judges)—सर्वोच्च न्यायालय ने 6 अक्तूबर, 1993 को एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी कार्यपालिका के मुकाबले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह को प्रमुखता दी जाएगी। 28 अक्तूबर, 1998 को सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने एक महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण के तहत यह निर्धारित किया है कि उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में अपनी सिफ़ारिश देने से पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से विचार-विमर्श करना चाहिए। संविधान पीठ ने स्पष्ट कहा है कि सलाहकार मण्डल की राय तथा मुख्य न्यायाधीश की राय जब तक एक न हो, तब तक सिफ़ारिश नहीं की जानी चाहिए। इस निर्णय से स्पष्ट है कि उच्च न्यायालय में किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह के विरुद्ध नहीं हो सकती।

योग्यताएं (Qualifications) उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए संविधान द्वारा योग्यताएं निश्चित की गई हैं। केवल वही व्यक्ति इस पद को सुशोभित करता है जो-

  • भारत का नागरिक हो।
  • भारत में कम-से-कम 10 वर्षों तक किसी न्यायिक पद पर रह चुका हो।

अथवा

किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय या एक से अधिक राज्यों के उच्च न्यायालयों में कम-से-कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो।

अवधि (Term) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। इससे पहले वे स्वयं त्याग-पत्र दे सकते हैं। कदाचार तथा अयोग्य (Misbehaviour and Incapacity) के आधार पर न्यायाधीशों को 62 वर्ष की आयु पूरी होने से पहले भी हटाया जा सकता है। संसद् के दोनों सदन 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को किसी न्यायाधीश को पद से हटाए जाने की प्रार्थना कर सकता है और ऐसी प्रार्थना प्राप्त होने पर राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को अपने पद से हटा देगा।

वेतन और भत्ते (Salary and Allowances) उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का मासिक वेतन 2,50,000 रु० तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 2,25,000 रु० है। वेतन के अतिरिक्त उन्हें कई प्रकार के भत्ते भी मिलते हैं और वे सेवानिवृत्त होने पर पैन्शन के अधिकारी होते हैं। उनके वेतन, भत्ते तथा सेवा की अन्य शर्ते संसद् द्वारा निश्चित की जाती हैं, परन्तु किसी न्यायाधीश के कार्यकाल में उन्हें घटाया नहीं जा सकता।

शपथ (Oath)—प्रत्येक न्यायाधीश को अपना पद ग्रहण करते समय राज्य के राज्यपाल या उसके द्वारा नियुक्त किसी अन्य पदाधिकारी के सम्मुख अपने पद की शपथ लेनी पड़ती है कि वह संविधान में आस्था रखेगा, अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से पालन करेगा तथा संविधान व कानून की रक्षा करेगा।

उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का स्थानान्तरण (Transfer of Judges)-राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को दूसरे राज्य के उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित कर सकता है। आन्तरिक आपात्काल के दौरान सात न्यायाधीशों को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित किया गया। उदाहरण के लिए मई, 1976 में पंजाब व हरियाणा के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को तमिलनाडु राज्य के उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित किया गया। 13 अप्रैल, 1994 को सरकार ने 16 उच्च न्यायालयों के 50 न्यायाधीशों को अन्य उच्च न्यायालयों में स्थानान्तरित कर दिया।

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प्रश्न 2.
राज्य के उच्च न्यायालय के प्रारम्भिक तथा अपीलीय अधिकार क्षेत्र की व्याख्या करो।
(Explain the original and appellate jurisdiction of a High Court.)
अथवा
राज्य के उच्च न्यायालय की विभिन्न शक्तियों का वर्णन करो।
(Mention briefly the various powers of a State High Court.)
अथवा
राज्य के उच्च न्यायालय की समूची स्थिति पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a brief note on the over all position of a State High Court.)
उत्तर-
राज्य के उच्च न्यायालय को कई प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं। इसकी शक्तियों और कार्यों को दो भागों में बांटा जा सकता है-न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers) तथा प्रशासकीय शक्तियां (Administrative Powers)।
(क) न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-उच्च न्यायालय की न्यायिक शक्तियों का क्षेत्र दो प्रकार का होता है-

1. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) उच्च न्यायालयों का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार अधिक विस्तृत नहीं है।

(क) मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित कोई भी मुकद्दमा सीधा उच्च न्यायालय में ले जाया जा सकता है। उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए पांच प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।
(ख) विवाह-विच्छेद (तलाक), वसीयत (Will), न्यायालय की मान-हानि (Contempt of Court), नव वैधिक मामलों (Admiralty Cases) तथा समप्रमाण मामलों (Probate Cases) में भी उच्च न्यायालयों को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
(ग) उच्च न्यायालयों को विभिन्न प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार केवल मौलिक अधिकारों सम्बन्धी मामलों में नहीं बल्कि अन्य सभी कार्यों के लिए है।
(घ) कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई उच्च न्यायालयों को अपने नगर के कुछ अन्य दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व सम्बन्धी मुकद्दमे प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
(ङ) चुनाव सम्बन्धी याचिकाएं भी (Election Petitions) उच्च न्यायालयों द्वारा ही सुनी जाती हैं।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction)-उच्च न्यायालयों को अपील सम्बन्धी बहुत-से अधिकार प्राप्त हैं।

(क) उच्च न्यायालय ऐसे दीवानी मुकद्दमे की अपील सुन सकता है, जिसमें 5,000 रुपए की धन राशि या उसी मूल्य की सम्पत्ति का प्रश्न निहित हो।
(ख) उच्च न्यायालय में ऐसे फौजदारी मुकद्दमे की अपील की जा सकती है, जिसमें सैशन जज ने अभियुक्त को चार वर्ष का दण्ड दिया हो।
(ग) किसी अभियुक्त को फौजदारी मुकद्दमे में मृत्यु-दण्ड देने का अधिकार सैशन जज को है, परन्तु ऐसा दण्ड उच्च न्यायालय की अनुमति से ही दिया जा सकता है अर्थात् मृत्यु-दण्ड देने से पहले सैशन जज उच्च न्यायालय की अनुमति (Approval) अवश्य लेता है।
(घ) बहुत-से राजस्व (Revenue) सम्बन्धी मामलों में भी निचले न्यायालयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
(ङ) कोई भी मुकद्दमा जिसमें संविधान की किसी धारा या कानून की व्याख्या का प्रश्न निहित हो, अपील की शक्ल में उच्च न्यायालय में ले जाया जा सकता है।

3. न्यायिक निरीक्षण (Judicial Review)-उच्च न्यायालय को न्यायिक निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है। वह किसी भी कानून को जो संविधान तथा मौलिक अधिकार के विरुद्ध हो, असंवैधानिक तथा अवैध घोषित कर सकता है।

4. प्रमाण-पत्र देने का अधिकार (Right of Certification)-उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, परन्तु ऐसी अपील प्रत्येक मुकद्दमे में नहीं की जा सकती है। अपील करने के लिए आवश्यक है कि सम्बन्धित उच्च न्यायालय अपील करने की आज्ञा दे अर्थात् प्रमाण-पत्र दे कि यह मुकद्दमा अपील करने के योग्य है। सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय की इच्छा के विरुद्ध भी किसी मुकद्दमे में अपील करने की आज्ञा दे सकता है।

5. अभिलेखों का न्यायालय (Court of Record) उच्च न्यायालय भी सर्वोच्च न्यायालय की तरह अभिलेख का न्यायालय है। इसके सभी निर्णय तथा कार्यवाही लिखित है और उसका रिकार्ड रखा जाता है। इसके निर्णय राज्य के अन्य सभी न्यायालयों द्वारा मान्य होते हैं। विभिन्न मुकद्दमो में इसके द्वारा दिए निर्णयों का हवाला दिया जा सकता है।

(ख) प्रशासनिक शक्तियां (Administrative Powers)-उच्च न्यायालय के प्रशासनीय कार्य निम्नलिखित हैं

  • उच्च न्यायालय का राज्य के अन्य सभी न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों (सैनिक न्यायालयों को छोड़कर) पर देख-रेख करने और उनका निरीक्षण करने का अधिकार है।
  • उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालय की कार्यवाही के सम्बन्ध में नियम आदि बना सकता है और समयानुसार उसमें परिवर्तन कर सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों को अपना रिकार्ड आदि रखने की विधि के बारे में आदेश दे सकता है।
  • वह किसी भी अन्य न्यायालयों से उसका कोई रिकार्ड, कागज़-पत्र या कोई अन्य वस्तु अपने निरीक्षण के लिए मंगवा सकता है।
  • यह देखना उच्च न्यायालय का कर्तव्य है कि कोई अधीनस्थ न्यायालय अपनी शक्ति सीमा का उल्लंघन तो नहीं करता तथा अपने कर्तव्यों का निश्चित विधि के अनुसार ही पालन करता है।
  • उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ किसी न्यायालय से किसी भी मुकद्दमे को अपने पास मंगवा सकता है और यदि आवश्यक समझे तो स्वयं भी उसका निर्णय कर सकता है। वह अधीनस्थ न्यायालय को उसका शीघ्र न्याय करने का आदेश भी दे सकता है।
  • उच्च न्यायालय यदि आवश्यक समझे तो किसी मुकद्दमे को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को हस्तान्तरित कर सकता है।
  • उच्च न्यायालय अन्य न्यायालयों में काम करने वाले कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और सेवा की शर्ते भी निश्चित करता है।
  • उच्च न्यायालय को अन्य न्यायालयों के न्यायाधीशों की पदोन्नति (Promotion), अवनति (Demotion), अवकाश, पैन्शन और भत्ते आदि के बारे में नियम बनाने का अधिकार है।
  • उच्च न्यायालय अपने अधीन काम करने वाले अधिकारियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति करता है और उनकी सेवा की शर्ते भी निश्चित करता है। यह कार्य मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाता है।

उच्च न्यायालय की स्थिति (Position of the High Court)- सर्वोच्च न्यायालय की तरह राज्य के उच्च न्यायालय का भी अपने राज्य के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भाग है। यह राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय है जिसके अधीन राज्य के सभी न्यायालय होते हैं। 42वें संशोधन के अन्तर्गत उच्च न्यायालय किसी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय पर आपत्ति नहीं कर सकता जब तक उसके पास अपील न की गई हो। इस पर राज्य सरकार का नियन्त्रण नहीं और राज्य सरकारें उनके संगठन तथा शक्तियों के बारे में कोई कानून नहीं बना सकतीं। उनके न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों मिलकर करते हैं और वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं। अपने इस विचित्र संगठन के कारण राज्य के उच्च न्यायालयों ने अपनी निष्पक्षता और स्वतन्त्रता का सराहनीय प्रमाण दिया है। संविधान और नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए उच्च न्यायालयों ने भी राज्य सरकार तथा भारत सरकार दोनों के विरुद्ध निर्णय देते हुए कोई झिझक नहीं की है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 34 उच्च न्यायालय

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किस प्रकार की जाती है ?
उत्तर-
न्यायाधीशों की नियुक्ति-उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय उसे सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना पड़ता है और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल से भी परामर्श लेना पड़ता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति प्रायः वरिष्ठता (Senority) के आधार पर की जाती है। 6 अक्तूबर, 1993 को दिए गए एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह को मान्यता देगा। 28 अक्तूबर, 1998 को सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने यह निर्णय दिया कि उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में अपनी सिफ़ारिश देने से पूर्व मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से विचार-विमर्श करना चाहिए। सलाहकार मण्डल की राय तथा मुख्य न्यायाधीश की राय जब तक एक न हो, तब तक सिफ़ारिश नहीं की जानी चाहिए। राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर ही उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति करता है।

प्रश्न 2.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएं लिखें।
उत्तर-
योग्यताएं-उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए संविधान द्वारा योग्यताएं निश्चित की गई हैं। केवल वही व्यक्ति इस पद को सुशोभित करता है जो

  • भारत का नागरिक हो।
  • भारत में कम-से-कम 10 वर्षों तक किसी न्यायिक पद पर रह चुका हो।

अथवा

किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय या एक से अधिक राज्यों के उच्च न्यायालयों में कम-से-कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो।

प्रश्न 3.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल लिखे। उन्हें किस प्रकार हटाया जा सकता है ?
उत्तर-
अवधि-उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। इससे पहले वे स्वयं त्याग-पत्र दे सकते हैं। कदाचार तथा अयोग्यता (Misbehaviour and Incapacity) के आधार पर न्यायाधीशों को 62 वर्ष की आयु पूरी होने से पहले भी हटाया जा सकता है। संसद् के दोनों सदन 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाए जाने की प्रार्थना कर सकते हैं और ऐसी प्रार्थना प्राप्त होने पर राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को अपने पद से हटा देगा।

प्रश्न 4.
उच्च न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार क्या है ?
उत्तर-
उच्च न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार अधिक विस्तृत नहीं है-

(क) मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित कोई भी मुकद्दमा सीधा उच्च न्यायालय में ले जाया जा सकता है। उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए पांच प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।
(ख) विवाह-विच्छेद (तलाक), वसीयत (Will), न्यायालय की मान-हानि (Contempt of Court), नव वैधिक मामलों (Admiralty Cases) तथा सम-प्रमाण मामलों (Probate Cases) में भी उच्च न्यायालयों को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
(ग) उच्च न्यायालयों को विभिन्न प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार केवल मौलिक अधिकारों सम्बन्धी मामलों में ही नहीं बल्कि अन्य सभी कार्यों के लिए है।
(घ) कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई उच्च न्यायालयों को अपने नगर के कुछ अन्य दीवानी, फ़ौजदारी तथा राजस्व सम्बन्धी मुकद्दमे में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं।
(ङ) चुनाव सम्बन्धी याचिकाएं भी (Election Petitions) उच्च न्यायालयों द्वारा ही सुनी जाती हैं।

प्रश्न 5.
उच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार क्या हैं ?
उत्तर-
उच्च न्यायालयों को अपील सम्बन्धी बहुत-से अधिकार प्राप्त हैं-

(क) उच्च न्यायालय ऐसे दीवानी मुकद्दमे की अपील सुन सकता है जिसमें 5,000 रुपये की धन राशि या उसी मूल्य की सम्पत्ति का प्रश्न निहित हो।
(ख) उच्च न्यायालय में ऐसे फ़ौजदारी मुकद्दमे की अपील की जा सकती है, जिनमें सैशन जज ने अभियुक्त को चार वर्ष का दण्ड दिया हो।
(ग) किसी अभियुक्त को फ़ौजदारी मुकद्दमे में मृत्यु-दण्ड देने का अधिकार सेशन जज को है, परन्तु ऐसा दण्ड उच्च न्यायालय की अनुमति से ही दिया जा सकता है अर्थात् मृत्यु-दण्ड देने से पहले सेशन जज उच्च न्यायालय की अनुमति (Approval) अवश्य लेता है।
(घ) बहुत-से राजस्व (Revenue) सम्बन्धी मामलों में भी निचले न्यायालयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
(ङ) कोई भी मुकद्दमा जिसमें संविधान की किसी धारा या कानून की व्याख्या का प्रश्न निहित हो, अपील की शक्ल में उच्च न्यायालय में ले जाया जा सकता है।

प्रश्न 6.
राज्य की उच्च न्यायालय की रचना का वर्णन करो।
उत्तर-
राज्य की उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होते हैं। नियुक्ति समय-समय पर राष्ट्रपति करता है। सभी उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की संख्या बराबर नहीं होती। राष्ट्रपति नियमित न्यायाधीशों (Regular Judges) के अलावा उच्च न्यायालयों में कुछ अनुपूरक न्यायाधीशों (Additional Judges) को भी ज्यादा से ज्यादा दो सालों के लिए नियुक्त कर सकता है। सिक्किम उच्च न्यायालय में सबसे कम न्यायाधीश हैं।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएं लिखें।
उत्तर-

  1. भारत का नागरिक हो।
  2. भारत में कम-से-कम 10 वर्षों तक किसी न्यायिक पद पर रह चुका हो।

अथवा

किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय या एक से अधिक राज्यों के उच्च न्यायालयों में कम-से-कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो।

प्रश्न 2.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल लिखें। उन्हें किस प्रकार हटाया जा सकता है ?
उत्तर-
अवधि-उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। इससे पहले वे स्वयं त्याग-पत्र दे सकते हैं। कदाचार तथा अयोग्यता (Misbehaviour and Incapacity) के आधार पर न्यायाधीशों को 62 वर्ष की आयु पूरी होने से पहले भी हटाया जा सकता है। संसद् के दोनों सदन 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाए जाने की प्रार्थना कर सकते हैं और ऐसी प्रार्थना प्राप्त होने पर राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को अपने पद से हटा देगा।

प्रश्न 3.
राज्य की उच्च न्यायालय की रचना का वर्णन करो।
उत्तर-
राज्य की उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश होते हैं। नियुक्ति समय-समय पर राष्ट्रपति करता है। सभी उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की संख्या बराबर नहीं होती।

प्रश्न 4.
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों को कितना मासिक वेतन मिलता है ?
उत्तर-
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2, 50,000 रु० मासिक वेतन एवं अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रु० मासिक वेतन मिलता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. सर्वोच्च न्यायालय का संगठन क्या है ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश होते हैं। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 30 अन्य न्यायाधीश हैं।

प्रश्न 2. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कितनी आयु में सेवानिवृत्त होते हैं ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं।

प्रश्न 3. सर्वोच्च न्यायालय का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय का अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश होता है।

प्रश्न 4. सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था किस अनुच्छेद के अधीन की गई है ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 124 में की गई है।

प्रश्न 5. सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कहां की गई है ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना नई दिल्ली में की गई है।

प्रश्न 6. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या कौन निश्चित करती है ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या संसद् निश्चित करती है।

प्रश्न 7. संविधान एवं मौलिक अधिकारों का संरक्षक किसे माना जाता है ?
उत्तर-संविधान एवं मौलिक अधिकारों का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को माना जाता है।

प्रश्न 8. सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति किसके परामर्श से की जाती है ?
उत्तर-मुख्य न्यायाधीश के।

प्रश्न 9. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों के वेतन बताओ।
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रु० मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 रु० मासिक वेतन मिलता है।

प्रश्न 10. सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कोई एक योग्यता लिखें।
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए आवश्यक है कि वह भारत का नागरिक हो।

प्रश्न 11. क्या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के पश्चात् वकालत कर सकते हैं ?
उत्तर-सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के पश्चात् वकालत नहीं कर सकते हैं।

प्रश्न 12. उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में कौन वृद्धि कर सकता है ?
उत्तर-उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में संसद् वृद्धि कर सकती है।

प्रश्न 13. उच्च न्यायालयों के जजों के रिटायर होने की आयु कितनी है ?
उत्तर-62 वर्ष।

प्रश्न 14. उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कोई एक योग्यता लिखें।
उत्तर-उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए आवश्यक है कि वह व्यक्ति भारत का नागरिक हो।

प्रश्न 15. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को कौन हटा सकता है ?
उत्तर-उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को संसद् की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति हटा सकता है।

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प्रश्न 16. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 17. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को प्रति मास कितना वेतन मिलता है ?
उत्तर-2,25,000 रु०।।

प्रश्न 18. उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को प्रति मास कितना वेतन मिलता है ?
उत्तर-2,50,000 रु०।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आरंभिक क्षेत्राधिकार,अपीलीय क्षेत्राधिकार तथा …………..
2. संविधान की व्याख्या तथा रक्षा करना ………….. का कार्य है।
3. सर्वोच्च न्यायालय संविधान के ……………… के अनुसार पांच प्रकार के लेख जारी कर सकता है।
4. सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना …………… में की गई है।
उत्तर-

  1. सलाहकारी क्षेत्राधिकार
  2. सर्वोच्च न्यायालय
  3. अनुच्छेद 32
  4. नई दिल्ली।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 51 में की गई है।
2. वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 30 न्यायाधीश हैं।
3. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्यपाल करता है।
4. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रहते हैं।
5. संसद् सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को साधारण बहुमत से हटा सकती है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किसको संविधान का संरक्षक माना जाता है ?
(क) राष्ट्रपति
(ख) सर्वोच्च न्यायालय
(ग) उच्च न्यायालय
(घ) संसद् ।
उत्तर-
(ख) सर्वोच्च न्यायालय ।

प्रश्न 2.
सर्वोच्च न्यायालय को कौन-सा अधिकार क्षेत्र प्राप्त नहीं है-
(क) प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र
(ख) अपीलीय
(ग) सलाहकारी
(घ) राजनीतिक।
उत्तर-
(घ) राजनीतिक।।

प्रश्न 3.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कौन हटा सकता है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) संसद्
(घ) प्रधानमन्त्री।
उत्तर-
(ग) संसद्।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 34 उच्च न्यायालय

प्रश्न 4.
न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति है-
(क) जिला न्यायालयों के पास
(ख) केवल उच्च न्यायालयों के पास
(ग) केवल सर्वोच्च न्यायालय के पास
(घ) सर्वोच्च व उच्च न्यायालय दोनों के पास।
उत्तर-
(घ) सर्वोच्च व उच्च न्यायालय दोनों के पास।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 32 जिला प्रशासन

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
जिला प्रशासन क्या कार्य करता है ?
(What functions does the District Administration perform ?) (Textual Question)
अथवा जिला प्रशासन की परिभाषा दो। भारतीय प्रशासन में जिला प्रशासन के योगदान का भी वर्णन करो।
(Define District Administration. Also explain the role of district administration in Indian Administration.)
उत्तर-
ज़िला भारतीय प्रशासन की एक आधारभूत इकाई है। समस्त राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों को भी जिलों में बांटा गया है। भारतीय भूमि का एक इंच भाग भी ऐसा नहीं है जो किसी-न-किसी ज़िले का अंग न हो। प्रत्येक व्यक्ति ज़िला प्रशासन के अधीन आता है। जिला प्रशासन का अर्थ किसी भी क्षेत्र में सरकार की सभी संस्थाओं तथा विभागों के प्रतिनिधि कर्मचारियों के स्थित होने से है अर्थात् ज़िले में सरकार के सभी विभागों के प्रतिनिधि कर्मचारी स्थित होते हैं और वे अपने विभाग से सम्बन्धित कानूनों को लागू करते हैं तथा जनता के जीवन को सुखी बनाने से सम्बन्धित कार्यवाहियां करते हैं। जिला प्रशासन एक जिलाधीश या कलैक्टर के अधीन होता है जो राज्य सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। वह जिले में सरकार के समस्त प्रशासन का उत्तरदायी है। जिले की परिभाषा देते हुए किसी ने कहा है कि, “एक ज़िला एक काफ़ी बड़े क्षेत्र को कहा जाता है जो एकता के सूत्र में बन्धा हुआ हो और जिसमें आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक तथा ऐतिहासिक दशाएं सामान्य हों।” श्री खेरा ने जिला प्रशासन की परिभाषा देते हुए कहा है कि, “ज़िले में सरकार के समस्त कार्यों के संग्रह को जिला प्रशासन कहा जा सकता है।”

भारतीय प्रशासन में जिला प्रशासन का महत्त्व (Role of District Administration in Indian Administration)-जिला भारतीय प्रशासन की एक मुख्य इकाई है और जिला स्तर पर सभी सरकारी विभागों के कार्यालय स्थापित किए गए हैं। यहां तक कि केन्द्रीय सरकार ने भी अपने विभागों के कार्यालय जिला स्तर पर स्थापित किए हैं। जैसे-आयकर अधिकारी के कार्यालय (Offices of the Income Tax Officers)। सरकार अपना समस्त प्रशासन जिला अधिकारियों के द्वारा चलाती है और जनता की जानकारी भी जिला प्रशासन के द्वारा ही प्राप्त करती है। सरकार की सभी शक्तियां जिला प्रशासन के अध्यक्ष जिलाधीश या कलैक्टर को दी गई हैं और इसलिए उनके बारे में Palanda ने कहा है कि, “कलैक्टर प्रान्तीय सरकार की आंखें, कान, मुंह और हाथ सब कुछ है।” (“The collector is the eyes, the ears, the mouth and the hands of the provincial government in the district.”) निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय प्रशासन में जिला प्रशासन के महत्त्व का पता लगता है-

1. कानून और व्यवस्था (Law and Order) शान्ति स्थापित करना और कानून व्यवस्था को बनाए रखना राज्य का एक आवश्यक कार्य है, परन्तु इसमें जिला प्रशासन का ही मुख्य योगदान है। जिलाधीश अपने जिले के अन्दर शान्ति स्थापित करने और कानून व्यवस्था को बनाए रखने का उत्तरदायी होता है। इस कार्य में जिले का पुलिस अधीक्षक उसकी सहायता करता है। इसमें शक नहीं कि पुलिस अधीक्षक जिले में अपराधियों को पकड़ने तथा अपराधों को कम करने का उत्तरदायी है, परन्तु जब भी जिले के किसी भाग में कोई गड़बड़ी पैदा होती है या होने की सम्भावना रहती है तो जिलाधीश उसे रोकने और शान्ति को बनाए रखने का समुचित प्रयत्न करता है।

2. न्याय (Justice) देश में अधिकतर लोगों के अधिकतर झगड़ों का निर्णय जिला प्रशासन द्वारा ही किया जाता है। प्रत्येक जिले में जिला न्यायालय स्थित है और इनके न्याय के विरुद्ध उच्च-न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में कुछ प्रतिशत लोग ही जा पाते हैं। अपराधियों को दण्ड देने और लोगों को सच्चा न्याय देकर कानून के शासन (Rule of Law) की व्यवस्था करना जिला प्रशासन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान है।

3. राजस्व (Revenue)—प्रत्येक राज्य की आर्थिक स्थिति राजस्व के ठीक प्रकार से इकट्ठे किये जाने पर निर्भर रहती है। राज्य का समस्त राजस्व जैसे कि भूमि का लगान, उत्पादन शुल्क, सम्पत्ति कर, बिक्री कर आदि जिला प्रशासन द्वारा ही एकत्रित किए जाते हैं। इतना ही नहीं केन्द्रीय सरकार ने भी सभी जिलों में अपने कर्मचारी अपने करों को इकट्ठा करने के लिए नियुक्त किए हैं, जैसे कि आयकर अधिकारी (Income Tax Officer)। प्रत्येक जिले में एक जिला कोष भी है जिसमें संघ तथा राज्य सरकारों के सभी टैक्स जमा किए जाते हैं और वहीं से खर्च करने के लिए सरकार पैसा निकालती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन

4. सार्वजनिक सेवा कार्य (Public Service Functions)-राज्य जनता की सेवा और कल्याण के लिए जो कुछ भी कार्य करते हैं, वे भी जिला प्रशासन द्वारा ही संचालित किए जाते हैं। प्रत्येक जिले में एक ज़िला स्वास्थ्य अधिकारी, एक सिविल सर्जन, एक जिला शिक्षा अधिकारी, एक जिला खाद्य अधिकारी (District Food and Supply Officer), एक कार्यकारी इंजीनियर (Executive Engineer), एक जिला कृषि अधिकारी आदि होते हैं जो अपने विभाग से सम्बन्धित कार्यों का संचालन जिले में करते हैं और जिले के लोगों का जीवन सुखी तथा विकसित बनाने का प्रयत्न करते हैं। जिले में खाद्य वस्तुओं में मिलावट को रोकने, किसी बीमारी को फैलने से रोकने, खाद्य वस्तुओं की व्यवस्था करने, बनावटी या नकली दवाइयों को पकड़ने, मजदूरों की दशा को अच्छा बनाने, शिक्षा का प्रसार करने आदि के सब काम ज़िलाधिकारियों द्वारा ही किए जाते हैं।

5. प्राकृतिक संकट में लोगों की सहायता (Help to the people in Natural Calamities)-आज राज्य का काम लोगों के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करने के अतिरिक्त उनके जीवन को सुखी और विकसित बनाने के लिए उचित वातावरण पैदा करना भी है। सरकार संकट में पड़े व्यक्तियों की हर प्रकार से सहायता करती है। सरकार का काम भी जिला स्तर पर आरम्भ होता है और जिला प्रशासन द्वारा सम्पन्न किया जाता है। जब कभी किसी भाग में बाढ़ आ जाए, सूखा पड़े, भूचाल आए या कोई महामारी फैल जाए तो लोगों को उस संकट से छुटकारा दिलाने का काम भी ज़िला अधिकारी करते हैं। जिलाधीश संकट के पैदा होते ही समस्त जिला प्रशासन को उस संकट का मुकाबला करने के लिए प्रयोग करता है और लोगों की सहायता की जाती है। जिला प्रशासन के अभाव में लोगों की इतनी शीघ्र सहायता करना सम्भव नहीं है।

6. सामुदायिक विकास परियोजनाएं (Community Development Projects) भारत में ग्रामीण लोगों के जीवन का बहुमुखी विकास करने के लिए जो सामुदायिक विकास परियोजनाएं लागू की गई हैं, वे भी जिला प्रशासन की देख-रेख में ही कार्यान्वित होती हैं। इन सामुदायिक विकास परियोजनाओं ने जिला प्रशासन के उत्तरदायित्वों को बढ़ा दिया है और उनकी सफलता भी जिला प्रशासन पर निर्भर है। जिलाधीश जिले में इन सभी योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करवाने का सामान्य रूप से उत्तरदायी है।

7. आम चुनाव (General Election)-भारत में स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए एक चुनाव आयोग की व्यवस्था की गई है, परन्तु लोकसभा विधानसभा आदि के चुनावों का वास्तविक कार्य जिला प्रशासन द्वारा किया जाता है। जिलाधीश जिले में सभी चुनाव कार्यों का इन्चार्ज होता है और उनका प्रबन्ध करता है। प्रत्येक जिले में एक चुनाव कार्यालय है जो जिला प्रशासन के कर्मचारियों की सहायता से मतदाताओं की सूची तैयार करवाता है। जिला प्रशासन के कर्मचारी ही जिले में चुनावों का सब प्रबन्ध करते हैं। चुनाव आयोग या चुनाव आयुक्त तो केवल नियम बनाते हैं और आदेश देते हैं।

8. स्थानीय स्वशासन पर देख-रेख (Supervision over the Local Self-government Institutions)भारत में स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं स्थापित की गई हैं। नगरों में नगरपालिकाएं तथा कहीं-कहीं नगर निगम भी हैं। ग्रामों में पंचायतें, पंचायत समितियां तथा जिला परिषद् स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। बेशक ये संस्थाएं अपनी इच्छानुसार काम करती हैं, परन्तु इनके कार्यों पर देखभाल रखने और इनका पथ-प्रदर्शन करने का काम भी ज़िला प्रशासन को ही सौंपा गया है।

9. अन्य कार्य (Other Functions)-इन उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त और भी बहुत-से कार्य हैं जो भारतीय प्रशासन में महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु वे भी जिला प्रशासन द्वारा ही किए जाते हैं। जिलाधीश अपने जिले में जेलों की दशा पर निगरानी रखता है, लोगों को अस्त्र-शस्त्र रखने, लाने या ले जाने, खरीदने और बेचने के लाइसेंस देता है, मन्त्रियों तथा अन्य उच्चाधिकारियों की सुरक्षा की व्यवस्था करता है और कानून तथा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उचित कदम उठा सकता है। जनगणना का काम भी जिला प्रशासन के कर्मचारियों द्वारा किया जाता है। सरकार का शायद ही ऐसा कोई काम हो जो जिला प्रशासन की सहायता किए बिना हो सकता हो।

स्पष्ट है कि भारतीय प्रशासन की दृष्टि से लोगों के जीवन में जिला प्रशासन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्री एस० एस० खेड़ा का यह कथन सत्य ही है कि “जिला प्रशासन एक अच्छी इकाई प्रमाणित हुआ है। यह एक व्यावहारिक या यथार्थ इकाई भी सिद्ध हुआ है। यह समय के परीक्षण में पूरा उतरा है।” (“A district has proved a good unit of administration. It has proved a practical unit. It has stood the test of times—S.S. Khera”)

प्रश्न 2.
ज़िलाधीश की नियुक्ति, शक्तियों, कार्यों तथा स्थिति का विवेचन करो।
(Discuss the appointment, powers, functions and position of the Deputy Commissioner.)
उत्तर-
ज़िला भारतीय प्रशासन की एक प्रमुख इकाई है। साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, “भारत की भूमि का प्रत्येक इंच जिले का भाग होता है और हर जिले का प्रमुख एक अधिकारी होता है। जिसे कुछ प्रान्तों में कलैक्टर (Collector) तथा कुछ प्रान्तों में जिलाधीश के नाम से पुकारा जाता है।” जिले का समस्त प्रशासन एक जिला अधिकारी (District Officer) के अधीन होता है जिसे पंजाब और हरियाणा में जिलाधीश (उपायुक्त या Deputy Commissioner), उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में कलैक्टर (Collector) और कुछ अन्य राज्यों में जिला मैजिस्ट्रेट (District Magistrate) के नाम से पुकारा जाता है।

जिलाधीश की नियुक्ति (Appointment of the Deputy Commissioner)-जिलाधीश के पद पर भारतीय प्रशासकीय सेवा (I.A.S.) का वरिष्ठ सदस्य ही नियुक्त किया जाता है। कई बार राज्य असैनिक सेवा के किसी वरिष्ठ सदस्य को भी इस पद पर नियुक्त कर देता है। जिले में जिलाधीश की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है और वह उसी समय तक इस पद पर रहता है जब तक राज्य सरकार चाहे। राज्य सरकार उसे पद से हटा कर किसी अन्य पद पर नियुक्त कर सकती है।

शक्तियाँ तथा कार्य (Powers and Functions)-ज़िलाधीश को जिले में राज्य सरकार के कान, आँख, मुँह और हाथ कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि उसे कई रूप में कार्य करना पड़ता है। वह जिलाधीश है, कलैक्टर है, जिला मैजिस्ट्रेट है, ज़िले का मुख्य कार्यकारी अधिकारी है तथा सभी स्वशासन संस्थाओं पर निगरानी रखता है। विभिन्न क्षेत्रों में उसकी शक्तियां तथा कार्य निम्नलिखित हैं-

1. कलैक्टर के रूप में (As a Collector)-जिलाधीश कलैक्टर के रूप में निम्नलिखित कार्य करता है-

  • वह ज़िले के राजस्व प्रशासन का अध्यक्ष है और जिले में भू-राजस्व इकट्ठा करने का उत्तरदायित्व उसी का है।
  • राजस्व विभाग के अन्य सभी अधिकारी तथा कर्मचारी जैसे कि डिप्टी कलैक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, पटवारी, लम्बरदार आदि ज़िलाधीश के अधीन कार्य करते हैं।
  • वह राजस्व के मामलों में अन्य अधिकारियों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनता है।

2. जिला मैजिस्ट्रेट के रूप में (As a District Magistrate)-ज़िलाधीश को जिला मैजिस्ट्रेट के अधिकार भी प्राप्त हैं। इस रूप में वह निम्नलिखित कार्य करता है

  • वह समस्त जिले में शान्ति स्थापित करने और कानून व्यवस्था को बनाए रखने का ज़िम्मेदार है।
  • जब भी ज़िले या उसके किसी भाग में कानून और शान्ति के गड़बड़ होने की सम्भावना हो तो वह उचित कार्यवाही कर सकता है।
  • कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उसे धारा 144 लगाने का अधिकार है। इसके अन्तर्गत वह सभाओं, जुलूसों तथा चार से अधिक व्यक्तियों के इकट्ठा होने पर प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • जिले में स्थित पुलिस अधिकारियों को कानून और व्यवस्था के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के आदेश दे सकता है।
  • वह जिले में स्थित सब जेलों का निरीक्षण कर सकता है और कैदियों को उचित सुविधाएं प्रदान करने के बारे में आदेश दे सकता है।
  • वह हथियारों, विस्फोटकों, पेट्रोल आदि के बारे में लाइसेंस देता है तथा उसकी आज्ञा के बिना कोई व्यक्ति अस्त्र नहीं रख सकता और न ही उन्हें बेच सकता है।
  • वह जिले में पुलिस थानों का निरीक्षण कर सकता है और शासन व्यवस्था सम्बन्धी आदेश दे सकता है।
  • वह पासपोर्ट (Passport) तथा वीजा (Visas) जारी करने के लिए सिफ़ारिश करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन

3. जिले के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में (As a Chief Executive Officer of the District)जिलाधीश जिले का मुख्य कार्यकारी अधिकारी है और जिले के अन्दर सभी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करता है तथा शासन व्यवस्था को बनाए रखने का उत्तरदायी है। इस रूप में उसे अग्रलिखित कार्य करने पड़ते हैं

  • वह ज़िले में शासन व्यवस्था को बनाए रखने का उत्तरदायी है।
  • वह जिले में राज्य सरकार का प्रतिनिधि है और उसके सभी कानूनों तथा आदेशों को जिले में लागू करने का उत्तरदायी है तथा जिले में सरकार के हितों की देखभाल करता है।
  • जिले की प्रशासन सम्बन्धी रिपोर्ट सरकार को भेजना उसका कर्तव्य है।
  • जिला प्रशासन के सभी कर्मचारी और विशेषकर राजस्व विभाग तथा न्याय प्रशासन सम्बन्धी कर्मचारी उसके अधीन काम करते हैं।
  • जिले में स्थित अन्य सभी सरकारी विभाग उसकी देख-रेख में कार्य करते हैं।
  • वह प्रशासन के विरुद्ध जनता की सब प्रकार की शिकायतें सुनता है और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है।
  • जिला स्तर पर काम करने वाले तथा गांव में काम करने वाले बहुत-से अधिकारियों की नियुक्ति ज़िलाधीश करता है जैसे कि गांव का चौकीदार, लम्बरदार, जैलदार, चपरासी और कई राज्यों में क्लर्क आदि भी।
  • वह मुख्य कार्यकारी अधिकारी होने के नाते जिले में स्थित सभी पागलखानों, सुधारालयों, अन्धविद्यालयों, अनाथ आश्रमों तथा अपाहिज घरों आदि के कार्यों की देख-रेख करता है और उनमें सुधार के लिए आवश्यक कदम भी उठा सकता है।
  • वह राज्य सरकार को जिले का अनुमानित बजट पेश करता है।
  • वह जिले में स्थित स्थानीय स्व-शासन संस्थाओं जैसे कि पंचायत समिति, जिला परिषद्, नगरपालिका आदि के काम पर निगरानी रखता है और यदि आवश्यक समझे तो उसके किसी प्रस्ताव को पास होने या लागू होने से रोक सकता है।

4. (As the Chief Development Officer of the District),

  • वह जिले में सभी विकास और निर्माण कार्यों के कार्यान्वित किए जाने का जिम्मेवार है।
  • वह ज़िले की विकास तथा नियोजन सम्बन्धी समिति का अध्यक्ष होता है और जिले के विकास तथा योजना सम्बन्धी सभी कार्यक्रम उसके परामर्श से ही बनते हैं।
  • पंचायती राज के अन्तर्गत सामुदायिक विकास के सभी कार्य पंचायत समितियों तथा जिला परिषदों को सौंप दिए गए हैं। जिलाधीश जिला परिषद् का पदेन सदस्य होता है।
  • जिलाधीश को पंचायती राज संस्थाओं द्वारा पास किए गए प्रस्तावों को रद्द करने का अधिकार है।
  • वह अपने जिले में कृषि सहकारिता, पशु-पालन, घरेलू उद्योग आदि का विकास करने के लिए आवश्यक आदेश दे सकता है।

5. चुनाव अधिकारी के रूप में (As a Returning Officer)-जिलाधीश जिले में संसद् तथा विधानसभा तथा अन्य किसी स्तर के चुनाव के लिए पूर्ण सहायता देता है। वह ज़िले में चुनाव का उचित प्रबन्ध करने के लिए जिम्मेवार होता है। अपने जिले से चुनाव शान्तिपूर्वक तथा निष्पक्ष ढंग से करवाने के लिए वह अनेक अधिकारियों को नियुक्त करता है और उन्हें उचित प्रशिक्षण देता है।

6. ज़िला जनगणना अधिकारी के रूप में (As A District Census Officer) ज़िलाधीश जिले की जनगणना के लिए उत्तरदायी होता है। वह इस कार्य के लिए अधिकारियों को नियुक्त करता है उन्हें उचित प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी करता है। जिले की जनगणना के पश्चात् वह जनगणना के आंकड़े राज्य सरकार को भेजता है।

ज़िलाधीश की स्थिति (Position of the Deputy Commissioner)-ज़िलाधीश का पद एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण पद है। वह अंग्रेजों के समय में तो जिले का निरंकुश शासक हुआ करता था। पलांदे ने जिलाधीश को “ज़िले में प्रान्तीय सरकार की आँखं, कान, मुंह और हाथ बताया है।” (According to Plande the Deputy Commissioner is, “The eyes, the ears, the mouth and the hands” of the provincial in the district.) यह बात काफ़ी सीमा तक सत्य है। राज्य सरकार ने अपने सभी कार्य जिलाधीश के कन्धों पर डाल दिए हैं। सरकार जिले में जो भी कार्य करना चाहती है, उसे जिलाधीश को सौंप दिया जाता है। जिले में कोई भी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध नहीं हो सकता। एक लेखक का कहना है कि “इस समय जिला प्रशासन के समस्त सूत्र डिप्टी कमिश्नर के हाथों में ही केन्द्रित हैं।”

स्वतन्त्रता के पश्चात् उसकी स्थिति में परिवर्तन होते हुए भी उसका महत्त्व कम नहीं हुआ। वह आज भी ज़िला प्रशासन का अध्यक्ष है और जिले में राज्य सरकार का हर उद्देश्य से प्रतिनिधि है। आज भी राज्य सरकारें प्रशासन के सभी कामों में जिलाधीश की ओर देखती हैं और जिला प्रशासन की सफलता जिलाधीश की योग्यता, क्षमता, बुद्धिमत्ता और व्यक्तिगत चरित्र पर बहुत कुछ निर्भर है। एक योग्य जिलाधीश अपने जिले की बहुत उन्नति कर सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जिला प्रशासन की कोई चार विशेषताएं बताइये।
उत्तर-
जिला प्रशासन की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • विकास का परिणाम- भारत में वर्तमान जिला प्रशासन एक लम्बी ऐतिहासिक और विकासकारी प्रक्रिया का परिणाम है। जिला प्रशासन का अस्तित्व मुग़ल व ब्रिटिश शासन से पहले था।
  • भारतीय प्रशासन की मुख्य इकाई-जिला प्रशासन भारतीय प्रशासन की मुख्य इकाई है क्योंकि जिला स्तर पर सभी सरकारी विभागों के कार्यकाल स्थापित किए गए हैं। इन्हीं विभागों के माध्यम से सरकार अपना कार्य करती है।
  • जिला प्रशासन राज्य सरकार के अधीन-जिला प्रशासन राज्य सरकार के नियन्त्रण में कार्य करता है। राज्य सरकार जिला प्रशासन को अनेक तरीकों से अपने नियन्त्रण में रखती है।
  • कार्यों का विभाजन-जिला प्रशासन के प्रशासनिक कुशलता व सुविधा की दृष्टि से उप-मण्डलों, तहसीलों, उप-तहसीलों में विभाजित किया जाता है।

प्रश्न 2.
जिला प्रशासन के किन्हीं चार अधिकारियों का संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर-
जिला स्तर पर कार्यरत प्रमुख अधिकारी इस प्रकार हैं-

  • जिलाधीश-ज़िलाधीश समस्त जिला प्रशासन का अध्यक्ष होता है। वह जिले में राज्य सरकार का प्रतिनिधि है और सरकार की समस्त शक्तियां, अधिकार तथा दायित्व उसमें निहित हैं।
  • पुलिस अधीक्षक-जिले में पुलिस विभाग का अध्यक्ष पुलिस अधीक्षक होता है। जिले के समस्त पुलिस कर्मचारी उसकी देख-रेख में कार्य करते हैं। वह जिले में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जिलाधीश के अधीन होता है और कार्य करता है।
  • ज़िला तथा सैशन जज-ज़िले का न्याय संगठन एक ज़िला तथा सैशन जज के अधीन होता है। जिला तथा सैशन जज उच्च न्यायालय के अधीन होता है।
  • जिला शिक्षा अधिकारी-ज़िले में शिक्षा विभाग के सभी कार्य जिला शिक्षा अधिकारी की देख-रेख में होते हैं जिसकी नियुक्ति शिक्षा विभाग द्वारा होती है। वह प्राथमिक तथा माध्यमिक स्कूलों पर नियन्त्रण रखता है। जिले में शिक्षा का प्रबन्ध करने और उसके सुप्रबन्ध के लिए वह उत्तरदायी है।

प्रश्न 3.
जिला प्रशासन का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
ज़िला प्रशासन भारतीय प्रशासन की एक मुख्य इकाई है। जिला स्तर पर ही राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कार्यालय स्थापित होते हैं। यहां तक कि केन्द्रीय सरकार के भी कई कार्यालय जिला स्तर पर स्थापित हैं। राज्य सरकार अपना समस्त प्रशासन जिला अधिकारियों के द्वारा ही चलाती है और जनता की जानकारी भी ज़िला प्रशासन के द्वारा ही प्राप्त करती है। सरकार की सभी शक्तियां जिला स्तर पर जिला प्रशासन के अध्यक्ष ज़िलाधीश को दी गई हैं। जिला प्रशासन के द्वारा ही सरकार कानून और व्यवस्था को बनाए रखती है, राजस्व एकत्र करती है और यहां तक कि आपातकाल में पीड़ितों को सहायता भी प्रदान करती है। जिला प्रशासन की मदद से ही अनेक सामुदायिक विकास योजनाएं लागू की जाती हैं। सरकार जिला प्रशासन के माध्यम से ही सुनती, देखती और क्रिया करती है। राज्य सरकारों की कुशलता व अकुशलता जिला प्रशासन पर निर्भर करती है। सरकार की नीतियों का निर्माण नई दिल्ली और राज्य की राजधानियों में होता है, लेकिन उनका क्रियान्वयन (Implementation) जिला प्रशासन द्वारा ही होता है। अतः जिला प्रशासन का भारतीय प्रशासन में मौलिक योगदान है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन

प्रश्न 4.
कलैक्टर के रूप में जिलाधिकारी की भूमिका की विवेचना कीजिए। (Textual Ouestion)
उत्तर-
जिलाधीश की नियुक्ति सबसे पहले राजस्व इकट्ठा करने के उद्देश्य से ही की गई थी। जिले में राजस्व इकट्ठा करने का वह उत्तरदायी है और अन्य सभी प्रकार के टैक्स इकट्ठा करवाने की ओर ध्यान देता है। लगान वसूल करने के कारण ही उसे कलैक्टर अर्थात् इकट्ठा करने वाला कहा जाता है। इस रूप में उसके निम्नलिखित कार्य हैं-

  • वह जिले के राजस्व प्रशासन का अध्यक्ष है और जिले में भू-राजस्व इकट्ठा करने का उत्तरदायित्व उसी का है।
  • राजस्व विभाग के अन्य सभी अधिकारी तथा कर्मचारी जैसे कि डिप्टी कलैक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, पटवारी, लम्बरदार आदि जिलाधीश के अधीन कार्य करते हैं।
  • वह राजस्व के मामलों में अन्य अधिकारियों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनता है।
  • आवश्यकता पड़ने पर वह तकावी ऋण का विभाजन करता है और तकावी ऋण को वसूल करने का उत्तरदायी है।
  • वह भूमि व्यवस्था से सम्बन्धित अनेक विषयों का प्रशासन करता है और भूमि रिकॉर्ड के सभी कर्मचारी उसके अधीन काम करते हैं।
  • वह जिले में भूमि-सम्बन्धी तथा कृषि-सम्बन्धी आंकड़ों का प्रबन्ध करता है और उन्हें एकत्रित करवाता है।
  • जिले में अन्य सभी प्रकार के ऋण उसके माध्यम से दिए जाते हैं और वह उन्हें वसूल करता या करवाता है।
  • वह भूमि प्राप्ति के कार्य (Land Acquisition Work) का जिले में प्रशासन करता है।
  • जिले का कोष उसके अधीन तथा उसके नियन्त्रण में रहता है और वह जब चाहे खज़ानों तथा उप-खज़ानों का निरीक्षण करता है।

प्रश्न 5.
‘जिले का मुख्य कार्यालय राज्य की एक उप-राजधानी सा लगता है।’ इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
जिला मुख्यालय (District Headquarter) जिला प्रशासन की महत्त्वपूर्ण शीर्षस्थ इकाई है। जिला मुख्यालय कई विभागों में बंटा होता है, जिसके पद सोपान के शीर्ष पर जिलाधीश होता है। जिलाधीश ज़िले का प्रथम नागरिक, सेवक तथा मुख्य कार्यकारी होता है। जिला मुख्यालय के प्रत्येक विभाग को उप-विभागों, शाखाओं, सैक्शनों तथा उप-सैक्शनों में विभाजित किया जाता है। एक जिले में लागू होने वाली सभी नीतियां एवं कार्यक्रम जिला मुख्यालय स्तर पर ही तैयार होती हैं। जिले की सभी नीतियां जिला अधिकारियों द्वारा लागू की जाती हैं। जिले का समस्त सरकारी वर्ग जिला मुख्यालय में ही होता है। इसीलिए जिला मुख्यालय को जिला प्रशासन का हृदय व केन्द्र कहा जाता है। राज्य प्रशासन में जिला मुख्यालय की व्यवस्थित तथा महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए जिला मुख्यालय को लघु सचिवालय अथवा राज्य की उप-राजधानी का नाम दिया गया है।

प्रश्न 6.
जिलाधीश के जिला मैजिस्ट्रेट के रूप में दो कार्य लिखो।
उत्तर-

  1. ज़िलाधीश समस्त ज़िले में शान्ति स्थापित करने और कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी है। जब भी ज़िले या उसके किसी भाग में कानून या शान्ति के गड़बड़ होने की सम्भावना हो तो वह उचित कार्यवाही कर सकता है।
  2. जिलाधीश को कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए धारा-144 लगाने का अधिकार है। इसके अन्तर्गत वह सभाओं, जुलूसों तथा चार से अधिक व्यक्तियों के इकट्ठा होने पर प्रतिबन्ध लगा सकता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जिला प्रशासन की कोई दो विशेषताएं बताइये।
उत्तर-
ज़िला प्रशासन की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  1. विकास का परिणाम- भारत में वर्तमान जिला प्रशासन एक लम्बी ऐतिहासिक और विकासकारी प्रक्रिया का परिणाम है। जिला प्रशासन का अस्तित्व मुग़ल व ब्रिटिश शासन से पहले था।
  2. भारतीय प्रशासन की मुख्य इकाई-जिला प्रशासन भारतीय प्रशासन की मुख्य इकाई है क्योंकि जिला स्तर पर सभी सरकारी विभागों के कार्यकाल स्थापित किए गए हैं। इन्हीं विभागों के माध्यम से सरकार अपना कार्य करती है।

प्रश्न 2.
कलैक्टर के रूप में जिलाधिकारी की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर-

  1. वह जिले के राजस्व प्रशासन का अध्यक्ष है और जिले में भू-राजस्व इकट्ठा करने का उत्तरदायित्व उसी का है।
  2. राजस्व विभाग के अन्य सभी अधिकारी तथा कर्मचारी जैसे कि डिप्टी कलैक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, पटवारी, लम्बरदार आदि ज़िलाधीश के अधीन कार्य करते हैं।

प्रश्न 3.
जिलाधीश के जिला मैजिस्ट्रेट के रूप में दो कार्य लिखो।
उत्तर-

  1. जिलाधीश समस्त जिले में शान्ति स्थापित करने और कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी है।
  2. जिलाधीश को कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए धारा-144 लगाने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
जिलाधीश के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो कार्य लिखें।
उत्तर-

  1. ज़िलाधीश जिले में शासन व्यवस्था को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है।
  2. जिले में स्थित अन्य सभी सरकारी विभाग जिलाधीश की देख-रेख में कार्य करते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारतीय प्रशासन की आधारभूत इकाई क्या है ?
उत्तर-ज़िला।

प्रश्न 2. जिला प्रशासन का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-कानून व व्यवस्था को बनाये रखना।

प्रश्न 3. जिलाधीश की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-राज्य सरकार।

प्रश्न 4. भारतीय प्रशासन व्यवस्था की प्रमुख इकाई क्या है ?
उत्तर–भारतीय प्रशासन व्यवस्था की प्रमुख इकाई जिला प्रशासन है।

प्रश्न 5. भारत में किस वर्ष कलैक्टर का पद सजित किया गया ?
उत्तर- भारत में जिला कलैक्टर के पद का सृजन 1872 में हुआ।

प्रश्न 6. जिला प्रशसन को वैज्ञानिक ढंग से संगठित करने का श्रेय किसे है ?
उत्तर भारत में जिला प्रशासन को वैज्ञानिक ढंग से संगठित करने का श्रेय लॉर्ड कार्नवालिस को है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन

प्रश्न 7. जिला प्रशासन का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर – एक क्षेत्र में, जिसे कानून द्वारा जिले के नाम से पुकारा जाता है, में सरकार के सभी कार्यों का बन्दोबस्त

प्रश्न 8. जिला प्रशासन के अध्यक्ष को क्या कहा जाता है ?
उत्तर – जिले के प्रशासनिक अध्यक्ष को जिलाधीश कहा जाता है।

प्रश्न 9. जिला प्रशासन का मुख्य उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-जिला प्रशासन का मुख्य उद्देश्य अपने क्षेत्र में शान्ति-व्यवस्था की स्थापना करना है।

प्रश्न 10. हरियाणा व पंजाब में जिला प्रशासन व राज्य प्रशासन के मध्य किसकी स्थापना की गई है ?
उत्तर-जिला प्रशासन व राज्य प्रशासन के मध्य हरियाणा व पंजाब में ‘मण्डल’ (Division) की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 11. मण्डल के मुख्य अधिकारी को क्या कहते हैं ?
उत्तर-मण्डल के मुख्य अधिकारी को मण्डल आयुक्त कहते हैं।

प्रश्न 12. मण्डल आयुक्त की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-मण्डल आयुक्त की नियुक्ति राज्य मुख्यालय की सिफ़ारिश पर राज्यपाल द्वारा की जाती है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. समस्त राज्यों एवं संघीय क्षेत्रों को ………….. में बांटा गया है।
2. …………….. के अनुसार कलैक्टर प्रान्तीय सरकार की आंखें, कान, मुंह और हाथ सब कुछ है।
3. जिलाधीश के पद पर ………… का वरिष्ठ सदस्य ही नियुक्त किया जाता है।
उत्तर-

  1. ज़िलों
  2. प्लांदे
  3. भारतीय प्रशासनिक सेवा।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. भारतीय भूमि का एक-एक इंच जिले का भाग है।
2. प्राकृतिक संकट के समय जिला प्रशासन लोगों की कोई मदद नहीं कर पाता।
3. जिलाधीश जिले में शासन व्यवस्था को बनाए रखने का उत्तरदायी होता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है, “ज़िले में सरकार के समस्त कार्यों के संग्रह को जिला प्रशासन कहा जाता
(क) श्री खेरा
(ख) कौटिल्य
(ग) एम० पी० शर्मा
(घ) बलदेव सिंह।
उत्तर-
(क) श्री खेरा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 32 जिला प्रशासन

प्रश्न 2.
जिलाधीश निम्न में से कौन-सा कार्य करता है ?
(क) भू-राजस्व एकत्र करना
(ख) ज़िले में शाति एवं व्यवस्था बनाये रखना।
(ग) राज्य सरकार को जिले का अनुमानित बजट पेश करना।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 31 राज्य विधानमण्डल

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 31 राज्य विधानमण्डल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 31 राज्य विधानमण्डल

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्य की विधानसभा की रचना और शक्तियां बताओ।
(Explain the composition and powers of the State Legislative Assembly.)
उत्तर-
सभी राज्यों में कानून-निर्माण के लिए विधानमण्डल की व्यवस्था की गई है। कुछ राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं और कुछ में केवल एक ही सदन रखा गया है। विधानसभा दोनों ही प्रकार के विधानमण्डलों में है। विधानसभा विधानमण्डल का निम्न सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व करता है।

रचना (Composition) संविधान में विधानसभा के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं की गई बल्कि अधिकतम और न्यूनतम संख्या निर्धारित की गई है। अनुच्छेद 170 (1) के अनुसार विधानसभा में सदस्यों की संख्या 60 से कम और 500 से अधिक नहीं हो सकती। राज्य की विधानसभा की संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। पंजाब की विधानसभा में 117 सदस्य हैं। सबसे अधिक सदस्य उत्तर प्रदेश में हैं जिसकी विधानसभा की सदस्य संख्या 403 है। विधानसभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं और भारत के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को जिसकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, मत डालने का अधिकार है ! अनुसूचित, आदिम व पिछड़ी हुई जातियों के लिए स्थान तो निश्चित हैं, परन्तु उनका निर्वाचन संयुक्त प्रणाली के आधार पर ही होता है। राज्यपाल एंग्लो-इण्डियन समुदाय का एक सदस्य विधानसभा में मनोनीत कर सकता है, यदि उसकी दृष्टि में इस समुदाय की जनसंख्या राज्य में विद्यमान हो और उसको चुनाव में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिला हो।

योग्यताएं (Qualifications)-राज्य विधानसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर न हो।
  4. संघीय संसद् द्वारा बनाई गई योग्यताएं रखता हो।
  5. वह दिवालिया या पागल न हो तथा।
  6. किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य घोषित न किया गया हो।

अवधि (Term) विधानसभा की अवधि पांच वर्ष है। इसके सभी सदस्यों का चुनाव एक साथ होता है। राज्यपाल 5 वर्ष से पहले भी जब चाहे विधानसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। संकट के समय विधानसभा की अवधि को बढ़ाया जा सकता है।

अधिवेशन (Sessions)-राज्यपाल विधानसभा और विधानपरिषद् के अधिवेशन किसी समय भी बुला सकता है। परन्तु दो अधिवेशनों के बीच 6 मास से अधिक समय नहीं बीतना चाहिए। राज्यपाल दोनों सदनों का सत्रावसान भी कर सकता है।

गणपूर्ति (Quorum) विधानसभा की बैठकों में कार्यवाही प्रारम्भ होने के लिए यह आवश्यक है कि विधानसभा की कुल सदस्य संख्या का 1/10वां भाग उपस्थित हो।

वेतन और भत्ते (Salary and Allowances)-विधानसभा के सदस्यों के वेतन तथा भत्ते राज्य के विधानमण्डल द्वारा निश्चित किए जाते हैं।

सदस्यों को विशेषाधिकार (Privileges of the Members)-विधानसभा के सदस्यों को लगभग वही विशेषाधिकार प्राप्त हैं जो संसद् के सदस्यों को प्राप्त हैं। विधानसभा के सदस्यों को सदन में भाषण देने की स्वतन्त्रता दी गई है। उनके द्वारा सदन में प्रकट किए गए किसी विचार या कही गई किसी बात के आधार पर किसी न्यायालय में कोई मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता है। विधानसभा के सदस्यों को सदन के अधिवेशन के आरम्भ होने से 40 दिन पहले से लेकर अधिवेशन के समाप्त होने के 40 दिन बाद तक दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

विधानसभा के पदाधिकारी (Officers of the Legislative Assembly)-विधानसभा का एक अध्यक्ष (Speaker) होता है और एक उपाध्यक्ष। इन दोनों का चुनाव विधानसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही होता है। अध्यक्ष का काम सभा की बैठकों में सभापतित्व करना, उनमें शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना, सदस्यों को बोलने की स्वीकृति देना, बिलों पर मतदान करवाना तथा निर्णयों की घोषणा करना है।

missing (Powers and Functions of the Legislative Assembly)—fG राज्यों में विधानमण्डल का एक सदन है वहां पर विधानमण्डल की सभी शक्तियों का प्रयोग विधानसभा द्वारा किया जाता है और जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहां पर भी विधानसभा अधिक प्रभावशाली है। विधानसभा की मुख्य शक्तियां निम्नलिखित हैं-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 31 राज्य विधानमण्डल

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)—विधानसभा को राज्य-सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने के लिए बिल पास करने का अधिकार है। यदि विधानमण्डल द्विसदनीय है तो विधेयक वहां से विधानपरिषद् के पास जाता है। विधानपरिषद् यदि उसे रद्द कर दे या तीन महीने तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे संशोधन कर दे जो विधानसभा को स्वीकृत न हों तो विधानसभा उस विधेयक को दोबारा पास कर सकती है और उसे विधानपरिषद् के पास भेजा जाता है। यदि विधानपरिषद् उस बिल पर दोबारा एक महीने तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन कर दे जो विधानसभा को स्वीकृत न हों, तो इन अवस्थाओं में वह बिल दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाएगा। दोनों सदनों या एक सदन के पास होने के बाद बिल राज्यपाल के पास जाता है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्य के वित्त पर विधानसभा का ही नियन्त्रण है। धन-बिल केवल विधानसभा में ही पेश हो सकते हैं। वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले राज्य का वार्षिक बजट भी इसी के सामने प्रस्तुत किया जाता है। विधानसभा की स्वीकृति के बिना राज्य सरकार न कोई टैक्स लगा सकती है और न ही धन खर्च कर सकती है। विधानसभा के पास होने के बाद धन-बिल विधानपरिषद् के पास भेजा जाता है। (यदि विधानमण्डल द्विसदनीय है) जो उसे अधिक-से-अधिक 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है। विधानपरिषद् चाहे धन-बिल को रद्द करे या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, तो वह दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाता है और राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है जिसे धन-बिल पर अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-विधानमण्डल को कार्यकारी शक्तियां भी मिली हुई हैं। विधानसभा का मन्त्रिपरिषद् पर पूर्ण नियन्त्रण है। मन्त्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों व नीतियों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। विधानसभा के सदस्य मन्त्रियों की आलोचना कर सकते हैं, प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। विधानसभा चाहे तो मन्त्रिपरिषद् को हटा भी सकती है। विधानसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके अथवा धन-बिल को अस्वीकृत करके अथवा मन्त्रियों के वेतन में कटौती करके अथवा सरकार के किसी महत्त्वपूर्ण बिल को अस्वीकृत करके मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है।

4. संवैधानिक कार्य (Constitutional Functions) संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जिनमें संसद् अकेले संशोधन नहीं कर सकती। ऐसे अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति भी आवश्यक होती है। अतः विधानपरिषद् के साथ मिलकर (यदि विधानमण्डल द्विसदनीय है) विधानसभा संविधान के संशोधन में भाग लेती है।

5. चुनाव सम्बन्धी कार्य (Electoral Functions)

  • विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार है। यह अधिकार विधानपरिषद् को प्राप्त नहीं है।
  • विधानसभा के सदस्य विधानपरिषद् में 1/3 सदस्यों को चुनते हैं।
  • विधानसभा के सदस्य ही राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधियों को चुन कर भेजते हैं।
  • राज्य विधानसभा के सदस्य अपने में से एक को अध्यक्ष और किसी दूसरे को उपाध्यक्ष चुनते हैं।

6. अन्य कार्य (Other Functions)-राज्य की विधानसभाओं को कुछ और भी कार्य करने पड़ते हैं जोकि इस प्रकार हैं-

  • विधानसभा 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके विधानपरिषद् की स्थापना तथा समाप्ति की प्रार्थना कर सकती है और संसद् इस प्रार्थना के अनुसार कानून बनाती है।
    7 अप्रैल, 1993 को पंजाब की विधानसभा ने विधानपरिषद् की स्थापना के लिए प्रस्ताव पास किया।
  • विधानसभा विधानपरिषद् के साथ मिलकर (यदि विधानपरिषद् हो) लोक सेवा आयोग की शक्तियों को बढ़ा सकती हैं।
  • विधानसभा विधानपरिषद् के साथ मिल कर आकस्मिक कोष स्थापित कर सकती है।
  • राज्य की विधानसभा किसी व्यक्ति को सदन के विशेषाधिकारों के उल्लंघन करने पर दण्ड दे सकती है।
  • यदि कोई सदस्य विधानसभा का अनुशासन भंग करता है और सदन की कार्यवाही शान्तिपूर्वक नहीं चलने देता, तब सदन उस सदस्य को सदन से निलम्बित कर सकता है।
  • विधानसभा विरोधी दल के नेता को सरकारी मान्यता देने के लिए और उसे अन्य सुविधाएं देने के लिए बिल पास कर सकती है।

विधानसभा की स्थिति (Position of the Legislative Assembly)-राज्य के प्रशासन में विधानसभा का विशेष महत्त्व है। जिन राज्यों में विधानमण्डल का एक सदन है जैसे कि पंजाब, हरियाणा में, वहां पर राज्य की समस्त वैधानिक शक्तियां विधानसभा के पास हैं और जहां पर विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहां पर भी कानून बनाने में विधानसभा ही प्रभावशाली सदन है। विधानपरिषद् विधानसभा द्वारा पास किए गए बिल को अधिक-से-अधिक चार महीने तक रोक सकती है। राज्य के धन पर पूर्ण नियन्त्रण विधानसभा का है। विधानपरिषद् धन बिल को केवल 14 दिन तक रोक सकती है। विधानसभा की स्वीकृति के बिना न कोई टैक्स लगाया जा सकता है और न ही कोई धन ख़र्च किया जा सकता है। मन्त्रिपरिषद् इसके प्रति उत्तरदायी है और विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके इसको हटा सकती है। यहां तक कि विधानपरिषद् का अस्तित्व भी विधानसभा पर निर्भर करता है। विधानसभा की राज्यों में वही स्थिति है जो केन्द्र में लोकसभा की है।

प्रश्न 2.
राज्य की विधानपरिषद् की रचना, शक्तियों और कार्यों का वर्णन करो।
(Discuss the composition, powers and functions of State Legislative Council.)
उत्तर-
भारत के अनेक राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं जैसे कि उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना। जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं, वहां पर विधानमण्डल के ऊपरि सदन को विधानपरिषद् कहा जाता है। हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश इत्यादि राज्यों में विधानपरिषद् नहीं पाई जाती क्योंकि इन राज्यों में विधानमण्डल का एक ही सदन है। 7 अप्रैल, 1993 को पंजाब की विधानसभा ने विधानपरिषद् की स्थापना के लिए बहुमत से प्रस्ताव पारित किया।

रचना (Composition)—किसी भी राज्य की विधानपरिषद् के सदस्यों की संख्या 40 से कम और विधानसभा के 1/3 भाग से अधिक नहीं हो सकती। परन्तु जम्मू-कश्मीर की विधानपरिषद् में कुल 36 सदस्य हैं। उत्तर प्रदेश की विधानपरिषद् की सदस्य संख्या 100 है। विधानपरिषद् में कुल सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुने जाते बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में निम्नलिखित तरीके से चुने जाते हैं-

  1. लगभाग 1/3 सदस्य स्थानीय संस्थाओं के द्वारा चुने जाते हैं।
  2. लगभग 1/3 सदस्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं।
  3. लगभग 1/12 सदस्य राज्य में रहने वाले ऐसे व्यक्तियों द्वारा चुने जाते हैं जो कम-से-कम तीन वर्ष से किसी विश्वविद्यालय में स्नातक हों।
  4. लगभग 1/12 सदस्य राज्य की माध्यमिक पाठशालाओं या इससे उच्च शिक्षा संस्थाओं में कम-से-कम तीन वर्ष से अध्यापन कार्य करने वाले अध्यापकों द्वारा चुने जाते हैं।
  5. शेष लगभग 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से मनोनीत होते हैं जिन्हें विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि के क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या अनुभव प्राप्त हो।

योग्यताएं (Qualifications) विधानपरिषद् का सदस्य निर्वाचित या मनोनीत होने के लिए किसी भी व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर आसीन न हो।
  4. वह विधि द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. वह संसद् द्वारा बनाए गए किसी कानून के अनुसार विधानपरिषद् का सदस्य बनने के लिए अयोग्य न हो।
  6. वह दिवालिया न हो, पागल न हो और किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो। यदि निर्वाचित होने के बाद भी उसमें ऐसी कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए या लगातार 60 दिन तक सदन की स्वीकृति के बिना अधिवेशनों में अनुपस्थित रहे तो उसका स्थान रिक्त घोषित किया जा सकता है।

अवधि (Term)-विधानपरिषद् एक स्थायी सदन है जिसके सदस्य राज्यसभा की भान्ति 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। परन्तु सभी सदस्य एक साथ नहीं चुने जाते। इनके 1/3 सदस्य प्रति दो वर्ष के पश्चात् अवकाश ग्रहण करते हैं परन्तु अवकाश ग्रहण करने वाले सदस्य दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं। राज्यपाल विधानपरिषद् को भंग नहीं कर सकता।

गणपूर्ति (Quorum)-संविधान के अनुसार विधानपरिषद् का अधिवेशन आरम्भ होने के लिए आवश्यक है कि इसके सदस्यों का 1/10वां भाग सदस्य उपस्थित हों।

अधिवेशन (Session)-राज्यपाल विधानपरिषद् का अधिवेशन किसी भी समय बुला सकता है, परन्तु दो अधिवेशनों के बीच 6 मास से अधिक समय नहीं बीतना चाहिए। राज्यपाल प्रायः राज्य के विधानमण्डल के दोनों सदनों का अधिवेशन एक ही समय बुलाता है।

पदाधिकारी (Officials)-विधानसभा का एक सभापति और एक उप-सभापति होता है। इसका चुनाव विधानपरिषद् के सदस्य अपने में से ही करते हैं। इन्हें प्रस्ताव पास करके सदस्यों द्वारा हटाया भी जा सकता है परन्तु ऐसा प्रस्ताव उस समय तक पेश नहीं किया जा सकता जब तक कि इस आशय की पूर्व सूचना कम-से-कम 14 दिन पहले न दी गई हो। सभापति विधानपरिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है और अनुशासन बनाए रखता है ताकि विधानपरिषद् अपना कार्य ठीक प्रकार से कर सके। सभापति की शक्तियां व कार्य वहीं हैं जोकि विधानसभा के स्पीकर की हैं। सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभापति इसकी अध्यक्षता करता है।

वेतन और भत्ते (Salary and Allowances)-विधानपरिषद् के सदस्यों को विधानमण्डल द्वारा निश्चित वेतन और भत्ते मिलते हैं जोकि विधानसभा के सदस्यों के समान होते हैं। इन्हें भी भाषण की स्वतन्त्रता है और सदन में कहे गए किसी शब्द के आधार पर इनके विरुद्ध कोई मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता।

शक्तियां और कार्य (Powers and Functions)-राज्य की विधानपरिषद् को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हैं

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers) विधानपरिषद् में उन सभी विषयों के सम्बन्ध में साधारण बिल पेश किया जा सकता है जिनका वर्णन राज्य सूची और समवर्ती सूची में पेश किया गया है। परन्तु उस बिल को तब तक राज्यपाल के पास नहीं भेजा जा सकता जब तक विधानसभा पास न करे अर्थात् विधानसभा की स्वीकृति के बिना कोई बिल कानून नहीं बन सकता। परन्तु विधानपरिषद् विधानसभा द्वारा पास किए गए बिल को अधिक-से-अधिक चार महीने (पहली बार तीन महीने और दूसरी बार एक महीना) तक रोक सकती है।

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2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-धन-बिल विधानपरिषद् में पेश नहीं हो सकता। बजट या धन-बिल विधानसभा के पास होने के बाद ही इसके पास आता है। यह बजट और धन-बिल पर विचार कर सकती है, परन्तु उसे रद्द नहीं कर सकती। विधानपरिषद् यदि धन-बिल को रद्द कर दे या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे सुझाव देकर वापस कर दे जो विधानसभा को अस्वीकृत हों, तो वह बिल इन सभी दशाओं में दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाएगा। स्पष्ट है कि राज्य के वित्त पर विधानपरिषद् को नाममात्र का अधिकार प्राप्त है।

3. कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers) विधानपरिषद् कार्यपालिका को प्रभावित कर सकती है, परन्तु उस पर नियन्त्रण नहीं रख सकती। विधानपरिषद् के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं और ‘काम रोको’ प्रस्ताव पेश करके मन्त्रिमण्डल की कमियों और भ्रष्टाचार पर प्रकाश डाल सकते हैं तथा उनकी आलोचना कर सकते हैं। बजट पर विवाद करते हुए भी विधानपरिषद् के सदस्य मन्त्रियों की कड़ी आलोचना कर सकते हैं। परन्तु मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है और इसलिए विधानसभा मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर उसे अपदस्थ नहीं कर सकती।

4. संवैधानिक कार्य (Constitutional Function) विधानपरिषद् विधानसभा के साथ मिलकर संविधान के संशोधन में भाग लेती है परन्तु उसी समय जब कोई संशोधन बिल राज्यों की अनुमति के लिए भेजा जाए। परन्तु संविधान का बहुत कम भाग ऐसा है जिसे इस विधि से बदला जा सकता है।

विधानपरिषद् की स्थिति (Position of the Legislative Council) विधानपरिषद् विधानसभा के मुकाबले में एक बहुत ही गौण सदन है। यह अपने अस्तित्व के लिए विधानसभा पर निर्भर है। विधानसभा विधानपरिषद् की समाप्ति के लिए प्रार्थना कर सकती है और संसद् उस प्रस्ताव के आधार पर कानून बना देगी। इस एकमात्र कारण के आधार पर यह विधानसभा के सामने सिर नहीं उठा सकती, इसका मुकाबला करने की बात तो बहुत दूर की है। इसे न राज्य के कानून-निर्माण में कोई प्रभाव डालने का अधिकार है और न ही राज्य के प्रशासन को भी प्रभावित करने का। विधानपरिषद् विधानसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं कर सकती जबकि विधानपरिषद् विधानसभा द्वारा पास किए गए बिल को अधिक-से-अधिक चार मास के लिए रोक सकती है। कार्यपालिका पर विधानपरिषद् का नियन्त्रण नाममात्र का है। विधानपरिषद् के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं, मन्त्रियों की आलोचना कर सकते हैं, परन्तु अविश्वास प्रस्ताव पास करके हटा नहीं सकते। राज्य के वित्त पर भी इस सदन का कोई नियन्त्रण नहीं है। धनबिल को विधानपरिषद् केवल 14 दिन तक रोक सकती है। संक्षेप में, विधानपरिषद् विधानसभा के मुकाबले में बिल्कुल शक्तिहीन तथा गौण सदन है।

प्रश्न 3.
राज्य विधानमण्डल की रचना की व्याख्या करा। राज्य विधानमण्डल की शक्तियां संक्षेप रूप में वर्णित करो।
(Discuss the Composition of State Legislature. Explain briefly the powers of the State Legislature.)
उत्तर-
प्रत्येक राज्य में कानून निर्माण के लिए विधानमण्डल की स्थापना की गई है। कुछ राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं जबकि कुछ राज्यों में विधानमण्डल का एक सदन है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडू, जम्मू-कश्मीर, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलंगाना में विधानमण्डल के दो सदन हैं जबकि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, केरल, आसाम, उड़ीसा इत्यादि में एक सदन है।
विधानमण्डल की रचना (Composition of State Legislature)-जिन राज्यों में द्विसदनीय विधानमण्डल है वहां विधानमण्डल के दो सदन हैं-विधानसभा तथा विधानपरिषद् । एक सदन वाले विधानमण्डल में केवल विधानसभा ही होती है।

(क) विधानसभा (Legislative Assembly)-प्रत्येक विधानण्डल में विधानसभा का होना आवश्यक है। यह सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और इसके सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। राज्यपाल को ऐंग्लो-इण्डियन जाति का एक सदस्य मनोनीत करने का अधिकार है, यदि चुनाव में इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न हो सका हो। संविधान के अनुसार विधानसभा में अधिक-से-अधिक 500 तथा कम-से-कम 60 सदस्य हो सकते हैं। पंजाब विधानसभा की सदस्य संख्या 117 है जबकि हरियाणा में 90 सदस्य हैं।
विधानसभा का सदस्य बनने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति-

  1. भारत का नागरिक हो।
  2. 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. किसी सरकारी लाभदायक पद पर आसीन न हो।
  4. कानून द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. पागल, दिवालिया, न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।
  6. विधानसभा का चुनाव लड़ने वाले आजाद उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक है कि उसका नाम दस प्रस्तावकों द्वारा अनुमोदित किया जाए।

विधानसभा की अवधि 5 वर्ष है। परन्तु राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह पर इसे 5 वर्ष की अवधि से पहले भी भंग कर सकता है। संकटकाल में इसकी अवधि को एक वर्ष के लिए बढ़ाया भी जा सकता है। विधानसभा का एक अध्यक्ष (Speaker) और एक उपाध्यक्ष (Deputy Speaker) होता है, जिनका कार्य सदन में शान्ति बनाए रखना तथा सदन के काम का सुचारु रूप से संचालन करना है। ये दोनों अधिकारी विधानसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं।

(ख) विधानपरिषद् (Legislative Council) विधानपरिषद् राज्य विधानमण्डल का ऊपरि सदन है। इसके सदस्यों की संख्या 40 से कम और विधानसभा की सदस्य संख्या के 1/3 से अधिक नहीं हो सकती। यह जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुने जाते बल्कि इनका चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से निम्नलिखित विधि के आधार पर होता है-

  1. लगभग 1/3 सदस्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित।
  2. लगभग 1/3 सदस्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा निर्वाचित।
  3. लगभग 1/2 सदस्य राज्य में रहने वाले ऐसे सदस्यों द्वारा जो कम-से-कम तीन वर्ष से किसी विश्वविद्यालय के स्नातक हों, निर्वाचित।
  4. लगभग 1/12 सदस्य राज्य की माध्यमिक पाठशालाओं या इससे उच्च शिक्षा संस्थाओं में कम-से-कम तीन वर्षों से अध्यापन करने वाले अध्यापकों द्वारा निर्वाचित।
  5. शेष अर्थात् लगभग 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत ।

विधानपरिषद् का सदस्य वही नागरिक बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर आसीन न हो।
  4. वह कानून द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. वह पागल अथवा दिवालिया न हो, किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।

विधानपरिषद् एक स्थायी सदन है और इसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। राज्यपाल विधानसभा को भंग नहीं कर सकता। विधानपरिषद् का भी एक सभापति तथा एक उप-सभापति होता है जिसका चुनाव इसके सदस्य अपने में से ही करते हैं।

विधानमण्डल की शक्तियां और कार्य (Powers and Functions of the State Legislature)-राज्य विधानमण्डल को संसद् की तरह की प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं जिन्हें निम्नलिखित श्रेणियों के अन्तर्गत बांटा जा सकता है-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)—राज्य विधानमण्डल उन विषयों पर जो राज्य के अधिकार क्षेत्र में हैं, कानून बना सकता है अर्थात् राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में दिए गए सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानमण्डल को है। परन्तु समवर्ती सूची में दिए गए सभी विषयों पर बनाया गया कानून संसद् द्वारा उसी विषय पर पास किए हुए कानून के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। विधानमण्डल के द्वारा पास होने के बाद बिल राज्यपाल के पास जाता है और उसकी स्वीकृति मिलने के बाद ही वह कानून बन सकता है। राज्यपाल को साधारण बिलों पर एक बार निषेधाधिकार प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्य के वित्त पर विधानमण्डल का ही नियन्त्रण है। सरकार विधानमण्डल की स्वीकृति के बिना न कोई टैक्स लगा सकती है और न ही कोई धन ख़र्च कर सकती है। राज्यपाल का यह कर्त्तव्य है कि वह नया वर्ष आरम्भ होने से पहले अगले वर्ष का बजट विधानमण्डल के सामने पेश करवा, विधानमण्डल बजट पर विचार करता है और उसे पास या रद्द कर सकता है। राज्यपाल विधानमण्डल द्वारा पास किए गए धन-विधेयक पर अपनी स्वीकृति देने से इन्कार नहीं कर सकता।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-विधानमण्डल के सदस्य मन्त्रियों से प्रशासन के बारे में प्रश्न पूछ सकते हैं, काम रोको प्रस्ताव पेश कर सकते हैं और विभिन्न तरीकों से सरकार के कार्यों तथा नीतियों की आलोचना करके उसे प्रभावित कर सकते हैं। विधानसभा के विश्वास-पर्यन्त ही मन्त्रिपरिषद् अपने पद पर रह सकती है। विधानसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे या किसी मन्त्री के वेतन में कमी करने का प्रस्ताव पास कर दे तो ये बातें मन्त्रिपरिषद् में विधानसभा के अविश्वास की सूचक हैं और मन्त्रिपरिषद् को अपना त्याग-पत्र देना ही पड़ता है।

4. अन्य कार्य (Other Functions)–

  • राज्य विधानमण्डल का निम्न सदन अर्थात् विधानसभा राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेता है। केवल निर्वाचित सदस्य ही भाग लेते हैं ; अनिर्वाचित सदस्यों को यह अधिकार नहीं है।
  • राज्य में विधानपरिषद् में चुने जाने वाले सदस्य भी विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं।
  • राज्य विधानमण्डल संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं के संशोधन में भाग लेता है। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं को संशोधित करने के लिए आवश्यक है कि ऐसा प्रस्ताव संसद् के दोनों सदनों के 2/3 बहुमत से पास होकर राज्यों के पास जाता है और वह उस समय तक लागू नहीं हो सकता जब तक कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डल उसे स्वीकृत न कर लें। 42वें संशोधन और 44वें संशोधन को राज्यों के विधानमण्डलों के पास स्वीकृति के लिए भेजा गया था।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 31 राज्य विधानमण्डल

राज्य विधानमण्डल की शक्तियों पर सीमाएं (Limitations on the Powers of the State Legislature)-राज्य विधानमण्डल की शक्तियों पर निम्नलिखित सीमाएं हैं-

  1. राज्य विधानमण्डल एक ऐसी संस्था है जिसके पास पूर्ण अधिकार नहीं हैं क्योंकि ये संविधान में संशोधन नहीं कर सकते।
  2. कई ऐसे बिल भी हैं जो राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना विधानमण्डल में पेश नहीं किए जा सकते। उदाहरणस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने के विषय में बिल, व्यापार व वाणिज्य पर प्रतिबन्ध लगाने वाले बिल, आदि।
  3. विधानमण्डलों द्वारा पास किए कुछ बिलों को राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए रख सकता है। राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना ये बिल पास नहीं हो सकते।
  4. संसद् राज्य सूची में लिखित विषयों के बारे में कानून बना सकती है। यह तभी होता है जब राज्यसभा इस उद्देश्य का प्रस्ताव पास कर दे कि अमुक विषय राष्ट्रीय महत्त्व का विषय बन गया है।
  5. संवैधानिक संकट के समय संसद् को राज्यसूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
  6. किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी के असफल हो जाने की घोषणा के समय केन्द्रीय संसद् को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
  7. विदेशी शक्तियों से किए गए समझौते अथवा सन्धियों को क्रियात्मक रूप देने के लिए संसद् कोई भी कानून बनाकर राज्यों पर लागू कर सकती है।
  8. राज्यपाल की स्वेच्छाचारी शक्तियां भी राज्य की व्यवस्थापिका की शक्तियों पर प्रतिबन्ध हैं।

प्रश्न 4.
राज्य विधानमण्डल में बिल कैसे पास होता है ?
(How does a Bill become an Act in the State Legislature)

प्रश्न 4.
राज्य विधानमण्डल में अपनाई गई विधायिनी प्रक्रिया का वर्णन करो।
(Describe the Legislative procedure adopted in the State Legislative.)
अथवा राज्य विधानमण्डल में एक विधेयक कानून किस तरह बनता है ?
(How does a Bill become an act in the State Legislature ?)
उत्तर-
विधानमण्डल का मुख्य कार्य राज्य के लिए कानून बनाना है तथा उसका बहुत समय इस कार्य पर लगता है। संसद् की भान्ति इसमें भी साधारण तथा धन-बिल प्रस्तुत होते हैं तथा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में से गुज़र कर एक्ट का रूप धारण करते हैं। साधारण बिल न केवल मन्त्रियों अपितु विधानसभा अथवा विधानपरिषद् के सदस्यों द्वारा पेश किए जा सकते हैं। साधारण बिल के पास होने की विधि का वर्णन इस प्रकार है-

1. बिल का प्रस्तुत होना तथा प्रथम वाचन (Introduction of the Bill and its First Reading)-सरकारी बिलों के लिए कोई नोटिस देने की आवश्यकता नहीं है। मन्त्री जब चाहे बिल को पेश कर सकते हैं। परन्तु गैर-सरकारी बिलों के लिए एक महीने का नोटिस देना आवश्यक है। गैर-सरकारी बिल को पेश करने की तिथि निश्चित कर दी जाती है। निश्चित तिथि को बिल पेश करने वाला सदस्य बिल को प्रस्तुत करने के लिए सदन से आज्ञा मांगता है तथा इसके पश्चात् बिल के शीर्षक को पढ़ता है। यदि उचित समझे तो इस अवसर पर बिल के सम्बन्ध में एक छोटा-सा भाषण भी दे सकता है। इसके पश्चात् शीघ्र ही सदन का अध्यक्ष अथवा सभापति उपस्थित सदस्यों की सम्मति लेता है। यदि सदन की बहुसंख्या आज्ञा देने के पक्ष में हो तो बिल प्रस्तुत करने की आज्ञा मिल जाती है। इसके पश्चात् बिल को सरकारी गजट में मुद्रित कर दिया जाता है। सरकारी बिल को बिना नोटिस दिए सरकारी गजट में छाप दिया जाता है। यही बिल का प्रथम वाचन समझा जाता है।

2. द्वितीय वाचन (Second Reading)—प्रथम वाचन के कुछ दिनों के पश्चात् बिल को प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति सदन से यह प्रार्थना करता है कि उसके बिल पर विचार किया जाए। इस पर बिल के सिद्धान्तों तथा धाराओं पर साधारण विवाद होता है। इस विवाद के पश्चात् यदि सदन चाहे तो इसको रद्द कर सकता है नहीं तो इसकी प्रत्येक धारा पर विस्तारपूर्वक विचार किया जाता है।

3. समिति अवस्था (Select Committee) कभी-कभी ऐसे बिलों को, जो विचाराधीन हों, प्रवर समिति को सौंप दिया जाता है। प्रवर समिति में विधानमण्डल के 25 से 30 तक सदस्य होते हैं जो बिल की अच्छी प्रकार से छानबीन करते हैं। इसके पश्चात् प्रवर समिति अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती है, जिस पर सदस्य पुनः विचार करते हैं।

4. प्रतिवेदन अवस्था (Report Stage)-प्रवर समिति में की गई छान-बीन द्वारा संशोधित किया गया बिल समिति के प्रतिवेदन द्वारा पुनः सदन के सम्मुख आता है। इसको प्रतिवेदन अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में कमेटी में दिए प्रत्येक सुझाव पर विचार किया जाता है तथा प्राय: इस समिति के प्रतिवेदन को स्वीकार कर लिया जाता है।

5. तृतीय वाचन (Third Reading) द्वितीय वाचन के पश्चात् बिल प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति सदन में यह प्रार्थना करता है कि बिल पास कर दिया जाए। यदि सदस्यों का बहुमत इसके पक्ष में हो (प्रायः यह होता ही है) तो बिल पास हो जाता है तथा सदन का मुख्य अधिकारी इस पर हस्ताक्षर कर देता है। इस दशा में बिल की धाराओं में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, परन्तु बिल के विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिए बिल की भाषा में शब्दों का परिवर्तन हो सकता है। इसको बिल का तृतीय वाचन कहते हैं।

6. बिल दूसरे सदन में (The Bill in the Other House)-जब बिल को एक सदन पास कर देता है तो इसके पश्चात् इसको विधानमण्डल के दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। इस सदन में भी बिल के तीन वाचन होते हैं। यदि यह सदन भी बिल को पास कर दे तो उसको राज्यपाल के हस्ताक्षरों के लिए प्रस्तुत किया जाता है। यदि किसी समय विधानपरिषद् इस बिल को पास न करे अथवा इसमें ऐसे संशोधन कर दे, जिससे विधानसभा सहमत न हो अथवा तीन मास तक बिल पर कोई कार्यवाही न करे, तब ऐसी अवस्था में विधानसभा इस बिल पर पुनः विचार करके इसको विधानपरिषद में भेजती है। यदि विधानपरिषद् बिल को अस्वीकार कर दे अथवा इसमें ऐसे संशोधन करे जिससे विधानसभा सहमत न हो अथवा इसको एक मास में पास न करे तो बिल दोनों सदनों द्वारा पास किया हुआ समझा जाता है। इससे स्पष्ट है कि विधानपरिषद् एक बिल को अधिक-से-अधिक चार मास के लिए रोक सकती है। इसलिए उसके पास इससे अधिक अन्य कोई शक्ति नहीं।

7. राज्यपाल की स्वीकृति (Governor’s Assent) जब राज्य विधानमण्डल के दोनों सदन बिल को पास कर देते हैं तो इसको राज्यपाल की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। या तो राज्यपाल इस पर हस्ताक्षर कर इसको पास कर देता है अथवा अपने सुझावों सहित बिल को विधानमण्डल को पुनः विचार के लिए वापस भेज देता है। यदि राज्य विधानमण्डल इस बिल को राज्यपाल द्वारा दिए गए सुझावों सहित अथवा उनके बिना पुनः पास कर देता है तो राज्यपाल को बिल पर हस्ताक्षर करने ही पड़ते हैं तथा बिल पास हो जाता है। कुछ ऐसे बिल भी होते हैं जिनको राज्यपाल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकता है तथा राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के पश्चात् ही कानून का रूप धारण करते हैं। जुलाई 1994 को तमिलनाडु विधानसभा ने राज्य में 69 प्रतिशत आरक्षण के वास्ते बिल पास किया और उसे राज्यपाल की मन्जूरी के लिए भेज दिया। राज्यपाल एन० चन्ना रेड्डी ने उस बिल को राष्ट्रपति की मन्जूरी के लिए भेज दिया। राष्ट्रपति की मन्जूरी मिलने पर उस बिल ने कानून का रूप धारण कर लिया।

प्रश्न 5.
विधानसभा तथा विधानपरिषद् के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Explain the mutual relations of Legislative Assembly and Legislative Council.)
उत्तर-
राज्य विधानसभा के दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त नहीं हैं। दोनों सदनों में विधानसभा अधिक शक्तिशाली है। दोनों सदनों के सम्बन्ध इस प्रकार हैं-

1. साधारण बिलों के सम्बन्धों में (In respect of Oridnary Bills)—साधारण बिल दोनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। विधानपरिषद् द्वारा पास किया गया साधारण बिल उस समय तक राज्यपाल के पास नहीं भेजा जा सकता जब तक विधान सभा भी उसे पास न कर दे। विधानसभा उसे रद्द कर सकती है। विधानसभा द्वारा पास होने के बाद साधारण बिल विधानपरिषद् के पास आता है, परन्तु वह उसे पूर्ण रूप से रद्द नहीं कर सकती। यदि विधानपरिषद् तीन महीने तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे सुझाव देकर वापस कर दे जो विधानसभा को स्वीकृत न हों या उसे रद्द कर दे तो सभी दशाओं में विधानसभा उस बिल को दोबारा साधारण बहुमत से पास कर सकती है और वह बिल फिर विधानपरिषद् के सामने आता है। दूसरी बार विधानपरिषद् यदि उस बिल को रद्द कर दे या एक महीने तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे संशोधन कर दे जो विधानसभा को स्वीकृत न हों तो तीनों दशाओं में वह बिल दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाएगा। स्पष्ट है कि विधानपरिषद् विधानसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती और विधानसभा के रास्ते में अधिक-से-अधिक 4 महीने तक बाधा उत्पन्न कर सकती है।

2. धन-बिलों के सम्बन्ध में (In respect of Money Bills)-राज्य के धन पर वास्तविक नियन्त्रण विधानसभा का है न कि विधानपरिषद् का। धन-बिल केवल विधानसभा में ही पेश हो सकते हैं, विधानपरिषद् में नहीं। यदि विधानपरिषद् धन विधेयक को रद्द कर दे या ऐसे सुझाव देकर वापस कर दे जो विधानसभा को स्वीकृत न हों या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे तो इन सभी दशाओं में वह बिल दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि राज्य के वित्त पर विधानसभा को ही नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त है, विधानपरिषद् को नहीं।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)—कार्यपालिका पर वास्तविक नियन्त्रण विधानसभा का है न कि विधानपरिषद् का। वैसे तो दोनों सदनों के सदस्यों को मन्त्रिपरिषद् से साधारण प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछने, ‘काम रोको’ प्रस्ताव पेश करने और मन्त्रिपरिषद् की नीतियों के कार्यों की आलोचना करके कार्यपालिका को प्रभावित करने का अधिकार है, परन्तु मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिपरिषद् तब तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसे विधानसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। विधानसभा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास करके उसे अपदस्थ कर सकती है परन्तु विधानपरिषद् को अविश्वास प्रस्ताव पास करके नहीं हटा सकती है।

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4. संविधान में संशोधन के सम्बन्ध में संविधान में कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं जिनमें संशोधन आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति से ही हो सकता है। इस तरह का संशोधन विधेयक दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पास होना आवश्यक है। अतः इस सम्बन्ध में विधानमण्डल के दोनों सदनों की शक्तियां समान हैं।

5. राष्ट्रपति के निर्वाचन के सम्बन्ध में-राष्ट्रपति के चुनाव में विधानसभा के सदस्य भाग लेते हैं, विधानपरिषद् के सदस्य नहीं। दोनों सदनों के पारस्परिक सम्बन्धों से स्पष्ट है कि विधानपरिषद् विधानसभा के मुकाबले में बहुत ही शक्तिहीन सदन है। डॉ० एम० पी० शर्मा के शब्दों में, “जो समानता का ढोंग लोकसभा और राज्यसभा के बीच है, वह विधानसभा और विधानपरिषद् के बीच नहीं।”

प्रश्न 6.
राज्य विधानसभा के स्पीकर की नियुक्ति, शक्तियां व स्थिति की व्याख्या करो। (Explain the Election, Powers and Position of Speaker of State Legislative Assembly.)
उत्तर-
विधानसभा का एक अध्यक्ष होता है, जिसे स्पीकर कहा जाता है। विधानसभा स्पीकर की अध्यक्षता में ही अपने सभी कार्य करती है।
चुनाव (Election)-स्पीकर का चुनाव विधानसभा के सदस्यों के द्वारा अपने में से ही किया जाता है। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति स्पीकर चुना जा सकता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

कार्यकाल (Term of Office)-स्पीकर की अवधि 5 वर्ष है। यदि विधानसभा को भंग कर दिया जाए तो स्पीकर अपने पद का त्याग नहीं करता। जून, 1986 को सुरजीत सिंह मिन्हास को पंजाब विधानसभा का स्पीकर चुना गया और वह इस पद पर 24 फरवरी, 1992 तक रहे। स्पीकर को 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी हटाया जा सकता है और स्पीकर स्वयं भी त्याग-पत्र दे सकता है। परन्तु स्पीकर के हटाए जाने का प्रस्ताव विधानसभा में उसी समय पेश हो सकता है जबकि कम-से-कम 14 दिन पहले इस आशय की एक पूर्व सूचना उसे दी जा चुकी हो। हटाए जाने के प्रस्ताव के कारण स्पष्ट होने चाहिए। यदि नहीं हो तो प्रस्ताव पेश करने की आज्ञा नहीं भी दी जा सकती। 20 जून, 1995 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने स्पीकर धनी राम वर्मा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया।

स्पीकर की शक्तियां व कार्य (Powers and Functions of the Speaker)-स्पीकर को विधानसभा का अध्यक्ष होने के नाते कार्य करने पड़ते हैं जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं

  • स्पीकर विधानसभा में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखता है।
  • स्पीकर विधानसभा के नेता से सलाह करके सभा का कार्यक्रम निर्धारित करता है।
  • स्पीकर सभा की कार्यवाही-नियमों की व्याख्या करता है।
  • जब किसी बिल पर या विषय पर वाद-विवाद हो जाता हो तो स्पीकर उस पर मतदान करवाता है, वोटों की गिनती करता है तथा परिणाम घोषित करता है।
  • साधारणतः स्पीकर अपना वोट नहीं डालता, परन्तु जब किसी विषय पर वोट समान हों तो वह अपना निर्णायक वोट दे सकता है।
  • प्रस्तावों व व्यवस्था सम्बन्धी मुद्दों को स्वीकार करना।
  • स्पीकर ही इस बात का निश्चय करता है कि सदन की गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य उपस्थित हैं अथवा नहीं।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों की जानकारी के लिए या किसी विशेष महत्त्व के मामले पर सदन को सम्बोधित करता है।
  • स्पीकर सदन के नेता की सलाह पर सदन की गुप्त बैठक की आज्ञा देता है। (10) स्पीकर की आज्ञा के बिना कोई सदस्य विधानसभा में नहीं बोल सकता।
  • यदि कोई सदस्य सदन में अनुचित शब्दों का प्रयोग करे तो स्पीकर अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने वाले सदस्य को अपने शब्द वापस लेने के लिए कह सकता है और वह विधानसभा की कार्यवाही से ऐसे शब्दों को काट सकता है जो उसकी सम्मति में अनुचित तथा असभ्य हों।
  • यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ करे तो स्पीकर उसको सदन से बाहर जाने के लिए कह सकता है।
  • यदि कोई सदस्य अध्यक्ष के आदेशों का उल्लंघन करे तथा सदन के कार्य में बाधा उत्पन्न करे तो स्पीकर उसे निलम्बित (Suspend) कर सकता है। यदि कोई सदस्य उसके आदेशानुसार सदन से बाहर न जाए तो वह मार्शल की सहायता से उसे बाहर निकाल सकता है।
  • सदन की मीटिंग में गड़बड़ होने की दशा में स्पीकर को सदन का अधिवेशन स्थगित करने का अधिकार है।
  • यदि सदन किसी व्यक्ति को अपने विशेषाधिकार का उल्लंघन करने के लिए दण्ड दे तो उसे लागू करवाना स्पीकर का काम है।
  • स्पीकर का अपना सचिवालय होता है जिसमें काम करने वाले कर्मचारी उसके नियन्त्रण में काम करते हैं।
  • प्रेस तथा जनता के लिए दर्शक गैलरी में व्यवस्था करना स्पीकर का काम है।
  • विधानसभा जब किसी बिल पर प्रस्ताव पास कर देती है तब उसे दूसरे सदन अथवा राज्यपाल के पास स्पीकर ही हस्ताक्षर कर के भेजता है।

अध्यक्ष की स्थिति (Position of the Speaker) विधानसभा के अध्यक्ष का पद बड़ा महत्त्वपूर्ण तथा महान् आदर व गौरव का है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य विधानमण्डल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राज्य में संघात्मक सरकार होने के कारण केन्द्र के अतिरिक्त राज्यों में भी कानून बनाने के लिए राज्य विधानमण्डल की व्यवस्था की गई है। कुछ राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं और कुछ राज्यों में एक सदन है। राज्य विधानसभा के निम्न सदन को विधानसभा और ऊपरि सदन को विधानपरिषद् कहते हैं।

प्रश्न 2.
राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए कौन-सी योग्यताओं की आवश्यकता है ?
उत्तर-
राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिएं-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • विधानसभा के लिए 25 वर्ष या इससे अधिक और विधान परिषद् के लिए 30 वर्ष या इससे अधिक आयु हो।
  • वह सरकारी पद पर न हो।
  • उसमें वे सभी योग्यताएं होनी चाहिएं जो विधानमण्डल द्वारा निश्चित की गई हों।

प्रश्न 3.
विधानसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान में विधानसभा के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं की गई बल्कि अधिकतम और न्यूनतम संख्या निर्धारित की गई है। अनुच्छेद 170 (1) के अनुसार विधानसभा के सदस्यों की संख्या 60 से कम और 500 से अधिक नहीं हो सकती। राज्य की विधानसभा की संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। पंजाब की विधानसभा में 117 सदस्य हैं। सबसे अधिक सदस्य उत्तर प्रदेश में हैं जिसकी विधानसभा की निर्वाचित सदस्य संख्या 403 है। विधानसभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं और भारत के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को जिसकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, मत डालने का अधिकार है। अनुसूचित, आदिम व पिछड़ी हुई जातियों के लिए स्थान तो निश्चित हैं, परन्तु उनका निर्वाचन संयुक्त प्रणाली के आधार पर ही होता है।

प्रश्न 4.
विधानसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • उसकी आयु 25 वर्ष या इससे अधिक हो।
  • वह सरकारी पद पर न हो।
  • न्यायालय द्वारा किसी अपराध के कारण अयोग्य घोषित न किया गया हो।
  • उसमें वे सभी योग्यताएं होनी चाहिएं जो समय-समय पर विधानसभा द्वारा निश्चित की गई हों।
  • विधानसभा का चुनाव लड़ने वाले आजाद उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक है कि उसका नाम दस प्रस्तावकों द्वारा प्रस्तावित हो।

प्रश्न 5.
विधानसभा की चार शक्तियों का वर्णन करो।
उत्तर-
विधानसभा की मुख्य शक्तियां अनलिखित हैं-

  1. विधायिनी शक्तियां-विधानसभा को राज्य सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। यदि विधानमण्डल द्वि-सदनीय है तो विधेयक यहां से विधानपरिषद् के पास जाता है।
  2. वित्तीय शक्तियां-राज्य के वित्त पर विधानसभा का ही नियन्त्रण है। धन बिल केवल विधानसभा में ही पेश हो सकते हैं। वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले राज्य का वार्षिक बजट भी इसी के सामने प्रस्तुत किया जाता है। विधानसभा की स्वीकृति के बिना राज्य सरकार कोई टैक्स नहीं लगा सकती और न ही धन खर्च कर सकती है।
  3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण-विधानमण्डल को कार्यकारी शक्तियां मिली हुई हैं। विधानसभा का मन्त्रिपरिषद् पर पूर्ण नियन्त्रण है। मन्त्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। विधानसभा के सदस्य मन्त्रियों की आलोचना कर सकते हैं। प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। विधानसभा चाहे तो मन्त्रिपरिषद् को अविश्वास प्रस्ताव पास करके हटा सकती है।
  4. संवैधानिक कार्य-जिन अनुच्छेदों में संशोधन के लिए आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है, वहां विधानसभा संविधान संशोधन में भाग लेती है।

प्रश्न 6.
विधानपरिषद् की रचना लिखें।
उत्तर-
किसी भी राज्य को विधानपरिषद् के सदस्यों की संख्या 40 से कम और विधानसभा के 1/3 भाग से अधिक नहीं हो सकती। परन्तु जम्मू-कश्मीर की विधानपरिषद् में कुल 36 सदस्य हैं। विधानपरिषद् में कुल सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुने जाते बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में निम्नलिखित तरीके से चुने जाते हैं-

  1. लगभग 1/3 सदस्य स्थानीय संस्थाओं के द्वारा चुने जाते हैं।
  2. लगभग 1/3 सदस्य विधानसभा के सदस्यं द्वारा चुने जाते हैं।
  3. लगभग 1/12 सदस्य राज्य में रहने वाले ऐसे व्यक्तियों द्वारा चुने जाते हैं जो कम-से-कम तीन वर्ष पहले किसी विश्वविद्यालय में स्नातक हों।
  4. लगभग 1/12 सदस्य राज्य की माध्यमिक पाठशालाओं या इससे उच्च शिक्षा संस्थाओं में कम-से-कम तीन वर्ष के अध्यापन-कार्य करने वाले अध्यापकों द्वारा चुने जाते हैं।
  5. शेष लगभग 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से मनोनीत होते हैं जिन्हें विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि के क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या अनुभव प्राप्त हो।

प्रश्न 7.
विधानपरिषद् का सदस्य बनने के लिए कौन-सी योग्यताएं आवश्यक हैं ?
उत्तर-
योग्यताएं (Qualifications)-विधानपरिषद् का सदस्य निर्वाचित या मनोनीत होने के लिए किसी भी व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर आसीन न हो।
  4. वह विधि द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. वह संसद् द्वारा बनाए गए किसी कानून के अनुसार विधानपरिषद् का सदस्य बनने के लिए अयोग्य न हो।
  6. वह दिवालिया न हो, पागल न हो और किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो। यदि निर्वाचित होने के बाद भी उसमें ऐसी कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए या लगातार 60 दिन तक सदन की स्वीकृति के बिना अधिवेशनों में अनुपस्थित रहे तो उसका स्थान रिक्त घोषित किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
विधानपरिषद् की किन्हीं चार उपयोगिताओं का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. विधानसभा को स्वेच्छाचारी बनने से रोकती है तथा शक्ति को सन्तुलित बनाए रखती है।
  2. विधानपरिषद् में विज्ञान, साहित्य तथा कला में प्रसिद्ध व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जिससे राज्य को उनके ज्ञान में लाभ पहुंचता है।
  3. विधानपरिषद् बिल की त्रुटियों को दूर करती है।
  4. विधानपरिषद् बिल के पास होने में आवश्यक देरी करवाता है। इस देरी का लाभ यह होता है कि जनता उसके गुण-दोषों पर विचार कर सकती है।

प्रश्न 9.
विधानपरिषद् की चार शक्तियों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य की विधानपरिषद् को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. विधायिनी शक्तियां-विधानपरिषद में उन सभी विषयों के सम्बन्ध में साधारण बिल पेश किया जा सकता है, जिनका वर्णन राज्य सूची और समवर्ती सूची में किया गया है।
  2. वित्तीय शक्तियां-धन-बिल विधानपरिषद् में पेश नहीं हो सकता। यह बजट और धन बिल पर विचार कर सकती है परन्तु उसे रद्द नहीं कर सकती। विधानपरिषद् धन बिल को अधिक-से-अधिक 14 दिन तक रोकने की शक्ति रखती है।
  3. कार्यपालिका शक्तियां-विधानपरिषद् कार्यपालिका को प्रभावित कर सकती है, परन्तु उस पर नियन्त्रण नहीं रख सकती। विधानपरिषद् के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं और ‘काम रोको’ प्रस्ताव पेश करके मन्त्रिमण्डल की कमियों और भ्रष्टाचार पर प्रकाश डाल सकते हैं तथा उनकी आलोचना कर सकते हैं।
  4. संवैधानिक कार्य-विधानपरिषद् विधानसभा के साथ मिलकर संविधान के संशोधन में भाग लेती है।

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प्रश्न 10.
विधानपरिषद् को किस प्रकार स्थापित अथवा समाप्त किया जा सकता है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 169 के अनुसार राज्य विधानसभा अपने कुल सदस्यों के बहुमत से उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य में विधानपरिषद् की स्थापना या समाप्ति के लिए संसद् में प्रार्थना कर सकती है। संसद् राज्य विधानसभा के प्रस्ताव के आधार पर कानून बना देगी। परन्तु यहां पर यह स्पष्ट नहीं है कि क्या राज्य विधानसभा द्वारा विधानपरिषद् की समाप्ति के प्रस्ताव के अनुसार संसद् के लिए कानून बनाना अनिवार्य है या नहीं। यह समस्या 1970 में उत्पन्न हुई थी। 1970 में बिहार विधानसभा ने विधानपरिषद् को समाप्त करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पास किया, परन्तु संसद् ने इस प्रस्ताव के आधार पर कोई कानून नहीं बनाया। 24 नवम्बर, 1970 को लोकसभा के स्पीकर सरदार गुरदियाल सिंह ढिल्लों ने इस बात के स्पष्टीकरण का आदेश दिया। 8 दिसम्बर, 1970 को कानून मन्त्री के० हनुमंतय्या ने लोकसभा में कहा कि विधानसभा के प्रस्ताव के आधार पर कानून बनाना संसद् की इच्छा पर निर्भर करता है। 7 अप्रैल, 1993 को पंजाब विधानसभा ने पंजाब में दुबारा से विधानपरिषद् की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव द्वारा जब केन्द्र कानून का निर्माण करेगा उस समय पंजाब विधानपरिषद् की पुनः स्थापना हो जाएगी।

प्रश्न 11.
राज्य विधानमण्डल की शक्तियों पर कोई चार सीमाएं बताएं।
उत्तर-
राज्य विधानमण्डल की शक्तियों पर निम्नलिखित सीमाएं हैं-

  1. राज्य विधानमण्डल एक ऐसी संस्था है जिसके पास पूर्ण अधिकार नहीं है क्योंकि ये संविधान में संशोधन नहीं कर सकते।
  2. कई ऐसे बिल भी हैं जो राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना विधानमण्डल में पेश नहीं किए जा सकते। उदाहरणस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने के विषय में बिल, व्यापार और वाणिज्य पर प्रतिबन्ध लागने वाले बिल आदि।
  3. विधानमण्डलों द्वारा पास किए कुछ बिलों को राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए रख सकता है। राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना ये बिल पास नहीं हो सकते।
  4. संसद् राज्य सूची में लिखित विषयों के बारे में कानून बना सकती है। यह तभी होता है जब राज्यसभा इस उद्देश्य का प्रस्ताव पास कर दे कि अमुक विषय राष्ट्रीय महत्त्व का विषय बन गया है।

प्रश्न 12.
विधानसभा के स्पीकर का चुनाव तथा कार्यकाल लिखें।
उत्तर-
चुनाव-स्पीकर का चुनाव विधानसभा के सदस्यों के द्वारा अपने में से ही किया जाता है। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति स्पीकर चुना जा सकता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

कार्यकाल-स्पीकर की अवधि 5 वर्ष है। यदि विधानसभा को भंग कर दिया जाए तो स्पीकर अपने पद का त्याग नहीं करता। जून, 1986 में अकाली दल के सुरजीत सिंह मिन्हास पंजाब विधानसभा के स्पीकर चुने गए। अगस्त, 1987 में पंजाब की विधानसभा के भंग होने के बाद भी श्री मिन्हास फरवरी, 1992 तक स्पीकर पद पर बने रहे। स्पीकर को 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी हटाया जा सकता है और स्पीकर स्वयं भी त्याग-पत्र दे सकता है। परन्तु स्पीकर के हटाए जाने का प्रस्ताव विधानसभा में उसी समय पेश हो सकता है जबकि कम-से-कम 14 दिन पहले इस आशय की एक पूर्व सूचना उसे दी जा चुकी हो। हटाए जाने का प्रस्ताव के कारण स्पष्ट होने चाहिएं। यदि नहीं तो प्रस्ताव पेश करने की आज्ञा नहीं भी दी जा सकती। मार्च, 1984 में हरियाणा विधानसभा के स्पीकर तारा सिंह के विरुद्ध भारतीय जनता पार्टी, लोक दल तथा जनता पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया परन्तु पास न हो सका। 20 जून, 1995 को उत्तर प्रदेश विधानसभा के स्पीकर धनी राम वर्मा के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उन्हें उनके पद से हटा दिया गया।

प्रश्न 13.
विधानसभा और विधानपरिषद् का कार्यकाल बताओ।
उत्तर-
विधानसभा का कार्यकाल-विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष है। इसके सभी सदस्यों का चुनाव एक साथ होता है। राज्यपाल 5 वर्ष से पहले जब चाहे विधानसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। राज्यपाल प्रायः मुख्यमन्त्री की सलाह से विधानसभा को भंग करता है। संकटकाल के समय विधानसभा की अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है। यह अवधि एक समय में एक वर्ष के लिए और संकटकाल की स्थिति के समाप्त होने के बाद अधिक-से-अधिक 6 महीने तक बढ़ाई जा सकती है। अवधि बढ़ाने का अधिकार संसद् को है।

विधानपरिषद् का कार्यकाल-विधानपरिषद् एक स्थायी सदन है जिसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। परन्तु सभी सदस्य एक साथ नहीं चुने जाते। इसके एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष के पश्चात् अवकाश ग्रहण करते हैं, परन्तु अवकाश ग्रहण करने वाले सदस्य दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं। राज्यपाल विधानपरिषद् को भंग नहीं कर सकता है।

प्रश्न 14.
विधानसभा के स्पीकर की किन्हीं चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
विधानसभा के स्पीकर के पास निम्नलिखित शक्तियां होती हैं-

  1. स्पीकर सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखता है।
  2. स्पीकर सभा की कार्यवाही के नियमों की व्याख्या करता है।
  3. स्पीकर वाद-विवाद वाले बिलों पर मतदान करवा कर परिणाम घोषित करता है।
  4. जब किसी विषय के पक्ष और विपक्ष में वोट समान हों तो स्पीकर को निर्णायक मत डालने का अधिकार है।

प्रश्न 15.
राज्य में विधानपरिषद् को समाप्त करने के पक्ष में चार तर्क दीजिए।
उत्तर-

  1. विधानपरिषद् के कारण दोनों सदनों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है।
  2. विधानपरिषद् से खर्चा बढ़ता है जिससे ग़रीब जनता पर बोझ पड़ता है।
  3. दूसरे सदन में प्रायः उन राजनीतिज्ञों को स्थान दिया जाता है जो विधानसभा का चुनाव हार जाते हैं।
  4. विशेष हितों तथा अल्पसंख्यकों को पहले सदन में ही प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य विधानमण्डल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राज्य में संघात्मक सरकार होने के कारण केन्द्र के अतिरिक्त राज्यों में भी कानून बनाने के लिए राज्य विधानमण्डल की व्यवस्था की गई है। कुछ राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं और कुछ राज्यों में एक सदन है। राज्य विधानसभा के निम्न सदन को विधानसभा और ऊपरि सदन को विधानपरिषद् कहते हैं।

प्रश्न 2.
राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए कौन-सी योग्यताओं की आवश्यकता है ?
उत्तर-
राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिएं(1) वह भारत का नागरिक हो। (2) विधानसभा के लिए 25 वर्ष या इससे अधिक और विधान परिषद् के लिए 30 वर्ष या इससे अधिक आयु हो।

प्रश्न 3.
विधानसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान में विधानसभा के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं की गई बल्कि अधिकतम और न्यूनतम संख्या निर्धारित की गई है। अनुच्छेद 170 (1) के अनुसार विधानसभा के सदस्यों की संख्या 60 से कम और 500 से अधिक नहीं हो सकती। राज्य की विधानसभा की संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। पंजाब की विधानसभा में 117 सदस्य हैं।

प्रश्न 4.
विधानसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 25 वर्ष या इससे अधिक हो।

प्रश्न 5.
विधानसभा की दो शक्तियों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1.  विधायिनी शक्तियां-विधानसभा को राज्य सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार हैं। यदि विधानमण्डल द्वि-सदनीय है तो विधेयक यहां से विधानपरिषद् के पास जाता है।
  2. वित्तीय शक्तियां- राज्य के वित्त पर विधानसभा का ही नियन्त्रण है। धन बिल केवल विधानसभा में ही पेश हो सकते हैं। वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले राज्य का वार्षिक बजट भी इसी के सामने प्रस्तुत किया जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 31 राज्य विधानमण्डल

प्रश्न 6.
विधानपरिषद् की रचना लिखें।
उत्तर-
किसी भी राज्य को विधानपरिषद् के सदस्यों की संख्या 40 से कम और विधानसभा के 1/3 भाग से अधिक नहीं हो सकती। परन्तु जम्मू-कश्मीर की विधानपरिषद् में कुल 36 सदस्य हैं। विधानपरिषद् में कुल सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुने जाते बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।

प्रश्न 7.
विधानपरिषद् की दो शक्तियों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य की विधानपरिषद् को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. विधायिनी शक्तियां-विधानपरिषद् में उन सभी विषयों के सम्बन्ध में साधारण बिल पेश किया जा सकता है, जिनका वर्णन राज्य सूची और समवर्ती सूची में किया गया है।
  2. वित्तीय शक्तियां-धन-बिल विधानपरिषद् में पेश नहीं हो सकता। यह बजट और धन बिल पर विचार कर सकती है परन्तु उसे रद्द नहीं कर सकती। विधानपरिषद् धन बिल को अधिक-से-अधिक 14 दिन तक रोकने की शक्ति रखती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. पंजाब में कितने सदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था की गई है ?
उत्तर-एक सदनीय।

प्रश्न 2. पंजाब में विधानमण्डल के कितने सदस्य हैं ?
उत्तर-117 सदस्य।

प्रश्न 3. राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए कितनी आयु होनी चाहिए ?
उत्तर-25 वर्ष।

प्रश्न 4. विधानमण्डल का कोई एक कार्य बताएं।
उत्तर-विधानमण्डल बजट पास करती है।

प्रश्न 5. विधानसभा का सदस्य बनने के लिए कोई एक योग्यता बताएं।
उत्तर-वह भारत का नागरिक हो।

प्रश्न 6. राज्य विधानसभा की कोई एक शक्ति बताएं।
उत्तर-विधानसभा विधानपरिषद् के साथ मिलकर और जहां केवल एक सदन है, वहां विधानसभा अकेले कानून बनाती है।

प्रश्न 7. भारत में उन चार राज्यों के नाम लिखें जहां विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं।
उत्तर-बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश तथा कर्नाटक में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं।

प्रश्न 8. किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखें जहां विधानमण्डल का एक सदन पाया जाता है ?
उत्तर-हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश मध्य प्रदेश इत्यादि में विधानमण्डल का एक सदन (विधानसभा) ही पाया ‘जाता है।

प्रश्न 9. विधानपरिषद् के सदस्यों की कोई एक योग्यता बताएं।
उत्तर-वह भारत का नागरिक हो।।

प्रश्न 10. विधानसभा की अवधि कब बढ़ाई जा सकती है ?
उत्तर-विधानसभा की अवधि 5 वर्ष है, परन्तु संकट के समय में इसकी अवधि को बढ़ाया जा सकता है। यह अवधि एक समय में एक वर्ष के लिए और संकटकाल की स्थिति समाप्त होने के बाद अधिक-से-अधिक 6 महीने तक बढ़ाई जा सकती है।

प्रश्न 11. क्या विधानसभा को अवधि से पूर्व भी भंग किया जा सकता है ?
उत्तर-विधानसभा को 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी भंग किया जा सकता है।

प्रश्न 12. राज्य विधानसभा के सदस्यों का चुनाव कैसे होता है ?
उत्तर-विधानसभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं और भारत के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को जिसकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, मत डालने का अधिकार है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. विधानसभा को ………. तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने के लिए बिल पास करने का अधिकार है।
2. विधानसभा के ……….. सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार है।
3. विधानसभा के सदस्य विधानपरिषद् में ……… सदस्यों को चुनते हैं।
4. उत्तर प्रदेश में ……………. विधानमण्डल पाया जाता है। 5. विधानपरिषद धन बिल को अधिक-से-अधिक ……… दिनों तक रोक सकती है।
उत्तर-

  1. राज्यसूची
  2. निर्वाचित
  3. 1/3
  4. द्वि-सदनीय
  5. 14.

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. स्पीकर विधानसभा के नेता से सलाह करके विधानसभा का कार्यक्रम निर्धारित करता है।
2. धन बिल के सम्बन्ध में विधानसभा एवं विधानपरिषद की शक्तियां समान हैं।
3. विधानसभा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है।
4. 30 वर्ष का व्यक्ति ही विधानपरिषद का सदस्य बन सकता है।
5. विधानसभा के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
निम्न में से किस राज्य के विधानसभा के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक है?
(क) हरियाणा
(ख) पंजाब
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) उत्तर-प्रदेश।
उत्तर-
(घ) उत्तर-प्रदेश।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 31 राज्य विधानमण्डल

प्रश्न 2.
विधानसभा को शक्तियां प्राप्त हैं-
(क) विधायिनी शक्तियां
(ख) वित्तीय शक्तियां
(ग) कार्यपालिका शक्तियां
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
विधानपरिषद का सदस्य बनने के लिए क्या होना चाहिए-
(क) वह भारत का नागरिक हो।
(ख) उसकी आयु 30 वर्ष होनी चाहिए।
(ग) वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर असीन न हो।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
विधानसभा के स्पीकर का चुनाव कौन करता है ?
(क) राज्यपाल
(ख) मुख्यमंत्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) विधानसभा के सदस्य।
उत्तर-
(घ) विधानसभा के सदस्य।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियक्ति, शक्तियों तथा स्थिति का वर्णन करें।
(Explain the appointment, powers and position of the Governor of a state.)
अथवा
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है ? (How is the Governor of a State appointed ?)
अथवा
राज्यपाल की वास्तविक स्थिति की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain briefly the actual position of a State Governor.)
अथवा
आपके राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है ? उसकी शक्तियों और स्थिति का वर्णन करें।
(How is the Governor of a State appointed ? Discuss his powers and position.)
उत्तर-
भारत में संघीय प्रणाली की व्यवस्था होने के कारण राज्यों की अलग-अलग सरकारें हैं। राज्य की सरकारों का संगठन बहुत कुछ संघीय सरकार से मिलता-जुलता है। संविधान के अनुच्छेद 153 में अंकित है कि “प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा और एक ही व्यक्ति दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल हो सकता है।” राज्य का शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है जो राज्य का अध्यक्ष है, परन्तु राज्यों में भी केन्द्र की तरह संसदीय शासन-व्यवस्था होने के कारण राज्यपाल नाममात्र का तथा संवैधानिक अध्यक्ष है। राज्य का मन्त्रिमण्डल ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है और राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करता है। राज्यपाल की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है जैसी कि केन्द्र में राष्ट्रपति की। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 160 राज्यपाल की नियुक्ति तथा कार्यो का वर्णन किया गया है।

राज्यपाल की नियुक्ति (Appointment)-प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है तथा वह राष्ट्रपति की कृपा दृष्टि (During the pleasure of the President) तक ही अपने पद पर रह सकता है। व्यवहार में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है। 18 अगस्त, 2016 को श्री वी० पी० सिंह बदनौर (Sh. V.P. Singh Badnore) को पंजाब का राज्यपाल नियुक्त किया गया।

राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रथाएं स्थापित की गई हैं, जिनमें मुख्य निम्न प्रकार की हैं-

  • प्रथम परम्परा तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को किसी राज्य में राज्यपाल नियुक्त किया जाता है जो उस राज्य का निवासी न हो।
  • दूसरे राष्ट्रपति किसी राज्यपाल को नियुक्त करने से पहले उस राज्य के मुख्यमन्त्री से भी इस बात का परामर्श लेता है।

योग्यताएं (Qualifications)-अनुच्छेद 157 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  • वह किसी राज्य में विधानमण्डल अथवा संसद् का सदस्य न हो तथा यदि हो, तो राज्यपाल का पद ग्रहण करने के समय उसका सदन वाला स्थान रिक्त समझा जाएगा।
  • राज्यपाल अपने पद पर नियुक्त होने के बाद किसी अन्य लाभदायक पद पर नहीं रह सकता।
  • वह किसी न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित न किया गया हो।

वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances)-राज्यपाल के वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाओं को निश्चित करने का अधिकार संसद् को दिया गया है, परन्तु राज्यपाल की नियुक्ति के बाद उसके वेतन तथा अन्य सुविधाओं में उसके कार्यकाल में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे उसकी हानि हो। प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को 3,50,000 रु० मासिक, नि:शुल्क सरकारी कोठी तथा कुछ भत्ते भी मिलते हैं। भत्तों की राशि समस्त राज्यों में एक जैसी नहीं है। राज्य के वातावरण तथा आवश्यकताओं के अनुसार भत्ते अधिक तथा कम दिये जाते हैं।

कार्यकाल (Term) साधारणतया राज्यपाल को 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक उसे राष्ट्रपति चाहे। राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है। 27 अक्तूबर, 1980 को राष्ट्रपति ने तामिलनाडु के राज्यपाल प्रभुदास पटवारी को बर्खास्त किया। जनवरी, 1990 में राष्ट्रपति वेंकटरमण ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार की सलाह पर सभी राज्यपालों को त्याग-पत्र देने को कहा। अधिकतर राज्यपालों ने तुरन्त अपने त्याग-पत्र भेज दिए। राज्यपाल चाहे तो स्वयं भी 5 वर्ष से पूर्व त्याग-पत्र दे सकता है। 22 जून, 1991 को पंजाब के राज्यपाल जनरल ओ० पी० मल्होत्रा (O.P. Malhotra) ने पंजाब में चुनाव स्थगित किए जाने के विरोध में त्याग-पत्र दे दिया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

न्यायिक सुविधाएं (Immunities)-राज्यपाल को संविधान द्वारा कुछ न्यायिक सुविधाएं भी मिली हुई हैं-

  • उसको अपने पद की शक्तियों के प्रयोग तथा कर्तव्यों का पालन करने के लिए किसी भी न्यायालय के सम्मुख उत्तरदायी नहीं होना पड़ता।
  • उसके कार्यकाल में उसके विरुद्ध कोई फौजदारी अभियोग नहीं चलाया जा सकता।
  • अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय को उसे नजरबन्द करने की आज्ञा जारी करने का अधिकार नहीं है।
  • यदि किसी ने राज्यपाल के विरुद्ध दीवानी मुकद्दमा करना हो तो दो मास का नोटिस देना ज़रूरी है।

राज्यपाल का स्थानान्तरण (Transfer of Governor)-राष्ट्रपति जब चाहे किसी राज्य के राज्यपाल को दूसरे राज्य में स्थानान्तरण कर सकता है। उदाहरणस्वरूप 13 सितम्बर, 1977 को हरियाणा के राज्यपाल जय सुखलाल हाथी को पंजाब का राज्यपाल नियुक्त किया गया और उड़ीसा के राज्यपाल हरचरण सिंह बराड़ को हरियाणा का राज्यपाल नियुक्त किया गया। 8 अक्तूबर, 1983 को पश्चिमी बंगाल के राज्यपाल भैरव दत्त पांडे को पंजाब का राज्यपाल व पंजाब के राज्यपाल ए० पी० शर्मा को पश्चिमी बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया।

राज्यपाल की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Governor) –
राज्यपाल को लगभग वही शक्तियां तथा कार्य प्राप्त हैं जो केन्द्र में राष्ट्रपति को प्राप्त हैं। डी० डी० वसु (D.D. Basu) के शब्दों में, “राष्ट्रपति की आपात्कालीन शक्तियों और कूटनीतिक व सैनिक शक्तियों को छोड़ कर राज्यप्रशासन में शेष शक्तियां राष्ट्रपति की भांति राज्यपाल को भी प्राप्त हैं।”

राज्यपाल की शक्तियां तथा कार्य निम्नलिखित हैं-

(क) कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers)-संविधान के अनुच्छेद 154 के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियां राज्यपाल में निहित की गई हैं जिनका प्रयोग या तो स्वयं प्रत्यक्ष रूप से करता है या अपने अधीन कार्यपालिका द्वारा करता है। राज्यपाल को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं

  • राज्य का समस्त शासन गवर्नर के नाम से चलाया जाता है।
  • राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  • मन्त्री अपने पद पर राज्यपाल की कृपा-पर्यन्त रहते हैं। राज्यपाल भी मन्त्री को मुख्यमन्त्री की सलाह से हटा सकता है।
  • वह शासन के कार्य को सुविधापूर्वक चलाने के लिए तथा उस कार्य को मन्त्रियों में बांटने के लिए नियम बनाता है।
  • वह राज्य के महाधिवक्ता (Advocate General) और राज्य लोकसेवा आयोग के सभापति तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। राज्यों में बड़े-बड़े पदाधिकारियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा ही की जाती है।
  • राष्ट्रपति उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राज्यपाल की सलाह लेता है।
  • राज्यपाल मन्त्री के किसी निर्णय को मन्त्रिपरिषद् के पास विचार करने के लिए वापिस भेज सकता है।
  • वह प्रशासन के बारे में मुख्यमन्त्री से कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
  • असम के राज्यपाल को यह अधिकार दिया गया है कि वह अनुसूचित कबीलों का ध्यान रखे।
  • राज्यपाल जब यह अनुभव करे कि राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी है कि राज्य प्रशासन लोकतन्त्रात्मक परम्पराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तब वह राष्ट्रपति को इस सम्बन्ध में रिपोर्ट भेजता है और राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक संकट की घोषणा पर वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का शासन चलाता है।

(ख) विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)–राज्यपाल विधानमण्डल का सदस्य नहीं, फिर भी कानूननिर्माण में उसका महत्त्वपूर्ण हाथ है और इसलिए उसे विधानमण्डल का एक अंग माना जाता है। उसे निम्नलिखित विधायिनी शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता है।
  2. वह विधानमण्डल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है तथा उनको सन्देश भेज सकता है।
  3. वह विधानमण्डल के निम्न सदन विधानसभा को जब चाहे, भंग कर सकता है। अपने इस अधिकार का प्रयोग वह साधारणतया मुख्यमन्त्री के परामर्श पर ही करता है।
  4. प्रत्येक वर्ष विधानमण्डल का अधिवेशन राज्यपाल के भाषण से प्रारम्भ होता है जिसमें राज्य की नीति का वर्णन होता है।
  5. यदि राज्य विधानमण्डल में ऐंग्लो-इण्डियन जाति को उचित प्रतिनिधित्व न मिले, तो राज्यपाल उस जाति के एक सदस्य को विधानसभा में मनोनीत करता है।
  6. राज्य विधानमण्डल द्वारा पास हुआ बिल उतनी देर तक कानून नहीं बन सकता जब तक राज्यपाल अपनी स्वीकृति न दे दे। धन बिलों को राज्यपाल स्वीकृति देने से इन्कार नहीं कर सकता परन्तु साधारण बिलों को पुनर्विचार करने के लिए वापस भेज सकता है। यदि विधानमण्डल साधारण बिल दोबारा पास कर दे तो राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है। राज्यपाल कुछ बिलों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।
  7. वह राज्य विधानमण्डल के उपरि सदन (विधानपरिषद्) के 1/6 सदस्यों को मनोनीत करता है। राज्यपाल ऐसे व्यक्तियों को मनोनीत करता है जिन्होंने विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की हो।
  8. राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का भी अधिकार प्राप्त है। अध्यादेश को उसी प्रकार लागू किया जाता है जिस प्रकार विधानमण्डल के बनाए हुए कानून को, परन्तु यह अध्यादेश विधानमण्डल की बैठक आरम्भ होने के 6 सप्ताह के पश्चात् लागू नहीं रह सकता। यदि विधानमण्डल इस समय से पूर्व ही इसको समाप्त करने का प्रस्ताव पास कर दे, तो ऐसे अध्यादेशों का प्रभाव तुरन्त समाप्त हो जाता है। राज्यपाल स्वयं भी अध्यादेश वापस ले सकता है।
  9. राज्यपाल विधानपरिषद् के सभापति तथा उप-राष्ट्रपति के पद रिक्त होने पर किसी भी सदस्य को विधानपरिषद् की अध्यक्षता करने को कह सकता है।

(ग) वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्यपाल को निम्नलिखित वित्तीय शक्तियां प्राप्त हैं-

  • राज्यपाल की सिफ़ारिश के बिना कोई धन-बिल विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता।
  • राज्यपाल वित्त मन्त्री द्वारा वार्षिक बजट विधानसभा में पेश करवाता है। कोई भी अनुदान की मांग (Demand for Grant) बजट में बिना राज्यपाल की आज्ञा के प्रस्तुत नहीं हो सकती।
  • राज्य की आकस्मिक निधि (Contingency Fund of the State) पर राज्यपाल का ही नियन्त्रण है। यदि संकट के समय आवश्यकता पड़े, तो राज्यपाल इसमें से आवश्यकतानुसार व्यय कर लेता है तथा उसके पश्चात् विधानमण्डल से उस व्यय की स्वीकृति ले लेता है।

(घ) न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राज्यपाल को निम्नलिखित न्यायिक शक्तियां प्राप्त हैं

  • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति राज्यपाल की सलाह लेता है।
  • जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति और पदोन्नति राज्यपाल ही करता है।
  • राज्यपाल उस अपराधी के दण्ड को क्षमा कर सकता है, घटा सकता है तथा कुछ समय के लिए स्थगित कर सकता है, जिसे राज्य से कानून के विरुद्ध अपराध करने पर दण्ड मिला हो।
  • राज्यपाल यह भी देखता है कि किसी न्यायालय के पास अधिक कार्य तो नहीं है। यदि हो, तो वह आवश्यकतानुसार अधिक न्यायाधीशों को नियुक्त कर सकता है।

(ङ) स्वैच्छिक अधिकार (Discretionary Powers)-राज्यपाल को कुछ स्वविवेकी शक्तियां भी प्राप्त हैं। स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग राज्यपाल अपनी इच्छा से करता है न कि मन्त्रिमण्डल के परामर्श से। राज्यपाल की मुख्य स्वविवेकी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में यदि राष्ट्रपति ने राज्यपाल के समीप संघीय क्षेत्र (Union Territory) का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया है तो उस क्षेत्र का प्रशासन स्वविवेक से चलाता है।
  • असम में आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में- असम राज्य के राज्यपाल को आदिम जातियों के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है।
  • सिक्किम के राज्यपाल के विशेष उत्तरदायित्व-सिक्किम राज्य में शान्ति बनाए रखने के लिए तथा सिक्किम को जनसंख्या के सब वर्गों के सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए सिक्किम के राज्यपाल को विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है।
  • राज्य में संवैधानिक संकट होने पर-प्रत्येक राज्यपाल अपने राज्य में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को करता है जिस पर वह संकटकाल की घोषणा करता है। इस दशा में मन्त्रिपरिषद् को भंग कर दिया जाता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।
  • राज्यपाल अपने राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होता है।

राज्यपाल की स्थिति (Position of the Governor) – राज्यपाल एक संवैधानिक मुखिया के रूप में राज्य में राज्यपाल की स्थिति लगभग वही है जो कि संघीय सरकार में राष्ट्रपति की है। संविधान के दृष्टिकोण से सरकार की समस्त शक्तियां राज्यपाल में निहित हैं तथा मन्त्रिपरिषद् का कार्य उसको शासन में सहायता तथा परामर्श देना है। वह एक संवैधानिक शासक है तथा राज्य का सम्पूर्ण कार्य उसके नाम पर चलाया जाता है। राज्यपाल को जितनी भी शक्तियां प्राप्त हैं, उनका प्रयोग वह राज्य की मन्त्रिपरिषद् द्वारा करता है। हमारे संविधान में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि राज्यपाल के मन्त्रिपरिषद् के परामर्श को स्वीकार करना आवश्यक है अथवा नहीं, परन्तु देश तथा राज्यों में संसदीय प्रकार की सरकार स्थापित होने के कारण राज्यपाल को मन्त्रिपरिषद् की सम्मति से राज्य का प्रबन्ध चलाना पड़ता है। वास्तव में राज्यपाल की स्थिति एक संवैधानिक प्रमुख अथवा नाम मात्र प्रशासक की भान्ति है तथा राज्य की वास्तविक शक्ति मन्त्रिपरिषद् के पास है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

राज्यपाल केवल एक संवैधानिक मुखिया नहीं बल्कि वह एक प्रभावशाली अधिकारी है।
राज्यपाल के संवैधानिक प्रमुख होने का यह अर्थ नहीं कि उसका पद बिल्कुल ही प्रभावहीन है। चाहे उसकी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् ही करती है फिर भी राज्यपाल शासन का महत्त्वपूर्ण अधिकारी होता है। वह राष्ट्रपति का प्रतिनिधि तथा राज्य में केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि है। वह केन्द्रीय सरकार को अपने राज्यों के विषयों के सम्बन्ध में सूचित करता है। वह मन्त्रिपरिषद् को परामर्श देने, चेतावनी देने तथा उत्साह देने का अधिकार रखता है। वर्तमान संविधान के अधीन कुछ ऐसी परिस्थितियां भी हैं जिनके अनुसार राज्यपाल अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है, जो कि इस प्रकार हैं-

  • जब राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा करता है तो राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि बन जाता है। उसको राष्ट्रपति की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता है।
  • जब राज्यपाल राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट भेजता है कि राज्य-कार्य संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा रहा, तो राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल हो जाने के कारण राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि (Agent) की स्थिति में राज्य सरकार के वास्तविक शासक (Real Ruler) के रूप में कार्य करता है। जब राज्यपाल राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट भेजता है तब वह किसी दल का पक्ष भी ले सकता है।
  • जब विधानसभा के चुनाव में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता तब राज्यपाल अपनी इच्छा से मुख्यमन्त्री को नियुक्त करता है।
  • मन्त्रिपरिषद् को भंग करते समय राज्यपाल अपनी इच्छा का प्रयोग कर सकता है। 1967 के चुनाव के बाद पश्चिमी बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने अजय मुखर्जी के मन्त्रिमण्डल को भंग कर दिया और विधानसभा का अधिवेशन बुला कर यह तक नहीं देखा कि उनको विधानसभा में बहुमत प्राप्त है या नहीं।
  • विधानसभा का विघटन (Dissolution) करते समय जब तक बहुतम दल का नेता विधानसभा को भंग करने की सलाह राज्यपाल को देता है तब तो राज्यपाल को वह सलाह माननी पड़ती है, परन्तु इस सम्बन्ध में राज्यपाल को स्वविवेक का प्रयोग करने का अवसर तब प्राप्त होता है जबकि दल-बदल के कारण या अन्य किसी कारण से सरकार अल्पमत में रह गई हो।
  • राज्यपाल मुख्यमन्त्री से प्रशासन सम्बन्धी तथा वैधानिक कार्यों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
  • विधानमण्डल द्वारा पास किए बिल को अस्वीकार करते समय अथवा उसको विधानमण्डल के पुनर्विचार के लिए भेजते समय।
  • राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए बिल को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजते समय।
  • इसके अतिरिक्त असम के राज्यपाल को कुछ अधिक स्वैच्छिक (Discretionary) अधिकार प्राप्त हैं। उसको कुछ विशेष कबीलों तथा क्षेत्रों के राज्य-प्रबन्ध के लिए अपनी स्वेच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता है।

पायली ने ठीक ही कहा है कि, “राज्यपाल न तो नाममात्र का अध्यक्ष है, न ही रबड़ की मोहर है बल्कि एक ऐसा अधिकारी है जो राज्य के प्रशासन और जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला है।” राज्यपाल के कर्त्तव्यों के विषय में स्वर्गीय राष्ट्रपति श्री वी० वी० गिरि के शब्दों में, “राज्यपालों को संविधान के उपबन्धों, अपनी श्रेष्ठ बुद्धि और योग्यता के अनुसार जनता के हितों के लिए काम करना चाहिए।”

प्रश्न 2.
मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस तरह होता है ? मन्त्रिपरिषद् की शक्तियों का वर्णन करें।
(How is the Council of Ministers formed ? Explain its powers.)
उत्तर-
हमारे संविधान में केन्द्र तथा प्रान्तों में संसदीय शासन-व्यवस्था का प्रबन्ध किया गया है। अनुच्छेद 163 में लिखा हुआ है कि राज्यपाल की सहायता तथा उसको परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका मुखिया मुख्यमन्त्री होगा। राज्यपाल के कुछ अधिकारों को छोड़ कर शेष सभी अधिकारों का प्रयोग करने का अधिकार मन्त्रिपरिषद् को ही है। अतः केन्द्र की तरह प्रान्तों को शासन वास्तव में मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही चलाया जा सकता है।

मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)–मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिए सबसे पहला महत्त्वपूर्ण पग मुख्यमन्त्री की नियुक्ति है। राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के अध्यक्ष मुख्यमन्त्री को सर्वप्रथम नियुक्त करता है, परन्तु राज्यपाल उसे अपनी इच्छा से नियुक्त नहीं कर सकता। जिस दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री की सलाह से राज्यपाल अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रियों के लिए विधानमण्डल के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य होना अनिवार्य है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त किया जाए जो किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसको 6 महीने के के अन्दर-अन्दर विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य बनना पड़ता है। दिसम्बर, 2003 में पारित 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि राज्य मन्त्रिपरिषद का आकार विधानपालिका के निचले सदन (विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या का 15% होगा। मार्च, 2017 में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपने 9 सदस्यीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया।
विभागों का वितरण (Distribution of Portfolios)—संविधान के अनुसार मन्त्रियों में विभागों का विभाजन करने का उत्तरदायित्व राज्यपाल का है, परन्तु वास्तव में यह कार्य मुख्यमन्त्री द्वारा किया जाता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे अपने मन्त्रियों के विभागों को बदल सकता है।

कार्यकाल (Term of Office) मन्त्रिपरिषद् का कार्यकाल निश्चित नहीं है। वह अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है अर्थात् मन्त्रिपरिषद् उसी समय तक अपने पद पर रह सकती है जब तक कि उसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त हो।

मन्त्रिपरिषद् की शक्तियां और कार्य (Powers and Functions of the Council of Ministers) राज्य की मन्त्रिपरिषद् की शक्तियां और कार्य भी संघीय मन्त्रिपरिषद् के कार्यों से मिलते-जुलते हैं। इसकी शक्तियों और कार्यों का उल्लेख निम्नलिखित कई श्रेणियों में किया जा सकता है-

  • नीति का निर्धारण (Determination of Policy)-मन्त्रिपरिषद् का मुख्य कार्य प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करना है। मन्त्रिपरिषद् राज्य की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं का हल निकालती है। नीतियां बनाते समय मन्त्रिपरिषद् अपने दल के कार्यक्रम व नीतियों को ध्यान में रखती है। मन्त्रिपरिषद् केवल नीति का निर्णय नहीं करती बल्कि उसे विधानमण्डल की स्वीकृति के लिए भी प्रस्तुत करती है।
  • प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over Administration)—शासन को अच्छी प्रकार चलाने के लिए कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है। विभाग में मन्त्री के अधीन कई सरकारी कर्मचारी होते हैं जो उसकी आज्ञानुसार कार्य करते हैं। मन्त्री को अपने विभाग का शासन मन्त्रिपरिषद् की निश्चित नीति के अनुसार चलाना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन चलाने के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है।
  • कानून को लागू करना तथा व्यवस्था को बनाए रखना (Enforcement of Law and Maintenance of Order)-राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानून को लागू करना मन्त्रिपरिषद् की ज़िम्मेवारी है। कानून का तब तक कोई महत्त्व नहीं है जब तक उसे लागू न किया जाए और कानूनों को सख्ती से अथवा नर्मी से लागू करना मन्त्रिपरिषद् पर निर्भर करता है। राज्य के अन्दर शान्ति को बनाए रखना मन्त्रिपरिषद् का कार्य है।
  • नियुक्तियां (Appointments)-राज्य की सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राज्यपाल मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है। वास्तव में नियुक्तियों के सम्बन्ध में सभी निर्णय मन्त्रिमण्डल के द्वारा लिए जाते हैं और राज्यपाल उन सभी निर्णयों के अनुसार नियुक्तियां करता है। इन नियुक्तियों में एडवोकेट जनरल, राज्य के लोक-सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य, राज्य में विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों के पद इत्यादि सम्मिलित हैं।
  • विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-राज्य के कानून निर्माण में मन्त्रिपरिषद् का मुख्य हाथ होता है। मन्त्रिपरिषद के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं। ये विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं तथा वोट डालते हैं। सभी महत्त्वपूर्ण बिल मन्त्रिपरिषद् द्वारा तैयार किये जाते हैं और किसी-न-किसी मन्त्री द्वारा विधानमण्डल में पेश किए जाते हैं। मन्त्रिपरिषद् को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है, जिस कारण इसके द्वारा पेश किए गए सभी बिल पास हो जाते हैं। मन्त्रिपरिषद् की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं हो सकता।
  • वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्य का बजट मन्त्रिमण्डल द्वारा ही तैयार किया जाता है। मन्त्रिपरिषद् ही इस बात का निर्णय करती है कि कौन से नए कर लगाए जाएं और किस कर में कमी या बढ़ौतरी की जाए। बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण यह अपनी इच्छानुसार उन्हें पास करवा लेती है।
  • विभागों में तालमेल (Coordination among the Departments)-मन्त्रिपरिषद् का कार्य राज्य का प्रशासन ठीक प्रकार से चलाना है तथा मन्त्रिमण्डल का मुख्य कार्य भिन्न-भिन्न विभागों में तालमेल उत्पन्न करना है ताकि राज्य का प्रशासन-प्रबन्ध अच्छी तरह से चलाया जा सके। विभिन्न विभागों के मतभेदों को दूर करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है।

मन्त्रिपरिषद् की स्थिति (Position of the Council of Ministers)—निःसन्देह मन्त्रिपरिषद् ही राज्य की वास्तविक शासक है। राज्य के कानून बनवाने, उन्हें लागू करने तथा शासन करने में उसकी इच्छा ही प्रधान रहती है। मन्त्रिपरिषद् को वास्तविक स्थिति कुछ कारकों पर निर्भर है-(क) यदि मन्त्रिपरिषद् केवल एक दल से ही सम्बन्धित है और उस दल को विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त है तथा इसके साथ-साथ दलीय अनुशासन दृढ़ होने के नाते दलबदली की सम्भावना कम है तो मन्त्रिपरिषद् वास्तविक शासक होती है। (ख) यदि मन्त्रिपरिषद् मिली-जुली (Coalition) हो तो यह इतनी सुदृढ़ और शक्तिशाली नहीं होती (ग) धारा 356 के अन्तर्गत संकटकालीन घोषणा के दौरान तो मन्त्रिपरिषद् होती ही नहीं।

प्रश्न 3.
भारतीय संघ के राज्यों में नाममात्र कार्यपालिका तथा वास्तविक कार्यपालिका कौन होता है ? वास्तविक कार्यपालिका की शक्तियों की व्याख्या करे।
(Who is the Nominal Executive and Real Executive in the States of the Indian Union ? Explain the powers and position of the Real Executive.)
उत्तर-
भारतीय संघ के राज्यों में केन्द्र की तरह संसदीय प्रणाली की व्यवस्था की गई है। जिस तरह केन्द्र में राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका है, उसी तरह राज्यों में राज्यपाल नाममात्र की कार्यपालिका है। राज्य का शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है जो राज्य का अध्यक्ष परन्तु राज्यपाल नाममात्र का तथा संवैधानिक अध्यक्ष है। राज्य का मन्त्रिमण्डल ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका है और राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग करता है। केन्द्र की तरह राज्यों का शासन वास्तव में मन्त्रिपरिषद् द्वारा चलाया जाता है।
वास्तविक कार्यपालिका की शक्तियां एवं स्थिति-इसके लिए पिछला प्रश्न देखिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 4.
मुख्यमन्त्री को कौन नियुक्त करता है ? उसकी शक्तियों तथा स्थिति की व्याख्या करें।
(Who appoints the Chief Minister ? Discuss his powers and position.)
उत्तर-
राज्य का समस्त प्रशासन राज्यपाल के नाम पर ही चलाया जाता है परन्तु वास्तव में प्रशासन को राज्यपाल अपनी इच्छा के अनुसार न चला कर मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार चलाता है और मन्त्रिमण्डल मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करता है। राज्य में मुख्यमन्त्री की लगभग वही स्थिति है जो केन्द्र में प्रधानमन्त्री की अर्थात् देश का वास्तविक शासक प्रधानमन्त्री तथा राज्य का वास्तविक शासक मुख्यमन्त्री है।

नियुक्ति (Appointment)-मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे, मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को या तो विधानसभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त दल के नेता को अथवा यदि कुछ दलों ने मिलकर सभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त दल के नेता को अथवा यदि कुछ दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा और उन्हें स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया तो ऐसे मिले-जुले दलों के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त करना चाहिए। फरवरी, 1992 में पंजाब विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस (ई) को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और राज्यपाल ने कांग्रेस (इ) के नेता बेअन्त सिंह को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया। फरवरी, 1997 की पंजाब राज्य विधानसभा के चुनावों के पश्चात् अकाली दल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ को भारी सफलता प्राप्त हुई और सरदार प्रकाश सिंह बादल राज्य के मुख्यमन्त्री बने। फरवरी, 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और राज्यपाल ने कांग्रेस के कैप्टन अमरिन्दर सिंह को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया। फरवरी, 2017 में हुए पंजाब विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी सफलता प्राप्त हुई तथा कैप्टन अमरिन्दर सिंह राज्य के मुख्यमन्त्री नियुक्त किये गए।

वेतन और भत्ते (Salary and Allowances)—मुख्यमन्त्री के वेतन तथा भत्ते राज्य विधानमण्डल द्वारा निश्चित किए जाते हैं।
अवधि (Term of Office)-मुख्यमन्त्री का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं है। वह उसी समय तक अपने पद पर रह सकता है जब तक कि विधानसभा का बहुमत उसके साथ है। राज्यपाल अपनी इच्छानुसार जब चाहे उसे अपदस्थ नहीं कर सकता और बहुमत का समर्थन खोने पर वह पद पर नहीं रह सकता। मुख्यमन्त्री स्वयं भी जब चाहे, त्यागपत्र दे सकता है। 21 नवम्बर, 1996 को पंजाब के मुख्यमन्त्री हरचरण सिंह बराड़ ने अपना त्याग-पत्र राज्यपाल छिब्बर को दे दिया।

मुख्यमन्त्री की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Chief Minister)-मुख्यमन्त्री की शक्तियों और कार्यों को निम्नलिखित कई भागों में बांटा जा सकता है-

1. मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् (Chief Minister and the Council of Minister)-मुख्यमन्त्री के बिना मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रधानमन्त्री की तरह उसे भी ‘मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला’ (Keystone of the Cabinet arch) कहा जा सकता है। मुख्यमन्त्री की मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां निम्नलिखित हैं-

(क) मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)-राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् उन व्यक्तियों की सूची तैयार करता है जिन्हें वह मन्त्रिपरिषद् में लेना चाहता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रियों की सूची तैयार करके राज्यपाल को भेजता है और राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात् सूची में दिए गए व्यक्ति मन्त्री नियुक्त कर दिए जाते हैं। राज्यपाल सूची में दिए गए व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त करने से इन्कार नहीं कर सकता। मन्त्रिपरिषद् के निर्माण का वास्तविक कार्य मुख्यमन्त्री का है। दिसम्बर, 2003 में पारित 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि राज्य मन्त्रिपरिषद् का आकार विधानपालिका के निचले सदन (विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या का 15% होगा। मार्च, 2017 में पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपने 9 सदस्यीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया।

(ख) मन्त्रियों की पदच्युति (Removal of Ministers)—मुख्यमन्त्री मन्त्रियों को अपने पद से हटा भी सकता है। यदि वह किसी मन्त्री के काम से प्रसन्न न हो या उसके विचार मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों, तो वह उस मन्त्री को त्याग-पत्र देने के लिए कह सकता है। यदि मन्त्री त्याग-पत्र न दे, तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को बर्खास्त करवा सकता है। यदि मन्त्री उसकी इच्छानुसार त्याग-पत्र न दे तो वह स्वयं भी अपना त्यागपत्र दे सकता है जिसका अर्थ यह होगा समस्त मन्त्रिपरिषद् का त्याग-पत्र। बहुमत दल का नेता होने के कारण जब दोबारा मन्त्रिमण्डल बनाने लगे, तो उस मन्त्री को छोड़कर अन्य सभी मन्त्रियों को मन्त्रिपरिषद् में ले सकता है। 16 फरवरी, 1993 को हरियाणा के मुख्यमन्त्री भजनलाल की सलाह पर राज्यपाल ने विज्ञान एवं टेकनालोजी राज्यमन्त्री डॉ० राम प्रकाश को बर्खास्त कर दिया।

(ग) विभागों का वितरण (Distribution of Portfolios)-मुख्यमन्त्री मन्त्रियों को केवल नियुक्त ही नहीं करता बल्कि उनमें विभागों का वितरण भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है। कोई भी मन्त्री यह मांग नहीं कर सकता कि उसे कोई विशेष विभाग मिलना चाहिए। मुख्यमन्त्री जब चाहे मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है। उदाहरणस्वरूप पंजाब के मुख्यमन्त्री हरचरण सिंह बराड़ ने 7 फरवरी, 1996 को अपने मन्त्रिमण्डल का विस्तार किया और मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन किया था।

(घ) मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष (Chairman of the Council of Ministers)-मन्त्रिपरिषद् अपना समस्त कार्य मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में ही करती है। मुख्यमन्त्री ही परिषद् की बैठक बुलाता है और इस बात का निश्चय करता है कि बैठक कब और कहां बुलाई जाए तथा उसमें किस विषय पर विचार किया जाएगा। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है और मन्त्रिपरिषद् के निर्णय भी अधिकतर मुख्यमन्त्री की इच्छानुसार ही होते हैं।

(ङ) मन्त्रिमण्डल का नेतृत्व एवं प्रतिनिधित्व (Leadership and Representative of Cabinet)-मुख्यमन्त्री मन्त्रिमण्डल का नेतृत्व और प्रतिनिधित्व करता है। इसके महत्त्वपूर्ण निर्णयों की घोषणा जनता तथा विधानमण्डल के सामने मुख्यमन्त्री के द्वारा ही की जाती है। शासन की नीति पर मुख्यमन्त्री ही प्रकाश डालता है और उस पर उत्पन्न हुए मतभेदों का स्पष्टीकरण करता है।

2. राज्यपाल और मन्त्रिपरिषद के बीच कड़ी (Link between the Governor and Council of Ministers)-मुख्यमन्त्री ही मन्त्रिपरिषद् तथा राज्यपाल के बीच कड़ी है। कोई भी मन्त्री मुख्यमन्त्री की आज्ञा के बिना राज्यपाल से मिलकर प्रशासनिक मामलों के बारे में बातचीत नहीं कर सकता। मन्त्रिपरिषद् के बारे में मुख्यमन्त्री ही राज्यपाल को सूचित करता है। राज्यपाल भी, यदि उसे प्रशासन के बारे में कोई सूचना चाहिए, मुख्यमन्त्री के द्वारा ही प्राप्त कर सकता है।

3. शासन के विभिन्न विभागों में समन्वय (Co-ordination among the different Departments)शासन के विभिन्न विभागों में तालमेल होना आवश्यक है क्योंकि एक विभाग की नीतियों का दूसरे विभाग पर आवश्यक प्रभाव पड़ता है। यह तालमेल मुख्यमन्त्री द्वारा पैदा किया जाता है। मुख्यमन्त्री विभिन्न विभागों की देख-रेख करता है
और इस बात का ध्यान रखता है कि किसी विभाग की नीति का दूसरे विभाग पर बुरा प्रभाव न पड़े।

4. राज्यपाल का मुख्य सलाहकार (Principal Adviser of the Governor)—मुख्यमन्त्री राज्यपाल का मुख्य सलाहकार है और सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देता है। राज्यपाल प्रायः सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री की सलाह मान लेता है सिवाय उन विषयों को छोड़कर, जब वह केन्द्रीय सरकार के निर्देशन में काम कर रहा हो।

5. विधानमण्डल का नेता (Leader of the State Legislature)-मुख्यमन्त्री विधानमण्डल का नेता समझा जाता है जिसके नेतृत्व तथा मार्गदर्शन में विधान मण्डल अपना काम करता है। वह विधानसभा में बहुमत दल का नेता होता है और इसलिए विधानसभा उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकती। किसी गम्भीर समस्या के होने पर विधानमण्डल तथा पथ-प्रदर्शन के लिए मुख्यमन्त्री की ओर ही देखता है। दूसरे मन्त्रियों की ओर से दिए गए वक्तव्यों को स्पष्ट करना तथा यदि कोई ग़लत बात हो गई हो तो उसे ठीक करने का अधिकार भी मुख्यमन्त्री को ही है।

6. विधानसभा का विघटन (Dissolution of the Legislative Assembly)-मुख्यमन्त्री विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है और जब इस सदन में उसे बहुमत प्राप्त न रहे तब उसके सामने दो रास्ते होते हैं। प्रथम, या तो वह त्यागपत्र दे दे। द्वितीय, या फिर वह राज्यपाल को सलाह देकर सदन को विघटित कर सकता है। प्रायः राज्यपाल विघटन की मांग को अस्वीकार नहीं करता।

7. नियुक्तियां (Appointments)-राज्य में होने वाली सभी बड़ी-बड़ी नियुक्तियां मुख्यमन्त्री के हाथों में हैं। मन्त्री, एडवोकेट जनरल, लोकसेवा आयोग का अध्यक्ष तथा अन्य सदस्य, राज्य में स्थित यूनिवर्सिटियों के उप-कुलपति आदि की नियुक्तियां राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह के अनुसार करता है।

8. जनता का नेता (Leader of People)-मुख्यमन्त्री उसी प्रकार से राज्य की जनता का नेता है जिस प्रकार प्रधानमन्त्री समस्त राष्ट्र का नेता माना जाता है। राज्य की जनता का उसमें दृढ़ विश्वास रहता है और इस कारण उसकी स्थिति और भी महत्त्वपूर्ण बन जाती है। राज्य में होने वाले सामाजिक समारोहों का नेतृत्व भी मुख्यमन्त्री करता है। जैसे ज्ञानी जैलसिंह ने हरमन्दिर साहिब में हुई कार सेवा, गुरु गोबिन्द मार्ग की महायात्रा और रामचरित मानस की चार सौ साला शताब्दी के समारोहों का नेतृत्व किया।

9. दल का नेता (Leader of the Party)-मुख्यमन्त्री अपने दल का राज्य में नेतृत्व करता है, राज्य में दलों को संचालित करता है और नीतियां बनाता तथा उसका प्रचार करना उसी का कार्य है। चुनाव में मुख्यमन्त्री अपने दल का मुख्य वक्ता बन जाता है और अपने दल के उम्मीदवारों को चुनावों में विजयी करवाने में भरसक प्रयत्न करता है।

मुख्यमन्त्री की स्थिति (Position of the Chief Minister) राज्य में मुख्यमन्त्री की वही स्थिति है जोकि केन्द्र में प्रधानमन्त्री की है। राज्य में समस्त प्रशासन पर उसका प्रभाव रहता है। उसकी इच्छा के विरुद्ध न कोई कानून बन सकता है और न ही कोई टैक्स आदि लगाया जा सकता है। उसके मुकाबले में अन्य मन्त्रियों की स्थिति कुछ महत्त्व नहीं रखती। परन्तु मुख्यमन्त्री की वास्तविक स्थिति इस पर निर्भर करती है कि उसके राजनीतिक दल को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो।

मुख्यमन्त्री की वास्तविक स्थिति न केवल अपने दल के विधानसभा में बहुमत पर निर्भर करती है बल्कि इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसके दल के सदस्य उसे कितना सहयोग देते हैं। मुख्यमन्त्री की स्थिति पार्टी की हाईकमान और प्रधानमन्त्री के समर्थन पर भी निर्भर करती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

मुख्यमन्त्री की स्थिति उसके अपने व्यक्तित्व तथा राज्यपाल के व्यक्तित्व पर भी निर्भर करती है। चाहे मुख्यमन्त्री एक ही दल का नेता हो और उसे अपने दल का भी सहयोग प्राप्त हो, तब भी वह तानाशाह नहीं बन सकता, क्योंकि उसकी शक्तियों पर निम्नलिखित सीमाएं हैं जो उसे तानाशाह बनने नहीं देती-

  • विरोधी दल (Opposition Parties)-मुख्यमन्त्री को विरोधी दलों के होते हुए शासन चलाना होता है और विरोधी दल मुख्यमन्त्री की विधानमण्डल के अन्दर तथा बाहर आलोचना करके उसको तानाशाह बनने से रोकते हैं।
  • राज्य विधानमण्डल (State Legislature)-मुख्यमन्त्री राज्य विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है और विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मुख्यमन्त्री को हटा सकती है।
  • गवर्नर (Governor)–यदि मुख्यमन्त्री जनता के हित के विरुद्ध कार्य करे तथा प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध चले, तो गवर्नर अपनी स्वेच्छाचारी शक्तियों का प्रयोग मुख्यमन्त्री के विरुद्ध कर सकता है।
    संक्षेप में, मुख्यमन्त्री की स्थिति उसके अपने व्यक्तित्व और उसके दल के समर्थन पर निर्भर करती है।

प्रश्न 5.
मुख्यमन्त्री तथा राज्यपाल के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करें।
(Discuss the relations between Chief Minister and Governor.)
उत्तर-
मुख्यमन्त्री तथा राज्यपाल में घनिष्ठ सम्बन्ध है। राज्यपाल राज्य का मुखिया है जबकि मुख्यमन्त्री सरकार का मुखिया है।

  • मुख्यमन्त्री की नियुक्ति-मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता हैं। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त होता है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है।
  • मुख्यमन्त्री को हटाना-राज्यपाल मुख्यमन्त्री को जब चाहे अपनी इच्छानुसार अपदस्थ नहीं कर सकता है। मुख्यमन्त्री बहुमत का समर्थन प्राप्त न होने पर पद पर नहीं रह सकता। यदि मुख्यमन्त्री विधानसभा को यह अवसर नहीं देता कि विधानसभा उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर सके तो राज्यपाल उसे हटा सकता है।
  • मन्त्रियों की नियुक्ति-मन्त्रियों की नियुक्ति राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से करता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रियों की सूची तैयार करके राज्यपाल को भेजता है और राज्यपाल सूची में दिए गए व्यक्तियों को मन्त्री नियुक्त करता है।
  • मन्त्रियों की पच्युति-राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों को हटा सकता है। परन्तु यदि मुख्यमन्त्री ने अपने मन्त्रिमण्डल में किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री रखा हुआ है जिसके विरुद्ध रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि के दोष हों तो राज्यपाल उसे पद से हटा सकता है, बेशक मुख्यमन्त्री का विश्वास अभी भी उस मन्त्री में हो।
  • मुख्यमन्त्री राज्यपाल का सलाहकार-मुख्यमन्त्री राज्यपाल का मुख्य सलाहकार है और सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देता है। राज्यपाल प्रायः सभी विषयों पर मुख्यमन्त्री की सलाह मान लेता है। सिवाय उन विषयों को छोड़कर जब वह केन्द्रीय सरकार के निर्देशन में काम कर रहा हो।
  • राज्यपाल का प्रशासनिक सूचना प्राप्त करने का अधिकार-राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह समय-समय पर प्रशासनिक मामलों में जानकारी प्राप्त करने के लिए मुख्यमन्त्री से आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकता है। मुख्यमन्त्री का भी यह कर्त्तव्य है कि मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों की सूचना राज्यपाल को दे। वह मुख्यमन्त्री को किसी ऐसे मामले के लिए जिस पर एक मन्त्री ने निर्णय लिया हो, समस्त मन्त्रिपरिषद् के सम्मुख विचार के लिए रखने को कह सकता है। इस प्रकार राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् को सलाह भी दे सकता है, प्रोत्साहन और चेतावनी भी।
  • नियुक्तियां- राज्य में होने वाली सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से करता है।
  • विधानसभा का विघटन–मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर विधानसभा को भंग करवा सकता है। प्रायः राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह मान लेता है परन्तु कई स्थितियों में सलाह मानने से इन्कार कर सकता है। 1967 में पंजाब में राज्यपाल ने विधानसभा को भंग करने की मुख्यमन्त्री गुरनाम सिंह की सिफ़ारिश को नहीं माना।
  • स्वैच्छिक अधिकार-राज्यपाल को कुछ स्वैच्छिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छानुसार करता है न कि मुख्यमन्त्री की सलाह से।

प्रश्न 6.
भारतीय संघ के राज्यों में मन्त्रिमण्डल प्रणाली की कार्य-विधि की व्याख्या कीजिए।
(Explain the working principles of the cabinet system in the states of the Indian Union.)
उत्तर-
राज्यों में संसदीय शासन व्यवस्था है। मन्त्रिमण्डल ही राज्यों का वास्तविक शासक है और उसकी सलाह के बिना तथा सलाह के विरुद्ध राज्यपाल कोई कार्य नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल के महत्त्व के कारण संसदीय शासन प्रणाली को मन्त्रिमण्डल शासन प्रणाली भी कहा जाता है। राज्यों की मन्त्रिमण्डल प्रणाली की निम्नलिखित विशेषताएं हैं

  • नाममात्र का अध्यक्ष (Nominal Head)-राज्यपाल नाममात्र का अध्यक्ष है। समस्त शासन उसी के नाम से चलाया जाता है परन्तु वास्तव में शासन मन्त्रिमण्डल द्वारा चलाया जाता है। वह राज्य का मुखिया है, सरकार का नहीं। सरकार का मुख्यिा मुख्यमन्त्री है।
  • कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठता (Close Relation between the Executive and Legislature)-राज्यों की विधानपालिका और मन्त्रिमण्डल में घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं, वाद-विवाद में हिस्सा लेते हैं, बिल पेश करते हैं, बिलों को पास कराते और मतदान कराते हैं।
  • मुख्यमन्त्री का नेतृत्व (Leadership of the Chief Minister)-राज्यों के मन्त्रिमण्डल अपना समस्त कार्य मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में करते हैं। मुख्यमन्त्री ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्तियां करता है। मुख्यमन्त्री ही मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करता है और जब चाहे विभाग बदल सकता है। उनके कार्यों की देख-भाल मुख्यमन्त्री ही करता है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें मुख्यमन्त्री के द्वारा ही बुलाई जाती हैं और वही अध्यक्षता करता है। मुख्यमन्त्री का त्याग-पत्र समस्त मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र समझा जाता है।
  • राजनीतिक एकता (Political Homogeneity)—कैबिनेट प्रणाली में मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य एक ही दल से लिए जाते हैं। इसके फलस्वरूप उनके विचार तथा सिद्धान्तों में एकता होती है। राज्यों में प्रायः मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से लिए जाते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल की एकता (Unity of the Cabinet) राज्य मन्त्रिमण्डल प्रणाली की एक यह भी विशेषता है कि मन्त्रिमण्डल एक इकाई के रूप में काम करता है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य “इकडे आते और इकटे जाते हैं।” किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास होने पर सभी मन्त्रियों को अपना त्याग-पत्र देना पड़ता है। मन्त्री इकट्ठे तैरते हैं और इकट्ठे डूबते हैं।
  • गोपनीयता (Secrecy)-मन्त्रिमण्डल की कार्यवाहियों की गोपनीयता शासन प्रणाली की एक विशेषता है। कोई भी मन्त्री मन्त्रिमण्डल की बैठक में हुए गुप्त वाद-विवाद तथा निर्णय आदि को सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित नहीं कर सकता और न ही किसी को बता सकता है।
  • मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Responsibility of the Cabinet)-मन्त्रिमण्डल की एक यह भी विशेषता है कि वह अपने कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल को मनमानी करने का अधिकार नहीं है। विधानमण्डल के सदस्य मन्त्रियों से उनके प्रशासकीय विभागों के सम्बन्ध और पूरक प्रश्न (Supplementary questions) पूछ सकते हैं जिनका उन्हें उत्तर देना पड़ता है। यदि विधानसभा में मन्त्रिमण्डल बहुमत का समर्थन खो बैठे तो उसे त्याग-पत्र देना पड़ता है।
  • मन्त्रिमण्डल की समितियां (Committees in the Cabinet) राज्यों के मन्त्रिमण्डल में भिन्न-भिन्न विषयों में कई समितियां स्थापित की गई हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियुक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल की नियुक्ति–प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है तथा वह राष्ट्रपति की कृपा दृष्टि तक ही अपने पद पर रह सकता है। व्यवहार में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है।
राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रथाएं स्थापित हो गई हैं, जिनमें मुख्य निम्न प्रकार हैं-

  • प्रथम परम्परा तो यह है कि ऐसे व्यक्ति को किसी राज्य में राज्यपाल नियुक्त किया जाता है जो उस राज्य का निवासी न हो।
  • दूसरे, राष्ट्रपति किसी राज्यपाल की नियुक्ति करने से पहले उस राज्य के मुख्यमन्त्री से भी इस बात का परामर्श लेता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल पद के लिए चार आवश्यक योग्यताएं लिखें।
उत्तर-
योग्यताएं- अनुच्छेद 157 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  3. वह किसी राज्य में विधानमण्डल अथवा संसद् का सदस्य न हो तथा यदि हो, तो राज्यपाल का पद ग्रहण करने के समय उसका सदन वाला स्थान रिक्त समझा जाएगा।
  4. राज्यपाल अपने पद पर नियुक्त होने के पश्चात् किसी अन्य लाभदायक पद पर नहीं रह सकता।

प्रश्न 3.
राज्यपाल के चार कार्यकाल का वर्णन करो।
उत्तर-
कार्यकाल-साधारणतया राज्यपाल को 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक राष्ट्रपति चाहे । राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है। 27 अक्तूबर, 1980 को राष्ट्रपति ने तमिलनाडु के राज्यपाल प्रभुदास पटवारी को बर्खास्त कर दिया। जनवरी, 1990 में राष्ट्रपति वेंकटरमन ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार की सलाह पर सभी राज्यपालों को त्याग-पत्र देने को कहा। अधिकतर राज्यपालों ने तुरन्त अपने त्याग-पत्र भेज दिये। राज्यपाल चाहे तो स्वयं भी 5 वर्ष से पूर्व त्याग-पत्र दे सकता है। 23 जून, 1991 को पंजाब के राज्यपाल जनरल ओ०पी० मल्होत्रा ने त्याग-पत्र दे दिया।

प्रश्न 4.
राज्यपाल की चार कार्यपालिका शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलाया जाता है।
  2. राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  3. राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह पर किसी भी मन्त्री को अपदस्थ कर सकता है।
  4. वह शासन के कार्य को सुविधापूर्वक चलाने के लिए तथा मन्त्रियों में बांटने के लिये नियम बनाता है।

प्रश्न 5.
राज्यपाल की चार वैधानिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल के पास निम्नलिखित वैधानिक शक्तियां हैं-

  1. राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता
  2. वह विधानमण्डल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है।
  3. वह विधानमण्डल के निम्न सदन को मुख्यमन्त्री की सलाह पर भंग कर सकता है।
  4. प्रत्येक वर्ष विधानमण्डल का अधिवेशन राज्यपाल के भाषण से प्रारम्भ होता है।

प्रश्न 6.
राज्यपाल की चार स्वेच्छिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल को कुछ स्वविवेकी शक्तियां भी प्राप्त हैं। स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग राज्यपाल अपनी इच्छा से करता है न कि मन्त्रिमण्डल के परामर्श से। राज्यपाल की मुख्य स्वविवेकी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  1. संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में- यदि राष्ट्रपति ने राज्यपाल को राज्य के समीप के संघीय क्षेत्र का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया है तो उस क्षेत्र का प्रशासन स्वविवेक से चलाता है।
  2. असम में आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में-असम राज्य के राज्यपाल को आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है।
  3. सिक्किम के राज्यपाल के विशेष उत्तरदायित्व-सिक्किम राज्य में शान्ति बनाए रखने के लिए तथा सिक्किम की जनसंख्या के सब वर्गों के सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए सिक्किम के राज्यपाल को विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है।
  4. राज्य में संवैधानिक संकट होने पर-प्रत्येक राज्यपाल अपने राज्य में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को करता है जिस पर वह संकटकाल की घोषणा करता है। इस दशा में मन्त्रिपरिषद् को भंग कर दिया जाता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 7.
राज्यपाल की स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है, परन्तु शासन चलाने वाला वह स्वयं नहीं है। संविधान में राज्यपाल को जो शक्तियां प्राप्त हैं, व्यवहार में उनका प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। राज्यपाल कार्यपालिका का संवैधानिक अध्यक्ष है। परन्तु जब वह केन्द्रीय सरकार के एजेन्ट के रूप में काम करता है तो वह अधिक शक्तियों को प्रयोग कर सकता है। उस समय वह केन्द्रीय सरकार के आदेश के अनुसार काम करता है। वर्तमान समय में राज्यपाल के दायित्व पहले से अधिक बढ़ चुके हैं।

प्रश्न 8.
राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कैसे होता है ?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिए सबसे पहला महत्त्वपूर्ण पग मुख्यमन्त्री की नियुक्ति है। राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के अध्यक्ष को सर्वप्रथम मुख्यमन्त्री नियुक्त करता है, परन्तु राज्यपाल उसे अपनी इच्छा से नियुक्त नहीं कर सकता। जिस दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया जाता है। मुख्यमन्त्री की सलाह से राज्यपाल अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रियों के लिए विधानमण्डल के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य होना अनिवार्य है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त किया जाए जो किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसको 6 महीने के अन्दर-अन्दर विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य बनना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या भी मुख्यमन्त्री द्वारा निश्चित की जाती है।

प्रश्न 9.
मन्त्रिपरिषद् की चार शक्तियों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. नीति का निर्धारण-मन्त्रिपरिषद् का मुख्य कार्य प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करना है।
  2. प्रशासन पर नियन्त्रण-शासन को अच्छी प्रकार चलाने के लिए कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है। विभाग में मन्त्री के अधीन कई सरकारी कर्मचारी होते हैं जो उसकी आज्ञानुसार कार्य करते हैं। मन्त्री को अपने विभाग का शासन मन्त्रिपरिषद् की निश्चित नीति के अनुसार चलाना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन चलाने के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है।
  3. कानून को लागू करना तथा व्यवस्था को बनाए रखना- राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानून को लागू करना मन्त्रिपरिषद् की ज़िम्मेवारी है। कानून का तब तक कोई महत्त्व नहीं है जब तक उसे लागू न किया जाए
    और कानूनों को सख्ती से अथवा नर्मी से लागू करना मन्त्रिपरिषद् पर निर्भर करता है। राज्य के अन्दर शान्ति को बनाए रखना मन्त्रिपरिषद् का कार्य है।
  4. नियुक्तियां-राज्य की सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्यिां राज्यपाल मन्त्रिमण्डल के परामर्श से करता है।

प्रश्न 10.
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ?
उत्तर-
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे, मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को या तो विधानसभा में सबसे अधिक स्थान प्राप्त दल के नेता को अथवा यदि कुछ दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा है और उन्हें स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया है तो ऐसे मिले-जुले दलों के नेता को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त करना चाहिए। फरवरी, 2017 के पंजाब विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और कैप्टन अमरिन्दर सिंह पंजाब के मुख्यमन्त्री बने।

प्रश्न 11.
मुख्यमन्त्री की चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
मुख्यमन्त्री को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मुख्यमन्त्री अपने साथियों की एक सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेज देता है तथा राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. मन्त्रियों की पदच्युति-मुख्यमन्त्री किसी भी मन्त्री को उसके पद से अपदस्थ कर सकता है। यदि मुख्यमन्त्री किसी मन्त्री के कार्यों से प्रसन्न न हो और उसके विचार उस मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को हटा सकता है।
  3. मन्त्रियों में विभागों का वितरण-मुख्यमन्त्री केवल मन्त्रियों की नियुक्ति ही नहीं करता बल्कि उनमें विभागों का वितरण भी करता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे उनके विभागों को बदल भी सकता है।
  4. राज्यपाल का मुख्य सलाहकार-मुख्यमन्त्री राज्यपाल का मुख्य सलाहकार है।

प्रश्न 12.
मुख्यमन्त्री का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर-
मुख्यमन्त्री का कार्यकाल निश्चित नहीं है। मुख्यमन्त्री उस समय तक अपने पद पर रहता है जब तक विधानसभा का बहुमत उसके साथ हो। परन्तु चौथे आम चुनाव के बाद नई परिस्थितियां उत्पन्न हुईं जिनके अधीन राज्यपाल ने विधानसभा द्वारा अविश्वास के प्रस्ताव की प्रतीक्षा किए बिना ही मुख्यमन्त्री को पदच्युत कर दिया। हरियाणा के राजनीतिक भ्रष्टाचार और प्रशासन में कुशलता के ह्रास के कारण राज्य के राज्यपाल श्री चक्रवर्ती ने मुख्यमन्त्री राव वीरेन्द्र सिंह को पदच्युत कर दिया था।

प्रश्न 13.
राज्य में मुख्यमन्त्री ही शक्तिशाली व्यक्ति है। कैसे ?
उत्तर-
केन्द्र की तरह राज्यों में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है। राज्य में राज्यपाल संवैधानिक मुखिया है जबकि मुख्यमन्त्री वास्तविक शासक है। राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलाया जाता है परन्तु वास्तविकता में राज्यपाल मुख्यमन्त्री की सलाह से शासन चलाता है। मुख्यमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है और जब चाहे किसी मन्त्री को पद से हटा सकता है। मन्त्रिपरिषद् मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करता है। राज्य में सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां मुख्यमन्त्री द्वारा की जाती हैं। 5 वर्ष की अवधि से पूर्व यह विधानसभा को राज्यपाल को सलाह देकर भंग करवा सकता है। राज्य का सारा शासन मुख्यमन्त्री के इर्द-गिर्द घूमता है।

प्रश्न 14.
मुख्यमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् के साथ चार सम्बन्ध बताएं।
उत्तर-
मुख्यमन्त्री के बिना मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं है। मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् में महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध निम्नलिखित हैं-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् उन व्यक्तियों की सूची तैयार करता है जिन्हें वह मन्त्रिपरिषद् में लेना चाहता है। मुख्यमन्त्री सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेजता है और राज्यपाल उस सूची के अनुसार ही मन्त्री नियुक्त करता है।
  2. विभागों का बंटवारा-मुख्यमन्त्री मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है।
  3. मन्त्रियों की पदच्युति-मुख्यमन्त्री यदि किसी मन्त्री के कार्यों से अप्रसन्न हो और उसके विचार उस मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को उसके पद से अपदस्थ कर सकता है।
  4. मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष–मन्त्रिपरिषद् अपना समस्त कार्य मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में ही करती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यपाल की नियुक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रत्येक राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति नियुक्त करता है तथा वह राष्ट्रपति की कृपा दृष्टि तक ही अपने पद पर रह सकता है। व्यवहार में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राज्यपाल को नियुक्त करता है।

प्रश्न 2.
राज्यपाल पद के लिए कोई दो आवश्यक योग्यताएं लिखें।
उत्तर-
योग्यताएं-अनुच्छेद 157 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।

प्रश्न 3.
राज्यपाल के कार्यकाल का वर्णन करो।
उत्तर-
साधारणतया राज्यपाल को 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है और वह अपने पद पर तब तक रह सकता है जब तक राष्ट्रपति चाहे। राष्ट्रपति 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व भी राज्यपाल को हटा सकता है।

प्रश्न 4.
राज्यपाल की कोई दो कार्यपालिका शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यपाल को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं-

  1. राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम पर चलाया जाता है।
  2. राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 5.
राज्यपाल की कोई दो वैधानिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता है।
  2. वह विधानमण्डल के दोनों सदनों में भाषण दे सकता है।

प्रश्न 6.
राज्यपाल की स्वेच्छिक शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में-यदि राष्ट्रपति ने राज्यपाल को राज्य के समीप के संघीय क्षेत्र का प्रशासक भी नियुक्त कर दिया है तो उस क्षेत्र का प्रशासन स्वविवेक से चलाता है।
  2. असम में आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में- असम राज्य के राज्यपाल को आदिम जातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 7.
राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कैसे होता है ?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिए सबसे पहला महत्त्वपूर्ण पग मुख्यमन्त्री की नियुक्ति है। मुख्यमन्त्री की सलाह से राज्यपाल अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रियों के लिए विधानमण्डल के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य होना अनिवार्य है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त किया जाए जो किसी भी सदन का सदस्य न हो, तो उसको 6 महीने के अन्दर-अन्दर विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य बनना पड़ता है। मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या भी मुख्यमन्त्री द्वारा निश्चित की जाती है।

प्रश्न 8.
मन्त्रिपरिषद् की दो शक्तियों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. नीति का निर्धारण (Determination of Policy)-मन्त्रिपरिषद् का मुख्य कार्य प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करना है।
  2. प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over Administration)-शासन को अच्छी प्रकार चलाने के लिए कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है।

प्रश्न 9.
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ?
उत्तर-
मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल जिस व्यक्ति को चाहे, मुख्यमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है। राज्यपाल को अपने स्वविवेक से नियुक्त करने का अवसर तभी प्राप्त है जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 10.
मुख्यमन्त्री की कोई दो शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्य में मन्त्रिपरिषद् का निर्माण राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श से करता है। मुख्यमन्त्री अपने साथियों की एक सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेज देता है तथा राज्यपाल की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. मन्त्रियों की पदच्युति-मुख्यमन्त्री किसी भी मन्त्री को उसके पद से अपदस्थ कर सकता है। यदि मुख्यमन्त्री किसी मन्त्री के कार्यों से प्रसन्न न हो और उसके विचार उस मन्त्री के विचारों से मेल न खाते हों तो मुख्यमन्त्री राज्यपाल को सलाह देकर उस मन्त्री को हटा सकता है।

प्रश्न 11.
मुख्यमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् के साथ सम्बन्ध बताएं।
उत्तर-

  1. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् उन व्यक्तियों की सूची तैयार करता है जिन्हें वह मन्त्रिपरिषद् में लेना चाहता है। मुख्यमन्त्री सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेजता है और राज्यपाल उस सूची के अनुसार ही मन्त्री नियुक्त करता है।
  2. विभागों का बंटवारा-मुख्यमन्त्री मन्त्रियों में विभागों का बंटवारा करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है। मुख्यमन्त्री जब चाहे मन्त्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है।

प्रश्न 12.
पंजाब के राज्यपाल एवं उसका वेतन तथा मुख्यमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-
पंजाब के वर्तमान राज्यपाल श्री वी०पी० सिंह बदनौर हैं, एवं उनका वेतन 3,50,000 रु० मासिक है। पंजाब के वर्तमान मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 2. राज्यपाल का मासिक वेतन कितना है ?
उत्तर-3,50,000 रु० ।

प्रश्न 3. राज्यपाल बनने के लिए कितनी आयु होनी चाहिए ?
उत्तर-35 वर्ष।

प्रश्न 4. मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-राज्यपाल।

प्रश्न 5. राज्यपाल की कोई एक वैधानिक शक्ति लिखिए।
उत्तर- राज्यपाल विधानमण्डल का अधिवेशन बुला सकता है, स्थगित कर सकता है तथा इसकी अवधि बढ़ा सकता है।

प्रश्न 6. राज्यपाल की एक कार्यपालिका शक्ति का वर्णन करो।
उत्तर-राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।

प्रश्न 7. राज्य में संवैधानिक संकट के समय राज्यपाल की स्थिति क्या होती है ?
उत्तर-उस समय राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का वास्तविक शासक बन जाता है। राज्यपाल कार्यपालिका की सभी शक्तियों का प्रयोग करता है और प्रशासन चलाने की जिम्मेदारी उसी की होती है।

प्रश्न 8. राज्यपाल कब तक अपने पद पर रहता है ?
उत्तर-राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राज्यपाल राष्ट्रपति की इच्छा पर्यंत अपने पद पर रहता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को उसके पद से हटा सकता है।

प्रश्न 9. मन्त्रिपरिषद् का निर्माण कौन करता है?
उत्तर- मुख्यमन्त्री अपनी नियुक्ति के पश्चात् मन्त्रियों की सूची तैयार करके राज्यपाल के पास भेजता है। राज्यपाल उस सूची में दिए गए व्यक्तियों को मन्त्री नियुक्त करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 10. मन्त्रिमण्डल तथा मन्त्रिपरिषद् में अन्तर बताइए।
उत्तर-मन्त्रिपरिषद् का वर्णन संविधान में किया गया है जबकि मन्त्रिमण्डल शब्द संविधान में नहीं मिलता।

प्रश्न 11. मुख्यमन्त्री की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर-मुख्यमन्त्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है परन्तु राज्यपाल मुख्यमन्त्री की नियुक्ति में अपनी इच्छा का प्रयोग नहीं कर सकता। राज्यपाल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल या गठबन्धन के नेता को ही मुख्यमन्त्री बनाना पड़ता है।

प्रश्न 12. राज्यपाल की एक स्वैच्छिक शक्ति बताइए।
उत्तर-जब राज्य विधानसभा में किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता तब राज्यपाल अपनी इच्छा से मुख्यमन्त्री को नियुक्त करता है।

प्रश्न 13. मन्त्रिपरिषद् की एक शक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-मन्त्रिपरिषद् प्रशासन चलाने के लिए नीति निर्धारित करती है।

प्रश्न 14. मुख्यमन्त्री की एक शक्ति का वर्णन करें।
उत्तर-मन्त्रिपरिषद् का निर्माण मुख्यमन्त्री द्वारा किया जाता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य मन्त्रिपरिषद् का निर्माण ………….. करता है।
2. मुख्यमन्त्री …………… की अध्यक्षता करता है।
3. राज्य विधानमण्डल का नेता ……………. होता है।
4. राज्यपाल का मुख्य सलाहकार ………….. होता है।
उत्तर-

  1. मुख्यमन्त्री
  2. मन्त्रिपरिषद
  3. मुख्यमन्त्री
  4. मुख्यमन्त्री।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य का समस्त शासन राज्यपाल के नाम से चलाया जाता है।
2. राज्यपाल प्रशासन के बारे में मुख्यमन्त्री से कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
3. राज्यपाल तानाशाह बन सकता है।
4. मुख्यमन्त्री राज्यपाल की नियुक्ति करता है।
5. मन्त्रिपरिषद नीति का निर्धारण करती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मुख्यमन्त्री को नियुक्त करता है
(क) राष्ट्रपति
(ख) राज्यपाल
(ग) प्रधानमन्त्री
(घ) विधानमण्डल।
उत्तर-
(ख) राज्यपाल ।

प्रश्न 2.
मुख्यमन्त्री की अवधि कितनी है ?
(क)5 वर्ष
(ख) निश्चित नहीं
(ग) 4 वर्ष
(घ) 3 वर्ष।
उत्तर-
(ख) निश्चित नहीं ।

प्रश्न 3.
राज्यपाल निम्नलिखित में से किसके प्रति उत्तरदायी है ?
(क) राज्य के लोगों के प्रति
(ख) राष्ट्रपति के प्रति
(ग) प्रधानमन्त्री के प्रति
(घ) लोकसभा के प्रति।
उत्तर-
(ख) राष्ट्रपति के प्रति ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 30 राज्य कार्यपालिका

प्रश्न 4.
विधानसभा का नेता है-
(क) मुख्यमन्त्री
(ख) राज्यपाल
(ग) स्पीकर
(घ) प्रधानमन्त्री।
उत्तर-
(क) मुख्यमन्त्री।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन किस प्रकार किया जाता है ?
(How is the President of India elected ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 52 के अधीन भारतीय राज्य संगठन में राष्ट्रपति का पद निश्चित किया गया है। वह राज्य का अध्यक्ष है और भारत का समस्त शासन उसी के नाम पर चलता है। वह देश का सर्वोच्च अधिकारी तथा भारत का प्रथम नागरिक भी कहलाता है।

योग्यताएं (Qualifications)—राष्ट्रपति के पद के लिए के पद के लिए चुनाव लड़ सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह सभी योग्यताएं रखता हो जो संसद् का सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं।
  4. वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी स्थानीय सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो।M
  5. विधानमण्डल का सदस्य नहीं होना चाहिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (1)

5 जून, 1997 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी करके राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए जमानत .. की राशि 2500 से बढ़ा कर 15 हज़ार रुपये कर दी है।
इस अध्यादेश के अनुसार राष्ट्रपति के पद के लिए उम्मीदवार का नाम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित तथा 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना अनिवार्य है।

चुनाव (Election)-भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक चुनाव मण्डल द्वारा होता है जिसमें लोकसभा के निर्वाचित सदस्य, राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य तथा राज्य की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। चुनाव एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation Single Transferable Vote System) के आधार पर होता है। संविधान के अनुसार, जहां तक सम्भव हो सकेगा, राष्ट्रपति के चुनाव में भिन्नभिन्न राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। इसी तरह जहां तक हो सकेगा, संसद् के सदस्यों तथा राज्यों को समान प्रतिनिधित्व दिया जाएगा तथा संसद् के सदस्यों तथा राज्य की विधानसभाओं के सदस्यों की वोटों में समानता होगी। दूसरे शब्दों में, राष्ट्रपति के चुनाव में एक सदस्य एक मत’ (One Member One Vote) M गई, न ही अपनाई जा सकती थी। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है, परन्तु इसके मत की गणना नहीं होती, बल्कि उसका मूल्यांकन होता है। मतों की संख्या निम्न वर्णित तरीकों से ज्ञात की जाती है-

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पहले राज्य की सारी जनसंख्या को विधानसभा में कुल चुने हुए सदस्यों की संख्या से भाग देकर भजनफल (Quotient) को 1000 से बांट दिया जाए।

(1) राज्य की विधानसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या
PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (3) यदि शेष 500 से अधिक हो तो पूरा गिन लिया जाता है और 500 से कम हो तो उसकी गिनती नहीं होती।
उदाहरण के लिए 2017 में पंजाब की जनसंख्या 1,35,51,060 थी और विधानसभा के निर्वाचित सदस्य 117 थे जिस कारण प्रत्येक सदस्य को 117 मत डालने का अधिकार प्राप्त था।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (4) लोकसभा तथा राज्यसभा के प्रत्येक सदस्य के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट निकालने के लिए दोनों सदनों में चुने हुए सदस्यों की कुल संख्या में राज्यों की विधानसभाओं की सारी वोटों को बांट दिया जाता है।

(2) संसद् के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या =
PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति (5) समस्त राज्यों की विधानसभाओं के समस्त मतों की संज्या संसद् के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की संज्या

उदाहरणस्वरूप, यदि समस्त राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा कुल 4,24,856 मत डाले गए हैं और संसद् के निर्वाचित सदस्यों की संख्या 705 हो तो संसद् के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य को \(\frac{424856}{705}=602 \frac{446}{705}=603\) मत देने का अधिकार होगा।

2017 के राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यों की विधानसभाओं में सदस्यों के कुल मतों की संख्या 5,49,495 थी। संसद् के निर्वाचित सदस्यों की संख्या = 776 (लोकसभा 543 + राज्यसभा 233)
प्रत्येक सदस्य के मत =\(\frac{5,49,511}{776}\) = 708
संसद् के कुल सदस्यों के मत = 5,49,408
राष्ट्रपति के निर्वाचन मण्डलों के सदस्यों के कुल मत = 10,98,903
जुलाई 2017 में हुए राष्ट्रपति के चुनाव में कुल मतों की संख्या 10,98,903 थी।

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राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया (Procedure of Electing President)-राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया का वर्णन संविधान में नहीं किया गया है बल्कि इस सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद् को दिया गया। भारतीय संसद् ने 1952 में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन एक्ट पास किया, जिसे 1974 में संशोधित किया गया। राष्ट्रपति के चुनाव की विधि निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रपति के चुनाव की अधिसूचना (Notification regarding the election of President) राष्ट्रपति का चुनाव कराने की शक्ति निर्वाचन आयोग के पास है। निर्वाचन आयोग राष्ट्रपति के चुनाव के बारे में अधिसूचना जारी करता है जिसमें नामांकन-पत्रों के भरने, उनकी जांच-पड़ताल करने, उन्हें वापस लेने तथा चुनाव की तिथि इत्यादि निर्धारित करने का वर्णन किया जाता है।
  • निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति (Appointment of Returning Officer)—निर्वाचन आयोग केन्द्रीय सरकार से सलाह करके निर्वाचन अधिकारी की नियुक्ति करता है और निर्वाचन अधिकारी की सहायता के लिए सहायक निर्वाचन अधिकारी नियुक्त करता है।
  • नामांकन-पत्रों का प्रवेश करना, उनकी जांच-पड़ताल और उन्हें वापस लेना (Filling of Nomination Papers, their Scrutiny and Withdrawal)—निश्चित तिथि से पहले उम्मीदवार नामांकन-पत्र भरने शुरू कर देते हैं और प्रवेश-पत्रों को भरने की तिथि समाप्त होने के बाद नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल की जाती है कि उम्मीदवार निश्चित योग्यताओं को पूरा करते हैं या नहीं। जिस उम्मीदवार का नामांकन-पत्र ठीक नहीं होता उसे रद्द कर दिया जाता है।
  • मतदान (Polling)—निश्चित तिथि को राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में होता है। संसद् के सदस्य दिल्ली में मतदान करते हैं और विधानसभाओं के सदस्य राज्यों की राजधानियों में मतदान करते हैं। संसद् के सदस्य अपने राज्य की राजधानियों में मतदान कर सकते हैं। 1974 के कानून के अनुसार संसद् के सदस्य को अपने राज्य के मतदान केन्द्र पर वोट डालने के लिए कम-से-कम 10 दिन पहले चुनाव आयोग को सूचना देनी पड़ती है। मतदान के पश्चात् मतों की पेटियों को सील करके दिल्ली निर्वाचन अधिकारी के पास भेज दिया जाता है।
  • मतगणना और चुनाव परिणाम (Counting of Votes and Declaration of Results) निश्चित तिथि को निर्वाचन अधिकारी के ऑफिस में मतों की गिनती की जाती है। मतों की गिनती के पश्चात् चुनाव परिणाम घोषित किया जाता है।
    आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के कारण चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों को मतों का निश्चित कोटा प्राप्त करना पड़ता है। कोटा निश्चित करने के लिए अग्रलिखित विधि अपनाई जाती है।

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यदि किसी चुनाव में कुल 8,40,000 मत डाले जाएं तो एक उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए कम-से-कम \(\frac{8,40,000}{1+1}+1=4,20,001\) अवश्य मिलने चाहिए अर्थात् राष्ट्रपति पद पर चुने जाने के लिए यह आवश्यक है कि उम्मीदवार को मतों का पूर्ण बहुमत अवश्य प्राप्त होना चाहिए।

सबसे पहले उम्मीदवारों को प्रथम पसन्द (First Preference) वाले मतों को गिना जाता है। यदि पहले गिनती में किसी उम्मीदवार को कोटा प्राप्त नहीं होता तो सबसे कम वोटों वाले उम्मीदवार को पराजित घोषित कर दिया जाता है और उसकी वोटों को दूसरी पसन्द के अनुसार हस्तांतरित (Transfer) कर दिया जाता है। यदि फिर भी किसी को कोटा प्राप्त न हो सके तो फिर जो सबसे कम वोटों वाला उम्मीदवार होगा उसे पराजित घोषित कर दिया जाएगा और उसकी वोटों को दूसरी पसन्द के अनुसार हस्तांतरित कर दिया जाएगा। यह क्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक किसी एक उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो जाता।।

अब तक हुए राष्ट्रपति के चुनाव-अब तक राष्ट्रपति सम्बन्धी कुल 15 चुनाव हुए हैं। इनका ब्योरा इस प्रकार है। दो बार डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी का, एक बार डॉ० राधाकृष्णन जी का, एक बार डॉ० जाकिर हुसैन जी का, एक बार डॉ० वी० वी० गिरी जी का, एक बार फखरुद्दीन अली अहमद का, एक बार श्री संजीवा रेड्डी का, एक बार ज्ञानी जैल सिंह का, एक बार डॉ० आर० वेंकटरमण का, एक बार डॉ० शंकर दयाल शर्मा और एक बार श्री के० आर० नारायणन का चुनाव हुआ। पहले चारों चुनावों में पहली मतगणना में ही सफल उम्मीदवार को कोटा प्राप्त हो गया था, परन्तु श्री वी० वी० गिरि के चुनाव के समय उन्हें कोटा दूसरी गणना (Second Count) में ही प्राप्त हो सका। 17 अगस्त, 1974 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में श्री फखरुद्दीन अली अहमद को 765587 मत प्राप्त हुए जबकि उनके निकटतम विरोधी श्री त्रिविद कुमार चौधरी को 189196 मत प्राप्त हुए। जुलाई 1977 में श्री संजीवा रेड्डी को सर्वसम्मति से राष्ट्रपति बनाया गया। यह पहला अवसर था जब राष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव नहीं हुआ।

जुलाई, 1982 में कांग्रेस (आई) के उम्मीदवार ज्ञानी जैल सिंह अपने एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार श्री हंस राज खन्ना को 4,71,428 मूल्य के मतों से पराजित कर देश के सातवें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। ज्ञानी जैल सिंह को 8,54,113 मूल्य के मत तथा श्री खन्ना को 2,82,685 मूल्य के मत मिले। जुलाई, 1987 में कांग्रेस (इ) के उम्मीदवार आर० वेंकटरमण ने विपक्षी उम्मीदवार न्यायाधीश अय्यर को हराया। जुलाई, 1992 में कांग्रेस (इ) के उम्मीदवार उप-राष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा भारत के नौवें राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने विपक्ष के उम्मीदवार जी० जी० स्वैल को 3,29,379 मतों से पराजित किया। जुलाई, 1997 में, राष्ट्रपति के पद के लिए 11वीं बार चुनाव हुआ। संयुक्त मोर्चा, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के सांझा उम्मीदवार उप-राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने शिव सेना के उम्मीदवार भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी० एन० शेषण को 9 लाख से अधिक मतों से पराजित किया। श्री के० आर० नारायणन प्रथम दलित हैं, जो राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए। राष्ट्रपति के लिए 12वां चुनाव जुलाई, 2002 में हुआ।

राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन, कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी के सांझा उम्मीदवार डॉ० पी० जे० अब्दुल कलाम ने वाम दलों की उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल को हराया। इस चुनाव में डॉ० कलाम को निर्वाचक मण्डल के 4152 मत प्राप्त हुए जबकि श्रीमति सहगल को 459 मत प्राप्त हुए। जुलाई, 2007 में राष्ट्रपति के लिए 13वीं बार चुनाव हुआ। इस चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की उम्मीदवार श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने स्वतन्त्र उम्मीदवार श्री भैरों सिंह शेखावत को हराया। राष्ट्रपति के पद के लिए 14वां चुनाव जुलाई, 2012 में हुआ। इस चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के उम्मीदवार श्री प्रणव मुखर्जी ने, जिन्हें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, शिवसेना एवं जनता दल (यू) का भी समर्थन प्राप्त था, श्री पी० ए० संगमा को हराया। श्री प्रणव मुखर्जी को 713763 (60%) मत प्राप्त हुए, जबकि श्री पी० ए० संगमा को 315987 (31%) मत प्राप्त हुए। राष्ट्रपति के पद के लिए 15वां चुनाव जुलाई, 2017 में हुआ। इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के उम्मीदवार श्री रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की उम्मीदवार श्रीमती मीरा कुमार को हराया।

चुनाव प्रणाली की आलोचना (Criticism of the Electoral System) –
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है–

1. अप्रजातन्त्रात्मक विधि (Undemocratic Method)-आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि अप्रजातन्त्रात्मक है क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष जनता द्वारा नहीं होता, परन्तु हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष जनता द्वारा चुनाव कराना आसान नहीं है।

2. जटिल विधि (Complex Method)-राष्ट्रपति के चुनाव की विधि बड़ी जटिल है, जिसे समझना आसान नहीं है।

3. यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व एकल संक्रमणीय प्रणाली नहीं है (It is not Proportional Representation and Single Transferable Vote System)-आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि को आनुपातिक प्रतिनिधित्व तथा एकल संक्रमणीय प्रणाली का नाम देना उचित नहीं है क्योंकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लिए चुनाव क्षेत्र बहुसदस्यीय होना चाहिए, परन्तु राष्ट्रपति के चुनाव में में सीट एक होती है। अतः आनुपातिक प्रणाली की एक अनिवार्य आवश्यकता राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली पूर्ण नहीं करती।

4. अस्पष्टता (Not Clear)-राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली में कई बातें अस्पष्ट हैं। उदाहरणस्वरूप, यदि उम्मीदवारों की संख्या दो से अधिक हो तथा किसी को भी पहली गिनती में पूर्ण बहुमत न मिले और साथ ही यदि मतदाताओं ने अपनी दूसरी पसन्द न दी हो तो उस अवस्था में चुनाव का निर्णय किस प्रकार किया जाएगा इस विषय में संविधान में कुछ नहीं लिखा गया है।

राष्ट्रपति के चुनाव सम्बन्धी विवाद (Dispute regarding Election of the President)-राष्ट्रपति का चुनाव सम्बन्धी विवाद केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुना जा सकता है। चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार या कम-से-कम दस निर्वाचकों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति के चुनाव को चुनौती दी जा सकती है। रिट का आधार सफल उम्मीदवार द्वारा रिश्वतखोरी, निर्वाचकों पर अनुचित प्रभाव, संविधान और राष्ट्रपति निर्वाचन सम्बन्धी कानून का उल्लंघन हो सकता है। डॉ० जाकिर हुसैन तथा श्री वी० वी० गिरि के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव सम्बन्धी रिटों को रद्द कर दिया।

कार्यकाल (Term of Office)-राष्ट्रपति अपने पद पर पांच वर्ष के लिए चुना जाता है और यह समय उस दिन से आरम्भ होता है जिस दिन राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन होता है। उसे दोबारा चुने जाने का अधिकार है। भारत में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने तीसरी बार चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया तो यह आशा की गई थी कि कोई भी राष्ट्रपति तीसरी क्योंकि डॉ० राधाकृष्णन दूसरी बार खड़े नहीं हुए।

पांच वर्ष की अवधि से पहले केवल तीन कारणों से ही उसका पद खाली हो सकता है-(1) यदि वह स्वयं त्यागपत्र दे दे, (2) यदि उसकी मृत्यु हो जाए तथा (3) यदि उसे महाभियोग द्वारा पद से हटा दिया जाए।

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वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances)-राष्ट्रपति को 5,00,000 रु० मासिक वेतन मिलता है। राष्ट्रपति को मिलने वाले वेतन पर आय कर देना पड़ता है। राष्ट्रपति को रहने के लिए बिना किराए के निवास स्थान मिलता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को कई अन्य भत्ते मिलते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उसे 2,50,000 रुपये मासिक पेंशन मिलती है।

राष्ट्रपति को वेतन तथा भत्ते भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) से मिलते हैं। उनका वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधाएं उनके कार्यकाल में घटाई नहीं जा सकती।

प्रश्न 2.
भारतीय राष्ट्रपति के अधिकारों और कार्यों का उल्लेख कीजिए।
(Describe the powers and duties of the President of India.)
अथवा
संकटकालीन शक्तियों को छोड़ कर भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों का उल्लेख करें।
(Explain the powers of the President of India, other than emergency.)
उत्तर-
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की व्यवस्था है । संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां संविधान की धारा 53 के अनुसार राष्ट्रपति को दी गई हैं, जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों की सहायता से कर सकता है। परन्तु वास्तव में संसदीय शासन व्यवस्था होने के कारण वह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार न करके मन्त्रिमण्डल की सहायता से ही करता है ।

राष्ट्रपति की शक्तियां (Powers of the President)-राष्ट्रपति को मुख्य रूप से संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां मिली हुई हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार की शक्तियां भी उसके पास हैं । वास्तव में भारत का समस्त शासन उसी ने नाम पर चलता है। उसकी शक्तियां को हम दो भागों में बांट सकते हैं-(क) शान्तिकालीन शक्तियां, तथा (ख) संकटकालीन शक्तियां।

(क) शान्तिकालीन शक्तियां (Powers in Normal Times)-राष्ट्रपति को शान्ति के समय जो शक्तियां मिली हुई हैं, वे भी कई प्रकार की हैं :

(1) कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers)
(2) विधायनी शक्तियां (Legislative Powers)
(3) वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)
(4) न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers) ।

1. कार्यपालिका शक्तियां (Executive Powers)-राष्ट्रपति को निम्नलिखित कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त हैं :

(i) प्रशासकीय शक्तियां (Administrative Powers)-भारत का समस्त प्रशासन उसी के नाम पर चलाया जाता है और भारत सरकार के सभी निर्णय औपचारिक रूप से उसी के नाम पर लिए जाते हैं । देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है ।
(ii) मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां (Powers relating to Council of Ministers)-राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री को नियुक्त करता है और उसके परामर्श से मन्त्रिमण्डल के अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है । वह मन्त्रियों को पदच्युत कर सकता है परन्तु प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही वह यह कार्य कर सकता है ।
(iii) नियुक्तियां करने की शक्तियां (Powers of making Appointments)—सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं । अटॉर्नी जनरल, चुनाव कमिश्नर, महालेखा परीक्षक, (Auditor and Comptroller General), संघीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा दूसरे सदस्य, यदि राज्यों का सांझा लोक सेवा आयोग हो तो उनका प्रधान तथा दूसरे सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों, विदेशों को भेजे जाने वाले राजदूतों, राज्य के राज्यपालों तथा संघीय क्षेत्रों का राज्य-प्रबन्ध चलाने के लिए चीफ कमिश्नर तथा उप राज्यपाल आदि की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । राष्ट्रपति को कई प्रकार के आयोगों जैसे कि भाषा आयोग, वित्त आयोग, चुनाव आयोग, अनुसूचित जातियों, कबीलों तथा पिछड़े हुए वर्गों के सम्बन्ध में आयोग आदि निर्माण करने का भी अधिकार है ।
(iv) सैनिक शक्तियां (Military Powers)-राष्ट्रपति राष्ट्र की सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है । वह स्थल सेना, जल सेना और वायु सेनाध्यक्षों को नियुक्त करता है । वह फील्ड मार्शल की उपाधि भी प्रदान करता है । वह राष्ट्रीय रक्षा समिति का अध्यक्ष है ।

(v) विदेशी सम्बन्धों की शक्तियां (Powers relating to Foreign Affairs)-राष्ट्रपति को विदेशी मामलों में भी बहुत-से-अधिकार प्राप्त हैं । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वह भारत का प्रतिनिधित्व करता है । दूसरे देशों को भेजे जाने वाले राजदूत उसी के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और अन्य देशों के राजदूतों को भारत में वही स्वीकार करता है। राष्ट्रपति युद्ध और शान्ति की घोषणा कर सकता है ।

(vi) राज्य सरकारों को निर्देश देने की शक्ति (Powers of issuing directions to State Governments)राष्ट्रपति को राज्यों के आपसी सम्बन्धों के बारे में कुछ निर्देश जारी करने और उन पर नियन्त्रण रखने तथा उनमें सहयोग उत्पन्न करने के भी कुछ अधिकार हैं। वह राज्य सरकारों को संघीय कानून के उचित पालन के लिए आदेश दे सकता है । आदिम जन-जाति क्षेत्रों के प्रशासन के लिए असम और नागालैंड के राज्यपाल राष्ट्रपति के एजेन्ट के रूप में काम करते हैं।

(vii) संघीय प्रदेशों का प्रशासन (Administration of Union Territories) केन्द्रीय प्रदेशों (Union Territories) का प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर ही चलता है ।

2. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-यद्यपि राष्ट्रपति संसद् का सदस्य नहीं होता फिर भी उसे संसद् का अभिन्न अंग होने के कारण वैधानिक शक्तियां प्राप्त हैं ।
राष्ट्रपति की विधायिनी शक्तियों का उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है :

(i) राष्ट्रपति की संसद् के अधिवेशन बुलाने और सत्रावसान सम्बन्धी शक्तियां-राष्ट्रपति ही संसद् के दोनों सदनों का अधिवेशन बुला सकता है, अधिवेशन का समय बढ़ा सकता है तथा उसे स्थगित कर सकता है । राष्ट्रपति ही अधिवेशन के स्थान और समय को निश्चित करता है। वह जब चाहे अधिवेशन बुला सकता है, परन्तु यह आवश्यक है कि पिछले अधिवेशन की अन्तिम बैठक और अगले अधिवेशन की पहली बैठक में छ: महीने से अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए।

(ii) राष्ट्रपति द्वारा संसद् में भाषण-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों में अलग-अलग या दोनों के सम्मिलित अधिवेशन को सम्बोधित कर सकता है । नई संसद् का पहला तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से ही आरम्भ होता है जिसमें राष्ट्रपति संसद् को उन उद्देश्यों की सूचना देता है जिनके लिए कि अधिवेशन बुलाया गया है राष्ट्रपति अपने भाषण में सरकार की गृह-नीति, विदेश-नीति तथा अन्य नीतियों पर प्रकाश डालता है ।

(iii) राज्यसभा के 12 सदस्य मनोनीत करना-राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत करता है । जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला या सामाजिक सेवा के बारे में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होता है ।

(iv) लोकसभा में एंग्लो-इण्डियन को मनोनीत करना-राष्ट्रपति को 2 एंग्लो इण्डियन को लोकसभा का सदस्य मनोनीत करने के अधिकार प्राप्त है बशर्ते कि इस समुदाय को निर्वाचन द्वारा समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाया हो ।

(v) संसद् द्वारा पास किए गए बिलों पर स्वीकृति-दोनों सदनों के पास होने के बाद बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आता है तथा उसकी स्वीकृति के बिना कानून नहीं बन सकता । धन विधेयक (Money Bill) पर उसे स्वीकृति देनी पड़ती है क्योंकि धन-बिल राष्ट्रपति की सिफ़ारिश पर ही पेश होते हैं । साधारण बिलों पर उसे निषेधाधिकार (Veto Power) का अधिकार प्राप्त है अर्थात् वह साधारण बिल पर अपनी स्वीकृति देने से इन्कार कर सकता है, स्वीकृति रोक सकता है तथा बिल को संसद् में वापस भेज सकता है। परन्तु यदि दूसरी बार संसद् साधारण बहुमत से बिल को पास कर देती है तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है । 1987 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैन सिंह ने भारतीय डाकघर (संशोधन) विधेयक को न तो स्वीकृति दी और न ही संसद् को वापस भेजा ।

(vi) कुछ बिल राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से संसद् में पेश किए जा सकते हैं-धन बिल और कुछ बिल जैसे कि नए राज्यों को बनाने तथा वर्तमान राज्यों के नाम और सीमा में परिवर्तन करने से सम्बन्ध रखने वाले बिल राष्ट्रपति की सिफ़ारिश के बिना संसद् में पेश नहीं किए जा सकते । व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाने वाले विधेयक इसी प्रकार का विधेयक है।

(vii) लोकसभा को भंग करने की शक्ति-लोकसभा की अवधि पांच वर्ष है, परन्तु राष्ट्रपति निश्चित अवधि से पहले भी लोकसभा को भंग कर सकता है । राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग प्रधानमन्त्री की सलाह से करता है । 26 अप्रैल, 1999 को राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर लोक सभा को भंग किया था।

(vii) राज्य विधानमण्डलों द्वारा पास कुछ बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं-गवर्नर राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए ऐसे बिलों के जिनका उद्देश्य निजी सम्पत्ति का अनिवार्य अर्जन हो या उच्च न्यायालय की शक्तियां को कम करना हो या संसद् द्वारा घोषित की गई आवश्यक वस्तुओं पर क्रय-विक्रय कर लगाना हो इत्यादि, राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है ।

(ix) अध्यादेश जारी करना-जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो और परिस्थितियां इस बात को बाध्य करती हों तो राष्ट्रपति को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने का अधिकार है । यह अध्यादेश उसी शक्ति और प्रभाव के साथ लागू होते हैं जिस प्रकार कि संसद् द्वारा बनाए गए अधिनियम । परन्तु संसद् का अधिवेशन आरम्भ होते ही ये उसके सामने रखे जाने आवश्यक हैं और अधिवेशन आरम्भ होने की तिथि से लेकर 6 सप्ताह तक वह अध्यादेश जारी रह सकता है । 6 सप्ताह पश्चात् अध्यादेश समाप्त हो जाएगा । इसके पहले भी संसद् अध्यादेश को रद्द कर सकती है और राष्ट्रपति भी जब चाहे उसे वापस ले सकता है। यदि संविधान की धाराओं को अच्छी तरह पढ़ा जाए तो इसका भाव निकलता है कि राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया अध्यादेश पूरे 772 मास तक चल सकता है । राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की पूर्ण छूट है तथा उसके निर्णय को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती ।

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(x) सन्देश भेजने का अधिकार-राष्ट्रपति संसद् के किसी भी सदन को सन्देश भेज सकता है । जिस सदन को राष्ट्रपति द्वारा सन्देश भेजा जा सकता है । वह शीघ्र ही उस सन्देश पर विचार करता है । सन्देश किसी ऐसे विधेयक के साथ जो या तो संसद् के समक्ष विचाराधीन हो अथवा जो महत्त्वपूर्ण हो, भेजा जाता है ।

3. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)—राष्ट्रपति को काफ़ी महत्त्वपूर्ण वित्तीय अधिकार प्रदान किए गए हैं:-

  • बजट पेश करना-सरकारी आय-व्यय का वार्षिक बजट राष्ट्रपति ओर से संसद् के समक्ष प्रस्तुत किया जाता
  • वित्त बिल प्रस्तुत करने की अनुमति देता है-राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना कोई वित्त बिल संसद में पेश नहीं किया जा सकता । उसकी अनुमति के बिना किसी वित्तीय अनुदान की मांग नहीं की जा सकती ।
  • आकस्मिक निधि पर नियन्त्रण-भारत की आकस्मिक निधि (Contingency Fund of India) राष्ट्रपति के अधीन है । इस निधि से वह किसी भी आकस्मिक खर्च के लिए संसद् की स्वीकृति से पूर्व ही धनराशि खर्च कर सकता है।
  • आयकर से होने वाली आय तथा पटसन के निर्यात कर से हुई आय का वितरण-राष्ट्रपति आय कर से होने वाली आय में विभिन्न राज्यों के भाग को निर्धारित करता है तथा यह भी निश्चित करता है कि पटसन के निर्यात कर की आय में से कुछ राज्यों को बदले में क्या धनराशि मिलनी चाहिए ।
  • राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति करता है ।

4. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राष्ट्रपति को बहुत-सी न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं-

  • राष्ट्रपति को न्यायालयों द्वारा दण्डित व्यक्तियों के सम्बन्ध में क्षमा प्रदान (Pardon) करने और उनकी सज़ा को कम करने का अधिकार प्राप्त है अर्थात् राष्ट्रपति किसी अपराधी की सज़ा न केवल पूर्ण रूप से क्षमा कर सकता है बल्कि उसे कुछ दिनों के लिए लागू होने से रोक सकता है या उसके स्वरूप को परिवर्तित कर सकता है। 8 नवम्बर, 1997 को राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने निरंकारी संत बाबा गुरबचन सिंह की हत्या में अपराधी ठहराए गए अकाल तख्त के जत्थेदार भाई रणजीत सिंह को माफ़ी दी।
  • राष्ट्रपति राज्यों के उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियां करता है।
  • राष्ट्रपति किसी भी विषय में सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकता है । सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे विषयों पर सलाह देनी पड़ती है, परन्तु राष्ट्रपति के लिए परामर्श लेना आवश्यक नहीं है ।

(ख) राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)-राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का वर्णन संविधान के 18वें भाग में किया गया है । अग्रलिखित तीन प्रकार की अवस्थाओं में राष्ट्रपति को संकटकाल की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त हैं :

  1. युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र-विद्रोह से उत्पन्न संकट ।
  2. किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी के फेल हो जाने के कारण उत्पन्न संकट ।
  3. देश में आर्थिक अथवा वित्तीय संकट के कारण उत्पन्न परिस्थिति ।

1. युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट (Emergency due to War, External aggression or Armed Rebellion-Act. 352)—संविधान की धारा 352 के अनुसार राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट (National Emergency) की घोषणा कर सकता है । यदि उसको विश्वास हो जाए कि गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है जैसे युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग की सुरक्षा खतरे में है । 59वें संशोधन के अनुसार आन्तरिक गड़बड़ी की स्थिति में पंजाब में आपात्काल को लागू किया जा सकता है । परन्तु राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह से ही कर सकता है ।

2. राज्य में संवैधानिक मशीनरी फेल होने से उत्पन्न संकट (Emergency due to the constitutional breakdown-Art. 356)-जब राष्ट्रपति के राज्यपाल अथवा किसी अन्य स्त्रोत के आधार पर विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह इस आशय की घोषणा कर सकता है । संसद् की स्वीकृति के बिना यह घोषणा दो महीने तक लागू रह सकती है । संसद् की स्वीकृति मिलने पर यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और 6 महीने के बाद यदि संसद् दोबारा प्रस्ताव पास कर दे तो 6 महीने और लागू रह सकती है । 59वें संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 3 वर्षों तक लागू रह सकता है। परन्तु 64वें संशोधन के अनुसार यह अवधि 6 महीने और बढ़ा दी गई और 68वें संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 5 वर्ष तक लागू रह सकता है ।

3. आर्थिक संकट के समय उत्पन्न स्थिति (Emergency due to Financial Crisis-Art. 360)—यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह वित्तीय आपात् की घोषणा (अनुच्छेद 360) कर सकता है । ऐसी उद्घोषणा पर दो महीने के अन्दर संसद् की स्वीकृति प्राप्त हो जानी चाहिए । ऐसी उद्घोषणा अनिश्चित समय तक जारी रहती है ।

राष्ट्रपति की स्थिति (Position of the President)-भारत में राष्ट्रपति की उचित स्थिति क्या है, इसके बारे शक्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक शक्तिशाली पद का स्वामी है। यदि वह चाहे तो अपनी इन शक्तियों का प्रयोग करके तानाशाह भी बन सकता है ।

राष्ट्रपति की शक्तियों की कानूनी व्याख्या के आधार पर हम राष्ट्रपति के बारे में कुछ भी कह लें, परन्तु उसकी वास्तविक और व्यावहारिक स्थिति कुछ और ही है । भारत में संसदीय शासन प्रणाली है और राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का संवैधानिक अध्यक्ष है। वह केवल शान्ति के समय में ही नहीं बल्कि संकट के समय भी अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही कर सकता है। मन्त्रिमण्डल की सलाह के बिना और सलाह के विरुद्ध वह किसी शक्ति का प्रयोग नहीं करता । 44वें संशोधन के अन्तर्गत अनुच्छेद 74 में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल द्वारा जो भी सलाह दी जाती है, राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल को उस पर पुनः विचार करने के लिए कह सकता है और पुनर्विचार करने के बाद मन्त्रिमण्डल जो सलाह राष्ट्रपति को देता है, उसे वह सलाह माननी पड़ेगी । उसका पद आदर और सम्मान का पद तो है, परन्तु शक्ति सम्पन्न नहीं । यदि वह अपनी शक्ति का प्रयोग अपनी इच्छा के अनुसार करने का प्रयत्न करे तो एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो सकता है तथा इस बात को मन्त्रिमण्डल व संसद् दोनों में से कोई भी सहन नहीं करेगा और उस पर महाभियोग लगाकर संसद् द्वारा उसे अपदस्थ कर दिया जायगा । 29 अप्रैल, 1977 को मन्त्रिमण्डल ने कार्यवाहक राष्ट्रपति को 9 राज्यों की विधानसभाओं को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू करने की सलाह दी जिस पर कार्यवाहक राष्ट्रपति बी० डी० जत्ती ने 24 घण्टे पश्चात् अर्थात् 30 अप्रैल, 1977 को अमल किया । कार्यवाहक राष्ट्रपति के 24 घण्टे बाद हस्ताक्षर करने की सभी समाचार-पत्रों ने अपने-अपने सम्पादकीय लेख में कड़ी आलोचना की और इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सलाह तुरन्त माननी चाहिए थी । डॉ० अम्बेदकर ने संविधान-सभा में भाषण देते हुए कहा था, “हमारे राष्ट्रपति की वही स्थिति है जो कि ब्रिटिश संविधान के अन्तर्गत वहां के सम्राट की। वह राज्य का अध्यक्ष है कार्यपालिका का नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, शासन नहीं ।”

राष्ट्रपति निम्नलिखित शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है :-

  1. सलाह देने का अधिकार (Right to Advice)-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल को किसी भी विषय पर सलाह दे सकता है । भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने उस समय के प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू को कई बार कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर सलाह दी । इसी प्रकार डॉ० राधाकृष्णन ने उस समय की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी को कई बार सलाह दी ।
  2. उत्साहित करने का अधिकार (Right to Encourage)-जब मन्त्रिमण्डल देश के हित में कार्य कर रहा हो तो राष्ट्रपति उसका उत्साह बढ़ाने के लिए उसकी प्रशंसा कर सकता है । भूतपूर्व राष्ट्रपति वी० वी० गिरी ने भूतपूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी को उनकी नीतियों के लिए समय-समय पर प्रोत्साहित किया ।
  3. चेतावनी देने का अधिकार (Right to Warn)-यदि मन्त्रिमण्डल देश के हित में कार्य न कर रहा हो तो राष्ट्रपति उसको चेतावनी दे सकता है । .
  4. सूचना प्राप्त करने का अधिकार (Right to be Informed)-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल व प्रधानमन्त्री से प्रशासन सम्बन्धी कोई भी सूचना प्राप्त कर सकता है ।
  5. संविधान की रक्षा का अधिकार (Right to Protect the Constitution)-राष्ट्रपति संविधान की रक्षा के लिए शपथ-बद्ध होता है । वह संविधान की रक्षा करने के लिए कई प्रकार के कदम उठा सकता है ।
  6. किसी बिल को पुनर्विचार के लिए भेजने का अधिकार (Right to send any bill for Reconsideration)-राष्ट्रपति किसी भी साधारण बिल को पुनर्विचार करने के लिए वापस भेज सकता है ।।

उपर्युक्त सभी कार्यों के लिए राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सलाह लेने की आवश्यकता नहीं होती है । वास्तव में राष्ट्रपति की स्थिति उसके अपने व्यक्तित्व पर निर्भर करती है । यदि एक अच्छे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति इस पद पर आसीन हो तो वह शासन पर भी अपना प्रभाव डाल सकता है । पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “हमने अपने राष्ट्रपति को वास्तविक शक्ति नहीं दी अपितु उसके पद को बड़ा शक्तिशाली तथा सम्मानजनक बनाया है ।” (“We have not given our President any real power but we have made his position one of great authority and dignity.”’)

प्रश्न 3.
भारतीय राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए । क्या भारतीय राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
(Critically examine the emergency powers of the Indian President. Can Indian President become a dictator ?)
उत्तर-
जिस प्रकार किसी व्यक्ति के जीवन में कठिनाइयां आ सकती हैं, उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन में संकट आ सकते हैं । संकट का सामना करने के लिए सरकार के पास असाधारण शक्तियों का होना आवश्यक है । अतः संविधान के अन्तर्गत संकटकालीन धाराओं का वर्णन कर देना उचित होता है । भारतीय संविधान निर्माताओं ने संकटकाल का सामना करने के लिए संविधान के भाग 18 में संकटकालीन धाराओं का वर्णन किया है अर्थात् इस भाग में राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का वर्णन किया गया है ताकि देश की सुरक्षा को सुरक्षित रखा जा सके ।
संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में तीन प्रकार के संकट का वर्णन किया गया है :

  • युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र-विद्रोह से उत्पन्न संकट ।
  • किसी राज्य में संवैधानिक प्रणाली के फेल हो जाने के कारण बने आकस्मिक संकट।
  • देश में आर्थिक अथवा वित्तीय संकट के कारण उत्पन्न परिस्थिति ।

Mसंविधान की धारा 352 के अनुसार राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट (National Emergency) की घोषणा कर सकता है यदि उसको विश्वास हो जाए कि गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है जैसे युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग की सुरक्षा खतरे में है। 59वें संशोधन के अनुसार पंजाब में आन्तरिक गड़बड़ी (Internal disturbance) के आधार पर भी आपात्काल की घोषणा की जा सकती है। परन्तु राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे ।

राष्ट्रपति की राष्ट्रीय संकट की घोषणा एक महीने तक लागू रह सकती है । एक महीने के बाद संकटकालीन घोषणा समाप्त हो जाती है । यदि इससे पहले संसद् के दोनों सदन अलग-अलग इसको कुल संख्या के बहुमत और उपस्थित तथा मतदान के दो तिहाई सदस्यों ने पास न कर दिया हो । यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और संकटकाल की घोषणा को लागू रखने के लिए यह आवश्यक है कि 6 महीने के बाद संसद् के दोनों सदन संकटकाल की घोषणा के प्रस्ताव को पास करें । यदि लोकसभा संकटकाल की घोषणा लागू रहने के विरुद्ध प्रस्ताव को पास कर दे तो संकटकाल की घोषणा लागू नहीं रह सकती । लोकसभा के 10 प्रतिशत सदस्य अथवा अधिक सदस्य घोषणा के अस्वीकृति प्रस्ताव पर विचार करने के लिए लोकसभा की बैठक बुला सकते है ।

इस घोषणा के परिणाम (Effects of Proclamation)-राष्ट्रीय संकटकालीन घोषणा के समय शासन का संघीय रूप एकात्मक हो जाता है । समस्त देश का शासन संघीय सरकार के हाथ में आ जाता है ।

  1. केन्द्रीय सरकार राज्यों की सरकारों को निर्देश दे सकती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करें ? राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति के आदेशानुसार कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हैं।
  2. संसद् को राज्य-सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है ।
  3. राष्ट्रपति को संघीय सरकार तथा राज्यों में धन विभाजन सम्बन्धी योजना में अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार मिल जाता है ।
  4. संसद् को संकटकाल के समय कानून द्वारा अपनी अवधि को एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाने का अधिकार मिल जाता है, परन्तु यह अवधि संकटकालीन घोषणा के समाप्त होने के 6 मास से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती ।
  5. धारा 19 के अन्तर्गत दी गई स्वतन्त्रताओं को स्थगित किया जा सकता है । परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 19 में दिए गए अधिकार तभी स्थगित किए जा सकते हैं यदि संकटकाल की घोषणा युद्ध अथवा बाहरी हमले के कारण हो न कि सशस्त्र विद्रोह पर । 59वें संशोधन के अनुसार पंजाब में 19 अनुच्छेद में दी गई स्वतन्त्रताएं सशस्त्र विद्रोह अथवा आन्तरिक गड़बड़ी के कारण घोषित आपात्काल में भी स्थगित की जा सकती है ।
  6. राष्ट्रपति राज्य सूची के विषयों पर भी अध्यादेश जारी कर सकता है ।

7 M का सहारा लेने के अधिकारों को समस्त भारत या उसके किसी भी भाग में स्थगित कर सकता था, परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को लागू कराने के अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता । 59वें संशोधन के अन्तर्गत पंजाब में आन्तरिक गड़बड़ी के कारण घोषित आपात्काल में इस अधिकार को भी स्थगित किया जा सकता है ।

चीनी आक्रमण पर राष्ट्रपति ने 20 अक्तूबर, 1962 को संकटकाल की घोषणा की थी । दूसरी बार यह घोषणा 3 दिसम्बर, 1971 को की गई और तीसरी बार 26 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने आन्तरिक अशान्ति के कारण आपात्कालीन घोषणा की और इस आन्तरिक आपात्कालीन स्थिति को 21 मार्च, 1977 को समाप्त किया गया और 1971 में लागू की गई आपात्कालीन स्थिति को 27 मार्च, 1977 को समाप्त किया गया ।

2. राज्यों में संवैधानिक मशीनरी फेल होने से पैदा हुए संकट (Emergency due to the Constitutional break down)-Art. (356)-जब राष्ट्रपति को गवर्नर की रिपोर्ट पर अथवा किसी अन्य स्रोत के आधार पर विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह इस आशय की संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संसद् की स्वीकृति के बिना यह घोषणा 2 महीने तक लागू रह सकती है, संसद् की स्वीकृति मिलने पर यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और 6 महीने बाद यदि संसद् दोबारा प्रस्ताव पास कर दे तो 6 महीने और लागू रह सकती है। इस प्रकार की घोषणा साधारणतः अधिक-से-अधिक एक वर्ष तक लागू रह सकती है । एक वर्ष से अधिक तभी लागू रह सकती है यदि राष्ट्रीय संकटकालीन घोषणा लागू हो और चुनाव आयोग यह प्रमाण-पत्र दे कि विधानसभा के चुनाव करवाना कठिन है । 59वें संशोधन के अन्तर्गत पंजाब में राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि तीन वर्ष की गई और 68वें संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 5 वर्ष तक लागू रह सकता है ।

प्रभाव (Effects) –

  1. राष्ट्रपति राज्य की सरकार के उच्च न्यायालय को छोड़ कर अन्य किसी अधिकारी के सब या कोई कार्य अपने हाथ में ले सकता है ।
  2. राष्ट्रपति घोषणा कर सकता है कि राज्य में विधानमण्डल की शक्तियां संसद् के अधिकार द्वारा या अधीन प्रयुक्त होंगी ।
  3. राज्य का मन्त्रिमण्डल तथा विधानमण्डल स्थगित अथवा भंग किया जा सकता है।
  4. राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है तथा उसके नियन्त्रण में रहते हुए उसकी सभी आज्ञाओं का पालन करता है ।
  5. संसद् उन वैधानिक शक्तियों को जो उसे राज्य विधानमण्डल के बदले में प्राप्त होती हैं, राष्ट्रपति को हस्तांतरित कर सकती है जो उसे अन्य किसी अधिकारी को सौंप सकता है ।
  6. जब लोकसभा का अधिवेशन न हो रहा हो तब राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि में से संसद् की आज्ञा मिलने तक आवश्यक व्यय को प्राधिकृत कर सकता है ।

1951 मे पंजाब में प्रथम बार इस घोषणा को लागू किया गया था । 1952 में पेप्सू, 1954 में आन्ध्र प्रदेश, 1966 में पंजाब, नवम्बर, 1972 में उत्तर प्रदेश तथा 1976 में गुजरात में इस घोषणा को लागू किया गया । मार्च, 1977 में जम्मू-कश्मीर में भी इस प्रकार की घोषणा को लागू किया गया । 30 अप्रैल, 1977 को कार्यवाहक राष्ट्रपति बी० डी० जत्ती (B. D. Jatti) ने भी नौ राज्यों-उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, पश्चिमी बंगाल, बिहार और उड़ीसा के विधानसभाओं को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू किया। 17 फरवरी, 1980 को राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने भी नौ राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडू, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, उड़ीसा और गुजरात की विधानसभाओं को भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू किया।

पंजाब के राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर रे की सिफ़ारिश पर 11 मई, 1987 को पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया और 25 फरवरी, 1992 को समाप्त हुआ । 6 दिसम्बर, 1992 को उत्तर प्रदेश में तथा 15 दिसम्बर, 1992 को मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 27 संघीय कार्यपालिका-राष्ट्रपति

3. आर्थिक संकट के समय उत्पन्न स्थिति (Emergency due to Financial Crisis, Art. 360) यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह वित्तीय आपात् की घोषणा (अनुच्छेद 360) कर सकता है । ऐसी उद्घोषणा पर दो महीने के अन्दर-अन्दर संसद् की स्वीकृति प्राप्त हो जानी चाहिए । वित्तीय संकट की घोषणा भारत में अभी तक एक बार भी नहीं की गई । इस प्रकार की संकट की स्थिति में राष्ट्रपति को निम्नलिखित विशेष शक्तियां मिलती हैं :-

(क) वह राज्यों द्वारा पास किए गए धन बिलों को अपनी स्वीकृति के लिए मंगवा सकता है ।
(ख) वह राज्यों को धन-सम्बन्धी कोई भी आदेश दे सकता है ।
(ग) वह सब सरकारी कर्मचारियों के (केन्द्र और राज्य के जिनमें सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों के जज भी सम्मिलित हैं), वेतन और भत्तों में कमी कर सकता है ।
(घ) राष्ट्रपति संघ तथा राज्यों के मध्य आय के साधारण विभाजन में परिवर्तन कर सकता है ।

संकटकालीन शक्तियों की आलोचना (Criticism of Emergency Powers) –

संविधान सभा के अन्दर तथा बाहर दोनों स्थानों पर राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की बड़ी तीव्र आलोचना की गई थी । यह आलोचना बड़ी गम्भीर तथा आधारपूर्ण थी । संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने यह विचार प्रकट किया कि एक ऐसे शासन अधिकारी को जो न तो जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप में चुना गया हो तथा न ही संसद् के सम्मुख उत्तरदायी हो, इतनी व्यापक शक्तियों का देना उचित नहीं लगता । कुछ अन्य सदस्यों का यह विचार था कि भारत का राष्ट्रपति इन शक्तियों के दुरुपयोग से लोकतन्त्र का अन्त कर सकता है । इसी विचारधारा को लेकर इस डर को प्रकट किया गया कि भारत का राष्ट्रपति अपनी संकटकालीन शक्तियों का सहारा लेकर उसी प्रकार की तानाशाही स्थापित कर सकता है। जैसे कि हिटलर ने वाइमर संविधान की धारा 48 का सहारा लेते हुए की थी । श्री एच० वी० कॉमथ (Shri H.V. Kamth) ने आलोचना करते हुए कहा था, “विश्व के लोकतन्त्रीय देशों के किसी भी संविधान की हमारे संविधान के संकटकाल सम्बन्धी अध्याय से तुलना नहीं की जा सकती ।”

श्री के० टी० शाह (K.T. Shah) ने इसको संविधान के सबसे अधिक अप्रगतिशील अध्याय की अन्तिम तथा सुन्दर झांकी कहा है ।
जिस समय संविधान सभा ने राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों को निलम्बित (Suspend) करने की व्याख्या को स्वीकार किया तब श्री० एच० वी० कॉमथ ने यह घोषणा की, “यह लज्जा तथा शोक का दिन है, परमात्मा भारतीयों की रक्षा करे ।” (“It is a day of Shame and sorrow, God save Indian people.”)
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के विरुद्ध कुछ और भी विचार दिए गए हैं जिस कारण इन शक्तियों की बहुत आलोचना की जाती है । वे विचार निम्नलिखित हैं-

1. आपात्काल की शक्तियों का दुरुपयोग होने की सम्भावना (Possibility of misuse of Emergency Powers)-राष्ट्रपति को यह पूर्ण अधिकार दिया गया है कि यदि वह अनुभव करे तो किसी युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के उत्पन्न होने से पूर्व ही संकटकाल की घोषणा कर सकता है तथा उसकी शक्ति को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि ऐसा करने की मन्त्रिमण्डल लिखित सलाह दे ।।

2. मौलिक अधिकारों का स्थगन (Suspension of Fundamental Rights)—संकट के समय राष्ट्रपति लोगों के मौलिक अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को भी नष्ट कर सकता है और इससे उसकी स्थिति और भी शक्तिशाली बन जाती है । वह सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित अधिकारों को भी समाप्त कर सकता है ।

3. यह संघात्मक सरकार के लिए खतरा है (Danger for Federation)—यह भी बड़े आश्चर्य की बात है कि संकटकाल की घोषणा के समय संघीय ढांचा एकात्मक सरकार में बदला जाता है तथा इकाइयों की सरकारें समाप्त कर दी जाती हैं । इसी कारण संविधान सभा में श्री टी० टी० कृष्णमाचारी (T.T. Krishanamahari) ने कहा था, “भारतीय संविधान साधारण काल में संघात्मक तथा युद्ध एवं अन्य संकटकालीन परिस्थतियों में एकात्मक रूप धारण कर लेता है ।”

4. राष्ट्रपति एक महीने के लिए तानाशाह बन सकता है (President can become despot for one month)—संकटकालीन स्थिति संसद् की स्वीकृति के बिना एक महीने तक लागू रह सकती है। उस समय राष्ट्रपति समस्त देश का शासन अपने हाथों में ले सकता है और अपनी स्थिति बहुत शक्तिशाली बना सकता है।

5. अनुच्छेद 356 का राजनीतिक उद्देश्य के लिए प्रयोग (Use of Article 356 for Political Purposes). केन्द्र में सत्तारूढ़ दल किसी ऐसे राज्य में भी जहां मन्त्रिमण्डल की स्थिति दृढ़ हो, संवैधानिक मशीनरी के फेल होने की घोषणा कर सकता है, केवल इसलिए कि वहां पर कोई अन्य पार्टी शासन चला रही है । अतः संघीय सरकार राष्ट्रपति के माध्यम से राज्य में विरोधी दलों द्वारा निर्मित सरकारों का दमन कर सकती है । व्यवहार में केन्द्र ने सत्तारूढ़ दल के अनुच्छेद 356 का कई बार दुरुपयोग किया है । 15 दिसम्बर, 1992 को केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचल प्रदेश की सरकारें भंग करके राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया क्योंकि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें थीं । मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य की पूर्व भाजपा सरकार को भंग करने सम्बन्धी राष्ट्रपति की अधिसूचना अप्रैल 1993 को रद्द कर दी । उच्च न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा कि राष्ट्रपति की अधिसूचना संविधान के अनुच्छेद 356 के प्रावधानों की परिधि से बाहर है। सर्वोच्च न्यायालय ने अक्तूबर 1993 को एक फैसले में नागालैण्ड में (1987), कर्नाटक में (1989) को राष्ट्रपति शासन को लागू करने के फैसले को असंवैधानिक बताया ।।

राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सकता (President cannot become dictator)-राष्ट्रपति को संकटकालीन शक्तियां काफ़ी सोच-विचार के बाद दी गई हैं और इनका प्रयोग करके उसके तानाशाह बनने की कोई सम्भावना नहीं है । राष्ट्रपति को ऐसा करने से रोकने के लिए मन्त्रिमण्डल है जो वास्तव में शक्तियों का प्रयोग करता है :-

  1. राष्ट्रपति संकटकाल की उद्घोषणा मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही कर सकता है। 44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि ऐसा करने की मन्त्रिमण्डल लिखित सलाह दे।
  2. राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा पर एक महीने के अन्दर संसद् की स्वीकृति प्राप्त करनी होती है । यदि संसद् स्वीकृति नहीं देती तो वह घोषणा लागू होनी बन्द हो जाती है । यदि लोकसभा भंग हो तो राज्यसभा की स्वीकृति आवश्यक है।
  3. संकट के समय भी राष्ट्रपति संसद् को भंग नहीं कर सकता। राष्ट्रपति लोकसभा को तो भंग कर सकता है, पर राज्यसभा को नहीं । लोकसभा को मन्त्रिमण्डल की सलाह से ही भंग किया जा सकता है।
  4. यदि राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का उचित प्रयोग न करे या मनमानी करना चाहे तो संसद् उसके विरुद्ध महाभियोग लगाकर उसे पद से हटा सकती है।

संकटकालीन शक्तियों की औचित्यतता (Justification of Emergency Powers)-निःसन्देह संकटकालीन शक्तियां बहुत व्यापक हैं तथा इनके विरुद्ध दिए गए तर्क ठीक हैं, परन्तु इसके बावजूद भी हमें यह मानना पड़ता है कि इनका संविधान में देना औचित्यपूर्ण है। इनके निम्नलिखित कारण हैं-

  1. भारत ने सदा ही केन्द्रीय सरकार के निर्बल होने पर हानि उठाई है, इसलिए केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाना देश की स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है।
  2. भारत में संघीय सरकार ही देश की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी है । संघीय रूप की इतनी महत्ता नहीं जितनी कि राष्ट्रीय सुरक्षा की।
  3. जब संकटकाल की घोषणा लागू होती है तब संविधान को 19वीं धारा द्वारा दी गई स्वतन्त्रताएं भंग की जा सकती हैं। श्री अलादी कृष्णास्वामी अय्यर तथा डॉ० अम्बेदकर ने इस व्यवस्था का बड़ी योग्यता से पक्ष पोषण किया है । श्री अल्लादी के अनुसार देश तथा राष्ट्र का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से पूर्व स्थान है। परन्तु 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 19वें दिए गए अधिकार तभी स्थगित किए जा सकते हैं यदि संकटकाल की घोषणा युद्ध अथवा बाहरी हमले के कारण की हो न कि सशस्त्र विद्रोह पर।
  4. वित्तीय संकट सम्बन्धी उप-धाराओं का होना भी बहुत उचित है।

निष्कर्ष (Conclusion)-ऊपरलिखित तर्कों के आधार पर हम कह सकते हैं कि संविधान निर्माताओं ने संकटकालीन धाराओं का संविधान में वर्णन करके कोई गलती नहीं की। संकटकालीन धाराओं के उचित प्रयोग से नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा की जा सकती है। श्री अमर नन्दी (Amar Nandi) ने राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की तुलना, “एक भरी हुई बन्दूक से की है जिससे नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा भी हो सकती है और नाश भी हो सकता है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रपति के चुनाव का ढंग बताएं। अभी तक राष्ट्रपति के कितने चुनाव हुए हैं ?
उत्तर-
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मण्डल द्वारा किया जाता है। निर्वाचन मण्डल में संसद् के दोनों सदनोंराज्यसभा तथा लोकसभा के निर्वाचित सदस्य तथा राज्य-विधान मण्डलों के चुने हुए सदस्य सम्मिलित होते हैं। निर्वाचन मण्डल में संसद् तथा राज्य विधानसभाओं में मनोनीत किए गए सदस्यों को सम्मिलित नहीं किया जाता। राष्ट्रपति का चुनाव एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार होता है। राष्ट्रपति के चुनाव में एक सदस्य एक मत वाली विधि नहीं अपनाई गई। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है। परन्तु उसके मत की गणना नहीं होती बल्कि उसका मूल्यांकन होता है। वर्तमान समय तक भारत में राष्ट्रपति पद के लिए पन्द्रह बार चुनाव हो चुके हैं।

प्रश्न 2.
‘राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र मुखिया है।’ व्याख्या करें।
उत्तर-
समस्त शासन राष्ट्रपति के नाम पर चलता है, परन्तु वह नाममात्र का मुखिया है जबकि अमेरिका का राष्ट्रपति राज्य का वास्तविक मुखिया है। इसका कारण यह है कि अमेरिका में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली है जबकि भारत में संसदीय शासन प्रणाली है। संसदीय शासन प्रणाली के कारण राष्ट्रपति संवैधानिक मुखिया है। राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है। व्यवहार में राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है-

  1. अप्रजातन्त्रात्मक विधि-आलोचना का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि अप्रजातन्त्रात्मक है क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष जनता द्वारा नहीं होता, परन्तु हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चुनाव जनता द्वारा करना आसान नहीं है।
  2. जटिल विधि-राष्ट्रपति के चुनाव की विधि बड़ी जटिल है जिसे समझना आसान नहीं है।
  3. यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व एकल संक्रमणीय प्रणाली नहीं है-आलोचकों का कहना है कि राष्ट्रपति की चुनाव विधि को आनुपातिक प्रतिनिधित्व तथा एकल संक्रमणीय प्रणाली का नाम देना उचित नहीं है क्योंकि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लिए चुनाव क्षेत्र बहु-सदस्यीय होना चाहिए, परन्तु राष्ट्रपति के चुनाव में सीट एक होती है। अतः आनुपातिक प्रणाली की एक अनिवार्य आवश्यकता राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली पूर्ण नहीं करती।
  4. राष्ट्रपति की चुनाव प्रणाली में कई बातें अस्पष्ट हैं।

प्रश्न 4.
राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने तथा उसे पद से हटाने के लिए संविधान में कौन-सी प्रक्रिया वर्णित है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति को पांच वर्ष के लिए चुना जाता है परन्तु यदि कोई राष्ट्रपति अपनी शक्तियों के प्रयोग में संविधान का उल्लंघन करे तो पांच वर्ष से पहले भी उसे अपने पद से महाभियोग द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है। एक सदन राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाता है। आरोपों के प्रस्ताव पर सदन में उसी समय विचार हो सकता है जब सदन के 1/4 सदस्यों के हस्ताक्षरों द्वारा इस आशय का नोटिस कम-से-कम 14 दिन पहले दिया जा चुका हो। यदि एक सदन में प्रस्ताव 2/3 बहुमत से पास हो जाए तो दूसरा सदन उन आरोपों की जांच-पड़ताल करता है। दूसरे सदन में आरोपों की जांच-पड़ताल के समय राष्ट्रपति स्वयं उपस्थित होकर या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनी सफाई पेश कर सकता है। यदि दूसरा सदन 2/3 बहुमत से उन आरोपों की पुष्टि कर दे तो राष्ट्रपति को उसी दिन पद छोड़ना पड़ता है। जब तक दूसरा सदन राष्ट्रपति के हटाए जाने का प्रस्ताव पास नहीं करता, उस समय तक राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन रहता है।

प्रश्न 5.
राष्ट्रपति की चार कार्यपालिका शक्तियां लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की मुख्य कार्यपालिका शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  1. प्रशासकीय शक्तियां-भारत का समस्त प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है और भारत सरकार के सभी निर्णय औपचारिक रूप से उसी के नाम पर लिए जाते हैं। देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है।
  2. मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां-राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। वह प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।
  3. सैनिक शक्तियां-राष्ट्रपति राष्ट्र की सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति है। वह स्थल, जल तथा वायु सेनाध्यक्षों की नियुक्ति करता है। वह फील्ड मार्शल की उपाधि भी प्रदान करता है। वह राष्ट्रीय रक्षा समिति का अध्यक्ष है।
  4. नियुक्तियां करने की शक्ति-सभी महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रपति की चार विधायिनी शक्तियां लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की मुख्य विधायिनी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  1. राष्ट्रपति की संसद् के अधिवेशन बुलाने और सत्रावसान सम्बन्धी शक्तियां-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों का अधिवेशन बुला सकता है। अधिवेशन का समय बढ़ा सकता है तथा उसे स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति ही अधिवेशन का समय और स्थान निश्चित करता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा संसद् में भाषण-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों को अलग-अलग या दोनों के सम्मिलित अधिवेशन को सम्बोधित कर सकता है। नई संसद् का तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से ही आरम्भ होता है।
  3. राज्यसभा के 12 सदस्य मनोनीत करना-राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान या सामाजिक सेवा के विषय में विशेष ज्ञान या अनुभव प्राप्त हो।
  4. लोकसभा को भंग करना-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सिफ़ारिश पर लोकसभा को समय से पहले भी भंग कर सकता है

प्रश्न 7.
राष्ट्रपति बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राष्ट्रपति बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिएं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह किसी सरकारी पद पर कार्यरत न हो।
  4. वह लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।
  5. अपने चुनाव के बाद राष्ट्रपति, संसद् या राज्य विधानमण्डल के किसी सदन का सदस्य नहीं रह सकता।
  6. 5 जून, 1997 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी करके राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार के लिए ज़मानत की राशि 2500 रु० से बढ़ाकर 15000 रु० कर दी है। इस अध्यादेश के अनुसार राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार का नाम 50 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित तथा 50 मतदाताओं द्वारा अनुमोदित होना अनिवार्य है।

प्रश्न 8.
राष्ट्रपति का वेतन तथा सुविधाएं बताएं।
उत्तर-
राष्ट्रपति को 5,00,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उसको कई प्रकार के भत्ते तथा विशेष अधिकार भी प्राप्त हैं। उसे रहने के लिए सरकारी निवास मिलता है, जिसे राष्ट्रपति भवन कहा जाता है। अवकाश प्राप्त करने के बाद राष्ट्रपति को 2,50,000 रुपए मासिक पेंशन मिलती है। राष्ट्रपति के कार्यकाल में उसके विरुद्ध कोई फ़ौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता। वह अपने किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के सम्मुख उत्तरदायी नहीं है।

प्रश्न 9.
‘निर्वाचक मण्डल’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
‘निर्वाचक मण्डल’ प्रतिनिधियों का एक ऐसा समूह होता है जिसका निर्माण किसी विशेष पद के चुनाव के लिए किया जाता है। अमेरिका और भारत में राष्ट्रपति का चुनाव निर्वाचक मण्डल के द्वारा किया जाता है। भारत में निर्वाचक मण्डल में संसद् के दोनों सदनों के चुने हुए सदस्य और प्रान्तीय विधानसभाओं के चुने हुए सदस्य सम्मिलित होते हैं। राष्ट्रपति के चुनाव के समय यदि निर्वाचक मण्डल में कुछ स्थान रिक्त हों तो उसका राष्ट्रपति के निर्वाचन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

प्रश्न 10.
‘अध्यादेश’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो और राष्ट्रपति यह अनुभव करता हो कि परिस्थितियां ऐसी हैं जिनके अनुसार कार्यवाही करनी आवश्यक है तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्राप्त है। इस अध्यादेश की शक्ति और प्रभाव वही होता है जो संसद् के द्वारा पास किए गए कानूनों का होता है और अधिवेशन आरम्भ होने की तिथि से लेकर 6 सप्ताह पश्चात् वह अध्यादेश जारी रह सकता है। 6 सप्ताह पश्चात् यह अध्यादेश समाप्त हो जाता है। इससे पहले भी संसद् अध्यादेश रद्द कर सकती है और राष्ट्रपति भी जब चाहे उसे वापस ले सकता है। राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का पूरा अधिकार है और उसके इस निर्णय को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

प्रश्न 11.
किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपनी इच्छा से प्रधानमन्त्री को नियुक्त कर सकता है ?
उत्तर-
कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को अपनी इच्छा से प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने का अवसर मिल जाता है। ये परिस्थितियां हैं-(1) जब लोकसभा में किसी भी राजनीतिक पार्टी की स्पष्ट बहुसंख्या न हो।
अथवा
(2) कुछ दल मिलकर संयुक्त सरकार (Coalition Ministry) का निर्माण न कर सकें।
अथवा
(3) लोकसभा में दोनों दलों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। उपर्युक्त परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपनी विवेक, बुद्धि तथा उच्च सूझ-बूझ से काम लेते हुए अपनी इच्छानुसार किसी भी दल के नेता को जिसे वह स्थायी सरकार बनाने के योग्य समझता हो, मन्त्रिमण्डल बनाने के लिए आमन्त्रित कर सकता है।

प्रश्न 12.
‘निषेधाधिकार’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-
निषेधाधिकार का अर्थ अपनी असहमति प्रकट करना अथवा प्रस्ताव के विरोध में मतदान कर उस प्रस्ताव को अस्वीकार करना है। भारतीय संसद् द्वारा पास किया गया बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर ही कानून का रूप ले सकता है। राष्ट्रपति संसद् द्वारा पास किए गए बिल पर निषेधाधिकार का प्रयोग कर सकता है परन्तु यदि उस बिल को संसद् दुबारा पास कर दें तब राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।

प्रश्न 13.
किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने से इन्कार कर सकता है ?
उत्तर-
44वें संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् द्वारा जो सलाह दी जाती है, राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् को उस पर पुनः विचार करने के लिए कह सकता है परन्तु पुनर्विचार करने के बाद मन्त्रिमण्डल जो सलाह राष्ट्रपति को देता है वह सलाह उसे माननी पड़ेगी। राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् की सलाह, चेतावनी तथा उत्साह देने का अधिकार प्राप्त है। पद ग्रहण करते समय राष्ट्रपति को शपथ लेनी पड़ती है कि वह संविधान की रक्षा करेगा। इसलिए वह मन्त्रिपरिषद् की ऐसी कोई बात मानने के लिए बाध्य नहीं जो संविधान की रक्षा में रुकावट डालती हो। इसी प्रकार लोकसभा को भंग करने, ऐसे प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल को पदच्युत करने में जो बहुमत का समर्थन खो बैठा हो, राष्ट्रपति अपने विवेक से काम ले सकता है।

प्रश्न 14.
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियां तीन प्रकार की हैं-

(क) राष्ट्रपति युद्ध, बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह की दशा में मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह पर संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
(ख) जब राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा दी गई सूचना से या किसी और सूत्र से यह विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत संकटकाल की उद्घोषणा कर सकता है। राष्ट्रपति राज्य के मन्त्रिमण्डल तथा विधान सभा को भंग करके राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले सकता है।
(ग) यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि देश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है या भारत की साख खतरे में है तो वह वित्तीय संकटकाल की उद्घोषणा जारी कर सकता है। ऐसे समय में राष्ट्रपति सभी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कमी कर सकता है। वह राज्यों को धन सम्बन्धी कोई भी आदेश दे सकता है।

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प्रश्न 15.
राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकटकाल की घोषणा कब कर सकता है ? इसके प्रभाव का वर्णन करें।
उत्तर-
निम्नलिखित परिस्थितियों में राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा कर सकता है-

  1. युद्ध, विदेशी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट।
  2. देश में आर्थिक अथवा वित्तीय संकट के कारण उत्पन्न परिस्थिति।

घोषणा के प्रभाव-राष्ट्रीय संकटकालीन घोषणा के समय शासन का संघीय रूप एकात्मक हो जाता है। समस्त देश का शासन सरकार के हाथ में आ जाता है।

  1. केन्द्रीय सरकार, राज्यों की सरकारों को निर्देश दे सकती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करें। राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति के आदेशानुसार कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हैं।
  2. संसद् को राज्य-सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
  3. राष्ट्रपति को संघीय सरकार तथा राज्यों में धन विभाजन सम्बन्धी योजना में अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार मिल जाता है।

प्रश्न 16.
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के गलत प्रयोग को रोकने के लिए क्या व्यवस्था की गई
उत्तर-
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के गलत प्रयोग को रोकने के लिए जनता पार्टी की सरकार ने 1979 में 44वां संवैधानिक संशोधन किया। इस संशोधन के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान किए गए-

  1. राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह पर ही कर सकता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा लागू संकटकाल की घोषणा को लागू होने के एक महीने के भीतर संसद् के 2/3 बहुमत द्वारा स्वीकृति मिलनी आवश्यक है। यदि संकटकाल की घोषणा 6 महीने से ज्यादा लागू रखनी है तो उसे 6 महीने बाद पुनः संसद् की स्वीकृति लेनी आवश्यक है।
  3. संसद् कभी भी साधारण बहुमत द्वारा प्रस्ताव पास करके संकटकाल को खत्म कर सकती है।
  4. संविधान की धारा 21 में शामिल जीवन व व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकारों को संकटकाल में स्थगित किया जा सकता है।
  5. संकटकाल की घोषणा न्याय संगत होगी।

प्रश्न 17.
क्या राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सकता और अगर संकटकाल में भी तानाशाह बनना चाहे तो भी नहीं बन सकता। इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है और इसमें राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया होता है। राष्ट्रपति की शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति यदि मनमानी करने की कोशिश करे तो उसे संसद् महाभियोग द्वारा हटा सकती है। राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा मन्त्रिपरिषद् की लिखित सलाह से ही कर सकता है। संसद् साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को संकटकाल समाप्त करने को कह सकती है।

प्रश्न 18.
उप-राष्ट्रपति के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  3. वह राज्यसभा का सदस्य होने की योग्यता रखता हो।
  4. वह किसी सरकारी पद पर आसीन न हो।
  5. वह संसद् का सदस्य न हो।
  6. वह विधानमण्डल का सदस्य न हो।

प्रश्न 19.
भारत के उप-राष्ट्रपति के कार्य बताएं।
उत्तर-
उप-राष्ट्रपति को दो प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं-

(1) उप-राष्ट्रपति के रूप में तथा
(2) राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में।

  1. उप-राष्ट्रपति के रूप में जब राष्ट्रपति का पद उसकी अनुपस्थिति, बीमारी तथा अन्य किसी कारण से अस्थायी रूप से खाली हो जाए, तो उप-राष्ट्रपति को राष्ट्रपति पद पर काम करना पड़ता है। राष्ट्रपति पद पर काम करते समय उप-राष्ट्रपति को राष्ट्रपति जैसा वेतन, भत्ता, सुविधाएं तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं।
  2. राज्यसभा के अध्यक्ष के रूप में उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति होता है तथा वह अध्यक्ष के सभी कार्य करता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मण्डल द्वारा किया जाता है। निर्वाचन मण्डल में संसद् के दोनों सदनों का चुनाव एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार होता है। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है। परन्तु उसके मत की गणना नहीं होती बल्कि उसका मूल्यांकन होता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रपति की कोई दो कार्यपालिका शक्तियां लिखें।
उत्तर-

  1. प्रशासकीय शक्तियां-भारत का समस्त प्रशासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है और भारत सरकार के सभी निर्णय औपचारिक रूप से उसी के नाम पर लिए जाते हैं। देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है।
  2. मन्त्रिपरिषद् से सम्बन्धित शक्तियां-राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है और उसके परामर्श से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। वह प्रधानमन्त्री की सलाह से मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रपति की कोई दो विधायिनी शक्तियां लिखें।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपति की संसद् के अधिवेशन बुलाने और सत्रावसान सम्बन्धी शक्तियां-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों का अधिवेशन बुला सकता है। अधिवेशन का समय बढ़ा सकता है तथा उसे स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति ही अधिवेशन का समय और स्थान निश्चित करता है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा संसद में भाषण-राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों को अलग-अलग या दोनों के सम्मिलित अधिवेशन को सम्बोधित कर सकता है। नई संसद् का तथा वर्ष का पहला अधिवेशन राष्ट्रपति के भाषण से ही आरम्भ होता है।

प्रश्न 4.
राष्ट्रपति बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 5.
क्या राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सकता और अगर संकटकाल में भी तानाशाह बनना चाहे तो भी नहीं बन सकता। इसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है और इसमें राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया होता है। राष्ट्रपति की शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति यदि मनमानी करने की कोशिश करे तो उसे संसद् महाभियोग द्वारा हटा सकती है।

प्रश्न 6.
भारत के वर्तमान राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री के नाम बताएं।
उत्तर-
पद का नाम — व्यक्ति का नाम
1. राष्ट्रपति – श्री रामनाथ कोविंद
2. उप-राष्ट्रपति – श्री वेंकैया नायडू
3. प्रधानमन्त्री – श्री नरेन्द्र मोदी

प्रश्न 7.
राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति का वेतन बताएं।
उत्तर-
भारत के राष्ट्रपति का मासिक वेतन पांच लाख रुपये, जबकि उप-राष्ट्रपति का मासिक वेतन चार लाख रुपये है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राष्ट्रपति का कार्यकाल कितना है ? उसे क्या दोबारा चुना जा सकता है ?
उत्तर-राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का है और उसे दोबारा चुने जाने का अधिकार है।

प्रश्न 2. राष्ट्रपति का मासिक वेतन और रिटायर होने पर कितनी पेंशन मिलती है ?
उत्तर-राष्ट्रपति को 5,00,000 रु० मासिक वेतन और रिटायर होने पर 2,50,000 रु० मासिक पेंशन मिलती है।

प्रश्न 3. राष्ट्रपति कब अध्यादेश जारी कर सकता है ?
उत्तर-जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो और संकटकालीन परिस्थितियां बाध्य करती हों, तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है।

प्रश्न 4. राष्ट्रपति राज्यसभा और लोकसभा के कितने सदस्य मनोनीत कर सकता है?
उत्तर-राष्ट्रपति राज्यसभा के 12 सदस्य और लोकसभा के 2 एंग्लो इंडियन सदस्य नियुक्त कर सकता है।

प्रश्न 5. भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे ?
उत्तर-भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद थे।

प्रश्न 6. राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने हेतु कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने हेतु कम-से-कम 35 वर्ष आयु होनी चाहिए।

प्रश्न 7. भारत के राष्ट्रपति को कौन निर्वाचित करता है?
उत्तर-भारत के राष्ट्रपति को निर्वाचक मण्डल निर्वाचित करता है।

प्रश्न 8. राष्ट्रपति को किस प्रकार हटाया जा सकता है?
उत्तर-राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है।

प्रश्न 9. राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा कब कर सकता है?
उत्तर-राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा तब करता है, जब मन्त्रिमण्डल संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे।

प्रश्न 10. जुलाई, 2017 में किसे भारत का राष्ट्रपति चुना गया ?
उत्तर-जुलाई, 2017 में श्री रामनाथ कोंविद को भारत का राष्ट्रपति चुना गया।

प्रश्न 11. भारत की सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति कौन होता है?
उत्तर-भारत की सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति राष्ट्रपति होता है।

प्रश्न 12. राष्ट्रपति किसे अपना त्याग-पत्र सौंपता है?
उत्तर-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र सौंपता है।

प्रश्न 13. राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उप-राष्ट्रपति कब तक राष्ट्रपति के पद पर रह सकता है?
उत्तर-छ: महीने तक।

प्रश्न 14. किस राष्ट्रपति का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ?
उत्तर-नीलम संजीवा रेड्डी का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ।

प्रश्न 15. राष्ट्रपति के पद का वर्णन संविधान के किस अनुच्छेद में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 52 में।

प्रश्न 16. अगस्त, 2017 में किसे भारत का उप-राष्ट्रपति चुना गया ?
उत्तर-अगस्त, 2017 में श्री वेंकैया नायडू को भारत का उप-राष्ट्रपति चुना गया।

प्रश्न 17. उप-राष्ट्रपति का मासिक वेतन कितना है ?
उत्तर-उप-राष्ट्रपति का मासिक वेतन चार लाख रु० है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. उपराष्ट्रपति ………….. की अध्यक्षता करता है।
2. राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को ………….. की राशि जमानत के रूप में जमा करवानी होती है।
3. राष्ट्रपति अनुच्छेद ……………. के अनुसार राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा कर सकता है।
4. राष्ट्रपति अनुच्छेद ……………….. के अनुसार किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है।
उत्तर-

  1. राज्यसभा
  2. 15000
  3. 352
  4. 356.

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प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. पं० जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले राष्ट्रपति थे।
2. भारत के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन थे।
3. राष्ट्रपति को शपथ प्रधानमन्त्री दिलाता है।
4. संसद द्वारा पास किए विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजे जाते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के राष्ट्रपति की वैसी ही स्थिति है जैसे कि-
(क) अमेरिका के राष्ट्रपति
(ख) चीन के प्रधानमंत्री
(ग) पाकिस्तान के राष्ट्रपति
(घ) इंग्लैंड की रानी।
उत्तर-
(घ) इंग्लैंड की रानी।

प्रश्न 2.
भारतीय राष्ट्रपति की अवधि कितनी है ?
(क) 4 वर्ष
(ख) 5 वर्ष
(ग) 6 वर्ष
(घ) 10 वर्ष।
उत्तर-
(ख) 5 वर्ष

प्रश्न 3.
भारत के वर्तमान राष्ट्रपति कौन है ?
(क) पं. जवाहर लाल नेहरू
(ख) पं० शंकर दयाल शर्मा
(ग) डॉ० राधाकृष्णन
(घ) श्री रामनाथ कोंविद।
उत्तर-
(घ) श्री रामनाथ कोंविद।

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प्रश्न 4.
भारत के राष्ट्रपति को कौन निर्वाचित करता है ?
( क) जनता
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) संसद्
(घ) निर्वाचक मंडल।
उत्तर-
(घ) निर्वाचक मंडल।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद् Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में राज्यसभा की रचना, कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन करो।
(Discuss the composition, functions and powers of Rajya Sabha in India.)
उत्तर-
भारत में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संघात्मक शासन प्रणाली में विधानमण्डल के दो सदन होते हैं। भारतीय संसद् के भी दो सदन हैं-लोकसभा तथा राज्यसभा। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है और यह समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करता है। राज्यसभा संसद् का द्वितीय सदन है और यह राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है।

रचना (Composition)—संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है, जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे, 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जा सकते हैं जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है। उदाहरणस्वरूप जहां पंजाब से 7 तथा हरियाणा से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं वहां उत्तर प्रदेश 31 प्रतिनिधि भेजता है।

इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र प्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए गए हैं।
राज्यसभा के सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of the Members of Rajya Sabha)-राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह संसद् द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  4. वह पागल न हो, दिवालिया न हो।
  5. भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  6. वह उस राज्य का रहने वाला हो जहां से वह निर्वाचित होना चाहता है।
  7. संसद् के किसी कानून या न्यायपालिका द्वारा राज्यसभा का सदस्य बनने के अयोग्य घोषित न किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी उसमें कोई ऐसी अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो भी उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।

चुनाव (Election)—प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य अपने राज्य के लिए नियत सदस्य चुनते हैं। यह चुनाव आनुपातिक प्रणाली के अनुसार एकल हस्तान्तरण मतदान द्वारा किया जाता है। संघीय क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चुनाव संसद् द्वारा निश्चित तरीके से होता है।

अवधि (Term)-अमेरिकन सीनेट की तरह राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं और इसके 1/3 सदस्य प्रति दो वर्ष के पश्चात् अवकाश ग्रहण करते हैं। इस प्रकार दो वर्ष के पश्चात् राज्यसभा से 1/3 सदस्यों का चुनाव होता है। रिटायर होने वाले सदस्य दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं। राष्ट्रपति इस सदन को भंग नहीं कर सकता।

अधिवेशन (Sessions)—राज्यसभा की बैठकें राष्ट्रपति द्वारा बुलाई जाती हैं। एक वर्ष में राज्यसभा के कम-सेकम दो अधिवेशन अवश्य होते हैं। संविधान में स्पष्ट लिखा हुआ है कि पहले अधिवेशन की अन्तिम तिथि तथा दूसरे अधिवेशन की पहली तिथि में 6 मास से अधिक समय का अन्तर नहीं होना चाहिए। इसके विशेष अधिवेशन राष्ट्रपति जब चाहे बुला सकता है।
राज्यसभा की गणपूर्ति (Quorum of Rajya Sabha) संविधान में राज्य सभा की गणपूर्ति कुल सदस्यों का 1/10 भाग था अर्थात् जब तक 1/10 सदस्य उपस्थित नहीं होते राज्यसभा अपना कार्य आरम्भ नहीं कर सकती थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा राज्यसभा को अपनी गणपूर्ति संख्या स्वयं निश्चित करने का अधिकार दे दिया गया है।

राज्यसभा का अध्यक्ष (Chairman of the Rajya Sabha)-अमेरिका की तरह भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष (Ex-officio chairman) होता है। वर्तमान समय में उप-राष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू राज्यसभा के सभापति हैं। राज्य सभा अपने सदस्यों में से किसी एक को 6 वर्ष के लिए उपसभापति भी निर्वाचत करती है। 9 अगस्त, 2018 को राष्ट्रपति जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीद्वार श्री हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के उपसभापति चुने गए।

सभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। वह सदन में अनुशासन रखता है तथा राज्यसभा के कार्यों को नियमानुसार चलाता है। सभापति साधारणतः वोट नहीं डालता परन्तु जब किसी विषय पर दोनों पक्षों के समान वोट हों तो वह निर्णायक मत का प्रयोग करता है। सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है और अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालना करता है। सभापति के वेतन तथा भत्ते संसद् द्वारा निर्धारित किए जाते हैं।

राज्यसभा के कार्य तथा शक्तियां (Powers and Functions of the Rajya Sabha)-राज्यसभा को कई प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-धन विधेयकों को छोड़ कर कोई भी साधारण बिल राज्यसभा में पहले पेश हो सकता है। कोई भी बिल उस समय तक संसद् द्वारा पास नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पास न हो जाए। यदि किसी बिल पर दोनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उस बिल को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में बिल पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में लोकसभा का अध्यक्ष ही सभापति का आसन ग्रहण करता है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्यसभा की वित्तीय शक्तियां लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। धन बिल इसमें पेश नहीं हो सकता। धन बिल या बजट लोकसभा में पास होने के बाद ही राज्यसभा के पास आते हैं। राज्यसभा धन बिल को 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है।

भारतीय राज्यसभा चाहे धन बिल को रद्द कर दे या उसमें परिवर्तन कर दे या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन सभी दशाओं में वह बिल राज्य सभा के पास समझा जाएगा, जिस रूप में लोकसभा ने उसे पास किया था
और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाएगा। लोकसभा की इच्छा है कि वह धन बिल पर राज्यसभा की सिफ़ारिश को माने या न माने।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियां बहुत सीमित हैं। राज्यसभा के सदस्य मन्त्रिमण्डल में लिए जा सकते हैं। राज्यसभा के सदस्यों को मन्त्रियों से प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार है और प्रश्नों द्वारा वे प्रशासन के कार्यों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। बजट पर विचार करते समय तथा काम रोको प्रस्ताव पेश करके भी राज्यसभा के सदस्य शासन की कड़ी आलोचना कर सकते हैं तथा मन्त्रिमण्डल पर प्रभाव डाल सकते हैं। परन्तु राज्यसभा अविश्वास प्रस्ताव द्वारा मन्त्रियों को नहीं हटा सकती।

4. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राज्यसभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं-

  • वह लोकसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा अपदस्थ कर सकती है।
  • उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग आरम्भ करने का अधिकार राज्यसभा को ही है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाए जाने का प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर चुनाव आयोग, महान्यायवादी (Attorney General) तथा नियन्त्रण एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास होने पर राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारी को हटा सकता है।
  • राज्यसभा अपने सदस्यों के व्यवहार तथा गतिविधियों की जांच-पड़ताल करने के लिए समिति नियुक्त कर सकती है और उसके विरुद्ध उचित कार्यवाही कर सकती है।
  • यदि कोई सदस्य, अन्य व्यक्ति अथवा संस्था राज्यसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करती है तो राज्यसभा उसको दण्ड दे सकती है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर विशेष न्यायालयों (Special Courts) की स्थापना कर सकती है।

5. संवैधानिक शक्तियां (Constitutional Powers)—संवैधानिक मामलों में राज्य सभा को लोक सभा के समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान में संशोधन करने वाला बिल संसद् के किसी सदन में भी पेश हो सकता है अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी पेश किया जा सकता है। 59वां संशोधन बिल राज्यसभा में पेश किया गया था। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पास नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पास न हो जाए।

6. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)-राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर राष्ट्रपति द्वारा घोषित संकटकालीन उद्घोषणा को एक महीने से अधिक लागू रहने अथवा रद्द करने का प्रस्ताव करती है। यदि लोकसभा भंग हो तो केवल राज्यसभा का अनुमोदन ही आवश्यक है।

7. निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियां (Electoral Powers)-राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। उप-राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यसभा के सभी सदस्य भाग लेते हैं। राज्यसभा अपना एक उप-सभापति चुनती है जिसे डिप्टी चेयरमैन कहते हैं।

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8. राज्यसभा की विशिष्ट शक्तियां (Special Powers of the Rajya Sabha)-राज्यसभा को कुछ विशिष्ट शक्तियां भी प्राप्त हैं। ये शक्तियां निम्नलिखित हैं

  • राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके संसद् को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  • 42वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि राज्यसभा अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत प्रस्ताव पास करके अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं (All India Judicial Services) स्थापित करने के सम्बन्ध में संसद् को अधिकार दे सकती है।
  • राज्यसभा 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके नई अखिल भारतीय सेवाओं (All India Services) को स्थापित करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दे सकती है।

9. अन्य कार्य (Other Functions)

  • जब राष्ट्रपति अपना आज्ञानुसार कोई भी मौलिक अधिकार छीनता है तो वह आज्ञा संसद् के दोनों सदनों में रखना ज़रूरी है।
  • जिन आयोगों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, उन सभी की रिपोर्ट दोनों सदनों के आगे रखनी आवश्यक है। राज्यसभा को भी लोकसभा की तरह उन पर विचार करने का अधिकार है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राज्यसभा की शक्तियों एवं कार्यों से स्पष्ट है कि राज्यसभा लोकसभा के मुकाबले में शक्तिहीन सदन है, परन्तु इस सदन के पास इतनी शक्तियां हैं कि यह आदर्श द्वितीय सदन बन सकता है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की स्थिति और उपयोगिता की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। (Critically discuss the position and utility of the Rajya Sabha.)
उत्तर-
राज्यसभा की स्थिति लोकसभा के मुकाबले में बहुत महत्त्वहीन है। कानून निर्माण तथा वित्तीय मामलों में इसे कोई विशेष शक्ति प्राप्त नहीं और सभी साधारण तथा धन बिल लोकसभा की इच्छानुसार पास होते हैं। यह साधारण बिल को अधिक-से-अधिक 6 महीने तक पास होने से रोक सकती है तथा धन बिल को केवल 14 दिन के लिए रोक सकती है। मन्त्रिमण्डल पर इसका कोई नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा की उपयोगिता के बारे में डॉ० अम्बेदकर ने भी सन्देह प्रकट किया था। राज्यसभा की आलोचना मुख्यतः निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  • असंघीय सिद्धान्त पर आधारित (Based on Non-federal Principle)-राज्यसभा का संगठन संघीय सिद्धान्त पर आधारित नहीं है। प्रान्तों को इसमें समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। प्रतिनिधि जनसंख्या के आधार पर भेजे जाते हैं।
  • दलगत प्रतिनिधित्व (Party-Representations)-राज्यसभा के सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व न करके दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • मनोनीत सदस्य (Nominated Members)-राज्यसभा राज्यों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती क्योंकि 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
  • चुनाव प्रणाली दोषपूर्ण (Defective Election System)-राज्यसभा के सदस्य अप्रत्यक्ष ढंग से चुने जाते हैं। अप्रत्यक्ष प्रणाली में भ्रष्टाचार का भय अधिक रहता है।
  • शक्तिहीन सदन (Powerless House)-राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा से बहुत कम हैं। धन बिल को राज्यसभा केवल 14 दिन तक रोक सकती है और इसका कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं है।
  • बिलों को दोहराना लाभदायक नहीं है (Revision of Bills not Useful)-राज्यसभा का एक मुख्य कार्य बिलों को दोहराना है, ताकि बिल को जल्दी से पास किए जाने के कारण जो त्रुटियां रह गई हैं, उन्हें दूर किया जा सके। राज्यसभा को अपने इस कार्य में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती है क्योंकि साधारणतः एक ही दल का दोनों सदनों में बहुमत होने के कारण राज्यसभा आंखें बन्द करके बिलों को पास कर देती है।
  • राज्यसभा में प्रादेशिकता की भावना का ज़ोर अधिक रहता है। 8. राज्यसभा के सदस्य इनकी बैठकों में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते तथा अधिकांश सदस्य अनुपस्थित रहते हैं।
  • राज्यसभा के अधिकांश सदस्य इतने अधिक पूरक प्रश्न (Supplementary Questions) पूछते हैं, जिनसे न केवल समय बर्बाद होता है बल्कि कभी-कभी सदस्यों और मन्त्रियों के बीच छोटे-मोटे झगड़े भी उत्पन्न हो जाते हैं।
  • राज्यसभा के बहुत-से सदस्य वे होते हैं जो लोकसभा का चुनाव हार चुके होते हैं। इस प्रकार राज्यसभा संसद् में घुसने के लिए पिछले दरवाज़े का काम करती है।

राज्यसभा की भूमिका (Role of Rajya Sabha)
अथवा
राज्यसभा की उपयोगिता (Utility of Rajya Sabha)

इसमें कोई सन्देह नहीं कि राज्यसभा निचले सदन की भान्ति एक शक्तिशाली संस्था नहीं है, परन्तु राज्यसभा को हम एक व्यर्थ संस्था नहीं कह सकते बल्कि राज्यसभा एक बहुत उपयोगी संस्था है।

मौरिस जोन्स (Morris Jones) के अनुसार, “राज्यसभा के तीन भारी गुण हैं। यह अतिरिक्त राजनीतिक पद प्रदान करती है जिसके लिए मांग है। यह अतिरिक्त वाद-विवाद के लिए अवसर प्रदान करती है जिसके लिए कभी-कभी आवश्यकता होती है और यह वैधानिक समय सूची की समस्याओं को हल करने में सहायता देती है।”

राज्यसभा संघात्मक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जो इस प्रकार है-

  • योग्य व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व (Representative of Able Persons)-इसमें देश के अनुभवी सज्जन राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्यसभा के 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। राष्ट्रपति उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्ति करता है जिनकी विज्ञान, कला, साहित्य आदि में प्रसिद्धि होती है।
  • सरकारी कमजोरियों पर प्रकाश (Points out Shortcomings of the Govt.)-राज्यसभा के सदस्यों ने सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर आधे घण्टे की बहस के दौरान सरकार की कमजोरियों पर प्रकाश डाला और सरकार को महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए हैं।
  • सभी पहलुओं पर वाद-विवाद (Debates on AII Aspects)-राज्यसभा में प्रस्तुत प्रस्तावों के माध्यम से देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सम्बन्ध में वाद-विवाद होता रहता है। यद्यपि सरकार इन प्रस्तावों को प्रायः स्वीकार नहीं करती तथापि इसका सरकार पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
  • राज्यसभा अपने प्रस्ताव द्वारा राज्य सूची के किसी भी विषय को संसद् के अधिकार-क्षेत्र में ले जा सकती है।
  • केन्द्रीय सरकार राज्यसभा के परामर्श से किसी अखिल भारतीय सेवा की व्यवस्था कर सकती है।
  • संविधान में संशोधन करने वाला बिल राज्यसभा में प्रस्तुत हो सकता है और तब तक संशोधन नहीं हो सकता जब तक राज्यसभा भी पास न करे। 44वें संशोधन की पांच धाराओं को राज्यसभा ने रद्द कर दिया था।
  • राज्यसभा के सदस्य राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।
  • उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग आरम्भ करने का अधिकार राज्यसभा को ही है।
  • राज्यसभा के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं और सरकार की आलोचना कर सकते हैं।
  • संकटकालीन घोषणा की स्वीकृति-जब राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर देता है तो राज्यसभा उस समय भी बनी रहती है तथा राष्ट्रपति को अपनी संकटकालीन घोषणा की स्वीकृति उससे लेनी पड़ती है।
  • बिलों का पुनर्निरीक्षण-राज्यसभा लोकसभा में शीघ्रतापूर्वक पास किए गए बिलों पर उचित ढंग से विचार करने के पश्चात् उसमें संशोधन के लिए सुझाव भी देती है। 1979 में राज्यसभा ने लोकसभा द्वारा विशेष न्यायालय विधेयक में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए जिसे लोकसभा ने तुरन्त स्वीकार कर लिया।
  • विवादहीन बिलों का पेश होना-महत्त्वपूर्ण बिल प्रायः लोकसभा में प्रस्तुत किए जाते हैं, परन्तु अवित्तीय विवादहीन बिल राज्यसभा में प्रस्तुत करके लोकसभा के समय की बचत की जाती है क्योंकि राज्यसभा विवादहीन और विरोधहीन बिलों पर खूब सोच-विचार करके लोकसभा के पास भेजती है। लोकसभा ऐसे बिलों पर कम विवाद करती है और शीघ्रता से पास कर देती है। इस प्रकार लोकसभा का समय बच जाता है और इस समय का प्रयोग इसके महत्त्वपूर्ण बिलों पर किया जाता है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी तथा नियन्त्रक एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • वाद-विवाद का उच्च स्तर-राज्यसभा में विचार का स्तर लोकसभा की अपेक्षा उच्च रहता है, वहां प्रत्येक बिल पर शान्तिपूर्वक विचार होता है। एक तो सदस्यों की संख्या लोकसभा की तुलना में कम है, दूसरे इसके मैम्बर अधिक अनुभवी और विद्वान् होते हैं।
  • लोकतन्त्रीय परम्परा का प्रतीक-राज्यसभा लोकतन्त्रीय परम्पराओं के अनुकूल है। संसार के कुछ देशों को छोड़ कर बाकी सब देशों में संसद् के दो सदन हैं।
  • भारतीय संवैधानिक परम्परा के अनुकूल-भारत में ब्रिटिश शासन काल से ही केन्द्रीय विधान मण्डल के दो सदन चले आ रहे हैं। अत: संविधान निर्माताओं ने इसी परम्परा का पालन किया।

यह संविधान का केवल एक शृंगारात्मक अंग ही नहीं, यह सदन कनाडा की सीनेट की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली तथा उपयोगी है। यह अपने विवादों तथा सरकार की आलोचना द्वारा जनता पर अधिक प्रभाव डालता है। इसमें बहुतसे सुधारवादी बिल पेश हुए हैं और जिनसे राष्ट्र को बहुत-सा लाभ हुआ है। 1952 से 1956 के बीच राज्यसभा में 101 विधेयक प्रस्तुत किए गए थे। राज्यसभा के उप-सभापति श्री रामनिवास मिर्धा ने राज्यसभा की रजत जयन्ती के अपने स्वागत भाषण में राज्यसभा की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहा था कि इन 25 वर्षों में राज्यसभा में विधान आरम्भ करने वाले सदन के रूप में 350 सरकारी विधेयक पुनः स्थापित किए गए जिनमें कुछ सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और वैधानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। इसमें हिन्दू कानून में दूरव्यापी परिवर्तन करने वाले विधेयक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना और शक्तियों का वर्णन करो।
[Describe the composition and powers of the Lok Sabha (House of People) in India.]
उत्तर-
लोकसभा भारतीय संसद् का निचला सदन है, परन्तु इसकी स्थिति ऊपरी सदन (राज्यसभा) से अधिक शक्तिशाली है। यह जनता का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि इसमें जनता के प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं और यही इसके अधिक शक्तिशाली होने का कारण है।

रचना (Composition)—प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 545 निश्चित की गई। परन्तु अब ‘गोवा, दमन और दियू पुनर्गठन अधिनियम 1987’ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-

(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए, (ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और (ग) 2 ऐंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इंडियन नियुक्त किए हुए हैं।

चुनाव की विधि (Method of Election)-लोकसभा के चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रणाली के आधार पर होते हैं। सभी नागरिकों को जिनकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, चुनाव में वोट डालने का अधिकार है। चुनाव गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। 5 लाख से 772 लाख की जनसंख्या के आधार पर एक सदस्य चुना जाता है और समस्त देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है। कुछ स्थान अनुसूचित जातियों तथा कबीलों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षित किए गए हैं। 2014 के लोकसभा के चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी।

अवधि (Term) लोकसभा के सदस्य पांच वर्ष के लिए चुने जाते हैं। संकट के समय इसकी अवधि को बढ़ाया जा सकता है, परन्तु एक समय में एक वर्ष से अधिक और संकटकालीन उद्घोषणा के समाप्त होने से छ: महीने से अधिक इसे नहीं बढ़ाया जा सकता। राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले जब चाहे लोकसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। ऐसा कदम उसी समय उठाया जाएगा जब प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को इस प्रकार की सलाह दे। 6 फरवरी, 2004 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने 13वीं लोकसभा को भंग किया।

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योग्यताएं (Qualifications)-लोकसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी आवश्यक हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन व हो।
  4. वह संसद् द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. वह पागल न हो, दिवालिया न हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी किसी सदस्य में कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।
  7. उसे किसी गम्भीर अपराध में दण्ड न मिल चुका हो।
  8. उसका नाम वोटरों की सूची में अंकित हो।
  9. नवम्बर, 1976 को संसद् में छुआछूत के विरुद्ध एक कानून पास किया गया। इस कानून के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी व्यक्ति को इस कानून के अन्तर्गत दण्ड मिला है तो वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकता।
  10. लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक है कि उसका नाम दस मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित किया जाए।

गणपूर्ति (Ouorum)-लोकसभा की कार्यवाही आरम्भ होने के लिए उसके कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग गणपूर्ति के लिए निश्चित किया गया है, परन्तु 42वें संशोधन द्वारा गणपूर्ति निश्चित करने का अधिकार लोकसभा को दिया गया है।

अधिवेशन (Session)-राष्ट्रपति जब चाहे लोकसभा का अधिवेशन बुला सकता है, परन्तु एक वर्ष में दो अधिवेशन अवश्य बुलाए जाने चाहिए और राष्ट्रपति का यह विशेष उत्तरदायित्व है कि पहले अधिवेशन के आखिरी दिन और दूसरे अधिवेशन के पहले दिन के बीच छः मास से अधिक समय नहीं गुज़रना चाहिए। इसलिए अधिवेशन बुलाने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है।

अध्यक्ष (Speaker)—लोकसभा का एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होता है जिस का काम लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, अनुशासन बनाए रखना तथा सदन की कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाना है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं। नई लोकसभा अपना नया अध्यक्ष चुनती है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से लोक सभा का अध्यक्ष चुना गया। लोकसभा अपने अध्यक्ष को जब चाहे प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकती है, यदि वे अपना काम ठीक प्रकार से न करे। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, अध्यक्ष के पद पर काम करता है।

विरोधी दल के नेता को सरकारी मान्यता (Official Recognition to the Leader of Opposition)मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ। जनता सरकार ने लोकतन्त्र को दृढ़ बनाने के लिए लोकसभा के विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री के समान मान्यता दी थी। विरोधी दल के नेता को वही वेतन, भत्ते और सुविधाएं प्राप्त होती हैं जो कैबिनेट स्तर के मन्त्री को मिलती हैं। नौवीं लोकसभा में राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे। मई, 2009 में 15वीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता दी गई थी, परन्तु दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लालकृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया था। मई, 2014 में 16वीं लोकसभा में किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

लोकसभा की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Lok Sabha) लोकसभा को बहुतसी शक्तियां प्राप्त हैं जो कई प्रकार की हैं-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-लोकसभा भारतीय संसद् का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वास्तव में संसद् की विधायिनी शक्तियां लोकसभा ही प्रयोग करती है। इसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सकता । कोई भी बिल लोकसभा में पेश हो सकता है। यदि राज्यसभा लोकसभा द्वारा पास किए गए बिल पर छ: महीने तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन प्रस्ताव पास करके भेज दे जो लोकसभा को स्वीकृत न हो तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की एक संयुक्त बैठक बुला सकता है। संयुक्त अधिवेशन में प्रायः वही निर्णय होता है जो लोकसभा के सदस्य चाहते हैं क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से दुगुनी से भी अधिक है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers) राष्ट्र के धन पर संसद् का नियन्त्रण है, परन्तु यह नियन्त्रण लोकसभा ही प्रयोग करती है। बजट तथा धन विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही पेश हो सकते हैं। लोकसभा के पास होने के बाद बजट या धन बिल राज्यसभा के पास सुझाव के लिए जाते हैं। राज्यसभा उस पर विचार करती है। राज्यसभा यदि धन विधेयक पर 14 दिन तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन प्रस्ताव पास करके भेज दे जो लोकसभा को स्वीकृत न हों तो इन सभी दशाओं में वह बिल दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पास समझा जाएगा जिस रूप में लोकसभा ने पहले पास किया था और राष्ट्रपति को स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्र के धन पर लोकसभा को अन्तिम निर्णय करने का अधिकार है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा के सदस्य मन्त्रियों से उनके कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हैं तथा सम्बन्धित मन्त्री को उसका उत्तर देना पड़ता है। लोकसभा के सदस्य सरकार की नीतियों की आलोचना भी कर सकते हैं तथा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी पास कर सकते हैं जिससे मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। 10 जुलाई, 1979 को लोकसभा के विरोधी दल के नेता यशवंतराव चह्वाण ने प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान होने से पूर्व ही प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने 15 जुलाई, 1979 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि जनता पार्टी के कई सदस्यों ने जनता पार्टी को छोड़ दिया था। नवम्बर 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह लोकसभा का विश्वास प्राप्त न कर सके जिस पर उन्हें त्याग-पत्र देना पड़ा। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव पास न होने पर त्याग-पत्र दिया था। विश्वास मत के प्रस्ताव के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत पड़े।

4. संवैधानिक शक्तियां (Constitutional Powers) लोकसभा को संविधान में संशोधन करने के लिए प्रस्ताव पास करने का अधिकार है, लोकसभा में संशोधन का प्रस्ताव आवश्यक बहुमत से पास होने के बाद राज्यसभा के पास जाता है। यदि राज्यसभा भी उसे आवश्यक बहुमत से पास कर दे, तभी संशोधन लागू हो सकता है।

5. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-लोकसभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं, जिनका प्रयोग वह राज्यसभा के साथ मिलकर ही कर सकती है

  • लोकसभा राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग में भाग लेती है।
  • उपराष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाने का अधिकार केवल राज्यसभा को ही है, परन्तु उसमें निर्णय देने का अधिकार लोकसभा को है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के जजों को अपदस्थ किए जाने वाले प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • लोकसभा के साथ मिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी (Attorney General) तथा नियन्त्रण एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास होने पर राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारी को हटा सकता है।
  • यदि कोई सदस्य या व्यक्ति अथवा संस्था लोकसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करती है तो लोकसभा इसको दण्ड दे सकती है।

6. चुनाव सम्बन्धी कार्य (Electoral Functions) लोकसभा स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर का चुनाव स्वयं करती है। लोकसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है।

7. जनता की शिकायतों को दूर करना (Redressal of Public Grievances)—लोकसभा के सदस्य जनता के प्रतिनिधि हैं, अतः इनका कर्तव्य है जनता की शिकायतों को सरकार तक पहुंचाना। लोकसभा के सदस्य इस कार्य को प्रश्नों द्वारा, स्थगन प्रस्ताव द्वारा तथा वाद-विवाद के अन्तर्गत शासक वर्ग की आलोचना के जरिए पूरा करते हैं।

8. लोकसभा की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers of the Lok Sabha)-लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई संकटकालीन उद्घोषणा का समर्थन कर सकती है। 44वें संशोधन के अनुसार यदि लोकसभा संकटकाल की घोषणा के लागू रहने के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर दे तो संकटकाल की घोषणा लागू नहीं रह सकती। लोकसभा के 10 प्रतिशत सदस्य अथवा अधिक सदस्य घोषणा के अस्वीकृत प्रस्ताव पर विचार करने के लिए लोकसभा की बैठक बुला सकते हैं।

9. विविध शक्तियां (Miscellaneous Powers) लोकसभा की अन्य शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्रों में परिवर्तन कर सकती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के लिए कानून बनाती है।
  • राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों को लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर स्वीकृत या अस्वीकृत करती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर संघ में नए राज्यों को सम्मिलित करती है, राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं तथा नामों में परिवर्तन कर सकती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर दो या दो से अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग या उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है।

लोकसभा की स्थिति (Position of the Lok Sabha)-लोकसभा भारतीय संसद् का निम्न सदन है जिसके लगभग सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। जनता का प्रतिनिधि सदन होने के कारण इसमें जनता का अधिक विश्वास है। यही कारण है कि लोकसभा संसद् का महत्त्वपूर्ण, प्रभावशाली, शक्तिशाली अंग है और संसद् की शक्तियों का वास्तविक प्रयोग करती है। इसे भारत की संसद् कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। लोकसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सकता। इसकी तुलना में राज्यसभा एक अत्यन्त महत्त्वहीन सदन है। प्रधानमन्त्री भी लोकसभा के ही बहुमत दल का नेता होता है और लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। प्रो० एम० पी० शर्मा (M.P. Sharma) के अनुसार, “यदि संसद् देश का सर्वोच्च अंग है, तो लोकसभा संसद् का सर्वोच्च अंग है, वस्तुतः सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए लोकसभा ही संसद् है।”

प्रश्न 4.
भारतीय संसद् की रचना, उसकी शक्तियों तथा कार्यों का वर्णन करो।
(Describe the composition, powers and functions of the indian Parliament.)
अथवा
संसद् के कार्यों की विवेचना कीजिए।
(Discuss the functions of Parliament.)
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनोंराज्यसभा एवं लोकसभा से मिलकर बनेगी।”

लोकसभा (Lok Sabha) लोकसभा संसद् का निम्न सदन है और समस्त देश का प्रतिनिधित्व करता है। 1973 में 31वें संशोधन के अनुसार लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 547 निश्चित की गई। ‘गोवा, दमन और दियू पुनर्गठन अधिनियम 1987′ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। आजकल लोकसभा में 545 सदस्य हैं। इनमें 543 निर्वाचित हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए गए हैं।

मनोनीत सदस्यों को छोड़कर शेष सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। लोकसभा की अवधि 5 वर्ष है। इसकी अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है और 5 वर्ष से पूर्व राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर इसको भंग भी कर सकता है। लोकसभा के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष चुनते हैं।

राज्यसभा (Rajya Sabha)-राज्यसभा भारतीय संसद् का ऊपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 निश्चित की गई है जिसमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से जिन्हें विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी हो, मनोनीत किया जाता है। शेष सदस्य राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। इस समय राज्यसभा के सदस्यों की कुल संख्या 245 है, जिसमें से 233 राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए गए हैं।

राज्यसभा के सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद रिटायर होते हैं। भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है। राज्यसभा के सदस्य अपने में से एक उपाध्यक्ष भी चुनते हैं जो अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके कार्यों को सम्पन्न करता है।

संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances of the Members of the Parliament)संसद् सदस्यों को समय-समय पर संसद् द्वारा निर्धारित वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधायें प्राप्त होती हैं।

संसद की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Parliament)-

भारतीय संसद् संघ की विधानपालिका है और संघ की सभी विधायिनी शक्तियां उसे प्राप्त हैं। विधायिनी शक्तियों के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की शक्तियां संसद् को दी गई हैं-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-संसद् का मुख्य कार्य कानून-निर्माण करना है। संसद् की कानून बनाने की शक्तियां बड़ी व्यापक हैं। संघीय सूची में दिए गए सभी विषयों पर इसे कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची पर संसद् और राज्यों की विधानपालिका दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार है परन्तु यदि किसी विषय पर संसद् और राज्य की विधानपालिका के कानून में पारस्परिक विरोध हो तो संसद् का कानून लागू होता है। कुछ परिस्थितियों में राज्य सूची के 66 विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)—संसद् राष्ट्र के धन पर नियन्त्रण रखती है। वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले बजट संसद् में पेश किया जाता है। संसद् इस पर विचार करके अपनी स्वीकृति देती है। संसद् की स्वीकृति के बिना सरकार जनता पर कोई टैक्स नहीं लगा सकती और न ही धन खर्च कर सकती है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive) हमारे देश में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष होने के नाते संसद् के प्रति उत्तरदायी नहीं है। जबकि मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त रहे।

4. राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करना (Determination of National Policies)-भारतीय संसद् केवल कानून ही नहीं बनाती वह राष्ट्रीय नीतियां भी निर्धारित करती है। यदि मन्त्रिपरिषद् संसद् द्वारा निर्धारित की गई नीतियों का पालन न करे तो संसद् के सदस्य सरकार की तीव्र आलोचना करते हैं तथा बहुधा ऐसे भी हो सकता है कि संसद् के सदस्य मन्त्रिपरिषद् से असन्तुष्ट हो जाने के कारण उससे भी त्याग-पत्र देने की मांग कर सकते हैं।

5. न्यायिक जांच (Judicial Powers)–संसद् राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति को यदि वे अपने कार्यों का ठीक प्रकार से पालन न करें तो महाभियोग लगाकर अपने पद से हटा सकती है। संसद् के दोनों सदन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के जजों को हटाने का प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। कुछ अन्य पदाधिकारियों को पदों से हटाए जाने के प्रस्ताव भी संसद् द्वारा पास किए जा सकते हैं।

6. संवैधानिक शक्तियां (Constituent Powers)-भारतीय संसद् को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार प्राप्त है। संविधान की कुछ धाराएं तो ऐसी हैं जिन्हें संसद् साधारण बहुमत से संशोधित कर सकती है। कुछ धाराओं का संशोधन करने के लिए संशोधन प्रस्ताव दोनों सदनों में सदन के बहुमत तथा उपस्थित वोट दे रहे सदस्यों के 2/3 बहुमत से पास होना आवश्यक है। कुछ संशोधन ऐसे भी हैं जिन पर कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों का समर्थन प्राप्त करने के बाद ही वे लागू हो सकते हैं।

7. सार्वजनिक मामलों पर वाद-विवाद (Deliberation over Public Matters)-संसद में जनता के प्रतिनिधि होते हैं और इसलिए वह सार्वजनिक मामलों पर वाद-विवाद का सर्वोत्तम साधन है। संसद् में ही सरकार की नीतियों तथा निर्णयों पर वाद-विवाद होता है और उनकी विभिन्न दृष्टिकोणों से आलोचना की जाती है। संसद् को जनता की शिकायतों पर प्रकाश डालने तथा उन्हें दूर करने का साधन भी कहा जा सकता है। संसद् सदस्य विभिन्न मामलों पर विचार प्रकट करते हुए अपने मतदाताओं की शिकायतों व आवश्यकताओं को सरकार के सामने रखते हैं और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

8. निर्वाचन सम्बन्धी अधिकार (Electoral Powers)–संसद् उप-राष्ट्रपति का चुनाव करती है। संसद् राष्ट्रपति के चुनाव में भी महत्त्वपूर्ण भाग लेती है। लोकसभा अपने स्पीकर तथा डिप्टी-स्पीकर का चुनाव करती है और राज्यसभा अपने उपाध्यक्ष का चुनाव करती है।

9. विविध शक्तियां (Miscellaneous Powers)-

  • संसद् सम्बन्धित राज्य सरकार की सलाह से नवीन राज्य बना सकती है। उदाहरणतया, अगस्त, 2000 में संसद् ने तीन नए राज्यों-छत्तीसगढ़, उत्तराँचल और झारखण्ड की स्थापना की। संसद् वर्तमान राज्यों के नाम परिवर्तन कर सकती है।
  • संसद् किसी राज्य की विधानपरिषद् का अन्त कर सकती है अथवा बना भी सकती है। यह किसी राज्य की सीमाएं भी परिवर्तित कर सकती है।
  • राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई संकटकालीन उद्घोषणा पर एक महीने के अन्दर-अन्दर संसद् की स्वीकृति आवश्यक है। वह चाहे तो उसे अस्वीकृत भी कर सकती है।

भारतीय संसद् की स्थिति (Position of Indian Parliament) भारतीय संसद् को कानून निर्माण आदि के क्षेत्र में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त हैं, परन्तु भारतीय संसद् इंग्लैण्ड की संसद् की तरह प्रभुसत्ता सम्पन्न नहीं है।

ब्रिटिश संसद् द्वारा बनाए हुए कानूनों को संसद् के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा सुधार अथवा रद्द नहीं किया जा सकता। न ही इंग्लैण्ड में किसी न्यायालय को संसद् के बनाए कानूनों पर पुनर्विचार (Judicial Review) करने का अधिकार है। भारतीय संसद् को ब्रिटिश संसद् की तुलना में सीमित अधिकार (Limited Powers) प्राप्त हैं। इसके मुख्य कारण ये हैं

  • लिखित संविधान की सर्वोच्चता-हमारे देश का संविधान लिखित है जो संसद् की शक्तियों को सीमित करता है। भारतीय संसद् संविधान के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती।
  • संघीय व्यवस्था- भारत में इंग्लैण्ड के विपरीत संघीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है, जिस कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों में शक्तियों का बंटवारा किया गया है।
  • मौलिक अधिकार- भारतीय संसद् नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकती।
  • संसद् द्वारा पास किए गए कानून राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किए जा सकते हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति-संसद् द्वारा पास किए गए कानूनों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है।
  • संशोधन करने की शक्ति सीमित है–संसद् को समस्त संविधान में संशोधन करने का अधिकार नहीं बल्कि उसकी महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन करने के लिए वह आधे राज्यों के समर्थन पर निर्भर रहती है।
  • राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्तियां-संसद् का जब अधिवेशन न हो रहा हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश भी जारी कर सकता है। ये अध्यादेश भी कानून के समान शक्ति रखते हैं।
    इन सभी बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय संसद् ब्रिटिश संसद् का मुकाबला नहीं करती। प्रभुसत्ता सम्पन्न संसद् न होते हुए भी भारतीय संसद् को अपनी शक्तियों और कार्यों के कारण समस्त एशिया के विधानमण्डलों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 5.
संसद् में साधारण विधेयक कैसे पारित होते हैं ? समझा कर लिखिए।
(Describe the Procedure through which an ordinary bill is passed by parliament.)
अथवा
भारतीय संसद् में एक बिल एक्ट कैसे बनता है ?
(How does a bill become an Act in the Indian Parliament ?)
उत्तर-
संसद् का मुख्य काम कानून बनाना है। संविधान की धारा 107 से 112 तक कानून निर्माण सम्बन्धी बातों से सम्बन्धित है। दोनों सदनों में समान विधायिनी पक्रिया (Legislative Procedure) की व्यवस्था की गई है। किसी भी विधेयक को प्रत्येक सदन में पास होने के लिए पांच सीढ़ियों में से गुजरना पड़ता है-(1) बिल की पुनः स्थापना तथा प्रथम वाचन, (2) दूसरा वाचन, (3) समिति अवस्था, (4) प्रतिवेदन अवस्था और (5) तीसरा वाचन । भारत में सरकारी बिल तथा निजी सदस्य बिल (Private Member’s Bill) के पास करने का ढंग एक-सा है। किसी भी साधारण बिल के कानून का रूप धारण करने से पहले निम्नलिखित अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है-

1. पुनः स्थापना तथा प्रथम वाचन (Introduction and First Reading)—साधारण बिल संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। जो भी सदस्य कोई बिल पेश करना चाहता है उसे महीना पहले इस आशय की सूचना सदन के अध्यक्ष को देनी पड़ती है। परन्तु मन्त्रियों के लिए एक महीने का नोटिस देना अनिवार्य है। निश्चित तिथि को सम्बन्धित सदस्य खड़ा होकर सदन से बिल पेश करने की आज्ञा मांगता है जोकि प्रायः दे दी जाती है। यदि इस अवस्था में बिल का विरोध हो जैसे कि नवम्बर, 1954 मे निवारक नजरबन्दी संशोधन बिल (Preventive Detention Bill) का विरोध हुआ था, तो अध्यक्ष बिल पेश करने वाले बिल का विरोध करने वाले सदस्यों का संक्षिप्त रूप में बिल सम्बन्धी बात करने का मौका देता है। सदन का अध्यक्ष सदस्यों का मत ले लेता है। उपस्थिति सदस्यों के साधारण बहुमत से उसका निर्णय हो जाता है। बिल को पेश करने की आज्ञा मिल जाने पर सदस्य बिल का शीर्षक पढ़ता है, इस समय बिल पर कोई वाद-विवाद नहीं होता। महत्त्वपूर्ण बिलों पर इस समय उनकी मुख्य बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा सकता है। इस प्रकार बिल की पुनः स्थापना (Introduction) भी हो जाती है और उसका प्रथम वाचन भी। इसके बाद बिल को सरकारी गज़ट में छाप दिया जाता है।

2. द्वितीय वाचन (Second Reading)—बिल की पुन:स्थापना के बाद द्वितीय वाचन किसी भी समय पर प्रारम्भ हो सकता है। साधारणतः पुनः स्थापना तथा द्वितीय वाचन में दो दिनों का अन्तर होता है, परन्तु यदि सदन का अध्यक्ष आवश्यक समझे तो द्वितीय वाचन को प्राय: दो चरणों में बांटा जाता है।
प्रथम चरण में बिल को पेश करने वाला सदस्य निश्चित तिथि और समय पर यह प्रस्ताव पेश करता है कि बिल पर विचार किया जाए अथवा सदन की सलाह से किसी अन्य समिति के पास भेजा जाए अथवा बिल पर जनमत जानने के लिए इसे प्रसारित किया जाए। यदि प्रस्तावक सदस्य तीन विकल्पों में कोई एक प्रस्ताव लाता है तो कोई अन्य दूसरा प्रस्ताव भी ला सकता है। यदि बिल को प्रसारित करने का प्रस्ताव हो जाता है तो सदन का सचिवालय राज्य सरकारों को आदेश देता है कि वे अपने गज़ट में बिल को प्रकाशित करें तथा स्वीकृत संस्थाओं, सम्बन्धित व्यक्तियों तथा स्थानीय संस्थाओं का विचार लें, परन्तु इस सम्बन्धी प्रस्ताव निर्धारित तिथि के अन्दर किसी सुझाव तथा विचार के साथ सदन के सचिवालय में अवश्य ही पहुंचना चाहिए।

द्वितीय चरण में, बिल के सम्बन्ध में प्राप्त विचारों व सुझावों का संक्षिप्त रूप सदन के सदस्यों के बीच बांट दिया जाता है। प्रस्तावक सदस्य यह प्रस्ताव पेश करता है कि प्रवर या संयुक्त समिति के पास भेजा जाए। कभी-कभी अध्यक्ष की आज्ञा से बिल को बिना प्रवर या संयुक्त समिति में भेजे ही उस पर विचार करना शुरू हो जाता है, परन्तु इस स्तर पर वाद-विवाद सामान्य प्रकृति का होता है। बिल की धाराओं पर बहस नहीं की जाती बल्कि बिल के मौलिक सिद्धान्तों तथा उद्देश्यों पर वाद-विवाद होता है अर्थात् इस समय बिल के आधारमूल सिद्धान्तों पर ही बहस की जाती है, इसके पश्चात् स्पीकर बिल पर मतदान करवाता है। यदि बहुमत बिल के पक्ष में हो तो बिल किसी समिति के पास भेजा जाता है परन्तु यदि बहुमत विपक्ष में हो तो बिल रद्द हो जाता है।

3. समिति अवस्था (Committee Stage)—यदि सदन का निर्णय उस बिल को किसी विशेष कमेटी को भेजने का हो तो फिर ऐसा किया जाता है। जिस प्रवर समिति को वह बिल भेजा जाता है, उसमें बिल पेश करने वाला सदस्य तथा कुछ अन्य सदस्य होते हैं। यदि सदन का उप-सभापति इस समिति में हो तो फिर उसे ही इस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है। प्रवर समिति बिल की धाराओं पर विस्तारपूर्वक विचार करती है। समिति के प्रत्येक सदस्य को बिल की धाराओं, उपधाराओं, खण्डों तथा उपखण्डों आदि पर पूर्ण विस्तार से अपने विचार प्रकट करने और उनमें संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार है। पूरी छानबीन करने के पश्चात् समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है। यह सिफ़ारिश कर सकती है कि बिल रद्द कर दिया जाए या उसे मौलिक रूप में स्वीकर कर लिया जाए या उसे कुछ संशोधन सहित पास किया जाए। समिति अपनी रिपोर्ट निश्चित समय में सदन को भेज देती है।

4. प्रतिवेदन अवस्था (Report Stage)-समिति के लिए यह आवश्यक होता है कि वह बिल के सम्बन्ध में तीन महीने के अन्दर या सदन द्वारा निश्चित समय में अपनी रिपोर्ट सदन में पेश करे। रिपोर्ट तथा संशोधन बिल को छपवाकर सदन के सदस्यों में बांट दिया जाता है। समिति अपनी रिपोर्ट अवस्था पर बिल पर व्यापक रूप से विचार करती है। बिल की प्रत्येक धारा तथा समिति की रिपोर्ट तथा उसके द्वारा पेश किए संशोधन पर विस्तारपूर्वक वाद-विवाद होता है। वाद-विवाद के पश्चात् बिल की धाराओं पर अलग-अलग या सामूहिक रूप में मतदान करवाया जाता है। यदि बहुमत बिल के पक्ष में हो तो बिल पास कर दिया जाता है अथवा बिल रद्द हो जाता है।

5. तृतीय वाचन (Third Reading)-प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् बिल के तृतीय वाचन के लिए तिथि निश्चित कर दी जाती है। तृतीय वाचन किसी बिल की सदन में अन्तिम अवस्था होती है। इस अवस्था में प्रस्तावक यह प्रस्ताव पेश करता है कि बिल को पास किया जाए। इस अवस्था में बिल की प्रत्येक धारा पर विचार नहीं किया जाता। बिल के सामान्य सिद्धान्तों पर केवल बहस होती है और बिल की भाषा को अधिक-से-अधिक स्पष्ट बनाने के लिए यत्न किये जाते हैं। बिल में केवल मौखिक संशोधन किए जाते हैं। बिल की यह अवस्था औपचारिक है और बिल के रद्द होने की सम्भावना बहुत कम होती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

बिल दूसरे सदन में (Bill in the Second House)-एक सदन में पास होने के बाद बिल दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में भी बिल को इसी प्रकार की पांचों अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। यदि दूसरा सदन भी बिल को पास कर दे तो वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। यदि दूसरा सदन उसे रद्द कर दे या छ: महीने तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे सुझाव देकर वापस कर दे जो पहले सदन को स्वीकृत न हों तो राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। बिल दोनों सदनों के उपस्थित तथा वोट देने वाले सभी सदस्यों के बहुमत से पास होता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्य सभा की सदस्य संख्या के दुगने से भी अधिक है, इसलिए संयुक्त बैठक में लोकसभा की इच्छानुसार ही निर्णय होने की सम्भावना होती है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति (Assent of the President)-दोनों सदनों से पास होने के बाद बिल राष्ट्र की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर एक बार अपनी स्वीकृति देने से इन्कार कर सकता है, परन्तु यदि संसद् उस बिल को दोबारा साधारण बहुमत से पास करके राष्ट्रपति के पास भेज दे तो इस बार राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है। स्वीकृति कितने समय में देनी आवश्यक है, इस विषय में संविधान चुप है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और वह कानून बन जाता है।

धन-बिल के पास होने की प्रक्रिया-धन-बिल केवल मन्त्रियों द्वारा राष्ट्रपति की स्वीकृति से लोकसभा में पेश किया जा सकता है। लोकसभा द्वारा पास होने के पश्चात् धन-बिल को राज्यसभा के पास भेज दिया जाता है। राज्यसभा धन-बिल को अस्वीकार नहीं कर सकती। राज्यसभा अधिक-से-अधिक बिल को 14 दिन तक रोक सकती है। राज्यसभा की सिफारिशों को मानना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है। इसके बाद बिल को राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है और राष्ट्रपति हस्ताक्षर करने से इन्कार नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
लोकसभा के अध्यक्ष के चुनाव, शक्तियों तथा स्थिति की विवेचना कीजिए।
(Discuss the election, powers and position of the Speaker of Lok Sabha.)
उत्तर-
लोकसभा भारतीय संसद् का निम्न तथा जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन है। संसद् की शक्तियां वास्तव में लोकसभा ही प्रयोग करती है। लोकसभा की अध्यक्षता उसके अध्यक्ष (Speaker) द्वारा की जाती है। लोकसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में ही अपने समस्त कार्य करती है। लोकसभा के भंग होने पर भी अध्यक्ष का पद नई लोकसभा के कार्य तक बना रहता है। मुनरो (Munro) के अनुसार, “स्वीकर लोकसभा में प्रमुखतम व्यक्ति होता है।” (“The speaker is the most conspicuous figure in the house.”)

चुनाव (Election)-लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा उनसे ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी समय होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को 16वीं लोकसभा का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष के पद पर चुना जाता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

कार्यकाल (Term of Office)-लोकसभा के स्पीकर की अवधि 5 वर्ष है। यदि लोकसभा को भंग कर दिया जाए तो स्पीकर अपने पद का त्याग नहीं करता। वह उतनी देर तक अपने पद पर बना रहता है जब तक नई लोकसभा का चुनाव नहीं हो जाता तथा नई लोकसभा अपना स्पीकर नहीं चुन लेती । यदि स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर लोकसभा के सदस्य नहीं रहते तो उनको अपना पद त्यागना पड़ता है। स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर को 5 वर्ष की अवधि से पहले भी हटाया जा सकता है। यह तभी हो सकता है यदि लोकसभा के उपस्थित सदस्यों की बहसंख्या इसके लिए प्रस्ताव पास कर दे, परन्तु इस प्रकार का प्रस्ताव लोकसभा में तभी पेश हो सकता है यदि कम-से-कम 14 दिन पूर्व अध्यक्ष को ऐसे प्रस्ताव की सूचना दी गई हो। अभी तक स्पीकर के विरुद्ध चार-बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया है, परन्तु कभी भी प्रस्ताव पास नहीं हुआ। नौवीं लोकसभा के स्पीकर श्री रवि राय ने 18 महीने ही काम किया।

वेतन तथा भत्ता (Salary and Allowances)-लोकसभा अध्यक्ष को मासिक वेतन, अन्य भत्ते और रहने के लिए निःशुल्क स्थान आदि मिलता है। अध्यक्ष के वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाएं भारत की संचित निधि से दी जाती हैं जिनको न तो अध्यक्ष के कार्य काल के दौरान घटाया जा सकता है और न ही संसद् इन पर मतदान कर सकती है।

अध्यक्ष की शक्तियां व कार्य (Powers and Functions of the Speaker)-अध्यक्ष को अपने पद से सम्बन्धित बहुत-सी शक्तियां तथा बहुत से कार्यों को करना पड़ता है जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

(क) व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियां (Regulatory Powers)-स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। सदन के सभी सदस्य उसी को सम्बोधित करते हैं। सदन के अध्यक्ष के नाते उसे अनेक व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियां प्राप्त हैं जो कि इस प्रकार हैं-

  • सदन की कार्यवाही चलाने के लिए सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना स्पीकर का कार्य है। (2) स्पीकर सदन के नेता से सलाह करके सदन का कार्यक्रम निर्धारित करता है।
  • स्पीकर सदन की कार्यवाही-नियमों की व्याख्या करता है। स्पीकर की कार्यवाही के नियमों पर की गई आपत्ति पर निर्णय देता है जोकि अन्तिम होता है।
  • जब किसी बिल पर या विषय पर वाद-विवाद समाप्त हो जाता है तो स्पीकर उस पर मतदान करवाता है। वोटों की गिनती करता है तथा परिणाम घोषित करता है।
  • साधारणतः स्पीकर अपना वोट नहीं डालता, परन्तु जब किसी विषय पर वोट समान हों तो अपना निर्णायक वोट दे सकता है।
  • प्रस्तावों व व्यवस्था सम्बन्धी मुद्दों को स्वीकार करना।
  • स्पीकर ही इस बात का निश्चय करता है कि सदन की गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य उपस्थित हैं अथवा नहीं।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों की जानकारी के लिए या किसी विशेष महत्त्व के मामले पर सदन को सम्बोधित करता है।
  • स्पीकर सदन के नेता की सलाह पर सदन की गुप्त बैठक की आज्ञा देता है।
  • लोकसभा में सदस्यों को उनकी मातृभाषा में बोलने की आज्ञा देता है।
  • मन्त्री पद छोड़ने के पश्चात् किसी सदस्य को अपनी सफाई देने की आज्ञा देता है।

(ख) निरीक्षण व भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियां (Supervisory and Censuring Powers)—स्पीकर की निरीक्षण व भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • सदन की विभिन्न समितियों को नियुक्त करने में स्पीकर का हाथ होता है और ये समितियां स्पीकर के निरीक्षण में कार्य करती हैं।
  • स्पीकर स्वयं कुछ समितियों की अध्यक्षता करता है।
  • स्पीकर लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की रक्षा करता है।
  • स्पीकर सरकार को आदेश देता है कि वह लोकहित के लिए सदन को या उसकी समिति को अमुक सूचना भेजे।
  • स्पीकर की आज्ञा के बिना कोई सदस्य लोकसभा में नहीं बोल सकता।
  • यदि कोई सदस्य सदन में अनुचित शब्दों का प्रयोग करे तो स्पीकर अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने वाले सदस्य को अपने शब्द वापस लेने के लिए कह सकता है और वह संसद् की कार्यवाही से ऐसे शब्दों को काट सकता है जो उसकी सम्मति में अनुचित तथा असभ्य हों।
  • यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ करे तो स्पीकर उसको सदन से बाहर जाने के लिए कह सकता है।
  • यदि कोई सदस्य अध्यक्ष के आदेशों का उल्लंघन करे तथा सदन के कार्य में बाधा उत्पन्न करे तो स्पीकर उसे निलम्बित (Suspend) कर सकता है। यदि कोई सदस्य उसके आदेशानुसार सदन से बाहर न जाए तो वह मार्शल की सहायता से उसे बाहर निकलवा सकता है।
  • सदन की मीटिंग में गड़बड़ होने की दशा में स्पीकर को सदन का अधिवेशन स्थगित करने का अधिकार है।
  • यदि सदन किसी व्यक्ति को अपने विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने के लिए दण्ड दे तो उसे लागू करना स्पीकर का काम है।
  • किसी कथित अपराधी को पकड़ने का आदेश जारी करना स्पीकर का कार्य है।

(ग) प्रशासन सम्बन्धी शक्तियां (Administrative Powers)-स्पीकर को प्रशासकीय शक्तियां भी प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं

  • स्पीकर का अपना सचिवालय होता है जिसमें काम करने वाले कर्मचारी उसके नियन्त्रण में काम करते हैं।
  • प्रेस तथा जनता के लिए दर्शक गैलरी में व्यवस्था करना स्पीकर का काम है।
  • सदन की बैठकों के लिए विभिन्न समितियों के कार्य-संचालन के लिए सदन के सदस्यों के लिए उपयुक्त स्थानों की व्यवस्था करना।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों के लिए निवास व अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करता है।
  • स्पीकर संसदीय कार्यवाहियों और अभिलेखों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करता है।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों तथा कर्मचारियों के जीवन व उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए उचित प्रबन्ध करता है।
  • स्पीकर किसी गैर-सदस्य को सदन में प्रविष्ट नहीं होने देता।

(घ) विविध कार्य (Miscellaneous Powers)

  • कोई बिल वित्त बिल है या नहीं, इसका निर्णय स्पीकर करता है।
  • लोकसभा जब किसी बिल पर प्रस्ताव पास कर देती है तब उसे सदन अथवा राष्ट्रपति के पास स्पीकर ही हस्ताक्षर करके भेजता है।
  • दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता स्पीकर करता है।
  • स्पीकर राष्ट्रपति तथा संसद् के बीच एक कड़ी का कार्य करता है। राष्ट्रपति और संसद् के बीच पत्र-व्यवहार स्पीकर के माध्यम से ही होता है।
  • स्पीकर लोकसभा तथा राज्यसभा के बीच एक कड़ी का काम करता है। दोनों सदनों में पत्र-व्यवहार स्पीकर के माध्यम से ही होता है।
  • संसदीय शिष्टमण्डलों के सदस्यों को मनोनीत करना स्पीकर का कार्य है।
  • अन्तर संसदीय संघ में भारतीय संसदीय शिष्टमण्डल में पदेन अध्यक्ष के रूप में कार्य करना।
  • स्पीकर यदि किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए तो सदन को सूचना देता है।
  • सदन की अवधि पूर्ण होने पर स्पीकर विदाई भाषण देता है।

अध्यक्ष की स्थिति (Position of the Speaker) लोकसभा के अध्यक्ष का पद बड़ा महत्त्वपूर्ण तथा महान् आदर गौरव का है। मावलंकर (Mavlanker) ने एक स्थान पर कहा था, “सदन में अध्यक्ष की शक्तियां सबसे अधिक हैं।” (“His authority is supreme in the house.”) इसी प्रकार लोकसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री हुक्म सिंह (Hukam Singh) ने एक बार कहा था, “अध्यक्ष का पद राज्य के उच्च पदों में से एक है।” (“Speaker’s is one of highest office in the land.”) श्री एल० के० अडवाणी (L.K. Advani) ने मार्च 1977 में कहा था कि, “स्पीकर अथवा अध्यक्ष स्वयं में एक संस्था है।” इस पद पर बहुत-से योग्य, निष्पक्ष तथा विद्वान् व्यक्तियों ने कार्य किया है और उन्होंने इसके सम्मान को बढ़ाने में सहायता दी है। इसमें श्री वी० जे० पटेल जो केन्द्रीय विधानसभा के प्रथम स्पीकर थे और श्री जी० वी० मावलंकर (G.V. Mavlankar) का नाम जो लोकसभा के प्रथम स्पीकर थे, उल्लेखनीय हैं।

लोकसभा के अध्यक्ष का पद इंग्लैंड के कॉमन सदन के अध्यक्ष के समान सम्मानित तथा आदरपूर्ण न होते हुए भी काफ़ी प्रभावशाली, सम्मानित आदरपूर्ण है। स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा के स्पीकर के महत्त्व को बताते हुए कहा था, “अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधि है, वह सदन के गौरव, सदन की स्वतन्त्रता का प्रतिनिधित्व करता है और राष्ट्र की स्वतन्त्रता का प्रतीक है क्योंकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए उचित ही है कि उसका पद सम्मानित तथा स्वतन्त्र होना चाहिए और उच्च योग्यता तथा निष्पक्षता वाले व्यक्तियों के द्वारा ही इसे सुशोभित किया जाना चाहिए।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद् की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।” राज्यसभा संसद् का ऊपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके 250 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है। लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। इनमें से 550 निर्वाचित और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति संघीय संसद् का भाग अवश्य है परन्तु इसका सदस्य नहीं है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे। 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। आजकल राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 245 है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है। उदाहरणस्वरूप जहां पंजाब से 7 तथा हरियाणा से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं वहां उत्तर प्रदेश से 31 प्रतिनिधि।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिक संख्या 545 निश्चित की गई। ‘गोवा, दमन और दीयू पुनर्गठन अधिनियम 1987’ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई। इस प्रकार लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-

(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और
(ग) 2 ऐंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए हुए हैं।

प्रश्न 4.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए संविधान में लिखित योग्यताएं बताएं।
उत्तर-
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो,
  • वह संसद् द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो,
  • वह पागल न हो, दिवालिया न हो,
  • किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो।
  • लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले आज़ाद उम्मीदवार के लिए आवश्यक है कि उसका नाम दस प्रस्तावकों द्वारा प्रस्तावित किया गया हो।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह संसद् द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो,
  • वह पागल न हो, दिवालिया न हो,
  • भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो,
  • वह उस राज्य का रहने वाला हो जहां से वह निर्वाचित होना चाहता है,
  • संसद् के किसी कानून या न्यायपालिका द्वारा राज्यसभा का सदस्य बनने के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रश्न 6.
लोकसभा में प्रश्नोत्तर काल का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकसभा के सदस्य मन्त्रियों से उनके विभागों के कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हैं जिनका मन्त्रियों को उत्तर देना पड़ता है। लोकसभा की दैनिक बैठकों का प्रथम घण्टा प्रश्नों का उत्तर देने के लिए निश्चित है। साधारणतया प्रशासकीय जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रश्न पूछे जाते हैं, परन्तु विरोधी दल कई बार सरकार की कमियों और उसके द्वारा किये गये स्वेच्छाचारी कार्यों पर प्रकाश डालने के लिए भी प्रश्न पूछ लेते हैं और मन्त्रियों को बड़ी सतर्कता के साथ इनका उत्तर देना पड़ता है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्य प्रश्न पूछने के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखते हैं।

प्रश्न 7.
राज्यसभा के सदस्यों को कौन-से विशेषाधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
(क) राज्यसभा के सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। सदन में दिए गए भाषणों के कारण उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।
(ख) अधिवेशन के दौरान और 40 दिन पहले और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद तक सदन के किसी भी सदस्य को दीवानी अभियोग के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(ग) सदस्यों को वे सब विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं जो संसद् द्वारा समय-समय पर निश्चित किए जाते हैं।

प्रश्न 8.
‘काम रोको प्रस्ताव’ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
सांसद अपना दैनिक कार्य पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार करते हैं। परन्तु कई बार देश में अचानक कोई विशेष और महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है, जैसे कि कोई रेल दुर्घटना हो जाए, कहीं पुलिस और जनता में झगड़ा होने से कुछ व्यक्तियों की जानें चली जाएं, ऐसे समय में संसद् का कोई भी सदस्य स्थगन (काम रोको) प्रस्ताव पेश कर सकता है। इस प्रस्ताव का यह अर्थ है कि सदन का निश्चित कार्यक्रम थोड़े समय के लिए रोक दिया जाए और उस घटना या समस्या पर विचार किया जाए। अध्यक्ष इस पर विचार करता है और यदि उचित समझे तो काम रोको प्रस्ताव स्वीकार करके सामने रख देता है। वह यदि ठीक न समझे तो उसे अस्वीकृत भी कर सकता है। प्रस्ताव की स्वीकृति दो चरणों में मिलती है, पहले अध्यक्ष के द्वारा और फिर सदन के द्वारा। अध्यक्ष अपनी स्वीकृति के बाद सदन से पूछता है और यदि सदस्यों की निश्चित संख्या उस प्रस्ताव के शुरू किए जाने के पक्ष में हो तो प्रस्ताव आगे चलता है वरन् नहीं। लोकसभा में यह संख्या पचास है। प्रस्ताव स्वीकार हो जाने पर सदन का निश्चित कार्यक्रम रोक दिया जाता है और उस विशेष घटना पर विचार होता है। संसद् सदस्यों को ऐसी दशा में सरकार की आलोचना का अवसर मिलता है। मन्त्रिमण्डल भी उस स्थिति पर विचार प्रकट करता है और सदस्यों को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है।

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प्रश्न 9.
वित्त बिल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वित्त बिल उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने से तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि की बातों से हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक बिल धन बिल है या नहीं, तो इस सम्बन्ध में लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अंतिम समझा जाता है। उस बिल को केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। धन बिल केवल मन्त्री ही पेश कर सकते हैं।

प्रश्न 10.
राज्यसभा के अध्यक्ष के कोई चार कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है।
  2. वह राज्यसभा में शान्ति बनाए रखने तथा उसकी बैठकों को ठीक प्रकार से चलाने का जिम्मेदार है।
  3. वह सदस्यों को बोलने की आज्ञा देता है।
  4. उसे एक निर्णायक मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 11.
किन परिस्थितियों में संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है ?
उत्तर-
राष्टपति निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाता है-

  1. संसद् के दोनों सदनों के विवादों को हल करने के लिए संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है।
  2. संयुक्त अधिवेशन तब बुलाया जाता है जब एक बिल को संसद् का एक सदन पास कर दे और दूसरा अस्वीकार कर दे।

प्रश्न 12.
राज्यसभा की विशेष शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यसभा को संविधान के अन्तर्गत कुछ विशेष शक्तियां दी गई हैं, जो कि इस प्रकार हैं-

  1. राज्यसभा राज्यसूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके संसद् को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  2. 42वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि राज्यसभा अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत प्रस्ताव पास करके अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं (All India Judicial Services) स्थापित करने के सम्बन्ध में संसद् को अधिकार दे सकती है।
  3. संविधान के अनुसार राज्यसभा ही 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके नई अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं (All India Judicial Services) को स्थापित करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दे सकती है।

प्रश्न 13.
लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के चुनाव में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
लोकसभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं और प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष हो, वोट डालने का अधिकार प्राप्त होता है। एक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही उम्मीदवार का चुनाव होता है और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे ही विजयी घोषित किया जाता है। राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है। इस तरह राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा ही होता है।

प्रश्न 14.
लोकसभा तथा राज्यसभा का क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर-
लोकसभा संसद् का निम्न सदन और राज्यसभा संसद् का ऊपरी सदन है। दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त नहीं हैं। लोकसभा राज्यसभा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है। राज्यसभा साधारण बिल को 6 महीने के लिए और धन बिल को केवल 14 दिन तक रोक सकती है। लोकसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं हो सकता और देश के वित्त पर लोकसभा का ही नियन्त्रण है। राज्यसभा मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकती है, आलोचना कर सकती है परन्तु अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिपरिषद् को नहीं हटा सकती। यह अधिकार लोकसभा के पास है। राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदन भाग लेते हैं और महाभियोग में भी दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 15.
संसद् के प्रमुख कार्य तथा शक्तियां क्या हैं ?
उत्तर-

  • संसद् का मुख्य कार्य कानून का निर्माण करना है।
  • संसद् का राष्ट्र के वित्त पर नियन्त्रण है और बजट पास करती है।
  • संसद् का मन्त्रिमण्डल पर नियन्त्रण है और मन्त्रिमण्डल संसद् के प्रति उत्तरदायी है।
  • संसद् राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करती है।
  • संसद् को न्याय सम्बन्धी शक्तियां प्राप्त हैं।
  • संसद् निर्वाचन सम्बन्ध कार्य करती है और संविधान में संशोधन करती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संसद् की शक्तियों पर कोई चार सीमाएं बताइए।
उत्तर-
भारतीय संसद् ब्रिटिश संसद् की तरह सर्वोच्च नहीं है। इस पर निम्नलिखित मुख्य सीमाएं हैं-

  1. भारतीय संसद् संविधान के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती।
  2. संसद् मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकती।
  3. संसद् द्वारा पास किए गए कानून राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किए जा सकते हैं।
  4. सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति संसद् की शक्तियों पर महत्त्वपूर्ण प्रतिबन्ध है।

प्रश्न 17.
साधारण विधेयक किस तरह कानून बनता है, समझाइए।
उत्तर–
संसद् का मुख्य कार्य कानून बनाना होता है। संविधान की धारा 107 से 112 तक कानून निर्माण प्रक्रिया से सम्बन्धित है। साधारण विधेयक को संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। विधेयक को प्रत्येक सदन में पास होने के लिए पाँच अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है-(1) बिल की पुनर्स्थापना तथा प्रथम वाचन, (2) दूसरा वाचन, (3) समिति अवस्था, (4) प्रतिवादन अवस्था और (5) तीसरा वाचन। भारत में सरकारी बिल तथा निजी सदस्य बिल (Private Member’s Bill) के पास करने का ढंग एक-सा है।

एक सदन में पास होने के बाद बिल दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में भी बिल को इसी प्रकार की पाँचों अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। यदि दूसरा सदन भी बिल को पास कर दे तो वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और वह कानून बन जाता है।

प्रश्न 18.
लोकसभा के अध्यक्ष के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होता है जिसका काम लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, अनुशासन बनाए रखना तथा सदन की कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाना है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं। नई लोकसभा अपना नया अध्यक्ष चुनती है। लोकसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को जब चाहे प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकती है, यदि वे अपना कार्य ठीक प्रकार से न करें। परन्तु ऐसा प्रस्ताव उस समय तक लोकसभा में पेश नहीं किया जा सकता जब तक कि इस आशय की पूर्व सूचना कम-से-कम 14 दिन पहले अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को न दी गई हो। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष अध्यक्ष के पद पर काम करता है।

प्रश्न 19.
लोकसभा का अध्यक्ष कौन होता है ? इसके चार मुख्य काम लिखें। (P.B. 1988)
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष होता है, जिसे स्पीकर कहा जाता है और स्पीकर का चुनाव लोकसभा के सदस्य अपने में से करते हैं।

  • स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
  • स्पीकर लोकसभा में अनुशासन बनाए रखता है। यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ी पैदा करता है तो स्पीकर उस सदस्य को सदन से बाहर निकाल सकता है।
  • स्पीकर सदन की कार्यवाही चलाता है। वह सदस्यों को बिल पेश करने, काम रोकने का प्रस्ताव करने, स्थगन प्रस्ताव पेश करने आदि की स्वीकृति देता है।
  • स्पीकर सदस्यों को बोलने की स्वीकृति देता है। कोई भी सदस्य स्पीकर की स्वीकृति के बिना सदन में नहीं बोल सकता।

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प्रश्न 20.
लोकसभा के अध्यक्ष को किस प्रकार चुना जाता है ?
उत्तर-
लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी प्रकार होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से 16वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष के पद पर चुना जाता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

प्रश्न 21.
लोकसभा के अध्यक्ष की चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
अध्यक्ष को बहुत-सी शक्तियां प्राप्त हैं तथा उसे पद से सम्बन्धित अनेकों कार्य करने पड़ते हैं जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

  1. सदन की कार्यवाही को चलाने के लिए शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना स्पीकर का कार्य है।
  2. स्पीकर सदन के नेता से सलाह करके सदन का कार्यक्रम निश्चित करता है।
  3. स्पीकर सदन के कार्यकारी नियमों की व्याख्या करता है।
  4. बिल पर वाद-विवाद के पश्चात् मतदान करवा कर परिणाम घोषित करता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद् की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।””राज्यसभा संसद् का उपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके 250 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है। लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे। 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। आजकल राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 245 है।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-
(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और
(ग) 2 एंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए हुए हैं।

प्रश्न 4.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए संविधान में लिखित कोई दो योग्यताएं बताएं।
उत्तर-
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  1. वह भारत का नागरिक हो,
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए कौन-सी दो योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 6.
वित्त बिल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वित्त बिल उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने से तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि की बातों से हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक बिल धन बिल है या नहीं, तो इस सम्बन्ध में लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अंतिम समझा जाता है। उस बिल को केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। धन बिल केवल मन्त्री ही पेश कर सकते हैं।

प्रश्न 7.
राज्यसभा के अध्यक्ष के कोई दो कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है।
  2. वह राज्यसभा में शान्ति बनाए रखने तथा उसकी बैठकों को ठीक प्रकार से चलाने का ज़िम्मेदार है।

प्रश्न 8.
लोकसभा के अध्यक्ष को किस प्रकार चुना जाता है ?
उत्तर-
लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी प्रकार होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से 16वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया।

प्रश्न 9.
लोकसभा स्पीकर, डिप्टी स्पीकर तथा राज्यसभा के सभापति एवं उप-सभापति का नाम बताएं।
उत्तर-
पद का नाम — व्यक्ति का नाम
1. लोकसभा स्पीकर — श्रीमती सुमित्रा महाजन
2. लोकसभा का डिप्टी स्पीकर — श्री थंबी दुरई
3. राज्य सभा का सभापति — वेंकैया नायडू
4. राज्य सभा का उप-सभापति — श्री हरिवंश नारायण सिंह

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारत की विधानपालिका को क्या कहते हैं ?
उत्तर-भारत की विधानपालिका को संसद् कहते हैं।

प्रश्न 2. भारतीय संसद् के कितने सदन हैं ?
उत्तर- भारतीय संसद् के दो सदन हैं-

  1. लोकसभा
  2. राज्यसभा।

प्रश्न 3. राज्यसभा की अवधि कितनी है ?
उत्तर-राज्यसभा एक स्थायी सदन है।

प्रश्न 4. राज्यसभा के सदस्यों की अवधि कितनी है ?
उत्तर-राज्यसभा के सदस्यों की अवधि 6 वर्ष है।

प्रश्न 5. राज्यसभा के कितने सदस्य प्रति दो वर्ष बाद सेवानिवृत्त होते हैं ?
उत्तर-एक तिहाई सदस्य।

प्रश्न 6. राज्यसभा की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर-राज्यसभा की अध्यक्षता उप-राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 7. लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल कितना है?
उत्तर-लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष है।

प्रश्न 8. लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है?
उत्तर-लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 हो सकती है।

प्रश्न 9. राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है?
उत्तर-राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है।

प्रश्न 10. राज्यसभा धन बिल को कितने समय तक रोक सकती है?
उत्तर-राज्यसभा धन बिल को अधिकतम 14 दिनों तक रोक सकती है।

प्रश्न 11. संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर-लोकसभा का स्पीकर।

प्रश्न 12. संसद् का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-संसद् कानूनों का निर्माण करती है।

प्रश्न 13. संविधान अनुसार संसद् में कौन-कौन शामिल है?
उत्तर-

  1. लोकसभा,
  2. राज्यसभा तथा
  3. राष्ट्रपति।

प्रश्न 14. लोकसभा में 2 एंग्लो इंडियन सदस्यों को कौन मनोनीत करता है?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 15. राज्यसभा में 12 सदस्यों को कौन मनोनीत करता है?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 16. लोकसभा का सदस्य बनने के लिए कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-25 वर्ष।

प्रश्न 17. राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-30 वर्ष।

प्रश्न 18. लोकसभा में सबसे अधिक सदस्य किस राज्य से आते हैं ?
उत्तर-उत्तर प्रदेश से।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. संविधान के अनुच्छेद ………….. में संसद् का वर्णन किया गया है।
2. ……….. संसद् का निम्न सदन है।
3. लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए …………… स्थान आरक्षित रखे गए हैं।
4. लोकसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए …………… स्थान आरक्षित रखे गए हैं।
उत्तर-

  1. 79
  2. लोकसभा
  3. 84
  4. 47.

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प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. लोकसभा का सदस्य बनने के लिए 25 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
2. राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए 35 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
3. राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को नियुक्त कर सकता है।
4. प्रधानमन्त्री लोकसभा में 12 ऐंग्लो इंडियन सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।
5. लोकसभा का चुनाव पांच वर्ष के लिए किया जाता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या हो सकती है
(क) 250
(ख) 400
(ग) 500
(घ) 545.
उत्तर-
(क) 250।

प्रश्न 2.
संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है ?
(क) राज्यसभा का चेयरमैन
(ख) लोकसभा का स्पीकर
(ग) भारत का राष्ट्रपति
(घ) भारत का प्रधानमन्त्री।
उत्तर-
(ख) लोकसभा का स्पीकर।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित संसद का कार्य है-
(क) कानूनों का निर्माण करना
(ख) शासन करना
(ग) युद्ध की घोषणा करना
(घ) नियुक्तियां करना।
उत्तर-
(क) कानूनों का निर्माण करना।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

प्रश्न 4.
संविधान के अनुसार संसद् में सम्मिलित है
(क) लोकसभा, राज्यसभा और मन्त्रिमंडल
(ख) लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति
(ग) लोकसभा, राज्यसभा और प्रधानमन्त्री
(घ) लोकसभा, राज्यसभा और उप-राष्ट्रपति।
उत्तर-
(ख) लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के प्रधानमन्त्री की स्थिति की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(Describe in brief the position of the Prime Minister.)
अथवा
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ? उसकी शक्तियों और स्थिति का वर्णन करो।
(How is Prime Minister of India appointed ? Discuss his powers and position.)
अथवा
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति किस प्रकार होती है ? उसके मन्त्रिपरिषद् और राष्ट्रपति के साथ सम्बन्धों का वर्णन करो।
(How is the Prime Minister of India appointed ? Discuss his relations with the Council of Ministers and the President.)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 के अन्तर्गत राष्ट्रपति की सहायता के लिए एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई है जिसकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है। भारत के राज्य प्रबन्ध में प्रधानमन्त्री को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे संविधान द्वारा राष्ट्रपति को मुख्य कार्यपालक (Chief Executive Head of the State) नियुक्त किया गया है, किन्तु व्यावहारिक रूप में मुख्य कार्यपालिका के सब कार्य प्रधानमन्त्री ही करता है।

प्रधानमन्त्री की नियुक्ति (Appointment of the Prime Minister)-संविधान में कहा गया है कि प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। देश में संसदीय प्रणाली होने के कारण राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। वह केवल उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है जो लोकसभा में बहुमत दल वाली पार्टी का नेता चुना गया हो। दिसम्बर, 1984 में लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (आई) को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और राष्ट्रपति ने कांग्रेस (आई) के नेता श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को अपनी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। ये परिस्थितियां निम्नलिखित हैं-

  • जब लोकसभा में किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो, अथवा
  • कुछ दल मिलकर संयुक्त सरकार का निर्माण (Coalition Ministry) न कर सकें, अथवा
  • लोकसभा में दो दलों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
  • जब प्रधानमन्त्री की अचानक मृत्यु हो जाए।

उपर्युक्त परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपने विवेक, बुद्धि तथा उच्च सूझ-बूझ से काम लेते हुए अपनी इच्छानुसार किसी भी दल के नेता को, जिसे वह स्थायी सरकार बनाने के योग्य समझता हो, मन्त्रिमण्डल बनाने के लिए निमन्त्रण दे सकता है। 15 जुलाई, 1979 को प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई के त्याग-पत्र देने पर किसी भी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं था। अतः राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने अपनी सूझबूझ के अनुसार विपक्ष के नेता यशवन्तराय चह्वाण को सरकार बनाने का निमन्त्रण दिया। परन्तु उसने सरकार बनाने में असमर्थता जाहिर की। उसके बाद राष्ट्रपति ने चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई को अपने समर्थकों की सूची देने को कहा और अन्त में 26 जुलाई, 1979 को राष्ट्रपति ने चौधरी चरण सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया और उसे सरकार बनाने को कहा। 31 अक्तूबर, 1984 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या होने के कुछ समय बाद राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपनी इच्छा से श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। 1 अप्रैल-मई, 1996 के लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ।

राष्ट्रपति ने लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मई, 1996 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि लोकसभा में उन्हें बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं था। 1 जून, 1996 को राष्ट्रपति ने संयुक्त मोर्चा के नेता एच० डी० देवेगौड़ा को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया, क्योंकि कांग्रेस ने देवेगौड़ा को समर्थन देने का वायदा किया था। प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा ने 12 जून, 1996 को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त किया। मार्च, 1998, में 12वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी अथवा चुनावी गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राष्ट्रपति ने लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मार्च, 1998 को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त किया। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में 24 दलों वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन को बहुमत प्राप्त हुआ।

अतः राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने इस गठबन्धन के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः राष्ट्रपति डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने कांग्रेस के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के नेता डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोक सभा के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रधानमन्त्री की योग्यताएं (Qualifications of the Prime Minister)-प्रधानमन्त्री की योग्यताओं का वर्णन संविधान में नहीं किया गया है, क्योंकि प्रधानमन्त्री के लिए संसद् का सदस्य होना आवश्यक है। इसलिए संसद् सदस्यों की योग्यताएं तथा अयोग्यताएं उस पर लागू होती हैं। इसके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डलीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त होना चाहिए अर्थात् उसे बहुमत पार्टी का नेता होना चाहिए। व्यावहारिक रूप में उसमें व्यक्तिगत गुणों का होना आवश्यक है। जिस प्रकार ब्रिटेन के वाल्डविन के व्यक्तित्व में पाइप (Pipe) तथा चर्चिल के व्यक्तित्व में सिगार (Cigar) ने निखार ला दिया था, उसी प्रकार भारत में श्री नेहरू की प्रतिभा में गुलाब का फूल, श्री लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व में उनकी सादगी, श्रीमती इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता में उनका मनमोहक व्यक्तित्व और राजीव गांधी के व्यक्तित्व में उनका भोलापन और अच्छा आचरण चार चांद लगा देता था।

अवधि (Term)-साधारण रूप में प्रधानमन्त्री के पद की अवधि राष्ट्रपति की कृपादृष्टि पर आधारित है तथा इसका कार्यकाल 5 वर्ष समझा जाता है, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। इसकी अवधि लोकसभा के बहुमत के समर्थन पर निर्भर करती है। जब प्रधानमन्त्री के पक्ष में लोकसभा का बहुमत नहीं रहता तथा उसके विरुद्ध अविश्वास का मत स्वीकार हो जाता है, तब प्रधानमन्त्री को त्याग-पत्र देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री का त्याग-पत्र सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र समझा जाता है। 28 मई, 1996 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि वे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं कर सके। वे केवल 13 दिन तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने 17 अप्रैल, 1999 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि वे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त न कर सके।

वेतन (Salary)-प्रधानमन्त्री को 1987 के अधिनियम के अनुसार वही वेतन और भत्ते मिलते हैं जो संसद् के सदस्य को मिलते हैं।
प्रधानमन्त्री के कार्य तथा शक्तियां (Powers and Functions of the Prime Minister)—प्रधानमन्त्री की शक्तियां एवं कार्य निम्नलिखित हैं-

1. मन्त्रिमण्डल का नेता (Leader of the Cabinet)-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का नेता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने वाला और नष्ट करने वाला प्रधानमन्त्री ही है। वास्तव में मन्त्रिमण्डल का प्रधानमन्त्री के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। यही कारण है कि उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” (“Key-stone of the Cabinet arch.’) कहा गया है। प्रधानमन्त्री को मन्त्रिमण्डल से सम्बन्धित निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं :-

(क) प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है (Formation of the Council of Ministers)राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रिपरिषद् के अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों के नाम राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करता है तथा उसकी स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् वे मन्त्री बन जाते हैं। क्योंकि राष्ट्रपति की स्वीकृति एक औपचारिक कार्यवाही है, इसलिए मन्त्रियों की नियुक्ति की वास्तविक शक्ति प्रधानमन्त्री के पास ही है। 91वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सितम्बर, 2017 में मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 थी।

(ख) विभागों का विभाजन (Allocation of Portfolios)-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है तथा इसमें परिवर्तन भी कर सकता है। सितम्बर, 2017 में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी मंत्रिपरिषद् का विस्तार एवं पुनर्गठन किया, इससे मंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 हो गई। इसमें 27 कैबिनेट मंत्री 37 राज्यमंत्री तथा 11 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री शामिल थे।

(ग) प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति (Chairman of the Cabinet)-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। वह कैबिनेट की बैठकों में सभापतित्व करता है। वह कार्यसूची तैयार करता है। बैठकों में होने वाले वाद-विवाद पर नियन्त्रण रखता है। मन्त्रिमण्डल के अधिकतर निर्णय वास्तव में प्रधानमन्त्री के ही निर्णय होते हैं।

(घ) मन्त्रियों की पदच्युति (Removal of the Ministers)-संविधान के अनुसार मन्त्री राष्ट्रपति की प्रसन्नता तक अपने पद पर रहते हैं, परन्तु वास्तव में मन्त्री तब तक अपने पद पर रह सकते हैं जब तक प्रधानमन्त्री चाहे । उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति मन्त्रिपरिषद् में नहीं रह सकता। यदि कोई मन्त्री प्रधानमन्त्री के कहने के अनुसार त्यागपत्र न दे तो वह राष्ट्रपति को कहकर उसे पदच्युत करवा सकता है और दोबारा मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय अपने विरोधी व्यक्तियों को मन्त्रिमण्डल से बाहर रख सकता है।

1 अगस्त, 1990 को प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा उप प्रधानमन्त्री देवी लाल को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की सलाह से हटा दिया गया। जुलाई, 1992 को वाणिज्य मन्त्री पी. चिदम्बरम ने प्रतिभूति घोटाले के आरोप में दोषी ठहराए जाने के कारण अपना त्याग-पत्र प्रधानमन्त्री को दे दिया। जनवरी-फरवरी, 1996 में 6 केन्द्रीय मन्त्रियों ने हवाला कांड में शामिल होने के कारण त्यागपत्र दे दिए। 20 अप्रैल, 1998 को प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने त्याग-पत्र देने से इन्कार करने पर संचार मन्त्री बूटा सिंह को बर्खास्त कर दिया। इस प्रकार प्रधानमन्त्री को मन्त्रियों को हटाने का पूरा अधिकार प्राप्त है।

2. प्रधानमन्त्री का समन्वयकारी रूप (Prime Minister as a Co-ordinator)—प्रधानमन्त्री सरकार के भिन्न-भिन्न विभागों तथा उनके कार्यों में ताल-मेल रखता है। वह मन्त्रिमण्डल में एकता तथा सामूहिक उत्तरदायित्व स्थापित करता है। विभिन्न विभागों में जब मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं तब प्रधानमन्त्री ही उनको हल करता है।

3. योग्य सरकार के लिए उत्तरदायी (Responsible for able Government)-प्रधानमन्त्री सरकार की योग्यता के लिए उत्तरदायी है। उसको सदा यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी सरकार तथा पार्टी की देश में साख बनी रहे। इस उत्तरदायित्व को निभाने हेतु वह अपने मन्त्रिमण्डल में समय-समय पर परिवर्तन भी कर सकता है। नवीन मन्त्रियों को नियुक्त कर सकता है तथा यदि ऐसा अनुभव करे कि किसी विशेष मन्त्री का मन्त्रिमण्डल में होना सरकार के हित में अथवा मान में नहीं है तो वह ऐसे मन्त्री को पद से हटा भी सकता है।

4. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार (Principle Adviser of the President)-प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है। राष्ट्रपति प्रशासन के प्रत्येक मामले पर प्रधानमन्त्री की सलाह लेता है। राष्ट्रपति को प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही शासन चलाना पड़ता है। राष्ट्रपति सीधा मन्त्रियों से बात न करके प्रधानमन्त्री के माध्यम से ही मन्त्रिमण्डल की सलाह लेता है।

5. राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी (Link between the President and the Cabinet)प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है। वह राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल के निर्णयों के विषय में सूचित करता है। मन्त्री, प्रधानमन्त्री की पूर्व स्वीकृति में राष्ट्रपति से मिल सकते हैं, परन्तु औपचारिक रूप में प्रधानमन्त्री ही राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णयों से सूचित करता है।

6. सरकार का मुखिया (Head of the Govt.) सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमन्त्री राज्य प्रबन्ध चलाता है। गृह तथा विदेश नीति का निर्माण करता है। वह समस्त महान् नीतियों की मन्त्रिमण्डल की ओर से घोषणा भी करता है। बजट भी उसकी देख-रेख में तैयार होता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सहमति के बिना न कोई नियुक्ति करता है तथा न ही कोई उपाधि देता है।

7. सरकार का प्रमुख प्रवक्ता (Chief Spokesman of the Government)-प्रधानमन्त्री ही सरकार का प्रमुख प्रवक्ता है। संसद् तथा जनता के सामने मन्त्रिमण्डल की नीति और निर्णयों की घोषणा प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती है। वह सभी प्रशासकीय विभागों की जानकारी रखता है। जब कभी कोई मन्त्री संकट में हो तो उसकी सहायता करके मन्त्रिमण्डल-रूपी नौका को डूबने से बचाने का काम प्रधानमन्त्री ही करता है।

8. संसद् का नेता (Leader of the Parliament)—प्रधानमन्त्री को संसद् का नेता माना जाता है। सरकार की नीतियों की सभी महत्त्वपूर्ण घोषणाएं प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती हैं। जब संसद् के सामने कोई समस्या आ खड़ी होती है तब वह प्रधानमन्त्री की ओर पथ-प्रदर्शन की आशा से देखती है और उसकी सलाह के अनुसार ही निर्णय करती है। सदन में अनुशासन बनाए रखने के लिए वह स्पीकर की सहायता करता है। प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही राष्ट्रपति संसद् का अधिवेशन बुलाता है। संसद् का कार्यक्रम भी प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार निश्चित किया जाता है।

9. लोकसभा को भंग करने का अधिकार (Right to get Lok Sabha dissolved)—प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है। 13 मार्च, 1991 को प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर की सलाह पर राष्ट्रपति आर० वेंकटरमण ने लोकसभा को भंग किया। 26 अप्रैल, 1999 को कैबिनेट की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने 12वीं लोकसभा को भंग कर दिया।

10. राष्ट्र का नेता (Leader of the Nation)-प्रधानमन्त्री राष्ट्र का नेता है। आम चुनाव प्रधानमन्त्री का चुनाव माना जाता है। जब देश पर कोई संकट आता है तब सारा देश प्रधानमन्त्री की ओर देखता है और जनता बड़े ध्यान से उसके विचारों को सुनती है। प्रधानमन्त्री जब भी किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलता है तो वह समस्त राष्ट्र की तरफ से बोल रहा होता है।

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11. दल का नेता (Leader of the Party)-प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी का नेता है। पार्टी को संगठित करना और पार्टी की नीतियों को निश्चित करने में प्रधानमन्त्री का बड़ा हाथ होता है। आम चुनाव के समय पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव करना प्रधानमन्त्री का ही काम है। अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को विजयी बनाने के लिए वह ज़ोरदार भाषण देता है।

12. नियुक्तियां (Appointments)-शासन के सभी उच्च अधिकारियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सिफ़ारिश पर करता है। राज्य के गवर्नर, विदेशों में भेजे जाने वाले राजदूत, संघीय लोक सेवा आयोग के सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश तथा विभिन्न आयोगों तथा शिष्टमण्डलों के सदस्य आदि प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार ही नियुक्त किए जाते हैं।

13. गृह तथा विदेश नीति का निर्माण (Formation of the Internal and Foreign Policies)-गृह तथा विदेश नीति के निर्माण में प्रधानमन्त्री का ही हाथ है। भारत की विदेश नीति क्या होगी, इसका निर्णय प्रधानमन्त्री ही करता है। दूसरे देशों के साथ भारत के सम्बन्ध कैसे होंगे, इसका निर्णय भी प्रधानमन्त्री ही करता है। युद्ध और शान्ति की घोषणा का अधिकार भी वास्तव में प्रधानमन्त्री के पास ही है।

14. प्रधानमन्त्री राष्ट्रमण्डल के देशों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करता है (Establishes good relations with the Commonwealth Countries)-भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य है जिस कारण राष्ट्रमण्डल के देशों के साथ मैत्री के सम्बन्ध स्थापित करना प्रधानमन्त्री का कार्य है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रमण्डल की बैठकों में भाग लेता है।

15. प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers of the Prime Minister)—संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को विभिन्न संकटकालीन शक्तियां प्रदान की गई हैं, परन्तु इन शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है क्योंकि राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग स्वेच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति को इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री की सलाह से करना होता है। 44वें संशोधन के द्वारा प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियों पर एक प्रतिबन्ध लगाया गया है। इस संशोधन के अन्तर्गत राष्ट्रपति संकट की घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे।

प्रधानमन्त्री की स्थिति (Position of the Prime Minister)-

प्रधानमन्त्री की ऊपरलिखित शक्तियों तथा कार्यों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे संविधान में सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी है। डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “यदि हमारे संविधान में किसी अधिकारी की तुलना अमेरिकन राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह हमारे देश का प्रधानमन्त्री ही है।” संविधान द्वारा कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं परन्तु इसका प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है। वह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका है। एक प्रसिद्ध लेखक के शब्दों में, “प्रधानमन्त्री की अन्य मन्त्रियों में वह स्थिति है जो सितारों में चन्द्रमा (Shining moon among the lesser stars) की होती है। वह एक धुरी है जिसके गिर्द राज्य प्रबन्ध की मशीनरी घूमती है अथवा हम उसे राज्यरूपी जहाज़ का कप्तान (Captain of the ship of the State) भी कहते हैं।”

प्रधानमन्त्री तानाशाह नहीं बन सकता (Prime Minister cannot become a dictator)-प्रधानमन्त्री की असाधारण शक्तियों को देखते हुए कई लोगों का विचार है कि वह इन शक्तियों के कारण तानाशाह बन सकता है। प्रो० के० टी० शाह (Prof. K.T. Shah) ने उसकी इन शक्तियों को दृष्टि में रखते हुए संविधान सभा में बोलते हुए ऐसा कहा था, “प्रधानमन्त्री की शक्तियों को देखकर मुझे ऐसा डर लगता है कि यदि वह चाहे तो किसी भी समय देश का तानाशाह बन सकता है।”

परन्तु दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी विचार है कि प्रधानमन्त्री, इन शक्तियों के होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता है। उनके अनुसार प्रधानमन्त्री को मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। कई बार उसे दल के ऐसे सदस्यों को भी मन्त्रिमण्डल में लेना पड़ता है जिनको वह न चाहता हो तथा उनकी इच्छानुसार उनको विभाग भी देने पड़ते हैं। इनके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय उसे देश के भिन्न-भिन्न भागों तथा श्रेणियों को प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-

  • संसद का नियन्त्रण-प्रधानमन्त्री संसद् के प्रति उत्तरदायी है और संसद् प्रधानमन्त्री को निरंकुश बनने से रोकती है। कई बार उसको संसद् की इच्छानुसार अपनी नीति में परिवर्तन भी करना पड़ता है।
  • जनमत–प्रधानमन्त्री जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकता। प्रधानमन्त्री को जनमत को ध्यान में रखकर शासन चलाना होता है। यदि कोई प्रधानमन्त्री जनमत की परवाह नहीं करता तो जनता ऐसे प्रधानमन्त्री को अगले चुनाव में हटा देती है।
  • विरोधी दल-प्रधानमन्त्री कोई निरंकुश सीज़र (Ceasar) नहीं बन सकता। उनके शब्द कोई अन्तिम निर्णय नहीं। किसी भी समय उनको चुनौती दी जा सकती है। प्रधानमन्त्री को विरोधी दलों के होते हुए काम करना पड़ता है। विरोधी दल प्रधानमन्त्री की आलोचना करके उसे निरंकुश नहीं बनने देते।

अन्त में, हम कह सकते हैं कि प्रधानमन्त्री का पद उसके व्यक्तित्व तथा देश के वातावरण पर और उसकी अपनी पार्टी के समर्थन पर निर्भर करता है। स्वर्गीय प्रधानमन्त्री नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी शक्तियों का प्रयोग लोकहित को मुख्य रखकर किया। 26 जून, 1975 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति ने आन्तरिक आपात्कालीन स्थिति की घोषणा की। संकटकाल में इन्दिरा गांधी की स्थिति हिटलर तथा नेपोलियन जैसे तानाशाहों से कम नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में लोकसभा के चुनाव में इन्दिरा गांधी की बुरी तरह हार हुई। जनता ने यह प्रमाणित कर दिया कि प्रधानमन्त्री, तानाशाह नहीं बन सकता और उसको अपनी शक्तियों का प्रयोग देश के हित में करना होगा।

मिली-जुली सरकार का प्रधानमन्त्री एक दल की सरकार के प्रधानमन्त्री की अपेक्षा कम शक्तिशाली होता है क्योंकि प्रधानमन्त्री को सहयोगी दलों के समर्थन का पूरा विश्वास नहीं होता। संयुक्त मोर्चा की सरकार के प्रधानमन्त्री एच० डी० देवगौड़ा श्रीमती इन्दिरा गांधी के मुकाबले में अत्यधिक कमज़ोर प्रधानमन्त्री थे। भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्थिति सुदृढ़ व शक्तिशाली नहीं थी क्योंकि आए दिन कोई न कोई सहयोगी दल सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देता रहता था। अक्तूबर, 1999 में 24 दलों के राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनी। परन्तु इस गठबन्धन के नेता अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर अपने सहयोगी दलों की कृपा पर निर्भर हैं।
मौखिक रूप से देना पड़ता है। कई बार मन्त्री के द्वारा अपने विभाग के सम्बन्ध में लिए गए निर्णय गलत सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 2.
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन करो। उनके कार्यों का भी उल्लेख करो।
(Describe the procedure for the formation of the Council of Minister. Also explain its functions.)
उत्तर-
संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु वह उनका प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सहायता से करता है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल द्वारा दी गई सलाह पर मन्त्रिमण्डल को पुनः विचार करने के लिए कह सकता है परन्तु मन्त्रिमण्डल द्वारा पुनः दी गई सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है।

मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)—संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः राष्ट्रपति ने कांग्रेस के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के नेता डॉ० मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया।

अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है। मन्त्री बनने के लिए आवश्यक है कि वह संसद् के दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य हो। प्रधानमन्त्री किसी ऐसे व्यक्ति को भी मन्त्री नियुक्त करवा सकता है जो संसद् का सदस्य न हो, परन्तु नियुक्ति के छ: महीने के अन्दर-अन्दर उस मन्त्री को संसद् का सदस्य अवश्य बनना पड़ता है।

मन्त्रियों की संख्या (Number of Ministers)-91वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सितम्बर, 2017 में मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 थी।

अवधि (Term of Office)-संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत ही यह कहा गया है कि मन्त्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहेंगे। सैद्धान्तिक रूप में मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति की इच्छा पर है परन्तु व्यवहार में मन्त्रिपरिषद् तब तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त रहे। यदि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास कर दे तो मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। नवम्बर, 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह लोकसभा में विश्वास मत न प्राप्त कर सके जिस कारण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ा। राष्ट्रपति नारायणन ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी की सलाह पर संचार मन्त्री बूटा सिंह को 20 अप्रैल, 1998 को बर्खास्त किया। राष्ट्रपति किसी मन्त्री को प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही हटा सकता है न कि अपनी इच्छा से। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त न कर सके जिस कारण उन्हें और उनके मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

मन्त्रिपरिषद् की बैठकें (Meetings of the Cabinet)–मन्त्रिमण्डल की बैठक सप्ताह में एक बार या आवश्यकता पड़ने पर एक-से अधिक बार भी हो सकती है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्रधानमन्त्री द्वारा बुलाई जाती हैं और ये बैठकें प्रधानमन्त्री के कार्यालय या निवास स्थान पर होती हैं। इन बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है। मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णय बहुमत से किए जाते हैं।

मन्त्रिपरिषद् के कार्य (Functions of Council Ministers)—मन्त्रिपरिषद् वैसे तो एक सलाहकार परिषद् बताई गई है, परन्तु वास्तव में वह देश का वास्तविक शासक है। राष्ट्रपति की समस्त कार्यपालिका शक्तियां उसके द्वारा ही प्रयोग की जाती हैं। मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण (Determination of National Policy)-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है। राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण करते समय मन्त्रिमण्डल अपने दल के कार्यक्रम और सिद्धान्त को ध्यान में रखता है। मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय नीति का भी निर्माण करता है।

2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन (Conduct of Foreign Relations)-मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का भी निर्माण करता है और विदेश सम्बन्धों का संचालन करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है। मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्धों के बारे में निर्णय करता है, दूसरे देशों में राजदूतों को भेजता है। राजदूतों की नियुक्ति राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है। दूसरे देशों के साथ सन्धि-समझौते करना, व्यापारिक व आर्थिक समझौते करना, युद्ध की घोषणा और शान्ति की स्थापना इत्यादि प्रश्नों पर मन्त्रिमण्डल ही निर्णय लेता है।

3. प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over the Administration)—प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-नकिसी मन्त्री के अधीन होता है और सम्बन्धित मन्त्रिमण्डल के द्वारा निर्धारित तथा संसद् द्वारा स्वीकृति के अनुसार अपने विभाग को सुचारु रूप से चलाने का प्रयत्न करता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन के विभिन्न भागों में सहयोग तथा तालमेल उत्पन्न करने का प्रयत्न भी करता है ताकि विभिन्न विभाग एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य कर सकें तथा एक-दूसरे के विरोधी न बनें। समस्त भारत के कानूनों को अच्छे प्रकार से लागू करना, शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना तथा जनता के सर्वोत्तम हित के लिए शासन चलाना मन्त्रिमण्डल का कर्त्तव्य है।

4. विधायिनी कार्य (Legislative Functions)-सैद्धान्तिक रूप में कानून बनाना संसद् का कार्य है परन्तु व्यावहारिक रूप में यदि कहा जाए कि मन्त्रिमण्डल संसद् की स्वीकृति से कानून बनाता है तो गलत नहीं है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं और वे संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं। संसद् में अधिकतर बिल मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पेश किए जाते हैं। क्योंकि बहुमत मन्त्रिपरिषद् के साथ होता है, इसलिए मन्त्रिपरिषद् का पेश किया हुआ बिल आसानी से पास हो जाता है। मन्त्रिपरिषद् की इच्छा के विरुद्ध कोई भी बिल संसद् में पास नहीं हो सकता। मन्त्रिपरिषद् ही इस बात की सलाह राष्ट्रपति को देती है कि संसद् का अधिवेशन कब बुलाया जाए और उसे कब तक स्थापित किया जाए। संसद् का अधिकतम समय मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पेश किए गए बिलों पर विचार करने में खर्च होता है। वास्तव में संसद् पर मन्त्रिपरिषद् का नियन्त्रण है और वह अपनी इच्छा के अनुसार जो भी कानून चाहे पास करवा सकती है।

5. प्रदत्त-कानून निर्माण (Delegated Legislation)–संसद् प्रायः कानून का केवल ढांचा निश्चित करती है और उसमें विस्तार करने का अधिकार मन्त्रिमण्डल को सौंप देती है। मन्त्रिमण्डल के उप-नियम बनाने के अधिकार को प्रदत्त-व्यवस्थापन कहा जाता है। मन्त्रिमण्डल के इस अधिकार से मन्त्रिमण्डल का शासन पर और नियन्त्रण बढ़ जाता है।

6. वित्तीय कार्य (Financial Functions)-मन्त्रिमण्डल का वित्त सम्बन्धी कार्य भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। मन्त्रिमण्डल ही राज्य के समस्त व्यय के लिए उत्तरदायी है और उस समस्त व्यय की पूर्ति के लिए वित्त जुटाना उसी का काम है। वार्षिक बजट तैयार करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है और वित्त मन्त्री बजट को लोकसभा में पेश करता है। मन्त्रिमण्डल ही इस बात का निर्णय करता है कि कौन-सा नया कर लगाना है, या पुराने करों में बढ़ोत्तरी करनी है या पुराने करों को समाप्त करना है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

7. नियुक्तियां (Appointments)—महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं, परन्तु राष्ट्रपति अपनी इच्छा से नियुक्तियां न करके मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है । राजदूतों, राज्य के राज्यपाल, अटॉरनी जनरल, संघ लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग तथा अन्य महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है।

8. मन्त्रिमण्डल का समन्यवकारी स्वरूप (The Cabinet as a Co-ordinator)-मन्त्रिमण्डल का एक महत्त्वपूर्ण कार्य मन्त्रियों के विभिन्न विभागों में समन्वय पैदा करना है। सारा शासन कई विभागों में बांटा जाता है। एक विभाग का दूसरे विभाग पर प्रभाव पड़ता है और कई बार एक महत्त्वपूर्ण समस्या का कई विभागों से सम्बन्ध होता है। इसलिए प्रत्येक विभाग का दूसरे विभाग के साथ समन्वय होना चाहिए और यह कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है। विदेश नीति पर व्यापार नीति का प्रभाव पड़ता है। इस तरह शिक्षा सम्बन्धी नीति का दूसरे विभागों पर विशेषकर वित्त विभाग पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि एक विभाग का दूसरे विभाग के साथ समन्वय हो और यह महत्त्वपूर्ण कार्य मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है।

9. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers) 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को संकटकाल घोषित करने की लिखित सलाह दे।

10. जांच-पड़ताल की शक्ति (Power of Investigation) मन्त्रिमण्डल भूतपूर्व मन्त्रियों, मुख्यमन्त्रियों तथा अन्य अधिकारियों के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-मन्त्रिमण्डल की शक्तियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है मन्त्रिमण्डल देश का वास्तविक शासक है। राष्ट्रपति नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय नीति का निर्माण करना, धन पर नियन्त्रण, कानून बनाना, महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां करना इत्यादि सभी कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा किए जाते हैं। श्री एम० वी० पायली (M.V. Pylee) का यह कहना सर्वथा उचित है, “संघीय मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीतियों का निर्माता, नियुक्तियां करने वाले सर्वोच्च अधिकारी, विभागों के आपसी झगड़ों का निर्णायक तथा सरकार के विभिन्न विभागों में तालमेल पैदा करने वाला सर्वोच्च अंग है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रधानमन्त्री कैसे नियुक्त होता है ?
उत्तर–
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, परन्तु ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से काम नहीं ले सकता। प्रधानमन्त्री के पद पर उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। आम चुनाव के बाद जिस राजनीतिक दल को सदस्यों का बहुमत प्राप्त होगा, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है। यदि किसी भी राजनीतिक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो तो भी राष्ट्रपति को इस बारे में पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं मिलती बल्कि कठिनाई का सामना करना पड़ता है। ऐसी दशा में उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा के बहुमत सदस्यों का सहयोग प्राप्त कर सकता हो।

प्रश्न 2.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है।
अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है। मन्त्री बनने के लिए आवश्यक है कि वह संसद् के दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य हो। प्रधानमन्त्री किसी ऐसे व्यक्ति को भी मन्त्री नियुक्त करवा सकता है जो संसद् का सदस्य न हो, परन्तु नियुक्ति के छः महीने के अन्दर-अन्दर उस मन्त्री को संसद् का सदस्य अवश्य बनना पड़ता है।।

प्रश्न 3.
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है। व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का नेता है। प्रधानमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल को बनाता एवं नष्ट करता है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिमण्डल का कोई अस्तित्व नहीं है। अग्रलिखित कारणों से उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” कहा गया है(1) राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। (2) प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं, अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। (3) प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। (4) प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री की किन्हीं चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की निम्नलिखित मुख्य शक्तियां हैं-

  1. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों की एक सूची तैयार कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. विभागों का विभाजन-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है और जब चाहे इसमें परिवर्तन कर सकता है।
  3. प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति-प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। वह कैबिनेट की बैठकों में सभापतित्व करता है। वह कार्य सूची तैयार करता है। बैठकों में होने वाले वाद-विवाद पर नियन्त्रण रखता है। मन्त्रिमण्डल के अधिकतर निर्णय वास्तव में प्रधानमन्त्री के निर्णय होते हैं।
  4. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार–प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है।

प्रश्न 5.
क्या प्रधानमन्त्री तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की असाधारण शक्तियों को देखते हुए कई लोगों का विचार है कि वह इन शक्तियों के कारण तानाशाह बन सकता है। परन्तु विद्वानों का विचार है कि प्रधानमन्त्री इन शक्तियों के होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता है क्योंकि प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-

  • प्रधानमन्त्री संसद् के प्रति उत्तरदायी है और संसद् प्रधानमन्त्री को निरंकुश बनने से रोकती है।
  • प्रधानमन्त्री जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकता। प्रधानमन्त्री को जनमत को ध्यान में रखकर शासन चलाना होता है।
  • प्रधानमन्त्री को सदैव विरोधी दल का ध्यान रखना पड़ता है। विरोधी दल प्रधानमन्त्री की आलोचना करके उसे निरंकुश नहीं बनने देते हैं।

प्रश्न 6.
प्रधानमन्त्री की स्थिति की चर्चा करो।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की शक्तियों तथा कार्यों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे संविधान में सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी है। डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “यदि हमारे संविधान में किसी अधिकार की तुलना अमेरिकन राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह हमारे देश का प्रधानमन्त्री ही है, राष्ट्रपति नहीं।” संविधान द्वारा कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु इनका प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है, वह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका है। एक प्रसिद्ध लेखक के शब्दों में, प्रधानमन्त्री की अन्य मन्त्रियों में वह स्थिति है जो सितारों में चन्द्रमा (Shining moon among the lesser stars) की होती है। वह एक धूरी है जिसके गिर्द राज्य की मशीनरी घूमती है अथवा हम उसे राज्यरूपी जहाज़ का कप्तान (Captain of the ship of the State) भी कहते हैं।

प्रश्न 7.
सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
भारतीय संविधान की धारा 75 (3) में स्पष्ट किया गया है कि मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। सामूहिक उत्तरदायित्व की बात हमने ब्रिटिश संविधान से ली है। भारतीय मन्त्रिमण्डल उस समय तक अपने पद पर रह सकता है जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो। यदि लोकसभा का बहुमत मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध हो जाए तो उसे अपना त्याग-पत्र देना पड़ेगा। मन्त्रिमण्डल एक इकाई की तरह काम करता है और यदि लोकसभा किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सब मन्त्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ता है। यह उस समय होता है जबकि किसी मन्त्री ने कोई कार्यवाही मन्त्रिमण्डल की स्वीकृति से की हो। यदि उसने व्यक्तिगत रूप में निर्णय लिया हो तो उस समय केवल उसी मन्त्री को ही त्याग-पत्र देना पड़ता है।

प्रश्न 8.
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रियों तथा विधानपालिका में गहरा सम्बन्ध होता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक मन्त्री अपने कार्यों और निर्णयों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रत्येक मन्त्री किसी-न-किसी प्रशासकीय विभाग का अध्यक्ष होता है। उस विभाग के कुशल संचालन का उत्तरदायित्व उस मन्त्री का होता है। अतः प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग को कुशलतापूर्वक चलाने के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। विधानपालिका के सदस्य किसी भी मन्त्री से उसके विभाग के कार्यों के बारे में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। मन्त्री को उसका उत्तर लिखित अथवा मौखिक रूप से देना पड़ता है। कई बार मन्त्री के द्वारा अपने विभाग के सम्बन्ध में लिए गए निर्णय गलत सिद्ध होते हैं और इस कारण विधानपालिका में उसकी आलोचना की जाती है। यदि विधानपालिका में उस मन्त्री के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पास कर दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में केवल उस मन्त्री को ही त्याग-पत्र देना पड़ता है सारे मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देने की आवश्यकता नहीं होती। भारत में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं; जैसे- श्री लाल बहादुर शास्त्री, श्री टी० टी० कृष्णमाचारी और श्री वी० के० मेनन ने अपनी गलतियों के कारण केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र दे दिए थे।

प्रश्न 9.
मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं चार कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है।
  2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन–मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का निर्माण भी करता है और विदेशी सम्बन्धों का संचालन करता है । मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरे देशों में राजदूत भेजता है।
  3. प्रशासन पर नियन्त्रण-प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है और सम्बन्धित मन्त्री अपने विभाग को सुचारू ढंग से चलाने का प्रयत्न करता है। समस्त भारत में कानूनों को लागू करता, शान्ति व्यवस्था बनाए रखना और शासन को सुचारू रूप से चलाना मन्त्रिमण्डल का ही कार्य है।
  4. विधायिनी कार्य-मन्त्रिमण्डल द्वारा बहुत से विधायिनी कार्य किए जाते हैं।

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प्रश्न 10.
भारतीय मन्त्रिमण्डल की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
भारतीय मन्त्रिमण्डल में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं

  1. नाममात्र का अध्यक्ष- भारतीय संविधान के अन्तर्गत संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई है। राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है। देश का समस्त शासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है, परन्तु वास्तव में शासन मन्त्रिमण्डल द्वारा चलाया जाता है।
  2. कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठता-संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। भारत में भी संसदीय शासन प्रणाली को ही अपनाया गया है। अतः मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं।
  3. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-भारतीय मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्य प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में करता है, राष्ट्रपति के नेतृत्व में नहीं। प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का ह्रदय एवं आत्मा है। वह इसकी आधारशिला है।
  4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व-मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 11.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में कितने प्रकार के मन्त्री होते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर-
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में तीन प्रकार के मन्त्री होते हैं-कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उपमन्त्री।

  • कैबिनेट मन्त्री-मन्त्रिपरिषद् के सबसे महत्त्वपूर्ण मन्त्रियों को कैबिनेट मन्त्री कहा जाता है और कैबिनेट मन्त्री किसी महत्त्वपूर्ण विभाग के अध्यक्ष होते हैं।
  • राज्य मन्त्री-राज्य मन्त्री कैबिनेट मन्त्री के सहायक के रूप में कार्य करते हैं। ये कैबिनेट के सदस्य नहीं होते तथा न ही ये कैबिनेट की बैठक में भाग लेते हैं।
  • उपमन्त्री-ये किसी विभाग के स्वतन्त्र रूप से अध्यक्ष नहीं होते। इसका कार्य केवल किसी दूसरे मन्त्री के कार्य में सहायता देना होता है।

प्रश्न 12.
मन्त्रिमण्डल और मन्त्रिपरिषद् में अन्तर बताएं।
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् एक विशाल संस्था है। हमारे संविधान में भी मन्त्रिपरिषद् शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, मन्त्रिमण्डल का नहीं। मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद् का हिस्सा होता है। मन्त्रिपरिषद् में लगभग 80 सदस्य होते हैं जबकि मन्त्रिमण्डल में लगभग 30 मन्त्री होते हैं। मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य मन्त्रिमण्डल के सदस्य नहीं होते हैं । मन्त्रिपरिषद् में सभी मन्त्री होते हैं जबकि मन्त्रिमण्डल में केवल महत्त्वपूर्ण मन्त्री ही होते हैं। मन्त्रिपरिषद् की बैठकें बहुत कम होती हैं जबकि मन्त्रिमण्डल की बैठकें सप्ताह में प्रायः एक बार अवश्य होती हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रधानमन्त्री कैसे नियुक्त होता है ?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, परन्तु ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से काम नहीं ले सकता। प्रधानमन्त्री के पद पर उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। आम चुनाव के बाद जिस राजनीतिक दल को सदस्यों का बहुमत प्राप्त होगा, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है।

प्रश्न 2.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है।

प्रश्न 3.
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है। व्याख्या करें।
उत्तर–
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का नेता है। प्रधानमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल को बनाता एवं नष्ट करता है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिमण्डल का कोई अस्तित्व नहीं है। निम्नलिखित कारणों से उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” कहा गया है-

  • राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  • प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं, अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है।

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री की किन्हीं दो शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों की एक सूची तैयार कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. विभागों का विभाजन-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है।

प्रश्न 5.
मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं दो कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है।
  2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन-मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का निर्माण भी करता है और विदेशी सम्बन्धों का संचालन करता है। मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरे देशों में राजदूत भेजता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रधानमंत्री की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 2. राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार कौन है ?
उत्तर-राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार प्रधानमंत्री है।

प्रश्न 3. भारत का वास्तविक प्रशासक कौन है ?
उत्तर-भारत का वास्तविक प्रशासक प्रधानमंत्री है।

प्रश्न 4. प्रधानमन्त्री किसकी अध्यक्षता करता है ?
उत्तर-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल की अध्यक्षता करता है।

प्रश्न 5. मन्त्रिमण्डल किसके प्रति उत्तरदायी होता है ?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 6. भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-श्री नरेन्द्र मोदी।

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प्रश्न 7. भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहर लाल नेहरू थे।

प्रश्न 8. भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री कौन थे?
उत्तर- श्री मोरार जी देसाई।

प्रश्न 9. भारतीय प्रधानमन्त्री की अवधि कितनी होती है?
उत्तर- भारतीय प्रधानमन्त्री की अवधि लोकसभा के समर्थन पर निर्भर करती है।

प्रश्न 10. 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसने प्रधानमन्त्री बनने से इन्कार कर दिया?
उत्तर- श्रीमती सोनिया गांधी ने।

प्रश्न 11. मन्त्रिमण्डल में कौन-कौन शामिल होता है ?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल में कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उपमन्त्री शामिल होते हैं।

प्रश्न 12. किस प्रधानमन्त्री का विश्वास प्रस्ताव केवल एक मत से गिर गया था?
उत्तर-श्री अटल बिहारी वाजपेयी का।

प्रश्न 13. किस प्रधानमन्त्री का कार्यकाल केवल 13 दिन रहा?
उत्तर- श्री अटल बिहारी वाजपेयी का।

प्रश्न 14. मन्त्रिमण्डल के सदस्य किस सदन में से लिए जा सकते हैं?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल के सदस्य लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों में से लिए जा सकते हैं।

प्रश्न 15. मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था संविधान के किस अनुच्छेद में दी गई ?
उत्तर-अनुच्छेद 74 में।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राष्ट्रपति मन्त्रियों की नियुक्ति ………….के कहने पर करता है।
2. राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सिफ़ारिश पर ………….. को भंग कर सकता है।
3. भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री ………….. थे।
4. भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री …………… हैं।
5. श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बनते समय …………. के सदस्य थे।
उत्तर-

  1. प्रधानमन्त्री
  2. लोकसभा
  3. पं० जवाहर लाल नेहरू
  4. श्री नरेन्द्र मोदी
  5. लोकसभा।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. पं० जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा का कभी सामना नहीं किया।
2. प्रधानमन्त्री संसद् का अभिन्न अंग होता है।
3. प्रधानमन्त्री तानाशाह नहीं बन सकता।
4. भारत में राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिपरिषद् करता है।
5. भारत में संसद् मन्त्रियों से प्रश्न नहीं पूछ सकती।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश

प्रश्न 1.
भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे-
(क) पं० जवाहर लाल नेहरू
(ख) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ग) डॉ० अम्बेडकर ।
(घ) मोरारजी देसाई।
उत्तर-
(घ) मोरारजी देसाई।

प्रश्न 2.
भारत का वास्तविक शासक है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(घ) राज्यपाल।
उत्तर-
(ख)।

प्रश्न 3.
प्रशासन के लिए जिम्मेवार है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राज्यपाल
(घ) संसद्।
उत्तर-
(ख) प्रधानमन्त्री ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री को विश्वास प्राप्त होना चाहिए-
(क) राज्यसभा में
(ख) लोकसभा में
(ग) राज्य में विधानपालिका में
(घ) किसी में भी नहीं।
उत्तर-
(ख) लोकसभा में ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में केन्द्र और राज्यों के बीच प्रशासकीय, वैधानिक और वित्तीय सम्बन्धों की विवचेना कीजिए।
(Discuss the administrative, legislative and financial relations between the union and the states.)
उत्तर-
केन्द्र राज्य सम्बन्धों का वर्णन हमें भारतीय संविधान के भाग XI की 19 धाराओं (Art 245-263) में मिलता है। इसके अतिरिक्त संविधान के अनेक अनुच्छेद इस प्रकार के हैं जोकि संघ राज्यों के सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं। उदाहरणस्वरूप, संकटकालीन व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद, वे अनुच्छेद जो राज्यसभा की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, एकीकृत न्याय व्यवस्था, एक ही निर्वाचन आयोग की व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद इत्यादि। अध्ययन की सुविधा के लिए केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-वैधानिक, प्रशासकीय तथा वित्तीय।
नोट-वैधानिक, प्रशासकीय और वित्तीय सम्बन्धों के लिए प्रश्न नं० 2, 4 और 5 देखें।

प्रश्न 2.
कानून निर्माण सम्बन्धी शक्तियों का केन्द्र तथा राज्य की सरकारों के बीच किस प्रकार बंटवारा किया गया है ?
(How have the legislative powers been distributed between the centre and the states.)
अथवा भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Discuss the legislative relations between the centre and states in Indian Constitution.)
उत्तर-
संघ व राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है, जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची कहा जाता है।

1. संघ सूची (Union List)-संघ-सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद् को है। इन विषयों में प्रतिरक्षा (Defence); विदेशी सम्बन्ध (Foreign Relations), युद्ध और शान्ति (War and Peace), यातायात तथा संचार, रेलवे, डाक व तार, नोट तथा मुद्रा, बीमा, बैंक, विदेशी व्यापार, जहाज़रानी, वायुसेना (Civil Aviation) आदि राष्ट्रीय महत्त्व के विषय जो सारे देश के नागरिकों से समान रूप में सम्बन्धित हैं। इन विषयों पर बने कानून सब राज्यों और सब नागरिकों पर बराबर रूप से लागू होते हैं।

2. राज्य सूची (State List)-राज्य-सूची में 66 विषय हैं और उन पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों को है । इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस व जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर कर आदि महत्त्वपूर्ण विषय आते हैं ।

3. समवर्ती सूची (Concurrent List)-इस सूची में 47 विषय हैं । इस सूची में विवाह, विवाह-विच्छेद, दण्ड विधि (Criminal Law), दीवानी कानून (Civil Procedure), न्याय (Trust) समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा छापाखानों, बिजली, मिलावट, आर्थिक तथा सामाजिक योजना, कारखाने आदि हैं । इस पर कानून बनाने का अधिकार संघ तथा राज्य दोनों को प्राप्त है । यदि एक ही विषय पर केन्द्र तथा राज्य द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हो तो ऐसी स्थिति में संघीय कानून को प्राथमिकता मिलती है और राज्य सरकार का कानून उस सीमा तक रद्द हो जाता है जिस सीमा तक राज्य का कानून संघीय कानून का विरोध करता है ।।

संघ सरकार अधिक शक्तिशाली है (Union Govt. is more Powerful)-शक्तियों के विभाजन से स्पष्ट है कि संघ सरकार राज्य सरकारों से अधिक शक्तिशाली है जबकि राज्य सरकार संघ की शक्तियों को प्रयुक्त नहीं कर सकती।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

1. अवशिष्ट शक्तियां (Residuary Powers)-अनुच्छेद 248 के अनुसार उन सब विषयों को जिनका वर्णन समवर्ती सूची और राज्य सूची में नहीं आया उन्हें अवशिष्ट शक्तियां माना गया है । इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को है । संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैंड में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को दी गई हैं।
2. संघ सरकार को राज्य सूची पर अधिकार (Power of the Union on the State List)-निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् विधानमण्डलों के वैधानिक अधिकारों का अपहरण कर सकती है-

  • राज्यसभा के प्रस्ताव पर (At the resolution of Rajya Sabha)-अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा में उपस्थित तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्य दो-तिहाई बहुमत से किसी प्रस्ताव को पास कर दें या घोषित करें कि राज्यसूची में दिए गए किसी विषय पर संसद् द्वारा कानून बनाना राष्ट्रीय हित में होगा तो संसद् उस विषय पर सारे भारत या किसी विशेष राज्य के लिए कानून बना सकेगी ।
  • युद्ध, बाहरी आक्रमण व सशस्त्र विद्रोह के कारण उत्पन्न हुए संकट के समय-यदि युद्ध अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण आपातकाल की घोषणा की गई तो संसद् राज्य सूची के किसी भी विषय पर सारे देश या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है और कानून संकट की घोषणा समाप्त हो जाने के 6 महीने बाद तक लागू रह सकता
  • राज्यों में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने पर-संविधान की धारा 356 के अन्तर्गत जब किसी राज्य में संवैधानिक यन्त्र (Machinery) के फेल होने पर वहां का शासन राष्ट्रपति अपने हाथ मे ले ले, तो संसद् को यह अधिकार है कि वह राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाए । यह कानून केवल संकटकाल वाले राज्य में ही लागू होगा । संसद् की इच्छा हो तो वैधानिक शक्ति राष्ट्रपति को दे दे ।
  • दो या दो से अधिक राज्यों की प्रार्थना पर-अनुच्छेद 252 के अनुसार जब दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद् से राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करे तो संसद् इस मामले पर कानून बना सकेगी । परन्तु ऐसा कानून प्रार्थना करने वाले राज्यों पर ही लागू होगा ।
  • अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों और सम्मेलनों के निर्णयों को लागू करने के लिए-यदि संघीय सरकार ने विदेशी सरकार से कोई सन्धि कर ली हो, तो संसद् उसको व्यावहारिक रूप देने के लिए किसी प्रकार का भी कानून बना सकती है, भले ही वह विषय राज्य सूची में ही क्यों न हो ।
  • कुछ विशेष प्रकार के बिलों के लिए राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक है-राज्यपाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखने की शक्ति रखता है । राष्ट्रपति ऐसे बिलों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है ।
  • बिल पेश करने से पूर्व स्वीकृति-राज्य विधानमण्डल में पेश करने से पहले कुछ बिलों के लिए पूर्व स्वीकृति की ज़रूरत होती है ।
  • राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने और नए राज्य स्थापित करने का अधिकार-किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना, पुराने राज्य को समाप्त करना, नए राज्यों की स्थापना करना तथा उसका नाम बदलना भी संसद् की शक्तियां हैं । संसद् यह सब कार्य साधारण बहुमत से करती है ।
  • राज्य में विधानपरिषद् स्थापित व समाप्त करने का अन्तिम अधिकार- यदि राज्य की विधानसभा अपने राज्य में विधानपरिषद् की स्थापना करने अथवा समाप्त करने के लिए प्रस्ताव पास करके उसे संसद् के पास भेजे तो संसद् कानून पास करके उस राज्य में विधानपरिषद् स्थापित या समाप्त कर सकती है ।
  • संघीय सूची में कुछ प्रकार के विषयों का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा संघ सरकार राज्य सरकारों पर नियन्त्रण रख सकती है । इस सम्बन्ध में दो विषयों का उल्लेख किया जा सकता है-चुनाव तथा लेखों की जांच । राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी संसद् के नियन्त्रण में रखे गए हैं । इसके अतिरिक्त राज्य के लेखों की जांच भी केन्द्र का विषय है ।

वैधानिक सम्बन्धों की आलोचना (Criticism of Legislative Relations) संघ और राज्यों में वैधानिक सम्बन्धों की आलोचनात्मक समीक्षा से स्पष्ट पता चलता है कि केन्द्र अधिक शक्तिशाली है और वह अपनी विशिष्ट कानूनी सर्वोच्चता के माध्यम से राज्यों पर अपनी इच्छा थोप सकता है। संघीय सूची में सभी महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित किए गए हैं और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने के मामले मे केन्द्र को ही सर्वोच्चता दी गई है । राज्य विधानमण्डलों का अधिकार क्षेत्र बहुत ही सीमित है । के० वी० राव (K.V. Rao) ने ठीक ही कहा है कि राज्य सूची पर एक नज़र डालने से पता चल जाएगा कि ये विषय कितने महत्त्वहीन और कितने अस्पष्ट हैं।

राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए कानूनों पर राष्ट्रपति के निषेधाधिकार (Veto Power) को आशंका की भावना से देखा जाता है । उदाहरण के लिए जिस प्रकार केन्द्र ने 1958 में केरल शिक्षा अधिनियम (Kerala Education Bill) के सम्बन्ध में कार्यवाही की, उससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्य की वैधानिक शक्तियां केन्द्र की दया-दृष्टि पर निर्भर करती हैं । कई व्यावहारिक मामलों के आधार पर एस० एन० जैन (S. N. Jain) और एलिस जैकब (Alice Jacob) के अनुसार कहा जा सकता है कि “केन्द्र ने अपनी स्वीकृति देते हुए राज्यों पर नीतियों को थोपने की कोशिश की है। हालांकि वास्तव में बहुत ही कम स्थितियों में इस प्रकार की स्वीकृति दी गई है।”

प्रश्न 3.
संघ सरकार और राज्य सरकारों के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों का वर्णन करें ।
(Describe the administrative relations between the union and the states.
उत्तर-
संघात्मक सरकार तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्ध बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न सरकारों के बीच सहयोग और समन्वय, इस सम्बन्ध का मूल सिद्धान्त है। डी० डी० बसु (D.D. Basu) के शब्दों में, “संघ सरकार की सफलता और दृढ़ता सरकार के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है ।” भारतीय संविधान निर्माता इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे। अत: उन्होंने इस सम्बन्ध में अनेक अनुच्छेदों की व्यवस्था की है।

संघीय सूची का प्रशासन संघ के अधीन जबकि राज्य सूची व समवर्ती सूची का प्रशासन राज्य सरकारों के अधीन-संघ का प्रशासन विषयक अधिकार उन सभी विषयों पर लागू होता है जो संघ सूची में दिए गए हैं। राज्यों के प्रशासनिक विषय के अधिकार क्षेत्र में न केवल वे ही विषय आते हैं जो राज्य सूची में दिए गए हैं बल्कि वे विषय भी आते हैं जो समवर्ती सूची में दिए गए हैं। संसद् समवर्ती सूची में दिए विषयों पर कानून तो बना सकती है, पर उन कानूनों को लागू करना राज्य का कार्य है।

संघीय सरकार अधिक शक्तिशाली-संघीय कार्यपालिका राज्य की कार्यपालिकाओं पर निम्नलिखित ढंग से प्रभाव डाल सकती है-

1. राज्यपाल की नियुक्ति-राज्य के मुखिया की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है । राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है । राष्ट्रपति ही राज्यपाल को पद से हटा सकता है। राज्य का संवैधानिक मुखिया होने के बावजूद भी राज्यपाल केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि है।
2. राज्यों को निर्देश देने का अधिकार-भारतीय संविधान की धारा 257 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार निर्देश दे सकता है। तीन उदाहरण निम्नलिखित दिए गए हैं-

(क) यह निश्चित करने के लिए कि कोई राज्य सरकार अपने प्रशासन विषयक अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार करेगी की उससे केन्द्रीय सरकार के प्रशासन विषयक अधिकारों के मार्ग में रुकावट न हो, राष्ट्रपति राज्य सरकार को आवश्यक निर्देश दे सकता है।
(ख) राष्ट्रपति राज्य सरकारों को ऐसे संवहन और संचार साधनों के निर्माण और उसकी देखभाल के निर्देश दे सकता है जिन्हें राष्ट्रीय अथवा सैनिक महत्त्व का घोषित कर दिया जाए।
(ग) राष्ट्रपति किसी भी राज्य को निर्देश दे सकता है कि अपने राज्य की सीमा के अन्दर रेलों और जलमार्गों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कार्यवाही करे । ध्यान रहे,(ख) तथा (ग) में दिए निर्देशों का पालन करने में राज्यों को जो अतिरिक्त व्यय करना पड़े वह व्यय केन्द्रीय सरकार देगी।

3. केन्द्रीय सुरक्षा पुलिस-यदि केन्द्रीय सरकार किसी राज्य में शान्ति भंग होने का खतरा अनुभव करे तो वह उस राज्य में केन्द्रीय सम्पत्ति की रक्षा हेतु केन्द्रीय सुरक्षा पुलिस भेज सकती है। 4. संकटकालीन घोषणा-जब राष्ट्रपति बाहरी आक्रमण, युद्ध या सशस्त्र विद्रोह के कारण संकटकालीन अवस्था की घोषणा करे, तो वह राज्यों को अपनी कार्यपालिका शक्ति को विशेष ढंग से इस्तेमाल करने का आदेश दे सकता है।
5. राज्य में राष्ट्रपति का शासन-यदि केन्द्रीय सरकार द्वारा दिए गए आदेश का पालन कोई राज्य सरकार न करे या राज्य की सरकार संविधान की धाराओं के अनुसार न चले तो संविधान की धारा 356 के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सरकार को विघटित करके राज्य के प्रशासन को अपने हाथ में ले सकता है।
6. राज्य के उच्च अधिकारी अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी-राज्य के उच्च पदों पर अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी, जिनको केन्द्रीय सरकार नियुक्त करती है, कार्य करते हैं।
7. चुनाव आयोग-राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त निर्वाचन आयोग, संघ तथा राज्यों के निर्वाचन पर नियन्त्रण रखता है।
8. महालेखा परीक्षक-केन्द्र तथा राज्य सरकारों के हिसाब-किताब के निरीक्षण तथा नियन्त्रण के लिए राष्ट्रपति नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General) को नियुक्त करता है।
9. अन्तर्राज्यीय नदियों के विवादों को हल करना-ऐसी नदियों के सम्बन्ध में जो एक से अधिक राज्यों में से होकर गुज़रती है, सभी झगड़ों को निपटने और उनके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद् को है। ऐसे किसी झगड़े में उसे अधिकार है कि वह कानून बनाकर मामले को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र (सर्वोच्च न्यायालय) से बाहर घोषित कर दे।
10. राज्य की सरकारों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन-संघीय सरकार भारत के सारे राज्यों में शासन सम्बन्धी एकरूपता स्थापित करने के लिए राज्य की सरकारों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुला सकती है तथा उनको कुछ सिफ़ारिशें भी कर सकती है।
11. अन्तर्राज्यीय परिषद्-राज्यों के आपसी झगड़े निपटाने के लिए राष्ट्रपति अन्तर्राज्यीय परिषद् बना सकता है। अन्तर्राज्यीय परिषद् (Inter-State Council) के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • राज्यों में आपसी झगड़ों की छानबीन करके उसके सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार को रिपोर्ट देना।
  • संघ तथा राज्यों के सामूहिक हितों पर विचार करना।
  • संघीय सरकार द्वारा अन्तर्राज्य सम्बन्धी पूछे गये विषयों पर सलाह देना।

12. राष्ट्रपति अनुसूचित, आदिम जातियों तथा पिछड़ी जातियों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए राज्यों को आवश्यक आदेश भी दे सकता है।
13. राज्यपाल की प्रार्थना पर और राष्ट्रपति की स्वीकृति से संघीय लोक सेवा आयोग राज्य की किसी ज़रूरत के लिए कार्य कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)—वैधानिक क्षेत्र की तरह प्रशासनिक क्षेत्र में भी केन्द्रीय सरकार की स्थिति अत्यधिक प्रभावशाली है। राज्यपाल संवैधानिक मुखिया होने के बावजूद भी केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि होता है। केन्द्रीय सरकार अनुच्छेद 356 का प्रयोग करके विरोधी दलों की सरकारों को अपदस्थ करके राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 4.
संघ और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों की व्याख्या करें।
(Discuss the financial relations between the Union and States in India.)
उत्तर-
डी० डी० बसु का कहना है कि, “कोई भी संघ राज्य सफल नहीं हो सकता जब तक कि संविधान द्वारा प्रदत्त उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए संघ तथा राज्यों के पास पर्याप्त आर्थिक साधन न हों।” परन्तु वित्तीय स्वायत्तता के इस सिद्धान्त को भी पूर्णतः अपनाया नहीं गया है। कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया में इकाइयों की आय के साधन इतने अपर्याप्त हैं कि केन्द्रीय सहायता के बिना उनका काम नहीं चल सकता। दूसरी ओर स्विट्ज़रलैंड में संघ सरकार को आर्थिक सहायता के लिए राज्य सरकारों पर आश्रित रहना पड़ता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघ तथा राज्य सरकार को पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश की गई है। भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के आय के साधनों का विभाजन कानून बनाने की शक्तियों के साथ कर दिया गया है।

1. कर निर्धारण की शक्ति का वितरण और करों से प्राप्त आय का विभाजन-भारतीय संविधान में वित्तीय धाराओं की. दो विशेषतायें हैं- एक तो संघ व राज्यों के मध्य कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है और दूसरे करों से प्राप्त आय का विभाजन किया गया है
संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार केन्द्र तथा राज्यों में राजस्व का विभाजन निम्नलिखित ढंग से किया गया-
(क)संघीय सरकार की आय के साधन-संघीय सरकार को आय के अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़ कर आय-कर, सीमा शुल्क, उत्पादन शुल्क, निगम कर, कृषि भूमि को छोड़ कर अन्य सम्पत्ति शुल्क, निर्यात शुल्क, व्यावसायिक उद्यमों पर कर आदि प्रमुख हैं।।
(ख) राज्यों की आय के साधन-राज्यों की आय के साधन अलग कर दिए गए हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि, आय-कर, कृषि भूमि कर, उत्तराधिकार शुल्क, सम्पत्ति शुल्क, उत्पादन कर, बिक्री-कर, यात्री-कर, मनोरंजन-कर, मुद्रांक शुल्क (Stamp duty), पशु कर, बिजली खपत आदि मुख्य हैं।

2. करों की वसूली व उनके बंटवारे की व्यवस्था-संघीय सूची में करों की आय को केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित किया गया है। इनको चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है

  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए गए तथा इकट्ठे किए जाते हैं, परन्तु उनका विभाजन केन्द्र तथा राज्यों में किया जाता है, जैसे आय-कर (Income Tax) ।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं, केन्द्र द्वारा एकत्र किए जाते हैं और इनकी पूर्ण आय केन्द्र के पास रहती है। जैसा आयात-निर्यात कर (Custom Duty), आयकर तथा अन्य करों पर सरचार्ज।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं पर राज्यों द्वारा एकत्र और व्यय होते हैं जैसे स्टाम्प शुल्क (Stamp Duty), दवाइयों तथा मद्य-पदार्थों तथा श्रृंगार प्रसाधन वाली वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क आदि।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए तथा इकट्ठे किए जाते हैं परन्तु राज्यों में बांट दिए जाते हैं। कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति उत्तराधिकार पर शुल्क, कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति पर भू-सम्पत्ति शुल्क, रेल, वायु तथा समुद्री जहाज़ द्वारा लाए गए यात्रियों तथा माल पर कर, रेल के किरायों तथा माल भाड़ों पर कर आदि।

3. अनुदान (Grants in aid)—संविधान द्वारा यह भी व्यवस्था है कि केन्द्रीय सरकार राज्यों को सहायक अनुदान दे। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है जिसके द्वारा संघ राज्यों पर नियन्त्रण रख सकता है।
संघीय सरकार ही अनुदान की राशि और अनुदान की शर्तों को नियत करती है जिसके अनुसार राज्य सरकारें इन अनुदानों का प्रयोग कर सकती हैं।

4. ऋण (Borrowing)-संविधान में यह लिखा है कि राज्य सरकार अपने राज्य विधानमण्डलों द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत अपनी संचित निधि की जमानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है। ध्यान रहे, राज्य किसी दूसरे देश से ऋण नहीं ले सकता। संघीय सरकार भी अपनी संचित निधि की जमानत पर संसद् की आज्ञानुसार ऋण ले सकती है।

5. वित्तीय आयोग (Finance Commission)-संविधान द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और उसमें चार अन्य सदस्य होंगे। हर पांच साल के बाद एक नया वित्त आयोग स्थापित किया जाएगा। संसद् इस आयोग के लिए योग्यताएं और उसकी नियुक्ति का तरीका निश्चित करेगी। वित्त आयोग का मुख्य कार्य केन्द्र और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों को सुधारने के लिए सलाह देना है।

6. करों की विमुक्ति (Exemption from Taxation) अनुच्छेद 285 के अनुसार जब तक संसद् विधि द्वारा कोई प्रतिबन्ध न लगा दे, राज्यों द्वारा संघ की सम्पत्ति पर कर नहीं लगाया जा सकता। भारत सरकार की रेलवे द्वारा प्रयोग में आने वाली बिजली पर संसद् की अनुमति के अभाव में राज्य किसी प्रकार का शुल्क नहीं लगा सकता। दूसरी ओर संघ सरकार राज्य की सम्पत्ति और आय पर कर लगा सकती है।

7. वित्तीय आपात्कालीन शक्तियां (Financial Emergency Powers)-अनुच्छेद 360 राष्ट्रपति को वित्तीय आपात्कालीन शक्तियां प्रदान करता है। वित्तीय आपात्काल की घोषणा होने पर राज्यों की आय सीमा उन्हीं करों तक सीमित रहती है जो राज्य सूची में उल्लिखित हैं। वित्तीय आपात्काल में राष्ट्रपति संविधान के किसी भी ऐसे अनुच्छेद को निलम्बित कर सकता है जिसका सम्बन्ध या तो अनुदानों से हो या संघ के करों की आय के भाग को बांटने से हो।

8. भारत के नियन्त्रण एवं महालेखा परीक्षक द्वारा नियन्त्रण-नियन्त्रण एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति मन्त्रिमण्डल के परामर्श से राष्ट्रपति करता है। यह संघीय सरकार तथा राज्य सरकारों के हिसाब का लेखा रखने के ढंग और उनकी निष्पक्ष रूप से जांच करता है। संसद् नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के द्वारा ही राज्यों की आय पर नियन्त्रण रखती है।
वित्तीय सम्बन्धों की आलोचना (Criticism of Financial Relations)-वित्तीय क्षेत्र में भी राज्यों की स्थिति काफ़ी शोचनीय है। राज्यों के आय के साधन इतने सीमित हैं कि राज्य अपनी विकासशील नीतियों को बिना केन्द्रीय सहायता के लागू नहीं कर पाते। अत: राज्यों को केन्द्र पर वित्तीय सहायता के लिए निर्भर रहना पड़ता है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission), केन्द्रीय कल्याण बोर्ड (Central Welfare Board) और योजना आयोग राज्यों को सशर्त अनुदान केन्द्र के अभाव में अधिक प्रभावशाली बनाते हैं। वित्त कमीशन की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्यों को इस सम्बन्ध में कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। राष्ट्रपति वित्तीय संकट को घोषित करके राज्यों के वित्तीय प्रबन्ध को अपने हाथ में ले सकता है। केन्द्र विरोधी दलों की सरकारों को अनुदान देने में मतभेद की नीति का अनुसरण करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघ और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन कितनी सूचियों में किया गया है ? वर्णन करें।
उत्तर-
संघ और राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची कहा जाता है।

(क) संघ सूची-संघ सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है। इन विषयों में युद्ध और शान्ति, डाक-तार, प्रतिरक्षा, नोट और मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं।
(ख) राज्य सूची-राज्य सूची में 66 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों के पास है। इस सूची में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और जेल, स्थानीय सरकार, सड़कें, पुल इत्यादि विषय शामिल
(ग) समवर्ती सूची-इस सूची में 47 विषय हैं। इस सूची में न्याय, समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा छापाखाना, बिजली इत्यादि विषय सम्मिलित हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र तथा राज्यों को प्राप्त है।

प्रश्न 2.
राज्य सूची से आप क्या समझते हैं ? इस सूची के प्रमुख विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-
वह सूची, जिसके विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों के पास है, राज्य सूची कहलाती है। राज्य सूची में कुल 66 विषय हैं। इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस तथा जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें, पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर टैक्स इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 3.
केन्द्र, राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार करता है ?
उत्तर-
राज्य सरकारों के साधन इतने पर्याप्त नहीं हैं कि केन्द्रीय सरकार की सहायता के बिना उनका कार्य सुचारू रूप से चल सके। अतः राज्यों को अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए केन्द्रीय सरकार की आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। केन्द्रीय सरकार, राज्य की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति निम्न ढंग से करती है

  • करों की वसूली तथा उनके बंटवारे की व्यवस्था-संघीय सूची के विषयों पर लगाए गए करों की आय को केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित किया गया है।
  • अनुदान राज्यों की आय के पर्याप्त साधन न होने के कारण उन्हें संघीय सरकार द्वारा दी गई आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। संघीय सरकार प्रत्येक वर्ष राज्यों को सहायक अनुदान देकर उनकी वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
  • ऋण-राज्य सरकार अपने राज्य विधानमण्डलों द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत अपनी संचित निधि की ज़मानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची से आप क्या समझते हैं ? इस सूची में कौन-कौन से प्रमुख विषय आते हैं ?
उत्तर-
समवर्ती सूची में ऐसे विषय सम्मिलित किए गए हैं, जिन पर संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों ही कानून बना सकते हैं। यदि राज्य विधानमण्डल और संसद् द्वारा समवर्ती सूची पर बनाए गए कानून में मतभेद हो तो संसद् के कानून को प्राथमिकता दी जाती है और राज्य का कानून उस सीमा तक रद्द हो जाता है जिस सीमा तक राज्य का कानून संघीय कानून का विरोध करता है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। इसके अन्तर्गत विवाह, विवाह-विच्छेद, दण्ड विधि, दीवानी कानून, न्याय, समाचार-पत्र, पुस्तकें और छापाखाना, सामाजिक सुरक्षा आदि विषय आते हैं।

प्रश्न 5.
संसद् राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कब कानून बना सकती है ?
उत्तर-
निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कानून बना सकती है-

  • यदि राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित कर दे तो संसद् उस विषय पर कानून बना सकती है।
  • संकटकाल की घोषणा के दौरान संसद् राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बना सकती है।
  • दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डलों की प्रार्थना पर संसद् उन राज्यों के लिए कानून बना सकती है।
  • जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तब उस राज्य के लिए संसद् राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

प्रश्न 6.
वित्त आयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और इसमें चार अन्य सदस्य होंगे। हर पांच साल के बाद एक नया वित्त आयोग स्थापित किया जाएगा। संसद् इस आयोग के लिए योग्यताएं और उसकी नियुक्ति का तरीका निश्चित करेगी। 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग नियुक्त किया गया।

वित्त आयोग निम्नलिखित बातों के बारे में सलाह देता है-

  • केन्द्र और राज्यों में राजस्व का विभाजन।
  • केन्द्र और राज्यों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर राज्य सरकारों को दिए जाने वाले अनुदान की मात्रा का सुझाव देता है।
  • यह केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों के बीच किए गए किसी समझौते को तथा उसमें परिवर्तन करने के लिए भी राष्ट्रपति को सिफ़ारिश कर सकता है।
  • अन्य जो भी मामले राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग को सौंपे जाएंगे उन सब की जांच-पड़ताल करना।

प्रश्न 7.
सरकारिया आयोग की मुख्य सिफ़ारिशें कौन-सी हैं ?
उत्तर-
केन्द्र व राज्यों के सम्बन्धों पर विचार करने के लिए 1983 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने सरकारिया आयोग की स्थापना की। सरकारिया आयोग ने अक्तूबर, 1987 में अपनी रिपोर्ट पेश की और रिपोर्ट में अग्रलिखित सिफ़ारिशें की-

  • सरकारिया आयोग ने केन्द्र व राज्यों के विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना स्थायी तौर से करने की सिफ़ारिश की।
  • राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व उस राज्य के मुख्यमन्त्री की सलाह लेनी चाहिए।
  • समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाने से पूर्व केन्द्र को राज्यों की सलाह लेनी चाहिए।
  • आयोग ने राज्यों की सरकारों के वित्तीय साधन में वृद्धि करने पर बल दिया।

प्रश्न 8.
अन्तर्राज्यीय परिषद् पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति को सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए एक अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना करने का अधिकार है। राष्ट्रपति इस परिषद् द्वारा किए जाने वाले कार्यों और संगठन की प्रक्रिया को निश्चित कर सकता है। इस परिषद् के कार्य इस प्रकार हैं-

  • राज्यों के मध्य पैदा होने वाले विवादों की जांच-पड़ताल करना और उन्हें हल करने के बारे में सलाह देना।
  • उन विषयों की जांच-पड़ताल करना जो कुछ या सभी राज्यों या संघ और एक या एक से अधिक राज्यों के सामूहिक हितों में हों।
  • सामूहिक हित के विषय के बारे में खासतौर पर उन विषयों के बारे में नीति और कार्यवाही के अच्छे तालमेल के लिए सिफ़ारिश करना।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघ और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन कितनी सूचियों में किया गया है ? वर्णन करें।
उत्तर-
संघ और राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची कहा जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 2.
संघ सूची पर नोट लिखें।
उत्तर-
संघ सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है। इन विषयों में युद्ध और शान्ति, डाक-तार, प्रतिरक्षा, नोट और मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं।

प्रश्न 3.
राज्य सूची से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
वह सूची, जिसके विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों के पास है, राज्य सूची कहलाती है। राज्य सूची में कुल 66 विषय हैं। इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस तथा जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें, पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर टैक्स इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समवर्ती सूची में ऐसे विषय सम्मिलित किए गए हैं, जिन पर संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों ही कानून बना सकते हैं। यदि राज्य विधानमण्डल और संसद् द्वारा समवर्ती सूची पर बनाए गए कानून में मतभेद हो तो संसद् के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं।

प्रश्न 5.
वित्त आयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और इसमें चार अन्य सदस्य होंगे। 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग नियुक्त किया गया।

प्रश्न 6.
सरकारिया आयोग की दो मुख्य सिफ़ारिशें कौन-सी हैं ?
उत्तर-

  • सरकारिया आयोग ने केन्द्र व राज्यों के विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना स्थायी तौर से करने की सिफारिश की।
  • राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व उस राज्य के मुख्यमन्त्री की सलाह लेनी चाहिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. केन्द्र व राज्यों के बीच एक वैधानिक सम्बन्ध बताएं।
उत्तर- केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है।

प्रश्न 2. राज्य में राष्ट्रपति शासन किस अनुच्छेद के अन्तर्गत लगाया जाता है ?
उत्तर-अनुच्छेद 356 के अनुसार।

प्रश्न 3. संघीय सरकार की आय के कोई दो साधन बताएं।
उत्तर-

  1. सीमा शुल्क
  2. उत्पाद शुल्क।

प्रश्न 4. राज्यों की आय के कोई दो साधन बताएं।
उत्तर-

  1. भू-राजस्व
  2. उत्पादन कर।

प्रश्न 5. सरकारिया आयोग का सम्बन्ध किससे है ?
उत्तर-केन्द्र-राज्य सम्बन्ध।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 6. किन्हीं दो देशों के नाम लिखो जहां पर अवशेष शक्तियां राज्यों के पास हैं?
उत्तर-

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका
  2. स्विट्जरलैंड।

प्रश्न 7. किसी एक परिस्थिति का वर्णन करें जब केन्द्र राज्य सूची पर भी कानून बना सकता है?
उत्तर-राज्य सभा दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके कानून बनाने की शक्ति संसद् को दे सकती है।

प्रश्न 8. 30 अप्रैल, 1977 को जनता सरकार ने जिन राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने का निर्णय किया उनमें से किन्हीं दो राज्यों का नाम लिखें।
उत्तर-

  1. पंजाब
  2. हरियाणा।

प्रश्न 9. केन्द्र और प्रान्तों के बीच एक वित्तीय सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-केन्द्र प्रान्तों को अनुदान देता है।

प्रश्न 10. संघ सूची में कितने विषय हैं ?
उत्तर-97 विषय।

प्रश्न 11. राज्य सूची में कितने विषय हैं ?
उत्तर-राज्य सूची में 66 विषय हैं।

प्रश्न 12. समवर्ती सूची के विषयों की संख्या बताओ।
उत्तर-समवर्ती सूची में 47 विषय हैं।

प्रश्न 13. संघ सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर-संघ सूची पर केन्द्र सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 14. राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर-राज्य सूची पर राज्य सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 15. संघ तथा राज्य सूची का एक-एक विषय लिखो।
उत्तर-मुद्रा व रेलवे संघ सूची के विषय हैं जबकि पुलिस व सड़क परिवहन राज्य सूची के विषय हैं।

प्रश्न 16. समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार किसके पास है?
उत्तर-संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों के पास है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित कुछ बिलों पर ………… की अनुमति आवश्यक है।
2. अनुच्छेद ……… के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार निर्देश दे सकता है।
3. संविधान के अनुच्छेद ………. के अनुसार राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है।
4. नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति ………… के परामर्श से राष्ट्रपति करता है।
5. राज्य सरकार अपने राज्य विधान मण्डल द्वारा दिये गए नियमों के अन्तर्गत अपनी ……….. की जमानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपति
  2. 257
  3. 280
  4. मन्त्रिमण्डल
  5. संचित निधि।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत में संघ एवं राज्यों में कोई सम्बन्ध नहीं पाया जाता।
2. केन्द्र एवं राज्यों के सम्बन्धों का वर्णन भारतीय संविधान के भाग XI की 19 धाराओं (अनुच्छेद 245-263) में मिलता है।
3. संघ सूची पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार को ही है।
4. राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार को ही है।
5. राज्यपाल की नियुक्ति मुख्यमंत्री करता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघीय सूची में कितने विषय हैं ?
(क) 66
(ख) 44
(ग) 97
(घ) 107
उत्तर-
(ग) 97

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से एक संघीय सूची का विषय है-
(क) सिंचाई
(ख) कानून-व्यवस्था
(ग) भू-राजस्व
(घ) प्रतिरक्षा।
उत्तर-
(घ) प्रतिरक्षा।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा था-“भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है पर भावना में एकात्मक है ?”
(क) डी० एन० बैनर्जी
(ख) दुर्गादास बसु
(ग) डॉ० अम्बेदकर
(घ) के० सी० व्हीयर।
उत्तर-
(क) डी० एन० बैनर्जी

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संघात्मक व्यवस्था की प्रकृति की व्याख्या करें। (Discuss the nature of Indian Federalism.)
अथवा
“भारतीय संविधान की प्रकृति संघीय है, परन्तु आत्मिक रूप से एकात्मक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
(“The Indian Constitution is federal in nature but unitary in spirit.” Examine the statement.)
उत्तर- भारतीय संविधान ने भारत में संघात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है और भारतीय संघ को विश्व के संघात्मक संविधान में एक विशेष स्थान प्राप्त है। परन्तु भारतीय संविधान की किसी अन्य व्यवस्था की शायद ही इतनी आलोचना हुई हो जितनी कि संघीय व्यवस्था की हुई है। प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि क्या भारत वास्तव में एक संघीय राज्य है ? क्योंकि भारत के संविधान में कई प्रकार के उपबन्ध तथा एकात्मक रुचियां देखकर यह सन्देह होने लगता है कि भारत एक संघीय राज्य नहीं है। भारतीय संविधान में संघात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। संविधान के अनुच्छेद एक में भारत को यूनियन ऑफ़ स्टेट्स (Union of States) कहा गया है।

प्रो० डी० एन० बैनर्जी ने इस विषय पर अपना विचार बताते हुए कहा कि “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है पर भावना में एकात्मक है।” (“It is federal in structure but unitary in spirit.”) श्री दुर्गादास बसु (D.D. Basu) का विचार है कि, “भारत का संविधान न तो पूर्ण रूप से एकात्मक है तथा न ही पूर्ण संघात्मक ; यह दोनों का मिश्रण है।”
स्पष्ट है कि विद्वानों ने भारतीय संघ के स्वरूप पर विभिन्न मत प्रकट किए हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि भारतीय संघ का स्वरूप संघात्मक है जिसमें सन्तुलन केन्द्र की ओर झुका हुआ है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की वे कौन-सी विशेषताएं हैं जिनके कारण यह एक संघात्मक संविधान बन गया है ?
(What are the major characteristics that make the Indian Constitution a Federal Constitution ?)
अथवा
भारत की संघात्मक प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
(Describe the major characteristics of Indian Federal System.)
अथवा
उन प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो जो भारतीय संविधान को संघात्मक स्वरूप प्रदान करती हैं।
(Describe the major characteristics that make the Indian Constitution federal.)
उत्तर-
यद्यपि भारत के संविधान में संघ (Federal) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, इसके बावजूद भी पो० एलेग्जेंडरा विक्स (Alexandra Wics) ने कहा है, “भारत निःसन्देह संघात्मक राज्य है जिसमें प्रभुसत्ता के तत्त्वों को केन्द्र और राज्यों में बांटा हुआ है।” पाल एपलबी (Paul Appleby) के मतानुसार, “भारत पूर्ण रूप में संघात्मक राज्य है।” (India is completely a federal state)। भारतीय संविधान में निम्नलिखित संघीय तत्त्व विद्यमान हैं-

1. शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) हर संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची के 97 विषयों पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार है। राज्य सूची में मूल रूप से 66 विषय हैं। इन पर राज्यों को कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं । समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है।

अवशेष शक्तियां (Residuary Powers)-वे विषय जिनका वर्णन राज्य सूची और समवर्ती सूची में नहीं आया वे केन्द्रीय क्षेत्राधिकार में आ जाते हैं और इन विषयों पर केन्द्र कानून बना सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

2. लिखित संविधान (Written Constitution)—संघीय व्यवस्था का संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का वर्णन स्पष्ट रूप से किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं।

3. कठोर संविधान (Rigid Constitution)-संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान कठोर संविधान है चाहे यह इतना कठोर नहीं जितना कि अमेरिका का संविधान। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संसद् दो तिहाई बहुमत से राज्यों के आधे विधानमण्डलों के समर्थन पर ही संशोधन कर सकती है।

4. संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution)-भारतीय संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान की सर्वोच्चता है। संविधान के अनुसार बनाए गए कानूनों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई व्यक्ति, संस्था, सरकारी कर्मचारी या सरकार संविधान और संविधान के अन्तर्गत बनाए गए कानूनों के विरुद्ध नहीं चल सकता। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय किसी भी कानून को या कार्यपालिका के आदेश को अंसवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के विरुद्ध हों।

5. न्यायपालिका की सर्वोच्चता (Supremacy of the Judiciary)-भारतीय संघ की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता न्यायपालिका की सर्वोच्चता है। न्यायालय स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष है और इसे संघ व राज्यों के आपसी झगड़ों को निपटाने, संविधान की व्याख्या करने और संविधान की रक्षा हेतु कानूनों तथा आदेशों की संवैधानिकता परखने और उसके बारे में अपना निर्णय देने का अधिकार है। संघ और राज्यों का आपसी झगड़ा सीधा इसके पास आता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता। इसके द्वारा दी गई संविधान की व्याख्या सर्वोच्च तथा अन्तिम मानी जाती है।

6. द्विसदनीय व्यवस्थापिका (Bicameral Legislature)-संघात्मक शासन प्रणाली में विधानमण्डल का द्विसदनीय होना आवश्यक होता है। भारतीय संसद् के दो सदन हैं-लोकसभा और राज्यसभा। लोकसभा जनसंख्या के आधार पर समस्त देश का प्रतिनिधित्व करती है जबकि राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

7. दोहरी शासन प्रणाली (Dual Polity)-एक संघीय राज्य में दोहरी शासन प्रणाली होती है। संघ अनेक इकाइयों से निर्मित होता है। संघीय सरकार तथा राज्य सरकार दोनों संविधान की उपज हैं। जिस प्रकार केन्द्र में संसद्, राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व मन्त्रिमण्डल हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राज्य में विधानमण्डल, गवर्नर, मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल है। केन्द्र और राज्य सरकारों के वैधानिक, प्रशासनिक तथा वित्तीय सम्बन्ध संविधान द्वारा निर्धारित किए गए हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में वर्णित उन धाराओं का वर्णन करें जो केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के पक्ष में
(Describe the various provisions in the Indian Constitution which show a bias in favour of the centre.)
उत्तर-
इसमें शक नहीं है कि भारतीय संविधान में संघ के सभी लक्षण विद्यमान हैं, परन्तु जो लोग इसकी आलोचना करते हैं और कहते हैं कि इसका झुकाव एकात्मकता की ओर है, उनकी बातें भी तर्कहीन नहीं हैं। निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय संविधान को एकात्मक बताया जाता है-

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में (Division of powers in favour of Centre)-भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है, वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्यसूची के विषयों के मुकाबले में बहुत अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य-सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के 47 विषयों पर भी वास्तविक अधिकार केन्द्र का है, राज्यों का नहीं। क्योंकि यदि राज्य सरकार केन्द्रीय कानून का विरोध करती है तो राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून उस सीमा तक रद्द कर दिया जाएगा। अवशेष शक्तियां भी केन्द्र के पास हैं राज्य के पास नहीं। अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड, रूस, ऑस्ट्रेलिया आदि के संविधानों में अवशेष शक्तियां राज्यों के पास हैं।

2. राज्य सूची पर केन्द्र का हस्तक्षेप (Encroachment over the State List by the Union Government)-राज्य सरकारों को राज्य-सूची पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है। संघ सरकार निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है-

  • संसद् विदेशों से किए गए किसी समझौते या सन्धि को लागू करने और किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हुए निर्णय को लागू करने के लिए किसी भी विषय पर कानून बना सकती है, चाहे वह विषय राज्य-सूची में क्यों न हो।
  • राज्यसभा जो कि संसद् का एक अंग है, 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य-सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है और संसद् को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  • जब किसी राज्य में संवैधानिक यन्त्र फेल होने पर वहां का शासन राष्ट्रपति अपने हाथों में ले ले, तो संसद् को यह अधिकार है कि वह राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाए। यह कानून केवल संकटकाल वाले राज्यों पर ही लागू होता है।
  • राज्य-सूची में कुछ विषय ऐसे हैं जिनके बारे में राज्य विधानमण्डल में कोई भी बिल राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकृति के बिना पेश नहीं किया जा सकता। कुछ विषय ऐसे भी हैं जिन पर राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए अवश्य रक्षित किए जाते हैं, राज्यपाल उन पर अपनी स्वीकृति नहीं दे सकता।
  • जब दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद् से राज्यसूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो संसद् उस मामले पर कानून बना सकेगी। यह कानून प्रार्थना करने वाले पर ही लागू होगा।

3. राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति (Appointment of the Governors by the President)-भारत में राज्यों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति की प्रसन्नता तक ही अपने पद पर रह सकते हैं अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है। अमेरिका में राज्यों के राज्यपाल जनता द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं। भारत में राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि है तथा राज्यपालों द्वारा केन्द्र का राज्यों पर पूरा नियन्त्रण रहता है। शान्तिकाल में राज्यपाल नाममात्र का अध्यक्ष होता है परन्तु संकटकाल में राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में वास्तविक शासक बन जाता है।

4. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार नहीं है-संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में संघ की इकाइयों का अपना अलग संविधान है और वे अपने संविधान में स्वयं संशोधन कर सकते हैं। परन्तु भारत में जम्मू व कश्मीर राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों का अपना अलग कोई संविधान नहीं। उनकी शासन व्यवस्था का विवरण संघीय संविधान में ही किया गया है।

5. संसद् को राज्यों के क्षेत्र में परिवर्तन करने, नवीन राज्य उत्पन्न करने या पुराने राज्य समाप्त करने का अधिकार–संसद् राज्यों के क्षेत्रों को कम या बढ़ा सकती है। संसद् को यह अधिकार है कि वह दो या अधिक राज्यों को मिलाकर उनमें से कोई क्षेत्र निकाल कर नए राज्य बनाए। इस प्रकार संसद् किसी राज्य की सीमा बदल सकती है और उसका नाम भी बदल सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

6. संवैधानिक संशोधन में संघीय सरकार का महत्त्व (Importance of the Union Govt. in Constitutional Amendments)-कहने को तो भारतीय संविधान कठोर है परन्तु संविधान के संशोधन में राज्यों का भाग लेने का अधिकार महत्त्वपूर्ण नहीं है। संविधान का थोड़ा-सा भाग ही कठोर है जिसमें संशोधन के लिए आधे राज्यों का अनुमोदन आवश्यक है। संविधान के शेष भाग में संशोधन करते हुए राज्यों की स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं। इसके अतिरिक्त संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद् ही पेश कर सकती है, राज्य नहीं। अमेरिका तथा स्विट्ज़रलैण्ड दोनों देशों में इकाइयों को भी संशोधन का प्रस्ताव पेश करने का अधिकार है। ।

7. राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व-अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड के उच्च सदनों में इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया है। परन्तु भारत में राज्यसभा के प्रतिनिधियों की संख्या राज्यों की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की गई है और वह समान नहीं है।

8. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship)-संघात्मक देशों के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है। वे अपने राज्यों के भी नागरिक कहलाते हैं और समस्त देश के भी। परन्तु भारत में लोगों को एक ही नागरिकता प्रदान की गई है। वे केवल भारत के ही नागरिक कहला सकते हैं, अलग-अलग राज्यों के नागरिक नहीं। यह बात भी संघीय सिद्धान्त के विरुद्ध है।

9. इकहरी न्याय व्यवस्था (Single Judicial System)—संघीय राज्य में प्रायः दोहरी न्याय व्यवस्था को अपनाया जाता है जैसे कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में है। परन्तु भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। देश के सभी न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्य करते हैं और न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय सबसे ऊपर है।

10. अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (All India Administrative Services)-राज्यों में उच्च पदों पर कार्य करने वाले अधिकारी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं जैसे I.A.S. I.P.S. इत्यादि के सदस्य होते हैं। इन अधिकारियों पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण होता है और राज्य सरकारें इन्हें हटा नहीं सकतीं।

11. संविधान में संघ शब्द का अभाव (Constitution does not mention the word Federation)भारतीय संविधान ‘संघ’ (Federation) शब्द का प्रयोग नहीं करता बल्कि इसने Federation के स्थान पर Union शब्द का प्रयोग किया है।

12. संकटकाल में एकात्मक शासन (Unitary Government in time of emergency)-संकटकाल में देश का संघात्मक ढांचा एकात्मक ढांचे में बदला जा सकता है और इसके लिए संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं। संघ सरकार ही संकटकाल की घोषणा जारी कर सकती है। अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकट के नाम पर देश के समस्त शासन को एकात्मक रूप दिया जा सकता है।

13. राज्य का वित्तीय मामलों में संघीय सरकार पर निर्भर होना (Financial Dependence of the State on Centre)-आलोचकों का यह भी कथन है कि हमारे संविधान में राज्यों की आर्थिक अवस्था इतनी कमज़ोर रखी गई है कि वे अपने छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी केन्द्र पर निर्भर रहते हैं। योजना आयोग तथा केन्द्रीय सरकार कुछ इस प्रकार की शर्ते लगा सकते हैं जिन्हें पूरा किए बिना राज्यों को अनुदान नहीं मिलेगा।

14. राष्ट्रीय विकास परिषद् (National Development Council)-ऐसी राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना से केन्द्रीय सरकार के आर्थिक क्षेत्र के नियन्त्रण में विशेष वृद्धि हुई है।

15. एक चुनाव आयोग (One Election Commission)-समस्त भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग है। यही संघ तथा इकाइयों के लिए चुनावों की व्यवस्था करता है।

16. एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (One Comptroller and Auditor General)-एकात्मक शासन-प्रणाली वाले देशों की तरह सारे देश की वित्तीय शासन व्यवस्था को भारत में एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के अधीन रखा गया है।

17. केन्द्रीय क्षेत्रों का शासन केन्द्रीय सरकार के अधीन-केन्द्रीय क्षेत्रों का प्रशासन सीधे केन्द्रीय सरकार करती है जो संघीय व्यवस्था के माने हुए सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

18. विधान परिषद् की समाप्ति-किसी प्रान्त की विधानसभा यदि मत देने वाले उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई तथा कुल सदस्यों के स्पष्ट बहुमत से विधानपरिषद् को समाप्त करने का प्रस्ताव पास कर दे तो संसद् उसे कानून बनाकर समाप्त भी कर सकती है। यदि विधानपरिषद् न हो और ऐसा ही एक प्रस्ताव विधानसभा पास कर दे तो संसद् विधानपरिषद् को बना भी सकती है।

19. वित्त आयोग की नियुक्ति (Appointment of Finance Commission)-वित्त आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यह केन्द्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय सम्बन्धों के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है। केन्द्रीय सरकार वित्तीय आयोग की सिफारिशों को मानने के लिए स्वतन्त्र है। राष्ट्रपति ने 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग की नियुक्ति की।

क्या भारत को सच्चा संघ कहना उचित होगा ?
(Is India a True Federation ?)

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संघात्मक शासन की विशेषताएं हैं और संविधान में ऐसे भी लक्षण हैं जिनसे भारतीय संविधान का एकात्मक शासन की ओर झुकाव दिखाई देता है। हमारे संविधान निर्माता संघात्मक शासन-प्रणाली के साथ-साथ केन्द्र को इतना शक्तिशाली बनाना चाहते थे ताकि किसी भी स्थिति का सामना किया जा सके। शक्तिशाली केन्द्र के कारण ही कई विद्वानों ने भारत को संघात्मक शासन मानने से इन्कार किया है और उन्होंने भारतीय संविधान को अर्द्ध-संघात्मक (Quasi-Federal) कहा है। संविधान सभा के कई सदस्यों ने ऐसा ही मत प्रकट किया था। उदाहरणस्वरूप, श्री पी० टी० चाको (P.T. Chacko) ने कहा है, “संविधान का बाहरी रूप संघात्मक होगा, परन्तु वास्तव में इसमें एकात्मक सरकार की स्थापना की गई है।” डॉ० के० सी० हवीयर ने इसे अर्द्ध-संघात्मक कहा है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

यद्यपि आलोचकों के मत में काफ़ी वजन है किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में संघात्मक व्यवस्था नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ केन्द्र को जान-बूझ कर शक्तिशाली बनाया था। __शान्ति के समय भारत में संघात्मक शासन प्रणाली है और प्रान्तों को अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। परन्तु असाधारण परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार को विशेष शक्तियां दी गई हैं ताकि देश की एकता तथा स्वतन्त्रता को बनाए रखा जा सके। संकटकाल की समाप्ति के साथ ही प्रान्तों को पुन: सभी शक्तियां सौंप दी जाती हैं। अतः भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की गई है ताकि असाधारण परिस्थितियों पर काबू पाया जा सके। बदलती हुई राजनीति परिस्थितियों में केन्द्र तथा राज्यों के बीच मुठभेड़ से राष्ट्रीय एकता कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए केन्द्र और राज्यों की सरकारों को एक-दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए ताकि राष्ट्र की समस्याओं को हल किया जा सके।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के चार संघात्मक लक्षण लिखें।
उत्तर-
भारतीय संविधान में अग्रलिखित संघीय तत्त्व विद्यमान हैं-

  1. शक्तियों का विभाजन-प्रत्येक संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची।
  2. लिखित संविधान-संघीय व्यवस्था में संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं।
  3. कठोर संविधान-संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संसद् दो-तिहाई बहुमत तथा राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत से ही संशोधन कर सकती है।
  4. संविधान सर्वोच्चता-भारतीय संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान की सर्वोच्चता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के चार एकात्मक लक्षण लिखें।
उत्तर-
निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय संविधान को एकात्मक कहा जाता है-

  1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्य सूची के विषयों की संख्या से अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर भी असल अधिकार केन्द्र का है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति-भारत में राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर्यन्त ही अपने पद पर रह सकते हैं अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है।
  3. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार नहीं है—भारत में जम्मू-कश्मीर राज्यों को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य का अपना अलग कोई संविधान नहीं है। उनकी शासन व्यवस्था का विवरण संघीय संविधान में ही किया गया है।
  4. इकहरी नागरिकता-भारत में लोगों को इकहरी नागरिकता प्रदान की गई है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी भावना में एकात्मक है। व्याख्या करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान का ढांचा संघात्मक है परन्तु भावना में एकात्मक है। भारतीय संविधान में संघात्मक लक्षण पाए जाते हैं जैसे कि लिखित एवं कठोर संविधान, शक्तियों का विभाजन, संविधान की सर्वोच्चता, स्वतन्त्र न्यायपालिका इत्यादि। परन्तु भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व भी मिलते हैं जिनके कारण यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान एकात्मक है। भारत में शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में है इसलिए केन्द्र सरकार बहुत ही शक्तिशाली है। केन्द्र सरकार अनेक परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है। सारे देश के लिए एक संविधान है और नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है। राज्यों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। संकटकाल में देश का संघात्मक ढांचा एकात्मक ढांचा में बदला जा सकता है और इसके लिए संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं है। भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग है।

प्रश्न 4.
अर्द्ध-संघात्मक शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
अर्द्ध-संघात्मक का अर्थ है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा तो किया गया हो, परन्तु राज्य कम शक्तिशाली हो जबकि केन्द्र अधिक शक्तिशाली हो। भारत की संघीय व्यवस्था को अर्द्ध-संघात्मक का नाम दिया जाता है क्योंकि भारत में केन्द्र प्रान्तों की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली है। प्रो० के० सी० बीयर के शब्दों में, “भारत का नया संविधान ऐसी शासन व्यवस्था को जन्म देता है जो अधिक-से-अधिक अर्द्ध-संघीय है। भारत एकात्मक लक्षणों वाला संघात्मक राज्य नहीं है, अपितु सहायक संघात्मक लक्षणों वाला एकात्मक राज्य है।”

प्रश्न 5.
राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ बताओ।
उत्तर-
संघीय शासन प्रणाली में संविधान के अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया जाता है। राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ है कि इकाइयों को अपने आन्तरिक क्षेत्र में अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। जो शक्तियां राज्यों को संविधान के द्वारा दी गई हैं, उनमें केन्द्र का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

प्रश्न 6.
भारत में शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता के चार कारण लिखें।
अथवा
भारत में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के कोई दो कारण लिखो।
उत्तर-

  • देश की विभिन्न समस्याओं का सामना करने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई है।
  • देश के आर्थिक विकास के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता थी और इसीलिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई।
  • राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए तथा राष्ट्रवाद की भावना के विकास के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता थी।
  • बाहरी आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए तथा देश की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 7.
वित्त आयोग के प्रावधान व रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की धारा 280 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि, “देश की आर्थिक एवं वित्तीय परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है।” अनुच्छेद 280 में यह प्रावधान है कि, “इस संविधान के प्रारम्भ अथवा लागू होने के दो वर्ष के भीतर और उसके बाद आने वाले पांच वर्षों के लिए उसकी अवधि समाप्त होने से पूर्व राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करेगा, जोकि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक सभापति और 4 अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा। अशोक चन्दा के शब्दों में, “वित्त आयोग के प्रावधान का अभिप्राय राज्यों को आश्वस्त कराने के लिए किया गया था कि वितरण की योजना संघ द्वारा स्वेच्छा से नहीं बनाई जाएगी बल्कि एक स्वतन्त्र आयोग द्वारा बनाई जाएगी जो राज्यों की बदलती हुई आवश्यकताओं को आंकेगा। अब तक राष्ट्रपति द्वारा 15 वित्त आयोग नियुक्त किए जा चुके हैं।”

प्रश्न 8.
वित्त आयोग के चार मुख्य कार्य लिखें।
उत्तर-
वित्त आयोग के कार्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है-

  1. वित्त आयोग संघीय राज्यों के मध्य राजस्व के वितरण जैसे जटिल किन्तु महत्त्वपूर्ण प्रश्नों से सम्बन्धित है। वित्त आयोग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राज्यों के मध्य आपसी दूरी को व केन्द्र और राज्य के मध्य पैदा हुए विवादों के निपटारे के लिए एक निर्णायक की भूमिका अदा करेगा।
  2. आयोग का प्रमुख कार्य आयकर के प्रमुख साधनों को वितरित करने हेतु तथा राज्यों के मध्य अपना प्रतिवेदना या फैसला प्रस्तुत करना है।
  3. राष्ट्रपति वित्त आदि मामले के विषय में हस्तक्षेप कर सकता है किन्तु आयकर के सम्बन्ध में उसकी सिफ़ारिशों का अध्ययन करने के बाद राष्ट्रपति अपने आदेश द्वारा वितरण की प्रणाली एवं प्रतिशत भाग को निर्धारित करता है। इस कार्य में संसद् प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेती है।
  4. वित्त आयोग पर कर वितरण के सिद्धांत निश्चित करने के दायित्व हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था किस संशोधन द्वारा की गई?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में शामिल किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना- भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  1. मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  2. मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारतीय संविधान की कोई एक संघात्मक विशेषता बताइए।
उत्तर-केंद्र तथा प्रांतों में शक्तियों का विभाजन किया गया है।

प्रश्न 2. भारतीय संविधान का कोई एक एकात्मक लक्षण बताइए।
उत्तर-शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में है।

प्रश्न 3. शक्तिशाली केंद्र बनाने का कोई एक कारण बताइए।
उत्तर-देश की विभिन्न समस्याओं का समाधान करने के लिए शक्तिशाली केंद्र की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 4. भारत में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त है या इकहरी ?
उत्तर-भारत में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है।

प्रश्न 5. भारत में किस राज्य का अपना अलग संविधान है ?
उत्तर-जम्मू-कश्मीर।

प्रश्न 6. भारतीय संविधान का स्वरूप कैसा है?
उत्तर- संघात्मक ढांचा और एकात्मक आत्मा।

प्रश्न 7. यह कथन किसका है कि, “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है, पर भावना में एकात्मक है?”
उत्तर-यह कथन डी० एन० बैनर्जी का है।

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प्रश्न 8. क्या संघीय सरकार में शक्तियों का बंटवारा होता है ?
उत्तर-हां, संघीय सरकार में शक्तियों का बंटवारा होता है।

प्रश्न 9. भारत किसका संघ है?
उत्तर–भारत राज्यों का संघ है।

प्रश्न 10. भारतीय संविधान में वर्तमान समय में कितने अनुच्छेद हैं ?
उत्तर- भारतीय संविधान में वर्तमान समय में 395 अनुच्छेद हैं।

प्रश्न 11. अवशेष शक्तियां किसके अधीन हैं?
उत्तर-अवशेष शक्तियां केन्द्र के अधीन हैं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………. के अनुसार “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है, पर भावना में एकात्मक है।”
2. संघ सूची में ………….. विषय शामिल हैं।
3. राज्य सूची में ………….. विषय शामिल हैं।
4. समवर्ती सूची में …………. विषय शामिल हैं।
5. भारत में …………. विधानपालिका की व्यवस्था की गई है।
उत्तर-

  1. प्रो० डी० एन० बैनर्जी
  2. 97
  3. 66
  4. 47
  5. द्वि-सदनीय।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत में दोहरी नागरिकता पाई जाती है।
2. भारत में शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में किया गया है।
3. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार है।
4. राज्य सभा में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. गलत
  4. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संघात्मक सरकार के लिए कौन-सा तत्त्व आवश्यक है ?
(क) लिखित संविधान
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) कठोर संविधान
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में कौन-से संघीय तत्त्व पाए जाते हैं ?
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) लिखित संविधान
(ग) संविधान की सर्वोच्चता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
राज्य सूची पर कौन कानून बना सकता है ?
(क) राज्य सरकार
(ख) केंद्र सरकार
(ग) स्थानीय सरकार
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) राज्य सरकार

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प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में कितने अनुच्छेद हैं ?
(क) 395
(ग) 365
(ख) 250
(घ) 340.
उत्तर-
(क) 395

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में सम्मिलित मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करो।
(Explain the fundamental duties enshrined in the Indian Constitution.) (Textual Question)
अथवा
संविधान में किस संवैधानिक संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया है ? किन्हीं पांच मौलिक कर्तव्यों की व्याख्या करें।
(Which of the Constitutional amdendment has incorporated fundamental duties in the Constitution ? Explain any five fundamental duties.)
उत्तर-
कोई भी देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागृत न हों और अपने कर्तव्यों का पालन न करें। जिन देशों ने महान् उन्नति की है उनकी उन्नति का रहस्य ही यही है कि उनके नागरिकों ने अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों को अधिक महत्त्व दिया। चीन, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का वर्णन भी किया गया है।

भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया भाग IVA ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया। इस नये भाग में 51-A नामक का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस कर्तव्यों का वर्णन किया गया। दिसम्बर 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्तव्य शामिल किया गया, इससे मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई। ये 11 मौलिक कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

1. संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना-भारत का नया संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था। हमारा संविधान देश का सर्वोच्च कानून है जिसका पालन करना सरकार के तीनों अंगों का कर्तव्य ही नहीं है बल्कि नागरिकों का भी परम कर्तव्य है, इसलिए संविधान के 42वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 51-A के अधीन भारतीय नागरिकों के लिए यह मौलिक कर्त्तव्य अंकित किया गया है कि “वह संविधान का पालन करें और इसके आदर्शों, इसकी संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का सम्मान करें।” ।

2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-राष्ट्रीय आन्दोलन कुछ आदर्शों पर आधारित था जैसे कि अहिंसा में विश्वास, संवैधानिक साधनों में विश्वास, धर्म-निरपेक्षता, सामान्य भ्रातृत्व, राष्ट्रीय एकता इत्यादि। स्वतन्त्र भारत इन आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है और इन आदर्शों को आधार मान कर ही भारतीय राष्ट्र का पुनः निर्माण किया जा रहा है। अतः आवश्यक है कि भारतीय इन आदर्शों का पालन करें और इसलिए 42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह परम कर्तव्य है कि स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को उत्साहित करने वाले आदर्शों का सम्मान और पालन करे।”

3. भारतीय प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन और रक्षा करना-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को प्रभुसत्ता-सम्पन्न समाजवादी धर्म-निरपेक्ष प्रजातन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन और उसकी रक्षा करे।

4. देश की रक्षा करना तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग लेना-उत्तरी कोरिया, चीन और यहां तक कि अमेरिका में भी प्रत्येक शारीरिक रूप से योग्य नागरिक के लिए कुछ समय तक सैनिक सेवा करना आवश्यक है, परन्तु भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिए 42वें संशोधन के अन्तर्गत संविधान में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह देश की रक्षा तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग ले।

5. भारत में सब नागरिकों में भ्रातृत्व की भावना विकसित करना-राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए यह लिखा गया है कि “प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह धार्मिक, भाषायी तथा क्षेत्रीय या वर्गीय भिन्नताओं से ऊपर उठकर भारत के सब लोगों में समानता तथा भ्रातृत्व की भावना विकसित करे।”
नारियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह उन प्रथाओं का त्याग करे जिससे नारियों का अनादर होता है।

6. लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलाना-आधुनिक युग विज्ञान का युग है, परन्तु भारत की अधिकांश जनता आज भी अन्ध-विश्वासों के चक्कर में फंसी हुई है। उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी है जिस कारण वे अपने व्यक्तित्व तथा अपने जीवन का ठीक प्रकार से विकास नहीं कर पाते। इसलिए अब व्यवस्था की गई है कि “प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वैज्ञानिक स्वभाव, मानववाद तथा जांच करने और सुधार करने की भावना विकसित करे।”

7. प्राचीन संस्कृति की देनों को सुरक्षित रखना-आज आवश्यकता इस बात की है कि युवकों को भारतीय संस्कति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति में गर्व अनुभव कर सकें, इसलिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संयुक्त संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे तथा इसको स्थिर रखे।” । .

8. वनों, झीलों, नदियों तथा जंगली जानवरों की रक्षा करना तथा उनकी उन्नति के लिए यत्न करना-प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वनों, झीलों, नदियों तथा वन्य-जीवन सहित प्राकृतिक वातावरण की रक्षा और सुधार करे तथा जीव-जन्तुओं के प्रति दया की भावना रखे।

9. हिंसा को रोकना तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति की रक्षा करना-प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करे तथा हिंसा का त्याग करे।

10. व्यक्तिगत तथा सामूहिक यत्नों के द्वारा उच्च राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए यत्न करना-कोई भी समाज तथा देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिकों में प्रत्येक कार्य करने की लिए लगन तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने की इच्छा न हो। अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह व्यक्तिगत तथा सामूहिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठता प्राप्त करने का यत्न करे ताकि राष्ट्र यत्न तथा प्रार्थियों के उच्च-स्तरों के प्रति निरन्तर आगे बढ़ता रहे।

11. छ: साल से 14 साल तक की आयु के बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों अथवा संरक्षकों द्वारा अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराने का प्रावधान करना।

प्रश्न 2.
मौलिक कर्तव्यों की महत्ता संक्षेप में बताएं। (Explain briefly the importance of fundamental duties.)
उत्तर-
संविधान में मौलिक कर्तव्यों का अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व निम्नलिखित आधारों पर वर्णन किया जा सकता है
1. मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में शामिल करके एक शून्य स्थान की पूर्ति की गई है। मूल रूप से भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को तो शामिल किया गया था परन्तु मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल नहीं किया गया था। इसके परिणामस्वरूप भारतीय नागरिक अपने अधिकारों के प्रति तो सचेत रहे परन्तु वे अपने कर्तव्यों को भूल चुके थे। 42वें संशोधन द्वारा इन कर्त्तव्यों को संविधान में अंकित कर संविधान में रह गई कमी को दूर कर दिया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

2. मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक धारणा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं। कर्त्तव्यों के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व है। महात्मा गांधी का कहना था कि अधिकार कर्तव्यों का पालन करने से प्राप्त होते हैं। रूस, चीन, स्विट्जरलैंड आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का भी वर्णन किया गया है।

3. मौलिक कर्त्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं- भारतीय संविधान में अंकित किये गये मौलिक कर्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं। इनके बारे में राजनीतिक विद्वानों के पृथक्-पृथक् अथवा विरोधी विचार नहीं हैं। ये कर्त्तव्य भारतीय संस्कृति के अनुकूल हैं। इनमें से अधिकतर कर्त्तव्यों का वर्णन हमारे धर्मशास्त्रों में मिलता है। सभी विद्वान् इस बात पर सहमत हैं कि इन कर्तव्यों का पालन भारत में सर्वप्रिय विकास के लिए अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा।

4. मौलिक कर्तव्यों का नैतिक महत्त्व है-मौलिक कर्तव्यों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं, परन्तु इनका स्वरूप नैतिक माना जाता है और उनका नैतिक स्वरूप अपना विशेष महत्त्व रखता है।

5. मौलिक कर्त्तव्य संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब भारत के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।

15 सितम्बर, 1976 को नई दिल्ली में अध्यापकों को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था कि “भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को सम्मिलित करने से भारतीयों के दृष्टिकोण में अवश्य ही परिवर्तन आयेगा। ये कर्त्तव्य लोगों की मनोवृत्तियों और चिन्तन शक्ति को बदलने में सहायक होंगे और यदि नागरिक इन्हें अपने मन में समायें तो हम शान्तिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण क्रान्ति ला सकते हैं।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना का वर्णन करें।
(Discuss the Criticism of Fundamental Duties.)
उत्तर-
मौलिक कर्तव्यों की निम्नांकित आधारों पर आलोचना की गई है-

1. कुछेक मौलिक कर्त्तव्य व्यावहारिक नहीं हैं-साम्यवादी दल के नेता भूपेश गुप्ता (Bhupesh Gupta) ने मौलिक कर्तव्यों की आलोचना करते हुए कहा कि स्वर्ण सिंह समिति ने आलोचनात्मक विवेचन नहीं किया कि जो कर्तव्य संविधान तथा कानून से उत्पन्न होते हैं उनका सही तौर पर पालन क्यों नहीं किया जाता रहा। उदाहरण के लिए एकाधिकारी (Monopolists) क्यों अपने इस कर्त्तव्य का पालन नहीं करते जो संविधान के अनुच्छेद 39C से उत्पन्न होता है। बड़े-बड़े एकाधिकारी अपने लाभ के लिए उन तरीकों को अपनाते हैं जिनसे उनके पास धन केन्द्रित होता जाता है, जबकि संविधान में लिखा गया है कि उत्पादन के साधनों तथा देश के धन पर थोड़े-से व्यक्तियों का नियन्त्रण नहीं होगा। इसी प्रकार धर्म-निरपेक्षता के पक्ष में और साम्प्रदायिकतावाद के विरुद्ध अनेक कानून होते हुए भी क्यों साम्प्रदायिक शक्तियां बढ़ती जा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि संविधान में केवल मौलिक कर्त्तव्यों को लिख देने से कुछ फर्क नहीं पड़ता जब तक उनका पालन न किया जाए।

2. मौलिक कर्त्तव्य केवल पवित्र इच्छाएं हैं-आलोचकों ने मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की है कि इन्हें लागू करने के लिए लोगों को इनके प्रति सचेत करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। इस प्रकार मौलिक कर्त्तव्य केवल पवित्र इच्छाएं (Pious Wishes) हैं।

3. कुछ मौलिक कर्तव्यों की अनुपस्थिति-संसद् के कुछ सदस्यों ने मौलिक कर्तव्यों में मन्त्रियों, विधायकों और सार्वजनिक कर्मचारियों के कर्त्तव्यों को शामिल करने पर जोर दिया था। कुछ सदस्यों ने ये प्रस्ताव पेश किए थे कि सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य मतदान, करों का ईमानदारी से भुगतान, अनिवार्य सैनिक प्रशिक्षण, परिवार नियोजन आदि कर्तव्यों में शामिल किया जाएं।

4. कुछ मौलिक कर्त्तव्य स्पष्ट नहीं हैं-मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की गई है कि कुछ कर्तव्यों की भाषा इस प्रकार की है कि आम व्यक्ति उसे समझ नहीं सकते। उदाहरण के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्श, संयुक्त संस्कृति की सम्पन्न सम्पदा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास इत्यादि कुछ ऐसे कर्त्तव्य हैं जिनको समझना साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है।

5. कुछेक मौलिक कर्त्तव्य दोहराए गए हैं-कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि कई ऐसे कर्त्तव्य हैं जिन्हें केवल मात्र दोहराया गया है। उदाहरण के लिए तीसरा कर्त्तव्य कहता है कि नागरिकों को भारत की सम्प्रभुता की रक्षा करनी चाहिए, लगभग वही बात चौथे कर्त्तव्य के अन्तर्गत इन शब्दों में रखी गई है कि नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए।

6. कुछ मौलिक कर्त्तव्य व्यर्थ हैं-संविधान में शामिल किए गए कुछ कर्त्तव्य व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके लिए देश में पहले ही साधारण कानूनों के अन्तर्गत व्यवस्था की जा चुकी है। जैसे 1956 का “The Supression of Immoral Traffic in Women and Girls” का कानून उन रीतियों की मनाही करता है जिनसे नारियों का अनादर होता है। इसी प्रकार 1971, “The Prevention of Insult to National Honours” कानून राष्ट्रीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गान का सम्मान करने की व्यवस्था करता है और जो नागरिक इस कानून का उल्लंघन करता है उसे तीन वर्ष तक की कैद की सजा या जुर्माना या दोनों दण्ड दिए जा सकते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना की गई है, परन्तु इससे मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। संविधान में मौलिक कर्तव्यों के अंकित किए जाने से ये नागरिकों को सदैव याद दिलाते रहेंगे कि नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य भी हैं। आवश्यकता इस बात की है कि नागरिकों में इन कर्तव्यों के प्रति जागृति उत्पन्न की जाये और जो व्यक्ति इन कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते उनके विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
42वें संशोधन द्वारा संविधान में अंकित मौलिक कर्तव्यों में से किन्हीं चार मौलिक कर्त्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

  • संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना-भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”
  • भारतीय प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन एवं रक्षा करे।
  • लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलना।

प्रश्न 2.
मौलिक कर्त्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
संविधान में मौलिक कर्तव्यों को अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। मौलिक कर्त्तव्यों का निम्नलिखित महत्त्व है-

  • मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्त्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  • मौलिक कर्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-संविधान की प्रस्तावना में लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।
  • मौलिक कर्त्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं।

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का वर्णन संविधान में क्यों किया गया है ?
उत्तर-
देश की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें। भारतीय संविधान में केवल अधिकारों का वर्णन था, जिस कारण नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन थे। इसलिए नागरिकों के कर्तव्यों का वर्णन संविधान में किया गया ताकि नागरिक केवल अधिकारों की बात ही न सोचें बल्कि अपने कर्तव्यों के पालन करने के विषय में भी सोचें। इसके अतिरिक्त संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब भारत के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

प्रश्न 4.
संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों में क्या कमियां हैं ?
उत्तर-

  • संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों की पहली कमी यह है कि इन कर्त्तव्यों को लागू करने के सम्बन्ध में कोई भी प्रबन्ध नहीं किया गया है। इस तरह ये केवल संविधान के आकार को ही बढ़ाते हैं।
  • इन कर्त्तव्यों की दूसरी कमी यह है कि इन मौलिक कर्त्तव्यों में कुछ महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों जैसे कि आवश्यक मतदान, ईमानदारी, अनुशासन का पालन करना, अधिकारों का मान आदि को इनमें शामिल नहीं किया गया है जबकि ये नागरिक के आवश्यक कर्त्तव्य हैं।
  • मौलिक कर्तव्यों का वर्णन मौलिक अधिकारों से अलग किया गया है जबकि कर्त्तव्य अधिकारों के साथ-साथ चलते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य आदर्श हैं, इन पर चलना असम्भव है।

प्रश्न 5.
वर्तमान समय में भारतीय संविधान में कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
वर्तमान समय में भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A मौलिक कर्तव्य शामिल किया गया। इस नये भाग में 51-A नाम का एक अनुच्छेद जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस कर्तव्यों का वर्णन किया गया। परन्तु दिसम्बर, 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया, जिससे मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई।

प्रश्न 6.
राष्ट्र की सामाजिक संस्कृति को संरक्षित रखने के मौलिक कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत एक विशाल देश है, जिसमें भिन्न-भिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों वाले लोग रहते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोगों की अपनी अलग संस्कृति है। इस प्रकार भारत में रहने वाले लोगों की एक संस्कृति नहीं, बल्कि अनेक संस्कृतियां पाई जाती हैं, परन्तु इन विभिन्न संस्कृतियों में महत्त्वपूर्ण समानताएं भी पाई जाती हैं और इन सांस्कृतिक समानताओं को राष्ट्र की संयुक्त संस्कृति कहा जाता है। राष्ट्र की एकता और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए यह आवश्यक है कि युवकों को भारतीय संस्कृति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति पर गर्व कर सकें। इसलिए मौलिक कर्त्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे तथा इनको स्थिर रखे।”

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था किस संशोधन द्वारा की गई?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में शामिल किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना- भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  • मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  • मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान के किस भाग एवं किस अनुच्छेद में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-संविधान के भाग IV-A तथा अनुच्छेद 51-A में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. संविधान के भाग IV-A में नागरिकों के कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को संविधान में किस संशोधन के द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

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प्रश्न 4. संविधान के किस भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-भाग IV में।

प्रश्न 5. संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा से संबंधित है ?
उत्तर-अनुच्छेद 51 में।

प्रश्न 6. मौलिक अधिकारों एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय संगत हैं, जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं।

प्रश्न 7. निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के कितने-से-कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 36 से 51 तक।

प्रश्न 8. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं ?
उत्तर-अनुच्छेद 37 के अनुसार।

प्रश्न 9. शिक्षा के अधिकार का वर्णन किस भाग में किया गया है?
उत्तर-शिक्षा के अधिकार का वर्णन भाग III में किया गया है।

प्रश्न 10. किस संवैधानिक संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का रूप दिया गया?
उत्तर-86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …….. संशोधन द्वारा …….. में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
2. वर्तमान समय में संविधान में ……….. मौलिक कर्त्तव्य शामिल हैं।
3. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन अनुच्छेद ………. तक में किया गया है।
4. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत ……… नहीं हैं।
उत्तर-

  1. 42वें, IV-A
  2. ग्यारह
  3. 36 से 51
  4. न्यायसंगत।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारतीय संविधान में 44वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए।
2. आरंभ में भारतीय संविधान में 6 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया था, परंतु वर्तमान समय में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है।
3. नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।
4. अनुच्छेद 51 के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
5. निर्देशक सिद्धांत कानूनी दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व रखते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
किस संविधान से हमें निर्देशक सिद्धांतों की प्रेरणा प्राप्त हुई है ?
(क) ब्रिटेन का संविधान
(ख) स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान
(ग) अमेरिका का संविधान
(घ) आयरलैंड का संविधान।
उत्तर-
(घ) आयरलैंड का संविधान।

प्रश्न 2.
निर्देशक सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(क) ये नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं
(ख) इनको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है
(ग) ये सकारात्मक हैं
(घ) ये सिद्धान्त राज्य के अधिकार हैं।
उत्तर-
(ग) ये सकारात्मक हैं

प्रश्न 3.
“राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है।” यह कथन किसका है ?
(क) प्रो० के० टी० शाह
(ख) मिस्टर नसीरूद्दीन
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) महात्मा गाँधी।
उत्तर-
(क) प्रो० के० टी० शाह

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है ?
(क) संविधान का पालन करना
(ख) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना
(ग) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना
(घ) माता-पिता की सेवा करना।
उत्तर-
(घ) माता-पिता की सेवा करना।