PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 9 सामाजिक संरचना

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना की अवधारणा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज के अलग-अलग अन्तर्सम्बन्धित भागों के व्यवस्थित रूप को सामाजिक संरचना कहा जाता है।

प्रश्न 2.
वह कौन-सा पहला समाजशास्त्री है जिसने सबसे पहले सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग किया ?
उत्तर-
हरबर्ट स्पैंसर (Herbert Spencer) ने सबसे पहले शब्द सामाजिक संरचना का प्रयोग किया।

प्रश्न 3.
शब्द संरचना कहाँ से लिया गया है ?
उत्तर-
संरचना (Structure) शब्द लातिनी भाषा के शब्द ‘Staruer’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘इमारत’।

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना के सामाजिक तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्रस्थिति तथा भूमिका सामाजिक संरचना के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं।

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प्रश्न 5.
‘समाजशास्त्र के सिद्धान्त’ पुस्तक किसने लिखी है ?
उत्तर-
पुस्तक ‘The Principal of Sociology’ हरबर्ट स्पैंसर ने लिखी थी।

प्रश्न 6.
प्रस्थिति क्या है ?
उत्तर-
प्रस्थिति वह रूतबा है जो व्यक्ति को समाज में रहते हुए मिलता है।

प्रश्न 7.
सामाजिक प्रस्थिति के दो प्रकारों के नाम बताओ।
उत्तर-
प्रदत्त प्रस्थिति तथा अर्जित प्रस्थिति दो प्रकार की सामाजिक परिस्थितियां हैं।

प्रश्न 8.
आरोपित तथा अर्जित प्रस्थिति की अवधारणा किसने दी है ?
उत्तर-
यह शब्द राल्फ लिंटन (Ralph Linton) ने दिए थे।

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प्रश्न 9.
आरोपित प्रस्थिति के कुछ उदाहरण लिखो।
उत्तर-
पिता की परिस्थिति तथा ब्राह्मण की परिस्थिति प्रदत्त परिस्थिति की दो उदाहरण हैं।

प्रश्न 10.
अर्जित प्रस्थिति के कुछ उदाहरण लिखो।
उत्तर-
डिप्टी कमिश्नर तथा प्रधानमन्त्री की परिस्थिति अर्जित परिस्थिति है।

प्रश्न 11.
भूमिका को परिभाषित करो।।
उत्तर-
लुण्डबर्ग के अनुसार, भूमिका व्यक्ति का किसी समूह या अवस्था में आशा किया गया व्यावहारिक तरीका है।

प्रश्न 12.
भूमिका की कोई दो विशेषताओं को बताइए।
उत्तर-

  1. भूमिका प्रस्थिति अथवा पद का कार्यात्मक पक्ष होती है।
  2. भूमिका को सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
टालक्ट पारसन्ज़ (Talcott Parsons) के अनुसार, सामाजिक संरचना शब्द को परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, एजेन्सियों तथा सामाजिक प्रतिमानों व साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा परिस्थितियों की विशेष क्रमबद्धता के लिए प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 2.
प्रस्थिति तथा भूमिकाओं के मध्य दो समानताओं को लिखिए।
उत्तर-

  1. प्रस्थिति तथा भूमिका एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें कभी भी अलग नहीं किया जा सकता।
  2. प्रस्थिति समाज में व्यक्ति की स्थिति होती है तथा भूमिका प्रस्थिति का व्यावहारिक पक्ष है।
  3.  दोनों प्रस्थिति तथा भूमिका परिवर्तनशील है तथा बदलती रहती हैं।

प्रश्न 3.
परिवार की संरचना का चित्रणात्मक वर्णन करो।
उत्तर-
PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना 1

प्रश्न 4.
आरोपित तथा अर्जित प्रस्थिति के मध्य अंतर बताइए।
उत्तर-

  • आरोपित प्रस्थिति व्यक्तियों को जन्म के अनुसार प्राप्त होती है जबकि अर्जित प्रस्थिति हमेशा व्यक्ति अपने परिश्रम से प्राप्त करता है।
  • आरोपित प्रस्थितियों के कई आधार होते हैं जबकि अर्जित प्रस्थिति का आधार केवल व्यक्ति का परिश्रम होता है।

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प्रश्न 5.
किस प्रकार भूमिका एक सीखा हुआ व्यवहार है ?
उत्तर-
यह सब सत्य है कि भूमिकाएं सीखा हुआ व्यवहार है क्योंकि भूमिकाएं व्यवहारों का वह गुच्छा है जिन्हें या तो समाजीकरण या फिर निरीक्षण से सीखा जाता है। इसके साथ व्यक्ति सीखे हुए व्यवहार को जो अर्थ देता है, वह ही सामाजिक भूमिका है।

प्रश्न 6.
प्रस्थिति तथा भूमिका को संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
देखें पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न I (6, 11)

प्रश्न 7.
प्रस्थिति क्या है ?
उत्तर-
व्यक्ति की समूह में पाई गई स्थिति को सामाजिक प्रस्थिति का नाम दिया जाता है। यह स्थिति वह है जो व्यक्ति को अपने लिंग, अंतर, आयु, जन्म, कार्य इत्यादि की पहचान विशेषाधिकारों के संकेतों तथा कार्य के प्रतिमानों द्वारा प्राप्त होती है।

प्रश्न 8.
भूमिका प्रतिमान (Role Set) क्या है ?
उत्तर-
एक व्यक्ति को समाज में रहते हुए कई पद या प्रस्थितियां प्राप्त होती हैं। इन सभी पदों से सम्बन्धित भूमिकाओं के एकत्र को भूमिका सैट कहा जाता है। उदाहरण के लिए किसी समूह के 11वीं कक्षा के विद्यार्थी को बहुत से व्यक्तियों से मिलना पड़ता है तथा वह प्रत्येक से अलग ढंग से बात करता है। प्रत्येक से सम्बन्धित अलगअलग भूमिकाओं के एकत्र को भूमिका सैट कहते हैं।

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प्रश्न 9.
भूमिका संघर्ष से आप क्या समझते हैं ? उदाहरण सहित बताओ।
उत्तर-
प्रत्येक व्यक्ति के पास बहुत से पद होते हैं तथा प्रत्येक पद के साथ अलग-अलग भूमिका जुड़ी होती है। व्यक्ति को इन भूमिकाओं को निभाना पड़ता है। जब वह इन सभी भूमिकाओं से तालमेल नहीं बिठा पाता तथा सभी को ठीक ढंग से नहीं निभा सकता तो इसे भूमिका संघर्ष कहा जाता है।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना की तीन विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
1. प्रत्येक समाज की संरचना अलग-अलग होती है क्योंकि समाज में पाए जाने वाले अंगों का सामाजिक जीवन में अलग-अलग ढंग होता है। प्रत्येक समाज के संस्थागत नियम अलग-अलग होते हैं जिस कारण संरचना अलग होती है।

2. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है क्योंकि इसका निर्माण जिन इकाइयों से होता है वह सब अमूर्त होती है। इनका कोई ठोस रूप नहीं होता। हम इन्हें केवल महसूस कर सकते हैं जिस कारण यह अमूर्त होती है।

3. सामाजिक संरचना में संस्थाओं, सभाओं, परिमापों को एक विशेष व्यवस्था से बताने की कोई योजना नहीं बनाई जाती बल्कि इसका विकास सामाजिक अन्तक्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है।

प्रश्न 2.
आरोपित प्रस्थिति क्या है ? इसके कुछ उदाहरण लिखो।
उत्तर-
प्रदत्त पद वह पद होता है जिसे व्यक्ति बिना परिश्रम किए प्राप्त कर लेता है। वह जिस परिवार या समाज में पैदा होता है, उसे उसके अनुसार ही पद प्राप्त हो जाता है। जैसे प्राचीन हिन्दू समाज में जाति प्रथा में ब्राह्मणों को उच्च स्थान प्राप्त था। जो व्यक्ति जाति में पैदा होता था उसका समाज में उच्च स्थान होता था। लिंग, जाति, जन्म, आयु, रिश्तेदारी (Sex, Caste, Birth, Age, Kinship etc.) इत्यादि के आधार पर प्रदत्त पद बिना किसी प्रयत्न से प्राप्त किए जाते हैं। इस प्रकार का पद बिना किसी परिश्रम के प्राप्त हो जाता है तथा इस पद को कोई भी छीन नहीं सकता।

प्रश्न 3.
‘भूमिका सामाजिक संरचना का एक तत्त्व है।’ संक्षिप्त रूप में लिखिए।
उत्तर–
सामाजिक संरचना की इकाइयों के उप-समूह होते हैं तथा इन समूहों में सदस्यों की निश्चित नियमों के अनुसार भूमिकाएं दी जाती हैं। व्यक्तियों के बीच अन्तक्रियाएं होती हैं तथा अन्तक्रियाओं को स्पष्ट करने के लिए व्यक्तियों को भूमिकाएं दी जाती हैं। भूमिका व्यक्ति का विशेष स्थिति में व्यवहार होता है जो उसके पद से सम्बन्धित होता है। अगर सामाजिक संरचना में कोई परिवर्तन आता है तो व्यक्तियों के पदों तथा भूमिकाओं में भी परिवर्तन आ जाता है। इन भूमिकाओं के कारण ही लोगों के बीच सम्बन्ध स्थापित रहते हैं तथा सामाजिक संरचना

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प्रश्न 4.
‘प्रस्थिति सामाजिक संरचना का एक तत्त्व है।’ संक्षिप्त रूप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रस्थिति सामाजिक संरचना का एक तत्व है। उप-समूह सामाजिक संरचना की इकाइयां होते हैं तथा इन समूहों में प्रत्येक व्यक्ति को कई स्थितियाँ प्राप्त होती हैं। लोगों के बीच अन्तक्रियाएं होती रहती हैं तथा इन अन्तक्रियाओं को स्पष्ट करने के लिए व्यक्तियों को कई स्थितियाँ दे दी जाती हैं। जब व्यक्ति को स्थिति प्राप्त होती है तो उसे अलग-अलग स्थितियों के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है। अगर सामाजिक संरचना में कोई परिवर्तन आता है तो निश्चित तौर पर लोगों की स्थितियों के बीच भी परिवर्तन आ जाता है। इन स्थितियों के कारण ही लोगों के बीच संबंध स्थापित होते हैं तथा सामाजिक संरचना कायम रहती है।

प्रश्न 5.
प्रस्थिति तथा भूमिका किस प्रकार अन्तर्सम्बन्धित हैं ? व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
यह सत्य है कि पद तथा भूमिका अंतर्संबंधित है। वास्तव में दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर दोनों में से एक चीज़ दी जाएगी तथा दूसरी नहीं तो इन दोनों का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। दूसरा तो यह अर्थ है कि अधिकार दे दिए परन्तु ज़िम्मेदारी नहीं दी अथवा ज़िम्मेदारी दे दी परन्तु अधिकार नहीं। एक के न होने की स्थिति में दूसरा ठीक ढंग से कार्य नहीं कर सकता। अगर किसी के पास अधिकारी का पद है परन्तु ज़िम्मेदारी नहीं दी गई तो उस अधिकारी का समाज को कोई फायदा नहीं है। इस प्रकार अगर किसी को कोई भूमिका या जिम्मेदारी दे दी जाती है परन्तु कोई अधिकार या पद नहीं दिया जाता तो भी वह भूमिका ठीक ढंग से नहीं निभा सकेगा। इस प्रकार यह दोनों ही एक-दूसरे के साथ गहरे रूप से अन्तर्सम्बन्धित है।

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं पर विचार-विमर्श कीजिए।
उत्तर-
समाज कोई अखण्ड व्यवस्था नहीं है जो टूट न सके। समाज कई भागों से मिलकर बनता है। समाज को बनाने वाले अलग-अलग भाग या इकाइयां अपने निर्धारित कार्य करते हुए आपस में अन्तर्सम्बन्धित रहती हैं तथा एक प्रकार का सन्तुलन पैदा करते हैं। समाज शास्त्र की भाषा में इस सन्तुलन को सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। इसके विपरीत जब समाज के यह अलग-अलग अन्तर्सम्बन्धित भाग जब एक-दूसरे से मिल कर ढांचे का निर्माण करते हैं तो इस ढांचे को सामाजिक संरचना कहा जाता है। संक्षेप में, संरचना का अर्थ उन इकाइयों के जोड़ से हैं जो आपस में अन्तर्सम्बन्धित है।

हैरी एम० जानसन (Harry M. Johnson) के अनुसार, “सामाजिक ढांचे का निर्माण अलग-अलग अंगों के परस्पर सम्बन्धों से होता है। चाहे सामाजिक संरचना में इन हिस्सों में परिवर्तन होता रहता है परन्तु फिर भी इसमें स्थिरता बनी रहती है। जानसन के अनुसार, “किसी भी चीज़ की संरचना उसके अंगों में पाए जाने वाले सापेक्ष तौर पर स्थायी अन्तर्सम्बन्धों को कहते हैं। साथ ही अंग शब्द में कुछ न कुछ स्थिरता की मात्रा लुप्त रहती है क्योंकि सामाजिक व्यवस्था लोगों की संरचना को इन क्रियाओं में पाई जाने वाली नियमितता की मात्रा या दोबारा आवर्तन में ढूंढा जाना चाहिए।”

मैकाइवर के विचार (Views of MacIver)-मैकाइवर ने भी सामाजिक संरचना को अमूर्त कहा है जिसमें कई समूह जैसे कि परिवार, श्रेणी, समुदाय, जाति इत्यादि आ जाते हैं।
इस समाजशास्त्री ने सामाजिक संरचना की स्थिरता तथा परिवर्तनशील प्रवृत्ति को स्वीकार किया है। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “सामाजिक संरचना अपने आप में अस्थित तथा परिवर्तनशील है। इसका हरेक अवस्था में निश्चित स्थान होता है तथा इसके कई मुख्य तत्त्व ऐसे होते हैं जिनमें ज़्यादा परिवर्तन पाया जाता है।”

सामाजिक संरचना की विशेषताएं (Characteristics of Social Structure) –

1. अलग-अलग समाजों में अलग-अलग संरचना होती है (Different Societies have different Social Structures)-प्रत्येक समाज के अपने अलग नियम होते हैं क्योंकि समाज के अलग-अलग अंगों में पाए जाने वाले सम्बन्धों का सामाजिक जीवन के बीच अलग ही स्थान होता है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग समय में भी सामाजिक संरचना अलग होती है। यह अन्तर इसलिए होता है क्योंकि समाज की इकाइयों में जो व्यवस्थित क्रम या सम्बन्ध पाए जाते हैं, वह अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होते हैं।

2. समाज के बाहरी रूप को दिखाना (It shows the external aspect of society) सामाजिक संरचना का सम्बन्ध समाज की अन्दरूनी व्यवस्था से नहीं बल्कि बाहरी रूप को दिखाने से है। उदाहरण के लिए जैसे मनुष्य के शरीर के अलग-अलग अंग मिलकर इसका निर्माण करते हैं तथा शरीर का बाहरी ढांचा बनाते हैं, उसी तरह समाज के अलग-अलग हिस्से जुड़ कर समाज के बाहरी ढांचे का निर्माण करते हैं। जैसे मनुष्य के शरीर की बनावट के बारे में हम हाथों, टांगों, बांहों, पेट, सिर, गर्दन इत्यादि को लेकर बताते हैं। परन्तु यहां इनके कार्यों के बारे में नहीं बताते। सिर्फ शारीरिक ढांचे के बाहरी हिस्से को बताते हैं।

3. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है (Social Structure is abstract)-सामाजिक संरचना समाज की अलग-अलग इकाइयों के अन्तर्सम्बन्धों की क्रमबद्धता को कहते हैं। सामाजिक ढांचे की इस क्रमबद्धता का कोई मूर्त रूप या आकार नहीं होता। इनको न तो पकड़ा जा सकता है न ही देखा जा सकता है। इसको केवल महसूस किया जा सकता है या इसके बारे में सोचा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, जैसे सूर्य की तेज़ रोशनी के रंग, आकार का वर्णन नहीं किया जा सकता तथा न ही पकड़ा जा सकता है। इसको केवल हम महसूस कर सकते हैं कि धूप कम है या ज्यादा। इस तरह हम सम्बन्धों को सिर्फ महसूस कर सकते हैं तथा यह कह सकते हैं कि हमारी सामाजिक संरचना अमूर्त होती है।

4. संरचना के अन्दर उप-संरचनाओं का पाया जाना (Hierarchy of Sub-structure ina Structure)हमारे शारीरिक ढांचे का निर्माण कई छोटे-छोटे ढांचों से मिलकर बनता है। जैसे रीढ़ की हड्डी का ढांचा, गर्दन का ढांचा, हाथ, पैर इत्यादि का ढांचा। इस तरह किसी शैक्षिक संस्था का ढांचा ले लो तो स्टाफ, प्रिंसीपल, दफ़्तर इत्यादि के उप ढांचे मिलकर सम्पूर्ण शैक्षिक संस्था के ढांचे का निर्माण करते हैं। इन उप-ढांचों में कई और उपढांचे होते हैं। उसी तरह समाज एक स्तर में नहीं बल्कि अलग-अलग स्तरों में विभाजित होता है तथा इन सभी से मिलकर ही सामाजिक संरचना बनती है।

5. सामाजिक संरचना परिवर्तनशील होती है (Social Structure is Changeable)-रैडक्लिफ ब्राऊन के अनुसार, सामाजिक संरचना में गतिशील निरन्तरता रहती है। यह स्थिर नहीं होती। जैसे मनुष्य के ढांचे में परिवर्तन आते रहते हैं। उसी तरह समाज की संरचना में भी परिवर्तन आते रहते हैं। परन्तु परिवर्तन का यह अर्थ नहीं कि सामाजिक संरचना के मुख्य तत्त्व बदल जाते हैं। जैसे शारीरिक परिवर्तन से मुख्य तत्त्वों में परिवर्तन नहीं आता उसी तरह सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाले अंग बदलते रहते हैं परन्तु इसके मुख्य तत्त्वों में कोई अन्तर नहीं आता है।

6. सामाजिक संरचना की हरेक इकाई का निश्चित स्थान होता है (Every unit of social structure has a definite position)-हमारी सामाजिक संरचना जिन अलग-अलग इकाइयों से मिल कर बनती है उन सब की स्थिति निश्चित तथा सीमित होती है। कोई भी इकाई दूसरी इकाई का स्थान नहीं ले सकती तथा न ही अपनी सीमा से बाहर जाती है।

7. सामाजिक संरचना के कुछ तत्त्व सर्वव्यापक होते हैं (Some elements of Social Structure are universal)—प्रत्येक समाज में सामाजिक संरचना के कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जो सर्वव्यापक होते हैं। उदाहरण के तौर पर सामाजिक सम्बन्धों को ले लो। कोई भी समाज सामाजिक सम्बन्धों के बिना विकसित नहीं हो सकता। इस वजह से यह हरेक समाज में कायम होते हैं। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक संरचना में कुछ तत्त्व तो हरेक समाज में मौजूद होते हैं तथा कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जो प्रत्येक समाज में अलग-अलग होते हैं तथा इनके आधार पर ही हम एक समाज की सामाजिक संरचना को दूसरे समाज की सामाजिक संरचना से अलग कर सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचनाओं को बनाए रखने के लिए कौन सी व्यवस्था सहायक है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना में लगभग सभी मनुष्यों ने स्वयं को अलग-अलग सभाओं में संगठित किया होता . है ताकि कुछ समाज उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके। परन्तु इन उद्देश्यों की पूर्ति तब ही की जा सकती है जब सामाजिक संरचना कुछ प्रचालन व्यवस्थाओं (Operational systems) पर निर्भर हो तथा जो इसे बनाए रखने में सहायता कर सकें। इसका अर्थ है कि कुछ प्रचालन व्यवस्थाएं ऐसी होनी चाहिए जिनकी सहायता से सामाजिक संरचना को बना कर रखा जा सके। कुछेक व्यवस्थाओं का वर्णन इस प्रकार है

1. मानक व्यवस्थाएं (Normative Systems)-मानक व्यवस्थाएं समाज के सदस्यों के सामने कुछ आदर्श तथा कीमतें रखती हैं। समाज के सदस्य सामाजिक कीमतों तथा आदर्शों के साथ भावात्मक महत्त्व (Emotional importance) जोड़ देते हैं। अलग-अलग समूह, सभाएं, संस्थाएं, समुदाय इत्यादि इन नियमों परिभाषों के अनुसार एक-दूसरे के साथ अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। समाज के अलग-अलग सदस्य इन नियमों परिमापों के अनुसार अपनी भूमिकाएं निभाते रहते हैं।

2. स्थिति व्यवस्था (Position System)-स्थिति व्यवस्था का अर्थ उन परिस्थितियों तथा भूमिकाओं से है जो अलग-अलग व्यक्तियों को दिए जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएं तथा आशाएँ अलग-अलग तथा असीमित होती हैं। प्रत्येक समाज में प्रत्येक व्यक्ति के पास अलग-अलग तथा बहुत-सी स्थितियाँ या पद होते हैं। उदाहरण के लिए एक परिवार में ही व्यक्ति एक समय पर पुत्र, पिता, भाई, जेठ, देवर, जीजा, साला इत्यादि सब कुछ है। जब वह अपनी पत्नी के साथ बात कर रहा होता है तो वह पति की भूमिका निभा रहा होता है। इस समय वह पिता या पुत्र की भूमिका के बारे में सोच रहा होता है। दूसरे शब्दों में सामाजिक संरचना के ठीक ढंग से कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि स्थितियाँ तथा भूमिकाओं का भी ठीक ढंग से विभाजन किया जाए।

3. स्वीकृत व्यवस्था (Sanction System)-नियमों को ठीक ढंग से लागू करने के लिए समाज एक स्वीकृत व्यवस्था प्रदान करता है। अलग-अलग भागों के बीच तालमेल बिठाने के लिए यह आवश्यक है कि नियमों, परिमापों को ठीक ढंग से लागू किया जाए। स्वीकृत सकारात्मक भी हो सकती तथा नकारात्मक भी। जो लोग सामाजिक नियमों, परिमापों को मानते हैं उन्हें समाज की तरफ से इनाम मिलता है। जो लोग समाज के नियमों को नहीं मानते हैं, उन्हें समाज की तरफ से सज़ा मिलती है। सामाजिक संरचना की स्थिरता स्वीकृत व्यवस्था की प्रभावशीलता पर निर्भर करती है।

4. पूर्वानुमानित प्रक्रियाओं की व्यवस्था (System of Ahticipated Responses)-पूर्वानुमानित प्रक्रियाओं की व्यवस्था व्यक्तियों से आशा करती है कि वह सामाजिक व्यवस्था में भाग ले। समाज के सदस्यों के भाग लेने से ही सामाजिक संरचना चलती रहती है। सामाजिक संरचना के सफलतापूर्वक कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों को अपने उत्तरदायित्वों के बारे में पता हो। समाज के सदस्य प्रमाणित व्यवहार को समाजीकरण की प्रक्रिया की सहायता से ग्रहण करते हैं जिससे वह अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का पूर्वानुमान लगा लेते हैं तथा उस प्रकार व्यवहार करते हैं। इस प्रकार पूर्व अनुमानित प्रक्रियाओं की व्यवस्था भी सामाजिक संरचना की स्थिरता का कारण बनती है।

5. कार्यात्मक व्यवस्था (Action System)-टालग्र पारसन्ज ने सामाजिक कार्य (Social Action) के संकल्प पर काफी बल दिया है। उसके अनुसार सामाजिक सम्बन्धों का जाल (समाज) व्यक्तियों के बीच होने वाली क्रियाओं तथा अन्तक्रियाओं में से निकला है। इस प्रकार कार्य व्यवस्था एक प्रमुख तत्त्व बन जाता है। जिससे समाज क्रियात्मक (Active) रहता है तथा सामाजिक संरचना चलती रहती है।

प्रश्न 3.
सामाजिक संरचना क्या है ? सामाजिक संरचना के तत्त्व क्या हैं ?
उत्तर-
हमारा समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। इस की अलग-अलग इकाइयां हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी होने के साथ-साथ एक-दूसरे से सम्बन्धित भी हैं। कोई भी कार्य वह एक-दूसरे की मदद के बगैर नहीं कर सकती हैं अर्थात् उनमें एक सहयोग पाया जाता है। इसकी इकाइयां-समूह, संस्थाएं, सभाएं, संगठन इत्यादि हैं। इन इकाइयों का अकेले कोई अस्तित्व नहीं है बल्कि जब यह इकाइयां एक-दूसरे से सम्बन्धित हो जाती हैं तो एक ढांचे का रूप लेती हैं। इनकी सम्बन्धता में व्यवस्था तथा क्रम पाया जाता है तो ही हमारा समाज ठीक तरीके से कार्य करता है। क्रम तथा व्यवस्था को हम एक उदाहरण से सरल बना सकते हैं। जैसे डैस्क, बैंच, टीचर, प्रिंसीपल, चौकीदार, विद्यार्थी, इमारत इत्यादि एक जगह रखने से स्कूल का निर्माण नहीं होता। स्कूल का निर्माण उस समय होगा जब अलग-अलग इकाइयों एक व्यवस्थित तरीके से अपने-अपने निश्चित स्थान पर कार्य कर रही हों तो हम उसे स्कूल का नाम दे सकते हैं। प्रत्येक समाज की सामाजिक संरचना अलग-अलग होती है क्योंकि उसकी निर्माण करने वाली इकाइयों का क्रम अलग-अलग होता है।

हमारा समाज भी परिवर्तनशील है। समय-समय पर इस में प्राकृतिक शक्तियों या व्यक्तियों के आविष्कारों से परिवर्तन आता रहता है। इस वजह से सामाजिक ढांचा भी बदलता रहता है। इसकी इकाइयां भी मूर्त नहीं होती हैं क्योंकि हम इन्हें पकड़ नहीं सकते हैं। चाहे सामाजिक ढांचे के हिस्से जैसे परिवार, धर्म, संस्था, सभा, आर्थिकता इत्यादि एक जैसे होते हैं परन्तु इन के प्रकारों में अन्तर होता है। जैसे किसी समाज में पिता प्रधान परिवार हैं तथा किसी समाज में माता प्रधान परिवार अर्थात् हिस्सों में चाहे समानता होती है परन्तु इनके विशेष प्रकार अलग-अलग होते हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सामाजिक ढांचा वह व्यवस्थित प्रबन्ध है जिसके द्वारा सामाजिक सम्बन्धों को एक धागे में बांधा जा सकता है।

सामाजिक संरचना के तत्त्व (Elements of Social Structure)-

हैरी एम० जानसन तथा पारसन्ज़ के अनुसार सामाजिक संरचना में चार निम्नलिखित तत्त्व हैं-

  1. उप समूह (Sub groups)
  2. भूमिकाएं (Roles)
  3. सामाजिक परिमाप (Social Norms)
  4. सामाजिक कीमतें (Social Values)

1. उप समूह (Sub Groups)-जानसन तथा पारसन्ज़ के अनुसार सामाजिक संरचना को बनाने वाली इकाइयां या उप समूह होते हैं। हरेक बड़ा समूह उप-समूहों से मिलकर बनता है। उदाहरण के तौर पर, शैक्षिक समूह के अन्तर्गत स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, परिवार, धर्म इत्यादि वह सभी उप-समूह शामिल किए जाते हैं जो शैक्षिक समूह से किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं। व्यक्तियों को इन समूहों तथा उप-समूहों से भूमिकाएं तथा पद प्राप्त होते हैं। पद तथा भूमिका का स्थान समाज में निश्चित होता है। समाज में व्यक्ति जन्म लेते तथा मरते हैं परन्तु यह पद तथा भूमिका उसी तरह निश्चित रहते हैं। जन्म लेने वाला व्यक्ति इन्हें ग्रहण कर लेता है तथा एक व्यक्ति के मरने के बाद दूसरा व्यक्ति उसी पद तथा भूमिका को ग्रहण कर लेता है। उदाहरण के लिए अगर देश का प्रधानमन्त्री मर जाए तो दूसरा व्यक्ति प्रधानमन्त्री बन कर पद तथा भूमिका को उसी तरह सुचारु कर देता है। कहने का अर्थ यह है कि उप-समूह संक्षेप तथा स्थाई होते हैं। यह कभी भी ख़त्म नहीं होते। इनके सदस्य चाहे बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए परिवार, स्कूल, कॉलेज उसी तरह अपने स्थान पर कायम रहते हैं जैसे कि पुराने समय में थे। अंतर केवल यह होता है कि इन में कार्य करने वाले व्यक्ति बदलते रहते हैं।।

2. भूमिकाएं (Roles)—सामाजिक संरचना के उप-समूह में व्यक्ति को निश्चित प्रतिमान के द्वारा भूमिका से सम्बन्धित किया जाता है। समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। इन सम्बन्धों के विकास के लिए व्यक्तियों तथा समूहों के बीच अन्तक्रियाएं होती हैं। इन अन्तक्रियाओं में क्रियाशीलता को स्पष्ट करने के लिए भूमिका तथा पद को परिभाषित किया जाता है। भूमिका व्यक्ति के उस व्यवहार से सम्बन्धित होती है जो व्यक्ति किसी विशेष स्थिति में करता है तथा विशेष पद से सम्बन्धित जो कार्य व्यक्ति ने करने होते हैं उनको सामाजिक मान्यता द्वारा निर्धारित किया जाता है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन होने से समाज में सदस्यों के पदों तथा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है। इन भूमिकाओं के ही निश्चित तथा स्थायी सम्बन्धों से सामाजिक संरचना जुड़ी होती है तथा काम करती रहती है।

3. सामाजिक परिमाप (Social Norms) भूमिकाएं तथा उप-समूह सामाजिक परिमापों से सम्बन्धित होते हैं क्योंकि इन परिमापों के द्वारा व्यक्ति के कार्यों का मूल्यांकन किया जाता है। इसी वजह से भूमिकाएं तथा उपसमूह स्थिर होते हैं।

सामाजिक परिमापों में कई नियम तथा उपनियम होते हैं। यह व्यक्तिगत व्यवहार में वह मान्यता प्राप्त तरीके होते हैं जिनके साथ सामाजिक संरचना का निर्माण होता है। सामाजिक आदर्श उन परिमापों से जुड़े होते हैं। अगर यह परिमाप न हो तो व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं जान सकता तथा न ही हमारी सामाजिक संरचना कायम रह सकती है। उदाहरण के तौर पर पिता-पुत्र, मां-बेटी, भाई-बहन, अध्यापक-विद्यार्थी इत्यादि की भूमिकाओं को प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की आपसी ज़िम्मेदारियों को सामाजिक परिमापों के द्वारा ही बनाया जाता है। सामाजिक संरचना के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं।

सामाजिक परिमाप के द्वारा विशेष स्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार को संचालित तथा निर्देशित किया जाता है जिससे भूमिकाएं तथा उप समूह कायम रहते हैं। यह सामाजिक संरचना का तीसरा मुख्य तत्त्व है।

4. सामाजिक कीमतें (Social Values)-जानसन के अनुसार कीमतें मापदण्ड होती हैं क्योंकि इनके द्वारा सामाजिक परिमापों का मूल्यांकन किया जाता है। यह समाज के सदस्यों की भावनाओं को प्रभावित करती है। व्यक्ति जब किसी चीज़ के बारे में बात करता है या फ़ैसला लेता है तो उसके ऊपर भावनाओं का प्रभाव ज़रूर रहता है।

परिमाप शब्द का प्रयोग विशेष व्यावहारिक प्रतिमान के लिए किया जाता है जबकि कीमतें साधारण मापदण्ड होती हैं। इनको हम उच्च स्तर के परिमाप भी कह सकते हैं। सामाजिक विघटन को रोकने के लिए तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए सामाजिक कीमतों का अपना महत्त्व होता है। समूह की भावनाएं भी इन कीमतों से ही सम्बन्धित होती हैं। इनमें कार्यात्मक सम्बन्ध भी पाया जाता है जिससे सामाजिक सम्बन्धों का जाल नहीं टूटता तथा इन सम्बन्धों में तालमेल बना रहता है। व्यक्ति तथा समूह में भावनाओं का तालमेल स्थापित हो जाता है जिससे व्यवहारों का चुनाव तथा मूल्यांकन करने के लिए कीमतों का प्रयोग मापदण्ड के रूप में किया जाता है। सामाजिक कीमतों के द्वारा व्यक्तियों या समूहों की क्रियाओं की जांच करके उनको अच्छे या बुरे, उच्च या निम्न वर्ग में भी बांटा जा सकता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

प्रश्न 4.
प्रस्थिति को परिभाषित कीजिए। इनकी विशेषताओं को विस्तृत रूप में लिखिए।
उत्तर-
पद या प्रस्थिति का अर्थ (Meaning of Status)-समाज में स्थिति सामाजिक कीमतों से सम्बन्धित होती है। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में पुरुषों की स्थिति औरतों से उच्च होती है। स्थिति से अर्थ व्यक्ति का समूह में पाया गया स्थान होता है। यह स्थान व्यक्ति को विशेष प्रकार के अधिकारों द्वारा प्राप्त होता है जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। आमतौर पर एक व्यक्ति समाज में रहते हुए कई प्रकार के पदों को अदा कर रहा होता है अर्थात् व्यक्ति जितने भी समूहों या संस्थाओं का सदस्य होता है उतने ही उस के पद होते हैं। इस पद के द्वारा ही व्यक्ति समाज में उच्च या निम्न नज़र से देखा जाता है।

पद वह सामाजिक स्थिति होती है जिसको व्यक्ति समाज में रह कर समाज के सदस्यों द्वारा स्वीकार करने पर प्राप्त करता है। समाज में हरेक व्यक्ति का कोई न कोई पद होता है। यह समाज में किसी व्यक्ति की सम्पूर्ण सामाजिक स्थिति का एक हिस्सा होता है। इसी वजह से इसको सामाजिक व्यवस्था का आधार माना जाता है। पद का बाहरी चित्र व्यक्ति अपने कार्यों से प्रकट करता है तथा इस का महत्त्व हमें दूसरे के पद से तुलना करके ही पता चला सकता है। इससे एक तरह समाज के लोगों के अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया जाता है जिससे व्यक्ति की समाज में रहते हुए एक पहचान स्थापित हो जाती है।

प्रस्थिति या पद की परिभाषाएं (Definitions of Status)-
1. सेकार्ड तथा बरकमैन (Secard and Berkman) के अनुसार, “पद समूह तथा व्यक्तियों के वर्ग द्वारा अनुमानित किसी व्यक्ति का मूल्य होता है।”

2. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “पद आम सामाजिक व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त तथा प्रदान की गई स्थितियां हैं जो विचारपूर्वक नियमित न होकर अपने आप विकसित होती हैं तथा लोगों के विचारों तथा लोगों की रीतियों पर आधारित होती है।”

3. लिंटन (Linton) के अनुसार, “किसी व्यवस्था विशेष में किसी समय विशेष में एक व्यक्ति को जो स्थान प्राप्त होता है, वह ही उस की व्यवस्था के बीच उस व्यक्ति का पद या स्थिति होती है। अपनी स्थिति को वैध सिद्ध करने के लिए व्यक्ति को जो कुछ करना पड़ता है, उस को पद कहते हैं।”

4. मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) के अनुसार, “पद वह सामाजिक स्थान है जो उस को ग्रहण करने वाले के लिए उस से व्यक्तिगत गुणों तथा सामाजिक सेवा के अतिरिक्त आदर, प्रतिष्ठा तथा प्रभाव की मात्रा निश्चित करता है।”

इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समूह के बीच एक निश्चित समय में व्यक्ति को जो दर्जा या स्थान प्राप्त होता है वह उस का सामाजिक पद होता है। पद समूह में होता है इसलिए वह जितने समूहों का सदस्य होता है उस को उतने पद प्राप्त होते हैं।

सामाजिक प्रस्थिति अथवा पद की विशेषताएं (Features of Social Status)-

1. व्यक्ति का पद समाज की संस्कृति द्वारा निश्चित होता है (Status of a man is determined by the culture of society)-व्यक्ति का पद समाज की सांस्कृतिक कीमतों द्वारा निर्धारित होता है। कौन-सा व्यक्ति किस पद पर बैठेगा, उस पद के कौन-से अधिकार तथा कर्त्तव्य हैं ? इस का फैसला समाज के लोग करेंगे। जो स्थिति व्यक्ति समाज में रह कर प्राप्त करता है उससे सम्बन्धित उस के कार्य भी होते हैं। उदाहरण के लिए मातृ प्रधान परिवार के बीच माता का पद ऊँचा होता है तथा माता ही घर के फैसले लेती है तथा घर के सदस्यों की ज़िम्मेदारी उठाती है। पिता प्रधान परिवार के बीच पिता का पद ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है तथा जायदाद भी पिता के नाम ही होती है, घर के सदस्यों की ज़िम्मेदारी भी पिता की ही होती है।

2. समाज में व्यक्ति के पद को समझने के लिए दूसरे व्यक्ति के पद से तुलना करके ही समझा जा सकता है (Status of a person is determined by comparing it with status of other person) हम किसी व्यक्ति के पद को दूसरे व्यक्ति के पद के साथ तुलना करके ही समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए मुख्याध्यापक के पद के बिना अध्यापक की स्थिति को समझना असम्भव होता है। कहने का अर्थ यह है कि पद तुलनात्मक शब्द होता है। इसके अर्थ को दूसरे सदस्य के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। .

3. हरेक प्रस्थिति का समाज में एक स्थान होता है (Every status has a place in society)-प्रत्येक पद समाज के आदर तथा विशेषाधिकारों के संकेतों तथा कार्यों के परिमापों द्वारा ही पहचाना जाता है। उदाहरण के लिए दफ़्तर में एक बड़े अफसर तथा क्लर्क का पद अलग-अलग होता है। इनको सामूहिकता के आधार पर ही बताया जाता है।

4. भूमिका निश्चित होना (Determination of Roles)—पद तथा उससे सम्बन्धित भूमिका भी निश्चित हो जाती है। यह भूमिका भी सामाजिक कीमतों के आधार पर निर्धारित की जाती है। व्यक्ति पद द्वारा प्राप्त की गई भूमिका को निभाता है। समाज में कुछ भूमिकाएं विशेष होती हैं क्योंकि वह समाज के महत्त्वपूर्ण तथा ज़रूरी कार्यों से सम्बन्धित होती हैं।

5. एक व्यक्ति कई पदों पर हो सकता है (One person can be on many Status)-व्यक्ति केवल एक ही पद प्राप्त नहीं करता है बल्कि अलग-अलग सामाजिक हालातों में वह अलग-अलग पदों पर बैठता है। एक ही व्यक्ति किसी क्लब का प्रधान, स्कूल में टीचर, परिवार में पिता, पुत्र, चाचा, मामा इत्यादि कई पद प्राप्त कर सकता है। इस तरह व्यक्ति अपनी शिक्षा, योग्यता के अनुसार सारे पदों के बीच सम्बन्ध तथा सन्तुलन बनाए रखता है या रखने की कोशिश करता है।

6. पद के आधार पर समाज में स्तरीकरण हो जाता है (Stratification in Society based on Statuses)-इस का अर्थ है कि समाज में व्यक्तियों को अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है। इससे सामाजिक गतिशीलता भी बढ़ती है। अलग-अलग वर्गों में बाँटे जाने के कारण समाज में अलग-अलग स्तर बन जाते हैं जिससे समाज अपने आप ही स्तरीकृत हो जाता है।

7. पद का मनोवैज्ञानिक आधार भी होता है (Status has psychological base)-क्योंकि समाज में रहते हुए व्यक्ति लगातार उच्च पद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है इसलिए व्यक्ति में भावनाओं का निर्माण हो जाता है। क्योंकि इसके साथ इज्ज़त तथा बेइज्जती भी जुड़ी होती है इसी लिए यह व्यक्ति के मानसिक क्षेत्र से सम्बन्धित होते हैं। व्यक्ति को जब उसकी योग्यता के अनुसार पद पर लगाया जाता है तो वह मानसिक तौर पर सन्तुष्ट हो जाता है।

प्रश्न 5.
भूमिका को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं को विस्तृत रूप में लिखिए।
उत्तर-
हरेक स्थिति के साथ कुछ मांगें (Demands) जुड़ी होती हैं जो यह बताती हैं कि किस समय व्यक्ति से किस प्रकार के कार्य की उम्मीद की जाती है। यह भूमिका का क्रियात्मक पक्ष है । इस में व्यक्ति अपनी योग्यता, लिंग, पेशे, पैसे इत्यादि के आधार पर कोई पद प्राप्त करता है तथा उस को उस पद के सन्दर्भ में परम्परा, कानून या नियम के अनुसार जो भी भूमिका निभानी पड़ती है वह उसका कार्य है। इस तरह यह स्पष्ट है कि कार्य की धारणा में दो तत्त्व हैं-उम्मीद तथा क्रियाएं। उम्मीद से अर्थ है कि वह किसी विशेष समय में विशेष प्रकार का व्यवहार करे तथा क्रिया या भूमिका उस विशेष स्थिति का कार्य होगा। इस तरह उसकी भूमिका बंधी हई होगी।

समाज की सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए सामाजिक पद का महत्त्व उस समय तक नहीं हो सकता जब तक व्यक्ति को उस से सम्बन्धित रोल प्राप्त न हो। पद तथा भूमिका एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। समाज में व्यक्तियों को उनके कार्यों के आधार पर भी अलग किया जाता है। कुछ व्यक्ति डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, क्लर्क, अफसर इत्यादि होते हैं जो अपने कार्यों के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े हुए होते हैं क्योंकि एक व्यक्ति सभी कार्यों में माहिर नहीं हो सकता।

इस तरह हम कह सकते हैं कि हरेक पद के साथ सम्बन्धित कार्यों का सैट होता है। इन कार्यों के सैट को रोल या भूमिका कहा जाता है। इस तरह व्यक्ति किसी-न-किसी पद के ऊपर होता है तथा उस पद से सम्बन्धित उस को कोई न कोई कार्य करने पड़ते हैं। इन कार्यों के सैट को भूमिका कहा जाता है। इस तरह स्पष्ट है कि अलगअलग पदों के लिए अलग-अलग भूमिकाएं होती हैं। भूमिका उस व्यवहार का प्रतिनिधित्व करती है जो किसी पद को प्राप्त करने वाले व्यक्ति से करने की आशा की जाती है। भूमिका तथा पद एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते। भूमिका पूर्ण रूप से पद के ऊपर निर्भर करती है। इस वजह से अलग-अलग पदों पर व्यक्ति अलग-अलग कार्य करता है

परिभाषाएं (Definitions)-
1. लिंटन (Linton) के अनुसार, “भूमिका का अर्थ सांस्कृतिक प्रतिमानों के योग से है जो किसी विशेष पद से सम्बन्धित होता है। इस प्रकार इस में वह सभी कीमतें तथा व्यवहार शामिल हैं जो समाज किसी पद को ग्रहण करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों को प्रदान करता है।”

2. सार्जेंट (Sargent) के अनुसार, “किसी भी व्यक्ति की भूमिका उसके सामाजिक व्यवहार का एक प्रतिमान या प्रकार है जो उस समूह की ज़रूरतों, उम्मीदों तथा हालातों के अनुसार उचित प्रतीत होता है।”

3. लुण्डबर्ग (Lundberg) के अनुसार, “भूमिका व्यक्ति का किसी समूह या अवस्था में उम्मीद किया हुआ व्यावहारिक तरीका होता है।”
इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि भूमिका का अर्थ व्यक्ति के पूर्ण व्यवहार से नहीं बल्कि उस विशेष व्यवहार से है जो वह किसी विशेष हालात में करता है। भूमिका वह तरीका है जिसमें व्यक्ति अपनी स्थिति से सम्बन्धित कर्तव्यों को पूरा करता है।

भूमिका की विशेषताएं (Characteristics of Social Role) –

1. भूमिका कार्यात्मक होती है (Role is functional)—पारसन्ज़ के अनुसार कर्ता अन्य कर्ताओं के साथ सम्बन्धित होते हुए भी कार्य करता है। व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार कार्य करने पड़ते हैं क्योंकि उससे अपनी स्थिति के अनुरूप कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भूमिका कार्यात्मक होती है।

2. भूमिका संस्कृति द्वारा नियमित होती है (Role is determined by culture)-हरेक व्यक्ति को सामाजिक परम्पराओं, नियमों या संस्कृति के अनुसार कोई न कोई स्थिति प्राप्त होती है। यह स्थिति संस्कृति द्वारा दी जाती है। हरेक स्थिति से सम्बन्धित भूमिका भी होती है तथा उस स्थिति पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह अपना कार्य तथा भूमिका को निभाए। उसको अपनी भूमिका सामाजिक नियमों तथा संस्कृति के अनुसार ही निभानी पड़ती है। इसलिए यह संस्कृति द्वारा नियमित होती है।

3. एक व्यक्ति कई भूमिकाओं से सम्बन्धित होता है (One individual is related with many roles)—एक ही व्यक्ति कई कार्य करने के योग्य होता है जिस वजह से उसको कई स्थितियां तथा उनसे सम्बन्धित भूमिकाएं भी प्राप्त हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति बच्चे का पिता, स्कूल का अध्यापक, क्लब का सदस्य, धार्मिक सभा का नेता इत्यादि भूमिकाएं निभाता है। उस तरह अकेला व्यक्ति कई प्रकार की भूमिकाएं निभाने के योग्य होता है।

4. एक भूमिका को दूसरी भूमिका के सन्दर्भ में समझा जा सकता है (One Role can be understandable only within the context of other roles)-अगर हमें किसी भूमिका के महत्त्व को समझना है तो उसे हम किसी और सम्बन्धित भूमिका के सन्दर्भ में रख कर ही समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए एक परिवार में पति, पत्नियां तथा बच्चों की भूमिका को अगर समझना है तो इन को एक-दूसरे के सन्दर्भ में ही समझ सकते हैं। पत्नी तथा बच्चों के बिना पति की भूमिका अर्थहीन हो जाएगी।

5. भूमिका का निर्धारण सामाजिक मान्यता द्वारा होता है (Role are determined by social sanctious)—दो व्यक्तियों का स्वभाव एक जैसा नहीं होता है। अगर समाज के सदस्यों को उन की इच्छा के अनुसार भूमिका न दी जाए तो कोई भी कार्य ठीक तरह से नहीं हो सकेगा तथा कुछ व्यक्ति सामाजिक कीमतें के विरुद्ध कार्य करने लगेंगे। इसलिए समाज में सिर्फ उन भूमिकाओं को स्वीकार किया जाता है जिन को समाज की मान्यता प्राप्त होती है। यह हमारी सामाजिक संस्कृति ही निर्धारित करती है कि कौन सी भूमिकाएं, किन व्यक्तियों के द्वारा तथा कैसे निभायी जाएंगी।

6. व्यक्ति की योग्यता का महत्त्व (Importance of individuals ability)- जब एक व्यक्ति कई प्रकार की भूमिकाएं निभा रहा होता है तो यह ज़रूरी नहीं कि वह इन सब भूमिकाओं को निभाने के योग्य हो क्योंकि कई बार व्यक्ति किसी विशेष भूमिका को निभाने में सफल होता है तो दूसरी भूमिका निभाने में असफल भी हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार हर भूमिका को अच्छे, ज्यादा अच्छे या गलत तरीके से भी निभा. सकता है।

7. अलग-अलग भूमिकाओं का अलग-अलग महत्त्व (Different importance of different roles)इस का अर्थ है कि समाज में कुछ भूमिकाएं महत्त्वपूर्ण हिस्सों से सम्बन्धित होती हैं, उन का महत्त्व ज्यादा होता है क्योंकि इस प्रकार की भूमिकाओं को अदा करने के लिए व्यक्ति को ज्यादा परिश्रम तथा प्रशिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। इस तरह की भूमिकाओं को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं कहा जाता हैं। उदाहरण के तौर पर I.A.S. से सम्बन्धित भूमिकाएं समाज के लिए महत्त्वपूर्ण होती हैं क्योंकि यह समाज की सुरक्षा के लिए होती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
इनमें से कौन-सी सामाजिक संरचना की विशेषता है ?
(A) संरचना किसी चीज़ के बाहरी ढांचे का बोध करवाती है
(B) सामाजिक संरचना के कई तत्त्व होते हैं।
(C) भिन्न-भिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न संरचना होती है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना एक…….
(A) स्थायी धारणा है
(B) अस्थायी धारणा है
(C) टूटने वाली धारणा है।
(D) बदलने वाली धारणा है।
उत्तर-
(A) स्थायी धारणा है।

प्रश्न 3.
सबसे पहले सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग किस समाज शास्त्रीय ने किया था ?
(A) नैडल
(B) हरबर्ट स्पैंसर
(C) टालक्ट पारसन्ज
(D) मैलिनोवस्की।
उत्तर-
(B) हरबर्ट स्पैंसर।

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना का निर्माण कौन करता है ?
(A) समुदाय
(B) धर्म
(C) मूल्य
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 5.
अलग-अलग इकाइयों के क्रमबद्ध रूप को क्या कहते हैं ?
(A) अन्तक्रिया
(B) व्यवस्था
(C) संरचना
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) संरचना।

प्रश्न 6.
आधुनिक समाजों की संरचना किस प्रकार की होती है ?
(A) साधारण
(B) जटिल
(C) व्यवस्थित
(D) आधुनिक।
उत्तर-
(B) जटिल।

प्रश्न 7.
भूमिका किसके द्वारा नियमित होती है ?
(A) समाज
(B) समूह
(C) संस्कृति
(D) देश।
उत्तर-
(C) संस्कृति।

प्रश्न 8.
भूमिका की कोई विशेषता बताएं।
(A) एक व्यक्ति की कई भूमिकाएं होती हैं।
(B) भूमिका हमारी संस्कृति द्वारा नियमित होती है।
(C) भूमिका कार्यात्मक होती है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 9.
किसके कारण समाज अलग-अलग वर्गों में बांटा जाता है ?
(A) भूमिका
(B) प्रस्थिति
(C) प्रतिष्ठा
(D) रोल।
उत्तर-
(B) प्रस्थिति।

प्रश्न 10.
सामाजिक पद की विशेषता बताएं।
(A) प्रत्येक पद का समाज में स्थान होता है।
(B) पद के कारण भूमिका निश्चित होती है।
(C) पद समाज की संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
व्यक्ति को समाज में रहकर मिली प्रस्थिति को क्या कहते हैं ?
(A) पद
(B) रोल
(C) भूमिका
(D) जिम्मेदारी।
उत्तर-
(A) पद।

प्रश्न 12.
जो पद व्यक्ति को जन्म के आधार पर प्राप्त होता है उसे क्या कहते हैं ?
(A) अर्जित पद
(B) प्राप्त पद
(C) प्रदत्त पद
(D) भूमिका पद।
उत्तर-
(C) प्रदत्त पद।

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प्रश्न 13.
जो पद व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त करता है उसे क्या कहते हैं ?
(A) प्राप्त पद
(B) भूमिका पद
(C) प्रदत्त पद
(D) अर्जित पद।
उत्तर-
(D) अर्जित पद।

प्रश्न 14.
प्रदत्त पद का आधार क्या होता है ?
(A) जन्म
(B) आयु
(C) लिंग
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 15.
अर्जित पद का आधार क्या होता है ?
(A) शिक्षा
(B) पैसा
(C) व्यक्तिगत योग्यता
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज के अलग अलग अन्तर्सम्बन्धित भागों के व्यवस्थित रूप को …………….. कहते हैं।
2. जब एक व्यक्ति को बहुत सी भूमिकाएं प्राप्त हो जाएं तो इसे …………… कहते हैं।
3. ……….. वह स्थिति है जो व्यक्ति को मिलती है तथा निभानी पड़ती है।
4. ………….. प्रस्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती है।
5. ………….. प्रस्थिति व्यक्ति अपने परिश्रम से प्राप्त करता है।
6. तथा …………….. एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उत्तर-

  1. सामाजिक संरचना,
  2. भूमिका प्रतिमान,
  3. प्रस्थिति,
  4. प्रदत्त,
  5. अर्जित,
  6. प्रस्थिति व भूमिका।

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III. सही/गलत (True/False) :

1. सर्वप्रथम शब्द सामाजिक संरचना का प्रयोग हरबर्ट स्पैंसर ने दिया था।
2. समाज के सभी भाग अन्तर्सम्बन्धित होते हैं।
3. स्पैंसर ने पुस्तक The Principle of Sociology लिखी थी।
4. प्रस्थिति तीन प्रकार की होती है।।
5. प्रदत्त प्रस्थिति व्यक्ति परिश्रम से प्राप्त करता है।
6. अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त हो जाती है।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. गलत,
  6. गलत।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना समाज के किस भाग के बारे में बताती है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना समाज के बाहरी भाग के बारे में बताती है।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना का निर्माण कौन-सी इकाइयां करती हैं ?
उत्तर-
समाज की महत्त्वपूर्ण इकाइयां जैसे कि संस्थाएं, समूह, व्यक्ति इत्यादि सामाजिक संरचना का निर्माण करती है।

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प्रश्न 3.
संरचना की इकाइयों से हमें क्या मिलता है ?
उत्तर-
संरचना की इकाईयों से हमें क्रमबद्धता मिलती है।

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना किस प्रकार की धारणा है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना एक स्थायी धारणा है जो हमेशा मौजूद रहती है।

प्रश्न 5.
सामाजिक संरचना का मूल आधार क्या है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना का मूल आधार आदर्श व्यवस्था है।

प्रश्न 6.
टालक्ट पारसन्ज़ ने कितने प्रकार की सामजिक संरचनाओं के बारे में बताया है ?
उत्तर-
पारसन्ज़ ने चार प्रकार की सामाजिक संरचनाओं के बारे में बताया है।

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प्रश्न 7.
किन समाजशास्त्री ने सामाजिक संरचना को मानवीय शरीर के आधार पर समझाया है ?
उत्तर-
हरबर्ट स्पैंसर ने सामाजिक संरचना को मानवीय शरीर के आधार पर समझाया है।

प्रश्न 8.
क्या सभी समाजों की संरचना एक जैसी होती है ?
उत्तर-
जी नहीं, अलग-अलग समाजों की संरचना अलग-अलग होती है।

प्रश्न 9.
सामाजिक संरचना के कौन-से दो तत्त्व होते हैं ?
उत्तर–
सामाजिक संरचना के दो प्रमुख तत्त्व आदर्शात्मक व्यवस्था तथा पद व्यवस्था होते हैं।

प्रश्न 10.
आधुनिक समाजों की संरचना किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
आधुनिक समाजों की संरचना जटिल होती है।

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प्रश्न 11.
प्राचीन समाजों की संरचना किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
प्राचीन समाजों की संरचना साधारण तथा सरल थी।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संरचना क्या होती है ?
उत्तर-
अलग-अलग इकाइयों के क्रमबद्ध रूप को संरचना कहा जाता है। इसका अर्थ है कि अगर अलगअलग इकाइयों को एक क्रम में लगा दिया जाए तो एक व्यवस्थित रूप हमारे सामने आता है जिसे हम संरचना कहते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना का निर्माण कौन करता है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना का निर्माण परिवार, धर्म, समुदाय, संगठन, समूह मूल्य, पद इत्यादि जैसी सामाजिक इकाइयां तथा प्रतिमान करते हैं। इनके अतिरिक्त आदर्श व्यवस्था, कार्यात्मक व्यवस्था, स्वीकृति व्यवस्था भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

प्रश्न 3.
क्या सामाजिक संरचना अमूर्त होती है ?
उत्तर-
जी हाँ, सामाजिक संरचना अमूर्त होती है क्योंकि सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली संस्थाएँ, प्रतिमान, आदर्श इत्यादि अमूर्त होते हैं तथा हम इन्हें देख नहीं सकते। इस कारण सामाजिक संरचना भी अमूर्त होती

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प्रश्न 4.
टालक्ट पारसन्ज़ ने सामाजिक संरचना के कौन-से प्रकार दिए हैं ?
उत्तर-
पारसन्ज़ ने सामाजिक संरचना के चार प्रकार दिए हैं तथा वे हैं

  1. सर्वव्यापक अर्जित प्रतिमान
  2. सर्वव्यापक प्रदत्त प्रतिमान
  3. विशेष अर्जित प्रतिमान
  4. विशेष प्रदत्त प्रतिमान।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना।
उत्तर-
हमारा समाज कई इकाइयों के सहयोग की वजह से पाया जाता है। ये इकाइयां संस्थाएं, सभाएं, समूह, पद, भूमिका इत्यादि होते हैं। इन इकाइयों के मिश्रण से ही ‘समाज’ का निर्माण नहीं होता बल्कि इन इकाइयों में पाई गई तरतीब के व्यवस्थित होने से होता है। उदाहरण के तौर पर लकड़ी, फैवीकोल, कीलें, पालिश इत्यादि को एक जगह पर रख दिया जाए तो हम उसे मेज़ नहीं कह सकते। बल्कि जब इन सभी को एक विशेष तरतीब में रख दिया जाए तथा उन को तरतीब में जोड़ दिया जाए तो हम मेज का ढांचा तैयार कर सकते हैं। इस तरह हमारे समाज की इकाइयों का निश्चित तरीके से व्यवस्था में पाया जाना सामाजिक संरचना कहलाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना के चार मुख्य तत्त्व।
उत्तर-
टालक्ट पारसंज़ तथा हैरी० एम० जानसन के अनुसार सामाजिक संरचना के चार मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • उप समूह (Sub groups)
  • भूमिकाएं (Roles)
  • सामाजिक परिमाप (Social Norms)
  • सामाजिक कीमतें (Social Values)।

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प्रश्न 3.
टालक्ट पारसंज़ द्वारा दी सामाजिक संरचना की परिभाषा।
उत्तर-
टालक्ट पारसंज़ के अनुसार, “सामाजिक संरचना शब्द को अन्तः सम्बन्धित एजेंसियों तथा सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए पदों तथा भूमिकाओं की विशेष क्रमबद्धता के लिए प्रयोग किया जाता है।”

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना की दो विशेषताएं।
उत्तर-
1. प्रत्येक समाज की संरचना अलग होती है-प्रत्येक समाज की संरचना अलग-अलग होती है क्योंकि समाज में पाए जाने वाले अंगों का सामाजिक जीवन अलग-अलग होता है। प्रत्येक समाज के संस्थागत नियम अलग-अलग होते हैं। इसलिए दो समाजों की संरचना एक सी नहीं होती।

2. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है-सामाजिक संरचना अमूर्त होती है क्योंकि इसका निर्माण जिन इकाइयों से होता है जैसे संस्था, सभा, परिमाप इत्यादि सभी अमूर्त होती हैं। इनका कोई ठोस रूप नहीं होता हम केवल इन्हें महसूस कर सकते हैं। इसलिए यह अमूर्त होती हैं।

प्रश्न 5.
सामाजिक संरचना अंतः क्रियाओं की उपज है।
उत्तर-
सामाजिक संरचना में संस्थाओं, सभाओं, परिमापों इत्यादि को एक विशेष तरीके से बताने के लिए कोई योजना नहीं बनाई जाती बल्कि इसका विकास अंतः क्रियाओं के नतीजे के फलस्वरूप पाया जाता है। इसलिए इस सम्बन्ध में चेतन रूप में प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 6.
सामाजिक पद या प्रस्थिति।
उत्तर-
व्यक्ति की समूह में पाई गई स्थिति को सामाजिक पद का नाम दिया जाता है। यह स्थिति वह है जिस को व्यक्ति लिंग, भेद, उम्र, जन्म, कार्य इत्यादि की पहचान के विशेष अधिकारों द्वारा प्राप्त करता है तथा अधिकारों के संकेत तथा काम में प्रतिमान द्वारा प्रकट किया जाता है। जैसे कोई बड़ा अफसर आता है तो सभी खड़े हो जाते हैं, यह इज्जत उसके सम्बन्धित पद की वजह से प्राप्त होती है। उसके कामों के साथ सम्बन्धित विशेष प्रतिमानों को ही सामाजिक पद का नाम दिया जाता है।

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प्रश्न 7.
प्रदत्त पद।
उत्तर-
प्रदत्त पद वह पद होता है जिसको व्यक्ति बिना परिश्रम किए प्राप्त करता है। जैसे प्राचीन हिन्दू समाज में जाति प्रथा में ब्राह्मणों को ऊँचा स्थान प्राप्त था। व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था उसका स्थान उस जाति के सामाजिक स्थान के अनुसार होता था। लिंग, जाति, उम्र, रिश्तेदारी इत्यादि प्रदत्त पद के आधार हैं जो बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 8.
सामाजिक भूमिका।
उत्तर-
हरेक सामाजिक पद के साथ सम्बन्धित कार्य निश्चित होते हैं। इसमें व्यक्ति अपनी स्थिति से सम्बन्धित कार्यों को पूरा करता है तथा अपने अधिकारों का प्रयोग करता है। डेविस के अनुसार व्यक्ति अपने पद की ज़रूरतों को पूरा करने के तरीके अपनाता है। इसको भूमिका कहा जाता है। इस तरह भूमिका से अर्थ व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यवहार नहीं बल्कि विशेष स्थिति में करने वाले व्यवहार तक ही सीमित है।

प्रश्न 9.
भूमिका की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
1. यह सामाजिक मान्यता द्वारा निर्धारित होते हैं क्योंकि यह संस्कृति का आधार है। सामाजिक कीमतों के विरुद्ध किए जाने वाली भूमिका को स्वीकार नहीं किया जाता।

2. समाज के बीच परिमाप तथा कीमतें परिवर्तनशील होती हैं जिसके फलस्वरूप भूमिका बदल जाती है। अलग-अलग स्कूलों में अलग-अलग भूमिका की महत्ता होती है।

प्रश्न 10.
सामाजिक पद की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. हरेक पद का समाज में स्थान होता है।
  2. पद समाज की संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है।
  3. पद हमेशा तुलनात्मक होता है।
  4. पद का मनोवैज्ञानिक आधार होता है।
  5. पद के कारण भूमिका निश्चित होती है।

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प्रश्न 11.
भूमिका की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. एक व्यक्ति की कई भूमिकाएं होती हैं।
  2. भूमिका हमारी संस्कृति द्वारा नियमित होती है।
  3. भूमिका कार्यात्मक होती है।
  4. भूमिका परिवर्तनशील होती है।
  5. अलग-अलग भूमिकाओं की अलग-अलग महत्ता होती है।

प्रश्न 12.
भूमिका का महत्त्व।
उत्तर-

  1. भूमिका सामाजिक व्यवस्था तथा संतुलन बनाए रखती है।
  2. भूमिका व्यक्ति की क्रियाओं को संचालित करती है।
  3. भूमिका समाज में कार्यों को बांटती है।
  4. भूमिका अंतः क्रियाओं को नियमित करती है।
  5. भूमिका व्यक्ति को क्रियाशील बनाकर उसके व्यवहार को प्रभावित करती है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना के बारे में अलग-अलग समाजशास्त्रियों द्वारा दिए विचारों का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर-
अलग-अलग समाज शास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों ने सामाजिक संरचना की परिभाषाएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. हरबर्ट स्पैंसर के विचार (Views of Herbert Spencer) हरबर्ट स्पैंसर पहला समाजशास्त्री था जिसने समाज की संरचना पर प्रकाश डाला, परन्तु वह स्पष्ट परिभाषा देने में असमर्थ रहा। उसने अपनी किताब Principles of Socioldgy में सामाजिक संरचना के अर्थ को जैविक आधार द्वारा बताया। स्पैंसर ने शारीरिक ढांचे (Organic structure) के आधार पर सामाजिक ढांचे के अर्थों को स्पष्ट करना चाहा।

स्पैंसर के अनुसार शरीर के ढांचे में कई भाग होते हैं जैसे टांगे, बाहें, नाक, कान, मुंह, हाथ इत्यादि। इन सभी भागों में एक संगठित तरीका पाया जाता है जिसके आधार पर यह सारे हिस्से मिल कर शरीर के लिए कार्य करते हैं अर्थात् हमारा शरीर इन अलग-अलग हिस्सों की अन्तर्निर्भरता तथा अन्तर्सम्बन्धता की वजह से ही कार्य करने योग्य होता है। चाहे शारीरिक ढांचे के सभी हिस्से हरेक मनुष्य के ढांचे में एक जैसे होते हैं परन्तु इनकी प्रकार अलग-अलग होती है। इसी वजह से कुछ व्यक्ति लम्बे, छोटे, मोटे, पतले होते हैं। यही हाल सामाजिक ढांचे का है। चाहे इसके सभी हिस्से सभी समाजों में एक जैसे होते हैं परन्तु इनके प्रकार में परिवर्तन होता है। इसी वजह से एक समाज का ढांचा दूसरे समाज से अलग होता है। इस तरह स्पैंसर ने सिर्फ अलग-अलग अंगों के कार्य करने के आधार पर इसको सम्बन्धित रखा परन्तु कार्य के साथ इनकी आपसी सम्बन्धता भी ज़रूरी होती है। स्पैंसर ने बहुत ही सरल अर्थों में सामाजिक संरचना के बारे में अपने विचार दिए जिस वजह से सामाजिक संरचना का.अर्थ काफ़ी अस्पष्ट रह गया है।

2. एस० एफ० नैडल के विचार (Views of S. F. Nadal) नैडल के अनुसार, “मूर्त जनसंख्या हमारे समाज के सदस्यों के बीच एक-दूसरे के प्रति अपने रोल निभाते हुए सम्बन्धों के जो व्यावहारिक प्रतिबन्धित तरीके या व्यवस्था अस्तित्व में आती है उसे समाज की संरचना कहते हैं।”

नैडल के अनुसार संरचना अलग-अलग हिस्सों का व्यवस्थित प्रबन्ध है। यह समाज के सिर्फ बाहरी हिस्से से सम्बन्धित है तथा समाज के कार्यात्मक हिस्से से बिल्कुल ही अलग है। नैडल के संरचना के संकल्प को समझने के लिए उसके एक समाज के संकल्प की व्याख्या को समझना ज़रूरी है। नैडल के अनुसार एक समाज का अर्थ व्यक्तियों के उस समूह से है जिसमें अलग-अलग व्यक्ति संस्थागत सामाजिक आधार पर एक-दूसरे से इस तरह सम्बन्धित रहते हैं कि सामाजिक नियम लोगों के व्यवहारों को निर्देशित तथा नियन्त्रित करते हैं। इस तरह नैडल के एक समाज के अनुसार इसमें तीन तत्त्व हैं तथा वे तत्त्व हैं व्यक्ति, उनमें होने वाली अन्तक्रियाएं तथा अन्तक्रियाओं के कारण उत्पन्न होने वाले सामाजिक सम्बन्ध।

नैडल के अनुसार व्यवस्थित व्यवस्था का सम्बन्ध किसी भी वस्तु की रचना से होता है न कि उसके कार्यात्मक पक्ष से। उदाहरण के तौर पर सितार के कार्यात्मक पक्ष का ध्यान किए बगैर भी अर्थात् इसके सुरों की तरतीब को समझे बगैर भी हम उसकी संरचना या ढांचे का पता कर सकते हैं। इस तरह कई और समाज जिनके कार्यात्मक पक्ष के बारे में हमें बिल्कुल ज्ञान नहीं होता पर फिर भी हम उसकी बाहरी रचना को समझ सकते हैं। इस तरह नैडल के अनुसार समाज का अर्थ व्यक्तियों का वह समूह होता है जिसमें व्यक्ति संस्थात्मक सामाजिक नियम, उनके व्यवहारों को निर्देशित तथा नियमित करते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाज के अलग-अलग अंगों में पाए जाने वाले अंगों की आपसी सम्बन्धता की व्यवस्थित या नियमित क्रमबद्धता को ही सामाजिक संरचना कहते हैं।

3. रैडक्लिफ़ ब्राऊन के विचार (Views of Redcliff Brown)-ब्राऊन समाज शास्त्र के संरचनात्मक कार्यात्मक स्कूल से सम्बन्ध रखता था। उसके अनुसार, “सामाजिक संरचना के तत्त्व मनुष्य हैं, संरचना अपने आप में व्यक्तियों में संस्थात्मक, परिभाषित तथा नियमित सम्बन्धों के प्रबन्धों की व्यवस्था है।” ब्राऊन के अनुसार सामाजिक संरचना स्थिर नहीं होती बल्कि एक गतिशील निरन्तरता है। सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आते रहते हैं परन्तु मौलिक तत्त्व नहीं बदलते। संरचना तो बनी रहती है परन्तु कई बार आम संरचना के स्वरूप में परिवर्तन आ जाते हैं।

4. टालक्ट पारसन्ज़ के विचार (Views of Talcott Parsons)-पारसन्ज़ ने भी सामाजिक संरचना को अमूर्त बताया है। पारसन्ज़ के अनुसार, “सामाजिक संरचना शब्द को परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, ऐजंसियों तथा सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में हरके सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा भूमिकाओं की विशेष तरतीब ‘या क्रमबद्धता के लिए प्रयोग किया जाता है।”

इस समाजशास्त्री के अनुसार जैसे शरीर के अलग-अलग अंगों में परस्पर सम्बन्ध होता है उसी तरह सामाजिक संरचना की अलग-अलग इकाइयों में भी आपसी सम्बन्ध होता है जिस के साथ एक विशेष व्यवस्था कायम होती है तथा इस व्यवस्था के अधीन ही हरेक व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका तथा पद को अदा करता है। इन पदों से ही अलग-अलग संस्थाओं का जन्म होता है। जब यह सभी एक विशेष व्यवस्था के साथ संगठित तथा परस्पर ‘सम्बन्धित हो जाते हैं तो ही सामाजिक ढांचा कायम होता है।

इन समाजशास्त्रियों ने सामाजिक संरचना के लिए संस्थाओं, सभाओं, समूहों तथा कार्यात्मक व्यवस्थाओं इत्यादि के अध्ययन को भी शामिल किया है।

उपरोक्त लिखी सामाजिक संरचना की परिभाषाओं के आधार पर हम इसके अर्थों को संक्षेप रूप में इस तरह बता सकते हैं-

  1. सामाजिक संरचना एक अमूर्त संकल्प है।
  2. समाज के व्यक्ति समाज की अलग-अलग इकाइयों जैसे संस्थाएं, सभाएं, समूहों इत्यादि से सम्बन्धित होते हैं। इस वजह से ये संस्थाएं, सभाएं इत्यादि सामाजिक संरचना की इकाइयां हैं।
  3. ये संस्थाएं, समूह इत्यादि एक विशेष तरतीब से एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं जिससे सामाजिक संरचना में क्रम पैदा होता है।
  4. यह समाज के बाहरी हिस्से से सम्बन्धित होते हैं।
  5. सामाजिक संरचना समय तथा परिवर्तनों से बनती है।
  6. इसमें निरन्तरता तथा गतिशीलता पाई जाती है।

इस तरह हम देखते हैं कि समाज में परिवर्तन आने से इसके अंगों में भी परिवर्तन आ जाता है तथा यह अलगअलग समाजों में अलग-अलग होते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाज के अलग-अलग अंग होते हैं। जब यह एक निश्चित तरीके से व्यवस्थित होते हैं तो समाज का एक स्वरूप पैदा होता है जिसे सामाजिक संरचना कहा जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

प्रश्न 2.
सामाजिक पद या परिस्थिति के प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
पदों के वर्गीकरण के बारे में राल्फ लिंटन ने अपने विचार प्रकट किए हैं तथा उसने पदों को दो भागों में बाँटा है जो कि इस प्रकार हैं

  1. प्रदत्त पद (Ascribd Status)
  2. अर्जित पद (Achieved Status)

प्रत्येक समाज में इन दोनों प्रकारों का प्रयोग किया जाता है जिससे समाज सन्तुलित रहता है। प्रदत्त पद वह होते हैं जो व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त हो जाते हैं तथा व्यक्ति को इनको प्राप्त करने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। उदाहरण के लिए किसी अमीर व्यक्ति के घर पैदा हुए बच्चे को जन्म से ही अमीर का पद प्राप्त हो जाता है जिसके लिए उसने कोई परिश्रम नहीं किया होता है।

अर्जित पद वह होता है जो व्यक्ति अपने सख्त परिश्रम से प्राप्त करता है। इसमें व्यक्ति का जन्म नहीं बल्कि इसकी योग्यता तथा परिश्रम प्रमुख होते हैं। अतः समाज में व्यक्ति अपने गुणों के आधार पर स्थिति प्राप्त करता है। उदाहरण के लिए एक I.A.S. अफ़सर जो सख्त परिश्रम करके इस स्थिति तक पहुँचा है। इसे हम अर्जित पद कह सकते हैं।

प्रदत्त पद (Ascribed Status)-व्यक्ति को जो पद बिना किसी निजी परिश्रम के प्राप्त होता है उसे प्रदत्त पद का नाम दिया जाता है। यह पद हमें हमारे समाज की परम्पराओं, प्रथाओं इत्यादि से अपने आप ही प्राप्त हो जाता है। प्राचीन समाज में व्यक्ति प्रदत्त पद तक ही सीमित रहता था। जन्म के बाद ही व्यक्ति को इस पद की प्राप्ति हो जाती थी। सबसे पहले वह उस परिवार से सम्बन्धित हो जाता है जहाँ वह पैदा हुआ है। उसके बाद उस का लिंग उसको पद प्रदान करता है। फिर रिश्तेदारी उससे सम्बन्धित हो जाती है। यह स्थिति व्यक्ति को उस समय प्राप्त होती है जब समाज को उसके गुणों का पता नहीं होता। समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा उसको समाज में पद प्राप्त होते हैं। समाज व्यक्ति को कुछ नियमों के आधार पर बिना उसके परिश्रम किए कुछ पद प्रदान करता है तथा वह आधार निम्नलिखित हैं-

1. लिंग (Sex)-समाज में व्यक्ति को लिंग के आधार पर अलग किया जाता है जिसके लिए लड़का-लड़की, औरत-आदमी जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैविक पक्ष से भी इन दोनों लिंगों में कुछ भिन्नताएं पायी जाती हैं। अगर हम प्राचीन समय को देखें तो पता चलता है कि उन समाजों में कार्यों को लिंग के आधार पर बाँटा जाता था। इसलिए स्त्रियों का कार्य घर की देखभाल करना होता था तथा पुरुषो का कार्य घर से बाहर जाकर शिकार करना, कन्दमूल इकट्ठे करना था। शारीरिक तौर पर इन दोनों लिंगों में भिन्नताएं होती थीं। कुछ कार्य तो जैविक तौर पर ही सीमित रहते थे।

चाहे आजकल के समाजों में स्त्रियों तथा पुरुषों की योग्यताओं में काफ़ी समानता होती है परन्तु लिंग के आधार पर पायी गयी स्थिति अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। इस वजह से कई समाजों में तो आज भी औरत तथा मर्द के पद में काफ़ी भिन्नता पायी जाती है। उसका दर्जा आदमी से काफ़ी निम्न था। भारतीय जाति प्रथा में औरतें शिक्षा नहीं ले सकती थीं। जन्म के बाद वह सीधे ही ब्रह्मचार्य आश्रम की बजाय गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करती थीं। यहां तक कि कई क्षेत्रों में लड़की को पैदा होने के साथ ही मार दिया जाता था। हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार घर में पुत्र होना ज़रूरी है वरना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती।

2. आयु के आधार पर स्थिति (Status on the basis of age) आयु भी अलग-अलग समाजों में पद बताने का महत्त्वपूर्ण आधार रही है। यह एक जैविक आधार है जिसको व्यक्ति बिना परिश्रम के प्राप्त करता है। हैरी एम० जानसन ने भी आयु के आधार पर व्यक्ति की अलग-अलग अवस्थाओं को बताया है-

आयु के आधार पर पायी गई अलग-अलग अवस्थाओं में व्यक्ति के पद क्रम में भी परिवर्तन आ जाता है। इन अवस्थाओं के साथ ही समाज की संस्कृतियां भी जुड़ी होती हैं। प्राचीन समाज में सबसे बड़ी आयु के व्यक्ति द्वारा समाज पर नियन्त्रण होता था। भारत में भी विवाह के लिए उम्र सीमा, वोट देने के लिए भी आयु एक कारक है। आयु के अनुसार व्यक्ति को समाज में स्थिति भी अलग-अलग तरीके से प्राप्त होती है। परिवार की उदाहरण ही ले लो। आयु के मुताबिक ही परिवार में बच्चे को उच्च या निम्न समझा जाता है। छोटी आयु वाले की हरेक बात को मज़ाक में लिया जाता है। जब वह जवान हो जाता है तो पहले उस की आदतों का ध्यान रखा जाता है तथा उससे अच्छे कार्य करने की उम्मीद की जाती है। आमतौर पर यह शब्द प्रयोग किए जाते हैं कि, “अब तू बड़ा हो गया है, तेरी आयु कम नहीं है, ध्यान से बोला कर” इत्यादि। आयु के मुताबिक ही समाज में भी व्यक्ति को सज़ा अलग-अलग तरीकों से दी जाती है। आधुनिक समाज में आयु के आधार पर पाए गए पद क्रम में भी परिवर्तन आ गया है क्योंकि कई बच्चे, जो अपनी उम्र से ज्यादा प्रतिभाशाली होते हैं, उनका समाज में ज्यादा सम्मान होता

3. रिश्तेदारी (Kinship)—प्राचीन समाज में भी रिश्तेदारी इतनी महत्त्वपूर्ण होती थी कि व्यक्ति को उसी आधार पर उच्च या निम्न जाना जाता था। एक राजा का बेटा राजकुमार कहलाता था। उसकी समाज में इज्जत राजा के बराबर ही होती थी। बच्चे की पहचान ही परिवार या रिश्तेदारी के आधार पर होती थी। बच्चे तथा परिवार का विशेष सम्बन्ध होता था। जाति प्रथा में तो बच्चे को जन्म से ही जाति प्राप्त होती थी जिससे सम्बन्धित उसकी रिश्तेदारी थी। इसका अर्थ है कि जाति प्रथा में उसको पारिवारिक स्थिति ही प्राप्त होती थी। परिवार के द्वारा ही समाज में व्यक्ति की पहचान होती थी। राजा अपने बच्चे को शुरू से ही घुड़सवारी, हथियारों का प्रयोग करने की शिक्षा दिलाते थे क्योंकि उनको अपने बच्चों को इस प्रकार की योग्यताएं देनी होती थीं। बड़ा होकर हरेक बच्चे को अपने परिवार का कार्य आगे बढ़ाना होता था। बच्चा, यहां तक कि आज भी, अपनी पारिवारिक योग्यता लेकर आगे बढ़ता है। टाटा, बिड़ला के बच्चों की स्थिति निश्चित तौर पर आम आदमी के बच्चों से उच्च होगी।

4. सामाजिक कारक (Social Factors)-कई समाजों में व्यक्तियों को अलग-अलग समूहों में वर्गीकृत किया होता था तथा इन समूहों के बीच पदक्रम की व्यवस्था होती थी अर्थात् इनको उच्च या निम्न समझा जाता था। इन समूहों का वर्गीकरण अलग-अलग कार्यों के आधार पर या योग्यता इत्यादि के आधार पर किया होता था। जैसे कि अध्यापक, अफसर इत्यादि। इस में अपने समूह से सम्बन्धित लोगों में मेल जोल होता था।

अर्जित पद (Achieved Status)—समाज में बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया के लिए प्रदत्त पद की अपनी ही महत्ता होती है। परन्तु समाज आधुनिक समय में इतने ज्यादा जटिल हो गए हैं कि केवल प्रदत्त पद के आधार पर व्यक्ति के पदक्रम को हम सीमित नहीं कर सकते क्योंकि अगर समाज के व्यक्तियों को खुलकर योग्यता प्रकट करने न दें तो कभी भी समाज प्रगति नहीं कर सकता। हरेक व्यक्ति अलग क्षेत्र में प्रगतिशील होता है क्योंकि कोई भी दो व्यक्तियों की योग्यता एक जैसी नहीं होती है। व्यक्तियों की योग्यताओं की पहचान के लिए हम उनको आगे बढ़ने का मौका देते हैं तथा इसके आधार पर उसको समाज में स्थिति प्रदान करते हैं।

प्राचीन समाजों में सिर्फ प्रदत्त पद ही महत्त्वपूर्ण होता था क्योंकि वह समाज साधारण होते थे तथा श्रेणी रहित होते थे। उनका कार्य सिर्फ जीवित रहने तक ही सीमित होता था। परन्तु जैसे-जैसे समाज जटिल होते गए उसी तरह व्यक्ति की योग्यता पर ज्यादा जोर दिया जाने लग गया। अर्जित पद के आधार पर व्यक्ति को समाज में स्थान प्राप्त हुआ। आधुनिक समाज ने तो व्यक्ति को पूर्ण मौके भी प्रदान किए हुए हैं ताकि उसकी योग्यता उसको परिणाम भी दे।

अर्जित पद में व्यक्ति की योग्यताओं की परख सामाजिक कीमतों के आधार पर होती है। आधुनिक समाज में जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन आ रहे हैं उसी तरह अर्जित पद में भी परिवर्तन आ रहे हैं। समाज की ज़रूरतों के मुताबिक इन को सीमित किया होता है। जैसे किसी देश में राष्ट्रपति के पद के लिए समय निश्चित किया होता है। उस समय के बाद कोई भी व्यक्ति उस पद को प्राप्त कर सकता है। श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण व्यक्ति को स्थिति परिवर्तन के कई मौके प्रदान करते हैं। आधुनिक पूँजीवादी समाज में धन की महत्ता ज्यादा होती है क्योंकि इसके आधार पर व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। औद्योगीकरण के कारण कई पेशे तकनीकी प्रकृति के हैं, जिनको प्रदत्त पद के आधार पर नहीं बाँटा जा सकता।

अर्जित पद व्यक्ति के अपने यत्नों या परिश्रम से प्राप्त होता है जिसको शिक्षा, धन, कुशलता, पेशे इत्यादि के आधार के साथ सम्बन्धित रखा जाता है। इस पद के द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है। इसमें व्यक्तिवादी प्रवृत्ति को पूर्ण प्रोत्साहन मिलता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

सामाजिक संरचना PSEB 11th Class Sociology Notes

  • समाजशास्त्र के बहुत से मूल संकल्प हैं तथा सामाजिक संरचना उनमें से एक है। सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग प्रसिद्ध समाजशास्त्री हरबर्ट स्पैंसर ने किया था। उनके बाद बहुत से समाजशास्त्रियों जैसे कि टालक्ट पारसन्ज, रैडक्लिफ ब्राऊन, मैकाइवर इत्यादि ने भी इसके बारे में काफ़ी कुछ लिखा।
  • हमारे समाज के बहुत से अंग होते हैं जो एक-दूसरे के साथ किसी न किसी रूप से जुड़े होते हैं। यह सभी अंग अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। इस सभी भागों के व्यवस्थित रूप को सामाजिक संरचना का नाम दिया जाता है। यह चाहे अमूर्त होते हैं परन्तु हमारे जीवन को निर्देशित करते रहते हैं।
  • सामाजिक संरचना की बहुत सी विशेषताएँ होती हैं जैसे कि यह अमूर्त होती है, इसके बहुत से अत : सम्बन्धित अंग होते हैं, इन सभी अंगों में एक व्यवस्था पाई जाती है, यह सभी व्यवहार को निर्देशित करते हैं, यह सर्वव्यापक होते हैं, यह समाज के बाहरी रूप को दर्शाते हैं।
  • हरबर्ट स्पैंसर ने एक पुस्तक लिखी ‘The Principal of Sociology’ जिसमें उन्होंने सामाजिक संरचना शब्द का जिक्र किया तथा उसकी तुलना जीवित शरीर से की। उसने कहा जैसे शरीर के अलग-अलग अंग शरीर को ठीक ढंग से चलाने के लिए आवश्यक होते हैं, उस प्रकार से सामाजिक संरचना के अलग-अलग अंग भी संरचना को चलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
  • सामाजिक संरचना के बहुत से तत्त्व होते हैं जिनमें प्रस्थिति तथा भूमिका काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। प्रस्थिति का अर्थ वह रूतबा या स्थिति है जो व्यक्ति को समाज में रहते हुए दी जाती है। एक व्यक्ति की बहुत सी प्रस्थितियां होती हैं जैसे कि अफसर, पिता, पुत्र, क्लब का प्रधान इत्यादि।
  • प्रस्थितियां दो प्रकार की होती हैं-प्रदत्त तथा अर्जित। प्रदत्त प्रस्थिति वह होती है जो व्यक्ति को बिना किसी परिश्रम में स्वयं ही प्राप्त हो जाती है। अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति को स्वयं ही प्राप्त नहीं होती बल्कि वह अपने परिश्रम से इन्हें प्राप्त करता है।
  • भूमिका उम्मीदों का वह गुच्छा है जिसकी व्यक्ति से पूर्ण करने की आशा की जाती है। प्रत्येक प्रस्थिति के साथ कुछ भूमिकाएं भी लगा दी जाती हैं। भूमिका से ही पता चलता है कि हम किस प्रकार एक प्रस्थिा पर रहते हुए किसी विशेष समय व्यवहार करेंगे।
  • भूमिका की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि भूमिका सीखी जाती है, भूमिका प्रस्थिति का कार्यात्मक पक्ष है, भूमिका के मनोवैज्ञानिक आधार हैं इत्यादि।
  • प्रस्थिति तथा भूमिका के बीच गहरा संबंध है क्योंकि यह दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। अगर किसी व्यक्ति को कोई प्रस्थिति प्राप्त होगी तो उससे सम्बन्धित भूमिकाएं भी स्वयं ही मिल जाएंगी। बिना भूमिका के प्रस्थिति का कोई लाभ नहीं है तथा बिना प्रस्थिति के भूमिका नहीं निभाई जा सकती।
  • सामाजिक संरचना (Social Structure)-अलग-अलग व्यवस्था के क्रमवार रूप को व्यवस्थित करना।
  • भूमिका सैट (Role Set)-जब एक व्यक्ति को बहुत-सी भूमिकाएं प्राप्त हो जाएं।
  • भूमिका संघर्ष (Role Conflict)—जब एक व्यक्ति को बहुत-सी भूमिकाएं प्राप्त हों तथा उन भूमिकाओं में संघर्ष उत्पन्न हो जाए।
  • भूमिका (Role) विशेष परिस्थिति को संभालने वाले व्यक्ति से विशेष प्रकार की आशा करना।
  • प्रस्थिति (Status)—वह स्थिति जो व्यक्ति को मिलती है तथा निभानी पड़ती है।
  • प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed Status)—वह स्थिति किसी व्यक्ति को जन्म या किसी अन्य आधार पर दी जाए।
  • अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status)—वह स्थिति जो व्यक्ति अपने परिश्रम से प्राप्त करता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 21 राजनीतिक जागृति तथा अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध राजनीतिक आन्दोलन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 21 राजनीतिक जागृति तथा अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध राजनीतिक आन्दोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 21 राजनीतिक जागृति तथा अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध राजनीतिक आन्दोलन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
1885 से 1916 ई० तक स्वतन्त्रता आन्दोलन की मुख्य घटनाओं की चर्चा करें।
उत्तर-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई० में हुई। इसके संस्थापक एक सेवा-मुक्त अंग्रेज अधिकारी श्री ए० ओ० ह्यूम थे। कांग्रेस का पहला अधिवेशन बम्बई (मुम्बई) में हुआ। जिसका सभापतित्व श्री वोमेश चन्द्र जी ने किया। अगले वर्ष यह सौभाग्य दादा भाई नौरोजी को प्राप्त हुआ। आरम्भ में अंग्रेजों ने इस संस्था का स्वागत किया। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन ने इसके सदस्यों को भोज भी दिया। उन्होंने यह विचार व्यक्त किए कि कांग्रेस की स्थापना से सरकार तथा जनता का आपसी मेल बढ़ेगा और सरकार को अपनी नीति निर्धारित करने में आसानी रहेगी। वास्तव में कांग्रेस का आरम्भिक उद्देश्य भी सरकार तथा जनता को निकट लाना था। अतः शुरू-शुरू में कांग्रेस प्रस्ताव पास करके सरकार के सामने प्रस्तुत करती थी। कांग्रेस हर वर्ष यह मांग करती कि भारत में संवैधानिक सुधार किए जाएं, भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त किया जाए, कर कम किए जाएं तथा शिक्षा के लिए उचित पग उठाए जाएं। उसके प्रस्तावों की भाषा में विनम्रता होती थी और ये सदा एक प्रार्थना के रूप में सरकार के सम्मुख रखे जाते थे। अपने अधिवेशनों में भी कांग्रेसी नेता सरकार की निन्दा नहीं करते थे।

सरकार द्वारा कांग्रेस का विरोध-धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस एक-दूसरे से दूर होने लगे। आरम्भ में जिस संस्था को अंग्रेज़ लोग भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए रक्षा नली (Safety Valve) कहा करते थे, अब उसी संस्था को सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा। अंग्रेजों को यह विश्वास होने लगा कि कांग्रेस के विकास से राष्ट्रीय भावना तेजी से फैल रही है। अत: लॉर्ड डफरिन ने एक भोज के अवसर पर कहा-“अब कांग्रेस राजद्रोह की ओर झुक रही है।” अंग्रेज़ी समाचारपत्रों ने खुलेआम कांग्रेस की निन्दा करनी शुरू कर दी। 1892 ई० में सरकार ने एक अधिनियम पास किया। इस अधिनियम से कांग्रेस सन्तुष्ट नहीं थी। अतः इसके रवैये में परिवर्तन आया और इसके नेताओं ने सरकार की गलत नीतियों की निन्दा करनी शुरू कर दी। परन्तु अभी भी उनके प्रस्तावों की भाषा में नम्रता बनी रही। 1897-98 ई० में भारत अकाल तथा प्लेग की लपेट में आ गया। हजारों लोग मरने लगे, परन्तु सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। सरकार की इस उदासीनता ने जनता के दिल में रोष पैदा कर दिया। जनता को विश्वास हो गया कि उनके कष्टों का अन्त केवल स्वतन्त्रता प्राप्ति में ही है। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने कांग्रेस की नर्म नीति की निन्दा की।

बंगाल का विभाजन-1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। यह कदम हिन्दू तथा मुसलमान जनता में फूट डालने के लिए उठाया गया था। सारे भारत में रोष की लहर दौड़ गई। इससे लोकमान्य तिलक के विचारों को बहुत बल मिला। कांग्रेस में भी दो विचारधाराएं बन गईं। उस समय मुख्य नेता थे-गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी, फिरोज़शाह मेहता, लाला लाजपतराय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक तथा विपिन चन्द्र पाल। आखिरी तीन नेता लाल, बाल तथा पाल के नाम से प्रसिद्ध थे। ये तीनों नेता सरकार की ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहते थे। उनके विचार थे कि अंग्रेज़ी सरकार प्यार की भाषा नहीं समझती। अतः केवल उग्रवादी कदम ही उसे झुकने के लिए विवश कर सकते हैं। इसके विपरीत गोखले आदि का विचार था कि अंग्रेजों के साथ संवैधानिक साधनों से ही निपटना चाहिए। कांग्रेस में यह आपसी भेद-भाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। ऐसा लगता था कि यह दो दल शीघ्र ही अलग-अलग हो जाएंगे।

सूरत की फूट-कांग्रेस ने अपने 1906 ई० के कलकत्ता (कोलकाता) अधिवेशन में ‘स्वराज्य’ की मांग की। दोनों दलों ने स्वराज्य शब्द की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की। तिलक स्वराज्य का अर्थ पूर्ण स्वतन्त्रता से लेते थे। उनके अनुसार आज़ादी को प्राप्त करने के लिए केवल संवैधानिक ढंग काम नहीं दे सकता। तिलक का मूलमन्त्र था-‘Militancy, not Mendicancy’ । इसके विपरीत गोखले के अनुसार स्वराज्य का अभिप्रायः ‘उत्तरदायी सरकार’ से था और वे इसे शान्तिपूर्ण तथा संवैधानिक साधनों से प्राप्त करना चाहते थे। आखिर 1907 में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में दोनों दलों में खूब झगड़ा हुआ। तिलक अपने विचारों पर दृढ़ रहे। इस तरह कांग्रेस में दो दल बन गए। तिलक तथा उनके साथियों को गर्म दल का नाम दिया और गोखले के अनुयायियों को नर्म दल कहा जाने लगा।

क्रान्तिकारी आन्दोलन-गर्म दल के समर्थकों में से ही बाद में कुछ क्रान्तिकारी बन गए। उन्होंने देश में आतंक का वातावरण उत्पन्न कर दिया। पूना के कलैक्टर तथा प्लेग कमिश्नर मि० रैण्ड का चापेकर बन्धुओं ने वध कर दिया। इसके अतिरिक्त बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर मि० कैनेडी पर खुदी राम बोस और उसके एक साथी ने बम फेंका किन्तु उसकी जगह उनकी पत्नी मारी गई। सरकार ने क्रान्तिकारियों को दबाने के लिए सख्ती से काम लिया। कई क्रान्तिकारी फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिए गए। खुदीराम बोस को भी फांसी दी गई। कुछ लोगों को काले पानी का दण्ड मिला। तिलक को 15 मास के लिए जेल में डाल दिया गया। लाला लाजपत राय तथा सरदार अजीत सिंह को देश से निर्वासित कर दिया गया। सरकार ने क्रान्तिकारियों का प्रभुत्व समाप्त करने के लिए नर्म दल वालों का समर्थन भी प्राप्त किया।

मुस्लिम लीग की स्थापना-मुस्लिम लीग की स्थापना ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को तीव्र किया। इस संस्था की स्थापना 1906 में हुई। मुस्लिम नेता कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था समझते थे। उनका विश्वास था कि मुसलमानों के हितों की रक्षा कांग्रेस नहीं बल्कि मुस्लिम लीग ही कर सकती है। अंग्रेज़ी सरकार ने भी मुस्लिम लीग को खूब प्रोत्साहन दिया क्योंकि वे इस संस्था की सहायता करके हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डाल सकते थे। मुस्लिम लीग के नेता कई बार वायसराय से मिले और उन्होंने मुसलमानों के हितों की रक्षा की मांग की। अंग्रेज़ी सरकार तो पहले ही उन्हें खुश करना चाहती थी। अतः 1909 ई० के सुधार कानून में उन्होंने मुसलमानों के लिए ‘पृथक् प्रतिनिधित्व’ की मांग को स्वीकार कर लिया।

मिण्टो-मार्ले सुधार-मिण्टो-मार्ले सुधार अथवा 1909 ई० के अधिनियम के अनुसार कार्यकारिणी तथा विधानमण्डलों के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। इसके अतिरिक्त मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया। पृथक् प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त ने दो राष्ट्रों के सिद्धान्त को जन्म दिया जिसके कारण आगे चलकर पाकिस्तान का निर्माण हुआ। 1909 के एक्ट के अनुसार अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव होने लगे। परन्तु इन सब सुधारों से भारतीय सन्तुष्ट न हुए। वे समझ गए कि अंग्रेज़ लोग हिन्दुओं तथा मुसलमानों में फूट डालना चाहते हैं। कांग्रेस के गर्म दल तथा नर्म दल दोनों ने सरकार का विरोध किया। सरकार ने नर्म दल वालों को प्रसन्न करने के लिए 1911 ई० में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया।

लखनऊ पैक्ट-लोकमान्य तिलक माण्डले जेल से छूट कर आ चुके थे। 1915 ई० में उन्होंने स्वराज्य की मांग को पुनः सरकार के सामने रखा। उन्होंने कहा, “स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर ही रहेंगे।” इधर नर्म दल के प्रमुख नेता मर चुके थे। अतः दोनों दलों के पुनः एक हो जाने की सम्भावनाएं बढ़ गईं। आखिर 1915 ई० में दोनों दल मिल गए। उसी समय यूरोप में युद्ध चल रहा था। टर्की पर आक्रमण करने के कारण मुसलमान भी अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए थे। अतः 1916 ई० के लखनऊ पैक्ट के अनुसार कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार का विरोध करने का निर्णय किया।

होमरूल आन्दोलन-लखनऊ पैक्ट के बाद कांग्रेस के दोनों दलों तथा मुस्लिम लीग ने मिलकर भारत के लिए ‘होमरूल’ की मांग की। लोकमान्य तिलक तथा श्रीमती ऐनी बेसेन्ट ने ‘होमरूल लीग’ की स्थापना की। सारे देश में लोगों ने सरकार के विरुद्ध सभाएं कीं और होमरूल को प्राप्त करने के लिए प्रतिज्ञा की। श्रीमती ऐनी बेसेन्ट को मद्रास सरकार ने बन्दी बना लिया जिससे सारे देश में हाहाकार मच गया। सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा। इसी बीच प्रथम महायुद्ध में सरकार को भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता पड़ी। अतः भारत सचिव माण्टेग्यू ने घोषणा की कि सरकार भारत में उत्तरदायी शासन स्थापित करने के लिए उचित पग उठाएगी। फलस्वरूप होमरूल आन्दोलन समाप्त हो गया। इस प्रकार 1885 में डाले गए बीज (कांग्रेस) ने 1919 तक एक महान् वृक्ष का रूप धारण कर लिया। कांग्रेस को शक्तिशाली रूप देने का श्रेय श्री गोपालकृष्ण गोखले, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय आदि अनेक नेताओं को प्राप्त है।

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प्रश्न 2.
महात्मा गांधी के योगदान के संदर्भ में 1919 से 1922 तक के स्वतन्त्रता आन्दोलन की मुख्य घटनाओं की चर्चा करें।
उत्तर-
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वास्तविक कहानी 1919 ई० से आरम्भ होती है। यही वह वर्ष था जब भारत की राजनीति में महात्मा गांधी ने प्रवेश किया। वे 1915 में दक्षिणी अफ्रीका से भारत वापस आए। तीन वर्ष तक उन्होंने इस देश के राजनीतिक वातावरण का अध्ययन किया। उन्होंने प्रथम महायुद्ध में अंग्रेज़ी सरकार को नैतिक समर्थन भी प्रदान किया। परन्तु 1919 में सारी स्थिति बदल गई। इस संकट के समय में महात्मा गांधी स्वतन्त्रता सेनानी बनकर हमारे सामने आए और उन्होंने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेज़ी साम्राज्य की जड़ें खोखली कर दीं। 1919 से 1922 तक महात्मा गांधी जी खूब सक्रिय रहे। इस समय की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं :-

रौलेट एक्ट तथा जलियांवाला बाग की दुर्घटना-प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर भारतीयों को प्रसन्न करने के लिए माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित की गई। भारतीयों ने युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। उन्हें विश्वास था कि युद्ध में विजयी होने के पश्चात् सरकार उन्हें पर्याप्त अधिकार देगी। परन्तु इस रिपोर्ट से भारतीय निराश हो गए। सरकार भी भयभीत हो गई कि अवश्य कोई नया आन्दोलन आरम्भ होने वाला है। अतः स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए सरकार ने रौलेट एक्ट पास कर दिया। इस एक्ट के अनुसार वह किसी भी व्यक्ति को बिना वकील, बिना दलील, बिना अपील बन्दी बना सकती थी। इस काले कानून का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी आगे बढ़े। उन्होंने जनता को शान्तिमय ढंग से इसका विरोध करने के लिए कहा। इस शान्तिमय विरोध को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया। स्थान-स्थान पर सभाएं बुलाई गईं और जलूस निकाले गए। कांग्रेस का आन्दोलन जनता. का आन्दोलन बन गया। पहली बार भारत की जनता ने संगठित होकर अंग्रेज़ों का विरोध किया। 6 अगस्त, 1919 ई० को सारे भारत में हड़ताल की गई। महात्मा गांधी ने लोगों को शान्तिमय विरोध करने के लिए कहा था। फिर भी कहीं-कहीं अप्रिय घटनाएं हुईं।

13 अप्रैल, 1919 ई० को जलियांवाला बाग की दुःखद घटना से भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। पंजाब के लोकप्रिय नेता डॉ० सत्यपाल तथा डॉ० किचलू को सरकार ने बन्दी बना लिया था। अमृतसर की जनता विरोध प्रकट करने के लिए बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में एकत्रित हुई। नगर में मार्शल-ला लगा हुआ था। जनरल डायर ने लोगों को चेतावनी दिए बिना ही एकत्रित लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया। हज़ारों निर्दोष स्त्री-पुरुष मारे गए। इससे सारे भारत में रोष की लहर दौड़ गई।

असहयोग आन्दोलन-इन्हीं दिनों मुसलमानों ने अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध खिलाफ़त आन्दोलन छेड़ा हुआ था। जनता पहले से ही भड़की हुई थी। गांधी जी ने इस अवसर का लाभ उठाया और असहयोग आन्दोलन आरम्भ कर दिया। इस प्रकार हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने मिल कर अंग्रेजी सरकार का विरोध किया। छात्रों ने सरकारी स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार कर दिया। वकीलों ने अदालतों में जाना बन्द कर दिया। कई लोगों ने अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों को त्याग दिया। लोगों ने अंग्रेज़ी कपड़े का बहिष्कार किया तथा हाथ का बुना कपड़ा पहनना आरम्भ कर दिया। गांधी जी इस आन्दोलन को शान्तिमय ढंग से चलाना चाहते थे, परन्तु 1922 में उत्तर प्रदेश के एक गांव चौरी-चौरा में एक पुलिस चौकी को सिपाहियों सहित जला दिया गया। गांधी जी को इस घटना से बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने असहयोग आन्दोलन की समाप्ति की घोषणा कर दी। उनके इस कार्य से अनेक नेता गांधी जी से रुष्ट हो गए तथा उन्होंने ‘स्वराज्य पार्टी’ नामक एक नये दल की स्थापना की। अंग्रेज़ सरकार ने गांधी जी को बन्दी बना लिया और छः वर्ष के कारावास का दण्ड दिया।
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महात्मा गांधी महात्मा गांधी जी ने कुछ देर शांत रहने के बाद 1927 में एक बार फिर भारतीय राजनीति को गरिमा प्रदान की।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

1. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
1857 की क्रांति में किस महिला शासक ने महत्त्वपूर्ण भाग लिया?
उत्तर-
रानी लक्ष्मी बाई ने।

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प्रश्न 2.
कांग्रेस की स्थापना किसने की?
उत्तर-
कांग्रेस की स्थापना मिस्टर ए० ओ० ह्यूम ने की।

प्रश्न 3.
गरम दल के प्रतिष्ठाता कौन थे?
उत्तर-
बाल गंगाधर तिलक।

प्रश्न 4.
गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित करने का निश्चय क्यों किया?
उत्तर-
चौरी-चौरा की हिंसात्मक घटना के कारण।

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प्रश्न 5.
आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना सुभाषचन्द्र बोस ने की।

प्रश्न 6.
1947 ई० क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
इस वर्ष (15 अगस्त, 1947 को) भारत को स्वतन्त्रता मिली थी।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) जलियांवाला बाग में अंग्रेज़ कमाण्डर ……………. ने गोली चलाई थी।
(ii) साईमन कमीशन …………………. में भारत आया।
(iii) सिविल अवज्ञा आन्दोलन …………… ई० में चला।
(iv) पूर्ण स्वराज्य की घोषणा 1929 ई० में कांग्रेस के ………. अधिवेशन में हुई।
(v) गांधी-इर्विन समझौता ………………. ई० में हुआ।
उत्तर-
(i) जनरल डायर
(ii) 1928
(iii) 1929
(iv) लाहौर
(v) 1931.

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3. सही/ग़लत कथन

(i) सन् 1905 ई० में बंगाल का विभाजन हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने के लिए किया गया। — (√)
(ii) स्वदेशी आन्दोलन की शुरुआत गांधी जी ने सन् 1905 ई० में की। — (×)
(iii) सन् 1909 ई० के एक्ट से भारतीयों की आशाएं पूरी नहीं हुई। — (√)
(iv) मुस्लिम लीग की स्थापना सन् 1906 ई० में हुई। — (√)
(v) होम रूल लीगों की स्थापना प्रथम महायुद्ध के दौरान हुई। — (√)
(vi) पहली बार सन् 1910 ई० में कांग्रेस ने स्वराज्य को अपना लक्ष्य बनाया। — (×)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य लखनऊ समझौता कब हुआ?
(A) 1916 ई० में
(B) 1906 ई० में
(C) 1917 ई० में
(D) 1915 ई० में।
उत्तर-
(A) 1916 ई० में

प्रश्न (ii)
गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन कब चलाया ?
(A) 1921 ई० में
(B) 1927 ई० में
(C) 1920 ई० में
(D) 1922 ई० में।
उत्तर-
(C) 1920 ई० में

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प्रश्न (iii)
अंग्रेजों ने दिल्ली को भारत की राजधानी कब बनाया?
(A) 1911 ई० में
(B) 1907 ई० में
(C) 1890 ई० में
(D) 1892 ई० में।
उत्तर-
(A) 1911 ई० में

प्रश्न (iv)
कानपुर में 1857 ई० के विद्रोह का नेतृत्व किया-
(A) कुंवर सिंह
(B) नाना साहिब
(C) बेग़म हज़रत महल
(D) बहादुर शाह।
उत्तर-
(B) नाना साहिब

प्रश्न (v)
बाल गंगाधर तिलक ने कौन-सा पत्र निकाला?
(A) पंजाब केसरी
(B) केसरी
(C) हिन्दू
(D) नवभारत।
उत्तर-
(B) केसरी

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष के इतिहास के स्रोतों के चार प्रकारों के नाम बताएं।
उत्तर-
भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष के इतिहास की जानकारी के चार प्रकार के स्रोत हैं : अंग्रेज़ अधिकारियों की रिपोर्ट, लैजिस्लेटिव असैम्बली बहस के रिकार्ड, ब्रिटिश संसद् के रिकार्ड तथा भारतीय समाचार-पत्र।

प्रश्न 2.
बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी ने कौन-से अखबार निकाले ?
उत्तर-
बाल गंगाधर तिलक ने केसरी तथा मराठा अखबार निकाले। महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ नामक अखबार निकाली।

प्रश्न 3.
सरदार दयाल सिंह मजीठिया तथा लाला लाजपत राय ने कौन-से अखबार निकाले ?
उत्तर-
सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने ‘ट्रिब्यून’ तथा लाला लाजपत राय ने ‘पंजाबी’ नामक अखबार निकाले।

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प्रश्न 4.
भारतीयों के आरम्भिक राजनीतिक संगठनों में सबसे महत्त्वपूर्ण कौन-सा संगठन था तथा इसको किसने, कब और कहां स्थापित किया ?
उत्तर-
भारतीयों के आरम्भिक राजनीतिक संगठनों में सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन ‘इण्डियन एसोसिएशन’ था। इसे 1876 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने कलकत्ता (कोलकाता) में स्थापित किया।

प्रश्न 5.
इण्डियन एसोसिएशन की दो मांगें कौन-सी थीं ?
उत्तर-
इण्डियन एसोसिएशन की दो मांगें थीं : इण्डियन सिविल सर्विस के नियमों को बदलना और प्रेस को स्वतन्त्रता देना।

प्रश्न 6.
इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना कब हुई तथा इसमें किस अंग्रेज अफसर का काफी हाथ था ?
उत्तर-
इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई। कांग्रेस की स्थापना में अंग्रेज़ अफसर ह्यूम का काफी हाथ था।

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प्रश्न 7.
कांग्रेस का पहला अधिवेशन कहां और किसके सभापतित्व में हुआ तथा इसमें कितने प्रतिनिधियों ने भाग लिया ?
उत्तर-
कांग्रेस का पहला अधिवेशन बम्बई (मुम्बई) में वोमेशचन्द्र बैनर्जी के सभापतित्व में हुआ। इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

प्रश्न 8.
कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन किसके सभापतित्व में तथा कहां हुआ तथा इसमें कितने प्रतिनिधियों ने भाग लिया?
उत्तर-
कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन दादा भाई नौरोजी के सभापतित्व में कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। इसमें 400 से भी अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

प्रश्न 9.
आरम्भ में कांग्रेस के सदस्य अधिकतर कौन-से चार व्यवसायों से सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
आरम्भ में कांग्रेसी सदस्य मुख्यतया कारखानेदार, व्यापारी, मध्यवर्गीय शिक्षित, डॉक्टर और वकील थे।

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प्रश्न 10.
1905 तक कांग्रेस के तीन पुराने नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
1905 तक कांग्रेस के तीन पुराने नेता सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोज़शाह मेहता थे।

प्रश्न 11.
1905 तक कांग्रेस के तीन नये नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
1905 तक कांग्रेस के तीन नये नेता बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपत राय थे।

प्रश्न 12.
रूस को किस एशियाई देश ने तथा कब हराया था ?
उत्तर-
रूस को एशिया के देश जापान ने 1905 ई० में हराया था।

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प्रश्न 13.
बंगाल का विभाजन कब तथा किस वायसराय के समय हुआ तथा इस समय बंगाल प्रान्त में कौन-से तीन प्रदेश शामिल थे ?
उत्तर-
बंगाल का विभाजन 1905 में वायसराय लॉर्ड कर्जन के समय हुआ। इस समय बंगाल प्रान्त में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के प्रदेश शामिल थे।

प्रश्न 14.
बंगाल के विभाजन के सिलसिले में कौन-सा आन्दोलन चलाया गया तथा इसमें किन वस्तुओं के बहिष्कार पर बल दिया गया ?
उत्तर-
बंगाल के विभाजन के सिलसिले में स्वदेशी आन्दोलन चलाया गया। इसमें इंग्लैण्ड में निर्मित कपड़े और चीनी के बहिष्कार पर बल दिया गया।

प्रश्न 15.
1906 में कांग्रेस अधिवेशन कहां हुआ तथा इसमें पास होने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव कौन-सा था ?
उत्तर-
1906 में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। इसमें ‘स्वदेशी और बायकॉट’ का अति महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पास हुआ।

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प्रश्न 16.
1907 में कांग्रेस का अधिवेशन कहां हुआ तथा इसमें कांग्रेस किन दो दलों में बंट गई ?
उत्तर-
1907 में कांग्रेस का अधिवेशन सूरत में हुआ। इसमें कांग्रेस नर्म दल और गर्म दल नामक दो दलों में बंट गई।

प्रश्न 17.
बंगाल तथा महाराष्ट्र में कौन-कौन-से तीन आतंकवादी संगठन स्थापित किए गए ?
उत्तर-
बंगाल में अनुशीलन समितियां तथा युगान्तर ग्रुप और महाराष्ट्र में अभिनव भारत नामक आतंकवादी संगठन स्थापित किए गए।

प्रश्न 18.
आतंकवादी संगठनों पर किन तीन व्यक्तियों की विचारधारा का प्रभाव था ?
उत्तर-
आतंकवादी संगठनों पर बंकिम चन्द्र चैटर्जी, अरविंद घोष और वी० डी० सावरकर की विचारधारा का प्रभाव था।

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प्रश्न 19.
बीसवीं सदी के पहले दशक के तीन क्रान्तिकारी आतंकवादियों के नाम बताएं।
उत्तर-
बीसवीं सदी के पहले दशक के तीन क्रान्तिकारी आतंकवादी थे : खुदी राम बोस, प्रफुल्ल चाकी और मदन लाल ढींगरा।

प्रश्न 20.
मदन लाल ढींगरा कहां का रहने वाला था तथा इसने कब और कहां किस अंग्रेज़ अफसर को गोली मारी थी ?
उत्तर-
मदन लाल ढींगरा अमृतसर जिले का रहने वाला था। उसने 1909 में लंदन में कर्जन वायली नामक अंग्रेज़ अफसर को गोली मारी थी।

प्रश्न 21.
1907 में पंजाब में 1857 की पचासवीं वर्षगांठ पर विद्रोह करने का प्रचार किसने किया तथा इनको क्या सज़ा मिली थी ?
उत्तर-
1907 में पंजाब में 1857 की पचासवीं वर्षगांठ पर अजीत सिंह ने सरकार के खिलाफ विद्रोह का प्रचार किया। इन्हें देश निकाला की सज़ा मिली थी।

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प्रश्न 22.
मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई तथा उसका उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में हुई। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग करके मुसलमानों के लाभ के लिए काम करना था।

प्रश्न 23.
पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग किस राजनीतिक दल ने किस गवर्नर-जनरल के समय में की तथा 1947 तक इसका सबसे महत्त्वपूर्ण नेता कौन था ?
उत्तर-
पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग मुस्लिम लीग ने गवर्नर-जनरल मिण्टो के समय में की। 1947 तक इस दल का सबसे महत्त्वपूर्ण नेता मुहम्मद अली जिन्नाह था।

प्रश्न 24.
कौन-से दो मुस्लिम संगठन अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध रहे ?
उत्तर-
अहरार तथा देवबंदी उलेमा के संगठन सरकार के विरुद्ध रहे।

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प्रश्न 25.
चार मुस्लिम नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
चार मुस्लिम नेताओं के नाम हैं-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हकीम अजमल खां, डॉ० अंसारी और शौकत अली।

प्रश्न 26.
पंजाब के दो राष्ट्रवादी मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
पंजाब के दो राष्ट्रवादी मुस्लिम कांग्रेसी नेता डॉ० सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ० मुहम्मद आलम थे।

प्रश्न 27.
1909 के एक्ट को किस नाम से जाना जाता है तथा इसमें मुसलमानों की कौन-सी मांग शामिल कर ली गई थी ?
उत्तर-
1909 के एक्ट को मिन्टो मार्ले सुधार के नाम से जाना जाता है। इसमें मुसलमानों की पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग शामिल कर ली गई थी।

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प्रश्न 28.
1909 के एक्ट में लैजिस्लेटिव कौंसिल में कितने सदस्य बना दिए गए तथा इसमें कितने निर्वाचित सदस्य थे ?
उत्तर-
1909 के एक्ट में लैजिस्लेटिव कौंसिल में 60 सदस्य बना दिए गए। इनमें से 27 निर्वाचित सदस्य थे।

प्रश्न 29.
हिन्दुस्तान गदर पार्टी की स्थापना कब हुई तथा इसके अखबार और संस्थापक का नाम क्या था ?
उत्तर-
‘हिन्दुस्तान गदर पार्टी’ की स्थापना 1913 में हुई। इसके अखबार का नाम ‘गदर’ और संस्थापक का नाम लाला हरदयाल था।

प्रश्न 30.
गदर पार्टी की शाखाएं भारत से बाहर कौन-से चार देशों अथवा क्षेत्रों में थीं ?
उत्तर-
गदर पार्टी की शाखाएं भारत से बाहर कनाडा, अमेरिका, यूरोप तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों में थीं।

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प्रश्न 31.
गदर पार्टी के चार कार्यकर्ताओं तथा नेताओं के नाम बताओ।
उत्तर-
गदर पार्टी के चार कार्यकर्ता तथा नेता सोहन सिंह भकना, मुहम्मद बरकत उल्ला, करतार सिंह सराभा तथा भाई परमानन्द थे।

प्रश्न 32.
होमरूल आन्दोलन किस लिए चलाया गया तथा इसके दो नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
होमरूल आन्दोलन स्वराज्य की मांग के लिए चलाया गया। इसके दो मुख्य नेता श्रीमती एनी बेसेन्ट तथा बाल गंगाधर तिलक थे।

प्रश्न 33.
कांग्रेस में नर्म दल तथा गर्म दल किसके यत्नों से तथा कब फिर से इकट्ठे हो गए ?
उत्तर-
नर्म दल तथा गर्म दल श्रीमती एनी बेसेन्ट के यत्नों से 1915 में फिर से इकट्ठे हो गए।

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प्रश्न 34.
‘लखनऊ पैक्ट’ कब और किन दो राजनीतिक दलों के बीच में हुआ ?
उत्तर-
लखनऊ पैक्ट’ 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच में हुआ।

प्रश्न 35.
कांग्रेस ने धर्म के आधार पर पृथक् प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त कब और किस समझौते के द्वारा स्वीकार कर लिया ?
उत्तर-
कांग्रेस ने धर्म के आधार पर पृथक् प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त 1916 में लखनऊ समझौते के अनुसार स्वीकार किया।

प्रश्न 36.
रौलेट एक्ट कब कानून बना तथा इसको इस नाम से क्यों जाना जाता है ?
उत्तर-
रौलेट एक्ट 1919 में कानून बना। यह एक्ट जस्टिस रौलेट के सुझाव पर बना होने के कारण रौलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है।

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प्रश्न 37.
मोती लाल नेहरू ने रौलेट एक्ट की व्याख्या किन शब्दों में की ?
उत्तर-
मोती लाल नेहरू ने रौलेट एक्ट की व्याख्या इन शब्दों में की-‘न वकीर दलील, न अपील’।

प्रश्न 38.
महात्मा गांधी किस देश से तथा कब भारत लौटे तथा विदेश में उन्होंने किस नीति के विरुद्ध सत्याग्रह किया था ?
उत्तर-
महात्मा गांधी 1915 में अफ्रीका से लौटे। विदेश (अफ्रीका) में उन्होंने रंगभेद की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह किया था।

प्रश्न 39.
महात्मा गांधी ने भारत वापस आ कर किस इलाके के कौन-से किसानों की सहायता की ?
उत्तर-
महात्मा गांधी ने भारत वापस आ कर, बिहार में चम्पारन के इलाके में नील की खेती करने वाले किसानों की सहायता की।

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प्रश्न 40.
जलियांवाला बाग कांड कब और कहां हुआ तथा इसके लिए उत्तरदायी अंग्रेज़ अफसर का नाम बताएं।
उत्तर-
जलियांवाला बाग का कांड 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में हुआ। इसके लिए जनरल डायर उत्तरदायी था।

प्रश्न 41.
जलियांवाला बाग में कितने लोग मारे गए तथा कितने घायल हुए ?
उत्तर-
जलियांवाला बाग में 500 से अधिक लोग मारे गए और 1500 से अधिक लोग घायल हुए।

प्रश्न 42.
‘मांटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार’ का विधान कब पास हुआ तथा कब लागू किया गया ?
उत्तर-
मांटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार 1918-19 में पास हुआ तथा मार्च, 1920 में लागू किया गया।

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प्रश्न 43.
1919 के विधान में केन्द्र के पास कौन-से विभाग थे ?
उत्तर-
1919 के विधान में केन्द्र के पास सेना, विदेशी मामले, संचार के साधन, व्यापार तथा चुंगी के विभाग थे।

प्रश्न 44.
1919 के विधान के अनुसार प्रान्तीय प्रशासन को किन दो भागों में बांटा गया ?
उत्तर-
इस विधान के अनुसार प्रान्तीय प्रशासन को इन दो भागों में बांटा गया :

  1. गवर्नर एवं उसकी परिषद् और
  2. निर्वाचित मंत्री।

प्रश्न 45.
1919 के विधान में प्रान्तीय गवर्नर के पास कौन-से विभाग थे ?
उत्तर-
1919 के विधान में प्रान्तीय गवर्नर के पास लगान, कानून, न्याय, पुलिस, सिंचाई और मजदूरों के मामलों से सम्बन्धित विभाग थे।

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प्रश्न 46.
1919 के विधान में निर्वाचित मन्त्रियों के पास कौन-से विभाग थे ?
उत्तर-
1919 के विधान के अनुसार निर्वाचित मन्त्रियों के पास नगरपालिकाएं, ज़िला बोर्ड, शिक्षा, पब्लिक हैल्थ, पब्लिक वर्क्स, कृषि तथा सहकारी संस्थाओं के विभाग थे।

प्रश्न 47.
‘डायारकी’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
‘डायारकी’ से अभिप्राय उस दोहरे शासन से है जो मांटेग्यू चैम्सफोर्ड विधान के अन्तर्गत प्रान्तों में स्थापित किया गया। इसके अनुसार शासन के दो भाग कर दिए गए जिनमें से एक भाग पर गवर्नर और उसकी परिषद् का अधिकार रहा, जबकि दूसरा भाग निर्वाचित मन्त्रियों को सौंप दिया गया।

प्रश्न 48.
1919 मे किन चार प्रदेशों को ‘प्रान्तों’ का दर्जा दे दिया गया ?
उत्तर-
1919 में यू० पी०, पंजाब, बिहार और उड़ीसा को प्रान्त का दर्जा दिया गया।

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प्रश्न 49.
1919 के विधान अनुसार आम मतदाताओं के प्रतिनिधि किस आधार पर चुने जाते थे ?
उत्तर-
इस विधान के अनुसार आम मतदाताओं के प्रतिनिधि साम्प्रदायिक विभाजन के आधार पर चुने जाते थे।

प्रश्न 50.
भारतीय नेताओं की 1919 के विधान पर कौन-सी दो मुख्य आपत्तियाँ थीं ?
उत्तर-
भारतीय नेताओं की दो मुख्य आपत्तियां थीं-धर्म के आधार पर पृथक् प्रतिनिधित्व दिया जाना और इसका ‘स्वराज्य’ के अधिकार से दूर होना।

प्रश्न 51.
खिलाफत आन्दोलन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
खिलाफत आन्दोलन से अभिप्राय उस आन्दोलन से है जो भारतीय मुसलमानों ने अपने खलीफा अर्थात् तुर्की के सुल्तान के पक्ष में अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध चलाया।

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प्रश्न 52.
खिलाफत आन्दोलन के चार नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
खिलाफत आन्दोलन के चार नेता मुहम्मद अली, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तथा हकीम अजमल खां थे।

प्रश्न 53.
खिलाफत कमेटी ने असहयोग आन्दोलन शुरू करने की घोषणा कब की तथा इसमें सबसे पहले कौन शामिल हुए ?
उत्तर-
खिलाफत कमेटी ने असहयोग आन्दोलन शुरू करने की घोषणा 31 अगस्त, 1920 को की। महात्मा गांधी इसमें सबसे पहले शामिल हुए।

प्रश्न 54.
असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम में किन चीज़ों का बहिष्कार शामिल था ?
उत्तर-
असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम में छुआछूत तथा शराब का बहिष्कार शामिल था।

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प्रश्न 55.
असहयोग आन्दोलन के रचनात्मक पक्ष कौन-से थे ?
उत्तर-
असहयोग आन्दोलन के रचनात्मक पक्ष थे-पंचायतों, राष्ट्रीय स्कूलों तथा कॉलेजों की स्थापना करना और स्वदेशी वस्तुओं (विशेषकर खादी) का प्रचार करना।

प्रश्न 56.
असहयोग आन्दोलन किस पर आधारित था तथा इसके कौन-से दो प्रतीक बन गए ?
उत्तर-
यह आन्दोलन पूर्ण रूप से अहिंसा पर आधारित था। चर्खा तथा खद्दर इस आन्दोलन के प्रतीक बन गए।

प्रश्न 57.
असहयोग आन्दोलन के अन्तर्गत वकालत छोड़ने वाले तीन व्यक्तियों के नाम बताएं।
उत्तर-
असहयोग आन्दोलन के अन्तर्गत वकालत छोड़ने वालों में पंडित मोती लाल नेहरू, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद तथा लाला लाजपत राय शामिल थे।

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प्रश्न 58.
असहयोग आन्दोलन द्वारा पहली बार समाज के कौन-से दो हिस्से राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हुए ?
उत्तर-
असहयोग आन्दोलन द्वारा पहली बार समाज के साधारण लोग तथा स्त्रियां राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हुईं।

प्रश्न 59.
असहयोग आन्दोलन कब वापिस लिया गया तथा इसका क्या कारण था ?
उत्तर-
असहयोग आन्दोलन 1922 में वापस लिया गया। इसका कारण था-उत्तर प्रदेश में चौरी-चौरा के स्थान पर हुई हिंसात्मक घटना।

प्रश्न 60.
भारत से बाहर कब व किस घटना के बाद खिलाफत प्रश्न समाप्त हो गया ?
उत्तर-
भारत से बाहर 1929 में खिलाफत प्रश्न समाप्त हुआ। यह प्रश्न तुर्की के सुल्तान के बहाल होने के बाद समाप्त हुआ।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 की क्रान्ति के सामाजिक कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का मुख्य कारण सामाजिक असन्तोष था। निम्नलिखित चार बातों से यह तथ्य प्रमाणित हो जाता है:
1. अंग्रेज़ भारत में सती-प्रथा को समाप्त करना तथा कुछ अन्य सामाजिक परिवर्तन लाना चाहते थे। भारतीयों ने इन सभी परिवर्तनों को हिन्दू धर्म के विरुद्ध समझा और वे अंग्रेजों के घोर विरोधी हो गये।

2. अंग्रेज़ शिक्षा संस्थाओं में ईसाई धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे जिसके कारण भी भारतीय अंग्रेजों से नाराज़ थे।

3. ईसाई पादरी भारतीय रीति-रिवाजों की कड़ी निन्दा करते थे। भारतीय इसे सहन न कर सके और वे अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिये तैयार हो गये।

4. रेलों के आरम्भ होने से लोगों को विश्वास हो गया कि वे शीघ्रता से भारतीयों को अपने प्रभाव में लेना चाहते थे। इस असन्तोष के कारण भारतीय जनता ने अपने राजाओं को सहयोग दिया और वे क्रान्ति के लिये तैयार हो गये।

प्रश्न 2.
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के धार्मिक कारणों का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के धार्मिक कारण निम्नलिखित थे :
1. धर्म परिवर्तन-ईसाई पादरी भारतीयों को लालच देकर उन्हें ईसाई बना रहे थे। इस कारण भारतवासी अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गये।

2. विलियम बैंटिंक के सुधार-विलियम बैंटिंक ने अनेक समाज सुधार किये थे। कुछ हिन्दुओं ने इन सुधारों को अपने धर्म में हस्तक्षेप समझा।

3. अंग्रेज़ी शिक्षा-अंग्रेज़ी शिक्षा के प्रसार के कारण भी भारतवासियों में असन्तोष फैल गया।

4. हिन्दू ग्रन्थों की निन्दा-ईसाई प्रचारक अपने धर्म का प्रचार करने के साथ-साथ हिन्दू धर्म के ग्रन्थों की घोर निन्दा करते थे। इस बात से भी भारतवासी भड़क उठे।

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प्रश्न 3.
सन् 1857 की क्रान्ति के लिए भारतीयों का आर्थिक शोषण कहाँ तक उत्तरदायी था ?
अथवा
स्वतन्त्रता संग्राम के आर्थिक कारण कौन-कौन से थे ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता संग्राम के आर्थिक कारण निम्नलिखित थे :
1. औद्योगिक क्रान्ति के कारण इंग्लैण्ड का बना मशीनी माल सस्ता हो गया। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी माल अधिक बिकने लगा और भारतीय उद्योग लगभग ठप्प हो गये।

2. भारतीय माल को इंग्लैण्ड पहुँचने पर भारी शुल्क देना पड़ता था। इस तरह भारतीय माल काफी महंगा पड़ता था। परिणामस्वरूप भारतीय माल की विदेशों में मांग घटने लगी और भारतीय व्यापार लगभग ठप्प हो गया।

3. अंग्रेजों के शासनकाल में कृषि और कृषक् की दशा भी खराब हो गई थी। ज़मींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया था। वे एक निश्चित कर सरकारी खज़ाने में जमा कराते थे और किसानों से मनचाहा कर वसूल करते थे। किसान इन अत्याचारों से मुक्ति पाना चाहते थे।

4. भारतीय जनता पर भारी कर लगा दिये गये थे। तंग आकर उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाया।

प्रश्न 4.
सन् 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण क्या था ?
उत्तर-
1857 की क्रान्ति का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूस थे। 1856 ई० में सरकार ने सैनिकों से पुरानी बन्दूकें वापस लेकर उन्हें ‘एन्फील्ड राइफलें’ दीं। इन राइफलों में गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग होता था और कारतूसों को राइफलों में भरने के लिए इन्हें मुंह से छीलना पड़ता था। कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी की बात सुनकर भारतीय सैनिक भड़क उठे और इन कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार करने लगे। यही क्रान्ति का तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ। कारतूसों के प्रयोग से इंकार करते हुए, बंगाल की छावनी बैरकपुर में मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने क्रान्ति का झंडा फहराया और दो बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों को गोली से उड़ा दिया। उसे फांसी दे दी गई। इस घटना के कुछ दिन बाद मेरठ में क्रान्ति की आग भड़क उठी।

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प्रश्न 5.
प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम क्यों असफल रहा ?
उत्तर-
प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम (1857 ई०) अनेक बातों के कारण असफल रहा : –
1. संग्राम 31 मई को आरम्भ किया जाना था। परन्तु मेरठ के सैनिकों ने इसे समय से पहले ही आरम्भ कर दिया। . फलस्वरूप भारतीयों में एकता न रह सकी।

2. सभी क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं लड़े।

3. अंग्रेजों के अत्याचार के भय से साधारण जनता ने क्रान्ति में भाग लेना छोड़ दिया।

4. क्रान्तिकारी प्रशिक्षित सैनिक नहीं थे। उनके पास अच्छे शस्त्रों का भी अभाव था।

5. यह संग्राम केवल उत्तरी भारत में ही फैला। दक्षिण के लोगों ने इसमें कोई भाग न लिया। अतः एकता के अभाव में यह संग्राम असफल रहा।

प्रश्न 6.
भारत में राष्ट्रीयता के उदय के चार कारण बताएं।
उत्तर-
भारत में राष्ट्रीयता के उदय के निम्नलिखित कारण थे :
1. अंग्रेज़ भारत से अधिक-से-अधिक धन कमाना चाहते थे। अत: उन्होंने भारत का खूब आर्थिक शोषण किया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय उद्योग ठप्प पड़ गये। देश में बेरोज़गारी बढ़ने लगी और लोगों में असन्तोष फैल गया।

2. देश में डाक-तार व्यवस्था आरम्भ होने से लोगों में आपसी मेल-जोल बढ़ने लगा। इससे लोगों में एकता आई जो राष्ट्रीयता के उदय में सहायक सिद्ध हुई।

3. अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीय एक-दूसरे के निकट आ गए। पश्चिमी साहित्य के अध्ययन के कारण उनमें राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हो गई।

4. भारतीय समाचार-पत्रों ने भी लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया।

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प्रश्न 7.
1857 ई० के विद्रोह के राजनीतिक कारणों का वर्णन करें।
उत्तर-
1857 के विद्रोह के मुख्य राजनीतिक कारण निम्नलिखित थे :-

  • लॉर्ड वैलेज़ली की सहायक सन्धि और डल्हौज़ी की लैप्स की नीति से भारतीय शासकों में असन्तोष फैला हुआ था।
  • नाना साहब की पेन्शन बन्द कर दी गई थी। इसलिए वह अंग्रेजों के विरुद्ध था।
  • अवध, सतारा तथा नागपुर की रियासतें अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला ली गई थीं। इसलिए वहां के शासक अंग्रेजों के शत्रु बन गए।
  • ज़मींदार तथा सरदार भी अंग्रेजों के विरुद्ध थे क्योंकि उनकी भूमि छीन ली गई थी।
  • अंग्रेजों ने मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह का निरादर किया। उन्होंने उसके राजमहल तथा उसकी पदवी छीनने की योजना बनाई। इससे जनता भड़क उठी।
  • ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाए गए देशी राज्यों के बहुत-से सैनिक तथा कर्मचारी बेरोज़गार हो गए। अत: उनमें असन्तोष व्याप्त था।

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह की मुख्य घटनाओं का वर्णन करो।
उत्तर-
1857 के विद्रोह की मुख्य घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है-
1. 1857 के विद्रोह का आरम्भ बैरकपुर (बंगाल) से 29 मार्च को हुआ। वहां भारतीय सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया।

2. 9 मई, 1857 ई० को मेरठ में विद्रोह हो गया और सैनिकों को बन्दी बना लिया गया। परन्तु अगले ही दिन क्रान्तिकारी उन्हें रिहा करा कर दिल्ली की ओर चल पड़े।

3. 12 मई, 1857 को क्रान्तिकारियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह को भारत सम्राट घोषित कर दिया।

4. कानपुर में नाना साहिब ने अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया। परन्तु वह अंग्रेजों द्वारा पराजित हुआ। तात्या टोपे ने वहाँ पुनः अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु वह सफल न हो सका।

5. जून 1857 में लखनऊ, बनारस तथा इलाहाबाद में विद्रोह हुआ।

6. झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने क्रान्ति का नेतृत्व किया। तात्या टोपे भी उसके साथ आ मिला। परन्तु वह लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुई।
इस प्रकार क्रान्ति की ज्वाला शान्त हो गयी और प्रत्येक स्थान पर फिर से अंग्रेज़ी झण्डा फहराने लगा।

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प्रश्न 9.
1857 ई० के विद्रोह के क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
1857 के विद्रोह के मुख्य प्रभाव निम्नलिखित थे-
1. कम्पनी के शासन का अन्त-1857 ई० के विद्रोह के परिणामस्वरूप भारत में कम्पनी का शासन समाप्त हो गया। भारत का शासन अब सीधा इंग्लैण्ड की सरकार के अधीन हो गया।

2. देशी राज्यों के प्रति नई नीति-1857 ई० के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने देशी रियासतों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की नीति छोड़ दी और उन्हें पुत्र गोद लेने का अधिकार भी दे दिया।

3. सेना में यूरोपियन सैनिकों की वृद्धि-सेना में भारतीयों की संख्या घटा दी गई और युरोपियन सैनिकों की संख्या बढा दी गई। तोपखाना, गोला-बारूद आदि सारी युद्ध-सामग्री यूरोपियनों के हाथों में सौंप दी गई।

4. भारतीय सेना का पुनर्गठन-विद्रोह के पश्चात् भारतीय सेना का पुनर्गठन किया गया। अब सभी जातियों तथा धर्मों के सैनिकों को अलग-अलग रखा जाने लगा। इस प्रकार राष्ट्रीयता की भावना को पनपने से रोका गया।

प्रश्न 10.
1857 ई० की क्रान्ति के स्वरूप का वर्णन करो।
अथवा
क्या 1857 ई० की क्रान्ति एक सैनिक विद्रोह था या प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम ?
उत्तर-
1857 ई० का विद्रोह कोरा सैनिक विद्रोह नहीं था। यह निश्चित रूप से ही भारतीयों द्वारा स्वतन्त्रता के लिए लड़ा गया प्रथम संग्राम था। इन तथ्यों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी-
1. 1857 की क्रान्ति में जनता ने भाग लिया, चाहे इन लोगों की संख्या कम ही थी।

2. जनता तथा शासक अंग्रेजों के विरुद्ध थे और वे उनसे छुटकारा पाना चाहते थे।

3. सैनिकों ने विद्रोह अवश्य किया, परन्तु उनका निशाना भी रियायतें लेना नहीं, बल्कि अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकालना था।

4. देश के कुछ भागों में क्रान्ति नहीं हुई। वे शान्त रहे। उनके शान्त रहने का अर्थ यह नहीं लिया जा सकता कि उन्हें आजादी पसन्द नहीं थी। वे किसी बात के कारण खामोश अवश्य थे, परन्तु अंग्रेजी शासन उन्हें भी पसन्द नहीं था।

5. इसमें हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने मिल कर संघर्ष किया। अतः स्पष्ट है कि लोग अंग्रेजी सत्ता से तंग थे और उन्होंने इस सत्ता को भारत में समाप्त करने के लिए शस्त्र उठाए। ऐसा महान् कार्य स्वतन्त्रता संग्राम के लिए ही हो सकता है। अतः यह सैनिक विद्रोह नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय आन्दोलन था।

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प्रश्न 11.
पहले दो दशकों में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की मांगें क्या थी ?
उत्तर-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1885 में स्थापित की गई। 1905 ई० तक यह संस्था उदार विचारों से प्रभावित रही। अतः इसकी मांगें भी साधारण ही थीं। इसकी ये मांगें थीं-

  • विधान परिषदों के अधिकार बढ़ाये जाएं।
  • इनमें चुने हुए सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए।
  • प्रशासन में भारतीयों को उच्च पद दिए जाएं।
  • सेना तथा प्रशासन का खर्च कम किया जाए।
  • बोलने और लिखने की स्वतन्त्रता से प्रतिबन्ध हटाया जाए।
  • शिक्षा तथा लोक भलाई के कार्यक्रमों का विस्तार किया जाए। कांग्रेस के नेता यह समझते थे कि उनकी मांगें उचित भी हैं और बहुत बड़ी भी नहीं हैं। इसलिए उनका विचार था कि सरकार इन्हें आसानी से मान लेगी। परन्तु सरकार ने उनकी मांगों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इसीलिए बाद में अनुदार विचारों के नेताओं का कांग्रेस पर प्रभुत्व बढ़ गया।

प्रश्न 12.
सरकार के प्रति कांग्रेस के रवैये में परिवर्तन किन कारणों से हुआ ?
उत्तर-
कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई। सरकार ने इस संस्था का स्वागत किया। परन्तु आरम्भ में सरकार का रुख दिखावे के लिए मैत्रीपूर्ण था। शीघ्र ही सरकार ने कांग्रेस के कार्यक्रमों का खुले रूप में विरोध करना आरम्भ कर दिया। सरकारी कर्मचारियों को अधिवेशनों में भाग लेने से रोक दिया गया। उच्च वर्ग के मुसलमानों को भी सुझाव देना आरम्भ कर दिया कि वे कांग्रेस के साथ सम्बन्ध न रखें। सरकार का तर्क यह था कि कांग्रेस लोगों की प्रतिनिधि संस्था नहीं थी। दूसरे, सरकार को विश्वास था कि कांग्रेस सरकार की नीतियों का समर्थन करेगी। परन्तु कांग्रेस के नर्म विचार भी सरकार को अखरने लगे। हर वर्ष कांग्रेस के द्वारा पास प्रस्ताव सरकार के पास पहुंचते। सरकार इन्हें पूरा करने में असमर्थ होती। अतः धीरे-धीरे सरकार का रवैया कांग्रेस के विरुद्ध हो गया।

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प्रश्न 13.
स्वतन्त्रता आन्दोलन पर बंगाल के विभाजन का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता आन्दोलन को उदार रूप से उग्र रूप देने में सबसे अधिक योगदान बंगाल के विभाजन का था। जुलाई, 1905 में वायसराय कर्जन ने पूर्वी बंगाल और आसाम को जोड़ कर एक नया प्रान्त बनाने की घोषणा कर दी। अक्तूबर में यह प्रान्त अस्तित्व में आ गया। इस निर्णय के विरुद्ध स्थान-स्थान पर सभायें हुईं। इनमें नर्म दल वाले भी थे और गर्म दल वाले भी थे। सब की मांग अब एक ही थी कि बंगाल का विभाजन न किया जाये। इस सम्बन्ध में उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ कर दिया। इसके अन्तर्गत विदेशी वस्तुओं के ‘बॉयकाट’ अथवा बहिष्कार पर बल दिया गया। इसका उद्देश्य यह था कि विदेशी कपड़ा और चीनी आदि न खरीदने से अंग्रेजों को आर्थिक हानि होगी और सरकार नेताओं की मांग को स्वीकार कर लेगी। इस आन्दोलन का प्रभाव कांग्रेस की नीति पर भी पड़ा। नर्म दल वाले यह चाहते थे कि ‘स्वदेशी’ और ‘बॉयकाट’. का ढंग सीमित उद्देश्यों के लिए काम में लिया जाये। गर्म दल वाले इस शस्त्र का प्रयोग विस्तार से करना चाहते थे। सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का ‘बायकाट’ भी उनके कार्यक्रम में सम्मिलित था। सच तो यह है कि बंगाल विभाजन के कारण स्वतन्त्रता आन्दोलन में गर्म दल की नीतियां आरम्भ हुईं।

प्रश्न 14.
मुस्लिम लीग की स्थापना के क्या कारण थे ?
उत्तर-
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में हुई थी। इसकी स्थापना के कारण ये थे :-

  • अरब राष्ट्रों में ‘वहाबी आन्दोलन’ आरम्भ होने के कारण भारत में साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ावा मिला।
  • अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति भी मुस्लिम लीग की स्थापना का एक कारण थी।
  • सर सैय्यद अहमद खां ने भारत में साम्प्रदायिकता का प्रचार किया।
  • प्रिंसिपल बेक ने साम्प्रदायिकता की आग को भड़काने वाले लेख लिखे।
  • प्रिंसिपल बेक ने कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था के नाम से पुकारा। इस से भी साम्प्रदायिकता को काफी बल मिला।
  • लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल के विभाजन ने साम्प्रदायिकता की भावना को और भी अधिक भड़का दिया।
  • लॉर्ड मिण्टो ने साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के लिए प्रोत्साहन दिया। वास्तव में ये सभी कारण मुस्लिम लीग की स्थापना के कारण बने।

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प्रश्न 15.
गदर आन्दोलन का क्या उद्देश्य था तथा भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में इसका क्या महत्व था ?
उत्तर-
गदर आन्दोलन 1915 ई० में पंजाब में आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन के सदस्यों का उद्देश्य 1857 ई० के गदर के ढंग पर सशस्त्र विद्रोह करना था। इस आन्दोलन ने सरकार के प्रति सिक्खों का रवैया बदल दिया। गदर पार्टी के सदस्यों में से कुछ बाद में गुरुद्वारा सुधार आन्दोलन तथा बब्बर अकालियों में शामिल हो गए। कुछ ने किसान मज़दूरों की ‘कीर्ति-किसान पार्टी’ स्थापित करने में बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वास्तव में गदर आन्दोलन भारतीयों का एक धर्म-निरपेक्ष क्रान्तिकारी आन्दोलन था।

प्रश्न 16.
स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में ‘रौलेट एक्ट’ तथा ‘जलियांवाला बाग’ का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में रौलेट एक्ट तथा जलियांवाला बाग का विशेष महत्त्व है। रौलेट एक्ट के अनुसार किसी भी मुकद्दमे का फैसला बिना ‘ज्यूरी’ के किया जा सकता था तथा किसी भी व्यक्ति को मुकद्दमा चलाये बिना नज़रबन्द रखा जा सकता था। इस एक्ट के कारण भारतीय लोग भड़क उठे। उन्होंने इस का कड़ा विरोध किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। गांधी जी ने इस एक्ट के विरुद्ध अहिंसात्मक हड़ताल की घोषणा कर दी। स्थान-स्थान पर दंगे-फसाद हुए। जलियांवाला बाग में शहर के लोगों ने एक सभा का प्रबन्ध किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन को दबाने के लिए जनरल डायर ने सभा में एकत्रित लोगों पर गोली चला दी जिसके कारण बहुत-से लोग मारे गए अथवा घायल हो गए। इस घटना से भारत के लोग और भी अधिक भड़क उठे। उन्होंने अंग्रेजों से स्वतन्त्रता प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इस घटना से अंग्रेज़ शासकों तथा भारतीय नेताओं के बीच एक अमिट दरार पड़ गई।

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प्रश्न 17.
असहयोग आन्दोलन के उद्देश्य व कार्यक्रम के बारे में बताएं।
उत्तर-
असहयोग आन्दोलन गांधी जी ने 1920 ई० में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध चलाया। इसका उद्देश्य यह था कि हमें सरकार से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। इस आन्दोलन की घोषणा कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में की गई। गांधी जी ने जनता से अपील की कि वह किसी भी तरह सरकार को सहयोग न दें। एक निश्चित कार्यक्रम भी तैयार किया गया जिस में कहा गया कि विदेशी माल का बहिष्कार करके स्वदेशी माल का प्रयोग किया जाए। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों तथा अवैतनिक पद छोड़ दिए जाएं । स्थानीय संस्थाओं में मनोनीत भारतीय सदस्यों द्वारा त्याग-पत्र दे दिए जाएं। सरकारी स्कूलों तथा सरकार से अनुदान प्राप्त स्कूलों में बच्चों को पढ़ने के लिए न भेजा जाए। ब्रिटिश अदालतों तथा वकीलों का धीरे-धीरे बहिष्कार किया जाए। सैनिक, क्लर्क तथा श्रमिक विदेशों में अपनी सेवाएं अर्पित करने से इन्कार कर दें।

प्रश्न 18.
तुम बाल, पाल, लाल के बारे में जो जानते हो, लिखो।
उत्तर-
बाल, पाल, लाल’ भारत के तीन महान् व्यक्तियों के नामों का छोटा रूप है। बाल से अभिप्राय बाल गंगाधर तिलक, पाल से अभिप्राय विपिन चन्द्र पाल और लाल से अभिप्राय लाला लाजपत राय से है। ये तीनों नेता कांग्रेस में ऐसी विचारधारा के समर्थक थे जो इतिहास में उग्रवाद के नाम से प्रसिद्ध है। ये तीनों स्वराज्य की प्राप्ति के पक्ष में थे और अंग्रेजों से संवैधानिक साधनों द्वारा न्याय पाने की आशा नहीं रखते थे। वे न तो अंग्रेजों से प्रार्थना करने के पक्ष में थे और न ही इस बात के पक्ष में थे कि अंग्रेजों के पास शिष्टमण्डल भेजे जाएं। ये अंग्रेजों से संघर्ष करना चाहते थे और संघर्ष द्वारा स्वराज्य प्राप्त करना चाहते थे। देश की जनता ने इनकी विचारधारा का समर्थन किया और ये तीनों नेता देश में अत्यन्त लोकप्रिय हुए।

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प्रश्न 19.
मिण्टो-मार्ले सुधार की मुख्य धाराएं बताओ।
उत्तर-
मिण्टो-मार्ले सुधार 1909 ई० में पास हुआ। इन सुधारों की मुख्य धाराएं ये थीं-
1. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ा कर 60 कर दी गई। इसी तरह मद्रास (चेन्नई), बम्बई (मुम्बई) तथा बंगाल की विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या 20 से बढ़ा कर 50 और उत्तर प्रदेश में 15 से बढ़ा कर 60 कर दी गई।

2. केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों का बहुमत रहा। इसमें 69 सदस्य होते थे जिनमें से 36 सदस्य सरकारी होते थे।

3. प्रान्तीय विधान परिषदों के सदस्यों का चुनाव मुसलमानों, ज़मींदारों, व्यापार-मण्डलों, नगर पालिकाओं तथा ज़िला बोर्डों द्वारा किया जाने लगा।

4. इसके अनुसार पृथक् निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की गई। हिन्दू प्रतिनिधियों का चुनाव हिन्दू तथा मुस्लिम प्रतिनिधियों का चुनाव मुसलमान ही करते थे।

प्रश्न 20.
होमरूल आन्दोलन के विषय में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर-
होमरूल आन्दोलन 1916 ई० में आरम्भ हुआ। इसे आरम्भ करने का श्रेय श्रीमती ऐनी बेसेन्ट तथा लोकमान्य तिलक को जाता है। इस आन्दोलन का उद्देश्य भारतवासियों के लिए स्वराज्य प्राप्त करना था। लगभग सारे देश में होमरूल लीग की शाखाएं खोली गईं। यह आन्दोलन इतना लोकप्रिय हुआ कि सरकार घबरा गई। सरकार ने श्रीमती ऐनी बेसेन्ट को नजरबन्द कर दिया। परिणामस्वरूप जनता में असन्तोष फैल गया और यह आन्दोलन पहले से भी अधिक तीव्र हो गया। होमरूल आन्दोलन के मुख्य उद्देश्य ये थे-

  • शान्तिमय उपायों द्वारा भारत के लिए स्वराज्य प्राप्त करना
  • अंग्रेज़ों को सन्तुष्ट करके ऐसी परिस्थितियों को जन्म देना जिससे प्रभावित होकर वह स्वयं ही भारत को स्वराज्य प्रदान करने का तैयार हो जाएं।
  • उग्रवादियों (Extremists) तथा उदारवादियों (Moderates) का परस्पर मेल करवाकर उग्रवादियों को क्रान्तिकारियों के साथ मिल जाने से रोकना।
  • ग्राम पंचायतों, नगरपालिकाओं आदि में स्वराज्य की स्थापना करना।
  • ब्रिटिश पार्लियामैंट में अन्य ब्रिटिश स्वशासित उपनिवेशों की भान्ति भारत से भी प्रतिनिधि भेजने का अधिकार प्राप्त करना।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 21 राजनीतिक जागृति तथा अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध राजनीतिक आन्दोलन

प्रश्न 21.
खिलाफत आन्दोलन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
प्रथम विश्व-युद्ध के समाप्त होने पर ब्रिटिश सरकार तथा कुछ अन्य शक्तियों ने तुर्की के कुछ क्षेत्र इसके सुल्तान से ले लेने का निर्णय कर लिया था। तुर्की के सुल्तान को मुसलमानों का खलीफा अथवा धार्मिक नेता माना जाता था। इसलिए भारत के मुसलमानों में भी सुल्तान के समर्थन में गतिविधियां आरम्भ हुई। इसके खिलाफत आन्दोलन’ का नाम दिया गया। इसके नेता थे मुहम्मद अली और शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद, हसरत मोहानी तथा हकीम अजमल खां। इन्होंने इसके नेतृत्व के लिए खिलाफ़त कमेटी बनाई तथा नवम्बर 1919 में आल इंडिया कान्फ्रेंस बुलाई। महात्मा गांधी खिलाफत के प्रश्न पर भारतीय मुसलमानों को अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध सक्रिय करना चाहते थे। उन्होंने इस सम्बन्ध में असहयोग आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव रखा। 31 अगस्त, 1920 को खिलाफत कमेटी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ करने की घोषणा की। इसमें सम्मिलित होने वालों में महात्मा गांधी सबसे पहले व्यक्ति थे। उन्होंने अंग्रेज़-सरकार से प्राप्त ‘केसरेहिन्द’ की पदवी वापिस कर दी। इस तरह खिलाफत आन्दोलन असहयोग आन्दोलन का भाग बन कर उभरा।

प्रश्न 22.
1919 ई० के एक्ट के अनुसार कौन-कौन से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए ?
उत्तर-
भारतीय 1909 ई० के अधिनियम से सन्तुष्ट नहीं थे। अतः ब्रिटिश पार्लियामैंट ने प्रथम महायुद्ध के पश्चात् एक एक्ट पास किया जिसे 1919 ई० का गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट अथवा मांटेग्यू चैम्सफोर्ड सुधार कहा जाता है। इस एक्ट के अनुसार ये परिवर्तन किए गए-

  • वायसराय की विधान परिषद् के दो सदन बना दिए गए-राज्य परिषद् तथा विधान सभा।
  • राज्य परिषद् के सदस्यों की संख्या 60 रखी गई, जिनमें 33 सदस्यों का चुनाव किया जाता था और शेष सदस्य मनोनीत किए जाते थे। विधान सभा की सदस्य संख्या 140 निश्चित की गई जिसे बाद में बढ़ा कर 145 कर दिया गया। इनमें से 105 सदस्यों का निर्वाचन होता था और 40 सदस्य मनोनीत किए जाते थे।
  • वायसराय को दोनों सदनों को बुलाने, संगठित करने, विघटित करने तथा सम्बोधित करने का अधिकार दिया गया।
  • प्रान्तीय विधान परिषदों का एक ही सदन होता था जिसे विधान सभा कहते थे। इसके सदस्यों की संख्या प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न थी। इसकी अवधि तीन वर्ष थी।

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IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
1857 ई० की भारतीय क्रान्ति के प्रमुख कारणों पर एक विस्तारपूर्वक प्रस्ताव लिखो। (M. Imp.)
अथवा
1857 की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के राजनीतिक तथा सैनिक कारणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
1857 की क्रांति के सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक कारणों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
1857 ई० में भारतीयों ने पहली बार अंग्रेज़ों का विरोध किया। वे उन्हें अपने देश से बाहर निकालना चाहते थे। इस संघर्ष को प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का नाम दिया जाता है।
कारण-

1. राजनीतिक कारण-

  • लॉर्ड वैल्ज़ली की सहायक सन्धि और डल्हौज़ी की लैप्स नीति से भारतीय शासकों में असन्तोष फैला हुआ था।
  • नाना साहिब की पेंशन बन्द कर दी गई थी। इसलिए वह अंग्रेजों के विरुद्ध थे।
  • झांसी की रानी को पुत्र गोद लेने की आज्ञा न मिली। अत: वह अंग्रेजों के विरुद्ध थी।
  • सतारा तथा नागपुर की रियासतें अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला ली गई थीं। इसलिए वहां के शासक अंग्रेजों के शत्रु बन गए।
  • ज़मींदार तथा सरदार भी अंग्रेजों के विरुद्ध थे क्योंकि उनकी जागीरें छीन ली गई थीं। इस प्रकार अनेक शासक, ज़मींदार तथा सरदार अंग्रेजों के रुष्ट थे और उनसे बदला लेने के लिए किसी अवसर की खोज में थे।

2. आर्थिक कारण-
1. औद्योगिक क्रान्ति के कारण इंग्लैण्ड का बना मशीनी माल सस्ता हो गया। परिणाम यह हुआ कि भारत में अंग्रेजी माल अधिक बिकने लगा और भारतीय उद्योग लगभग ठप्प हो गए। भारतीय कारीगरों की रोज़ी का साधन छिन गया और वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए।

2. अंग्रेजों की व्यापारिक नीति के कारण भारत का व्यापार भी लगभग समाप्त हो गया। भारत के माल पर इंग्लैण्ड पहुंचने पर भारतीय शुल्क देना पड़ता था जिससे भारतीय माल काफी महंगा पड़ता था। परिणामस्वरूप विदेशों में भारतीय माल की मांग घटने लगी और भारतीय व्यापार लगभग ठप्प हो गया।

3. अंग्रेजों के शासनकाल में कृषि और कृषक की दशा भी खराब हो गई थी। ज़मींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया था। वे एक निश्चित कर सरकारी खजाने में जमा कराते थे और किसानों से मन चाहा कर वसूल करते थे। परिणामस्वरूप किसान लगातार पिस रहे थे। वे भी इस अत्याचार से मुक्ति पाना चाहते थे।

4. भारतीय जनता पर भारी कर लगा दिए गए थे। कर इतने अधिक थे कि लोगों के लिए जीवन-निर्वाह करना भी कठिन हो गया था। तंग आकर लोगों ने विद्रोह का मार्ग अपनाया।

3. सामाजिक तथा धार्मिक कारण-
1. ईसाई पादरी भारतवासियों को लालच देकर इन्हें ईसाई बना रहे थे। इस कारण भारतवासी अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गए।

2. विलियम बैंटिंक ने अनेक सामाजिक सुधार किए थे। उसने सती-प्रथा और बालविवाह पर रोक लगा दी थी। हिन्दुओं ने इन सब बातों को अपने धर्म के विरुद्ध समझा

3. अंग्रेज़ी शिक्षा के प्रसार के कारण भी भारतवासियों में असन्तोष फैल गया। उन्हें विश्वास हो गया कि अंग्रेज़ उन्हें अवश्य ही ईसाई बनाना चाहते हैं।

4. ईसाई प्रचारक अपने धर्म का प्रचार करने के साथ हिन्दू धर्म का प्रचार करने के साथ हिन्दू धर्म के ग्रन्थों की घोर निन्दा करते थे। इस बात से भारतवासी भड़क उठे।

4. सैनिक कारण-
1. 1856 ई० में एक ऐसा सैनिक कानून पास किया गया जिसके अनुसार सैनिकों को लड़ने के लिए समुद्र पार भेजा जा सकता था, परन्तु हिन्दू सैनिक समुद्र पार जाना अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे।

2. परेड के समय भारतीय सैनिकों के साथ अभद्र व्यवहार किया जाता था। भारतीय सैनिक इस अपमान को अधिक देर तक सहन नहीं कर सकते थे।

3. भारतीय सैनिकों को अंग्रेज़ सैनिकों की अपेक्षा बहुत कम वेतन दिया जाता था। इस कारण उनमें असन्तोष फैला हुआ था।

4. अंग्रेज़ अधिकारी भारतीय सैनिकों के सामने ही उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का मज़ाक उड़ाया करते थे। भारतीय सैनिक अंग्रेजों से इस अपमान का बदला लेना चाहते थे।

5. सैनिकों को नए कारतूस प्रयोग करने के लिए दिए गए। इन कारतूसों पर सूअर या गाय की चर्बी लगी हुई थी। अतः बैरकपुर छावनी के कुछ सैनिकों ने इनका प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने तो क्रोध में आकर तीन अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर दी। इस आरोप में उसे फांसी दे दी गई। अन्य भारतीय सैनिक इस घटना से क्रोधित हो उठे और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।

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प्रश्न 2.
1857 ई० की क्रान्ति के राजनीतिक तथा संवैधानिक प्रभावों का वर्णन करो।
उत्तर-
1857 की क्रान्ति असफल रही। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह क्रान्ति असफल हुई, परन्तु निष्फल नहीं हुई। इसके परिणामस्वरूप लोगों में एक ऐसी राजनीतिक जागृति आई जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इस क्रान्ति के प्रमुख राजनीतिक तथा संवैधानिक प्रभावों का वर्णन इस प्रकार है-

1. कम्पनी राज्य की समाप्ति-1857 ई० की क्रान्ति का सबसे बड़ा परिणाम भारत में कम्पनी राज्य की समाप्ति था। भारत का सारा प्रशासन सीधा ब्रिटिश राज्य के अधीन हो गया। 1 नवम्बर, 1858 ई० को महारानी विक्टोरिया की घोषणा अनुसार कम्पनी की सरकार समाप्त हो गई तथा बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल एवं बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्ज़ तोड़ दिए गए। उनके स्थान पर एक भारतीय मन्त्री (Secretary of State for India) की नियुक्ति कर दी गई। यह बर्तानिया की संसद् का सदस्य होता था। उसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक कौंसिल बनाई गई। ब्रिटिश संसद् ने प्रशासन के काम पर नियन्त्रण रखने के लिए भारत मन्त्री को यह कहा कि वह प्रति वर्ष भारत की आय-व्यय का ब्यौरा संसद् के सामने रखे।

2. गवर्नर जनरल की उपाधि में परिवर्तन-कम्पनी राज्य की समाप्ति के साथ ही गवर्नर-जनरल की पदवी में भी परिवर्तन किया गया। अब वह ब्रिटिश ताज का प्रतिनिधि था। उसकी इस स्थिति का ध्यान रखते हुए उसे वायसराय की उपाधि दी गई।

3. भारतीय राजाओं के प्रतिनिधि-भारतीय राजाओं को प्रसन्न करने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने उदार नीति को अपनाया। उन्हें विश्वास दिलाया गया कि उनके राज्यों को कभी भी अंग्रेज़ साम्राज्य में मिलाया नहीं जाएगा। लैप्स के सिद्धान्त के अनुसार किसी भी रियासत को अंग्रेज़ी राज्य में मिलाने की नीति को त्याग दिया गया। भारतीय राजाओं को सन्तान न होने पर, बच्चा गोद लेने तथा उसे अपना उत्तराधिकारी निश्चित करने का अधिकार भी दे दिया गया। जिन राजाओं ने विद्रोह दबाने के लिए अंग्रेजों की सहायता की, उनको पारितोषिक तथा उपाधियां दी गईं। इसके साथ-साथ राजाओं पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाए गए। वे अंग्रेज़ी सरकार की आज्ञा के बिना किसी देशी अथवा विदेशी शक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकते थे। शासन व्यवस्था खराब होने की दशा में उनके राज्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार भी अंग्रेज़ सरकार के पास था।

4. मुगल सम्राट् तथा पेशवा की उपाधि की समाप्ति-नाना साहब ने विद्रोह में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। जब नाना साहब को विजय की आशा न रही, तो वह नेपाल की ओर भाग गया। अब भारत में पेशवा पद के लिए कोई उत्तरदायी नहीं रहा था। इसलिए अंग्रेजों ने पेशवा की उपाधि समाप्त कर दी। मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह ने भी विद्रोह में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था। उनको आजन्म कारावास का दण्ड तथा देश निकाला देकर रंगून भेज दिया गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् मुग़ल सम्राट् की पदवी भी समाप्त कर दी गई।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय चेतना के जागृत होने के क्या कारण थे ?
अथवा
19वीं शताब्दी में भारत में राजनीतिक चेतना की उत्पत्ति के कोई पांच कारण लिखिए।
उत्तर-
भारत की राष्ट्रीय चेतना का उदय 19वीं शताब्दी में हुआ। इस चेतना के उत्पन्न होने के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे :-

1. भारत तथा यूरोप का सम्पर्क-19वीं शताब्दी यूरोप के इतिहास में राष्ट्रवाद का युग मानी जाती है। 1789 ई० की फ्रांसीसी क्रान्ति और नेपोलियन बोनापार्ट की शक्तिशाली प्रचार लहरों के कारण राष्ट्रीयता के सिद्धान्त को बड़ा बल मिला। इस सिद्धान्त से यूरोप के लगभग सभी देश प्रभावित हुए और वहां राष्ट्रीयता का एक आन्दोलन-सा चल पड़ा। उस समय भारत अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन था, इसलिए यूरोप के राष्ट्रवाद का भारत पर भी प्रभाव पड़ा।

2. पश्चिमी विद्वानों के प्रयत्न-कुछ पश्चिमी विद्वानों ने भारत के प्राचीन साहित्य का अध्ययन किया। इन विद्वानों में मैक्समूलर, विलियम जोन्स, विल्सन, कोलब्रुक, कीथ आदि प्रमुख थे। इनके प्रयत्नों से भारत की प्राचीन सभ्यता प्रकाश में आई और लोगों को पता चला कि उनकी पुरानी सभ्यता कितनी महान् थी। परिणामस्वरूप लोगों के मन में स्वाभिमान जागा जिससे राजनीतिक चेतना जागृत हुई।

3. अंग्रेजी भाषा-अंग्रेज़ी सरकार ने कुछ कारणों से अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बना दिया था। इस भाषा के प्रचार से लोगों को एक सांझी भाषा मिल गई। फलस्वरूप यह सम्भव हो गया कि देश के अलग-अलग तथा दूर-दूर स्थित क्षेत्रों के नेता आपस में इकट्ठे हो कर आवश्यक समस्याओं पर विचार-विमर्श कर सकें।

4. अंग्रेजों तथा भारतीयों में अविश्वास-1857 ई० के आन्दोलन के कारण अंग्रेज़ों का भारत के लोगों पर विश्वास न रहा। वे प्रत्येक भारतीय को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे। दूसरी ओर भारतीय भी अंग्रेजों को अत्याचारी और दमनकारी समझने लगे। धीरे-धीरे भारतीयों के मन में यह बात बैठ गई कि उन्हें अंग्रेज़ों से न्याय नहीं मिल सकता। इन बातों ने लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया।

5. भारतीयों के साथ अन्याय-अंग्रेज़ किसी भी दशा में भारतीयों को समान अधिकार देने को तैयार नहीं थे। सभी बड़े-बड़े सरकारी पदों पर यूरोपियनों को ही नियुक्त किया जाता था। परन्तु देश में शिक्षित भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही थी। जब उनको किसी ओर से नौकरी की आशा न रही तो उन्होंने सरकार की आलोचना करनी आरम्भ कर दी। फलस्वरूप राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ।

6. समाचार-पत्रों का योगदान-भारतीयों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने में भारतीय समाचार-पत्रों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अंग्रेजी समाचार-पत्र प्रायः सरकार की नीतियों के समर्थक ही थे। इसके विपरीत भारतीय भाषाओं में निकलने वाले सामचार-पत्र जनता का पक्ष लेते थे और सरकार की ग़लत नीतियों का विरोध करते थे। अंग्रेज़ी सरकार ने भारतीय समाचार-पत्रों को कुचलने के लिए कानून पास किया। भारतीयों ने इसका कड़ा विरोध किया। अतः सरकार को यह कानून रद्द करना पड़ा। इसके फलस्वरूप समाचार-पत्रों का उत्साह बढ़ गया तथा वे फिर से सरकार की ग़लत नीतियों की आलोचना करने लगे। इन समाचार-पत्रों ने बढ़ रही बेकारी की ओर भी सरकार का ध्यान दिलाने का प्रयत्न किया। इन समाचार-पत्रों को पढ़ कर भारतीयों के मन में राष्ट्रीय भाव जागृत हुए।

7. भारत की आर्थिक दशा-अंग्रेज़ी सरकार ने भारत में ऐसी नीतियां अपनाईं जिनके कारण भारत की आर्थिक दशा बिल्कुल खराब हो गई और लोग निर्धन हो गए। वे जानते थे कि उनकी निर्धनता का एकमात्र कारण अंग्रेज़ी राज्य है। फलस्वरूप वे अंग्रेज़ी राज्य को समाप्त करना चारते थे। यह बात राजनीतिक चेतना की ही प्रतीक थी।

8. देश का एकीकरण-भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में देश के एकीकरण ने काफी योगदान दिया। सारे देश में एक ही कानून प्रणाली प्रचलित की गई जिससे सारा देश एक ही प्रबन्धकीय ढांचे के अधीन आ गया। इससे जहां देश का एकीकरण हुआ, वहां भारतीयों में भाईचारे की भावना भी बढ़ी। टेलीफोन, टेलीग्राफ, डाक-प्रबन्ध तथा रेलों के प्रसार से भारतीयों की एक अन्य बड़ी कठिनाई दूर हो गई। अब वे इकट्ठे होकर बैठ सकते थे और एक-दूसरे के दुःख दर्द समझ सकते थे। इन बातों के कारण भी देश में राष्ट्रीयता की भावना का जन्म हुआ।

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प्रश्न 4.
कांग्रेस की स्थापना, आरंभिक उद्देश्यों तथा नीतियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
कांग्रेस की स्थापना 1885 ई० में एक रिटायर्ड अंग्रेज़ अधिकारी श्री ए० ओ० हयूम के प्रयत्नों से हुई थी। उन्होंने कांग्रेस की स्थापना इसलिए की थी ताकि भारतीय नेताओं का असन्तोष विचारों के रूप में बाहर निकलता रहे और वह किसी भयंकर विद्रोह का रूप धारण न करे। मि० ह्यूम काफी सीमा तक अपने उद्देश्यों में सफल भी रहे, परन्तु धीरे-धीरे यह संस्था जनता में काफी लोकप्रिय होने लगी और भारतीय नेताओं की मांगें बढ़ने लगीं। इस संस्था के आरम्भिक उद्देश्यों तथा नीतियों का वर्णन इस प्रकार है :

उद्देश्य-आरम्भ में (1905 ई० तक) कांग्रेस के सभी नेता उदारवादी विचारों के थे। इनके मुख्य उद्देश्य ये थे:

  • देश के हित के लिए काम करने वालों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना।
  • देशवासियों में जातीयता, प्रान्तीयता तथा धार्मिक भेद-भाव की भावना समाप्त करके राष्ट्रीयता का बीज बोना।
  • सामाजिक समस्याओं सम्बन्धी सुलझे विचारों को इकट्ठा करके अंकित करना।
  • आने वाले 12 महीनों में यह कार्यक्रम तैयार करना कि देश सेवा किस प्रकार की जाए।

नीतियां-कांग्रेस की आरम्भिक नीति देश को स्वतन्त्रता दिलाना नहीं थी। इस समय तक उसकी नीतियां बड़ी साधारण थीं, जिनका वर्णन इस प्रकार है:-

  • भारतीयों को उनकी योग्यता के अनुसार ऊंचे पदों पर नौकरियां दिलवाना।
  • सरकार का ध्यान देश में जन-कल्याण के कार्यों की ओर दिलाना।
  • कृषि की उन्नति के लिए सरकार को प्रेरित करना।
  • किसानों की दशा में सुधार लाना।
  • देश में करों की कमी करवाना।
  • लोगों का आर्थिक स्तर ऊंचा करना।
  • लोगों का नैतिक उत्थान करना।
  • देश में प्राइमरी तथा तकनीकी शिक्षा का प्रसार करना।

प्रश्न 5.
गर्म पन्थ का उदय क्यों हुआ तथा उन्होंने किस प्रणाली को अपनाया ?
उत्तर-
भारतीय राजनीति में गर्म दल के उदय के निम्नलिखित कारण थे :

  • उदारवादी नेता उस गति से नहीं चल रहे थे, जिस गति से देश में राजनीतिक चेतना बढ़ रही थी।
  • अंग्रेजी सरकार राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति संतोषजनक रुख नहीं अपना रही थी।
  • बंगाल के विभाजन ने सारे देश में राष्ट्रीय जागृति पैदा कर दी। पूरे देश में इसका विरोध हुआ, जिसके कारण उग्रवादी भावना को बढ़ावा मिला।
  • भारत से बाहर की घटनाओं ने भी लोगों का झुकाव उग्रवाद की ओर किया। 1896 में इटली को इथोपिया ने और 1905 में रूस को जापान ने हराया था। इससे भी भारतीयों का मनोबल बढ़ा। 1905 की रूसी क्रान्ति और आयरलैण्ड में चल रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन ने भी भारतीयों को प्रेरित किया।

गर्म दल की उन्नति-गर्म दल की सही उन्नति 1905 ई० से आरम्भ हुई। लाल-बाल-पाल अर्थात् लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक एवं विपिन चन्द्र पाल ने गर्म दल का नेतृत्व सम्भाला। तिलक ने नारा दिया “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।” सारा देश ‘वन्दे मातरम्’ के नारों से गूंज उठा। स्वदेशी आन्दोलन का सूत्रपात भी हुआ। लोगों ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया और उनकी होली जलाई।

1907 तक उदारवाद तथा उग्रवाद की विचारधारा में स्पष्ट अन्तर दिखाई देने लगा। इसी वर्ष कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में दोनों गुटों में खुला झगड़ा हुआ। अधिवेशन में जूते और लाठियां तक चलीं। सरकार ने उदारवादियों को खुश करने के लिए 1909 का एक्ट पास किया परन्तु इससे उदारवादी तथा उग्रवादी दोनों ही असन्तुष्ट हुए।

गर्म दल की कार्य-प्रणाली-गर्म दल की कार्य-प्रणाली क्हणी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं :

  • गरमपंथी ब्रिटिश शासन में कोई विश्वास नहीं रखते थे। इस सम्बन्ध में ये नरमपंथियों की आलोचना करते थे।
  • गरमपंथी पश्चिमी संस्कृति के आलोचक थे। उनका उद्देश्य लोगों को भारतीय संस्कृति पर गर्व करना सिखाना था।
  • गरमपंथियों का मानना था कि राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने के लिए लड़ना पड़ता है और भारी दबाव डालकर ही इन्हें प्राप्त किया जा सकता है।
  • गरमपंथियों द्वारा पेश की गई मांगें राष्ट्रीय थीं और जनसाधारण से सम्बन्ध रखती थीं।

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प्रश्न 6.
(क) बंगाल को विभाजित करने के पीछे ब्रिटिश लोगों के क्या उद्देश्य थे ?
(ख) राष्ट्रीय आन्दोलन पर इसका क्या प्रभाव पड़ा ? स्वदेशी तथा बहिष्कार आन्दोलनों का बंगाल-विभाजन से क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर-
(क) बंगाल का विभाजन 1905 ई० में लॉर्ड कर्जन ने किया था। उसने बंगाल और असम को साथ मिलाकर इस सारे प्रदेश के दो भाग कर दिये। उसका कहना था कि बंगाल एक बहुत बड़ा प्रान्त है और सरकार को इसका शासन चलाने में कठिनाई आती है, परन्तु यह अंग्रेजों का एक बहाना मात्र था। वास्तव में बंगाल के विभाजन से उनके कुछ और भी उद्देश्य थे।

उद्देश्य-अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन निम्नलिखित उद्देश्यों से किया :
1. राष्ट्रीयता को आघात पहुंचाना-बंगाल भारत में एक ऐसा प्रान्त था जहां के लोगों में देश के अन्य प्रान्तों की अपेक्षा राष्ट्रीयता की भावना अधिक थी। देश में उठने वाली प्रत्येक राष्ट्रीय लहर का प्रारम्भ इसी प्रान्त से होता था। इस बात से अंग्रेजों को चिन्ता हुई। उन्होंने यहां की राष्ट्रीय भावना को आघात पहुंचाने के लिए इस प्रान्त का विभाजन कर दिया।

2. बंगाल के नेताओं के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना-बंगाल के नेताओं का देश में प्रभाव बढ़ रहा था। वे देश की जनता को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहे थे और उग्रवादी साधनों पर बल दे रहे थे। सरकार बंगाल का विभाजन करके उनके बढ़ते हुए प्रभाव को समाप्त कर देना चाहती थी।

3. मुसलमानों का समर्थन-अंग्रेजी सरकार मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करना चाहती थी और उन्हें हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काना चाहती थी। इसी उद्देश्य से उसने बंगाल का विभाजन कर दिया और पूर्वी बंगाल नामक एक प्रान्त बना दिया। उस प्रान्त में मुसलमानों का बहुमत था।

(ख) राष्ट्रीय आन्दोलन पर प्रभाव-
1. बंगाल विभाजन से भारतीयों में असन्तोष फैल गया। फलस्वरूप देश में बंगभंग के विरुद्ध एक जबरदस्त आन्दोलन छिड़ गया। 16 अक्तबूर का दिन सारे देश में शोक-दिवस के रूप में मनाया गया।

2. आन्दोलन के कार्यक्रम के अनुसार लोगों ने स्थान-स्थान पर विदेशी माल की होली जलायी और स्वयं स्वदेशी माल का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। स्वदेशी के प्रचार से भारत के देशी उद्योग फिर से उन्नति करने लगे।

3. भारतीयों ने बहिष्कार की नीति अपनायी। उन्होंने सरकारी नौकरियों तथा पदवियों का त्याग कर दिया। यहां तक कि विद्यार्थियों ने भी सरकारी स्कूलों में जाना छोड़ दिया।

4. सरकार ने इस आन्दोलन के दमन के लिए लोगों पर जितने अधिक अत्याचार किये, उनके विचार उतने ही अधिक गर्म होते गये। इस प्रकार देश में गर्म दल का उदय हुआ।

5. कुछ समय के पश्चात् भारतीयों ने सरकारी अत्याचारों का सामना करने के लिए हिंसात्मक और क्रान्तिकारी साधन अपनाने आरम्भ कर दिये। परिणामस्वरूप देश में एक जबरदस्त क्रान्तिकारी आन्दोलन आरम्भ हो गया। क्रान्तिकारी युवकों ने अनेक अंग्रेजों का वध कर दिया।

6. बंगाल विभाजन का देशव्यापी प्रभाव पड़ा। लगभग पूरा भारत इस विभाजन के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था। फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता को बल मिला।

स्वदेशी तथा बहिष्कार (बॉयकाट) आन्दोलन-स्वदेशी तथा बॉयकाट अथवा बहिष्कार आन्दोलन बंगाल-विभाजन के विरुद्ध रोष प्रकट करने के लिए चलाए गए। इनके अनुसार स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया गया और अंग्रेज़ी माल का बहिष्कार कर दिया गया। अनेक नेताओं ने स्थान-स्थान पर जाकर इस आन्दोलन का प्रचार किया। अत: लोगों ने अधिक से अधिक भारतीय माल का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया और विदेशी माल खरीदना बन्द कर दिया। परिणामस्वरूप भारतीय उद्योगों को काफी प्रोत्साहन मिला। इस आन्दोलन में विद्यार्थियों तथा महिलाओं ने भी प्रशंसनीय काम किया। कुछ मुसलमान नेता भी इसमें शामिल हुए। बम्बई, मद्रास तथा उत्तरी भारत के अनेक भागों में इस आन्दोलन का बड़े पैमाने पर प्रचार हुआ।

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प्रश्न 7.
असहयोग आन्दोलन के बारे में विस्तारपूर्वक लिखें।
अथवा
असहयोग आन्दोलन क्यों चलाया गया ? इसके कार्यक्रम एवं उद्देश्य का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर-
महात्मा गांधी आरम्भ में अंग्रेज़ी शासन के पक्ष में थे। परन्तु प्रथम महायुद्ध की समाप्ति पर वह अंग्रेजी शासन के विरोधी बन गए और उन्होंने इसके विरुद्ध असहयोग आन्दोलन आरम्भ कर दिया।

कारण-
1. भारतीयों ने प्रथम महायुद्ध में अंग्रेज़ों को पूरा सहयोग दिया था, परन्तु महायुद्ध की समाप्ति पर अंग्रेज़ों ने भारतीय जनता का खूब शोषण किया।

2. प्रथम महायुद्ध के दौरान भारत में प्लेग आदि महामारियां फूट पड़ीं। परन्तु अंग्रेज़ी सरकार ने उसकी ओर कोई ध्यान न दिया।

3. गांधी जी ने प्रथम महायुद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने का प्रचार इस आशा से किया था कि वे भारत को स्वराज्य प्रदान करेंगे। परन्तु  युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार ने गांधी जी की आशाओं पर पानी फेर दिया।

4. 1919 ई० में ब्रिटिश सरकार ने रौलेट एक्ट पास कर दिया। इस काले कानून के कारण जनता में रोष फैल गया।

5. रौलेट एक्ट के विरुद्ध प्रदर्शन के लिए अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक विशाल जनसभा हुई। अंग्रेजों ने एकत्रित भीड़ पर गोली चलाई जिससे सैंकड़ों लोग मारे गए।

6. सितम्बर, 1920 ई० में कांग्रेस ने अपना अधिवेशन कलकत्ता (कोलकाता) में बुलाया। इस अधिवेशन में ‘असहयोग आन्दोलन’ का प्रस्ताव रखा गया, जिसे बहुमत से पास कर दिया गया।

असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम अथवा उद्देश्य-असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम की रूपरेखा इस प्रकार है-

  • विदेशी माल का बहिष्कार करके स्वदेशी माल का प्रयोग किया जाए।
  • ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियां तथा अवैतनिक पद छोड़ दिये जाएं।
  • स्थानीय संस्थानों में मनोनीत भारतीय सदस्यों द्वारा त्याग-पत्र दे दिए जाएं।
  • सरकारी स्कूलों तथा सरकार से अनुदान प्राप्त स्कूलों में बच्चों को पढ़ने के लिए न भेजा जाए।
  • ब्रिटिश अदालतों तथा वकीलों का धीरे-धीरे बहिष्कार किया जाए।
  • सैनिक, क्लर्क तथा श्रमिक विदेशों में अपनी सेवाएं अर्पित करने से इन्कार कर दें।

आन्दोलन की प्रगति तथा अन्त-असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम को जनता तक पहुंचाने के लिए महात्मा गांधी तथा मुस्लिम नेता डॉ० अंसारी, मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद तथा अली बन्धुओं ने सारे देश का भ्रमण किया। परिणामस्वरूप शीघ्र ही यह आन्दोलन बल पकड़ गया। जनता ने सरकारी विद्यालयों का बहिष्कार कर दिया। बीच चौराहों पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘सर’ की उपाधि तथा गांधी जी ने ‘केसरे हिन्द’ की उपाधि का त्याग कर दिया। इसी बीच उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा नामक स्थान पर उत्तेजित भीड़ ने एक पुलिस थाने को आग लगा दी। इस हिंसात्मक घटना के कारण गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन की समाप्ति की घोषणा कर दी।

महत्व-

  • असहयोग आन्दोलन के कारण कांग्रेस ने सरकार से सीधी टक्कर ली।
  • भारत के इतिहास में पहली बार जनता ने इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया।
  • असहयोग आन्दोलन में ‘स्वदेशी’ का खूब प्रचार किया गया था। फलस्वरूप देश में उद्योग-धन्धों का विकास हुआ।

सच तो यह है कि गांधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iv) भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 3(iv) भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 3(iv) भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य

PSEB 11th Class Geography Guide भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो शब्दों में दीजिए :

प्रश्न (क)
फ्रांस में किस राज्य में पहले आरटेजीयन कुआँ लगाया गया ?
उत्तर-
अरटोइस (Artois) राज्य में।

प्रश्न (ख)
कुल्लू घाटी के गर्म चश्मों के नाम बताएँ।
उत्तर-
मनीकरण, गर्म (तत्ता) पानी, ज्वालामुखी।

प्रश्न (ग)
किस देश में पुराना गीज़र (Old Faithful Geyser) स्थित है ?
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमेरिका में Yellow Stone Park में।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iv) भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (घ)
ठंडे पानी के चश्मे भारत में किस स्थान पर मिलते हैं ?
उत्तर-
हिमालय, पश्चिमी घाट और छोटा नागपुर पहाड़ियों में।

प्रश्न (ङ)
2014 में पंजाब की मानसून वर्षा की मात्रा क्या थी ?
उत्तर-
600 मि०मी० की वार्षिक वर्षा।

2. निम्नलिखित के उत्तर विस्तार सहित दो :

प्रश्न 1.
भू-गर्भ जल अनावृत्तिकरण का साधन है, कैसे ? विस्तार सहित लिखें।
उत्तर
भू-गर्भ जल का अपरदन कार्य (Erosional Work of Underground Water)-
भू-गर्भ जल द्वारा पर्वतीय ढलानों पर भू-स्खलन (Landslide) होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप चट्टानें टूटती हैं। भूगर्भ जल का अपरदन कार्य मुख्य रूप में चूने वाले क्षेत्रों में होता है। इसका कारण यह है कि वर्षा जलवायु से कार्बनडाइऑक्साइड गैस लेकर चूने की चट्टानों को घुलनशील (Soluble) बना देती है, जिससे चूने के प्रदेशों में अलग-अलग प्रकार की भू-आकृतियों की रचना होती है। चूने के प्रदेशों को काट प्रदेश (Karst Region) कहते हैं। यह नाम यूगोस्लाविया देश के ऐडरीआटिक समुद्र (Adriatic sea) के किनारे पर स्थित कार्ट प्रदेश के नाम पर रखा है। कार्ट प्रदेश में उत्पन्न भू-आकृतियों को कार्ट धरातल (Karst Topography) कहते हैं। ऐसे प्रदेश संयुक्त राज्य अमेरिका में फ्लोरिडा, मैक्सिको और भारत में खासी और जबलपुर हैं।

अपरदन (Erosion)-भूमि के भीतरी पानी के कारण हुए भू-स्खलन द्वारा अपरदन का काम होता है। जब झुके हुए धरातल की भूमि पानी में संतृप्त हो जाती है, तो ऊँचे भागों से नीचे सरकने लगती है। इसे भू-स्खलन (Landslide) कहते हैं। पहाड़ी भागों में जब हिम पिघलती है, तो उस पानी के कारण चट्टानी भाग सरक के नीचे गिरते हैं। इन्हें हिमस्खलन (Avalanche) कहते हैं। इनसे पहाड़ी प्रदेशों में मार्ग बंद हो जाते हैं और बहुत नुकसान होता है।

अपरदन के रूप (Kinds of Erosion)-भूमि के भीतर के पानी द्वारा अपरदन के कई रूप हैं-

  1. घुलने की क्रिया (Solution)
  2. पानी दबाव क्रिया (Hydraulic action)
  3. अपघर्षण (Abrasion)

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प्रश्न 2.
भू-गर्भ जल का जमा करने का कार्य क्या है और इससे कौन-सी रूप-रेखाएँ अस्तित्व में आती हैं ? चित्र बनाकर उत्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-
भू-गर्भ जल का निक्षेपण कार्य (Depositional Work of Underground Water)-

भू-गर्भ जल अपनी घुलनशक्ति द्वारा चूने को प्रभावित करता है। इस जल में जब चूने की मात्रा अधिक हो जाती है, तो उसकी परिवहन शक्ति नष्ट हो जाती है, फलस्वरूप चूने का निक्षेप होना आरंभ हो जाता है। भू-पटल की भीतरी उष्णता के कारण जल का वाष्पीकरण हो जाता है, जिसके कारण चूना बाकी रह जाता है।

भू-गर्भ जल निक्षेपण द्वारा भू-आकृतियों की उत्पत्ति (Landforms Produced by Deposition of Underground Water)-
भू-गर्भ जल द्वारा किए गए निक्षेपण से नीचे लिखी भू-आकृतियाँ अस्तित्व में आती हैं-

1. स्टैलक्टाइट (Stalactite)-चूने के प्रदेशों में भूमिगत गुफाओं की छतों से चूना मिले जल की बूंदें टपकती रहती हैं। वाष्पीकरण के कारण इनका जल सूख जाता है, परंतु चूना छतों के साथ लटकता रहता है। इस चूने में अनेक बँदें आकर मिलती रहती हैं। इस क्रिया के निरंतर होते रहने से कुछ समय बाद छत से लटकते हुए नुकीले चूने के स्तंभ बन जाते हैं। इन्हें स्टैलक्टाइट कहते हैं। ये स्तंभ छत की ओर से पतले होते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iv) भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य 1

2. स्टैलगमाइट (Stalagmite)-चूना प्रदेशों में भूमिगत गुफाओं की छत से चूना मिला हुआ पानी तल पर
भी टपकता रहता है। जल के वाष्पीकरण के बाद गुफाओं के तल से ऊपर की ओर चूने के स्तंभ बन जाते हैं। इन्हें स्टैलगमाइट कहते हैं। ये स्तंभ तल की ओर से मोटे और ऊपर की ओर से पतले होते जाते हैं। कई बार स्टैलक्टाइट और स्टैलगमाइट मिलकर एक पूर्ण स्तंभ का रूप धारण कर लेते हैं। इन्हें गुफ़ा-स्तंभ (Cave Pillars) का नाम दिया जाता है।

3. निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करो :

निम्नलिखित में अंतर स्पष्ट करें-
(i) लैपिज़ – डोलाइन
(ii) स्टैलक्टाइट – स्टैलगमाइट
(iii) युवाला – पोनार
(iv) साधारण कुआँ -आरटेजीयन कुआँ
(v) गीज़र – चश्मे।
उत्तर-
(i) लैपिज़ (Lapies)- चूने के प्रदेश में घुलनशील क्रिया से जोड़ चौड़े हो जाते हैं और लंबवर्ती दीवारें बन जाती हैं। इन्हें Karren भी कहते हैं।
डोलाइन (Doline)- जब जल के सुराख बहुत चौड़े हो जाते हैं, तो इन्हें डोलाइन कहते हैं। ये भूमि के नीचे धंस जाने के कारण बनते हैं।

(ii) स्टैलक्टाइट (Stalactite)-

  1. कार्ट प्रदेशों में गुफ़ाओं की छत से लटकते हुए चूने के निक्षेप से बने स्तंभों को स्टैलक्टाइट कहते हैं।
  2. ये पतले और नुकीले स्तंभ होते हैं।
  3. ये चूने से घुले पानी की टपकती बूंदों से बनते हैं।

स्टैलगमाइट (Stalegmite)-

  1. कार्ट प्रदेशों में गुफाओं के धरातल से ऊपर उठे हुए चूने के निक्षेप से बने स्तंभों को स्टैलगमाइट कहते हैं।
  2. ये मोटे और बेलनाकार स्तंभ होते हैं।
  3. ये चूने से घुले पानी के फ़र्श पर बने निक्षेप से बनते हैं।

(iii) यूवाला (Uvala)- कार्ट प्रदेश में सुरंग की छत नष्ट होने से कई कुंड आपस में मिल जाते हैं। इन्हें यूवाला कहते हैं।
पोनार (Ponar)- पोनार का अर्थ है-सुरंग। यह जल-कुंड को गुफ़ा के साथ मिलाती है। यह लंबवत् दिशा में होती है।

(iv) साधारण कुआँ (Ordinary Well)-

  1. भूतल पर खोदे गए किसी सुराख को कुआँ कहते हैं जिसमें से किसी शक्ति का प्रयोग कर पानी बाहर निकाला जाता है।
  2. इसे स्थायी भू-जल स्तर पानी प्रदान करता है।
  3. इसमें किसी शक्ति का प्रयोग करके पानी निकालना पड़ता है।
  4. भारत के उत्तरी मैदान में सबसे अधिक कुएँ मिलते हैं।

आरटेजीयन कुआँ (Artesian Well)-

  1. जब भूमिगत जल एक सुराख से अपने-आप लगातार बाहर निकलता रहता है, तो उसे आरटेजीयन कुआँ कहते हैं।
  2. इसमें एक अप्रवेशी परत में पानी का भंडार होता है।
  3. इसमें एक सुराख में से पानी दबाव-शक्ति से बाहर निकलता है।
  4. ऑस्ट्रेलिया के क्वीनज़लैंड प्रदेश में सबसे अधिक आरटेज़ीयन कुएँ मिलते हैं।

(v) गीज़र (Geysers)-

  1. फव्वारे के समान उछलकर अपने-आप निकलने वाले गर्म पानी के चश्मे को गीज़र कहते हैं।
  2. गीज़र रुक-रुककर एक निश्चित समय के अंतर पर बाहर निकलता है।
  3. भाप के साथ उबलता हुआ पानी एक प्रकार की पाइप से बाहर निकलता है।
  4. यू०एस०ए० में ओल्ड फेथफुल प्रसिद्ध गीज़र है।

चश्मे (Springs)-

  1. जब भूमि का भीतरी पानी अपने-आप एक धारा के रूप में बाहर निकलता है, तो उसे गर्म पानी का चश्मा कहते हैं।
  2. यह जल लगातार बहता रहता है।
  3. यह धरातल की ढलान के अनुसार किसी प्राकृतिक सुराख से बाहर निकलता है।
  4. हिमाचल प्रदेश में मनीकरण में गर्म पानी के चश्मे हैं।

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Geography Guide for Class 11 PSEB भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
भू-गर्भ जल या भूमिगत जल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जो जल मुसामदार चट्टानों के नीचे चला जाता है।

प्रश्न 2.
भू-गर्भ जल का कार्य किन चट्टानों पर अधिक होता है ?
उत्तर-
चूना पत्थर, चॉक, डोलोमाइट।

प्रश्न 3.
जल के प्रयोग के कोई दो कार्य बताएँ।
उत्तर-
कृषि, घरेलू ज़रूरतें।

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प्रश्न 4.
गर्म जल के चश्मे का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
मनीकरण।

प्रश्न 5.
गीज़र क्या है ?
उत्तर-
जब पानी भाप के फव्वारे के समान उछलता है।

प्रश्न 6.
भारत में एक ताप-ऊर्जा के प्लांट का नाम बताएँ।
उत्तर-
मनीकरण (हिमाचल प्रदेश)।

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प्रश्न 7.
Aonifer का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जल प्रदान करना।

प्रश्न 8.
सबसे अधिक आरटेजीयन कुएँ कहाँ हैं ?
उत्तर-
ऑस्ट्रेलिया में Great Artesian Basin.

प्रश्न 9.
भारत में गुफाओं के दो क्षेत्र बताएँ।
उत्तर-
छत्तीसगढ़ और चेरापूंजी।

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प्रश्न 10.
पंजाब में कितने प्रतिशत भाग में भूमिगत जल से सिंचाई होती है ?
उत्तर-
73%.

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
भू-गर्भ जल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरती के ठोस तल के नीचे चट्टानों और दरारों में मिलने वाले पानी को भू-गर्भ या भूमिगत जल कहते हैं।

प्रश्न 2.
भू-गर्भ जल के दो मुख्य स्रोत बताएँ।
उत्तर-

  • आकाशीय जल
  • मैगमा से प्राप्त जल
  • खनिज पदार्थों से प्राप्त जल
  • हिम के पिघलने से प्राप्त जल।

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प्रश्न 3.
जल-चक्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
समुद्र, वायुमंडल और स्थल पर पानी के चक्र में घूमने की क्रिया को जल-चक्र कहते हैं।

प्रश्न 4.
पारगामी और अपारगामी चट्टानों में क्या अंतर है ?
उत्तर-
जिन चट्टानों में पानी प्रवेश कर जाता है, उन्हें पारगामी चट्टानें कहते हैं। जिन चट्टानों में पानी प्रवेश नहीं कर सकता, उन्हें अपारगामी चट्टानें कहते हैं।

प्रश्न 5.
भू-जल स्तर किसे कहते हैं ?
उत्तर-
भूमिगत जल की ऊपरी परत को भू-जल स्तर कहते हैं।

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प्रश्न 6.
भू-जल-स्तर किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-

  • चट्टानों की पारगमता
  • वर्षा की मात्रा
  • चट्टानों की बनावट।

प्रश्न 7.
आरटेज़ीयन कुआँ क्या होता है ?
उत्तर-
यह एक विशेष प्रकार का कुआँ होता है, जिसमें पानी एक सुराख (Bore) के द्वारा अपने आप लगातार निकलता रहता है।

प्रश्न 8.
ग्रेट आरटेज़ीयन बेसिन कहाँ स्थित है ?
उत्तर-
ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी क्षेत्र में।

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प्रश्न 9.
गीज़र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
फव्वारे के समान उछलकर अपने आप निकलने वाले गर्म पानी के चश्मे को गीज़र कहते हैं।

प्रश्न 10.
कार्ट प्रदेश से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चूने के पत्थर की चट्टानों से बने प्रदेश को कार्ट प्रदेश कहते हैं।

प्रश्न 11.
भू-गर्भ जल के अपरदन की क्रियाएँ बताएँ।
उत्तर-

  • घुलन क्रिया
  • अपघर्षण
  • जल-दबाव क्रिया।

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प्रश्न 12.
विश्व में सबसे प्रसिद्ध गीज़र कहाँ है ?
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमेरिका में Old faithful गीज़र।

प्रश्न 13.
लैपीज़ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
कार्ट क्षेत्रों में समानांतर नुकीली पहाड़ियों को लैपीज़ कहते हैं।

प्रश्न 14.
डोलाइन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वे चौड़े सुराख, जिनमें से नदियाँ नीचे चली जाती हैं, डोलाइन कहते हैं।

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प्रश्न 15.
भूमिगत गुफाएँ कैसे बनती हैं ?
उत्तर-
चूने के पत्थर की चट्टानों के घुल जाने से गुफाएँ बन जाती हैं।

प्रश्न 16.
स्टैलक्टाइट से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कार्ट प्रदेशों में गुफ़ा की छत से लटकते, पतले, नुकीले चूने के स्तंभों को स्टैलक्टाइट कहते हैं।

प्रश्न 17.
स्टैलगमाइट किसे कहते हैं ?
उत्तर-
कार्ट क्षेत्रों में गुफा के फ़र्श से ऊपर की ओर जाते मोटे और बेलनाकार स्तंभों को स्टैलगमाइट कहते हैं।

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लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
जल-चक्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जल-चक्र (Hydrologic Cycle)-समुद्र, वायुमंडल और स्थल पर पानी के चक्र में घूमने की क्रिया को जल-चक्र (Hydrologic Cycle) कहते हैं।

समुद्र का पानी वाष्प बनकर स्थल पर वर्षा का साधन बनता है। वर्षा के पानी का कुछ भाग वाष्प बनकर उड़ जाता है। कुछ भाग नदियों के रूप में बह (Run Off) जाता है

और कुछ भाग चट्टानों और दरारों में से होकर धरती के नीचे चला जाता है। इस प्रकार यह पानी नदियों, भूमिगत जल आदि साधनों द्वारा अंत में समुद्र में पहुँचता है। पानी का यह चक्र सदा चलता रहता है।

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प्रश्न 2.
भू-जल स्तर की स्थिति किन तत्त्वों पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
भू-जल-स्तर की स्थिति (Position of Water Table)-अलग-अलग स्थानों पर जल स्तर की ऊँचाई भिन्न होती है।

  • नदियों और झीलों के किनारे पर जल-स्तर ऊँचा होता है।
  • मैदानों में जल-स्तर ऊँचा होता है।
  • मरुस्थलों में कम वर्षा के कारण, जल-स्तर सैंकड़ों मीटर नीचे होता है।
  • जल-स्तर वर्षा ऋतु में ऊँचा और शुष्क ऋतु में नीचे हो जाता है।
  • अधिक नमी वाले प्रदेशों में जल-स्तर ऊँचा होता है।

इस प्रकार भू-जल-स्तर की स्थिति नीचे लिखे तत्त्वों पर निर्भर करती है-

  1. चट्टानों की पारगमता
  2. वर्षा की मात्रा
  3. चट्टानों की मुसामदार रचना
  4. चट्टानों की बनावट।

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प्रश्न 3.
भूमि जल-स्तर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भूमि जल स्तर अथवा संतृप्त तल (Water Table or Saturation Level)-भूमिगत जल के ऊपरी स्तर को भूमि जल-स्तर कहा जाता है। इसके नीचे चट्टानें जल-तृप्त रहती हैं। वर्षा ऋतु में भूमि जल-स्तर ऊँचा और शुष्क ऋतु में नीचे चला जाता है। भू-गर्भ भिन्नताओं और चट्टानों की पारगमता में परिवर्तन के कारण किसी भी क्षेत्र में अलग-अलग जल-स्तर पाए जाते हैं। एक स्थान पर पारगामी चट्टानों के नीचे यदि अपारगामी चट्टानें हों, तो जल का नीचे रिसना रुक जाता है और वहाँ एकत्र होकर जल-स्तर की रचना करता है। जल-स्तर के ऊंचा-नीचा होने को नीचे लिखे तत्त्व नियंत्रित करते हैं-

  1. चट्टानों की पारगमता (Permeability of Rocks)
  2. चट्टानों की मुसामदारी (Porosity of Rocks)
  3. चट्टानों की संरचना (Structure of the Rocks)
  4. चट्टान जोड़ (Rock Joints)
  5. वर्षा की मात्रा (Amount of Rainfall)

प्रश्न 4.
चूने के पत्थर की चट्टानों के क्षेत्र में गुफाएँ किस प्रकार बनती हैं ?
उत्तर-
गुफाएँ (Caves)-घुलनशील क्रिया से भूमि के निचले भाग खोखले हो जाते हैं। धरातल पर कठोर भाग छत के रूप में खड़े रहते हैं। इस प्रकार भूमि के अंदर ही कई मील लंबी गुफाएँ बन जाती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के केन्द्रीय प्रदेश की मैमथ गुफाएँ (Mammoth Caves) पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं, जोकि 48 कि०मी० लंबी हैं। भारत में मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में कुटुमसर (Kutumsar) की गुफाएँ प्रसिद्ध हैं, जिसका बड़ा कक्ष (Chamber) 100 मीटर लंबा और 12 मीटर ऊँचा है।

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प्रश्न 5.
आरटेजीयन कुएँ किस प्रकार बनते हैं ?
उत्तर-
आरटेज़ीयन कुएँ (Artesian Wells)-ये विशेष प्रकार के कुएँ होते हैं। इनमें पानी एक सुराख (Bore) के द्वारा अपने-आप ही लगातार बाहर निकलता रहता है। इस प्रकार के कुएँ सबसे पहले फ्रांस में अरटोइस (Artois) प्रदेश में खोदे गए, इसीलिए इन्हें आरटेजीयन कुएँ (Artesian Wells) कहते हैं।

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रचना (Formation)-आरटेजीयन कुओं की रचना नीचे लिखी परिस्थितियों में होती है-

  • दो अप्रवेशी चट्टानों (Impermeable Rocks) के बीच एक प्रवेशी चट्टान (Permeable Rock) हो।
  • प्रवेशी चट्टान पानी वाली होती है। इसे एक्वीफर (Aquifer) कहते हैं। इसके दोनों सिरे ऊँचे और खुले हों, जहाँ वर्षा अधिक हो।
  • इन चट्टानों का आकार एक तश्तरी (Saucer) के रूप में हो।
  • दोनों ढलानों से पानी नीचे वाले भाग में भर जाए।
  • अप्रवेशी चट्टानों में सुराख करके कुआँ खोदा जाता है।
  • पानी के दबाव की शक्ति (Hydraulic Pressure) से पानी तेज़ी से बाहर निकलता हो।

प्रदेश (Areas)-

  1. ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग में 172 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में लगभग 5 लाख आरटेजीयन कुएँ हैं।
  2. भारत में गुजरात राज्य, पांडिचेरी, तमिलनाडु के अरकाट क्षेत्र में और तराई क्षेत्रों में आरटेजीयन कुएँ मिलते हैं।

महत्त्व (Importance)-इन कुओं की शुष्क प्रदेशों और मरुस्थलों में पानी की प्राप्ति के लिए विशेष महानता है। ऑस्ट्रेलिया में इनकी महानता पशु-पालन के लिए है।

प्रश्न 6.
गीज़र किस प्रकार बनते हैं ?
उत्तर-
गीज़र (Geyser)-फव्वारे के समान उछलकर अपने आप निकलने वाले गर्म पानी के स्रोतों को गीज़र (Geyser) कहते हैं। (A Geyser means jumping water.)

रचना (Formation)-

  1. भूमि के नीचे अधिक ताप के कारण गर्म पानी का भंडार (Rescrvoir) होता है।
  2. गर्म पानी एक टेढ़ी-मेढ़ी नली (Pipe) के द्वारा ऊपर आता है।
  3. अधिक ताप के कारण पानी भाप बन जाता है।
  4. भाप के साथ उबलता हुआ पानी बाहर निकलता है।
  5. दुबारा पानी के उबलने में कुछ समय लगता है, इसलिए गीज़र रुक-रुककर पानी उछालते हैं।

प्रदेश (Areas)-

  1. गीज़र साधारण रूप में ज्वालामुखी प्रदेशों में होते हैं।
  2. प्रमुख गीज़र संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) के Yellow Stone Park में, आइसलैंड (Iceland) और न्यूज़ीलैंड के उत्तरी द्वीप में मिलते हैं।
  3. संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) में Old Faithful गीज़र कई सालों से प्रति 65 मिनट के अंतर से 100 मीटर ऊपर तक पानी फेंक रहा है।

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प्रश्न 7.
कार्ट भू-रचना से क्या अभिप्राय है ? ..
उत्तर-
कार्ट प्रदेश (Karst Regions)-भूमि के निचले पानी का महत्त्वपूर्ण कार्य चूने के प्रदेश में होता है। भूमि के अंदर का पानी ऐसे विशेष प्रकार की भू-रचना का निर्माण करता है। ऐसे प्रदेश पत्थरों के रेगिस्तान, वनस्पति रहित और असमतल होते हैं। पानी को वायुमंडल से कार्बन-डाईऑक्साइड मिल जाती है। इसमें चूने का पत्थर घुल जाता है। ‘कार्ट’ शब्द यूगोस्लाविया के चूने की चट्टानों के प्रदेश से लिया गया है। इस प्रकार चूने की चट्टानों के प्रदेश की भू-रचना को काट भू-रचना कहते हैं। ऐसे प्रदेश फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका में फ्लोरिडा और केंटकी प्रदेश, मैक्सिको में यूकाटन प्रदेश और भारत में खासी और जबलपुर क्षेत्र हैं।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
भू-गर्भ जल के अपरदनों का वर्णन करें।
उत्तर-
भू-गर्भ जल के अपरदन को नियंत्रित करने वाले कारक (Factors Controlling the Erosion of Underground Water)-

चूना क्षेत्रों में चट्टानों में मुसाम और उनकी पारगमता के कारण नदियाँ भूमिगत होकर लुप्त हो जाती हैं। इन आकृतियों के विकास के लिए निम्नलिखित परिस्थितियाँ ज़रूरी हैं :

  1. असंगठित चूने के कणों के समतल प्रदेश ताकि जल जल्दी प्रवाहित न हो जाए।
  2. काफी मात्रा में वर्षा।
  3. चट्टानों में मुसाम और पारगमता।

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प्रश्न 2.
भू-गर्भ जल के अपरदन से कौन-सी आकृतियाँ बनती हैं ?
उत्तर-
भू-गर्भ जल के अपरदन द्वारा उत्पन्न भू-आकृतियाँ (Land forms Produced by Erosion of Underground Water)-

भू-गर्भ जल के अपरदन द्वारा नीचे लिखी भू-आकृतियाँ उत्पन्न होती हैं-

1. लैपीज़ (Lapies)—साधारण तौर पर चूने की चट्टानों में जोड़ होते हैं, जिनमें पानी प्रवेश कर जाता है और चूने को घोल देता है, जिसके फलस्वरूप ये जोड़ चौड़े हो जाते हैं। इनकी दीवारें लंबवर्ती और एक-दूसरे के समानांतर नुकीली हो जाती हैं। इन्हें फ्रांसीसी भाषा में लैपीज़ (Lapies) या जर्मन भाषा में केरन (Carren) या क्लिट (Clint) कहते हैं।

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2. गहरे सुराख (Sink Holes)—कार्बन-युक्त पानी जब अपनी घुलनशील क्रिया द्वारा लैपीज़ को बहुत अधिक चौड़ा कर देता है, तब बड़े-बड़े खड्डे बन जाते हैं जिन्हें गहरे सुराख कहते हैं।

3. बड़े सुराख (Swallow Holes)-धीरे-धीरे गहरे सुराख जल की घुलनशील क्रिया द्वारा चौड़े हो जाते हैं और नदियाँ इनमें प्रवेश करके भूमिगत हो जाती हैं और पानी अलोप हो जाता है। इन्हें बड़े सुराख कहते हैं।

4. पोनार (Ponar)-सर्बियन (Serbian) भाषा के इस शब्द पोनार (Ponar) का अर्थ है-सुरंग। वह सुरंग, जो बड़े सुराखों को भूमिगत केंद्रों से मिलाती है, सुरंग या पोनार कहलाती है। यह सुरंग आम तौर पर लंबवत् या थोड़ी झुकी होती है।

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5. डोलाइन (Doline)-घुलनशील क्रिया के कारण कभी-कभी बड़े सुराखों की भूमि अचानक नीचे फँस जाती है। इस प्रकार बड़े और गहरे सुराखों को डोलाइन कहते हैं।

6. युवाला (Uvalas)-कभी-कभी कार्ट प्रदेशों में सुरंगों की छत टूटकर नष्ट हो जाती है और कई कुंड आपस में मिल जाते हैं, जिसके फलस्वरूप विस्तृत खड्डे बन जाते हैं। इन्हें युवाला या कुंड-समूह कहते हैं।

7. भूमिगत गुफाएँ (Underground Caves)—वर्षा का पानी सुरंगों के द्वारा भूमिगत होता हुआ अप्रवेशी चट्टानों की परत तक पहुंच जाता है। धीरे-धीरे ऊपरी प्रवेशी चट्टानों को घोलकर लंबे मार्ग में ढलान के अनुसार जल-धारा बहने लगती है, फलस्वरूप अप्रवेशी चट्टान के ऊपर प्रवेशी चट्टान में भूमिगत जलधारा बहने लगती है। जल-धारा के क्षेत्र को भूमिगत गुफा कहते हैं। इन गुफाओं का अगला भाग जब टूटकर नष्ट हो जाता है, तो जल-धारा दोबारा प्रकट हो जाती है।

उदाहरण-(क) संयुक्त राज्य अमेरिका के केंटकी प्रदेश में मैमथ गुफाएँ (Mammoth Caves) बहुत प्रसिद्ध हैं।
(ख) भारत में छत्तीसगढ़ राज्य के कोतामसर (Kotamsar) की गुफाएँ प्रसिद्ध हैं।

8. प्राकृतिक पुल (Natural Bridge)-भूमिगत गुफाओं की छत अपने-आप कहीं-न-कहीं से टूटती रहती है। बीच का भाग पुल के समान खड़ा रहता है। इसे प्राकृतिक पुल कहते हैं।

9. राजकुंड और चूरनकूट (Poljes and Hums)-चूने के प्रदेश की छतें धीरे-धीरे टूटकर नष्ट होती रहती हैं। इसके फलस्वरूप यह प्रदेश मैदानी रूप में विशाल गर्त का रूप धारण कर लेता है। इसे राजकुंड कहते हैं। गुफाओं की छतों की चट्टानें राजकुंड के तल पर गिरकर ढेरों के रूप में एकत्र हो जाती हैं। इन ढेरों को चूरनकूट कहते हैं।

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PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iv) भू-गर्भ जल के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न 3.
चश्मे की रचना, प्रकार और प्रदेशों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
चश्मे (Springs)-
कई बार प्रवेशी चट्टानों की परतों के नीचे अप्रवेशी चट्टानें होती हैं। वर्षा का जल प्रवेशी चट्टानों को संतृप्त कर देता है और अप्रवेशी चट्टानों तक पहुंच जाता है और फिर अप्रवेशी चट्टानों की ढलान की दिशा में धीरे-धीरे बहता हुआ किसी दरार आदि से बाहर प्रकट हो जाता है। इसे जल का रिसना (Seepage) कहते हैं। यदि जल की मात्रा अधिक हो और जल तेज़ी से बाहर आए, तो उसे स्रोत या चश्मा कहा जाता है। आम तौर पर ये स्रोत दो प्रकार के होते हैं। एक स्थायी और दूसरा अस्थायी। जिनमें जल कभी नहीं सूखता, उन्हें स्थायी और जिनमें कुछ समय के लिए जल प्रकट होता है, उन्हें अस्थायी कहते हैं। रिसने की क्रिया से बनी झीलें कभी-कभी नदियों का स्रोत बन जाती हैं। कश्मीर घाटी में वैरीनाग (Verinag) इसी प्रकार की झील झेलम नदी का स्रोत है।

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चश्मे के प्रकार (Types of Springs)-

  1. साधारण चश्मे (Simple Springs)—इनमें साफ़ और मीठा पानी होता है।
  2. गर्म पानी के चश्मे (Hot Springs)-इनमें अधिक गहराई में गर्म पानी होता है।
  3. खनिज चश्मे (Mineral Springs)—इनमें गंधक, नमक आदि खनिज होते हैं।

भारत में पानी के चश्मों का वितरण (Distribution of Springs in India)-

  1. कुल्लू घाटी में – मनीकरण (Manikaran)
  2. कांगड़ा में – calciat (Jawalamukhi) .
  3. पटना में – राजगिरि (Raigiri)
  4. मुंघेर में – सीताकुंड (Sitakund)
  5. उत्तर प्रदेश में – गंगोत्री और यमुनोत्री (Gangotri and Yamunotri)

गीज़र (Geyser)—फव्वारे के समान उछलकर अपने आप निकलने वाले गर्म पानी के स्रोत को गीज़र (Geyser) कहते हैं। (A Geyser means jumping water.)
रचना (Formation)-

  1. भूमि के नीचे अधिक ताप के कारण गर्म पानी का भंडार होता है।
  2. गर्म पानी एक टेढ़ी-मेढ़ी नली (Pipe) के द्वारा ऊपर आता है।
  3. अधिक ताप के कारण पानी भाप बन जाता है।
  4. भाप के साथ उबलता हुआ पानी बाहर निकलता है।
  5. पानी को दोबारा उबलने में कुछ समय लगता है, इसलिए गीज़र रुक-रुककर पानी को उछालते हैं।

प्रदेश (Areas)-

  1. गीज़र आमतौर पर ज्वालामुखी प्रदेशों में होते हैं।
  2. प्रमुख गीज़र संयुक्त राज्य अमेरिका, न्यूज़ीलैंड और आइसलैंड में हैं।
  3. संयुक्त राज्य अमेरिका में Old Faithful कई वर्षों से प्रति 65 मिनट के अंतर से 100 मीटर पानी उछालता है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 8 दिल्ली सल्तनत

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 8 दिल्ली सल्तनत Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 8 दिल्ली सल्तनत

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
दिल्ली सल्तनत की स्थापना, आरम्भिक संगठन तथा विस्तार में इल्तुतमिश, बलबन तथा अलाऊद्दीन खिलजी के योगदान की चर्चा करें।
उत्तर-
1206 ई० से 1290 ई० के काल को दिल्ली सल्तनत की स्थापना तथा आरम्भिक संगठन का काल समझा जाता है। यह शिशु सल्तनत बड़ी अस्थिर तथा असंगठित थी। राज्य को आंतरिक तथा बाहरी शत्रुओं का सामना करना पड़ रहा था। इस कठिन स्थिति को पहले इल्तुतमिश ने और बाद में बलबन ने सम्भाला। फिर अलाऊद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत का खूब विस्तार किया। इन सब के योगदान का वर्णन इस प्रकार है :

I. आरम्भिक संगठन इल्तुतमिश (1211-1236)-

(i) कुतुबुद्दीन ऐबक के पश्चात् 1211 ई० में इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बना। इल्तुतमिश ने 25 वर्ष तक राज्य किया। उसने ऐबक के अधूरे छोड़े हुए कार्य को पूरा किया तथा दिल्ली सल्तनत के प्रशासक की रूपरेखा तैयार की।

(ii) इल्तुतमिश ने गज़नी के पुराने तथा नये शासकों के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा की। उसने अपने प्रतिद्वंद्वियों अर्थात् ताजुद्दीन यल्दौज़ तथा नासिरुद्दीन कुबाचा का सफाया किया और राजपूत शासकों के विरुद्ध लम्बा संघर्ष किया। उसने फिर से बंगाल पर दिल्ली का आधिपत्य स्थापित किया। उसने मंगोल विजेता चंगेज़ खां के विनाशकारी आक्रमण को अपनी सूझबूझ से टाला। इल्तुतमिश के यत्नों के फलस्वरूप दिल्ली सल्तनत का शासन पंजाब, सिंध, गंगा-यमुना दोआब तथा बंगाल में पहले से अधिक सुदृढ़ हो गया।

(iii) (क) इल्तुतमिश ने सल्तनत के लिए केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा न्याय प्रबन्ध की व्यवस्था की। यही व्यवस्था भविष्य में शासन की आधारशिला बनी।

(ख) उसने केन्द्र में स्थायी सेना की व्यवस्था की तथा तुर्क अमीरों पर नियन्त्रण स्थापित किया। इल्तुतमिश द्वारा संगठित किये गये तुर्क अमीरों को बाद में ‘चालीसा’ का नाम दिया गया।

(ग) उसने ‘टका’ तथा ‘जीतल’ नाम के चाँदी और तांबे के सिक्के चलाये।
(घ) इल्तुतमिश ने दिल्ली शहर की भव्यता और सुल्तान की मान-मर्यादा को बढ़ाया।

(ङ) उसने बगदाद के खलीफा से सम्मान के वस्त्र तथा राज्याभिषेक का पत्र प्राप्त किया। खलीफ़ा को इस्लामी जगत् का नेता समझा जाता था। इससे इल्तुतमिश खलीफा की सत्ता को मानने वाले सभी लोगों की दृष्टि में दिल्ली का वास्तविक शासक होने के साथ-साथ कानूनी शासक भी बन गया।

ग्यासुद्दीन बलबन (1266-1287 ई०)-
1236 ई० से 1266 ई० तक इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों ने शासन किया। परन्तु 1240 के बाद वास्तविक सत्ता बलबन नामक सरदार के हाथ में आ गई। वह 1266 ई० में स्वयं सुल्तान बन गया। इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों के समय अमीरों ने सुल्तान को एक कठपुतली अथवा खिलौना मात्र बना लिया था। इससे सुल्तान की प्रतिष्ठा को भी बहुत आघात पहुंचा था और प्रान्तीय तथा राजपूत राजाओं को भी सिर-उठाने का अवसर मिल गया था। इधर 20 वर्षों में उत्तर-पश्चिम की ओर से मंगोलों का दबाव भी बढ़ रहा था। इन परिस्थितियों को देखते हुए बलबन ने किसी नई विजय का विचार त्याग दिया तथा दिल्ली सल्तनत को सुदृढ करने के लिए ‘लौह तथा रक्त’ नीत अपनाई-

(क) सबसे पहले बलबन ने तुर्क अमीरों को सुल्तान की सर्वोच्चता मानने के लिए बाध्य किया। उसने सुल्तान के दैवी अधिकार के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इससे अभिप्राय यह था कि सुल्तान को राज्य करने का अधिकार ईश्वर से मिला है। गुप्तचरों द्वारा अमीरों पर हर समय कड़ी नज़र रखी जाती थी।

(ख) बलबन ने बंगाल के तुर्क गवर्नर तुगरिल खां के विद्रोह को बड़ी क्रूरता से दबाया। उसने दिल्ली के निकट मेवातियों तथा गंगा-यमुना दोआब, अवध एवं कटेहर के प्रदेशों में राजपूतों के विद्रोह को भी सख्ती से कुचला।

(ग) बलबन ने अपनी सेना तथा प्रशासन को संगठित किया। उसने मंगोल आक्रमणों को रोकने के लिए विशेष सेना संगठित की और उसे मुल्तान, सुनाम और समाना आदि सीमावर्ती क्षेत्रों में रखा। इस तरह बलबन ने शिशु दिल्ली सल्तनत को आंतरिक तथा बाहरी सीमावर्ती शत्रुओं से बचाया।

II. दिल्ली सल्तनत का विस्तार अलाऊद्दीन खिलजी–

बलबन की संगठन नीति ने दिल्ली सल्तनत के विस्तार का मार्ग खोल दिया था। अगले 40 वर्षों में खिलजी तथा तुग़लक वंश के सुल्तानों के अधीन दिल्ली का राज्य लगभग पूरे भारत में फैल गया। खिलजी वंश के दूसरे शासक अलाऊद्दीन (12961316 ई०)
उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में अपनी विजयों के लिए विख्यात हैं :- उत्तरी भारत की विजयें-

(क) अलाऊद्दीन सिकन्दर की तरह बहुत बड़ा विजेता बनना चाहता था। उसने अपनी सेना का संगठन किया तथा सैनिक अभियानों के लिये योग्य और विश्वासपात्र सेनापतियों का चुनाव किया। इनमें से अल्प खाँ, नुसरत खाँ, ज़फर खाँ तथा उलुग खाँ प्रसिद्ध सेनापति थे।

(ख) अलाऊद्दीन ने 1296-97 ई० में मुल्तान तथा सिन्ध के प्रदेश विजित किया। ये प्रदेश जलालुद्दीन के पुत्रों के अधिकार में चले गये थे।

(ग) अलाऊद्दीन ने 1299 ई० में गुजरात के उपजाऊ तथा धनी प्रदेश की ओर अपनी सेनाएं भेजीं। गुजरात अपने समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। गुजरात का शासक राय करण भाग गया।

(घ) दिल्ली तथा गुजरात के बीच राजस्थान की मरुभूमि थी। इसमें कई शक्तिशाली दुर्ग थे। इनको जीते बिना गुजरात का मार्ग नहीं खुल सकता था। अलाऊद्दीन ने पहले 1300-01 में रणथम्भौर के किले को घेर लिया। काफ़ी प्रयत्नों के बाद इसे जीत लिया।

(ड) मेवाड़ में चितौड़ का शक्तिशाली किला भी दिल्ली से गुजरात के रास्ते पर था। एक लम्बे घेरे के बाद उसने 1303 ई० में चितौड़ को भी विजय कर लिया।

(च) अब सुल्तान ने मध्य भारत में मालवा तथा अन्य प्रदेशों के विरुद्ध सेना भेजी। 1305-06 ई० तक उसने माण्डू, धार, उज्जैन तथा चन्देरी पर अधिकार कर लिया।

(छ) 1308 ई० से 1311 ई० के बीच अलाऊद्दीन ने राजस्थान में सिवाना तथा जालौर के किलों को भी जीत लिया।

दक्षिण में विजयें-दक्षिण में अलाऊद्दीन की नीति उसकी उत्तरी भारत में विजय की नीति के विपरीत थी। वह दिल्ली से दक्षिण के राजाओं पर नियन्त्रण रखने की कठिनाइयों को समझता था। इस कारण वह दक्षिण में केवल दिल्ली की प्रभुसत्ता स्थापित करना चाहता था और वहां से धन प्राप्त करना चाहता था। परन्तु वह उत्तर-पश्चिम की ओर से होने वाले मंगोलों के निरन्तर आक्रमणों के कारण दक्षिण की ओर ध्यान न दे सका। 1297 ई० से लेकर 1306 ई० तक मंगोलों ने इस देश पर छ: बार बड़े भयंकर आक्रमण किये। वे दो बार दिल्ली तक भी पहुंच गए थे। अलाऊद्दीन ने उनका सामना करने के लिए एक विशाल सेना तैयार की थी। 1306 ई० में मध्य एशिया के मंगोल शासक की मृत्यु के बाद यह आक्रमण रुक गए। अब अलाऊद्दीन ने इस सेना का प्रयोग दक्षिण की विजयों के लिए किया। उसने अपने योग्य दास तथा सेनानायक मलिक काफूर को दक्षिण की ओर भेजा। इसे गुजरात की विजय के समय एक हज़ार दीनार अर्थात् सोने के सिक्के देकर खरीदा गया था।
विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में इस समय चार राज्य थे-सबसे निकट देवगिरि तथा उसके पूर्व में वारंगल, दक्षिण में द्वारसमुद्र तथा सुदूर दक्षिण में मदुरै का राज्य था।

  • सबसे पहले 1307-08 में देवगिरि के राजा रामचन्द्र देव पर आक्रमण किया गया। उसने अलाऊद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली। सुल्तान ने देवगिरि के प्रदेश को अपनी शेष विजयों के लिए आधार के रूप में प्रयोग किया।
  • अगले दो वर्षों में मलिक काफूर ने वारंगल तथा द्वारसमुद्र के राजाओं को नज़राना देने के लिए बाध्य किया तथा माबर अथवा मदुरै के प्रदेश को लूटा।

इस प्रकार दिल्ली सल्तनत इल्तुतमिश तथा बलबन के काल में संगठित हुई और अलाऊद्दीन के काल में विकसित हुई। अलाऊद्दीन ने शासक के रूप को निखारा और सल्तनत को सशक्त बनाने का प्रयास किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 8 दिल्ली सल्तनत

प्रश्न 2.
तुग़लक सुल्तानों की नीतियों के सन्दर्भ में दिल्ली सल्तनत के पतन के कारणों एवं विघटन की चर्चा करें।
उत्तर-
दिल्ली में खिलजी वंश के पश्चात् तुगलक वंश के राज्य की स्थापना हुई। तुर्क अमीर गाज़ी मलिक ने 1320 ई० में बलबन के उत्तराधिकारियों का वध किया और सल्तनत का स्वामी बन गया। वह ग्यासुद्दीन तुग़लक (1320-1324 ई०) के नाम से गद्दी पर बैठा। उसके वंशज 1412 ई० तक शासन करते रहे। इस वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक मुहम्मद-बिन-तुग़लक था।

  • ग्यासुद्दीन तुगलक ने पूर्वी भारत में बंगाल को फिर से विजय करके दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित किया। उसने तिरहुत अथवा उत्तरी बिहार को भी विजय किया।
  • 1323 ई० में उसके पुत्र मुहम्मद तुगलक ने वारंगल के राज्य को जीत कर दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।
  • उसने माबर भी जीत लिया था। उसके राज्यकाल में द्वारसमुद्र का राज्य भी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।
  • इस प्रकार मुहम्मद-बिन-तुगलक के अधीन दिल्ली सल्तनत उत्तर में पंजाब से लेकर सुदूर दक्षिण में माबर तक तथा पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक फैल गई।

पतन के कारण

मुहम्मद-बिन-तुग़लक के राज्यकाल में ही दिल्ली सल्तनत के विस्तार का दौर रुक गया था। यही नहीं बल्कि साम्राज्य का विघटन भी आरम्भ हो गया था। दिल्ली सल्तनत का पतन अकस्मात् नहीं हुआ। पतन की यह प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती रही। इसमें विभिन्न सुल्तानों विशेषकर तुग़लक सुल्तानों की नीतियों तथा प्रशासनिक प्रयोगों ने योगदान दिया था, जिसका वर्णन इस प्रकार है।

(i) मुहम्मद तुगलक की दक्षिण नीति-दिल्ली सल्तनत के पतन का आधारभूत कारण इसका दक्षिण में सीधा प्रशासन स्थापित करना था। ग्यासुद्दीन तुगलक के समय में उनका साम्राज्य देवगिरि से लेकर माबर तक फैल जाने के कारण बहुत बड़ा हो गया था। इस विशाल साम्राज्य को दिल्ली से नियन्त्रित करना लगभग असम्भव ही था।

(ii) मुहम्मद-बिन-तुगलक के प्रशासनिक प्रयोग-

(क) साम्राज्य की विशालता के कारण पैदा होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए मुहम्मद-बिन-तुग़लक ने 1328-29 ई० में दक्षिण में देवगिरि को सल्तनत की दूसरी राजधानी बना दिया। इसका नाम दौलताबाद रखा गया। यह पहले से ही उत्तर तथा दक्षिण में एक पुल का काम दे रहा था। नवीन राजधानी दूर थी। इससे सुल्तान का उत्तरी भाग पर नियन्त्रण ढीला हो गया। उधर सुल्तान ने कई अमीरों तथा धार्मिक व्यक्तियों को दिल्ली छोड़कर दौलताबाद जाने के लिए बाध्य किया था। उन सब में बड़ा असन्तोष फैल गया था। बाद में सुल्तान ने जब इनको दिल्ली लौट जाने के लिए कहा तो ये और भी अधिक नाराज हो गए।

(ख) मुहम्मद तुग़लक ने योग्यता के आधार पर बड़ी संख्या में विदेशियों, गैर-तुर्कों तथा गैर-मुसलमानों को शासक वर्ग एवं सेना में उच्च पदों पर नियुक्त किया था। उसके पुराने तुर्क परिवारों का उच्च पदों पर से एकाधिकार समाप्त हो गया। यह बात उनके लिए असहनीय थी।

(ग) उलेमा लोग (अर्थात् इस्लाम धर्म के विद्वान्) सुल्तान के उद्धार धार्मिक विचारों के विरुद्ध थे। वे अन्य धर्मों विशेषकर शैव तथा जैन मत को दिए गए राजकीय संरक्षण के कारण सुल्तानों से रुष्ट थे।

(घ) सुल्तान द्वारा चलाई गई सांकेतिक मुद्रा ने भी उसके विरुद्ध बढ़ते असन्तोष में वृद्धि की। सांकेतिक मुद्रा के कारण कांसे के सिक्के पर चांदी के टके का मूल्य अंकित था। सुनारों तथा साधारण कारीगरों ने बड़ी संख्या में जाली सिक्के बनाने आरम्भ कर दिए। अन्त में सुल्तान ने शाही टकसालों से जारी किए गये सिक्के वापस लेकर बदले में चांदी तथा सोने के सिक्के दे दिये। इससे सरकार को हानि हुई और सुल्तान की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा।

(ङ) मुहम्मद-बिन-तुगलक के विरुद्ध कई अन्य बातों के कारण भी असन्तोष बढ़ा। उसने गंगा-यमुना दोआब में लगान बढ़ाया तथा खुरासान की विजय के लिए तैयार की गई सेना को भंग कर दिया तथा कराचिल अथवा कुल्लू की पहाड़ियों में भेजी गई सेना को भारी क्षति पहुंची।

(च) सुल्तान ने अमीरों तथा उलेमा लोगों को सज़ाएं देकर तथा बल प्रयोग से दबाने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप साम्राज्य में कई स्थानों पर विद्रोह होने लगे। यह विद्रोह दूर दक्षिण में माबर तथा कम्पिली से लेकर लाहौर और सिन्ध तथा गुजरात से लेकर बंगाल तक फैल गये। सुल्तान के राज्यकाल के अन्त तक इनकी संख्या 22 हो गई थी।

(छ) दक्षिण में विद्रोहियों को दबाने के लिए सुल्तान ने सेना भेजी। इस सेना में महामारी फैल गई। सेना को भारी हानि पहुंची। इस प्रकार दक्षिण के प्रान्तों को स्वतन्त्र होने का अवसर मिल गया।

फिरोज़ तुग़लक की नीतियां-

  • मुहम्मद तुग़लक के उत्तराधिकारी फिरोज़शाह (1351-1357 ई०) के राज्यकाल में सल्तनत का शासन उत्तरी भारत तक ही सीमित हो गया।
  • फिरोज़ ने विद्रोहों के भय से अमीरों तथा उलेमा लोगों के प्रति नरम नीति अपनाई। उनके वेतन और जागीरों में वृद्धि की तथा इनको वंशानुगत बना दिया गया।
  • मुहम्मद-बिन-तुग़लक के समय की सख्त सज़ाएं देने की प्रथा बन्द कर दी गई।
  • सैनिकों की नौकरी भी वंशानुगत बना दी गई। उनको नकद वेतन के स्थान पर भूमि के किसी एक भाग का लगान दिया जाने लगा।

फ़िरोज़ तुग़लक की इन नीतियों के कारण भ्रष्टाचार बढ़ गया तथा सेना कमज़ोर हो गई। दिल्ली सल्तनत अन्दर से खोखली पड़ गई। कुछ इतिहासकार फिरोज़ तुग़लक की धार्मिक कट्टरता को भी सल्तनत के पतन के लिए उत्तरदायी मानते हैं। उसने उलेमा लोगों को प्रसन्न करने के लिए अपने राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में गैर सुन्नी मुसलमानों तथा कुछ ब्राह्मणों के साथ सख्ती का व्यवहार किया था। अतः इन सब बातों के कारण दिल्ली सल्तनत के पतन की प्रक्रिया आरम्भ हो गई। यह प्रक्रिया उसके उत्तराधिकारियों के काल में तीव्र हो गई।

फिरोज तुग़लक के उत्तराधिकारी-फिरोज़ तुग़लक की मृत्यु के बाद तुग़लक वंश के छः सुल्तान गद्दी पर बैठे। उनमें प्रायः गृह-युद्ध होते थे। इनमें शासक वर्ग तथा फिरोज़ तुग़लक के दास बड़े सक्रिय थे। इससे प्रशासन और भी कमज़ोर पड़ गया। इससे प्रान्तीय गवर्नरों को स्वतन्त्र होने का अवसर मिल गया। इन परिस्थितियों में 1398-99 ई० में मध्य एशिया से मंगोल विजेता चंगेज़ खां के वंशज तैमूर के आक्रमण ने तुग़लक वंश की प्रतिष्ठा को भारी क्षति पहुँचाई। अन्तिम तुग़लक सुल्तान महमूद का छोटा-सा राज्य भी 1412 ई० में समाप्त हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 8 दिल्ली सल्तनत

प्रश्न 3.
केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय स्तर पर दिल्ली सल्तनत के शासन प्रबन्ध की चर्चा करते हुए यह भी बताएं कि सुल्तानों ने किस प्रकार के भवन बनवाए।
उत्तर-
1206 ई० से 1526 ई० तक का युग भारतीय इतिहास में ‘सल्तनत युग’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस युग में पांच प्रमुख राजवंशों ने राज्य किया। इन सभी राजवंशों की सामूहिक शासन-व्यवस्था का वर्णन इस प्रकार है–

I. केन्द्रीय शासन

1. खलीफा तथा सुल्तान-नैतिक दृष्टिकोण से समस्त मुस्लिम जगत् का धार्मिक नेता खलीफा माना जाता था। वह बगदाद में निवास करता था। परन्तु सुल्तान खलीफा का नाममात्र का प्रभुत्व स्वीकार करते थे। यद्यपि कुछ सुल्तान खलीफा के नाम से खुतबा पढ़वाते थे और सिक्कों पर भी उसका नाम अंकित करवाते थे, परन्तु यह प्रभुत्व केवल दिखावा मात्र था।

वास्तविक सत्ता सुल्तान के हाथ में ही थी। वह केवल अपने पद को सुदृढ़ बनाने के लिए खलीफा से स्वीकृति प्राप्त कर लेते थे। सुल्तान की शक्तियां असीम थीं। उसकी इच्छा ही कानून थी। वह सेना का प्रधान और न्याय का मुखिया होता था। वास्तव में वह पृथ्वी पर भगवान् का प्रतिनिधि समझा जाता था।

2. मन्त्रिपरिषद् तथा वजीर-सुल्तान का सबसे महत्त्वपूर्ण मन्त्री वित्तीय व्यवस्था तथा लगान का मंत्री था जिसे वज़ीर कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए एक महालेखाकार (मुशरिफ) तथा एक महालेखापरीक्षक (मुस्तौफी) होते थे। सैनिक संगठन के मन्त्री को ‘आरिज़-ए-मुमालिक’ कहा जाता था। शाही पत्र-व्यवहार के मन्त्री को ‘दरबार-ए-खास’ तथा गुप्तचर विभाग के मन्त्री को बरीद-ए-खास’ कहा जाता था। अन्य सभी मामलों के मन्त्री ‘वजीर’ से कम महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली थे। यहां तक कि धार्मिक मामलों तथा न्याय के मन्त्री ‘शेख-अल-इस्लाम’ का पद भी वज़ीर जितना महत्त्वपूर्ण नहीं था। इन मंत्रियों के अतिरिक्त सुल्तान के महलों तथा उसके दरबार की देख-रेख करने के लिए भी अधिकारी होते थे। इनमें ‘वकील-ए-दर’ (महलों तथा शाही कारखानों के लिए) तथा ‘अमीर-ए-हाजिब’ (दरबार के लिए) मुख्य थे। सुल्तान अपनी इच्छा से किसी भी मन्त्री को हटा सकता था। कभी-कभी सुल्तान शासन-कार्यों में मुल्लाओं से भी सलाह लिया करता था।

3. केन्द्रीय विभाग-
(i) राजस्व विभाग-इस विभाग का मुखिया दीवान-ए-हजरत होता था। यह विभाग अधिकतर प्रधानमन्त्री अथवा वज़ीर को सौंपा जाता था। कर वसूल करने वाले समस्त अधिकारी इसी विभाग में रहते थे। कृषि कर निर्धारण का भार भी इसी विभाग पर था।

(ii) सैन्य विभाग-इसका मुखिया दीवान-ए-अर्ज़ अथवा आरिज-ए-मुमालिक होता था। राज्य की सेना पर आधारित होने के कारण यह विभाग भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था।

(iii) दीवान-ए-इन्शाप्रान्तीय सूबेदारों तथा दूर स्थित प्रदेशों के अन्य उच्च पदाधिकारियों के साथ सुल्तान का पत्र-व्यवहार करने का भार दीवानए-इन्शा पर होता था।

(iv) दीवान-ए-अमीर-ए-कोही-यह विभाग बाज़ार पर नियन्त्रण रखता था और कृषि की सुव्यवस्था के लिए कार्य सम्भालता था। इसका प्रधान दीवान-ए-अमीर-ए-कोही होता था।

(v) काजी-उल-कुजात-न्याय विभाग का मुखिया काजी-उल कुजात होता था। वह केन्द्र में रहते हुए प्रान्तों के काज़ियों पर नियन्त्रण रखता था। इन विभागों के अतिरिक्व शाही परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पृथक् विभाग होता था, जिसका प्रधान वकील-ए-दर कहलाता था।

4. सैनिक व्यवस्था-सुल्तान ने विशाल स्थायी सेना का संगठन किया। इसका प्रधान दीवान-ए-अर्ज़ होता था। केन्द्रीय सेना के अतिरिक्त प्रान्तीय सूबेदार भी अपने पास सेना रखते थे। वे समय पड़ने पर सुल्तान की सहायता करते थे। केन्द्र की सेना अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जित होती थी। सेना के चार प्रमुख अंग थे, जिनमें सबसे प्रमुख घुड़सवार सेना थी। युद्ध में हाथियों का भी प्रयोग होता था जो सेना का दूसरा अंग था। तीसरा अंग पैदल सेना थी। अस्त्रों-शस्त्रों में तलवार, बी, भाले तथा धनुष-बाणों का प्रयोग किया जाता था। सुल्तान का सैनिक संगठन दाशमिक प्रणाली पर आधारित था। 10 घुड़सवारों पर सरेखैल नामक अधिकारी होता था और 10 सरेखैल पर एक सिपहसालार होता था। इसी प्रकार 10 सिपहसालारों पर एक अमीर होता था। 10 अमीरों पर एक मलिक और दस मलिकों पर एक खान होता था। सेना का आकार समय-समय पर परिवर्तित होता रहता था। अलाऊद्दीन के पास 4 लाख 75 हजार घुड़सवार थे, जबकि फिरोज़ तुग़लक के पास केवल 90 हज़ार घुड़सवार थे।

II. प्रान्तीय प्रशासन : सुल्तानों का साम्राज्य प्रान्तों में बंटा हुआ था। प्रान्तीय गवर्नर का कार्य अपने प्रान्त में शान्ति बनाए रखना था। परन्तु उसका मुख्य दायित्व लगान तथा अन्य कर इकट्ठा करके उनको राजकोष में भेजना था। वह प्रान्तों के अधीन सामन्तों पर भी नियन्त्रण रखता था। परन्तु सामन्तों का स्थानीय प्रशासन में कोई हाथ नहीं था। वह एक ओर तो केन्द्र एवं सामन्तों के बीच कड़ी का काम करता था तथा दूसरी ओर केन्द्रीय प्रशासन एवं स्थानीय प्रबन्ध को जोड़ता था। गवर्नर को ‘मुक्ती’, ‘सूबेदार’ अथवा ‘वली’ कहा जाता था। प्रत्येक प्रान्त में कई परगने थे। कुछ प्रान्तों में परगने से ऊपर एक अन्य प्रशासनिक इकाई भी थी जिसे ‘शिक’ कहा जाता था।

III. स्थानीय शासन स्थानीय शासन परगने से आरम्भ होता था। कई गांवों के समूह को परगना कहते थे। प्रत्येक परगने का मुख्य अधिकारी ‘आमिल’ था। वह भूमि की उपज से सरकारी आय (लगान) एकत्रित करता था और उसका हिसाब-किताब रखता था। लगान इकट्ठा करने में फोतदार अर्थात् खजान्ची और कुछ अन्य कर्मचारी उसकी सहायता करते थे। कानूनगो परगने की ज़मीन तथा लगान से सम्बन्धित सारा रिकार्ड रखता था। एक ही गोत्र से सम्बन्धित कई गांवों में फैले हुए किसान प्रायः किसी एक प्रभावशाली व्यक्ति को सब का साझा प्रधान मान लेते थे। इसको ‘चौधरी’ कहा जाता था। परगने के अधिकारी किसानों अथवा उनके मुखिया के साथ ‘चौधरी’ के माध्यम से निपट सकते थे। प्राचीनकाल की तरह दिल्ली सल्तनत के समय में भी गांव सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई बना रहा। परन्तु अब गांव के मुखिया को मुकद्दम कहा जाता था। गांव की कृषि अधीन भूमि तथा लगान से सम्बन्धित सारे मामलों का रिकार्ड पटवारी रखता था। पटवारी, मुकद्दम, चौधरी तथा कानूनगो के पद वंशानुगत होते थे। इन्हें राज्य की सेवा के बदले लगान का एक भाग दिया जाता था।

सुल्तानों द्वारा बनवाये गए भवन-

दास वंशीय सुल्तानों द्वारा निर्मित भवन-कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली के समीप रायपिथोरा का किला बनवाया। इसके समीप ही ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ नाम की मस्जिद बनवाई गई। कुतुबमीनार दास वंश का सबसे उत्तम उपहार है। इसकी नींव कुतुबुद्दीन ने ही रखी थी, परन्तु इस भवन के पूरा होने से पूर्व ही वह चल बसा था। इसे उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने पूरा करवाया। एक इतिहासकार के अनुसार “इससे अधिक भव्य कोई अन्य मीनार विश्व में नहीं है।” ऐबक ने अजमेर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया था। इसे ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ कहते हैं। इल्तुतमिश ने अपने बड़े लड़के नासिरुद्दीन महमूद का एक मकबरा बनवाया था। यह भवन कुतुबमीनार से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर बनवाया गया था। भारत के पुराने मकबरों में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। इल्तुतमिश ने दिल्ली में एक ‘ईदगाह’ तथा जामा मस्जिद का भी निर्माण करवाया था।

खिलजी सुल्तानों द्वारा निर्मित भवन-इल्तुतमिश की मृत्यु से लेकर अलाऊद्दीन के आगमन तक भवन निर्माण कला का विकास रुका रहा। अलाऊद्दीन के आगमन से भवन निर्माण कला में नए दौर का आरम्भ हुआ। उसने कुतुबुद्दीन ऐबक के समय की मस्जिद का बहुत सुन्दर तथा प्रभावशाली द्वार बनवाया, जिसे ‘अलाई दरवाज़ा’ के नाम से पुकारा जाता है। यह लाल पत्थर का बना है, परन्तु कहीं-कहीं इसमें संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। अलाऊद्दीन ने कुतुबमीनार से तीन मील की दूरी पर ‘सिरी’ नामक दुर्ग बनवाया था। उसने ‘हज़ार सूतन’ नामक एक अन्य भवन का निर्माण भी करवाया।

तुगलक वंश के सुल्तानों द्वारा निर्मित भवन-तुगलक वंश के शासन काल में अनेक भवनों का निर्माण हुआ। इनमें खिलजी काल के भवनों की सी सजावट का अभाव है। ये सादगी तथा विशालता लिए हुए हैं । ग्यासुद्दीन तुग़लक ने कुतुबमीनार के पूर्व में ‘तुग़लकाबाद’ नामक दुर्ग बनवाया था। इस दुर्ग में अनेक भवन भी बनवाए गए थे। संगमरमर का बना ग्यासुद्दीन का ‘मकबरा’ इन भवनों की स्मृति मात्र रह गया है। मुहम्मद तुग़लक ने आदिलाबाद नामक दुर्ग का निर्माण करवाया जो तुग़लकाबाद के पास स्थित है। फिरोज़ तुग़लक को भवन बनवाने का बड़ा चाव था। उसके शासनकाल में अनेक शहरों में से फतेहाबाद, हिसार फिरोजा, जौनपुर आदि प्रसिद्ध थे। फरिश्ता के अनुसार, “सुलतान ने 200 नगर, 20 महल, 30 पाठशालाएं, 40 मस्जिदें, 100 अस्पताल, 100 स्नानगृह, 5 मकबरे और 150 पुल बनवाए।”

सैय्यद तथा लोधी वंश के शासकों द्वारा निर्मित भवन-तैमूर के आक्रमण के कारण दिल्ली सल्तनत की आर्थिक दशा काफी शोचनीय हो गई। परिणामस्वरूप सैय्यद तथा लोधी वंश के शासकों ने भवन निर्माण कला में अधिक रुचि न दिखाई। सैय्यद वंश में प्रथम दो शासकों ने खिज़राबाद और मुबारिकाबाद नाम के दो नगर बसाए। दुर्भाग्यवश इन दोनों नगरों के अवशेष उपलब्ध नहीं हैं। इस काल में मुबारिक शाह सैय्यद, मुहम्मद शाह सैय्यद और सिकन्दर लोधी से सम्बन्धित मस्जिदें तथा मकबरे ही उपलब्ध हैं। लोधी काल में कुछ मस्जिदों का निर्माण हुआ। इसमें सिकन्दर लोधी के प्रधानमन्त्री द्वारा निर्मित ‘मोट की मस्जिद’ उल्लेखनीय है।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
दिल्ली के प्रथम तथा अंतिम सल्तान कौन-कौन थे?
उत्तर-
दिल्ली का प्रथम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक तथा अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी था।

प्रश्न 2.
पठान सुल्तानों ने दिल्ली पर कब से कब तक राज्य किया?
उत्तर-
पठान सुल्तानों ने दिल्ली पर 1206 ई० से 1526 ई० तक शासन किया।

प्रश्न 3.
तैमूर ने भारत पर कब आक्रमण किया?
उत्तर-
तैमूर ने 1398 ई० में भारत पर आक्रमण किया।

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प्रश्न 4.
सूफ़ी मत के एक सन्त का नाम बताओ।
उत्तर-
बाबा फरीद।

प्रश्न 5.
सिक्ख धर्म के संस्थापक कौन थे?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के संस्थापक थे।

प्रश्न 6.
सैयद वंश की नींव किसने डाली थी?
उत्तर-
सैयद वंश की नींव तैमूर के प्रतिनिधि खिजर खाँ ने डाली थी।

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प्रश्न 7.
खिजर खाँ ने गुजरात पर अधिकार कब किया?
उत्तर-
खिजर खाँ ने 1412 ई० में गुजरात पर अधिकार किया।

प्रश्न 8.
खिजर खाँ की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठा?
उत्तर-
खिजर खाँ की मृत्यु के पश्चात् मुबारक शाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

प्रश्न 9.
लोदी वंश की स्थापना कब हुई?
उत्तर-
लोदी वंश की स्थापना 1451 ई० में हुई।

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प्रश्न 10.
लोदी वंश के उस शासक का नाम बताओ जो सर्वप्रथम दिल्ली की गद्दी पर बैठा।
उत्तर-
बहलोल लोदी।

प्रश्न 11.
लोदी वंश का अंतिम सुल्तान कौन था ?
उत्तर-
इब्राहिम लोदी ।

प्रश्न 12.
“तबकाते नासरी” नामक पुस्तक का लेखक कौन था?
उत्तर-
मिनहाज सिराज “तबकाते नासरी” नामक पुस्तक का लेखक था।

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प्रश्न 13.
“अलाई दरवाजा” दिल्ली के किस सुल्तान ने बनवाया ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी ने।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) कुतुबुद्दीन ऐबक…………..ई० में दिल्ली का सुल्तान बना।
(ii) ………..दिल्ली की पहली मुस्लिम शासिका थी।
(iii) …………अपनी ‘रक्त और लौह’ नीति के लिए विख्यात है।
(iv) मलिक काफूर………………का दास सेनानायक था।
(v) ………………को इतिहास में पढ़ा-लिखा मूर्ख सुल्तान’ कहते हैं।
उत्तर-
(i) 1206
(ii) रजिया
(iii) बलबन
(iv) अलाऊद्दीन खिलजी
(v) मुहम्मद तुग़लक ।

3. सही / ग़लत कथन

(i) बलबन एक शक्तिशाली और पक्के इरादे वाला शासक था। — (√)
(ii) गुलाम (दास) वंश के शासकों के बाद सन् 1290 ई० में दिल्ली में तुग़लक वंश का नया राज्य स्थापित हुआ। — (×)
(iii) खिलजी वंश का अन्तिम शासक मार डाला गया और दिल्ली पर सैय्यद वंश का शासन शुरू हुआ। — (×)
(iv) मुहम्मद-बिन-तुग़लक ने पीतल और ताँबे के सांकेतिक सिक्के चलाए जिन्हें राजकोष से चाँदी-सोने के सिक्कों से बदला जा सकता था। — (√)
(v) अलाऊद्दीन के एक अधिकारी हसन गंगू ने बहमनी राज्य की नींव डाली — (√)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
दिल्ली सल्तनत के शुरू के शासक थे-
(A) तुर्क
(B) अफ़गान
(C) मंगोल
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर-
(B) अफ़गान

प्रश्न (ii)
अलाऊद्दीन खिलजी के लिए दक्षिणी प्रदेश जीते
(A) बलबन ने
(B) ताजुद्दीन यल्दौज ने
(C) नालिरुद्दीन कुबाचा ने
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक ने
उत्तर-
(C) नालिरुद्दीन कुबाचा ने

प्रश्न (iii)
निम्न सुल्तान अपने आर्थिक सुधारों (बाज़ार नीति) के लिए विख्यात है-
(A) बलबन
(B) अलाऊद्दीन खिलजी
(C) फिरोज़ तुगलक
(D) इल्तुतमिश।
उत्तर-
(A) बलबन

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प्रश्न (iv)
निम्न सुल्तान ने कृषि की उन्नति के लिए सिंचाई की विशेष व्यवस्था की-
(A) इल्तुतमिश
(B) मुहम्मद तुगलक
(C) फिरोज़ तुग़लक
(D) कुतुबुदीन ऐबक।
उत्तर-
(D) कुतुबुदीन ऐबक।

प्रश्न (v)
‘जकात’ नामक कर किससे प्राप्त किया जाता था?
(A) अमीर मुसलमानों से
(B) अमीर हिंदुओं से
(C) सभी हिंदुओं से
(D) गैर-मुसलमानों से
उत्तर-
(B) अमीर हिंदुओं से

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
दिल्ली सल्तनत की जानकारी के लिए स्रोतों के चार प्रमुख प्रकार बताएं।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत की जानकारी के लिए स्रोतों के चार प्रमुख प्रकार हैं-समकालीन दरबारी इतिहासकारों के वृत्तान्त, कवियों की रचनाएं, विदेशी यात्रियों के वृत्तान्त तथा सिक्के।

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प्रश्न 2.
अमीर खुसरो की रचनाएं किन तीन सुल्तानों के राज्यकाल पर प्रकाश डालती हैं ?
उत्तर-
अमीर खुसरो की रचनाएं बलबन, अलाऊद्दीन खिलजी तथा ग्यासुद्दीन तुग़लक के राज्यकाल पर प्रकाश डालती हैं।

प्रश्न 3.
मुहम्मद गौरी ने मुल्तान, लाहौर तथा दिल्ली की विजयें किन वर्षों में प्राप्त की ?
उत्तर-
मुहम्मद गौरी ने 1175 ई० में मुल्तान, 1186 ई० में लाहौर तथा 1192 ई० में दिल्ली पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 4.
मुहम्मद गौरी के साम्राज्य में उत्तरी भारत के कौन से चार प्रमुख राज्य सम्मिलित थे ?
उत्तर-
मुहम्मद गौरी के साम्राज्य में उत्तरी भारत का पंजाब का भूतपूर्व गज़नी राज्य, दिल्ली, अजमेर का चौहान राज्य, कन्नौज का गहड़वाल और राठौर राज्य तथा बंगाल का सेन राज्य सम्मिलित था।

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प्रश्न 5.
तराइन का दूसरा युद्ध कब हुआ और इसमें पृथ्वीराज के अधीन लड़ने वाले सामन्तों की संख्या क्या थी ?
उत्तर-
तराइन का दूसरा युद्ध 1192 ई० में हुआ। इस में पृथ्वीराज के अधीन लड़ने वाले सामन्तों की संख्या 150 थी।

प्रश्न 6.
मुहम्मद गौरी के चार दास सेनानियों के नाम बताएं।
उत्तर-
ताजुद्दीन यल्दौज, नासिरुद्दीन कुबाचा, कुतुबुद्दीन ऐबक तथा बख्यितार खिलजी मुहम्मद गौरी के चार दास सेनानी

प्रश्न 7.
यल्दौज़ कहाँ का शासक था और उसे रोकने के लिए ऐबक ने दिल्ली के स्थान पर कौन से नगर को अपनी राजधानी बनाया ?
उत्तर-
यल्दौज गज़नी का शासक था। उसे रोकने के लिए ऐबक ने दिल्ली के स्थान पर लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।

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प्रश्न 8.
ऐबक की मृत्यु कब और कैसे हुई ?
उत्तर-
ऐबक की मृत्यु 1210 ई० में घोड़े से गिर जाने के कारण हुई।

प्रश्न 9.
इल्तुतमिश ने किस मंगोल विजेता के आक्रमण को टाला तथा उसके किस शत्रु को दिल्ली में शरण देने से इन्कार किया था ?
उत्तर-
इल्तुतमिश ने मंगोल विजेता चंगेज़ खां के आक्रमण को बड़ी सूझ-बूझ से टाला। उसने चंगेज़ खां के शत्रु ख्वारिज्म के शहज़ादे को दिल्ली में शरण देने से इन्कार कर दिया।

प्रश्न 10.
इल्तुतमिश के तुर्क अमीरों के लिए बाद में किस नाम का प्रयोग किया जाने लगा ?
उत्तर-
इल्तुतमिश के तुर्क अमीरों के लिए बाद में ‘चहलगनी’ नाम का प्रयोग किया जाने लगा।

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प्रश्न 11.
इल्तुतमिश ने कौन से दो सिक्के चलाए ?
उत्तर-
इल्तुतमिश ने ‘जीतल’ तथा ‘टका’ नाम के दो सिक्के चलाए।

प्रश्न 12.
इस्लामी जगत् के नेता को क्या कहा जाता था और इल्तुतमिश ने उससे क्या प्राप्त किया ?
उत्तर-
इस्लामी जगत् के नेता को ‘खलीफा’ कहा जाता था। इल्तुतमिश ने उससे सम्मान के वस्त्र तथा राज्याभिषेक का पत्र प्राप्त किया।

प्रश्न 13.
इल्तुतमिश के किन्हीं दो उत्तराधिकारियों के नाम बताएं।
उत्तर-
रज़िया तथा नासिरुद्दीन महमूद इतुतमिश के दो उत्तराधिकारी थे।

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प्रश्न 14.
सुल्तान के दैवी-अधिकार से क्या भाव था ?
उत्तर-
सुल्तान के दैवी-अधिकार से भाव यह था कि सुल्तान को राज्य करने का अधिकार ईश्वर से मिला है।

प्रश्न 15.
बलबन ने कौन से चार प्रदेशों में विद्रोहों को दबाया ?
उत्तर-
बलबन ने बंगाल, दिल्ली, गंगा-यमुना दोआब, अवध एवं कटेहर के प्रदेशों में विद्रोहों को दबाया।

प्रश्न 16.
बलबन ने मंगोलों के आक्रमण रोकने के लिए विशेष सेनाएं किन तीन स्थानों पर तैनात की ?
उत्तर-
बलबन ने मंगोलों के आक्रमण को रोकने के लिए विशेष सेनाओं को ‘मुल्तान’, ‘सुनाम’ और ‘समाना’ के स्थानों पर तैनात किया।

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प्रश्न 17.
खिलजी वंश की स्थापना किसने और कब की ?
उत्तर-
खिलजी वंश की स्थापना 1290 में जलालुद्दीन खिलजी ने की।

प्रश्न 18.
दिल्ली सल्तनत के विस्तार के लिए कौन से सुल्तान का काल सबसे महत्त्वपूर्ण है ? इसने कब से कब तक राज्य किया ?
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के विस्तार के लिए अलाऊद्दीन खिलजी का काल सबसे महत्त्वपूर्ण है। उसने 1296-1316 ई० तक राज्य 1 किया।

प्रश्न 19.
अलाऊद्दीन खिलजी के चार सेनापतियों के नाम बताएं।
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी के चार सेनापतियों के नाम थे-अल्प खाँ, नुसरत खाँ, जफर खाँ तथा उलुग खाँ।

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प्रश्न 20.
अलाऊद्दीन द्वारा विजित उत्तर भारत के चार प्रदेशों के नाम बताएं।
उत्तर-
अलाऊद्दीन द्वारा विजित उत्तर भारत के चार प्रदेश रणथम्भौर, मेवाड़, मालवा तथा गुजरात थे।

प्रश्न 21.
अलाऊद्दीन ने राजस्थान में कौन से चार किले जीते थे ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन ने राजस्थान में रणथम्भौर, चित्तौड़, शिवाना तथा जालौर के किलों पर विजय प्राप्त की थी।

प्रश्न 22.
अलाऊद्दीन के समय में मालवा के कौन से चार नगर जीते गए ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन के समय में मालवा के माण्डू, धार, उज्जैन तथा चन्देरी नगर जीते गए।

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प्रश्न 23.
अलाऊद्दीन की चित्तौड़ विजय के साथ कौन-सी लोक-गाथा सम्बन्धित है ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन की चित्तौड़ विजय से सम्बन्धित लोक-गाथा यह है कि अलाऊद्दीन चित्तौड़ के राणा की सुन्दर पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करना चाहता था।

प्रश्न 24.
अलाऊद्दीन की दक्षिण विजय के दो उद्देश्य क्या थे ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन की दक्षिण विजय के दो. उद्देश्य थे-दिल्ली की प्रभुसत्ता स्थापित करना तथा वहाँ से धन प्राप्त करना।

प्रश्न 25.
अलाऊद्दीन के समय में मंगोल आक्रमण कब आरम्भ तथा समाप्त हुए तथा इनकी संख्या क्या थी ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन के समय में मंगोल आक्रमण 1297 ई० से 1306 ई० तक हुए। इन आक्रमणों की संख्या छः थी।

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प्रश्न 26.
अलाऊद्दीन ने दक्षिण के किन राज्यों पर अपनी प्रभुत्ता स्थापित की ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन ने दक्षिण भारत के देवगिरी, वारंगल, द्वारसमुद्र तथा मदुरा राज्यों पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 27.
अलाऊद्दीन की दक्षिण की विजयें किस सेनापति के अधीन की गईं ? इसे कहाँ और कितना धन देकर खरीदा गया था ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन ने दक्षिण की विजयें अपने सेनापति मलिक काफूर के अधीन की। उसे गुजरात से एक हज़ार दीनार दे कर खरीदा गया था ?

प्रश्न 28.
तुगलक वंश के पहले दो शासकों के नाम तथा राज्यकाल बताएं।
उत्तर-
तुग़लक वंश के पहले दो शासक ग्यासुद्दीन तुग़लक तथा मुहम्मद-बिन-तुगलक थे। इन का शासन काल 1320 ई० से 1351 ई० तक था।

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प्रश्न 29.
ग्यासुद्दीन तुगलक के समय में जीते गए चार प्रदेशों के नाम बताएँ।
उत्तर-
ग्यासुद्दीन तुग़लक के समय में जीते गए चार प्रदेशों के नाम हैं –तिरहुत, वारंगल, माबर, द्वारसमुद्र।

प्रश्न 30.
मुहम्मद-बिन-तुग़लक के समय दिल्ली सल्तनत उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम में किन प्रदेशों तक फैल गई थी ?
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक के समय में दिल्ली सल्तनत उत्तर में पंजाब से लेकर सुदूर दक्षिण में मिबर तक तथा पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक फैल गई थी।

प्रश्न 31.
दिल्ली सल्तनत के पतन का आधारभूत कारण क्या था ?
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के पतन का आधारभूत कारण दक्षिण में सीधा प्रशासन स्थापित करना था।

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प्रश्न 32.
मुहम्मद-बिन-तुगलक ने दक्षिण में कौन से नगर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया और इसका क्या नाम रखा ?
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक ने ‘देवगिरि’ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। उसने इसका नाम ‘दौलताबाद’ रखा।

प्रश्न 33.
शासक वर्ग में किस प्रकार के लोगों के शामिल होने के कारण तुर्क अमीर मुहम्मद-बिन-तुगलक से नाराज़ थे ?
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक ने बड़ी संख्या में विदेशियों, गैर-तुर्कों और गैर-मुसलमानों को शासक वर्ग में उच्च पद दे दिये थे। इससे तुर्क अमीर उससे नाराज़ हो गये।

प्रश्न 34.
उलेमा लोग सुल्तान से क्यों नाराज थे ?
उत्तर-
उलेमा लोग सुल्तान के उदार धार्मिक विचारों के कारण उस से नाराज़ थे।

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प्रश्न 35.
मुहम्मद-बिन-तुगलक ने कौन से सिक्के के स्थान पर सांकेतिक मुद्रा चलाई और यह किस धातु में थी ?
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक ने चाँदी के सिक्कों के स्थान पर सांकेतिक मुद्रा चलाई। यह कांसे की थी।

प्रश्न 36.
मुहम्मद-बिन-तुगलक के राज्यकाल में हुए विद्रोहों की संख्या क्या थी तथा इनसे प्रभावित किन्हीं चार प्रदेशों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक के राज्यकाल में हुए विद्रोहों की संख्या 22 थी। इनसे प्रभावित चार प्रदेशों के नाम हैंबिआबर, सिन्ध, गुजरात तथा बंगाल।

प्रश्न 37.
फिरोज़ तुगलक ने अमीरों को प्रसन्न करने के लिए क्या किया ?
उत्तर-
फिरोज़ तुलगक ने अमीरों को प्रसन्न करने के लिए उनके वेतन और जागीरें बढ़ा दीं।

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प्रश्न 38.
फिरोज़ तुगलक के समय में सैनिकों को वेतन किस रूप में दिया जाता था ?
उत्तर-
फिरोज तुग़लक के समय में सैनिकों को वेतन नकद देने के स्थान पर भूमि के एक भाग का लगान दिया जाने लगा।

प्रश्न 39.
तुगलक काल के अन्त में आने वाले विदेशी आक्रमणकारी का नाम तथा उसके आक्रमण का वर्ष बताएं।
उत्तर-
तुगलक काल के अन्त में आने वाले विदेशी आक्रमणकारी का नाम तैमूर था। उस के आक्रमण का वर्ष 139899 ई० था।

प्रश्न 40.
अन्तिम तुगलक सुल्तान का क्या नाम था तथा इसका राज्य कब समाप्त हुआ ?
उत्तर-
अन्तिम तुग़लक सुल्तान का नाम नासिरुद्दीन महमूद शाह था। उस का राज्य 1412 ई० में समाप्त हो गया।

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प्रश्न 41.
फिरोज़ तुग़लक की मृत्यु के बाद कौन-से चार नये राज्य स्थापित हुए ?
उत्तर-
फिरोज़ तुग़लक की मृत्यु के पश्चात् जौनपुर, मालवा, गुजरात तथा खानदेश नये राज्य स्थापित हुए।

प्रश्न 42.
दिल्ली सल्तनत के वित्त तथा लगान सम्बन्धी मन्त्री को क्या कहा जाता था तथा उसकी सहायता के लिए कौन से दो अधिकारी थे ?
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के वित्त तथा लगान सम्बन्धी मन्त्री को ‘वजीर’ कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए ‘महालेखाकार’ तथा ‘महालेखा परीक्षक’ नामक अधिकारी होते थे।

प्रश्न 43.
दिल्ली सल्तनत के अधीन सेना, शाही पत्र-व्यवहार, गुप्तचर विभाग, धार्मिक मामलों तथा न्याय के मन्त्री को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के अधीन सैनिक संगठन के मन्त्री को आरिज-ए-मुमालिक, पत्र व्यवहार के मन्त्री को दरबारए-खास, गुप्तचर विभाग के मन्त्री को बरीद-ए-खास, धार्मिक मामलों तथा न्याय के मन्त्री को शेख-अल-इस्लाम कहते थे।

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प्रश्न 44.
सुल्तानों के महलों तथा दरबार की देख-रेख करने वाले दो अधिकारियों के नाम बताएं।
उत्तर-
सुल्तानों के महलों तथा दरबार की देख-रेख करने वाले दो अधिकारियों के नाम थे-‘वकील-ए-दर’ तथा ‘अमीर-ए-हाजिब’।

प्रश्न 45.
न्याय प्रबन्ध के अन्तर्गत कौन से मामलों में प्रत्येक व्यक्ति राज्य के कानून के सामने बराबर था और कौन से अधिकारी की अदालत में जा सकता था ?
उत्तर-
सम्पत्ति से सम्बन्धित सब बातों में किसी भी धर्म का व्यक्ति इस्लामी कानून के सम्मुख बराबर था। ऐसे मामलों में वह काज़ी की अदालत में जा सकता था।

प्रश्न 46.
सल्तनत की ओर से दिए जाने वाले संरक्षण का अधिकांश भाग किन चार प्रकार की संस्थाओं और व्यक्तियों को मिलता था ?
उत्तर-
सल्तनत की ओर से दिये जाने वाले संरक्षण का अधिकांश भाग प्रायः मस्जिदों, मदरसों, खानकाहों और ऐसे मुसलमानों को जाता था, जिनकी धर्म-परायणता विख्यात थी।

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प्रश्न 47.
अलाऊद्दीन खिलजी की सेना की संख्या कितनी मानी जाती है और एक घुड़सवार को कितना वेतन मिलता था ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी की सेना की संख्या 4,75,000 मानी जाती है। एक घुड़सवार को 234 टके वेतन मिलता था। ।

प्रश्न 48.
सल्तनत की सेना में कौन से तीन अंग थे तथा इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण कौन सा था ?
उत्तर-
सल्तनत की सेना में घुड़सवार, हाथी तथा पैदल शामिल थे। घुड़सवार सेना का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग थे।

प्रश्न 49.
बाज़ार नियन्त्रण किस सुल्तान ने किया तथा किन्हीं चार वस्तुओं के नाम बताएं जिनके मूल्य॑ इसके वर्गत नियत किए गए।
उत्तर-
बाजार नियन्त्रण अलाऊद्दीन खिलजी ने किया था। इसके अन्तर्गत अनाज, घी, तेल, कपड़ा आदि वस्तुओं के मूल्य 1यत किये गए।

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प्रश्न 50.
दिल्ली सल्तनत के अधीन प्रान्तीय गवर्नरों के लिए कौन से तीन नामों का प्रयोग किया जाता था ?
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के अधीन गवर्नरों को ‘मुक्ती’, ‘सूबेदार’ अथवा ‘वली’ कहा जाता था।

प्रश्न 51.
परगने का मुख्य अधिकारी कौन था ? उसका क्या कार्य था ?
उत्तर-
परगने का मुख्य अधिकारी ‘आमिल’ होता था। उसका मुख्य कार्य लगान उगाहना तथा हिसाब-किताब रखना था।

प्रश्न 52.
कानूनगो किस स्तर पर और क्या काम करता था ?
उत्तर-
कानूननो परगने की ज़मीन तथा लगान से सम्बन्धित सारा रिकार्ड रखता था।

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प्रश्न 53.
चौधरी किस व्यक्ति को माना जाता था ?
उत्तर-
एक प्रभावशाली व्यक्ति को चौधरी माना जाता था।

प्रश्न 54.
स्थानीय स्तर पर चार अधिकारियों के नाम बतायें जिनके पद वंशानुगत होते थे।
उत्तर–
पटवारी, मुकद्दम, चौधरी तथा कानूनगो के पद वंशानुगत होते थे।

प्रश्न 55.
सल्तनत की आय का मुख्य स्रोत क्या था तथा एवं इसको निर्धारित करने की तीन प्रमुख विधियां कौन सी थीं ?
उत्तर-
सल्तनत की आय का प्रमुख स्रोत भूमि से प्राप्त लगान था। लगान निर्धारित करने की तीन विधियां थीं-बटाई, कनकूत तथा भूमि की पैमाइश।

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प्रश्न 56.
बटाई से क्या भाव था ?
उत्तर-
बटाई से भाव कटी हुई फसल को सरकार तथा किसान के बीच बाँटना था।

प्रश्न 57.
कनकूत से क्या भाव था ?
उत्तर-
कनकूत में लगभग तैयार फसल के आधार पर लगान का अनुमान लगाया जाता था।

प्रश्न 58.
कौन से सुल्तान के समय में लगान की दर सबसे अधिक और कितनी थी ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी के समय में लगान की दर सबसे अधिक थी। लगान की दर उपज का 1/2 भाग थी।

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प्रश्न 59.
लगान की वसूली किन दो रूपों में की जाती थी ?
उत्तर-
लगान की वसूली गल्ले तथा नकदी में की जाती थी।

प्रश्न 60.
इक्ता से क्या भाव था ?
उत्तर-
सरकार के अधिकतर कर्मचारियों को नकद वेतन देने के स्थान पर लगान इकट्ठा करने का अधिकार दे दिया जाता था। इस प्रकार इकट्ठा किये जाने वाले लगान को इक्ता कहा जाता था।

प्रश्न 61.
दिल्ली सल्तनत के शासक वर्ग में सम्मिलित लोग कौन से चार विभिन्न जातीय मलों के थे ?
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के शासक वर्ग में सम्मिलित लोग तुर्क, ईरानी, अरब तथा पठान जाति से थे।

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प्रश्न 62.
सुल्तानों द्वारा बनवाए गए चार भवनों के चार प्रकार बताओ।
उत्तर-
सुल्तानों द्वारा बनवाए गए चार प्रकार के भवन थे-मस्जिदें, मकबरे, किले, महल तथा मीनार।

प्रश्न 63.
सल्तनत काल में बनी किन्हीं चार मस्जिदों के नाम बताएं।
उत्तर-
जौनपुर की अटाला और जामा मस्जिद, दिल्ली की कुव्वत-अल-इस्लाम मस्जिद तथा अजमेर की अढ़ाई-दिनका झोपड़ा मस्जिद दिल्ली सल्तनत काल में बनाई गई थीं।

प्रश्न 64.
सल्तनत काल में कौन-सी चार प्रादेशिक सल्तनतों के भवनों के प्रभावशाली नमूने मिले हैं ?
उत्तर-
प्रादेशिक सल्तनतों के भवनों में प्रभावशाली नमूने बंगाल, जौनपुर, मालवा और गुजरात में मिले हैं।

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प्रश्न 65.
कुव्वत-अल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण किसने आरम्भ किया और इसे क्यों महत्त्व दिया जाता है ?
उत्तर-
कुव्वत-अल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण ऐबक ने कराया था। इसके आंगन में कुतुबमीनार होने से इसे महत्त्व दिया, जाता है।

प्रश्न 66.
कुतुबमीनार कहाँ है तथा इसकी कितनी मंज़िलें हैं ?
उत्तर-
कुतुबमीनार दिल्ली के समीप महरौली के स्थान पर स्थित है। इसकी पाँच मंजिलें हैं।

प्रश्न 67.
दिल्ली में किन चार वंशों के सुल्तानों के मकबरे मिलते हैं?
उत्तर-
दिल्ली में खिलजी, तुग़लक, सैय्यद तथा लोधी वंश के सुल्तानों के मकबरे मिलते हैं।

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प्रश्न 68.
सल्तनत काल में बनवाए गए किन्हीं दो नगरों के नाम तथा उनको बनवाने वाले सुल्तानों के नाम बताएं।
उत्तर-
सल्तनत काल में अलाऊद्दीन खिलजी ने सीरी नगर तथा फिरोजशाह कोटला नगर बसाये।

प्रश्न 69.
सल्तनत काल के बड़े दरवाजों के दो सबसे बढ़िया नमूने कौन से हैं और ये कहाँ मिलते हैं ? .
उत्तर-
सल्तनत काल के बड़े दरवाजों के दो सबसे बढ़िया नमूने गौड़ का दाखली दरवाज़ा तथा कुतुबमीनार के निकट अलाई दरवाज़ा है।

प्रश्न 70.
राजपूतों की विधार्मिक भवन निर्माण कला के दो प्रभावशाली उदाहरण कौन से हैं ?
उत्तर-
राजपूतों की विधार्मिक भवन निर्माण कला के दो प्रभावशाली उदाहरण हैं-ग्वालियर में राजा मानसिंह का महल और चित्तौड़ में राणा कुम्भा का विजय स्तम्भ।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना में क्या भूमिका निभाई ?
उत्तर-
कुतुबुद्दीन ऐबक मुहम्मद गौरी का एक दास था। उसकी योग्यता से प्रभावित होकर 1192 ई० में मुहम्मद गौरी ने उसे भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया था। उसने मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि के रूप में 1206 ई० तक अनेक प्रदेश जीते। उसने अजमेर तथा मेरठ के विद्रोहों का दमन किया और दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया। उसने अजमेर के मेढ़ों तथा बुन्देलखण्ड के चन्देलों को भी हराया। शीघ्र ही उसने कालपी और बदायूं पर विजय प्राप्त की। 1206 ई० में मुहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद वह दिल्ली का स्वतन्त्र शासक बन गया। स्वतन्त्र शासक के रूप में उसने हिन्दू सरदारों का दमन किया और दासता से मुक्ति प्राप्त करके दिल्ली सल्तनत की नींव को सुदृढ़ किया। 1210 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 2.
इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तन को किस प्रकार संगठित किया ?
उत्तर-
इल्तुतमिश 1211 ई० में दिल्ली का सुल्तान बना। सिंहासनारोहण के समय उसकी अनेक कठिनाइयां थीं जिन पर उसने बड़ी सूझ-बूझ से नियन्त्रण पाया। सर्वप्रथम उसने पहले कुतुबी सरदारों को हराया। इन सरदारों ने उसे सुल्तान मानने से इन्कार कर दिया था। उसके मार्ग में ताजुद्दीन यल्दौज़ भी बाधा बना हुआ था। इल्तुतमिश ने उसे तराईन (तरावड़ी) के मैदान में करारी हार दी। मुल्तान में नासिरुद्दीन कुबाचा और बंगाल, बिहार में अलीमर्दान ने भी अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया था। इल्तुतमिश ने इन दोनों के विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन कर दिया। उसकी सफलताओं से प्रसन्न होकर बगदाद के खलीफा ने उसे सम्मान प्रदान किया, जिससे उसकी स्थिति काफ़ी दृढ़ हो गई। अब उसने गुजरात, मालवा और भीलसा के राजपूतों की शक्ति को कुचला और भारत में सल्तनत राज्य की नींव को पक्का किया।

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प्रश्न 3.
सल्तनत काल में भारत की शिक्षा प्रणाली का वर्णन करो।
उत्तर-
सल्तनतकालीन भारत शिक्षा के क्षेत्र में अपना प्राचीन वैभव खो चुका था। इस युग में नालन्दा, तक्षशिला जैसे उच्चकोटि के विश्वविद्यालय नहीं थे। सुल्तान सदा संघर्षों में उलझे रहे। अतः उनके काल में फिरोज़ तुग़लक को छोड़कर किसी ने शिक्षा के प्रसार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। प्रायः मस्जिदें तथा मन्दिर ही शिक्षा के केन्द्र होते थे। मुसलमानों के बच्चे उर्दू, फारसी तथा कुरान की शिक्षा ग्रहण करते थे। फिरोज़ तुगलक ने मुसलमानों की शिक्षा के लिए अलग स्कूल भी खुलवाए। जौनपुर उन दिनों शिक्षा का एक बहुत बड़ा केन्द्र माना जाता था। फिरोज़ तुग़लक के पश्चात् यदि किसी मुस्लिम शासक ने शिक्षा के क्षेत्र में उत्साह दिखाया, तो वह था अकबर। उसने अनेक मदरसे खुलवाए तथा प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को इनाम तथा वज़ीफे देने की व्यवस्था की।

प्रश्न 4.
दिल्ली सल्तनत के केन्द्रीय शासन का वर्णन करो।
उत्तर-
केन्द्रीय शासन का मुखिया सुल्तान स्वयं था। इसकी सहायता के लिए कई मन्त्री थे। सबसे महत्त्वपूर्ण मन्त्री वित्तीय व्यवस्था तथा लगान का मन्त्री था। इस को ‘वजीर’ कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए एक महालेखाकार (मुशरिफ) तथा एक महालेखापरीक्षक (मुस्तौफी) थे। सैनिक संगठन के मन्त्री को ‘आरिज़-ए-मुमालिक’ कहते थे। शाही पत्र-व्यवहार के मन्त्री को ‘दबीर-ए-खास’ तथा गुप्तचर विभाग के मन्त्री को ‘बरीद-ए-खास’ कहा जाता था। अन्य विषयों के मन्त्री ‘वजीर’ से कम महत्त्वपूर्ण तथा कम शक्तिशाली थे। यहां तक कि धार्मिक मामलों तथा न्याय का मन्त्री भी (जिसको ‘शेखअल-इस्लाम’ कहते थे) ‘वजीर’ जितना महत्त्वपूर्ण नहीं था। इनके अतिरिक्त, सुल्तान के महलों तथा उसके दरबारों की देखरेख करने के लिए भी अधिकारी थे। इनमें महलों तथा शाही कारखानों के लिए ‘वकील-ए-दर’ तथा दरबार के लिए ‘अमीरए-हाजिब’ मुख्य थे।

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प्रश्न 5.
दिल्ली सल्तनत के सैनिक प्रबन्ध के विषय में लिखो।
उत्तर-
सुल्तानों ने विशाल स्थायी सेना का संगठन किया। इसका प्रधान दीवान-ए-अर्ज होता था। केन्द्रीय सेना के अतिरिक्त प्रान्तीय सूबेदार भी अपने पास सेना रखते थे। वे समय पड़ने पर सुल्तान की सहायता करते थे। सेना के चार प्रमुख अंग थे जिनमें सबसे प्रमुख घुड़सवार सेना थी। युद्ध में हाथियों का भी प्रयोग होता था जो सेना का दूसरा अंग था। तीसरा अंग पैदल सेना थी। अस्त्रों-शस्त्रों में तलवार, बर्छा, भाले तथा धनुष बाणों का प्रयोग किया जाता था। सुल्तानों का सैनिक संगठन दाशमिक प्रणाली पर आधारित था। 10 घुड़सवारों पर सरेखैल नामक अधिकारी होता था और 10 सरेखैल पर एक सिपाहसालार होता था। इसी प्रकार 10 सिपाहसालारों पर एक अमीर होता था, 10 अमीरों पर एक मालिक और 10 मालिकों पर एक खान होता था। सेना का आकार समय-समय पर परिवर्तित होता रहता था।

प्रश्न 6.
रजिया सुल्तान में एक शासक के सभी गुण विद्यमान् थे, परन्तु फिर भी वह असफल रही। उसकी असफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
इसमें कोई सन्देह नहीं कि रज़िया एक सर्वगुण सम्पन्न शासिका थी। वह मरदाने कपड़े पहनकर खुले दरबार में बैठती थी। वह अच्छा न्याय करती थी और प्रजा की उन्नति का ध्यान रखती थी। फिर भी अन्त में उसके शत्रुओं की विजय हुई। इसके कई कारण थे : –

1. रज़िया की सबसे बड़ी दुर्बलता यह थी कि वह एक स्त्री थी। एल्फन्स्टोन लिखता है, “रज़िया स्त्री थी। उसकी इस दुर्बलता ने उसके और सभी गुणों को ढांप लिया था।”

2. रज़िया ने अपने प्रेम-सम्बन्धों द्वारा अपना पक्ष कमज़ोर कर लिया। जलालुद्दीन याकूब नामक हब्शी दास पर उसकी विशेष कृपा थी। इसलिए अनेक सरदार तथा अमीर रज़िया के विरुद्ध हो गए और षड्यन्त्र रचने लगे।

3. सरदार तथा अमीर किसी स्त्री के अधीन रहना पसन्द नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने रज़िया से छुटकारा पाने के लिए अनेक योजनाएं बनाई और अन्त में उसका वध कर दिया।

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प्रश्न 7.
दक्षिण में अलाऊद्दीन खिलजी की सफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
दक्षिण में अलाऊद्दीन खिलजी की सफलता के मुख्य कारण ये थे

1. अलाऊद्दीन खिलजी की दक्षिण के विषय में व्यक्तिगत जानकारी-सुल्तान बनने से पूर्व ही अलाऊद्दीन दक्षिण में देवगिरि पर आक्रमण कर चुका था। अपने व्यक्तित्व अनुभव के आधार पर उसने काफूर को उचित आदेश दिए जिसके कारण वह विजयी रहा।

2. मलिक काफूर की सैनिक योग्यता-काफूर योग्य सेनानायक सिद्ध हुआ। वह एक प्रदेश विजय करने के पश्चात् दूसरा प्रदेश विजय करने के लिए आगे बढ़ता गया। उसके सैनिक कारनामों की सूचनाएं दक्षिण के राजाओं को पहले से ही मिल जाती थीं और वे उससे लड़ने का साहस खो बैठते थे।

3. दक्षिण के राजाओं में फूट-दक्षिण के राजा अलाऊद्दीन की सेनाओं से मिलकर न लड़े। परिणामस्वरूप मलिक काफूर के लिए उन्हें अलग-अलग पराजित करना सरल हो गया।

4. धार्मिक जोश-मुसलमानों में धार्मिक जोश था। मलिक काफूर और उसके सैनिक इस्लाम के नाम पर लड़े। उन्होंने कई लोगों को मुसलमान बनाया और दक्षिण में मस्जिदें बनाईं।

प्रश्न 8.
अलाऊद्दीन खिलजी की बाज़ार-नियन्त्रण नीति की विवेचना कीजिए।
अथवा
अलाऊद्दीन खिलजी के आधुनिक सुधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी एक सफल राजनीतिज्ञ और महान् अर्थशास्त्री था। अतः उसने बाजारों पर नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया। इस उद्देश्य से उसने तीन प्रकार के बाजारों की स्थापना की-एक खाद्यान्न के लिए, दूसरा घोड़ों, दासों तथा गाय-बैलों के लिए, तीसरा आयात की गई मूल्यवान् वस्तुओं के लिए। उसने इन सभी वस्तुओं के बाजार मूल्य निश्चित कर दिये। सभी दुकानदारों के लिए यह भी आवश्यक था कि वे दुकानों पर मूल्य सूची लगायें। अलाऊद्दीन खिलजी ने वस्तुओं के एकत्रीकरण और वितरण की भी उचित व्यवस्था की। वस्तुओं को एकत्रित करने के लिए मुल्तानी सौदागर तथा बंजारे नियुक्त किए गए। वस्तुओं के उचित वितरण के लिए राशम-प्रणाली आरम्भ की गई। राशन व्यवस्था तथा मण्डियों के उचित प्रबन्ध के लिए अलग विभाग की स्थापना की गई जिसे ‘दीवान-ए-रियासत’ कहते थे।

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प्रश्न 9.
अलाऊद्दीन खिलजी की कृषि-नीति का वर्णन करो।
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी को मंगोलों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना करने तथा साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए बहुत से धन की आवश्यकता थी। अत: उसने कृषि की ओर विशेष ध्यान दिया ताकि राज्य को अधिक-से-अधिक लगान प्राप्त हो। उसने लगान-प्रणाली में भी कई सुधार किये। राज्य की सारी भूमि की पैमाइश करवाई कई तथा उपज का आधा भाग भूमि कर के रूप में निश्चित किया गया। अपनी भूमि-कर प्रणाली को सफल बनाने के लिए उसने ये पग उठाये थे(1) राजस्व अधिकारियों को रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार से बचाने के लिए उनके वेतन बढ़ा दिए गए। (2) किसानों से बचा हुआ भूमिकर उगाहने के लिए अलाऊद्दीन ने मस्तराज नामक अधिकारी की नियुक्ति की। (3) किसान भूमि-कर नकदी अथवा उपज के रूप में दे सकते थे। सुल्तान तो चाहता था किसान नकदी के स्थान पर उपज का ही कुछ भाग कर के रूप में दिया करें।

प्रश्न 10.
अपने शासन को सुदृढ़ करने के लिए अलाऊद्दीन खिलजी ने क्या कार्य किए ?
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी ने अपने शासन को सुदृढ़ बनाने के लिए मुख्य रूप से ये चार कार्य किए-

  • उसने बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा के लिए एक विशाल तथा शक्तिशाली सेना का संगठन किया।
  • अलाऊद्दीन खिलजी के समय मंगोल दिल्ली सल्तनत के लिए बहुत बड़ा खतरा बने हुए थे। अलाऊद्दीन ने इन्हें इतनी बुरी तरह पराजित किया कि वे एक लम्बे समय तक दिल्ली राज्य पर आक्रमण करने का साहस न कर सके।
  • अलाऊद्दीन ने सेना तथा गुप्तचरों की सहायता से आन्तरिक विद्रोही तत्त्वों को बुरी तरह कुचला। उसने बाज़ार-नियमों को भी लागू किया ताकि लोगों को सस्ता तथा उचित भोजन मिल सके।
  • अलाऊद्दीन खिलजी ने शासन पर मुल्लाओं के प्रभाव को समाप्त कर दिया। फलस्वरूप सुल्तान की शक्ति एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और वह स्वतन्त्र रूप से शासन चलाने लगा।

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प्रश्न 11.
मुहम्मद तुगलक की योजनाओं (प्रयोगों) की असफलता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
मुहम्मद तुग़लक की योजनाओं की असफलता के मुख्य कारण ये थे-
1. मुहम्मद तुग़लक किसी योजना पर अडिग नहीं रहता था। उसने दिल्ली के स्थान पर देवगिरि को राजधानी बनाया और फिर दिल्ली को ही राजधानी बना लिया। उसने सांकेतिक मुद्रा चलाई और फिर उसे वापिस लेने का निश्चय कर लिया। इस अस्थिर स्वभाव के कारण उसकी योजनाएं असफल रहीं।

2. मुहम्मद तुग़लक तथा उसके अधिकारी बड़ी सख्ती का व्यवहार करते थे। दिल्ली की जनता को विवश करके देवगिरि ले जाया गया। किसानों से अकाल की स्थिति में भी कर उगाहने का प्रयत्न किया गया। अतः उसकी योजनाओं को असफल होना स्वाभाविक ही था।

3. मुहम्मद तुग़लक जी खोलकर दान दिया करता था। इसके अतिरिक्त उसकी योजनाओं पर बहुत अधिक व्यय हुआ। इन सब के कारण राजकोष खाली हो गया।

4. मुहम्मद तुग़लक के दरबारी स्वामिभक्त नहीं थे। उनमें आपसी तालमेल का अभाव था। इस तथ्य ने भी उसकी असफलता के बीज बोये।

प्रश्न 12.
फिरोज़ तुगलक के प्रशासनिक कार्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
फिरोज़ तुग़लक ने सभी अनुचित करों को समाप्त कर दिया। उसने केवल वही चार कर रहने दिए जिनकी कुरान अनुमति देता था। उसने कृषि को उन्नति के लिए स्थान-स्थान पर नहरें तथा कुएं खुदवाए। अतिरिक्त भूमि को हल के नीचे लाया गया। फिरोज़ तुग़लक ने अपराधियों को दिए जाने वाले अमानवीय दण्ड कम कर दिए। उसने राज्य में कई नए सिक्के चलाए। निर्धन व्यक्तियों के लिए छोटे सिक्के बनाए गए। उसने प्रजा की भलाई के लिए ‘दीवान-ए-खैरात’ नामक एक अलग विभाग की स्थापना की। परन्तु उसने कुछ दोषपूर्ण कार्य भी किए। उसने जागीरदारी की प्रथा फिर से आरम्भ कर दी। यह प्रथा शासन के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुई। उसे दास रखने का बड़ा चाव था। उसके पास एक लाख अस्सी हज़ार दास थे। इन दासों पर धन पानी की तरह बहाया जाता था। इससे राजकोष पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। सबसे बढ़कर उसने हिन्दू जाति पर बहुत अत्याचार किए।

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प्रश्न 13.
15वीं शताब्दी में उदय होने वाले राज्यों का वर्णन करो।
उत्तर-
15वीं शताब्दी में उभरने वाले प्रमुख प्रान्तीय राज्य ये थे-

  1. शर्की वंश का राज्य-इस राज्य की स्थापना 1394 ई० में हुई थी। यह राज्य पूर्वी भारत में था। इस वंश के शासकों के अन्तर्गत जौनपुर कला और साहित्य का प्रसिद्ध केन्द्र बना। इसे पूर्व का ‘शीराज़’ कहा जाने लगा।
  2. बंगाल-दूसरा प्रमुख राज्य बंगाल का था। यूं तो बंगाल पर दिल्ली के सुल्तान कभी पूर्ण रूप से अधिकार न कर पाए परन्तु इस काल में बंगाल पूरी तरह स्वतन्त्र हो गया। यहां के शासकों के अधीन बंगला साहित्य और भाषा की बड़ी उन्नति
  3. मालवा-तीसरा स्वतन्त्र राज्य मालवा था। वहां के शासकों ने संगीत को काफ़ी प्रोत्साहन दिया।
  4. गुजरात -चौथा स्वतन्त्र राज्य गुजरात का था। इस राज्य का प्रमुख शासक अहमदशाह (1411-1442 ई०) था। उसने अहमदाबाद नामक नगर की स्थापना की और उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया।

प्रश्न 14.
बलबन ने दिल्ली सल्तनत को किस प्रकार संगठित किया ?
अथवा
बलबन को दास वंश का महान् शासक क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
बलबन ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक कार्य किए। सबसे पहले उसने ‘लौह और रक्त नीति’ द्वारा आन्तरिक विद्रोहों का दमन किया और राज्य में शान्ति स्थापित की। बलबन ने दोआब क्षेत्र के सभी लुटेरों और डाकुओं का वध करवा दिया। उसने मंगोलों से राज्य की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सैनिक सुधार किये। पुराने सिपाहियों के स्थान पर नये योग्य सिपाहियों को भर्ती किया गया। सीमावर्ती किलों को भी सुदृढ़ बनाया गया। उसने बंगाल के विद्रोही सरदार तुगरिल खां को भी बुरी तरह पराजित किया। बलबन ने राज दरबार में कड़ा अनुशासन स्थापित किया। उसने सभी शक्तिशाली सरदारों से शक्ति छीन ली ताकि वे कोई विद्रोह न कर सकें। उसने अपने राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा दिया। इस प्रकार के कार्यों से उसने दिल्ली सल्तनत को आन्तरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों से पूरी तरह सुरक्षित बनाया। इसी कारण ही बलबन को दास वंश का महान् शासक कहा जाता है।

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प्रश्न 15.
13वीं शताब्दी के दिल्ली सल्तनत के काल के लिए सबसे उपयुक्त नाम क्या है और क्यों ? .
उत्तर-
13वी शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के लिये उपयुक्त नाम दास वंश या गुलाम वंश है। इसका कारण यह है कि इस शताब्दी के सभी सुल्तान या तो स्वयं दास थे या दासों की सन्तान थे। कुतुबुद्दीन ऐबक गौरी का दास था, इल्तुतमिश कुतुबुद्दीन ऐबक का दास था और बलबन इल्तुतमिश का दास था। निस्सन्देह ये सभी दास शासक शक्तिशाली सुल्तान थे। इतिहासकार दास वंश की जगह इन दास शासकों को इलबरी तुर्क भी कहते हैं। परन्तु ये दास शासक एक परिवार से सम्बन्धित नहीं हैं। इलबरी तुर्कों को एक राजवंश का सदस्य नहीं कहा जा सकता। अतः उन्हें दास वंश का नाम देना अधिक उपयुक्त

प्रश्न 16.
दक्षिण भारत की विजयों के लिए अलाऊद्दीन ने किस प्रकार की नीति अपनाई ? (M. Imp.)
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम सुल्तान था, जिसने दक्षिणी भारत के प्रदेशों को भी विजय करने की योजना बनाई और इसका कार्यभार उसने अपने सेनापति मलिक काफूर को सौंपा। दक्षिण में उसने कुल मिलाकर चार राज्य जीते। इनके नाम थे-देवगिरि, वारंगल, द्वारसमुद्र तथा मदुरै। उसने दक्षिण में विजित इन राज्यों के प्रति एक विशेष नीति अपनाई। उसने इन राज्यों के शासकों से केवल अपनी अधीनता स्वीकार करवाई और उनसे धन प्राप्त किया। उसने दक्षिण के इन प्रदेशों को अपने साम्राज्य में न मिलाया। वह इस बात को भली-भांति जानता था कि दक्षिण के सुदूर प्रदेशों पर नियन्त्रण रखना उसके लिए बहुत कठिन होगा। वास्तव में उसके अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए ही दक्षिण को अपना निशाना बनाया था। अपने इस उद्देश्य में उसे पूरी तरह सफलता मिली।

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प्रश्न 17.
मुहम्मद-बिन-तुगलक के किन प्रशासनिक प्रयोगों के कारण लोगों में असन्तोष फैला ?
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक के निम्नलिखित प्रशासनिक प्रयोगों के कारण लोगों में असन्तोष फैल गया(1) उसने धन-प्राप्ति के लिए दोआब के उपजाऊ प्रदेश में किसानों पर भारी कर लगा दिए। अकाल के कारण किसान इन करों को देने में असमर्थ थे, इसलिए वे अपनी जमीनें छोड़कर भाग गए। (2) 1328-29 ई० में मुहम्मद तुग़लक ने अपनी राजधानी दिल्ली की बजाए दौलताबाद में बनाई। दिल्ली की जनता को भी दौलताबाद जाने के लिए विवश किया गया परन्तु थोड़े ही समय में उसने फिर उन लोगों को दिल्ली चलने का आदेश दिया। (3) इसी बीच तारमशीरी खां के नेतृत्व में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण कर दिया। मुहम्मद तुग़लक उनका सामना करने के स्थान पर उन्हें धन देकर वापस भेजने लगा। (4) मुहम्मद तुग़लक ने सोने-चांदी के सिक्कों के स्थान पर तांबे के सिक्के भी चलाए। परन्तु लोगों ने अपने घरों में ही ये सिक्के बनाने आरम्भ कर दिए। अतः यह योजना भी असफल रही।

प्रश्न 18.
फिरोज़ तुगलक की कौन-सी नीतियों ने सल्तनत के पतन में योगदान दिया ?
उत्तर-
फिरोज़ तगलक एक कट्टर मुसलमान था। उसने हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार किए। उनके मन्दिरों और पवित्र मूर्तियों को बड़ी निर्दयता से तोड़ा गया। हिन्दुओं को उच्च पदों से वंचित कर दिया गया। उन पर जजिया भी लगा दिया गया। इससे हिन्दू उसके विरुद्ध हो गए। इसके अतिरिक्त उसकी सैनिक अयोग्यता के कारण साम्राज्य कमजोर हो गया। देश षड्यंत्रों, और विद्रोहियों का गढ़ बन गया। उसने दण्ड विधान को नर्म बना दिया। इससे भी विद्रोहियों और अपराधियों को बहुत सहारा मिला। दासों के प्रति अत्यधिक प्रेम, उन पर राजकोष का अपव्यय, दानशीलता और सामन्त प्रथा ने साम्राज्य को खोखला कर दिया। फिरोज़ तुग़लक की इन्हीं नीतियों ने सल्तनत के पतन में योगदान दिया।

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प्रश्न 19.
क्या दिल्ली सल्तनत को एक धर्म-तन्त्र कहना उपयुक्त होगा ?
उत्तर-
धर्म-तन्त्र से हमारा अभिप्राय पूर्ण रूप से धर्म द्वारा संचालित राज्य से है। दिल्ली सल्तनत के कई सुल्तान खलीफा के नाम पर राज्य करते थे और कुछ ने तो अपने समय के खलीफा से मान्यता-पत्र भी लिया था। परन्तु वास्तव में खलीफा की मान्यता का सुल्तान की शक्ति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। सुल्तान से शरीअत (इस्लामी कानून) के अनुसार कार्य करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु उसकी नीति एवं कार्य प्रायः उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करते थे। कभीकभी शरीअत के कारण कुछ जटिल समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती थीं। ऐसे समय सुल्तान जानबूझ कर अनदेखी कर देते थे। वास्तव में जब कोई सुल्तान शरीअत की दुहाई देता था तो यह साधारणत: उसकी शासक के रूप में कमजोरी का चिन्ह माना जाता था। इसलिए दिल्ली सल्तनत को एक धर्म-तन्त्र समझना उचित नहीं होगा।

प्रश्न 20.
दिल्ली सल्तनत के अधीन ‘इक्ता’ व्यवस्था के बारे में बताएं।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के अधीन अधिकांश कर्मचारियों को नकद वेतन देने की बजाए भूमि से लगान इकट्ठा करने का
गांवों या परगनों का लगान दिया जाता था। इस प्रकार एकत्रित किए गए लगान को ‘इक्ता’ कहा जाता था। इसका अर्थ थाभूमि से उपज का एक हिस्सा। इसका कुछ भाग उच्च अधिकारी अपने अधीन कर्मचारियों तथा सैनिकों को वेतन के रूप में दे सकते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक साधारण घुडसवार सैनिक को भी वेतन भूमि के लगान के रूप में दिया जा सकता था। यह व्यवस्था फिरोज तुग़लक तथा बाद में लोधी सुल्तानों के काल में अधिक प्रचलित हो गई। समय बीतने पर इक्ता प्रणाली को ‘जागीरदारी प्रबन्ध’ कहा जाने लगा। अब लगान एकत्रित करने के लिए दी गई भूमि को जागीर तथा जागीरदार की उपमा दी गई।

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प्रश्न 21.
दिल्ली के सुल्तानों के शासक वर्ग के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे ?
उत्तर-
सल्तनत काल में शासक वर्ग में मुख्यत: बड़े-बड़े अमीरों तथा सरदारों की गणना होती थी। सुल्तान और अमीरों के आपसी सम्बन्ध प्रशासनिक दृष्टिकोण से बड़े महत्त्वपूर्ण थे। इन सम्बन्धों में कभी-कभी तनाव भी रहता था। इल्तुतमिश के समय में यह सम्बन्ध अच्छे थे। परन्तु उसके उत्तराधिकारियों के समय में अमीर बहुत शक्तिशाली हो गए थे। बलबन ने सुल्तान की शक्ति बढ़ाने के लिए अमीरों की शक्ति का दमन कर दिया था। अलाऊद्दीन खिलजी के समय में तो सुल्तान का दबदबा चरम सीमा तक पहुंच गया। अन्तिम सुल्तान इब्राहिम लोधी ने पठान अमीरों को दबाने का असफल प्रयत्न किया, जिसके परिणामस्वरूप सल्तनत भीतर ही भीतर कमजोर हो गई। यहां तक कि पंजाब के लोधी सूबेदार दौलत खां ने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का सुझाव देने से भी संकोच न किया।

प्रश्न 22.
सल्तनत काल की भवन निर्माण कला की मुख्य विशेषताएं क्या थीं।
उत्तर-
सल्तनत काल की भवन निर्माण कला की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं-
1. सल्तनत काल के सबसे प्रभावशाली स्मारक मस्जिदें हैं। उदाहरण के लिए गौड़ की अदीना और तांतीपाड़ा मस्जिद, जौनपुर की अटाला और जामा मस्जिद तथा अहमदाबाद और चम्पानेर की मस्जिदें बड़ी प्रभावशाली हैं। दिल्ली की कुव्वतअल-इस्लाम मस्जिद अन्यों की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है। अजमेर की अढ़ाई दिन का झोंपड़ा मस्जिद भी बड़ी प्रभावशाली है।

2. कुतुबमीनार इस काल का विशेष उल्लेखनीय भवन है। इसका निर्माण कार्य भी ऐबक ने आरम्भ किया था तथा इल्तुतमिश ने इसे पूरा किया था।

3. इस काल की वास्तुकला में मस्जिदों के पश्चात् सुल्तानों के मकबरों का महत्त्व है। इनमें विशेष उल्लेखनीय मकबरे दिल्ली, अहमदाबाद और माण्डू में स्थित हैं।

4. उत्तरी भारत में केवल राजस्थान ही ऐसा प्रदेश था जहां प्रभावशाली मन्दिरों का निर्माण होता रहा। चित्तौड़ में राणा कुम्भा का बनवाया चौमुखा मन्दिर, ग्वालियर में राजा मानसिंह का महल और चित्तौड़ में राणा कुम्भा का विजय स्तम्भ मन्दिर कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

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प्रश्न 23.
मंगोलों को आगे बढ़ने के लिए दिल्ली के सुल्तानों में क्या पग उठाए ?
उत्तर-
मंगोलों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए दिल्ली के सुल्तानों ने अनेक पग उठाए। इस सम्बन्ध में बलबन तथा अलाऊद्दीन खिलजी की भूमिका विशेष महत्त्वपूर्ण रही जिसका वर्णन इस प्रकार है

1. उन्होंने सीमावर्ती प्रदेशों में नए दुर्ग बनवाए और पुराने दुर्गों की मुरम्मत करवाई। इन सभी दुर्गों में योग्य सैनिक अधिकारी नियुक्त किए गए।

2. उन्होंने मंगोलों का सामना करने के लिए अपने सेना का पुनर्गठन किया। वृद्ध तथा अयोग्य सैनिकों के स्थान पर युवा सैनिकों की भर्ती की गई। सैनिकों की संख्या में भी वृद्धि की गई।

3. सुल्तानों ने द्वितीय रक्षा-पंक्ति की भी व्यवस्था की। इसके अनुसार मुल्तान, दीपालपुर आदि प्रान्तों में विशेष सैनिक टुकड़ियां रखी गईं और विश्वासपात्र अधिकारी नियुक्त किए। अतः यदि मंगोल सीमा से आगे बढ़ भी आते तो यहां उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ता।

4. सुल्तानों ने मंगोलों को पराजित करने के पश्चात् कड़े दण्ड दिए। इसका उद्देश्य उन्हें सुल्तान की शक्ति के आंतकित करके आगे बढ़ने से रोकना ही था।

प्रश्न 24.
दिल्ली सल्तनत के पतन के कोई चार कारण बताओ।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के पतन के अनेक कारण थे। इनमें से चार कारणों का वर्णन इस प्रकार है-
1. धार्मिक पक्षपात-दिल्ली के सुल्तानों ने धार्मिक पक्षपात की नीति अपनायी। उन्होंने हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार किए। परिणामस्वरूप हिन्दू दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध हो गए। वह बात दिल्ली सल्तनत के पतन का मुख्य कारण बनी।

2. उत्तराधिकार के नियम का अभाव-दिल्ली के सुल्तानों में उत्तराधिकार का कोई उचित नियम नहीं था। फलस्वरूप
अधिकतर सुल्तानों ने अपने से पहले सुल्तान का वध करके राजगद्दी प्राप्त की। इन षड्यन्त्रों और हत्याओं के कारण दिल्ली सल्तनत की शक्ति दिन-प्रतिदिन कम हो गई।

3. निरंकुश शासन-दिल्ली के सुल्तानों का शासन निरंकुश था। शासन की सारी शक्तियां सुल्तान में ही केन्द्रित थीं। अत: शासन केवल तभी स्थिर रह सकता था जब केन्द्र में कोई शक्तिशाली शासक हो, परन्तु फिरोज तुग़लक की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली के सभी सुल्तान निर्बल सिद्ध हुए। परिणामस्वरूप केन्द्रीय शक्ति शिथिल पड़ गई।

4. तैमूर का आक्रमण-1398 ई० में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। उस के आक्रमण से दिल्ली सल्तनत को जनधन की भारी हानि उठानी पड़ी। इसके अतिरिक्त उसने सल्तनत राज्य की राजनीतिक शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।

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IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मुहम्मद गौरी के भारतीय सैनिक अभियानों का वर्णन कीजिए। इनके क्या प्रभाव पड़े।
अथिवा
तराइन की पहली तथा दूसरी लड़ाई का वर्णन करते हुए मुहम्मद गौरी के किन्हीं पांच भारतीय सैनिक अभियानों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
मुहम्मद गौरी एक महान् योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। वह 1173 ई० में गजनी का शासक बना। 1175 ई० से 1206 ई० तक उसने भारत पर अनेक आक्रमण किये और इस देश में मुस्लिम राज्य की स्थापना की। उसके मुख्य आक्रमणों का वर्णन इस प्रकार है-

1. मुल्तान तथा उच्च की विजय-मुहम्मद गौरी ने भारत का पहला आक्रमण 1175-76 ई० में किया। उसने मुल्तान के कारमाथी कबीले को परास्त किया और मुल्तान पर अधिकार कर लिया। मुल्तान विजय के पश्चात् उसने उच्च के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।

2. अनहिलवाड़ा पर आक्रमण-अनहिलवाड़ा में उन दिनों भीमदेव द्वितीय का शासन था। उसने गौरी को करारी पराजय दी और उसे अपमानित होकर स्वदेश लौटना पड़ा।

3. लाहौर पर आक्रमण-अब मुहम्मद गौरी ने अपना ध्यान पंजाब की ओर लगाया। पंजाब में महमूद गज़नवी के प्रतिनिधि मलिक खुसरो का शासन था। 1179 ई० में गौरी ने पंजाब पर आक्रमण करके यहाँ के बहुत-से प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। 1186 ई० में उसने एक बार फिर खुसरो पर आक्रमण किया। इस युद्ध में गौरी ने धोखे से खुसरो को बन्दी बना लिया और उसकी हत्या करवा दी।

4. तराइन का पहला युद्ध-पंजाब विजय के बाद मुहम्मद गौरी दिल्ली की ओर बढ़ा। उसने 1191 ई० में वहाँ के शासक पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया। परन्तु तराइन के स्थान पर पृथ्वीराज ने मुहम्मद गौरी को बुरी तरह हराया।

5. तराइन का दूसरा युद्ध-अपनी पराजय का बदला लेने के लिए गौरी ने अगले वर्ष (1192 ई० में) पुनः दिल्ली के राज्य पर आक्रमण किया। इस बार कन्नौज के राजा जयचन्द ने भी उसका साथ दिया। तराइन के स्थान पर गौरी और पृथ्वीराज की सेनाओं में एक बार फिर युद्ध हुआ। इस बार मुहम्मद गौरी विजय रहा। पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर उसका वध कर दिया गया।

6. कन्नौज पर आक्रमण-1194 ई० में मुहम्मद गौरी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। छिंदवाड़ा के स्थान पर उसकी तथा जयचन्द की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। राजपूत असाधारण वीरता से लड़े, पर भाग्य ने गौरी का साथ दिया। इस युद्ध में जयचन्द की पराजय हुई और गौरी को अपार धन प्राप्त हुआ।

7. अजमेर, अनहिलवाड़ा, हाँसी तथा कालिंजर पर अधिकार-कन्नौज विजय के बाद गौरी पुनः गज़नी लौट गया। उसकी अनुपस्थिति में उसके प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने अभियान जारी रखे। उसने अजमेर, अनहिलवाड़ा, हाँसी और कालिंजर पर अधिकार कर लिया।

8. बिहार और बंगाल की विजय-कुतुबुद्दीन के सेना नायक बख्तियार खिलजी ने बिहार पर आक्रमण करके वहाँ के राजा इन्द्रदमन को परास्त किया। उसने यहाँ बहुत लूटमार की और अनेक बौद्ध भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। इसके पश्चात् बख्तियार खिलजी ने बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन को हराकर वहाँ भी अपना अधिकार जमा लिया।

9. खोखरों का दमन-जेहलम और चिनाब के बीच के क्षेत्र के खोखरों ने गौरी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। परन्तु गौरी ने धैर्य न छोड़ा और अपने स्वामिभक्त दास ऐबक के सहयोग से खोखरों को बुरी तरह कुचल डाला।

मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के प्रभाव-

  • मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना हुई।
  • मुहम्मद गौरी ने भारत में दिल्ली, अजमेर, रणथम्भौर तथा कुछ अन्य राजपूत राजाओं को पराजित किया। फलस्वरूप राजपूत शक्ति को भारी क्षति पहुंची।
  • उसके आक्रमणों का भारत के आर्थिक जीवन पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
  • मुहम्मद गौरी ने भारत में अनेक मन्दिरों, विहारों तथा पुस्तकालयों को नष्ट कर दिया। इसके अतिरिक्त मुसलमान सैनिकों ने अनके धार्मिक तथा ऐतिहासिक ग्रन्थों को जला दिया। फलस्वरूप भारतीय संस्कृति के अनेक स्मारक नष्ट हो गए।

प्रश्न 2.
कुतुबुद्दीन ऐबक के जीवन तथा सफलताओं का वर्णन करो।
अथवा
(क) मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि के रूप में तथा स्वतंत्र शासक के रूप में कुतुबुद्दीन ऐबक की सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
कुतुबुद्दीन ऐबक का जन्म एक तुर्क परिवार में हुआ। बचपन में ही वह अपने माता-पिता से अलग हो गया और उसे निशानपुर के काजी ने खरीद लिया। काजी की कृपा-दृष्टि से ऐबक ने उसके पुत्रों के साथ लिखना-पढ़ना, तीर चलाना तथा घुड़सवारी सीख ली। काजी की मृत्यु पर उसके पुत्रों ने ऐबक को एक व्यापारी के पास बेच दिया। यह व्यापारी उसे गज़नी ले गया जहां उसे गौरी ने खरीद लिया। इससे उसके जीवन में एक नया अध्याय आरम्भ हुआ और वह अन्त में दिल्ली का शासक बना।

कुतुबुद्दीन ऐबक की सफलताएं-कुतुबुद्दीन ऐबक की सफलताओं को दो भागों में बांटा जा सकता है-

I. मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि के रूप में-1192 ई० से लेकर 1206 ई० तक ऐबक भारत में गौरी के प्रतिनिधि के रूप में शासन करता रहा। इन 14 वर्षों में कुतुबुद्दीन ऐबक ने निम्नलिखित सफलताएं प्राप्त की-

1. अजमेर, मेरठ तथा कोइल के विद्रोहों का दमन-1192 ई० में ऐबक ने अपने स्वामी मुहम्मद गौरी की अनुपस्थिति में अजमेर और मेरठ के विद्रोहों का दमन किया। उसने दिल्ली, कन्नौज और कोइल (अलीगढ़) पर भी अधिकार कर लिया।

2. अजमेर के विद्रोह का पुनः दमन-कोइल विजय के पश्चात् ऐबक पुनः अजमेर पहुंचा, जहां चौहानों ने फिर विद्रोह कर दिया। ऐबक ने इस विद्रोह को दबा दिया। उसने रणथम्भौर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

3. अजमेर में मेढ़ों का दमन तथा अनहिलवाड़ा की लूट-1195 ई० में अजमेर प्रान्त के मेढ़ों ने तुर्की साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। ऐबक ने मेढ़ों को सफलतापूर्वक दबा दिया। इसी वर्ष उसने गुजरात के शासक भीमदेव को भी हराया और अनहिलवाड़ा में भारी लूटमार की।

4. कालिंजर दुर्ग पर अधिकार-1202 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बुन्देलखण्ड के चन्देल शासक को पराजित करके वहां के प्रसिद्ध दुर्ग कालिंजर पर अधिकार कर लिया।

5. अन्य विजयें-मुहम्मद गौरी के प्रतिनिधि के रूप में विजय प्राप्त करते हुए ऐबक ने कालपी और बदायूं को भी अपने अधिकार में ले लिया।

II. स्वतन्त्र शासक के रूप में-1206 ई० में दमयक के स्थान पर मुहम्मद गौरी का वध कर दिया गया। उसकी मृत्यु के बाद ऐबक ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इस तरह वह एक स्वतन्त्र शासक बन गया। स्वतन्त्र शासक के रूप में उसकी सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. ताजुद्दीन यलदौज़ से टक्कर-यल्दौज़ गौरी का सेनानायक था और उसने गौरी की मृत्यु के पश्चात् गज़नी की राजगद्दी पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया था। ऐबक ने नासिरुद्दीन कुबाचा को साथ मिलकर उसे मार भगाया, परन्तु जल्दी ही वह दिल्ली लौट आया। उसके वापस आते ही यल्दौज़ ने गज़नी पर अधिकार कर लिया, किन्तु इसके पश्चात् उसने कभी भी कुबाचा अथवा ऐबक को परेशान नहीं किया।

2. दास्ता से मुक्ति-कुतुबुद्दीन ने गज़नी में रह कर गौरी के उत्तराधिकारियों से मुक्ति-पत्र प्राप्त कर लिया। इस प्रकार उसने अपनी दासता के कलंक को धो दिया।

3. बंगाल की अधीनता-कुतुबुद्दीन ने बंगाल को पूरी तरह से अपने अधीन करने का प्रयास किया। वहां अली मर्दान नामक सरदार ने कब्जा कर लिया था। खिलजी सरदारों ने उसे पकड़ कर जेल में डाल दिया। परन्तु वह किसी तरह बच निकला और ऐबक की शरण में आ पहुंचा। ऐबक ने खिलजी सरदारों से बातचीत की। उन्होंने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली जिससे बंगाल ऐबक के अधीन हो गया।

4. मध्य एशिया की राजनीति से पृथक्कता-कुतुबुद्दीन ऐबक की एक बड़ी सफलता यह थी कि उसने स्वयं को मध्य . एशिया की राजनीति से पृथक् रखा।

5. हिन्दू सरदारों का दमन-कुतुबुद्दीन ने भारत में हिन्दू सरदारों से भी बड़ी सूझ-बूझ से मुक्ति पाई। उसने ऐसे सभी हिन्दू सरदारों की शक्ति को कुचल डाला जो उसकी सत्ता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।

6. प्रशासनिक सफलताएं-कुतुबुद्दीन ऐबक का शासन शुद्ध सैनिक शासन था। उसने राजधानी में एक विशाल सेना रखी हुई थी। वह बड़ा न्यायप्रिय शासक था। उसकी न्यायप्रियता की प्रशंसा करते हुए मिनहास सिराज लिखता है, “उसके राज्य में शेर और बकरी एक घाट पर पानी पीते थे।”1 कुतुबुद्दीन ऐबक को कला से भी प्रेम था। कुतुबमीनार का निर्माण कार्य उसी ने आरम्भ करवाया था।

मृत्यु-कुतुबुद्दीन ऐबक चार वर्ष ही शासन कर पाया। वह 1210 ई० में चौगान खेलते समय घोड़े से गिर पड़ा और वहीं उसकी मृत्यु हो गई।

सच तो यह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक एक महान् सेनानायक तथा कुशल शासन प्रबन्धक था। उसके कार्यों को देखते हुए डॉ० ए० एल० श्रीवास्तव लिखते हैं, “कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में तुर्क साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था।”2

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प्रश्न 3.
अल्तमश (इल्तुतमिश) के आरम्भिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। उसने इन कठिनाइयों पर किस प्रकार काबू पाया ?
अथवा
अल्तमश के आरम्भिक जीवन और सफलताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
I. आरम्भिक जीवन –
अल्तमश (इल्तुतमिश) अलबारी कबीले के एक तुर्क परिवार से सम्बन्ध रखता था। उसका पूरा नाम शम्स-उद्दीनइल्तुतमिश था। वह कई व्यक्तियों के पास दास के रूप में रहा और अन्त में ऐबक ने उसे खरीद लिया। ऐबक के अधीन रहकर अल्तमश ने अपनी योग्यता का परिचय दिया। उसकी योग्यता से प्रसन्न होकर ऐबक ने उसे दासता से मुक्त कर दिया और अपनी पुत्री का विवाह भी उसी के साथ कर दिया। 1196 ई० में ऐबक ने उसे ग्वालियर का गवर्नर बना दिया। कुछ समय बाद बर्न और बदायूं का शासन-प्रबन्ध भी उसके हाथों में आ गया। इस प्रकार अल्तमश थोड़े से ही वर्षों में राज्य का महत्त्वपूर्ण अधिकारी बन गया।

कुतुबुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र आरामशाह सिंहासन पर बैठा। वह एक अयोग्य शासक था। अत: दिल्ली के सरदारों ने अल्तमश को राज्य सम्भालने का निमन्त्रण भेजा। उसने शीघ्र ही दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। आते ही उसने आरामशाह को कैद कर लिया और स्वयं सुल्तान बन बैठा।

II. कठिनाइयां तथा सफलताएं
1. कुतुबी सरदारों का दमन-कुछ कुतुबी सरदारों ने अल्तमश को ऐबक का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया। उसने ‘जड़’ के रणक्षेत्र में इन सरदारों को बुरी तरह हराया।

2. ताजुद्दीन यल्दौज़ का दमन-गज़नी के शासक ताजुद्दीन यल्दौज़ ने अल्तमश को भारत का सुल्तान स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। अल्तमश ने तराइन के युद्ध में यल्दौज़ को बुरी तरह हराया और अपने मार्ग की एक और बाधा दूर की।

3. नासिरुद्दीन कुबाचा का दमन-ऐबक की मृत्यु के पश्चात् सिन्ध और मुल्तान से नासिरुद्दीन कुबाचा ने अपने आप को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। अल्तमश ने उसके विरुद्ध कई बार सेनाएं भेजी और उसकी शक्ति का अन्त किया

4. अली मर्दान का दमन-बंगाल और बिहार के प्रदेश ऐबक के अधीन थे, परन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् वहां के शासअली मर्दान ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। अल्तमश ने 1226 ई० तक अली मर्दान के विरुद्ध तीन बार सेनाएं भेज अन्त में वह उसका दमन करने में सफल हुआ।

III. अन्य सफलताएं –
1. खलीफा द्वारा सम्मान-अल्तमश की सफलताओं से प्रभावित होकर बगदाद के खलीफा ने 1228 ई० में अल्तम के सम्मान के लिए ‘खिल्लत’ तथा एक नियोजन पत्र भेजा। खलीफा द्वारा सम्मान पा लेने के कारण उसके सभी विरोधी शान्त हो गए।

2. राजपूतों से युद्ध-अल्तमश ने 1232 ई० में राजपूतों का दमन करने का निश्चय किया। उसने शीघ्र ही गुजरात, मालवा तथा भील्सा के राजपूतों पर विजय प्राप्त कर ली।

3. मंगोलों के आक्रमण से बचाव-अल्तमश ने खारिज्म के शासक जलालुद्दीन को शरण देने से इन्कार कर दिया था। जलालुद्दीन ने अल्तमश से शरण मांगी परन्तु उसने जलालुद्दीन को शरण न देकर अपने राज्य को मंगोलों के आक्रमण से बचा लिया।

4. कला तथा विद्या को प्रोत्साहन-अल्तमश एक कला प्रेम सुल्तान था। उसने अपने गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार की यादगार में कुतुबमीनार बनवाई। शिक्षा के प्रसार के लिए उसने कई मस्जिदें बनवाईं।

5. सच तो यह है कि अल्तमश एक योग्य तथा बुद्धिमान् शासक था। एक दास होकर सम्राट् पद प्राप्त करना अल्तमश की योग्यता का ही परिणाम था। डॉ० दत्ता ने ठीक कहा है, “अल्तमश दिल्ली सल्तनत के आरम्भिक सुल्तानों में सबसे महान् था।”

प्रश्न 4.
बलबन ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ करने के लिए कौन-कौन से कार्य किए ?
अथवा
दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ बनाने में बलबन के योगदान की किन्हीं पांच बिंदुओं के आधार पर चर्चा कीजिए।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री और शासक के रूप में बलवन ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ करने के लिए अनेक कार्य किए जिनका वर्णन इस प्रकार है
1. खोखर जाति का दमन-खोखर जाति झेलम और चिनाब के बीच के क्षेत्र में रहती थी। ये लोग बड़े उपद्रवी थे। बलबन ने एक विशाल सेना लेकर उनको कुचल डाला। उसने हज़ारों खोखरों को मौत के घाट उतार दिया।

2. दोआबा के हिन्दू राजाओं के विद्रोहों का दमन-दोआब के हिन्दू राजाओं तथा सामन्तों ने अपनी खोई हुई राजसत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। बलबन एक शक्तिशाली सेना के साथ उनके विरुद्ध बढ़ा और उनका बुरी तरह से दमन किया।

3. राजपूतों के विरुद्ध अभियान-बलबन ने ग्वालियर, चन्देरी, कालिंजर तथा मालवा के विद्रोही राजपूत शासकों को पराजित करके उनके प्रदेश दिल्ली राज्य में मिला लिए।

4. मेवातियों के विद्रोहों का दमन-दिल्ली के आस-पास के प्रदेश में मेवाती सरदारों तथा डाकुओं ने आतंक फैला रखा था। 1248 ई० में बलबन ने मेवातियों के प्रदेश पर आक्रमण करके उन्हें जान और माल की भारी हानि पहुंचाई। 1259 ई० में उसने मेवात पर पुनः एक ज़ोरदार आक्रमण किया और उसने लगभग 12,000 मेवातियों को मौत के घाट उतार दिया।

5. कुतलुग खां के विद्रोह का दमन-अवध के गवर्नर कुतलुग खां ने जो बलबन का कट्टर विरोधी था, 1255 ई० में रिहान से मिलकर दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बनाई परन्तु वह बलबन द्वारा पराजित हुआ।

6. किश्लू खां का विद्रोह-बलबन का भाई किश्लू खां मुल्तान तथा उच्च का गवर्नर था। वह बलबन के विरुद्ध मंगोल नेता हलाकू खां से जा मिला। उसने मंगोलों से सैनिक सहायता लेकर 1257 ई० में पंजाब पर आक्रमण कर दिया। लेकिन बलबन ने उसे बुरी तरह पराजित किया।

7. मेवातियों का पुनः विद्रोह और उनका दमन-मेवात के विद्रोही एक बार फिर उत्पात मचाने लगे थे। बलबन ने एक बार फिर उन पर आक्रमण किया और उनके रक्त की नदियां बहा दीं।

8. कटेहर के हिन्दू सरदारों का दमन-मेवातियों के विद्रोह से प्रेरित होकर कटेहर (रुहेलखण्ड) के हिन्दू सरदारों ने भी विद्रोह कर दिया। परन्तु बलबन ने इन विद्रोहियों को कुचल डाला।

9. मंगोलों के आक्रमणों से देश का बचाव-उसने दिल्ली राज्य की मंगोलों के आक्रमणों से रक्षा करने के लिए उत्तरीपश्चिमी सीमा को सुदृढ़ बनाया। उसने सीमावर्ती प्रान्तों में दुर्गों और चौकियों की मुरम्मत करवाई तथा वहाँ नए किलों का निर्माण करवाया। 1279 ई० में उसने मंगोलों को इतनी बुरी तरह से परास्त किया कि वे भविष्य में बहुत समय तक भारत पर आक्रमण करने का सहस न कर सके।

10. बंगाल के विद्रोह का दमन-इसी बीच बंगाल के शासक तुगरिल खाँ ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। बलबन ने एक भारी सेना लेकर उस पर आक्रमण किया तो तुगरिल खाँ भाग निकला। परन्तु बलबन के सिपाहियों ने किसी तरह ढूँढ निकाला और उसका वध कर दिया।

प्रशासनिक सुधार-बलबन ने सल्तनत को सुदृढ़ करने के लिए अनेक सुधार भी किए-

  • पैदल तथा घुड़सवार सेना का नए ढंग से संगठन किया गया।
  • सेना का उचित संचालन करने के लिए अनुभवी तथा स्वामीभक्त सरदारों को नियुक्त किया गया।
  • बलबन ने राजपद की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए अनेक कठोर नियम बनाए। अब राजा की आज्ञा के बिना दरबार में कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार की बात नहीं कर सकता था। उसने शराब पीना तथा रंगरलियां मनाना बन्द कर दिया। दरबार का अनुशासन भंग करने वाले दरबारी को कठोर दण्ड दिया जाता था। सच तो यह है कि, “उसने शासन व्यवस्था में नया जीवन डाल दिया और राज्य की शक्ति को नष्ट होने से बचा लिया।”

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प्रश्न 5.
अलाऊद्दीन खिलजी के प्रशासनिक, सैनिक, सामाजिक तथा आर्थिक सुधारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर-
अलाऊद्दीन खिजली सफल विजेता होने के साथ-साथ कुशल शासन प्रबन्धक भी था। उसके प्रमुख सुधारों का वर्णन इस प्रकार है-

I. प्रशासनिक सुधार-

1. सरदारों की शक्ति कुचलना-अलाऊद्दीन ने सरदारों की शक्ति को कुचलने के लिए निम्नलिखित पग उठाए :

  • उसने अमीरों तथा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए सबकी जागीरें छीन लीं।
  • सुल्तान ने अनेक योग्य गुप्तचरों की नियुक्ति की। वे सरकारी अधिकारियों के कार्यों पर कड़ी निगरानी रखते थे।
  • अलाऊद्दीन ने सरदारों के आपसी मेलजोल पर भी रोक लगा दी। उसने यह आदेश जारी किया कि सुल्तान की आज्ञा के बिना सरदार किसी दावत में एकत्रित नहीं हो सकते।

2. भूमि सुधार-अलाऊद्दीन खिलजी ने सारी भूमि की पैमाइश करवायी तथा उपज का आधा भाग भूमि-कर के रूप में निश्चित किया। उसने भूमि-कर प्रणाली को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित पग उठाए :

  • राजस्व अधिकारियों को रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार से बचाने के लिए उनके वेतन बढ़ा दिए गए।
  • किसानों से बचा हुआ भूमि-कर उगाहने के लिए ‘मस्तकराज’ नामक अधिकारी की नियुक्ति की गई।
  • किसान भूमि-कर नकदी अथवा उपज के रूप में दे सकते थे।

3. उचित न्याय प्रणाली-अलाऊद्दीन एक न्यायप्रिय शासक था। न्याय का मुख्य स्रोत सुल्तान स्वयं था। सभी बड़े-बड़े अभियोगों का निर्णय वह स्वयं करता था। दण्ड बहुत कठोर थे। धनी से धनी व्यक्ति भी अपराधी सिद्ध होने पर कानून के पंजे से नहीं बच सकता था।

II. सैनिक सुधार-

  • अच्छा सैनिक संगठन-अलाऊद्दीन ने एक विशाल तथा सुदृढ़ सेना का संगठन किया। उसकी सेना में 4,75,000 घुड़सवार थे। उसके अतिरिक्त उसकी सेना में पैदल सैनिक तथा हाथी भी थे।
  • दाग तथा हुलिया प्रथा-अलाऊद्दीन ने सेना में ‘दाग’ तथा ‘हुलिया’ के नियम आरम्भ किये। दाग के अनुसार प्रत्येक सरकारी घोड़े को दागा जाता था। ‘हुलिया’ के अनुसार प्रत्येक सैनिक का हुलिया दर्ज कर लिया जाता था।
  • दुर्गों का निर्माण-अलाऊद्दीन ने उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों में नवीन दुर्गों का निर्माण करवाया तथा सभी पुराने किलों की मुरम्मत करवाई।
  • नौजवान सैनिकों की नियुक्ति-अलाऊद्दीन खिलजी ने सभी निर्बल सैनिकों को हटाकर उनके स्थान पर नवयुवक सैनिकों की भर्ती की।

III. सामाजिक सुधार-

  • शराब पीने पर रोक-अलाऊद्दीन ने शाही आदेश के द्वारा शराब पर रोक लगा दी। शराब बेचने वाले तथा शराब पीने वाले को गन्दे कुओं में फेंकने का दण्ड निश्चित किया गया। उसने स्वयं भी शराब पीनी बन्द कर दी।
  • वेश्यावृत्ति पर रोक-अलाऊद्दीन ने वेश्यावृत्ति पर रोक लगा दी। अनुचित सम्बन्ध रखने वाले स्त्री-पुरुष के लिए कठोर दण्ड निश्चित कर दिये गये।
  • जुआ खेलने पर रोक-अलाऊद्दीन ने जुआ खेलने पर रोक लगा दी। यदि कोई जुआ खेलते पकड़ा जाता था तो उसे कुएँ में फेंक दिया जाता था।

IV. आर्थिक सुधार-

  • आवश्यक वस्तुओं के मूल्य निर्धारित करना-सुल्तान ने सभी आवश्यक वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर दिए। वस्तुओं के मूल्यों की सूचियाँ तैयार की गईं तथा दुकानदारों को यह आदेश दिया गया कि वे निर्धारित भावों से अधिक मूल्य पर कोई भी वस्तु न बेचें।
  • वस्तुएँ एकत्रित करना-वस्तुओं को एकत्रित करने के लिए मुल्तानी सौदागर तथा बंजारे नियुक्त किए गए। ये सभी कर्मचारी अपने चारों ओर सौ-सौ कोस की दूरी तक रहने वाले कृषकों से अनाज एकत्रित करते थे।
  • राशनिंग व्यवस्था-अलाऊद्दीन ने अपने राज्य में राशन-प्रणाली चलाई। अकाल के समय राशन-प्रणाली शुरू कर दी जाती थी।
  • अलग विभाग की स्थापना-राशन तथा मण्डियों की उचित व्यवस्था के लिए एक अलग विभाग की स्थापना की गई जिसे ‘दिवान-ए-रियासत’ कहते थे।

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प्रश्न 6.
मुहम्मद तुगलक की हवाई योजनाओं का वर्णन करो।
उत्तर-
मुहम्मद तुग़लक का वास्तविक नाम जूना खाँ था। उसके राजनैतिक उद्देश्य बहुत ऊँचे थे। उसने कई नई योजनाएँ बनाईं, परन्तु सभी असफल रहीं। उसकी प्रमुख योजनाओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. राजधानी बदलना-1327 ई० में मुहम्मद तुग़लक ने दिल्ली के स्थान पर दक्षिण में देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया। देवगिरि उसके राज्य के केन्द्र में स्थित थी। उसने इस नयी राजधानी का नाम दौलताबाद रखा और अपने सभी कर्मचारियों को वहाँ जाने की आज्ञा दी। उसने दिल्ली के लोगों को भी देवगिरि जाने के लिए कहा। अनेक लोग लम्बी यात्रा के कारण मर गए। उत्तरी भारत में शासन की व्यवस्था बिगड़ गई। विवश होकर मुहम्मद तुग़लक ने फिर से दिल्ली को राजधानी बना लिया। लोगों को फिर दिल्ली जाने की आज्ञा दी गई। इस प्रकार जान-माल की बहुत हानि हुई।

2. दोआब में कर बढ़ाना-मुहम्मद तुग़लक को अपनी सेना के लिए धन की आवश्यकता थी। इसीलिए उसने 1330 ई० में दोआब में कर बढ़ा दिया, परन्तु उस साल वर्षा न हुई और दोआब में अकाल पड़ गया। किसानों की दशा बहुत बिगड़ गई। उनके पास लगान देने के लिए धन न रहा, परन्तु लगान इकट्ठा करने वाले कर्मचारी उनसे कठोर व्यवहार करने लगे। तंग आकर कई किसान जंगलों में भाग गए। बाद में सुल्तान को अपनी गलती का अनुभव हुआ तो उसने उन किसानों की सहायता की।

3. ताँबे के सिक्के चलाना-कुछ समय बाद मुहम्मद तुग़लक ने सोने तथा चाँदी के सिक्कों के स्थान पर ताँबे के सिक्के आरम्भ कर दिए। अतः लोगों के घरों में जाली सिक्के बनाने आरम्भ कर दिए और भूमि का लगान तथा अन्य कर इन्हीं सिक्कों में चुकाए, जिससे सरकार को बहुत हानि हुई।

विदेशी व्यापारियों ने भी ताँबे के सिक्के लेना अस्वीकार कर दिया। इसलिए सुल्तान ने ताँबे के सिक्के बन्द कर दिये। लोगों को इन सिक्कों के बदले चाँदी के सिक्के दिए गए। कई लोगों ने जाली सिक्के बनाकर सरकार से चाँदी के असली सिक्के लिए। इस प्रकार राज्य के कोष को बहुत हानि हुई।

4. मंगोलों को धन देना-सुल्तान जब अपनी नई राजधानी दौलताबाद ले गया तो उत्तर-पश्चिमी सीमा की ओर उसका ध्यान कम हो गया। मंगोलों ने इसका लाभ उठाया तथा उन्होंने मुल्तान तथा लाहौर में लूट-मार की। सुल्तान ने उनके आक्रमणों को रोकने के लिए मंगोल सरदार को बहुत सारा धन दिया, परन्तु मंगोलों ने धन के लालच में आ कर और अधिक आक्रमण करने आरम्भ कर दिए।

5. खुरासान पर आक्रमण की योजना-मुहम्मद तुग़लक ने खुरासान को जीतने के लिए भी एक योजना बनाई। इसलिए उसने एक विशाल सेना तैयार की। एक वर्ष तक इस सेना को वेतन भी मिलता रहा। अन्त में सुल्तान ने खुरासान पर आक्रमण करने का विचार त्याग दिया। इस योजना के कारण राज-कोष पर बहुत बोझ पड़ा।

प्रश्न 7.
फिरोज तुगलक के प्रशासन का वर्णन करो। दिल्ली सल्तनत के पतन के लिए वह कहां तक उत्तरदायी है ?
अथवा
फिरोज़ तुगलक के त्रुटिपूर्ण/दोषपूर्ण कार्यों की चर्चा करते हुए यह बताइए कि उन कार्यों ने दिल्ली सल्तनत के पतन की भूमिका किस प्रकार तैयार की ?
उत्तर-
फिरोज़ तुग़लक एक योग्य शासक था। उसने अनेक प्रशासनिक सुधार किए। परन्तु उसने कुछ बुरे कार्य भी किए। इन सब कार्यों का वर्णन इस प्रकार है :

अच्छे कार्य-
1. अनुचित करों का अन्त-फिरोज़ तुग़लक ने सभी अनुचित करों का अन्त कर दिया। व्यापारी वर्ग पर लगे अनुचित करों का अन्त कर दिया गया। इस प्रकार कृषि तथा वाणिज्य की उन्नति हुई।

2. कृषि को प्रोत्साहन-फिरोज़ तुग़लक ने कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक नहरें तथा कुएं खुदवाए। अतिरिक्त भूमि को हल तले लाया गया। इस प्रकार प्राप्त भूमि-कर से सरकार की आय में वृद्धि हुई।

3. प्रजा हितार्थ कार्य-फिरोज़ तुग़लक ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए भी बहुत से कार्य किए। उसने ‘दीवान-एखैरात’ नामक एक अलग विभाग की स्थापना की। इसके दो भाग थे-(1) रोजगार विभाग (2) विवाह विभाग। कोतवाल हर नगर के बेरोज़गार लोगों के नाम दर्ज कर लेता था। सुल्तान इतना दयालु था कि वह बेरोज़गार तथा ज़रूरतमन्द लोगों के लिए नई-नई नौकरियों पैदा कर देता था। विवाह विभाग का काम उन व्यक्तियों की सूची तैयार करना था जिन्हें अपनी पुत्रियों के विवाह के लिए शाही सहायता की आवश्यकता होती थी।

4. दण्ड विधान में सुधार-फिरोज़ तुगलक ने अपराधियों को दी जाने वाली यातनाओं-जैसे अंगों का काटना और मृत्यु-दण्ड पर रोक लगा दी। परन्तु दण्ड विधान सम्बन्धी सुधारों का लाभ केवल मुसलमान प्रजा को ही हुआ।

5. मुद्रा सुधार-सुल्तान ने मुद्रा प्रणाली में भी कई सुधार किये। उसने कई नवीन सिक्कों को प्रचलित किया। ये सिक्के तांबे तथा चांदी को मिला कर बनाए जाते थे ताकि लोग नकली सिक्के बना कर लाभ न उठा सकें।

दोषपूर्ण कार्य-
1. जागीरदारी प्रथा का पुनः आरम्भ-सुल्तान ने जागीरदारी प्रथा पुनः प्रचलित की। उसने सैनिक अधिकारियों तथा अन्य अधिकारियों को वेतन के स्थान पर जागीरें देना आरम्भ कर दिया। यह प्रथा शासन के लिए घातक सिद्ध हुई।

2. त्रुटिपूर्ण सैन्य संगठन-फिरोज़ तुग़लक का सैन्य संगठन भी काफ़ी त्रुटिपूर्ण था। इन त्रुटियों के कारण उसका साम्राज्य विद्रोहों का अड्डा बन कर रहा गया।

3. धार्मिक असहनशीलता-फिरोज़ तुग़लक एक कट्टर मुसलमान था। उसने हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार किए। उनके मन्दिरों और पवित्र मूर्तियों को बड़ी निर्दयता से तोड़ा गया। हिन्दुओं को उच्च पदों से वंचित कर दिया गया। उन पर जज़िया भी लगा दिया गया।

4. दासों पर धन का अपव्यय-सुल्तान को अधिक-से-अधिक दास रखने का चाव था। कहते हैं कि सुल्तान के पास लगभग एक लाख अस्सी हज़ार दास थे। इन दासों के लिए धन पानी की तरह बहाया जाता था।

सल्तनत के पतन में फिरोज़ तुगलक का दायित्व-फिरोज़ तुग़लक एक कट्टर मुसलमान था। उसने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये। इससे हिन्दू उसके विरुद्ध हो गए। इसके अतिरिक्त उसकी सैनिक अयोग्यता के कारण साम्राज्य कमज़ोर हो गया। देश षड्यन्त्रों और विद्रोहियों का गढ़ बन गया। उसने दण्ड विधान नर्म बना दिया। इससे भी विद्रोहियों और अपराधियों को बहुत सहारा मिला। दासों के प्रति अत्यधिक प्रेम, उन पर राजकोष का अपव्यय, दानशीलता और सामन्ती प्रथा ने साम्राज्य को खोखला कर दिया। परिणामस्वरूप सल्तनत का पतन आरम्भ हो गया।

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प्रश्न 8.
दिल्ली सल्तनत के पतन के कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के पतन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
1. धार्मिक पक्षपात-दिल्ली के सुल्तानों ने धार्मिक पक्षपात की नीति अपनाई। उन्होंने हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार किए। परिणामस्वरूप हिन्दू दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध हो गए। यह बात दिल्ली साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण बनी।

2. विस्तृत साम्राज्य-मुहम्मद तुग़लक ने अपनी राजनीतिक अयोग्यता का प्रमाण दिया। उसने दक्षिण के विभिन्न राज्यों को सीधे सल्तनत में मिला लिया। उसकी इस नीति से सल्तनत साम्राज्य का विस्तार इतना बढ़ गया कि उस पर नियन्त्रण रखना कठिन हो गया। फलस्वरूप चारों ओर विद्रोह होने लगे और अनेक सरदारों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

3. निरंकुश शासन-दिल्ली के सुल्तानों का शासन निरंकुश था। शासन की सारी शक्तियाँ सुल्तान में ही केन्द्रित थीं। अतः शासन केवल तभी स्थिर रह सकता था जब केन्द्र में कोई शक्तिशाली शासक होता। परन्तु फिरोज़ तुग़लक की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली के सभी सुल्तान निर्बल सिद्ध हुए। परिणामस्वरूप केन्द्रीय शक्ति शिथिल पड़ गई।

4. फिरोज़ तुग़लक के अयोग्य उत्तराधिकारी-फिरोज़ तुग़लक के उत्तराधिकारी दुर्बल और अयोग्य सिद्ध हुए। उन्होंने अपना अधिकांश समय विलासिता और आपसी झगड़ों में व्यतीत किया। इसका दिल्ली सल्तनत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

5. सैनिक दुर्बलता-दिल्ली सल्तनत की राजसत्ता का आधार सैनिक शक्ति था। परन्तु फिरोज़ तुग़लक ने सामन्त प्रथा ६.. फिर से आरम्भ कर दिया। इस प्रथा के कारण सामन्तों की शक्ति बढ़ने लगी और उन्होंने विद्रोह करने आरम्भ कर दिए। परिणामस्वरूप साम्राज्य सुरक्षित न रह सका।

6. मुसलमानों का नैतिक पतन-मुस्लिम सैनिक, अमीर तथा अधिकारी आलसी तथा विलासप्रिय हो गए थे। इस कारण उनका शारीरिक बल शिथिल पड़ गया।

7. आर्थिक दुर्बलता-तुग़लक सुल्तानों के विवेकहीन कार्यों से शाही खज़ाना खाली हो गया। धन के बिना सल्तनत साम्राज्य का स्थिर रहना असम्भव था।

8. तैमूर का आक्रमण-तैमूर ने 1398 ई० में भारत पर आक्रमण कर दिया। उसके आक्रमण से दिल्ली साम्राज्य को जनधन की भारी हानि उठानी पड़ी। इसके अतिरिक्त उसने सल्तनत राज्य की राजनीतिक शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।

सच तो यह है कि कई बातों के कारण दिल्ली सल्तनत का पतन हुआ। अन्ततः पानीपत की पहली लड़ाई के कारण तो इसका अस्तित्व ही मिट गया। किसी ने ठीक ही कहा है, “पानीपत का युद्ध दिल्ली के अफ़गानों के लिए कब्र बन गया।”

प्रश्न 9.
दिल्ली के सुल्तानों के अधीन मध्यकालीन भारत में लोगों की (क) सामाजिक तथा (ख) आर्थिक अवस्था का वर्णन करो।
उत्तर-
1206 ई० से 1526 ई० तक भारत सुल्तानों के अधीन रहा। यह काल इतिहास में सल्तनत काल के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस समय के भारत की सामाजिक तथा आर्थिक दशा का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है :

(क) सामाजिक दशा-
सल्तनत काल में भारतीय समाज मुख्य रूप से दो भागों में बंटा हुआ था-मुस्लिम समाज और हिन्दू समाज।
(क) मुस्लिम समाज-यह समाज शासक वर्ग से सम्बन्धित था। अतः मुसलमानों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। शासन के सभी उच्च पदों पर मुसलमानों को ही नियुक्त किया जाता था, परन्तु केवल जन्मजात मुसलमान ही उच्च पद के योग्य समझे जाते थे। मुस्लिम समाज में स्त्रियों की शिक्षा तथा सम्मान का ध्यान रखा जाता था। परन्तु पर्दा प्रथा उनके विकास के मार्ग में बाधा बनी हुई थी। बहु-पत्नी प्रथा भी प्रचलित थी। तलाक की प्रथा आम थी। स्त्रियां राजनैतिक कार्यों में भाग नहीं लेती थीं। केवल रजिया सुल्तान ही इसका अपवाद है। मुसलमानों में दास प्रथा काफ़ी ज़ोरों पर थी। सरदारों तथा शासकों को दास रखने का बड़ा चाव था। फिरोज़ तुगलक के पास एक लाख अस्सी हज़ार दास थे। दास-प्रथा के कारण उद्योगों की उन्नति हुई जिसके फलस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश तथा बलबन जैसे सुल्तान इतिहास में उभरे।

(ख) हिन्दू समाज-हिन्दू समाज मुसलमानों से पराजित हो चुका था। उसकी बड़ी शोचनीय थी। प्रत्येक हिन्दू को शंका की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें उच्च सरकारी पद नहीं मिलते थे, उन्हें काफिर समझा जाता था। हिन्दू कृषकों से अधिक कर लिया जाता था। इस युग में हिन्दू नारी की दशा दयनीय हो चुकी थी। राजपूत शासक भी स्त्री को विलास की सामग्री मानने लगे थे। समाज में कई कुप्रथाएँ थीं। जैसे-सती प्रथा, बाल विवाह, बहु-विवाह तथा पर्दा प्रथा। इसके कारण सम्पूर्ण हिन्दू समाज की दशा शोचनीय हो चुकी थी।

(ख) आर्थिक दशा-

सल्तनत काल में मुस्लिम जनता समृद्ध थी। उन्हें नाम मात्र के कर देने पड़ते थे। इसके विरपीत हिन्दू जनता की आर्थिक दशा बड़ी दयनीय थी। संक्षेप में, सल्तनत युग में लोगों की आर्थिक दशा का विवरण इस प्रकार है-

  • कृषि-उन दिनों लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। सिंचाई कुओं तथा नहरों द्वारा की जाती थी। हिन्दू किसानों का जीवन सुखी नहीं था।
  • उद्योग-उद्योग विकसित थे। उन दिनों के उद्योगों में कपड़ा, चीनी, धातु की वस्तुएँ तैयार करना तथा कागज़ बनाना प्रम्ख थे।
  • व्यापार-उन दिनों में विदेशी व्यापार जोरों पर था। भारत का मलाया, चीन, मध्य एशिया, अफ़गानिस्तान तथा ईरान के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित था।
  • रहन-सहन का स्तर-धनी और निर्धन व्यक्तियों के रहन-सहन के स्तर में बड़ा अन्तर था। धनी और अधिकारी लोग बड़े ठाट-बाठ का जीवन व्यतीत करते थे। वे करों से भी मुक्त थे। इसके विपरीत निर्धन वर्ग की दशा बड़ी शोचनीय थी।
    सच तो यह है कि सल्तनत काल में मुसलमानों की दशा अच्छी और हिन्दुओं की दशा शोचनीय थी। दोनों के जीवन में वही अन्तर था जो शासक तथा शासित वर्ग में होता है।

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प्रश्न 10.
सुल्तान काल में कला एवं साहित्य की प्रगति का वर्णन करो।
उत्तर-
कला-दिल्ली के सुल्तानों के समय भारत में ललित कलाओं का बहुत विकास हुआ। सूफी सन्तों, भक्तों और राजदरबारियों के कारण संगीत में उन्नति हुई। कहा जाता है कि सुल्तान सिकन्दर लोधी के समय में अनेक प्रसिद्ध गायक हुए। इस काल में चित्र कला अधिक उन्नत नहीं थी। फिर भी ग्वालियर के मान मन्दिर तथा एलौरा के मन्दिरों की दीवारों पर चित्रकला के कुछ नमूने दिखाई देते हैं।

इस काल में अनेक इमारतें बनीं। इसमें मन्दिर-मस्जिद तथा दुर्ग उल्लेखनीय हैं। कुछ स्थानों पर ‘विजय स्तम्भ’ भी बनाए गए। इस काल में हिन्दू मन्दिरों की तीन प्रमुख शैलियाँ प्रचलित थीं। उत्तर भारत में बने मन्दिरों में शिखर एक बड़े स्तम्भ के रूप में बनाया जाता था और वह वह ऊपर की ओर तंग होता जाता था। इस शैली के मन्दिर भुवनेश्वर, खजुराहो, ग्वालियर तथा गुजरात में देखे जा सकते हैं। दक्षिण भारत के मन्दिरों में शिखर का निर्माण अनेक सीढ़ियों के रूप में किया जाता था। द्राविड़ शैली के मन्दिर तंजौर, मदुरा और श्रीरंगम् आदि स्थानों पर विद्यमान हैं।

इस काल में बने प्रमुख दुर्ग ग्वालियर, रणथम्भौर, कालिंजर, चित्तौड़, देवगिरि तथा वारंगल में हैं। ये दुर्ग काफ़ी मज़बूत हैं। इस काल में अनेक मस्जिदें भी बनीं। इस समय की इमारतों में कुतुबमीनार प्रमुख हैं। इसे कुतुबुद्दीन ने बनवाना आरम्भ किया था। परन्तु इसको इल्तुतमिश ने पूरा किया। अलाऊद्दीन खिलजी भी एक महान् भवन निर्माता था। उसने ‘अलाई दरवाज़ा’ बनवाया जो बहुत ही सुन्दर तथा आकर्षक है।

ग्यासुद्दीन तुग़लक ने दिल्ली में तुगलकाबाद की नींव रखी। इस नगर के खण्डहर आज भी देखे जा सकते हैं। फिरोज़ तुग़लक भवन बनवाने में रुचि रखता था। उसने अनेक नगरों, मस्जिदों, मकबरों आदि का निर्माण करवाया। फतेहाबाद, हिसार फिरोजा और जौनपुर नगर उसी के काल में बनाए गए।

साहित्य-सल्तनत युग में साहित्य पर भी इस्लाम का काफ़ी प्रभाव पड़ा। बहुत-से हिन्दुओं ने फारसी में ग्रन्थ लिखे और काफ़ी मुसलमानों ने हिन्दी साहित्य में अपना योगदान दिया। इस काल की साहित्यिक कृतियों का वर्णन इस प्रकार है-

  • अलबेरूनी द्वारा रचित ‘तहकीके हिन्द’ इस काल की कृति है। इसमें ग्यारहवीं शताब्दी के भारत का चित्र प्रस्तुत किया गया है।
  • गुलाम वंश का इतिहास हमें सिराज के ‘तबकाते नासरी’ से पता चलता है।
  • बर्नी की तारीख-ए-फिरोजशाही इस काल की शोभा है। ‘फरिश्ता’ भी इसी युग का प्रसिद्ध इतिहासकार था।
  • अमीर खुसरो ने फारसी के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य में भी योगदान दिया। उसने विभिन्न विषयों पर फारसी में पुस्तकें लिखीं।
  • सिकन्दर लोधी ने आयुर्वेद का फारसी में अनुवाद करवाया।
  • इसके अतिरिक्त कल्हण की ‘राजतरंगिणी’, जयदेव का ‘गीत गोविन्द’, कबीर की ‘साखी’ तथा मीरा के ‘गीत’ इस काल की उत्तम साहित्यिक रचनाएँ हैं।
    सच तो यह है कि कला तथा साहित्य की दृष्टि से सल्तनत युग बड़ा ही भाग्यशाली था।

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 1 नक्शे

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Practical Geography Chapter 1 नक्शे.

PSEB 11th Class Practical Geography Chapter 1 नक्शे

प्रश्न 1.
नक्शे से क्या अभिप्राय है ? इसकी विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
नक्शा (Map)-धरती या उसके किसी भाग के ऊपर से दिखाई देने वाले स्वरूप को समतल कागज़ पर चित्रण को नक्शा कहते हैं (A map is the conventional representation of the earth or a part of it as seen from the above.)। किसी भी क्षेत्र के लक्षणों को स्पष्ट करने के लिए नक्शे बनाए जाते हैं । नक्शा या मानचित्र (Map) शब्द लातीनी भाषा के शब्द मप्पा (Mappa) से लिया गया है। नक्शे की विशेषताएँ-

  1. नक्शे समतल कागज़ पर बनाए जाते हैं, जिनमें लंबाई और चौड़ाई भी दिखाई जा सकती है।
  2. नक्शे एक निश्चित पैमाने पर ही बनाए जाते हैं।
  3. प्राकृतिक और सांस्कृतिक लक्षणों को रूढ़ चिन्हों द्वारा दिखाया जाता है। नक्शे अक्षांश और देशांतर रेखाओं की मदद से बनाए जाते हैं।

प्रश्न 2.
नक्शे के आवश्यक तत्त्व बताएँ।
उत्तर-
नक्शे के आवश्यक तत्त्व-किसी भाग का ठीक वर्णन देने के लिए नक्शों पर नीचे लिखे तत्त्व ज़रूर दिखाए जाते हैं

  1. नक्शे का शीर्षक
  2. पैमाना
  3. दिशा
  4. संकेत
  5. अक्षांश और देशांतर रेखाएँ।

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 1 नक्शे

प्रश्न 3.
मानचित्र कला की परिभाषा दें।
उत्तर-
मानचित्र कला-नक्शा बनाने की कला को मानचित्र कला या नक्शाकशी की कला (Cartography) कहा जाता है। इसमें धरातलीय नक्शे, हवाई फोटो नक्शे आदि बनाए जाते हैं।

प्रश्न 4.
चार्ट (Chart) और प्लान (Plan) में अंतर बताएँ।
उत्तर-
चार्ट (Chart) और (Plan)—चार्ट शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द कार्टे (Carte) से लिया गया है। चार्ट शब्द का अर्थ नक्शा होता है। वास्तव में चार्ट अलग-अलग आंकड़ों का रेखाचित्र होता है। इन चार्टों पर समुद्री जहाज़ों के मार्ग भी दिखाए जाते हैं।
‘प्लान’ शब्द भवनों के नक्शों के लिए प्रयोग होता है। इसका पैमाना 6″ : 1 मील से बड़ा होता है। इससे किसी जायदाद या भूमि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है।

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 1 नक्शे

प्रश्न 5.
नक्शों की क्या ज़रूरत होती है ?
उत्तर-
नक्शों की ज़रूरत-पृथ्वी एक गोला है। यह केवल ग्लोब के साथ ही सही रूप में दिखाई जा सकती है। ग्लोब पृथ्वी का एक छोटा-सा प्रतिरूप या नमूना है। परंतु कई बार ग्लोब के प्रयोग में मुश्किलें आती हैं, जिसके लिए नक्शों का प्रयोग ज़रूरी हो जाता है।

  1. ग्लोब पर पूरी पृथ्वी का एक समय में अध्ययन नहीं हो सकता।
  2. ग्लोब पर किसी क्षेत्र को विस्तारपूर्वक दिखाया नहीं जा सकता।
  3. ग्लोब पर दो स्थानों की दूरी मापनी मुश्किल होती है।
  4. ग्लोब पर दो क्षेत्रों का तुलनात्मक अध्ययन संभव नहीं है।
    यही कारण है कि नक्शों के प्रयोग को आवश्यक समझा जाता है। पृथ्वी या उसके किसी भाग को एक समतल कागज़ पर दिखाया जा सकता है।

प्रश्न 6.
नक्शों के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
नक्शों का महत्त्व-नक्शे भौगोलिक अध्ययन के लिए ज़रूरी उपकरण (Tools) हैं। आज के युग में नक्शों . का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। वास्तव में नक्शे ही भूगोल की कुंजी होते हैं। ये भूगोल के विद्यार्थियों के लिए एक संकेत लिपि (Short Hand) का काम करते हैं। नक्शों का महत्त्व कई क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा है।

  1. भूगोल-प्रयोगात्मक भूगोल के लिए नक्शे आवश्यक होते हैं। इनके बिना भूगोल का विद्यार्थी एक ऐसे सिपाही के समान होता है, जिसके पास हथियार नहीं हों।
  2. युद्धों में प्रयोग-आज के युग में युद्ध नक्शों के सहारे ही लड़े जाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में कई करोड़ नक्शे तैयार किए गए थे। हिटलर के शब्दों में “Give me a detailed map of a country and I shall conquer it.”
  3. यात्रियों के लिए-नक्शे यात्रियों और पर्यटकों के लिए ज़रूरी होते हैं। ये मार्ग-प्रदर्शन में सहायता करते हैं।
  4. प्रबंधकों के लिए-नक्शों के द्वारा ही अलग-अलग प्रांतों का राज्य-प्रबंध चलाया जाता है।
  5. आवागमन के साधनों के लिए-नक्शे रेल, सड़क, समुद्री और हवाई मार्गों की जानकारी के लिए प्रयोग किए जाते हैं।
  6. नक्शे विद्यार्थियों, अध्यापकों, उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों, इतिहासकारों और इंजीनियरों के लिए लाभदायक होते हैं।

PSEB 11th Class Geography Practical Chapter 1 नक्शे

प्रश्न 7.
नक्शों का वर्गीकरण करें।
उत्तर-
नक्शों का वर्गीकरण-नक्शाकशी की कला बड़ी प्राचीन है। आज से लगभग चार हजार वर्ष पहले भी नक्शे बनाए जाते थे। प्राचीन समय में भारतीय, यूनानी, रोमन आदि जातियों को इस कला की जानकारी थी। नक्शे कई प्रकार के होते हैं। इनका वर्गीकरण दो प्रकार से किया जा सकता है-

  1. पैमाने के आधार पर (According to Scale)
  2. उद्देश्य के आधार पर (According to Purpose)

1. पैमाने के आधार पर नक्शे (According to Scale)-
पैमाने के आधार पर नक्शे दो प्रकार के होते हैं1. छोटे पैमाने के नक्शे (Small Scale Maps)—ये नक्शे छोटे पैमाने पर बनाए जाते हैं। इनमें पैमाना – 1 इंच : 16 मील से छोटा होता है। संसार के नक्शे, एटलस नक्शे और दीवारी नक्शे इस प्रकार के हो सकते हैं।
2. बड़े पैमाने के नक्शे (Large Scale Maps)—इन नक्शों पर भवनों और संपत्ति का अधिक विस्तृत वर्णन दिखाया जाता है। यह आमतौर पर 6″ : 1 मील पैमाने पर होता है। इस प्रकार पैमाने के आधार पर चार प्रकार के नक्शे होते हैं-

  • सीमावर्ती नक्शे (Cadastral Maps) ये बड़े पैमाने के नक्शे होते हैं, जिनमें जायदाद संबंधी विषय दिखाए जाते हैं। इनका प्रयोग पटवारी और नगरपालिकाएँ करती हैं।
  • स्थल-आकृतिक नक्शे (Topographical Maps)-1″ : 1 मील के पैमाने से बने नक्शे किसी क्षेत्र के प्राकृतिक और सांस्कृतिक लक्षणों को दिखाते हैं। जिस प्रकार सर्वे विभाग के नक्शे।
  • दीवारी नक्शे (Wall Maps)-शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग किए जाने वाले नक्शे छोटे पैमाने के होते हैं।
  • एटलस नक्शे (Atlas Maps)-ये छोटे पैमाने के नक्शे होते हैं। कई प्रकार के नक्शों को पुस्तकीय आकार देकर मान-चित्रावली तैयार की जाती है।

2. उद्देश्य के आधार पर नक्शे (Maps According to Purpose)-
उद्देश्य को आधार मानकर नीचे लिखे प्रकार के भौतिक और सांस्कृतिक नक्शे बनाए जाते हैं-

  • धरातलीय नक्शे (Relief Maps)—इसमें किसी क्षेत्र के धरातल, जल-प्रवाह, मिट्टी आदि का विभाजन दिखाया जाता है।
  • भू-गर्भीय नक्शे (Geological Maps)-इनमें अलग-अलग प्रकार की चट्टानों आदि का विभाजन दिखाया जाता है।
  • मौसमी नक्शे (Weather Maps)—वायुमंडल की दशाओं को दिखाने वाले नक्शों को मौसमी नक्शे कहा जाता है। भारत में ये नक्शे पुणे (Pune) में तैयार किए जाते हैं।
  • वनस्पति नक्शे (Vegetation Maps)-इन नक्शों में भूमि के प्रयोग और विभाजन दिखाए जाते हैं।
  • भूमि-प्रयोग के नक्शे (Land use Maps)-इन नक्शों में भूमि के प्रयोग और विभाजन दिखाए जाते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय नक्शे (International Maps)—ये नक्शे 1/1000000 के पैमाने पर बनाए जाते हैं।
  • राजनीतिक नक्शे (Political Maps)—इन नक्शों पर राजनीतिक सीमाएँ, देश, नगर और राजधानियाँ दिखाई जाती हैं।
  • आबादी के नक्शे (Population Maps)—इन नक्शों पर आबादी का विभाजन और घनत्व दिखाए जाते हैं।
  • परिवहन नक्शे (Transport Maps)-इन नक्शों पर सड़कों, रेलों, समुद्री और हवाई मार्गों के नक्शे दिखाए जाते हैं।
  • आर्थिक नक्शे (Economic Maps)—इन नक्शों पर कृषि, पशु-पालन उद्योग, व्यापार आदि कारकों का वर्णन किया जाता है।
  • भाषा संबंधी नक्शे (Linguistic Maps)—अलग-अलग प्रदेशों में बोली जाने वाली भाषाओं का विभाजन इन नक्शों पर दिखाया जाता है।
    मानव-जाति के नक्शे (Ethnographic Maps)—इन नक्शों पर अलग-अलग प्रदेशों में रहने वाली मानव-जातियों का विभाजन दिखाया जाता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 10 मछली पालन

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 10 मछली पालन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 10 मछली पालन

PSEB 11th Class Agriculture Guide मछली पालन Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
दो विदेशी किस्म की मछलियों के नाम बताओ।
उत्तर-
कॉमन क्रॉप, सिल्वर क्रॉप विदेशी जातियां हैं।

प्रश्न 2.
मछलियां पालने वाला जौहड़ कितना गहरा होना चाहिए ?
उत्तर-
इसकी गहराई 6-7 फुट होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
मछली पालन के उपयोग किए जाने वाले पानी की पी०एच० कितनी होनी चाहिए ?
उत्तर-
इसकी पी०एच० अंक 7-9 के मध्य होना चाहिए।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 10 मछली पालन

प्रश्न 4.
मछली पालन के लिए तैयार जौहड़ में कौन-कौन सी रासायनिक खादों का उपयोग किया जाता है ?
उत्तर-
जौहड़ के लिए यूरिया खाद तथा सुपरफास्फेट का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5.
प्रति एकड़ में कितने बच्च तालाब में छोड़े जाते हैं ?
उत्तर-
प्रति एकड़ में बच्च की संख्या 4000 होनी चाहिए।

प्रश्न 6.
मछलियों का बच्च कहां से प्राप्त होता है ?
उत्तर-
मछलियों का बच्च गुरु अंगद देव वैटरनरी तथा एनीमल साइंसज विश्वविद्यालय, लुधियाना के मछली कॉलेज या पंजाब सरकार के मछली बच्च फार्म से प्राप्त किए जा सकते हैं।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 10 मछली पालन

प्रश्न 7.
दो भारतीय मछलियों के नाम लिखो।
उत्तर-
कतला, रोहू।

प्रश्न 8.
मछलियों के छप्पड़ वाली जमा की मिट्टी किस तरह की होनी चाहिए ?
उत्तर-
चिकनी या चिकनी मैरा।

प्रश्न 9.
व्यापारिक स्तर या मछली पालन के लिए छप्पड़ का क्या आकार होना चाहिए ?
उत्तर-
क्षेत्रफल 1 से 5 एकड़ तथा गहराई 6-7 फुट होनी चाहिए।

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प्रश्न 10.
किसी भी मांसाहारी मछली का नाम लिखो।
उत्तर-
सिंघाड़ा, मल्ली।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
मछली पालन के लिए पाली जाने वाली भारतीय और विदेशी मछलियों के नाम बताओ।
उत्तर-
भारतीय मछलियां-कतला, रोहू तथा मरीगल। विदेशी मछलियां-कॉमन क्रॉप, सिल्वर क्रॉप, ग्लास क्रॉप।।

प्रश्न 2.
मछली पालन के लिए तैयार किए जाने वाले जौहड़ के डिज़ाइन के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
जौहड़ का डिज़ाइन तथा खुदाई-व्यापारिक स्तर पर मछलियां पालने के लिए जौहड़ का क्षेत्रफल 1 से 5 एकड़ तथा गहराई 6-7 फुट होनी चाहिए। जौहड़ का तल समतल तथा किनारे ढलानदार होने चाहिएं। पानी डालने तथा निकालने का पूरा प्रबन्ध होना चाहिए। इसके लिए पाइपों पर वाल्व लगे होने चाहिएं। खुदाई फरवरी के मास में करनी चाहिए ताकि मार्च-अप्रैल में मछलियों के बच्चे तालाब में छोड़े जा सकें। एक एकड़ के तालाब में बच्चे रखने के लिए एक कनाल (500 वर्ग मीटर) का नर्सरी तालाब अवश्य बनाओ जिसमें बच्चे रखे जा सकें। कम भूमि पर भी छोटे तालाब आदि बनाए जा सकते हैं जहां मछलियां पाली जा सकती हैं।

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प्रश्न 3.
मछली पालन के लिए उपयोग किए जाने वाले पानी के स्तर के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
पानी में घुली हुई ऑक्सीजन तथा इसका तेजाबीपन जोकि पी०एच० अंक से पता चलता है बहुत महत्त्वपूर्ण है। मछलियों के जीवित रहने तथा वृद्धि विकास के लिए ये बातें बहुत प्रभाव डालती हैं। पी०एच० अंक 7-9 के मध्य होना चाहिए। 7 से कम पी०एच० अंक बढ़ाने के लिए बारीक पिसा हुआ चूना (80-100 किलो प्रति एकड़) पानी में घोल कर ठण्डा करने के पश्चात् तालाब में छिटक देना चाहिए।

प्रश्न 4.
मछली पालन के व्यवसाय के लिए भिन्न-भिन्न किस्म की मछलियों के बच्च में क्या अनुपात होता है ?
उत्तर-
विभिन्न प्रकार की मछलियों के बच्चों का अनुपात निम्नलिखित अनुसार है(i) कतला 20%, रोहू 30%, ग्रास क्रॉप 10%, सिल्वर क्रॉप 10%, मरीगल 10%, कॉमन क्रॉप 20%। (ii) कतला 25%, कॉमन क्रॉप 20%, मरीगल 20%, रोहू 35%।

प्रश्न 5.
मछली तालाब में खरपतवार की समाप्ति के तरीके बताओ।
उत्तर-
पुराने तालाबों में खरपतवार न उग सकें। इसके लिए पानी का स्तर 5-6 फुट होना चाहिए। खरपतवार को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित ढंग हैं-

  • भौतिक साधन-तालाब का पानी निकाल कर इसे खाली करके खरपतवार को कंटीली तार से निकाला जा सकता है।
  • जैविक साधन-ग्रास कार्प मछलियां कई खरपतवारों (स्पाईरोडैला, हाईड्रिला, वुल्फीया, वेलीसनेरिया, लेमना) को खा जाती हैं। सिल्वर कार्प मछलियां, काई, पुष्पपुंज (एल्गल ब्लूमज़) को कंट्रोल करने में सहायक हैं।

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प्रश्न 6.
जौहड़ में नहरी पानी के उपयोग के समय कौन-सी सावधानी ध्यान रखनी चाहिए ?
उत्तर-
नहरी पानी का प्रयोग करते समय खाल के मुंह पर लोहे की बारीक जाली लगानी चाहिए। ऐसा मांसाहारी तथा नदीन मछली को तालाब में जाने से रोकने के लिए करना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
जौहड़ में मछली के दुश्मनों के बारे में बताओ।
उत्तर-
मांसाहारी मछलियां (मल्ली, सिंगाड़ा), नदीन मछलियां (शीशा, पुट्ठी कंघी), मेंढक, सांप आदि मछली के दुश्मन हैं।

प्रश्न 8.
मछलियों को खुराक कैसे दी जाती है ?
उत्तर-
मछलियों को 25% प्रोटीन वाली खुराक देनी चाहिए। बारीक पिसी हुई खुराक को 3-4 घण्टे तक भिगो कर रखना चाहिए। फिर इस भोजन के पेड़े बनाकर पानी के तल से 2-3 फुट नीचे रखी ट्रे अथवा टोकरियों अथवा छेदों वाले प्लास्टिक के थैलों में डालकर मछलियों को खाने के लिए देना चाहिए।

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प्रश्न 9.
मछलियों को रोगों से बचाने के उपाय बताओ।
उत्तर-
मछलियों को बीमारियों से बचाने के लिए पूंग को लाल दवाई के घोल (100 ग्राम प्रति लीटर) में डुबो देने के पश्चात् तालाब में छोड़ो। लगभग प्रत्येक 15 दिन के अन्तर के पश्चात् मछलियों के स्वास्थ्य की जांच करनी चाहिए। बीमार मछलियों के उपचार के लिए सिफ़ारिश किये गये ढंगों का प्रयोग करो अथवा विशेषज्ञों के साथ सम्पर्क करो।

प्रश्न 10.
मछली पालन बारे प्रशिक्षण कहां से लिया जा सकता है ?
उत्तर-
मछली पालन बारे में प्रशिक्षण जिला मछली पालन अफ़सर, कृषि विज्ञान केन्द्र या फिर गुरु अंगद देव वैटनरी तथा एनीमल साईंसज विश्वविद्यालय लुधियाना से प्राप्त किया जा सकता है।

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(ग) पांच-छः वाक्यों में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
मछली पालन के लिए जौहड़ बनाने के लिए जगह का चुनाव और उनके डिजाइन व खुदाई के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
जौहड़ बनाने के लिए स्थान का चुनाव-चिकनी अथवा चिकनी मैरा मिट्टी वाली भूमि जौहड़ बनाने के लिए ठीक रहती है क्योंकि इसमें पानी सम्भालने की शक्ति अधिक होती है। पानी खड़ा करने के लिए हल्की (रेतीली)भूमि में कद्दू किया जा सकता है। पानी का साधन अथवा स्रोत भी निकट ही होना चाहिए ताकि जौहड़ को सरलता से भरा जा सके तथा समय-समय पर सूखे के कारण जौहड़ में पानी की कमी को पूरा किया जा सके। इसके लिए नहरी पानी का प्रयोग भी किया जा सकता है। इसके लिए नाली के मुंह पर लोहे की बारीक जाली लगा देनी चाहिए ताकि मांसाहारी तथा खरपतवार आदि मछलियां नहरी पानी द्वारा जौहड़ में न मिल जाएं।

जौहड़ का डिजाइन तथा खुदाई-व्यापारिक स्तर पर मछलियां पालने के लिए जौहड़ का क्षेत्रफल 1 से 5 एकड़ तथा गहराई 6-7 फुट होनी चाहिए। जौहड़ का तल समतल तथा किनारे ढलानदार होने चाहिएं। पानी डालने तथा निकालने का पूरा प्रबन्ध होना चाहिए। इसके लिए पाइपों पर वाल्व लगे होने चाहिएं। खुदाई फरवरी के महीने में करनी चाहिए ताकि मार्च-अप्रैल में मछलियों का पूंग तालाब में छोड़ा जा सके। एक एकड़ के जौहड़ में पूंग रखने के लिए एक कनाल (500 वर्ग मीटर) का नर्सरी जौहड़ अवश्य बनवाओ जिसमें पूंग रखा जा सके।

प्रश्न 2.
पुराने जौहड़ों को मछली पालन के योग्य कैसे बनाया जाए ?
उत्तर-
पुराने जौहड़ में नदीन न पनप सके इसके लिए पानी का स्तर 5-6 फुट होना चाहिए। नदीनों को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित ढंग हैं –

  • भौतिक विधि-जौहड़ का पानी निकाल कर इसे खाली करके नदीनों को कंटीली तार से निकाला जा सकता है।
  • जैविक विधि-ग्रास कार्प मछलियां कई खरपतवारों (स्पाइरो डैला, हाइड्रिला, वुल्फीया, वेलिसनेरिया, लैमना) को खा जाती हैं। सिल्वर कार्प मछलियां काई, पुष्पपुंज (एल्गल ब्लूमज) को कंट्रोल करने में सहायक हैं।

पुराने जौहड़ों में से मछली के शत्रुओं की समाप्ति-पुराने तालाबों में पाई जाने वाली मांसाहारी मछलियां डौला, सिंगाड़ा, मल्ली तथा नदीन मछलियां। शीशा, पुट्ठी कंघी, मेंढक तथा सांपों को बार-बार जाल लगाकर तालाब में से निकालते रहना चाहिए। सांपों को बड़ी सावधानी से मार दो।

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प्रश्न 3.
पुराने जौहड़ों में से खरपतवार की समाप्ति कैसे करेंगे ?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दो।

प्रश्न 4.
मछली पालन के समय जौहड़ों में कौन-सी खादें डाली जाती हैं ?
उत्तर-
नये खोदे गये तालाब में मछली का प्राकृतिक भोजन (प्लैंकटन) की लगातार उपज होती रहे। इसके लिए खादों का प्रयोग किया जा सकता है। तालाब में पूंग छोड़ने से 15 दिन पहले खाद डालनी चाहिए। पुराने तालाब में खाद डालने की दर उसके पानी की क्वालिटी तथा प्लैंकटन की उपज पर निर्भर करती है।

दूसरी किश्त पहली किश्त के 15 दिन पश्चात् तथा रासायनिक खाद की दूसरी किश्त एक मास के पश्चात् डालो।
प्लैंकटन की लगातार पैदावार के लिए गोबर की खाद, मुर्गियों की खाद, बायोगैस सल्लरी, यूरिया, सुपरफॉस्फेट आदि खादों का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5.
मछली पालन व्यवसाय के विकास में मछली पालन विभाग और वेटरनरी यूनिवर्सिटी की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
मछली पालन का व्यवसाय प्रारम्भ करने से पहले मछली पालन विभाग, पंजाब से प्रशिक्षण प्राप्त कर लेना चाहिए। इस विभाग की ओर से प्रत्येक जिले में प्रति मास पांच दिन की ट्रेनिंग दी जाती है।

प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् यह विभाग मछली पालन के व्यवसाय के लिए तालाब के निर्माण तथा पुराने तालाब को ठीक करने अथवा सुधार के लिए सहायता भी देता है।
मछली पालन का प्रशिक्षण वेटरनरी यूनिवर्सिटी से प्राप्त किया जा सकता है।

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Agriculture Guide for Class 11 PSEB मछली पालन Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मछली कितने ग्राम की होने पर बेचने योग्य हो जाती है ?
उत्तर-
500 ग्राम।

प्रश्न 2.
एक खरपतवार मछली का नाम बताओ।
उत्तर-
पुट्ठी कंघी।

प्रश्न 3.
मछली का प्राकृतिक भोजन क्या है ?
उत्तर-
प्लैंकटन।

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प्रश्न 4.
मछलियां पालने वाला छप्पड़ कितना गहरा होना चाहिए ?
उत्तर-
6-7 फुट।

प्रश्न 5.
डौला——–किस्म की मछली है।
उत्तर-
मांसाहारी।

प्रश्न 6.
जौहड़ बनाने के लिए कैसी मिट्टी वाली भूमि का चुनाव करना चाहिए ?
उत्तर-
उसके लिए चिकनी अथवा चिकनी मैरा मिट्टी वाली भूमि चुनो।

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प्रश्न 7.
चिकनी अथवा चिकनी मैरा मिट्टी वाली भूमि ही क्यों जौहड़ के लिए चुनी जाती है ?
उत्तर-
क्योंकि ऐसी मिट्टी में पानी सम्भालने की शक्ति अधिक होती है।

प्रश्न 8.
जौहड़ की खुदाई किस मास में करनी चाहिए ?
उत्तर-
जौहड़ की खुदाई फरवरी मास में करनी चाहिए।

प्रश्न 9.
खरपतवार को कौन-सी मछलियां खा लेती हैं ?
उत्तर-
ग्रास क्रॉप तथा सिल्वर क्रॉप।

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प्रश्न 10.
खरपतवार मछलियों के नाम बताओ।
उत्तर-
शीशा तथा पुट्ठी कंघी।

प्रश्न 11.
मांसाहारी मछलियों के नाम बताओ।
उत्तर-
सिंघाड़ा, मल्ली, डौला।।

प्रश्न 12.
यदि पानी का पी० एच० अंक 7 से कम हो जाए तो क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
बारीक पिसा हुआ चूना पानी में घोल कर ठण्डा करके तालाब में 80-100 किलो प्रति एकड़ की दर से छिड़क दो।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-
मछलियां पकड़ने तथा पूंग छोड़ने के बारे में जानकारी दो।
उत्तर-
जब मछलियां 500 ग्राम की हो जाएं तो वह बेचने योग्य हो जाती हैं। मछलियां जिस प्रकार की निकाली जाएं उतना ही उस प्रकार का मछलियों का पूंग नर्सरी तालाब में से निकाल कर तालाब में छोड़ देना चाहिए।

मछली पालन PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • वैज्ञानिक विधि से मछलियां पालने से वर्ष में लाभ कृषि से भी अधिक हो जाता
  • मछलियों की भारतीय किस्में हैं-कतला, रोहू तथा मरीगल ।
  • मछलियों की विदेशी किस्में हैं-कॉमन क्रॉप, सिल्वर क्रॉप तथा ग्रास क्रॉप।
  • जौहड़ (छप्पड़) बनाने के लिए चिकनी अथवा चिकनी मैरा मिट्टी वाली भूमि का प्रयोग करना चाहिए।
  • जौहड़ (छप्पड़) 1-5 एकड़ क्षेत्रफल के तथा 6-7 फुट गहरा होना चाहिए।
  • पानी की गहराई 5-6 फुट होनी चाहिए।
  • पानी का पी०एच० अंक 7-9 के मध्य होना चाहिए। यदि 7 से कम हो तो चूने के प्रयोग से बढ़ाया जा सकता है।
  • जौहड़ में 1-2 इंच आकार के 4000 प्रति एकड़ के हिसाब से डालो।
  • बच्चे का अनुपात इस प्रकार हो सकता है
    (i) कतला 20%, कॉमन क्रॉप 20%, मरीगल 10%, ग्रास क्रॉप 10%, रोहू 30%, सिल्वर क्रॉप 10% ।
    (ii) कतला 25%, मरीगल 20%, रोहू 35%, कॉमन क्रॉप 20% ।
  • मछलियों को 25% प्रोटीन वाला सहायक भोजन दो।
  • 500 ग्राम की मछली को बेचा जा सकता है।
  • विभिन्न संस्थाओं से मछली पालन के व्यवसाय के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 20 सामाजिक/धार्मिक सुधार

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 20 सामाजिक/धार्मिक सुधार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 20 सामाजिक/धार्मिक सुधार

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
राजा राममोहन राम की मृत्यु के बाद ब्रह्म समाज का पुनर्गठन किसने किया?
उत्तर-
देवेंद्रनाथ टैगोर ने।

प्रश्न 2.
कलकत्ता में पहला विधवा विवाह कब हुआ?
उत्तर-
1856 में।

प्रश्न 3.
स्वामी दयानंद का देहांत कब हुआ?
उत्तर-
1883 ई० में।

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प्रश्न 4.
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का संबंध किस प्रदेश से था?
उत्तर-
गुजरात से।

प्रश्न 5.
सर सैय्यद अहमद खां को ‘सर’ की उपाधि कब मिली?
उत्तर-
1888 ई० में।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) सर सैय्यद अहमद खां का देहांत … ………….. में हुआ।
(ii) आजकल निरंकारियों का मुख्यालय ……………….. में है।
(iii) सिंह सभा लहर के प्रयत्नों से 1892 ई० में …………….. में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई।
(iv) नामधारियों को ………….. भी कहा जाता है।
(v) बाबा दयाल का देहांत 1855 ई० में ……………. में हुआ।
उत्तर-
(i) 1898 ई०
(ii) चण्डीगढ़
(iii) अमृतसर
(iv) कूका
(v) रावलपिंडी।

3. सही गलत कथन

(i) प्रार्थना समाज की स्थापना महादेव गोबिंद रानाडे ने की। — (✓)
(ii) रामकृष्ण मिशन के संस्थापक स्वामी रामकृष्ण थे। — (✗)
(iii) मोहम्मडन ऐंग्लो-ओरियंटल कॉलेज की स्थापना अलीगढ़ में हुई। — (✓)
(iv) वहाबी आन्दोलन का आरम्भ सर सैय्यद अहमद खां ने किया था। — (✗)
(v) कूका आन्दोलन को 1872 ई० में दबा दिया गया। — (✓)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
कादियां निम्न में से किस लहर का केंद्र था?
(A) कूका
(B) नामधारी
(C) निरंकारी
(D) अहमदिया।
उत्तर-
(B) नामधारी

प्रश्न (ii)
निरंकारी सम्प्रदाय के संस्थापक थे-
(A) बाबा दयाल
(B) दरबारा सिंह जी
(C) बाबा रामसिंह जी
(D) हुक्म सिंह जी।
उत्तर-
(D) हुक्म सिंह जी।

प्रश्न (iii)
‘सत्यार्थ प्रकाश’ किस संस्था की प्रसिद्ध पुस्तक है?
(A) रामकृष्ण मिशन
(B) आर्य समाज
(C) ब्रह्म समाज
(D) प्रार्थना समाज।
उत्तर-
(A) रामकृष्ण मिशन

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प्रश्न (iv)
भारत में पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित पहले मुस्लिम समाज सुधारक थे-
(A) गुलाम कादरी
(B) सर सैय्यद अहमद खां
(C) आगा खां
(D) मिर्जा गुलाम अहमद।
उत्तर-
(C) आगा खां

प्रश्न (v)
रामकृष्ण मिशन किस नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(A) कांची मठ
(B) पुरी मठ
(C) वैलूर मठ
(D) श्रृंगेरी मठ।
उत्तर-
(B) पुरी मठ

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में पहला धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन किस प्रान्त में तथा किस विचारधारा के अधीन हुआ ?
उत्तर-
भारत में पहला धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन बंगाल में हुआ। यह पश्चिमी विचारधारा के अधीन हुआ।

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प्रश्न 2.
‘रिवाइवलिजम’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धर्म के नाम पर तथा बीते समय का हवाला देते हुए लोगों में जागृति लाने के प्रयास को रिवाइवलिज़म का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 3.
ब्रह्म समाज की स्थापना कब, कहां और किसने की ?
उत्तर-
ब्रह्म समाज की स्थापना 1829 में, कलकत्ता (कोलकाता) में राजा राम मोहन राय ने की।

प्रश्न 4.
राजा राममोहन राय का जन्म कब और कहां हुआ तथा इन्होंने किन तीन भाषाओं में पुस्तकें लिखीं तथा पत्रिकायें निकाली ?
उत्तर-
राजा राममोहन राय का जन्म बंगाल में 1772 में हुआ। इन्होंने फारसी, अंग्रेज़ी तथा बंगाली भाषाओं में पुस्तकें लिखीं तथा पत्रिकायें निकाली।

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प्रश्न 5.
स्त्रियों की दशा सुधारने के सन्दर्भ में राजा राममोहन राय ने किन दो बातों पर जोर दिया ?
उत्तर-
राजा राममोहन राय ने बाल-विवाह तथा सती प्रथा को समाप्त करने पर जोर दिया।

प्रश्न 6.
ब्रह्म समाज के कार्यक्रम का धार्मिक उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
ब्रह्म समाज के कार्यक्रम का धार्मिक उद्देश्य एक परमात्मा की उपासना पर बल देना और वेदों और उपनिषदों की तर्कसंगत व्याख्या करना था।

प्रश्न 7.
राजा राममोहन राय का देहान्त कब हुआ तथा इसके बाद ब्रह्म समाज का पुनर्गठन किसने किया ?
उत्तर-
राजा राममोहन राय का देहान्त 1833 में हुआ। इसके बाद ब्रह्म समाज का पुनर्गठन देवेन्द्र नाथ टैगोर ने किया।

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प्रश्न 8.
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने किस प्रान्त में तथा किन सुधारों का प्रचार किया ?
उत्तर-
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने बंगाल में विधवा विवाह के पक्ष में प्रचार किया।

प्रश्न 9.
विधवा विवाह के पक्ष में कानून कब पास हुआ तथा कलकत्ता (कोलकाता) में पहला विधवा विवाह कब हुआ?
उत्तर-
विधवा विवाह के पक्ष में कानून 1855 में पास हुआ। कलकत्ता (कोलकाता) में पहला विधवा विवाह 1856 में हुआ:

प्रश्न 10.
1865 तक ब्रह्म समाज की बंगाल में शाखाओं की संख्या क्या थी तथा इस समय बंगाल से बाहर किन तीन प्रान्तों में उनके केन्द्र थे ?
उत्तर-
1865 तक ब्रह्म समाज की बंगाल में शाखाओं की संख्या 50 थी। इस समय बंगाल से बाहर इसके केन्द्र उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु तथा पंजाब में थे।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 20 सामाजिक/धार्मिक सुधार

प्रश्न 11.
ब्रह्म समाज दो भागों में कब विभक्त हुआ तथा इनके नेता कौन थे ?
उत्तर-
ब्रह्म समाज 1865 में दो भागों में विभक्त हुआ। इनके नेता देवेन्द्र नाथ टैगोर तथा केशवचन्द्र सेन थे।

प्रश्न 12.
रामकृष्ण मिशन की स्थापना कब और कहां हुई तथा किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
रामकृष्ण मिशन की स्थापना सन् 1896 में कलकत्ता (कोलकाता) में हुई। यह वैलूर मठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 13.
रामकृष्ण मिशन का संस्थापक कौन था तथा यह किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
रामकृष्ण मिशन के संस्थापक स्वामी विवेकानन्द थे। यह मिशन वैलूर मठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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प्रश्न 14.
रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द का देहान्त कब हुआ ?
उत्तर-
रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द का देहान्त क्रमश: 1886 तथा 1902 में हुआ।

प्रश्न 15.
स्वामी विवेकानन्द ने किन चार बातों का खण्डन किया ?
उत्तर-
स्वामी विवेकानन्द ने जाति-पाति, कर्मकाण्ड, व्यर्थ की रीतियों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया।

प्रश्न 16.
स्वामी विवेकानन्द ने भारत से बाहर किन दो महाद्वीपों में अपने विचारों का प्रचार किया ?
उत्तर-
स्वामी विवेकानन्द ने भारत से बाहर अमेरिका तथा यूरोप महाद्वीपों में अपने विचारों का प्रचार किया।

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प्रश्न 17.
सामाजिक सुधार और सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन ने कौन-सी चार प्रकार की संस्थाएं बनाईं ?
उत्तर-
सामाजिक सुधार और सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन ने स्कूल स्थापित किए, अस्पतालों का निर्माण करवाया, अनाथ आश्रम बनवाये तथा पुस्तकालय खोले।

प्रश्न 18.
महाराष्ट्र में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के लिए पहला संगठन कौन-सा था तथा यह कब स्थापित हुआ ?
उत्तर-
महाराष्ट्र में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के लिए पहला संगठन ‘परमहंस सभा’ था। यह 1849 ई० में स्थापित हुआ।

प्रश्न 19.
ज्योतिबा फूले स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए किन दो बातों के पक्ष में थे ?
उत्तर-
ज्योतिबा फुले स्त्रियों को शिक्षा दिलाने तथा विधवा विवाह के पक्ष में थे।

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प्रश्न 20.
महाराष्ट्र में प्रार्थना सभा’ की स्थापना कब हुई तथा इसके दो प्रमुख नेता कौन थे ?
उत्तर-
महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना सभा’ की स्थापना 1867 में हुई। इसके दो प्रमुख नेता जस्टिस महादेव रानाडे तथा रामकृष्ण गोपाल थे।

प्रश्न 21.
महाराष्ट्र में धार्मिक-सामाजिक आन्दोलन के चार नेताओं के नाम बताएं तथा इन्होंने अपने विचारों का प्रचार अधिकतर कौन-सी भाषा में किया ?
उत्तर-
महाराष्ट्र में धार्मिक-सामाजिक आन्दोलनों के चार नेता ज्योतिबा फूले, महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल भण्डारकर तथा गोपाल हरि देश गुरु थे। इन्होंने अपने विचारों का प्रचार अधिकतर मराठी भाषा में किया।

प्रश्न 22.
आर्य समाज के संस्थापक कौन थे तथा यह किस प्रदेश से थे ?
उत्तर-
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द थे। यह गुजरात प्रदेश से थे।

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प्रश्न 23.
आर्य समाज की स्थापना कब तथा कहां हुई तथा यह पंजाब में कब आया ?
उत्तर-
आर्य समाज की स्थापना 1875 में बम्बई (मुम्बई) में हुई तथा यह पंजाब में 1877 में आया।

प्रश्न 24.
स्वामी दयानन्द की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम क्या था तथा यह किस वर्ष में प्रकाशित हुई ?
उत्तर-
स्वामी दयानन्द की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘सत्यार्थ प्रकाश’ था। यह 1874 में प्रकाशित हुई।

प्रश्न 25.
स्वामी दयानन्द ने किन चार बातों का विरोध किया ?
उत्तर-
स्वामी दयानन्द ने मूर्ति-पूजा, जाति-पाति, पुरोहितों की प्रभुसत्ता तथा तीर्थ यात्रा का विरोध किया।

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प्रश्न 26.
स्वामी दयानन्द का देहान्त कब हुआ तथा 1911 तक आर्य समाजियों की संख्या कितनी हो गई ?
उत्तर-
स्वामी दयानन्द का देहान्त 1883 में हुआ। 1911 तक आर्य समाजियों की संख्या 24 लाख तक पहुंच गई थी।

प्रश्न 27.
पंजाब में सबसे पहले ऐंग्लो-वैदिक स्कूल तथा कॉलेज कब और कहां स्थापित हुए ?
उत्तर-
पंजाब में सबसे पहले ‘एंग्लो-वैदिक’ स्कूल तथा कॉलेज 1886 में लाहौर में स्थापित हुए।

प्रश्न 28.
सैय्यद अहमद बरेलवी ने कौन-सा अभियान चलाया तथा बाद में यह पंजाब के किस शासक के विरुद्ध हो गया?
उत्तर-
सैय्यद अहमद बरेलवी ने वहाबी अभियान चलाया। बाद में यह पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह के विरुद्ध हो गया।

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प्रश्न 29.
1886 के बाद वहाबी प्रभाव अधीन पंजाब के मुसलमानों में कौन-सी दो धार्मिक लहरों का उदय हुआ ?
उत्तर-
1886 के बाद वहाबी प्रभाव अधीन पंजाब के मुसलमानों में दो धार्मिक सुधारों अहले-कुरान तथा अहले हदीस की लहरें आईं।

प्रश्न 30.
भारत में पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित पहले मुस्लिम समाज सुधारक कौन थे तथा उनका जन्म कहां हुआ ?
उत्तर-
भारत में पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित पहले मुस्लिम समाज सुधारक सैय्यद अहमद खां थे। उनका जन्म दिल्ली में हुआ।

प्रश्न 31.
सर सैय्यद खां को सर की उपाधि कब मिली और उनका देहान्त कब हुआ ?
उत्तर-
सर सैय्यद अहमद खां को सर की उपाधि 1888 ई० में मिली तथा उनका देहान्त 1898 ई० में हुआ।

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प्रश्न 32.
‘मोहम्मडन ओरिएन्टल’ कॉलेज की स्थापना कब और कहां हुई तथा यह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कब परिवर्तित हो गया ?
उत्तर-
‘मोहम्मडन ओरिएन्टल’ कॉलेज की स्थापना 1875 ई० में हुई। यह 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में परिवर्तित हुआ।

प्रश्न 33.
अलीगढ़ आन्दोलन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अलीगढ़ आन्दोलन से अभिप्राय उस सामाजिक आन्दोलन से है जिसका आरम्भ सर सैय्यद अहमद खां के नेतृत्व में मुस्लिम समाज में सुधार लाने के लिए हुआ था।

प्रश्न 34.
सर सैय्यद अहमद खां के अतिरिक्त अलीगढ़ आन्दोलन के चार नेताओं के नाम बताओ।
उत्तर-
सर सैय्यद अहमद खां के अतिरिक्त अलीगढ़ आन्दोलन के चार नेता-मौलवी नजीर अहमद, जकाउल्ला, अलताफ हुसैन हाली तथा शिबली नोमानी थे।

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प्रश्न 35.
अलीगढ़ आन्दोलन के अन्तर्गत स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए कौन-सी तीन सामाजिक कमजोरियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई गई ?
उत्तर-
अलीगढ़ आन्दोलन के अन्तर्गत स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए पर्दा प्रथा, बहुविवाह तथा तुरन्त तलाक जैसी सामाजिक कमजोरियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई गई।

प्रश्न 36.
पंजाब में मुसलमानों में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के लिए बनी संस्थाओं को क्या कहा जाता था तथा 1890 तक इनकी संख्या क्या थी ?
उत्तर-
पंजाब में मुसलमानों में धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के लिए बनी संस्थाओं को ‘अन्जुमन-इस्लामिया’ कहा जाता था। 1890 तक इनकी संख्या 60 से अधिक थी।

प्रश्न 37.
मिर्जा गुलाम अहमद का सम्बन्ध किस धार्मिक लहर से है तथा इनका जन्म पंजाब में कब और कहां हुआ ?
उत्तर-
मिर्जा गुलाम अहमद का सम्बन्ध अहमदिया लहर से है तथा उनका जन्म 1835 ई० में जिला गुरदासपुर के कादियां नामक स्थान पर हुआ।

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प्रश्न 38.
मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने अनुयायी बनाने कब शुरू किए तथा अपने आपको पैगम्बर कब कहना आरम्भ किया ?
उत्तर-
मिर्जा गुलाम अहमद ने 1890 ई० में अपने अनुयायी बनाने शुरू किये। 1900 ई० में उन्होंने अपने आपको पैगम्बर कहना आरम्भ कर दिया।

प्रश्न 39.
अहमदिया लहर में दो सम्प्रदाय कब बन गए तथा उसके केन्द्र कहां थे ?
उत्तर-
अहमदिया लहर में दो सम्प्रदाय 1914 ई० में बने तथा उसके केन्द्र कादियां तथा लाहौर में थे।

प्रश्न 40.
अहमदिया लोगों ने भारत से बाहर अपने मत का प्रचार कौन-से तीन महाद्वीपों में किया ?
उत्तर-
अहमदिया लोगों ने भारत से बाहर अपने मत का प्रचार अफ्रीका, यूरोप तथा अमेरिका में किया।

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प्रश्न 41.
निरंकारी सम्प्रदाय के संस्थापक कौन थे तथा इनका जन्म कहां और कौन-से परिवार में हुआ ?
उत्तर-
निरंकारी सम्प्रदाय के संस्थापक बाबा दयाल थे। इनका जन्म पेशावर के एक खत्री सर्राफ के घर हुआ।

प्रश्न 42.
बाबा दयाल ने गुरु ग्रन्थ साहिब की मर्यादा के अनुसार साधारण जीवन के कौन-से चार अवसरों के लिए नीतियां चलाईं ?
उत्तर-
बाबा दयाल ने गुरु ग्रन्थ साहिब की मर्यादा के अनुसार जन्म, नामकरण, विवाह तथा मरण से सम्बन्धित अवसरों पर रीतियां चलाईं।

प्रश्न 43.
बाबा दयाल का देहान्त कब और कहां हुआ तथा दयालसर किस स्थान को कहा जाता है ?
उत्तर-
बाबा दयाल का देहान्त 1855 ई० में रावलपिंडी में हुआ। जिस स्थान पर उनकी देह को नदी में समर्पित किया गया, वहां उनके नाम पर बाद में दयालसर बना।

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प्रश्न 44.
बाबा दयाल के उत्तराधिकारी का नाम लिखो तथा उन्होंने किस दोआब में अपने विचारों का प्रचार किया ?
उत्तर-
बाबा दयाल के उत्तराधिकारी का नाम बाबा दरबारा सिंह था। उन्होंने सिन्ध सागर में अपने विचारों का प्रचार किया।

प्रश्न 45.
बाबा दरबारा सिंह का देहान्त कब हुआ तथा उनके दो उत्तराधिकारियों के नाम बताएं।
उत्तर-
बाबा दरबारा सिंह का देहान्त 1870 ई० में हुआ। उनके दो उत्तराधिकारी साहिब रत्ता जी तथा बाबा गुरदित्तौ सिंह थे।

प्रश्न 46.
1947 ई० से पहले पंजाब के किस दोआब में निरंकारियों ने अपने मत का प्रचार किया तथा आजकल उनका मुख्यालय कौन-सा है ?
उत्तर-
1947 ई० से पहले पंजाब के सिन्ध सागर दोआब में निरंकारियों ने अपने मत का प्रचार किया। आजकल इनका मुख्यालय चण्डीगढ़ में है।

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प्रश्न 47.
नामधारी लहर के संस्थापक कौन थे तथा उन्होंने अपने धार्मिक विचारों का प्रचार पंजाब के कौन-से दोआब में किया ?
उत्तर-
नामधारी लहर के संस्थापक बाबा बालक सिंह थे। इन्होंने अपने धार्मिक विचारों का प्रचार पंजाब के सिन्ध सागर दोआब में किया।

प्रश्न 48.
बाबा बालक सिंह का देहान्त कब हुआ तथा उनके श्रद्धालुओं को ‘नामधारी’ क्यों कहा जाता था ?
उत्तर-
बाबा बालक सिंह का देहान्त 1862 ई० में हुआ। ‘नाम’ स्मरण पर विशेष बल देने के कारण उनके श्रद्धालुओं को ‘नामधारी’ कहा जाता था।

प्रश्न 49.
नामधारी लहर को पंजाब के केन्द्रीय जिलों में किसने फैलाया तथा ये किस जिले के रहने वाले थे ?
उत्तर-
नामधारी लहर को पंजाब के केन्द्रीय जिलों में बाबा राम सिंह ने फैलाया। यह लुधियाना जिले (भैनी गांव) के रहने वाले थे।

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प्रश्न 50.
नामधारियों के पहरावे की चार विशेषताएं क्या थी ?
उत्तर-
नामधारी सफेद खद्दर का कुर्ता तथा कछहरा पहनते थे। वे सीधी पगड़ी बांधते थे तथा गले में सफेद ऊन की माला डालते थे।

प्रश्न 51.
नामधारियों में बहुसंख्या समाज के कौन-से तीन वर्गों की थी तथा बाबा राम सिंह का पारिवारिक व्यवसाय क्या था ?
उत्तर-
नामधारियों में बहुसंख्या तरखानों, जाटों तथा मजहबी सिक्खों की थी। बाबा राम सिंह का पारिवारिक व्यवसाय बढ़ईगिरी था।

प्रश्न 52.
बाबा राम सिंह ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए कौन-सी दो बातों पर बल दिया ?
उत्तर-
बाबा राम सिंह ने लड़कियों को पैदा होते ही मार देने की प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया।

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प्रश्न 53.
लोग नामधारियों को कूका क्यों कहने लग गए ?
उत्तर-
नामधारी लोग शब्द बाणी पढ़ते समय ऊंची आवाज़ में बोलने या चीख (कूक) मारने लगते थे। इसलिए उन्हें कूका कहा जाने लगा।

प्रश्न 54.
बाबा राम सिंह ने अपने श्रद्धालुओं के साथ सम्पर्क रखने के लिए कौन-सी दो विधियां अपनाईं ?
उत्तर-
बाबा राम सिंह ने अपने श्रद्धालुओं के साथ सम्पर्क रखने के लिए विभिन्न जिलों में अपने प्रतिनिधि या सूबे नियुक्त किए। उन्होंने अपनी डाक व्यवस्था भी बना ली।

प्रश्न 55.
1871 ई० में नामधारियों ने किन दो स्थानों पर कसाइयों को मारा था तथा उन्हें क्या सजा दी गई ?
उत्तर-
1871 ई० में नामधारियों ने अमृतसर तथा रायकोट में कसाइयों को मारा था। उन्हें फांसी की सजा दी गई।

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प्रश्न 56.
नामधारियों ने मालेरकोटला पर हमला कब किया तथा उन्हें क्या सज़ा दी गई ?
उत्तर-
नामधारियों ने मालेरकोटला पर 1872 ई० में हमला किया। इस कारण उन्हें गिरफ्तार करके तोपों से उड़ा दिया गया।

प्रश्न 57.
बाबा राम सिंह को रंगून कब भेजा गया तथा उन्हें क्या सज़ा दी गई ?
उत्तर-
बाबा राम सिंह को 1872 ई० में रंगून भेजा गया। उन्हें देश निकाला मिला था।

प्रश्न 58.
बाबा राम सिंह के बाद नामधारियों का नेतृत्व करने वाले दो गुरु कौन थे ?
उत्तर-
बाबा राम सिंह के बाद नामधारियों का नेतृत्व करने वाले दो गुरु-बाबा हरि सिंह और बाबा प्रताप सिंह थे।

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प्रश्न 59.
सब से पहले दो सिंह सभायें कब तथा कहां स्थापित की गई ?
उत्तर-
पहली सिंह सभा 1873 ई० में अमृतसर और दूसरी 1879 में लाहौर में स्थापित की गई।

प्रश्न 60.
19वीं सदी में सिंह सभाओं की संख्या कितनी हो गई तथा इनका सदस्य कौन बन सकता था ?
उत्तर-
19वीं सदी में सिंह सभाओं की संख्या 120 हो गई। कोई भी सिक्ख इनका सदस्य बन सकता था।

प्रश्न 61.
सिंह सभाओं में कौन-से चार वर्गों के लोग शामिल थे ?
उत्तर-
सिंह सभाओं में उच्च वर्ग के ज़मींदार, साधारण किसान, नौकरी पेशा तथा व्यापारी शामिल थे ।

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प्रश्न 62.
‘चीफ खालसा दीवान’ कब स्थापित हुआ तथा इसने क्या भूमिका निभाई ?
उत्तर-
चीफ खालसा दीवान 1902 में स्थापित हुआ। इसने सिंह सभा लहर का नेतृत्व किया तथा सिक्खों के प्रतिनिधि की भूमिका निभाई।

प्रश्न 63.
‘खालसा ट्रस्ट सोसाइटी’ कब स्थापित हुई तथा इसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
खालसा ट्रस्ट सोसाइटी 1894 ई० में स्थापित हुई। उसका उद्देश्य पंजाबी भाषा तथा गुरुमुखी लिपि में नए विचारों का प्रचार करना था।

प्रश्न 64.
सिंह सभा लहर के प्रभाव अधीन निकाली जाने वाली दो पत्रिकाओं के नाम बताएं।
उत्तर-
सिंह सभा लहर के प्रभाव अधीन निकाली जाने वाली दो पत्रिकाएं खालसा समाचार’ तथा ‘खालसा एडवोकेट’ थीं।

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प्रश्न 65.
सिंह सभाओं ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए किन दो बातों पर जोर दिया ?
उत्तर-
सिंह सभा ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए लड़कियों की शिक्षा तथा स्त्री-पुरुष समानता पर बल दिया।

प्रश्न 66.
सिंह सभा लहर के शिक्षा के कार्यक्रम का क्या प्रयोजन था ?
उत्तर-
सिंह सभा लहर के शिक्षा के कार्यक्रम का प्रयोजन विज्ञान तथा अंग्रेज़ी को नैतिक और धार्मिक शिक्षा के साथ जोड़ना था।

प्रश्न 67.
सिंह सभा लहर के प्रयत्नों से बनी सबसे महत्त्वपूर्ण शिक्षा संस्था कब तथा कहां स्थापित हुई ?
उत्तर-
सिंह सभा लहर के प्रयत्नों से 1892 ई० में अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई ।

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प्रश्न 68.
सिक्ख एजुकेशनल कान्फ्रेंस कब स्थापित की गई तथा उसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
सिक्ख एजुकेशनल कान्फ्रेंस 1908 ई० में स्थापित की गई। इसका उद्देश्य शिक्षा सम्बन्धी विचार-विमर्श करना तथा शिक्षा के क्षेत्र का विस्तार करना था। .

प्रश्न 69.
सिंह सभा लहर के चार नेताओं के नाम बताएं।
उत्तर-
सिंह सभा लहर के चार नेता बाबा खेम सिंह बेदी, सरदार ठाकुर सिंह संधावालिया, प्रो० गुरुमुख सिंह और ज्ञानी . दित्त सिंह थे।

प्रश्न 70.
बीसवीं सदी के पहले दो दशकों में सभाओं ने गुरुद्वारों के सुधार के लिए कौन-से दो प्रकार के यत्न किए ?
उत्तर-
बीसवीं सदी के पहले दो दशकों में सभाओं के प्रयत्नों से हरमंदर साहिब के बाहरी हिस्सों से मूर्तियों को उठा लिया गया। सिंह सभाओं ने इन्हीं गुरुद्वारों से महन्तों को निकलवाने के लिए सरकार से भी टक्कर ली।

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II. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
किस विचारधारा के प्रभाव अधीन ब्रह्म समाज की स्थापना हुई तथा इसका क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
ब्रह्म समाज की स्थापना पश्चिमी विचारधारा तथा भारतीय विचारधारा के संगम के कारण हुई। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय पश्चिमी विज्ञान तथा तकनीकी को भारतीयता का रंग देना चाहते थे। इसी बात से प्रेरित हो कर उन्होंने ब्रह्म समाज की 1829 ई० में स्थापना की। इस सभा का उद्देश्य एक परमात्मा की उपासना पर बल देना और वेदों एवं उपनिषदों की तर्कसंगत व्याख्या करना था। मूर्ति-पूजा और सामाजिक त्रुटियों का विरोध करना भी इसका एक उद्देश्य था। जाति-पाति के भेद-भाव समाप्त करना भी सभा का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम था। स्त्रियों की पुरुषों के साथ समानता भी इसके आदर्शों में सम्मिलित था। अतः राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 2.
रामकृष्ण मिशन की विचारधारा तथा कार्यक्रम बताएं।
उत्तर-
रामकृष्ण मिशन की स्थापना सन् 1896 में स्वामी विवेकानन्द ने कलकत्ता (कोलकाता) में की। यह मिशन विवेकानन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर चलाया था। रामकृष्ण की रुचि विशेष रूप से धार्मिक सुधार में थी। स्वामी विवेकानन्द का विचार था कि मुक्ति प्राप्त करने के बहुत से मार्ग हैं। वे मुसलमानों और ईसाइयों के साथ भी सम्पर्क रखते थे। उनका यह भी विचार था कि मनुष्य की सेवा करना परमात्मा की सेवा है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु के विचारों का प्रचार करने के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि धर्म के द्वारा ही समाज का पुनर्निर्माण हो सकता है। वे वेदान्त के पक्ष में थे। उन्होंने जाति-पाति का जोरदार खण्डन किया। वे कर्मकाण्ड की व्यर्थ रीतियों और अन्ध-विश्वासों का भी सख्ती से विरोध करते थे। रामकृष्ण मिशन स्थापित करने के छः वर्ष पश्चात् स्वामी विवेकानन्द का देहान्त हो गया। परन्तु तब तक भारत के बहुत-से नगरों में इसको केन्द्र खुल चुके थे। समाज-सुधार और सेवा के क्षेत्र में रामकृष्ण मिशन ने बहुत से स्कूल स्थापित किये, अस्पताल खोले, अनाथ आश्रम चलाये और पुस्तकालय खोले।

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प्रश्न 3.
महाराष्ट्र में समाज सुधारकों ने किस बात पर जोर दिया ?
उत्तर-
महाराष्ट्र में सुधार लहर के उद्देश्य लगभग अन्य सुधारकों से मेल खाते थे। 1849 ई० में ‘परमहंस सभा’ स्थापित हुई। इसका उद्देश्य परमात्मा की एकता का प्रचार करना और जाति-पाति का विरोध करना था। ज्योतिबा फूले ने स्त्री शिक्षा पर बल दिया। वे विधवा-विवाह के पक्ष में भी थे। कुछ समय पश्चात् एक ‘विधवा पुनर्विवाह सभा’ स्थापित हुई। इसी तरह गोपाल हरि देशमुख ने अपने प्रगतिशील विचारों द्वारा सामाजिक त्रुटियों का खण्डन किया।

महाराष्ट्र में सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था 1867 में ‘प्रार्थना सभा’ के नाम से स्थापित हुई। इसके प्रतिनिधि धार्मिक सुधार की अपेक्षा सामाजिक सुधार में अधिक रुचि रखते थे। जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे और रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने इस सभा द्वारा समाज की सेवा की। अनाथों के लिए आश्रम खोले गए। सामाजिक सुधार और सेवा की यह रुचि 20वीं सदी के आरम्भ तक चलती रही।

प्रश्न 4.
स्वामी दयानन्द के सामाजिक तथा धार्मिक विचार क्या थे ?
उत्तर-
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। उन्होंने समाज का सुधार करने के लिए 1875 ई० में आर्य समाज की स्थापना की। थोड़े ही समय पश्चात् सारे देश में इसकी शाखाओं का जाल-सा बिछ गया। स्वामी दयानन्द के अपने स्वतन्त्र विचार थे जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

  • ईश्वर एक है। वह सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है। उसका कोई आकार नहीं है। अतः उसकी मूर्ति बनाकर पूजा करना व्यर्थ है।
  • वेद सत्य हैं। वेद ईश्वर की वाणी हैं। वेद ही हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिला सकते हैं।
  • ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान के अन्धकार का नाश करना चाहिए।
  • शुद्धि द्वारा प्रत्येक धर्म का अनुयायी हिन्दू बन सकता है।
  • पूर्वजों के श्राद्ध, बाल-विवाह तथा छूतछात के भेदभाव वैदिक धर्म के विपरीत हैं। इस संस्था ने पंजाब के साथ-साथ पूरे देश में धार्मिक तथा सामाजिक उत्थान के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए।

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प्रश्न 5.
‘अलीगढ़ आन्दोलन’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अलीगढ़ आन्दोलन एक मुस्लिम आन्दोलन था। यह आन्दोलन सर सैय्यद अहमद खां ने मुसलमानों में जागृति पैदा करने के लिए चलाया। उस समय मुसलमान काफ़ी पिछड़े हुए थे। वे अरबी और फारसी को छोड़कर अन्य किसी भी भाषा की शिक्षा प्राप्त करना अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे। इसलिए वे सरकारी नौकरियों से वंचित थे। ऐसी दशा में सर सैय्यद अहमद खां ने मुसलमानों को ऊंचा उठाने का निश्चय किया। उन्होंने मुसलमानों को अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने की प्रेरणा दी। मुस्लिम समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने ‘तहजीब-उल-अकल’ नामक एक पत्रिका निकालनी आरम्भ की। 1875 ई० में उन्होंने अलीगढ़ में ऐंग्लो-ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की। यह कॉलेज 1920 ई० में मुस्लिम विश्वविद्यालय बना। इस विश्वविद्यालय ने अनेक विचारकों को जन्म दिया।

प्रश्न 6.
बाबा राम सिंह की शिक्षाएं क्या थी ?
उत्तर-
बाबा राम सिंह प्रमुख नामधारी नेता थे। उनकी शिक्षाएं बड़ी सरल एवं प्रभावशाली थीं। वह जाति प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को अपना शिष्य बनाया। हिन्दू-मुसलमान आदि सभी लोग कूका मत में सम्मिलित हो सकते थे। वे ब्राह्मणों, महन्तों तथा बेदियों के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने मूर्ति पूजा का भारी विरोध किया। उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह तथा विधवा विवाह पर बल दिया। बाबा रामसिंह जी ने लोगों को उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने शिष्यों को आडम्बर, झूठ तथा धोखेबाज़ी से दूर रहने का आदेश दिया। उन्होंने ब्राह्मणों के धार्मिक पाखण्डों के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा सती-प्रथा बन्द करवाने का प्रयास किया। वह बाल-विवाह, कन्या-वध तथा लड़कियों के विक्रय के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने अपने शिष्यों में विवाह की आनन्द कारज प्रथा प्रचलित की। फलस्वरूप विवाह सादा और कम खर्चीला हो गया। कूका लोगों को पवित्र स्थानों पर नंगे सिर जाने की आज्ञा नहीं थी। गुरु राम सिंह ने नामधारियों के लिए दोहरी पगड़ी पहनना आवश्यक बताया। उन्होंने अपने अनुयायियों को दसवें गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा रचित ‘ग्रन्थ साहिब’ के अध्ययन करने की प्रेरणा दी।

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प्रश्न 7.
सिंह सभा लहर के उद्देश्य तथा कार्यक्रम के बारे में बताएं।
उत्तर-
सिंह सभा लहर का आरम्भ 1873 ई० में हुआ। 1890 ई० तक 120 स्थानों पर सिंह सभाएं स्थापित हो चुकी थीं। इस लहर का मुख्य उद्देश्य प्राचीन सिक्ख परम्पराओं और खालसा आचरण को फिर से लागू करना था। इनका दूसरा उद्देश्य पंजाबी भाषा तथा गुरुमुखी लिपि का प्रचार करना था। शिक्षा का प्रसार करना भी इस लहर का एक उद्देश्य था।

इस लहर को संगठित करने के लिए 1902 में ‘चीफ खालसा दीवान’ बनाया गया। पंजाबी भाषा के विकास के लिए ‘खालसा ट्रैक्ट सोसाइटी’ स्थापित की गई। अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना हुई। 1908 में सिक्ख एजूकेशनल कांफ्रैंस का गठन हुआ। इस तरह सिंह सभा लहर ने गुरुद्वारों को महन्तों से आजाद कराया और सिक्खों में सामाजिक तथा राजनीतिक जागृति पैदा की।

प्रश्न 8.
अहमदिया लहर का धार्मिक पक्ष क्या था ?
उत्तर-
अहमदिया लहर को कादियानी लहर भी कहा जाता है। इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद थे। उनका जन्म 1835 ई० में गुरदासपुर जिले के कादियां नामक स्थान पर हुआ था। उसे देश में प्रचलित सभी धार्मिक लहरों के विषय में पूरी-पूरी जानकारी थी। वह भी देश में अपने ही ढंग से धर्म-सुधार करना चाहता था। वह यह भी चाहता था, कि देश में ईसाई मिशनरियों तथा आर्य समाज के बढ़ते हुए प्रभाव को रोका जाये। अतः उसने लोगों के सामने इस्लाम की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। कुरान के महत्त्व पर अत्यधिक बल दिया और इसकी व्याख्या करना उचित ठहराया। उसकी यही विचारधारा अहमदिया लहर के नाम से प्रसिद्ध हुई। 1890 ई० में अनेक लोग उसके अनुयायी बन गये। उसका प्रभाव इतना बढ़ गया कि 1900 ई० में उसने अपने आपको मसीहा तथा पैगम्बर कहना आरम्भ कर दिया। 1908 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। परन्तु उसके उत्तराधिकारियों ने इस आन्दोलन को जारी रखा। 1914 ई० में यह आन्दोलन दो शाखाओं में बंट गया। एक का केन्द्र कादियां में रहा और दूसरी शाखा ने लाहौर में अपना केन्द्र स्थापित किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 20 सामाजिक/धार्मिक सुधार

प्रश्न 9.
धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने मुख्य रूप से किन दो विषयों पर बल दिया ?
उत्तर-
धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने मुख्य रूप से दो महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्याओं पर बल दिया : स्त्रियों की भलाई तथा जाति भेद को समाप्त करना। इन कार्यक्रमों का आधार मानवीय समानता की विचारधारा थी। परन्तु समानता की यह विचारधारा केवल धर्म के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी। इसका राजनीतिक महत्त्व भी था। अंग्रेजों के राज्य में कानूनी रूप से तो सभी भारतीय समान थे, परन्तु सामाजिक या राजनीतिक रूप से नहीं थे।

भारत में स्त्रियों की संख्या देश की जनसंख्या से लगभग आधी थी। विश्व के अन्य समाजों की भान्ति भारत में भी स्त्री पुरुष के अधीन थी। धर्म और कानून की व्यवस्था भी उसके पक्ष में नहीं थी। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि कुप्रथाएं इसी असमानता का परिणाम थीं। धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों ने स्त्रियों की भलाई पर बल दिया। उनके प्रयासों का परिणाम भी अच्छा निकला। धीरे-धीरे स्त्रियों ने राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों में स्वयं भाग लेना आरम्भ कर दिया। उन्होंने समानता की मांग की। देश के प्रमुख नेताओं ने इसका जोरदार समर्थन किया। परिणामस्वरूप स्त्रीपुरुष की समानता का आदर्श स्वीकार कर लिया गया।

प्रश्न 10.
आर्य समाज के संस्थापक कौन थे ? इस संस्था द्वारा किए गए किन्हीं चार धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों का वर्णन कीजिए।
अथवा
19वीं शताब्दी में समाज-सुधार के क्षेत्र में आर्य समाज की क्या भूमिका रही ?
उत्तर-
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी। इस संस्था द्वारा किए गए चार धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों का वर्णन निम्नलिखित है–

  1. इस संस्था ने जाति-प्रथा के विरुद्ध आवाज़ उठाई और भाईचारे की भावना पर बल दिया।
  2. इस संस्था ने सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा कन्या-वध आदि सामाजिक कुप्रथाओं का विरोध किया।
  3. इसने विधवाओं को पुनः विवाह करने की अनुमति देने तथा स्त्री शिक्षा के प्रसार पर जोर दिया।
  4. इस संस्था ने समाज में प्रचलित मूर्ति-पूजा तथा अन्ध-विश्वास का खण्डन किया।

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प्रश्न 11.
मुसलमानों में जागृति लाने के लिए सर सैय्यद अहमद खां ने क्या-क्या कार्य किए ?
उत्तर-
सर सैय्यद अहमद खां ने मुसलमानों में जागृति लाने के लिए निम्नलिखित कार्य किए-
1. उनका विश्वास था कि मुसलमानों में केवल पश्चिमी शिक्षा के प्रसार द्वारा ही जागृति लाई जा सकती है, इसलिए उन्होंने मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने और पश्चिमी साहित्य का अध्ययन करने की प्रेरणा दी।

2. उन्होंने अलीगढ़ में एम० ए० ओ० कॉलेज की स्थापना की। यहां मुसलमान विद्यार्थियों को पश्चिमी ढंग से शिक्षा दी जाती थी।

3. उनका विचार था कि मुसलमानों के उत्थान के लिए अंग्रेजों की सहानुभूति प्राप्त करना आवश्यक है, इसलिए उन्होंने मुसलमानों को अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहने की प्रेरणा दी।

4. उन्होंने मुसलमानों के दृष्टिकोण को आधुनिक बनाने के लिए कुरान की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की।

प्रश्न 12.
भारतीय नारी की दशा सुधारने के लिए आधुनिक सुधारकों द्वारा किए गए कोई चार कार्य लिखिए।
उत्तर-
1. सती-प्रथा के कारण स्त्री को अपने पति की मृत्यु पर उसके साथ जीवित ही चिता में जल जाना पड़ता था। आधुनिक समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से इस अमानवीय प्रथा का अन्त हो गया।

2. विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। समाज-सुधारकों के प्रयत्नों से उन्हें दोबारा विवाह करने की आज्ञा मिल गई।

3. आधुनिक सुधारकों का विश्वास था कि पर्दे में बन्द रहकर नारी कभी उन्नति नहीं कर सकती, इसलिए उन्होंने स्त्रियों को पर्दा न करने के लिए प्रेरित किया।

4. स्त्रियों को ऊंचा उठाने के लिए समाज-सुधारकों ने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया।

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प्रश्न 13.
ब्रह्म समाज की सामाजिक उपलब्धियों पर नोट लिखें।
उत्तर-
ब्रह्म समाज की स्थापना 1828 ई० में राजा राममोहन राय ने की। इस संस्था की सामाजिक उपलब्धियों का वर्णन इस प्रकार है-
1. राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का अन्त करने का प्रयास किया। उनके प्रयत्नों से लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई० में एक कानून पास करके सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया।

2. ब्रह्म समाज ने जातीय भेद-भाव, छुआछूत, मानव-बलि, बहु-पत्नी विवाह तथा अन्य अनेक सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई।

3. ब्रह्म समाज ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया।

4. ब्रह्म समाज ने देश में पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी सभ्यता के प्रसार पर बल दिया। 1817 ई० में राजा राममोहन राय ने कलकत्ता (कोलकाता) में एक अंग्रेजी स्कूल का संचालन किया। उन्होंने 1825 ई० में एक वेदान्त कॉलेज की स्थापना की जहां पश्चिमी ढंग से शिक्षा का प्रसार होता था।

प्रश्न 14.
आर्य समाज की राजनीतिक उपलब्धियों के बारे में लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक क्षेत्र में भी आर्य समाज का योगदान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग किया। स्वामी जी ने लोगों को कहा कि वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें। साथ ही उन्होंने लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग के लिए प्रेरणा दी। उन्होंने हिन्दी को राज्यभाषा का पद दिलाने की पहल की। स्वतन्त्रता आन्दोलन में कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले कुछ व्यक्ति भी आर्य समाज से प्रभावित थे। इस आन्दोलन में भाग लेने वाले लाला लाजपतराय, मदन मोहन मालवीय, स्वामी श्रद्धानन्द, रामभज आदि व्यक्ति आर्य समाज से ही सम्बन्ध रखते थे। इसके अतिरिक्त क्रान्तिकारी आन्दोलन में आर्य समाज ने काफ़ी योगदान दिया।

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IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
ब्रह्म समाज की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर-
ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय थे। वह एक उच्चकोटि के समाज सुधारक थे। उन्होंने हिन्दू समाज में से न केवल प्रचलित कुप्रथाओं का ही अन्त किया, बल्कि उसे इसाई धर्म के प्रभाव से भी बचाया। उन्होंने सबसे पहले आत्मीय सभा की स्थापना की। इसके पश्चात् 1828 ई० में उन्होंने ब्रह्म समाज की नींव डाली। उन्होंने ब्रह्म समाज के माध्यम से समाज में प्रचलित अनेक कुप्रथाओं का विरोध किया। उन्होंने लोगों का ध्यान वेदों तथा उपनिषदों की महानता की ओर दिलाया और उनसे वेदों द्वारा बताये गये मार्ग पर चलने को कहा।

राजा राममोहन राय की मृत्यु के पश्चात् ब्रह्म समाज दो शाखाओं में बंट गया। पहली शाखा आदि समाज की थी जिसका नेतृत्व देवेन्द्रनाथ टैगोर ने किया। दूसरी शाखा साधारण समाज की थी जिसका नेतृत्व केशवचन्द्र सेन ने किया। ब्रह्म समाज अथवा राजा राममोहन राय की उपलब्धियों का वर्णन इस प्रकार है-

1. सामाजिक जागृति-

  1. राजा राममोहन राय ने सती-प्रथा का अन्त करने का प्रयास किया। उनके प्रयत्नों से 1829 ई० में लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने एक कानून पास करके सती-प्रथा को अवैध घोषित कर दिया। यह राजा राममोहन राय तथा ब्रह्म समाज की बहुत बड़ी विजय थी।
  2. उन्होंने जातीय भेद-भाव, छुआछूत, मानव बलि तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई।
  3. उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया।

2. धार्मिक जागृति-

  1. उन्होंने मूर्ति-पूजा तथा अन्ध-विश्वासों का जोरदार खण्डन किया।
  2. उन्होंने लोगों को एक ही ईश्वर में विश्वास रखने के लिए प्रेरित किया।
  3. उन्होंने लोगों को पापों से दूर रहने और अच्छे कर्म करने का उपदेश दिया। उनका कहना था कि ईश्वर की भक्ति ही मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र साधन है।

3. सांस्कृतिक जागृति-राजा राममोहन राय ने देश में पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी सभ्यता के प्रसार पर बल दिया। उनका कहना था कि पश्चिमी विचारों के प्रसार से सामाजिक कुरीतियाँ अपने-आप दूर हो जाएंगी। शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने 1817 ई० में कलकत्ता (कोलकाता) में एक अंग्रेजी स्कूल का संचालन किया। ब्रह्म समाज ने 1825 ई० में एक वेदान्त कॉलेज की स्थापना की जहां पश्चिमी ढंग से शिक्षा का प्रसार किया जाता था। .. सच तो यह है कि राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज को कई कुरीतियों से मुक्त कराने में महान् कार्य किया। इसलिए उन्हें नये युग का अग्रदूत और भारतीय राष्ट्रवाद का पिता कहा जाता है। मिस कोलिट के अनुसार, “उन्होंने भारत को उसके अतीत से आधुनिक युग में लाने के लिए एक पुल का कार्य किया।”

प्रश्न 2.
आर्य समाज पर एक विस्तृत नोट लिखो।
उत्तर-
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द जी थे। उन्होंने 1875 ई० में बम्बई (मुम्बई) के स्थान पर आर्य समाज की स्थापना की। लाहौर में आर्य समाज की स्थापना अप्रैल, 1877 में हुई। शीघ्र ही लाहौर आर्य समाज का मुख्य केन्द्र बन गया।

उद्देश्य तथा आदर्श-आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य वेदों का प्रचार करना तथा मूर्ति पूजा और खोखले रीतिरिवाजों का खण्डन करना था। स्वामी जी ने कर्म व मोक्ष पर भी बल दिया। उन्होंने लोगों को “पुनः वेदों की ओर चलो” का आदेश दिया। उनके द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश में वेदों का ज्ञान भण्डार छिपा है।

उन्होंने स्त्री व पुरुष की समानता पर बल दिया। इसलिए उन्होंने कन्या वध तथा सती प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया। वह विधवा विवाह के पक्ष में थे। स्वामी जी ने जाति-पाति का भी कड़ा विरोध किया।

उन्होंने समाज में अज्ञानता को दूर करने के लिए अनिवार्य शिक्षा का समर्थन किया। वह स्त्री शिक्षा के भी समर्थक थे। उन्होंने हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने का तर्क प्रस्तुत किया।

30 अक्तूबर, 1883 ई० को स्वामी दयानन्द का देहान्त हो गया। उनके पश्चात् भी उनके अनुयायियों ने आर्य समाज के कार्य का प्रसार किया।

धार्मिक कार्य-धार्मिक क्षेत्र में आर्य समाज ने मूर्ति पूजा व कर्मकाण्डों का त्याग करने की शिक्षा दी।।
सामाजिक कार्य-

(i) आर्य समाज ने जाति-पाति की कड़ी आलोचना की। निम्न वर्ग का स्तर ऊँचा उठाने के लिए शिक्षा तथा आर्थिक सहायता का प्रबन्ध किया। इस दिशा में उनका दूसरा प्रयास शुद्धि आन्दोलन था।

(ii) समाज ने अनाथ बच्चों के लिए अनाथालय स्थापित किए।

(iii) विधवा स्त्रियों की सहायता के लिए विधवा आश्रम स्थापित किए गए। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज का बहुमूल्य योगदान है। स्वामी जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उनके अनुयायियों ने 1886 ई० में दयानन्द ऐंग्लो वैदिक (D.A.V.) के नाम पर शिक्षण संस्थाएं स्थापित की।

राजनीतिक क्षेत्र में स्वामी जी की स्वराज्य की प्राथमिकता ने इनके अनुयायियों को देश प्रेम से ओत-प्रोत कर दिया। लाला लाजपत राय, स्वामी हंसराज, स्वामी श्रद्धानन्द, मदन मोहन मालवीय तथा रामभज जैसे बहुत से आर्य समाजियों ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।।

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प्रश्न 3.
नामधारी (कूका) आन्दोलन पर विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
नामधारी आन्दोलन का आरम्भ-नामधारी लहर का आरम्भ 1857 ई० में हुआ। इस वर्ष वैशाखी के दिन बाबा रामसिंह ने एक सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसे ‘नामधारी’ सम्प्रदाय कहा जाता है। ‘नामधारी’ लोग मन्त्रों को मस्ती में उच्च स्वर में गाते थे। ऊंचे स्वर में गाए जाने वाले गीत अथवा कूक के कारण उन्हें कूका कहा जाने लगा और उनके प्रचार कार्य को ‘कूका आन्दोलन’ का नाम दिया गया। इस लहर का प्रमुख केन्द्र भैणी गांव था जोकि ज़िला लुधियाना में स्थित है। बाबा रामसिंह जी स्वयं भी यहीं के रहने वाले थे।
नामधारी आन्दोलन के सिद्धान्त अथवा शिक्षाएं-इस आन्दोलन के प्रमुख सिद्धान्त और शिक्षाएं निम्नलिखित थी-

  1. एक ईश्वर में श्रद्धा।
  2. श्वेत वस्त्र तथा श्वेत ऊन के मनकों की माला पहनना और सीधी पगड़ी पहनना।
  3. श्री गुरु ग्रन्थ साहिब पर अटल विश्वास रखना तथा इसका पाठ करना।
  4. गुरु गोबिन्द सिंह को अपना गुरु मानना।
  5. बाल विवाह, कन्या वध, गो हत्या, दहेज तथा जाति-पाति का विरोध करना।
  6. सादा जीवन, नशीली वस्तुओं का निषेध, पुरोहित वाद, मूर्ति पूजा का खण्डन तथा अन्धविश्वासों का विरोध करना।
  7. पांच ककार धारण करना।

बाबा रामसिंह अंग्रेज़ विरोधी थे तथा स्वदेशी को महत्त्व देते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को अंग्रेज़ सरकार की नौकरी अस्वीकार करने के लिए कहा। यहां तक कि उन्होंने लोगों को रेल, सरकारी विद्यालय, नौकरियां, कार्यालय, अदालतें, सरकारी डाक-तार आदि का बहिष्कार करने के लिए भी कहा। बाबा राम सिंह ने लोगों को विदेशी वस्तुओं तथा कपड़े का भी बहिष्कार करने की शिक्षा दी। उन्होंने लोगों को चर्खे पर बने खद्दर का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया।

अंग्रेजी सरकार से टकराव-नामधारी सिक्खों ने शीघ्र ही शस्त्र धारण कर लिए। फलस्वरूप अंग्रेजों के साथ उनकी सीधी टक्कर आरम्भ हो गई। उस समय अनेक इसाई मिशनरी सिक्खों के विरुद्ध प्रचार करते थे और अंग्रेजों की ओर से ‘गो हत्या’ की भी खुली छूट थी। नामधारी सिक्ख इन बातों को सहन न कर सके और उन्होंने रायकोट के बूचड़खाने पर आक्रमण करके अनेक गो-हत्यारों को मार डाला। इस आरोप में 66 नामधारियों को तोपों से उड़ा दिया गया। बाबा रामसिंह जी को भी देश-निकाला देकर रंगून भेज दिया गया। यहीं पर 1885 ई० में उनका देहान्त हो गया। इसके बाद भी कुछ नामधारियों ने अपना धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रम जारी रखा।

प्रश्न 4.
सिंह सभा लहर क्या थी और यह किस प्रकार अस्तित्व में आई ?
उत्तर-
पंजाब में नामधारी आन्दोलन की गति धीमी होने के बाद सिक्खों में एक अन्य लहर चली। यह लहर थी-सिंह सभा लहर। यह लहर बड़ी ही महत्त्वपूर्ण थी। इस लहर का राजनीति से इतना सम्बन्ध नहीं था जितना कि सिक्खों की सामाजिक तथा धार्मिक गतिविधियों से था। सिंह सभा आन्दोलन का आरम्भ सिक्खों ने अपनी कौमी सुरक्षा के लिए किया।

पहली सिंह सभा की स्थापना 1873 ई० को हुई। खेम सिंह बेदी, विक्रम सिंह आहलूवालिया और ठाकुर सिंह संधावालिया को इस सभा का प्रधान चुन लिया गया। 1879 ई० में लाहौर में एक और सभा की स्थापना की गई। इस सभा के सदस्य मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। पंजाब का गवर्नर सर रॉबर्ट इजर्टन भी इस सभा का सदस्य बन गया और उसने उस समय के वायसराय लॉर्ड लैंसडाऊन को सभा की सहायता करने के लिए कहा। अप्रैल, 1880 ई० को दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक हुई परन्तु मामला सुलझ न सका। – 1892-93 ई० में सरदार सुन्दर सिंह मजीठिया नेता के रूप में उभरे। उनका ‘अमृतसर खालसा दीवान’ तथा ‘लाहौर खालसा दीवान’ में समान प्रभाव था। उन्होंने 11 नवम्बर, 1901 ई० को कुछ प्रसिद्ध सिक्ख नेताओं की अमृतसर में सभा बुलाई। इस सभा में एकमत से यह प्रस्ताव पास किया गया कि सिक्खों को एक सर्व-सिक्ख सभा की आवश्यकता है जो उनके हितों की रक्षा करे। लाहौर के खालसा दीवान को भी इसमें शामिल होने के लिए कहा गया जिसने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली। अतः 30 अक्तूबर, 1902 ई० को ‘चीफ खालसा दीवान’ की स्थापना हुई। चीफ खालसा दीवान के उद्देश्य थे-

  1. उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए खालसा कॉलेज को दृढ़ करना और उसका विकास करना
  2. सिक्खों में शिक्षा आन्दोलन को संगठित करना तथा स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना करना।
  3. पंजाबी साहित्य को सुधारना।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 20 सामाजिक/धार्मिक सुधार

प्रश्न 5.
सिंह सभा लहर की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
सिंह सभा की सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है-
(1) अमृतसर में एक खालसा कॉलेज की स्थापना की गई। यह कॉलेज शीघ्र ही पंजाबी साहित्य का एक मुख्य केन्द्र बन गया। पंजाब के बहुत से नगरों में खालसा स्कूल खोले गए। इन स्कूलों में बच्चों को गुरुमुखी भाषा में शिक्षा दी जाने लगी।

(2) 1908 ई० के पश्चात् प्रान्त के अनेक भागों में वार्षिक शिक्षा सभाओं का आयोजन किया गया। इसके परिणामस्वरूप कई नई सिक्ख संस्थाओं की स्थापना हुई। इसमें गुजरांवाला का खालसा कॉलेज तथा फिरोज़पुर में सिक्ख कन्या महाविद्यालय प्रमुख थे।

(3) सिंह सभा ने सिक्ख धर्म के प्रचार की ओर भी पूरा ध्यान दिया। साहबसिंह बेदी, अतरसिंह, खेमसिंह बेदी तथा संगत सिंह ने धर्म प्रचार का बड़ा सराहनीय कार्य किया। इसके परिणामस्वरूप बहुत से हिन्दू सिक्ख धर्म में शामिल हो गए।

(4) भाई वीर सिंह ने ‘खालसा ट्रैक्ट सोसायटी’ की स्थापना की। उन्होंने खालसा समाचार नाम का समाचार-पत्र भी आरम्भ किया। भाई काहन सिंह जी ने इसमें अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने सिक्ख धर्म तथा संस्कृति पर विश्व कोष लिखा। भाई दित्त सिंह . तथा अन्य अनेक कवियों तथा गद्य लेखकों ने पंजाब के साहित्य को समृद्ध बनाया।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 9 सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 9 सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 9 सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना

PSEB 11th Class Agriculture Guide सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
सूअरों की मुख्य नस्लों के नाम लिखो।
उत्तर-
सफेद यार्कशायर, लैंडरेस।

प्रश्न 2.
मादा सूअर एक साल में कितने बच्चे पैदा करती है ?
उत्तर-
एक वर्ष में 20-24 बच्चे देती है।

प्रश्न 3.
मादा सूअर एक साल में कितनी बार सू जाती है ?
उत्तर-
दो बार।

प्रश्न 4.
सूअर के बच्चों की खुराक में कितनी प्रोटीन होनी चाहिए ?
उत्तर-
20-22% ।

प्रश्न 5.
12 सप्ताह के खरगोश का कितना भार होता है ?
उत्तर-
2 किलोग्राम।

प्रश्न 6.
बकरी की किस्में बताओ।
उत्तर-
देसी नसल-बीटल, जमनापरी। विदेशी नसल-सानन, अलपाइन तथा बोअर।

प्रश्न 7.
भेड़ की किस्में बताओ।
उत्तर-
मैरीनो, कोरीडेल।

प्रश्न 8.
बीटल बकरी कौन से क्षेत्र में मिलती है ?
उत्तर-
पंजाब के अमृतसर, गुरदासपुर, फिरोज़पुर तथा तरनतारन जिलों में।

प्रश्न 9.
जमनापरी कौन से क्षेत्र में मिलती है ?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में।

प्रश्न 10.
माँस वाले छेले को कब खस्सी करवाना चाहिए ?
उत्तर-
2 माह की आयु तक।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
सूअरों की देसी और विदेशी नस्लों में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सूअर की देसी नस्लों का शारीरिक विकास बहुत कम होता है और देसी नस्लों के बच्चों की पैदावार भी कम होती है।
विदेशी नस्लों का शारीरिक विकास तेज़ी से होता है और इस नसल के बच्चों की पैदावार भी अधिक है।

प्रश्न 2.
सूअरों को कौन-कौन सी सस्ती खुराक डाली जा सकती है ?
उत्तर-
सब्जी मंडी की बची-खुची खराब हुई सब्ज़ियाँ और पत्ते, होस्टलों, होटलों और कैन्टीनों की जूठन, गन्ने के रस की मैल और लस्सी आदि, जैसे-सस्ते पदार्थों का प्रयोग सूअरों के आहार के लिए किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
सूअरों की खुराक की बनावट बताओ।
उत्तर-
सूअरों के बच्चों की खुराक में 20-22% प्रोटीन देना चाहिए और रेशे की मात्रा 5% से अधिक नहीं होनी चाहिए। बढ़ रहे सूअरों की खराक में 16-18% प्रोटीन होना चाहिए और बड़े जानवरों को 2-3 किलोग्राम हरा चारा भी देना चाहिए।

प्रश्न 4.
उत्तम बकरी के गुण बताओ।
उत्तर-
उत्तम बकरी का चुनाव उसकी 120 दिनों के प्रसव बाद के दूध को देखकर की जाती है। उत्तम बकरी को 2 साल की आयु तक बच्चों को जन्म देना चाहिए। बकरी की वेल लम्बी होनी चाहिए। बढ़िया चमकीले बालों वाली होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
खरगोश की ऊन और माँस वाली किस्मों के नाम बताओ।
उत्तर-
खरगोश की माँस वाली किस्में हैं-सोवियत चिंचला, न्यूज़ीलैंड व्हाइट, ग्रेअ जिंऐट, व्हाइट जिऐंट।
खरगोश की ऊन वाली किस्में हैं-रूसी अंगोरा, ब्रिटिश अंगोरा, जर्मन अंगोरा।

प्रश्न 6.
खरगोश किस तरह के खाने को ज्यादा पसन्द करता है ?
उत्तर-
खरगोश शाकाहारी जानवर है। इसको नेपीअर बाजरा, पालक, वांह, लुसण, गिन्नी घास, बरसीम, हरे पत्ते और सब्जियों के पत्ते खाने पसन्द हैं।

प्रश्न 7.
खरगोश का खुड्डा या पिंजरा किस तरह का होना चाहिए ?
उत्तर-
खुड्डे या पिंजरें लकड़ी के बनाए जाते हैं जो भिन्न-भिन्न आकार के हो सकते हैं; पर इनमें मलमूत्र के निकास और रोशनी का पूरा प्रबन्ध होना चाहिए।

प्रश्न 8.
खरगोश हर साल कितने सूए और हर सूए में कितने बच्चों को जन्म देता है ?
उत्तर-
मादा खरगोश हर साल में 6-7 बार बच्चों को जन्म देती है और हर प्रसव में 5-7 बच्चों को जन्म देती है।

प्रश्न 9.
खरगोश की भिन्न-भिन्न नस्लों की ऊन पैदावार के बारे में लिखो।
उत्तर-
खरगोश की किस्म — ऊन की मात्रा।
रूसी अंगोरा – 215 ग्राम
ब्रिटिश अंगोरा – 230 ग्राम
जर्मन अंगोरा – 590 ग्राम

प्रश्न 10.
खरगोश की खुराक में प्रोटीन की मात्रा के बारे में बताओ।
उत्तर-
दूध न देने वाली मादा के आहार में 12-15% प्रोटीन और दूध दे रहे जानवर के आहार में 16-20% प्रोटीन तत्व देना चाहिए।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
सूअर पालन व्यवसाय को लाभदायक बनाने के लिए कौन से तथ्य हैं ?
उत्तर-
सूअर पालन के धन्धे को लाभदायक बनाने के लिए तथ्य हैं –

  • नसल का सही चुनाव करना।
  • सूअर और सूअरी का स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए।
  • सूअरों को बीमारियों से बचाने के लिए अच्छा सन्तुलित आहार देना चाहिए।
  • सूअर और सूअरी को रखने और देखभाल का सही प्रबन्ध होना चाहिए।
  • सूअरी की सेहत अच्छी हो, त्वचा कसी हुई और नर्म, बाल भी नर्म, आंखें भी चमकदार, टांगें मज़बूत और कम-से-कम 12 थन होने चाहिए।
  • सूअरी को 8-9 माह की आयु में जब उसका भार 90 किलोग्राम हो, आस करवानी चाहिए।
  • बच्चों से अधिक मास की प्राप्ति के लिए इन्हें 3-4 सप्ताह की आयु में खस्सी करवा लेना चाहिए।

प्रश्न 2.
सूअरों के बाड़े के बारे में विस्तार से बताओ।
उत्तर-
सूअरों के शैड भूमि से ऊँचे, सस्ते तथा आरामदायक होने चाहिए। एक बढ़ रहे सूअर को 8 वर्ग फुट तथा दूध से हट चुकी सूअरी को 10-12 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता होती है। 20 बच्चे रखने के लिए 160 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता होती है। सूअरियों को इकट्ठा रखना हो तो 10 से अधिक नहीं रखनी चाहिए। बच्चों वाली सूअरी के कमरे में दीवार से हट के गार्ड रेलिंग लगानी चाहिए। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि सूअरी के नीचे आकर बच्चे मर न जाएं। रेलिंग की फर्श से ऊंचाई 10-12 इंच तथा इतना ही इसको दीवार से दूर रखना चाहिए।

प्रश्न 3.
भेड़ों, बकरियों के बाड़े के बारे नोट लिखो।
उत्तर-
भेड़ों, बकरियों के शैड खुले तथा हवादार होने चाहिए। इनमें सीलन नहीं होनी चाहिए। शैड की लम्बाई पूर्व-पश्चिम दिशा की तरफ होनी चाहिए। एक बकरी या भेड़ को लगभग 10 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता होती है। लेले तथा छेले को 4 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता होती है। शैड के आस-पास 5-6 फुट ऊँची दीवार की हो या कंडियाली तार लगी होनी चाहिए। इससे कुत्ते आदि हानि नहीं कर सकते। शैड के आस-पास पतझड़ी वृक्ष, जैसे-शहतूत, पापुलर, डेक आदि लगा लेने चाहिए।

प्रश्न 4.
खरगोश की खुराक की बनावट के बारे बताओ।
उत्तर-
खरगोश को दालें, फलीदार हरा तथा सूखा चारा, अनाज, बन्दगोभी, गाजर तथा रसोई की बची-खुची वस्तुएँ आदि से पाला जा सकता है। राशन को दलकर या गोलियां बना कर खरगोश को आहार दिया जा सकता है। गोलियां बना कर आहार देने से खरगोश को सांस की बीमारी से बचाव होता है तथा राशन की बचत भी होती है। दूध से हरी मादा को आहार में 12-15% प्रोटीन देना चाहिए तथा दूध दे रही मादा की आहार में प्रोटीन की मात्रा 16-20% होनी चाहिए। खरगोश को गेहूँ, मक्की, बाजरा, चावल की पालिश, मीट मील, धातु का मिश्रण, मूंगफली की खल तथा नमक आदि वाला आहार बनाकर दी जाती है। खरगोश रवाह, गिन्नी घास, नेपियर बाजरा, लुसन, पालक, हरे पत्ते वाली सब्जियां आदि को पसन्द करते हैं। खरगोश अपने शरीर के दसवें भाग के बराबर पानी भी पी जाते हैं। इसलिए पानी का प्रबन्ध भी होना चाहिए।

प्रश्न 5.
खरगोश के पिंजरों के बारे में जानकारी दो।
उत्तर-
खुड्डे या डिब्बे लकड़ी के बनाए जाते हैं जो भिन्न-भिन्न आकार के हो सकते हैं। परन्तु इनमें मलमूत्र के निकास तथा प्रकाश का पूरा प्रबन्ध होना चाहिए। जब बच्चे दूध छोड़ देते हैं, तो इनको पिंजरों में रखा जाता है। पिंजरे का आकार 5 फुट लम्बा तथा 4 फुट चौड़ा होता है। इसमें लगभग 20 बच्चे रखे जाते हैं। नर तथा मादा को अलग-अलग जिस पिंजरे में रखा जाता है उसका आकार 2 फुट लम्बा, 1-2 फुट चौड़ा तथा 1 फुट ऊंचा होना चाहिए।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
सूअर की नसल सफेद यार्कशायर का कद तथा रंग बताओ।
उत्तर-
कद मध्यम, रंग सफेद होता है।

प्रश्न 2.
सूअर की कौन-सी नसल उत्तर भारत में बहुत प्यारी है?
उत्तर-
सफेद यार्कशायर।

प्रश्न 3.
लैंडरेस सूअर का मूल घर बताओ।
उत्तर-
डैनमार्क देश।

प्रश्न 4.
स्वस्थ मादा सूअर कितने महीने की आयु में पहली बार कामवेग में आती है ?
उत्तर-
5-6 माह में।

प्रश्न 5.
बढ़ रहे सूअरों के आहार में कितना प्रोटीन होना चाहिए ?
उत्तर-
16-18%।

प्रश्न 6.
बढ़ रहे सूअर को कितने स्थान की आवश्यकता है ?
उत्तर-
8 वर्ग फुट।

प्रश्न 7.
दूध से हट चुकी मादा सूअर को कितने स्थान की आवश्यकता है ?
उत्तर-
10-12 वर्ग फुट ।

प्रश्न 8.
मादा सूअर के कमरे में गार्ड रेलिंग फर्श से कितनी ऊंची होनी चाहिए ?
उत्तर-
10-12 इंच।

प्रश्न 9.
गरीब की गाय किस को कहा जाता है ?
उत्तर-
बकरी को।

प्रश्न 10.
बकरी की देसी नस्ल के नाम बताओ।
उत्तर-
बीटल, जमनापरी।

प्रश्न 11.
बकरी का चुनाव कितने दिन का प्रसव बाद का दूध देख कर किया जाता है ?
उत्तर-
120 दिन।

प्रश्न 12.
भेड़/बकरी का गर्भकाल का समय कितना है ?
उत्तर-
145-153 दिनों का।

प्रश्न 13.
शैड की दिशा किस तरह होनी चाहिए ?
उत्तर-
पूर्व-पश्चिम की तरफ।

प्रश्न 14.
बकरी या भेड़ को कितने स्थान की आवश्यकता होती है ?
उत्तर-
10 वर्ग फुट।

प्रश्न 15.
लेले या छेले (भेड़, बकरी के बच्चे ) को कितने स्थान की आवश्यकता है ?
उत्तर-
4 वर्ग फुट।

प्रश्न 16.
भेड़/बकरी को वर्ष में कितने बार बच्चे देने चाहिए ?
उत्तर-
3 बार।

प्रश्न 17.
मादा खरगोश वर्ष में कितनी बार बच्चे देती है ?
उत्तर-
6-7 बार।

प्रश्न 18.
खरगोश की औसत आयु कितनी है ?
उत्तर-
5 वर्ष।

प्रश्न 19.
खरगोश की ऊन वाली किस्म लिखो।
उत्तर-
रूसी अंगोरा, जर्मन अंगोरा।

प्रश्न 20.
खरगोश की मांस वाली नस्लें बताओ।
उत्तर-
सोवियत चिंचला, ग्रेअ जिएंट।

प्रश्न 21.
दूध से हट चुकी खरगोश के आहार में कितना प्रोटीन होना चाहिए ?
उत्तर-
12-15%।

प्रश्न 22.
दूध दे रही मादा खरगोश का आहार में कितना प्रोटीन होना चाहिए ?
उत्तर-
16-20%।

प्रश्न 23.
6 सप्ताह का खरगोश प्रतिदिन कितना हरा चारा तथा आहार खा जाता है ?
उत्तर-
100 ग्राम हरा चारा तथा 50 ग्राम आहार।

प्रश्न 24.
खरगोश से पहली बार ऊन कितनी आयु में ली जा सकती है ?
उत्तर-
4 माह की आयु में।।

प्रश्न 25.
एक खरगोश से वर्ष में कितनी ऊन प्राप्त हो जाती है ?
उत्तर-
500-700 ग्राम।

लघु उत्तरीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
सूअर की किस्म सफेद यार्कशायर के बारे में बताओ।
उत्तर-
यह सफेद रंग की मध्यम कद वाली नस्ल है। इसकी वेल लम्बी तथा कान खड़े होने चाहिए। इसको पंजाब में आसानी से पाला जा सकता है।

प्रश्न 2.
सूअर की नस्ल लैंडरेस के बारे में बताएं।
उत्तर-
यह विदेशी नस्ल है। इसके कान लटकते हुए, वेल लम्बी तथा रंग सफेद होता है। इसका मूल देश डैनमार्क है। इसके लिए मीट में चर्बी कम मात्रा में होती है।

प्रश्न 3.
मादा सूअर के आस में आने के बारे में बताओ।
उत्तर-
मादा सूअर पहली बार 5-6 माह की आयु में हीट में आ जाती है। पर 90 किलो भार की, 8-9 माह की सूअरी को ही आस में लाना चाहिए।

प्रश्न 4.
मादा सूअर कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर-
मादा सूअर का स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए। त्वचा कसी हुई तथा नर्म, बाल नर्म होने चाहिए। टांगें मजबूत होनी चाहिए तथा थन 12 होने चाहिए।

प्रश्न 5.
सूअरों को कितने स्थान की आवश्यकता है ?
उत्तर-
बढ़ रहे सूअर को 8 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता है तथा दूध से हट चुकी सूअरी को 10-12 वर्ग फुट स्थान की आवश्यकता है।

प्रश्न 6.
बच्चों वाली मादा सूअर के कमरे में गार्ड रेलिंग क्यों लगाई जाती है ?
उत्तर-
इसलिए लगाई जाती है ताकि बच्चे सूअरी के नीचे आकर मर न जाए।

प्रश्न 7.
बकरी की नस्ल बीटल के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-
यह काले भूरे रंग की होती है तथा इसमें सफेद धब्बे होते हैं। इसके कान लम्बे, लटकते हुए, टेढ़े तथा चेहरा उभरा होता है। मुहाने का आकार बड़ा होता है तथा पहली प्रसव डेढ़ वर्ष की आयु तक मिल सकता है। यह नस्ल अमृतसर, फिरोजपुर, तरनतारन तथा गुरदासपुर में मिलती है।

प्रश्न 8.
जमनापरी नस्ल का विवरण दें।
उत्तर-
इस नस्ल की बकरी का रंग सफेद हल्का भूरा तथा मुंह तथा सिर पर धब्बे होते हैं। इसके कान लटकते हुए, बिंधे तथा नाक उभरा हुआ होता है। इसका कद लम्बा तथा टांगें भी लम्बी होती हैं। यह नस्ल देखने में सुन्दर लगती है तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में मिलती है।

प्रश्न 9.
खरगोश की ऊन उतारने के बारे में बताओ।
उत्तर-
खरगोश से 4 माह की आयु में पहली बार ऊन उतारी जा सकती है। कटाई के समय ऊन कम-से-कम 2 इंच लम्बी होनी चाहिए। पूरी ऊन तो खरगोश के एक वर्ष का होने पर मिलती है। एक वर्ष में खरगोश से लगभग 500-700 ग्राम ऊन मिलती है तथा हर वर्ष मिलती रहती है।

प्रश्न 10.
भेड़ों/बकरियों, खरगोशों को पालने के लिए प्रशिक्षण लेने के बारे में बताओ।
उत्तर-
इन जानवरों के पालने के लिए, प्रशिक्षण लेने के लिए जिले के डिप्टी डायरैक्टर पशु-पालन विभाग, कृषि विज्ञान केन्द्र या गडवासु लुधियाना से सम्पर्क किया जा सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बकरी की नस्लों के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 2.
सूअरों की नस्लों के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • सूअर अपने वंश की वृद्धि तेजी से करते हैं तथा कम आहार लेते हैं।
  • सूअरों की विदेशी नस्ल है-सफेद यार्कशायर, लैंडरेस।
  • स्वस्थ मादा सूअर पहली बार 5-6 माह की आयु में कामवेग में आती हैं।
  • मादा सूअर वर्ष में दो बार प्रसव कर सकती है तथा एक बार में 10-12 बच्चे पैदा करती है। 5. सूअरों के 160 वर्ग फुट में 20 बच्चे रखे जा सकते हैं।
  • बकरी का दूध बीमारों तथा बुजुर्गों के लिए बहुत गुणकारी है।
  • बकरी की नस्लें हैं-बीटल, जमनापरी।
  • बकरी की विदेशी नस्लें हैं-सानन, अलपाइन तथा वोअर।
  • भेड़ों की नस्लें हैं-मैरीनो, कोरीडेल।
  • अच्छी बकरी का चुनाव उसके 120 दिन के सूए के दूध को देख कर किया जाता है।
  • बकरी तथा भेड़ का गर्भकाल का समय 145-153 दिन है।
  • बकरी या भेड़ को लगभग 10 फुट जगह की आवश्यकता होती है। जब के भेड़ या बकरी के बच्चे को लगभग 4 फुट जगह की आवश्यकता है।
  • जो छेले मांस के लिए रखे जाते हैं उनको 2 माह की आयु में खस्सी करवा लेना चाहिए।
  • खरगोश की भादा पहली बार 6-9 माह की आयु में गर्भ धारण कर सकती है।
  • खरगोश की आयु औसतन 5 वर्ष की है।
  • खरगोश की ऊन के लिए पाली जाने वाली किस्में हैं-जर्मन अंगोरा, ब्रिटिश अंगोरा, रूसी अंगोरा।
  • खरगोश की मांस वाली किस्में हैं-ग्रे ज्वाइंट, सोवियत चिंचला, वाइट ज्वाइंट, न्यूजीलैंड वाइट।
  • वार्षिक ऊन की क्रमशः पैदावार रूसी, ब्रिटिश तथा जर्मन अंगोरा से 215, 230 तथा 590 ग्राम है।
  • 4 माह की आयु में खरगोश से पहली बार ऊन प्राप्त की जा सकती है।
  • भेड़ों, बकरियों या खरगोश पालन का व्यवसाय शुरू करने से पहले प्रशिक्षण ले लेना चाहिए।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
शक्ति से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
शक्ति समूह या व्यक्तियों का वह सामर्थ्य है जिससे वह उस समय अपनी बात मनवाते हैं जब उनका विरोध हो रहा होता है।

प्रश्न 2.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता के तीन प्रकार बताइये।
उत्तर-
परंपरागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मायी सत्ता।

प्रश्न 3.
अर्थव्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समाजशास्त्रियों के अनुसार मानवीय क्रियाएं जो भोजन अथवा सम्पत्ति से संबंधित होती हैं, अर्थ व्यवस्था को बनाती हैं।

प्रश्न 4.
राज्य के कोई दो तत्व बताइये।
उत्तर-
जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, प्रभुसत्ता तथा सरकार राज्य के प्रमुख तत्त्व हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 5.
जीववाद का सिद्धांत किसने प्रस्तुत किया ?
उत्तर-
ई० बी० टाईलर (E.B. Tylor) ने जीववाद का सिद्धांत दिया था।

प्रश्न 6.
किसने पवित्र तथा सामान्य वस्तुओं में अंतर किया ?
उत्तर-
दुर्थीम (Durkheim) ने पवित्र तथा अपवित्र वस्तुओं में अंतर दिया था।

प्रश्न 7.
प्रकृतिवाद के विचार की चर्चा किसने की ?
उत्तर-
प्रकृतिवाद का सिद्धांत मैक्स मूलर (Max Muller) ने दिया था।

प्रश्न 8.
किसने धर्म को ‘आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास’ माना है ?
उत्तर-
ई० बी० टाईलर ने धर्म को परा प्राकृतिक शक्ति में विश्वास कहा था।

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प्रश्न 9.
दो ऐसे धर्मों के नाम बताइये जो भारत में बाहर से आये हैं।
उत्तर-
ईसाई और इस्लाम दो धर्म हैं जो भारत में बाहर से आए हैं।

प्रश्न 10.
सम्प्रदाय से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
सम्प्रदाय एक धार्मिक विचार व्यवस्था का एक उपसमूह है तथा साधारणतया यह बड़े धार्मिक समूह से निकला एक हिस्सा होता है।

प्रश्न 11.
पंथ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पंथ एक धार्मिक संगठन है जो किसी एक व्यक्तिगत नेता के विचारों तथा विचारधारा में से निकला है।

प्रश्न 12.
कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत पूंजीवादी समाज में दो प्रमुख वर्गों के नाम बताइये।
उत्तर-
पूंजीवादी वर्ग तथा मज़दूर वर्ग।

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प्रश्न 13.
औपचारिक शिक्षा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वह शिक्षा जो हम स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय इत्यादि में लेते हैं, वह औपचारिक शिक्षा होती है।

प्रश्न 14.
अनौपचारिक शिक्षा को परिभाषित दीजिए।
उत्तर-
वह शिक्षा जो हम अपने परिवार से, रोज़ाना के अनुभवों से प्राप्त करते हैं, अनौपचारिक शिक्षा होती है।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
राज्यहीन समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जिन समाजों में राज्य नामक संस्था नहीं होती वह राज्य रहित समाज होते हैं। वे सादा या प्राचीन समाज होते हैं। यहां कम जनसंख्या होती है जिस कारण लोगों के बीच आमने-सामने के रिश्ते होते हैं तथा सामाजिक नियंत्रण के लिए समाज या सरकार जैसे किसी औपचारिक साधन की आवश्यकता नहीं होती। यहां बुजुर्गों की सभा से नियंत्रण किया जाता है।

प्रश्न 2.
करिश्मई सत्ता पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर-
जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से इतना प्रभावित होता है कि उसके कहने के अनुसार वह कुछ भी कर जाता है तो इस प्रकार की सत्ता करिश्मई सत्ता होती है। किसी व्यक्ति का करिश्मई व्यक्तित्व होता है तथा लोग उससे प्रभावित हो जाते हैं। धार्मिक नेता, राजनीतिक नेता इस प्रकार की सत्ता का प्रयोग करते हैं।

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प्रश्न 3.
वैधानिक-तार्किक सत्ता किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जो सत्ता कुछ नियमों-कानूनों के अनुसार प्राप्त होती है उसे वैधानिक सत्ता का नाम दिया जाता है। सरकार के पास वैधानिक सत्ता होती है तथा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मंत्री, अधिकारी इस प्रकार की सत्ता का प्रयोग करते हैं जो संविधान की सहायता से प्राप्त की जाती है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर-

  1. पंचायती राज व्यवस्था को स्थानीय स्तर पर लागू किया जाता है तथा साधारण जनता को भी सत्ता में भागीदारी करने का मौका प्राप्त होता है।
  2. इस व्यवस्था में स्थानीय स्तर की समस्याओं का स्थानीय स्तर पर ही समाधान कर लिया जाता है तथा कार्य भी जल्दी हो जाता है।

प्रश्न 5.
जीववाद (Animism) और प्रकृतिवाद (Naturism) से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-

  1. जीववाद-यह सिद्धान्त Tylor ने दिया था तथा इसके अनुसार धर्म का उद्भव आत्मा के विचार से सामने आया अर्थात् लोग आत्माओं में विश्वास रखते हैं तथा इससे ही धर्म का जन्म हुआ।
  2. प्रकृतिवाद-इसके अनुसार प्राचीन समय में मनुष्य प्राकृतिक घटनाओं जैसे कि वर्षा, बर्फानी तूफान, आग इत्यादि से डरता था। इसलिए उसने प्रकृति की पूजा करनी शुरू की तथा धर्म सामने आया।

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प्रश्न 6.
हित समूह किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हित समूह एक विशेष समूह के लोगों की तरफ से बनाए गए समूह हैं जो केवल अपने सदस्यों के हितों के लिए कार्य करते हैं। उन हितों की प्राप्ति के लिए वह अन्य समूहों के हितों की भी परवाह नहीं करते। उदाहरण के लिए मज़दूर संघ, ट्रेड यूनियन, फिक्की (FICCI) इत्यादि।

प्रश्न 7.
पवित्र एवं सामान्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
दुर्थीम ने धर्म से संबंधित पवित्र तथा साधारण वस्तुओं के बारे में बताया था। उनके अनुसार पवित्र वस्तुएं वे हैं जिन्हें हमसे ऊंचा तथा सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। ये असाधारण होती हैं तथा रोज़ाना के कार्यों से दूर होती हैं परन्तु बहुत-सी वस्तुएं ऐसी होती हैं जो रोज़ाना हमारे सामने आती हैं तथा प्रयोग की जाती हैं। इन्हें साधारण वस्तुएं कहा जाता है।

प्रश्न 8.
टोटमवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
टोटमवाद में कोई जनजाति स्वयं को किसी वस्तु, मुख्य रूप से कोई जानवर, पेड़, पौधा, पत्थर या किसी अन्य वस्तु से संबंधित मान लेती है। जिस वस्तु के प्रति उसका श्रद्धा भाव होता है वह जनजाति उस वस्तु के नाम को अपना लेती है तथा उसकी पूजा करती है। वह स्वयं को उस टोटम से पैदा हुई मान लेती है।

प्रश्न 9.
पशुपालक अर्थव्यवस्था (Pastoral Economy) किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में समाज अपनी जीविका कमाने के लिए घरेलू जानवरों पर निर्भर करते हैं। इन्हें चरवाहे कहा जाता है। वह भेड़ों-बकरियों, गाय, ऊंट, घोड़े इत्यादि रखते हैं। इस प्रकार के समाज घास वाले हरे-भरे मैदानों या पहाड़ों में मिलते हैं। मौसम बदलने से यह लोग स्थान भी बदल लेते हैं।

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प्रश्न 10.
कृषि अर्थव्यवस्था किस प्रकार औद्योगिक अर्थव्यवस्था से भिन्न है ?
उत्तर-
कृषि अर्थव्यवस्था में लोगों का मुख्य पेशा कृषि होता है तथा वे कृषि करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वहां कम जनसंख्या तथा अनौपचारिक संबंध होते हैं। परन्तु औद्योगिक अर्थव्यवस्था में लोग उद्योगों में कार्य करके पैसे कमाते हैं। वहां अधिकतर जनसंख्या तथा लोगों के बीच औपचारिक संबंध होते हैं।

प्रश्न 11.
जजमानी प्रणाली किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह व्यवस्था सेवा लेने तथा देने की व्यवस्था है जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों को अपनी सेवाएं देती हैं तथा सेवा देने वाली जाति को अपनी सेवाओं का मेहनताना मिल जाता है। सेवा लेने वाले को जजमान कहा जाता है तथा सेवा देने वाले को कमीन कहा जाता है।

प्रश्न 12.
पूंजीवादी समाज पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर-
पश्चिमी समाजों को पूंजीवादी समाज कहा जाता है जहां उद्योगों में पूंजी लगाकर पैसा कमाया जाता है। उद्योगों के मालिकों के हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा वे मजदूरों को काम पर रख कर वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। पूंजीवाद का मुख्य तत्त्व है मज़दूरों, उत्पादन के साधनों, उद्योगों, मशीनों तथा मालिकों के बीच संबंध। .

प्रश्न 13.
समाजवादी समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह संकल्प 19वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने दिया था, जिसके अनुसार सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था मज़दूरों के हाथों में होती है। मजदूर उद्योगपतियों के विरुद्ध क्रांति करके उनकी सत्ता खत्म कर देंगे तथा वर्ग रहित समाज की स्थापना करेंगे। सभी लोग कानून के सामने समान होंगे तथा उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुसार सरकार की तरफ से मिल जाएगा।

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प्रश्न 14.
शिक्षा के निजीकरण का उदाहरण दीजिए।
उत्तर-
आजकल प्रत्येक गांव, कस्बे तथा नगर में निजी स्कूल आरंभ हो गए हैं। नगरों में निजी कॉलेज खल गए हैं तथा देश के कई भागों में निजी विश्वविद्यालय खुल गए हैं। यह शिक्षा के निजीकरण के उदाहरण हैं।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
धर्म पर एमिल दुर्खाइम के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
दुर्थीम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की ठोस व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को नैतिक रूप प्रदान करती है। दुर्शीम ने सभी धार्मिक विश्वासों तथा आदर्शात्मक वस्तुओं को ‘पवित्र’ तथा ‘साधारण’ दो वर्गों में विभाजित किया है। पवित्र वस्तुओं में देवताओं तथा आध्यात्मिक शक्तियों या आत्माओं के अतिरिक्त गुफाएं, पेड़, पत्थर, नदी इत्यादि शामिल हो सकते हैं। साधारण वस्तुओं की तुलना में पवित्र वस्तुएं अधिक शक्ति तथा शान रखती हैं। दुर्थीम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं अर्थात् अलग व प्रतिबन्धित वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।” .

प्रश्न 2.
धर्म किस प्रकार समाज में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ?
उत्तर-
सामाजिक संगठन को बनाए रखने के लिए धर्म महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। एक धर्म में लाखों लोग होते हैं जिनके एक समान विश्वास होते हैं। यह विश्वास, प्रतिमान, व्यवहार के तरीके एक धार्मिक समूह को मिला देते हैं जिससे समूह में एकता बनी रहती है। इस प्रकार ही अलग-अलग समूहों में एकता के साथ सामाजिक संगठन बना रहता है। प्रत्येक धर्म अपने लोगों को दान देने व सहयोग करने के लिए कहता है जिससे समाज में मज़बूती तथा स्थिरता बनी रहती है। इस प्रकार धर्म का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 3.
शिक्षा संस्था से क्या अभिप्राय है ? सरकार द्वारा अपनायी गयी शिक्षा नीतियों के विषय में लिखिए।
उत्तर-
शैक्षिक संस्था वह होती है जो व्यक्ति को शिक्षा देकर उसे आवश्यक ज्ञान देती है तथा उसे उत्तरदायी नागरिक बनाती है। सरकार की तरफ से लागू की गई शैक्षिक नीतियों का वर्णन इस प्रकार है

  • हमारे संविधान के अनुच्छेद 45 के अनुसार 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त तथा आवश्यक शिक्षा प्रदान की जाएगी।
  • 1960 के कोठारी कमीशन ने सभी बच्चों के स्कूल आने तथा उन्हें लगाकर पढ़ाने पर बल दिया था।
  • 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अपनाया गया था जिसमें वोकेशनल ट्रेनिंग तथा पिछड़े समूहों के लिए शैक्षिक सुविधाओं पर बल दिया।
  • सर्व शिक्षा अभियान 1986 तथा 1992 ने इस बात पर बल दिया कि 6-14 वर्ष के सभी बच्चों को आवश्यक शिक्षा प्रदान की जाए।
  • 2010 में शिक्षा का अधिकार (Right to Education) लागू किया गया जिसके अनुसार 6-14 वर्ष के बच्चों को क्लासों में 8 वर्ष की प्राथमिक शिक्षा दी जाएगी।

प्रश्न 4.
शिक्षा के प्रकार्यों को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-

  • शिक्षा व्यक्ति के बौद्धिक विकास में सहायता करती है।
  • शिक्षा व्यक्तियों को समाज से जोड़ती है।
  • यह समाज में तालमेल बिठाने में सहायता करती है।
  • यह व्यक्ति की योग्यता बढ़ाने में सहायता करती है।
  • शिक्षा संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने में सहायता करती है।
  • शिक्षा से बच्चों में नैतिक गुणों का विकास होता है।
  • शिक्षा व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक होती है।

प्रश्न 5.
मैक्स वैबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता के प्रकारों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने सत्ता के तीन प्रकारों का वर्णन किया है-परंपरागत, वैधानिक तथा करिश्मई सत्ता। परंपरागत सत्ता वह होती है जो परंपरागत रूप से प्राचीन समय ही चलती आ रही है तथा जिसके विरुद्ध कोई किन्तु परन्तु नहीं होता। पिता के घर में इस प्रकार की सत्ता होती है। वैधानिक सत्ता वह होती है जो कुछ नियमों, कानूनों के अनुसार प्राप्त की जाती है। सरकार को प्राप्त सत्ता इस प्रकार की सत्ता है। करिश्मई सत्ता वह होती है जो किसी के करिश्मई व्यक्तित्व के कारण उसे प्राप्त हो जाती है तथा उसके चेले उसकी सत्ता बिना किसी प्रश्न के मानते हैं। धार्मिक नेता, राजनीतिक नेता इस प्रकार की सत्ता भोगते हैं।

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प्रश्न 6.
राज्य समाज एवं राज्यहीन समाज में अंतर कीजिए।
उत्तर-
1. राज्य समाज (State Less Society)-आधुनिक समाजों को राज्य वाले समाज कहा जाता है जहां सत्ता राज्य नामक संस्था के हाथों में केन्द्रित होती है परन्तु इसे जनता से प्राप्त किया जाता है। मैक्स वैबर के अनुसार राज्य वह मानवीय समुदाय है जो एक निश्चित क्षेत्र में शारीरिक बल के साथ सत्ता का उपभोग करता

2. राज्य हीन समाज (State Less Society)-जिन समाजों में राज्य नामक संस्था नहीं होती वह राज्य हीन समाज होते हैं। ये सादा या प्राचीन समाज होते हैं। यहां कम जनसंख्या होती है जिस कारण लोगों के बीच आमनेसामने के रिश्ते होते हैं तथा सामाजिक नियंत्रण के लिए राज्य या सरकार जैसे किसी औपचारिक साधन की कोई आवश्यकता नहीं होती। यहां बुजुर्गों की सभा से नियंत्रण रखा जाता है।

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें:

प्रश्न 1.
राजनीतिक संस्थाओं से आप क्या समझते हैं, विस्तार से चर्चा कीजिए ।
उत्तर-
हमारा समाज काफ़ी बड़ा है तथा राजनीतिक व्यवस्था इसका एक भाग है। राजनीतिक व्यवस्था मनुष्यों की भूमिकाओं को परिभाषित करती है। राजनीति तथा समाज में काफ़ी गहरा संबंध है। सामाजिक मनुष्यों को नियंत्रण में करने के लिए राजनीतिक संस्थाओं की आवश्यकता होती है तथा वह राजनीतिक संस्थाएं हैं शक्ति, सत्ता, राज्य, सरकार, विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका इत्यादि। ये राजनीतिक संस्थाएं हमारे समाज के ऊपर औपचारिक नियंत्रण रखती हैं तथा यह नियंत्रण रखने के उनके अपने साधन होते हैं जैसे कि सरकार, पुलिस, सेना, न्यायालय इत्यादि। इस प्रकार राजनीतिक संस्थाएं वह साधन हैं जिनकी सहायता से समाज में शांति तथा व्यवस्था बना कर रखी जाती है। राजनीतिक संस्थाएं मुख्य रूप से समाज में शक्ति के वितरण से संबंध रखती हैं। राजनीतिक संस्थाओं में शक्ति तथा सत्ता को समझना आवश्यक है।

(i) शक्ति (Power)-शक्ति किसी व्यक्ति या समूह का सामर्थ्य होता है जिसके द्वारा वह अन्य लोगों पर अपनी इच्छा थोपता है चाहे उसका विरोध ही क्यों न हो रहा हो। इसका अर्थ है कि जिनके पास शक्ति होती है वह अन्य लोगों की कीमत पर शक्ति का भोग कर रहे होते हैं। समाज में शक्ति सीमित मात्रा में होती है। जिन लोगों या समूहों के पास अधिक शक्ति होती है वह कम शक्ति वाले समूहों या व्यक्तियों के ऊपर शक्ति का प्रयोग करते हैं तथा उन्हें प्रभावित करते हैं। इस प्रकार शक्ति अपने तथा अन्य लोगों के निर्णय लेने की वह सामर्थ्य है जिसमें वे देखा जाता है कि जिनके लिए निर्णय लिया गया है क्या वह उस निर्णय की पालना कर रहे हैं या नहीं। परिवार के बड़े बुजुर्ग, किसी कंपनी का जनरल मैनेजर, सरकार, मंत्री इत्यादि ऐसी शक्ति का प्रयोग करते हैं।

(ii) सत्ता (Authority)–शक्ति का सत्ता के द्वारा उपभोग किया जाता है। सत्ता शक्ति का ही एक रूप है जो वैधानिक तथा सही है। यह संस्थात्मक है तथा वैधता पर आधारित होती है जिनके पास सत्ता होती है। उनकी बात सभी को माननी पड़ती है तथा इसे वैध भी माना जाता है। सत्ता न केवल व्यक्तियों के ऊपर बल्कि समूहों तथा संस्थाओं पर भी लागू होती है। उदाहरण के लिए तानाशाही में सत्ता एक व्यक्ति, समूह या दल के हाथों में होती है जबकि लोकतंत्र में यह सत्ता जनता या उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में होती है।

मैक्स वैबर ने तीन प्रकार की सत्ता का जिक्र किया है तथा वह हैं परंपरागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मयी सत्ता। पिता की घर में सत्ता परंपरागत सत्ता होती है, प्रधानमंत्री की सत्ता वैधानिक तथा किसी धार्मिक नेता की अपने चेलों पर स्थापित सत्ता करिश्मयी सत्ता होती है।

(iii) राज्य (State)—राज्य सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्था है। राज्य एक ऐसा लोगों का समूह है जो एक निश्चित भू-भाग में होता है, जिसकी जनसंख्या होती है, जिसकी अपनी एक सरकार होती है तथा अपनी प्रभुसत्ता होती है। राज्य एक सम्पूर्ण समाज का हिस्सा है। बेशक यह सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है परन्तु फिर भी यह समाज का स्थान कोई नहीं ले सकता। राज्य एक ऐसा साधन है जो सामाजिक समितियों को नियंत्रण में रखता है। राज्य समाज के सभी पक्षों को प्रभावित करता है तथा उनमें तालमेल बिठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

(iv) सरकार (Government)-सरकार एक ऐसा संगठन होता है जिसके पास आदेशात्मक कन्ट्रोल होता है जो वे राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने में सहायता करता है। सरकार को वैधता भी प्राप्त होती है क्योंकि सरकार किसी न किसी नियम के अन्तर्गत चुनी जाती है। इसे बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है। सरकार राज्य के उद्देश्यों को पूर्ण करने का एक साधन है। यह राज्य का यन्त्र तथा उसका प्रतीक है। सरकार के तीन अंग होते हैंविधानपालिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका।

  • विधानपालिका (Legislature)-यह सरकार का वह अंग है जिसका कार्य देश के लिए कानून बनाना है। देश की संसद् विधानपालिका का कार्य करती है।
  • कार्यपालिका (Executive) यह सरकार का वह अंग है जो विधानपालिका द्वारा बनाए गए कानूनों को देश में लागू करती है। राष्ट्रीय, प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल इसका हिस्सा होते हैं।
  • न्यायपालिका (Judiciary)-सरकार का वह अंग है जो विधानपालिका द्वारा बनाए तथा कार्यपालिका द्वारा लागू किए कानूनों का प्रयोग करता है। हमारे न्यायालय, जज़ इत्यादि इसका हिस्सा होते हैं।

इस प्रकार अलग-अलग राजनीतिक संस्थाएं भी देश को सुचारु रूप से चलाने के लिए अपना योगदान देती हैं। यह संस्थाएं बिना एक-दूसरे के क्षेत्र में आए अपना कार्य ठीक ढंग से करती रहती हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 2.
पंचायती राज्य पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
हमारे देश में स्थानीय क्षेत्रों के विकास के लिए दो प्रकार की पद्धतियां हैं। शहरी क्षेत्रों का विकास करने के लिए स्थानीय सरकारें होती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए पंचायती राज्य की संस्थाएं होती हैं। स्थानीय सरकार की संस्थाएं श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित होती हैं क्योंकि इनमें सरकार तथा स्थानीय समूहों में कार्यों को बांटा जाता है। हमारे देश की 70% जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों को जिस स्थानीय सरकार की संस्था द्वारा शासित किया जाता है उसे पंचायत कहते हैं। पंचायती राज्य सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों के संस्थागत ढांचे को ही दर्शाता है।

जब भारत में अंग्रेजी राज्य स्थापित हुआ था तो सारे देश में सामन्तशाही का बोलबाला था। 1935 में भारत सरकार ने एक कानून पास किया जिसने प्रान्तों को पूर्ण स्वायत्तता दी तथा पंचायती कानूनों को एक नया रूप दिया गया। पंजाब में 1939 में पंचायती एक्ट पास हुआ जिसका उद्देश्य पंचायतों को लोकतान्त्रिक आधार पर चुनी हुई संस्थाएं बना कर ऐसी शक्तियां प्रदान करना था जो उनके स्वैशासन की इकाई के रूप में निभायी जाने वाली भूमिका के लिए ज़रूरी थीं। 2 अक्तूबर, 1961 ई० को पंचायती राज्य का तीन स्तरीय ढांचा औपचारिक रूप से लागू किया गया। 1992 में 73वां संवैधानिक संशोधन हुआ जिनमें शक्तियों का स्थानीय स्तर तक विकेन्द्रीकरण कर दिया गया। इससे पंचायती राज्य को बहुत-सी वित्तीय तथा अन्य शक्तियां दी गईं।

भारत के ग्रामीण समुदाय में पिछले 50 सालों में बहुत-से परिवर्तन आए हैं। अंग्रेज़ों ने भारतीय पंचायतों से सभी प्रकार के अधिकार छीन लिए थे। वह अपनी मर्जी के अनुसार गांवों को चलाना चाहते थे जिस कारण उन्होंने गांवों में एक नई तथा समान कानून व्यवस्था लागू की। आजकल की पंचायतें तो आज़ादी के बाद ही कानून के तहत सामने आयी हैं।
ए० एस० अलटेकर (A.S. Altekar) के अनुसार, “प्राचीन भारत में सुरक्षा, लगान इकट्ठा करना, कर लगाने तथा लोक कल्याण के कार्यक्रमों को लागू करना इत्यादि जैसे अलग-अलग कार्यों की जिम्मेदारी गांव की पंचायत की होती थी। इसलिए ग्रामीण पंचायतें विकेन्द्रीकरण, प्रशासन तथा शक्ति की बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्थाएं हैं।”

के० एम० पानीकर (K.M. Pannikar) के अनुसार, “यह पंचायतें प्राचीन भारत के इतिहास का पक्का आधार हैं। इन संस्थाओं ने देश की खुशहाली को मज़बूत आधार प्रदान किया है।”

संविधान के Article 30 के चौथे हिस्से में कहा गया है कि, “गांव की पंचायतों का संगठन-राज्य को गांव की पंचायतों के संगठन को सत्ता तथा शक्ति प्रदान की जानी चाहिए ताकि यह स्वैः सरकार की इकाई के रूप में कार्य कर सकें।”

गांवों की पंचायतें गांव के विकास के लिए बहुत-से कार्य करती हैं जिस लिए पंचायतों के कुछ मुख्य उद्देश्य रखे गए हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है।

पंचायतों के उद्देश्य (Aims of Panchayats) –

  1. पंचायतों को स्थापित करने का सबसे पहला उद्देश्य है लोगों की समस्याओं को स्थानीय स्तर पर ही हल करना। ये पंचायतें लोगों के बीच के झगड़ों तथा समस्याओं को हल करती हैं।
  2. गांव की पंचायतें लोगों के बीच सहयोग, हमदर्दी, प्यार की भावनाएं पैदा करती हैं ताकि सभी लोग गांव की प्रगति में योगदान दे सकें।
  3. पंचायतों को गठित करने का एक और उद्देश्य है लोगों को तथा पंचायत के सदस्यों को पंचायत का प्रशासन ठीक प्रकार से चलाने के लिए शिक्षित करना ताकि सभी लोग मिल कर गांव की समस्याओं के हल निकाल सकें। इस तरह लोक कल्याण का कार्य भी पूर्ण हो जाता है।

गांवों की पंचायतों का संगठन (Organisation of Village Panchayats)-गांवों में दो प्रकार की पंचायतें होती हैं। पहली प्रकार की पंचायतें वे होती हैं जो सरकार द्वारा बनाए कानूनों अनुसार चुनी जाती हैं तथा ये औपचारिक होती हैं। दूसरी पंचायतें वे होती हैं जो अनौपचारिक होती हैं तथा इन्हें जाति पंचायतें भी कहा जाता है। इनकी कोई कानूनी स्थिति नहीं होती है परन्तु यह सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

पंचायतों में तीन तरह का संगठन पाया जाता है-

  1. ग्राम सभा (Gram Sabha)
  2. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)
  3. न्याय पंचायत (Nyaya Panchayat)

ग्राम सभा (Gram Sabha) गांव की सम्पूर्ण जनसंख्या में से बालिग व्यक्ति इस ग्राम सभा का सदस्य होता है तथा यह गांव की सम्पूर्ण जनसंख्या की एक सम्पूर्ण इकाई है। यह वह मूल इकाई है जिसके ऊपर हमारे लोकतन्त्र का ढांचा टिका हुआ है। जिस ग्राम की जनसंख्या 250 से अधिक होती है वहां ग्राम सभा बन सकती है। अगर एक गांव की जनसंख्या कम है तो दो गांव मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करते हैं। ग्राम सभा में गांव का प्रत्येक वह बालिग सदस्य होता है जिस को वोट देने का अधिकार होता है। प्रत्येक ग्राम सभा का एक प्रधान तथा कुछ सदस्य होते हैं। यह पांच सालों के लिए चुने जाते हैं।

ग्राम सभा के कार्य (Functions of Gram Sabha)-पंचायत के सालाना बजट तथा विकास के लिए किए जाने वाले कार्यक्षेत्रों को ग्राम सभा पेश करती है तथा उन्हें लागू करने में मदद करती है। यह समाज कल्याण के कार्य, प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम तथा परिवार कल्याण के कार्यों को करने में मदद करती है। यह गांवों में एकता रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)-हर एक ग्राम सभा अपने क्षेत्र में से एक ग्राम पंचायत को चुनती है। इस तरह ग्राम सभा एक कार्यकारिणी संस्था है जो ग्राम पंचायत के लिए सदस्य चुनती है। इनमें 1 सरपंच तथा 5 से लेकर 13 पंच होते हैं। पंचों की संख्या गांव की जनसंख्या के ऊपर निर्भर करती है। पंचायत में पिछडी श्रेणियों तथा औरतों के लिए स्थान आरक्षित होते हैं। यह 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है। परन्तु अगर पंचायत अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करे तो राज्य सरकार उसे 5 साल से पहले भी भंग कर सकती है। अगर किसी ग्राम पंचायत को भंग कर दिया जाता है तो उसके सभी पद भी अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। ग्राम पंचायत के चुनाव तथा पंचों को चुनने के लिए गांव को अलग-अलग हिस्सों में बांट लिया जाता है। फिर ग्राम सभा के सदस्य पंचों तथा सरपंच का चुनाव करते हैं। ग्राम पंचायत में स्त्रियों के लिए आरक्षित सीटें कुल सीटों का एक तिहायी (1/3) होती हैं तथा पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित सीटें गांव या उस क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार होती हैं। ग्राम पंचायत में सरकारी नौकर तथा मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते। ग्राम पंचायतें गांव में सफ़ाई, मनोरंजन, उद्योग, संचार तथा यातायात के साधनों का विकास करती हैं तथा गांव की समस्याओं का समाधान करती पंचायतों के कार्य (Functions of Panchayat) ग्राम पंचायत गांव के लिए बहुत-से कार्य करती है जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. ग्राम पंचायत का सबसे पहला कार्य गांव के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाना होता है। गांव में बहुत-सी सामाजिक बुराइयां भी पायी जाती हैं। पंचायत लोगों को इन बुराइयों को दूर करने के लिए प्रेरित करती है तथा उनके परम्परागत दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास करती है।

2. किसी भी क्षेत्र के सर्वपक्षीय विकास के लिए यह ज़रूरी है कि उस क्षेत्र से अनपढ़ता ख़त्म हो जाए तथा भारतीय समाज के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण भी यही है। भारतीय गांव भी इसी कारण पिछड़े हुए हैं। गांव की पंचायत गांव में स्कूल खुलवाने तथा लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती है। बालिगों को पढ़ाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र खुलवाने का भी प्रबन्ध करती है।

3. गांव की पंचायत गांव की स्त्रियों तथा बच्चों की भलाई के लिए भी कार्य करती है। वह औरतों को शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध करती है। बच्चों को अच्छी खुराक तथा उनके मनोरंजन के कार्य का प्रबन्ध भी पंचायत ही करती है।

4. ग्रामीण क्षेत्रों में मनोरंजन के साधन नहीं होते हैं। इसलिए पंचायतें ग्रामीण समाजों में मनोरंजन के साधन उपलब्ध करवाने का प्रबन्ध भी करती है। पंचायतें गांव में फिल्मों का प्रबन्ध, मेले लगवाने तथा लाइब्रेरी इत्यादि खुलवाने का प्रबन्ध करती है।

5. कृषि प्रधान देश में उन्नति के लिए कृषि के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होनी ज़रूरी होती है। पंचायतें लोगों को नई तकनीकों के बारे में बताती है, उनके लिए नए बीजों, उन्नत उर्वरकों का भी प्रबन्ध करती है ताकि उनके कृषि उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी हो सके।

6. गांवों के सर्वपक्षीय विकास के लिए गांवों में छोटे-छोटे उद्योग लगवाना भी जरूरी होता है। इसलिए पंचायतें गांव में सरकारी मदद से छोटे-छोटे उद्योग लगवाने का प्रबन्ध करती हैं। इससे गांव की आर्थिक उन्नति भी होती है तथा लोगों को रोजगार भी प्राप्त होता है।

7. कृषि के अच्छे उत्पादन में सिंचाई के साधनों का अहम रोल होता है। ग्राम पंचायत गांव में कुएँ, ट्यूबवैल इत्यादि लगवाने का प्रबन्ध करती है तथा नहरों के पानी की भी व्यवस्था करती है ताकि लोग आसानी से अपने खेतों की सिंचाई कर सकें।

8. गांव में लोगों में आमतौर पर झगड़े होते रहते हैं। पंचायतें उन झगड़ों को ख़त्म करके उनकी समस्याओं को हल करने का प्रयास करती हैं।

न्याय पंचायत (Nayaya Panchayat)-गांव के लोगों में झगड़े होते रहते हैं। न्याय पंचायत लोगों के बीच होने वाले झगड़ों का निपटारा करती है। 5-10 ग्राम-सभाओं के लिए एक न्याय पंचायत बनायी जाती है। इसके सदस्य चुने जाते हैं तथा सरपंच 5 सदस्यों की एक कमेटी बनाता है। इन को पंचायतों से प्रश्न पूछने का भी अधिकार होता है।.

पंचायत समिति (Panchayat Samiti)-एक ब्लॉक में आने वाली पंचायतें पंचायत समिति की सदस्य होती हैं तथा इन पंचायतों के सरपंच इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति के सदस्यों का सीधा-चुनाव होता है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है, गांवों के विकास कार्यों को चैक करती है तथा पंचायतों को गांव के कल्याण के लिए निर्देश भी देती है। यह पंचायती राज्य के दूसरे स्तर पर है।

जिला परिषद् (Zila Parishad)—पंचायती राज्य का सबसे ऊँचा स्तर हैं ज़िला परिषद् जोकि जिले में आने वाले पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह भी एक कार्यकारी संस्था होती है। पंचायत समितियों के चेयरमैन, चुने हुए सदस्य, लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा के सदस्य सभी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। यह सभी जिले में पड़ते गांवों के विकास कार्यों का ध्यान रखते हैं। जिला परिषद् कृषि में सुधार, ग्रामीण बिजलीकरण, भूमि सुधार, सिंचाई बीजों तथा उर्वरकों को उपलब्ध करवाना, शिक्षा, उद्योग लगवाने इत्यादि जैसे कार्य करती है।

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प्रश्न 3.
हित समूह किस प्रकार दबाव समूहों के रूप में काम करते हैं ?
उत्तर-
पिछले कुछ समय के दौरान समाज में श्रम विभाजन नाम का संकल्प सामने आया है। श्रम विभाजन में अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग कार्य करते हैं जिस कारण बहुत से पेशेवर समूह सामने आए हैं। इन सभी पेशेवर समूहों के अपने-अपने हित होते हैं जिनकी प्राप्ति के लिए वे लगातार कार्य करते रहते हैं। इस प्रकार जो समूह किसी विशेष समूह के हितों का ध्यान रखते हैं तथा उन्हें प्राप्त करने के प्रयास करते हैं उन्हें हित समूह कहा जाता है। आजकल के लोकतांत्रिक समाजों में यह राजनीतिक निर्णय तथा अन्य प्रक्रियाओं को अपने हितों के अनुसार बदलने के प्रयास करते रहते हैं। यह समूह आवश्यकता पड़ने पर राजनीतिक दलों की भी सहायता करते हैं तथा उनके द्वारा सरकारी फैसलों को प्रभावित करने के प्रयास करते हैं। लगभग सभी हित समूहों का एक ही उद्देश्य होता है कि उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान हासिल हो। इसलिए वे सरकार पर उनके लिए नीतियां बनाने का दबाव डालते हैं। जब यह दबाव डालना शुरू कर देते हैं तो इन्हें दबाव समूह भी कहा जाता है

दबाव समूह संगठित या असंगठित होते हैं जो सरकारी नीतियों को प्रभावित करते हैं तथा अपने हितों को आगे बढ़ाते हैं। यह राजनीति को जिस ढंग से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं उसका वर्णन इस प्रकार है-

  • यह दबाव समूह किसी विशेष मुद्दे पर आंदोलन चलाते हैं ताकि जनता का समर्थन हासिल किया जा सके। यह संचार साधनों की सहायता लेते हैं ताकि जनता का अधिक-से-अधिक ध्यान खींचा जा सके।
  • यह साधारणतया हड़तालें करवाते हैं, रोष मार्च निकालते हैं तथा सरकारी कार्यों को रोकने का प्रयास करते हैं। यह हड़ताल की घोषणा करते हैं तथा धरने पर बैठते हैं ताकि अपनी आवाज़ उठा सकें। अधिकतर मजदूर संगठन इस प्रकार से अपनी बातें मनवाते हैं।
  • साधारणतया व्यापारी समूह लॉबी का निर्माण करते हैं जिसके कुछ समान हित होते हैं ताकि सरकार पर उसकी नीतियां बदलने के लिए दबा बनाया जा सके।
  • प्रत्येक दबाव समूह या हित समूह किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़ा होता है। यह समूह चुनाव के समय अपने-अपने राजनीतिक दल का तन-मन-धन से समर्थन करते हैं ताकि वह चुनाव जीत कर उनकी मांगें पूर्ण करें।

प्रश्न 4.
धर्म को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
सामाजिक शास्त्रियों के लिए सब से मुश्किल काम धर्म की परिभाषा देना है व ऐसी परिभाषा देना जिस पर सभी एक मत हों। इसका कारण है कि धर्म की प्रकृति काफ़ी जटिल है तथा इसके बारे में समाजशास्त्री अलगअलग विचार रखते हैं। यह इस कारण है कि अलग-अलग समाजशास्त्री अलग-अलग देशों व भिन्न-भिन्न संस्कृतियों से सम्बन्ध रखते हैं और इस कारण उनकी धर्म के बारे में व्याख्या भिन्न-भिन्न होती है। दुनिया में बहुत सारे धर्म हैं तथा इसी विविधता के कारण वह सभी धर्म की एक परिभाषा पर सहमत नहीं हैं। परन्तु फिर भी अलगअलग समाजशास्त्रियों ने धर्म की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  • दुर्जीम (Durkheim) के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों व आचरणों की एक ठोस व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संगठित करती है।”
  • फ्रेज़र (Frazer) के अनुसार, “धर्म मानव रूप अपने से श्रेष्ठ शक्तियों में विश्वास है। जिस सम्बन्ध में यह विश्वास किया जाता है वह प्रकृति व मानवीय जीवन का मार्ग दर्शन हैं व इसको नियन्त्रण करती है।”
  • मैकाइवर (MacIver) के अनुसार, “धर्म के साथ जैसे कि हम समझते हैं कि केवल मनुष्यों के बीच का सम्बन्ध ही नहीं है बल्कि एक सर्वोच्च शक्ति के प्रति मनुष्य का सम्बन्ध भी सूचित होता है।”
  • मैलिनोवस्की (Malinowski) के अनुसार, “धर्म क्रिया का एक ढंग है व साथ ही विश्वास की एक व्यवस्था है। धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि धर्म का आधार आलौकिक शक्ति पर विश्वास है और पद शक्ति मानवीय शक्ति से श्रेष्ठ व शक्तिशाली समझी जाती है। यह जीवन के सभी तत्त्वों यह नियन्त्रण रखती है जिनको आदमी अधिक महत्त्वपूर्ण समझता है। इसका एक आधार भावनात्मक होता है। इस शक्ति को खुश रखने के लिए कई विधियां या संस्कार होते हैं। स्पष्ट है कि धर्म की स्वीकृति परा-सामाजिक है क्योंकि धर्म की पुष्टि परा सामाजिक शक्तियों द्वारा होती है। समाज में धर्म का प्रयोग काफ़ी व्यापक रूप में किया जाता है समाजशास्त्रियों अनुसार धर्म मानव की आदतों व भावनात्मक अनुभूतियों की प्रतिनिधिता करता है। डर की भावनाओं के कारण व कई वस्तुओं प्रति मानव की श्रद्धा के कारण धर्म का विकास हुआ है।

धर्म के तत्त्व या विशेषताएं (Elements or Characteristics of Religion). –

1. आलौकिक शक्ति में विश्वास (Belief in Super natural Power)-धर्म विचारों, भावनाओं व विधियों की जटिलता है जो आलौकिक शक्तियों में विश्वास प्रकट करती है यानि यह शक्ति सर्वव्यापक व सर्व शक्तिमान है। यह विश्वास किया जाता है कि प्रत्येक मानवीय क्रिया का संचालन इसी शक्ति द्वारा होता है। इस प्रकार धर्म की सब से पहली विशेषता आलौकिक शक्ति पर विश्वास है। इस आलौकिक शक्ति के आधार तो भिन्न-भिन्न होते हैं पर यह शक्ति सारे धर्मों में आवश्यक तौर पर पाई जाती है।

2. संस्कार (Rituals)-धार्मिक रीतियां धर्म द्वारा निर्धारित क्रियाएं हैं। यह अपने आप में पवित्र हैं व पवित्रता की प्रतीक भी हैं। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म के अनुसार कई तरह के व्रत व तीर्थ यात्रा धार्मिक संस्कार है। एक धर्म के पैरोकारों को धार्मिक संस्कार एक सूत्र में बांधते हैं जबकि दूसरे धर्म के पैरोकारों को वह खुद से भिन्न समझते हैं।

3. धार्मिक कार्य विधियां (Religion Acts)—प्रत्येक धर्म की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी विभिन्न धार्मिक गतिविधियां हैं। इन कार्य विधियों द्वारा मानव विशेष आलौकिक शक्तियों को खुश करने की कोशिश करता है और इन्हें सिर चढ़ा कर इन शक्तियों में अपना विश्वास प्रकट करता है। यह कार्य विधियां दो प्रकार की हैं। पहली वह क्रियाएं जिसको पूरा करने के लिए विशेष धार्मिक ज्ञान की आवश्यकता है। आम आदमी यह काम नहीं कर सकता। इनको प्रत्येक धर्म में धार्मिक पण्डितों द्वारा पूरा कराया जाता है। दूसरा साधारण धार्मिक क्रियाएं हैं जैसे प्रार्थना करना, तीर्थ यात्रा आदि जिसके साधारण व्यक्ति आसान तरीके से पूरी कर लेता है। पर प्रत्येक धर्म में यह विश्वास प्रचलित है कि धार्मिक कार्यों को पूरा करके ही व्यक्ति दैवीय शक्तियों को खुश रख सकता है।

4. धार्मिक प्रतीक व चिह्न (Religious Symbols)—प्रत्येक धर्म में आलौकिक शक्ति के दर्शनों के लिए कुछ चिह्नों व प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। जैसे हिन्दू धर्म में मूर्ति को दिव्य शक्ति के रूप में पूजा जाता है। प्रत्येक धर्म के साथ आलौकिक शक्तियों सम्बन्धी कई तरह की कहानियां जुड़ी होती हैं। लोगों को यह विश्वास होता है कि वह इन आलौकिक कथाओं में विश्वास करके भगवान् को खुश कर सकते हैं।

5. धार्मिक प्रस्थिति (Religious Hierarchy)-किसी भी धर्म के सभी पैरोकारों की धार्मिक समूह में प्रस्थिति समान नहीं होती। प्रत्येक धर्म में प्रस्थितियों की व्यवस्था मिलती है। उच्च पदति पर वह लोग होते हैं जो कि धार्मिक क्रियाओं को पूरा करने में माहिर होते हैं इन्हें दूसरे व्यक्तियों की तुलना में पवित्र समझा जाता है जैसे कि पुरोहित या पण्डित। दूसरी जगह वह लोग आते हैं जिन्हें अपने धार्मिक प्रतिनिधियों व सिद्धान्तों में पूरा विश्वास होता है। सबसे नीचे वह व्यक्ति आते हैं जिन्हें पवित्र नहीं माना जाता और वह धर्म द्वारा अपवित्र करार दिए काम करते हैं। अनेकों धर्मों में इस श्रेणी पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिए जाते हैं।

6. धार्मिक ग्रन्थ (Religious Books)—प्रत्येक धर्म का एक प्रमुख लक्षण रहा है, उससे सम्बन्धित ग्रन्थ या पुस्तकें। हर एक धर्म से सम्बन्धित कुछ धार्मिक लोग धार्मिक ग्रन्थ लिखते हैं तथा प्रत्येक धर्म की कुछ कथाएं, कहानियां होती हैं जिनका वर्णन इन ग्रन्थों में होता है; जैसे हिन्दू धर्म में रामायण, महाभारत, गीता, चार वेद, मनुस्मृति उपनिषद आदि होते हैं। इस प्रकार मुसलमानों में कुरान, सिक्खों में गुरु ग्रन्थ साहिब व ईसाइयों में बाईबल होते हैं।

7. पवित्रता की धारणा (Concept of Sacredness)-धर्म से सम्बन्धित सभी चीज़ों को पवित्र समझा जाता है। व्यक्ति जिस धर्म से सम्बन्धित होता है, उस धर्म की प्रत्येक वस्तु उसके लिए पवित्र होती है। हम कह सकते हैं कि धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित ऐसी व्यवस्था है जो नैतिक तौर पर समुदाय को इकट्ठा करती है।

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प्रश्न 5.
धर्म किस प्रकार समाज के लिए उपयोगी व हानिकारक है ?
उत्तर-
धर्म के निम्नलिखित लाभ हैं :
1. सामाजिक संगठन को स्थिरता प्रदान करना (To give stability to social organization)समाज को स्थिरता प्रदान करने में और सामाजिक संगठन को बनाए रखने में धर्म का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। एक धर्म में लाखों व्यक्ति होते हैं, जिनके विचार व विश्वास साझे होते हैं। साझे विश्वास, प्रतिमान, व्यवहार के तरीके कम-से-कम उस धार्मिक समूह को एक कर देते हैं व उस समूह में एकता बन जाती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न समूहों में एकता से सामाजिक संगठन दृढ़ व मज़बूत हो जाता है। प्रत्येक धर्म अपने धर्म के लोगों को दान देने, दया करने, सहयोग देने के लिए कहते हैं जिस कारण समाज में मज़बूती व स्थिरता बनी रहती है। इस तरह धर्म लोगों को अस्थिरता से बचाता है व समाज को स्थिरता प्रदान करता है।

2. सामाजिक जीवन को निश्चित रूप देना (To give definite form to social life) कोई भी धर्म रीति-रिवाज़ों रूढ़ियों का समूह होता है यह रीति-रिवाज व रूढ़ियां संस्कृति का ही भाग होते हैं। इस तरह धर्म के कारण सामाजिक वातावरण व संस्कृति में सन्तुलित बन जाता है। इस सन्तुलन के कारण सामाजिक जीवन को निश्चित रूप मिल जाता है। धर्म करण लोग रीति-रिवाजों तथा रूढ़ियों का आदर करते हैं और अन्य लोगों से सन्तुलन बना कर चलते हैं। इस तरह के सन्तुलन से ही सामाजिक जीवन सही ढंग से चलता रहता है व यह सब धर्म के कारण ही होता है।

3. पारिवारिक जीवन को संगठित करना (To organise family life)-भिन्न-भिन्न धर्मों में विवाह धार्मिक परम्पराओं के अनुसार होता है। धार्मिक परम्पराओं द्वारा परिवार स्थायी बन जाता है व उसका संगठन, जीवन आदि मज़बूत होता है। प्रत्येक धर्म परिवार के भिन्न-भिन्न सदस्यों के कर्त्तव्य व अधिकारों को निश्चित करता है। यह पिता, माता, बच्चों को बताता है कि उनके एक-दूसरे के प्रति क्या कर्त्तव्य हैं ? सारे परिवार में रहते हुए एकदूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्यों की पालना करते हैं तथा एक-दूसरे के परिवार चलाने के लिए सहयोग करते हैं। इस तरह परिवार के सभी सदस्यों में सन्तुलन बना रहता है। परिवार में किए जाने वाले आमतौर पर सभी काम धर्म द्वारा निश्चित किए जाते हैं।

4. भेद-भाव दूर करना (To remove mutual differences)-दुनिया में बहुत सारे धर्म हैं व सभी धर्म ही एक-दूसरे के साथ लड़ने का नहीं बल्कि एक-दूसरे से प्यार से रहने का उपदेश देते हैं तथा यह भी कहते हैं कि वह आपसी भेद-भाव दूर करें। आपसी भेद-भाव को दूर करने से समाज में एकता बढ़ती है। इन धर्मों ने व उन्हें चलाने वालों ने समाज की नई जातियों के लोगों को आगे बढ़ाया।

5. सामाजिक नियन्त्रण रखना (To keep social control)-धर्म सामाजिक नियन्त्रण के प्रमुख साधनों में एक है। धर्म के पीछे सभी समुदाय की अनुमति होती है। व्यक्ति पर न चाहते हुए भी धर्म ज़बरदस्ती प्रभाव डालता है तथा वह इसका प्रभाव भी महसूस करता है कि धर्म का उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव होता है। धर्म अपने सदस्यों के जीवन को इस तरह नियन्त्रित और निर्देशित करता है कि व्यक्ति को धर्म के आगे झुकना व उसका कहना मानना ही पड़ता है। धर्म आलौकिक शक्ति पर विश्वास है और लोग उस आलौकिक शक्ति के क्रोध से बचने के लिए कोई ऐसा काम नहीं करते जो कि उसकी इच्छाओं के विरुद्ध हो। इस प्रकार लोगों के व्यवहार व क्रिया करने के तरीके धर्म द्वारा नियन्त्रित होते हैं।।

6. समाज कल्याण (Social Welfare)—प्रत्येक धर्म अपने सदस्यों को समाज कल्याण के काम करने के लिए उत्साहित करता है दुनिया के सभी धर्मों में दान देना पवित्र माना जाता है। लोग धर्मशालाएं, अनाथालय, अस्पताल, आश्रम व स्कूलों को खुलवा कर वहां दान देकर उनकी मदद करते हैं।

7. व्यक्ति का विकास (Development of Man)-धर्म समाज का विकास करता है उसकी एकता, व सामाजिक संगठन का भी विकास करता है बल्कि वह व्यक्ति का विकास भी करता है। धर्म व्यक्ति का समाजीकरण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म उसको समाज में व्यवहार करने के तरीके बताता है, समाज के प्रतिमानों के बारे में बताता है। धर्म व्यक्तियों में भाई-चारे व एकता का निर्माण करता है। धर्म व्यक्ति में आध्यात्मिकता का विकास करता है धर्म से व्यक्तियों का आत्मबल बना रहता है। धर्म मानव को बड़ी-बड़ी मुश्किलों में स्थिर रहने की प्रेरणा देता है। धर्म लोगों को दान देना, सहयोग करना, सहनशीलता रखने की प्रेरणा देता है ताकि समाज के बेसहारा लोगों को सहारा मिल सके, क्योंकि इन बेसहारा लोगों का धर्म के सिवा और कोई नहीं होता।

धर्म के दोष अथवा अकार्य (Demerits or Dysfunctions of Religion) –

1. धर्म सामाजिक उन्नति के रास्ते में रुकावट बनता है (Religion is an obstacle)-धर्म प्रकृति से ही रूढ़िवादी होता है व परिवर्तन प्रकृति का ही नियम है। समाज में परिवर्तन आते रहते हैं जिनके कारण मौलिक तौर पर समाज की प्रगति तो हो जाती है पर आध्यात्मिक तौर पर नहीं होती। धर्म आमतौर पर परिवर्तन का विरोधी होता है। धर्म स्थिति को बदलने के पक्ष में नहीं बल्कि जैसे का तैसा बन कर रखने के पक्ष में होता है। बदले हुए हालात धर्म के अनुसार नहीं होते जिस कारण धर्म परिवर्तन का विरोध करता है। परिवर्तन का विरोध करके यह सामाजिक उन्नति के रास्ते में रुकावट बनता है।

2. व्यक्ति किस्मत के सहारे रह जाता है (Man become fatalist)-धर्म यह कहता है कि जो कुछ व्यक्ति की किस्मत में लिखा है वह उसको प्राप्त होगा। उसको न तो उससे अधिक और न ही उससे कम प्राप्त होगा। ऐसा सोचकर कुछ व्यक्ति अपना कर्म करना बन्द कर देते हैं कि यदि मिलना ही किस्मत के अनुसार है तो काम करने का क्या लाभ है? जो कुछ भी किस्मत में लिखा है वह तो मिल ही जाएगा। इसी तरह व्यक्ति किस्मत के सहारे रह जाता है।

3. राष्ट्रीय एकता का विरोधी (Opposite to National Unity) धर्म को हम राष्ट्रीय एकता का विरोधी ही कह सकते हैं। आमतौर पर प्रत्येक धर्म अपने-अपने सदस्य को अपने धर्म के नियमों पर चलने की शिक्षा देते हैं व यह नियम आमतौर पर दूसरे धर्म के विरोधी होते हैं। अपने धर्म को प्यार करते-करते कई बार लोग दूसरे धर्मों का विरोध करने लग जाते हैं। इस विरोध के कारण धार्मिक संकीर्णता व असहनशीलता पैदा होती है।

4. धर्म सामाजिक समस्याएं बढ़ाता है (Religion increases the Social Problems)—प्रत्येक धर्म में बहुत सारे कर्मकाण्ड, रीतियां आदि होते हैं। धर्म के ठेकेदार, पुजारी, महन्त इत्यादि इन कर्मकाण्डों को ज़रूरी समझते हैं। इन कर्मकाण्डों के कारण व्यक्ति अन्धविश्वासों में फँस जाता है। धर्म के ठेकेदार लोगों को दूसरे धर्मों के विरुद्ध भड़काते हैं। धर्म के कारण ही हमारे देश में कई समस्याएं हैं जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, विधवा विवाह न होना, अस्पृश्यता, गरीबी आदि।

5. धर्म परिवर्तन के रास्ते में रुकावट है (Religion is an obstacle in the way of change)-धर्म हमेशा परिवर्तन के रास्ते में रुकावट बनता है। दुनिया में भिन्न-भिन्न प्रकार की नई खोजें होती रहती हैं। धर्म क्योंकि रूढ़िवादी होता है इस कारण वह परिवर्तन का हमेशा विरोधी होता है। समाज में होने वाले किसी भी परिवर्तन का विरोध धर्म सब से पहले करता है।

6. धर्म समाज को बांटता है (Religion divides, society)-धर्म समाज को बांट देता है। एक ओर तो वह लोग होते हैं जो अनपढ़ होते हैं व धर्म द्वारा फैलाए अन्ध-विश्वासों, कुरीतियों में फंसे होते हैं व दूसरी ओर वह पढ़े-लिखे होते हैं जो इन धर्म के अन्ध-विश्वासों व कुरीतियों से दूर होते हैं। अनपढ़ अन्ध-विश्वासों को मानते हैं व पढ़े-लिखे इन अन्ध-विश्वासों का विरोध करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि दोनों धर्म एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं व उनमें अनुकूलन मुश्किल हो जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 6.
आदिम, पशुपालक, कृषि तथा औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं की विशेषताओं की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
(i) आदिम अर्थव्यवस्था (Primitive Economy) बहुत-से कबीले दूर-दूर के जंगलों तथा पहाड़ों पर रहते हैं। चाहे यातायात के साधनों के कारण बहुत-से कबीले मुख्य धारा में आकर मिल गए हैं तथा उन्होंने कृषि के कार्य को अपना लिया है परन्तु फिर भी कुछ कबीले ऐसे हैं जो अभी भी भोजन इकट्ठा करके तथा शिकार करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वे जड़ें, फल, शहद इत्यादि इकट्ठा करते हैं तथा छोटे-छोटे जानवरों का शिकार भी करते हैं। कुछ कबीले कई चीज़ों का लेन-देन भी करते हैं। इस तरह कृषि के न होने की सूरत में वे अपनी आवश्यकताएं पूर्ण कर लेते हैं।

जो कबीले इस प्रकार से अपनी ज़रूरतें पूर्ण करते हैं उनको प्राचीन कबीले कहा जाता है। यह लोग शिकार करने के साथ-साथ जंगलों से फल, शहद, जड़ें इत्यादि भी इकट्ठा करते हैं। इस तरह वे कृषि के बिना भी अपनी आवश्यकताएं पूर्ण कर लेते हैं। जिस प्रकार से वे जानवरों का शिकार करते हैं उससे उनकी संस्कृति के बारे में भी पता चल जाता है। उनके समाजों में औज़ारों तथा साधनों की कमी होती है जिस कारण ही वे प्राचीन कबीलों के प्रतिरूप होते हैं। उनके समाजों में अतिरिक्त उत्पादन की धारणा नहीं होती है। इसका कारण यह है कि वे न तो अतिरिक्त उत्पादन को सम्भाल सकते हैं तथा न ही अतिरिक्त चीजें पैदा कर सकते हैं। वह तो टपरीवास अथवा घुमन्तु जीवन व्यतीत करते हैं।

(ii) पशुपालक आर्थिकता (Pastoral Economy)-पशुपालक अर्थव्यवस्था जनजातीय अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। लोग अलग-अलग उद्देश्यों के लिए पशुओं को पालते हैं जैसे कि दूध लेने के लिए, मीट के लिए, ऊन के लिए, भार ढोने के लिए इत्यादि। भारत में रहने वाले चरवाहे कबीले स्थायी जीवन व्यतीत करते हैं तथा मौसम के अनुसार ही चलते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले कबीले अधिक सर्दी के समय मैदानी क्षेत्रों में अपने पशुओं के साथ चले जाते हैं तथा गर्मियों में वापस अपने क्षेत्रों में चले आते हैं। भारतीय कबीलों में प्रमुख चरवाहा कबीला हिमाचल प्रदेश में रहने वाला गुज्जर कबीला है जो व्यापार के उद्देश्य से गाय तथा भेड़ों को पालता है। इसके साथ-साथ तमिलनाडु के टोडस कबीले में भी यह प्रथा प्रचलित है। यह कबीला जानवरों को पालता है तथा उनसे दूध प्राप्त करता है। दूध कों या तो विनिमय के लिए प्रयोग किया जाता है या फिर अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए प्रयोग किया जाता है। भारतीय कबीलों में चरवाहे साधारणतया स्थापित जीवन व्यतीत करते हैं तथा उनसे कई प्रकार की चीजें जैसे कि दूध, ऊन, मांस इत्यादि प्राप्त करते हैं। वे पशुओं जैसे कि भेड़ों, बकरियों इत्यादि का व्यापार भी करते हैं।

(iii) कृषि अर्थव्यवस्था (Agrarian Economy)-ग्रामीण समाज का मुख्य व्यवसाय कृषि पेशा या उस पर आधारित कार्य होते हैं क्योंकि ग्रामीण समाज प्रकृति के बहुत ही नज़दीक होता है। क्योंकि इनमें प्रकृति के साथ बहुत ही नज़दीकी के सम्बन्ध होते हैं इस कारण यह जीवन को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखते हैं। चाहे गांवों में और पेशों को अपनाने वाले लोग भी होते हैं जैसे कि बढ़ई, लोहार इत्यादि परन्तु यह बहुत कम संख्या में होते हैं तथा यह भी कृषि से सम्बन्धित चीजें ही बनाते हैं। ग्रामीण समाज में भूमि को बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझा जाता है तथा लोग यहीं पर रहना पसन्द करते हैं क्योंकि उनका जीवन भूमि पर ही निर्भर होता है। यहां तक कि लोगों तथा गांव की आर्थिक व्यवस्था तथा विकास कृषि पर निर्भर करता है।

(iv) औद्योगिक अर्थव्यवस्था (Industrial Economy)-शहरी अर्थव्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था का नाम भी दिया जा सकता है क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था उद्योगों पर ही आधारित होती है। शहरों में बड़े-बड़े उद्योग लगे होते हैं जिन में हज़ारों लोग कार्य करते हैं। बड़े उद्योग होने के कारण उत्पादन भी बड़े पैमाने पर होता है। इन बड़े उद्योगों के मालिक निजी व्यक्ति होते हैं। उत्पादन मण्डियों के लिए होता है। ये मण्डियां न केवल देसी बल्कि विदेशी भी होती हैं। कई बार तो उत्पादन केवल विदेशी मण्डियों को ध्यान में रख कर किया जाता है। बड़ेबड़े उद्योगों के मालिक अपने लाभ के लिए ही उत्पादन करते हैं तथा मजदूरों का शोषण भी करते हैं।

शहरी समाजों में पेशों की भरमार तथा विभिन्नता पायी जाती है। प्राचीन समय में तो परिवार ही उत्पादन की इकाई होता था। सारे कार्य परिवार में ही हुआ करते थे परन्तु शहरों के बढ़ने के कारण हज़ारों प्रकार के पेशे तथा उद्योग विकसित हो गए हैं। उदाहरण के लिए एक बड़ी फैक्टरी में सैंकड़ों प्रकार के कार्य होते हैं तथा प्रत्येक कार्य को करने के लिए एक विशेषज्ञ की ज़रूरत होती है। उस कार्य को केवल वह व्यक्ति ही कर सकता है जिस को उस कार्य में महारथ हासिल हो। इस प्रकार शहरों में कार्य अलग-अलग लोगों के पास बंटे हुए होते हैं जिस कारण श्रम विभाजन बहुत अधिक प्रचलित है। लोग अपने-अपने कार्य में माहिर होते हैं जिस कारण विशेषीकरण का बहुत महत्त्व होता है। इस प्रकार शहरी अर्थव्यवस्था के दो महत्त्वपूर्ण अंग श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण हैं।

प्रश्न 7.
श्रम विभाजन पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
दुर्शीम ने 1893 में फ्रेन्च भाषा में अपनी प्रथम पुस्तक (De La Division Trovail Social) नाम से प्रकाशित की चाहे यह उसका पहला ग्रन्थ था पर यह उसकी प्रसिद्धि की आधारशिला थी। इसी पर उसको 1893 में डॉक्टरेट भी मिली थी दीम ने उसको तीन भागों में बांटा वह तीन भाग हैं

1. श्रम विभाजन के कार्य (Functions of Division of Labour)-दुर्थीम हर सामाजिक तथ्य को एक नैतिक तथ्य के रूप में स्वीकार करता है। कोई भी सामाजिक प्रतिमान नैतिक आधार पर ही जीवित सुरक्षित रह सकता है। एक कार्यवादी के रूप में दुर्थीम ने सब से पहले श्रम विभाजन के कार्यों की खोज की। दुर्थीम ने सब से पहले काम शब्द के बारे में बताया कि यह क्या होता है।

  1. कार्य से अर्थ गति व्यवस्था अर्थात् क्रिया से है।
  2. कार्य का अर्थ इस क्रिया या गति व उसके अनुरूप ज़रूरत के आपसी सम्बन्ध से है अर्थात् क्रिया से पूरी होने वाली ज़रूरत से है।

दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन के कार्य से उनका अर्थ यह है कि श्रम विभाजन की प्रक्रिया समाज की पहचान के लिए किन मौलिक ज़रूरतों को पूरा करती है। काम तो वह काम है जिसके न होने पर उसके तत्त्वों की मौलिक जरूरतों की पूर्ति नहीं हो सकती।

आम तौर पर यह कहा जाता है कि श्रम विभाजन का कार्य सभ्यता का विकास करना है क्योंकि श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ विशेषीकरण के फलस्वरूप समाज की सभ्यता बढ़ती है। दुर्थीम ने इसका विरोध किया है उन्होंने सभ्यता के विकास को श्रम विभाजन का काम नहीं माना। उनका मतलब स्रोत का मतलब काम नहीं है। सुखों के बढ़ने या बौधिक या भौतिक विकास श्रम विभाजन के फलस्वरूप पैदा होते हैं इसलिए यह उनके परिणाम हैं काम नहीं। काम का मतलब परिणाम नहीं होता।

इस प्रकार सभ्यता का विकास श्रम विभाजन का काम नहीं है। दुर्थीम के अनुसार नए समूहों का निर्माण व उनकी एकता ही श्रम विभाजन के काम है। दुर्थीम ने समाज की पहचान से सम्बन्धित किसी नैतिक ज़रूरत को ही श्रम विभाजन के काम के रूप में ढूंढ़ने की कोशिश की है। उनके अनुसार समाज के सदस्यों की संख्या व उनके आपसी सर्पकों के बढ़ने से ही धीरे-धीरे श्रम विभाजन की प्रक्रिया का विकास हुआ है। इस प्रक्रिया से अनेक नएनए व्यापारिक व सामाजिक समूहों का निर्माण हुआ। इन भिन्न-भिन्न समूहों में एकता ही समाज की पहचान के लिए ज़रूरी है। दुर्थीम के अनुसार समाज की इसी ज़रूरत को श्रम विभाजन द्वारा पूरा किया जाता है। जहां एक और श्रम विभाजन से सामाजिक समूहों का निर्माण होता है वहां दूसरी ओर इन्हीं समूहों की आपसी एकता व उनकी सामूहिकता बनी रहती है।

इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का कार्य समाज में, एकता स्थापित करना है। श्रम विभाजन मनुष्यों की क्रियाओं की भिन्नता से सम्बन्धित है यह भिन्नता ही समाज की एकता का आधार है। यह भिन्नता दो व्यक्तियों को करीब लाती है जिससे मित्रता के सम्बन्ध निर्धारित होते हैं। यह दो व्यक्तियों के मन में आपसी एकता का भाव पैदा करता है। – इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन समूहों का निर्माण करता है व उनमें एकता पैदा करता है। इस एकता को बनाए रखने के लिए कानूनों का निर्माण किया जाता है। यह कानून दमनकारी भी होते हैं व प्रतिकारी भी। इन कानूनों के आधार पर ही दो भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक एकताओं का निर्माण होता है। यह दो प्रकार समाज की भिन्न-भिन्न जीवन शैलियों के परिणाम हैं। दमनकारी कानून का सम्बन्ध आदमी की आम प्रवृति से है, समानताओं से है जब कि प्रतिकारी कानून का सम्बन्ध विभिन्नताओं से या श्रम विभाजन से है। दमनकारी कानून से जिस प्रकार की एकता मिलती है, उसके दुर्थीम ने यान्त्रिक एकता का नाम दिया है व प्रतिकारी कानून से आंगिक एकता पैदा होती है।

इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार समाज में दो प्रकार की सामाजिक एकताएं पाई जाती हैं-

1. यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity)-दुर्थीम के अनुसार यान्त्रिक एकता को हम समाज की दण्ड संहिता में अर्थात् दमनकारी कानूनों में देख सकते हैं। समाज के सदस्यों में मिलने वाली समानताएं इस एकता का आधार है। जिस समाज के सदस्यों में समानताओं से भरपूर जीवन होता है, जहां विचारों, विश्वासों, कार्यों व जीवन शैली के आम प्रतिमान व आदर्श प्रचलित होते हैं व जो समाज इन समानताओं के परिणामस्वरूप एक सामूहिक इकाई के रूप में सोचता है क्रिया करता है। वह यान्त्रिक एकता का प्रदर्शन करता है अर्थात् उसके सदस्य एक यन्त्र या मशीन की भान्ति आपस में संगठित रहते हैं। इस एकता में दुर्थीम ने अपराध, दण्ड व सामूहिक चेतना को भी लिया है, दुर्थीम के अनुसार यह एक ऐसी सामाजिक एकता है जो चेतना की उन निश्चित अवस्थाओं में से पैदा होती है जोकि किसी समाज के सदस्यों के लिए आम है। इस को असल में दमनकारी कानून पेश करता है।

2. आंगिक एकता (Organic Solidarity)-दुर्थीम के अनुसार दूसरी एकता आंगिक एकता है। दमनकारी कानून की शक्ति सामूहिक चेतना में होती है। सामूहिक चेतना समानताओं से शक्ति प्राप्त करती है। आदिम समाज में दमनकारी कानून की प्रधानता होती थी क्योंकि उनमें समानताएं सामाजिक जीवन का आधार है। दुर्थीम के अनुसार आधुनिक समाज श्रम विभाजन व विशेषीकरण से प्रभावित है, जिसमें समानताओं की जगह पर विभिन्नताएं प्रमुख हैं। सामूहिक जीवन की यह विभिन्नता व्यक्तिगत चेतना को प्रमुखता देती है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप में समूह के साथ बंधा नहीं रहता। इस समाज में मनुष्यों के आपसी सम्बन्धों का महत्त्व काफ़ी अधिक होता है। यही कारण है कि दुर्थीम ने आधुनिक समाज में दमनकारी कानून की जगह प्रतिकारी कानूनों की प्रधानता बताई है। विभिन्नता पूर्ण जीवन में मनुष्यों को एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल एक काम पर योग्यता प्राप्त कर सकता है और सभी कार्यों के लिए उसको दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। समूह के सदस्यों की यह आपसी निर्भरता, उनकी व्यक्तिगत असमानता उन्हें करीब आने के लिए मजबूर करती है जिसके आधार पर समाज मे एकता की स्थापना होती है। इस एकता के दुर्थीम ने आंगिक एकता कहा है। यह प्रतिकारी कानून के कारण होती है।

दुर्थीम के कारण यह एकता शारीरिक एकता के समान है हाथ, पांव, नाक, कान, आंखें इत्यादि अपने भिन्नभिन्न कार्यों के कारण स्वतन्त्र अंगों के रूप में काम करते हैं पर काम तो ही सम्भव है जब तक कि वह एकदूसरे से मिले हुए हों इस प्रकार शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों की एकता आपसी निर्भरता पर टिकी हुई है। दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या बढ़ने के साथ ज़रूरतें भी बढ़ती है। इन्हें पूरा करने के लिए श्रम विभाजन व विशेषीकरण हो जाता है जिस कारण समाज में आंगिक एकता दिखाई देती है।

3. समझौते पर आधारित एकता (Contractual Solidarity)-आम एकता व आंगिक एकता का अध्ययन करने के पश्चात् दुर्थीम ने एक एकता बारे बताया है जिसको वह समझौते पर आधारित एकता कहता है। दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन की प्रक्रिया समझौते पर आधारित सम्बन्धों को जन्म देती है। समूह के लोग आपसी समझौते के आधार पर एक-दूसरे की सेवाओं को प्राप्त करते हैं व आपस में सहयोग करते हैं। यह सत्य है कि आधुनिक समाज में समझौतों के आधार पर लोगों में सहयोग व एकता स्थापित होती है। पर श्रम विभाजन का कार्य समझौतों पर आधारित एकता को उत्पन्न करना ही नहीं है। दुर्थीम के अनुसार यह एकता व्यक्तिगत तथ्य है चाहे यह समाज द्वारा ही संचालित होती है।

श्रम विभाजन के कारण (Causes of Division of Labour) – दुर्थीम ने श्रम विभाजन की व्याख्या समाजशास्त्रीय आधार पर की है। उसने श्रम विभाजन के कारणों की खोज सामाजिक जीवन की दिशाओं व उनसे सामाजिक ज़रूरतों से की है। इस प्रकार उसने श्रम विभाजन के कारणों को दो वर्गों में बांटा है

  1. प्राथमिक कारक
  2. द्वितीय कारक।

1. जनसंख्या व उसकी घनत्व का बढ़ना-दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या के आकार पर घनत्ता का बढ़ना ही श्रम विभाजन का प्रमुख व प्राथमिक कारण है।
दुर्शीम ने लिखा है कि, “श्रम विभाजन समाज की जटिलता व घनता का सीधा अनुपात है तथा सामाजिक विकास के इस दौरान में लगातार बढ़ोत्तरी होती है अर्थात् इसका कारण यह है कि समाज नियमित रूप से ओर अधिक जटिल होते जा रहे हैं।” दुर्थीम के अनुसार जनसंख्या बढ़ने के दो पक्ष हैं। जनसंख्या के आकार में बढ़ोत्तरी व जनसंख्या की घनत्व में बढ़ोत्तरी। यह दोनों पक्ष श्रम विभाजन को जन्म देते हैं। जनसंख्या के बढ़ने से मिश्रित समाज का निर्माण होने लगता है व जनसंख्या विशेष स्थानों पर केन्द्रित होने लगती है जनसंख्या की घनत्व को दो भागों में बांट सकते हैं।
(a) भौतिक घनत्व-शारीरिक तौर पर लोगों का एक ही स्थान पर एकत्र होना भौतिक घनत्व है।
(b) नैतिक घनत्व-भौतिक घनत्व के कारण लोगों के आपसी सम्बन्ध, क्रिया, प्रतिक्रिया बढ़ती है जिससे जटिलता भी बढ़ती है जिसको नैतिक घनत्व कहते हैं।

2. आम या सामूहिक चेतना की बढ़ती अस्पष्टता-दुर्थीम ने द्वितीय कारकों में सामूहिक चेतना की बढ़ती अस्पष्टता को प्रथम स्थान दिया है। समानताओं के आधार वाले समाज में सामूहिक चेतना का बोलबाला होता है जिस कारण समूह के व्यक्तिगत विचार आगे नहीं आते। दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन व विशेषीकरण तो ही सम्भव है जब सामूहिक विचार की जगह पर व्यक्तिगत विचार का विकास हो जाए व व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना को दबा दे। इस प्रकार श्रम विभाजन भी बढ़ जाएगा।

3. पैतृकता व श्रम विभाजन-श्रम विभाजन के द्वितीय कारक को दूसरे प्रकार को दुीम ने पैतकता के घटते प्रभाव को माना है। उनके अनुसार जितना अधिक पैतृकता का प्रभाव होगा। परिवर्तन के मौके उतने ही कम होंगे। अन्य शब्दों में श्रम विभाजन के विकास लिए यह ज़रूरी है कि पैतृक गुणों को महत्त्व न दिया जाए। श्रम विभाजन की प्रगति तो ही सम्भव है जब लोगों की प्राकृति व स्वभाव में भिन्नता हो। पैतृकता से प्राप्त गुणों के आधार पर मनुष्यों को उनके पूर्वजों से बांधने का यह परिणाम होता है कि हम अपनी खास आदतों का विकास नहीं कर सकते अर्थात् परिवर्तन नहीं कर सकते। इस प्रकार दुर्थीम के अनुसार पैतृकता श्रम विभाजन को रोकती है। समय के साथसाथ समाज का विकास होता है व पैतृकता का प्रभाव कम हो जाता है जिस कारण व्यक्तियों की विभिन्नताएं विकसित होती हैं श्रम विभाजन में बढ़ोत्तरी होती है।

श्रम विभाजन के परिणाम (Consequences of Division of Labour) –
श्रम विभाजन के प्राथिमक व द्वितीय कारकों के पश्चात् दीम इसके विकास के फलस्वरूप पैदा होने वाले परिणामों का जिक्र करता है। दुर्शीम ने श्रम विभाजन के बहुत सारे परिणामों का जिक्र किया है। जिनमें से कुछ प्रमुख हैं।

1. कार्यात्मक स्वतन्त्रता व विशेषीकरण-दुीम ने शारीरिक श्रम विभाजन व सामाजिक श्रम विभाजन में अन्तर किया है और सामाजिक श्रम विभाजन के परिणामों के बारे में बताया है। दुर्थीम के अनुसार श्रम विभाजन का एक परिणाम यह होता है कि जैसे ही काम अधिक बांटा जाता है। श्रम विभाजन के कारण मनुष्य अपने कुछ विशेष गुणों को विशेष कामों में लगा देता है। जिस कारण श्रम विभाजन के विकास का एक परिणाम यह भी होता है कि व्यक्तियों के काम उनके शारीरिक लक्षणों से स्वतन्त्र हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में संरचनात्मक विशेषताएं उनकी कार्यात्मक प्रवृत्तियों को अधिक प्रभावित नहीं करतीं।

2. सभ्यता का विकास-दुर्थीम ने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया था कि सभ्यता का विकास करना श्रम विभाजन का काम नहीं है क्योंकि श्रम विभाजन एक नैतिक तथ्य है तथा सभ्यता के तीनों अंगों औद्योगिक, कलात्मक व वैज्ञानिक विकास नैतिक विकास से सम्बन्ध नहीं रखते।
उनके अनुसार श्रम विभाजन के परिणाम स्वरूप सभ्यता का विकास होता है। जनसंख्या के आकार तथा घनत्ता में अधिक होना ही सभ्यता के विकास को ज़रूरी बना देता है। श्रम विभाजन व सभ्यता दोनों साथ-साथ प्रगति करते हैं पर श्रम विभाजन का विकास पहले होता है तथा उसके परिणामस्वरूप सभ्यता विकसित होती है। इसलिए दुर्थीम का मानना है कि सभ्यता का न तो श्रम विभाजन का उद्देश्य है और न ही काम बल्कि इसका परिणाम है।

3. सामाजिक प्रगति-प्रगति परिवर्तन का परिणाम है। श्रम विभाजन परिवर्तनों को भी जन्म देता है। परिवर्तन समाज में एक निरन्तर प्रक्रिया है इसलिए समाज में प्रगति भी निरन्तर होती रहती है। इस परिवर्तन का मुख्य कारण श्रम विभाजन है। श्रम विभाजन के कारण परिवर्तन होता है व परिवर्तन के कारण प्रगति होती है। इस प्रकार सामाजिक प्रगति श्रम विभाजन का एक परिणाम है।

दुर्थीम के विचार से प्रगति का प्रमुख कारक समाज है। हम इसके लिए बदल जाते हैं क्योंकि समाज बदल जाता है प्रगति तो ही कर सकती है जब समाज की गति रुक जाए पर ऐसा होना वैज्ञानिक रूप से सम्भव नहीं है। इसलिए दुर्थीम के विचार से प्रगति भी सामाजिक जीवन का परिणाम है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 8.
आर्थिक संस्था को परिभाषित कीजिए। अर्थप्रणाली में होने वाले परिवर्तनों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
हमारे समाज में बहुत से व्यक्ति रहते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति की कुछ मूल आवश्यकताएं होती हैं। यह मूल आवश्यकताएं हैं-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सुविधाएं इत्यादि परन्तु इन सबकी पूर्ति के लिए व्यक्ति को पैसे की आवश्यकता पड़ती है। यह पैसा व्यक्ति को कार्य करके कमाना पड़ता है। पैसा कमाने के लिए व्यक्ति को समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग करना पड़ता है तथा उन्हें उनके कार्यों में सहायता करनी पड़ती है ताकि वह भी पैसे कमा सकें।

आर्थिक संस्थाएं वह संस्थाएं हैं जो लोगों के लिए वस्तुओं के उत्पादन, विभाजन व उपभोग का प्रबन्ध करती हैं। समाज में आर्थिक संस्थाओं का बहुत महत्त्व होता है। इसी कारण ही समाज के विभिन्न स्वरूपों को आर्थिक संस्थाओं या अर्थव्यवस्था के आधार पर विभाजित किया गया है जैसे शिकारी, कृषि, औद्योगिक समाज आदि। इन आर्थिक संस्थाओं से ही समाज की अन्य संस्थाओं जैसे परिवार, धर्म आदि प्रभावित होते हैं।

प्रत्येक मानव की कुछ ज़रूरतें व कुछ इच्छाएं होती हैं। कुछ आवश्यकताएं तो जैविक कारणों से पैदा होती हैं। जैसे खाना, पीना, सोना आदि पर व्यक्ति की कुछ इच्छाएं सांसारिक वस्तुओं के कारण होती हैं। जैसे उच्च स्तर, अधिक पैसे होने, ऐशो आराम की सभी चीजें आदि। व्यक्ति अपनी इच्छाएं आप ही बनाता है व उनको पूरा करने की सामर्थ्य भी समाज में व्यवस्थित की गई है। व्यक्ति सभी वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है पर उसके पास इन चीजों की पूर्ति के लिए हमेशा से ही स्रोत की कमी रही है। इसलिए लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरे नित नए साधन ढूंढ़ते रहते हैं। इन साधनों के पता करने में उनसे उम्मीद की जाती है कि इन साधनों में तालमेल स्थापित किया जाए। इस तरह व्यक्ति अपनी ज़रूरतों व इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपने साधनों का उपयोग करता है व उन साधनों को व्यवस्थित करने के लिए जो मापदण्ड व सामाजिक संगठनों का उपयोग करता है उसको धर्म व्यवस्था या आर्थिक संस्थाओं का नाम दिया जाता है।

जॉनस (Jones) के अनुसार, “जीवन निर्वाह की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए वातावरण की उपयोग से सम्बन्धित तकनीकें, विचारों व प्रथाओं की जटिलता को आर्थिक संस्थाएं कहते हैं।”
प्रो० डेविस (Prof. Davis) के अनुसार, “किसी भी समाज में चाहे वह विकसित हो या आदिम, सीमित चीज़ों के विभाजन को निर्धारित करने वाले प्राथमिक विचारों, मानदण्डों व रूतबों को ही आर्थिक संस्था कहते हैं।”
ऑगबर्न व निमकौफ (Ogburn & Nimkoff) के अनुसार, “भोजन व सम्पत्ति के सम्बन्ध में मानव की क्रियाएं आर्थिक सम्पत्ति का निर्माण करती हैं।”

इस प्रकार इन परिभाषाओं को देख कर हम कह सकते हैं कि भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मानव द्वारा क्रियाओं के निश्चित व संगठित रूप को आर्थिक संस्था कहते हैं।

आर्थिक संस्थाओं में आ रहे परिवर्तन (Changes coming in the economic system)-20वीं शताब्दी के आरंभ से ही आर्थिक संस्थाओं में बहुत से परिवर्तन आने शुरू हो गए जिनका वर्णन इस प्रकार हैं-

  • अब उत्पादन बड़े स्तर पर होता है तथा उत्पादन के लिए Assembly Line नामक तकनीक सामने आ गई है जिसमें मनुष्य तथा मशीन दोनों इकट्ठा मिलकर नई वस्तु का उत्पादन करते हैं।
  • उत्पादन में बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग किया जाता है ताकि बड़े स्तर पर उत्पादन किया जा सके।
  • विश्वव्यापीकरण की प्रक्रिया ने सभी देशों की आर्थिक सीमाओं को खोल दिया है। लगभग सभी देशों ने सीमा शुल्क (Custom duty) इतना कम कर दिया है कि सभी वस्तुएं हमारे देश में आसानी से तथा कम दाम पर उपलब्ध हैं।
  • उदारीकरण (Liberalisation) की प्रक्रिया ने भी आर्थिक संस्थाओं में परिवर्तन ला दिए हैं। भारत सरकार ने सन् 1991 के पश्चात् उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया जिससे देश की आर्थिकता तेज़ी से बढी। देश में बडीबड़ी विदेशी कंपनियों ने अपने उद्योग लगाए जिससे लोगों को रोजगार मिला तथा बेरोज़गारी में भी कमी आई।
  • देश में कम्प्यूटर (Computer) से संबंधित बहुत से उद्योग शुरू हुए।

BPO (Business Process Outsourcing) उद्योग, काल सेंटर, सॉफ्टवेयर सेवाएं इत्यादि ने देश के लिए विदेशी मुद्रा कमाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशों की अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया। अब प्रत्येक प्रकार के उद्योगों में मशीनों का प्रयोग बढ़ गया है।

प्रश्न 9.
शिक्षा को परिभाषित कीजिए। औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा के मध्य उदाहरणों सहित अन्तर कीजिए।
उत्तर-
शिक्षा व्यक्ति के समाजीकरण का एक साधन है। यह सांस्कृतिक मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का सबसे अच्छा तरीका है। शिक्षा ने ही व्यक्ति का औद्योगीकरण, नगरीकरण इत्यादि के साथ सामंजस्य स्थापित करवाया है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं है। शिक्षा व्यक्ति को जीवन जीने का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करती है। शिक्षा समाज में प्रेम, मैत्री, सहानुभूति, आज्ञाकारिता, अनुशासन इत्यादि जैसे गुणों का विकास करती है।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)- शिक्षा को हम ज्ञान के संग्रह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। निम्न परिभाषाओं से शिक्षा का अर्थ और भी स्पष्ट हो जाएगा।

  • फिलिप्स (Philips) के अनुसार, “शिक्षा वह संस्था है जिसका केंद्रीय तत्त्व ज्ञान का संग्रह है।”
  • महात्मा गाँधी (Mahatma Gandhi) के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बच्चे के शरीर, मन और आत्मा में विद्यमान सर्वोत्तम गुणों का सर्वांगीण विकास करना है।”
  • ब्राउन तथा रासेक (Brown and Rouck) के अनुसार, “शिक्षा अनुभव की वह संपूर्णता है जो किशोर और वयस्क दोनों की अभिवृत्तियों को प्रभावित करती है तथा उनके व्यवहारों का निर्धारण करती है।”

इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तार्किक अनुभव सिद्ध, सैद्धांतिक और व्यावहारिक विचारों का समावेश होता है जिसका उद्देश्य व्यक्ति का सामाजिक व भौतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना होता है। शिक्षा सामाजिक नियंत्रण में एक अहम भूमिका निभाती है।

मुख्य रूप से शैक्षिक व्यवस्था के दो प्रकार होते हैं-औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा।

1. औपचारिक शिक्षा (Formal Education)-औपचारिक शिक्षा वह शिक्षा होती है जो हम औपचारिक तौर पर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय इत्यादि में जाकर प्राप्त करते हैं। इस तरह की शिक्षा में स्पष्ट पाठ्यक्रम निश्चित किया जाता है तथा अध्यापकगण इस पाठ्यक्रम के अनुसार व्यक्ति को शिक्षा देते हैं। इस तरह की शिक्षा का एक स्पष्ट उद्देश्य होता है तथा वह उद्देश्य होता है व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास ताकि वह समाज का ज़िम्मेदार नागरिक बन सके।

2. अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education)-अनौपचारिक शिक्षा वह होती है जो व्यक्ति किसी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में नहीं लेता है बल्कि वह यह शिक्षा तो रोज़मर्रा के अनुभवों और व्यक्तियों के विचारों, परिवार, पड़ोस, दोस्तों इत्यादि से लेता है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने रोज़ाना जीवन से कुछ न कुछ सीखता रहता है। इस को ही अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। इसका कोई निश्चित समय नहीं होता, निश्चित पाठ्यक्रम नहीं होता, निश्चित स्थान नहीं होता। व्यक्ति इसको कहीं भी, किसी से भी तथा किसी भी समय प्राप्त कर सकता। इसके लिए कोई डिग्री नहीं मिलती बल्कि व्यक्ति इसको पाने से परिपक्व हो जाता है।

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प्रश्न 10.
समाज में शिक्षा की भूमिका पर प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों के विचारों को प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
अगर हम आधुनिक समाज की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि जितनी तेजी से समाज में परिवर्तन शिक्षा के साथ आए हैं, उतने परिवर्तन किसी अन्य कारण के साथ नहीं आए हैं। शिक्षा के बढ़ने से सबसे पहले यूरोपियन समाजों में परिवर्तन आए तथा उसके बाद 20वीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्द्ध में एशिया के देशों में परिवर्तन आया। इन परिवर्तनों ने समाज को पूर्णतया बदल कर रख दिया। भारतीय समाज में आधुनिक शिक्षा के कारण ही काफ़ी परिवर्तन आए। लोगों ने पढ़ना लिखना शुरू किया जिससे उनके जीवन का सर्वपक्षीय विकास हुआ। स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन, निम्न तथा पिछड़ी जातियों की स्थिति में परिवर्तन शिक्षा के कारण ही संभव हो सका है। इस कारण समाजशास्त्रियों के लिए भी शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है कि वह समाज पर शिक्षा के प्रभावों को ढूंढ सकें।

समाजशास्त्री सामाजिक परिवर्तन के कारण के रूप में शिक्षा का अध्ययन करने में अधिक रुचि दिखाते हैं। उनके अनुसार शिक्षा मनुष्य को एक जीव से सामाजिक तथा सभ्य जीव के रूप में परिवर्तित कर देता है। फ्रांस के प्रमुख समाजशास्त्री दुर्थीम के अनुसार, “शिक्षा एक वयस्क पीढ़ी की तरफ से अवयस्क पीढ़ी के ऊपर डाला गया प्रभाव है।”

इसका अर्थ है कि शिक्षा वह प्रभाव है जो जाने वाली पीढी आने वाली पीढ़ी पर डालती है ताकि उस पीढी को समाज में रहने के लिए तैयार किया जा सके। दुखीम के अनुसार समाज का अस्तित्व तब ही बना रह सकता है अगर समाज के सदस्यों में एकरूपता (Homogeneity) बनी रहे तथा यह एकरूपता शिक्षा के कारण ही आती है। शिक्षा से ही लोग एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहना सीखते हैं तथा उनमें एकरूपता आ जाती है। शिक्षा से ही एक बच्चा समाज में रहने के नियम, परिमाप, कीमतों इत्यादि को सीखता व ग्रहण करता है। किंगस्ले डेविस (Kingslay Davis) तथा विलबर्ट मूरे (Wilbert Moore) ने भी शिक्षा के कार्यात्मक पक्ष के बारे में बताया है। उनके अनुसार सामाजिक स्तरीकरण एक तरीका है जिससे समर्थ व्यक्तियों को उचित स्थितियां प्रदान की जाती हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति शिक्षा द्वारा होती है तथा यह इस बात को सुनिश्चित करती है कि सही व्यक्ति को, समाज को सही स्थान प्राप्त हो।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
राज्य की कितनी प्रमुख विशेषताएं हैं ?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर-
(D) चार।

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प्रश्न 2.
राज्य के उद्देश्यों को पूरा करने के साधन कौन-से हैं ?
(A) सरकार
(B) समाज
(C) लोग
(D) जाति।
उत्तर-
(A) सरकार।

प्रश्न 3.
सरकार को कौन चुनता है ?
(A) राज्य
(B) समाज
(C) लोग
(D) जाति।
उत्तर-
(C) लोग।

प्रश्न 4.
सरकार के कितने अंग होते हैं ?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर-
(C) तीन।

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प्रश्न 5.
देश की अर्थव्यवस्था को कौन मज़बूत करता है ?
(A) राज्य
(B) समाज
(C) जाति
(D) सरकार।
उत्तर-
(D) सरकार।

प्रश्न 6.
इनमें से कौन सी आर्थिक संस्था है ?
(A) निजी सम्पत्ति
(B) श्रम विभाजन
(C) विनिमय
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
पूंजीवाद में मुख्य तौर पर कितने वर्ग होते हैं ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच।
उत्तर-
(A) दो।

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प्रश्न 8.
उस वर्ग को क्या कहते हैं जिसके पास उत्पादन के सभी साधन होते हैं तथा जो श्रमिकों को कार्य देकर उनका शोषण करता है ?
(A) श्रमिक वर्ग
(B) पूंजीपति वर्ग
(C) मध्य वर्ग
(D) निम्न वर्ग।
उत्तर-
(B) पूंजीपति वर्ग।

प्रश्न 9.
धर्म की उत्पत्ति कहां से हुई ?
(A) मनुष्य के विश्वास से
(B) भगवान से
(C) आत्मा से
(D) दैवी शक्तियों से।
उत्तर-
(A) मनुष्य के विश्वास से।

प्रश्न 10.
यह शब्द किसने कहे “धर्म आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास है ?”
(A) टेलर
(B) दुर्थीम
(C) लॉस्की
(D) फ्रेजर।
उत्तर-
(A) टेलर।

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प्रश्न 11.
धर्म किसके साथ सम्बन्धित है ?
(A) मूर्ति पूजा के साथ
(B) अलौकिक शक्ति में विश्वास
(C) पुस्तकों के साथ .
(D) A+ B + C.
उत्तर-
(D) A + B + C.

प्रश्न 12.
Elementary Forms of Religious life पुस्तक किसने लिखी ?
(A) दुखीम
(B) टेलर।
(C) वैबर
(D) मैलिनावैसकी।
उत्तर-
(A) दुर्थीम।

प्रश्न 13.
धर्म का क्या कार्य है ?
(A) समाज को तोड़ना
(B) सामाजिक एकता बनाये रखना
(C) समाज को नियन्त्रण में रखना
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(B) सामाजिक एकता को बनाए रखना।

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प्रश्न 14.
जो धर्म में विश्वास रखता हो उसे क्या कहते हैं ?
(A) आस्तिक
(B) नास्तिक
(C) धार्मिक
(D) अधार्मिक।
उत्तर-
(A) आस्तिक।

प्रश्न 15.
जो धर्म में विश्वास नहीं रखता हो उसे ………… क्या कहते हैं।
(A) धार्मिक
(B) नास्तिक
(C) आस्तिक
(D) अधार्मिक।
उत्तर-
(B) नास्तिक।

प्रश्न 16.
भारत में शिक्षित व्यक्ति किसे कहते हैं ?
(A) जो किसी भी भारतीय भाषा में पढ़ लिख सकता हो
(B) जो आठवीं पास हो
(C) जो मैट्रिक पास हो
(D) जिसने बी० ए० पास की हो।
उत्तर-
(A) जो किसी भी भारतीय भाषा में पढ़ लिख सकता हो।

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प्रश्न 17.
भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम ………….. तैयार करता है।
(A) U.G.C.
(B) विश्वविद्यालय
(C) NCERT
(D) राज्य का शिक्षा बोर्ड।
उत्तर-
(C) NCERT.

प्रश्न 18.
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली किस चीज़ पर आधारित थी ?
(A) धर्म
(B) विज्ञान
(C) तर्क
(D) पश्चिमी शिक्षा।
उत्तर-
(A) धर्म।

प्रश्न 19.
भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली किस चीज़ पर आधारित है ?
(A) धर्म
(B) पश्चिमी शिक्षा
(C) संस्कृति
(D) सामाजिक शिक्षा।
उत्तर-
(B) पश्चिमी शिक्षा।

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प्रश्न 20.
भारत में 2011 में शिक्षा दर कितनी थी ?
(A) 52%
(B) 74%
(C) 74%
(D) 70%.
उत्तर-
(C) 74%.

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. ……………. के चार तत्त्व होते हैं।
2. वैबर ने ………… के तीन प्रकार बताए हैं।
3. ………. ने. जीववाद का सिद्धांत दिया था।
4. ………… ने पवित्र व साधारण वस्तुओं में अंतर दिया था।
5. प्रकृतिवाद का सिद्धांत ………….. ने दिया था।
6. मार्क्स ने दो वर्गों ……………. तथा ……………… के बारे में बताया था।
7. …………….. शिक्षा वह होती है जो हम स्कूल, कॉलेज में प्राप्त करते हैं।
उत्तर-

  1. राज्य,
  2. तीन,
  3. ई० बी० टाइलर,
  4. दुर्शीम,
  5. मैक्स मूलर,
  6. पूँजीपति, मज़दूर,
  7. औपचारिक।

III. सही/गलत (True/False) :

1. भारत की जनता को आठ मौलिक अधिकार दिए गए हैं।
2. पंचायतों की आधी सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं।
3. भारतीय संविधान 26 नवंबर, 1949 को लागू हुआ था।
4. भारत एक धार्मिक देश है।
5. जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, सरकार व प्रभुसत्ता राज्य के आवश्यक तत्व हैं।
6. साम्यवाद व समाजवाद के विचार दुर्शीम ने दिए थे।
7. 2011 में भारत की शिक्षा दर 74% थी।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. गलत,
  3. गलत,
  4. गलत,
  5. सही,
  6. गलत,
  7. सही।

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IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
भारत का संविधान कब पास हुआ था ?
उत्तर-
भारत का संविधान 26 नवंबर, 1949 को पास हुआ था परन्तु यह लागू 26 जनवरी, 1950 को हुआ था।

प्रश्न 2.
संविधान में कितने मौलिक अधिकारों का जिक्र है ?
उत्तर-
संविधान में छ: (6) मौलिक अधिकारों का जिक्र है।

प्रश्न 3.
पंचायती राज योजना कब पास हुई थी ?
उत्तर-
पंचायती राज योजना 1959 में पास हुई थी।

प्रश्न 4.
पंचायती राज में महिलाओं के लिए कितना आरक्षण है ?
उत्तर-
पंचायती राज में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण है।

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प्रश्न 5.
गांधी जी के अनुसार कौन-सा राज्य ठीक नहीं है ?
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार जो राज्य शक्ति या बल का प्रयोग करे अथवा जो राज्य बल या शक्ति की मदद से बना हो वह राज्य ठीक नहीं है।

प्रश्न 6.
गांधी जी देश में किस प्रकार की व्यवस्था चाहते थे ?
उत्तर-
गांधी जी देश में पंचायती राज प्रणाली चाहते थे ताकि निचले स्तर तक शक्तियां बांट दी जाएं।

प्रश्न 7.
राज्य किस तरह बनता है ?
उत्तर-
राज्य सोच समझ कर चेतन कोशिशों से बनाया जाता है ताकि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इसका प्रयोग किया जा सके।

प्रश्न 8.
राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति कौन करता है ?
उत्तर-
राज्य बनाने के कुछ उद्देश्य होते हैं तथा इन उद्देश्यों की पूर्ति सरकार द्वारा होती है। इस तरह सरकार ही राज्य में उद्देश्यों की पूर्ति करती है।

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प्रश्न 9.
राज्य के आवश्यक कार्य कौन-से हैं ?
उत्तर-
देश की आंतरिक तथा बाहरी खतरों से सुरक्षा राज्य का सबसे आवश्यक कार्य है।

प्रश्न 10.
समाज के लिए न्याय की व्यवस्था कौन करता है ?
उत्तर-
समाज के लिए न्याय की व्यवस्था राज्य करता है। राज्य ही न्यायपालिका का निर्माण करता है।

प्रश्न 11.
राज्य किस प्रकार की व्यवस्था को उत्पन्न करता है?
उत्तर-
राज्य राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देता है।

प्रश्न 12.
राज्य के कौन-से ज़रूरी तत्त्व होते हैं?
उत्तर-
राज्य के चार ज़रूरी तत्त्व जनसंख्या, निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, सरकार तथा प्रभुसत्ता होनी चाहिए।

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प्रश्न 13.
आर्थिक संस्थाएं क्या होती हैं ?
उत्तर-
जो संस्थाएं आर्थिक क्रियाओं के उत्पादन, बांट, उपभोग इत्यादि का ध्यान रखती हों, वह आर्थिक संस्थाएं होती हैं।

प्रश्न 14.
आर्थिक व्यवस्थाओं की कोई उदाहरण दें।
उत्तर-
आर्थिक व्यवस्थाओं के उदाहरण हैं-पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद।

प्रश्न 15.
आर्थिक संस्थाओं के उदाहरण दें।
उत्तर-
निजी सम्पत्ति, श्रम विभाजन, विनिमय इत्यादि आर्थिक संस्थाओं के उदाहरण हैं।

प्रश्न 16.
पूंजीवाद में मुख्य तौर पर कितने वर्ग होते हैं ?
उत्तर-
पूंजीवाद में मुख्य तौर पर दो वर्ग-पूंजीपति वर्ग तथा मज़दूर वर्ग होते हैं।

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प्रश्न 17.
साम्यवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधन पर किसका अधिकार होता है ?
उत्तर–
साम्यवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर राज्य का या समाज का अधिकार होता है।

प्रश्न 18.
साम्यवादी व्यवस्था तथा समाजवादी व्यवस्था के विचार किसके थे?
उत्तर-
साम्यवादी व्यवस्था तथा समाजवादी व्यवस्था के विचार कार्ल मार्क्स के थे।

प्रश्न 19.
साम्यवादी किस चीज़ के खिलाफ होते हैं?
उत्तर–
साम्यवादी पैतृक सम्पत्ति तथा निजी सम्पत्ति के खिलाफ होते हैं।

प्रश्न 20.
क्या भारत एक धार्मिक देश है ?
उत्तर-
जी नहीं भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है जहां कई धर्मों के लोग मिलजुल कर एक साथ रहते हैं।

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प्रश्न 21.
धर्म क्या है?
उत्तर-
धर्म विश्वासों तथा संस्कारों का एक संगठन है जो सामाजिक जीवन को नियमित करके नियंत्रित करता है।

प्रश्न 22.
धर्म की उत्पत्ति किसने की?
उत्तर-
धर्म की उत्पत्ति मानव ने की।

प्रश्न 23.
किन समाजशास्त्रियों ने धर्म का अध्ययन किया है?
उत्तर-
दुर्शीम, वैबर, टेलर इत्यादि ने धर्म का अध्ययन किया है।

प्रश्न 24.
आस्तिक कौन होता है?
उत्तर-
जो व्यक्ति अलौकिक शक्ति, प्राचीन परंपराओं तथा धर्म में विश्वास रखता हो उसे आस्तिक कहते हैं।

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प्रश्न 25.
नास्तिक कौन होता है?
उत्तर-
जो व्यक्ति अलौकिक शक्ति तथा धर्म में विश्वास न करता हो उसे नास्तिक कहते हैं।

प्रश्न 26.
धर्म के समाज में चलते रहने का क्या कारण है?
उत्तर-
धर्म में जो भी गुण पाए जाते हैं उन्हीं की वजह से आज भी समाज में धर्म चल रहा है।

प्रश्न 27.
भारत में शिक्षित व्यक्ति का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
भारत में जो भी व्यक्ति किसी भी भाषा में पढ़ या लिख सकता है वह शिक्षित व्यक्ति है।

प्रश्न 28.
भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम कौन बनाता है ?
उत्तर-
भारत में स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम N.C.E.R.T. तैयार करता है।

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प्रश्न 29.
भारतीय आधुनिक शिक्षा प्रणाली किस पर आधारित है ?
उत्तर-
भारतीय आधुनिक शिक्षा प्रणाली पश्चिमी शिक्षा पर आधारित है।

प्रश्न 30.
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली किस पर आधारित थी ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली धर्म या धार्मिक ग्रन्थों पर आधारित थी।

प्रश्न 31.
सबसे पहले बच्चे को शिक्षा कहां प्राप्त होती है ?
उत्तर-
सबसे पहले बच्चे को शिक्षा परिवार में प्राप्त होती है क्योंकि परिवार में ही बच्चा सबसे पहले आंखें खोलता है।

प्रश्न 32.
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव किसने रखी थी ?
उत्तर-
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव अंग्रेज़ों ने रखी थी।

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प्रश्न 33.
2011 में भारत में साक्षरता दर कितनी थी ?
उत्तर-
2011 में भारत की साक्षरता दर 74% थी।

प्रश्न 34.
भारत में उच्च शिक्षा का ध्यान कौन रखता है ?
उत्तर-
भारत में उच्च शिक्षा का ध्यान U.G.C. रखती है।

प्रश्न 35.
औपचारिक शिक्षा क्या होती है ?
उत्तर-
जो शिक्षा व्यक्ति स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में प्राप्त करता है उसे औपचारिक शिक्षा कहते हैं।

प्रश्न 36.
अनौपचारिक शिक्षा क्या होती है ?
उत्तर-
जो शिक्षा व्यक्ति अपने रोज़ के कार्यों, अनुभवों, मेल-मिलाप, परिवार इत्यादि में लेता है वह अनौपचारिक शिक्षा होती है।

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प्रश्न 37.
प्राचीन समय में शिक्षा कौन देता था ?
उत्तर-
प्राचीन समय में शिक्षा ब्राह्मण देता था।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गांधी जी के राज्य की शक्तियों के बारे क्या विचार थे ?
उत्तर-
गांधी जी के अनुसार राज्य की शक्चियों का विकेंद्रीकरण अर्थात् शक्तियां विभाजित कर दी जाएं ताकि शक्तियां एक स्थान पर केंद्रित न हों तथा अगर इन्हें अलग-अलग स्तरों पर विभाजित कर दिया जाए तो ही शक्ति का ग़लत प्रयोग नहीं होगा।

प्रश्न 2.
राज्य की कोई दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. राज्य अपनी जनता के कल्याण के कार्य करता रहता है।
  2. अगर आवश्यकता हो तो राज्य शक्ति का प्रयोग भी करता है। (iii) राज्य का अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है, जनसंख्या तथा प्रभुत्त्व भी होता है।

प्रश्न 3.
रूसो तथा प्लैटो के अनुसार राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए ?
उत्तर-
बहुत से विद्वानों ने राज्य की जनसंख्या के बारे में अलग-अलग विचार दिए हैं। रूसो के अनुसार राज्य की जनसंख्या कम-से-कम 10,000 होनी चाहिए तथा इसी प्रकार प्लैटो के अनुसार आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 होनी चाहिए।

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प्रश्न 4.
पूंजीपति वर्ग कौन-सा होता है ?
उत्तर-
पूंजीपति वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के सभी साधन तथा पैसा होता है तथा जो मज़दूरों को कार्य देकर उनका शोषण करता है। क्योंकि पूंजीपति वर्ग के पास काफ़ी अधिक पैसा होता है इसलिए वह अपने पैसे का निवेश करके काफ़ी मुनाफा कमाता है।

प्रश्न 5.
मज़दूर वर्ग कौन-सा होता है ?
उत्तर-
वह वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते तथा पूंजीपति वर्ग जिसका हमेशा शोषण करता है तथा जो वर्ग केवल अपना श्रम बेचकर अपना पेट पालता है उसे मजदूर वर्ग कहते हैं। इस वर्ग के पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते तथा इसका सदियों से शोषण होता आया है।

प्रश्न 6.
साम्यवादी व्यवस्था क्या होती है ?
उत्तर-
जिस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य वर्ग रहित बनाना अर्थात् उस प्रकार के समाज का निर्माण करना है, जिसमें कोई वर्ग न हो, उसे साम्यवादी व्यवस्था का नाम दिया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था में उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का अधिकार होता है।

प्रश्न 7.
समाजवाद क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार जिस व्यवस्था में सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार तथा उसकी योग्यता के अनुसार मिलेगा, समाजवाद की व्यवस्था होगी। इस प्रकार की व्यवस्था में समानता व्याप्त हो जाएगी तथा सभी को समान रूप में राज्य की तरफ से मिलेगा।

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प्रश्न 8.
धर्म कैसे व्यक्ति को आलसी बना देता है ?
उत्तर-
धार्मिक व्यक्ति में किस्मत तथा कर्म की विचारधारा आ जाती है। इस कारण वह स्वयं कोई कार्य नहीं करता अपितु कार्य करना ही छोड़ देता है। वह सोचता है कि जो कुछ उसके भाग्य में होगा उसे मिल जाएगा। इस तरह वह आलसी बन जाता है तथा कार्य से दूर भागता है।

प्रश्न 9.
धर्म सामाजिक नियन्त्रण कैसे करता है ?
उत्तर-
धर्म किसी अलौकिक शक्ति के विश्वास पर आधारित है जिसे किसी ने देखा नहीं है। व्यक्ति इस शक्ति से डरता है तथा कोई कार्य नहीं करता जो इसकी इच्छा के विरुद्ध हो। इस प्रकार व्यक्ति स्वयं को नियंत्रित कर लेता है। इस प्रकार धर्म सामाजिक नियंत्रण करता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा क्या होती है ?
उत्तर-
शिक्षा व्यक्ति के अंदर समाज तथा स्थितियों के साथ तालमेल बिठाने का सामर्थ्य विकसित करके उसका समाजीकरण करती है। शिक्षा वह प्रभाव है जिसे जा रही पीढ़ी उनके ऊपर प्रयोग करती है जो अभी बालिग नहीं हैं।

प्रश्न 11.
शिक्षा बच्चों के विकास को कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
शिक्षा बच्चों के विकास को प्रभावित करती है क्योंकि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों का सर्वपक्षीय विकास करना है। शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही बच्चे को अच्छा जीवन मिल जाता है तथा उसका भविष्य अच्छा बनाने में सहायता मिलती है।

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प्रश्न 12.
शिक्षा के कोई दो कार्य बताएं।
उत्तर-

  • शिक्षा हमारे जीवन को व्यवस्थित तथा नियंत्रित करती है।
  • शिक्षा हमें समाज के साथ अनुकूलन करना सिखाती है।
  • शिक्षा व्यक्ति के अंदर नैतिक गुणों का विकास करती है।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की चार विशेषताएं।
उत्तर-

  1. राज्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करता है।
  2. राज्य अमूर्त होता है।
  3. राज्य के पास वास्तविक शक्तियां या सत्ता होती है।
  4. राज्य की एक सरकार होती है।

प्रश्न 2.
राज्य के कोई चार आवश्यक कार्य बताएं।
उत्तर-

  • राज्य अन्दरूनी शान्ति व सुरक्षा बनाये रखता है।
  • राज्य नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है।
  • राज्य न्याय प्रदान करता है।
  • राज्य परिवार के सम्बन्धों को स्थिर रखता है।
  • राज्य बाह्य हमले से रक्षा करता है।

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प्रश्न 3.
राज्य के कोई चार ऐच्छिक कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. राज्य यातायात व संचार के साधनों का विकास करता है।
  2. राज्य प्राकृतिक साधनों का उपयोग देश की भलाई के लिये करता है।
  3. राज्य शिक्षा देने का प्रबन्ध करता है।
  4. राज्य लोगों की सेहत का ध्यान रखता है।
  5. राज्य व्यापार एवं उद्योगों का संचालन करता है।

प्रश्न 4.
सरकार।
उत्तर-
सरकार एक ऐसा संगठन है, जिसके पास आदेशात्मक (Control) होता है। जोकि राज्य में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने में सहायता करता है। सरकार को मान्यता प्राप्त होती है क्योंकि सरकार के पास बहुमत का समर्थन होता है। सरकार तो राज्य के उद्देश्यों को पूरा करने का साधन है।

प्रश्न 5.
सरकार की कोई चार विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. सरकार लोगों के द्वारा चुनी जाती है।
  2. सरकार मूर्त होती है।
  3. सरकार कई अंगों से मिलकर बनती है।
  4. सरकार अस्थायी होती है।
  5. सरकार राज्य का साधन है।

प्रश्न 6.
सरकार के कितने अंग हैं ?
उत्तर-
सरकार के तीन अंग होते हैं। कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका। कार्यपालिका में सरकार के प्रधानमन्त्री एवं मन्त्री इत्यादि कार्य करते हैं। विधानपालिका का अर्थ संसद् या विधानसभा जोकि विंधान या कानून बनाती है और न्यायपालिका अर्थात् अदालतें, जज इत्यादि होते हैं जो कानूनों को लागू करते हैं।

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प्रश्न 7.
सरकार के कोई चार कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. सरकार शिक्षा का प्रसार करती है।
  2. सरकार ग़रीबी दूर करने की कोशिश करती है।
  3. सरकार सार्वजनिक क्षेत्र का ध्यान रखती है।
  4. सरकार व्यापार एवं उद्योगों को उत्साहित करती है और उनके लिए नियम बनाती है।
  5. सरकार देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाती है।
  6. सरकार नियुक्तियां करती है।
  7. सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक दल क्या होता है ? ।
उत्तर-
राजनीतिक दल एक समूह होता है, जोकि कुछ नियमों के साथ बंधा हुआ होता है। यह एक लोगों की सभा है, जिसका एकमात्र महत्त्व राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना होता है जिसके लिए वह सभी मिलकर कोशिश और उपाय करते रहते हैं। इसके सदस्यों के विचार साझे होते हैं, क्योंकि वह सभी एक ही दल से सम्बन्ध रखते है।

प्रश्न 9.
राजनीतिक दल की कोई चार विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. प्रत्येक राजनीतिक दल की भिन्न-भिन्न नीतियां होती हैं।
  2. प्रत्येक दल के सदस्य अच्छी तरह संगठित होते हैं और वह दल भी अच्छी तरह से संगठित व सुदृढ़ होता है।
  3. इसके सभी सदस्य एक ही नीति पर विश्वास करते हैं।
  4. इनके सदस्यों का एक साझा कार्यक्रम होता है।
  5. प्रत्येक अच्छा राजनीतिक दल देश के हितों का ध्यान रखता है।

प्रश्न 10.
राजनीतिक दलों के कोई चार कार्य बताओ।
उत्तर-

  1. यह लोकमत बनाते हैं।
  2. यह राजनीतिक शिक्षा देते हैं।
  3. यह उम्मीदवार चुनने में सहायता करते हैं।
  4. यह लोगों की कठिनाइयों को सरकार तक पहुँचाते हैं।
  5. यह राष्ट्रीय हितों को महत्त्व देते हैं।

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प्रश्न 11.
प्रभुसत्ता (Soveriegnty) ।
उत्तर-
प्रभुसत्ता का अर्थ है राज्य के ऊपर किसी भी प्रकार का बाहरी या आन्तरिक दबाव न हो। वह अपने फैसले लेने के लिये पूर्णतः स्वतन्त्र हो। यह दो प्रकार की होती है। (1) आन्तरिक प्रभुसत्ता (2) बाहरी प्रभुसत्ता। आन्तरिक प्रभुसत्ता से भाव है कि राज अन्य सभी सत्ताओं से सर्वोच्च है। उसकी सीमा के अन्दर (भीतर) रहने वाली संस्थाओं के लिए उसके आदेश मानने आवश्यक होते हैं। अन्य संस्थाओं का अस्तित्व राज्य के ऊपर निर्भर करता है। बाहरीय प्रभुसत्ता से भाव है कि राज्य देश से बाहर की किसी भी शक्ति के अधीन नहीं है। वह अपनी विदेशी एवं घरेलू नोति को बनाने के लिए पूर्णतः स्वतन्त्र होता है।

प्रश्न 12.
राज्य के कार्यों के बढ़ने के कारण।
उत्तर-

  1. सामाजिक परिवर्तन तेजी से हो रहे हैं जिसके कारण राज्य के कार्य बढ़ रहे हैं।
  2. सामाजिक जटिलता के बढ़ने के कारण ही राज्य के कार्य बढ़ रहे हैं।
  3. देश की जनसंख्या के तीव्रता के साथ बढ़ने के कारण उनको सुविधाएं देने के कारण राज्य का कार्य बढ़ रहा है।
  4. कल्याणकारी राज्य की धारणाओं के कारण ही राज्य के कार्य बढ़ रहें है।

प्रश्न 13.
सरकार के तीन अंग।
उत्तर-

  1. विधानपालिका-यह सरकार का वैधानिक अंग है जिसका मुख्य कार्य कानून बनाना एवं कार्यपालिका के ऊपर नियंत्रण रखना है। यह संसद् है।
  2. कार्यपालिका-इसका मुख्य कार्य संसद् या विधानपालिका द्वारा बनाये गये कानूनों को लागू करना है और प्रशासन को चलाना है। यह सरकार है।
  3. न्यायपालिका- इसका मुख्य कार्य संसद् के द्वारा पास और सरकार द्वारा लागू किये गये कानूनों के अनुसार . न्याय करना है। ये अदालतें होती हैं।

प्रश्न 14.
लोकतन्त्र।
उत्तर-
लोकतन्त्र सरकार का ही एक प्रकार है जिसमें जनता का शासन चलता है। इसमें जनता के प्रतिनिधि साधारण जनता के बालिगों द्वारा वोट देने के अधिकार से चुने जाते हैं तथा यह प्रतिनिधि ही जनता का प्रतिनिधित्व करके उनकी तरफ से बोलते हैं। यह कई संकल्पों जैसे कि समानता, स्वतन्त्रता तथा भाईचारे में विश्वास रखता है तथा यह ही इसका कार्यवाहक आधार है। इसके पीछे मूल विचार यह है कि समाज में, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समानता होनी चाहिए। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के अनुसार बोलने तथा संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

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प्रश्न 15.
शक्ति।
उत्तर-
समाज साधारणतया वर्गों में विभाजित होता है तथा इन वर्गों के हिसाब से व्यक्ति को प्रस्थिति तथा भूमिका प्राप्त होती है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रस्थिति तथा भूमिका अलग-अलग होती है। समाज में अलग-अलग वर्गों में विभाजन को स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। जब व्यक्ति समाज में रहते हुए अपनी स्थिति तथा भूमिका को निभाते हुए किसी-न-किसी स्थिति को प्राप्त करता है तो यह कहा जा सकता है कि उसके शक्ति अथवा ताकत प्राप्त कर ली है। इस प्रकार शक्ति समझौते तथा सौदे करने की प्रक्रिया है जिसमें प्राथमिकता रख कर सम्बन्धों के लिए निर्णय लिए जाते हैं।

प्रश्न 16.
यान्त्रिक एकता (Mechanical Solidarity) क्या होती है?
उत्तर-
दुर्थीम के अनुसार समाज में सदस्यों के बीच मिलने वाली समानताओं के कारण यान्त्रिक एकता होती · है। जिस समाज के सदस्यों का जीवन समानताओं से भरपूर होता है और विचारों, प्रतिमानों, आदर्शों के प्रतिमान प्रचलित होते हैं, वहां उन समानताओं के फलस्वरूप एकता हो जाती है, जिसको दुर्थीम ने यान्त्रिक एकता कहा है। यहां पर सदस्य एक मशीन या यंत्र की तरह कार्य करते हैं। इसको दमनकारी कानून व्यक्त करता है। यह आदिम समाजों में होती है।

प्रश्न 17.
आंगिक एकता (Organic Solidarity) क्या होती है ?
उत्तर-
आधुनिक समाज में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप के साथ एक-दूसरे के बंधे नहीं होते है। व्यक्ति में श्रमविभाजन एवं विशेषीकरण के कारण काफ़ी विभिन्नताएं आ जाती हैं। जिस कारण व्यक्तियों को एक-दूसरे के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। व्यक्ति किसी विशेष कार्य में ही योग्यता प्राप्त कर सकता है और सभी इसी कारण एकदूसरे के ऊपर निर्भर करते हैं। सभी मजबूरी में एक दूसरे के पास आते हैं और एक एकता में बंधे रहते हैं। इसे दुर्शीम ने आंगिक एकता का नाम दिया है।

प्रश्न 18.
उत्पादन।
उत्तर-
उत्पादन का अर्थ ऐसी क्रिया से है, जो व्यक्ति की आवश्यकता को पूर्ण करते हेतु किसी वस्तु का निर्माण करती है। इसको किसी वस्तु को उपयोग करने हेतु भी परिभाषित कर सकते हैं। किसी भी वस्तु के निर्माण में बहुत सी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। जैसे-प्राकृतिक साधन, मानवीय शक्ति, मज़दूरी, तकनीक, श्रम इत्यादि। इस प्रकार उत्पादन ऐसी क्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किसी भी वस्तु का निर्माण करता है और उसका उपयोग करता है।

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प्रश्न 19.
उपभोग।
उत्तर-
किसी भी वस्तु के उत्पादन के साथ-साथ उपभोग का होना भी अति आवश्यक होता है क्योंकि बिना उत्पादन के खपत नहीं हो सकती। उपभोग का अर्थ है किसी भी वस्तु का उपभोग करना एवं उपभोग का अर्थ है, वह गुण जो किसी वस्तु को मानव की आवश्यकता पूरा करने के योग्य बनाता है। यह प्रत्येक समाज का मुख्य कार्य होता है कि वह उपभोग को समाज के लिये नियमित व नियंत्रित करे।

प्रश्न 20.
विनिमय।
उत्तर-
किसी भी वस्तु के लेने-देने को वर्तमान में (Exchange) कहते हैं। इसका अर्थ है किसी वस्तु के स्थान पर किसी दूसरी वस्तु को लेना या देना। विनिमय वर्तमान में ही नहीं, बल्कि पुरातन समाज से ही चला आ रहा है। यह कई प्रकार का होता है, वस्तु के बदले वस्तु, सेवा के बदले सेवा, वस्तु के बदले धन, सेवा के बदले धन, यह दो प्रकार का होता है, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष, विनिमय सर्वप्रथम वस्तुओं का वस्तुओं के साथ, सेवा के बदले वस्तुओं के साथ और सेवा के बदले सेवा के लेने-देने के साथ होता है। अप्रत्यक्ष विनिमय में तोहफे का विनिमय सर्वोत्तम होता है।

प्रश्न 21.
विभाजन।
उत्तर-
आम व्यक्ति के लिये विभाजन का अर्थ वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान के ऊपर ले जाने से और बेचने से है। परन्तु अर्थशास्त्र में विभाजन वह प्रक्रिया है, जिसके साथ किसी आर्थिक वस्तु का कुल मूल्य उन व्यक्तियों में बांटा जाता है, जिन्होंने उस वस्तु के उत्पादन में भाग लिया। भिन्न-भिन्न लोगों एवं समूहों का विशेष योगदान होता है जिस कारण उन्हें मुआवजा मिलना चाहिये। इस तरह उन्हें दिया गया धन या पैसा मुआवजा विभाजन होता है। जैसे ज़मीन के मालिक को किराया, मजदूर को मजदूरी, पैसे लगाने वाले को ब्याज, सरकार को टैक्स आदि के रूप में इस विभाजन का हिस्सा प्राप्त होता है।

प्रश्न 22.
धर्म।
उत्तर-
धर्म मानवीय जीवन की सर्वशक्तिमान, परमात्मा के प्रति श्रद्धा का नाम है या धर्म का अर्थ है परमात्मा के होने का अनुभव। धर्म में व्यक्ति अपने आपको अलौकिक शाक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करना मानता है।

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प्रश्न 23.
धर्म की कोई चार विशेषताएं बताइये।
उत्तर-

  1. धर्म में अलौकिक शक्तियों में विश्वास होता है।
  2. धर्म में बहुत सारे संस्कार होते हैं।
  3. धर्म में धार्मिक कार्य-विधियां भी होती हैं।
  4. धर्म में धार्मिक प्रतीक एवं चिन्ह भी होते हैं।

प्रश्न 24.
धर्म के कार्य।
उत्तर-

  1. धर्म सामाजिक संगठन को स्थिरता प्रदान करता है।
  2. धर्म सामाजिक जीवन को एक निश्चित रूप प्रदान करता है।
  3. धर्म पारिवारिक जीवन को संगठित करता है।
  4. धर्म सामाजिक नियंत्रण रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
  5. धर्म भेद-भाव को दूर करता है।
  6. धर्म समाज कल्याण के कार्यों के लिये उत्साहित करता है।
  7. धर्म व्यक्ति के विकास करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  8. धर्म व्यक्ति के समाजीकरण करने में सहायता करता है।

प्रश्न 25.
धर्म के दोष।
उत्तर-

  • धर्म सामाजिक उन्नति के रास्ते में रुकावट बनता है।
  • धर्म के कारण व्यक्ति भाग्य के सहारे रह जाता है।
  • धर्म राष्ट्रीय एकता का विरोध करता है।
  • धर्म सामाजिक समस्याओं को बढ़ाता है।
  • धर्म परिवर्तन के रास्ते में रुकावट बनता है।
  • धर्म समाज को बांट देता है।

प्रश्न 26.
धर्म सामाजिक जीवन को निश्चित रूप देता है।
उत्तर-
कोई भी धर्म रीति-रिवाजों व रूढ़ियों का एकत्रित रूप होता है। यह रीति-रिवाज एवं रूढ़ियों संस्कृति का हिस्सा होती हैं। इसलिये धर्म के कारण सामाजिक वातावरण व संस्कृति में सन्तुलन बन जाता है। इसी सन्तुलन कारण जीवन को एक निश्चित रूप मिल जाता है। धर्म के कारण ही लोग रीति-रिवाज़ों, रूढ़ियों आदि पर विश्वास या सत्कार करते हैं और अन्य लोगों के साथ भी सन्तुलन बनाकर चलते हैं। इसी सन्तुलन के कारण ही सामाजिक जीवन सही तरीके के साथ चलता रहता है। यह सब धर्म के फलस्वरूप ही होता है।

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प्रश्न 27.
धर्म एवं सामाजिक नियंत्रण।
उत्तर-
धर्म नियंत्रण के प्रमुख साधनों में से एक है। धर्म के पीछे पूर्ण समुदाय की अनुमति होती है। व्यक्ति के ऊपर न चाहते हुए भी धर्म का जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। धर्म अपने सदस्यों को इस प्रकार नियंत्रित एवं निर्देशित करता है कि व्यक्ति को धर्म के आगे नतमस्तक एवं उसका कहना मानना ही पड़ता है। धर्म एक अलौकिक शक्ति एवं विश्वास है, इसलिये सभी लोग उस अलौकिक शक्ति के प्रकोप से बचना चाहते हैं और कोई भी कार्य ऐसा नहीं करते हैं जो धर्म के विरुद्ध हो। इस प्रकार लोगों के व्यवहार करने के तरीके धर्म के द्वारा ही नियंत्रित होते हैं। धर्म में ही पाप-पुण्य, पवित्र एवं अपवित्र की धारणा होती है। यह व्यक्ति को धर्म के विरुद्ध कार्य करने को रोकती है। यह मान्यता है कि धर्म के विरुद्ध कार्य करना पाप है। जो व्यक्ति को एक नरक में लेकर जाता है और धर्म के अनुसार कार्य करने वाले को स्वर्ग में जगह मिलती है। इसी प्रकार दान देना, सहयोग करना, सहनशीलता सिखाना भी धर्म से ही प्राप्त होते हैं। धर्म लोगों को बुरे कार्यों के विरुद्ध जाने को कहता है, इस प्रकार धर्म समाज के ऊपर एक नियंत्रण शक्ति का कार्य करता है।

प्रश्न 28.
पवित्र।
उत्तर-
दुर्थीम के अनुसार सभी धार्मिक विश्वास आदर्शात्मक वस्तु जगतं को पवित्र (Sacred) तथा साधारण (Profane) दो वर्गों में बाँटते हैं। पवित्र वस्तुओं में देवताओं तथा आध्यात्मिक शक्तियों या आत्माओं के अतिरिक्त गुफाओं, पेड़ों, पत्थर, नदी इत्यादि शामिल हो सकते हैं। साधारण वस्तुओं की तुलना में पवित्र वस्तुएं अधिक शक्ति तथा शान रखती हैं। दुर्थीम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं अर्थात् अलग तथा प्रतिबन्धित वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।”

प्रश्न 29.
पंचायती राज्य संस्थाएं।
उत्तर-
हमारे देश में स्थानीय क्षेत्रों का विकास करने के लिए दो प्रकार के ढंग हैं। शहरी क्षेत्रों का विकास करने के लिए स्थानीय सरकारें होती हैं तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए पंचायती राज्य संस्थाएं होती हैं। हमारे देश की लगभग 68% जनता ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करने के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं उन्हें पंचायती राज्य संस्थाएं कहते हैं। इसमें तीन स्तर होते हैं। ग्राम स्तर पर विकास करने के लिए पंचायत होती है, ब्लॉक स्तर पर विकास करने के लिए ब्लॉक समिति होती है तथा जिला स्तर पर विकास करने के लिए जिला परिषद् होती है। इन सभी के सदस्य चुने भी जाते हैं तथा मनोनीत भी होते हैं।

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प्रश्न 30.
ग्राम सभा।
उत्तर-
गांव की पूरी जनसंख्या में से बालिग व्यक्ति जिस संस्था का निर्माण करते हैं उसे ग्राम सभा कहते हैं। गांव के सभी वयस्क व्यक्ति इसके सदस्य होते हैं तथा यह गांव की पूर्ण जनसंख्या की एक सम्पूर्ण इकाई है। यह वह मूल इकाई है जिस पर हमारे लोकतन्त्र का ढांचा टिका हुआ है। जिस गांव की जनसंख्या 250 से अधिक होती है वहां ग्राम सभा बन सकती है। यदि एक गांव की जनसंख्या कम है तो दो गांव मिलकर ग्राम सभा बनाते हैं। ग्राम सभा में गांव का प्रत्येक वह बालिग अथवा वयस्क व्यक्ति सदस्य होता है जिसे वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है। प्रत्येक ग्राम सभा का एक प्रधान तथा कुछ सदस्य होते हैं जो 5 वर्ष के लिए चुने जाते हैं।

प्रश्न 31.
ग्राम पंचायत।
उत्तर-
प्रत्येक ग्राम सभा अपने क्षेत्र में से एक ग्राम पंचायत का चुनाव करती है। इस प्रकार ग्राम सभा एक कार्यकारी संस्था है जो ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करती है। इसमें एक सरपंच तथा 5 से 13 तक पंच होते हैं। यह 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है परन्तु यदि यह अपने अधिकारों का गलत प्रयोग करे तो उसे 5 वर्ष से पहले भी भंग किया जा सकता है। पंचायत में पिछड़ी श्रेणियों तथा स्त्रियों के लिए स्थान आरक्षित हैं। ग्राम पंचायत में सरकारी कर्मचारी तथा मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकते। ग्राम पंचायत गांव में सफाई, मनोरंजन, उद्योग तथा यातायात के साधनों का विकास करती है तथा गांव की समस्याएं दूर करती है।

प्रश्न 32.
ग्राम पंचायत के कार्य।
उत्तर-

  • ग्राम पंचायत का सबसे पहला कार्य गांव के लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाना होता है।
  • गांव की पंचायत गांव में स्कूल खुलवाने तथा लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करती है।
  • ग्राम पंचायत ग्रामीण समाज में मनोरंजन के साधन जैसे कि फिल्में, मेले लगवाने तथा लाइब्रेरी खुलवाने का भी प्रबन्ध करती है। (iv) पंचायत लोगों को कृषि की नई तकनीकों के बारे में बताती है, नए बीजों, उन्नत उर्वरकों का भी प्रबन्ध करती है।
  • यह गांव में कुएं, ट्यूबवैल इत्यादि लगवाने का प्रबन्ध करती है तथा नदियों के पानी की भी व्यवस्था करती है।
  • यह गांवों का औद्योगिक विकास करने के लिए गांव में उद्योग लगवाने का भी प्रबन्ध करती है।

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प्रश्न 33.
न्याय पंचायत।
उत्तर-
गांवों के लोगों में झगड़े होते रहते हैं जिस कारण उनके झगड़ों का निपटारा करना आवश्यक होता है। इसलिए 5-10 ग्राम सभाओं के लिए एक न्याय पंचायत का निर्माण किया जाता है। न्याय पंचायत लोगों के बीच होने वाले झगड़ों को खत्म करने में सहायता करती है। इसके सदस्य चुने जाते हैं तथा सरपंच पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाता है। इन सदस्यों को पंचायत से प्रश्न पूछने का भी अधिकार होता है।

प्रश्न 34.
पंचायत समिति अथवा ब्लॉक समिति।
उत्तर-
पंचायती राज्य संस्थाओं के तीन स्तर होते हैं। सबसे निचले गांव के स्तर पर पंचायत होती है। दूसरा स्तर ब्लॉक का होता है जहां पर ब्लॉक समिति अथवा पंचायत समिति का निर्माण किया जाता है। एक ब्लॉक में आने वाली पंचायतें, पंचायत समिति के सदस्य होते हैं तथा इन पंचायतों के प्रधान अथवा सरपंच इसके सदस्य होते हैं।

पंचायत समिति के इन सदस्यों के अतिरिक्त और सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष तौर पर किया जाता है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह गांवों के विकास के कार्यक्रमों को चैक करती है तथा पंचायतों को गांव के कल्याण करने के लिए निर्देश देती है। यह पंचायती राज्य के दूसरे स्तर पर है।

प्रश्न 35.
जिला परिषद्।
उत्तर-
पंचायती राज्य के सबसे ऊंचे स्तर पर है ज़िला परिषद् जो कि जिले के बीच आने वाली पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखती है। यह भी एक प्रकार की कार्यकारी संस्था होती है। पंचायत समितियों के चेयरमैन चुने हुए सदस्य, उस क्षेत्र के लोक सभा, राज्य सभा तथा विधान सभा के सदस्य सभी जिला परिषद के सदस्य होते हैं। यह सभी जिले में आने वाले गांवों के विकास का ध्यान रखते हैं। जिला परिषद् कृषि में सुधार, ग्रामीण बिजलीकरण, भूमि सुधार, सिंचाई, बीजों तथा उर्वरकों को उपलब्ध करवाना, शिक्षा, उद्योग लगवाने जैसे कार्य करती है।

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प्रश्न 36.
पंचायती राज्य की समस्याएं।
उत्तर-

  • लोगों के अनपढ़ तथा अन्धविश्वासों में फंसे हुए होने के कारण वह परिवर्तन को जल्दी स्वीकार नहीं करते जो कि पंचायती राज्य संस्थाओं के रास्ते में सबसे बड़ी समस्या है।
  • गांवों में अच्छे तथा ईमानदार नेताओं की कमी होती है तथा वह केवल अपने विकास पर ही ध्यान देते हैं गांवों के विकास पर नहीं।
  • अच्छे पढ़े-लिखे लोग धीरे-धीरे शहरों में बस रहे हैं जिससे गांव में पढ़े-लिखे नेताओं की कमी है।
  • सरकारी अफ़सर, पंचों तथा सरपंचों से मिलकर गांव को मिलने वाले ज़्यादातर पैसे को स्वयं ही खा जाते हैं तथा गांव का विकास रुक जाता है।

प्रश्न 37.
ग्राम पंचायत की आय के साधन।
उत्तर-

  • पंचायत को राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त टैक्स लगाने का अधिकार प्राप्त है जैसे कि सम्पत्ति कर, पशु कर, पेशा कर, मार्ग कर, चुंगी कर इत्यादि इनसे उसे आय होती है।
  • ग्राम पंचायत कई प्रकार के जुर्माने भी लगा सकती है तथा फीस भी इकट्ठी कर सकती है जिससे उसे आय प्राप्त होती है।
  • पंचायतों को प्रत्येक वर्ष सरकार से ग्रांटें प्राप्त होती हैं जिससे उसकी आय बढ़ती है।
  • पंचायत को कूड़ा-कर्कट, गोबर बेचने से आय, मेलों से आय, पंचायत की सम्पत्ति से भी आय प्राप्त हो जाती है।

प्रश्न 38.
पंचायत समिति का चेयरमैन।
उत्तर-
पंचायत समिति के चुने हुए सदस्य अपने में से एक चेयरमैन का चुनाव करते हैं जो कि डिप्टी कमिश्नर की निगरानी में चुना जाता है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। इसे समिति के क्षेत्र तथा प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है। यह समिति की मीटिंग बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है। यह समिति के अधिकारियों की सहायता से समिति का बजट तैयार करके उन्हें पास करवाता है। यह पंचायत समिति के क्षेत्र में आने वाली सभी पंचायतों के कार्यों का ध्यान रखता है तथा उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों का निरीक्षण भी करता है।

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बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आर्थिक संस्थाओं के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
आर्थिक संस्थाओं के मुख्य कार्यों का वर्णन इस प्रकार है-

1. उत्पादन (Production)-उत्पादन का अर्थ ऐसी क्रिया है जो व्यक्ति की ज़रूरत को पूरा करने के लिए किसी चीज़ की निर्माण करती है। इसको किसी चीज़ को उपयोग करने के रूप में भी परिभाषित कर सकती है। किसी वस्तु के निर्माण में बहुत सारी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है जिसका वर्णन नीचे दिया गया है

(1) सबसे पहले किसी वस्तु के उत्पादन के लिए प्राकृतिक साधनों की ज़रूरत पड़ती है जिससे वस्तु का निर्माण होता है। वे सभी वस्तुएं जो किसी भी चीज़ के निर्माण के लिए ज़रूरी होती हैं साधन कहलाती हैं। साधन में भौतिक वस्तुओं व उनके लिए प्रयोग होने वाली मानवीय ताकत भी शामिल है। भौतिक चीज़ों के उत्पादन के लिए बढ़िया भूमि व जलवायु की आवश्यकता होती है। इस्पात बनाने के लिए कच्चा लोहा व बिजली बनाने के लिए कोयले या पानी की आवश्यकता पड़ती है ताकि मशीनें चल सकें। इस प्रकार वस्तु के उत्पादन के लिए प्राकृतिक साधनों की ज़रूरत होती है। …

(2) प्राकृतिक साधनों के पश्चात् बारी आती है मानवीय शक्ति की। मनुष्य की मज़दूरी धन के उत्पादन के लिए प्रयोग की जाती है। व्यक्ति जब किसी भी चीज़ का निर्माण करता है तो वह अपना परिश्रम लगाता है और यही मेहनत किसी भी चीज़ की उपयोगिता बढ़ा देती है। मजदूर को उसकी मेहनत का किस तरह का फल मिले वह अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है। जैसे पुराने समय में गांवों में कार्य करवा कर उसको दाने, अनाज इत्यादि दिया जाता था पर आजकल उसको तनख्वाह पैसे के रूप में दी जाती है इस प्रकार मज़दूरी तथा मनुष्य की मेहनत का भी उत्पादन में बहुत बड़ा हाथ होता है।

(3) किसी भी चीज़ के उत्पादन के लिए साधनों व मजदूरी की ज़रूरत होती है। इनमें से किसी एक की गैर मौजूदगी से चीज़ नहीं बन सकती। इन दोनों की मदद से व मशीनों, उद्योग की अन्य वस्तुओं जिनकी मदद से चीजों का उत्पादन होता है को पूंजी कहा जाता है। इस प्रकार पूंजी वह चीज़ है जिस का निर्माण प्राकृतिक साधनों पर परिश्रम करके होता है अर्थात् जिसको आगे और पूंजी के उत्पादन में प्रयोग किया जा सकता है।

(4) प्राकृतिक साधनों, मज़दूरी व पूंजी के अतिरिक्त कई अन्य वस्तुएं हैं जो उत्पादन में मदद करती हैं। सबसे पहले टैक्नॉलाजी होती है। टैक्नॉलजी समाज की पूरी कला के ज्ञान का स्रोत है। जिस समाज का ज्ञान व कला जितनी बढ़िया होगा। वह समाज उतनी ही बढ़िया चीज़ का निर्माण करेगा। इसके समय साथ होता है जो किसी भी चीज़ के निर्माण में महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हमने किसी चीज़ का निर्माण करना है तो वह निश्चित समय के अन्दर होना ज़रूरी है नहीं तो उस वस्तु के निर्माण की खपत बढ़ जाएगी। फिर बारी आती है निर्माण करने के तरीके की क्योंकि कम समय में साधनों के द्वारा चीज़ों का अधिक-से-अधिक मात्रा में प्राप्त करने का तरीका है। निर्माण करने का तरीका वह है जिससे कम-से-कम समय में अधिक वस्तुएं बनाई जाएं।

(5) अन्त में जो वस्तु उत्पादन में ज़रूरी होती हैं वह है उद्यमी। प्रत्येक उत्पादन की प्रक्रिया में कोई दिशा व किसी न किसी योजना की ज़रूरत होती है। आजकल बड़े-बड़े उद्योगों व समूहों की देख-रेख कुछ विशेष व्यक्ति या मालिक करते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपना योगदान डालते हैं। कुछ लोगों के पास प्राकृतिक साधन होते हैं, किसी के पास मज़दूरी होती है व किसी के पास पैसा। उद्यमी व्यक्ति इन सब को इकट्ठा करके चीज़ों का उत्पादन करता है व अपना मुनाफा कमाता है इस उत्पादन की प्रक्रिया में फायदा सब में बांटा जाता है। उद्यमी के साथ-साथ सरकारी नीतियों कानून, मज़दूरों की तनख्वाह उनके झगड़ों का निपटारा, व्यापार, काम के साथ सम्बन्धित कानूनों का निर्माण आदि ही इसमें ज़रूरी है। इस प्रकार इन सभी कारणों के कारण उत्पादन होता है। इस प्रकार आर्थिक संस्थाओं का सब से पहला काम उत्पादन करना होता है।

2. उपभोग (Consumption)-उत्पादन के साथ-साथ उपभोग का होना भी बहुत ज़रूरी है क्योंकि बगैर उपभोग के उत्पादन नहीं हो सकता। इसका अर्थ होता है किसी चीज़ का उपयोग करना व उपयोग का अर्थ है, वह गुण जो किसी चीज़ को मनुष्य की ज़रूरत पूरा करने के योग्य बनाता है। साधारण समाजों में तो उपभोग की कोई मुश्किल नहीं होती क्योंकि जो भी चीज़ उत्पादित होती है, उसकी खपत आराम से हो जाती है जैसे आदिम समाज में होता था। व्यक्ति भोजन का उत्पादन करते थे व उसका उपभोग कर लेते थे। परन्तु मुश्किल तो जटिल समाज में होती है। जहां व्यक्ति अपनी प्राथिमक ज़रूरतों के अलावा और चीजें व जरूरतों को विकसित कर लेते हैं। जोकि जीवन जीने के लिए कोई खास ज़रूरी नहीं हैं जैसे टी० वी०, बढ़िया मकान, कारें, ऐशो-आराम के समान इत्यादि। जटिल समाज में इन चीजों की उपभोग बहुत अधिक होता है क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था बढ़ती है।

प्रत्येक समाज का मुख्य काम होता है कि वह उपभोग को समाज के लिए निर्धारित करे। उपभोग की नियमित कई तरीकों से हो सकती है। जैसे उत्पादन पर नियन्त्रण करके उत्पादन पर नियन्त्रण भी कई ढंगों से हो सकता है, जैसे प्राकृतिक साधनों के भण्डार को बचाकर रखना व ताज़ा उत्पादन में भी उनका कम प्रयोग करना।

इसी प्रकार (Export) या निर्यात भी इसका नियन्त्रण कर सकता है। उपभोग को हम प्रचार करके भी प्रभावित कर सकते हैं जैसे कि यदि किसी नई वस्तु का निर्माण हुआ है तो उसके बारे टी० वी० अखबार इत्यादि में प्रचार करके लोगों को उसके बारे में बता सकते हैं। इस प्रकार किसी वस्तु की खपत इस कारण कम या अधिक हो सकती है। इस के अतिरिक्त सरकार भी कानूनी पाबन्दी लगाकर खपत को प्रभावित कर सकती है। जैसे किसी वस्तु के खतरनाक परिणामों के कारण उस पर प्रतिबन्ध लगाना किसी चीज़ की रिआयत देना जिस कारण खपत कम बढ़ सकती है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यवस्था एक संस्थागत नियमों की प्रणाली में काम करती है। जैसे जायदाद की परिभाषा व अधिकारियों का विभाजन, श्रम विभाजन व्यवस्था, उत्पादन व उपभोग की व्यवस्थाओं पर नियन्त्रण। इस प्रकार खपत को नियमित करना आर्थिक संस्थाओं का प्रमुख काम है। ..

3. विनिमय (Exchange)-किसी चीज़ के लेन-देन को विनिमय कहते हैं। इसका अर्थ है किसी आर्थिक वस्तु की जगह दूसरी वस्तु को देना। विनिमय आजकल का नहीं बल्कि पुरातन समाज से ही चला आ रहा है। विनिमय कई प्रकार का होता है। जैसे चीज़ के बदले चीज़, सेवा के बदले चीज़, सेवा के बदले सेवा, चीज़ के बदले पैसा, सेवा के बदले पैसा, पैसे के बदले पैसा। विनिमय को जॉनसन दो श्रेणियों में रखते हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।

प्रत्यक्ष विनिमय सबसे पहले वस्तुओं की वस्तुओं से सेवा बदले सेवा का लेन-देन होता है इसमें व्यवस्थित व्यापार भी होता है व उस समय होता है जब चीज़ों की कीमतों को राजनीतिक सत्ता द्वारा निश्चित किया जाता है। पर समय-समय पर बदल दिया जाता है। इसमें पैसे का विनिमय भी होता है या हम कह सकते हैं कि पैसे देकर चीज़ ली जा सकती है। इस विनिमय के कारण लोगों में बदलने की सुविधा पैदा होती है।

अप्रत्यक्ष विनिमय में तोहफे का बदलना सब से आम रूप है जिसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष से किसी खास प्रकार का लाभ लेने के लिए समझौता करता है व बिना किसी चीज़ या सेवा के तोहफे (gift) का लेन-देन होता है इसके अलावा समूह द्वारा उत्पादित चीज़ों के एकत्र करके सदस्यों में दुबारा बांट दिया जाता है।

विनिमय के कारण उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है। जब लोगों को अन्य लोगों से किसी चीज़ को प्राप्त करने में कोई कठिनाई होती है तो वह उस चीज़ द्वारा आत्म निर्भर बनने के लिए भिन्न-भिन्न चीजों का निर्माण करते हैं। दूसरी ओर जब बदलाव बहुत अधिक विकसित हो जाता है व प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने स्रोत से अधिक चीजें लेनी आसान हों तो वह व्यक्ति उत्पादन में उस्ताद हो जाता है तथा अपनी फालतू चीज़ों का उन चीज़ों से बदलाव कर लेता है जिनका उत्पादन और लोग कर रहे होते हैं।

4. विभाजन (Distribution)—साधारण व्यक्ति के लिए विभाजन का मतलब चीजों के एक स्थान से दूसरी जगह ले कर जाना तथा उसके बेचने से है। उसके अनुसार हम चीज़ों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा कर बेच देते हैं पर अर्थशास्त्र में लाने व लेकर जाने के लिए इसको एक किस्म के उत्पादन के रूप में लिया जाता है क्योंकि यह वस्तुओं की सुविधा देता है क्योंकि इसमें वस्तुओं की मलकीयत है।

विभाजन वह प्रक्रिया है जिससे किसी आर्थिक वस्तु का कुल मूल्य उन व्यक्तियों में बांटा जाता है जिन्होंने उस चीज़ के उत्पादन में हिस्सा डाला होता है। भिन्न-भिन्न लोगों व समूहों का अपना विशेष योगदान होता है जिस कारण उन्हें इनाम या मुनाफा मिलना चाहिए। जिन लोगों के पास भूमि होती है उनको आर्थिक क्रिया प्राप्त होती है। मज़दूर को मज़दूरी या तनख्वाह प्राप्त होती है जो व्यक्ति कारखाने बनाता है, उसमें निवेश करने व उसको चलाने के लिए पैसा देता है उसको उद्यमी कहते हैं। उसको पैसा लगाने का मुआवज़ा ब्याज के रूप में प्राप्त होता है। सरकार का भी उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा होता है व वह अपना मुआवज़ा कर के रूप में लेती है। इतना ।

सब कुछ देने के बाद जो कुछ बचता है उसको उद्यमी या प्रबन्धक बोर्ड लाभ के रूप में रख लेता है।
छोटा व्यापार चलाना काफ़ी साधारण मामला है। यदि छोटा व्यापारी ही प्राकृतिक साधनों, पूंजी व मज़दूरी का, आय का प्रबन्ध करता है तो कर को छोड़ कर बाकी सारी आय उस की होती है। इस प्रकार के मामले में किराया, तनख्वाह, लाभ व ब्याज वही छोटा व्यापारी ही प्राप्त करता है। इस बात का यहां कोई भी महत्त्व नहीं होता कि वह व्यक्ति अपनी आमदन के किस भाग को लाभ, तनख्वाह या ब्याज के रूप में मानता है।

पर आजकल की आधुनिक जटिल अर्थव्यवस्था में बड़े व्यापारिक आकार में विभाजन बहुत बड़ी समस्या होती है। उत्पादन की प्रक्रिया में कई कारक होते हैं व प्रत्येक कारक के मालिक भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रत्येक मालिक अपने लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा प्राप्त करने की कोशिश करता है। मजदूर को अधिक तनख्वाह चाहिए होती है। पूंजीपति को अधिक ब्याज चाहिए होता है। उद्यमी उसको कम देना चाहता है क्योंकि इन्हें कम देने से उसका

लाभ बढ़ जाएगा। प्रबन्धकों से मजदूरों में संघर्ष भी लाभ का विभाजन कारण ही होता है। एक का लाभ दूसरे का नुकसान होता है। जब मज़दूरों, प्रबन्धकों व पूंजीपतियों में अधिक लाभ प्राप्त करने की होड़ लग जाती है तो लोग इनके बीच के झगड़े का उपाय ढूंढने में लग जाते हैं ताकि इनका समझौता हो जाए व समाज को अधिक उत्पादन प्राप्त होता रहे। इस प्रकार आर्थिक संस्थाओं के मुख्य कार्य चीज़ों का उत्पादन, उपभोग, विनिमय व विभाजन है।

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प्रश्न 2.
पूंजीवाद के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तार सहित लिखो।
उत्तर-
पूंजीवाद एक आर्थिक व्यवस्था है जिसमें निजी सम्पत्ति की बहुत महत्ता होती है। पूंजीवाद एक दम से ही किसी स्तर पर नहीं पहुंचा बल्कि उसका धीरे-धीरे विकास हुआ है। इसके विकास को देखने के लिए हमें इसका अध्ययन आदिम समाज में करना होगा।

आदिम समाज में वस्तुओं के लेन-देने की व्यवस्था आदान-प्रदान बदलने की व्यवस्था थी। उस समय लाभ (Profit) का विचार प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आया था। लोग चीज़ों के लाभ के लिए एकत्र नहीं करते थे बल्कि उन दिनों के लिए एकत्र करते थे जब चीज़ों की कमी होती थी या फिर सामाजिक प्रसिद्धि के लिए एकत्र करते थे। व्यापारिक व्यवस्था आमतौर पर सेवा व चीज़ों के देने पर निर्भर करती थी। आर्थिक कारक जैसे कि मजदूरी, निवेश, व्यापारिक लाभ के बारे में आदिम समाज को पता नहीं था।

मध्यमवर्गी समाज में व्यापार व वाणिज्य थोड़े से उन्नत हो गए। चाहे शुरू में व्यापार आदान-प्रदान की व्यवस्था पर आधारित था पर धीरे-धीरे पैसा व्यापार करने का एक माध्यम बन गया। इसी ने व्यापार व वाणिज्य को एक प्रकार का उत्साह दिया जिस कारण पैसे, सोना, चांदी व टैक्स की महत्ता बढ गई। पैसा चाहे सम्पत्ति नहीं था, पर यह सम्पत्ति का सूचक था। इसका उत्पादक शक्तियों के लक्षणों पर पूरा प्रभाव था। सिमल के अनुसार पैसे की ‘संस्था के आधुनिक पश्चिमी समाज में व्यवस्थित होने के कारण ज़िन्दगी के हर भाग पर बहुत गहरे प्रभाव पड़े। इसने मालिक व नौकर को आजादी दी वस्तुओं तथा सेवाओं के बेचने तथा खरीदने वाले पर भी असर पड़ा क्योंकि इससे व्यापार के दोनों ओर से रस्मी रिश्ते पैदा हो गए। सिमल के अनुसार पैसे ने हमारी ज़िन्दगी की फिलासफ़ी में बहुत परिवर्तन ला दिए। इसने हमें Practical बना दिया। क्योंकि अब हम प्रत्येक चीज़ को पैसे में तोलने लग पड़े। समाज सम्पर्क, सम्बन्ध औपचारिक तथा अव्यक्तक हो गए। मानवीय सम्बन्ध भी ठण्डे हो गए।

आधुनिक समय के आरम्भिक दौर में आर्थिक गतिविधियां आमतौर पर सरकारी ताकतों द्वारा संचालित होती थीं। इससे हमें यूरोपीय लोगों के राज्य की सरकार अधीन इकट्ठे होकर आगे बढ़ने का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। इस समय में आर्थिक गतिविधियां राजनैतिक सत्ता द्वारा संचालित हैं। ताकि राज्य का लाभ तथा खज़ाना बढ़ सके। देश व्यापारियों की देख-रेख में चलता था तथा व्यापारी एक आर्थिक संगठन की भान्ति लाभ कमाने में लगे हुए हैं। उत्पादक शक्तियां भी व्यापारिक कानून द्वारा संचालित होती हैं। – इसके पश्चात् औद्योगिक क्रान्ति आई जिसने उत्पादन के तरीकों को बदल दिया। व्यापारिक नीतियां लोगों का भला करने में असफल रहीं जिसका चीज़ों के उत्पादन करने के लिए (Laissez faire) की नीति अपनाई गई। इस नीति के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हित देख सकता था। उस पर कोई बन्धन नहीं था। राज्य ने आर्थिक कार्य में दखल देना बन्द कर दिया। समनर के अनुसार राज्य के व्यापार व वाणिज्य पर लगे सारे प्रतिबन्ध हटा लेने चाहिएं व उत्पादन, आदान-प्रदान व पैसे को इकट्ठा करने पर लगी सभी पाबन्दियां हटा लेनी चाहिएं। एडम स्मिथ ने इस समय चार सिद्धान्तों का वर्णन किया।

  1. व्यक्तिगत हित की नीति।
  2. दखल न देने की नीति।
  3. प्रतियोगिता का सिद्धान्त।
  4. लाभ को देखना।

इन सिद्धान्तों का उस समय पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। इन नियमों के प्रभाव अधीन व औद्योगिक क्रान्ति के कारण सम्पत्ति व उत्पादन की मलकीयत की नई व्यवस्था सामने आई जिसको पूंजीवाद का नाम दिया गया। औद्योगिक क्रान्ति के कारण घरेलू उत्पादन कारखानों के उत्पादन में बदल गया। कारखानों में काम छोटे-छोटे भागों में बंटा होता था तथा प्रत्येक मज़दूर थोड़ा या छोटा सा काम करता था। इससे उत्पादन बढ़ गया। समय के साथ-साथ बड़ेबड़े कारखाने लग गए। इन बड़े कारखानों के मालिक निगम वजूद में आ गए। पूंजीवाद के साथ-साथ श्रमविभाजन, विशेषीकरण व लेन-देन भी पहचान में आया। इस उत्पादन व लेन-देन की व्यवस्था में उत्पादन के साधन के मालिक व्यक्तिगत लोग थे और उन पर कोई सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं थी। सम्पत्ति बिल्कुल निजी थी तथा वह राज्य, धर्म, परिवार व अन्य संस्थाओं की पाबन्दियों से स्वतन्त्र थे। फैक्टरियों के मालिक कुछ भी करने को स्वतन्त्र थे। उनका उद्देश्य केवल लाभ था।

उन पर बिना लाभ की चीजों का उत्पादन करने का कोई बन्धन नहीं था। उत्पादन का तरीका लाभ वाला था और सरकार ने दखल न देने की नीति अपनाई तथा इस दिशा में मालिक का साथ दिया।

पूंजीवाद के लक्षण (Features of Capitalism) –

1. बड़े स्तर पर उत्पादन (Large Scale Production)-पूंजीवाद का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है उत्पादन का बढ़ना। उद्योगों के लगने से उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। पूंजीवाद औद्योगिक क्रान्ति के कारण आया जिस कारण बड़े स्तर पर उत्पादन मुश्किल हुआ। बड़े-बड़े कारखानों व श्रम-विभाजन पर विशेषीकरण के बढ़ने से उत्पादन भी बढ़ गया। अधिक उत्पादन का अर्थ था पूंजी का बड़े स्तर पर उपयोग और बहुत अधिक फ़ायदा।

2. निजी सम्पत्ति (Private Property)—निजी सम्पत्ति आधुनिक समाज व आधुनिक आर्थिक जीवन का आधार है। यह पूंजीवाद का ही आधार है। पूंजीवाद में प्रत्येक व्यक्ति को कमाने का हक तथा सम्पत्ति को रखने का अधिकार है। सम्पत्ति रखने के हक को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में देखा जाता है। निजी सम्पत्ति के कारण ही बड़े-बड़े कारखाने, उद्योग, निगम कार्य प्रणाली में आए व पूंजीवाद बढ़ा।

3. प्रतियोगिता (Competition)-पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतियोगिता एक ज़रूरी तत्त्व के परिणाम है। पूंजीवाद में भिन्न-भिन्न पूंजीपतियों में बहुत अधिक मुकाबला देखने को मिलता है। मांग को नकली तौर पर बढ़ाकर व पूर्ति को घटा दिया जाता है व पूंजीवाद में कठिन मुकाबला होता है। इस मुकाबले में बड़े पूंजीपति जीत जाते हैं व छोटे पूंजीपति हार जाते हैं।

4. लाभ (Profit)-मार्क्स के अनुसार लाभ के बिना पूंजीवाद नहीं टिक सकता। पूंजीपति बड़े पैमाने पर पूंजी का निवेश करता है ताकि लाभ कमाया जा सके। पूंजीवाद में उत्पादन लाभ के लिए किया जाता है ना कि समाज कल्याण या समाज की ज़रूरतें पूरी करने के लिए।

5. कीमत प्रणाली (Price System)-पूंजीवाद में मुख्य उद्देश्य अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करना होता है। किसी चीज़ की कीमत उस पर लगी लागत के आधार पर नहीं बल्कि उस चीज़ की मांग के आधार पर निर्धारित होती है। इसी प्रकार मजदूरों की मज़दूरी भी उनकी मांग के अनुसार निश्चित होती है। उस काम की कीमत अधिक होती है जिसकी बाज़ार में मांग अधिक होती है। चीज़ की कीमत उसकी बाज़ार में मांग के आधार पर निर्धारित होती है। इसी प्रकार श्रम की कीमत भी उनकी मांग के अनुसार कारखाने में ही निर्धारित होती है।

6. मुद्रा और उधार (Money and Credit)-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पैसे व उधार की बहुत महत्ता होती है। पूंजीपति कर्जे लेते हैं व अपने उत्पादन व व्यापार को बढ़ाते हैं। यह उधार साहूकारों, बैंकों आदि से लिए जाते हैं। इस कर्जे से वह उत्पादन बढ़ाते हैं। इस कर्जे का उन्हें ब्याज़ भी देना पड़ता है।

7. मज़दूरी (Wages)-पूंजीवाद में मजदूर की दशा बहुत ही असुविधाजनक होती है। पूंजीपति का मज़दूरों के प्रति एक ही उद्देश्य होता है व वह है कम-से-कम पैसे देकर अधिक-से-अधिक काम लिया जा सके। मज़दूरों का पूंजीवाद में शोषण होता है।

प्रश्न 3.
राज्य का क्या अर्थ होता है ? इसके परिभाषाओं सहित वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय राज्य है पर राज्य का प्रयोग कई रूपों में किया जाता है जिसके कारण एक आम आदमी को राज्य के अर्थ का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। आमतौर पर राज्य, समाज, सरकार और राष्ट्र में अन्तर नहीं किया जाता और इन शब्दों का अर्थ एक ही लिया जाता है। आम नागरिक के लिए राज्य और सरकार में कोई अन्तर नहीं है। इसी तरह राज्य का प्रयोग राष्ट्र के स्थान पर किया जाता है पर राजनीति शास्त्र की दृष्टि से यह ग़लत है। इन शब्दों का अर्थ राजनीति शास्त्र में अलग-अलग है। कई बार एक संघ (Federation) और उसकी इकाइयों के लिए भी राज्य शब्द प्रयोग किया जाता है। जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका को भी राज्य कहा जाता है और उसकी इकाइयों के लिए भी राज्य शब्द प्रयोग किया जाता है। इसी तरह भारत को भी राज्य कहा जाता है और इसकी इकाइयां-पंजाब, बंगाल, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश को भी राज्य ही कहा जाता है पर असलियत यह है कि संघ की इकाइयां राज्य नहीं हैं और उनके लिए राज्य शब्द प्रयोग करना ग़लत है। इसलिए राज्य शब्द का ठीक-ठाक अर्थ जानना ज़रूरी है।

राज्य शब्द की उत्पत्ति (Etymology of the world ‘state’) राज्य शब्द को अंग्रेजी में स्टेट (State) कहा जाता है। स्टेट (State) शब्द लातीनी भाषा के स्टेटस (Status) शब्द से लिया गया है। स्टेटस (Status) शब्द का अर्थ है किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर। प्राचीन काल में राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं समझा जाता था। इसलिए राज्य शब्द का प्रयोग सामाजिक दर्जे को बताने के लिए किया जाता था पर धीरे-धीरे इसका अर्थ बदल गया। और इसका अर्थ सिस्रो (Cicero) के समय तक सारे समाज के दर्जे के साथ हो गया। आधुनिक अर्थ में इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले इटली के प्रसिद्ध राजनीतिक मैकाइवली (Machiaveli) ने किया। उसने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग ‘राष्ट्र राज्य’ के लिए किया। मैकाइवली (Machiaveli) ने अपनी पुस्तक ‘The Prince’ में लिखा है “वह सब शक्तियां’ जिन पर लोगों का अधिकार होता है राज्य (State) होते हैं और वह राज्यतन्त्री या गणतन्त्री होते हैं।” (“All the powers which have had and have authority over man are states (state) and are either monarchies or republic.”) प्रो० बार्कर (Barker) ने लिखा है, “राज्य शब्द जब 16वीं सदी में शुरू हुआ इटली से अपने साथ महान् राज्य या महानता का अर्थ भी लिखवाया जो किसी व्यक्ति या समुदाय में छुपा होता है।”

राज्य एक सम्पूर्ण समाज का हिस्सा है। यद्यपि यह सामाजिक जीवन के सारे पक्षों को प्रभावित करता है पर फिर भी यह समाज का स्थान नहीं ले सकता। राज्य एक ऐसी एजेंसी है जो समाजिक समितियों को नियन्त्रित करती है। राज्य समाज के सारे पक्षों को प्रभावित करता है और उनमें तालमेल बिठाकर रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

  • हॉलैंड (Holland) के अनुसार, “राज्य मनुष्यों के उस समूह को कहते हैं जो आमतौर पर किसी निश्चित प्रदेश पर बसा हो, जिसमें बहु-संख्यक दल या किसी निश्चित वर्ग का फैसला उस वर्ग या दल की शक्ति के द्वारा समूह के उन व्यक्तियों से ही स्वीकार करवाया जा सके जो इसका विरोध करते हैं।”
  • बोदिन (Bodin) के अनुसार, “राज्य सम्पत्ति सहित परिवारों का एक संघ है जो किसी उच्च शक्ति और नियमों द्वारा शासित हो।”
  • मैकाइवर (Maciver) के अनुसार, “राज्य एक ऐसी समिति है जो कानून द्वारा शासन व्यवस्था को चलाती है और जिसको एक निश्चित भू-भाग में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होता है।”
  • वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) के अनुसार, “लोगों के किसी भूमि भागों में कानून के लिए संगठित होने को ही राज्य कहा जाता है।”
  • ऐंडरसन और पार्कर (Anderson and Parkar) के अनुसार, “राज्य समाज में वह समिति है जो निश्चित भू-भाग में सत्ता का प्रयोग कर सकती है।”

इस तरह इन परिभाषाओं के अध्ययन से हम यह कह सकते हैं कि राज्य एक ऐसे लोगों का समूह है जो कि निश्चित भू-भाग में होता है, अर्थात् उसका अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है, जिसकी एक सरकार होती है, जिसकी मदद के साथ राज्य अपने काम करता है, अपने हुक्म मनवाता है और जनसंख्या पर नियन्त्रण रखता है और जिसकी अपनी प्रभुसत्ता होती है। प्रभुसत्ता से मतलब है कि वह किसी बाहरी दबाव से मुक्त होता है। उस पर किसी किस्म का दबाव नहीं होता। राज्य अपनी सीमाओं की बाहरी हमले से रक्षा करता है और यदि उसके अन्दर ही बगावत होती है तो वह उसको दबाने के लिए भौतिक शक्ति, जो उसके पास होती है सरकार तथा पुलिस के रूप में, का भी प्रयोग करता है।

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प्रश्न 4.
राज्य के अलग-अलग तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
डॉ० गार्नर के अनुसार राज्य के चार तत्त्व हैं-
(1) मनुष्यों का एक समुदाय।
(2) एक प्रदेश जिसमें वह स्थाई रूप से रहते हों।
(3) अन्दरुनी और बाहर की प्रभुसत्ता।
(4) राजनीतिक संगठन। गैटेल ने भी राज्य के चार तत्त्व बताएं हैं। वह चार तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. जनसंख्या (Population)
  2. निश्चित भूमि (Fixed territory)
  3. सरकार (Government)
  4. प्रभु-शक्ति (Sovereignty)

1. जनसंख्या (Population)-राज्य का मुख्य तत्त्व जनसंख्या है। राज्य पशु-पक्षियों का समूह नहीं है। वह मनुष्यों की एक राजनीतिक संस्था है। बिना जनसंख्या के राज्य की स्थापना की तो दूर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस तरह बिना पति-पत्नी के परिवार, मिट्टी के बिना घड़ा और सूत के बिना कपड़ा नहीं बन सकता, उसी तरह बिना आदमियों के समूह के राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य में कितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है पर राज्य के लिए काफ़ी जनसंख्या होनी चाहिए। दस-बीस आदमी राज्य नहीं बना सकते। गार्नर (Garner) के शब्दों में, “राज्य की हस्ती के लिए जनता रूपी भौतिक तत्त्व की बहुत ज़रूरत है। जनता की कमी में राज्य की कल्पना सम्भव नहीं।”

वर्तमान राज्यों की जनसंख्या को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि राज्य की जनसंख्या निश्चित करनी मुश्किल नहीं बल्कि असम्भव भी है पर फिर भी हम अरस्तु (Aristotle) के इस विचार से सहमत हैं कि राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि राज्य आत्म-निर्भर हो सके और देश का शासन भी अच्छी तरह से चलाया जा सके। असल में राज्य की जनसंख्या इतनी होनी चाहिए कि वहां की जनता सुखी और खुशहाल जीवन बिता सके। उस पर अच्छे ढंग के शासन की स्थापना की जा सके और इसमें एक स्थाई सरकार कायम हो सके।

2. निश्चित भूमि (Fixed territory)-जिस तरह राज्य के लिए जनसंख्या का होना ज़रूरी है उसी तरह निश्चित भूमि का होना भी ज़रूरी है पर कई प्रकार के लेखकों ने इसको राज्य का आवश्यक तत्त्व नहीं माना। जैलीनेक (Jellinek) ने लिखा है, “19वीं सदी से पहले किसी भी लेखक ने राज्य की परिभाषा में भूमि या प्रदेश का ज़िक्र नहीं किया है और क्लूबर पहला लेखक था जिसने 1817 में राज्य के लिए निश्चित भूमि का होना ज़रूरी माना।”

लेखकों के विचार के अनुसार निश्चित भूमि के बिना राज्य नहीं बन सकता। यदि जनता राज्य की आत्मा है तो भूमि उसका शरीर है।
आदमियों का समूह जब तक किसी निश्चित भू-भाग पर नहीं बस जाता उस वक्त तक राज्य की स्थापना नहीं हो सकती।

खाना-बदोश कबीले (Nomadic tribes), जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं, राज्य की स्थापना नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास निश्चित भू-भाग नहीं होता। सन् 1948 से पहले यहूदी सारे संसार में फैले होते हैं पर उनका अपना कोई राज्य नहीं था क्योंकि वह निश्चित भू-भाग पर नहीं रह रहे थे। जब उन्होंने इज़राइल के निश्चित भू-भाग पर रहना शुरू कर दिया तो इज़राइल राज्य बन गया। असल में राज्य का यह तत्त्व राज्य को दूसरे समुदायों से अलग करता है।

3. सरकार (Government)-जनसंख्या तथा भूमि के बाद राज्य की स्थापना के लिए सरकार की ज़रूरत होती है। किसी निश्चित इलाके पर बना आदमियों का समुदाय उस वक्त तक राज्य नहीं कहा जा सकता, जब तक वह राजसी दृष्टि से संगठित न हो। सरकार ही एक ऐसा संगठन है। संस्था (Agency) है जिसकी मदद से राज्य की इच्छा प्रकट होती है और अमल में लाई जाती है। सरकार के बिना जन-समूह संगठित नहीं हो सकता। सरकार द्वारा ही लोगों के आपसी सम्बन्धों को नियमित बनाया जाता है। शान्ति और व्यवस्था को लागू किया जाता है। और बाहर के हमलों से लोगों की रक्षा की जाती है और दूसरे देशों के साथ मित्रता पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करती है। सरकार के बिना जनता में आशान्ति रहेगी। इसलिए राज्य एक अमूर्त संस्था है और सरकार उस अमूर्त संस्था का मूर्त रूप सरकार के माध्यम से हम राज्य के साथ सम्बन्ध कायम कर सकते हैं या राज्य तक पहुँच सकते हैं।

राज्य में सरकार किसी भी किस्म की हो सकती है। भारत, इंग्लैण्ड, स्विट्ज़रलैंड, कैनेडा, फ्रांस, जर्मनी, न्यूजीलैंड आदि देशों में लोकराज्य (Democracy) है जबकि चीन, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, क्यूबा आदि देशों में कम्यूनिस्ट पार्टी की तानाशाही (Dictatorship) है। कुवैत, सऊदी अरब आदि में राज्य तन्त्र (Monarchy) है। कई देशों में संसदीय सरकार (Parliamentary Government) है और कई देशों में अध्यक्षात्मक सरकार (Presidential Government) है । जापान, इंग्लैण्ड, भारत आदि देशों में संसदीय सरकार है जबकि अमेरिका में अध्यात्मक सरकार हैं। कुछ देशों में संघात्मक सरकार है जबकि कुछ देशों में एकात्मक सरकार (Unitary Government) हैं। अमरीका, स्विट्ज़रलैण्ड और भारत में संघात्मक सरकार हैं जबकि जापान इंग्लैण्ड में सरकार एकात्मक है। किसी राज्य में किस किस्म की सरकार हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि सरकारें तो बदल सकती हैं और बदलती रहती हैं। जिस तरह भू-भाग और जनसंख्या के कम या ज्यादा होने के कारण राज्य पर अन्तर नहीं उसी तरह सरकार के स्वरूप में परिवर्तन आने के साथ ही राज्य के स्तर पर असर नहीं पड़ता क्योंकि सरकार का काम तो कानून बनाना, उनका पालन करवाने, लोगों की रखवाली का प्रबन्ध आदि करना है।

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)-प्रभुसत्ता राज्य के लिए चौथा ज़रूरी तत्त्व हैं। जनता के समूह के लिए एक निश्चित भू-भाग रहने और सरकार का होना ही राज्य के लिए जरूरी नहीं। प्रभुसत्ता के बिना राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। प्रभु शक्ति को अंगेज़ी में (Sovereignt) कहते हैं जो कि लातीनी भाषा के शब्द ‘सुपरेन्स’ (Superanus) से निकला है जिसका अर्थ है ‘सर्वोच्च’ Supreme । इस तरह प्रभुसत्ता (Sovereignt) का अर्थ हुआ राज्य की सर्वोच्च शक्ति राज्य के पास अधिकार होते हैं, कोई भी उसके विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकता। प्रभुसत्ता के कारण ही राज्य का अपने सारे नागरिकों और उनकी संस्थाओं पर उसका पूरा नियन्त्रण होता हैं और भू-भाग से बाहर की किसी भी शक्ति के अधीन नहीं रहता।

इस तरह राज्य की स्थापना के लिए चार तत्त्वों की जरूरत है और चारों तत्त्वों में से कोई एक तत्त्व न हो तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। इन चारों तत्त्वों के बिना प्रो० विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “राज्य के लिए यह और ज़रूरी तत्त्व प्रजा द्वारा आज्ञा पालना की भावना है, पर हमारे विचार के अनुसार जब राज्य में चार तत्त्व हों तो प्रजा में आज्ञा पालन की भावना ज़रूर होती है और किसी राज्य के लोगों में आज्ञा पालन की भावना नहीं हैं तो वह राज्य जल्दी नष्ट हो जाता है।”

प्रश्न 5.
राज्य की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. स्थिरता (Permanence)—इसका अर्थ यह है कि राज्य एक स्थाई संगठन है। इसका अर्थ गार्नर (Garner) के शब्दों में यह है, “जो लोग एक बार राज्य के तौर पर संगठित हो जाते हैं, हमेशा किसी न किसी राज्य संगठित के अधीन होते हैं।” यदि किसी कारण एक राज्य में दूसरे राज्य का हिस्सा शामिल हो जाए तो या कट जाए तो इसके कारण राज्य की कानूनी हस्ती पर कोई असर नहीं पड़ता। युद्ध पर किसी सन्धि के कारण कई बार कई राज्य खत्म हो जाते हैं या किसी और राज्य में शामिल कर लिए जाते हैं पर ऐसा होने पर प्रभुसत्ता का परिवर्तन होता है अर्थात् प्रभुसत्ता एक राज्य से दूसरे राज्य के पास चली जाती है पर जनता राज्य में ही रहती है, चाहे वह दूसरा राज्य ही हो।

2. निरन्तरता (Continuity) राज्य का सिलसिला निरन्तर बना रहता है। राज्य की सरकार के रूप में परिवर्तन आने पर राज्य पर कोई असर नहीं पड़ता। एक राज्य की सरकार राजतन्त्र से बदलकर गणतंत्र बन जाए और निरंकुश शासन से लोक-राज्य बन जाए तो इन परिवर्तनों के कारण राज्य की एकरूपता या उसकी अन्तर्राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी पर कोई असर नहीं पड़ता। यह सिद्धान्त राज्य की निरंतरता का सिद्धान्त है और इसी सिद्धान्त के कारण राज्य की विरासत के सिद्धान्त का जन्म हुआ है।

3. सर्वव्यापकता (All Comprehensiveness)-सर्व-व्यापकता का अर्थ यह हैं कि राज्य की प्रभुसत्ता अपने भू-भाग पर रहने वाले व्यक्ति, संस्था और चीज़ पर लागू होती है। कोई भी व्यक्ति, समुदाय या संस्था राज्य के नियन्त्रण से नहीं बच सकती। यह बात अलग है कि अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टाचार के नाते या अन्तर्राष्ट्रीय कानून के सर्वमान्य सिद्धान्तों का आदर करते हुए राज्य अपने आदेशों को कुछ व्यक्तियों पर लागू न कर सके। यह लक्षण असल में अंदरूनी प्रभु-शक्ति में छुपा हुआ है।

4. राज्य समाज की सबसे शक्तिशाली संस्था है (It is an powerful institution of society)-राज्य समाज की सबसे शक्तिशाली संस्था है क्योंकि इसके पास अपनी आज्ञा मनवाने के साधन होते हैं चाहे यह साधन रस्मी होते हैं जैसे-पुलिस, कानून, सरकार आदि, पर इनकी मदद से राज्य समाज की सारी और संस्थाओं पर नियन्त्रण रखता है और सभी को आज्ञा देकर सूत्र में बांधकर रखता है।

5. राज्य के पास वास्तविक शक्तियां और प्रभुसत्ता (State has original powers and Sovereignty)यह राज्य ही है जिस के पास वास्तविक शक्तियां होती हैं चाहे यह शक्तियां आगे बंटी होती हैं, पर यह होती राज्य की हैं। असल में राज्य की सारी शक्तियां सरकार इस्तेमाल करती है पर करती राज्य के नाम पर है। सरकार ऐसा कुछ नहीं कर सकती जो राज्य के विरुद्ध जाए। राज्य के पास अपनी प्रभुसत्ता होती है। सरकार भी आज़ाद होती है पर असल में राज्य अपने आप में स्वतन्त्र होता है और यह किसी के अधीन रह कर काम नहीं करता।

6. राज्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करता है (State takes care of Public Interest)-राज्य का एक प्रमुख लक्षण है उसकी जनसंख्या। यह राज्य के लिए ज़रूरी है कि उसकी जनसंख्या हो और वह जनसंख्या सुखी हो। यदि जनसंख्या सुखी नहीं है तो उस राज्य का होना न होना एक बराबर है इसके लिए यह ज़रूरी है कि राज्य लोगों के भले के लिए काम करे और राज्य करता भी है। राज्य किसी खास व्यक्ति या समूह के हितों की रक्षा भी करता है और उनका भला करने की कोशिश करता है ।

7. राज्य अपने आप में एक उद्देश्य है (State is an end itself)-राज्य अपने आप में एक उद्देश्य है और सरकार उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन है। राज्य की सत्ता और शक्ति सब से ऊंची है और कोई भी राज्य से ऊंचा नहीं है। सरकारें आती रहती हैं, और बदलती रहती हैं पर राज्य अपने स्थान पर खड़ा रहता है।

8. राज्य अमूर्त होता है (State is abstract)-राज्य एक अमूर्त शब्द है। हम राज्य को देख या स्पर्श नहीं सकते पर हम राज्य को और राज्य की शक्ति को महसूस कर सकते हैं। हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि यह किस तरह का होगा । उदाहरण के तौर पर भारत माता की हम कल्पना कर सकते हैं पर हमने इसको देखा. नहीं है। हम इसको स्पर्श नहीं सकते। इसी तरह ही राज्य भी अमूर्त होता है।

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प्रश्न 6.
राज्य के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
आधुनिक राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का कल्याण करना है। राज्य व्यक्ति के विकास के लिए काम करता है। प्रो० गैटेल और विलोबी ने राज्य के कार्यों को दो हिस्सों में बांटा है-आवश्यक कार्य और इच्छुक कार्य।

आवश्यक कार्य (Compulsory Functions)-

1. बाहरी हमलों से सुरक्षा (Protection from External Aggression)-राज्य अपने नागरिकों की बाहरी हमलों से रक्षा करता है, जो बाहरी हमलों से रक्षा नहीं कर सकता, वह राज्य खत्म हो जाता है। यदि नागरिकों का जीवन बाहरी हमलों से सुरक्षित नहीं है तो नागरिक अपने जीवन का विकास करने के लिए प्रयत्न नहीं करेंगे। राज्य अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सेना का प्रबन्ध करता है। अन्दरूनी शान्ति की स्थापना के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है।

2. कर लगाना (Taxation)-मुद्रा निश्चित करना, कर लगाना और इकट्ठा करना राज्य का ज़रूरी काम है। बिना कर लगाए राज्य का काम नहीं चल सकता। जिस राज्य की आमदन कम होगी वह नागरिकों की सहूलियत के लिए उतने ही कम काम करेगा। एक अच्छे राज्य की आय काफ़ी होनी चाहिए पर कर वही लगाने चाहिएं जो उचित हों।

3. जीवन एवं सम्पत्ति की रक्षा करना (Protection of Life and Property) लोगों के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करना राज्य का ज़रूरी काम है। राज्य को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके साथ किसी भी व्यक्ति को अपनी जान का ख़तरा न हो। राज्य को सम्पत्ति के बारे में भी निश्चित कानून बनाने चाहिए। जीवन और सम्पत्ति की रक्षा के लिए राज्य पुलिस का प्रबन्ध करता है जो चोरों, और अपराधियों से व्यक्तियों की रक्षा करती है।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा (Protection of Civil Rights – प्रत्येक राज्य के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार मिले होते हैं जैसे-जीने का अधिकार, रोटरी कमाने का अधिकार, सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार । इस तरह के अधिकारों की वकालत ता कांयुक्त राष्ट्र (United Nation) भी करता है। यदि व्यक्ति के पास यह अधिकार न हों तो उसका जीवन नर्क बन जाए। इस तरह यह राज्य का कर्तव्य है कि वह नागरिकों के इन अधिकारों की रक्षा करे और इसके लिए उचित कानुन बनाए। जो इन अधिकारों को किसी से छीनने की कोशिश करे तो उसको सज़ा दिलवाना भी सरकार का ही काम होता है।

5. कानन और व्यवस्था की स्थापना करना (Maintenance of law and order)-देश में कानून और व्यवस्था की स्थापना करना राज्य का महत्त्वपूर्ण काम है। अपराधों को रोकना, अपराधियों को दण्ड देना, जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए राज्य कानूनों का निर्माण करता है और कानूनों को लागू करता है। पुलिस की व्यवस्था की जाती है ताकि काना तोड़ने वालों को पकड़ा जा सके और उनको सज़ा दी जा सके।

6. न्याय का प्रबन्ध (Administration Judiciary)-जिस राज्य में न्याय की व्यवस्था सर्वोत्तम होती है उसी राज्य को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उत्तम न्याय व्यवस्था का अर्थ है कि गरीब-अमीर, निर्बल-शक्तिशाली, अनपढ़ और पढ़े-लिखे में किसी तरह के अन्तर का होना अर्थात् कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होने चाहिएं। हर एक राज्य न्यायपालिका की स्थापना करता है। न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना अति ज़रूरी है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही निष्पक्ष फ़ैसला दे सकती है। इस स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना करना राज्य का आवश्यक तत्त्व है।

7. परिवारों के सम्बन्धों को स्थिर रखना (Maintenance of family relations)-परिवार पूरे समाज का केन्द्र बिन्दु है। इसके कारण यह सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। इसलिए राज्य का कर्तव्य है कि यह पिता और पुत्र, पति-पत्नि, भाई-बहन और बाकी परिवार के आपसी सम्बन्धों की और उनके पारिवारिक अधिकारों और कर्त्तव्यों की व्याख्या करके उनके सम्बन्ध में कानून बनाए।

ऐच्छिक कार्य (Optional Functions)-

1. कृषि की उन्नति (Development of Agriculture)—वर्तमान राज्य कृषि की उन्नति के लिए काम करता है। जिस देश में अन्न की समस्या रहती है उस राज्य को दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे कई बार उनको विदेशी राज्यों की अनुचित मांगों को भी मानना पड़ता है। सरकार किसानों को अच्छे बीज, ट्रैक्टर, खाद और कर्जा देने की सहूलियत प्रदान करती है। सिंचाई के साधनों का उचित प्रबन्ध करना राज्य का काम है।

2. मनोरंजन के साधनों का प्रबन्ध करना (To provide Recreational Facilities)-वर्तमान राज्य नागरिकों के मनोरंजन का प्रबन्ध करता है। इसके लिए राज्य सिनेमा, नाटक घरों, कला केन्द्रों, तालाबों, पार्कों, होटलों आदि की स्थापना करता है। राज्य अच्छे कलाकारों और साहित्यकारों को पुरस्कार भी देता है।

3. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-वर्तमान राज्य का महत्त्वपूर्ण काम शिक्षा का प्रसार करना है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रसार धार्मिक संस्थाएं करती थीं। परन्तु कोई भी राज्य शिक्षा को धर्म प्रचारकों की इच्छा पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो सकता। शिक्षा से मनुष्य को अपने अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षा के बिना नागरिक आदर्श नागरिक नहीं बना सकता और न ही अपनी शख्सीयत का विकास कर सकता है। लोकतान्त्रिक राज्यों में शिक्षा का महत्त्व और भी ज्यादा है क्योंकि प्रजातन्त्र सरकार की सफलता नागरिकों पर निर्भर करती है। हर एक राज्य शिक्षा के प्रसार के लिए स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना करता है। ग़रीब विद्यार्थियों को वज़ीफे दिए जाते हैं और शिक्षा के लिए सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।

4. समाजिक और नैतिक सुधार (Social and Moral Reforms)-वर्तमान राज्य अपने नागरिकों के समाजिक और नैतिक स्तर को ऊँचा करने के लिए काम करता है। भारत में सती प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, छुआछूत आदि अनेक बीमारियां थीं, जिनको कानूनों द्वारा स्थापित किया गया है। अफ़ीम खाना और शराब पीने को अच्छा नहीं समझा जाता था। क्योंकि इससे सेहत खराब हो जाती है। इसलिए कई राज्यों में शराब पीने और अफ़ीम खाने की मनाही है। परन्तु अब इसका प्रयोग कम हो गया है क्योंकि राज्य ने अनेक पाबन्दियां लगाई हैं।

5. संचार के साधनों की उन्नति (Development of the means of communication)–नागरिक खुद संचार साधनों का विकास नहीं कर सकता। संचार के साधनों का विकास राज्य द्वारा ही किया जाता है। राज्य रेलवे, सड़कों, तार-घर, डाक-घर रेडियो आदि की स्थापना करता है। __6. सार्वजनिक उपयोगी काम (Public Utility Works)-वर्तमान राज्य सार्वजनिक उपयोगी काम भी करता है। राज्य नई सड़कों का निर्माण करता है और पुरानी सड़कों की मुरम्मत करता है। बिजली का प्रबन्ध भी इसके द्वारा ही किया जाता है। हवाई जहाज़ और समुद्री जहाज़ का प्रबन्ध आमतौर पर राज्य ही किया करता है। टैलीफोन की व्यवस्था राज्य द्वारा ही की जाती है।

प्रश्न 7.
पंचायत के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
पंचायत भारत में स्थानीय स्वैःशासन की पुरातन संस्था है, जो देश में बहुत सारी सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियों और परिवर्तनों के होते हुए भी स्थिर रही है। चालर्स मेटकॉफ (Charles Metcalf) के शब्दों में, ‘ग्रामीण भाईचारे छोटे गणतंत्र होते हैं जो अपनी सीमाओं में रहते हुए अपनी इच्छा के अनुसार जो चाहे कर सकते हैं बाह्य हस्तक्षेप से स्वतन्त्र होते हैं। वह निरन्तर स्थिर चलते आ रहे हैं। खानदान के बाद खानदान की समाप्ति हुई ; क्रान्तियों के बाद क्रान्तियां आईं, पर ग्रामीण समुदायों (Village Communities) ने अलग राज्य के रूप में देश की बहुत सहायता की है।”

पंचायत की रचना (Composition of Panchayat)- पंचायत के सदस्यों की संख्या और चुनाव (Number and Election of Members of Panchayat)—पंचायत के सदस्यों को पंच और इसके प्रधान को सरपंच कहा जाता है। प्रत्येक राज्य में पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के बालिग सदस्यों अर्थात् 18 साल के प्रत्येक पुरुष और स्त्री जिनका नाम राज्य विधान सभा के चुनाव के लिए बनाई गई वोटर सूची में दर्ज है, वह ग्राम पंचायत के सदस्यों के चुनाव के समय वोट देने के हकदार होते हैं। इस तरह पंचायत के सदस्यों का चुनाव सीधे तौर पर किया जाता है। पंचायत के सदस्यों की संख्या ग्राम सभा की आबादी पर निर्भर करती है। भिन्नभिन्न राज्यों में ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न है।

सीटों का आरक्षण (Reservation of Seats)-73वें संवैधानिक संशोधन कानून, 1992 के अन्तर्गत सभी राज्यों ने अपने राज्य एक्टों द्वारा, पंचायत राज्य की सभी संस्थाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित कबीलों, पिछड़ी श्रेणियों और स्त्रियों के लिए कुछ सीटें आरक्षित रखने के लिए व्यवस्था की है।

पंचायत के सदस्यों के लिए योग्यताएं (Qualifications for the members of a Panchayat)(1) वह भारत का नागरिक हो, उसको विधान सभा का सदस्य चुने जाने के लिए आवश्यक सभी योग्यताएं प्राप्त हों। (2) वह उस पंचायत क्षेत्र का प्रवासी हो। (3) उसकी आयु 25 साल से कम न हो। (4) वह स्थानिक सरकार या राज्य सरकार या केन्द्र सरकार का कर्मचारी न हो। (5) उसके दिवालिया होने का ऐलान किसी अदालत द्वारा न किया गया हो। (6) वह किसी अपराध में सज़ा न झेल चुका हो, या जिसकी सज़ा को खत्म हुए साल का समय बीत चुका हो।

सरपंच या चेयरपर्सन (Sarpanch or Chairperson)-ग्राम पंचायत के मुखी को सरपंच या चेयरपर्सन कहा जाता है। भिन्न-भिन्न राज्यों मे इसको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। सरपंच की चुनाव प्रणाली भी एक जैसी नहीं है। ज्यादातर राज्यों में इसका चुनाव सीधे तौर पर किया जाता है। अर्थात् ग्राम सभा के सदस्य जिनको वोट देने का अधिकार प्राप्त है और जो ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करते हैं, वह वोटर ही ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव भी करते हैं। यह प्रणाली बिहार, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश, आसाम, मणिपुर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में प्रचलित है। कुछ राज्यों में सरपंच का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर किया जाता है अर्थात् ग्राम पंचायत के सदस्य अपने में से ही एक व्यक्ति को सरपंच चुन लेते हैं। ऐसी प्रणाली कर्नाटक, केरल, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश में प्रचलित है। हर एक जिले की पंचायतों में सरपंचों के लिए कुछ सीटें अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित कबीलों के व्यक्तियों के लिए, जिले में इन जातियों तथा कबीलों की आबादी के अनुपात के अनुसार आरक्षित रखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त हर एक ज़िले की पंचायतों के सरपंचों की सीटों में से एक-तिहाई सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी जाती हैं। कुछ राज्यों में सरपंचों की कुछ सीटें पिछड़ी श्रेणियों के लिए भी आरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है।

ग्राम पंचायत के कार्य (Functions of Gram Panchayat) ग्राम पंचायत के कई कार्य होते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया है

(i) सार्वजनिक कार्य (Public Functions)—पंचायत के सार्वजनिक कार्य इस प्रकार हैं-

  • अपने क्षेत्र की सड़कों की देखभाल करना, उनकी मुरम्मत करना।
  • गांव की सफ़ाई करना।
  • कुएँ, नल, तालाबों आदि की व्यवस्था करना।
  • गलियों एवं बाजारों में रोशनी का प्रबन्ध करना।
  • शमशानों और कब्रिस्तानों की निगरानी करना।
  • जन्म और मृत्यु का हिसाब रखना।
  • प्राइमरी शिक्षा के लिए यत्न करना।
  • ग्राम सभा से सम्बन्धित किसी भी इमारत की सुरक्षा करना।
  • पशुओं की मण्डी लगवाना और पशुओं की नस्ल में सुधार करना।
  • मेले और त्यौहारों के अतिरिक्त सामाजिक त्यौहारों को मनाना।
  • नए मकान का निर्माण और बनी हुई इमारतों में परिवर्तन या विस्तार करने और कंट्रोल करना।
  • खेती, व्यापार और ग्राम उद्योग के विकास में सहायता देना।
  • सार्वजनिक इमारतों की स्थापना और उनकी देखभाल और मुरम्मत करवाना।
  • स्त्रियों और बच्चों के कल्याण केन्द्रों की स्थापना करना।
  • जानवरों के अस्पतालों की स्थापना करना।
  • खाद इकट्ठा करने के लिए स्थान निश्चित करना।
  • आग बुझाने में सहायता करना और आग लग जाने एवं जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करने का प्रयत्न करना।
  • लाइब्रेरियों, रीडिंग रूमों (Reading Rooms) और खेल के मैदानों की व्यवस्था करना।
  • सड़कों के किनारे वृक्ष लगवाना।
  • ज़रूरत के अनुसार पुल की स्थापना करना।
  • गरीबों को सहायता (Relief) देना।

(ii) प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)-प्रशासनिक क्षेत्र में ग्राम पंचायत का कर्तव्य है कि वह-

  • अपने क्षेत्र में अपराधों की रोकथाम और अपराधियों की खोज में पुलिस की सहायता करे।
  • यदि देहाती क्षेत्र में कार्य करने वाले किसी सरकारी कर्मचारी, सिपाही. पटवारी, वन-विभाग के व्यक्ति. चौकीदार, चपड़ासी इत्यादि के विरुद्ध कोई शिकायत हो तो डिप्टी कमिश्नर या किसी और अधिकारी को सूचित करें। पंचायत की रिपोर्ट के अनुसार डिप्टी कमिश्नर या किसी और अधिकारी द्वारा कार्यवाही की गई हो, उसकी सूचना लिखित रूप में ग्राम पंचायत को भेजे।
  • गांवों में शराब के ठेकों और शराब बेचने का विरोध करें।
  • असम, बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा में ग्राम पंचायतों को चौकीदारों (Watch and Wards) का प्रबन्ध करने की शक्ति भी प्रदान की गई है।

(iii) विकासवादी कार्य (Developmental Functions)-क्योंकि देहाती क्षेत्र के विकास की ज़िम्मेदारी पंचायतों पर है, इसलिए इसको कुछ विकासवादी कार्य भी दिए गए हैं। यह विकासवादी योजनाओं को लागू करती है और पंचवर्षीय योजनाओं को लागू करने में सहयोग देती है। यह खेतीबाड़ी और उद्योग के विकास के लिए यत्न करती है।

(iv) न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-पंचायतों को दीवानी और फ़ौजदारी मुकद्दमे सुनने का अधिकार दिया गया है। फ़ौजदारी मुकद्दमे में गाली-गलौच, 50 रुपये तक की चोरी, मार-पिटाई और स्त्री और सरकारी कर्मचारी का अपमान, पशुओं को बेरहमी के साथ पीटना, इमारतों, तालाबों और सड़कों को नुकसान पहुँचाना आदि शामिल है। इसके अलावा कुछ राज्यों में कुछ पंचायतों को विशेष अधिकार प्राप्त हैं। वह हमले, राज्य कर्मचारी का अपमान, दूसरों के माल पर कब्जा करने आदि के विषयों के सम्बन्ध में मुकद्दमा सुन सकती है। इन मुकदमों में साधारण अधिकारों वाली पंचायतों को 100 रुपये और विशेष अधिकारों वाली पंचायतों को 200 रुपये तक जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है। कुछ राज्यों में विशेष अधिकारों वाली पंचायतों को साधारण कैद की सज़ा देने की शक्ति भी प्रदान की गई है। पंचायतें किसी अपराधी को सज़ा भी दे सकती हैं और चेतावनी देकर ज़मानत लेकर छोड़ भी सकती है। दीवानी साधारण पंचायतें 200 रुपये की रकम तक और विशेष अधिकारों वाली पंचायतें 500 रुपये की रकम तक मुकद्दमा सुन सकती हैं, पर वह निम्नलिखित मुकद्दमें नहीं सुन सकती-

  1. साझेदारी के मुकद्दमे।
  2. वसीयत सम्बन्धी मुकद्दमे।
  3. नाबालिग और बालिग व्यक्ति के विरुद्ध मुकद्दमा।
  4. राज्य और केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों के विरुद्ध मुकद्दमा।
  5. दीवालिये के विरुद्ध मुकद्दमा।।
  6. अदालत के विचार अधीन मुकद्दमे इत्यादि।

आय के साधन (Sources of Income)—पंचायतों की आय के साधन निम्नलिखित हैं-
1. टैक्स-पंचायत की आय का पहला साधन टैक्स हैं। पंचायत राज्य सरकार द्वारा प्रदान किए गए टैक्स लगा सकती है, जैसे सम्पत्ति टैक्स, पशु टैक्स, कार्य टैक्स, टोकन टैक्स, मार्ग टैक्स, चुंगी टैक्स इत्यादि।

2. फीस और जुर्माना टैक्स-पंचायत की आय का दूसरा साधन इसके द्वारा किए गये जुर्माने और अन्य प्रकार की फीसें (Fees) हैं, जैसे पंचायत आराम गृह के प्रयोग के लिए फीस, गलियों और बाजारों में रोशनी करने का टैक्स, पानी टैक्स आदि। इनका प्रयोग सिर्फ उन पंचायतों द्वारा ही किया जाता है जो यह सुविधाएं प्रदान करती हैं।

3. सरकारी ग्रांट (Government Grants)—पंचायत की आय का मुख्य साधन सरकारी ग्रांटें (Grants) हैं। सरकार पंचायतों की विकास सम्बन्धी योजनाओं को लागू करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की ग्रांटें प्रदान करती है। आमतौर पर हर राज्य के क्षेत्र में इकट्ठा होने वाले ज़मीन के मालिए का कुछ भाग पंचायतों को दिया जाता है जैसे पंजाब में 15%, उत्तर प्रदेश में 1212% आदि। बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात में पंचायतें ही सरकार के आधार पर भूमि का टैक्स (Land Revenues) को इकट्ठा करती हैं।

4. मिले-जुले साधन-पंचायतों की आय के अन्य साधन हैं जैसे पंचायत की सीमा में कूड़ा-कर्कट, गोबर, गन्दगी आदि को बेचने से प्राप्त आमदनी, शामलाट से आमदनी, मेलों से आमदनी, पंचायत की सम्पत्ति से आमदनी आदि। आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा और पंजाब में पंचायत को मछली पालन एवं उनको बेचने से विशेष आमदनी होती है।

5. कर्जे (Borrowing)-उपरोक्त साधनों के अलावा राज्य सरकार की मंजूरी के साथ पंचायत कर्जे भी ले सकती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 8.
पंचायत समिति के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
पंचायत समिति तीन-स्तरीय पंचायती राज की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। यह पंचायती राज तीन स्तरीय प्रणाली का मध्यस्तर (Intermediate tier) है। इसकी स्थापना ब्लॉक (Block) स्तर पर की गई है और यह पंचायत एवं जिला परिषद् मध्य की कड़ी के रूप में कार्य करती है। गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में इसकी व्यवस्था तालुक (Taluk) के स्तर पर की गई है। भिन्न-भिन्न राज्यों में इसको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पंचायत समिति कहते हैं। असम में आंचलिक पंचायत (Anchalik Panchayat), तमिलनाडु में पंचायती संघ समिति (Panchayat Union Council), उत्तर प्रदेश में क्षेत्र समिति (Kshetra Samiti), गुजरात में तालुक पंचायत (Taluk Panchayat) और कर्नाटक में तालुक विकास बोर्ड (Taluk Development Board) कहते हैं।

इसी तरह पंचायत समिति के प्रधान को भी भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। आन्ध्र प्रदेश, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में प्रेजीडेंट (President), महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उड़ीसा, हरियाणा और पंजाब में चेयरमैन (Chairman), राजस्थान में प्रधान (Pardhan) और उत्तर प्रदेश तथा बिहार में प्रमुख (Parmukha) कहते हैं।

पंचायत समिति की रचना (Composition of Panchayat Samiti)-चुने हुए सदस्य (Elected Members)-पंचायत समिति के सदस्य इसके क्षेत्र के वोटरों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते हैं। पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती इसके क्षेत्र की आबादी पर निर्भर करती है और यह भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न होती है। कुछ राज्यों में इसके सदस्यों की गिनती निश्चित है और कुछ राज्यों में ऐसा नहीं है। कर्नाटक में प्रत्येक 10,000 की आबादी के पीछे एक सदस्य चुना जाता है। जबकि बिहार, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश में प्रत्येक 5000 की आबादी के पीछे सदस्य चुना जाता है। त्रिपुरा में एक सदस्य 8000 की आबादी के लिए, आन्ध्र प्रदेश में 3000 से 4000 तक की आबादी के लिए, हिमाचल प्रदेश में 3000 की आबादी के लिए, उत्तर प्रदेश में 2000 की आबादी के लिए और पंजाब में 15,000 की आबादी के लिए चुना जाता है। हरियाणा में यदि पंचायत समिति क्षेत्र की आबादी 40,000 हो तो प्रत्येक 4000 के पीछे एक सदस्य चुना जाता है। पर यदि आबादी 40,000 से ज्यादा हो तो प्रत्येक 5000 की आबादी के लिए एक सदस्य चुना जाता है।

गुजरात में पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती 15 निर्धारित की गई है। मध्य प्रदेश में 10 से 15 तक और केरल में 8 से 15 तक सदस्य एक पंचायत समिति में होते हैं। पंजाब में पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती 6 से 10 तक होती है। राजस्थान में एक लाख आबादी वाली पंचायत समिति को 15 चुनाव क्षेत्रों में बाँटा जाता है और यदि आबादी एक लाख से ज्यादा हो तो प्रत्येक ज्यादा 15000 की आबादी के पीछे 2 सदस्यों को चुना जाता है। असम में प्रत्येक ग्राम पंचायत में से एक सदस्य आंचलिक पंचायत के लिए चुना जाता है। उड़ीसा और महाराष्ट्र में पंचायत समिति के सदस्यों की गिनती निश्चित नहीं है।

आरक्षित सीटें (Reserved Seats)—प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित कबीलों तथा स्त्रियों के लिए पंचायत समिति में कुछ सीटें आरक्षित रखी जाती हैं। अनुसूचित जातियों तथा कबीलों के लिए आरक्षित सीटों की गिनती पंचायत समिति में सीटों की कुल गिनती के लगभग उसी अनुपात में होगी, जिस अनुपात में उस क्षेत्र में उनकी आबादी है। इनमें 1/3 सीटें औरतों के लिए आरक्षित रखी जाएंगी।

चेयरमैन (Chairman) पंचायत समिति के चुने हुए सदस्य अपने में से एक चेयरमैन और एक उप-चेयरमैन का चुनाव करते हैं। यह चुनाव जिले के डिप्टी कमिश्नर या उसके द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारी की निगरानी में होता है। क्योंकि पंचायत समिति का कार्यकाल पांच वर्ष है इसलिए इसके चेयरमैन और उप-चेयरमैन का कार्यकाल भी पांच वर्ष का होता है।

पंचायत समिति के चेयरमैनों में भी आबादी के आधार पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित कबीलों के लिए सीटें आरक्षित रखी जाती हैं और कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी होती हैं।

पंचायत समिति के कार्य (Functions of Panchayat Samiti)-पंचायत समिति के कार्य बहुपक्षीय हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. सामूहिक विकास (Community Development)-सभी राज्यों में पंचायत समितियों को विकासवादी कार्यों की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। वह सामूहिक विकास योजना को लागू करती है। वह ब्लॉक स्तर की योजनाओं को तैयार करती है और उनको लाग भी करती हैं।

2. खेतीबाड़ी और सिंचाई सम्बन्धी कार्य (Functions Regarding Irrigation and Agriculture)आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान आदि सभी राज्यों की खेतीबाड़ी के विकास के सम्बन्ध में पंचायत समिति को विशेष शक्ति दी गई है। वह अच्छे बीज और उर्वरक बांटती है। खेतीबाड़ी के वैज्ञानिक तरीकों को प्रचलित करने के लिए प्रयत्न करती है। भूमि बचाओ (Soil Conservation) भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए प्रबन्ध करती है। हरी खाद और खादों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का यत्न करती है।

सब्जियों और फलों को ज्यादा उगाने के लिए उत्साह देती है। सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों और सिंचाई के और साधनों की व्यवस्था करती है।

3. पशु पालन और मछली पालन (Animal Husbandry and Fisheries) पंचायत समिति पशु पालन के अच्छे तरीकों का प्रचार और उनकी बीमारियों से रक्षा करने के लिए और उनके इलाज के लिए व्यवस्था करती है। पशुओं की नस्ल सुधारने का प्रयत्न करती है, ब्लॉक में मछली पालन का प्रसार करती है और मछली पालने के लिए स्थान निश्चित करती है।

4. प्राथमिक शिक्षा (Primary Education) आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में प्राथमिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी पंचायत समिति को सौंपी गई है। इसके अतिरिक्त पंचायत समिति सूचना केन्द्र (Information Centre), मनोरंजन, युवक संगठन, स्त्री मंडल, किसान संघ, नुमायशें, मेले और औद्योगिक समारोहों इत्यादि का प्रबन्ध करती है।

5. Fartea Ta Hung Hopeit abref (Functions Regarding Health and Sanitation)—3714 pite पर सभी राज्यों में स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्य पंचायत समितियों को सौंपे गए हैं। यह छुआ-छूत की बीमारियों की रोकथाम के उपाय करती है। चेचक, हैज़ा, मलेरिया आदि के टीके लगाने का प्रबन्ध करती है। ब्लॉक में हस्पताल, स्त्रियों एवं बच्चों के कल्याण केन्द्रों की स्थापना की देखभाल करती है। पीने के लिए पानी, गंदे नाले और गलियों की सफ़ाई आदि का प्रबन्ध करती है। टिड्डियों, चूहों और अन्य कीड़ों आदि के खात्मे के लिए उपाय करती है।

6. स्थानीय कार्य (Municipal functions)-पंचायत समिति ब्लॉक पंचायती समिति ब्लॉक में सड़कों का निर्माण, मुरम्मत और देखभाल करती है। पीने के पानी, गन्दगी के निकास, सफ़ाई आदि का प्रबन्ध करती है।

7. सहकारिता (Co-operation)—पंचायत समिति औद्योगिक और खेती-बाड़ी में सहकारी समितियाँ (Cooperative societies) की स्थापना करने के लिए हौसला-अफजाई (प्रोत्साहन) और सहायता प्रदान करती है।

8. नियोजन तथा उद्योग (Planning and Industries)-कुछ राज्यों में पंचायत समिति को ब्लॉक स्तर पर नियोजन का अधिकार दिया गया है। वह छोटे पैमाने के तथा घरेलू उद्योगों की स्थापना में सहायता करती है।

पंचायत समिति की आय के स्रोत (Sources of Income of Panchayat Samiti) –

  1. पंचायत समिति द्वारा लगाए गए टैक्स-पंचायत समिति और जिला परिषद् एक्ट की धाराओं के अंतर्गत भिन्न-भिन्न प्रकार के टैक्स लगा सकती है। रोज़गार टैक्स, संपत्ति टैक्स, मार्ग टैक्स (Toll Tax), टोकन टैक्स आदि से होने वाली आय।
  2. संपत्ति से आय-पंचायत समिति के अधिकार में रखी गई संपत्ति से आय।
  3. फ़ीस (Fees)-पंचायत समिति द्वारा प्रदान की गई सेवाओं से आय। पंचायत समिति जिला परिषद् की स्वीकृति से कई प्रकार की फ़ीसें लगा सकती है जैसे मेलों, खेती-बाड़ी की नुमाएशों पर फ़ीस आदि।
  4. सरकारी कर (Government Grants)-राज्य सरकार पंचायत समिति को सामूहिक विकास योजना तथा अन्य कार्यों हेतु कई प्रकार की ग्रांटें देती है।
  5. भूमि कर (Land Revenue)-भूमि कर से आमदनी लगभग सभी राज्यों में ब्लॉक क्षेत्र से प्राप्त होने वाली भूमि मालिए (Land Revenue) का कुछ भाग पंचायत समिति को दिया जाता है, जैसे पंजाब में सरकार द्वारा भूमि कर का 10% भाग पंचायत समिति को दिया जाता है।
  6. कर्जे (Loans)—पंचायत समिति जिला परिषद् और सरकार की स्वीकृति के साथ सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं से कर्जे ले सकती है। गैर-सरकारी से 5 लाख रुपए से ज़्यादा कर्जा नहीं लिया जा सकता।

पंचायत समितियों को स्थानिक सत्ता कर्जा एक्ट, 1914 (Local Authorities Loans Act, 1914) और स्थानिक सत्ता कर्जा नियम, 1912 (Local Authorities Loans Rules, 1912) के अधीन सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं से अपने कार्यों को पूरा करने के लिए धन, कर्जे के रूप में प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

प्रश्न 9.
जिला परिषद् के बारे में आप क्या समझते हैं ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
जिला परिषद् पंचायती राज्य की तीसरी तथा सबसे उच्च इकाई है। इसकी स्थापना सभी राज्यों में जिला स्तर पर की गई है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब, सिक्किम, उड़ीसा, असम, राजस्थान, हरियाणा, मणिपुर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, पश्चिमी बंगाल, हिमाचल प्रदेश तथा अरुणाचल प्रदेश में इसको जिला परिषद् कहते हैं। कर्नाटक, गोआ तथा उत्तर प्रदेश में इसको जिला पंचायत जबकि गुजरात, तमिलनाडु तथा केरल में इसे डिस्ट्रिकट पंचायत कहते हैं।

रचना (Composition)-जिला परिषद् में चुने हुए तथा कुछ और सदस्य होते हैं। चुने हुए सदस्यों को जिले के मतदाताओं द्वारा चुनावी क्षेत्र बना कर चुना जाता है। परन्तु चुने हुए सदस्यों की संख्या अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। त्रिपुरा, सिक्किम, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा पश्चिमी बंगाल में पंचायती राज्य एक्ट में चुने हुए सदस्यों की संख्या निर्धारित नहीं की गई है। बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में 50,000 की जनसंख्या के लिए एक सदस्य चुना जाता है। आसाम, हरियाणा, कर्नाटक में 40,000 की जनसंख्या के लिए एक सदस्य चुना जाता है। हिमाचल प्रदेश में 20,000 तथा मणिपुर में 15,000 की जनसंख्या के लिए एक सदस्य चुना जाता है।

गुजरात में कम-से-कम 17 तथा गोआ में 20 सदस्य जिला परिषद के लिए चुने जाते हैं। जिला परिषद में चने हुए सदस्यों की संख्या मध्य प्रदेश में 10 से 35 तक, महाराष्ट्र में 40 से 60 तक, केरल में 10 से 20 तक निर्धारित की गई है। राजस्थान में अगर जिला परिषद् की जनसंख्या 4 लाख हो तो 17 सदस्य चुने जाते हैं। अगर आबादी 4 लाख से अधिक हो तो प्रत्येक अधिक एक लाख के लिए 2 सदस्य बढ़ जाते हैं।

महाराष्ट्र के अतिरिक्त ज़िले में चुने हुए संसद् सदस्य (M.P’s) राज्य विधान सभा के सदस्य (M.L.A’s) ज़िला परिषद के अपने पद के कारण सदस्य होते हैं। गुजरात में विधान सभा के सदस्य स्थायी तौर पर जिला परिषद् में बुलाए जाते हैं परन्तु उन्हें वोट देने के अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

आन्ध्र प्रदेश में मण्डल पंचायतों के प्रधान, विधान सभा तथा संसद् के सदस्यों के अतिरिक्त अल्पसंख्यकों के दो प्रतिनिधि नियुक्त किए जाते हैं। इनके अतिरिक्त (District Co-operative Marketing Society) का प्रधान, जिला सहकारी केन्द्रीय बैंक का प्रधान, जिले का डिप्टी कमिश्नर तथा Zila Grandholaya संस्था का प्रधान अपने पद के कारण जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। इस तरह मध्य प्रदेश में संसद् तथा विधान सभा के सदस्यों को अतिरिक्त जिला सहकारी बैंक तथा जिला सहकारी और विकास बैंक के प्रधान भी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। यदि अनुसूचित जातियों तथा कबीलों का उपरोक्त में से कोई सदस्य न हो तो जिला परिषद् इन में से एक सदस्य नियुक्त कर सकती है।अनसचित जातियों, कबीलों तथा स्त्रियों के लिए आरक्षण (Reservation of seats for scheduled

castes, scheduled tribes and women)-जिला परिषद् के अनुसूचित जातियों, कबीलों तथा स्त्रियों के लिए सीटें सुरक्षित रखने के प्रावधान रखे गए हैं। अनुसूचित जातियों तथा कबीलों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात सीधे चुने गए सदस्यों के साथ वही होगा जो जिले में इन जातियों की संख्या का ज़िले की कुल जनसंख्या के साथ है।

प्रत्येक जिला परिषद् में 1/3 कुल स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं (S.C. & S.T. मिलाकर) इसमें अनुसूचित जातियों तथा कबीलों की स्त्रियों के स्थान (आरक्षित) भी शामिल हैं।

पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षण (Reservation for Backward Classes)-लगभग सभी राज्यों में पिछड़ी श्रेणियों के लोगों के लिए भी कुछ स्थान जिला परिषद् में आरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है परन्तु ऐसा करना सरकार की मर्जी पर निर्भर करता है। जैसे बहुत-से राज्यों में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए उनकी संख्या के अनुसार जिला परिषद् में सीटें आरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है।

कार्यकाल (Tenure)-ज़िला परिषद् का कार्यकाल 5 साल का होता है। अगर इससे पहले इसे भंग कर दिया जाता है तो 6 महीने के अंदर इसके सदस्यों का चुनाव करवाना जरूरी होता है।

चेयरमैन (Chairman)—प्रत्येक जिला परिषद् में एक चेयरमैन तथा एक वाइस चेयरमैन होता है। उनका चुनाव जिला परिषद् के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से अपने में से करते हैं। जिला परिषद् के चेयरमैन तथा वाइस चेयरमैन को भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है।

अनुसूचित जातियों, कबीलों तथा स्त्रियों के लिए जिला परिषद् के चेयरमैन के पद को आरक्षित रखने की व्यवस्था भी की गई है। सदस्यों को इस तरह इन की जनसंख्या के अनुपात में रखा गया है तथा राज्य की कुल सीटों में से 1/3 स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी गई है। चेयरमैन का कार्यकाल 5 साल का होता है।

जिला परिषद् के चेयरमैन तथा उप-चेयरमैन को अविश्वास प्रस्ताव पास करके उनके पद से हटाया जा सकता है। अविश्वास प्रस्ताव पास करने के लिए राज्यों में स्थिति भिन्न-भिन्न है।

कर्नाटक, बिहार, त्रिपुरा, सिक्किम, महाराष्ट्र, गोआ, मणिपुर, पश्चिमी बंगाल तथा हिमाचल प्रदेश में चुने हुए सदस्यों का बहुमत यदि अविश्वास प्रस्ताव को पास कर दे तो चेयरमैन को उसके पद से हटाया जा सकता है। इस तरह गुजरात, उड़ीसा, केरल, असम, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा अरुणाचल प्रदेश में अविश्वास प्रस्ताव पास करने के लिए चुने सदस्यों का 2/3 इसके पक्ष में होना ज़रूरी होता है। मध्य प्रदेश में 3/4 तथा उत्तर प्रदेश में यदि 50% सदस्यों द्वारा इसे पास कर दिया जाए तो चेयरमैन को उसके पद के हटाया जा सकता है।

जिला परिषद् के कार्य (Functions of Zila Parishad) –

चाहे जिला परिषद् में कार्यों में अलग-अलग राज्यों में भिन्नता मिलती है तो भी इसका मुख्य उद्देश्य पंचायत समितियों के कार्यों का सुमेल तथा निरीक्षण करना है। इस स्थिति में वह निम्नलिखित कार्य करती है-

  1. यह जिले की पंचायत समितियों के बजट को पास करती है।
  2. यह पंचायत समितियों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्य करने के लिए निर्देश जारी करती है।
  3. यह पंचायत समितियों को अपनी इच्छा या सरकार के आदेश के अनुसार या पंचायत समिति की विनती पर किसी विशेष विषय पर मशवरा भी दे सकती है।
  4. यह पंचायत समितियों द्वारा तैयार की गई विकास योजनाओं में तालमेल पैदा करती है।
  5. यह दो या दो से अधिक समितियों से सम्बन्धित योजनाओं को पूरा करती है।
  6. सरकार विशेष सूचना द्वारा किसी भी विकास योजना को पूरा करने का कार्य जिला परिषद् को सौंप सकती
  7. ज़िला परिषद् सरकार को जिले के स्तर पर या स्थानीय विकास के सभी कार्यों के सम्बन्ध में सलाह देती है।
  8. सरकार को पंचायत समितियों के कार्यों के विभाजन तथा तालमेल के सम्बन्ध में सलाह देती है।
  9. ज़िला परिषद् सरकार द्वारा दी गई शक्तियों को प्रयोग करने के सम्बन्ध में सरकार को सलाह देती है।
  10. वह सरकार से पूछकर पंचायत समितियों से कुछ धन भी वसूल कर सकती है।
  11. राज्य सरकार जिला परिषदों को पंचायतों का निरीक्षण तथा नियन्त्रण करने की शक्ति भी दे सकती है।

आय के साधन (Financial Resources)-जिला परिषद् की आय के साधन निम्नलिखित हैं-

  1. केन्द्रीय तथा राज्य सरकार द्वारा जिला परिषद् के लिए निश्चित किए गए फण्ड (Funds)।
  2. बड़े तथा छोटे उद्योगों की उन्नति के लिए सर्व भारतीय संस्थाओं द्वारा दी गयी ग्रांट (Grants) ।
  3. भूमि कर तथा दूसरे राज्य करों में से राज्य सरकार द्वारा दिया गया हिस्सा।
  4. जिला परिषद् की अपनी सम्पत्ति से आय।
  5. राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किए गए आय के दूसरे साधन ।
  6. जनता तथा पंचायत समितियों द्वारा दी गई ग्रांट ।
  7. पंचायत समितियों से राज्य सरकार की मंजूरी से जिला परिषद् द्वारा ली गई धनराशि।
  8. विकास योजनाओं के सम्बन्ध में राज्य सरकार द्वारा दी गई ग्रांट।
  9. कुछ राज्यों में जिला परिषद् को विशेष प्रकार के टैक्स लगाने तथा पंचायत समिति द्वारा लगाए गए टैक्सों में बढ़ोत्तरी करने की शक्ति दी गई है।
    उपरोक्त स्रोतों के अतिरिक्त जिला परिषद् सरकार तथा गैर-सरकारी संस्थाओं से कर्जे भी ले सकती है। परन्तु ऐसा करने से पहले उसे राज्य सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 8 राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा

राजनीति, धर्म, अर्थ प्रणाली तथा शिक्षा PSEB 11th Class Sociology Notes

  • हमारे समाज में बहुत सी संस्थाएं होती हैं। सामाजिक संस्थाओं में हम विवाह, परिवार और नातेदारी को शामिल करते हैं।
  • राजनीतिक व्यवस्था समाज की ही एक उपव्यवस्था है। यह मनुष्यों की उन भूमिकाओं को निर्धारित करती है जो कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है। राजनीति और समाज में काफ़ी गहरा रिश्ता है।
  • समाजशास्त्र में राजनीतिक संस्थाओं की सहायता ली जाती है तथा कई संकल्पों को समझा जाता है, जैसे कि शक्ति, नेतागिरी, सत्ता, वोट करने का व्यवहार इत्यादि। राजनीतिक संस्थाएं समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में सहायता करती हैं।
  • शक्ति समूह अथवा व्यक्तियों की वह समर्था होती है जिसके द्वारा वह उस समय अपनी बात मनवाते हैं जब उनका विरोध हो रहा होता है। समाज में शक्ति एक निश्चित मात्रा में मौजूद है। कुछ समूहों के पास अधिक शक्ति होती है तथा वे कम शक्ति वाले व्यक्तियों या समूहों पर अपनी बात थोपते हैं।
  • शक्ति को सत्ता की सहायता से लागू किया जाता है। सत्ता शक्ति का वह रूप है जिसे सही तथा वैध समझा जाता है जिनके पास सत्ता होती है वे शक्ति का प्रयोग करते हैं क्योंकि इसे न्यायकारी समझा जाता है।
  • मैक्स वैबर ने सत्ता के तीन प्रकार दिए हैं-परम्परागत सत्ता, वैधानिक सत्ता तथा करिश्मई सत्ता। पिता की सत्ता परंपरागत सत्ता होती है, सरकार की सत्ता वैधानिक सत्ता तथा किसी गुरु की बात मानना करिश्मई सत्ता होती है।
  • अलग-अलग प्रकार के समाजों में अलग-अलग राज्य होते हैं। कई समाजों में राज्य नाम का कोई संकल्प : नहीं होता जिस कारण इन्हें राज्य रहित समाज कहा जाता है तथा यह पुरातन समाजों में मिलते हैं। आधुनिक समाजों में सत्ता को राज्य नामक संस्था में शामिल किया है तथा यह सत्ता जनता से ही प्राप्त की जाती है।
  • राज्य राजनीतिक व्यवस्था की एक मूल संस्था है। इसके चार आवश्यक तत्त्व होते हैं तथा वह हैं जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, प्रभुसत्ता तथा सरकार।
  • सरकार के तीन अंग होते हैं तथा वह हैं-विधानपलिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। राज्य तथा सरकार को बनाए रखने में इन तीनों के बीच तालमेल का होना आवश्यक है।
  • आजकल की राजनीतिक व्यवस्था लोकतन्त्र के साथ चलती है। लोकतन्त्र दो प्रकार का होता है। प्रत्यक्ष लोकतन्त्र में जनता अपने निर्णय स्वयं लेती है तथा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि सभी निर्णय लेते हैं।
  • हमारे देश में सरकार ने विकेन्द्रीयकरण की व्यवस्था को अपनाया है तथा स्थानीय स्तर तक सरकार बनाई
    जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में गाँव के स्तर पर पंचायत ब्लॉक के स्तर पर ब्लॉक समिति तथा जिले के स्तर पर जिला परिषद् होते है जो अपने क्षेत्रों का विकास करते हैं।
  • लोकतन्त्र में राजनीतिक दल महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक राजनीतिक दल उन लोगों का समूह होता है जिसका मुख्य उद्देश्य चुनाव लड़ कर सत्ता प्राप्त करना होता है। कुछ दल राष्ट्रीय दल होते हैं तथा कुछेक प्रादेशिक दल होते हैं।
  • लोकतन्त्र में हित समूहों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ये हित समूह किसी विशेष समूह से जुड़े होते हैं तथा वे अपने समूह के हितों की प्राप्ति के लिए कार्य करते रहते हैं।
  • जब से मानवीय समाज शुरू हुए हैं धर्म उस समय से ही समाज में मौजूद है। धर्म और कुछ नहीं बल्कि अलौकिक शक्ति में विश्वास है जो हमारे अस्तित्व और पहुँच से बहुत दूर है।
  • हमारे देश भारत में बहुत से धर्म मौजूद हैं जैसे कि हिन्दू, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, पारसी धर्म इत्यादि। भारत एक बहु-धार्मिक देश है जहाँ बहुत से धर्मों के लोग इकट्ठे मिल कर रहते हैं।
  • प्रत्येक व्यक्ति को भोजन, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है तथा यह सब हमारी अर्थ व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। अर्थ व्यवस्था हमारे पैसे तथा खर्च का ध्यान रखती है।
  • अलग-अलग समाजों में अलग-अलग अर्थ व्यवस्था मौजूद होती है। कई समाज चीजें एकत्र करने वाले होते हैं, कई समाज चारगाह अर्थ व्यवस्था वाले होते हैं, कई समाज ग्रामीण अर्थ व्यवस्था वाले होते हैं, कई समाज औद्योगिक अर्थ व्यवस्था तथा कई समाज पूँजीवाद वाले भी होते हैं। कार्ल मार्क्स ने समाजवादी अर्थ व्यवस्था के बारे में बताया है।
  • श्रम विभाजन का संकल्प हमारे समाज के लिए नया नहीं है। जब लोग किसी विशेष कार्य को करने लग जाएं तथा वे सभी कार्यों को न कर सकें तो इसे विशेषीकरण तथा श्रम विभाजन का नाम दिया जाता है। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था तथा जजमानी व्यवस्था श्रम विभाजन का ही एक प्रकार है।
  • अगर हम अपने समाज की तरफ देखें तो हम कह सकते हैं कि शिक्षा के बिना समाज में कुछ नहीं होता। शिक्षा व्यक्ति को जानवर से सभ्य मनुष्य के रूप में परिवर्तित कर देती है।
  • शिक्षा दो प्रकार की होती है-औपचारिक तथा अनौपचारिक। औपचारिक शिक्षा वह होती है जो हम स्कूल, कॉलेज इत्यादि से प्राप्त करते हैं तथा अनौपचारिक शिक्षा वह होती है जो हम अपने रोजाना के अनुभवों, बुजुर्गों इत्यादि से प्राप्त करते हैं।
  • सत्ता (Authority)-राजनीतिक व्यवस्था द्वारा अपने भौगोलिक क्षेत्र में स्थापित की गई शक्ति।
  • श्रम विभाजन (Division of Labour)-वह व्यवस्था जिसमें कार्य को अलग-अलग भागों में विभाजित कर दिया जाता है तथा प्रत्येक कार्य किसी व्यक्ति या समूह द्वारा ही किया जाता है।
  • अर्थव्यवस्था (Economy)-उत्पादन, विभाजन तथा उपभोग की व्यवस्था को अर्थव्यवस्था कहते हैं।
  • विश्वव्यापीकरण (Globalisation)-सांसारिक इकट्ठा होने की व्यवस्था जो संस्कृति के अलग-अलग पक्षों, अन्तर्राष्ट्रीय विचारों, वस्तुओं इत्यादि के लेन-देन से सामने आती है।
  • टोटम (Totem)-किसी पेड़, पौधे, पत्थर या किसी अन्य वस्तु को पवित्र मानना।
  • राज्य वाले समाज (State Society)-वह समाज जिनमें सरकार का औपचारिक ढांचा मौजूद होता है।
  • राज्य रहित समाज (Stateless Society)-वह समाज जहां सरकार के औपचारिक संगठन नहीं होते।
  • हित समूह (Pressure Groups)—वह समूह जहां लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी विशेष समूह के हितों के लिए कार्य करते हैं।
  • राज्य (State)-राज्य वह समूह होता है जिसके चार प्रमुख तत्त्व हैं-जनसंख्या, भौगोलिक क्षेत्र, प्रभुसत्ता तथा सरकार।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

PSEB 11th Class Geography Guide हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व Textbook Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न तु (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिंद महासागर का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
7 करोड़ 80 लाख वर्ग किलोमीटर।

प्रश्न 2.
हिंद महासागर विश्व के महासमुद्री क्षेत्र का कितने प्रतिशत है ?
उत्तर-
20.9%.

प्रश्न 3.
कौन-से महाद्वीप हिंद महासागर के तटों को छूते हैं ?
उत्तर-
एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 4.
हिंद महासागर के पश्चिम की ओर के किन्हीं दो छोटे सागरों के नाम बताएँ।
उत्तर-
लाल सागर और अरब सागर।

प्रश्न 5.
हिंद महासागर में मिलने वाली धातुओं की गाँठें बताएँ।
उत्तर-
मैंगनीज़, तांबा और कोबाल्ट।

प्रश्न 6.
हिंद महासागर के तट पर मिलने वाले तेल क्षेत्र बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी कच्छ, खंबात की खाड़ी, मुंबई हाई।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न – (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
भू-राजनीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय संबंधों के बारे में भूगोल के योगदान और विश्लेषण के तरीके को भू-राजनीति कहते हैं।

प्रश्न 2.
कौन-से देशांतर हिंद महासागर की सीमाएँ हैं ?
उत्तर-
दक्षिणी गोलार्द्ध में कैपटाऊन का लंबकार 18°82′ पूर्व हिंद महासागर को भौगोलिक पक्ष से अंध महासागर से और तस्मानिया प्रायद्वीप का दक्षिण-पूर्वी लंबकार 147° पूर्व, प्रशांत महासागर से अलग करता है।

प्रश्न 3.
हिंद महासागर को ‘ग्रेट रेस बेस’ क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
भू-राजनीतिक महत्ता के कारण सभी बड़ी शक्तियाँ इस क्षेत्र पर कब्जा करने में लगी हुई हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 4.
हिंद महासागर को ‘तृतीय विश्व का हृदय’ क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
पूर्वी भागों को तृतीय विश्व या ‘तीसरी दुनिया’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में हिंद महासागर एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्ग है, इसलिए इस महत्त्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग के कारण इसे ‘तृतीय विश्व का हृदय’ कहा जाता है।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न । (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिंद महासागर की उसके पड़ोसी देशों के साथ सीमाएँ बताएँ।’ .
उत्तर-
विश्व के तीन महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के तटीय किनारे इस महाद्वीप को छूते हैं, जबकि यह महासागर अपने उत्तर की ओर एशियाई धरती से बंद है, परंतु दक्षिण की ओर इसका खुला प्रसार है। अंतर्राष्ट्रीय हाइड्रोग्राफिक ऑर्गेनाइजेशन (आई० एच० ओ०) अंटार्कटिका के तट को हिंद महासागर का दक्षिणी सिरा मानती है। विश्व की कुल तट रेखा का 40% भाग हिंद महासागर के तटों को छूता है।

प्रश्न 2.
हिंद महासागर के पास वाले कम गहरे सागरों के नाम बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर में कई ऐसे कम गहरे सागर शामिल हैं, जो पास वाले तटीय क्षेत्रों को छूते हैं। इनमें मैलागासी सागर, लक्षद्वीप सागर, लाल सागर, अदन की खाड़ी, अरब की खाड़ी, ओमान की खाड़ी, अरब सागर, पाक जलडमरू, सुवा सागर, तिमौर सागर, अराफरा सागर, कारपैंटरिया की खाड़ी के टोर जलडमरू, ऐगज़माऊथ खाड़ी, ऑस्ट्रेलियाई धुंडी, स्पैंसर खाड़ी और बास जलडमरू आदि शामिल हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 3.
हिंद महासागर के आस-पास कितने देश हैं ?
उत्तर-
हिंद महासागर के आस-पास 38 + 15 + 15 देश पड़ते हैं, जो हिंद महासागरीय रिम ऐसोसिएशन (Indian Ocean Rim Association) की ओर से संगठित हैं। इनमें अफ्रीका के 13, मध्य पूर्व (Middle East) के 11, दक्षिणी एशिया के 5, दक्षिण-पूर्वी एशिया के 5, पूर्वी तिमोर, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस तथा बर्तानिया के कब्जे वाले क्षेत्र शामिल हैं।

प्रश्न 4.
हिंद महासागर में अलग-अलग संकरे मार्ग बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर में पड़ते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मार्गों में कम-से-कम 7 संकरे मार्ग आते हैं-

  1. मोजंबिक चैनल,
  2. बाब-अल-मेंडर,
  3. सुएज़ या स्वेज़ नदी,
  4. स्ट्रेट ऑफ होरमूज,
  5. मलाका स्ट्रेट,
  6. सूंदा स्ट्रेट,
  7. लोबोक स्ट्रेट।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिंद महासागर के नक्शे और विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर का उत्तरी क्षेत्र ऐतिहासिक और कार्य शैली के पक्ष से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह पूर्वी और पश्चिमी भागों से कई सँकरे जल डमरुओं (Straits) से जुड़ा हुआ है। पश्चिम में लाल सागर और अरब की खाड़ी तथा पूर्व में मलाका जल डमरू, तिमौर सागर और अराफरा सागर इसके अंग हैं।

विशेषताएं-हिंद महासागर की अपनी अलग विलक्षण विशेषताएँ हैं-

  1. सुदूर दक्षिणी भाग को छोड़कर बाकी सारे महासागर का जल न केवल गर्म और शांत है, बल्कि यहाँ बहती हवाओं का वेग भी अनुमान से बहुत अधिक भटकता नहीं।
  2. सर्दी और गर्मी की बदलती ऋतु में हवाओं की बदलती दिशा, हवाओं के वेग द्वारा गहराई वाले सागरों में जहाज़रानी को आसान कर देती है।
  3. हिंद महासागर में किसी विरोधी (विपरीत) धारा का प्रवाह भी नहीं है।
  4. ‘रोरिंग फोर्टीज़’ नामक पश्चिमी वायु, जो 40° दक्षिण की ओर चलती है, गुड होप जल डमरू से ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट तक सागरीय जहाजरानी में बहुत सहायक सिद्ध होती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व 1

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 2.
हिंद महासागरों के प्राकृतिक साधनों का वर्णन करें।
उत्तर-
हिंद महासागर विभिन्न प्राकृतिक साधनों से भरपूर है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
1. समुद्री समूह-समुद्री समूह में रेत, बजरी और शैल (खोल) के समूह मिलते हैं, जो किसी-न-किसी रूप में निर्माण कार्यों के लिए प्रयोग किए जाते हैं। ये समूह महाद्वीपीय शैल्फों पर मिलते हैं।

2. प्लेसर-प्लेसर समूहों में मिलने वाले वे खनिज हैं, जो सागरीय रेत और बजरी में मिलते हैं। ये भारी और लचकीले रासायनिक विशेषताओं वाले खनिज होते हैं, जो खनिज पदार्थों के अपरदन के कारण सागरीय जल में शामिल हो जाते हैं। इन खनिजों में सोना, टिन, प्लास्टिक, टाइटेनियम, मैग्नेटाइट (लोहा), जिरकोनियम बोरियम और रत्न आदि शामिल हैं।

3. बहु-धात्वीय गाँठे-समुद्र में ऐसी गाँठें भी मिलती हैं, जो अनेक धातुओं के मिश्रण से बनी होती हैं। हिंद महासागर में मैंगनीज़, तांबा, गिल्ट (निकल) और कोबाल्ट आदि धातुओं का मिश्रण अधिक मात्रा में पाया जाता है।

4. मैंगनीज़ गाँठे-ये धात्वीय गाँठें सबसे पहले 1872-76 के दौरान चैलेंजर की वैज्ञानिक यात्रा के दौरान खोजी गई, परंतु इनका खोज कार्य 1950 के दशक के अंत में ही आरंभ किया जा सका। संयुक्त राष्ट्र ने भारत को हिंद महासागर के डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से ही बहु धात्वीय गाँठे निकालने की अनुमति दी है। हिंद महासागर की गोद में फास्फेट, बेरीयम सल्फेट, तांबा, कोबाल्ट, कच्चा लोहा, बॉक्साइट, सल्फर आदि भी मिलता है। मैंगनीज़ की गाँठे समुद्री फर्श पर सतह से 2 से 6100 मीटर की गहराई तक मिलती हैं।

5. तेल और गैस-हिंद महासागर की महाद्वीपीय शैल्फ खनिज तेल से भरपूर है। वर्तमान समय में, कुल तेल और गैस के उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा सागरीय भंडारों से आता है और 75 से अधिक देश समुद्रों में से तेल और गैस उत्पन्न करते हैं। भारत के नज़दीकी क्षेत्र कच्छ की शैल्फ, खंबात की खाड़ी और मुंबई हाई खनिज तेल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र हैं, जबकि आंध्र प्रदेश के तट से परे समुद्र में स्थित कृष्णा-गोदावरी बेसिन प्राकृतिक गैस के बड़े स्रोत के रूप में प्रसिद्ध है। विश्व-भर में खनिज तेल और गैस के उत्पादन के लिए अरब की खाड़ी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस खाड़ी की विशेषता यह भी है कि यह सागर से थोड़ा हटकर है। कम गहरी है और आने वाली कठिनाइयाँ भी कम हैं। सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन, कतार, संयुक्त अरब अमीरात (यू०ए०ई०), इरान और इराक इस खाड़ी से सबसे अधिक लाभ लेने वाले देश हैं।

प्रश्न 3.
हिंद महासागर की भू-राजनीति और समस्याएँ बताएँ।
उत्तर-
भू-राजनीति (Geo-Politics)-हिंद महासागर की भू-राजनीति कुछ प्राथमिक बिंदुओं के आस-पास घूमती है, जोकि इस प्रकार हैं-

  1. ऋतु परिवर्तन
  2. ध्रुवीकरण और उत्जीविता समीकरण
  3. प्राकृतिक संसाधनों का विकास
  4. आर्थिक विकास पर बेरोक आपूर्ति तंत्र

समस्याएँ-

  1. हिंद महासागर के सभी क्षेत्रों में व्यापारिक जहाज़रानी पर डकैतियाँ।
  2. व्यापक साधनों का विकास, विशेष रूप से खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, खनिज पदार्थों और मछलियों के रूप में फैली आर्थिकता के पक्ष।
  3. हिंद महासागर के निकट के तटीय क्षेत्रों में, समुद्री जल में बंदरगाहों के निर्माण पर राजनीतिक और वित्तीय परिणाम।
  4. क्षेत्रीय और गैर-क्षेत्रीय देशों की ओर से हिंद महासागर में जल-सेना शक्ति का प्रदर्शन।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 4.
चीन की ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज’ कूटनीति का वर्णन करें।
उत्तर-
स्टरिंग ऑफ पर्लज़ (String of Pearls) वास्तव में चीन की ओर से अपने खनिज तेल के व्यापार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह एक राजनीतिक युक्ति है। चीन अपने बढ़ रहे भू-राजनीतिक प्रभाव को समर्थ बनाने के लिए कूटनीति संबंधों द्वारा सुरक्षा-शक्ति को ही ताकतवर नहीं बना रहा, बल्कि अपनी बंदरगाहों और हवाई अड्डों की सुरक्षा की ओर भी विशेष ध्यान दे रहा है। चीन की यह कोशिश दक्षिण चीन सागर से स्वेज़ नदी तक प्रसार करने की है, जिसमें मलाका स्ट्रेट, स्ट्रेट ऑफ होरमूज़, अरब की खाड़ी और लाल सागर सहित सारे हिंद महासागर में अड्डे बनाना शामिल है। चीन का ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज़’ इन व्यापारिक समुद्री भागों में से होकर गुजरता है और भविष्य में एशियाई ऊर्जा स्रोतों तक पहुँचने का सपना देखता है।

भारत ने सन् 1971 से 1999 तक मलाका स्ट्रेट पर पाबंदी लगाकर चीन और पाकिस्तान के बीच पनपते स्वतंत्र समुद्री संबंधों पर रोक लगा दी थी। ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज़’ की नीति वास्तव में चीन की ओर से हिंद महासागर में हर . प्रकार के व्यापारिक संबंधों को बिना मानव हस्तक्षेप के और भारत के स्वतंत्र अस्तित्व’ को प्रभाव मुक्त करने के लिए अपनाई है। यद्यपि चीन का मानना है, “हम सभी का महासागर पर समान रूप से अधिकार है, इस पर किसी एक का अधिकार नहीं है। हम किसी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन नहीं करेंगे और न ही किसी ताकत का प्रदर्शन करेंगे और न ही किसी अन्य देश के साथ ईर्ष्या को बढ़ावा देंगे।”

पर्लज़ (चीनी अड्डे)

  1. हांगकांग (विस्तृत प्रशासकीय क्षेत्र)
  2. हैनान का टापू (टांगकिंग की खाड़ी)
  3. वूडी टापू
  4. स्पार्टा टापू (छ: देश-चीन, वियतनाम, ताईवान, मलेशिया, फिलीपाइन्ज़ और बरुनी के अधीन)
  5. कैमपोंग सोम
  6. कराह ईस्थमस-थाईलैंड
  7. म्यांमार के कोको टापू
  8. म्यांमार का तटीय शहर सितवें
  9. बांग्लादेश में चिट्टागांग
  10. श्रीलंका में हंबनटोटा
  11. मालद्वीप में हाराओ अतोल
  12. पाकिस्तान (बलोचिस्तान) में गवाडर
  13. ईराक में अल-अहदाब
  14. कीनिया में लामू
  15. सूडान में उत्तरी बंदरगाह (North Port)

प्रश्न 5.
भारत की ओर से चीन की ‘स्टरिंग ऑफ पर्लज़’ नीति का क्या जवाब दिया गया ?
उत्तर-
भारतीय जल सेना और भारतीय जल सैनिक राजनीतियों/कूटनीतियों के पक्ष को सामने रखते हुए सन् 2007 में एक दस्तावेज़ ‘इंडियन मेरीटाईम डॉक्टरिन’ जारी किया, जिसमें भारतीय जल सेना ने ‘स्ट्रेट ऑफ होरमूज़’ से ‘मलाका स्ट्रेट’ तक भारतीय जल सेना की भरपूर गतिविधियों की बात की गई। इस दस्तावेज़ में अंतर्राष्ट्रीय समुद्री व्यापारिक मार्गों की पुलिस की देख-रेख और तंग समुद्री मार्गों पर पूर्ण नियंत्रण की बात की गई। पिछले दो दशकों के दौरान भारत ने अपनी विदेश नीति के अंतर्गत हिंद महासागर के आस-पास के देशों में अपने हितों का विशेष ध्यान रखते हुए मारीशस, मालदीव, सिसली और मैडगास्कर के द्वीपीय देशों और दक्षिणी अफ्रीका, तंजानिया और मोजम्बिक आदि देशों के साथ अपने संबंधों में प्रसार किया है।

भारतीय जल सेना के पास अति आधुनिक हाइड्रोग्राफिक (जल सर्वेक्षण और चित्रकारी) कैडर है, जिसमें पूरे उपकरणों से युक्त सर्वेक्षणीय समुद्री जहाज़, कई सर्वेक्षणीय किश्तियाँ, देहरादून में विश्व-स्तर के इलैक्ट्रॉनिक चार्ट तैयार करने की सुविधा और गोवा में एक हाइड्रोग्राफिक प्रशिक्षण स्कूल है। चीन की तरह ही भारत अपनी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खनिज तेल के आयात पर निर्भर करता है। भारत का 89% के लगभग खनिज तेल समुद्री जहाज़ के मार्ग से भारत तक पहुँचता है, जो भारत की कुल ऊर्जा की ज़रूरतों की 33% पूर्ति करता है। इसलिए प्रमुख समुद्री मार्गों की सुरक्षा सबसे अहम् आर्थिक ज़रूरत बन जाती है। इतिहास साक्षी है कि भारत शुरू से ही हिंद महासागर में डकैती और आतंकी कार्रवाइयों का सदा से ही तीखा विरोधी रहा है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 10 हिंद महासागर की स्थिति का भू-राजनीति के पक्ष से महत्त्व

प्रश्न 6.
महासागरों संबंधी बनाए गए U.N.O. के कानूनों का वर्णन करें।
उत्तर-
महासागरों संबंधी कानूनों के बारे में संयुक्त राष्ट्रीय सम्मेलन (UNCOLS)—सन् 1972 से 1982 तक सागरों संबंधी अंतर्राष्ट्रीय नियमावली और कानून बनाने हेतु संयुक्त राष्ट्र की ओर से करवाए गए सम्मेलनों के दौरान तीसरे सम्मेलन के सम्मुख आए अंतर्राष्ट्रीय समझौते को समुद्री सम्मेलनों का कानून भी कह दिया जाता है। इस कानून के अंतर्गत विश्व-भर के महासागरों की पूर्ति करने हेतु राष्ट्रों के अधिकार और कर्तव्य तय कर दिए गए हैं, वित्तीय कार्यवाही के लिए नियमावली बना दी गई है और समुद्री प्राकृतिक साधनों के प्रबंध के लिए अनिवार्य आदेश जारी कर दिए गए हैं। यू० एन० कोल्ज़ (UNCOLS) सन् 1994 में लागू हुआ और इस सम्मेलन में अगस्त 2014 में, 165 देश और यूरोपीय संघ शामिल हुए। सम्मेलन के दौरान कई नियम भी लागू किए गए, जिनमें से महत्त्वपूर्ण थे-सीमा निर्धारण, जहाजरानी नियम, द्वीप समूहों के अधिकार-क्षेत्र और यातायात नियम, विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ), महाद्वीपीय शैल्फ की सीमाएँ, समुद्री फर्श पर खनन के नियम, समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा, विज्ञान अन्वेषण और झगड़ों के निपटारे संबंधी नियम। सम्मेलन के दौरान कई क्षेत्रों में सीमाएँ निर्धारित की गई हैं या परिभाषित की गईं।

1. बेस लाइन-निम्न जल रेखा या वह सीधी रेखा, जो गहरे तटीय क्षेत्रों में चट्टानी भित्तियों को जोड़ती है।

2. आंतरिक (Internal) जल-क्षेत्र-तट के निकट का वह जल-क्षेत्र जो बेस लाइन और तट के बीच हो। इस क्षेत्र के लिए संबंधित देश ही नियम तय करता है, लागू करता है और यहाँ के साधनों का प्रयोग करता है। विदेशी जहाजों और किश्तियों को किसी भी अन्य देश के आंतरिक जल-क्षेत्र में आने-जाने की आज्ञा नहीं होती।

3. क्षेत्रीय (Territorial) जल-क्षेत्र-बेस लाइन से 12 नाटीकल मील (सड़क के 22 किलोमीटर या 14 मील) तक का क्षेत्र क्षेत्रीय जल-क्षेत्र होता है जिसके बारे में तटीय देश को नियम-कानून बनाने का अधिकार होता है और वह प्राकृतिक साधनों का प्रयोग भी कर सकता है। शांतमयी ढंग से गुजरने वाले विदेशी जहाज़ों और किश्तियों को भी इस क्षेत्र में से गुज़रने की अनुमति होती है, जबकि युद्ध नीति रखने वाले महत्त्वपूर्ण स्ट्रेटों (जल-डमरुओं) में से गुजरने वाले युद्धपोतक नावों को आज्ञा लेनी पड़ती है।

4. टापू-समूह (आरकीपिलाजिक) जल-क्षेत्र-सम्मेलन के दौरान द्वीप समूही जल-क्षेत्र की परिभाषा चौथे भाग (अध्याय) में दी गई, जिसमें किसी देश को अपनी क्षेत्रीय सीमा निर्धारित करने के लिए आधार भी परिभाषित किए गए। द्वीप-समूहों में से सबसे बाहरी द्वीप के सबसे बाहरी भागों को जोड़ती एक बेस लाइन खींच ली जाती है और इस रेखा के अंदर आते जल-क्षेत्र को द्वीप-समूह जल-क्षेत्र का नाम दिया जाता है। किसी भी देश को अपने इस जल-क्षेत्र संबंधी संपूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त होती है।

5. निकटवर्ती (Contiguous) जल-क्षेत्र-किसी भी तट से 12 नाटीकल मील (22 किलोमीटर) की सीमा से आगे 12 नाटीकल मील की सीमा तक के जल-क्षेत्र को निकटवर्ती जल-क्षेत्र माना जाता है। इस क्षेत्र में कोई भी देश चार विषयों-निर्यात शुल्क, शुल्क निर्धारण, आवास नियम और प्रदूषण संबंधी अपने नियम लागू कर
सकता है।

6. विशेष आर्थिक क्षेत्र (Exclusive Economic Zone)-किसी भी देश की बेस लाइन से आगे, क्षेत्रीय जल-क्षेत्र में और आगे 200 नाटीकल मील (370 किलोमीटर या 230 मील) तक का जल-क्षेत्र विशेष आर्थिक क्षेत्र होता है, जहाँ के प्राकृतिक साधनों के प्रयोग के सभी अधिकार तटीय देशों के पास सुरक्षित होते हैं।

7. महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)—महाद्वीपीय शैल्फ को किसी भी थल-क्षेत्र का प्राकृतिक विस्तार माना जाता है, जोकि भू-क्षेत्र से महाद्वीपीय तट के बाहरी सिरे तक या फिर 200 नाटीकल मील किलोमीटर) में से जो अधिक हो, तक माना जाता है। किसी स्थान पर यदि महाद्वीपीय शैल्फ कम हो तो उसका जल-क्षेत्र 200 नाटीकल मील तक माना ही जाएगा।

8. समुद्री कानून संबंधी अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल (आई० ई० एल० ओ० एस०)-यह ट्रिब्यूनल नियम-कानूनों की व्यवस्था के अतिरिक्त मछली पकड़ने संबंधी नियमों और विशेषकर समुद्री वातावरण के झगड़ों के निपटारे संबंधी कार्य करता है।

9. अंतर्राष्ट्रीय समुद्री थल अथॉरिटी (International Sea-Bed Authority – I.S.A) – missing अधिकारित जल-क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र, जोकि अंतर्राष्ट्रीय समुद्री थल का क्षेत्र माना जाता है, में खनिज पदार्थों संबंधी और अन्य नियंत्रण अथवा संगठन के लिए अंतर-सरकारी टीम तैयार की गई है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय समुद्री थल अथॉरिटी के नाम से जाना जाता है।