PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 8 मुर्गी पालन

PSEB 11th Class Agriculture Guide मुर्गी पालन Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
मुर्गी कितने दिनों बाद अण्डे देना शुरू करती है?
उत्तर-
मुर्गी 160 दिनों पश्चात् अण्डे देना शुरू करती है।

प्रश्न 2.
मीट देने वाली मुर्गियों की दो किस्मों के नाम बताओ।
उत्तर-
आई० बी० एल० 80 ब्रायलर तथा ह्वाइट प्लाईमाऊथ राक।

प्रश्न 3.
मुर्गी के एक अण्डे का भार लगभग कितना होता है?
उत्तर-
एक अण्डे का भार लगभग 55 ग्राम होता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

प्रश्न 4.
सफ़ेद रंग के अण्डे कौन सी मुर्गी देती है?
उत्तर-
ह्वाइट लैगहान।

प्रश्न 5.
रैड आईलैंड रैड मुर्गी साल में कितने अण्डे देती है?
उत्तर-
यह वर्ष में लगभग 180 अण्डे देती है।

प्रश्न 6.
बीटों से कौन सी गैस बनती है ?
उत्तर-
अमोनिया।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

प्रश्न 7.
चूजों को गर्मी देने वाले यंत्र का क्या नाम है ?
उत्तर-
बरूडर।

प्रश्न 8.
मुर्गियों के शैड की छत कितनी ऊंची होनी चाहिए ?
उत्तर-
10 फुट।

प्रश्न 9.
दो मुर्गियों के लिए पिंजरे का क्या आकार होना चाहिए ?
उत्तर-
15 इंच लम्बा तथा 12 इंच चौड़ा।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

प्रश्न 10.
सर्दियों में मुर्गियां खुराक अधिक खाती हैं या कम।
उत्तर-
सर्दियों में मुर्गियां अधिक खुराक खाती हैं।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो।

प्रश्न 1.
पोल्ट्री शब्द से क्या भाव है?
उत्तर-
पोल्ट्री शब्द का अर्थ है प्रत्येक प्रकार के पक्षियों को पालना जिनसे मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताएं पूरी हो सकें। इसमें मुर्गियां, बतखें, बटेर, टर्की, कबूतर, शुतुरमुर्ग, हंस, गिन्नी, फाऊल आदि शामिल है।

प्रश्न 2.
देसी नस्ल की मुर्गियों का वर्णन करो।
उत्तर-
इसकी किस्में हैं-पंजाब लेयर-1 तथा पंजाब लेयर-2.

  • सतलुज लेयर-यह वर्ष में 255-265 अण्डे देती हैं। एक अण्डे का औसत भार 55 ग्राम होता है।
  • आई०बी०एल० 80 ब्रायलर-इससे मीट प्राप्त किया जाता है। इसका औसत भार 1350-1450 ग्राम लगभग 6 सप्ताह में हो जाता है।

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प्रश्न 3.
वाइट लैग हार्न तथा रैड आइलैंड रेड मुर्गियों की तुलना करो।
उत्तर-
वाइट लैग हार्न मुर्गियां –

  1. इसके अण्डे सफ़ेद रंग के होते हैं।
  2. वर्ष में 220-250 के लगभग अण्डे देती हैं।
  3. थोड़ी खुराक खाती हैं।
  4. इनका मास स्वादिष्ट नहीं होता।
    यह अण्डे वाली नसल है।

रैड आइलैड रेड मुर्गियां –

  1. इसके अण्डे खाकी रंग के होते हैं।
  2. वर्ष में 180 अण्डे देती हैं।
  3. अधिक खुराक खाती हैं।
  4. इनका प्रयोग मांस के लिये होता है।

प्रश्न 4.
मुर्गियों के विकास के लिए किन भोज्य तत्त्वों की आवश्यकता होती है?
उत्तर-
मुर्गियों की वृद्धि के लिये लगभग 40 पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है। खुराक में पाए जाने वाले पदार्थों को 6 भागों में बांट सकते हैं। कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, चर्बी, धातुएं, विटामिन तथा पानी।

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प्रश्न 5.
मुर्गियों के शैड के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मुर्गियों की शैड ऊंचे स्थान पर बनानी चाहिए तथा सड़क से जुड़ी होनी चाहिए ताकि खुराक, अण्डों आदि की ढुलाई इत्यादि सुविधा से हो सके। वर्षा अथवा बाढ़ का पानी शैड के निकट नहीं खड़ा होने देना चाहिए।

प्रश्न 6.
गर्मियों में मुर्गियों की सम्भाल कैसे की जाती है ?
उत्तर-
पक्षियों में पसीने के लिये मुसाम (रोमछिद्र) नहीं होते तथा पंख अधिक होते हैं इसलिये इनके लिए गर्मी को सहन करना कठिन होता है। शैड के इर्द-गिर्द घास इत्यादि, शहतूत के वृक्ष आदि लगाने चाहिए। छतों के ऊपर फव्वारे लगाने चाहिएं इससे 5-6°C तापमान कम किया जा सकता है। चारों ओर की दीवारें एक-डेढ़ फुट से अधिक ऊंची नहीं होनी चाहिये तथा शेष स्थान पर जालियां लगवानी चाहिएं। छत पर सरकण्डे की परत बिछा दो तथा अधिक गर्मी में मुर्गियों पर फव्वारे से पानी छिड़का देना चाहिए। पीने वाले पानी का प्रबन्ध ठीक होना चाहिये। पानी के बर्तन दोगुने कर देने चाहिए तथा पानी शीघ्र बदलते रहना चाहिए।

प्रश्न 7.
मुर्गियों के लिटर की सम्भाल क्यों जरूरी है ? –
उत्तर-
लिटर सदैव सूखा होना चाहिये। गीले लिटर से बीमारियां लग सकती हैं। इससे शैड में अमोनिया गैस बनती है जो पक्षियों तथा मज़दूरों दोनों के लिए कठिनाई पैदा करती है।

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प्रश्न 8.
मीट प्राप्त करने के लिये मुर्गी की कौन सी नस्लें पाली जाती हैं ?
उत्तर-
मांस प्राप्त करने के लिये आई० बी० एल० 80 ब्रायलर, रैड आइलैंड रेड तथा ह्वाइट प्लाईमाऊथ रॉक नस्लें पाली जाती हैं।

प्रश्न 9.
आई०बी०एल० 80 नस्ल की क्या विशेषताएं हैं ?
उत्तर-
यह मांस के लिए प्रयोग होने वाली नस्ल है। इसका औसत भार 1350-1450 ग्राम लगभग 6 सप्ताह में हो जाता है।

प्रश्न 10.
मुर्गियों की खुराक बनाने में कौन-कौन सी चीज़ों का उपयोग होता
उत्तर-
मुर्गियों की खुराक में मक्की, चावल का टोटा, मूंगफली की खल, चावल की पालिश, गेहूँ, मछली का चूरा, सोयाबीन की खल, पत्थर तथा साधारण नमक आदि से मुर्गी अपने खुराकी तत्व पूरा करती है। मुर्गी के खुराक में ऐंटीवायोटिक दवाइयां अवश्य शामिल करनी चाहिए।

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(ग) पाँच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
मुर्गी की विदेशी नस्लों का वर्णन करो।
उत्तर-

  • वाइट लैगहान-इसके अण्डे सफ़ेद रंग के होते हैं। वर्ष में 220-250 के लगभग अण्डे देती है। इसका मांस स्वादिष्ट नहीं होता है। यह छोटे आकार की होती है तथा कम भोजन खाती है।
  • रेड आइलैण्ड रैड-इसके अण्डे लाल रंग के होते हैं। यह वर्ष में लगभग 180 अण्डे देती है। यह अधिक खुराक खाती है तथा इसे मांस के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • वाइट प्लाइमाऊथ रॉक-यह वर्ष में 140 के लगभग अण्डे देती है। अण्डे का रंग खाकी होता है तथा भार 60 ग्राम से अधिक होता है। इसका प्रयोग मांस के लिए होता है। इसके चूज़े दो मास में एक किलो से अधिक हो जाते हैं। इसके मुर्गों का भार 4 किलो तथा मुर्गियों का भार 3 किलो तक होता है।

प्रश्न 2.
मुर्गियों के लिए ज़रूरी भोज्य तत्त्वों का वर्णन करो।
उत्तर-
मुर्गियों के लिए लगभग 40 से अधिक आहारीय तत्त्वों की आवश्यकता होती है। किसी भी आहारीय तत्त्व की कमी का मुर्गियों के स्वास्थ्य तथा पैदावार पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इन आहारीय तत्त्वों को 6 भागों में बांटा जा सकता है। जैसे कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन, चर्बी, धातुएं, विटामिन तथा पानी।

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प्रश्न 3.
गर्मियों और सर्दियों में मुर्गियों की सम्भाल करने में क्या अंतर है ?
उत्तर-
गर्मियों में सम्भाल-पक्षियों में पसीने के मुसाम नहीं होते तथा पंख अधिक होते हैं। इस कारण वह सर्दी तो सहन कर सकते हैं परन्तु गर्मी सहन करना उनके लिए कठिन होता है। शैड के चारों ओर से गर्मी कम करने के लिए इर्द-गिर्द घास तथा शहतूत इत्यादि के वृक्ष भी लगाने चाहिए। छतों पर फव्वारे लगा कर गर्म तथा शुष्क ऋतु में तापमान को 5-6°C तक कम किया जा सकता है। चारों ओर की दीवारें भूमि से एक-डेढ़ फुट से अधिक ऊंची नहीं होनी चाहिएं तथा शेष स्थान पर जाली लगा देनी चाहिए। छत पर सरकण्डे आदि की मोटी परत बिछा लेनी चाहिए। अधिक गर्मी में मुर्गियों पर स्प्रे पम्प से पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। पीने वाले पानी का प्रबन्ध ठीक होना चाहिए तथा पानी शीघ्र बदलते रहना चाहिए। खुराक में प्रोटीन, धातुएं तथा विटामिन की मात्रा 20-30% बढ़ा दो।

सर्दियों की सम्भाल-सर्दियों में कई बार तापमान 0°C से भी कम हो जाता है। इसका मुर्गियों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यदि मुर्गीखाने का तापमान ठीक न हो तो ऐसी अवस्था में सर्दियों की ऋतु में मुर्गी 3 से 5 किलोग्राम दाना अधिक खा जाती है। सर्दी से बचाव के लिए खिड़कियों पर पर्दै लगाने चाहिए। सूख को सप्ताह में दो बार हिलाना चाहिए।

प्रश्न 4.
मुर्गी पालन के लिए प्रशिक्षण विभागों का वर्णन करो।
उत्तर-
मुर्गी पालन का धन्धा शुरू करने के लिए पहले प्रशिक्षण ले लेना चाहिए। इसके लिए जिले में डिप्टी डायरैक्टर पशु-पालन विभाग, गुरु अंगद देव वैटनरी तथा एनीमल साइंसज़ विश्वविद्यालय लुधियाना या कृषि विज्ञान केन्द्र से सम्पर्क करना चाहिए।

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प्रश्न 5.
चूजों की सम्भाल पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
चूजों को किसी विश्वसनीय तथा मान्यता प्राप्त हैचरी से खरीदना चाहिए तथा ब्रडर में रखना चाहिए। ब्रूडर चूजों को गर्मी देने वाला यंत्र है। चूजों को पहले 6-8 सप्ताह की आयु तक 24 घण्टे प्रकाश तथा अच्छी खुराक जो कि संतुलित हो, देनी पड़ती है।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB मुर्गी पालन Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सतलुज लेअर से एक वर्ष में कितने अण्डे प्राप्त होते हैं?
उत्तर-
255-265 अण्डे।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

प्रश्न 2.
आई० बी० एल० 80 ब्रायलरों का 6 सप्ताह का औसत भार कितना होता है?
उत्तर-
1230-1450 ग्राम।

प्रश्न 3.
मुर्गी कितने दिनों बाद अण्डा देना शुरू कर देती है ?
उत्तर-
160 दिन।

प्रश्न 4.
सतलुज लेअर के अण्डे का भार होता है।
उत्तर-
55 ग्राम लगभग।

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प्रश्न 5.
सतलुज लेयर मुर्गियों की किस्मों के नाम लिखो।
उत्तर-
पंजाब लेअर-1 तथा पंजाब लेअर-2।।

प्रश्न 6.
विश्व भर में पाई जाने वाली मुर्गियों की तीन जातियों के नाम बताओ।
उत्तर-
वाइट लैगहार्न, रेड आईलैंड रेड तथा वाइट प्लाइमाऊथ राक।

प्रश्न 7.
वाइट लैगहान कितने अण्डे देती है?
उत्तर-
एक वर्ष में 220-250 के लगभग अण्डे देती है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

प्रश्न 8.
रैड आईलैंड रेड के अण्डों का रंग क्या होता है?
उत्तर-
इसके अण्डे खाकी रंग के होते हैं।

प्रश्न 9.
वाइट प्लाईमाउथराक नस्ल कितने अण्डे देती है ?
उत्तर-
यह वर्ष में 140 के लगभग अण्डे देती है।

प्रश्न 10.
मुर्गियों के बढ़ने-फूलने के लिए लगभग कितने भोजन तत्त्वों की आवश्यकता होती है?
उत्तर-
मुर्गियों को लगभग 40 भोजन तत्त्वों की आवश्यकता होती है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

प्रश्न 11.
भोजन में पाए जाने वाले पदार्थों को कौन-कौन से भागों में बांटा जा सकता है?
उत्तर-
इनको 6 भागों में बांटा जा सकता है-कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, चर्बी, धातुएं, विटामिन तथा पानी।

प्रश्न 12.
मुर्गियों की गर्मियों की खुराक में प्रोटीन, धातुएं तथा विटामिन की मात्रा कितनी बढ़ानी चाहिए ?
उत्तर-
20-30% तक।

प्रश्न 13.
गीले लिटर से कौन-सी गैस बनती है?
उत्तर-
इससे अमोनिया गैस बनती है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य अपनी आर्थिक आवश्यकताएं पूरी कर सके इसके लिए कौनकौन से पक्षी पालता है?
उत्तर-
मुर्गियां, टर्की, बत्तखें, हंस, बटेर, गिन्नी, फाल, कबूतर आदि ऐसे पक्षी हैं जो मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पाले जाते हैं।

प्रश्न 2.
पक्षियों के लिए गर्मी सहन करना क्यों कठिन है ?
उत्तर-
पक्षियों में पसीने के मुसाम नहीं होते तथा पंख अधिक होते हैं इसलिए इनके लिए गर्मी सहन करना कठिन होता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 8 मुर्गी पालन

मुर्गी पालन PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • ‘पोल्ट्री’ शब्द का अर्थ है ऐसे हर प्रकार के पक्षियों को पालना जो आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हों।
  • सतलुज लेयर, मुर्गियों की एक जाति है जो एक वर्ष में 255-265 अण्डे देती हैं तथा अण्डे का औसत भार 55 ग्राम होता है। मुर्गी 160 दिनों के पश्चात् अण्डे देना शुरू करती है।
  • आई० बी० एल० 80 ब्रायलर मीट पैदा करने वाली मुर्गियों की एक जाति है।। इसका 6 सप्ताह का औसत भार 1250-1350 ग्राम होता है।
  • ह्वाइट लैगहान विदेशी नसल है, जो वर्ष में 220-250 अण्डे देती है।
  • रैड आईलैंड रैड खाकी रंग के लगभग वार्षिक 180 अण्डे देती है।
  • ह्वाइट प्लाईमाऊथ राक वार्षिक 140 के लगभग अण्डे देती है तथा इसके चूजे दो माह में एक किलो भार के हो जाते हैं।
  • मुर्गियों को अपने भोजन में 40 से अधिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है। इनको 6 भागों में बांटा जा सकता है। कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, चर्बी, धातुएं, विटामिन तथा पानी।
  • चूजों को गर्मी देने वाला यंत्र बरूडर होता है।
  • एक मुर्गी को 2 वर्ग फुट स्थान चाहिए।
  • पक्षियों के शरीर में पसीने के लिए रोमछिद्र नहीं होते।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

PSEB 11th Class Geography Guide पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Questions and Answers

1. प्रश्नों के उत्तर दें-

प्रश्न (क)
विश्व का सबसे बड़ा मरुस्थल कौन-सा है ?
उत्तर-
सहारा।

प्रश्न (ख)
मरुस्थल कितने प्रकार के होते हैं ? उनके नाम लिखें।
उत्तर-
पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य Solutions

  1. रेतीला मरुस्थल-सहारा में अरग।
  2. पथरीला मरुस्थल-अल्जीरिया में रैग।
  3. चट्टानी मरुस्थल-सहारा में हमादा।

प्रश्न (ग)
अरग किसे कहते हैं ?
उत्तर-
रेतीले मरुस्थल को।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (घ)
क्या रेत के टीले सदा स्थिर रहते हैं ?
उत्तर-
नहीं, ये खिसकते रहते हैं।

प्रश्न (ङ)
लोइस मैदानों की मिट्टी का रंग कैसा होता है और उनमें किन फसलों की खेती की जाती है ?
उत्तर-
पीला रंग और गेहूँ की खेती।

प्रश्न (च)
हवा और पवन में क्या अंतर है ?
उत्तर-
वायुमंडल के दबाव कारण हवा चलती है, परंतु गतिशील हवा को पवन कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (छ)
मुसामदार चट्टानों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जिनमें पानी निचली सतह पर चला जाता है।

प्रश्न (ज)
तटवर्ती रेत के टीले कैसे बनते हैं ?
उत्तर-
जब हवा रेत को जमा करती है।

2. निम्नलिखित में अंतर स्पष्ट करें-

(i) बरखान — लोइस
(ii) जालीदार पत्थर — डरीकंटर
(iii) ज़िऊजन — यारडांग
(iv) नखलिस्तान — इनसलबर्ग
(v) रेतीले मरुस्थल — चट्टानी मरुस्थल।
उत्तर-
(i) बरखान (Barkhan)- बरखान अर्ध-चंद्र के आकार के टीले हैं। इनका आकार धनुष के समान होता है। इनके सिरों को हॉर्न कहा जाता है।
लोइस (Loess) – बारीक मिट्टी के निक्षेप को लोइस कहते हैं। चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग में पीली मिट्टी के निक्षेप को लोइस कहते हैं।

(ii) जालीदार पत्थर (Stone Lattice)-
जब नर्म और कठोर चट्टाने मिलकर बनती हैं, तब नर्म भाग रगड़े जाने से समाप्त हो जाते हैं, परंतु कठोर भाग जालीनुमा आकार में खड़े रहते हैं, जिन्हें जालीदार पत्थर कहा जाता है।

डरीकंटर (Driekanter)-
जब चट्टानों के खुरचने की क्रिया लगातार एक ही दिशा में होती रहती है, तो चट्टानें एक त्रिकोण के समान बन जाती हैं, जिन्हें डरीकंटर कहा जाता है।

(iii) ज़िऊजन (Zeugen)-

  1. ढक्कनदार दवात के आकार के स्थल रूपों को ज़िऊजन कहते हैं।
  2. इनका ऊपरी भाग कठोर होता है परंतु निचला भाग नर्म होने के कारण अधिक चौड़ा होता है।

यारडंग (Yardang)-

  1. नुकीली चट्टानों को यारडंग कहते हैं।
  2. इसमें नर्म और कठोर चट्टानें लंब रूप में होती हैं।

(iv) नखलिस्तान (Oasis)-
अपवाहन (Deflation) की क्रिया के दौरान चट्टानों की ऊपरी परतें हटती जाती हैं और सतह के नीचे वाला पानी चट्टानों के ऊपर आ जाता है, जिसके इर्द-गिर्द के क्षेत्र को नखलिस्तान कहते हैं।

इनसलबर्ग (Insellberg)-
पवनों के अपरदन से कई क्षेत्रों में कठोर चट्टानों की छोटी-छोटी पहाड़ियाँ बन जाती हैं। ये ग्रेनाइट जैसी कठोर चट्टानों से बनती हैं। इन्हें इनसलबर्ग कहते हैं।

(v) रेतीले मरुस्थल (Sandy Deserts)-
ऐसे मरुस्थल, जिनमें अधिकतर रेत ही पाई जाती है। यहाँ से रेत के कण बड़ी आसानी से पवन अपने साथ उड़ाकर ले जाती है। जैसे-सहारा।।

चट्टानी मरुस्थल (Rocky Deserts)-
ऐसे बंजर क्षेत्र, जिनकी ऊपरी नर्म परतें घिसकर बिल्कुल समाप्त हो जाती हैं और केवल चट्टानी टीले या बंजर क्षेत्र ही रह जाते हैं। जैसे-हमादा।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

3. निम्नलिखित के उत्तर सौ शब्दों में दीजिए-

प्रश्न (क)
पवनें मरुस्थल में अनावृत्तिकरण का साधन है। व्याख्या करें।
उत्तर-
पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य (Denudation Works of Winds)-
वायु और पवन-हवा वायुमण्डल के दबाव से चलती है और इस चलती या गतिशील हवा को पवन (Wind) कहते हैं। दबाव में जब अंतर पैदा होता है, तो पवनें चलती हैं। ये अधिक दबाव (High Pressure) से कम दबाव (Low Pressure) वाले क्षेत्रों की ओर चलती हैं। जिस दिशा से पवन उत्पन्न होती है, उसे पवन की दिशा कहा जाता है, भाव उस दिशा को पवन का नाम दिया जाता है।

पवनों की अनावृत्तिकरण क्रिया-यह केवल कम वर्षा, कम वनस्पति, दूसरे शब्दों में शुष्क या मरुस्थलीय क्षेत्रों में ही अधिक कार्य करती है। मरुस्थलीय क्षेत्र ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें वर्षा 25 सेंटीमीटर से भी कम और वहाँ अत्यधिक तापमान होता है। इस प्रकार की जलवायु के कारण ऐसे क्षेत्रों में किसी प्रकार की वनस्पति नहीं होती और पवनों के चलने में भी किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती और यह अनावृत्तिकरण का कार्य करती रहती हैं। विश्व के अधिकतर मरुस्थल महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में मिलते हैं। 20° से 30° उत्तरी अक्षांशों के बीच पंजाब का दक्षिण-पश्चिमी (South-West) भाग अर्द्धशुष्क (Semiarid) भाग है, जो वास्तव में थार मरुस्थल में ही मिल जाता है। पवनें निम्नलिखित कारणों के कारण ही मरुस्थल में अनावृत्तिकरण की क्रिया अधिक करती हैं-

1. भौतिक मौसमीकरण-मरुस्थल नमी-युक्त क्षेत्रों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। नमीयुक्त क्षेत्रों में रासायनिक मौसमीकरण आम है, परंतु शुष्क क्षेत्रों में भौतिक मौसमीकरण ही हो सकता है। नमक निकालना (Salt wedging) इसका ही उदाहरण है।

2. वर्षा की कमी-मरुस्थलीय इलाकों में मिट्टी और वर्षा की कमी होने के कारण वनस्पति भी कम ही होती है, इसलिए पवनें अपना काम कर सकती हैं।

3. गैर मुसामदार चट्टानें-मरुस्थलों का अधिकतर क्षेत्र गैर मुसामदार (Impermeable) होता है, जिसके कारण धरती की निचली सतह पर कोई कमी नहीं होती है।

4. रेतीले मरुस्थल-जो मरुस्थल अधिक रेतीले होते हैं, वे हवा या वर्षा के कारण और अधिक फैलते जाते हैं। इनका आकार (Size) बढ़ता जाता है।

5. अल्पकालिक नदियाँ–अधिकतर नदियाँ मौसमी या अल्पकालिक (Ephemeral) होती हैं, जोकि केवल वर्षा के समय ही थोड़े समय के लिए चलती हैं और वर्षा के एकदम बाद समाप्त हो जाती हैं।

इसलिए हम कह सकते हैं कि मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा, वनस्पति आदि कम होने के कारण पवनें अधिकतर काम करती हैं। यहाँ केवल झाड़ीदार घास या काँटेदार पौधे ही कहीं-कहीं मिलते हैं।

प्रश्न (ख)
पवनें अपघर्षण की क्रिया के दौरान कौन-कौन-सी भू-आकृतियाँ बनाती हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर-
पवनों (हवा) का कार्य (Work of Winds)-
मरुस्थल और शुष्क प्रदेशों में वनस्पति और नमी की कमी के कारण हवा अनावरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। हवा के कार्य यांत्रिक (Mechanical) होते हैं। हवा भी अन्य साधनों के समान अपरदन, ढुलाई और निक्षेप का काम करती है।

अपरदन (Erosion)-

  1. हवा का वेग (Wind Velocity) तेज़ वेग वाली पवनें अधिक मात्रा में अपरदन करती हैं। तेज़ हवा में रेत के कणों की अधिक मात्रा होती है और अधिक कटाव होता है। तेज़ हवा शक्तिशाली होती है और अपरदन अधिक करती है।
  2. रेत के कणों का आकार (Size of Sand Particles)–धरातल के नज़दीक 2 मीटर से 6 मीटर की ऊँचाई तक रेत के कणों की अधिक मात्रा के कारण अधिक कटाव होता है। अधिक ऊँचाई और रेत के कणों की कमी के कारण कम कटाव होता है।
  3. चट्टानों की रचना (Nature of Rocks)—कठोर चट्टानों पर अपरदन कम होता है।
  4. जलवायु (Climate)-शुष्क जलवायु में मौसमीकरण (Weathering) की क्रिया के कारण अधिक कटाव होता है।

कटाव या अपरदन के रूप (Types of Erosion)-

  1. नीचे का कटाव (Under cutting)
  2. नालीदार कटाव (Gully Erosion)
  3. खुरचना (Scratching)
  4. चमकाना (Polishing)

अपरदन (Erosion)-हवा द्वारा कटाव तीन प्रकार से होता है-

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य 1

1. अपवाहन (Deflation)-हवा द्वारा रेत के सूक्ष्म और शुष्क कणों को ऊपर उठाने की क्रिया को अपवाहन कहते हैं। (Deflation is the complete blowing away of fine dust.) हवा रेत और बारीक मिट्टी के कणों को हज़ारों किलोमीटर दूर तक ले जाती है। इसमें मिट्टी का कटाव होता है और खड्डे बनते हैं।

खड्डों (Depressions) का बनना-हवा जिस स्थान से रेत उड़ाकर ले जाती है, उस स्थान पर कई बड़े-बड़े खड्डे बन जाते हैं। इन खड्डों में भूमिगत पानी आकर नखलिस्तान बना देता है, जिस प्रकार मिस्र का कतारा खड्डा समुद्र तल से 140 मीटर गहरा है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य 2

2. टूट-फूट (Attrition)—हवा के धूल-कण एक-दूसरे से टकराकर चूरा-चूरा हो जाते हैं। इस क्रिया को टूट फूट कहते हैं।

3. अपघर्षण (Abrasion)-हवा में रेत के कण हवा के अपरदन के उपकरण (Tools) होते हैं। तेज़ चाल वाली हवा धूल-कणों को शक्ति के साथ चट्टानों से टकराती है। ये कण एक रेगमार (Sand Paper) की तरह कटाव करते हैं। इस घर्षण की क्रिया से नीचे लिखे भू-आकार बनते हैं, जिनका रूप अलग-अलग होता है-

(i) छत्रक कुकुरमुत्ता चट्टान (Mushroom Rocks)-चट्टानों के निचले भाग में चारों तरफ से नीचे का कटाव (Under Cutting) होता है। इस कटाव से एक पतले से आधार-स्तंभ (Pillar) के ऊपर एक छाते के आकार की कठोर चट्टान खड़ी रहती है। चट्टानों के नीचे एक गुफ़ा बन जाती है। इसे छत्र-आकारी (Mushroom) या गारा (Gara) कहते हैं। इन चट्टानों का आकार खंभ के समान होता है। इसलिए इन्हें खुंभ-आकारी चट्टान भी कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य 3

(ii) ज़िऊजन (Zeugen)-ढक्कनदार दवात के आकार के स्थल रूपों को ज़िऊजन कहते हैं। ऊपरी भाग कठोर और कम चौड़ा होता है, पर निचला भाग नरम और अधिक कटाव के कारण अधिक चौड़ा होता है। ज़िऊजन तब बनते हैं, जब कठोर और नरम चट्टानें एक-दूसरे के समानांतर (Horizontal) बिछी होती हैं। कठोर चट्टानी भाग कोमल चट्टानों पर एक टोपी का काम करता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य 4

(iii) यारडांग (Yardang) हवा के लगातार एक ही दिशा में कटाव के कारण नुकीली चट्टानों का निर्माण होता है। इन्हें यारडांग कहते हैं। ये लगभग 15 मीटर ऊँची और पसलियों (Ribs) के समान तेज़ ढलान वाली होती हैं। ये भूआकार कठोर और नरम खड़ी चट्टानों (Vertical Rocks) के कारण बनते हैं।

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(iv) पुल और खिड़की (Bridge and Window)-लंबे समय तक कटाव के कारण चट्टानों के बीच बडे-बडे छेद बन जाते हैं। चट्टानों के आर-पार एक महराब (Arch) के आकार का निर्माण होता है, जिन्हें पवन खिड़की या पुल कहते हैं, जैसे-यू०एस०ए० में Hope Window.

(v) इनसलबर्ग (Insellberg)-कठोर चट्टानों के ऊँचे टीलों को इनसलबर्ग कहते हैं। चारों तरफ से कटाव के कारण ये तिरछी और तेज़ ढलान वाले गुबंद आकार के होते हैं। ये ग्रेनाइट (Granite) और जनीस (Geniss)

जैसी कठोर चट्टानों से बने होते हैं। ये रेत के समूह में पहाड़ी द्वीप के समान दिखाई देते हैं। भारत में रायपुर के निकट कूपघाट में ऐसे टीले मिलते हैं।

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PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (ग)
पवनों की जमा करने की क्रिया का विस्तार सहित वर्णन करें।
उत्तर-
निक्षेप (Deposition)-जब हवा का वेग कम हो जाता है, तो उसे अपना भार कहीं-न-कहीं छोड़ना पड़ता है। इस निक्षेप से रेत के टीले और लोइस प्रदेश बनते हैं।

I. रेत के टीले (Sand Dunes)-जब रेत के मोटे कण टीलों के रूप में जमा हो जाते हैं, तो उन्हें रेत के टीले कहते हैं। (Sand Dunes are hills on wind blown Sand.) इनके बनने के नीचे लिखे क्षेत्र हैं-

  1. रेतीले मरुस्थलों में
  2. रेतीले समुद्री तटों पर
  3. झीलों के तट पर
  4. नदियों के तट पर।

रेत के टीलों के लिए कुछ ज़रूरी शर्ते (Essential Conditions) होती हैं-

  1. रेत की अधिक मात्रा
  2. तेज़ हवा
  3. हवा के मार्ग में रुकावट
  4. उपयुक्त स्थान।

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रेत की टीलों के प्रकार (Types of Sand Dunes)-

1. लंबाकार रेत के टीले (Longitudinal Dunes)-यह प्रचलित हवा की दिशा के समानांतर बनते हैं। ये रेत की लंबी दीवारें होती हैं। इनका आकार लंबी पहाड़ी के समान होता है। इन्हें सहारा मरुस्थल में सीफ़ (Seif) कहते हैं।

2. रेत के आड़े टीले (Transverse Dunes)-यह प्रचलित हवा की दिशा के समकोण पर आर-पार बनते हैं। यह कम गति वाली हवा के लगातार एक ही दिशा में बहने से बनते हैं। इनका आकार अर्द्ध-चंद्र जैसा होता है।

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3. बरखान (Barkhan)-ये अर्द्ध-चंद्र आकार के टीले होते हैं, जिनमें पवनमुखी ढलान उत्तल (Convex) और पवनाविमुखी ढलान अवतल (Concave) होती है। इनका आकार दरांती (Sickle) अथवा दूज के चाँद (Crescent Moon) अथवा धनुष के समान होता है। ये झुंडों या कतारों में मिलते हैं। इनके सिरों को Horns कहते हैं। इनके सिरों पर कम रुकावट होने के कारण ये आगे को बढ़ते रहते हैं। राजस्थान में शाहगढ़ के । निकट बहुत सारे बरखान मिलते हैं। ये रेत के टीले खिसकते रहते हैं और कई शहर रेत के नीचे दब जाते हैं। राजस्थान का मरुस्थल इसी कारण पंजाब की ओर बढ़ता जा रहा है। सहारा मरुस्थल में ये प्रतिवर्ष 30 मीटर आगे की ओर बढ़ जाते हैं और ऐसे प्रदेशों को अरग (Erg) कहते हैं।

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II. लोइस (Loess)-दूर-दूर के स्थानों से उठाकर लाई हुई बारीक मिट्टी के जमाव को लोइस कहते हैं। यह मिट्टी पानी चूस लेती है। पानी के साथ मिट्टी नीचे परतों में बैठ जाती है। यह बहुत उपजाऊ होती है। मरुस्थलों की सीमा पर रेत के बारीक कणों के निक्षेप से लोइस प्रदेश बनते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश चीन के उत्तरपश्चिमी भाग में पीली मिट्टी का लोइस का प्रदेश है, जो लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस प्रदेश में पीली नदी ‘ह्वांग हो’ गहरी घाटियों का निर्माण करती है।

Geography Guide for Class 11 PSEB पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पवन किसे कहते हैं ?
उत्तर-
गतिशील हवा को पवन कहते हैं।

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प्रश्न 2.
मरुस्थल किस प्रकार के क्षेत्र हैं ?
उत्तर-
जहाँ वार्षिक वर्षा 25 सैंटीमीटर से कम हो।

प्रश्न 3.
किन अक्षांशों में मरुस्थल स्थित हैं ?
उत्तर-
20°–30°.

प्रश्न 4.
पंजाब के किस भाग में अर्द्ध-मरुस्थल हैं ?
उत्तर-
दक्षिण-पश्चिमी भाग।

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प्रश्न 5.
विश्व के सबसे बड़े मरुस्थल का नाम बताएँ।
उत्तर-
अफ्रीका में सहारा।

प्रश्न 6.
विश्व के सबसे शुष्क मरुस्थल का नाम बताएं।
उत्तर-
दक्षिणी अमेरिका में अटाकामा।

प्रश्न 7.
खंड आकार की चट्टानों का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
सहारा में।

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प्रश्न 8.
भारत में यारडांग कहाँ मिलते हैं ?
उत्तर-
जैसलमेर (राजस्थान में)।

प्रश्न 9.
खिड़की और पुल का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
यू०एस०ए० में रेनबो ब्रिज।

प्रश्न 10.
लोइस के मैदान कहाँ स्थित हैं ?
उत्तर-
चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग में।

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अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
पवनों का कार्य किन क्षेत्रों में अधिक होता है ?
उत्तर-
मरुस्थलों में।

प्रश्न 2.
अपवाहन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हवा द्वारा रेत के सूक्ष्म कणों को ऊपर उठाने की क्रिया को अपवाहन कहते हैं।

प्रश्न 3.
अपवाहन के दो प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
खड्डे बनना और मिट्टी का कटाव।

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प्रश्न 4.
सहघर्षण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
रेत के कणों के आपस में टकराकर चूरा-चूरा होने की क्रिया को सहघर्षण कहते हैं।

प्रश्न 5.
घर्षण क्रिया से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
रेत के कणों द्वारा चट्टानों को रेगमार की तरह घिसाने की क्रिया को घर्षण क्रिया कहते हैं।

प्रश्न 6.
कतारा डुंघान कहाँ है ?
उत्तर-
मिस्र देश में।

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प्रश्न 7.
पवनों के द्वारा अपरदन किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-

  1. वायु वेग
  2. रेत कणों का आकार
  3. चट्टानों की रचना
  4. जलवायु।

प्रश्न 8.
छत्रक/खुंभ (कुकुरमुत्ता) चट्टानें क्या होती हैं ?
उत्तर-
चट्टानों के निचले कटाव के कारण, एक पतले स्तंभ के ऊपर छाते के आकार की कठोर चट्टानों को छत्रक/ खुंभ चट्टानें कहते हैं।

प्रश्न 9.
ज़िऊजन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
ढक्कनदार दवात के आकार के स्थल रूपों को ज़िऊजन कहते हैं।

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प्रश्न 10.
यारडांग से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नर्म चट्टानों के ऊपर कठोर चट्टानों की नुकीली चट्टानों को यारडांग कहते हैं।

प्रश्न 11.
इनसलबर्ग से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुंबद आकार की कठोर चट्टानों के टीलों को इनसलबर्ग कहते हैं।

प्रश्न 12.
बरखान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
ये अर्द्ध-चंद्र के आकार के रेत के टीले हैं, जिनमें पवनमुखी ढलान उत्तल (Convex) होती है और पवनाविमुखी ढलान अवतल (Concave) होती है।

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प्रश्न 13.
लोइस से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बारीक रेत के कणों के निक्षेप को लोइस प्रदेश कहते हैं, जैसे-चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग में।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हवा का अपरदन किन कारकों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-
1. हवा का वेग (Wind Velocity) तेज़ वेग वाली पवनें अधिक मात्रा में अपरदन करती हैं। तेज़ हवा में रेत के कणों की मात्रा अधिक होती है और कटाव भी अधिक होता है। तेज़ हवा अधिक शक्तिशाली होती है और अपरदन भी अधिक करती है।

2. रेत के कणों का आकार (Size of Sand Particles)–धरातल के निकट 2 मीटर से 6 मीटर की ऊँचाई तक रेत के कणों की अधिक मात्रा के कारण कटाव अधिक होता है। अधिक ऊँचाई पर रेत के कणों की कमी के कारण कटाव कम होता है।

3. चट्टानों की रचना (Nature of Rocks) कठोर चट्टानों पर अपरदन कम होता है।

4. जलवायु (Climate)-शुष्क जलवायु में मौसमीकरण (Weathering) की क्रिया के कारण कटाव अधिक होता है।

प्रश्न 2.
बरखान क्या होते हैं ?
उत्तर-
बरखान अर्द्ध-चंद्र के आकार के टीले होते हैं, जिनमें पवनामुखी ढलान उत्तल (Convex) और पवनाविमुखी ढलान अवतल (Concave) होती है। इनका आकार दरांती (Sickle) या दूज के चाँद (Crescent Moon) या धनुष के समान होता है। ये झुंडों या कतारों में मिलते हैं। इनके सिरों को Horns कहते हैं। इनके सिरों पर रुकावट होने के कारण ये आगे को बढ़ते रहते हैं। राजस्थान में शाहगढ़ के निकट बहुत से बरखान मिलते हैं।

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प्रश्न 3.
लोइस से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लोइस (Loess)-दूर-दूर के स्थानों से उठाकर लाई हुई बारीक मिट्टी के जमाव को लोइस कहते हैं। यह मिट्टी पानी चूस लेती है। पानी के साथ मिट्टी नीचे परतों में बैठ जाती है। यह मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है। मरुस्थलों की सीमा पर रेत के बारीक कणों के निक्षेप से लोइस प्रदेश बनते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग में पीली मिट्टी का लोइस प्रदेश है, जो लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस प्रदेश में पीली नदी ‘ह्वांग हो’ गहरी घाटियों का निर्माण करती है।

प्रश्न 4.
हवा और नदी के कार्य की तुलना करें।
उत्तर
हवा का कार्य-

  1. हवा का कार्य मरुस्थल प्रदेशों में महत्त्वपूर्ण होता है।
  2. हवा अपने मलबे को दूर-दूर के प्रदेशों तक उड़ाकर ले जाती है।
  3. हवा का काम हवा की गति पर निर्भर करता है।
  4. हवा का मलबा कम होता है और काम कम गति से होता है।

नदी का कार्य-

  1. नदी का कार्य नमी वाले प्रदेशों में महत्त्वपूर्ण होता है।
  2. नदी का काम अपनी घाटी तक ही सीमित होता है।
  3. नदी का काम धरातल की ढलान पर निर्भर करता है।
  4. नदी का मलबा अधिक होता है और काम तेज़ गति से होता है।

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प्रश्न 5.
रेत के लंबाकार टीलों और आड़े टीलों में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-
लंबाकार टीले-

  1. ये अर्द्ध-चंद्र के आकार के होते हैं।
  2. ये बहने वाली पवनों की दिशा के समानांतर बनते हैं।
  3. ये 100 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
  4. ये तलवार के आकार के होते हैं और इन्हें सीफ भी कहा जाता है।

आड़े टील-

  1. ये रेत की लंबी दीवारों के समान होते हैं।
  2. ये बहने वाली पवनों की दिशा के समकोण पर बनते हैं।
  3. ये 50 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
  4. ये लहरों के आकार के समान ऊँचे-नीचे होते हैं।

निबंधात्मक प्रश्न । (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
मरुस्थलों के भिन्न-भिन्न प्रकार बताएँ।
उत्तर-
पवनों की क्रिया (खुरचना, जमा करना) से मरुस्थल के निर्माण भी तीन प्रकार के हो सकते हैं-
1. रेतीले मरुस्थल (Sandy Deserts)—ऐसे मरुस्थल, जिनमें अधिकतर रेत ही मिलती है, वहाँ रेत के कणों __ को बड़ी आसानी से पवनें, अपने साथ उड़ाकर ले जाती हैं। इन्हें सहारा में अरग (Ergs), तुरकमेनिस्तान में काउन (Koun) कहा जाता है। सऊदी अरब में सबसे बड़ा अरग, खली (Khalli) नामक स्थान पर है, जिसका आकार 5 लाख 60 हज़ार वर्ग किलोमीटर है।

2. पथरीला मरुस्थल (Stony Deserts)—ऐसे मरुस्थल, जोकि बजरी, पत्थर आदि के टुकड़े, कंकड़ आदि से बने होते हैं, पथरीले मरुस्थल कहलाते हैं। एलजीरिया का रैग (Reg) इसका उपयुक्त उदाहरण है।

3. चट्टानी मरुस्थल (Rocky Deserts)-ऐसे बंजर क्षेत्र, जिनकी ऊपरी नर्म परतें घिसकर बिल्कुल समाप्त हो गई हों और केवल चट्टानी टीले या बंजर क्षेत्र ही हों, ऐसे क्षेत्रों को चट्टानी मरुस्थल कहते हैं। जैसे-हमादा बंजर (Hammada-Barren), सहारा मरुस्थल में ऐसे क्षेत्रों को हमादा कहते हैं।

विश्व का सबसे बड़ा मरुस्थल सहारा मरुस्थल है। यह अफ्रीका में है। थार मरुस्थल, जो कि भारत में स्थित (राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब और पाकिस्तान, पंजाब के सिंध) एक गर्म मरुस्थल है। जबकि मध्य एशिया (Central Asia) में ठंडे मरुस्थल भी हैं। ऐटाकॉमा जो कि दक्षिणी अमेरिका में संसार का सबसे शुष्क मरुस्थल है, में वार्षिक वर्षा एक मिलीमीटर से भी कम है।

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प्रश्न 2.
पवनों के अपरदन कार्यों के प्रकार बताएँ। अपरदन को नियंत्रित करने वाले कारक भी बताएँ।
उत्तर-
पवनों का अपरदन कार्य (Erosional Work of Wind)-
वनस्पति से रहित शुष्क प्रदेशों में ताप-अंतर के कारण चट्टानें टूटकर छोटे-छोटे कणों में बदल जाती हैं। पवन इन कणों को अपने साथ उड़ाकर ले जाती है। ये कण काट-छाँट में पवन की सहायता करते हैं, इसलिए इन्हें पवन की कटाई के उपकरण (Cutting tools of wind) कहा जाता है।
पवन अपरदन के प्रकार (Types of Wind Erosion)-पवन रेत और धूल-कणों की सहायता से अपना अपरदन कार्य करती है। यह मुख्य रूप में भौतिक अपरदन करती है। पवन द्वारा अपरदन नीचे लिखे तीन प्रकार से होता है-

  • घर्षण (Abrasion)-शुष्क प्रदेशों में पवन रेत को उड़ाकर दूर ले जाती है। इस रेत के कण पवन की अपरदन क्रिया के उपकरण के रूप में चट्टानों पर आक्रमण करते हैं जिससे चट्टानें घिसती हैं। इस क्रिया को घर्षण कहते हैं।
  • सह-घर्षण (Attrition)—जब उड़ते हुए धूलकण आपसी कटाव के कारण छोटे और मुलायम हो जाते हैं, तो उस क्रिया को सह-घर्षण कहते हैं।
  • अपवाहन (Deflation)-पवन द्वारा धूल-कणों को उड़ाकर बहुत दूर ले जाने की क्रिया को अपवाहन कहा जाता है।

पवन अपरदन को नियंत्रित करने वाले कारक (Factors Controlling Wind Erosion)-

पवन अपरदन को नियंत्रित करने वाले कारक नीचे लिखे हैं-

1. पवन वेग (Wind Velocity)-तीव्र पवनों से अधिक अपरदन होता है क्योंकि इसमें बड़े-बड़े धूल-कण भी उड़ते हैं। फलस्वरूप ये धूल-कण चट्टानों पर ज़ोर से हमला करके उन्हें घिसा देते हैं।

2. धूल कणों का आकार और ऊँचाई (Size of Sand Grains and Height)-धूल-कणों के आकार और ऊँचाई का भी अपरदन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। छोटे WIND आकार के धूल-कण वायु में अधिक ऊँचाई पर उड़ते हैं, परंतु बड़े-बड़े कण धरातल के निकट ही प्रवाहित होते हैं। इसलिए धरातल के निकट (2 मीटर से 6 मीटर तक) वायु अपरदन सबसे अधिक होता है और ऊँचाई के साथ यह क्रिया क्रमबद्ध कम होती जाती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य 10

3. चट्टानों की कठोरता (Solidity of Rocks) नर्म चट्टानें कठोर चट्टानों की तुलना में जल्दी घिसती हैं।
4. जलवायु (Climate)-शुष्क जलवायु में मौसमीकरण की क्रिया से अधिक अपरदन होता है।

कटाव तथा अपरदन के रूप (Types of Erosion)-

  1. नीचे का कटाव (Under Cutting)
  2. नालीदार कटाव (Gully Erosion)
  3. खुरचना (Scratching)
  4. चमकाना (Polishing)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(iii) पवनों के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न 3.
पवनों की परिवहन क्रिया की प्रमुख विशेषताएँ और कार्य बताएँ।
उत्तर-
प्रमुख विशेषताएँ-

  1. पवनों के द्वारा परिवहन किसी भी दिशा में हो सकता है।
  2. यह कार्य भूतल के निकट कम ऊँचाई तक सीमित होता है।
  3. पवनों द्वारा परिवहन दूर-दूर तक होता है।
  4. पवनों के द्वारा बारीक धूल-कण दूर-दूर तक प्रवाहित होते हैं, परंतु भारी कण लटकते रहते हैं।

पवनों द्वारा सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ढोना (Transportation by Wind)
पवनें चट्टानों के छोटे-छोटे टुकड़े, मिट्टी, कंकड़ आदि दरिया और ग्लेशियर की तरह ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जाती हैं, पर पवनों का यह कार्य नदियों की तरह इतना प्रभावशाली नहीं होता। मरुस्थलों में यह क्रिया देखी जा सकती है। पवनें कई प्रकार से यह कार्य करती हैं-
1. पवन की गति जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक सामान उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जा सकेगी।

2. जब पवन धीरे चलती है, तो अपने साथ कई छोटे-छोटे रेत के कण उड़ाकर ले जाती है, पर जब तेज़ चलती है, तो बिजली के खंभे, पेड़ आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है। कई बार चट्टानों के बड़े टुकड़े भी पवनों के साथ-साथ सरकते रहते हैं। भारी होने के कारण वे उड़ नहीं सकते।

3. उदाहरण के लिए, एक मिट्टी का तूफान (Dust storm) जिसका व्यास 500 कि०मी० है, 10 करोड़ (100 मिलीयन) टन तक मिट्टी उठा सकता है और 30 मीटर ऊँची और 3 किलोमीटर आधार की चौड़ी पहाड़ी बना सकता है। थार मरुस्थल में जब तेज़ आंधी चलती है, तो हमें तीन फुट की दूरी से भी नज़र नहीं आता। इससे पता चलता है कि पवन के साथ उठाया सामान देखने के मार्ग में रुकावट बनता है। पवन में मिट्टी के कण, कंकड़, पत्थर आपस में रगड़ खाने के कारण आकार में छोटे हो जाते हैं। जब पवन की गति कम हो जाती है, तो यह इस सामान को जमा करने का कार्य शुरू कर देती है।

रेत के टीलों का खिसकना (Shifting of Sand dunes)-पवन की दिशा निश्चित नहीं होती, इसलिए रेत के टीले पवनों की दिशा के परिवर्तन के अनुसार खिसकते रहते हैं। इसलिए, ये स्थिर नहीं होते। पवन जिस दिशा की ओर चलती है, बालू के टीले भी इसके साथ खिसक जाते हैं। आगे बढ़ते रेत के टीले उपजाऊ मैदानों को बहुत क्षति पहुंचाते हैं। जल्दी उगने वाले और लंबी जड़ों वाले पेड़ों को ऐसे मरुस्थलीय क्षेत्रों में लगाया जाता है, ताकि इन टीलों को आगे बढ़ने से रोका जा सके। यह 5 से 30 मीटर वार्षिक दर से आगे खिसक सकते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
(Describe the functions of a legislature.)
अथवा
आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में विधानमण्डल के कार्यों का वर्णन करें।
(Describe the functions of the legislature in a modern democratic state.)
उत्तर-
सरकार के तीनों अंगों में से विधानपालिका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। विधानपालिका राज्य की इच्छा को कानून के रूप में निर्मित करती है। कार्यपालिका विधानपालिका के बनाए हुए कानूनों को लागू करती है तथा न्यायपालिका इन कानूनों की व्याख्या करती है। इस प्रकार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका अपने कार्यों के लिए विधानमण्डल पर निर्भर करती हैं। इसलिए विधानमण्डल का कार्यपालिका तथा न्यायपालिका से महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि इसी का देश के वित्त पर नियन्त्रण होता है।

विधानमण्डल के कार्य देश की शासन प्रणाली पर निर्भर करते हैं। लोकतन्त्रीय राज्यों में विधानमण्डल को प्रायः निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं :

1. कानून निर्माण का कार्य (Law Making Functions)—विधानमण्डल का प्रथम कार्य कानूनों का निर्माण करना है। विधानमण्डल देश की परिस्थितियों के अनुसार तथा नागरिकों की आवश्यकताओं के अनुसार कानूनों का निर्माण करता है। विधानमण्डल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है और जनता की इच्छा विधानमण्डल के कानूनों में ही प्रकट होती है। आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्यों में कानून का मुख्य स्रोत विधानमण्डल है।

2. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-लोकतन्त्र राज्यों में विधानमण्डल का कार्यपालिका पर थोड़ा बहुत नियन्त्रण अवश्य होता है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपने समस्त कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होती है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं और मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे विधानमण्डल का विश्वास प्राप्त हो। अविश्वास प्रस्ताव पास होने की दशा में मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ता है। विधानमण्डल के सदस्य मन्त्रियों से अनेक प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते हैं। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका प्रत्यक्ष तौर पर विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। फिर भी विधानमण्डल का कार्यपालिका पर थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को बड़ी-बड़ी नियुक्तियां करने तथा सन्धियां करने के लिए सीनेट की अनुमति लेनी पड़ती है। सीनेट विधानमण्डल का ऊपरी सदन है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

3. वित्त पर नियन्त्रण (Control over Finance)-संसार के प्रायः सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में वित्त पर विधानमण्डल का नियन्त्रण होता है। कार्यपालिका विधानमण्डल की अनुमति के बिना एक पैसा खर्च नहीं कर सकती। विधानमण्डल प्रति वर्ष बजट पास करती है। टैक्स लगाना, टैक्सों में संशोधन करना तथा करों को समाप्त करना विधानमण्डल का ही कार्य है।

4. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-कई देशों में विधानपालिका को न्यायिक कार्य भी करने पड़ते हैं। अमेरिका में विधानमण्डल राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति पर महाभियोग चला कर उन्हें पद से हटा सकता है। भारत में भी संसद् राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति को महाभियोग के द्वारा हटा सकती है। कैनेडा में तलाक के मुकद्दमे विधानमण्डल द्वारा सुने जाते हैं। स्विट्ज़रलैंड में क्षमादान का अधिकार विधानमण्डल के पास है।

5. संविधान में संशोधन (Amendment in the Constitution) सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधानमण्डल के पास है। कुछ देशों में संविधान में संशोधन साधारण बहुमत से किया जा सकता है। जबकि कुछ देशों में संशोधन करने के लिए विशेष विधि अपनाई जाती है। इंग्लैण्ड में संसद् संविधान में साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। हमारे देश में संसद् को संविधान की कुछ धाराओं को दो-तिहाई बहुमत से संशोधन करने के लिए आधे राज्यों की अनुमति की भी आवश्यकता होती है।

6. चुनाव-सम्बन्धी कार्य (Electoral Functions)-विधानमण्डल चुनाव सम्बन्धी कार्य भी करती है। भारतवर्ष में राष्ट्रपति का चुनाव संसद् के दोनों सदनों के चुने हुए राष्ट्र तथा प्रान्तों की विधानसभाओं के सदस्य मिलकर करते हैं। उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद् के दोनों सदन मिलकर करते हैं। इंग्लैण्ड में विधानमण्डल का निम्न सदन अपने स्पीकर का चुनाव करता है। स्विट्ज़रलैण्ड में कार्यपालिका के सदस्यों का चुनाव विधानमण्डल के द्वारा ही किया जाता है।

7. जांच-पड़ताल सम्बन्धी कार्य (Investigating Functions)-व्यवस्थापिका महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक मामलों की छानबीन करने के लिए विशेषज्ञों की समितियां नियुक्त करती है। ये समितियां निश्चित समय के अन्दर अपनी रिपोर्ट व्यवस्थापिका के सामने पेश करती हैं। व्यवस्थापिका इन रिपोर्टों पर विचार करती है और व्यवस्थापिका का निर्णय अन्तिम होता है।

8. विदेश नीति पर नियन्त्रण (Control over Foreign Policy)-व्यवस्थापिका राज्य के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की देखभाल भी करती है। मन्त्रिमण्डल को अपनी विदेश नीति विधानमण्डल से पास करानी पड़ती है। गणतन्त्रात्मक राज्यों में कोई भी युद्ध या सन्धि उस समय तक नहीं की जा सकती जब तक विधानमण्डल की उस विषय में राय न ले ली जाए।

9. लोगों की शिकायतें दूर करना (Redressal of the Grievences of the People)-आजकल लोकतन्त्र के युग में विधानमण्डल लोगों की शिकायतों को जोकि प्रशासन के विरुद्ध हों, दूर करने के प्रयत्न भी करता है। विधानमण्डल में जनता के प्रतिनिधि होते हैं। जनता को जो भी शिकायत, कठिनाई या समस्या हो, वह अपने प्रतिनिधियों के पास भेज देते हैं। प्रतिनिधि उन्हें विधानमण्डल में प्रस्तुत करते हैं, उनके बारे में मन्त्रियों से प्रश्न भी पूछते हैं और प्रयत्न करते हैं कि वह कठिनाई या समस्या हल हो या शिकायत दूर हो। जनता के पास सरकार के विरुद्ध आवाज़ उठाने का यह एक बहुत बड़ा प्रभावशाली साधन है।

10. विचारशील कार्य (Deliberative Functions)-व्यवस्थापिका का एक महत्त्वपूर्ण कार्य राजनीतिक मामलों
और शासन सम्बन्धी नीतियों पर विचार-विमर्श और वाद-विवाद करना है। किसी भी विषय पर कानून बनाने से पहले अथवा निर्णय लेने से पूर्व उस पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जाता है। व्यवस्थापिका में विभिन्न हितों, वर्गों और सम्प्रदायों के प्रतिनिधि होते हैं तथा सभी को अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होती है।

11. अन्य कार्य (Other Functions) विधानपालिका देश के आर्थिक विकास की योजनाओं की स्वीकृति देती है। सरकारी निगमों की स्थापना के लिए कानून बनाती है। कार्यपालिका के किसी एक सदस्य या समस्त मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध लगे आरोपों की जांच-पड़ताल करने के लिए जांच कमीशन नियुक्त करती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-इस प्रकार आधुनिक राज्य में व्यवस्थापिका को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है और इसे कानून बनाने के अतिरिक्त प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के अधिकार भी दिए जाते हैं। प्रायः सभी देशों में युद्ध और शान्ति की घोषणा व्यवस्थापिका की स्वीकृति से ही की जा सकती है। लोकतन्त्र में इसको सर्वोच्च स्थान मिलना स्वाभाविक ही है।

प्रश्न 2.
द्वि-सदनात्मक व्यवस्था के लाभ तथा हानियों की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
(Examine critically advantages and disadvantages of the bicameral system.)
अथवा
द्विसदनीय विधानमण्डल के लाभ तथा हानियों का वर्णन कीजिए। (Explain the merits and demerits of the bicameral system.)
उत्तर-
विधानमण्डल सरकार के तीनों अंगों में से सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। संसार के प्रायः सभी देशों में विधानमण्डल पाया जाता है, परन्तु इसके संगठन पर बहुमत में मतभेद पाया जाता है अर्थात् इस प्रश्न पर कि क्या विधानमण्डल के दो सदन होने चाहिएं अथवा एक सदन होना चाहिए, काफ़ी मतभेद पाया जाता है। जॉन स्टुअर्ट मिल, सर हैनरी मेन तथा लेकी आदि लेखकों ने विधानमण्डल के दो सदनों का समर्थन किया है। परन्तु बेन्थम, अबेसियस तथा बैंजमिन फ्रैंकलिन आदि लेखकों ने विधानमण्डल के एक सदन का समर्थन किया है।

जिस प्रकार लेखकों के विचारों में भिन्नता पाई जाती है, उसी प्रकार व्यवहार में कई देशों में विधानमण्डल के दो सदन हैं जबकि कुछ देशों में एक सदन है। इंग्लैंण्ड, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, स्विट्ज़रलैण्ड, जापान, स्वीडन, नार्वे तथा भारतवर्ष में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं। पहले सदन को निम्न सदन तथा दूसरे सदन को उपरि सदन कहा जाता है। परन्तु चीन, तुर्की तथा पुर्तगाल में एक सदन पाया जाता है। भारत के कई राज्यों में जैसे कि राजस्थान, नागालैण्ड, उड़ीसा, केरल, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी बंगाल तथा पंजाब में एक सदन पाया जाता है जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, जम्मूकश्मीर आदि राज्यों में द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका है। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले दो सदन के पक्ष में तथा विपक्ष में दिए गए तर्कों का अध्ययन करना आवश्यक है।

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द्विसदनात्मक विधानमण्डल के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Bicameralism)-

द्विसदनात्मक विधानमण्डल के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं :

1. दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है (Second Chamber checks the Despotism of the Lower House)—जिस देश में एक सदन होता है वहां पर सदन निरंकुश बन जाता है। यह साधारणतः कहा जाता है कि “शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट करती है और निरंकुश सत्ता उसे पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है।” एक सदन का यही हाल होता है। जिस दल का सदन में बहुमत होता है वह अपनी मनमानी करता है और अल्प-संख्यकों पर अत्याचार करता है। पहले सदन की निरंकुशता को रोकने के लिए दूसरे सदन का होना आवश्यक है। दूसरा सदन पहले सदन को मनमानी करने से रोकता है और इस प्रकार नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।

2. दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दी में पास किए गए कानूनों को रोकता है (Second Chamber prevents the Hasty and Ill considered Legislation)-दूसरा सदन पहले सदन द्वारा जल्दी में पास किए बिलों को कानून बनने से रोकता है। बहुमत दल जनता से किए गए वायदों को पूरा करने के लिए जोश में आकर विभिन्न कानून पास कर देता है। पहले सदन के पास अधिक समय कम होने के कारण बिल जल्दबाजी में पास कर दिए जाते हैं। दूसरा सदन पहले सदन के द्वारा जल्दबाजी तथा अविचारपूर्ण पास किए गए बिलों को कुछ समय के लिए रोक लेता है जिससे जनता की राय का पता चलता है।

3. यह बिलों को दोहराने वाला सदन है (It is a Revisory Chamber)-दूसरा सदन पहले सदन द्वारा पास हुए बिलों को दोहराता है और विधेयक में रह गई त्रुटियों को दूर करता है। वास्तव में किसी विषय को दोहराना कोई बुरी बात नहीं है। ब्लंटशली (Bluntschli) ने ठीक कहा है कि “दो आंखों की अपेक्षा चार आंखें अच्छी तरह देखती हैं। विशेषतः जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया जाना हो।”

4. दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है (Second Chamber Saves the time of the Lower House)-एक सदन के पास इतना अधिक कार्य होता है कि प्रत्येक बिल पर पूर्ण विचार करके पास करना असम्भव है। दूसरे सदन में विवादहीन तथा विरोध-हीन बिलों को पेश किया जाता है, इन बिलों पर पूर्ण रूप से विचार करने के पश्चात् बिल को पहले सदन के पास भेज दिया जाता है। पहला सदन इन बिलों को शीघ्र ही पास कर देता है। इस प्रकार दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है।

5. दूसरा सदन विशेष हितों और अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आवश्यक है (Second Chamber is essential for giving Representation to Special Interests and Minorities)-दूसरे सदन का होना आवश्यक है ताकि विशेष वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जा सके। इसके अतिरिक्त प्रत्येक देश में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो चुनाव लड़ना पसन्द नहीं करते पर उनकी योग्यता की देश को आवश्यकता होती है। ऐसे योग्य व्यक्तियों की योग्यता का लाभ तभी उठाया जा सकता है जब विधानमण्डल का दूसरा सदन हो। इन योग्य व्यक्तियों को दूसरे सदन में नामजद किया जाता है।

6. दूसरा सदन संघात्मक राज्यों के लिए अनिवार्य है (Second Chamber is essential in Federal Form of Government) संघात्मक सरकार की सफलता के लिए दूसरा सदन अनिवार्य है ताकि दूसरे सदन में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देकर सब इकाइयों के हितों की रक्षा की जा सके। ऐसे सिद्धान्त अमेरिका तथा स्विट्ज़रलैण्ड आदि देशों में हैं। अमेरिका में प्रत्येक इकाई उपरि सदन में दो सदस्य भेजती है।

7. दूसरा सदन अधिक स्थायी (Second Chamber is more Stable)-दूसरा सदन पहले सदन की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होता है। इंग्लैण्ड का लॉज सदन तो पैतृक है। कनाडा के सीनेट के सदस्य जीवन भर के लिए मनोनीत होते हैं और भारत में राज्य सभा के एक-तिहाई (1/3) सदस्य प्रत्येक दो वर्ष के पश्चात् रिटायर होते हैं और निचले सदन की अवधि केवल 5 वर्ष की है इसलिए दूसरे सदन के सदस्य अधिक अनुभवी होते हैं। ऐसे सदस्य अपने अनुभव के आधार पर कानून में अच्छे-अच्छे सुझाव दे सकते हैं।

8. द्वि-सदनीय विधानमण्डल जनमत का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व करता है (Bicameral Legislature better reflects the Public Opinion)-विधानमण्डल के दोनों सदन मिलकर जनमत का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। एक सदन जनमत का ठीक प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। निम्न सदन की अवधि प्राय: चार अथवा पांच वर्ष होती है और कई बार सदन को अवधि से पूर्व भी भंग कर दिया जाता है। परन्तु दूसरा सदन अधिक स्थायी होता है। जब निम्न सदन को भंग कर दिया जाता है तब जनता का प्रतिनिधित्व दूसरा सदन करता है। इसके अतिरिक्त निम्न सदन कई बार अपनी अवधि समाप्त होने से पहले ही पुराना हो जाता है और परिवर्तित जनमत का प्रतिनिधित्व ठीक तरह से नहीं करता। परन्तु उपरि सदन के सदस्य कुछ समय पश्चात् रिटायर होते रहते हैं तथा उनके स्थान पर नए सदस्यों का चुनाव किया जाता है जो परिवर्तित जनमत का प्रतिनिधित्व करते हैं।

9. द्वि-सदनीय विधानमण्डल कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है (Bicameral Legislature gives more Independence to the Executive)-द्वि-सदनीय विधानमण्डल में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। कार्यपालिका अपना कार्य तभी कुशलता से कर सकती है जब उसे कार्य करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। कई बार कार्यपालिका को अपनी नीतियों को एक सदन में समर्थन प्राप्त नहीं होता पर यदि दूसरे सदन में उनका समर्थन प्राप्त हो जाए तो वे अपना कार्य विश्वास से कर सकते हैं। इससे कार्यपालिका की निर्भरता एक सदन पर नहीं रहती। कार्यपालिका दो सदनों के होने से अधिक स्वतन्त्र हो जाती है।

10. दूसरे सदन में उच्च स्तर के भाषण होते हैं (High Quality of Speeches in Second Chamber)दूसरे सदन के भाषणों का स्तर निम्न सदन की अपेक्षा ऊंचा होता है। इसके दो कारण हैं

  • निम्न सदन के सदस्यों के बोलने के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगे हुए होते हैं। परन्तु उपरि सदन के सदस्यों के बोलने पर कम प्रतिबन्ध होते हैं और उन्हें बोलने के लिए भी काफ़ी समय मिल जाता है। भाषण की स्वतन्त्रता होने के कारण सदस्य अपने विचारों को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट करते हैं और उनके भाषण का स्तर काफ़ी ऊंचा होता है।
  • दूसरे सदन में अनुभवी व्यक्ति होते हैं।

11. देरी करने की उपयोगिता (Utility of delaying Power)-दूसरे सदन के बिलों को पास करने में देरी लगाने की अपनी विशेष उपयोगिता है। दूसरा सदन विधेयकों को पास करने में इतनी देरी लगा देता है, जिससे जनता को उस विधेयक पर सोच-विचार करने तथा मत प्रकट करने के लिए समय मिल जाता है।

12. ऐतिहासिक समर्थन (Historical Support)-दूसरे सदन की उपयोगिता का समर्थन इतिहास द्वारा भी किया जाता है। इंग्लैण्ड में 1649 ई० में क्रामवैल (Cromwell) ने लार्ड सदन को समाप्त कर दिया, परन्तु 1660 ई० में लार्ज़ सदन को पुनः स्थापित किया गया। अमेरिका में स्वतन्त्रता के पश्चात् एक सदनीय विधानमण्डल की स्थापना की गई थी, परन्तु वह ठीक कार्य न कर सका जिसके फलस्वरूप 1787 ई० के संविधान के अन्तर्गत में द्वि-सदनीय प्रणाली को अपनाया गया। इंग्लैण्ड, भारत, फ्रांस, अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड, कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि सभी देशों में संसद् के दो-दो सदन हैं। इतिहास दूसरे सदन के पक्ष में है, इसके विरुद्ध नहीं।

दूसरे सदन के विपक्ष में तर्क (Arguments against Second Chamber)-

बहुत से विद्वानों का यह मत है कि दूसरा सदन आवश्यक नहीं। दूसरे सदन के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

1. जनता की इच्छा एक है, दो नहीं (People have Only One Will not Two)—एक सदन के समर्थकों के अनुसार किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं। जनता या तो किसी विषय के पक्ष में होगी या विपक्ष में। जनमत को इसलिए एक सदन ही अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकता है और वह एक सदन निचला सदन है क्योंकि निचले सदन में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं।

2. दूसरा सदन या तो व्यर्थ है या शरारती (Second Chamber is either Mischievous or Superfluous)अबेसियस ने कहा है “यदि उपरि सदन निम्न सदन से सहमत हो जाता है तो व्यर्थ है और यदि विरोध करता है तो शरारती है”। कहने का अभिप्राय यह है कि उपरि सदन निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो उसका लाभ नहीं होता। इस प्रकार उपरि सदन व्यर्थ है। यदि उपरि सदन निम्न सदन के रास्ते में रुकावटें करता है अर्थात् बिल को पास नहीं करता तो वह शरारती है।

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3. गतिरोध की सम्भावना (Possibility of Deadlocks)-विधानमण्डल के दूसरे सदन का यह भी दोष होता है कि दोनों सदनों में गतिरोध की सम्भावना रहती है। दोनों सदनों में गतिरोध की सम्भावना उस समय और भी बढ़ जाती है जब एक सदन में एक दल का बहुमत हो और दूसरे सदन में किसी अन्य राजनीतिक दल का।

4. कानून जल्दी में पास नहीं किए जाते (Laws are not passed in Hurry)-दूसरे सदन के समर्थकों का यह कहना है कि एक सदन होने से कानून जल्दी तथा उतावलेपन में पास होते हैं, ठीक नहीं है। एक सदन में बिल पूर्ण सोच-विचार करने के पश्चात् कानून बनाया जाता है। बिल को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। उदाहरणस्वरूप भारत तथा इंग्लैण्ड में बिल पास होने से पूर्व तीन वाचन (Three Readings) होते हैं। बिल को कमेटी स्टेज से भी गुज़रना पड़ता है। जब बिल को सदन पास कर देता है तब बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

5. उपरि सदन निम्न सदन की निरंकुशता को नहीं रोकता (Second Chamber does not check the Despotism of the First Chamber)-द्वि-सदनीय विधान मण्डल के समर्थकों के अनुसार दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है परन्तु यह ठीक नहीं है। निम्न सदन को बहुत शक्तियां प्राप्त होती हैं जिनकी वजह से निम्न सदन जिस बिल को चाहे, पास कर सकता है। दूसरा सदन पहले सदन को बिल पास करने से नहीं रोकताहां, बिल को पास करने में कुछ देर कर सकता है। इंग्लैण्ड में हाऊस ऑफ लार्ड्स साधारण बिल को एक वर्ष के लिए रोक सकता है जबकि धन बिल को केवल 30 दिन के लिए रोक सकता है। भारत में राज्यसभा धन बिल को 14 दिन के लिए रोक सकती है। साधारण बिलों पर भी राज्यसभा की शक्ति लोक सभा से कम ही है।

6. संघात्मक राज्यों में दूसरा सदन आवश्यक नहीं (Second Chamber is not essential in a Federal Form of Government)—संघात्मक सरकारों में दूसरे सदन का होना आवश्यक नहीं है। दूसरे सदन के सदस्यों का चुनाव पहले सदन की तरह दलों के आधार पर ही होता है। सदस्य अपने राज्यों के हितों को ध्यान में रखकर वोट का प्रयोग नहीं करते बल्कि पार्टी के आदेशों पर चलते हैं।

7. दूसरे सदन के संगठन में कठिनाइयां (Difficulties in Organising the Second Chamber)-दूसरे सदन की आलोचना इसलिए भी की जाती है क्योंकि इसके संगठन की समस्या है। निम्न सदन के सदस्य जनता द्वारा चुने जाते हैं, परन्तु प्रश्न उत्पन्न होता है कि दूसरे सदन के सदस्य किस प्रकार चुने जाएं ? विभिन्न देशों में दूसरे सदन का संगठन विभिन्न आधारों पर किया गया है। अमेरिका में दूसरे सदन के सदस्य पहले सदन की तरह जनता के द्वारा चुने जाते हैं, इसका कोई लाभ नहीं। इंग्लैण्ड में दूसरे सदन के अधिक सदस्य पैतृक आधार पर नियुक्त किए जाते हैं, यह प्रणाली प्रजातन्त्र के विरुद्ध है। भारत में राज्यसभा के सदस्य अप्रत्यक्ष तौर पर चुने जाते हैं तथा कुछ मनोनीत किये जाते हैं। इसलिए दूसरे सदन के संगठन का कोई सन्तोषजनक हल नहीं मिला है।

8. दूसरे सदन को शक्तियां देने में कठिनाइयां (Difficulties in giving Powers to Second Chamber)दूसरे सदन के संगठन की तरह यह भी एक समस्या है कि दूसरे सदन को शक्तियां दी जाएं। यदि दूसरे सदन को पहले सदन से कम शक्तियां दी जाएं तो वह उस पर कोई नियन्त्रण नहीं रखता। पर दूसरी तरफ यदि दूसरे सदन को पहले सदन के समान शक्तियां दी जाएं तो इससे दोनों में गतिरोध उत्पन्न होंगे जिससे शासन ठीक प्रकार से चलाना कठिन हो जाए।

9. दूसरा सदन प्रायः रूढ़िवादी होता है (Second Chamber is generally a Conservative House)दूसरे सदन में विशेष हितों के प्रतिनिधि होते हैं जो प्रायः अपने विचारों में रूढ़िवादी होते हैं। ये सदस्य प्रगतिशील नहीं होते और न ही लोगों के कल्याण के लिए कोई कार्य करना चाहते हैं। ये केवल अपने हितों की रक्षा करना चाहते हैं। इस सदन में बड़े-बड़े पूंजीपति, उद्योगपति, ठेकेदार इत्यादि होते हैं जो निम्न सदन को पसन्द नहीं करते। अतः दूसरा सदन निम्न सदन में पास किए गए प्रगतिशील कानूनों को पास करने में रुकावट डालता है।

10. अधिक खर्च (More Expenditure)-दूसरा सदन लाभदायक नहीं है पर इसका देश के बजट पर बोझ पड़ा रहता है। दूसरे सदन के सदस्यों के वेतन, भत्ते इत्यादि इतने हो जाते हैं कि उस धन राशि को किसी और कार्य पर लगाया जा सकता है।

11. विशेष हितों तथा अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की आवश्यकता नहीं है-जब दूसरे सदन के सदस्य दलों के आधार पर अपने मत का प्रयोग करते हैं तब इससे विशेष हितों की रक्षा नहीं हो पाती। इसलिए दूसरे सदन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त विशेष हितों तथा अल्पसंख्यकों को पहले सदन में ही प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। योग्य व्यक्तियों को पहले सदन में भी मनोनीत किया जा सकता है तथा अल्पसंख्यकों को अन्य उपायों के द्वारा प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-द्वितीय सदन के पक्ष तथा विपक्ष में तर्कों का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि द्वितीय सदन की कड़ी आलोचना के बावजूद भी इस सदन के बहुत लाभ हैं। यही कारण है कि कई देशों में जहां एक सदनीय प्रणाली को अपनाया गया, असफल रहने के पश्चात् फिर द्वि-सदनीय प्रणाली की स्थापना की गई। प्रो० लीकॉक ने ठीक ही कहा है, कि एक सदनीय विधानमण्डल की परीक्षा हो चुकी है, और यह असफल रही है। आज संसार के अधिकांश देशों में द्वि-सदनीय विधानमण्डल है। यही इनकी उपयोगिता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

प्रश्न 3.
एक-सदनीय विधानमण्डल के तीन लाभ तथा तीन हानियां बताइए।
(Discuss three advantages and three disadvantages of a Unicameral Legislature.)
उत्तर-
चीन, बुल्गारिया, नेपाल, तुर्की तथा पुर्तगाल में एक सदनीय विधानमण्डल पाया जाता है जबकि भारत, हालैण्ड, अमेरिका आदि देशों में द्वि-सदनीय विधानमण्डल पाया जाता है। एक सदनीय विधानमण्डल के लाभ भी हैं और हानियां भी। एक सदनीय विधानमण्डल के लाभ-एक सदनीय विधानमण्डल के तीन मुख्य लाभ इस प्रकार हैं-

  • एक सदनीय विधानमण्डल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है-किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं। जनता या तो किसी विषय में होगी या विपक्ष में । इसलिए जनमत को एक सदन ही अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकता है।
  • कम खर्चीला-एक सदनीय विधानमण्डल से खर्चा कम होता है और देश के बजट पर अधिक बोझ नहीं पड़ता। दूसरे सदन पर खर्च होने वाले धन को देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है।
  • एक सदनीय विधानमण्डल में कानून शीघ्र पास होते हैं-एक सदनीय विधानमण्डल में कानून पास करने में अनावश्यक समय बर्बाद नहीं होता। एक सदन दूसरे सदन में बिल भेजने से बिल के पास करने में देरी होती है। जब एक ही सदन में बिल पर पूरा विचार हो जाता है तो उस पर दोबारा विचार करने के लिए दूसरे सदन की कोई आवश्यकता नहीं है।

एक सदनीय विधानमण्डल की हानियां-एक सदनीय विधानमण्डल की मुख्य तीन हानियां इस प्रकार हैं-

  • एक-सदनीय विधानमण्डल निरंकुश बन जाता है-यह आम कहा जाता है कि “शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट कर देती है।” एक सदन का भी यही हाल होता है जिस दल का सदन बहुमत में होता है, वह अपनी मनमानी करता है और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करता है।
  • एक-सदनीय विधानमण्डल में बिलों पर पूरा विचार नहीं होता-एक सदनीय विधानमण्डल में बिलों को बिना विचार किए तेज़ी से पास कर दिया जाता है। एक-सदनीय विधानमण्डल में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। चुनाव के समय जनता के साथ बहुत वायदे होते हैं जिसके कारण जनता की वाह-वाह लेने के लिए सत्तारूढ़ दल तेज़ी से कानून पास करते जाते हैं। इस तरह राष्ट्र के हित की कोई परवाह नहीं की जाती।
  • संघात्मक शासन प्रणाली के लिए उचित नहीं-एक सदनीय विधानमण्डल संघीय शासन प्रणाली के लिए ठीक नहीं है क्योंकि राज्यों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विधानपालिका से क्या अभिप्राय है ? इसकी कितनी किस्में हैं ?
उत्तर-
विधानपालिका से हमारा अभिप्राय सरकार के उस अंग से है जो राज्य प्रबन्ध के लिए कानूनों का निर्माण करता है। विधानपालिका सरकार के बाकी दोनों अंगों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। लॉस्की के अनुसार, “विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाओं का निर्धारण करती है।” यह प्रचलित कानूनों में संशोधन करती है। यदि यह महसूस करे कि यह कानून ठीक नहीं है तो यह उन कानूनों को रद्द भी कर सकती है। विधानपालिका दो तरह की हो सकती है-एक सदनीय विधानपालिका और दो सदनीय विधानपालिका। इन दोनों का वर्णन इस प्रकार है

  • एक सदनीय विधानपालिका-एक सदनीय विधानपालिका में एक सदन होता है। उदाहरणस्वरूप चीन, टर्की, श्रीलंका आदि में विधानपालिका एक सदनीय है।
  • दो सदनीय विधानपालिका-इस तरह की विधानपालिका में विधानपालिका के दो सदन-ऊपरी सदन व निम्न सदन होते हैं। उदाहरणस्वरूप अमेरिका, ब्रिटेन, भारत, स्विट्ज़रलैण्ड आदि राज्यों में विधानपालिका दो सदनीय है।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के चार महत्त्वपूर्ण कार्य बताएं।
उत्तर-
आधुनिक समय में व्यवस्थापिका के तीन महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-

  • कानून-निर्माण का कार्य-व्यवस्थापिका का प्रमुख कार्य कानूनों का निर्माण करना है। व्यवस्थापिका जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और जनता की इच्छा को विधानमण्डल के कानूनों द्वारा प्रकट किया जाता है।
  • कार्यपालिका पर नियन्त्रण-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तभी तक अपने पद पर बनी रह सकती है जब उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त हो। विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटा सकती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका प्रत्यक्ष तौर पर व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती परन्तु फिर भी विधानमण्डल का थोड़ा-बहुत प्रभाव कार्यपालिका पर पड़ता है।
  • वित्त पर नियन्त्रण-संसार के प्रायः सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में वित्त पर विधानमण्डल का नियन्त्रण होता है। कार्यपालिका, विधानमण्डल की अनुमति के बिना धन खर्च नहीं कर सकती। विधानमण्डल प्रतिवर्ष बजट पास करती है। टैक्स लगाना, पुराने टैक्सों में संशोधन करना और करों को समाप्त करना विधानपालिका का ही कार्य है।
  • संविधान में संशोधन-सभी लोकतन्त्रीय राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधानमण्डल के पास है।

प्रश्न 3.
द्वि-सदनीय विधानपालिका के पक्ष में चार तर्क लिखें।
उत्तर-
द्वि-सदनीय विधानमण्डल के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

  1. दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है-दूसरा सदन पहले सदन को मनमानी करने से रोकता है और नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
  2. दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दी से पास किए गए कानूनों को रोकता है-दूसरा सदन पहले सदन के द्वारा जल्दबाज़ी तथा अविचारपूर्ण पास किए गए बिलों को कुछ समय के लिए रोक लेता है, जिससे जनता को उन पर विचार करने को समय मिल जाता है।
  3. दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है-दूसरे सदन में विचारहीन तथा विरोधीहीन बिलों को पेश किया जाता है, इन बिलों पर पूर्ण रूप से विचार-विमर्श करने के पश्चात् बिल दूसरे सदन में पेश किया जाता है। पहला सदन इन बिलों को शीघ्र ही पास कर देता है। इस प्रकार दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है।
  4. अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व-दूसरे सदन का होना आवश्यक है, ताकि विशेष वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जा सके।

प्रश्न 4.
दूसरे सदन के विपक्ष में चार तर्क दीजिए।
उत्तर-
दूसरे सदन के विपक्ष में निम्नलिखित मुख्य तर्क दिए जाते हैं-

  • जनता की इच्छा एक है, दो नहीं-एक सदन के समर्थकों के अनुसार किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं, क्योंकि निम्न सदन में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं अतः वही जनता की इच्छा को अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकते हैं।
  • दूसरा सदन या तो व्यर्थ है या शरारती-कहने का अभिप्राय यह है कि यदि ऊपरि सदन, निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो वह व्यर्थ है। उसका कोई लाभ नहीं है और यदि वह निम्न सदन के द्वारा पास किए गए बिलों का विरोध करता है तो वह शरारती है।
  • गतिरोध की सम्भावना-विधानमण्डल के दूसरे सदन का एक दोष यह भी होता है कि दोनों सदनों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। दोनों सदनों में गतिरोध की सम्भावना उस समय और भी बढ़ जाती है जब एक सदन में एक दल का बहुमत हो और दूसरे सदन में किसी अन्य राजनीतिक दल का।
  • अधिक खर्च- दूसरा सदन लाभदायक नहीं है, पर इसका देश के बजट पर बोझ पड़ा रहता है।

प्रश्न 5.
अविश्वास प्रस्ताव का अर्थ संक्षेप में समझाइए।
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों और नीतियों के संचालन के लिए विधानपालिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। मन्त्रिमण्डल का कार्यकाल विधानपालिका के समर्थन पर निर्भर करता है। विधानपालिका मन्त्रियों को अविश्वास प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकता है। अविश्वास का प्रस्ताव एक ऐसा प्रस्ताव है जिसके द्वारा विधानपालिका मन्त्रियों को उनके पद से हटा सकता है। यदि विधानपालिका का निम्न सदन किसी एक मन्त्री अथवा समस्त मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर देता है तो सभी मन्त्रियों को सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अनुसार अपने पदों से त्याग-पत्र देना पड़ता है। इस अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा विधानपालिका कार्यपालिका पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है।

प्रश्न 6.
निन्दा प्रस्ताव (Censure Motion) का अर्थ बताएं। (Textual Question) (P.B. 1988)
उत्तर-
संसदीय सरकार में विधानपालिका निन्दा प्रस्ताव के द्वारा भी कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है। निन्दा प्रस्ताव के द्वारा विधानपालिका के सदस्य मन्त्रियों के द्वारा अपनाई गई नीतियों तथा उनके प्रशासनिक कार्यों की निन्दा करते हैं। जब विधानपालिका के निम्न सदन में निन्दा प्रस्ताव पास कर दिया जाता है तब मन्त्रिमण्डल को अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ता है। इस प्रस्ताव की शक्ति अविश्वास प्रस्ताव के समान होती है।

प्रश्न 7.
स्थगन प्रस्ताव (Adjournment Motion) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
विधानपालिका अपना दैनिक कार्य पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार करती है। परन्तु कई बार देश में अचानक कोई विशेष और महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है, जैसे कि कोई रेल दुर्घटना, कहीं पुलिस और जनता में झगड़ा होने से कुछ व्यक्तियों की मौत हो जाए इत्यादि तो ऐसे समय संसद् का कोई भी सदस्य स्थगन प्रस्ताव (काम रोको प्रस्ताव) पेश कर सकता है। इस प्रस्ताव का यह अर्थ है कि सदन का निश्चित कार्यक्रम थोड़े समय के लिए रोक दिया जाए और उस घटना या समस्या पर विचार किया जाए। अध्यक्ष इस पर विचार करता है और यदि उचित समझे तो स्वीकार कर लेता है। अध्यक्ष अपनी स्वीकृति के बाद सदन से पूछता है और यदि सदस्यों की निश्चित संख्या उस प्रस्ताव के शुरू किए जाने के पक्ष में हो तो प्रस्ताव आगे चलता है वरन् नहीं। प्रस्ताव स्वीकार हो जाने पर सदन का निश्चित कार्यक्रम रोक दिया जाता है और उस विशेष घटना पर विचार होता है। इस प्रकार स्थगन प्रस्ताव सरकार का ध्यान किसी महत्त्वपूर्ण घटना या समस्या की ओर आकर्षित करने के लिए पेश किया जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

प्रश्न 8.
द्वितीय वाचन (Second Reading) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
विधानपालिका में कानून बनने से पूर्व बिल को अनेक चरणों से गुज़रना पड़ता है। ये चरण प्रथम वाचन, द्विवीय वाचन, सामति स्तर, रिपोर्ट स्तर तथा तृतीय वाचन होते हैं। इन चरणों में से द्वितीय वाचन का चरण एक विशेष महत्त्वपूर्ण चरण होता है। बिल के द्वितीय वाचन के समय ही सदस्यों को वाद-विवाद का पहला अवसर मिलता है। प्रायः बिल को पेश करने वाला बिल के सिद्धान्तों तथा उद्देश्यों पर प्रकाश डालता है। विधानपालिका के सदस्यों को बिल के मौलिक सिद्धान्तों की आलोचना करने का अवसर मिलता है। इस चरण में बिल पर मतदान भी करवाया जाता है। द्वितीय वाचन ही बिल को जीवन अथवा मृत्यु प्रदान करता है।

प्रश्न 9.
द्वि-सदनीय प्रणाली पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
क्या विधानमण्डल के दो सदन होने चाहिए अथवा एक सदन होना चाहिए, इस बारे में काफ़ी मतभेद पाया जाता है। जे० एस० मिल, सर हैनरी मेन आदि लेखकों ने द्वि-सदनीय विधानमण्डल का समर्थन किया है। जब विधानमण्डल के दो सदन हों तो उसे द्वि-सदनीय विधानमण्डल कहा जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड, भारत आदि देशों में विधानमण्डल के दो सदन पाए जाते हैं। पहले सदन को निम्न सदन तथा दूसरे सदन को उपरि सदन कहा जाता है।

प्रश्न 10.
व्यवस्थापिका किस भान्ति कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है ?
उत्तर–
संसदीय सरकार में व्यवस्थापिका निम्नलिखित तरीकों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है-

  • व्यवस्थापिका के सदस्य कार्यपालिका (मन्त्रियों) से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है।
  • स्थगन अथवा काम रोको प्रस्ताव लाकर व्यवस्थापिका सार्वजनिक महत्त्व के मामलों पर विवाद कर सकती है।
  • बजट अस्वीकार करके या अविश्वास प्रस्ताव पास करके व्यवस्थापिका कार्यपालिका को हटा सकती है।

अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका प्रत्यक्ष तौर पर व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। परन्तु फिर भी कार्यपालिका का थोड़ा-बहुत काम व्यवस्थापिका पर निर्भर होता है।

प्रश्न 11.
विधानपालिका की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
आमतौर पर राज्यों में द्वि-सदनीय विधानपालिका पाई जाती है जिसमें एक सदन को निम्न सदन (Lower House) और दूसरे को उच्च सदन (Upper Chamber) कहा जाता है। निम्न सदन के सदस्य प्रायः वयस्क मताधिकार के आधार पर जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। उच्च सदन के सदस्यों का चुनाव विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न तरीके से किया जाता है। भारत में उच्च सदन के सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत-प्रणाली द्वारा होता है और अमेरिका में प्रत्यक्ष रूप में होता है। इंग्लैण्ड में उच्च सदन के अधिकांश सदस्य पैतृक होते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विधानपालिका से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विधानपालिका से हमारा अभिप्राय सरकार के उस अंग से है जो राज्य प्रबन्ध के लिए कानूनों का निर्माण करता है। विधानपालिका सरकार के बाकी दोनों अंगों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। लॉस्की के अनुसार, “विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सीमाओं का निर्धारण करती है।”

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के दो महत्त्वपूर्ण कार्य बताएं।
उत्तर-

  • कानून-निर्माण का कार्य-व्यवस्थापिका का प्रमुख कार्य कानूनों का निर्माण करना है। व्यवस्थापिका जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और जनता की इच्छा को विधानमण्डल के कानूनों द्वारा प्रकट किया जाता है।
  • कार्यपालिका पर नियन्त्रण-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तभी तक अपने पद पर बनी रह सकती है जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त हो। विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटा सकती है।

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प्रश्न 3.
द्वि-सदनीय विधानपालिका के पक्ष में दो तर्क लिखें।
उत्तर-

  • दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है-जिस देश में विधानमण्डल में एक सदन होता है वहां पर वह निरंकुश बन जाता है। पहले सदन की निरंकुशता को रोकने के लिए दूसरे सदन का होना आवश्यक है। दूसरा सदन पहले सदन को मनमानी करने से रोकता है और नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
  • दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दी से पास किए गए कानूनों को रोकता है-दूसरा सदन पहले सदन के द्वारा जल्दबाज़ी तथा अविचारपूर्ण पास किए गए बिलों को कुछ समय के लिए रोक लेता है, जिस जनता को उन पर विचार करने का समय मिल जाता है।

प्रश्न 4.
दूसरे सदन के विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर-

  • जनता की इच्छा एक है, दो नहीं-एक सदन के समर्थकों के अनुसार किसी विषय पर जनमत केवल एक ही हो सकता है दो नहीं, क्योंकि निम्न सदन में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं अतः वही जनता की इच्छा को अधिक अच्छी तरह प्रकट कर सकते हैं।
  • दूसरा सदन या तो व्यर्थ है शरारती-कहने का अभिप्राय यह है कि यदि ऊपरी सदन, निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो वह व्यर्थ है। उसका कोई लाभ नहीं है और यदि वह निम्न सदन के द्वारा पास किए गए बिलों का विरोध करता है तो वह शरारती है।

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बुल्जे के अनुसार, “संविधान उन नियमों का समूह है, जिनके अनुसार सरकार की शक्तियां, शासितों के अधिकार तथा इन दोनों के आपसी सम्बन्धों को व्यवस्थित किया जाता है।”

प्रश्न 2. संविधान के कोई दो रूप/प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. विकसित संविधान
  2. निर्मित संविधान।

प्रश्न 3. विकसित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो संविधान ऐतिहासिक उपज या विकास का परिणाम हो, उसे विकसित संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 4. लिखित संविधान किसे कहते हैं ? ।
उत्तर-लिखित संविधान उसे कहा जाता है, जिसके लगभग सभी नियम लिखित रूप में उपलब्ध हों।

प्रश्न 5. अलिखित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-अलिखित संविधान उसे कहते हैं, जिसकी धाराएं लिखित रूप में न हों, बल्कि शासन संगठन अधिकतर रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं पर आधारित हो।

प्रश्न 6. कठोर एवं लचीले संविधान में एक अन्तर लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान की अपेक्षा लचीले संविधान में संशोधन करना अत्यन्त सरल है।

प्रश्न 7. लचीले संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर- लचीला संविधान समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 8. किसी एक विद्वान् का नाम लिखें, जो लिखित संविधान का समर्थन करता है?
उत्तर-डॉ० टॉक्विल ने लिखित संविधान का समर्थन किया है।

प्रश्न 9. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता।

प्रश्न 10. एक अच्छे संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-संविधान स्पष्ट एवं सरल होता है।

प्रश्न 11. अलिखित संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-यह समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 12. अलिखित संविधान का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-अलिखित संविधान में शक्तियों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है।

प्रश्न 13. लिखित संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान निश्चित तथा स्पष्ट होता है।

प्रश्न 14. लिखित संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान समयानुसार नहीं बदलता।

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प्रश्न 15. जिस संविधान को आसानी से बदला जा सके, उसे कैसा संविधान कहा जाता है ?
उत्तर-उसे लचीला संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 16. जिस संविधान को आसानी से न बदला जा सकता हो, तथा जिसे बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाया जाता हो, उसे कैसा संविधान कहते हैं ?
उत्तर-उसे कठोर संविधान कहते हैं। प्रश्न 17. लचीले संविधान का एक दोष लिखें। उत्तर-यह संविधान पिछड़े हुए देशों के लिए ठीक नहीं।

प्रश्न 18. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान निश्चित एवं स्पष्ट होता है।

प्रश्न 19. कठोर संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान क्रान्ति को प्रोत्साहन देता है।

प्रश्न 20. शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Power) का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर-शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त मान्टेस्क्यू ने प्रस्तुत किया।

प्रश्न 21. संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कौन हैं ?
उत्तर-संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कार्ल-मार्क्स हैं।

प्रश्न 22. संविधानवाद के मार्ग की एक बड़ी बाधा लिखें।
उत्तर-संविधानवाद के मार्ग की एक बाधा युद्ध है।

प्रश्न 23. अरस्तु ने कितने संविधानों का अध्ययन किया?
उत्तर-अरस्तु ने 158 संविधानों का अध्ययन किया।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………. संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।
2. जिस संविधान को सरलता से न बदला जा सके, उसे …………… संविधान कहते हैं।
3. लिखित संविधान एक ……………. द्वारा बनाया जाता है।
4. ……………. संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
5. ……………. में क्रांति का डर बना रहता है।
उत्तर-

  1. लचीला
  2. कठोर
  3. संविधान सभा
  4. अलिखित
  5. लिखित संविधान।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अलिखित संविधान अस्पष्ट एवं अनिश्चित होता है।
2. लचीले संविधान में क्रांति की कम संभावनाएं रहती हैं।
3. कठोर संविधान अस्थिर होता है।
4. एक अच्छा संविधान स्पष्ट एवं निश्चित होता है।
5. कठोर संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत ।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कठोर संविधान का गुण है
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता
(ख) संघात्मक राज्य के लिए उपयुक्त नहीं है
(ग) समयानुसार नहीं बदलता
(घ) संकटकाल में ठीक नहीं रहता।
उत्तर-
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता

प्रश्न 2.
एक अच्छे संविधान का गुण है-
(क) संविधान का स्पष्ट न होना
(ख) संविधान का बहुत विस्तृत होना
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय
(घ) बहुत कठोर होना।
उत्तर-
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय

प्रश्न 3.
“संविधान उन नियमों का समूह है, जो राज्य के सर्वोच्च अंगों को निर्धारित करते हैं, उनकी रचना, उनके आपसी सम्बन्धों, उनके कार्यक्षेत्र तथा राज्य में उनके वास्तविक स्थान को निश्चित करते हैं।” किसका कथन है ?
(क) सेबाइन
(ख) जैलिनेक
(ग) राबर्ट डाहल
(घ) आल्मण्ड पावेल।
उत्तर-
(ख) जैलिनेक

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 18 सरकार के अंग-व्यवस्थापिका

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से एक अच्छे संविधान की विशेषता है-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित
(ख) अस्पष्टता
(ग) कठोरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 17 सरकार के अंग-कार्यपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1. कार्यपालिका की परिभाषा दीजिए तथा उसके विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
(Define the term ‘Executive’ and discuss its various forms.)
उत्तर-कार्यपालिका सरकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों को कार्यपालिका के द्वारा ही लागू किया जाता है। प्राचीनकाल में सम्राट् स्वयं ही कानून बनाता था, कानून को लागू करता था तथा कानून की व्याख्या करता था। परन्तु आधुनिक राज्यों में शक्तियों के पृथक्करण होने के कारण कार्यपालिका केवल कानूनों को लागू करती है। गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो कानून के रूप में प्रकट जनता की इच्छा को लागू करता है।” डॉ० गार्नर (Garner) ने कार्यपालिका की परिभाषा करते हुए लिखा है, “व्यापक तथा सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत वे सभी अधिकारी, राज्य कर्मचारी तथा एजेंसियां आ जाती हैं जिनका कार्य राज्य की इच्छा को, जिसे विधानमण्डल ने प्रकट कर कानून का रूप दे दिया है, कार्यरूप में परिणत करता है।” डॉ० गार्नर की यह परिभाषा बहुत व्यापक है, इसमें राज्य का अध्यक्ष, प्रधानमन्त्री, मन्त्रिपरिषद्, पुलिस तथा सेना के सभी छोटे-बड़े कर्मचारी शामिल हैं जो शासन में भाग लेते हैं। यदि हम कार्यपालिका की संकुचित परिभाषा लें तो उसमें अध्यक्ष, प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् ही आते हैं।

कार्यपालिका कई प्रकार की है जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका (Real and Nominal Executive)-प्राचीनकाल में वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं होता था। सम्राट के पास शासन की सभी शक्तियां होती थीं और उन शक्तियों का प्रयोग सम्राट् स्वयं करता था, परन्तु इंग्लैण्ड में शानदार क्रान्ति के पश्चात् मन्त्रिमण्डल का उदय हुआ, जिसने सम्राट की शक्तियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका बन गई और सम्राट नाममात्र का मुखिया। इस प्रकार वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में अन्तर उत्पन्न हुआ। संसदीय सरकार में यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। संसदीय सरकार में संविधान के अनुसार कार्यपालिका की सारी शक्तियां राज्य व अध्यक्ष के पास होती हैं, परन्तु इन शक्तियों का प्रयोग अध्यक्ष स्वयं नहीं करता। राज्य के अध्यक्ष की शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, भारत, डैनमार्क तथा हालैण्ड में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है। अध्यक्षात्मक सरकार में वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं पाया जाता। अमेरिका में संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं और व्यवहार में भी इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति ही करता है। इस प्रकार राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है।

2. संसदीय तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका (Parliamentary and Presidential Executive)-संसदीय सरकार में नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में अन्तर होता है। राज्य का अध्यक्ष (सम्राट् तथा राष्ट्रपति) नाममात्र का मुखिया होता है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् के सदस्य भी होते हैं और वे अपने समस्त कार्यों के लिए सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य तब तक अपने पद पर रह सकते हैं जब तक उन्हें संसद् का बहुमत प्राप्त हो। संसद् के सदस्य अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर सकते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका का संसद् से बहुत समीप का सम्बन्ध होता है।

अध्यक्षात्मक सरकार में राज्य का अध्यक्ष वास्तविक कार्यपालिका है। संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति के पास होती हैं और राष्ट्रपति ही उन शक्तियों का प्रयोग करता है। राष्ट्रपति अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है और न ही वह संसद् का सदस्य होता है। राष्ट्रपति संसद् की बैठकों में भाग नहीं ले सकता। वह केवल संसद् को सन्देश भेज सकता है। संसद् के सदस्य राष्ट्रपति को अविश्वास प्रस्ताव पास करके नहीं हटा सकते। राष्ट्रपति को केवल महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है। अमेरिका में राष्ट्रपति 4 वर्ष के लिए चुना जाता है और वह अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है।।

3. एकल तथा बहुल कार्यपालिका (Single and Plural Executive)—एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक व्यक्ति के हाथ में होती हैं। अमेरिका में एकल कार्यपालिका पाई जाती है क्योंकि अमेरिका में कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं। राष्ट्रपति को सलाह देने के लिए एक मन्त्रिमण्डल है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के सदस्य राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और उसके प्रति उत्तरदायी हैं। राष्ट्रपति का निर्णय अन्तिम होता है। संसदीय सरकारों में भी एकल कार्यपालिका होती है क्योंकि मन्त्रिमण्डल एक इकाई की तरह कार्य करता है और प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का अध्यक्ष होता है। _जहां कार्यपालिका की शक्तियां अनेक व्यक्तियों के पास होती हैं, उसे बहुल कार्यपालिका कहा जाता है। स्विटज़रलैण्ड में बहुल कार्यपालिका है। स्विट्ज़रलैण्ड में कार्यपालिका की शक्तियां एक फैडरल कौंसिल के पास हैं जिसके सात सदस्य होते हैं। इन सात सदस्यों की शक्तियां समान हैं। फैडरल कौंसिल के अध्यक्ष को शेष सदस्यों से अधिक शक्तियां प्राप्त नहीं हैं।

4. पैतृक तथा चुनी हुई कार्यपालिका (Hereditary and Elective Executive)-पैतृक कार्यपालिका वहां होती है जहां राज्य का अध्यक्ष राजा होता है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके लड़के अथवा लड़की को राजसिंहासन पर बैठाया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, हालैण्ड तथा डैनमार्क में पैतृक कार्यपालिका पाई जाती है।

चुनी हुई कार्यपालिका वहां पर पाई जाती है जहां कार्यपालिका का अध्यक्ष प्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुना जाता है अथवा जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है। चुनी हुई कार्यपालिका में अध्यक्ष निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और उसकी मृत्यु या उसकी अवधि के समाप्त होने पर उसके पुत्र को पैतृक आधार पर अध्यक्ष नहीं बनाया जाता। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है जबकि पीरू तथा चिल्ली में राष्ट्रपति जनता द्वारा चुना जाता है।

5. राजनीतिक और स्थायी कार्यपालिका (Political and Permanent Executive)-राजनीतिक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो राजनीतिक आधार पर कुछ समय के लिए चुनाव द्वारा या किसी अन्य साधन द्वारा नियुक्त की जाती है। राजनीतिक कार्यपालिका को किसी भी समय हटाया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत में केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल राजनीतिक कार्यपालिका है। मन्त्रिमण्डल का सदस्य बनने के लिए कोई शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता निश्चित नहीं है। चुनाव में जिस दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल का मन्त्रिमण्डल बनता है। . नीतियों का निर्माण राजनीतिक कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है।

स्थायी कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर न होकर शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता के आधार पर की जाती है। देश के राजनीतिक परिवर्तन के साथ-स्थायी कार्यपालिका में परिवर्तन नहीं होता। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार बने, स्थायी कार्यपालिका निष्पक्षता से कार्य करती रहती है। स्थायी कार्यपालिका का मुख्य कार्य राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्माण की गई नीतियों को लागू करना होता है। असैनिक सेवाएं अथवा प्रशासकीय सेवाएं स्थायी कार्यपालिका का रूप हैं।

6. अधिनायकीय और संवैधानिक (Dictatorial and Constitution Executive)-जो कार्यपालिका अपने अस्तित्व और शक्तियों के लिए राज्य के संविधान पर निर्भर हो, वह संवैधानिक कार्यपालिका कहलाती है। सभी प्रजातन्त्रात्मक राज्यों में इसके उदाहरण हैं जो कार्यपालिका अपने अस्तित्व और शक्तियों के लिए शारीरिक बल या सैनिक बल पर निर्भर हो. अधिनायकीय कार्यपालिका कहलाती है।

7. नियुक्ति या मनोनीत कार्यपालिका (Appointive or Nominated Executive)—मनोनीत कार्यपालिका उसे कहते हैं जिसमें देश के मुखिया को किसी व्यक्ति द्वारा मनोनीत किया जाए। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में गवर्नर-जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् द्वारा की जाती थी। आजकल कैनेडा, न्यूज़ीलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, आदि देशों के गवर्नर-जनरलों की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् अथवा साम्राज्ञी द्वारा की जाती है। भारत में राज्यों के राज्यपालों को राष्ट्रपति नियुक्त करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 17 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 2. सरकार के अंगों में कार्यपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
(Describe the functions performed by the executive organ of a government.)
अथवा
आधुनिक समय में कार्यपालिका के भिन्न-भिन्न कार्यों का वर्णन करें। (Describe the various functions performed by the executive in modern times.)
उत्तर-आधुनिक राज्य पुलिस राज्य न होकर कल्याणकारी राज्य है। राज्य का मुख्य उद्देश्य जनता की भलाई के लिए कार्य करना है। कल्याणकारी राज्य के उदय होने से कार्यपालिका के कार्य भी बहुत बढ़ गए हैं। कार्यपालिका का मुख्य काम विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों को लागू करना है। इस कार्य के अतिरिक्त कार्यपालिका को अनेक कार्य करने पड़ते हैं। कार्यपालिका के कार्य भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न हैं। वास्तव में कार्यपालिका के कार्य सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्य में कार्यपालिका के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं

1. कानून लागू करना और शान्ति व्यवस्था को बनाए रखना (Enforcement of Laws and Maintenance of Order) कार्यपालिका का प्रथम कार्य विधानमण्डल के कानूनों को लागू करना तथा देश में शान्ति व्यवस्था को बनाए रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है चाहे वह कानून बुरा हो चाहे अच्छा। कार्यपालिका देश में शान्ति की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस का प्रबन्ध करती है। पुलिस उन व्यक्तियों को जो कानून तोड़ते हैं, गिरफ्तार करती है और उन पर मुकद्दमा चलाती है।

2. नीति निर्धारण (Formulation of Policy) कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्धारण करना है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपनी नीति को निर्धारित करके संसद् के सम्मुख पेश करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका को अपनी नीतियों को विधानमण्डल के सामने पेश नहीं करना पड़ता। कार्यपालिका ही देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति को निश्चित करती है और उस नीति के आधार पर ही अपना शासन चलाती है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता है।

3. नियुक्तियां करने और हटाने की शक्ति (Powers of Appointment and Removal) कार्यपालिका को देश का शासन चलाने के लिए अनेक कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है। सिविल कर्मचारियों की नियुक्ति अधिकतर प्रतियोगिता की परीक्षा के आधार पर की जाती है। भारत में राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट के न्यायाधीशों, राजदूतों, ऍटार्नी जनरल, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति को ऊंचे अधिकारियों की नियुक्ति के लिए सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है। अमेरिका का राष्ट्रपति उन सब कर्मचारियों को हटाने का अधिकार रखता है जिन्हें कांग्रेस महाभियोग के द्वारा नहीं हटा सकती।

4. विदेश सम्बन्धी कार्य (Foreign Relations)-दूसरे देशों में सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है। देश की विदेश नीति को कार्यपालिका ही निश्चित करती है। देश के दूसरे देशों से कैसे सम्बन्ध होंगे, यह कार्यपालिका पर निर्भर करता है। कार्यपालिका अपने देश के राजदूतों को दूसरे देशों में भेजती है और दूसरे देशों के राजदूतों को अपने देश में रहने की स्वीकृति देती है। दूसरे देशों से सन्धि-समझौते करने के लिए सीनेट की स्वीकृति भी लेनी पड़ती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में कार्यपालिका का अध्यक्ष या उसका प्रतिनिधि भाग लेता है।

5. कानून सम्बन्धी कार्य (Legislative Functions) कार्यपालिका के पास कानून से सम्बन्धित कुछ शक्तियां होती हैं। संसदीय सरकार में कार्यपालिका का कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं, वे विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं और बिल पेश करते हैं। वास्तव में 95 प्रतिशत बिल मन्त्रियों के द्वारा पेश किए जाते हैं क्योंकि मन्त्रिमण्डल का विधानमण्डल में बहुमत होता है इसलिए बिल पास भी हो जाते हैं। संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई बिल पास नहीं हो सकता। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका विधानमण्डल में स्वयं बिल पेश नहीं करती, परन्तु कार्यपालिका को विधानमण्डल के पास सन्देश भेजने का अधिकार होता है प्रायः सभी देशों में उतनी देर बिल कानून नहीं बन सकता जितनी देर कार्यपालिका की स्वीकृति प्राप्त न हो। संसदीय सरकार में कार्यपालिका को विधानमण्डल का अधिवेशन बुलाने का अधिकार भी होता है। जब विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं हो रहा होता, उस समय कार्यपालिका को अध्यादेश (Ordinance) जारी करने का अधिकार प्राप्त होता है।

6. वित्तीय कार्य (Financial Functions)-देश के धन पर विधानमण्डल का नियन्त्रण होता है और विधानमण्डल की स्वीकृति बिना कार्यपालिका एक पैसा खर्च नहीं कर सकती, परन्तु कार्यपालिका ही बजट को तैयार करती है और विधानमण्डल में पेश करती है। क्योंकि कार्यपालिका को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त है इसलिए प्रायः बजट पास हो जाता है। चूंकि नए कर लगाने, कर घटाने तथा कर समाप्त करने के बिल कार्यपालिका ही विधानमण्डल में पेश करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट पेश नहीं करती अपितु बजट कार्यपालिका की देखरेख में ही तैयार किया जाता है। अमेरिका में राष्ट्रपति बजट की देख-रेख करता है जबकि भारत में वित्त मन्त्री बजट पेश करता है।

7. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है, परन्तु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियां होती हैं। बहुत से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष के पास अपराधी के दण्ड को क्षमा करने, उसे कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। इंग्लैण्ड में यह शक्ति सम्राट के पास है। राजनीतिक अपराधियों को मुक्तिदान (Amnesty) देने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका के पास है।

8. सैनिक कार्य (Military Functions)-देश की बाहरी आक्रमणों से रक्षा के लिए कार्यपालिका का अध्यक्ष सेना का अध्यक्ष होता है। भारत तथा अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी-अपनी सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति (कमाण्डर-इनचीफ) हैं। सेना के संगठन तथा अनुशासन से सम्बन्धित नियम कार्यपालिका के द्वारा ही बनाए जाते हैं। आन्तरिक शान्ति को बनाए रखने के लिए भी सेना की सहायता ली जा सकती है। सेना के अधिकारियों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा ही की जाती है। भारत का राष्ट्रपति संकटकालीन घोषणा कर सकता है। जब देश में संकटकालीन घोषणा हो तब कार्यपालिका सैनिक कानून (Martial Law) लागू कर सकती है। अमेरिका में राष्ट्रपति युद्ध की घोषणा कांग्रेस की स्वीकृति से ही कर सकता है।

9. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)—जब देश में आन्तरिक गड़बड़ हो या विदेशी हमले का डर हो तो उस समय कार्यपालिका का मुखिया संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकटकाल के समय कार्यपालिका बहुत शक्तिशाली हो जाती है और संकट का सामना करने के लिए कार्यपालिका अपनी इच्छा से शासन चलाती है।

10. उपाधियां तथा सम्मान प्रदान करना (Granting of Titles and Honours)-प्रायः सभी देशों में कार्यपालिका को महान् व्यक्तियों को उनकी असाधारण और अमूल्य सेवाओं के लिए उपाधियां और सम्मान प्रदान करने का अधिकार प्राप्त होता है। भारत और अमेरिका में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है जबकि इंग्लैण्ड में राजा के पास।

निष्कर्ष (Conclusion) कार्यपालिका कार्यों की उपर्युक्त दी गई सूची से यह सिद्ध होता है कि यह सरकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। विधानपालिका और न्यायपालिका तो अवकाश (Recess) पर चली जाती है, परन्तु कार्यपालिका सदा काम पर (On Duty) रहती है। पुलिस स्टेशन और सेना कभी बन्द नहीं होते। वैसे तो सरकार के प्रत्येक अंग का अपना-अपना महत्त्व है परन्तु कार्यपालिका का महत्त्व इन दिनों बहुत बढ़ गया है। सारे राज्य का नेतृत्व इसके पास है। सरकार के उत्तरदायित्वों में जिनती वृद्धि होती है, कार्यपालिका के कार्य और महत्त्व उतने अधिक बढ़ जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है ? उसकी किस्में भी लिखें।
उत्तर-सरकार के तीन अंग होते हैं-विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । विधानपालिका कानून बनाने, कार्यपालिका कानूनों को लागू करने और न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करने का काम करती है। कार्यपालिका को सरकार का प्रबन्धकीय अंग कहा जाता है। गिलक्राइस्ट ने कार्यपालिका की व्याख्या करते हुए कहा है कि, “कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो कानून बना कर लोगों की इच्छाओं को प्रकट करता है। कार्यपालिका कई तरह की हो सकती है-

  • नाममात्र कार्यपालिका।
  • एकात्मक या एकल और बहुल कार्यपालिका।
  • संसदीय और अध्यक्षात्मक कार्यपालिका।
  • निरंकुश और संवैधानिक कार्यपालिका।

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प्रश्न 2. वास्तविक कार्यपालिका (Real Executive) व नाममात्र कार्यपालिका (Nominal Executive) में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-संसदीय सरकार में यह अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। संसदीय सरकार में संविधान के अनुसार कार्यपालिका की सारी शक्तियां राज्य के अध्यक्ष के पास होती हैं, परन्तु इन शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, भारत, डैनमार्क तथा हालैंड में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है। अध्यक्षात्मक सरकार में वास्तविक तथा नाममात्र की कार्यपालिका में कोई अन्तर नहीं पाया जाता। अमेरिका में संविधान के अन्तर्गत कार्यपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं और व्यवहार में भी इन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति ही करता है। इसी कारण राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 3. स्थायी कार्यपालिका और राजनीतिक कार्यपालिका में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-राजनीतिक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो राजनीतिक आधार पर कुछ समय के लिए चुनाव द्वारा या किसी अन्य साधन द्वारा नियुक्त की जाती है। राजनीतिक कार्यपालिका को किसी भी समय हटाया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत में केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल राजनीतिक कार्यपालिका है। मन्त्रिमण्डल का सदस्य बनने के लिए कोई शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता निश्चित नहीं है। चुनाव में जिस दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है, रसी दल का मन्त्रिमण्डल बनता है। नीतियों का निर्माण राजनीतिक कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है।

स्थायी कार्यपालिका की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर न होकर शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता के आधार पर की जाती है। देश के राजनीतिक परिवर्तन के साथ स्थायी कार्यपालिका में परिवर्तन नहीं होता। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार बने, स्थायी कार्यपालिका निष्पक्षता से कार्य करती रहती है। स्थायी कार्यपालिका का मुख्य कार्य राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्मित की गई नीतियों को लागू करना होता है। असैनिक सेवाएं अथवा प्रशासकीय सेवाएं स्थायी कार्यपालिका का रूप हैं।

प्रश्न 4. कार्यपालिका के चार कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-कार्यपालिका के चार महत्त्वपूर्ण कार्य इस प्रकार हैं-

  • प्रशासन सम्बन्धी कार्य-कार्यपालिका के मुख्य कार्य विधानमण्डल के पास किए हुए कानूनों को लागू करना तथा उन कानूनों के अनुसार शासन चलाना है। कानून और व्यवस्था द्वारा राज्य में शान्ति स्थापित करना भी इसी का काम है।
  • सैनिक कार्य-आन्तरिक शान्ति के साथ-साथ नागरिकों को बाहरी आक्रमणों से बचाना भी कार्यपालिका का कार्य है। इसके लिए कार्यपालिका सैनिक प्रबन्ध तथा युद्ध संचालन के कार्य करती है। दूसरे देशों से युद्ध और सन्धि की घोषणा कार्यपालिका द्वारा की जाती है।
  • नीति निर्धारण-कार्यपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य देश की आन्तरिक तथा विदेश नीति को निश्चित करना है और उस नीति के आधार पर अपना शासन चलाना है। नीतियों को लागू करने के लिए शासन को कई विभागों में बांटा जाता है और प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता है।
  • विदेश सम्बन्धी कार्य-दूसरे देशों से सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य कार्यपालिका के द्वारा ही किया जाता है।

प्रश्न 5. बहमखी कार्यपालिका (Plural Executive) क्या होती है ?
उत्तर-बहुमुखी कार्यपालिका उसे कहते हैं जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित न होकर एक से अधिक अथवा किसी संस्था को प्राप्त होती हैं। स्विट्ज़रलैण्ड में कार्यपालिका की शक्तियों का प्रयोग उन सदस्यों की एक संस्था के द्वारा किया जाता है जिसे संघीय परिषद् कहते हैं। संघीय परिषद् के सात सदस्य होते हैं।

प्रश्न 6. संसदीय कार्यपालिका तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में भेद बताओ।
उत्तर-संसदीय कार्यपालिका वह कार्यपालिका है जहां राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् में से लिए जाते हैं और संसद् के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका वह कार्यपालिका है जहां राज्य का अध्यक्ष वास्तविक मुखिया होता है। मन्त्री संसद् के सदस्य नहीं होते हैं और न ही संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं। ये संसद् के प्रति उत्तरदायी भी नहीं होते हैं। संसद् को उनको हटाने का अधिकार भी नहीं होता।

प्रश्न 7. पैतृक तथा चुनी हुई कार्यपालिका में भेद बताइए।
उत्तर-पैतृक कार्यपालिका वहां होती है जहां राज्य का अध्यक्ष राजा होता है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके लड़के अथवा लड़की को राजसिंहासन पर बैठाया जाता है। इंग्लैण्ड, जापान, नेपाल, नार्वे, कुवैत, हालैण्ड तथा डेनमार्क में पैतृक कार्यपालिका पाई जाती है।
चुनी हुई कार्यपालिका वहां पर पाई जाती है जहां कार्यपालिका का अध्यक्ष प्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुना जाता है अथवा जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है। चुनी हुई कार्यपालिका में अध्यक्ष निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और उसकी मृत्यु या उसकी अवधि के समाप्त होने पर उसके पुत्र को पैतृक आधार पर अध्यक्ष नहीं बनाया जाता। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चुना जाता है जबकि पीरू तथा चिली में राष्ट्रपति जनता द्वारा चुना जाता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-राज्य की इच्छा सरकार द्वारा प्रकट होती है और राज्य की इच्छा की पूर्ति सरकार द्वारा ही होती है। गार्नर ने सरकार की परिभाषा करते हुए लिखा है कि, “सरकार उस संगठन का नाम है जिसके द्वारा राज्य की इच्छा का निर्माण, अभिव्यक्ति तथा उसकी पूर्ति होती है। प्रत्येक सरकार की तीन प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं- कानून बनाना, कानून को लागू करना तथा कानून की व्याख्या करना। सरकार के इन तीन कार्यों के तीन अंगों द्वारा किया जाता है।”

प्रश्न 2. कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-सरकार के तीन अंग होते हैं-विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । विधानपालिका कानून बनाने, कार्यपालिका कानूनों को लागू करने और न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करने का काम करती है। कार्यपालिका को सरकार का प्रबन्धकीय अंग कहा जाता है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राज्य की इच्छा किसके द्वारा प्रकट होती है ?
उत्तर-राज्य की इच्छा सरकार द्वारा प्रकट होती है।

प्रश्न 2. सरकार के कितने अंग हैं ?
उत्तर-सरकार के तीन अंग हैं।

प्रश्न 3. सरकार के तीन अंगों के नाम लिखें।
उत्तर-(1) व्यवस्थापिका (2) कार्यपालिका (3) न्यायपालिका।

प्रश्न 4. विधानपालिका का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-कानून बनाना।

प्रश्न 5. कार्यपालिका का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-देश का प्रशासन चलाना।

प्रश्न 6. एकल कार्यपालिका किसे कहते हैं ?
उत्तर-एकल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक ही व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित होती हैं।

प्रश्न 7. बहुल कार्यपालिका किसे कहते हैं ?
उत्तर-बहुल कार्यपालिका उसे कहते हैं, जहां कार्यपालिका की शक्तियां एक ही व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित न होकर एक से अधिक व्यक्तियों अथवा किसी संस्था को प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 8. शक्तियों के पृथक्करण का कोई एक उद्देश्य लिखें।
उत्तर-संविधान की रक्षा शक्तियों के पृथक्करण का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

प्रश्न 9. अधिकारों की रक्षा कौन करता है?
उत्तर-अधिकारों की रक्षा न्यायपालिका करती है।

प्रश्न 10. प्रशासनिक कार्य कौन करता है?
उत्तर-प्रशासनिक कार्य कार्यपालिका करती है।

प्रश्न 11. विदेशों से सम्बन्ध कौन स्थापित करता है?
उत्तर-कार्यपालिका विदेशों से सम्बन्ध स्थापित करती है।

प्रश्न 12. किस देश में बहुल कार्यपालिका पाई जाती है?
उत्तर-स्विट्ज़रलैण्ड में बहुल कार्यपालिका पाई जाती है।

प्रश्न 13. द्विसदनीय विधानमण्डल के पक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकता है।

प्रश्न 14. द्विसदनीय विधानमण्डल के विपक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-जनता की इच्छा एक होती है, दो नहीं।

प्रश्न 15. एक सदनीय विधानमण्डल का कोई एक गुण बताइए।
उत्तर-एक सदनीय विधानमण्डल जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।

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प्रश्न 16. एक सदनीय विधानमण्डल का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-एक सदनीय विधानमण्डल निरंकुश बन जाता है।

प्रश्न 17. एक सदनीय व्यवस्थापिका का अर्थ समझाइए।
उत्तर-जिस व्यवस्थापिका का एक सदन होता है, उसे एक सदनीय व्यवस्थापिका कहा जाता है।

प्रश्न 18. यह कथन किसका है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जांचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है?”
उत्तर-यह कथन लॉर्ड ब्राइस का है।

प्रश्न 19. न्यायपालिका का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर- न्यायपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है।

प्रश्न 20. कानूनों की व्याख्या कौन करता है?
उत्तर-कानूनों की व्याख्या न्यायपालिका करती है।

प्रश्न 21. संविधान का संरक्षक किसे माना जाता है?
उत्तर-संविधान का संरक्षक न्यायपालिका को माना जाता है।

प्रश्न 22. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है, कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष एवं निडर होने चाहिएं।

प्रश्न 23. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने वाला कोई एक तत्त्व लिखें।
उत्तर-न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा होनी चाहिए।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………. का मुख्य कार्य न्याय करना है।
2. शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त ………… ने दिया।
3. मान्टेस्क्यू की पुस्तक ………….. है।
4. दूसरा सदन पहले सदन की …………… को रोकता है।
5. ……… विधानमण्डल में कानून शीघ्र पास हो जाते हैं।
उत्तर-

न्यायपालिका
मान्टेस्क्यू
The Spirit of Law
निरंकुशता
एक सदनीय।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. राज्य के अध्यक्ष की शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है।
2. स्विट्ज़रलैण्ड में एकल कार्यपालिका पाई जाती है।
3. कानून लागू करना एवं शान्ति व्यवस्था बनाए रखना कार्यपालिका का कार्य है।
4. प्रदत्त व्यवस्था के कारण कार्यपालिका अधिक शक्तिशाली हो गई है।
5. न्यायपालिका विधानपालिका के बनाए हुए कानूनों को लागू करती है।
उत्तर-

सही
ग़लत
सही
सही
ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जाँचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई कसौटी नहीं है।”
(क) लॉर्ड ब्राइस
(ख) लॉस्की
(ग) टी० एच० ग्रीन
(घ) विलोबी।
उत्तर-
(क) लॉर्ड ब्राइस

प्रश्न 2.
न्यायाधीशों की नियुक्ति की सर्वोत्तम पद्धति कौन-सी है ?
(क) जनता द्वारा चुनाव
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता स्थापित करने वाले तत्त्व हैं-
(क) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
(ख) नौकरी की सुरक्षा
(ग) अच्छा वेतन
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
विधानपालिका की शक्तियों के पतन का कारण है-
(क) कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि
(ख) विधानपालिका तक लोगों की पहुंच कठिन है
(ग) कल्याणकारी राज्य की धारणा ने कार्यपालिका के महत्त्व को बढ़ाया है
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
एकात्मक सरकार का अर्थ और विशेषताओं की व्याख्या करें। (Discuss the meaning and features of Unitary Government.)
उत्तर–
आधुनिक राज्य क्षेत्र व जनसंख्या में इतने विशाल हैं कि प्रत्येक राज्य को प्रान्तों अथवा इकाइयों में बांटा गया है। इन प्रान्तों अथवा इकाइयों को प्रान्तीय शासन चलाने के लिए कुछ अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। इन प्रान्तीय सरकारों का केन्द्रीय सरकारों से क्या सम्बन्ध है, इस आधार पर सरकारों का वर्गीकरण एकात्मक तथा संघात्मक रूपों में किया जाता है। एकात्मक सरकार में शासन की समस्त शक्तियां अन्तिम रूप में केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं जबकि संघात्मक सरकार में शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं।

एकात्मक सरकार की परिभाषाएं (Definitions of Unitary Government)-एकात्मक शासन वह शासन है जिसमें शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं। सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय सरकार प्रान्तों की स्थापना करती है तथा उन्हें थोड़े-बहुत अधिकार प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार जब चाहे इन प्रान्तों की सीमाएं घटा-बढ़ा भी सकती है। एकात्मक शासन की भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • डायसी (Dicey) के अनुसार, “एक केन्द्रीय शक्ति के द्वारा सर्वोच्च शक्ति का स्वाभाविक प्रयोग किया जाना ही एकात्मक शासन है।” (“Unitary government is the habitual exercise of supreme legislative authority by one central power.”)
  • डॉ० फाइनर (Finer) के अनुसार, “एकात्मक शासन वह होता है जहां एक केन्द्रीय सरकार में सम्पूर्ण शासन शक्ति निहित होती है और जिसकी इच्छा व जिसके प्रतिनिधि कानूनी दृष्टि में सर्वशक्तिमान होते हैं।”
  • प्रोफेसर स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “एकात्मक राज्य वह है जो एक केन्द्रीय शासन के अधीन संगठित हो।” (“A unitary state is one organised under a single central government.”)
    • प्रो० गार्नर (Garner) के अनुसार, “जब संविधान द्वारा सरकार की सब शक्तियां अकेले केन्द्रीय अंग तथा अन्य अंगों को दी जाएं, जिससे स्थानीय सरकारें अपनी शक्तियां और स्वतन्त्रता तथा अपना अस्तित्व तक प्राप्त करती हों, वहां एकात्मक सरकार होती है।”
      इंग्लैण्ड, फ्रांस, जापान, श्रीलंका, चीन, इटली तथा जर्मनी में एकात्मक शासन प्रणाली पाई जाती है।
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एकात्मक सरकार के लक्षण (Features of Unitary Government)-
एकात्मक शासन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  • शक्तियों का केन्द्रीयकरण (Centralization of Powers)—एकात्मक शासन में शासन की शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं। शासन की सुविधा के लिए राज्यों को प्रान्तों में बांटा गया होता है और उन्हें कुछ अधिकार तथा शक्तियां दी जाती हैं। केन्द्र जब चाहे प्रान्तों के अधिकारों तथा शक्तियों को छीन सकता है और उनकी शक्तियां जब चाहे घटा-बढ़ा सकता है। इन प्रान्तों अथवा इकाइयों का अस्तित्व केन्द्र के ऊपर निर्भर करता है।
  • प्रभुसत्ता (Sovereignty)-एकात्मक शासन में प्रभुसत्ता केन्द्र में निहित होती है
  • इकहरी नागरिकता (Single Citizenship)-एकात्मक शासन में एक ही नागरिकता होती है। इंग्लैण्ड में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त है।
  • इकहरा शासन (Single Administration)-एकात्मक शासन में इकहरी शासन व्यवस्था होती है। इसमें एक ही विधानपालिका, एक ही कार्यपालिका तथा एक ही सर्वोच्च न्यायपालिका होती है।
  • लिखित अथवा अलिखित संविधान (Written or Unwritten Constitution)-एकात्मक शासन में संविधान लिखित हो सकता है और अलिखित भी। इंग्लैण्ड का संविधान अलिखित है जबकि जापान का संविधान लिखित है।
  • कठोर अथवा लचीला संविधान (Rigid or Flexible Constitution) एकात्मक शासन का संविधान कठोर अथवा लचीला हो सकता है। इंग्लैण्ड का संविधान लचीला है जबकि जापान का संविधान कठोर है।
  • प्रान्तों का अस्तित्व केन्द्र पर निर्भर करता है (Existence of the Provinces depends upon Centre)प्रान्तीय सरकारों का अस्तित्व और उनकी शक्तियां केन्द्रीय सरकार की इच्छा पर निर्भर होती हैं। प्रान्तों के अस्तित्व तया शक्तियों में परिवर्तन करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 2.
एकात्मक सरकार के गुणों और दोषों की व्याख्या करें। (Discuss the merits and demerits of Unitary Government.)
उत्तर-
एकात्मक शासन के गुण (Merits of Unitary Government)-एकात्मक शासन के निम्नलिखित गुण हैं-

  • शक्तिशाली शासन (Strong Administration)-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है। सभी शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं। प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय सरकार के आदेशानुसार कार्य करती हैं। कानूनों को बनाने तथा लागू करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र पर होती है। इस तरह शासन शक्तिशाली होता है जिस कारण देश की विदेश नीति भी प्रभावशाली होती है।
  • सादा शासन (Simple Administration)-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन अति सरल होता है। शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं जिसके कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में मतभेद उत्पन्न नहीं होते। सादा शासन होने के कारण एक अनपढ़ व्यक्ति को भी अपने देश के शासन के संगठन का ज्ञान होता है।
  • लचीला प्रशासन (Flexible Government)-संविधान अधिक कठोर न होने के कारण समयानुसार आसानी से बदला जा सकता है। संकटकाल के लिए यह शासन-प्रणाली बहुत उपयुक्त है। केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए किसी भी समय प्रान्तों की शक्तियों को कम किया जा सकता है।
  • कम खर्चीला शासन (Less Expensive)—एकात्मक शासन प्रणाली संघात्मक सरकार की अपेक्षा कम खर्चीली होती है। इसमें एक ही विधानपालिका तथा एक ही कार्यपालिका होती है जिससे खर्च कम होता है। प्रान्तों में विधानमण्डल तथा कार्यपालिका न होने के कारण धन की बचत होती है।
  • शासन की एकरूपता (Uniformity in Administration)-कानून बनाने के लिए एक ही विधानपालिका होती है तथा कानूनों को लागू करने के लिए एक ही कार्यपालिका होती है। इससे सारे राज्य में शासन की एकरूपता बनी रहती है। एक नागरिक देश के किसी भी भाग में क्यों न चला जाए उसे एक ही तरह के कानूनों का पालन करना होता है।
  • राष्ट्रीय एकता (National Unity)—एकात्मक शासन प्रणाली में राष्ट्रीय एकता की भावनाओं में वृद्धि होती है। इसका कारण यह है कि सभी नागरिकों को एक से कानून का पालन करना पड़ता है और उन्हें एक ही नागरिकता प्राप्त होती है। नागरिकों में प्रान्तीयता की भावनाएं उत्पन्न नहीं होती जिससे राष्ट्रीय एकता बनी रहती है।
  • कार्यकुशल शासन (Efficient Administration)-एकात्मक शासन प्रणाली में शासन में कुशलता आ जाती है क्योंकि इस शासन व्यवस्था में केन्द्र तथा प्रान्तों में मतभेद तथा गतिरोध उत्पन्न नहीं होते। एकात्मक सरकार में शासन में कुशलता होती है क्योंकि समस्त निर्णय केन्द्र द्वारा लिए जाते हैं। केन्द्र शीघ्र निर्णय लेकर उन्हें शीघ्रता से लागू करता है। इससे शासन में कुशलता का आना स्वाभाविक है।
  • संकटकाल के लिए उपयुक्त (Suitable in time of Emergency) शासन की समस्त शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं, जिसके कारण सरकार शक्तिशाली होती है। संकट के समय केन्द्र शीघ्र निर्णय लेकर संकट का सामना दृढ़ता से कर सकता है।
  • इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) एकात्मक शासन में इकहरी नागरिकता होती है और प्रत्येक व्यक्ति समस्त देश का नागरिक होता है, किसी प्रान्त का नहीं। इससे उनकी वफ़ादारी अविभाजित रहती है और वह देश के प्रति वफ़ादार रहता है।
  • छोटे-छोटे राज्यों के लिए उपयुक्त (Suitable for Small States)-एकात्मक शासन प्रणाली छोटे राज्यों के लिए उपयुक्त है। कम क्षेत्र वाले प्रदेश को छोटे-छोटे प्रान्तों में बांटना ठीक नहीं होता क्योंकि प्रत्येक छोटे क्षेत्र में अलग सरकार स्थापित करने से ख़र्च भी बहुत बढ़ जाते हैं।
  • वैदेशिक सम्बन्धों में दृढ़ता (Strong and Firm in Foreign Relations)-एकात्मक सरकार दूसरे राज्यों से अपने सम्बन्ध स्थापित करने और उनके संचालन में दृढ़ता से काम ले सकती है। अन्य राज्यों से सन्धि करते समय केन्द्रीय सरकार को प्रान्तीय सरकारों से सलाह करने की आवश्यकता नहीं होती।
  • उत्तरदायित्व निश्चित किया जा सकता है (Responsibility can be fixed)-सारे देश का शासन केन्द्रीय शासन के अधीन होता है जिसके कारण उत्तरदायित्व निश्चित करना आसान है।

एकात्मक शासन के दोष (Demerits of Unitary Government)-

बहुत-से राज्य एकात्मक शासन प्रणाली को अपनाए हुए हैं। एकात्मक शासन प्रणाली के बहुत-से अवगुण भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • केन्द्र निरंकुश बन जाता है (Centre becomes Despotic)-एकात्मक शासन में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण केन्द्र के निरंकुश बन जाने का सदा भय बना रहता है।
  • स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती (Local needs are not fulfilled)—प्रत्येक प्रान्त की अपनी समस्याएं होती हैं जिनके लिए विशेष प्रकार के कानूनों की आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार को न तो स्थानीय आवश्यकताओं का पूरा ज्ञान होता है और न ही कानून प्रान्तों के लिए बनाए जाते हैं। वह तो एक ही कानून सब प्रान्तों के लिए बनाती है।
  • बड़े राज्यों के लिए अनुपयुक्त (Unsuitable for big States)-एकात्मक सरकार उन राज्यों के लिए जिनका क्षेत्रफल तथा जनसंख्या बहुत अधिक होती है, उपयुक्त नहीं है क्योंकि केन्द्रीय सरकार दूर-दूर फैले हुए भागों में शासन की व्यवस्था अच्छी प्रकार से लागू नहीं कर सकती।
  • केन्द्रीय सरकार का कार्य बढ़ जाता है (Central Government becomes over-burdened)—एकात्मक सरकार में सारे देश का शासन केन्द्र के द्वारा चलाया जाता है। जिससे केन्द्रीय सरकार का कार्य बढ़ जाता है। केन्द्रीय सरकार को ही देश की समस्याओं तथा विदेशी मामलों को सुलझाना पड़ता है। शासन के सभी निर्णय केन्द्र के द्वारा लिए जाते हैं जिससे केन्द्र का कार्यभार बहुत बढ़ जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि केन्द्र प्रत्येक कार्य को कुशलता से नहीं कर पाता और कई समस्याओं को सुलझाने के लिए केन्द्र को समय ही नहीं मिल पाता है।
  • नौकरशाही का प्रभाव (Influence of Bureaucracy)-एकात्मक शासन में स्थानीय शासन नहीं होने के कारण सरकारी कर्मचारियों की शक्ति तथा प्रभाव बहुत बढ़ जाता है। प्रान्तों का शासन जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा नहीं चलाया जाता बल्कि प्रान्तों के शासन के लिए सरकारी कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं जो जनता की समस्याओं के प्रति उदासीन होते हैं। सरकारी कर्मचारी अपनी मनमानी करते हैं, क्योंकि उन पर स्थानीय नियन्त्रण नहीं होता।
  • शासन में दक्षता नहीं आती (Administration does not become efficient)—एकात्मक शासन में राष्ट्रीयता तथा प्रान्तीय मामलों का प्रबन्ध केन्द्र को ही करना पड़ता है। इससे उसके काम इतने बढ़ जाते हैं कि वह कोई भी काम ठीक प्रकार से नहीं कर सकती, यहां तक कि राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य भी ठीक समय पर और अच्छी तरह नहीं हो पाते।
  • लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती (People do not get Political Education)—प्रान्तों में सारा प्रबन्ध केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा होता है और वहां की जनता को शासन के साथ सम्मिलित नहीं किया जाता है। प्रान्तीय विधानमण्डलों के अभाव में समय-समय पर चुनाव आदि भी नहीं होते, इसलिए जनता को राजनीति में भाग लेने का अवसर कम मिलता है।
  • नागरिकों की सार्वजनिक कार्यों में अरुचि (No interest of Citizens towards Local Affairs)एकात्मक शासन में स्थानीय समस्याओं से सम्बन्धित सभी निर्णय केन्द्रीय सरकार के द्वारा किए जाते हैं। स्थानीय समस्याओं पर विचार करने तथा उन्हें सुलझाने के लिए वहां के लोगों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती। इससे जनता में स्थानीय समस्याओं में कोई रुचि नहीं रहती और उनका उत्साह भी कम हो जाता है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि जनता स्वयं शासन में रुचि ले और अपनी समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करें।

निष्कर्ष (Conclusion) एकात्मक शासन के गुण भी हैं और दोष भी। किसी देश में यह प्रणाली ठीक सिद्ध होती है और किसी देश में उचित नहीं समझी जाती।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 3.
संघवाद से क्या अभिप्राय है ?
(What is the meaning of federalism ?)
उत्तर-
संघात्मक शासन उसे कहते हैं जहां संविधान के द्वारा शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं और दोनों अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। इसका अर्थ यह है कि केन्द्रीय सरकार प्रान्तों को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और न ही प्रान्त केन्द्रीय सरकार को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। संघात्मक शासन में दोहरी सरकार होती है। प्रभुसत्ता न तो केन्द्रीय सरकार में निहित होती है और न ही प्रान्तीय सरकारों में और न ही प्रभुसत्ता केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती है। प्रभुसत्ता वास्तव में राज्य के पास होती है।

संघवाद को अंग्रेज़ी भाषा में ‘फेडरलिज्म’ (Federalism) कहते हैं। फेडरलिज्म शब्द लेटिन भाषा के शब्द फोईडस (Foedus) से बना है जिसका अर्थ है सन्धि अथवा समझौता। संघात्मक सरकार इस प्रकार समझौते का परिणाम होती है। जिस तरह किसी समझौते के लिए एक से अधिक पक्षों का होना आवश्यक होता है उसी तरह संघात्मक राज्य की स्थापना करने के लिए दो या दो से अधिक राज्यों के बीच समझौते की आवश्यकता होती है। उदाहरणस्वरूप प्रारम्भ में अमेरिका के 13 राज्यों ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की स्थापना की। आज अमेरिका के 50 राज्य हैं। भारत, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैण्ड, दक्षिणी अफ्रीका तथा कनाडा में संघात्मक सरकारें पाई जाती हैं।

संघात्मक सरकार की परिभाषाएं (Definitions of Federal Government)-

संघात्मक सरकार की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं की गई हैं-

  • माण्टेस्कयू (Montesquieu) के अनुसार, “संघात्मक सरकार एक ऐसा समझौता है जिसके द्वारा बहुत से एकजैसे राज्य एक बड़े राज्य के सदस्य बनने को सहमत हो जाते हैं।” (“Federal Government is a convention by which several similar states agree to become members of a large one.”)
  • हैमिल्टन (Hamilton) के अनुसार, “संघात्मक शासन राज्यों का एक समुदाय है जो एक नए राज्य का निर्माण करता है।” (“Federation is an association of states that form a new one.”)
  • डॉ० फाईनर (Dr. Finer) के शब्दों में, “संघात्मक राज्य वह है जिसमें अधिकार और शक्ति का कुछ भाग स्थानीय क्षेत्रों में निहित हो व दूसरा भाग एक केन्द्रीय संस्था के पास हो जिसको स्थानीय क्षेत्रों के समुदाय ने अपनी इच्छा से बनाया हो।”
  • अमेरिकन सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, “संघात्मक राज्य तोड़े न जा सकने वाले राज्यों का बना, तोड़ा जा सकने वाला संघ है।” (“Destructible union composed of indestructible states.”)
  • गार्नर (Garmer) की परिभाषा स्पष्ट तथा अन्य परिभाषाओं से श्रेष्ठ है। उसके अनुसार, “संघात्मक एक ऐसी प्रणाली है जिसमें केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक सामान्य प्रभुसत्ता के अधीन होती हैं। ये सरकारें अपने निश्चित क्षेत्र में जिसको संविधान अथवा संसद् का कोई अधिनियम निश्चित करता है, सर्वोच्च होती हैं। संघ सरकार जैसा कि प्रायः यह कह दिया जाता है कि अकेली सरकार केन्द्रीय ही नहीं होती वरन् यह केन्द्र तथा स्थानीय सरकारों को मिला कर बनती है। स्थानीय सरकार संघ का उतना ही भाग है जितना कि केन्द्रीय सरकार, यद्यपि वह न तो केन्द्र द्वारा बनाई जाती है और न ही उसके अधीन होती है।”

प्रश्न 4.
संघात्मक शासन व्यवस्था में जो तीन सामान्य सिद्धान्त अपनाये जाते हैं, उनका वर्णन कीजिए।
(Describe the three general principles that are followed in federalism.)
अथवा
संघात्मक सरकार के आवश्यक तत्त्वों की व्याख्या करें।
(Discuss the essential features of a federal government.)
उत्तर-
संघात्मक सरकार के निम्नलिखित आवश्यक तत्त्व तथा विशेषताएं होती हैं-

1. लिखित संविधान (Written Constitution)-संघात्मक सरकार का संविधान सदैव लिखित होना चाहिए ताकि केन्द्र तथा प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन निश्चित तथा स्पष्ट किया जा सके। यदि संविधान अलिखित होगा तो दोनों सरकारों में झगड़े तथा गतिरोध उत्पन्न होते हैं क्योंकि दोनों सरकारों की शक्तियां निश्चित तथा स्पष्ट नहीं होती। अतः समझौते के अनुच्छेद लिखित होने चाहिएं अर्थात् संविधान लिखित होना चाहिए।

2. संविधान की सर्वोच्च (Supremacy of the Constitution)—संघात्मक सरकार में संविधान की सर्वोच्चता होना अति आवश्यक है। संविधान की सर्वोच्चता का अर्थ है कि समझौते की शर्ते जिसके द्वारा संघ राज्य की स्थापना की गई है, केन्द्र तथा प्रान्तीय सरकारों के ऊपर लागू होती हैं। न तो केन्द्र और न ही प्रान्त संविधान का उल्लंघन कर सकता है क्योंकि ऐसा करना समझौते का उल्लंघन करना है जिसके द्वारा संघात्मक राज्य की स्थापना की गई है। कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय या संस्था संविधान से ऊपर नहीं है। संविधान का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को प्राप्त नहीं होता। जब कभी केन्द्र तथा प्रान्तों में गतिरोध उत्पन्न हो जाए तो दोनों को संविधान की धाराओं के अनुसार कार्य करना होता है। केन्द्र तथा प्रान्त अपने अधिकार तथा शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं, इसलिए संविधान का सर्वोच्च होना आवश्यक है। अमेरिका, भारत, स्विट्ज़रलैण्ड आदि संघात्मक राज्यों में संविधान सर्वोच्च है।

3. कठोर संविधान (Rigid Constitution) संविधान की सर्वोच्चता तभी कायम रह सकती है यदि संविधान कठोर हो। संविधान में संशोधन केन्द्रीय संसद् अथवा प्रान्तीय विधानमण्डल द्वारा साधारण कानून निर्माण की विधि से नहीं होना चाहिए। संविधान में संशोधन करने का अधिकार यदि केन्द्रीय सरकार को प्राप्त होगा तो केन्द्रीय सरकार अपनी इच्छानुसार संविधान में संशोधन करके प्रान्तों के अधिकारों तथा शक्तियों को छीनने की चेष्ठा करेगी और शीघ्र ही एकात्मक शासन की स्थापना हो जाएगी। संविधान में संशोधन केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों, दोनों की स्वीकृति से होना चाहिए। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैण्ड इत्यादि संघात्मक राज्यों के संविधान कठोर हैं। अमेरिका का संविधान विश्व के शेष सब संविधानों से कठोर है।

4. शक्तियों का विभाजन (Distribution of Powers)—संघात्मक सरकार का अनिवार्य तत्त्व यह है कि शासन प्रणाली में राज्य की सभी शक्तियां केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों में बंटी होती है। शक्तियों का बंटवारा प्रायः इस तरीके से किया जाता है कि जो विषय सारे देश से सम्बन्धित होते हैं ते केन्द्रीय सरकार को सौंप दिए जाते हैं और जो विषय स्थानीय महत्त्व के होते हैं उन्हें प्रान्तीय सरकारों को सौंप दिया जाता हे।

इस प्रकार सुरक्षा, विदेशी सम्बन्ध, विदेशी व्यापार, साता भात के साधन, मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्रीय सरकार के पास रहते हैं और स्थानीय महत्त्व के विषय जैसे कि शिक्षा, जेल, पुलिस, कृषि, स्वास्थ्य, सफ़ाई आदि प्रान्तों के पास रहते हैं। शक्तियों के विभाजन के लिए तीन तरीके अपनाए जाते हैं-

  • प्रथम, केन्द्रीय सरकार की शक्तियां निश्चित कर दी जाती हैं और शेष अधिकार (Residuary Powers) प्रान्तों तथा इकाइयों को दे दिए जाते हैं। इस प्रणाली को अमेरिका में अपनाया गया है।
  • द्वितीय, प्रान्तीय सरकारों अथवा इकाइयों की शक्तियां निश्चित कर दी जाती हैं और शेष अधिकार केन्द्र को दे दिए जाते हैं। इस प्रणाली को कनाडा में अपनाया गया है।
  • तृतीय, केन्द्र तथा प्रान्तों दोनों की शक्तियां निश्चित कर दी जाती हैं और शेष शक्तियों का भी वर्णन कर दिया जाता है जिन्हें समवर्ती विषय (Concurrent Subjects) कहा जाता है। समवर्ती विषयों पर केन्द्र तथा प्रान्त दोनों ही कानून बना सकते हैं और यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा प्रान्तों के कानूनों में झगड़ा उत्पन्न हो जाए तो केन्द्र का कानून लागू होता है। भारत में इसी प्रणाली को अपनाया गया है।

5. न्यायपालिका की श्रेष्ठता (Supremacy of the Judiciary)-संघात्मक सरकार में एक स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा सर्वोच्च न्यायपालिका का होना आवश्यक है। संघात्मक सरकार में न्यायपालिका को तीन मुख्य कार्य करने पड़ते

  • केन्द्र तथा प्रान्तों के झगड़ों को निपटाना-संघात्मक सरकार में केन्द्र तथा प्रान्तों में शक्तियों का बंटवारा होता है। इस विभाजन के कारण कई बार केन्द्र तथा प्रान्तों में अथवा दो प्रान्तों में पारस्परिक झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन झगड़ों को निपटाने के लिए निष्पक्ष न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है ताकि ऐसे झगड़ों पर निष्पक्ष निर्णय दिया जा सके।
  • संविधान की व्याख्या करना-संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है जिस कारण कई बार संविधान की धाराओं की व्याख्या करने की आवश्यकता पड़ जाती है। संविधान की व्याख्या करने का यह अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त होता है और न्यायपालिका का निर्णय अन्तिम होता है।
  • संविधान की रक्षा-संघात्मक सरकार में संविधान सर्वोच्च होता है। इसकी सर्वोच्चता को कायम रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका पर होती है। न्यायपालिका यह देखती है कि केन्द्रीय सरकार अथवा प्रान्तीय सरकार संविधान का उल्लंघन तो नहीं करती। यदि केन्द्र सरकार अथवा प्रान्तीय सरकारें कोई ऐसा कानून बनाती हैं जो संविधान का उल्लंघन करता हो तो न्यायपालिका इस कानून को अवैध घोषित कर सकती है। भारत तथा अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति प्राप्त है।

6. द्वि-सदनीय विधानमण्डल (Bicameral Legislature)—संघात्मक शासन प्रणाली में द्वि-सदनीय विधानमण्डल का होना आवश्यक है। एक सदन समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है जबकि दूसरा सदन प्रान्तों अथवा इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। निम्न सदन (Lower House) का कार्य सारे राष्ट्र के हितों की रक्षा करना होता है जबकि ऊपरी सदन (Upper House) का मुख्य कार्य प्रान्तों के हितों की रक्षा करना होता है। भारत में संसद् के दो सदन हैं : लोकसभा तथा राज्यसभा। अमेरिका में भी कांग्रेस के दो सदन हैं : प्रतिनिधि सदन तथा सीनेट।

7. दोहरी नागरिकता (Double Citizenship)-संघात्मक प्रणाली की एक विशेषता यह भी होती है कि इसमें नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है। नागरिकों को एक तो सारे राष्ट्र की नागरिकता प्राप्त होती है और एक उस राज्य की नागरिकता प्राप्त होती है जिसमें वे रहे होते हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले व्यक्ति (विदेशियों को छोड़कर) को संयुक्त राज्य अमेरिका की नागरिकता के अतिरिक्त उस राज्य की नागरिकता भी प्राप्त होती है जिसमें उसका निवास स्थान होता है।

प्रश्न 5.
संघात्मक सरकार के गुणों और दोषों की व्याख्या करें।
(Discuss the merits and demerits of Federal Government.)
उत्तर-
संघात्मक सरकार में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं
संघात्मक सरकार के गुण (Merits of Federal Government)-

1. विभिन्नता में एकता (Unity in Diversity)-इस शासन व्यवस्था का मुख्य गुण यह है कि इसमें विभिन्नता में एकता की प्राप्ति की जाती है। जिन देशों में धार्मिक, भाषायी तथा जातीय विभिन्नता पाई जाती है, उन देशों में संघात्मक सरकार द्वारा राष्ट्रीय एकता को कायम रखा जा सकता है। संघात्मक सरकार में इकाइयां अपनी स्वायत्तता भी बनाए रखती हैं क्योंकि संघ की इकाइयां अपने कार्यों में स्वतन्त्र होती हैं।

2. यह निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से सुरक्षा करता है (It safeguards the Weak States from Stronger Ones)—संघात्मक सरकार में छोटे-छोटे राज्य मिल कर शक्तिशाली संगठन बनाकर अपनी रक्षा कर सकते हैं। बिना संघात्मक सरकार के यह सम्भव है कि छोटे-छोटे राज्य राज्यों के हाथों में स्वतन्त्रता भी खो बैठें। आज यदि अमेरिका शक्तिशाली है तो सिर्फ संघ शासन के कारण। जो सम्मान आज अमेरिका के राज्यों को प्राप्त है वह कभी उन्हें न मिलता यदि इन राज्यों ने मिलकर संघ की स्थापना न की होती। इसके अतिरिक्त आज राज्य की सुरक्षा के लिए बहुत अधिक धन ख़र्च होता है जिसे कोई भी छोटा राज्य सहन नहीं कर सकता। अतः संसदीय शासन द्वारा ही छोटे-छोटे राज्य अपनी सुरक्षा कर सकते हैं।

3. शासन में कार्यकुशलता (Efficiency in Administration) शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा प्रान्तों में विभाजन होता है जिस कारण केन्द्र पर कार्य का बोझ नहीं बढ़ता। कार्य के विभाजन के कारण दोनों सरकारें अपना कार्य कुशलता से करती हैं। किसी के पास कार्य अधिक नहीं होता। कार्यभार अधिक न होने के कारण प्रत्येक समस्या को सुलझाने के शीघ्र निर्णय ले लिया जाता है। केन्द्रीय सरकार को छोटी-छोटी बातों की चिन्ता नहीं होती जिससे केन्द्र अपना कीमती समय बड़ी-बड़ी समस्याओं में लगा सकता है। अतः शक्तियों के इस विभाजन से कार्य कुशलता में वृद्धि होती है। एकात्मक शासन में केन्द्रीय सरकार के पास कार्य-भार अधिक होने के कारण प्रत्येक निर्णय में देरी होती है। इंग्लैण्ड में संसद् के पास काम अधिक और समय कम होता है।

4. आर्थिक विकास के लिए लाभदायक (Useful for Economic Progress)—संघात्मक सरकार से अधिक आर्थिक उन्नति होती है। छोटे-छोटे राज्यों के आर्थिक साधन इतने नहीं होते कि वे उन्नति कर सकें। संघात्मक राज्य के साधन बहुत बढ़ जाते हैं जिससे समस्त देश की उन्नति होती है।

5. यह केन्द्रीय सरकार को निरंकुश बनने से रोकती है (It checks the despotism of Central Government)-संघात्मक सरकार में शक्तियों के विभाजन के कारण केन्द्र की शक्तियां सीमित होती हैं। सीमित शक्तियों के कारण केन्द्र निरंकुश नहीं बन सकता। इस तरह संघ राज्य में नागरिकों की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहती है।

6. यह बड़े राज्यों के लिए उपयुक्त है (It is suitable for big States)-संघात्मक सरकार उन राज्यों के लिए जिनका क्षेत्रफल विशाल होता है तथा जिनकी जनसंख्या बहुत अधिक होती है, उपयुक्त है। बड़े राज्यों का शासन केन्द्र ठीक तरह से नहीं चला सकता। बड़े राज्यों को प्रान्तों में बांट कर स्थानीय शासन उन्हें सौंप दिया जाना चाहिए ताकि केन्द्र का भार हल्का हो जाए।

7. यह नागरिकों की प्रतिष्ठा बढ़ाती है (It enhances the Prestige of the Citizens)-संघ की नागरिकता से नागरिकों की प्रतिष्ठा बढ़ती है। पंजाब या असम अथवा हरियाणा जैसे छोटे राज्य का नागरिक होने की अपेक्षा भारत का नागरिक होना अधिक गौरव की बात है।

8. राजनीतिक शिक्षा (Political Education)—संघात्मक सरकार में लोगों को एकात्मक शासन की अपेक्षा राजनीतिक शिक्षा अधिक मिलती है। केन्द्र के अतिरिक्त प्रान्तों में विधानमण्डल होने के कारण बार-बार चुनाव होते हैं जिससे लोगों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

9. स्थानीय मामलों में रुचि (Interest in Local Affairs)-संघात्मक सरकार में स्थानीय प्रशासन लोगों के अपने हाथों में होता है जिसके कारण लोग स्थानीय मामलों में रुचि लेते हैं। लोगों में शासन के प्रति उदासीनता समाप्त हो जाती है क्योंकि शासन उनका अपना होता है।

10. यह विश्व राज्य के लिए एक आदर्श है (It is model for the World State)-संघात्मक सरकार विश्व राज्य की स्थापना की ओर एक कदम है। जब छोटे राज्य संघ बना कर सफलता से कार्य कर सकते हैं तो संसार के सभी देश विश्व राज्य की स्थापना करके भी सफलता से कार्य कर सकते हैं।

11. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा (International Prestige)-संघीय शासन व्यवस्था के अधीन सदस्य राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मान-प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। आज संसार में अमेरिका को अधिक शक्तिशाली राष्ट्र माना जाता है, क्योंकि अमेरिका 50 राज्यों का सम्मिलित राज्य है।

12. बचत (Economy)-संघ प्रणाली का एक अन्य गुण बचत है क्योंकि इसके अनेक प्रकार के राज्य अपनी प्रभुसत्ता का त्याग करके एक बड़ा राज्य बना लेते हैं जिसके फलस्वरूप उन राज्यों की सुरक्षा के लिए सेना, पुलिस आदि पर इतना खर्च नहीं होता जितना कि उनके अलग-अलग रहने पर होता है।

संघात्मक सरकार की हानियां (Disadvantages of Federal Government)-

संघात्मक सरकार के गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी हैं। इसके मुख्य अवगुण वही हैं जो कि एकात्मक शासन प्रणाली के गुण हैं

1. दुर्बल शासन (Weak Government)-संघात्मक सरकार शक्तियों के विभाजन के कारण दुर्बल सरकार होती है। केन्द्रीय सरकार न तो प्रत्येक विषय पर कानून बना सकती है और न ही प्रान्तों में हस्तक्षेप कर सकती है। केन्द्र के बनाए हुए कानूनों को सर्वोच्च न्यायपालिका अवैध घोषित कर सकती है। प्रो० डायसी के मतानुसार, “संघीय संविधान एकात्मक संविधान की अपेक्षा कमज़ोर होता है।”

2. राष्ट्रीय एकता को ख़तरा (Danger to National Unity)—इस शासन प्रणाली में प्रान्तों को काफ़ी स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे नागरिकों में प्रान्तीयता की भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। नागरिक प्रान्तीय भावनाओं में फंस कर राष्ट्र के हित को भूल जाते हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय अपना अलग प्रान्त चाहता है और उसकी प्राप्ति के लिए वह आन्दोलन भी करता है। प्रत्येक प्रान्त अपने बारे में सोचता है न कि देश के लिए। कई बार प्रान्त यह सोचने लगता है कि केन्द्रीय सरकार उनके साथ अन्याय कर रही है। वे केन्द्र से सहयोग करना छोड़ देते हैं।

3. संघ के टूटने का भय (Fear of disintegration of Federation)—संघ शासन प्रणाली में यह भय सदा बना रहता है कि कहीं एक इकाई या कुछ इकाइयां मिलकर संघ से अलग होने का प्रयास न करें। प्रान्तों की अपनी सरकार होती है और वह अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा प्रान्त का आपस में मतभेद हो जाए तो वह संघ से अलग होने का प्रयत्न करेगा। उदाहरणस्वरूप सोवियत संघ में संघात्मक सरकार पाई जाती थी। दिसम्बर, 1991 में सोवियत संघ के 15 राज्य अलग होकर स्वतन्त्र राज्य बन गए और इस प्रकार सोवियत संघ नाम का देश ही समाप्त हो गया।

4. विदेश नीति में कमज़ोर (Weak in Foreign Policy)-अधिकांश राज्यों की सरकारें विदेशी के साथ किए गए समझौतों की शर्तों को पूरा करने में अनेक प्रकार की अड़चनें डाल कर संघात्मक सरकार के मार्ग में कठिनाई उत्पन्न कर देती हैं। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार विदेश नीति को दृढ़ता से नहीं अपना सकती क्योंकि उसे पूर्ण विश्वास नहीं होता कि राज्यों की सरकारें उसकी नीति का समर्थन करेंगी अथवा नहीं।

5. केन्द्र और राज्यों में झगड़े (Conflicts between Central and State Government)—संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र सम्बन्धी झगड़े प्रायः उत्पन्न हो जाते हैं। संघात्मक शासन में प्रायः राज्य की सीमाओं पर झगड़े चलते रहते हैं। भारत इस तथ्य की पुष्टि करता है।

6. खर्चीला शासन (Expensive Government)—संघात्मक शासन एक खर्चीला शासन है क्योंकि इसमें दो प्रकार की सरकारें होती हैं। केन्द्रीय सरकार द्वारा अलग खर्च होता है और प्रान्तीय सरकारों द्वारा अलग। दोहरे शासन के कारण खर्चा भी लगभग दोहरा होता है। जनता को अधिक कर देने पड़ते हैं जिससे तंग आकर साधारण जनता विद्रोह करने के लिए भी तैयार हो जाती है। बार-बार चुनावों पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं।

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7. संविधान समय के अनुसार नहीं बदलता (Constitution does not change with Time)—संघात्मक सरकार में संविधान कठोर होता है, जिसके कारण संविधान में आसानी से संशोधन नहीं किया जा सकता। इसका परिणाम यह निकलता है कि कुछ देर बाद देश का संविधान समय से बहुत पीछे रह जाता है और वह समाज की आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाता। कई बार कठोर संविधान क्रान्ति का कारण बन जाता है।

8. शासन की एकरूपता का न होना (No Uniformity of Administration)—संघात्मक प्रणाली का यह अवगुण है कि समस्त देश में एक-सी शासन व्यवस्था नहीं मिलती। प्रत्येक प्रान्त एक ही विषय पर अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनाता तथा कर लगाता है। इसका परिणाम यह होता है कि विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न प्रकार के कानून होते हैं और कर भी अलग-अलग लगते हैं। इससे लोगों में प्रान्तीयता की भावना भी आ जाती है।

9. बुरे प्रशासन के लिए किसी को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता (No body can be held responsible for bad Administration)-संघात्मक शासन में अकेले केन्द्र को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं। प्रशासनिक असफलता के लिए एक सरकार दूसरी को दोषी ठहराने का प्रयत्न करती है।

10. दोहरी नागरिकता हानिकारक है (Double Citizenship is Harmful)-संघात्मक प्रणाली में नागरिक को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है, परन्तु दोहरी नागरिकता हानिकारक है। नागरिकों को दो सरकारों के प्रति वफादार रहना पड़ता है, जिस के कारण नागरिक दोनों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकता।

11. न्यायपालिका का अनावश्यक महत्त्व (Undue Importance of Judiciary)—संघ सरकार में संविधान की व्याख्या के लिए न्यायपालिका की आवश्यकता होती है। कई बार यह देखा गया है कि न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या कानून की भावना के अनुसार नहीं बल्कि अपनी दृष्टिकोण के अनुसार करती है। जिस न्यायपालिका के न्यायाधीश खुले रूप में ही कहें कि “हम संविधान के अधीन हैं पर संविधान क्या है यह हम बतलाएंगे” तो वहां संविधान न्यायपालिका के हाथ में खिलौना बन जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)—यह ठीक है कि संघ सरकार की त्रुटियां हैं। पर आधुनिक युग में अधिक-से-अधिक देशों में इसी शासन को स्थापित किया जा रहा है क्योंकि इसमें न केवल लोगों को अपने स्थानीय मामलों में आवश्यक शिक्षा मिलती है अपितु कई देशों ने इस व्यवस्था द्वारा अनुकरणीय उन्नति की है। अमेरिका तथा रूस इस बात के साक्षी हैं। लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा, “क्योंकि आज का समाज संघीय है, इसलिए शक्ति की बांट भी होनी चाहिए।” (Because society is federal authority must also be federal.)

प्रश्न 6.
संघात्मक और एकात्मक सरकारों में अन्तर करें।
(Distinguish between Federal and the Unitary form of Government.)
उत्तर-
केन्द्र तथा राज्यों के आपसी सम्बन्धों और शासन की शक्तियों की अवस्थिति (Location) के आधार पर शासन एकात्मक होता है। एकात्मक या संघात्मक शासन प्रणाली में समस्त शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं और इकाइयों पर इसका पूर्ण नियन्त्रण होता है, परन्तु संघात्मक प्रणाली में केन्द्र और इकाइयों में शक्तियां बंटी होती हैं और दोनों ही अपने क्षेत्र में स्वायत्तता से कार्य करती हैं।

एकात्मक और संघात्मक सरकारों में भिन्नता (Distinction between Unitary and Federal forms of Government) उपर्युक्त चर्चा के आधार पर दोनों सरकारों में अन्तर को विस्तारपूर्वक नीचे दर्शाया गया है : –

1. सरकारों की संख्या (Number of Governments)-एकात्मक प्रणाली के अधीन एक राज्य में एक ही सरकार होती है। नेपाल, श्रीलंका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ऐसी प्रणाली के उदाहरण हैं। संघात्मक प्रणाली में केन्द्रीय सरकार के अतिरिक्त इकाइयों की अपनी अलग-अलग सरकार होती है।

2. शासन का संगठन (Government Set-up) -एकात्मक सरकार में शासन का संगठन इकहरा होता है। सारे राज्य में एक ही सरकार होने के नाते देश-भर में एक समान कानून होते हैं, एक जैसी कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था होती है। इंग्लैंड के नागरिक चाहे वे अपने देश के किसी भी भाग में रहते हों सब एक प्रकार के कानून के अधीन होते हैं। संघात्मक सरकार में शासन का संगठन दोहरा होता है। हर नागरिक का सम्बन्ध दो व्यवस्थापिकाओं, दो कार्यपालिकाओं और न्यायपालिकाओं से होता है। उदाहरणस्वरूप, पंजाब में रहने वाला व्यक्ति रेलगाड़ी, डाक व तार विषयों के लिए केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित है और पुलिस, मोटर, बस, सिनेमाघर, शिक्षा आदि विषयों के लिए पंजाब सरकार के सम्बद्ध है।

3. आपसी सम्बन्ध (Mutual Relations)-एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत भी एक से अधिक सरकारें होती हैं जैसे भारत में सन् 1935 से पहले थीं। परन्तु ऐसी स्थिति में प्रान्तीय सरकारों का स्तर अधीनता (Subordination) का होता है। ये सरकारें अपने हर कार्य में केन्द्रीय सरकार के अधीन होती हैं। प्रान्तीय सरकारों के पास किसी प्रकार की स्वायत्तता (Autonomy) नहीं होती। संघात्मक प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होती हैं और एक सरकार दूसरी सरकार की शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। अमेरिका, कैनेडा और वर्तमान भारत में ऐसी ही व्यवस्था है।

4. शक्तियों का स्त्रोत (Sources of Powers) एकात्मक प्रणाली में प्रान्तीय सरकारों की शक्तियों का स्रोत केन्द्रीय सरकार होती है अर्थात् प्रान्तीय सरकारें उन्हीं शक्तियों का प्रयोग करती हैं जो केन्द्र सरकार उन्हें प्रदत्त (Delegate) करती है। केन्द्रीय सरकार कभी भी इन शक्तियों को परिवर्तित कर सकती हैं। संघात्मक प्रणाली में केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारें अपनी-अपनी शक्तियां राज्य के संविधान से प्राप्त करती हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार के पास अधिकार नहीं होता कि प्रान्तों की शक्तियों में कोई भी परिवर्तन कर सके। ऐसा परिवर्तन केवल संविधान में संशोधन द्वारा ही सम्भव है।

5. संविधान की प्रकृति (Nature of Constitution)-वैसे तो आजकल लिखित संविधान की प्रणाली लगभग हर देश में अपनाई जाती है। हां, एकात्मक प्रणाली के लिए लिखित और कठोर संविधान आवश्यक नहीं है। इंग्लैण्ड का संविधान न लिखित ही है और न ही कठोर। परन्तु संघात्मक प्रणाली के लिए संविधान का लिखित और कठोर होना अनिवार्य है।

6. नागरिकता (Citizenship)—एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत नागरिकों को इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) प्राप्त होती है, जैसा कि इंग्लैंड, फ्रांस आदि राज्यों में है। संघात्मक प्रणाली के अधीन दोहरी नागरिकता (Double Citizenship) प्राप्त हो सकती है, जैसा कि अमेरिका में।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एकात्मक सरकार का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
एकात्मक शासन वह शासन है जिसमें शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं। सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय सरकार प्रान्तों की स्थापना करती है तथा उन्हें थोड़े-बहुत अधिकार प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार जब चाहे इन प्रान्तों की सीमाएं भी घटा-बढ़ा सकती है। एकात्मक शासन की भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. डायसी के अनुसार, “एक केन्द्रीय शक्ति के द्वारा सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग किया जाना ही एकात्मक शासन है।”
  2. डॉ० फाइनर के मतानुसार, “एकात्मक शासन वह होता है जहां एक केन्द्रीय सरकार में सम्पूर्ण शासन निहित होता है और जिसकी इच्छा व जिसके प्रतिनिधि कानूनी दृष्टि में सर्वशक्तिमान् होते हैं।”
  3. प्रोफेसर स्ट्रांग के अनुसार, “एकात्मक राज्य वह राज्य है जो केन्द्रीय शासन के अधीन हो।”

प्रश्न 2.
एकात्मक सरकार की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
एकात्मक शासन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  • शक्तियों का केन्द्रीयकरण-एकात्मक शासन में शासन की शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं। शासन की सुविधा के लिए राज्यों को प्रान्तों में बांटा गया होता है और उन्हें कुछ अधिकार तथा शक्तियां दी जाती हैं। केन्द्र जब चाहे प्रान्तों के अधिकारों तथा शक्तियों को छीन सकता है।
  • प्रभुसत्ता-एकात्मक शासन में प्रभुसत्ता केन्द्र में निहित होती है ।
  • इकहरी नागरिकता-एकात्मक शासन में एक ही नागरिकता होती है। इंग्लैंड में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त है।
  • इकहरा शासन-एकात्मक शासन में इकहरी शासन व्यवस्था होती है।

प्रश्न 3.
एकात्मक सरकार के चार गुण बताइए।
उत्तर-
एकात्मक शासन के निम्नलिखित गुण हैं-

  • शक्तिशाली शासन-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है । सभी शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं। प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय सरकार के आदेशानुसार कार्य करती हैं । कानूनों को बनाने तथा लागू करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र पर ही होती है । इस तरह शासन शक्तिशाली होता है जिस कारण देश की विदेश नीति भी प्रभावशाली होती है ।
  • सादा शासन-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन अति सरल होता है । शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं जिसके कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में मतभेद उत्पन्न नहीं होते। सादा शासन होने के कारण एक अनपढ़ व्यक्ति को भी अपने देश के शासन के संगठन का ज्ञान होता है ।
  • लचीला प्रशासन-संविधान अधिक कठोर न होने के कारण समयानुसार आसानी से बदला जा सकता है । संकटकाल के लिए यह शासन प्रणाली बहुत उपयुक्त है। केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए किसी भी समय प्रान्तों की शक्तियों को कम किया जा सकता है।
  • कम खर्चीला शासन-एकात्मक शासन प्रणाली संघात्मक सरकार की अपेक्षा कम खर्चीली होती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 16 सरकारों के रूप-एकात्मक एवं संघात्मक शासन प्रणाली

प्रश्न 4.
एकात्मक सरकार के चार दोषों का वर्णन करें।
उत्तर-
एकात्मक सरकार में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • केन्द्र निरंकुश बन जाता है-एकात्मक शासन प्रणाली में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण केन्द्र के निरंकुश बन जाने का भय होता है ।
  • स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती–प्रत्येक प्रान्त की अपनी अलग समस्याएं होती हैं जिसके लिए उन्हें विशेष कानूनों की आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार को न तो स्थानीय आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान होता है और न ही कानून प्रान्तों के लिए बनाए जाते हैं। केन्द्रीय सरकार एक ही कानून को सब प्रान्तों पर लागू कर देती है।
  • बड़े राज्यों के लिए अनुपयुक्त-एकात्मक शासन प्रणाली उन राज्यों के लिए उपयुक्त नहीं है जिनका क्षेत्रफल या जनसंख्या बहुत अधिक है क्योंकि केन्द्रीय सरकार दूर-दूर तक फैले हुए भागों में शासन व्यवस्था अच्छी प्रकार से लागू नहीं कर सकती।
  • कार्यभार में वृद्धि-एकात्मक सरकार में सारे देश का शासन केन्द्र द्वारा चलाया जाता है, जिससे केन्द्रीय सरकार का कार्य बढ़ जाता है।

प्रश्न 5.
संघात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
संघात्मक शासन उसे कहते हैं जहां संविधान के द्वारा शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं और दोनों अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। इसका अर्थ यह है कि केन्द्रीय सरकार को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और न ही प्रान्त केन्द्रीय सरकार को दिए गए कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते हैं । संघात्मक शासन में दोहरी सरकार होती है। प्रभुसत्ता न तो केन्द्रीय सरकार में निहित होती है और न ही प्रान्तीय सरकारों में और न ही प्रभुसत्ता केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती है। प्रभुसत्ता वास्तव में राज्यों के पास होती है।।

संघवाद को अंग्रेज़ी भाषा में ‘फेडरलिज्म’ (Federalism) कहते हैं। फेडरलिज्म शब्द लेटिन भाषा के शब्द फोईडस (Foedus) से बना है जिसका अर्थ है सन्धि अथवा समझौता। संघात्मक सरकार इस प्रकार समझौते का परिणाम होती है। जिस तरह किसी समझौते के लिए एक से अधिक पक्षों का होना आवश्यक होता है उसी तरह संघात्मक राज्य की स्थापना करने के लिए दो या दो से अधिक राज्यों के बीच समझौते की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 6.
संघात्मक सरकार की कोई तीन परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-
संघात्मक सरकार की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • माण्टेस्क्यू के अनुसार, “संघात्मक सरकार एक ऐसा समझौता है जिसके द्वारा बहुत-से एक जैसे राज्य एक बड़े राज्य के सदस्य बनने को सहमत हो जाते हैं।”
  • डॉ० फाइनर के शब्दों में, “संघात्मक राज्य वह है जिसमें अधिकार व शक्तियों का कुछ भाग स्थानीय क्षेत्रों में निहित हो व दूसरा भाग एक केन्द्रीय संस्था के पास हो जिसको स्थानीय क्षेत्रों के समुदायों ने अपनी इच्छा से बनाया हो।”
  • गार्नर की परिभाषा स्पष्ट तथा अन्य परिभाषाओं से श्रेष्ठ हैं। उनके अनुसार, “संघात्मक एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें एक सामान्य प्रभुसत्ता के अधीन होती हैं। ये सरकारें अपने निश्चित क्षेत्र में जिसको संविधान अथवा संसद् का कोई अधिनियम निश्चित करता है, सर्वोच्च होती है। संघ सरकार जैसा कि प्रायः कह दिया जाता है कि अकेली केन्द्रीय सरकार ही नहीं होती वरन् यह केन्द्र तथा स्थानीय सरकारों को मिला कर बनती है। स्थानीय सरकार संघ का उतना ही भाग है जितना कि केन्द्रीय सरकार का यद्यपि वह न तो केन्द्र द्वारा बनाई जाती है न ही उसके अधीन होती है।

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प्रश्न 7.
संघात्मक शासन की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
संघात्मक शासन प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं-

  • लिखित संविधान-संघात्मक सरकार का संविधान सदैव लिखित होना चाहिए ताकि केन्द्र तथा प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन स्पष्ट एवं निश्चित किया जा सके। यदि शक्तियों का विभाजन स्पष्ट नहीं होगा तो दोनों सरकारों के मध्य गतिरोध की सम्भावना रहेगी।
  • संविधान की सर्वोच्चता-संघात्मक शासन प्रणाली में संविधान का सर्वोच्च होना आवश्यक है क्योंकि कभीकभी केन्द्र और राज्यों में शक्तियों के विभाजन को लेकर आपस में विवाद हो जाता है तब उस विवाद को संविधान की धाराओं के अनुसार सुलझाया जाता है।
  • कठोर संविधान-संघात्मक शासन प्रणाली में संविधान का कठोर होना भी आवश्यक है ताकि केन्द्रीय सरकार उसमें आसानी से संशोधन करके राज्य सरकारों की शक्तियों को घटा-बढ़ा न सके। संविधान में संशोधन केन्द्र और राज्य सरकारों की अनुमति से होना चाहिए।
  • शक्तियों का विभाजन-संघात्मक सरकार का अनिवार्य तत्त्व यह है, कि शासन प्रणाली में राज्य की सभी शक्तियां केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों में बंटी होती हैं।

प्रश्न 8.
संघात्मक शासन प्रणाली के चार गुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
संघात्मक सरकार में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • विभिन्नता में एकता-इस शासन व्यवस्था का मुख्य गुण यह है कि इसमें विभिन्नता में एकता पाई जाती है। इस शासन प्रणाली में विभिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं, सम्प्रदायों आदि के राज्यों को मिला कर एक मज़बूत केन्द्रीय सरकार की स्थापना की जाती है।
  • शासन में कार्य-कुशलता-शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा राज्यों में विभाजन होता है जिस कारण केन्द्र पर कार्य का अधिक बोझ नहीं होता। कार्य में विभाजन के कारण कार्य भार कम हो जाता है तथा निर्णय शीघ्र लिए जाते हैं। शक्तियों के विभाजन से कार्य में कुशलता आती है।
  • आर्थिक विकास के लिए लाभदायक-संघात्मक शासन प्रणाली में उन्नति में वृद्धि होती है। छोटे-छोटे राज्यों के पास इतने अधिक आर्थिक साधन नहीं होते कि वे अपनी उन्नति कर सकें। संघात्मक राज्य के साधन बहुत बढ़ जाते हैं जिससे समस्त देश की उन्नति होती है।
  • राजनीतिक शिक्षा-संघात्मक सरकार में लोगों को एकात्मक शासन की अपेक्षा राजनीतिक शिक्षा अधिक मिलती है।

प्रश्न 9.
संघात्मक शासन प्रणाली के कोई चार दोष लिखें।
उत्तर-
संघात्मक शासन प्रणाली में निम्नलिखित मुख्य दोष पाए जाते हैं-

  • दुर्बल शासन-संघात्मक सरकार शक्तियों के विभाजन के कारण दुर्बल सरकार होती है। केन्द्रीय सरकार न तो प्रत्येक विषय पर कानून बना सकती है और न ही प्रान्तों के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार रखती है।
  • राष्ट्रीय एकता को खतरा-नागरिक प्रान्तीय भावनाओं में फंस कर राष्ट्रीय हितों को भूल जाते हैं। प्रत्येक प्रान्त राष्ट्रीय हित में न सोचकर अपने हित में सोचता है। इससे राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा होता है।
  • संघ के टूटने का भय-संघीय शासन प्रणाली में सदा यह भय बना रहता है कि कोई इकाई या कुछ इकाइयां मिलकर संघ से अलग होने का प्रयत्न न करें। प्रान्तों की अपनी सरकार होती है और वह अपने कार्यों में स्वतन्त्र होती है। यदि किसी विषय पर केन्द्र तथा प्रान्त में मतभेद हो जाएं तो वह संघ से अलग होने का प्रयत्न करेगा।
  • केन्द्र और राज्यों में झगड़े-संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र सम्बन्धी झगड़े प्रायः उत्पन्न हो जाते हैं।प्रश्न 10. एकात्मक सरकार और संघात्मक सरकार में कोई चार अन्तर बताएं।
    उत्तर-एकात्मक सरकार और संघात्मक सरकार में निम्नलिखित तीन मुख्य अन्तर पाए जाते हैं-
  • सरकारों की संख्या-एकात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र और राज्य में एक ही सरकार होती है जबकि संघात्मक शासन प्रणाली में एक केन्द्रीय सरकार के अतिरिक्त राज्यों की सरकारें भी होती हैं।
  • शासन का संगठन-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन इकहरा होता है। परन्तु संघात्मक सरकार में दोहरी शासन व्यवस्था होती है।
  • आपसी सम्बन्ध- एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत भी एक से अधिक सरकारें हो सकती हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में वे पूर्णतया सरकार के अधीन होती हैं। प्रान्तीय सरकारों के पास किसी भी तरह की स्वायत्तता नहीं होती। संघात्मक शासन में केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होती हैं और एक सरकार दूसरी सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
  • नागरिकता-एकात्मक प्रणाली के अन्तर्गत नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त होती है, जबकि संघात्मक प्रणाली के अधीन दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एकात्मक सरकार का अर्थ लिखें।
उत्तर-
एकात्मक शासन वह शासन है जिसमें शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास केन्द्रित होती हैं। सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय सरकार प्रान्तों की स्थापना करती है तथा उन्हें थोड़े-बहुत अधिकार प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार जब चाहे इन प्रान्तों की सीमाएं भी घटा-बढ़ा सकती है।

प्रश्न 2.
एकात्मक सरकार के दो गुण बताइए।
उत्तर-

  1. शक्तिशाली शासन-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है । सभी शक्तियां केन्द्र के पास होती हैं।
  2. सादा शासन-एकात्मक सरकार में शासन का संगठन अति सरल होता है। शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं जिसके कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में मतभेद उत्पन्न नहीं होते।

प्रश्न 3.
एकात्मक सरकार के दो दोषों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. केन्द्र निरंकुश बन जाता है-एकात्मक शासन प्रणाली में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है जिसके कारण केन्द्र के निरंकुश बन जाने का भय होता है।
  2. स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती–प्रत्येक प्रान्त की अपनी अलग समस्याएं होती हैं जिसके लिए उन्हें विशेष कानूनों की आवश्यकता होती है। केन्द्रीय सरकार को न तो स्थानीय आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान होता है और न ही कानून प्रान्तों के लिए बनाए जाते हैं। केन्द्रीय सरकार एक ही कानून को सब प्रान्तों पर लागू कर देती है।

प्रश्न 4.
संघात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
संघात्मक शासन उसे कहते हैं जहां संविधान के द्वारा शक्तियां केन्द्र तथा प्रान्तों में बंटी होती हैं और दोनों अपने कार्यों में स्वतन्त्र होते हैं। इसका अर्थ यह है कि केन्द्रीय सरकार को दी गई शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती और न ही प्रान्त केन्द्रीय सरकार को दिए गए कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

प्रश्न 5.
संघात्मक शासन प्रणाली के दो गुणों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. विभिन्नता में एकता-इस शासन व्यवस्था का मुख्य गुण यह है कि इसमें विभिन्नता में एकता पाई जाती है।
  2. शासन में कार्य-कुशलता-शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा राज्यों में विभाजन होता है जिस कारण केन्द्र पर कार्य का अधिक बोझ नहीं होता। कार्य में विभाजन के कारण कार्य भार कम हो जाता है तथा निर्णय शीघ्र लिए जाते हैं। शक्तियों के विभाजन से कार्य में कुशलता आती है।

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प्रश्न 6.
संघात्मक शासन प्रणाली के कोई दो दोष लिखें।
उत्तर-

  1. दुर्बल शासन-संघात्मक सरकार शक्तियों के विभाजन के कारण दुर्बल सरकार होती है।
  2. राष्ट्रीय एकता को खतरा-इस शासन प्रणाली में प्रान्तों को काफ़ी स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे नागरिकों में प्रान्तीयता की भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. एकात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-एकात्मक सरकार में शासन की समस्त शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास होती हैं।

प्रश्न 2. एकात्मक सरकार की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-प्रो० स्ट्रांग के अनुसार, “एकात्मक राज्य वह है, जो एक केन्द्रीय शासन के अधीन संगठित हो।”

प्रश्न 3. एकात्मक सरकार का कोई एक लक्षण लिखें।
उत्तर-एकात्मक सरकार में शासन की शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं।

प्रश्न 4. एकात्मक सरकार का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-एकात्मक सरकार में शासन शक्तिशाली होता है।

प्रश्न 5. एकात्मक सरकार का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-एकात्मक सरकार में केन्द्र के निरंकुश बनने का डर बना रहता है।

प्रश्न 6. इंग्लैण्ड में किस प्रकार का शासन है?
उत्तर-इंग्लैण्ड में एकात्मक शासन है।

प्रश्न 7. अमेरिका में कैसा शासन पाया जाता है?
उत्तर-अमेरिका में संघात्मक शासन पाया जाता है।

प्रश्न 8. भारत में किस प्रकार का शासन पाया जाता है ?
उत्तर- भारत में संघात्मक शासन पाया जाता है।

प्रश्न 9. संघात्मक सरकार की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-हेमिल्टन के अनुसार, “कुछ राज्यों के संयोजन से बने हुए नए राज्य को संघ कहते हैं।”

प्रश्न 10. संघात्मक सरकार की कोई एक विशेषता बताओ।
उत्तर-संघीय शासन प्रणाली में संविधान लिखित होता है।

प्रश्न 11. संघात्मक सरकार का कोई एक गुण बताओ।
उत्तर-संघीय सरकार निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से रक्षा करती है।

प्रश्न 12. संघात्मक सरकार का कोई एक दोष बताओ।
उत्तर-इसमें सरकार दुर्बल होती है।

प्रश्न 13. संघात्मक और एकात्मक सरकार में कोई एक भेद बताओ।
उत्तर-संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है, परन्तु एकात्मक सरकार का संविधान अलिखित भी हो सकता है।

प्रश्न 14. एकात्मक शासन में सभी शक्तियां कहां पर केन्द्रित होती हैं ?
उत्तर-एकात्मक शासन में शक्तियां एक केन्द्रीय सरकार में केन्द्रित होती हैं।

प्रश्न 15. संघात्मक शासन में संविधान लिखित होता है, या अलिखित?
उत्तर-संघात्मक शासन में संविधान लिखित होता है।

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प्रश्न 16. फैडरलिज्म शब्द किस भाषा से निकला है?
उत्तर-फैडरलिज्म शब्द लातीनी भाषा से निकला है।

प्रश्न 17. फोइडस (Foedus) का क्या अर्थ है?
उत्तर-फोइडस का अर्थ सन्धि अथवा समझौता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. एकात्मक सरकार में केन्द्र सुविधा के अनुसार ………. की स्थापना करती है।
2. ……….. सरकार जब चाहे प्रान्तों की सीमाएं घटा-बढ़ा सकती है।
3. एकात्मक सरकार ………… के समय उपयुक्त होती है।
4. आलोचकों के अनुसार केन्द्रीय सरकार में …….. आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती।
5. एकात्मक सरकार में केन्द्रीय सरकार का ………. बढ़ जाता है।
उत्तर-

  1. प्रान्तों
  2. केन्द्रीय
  3. संकटकाल
  4. स्थानीय
  5. कार्य।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. संघवाद को अंग्रेज़ी में फेडरलिज्म (Federalism) कहते हैं।
2. फेडरलिज्म शब्द लैटिन भाषा के शब्द फोईडस (Foedus) से बना है, जिसका अर्थ है, सन्धि अथवा समझौता।
3. संघात्मक सरकार झगड़े का परिणाम होती है।
4. संघात्मक सरकार में लिखित संविधान की आवश्यकता नहीं होती।
5. संघात्मक सरकार में संविधान का सर्वोच्च होना आवश्यक है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किस देश में एकात्मक शासन व्यवस्था पाई जाती है ?
(क) भारत
(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ग) स्विट्ज़रलैंड
(घ) जापान।
उत्तर-
(घ) जापान।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किस देश में संघात्मक शासन प्रणाली पाई जाती है ?
(क) इंग्लैंड
(ख) जापान
(ग) साम्यवादी चीन
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।
उत्तर-
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा है, “एक केन्द्रीय शक्ति के द्वारा सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग किया जाना ही एकात्मक शासन है।”
(क) डॉ० फाइनर
(ख) लॉर्ड ब्राइस
(ग) डायसी
(घ) गैटेल।
उत्तर-
(ग) डायसी।

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “संघात्मक शासन राज्यों का एक समुदाय है, जोकि नए राज्य का निर्माण करता
(क) माण्टेस्कयू
(ख) डॉ० फाइनर
(ग) जैलीनेक
(घ) हैमिल्टन।
उत्तर-
(घ) हैमिल्टन।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions वालीबाल (Volleyball) Game Rules.

वालीबाल (Volleyball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. वालीबाल मैदान की लम्बाई चौड़ाई = 18 × 9 मीटर
  2. नैट के ऊपरली पट्टी की चौड़ाई = 7 सैं० मी०
  3. एनटीनों की संख्या = 2
  4. एनटीना की लम्बाई = 1.80 मीटर
  5. एनटीने का घेरा = 10 मि॰मी
  6. पोल की साइज रेखा से दूरी = 1 मीटर
  7. नैट की लम्बाई और चौड़ाई = 9.50 मीटर × 1 मीटर
  8. जाल के छेदों का आकार = 10 सैं० मी०
  9. पुरुषों के लिए नैट की ऊंचाई = 2.43 मीटर
  10. स्त्रियों के लिए नैट की ऊंचाई = 2.24 मीटर
  11. गेंद की परिधि = 65 से 67 सैं० मी०
  12. गेंद का रंग = कई रंगों वाला
  13. गेंद का भार = 260 ग्राम से 280 ग्राम
  14. टीम के खिलाड़ियों की गिनती = 12 (6 खेलने वाले, 6 बदलवें)
  15. मैच के अधिकारी = दो रैफरी, स्कोरर, लाइन मैन 2 अथवा 4
  16. पीठ पर लेग नम्बरों का आकार = लम्बाई = 15 सैं० मी०, चौड़ाई = 2 सैं० मी०, पीठ पर 20 सैं०मी०
  17. रेखाओं की चौड़ाई = 5 सैंमी
  18. मैदान को बाँटने वाली रेखा = केन्द्रीय रेखा
  19. सर्विस रेखा की लम्बाई = 9 मीटर

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

वालीबाल खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Volley Ball)

  1. वालीबाल की खेल में 12 खिलाड़ी भाग लेते हैं जिनमें से 6 खेलते हैं तथा 6 बदलवे (Substitutes) होते हैं।
  2. भाग लेने वाली दो टीमों में से, प्रत्येक टीम में छः खिलाड़ी होते हैं।
  3. ये खिलाडी अपने कोर्ट में खडे होकर बाल को नैट से पार करते हैं।
  4. जिस टीम के कोर्ट में गेंद गिर जाए उसके विरुद्ध प्वाइंट दे दिया जाता है। यह प्वाइंट टेबल टेनिस खेल की तरह होते हैं।
  5. वालीबाल के खेल में कोई समय नहीं होत बल्कि बैस्ट ऑफ़ थ्री या बैस्ट ऑफ़ फ़ाइव की गेम लगती है।
  6. नैट के नीचे अब रस्सी नहीं डाली जाती।
  7. जो टीम टॉस जीतती है वह सर्विस या साइड ले सकती है।
  8. वालीबाल के खेल में दो खिलाड़ी बदले जा सकते हैं।
  9. यदि सर्विस नैट से 5 से 6 इंच ऊंची आती है तो विरोधी टीम का खिलाड़ी बाल ब्लॉक कर सकता है।
  10. यदि कोई टीम समय पर नहीं आती तो 15 मिनट तक इन्तज़ार किया जा सकता है। बाद में टीम को स्करैच किया जा सकता है।
  11. एक गेम 25 प्डवाइंट की होती है।
  12. लिबरो खिलाड़ी कभी भी बदला जा सकता है परन्तु वह खेल में आक्रमण नहीं कर सकता।
  13. एनटीने की लम्बाई 1.80 मीटर होती है।
  14. खिलाड़ी बाल को किक लगा कर अथवा शरीर के किसी दूसरे भाग से हिट करके विरोधी पाले में भेज सकता
  15. यदि सर्विस करते समय बाल नैट को छू जाए और विरोधी पाले में चला जाए तो सर्विस ठीक मानी जाएगी।

PSEB 11th Class Physical Education Guide वालीबाल (Volleyball) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
वालीबाल के मैदान की लम्बाई तथा चौड़ाई लिखें।
उत्तर-
वालीबाल मैदान की लम्बाई व चौड़ाई = 18 × 9 मीटर।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
वालीबाल की बाल का भार कितना होता है ?
उत्तर-
260 ग्राम से 280 ग्राम।

प्रश्न 3.
वालीबाल के मैच में कुल कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 2, स्कोरर = 1, लाइनमैन = 2

प्रश्न 4.
वालीबाल खेल में कोई चार फाऊल लिखें।
उत्तर-

  1. जब गेम चल रही हो तो खिलाड़ी नैट को हाथ न लगायें। ऐसा करना फाऊल होता है।
  2. घुटनों के ऊपर एक टच वीक समझा जाता है।
  3. यदि बाल तीन बार से अधिक छू लिया जाए तो फ़ाऊल होता है।
  4. एक ही खिलाड़ी जब लगातार दो बार हाथ लगाता है तो फ़ाऊल होता है।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
वालीबाल खेल में कुल कितने खिलाड़ी होते हैं ?
उत्तर-
12 (6 खेलने वाले, 6 बदलवें)।

प्रश्न 6.
वालीबाल खेल में कितने खिलाड़ी बदले जा सकते हैं ?
उत्तर-
6 खिलाड़ी।

वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

Physical Education Guide for Class 11 PSEB वालीबाल (Volleyball) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
बालीबाल खेल का मैदान, जाल, गेंद, आक्रमण का क्षेत्र के विषय में लिखें।
उत्तर-
वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
खेल का मैदान

1. वालीबाल के खेल के मैदान की लम्बाई 18 मीटर तथा चौड़ाई 9 मीटर होगी। प्रांगण से कम-सेकम 7 मीटर ऊपर तक के स्थान पर किसी भी प्रकार कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। मैदान में 5 सैंटीमीटर चौड़ा रेखाओं द्वारा अंकित होगा। ये रेखाएं सभी बाधाओं से कम-से-कम दो मीटर दूर होंगी। जाल के नीचे की केन्द्रीय रेखा मैदान को दो बराबर भागों में बांटेगी।

2. आक्रमण क्षेत्र-मैदान के प्रत्येक अर्द्ध भाग में केन्द्रीय रेखा के समानान्तर 3 मीटर दूर 5 सैंटीमीटर की रेखा (आक्रमण क्षेत्र) खींची जाएगी। इसकी चौड़ाई तीन मीटर में शामिल होगी।

3. आकार व रचना-जाल 9.50 मीटर लम्बा और 3 मीटर चौड़ा होगा। इसके छिद्र 10 सेंटीमीटर चौकोर होने चाहिएं। इसके ऊपरी भाग में 5 सैंटीमीटर चौड़ा सफ़ेद कैनवस का फीता इस प्रकार खींचा जाना चाहिए कि इसके भीतर एक लचीला तार जा सके।

4. पुरुषों के लिए जाल की ऊंचाई केन्द्र में भूमि से 2 मीटर 43 सैंटीमीटर तथा स्त्रियों के लिए 2 मीटर 24 सैंटीमीटर होनी चाहिए।

पक्षों के चिन्ह-एक अस्थिर गतिशील 5 सैंटीमीटर चौड़ी सफ़ेद पट्टी जाल के अन्तिम सिरों पर लगाई जाती है। दोनों खम्भों के निशान कम-से-कम 50 सेंटीमीटर दूर होंगे।
गेंद
गेंद गोलाकार तथा नर्म चमड़े की बनी होनी चाहिए। इसके अन्दर रबड़ या किसी ऐसी ही वस्तु का बना हुआ ब्लैडर हो। इसकी परिधि 65 सैंटीमीटर से लेकर 67 सैंटीमीटर होनी चाहिए। इसका भार 260 ग्राम से लेकर 280 ग्राम तक होना चाहिए। गेंद में हवा का दबाव 0.48 और 0.52 कि० ग्राम cm2 के बीच होना चाहिए।

प्रश्न 2.
वालीबाल खेल में खिलाड़ियों और कोचों के आचरण के विषय में बताएं
उत्तर-
खिलाड़ियों तथा कोचों का आचरण

  1. प्रत्येक खिलाड़ी को खेल के नियमों की जानकारी होनी चाहिए तथा उसे दृढ़ता से इनका पालन करना चाहिए।
  2. खेल के दौरान कोई खिलाड़ी अपने कप्तान के माध्यम से ही रैफरी से बात कर सकता है। इस प्रकार कप्तान ही रैफरी से बात कर सकता है।
  3. निम्नलिखित सभी अपराधों के लिए दण्ड दिया जाएगा,
    • अधिकारियों से उनके निर्णयों के विषय में बार-बार प्रश्न पूछना।
    • अधिकारियों के लिए अपशब्द कहना।
    • अधिकारियों के निर्णयों को प्रभावित करने के उद्देश्य से अनुचित हरकतें करना।
    • विरोधी खिलाड़ी को अपशब्द कहना या उसके साथ अभद्र व्यवहार करना।
    • मैदान के बाहर से खिलाड़ियों को कोचिंग देना।
    • रैफरी की अनुमति के बिना मैदान को छोड़ कर जाना।
    • गेंद का स्पर्श होते ही, विशेष कर सर्विस प्राप्त करते समय खिलाड़ियों का ताली बजाना या चिल्लाना।

दण्ड-

  1. मामूली अपराध के लिए साधारण चेतावनी। अपराध के दोहराए जाने पर खिलाड़ी को व्यक्तिगत चेतावनी (लाल कार्ड) मिलेगी। इससे उसका दल सर्विस का अधिकार या एक अंक खोएगा।
  2. गम्भीर अपराध की दशा में स्कोर शीट पर चेतावनी दर्ज की जाती है। इससे एक अंक या सर्विस का अधिकार खोना पड़ता है। यदि अपराध फिर भी दोहराया जाता है तो रैफरी खिलाड़ी को एक सैट या पूरे खेल के लिए अयोग्य घोषित कर सकता है।

खिलाड़ी की पोशाक

  1. खिलाड़ी जर्सी, पैंट, हल्के जूते (रबड़ या चमड़े के) पहनेगा। वह सिर पर पगड़ी, टोपी, किसी प्रकार का आभूषण (रत्न, पिन, कंगन आदि) तथा कोई ऐसी वस्तु नहीं पहनेगा जिससे अन्य खिलाड़ियों को चोट लगने की सम्भावना हो।
  2. खिलाड़ी को अपनी जर्सी की छाती तथा पीठ पर 8 से 15 सैंटीमीटर ऊंचे नम्बर धारण करना होगा। संख्या सांकेतिक करने वाली पट्टी की चौड़ाई 2 सैंटीमीटर होगी।

खिलाड़ियों की संख्या तथा स्थानापन्न

  1. खिलाड़ियों की संख्या सभी परिस्थितियों में 6 होगी। स्थानापन्नों (Substitutes) सहित पूरी टीम में 12 से अधिक खिलाड़ी नहीं होंगे।।
  2. स्थानापन्न तथा प्रशिक्षक रैफरी के सामने मैदान में बैठेंगे।
  3. खिलाड़ी बदलने के लिए टीम का कप्तान या प्रशिक्षक रैफरी से प्रार्थना करेगा। एक खेल में अधिक-से-अधिक 6 खिलाड़ी बदलने की अनुमति होती है। खेल में प्रविष्ट होने से पहले स्थानापन्न खिलाड़ी स्कोरर के सामने उसी पोशाक में जाएगा और अनुमति मिलने के तुरन्त पश्चात् अपना स्थान ग्रहण करेगा।
  4. जब प्रत्येक खिलाड़ी प्रतिस्थापन्न के रूप में बदला जाता है तो वह फिर उसी सैट में प्रवेश कर सकता है। परन्तु ऐसा केवल एक बार ही किया जा सकता है। उसके पश्चात् केवल जो खिलाड़ी बाहर गया हो, वही प्रतिस्थापन्न के रूप में आ सकता है।

खिलाड़ियों की स्थिति
सर्विस होने के पश्चात् दोनों टीमों के खिलाड़ी अपने-अपने क्षेत्र में खड़े होते हैं । यह कोई आवश्यक नहीं कि लाइनें सीधी ही हों। खिलाड़ी जाल के समानान्तर दायें से बायें इस प्रकार स्थान ग्रहण करते हैं—
वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 2
सर्विस के पश्चात् खिलाड़ी अपने क्षेत्र के किसी भाग को रोक सकता है। स्कोर शीट में अंकित रोटेशन के अनुसार उसे सैट के अन्त तक प्रयोग में लाना होगा। रोटेशन में किसी त्रुटि के पता चलने पर खेल रोक दिया जाता है और त्रुटि को ठीक किया जाता है। त्रुटि करने वाली टीम द्वारा लिये गये प्वाईंट (त्रुटि के समय) रद्द कर दिए जाते हैं। विरोधी टीम द्वारा प्राप्त (प्वाइंट) स्थिर रहते हैं। यदि त्रुटि का ठीक पता न चले तो अपराधी दल उपयुक्त स्थान पर लौट आएगा और स्थिति के अनुसार सर्विस या एक अंक (प्वाइंट) खोएगा।
अधिकारी-खेल की व्यवस्था के लिए निम्नलिखित अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं—

  1. रैफरी (1)
  2. अम्पायर (1)
  3. स्कोरर (1)
  4. लाइनमैन (2 से 4)।

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प्रश्न 3.
वालीबाल खेल के नियमों के विषय में लिखें।
उत्तर-
खेल के नियम

  1. प्रत्येक टीम से खिलाड़ियों की संख्या 6 होती है।
  2. सभी अन्तर्राष्ट्रीय मैचों में पांच जीतने वाले सैट खेले जाते हैं।
  3. सर्विस या क्षेत्र के चुनाव के लिए दोनों टीमों के कप्तान टॉस करेंगे। सर्विस का निर्णय भी टॉस द्वारा किया जाएगा।
  4. प्रत्येक खेल के पश्चात् टीम अपना क्षेत्र बदलेगी। जब दो टीमों के अन्तिम सैट में प्वाइंट हों तो टीमें अवश्य दिशाएं बदलेंगी परन्तु सर्विस वही टीम करेगी जो दिशा परिवर्तन के समय कर रही थी।
  5. कोई टीम छ: खिलाड़ियों से कम खिलाड़ी होने से मैच खेल सकती।

टाइम आऊट—

  1. रैफरी या अम्पायर केवल गेंद मृत होने पर ही टाइम-आऊट देगा।
  2. टीम के कप्तान या कोच को विश्राम तथा प्रतिस्थापन्न के लिए टाइम-आऊट मांगने का अधिकार है।
  3. टाइम-आऊट के दौरान खिलाड़ी क्षेत्र छोड़ कर किसी से बात नहीं कर सकते। वे केवल अपने प्रशिक्षक से परामर्श ले सकते हैं।
  4. प्रत्येक टीम विश्राम के लिए दो टाइम-आऊट ले सकती है। विश्राम की यह अवधि 30 सैकिंड से अधिक नहीं होती। लगातार दो टाइम आऊट भी लिए जा सकते हैं।
  5. यदि दो टाइम-आऊट लेने के पश्चात् कोई टीम तीसरी बार विश्राम के लिए टाइम-आऊट का अनुरोध करती है तो रैफरी सम्बन्धित कप्तान या प्रशिक्षक को चेतावनी देगा। यदि इसके पश्चात् भी टाइम-आऊट का अनुरोध किया जाता है तो सम्बन्धित टीम को अंक (प्वाइंट) खोने या सर्विस खोने का दण्ड दिया जाएगा।
  6. खिलाड़ी के स्थानापन्न आते ही खेल शीघ्र आरम्भ किया जाएगा।
  7. किसी खिलाड़ी के घायल हो जाने की अवस्था में तीन मिनट का काल स्थगन किया जाएगा। यह तभी दिया जाएगा यदि घायल खिलाड़ी बदला न जा सकता हो।
  8. प्रत्येक सैट के बीच में अधिक-से-अधिक दो मिनट का अवकाश होगा परन्तु चौथे और पांचवें सैट के बीच में 5 मिनट का अवकाश होगा।

खेल में विन
यदि किसी कारणवश खेल में विघ्न पड़ जाए और मैच समाप्त न हो सके तो इस समस्या का हल इस प्रकार किया जाएगा—
(1) खेल उसी क्षेत्र में जारी किया जाएगा और खेल के रुकने के समय के परिणाम रखे जाएंगे।
(2) यदि खेल में बाधा 4 घण्टे से अधिक न हो तो मैच निश्चित स्थान पर पुनः खेला जाएगा।
(3) मैच के किसी अन्य क्षेत्र या स्टेडियम में आरम्भ किए जाने की दशा में रुके हुए खेल के सैट को रद्द समझा जाएगा, किन्तु खेले हुए सैट के परिणाम ज्यों-के-त्यों लागू होंगे।

(क) सर्विस-सर्विस से अभिप्राय है कि पीछे से दायें पक्ष के खिलाड़ी द्वारा गेंद खेल में डालने। वह अपनी खुली या बन्द मुट्ठी बांधे हुए हाथ से या भुजा के किसी भाग से गेंद को इस प्रकार मारता है कि वह जाल के ऊपर से होती हुई विपक्षी टीम के अर्द्धक में पहुंच जाए। सर्विस निर्धारित स्थान से ही की जाने पर मान्य समझी जाएगी। गेंद को हाथ से पकड़ कर मारना मना है। सर्विस करने के पश्चात् खिलाड़ी अपने अर्द्ध-क्षेत्र या इसकी सीमा रेखा पर भी रह सकता यदि हवा में उछाली हुई गेंद बिना किसी खिलाड़ी द्वारा छुए ज़मीन पर गिर जाए तो सर्विस दोबारा की जाएगी। यदि सर्विस की गेंद बिना जाल को छुए ऊपर क्षेत्र की चौड़ाई प्रकट करने वाले जाल पर दोनों सिरों के फीतों में से निकल जाती है तो सर्विस ठीक मानी जाती है। रैफरी के सीटी बजाते ही फौरन सर्विस कर देनी चाहिए। यदि सीटी बजने से पहले सर्विस की जाती है तो यह सर्विस पुनः की जाएगी।
खिलाड़ी तब तक सर्विस करता रहेगा जब तक उसकी टीम का कोई खिलाड़ी त्रुटि नहीं कर देता।

(ख) सर्विस की त्रुटियां-यदि निम्नलिखित में से कोई त्रुटि होती है तो रैफरी सर्विस बदलने के लिए सीटी बजाएगा

  1. जब गेंद जाल से छू जाए।
  2. जब गेंद जाल के नीचे से निकल जाए।
  3. जब गेंद फीतों का स्पर्श कर ले या पूरी तरह जाल को पार न कर सके।
  4. जब गेंद विपक्षी के क्षेत्र में पहुंचने से पहले किसी खिलाड़ी या वस्तु को छू ले।
  5. जब गेंद विपक्षी के अर्द्धक के बाहर जा गिरे।।

(ग) दूसरी तथा उत्तरवर्ती सर्विस-प्रत्येक नए सैट में वह टीम सर्विस करेगी जिसने इससे पहले सैट में सर्विस न की हो। अन्तिम निर्णायक सैट में सर्विस टॉस द्वारा निश्चित की जाएगी।

(घ) खेल में बाधा-यदि रैफरी के मतानुसार कोई खिलाड़ी जान-बूझ कर खेल में बाधा पहुंचाता है तो उसे दण्ड दिया जाता है।
सर्विस में परिवर्तन-जब सर्विस करने वाली टीम कोई त्रुटि करती है तो सर्विस में परिवर्तन होता है। जब गेंद साइड आऊट होती है तो सर्विस में परिवर्तन होता है।

  1. सर्विस परिवर्तन पर सर्विस करने वाली टीम के खिलाड़ी सर्विस से पहले घड़ी की सूईयों की दिशा में अपना स्थान बदलेंगे।
  2. नए सेट के आरम्भ में टीमें नए खिलाड़ी लाकर अपने पहले स्थानों में परिवर्तन कर सकती हैं, परन्तु खेल आरम्भ होने से पहले इस विषय में स्कोरर को अवश्य सूचित करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
बालीबाल गेंद को हिट मारना, ब्लॉकिंग, जाल पर खेल क्या है ?
उत्तर-
गेंद को हिट मारना

  1. प्रत्येक टीम विपक्षी टीम के अर्द्धक में गेंद पहुंचाने के लिए तीन सम्पर्क कर सकती है।
  2. गेंद पर कमर के ऊपर शरीर के किसी भाग से प्रहार किया जा सकता है।
  3. गेंद कमर के ऊपर के कई अंगों को छू कर आ सकती है, परन्तु छूने का काम एक ही समय हो और गेंद पकड़ी न जाए बल्कि ज़ोर से उछले।
  4. यदि गेंद खिलाड़ी की बाहों या हाथों में कुछ क्षण के लिए रुक जाती है तो उसे गेंद पकड़ना माना जाएगा। गेंद को लुढ़काना, ठेलना या घसीटना ‘पकड़’ माना जाएगा। गेंद को नीचे से दोनों हाथों से एक साथ स्पष्ट रूप से प्रहार करना नियमानुसार है।
  5. दोहरा प्रहार या स्पर्श-यदि कोई खिलाड़ी एक से अधिक बार अपने शरीर के किसी अंग द्वारा गेंद को छूता है जबकि किसी अन्य खिलाड़ी ने उसे स्पर्श नहीं किया तो वह दोहरा प्रहार या स्पर्श माना जाएगा।

ब्लॉकिंग
ब्लॉकिंग वह प्रक्रिया है जिससे गेंद के जाल पर गुज़रते ही पेट के ऊपर के शरीर के किसी भाग द्वारा तुरन्त विरोधी के आक्रमण को रोकने की कोशिश की जाती है।

ब्लॉकिंग केवल आगे वाली पंक्ति में खड़े खिलाड़ी ही करते हैं। पिछली पंक्ति में खड़े खिलाड़ियों को ब्लॉकिंग की आज्ञा नहीं होती।
ब्लॉकिंग के पश्चात् ब्लॉकिंग में भाग लेने वाला कोई भी खिलाड़ी गेंद प्राप्त कर सकता है, परन्तु ब्लॉक के बाद स्मैश या प्लेसिंग नहीं की जा सकती।
जाल का स्वरूप
(DESIGN OF THE NET)
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  1. जब खेल के दौरान गेंद (सर्विस के अतिरिक्त) जाल को छूती हुई जाती है तो ठीक मानी जाती है।
  2. बाहर के चिन्हों के बीच से जब गेंद को जाल पार करती है तो भी गेंद ठीक मानी जाती है।
  3. जाल में लगी गेंद खेली जा सकती है। यदि टीम द्वारा गेंद तीन बार खेली गई है और गेंद चौथी बार जाल को लगती है या भूमि पर गिरती है तो रैफरी नियम भंग के लिए सीटी बजाएगा।
    वालीबाल (Volleyball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 4
    VOLLEY-BALL
  4. यदि गेंद जाल में इतनी ज़ोर से लगती है कि जाल किसी विरोधी खिलाड़ी को छू ले तो इस स्पर्श के लिए विरोधी खिलाड़ी दोषी नहीं माना जाएगा।
  5. यदि दो विरोधी खिलाड़ी एक साथ जाल को छूते हैं तो दोहरी त्रुटि माना जाएगा।

जाल के ऊपर से हाथ पार करना

  1. ब्लॉकिंग के दौरान जाल के ऊपर से हाथ पार करके विरोधी के क्षेत्र में गेंद का स्पर्श करना त्रुटि नहीं माना जाता किन्तु उस समय गेंद का स्पर्श स्मैश के बाद हुआ हो।
  2. आक्रमण के पश्चात् हाथ जाल पर से पार ले जाना त्रुटि नहीं।

केन्द्रीय रेखा पार करना

  1. यदि खेल के दौरान खिलाड़ी के शरीर का कोई भाग विरोधी क्षेत्र में चला जाता है तो वह त्रुटि होगी।
  2. जाल के नीचे से पार होना, विरोधी खिलाड़ी का ध्यान खींचने के लिए जाल के नीचे भूमि को शरीर के किसी भाग द्वारा पारित करना त्रुटि माना जाएगा।
  3. रैफरी की सीटी से पहले विरोधी क्षेत्र में घुसना त्रुटि मानी जाएगी।

खेल के बाहर गेंद

  1. यदि चिन्हों या फीतों के बाहर गेंद से स्पर्श करती है तो यह त्रुटि होगी।
  2. यदि गेंद भूमि की किसी वस्तु या मैदान की परिधि से बाहर ज़मीन छू लेती है तो आऊट माना जाएगा। रेखा स्पर्श करने वाली गेंद ठीक मानी जाएगी।
  3. रैफरी की सीटी के साथ खेल समाप्त हो जाएगी और गेंद मृत हो जाएगी।

स्कोर तथा खेल का परिणाम
अन्तर्राष्ट्रीय वालीबाल फैडरेशन (FIVB) के क्रीड़ा नियम आयोग (R.G.C.) ने 27 तथा 28 फरवरी, 1988 को बैहवैन में हुई सभा में वालीबाल की नवीन पद्धति को स्वीकृति दी। यह सियोल ओलम्पिक खेल 1988 के पश्चात् लागू हो गई।
नये नियमों के अनुसार, पहले चार सैटों में सर्व करने वाली टीम एक अंक प्राप्त करेगी। सैट की विजेता टीम वह होगी जो विरोधी टीम पर कम-से-कम दो अंकों का लाभ ले और सर्वप्रथम 25 अंक प्राप्त करे।

R.G.C. ने यह भी निर्णय किया कि सैटों के बीच अधिक-से-अधिक 3 मिनट की अवधि मिलेगी। इस समय सीमा में कोर्टों को बदलना और आरम्भिक Line ups का पंजीकरण स्कोर शीट पर किया जाएगा।
वालीबाल खेल में कार्य करने वाले कर्मचारी (Officials)—

  1. कोच तथा मैनेजर-कोच खिलाड़ियों को खेल सिखलाता है जबकि मैनेजर का कार्य खेल प्रबन्ध करना होता
  2. कप्तान–प्रत्येक टीम का कप्तान होता है जो अपनी टीम का नियन्त्रण करता है। वह खिलाड़ियों के खेलने का स्थान निश्चित करता है और टाइम आऊट लेता है।
  3. रैफरी-यह इस बात का ध्यान रखता है कि खिलाड़ी नियम के अन्तर्गत खेल रहा है या नहीं। यह खेल पर नियन्त्रण रखता है और उसका निर्णय अन्तिम होता है। यदि कोई नियमों का उल्लंघन करे तो उसको रोक देता है अथवा उचित दण्ड भी दे सकता है।
  4. अम्पायर-यह खिलाड़ियों को बदलता है। इसके अतिरिक्त रेखाएं पार करना, टाइम आऊट करना और रेखा को छू जाने पर सिगनल देना होता है। वह कप्तान के अनुरोध पर खिलाड़ी बदलने की अनुमति देता है। रैफरी की भी सहायता करता है तथा खिलाड़ियों को बारी-बारी स्थानों पर लगाता है।

पास (Passes)
1. अण्डर हैंड पास (Under Hand Pass)—यह तकनीक आजकल बहुत उपयोगी मानी गई है। इस प्रकार कठिन-से-कठिन सर्विस सुगमता से दी जाती है। इसमें बाएं हाथ की मुट्ठी बंद कर दी जाती है। दाएं हाथ की मुट्ठी पर बाल इस तरह रखा जाए कि अंगूठे समानान्तर हों। अण्डर हैंड बाल तब लिया जाता है जब बाल बहुत नीचा हो।

2. बैक पास (Back Pass)-जब किसी विरोधी खिलाड़ी को धोखा देना हो तो बैक पास प्रयोग में लाते हैं। पास बनाने वाला सिर की पिछली ओर बाल लेता है। वाली मारने वाला वाली मारता है।

3. बैक रोलिंग के साथ अण्डर हैंड पास (Under Hand Pass with Back Rolling)—जिस समय गेंद नैट के पास होता है तब अंगुलियां खोल कर और छलांग लगा कर गेंद को अंगुलियां सख्त करके चोट लगानी चाहिए।

4. साइड रोलिंग के साथ अण्डर हैंड पास (Under Hand Pass with Side Rolling)-जब गेंद खिलाड़ी के एक ओर होता है, जिस ओर गेंद होता है उस तरफ हाथ खोल लिया जाता है। साइड रोलिंग करके गेंद को लिया जाता है।

5. एक हाथ से अण्डर हैंड पास बनाना (Under Hand Pass with the Hand)—इस ढंग से गेंद को वापस मोड़ने के लिए तब करते हैं जब वह खिलाड़ी के एक ओर होता है, जिस तरफ गेंद लेना होता है। टांग को थोड़ा-सा झुका कर और बाजू खोल कर मुट्ठी बंद करके गेंद लिया जाता है।

6. नैट के साथ टकराया हुआ बाल देना (Taking the Ball Struck with the Net)—यह बाल प्रायः अण्डर हैंड से लेते हैं नहीं तो अपने साथियों की ओर निकलना चाहिए ताकि बहुत सावधानी से गेंद पार किया जा सके।

सर्विस (Service)-खेल का आरम्भ सर्विस से किया जाता है। कई अच्छी टीमें अनजान टीमों को अपनी अच्छी सर्विस से Upset कर देती हैं। सर्विस भी पांच प्रकार की होती है—

  1. अपर हैंड साइड सर्विस।
  2. टेनिस सर्विस।
  3. ग्राऊंड सर्विस।
  4. भोंदू सर्विस।
  5. हाई स्पिन सर्विस।

वाली मारना—

  1. प्लेसिंग स्मैश-खेल में Point लेने के लिए यह स्मैश प्रयोग में लाते हैं।
  2. ग्राऊंड आर्म स्मैश-जिस समय गेंद वाली से पीछे होता है। इसमें गेंद घुमा कर मारते हैं। यह भी बहुत बलशाली होता है।

1. ब्लॉक (Block) ब्लॉक वाली को रोकने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह बचाव का अच्छा ढंग है। यह तीन प्रकार का होता है, जो निम्नलिखित हैं—

  • इकहरा ब्लॉक (Single Block)-जब ब्लॉक करने का कार्य एक खिलाड़ी करे तो उसे इकहरा ब्लॉक कहते
  • दोहरा ब्लॉक (Double Block)-जब ब्लॉक रोकने का कार्य दो खिलाड़ी करें तो दोहरा ब्लॉक कहते हैं।
  • तेहरा ब्लॉक (Triple Block)-जब वाली मारने वाला बहुत शक्तिशाली होता हो तो तेहरे ब्लॉक की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य तीन खिलाड़ी मिल कर करते हैं। इस ढंग का प्रयोग प्रायः किया जाता है।

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प्रश्न 5.
बालीबाल खेल के फाऊल बताओ।
उत्तर-
वालीबाल के फ़ाऊल
(Fouls in Volleyball)
नीचे वालीबाल के फाऊल दिए जाते हैं—

  1. जब गेम चल रही हो तो खिलाड़ी नैट को हाथ न लगायें। ऐसा करना फाऊल होता है।
  2. केन्द्रीय रेखा को छूना फाऊल होता है।
  3. सर्विस करने से पूर्व रेखा काटना फ़ाऊल होता है।
  4. घुटनों के ऊपर एक टच वीक समझा जाता है।
  5. गेंद लेते समय आवाज़ उत्पन्न हो।
  6. होल्डिंग फ़ाऊल होता है।
  7. यदि बाल तीन बार से अधिक छू लिया जाए तो फ़ाऊल होता है।
  8. एक ही खिलाड़ी जब लगातार दो बार हाथ लगाता है तो फ़ाऊल होता है।
  9. सर्विस के समय यदि उस तरफ का पीछा ग़लत स्थिति में किया जाए।
  10. यदि रोटेशन ग़लत हो।
  11. यदि गेंद साइड पार कर दिया जाए।
  12. यदि बाल नैट के नीचे से होकर जाए।
  13. जब सर्विस एरिया से सर्विस न की जाए।
  14. यदि सर्विस ठीक न हो तो भी फ़ाऊल होता है।
  15. यदि सर्विस का बाल अपनी तरफ के खिलाड़ी ने पार कर लिया हो।
  16. सर्विस करते समय ग्रुप का बनाना फ़ाऊल होता है।
  17. विसल से पहले सर्विस करने से फ़ाऊल होता है।

यदि इन फाऊलों में से कोई भी फाऊल हो जाए तो रैफरी सर्विस बदल देता है। वह किसी भी खिलाड़ी को चेतावनी दे सकता है या उसको बाहर भी निकाल सकता है।
खेल के स्कोर (Score)—

1. जब कोई टीम दो सैटों से आगे होती है उसको विजेता घोषित किया जाता है। एक सैट 25 प्वाइंटों का होता है। यदि स्कोर 24-24 से बराबर हो जाए तो खेल 26-24, पर समाप्त होगा।

2. यदि रैफरी के कथन पर कोई टीम मैदान में नहीं आती तो वह खेल को गंवा देती है। 15 मिनट तक किसी टीम का इन्तज़ार किया जा सकता है। खेल में जख्मी हो जाने पर यह छूट दी जाती है। पांचवें सैट का स्कोर रैली के अन्त में गिना जाता है। प्रत्येक टीम जो ग़लती करती है उसके विरोधी को अंक मिल जाता है। Deciding Set में अंकों का अन्तर दो या तीन हो सकता है

3. यदि कोई टीम बाल को ठीक ढंग से विरोधी कोर्ट में नहीं पहुंचा सकती तो प्वाईंट विरोधी टीम को दे दिया जाता है।

निर्णय (Decision)—

  1. अधिकारियों के फैसले अन्तिम होते हैं।
  2. टीम का कप्तान केवल प्रौटैस्ट ही कर सकता है।
  3. यदि रैफरी का निर्णय उचित न हो तो खेल प्रोटैस्ट में खेली जाती है और प्रोटैस्ट अधिकारियों को भेज दिया जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 7 समानता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 7 समानता

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
समानता का क्या अर्थ है ? स्वतन्त्रता एवं समानता के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
(What is the meaning of equality ? Discuss the relationship between liberty and equality.)
उत्तर-
समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। समानता की प्राप्ति के लिए मनुष्य को बहुत संघर्ष करना पड़ा है। प्राचीन काल में दास-प्रथा प्रचलित थी जिसके कारण असमानता स्वाभाविक थी। ‘अमेरिका की स्वाधीनता घोषणा’ (American Declaration of Independence) में कहा गया, “सब मनुष्य स्वतन्त्र तथा समान बनाए गए हैं।” फ्रांस की क्रान्ति के पश्चात् ‘अधिकारों के घोषणा-पत्र’ में कहा गया “मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुए हैं और वे अपने अधिकारों के विषय में भी स्वतन्त्र और समान रहते हैं।” (“Men are born free and always continue free and equal in respect of their right.”) 19वीं शताब्दी के अन्त में तथा 20वीं शताब्दी के आरम्भ में प्रायः सभी राज्यों में समानता का अधिकार लिखा गया है।

समानता का अर्थ (Meaning of Equality)-
साधारण शब्दों में समानता का यह अर्थ लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए। इस मत के समर्थकों का कहना है कि प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है और यह प्रकृति की इच्छा है कि वे समान रहें। इस विचार का समर्थन अमेरिका की स्वतन्त्रता की घोषणा तथा फ्रांस के अधिकारों के घोषणा-पत्र में किया गया है। परन्तु यह विचार ठीक नहीं है। प्रकृति ने सब मनुष्यों को समान नहीं बनाया। कोई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली है तो कोई कमज़ोर, कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप, कोई बुद्धिमान् है तो कोई मूर्ख तथा सभी व्यक्तियों के समान विचार नहीं होते।

प्रकृति ने मनुष्य में असमनाताएं उत्पन्न की हैं, परन्तु सभी मनुष्यों में मौलिक समानताएं होती हैं। समानता का अर्थ है, मनुष्यों की मौलिक समानताएं समाज की असमानताओं से नष्ट होनी चाहिएं। समाज में पाई जाने वाली असमानताओं को दूर करके सभी को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएं। किसी भी मनुष्य के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेद नहीं होना चाहिए।

समाज के अन्दर सभी व्यक्तियों को उन्नति के लिए समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। प्रत्येक व्यक्ति को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं ताकि वह अपनी योग्यता के अनुसार अपना विकास कर सके। समानता का सही अर्थ यह है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर अपना विकास कर सके और इसके लिए विशेषाधिकार की समाप्ति होनी चाहिए अर्थात् सभी को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएं।

बार्कर (Barker) के अनुसार, “समानता के सिद्धान्त का यह अभिप्राय: है कि अधिकारों के रूप में जो सुविधाएं मुझे प्राप्त हैं, वे उसी रूप में अन्य व्यक्तियों को प्राप्त होंगी और जो अधिकार अन्य को प्रदान किए गए हैं वे मुझे भी दिए जाएंगे।”

प्रो० लॉस्की ने समानता की परिभाषा बिल्कुल ठीक की है। उन्होंने लिखा है, “समानता का यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक के साथ एक-जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि एक ईंटें ढोने वाले का वेतन एक प्रसिद्ध गणितज्ञ अथवा वैज्ञानिक के समान कर दिया गया, तो इससे समाज में समानता का उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा, इसीलिए समानता का यह अर्थ है कि विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान तथा उचित अवसर प्राप्त हों।” समानता की उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम कह सकते हैं कि समानता की अग्रलिखित विशेषताएं हैं-

  1. विशेष अधिकारों का अभाव-समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते।
  2. उन्नति के समान अधिकार-समानता की द्वितीय विशेषता यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर अपनी उन्नति कर सके। किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग तथा धन के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता।
  3. प्राकृतिक असमानताओं का नाश-समानता की तृतीय विशेषता यह है कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं को नष्ट किया जाता है। यदि समाज में प्राकृतिक असमानताएं रहेंगी तो समानता के अधिकार का कोई लाभ नहीं है।
  4. सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति-समानता की यह भी विशेषता है कि समाज के सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए।
  5. कानून के समक्ष समानता–समानता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं और कोई व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है।

स्वतन्त्रता और समानता में सम्बन्ध (Relationship between Liberty and Equality)-

समानता और स्वतन्त्रता लोकतन्त्र के मूल तत्त्व हैं। व्यक्ति के विकास के लिए स्वतन्त्रता तथा समानता का विशेष महत्त्व है। बिना स्वतन्त्रता और समानता के मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता। परन्तु स्वतन्त्रता और समानता के सम्बन्धों पर विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ विचारकों का विचार है कि स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं जबकि कुछ विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा समानता में गहरा सम्बन्ध है और स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बिना समानता स्थापित नहीं की जा सकती अर्थात् एक के बिना दूसरे का कोई महत्त्व नहीं है।

स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं (Liberty and Equality are opposed to each other)-

कुछ विचारकों के अनुसार, स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं और एक ही समय पर दोनों की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। टाक्विल तथा लॉर्ड एक्टन इस विचारधारा के मुख्य समर्थक हैं। इन विद्वानों के मतानुसार जहां स्वतन्त्रता है वहां समानता नहीं हो सकती और जहां समानता है वहां स्वतन्त्रता नहीं हो सकती। इन विचारकों ने निम्नलिखित आधारों पर स्वतन्त्रता तथा समानता को विरोधी माना है-

  • सभी मनुष्य समान नहीं हैं (All men are not Equal)-इन विचारकों के अनुसार असमानता प्रकृति की देन है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही शक्तिशाली होते हैं तथा कुछ कमज़ोर। कुछ व्यक्ति जन्म से ही बुद्धिमान् होते हैं तथा कुछ मूर्ख। अतः मनुष्य में असमानताएं प्रकृति की देन हैं और इन असमानताओं के होते हुए सभी व्यक्तियों को समान समझना अन्यायपूर्ण तथा अनैतिक है।
  • आर्थिक स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं (Economic Liberty and Equality are opposed to each other)-व्यक्तिवादी सिद्धान्त के आधार पर भी स्वतन्त्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी माना जाता है। व्यक्तिवादी सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए तथा आर्थिक क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतियोगिता होनी चाहिए। यदि स्वतन्त्र प्रतियोगिता को अपनाया जाए तो कुछ व्यक्ति अमीर हो जाएंगे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ेगी और यदि आर्थिक समानता की स्थापना की जाए तो व्यक्ति का स्वतन्त्र व्यापार का अधिकार समाप्त हो जाता है। आर्थिक समानता तथा स्वतन्त्रता परस्पर विरोधी हैं और एक समय पर दोनों की स्थापना नहीं की जा सकती।
  • समान स्वतन्त्रता का सिद्धान्त अनैतिक है ( The theory of equal Liberty is immoral)-सभी व्यक्तियों की मूल योग्यताएं समान नहीं होती। इसलिए सबको समान अधिकार अथवा स्वतन्त्रता प्रदान करना अनैतिक अन्याय है।
  • प्रगति में बाधक (Checks the Progress)-यदि स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को समानता के आधार पर लागू किया जाए तो इससे व्यक्तित्व तथा समाज को समान रूप दे दिए जाते हैं जिससे योग्य तथा अयोग्य व्यक्ति में अन्तर करना कठिन हो जाता है। इससे योग्य व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का अवसर नहीं मिलता।

स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी नहीं हैं (Liberty and Equality are not opposed to each other)-

अधिकांश विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। आजकल इस बात को मानने के लिए कोई तैयार नहीं होता कि स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं। वास्तव में ये दोनों एकदूसरे के पूरक हैं। समानता के अभाव में स्वतन्त्रता व्यर्थ है। आर० एच० टानी (R.H. Towny) का कथन है, “समानता स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।” जो विचारक स्वतन्त्रता तथा समानता को विरोधी मानते हैं, उन्होंने स्वतन्त्रता तथा समानता का गलत अर्थ लिया है। उन्होंने स्वतन्त्रता का अर्थ पूर्ण स्वतन्त्रता तथा प्रतिबन्धों का अभाव लिया है। परन्तु समाज में व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। सामाजिक हितों की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य की स्वतन्त्रता पर उचित तथा न्यायपूर्ण प्रतिबन्ध लगाए जाएं।

इसी प्रकार इन विचारकों ने समानता का अर्थ यह लिया है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए तथा सभी का सम्मान मिलना चाहिए। परन्तु समानता का यह अर्थ गलत है। समानता का अर्थ है-सभी व्यक्तियों को उन्नति के लिए समान अवसर तथा सुविधाएं प्रदान की जाएं। किसी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग तथा धन के आधार पर भेद नहीं किया जाना चाहिए। सभी व्यक्तियों को रोज़ी कमाने के समान अवसर मिलने चाहिएं।

  • दोनों का विकास एक साथ हुआ है (Both have grown simultaneously)-स्वतन्त्रता और समानता का सम्बन्ध जन्म से है। जब निरंकुशता और असमानता के विरुद्ध मानव ने आवाज़ उठाई और क्रान्तियां हुईं, तो स्वतन्त्रता और समानता के सिद्धान्तों का जन्म हुआ। इस प्रकार इन दोनों में रक्त सम्बन्ध है।
  • दोनों प्रजातन्त्र के आधारभूत सिद्धान्त हैं ( Both are Basic Principles of Democracy)-स्वतन्त्रता तथा समानता का विकास प्रजातन्त्र के साथ हुआ है। प्रजातन्त्र के दोनों मूल सिद्धान्त हैं। दोनों के बिना प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं की जा सकती।
  • दोनों के रूप समान हैं (Both are having same form)-स्वतन्त्रता और समानता के प्रकार एक ही हैं और उनके अर्थों में भी कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता तथा प्राकृतिक समानता का अर्थ प्रकृति द्वारा प्रदान की गई स्वतन्त्रता अथवा समानता है। नागरिक स्वतन्त्रता का अर्थ समान नागरिक अधिकारों की प्राप्ति है। इसी प्रकार दोनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि रूप हैं।
  • दोनों के उद्देश्य एक ही हैं (Aims are the same)-दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है-व्यक्ति के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। एक के बिना दूसरे का उद्देश्य पूरा नहीं होता । आशीर्वादम (Ashirvatham) ने दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध बताया है। उन्होंने लिखा है, “फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने जब स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारे को अपने युद्ध का नारा बनाया तो वे न पागल थे और न ही मूर्ख।” इस प्रकार स्पष्ट है कि समानता तथा स्वतन्त्रता में गहरा सम्बन्ध है।
  • आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है (Political Liberty is meaningless in the absence of economic equality)-स्वतन्त्रता तथा समानता में गहरा सम्बन्ध ही नहीं है, बल्कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं है। राजनीतिक स्वतन्त्रता की स्थापना के लिए पहले आर्थिक समानता की स्थापना करना आवश्यक है। जिस समाज में आर्थिक असमानता है वहां ग़रीब व्यक्ति की राजनीतिक स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रह सकती।

जिस देश में नागरिकों को आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती वहां नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। एक नागिरक जो अपने मालिक की दया पर हो, शीघ्र ही उसके दबाव में आकर अपने मत का अधिकार उसके कहने के अनुसार प्रयोग करेगा। यदि एक नागरिक को आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो अर्थात् उसे नौकरी की चिन्ता न हो और उसे यह पता हो कि यदि वह अपने वोट के अधिकार का प्रयोग अपनी इच्छा से करेगा तो उसे नौकरी से नहीं निकाला जाएगा तो वह अपने अधिकार का स्वतन्त्रता से प्रयोग कर पाएगा। एक मज़दूर, जो दैनिक मज़दूरी पर कार्य करता हो, वोट डालने नहीं जाएगा क्योंकि उसके लिए वोट के अधिकार से अधिक मजदूरी का महत्त्व है। ग़रीब व्यक्ति अपनी वोट बेच डालता है। ग़रीब व्यक्ति न ही चुनाव लड़ सकते हैं क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए योग्यता से अधिक धन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार ग़रीब व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है। हॉब्सन (Hobson) ने लिखा है कि, “एक भूख से मरते हुए व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता का क्या लाभ है। वह स्वतन्त्रता को न तो खा सकता है और न ही पी सकता है।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक समानता को होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

प्रश्न 2.
समानता कितने प्रकार की होती है ? (What are the kinds of equality ?)
उत्तर-
मनुष्य को अपने जीवन का विकास करने के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता की आवश्यकता होती है। समानता के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं

  1. प्राकृतिक समानता (Natural Equality)
  2. नागरिक समानता (Civil Equality)
  3. सामाजिक समानता (Social Equality)
  4. राजनीतिक समानता (Political Equality)
  5. आर्थिक समानता (Economic Equality)।

1. प्राकृतिक समानता (Natural Equality)-प्राकृतिक समानता का अर्थ है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है, इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। परन्तु यह विचार ठीक नहीं है। प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान नहीं बनाया है। व्यक्तियों में शक्ति, रंग, बुद्धि तथा स्वभाव में भिन्नता पाई जाती है। परन्तु आधुनिक लेखक प्राकृतिक समानता का यह अर्थ नहीं लेते। प्राकृतिक समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ मौलिक समानताएं हैं जिनके कारण सभी व्यक्तियों को समान माना जाना चाहिए। एक व्यक्ति के विकास के लिए दूसरे व्यक्ति को केवल साधन नहीं बनाया जा सकता। समाज में प्राकृतिक समानता तो होनी चाहिए पर अप्राकृतिक समानताएं जो मनुष्य ने बनाई हैं, वे समाप्त होनी चाहिएं।

2. नागरिक समानता (Civil Equality)-नागरिक समानता को कानूनी समानता का नाम भी दिया जाता है। नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात् कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं। धर्म, जाति, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कानून भेदभाव नहीं करता। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है। यदि किसी देश में कानून किसी एक वर्ग के लिए बनाए जाते हैं तो उस देश में नागरिक समानता नहीं रहती। इंग्लैण्ड, भारत तथा अमेरिका में कानून के सामने सभी व्यक्तियों को बराबर माना जाता है।

3. सामाजिक समानता (Social Equality)-सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का बराबर अंग है और सभी को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं। किसी व्यक्ति से धर्म, जाति, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव न हो। भारत में जाति-पाति के आधार पर भेद किया जाता था। अब भारत सरकार ने कानून द्वारा समानता स्थापित की जबकि दक्षिण अफ्रीका में काले तथा गोरे लोगों में सितम्बर 1992 तक भेदभाव किया जाता रहा है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि सितम्बर 1992 तक दक्षिणी अफ्रीका में नागरिकों को सामाजिक समानता प्राप्त नहीं थी। सामाजिक समानता की स्थापना केवल कानून द्वारा ही नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए लोगों के सामाजिक, धार्मिक तथा जाति के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन लाना आवश्यक है।

4. राजनीतिक समानता (Political Equality)-राजनीतिक समानता का अर्थ है कि नागरिकों को राजनीतिक अधिकार समान मिलने चाहिएं। वोट का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार तथा सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार, सभी नागरिकों को धर्म जाति, रंग, लिंग तथा धन के आधार पर भेद किए बिना समान रूप से प्राप्त होने चाहिएं। वोट के अधिकार तथा चुने जाने के लिए सरकार कुछ योग्यताएं निश्चित कर सकती है, पर ये योग्यताएं धर्म, जाति, रंग, लिंग पर आधारित नहीं होनी चाहिएं।

5. आर्थिक समानता (Economic Equality) आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्तियों को समान वेतन दिया जाए तथा सभी के पास सम्पत्ति हो। आर्थिक समानता का सही अर्थ यह है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति की रोटी, कपड़ा तथा मकान की आवश्यकताएं पूर्ण होनी चाहिएं। प्रत्येक राज्य का परम कर्त्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। उनके जीवन स्तर को ऊंचा करने के अनेक कार्य करे। साम्यवादी देशों में नागरिकों की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए अनेक कार्य किए गए हैं और आर्थिक समानता की स्थापना के प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में लाखों व्यक्ति बेरोज़गार हैं और कई लोगों को तो दो समय भोजन भी नहीं मिलता। भारत में आर्थिक समानता नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
साधारण शब्दों में समानता का अर्थ यह लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए। परन्तु समानता का यह अर्थ सही नहीं है। आज के युग में समानता का सही अर्थ यह है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं। सभी नागरिकों को उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं। किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए और समाज में उत्पन्न असमानताओं की समाप्ति हो। प्रो० लॉस्की ने समानता की परिभाषा बिल्कुल ठीक की है। उन्होंने लिखा है कि, “समानता का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि एक ईंट ढोने वाले का वेतन प्रसिद्ध गणितज्ञ या वैज्ञानिक के समान कर दिया जाए, तो इससे समाज में समानता का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए समानता का अर्थ यह है कि विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान तथा उचित अवसर प्राप्त हों।”

प्रश्न 2.
समानता की विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
समानता की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • विशेष अधिकारों का अभाव-समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होते।
  • उन्नति के समान अवसर-समानता की द्वितीय विशेषता यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य कर सके। किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
  • प्राकृतिक असमानताओं का नाश-समानता की तृतीय विशेषता यह है कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं का नाश किया जाता है। यदि समाज में प्राकृतिक असमानताएं रहेंगी तो समानता के अधिकार का कोई लाभ नहीं है।
  • सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति-समानता की यह भी विशेषता है कि समाज के सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
समानता के नकारात्मक तथा सकारात्मक पक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर-
समानता के दो पक्ष हैं-

  • नकारात्मक पक्ष-समानता के इस पक्ष का अर्थ विशेष अधिकारों की अनुपस्थिति है। अन्य शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को किसी भी आधार पर कोई विशेष अधिकार उपलब्ध नहीं होना चाहिए। जन्म, जाति अथवा धर्म इत्यादि के आधार पर किसी वर्ग के लिए विशेष अधिकारों का न होना ही समानता के नकारात्मक तथ्य का सारांश है।
  • सकारात्मक पक्ष-सकारात्मक पक्ष से अभिप्राय यह है कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के अपने जीवन का विकास करने के लिए समान अवसर उपलब्ध होने चाहिएं। यह ठीक है कि सभी व्यक्तियों के लिए प्रत्येक प्रकार के समान अवसर प्रदान करना राज्य के लिए असम्भव है, परन्तु उचित तथा समानता के आधार पर ऐसे अवसर प्रदान करना राज्य के लिए कोई कठिन नहीं है तथा इस प्रकार के अवसर प्रदान करने को ही समानता का सकारात्मक पक्ष कहा जाता है।

प्रश्न 4.
समानता के विभिन्न रूपों का नाम लिखें तथा किन्हीं चार रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
समानता के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं-
(1) प्राकृतिक समानता (2) नागरिक समानता (3) सामाजिक समानता (4) राजनीतिक समानता (5) आर्थिक समानता।

  1. नागरिक समानता-नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं। किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर कानून के समक्ष भेदभाव नहीं किया जाता। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है।
  2. सामाजिक समानता-सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का समान अंग है अतः सभी को बराबर सुविधाएं मिलनी चाहिएं। सामाजिक समानता की स्थापना केवल कानून द्वारा नहीं की जा सकती बल्कि इसके लिए लोगों के विचारों में परिवर्तन लाना भी आवश्यक है।
  3. राजनीतिक समानता-राजनीतिक समानता का अर्थ है कि नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार मिलने चाहिएं। वोट देने का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार इत्यादि राजनीतिक अधिकार सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मिलने चाहिएं।
  4. आर्थिक समानता–समाज में से आर्थिक असमानता समाप्त होनी चाहिए तथा सभी व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
आर्थिक समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्तियों को समान वेतन दिया जाए तथा सभी के पास समान सम्पत्ति हो। आर्थिक समानता का सही अर्थ यह है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति की रोटी, कपड़ा तथा मकान की आवश्यकताओं पूर्ण होनी चाहिए। प्रत्येक राज्य का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। उनके जीवन-स्तर को ऊंचा करने के अनेक कार्य करे। साम्यवादी देशों में नागरिकों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए अनेक कार्य किए गए हैं और आर्थिक समानता की स्थापना के प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में करोड़ों व्यक्ति बेरोज़गार हैं और कई व्यक्तियों को तो दो समय भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। भारत में आर्थिक समानता नहीं है।

प्रश्न 6.
आर्थिक असमानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
आर्थिक असमानता उस अवस्था को कहा जाता है जब समाज का एक भाग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रहते हुए अत्यन्त निम्न परिस्थितियों में जीवनयापन करता है और दूसरा भाग समस्त सुखसुविधाओं से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। आर्थिक असमानता के अन्तर्गत निर्धन और धनी के बीच अंतर बढ़ जाता है। निर्धन व्यक्ति प्रत्येक दृष्टि से पिछड़ कर रह जाते हैं। भारत में व्यापक पैमाने पर आर्थिक असमानता पाई जाती है। आज भी कुल आबादी का एक तिहाई भाग ग़रीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। इनके लिए उच्च शिक्षा, राजनीतिक भागीदारी आदि एक स्वप्न की तरह है। निर्धन व्यक्तियों का जीवन स्तर अत्यन्त निम्न हैं।

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प्रश्न 7.
भारत में आर्थिक असमानता के कोई चार कारण लिखें।
उत्तर-

  • ग़रीबी-भारत में आर्थिक असमानता का एक बड़ा कारण भारत में पाई जाने वाली ग़रीबी है। ग़रीब व्यक्ति को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास नहीं हो पाता।
  • अनपढ़ता-भारत में आर्थिक असमानता का एक और बड़ा कारण भारत में पाई जाने वाली अनपढ़ता है। अनपढ़ व्यक्ति को अच्छा रोज़गार नहीं मिल पाता, जिसके कारण वह न तो अपना पेट भर पाता है और न ही अपने परिवार का। इसी कारण समाज में उसकी स्थिति निम्न स्तर की बनी रहती है।
  • असन्तुलित विकास-भारत में होने वाला असन्तुलित विकास भी आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार है। जिन स्रोतों का अधिक विकास हुआ है, वहां के लोगों का आर्थिक स्तर अच्छा है, जबकि जहां विकास नहीं हुआ है, वहां के लोगों का सामाजिक तथा आर्थिक जीवन निम्न स्तर का है।
  • भारत में बेरोज़गारी पाई जाती है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक स्वतन्त्रता और आर्थिक समानता में सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
गरीब व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि जिन लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है वास्तव में उन्हीं को राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। आर्थिक समानता और राजनीतिक स्वतन्त्रता में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है जोकि निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है-

  • वोट के अधिकार का ग़रीब व्यक्ति के लिए कोई मूल्य नहीं-राजनीतिक अधिकारों में से वोट का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण है। परन्तु एक ग़रीब व्यक्ति के लिए जिसे दो वक्त खाने के लिए रोटी नहीं मिलती उसके लिए रोटी का मूल्य, वोट के अधिकार से अधिक है।
  • निर्धन व्यक्ति द्वारा मत के अधिकार का लालच में दुरुपयोग-ग़रीब व्यक्ति थोड़े से पैसों के लालच में आकर अपने मताधिकार को पूंजीपतियों के हाथों में बेच डालता है। कई बार व्यक्ति पैसे के अलावा शराब या किसी अन्य चीज़ के लालच में मताधिकार का दुरुपयोग कर बैठता है।
  • ग़रीब व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना असम्भव-आजकल चुनाव लड़ने के लिए हज़ारों तो क्या लाखों रुपयों की आवश्यकता होती है। ग़रीब व्यक्ति जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता, चुनाव लड़ना तो दूर की बात रही, चुनाव लड़ने की बात सोच भी नहीं सकता।
  • आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। अतः आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक दिखावा मात्र है।

प्रश्न 9.
समानता के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। स्वतन्त्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। समानता तथा स्वतन्त्रता प्रजातन्त्र के दो महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। समानता का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि नागरिकों के बीच जाति, धर्म, भाषा, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। सामाजिक न्याय और सामाजिक स्वतन्त्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। वास्तव में समानता न्याय की पोषक है। कानून की दृष्टि में सभी को समान समझा जाता है। भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय में समानता का अधिकार लिखा गया है।

प्रश्न 10.
‘स्वतन्त्रता व समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, पूरक हैं।’ व्याख्या करो।
उत्तर-
स्वतन्त्रता तथा समानता में गहरा सम्बन्ध है। अधिकांश आधुनिक विचारकों के अनुसार स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। समानता के अभाव में स्वतन्त्रता व्यर्थ है। आर० एच० टाउनी (Towney) ने ठीक ही कहा है कि, “समानता स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।” आधुनिक लोकतन्त्रात्मक राज्य मनुष्य की स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक तथा सामाजिक समानता स्थापित करने के प्रयास करते हैं। आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है। जिस देश में नागरिकों को आर्थिक समानता प्राप्त नहीं होती वहां नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। भारत में राजनीतिक स्वतन्त्रता तो है पर आर्थिक समानता नहीं है। ग़रीब, बेकार एवं भूखे व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है। एक ग़रीब व्यक्ति अपनी वोट बेच डालता है और वह चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। अतः स्वतन्त्रता के लिए समानता का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 11.
नागरिक समानता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नागरिक समानता को कानूनी समानता का नाम भी दिया जाता है। नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं। धर्म, जाति, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कानून भेदभाव नहीं करता है। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है। यदि किसी देश में कानून किसी एक वर्ग विशेष के लिए बनाये जाते हैं तो उस देश में नागरिक समानता नहीं रहती है। सितम्बर 1992 से पहले दक्षिण अफ्रीका में नागरिक समानता नहीं थी। वहां कानून गोरे लोगों के हितों की रक्षा के लिए ही बनाए जाते थे, परन्तु सितम्बर 1992 से वहां नागरिक समानता से सम्बन्धित कानून पारित किया गया है। अब वहां पर नागरिक समानता स्थापित है। भारत, इंग्लैण्ड और अमेरिका में कानून के सामने सभी व्यक्ति एक समान हैं। इन देशों में कानून का शासन है और प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है। कानून का उल्लंघन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को एक समान सज़ा मिलती है।

प्रश्न 12.
राजनीतिक समानता को सुनिश्चित बनाने के लिए आवश्यक शर्ते लिखो।
उत्तर-

  • मत देने का अधिकार–राजनीतिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को जाति, धर्म, रंग, वंश, लिंग, धन, स्थान आदि के आधार पर उत्पन्न भेदभाव के बिना समान रूप से मतदान का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
  • चुनाव लड़ने का अधिकार-राजनीतिक समानता के लिए यह आवश्यक है कि सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से चुनाव लड़ने और चुने जाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
  • सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार-लोकतन्त्रीय राज्यों में राजनीतिक सत्ता में भागीदार बनाने के लिए नागरिकों को सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। कोई भी सार्वजनिक पद किसी विशेष वर्ग के लोगों के लिए सुरक्षित नहीं होता। 4. लोगों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार होना चाहिए।

प्रश्न 13.
‘संरक्षात्मक विभेद’ से आपका क्या अभिप्राय है ? इससे सम्बन्धित कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर–
प्रत्येक समाज में बहुत-से व्यक्ति ऐसे होते हैं जो सामाजिक आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं। इन वर्गों को कानून द्वारा विशेष रियायतें प्रदान की जाती हैं ताकि ये अन्य वर्गों के समान अपना विकास कर सकें। इस प्रकार पिछड़े वर्गों के लोगों के पक्ष में विशेष सुविधाओं और रियायतों की व्यवस्था को ‘सुरक्षित भेदभाव’ कहा जाता है क्योंकि ऐसा पक्षपात विशेष वर्गों के लोगों के हितों की सुरक्षा के लिए किया जाता है। चाहे विशेष रियायतें और सुविधाएं समानता के कानूनी अधिकार की धारणा अनुसार नहीं होतीं, परन्तु आधुनिक कल्याणकारी राज्य के लिये पिछड़े वर्गों के लोग न तो योग्य विकास कर सकते हैं और न ही उन्नत व के लोगों की सामाजिक समानता करने का साहस कर सकते हैं। पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था करना बहुत आवश्यक हो गया है।

प्रश्न 14.
समानता के कानूनी पक्ष (Legal Dimension) से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में समानता के कानूनी पक्ष पर बहुत बल दिया जाता है। समानता के कानूनी पक्ष का अर्थ यह है कि राज्य में रहने वाले सभी व्यक्ति कानून के सामने समान है और किसी व्यक्ति को कानून के उपबन्धों में छूट नहीं दी जा सकती है। समानता के कानूनी पक्ष में निम्नलिखित बातें शामिल हैं-

1. कानून के समक्ष समानता-कानून के समक्ष समानता का अर्थ है कि कानून की दृष्टि में सभी नागरिक समान हैं। कानून तथा न्यायालय किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
2. कानून के समान संरक्षण-कानून के समान संरक्षण का अभिप्राय यह है कि समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार किया जाएगा।
3. समान अधिकार और कर्त्तव्य-हॉबहाउस के अनुसार कानूनी समानता में यह भी शामिल है कि सभी व्यक्तियों को समान रूप से अधिकार और कर्त्तव्य प्राप्त होने चाहिएं।

प्रश्न 15.
राजनीतिक समानता और आर्थिक समानता में सम्बन्ध बताएं।
उत्तर-
राजनीतिक समानता को सही अर्थों में स्थापित करने के लिए आर्थिक समानता अनिवार्य है। उदारवादी राजनीतिक समानता पर अधिक बल देते हैं जबकि मार्क्सवादी आर्थिक समानता को अधिक महत्त्व देते हैं। परन्तु वास्तव में दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। राजनीतिक समानता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि समाज में अमीरों और गरीबों में बहुत अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए और सभी व्यक्तियों की मौलिक आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। भूखे नंगे व्यक्ति के लिए राजनीतिक समानता का कोई अर्थ नहीं है। निर्धन व्यक्ति न तो मत का प्रयोग करने जाता है और न ही चुनाव लड़ने की सोच सकता है। ग़रीब व्यक्ति अपना मत बेच देता है और उच्च पदों से व्यवहारिक रूप से वंचित रहता है क्योंकि उसके पास शिक्षा करने के लिए धन नहीं होता। अतः आर्थिक समानता राजनीतिक समानता की स्थापना में सहायक होती है। राजनीतिक समानता भी आर्थिक समानता की स्थापना में सहायक होती है। इसलिए दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
साधारण शब्दों में समानता का अर्थ यह लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए। परन्तु समानता का यह अर्थ सही नहीं है। आज के युग में समानता का सही अर्थ यह है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं। सभी नागरिकों को उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं। किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए और समाज में उत्पन्न असमानताओं की समाप्ति हो।

प्रश्न 2.
समानता की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
1. विशेष अधिकारों का अभाव-समानता की प्रथम विशेषता यह है कि समाज में किसी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होते।
2. उन्नति के समान अवसर-समानता की द्वितीय विशेषता यह है कि समाज में सभी व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य कर सके। किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
समानता के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
1. नागरिक समानता-नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं।
2. सामाजिक समानता–सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का समान अंग है अतः सभी को बराबर सुविधाएं मिलनी चाहिएं।

प्रश्न 4.
आर्थिक समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्तियों को समान वेतन दिया जाए तथा सभी के पास समान सम्पत्ति हो। आर्थिक समानता का सही अर्थ यह है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए अर्थात् व्यक्ति की रोटी, कपड़ा तथा मकान की आवश्यकताओं पूर्ण होनी चाहिएं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तरप्रश्न 1. समानता का अर्थ क्या है ?
उत्तर-प्रत्येक व्यक्ति को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं ताकि वह अपनी योग्यता के अनुसार अपना विकास कर सके।

प्रश्न 2. समानता की परिभाषा लिखें।
उत्तर-लॉस्की के अनुसार, “समानता का अर्थ है विशेषाधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान तथा उचित अवसर प्राप्त हों।”

प्रश्न 3. समानता की एक विशेषता बताइए।
उत्तर-समानता की विशेषता यह है कि समानता में किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते।

प्रश्न 4. समानता के विभिन्न रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. प्राकृतिक समानता
  2. नागरिक समानता
  3. सामाजिक समानता
  4. राजनीतिक समानता
  5. आर्थिक समानता।

प्रश्न 5. प्राकृतिक समानता का क्या अर्थ है ? ।
उत्तर-प्राकृतिक समानता का अर्थ है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है, इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।

प्रश्न 6. नागरिक समानता किसे कहते हैं ?
उत्तर-सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात् कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं।

प्रश्न 7. सामाजिक समानता से क्या तात्पर्य है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जाना व उससे किसी भी प्रकार का धार्मिक, जातिगत, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाना।

प्रश्न 8. राजनीतिक समानता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-राजनीतिक समानता से अभिप्राय है कि नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के मत देने, चुने जाने, प्रार्थनापत्र देने और सरकारी पद ग्रहण करने का अधिकार हो।

प्रश्न 9. आर्थिक समानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए।

प्रश्न 10. स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं, वर्णन करें।
उत्तर-आर्थिक क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतियोगिता होने के कारण अमीर और अमीर हो जाएंगे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ेगी।

प्रश्न 11. स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी नहीं, स्पष्ट करें।
उत्तर-दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है व्यक्ति के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।

प्रश्न 12. समानता का क्या महत्त्व है?
उत्तर-समानता का महत्त्व इस बात में निहित है कि किसी भी मनुष्य के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 13. किन्हीं दो विद्वानों का नाम लिखें जो स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी मानते हैं।
उत्तर-लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) और डी० टॉकविल (De-Tocqueville) ।

प्रश्न 14. नागरिक समानता और राजनीतिक समानता में क्या अन्तर है?
उत्तर-नागरिक समानता से अभिप्राय है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं जबकि राजनीतिक समानता का अर्थ है कि सभी नागरिकों को समान रूप से राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 15. समानता के दोनों रूपों का नाम लिखिए।
उत्तर-

  1. नकारात्मक समानता
  2. सकारात्मक समानता।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………… समानता का सही अर्थ यह है, कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होनी चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए।
2. लॉस्की के अनुसार, आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता एक …….है।
3. स्वतन्त्रता और समानता परस्पर …………. है।
4. वोट का अधिकार ………. समानता से सम्बन्धित है।
5. काम का अधिकार ……….. समानता से सम्बन्धित है।
उत्तर-

  1. आर्थिक
  2. धोखा मात्र
  3. सहयोगी
  4. राजनीतिक
  5. आर्थिक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. समानता का अर्थ है, समाज में प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति के असमान अवसर प्रदान किये जाएं। प्रत्येक व्यक्ति को असमान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए, ताकि प्रत्येक अपनी योग्यता के अनुसार अपना विकास कर सके।
2. समानता की एक विशेषता यह है, कि किसी वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त हो।
3. प्राकृतिक समानता का अर्थ है, कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है। इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
4. नागरिक समानता को कानूनी समानता का नाम भी दिया जाता है।
5. समानता और स्वतन्त्रता लोकतन्त्र के मूल तत्त्व नहीं हैं। व्यक्ति के विकास के लिए स्वतन्त्रता तथा समानता का कोई महत्त्व नहीं है। बिना स्वतन्त्रता और समानता के मनुष्य अपना विकास कर सकता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
“समानता के नियम का यह अर्थ है कि जो सविधाएं मझे अधिकारों के रूप में प्राप्त हुई हैं, वही सुविधाएं उसी प्रकार से दूसरों को भी दी गई हों। जो अधिकार दूसरों को दिये गए हैं, वह मुझे भी मिलेंगे।” यह कथन किसका है ?
(क) लॉस्की
(ख) बार्कर
(ग) ग्रीन
(घ) बैंथम।
उत्तर-
(घ) लॉस्की ।

प्रश्न 2.
“राजनीति शास्त्र के सम्पूर्ण क्षेत्र में समानता की धारणा से कठिन कोई अन्य धारणा नहीं है।” यह कथन किसका है ?
(क) मिल
(ख) लासवैल
(ग) गार्नर
(घ) लॉस्की ।
उत्तर-
(घ) लॉस्की ।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा- “समानता की पर्याप्त मात्रा स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर उसके लिए अनिवार्य
(क) रूसो
(ख) लॉस्की
(ग) ग्रीन
(घ) आर० एच० टोनी।
उत्तर-
(घ) आर० एच० टोनी।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 7 समानता

प्रश्न 4.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता मिथ्या है।” यह कहा है-
(क) लॉस्की ने
(ख) ग्रीन ने
(ग) एक्टन ने
(घ) लिंकन ने।
उत्तर-
(ग) एक्टन ने

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 6 स्वतन्त्रता

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता क्या है ? स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं ? विवेचना कीजिए। (What is Liberty ? What are the different kinds of liberty ? Discuss.) (Textual Question)
अथवा
स्वतन्त्रता क्या होती है। इसके अलग-अलग प्रकारों का वर्णन करें। (What is Liberty ? Discuss its different kinds.)
उत्तर-
स्वतन्त्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। माण्टेस्क्यू (Montesquieu) के मतानुसार स्वतन्त्रता को छोड़कर किसी अन्य शब्द ने व्यक्ति के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव नहीं डाला है। प्रत्येक मनुष्य में स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा होती है। फ्रांसीसी क्रान्ति ने स्वतन्त्रता की भावना को बहुत बल दिया। भारत, दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका के कई देशों ने 20वीं शताब्दी में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जो बलिदान किए उससे स्पष्ट है कि पराधीन राष्ट्र का स्तर गुलामों जैसा होता है। प्रत्येक राष्ट्र स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसी प्रकार चाहता है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रखना चाहता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ (Meaning of Liberty)-‘स्वतन्त्रता’ को अंग्रेज़ी भाषा में ‘लिबर्टी’ (Liberty) कहते हैं। लिबर्टी शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकलता है जिसका अर्थ यह है पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बन्धनों का न होना। इस प्रकार स्वन्त्रता का अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बन्धन अथवा प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं। परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ गलत है क्योंकि बिना बन्धनों के मनुष्य का जीवन आज के सभ्य संसार में सम्भव नहीं है। स्वतन्त्रता का अर्थ दो भिन्नभिन्न रूपों में लिया जाता है

  1. स्वतन्त्रता का नकारात्मक स्वरूप (Negative Aspect of Liberty)
  2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक स्वरूप (Positive Aspect of Liberty)

1. स्वतन्त्रता का नकारात्मक स्वरूप (Negative Aspect of Liberty)-नकारात्मक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता हो अर्थात् व्यक्ति को अपनी मनमानी करने का अधिकार हो। उसे प्रत्येक कार्य करने की स्वतन्त्रता हो और उसके कार्यों पर कोई भी प्रतिबन्ध न हो। ‘सभी प्रतिबन्धों का अभाव’ (Absence of all Restraints) नकारात्मक स्वतन्त्रता का अर्थ है। जॉन स्टुअर्ट मिल (J.S. Mill) ने स्वतन्त्रता का अर्थ ‘सभी प्रतिबन्धों का अभाव’ लिया था। मिल के अनुसार, व्यक्ति के कार्यों पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं होना चाहिए चाहे वह बन्धन अच्छा क्यों न हो। उदाहरणस्वरूप मिल के अनुसार व्यक्ति को शराब पीने की स्वतन्त्रता है, यदि वह पब्लिक ड्यूटी पर नहीं। व्यक्ति को जुआ खेलने की स्वतन्त्रता है।

परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ गलत है। सभ्य समाज में मनुष्य को प्रत्येक कार्य करने की स्वतन्त्रता नहीं दी जा सकती। बार्कर (Barker) ने ठीक ही कहा है कि, “जिस प्रकार बदसूरती का न होना खूबसूरती नहीं है, उसी प्रकार बन्धनों का न होना स्वतन्त्रता नहीं है।” यदि व्यक्ति को सभी प्रकार के कार्य करने की स्वतन्त्रता दे दी जाए तो समाज में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी। पूर्ण स्वतन्त्रता देने का अर्थ है कि इस स्वतन्त्रता का प्रयोग केवल शक्तिशाली व्यक्ति ही कर सकेंगे। समाज में फिर एक ही कानून होगा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जिससे निर्बल व्यक्तियों का जीवन भी सुरक्षित नहीं रहेगा। लॉस्की (Laski) ने कहा है, “समाज में रह कर व्यक्ति जो चाहे नहीं कर सकता। स्वतन्त्रता कभी लाइसैंस नहीं बन सकती। किसी को भी चोरी करने या मारने की छूट नहीं दी जा सकती।” अतः स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है।

2. स्वतन्त्रता का सकारात्मक स्वरूप (Positive aspect of Liberty)-सकारात्मक स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए कुछ अधिकार तथा अवसर प्राप्त हों। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है कि, “प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार हो जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे।” लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “स्वतन्त्रता ने एक ऐसा वातावरण बनाए रखना है जिसमें व्यक्ति को विकास के सबसे अच्छे अवसर मिल सकें।” गांधी जी के अनुसार, “नागरिक स्वतन्त्रता नियन्त्रण का अभाव नहीं बल्कि आत्मविकास के लिए अवसर हैं।” सकारात्मक स्वतन्त्रता का यह भी अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु साथ में उसे उन अवसरों की भी याद होनी चाहिए जिससे उसे अपना विकास करने में सहायता मिलती हो। फ्रांसीसी क्रान्ति के नेताओं ने मानव अधिकारों की घोषणा में ठीक ही कहा था कि, “यह किसी भी कार्य को करने की शक्ति है। जिससे दूसरों को कोई हानि न पहुंचे।” (“It is the power to do anything that does not injure another.”)

स्वतन्त्रता की परिभाषाएं (Definitions of Liberty)-इस प्रकार स्वतन्त्रता का वास्तविक स्वरूप सकारात्मक है। निम्नलिखित परिभाषाएं स्वतन्त्रता के अर्थ को स्पष्ट कर देती हैं-

  • सीले (Seeley) के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति-शासन का उलटा रूप है।” (“Liberty is the opposite of over-government.”) सीले की इस परिभाषा का अर्थ है कि स्वतन्त्रता की प्राप्ति तानाशाही राज्य में नहीं हो सकती।
  • गैटेल (Gettell) के अनुसार, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनन्द प्राप्त होता है जो कि करने योग्य हैं।” (“Liberty is the positive power of doing and enjoying those things which are worthy of enjoyment and work.”’)
  • जी० डी० एच० कोल (G.D.H. Cole) के अनुसार, “बिना किसी बाधा के व्यक्ति को अपना व्यक्तित्व प्रकट करने का नाम स्वतन्त्रता है।”
  • हरबर्ट स्पैन्सर (Herbert Spencer) के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति वह कुछ करने को स्वतन्त्र है, जिसकी वह इच्छा करता है, परन्तु उससे किसी दूसरे व्यक्ति की वैसी ही स्वतन्त्रता नष्ट न होती हो।” (“Every man is free to do that which he wills, provided he infrings not the equal freedom of any other man.”)
  • टी० एच० ग्रीन (T.H. Green) के अनुसार, “स्वतन्त्रता करने योग्य कार्य को करने और उपयोग करने की साकारात्मक शक्ति है।”
  • प्रो० लॉस्की (Laski) ने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हए लिखा है, “स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय वर्तमान सभ्यता में मनुष्य की प्रसन्नता की गारण्टी के लिए जिन सामाजिक परिस्थितियों की आवश्यकता है, उन पर पाबन्दियों का न होना है।” दूसरे स्थान पर लॉस्की ने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए लिखा है, “स्वतन्त्रता का अर्थ उस वातावरण की उत्साहपूर्ण रक्षा करने से है जिससे मनुष्य को अपने श्रेष्ठतम रूप की प्राप्ति का अवसर प्राप्त हो।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

साधारण शब्दों में, स्वतन्त्रता का अर्थ नियन्त्रण का अभाव नहीं है बल्कि व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाओं की प्राप्ति है। स्वतन्त्रता की विभिन्न परिभाषाओं का अभाव स्वतन्त्रता नहीं है :

  1. सभी तरह की पाबन्दियों का अभाव स्वतन्त्रता नहीं है।
  2. निरंकुश, अनैतिक, अन्यायपूर्ण पाबन्दियों का अभाव ही स्वतन्त्रता है।
  3. न्यायपूर्ण नैतिक तथा उच्च पाबन्दियों का होना स्वतन्त्रता है।
  4. स्वतन्त्रता व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक अवस्था है।
  5. स्वतन्त्रता सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होती है।
  6. व्यक्ति को वे सब कार्य करने की स्वतन्त्रता है जो करने योग्य हैं।
  7. व्यक्ति को वे कार्य करने का अधिकार है जिनसे दूसरों को हानि न पहुंचे।

स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप (Kinds of Liberty)-

राजनीति शास्त्र में स्वतन्त्रता का प्रयोग कई रूपों में किया गया है। स्वतन्त्रता के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं :-

1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता (Natural Liberty)—जिस प्रकार कई लेखकों के मतानुसार मनुष्य को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त हैं उसी प्रकार कई लेखकों ने प्राकृतिक स्वतन्त्रता का विचार प्रस्तुत किया है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि मनुष्य को राज्य की उत्पत्ति से प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। सामाजिक समझौते के सिद्धान्त के लेखकों के अनुसार मनुष्य को प्रकृति ने स्वतन्त्र पैदा किया है। रूसो ने प्राकृतिक स्वतन्त्रता पर जोर दिया है। उसके अनुसार, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर वह बन्धनों (जंजीरों) में बन्धा हुआ है।”

परन्तु प्राकृतिक स्वतन्त्रता का विचार आज मान्य नहीं है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति समाज में ही हो सकती है, समाज के बाहर नहीं। जब उस समय कोई समाज नहीं था तो स्वतन्त्रता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता था। स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिबन्धों का अ नहीं है।

2. नागरिक त्रता (Civil Liberty).-नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो संगठित समाज का सदस्य होन के नाते प्राप्त होती है। प्रो० आशीर्वादम के अनुसार नागरिक स्वतन्त्रता को सीधे शब्दों में ‘समाज में प्राप्त स्वतन्त्रता’ कह सकते हैं। समाज अपने नागरिकों क विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करता है जिसके बिना नागरिक अपना विकास नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों तथा सुविधाओं को ही नागरिक स्वतन्त्रता कहा जाता है। नागरिक स्वतन्त्रता राज्य के अन्दर रहने वाले सभी व्यक्तियों को प्राप्त होती है। नागरिक स्वतन्त्रता में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता जीवन की स्वतन्त्रता, सम्पत्ति रखने की स्वतन्त्रता, भाषण देने की स्वतन्त्रता, घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता, इत्यादि सम्मिलित हैं।

प्रत्येक देश में नागरिक स्वतन्त्रता एक-जैसी नहीं होती। क्यूबा तथा चीन आदि साम्यवादी देशों में नागरिकों को ऐसी नागरिक स्वतन्त्रता प्राप्त है जो भारत, अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में नहीं है। तानाशाही देशों में लोकतन्त्रीय देशों के समान नागरिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती।

3. राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political Liberty) राजनीतिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है। लॉस्की (Laski) के अनुसार, “राजनीतिक स्वतन्त्रता का अर्थ राज्यों के कार्यों में क्रियाशील होना है।” ( The power to be active in the affairs of the State.”) राजनीतिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित अधिकारों से सम्बन्ध रखती है

  • नागरिकों को कानून बनाने वाली सभाओं के प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्राप्त होता है अर्थात् नागरिकों को वोट डालने का अधिकार दिया जाता है।
  • चुने जाने का अधिकार।
  • प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार।
  • सार्वजनिक पद प्राप्ति का अधिकार।
  • सरकार की नीतियों की आलोचना करने का अधिकार।
  • राजनीतिक दल बनाने का अधिकार। नागरिकों को उपर्युक्त राजनीतिक अधिकार लोकतन्त्रीय राज्यों में ही प्राप्त होते हैं।

4. आर्थिक स्वतन्त्रता (Economic Liberty)-नागरिक तथा राजनीतिक स्वतन्त्रता का लाभ नगरिक को तभी होता है, यदि उसे आर्थिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो। आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ नहीं है। आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि नागरिक को बेरोज़गारी तथा भूख से मुक्ति प्राप्त हो। प्रत्येक नागरिक को काम करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिएं। आर्थिक स्वतन्त्रता में काम करने के निश्चित घण्टे, न्यूनतम वेतन, काम करने का अधिकार, बेकारी की दशा में निर्वाह भत्ते के अधिकार शामिल होते हैं। आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं होता। एक भूखे और बेकार व्यक्ति के लिए मतदान का अधिकार कोई महत्त्व नहीं रखता।

5. नैतिक स्वतन्त्रता (Moral Liberty)-नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपना नतिक विकास करने की सभी सुविधाएं प्राप्त हों। व्यक्ति को सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अपाय, उचित-अनाना में निर्णय करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। नैतिक स्वतन्त्रता से व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। ग्री:: कमांके आदि लेखकों ने व्यक्ति की नैतिक स्वतन्त्रता पर बहुत जोर दिया है। देश की उन्नति. विकास और मृद्धि :- नैतिक म्वतन्त्रताएं अति आवश्यक हैं।

6. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (Personal Liberty)-व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता हो जो उस तक ही सीमित हों तथा उसके कायों से किसी दुसरे व्यक्ति को हानि न पहुंचे। प्रो० लॉस्की ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को निजी स्वतन्त्रता का नाम दिया है। निजी स्वतन्त्रता का अथ है उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता जिनके परिणाम केवल उसी व्यक्ति को प्रभावित करें। मिल ने मनुष्य के कार्यों का दो भागों में बांटा थाव्यक्तिगत कार्य तथा दूसरे से सम्बन्धित। मिल के अनुसार, मनुष्य को व्यक्तिगत कार्यों में एक स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए-व्यक्तिगत कार्य वे कार्य हैं जिनका सम्बन्ध व्यक्ति तक ही सीमित रहता है !

7. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता (National Liberty)-जिस प्रकार नागरिकों के विकास के लिा. वतन्त्रता आवश्यक है उसी प्रकार राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रत का अह कि राज्य किसी देश के नियन्त्रण में न हो अर्थात् राज्य बाहरी रूप से स्वतन्त्र हा और प्रभुसत्ता राज्य के पास हो। गलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य का होना ही राष्ट्रीय स्वतन्त्रता र इसलिए मा स्वतन्त्रता तथा प्रभुसत्ता के एक ही अर्थ हैं।” राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए नागरिक प्रत्यक बलिदान करने के लिए तयार रहते हैं : भारत को 1947 ई० में अंग्रेजों से स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।

प्रश्न 2. स्वतन्त्रता के रक्षा कवच बताएं। (Explain the safeguards of Liberty.)
उत्तर–स्वतन्त्रता का व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह अमीर हो, चाह नगंब ; कुछ कार्यों को करने के लिए स्वतन्त्रता चाहता है। स्वतन्त्रता व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक है। आधुनिक राज्यों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए विभिन्न उपाय किए जाते हैं। स्वतन्त्रता की सुरक्षा निम्नलिखित विभिन्न उपायों द्वारा की जा सकती है-

1. प्रजातन्त्र की स्थापना (Establishment of Democracy)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए प्रजातन्त्र की स्थापना आवश्यक है। स्वतन्त्रता और प्रजातन्त्र सहचारी हैं। प्रजातन्त्र में शक्ति का स्रोत जनता होती है और शासन का आधार जनमत होता है। जनता के हितों के विरुद्ध सरकार कानून पास करने की हिम्मत नहीं करती और न ही सरकार व्यक्तियों की स्वतन्त्रता को छीनने की कोशिश करती है। यदि सरकार स्वतन्त्रता को छीनने का प्रयत्न करती है तो चुनाव में ऐसी सरकार को हटा दिया जाता है।

2. मौलिक अधिकारों की घोषणा (Declaration of Fundamental Rights)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्तियों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की घोषणा संविधान के मौलिक अधिकारों में कर देनी चाहिए। यदि अधिकारों को संविधान में लिख दिया जाए तो सरकार इन अधिकारों का उल्लंघन आसानी से नहीं कर सकेगी और न ही इन अधिकारों को छीनने का प्रयत्न करेगी। यदि सरकार इन अधिकारों में हस्तक्षेप करती है तो नागरिक न्यायालय में जाकर इन अधिकारों की रक्षा की मांग कर सकते हैं। आज संसार के अधिकांश देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों का वर्णन मिलता

3. शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक है। शक्तियों के केन्द्रीयकरण से निरंकुशता को बढ़ावा मिलता है जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है।

4. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता (Independence of Judiciary)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। न्यायपालिका ही निष्पक्ष तथा निडरता से न्याय कर सकती है। स्वतन्त्र न्यायपालिका आवश्यक है क्योंकि न्यायपालिका ही मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है। न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विधानपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए। न्यायाधीश का वेतन अच्छा होना चाहिए और योग्य व्यक्तियों को न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए।

5. सरल व शीघ्र न्याय-व्यवस्था (Simple and Speedy Justice)-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के साथ ही न्याय का सरल व शीघ्र किया जाना स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है। न्याय-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे न्याय शीघ्र मिल सके। न्याय की देरी का अर्थ है-अन्याय। गांधी जी के अनुसार अच्छी न्याय व्यवस्था की मूल विशेषता होती है कि न्याय सस्ता और शीघ्र होता है।

6. समान अधिकार (Equal Rights)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए यह भी आवश्यक है कि नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों। किसी एक वर्ग को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिएं।

7. आर्थिक सुरक्षा (Economic Security)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए आर्थिक सुरक्षा होनी चाहिए। जिस देश में अमीर तथा ग़रीब में अधिक भेद होता है वहां ग़रीब व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। एक भूखे व्यक्ति के लिए वोट के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं है, वह अपने वोट का अधिकार बेच देता है। व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा तभी कर सकता है जब उसे आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो।

8. कानून का शासन (Rule of Law)-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए कानून का शासन आवश्यक है। ‘कानून के शासन’ का अर्थ है कि कानून के सामने सभी समान हैं । इंग्लैण्ड, भारत तथा अमेरिका में कानून का शासन है। इंग्लैण्ड में नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा कानून के शासन के द्वारा की गई है।

9. शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण (Decentralisation of Powers)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए सत्ता का विकेन्द्रीयकरण होना चाहिए न कि केन्द्रीयकरण। इसलिए सभी विद्वान, विचारक और राजनेता शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण पर बल देकर राजनीतिक सत्ता को राष्ट्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय इकाइयों में बांटने का समर्थन करते हैं। लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा है कि, “राज्य में शक्तियों का जितना अधिक वितरण होगा, उसकी प्रकृति उतनी अधिक विकेन्द्रित होगी और व्यक्तियों में अपनी स्वतन्त्रता के लिए उतना ही अधिक उत्साह होगा।” ब्राइस (Bryce) का विचार है कि लोगों में स्वतन्त्रता की भावना पैदा करने के लिए राज्य में स्वशासन की संस्थाओं (Local Self-Government Institution) को स्थापित करना आवश्यक है।

10. स्वतन्त्र प्रैस (Free Press)-किसी भी राज्य में नागरिकों की स्वतन्त्रताएं केवल तभी सुरक्षित रह सकती हैं जब वहां प्रेस स्वतन्त्र हो और व्यक्ति अपने विचारों की स्वतन्त्रतापूर्वक अभिव्यक्ति कर सकता हो। विचारों की अभिव्यक्ति का सबसे प्रभावशाली ढंग प्रकाशन है। अतः स्वतन्त्र और ईमानदार प्रैस का होना अति आवश्यक है। यदि प्रेस स्वतन्त्र नहीं होगा तो लोगों को सरकार की कार्यवाहियों का सही ज्ञान नहीं होगा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

11. संविधान (Constitution)-सरकार की शक्तियों को संविधान में लिख कर सरकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। इसलिए आधुनिक राज्यों के संविधान लिखित होते हैं ताकि सरकार की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। सरकार को अपना कार्य संविधान के अनुसार करना चाहिए।

12. राजनीतिक शिक्षा (Political Education)-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए जनता के पास राजनीतिक शिक्षा का होना आवश्यक है। राजनीतिक शिक्षा से ही मनुष्य को अपने अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का ज्ञान होता है और इससे मनुष्य शासन में अधिक-से-अधिक रुचि लेता है। बिना राजनीतिक शिक्षा के स्वतन्त्रता की रक्षा करना असम्भव है।

13. पक्षपात रहित शासन (Impartial Administration)-स्वतन्त्रता की रक्षा तभी हो सकती है जब राज्य की नीति पक्षपातपूर्ण न हो। इसका अभिप्रायः यह है कि राज्य को कुछ लोगों की भलाई के लिए ही कार्य नहीं करना चाहिए और न ही भेदभाव की नीति का अनुसरण करना चाहिए।

14. सतत् जागरूकता (Eternal Vigilance)-प्रो० लॉस्की (Laski) ने ठीक ही कहा है, “सतत् जागरूकता स्वतन्त्रता का मूल है।” स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय जनता को स्वतन्त्रता के प्रति जागरूक रहना है। नागरिकों में सरकार के इन कार्यों के विरुद्ध आन्दोलन करने की हिम्मत तथा हौंसला होना चाहिए जो उनकी स्वतन्त्रता को नष्ट करते हों। सरकार को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि यदि उसने नागरिकों की स्वतन्त्रता को कुचला तो नागरिक उसके विरुद्ध पहाड़ की तरह खड़े हो जाएंगे। लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “नागरिकों की महान् भावना न कि कानूनी शब्दावली स्वतन्त्रता की वास्तविक संरक्षरक है।”

15. सुदृढ़ व संगठित दलीय प्रणाली Strong and well-knit Party System)-स्वतन्त्रता के संरक्षण के लिए सुदृढ़ व सुसंगठित राजनीतिक दलों की व्यवस्था का होना अनिवार्य है। क्योंकि यदि बहुमत प्राप्त सरकार नीति-निर्माण के कार्यों में लोगों के हितों व स्वतन्त्रताओं को मान्यता नहीं देती है, तो विपक्षी दल न केवल इनका विरोध करते हैं, बल्कि ऐसी सरकार को अपदस्थ या हटाने के लिए लोगों में जनमत (Public Opinion) भी तैयार करते हैं, ताकि चुनावों में ऐसे राजनीतिक दन को सत्ता से दूर रखा जा सके।

16. सहिता की भावना एवं सरकार व लोगों में सहयोग (Spirit of tolerance and Co-operation between the Govt. and People)–स्वतन्त्रता के संरण के लिए लोगों में सहनशीलता व सहिष्णुता की भावना का होना अति आवश्यक है। मा सरकार व लोगों में परस्पर सहयोग के द्वारा ही हो सकता है। लोकतन्त्रीय व्यवस्था में शासन बहुसंख्यकों के हाग चलाया जाता है और अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की भावना में विश्वास रखते हुए सरकार के साथ पूर्ण सहयोग करना चाहिए। परस्पर मझौते व सहयोगों के द्वारा परस्पर विवादों का निपटारा करना चाहिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता शब्द को अंग्रेजी भाषा में लिबर्टी (Liberty) कहते हैं। लिबर्टी शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकला है जिसका अर्थ है पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बन्धनों का न होना। इस प्रकार स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बन्धन नहीं होना चाहिए। परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ ग़लत है। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जो उसके विकास में सहायक हैं। स्वतन्त्रता की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

  1. सीले के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति शासन का उलटा रूप है।”
  2. गैटेल के अनुसार, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनन्द प्राप्त होता है जो करने योग्य हैं।”
  3. प्रो० लॉस्की ने स्वतन्त्रता की परिभाषा करते हुए लिखा है, “स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्रायः वर्तमान सभ्यता में मनुष्य की प्रसन्नता की गारण्टी के लिए जिन सामाजिक परिस्थितियों की आवश्यकता है उन पर पाबन्दियों का न होना

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता के नकारात्मक तथा सकारात्मक रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता का अर्थ दो भिन्न-भिन्न रूपों में लिया जाता है। ये रूप निम्नलिखित हैं-

  • नकारात्मक स्वतन्त्रता-नकारात्मक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता हो अर्थात् व्यक्ति पर किसी प्रकार के प्रतिबन्ध न हों। उसे अपनी मनमानी करने का अधिकार प्राप्त हो और प्रत्येक कार्य को करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। ‘सभी प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव’ ही नकारात्मक स्वतन्त्रता है।
  • सकारात्मक स्वतन्त्रता-सकारात्मक स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए कुछ अधिकार तथा अवसर प्राप्त हों। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ है कि, “प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार हो जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे।” सकारात्मक स्वतन्त्रता का यह भी अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अनुचित तथा अन्यायपूर्ण प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु साथ में उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जो उसके विकास में सहायक हैं।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के चार रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के चार मुख्य रूप निम्नलिखित हैं-

  1. प्राकृतिक स्वतन्त्रता-प्राकृतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि मनुष्य को राज्य की उत्पत्ति से पूर्व प्राकृतिक अवस्था में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। ‘सामाजिक समझौते के सिद्धान्त’ के लेखकों के अनुसार भी प्रकृति ने मनुष्य को स्वतन्त्र पैदा किया है।
  2. नागरिक स्वतन्त्रता-नागरिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो व्यक्ति को संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है। समाज अपने सदस्यों के विकास के लिए वे आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करता है जिनके बिना व्यक्ति अपना विकास नहीं कर सकता, इन परिस्थितियों तथा सुविधाओं को ही नागरिक स्वतन्त्रता कहा जाता है।
  3. राजनीतिक स्वतन्त्रता-राजनीतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके अन्तर्गत नागरिक को देश के शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है। राजनीतिक स्वतन्त्रता में नागरिक को मतदान का, चुने जाने का, प्रार्थना-पत्र देने का, सरकारी पद प्राप्त करने का इत्यादि राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं।
  4. नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है, कि व्यक्ति को अपना नैतिक विकास करने की सभी सुविधाएं प्राप्त हों।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता की रक्षा के चार उपाय लिखें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता का व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्व है। आधुनिक राज्यों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं-

  • लोकतन्त्र की स्थापना-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए लोकतन्त्र की स्थापना आवश्यक है। स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र सहचारी हैं। लोकतन्त्र में शासन की शक्ति जनता के पास होती है। अत: यदि सरकार जनता की स्वतन्त्रता को ख़त्म करने या छीनने का प्रयत्न करती है तो जनता चुनाव द्वारा सरकार को हटा देती है।
  • मौलिक अधिकारों की घोषणा-स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा कर्तव्यों की घोषणा संविधान में कर दी जाए और संविधान लिखित तथा कठोर होना चाहिए जिससे इन्हें बदला न जा सके।
  • न्यायपालिका की स्वतन्त्रता-स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही निडरता तथा निष्पक्षता से न्याय कर सकती है। न्यायपालिका ही मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
  • शक्तियों का पृथक्करण होना चाहिए।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

प्रश्न 5.
“सतत् जागरूकता ही स्वतन्त्रता की कीमत है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
प्रो० लॉस्की ने ठीक ही कहा है कि ‘सतत् जागरूकता ही स्वतन्त्रता की कीमत है।’ स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय स्वतन्त्रता के प्रति जागरूक रहना है। नागरिकों में सरकार के उन कार्यों के विरुद्ध आन्दोलन करने की हिम्मत व हौंसला होना चाहिए जो उनकी स्वतन्त्रता को नष्ट करते हैं। सरकार को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि यदि उसने नागरिकों की स्वतन्त्रता को कुचला तो नागरिक उसके विरुद्ध पहाड़ की तरह खड़े हो जाएंगे। लॉस्की के शब्दों में नागरिक की महान् भावना न कि कानूनी शब्दावली स्वतन्त्रता का वास्तविक संरक्षक है।

प्रश्न 6.
सकारात्मक स्वतन्त्रता की विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
सकारात्मक स्वतन्त्रता नकारात्मक स्वतन्त्रता से कहीं विस्तृत तथा व्यापक है। सकारात्मक स्वतन्त्रता की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  1. स्वतन्त्रता का अर्थ बन्धनों का न होना नहीं है-स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है। सकारात्मक स्वतन्त्रता के समर्थक उचित प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं परन्तु वे अनुचित प्रतिबन्धों के विरुद्ध हैं। सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं। अतः स्वतन्त्रता असीमित नहीं होती है।
  2. स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी नहीं-स्वतन्त्रता और राज्य के कानून परस्पर विरोधी नहीं है। कानून स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करते बल्कि स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
  3. स्वतन्त्रता का अर्थ बाधाओं को दूर करना है-व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में जो बाधाएं आती हैं उनको दूर करना राज्य का कार्य है। स्वतन्त्रता का अर्थ उन सामाजिक परिस्थितियों का विद्यमान् होना है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों।
  4. स्वतन्त्रता अधिकारों के साथ जुड़ी हुई है।

प्रश्न 7.
राजनीतिक स्वतन्त्रता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक स्वतन्त्रता-राजनीतिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है। राजनीतिक स्वतन्त्रता निम्नलिखित अधिकारों से सम्बन्ध रखती है

  • नागरिकों को कानून बनाने वाली सभाओं के प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्राप्त होता है अर्थात् नागरिकों को वोट डालने का अधिकार दिया जाता है।
  • चुने जाने का अधिकार ।
  • प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार ।
  • सार्वजनिक पद प्राप्ति का अधिकार।
  • सरकार की नीतियों की आलोचना करने का अधिकार ।
  • राजनीतिक दल बनाने का अधिकार। नागरिकों को उपर्युक्त राजनीतिक अधिकार लोकतन्त्रीय राज्यों में प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 8.
आर्थिक स्वतन्त्रता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति प्रत्येक प्रकार की आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त हो और वह आर्थिक दृष्टि से किसी के अधीन न हो। प्रो० लॉस्की के अनुसार, “आर्थिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय मनुष्य को अपनी जीविका कमाने के लिए उचित सुरक्षा और सुविधाओं का प्राप्त होना है।” इसका अभिप्राय यह है कि सरकार को ऐसा सम्पन्न वातावरण उत्पन्न करना चाहिए जिसमें व्यक्ति को अपनी जीविका कमाने और उचित ढंग से अपना जीवननिर्वाह करने के लिए प्रत्येक प्रकार की आर्थिक सुविधाएं प्राप्त हों। इस उद्देश्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेद-भाव के कार्य करने का अधिकार, उचित वेतन प्राप्त करने का अधिकार, विश्राम का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार और शोषण के विरुद्ध अधिकार इत्यादि प्राप्त होने चाहिएं।

प्रश्न 9.
आर्थिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता के परस्पर सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर-
राजनीतिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकते हैं। राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति से नागरिक शासन में भाग लेकर अपनी नागरिक स्वतन्त्रता की भी रक्षा करता है। परन्तु राजनीतिक स्वतन्त्रता का लाभ व्यक्ति को तभी प्राप्त होता है, यदि उसे आर्थिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त हो। राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है, यदि वह आर्थिक स्वतन्त्रता के ढांचे पर आधारित न हो। आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि नागरिक को बेरोज़गारी तथा भूख से मुक्ति हो। जो व्यक्ति काम करना चाहता है, उसे काम मिलना चाहिए। लेनिन ने कहा था, “नागरिक स्वतन्त्रता आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना निरर्थक है।”

आर्थिक स्वतन्त्रता के अभाव में नागरिक अपने मत के अधिकार का उचित प्रयोग नहीं करता। निर्धन व्यक्ति अपनी वोट को बेच डालता है जिससे शासन की बागडोर पूंजीपतियों के हाथों में चली जाती है। पूंजीपति शासन का प्रयोग मज़दूरों के शोषण के लिए किया जाता है। व्यक्ति को नौकरी ही प्राप्त नहीं होनी चाहिए, बल्कि नौकरी की सुरक्षा भी प्राप्त होनी चाहिए। जिस मज़दूर को नौकरी से निकाले जाने का भय बना रहे वह अपनी स्वतन्त्रता का आनन्द नहीं ले सकता और न ही स्वतन्त्रता से अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकता है। जिस समाज में अमीरों तथा ग़रीबों में भेद बहुत बड़ा होता है वहां स्वतन्त्रता का होना सम्भव नहीं है। अत: ठीक ही कहा जाता है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आर्थिक स्वतन्त्रता का होना आवश्यक है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता का अर्थ लिखें।
उत्तर-
स्वतन्त्रता शब्द को अंग्रेज़ी भाषा में लिबर्टी (Liberty) कहते हैं। लिबर्टी शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकला है जिसका अर्थ है पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बन्धनों का न होना। इस प्रकार स्वतन्त्रता का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बन्धन नहीं होना चाहिए। परन्तु स्वतन्त्रता का यह अर्थ ग़लत है। स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिएं परन्तु उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जो उसके विकास में सहायक हैं।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता को परिभाषित करो।
उत्तर-

  • सीले के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति शासन का उलटा रूप है।”
  • गैटेल के अनुसार, “स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनन्द प्राप्त होता है जो करने योग्य हैं।”

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • नागरिक स्वतन्त्रता-नागरिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो व्यक्ति को संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है।।
  • राजनीतिक स्वतन्त्रता-राजनीतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके अन्तर्गत नागरिक को देश के शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता की रक्षा के दो उपाय लिखें।
उत्तर-

  1. लोकतन्त्र की स्थापना-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए लोकतन्त्र की स्थापना आवश्यक है।
  2. मौलिक अधिकारों की घोषणा–स्वतन्त्रता की सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की घोषणा संविधान में कर दी जाए और संविधान लिखित तथा कठोर होना चाहिए जिससे इन्हें बदला न जा सके।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. स्वतन्त्रता (Liberty) शब्द की उत्पत्ति किस भाषा और शब्द से हुई है ?
उत्तर–स्वतन्त्रता (Liberty) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से हुई है।

प्रश्न 2. स्वतन्त्रता के नकारात्मक स्वरूप का क्या अर्थ है ?
उत्तर-पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा किसी प्रकार के बंधनों का न होना।

प्रश्न 3. स्वतन्त्रता के सकारात्मक स्वरूप का क्या अर्थ है ?
उत्तर-प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार है जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे।

प्रश्न 4. स्वतन्त्रता की एक परिभाषा लिखो।
उत्तर-बर्नस के शब्दों में, “स्वतन्त्रता का अर्थ अपने व्यक्तित्व तथा योग्यताओं का पूर्ण विकास करना है।”

प्रश्न 5. स्वतन्त्रता के नकारात्मक पहलू के समर्थकों के नाम लिखें।
उत्तर-लॉक, एडम स्मिथ, हरबर्ट स्पैंसर, जे० एस० मिल आदि।

प्रश्न 6. स्वतन्त्रता के सकारात्मक पहलू के समर्थकों के नाम लिखें।
उत्तर-कांट, फिक्टे, ग्रीन, लॉस्की आदि।

प्रश्न 7. स्वतन्त्रता कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर-(1) प्राकृतिक स्वतन्त्रता, (2) नागरिक स्वतन्त्रता, (3) राजनीतिक स्वतन्त्रता, (4) आर्थिक स्वतन्त्रता, (5) नैतिक स्वतन्त्रता, (6) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, (7) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता।

प्रश्न 8. प्राकृतिक स्वतन्त्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्राकृतिक स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो मनुष्य को राज्य की उत्पत्ति से पूर्व प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त थी।

प्रश्न 9. नागरिक स्वतन्त्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर- नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है जो संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है।

प्रश्न 10. राजनीतिक स्वतन्त्रता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-राजनीतिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य उस स्वतन्त्रता से होता है जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है।

प्रश्न 11. आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ बताओ।
उत्तर-लोगों को अपनी जीविका कमाने की स्वतन्त्रता हो तथा इसके लिए उन्हें उचित साधन तथा सुविधाएं प्राप्त हों।

प्रश्न 12. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर–जिसके द्वारा व्यक्ति को उन कार्यों को करने की स्वतन्त्रता हो जो उस तक ही सीमित हों तथा उसके कार्यों से किसी दूसरे व्यक्ति को हानि न पहँचे।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

प्रश्न 13. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-राज्य किसी देश के नियन्त्रण में न हो अर्थात् राज्य बाहरी रूप से स्वतन्त्र हो और प्रभुसत्ता उसके पास हो।

प्रश्न 14. स्वतन्त्रता की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-निरंकुश, अनैतिक, अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतन्त्रता है।

प्रश्न 15. स्वतन्त्रता की रक्षा का एक उपाए बताएं।
उत्तर-स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए प्रजातन्त्र की स्थापना आवश्यक है क्योंकि प्रजातन्त्र में शक्ति का स्रोत जनता होती है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………….. स्वतन्त्रता का अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है, जो संगठित समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त होती है।
2. …………… स्वतन्त्रता से अभिप्राय उस स्वतन्त्रता से है, जिसके द्वारा नागरिक देश के शासन में भाग ले सकता है।
3. स्वतन्त्रता और ………….. परस्पर विरोधी न होकर सहयोगी हैं।
4. …………….. के अनुसार, ‘सतत् जागरूकता ही स्वतन्त्रता का मूल्य है।’
5. ‘स्वतन्त्रता पर निबंध’ पुस्तक ………….. ने लिखी।
उत्तर-

  1. नागरिक
  2. राजनीतिक
  3. समानता
  4. लॉस्की
  5. जे० एस० मिल।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. टी० एच० ग्रीन के अनुसार, “स्वतन्त्रता अतिशासन का उल्टा रूप है।”
2. स्वतन्त्रता और राज्य के कानून परस्पर विरोधी नहीं हैं। कानून स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करते बल्कि स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
3. नैतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को देश के शासन में भाग लेने का अधिकार है।
4. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अर्थ है कि राज्य किसी देश के नियंत्रण में न हो अर्थात् राज्य बाहरी रूप से स्वतन्त्र हो और प्रभुसत्ता राज्य के पास हो।
5. जहां कानून नहीं होता, वहां स्वतन्त्रता नहीं होती है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
नकारात्मक स्वतन्त्रता का अर्थ है
(क) पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा प्रतिबन्धों का अभाव होना।
(ख) सीमित स्वतन्त्रता।
(ग) स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों के साथ।
(घ) स्वतन्त्रता पर थोड़े प्रतिबन्धों का होना।
उत्तर-
(क) पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा प्रतिबन्धों का अभाव होना।

प्रश्न 2.
यह किसने कहा, “स्वतन्त्रता का अर्थ उस वातावरण की उत्साहपूर्ण रक्षा करने से है जिससे मनुष्य कोअपने श्रेष्ठतम रूप की प्राप्ति का अवसर प्राप्त हो ?”
(क) लॉस्की
(ख) सीले
(ग) कोल
(घ) बर्नस।
उत्तर-
(क) लॉस्की

प्रश्न 3.
जो स्वतन्त्रता राज्य बनने से पहले विद्यमान थी, उसे-
(क) नागरिक स्वतन्त्रता कहते हैं
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता कहते हैं
(ग) आर्थिक स्वतन्त्रता कहते हैं
(घ) राजनीतिक स्वतन्त्रता कहते हैं।
उत्तर-
(ख) प्राकृतिक स्वतन्त्रता कहते हैं

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 स्वतन्त्रता

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर वह बन्धन में बंधा हुआ है” ?
(क) रूसो
(ख) सीले
(ग) ग्रीन
(घ) बर्गेस।
उत्तर-
(क) रूसो

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 5 कानून Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 5 कानून

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कानून क्या है ? आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे ?
(What is Law ? How would you define it ?)
उत्तर-
राज्य का मुख्य उद्देश्य शान्ति की स्थापना करना तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करना होता है। राज्य अपने इस उद्देश्य की पूर्ति कानून द्वारा करता है। राज्य की इच्छा कानून द्वारा प्रकट होती है तथा कानून द्वारा ही लागू की जाती है। कानून द्वारा ही व्यक्ति तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध, व्यक्ति तथा अन्य समुदायों के सम्बन्ध तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित किए जाते हैं।

कानून की परिभाषा (Definition of Law)-कानून शब्द को अंग्रेज़ी में लॉ (Law) कहते हैं। लॉ (Law) शब्द टयूटॉनिक भाषा के शब्द लेग (Lag) से निकला है, जिसका अर्थ है-‘निश्चित’ या स्थिर। इस प्रकार कानून का अर्थ है-निश्चित नियम।

कानून शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है। जो कानून समाज में रहते हुए व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करते हैं, उन्हें सामाजिक कानून अथवा मानवीय कानून कहा जाता है। मानवीय कानूनों में से कुछ कानून ऐसे होते हैं जो मनुष्य के आन्तरिक व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं-ऐसे कानून नैतिकता पर आधारित होते हैं और इन कानूनों को नैतिक कानून कहा जाता है। नैतिक कानूनों का उल्लंघन करने पर सज़ा नहीं मिलती। दूसरे वे कानून हैं जो मनुष्य के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करते हैं और इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है और जो इन कानूनों का उल्लंघन करता है राज्य उसे दण्ड देता है। ऐसे कानूनों को राजनीतिक कानून कहा जाता है। राजनीति शास्त्र में हमारा सम्बन्ध केवल उन कानूनों से है जिन्हें राज्य बनाता है तथा राज्य ही लागू करता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

विभिन्न लेखकों ने ‘कानून’ की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं जिनमें से मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • ऑस्टिन (Austin) के शब्दों में, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।” (“Law is a command of superior to an inferior.”) फिर ऑस्टिन ने आगे लिखा है, “कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है।” (“Law is a command of a sovereign.”’)
  • वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) के अनुसार, “कानून स्थापित विचारधारा तथा अभ्यास का वह भाग है जिन्हें सामान्य रूप के नियमों में स्वीकृति मिली होती है तथा जिन्हें सरकार की शक्ति का समर्थन प्राप्त होता है।”
  • विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “कानून आचरण के वे नियम हैं जिनकी सहायता से न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार में कार्य करते हैं। वैसे तो समाज में आचरण के बहुत-से नियम होते हैं, परन्तु कानून में यह विशेषता होती है कि उसे राज्य की सम्पूर्ण शक्ति प्राप्त होती है।”
  • हालैंड (Holland) के शब्दों में, “कानून मनुष्य के बाहरी जीवन से सम्बन्धित सामान्य नियम हैं जो राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा लागू किए जाते हैं।”
  • पाउण्ड (Pound) के अनुसार, “न्याय-प्रशासन में सार्वजनिक और नियमित न्यायालयों द्वारा मान्यता प्राप्त और लागू किए गए सिद्धान्तों को कानून कहते हैं।”
  • टी० एच० ग्रीन (T.H. Green) के शब्दों में, “कानून अधिकारों और ज़िम्मेदारियों (कर्त्तव्यों) की वह व्यवस्था है जिसे राज्य लागू करता है।”

कानून की ऊपरलिखित परिभाषाओं से कानून के निम्नलिखित तत्त्वों का पता चलता है-

  1. कानून समाज में रहने वाले व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करता है।
  2. कानून व्यक्तियों के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करता है।
  3. कानून का निर्माण राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा किया जाता है और उसी द्वारा लागू किया जाता है।
  4. कानून निश्चित तथा सर्वव्यापक होता है। कानून सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होते हैं।
  5. कानून का उल्लंघन करने वाले को दण्ड दिया जाता है। कानून न्यायालयों द्वारा लागू किए जाते हैं।

प्रश्न 2.
कानून कितने प्रकार के होते हैं ?
(What are the different kinds of Law ?)
अथवा
कानून के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए।
(Discuss the various kinds of Law.)
उत्तर-
राज्य की इच्छा कानून द्वारा प्रकट होती है और कानून द्वारा ही लागू की जाती है। कानून व्यक्ति तथा राज्य के आपसी सम्बन्ध, व्यक्ति तथा अन्य समुदायों के सम्बन्ध तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करता है। कानून राज्य में शान्ति की स्थापना करता है और कानून ही अपराधियों को दण्ड देता है। उन नियमों को कानून कहते हैं जो व्यक्ति के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करते हैं और जिन्हें राज्य की मान्यता प्राप्त होती है।

कानून के प्रकार (Different kinds of law)-कई विचारकों ने कानून का वर्गीकरण इस प्रकार किया है। प्रो० गैटेल (Gattell) के अनुसार, कानून तीन प्रकार का होता है-(1) व्यक्तिगत कानून (Private Law), (2) सार्वजनिक कानून (Public Law), (3) अन्तर्राष्ट्रीय कानून (International Law)।

प्रो० हालैंड के अनुसार, कानून दो प्रकार का होता है-व्यक्तिगत कानून (Private Law), (2) सार्वजनिक कानून (Public Law)।

सार्वजनिक कानून के हालैंड ने तीन उपभेद किए हैं-

  1. संवैधानिक कानून
  2. प्रशासकीय कानून
  3. दण्ड कानून । व्यक्तिगत कानून के हालैंड ने आगे उपभेद किए हैं-(1) सम्पत्ति तथा समझौता कानून (2) नियम कानून (3) व्यक्तिगत सम्बन्ध कानून (4) व्यावहारिक कानून।

प्रो० मैकाइवर (Maclver) का वर्गीकरण निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट हो जाता है-

Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 कानून 1

कुछ विचारक कानून के स्रोत के आधार पर भी कानून का वर्गीकरण करते हैं-वैधानिक कानून (Statutory Law), कॉमन लॉ (Common Law), न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून (Judge-made Law) तथा अध्यादेश (Ordinance)।
ऊपरलिखित कानून के वर्गीकरण के आधार पर हम कानून के विभिन्न प्रकारों का संक्षेप में वर्णन करते हैं

  • अन्तर्राष्ट्रीय कानून (International Law)-अन्तर्राष्ट्रीय कानून वह नियम है जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है और उनके झगड़ों को निपटाता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्बन्ध केवल राज्यों से होता है, व्यक्तियों से नहीं।
  • राष्ट्रीय कानून (National Law)-राष्ट्रीय कानून वह नियम है जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है और जो व्यक्ति अथवा समुदाय इन कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें दण्ड दिया जाता है। देश के न्यायालय इन्हीं कानूनों द्वारा न्याय करते हैं।

राष्ट्रीय कानून को दो भागों में बांटा जा सकता है-संवैधानिक कानून तथा साधारण कानून।

1. संवैधानिक कानून (Constitutional Law)-संवैधानिक कानून वह कानून है जो सरकार के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों को निश्चित करता है। यह देश का सर्वोच्च कानून होता है। संवैधानिक कानून लिखित तथा अलिखित दोनों प्रकार के होते हैं। भारत, अमेरिका, जापान तथा स्विट्जरलैंड के संवैधानिक कानून लिखित हैं, परन्तु इंग्लैण्ड का संवैधानिक कानून अलिखित है।

2. साधारण कानून (Ordinary Law)—साधारण कानून राष्ट्रीय कानून का वह भाग है जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को निश्चित करता है। साधारण कानून सरकार द्वारा बनाए जाते हैं और सरकार द्वारा ही लागू किए जाते हैं। साधारण कानूनों को दो भागों में बांटा जाता है(क) सार्वजनिक कानून तथा (ख) व्यक्तिगत कानून।

3. सार्वजनिक कानून (Public Law)—सार्वजनिक कानून राज्य तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करता है। सार्वजनिक कानून दो प्रकार का होता है-

(i) प्रशासकीय कानून तथा (ii) आम कानून।

(i) प्रशासकीय कानून (Administrative Law)—प्रशासकीय कानून सार्वजनिक कानून का वह भाग है जो राज्य तथा सरकारी कर्मचारियों के सम्बन्ध नियमित करता है। प्रशासकीय कानून सरकारी कर्मचारियों के कार्यों, शक्तियों तथा स्तर को निश्चित करता है। प्रशासकीय कानून सभी देशों में नहीं मिलते। प्रशासकीय कानून का सबसे अच्छा उदाहरण फ्रांस है। (ii) आम कानून (General Law)-आम कानून सार्वजनिक कानून का वह भाग है जो सभी व्यक्तियों पर बिना सरकारी तथा गैर-सरकारी का भेद किए लागू होता है, उनके व्यवहारों को नियमित करता है।

4. व्यक्तिगत कानून (Private Law)-व्यक्तिगत कानून साधारण कानून का वह भाग है जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है। व्यक्तिगत कानून में उत्तराधिकार, विवाह तथा सम्पत्ति के आदान-प्रदान के कानून शामिल है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

5. वैधानिक कानून (Statutory Law)-वैधानिक कानून वे कानून हैं जो राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए जाते हैं। प्रत्येक लोकतन्त्रीय राज्य में विधानमण्डल होता है। आजकल लोकतन्त्रीय राज्य में अधिकांश कानून विधानमण्डल द्वारा बनाए जाते हैं।

6. कॉमन लॉ (Common Law)-कॉमन लॉ का निर्माण विधानमण्डल द्वारा नहीं किया जाता। कॉमन लॉ देश में रीति-रिवाज़ों पर आधारित होते हैं जिन्हें न्यायालय मान्यता प्रदान कर चुके होते हैं। इंग्लैण्ड में कॉमन लॉ का बहुत बड़ा महत्त्व है।

7. न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून (Judge-made Laws)-न्यायाधीश कानून की व्याख्या करते समय नए कानूनों को जन्म देते हैं। कई बार न्यायाधीश मुकद्दमों का निर्णय न्याय-भावना के आधार पर करते हैं। उनके निर्णय आने वाले वैसे मुकद्दमों के लिए कानून माने जाते हैं।

8. अध्यादेश (Ordinance)-अध्यादेश वे कानून हैं जो किसी विशेष परिस्थिति पर काबू पाने के लिए जारी किए जाते हैं। अध्यादेश कार्यपालिका द्वारा उस समय जारी किए जाते हैं जब विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं हो रहा होता। जब विधानमण्डल का अधिवेशन होता है तब इन अध्यादेशों को विधानमण्डल से स्वीकृति लेनी पड़ती है। जिन अध्यादेशों को विधानमण्डल की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है वे कानून बन जाते हैं और जिनको स्वीकृति प्राप्त नहीं होती वे रद्द हो जाते हैं। जब अध्यादेश जारी किया जाता है तब उसे साधारण कानून की तरह ही मान्यता प्राप्त होती है और जो व्यक्ति अध्यादेश का उल्लंघन करता है उसे दण्ड दिया जाता है।

9. दीवानी कानून (Civil Laws)-वैधानिक कानून (Statutory Law) दीवानी और फ़ौजदारी कानूनों में बंटे होते हैं। दीवानी कानून धन, सम्पत्ति और उत्तराधिकार आदि मामलों से सम्बन्धित होते हैं।

10. फ़ौजदारी कानून (Criminal Laws)—फ़ौजदारी कानून लड़ाई-झगड़े, हत्या, डकैती आदि मामलों से सम्बन्धित होते हैं।

प्रश्न 3.
कानून के स्रोतों की व्याख्या करें।
(Discuss the sources of Law.).
उत्तर-
ऑस्टिन के अनुसार, कानून का स्रोत प्रभुसत्ताधारी है क्योंकि कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है। पर प्रत्येक कानून प्रभु का आदेश नहीं होता। कई ऐसे कानून होते हैं जिनका निर्माण प्रभु न करके केवल लागू करता है। आजकल अधिकतर कानूनों का निर्माण विधानमण्डल के द्वारा किया जाता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि कानून के अनेक स्रोत हैं। कानून के निम्नलिखित स्रोत हैं

1. रीति-रिवाज (Customs)-रीति-रिवाज कानून का सबसे पुराना स्रोत है। प्राचीनकाल में रीति-रिवाज द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। रीति-रिवाजों को ही कबीले का कानून माना जाता था। जब राज्य की स्थापना हुई तो रीति-रिवाजों को ही कानून का रूप दे दिया गया। यह ठीक है कि रीति-रिवाज स्वयं कानून नहीं हैं पर राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं। कोई भी राज्य रीति-रिवाजों के विरुद्ध कानून बनाने का प्रयत्न नहीं करता और यदि कोई राज्य रीति-रिवाजों के विरुद्ध कानून बनाता है तो जनता उन कानूनों के विरुद्ध आन्दोलन करती है। महाराजा रणजीत सिंह जो निरंकुश राजा था, अपने कानूनों को रीति-रिवाजों के अनुसार ही बनाता था। भारत में हिन्दू लॉ (Hindu Law) तथा मुस्लिम लॉ (Muslim Law) जनता के रीति-रिवाजों पर आधारित हैं।

2. धर्म (Religion)-धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीनकाल में सामाजिक जीवन पर धर्म का बहुत प्रभाव होता था। रीति-रिवाज पर धर्म का बहुत प्रभाव होता था। जिन रीति-रिवाजों को धर्म की मान्यता प्राप्त होती थी उन रीति-रिवाजों का अधिक पालन होता था। राज्य में राजा द्वारा निर्मित कानून दैवी अधिकारों पर आधारित होते थे और उनका उल्लंघन करना पाप समझा जाता था। वास्तव में प्राचीन काल में रीति-रिवाजों तथा धार्मिक नियमों में भेद करना अति कठिन था। कई देशों में तो पुरोहित ही राजा (Priest King) होते थे। भारत में फिरोज़ तुग़लक ने वही टैक्स लगाए जिनकी कुरान में आज्ञा थी। औरंगजेब ने भी अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों के अनुसार बनाए। आजकल भी मुस्लिम देशों के अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। हिन्दुओं के विवाह तथा उत्तराधिकार से सम्बन्धित कानून उनकी धार्मिक पुस्तक ‘मनुस्मृति’ पर आधारित हैं। इस प्रकार धर्म भी कानून का एक महान् स्रोत है और आज भी इसका प्रभाव है।

3. न्यायालयों के निर्णय (Judicial Decisions) न्यायालयों के निर्णय कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। झगड़ों का निर्णय न्यायालयों द्वारा किया जाता है। न्यायालय निर्णय करते समय नए कानून को जन्म देते हैं। कई बार न्यायाधीश के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जिनके बारे में बनाए हुए कानून स्पष्ट नहीं होते। न्यायाधीश इस कानून की व्याख्या कर के निर्णय देते हैं। न्यायाधीशों के निर्णय आने वाले वैसे ही मुकद्दमों के लिए कानून का काम करते हैं। अतः न्यायाधीश अपने निर्णयों द्वारा नए कानूनों को जन्म देते हैं। कानून की व्याख्या करते समय भी न्यायाधीश कानूनों का निर्माण करते हैं।

4. न्यायाधीशों की न्याय भावना (Equity)-न्यायाधीशों की न्याय-भावना भी कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। कई बार न्यायाधीश के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जहां प्रचलित कानून या तो स्पष्ट नहीं होता या कानून बिल्कुल ही नहीं होता। ऐसी परिस्थितियों में न्यायाधीश का कर्त्तव्य होता है कि वह न्याय भावना, न्याय बुद्धि, सद्भावना तथा ईमानदारी से नए कानून बनाकर मुकद्दमे का निर्णय करे। इन निर्णयों द्वारा बने कानूनों को न्यायाधीशों द्वारा निर्मित कानून (Judgemade Laws) कहा जाता है। गिलक्राइस्ट (Gilchrist) का कहना है कि, “न्याय भावना नए कानून को बनाने या पुराने कानून को बदलने का अनौपचारिक तरीका है जो व्यवहार की शुद्ध निष्पक्षता या समानता पर निर्भर है।”

5. वैज्ञानिक टिप्पणियां (Scientific Commentaries)—वैज्ञानिक टिप्पणियां कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। कानून के प्रसिद्ध ज्ञाता कानून पर टिप्पणियां करके कानून के दोषों को स्पष्ट करते हैं और कानून में सुधार करने के लिए सुझाव भी देते हैं। न्यायाधीश झगड़ों का निर्णय करते समय कानून की व्याख्या के लिए प्रसिद्ध कानून-ज्ञाता की टिप्पणियों से सहायता लेते हैं और इन्हें मान्यता प्रदान करते हैं जिससे वे टिप्पणियां कानून बन जाती हैं। इंग्लैण्ड में डायसी, कोक तथा ब्लेकस्टोन प्रसिद्ध कानून-ज्ञाता हुए जिन्होंने ब्रिटिश कानून पर टिप्पणियां लिखी हैं जो बहुत लाभदायक सिद्ध हुई हैं। भारत में विज्ञानेश्वर, अपारर्क तथा मिताक्षर प्रसिद्ध कानून-ज्ञाता हुए हैं।

6. विधानमण्डल (Legislature) आधुनिक युग में विधानमण्डल कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन काल में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता था जिसके कारण राजा ही कानूनों का निर्माण करता था। लोकतन्त्रात्मक राज्यों में कानूनों का निर्माण विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। प्रत्येक लोकतन्त्रात्मक राज्य में विधानमण्डल होता है जिसके पास कानून–निर्माण की शक्ति होती है। विधानमण्डल के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं। विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों द्वारा ही न्यायालय न्याय करते हैं तथा वकील इन्हीं कानूनों को मान्यता देते हैं। विधानमण्डल जनता की इच्छानुसार कानून का निर्माण करता है। कई देशों में जैसे कि स्विट्ज़रलैण्ड में जनता प्रत्यक्ष रूप से कानून निर्माण में भाग लेती है। परन्तु विधानमण्डल को हम प्रजातन्त्र राज्यों में ही देख सकते हैं। तानाशाही राज्यों तथा राजतन्त्र में कानूननिर्माण की शक्ति एक ही व्यक्ति के हाथ में होती है। आधुनिक युग में न्यायाधीशों के निर्णय, रीति-रिवाज, न्यायबुद्धि तथा वैज्ञानिक टिप्पणियों की महानता कानून के स्रोत के रूप में कम हो गई है। गैटेल (Getell) के शब्दों में, “वर्तमान राज्यों में व्यवस्थापन द्वारा घोषित राज्य की इच्छा कानून का प्रमुख स्रोत है और वह अन्य स्रोतों का भी स्थान लेता जा रहा है।”

7. कार्यपालिका (Executive)—आजकल कानून निर्माण का कार्य तो आमतौर पर विधानमण्डल करती है, परन्तु कई परिस्थितियों में ऐसा कार्य कार्यपालिका को भी करना पड़ता है। यदि विधानमण्डल स्थगित या भंग हुआ है तो भारतीय संविधान के अनुसार आवश्यकतानुसार राष्ट्रपति केन्द्रीय सरकार में और राज्यपाल अपनी राज्य सरकार में अध्यादेश जारी कर सकते हैं। ये अध्यादेश स्थायी तो नहीं होते परन्तु जब लागू रहते हैं तो उन्हें पूर्ण कानून की सत्ता प्राप्त होती है।

8. जनमत (Public Opinion)-कई विचारकों का मत है कि जनमत को भी कानून का स्रोत माना जाना चाहिए। आजकल के प्रजातन्त्रात्मक युग में लोगों की राय की कानून-निर्माण में प्रेरक के तौर पर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आधुनिक युग में लोग ही राज्य की प्रभुसत्ता के स्रोत माने जाते हैं और यह तो स्वतः सिद्ध है कि जो कानून जनमत के अनुकूल होंगे उनका पालन आसानी से करवाया जा सकता है। स्विट्ज़रलैंड जैसे देश में जहां प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र किसीन-किसी रूप में काम करता है यह स्रोत और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-इस प्रकार कानून का निर्माण किसी एक स्रोत द्वारा नहीं हुआ बल्कि कानून के अनेक स्रोत हैं। प्रत्येक स्रोत का किसी-न-किसी समय पर विशेष महत्त्व रहा है। प्राचीन काल में रीति-रिवाज तथा धर्म कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे। आज कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत विधानमण्डल है। पर विधानमण्डल अधिकतर कानून रीति-रिवाजों के अनुसार ही बनाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कानून का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
कानून शब्द को अंग्रेज़ी में लॉ (Law) कहते हैं। लॉ (Law) शब्द ट्यूटानिक भाषा में शब्द लैग (Lag) से निकला है जिसका अर्थ है निश्चित। इस प्रकार कानून शब्द का अर्थ हुआ निश्चित नियम। कानून की कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :-

  • ऑस्टिन के शब्दों में, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।” फिर ऑस्टिन ने आगे लिखा है “कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है।”
  • वुडरो विल्सन के अनुसार, “कानून स्थापित विचारधारा तथा अभ्यास का वह भाग है जिन्हें सामान्य रूप के नियमों में स्वीकृति मिली होती है तथा जिन्हें सरकार की शक्ति का समर्थन प्राप्त होता है।”
  • हालैंड के शब्दों में, “कानून मनुष्य के बाहरी जीवन से सम्बन्धित नियम हैं जो राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा लागू किए जाते हैं।”

प्रश्न 2.
कानून के किन्हीं चार स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर-
कानून के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं :-

  1. रीति-रिवाज-रीति-रिवाज कानून का सबसे पुराना स्रोत हैं। प्राचीनकाल में रीति-रिवाजों द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। जब राज्य की स्थापना हुई तो रीति-रिवाजों को ही कानून का रूप दे दिया गया। राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं।
  2. धर्म-धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जिन रीति-रिवाजों को धर्म की मान्यता प्राप्त होती है उनका पालन अधिक होता है। मुस्लिम देशों के अधिकतर कानून उनकी धार्मिक पुस्तक ‘कुरान’ पर आधारित हैं।
  3. न्यायालयों के निर्णय-कई बार न्यायाधीश के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जिनके विषय में स्पष्ट कानून नहीं होते। तब न्यायाधीश कानून की व्याख्या करके निर्णय देते हैं। न्यायाधीशों के निर्णय आने वाले वैसे ही मुकद्दमों के लिए कानून का काम करते हैं।
  4. वैज्ञानिक टिप्पणियां कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 3.
कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत क्या है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में विधानमण्डल कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लोकतन्त्रात्मक राज्यों में कानून का निर्माण विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। प्रत्येक लोकतन्त्रात्मक राज्य में विधानमण्डल होता है जिसके पास कानूननिर्माण की शक्ति होती है। विधानमण्डल के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं। विधानमण्डल के बनाए कानूनों द्वारा अदालतें न्याय करती हैं तथा वकील इन्हीं कानूनों को मान्यता देते हैं। विधानमण्डल जनता की इच्छानुसार कानून का निर्माण करता है। कई देशों में जैसे कि स्विट्ज़रलैंड में जनता प्रत्यक्ष से कानून निर्माण में भाग लेती है।

प्रश्न 4.
जनमत किस तरह कानून का स्रोत है ?
उत्तर-
कई विचारकों का मत है कि जनमत को भी कानून का स्रोत माना जाना चाहिए। आजकल के प्रजातन्त्रात्मक युग में लोगों की राय की कानून-निर्माण में प्रेरक के तौर पर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आधुनिक युग में लोग ही राज्य की प्रभुसत्ता के स्रोत माने जाते हैं यह तो स्वतः सिद्ध है कि कानून जनमत के अनुकूल होंगे उनका पालन आसानी से करवाया जा सकता है। स्विट्ज़रलैंड जैसे देश में जहां प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र किसी-न-किसी रूप में काम करता है यह स्रोत और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

प्रश्न 5.
कानून के स्रोत के रूप में रीति-रिवाजों का वर्णन करें।
उत्तर-
रीति-रिवाज कानून का सबसे पुराना स्रोत है। प्राचीनकाल में रीति-रिवाजों द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। रीति-रिवाजों को ही कबीले का कानून माना जाता था। जब राज्य की स्थापना हुई तो रीतिरिवाजों को ही कानून का रूप दिया गया। यह ठीक है कि रीति-रिवाज स्वयं कानून नहीं हैं पर राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं। कोई भी राज्य नीति-रिवाजों के विरुद्ध कानून बनाता है तो जनता उन कानूनों के विरुद्ध आन्दोलन करती है। महाराजा रणजीत सिंह जो निरंकुश बादशाह था, अपने कानूनों को रीति-रिवाजों के अनुसार ही बनाता था। भारत में हिन्दू लॉ (Hindu Law) तथा मुस्लिम लॉ (Muslim Law) जनता के रीतिरिवाजों पर आधारित हैं।

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प्रश्न 6.
धर्म किस प्रकार कानून के स्रोत के रूप में कार्य करता है ?
उत्तर-
धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत में फिरोज तुग़लक ने वही टैक्स लगाए जिनकी कुरान में आज्ञा थी। औरंगज़ेब ने भी अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों के अनुसार बनाए। आज भी मुस्लिम देशों के अधिक कानून कुरान के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। हिन्दुओं के विवाह तथा उत्तराधिकार से सम्बन्धित कानून उनकी धार्मिक पुस्तक ‘मनुस्मृति’ पर आधारित हैं। इस प्रकार धर्म भी कानून का एक महान् स्रोत है और आज भी इसका प्रभाव है।

प्रश्न 7.
कानून कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
मुख्य तौर पर कानून चार प्रकार के होते हैं-

(1) अन्तर्राष्ट्रीय कानून
(2) राष्ट्रीय कानून
(3) संवैधानिक कानून
(4) व्यक्तिगत कानून।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय कानून-अन्तर्राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करते हैं और उनके झगड़ों को निपटाते हैं।
  2. राष्ट्रीय कानून-राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है।
  3. संवैधानिक कानून-संवैधानिक कानून वे कानून हैं जो सरकार की शक्तियों, कार्यों तथा संगठन को निश्चत करता है।
  4. व्यक्तिगत कानून-व्यक्तिगत कानून साधारण कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है।

प्रश्न 8.
कानून के तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. कानून समाज में रहने वाले व्यक्तियों पर पारस्परिक सम्बन्धों को निश्चित करता है।
  2. कानून व्यक्तियों के बाहरी कार्यों को नियन्त्रित करता है।
  3. कानून का निर्माण राजनीतिक प्रभुसत्ताधारी द्वारा किया जाता है और उसी द्वारा लागू किया जाता है।
  4. कानून निश्चित तथा सर्वव्यापक होता है।
  5. कानून का उल्लंघन करने वाले को दंड दिया जाता है।

प्रश्न 9.
कानून तथा स्वतन्त्रता में क्या सम्बन्ध है ?
अथवा ‘कानून स्वतन्त्रता का विरोधी नहीं है।’ व्याख्या करो।
उत्तर-
व्यक्तिवादियों के मतानुसार राज्य जितने अधिक कानून बनाता है, व्यक्ति की स्वतन्त्रता उतनी कम होती है। अतः उनका कहना है, व्यक्ति की स्वतन्त्रता तभी सुरक्षित रह सकती है जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग कमसे-कम करे।

परन्तु आधुनिक लेखकों के मतानुसार स्वतन्त्रता तथा कानून परस्पर विरोधी न होकर परस्पर सहायक तथा सहयोगी हैं। राज्य ही ऐसी संस्था है जो कानूनों द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता का आनन्द उठा सकता है। राज्य कानून बना कर एक नागरिक को दूसरे नागरिक के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोकता है। राज्य कानूनों द्वारा सभी व्यक्तियों को समान सुविधाएं प्रस्तुत करता है ताकि मनुष्य अपना विकास कर सके। स्वतन्त्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। लॉक ने ठीक ही कहा है कि “जहां कानून नहीं वहां पर स्वतन्त्रता भी नहीं।”

प्रश्न 10.
एक अच्छे कानून की चार विशेषताएं बताइए।
उत्तर-

  1. कानून की भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिए।
  2. कानून सार्वजनिक कल्याण के लिए होना चाहिए।
  3. कानून में स्थायीपन होना चाहिए।
  4. कानून देश तथा समाज की आवश्यकतानुसार होने चाहिएं।

प्रश्न 11.
कानून के प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर-
विभिन्न विद्वानों ने कानून के भिन्न-भिन्न उद्देश्य बताए हैं। ऑर० पाण्डेय ने कानून के चार मुख्य उद्देश्य बताएं हैं-

  1. राज्य में शान्ति स्थापित करना
  2. समानता स्थापित करना
  3. व्यक्तित्व की रक्षा तथा उसका विकास करना तथा
  4. मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करना।

प्रश्न 12.
कानून तथा नैतिकता में सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
कानून तथा नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। दोनों का उद्देश्य नैतिक जीवन के उच्चतम आदर्शों की स्थापना करना है। राज्य का उद्देश्य आदर्श नागरिक बनाना है और कोई भी आदर्श नागरिक बिना नैतिक आदर्शों के नहीं बन सकता। व्यक्ति यदि नैतिक है तो राज्य भी नैतिक होगा। राज्य के कानून प्रायः नैतिकता पर ही आधारित होते हैं और जो कानून नैतिकता के विरुद्ध होता है वह सफल नहीं होता और ऐसे कानून को लागू करना बड़ा कठिन होता है। राज्य के कानून नैतिकता को बढ़ावा देते हैं।

प्रश्न 13.
अध्यादेश (Ordinance) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अध्यादेश वह कानून हैं जो किसी विशेष परिस्थिति पर काबू पाने के लिए जारी किए जाते हैं। अध्यादेश कार्यपालिका द्वारा उस समय जारी किए जाते हैं जब विधानमण्डल का अधिवेशन नहीं हो रहा होता। जब विधानमण्डल का अधिवेशन होता है तब इन अध्यादेशों के लिए विधानमण्डल से स्वीकृति लेनी पड़ती है। जिन अध्यादेशों को विधानमण्डल की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है वे कानून बन जाते हैं और जिनको स्वीकृति प्राप्त नहीं होती वे रद्द हो जाते हैं। जब अध्यादेश जारी किया जाता है तब उसे साधारण कानून की तरह ही मान्यता प्राप्त होती है और जो व्यक्ति अध्यादेश का उल्लंघन करता है उसे दण्ड दिया जाता है।

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प्रश्न 14.
हम कानून का पालन क्यों करते हैं ? अपने विचार दीजिए।
उत्तर-
कानून का पालन किसी भी सभ्य समाज के लिए अत्यावश्यक है। कानून के पालन के लिए निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

  • कानून से समाज में शान्ति व सुरक्षा बनाई रखी जा सकती है–प्रायः प्रत्येक समाज में समाज विरोधी तत्त्व पाए जाते हैं। ये समाज में शान्ति व व्यवस्था को भंग करके नागरिकों की सुरक्षा के लिए ख़तरा उत्पन्न करते हैं। अतः इन समाज विरोधी तत्त्वों से निपटने तथा समाज में शान्ति व व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून का पालन करना अनिवार्य है।
  • कानून जन-कल्याण को बढ़ावा देते हैं लोगों के लिए कानून का पालन करना तब तक सम्भव नहीं होता जब तक कि उनमें कानून के प्रति सम्मान की भावना न हो और ऐसा तभी हो सकता है जब लोगों का विश्वास हो कि कानून सद्जीवन तथा जन कल्याण के विकास में सहायक होगा। लोगों में यदि यह विश्वास हो कि कानून के पालन से न केवल उनका अपना व्यक्तिगत विकास होगा सारे समाज का भी कल्याण होगा, तो वे कानून का पालन करेंगे।
  • नियमों के अनुरूप चलने की आदत-प्रायः लोगों का यह विश्वास है कि सामाजिक जीवन का समुचित ढंग से निर्वहन तभी किया जा सकता है यदि कानूनों का पालन किया जाए। इसे नियमों के अनुरूप चलने की आदत कहा जाता है। इसी कारण लोग कानूनों का पालन करते हैं।
  • कानून समाज में अनुशासन एवं संयम पैदा करते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कानून का अर्थ लिखें।
उत्तर-
कानून शब्द को अंग्रेज़ी में लॉ (Law) कहते हैं। लॉ (Law) शब्द ट्यूटानिक भाषा में शब्द लैग (Lag) से निकला है जिसका अर्थ है निश्चित। इस प्रकार कानून शब्द का अर्थ हुआ निश्चित नियम।

प्रश्न 2.
कानून को परिभाषित करें।
उत्तर-

  • ऑस्टिन के शब्दों में, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।” फिर ऑस्टिन ने आगे लिखा है, “कानून प्रभुसत्ताधारी का आदेश है।”
  • वुडरो विल्सन के अनुसार, “कानून स्थापित विचारधारा तथा अभ्यास का वह भाग है जिन्हें सामान्य रूप के नियमों में स्वीकृति मिली होती है तथा जिन्हें सरकार की शक्ति का समर्थन प्राप्त होता है।”

प्रश्न 3.
कानून के किन्हीं दो स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. रीति-रिवाज-रीति-रिवाज कानून के सबसे पुराना स्रोत हैं। प्राचीनकाल में रीति-रिवाजों द्वारा ही सामाजिक व्यवहार को नियमित किया जाता था। राज्य के अधिकतर कानून रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं।
  2. धर्म-धर्म कानून का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जिन रीति-रिवाजों को धर्म की मान्यता प्राप्त होती है उनका पालन अधिक होता है।

प्रश्न 4.
कानून के किन्हीं दो प्रकारों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय कानून- अन्तर्राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करते हैं और उनके झगड़ों को निपटाते हैं।
  2. राष्ट्रीय कानून-राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों को राज्य की मान्यता प्राप्त होती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. कानून शब्द को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ?
उत्तर-कानून शब्द को अंग्रेजी में लॉ (Law) कहते हैं।

प्रश्न 2. लॉ (Law) शब्द किस भाषा से निकला है ?
उत्तर-लॉ (Law) शब्द टयूटॉनिक भाषा के शब्द लेग (Lag) से निकला है।

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प्रश्न 3. कानून की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-ऑस्टिन के अनुसार, “कानून उच्चतर का निम्नतर को आदेश है।”

प्रश्न 4. कानून के कोई दो प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय कानून
  2. अन्तर्राष्ट्रीय कानून।

प्रश्न 5. प्रशासकीय कानून किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रशासकीय कानून सार्वजनिक कानून का वह भाग है, जो राज्य तथा सरकारी कर्मचारियों के सम्बन्ध नियमित करता है।

प्रश्न 6. अन्तर्राष्ट्रीय कानून किसे कहते हैं?
उत्तर-अन्तर्राष्ट्रीय कानून वह नियम है, जो राज्यों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है, और उनके झगड़ों को निपटाता है।

प्रश्न 7. कानून के कोई दो स्रोत लिखें।
उत्तर-

  1. रीति-रिवाज
  2. धर्म।

प्रश्न 8. राष्ट्रीय कानून किसे कहते हैं ?
उत्तर-राष्ट्रीय कानून वह नियम है जो राज्य की सीमा के अन्दर व्यक्तियों तथा समुदायों पर लागू होते हैं।

प्रश्न 9. संवैधानिक कानून किसे कहते हैं?
उत्तर-संवैधानिक कानून वह कानून है जो सरकार के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों को निश्चित करता है।

प्रश्न 10. साधारण कानून किसे कहते हैं?
उत्तर-साधारण कानून राष्ट्रीय कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को निश्चित करता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …………… अधिकारों और कर्तव्यों की व्यवस्था है, जिसे राज्य लागू करता है।
2. कानून व्यक्ति के …………… कार्यों को नियन्त्रित करता है।
3. कानून …………. तथा सर्वव्यापक होता है।
4. कानून का उल्लंघन करने वाले को ……….. दी जाती है।
5. कानून ………… द्वारा लागू किये जाते हैं।
उत्तर-

  1. कानून
  2. बाहरी
  3. निश्चित
  4. सज़ा
  5. न्यायालयों ।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. प्रो० गैटल के अनुसार कानून पांच प्रकार के होते हैं।
2. प्रो० हालैण्ड के अनुसार कानून दो प्रकार के होते हैं।
3. साधारण कानून राष्ट्रीय कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को निश्चित करता है।
4. सार्वजनिक कानून राज्य तथा व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित नहीं करता।
5. सामान्य कानून (General Law) सार्वजनिक कानून का वह भाग है, जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को नियमित करता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. सही
  4. ग़लत
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
प्रो० मैकाइवर के अनुसार कानून का एक रूप/प्रकार है-
(क) सार्वजनिक कानून
(ख) राष्ट्रीय कानून
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय कानून
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
कानून का स्रोत है-
(क) रीति-रिवाज
(ख) धर्म
(ग) विधानमण्डल
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
कौन-सा कानून लड़ाई-झगड़े, हत्या तथा डकैती इत्यादि से सम्बन्धित होता है ?
(क) दीवानी कानून
(ख) फौजदारी कानून
(ग) व्यक्तिगत कानून
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ख) फौजदारी कानून।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 कानून

प्रश्न 4.
यह कथन किसका है कि “न्याय भावना नए कानून को बनाने या पुराने कानून को बदलने का औपचारिक तरीका है, जो व्यवहार की शुद्ध निष्पक्षता या समानता पर निर्भर है।”
(क) लॉस्की
(ख) विलोबी
(ग) गिलक्राइस्ट
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ग) गिलक्राइस्ट।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिकारों के अर्थ की विवेचना कीजिए।
(Discuss the meaning of Rights.)
अथवा
अधिकारों की परिभाषा कीजिए। अधिकारों की विशेषताओं का वर्णन करो।
(Define Rights. Discuss the characteristics of Rights.)
उत्तर-
अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है। आधुनिक युग में अधिकारों का महत्त्व और अधिक हो गया है, क्योंकि आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। इसलिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को कुछ ऐसे अधिकार देता है जिनका दिया जाना उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करने के लिए आवश्यक होता है। लॉस्की (Laski) का कथन है कि “एक राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है, उन्हीं के आधार पर राज्य को अच्छा या बुरा कहा जा सकता है।”

अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Rights)—मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज से मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों, में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से होता है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और उन्हें समाज में मान्यता दी जाती है। अन्य शब्दों में, अधिकार वे सुविधाएं हैं जिनके कारण हमें किसी कार्य को करने या न करने की शक्ति मिलती है।

विभिन्न लेखकों ने अधिकार की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • वाइल्ड (Wild) के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वतन्त्रता की उचित मांग ही अधिकार है।” (“Right is a reasonable claim to freedom in the exercise of certain activities.”)
  • ग्रीन (Green) के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।” (“Rights are those powers which are necessary to the fulfilment of man’s vocation as moral being.”)
  • बोसांके (Bosanquet) के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” (“A right is a claim recognised by society enforced by the State.”)
  • हालैंड (Holland) के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति की वह शक्ति है, जिससे वह दूसरे के कार्यों पर प्रभाव डाल सकता है और जो उसकी अपनी ताकत पर नहीं बल्कि समाज की राय या शक्ति पर निर्भर है।” (“Right is one man’s capacity of influencing the acts of another by means not of his strength but of the opinion or the force of society.”)
  • लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” (“Rights are those conditions of social life without which no
    man can seek, in general, to be himself at the best.”)
  • डॉ० बेनी प्रसाद (Dr, Beni Parsad) के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक अवस्थाएं हैं जो व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। अधिकार सामाजिक जीवन का आवश्यक पक्ष हैं।” (“Rights are those social conditions of life which are essential for the development of the individual. Rights are the essential aspects of social life.”’)

अधिकारों की विशेषताएं (Characteristics of Rights)-उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिकार एक वातावरण है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के विकास के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक तथा बिना किसी बाधा के कोई कार्य कर सके। अधिकार के निम्नलिखित लक्षण हैं :-

  • अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं (Rights can be possible only in the Society)-अधिकार केवल समाज में ही मिलते हैं। समाज के बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  • अधिकार व्यक्ति का दावा है (Rights are claim of the Individual) अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने की स्वतन्त्रता का एक दावा है जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।
  • अधिकार समाज द्वारा मान्य होता है (Rights are recognised by the Society)-अधिकार व्यक्ति की मांग है जिसे समाज मान ले या स्वीकार कर ले। व्यक्ति की किसी सुविधा की मांग करने मात्र से वह मांग अधिकार नहीं बन जाती। व्यक्ति की मांग अधिकार का रूप उस समय धारण करती है जब समाज उसे मान्यता दे दे।
  • अधिकार तर्कसंगत तथा नैतिक होता है (Rights are Reasonable and Moral) समाज व्यक्ति की उसी मांग को स्वीकार करता है जो मांग तर्कसंगत, उचित तथा नैतिक हो। जो मांग अनुचित और समाज के लिए हानिकारक हो, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • अधिकार असीमित नहीं होते हैं (Rights are not Absolute)-अधिकार कभी असीमित नहीं होते बल्कि वे सीमित शक्तियां होती हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इसलिए ग्रीन ने अधिकारों की परिभाषा देते हुए इन्हें सामान्य कल्याण में योगदान देने के लिए मान्य शक्ति कहा है।
  • अधिकार लोक हित में प्रयोग किया जा सकता है (Rights can be used for Social Good)-अधिकार का प्रयोग सामाजिक हित के लिए किया जा सकता है, समाज के अहित के लिए नहीं। अधिकार समाज में ही मिलते हैं और समाज द्वारा ही दिए जाते हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इनका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए किया जाए।
  • अधिकार सर्वव्यापी होते हैं (Rights are Universal)-अधिकार समाज में सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं। अधिकार व्यक्ति का दावा है, परन्तु यह दावा किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं होता बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का होता है जिसके आधार पर वह बाकी सबके विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग करता है। इस प्रकार जो अधिकार एक व्यक्ति को प्राप्त है, वही अधिकार समाज के दूसरे सदस्यों को भी प्राप्त होता है।
  • अधिकार के साथ कर्त्तव्य होते हैं (Rights are always accompanied by Duties)-अधिकार की यह भी विशेषता है कि यह अकेला नहीं चलता। इसके साथ कर्त्तव्य भी रहते हैं। अधिकार और कर्त्तव्य हमेशा साथ-साथ चलते हैं। क्योंकि अधिकार सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं, इसलिए अधिकार की प्राप्ति के साथ व्यक्ति को यह कर्त्तव्य भी प्राप्त हो जाता है कि दूसरे के अधिकार में हस्तक्षेप न करे। कर्त्तव्य के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते।
  • अधिकार राज्य द्वारा लागू और सुरक्षित होता है (Right is enforced and protected by the State)अधिकार की यह भी एक विशेषता है कि राज्य ही अधिकार को लागू करता है और उसकी रक्षा करता है। राज्य कानून द्वारा अधिकारों को निश्चित करता है और उनके उल्लंघन के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है। यह आवश्यक नहीं कि अधिकार राज्य द्वारा बनाए भी जाएं। जिस सुविधा को समाज में आवश्यक समझा जाता है, राज्य उसको संरक्षण देकर उसको निश्चित और सुरक्षित बना देता है।
  • अधिकार स्थायी नहीं होते (Rights are not Static) अधिकार की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि अधिकार स्थायी नहीं होते बल्कि अधिकार सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 2.
आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में नागरिक को कौन-से सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार मिलते
(What civil and political rights are enjoyed by the citizen of a modern state ?)
अथवा
एक लोकतन्त्रीय राज्य के नागरिक के मुख्य अधिकारों का वर्णन कीजिए। (Briefly discuss the important rights enjoyed by a democratic state.)
उत्तर-
मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास बिना अधिकारों के नहीं कर सकता। उसे अपने नैतिक, मानसिक तथा आर्थिक विकास के लिए अधिकारों की आवश्यकता होती हैं। प्रजातन्त्रीय देशों में अधिकारों का और भी महत्त्व है। भारत, अमेरिका, जापान, रूस, चीन, आदि देशों में नागरिकों के इन अधिकारों का वर्णन संविधान में किया गया है। उल्लेखनीय है कि भारत, अमेरिका, जापान आदि प्रजातन्त्रात्मक राज्यों में राजनीतिक अधिकारों पर जोर दिया जाता है। सभ्य राज्यों में प्राय: नागरिकों को तीन प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं-

(क) नागरिक या सामाजिक अधिकार
(ख) राजनीतिक अधिकार
(ग) आर्थिक अधिकार।
नोट-इन अधिकारों की व्याख्या अगले प्रश्नों में की गई।

प्रश्न 3.
नागरिक अधिकार क्या हैं ? वर्णन कीजिए । (What are Civil Rights ? Describe)
उत्तर-
नागरिक या सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के जीवन को सभ्य बनाने के लिए आवश्यक हैं। इनके बिना मनुष्य अपने दायित्व का विकास तथा सामाजिक प्रगति नहीं कर सकता। ये अधिकार राज्य के सभी लोगों को समान रूप से प्राप्त होते हैं।
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य में नागरिकों को निम्नलिखित नागरिक अधिकार मिले होते हैं-

1. जीवन का अधिकार (Right to Life)-जीवन का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसके बिना अन्य अधिकार व्यर्थ हैं। जिस मनुष्य का जीवन सुरक्षित नहीं है, वह किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। अरस्तु ने ठीक ही कहा है कि राज्य जीवन की रक्षा के लिए बना और अच्छे जीवन के लिए चल रहा है। नागरिकों के जीवन की रक्षा करना राज्य का परम कर्तव्य है। अत: सभी राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रक्षा करने का अधिकार है।

2. शिक्षा का अधिकार (Right to Education)—शिक्षा के बिना मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। अनपढ़ व्यक्ति को गंवार तथा पशु समान माना जाता है। शिक्षा के बिना मनुष्य को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। आधुनिक राज्य व्यक्ति के इस अधिकार को मान्यता दे चुके हैं। भारत के नागरिकों को शिक्षा का अधिकार संविधान के द्वारा दिया गया है। किसी नागरिक को जाति-पाति, धर्म, सम्प्रदाय, ऊंच-नीच, रंग आदि के आधार पर स्कूल तथा कॉलेज में दाखिल होने से नहीं रोका जा सकता है। इंग्लैण्ड, सोवियत संघ, फ्रांस आदि देशों में भी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार दिया गया है।

3. सम्पत्ति का अधिकार (Right to Propeterty)—सम्पत्ति का अधिकार मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। इस अधिकार से अभिप्राय है कि मनुष्य सम्पत्ति खरीद सकता है, बेच सकता है और अपनी सम्पत्ति जिसे चाहे दे सकता है। उसे पैतृक सम्पत्ति रखने का भी अधिकार है। सम्पत्ति सभ्यता की निशानी है। सम्पत्ति का मनुष्य के जीवन से बहुत सम्बन्ध है, इसलिए आधुनिक राज्यों ने अपने नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार दे रखा है। भारत के नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार संविधान से प्राप्त था परन्तु अब यह कानूनी अधिकार है।

4. भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Speech and Expression)-मनुष्य विचारों को प्रकट करने का अधिकार रखता है। मनुष्य अपने विचारों को भाषण के द्वारा अथवा समाचार-पत्रों में लेख लिखकर प्रकट करता है। विचार व्यक्त करने का अधिकार महत्त्वपूर्ण अधिकार है। बिना अधिकार के मनुष्य अपना विकास नहीं कर पाता। जिस मनुष्य को विचार प्रकट करने का अधिकार नहीं होता है, वह सोचना बन्द कर देता है जिससे उसके मन का विकास रुक जाता है। हमें यह अधिकार संविधान से प्राप्त है।

5. शान्तिपूर्वक इकट्ठे होने तथा संस्थाएं बनाने का अधिकार (Right to Assemble Peacefully and to form Associations)-आधुनिक लोकतन्त्रीय राज्य में नागरिकों को शान्तिपूर्वक इकट्ठे होने तथा संस्थाएं बनाने का अधिकार होता है। मनुष्य भाषण देने के अधिकार का तभी प्रयोग कर सकते हैं जब उन्हें इकट्ठे होने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। परन्तु वे शान्तिपूर्वक ही इकट्ठे हो सकते हैं। हथियार लेकर इकट्ठे होने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। मनुष्य को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थाएं बनाने का भी अधिकार होता है, परन्तु चोरी तथा हत्या करने के लिए किसी संस्था का निर्माण नहीं किया जा सकता। यदि सरकार सोचे कि किसी संस्था से देश की शान्ति तथा सुरक्षा को खतरा है तो वह उस संस्था को समाप्त भी कर सकती है। भारत के नागरिकों को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

6. परिवार का अधिकार (Right to Family)-मनुष्य को परिवार बनाने का अधिकार है। मनुष्य अपनी इच्छा से शादी कर सकता है और सन्तान उत्पन्न कर सकता है। परिवार का प्रबन्ध करने में मनुष्य को पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है। राज्य परिवार से सम्बन्धित नियमों का निर्माण कर सकता है। भारत सरकार ने शादी करने की आयु निश्चित की है। कोर्ट में शादी करने के लिए पुरुष की आयु 21 वर्ष तथा स्त्री की आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। इसी तरह कानून के अन्तर्गत पुरुष को दो पत्नियां रखने का अधिकार नहीं है। संसार के प्राय: सभी राज्यों में मनुष्य को परिवार बनाने का अधिकार प्राप्त है।

7. धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion)-धर्म का जीवन पर गहरा प्रभाव होता है अत: व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। धर्म की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक जिस धर्म में चाहे विश्वास रखे, जिस देवता की चाहे पूजा करे और जिस तरह चाहे पूजा करे। सरकार को नागरिकों के धर्म में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। भारत के नागरिकों को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है। आज संसार के अधिकांश देशों में नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।

8. समानता का अधिकार (Right to Equality)—सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। धर्म, भाषा, जाति-पाति, सम्प्रदाय, रंग-भेद के आधार पर नागरिकों से मतभेद नहीं किया जाना चाहिए। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए गए हैं। कानून के सामने सब बराबर हैं। अमीर-ग़रीब, शक्तिशाली तथा कमज़ोर सब कानून के सामने बराबर हैं। किसी को विशेष अधिकार नहीं दिए गए हैं। कानून तोड़ने वाले को कानून के अनुसार सजा दी जाती है। सभी को समान अवसर देना ही समानता का दूसरा नाम है।

9. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Personal Liberty)-नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का भी अधिकार दिया जाता है जो कि बड़ा आवश्यक है। आज व्यक्ति को पशुओं की तरह बेचा और खरीदा नहीं जा सकता। इस अधिकार के बिना मनुष्य का अपना शारीरिक तथा मानसिक विकास नहीं हो सकता। उसे बिना अपराध तथा न्यायालय की आज्ञा के बिना बन्दी नहीं बनाया जा सकता और न ही किसी प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।

10. देश के अन्दर घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Movement in the Country)-नागरिकों को देश के अन्दर घूमने-फिरने का अधिकार होता है। नागरिक देश के जिस हिस्से में चाहें बस सकते हैं। वह सैर करने के लिए भी जा सकते हैं। मनुष्य को घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता देना आवश्यक है, इसके बिना मनुष्य अपने आपको कैदी महसूस करता है। भारत का संविधान नागरिकों को घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। परन्तु कोई नागरिक इस अधिकार का गलत प्रयोग करता है तो सरकार उसकी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

11. समझौते का अधिकार ( Right to Contract)—प्रत्येक नागरिक को दूसरे मनुष्यों से तथा समुदायों से समझौता करने का अधिकार होता है परन्तु नागरिक को कानून की सीमा के अन्दर रह कर ही समझौते करने की स्वतन्त्रता होती है।

12. संस्कृति की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Culture)-नागरिकों को अपनी संस्कृति में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता होती है। नागरिक अपनी भाषा तथा रीति-रिवाजों के विकास के लिए कदम उठाने की स्वतन्त्रता रखते हैं। लोकतन्त्रीय राज्यों में अल्पसंख्यकों को भी संस्कृति का विकास करने का अधिकार होता है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में संस्कृति का अधिकार दिया गया है।

13. व्यापार तथा व्यवसाय की स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Trade and Occupation)-प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा के अनुसार व्यापार तथा व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता होती है। अपनी आजीविका कमाने के लिए व्यक्ति कोई भी उचित काम कर सकता है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक अधिकार क्या हैं ? वर्णन कीजिए ।
(What are Political Rights ? Describe.)
उत्तर-
राजनीतिक अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं क्योंकि इन्हीं अधिकारों के द्वारा नागरिक शासन में भाग ले सकता है। प्रजातन्त्रीय राज्यों में नागरिकों को निम्नलिखित राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

1. मत देने का अधिकार (Right to Vote)-प्रजातन्त्र में जनता का शासन होता है, परन्तु जनता स्वयं शासन नहीं चलाती, बल्कि जनता शासन चलाने के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करती है। प्रतिनिधियों का चुनाव मतदाताओं के द्वारा किया जाता है। प्रतिनिधियों के चुनने के अधिकार को मत का अधिकार कहा जाता है। सभी नागरिकों को मत देने का अधिकार नहीं दिया जाता। मत देने के लिए नागरिकों की आयु निश्चित होती है। भारत, इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा रूस में मत देने की आयु 18 वर्ष है।

2. चुनाव लड़ने का अधिकार (Right to Contest Election)—प्रजातन्त्र में नागरिक को मत देने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता, बल्कि चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होता है। नागरिक नगरपालिका, विधानसभा, संसद् तथा दूसरी निर्वाचित संस्थाओं का चुनाव लड़ सकता है। चुनाव लड़ने के लिए आयु निश्चित होती है। भारतवर्ष में लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए 25 वर्ष तथा राज्यसभा के लिए 30 वर्ष आयु निश्चित है। एक नागरिक जिसकी आयु 25 वर्ष या अधिक है, किसी भी धर्म, जाति, वंश, लिंग से सम्बन्धित क्यों न हो लोक सभा का चुनाव लड़ सकता है। अमीर, ग़रीब, अनपढ़, पढ़े-लिखे, निर्बल तथा शक्तिशाली सभी को चुनाव लड़ने का समान अधिकार प्राप्त है।

3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार (Right to hold Public Office)-प्रजातन्त्र में नागरिकों को सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होता है। साधारणत: सरकारी नौकरी नागरिकों को ही दी जाती है, परन्तु कई बार विशेष हालत में विदेशी को भी सरकारी नौकरी दी जाती है। नियुक्ति के समय धर्म, जाति-पाति, रंग, वंश, लिंग आदि को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। नियुक्ति योग्यता के आधार पर ही की जाती है। भारतवर्ष में कोई भी नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, ऊंची से ऊंची नौकरी प्राप्त करने का अधिकार रखता है। डॉ० जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, डॉ० अबुल कलाम भारत के राष्ट्रपति रह चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश एम० हिदायतुल्लाह तथा ए० एम० अहमदी भी मुसलमान थे। परन्तु पाकिस्तान में गैर मुस्लिम प्रधान नहीं बन सकता ।

4. आवेदन-पत्र देने का अधिकार (Right to Petition)—प्रजातन्त्र में सरकार को जनता का सेवक माना जाता है। सरकार का कार्य जनता के दु:खों को दूर करना होता है। नागरिकों के अपने दुःखों को दूर करने के लिए सरकार को आवेदन-पत्र भेजने का अधिकार प्राप्त है। यदि कोई सरकारी अफसर जनता पर अत्याचार करता है तो वे मिल कर सरकार को प्रार्थना-पत्र दे सकते हैं।

5. सरकार की आलोचना करने का अधिकार (Right to Criticise Government)-प्रजातन्त्र में नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है। नागरिक सरकार की नीतियों की आलोचना कर सकता है, परन्तु आलोचना रचनात्मक होनी चाहिए। नागरिकों को चाहिए कि वे अपने सुझाव सरकार को दें जिससे जनता का भला हो।

6. राजनीतिक दल बनाने का अधिकार (Right to form Political Parties)—प्रजातन्त्र में नागरिकों को राजनीतिक दल बनाने का अधिकार प्राप्त होता है। नागरिक राजनीतिक दल बना कर ही चुनाव लड़ सकते हैं। व्यक्तिगत तौर पर चुनाव लड़ना अति कठिन होता है। आज राजनीतिक दलों का इतना महत्त्व है कि प्रजातन्त्र को राजनीतिक दलो के बिना चलाया ही नहीं जा सकता। अत: नागरिकों को राजनीतिक दल बनाने का अधिकार होता है। परन्तु कई देशों में राजनीतिक दलों पर पाबन्दियां लगाई जाती हैं। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के अतिरिक्त किसी अन्य पार्टी की स्थापना नहीं की जा सकती।

7. विदेश में सुरक्षा का अधिकार (Rights to Protection in Foreign Land)-जब कोई नागरिक विदेश जाता है तो उसकी रक्षा का दायित्व राज्य का होता है और वह संकट के समय राज्य से सुरक्षा की मांग कर सकता है। इस कार्य के लिए राज्यों के परस्पर राजदूतीय सम्बन्ध बनाए जाते हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक अधिकार क्या हैं ? वर्णन कीजिए ।
(What are Economic Rights ? Describe.)
उत्तर-
प्रजातन्त्रीय राज्यों में नागरिकों को आर्थिक विकास के लिए आर्थिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं। समाजवादी देशों में आर्थिक अधिकारों पर विशेष बल दिया जाता है। नागरिकों को प्राय: निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होते हैं-

1. काम का अधिकार (Right to Work)-कई राज्यों में नागरिकों को काम करने का अधिकार प्राप्त होता है। इस अधिकार का अर्थ है कि नागरिक काम करने की मांग कर सकते हैं। राज्य का कर्तव्य है कि वह सभी नागरिकों को काम दे ताकि नागरिक अपनी आजीविका कमा सकें। यदि राज्य नागरिकों को काम नहीं दे सकता तो उन्हें मासिक निर्वाह भत्ता देता है ताकि नागरिक भूखा न मरे। चीन में नागरिकों को काम प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। भारत के नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत सरकार नागरिकों को काम दिलवाने में सहायता करती है।

2. उचित मज़दूरी का अधिकार (Right to Adequate Wages)-किसी नागरिक को काम देना ही काफ़ी नहीं है। उसे अपने काम की उचित मज़दूरी भी मिलनी चाहिए। उचित मज़दूरी का अर्थ है कि मजदूरी उसके काम के अनुसार मिलनी चाहिए। चीन में उचित मज़दूरी का अधिकार संविधान में लिखा हुआ है। पूंजीवदी देशों में न्यूनतम वेतन कानून (Minimum Wages Act) बनाए गए हैं जिससे मजदूरों के कम-से-कम वेतन को निश्चित किया गया है। बिना मज़दूरी काम लेना कानून के विरुद्ध है।

3. अवकाश पाने का अधिकार (Right to Leisure)-मज़दूरों को काम करने के पश्चात् अवकाश भी मिलना चाहिए। अवकाश से मनुष्य को खोई हुई शक्ति वापस मिलती है। अवकाश में ही मनुष्य और समस्याओं की ओर ध्यान देता है। पर अवकाश बिना वेतन नहीं होना चाहिए। रूस में अवकाश पाने का अधिकार संविधान में लिखा गया है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

4. काम के निश्चित घण्टों का अधिकार (Right to fixed Working Hours) आधुनिक राज्यों में काम करने के घण्टे निश्चित कर दिए गए हैं ताकि मजदूरों का शोषण न किया जा सके। काम करने के घण्टे निश्चित करने से पूर्व अमीर व्यक्ति मज़दूरों से 14-14 या 16-16 घण्टे काम लिया करते थे। परन्तु अब काम करने के लिए निश्चित समय से अधिक समय काम लेने की दशा में अधिक मज़दूरी दी जाती है। प्राय: सभी देशों में 8 घण्टे प्रतिदिन काम करने का समय निश्चित है।

5. आर्थिक सुरक्षा का अधिकार (Right to Economic Security)-अनेक राज्यों में विशेषकर समाजवादी राज्यों में नागरिकों को आर्थिक सुरक्षा के अधिकार भी प्राप्त हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत यदि कोई व्यक्ति काम करते समय अंगहीन हो जाता है या किसी कारणवश काम करने के अयोग्य हो जाता है तो सरकार उसको आर्थिक सहायता देती है। पैंशन की व्यवस्था भी की जाती है। बीमारी की दशा में नि:शुल्क दवाई भी दी जाती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-हमने नागरिकों के महत्त्वपूर्ण अधिकारों का उल्लेख किया है, परन्तु ये सभी अधिकार प्रत्येक राज्य में नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं। विभिन्न राज्यों में नागरिकों को दिए गए अधिकारों की संख्या तथा प्रकृति भिन्न-भिन्न है। उदाहरणस्वरूप चीन में काम का अधिकार है और इंग्लैंड में बेकारी की दशा में निर्वाह-भत्ता मिलता है, परन्तु भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। चीन में भी मतदान का अधिकार है, परन्तु शासन की आलोचना करने या राजनीतिक दल बनाने का अधिकार नहीं है। इतना होते हुए भी यह कहना ठीक ही होगा कि भले ही सब राज्य अपनीअपनी परिस्थितियों के कारण एक समान अधिकार नहीं दे सकते फिर भी एक अच्छे कल्याणकारी राज्य की कसौटी वहां के नागरिकों को प्राप्त अधिकार ही माना जा सकता है।

प्रश्न 6.
विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों की विवेचना कीजिए।
(Discuss the type of duties.)
अथवा
कर्तव्यों से आप क्या समझते हैं ? आधुनिक राज्य में नागरिक के विभिन्न कर्तव्यों की व्याख्या करें
(What do you understand by Duties ? Describe the various duties of Citizen in a Modern State.)
उत्तर-
सामाजिक जीवन कर्त्तव्य पालन के बिना ठीक नहीं चल सकता। समाज में रहते हुए मनुष्य अपने हित के लिए बहुत से कार्य करता है, परन्तु कुछ कार्य उसे दूसरों के हितों के लिए भी करने पड़ते हैं, चाहे उन्हें करने की इच्छा हो या न हो। जो कार्य व्यक्ति को आवश्यक रूप से करने पड़ते हैं, उनको कर्त्तव्य कहा जाता है। इस प्रकार कर्तव्य व्यक्ति द्वारा अपने या दूसरों के लिए किया गया वह कार्य है जो उसे अवश्य करना पड़ता है। अधिकार और कर्तव्य का अटूट सम्बन्ध है। कर्त्तव्यों के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते और कर्तव्यों का बहुत ही महत्त्व होता है। बहुत से संविधानों में तो अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। यदि नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं है तो लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता।

कर्तव्य का अर्थ (Meaning of Duty)-कर्त्तव्य’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैट (Debt) शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा । शाब्दिक अर्थ में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले चुकाना पड़ता है। समाज व्यक्ति को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, जिस कारण व्यक्ति समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए समाज के प्रति व्यक्ति के कुछ कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्त्तव्य हैं। स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “कर्त्तव्य आज्ञा का अन्धाधुन्ध पालन नहीं है बल्कि वह अपनी बन्दिशों और उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है।” (“Duty is not dumb obedience, it is an active desire to fulfil obligations and responsibilities.”)

कर्त्तव्य दो प्रकार के होते हैं-

  1. नैतिक (Moral)
  2. कानूनी (Lagal)।

1. नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties) नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए बच्चों का नैतिक कर्त्तव्य है कि अपने माता-पिता की सेवा करें। नैतिक कर्त्तव्य का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।

2. कानूनी कर्त्तव्य (Lagal Duties)-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्त्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। उदाहरण के लिए आयकर देना कानूनी कर्त्तव्य है। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता
है।

नागरिक के कर्तव्य (Duties of a Citizen) – व्यक्ति को जीवन में बहुत-से कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक लेखक का कहना है कि सच्ची नागरिकता अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने में है। समाज में विभिन्न समुदायों तथा संस्थाओं के प्रति नागरिक के भिन्न-भिन्न कर्तव्य होते हैं। जैसे-कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति हैं, अपने पड़ोसियों के प्रति, अपने गांव या शहर के प्रति, अपने राज्य के प्रति, अपने देश के प्रति, मानव जाति के प्रति और यहां तक कि अपने प्रति भी हैं। नागरिकों के मुख्य कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

नागरिक के नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties of a Citizen) नागरिक के ऐसे अनेक कर्तव्य हैं जिनका पालन करना अथवा न करना नागरिक की इच्छा पर निर्भर करता है। इन कर्तव्यों का पालन न करने वाले को कानून दण्ड नहीं दे सकता, फिर भी इन कर्त्तव्यों का विशेष महत्त्व है। नागरिक के मुख्य नैतिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

1. नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Oneself)-नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • रोग से दूर रहना-प्रत्येक नागरिक को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पत्ति होती है।
  • शिक्षा प्राप्त करना- शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपने मन का विकास कर सकता है। अतः प्रत्येक नागरिक को दिल लगाकर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
  • परिश्रम करना-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह कड़ा परिश्रम करे ताकि देश के उत्पादन में वृद्धि हो।
  • आर्थिक विकास-नागरिक को आर्थिक विकास करना चाहिए। जो व्यक्ति अपना आर्थिक विकास नहीं करता वह अपने साथ और अपने परिवार के साथ अन्याय करता है।
  • चरित्र- नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने चरित्र को ठीक रखे। नैतिक विकास के लिए नागरिकों को सदाचारी बनना चाहिए।
  • सत्य-नागरिक को सदैव सत्य बोलना चाहिए। (vii) ईमानदारी-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपना कार्य ईमानदारी से करे।
  • प्रगतिशील विचार-नागरिक को अपने विचार विशाल, विस्तृत तथा प्रगतिशील बनाने चाहिएं। उसे समय की आवश्यकतानुसार अपने विचार बदलने चाहिएं। संकुचित विचारों वाला नागरिक समाज का कोई कल्याण नहीं कर सकता।

2. सेवा (Service)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे। दीन-दुःखियों, ग़रीबों, असहायों तथा अनाथों की सहायता तथा सेवा करना उसका कर्त्तव्य है।

3. दया-भाव (Kindness)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति दया की भावना रखे। दूसरों के दुःखों को देखकर व्यक्ति के दिल में दया उत्पन्न होनी चाहिए तथा उनकी सहायता करनी चाहिए।

4. अहिंसा (Non-Violence) नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति अहिंसा की भावना रखे। किसी की हत्या करना या मारना नैतिकता के विरुद्ध है।

5. आत्म-संयम (Self-Control)–नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह संयम से रहे। उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। गुरु गोबिन्द सिंह जी का आदेश उल्लेखनीय है कि ‘मन जीते जग जीत’।

6. प्रेम और सहानुभूति (Love and Sympathy)-दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति की भावना रखना नागरिक का कर्तव्य है। दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए, मीठी बोली बोलना चाहिए तथा दूसरों के संकट में काम आना चाहिए।

7. आज्ञा पालन तथा अनुशासन (Obedience and Discipline)-राज्य के प्रति तो अपने कर्त्तव्यों का पालन प्रत्येक नागरिक को करना ही पड़ता है, परन्तु परिवार के बड़े सदस्यों और रिश्तेदारों, अध्यापकों तथा उच्च अधिकारियों की आज्ञाओं का पालन करना भी नागरिकों का कर्तव्य है। नागरिक जहां भी जाए उसे स्थान या संस्था में सम्बन्धित नियमों का पालन ईमानदारी से करना चाहिए।

8. निःस्वार्थ भावना (Selfless Spirit)-नागरिक को नि:स्वार्थ होना चाहिए। उसे प्रत्येक कार्य अपने लाभ के लिए ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसे दूसरों की भलाई के लिए भी काय करने चाहिएं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

9. धर्मानुसार आचरण (Religious Performance)-नागरिक का कर्तव्य है कि वह धर्मानुसार चले और कोई ऐसा काम न करे जो उसके धर्म के विरुद्ध हो। धर्म में अन्ध-विश्वास नहीं होना चाहिए।

10. परिवार के प्रति कर्त्तव्य (Duties Hards Family)-नागरिक के परिवार के प्रति निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं

  • आज्ञा पालन करना- प्रत्येक नागरिक को अपने माता-पिता तथा वटी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। अन्य सदस्यों से भी आदरपूर्वक व्यवहार करना चाहिए तथा अनुशासन में रहना प्रत्येक नागरिक के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • आवश्यकताओं की पूर्ति करना-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने परिवार के लिए अच्छे तथा साफ़सुथरे घर का निर्माण करे और परिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करने के लिए धन कमाए।
  • परिवार के नाम को रोशन करना-प्रत्येक नागरिक को ऐसा काम करना चाहिए जिससे परिवार का नाम रोशन हो और कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे परिवार की बदनामी हो।

11. नागरिक के पड़ोसियों के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards one’s neighbours)-पड़ोसी ही व्यक्ति का सामाजिक समाज होता है। इसलिए नागरिक के अपने पड़ोपियों के प्रति निम्नलिखित कर्तव्य हैं

  • प्रेम तथा सहयोग की भावना-प्रत्येक नागरिक में अपने पड़ोसियों के प्रति प्रेम, सहयोग, सहानुभूति तथा मित्रता की भावना होनी चाहिए। किसी ने ठीक कहा है कि, “हम साया मां-बाप जाया!”
  • दुःख-सुख में शामिल होना-प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने पड़ोसियों के दुःख-सुख का साथी बने। अपने सुख की परवाह किए बिना अपने पड़ोसी की दुःख में सहायता करनी चाहिए।
  • झगड़ा न करना-यदि पड़ोसी अच्छा न हो तो भी उससे लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए। बच्चों की लड़ाई में बड़ों को सम्मिलित नहीं हो जाना चाहिए।
  • पड़ोस के वातावरण को साफ़ रखना-पड़ोस अथवा अपने आस-पास सफ़ाई रखना नागरिक का कर्तव्य

12. गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Village, City and Province) नागरिक के गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • साफ़-सुथरा और सुन्दर बनाना-प्रत्येक नागरिक को गांव अथवा शहर को साफ़-सुथरा रखने के लिए तथा सुन्दर बनाने के लिए सहयोग देना चाहिए।
  • सामाजिक बुराइयों को दूर करना-प्रत्येक नागरिक को सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और स्वयं भी इनका पालन करना चाहिए।
  • उन्नति करना-प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त की उन्नति के लिए कार्य करे।
  • सहयोग देना–प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त में शान्ति बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करे, सरकारी कर्मचारियों की सहायता करे तथा गांव, नगर और प्रान्त के नियमों का पालन करे।

13. राज्य के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards State)-नागरिक के राज्य के प्रति कुछ नैतिक कर्त्तव्य हैं। राज्य के अन्दर रह कर ही मनुष्य अपना विकास कर सकता है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह राज्य की उन्नति के लिए कार्य करे। नागरिक को अपने हित को राज्य के हित के सामने कोई महत्त्व नहीं देना चाहिए।

14. विश्व के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards World)-नागरिक का विश्व के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समस्त मानव की भलाई तथा उन्नति के लिए कार्य करे। विश्व में शान्ति की स्थापना की बहुत आवश्यकता है। मनुष्य को विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए प्रयत्न करने चाहिएं।

कानूनी कर्तव्य (Legal Duties) –
नागरिक के नैतिक कर्तव्यों के अतिरिक्त कानूनी कर्त्तव्य भी हैं। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर दण्ड मिलता है। आधुनिक नागरिक के कानूनी कर्त्तव्य मुख्यतः निम्नलिखित हैं-

1. देशभक्ति (Patriotism)–नागरिक का प्रथम कानूनी कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी का है। जो नागरिक अपने देश से गद्दारी करते हैं उन्हें देश-द्रोही कहा जाता है और राज्य ऐसे नागरिकों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा देता है। चीन आदि साम्यवादी देशों में नागरिकों के इन कर्त्तव्यों को संविधान में लिखा गया है। नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह देश की सुरक्षा के लिए अपना बलिदान करे।

2. कानूनों का पालन (Obedience to Laws)-नागरिकों का कानूनी कर्त्तव्य है कि वे कानूनों का पालन करें। जो नागरिक कानूनों का पालन नहीं करता उसे दण्ड दिया जाता है। राज्य में शान्ति की स्थापना के लिए सरकार कई प्रकार के कानूनों का निर्माण करती है। यदि नागरिक इन कानूनों का पालन नहीं करते तो समाज में शान्ति की व्यवस्था बनी नहीं रहती। जिन देशों के संविधान लिखित हैं वहां पर संविधान को सर्वोच्च कानून माना जाता है और नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे संविधान के अनुसार कार्य करें।

3. करों को ईमानदारी से चुकाना (Payment of Taxes Honestly)-नागरिक का कर्तव्य है कि ईमानदारी से करों का भुगतान करे। यदि नागरिक करों को धोखे से बचा लेता है तो इससे सरकार के समक्ष अधिक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं जिससे सरकार जनता की भलाई के लिए आवश्यक कार्य नहीं कर पाती। भारत के नागरिक कर ईमानदारी से नहीं देते।

4. सरकार के साथ सहयोग (Co-operative with the Government)-नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार को शान्ति की स्थापना बनाए रखने के लिए सहयोग दें। सरकार चोरों तथा डाकुओं को पकड़ कर सज़ा देती है। पर नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे अपराधियों को कानून के हवाले करें। जो नागरिक अपराधियों को सहारा देता है, कानून की नज़र में वह भी अपराधी है और उसे भी दण्ड दिया जाता है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार से उन कर्मचारियों की शिकायत करें जो रिश्वत लेते हैं और अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं करते। जब बीमारी फैल जाए अथवा अकाल पड़ जाए तब नागरिकों को सरकार की सहायता करनी चाहिए।

5. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा (Protection of Public Property)-नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वे सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें। जो नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करता है उसे कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती है। भारत के नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति की ठीक तरह से रक्षा नहीं करते।

6. मताधिकार का उचित प्रयोग (Right use of Vote)-प्रजातन्त्र में प्रत्येक नागरिक को मत देने का अधिकार होता है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने मत देने के अधिकार का उचित प्रयोग करे। उन्हें अपने वोट को बेचने का अधिकार नहीं है। यदि कोई नागरिक पैसे लेकर वोट का प्रयोग करता है और वह पकड़ा जाता है तो कानून उसे सज़ा देता है। नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपना वोट उसी उम्मीदवार को दे जो बहुत समझदार, निःस्वार्थ, ईमानदार तथा शासन चलाने के लिए कुशल हो।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 7.
अधिकार और कर्तव्य किस प्रकार सम्बन्धित हैं ? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
(How rights and duties are inter-related ? Explain fully.)
अथवा
अधिकारों और कर्तव्यों की परिभाषा दें। उनके परस्पर सम्बन्धों की व्याख्या करो।
(Define Rights and Duties. Discuss the relations between them.)
उत्तर-

अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है। आधुनिक युग में अधिकारों का महत्त्व और अधिक हो गया है, क्योंकि आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। इसलिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को कुछ ऐसे अधिकार देता है जिनका दिया जाना उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करने के लिए आवश्यक होता है। लॉस्की (Laski) का कथन है कि “एक राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है, उन्हीं के आधार पर राज्य को अच्छा या बुरा कहा जा सकता है।”

अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Rights)—मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज से मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों, में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से होता है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और उन्हें समाज में मान्यता दी जाती है। अन्य शब्दों में, अधिकार वे सुविधाएं हैं जिनके कारण हमें किसी कार्य को करने या न करने की शक्ति मिलती है।

विभिन्न लेखकों ने अधिकार की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • वाइल्ड (Wild) के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वतन्त्रता की उचित मांग ही अधिकार है।” (“Right is a reasonable claim to freedom in the exercise of certain activities.”)
  • ग्रीन (Green) के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।” (“Rights are those powers which are necessary to the fulfilment of man’s vocation as moral being.”)
  • बोसांके (Bosanquet) के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” (“A right is a claim recognised by society enforced by the State.”)
  • हालैंड (Holland) के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति की वह शक्ति है, जिससे वह दूसरे के कार्यों पर प्रभाव डाल सकता है और जो उसकी अपनी ताकत पर नहीं बल्कि समाज की राय या शक्ति पर निर्भर है।” (“Right is one man’s capacity of influencing the acts of another by means not of his strength but of the opinion or the force of society.”)
  • लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” (“Rights are those conditions of social life without which no
    man can seek, in general, to be himself at the best.”)
  • डॉ० बेनी प्रसाद (Dr, Beni Parsad) के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक अवस्थाएं हैं जो व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। अधिकार सामाजिक जीवन का आवश्यक पक्ष हैं।” (“Rights are those social conditions of life which are essential for the development of the individual. Rights are the essential aspects of social life.”’)

अधिकारों की विशेषताएं (Characteristics of Rights)-उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिकार एक वातावरण है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के विकास के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक तथा बिना किसी बाधा के कोई कार्य कर सके। अधिकार के निम्नलिखित लक्षण हैं :-

  • अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं (Rights can be possible only in the Society)-अधिकार केवल समाज में ही मिलते हैं। समाज के बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  • अधिकार व्यक्ति का दावा है (Rights are claim of the Individual) अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने की स्वतन्त्रता का एक दावा है जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।
  • अधिकार समाज द्वारा मान्य होता है (Rights are recognised by the Society)-अधिकार व्यक्ति की मांग है जिसे समाज मान ले या स्वीकार कर ले। व्यक्ति की किसी सुविधा की मांग करने मात्र से वह मांग अधिकार नहीं बन जाती। व्यक्ति की मांग अधिकार का रूप उस समय धारण करती है जब समाज उसे मान्यता दे दे।
  • अधिकार तर्कसंगत तथा नैतिक होता है (Rights are Reasonable and Moral) समाज व्यक्ति की उसी मांग को स्वीकार करता है जो मांग तर्कसंगत, उचित तथा नैतिक हो। जो मांग अनुचित और समाज के लिए हानिकारक हो, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • अधिकार असीमित नहीं होते हैं (Rights are not Absolute)-अधिकार कभी असीमित नहीं होते बल्कि वे सीमित शक्तियां होती हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इसलिए ग्रीन ने अधिकारों की परिभाषा देते हुए इन्हें सामान्य कल्याण में योगदान देने के लिए मान्य शक्ति कहा है।
  • अधिकार लोक हित में प्रयोग किया जा सकता है (Rights can be used for Social Good)-अधिकार का प्रयोग सामाजिक हित के लिए किया जा सकता है, समाज के अहित के लिए नहीं। अधिकार समाज में ही मिलते हैं और समाज द्वारा ही दिए जाते हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इनका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए किया जाए।
  • अधिकार सर्वव्यापी होते हैं (Rights are Universal)-अधिकार समाज में सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं। अधिकार व्यक्ति का दावा है, परन्तु यह दावा किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं होता बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का होता है जिसके आधार पर वह बाकी सबके विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग करता है। इस प्रकार जो अधिकार एक व्यक्ति को प्राप्त है, वही अधिकार समाज के दूसरे सदस्यों को भी प्राप्त होता है।
  • अधिकार के साथ कर्त्तव्य होते हैं (Rights are always accompanied by Duties)-अधिकार की यह भी विशेषता है कि यह अकेला नहीं चलता। इसके साथ कर्त्तव्य भी रहते हैं। अधिकार और कर्त्तव्य हमेशा साथ-साथ चलते हैं। क्योंकि अधिकार सब व्यक्तियों को समान रूप से मिलते हैं, इसलिए अधिकार की प्राप्ति के साथ व्यक्ति को यह कर्त्तव्य भी प्राप्त हो जाता है कि दूसरे के अधिकार में हस्तक्षेप न करे। कर्त्तव्य के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते।
  • अधिकार राज्य द्वारा लागू और सुरक्षित होता है (Right is enforced and protected by the State)अधिकार की यह भी एक विशेषता है कि राज्य ही अधिकार को लागू करता है और उसकी रक्षा करता है। राज्य कानून द्वारा अधिकारों को निश्चित करता है और उनके उल्लंघन के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है। यह आवश्यक नहीं कि अधिकार राज्य द्वारा बनाए भी जाएं। जिस सुविधा को समाज में आवश्यक समझा जाता है, राज्य उसको संरक्षण देकर उसको निश्चित और सुरक्षित बना देता है।
  • अधिकार स्थायी नहीं होते (Rights are not Static) अधिकार की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि अधिकार स्थायी नहीं होते बल्कि अधिकार सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं।

 

सामाजिक जीवन कर्त्तव्य पालन के बिना ठीक नहीं चल सकता। समाज में रहते हुए मनुष्य अपने हित के लिए बहुत से कार्य करता है, परन्तु कुछ कार्य उसे दूसरों के हितों के लिए भी करने पड़ते हैं, चाहे उन्हें करने की इच्छा हो या न हो। जो कार्य व्यक्ति को आवश्यक रूप से करने पड़ते हैं, उनको कर्त्तव्य कहा जाता है। इस प्रकार कर्तव्य व्यक्ति द्वारा अपने या दूसरों के लिए किया गया वह कार्य है जो उसे अवश्य करना पड़ता है। अधिकार और कर्तव्य का अटूट सम्बन्ध है। कर्त्तव्यों के बिना अधिकार नहीं दिए जा सकते और कर्तव्यों का बहुत ही महत्त्व होता है। बहुत से संविधानों में तो अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है। यदि नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं है तो लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता।

कर्तव्य का अर्थ (Meaning of Duty)-कर्त्तव्य’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैट (Debt) शब्द से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा । शाब्दिक अर्थ में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले चुकाना पड़ता है। समाज व्यक्ति को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, जिस कारण व्यक्ति समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए समाज के प्रति व्यक्ति के कुछ कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्त्तव्य हैं। स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “कर्त्तव्य आज्ञा का अन्धाधुन्ध पालन नहीं है बल्कि वह अपनी बन्दिशों और उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है।” (“Duty is not dumb obedience, it is an active desire to fulfil obligations and responsibilities.”)

कर्त्तव्य दो प्रकार के होते हैं-

  1. नैतिक (Moral)
  2. कानूनी (Lagal)।

1. नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties) नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए बच्चों का नैतिक कर्त्तव्य है कि अपने माता-पिता की सेवा करें। नैतिक कर्त्तव्य का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।

2. कानूनी कर्त्तव्य (Lagal Duties)-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्त्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। उदाहरण के लिए आयकर देना कानूनी कर्त्तव्य है। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता
है।

नागरिक के कर्तव्य (Duties of a Citizen) – व्यक्ति को जीवन में बहुत-से कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक लेखक का कहना है कि सच्ची नागरिकता अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने में है। समाज में विभिन्न समुदायों तथा संस्थाओं के प्रति नागरिक के भिन्न-भिन्न कर्तव्य होते हैं। जैसे-कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति हैं, अपने पड़ोसियों के प्रति, अपने गांव या शहर के प्रति, अपने राज्य के प्रति, अपने देश के प्रति, मानव जाति के प्रति और यहां तक कि अपने प्रति भी हैं। नागरिकों के मुख्य कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

नागरिक के नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties of a Citizen) नागरिक के ऐसे अनेक कर्तव्य हैं जिनका पालन करना अथवा न करना नागरिक की इच्छा पर निर्भर करता है। इन कर्तव्यों का पालन न करने वाले को कानून दण्ड नहीं दे सकता, फिर भी इन कर्त्तव्यों का विशेष महत्त्व है। नागरिक के मुख्य नैतिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं-

1. नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Oneself)-नागरिक के अपने प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • रोग से दूर रहना-प्रत्येक नागरिक को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना चाहिए। अच्छा स्वास्थ्य व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पत्ति होती है।
  • शिक्षा प्राप्त करना- शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपने मन का विकास कर सकता है। अतः प्रत्येक नागरिक को दिल लगाकर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
  • परिश्रम करना-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह कड़ा परिश्रम करे ताकि देश के उत्पादन में वृद्धि हो।
  • आर्थिक विकास-नागरिक को आर्थिक विकास करना चाहिए। जो व्यक्ति अपना आर्थिक विकास नहीं करता वह अपने साथ और अपने परिवार के साथ अन्याय करता है।
  • चरित्र- नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने चरित्र को ठीक रखे। नैतिक विकास के लिए नागरिकों को सदाचारी बनना चाहिए।
  • सत्य-नागरिक को सदैव सत्य बोलना चाहिए। (vii) ईमानदारी-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपना कार्य ईमानदारी से करे।
  • प्रगतिशील विचार-नागरिक को अपने विचार विशाल, विस्तृत तथा प्रगतिशील बनाने चाहिएं। उसे समय की आवश्यकतानुसार अपने विचार बदलने चाहिएं। संकुचित विचारों वाला नागरिक समाज का कोई कल्याण नहीं कर सकता।

2. सेवा (Service)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे। दीन-दुःखियों, ग़रीबों, असहायों तथा अनाथों की सहायता तथा सेवा करना उसका कर्त्तव्य है।

3. दया-भाव (Kindness)-नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति दया की भावना रखे। दूसरों के दुःखों को देखकर व्यक्ति के दिल में दया उत्पन्न होनी चाहिए तथा उनकी सहायता करनी चाहिए।

4. अहिंसा (Non-Violence) नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति अहिंसा की भावना रखे। किसी की हत्या करना या मारना नैतिकता के विरुद्ध है।

5. आत्म-संयम (Self-Control)–नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह संयम से रहे। उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए। गुरु गोबिन्द सिंह जी का आदेश उल्लेखनीय है कि ‘मन जीते जग जीत’।

6. प्रेम और सहानुभूति (Love and Sympathy)-दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति की भावना रखना नागरिक का कर्तव्य है। दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए, मीठी बोली बोलना चाहिए तथा दूसरों के संकट में काम आना चाहिए।

7. आज्ञा पालन तथा अनुशासन (Obedience and Discipline)-राज्य के प्रति तो अपने कर्त्तव्यों का पालन प्रत्येक नागरिक को करना ही पड़ता है, परन्तु परिवार के बड़े सदस्यों और रिश्तेदारों, अध्यापकों तथा उच्च अधिकारियों की आज्ञाओं का पालन करना भी नागरिकों का कर्तव्य है। नागरिक जहां भी जाए उसे स्थान या संस्था में सम्बन्धित नियमों का पालन ईमानदारी से करना चाहिए।

8. निःस्वार्थ भावना (Selfless Spirit)-नागरिक को नि:स्वार्थ होना चाहिए। उसे प्रत्येक कार्य अपने लाभ के लिए ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसे दूसरों की भलाई के लिए भी काय करने चाहिएं।

9. धर्मानुसार आचरण (Religious Performance)-नागरिक का कर्तव्य है कि वह धर्मानुसार चले और कोई ऐसा काम न करे जो उसके धर्म के विरुद्ध हो। धर्म में अन्ध-विश्वास नहीं होना चाहिए।

10. परिवार के प्रति कर्त्तव्य (Duties Hards Family)-नागरिक के परिवार के प्रति निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं

  • आज्ञा पालन करना- प्रत्येक नागरिक को अपने माता-पिता तथा वटी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। अन्य सदस्यों से भी आदरपूर्वक व्यवहार करना चाहिए तथा अनुशासन में रहना प्रत्येक नागरिक के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • आवश्यकताओं की पूर्ति करना-नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने परिवार के लिए अच्छे तथा साफ़सुथरे घर का निर्माण करे और परिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करने के लिए धन कमाए।
  • परिवार के नाम को रोशन करना-प्रत्येक नागरिक को ऐसा काम करना चाहिए जिससे परिवार का नाम रोशन हो और कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे परिवार की बदनामी हो।

11. नागरिक के पड़ोसियों के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards one’s neighbours)-पड़ोसी ही व्यक्ति का सामाजिक समाज होता है। इसलिए नागरिक के अपने पड़ोपियों के प्रति निम्नलिखित कर्तव्य हैं

  • प्रेम तथा सहयोग की भावना-प्रत्येक नागरिक में अपने पड़ोसियों के प्रति प्रेम, सहयोग, सहानुभूति तथा मित्रता की भावना होनी चाहिए। किसी ने ठीक कहा है कि, “हम साया मां-बाप जाया!”
  • दुःख-सुख में शामिल होना-प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने पड़ोसियों के दुःख-सुख का साथी बने। अपने सुख की परवाह किए बिना अपने पड़ोसी की दुःख में सहायता करनी चाहिए।
  • झगड़ा न करना-यदि पड़ोसी अच्छा न हो तो भी उससे लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए। बच्चों की लड़ाई में बड़ों को सम्मिलित नहीं हो जाना चाहिए।
  • पड़ोस के वातावरण को साफ़ रखना-पड़ोस अथवा अपने आस-पास सफ़ाई रखना नागरिक का कर्तव्य

12. गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards Village, City and Province) नागरिक के गांव, नगर तथा प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • साफ़-सुथरा और सुन्दर बनाना-प्रत्येक नागरिक को गांव अथवा शहर को साफ़-सुथरा रखने के लिए तथा सुन्दर बनाने के लिए सहयोग देना चाहिए।
  • सामाजिक बुराइयों को दूर करना-प्रत्येक नागरिक को सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और स्वयं भी इनका पालन करना चाहिए।
  • उन्नति करना-प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त की उन्नति के लिए कार्य करे।
  • सहयोग देना–प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह गांव, नगर तथा प्रान्त में शान्ति बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करे, सरकारी कर्मचारियों की सहायता करे तथा गांव, नगर और प्रान्त के नियमों का पालन करे।

13. राज्य के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards State)-नागरिक के राज्य के प्रति कुछ नैतिक कर्त्तव्य हैं। राज्य के अन्दर रह कर ही मनुष्य अपना विकास कर सकता है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह राज्य की उन्नति के लिए कार्य करे। नागरिक को अपने हित को राज्य के हित के सामने कोई महत्त्व नहीं देना चाहिए।

14. विश्व के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards World)-नागरिक का विश्व के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समस्त मानव की भलाई तथा उन्नति के लिए कार्य करे। विश्व में शान्ति की स्थापना की बहुत आवश्यकता है। मनुष्य को विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए प्रयत्न करने चाहिएं।

कानूनी कर्तव्य (Legal Duties) –
नागरिक के नैतिक कर्तव्यों के अतिरिक्त कानूनी कर्त्तव्य भी हैं। कानूनी कर्तव्य का पालन न करने पर दण्ड मिलता है। आधुनिक नागरिक के कानूनी कर्त्तव्य मुख्यतः निम्नलिखित हैं-

1. देशभक्ति (Patriotism)–नागरिक का प्रथम कानूनी कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी का है। जो नागरिक अपने देश से गद्दारी करते हैं उन्हें देश-द्रोही कहा जाता है और राज्य ऐसे नागरिकों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा देता है। चीन आदि साम्यवादी देशों में नागरिकों के इन कर्त्तव्यों को संविधान में लिखा गया है। नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह देश की सुरक्षा के लिए अपना बलिदान करे।

2. कानूनों का पालन (Obedience to Laws)-नागरिकों का कानूनी कर्त्तव्य है कि वे कानूनों का पालन करें। जो नागरिक कानूनों का पालन नहीं करता उसे दण्ड दिया जाता है। राज्य में शान्ति की स्थापना के लिए सरकार कई प्रकार के कानूनों का निर्माण करती है। यदि नागरिक इन कानूनों का पालन नहीं करते तो समाज में शान्ति की व्यवस्था बनी नहीं रहती। जिन देशों के संविधान लिखित हैं वहां पर संविधान को सर्वोच्च कानून माना जाता है और नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे संविधान के अनुसार कार्य करें।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

3. करों को ईमानदारी से चुकाना (Payment of Taxes Honestly)-नागरिक का कर्तव्य है कि ईमानदारी से करों का भुगतान करे। यदि नागरिक करों को धोखे से बचा लेता है तो इससे सरकार के समक्ष अधिक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं जिससे सरकार जनता की भलाई के लिए आवश्यक कार्य नहीं कर पाती। भारत के नागरिक कर ईमानदारी से नहीं देते।

4. सरकार के साथ सहयोग (Co-operative with the Government)-नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार को शान्ति की स्थापना बनाए रखने के लिए सहयोग दें। सरकार चोरों तथा डाकुओं को पकड़ कर सज़ा देती है। पर नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे अपराधियों को कानून के हवाले करें। जो नागरिक अपराधियों को सहारा देता है, कानून की नज़र में वह भी अपराधी है और उसे भी दण्ड दिया जाता है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सरकार से उन कर्मचारियों की शिकायत करें जो रिश्वत लेते हैं और अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं करते। जब बीमारी फैल जाए अथवा अकाल पड़ जाए तब नागरिकों को सरकार की सहायता करनी चाहिए।

5. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा (Protection of Public Property)-नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वे सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें। जो नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करता है उसे कड़ी-से-कड़ी सज़ा दी जाती है। भारत के नागरिक सार्वजनिक सम्पत्ति की ठीक तरह से रक्षा नहीं करते।

6. मताधिकार का उचित प्रयोग (Right use of Vote)-प्रजातन्त्र में प्रत्येक नागरिक को मत देने का अधिकार होता है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने मत देने के अधिकार का उचित प्रयोग करे। उन्हें अपने वोट को बेचने का अधिकार नहीं है। यदि कोई नागरिक पैसे लेकर वोट का प्रयोग करता है और वह पकड़ा जाता है तो कानून उसे सज़ा देता है। नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपना वोट उसी उम्मीदवार को दे जो बहुत समझदार, निःस्वार्थ, ईमानदार तथा शासन चलाने के लिए कुशल हो।

अधिकारों और कर्तव्यों में सम्बन्ध-
अधिकार और कर्तव्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह कहा जाता है कि अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो पहल हैं और इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अधिकार में कर्त्तव्य निहित है अर्थात् अधिकार के साथ कर्त्तव्य स्वयंमेव मिल जाते हैं और इसीलिए कहा जाता है कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं। अधिकार अन्त में कर्तव्य बन जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अधिकार पाने वाले को यह नहीं समझना चाहिए कि उसे केवल अधिकार ही मिला है। अन्त में उसे पता चलता है कि अधिकार का प्रयोग करने में भी कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। इन सभी कथनों से सिद्ध होता है कि दोनों का एक-दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता। कर्त्तव्य के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्त्तव्य पालन से ही व्यक्ति अधिकारों का अधिकारी बनता है। वाइल्ड (Wilde) के शब्दों में, “केवल कर्त्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व होता है।” (“It is only in a world of duties that rights have significance.”) जिस प्रकार बीज डालने, पानी देने और देखभाल करने के पश्चात् ही फल की प्राप्ति होती है उसी प्रकार अधिकार फल के समान हैं और उनकी प्राप्ति कर्त्तव्य रूपी परिश्रम के पश्चात् ही हो सकती है। ___ अधिकारों और कर्तव्यों में निम्नलिखित सम्बन्ध पाए जाते हैं-

1. एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है (One’s right implies other’s duty) एक व्यक्ति का जो अधिकार है वही दूसरों का कर्तव्य बन जाता है कि वे उनके अधिकार को मानें तथा उसमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करें। इस प्रकार एक के अधिकार से दूसरों का कर्त्तव्य बंधा हुआ है। लॉस्की (Laski) के शब्दों में, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्तव्य” (“My right implies your duty.”) उदाहरण के लिए एक व्यक्ति को घूमने-फिरने का अधिकार मिला हुआ है तो दूसरों का यह कर्त्तव्य है कि वे उसके घूमने-फिरने में बाधा उत्पन्न न करें। यदि दूसरे उनमें बाधा डालते हैं तो वह व्यक्ति अपने घूमने-फिरने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। एक व्यक्ति का जीवन और सम्पत्ति का अधिकार उसी समय तक चल सकता है जब तक कि दूसरे व्यक्ति उसके जीवन और सम्पत्ति में हस्तक्षेप न करें। जब एक व्यक्ति दूसरे को अधिकार प्रयोग करने नहीं देता तो दूसरा व्यक्ति भी उसको कोई अधिकार प्रयोग नहीं करने देगा। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के अधिकार में हस्तक्षेप करने लगेगा और समाज में एक प्रकार की अराजकता फैल जाएगी। बैनिटो जॉरेज़ (Banito Jaurez) का कहना है, कि “दूसरों के अधिकारों का आदर करने का ही नाम शान्ति है।”

2. एक का अधिकार उसका कर्त्तव्य भी है (One’s right implies one’s duty also)—एक व्यक्ति के अधिकार में उसका यह कर्त्तव्य निहित है कि वह दूसरों के उसी प्रकार के अधिकारों को मानते हुए उनमें बाधा न डाले। लॉस्की (Laski) के शब्दानुसार, “मेरे अधिकार में यह निहित है कि मैं तुम्हारे समान अधिकार को स्वीकार करूं।” (“My right implies my duty to admit a smiliar right of yours.”) समाज में सभी व्यक्ति समान होते हैं तथा सबको समान अधिकार मिलते हैं। अधिकार कुछ व्यक्तियों की सम्पत्ति नहीं होते। जो अधिकार मेरे पास हैं, वही अधिकार दूसरे के पास भी हैं। घूमने-फिरने का अधिकार मुझे मिला हुआ है, परन्तु यह अधिकार दूसरे सभी नागरिकों के पास भी है। मेरा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि मैं दूसरों का अपने अधिकारों का प्रयोग करने में पूरा सहयोग दूं। ऐसा करने से ही मैं अपने अधिकार का पूरा प्रयोग कर सकता हूं। एक व्यक्ति को यदि भाषण की स्वतन्त्रता का अधिकार है तो उसे दूसरों के भाषण में रुकावट डालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। यदि वह दूसरों के भाषण में बाधा डालेगा तो दूसरे व्यक्ति भी उसके भाषण में बाधा डालेंगे। दूसरे के कर्त्तव्य से व्यक्ति को अधिकार मिलते हैं और दूसरों के अधिकार व्यक्ति के कर्त्तव्य के समान हैं। इस प्रकार के अधिकार में उसका अपना कर्त्तव्य छिपा है।

3. अधिकारों का उचित प्रयोग (Proper use of Rights)-अधिकार का सदुपयोग करना भी व्यक्ति का कर्तव्य है। अधिकार के दुरुपयोग से दूसरों को हानि पहुंचती है और ऐसा करने की स्वीकृति समाज द्वारा नहीं दी जा सकती। एक व्यक्ति को यदि बोलने और भाषण देने की स्वतन्त्रता दी गई है तो वह इस अधिकार के द्वारा दूसरों का अपमान करने, दूसरों को गाली निकालने, अफवाह फैलाने तथा लोगों को भड़काने आदि में प्रयोग नहीं कर सकता। ऐसा करने पर उसका अधिकार छीन लिया जाएगा। उसका कर्त्तव्य है कि वह अधिकार का प्रयोग ठीक तरह से और अच्छे कार्यों में करे। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अधिकार का प्रयोग रचनात्मक ढंग से करे, नष्ट-भ्रष्ट करने के ढंग से नहीं।

4. प्रत्येक अधिकार से उसी प्रकार का कर्तव्य जुड़ा होता है (Every right is connected with a similar type of Duty)-प्रायः सभी अधिकारों के साथ उसी प्रकार के कर्त्तव्य जुड़े होते हैं। मुझे शादी करने का अधिकार है पर इसके साथ ही मेरा कर्त्तव्य जुड़ा है। मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने बच्चों तथा पत्नी का पालन-पोषण करूं। मुझे संघ बनाने का अधिकार है, पर मेरा कर्त्तव्य है कि संघ का उद्देश्य देश के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। मुझे भाषण का अधिकार है पर मेरा कर्त्तव्य है कि मैं न्यायालय का अपमान न करूं। अतः प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा हुआ होता है।

5. सामाजिक कल्याण (Social Welfare)—व्यक्ति समाज का एक अंग है। वह अपनी आवश्यकताओं और विकास के लिए समाज पर आश्रित है। अधिकार व्यक्ति को समाज में ही मिल सकते हैं। समाज से बाहर अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए समाज के प्रति भी व्यक्ति के बहुत-से कर्त्तव्य हैं। समाज की उन्नति में सहोयग देना उसका कर्त्तव्य है। लॉस्की (Laski) के कथनानुसार, “मुझे अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक हित को बढ़ोत्तरी देने के लिए करना चाहिए।” व्यक्ति के अधिकार में उसका यह कर्त्तव्य निहित है कि वह उस अधिकार को समाजकल्याण में प्रयोग करे। भाषण देने की स्वतन्त्रता व्यक्ति को मिली हुई है और उसके साथ ही कर्त्तव्य भी बंधा है कि इस अधिकार द्वारा समाज का भी कुछ कल्याण किया जाए।

6. अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक लक्ष्य (Same Object of Rights and Duties)-अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक लक्ष्य होता है-व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाना। समाज व्यक्ति को अधिकार इसलिए देता है ताकि वह उन्नति कर सके तथा अपने जीवन का विकास कर सके। कर्त्तव्य उसको लक्ष्य पर पहुंचने में सहायता करते हैं। कर्तव्यों के पालन से ही अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं।

7. कर्तव्यों के बिना अधिकारों का अस्तित्व असम्भव (Without Duties No Rights)-कर्त्तव्यों के बिना अधिकारों की कल्पना नहीं की जा सकती। जहां मनुष्य को केवल अधिकार ही मिले हों, वहां वास्तव में अधिकार न होकर शक्तियां प्राप्त होती हैं। इसी तरह केवल कर्त्तव्यों के होने का अर्थ है-तानाशाही शासन।

8. राज्य के प्रति कर्त्तव्य (Duties towards the State)—व्यक्ति के अधिकार से उसे राज्य के प्रति कई प्रकार के कर्त्तव्य मिल जाते हैं। राज्य द्वारा ही हमें अधिकार मिलते हैं और राज्य ही उन अधिकारों की रक्षा करता है। राज्य ही ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है जिससे नागरिक अपने अधिकारों का लाभ उठा सके। राज्य के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं, इसलिए व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह राज्य की आज्ञाओं का अर्थात् कानूनों का ठीक प्रकार से पालन करे, संकट में राज्य के लिए तन, मन, धन सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार रहे तथा ईमानदारी के साथ टैक्स दे। राज्य के प्रति व्यक्ति को वफ़ादार रहना चाहिए। राज्य व्यक्ति के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा करता है और व्यक्ति का भी कर्त्तव्य है कि वह राज्य की रक्षा करे।

निष्कर्ष (Conclusion)-अन्त में, हम कह सकते हैं कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं और एक का दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। जहां अधिकारों का नाम आता हो वहां कर्त्तव्य अपने-आप चलते आते हैं। अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० बेनी प्रसाद ने लिखा है, “यदि प्रत्येक पुरुष अधिकारों का ही ध्यान रखे और दूसरों की ओर अपने कर्त्तव्य का पालन न करे तो शीघ्र ही किसी के लिए भी अधिकार नहीं रहेंगे।” लॉस्की (Laski) ने भी लिखा है “हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कुछ अधिकारों की आवश्यकता होती है। इसलिए अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो अंश हैं।” श्रीनिवास शास्त्री ने ठीक ही कहा है कि, “कर्त्तव्य और अधिकार दोनों एक ही वस्तु हैं अन्तर केवल उनको देखने में ही है। वह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्तव्यों के क्षेत्र में ही अधिकारों का सही महत्त्व सामने आता है।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिकार क्यों आवश्यक है ? कोई चार कारण बताएं।
उत्तर-
अधिकारों का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा समाज की प्रगति के लिए अधिकारों का होना अनिवार्य है। नागरिक जीवन में अधिकारों के महत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास-जिस प्रकार एक पौधे के विकास के लिए धूप, पानी, मिट्टी, हवा की ज़रूरत होती है, उसी तरह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों की अत्यधिक आवश्यकता है। अधिकार समाज के द्वारा दी गई वे सुविधाएं हैं जिनके आधार पर व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में व्यक्ति अधिकारों की प्राप्ति से ही विकास कर सकता है।
  • अधिकार समाज के विकास के साधन-व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है। यदि अधिकारों की प्राप्ति से व्यक्तित्व का विकास हो सकता है तो सामाजिक विकास भी स्वयमेव हो जाता है। इस तरह अधिकार समाज के विकास के साधन हैं।
  • अधिकारों की व्यवस्था समाज की आधारशिला-अधिकारों की व्यवस्था के बिना समाज का जीवित रहना सम्भव नहीं है क्योंकि इसके बिना समाज में लड़ाई-झगड़े, अशान्ति और अव्यवस्था फैली रहेगी और मनुष्यों के आपसी व्यवहार की सीमाएं निश्चित नहीं हो सकती हैं। वस्तुतः अधिकार ही मनुष्य द्वारा परस्पर व्यवहार से सुव्यवस्थित समाज की आधारशिला का निर्माण करते हैं।
  • अधिकारों से व्यक्ति ज़िम्मेदार बनता है।

प्रश्न 2.
अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए।
उत्तर-
मनुष्यों को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज में मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं और उन्हें समाज में मान्यता प्राप्त है। अन्य शब्दों में, अधिकार वे सुविधाएं हैं जिनके कारण हमें किसी कार्य को करने या न करने की शक्ति मिलती है। विभिन्न लेखकों ने अधिकार की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  1. ग्रीन के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।”
  2. बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।”
  3. लॉस्की के शब्दों में, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का विकास नहीं कर सकता।”

प्रश्न 3.
अधिकार की चार मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
अधिकारों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं-अधिकार केवल समाज में ही प्राप्त होते हैं। समाज से बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  2. अधिकार व्यक्ति का दावा है-अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने का दावा हा जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।
  3. अधिकार समाज द्वारा मान्य होते हैं-अधिकार व्यक्ति की मांग है जिसे समाज मान ले या स्वीकार कर ले। व्यक्ति द्वारा किसी सुविधा की मांग करने पर वह अधिकार नहीं बन जाती । व्यक्ति की मांग अधिकार का रूप उस समय धारण करती है जब समाज उसे मान्यता दे दे।
  4. अधिकार सीमित होते हैं।

प्रश्न 4.
नागरिक या सामाजिक अधिकार किसे कहते हैं ? किन्हीं चार नागरिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
नागरिक या सामाजिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के जीवन को सभ्य बनाने के लिए आवश्यक हैं। इनके बिना मनुष्य अपने दायित्व का विकास तथा प्रगति नहीं कर सकता। ये अधिकार राज्य के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होते हैं। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य में नागरिकों को निम्नलिखित नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

  1. जीवन का अधिकार-जीवन का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसके बिना अन्य अधिकार व्यर्थ हैं। जिस मनुष्य का जीवन सुरक्षित नहीं है, वह उन्नति नहीं कर सकता नागरिकों के जीवन की रक्षा करना राज्य का परम कर्त्तव्य है।
  2. शिक्षा का अधिकार-शिक्षा के बिना मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। अनपढ़ व्यक्ति को गंवार तथा पशु समान समझा जाता है। शिक्षा के बिना मनुष्य को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। आधुनिक राज्य में सभी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।
  3. सम्पत्ति का अधिकार-सम्पत्ति का अधिकार मनुष्य के जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। सम्पत्ति सभ्यता की निशानी है। सम्पत्ति का मनुष्य के जीवन के साथ गहरा सम्बन्ध है अत: आधुनिक राज्यों में नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त है।
  4. नागरिक को परिवार बनाने का अधिकार होता है।

प्रश्न 5.
किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
राजनीतिक अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण अधिकार हैं क्योंकि इन्हीं अधिकारों के द्वारा नागरिक शासन में भाग ले सकता है। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को निम्नलिखित राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

  1. मत देने का अधिकार-लोकतन्त्र में जनता का शासन होता है, परन्तु शासन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को मत का अधिकार कहा जाता है। मत देने के लिए आयु निश्चित होती है। भारत, इंग्लैंड, रूस तथा अमेरिका में मतदान की आयु 18 वर्ष है।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार–लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होता है। चुनाव लड़ने के लिए एक निश्चित आयु होती है। अमीर, ग़रीब, शिक्षित, अनपढ़, कमज़ोर, शक्तिशाली सभी को समान रूप से चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त है।
  3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार-लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को उच्च सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार है। उच्च सरकारी पदों पर नियुक्तियां योग्यता के आधार पर की जाती हैं। किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, वंश, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
  4. व्यक्ति सरकार की आलोचना कर सकते हैं।

प्रश्न 6.
किन्हीं चार आर्थिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-
लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को आर्थिक विकास के लिए आर्थिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं। समाजवादी देशों में आर्थिक अधिकारों पर विशेष बल दिया जाता है। नागरिकों को निम्नलिखित मुख्य आर्थिक अधिकार प्राप्त होते हैं-

  1. काम का अधिकार-कई राज्यों में नागरिकों को काम का अधिकार प्राप्त होता है। राज्य का कर्तव्य है कि वह नागरिकों को काम दे ताकि वे अपनी आजीविका कमा सकें। चीन में नागरिकों को काम का अधिकार प्राप्त है।
  2. उचित मजदूरी का अधिकार-किसी नागरिक को काम देना ही पर्याप्त नहीं है, उसे उसके काम की उचित मज़दूरी भी मिलनी चाहिए। उचित मज़दूरी का अर्थ है कि मज़दूरी उसके काम के अनुसार मिलनी चाहिए। बिना मज़दूरी काम लेना कानून के विरुद्ध है।
  3. अवकाश पाने का अधिकार- मज़दूरों को काम करने के पश्चात् अवकाश भी मिलना चाहिए। अवकाश से मनुष्य को खोई हुई शक्ति वापिस मिलती है। अवकाश में मनुष्य समस्याओं की ओर ध्यान देता है पर अवकाश वेतन सहित होना चाहिए।
  4. व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा का अधिकार मिलना चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 7.
किन्हीं दो परिस्थितियों का वर्णन करें जिनमें अधिकारों को सीमित किया जा सकता है।
उत्तर–
प्रायः सभी लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को अधिकार दिए जाते हैं, परन्तु कुछ परिस्थितियों में नागरिकों के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है और आवश्यकता पड़ने पर अधिकारों को स्थगित भी किया जा सकता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में अधिकारों को सीमित या स्थगित किया जा सकता है-

  • नागरिकों के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है यदि जनसंख्या का एक भाग सरकार के विरुद्ध ग़लत प्रचार करता है और सरकार के काम में बाधा डालता है। सरकार किसी व्यक्ति को यह प्रचार करने नहीं दे सकती कि सेना को युद्ध के समय लड़ना नहीं चाहिए या सेना को सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर देना चाहिए।
  • यदि नागरिक देश की एकता और अखण्डता को हानि पहुंचाने का प्रयास करे तो सरकार उसके अधिकारों को सीमित कर सकती है। सरकार का परम कर्त्तव्य देश की एकता और अखण्डता को बनाए रखना है। इसके लिए सरकार कोई भी कदम उठा सकती है।

प्रश्न 8.
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए क्या प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं ?
उत्तर-
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं-

  • स्वतन्त्र न्यायपालिका-नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि राज्य में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जानी चाहिए। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही अधिकारों की ठीक ढंग से रक्षा कर सकती है।
  • अधिकारों का संविधान में अंकित होना-अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि अधिकारों का वर्णन संविधान में किया जाए ताकि आने वाली सरकारें इनको ध्यान में रखें।
  • लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली-अधिकारों की सुरक्षा लोकतन्त्रीय प्रणाली में ही सम्भव है। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में सरकार अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। इसीलिए कहा जाता है कि अधिकार लोकतन्त्रीय प्रबन्ध में ही सुरक्षित रह सकते हैं।
  • देश में प्रेस की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 9.
अधिकार दावों से किस तरह भिन्न हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक राज्य द्वारा अपने लोगों को कुछ अधिकार दिए जाते हैं। अधिकार ऐसी सामाजिक अवस्थाओं का नाम है जिन के बिना कोई व्यक्ति पूर्ण रूप में विकास नहीं कर सकता है। अधिकार वास्तव में व्यक्ति की मांगें होती हैं। जो मांगें नैतिक एवं सामाजिक पक्ष से उचित हों, जिनको समाज स्वीकार करता हो एवं जिनको राज्य द्वारा लागू किया जाता हो उन मांगों को अधिकारों का नाम दिया जाता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति की प्रत्येक मांग अधिकार नहीं हो सकती है। केवल उस मांग को ही अधिकार का दर्जा दिया जाता है जो मांग राज्य द्वारा स्वीकार एवं लागू की जाती है। अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित होते हैं। अधिकारों को लागू करने सम्बन्धी संविधान में आवश्यक व्यवस्थाएं की जाती हैं। साधारणतया संविधान में नागरिकों के अधिकार अंकित किए जाते हैं। संविधान में अंकित अधिकारों को राज्य की कानूनी मान्यता प्राप्त होती है। राज्य उन अधिकारों को लागू करता है एवं उन अधिकारों की अवहेलना करने वालों के विरुद्ध आवश्यक कानूनी कार्यवाही भी करता है। संक्षेप में, अधिकारों एवं मांगों में मुख्य अन्तर यह है कि अधिकार समाज एवं राज्य द्वारा प्रमाणित होते हैं एवं राज्य द्वारा उनको लागू किया जाता है, जबकि व्यक्तियों की मांगों को राज्य की कानूनी स्वीकृति प्राप्त नहीं होती है।

प्रश्न 10.
कर्त्तव्य का अर्थ लिखें और कर्तव्यों के प्रकार का वर्णन करें।
उत्तर-
कर्त्तव्य का अर्थ-कर्त्तव्य शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैब्ट (Debt) से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा । शाब्दिक अर्थ में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले में चुकाना पड़ता है। समाज व्यक्ति को अनेक सुविधाएं प्रदान करता है, जिस कारण व्यक्ति समाज का ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति के समाज के प्रति कुछ कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्तव्य हैं। स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ० जाकिर हुसैन के शब्दों में, “कर्त्तव्य आज्ञा का अन्धाधुन्ध पालन नहीं है बल्कि वह अपनी बन्दिशों और कर्तव्यों को पूर्ण करने की तीव्र इच्छा है।” कर्त्तव्य दो प्रकार के होते हैं-

  • नैतिक कर्तव्य-नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। नैतिक कर्तव्यों का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।
  • कानूनी कर्तव्य-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्त्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता है।

प्रश्न 11.
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्तव्यों में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्त्तव्यों में मुख्य अन्तर यह है कि नैतिक कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति नहीं होती जबकि कानूनी कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति होती है। नैतिक कर्तव्यों का पालन करना या न करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। नैतिक कर्त्तव्य का पालन न करने पर राज्य द्वारा दण्ड नहीं दिया जा सकता। कानूनी कर्तव्यों का पालन करना नागरिकों के लिए अनिवार्य है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जा सकता है।

प्रश्न 12.
मौलिक अधिकारों की व्याख्या कीजिए। भारतीय नागरिकों को कौन-कौन से मौलिक अधिकार प्राप्त हैं?
उत्तर-
जिन कानूनी अधिकारों का उल्लेख संविधान में होता है, उन्हें मौलिक अधिकारों का नाम दिया जाता है। ये वे अधिकार होते हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य समझे जाते हैं। भारत, अमेरिका, रूस तथा स्विट्ज़रलैंड आदि देशों में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

भारत के संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। 44वें संशोधन से पूर्व नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्राप्त थे, परन्तु अब 6 रह गए हैं। (1) समानता का अधिकार (2) स्वतन्त्रता का अधिकार (3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (4) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (5) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा (6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 13.
एक नागरिक के अपने देश के प्रति चार कर्त्तव्य बताओ।
उत्तर-
नागरिक के अपने देश के प्रति कुछ कर्त्तव्य होते हैं-

  • नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी है।
  • नागरिक का दूसरा कर्तव्य कानूनों का पालन करना है।
  • नागरिक का कर्तव्य है कि वह ईमानदारी से करों का भुगतान करे।
  • नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करे।

प्रश्न 14.
अधिकारों और कर्तव्यों के परस्पर सम्बन्धों की संक्षिप्त व्याख्या करो। (P.B. Sept. 1989)
उत्तर-
अधिकार तथा कर्त्तव्य का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है तथा इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इन दोनों में उतना ही घनिष्ठ सम्बन्ध है जितना कि शरीर तथा आत्मा में। जहां अधिकार हैं वहां कर्तव्यों का होना आवश्यक है। दोनों का चोली-दामन का साथ है। मनुष्य अपने अधिकार का आनन्द तभी उठा सकता है जब दूसरे मनुष्य उसे अधिकार का प्रयोग करने दें, अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन करें। उदारण के लिए प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है, परन्तु मनुष्य इस अधिकार का मज़ा तभी उठा सकता है जब दूसरे मनुष्य उसके जीवन में हस्तक्षेप न करें। परन्तु दूसरे मनुष्यों को भी जीवन का अधिकार प्राप्त है, इसलिए उस मनुष्य का कर्तव्य भी है वह दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप न करे अर्थात्, “जियो और जीने दो” का सिद्धान्त अपनाया जाता है। इसीलिए तो कहा जाता है कि ‘अधिकारों में कर्त्तव्य निहित हैं।’

प्रश्न 15.
नागरिक के किन्हीं चार नैतिक कर्तव्यों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य माता-पिता की आज्ञा का पालन करना है।
  2. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के प्रति दया व प्रेम की भावना रखे।
  3. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य शिक्षा प्राप्त करना है।
  4. नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह अपना कार्य ईमानदारी से करे।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 4 अधिकार तथा कर्त्तव्य

प्रश्न 16.
नागरिक के चार कानूनी कर्त्तव्य लिखें।
उत्तर-

  1. नागरिक का कानूनी कर्त्तव्य है कानूनों का पालन करना।
  2. नागरिक का कानूनी कर्तव्य है करों का भुगतान करना।
  3. सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना नागरिक का कानूनी कर्तव्य है।
  4. नागरिक का कर्त्तव्य अपने देश के प्रति वफ़ादारी का है।

प्रश्न 17.
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए क्या प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं ?
उत्तर-
नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं-

  1. स्वतन्त्र न्यायपालिका-नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि राज्य में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जानी चाहिए। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही अधिकारों की ठीक ढंग से रक्षा कर सकती है।
  2. अधिकारों का संविधान में अंकित होना-अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि अधिकारों का वर्णन संविधान में किया जाए ताकि आने वाली सरकारें इनको ध्यान में रखें।
  3. लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली-अधिकारों की सुरक्षा लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में ही सम्भव है। लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में सरकार अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि अधिकार लोकतन्त्रीय प्रबन्ध में ही सुरक्षित रह सकते हैं।
  4. जागरूक नागरिक-सचेत या जागरूक नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहते हैं। इसलिए जागरूक नागरिकों को अधिकारों की सुरक्षा की महत्त्वपूर्ण शर्त माना गया है।।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिकारों का अर्थ दीजिए।
उत्तर-
मनुष्य को जो सुविधाएं समाज में मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों में अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं और उन्हें समाज में मान्यता प्राप्त है।

प्रश्न 2.
अधिकार की कोई दो परिभाषाएं दें।
उत्तर-

  1. ग्रीन के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक बाहरी अवस्थाएं हैं।”
  2. बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लाग करता है।”

प्रश्न 3.
अधिकार की दो मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-

  1. अधिकार समाज में ही सम्भव हो सकते हैं-अधिकार केवल समाज में ही प्राप्त होते हैं। समाज से बाहर अधिकारों का न कोई अस्तित्व है और न कोई आवश्यकता।
  2. अधिकार व्यक्ति का दावा है-अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने का दावा है जो वह समाज से करता है। दूसरे शब्दों में, सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं। इस मांग को शक्ति नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 4.
किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों की व्याख्या करो।
उत्तर-

  1. मत देने का अधिकार-प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को मत का अधिकार कहा जाता है। मत देने के लिए आयु निश्चित होती है।
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार-लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त होता

प्रश्न 5.
कर्त्तव्य का अर्थ लिखें।
उत्तर-
कर्त्तव्य शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Duty’ का पर्यायवाची है। ड्यूटी शब्द डैब्ट (Debt) से बना है जिसका अर्थ है ऋण या कर्जा। इस ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति के समाज के प्रति कुछ कर्तव्य हैं। इस प्रकार समाज की हमारे ऊपर मांग ही हमारे कर्त्तव्य हैं।

प्रश्न 6.
कर्त्तव्य की कोई दो प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. नैतिक कर्त्तव्य-नैतिक कर्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है। नैतिक कर्तव्यों का पालन न करने वाले को सज़ा नहीं दी जा सकती।
  2. कानूनी कर्त्तव्य-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को दे देता है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य दण्ड देता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. अधिकार किसे कहते हैं ? स्पष्ट करें।
उत्तर-मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं।

प्रश्न 2. अधिकार की एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।”

प्रश्न 3. अधिकार के कोई एक महत्त्वपूर्ण तथ्य का वर्णन करें।
उत्तर-अधिकार समाज द्वारा प्रदान और राज्य द्वारा लागू किया जाना ज़रूरी है।

प्रश्न 4. अधिकारों की एक विशेषता बताएं।
उत्तर- अधिकार व्यक्ति का किसी कार्य को करने की स्वतन्त्रता का दावा है जो वह समाज से प्राप्त करता है या सुविधाओं की मांग को अधिकार कहते हैं।

प्रश्न 5. कर्तव्य (Duty) शब्द की उत्पत्ति किस भाषा के शब्द से हुई है ?
उत्तर-कर्त्तव्य (Duty) शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के डैट (Debt) शब्द से हुई है।

प्रश्न 6. अधिकार कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-

  1. प्राकृतिक अधिकार,
  2. नैतिक अधिकार,
  3. कानूनी अधिकार ।

प्रश्न 7. किन्हीं दो मुख्य सामाजिक अधिकारों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. जीवन का अधिकार
  2. परिवार का अधिकार।

प्रश्न 8. किन्हीं दो आर्थिक अधिकारों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. काम का अधिकार
  2. सम्पत्ति का अधिकार।

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प्रश्न 9. नागरिक के दो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार लिखें।
अथवा
नागरिक का कोई एक ‘राजनीतिक अधिकार’ लिखिए।
उत्तर-

  1. मत देने का अधिकार
  2. चुनाव लड़ने का अधिकार।

प्रश्न 10. मौलिक अधिकार का अर्थ बताओ।
उत्तर-जिन कानूनी अधिकारों का उल्लेख संविधान में होता है, उन्हें मौलिक अधिकारों का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 11. कर्त्तव्य का अर्थ लिखें।
अथवा कर्तव्य क्या होता है?
उत्तर-शाब्दिक अर्थों में कर्त्तव्य एक प्रकार का हमारा समाज के प्रति ऋण है जो हमें अधिकारों के बदले चुकाना पड़ता है।

प्रश्न 12. कर्तव्यों को कितने भागों में बांटा जा सकता है?
उत्तर-दो भागों में-

  1. नैतिक कर्त्तव्य
  2. कानूनी कर्त्तव्य।

प्रश्न 13. नैतिक कर्तव्य का क्या अर्थ है ?
उत्तर-नैतिक कर्त्तव्य सदाचार पर आधारित होते हैं जिनका पालन नैतिकता के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 14. नागरिक के किन्हीं दो नैतिक कर्तव्यों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. माता-पिता की आज्ञा का पालन करना।
  2. अपने गांव, नगर और प्रांत के विकास में सहयोग देना।

प्रश्न 15. कानूनी कर्त्तव्य किसे कहते हैं?
उत्तर-कानूनी कर्त्तव्य वे कर्तव्य होते हैं जिन्हें राज्य कानून के द्वारा अपने नागरिकों को देता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. वोट का अधिकार …………….. अधिकार है।
2. काम का अधिकार ……………. अधिकार है।
3. सरकार की आलोचना का अधिकार …………… अधिकार है।
4. जीवन का अधिकार …………… अधिकार है।
उत्तर-

  1. राजनीतिक
  2. आर्थिक
  3. राजनीतिक
  4. सामाजिक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अधिकार समाज में सम्भव नहीं होते।
2. कर्त्तव्य व्यक्ति का दावा है।
3. अधिकार सीमित होते हैं।
4. अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़े होते हैं।
5. कर्त्तव्य अर्थात् Duty अंग्रेजी भाषा के शब्द Right से बना है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
प्राकृतिक अधिकार से अभिप्राय है
(क) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति की नैतिक भावनाओं पर आधारित होते हैं।
(ख) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति को प्रकृति ने दिये हैं।
(ग) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक हैं।
(घ) उन अधिकारों से है जो राज्य की ओर से प्राप्त होते हैं।
उत्तर-
(ख) उन अधिकारों से है जो व्यक्ति को प्रकृति ने दिये हैं।

प्रश्न 2.
प्राकृतिक अधिकार का समर्थन
(क) अरस्तु ने किया
(ख) कार्ल मार्क्स ने किया
(ग) लॉक ने किया
(घ) ग्रीन ने किया।
उत्तर-
(ग) लॉक ने किया।

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प्रश्न 3.
यह किसने कहा-“केवल कर्त्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व होता है”
(क) वाइल्ड
(ख) ग्रीन
(ग) बोसांके
(घ) गार्नर।
उत्तर-
(क) वाइल्ड।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य ग़लत सूचना देता है ?
(क) प्रत्येक अधिकार से उसी प्रकार का कर्तव्य जुड़ा होता है।
(ख) अधिकार असीमित होते हैं।
(ग) एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है।
(घ) देशभक्ति व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है।
उत्तर-
(ख) अधिकार असीमित होते हैं।