PSEB 11th Class History Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 7 राजपूत और उनका काल

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
कन्नौज के लिए संघर्ष तथा दक्षिण में राजनीतिक परिवर्तनों से सम्बन्धित घटनाओं की रूपरेखा बताएं।
उत्तर-
आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। यह नगर हर्षवर्धन की राजधानी था। उत्तरी भारत में इस नगर की स्थिति बहुत अच्छी थी। क्योंकि इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा के मैदान पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे। इन राजवंशों ने बारी-बारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैन्य शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर तीनों राज्यों का पतन हो गया। राष्ट्रकूटों पर उत्तरकालीन चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। प्रतिहार राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया और पाल वंश की शक्ति को चोलों ने समाप्त कर दिया।

दक्षिण में राजनीतिक परिवर्तन-

दक्षिण में 10वीं , 11वीं तथा 12वीं शताब्दी के दो महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तरकालीन चालुक्य तथा चोल थे। इन दोनों राजवंशों के आपसी सम्बन्ध बड़े ही संघर्षमय थे। इन राज्यों का अलग-अलग अध्ययन करने से इनके आपसी सम्बन्ध स्पष्ट हो जायेंगे। उत्तरकालीन चालुक्यों की दो शाखाएं थीं-कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य तथा मैगी के पूर्वी चालुक्य । कल्याणी के चालुक्य की शाखा की स्थापना तैलप द्वितीय ने की थी। उसने चोलों, गुर्जर, जाटों आदि के विरुद्ध अनेक विजयें प्राप्त की। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र सत्याश्रय ने उत्तरी कोंकण के राजा तथा गुर्जर को पराजित किया, परन्तु उस समय राजेन्द्र चोल ने चालुक्य शक्ति को काफी हानि पहंचाई। बैंगी के पूर्वी चालुक्यों की शाखा का संस्थापक पुलकेशिन द्वितीय का भाई विष्णुवर्धन द्वितीय था।

पुलकेशिन ने उसे 621 ई० में चालुक्य राज्य का गवर्नर नियुक्त किया था । परन्तु कुछ ही समय पश्चात् उसने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। उसके द्वारा स्थापित राजवंश ने लगभग 500 वर्ष तक राज्य किया। जयसिंह प्रथम, इन्द्रवर्मन और विष्णुवर्मन तृतीय, विजयादित्य प्रथम द्वितीय, भीम प्रथम, कुल्लोतुंग प्रथम विजयादित्य इस वंश के प्रतापी राजा थे। इन राजाओं ने पल्लवों तथा राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष किया। अन्त में कुल्लोतुंग प्रथम ने चोल तथा चालुक्य राज्यों को एक संगठित राज्य घोषित कर दिया। उसने अपने चाचा विजयादित्य सप्तम को बैंगी का गर्वनर नियुक्त किया।

चोल दक्षिण भारत की प्रसिद्ध जाति थी। प्राचीन काल में वे दक्षिण भारत की सभ्य जातियों में गिने जाते थे। अशोक के राज्यादेशों तथा मैगस्थनीज़ के लेखों में उनका उल्लेख आता है। चीनी लेखकों, अरब यात्रियों तथा मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उनका वर्णन किया है। काफी समय तक आन्ध्र और पल्लव जातियां उन पर शासन करती रहीं। परन्तु नौवीं शताब्दी में वे अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इस वंश के शासकों ने लगभग चार शताब्दियों तक दक्षिणी भारत में राज्य किया। उनके राज्य में आधुनिक तमिलनाडु, आधुनिक कर्नाटक तथा कोरोमण्डल के प्रदेश सम्मिलित थे। चोल राज्य का संस्थापक कारीकल था। परन्तु इस वंश का पहला प्रसिद्ध राजा विजयालय था। उसने पल्लवों को पराजित किया था। इस वंश के अन्य प्रसिद्ध राजा आदित्य प्रथम प्रान्तक (907-957 ई०), राजराजा महान् (985-1014 ई०), राजेन्द्र चोल (10141044 ई०), कुल्लोतुंग इत्यादि थे। इनमें से राजराजा महान् तथा राजेन्द्र चोल ने शक्ति को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया। उन्होंने कला और साहित्य के विकास में भी योगदान दिया।

चोल वंश का पतन और दक्षिण में नई शक्तियों का उदय-राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों को बैंगी के चालक्यों तथा कल्याणी के विरुद्ध एक लम्बा संघर्ष करना पड़ा। चोल राजा कुल्लोतुंग के शासन काल (1070-1118 ई०) में वैंगी के चालुक्यों का राज्य चोलों के अधिकार में आ गया। परन्तु कल्याणी के चालुक्यों के साथ उनका संघर्ष कुछ धीमा हो गया। इसका कारण यह था कि कुल्लोतुंग की मां एक चालुक्य राजकुमारी थी। 12वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में चोल शक्ति का पतन होने लगा जो मुख्यतः उनके चालुक्यों के साथ संघर्ष का ही परिणाम था। इस संघर्ष के कारण चोल शक्ति काफी क्षीण हो गई और उनके सामन्त शक्तिशाली हो गए। अन्ततः उनके होयसाल सामन्तों ने उनकी सत्ता का अन्त कर दिया। इस प्रकार 13वीं शताब्दी के आरम्भ में दक्षिण में चालुक्य तथा चोल, राज्यों के स्थान पर कुछ नवीन शक्तियों का उदय हुआ। इन शक्तियों में देवगिरी के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल तथा मदुराई के पाण्डेय प्रमुख थे।

प्रश्न 2.
राजपूत काल में धर्म, कला तथा साहित्य के क्षेत्र में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की चर्चा करें।
उत्तर-
राजपूत काल 7वीं तथा 13वीं शताब्दी का मध्यकाल है। इस काल में धार्मिक परिवर्तन हुए तथा कला एवं साहित्य के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ। इन सबका वर्णन इस प्रकार है-

I. धर्म-

(1) 7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक धर्म का आधार वही देवी-देवता व रीति-रिवाज ही रहे, जो काफी समय से चले आ रहे थे। परन्तु धार्मिक परम्पराओं को अब नया रूप दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन बहुत तेजी से होने लगा। जैन धर्म को कुछ राजपूत शासकों ने समर्थन अवश्य प्रदान किया परन्तु यह धर्म अधिक लोकप्रिय न हो सका। केवल हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म था जिसमें कुछ परिवर्तन आये। अब अवतारवाद को अधिक शक्ति मिली तथा विशेष रूप से कृष्णवासुदेव का अवतार रूप में पूजन होने लगा। देवी-माता की भी कात्यायनी, भवानी, चंडिका, अम्बिका आदि भिन्न-भिन्न रूपों में पूजा प्रचलित थी। इस काल के सभी मतों के अनुयायियों ने अपने-अपने इष्ट देव के लिए मन्दिर बनवाए जो इस काल के धर्मों की बहुत बड़ी विशेषता है।

(2) हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दो विचारधाराएं ही अधिक प्रचलित हुईं-वैष्णव मत तथा शैवमत। शैवमत के कई रूप थे तथा यह दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था। कुछ शैव सम्प्रदाय सामाजिक दृष्टि से परस्पर विरोधी भी थे। जैसे कि कपालिक, कालमुख तथा पशुपति। लोगों का जादू-टोनों में विश्वास पहले से अधिक बढ़ने लगा। 12वीं शताब्दी में वासवराज ने शैवमत की एक नवीन लहर चलाई । इसके अनुयायी लिंगायत या वीर शैव कहलाए। वे लोग शिव की लिंग रूप में पूजा करते थे तथा पूर्ण विश्वास के साथ प्रभु-भक्ति में आस्था रखते थे। इन लोगों ने बाल-विवाह का विरोध करके और विधवाविवाह का सर्मथन करके बाह्मण रूढ़िवाद पर गम्भीर चोट की। दक्षिणी भारत में शिव की लिंग रूप के साथ-साथ नटराज के रूप में भी पूजा काफी प्रचलित थी। उन्होंने शिव के नटराज रूप को धातु की सुन्दर मूर्तियों के रूप में ढाला । इन मूर्तियों में चोल शासकों के काल में बनी कांसे की नटराज की मूर्ति प्रमुख है।

(3) राजपूत काल के धर्म की एक अन्य विशेषता वैष्णव मत में भक्ति तथा श्रद्धा का सम्मिश्रण था। इस विचारधारा के मुख्य प्रवर्तक रामानुज थे। उसका जन्म तिरुपति में हुआ था। 12वीं शताब्दी में उसने श्रीरंगम में कई वर्षों तक लोगों को धर्म की शिक्षा दी। उनके विचार प्रसिद्ध हिन्दू प्रचारक शंकराचार्य से बिल्कुल भिन्न थे। वह अद्धैतवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखता था। वह विष्णु को सर्वोच्च इष्ट मानता था। उसका कहना था कि विष्णु एक मानवीय देवता है। उसने मुक्ति के तीन मार्ग-ज्ञान, धर्म तथा भक्ति में से भक्ति पर अधिक बल दिया। इसी कारण उसे सामान्यतः भक्ति लहर का प्रवर्तक माना जाता है। परन्तु उसने भक्ति की प्रचलित लहर को वैष्णव धर्मशास्त्र के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया।

(4) राजपूतकालीन धर्म में लहर की स्थिति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी। रामानुज का भक्ति मार्ग जनता में काफी लोकप्रिय हुआ। शैव सम्प्रदाय में भी भक्ति को काफी महत्त्व दिया जाता था। लोगों में यह विश्वास बढ़ गया कि मुक्ति का एकमात्र मार्ग सच्चे मन से की गई प्रभु भक्ति ही है। वे अपना सब कुछ प्रभु के भरोसे छोड़कर उसकी भक्ति के पक्ष में थे।

II. कला-

राजपूत काल में भवन निर्माण का बड़ा विकास हुआ। उन्होंने भव्य महलों तथा दुर्गों का निर्माण किया। जयपुर तथा उदयपुर केराजमहल, चितौड़ तथा ग्वालियर के दुर्ग राजपूती भवन निर्माण कला के शानदार नमूने हैं। इसके अतिरिक्त पर्वत की चोटी पर बने जोधपुर के दुर्ग की अपनी ही सुन्दरता है। कहा जाता है कि उसकी सुन्दरता देखकर बाबर भी आश्चर्य में पड़ गया था।

राजपूत काल मन्दिरों के निर्माण का सर्वोत्कृष्ट समय था। इस वास्तुकला के प्रभावशाली नमूने आज भी देश के कई भागों में सुरक्षित हैं। मन्दिरों का निर्माण केवल शैवमत या वैष्णव मत तक ही सीमित नहीं था। माऊंट आबू में जैन मन्दिर भी मिलते हैं। ये मन्दिर सफेद संगमरमर तथा अन्य पत्थरों के बने हुए हैं। ये मन्दिर उत्कृष्ट मूर्तियों से सजे हुए हैं। अतः ये वास्तुकला और मूर्तिकला के मेल के बहुत सुन्दर नमूने हैं।

राजपूत काल में बने सूर्य मन्दिर बहुत प्रसिद्ध हैं। परन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध उड़ीसा में कोणार्क का सूर्य मन्दिर है। आधुनिक मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के इलाके में स्थित खजुराहो के अधिकतर मन्दिर शिव को समर्पित हैं।

इस समय शिव को समर्पित बड़े-बड़े शानदार मन्दिरों के अतिरिक्त शिव के नटराज रूप को भी धातु की अनेकों मूर्तियों में ढाला गया। इन मूर्तियों के कई छोटे और बड़े नमूने देखे जा सकते हैं। इनमें चोल शासकों के समय का बना सुप्रसिद्ध कांसे का नटराज एक महान् कला कृति है।

III. साहित्य तथा शिक्षा-

राजपूत काल में साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। पृथ्वीराज चौहान तथा राजा भोज स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे। राजपूत राजाओं ने अपने दरबार में साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया हुआ था। कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ नामक ग्रन्थ की रचना की। चन्दर बरदाई पृथ्वीराज का राजकवि था। उसने ‘पृथ्वी रासो’ नामक ग्रन्थ की रचना की। जयदेव बंगाल का राजकवि था। उसने ‘गीत गोबिन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की। राजशेखर भी इसी काल का एक माना हुआ विद्वान् था। राजपूतों ने शिक्षा के प्रसार को ओर काफी ध्यान दिया। आरम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध मन्दिरों तथा पाठशालाओं में किया जाता था। उच्च शिक्षा के लिए नालन्दा, काशी, तक्षशिला, उज्जैन, विक्रमशिला आदि अनेक विश्वविद्यालय थे।
सच तो यह है कि राजपूत काल में धर्म के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए और कला तथा साहित्य के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ। इस काल की कृतियों तथा साहित्यिक रचनाओं पर आज भी देश को गर्व है।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक-

प्रश्न 1.
कन्नौज की त्रिपक्षीय लड़ाई के समय बंगाल-बिहार का राजा कौन था ?
उत्तर-
धर्मपाल।

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के बाद कन्नौज का राजा कौन बना ?
उत्तर-
यशोवर्मन।

प्रश्न 3.
पृथ्वीराज चौहान की जानकारी हमें किस स्त्रोत से मिलती है तथा
(ii) उसका लेखक कौन है ?
उत्तर-
(i) पृथ्वीराज रासो नामक ग्रन्थ से
(ii) चन्दरबरदाई।

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प्रश्न 4.
महमूद गज़नवी ने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया?
उत्तर-
महमूद गज़नवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किये।

प्रश्न 5.
(i) महमूद गज़नवी के साथ कौन-सा इतिहासकार भारत आया तथा
(ii) उसने कौन-सी पुस्तक की रचना की ?
उत्तर-
(i) अल्बरूनी
(ii) ‘किताब-उल-हिन्द’।

प्रश्न 6.
(i) तन्जौर के शिव मन्दिर का निर्माण किसने करवाया तथा
(ii) इस मन्दिर का क्या नाम था ?
उत्तर-
(i) तन्जौर के शिव मन्दिर का निर्माण चोल शासक राजराजा प्रथम ने करवाया।
(ii) इस मन्दिर का नाम राजराजेश्वर मन्दिर था।

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प्रश्न 7.
चोल शासन प्रबन्ध में प्रांतों को किस नाम से पुकारा जाता था ?
उत्तर-
‘मंडलम’।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) राजपूतों का प्रमुख देवता ……………. था।
(ii) ………… पृथ्वीराज चौहान का दरबारी कवि था।
(iii) ‘कर्पूरमंजरी’ का लेखक ……………. था।
(iv) परमार वंश की राजधानी ……………… थी।
(v) चंदेल वंश का प्रथम प्रतापी राजा ………….. था।
उत्तर-
(i) शिव
(ii) चन्द्रबरदाई
(iii) राजशेखर
(iv) धारा नगरी
(v) यशोवर्मन।

3. सही/ग़लत कथन-

(i) अरबों ने 712 ई० में सिंध पर आक्रमण किया। — (√)
(ii) तराइन की पहली लड़ाई (1191) में मुहम्मद गौरी की विजय हुई। — (×)
(iii) तराइन की दूसरी लड़ाई महमूद ग़जनवी तथा मुहम्मद गौरी के बीच हुई। — (×)
(iv) परमार वंश का प्रथम महान् शासक मुंज था। — (√)
(v) जयचंद राठौर की राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता थी। — (√)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
मुहम्मद गौरी ने किसे हरा कर दिल्ली पर अधिकार किया ?
(A) जयचंद राठौर
(B) पृथ्वीराज चौहान
(C) अनंगपाल
(D) जयपाल।
उत्तर-
(B) पृथ्वीराज चौहान

प्रश्न (ii)
राजपूत काल का सबसे सुंदर दुर्ग है-
(A) जयपुर का
(B) बीकानेर का
(C) जोधपुर का
(D) दिल्ली का।
उत्तर-
(C) जोधपुर का

प्रश्न (iii)
‘जौहर’ की प्रथा प्रचलित थी-
(A) राजपूतों में
(B) सिक्खों में
(C) मुसलमानों में
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(A) राजपूतों में

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प्रश्न (iv)
मुहम्मद गौरी ने अपने भारतीय प्रदेश का वायसराय किसे नियुक्त किया ?
(A) जलालुद्दीन खलजी
(B) महमूद ग़जनवी
(C) नासिरुद्दीन कुबाचा
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक।
उत्तर-
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक।

प्रश्न (v)
धारानगरी में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की ?
(A) धर्मपाल
(B) राजा भोज
(C) हर्षवर्धन
(D) गोपाल।
उत्तर-
(B) राजा भोज

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजपूत काल में पंजाब की पहाड़ियों में किन नये राज्यों का उदय हुआ ?
उत्तर-
राजपूत काल में पंजाब की पहाड़ियों में जम्मू, चम्बा, कुल्लू तथा कांगड़ा नामक राज्यों का उदय हुआ।

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प्रश्न 2.
राजपूत काल में कामरूप किन तीन देशों के बीच व्यापार की कड़ी था ?
उत्तर-
इस काल में कामरूप पूर्वी भारत, तिब्बत तथा चीन के मध्य व्यापार की कड़ी था।

प्रश्न 3.
सिन्ध पर अरबों के आक्रमण का तात्कालिक कारण क्या था ?
उत्तर-
सिन्ध पर अरबों के आक्रमण का तात्कालिक कारण सिन्ध में स्थित कराची के निकट देवल की बंदरगाह पर खलीफा के लिए उपहार ले जाते हुए जहाज़ का लूटा जाना था।

प्रश्न 4.
अरबों के आक्रमण के समय सिन्ध के शासक का नाम क्या था और यह आक्रमण कब हुआ ?
उत्तर-
अरबों ने सिन्ध पर 711 ई० में आक्रमण किया। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर का राज्य था।

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प्रश्न 5.
अरबों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र कौन-से दो राज्यों में बंट गया ?
उत्तर-
अरबों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र मंसूरा तथा मुलतान नामक दो राज्यों में बंट गया।

प्रश्न 6.
हिन्दूशाही वंश के चार शासकों के नाम बताएं।
उत्तर-
हिन्दूशाही वंश के चार शासक थे-कल्लार, भीमदेव, जयपाल, आनन्दपाल ।

प्रश्न 7.
गज़नी के राज्य के तीन शासकों के नाम बतायें।
उत्तर-
गज़नी राज्य के तीन शासक थे- अल्पतगीन, सुबुक्तगीन तथा महमूद गज़नवी।

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प्रश्न 8.
गज़नी और हिन्दूशाही वंश के शासकों में संघर्ष का आरम्भ किस वर्ष में हुआ और यह कब तक चला ?
उत्तर-
गज़नी और हिन्दूशाही वंश के शासकों में आपसी संघर्ष 960 ई० से 1021 ई० तक चला।

प्रश्न 9.
1008-09 में महमूद गजनवी के विरुद्ध सैनिक गठजोड़ में भाग लेने वाले उत्तर भारत के किन्हीं चार राज्यों के नाम बताएं ।
उत्तर-
महमूद गज़नवी के विरुद्ध सैनिक गठजोड़ (1008-09) में उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर तथा कन्नौज राज्य शामिल थे।

प्रश्न 10.
शाही राजाओं के विरुद्ध गज़नी के शासकों की विजय का मुख्य कारण क्या था?
उत्तर-
शाही राजाओं के विरुद्ध गज़नी के शासकों की विजय का मुख्य कारण उनका विशिष्ट सेनापतित्व था।

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प्रश्न 11.
महमूद गजनवी ने धन प्राप्त करने के लिए उत्तर भारत के किन चार नगरों पर आक्रमण किये ?
उत्तर-
महमूद गजनवी ने धन प्राप्त करने के लिए उत्तरी भारत के नगरकोट, थानेश्वर, मथुरा तथा कन्नौज के नगरों पर आक्रमण किये।

प्रश्न 12.
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य अब क्या समझा जाता है?
उत्तर-
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य अब यह समझा जाता है कि उसे अपने मध्य एशिया साम्राज्य का विस्तार करना और इसके लिए धन प्राप्त करना था।

प्रश्न 13.
महमूद गजनवी के साथ भारत आये विद्वान् तथा उसकी पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
महमूद गज़नवी के साथ भारत में जो विद्वान् आया, उसका नाम अलबेरूनी था। उसके द्वारा लिखी पुस्तक का नाम ‘किताब-उल-हिन्द’ था ।

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प्रश्न 14.
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य परिणाम क्या हुआ?
उत्तर-
महमूद गजनवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य परिणाम यह हुआ कि पंजाब को गजनी साम्राज्य में मिला लिया।

प्रश्न 15.
कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम बताएं।
उत्तर-
कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम थे-पालवंश, प्रतिहार वंश तथा राष्ट्रकूट वंश।

प्रश्न 16.
प्रतिहार वंश के राजाओं को गुर्जर-प्रतिहार क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
प्रतिहार पश्चिमी राजस्थान के गुर्जरों में से थे। इसीलिए उन्हें गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है।

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प्रश्न 17.
प्रतिहार वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था तथा उसका राज्यकाल क्या था ?
उत्तर-
प्रतिहार वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक राजा भोज था। उसका राज्यकाल 836 ई० से 885 ई० तक था।

प्रश्न 18.
प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध चार शासक कौन थे ?
उत्तर-
नागभट्ट, वत्सराज, मिहिरभोज तथा महेन्द्रपाल प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध चार शासक थे।

प्रश्न 19.
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक कौन था और राष्ट्रकूट राज्य का साम्राज्य में परिवर्तन किस शासक के समय में हुआ?
उत्तर-
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक दन्तीदुर्ग था। राष्ट्रकूट राज्य का साम्राज्य में परिवर्तन ध्रुव के समय में हुआ।

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प्रश्न 20.
राष्ट्रकूट राज्य की राजधानी कौन-सी थी और इस वंश के दो सबसे शक्तिशाली शासक कौन थे ?
उत्तर-
राष्ट्रकूट राज्य की राजधानी मालखेद या मान्यखेत थी। इन्द्र तृतीय तथा कृष्णा तृतीय इस वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे।

प्रश्न 21.
पाल वंश का सबसे शक्तिशाली राजा कौन था और बंगाल में पाल राजाओं का स्थान किस वंश ने लिया ?
उत्तर-
धर्मपाल पाल वंश का सब से शक्तिशाली शासक था। बंगाल में पाल राजाओं का स्थान सेन वंश ने लिया।

प्रश्न 22.
अग्निकुल राजपूतों से क्या भाव है एवं इनके चार कुलों के नाम बताएं।
उत्तर-
अग्निकुल राजपूतों से भाव उन चार वंशों से है जिनकी उत्त्पति आबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से हुई । ये वंश थे-परिहार, परमार, चौहान तथा चालुक्य।

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प्रश्न 23.
राजपूत काल में गुजरात में कौन-से वंश का राज्य था तथा इनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
राजपूत काल में गुजरात में सोलंकी वंश का राज्य था। इनकी राजधानी अनहिलवाड़ा में थी ।

प्रश्न 24.
मालवा में किस वंश का राज्य था ?
उत्तर-
मालवा में परमार वंश का राज्य था।

प्रश्न 25.
परिहार राजा आरम्भ में किन के सामन्त थे तथा ये किस प्रदेश में शासन कर रहे थे ?
उत्तर-
परिहार राजा आरम्भ में प्रतिहारों के सामान्त थे। वे मालवा में शासन करते थे।

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प्रश्न 26.
अग्निकुल राजपूतों में सबसे प्रसिद्ध वंश कौन-सा था और इनका राज्य किन दो प्रदेशों पर था ?
उत्तर-
अग्निकुल राजपूतों में सब से प्रसिद्ध वंश चौहान वंश था। इनका राज्य गुजरात और राजस्थान में था ।

प्रश्न 27.
तराइन की लड़ाइयाँ कौन-से वर्षों में हुईं और इनमें लड़ने वाला राजपूत शासक कौन था ?
उत्तर-
तराइन की लड़ाइयाँ 1191 ई० तथा 1192 ई० में हुईं । इनमें लड़ने वाला राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान था।

प्रश्न 28.
कन्नौज में प्रतिहारों के बाद किस वंश का राज्य स्थापित हुआ तथा इसका अन्तिम शासक कौन था ?
उत्तर-
कन्नौज में प्रतिहारों के बाद राठौर वंश का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश का अन्तिम शासक जयचन्द था।

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प्रश्न 29.
दिल्ली का आरम्भिक नाम क्या था और इसकी नींव कब रखी गई ?
उत्तर-
दिल्ली का आरम्भिक नाम ढिल्लीका था। इसकी नींव 736 ई० में रखी गई थी ।

प्रश्न 30.
राजपूतों का सबसे पुराना कुल कौन-सा था तथा इसकी राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर-
राजपूतों का सबसे पुराना कुल गुहिला था। इसकी राजधानी चित्तौड़ थी।

प्रश्न 31.
कछवाहा तथा कलचुरी राजवंशों की राजधानियों के नाम बताएं ।
उत्तर-
कछवाहा तथा कलचुरी राजवंशों की राजधानियों के नाम थे-गोपगिरी तथा त्रिपुरी।

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प्रश्न 32.
चंदेलों ने किस प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
चंदेलों ने जैजाक भुक्ति में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। खजुराहो उनकी राजधानी थी।

प्रश्न 33.
बंगाल में सेन वंश की स्थापना किसने की तथा इस वंश का अन्तिम राजा कौन था ?
उत्तर-
बंगाल में सेन वंश की स्थापना विद्यासेन ने की थी। इस वंश का अन्तिम राजा लक्ष्मण सेन था।

प्रश्न 34.
उड़ीसा में पूर्वी गंग राजवंश का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा कौन था तथा इसने कौन-सा प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था?
उत्तर-
गंग राजवंश का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा अनन्तवर्मन था। उसने जगन्नाथपुरी का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया था।

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प्रश्न 35.
दक्कन में परवर्ती चालुक्यों के राज्य का संस्थापक कौन था तथा इनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
दक्कन में परवर्ती चालुक्यों के राज्य का संस्थापक तैल था। इनकी राजधानी कल्याणी थी।

प्रश्न 36.
11वीं सदी में परवर्ती चालक्यों की किन चार पड़ोसी राज्यों के साथ लड़ाई रही ?
उत्तर-
11वीं सदी में परवर्ती चालुक्यों की सोलंकी, चोल, परमार, कलचुरी राज्यों के साथ लड़ाई रही।

प्रश्न 37.
परवर्ती चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कौन था ? उसके बारे में किस लेखक की कौन-सी रचना से पता चलता है।
उत्तर-
परवर्ती चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य छठा था। उसके बारे में हमें बिल्हण की रचना – ‘विक्रमंकदेवचरित्’, से पता चलता है ।

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प्रश्न 38.
परवर्ती चालुक्यों की सबसे भयंकर टक्कर किस राजवंश से हुई और इस झगड़े का कारण कौन- सा । प्रदेश था?
उत्तर-
परवर्ती चालुक्य की सब से भयंकर टक्कर चोल राजवंश से हुई। उनके झगड़े का कारण गी प्रदेश था ।

प्रश्न 39.
चोल वंश के सबसे प्रसिद्ध दो शासकों के नाम तथा उनका राज्यकाल बताएं ।
उत्तर-
चोलवंश के दो प्रसिद्ध शासक राजराजा और राजेन्द्र थे। राजराजा ने 985 ई० से 1014 ई० तक तथा राजेन्द्र ने 1014 ई० से 1044 ई० तक राज्य किया ।

प्रश्न 40.
किस चोल शासक का समय चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ व्यापार की वृद्धि के लिए प्रसिद्ध है? उस शासक का राज्यकाल भी बताएं ।
उत्तर-
कुलोतुंग का राज्यकाल चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ व्यापार की वृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। उसने 1070 ई० से 1118 ई० तक राज्य किया ।

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प्रश्न 41.
चोल राज्य के पतन के बाद दक्षिण में किन चार स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ ?
उत्तर-
चोल राज्य के पतन का पश्चात् दक्षिण में देवगिरी के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल और मुदराई के पाण्डेय नामक स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ ।

प्रश्न 42.
अधीन राजाओं के लिए सामन्त शब्द का प्रयोग किस काल में आरम्भ हुआ और किस काल में यह प्रवृत्ति अपने शिखर पर पहुँची?
उत्तर-
‘सामान्त’ शब्द का प्रयोग कनिष्क के काल में अधीन राजाओं के लिए किया जाता था। यह प्रवृत्ति राजपूतों के काल में अपनी चरम-सीमा पर पहुंची।

प्रश्न 43.
राजपूत काल में पारस्परिक झगड़े किस आदर्श से प्रेरित थे और यह कब से चला आ रहा था ?
उत्तर-
राजपूत काल में पारस्परिक झगड़े चक्रवर्तिन के आदर्श से प्रेरित थे। यह झगड़ा सातवीं शताब्दी के आरम्भ से चला आ रहा था।

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प्रश्न 44.
धार्मिक अनुदान लेने वालों को क्या अधिकार प्राप्त था ?
उत्तर-
धार्मिक अनुदान लेने वालों को केवल लगान इकट्ठा करने का ही नहीं बल्कि कई अन्य कर तथा जुर्माने वसूल करने का भी अधिकार प्राप्त था ।

प्रश्न 45.
राजपूत काल में गांव में बिरादरी का स्थान किस संस्था ने लिया तथा इसका क्या कार्य था ?
उत्तर-
राजपूत काल में गाँव में बिरादरी का स्थान गाँव के प्रतिनिधियों की एक छोटी संस्था ने ले लिया ।

प्रश्न 46.
प्रादेशिक अभिव्यक्ति के उदाहरण में दो ऐतिहासिक रचनाओं तथा उनके लेखकों के नाम बताएँ ।
उत्तर-
प्रादेशिक अभिव्यक्ति के उदाहरण में दो ऐतिहासिक रचनाओं तथा उनके लेखकों के नाम हैं-बिल्हण की रचना विक्रमंकदेवचरित् तथा चन्दरबरदाई की रचना पृथ्वीराजरासो ।

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प्रश्न 47.
राजपूत काल में उत्तर भारत में कौन से चार प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य रचना आरम्भ हो गई थी ?
उत्तर-
राजपूत काल में उत्तर भारत में गुजरात, बंगाल, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य रचना आरम्भ हो गई थी।

प्रश्न 48.
राजपूत काल में नई भाषाओं के लिए कौन-से शब्द का प्रयोग किया जाता था और इसका क्या अर्थ था ?
उत्तर-
राजपूत काल में नई भाषाओं के लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग किया जाता था । इस का अर्थ ‘भ्रष्ट होना’ हैं ।

प्रश्न 49.
राजस्थान में किन चार देवताओं के समर्पित मन्दिर मिलते हैं ?
उत्तर-
राजस्थान में ब्रह्मा, सूर्य, हरिहर और त्रिपुरुष देवताओं के समर्पित मन्दिर मिलते हैं।

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प्रश्न 50.
मातृदेवी की पूजा से सम्बन्धित चार देवियों के नाम बताएं ।
उत्तर-
भवानी, चण्डिका, अम्बिका और कौशिकी।

प्रश्न 51.
शैवमत से सम्बन्धित चार सम्प्रदायों के नाम बताएं ।
उत्तर-
कापालिका, कालमुख, पशुपति तथा लिंगायत नामक शैवमत से सम्बन्धित चार सम्प्रदाय थे।

प्रश्न 52.
रामानुज किस प्रदेश के रहने वाले थे और इनका जन्म किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
रामानुज तनिलनाडु के रहने वाले थे। इनका जन्म तिरुपति में हुआ था ।

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प्रश्न 53.
राजपूत काल में प्रचलित विश्वास के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के कौन-से तीन मुख्य साधन थे ?
उत्तर-
राजपूत काल में प्रचलित विश्वास के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के तीन साधन ज्ञान, कर्म और भक्ति थे।

प्रश्न 54.
शंकराचार्य के विपरीत रामानुज ने सबसे अधिक महत्त्व किसको दिया और इनका इष्ट कौन था ?
उत्तर-
शंकराचार्य के विपरीत रामानुज ने सब से अधिक महत्त्व भक्ति को दिया। उन का इष्ट विष्णु था ।

प्रश्न 55.
किन चार प्रकार के लोग तंजौर के मन्दिर से सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
तंजौर के मन्दिर से ब्राह्मण पुजारी, देव दासियाँ, संगीतकार तथा सेवक सम्बन्धित थे।

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प्रश्न 56.
राजस्थान में सबसे सुन्दर जैन मन्दिर किस स्थान पर मिलते हैं तथा इनमें से किसी एक मन्दिर का नाम बताएँ।
उत्तर-
राजस्थान में सब से सुन्दर जैन मन्दिर माऊंट आबू में मिलते हैं । इन में से एक मन्दिर का नाम सूर्य मन्दिर है।

प्रश्न 57.
कोणार्क का मन्दिर वर्तमान भारत के किस राज्य में है तथा यह किस देवता को समर्पित है ?
उत्तर-
कोणार्क का मन्दिर उड़ीसा राज्य में है । यह सूर्य देवता को समर्पित है।

प्रश्न 58.
खजुराहो के अधिकांश मन्दिर किस देवता को समर्पित हैं तथा इनमें से प्रसिद्ध एक मन्दिर का नाम बताएं।
उत्तर-
खजुराहो के अधिकांश मन्दिर शिव को समर्पित हैं। इन में नटराज मन्दिर सब से प्रसिद्ध है।

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प्रश्न 59.
भुवनेश्वर वर्तमान भारत के किस राज्य में है तथा इसके सबसे प्रसिद्ध मन्दिर का नाम बताएं ।
उत्तर-
भुवनेश्वर वर्तमान भारत के उड़ीसा राज्य में है। इसका सबसे अधिक प्रसिद्ध मन्दिर नटराज मन्दिर है ।

प्रश्न 60.
शिव के नटराज रूप की मूर्तियां किस राजवंश के समय में बनाई जाती थीं और ये किस धातु में हैं ?
उत्तर-
शिव के नटराज रूप की मूर्तियां चोल राजवंश के समय में बनाई जाती थीं। ये कांसे से बनी हुई हैं।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सिन्ध और मुल्तान में अरब शासन के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
अरबों ने 711-12 ई० में सिन्ध पर आक्रमण किया। मुहमद-बिन-कासिम 712 ई० में देवल पहुँचा। सिन्ध के शासक दाहिर के भतीजे ने उसका सामना किया, परन्तु वह पराजित हुआ। इसके पश्चात् कासिम ने निसन और सहवान पर विजय प्राप्त की। अब वह सिन्ध के सबसे बड़े दुर्ग ब्रह्मणाबाद की विजय के लिए चल पड़ा। रावर के स्थान पर राजा दाहिर ने उससे ज़ोरदार टक्कर ली, परन्तु कासिम विजयी रहा। कुछ ही समय पश्चात् कासिम ब्रह्मणाबाद जा पहुंचा। यहां दाहिर के पुत्र जयसिंह ने उसका सामना किया। एक भयंकर युद्ध के पश्चात् कासिम को विजय प्राप्त हुई। उसने राजा दाहिर की दो सुन्दर कन्याओं को पकड़ लिया और उन्हें भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। इस विजय के पश्चात् कासिम ने एलौर पर भी अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार 712 ई० तक लगभग सारा सिन्ध अरबों के अधिकार में आ गया।

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प्रश्न 2.
भारत के उत्तर-पश्चिमी में 8वीं से 12वीं शताब्दी तक कौन-कौन से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए ?
उत्तर-
8वीं से 12वीं शताब्दी तक उत्तर-पश्चिमी भारत में हुए कुछ मुख्य परिवर्तन ये थे :
(1) उत्तर-पश्चिमी भारत में अनेक छोटे-बड़े राजपूत राज्य स्थापित हो गए। इनमें केन्द्रीय सत्ता का अभाव था।

(2) 8वीं शताब्दी के आरम्भ में ही अरबों ने सिन्ध और मुल्तान पर आक्रमण किया। उन्होंने वहां के राजा दाहिर को पराजित करके इन प्रदेशों में अरब शासन की स्थापना की।

(3) 9वीं शताब्दी के आरम्भ में कल्लार नामक एक ब्राह्मण ने गान्धार में साही वंश की नींव रखी। यह राज्य धीरे-धीरे पंजाब के बहुत बड़े भाग पर फैल गया। इस राज्य के अन्तिम शासकों को पहले सुबुक्तगीन और फिर महमूद गज़नवी के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। फलस्वरूप पंजाब गज़नी साम्राज्य का अंग बन गया।

(4) बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी ने राजपूतों को पराजित करके भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना की।

प्रश्न 3.
आठवीं और नौवीं शताब्दियों में उत्तरी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने लिए जिन तीन राज्यों के बीच संघर्ष हुआ, उसका वर्णन कीजिए।
उत्तर-
आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे । इन राजवशों ने बारीबारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए इस संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफ़ी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैनिक शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर इन तीन राज्यों का पतन हो गया।

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प्रश्न 4.
राष्ट्रकूट शासकों की सफलताओं का संक्षेप में वर्णन करो।
उत्तर-
राष्ट्रकूट वंश की मुख्य शाखा को मानरवेट के नाम से जाना जाता है। इस शाखा का पहला शासक इन्द्र प्रथम था। उसने इस वंश की सत्ता को काफ़ी दृढ़ बनाया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र दंती दुर्ग सिंहासन पर बैठा। दंती दुर्ग की मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा कृष्ण प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसने 758 ई० में कीर्तिवर्मन को परास्त करके चालुक्य राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। कृष्ण प्रथम बड़ा कला प्रेमी था। 773 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। कृष्ण प्रथम के पश्चात् क्रमशः गोविन्द द्वितीय और ध्रुव सिंहासन पर बैठे। ध्रुव ने गंगवती के शासक को परास्त करके गंगवती को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने उज्जैन पर भी आक्रमण किया। 793 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। ध्रुव के बाद गोविन्द तृतीय सिंहासन पर बैठा। उसने उत्तरी भारत में कई शासकों को अपने अधीन कर लिया। गोविन्द तृतीय के पश्चात् उसका पुत्र अमोघवर्ष गद्दी पर बैठा। 973 ई० में राष्ट्रकूट वंश का अन्त हो गया।

प्रश्न 5.
प्रतिहार शासकों की प्रमुख सफलताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रतिहार वंश की नींव नौवीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम ने रखी थी। इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक मिहिर भोज था। उसने 836 ई० से 885 ई० तक राज्य किया। उसने अनेक विजयें प्राप्त की। पंजाब, आगरा, ग्वालियर, अवध, अयोध्या, कन्नौज, मालवा तथा राजपूताना का अधिकांश भाग उसके राज्य में सम्मिलित था। मिहिर भोज के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल राजगद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता द्वारा स्थापित सदृढ़ साम्राज्य को स्थिर रखा। उसने लगभग 20 वर्षों तक राज्य किया। महेन्द्रपाल के पश्चात् इस वंश के कर्णधार महिपाल, देवपाल, विजयपाल तथा राज्यपाल बने। इन शासकों की अयोग्यता तथा दुर्बलता के कारण प्रतिहार वंश पतनोन्मुख हुआ। राज्यपाल ने महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे क्रोधित होकर बाद में आस-पास के राजाओं ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला। इस तरह प्रतिहार वंश का अन्त हो गया।

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प्रश्न 6.
परमार शासकों की उपलब्धियों का विवेचन करो।
अथवा
परमार वंश के राजा भोज की प्रमुख उपलब्धियां बताइये।
उत्तर-
परमारों ने मालवा में 10वीं शताब्दी में अपनी सत्ता स्थापित की। इस वंश का संस्थापक कृष्णराज था। धारा नगरी इस राज्य की राजधानी थी। परमार वंश का प्रथम महान् शासक मुंज था। उसने 974 ई० से 995 ई० तक राज्य किया। वह वास्तुकला का बड़ा प्रेमी था। धनंजय तथा धनिक नामक दो विद्वान् उसके दरबार की महान् विभूतियां थीं। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज था। वह संस्कृत का महान पण्डित था। उसने धारा नगरी में एक संस्कृत विश्वविद्यालय की नींव रखी। उसके शासन काल में अनेक सुन्दर मन्दिरों का निर्माण हुआ। भोपाल के समीप भोजपुर’ नामक झील का निर्माण भी उसी ने करवाया था। उसने शिक्षा और साहित्य को भी संरक्षण प्रदान किया। 1018 ई० से 1060 ई० तक मालवा राज्य की बागडोर उसी के हाथ में रही। उसकी मृत्यु के पश्चात् कुछ ही वर्षों में परमार वंश का पतन हो गया।

प्रश्न 7.
राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में क्या कमियां थीं ?
उत्तर-
राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में ये कमियां थी-

  • राजपूतों में आपसी ईष्या और द्वेष बहुत अधिक था। इसी कारण वे सदा आपस में लड़ते रहे। विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करते हुए उन्होंने कभी एकता का प्रदर्शन नहीं किया।
  • राजपूतों को सुरा, सुन्दरी तथा संगीत का बड़ा चाव था। किसी भी युद्ध के पश्चात् राजपूत रास-रंग में डूब जाते थे।
  • राजपूत समय में संकीर्णता का बोल-बाला था। उनमें सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा प्रचलित थी। वे तन्त्रवाद में विश्वास रखते थे जिनके कारण वे अन्ध-विश्वासी हो गये थे।
  • राजपूत समाज एक सामन्ती समाज था। सामन्त लोग अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। अतः लोग अपने सामन्त या सरदार के लिए लड़ते थे; देश के लिए नहीं।

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प्रश्न 8.
चौहान वंश के उत्थान-पतन की कहानी का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
चौहान वंश की नींव गुवक्त ने रखी। 11वीं शताब्दी में इस वंश के शासक अजयदेव ने अजमेर और फिर 12वीं शताब्दी में बीसलदेव ने दिल्ली को जीत लिया। इस प्रकार दिल्ली तथा अजमेर चौहान वंश के अधीन हो गए। चौहान वंश का राजा बीसलदेव बड़ा ही साहित्य-प्रेमी था। परन्तु इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा पृथ्वीराज चौहान था। उसकी कन्नौज के राजा जयचन्द से भारी शत्रुता थी। इसका कारण यह था कि उसने बलपूर्वक जयचन्द की पुत्री संयोगिता से विवाह कर लिया था। पृथ्वीराज बड़ा ही वीर तथा पराक्रमी शासक था। 1191 ई० में उसने मुहम्मद गौरी को तराइन के प्रथम युद्ध में हराया। 1192 ई० में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज पर फिर आक्रमण किया। इस बार पृथ्वीराज पराजित हुआ। इस प्रकार चौहान राज्य का अन्त हो गया।

प्रश्न 9.
चन्देल शासकों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
चन्देलों ने 9वीं शताब्दी में गंगा तथा नर्मदा के बीच के प्रदेश पर अपना शासन स्थापित किया। इसका संस्थापक सम्भवत: नानक चन्देल था। इस वंश का प्रथम प्रतापी राजा यशोवर्मन था। उसने चेदियों को पराजित करके कालिंजर के किले पर विजय प्राप्त की। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उसने प्रतिहार वंश के शासक देवपाल को भी परास्त किया। यशोवर्मन के पश्चात् इस राज्य के कर्णदार धंग, गंड तथा कीर्तिवर्मन बने। धंग नामक शासक ने खजुराहो में एक मन्दिर बनवाया। गंड ने कन्नौज के शासक राज्यपाल का वध किया। उसने महमूद गज़नवी के साथ भी युद्ध किया। ‘कीरत सागर’ नामक तालाब बनवाने का श्रेय इसी वंश के राजा कीर्तिवर्मन को प्राप्त है। इस वंश का अन्तिम शासक परमाल था। उसे कुतुबद्दीन ऐबक से युद्ध करना पड़ा। युद्ध में परमाल पराजित हुआ। इस प्रकार बुन्देलखण्ड मुस्लिम साम्राज्य का अंग बन गया।

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प्रश्न 10.
सामन्तवाद के अधीन किस प्रकार की राज्य व्यवस्था थी ?
उत्तर-
सामन्तवादी व्यवस्था का प्रारम्भ राजपूत शासकों ने किया था। उन्होंने कुछ भूमि का प्रबन्ध सीधे, अपने हाथों में रख कर शेष भूमि सामन्तों में बांट दी। ये सामन्त शासकों को अपना स्वामी मानते थे तथा युद्ध के समय उन्हें सैनिक सहायता देते थे। सामन्त अपने-अपने प्रदेशों में लगभग राजाओं के समान ही रहते थे। कछ सामन्त अपने-आप को महासामन्त अथवा महाराजा भी कहते थे। वे अपने कर्मचारियों को सेवाओं के बदले उसी प्रकार कर-मुक्त भूमि देते थे जिस प्रकार शासक अपने सामन्तों को देते थे। नकद वेतन देने की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई थी। इसलिए शायद ही किसी राजपूत राजवंश ने सिक्के (मुद्रा) जारी किए हों। ये तथ्य सामन्तवाद की मुख्य विशेषताएं थीं।

प्रश्न 11.
महमूद गज़नवी के आक्रमणों के क्या कारण थे ?
उत्तर-
महमूद गज़नवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया और बार-बार विजय प्राप्त की। उसके भारत पर आक्रमण के मुख्य कारण ये थे-

  • उन दिनों भारत एक धनी देश था। महमूद भारत का धन लूटना चाहता था।
  • कुछ विद्वानों के अनुसार महमूद भारत में इस्लाम धर्म फैलाना चाहता था।
  • कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि महमूद एक महान् योद्धा था और उसे युद्ध में वीरता दिखाने में आनन्द आता था। उसने अपनी युद्ध-पिपासा को बुझाने के लिए ही भारत पर आक्रमण किया। परन्तु यदि इन उद्देश्यों का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाए तो हमें पता चलेगा कि उसने केवल धन लूटने के उद्देश्य से ही भारत पर आक्रमण किये और अपने इस उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल रहा।

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प्रश्न 12.
भारत पर महमूद गज़नवी के आक्रमणों के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
1. महमूद के आक्रमणों से संसार को पता चल गया कि भारतीय राजाओं में आपसी फूट है। अतः भारत को विजय करना कठिन नहीं है। इसी बात से प्रेरित होकर बाद में मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किए और यहां मुस्लिम राज्य की स्थापना की।

2. महमूद के आक्रमणों के कारण पंजाब गज़नी साम्राज्य का अंग बन गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने पंजाब को 150 वर्षों तक अपने अधीन रखा।

3. महमूद के आक्रमणों के कारण भारत को जनधन की भारी हानि उठानी पड़ी। वह भारत का काफ़ी सारा धन लूटकर गज़नी ले गया। इसके अतिरिक्त उसके आक्रमणों में अनेक लोगों की जानें गईं।

4. महमूद के आक्रमण के समय उसके साथ अनेक सूफी सन्त भारत आए। उनके उच्च चरित्र से अनेक भारतीय प्रभावित हुए। इससे इस्लाम के प्रसार को काफ़ी प्रोत्साहन मिला।

प्रश्न 13.
हिन्दूशाही शासकों के साथ महमूद गज़नवी के संघर्ष में उसकी विजय के क्या कारण थे ?
उत्तर-
हिन्दूशाही शासकों के विरुद्ध संघर्ष में महमूद गज़नवी की विजय के मुख्य कारण ये थे-

  • मुसलमान सैनिकों में धार्मिक जोश था। परन्तु राजपूतों में ऐसे उत्साह का अभाव था।
  • हिन्दूशाही शासकों को अकेले ही महमूद का सामना करना पड़ा। आपसी फूट के कारण अन्य राजपूत शासकों ने उनका साथ न दिया।
  • महमूद गज़नवी में हिन्दूशाही राजपूतों की अपेक्षा कहीं अधिक सैनिक गुण थे।
  • हिन्दूशाही शासक युद्ध में हाथियों पर अधिक निर्भर रहते थे। भयभीत हो जाने पर हाथी कभी-कभी अपने ही सैनिकों को कुचल डालते थे।
  • राजपूत बड़े आदर्शवादी थे। वे घायल अथवा पीछे मुड़ते हुए शत्रु पर वार नहीं करते थे। इसके विपरीत महमूद का उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना था, भले ही अनुचित ढंग से ही क्यों न हो।

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प्रश्न 14.
राजराजा की मुख्य उपलब्धियां क्या थी ?
उत्तर-
राजराजा ने 985 ई० से 1014 ई० तक शासन किया। अपने शासन काल में उसने अनेक सफलताएं प्राप्त की। उसने केरल नरेश तथा पाण्डेय नरेश को पराजित किया। उसने लंका के उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त की और यह प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया। उसने लंका के प्रसिद्ध नगर अनुराधापुर को भी लूटा। उसने पश्चिमी चालुक्यों और गी के पूर्वी चालुक्यों का सफलतापूर्वक विरोध किया। राजराजा ने मालदीव पर भी विजय प्राप्त की। राजराजा एक कला प्रेमी सम्राट् था। उसे मन्दिर बनवाने का बड़ा चाव था। तंजौर का प्रसिद्ध राजेश्वर मन्दिर उसने ही बनवाया था। यह मन्दिर भवन-निर्माण कला का उत्तम नमूना है।

प्रश्न 15.
राजेन्द्र चोल की सफलताओं की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
राजेन्द्र चोल एक शक्तिशाली राजा था। उसने 1014 ई० से 1044 ई० तक राज्य किया। वह अपने पिता के साथ अनेक युद्धों में गया था, इसलिए वह युद्ध कला में विशेष रूप से निपुण था। वह भी एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने मैसूर के गंग लोगों को और पाण्डयों को परास्त किया। उसने अपनी विजय पताका गोंडवाना राज्य की दीवारों पर फहरा दी! उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के शासकों के विरुद्ध भी संघर्ष किए और सफलता प्राप्त की। उसकी अति महत्त्वपूर्ण विजयें अण्डमान निकोबार तथा मलाया की विजयें थीं। महान् विजेता होने के साथ-साथ वह कुशल शासन प्रबन्धक भी था। उसने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उसने गंगइकोंड चोलपुरम् में अपनी नई राजधानी की स्थापना की। इस नगर को उसने अनेक भवनों तथा मन्दिरों से सुसज्जित करवाया। शिक्षा के प्रचार के लिए उसने एक वैदिक कॉलेज की स्थापना की। उसकी इन महान् सफलताओं के कारण उसके शासन को चोल वंश का स्वर्ण युग माना जाता है।

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प्रश्न 16.
राजपूत काल में शैव मत किन रूपों में लोकप्रिय था ?
उत्तर-
राजपूत काल में हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दो विचारधाराएं ही अधिक प्रचलित हुईं-वैष्णव मत तथा शैवमत। शैवमत के कई रूप थे तथा यह दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था। कुछ शैव सम्प्रदाय सामाजिक दृष्टि से परस्पर विरोधी भी थे, जैसे कि कपालिक, कालमुख तथा पशुपति। 12वीं शताब्दी में वासवराज ने शैवमत की एक नवीन लहर चलाई। इसके अनुयायी लिंगायत या वीर शैव कहलाए। ये लोग शिव की लिंग रूप में पूजा करते थे तथा पूर्ण विश्वास के साथ प्रभु-भक्ति में आस्था रखते थे। इन लोगों ने बाल-विवाह का विरोध करके और विधवा-विवाह का समर्थन करके ब्राह्मण रूढ़िवाद पर गम्भीर चोट की। दक्षिणी भारत में शिव के लिंग रूप के साथ-साथ नटराज के रूप में भी पूजा काफ़ी प्रचलित थी। वहां के लोगों ने शिव के नटराज रूप को धातु की सुन्दर मूर्तियों में ढाला।

प्रश्न 17.
राजपूत काल में मन्दिरों का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
राजपूत काल में मन्दिरों का महत्त्व बढ़ गया था। दक्षिणी भारत में इनका महत्त्व उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक था। वह उस समय के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के मुख्य केन्द्र थे। राजाओं से लेकर व्यापारियों तक सभी ने मन्दिरों के निर्माण में रुचि ली। राजाओं ने अनेक विशाल मन्दिर बनवाए। ऐसे मन्दिरों की देख-रेख का कार्य भी बड़े स्तर पर होता था। उदाहरणार्थ तंजौर के मन्दिर में 400 देवदासियां, 57 संगीतकार, 212 सेवादार तथा सैंकड़ों ब्राह्मण पुजारी थे। राजा तथा अधीनस्थ लोग मन्दिरों को दिल खोल कर दान देते थे, जिनकी समस्त आय मन्दिरों में जाती थी। इस प्रकार लगभग सभी मन्दिर बहुत धनी थे। तंजौर के मन्दिर में सैंकड़ों मन सोना, चांदी तथा बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए थे।

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प्रश्न 18.
क्या राजपूत काल को अन्धकाल कहना उचित होगा ?
उत्तर-
कुछ इतिहासकार राजपूत काल को ‘अन्धकाल’ कहते हैं। वास्तव में इस काल में कुछ ऐसे तथ्य विद्यमान थे जो ‘अन्धकाल’ के सूचक हैं। उदारहण के लिए यह राजनीतिक विघटन का युग था। देश में राजनीतिक एकता बिल्कुल समाप्त हो गई थी। देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हआ था। यहां के सरदार स्वतन्त्र शासक थे। इसके अतिरिक्त राजपूत काल में विज्ञान तथा व्यापार को भी क्षति पहुंची। इन सभी बातों के आधार पर ही इतिहासकार राजपूत काल को ‘अन्धकाल’ कहते हैं। परन्तु राजपूत काल की उपलब्धियों की अवहेलना भी नहीं की जा सकती। इस काल में देश में अनेक सुन्दर मन्दिर बने, जिन्हें आकर्षक मूर्तियों से सजाया गया। इसके अतिरिक्त देश के भिन्न-भिन्न राज्यों में भारतीय संस्कृति पुनः फैलने लगी। सबसे बड़ी बात यह थी कि राजपूत बड़े वीर तथा साहसी थे। इस प्रकार राजपूत युग की उपलब्धियां इस काल में कमजोर पक्ष से अधिक महान् थों। इसलिए इस युग को ‘अन्धकाल’ कहना उचित नहीं है।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजपूत कौन थे ? उनकी उत्पत्ति के विषय में अपने विचार लिखिए।
उत्तर-
राजपूत लोग कौन थे ? इस विषय में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। वे उनकी उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। इनमें से कुछ मुख्य सिद्धान्त ये हैं-

1. विदेशियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त को कर्नल टॉड ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार राजपूत हूण, शक तथा कुषाण आदि विदेशी जातियों के वंशज हैं। इन विदेशी जातियों के लोगों ने भारतीयों के साथ विवाह-सम्बन्ध जोड़े और स्वयं भारत में बस गए। इन्हीं लोगों की सन्तान राजपूत कहलाई। कर्नल टॉड का कहना है कि प्राचीन इतिहास में ‘राजपूत’ नाम के शब्द का प्रयोग कही नहीं मिलता। अत: वे अवश्य ही विदेशियों के वंशज हैं।

2. क्षत्रियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त वेद व्यास ने प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि राजपूत क्षत्रियों के वंशज हैं और ‘राजपूत’ शब्द ‘राजपुत्र’ (क्षत्रिय) का बिगड़ा हुआ रूप है। इसके अतिरिक्त राजपूतों के रीति-रिवाज वैदिक क्षत्रियों से मेल खाते हैं।

3. मूल निवासियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-कुछ इतिहासकारों का मत है कि राजपूत विदेशी न होकर भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं। इस सिद्धान्त के पक्ष में कहा जाता है कि चन्देल राजपूतों का सम्बन्ध भारत की गौंड जाति से है। परन्तु अधिकतर इतिहासकार इस सिद्धान्त को सत्य नहीं मानते।

4. अग्निकुण्ड का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का वर्णन चन्दबरदाई ने अपनी पुस्तक ‘पृथ्वी-राजरासो’ में किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार राजपूत यज्ञ की अग्नि से जन्मे थे। कहा जाता है कि परशुराम ने सभी क्षत्रियों का नाश कर दिया था जिसके कारण क्षत्रियों की रक्षा करने वाला कोई वीर धरती पर न रहा था। अत: उन्होंने मिल कर आबू पर्वत पर यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि से चार वीर पुरुष निकले, जिन्होंने चार महान् राजपूत वंशों-परिहार, परमार, चौहान तथा चालुक्य की नींव रखी। परन्तु अधिकतर इतिहासकार इस सिद्धान्त को कल्पना मात्र मानते हैं।

5. मिश्रित उत्पत्ति का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त डॉ० वी० ए० स्मिथ (Dr. V.A. Smith) ने प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि राजपूत न तो पूर्णतया विदेशियों की सन्तान हैं और न ही भारतीयों की। राजपूत वास्तव में एक मिली-जुली जाति है। उनके अनुसार कुछ राजपूतों की उत्पत्ति शक, हूण, कुषाण आदि विदेशी जातियों से हुई थी और कुछ राजपूत भारत के मूल निवासियों तथा प्राचीन क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे।

6. उनका विचार है कि आबू पर्वत पर किया गया यज्ञ राजपूतों की शुद्धि के लिए किया गया था न कि वहां से राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी। इन सभी सिद्धान्तों में हमें डॉ० स्मिथ का ‘मिश्रित उत्पत्ति’ का सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक ठीक जान पड़ता है। उनके इस सिद्धान्त को अन्य अनेक विद्वानों ने भी स्वीकार कर लिया है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल

प्रश्न 2.
राजपूतों (उत्तर भारत) के सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का विवरण दीजिए।
अथवा
राजपूतों के अधीन उत्तर भारत के राजनीतिक जीवन की मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
647 ई० से लेकर 1192 ई० तक उत्तरी भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। इन राज्यों के शासक ‘राजपूत’ थे। इसलिए भारतीय इतिहास में यह युग ‘राजपूत काल’ के नाम से जाना जाता है। इस समय में उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का वर्णन इस प्रकार है

1. राजनीतिक जीवन-राजपूतों में राजनीतिक एकता का अभाव था। सभी राजपूत राजा अलग-अलग राज्यों पर शासन करते थे। वे अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। उन्होंने किसी प्रकार की केन्द्रीय व्यवस्था नहीं की हुई थी। राजपूत राज्य का मुखिया राजा होता था। राज्य की सभी शक्तियाँ उसी के हाथ में थीं। वह मुख्य सेनापति था। न्याय का मुख्य स्रोत भी वह स्वयं था। कुछ राजपूत राज्यों में युवराज और पटरानियाँ भी शासन कार्यों में राजा की सहायता करती थीं। राजा की सहायता के लिए मन्त्री होते थे। इनकी नियुक्ति राजा द्वारा होती थी। इन मन्त्रियों का मुखिया महामन्त्री अथवा महामात्यं कहलाता था। सेनापति को दण्डनायक कहते थे। राजपूतों की राजनीतिक प्रणाली की आधारशिला सामन्त प्रथा थी। राजा बड़ी-बड़ी जागीरें सामन्तों में बाँट देता था। इसके बदले में सामन्त राजा को सैनिक सेवाएँ प्रदान करता था। राज्य की आय के मुख्य साधन भूमिकर, चुंगी-कर, युद्ध-कर, उपहार तथा जुर्माने आदि थे। राजा स्वयं न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। वह स्मृति के नियमों के अनुसार न्याय करता था। दण्ड कठोर थे। राजपूतों का सैनिक संगठन अच्छा था। उनकी सेना में पैदल, घुड़सवार तथा हाथी होते थे। युद्ध में भालों, तलवारों आदि का प्रयोग होता था। किलों की विशेष व्यवस्था की जाती थी।

2. सामाजिक जीवन-राजपूतों में जाति बन्धन बड़े कठोर थे। उनके यहाँ ऊंचे गोत्र वाले नीचे गोत्र में विवाह नहीं करते थे। राजपूत समाज में स्त्री का मान था। स्त्रियां युद्ध में भाग लेती थीं। उनमें पर्दे की प्रथा नहीं थी। वे शिक्षित थीं। उच्च कुल की कन्याएँ स्वयंवर द्वारा अपना वर चुनती थीं। राजपूत बड़े वीर तथा साहसी थे। वे कायरों से घृणा करते थे। परन्तु उनमें कुछ अवगुण थी थे। वे भाँग, शराब तथा अफीम का सेवन करते थे। वे नाच-गाने का भी बड़ा चाव रखते थे।

3. धार्मिक जीवन-राजपूत हिन्दू देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे। वे राम तथा कृष्ण को अवतार मानकर उनकी पूजा करते थे। उनमें शिव की पूजा सबसे अधिक प्रचलित थी। राजपूतों में मूर्ति पूजा भी प्रचलित थी। उन्होंने अपने देवताओं के मन्दिर बनवाए हुए थे। इनमें अनेक देवी-देवताओं की मूतियाँ स्थापित की जाती थीं। वेद, रामायण तथा महाभारत उनके प्रिय ग्रन्थ थे। वे प्रतिदिन इनका पाठ करते थे। राजपूत बड़े अन्धविश्वासी थे। वे जादू-टोनों में बड़ा विश्वास रखते थे।

4. सांस्कृतिक जीवन-राजपूतों ने विशाल दुर्ग तथा सुन्दर महल बनवाये। चित्तौड़ का किला राजपूत भवन-निर्माण कला का एक सुन्दर उदाहरण है। जयपुर और उदयपुर के राजमहल भी कला की दृष्टि से उत्तम माने जाते हैं। उनके द्वारा बनवाये गए भुवनेश्वर तथा खजुराहो के मन्दिर उनकी भवन-निर्माण कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।

राजपूत युग में साहित्य ने भी बड़ी उन्नति की। मुंज, भोज तथा पृथ्वीराज आदि राजपूत राजा बहुत विद्वान् थे। उन्होंने साहित्य के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ तथा जयदेव की ‘गीत गोविन्द’ इस काल की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ हैं।

प्रश्न 3.
महमूद गज़नवी के प्रमुख आक्रमणों का वर्णन करो।
उत्तर-
महमूद गज़नवी गज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। 997 ई० में उसके पिता की मृत्यु हो गई और वह गज़नी का शासक बना। वह एक वीर योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। उसने 1000 ई० से लेकर 1027 ई० तक भारत पर 17 आक्रमण किए और प्रत्येक आक्रमण में विजय प्राप्त की।
महमूद गज़नवी के प्रमुख आक्रमण-महमूद गज़नवी के कुछ प्रमुख आक्रमणों का वर्णन इस प्रकार हैं-

1. जयपाल से युद्ध-महमूद गज़नवी ने 1001 ई० में पंजाब के शासक जयपाल से युद्ध किया। यह युद्ध पेशावर के निकट हुआ। इसमें जयपाल की हार हुई और और उसने महमूद को 25 हज़ार सोने की मोहरें देकर अपनी जान बचाई। परन्तु जयपाल की प्रजा ने इसे अपना अपमान समझा और उसे अपना राजा मानने से इन्कार कर दिया। अत: जयपाल जीवित जल मरा।।

2. आनन्दपाल से युद्ध-आनन्दपाल जयपाल का पुत्र था। महमूद गजनवी ने 1008 ई० में उसके साथ युद्ध किया। यह युद्ध भी पेशावर के निकट हुआ। इस युद्ध में अनेक राजपूतों ने आनन्दपाल की सहायता की। उसकी सेना ने बड़ी वीरता से महमूद का सामना किया। परन्तु अचानक बारूद फट जाने से आनन्दपाल का हाथी युद्ध क्षेत्र से भाग निकला और उसकी जीत हार में बदल गई। इस प्रकार पंजाब पर महमूद गज़नवी का अधिकार हो गया।

3. नगरकोट पर आक्रमण-1009 ई० में महमूद गजनवी ने नगरकोट (कांगड़ा) पर आक्रमण किया। यहां के विशाल मन्दिरों में अपार धन-सम्पदा थी। महमूद ने यहां के धन को खूब लूटा। फरिश्ता के अनुसार, यहां से 7 लाख स्वर्ण दीनार, 700 मन सोने-चांदी के बर्तन तथा 20 मन हीरे-जवाहरात महमूद के हाथ लगे। इसके कुछ समय पश्चात् महमूद ने थानेश्वर और मथुरा के मन्दिरों का भी बहुत सारा धन लूट लिया और मन्दिरों को तोड़फोड़ डाला।

4. कालिंजर के चन्देलों से युद्ध-राजपूत शासक राज्यपाल ने 1019 ई० में महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली थी। यह बात अन्य राजपूत शासकों को अच्छी न लगी। अतः कालिंजर के चन्देल शासक ने राज्यपाल पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला। महमूद गज़नवी ने राज्यपाल की हार को अपनी हार समझा और इसका बदला लेने के लिए 1021 ई० में उसने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। चन्देल शासक डर के मारे भाग निकला। इस विजय से भी महमूद के हाथ काफी सारा धन लगा।

5. सोमनाथ पर आक्रमण-सोमनाथ का मन्दिर भारत का एक विशाल मन्दिर था। इस मन्दिर में अपार धन भरा पड़ा था। इस मन्दिर की छत जिन स्तम्भों के सहारे खड़ी थी, उनमें 56 रत्न जड़े हुए थे। इस मन्दिर की सबसे बड़ी विशेषता सोमनाथ की मूर्ति थी। यहाँ का धन लूटने के लिए महमूद गजनवी ने 1025 में सोमनाथ पर आक्रमण कर दिया। कुछ ही समय में वह इस मन्दिर की सारी सम्पत्ति लूट कर चलता बना।
सोमनाथ के आक्रमण के पांच वर्ष पश्चात् 1030 ई० में महमूद की मृत्यु हो गई।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल

प्रश्न 4.
महमूद गज़नवी के आक्रमणों के उद्देश्यों और प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
महमूद गज़नवी एक महान् योद्धा था। उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया। उसने अनेक राज्यों में भयंकर लूटमार की। मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। संक्षेप में उसके आक्रमणों के उद्देश्यों और प्रभावों का वर्णन इस प्रकार है
उद्देश्य-

1. धन सम्पत्ति को लूटना-महमूद के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य भारत का धन लूटना था। भारत के मन्दिरों में अपार धन राशि थी। महमूद की आँखें इस धन पर लगी हुई थीं। यही कारण था कि उसने केवल उन्हीं स्थानों पर आक्रमण किया जहां से उसे अधिक-से-अधिक धन प्राप्त हो सकता था।

2. इस्लाम धर्म का प्रचार-कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महमूद भारत में इस्लाम धर्म का प्रसार करना चाहता था। भारत के हिन्दू मन्दिरों और उनकी मूर्तियों को तोड़ना महमूद की धार्मिक कट्टरता का प्रमाण है। उसने इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले अनेक लोगों की हत्या कर दी।

3. युद्ध लिप्सा-महमूद एक महान् सैनिक योद्धा था। उसे युद्ध करके अपना शौर्य दिखाने में आनन्द आता था। अतः कुछ विद्वानों का कहना है कि उसने अपनी युद्ध लिप्सा के कारण ही भारत पर आक्रमण किये।

प्रभाव-
1. भारत की राजनीतिक दुर्बलता का भेद खुलना-भारतीय राजाओं को महमूद ने बुरी तरह परास्त किया। इससे भारत की राजनीतिक दुर्बलता का पर्दा उठ गया। महमूद के बाद आक्रमणकारियों ने भारतीय राजाओं की फूट का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने भारत पर अनेक आक्रमण किए। उन्हें इन आक्रमणों में भारी सफलता मिली।

2. मुस्लिम राज्य की स्थापना में सुगमता-महमूद के आक्रमणों के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों का रास्ता साफ हो गया। उन्हें भारतीय राजाओं को हराकर भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित करने में किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ा।

3. जन-धन की अपार हानि-महमूद ने भारत में खूब रक्तपात किया। उसने मन्दिरों को लूटा और बहुत-सा सोना-चांदी तथा हीरे-जवाहरात ऊंटों पर लाद कर अपने साथ ले गया। इस तरह भारत को जन-धन की भारी हानि उठानी पड़ी।

4. इस्लाम धर्म का प्रसार-महमूद ने इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वालों की हत्या कर दी। इससे भयभीत होकर भारत के हज़ारों लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।

5. भारतीय संस्कृति को आघात-महमूद ने अनेक भारतीय मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस तरह भारतीय कला की अनेक सुन्दर इमारतें नष्ट हो गईं। परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति को काफी आघात पहुंचा।

6. पंजाब को गज़नवी साम्राज्य में मिलना-महमूद ने भारत पर कई आक्रमण किये परन्तु उसने केवल पंजाब को ही गज़नी राज्य में मिलाया। वह इसी प्रदेश को आधार बनाकर भारत में अन्य प्रदेशों पर आक्रमण करना चाहता था और वहां के धन को लूटना चाहता था। सच तो यह है कि महमूद के आक्रमणों के कारण इस देश में धन-जन की हानि हुई, इस्लाम धर्म फैला तथा हमारी संस्कृति को हानि पहुंची। किसी ने सच ही कहा है, “महमूद एक अमानवीय अत्याचारी था जिसने हमारे धार्मिक स्थानों को ध्वस्त किया।

प्रश्न 5.
राजूपतों की सामन्त व्यवस्था के मुख्य पहलुओं पर प्रकाश डालिए। विशेष रूप से इसके सामाजिक तथा आर्थिक परिणामों की चर्चा कीजिए।
अथवा
राजूपतों की सामंतवादी प्रथा का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
सामन्तवादी व्यवस्था वह व्यवस्था थी जिसका प्रारम्भ राजपूत शासकों ने किया था। उन्होंने कुछ भूमि का प्रबन्ध सीधे अपने हाथों में रख कर शेष भूमि सामन्तों में बांट दी। ये सामन्त शासकों को अपना स्वामी मानते थे तथा युद्ध के समय उसे सैनिक सहायता देते थे। सामन्त अपने-अपने प्रदेशों में लगभग राजाओं के समान ही रहते थे। कुछ सामन्त अपने-आप को महासामन्त अथवा महाराजा भी कहते थे। वे अपने कर्मचारियों को सेवाओं के बदले उसी प्रकार कर-मुक्त भूमि देते थे, जिस प्रकार शासक अपने सामन्तों को देते थे। नकद वेतन देने की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई थी। इसलिए शायद ही किसी राजपूत राजवंश ने सिक्के (मुद्रा) जारी किए हों।

सामाजिक तथा आर्थिक परिणाम-सामन्तवादी व्यवस्था के कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक परिणाम निकले-
1. राज्य का किसानों से कोई सीधा सम्पर्क नहीं था। उनके मध्य दावेदारों की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी।

2. किसानों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई। उन्हें भूमि से किसी भी समय बेदखल किया जा सकता था। उनसे बेगार ली जाती थी।

3. इस व्यवस्था के कारण स्थानीय आत्म-निर्भरता पर आधारित अर्थव्यवस्था आरम्भ हुई। इसका अर्थ यह था कि प्रत्येक राज्य केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही वस्तुओं का उत्पादन करता था। परिणामस्वरूप व्यापार को बहुत चोट पहुंची।

4. इस व्यवस्था के कारण भूमि के निजी स्वामित्व की प्रथा आरम्भ हई। इससे सामन्तों तथा राजाओं को काफ़ी लाभ पहुंचा क्योंकि समस्त भूमि के मालिक वे स्वयं थे।

5. भूमि का स्वामित्व मिलने पर राजाओं ने सरकारी कर्मचारियों तथा पूरोहितों को बड़ी-बड़ी जागीरें दान में देनी शुरू कर दीं।

6. भूमि के विभाजन से राज्यों की शक्ति घटने लगी जब कि जागीरदार दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होते गए। ये बात राजा के हितों के विरुद्ध थी।

सामन्तवाद का महत्त्व-सामन्तवाद प्रथा का बड़ा महत्त्व है जिसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
1. भूमि के स्वामित्व से सामाजिक सद्भाव को ठेस पहुंची। इससे ग्राम सभा की स्थिति महत्त्वपूर्ण हो गई तथा उसका स्थान पंचायत ने ले लिया। इसमें सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति होते थे तथा वे गांव के विवादों में सरकारी कर्मचारियों की सहायता करते थे।

2. युद्ध को आवश्यक समझा जाने लगा। इसके फलस्वरूप लोगों में सैन्य गुणों का विकास हुआ और वीर सैनिकों का महत्त्व बढ़ने लगा। महिलाएं भी वीरांगनाओं के रूप में उभरने लगीं। जौहर की प्रथा उनकी वीरता का बहुत बड़ा प्रमाण है।

3. सामन्तवादी व्यवस्था के कारण कृषि का विकास हुआ। भूमि अनुदान देने वाले लोगों ने अपने अधीनस्थ किसानों की सहायता से बहुत-सी वीरान भूमि को कृषि योग्य बना लिया।

4. कई नए कबीलों को भी कृषि-कार्य सिखाया गया। इन नए किसानों ने धीरे-धीरे ब्राह्मण संस्कृति को अपना लिया प्रससे हिन्दुओं की संख्या में वृद्धि हुई।

5. सामन्तवादी व्यवस्था की एक अन्य उपलब्धि यह थी कि इससे लोगों में प्रादेशिक रुचि बढ़ी। फलस्वरूप प्रादेशिक
तथा प्रादेशिक भाषाओं का विकास हुआ। बिल्हण ने ‘विक्रमंकदेवचरित्’ की रचना की। इस पुस्तक में चालुक्य राजा “दत्य चतुर्थ का जीवन वृत्तान्त है। चन्दरबरदाई ने ‘पृथ्वीराजरासो’ में पृथ्वीराज चौहान की सफलताओं का वर्णन किया हण ने ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर का इतिहास लिखा।

6. इसी प्रकार कुछ नई भाषाओं का भी उदय हुआ। इन भाषाओं का विकास मुख्यत: गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्र तथा संस्कृति में ” श में हुआ। कन्नड़ तथा तमिल भाषाओं का विकास पहले ही हो गया था। इन भाषाओं के आधार पर बाद में प्रादेशिक का विकास हुआ। जो यह है कि सामन्तवाद जहां राजाओं के हितों के विरुद्ध था, वहां समाज तथा संस्कृति के लिए एक अदृश्य वरदान सिद्ध हुआ |

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल

प्रश्न 6.
राजपूतों के विरुद्ध तुर्की सफलता के कारणों का विवेचन कीजिए। कोई पांच कारण लिखिए।
उत्तर-
राजपूतों की हार का कोई एक कारण नहीं था। उनकी असफलता का कारण उनके अपने अवगुण तथा मुसलमानों के गुण थे। तुर्क (मुस्लिम आक्रमणकारी) धार्मिक जोश से लड़े। उनमें धार्मिक एकता थी। राजपूतों में बहुत मतभेद थे। राजपूतों के लड़ने का ढंग मुसलमानों के मुकाबले में बहुत अच्छा नहीं था। इस तरह की अनेक बातों के कारण राजपूतों को असफलता का मुंह देखना पड़ा और मुस्लिम आक्रमणकारी सफल हुए। इन कारणों का वर्णन इस प्रकार है-

1. राजनीतिक एकता का अभाव-ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। इन राज्यों के शासक प्रायः आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। मुहम्मद गौरी ने जब पृथ्वीराज पर आक्रमण किया तो जयचन्द ने पृथ्वीराज की कोई सहायता नहीं की। यही दशा शेष राजाओं की थी। ऐसी स्थिति में राजपूतों का पराजित होना निश्चित ही था। सी० बी० वैद्य के शब्दों में, “चौहान, चन्देल, राठौर तथा चालुक्य वंश के राजा राजनीतिक एकता के आदर्श को भूल कर पृथक्-पृथक् लड़े और मुसलमानों के हाथों मार खा गए।”

2. राजपूत शासकों में दूरदर्शिता की कमी-राजपूत शासक वीर और साहसी तो थे, परन्तु उनमें दूरदर्शिता की कमी थी। उन्होंने भारतीय सीमाओं को सुदृढ़ करने का कभी प्रयास न किया और न ही शत्रु को सीमा पर रोकने के लिए कोई उचित पग उठाया। अतः राजपूतों में दूरदर्शिता की कमी उनकी पराजय का एक प्रमुख कारण बनी।

3. स्थायी सेना का अभाव-राजपूत शासकों के पास कोई स्थायी सेना नहीं थी। वे आक्रमण के समय अपने जागीरदारों (सामन्तों) से सैनिक सहायता लिया करते थे। इसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि भिन्न-भिन्न जागीरदारों द्वारा भेजे गए सैनिकों का लड़ने का ढंग भी भिन्न होता था। ऐसी दशा में सैनिकों में अनुशासन नहीं रह सकता था। अनुशासनहीन सेना की पराजय . निश्चित थी।

4. युद्ध-प्रणाली में अन्तर-राजपूतों की युद्ध-प्रणाली पुरानी तथा घटिया किस्म की थी। उन्हें अपने हाथियों पर बड़ा विश्वास था, परन्तु मुस्लिम घुड़सवारों के सामने उनके हाथी टिक न सके। घोड़े युद्ध में हाथियों की अपेक्षा काफ़ी तेज़ गति से दौड़ते थे।

5. मुसलमानों का कुशल सैनिक संगठन-राजपूत राजा युद्ध करते समय अपनी सेना को तीन भागों में बांटते थे जबकि मुसलमानों की सेना पांच भागों में बंटी होती थी। इनमें से ‘अंगरक्षक’ तथा ‘पृथक् रक्षित’ सैनिक बहुत महत्त्वपूर्ण थे। ये टुकड़ियां पहले तो युद्ध से अलग रहती थीं, परन्तु जब शत्रु सैनिक थक जाते थे तो ये अचानक ही उन पर टूट पड़ती थीं। इस प्रकार थकी हुई राजपूत सेना के लिए उनका सामना करना कठिन हो जाता था।

6. राजपूतों के घातक आदर्श-राजपूत युद्ध में निहत्थे शत्रु पर वार करना कायरता समझते थे। वे युद्ध में छल-कपट में विश्वास नहीं करते थे। उनके ये घातक आदर्श उनकी पराजय का कारण बने।

7. हिन्दुओं में जाति-पाति का भेदभाव-हिन्दू समाज अनेक जातियों में विभक्त था। सभी जातियों को अपना पैतृक धन्धा ही अपनाना पड़ता था। रक्षा का भार केवल क्षत्रियों के कन्धों पर था। अन्य जातियों के लोग विदेशी आक्रमणों के समय भी अपने-अपने कार्यों में लगे रहते थे। दूसरी ओर मुसलमानों की सेना में सभी जातियों के लोग शामिल होते थे। इन परिस्थितियों में राजपूतों का पराजित होना निश्चित था।

8. मुसलमानों में धार्मिक जोश-मुसलमान सैनिकों में धार्मिक जोश था। वे हिन्दुओं से लड़ना अपना परम कर्तव्य मानते थे। हिन्दुओं के विरुद्ध वे अपने युद्धों को धर्म-युद्ध अथवा ‘जिहाद’ का नाम देते थे। जीतना या मर मिटना उनका एकमात्र उद्देश्य था। ऐसी दशा में हिन्दुओं का पराजित होना निश्चित ही था। .. सच तो यह है कि मुसलमान अनेक बातों में राजपूतों से आगे थे। उनके कुशल सैनिक संगठन तथा उनकी ‘ भावनाओं का सामना करना राजपूतों के लिए बड़ा कठिन था। यहां तक कि राजपूतों को उनकी अपनी जनता का सहर न मिला। एक इतिहासकार के शब्दों में, “जनता ने अपने सरदारों तथा सैनिकों को सहयोग न दिया जिसके परिणाम राजपूत पराजित हुए।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

PSEB 11th Class Geography Guide ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Questions and Answers

1. उत्तर एक-दो वाक्यों में दें-

प्रश्न (क)
भारत का सबसे बड़ा ग्लेशियर कौन-सा है ?
उत्तर-
भारत का सबसे बड़ा ग्लेशियर सियाचिन है।

प्रश्न (ख)
विश्व का सबसे बड़ा ग्लेशियर कौन-सा है ?
उत्तर-
विश्व का सबसे बड़ा ग्लेशियर हुब्बार्ड ग्लेशियर (अलास्का) है।

प्रश्न (ग)
हिमालय के कुल क्षेत्रफल में से कितना भाग बर्फ से ढका हुआ है ?
उत्तर-
हिमालय के कुल क्षेत्रफल में से 33000 वर्ग कि०मी० भाग बर्फ से ढका है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (घ)
इंदिरा कोल/पास कहाँ स्थित है ?
उत्तर-
इंदिरा कोल/पास उत्तर-पश्चिम हिमालय में स्थित है।

प्रश्न (ङ)
अंटार्कटिका का तापमान हर दस साल बाद कितना बढ़ता है ?
उत्तर-
अंटार्कटिका का तापमान हर दस साल बाद 0.12°C बढ़ता है।

2. निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट करो-

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट कीजिए-
(क) बगली मोरेन-प्रतिसारी हिमोढ़/मोरेन
(ख) ड्रमलिन-ऐस्कर
(ग) सिरक-यू-आकार की घाटी।
उत्तर-
(क) बगली मोरेन (Lateral Moraine)-
पिघलती हुई हिमनदी अपने किनारों पर चट्टानों के ढेर बना कर सैंकड़ों फुट ऊँची दीवार बना देती है, इसे बगली मोरेन कहते हैं।

प्रतिसारी हिमोढ़/मोरेन (Recessional Moraine) –
जब हिमनदी पीछे हटती है और पिघलती है, तो उसके अंतिम सिरे पर एक गोल आकार की श्रेणी बन जाती है, जिसे प्रतिसारी मोरेन कहते हैं।

(ख) ड्रमलिन (Drumlin)-
आधे अंडे अथवा उलटी नाव के आकार जैसे टीलों को ड्रमलिन कहते हैं।

ऐस्कर (Eskar)-
हिमनदी के अगले भाग में हिम की एक गुफा बनती है, जिसमें हिमनदी का जल-प्रवाह होता है और एक टेढ़ीमेढ़ी श्रेणी बन जाती है।

(ग) सिरक अथवा बर्फ़ कुंड (Cirque)-
पर्वत की ढलान पर हिम से ढका एक कुंड बन जाता है जिसे सिरक कहते हैं। बर्फ के पिघलने से यहाँ एक झील बन जाती है।

यू-आकार की घाटी (U-Shaped Valley)-
जब यू-आकार की घाटी में हिम सरकती है, तो उसके दोनों सिरे तीखी ढलान वाले बन जाते हैं। यह घाटी अंग्रेजी भाषा के U-आकार जैसी बन जाती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

3. निम्नलिखित का उत्तर विस्तार सहित दो-

प्रश्न (क)
ग्लेशियर किसे कहते हैं ? इसको कितने भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-
जब किसी हिम क्षेत्र में हिम बहुत अधिक बढ़ जाती है, तो यह नीचे की ओर खिसकती है। खिसकते हुए हिम पिंड को हिमनदी कहते है। (A Glacier is a large mass of moving ice.) कई विद्वानों ने हिम नदी को ‘बर्फ की नदी’ माना है। (Glacier are rivers of ice.)

हिम नदी के कारण-हिम नदी हिम क्षेत्रों से जन्म लेती है। लगातार हिमपात के कारण हिमखंडों का भार बढ़ जाता है। यह हिम समूह निचली ढलान की ओर एक जीभ (Tongue) के रूप में खिसकने लगता है। इसे हिम नदी कहते हैं।

हिम नदी के खिसकने के कई कारण हैं –

  1. हिम का अधिक भार (Pressure)
  2. ढलान (Slope)
  3. गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity)

सबसे तेज़ चलने वाली हिम नदियाँ ग्रीनलैंड में मिलती हैं, जो गर्मियों में 18 मीटर प्रतिदिन चलती हैं। हिम नदियाँ तेज़ ढलान पर और अधिक ताप वाले प्रदेशों में अधिक गति से चलती हैं, पर कम ढलान और ठंडे प्रदेशों में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं। ये हिम नदियाँ हिम क्षेत्रों से सरक कर मैदानों में आकर पिघल जाती हैं और कई नदियों के पानी का स्रोत बनती हैं, जिस प्रकार भारत में गंगा नदी गंगोत्री हिम नदी से जन्म लेती है।

हिम नदी के प्रकार (Types of Glaciers)-स्थिति और आकार के आधार पर हिम नदियाँ तीन प्रकार की होती हैं-

1. घाटी ग्लेशियर (Valley Glaciers)—इसे पर्वतीय हिम नदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। यह हिम नदी ऊंचे पहाड़ों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। यह हिमनदी एक चौड़े और गहरे बेसिन (Basin) की रचना करती है। सबसे पहले अल्पस (Alps) पहाड़ में मिलने के कारण इसे अल्पाइन (Alpine) हिमनदी भी कहते हैं। हिमालय पर्वत पर इस प्रकार की कई हिम नदियाँ भी हैं, जिस प्रकार गंगोत्री हिम नदी जो कि 25 कि०मी० लंबी है। भारत में सबसे बड़ी हिम नदी काराकोरम पर्वत में सियाचिन (Siachin) है, जोकि 72 कि०मी० लंबी है। अलास्का में संसार की सबसे बड़ी हिम नदी हुब्बार्ड है, जोकि
128 कि०मी० लंबी है।

2. महाद्वीपीय ग्लेशियर (Continental Glaciers)-बड़े क्षेत्रों में फैली हुई हिम नदियों को महाद्वीपीय हिम नदी अथवा हिम चादर (Ice Sheets) कहते हैं। इस प्रकार की हिम चादरें ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Areas) में मिलती हैं। लगातार हिमपात, निम्न तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं है। संसार की सबसे बड़ी हिम चादर अंटार्कटिका (Antarctica) में 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1500 मीटर मोटी है। ग्रीनलैंड (Greenland) में ऐसी ही एक हिम चादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग किलोमीटर है। आज से लगभग 25 हज़ार वर्ष पहले हिम युग (Ice Age) में धरती का 1/3 भाग हिम चादरों से ढका हुआ था।

3. पीडमांट ग्लेशियर (Piedmont Glaciers)—ये हिम नदियाँ पर्वतों के निचले भागों में होती हैं। वादी हिम नदियाँ जब पर्वतों के आगे कम ढलान वाली भूमि पर फैल जाती हैं और इनमें अनेक हिम नदियाँ आकर मिल जाती हैं, तो ये एक विशाल रूप बना लेती हैं। ऐसी हिमनदी को पर्वत-धारा हिमनदी या पीडमांट हिमनदी कहते हैं। ऐसी हिम नदियाँ अलास्का में बहुत मिल जाती हैं। यहां की मैलास्पीन (Melaspine) हिमनदी पीडमांट हिमनदी है। हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में मोम (Mom) हिमनदी इसका एक अन्य उदाहरण है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (ख)
ग्लेशियर अनावृत्तिकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, कैसे ?
उत्तर-
ग्लेशियरों द्वारा अनावृत्तिकरण-ग्लेशियर अनावृत्तिकरण का महत्त्वपूर्ण साधन है
प्राचीन समय से अनावृत्तिकरण-यदि पृथ्वी का इतिहास देखा जाए, तो कई हज़ार साल पहले बर्फ़ युग (Ice Age) में धरती का 20% हिस्सा ग्लेशियरों के अधीन था, परंतु आज यह भाग केवल 10% तक ही सीमित रह गया है। ऐसा वैश्विक जलवायु (Global Climate) में बदलाव आने से हुआ है।

ग्लेशियरों का विस्तार-अंटार्कटिक और ग्रीनलैंड में, विश्व के ग्लेशियरों का 96% भाग है। अंटार्कटिक में तो इस बर्फ की तह की मोटाई (Thickness) कई स्थानों पर 1500 मीटर और कई स्थानों पर 4000 मीटर तक भी है।

ग्लेशियर और तापमान-अमेरिकी अंतरिक्ष खोज एजेंसी (NASA) की एक खोज के अनुसार पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक का तापमान 0.12° प्रति दशक (Per Decade) गर्म हो रहा है, जिसके फलस्वरूप बर्फ की परतों के तल (Ice Sheets) टूटते जा रहे हैं और समुद्र (Sea Level) 73 मीटर तक ऊँचा उठ गया है।

ग्लेशियर और हिमपात (Snowfall)—ग्लेशियर केवल पहाड़ों, उच्च अक्षांशों अथवा ध्रुवों के पास ही मिलते हैं क्योंकि इन स्थानों पर तापमान हिमांक से भी नीचे होता है। पृथ्वी के इन क्षेत्रों में बर्फ रूपी वर्षा होती है। बर्फ की वर्षा में बर्फ रुई के समान कोमल होती है। लगातार बर्फ की वर्षा होने से और तापमान बहुत ही कम होने के कारण बर्फ की निचली परतें जमती रहती हैं और बर्फ ठोस रूप धारण कर लेती है। इसे ग्लेशियर कहते हैं। बर्फ की वर्षा अधिकांश क्षेत्रों में सर्दी के मौसम में ही होती है, जबकि गर्मी बर्फ को पिघलाने का काम करती है।

ग्लेशियरों का सरकना-धरती की ढलान और गर्मी के कारण जिस समय बर्फ धीरे-धीरे खिसकना शुरू कर देती है, तो इसे ग्लेशियर का सरकना या खिसकना कहा जाता है। 1834 में Lious Agassiz ने सिद्ध किया था कि ग्लेशियर के चलने की दर मध्य में सबसे अधिक और किनारों की ओर कम होती जाती है।

मैदानों की रचना- ग्लेशियर रेत, बजरी आदि के निक्षेप से मैदानों की रचना करते हैं, जो उपजाऊ क्षेत्र होते हैं।
पानी के भंडार-ग्लेशियर पिघलने के बाद पूरा वर्ष पानी प्रदान करते हैं।
झरने-कई स्थानों पर झरने बनते हैं, जो बिजली पैदा करने में मदद करते हैं।
झीलें-ग्लेशियर कई झीलों का निर्माण करते हैं, जैसे-Great Lake.

प्रश्न (ग)
ग्लेशियर के जलोढ़ निक्षेप क्या है ? विस्तार सहित व्याख्या करो।
उत्तर-
ग्लेशियर का निक्षेपण कार्य (Depositional Work of Glacier)-
पर्वतों के निचले भाग में आकर जब हिमनदी पिघलना आरंभ कर देती है, तो इसके द्वारा प्रवाहित चट्टानें, पत्थर, कंकर आदि निक्षेप हो जाते हैं। हिम के पिघलने से बनी जल धाराओं द्वारा भी इन पदार्थों को ढोने में सहायता मिलती है। हिमनदी द्वारा किए गए निक्षेप नीचे लिखे दो प्रकार के होते हैं

  1. ड्रिफ्ट (Drift)
  2. टिल्ल (Till).

हिम नदी द्वारा बहाकर लाए गए पत्थर, चट्टानी टुकड़े, कंकर आदि को हिमनदी ढेर कहा जाता है। यह सामग्री अलग-अलग स्थितियों में कटकों (Ridges) के रूप में जमा हो जाती है। इन कटकों को मोरेन (Moraine) कहा जाता है। मोरेन के अलग-अलग रूप नीचे लिखे हैं –

1. बगली मोरेन (Lateral Moraine) पिघलती हई हिम नदी जो पदार्थ अपने किनारों पर जमा करती है, वे एक कटक के रूप में एकत्र हो जाते हैं। इन्हें बगली मोरेन कहा जाता है। ये लगभग 30 मीटर ऊँचे होते हैं।

2. मध्यवर्ती अथवा सांझे मोरेन (Medial Moraine)-जब दो हिम नदियाँ आपस में मिलती हैं और वे संयुक्त रूप में आगे बढ़ती हैं तो उनके संगम के भीतरी किनारों की तरफ आधे चाँद जैसे मोरेन भी मिलकर आगे बढ़ते हैं। इन्हें मध्यवर्ती या सांझे मोरेन कहते हैं।

3. तल के मोरेन (Ground Moraine)-हिम नदी के तल पर बड़े चट्टानी टुकड़े और भारी पत्थर होते हैं, जो साथ-साथ तल को घिसाते हुए आगे बढ़ते हैं। हिम नदी के पिघलने पर ये भारी चट्टानें तल पर एकत्र होकर कटक का रूप धारण कर लेती हैं। ऐसे कटकों को तल के मोरेन कहते हैं। इस मोरेन में अधिकतर चट्टानी टुकड़े, पत्थर और चिकनी मिट्टी होती है। इसे बोल्डर क्ले या टिल्ल (Boulder Clay or Till) कहते हैं।

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4. अंतिम मोरेन (Terminal Moraine)-हिम नदी द्वारा कुछ पत्थर इसके अगले भाग में धकेल दिए जाते हैं। हिम नदी के पिघलने के बाद यह इसके अगले भाग में ही एकत्र होकर एक चट्टान का रूप धारण कर लेते हैं। इसे अंतिम मोरेन कहते हैं।

5. मोरेन झील (Moraine Lake)-हिम नदी के अगले भाग में कुछ बर्फ पिघल जाती है। यदि वहाँ अंतिम मोरेन हों तो इस जल का बहाव रुक जाता है और वहाँ एक झील बन जाती है, जिसे मोरेन झील कहते हैं।

6. केतलीनुमा सुराख (Kettle Holes)—जब ग्लेशियर चलता है, तो इसके ऊपर पत्थर या चट्टानों के टुकड़े गिर जाते हैं और कुछ समय बाद बर्फ पिघलती है, तो ग्लेशियर के अंदर छोटे-बड़े सुराख बन जाते हैं, जिन्हें केतलीनुमा सुराख कहते हैं। इसे नॉब और बेसिन भू-आकृति (Knob and Basin Topography) कहते हैं।

7. विस्थापित चट्टानी खंड (Erratic Blocks)-हिम नदी बड़े चट्टानी खंडों और भारी पत्थरों को प्रवाहित करके पर्वत के निचले भाग में ले जाती है और पिघलने पर उनका वहाँ निक्षेपण हो जाता है। ये चट्टानी खंड रचना में निकटवर्ती भूमि की चट्टानों के समान नहीं होते। इन्हें विस्थापित चट्टानी खंड कहते हैं।

8. हिमोढ़ी टीले (Drumlins)-हिम नदी तल पर हिमोढ़ को कई बार छोटे-छोटे गोल टीलों (Mounds) के रूप में इस तरह जमाकर देती है कि वे आधे अंडे अथवा उलटी नाव के समान दिखाई देते हैं। इन्हें हिमोढ़ी टीले (Drumlins) कहते हैं। दूर से देखने पर ये अंडे की टोकरी के समान प्रतीत होते हैं, इसलिए इस आकार वाली भूमि को अंडों की टोकरी वाली भू-आकृति (Basket of Eggs Topography) कहते हैं।

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प्रश्न (घ)
ग्लेशियर (हिम नदी) की अपघर्षण की क्रिया से कौन-कौन-सी रूप रेखाएँ बनती हैं, वर्णन करें।
उत्तर-
हिम नदी का अपरदन कार्य (Erosional Work of Glacier)-

पर्वतीय ढलानों से चट्टानी टुकड़े, पत्थर, कंकर आदि गुरुत्वाशक्ति के प्रभाव से घाटी हिम नदी के तल पर गिरते रहते हैं। कुछ समय बाद ये पत्थर आदि दिन के समय गर्म हो जाते हैं और बर्फ़ को पिघलाकर हिम नदी के तल (bed) पर पहुंच जाते हैं और हिम नदी के साथ-साथ चलते हैं। हिम नदी पर ये उपकरण बनकर अपरदन का काम करते हैं।

हिम नदी का अपघर्षण/अपरदन (Glacier Erosion)-

पानी के समान हिम नदी भी अपघर्षण/अपरदन, ढोने और जमा करने के तीन काम करती है। हिम नदी पहाड़ी प्रदेशों में अपघर्षण का काम, मैदानों में जमा करने और पठारों में रक्षात्मक काम करती है।

अपघर्षण (Erosion)-हिम नदी अनेक क्रियाओं द्वारा अपघर्षण का काम करती है-

  1. तोड़ने की क्रिया (Plucking or Quarrying)
  2. खड्डे बनाना (Grooving)
  3. अपघर्षण (Abrasion)
  4. पीसना (Grinding)
  5. चमकाना (Polishing)

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हिम नदी के कार्य हिम नदी अपने रास्ते के बड़े-बड़े पत्थरों को खोदकर खड्डे पैदा कर देती है। हिम-स्खलन (Avalanche) और भू-स्खलन (Land Slide) के कारण कई चट्टानी पत्थर हिम नदी के साथ मिल जाते हैं। ये पत्थर चट्टानों के साथ रगड़ते और घिसते हुए चलते हैं और हिम नदी के तल और किनारों को चिकना बनाते हैं। पहाड़ी प्रदेशों का रूप ही बदल जाता है। घाटी का तल चमकीला और चिकना हो जाता है। हिम नदी का अपघर्षण कई तत्त्वों पर निर्भर करता है

  1. हिम की मोटाई (Amount of Ice)-अधिक हिम के कारण कटाव भी अधिक होता है।
  2. चट्टानों की रचना (Nature of Rocks)-कठोर चट्टानों पर कम और नर्म चट्टानों पर अधिक कटाव होता है।
  3. हिम नदी की गति (Movement of Glaciers)-तेज़ गति वाली हिम नदियाँ शक्तिशाली होती हैं और अधिक कटाव करती हैं।
  4. भूमि की ढलान (Slope of Land)–धरातल की तेज़ ढलान अधिक अपरदन करने में सहायक होती है।

हिम नदी के अपघर्षण द्वारा बनी भू-आकृतियाँ (Land forms Produced by Glacier Erosion) –

हिम नदी के अपरदन क्रिया द्वारा पर्वतों में नीचे लिखी भू-आकृतियाँ बनती हैं-

1. बर्फ कुंड अथवा सिरक (Cirque or Corrie or CWM)-सूर्य-ताप के कारण दिन के समय कुछ मात्रा में हिम पिघल कर जल के रूप में दरारों में प्रवेश कर जाती है। रात के समय अधिक सर्दी होने के कारण यह जल फिर हिम में बदल जाता है और फैल जाता है फलस्वरूप यह चट्टानों पर दबाव डालकर उन्हें तोड़

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देता है। इस क्रिया में नियमित रूप में चलते रहने के फलस्वरूप पर्वत की ढलान पर खड्डा बन जाता है। सामान्य रूप से यह बर्फ से भरा रहता है और धीरे-धीरे तुषारचीरन (Frost Wedging) की क्रिया से एक विशाल कुंड का रूप धारण कर लेता है। इसे हिमगार भी कहा जाता है। इसे फ्रांस में सिरक (Cirque), स्कॉटलैंड में कोरी (Corrie), जर्मनी में कैरन (Karren) और इंग्लैंड में वेल्ज़ (Wales of England) के कूम (CWM) कहते हैं। हिमगार की बर्फ़ जब पिघल जाती है, तो इसमें पानी भरा रहता है, इसे गिरिताल (Tarn Lake) कहते हैं। इसी प्रकार पर्वतीय ढलानों पर अर्धगोले के आकार के खड्डों को हिम कुंड कहते हैं (Cirques are Semi-circular hollow on the side of a mountain)। इनका आकार आरामकुर्सी (Arm chair) अथवा कटोरे के समान होता है।

2. दर्रा अथवा कोल (Pass or Col) कई बार पर्वत की विपरीत ढलानों की एक समान ऊँचाई पर हिमगार कारण पर्वत का वह भाग बाकी भागों की अपेक्षा नीचा हो जाता है। पर्वत के इस निचले भाग को दर्रा (Saddle) कहते हैं। कनाडा का रेल मार्ग कोल क्षेत्रों में से निकलता है।

3. कंघीदार श्रृंखला (Comb Ridge)-कई बार पर्वत माला की एक श्रृंखला (Ridge) के विपरीत ढलानों पर कई हिमगार बन जाते हैं और श्रृंखला कई स्थानों से नीची हो जाती है, जिसके फलस्वरूप श्रृंखला कंघी के आकार की प्रतीत होती है और इसके चट्टानी खंभे (Rock-Pillars) दिखाई देते हैं। कुछ समय के बाद जब ये खंभे नष्ट हो जाते हैं तो श्रृंखला उस्तरे जैसी तीखी धार वाली (Rajor-edged) बन जाती है। तब इस श्रृंखला को एरैटी या तीखी श्रृंखला (Arete) कहते हैं।

4. पर्वत या गिरि श्रृंग (Horn)-कई बार किसी पर्वत के दो-तीन या चारों तरफ एक जैसी ऊँचाई पर हिमगारों का निर्माण हो जाता है। कुछ समय के बाद उनकी पिछली तरफ के शिखर के कटाव के कारण ये अंदर ही अंदर आपस में मिल जाते हैं, जिसके फलस्वरूप इनके मध्य में एक ठोस पिरामिड (Pyramid) आकार का शिखर बाकी रह जाता है।

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इस शिखर को पर्वत-श्रृंग कहते हैं। स्विट्ज़रलैंड (Switzerland) का मैटरहॉर्न (Matterhorn) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कश्मीर घाटी पहलगाम (Pahalgam) से 25 किलोमीटर ऊपर की ओर कोलहाई (Kholhai) हिम नदी के स्रोत पर ऐसा ही एक पर्वत श्रृंग है।

5. भेड़ पहाड़ या रोशे मुताने (Sheep Rocks or Roche Muttonne)-हिम नदी के मार्ग में अनेक छोटी छोटी रुकावटें आती हैं, जिन्हें वह अपने प्रवाह के दबाव के साथ उखाड़ देती है। परंतु कई बार बड़ी रुकावटों जैसे पर्वतीय टीलों आदि को उखाड़ने में वह असमर्थ रहती है। परिणामस्वरूप इसे उन रुकावटों के ऊपर से होकर निकलना पड़ता है। हिम नदी के सामने वाली ढलान हिमनदी संघर्षण क्रिया द्वारा घिसकर

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चिकनी और नर्म (Smooth) हो जाती है। हिमनदी जब टीले की दूसरी तरफ उतरती है, तो यह अपनी उखाड़ने की शक्ति (Plucking) द्वारा चट्टानों को उखाड़ देती है। इससे दूसरी तरफ की ढलान ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। ये टीले दूर से ऐसे लगते हैं, जैसे भेड़ की पीठ हो, इसलिए इसे भेड़-पीठ कहते हैं। ‘Roche Muttonne’ फ्रांसीसी (French) भाषा के दो शब्द हैं, जिनका अर्थ भेड़-दुम चट्टान होता है।

6. यू-आकार की घाटी (U-Shaped Valley)-हिमनदी सदा पहले से बनी घाटी में बहती है। जिस घाटी में हिम नदी चलती है, उसे अपनी घर्षण और उखाड़ने की क्रिया द्वारा नीचे से और दोनों तरफ से तीखी ढलान वाली बना देती है, जिसके कारण हिम नदी घाटी अंग्रेजी भाषा के अक्षर ‘U’ आकार की बन जाती है। नदी द्वारा बनी V- आकार की घाटियाँ हिम नदी की अपरदन क्रिया द्वारा U- आकार की हो जाती हैं। इसका तल समतल और चौकोर होता है। इसके किनारे खड़ी ढलान वाले होते हैं। समुद्र में डूबी हुई यू-आकार की घाटियों को फियॉर्ड (Fiord) कहते हैं। उदाहरण-उत्तरी अमेरिका में सेंट लारेंस घाटी।

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7. लटकती घाटी (Hanging Valley)–एक बड़ी हिमनदी में कई छोटी हिम नदियाँ आकर मिलती हैं। ये मुख्य हिम नदी की सहायक (Tributaries) कहलाती हैं। मुख्य हिम नदी सहायक हिम नदियों के मुकाबले में अधिक अपरदन करती है, जिसके कारण मुख्य हिम नदी घाटी का तल, सहायक हिम नदी के तल की तुलना में अधिक नीचा हो जाता है। कुछ समय के बाद, जब हिम नदियाँ पिघल जाती हैं, तो सहायक नदियों की घाटियाँ मुख्य नदी की घाटी पर लटकती हुई दिखाई देती हैं और वहाँ जल झरने बन जाते हैं। इस प्रकार यह लटकती घाटियाँ मुख्य हिम नदी और सहायक हिम नदी की घाटियों में अपरदन की भिन्नता के कारण बनती हैं।

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Geography Guide for Class 11 PSEB ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
भारत की किसी एक हिमनदी का नाम बताएँ।
उत्तर-
सियाचिन।

प्रश्न 2.
हिमनदी शृंग का एक उदाहरण दें।
उत्तर-
मैटर हॉर्न।

प्रश्न 3.
विश्व के कितने क्षेत्र में ग्लेशियर हैं ?
उत्तर-
10 प्रतिशत।

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प्रश्न 4.
अंटार्कटिका में हिम की मोटाई बताएँ।
उत्तर-
4000 मीटर।

प्रश्न 5.
उस विद्वान का नाम बताएँ, जिसने पुष्टि की थी कि हिम नदी की गति होती है।
उत्तर-
लुईस अगासीज़।

प्रश्न 6.
हिमालय पर्वत की हिम रेखा की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
5000 मीटर।

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प्रश्न 7.
अलास्का के पीडमांट ग्लेशियर का नाम बताएँ।
उत्तर-
मैलास्पीना।

प्रश्न 8.
सिरक के अन्य नाम बताएँ।
उत्तर-
कोरी, कैरन।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
हिम क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हिम क्षेत्र (Snow field) हिम रेखा से ऊपर सदैव बर्फ से ढके प्रदेशों को हिम क्षेत्र कहते हैं।

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प्रश्न 2.
हिम रेखा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हिम रेखा (Snow line)—यह वह ऊँचाई है, जिसके ऊपर सारा साल हिम जमी रहती है।

प्रश्न 3.
घाटी हिम नदी क्या है ?
उत्तर-
घाटी हिम नदी (Valley Glacier)—पर्वतों से खिसककर घाटी में उतरने वाली हिम नदी को घाटी हिम नदी कहते हैं।

प्रश्न 4.
महाद्वीपीय हिम नदी क्या है ?
उत्तर-
महाद्वीपीय हिम नदी (Continental Glacier) ध्रुवीय क्षेत्रों के बड़े क्षेत्रों पर हिम चादर को महाद्वीपीय नदी कहते हैं।

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प्रश्न 5.
हिमकुंड की परिभाषा दें।
उत्तर-
हिमकुंड (Cirque)-पर्वतीय ढलानों पर अर्धगोले के आकार के गड्ढों को हिमकुंड कहते हैं।

प्रश्न 6.
हिम रेखा की ऊँचाई किन तत्वों पर निर्भर करती है ?
उत्तर-

  1. अक्षांश
  2. हिम की मात्रा
  3. पवनों
  4. ढलान।

प्रश्न 7.
हिमालय पर्वत पर हिमरेखा की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
5000 मीटर।

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प्रश्न 8.
ध्रुवों पर हिमरेखा की ऊँचाई बताएँ।
उत्तर-
समुद्र तल।

प्रश्न 9.
हिम नदी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हिम क्षेत्रों से नीचे की ओर खिसकते हुए हिमकुंड को हिम नदी कहते हैं।

प्रश्न 10.
भारत में सबसे बड़ी हिम नदी कौन-सी है ?
उत्तर-
सियाचिन।

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प्रश्न 11.
गंगा नदी किस हिमनदी से जन्म लेती है ?
उत्तर-
गंगोत्री।

प्रश्न 12.
हिम नदियों के तीन मुख्य प्रकार बताएँ।
उत्तर-
घाटी हिम नदी, पीडमांट हिम नदी, हिम चादर (महाद्वीपीय हिम नदी)

प्रश्न 13.
हिम-स्खलन (Avalanche) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नीचे की ओर खिसकती बर्फ पर्वतीय ढलानों से चट्टानी टुकड़े उखाड़ लेती है, इन्हें हिम-स्खलन (Avalanche) कहते हैं।

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प्रश्न 14.
महाद्वीपीय हिम नदी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब कोई हिम नदी एक विशाल क्षेत्र को घेर लेती है, जैसे कि एक महाद्वीप, तब उसे हिम चादर या महाद्वीपीय हिम नदी कहते हैं।

प्रश्न 15.
हिम नदी के अपरदन के रूप बताएँ।
उत्तर-

  1. उखाड़ना (Plucking)
  2. खड्डे बनाना (Grooving),
  3. अपघर्षण (Abrasion),
  4. पीसना (Grinding)

प्रश्न 16.
सिरक (Cirque) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पर्वतीय ढलानों पर अर्धगोले के आकार के खड्डों को हिमकुंड या सिरक कहते हैं।

प्रश्न 17.
टार्न झील (गिरिताल) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी सिरक में बर्फ के पिघलने के बाद एक झील बन जाती है, जिसे टार्न झील या गिरिताल कहते हैं।

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प्रश्न 18.
पर्वतश्रृंग (Horn) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी पहाड़ी के पीछे के कटाव के कारण नुकीली चोटियाँ बनती हैं, जिन्हें Horn कहते हैं।

प्रश्न 19.
कोल या दर्रा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
किसी-पहाड़ी के दोनों तरफ के सिरक आपस में मिलने से एक दर्रा बनता है, जिसे कोल (Col) या दर्रा (Pass) कहते हैं।

प्रश्न 20.
फियॉर्ड से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तटों पर डूबी हुई यू-आकार की घाटियों को फियॉर्ड कहते हैं।

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प्रश्न 21.
हिमोढ़ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
हिम नदी अपने भार को एक टीले के रूप में जमा करती है, जिसे हिमोढ़ कहते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिम रेखा किसे कहते हैं ? इसकी ऊँचाई किन तत्त्वों पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
हिम रेखा (Snow line) स्थायी हिम क्षेत्रों की निचली सीमा को हिम रेखा कहते हैं। इस स्थल पर सबसे कम ऊँचाई होती है, जहाँ सदा हिम जमी रहती है। यह वह ऊंचाई है, जिसके ऊपर हिम पिघल नहीं सकती और सारा साल हिम रहती है। धरती के अलग-अलग भागों में हिम रेखा की ऊँचाई अलग-अलग होती है, जैसे हिमालय पर 5000 मीटर, अल्पस पहाड़ पर 2000 मीटर है। हिमरेखा की ऊँचाई पर कई तत्त्वों का प्रभाव पड़ता है-

  1. अक्षांश (Latitude)—ऊँचे अक्षांशों पर कम तापमान होने के कारण, हिम रेखा की ऊँचाई कम होती है, परंतु निचले अक्षांशों में हिम रेखा की अधिक ऊँचाई मिलती है। ध्रुवों पर हिम रेखा समुद्री तल पर मिलती है। भूमध्य रेखा पर हिम क्षेत्र 5500 मीटर की ऊँचाई पर मिलते हैं।
  2. हिम की मात्रा (Amount of Snow)-अधिक हिम वाले क्षेत्रों में हिम रेखा नीचे होती है, परंतु कम हिम वाले क्षेत्रों में हिमरेखा ऊँची होती है।
  3. पवनें (Winds)—शुष्क हवा के कारण ऊँची और नम हवा के कारण निचली हिम रेखा मिलती है। 4. ढलान (Slope)-तीव्र ढलान पर ऊँची और मध्यम ढलान पर निचली हिम रेखा मिलती है।

प्रश्न 2.
घाटी हिम नदी पर एक नोट लिखें।
उत्तर-
घाटी हिम नदी (Valley Glaciers)—इन्हें पर्वतीय हिम नदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। ये हिम नदी ऊँचे पहाड़ों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। यह हिम नदी एक चौड़े और गहरे बेसिन (Basin) की रचना करती है। सबसे पहले अल्पस पहाड़ (Alps) में मिलने के कारण इन्हें एल्पाइन (Alpine) हिम नदी भी कहते हैं। हिमालय पहाड़ पर इस प्रकार की कई हिम नदियाँ भी हैं, जैसे गंगोत्री हिम नदी, जोकि 25 कि०मी० लंबी है। भारत में सबसे बड़ी हिमनदी काराकोरम पर्वत में सियाचिन (Siachin) है, जोकि 72 कि०मी० लंबी है। अलास्का में संसार की सबसे बड़ी हिमनदी हुब्बार्ड है, जोकि 128 कि०मी० लंबी है।

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प्रश्न 3.
महाद्वीपीय हिम नदियों का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय हिम नदियाँ (Continental) Glaciers)-बड़े क्षेत्रों में फैली हुई हिम नदियों को महाद्वीपीय हिमनदी या हिम चादर (Ice Sheets) कहते हैं। इसी प्रकार की हिम चादरें ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Areas) में मिलती हैं। लगातार हिमपात, कम तापक्रम और कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं है। संसार की सबसे बड़ी हिम चादर अंटार्कटिका (Antarctica) में 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1500 मीटर मोटी है। ग्रीनलैंड (Greenland) में ऐसी ही एक हिमचादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग कि०मी० है।

प्रश्न 4.
हिम नदी के अपरदन का कार्य किन कारकों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-

  1. हिम की मोटाई (Amount of Ice)-अधिक हिम के कारण अधिक कटाव होता है।
  2. चट्टानों की रचना (Nature of Rocks)-कठोर चट्टानों पर कम और नर्म चट्टानों पर अधिक कटाव होता
  3. हिमनदी की गति (Movement of Glaciers)—तेज़ गति वाली हिम नदियाँ शक्तिशाली होती हैं और अधिक कटाव करती हैं।
  4. भूमि की ढलान (Slope of Land)–धरातल की तेज़ ढलान अधिक अपरदन में सहायक होती है।

प्रश्न 5.
मोरेन (हिमोढ़) कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
निक्षेपण के स्थान के आधार पर मोरेन चार प्रकार के होते हैं-

  1. बगली मोरेन (Lateral Moraines) हिमनदी के किनारों के साथ-साथ बने लंबे और कम चौड़े मोरेन को बगली मोरेन कहते हैं। ये मोरेन एक लंबी श्रेणी (Ridge) के रूप में लगभग 30 मीटर ऊँचे होते हैं।
  2. मध्यवर्ती (सांझे) मोरेन (Medial Moraines)—दो हिम नदियों के संगम के कारण उनके भीतरी किनारे वाले अर्ध-चंद्र के आकार के टीले मिलकर एक हो जाते हैं। इसे मध्यवर्ती या सांझे मोरेन कहते हैं। ये मोरेन नदी के बीच दिखाई देते हैं।
  3. अंतिम मोरेन (Terminal Moraines) हिमनदी के पिघल जाने पर इसके अंतिम किनारे पर बने मोरेन को अंतिम मोरेन कहते हैं। ये मोरेन अर्ध चंद्रमा के आकार जैसे और ऊँचे-नीचे होते हैं।
  4. तल के मोरेन (Ground Moraines)-हिम नदी के तल या आधार पर जमे हुए पदार्थों के ढेर को तल के मोरेन कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(ii) ग्लेशियर के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न 6.
हिमपात या बर्फबारी से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
हिमपात या बर्फबारी (Snowfalls)-उच्च अक्षांशों के प्रदेशों और ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में बादलों से पानी के स्थान पर बर्फ (Snow) गिरती है। इसे हिमपात या बर्फबारी कहते हैं। इसका मूल कारण वहाँ की अति ठंडी जलवायु है। ये प्रदेश सदा बर्फ से ढके रहते हैं।

ध्रुवीय और ऊँचे पर्वत सदा बर्फ से ढके रहते हैं। इन प्रदेशों में सारा साल वर्षा, बर्फबारी (Snowfall) के रूप में होती है। लगातार बर्फ गिरने के कारण यह जमकर ठोस हो जाती है और हिम (Ice) बन जाती है। ऊंचे पहाड़ों पर गर्मी की ऋतु में ही हिमनदी पिघलती है। ऐसे हिम के साथ सदा ढके रहने वाले क्षेत्रों को हिमक्षेत्र (Snow fields) या नेवे (Neves) कहते हैं। संसार के सबसे ऊँचे क्षेत्रों पर हिम-क्षेत्र मिलते हैं। हिमक्षेत्र हिमरेखा से ऊँचे स्थित होते हैं। हिमक्षेत्र ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर सभी महाद्वीपों में मिलते हैं।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
हिम नदी किसे कहते हैं ? इसका जन्म कैसे होता है ? इसके प्रमुख प्रकार बताएँ।
उत्तर-
हिम नदी (Glacier) –

जब किसी हिमक्षेत्र में हिम बहुत अधिक बढ़ जाती है, तो यह नीचे को ओर खिसकती है। खिसकते हुए हिमपिंड को हिम नदी कहते हैं। (A Glacier is a large mass of moving ice.) कई विद्वानों ने हिम नदी को ‘बर्फ की नदी’ माना है। (Glaciers are rivers of ice)

हिमनदी के कारण-हिम नदी हिम क्षेत्रों से जन्म लेती है। लगातार हिमपात के कारण हिम खडों का भार बढ़ जाता है। ये हिम समूह निचली ढलान की ओर एक जीभ (Tongue) के रूप में खिसकने लगता है। इसे हिम नदी कहते हैं। हिम नदी के खिसकने के कई कारण हैं

  1. हिम का अधिक भार (Pressure)
  2. ढलान (Slope)
  3. गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity)

सबसे तेज़ चलने वाली हिम नदियाँ ग्रीनलैंड में मिलती हैं, जो गर्मियों में 18 मीटर प्रति दिन चलती हैं। हिम नदियाँ तेज़ ढलान पर और अधिक ताप वाले प्रदेशों में अधिक गति के साथ चलती हैं। परंतु कम ढलान और ठंडे प्रदेशों में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं। ये हिमनदियाँ हिम-क्षेत्रों से सरककर मैदानों में आकर पिघल जाती हैं और कई नदियों के पानी का स्रोत बनती हैं, जैसे भारत में गंगा गंगोत्री हिमनदी से जन्म लेती है।

हिम नदी के प्रकार (Types of Glaciers)-स्थिति और आकार की दृष्टि से हिम नदियाँ दो प्रकार की होती हैं-

1. घाटी हिम नदी (Valley Glaciers)—इन्हें पर्वतीय हिमनदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। यह हिमनदी ऊँचे पहाड़ों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। यह हिम नदी एक चौड़े और गहरे बेसिन (Basin) की रचना करती है। सबसे पहले अल्पस (Alps) पर्वत में मिलने के कारण इन्हें एल्पाइन (Alpine) हिमनदी भी कहते हैं। हिमालय पर्वत पर इस प्रकार की कई हिम नदियाँ भी हैं, जैसे गंगोत्री हिमनदी, जो कि 25 कि०मी० लंबी है। भारत में सबसे बड़ी हिम नदी काराकोरम पर्वत में सियाचिन (Siachin) है, जोकि 72 कि०मी० लंबी है। अलास्का में संसार की सबसे बड़ी हिमनदी हुब्बार्ड है, जोकि 128 कि०मी० लंबी है।

2. महाद्वीपीय हिमनदी (Continental Glaciers)-बड़े क्षेत्रों में फैली हुई हिमनदियों को महाद्वीपीय हिमनदी या हिमचादर (Ice-Sheets) कहते हैं। इसी प्रकार की हिम-चादरें ध्रुवीय क्षेत्रों (Polar Areas) में मिलती है। लगातार हिमपात, निम्न तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं है। संसार की सबसे बड़ी हिम-चादर अंटार्कटिका (Antarctica) में 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1500 मीटर मोटी है। ग्रीनलैंड (Greenland) में ऐसी ही एक हिम-चादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग कि०मी० है। आज से लगभग 25 हज़ार वर्ष पहले हिम युग (Ice age) में धरती का 1/3 भाग हिम-चादरों से ढका हुआ था।

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प्रश्न 2.
हिम नदी जल प्रवाह के निक्षेप से बनने वाले भू-आकारों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
हिम नदी जल-प्रवाह के निक्षेप से उत्पन्न भू-आकृतियाँ (Landforms Produced by Glacio-fluvial Deposites)-

जब हिम नदी पिघलती है, तो उसके अगले भाग से पानी की अनेक धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ये धाराएँ अपने बारीक पदार्थों-रेत, मिट्टी आदि को बहाकर ले जाती हैं और कुछ दूर जाकर उन्हें एक स्थान पर ढेरी कर देती हैं।
जल प्रवाह का निक्षेप नदी के पिघल जाने के बाद होता है। उससे उत्पन्न भू-आकृतियाँ नीचे लिखी हैं- .

1. एस्कर या हिमोढ़ी टीला (Eskar)-Snout की बारीक सामग्री को जल धाराएँ बहाकर ले जाती हैं और भारी पत्थर, कंकर आदि का ढेर साँप के समान बल खाती एक लंबी श्रृंखला के समान बन जाता है। चिकने पत्थर, कंकर आदि की साँप के समान बल खाती श्रृंखला को हिमोढ़ी टीला या एस्कर कहते हैं। एस्कर आइरिश भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ

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2. कंकड़-पहाड़ या केम (Kame)-हिमनदी के अगले भाग से निकली कुछ धाराएँ रेत और छोटे पत्थर, कंकर आदि को टीलों के रूप में ढेरी कर देती हैं। इन्हें कंकड़-पहाड़ भी कहा जाता है।

3. ग्लेशियर नदी मैदान (Outward Plain or Outwash Plain)-हिम नदी द्वारा उत्पन्न जल धाराओं द्वारा निक्षेप की गई सामग्री से एक मैदान का निर्माण हो जाता है। इसे ग्लेशियर नदी मैदान कहते हैं।

4. घाटी मोरेन (Valley Moraines)-हिम नदी के पिघलने पर जल धाराएं अपने साथ तल के अंतिम मोरेन के नुकीले पदार्थो को निचले भागों में पंक्तियों में निक्षेप कर देती हैं। इन निक्षेपों को घाटी मोरेन कहते हैं।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
अंग्रेजी साम्राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक तथा लगान सम्बन्धी नीतियों का भारत की अर्थ-व्यवस्था तथा समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
भारत मे ब्रिटिश राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक तथा लगान सम्बन्धी नीतियों का भारत के सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र पर बहुत प्रभाव पड़ा। भारत जो कि कृषि प्रधान देश था, कई बार अकाल का शिकार हुआ। किसानों की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ने लगी। ब्रिटिश सरकार ने कृषक तथा कृषि की ओर कोई ध्यान न दिया। देश में जो थोड़े बहुत कुटीर-उद्योग थे, उन्हें भी इंग्लैंड की औद्योगिक उन्नति के लिए नष्ट कर दिया गया। ब्रिटिश राज्य में भारत आर्थिक रूप से ऐसा पिछड़ा कि आज तक भी नहीं सम्भल सका। भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर ब्रिटिश राज्य का प्रभाव निम्नलिखित बातों से जाना जा सकता है

I. कृषि पर प्रभाव –

1. भूमि का स्वामित्व-अंग्रेज़ों से पूर्व भारत में भूमि आजीविका कमाने का साधन था । इसे न तो खरीदा जा सकता था और न बेचा जा सकता था। भूमि पर कृषि करने वाले उपज का एक निश्चित भाग भूमि-कर के रूप में सरकार को दे दिया करते थे, परन्तु अंग्रेजों ने इस आदर्श प्रणाली को समाप्त कर दिया। लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में भूमि का स्थायी बन्दोबस्त किया। इसके अनुसार भूमि सदा के लिए ज़मींदारों को दे दी गई। उन्हें सरकारी खज़ानों में निश्चित कर जमा करना होता था। वे यह ज़मीन अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को दे सकते थे। इस तरह भूमि पर कृषि करने वालों का दर्जा एक नौकर के समान हो गया। स्वामी सेवक बन गए और भूमि-कर उगाहने वाले सेवक स्वामी बन गए।

2. कृषकों का शोषण- अंग्रेजी शासन के अधीन भूमि की पट्टेदारी की तीन विधियां आरम्भ की गईं-स्थायी प्रबन्ध, रैय्यतवाड़ी प्रबन्ध तथा महलवाड़ी प्रबन्ध । इन तीनों विधियों के अन्तर्गत किसानों को ऐसे अनेक कष्ट सहने पड़े। भूमि का स्वामी किसानों को जब चाहे भूमि से बेदखल कर सकता था। इस नियम का सहारा लेकर वह किसानों से मनमानी रकम ऐंठने लगा। भूमि की सारी अतिरिक्त उपज वह स्वयं हड़प जाते थे। किसानों के पास इतना अनाज भी नहीं बचा था कि उन्हें पेट भर भोजन मिल सके। रैयतवाड़ी प्रथा के अनुसार तो किसानों को और भी अधिक कष्ट उठाने पड़े। किसान भूमि के स्वामी तो मान लिए गए, परन्तु कर की दर इतनी अधिक थी कि इनके लिए कर चुकाना भी कठिन था। कर चुकाने के लिए किसान साहूकारों से ऋण ले लिया करते थे और सदा के लिए साहूकार के चंगुल में फंस जाते थे। वास्तव में वह किसान जो भूस्वामी हुआ करता था, अंग्रेज़ी राज्य की छाया में मजदूर बन कर रह गया।

3. कृषि का पिछड़ापन- अंग्रेज़ी शासन के अधीन कृषक के साथ-साथ कृषि की दशा भी बिगड़ने लगी। कृषक पर भारी कर लगा दिए गए। ज़मींदार उससे बड़ी निर्दयता से रकम ऐंठता था। ज़मीदार स्वयं तो शहरों में रहते थे । उनके मध्यस्थ किसानों की उपज का अधिकतर भाग ले जाते थे। ज़मींदार की दिलचस्पी पैसा कमाने में थी। वह भूमि सुधारने में विश्वास नहीं रखता था। इधर किसान दिन-प्रतिदिन निर्धन तथा निर्बल होता जा रहा था। अत: वह भूमि में धन तथा श्रम दोनों ही नहीं लगा पा रहा था। उसे एक और भी हानि हुई। इंग्लैंड का मशीनी माल आ जाने से ग्रामीण उद्योग-धन्धे नष्ट हो गए। अतः खाली समय में वह इन उद्योगों द्वारा जो पैसे कमाया करता था, अब बन्द हो गया। अब मुकद्दमेबाज़ी उसके जीवन का अंग बन गई । इन मुकद्दमों पर उसका समय तथा धन दोनों ही नष्ट होने लगे और कृषि पिछड़ने लगी। संक्षेप में, अंग्रेज़ों की भूराजनीति ने कृषक के उत्साह को बड़ी ठेस पहुंचाई जो कृषि के लिए हानिकारक सिद्ध हुई।

II. उद्योगों पर प्रभाव-

1. भारतीय सूती कपड़े के उद्योग का विनाश- अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से पूर्व भारतीय सूती कपड़ा उद्योग उन्नति की चरम सीमा पर पंहुचा हुआ था। भारत में बने सूती कपड़े की इंग्लैंड में बड़ी मांग थी। इंग्लैंड की स्त्रियां भारत के बेलबूटेदार वस्त्रों को बहुत पसन्द करती थीं। कम्पनी ने आरम्भिक अवस्था में कपड़े का निर्यात करके खूब पैसा कमाया। परन्तु 1760 तक इंग्लैंड ने ऐसे कानून पास कर दिए जिनके अनुसार रंगे कपड़े पहनने की मनाही कर दी गई। इंग्लैंड की एक महिला को केवल इसलिए 200 पौंड जुर्माना किया गया था क्योंकि उसके पास विदेशी रूमाल पाया गया था। इंग्लैंड का व्यापारी तथा औद्योगिक वर्ग कम्पनी की व्यापारिक नीति की निन्दा करने लगा। विवश होकर कम्पनी को वे विशेषज्ञ इंग्लैंड वापस भेजने पड़े जो भारतीय जुलाहों को अंग्रेजों की मांगों तथा रुचियों से परिचित करवाते थे। इंग्लैंड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर आयात कर बढ़ा दिया और कम्पनी की कपड़ा सम्बन्धी आयात नीति पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए। इन सब बातों के परिणामस्वरूप भारत के सूती वस्त्र उद्योग को भारी क्षति पहुंची।

2. निर्धनता, बेकारी तथा अकाल- अंग्रेजी राज्य की स्थापना से भारत में निर्धनता का अध्याय आरम्भ हुआ। किसान भारी करों के बोझ तले दबने लगे। उनके गाढ़े पसीने की कमाई ज़मींदार, साहूकार तथा सरकार लूटने लगी। उन्हें पेट भर रोटी नसीब नहीं होती थी। इधर आर्थिक शोषण, करों की ऊंची दर तथा भारतीय धन की निकासी के कारण भी निर्धनता बढ़ने लगी। गरीबी की चरम सीमा उस समय देखने को मिली जब भारत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अकालों की लपेट में आ गया। उत्तर प्रदेश के अकाल (1860-61 ई०) में 2 लाख लोग मरे। पूर्वी प्रान्तों में फैले अकाल (1865-66 ई०) में 20 लाख लोगों की जानें गईं। दस लाख लोग केवल उड़ीसा राज्य में मरे। राजपूताना की रियासतों की जनसंख्या का तीसरा या चौथा भाग अकाल की भेंट चढ़ गया। 1876-78 ई० के अकाल ने तो त्राहि-त्राहि मचा दी। इस अकाल के कारण महाराष्ट्र के आठ लाख, मद्रास के तैंतीस लाख तथा मैसूर के लगभग 20 % लोग मृत्यु का ग्रास बने। ब्रिटिश राज्य में इन भयानक-दृश्यों के साथ-साथ बेकारी का दौर भी जारी रहा। अनेक कारीगर बेकार थे। व्यापारियों का व्यापार नष्ट हो चुका था। लाखों किसान अपनी ज़मीनें छोड़ कर भाग गए थे।

3. ग्रामीण उद्योगों का विनाश- अंग्रेजी राज्य स्थापित होने से अंग्रेजी माल भारतीय गांवों में पहुंचने लगा। यह माल बढ़िया तथा सस्ता होता था। परिणामस्वरूप ग्रामीण उद्योगों को बड़ा धक्का लगा। ग्रामीण कारीगरों के हाथों से ग्राहक निकलने लगे और वे (कारीगर) अपना धंधा छोड़ काश्तकार के रूप में मजदूरी करने लगे। 19वीं शताब्दी के पहले 50 वर्षों में ऐसे दृश्य आम देखे जाते थे कि कैसे एक जुलाहा अपनी खड्डी छोड़कर हल धारण कर रहा है। यह परिवर्तन उन लोगों के लिए कितना दुःखदायी होगा जिनकी पीढ़ियां इन उद्योगों को अर्पित हो गई थीं। श्री ताराचन्द लिखते हैं, “उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यहां के गांवों के श्रमिक समाज में उजड़े हुए किसानों के बाद बुनकरों तथा गांव के अन्य कारीगरों का स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था।” यह सब अंग्रेजी शासन का ही प्रभाव था।

III. व्यापार पर प्रभाव-

अंग्रेज़ी राज्य स्थापित होने से कृषि तथा उद्योगों के साथ-साथ भारतीय व्यापार को भी हानि पहुंची। कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर पूरा नियन्त्रण कर लिया। भारतीय तथा विदेशी व्यापारियों को विधिवत् रूप से व्यापार करने से रोक दिया गया। सारा व्यापार कम्पनी के हाथ में आ गया। कम्पनी के बड़े-बड़े कर्मचारियों ने अपने अलग व्यापारिक संस्थान खोल लिए और उनका देश के उत्पादित माल पर पूर्ण अधिकार हो गया। इस व्यापार का सारा लाभ कम्पनी के कर्मचारियों की जेब में जाता था। कम्पनी के बड़े-बड़े कर्मचारी मालामाल हो गए थे। गवर्नर-जनरल तक भी खूब हाथ रंगते थे। इस व्यापारिक धांधली के कारण न केवल भारतीयों को आन्तरिक व्यापार से बाहर ही निकाल दिया गया,बल्कि उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों के साथ छल भी किया गया। उन्हें सस्ते दामों पर कच्चा माल बेच कर महंगे दामों पर तैयार माल खरीदने के लिए बाध्य किया । व्यापार के इसी एकाधिकारपूर्ण नियम के कारण बंगाल अकाल की लपेट में आ गया। भारतीय माल पर करों की दर बढ़ा दी गई ताकि कोई विदेशी या भारतीय व्यापारी भारतीय माल का व्यापार न कर सके। इस प्रकार अंग्रेज़ी शासन के अधीन भारतीय व्यापार बिल्कुल नष्ट हो गया।

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प्रश्न 2.
इंग्लैंड में नई विचारधारा के संदर्भ में भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन सामाजिक सुधार तथा शिक्षा के विकास की चर्चा करें।
उत्तर-
इंग्लैंड में नवीन विचारधारा के कारण यह विश्वास दृढ़ हो गया कि भारत के परम्परावादी सामाजिक ढांचे में परिवर्तन होना चाहिए। इस संदर्भ में भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन हुए और शिक्षा में पाश्चात्य विचारों का समावेश हुआ। इस तरह देश के सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में नवीन परिवर्तन हुए जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. सती प्रथा का अन्त- सती-प्रथा हिन्दू समाज में प्रचलित एक बहुत बुरी प्रथा थी। हिन्दू स्त्रियां पति की मृत्यु पर उसके साथ ही जीवित जल जाया करती थीं। राजा राममोहन राय ने इस कुप्रथा के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उनकी प्रार्थना पर विलियम बैंटिंक ने इस कुप्रथा का अन्त करने के लिए 1829 ई० में एक कानून बनाया। इस प्रकार सती-प्रथा को कानून के विरुद्ध घोषित कर दिया गया।

2. बाल हत्या पर रोक-कुछ हिन्दू जातियां अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने बच्चों को बलि चढ़ा दिया करती थीं। 1802 ई० में वैल्जेली ने इस प्रथा के विरुद्ध एक कानून पास किया। इसके अनुसार बाल-हत्या पर रोक लगा दी गई।

3. विधवा-विवाह- भारत में विधवाओं की दशा बड़ी खराब थी। उन्हें पुनः विवाह की आज्ञा नहीं थी। अतः अनेक युवा विधवाओं को दुःख और कठिनाई भरा जीवन व्यतीत करना पड़ता था । उनकी दुर्दशा को देखते हुए राजा राममोहन राय, महात्मा फूले, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा महर्षि कर्वे ने विधवा-विवाह के पक्ष में जोरदार आवाज़ उठाई। फलस्वरूप 1856 में विधवा-विवाह वैध घोषित कर दिया गया।

4. दास प्रथा का अन्त- भारत में ज़मींदारी प्रथा के कारण किसान बहुत ही निर्धन हो गए थे। इन किसानों को दास बना कर ब्रिटिश उपनिवेशों में भेजा जाने लगा। इसके अतिरिक्त कुछ अंग्रेज़ भी भारतीयों से दासों जैसा व्यवहार करते थे और उनसे बेगार लेते थे। 1843 ई० में कानून द्वारा इस प्रथा का अन्त कर दिया गया। .

5. स्त्री शिक्षा का विकास- स्त्री-शिक्षा के लिए भारतीय महापुरुषों ने विशेष प्रयत्न किए। उनके प्रयत्नों से स्त्रियां कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने लगीं। फलस्वरूप देश में शिक्षित स्त्रियों की संख्या बढ़ने लगी।

6. जाति बन्धन में ढील- अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई पादरियों के प्रचार के कारण भारत में जाति बन्धन टूटने लगे। ईसाई पादरी ऊंच-नीच की परवाह नहीं करते थे। इससे प्रभावित होकर निम्न जातियों के लोग ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे। यह बात हिन्दू समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गई। अतः उस समय के समाज-सुधारकों ने जाति-प्रथा की निन्दा की। परिणामस्वरूप जाति बन्धन काफ़ी ढीले हो गए।

भारत में अंग्रेजी शिक्षा का विकास- भारत में अंग्रेजी शिक्षा के विस्तार की वास्तविक कहानी 1813 ई० से आरम्भ होती है। इससे पहले कम्पनी ने इस दिशा में कोई कार्य नहीं किया। यदि कुछ कार्य हुए भी तो वे ईसाई पादरियों की ओर से हुए, परन्तु 1813 ई० में शिक्षा का विकास विधिवत् रूप से होने लगा। 1813 ई० में चार्टर एक्ट पास हुआ। इसमें कहा गया कि भारतीयों की शिक्षा पर हर वर्ष एक लाख रुपया खर्च किया जाएगा। यह भी कहा गया कि 50 वर्ष के अन्दर -अन्दर पूरे भारत में शिक्षा के प्रसार का कार्य सुचारू रूप से होने लगेगा। देश में कुछ स्कूल तथा कॉलेज भी खोले गए। परन्तु शीघ्र ही यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि यह धन किस शिक्षा पर व्यय किया जाए-भारतीय भाषाओं की शिक्षा पर अथवा अंग्रेज़ी शिक्षा पर।

शिक्षा के माध्यम का विवाद धीरे-धीरे गम्भीर रूप धारण कर गया। कुछ लोग अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे जबकि दूसरे लोग देशी भाषाओं को ही माध्यम बनाने के पक्ष में थे। आखिर अंग्रेजी माध्यम का पक्ष भारी रहा और इसे ही स्वीकार कर लिया गया। 1854 ई० में चार्ल्स वुड समिति बनाई गई। इस समिति ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाने के लिए ये सुझाव दिए-

(i) भारत में लन्दन विश्वविद्यालय के ढंग पर विश्वविद्यालय खोले जाएं।
(ii) विश्वविद्यालय के अधीन कॉलेज खोले जाएं।

(iii) प्रत्येक प्रान्त में एक शिक्षा-विभाग खोला जाए। वुड समिति की इन सिफ़ारिशों के कारण शिक्षा प्रणाली में महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई। 1882 ई० में हण्टर आयोग की नियुक्ति की गई। इस आयोग ने बड़े अच्छे सुझाव दिए। सरकार ने हण्टर आयोग की सभी सिफ़ारिशों को स्वीकार कर लिया। देश में नए-नए कॉलेज तथा स्कूल खुलने लगे। 1882 ई० में पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

लॉर्ड कर्जन के शासनकाल में विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण बढ़ गया। विश्वविद्यालयों के क्षेत्र नियत कर दिए गए। अध्यापकों आदि की नियुक्ति का काम भी विश्वविद्यालयों को सौंप दिया गया। लॉर्ड कर्जन के इस एक्ट की भारतीयों ने बड़ी निन्दा की। 1917 ई० में भारत सरकार ने शिक्षा सुधार के लिए एक और आयोग नियुक्त किया जिसके अध्यक्ष मि० सैडलर थे। इस आयोग ने ये सिफ़ारिशें की-

(i) विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण कम कर दिया जाए।
(ii) माध्यमिक तथा इन्टरमीडियेट शिक्षा विद्यालय के नियन्त्रण में नहीं रहनी चाहिए।

(iii) कॉलेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होना चाहिए। इस प्रकार इस आयोग की सिफ़ारिशों के कारण देश में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। मैसूर, उस्मानिया, अलीगढ़, दिल्ली, नागपुर आदि नगरों में विश्वविद्यालय खोले गए। इसके अतिरिक्त शिक्षा के प्रसार के लिए और कई पग उठाए गए। 1928 ई० में हरयेग कमेटी नियुक्त की गई। 1944 ई० में सार्जेन्ट योजना पर अमल किया गया। इस प्रकार भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार होने लगा।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
भारत में पहली तार लाइन कब स्थापित की गई?
उत्तर-
1833 ई० में।

प्रश्न 2.
जी० टी० रोड का आधुनिक नाम क्या है?
उत्तर-
शेरशाह सूरी मार्ग।

प्रश्न 3.
भारत में कॉफी के बाग़ कब लगाने शुरू हुए?
उत्तर-
1860 ई० के पश्चात्।

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प्रश्न 4.
कलकत्ता मदरसा किस अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल ने स्थापित किया?
उत्तर-
लार्ड हेस्टिग्ज ने।

प्रश्न 5.
सती प्रथा को किसने अवैध घोषित किया?
उत्तर-
लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) लाहौर में गवर्नमेंट कॉलेज की स्थापना …………. ई० में हुई।
(ii) भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित स्कूलों में …………. ढंग की शिक्षा दी जाती थी।
(iii) बंगाल में स्थायी बंदोबस्त …………….. में लागू हुआ।
(iv) सती प्रथा के विरुद्ध कानून ………………. के प्रभाव अधीन बना।
(v) भारत में पहली आधुनिक जहाज़रानी कम्पनी ………….. ई० में खोली गई।
उत्तर-
(i) 1864
(ii) अंग्रेजी
(iii) 1793
(iv) ईसाई मिशनरियों
(v) 1919.

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3. सही/गलत कथन

(i) पंजाब यूनिवर्सिटी 1888 में बनी। — (√)
(ii) बंगाल में स्थायी बंदोबस्त लॉर्ड कार्नवालिस ने लागू किया। — (√)
(iii) भारत में पहली रेलवे लाइन की लंबाई 121 मील थी। — (×)
(iv) इंग्लैंड से बहुत-सा धन भारत लाया गया। — (×)
(v) भारत में सीमेंट तथा शीशा बनाने के उद्योग 1930 के बाद विकसित हुए। — (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
1791 में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई
(A) कलकत्ता में
(B) बनारस में
(C) बम्बई में
(D) मद्रास में।
उत्तर-
(B) बनारस में

प्रश्न (ii)
1857 में किस नगर में विश्वविद्यालय स्थापित हुआ?
(A) मद्रास
(B) बंबई
(C) कलकत्ता
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न (iii)
निम्न स्थान भूमि के स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत नहीं आता था-
(A) मद्रास
(B) उड़ीसा
(C) उत्तरी सरकार
(D) बनारस।
उत्तर-
(A) मद्रास

प्रश्न (iv)
1857 ई० में इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया-
(A) रिवाड़ी में
(B) दिल्ली में
(C) रुड़की में
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(C) रुड़की में

प्रश्न (v)
अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया-
(A) 1935
(B) 1835
(C) 1857
(D) 1891.
उत्तर-
(B) 1835

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति किन दो वर्षों के मध्य प्रफुल्लित हुई ?
उत्तर-
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति सन् 1760 से 1830 के मध्य प्रफुल्लित हुई।

प्रश्न 2.
बर्तानिया के उद्योगपतियों को भारत में बिना कर व्यापार करने की छूट किस वर्ष में मिली तथा इस वर्ष कितने लाख-पौंड मूल्य का अंग्रेजी मशीनी कपड़ा भारत में आया ।
उत्तर-
बर्तानिया के उद्योगपतियों को भारत में बिना कर व्यापार करने की छूट 1813 में मिली। उस वर्ष 11 लाख पौंड का अंग्रेजी मशीनी कपडा भारत में आया।

प्रश्न 3.
1856 में बर्तानिया की मिलों में बना हुआ किस मूल्य का कपड़ा भारत में आया तथा किस मूल्य का कपड़ा भारत से बाहर भेजा गया ?
उत्तर-
1856 में साठ लाख पौंड का कपड़ा भारत आया और 8 लाख पौंड मूल्य का कपड़ा बाहर भेजा गया।

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प्रश्न 4.
1856 में कितने मूल्य की कपास तथा अनाज भारत से बाहर भेजे गए ?
उत्तर-
1856 में 43 लाख पौंड की कपास भारत से बाहर भेजी गई। 29 लाख पौंड का अनाज भी भारत से बाहर भेजा गया।

प्रश्न 5.
भारत में पहली कपड़ा मिल कब, किसने और कहां लगवाई? .
उत्तर-
कपड़े की पहली मिल मुम्बई में कावासजी नानाबाई ने 1853 में स्थापित की।

प्रश्न 6.
1880 तक भारत में कितनी कपड़ा मिलें थीं तथा उनमें कितने मजदूर काम करते थे ?
उत्तर-
1880 तक भारत में 56 कपड़ा मिलें थीं । इनमें 43 हजार मजदूर काम करते थे ।

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प्रश्न 7.
पटसन (जूट) के सबसे अधिक कारखाने भारत के किस प्रान्त में थे तथा बीसवीं सदी के शुरू में इनकी गिनती कितनी हो गई ?
उत्तर-
पटसन (जूट) के सब से अधिक कारखाने बंगाल प्रान्त में थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में इन की गिनती 36 हो गई।

प्रश्न 8.
बीसवीं सदी में कौन से चार प्रकार के उद्योग भारत में विकसित हुए ?
उत्तर-
बीसवीं सदी में भारत में ऊनी कपड़ा बनाने का उद्योग, कागज़ बनाने का उद्योग, चीनी बनाने का उद्योग तथा सूती धागा बनाने का उद्योग विकसित हुए।

प्रश्न 9.
1930 के बाद विकसित होने वाले दो उद्योगों के नाम बताएं।
उत्तर-
1930 के पश्चात् भारत में सीमेंट तथा शीशा बनाने के उद्योग विकसित हुए।

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प्रश्न 10.
भारत में नील की खेती कब शुरू हुई तथा यह किसके हाथों में थी ?
उत्तर-
भारत में नील की खेती 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आरम्भ हुई। यह विदेशियों के हाथों में थी।

प्रश्न 11.
1825 में भारत में नील की खेती के अधीन कुल क्षेत्र कितना था तथा 1915 में नील की खेती लगभग कितने क्षेत्र में सीमित रह गई थी एवं इसके कम होने का क्या कारण था ?
उत्तर-
1825 में 35 लाख बीघा भूमि नील उत्पादन के अन्तर्गत थी और 1915 में नील की खेती तीन चार लाख बीघे तक सीमित रह गई। इस का कारण भूमि की कमी थी।

प्रश्न 12.
अंग्रेज़ी कम्पनी का चीन की चाय का एकाधिकार कब समाप्त हुआ तथा ‘आसाम टी कम्पनी’ कब बनाई गई ?
उत्तर-
अंग्रेज़ी कम्पनी का चीन की चाय का एकाधिकार 1833 में समाप्त हो गया। 1839 में आसाम टी कम्पनी बनाई गई।

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प्रश्न 13.
1920 तक कितनी भूमि चाय की खेती के अधीन थी तथा कितने मूल्य की चाय भारत से बाहर भेजी जाती थी ?
उत्तर-
1920 तक 7 लाख एकड़ भूमि चाय की खेती के अधीन थी। उस समय तक 34 करोड़ पौंड मूल्य की चाय भारत से बाहर भेजी जाती थी ।

प्रश्न 14.
कॉफी के बाग कब लगने शुरू हुए तथा किस देश की कॉफी मण्डी में आने से भारत को नुकसान हुआ ?
उत्तर-
कॉफी के बाग 1860 के पश्चात् लगने आरम्भ हुए। ब्राजील की कॉफी मण्डी में आने से भारत को नुकसान पहुंचा।

प्रश्न 15.
भारत में पहली तार लाइन कब और किन दो नगरों के बीच स्थापित की गई ?
उत्तर-
पहली तार लाइन कलकत्ता (कोलकाता) से आगरा के बीच 1853 में स्थापित की गई ।

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प्रश्न 16.
किस गवर्नर जनरल ने एक ही मूल्य का डाक टिकट शुरू किया तथा इसका मूल्य क्या था ?
उत्तर-
लॉर्ड डल्हौजी ने एक ही मूल्य का डाक टिकट आरम्भ किया था। इस टिकट का मूल्य आधा आना था।

प्रश्न 17.
जी० टी० रोड किन दो शहरों को जोड़ती थी तथा इसका आधुनिक नाम क्या है ?
उत्तर-
जी० टी० रोड पेशावर (पाकिस्तान) तथा कलकत्ता (कोलकाता) को जोड़ती थी। इस का आधुनिक नाम शेरशाह सूरी मार्ग है ।

प्रश्न 18.
जी० टी० रोड किन वर्षों में पक्की की गई तथा 1947 में भारत में सड़कों की कुल लम्बाई कितनी थी ?
उत्तर-
जी० टी० रोड 1839 से लेकर 1864 तक के समय के बीच पक्की की गई। 1947 में भारत में सड़कों की कुल लम्बाई 2,96,000 मील थी ।

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प्रश्न 19.
भारत में पहली आधुनिक जहाजरानी कम्पनी कब खोली गई ?
उत्तर-
भारत में पहली आधुनिक जहाजरानी कम्पनी 1919 में खोली गई ।

प्रश्न 20.
भारत में हवाई यातायात की ओर कब ध्यान देना आरम्भ किया गया ? इससे पहले हवाई जहाजों का प्रयोग किस लिए किया जाता था ?
उत्तर-
भारत में हवाई यायायात की ओर 1930 के बाद ध्यान दिया गया । इससे पहले हवाई जहाज़ों का प्रयोग अधिकतर डाक तथा सामान ले जाने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 21.
भारत में पहली रेलवे लाइन किन दो शहरों के बीच एवं कब बनी तथा इसकी लम्बाई कितनी थी ?
उत्तर-
भारत में पहली रेलवे लाइन 1853 में मुम्बई तथा थाना के बीच बनी इसकी लम्बाई 21 मील थी ।।

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प्रश्न 22.
1947 में भारत में रेलवे लाइन की कुल लम्बाई कितनी थी तथा रेलवे के कारण किन दो प्रकार के माल के निर्यात तथा आयात में तेजी से वृद्धि हुई ?
उत्तर-
1947 में भारत में रेलवे लाइन की कुल लम्बाई 40,000 मील थी। रेलों के कारण कच्चे माल के निर्यात तथा मशीनी चीजों के आयात में तेजी से वृद्धि हुई ।

प्रश्न 23.
किस वर्ष में भारत से धन की निकासी शुरू हुई तथा दादा भाई नौरोजी के अनुसार देश से हर वर्ष कितनी धन राशि इंग्लैंड भेजी जाती थी ?
उत्तर-
1757 से धन की निकासी आरम्भ हो गई। दादा भाई नौरोजी के अनुसार प्रति वर्ष 3-4 करोड़ पौंड की राशि भारत से इंग्लैंड भेजी जाती थी ।

प्रश्न 24.
स्थायी बन्दोबस्त किसने शुरू किया तथा यह कब और किस वर्ग के साथ किया गया ?
उत्तर-
स्थायी बन्दोबस्त लार्ड कार्नवालिस ने 1793 में शुरू किया। यह बन्दोबस्त मध्यवर्ती ज़मींदार वर्ग के साथ किया गया।

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प्रश्न 25.
स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत इलाकों के नाम बताएं।
उत्तर-
स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत उड़ीसा, उत्तरी सरकार तथा बनारस थे।

प्रश्न 26.
रैय्यतवाड़ी प्रबन्ध किन दो प्रान्तों में तथा किस वर्ग पर लागू किया गया तथा उससे सम्बन्धित अंग्रेज़ अफसर का नाम क्या था?
उत्तर-
रैय्यतवाड़ी प्रबन्ध मद्रास तथा महाराष्ट्र में किसानों पर लागू किया गया। इसे अंग्रेज अफसर मुनरो ने लागू किया था।

प्रश्न 27.
महलवाड़ी प्रबन्ध कौन से तीन क्षेत्रों में लागू किया गया तथा इसके अन्तर्गत लगान उगाहने की इकाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
महलवाड़ी प्रबन्ध वर्तमान उत्तर प्रदेश में लागू किया गया । इसमें लगान उगाहने की इकाई ‘महल’ थी।

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प्रश्न 28.
अंग्रेजों के अधीन लगान प्रबन्ध की सभी व्यवस्थाओं से भारत के किस वर्ग को विशेष लाभ हुआ ?
उत्तर-
अंग्रेजों के अधीन लगान प्रबन्ध की सभी व्यवस्थाओं से भारत के ज़मींदार वर्ग को विशेष लाभ हुआ ।

प्रश्न 29.
1905 तक सरकार ने रेलों तथा सिंचाई के विकास पर कितना धन खर्च किया था ?
उत्तर-
1905 तक सरकार ने रेलों तथा सिंचाई के विकास पर 360 करोड़ रुपये खर्च किये।

प्रश्न 30.
1951 तक भारत में किन दो प्रकार के हल प्रचलित थे तथा इनमें से किसका प्रयोग बहुत अधिक किया जाता था ?
उत्तर-
1951 तक भारत में लकड़ी तथा लोहे के फाले वाले हल प्रचलित थे। इन में से लोहे के फाले वाले हलों का प्रयोग बहुत अधिक किया जाता था ।

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प्रश्न 31.
1939 में भारत में कितने कृषि कॉलेज थे तथा उनमें विद्यार्थियों की कुल संख्या कितनी थी ?
उत्तर-
1939 में भारत में केवल छः कृषि कॉलेज थे। उनमें विद्यार्थियों की कुल संख्या 1300 के लगभग थी।

प्रश्न 32.
भारत में ईसाई मिशनरियों को अपने केन्द्र स्थापित करने की छूट कब मिली तथा इनके स्कूल-कॉलेज में किस ढंग की शिक्षा दी जाती थी ?
उत्तर-
1813 में ईसाई मिशनरियों को अपने केन्द्र स्थापित करने की छूट मिल गई। इनके स्कूल-कॉलेज में अंग्रेज़ी ढंग की शिक्षा दी जाती थी।

प्रश्न 33.
मिशनरियों के प्रभाव अधीन कौन-सा कानून बना ?
उत्तर-
मिशनरियों के प्रभाव अधीन सती प्रथा का अन्त करने का कानून बना ।।

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प्रश्न 34.
भारत में सती प्रथा को कब और किस गवर्नर-जनरल ने गैर कानूनी घोषित किया ?
उत्तर-
भारत में सती प्रथा को 1829 में गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिंक ने गैर कानूनी घोषित किया।

प्रश्न 35.
सती प्रथा का प्रचलन कौन से वर्ग तथा जातियों में था ?
उत्तर-
सती प्रथा का प्रचलन राजघरानों, उच्च वर्गों अथवा ब्राह्मणों में था ।

प्रश्न 36.
“कलकत्ता (कोलकाता) मदरसा” कब और किसने स्थापित किया ?
उत्तर-
कलकत्ता (कोलकाता) मदरसा 1781 में गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्ज़ ने स्थापित किया ।

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प्रश्न 37.
संस्कृत कॉलेज की स्थापना कब और कहां की गई ?
उत्तर-
संस्कृत कॉलेज की स्थापना 1791 में बनारस में की गई ।

प्रश्न 38.
1835 में शिक्षा सम्बन्धी क्या फैसला किया गया तथा इससे सम्बन्धित अंग्रेज अधिकारी का नाम क्या था ?
उत्तर-
1835 में शिक्षा सम्बन्धी यह निर्णय किया गया कि सरकार विज्ञान तथा पश्चिमी ढंग की शिक्षा अंग्रेज़ी भाषा में देने के लिये धन खर्च करेगी। इससे सम्बन्धित अंग्रेज़ अधिकारी का नाम ‘मैकाले’ था ।

प्रश्न 39.
1857 में किन तीन नगरों में विश्वविद्यालय स्थापित हुए ?
उत्तर-
1857 में बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) और मद्रास (चेन्नई) में विश्वविद्यालय स्थापित हुए ।

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प्रश्न 40.
1857 में मैडिकल कॉलेज कौन से तीन नगरों में थे तथा इंजीनियरिंग कॉलेज किस स्थान पर स्थापित किया गया ?
उत्तर-
1857 में मैडिकल कॉलेज बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) तथा मद्रास, (चेन्नई) में थे। इंजीनियरिंग कॉलेज रुड़की में स्थापित किया गया।

प्रश्न 41.
लाहौर में गवर्नमैंट कॉलेज तथा पंजाब यूनिवर्सिटी किन वर्षों में बने ?
उत्तर-
लाहौर में गवर्नमेंट कॉलेज 1864 में तथा पंजाब यूनिवर्सिटी 1888 में बने।

प्रश्न 42.
अंग्रेजी साम्राज्य का सबसे अधिक लाभ किस नये वर्ग को हुआ तथा इस वर्ग से सम्बन्धित चार व्यवसायों के नाम बताएं।
उत्तर-
अंग्रेज़ी साम्राज्य का सबसे अधिक लाभ मध्य वर्ग को हुआ इस वर्ग से सम्बन्धित चार व्यवसायों के नाम थेसाहूकार, डॉक्टर, अध्यापक तथा वकील ।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अंग्रेजी साम्राज्य ने भारत में विदेशी पूंजीपतियों की सहायता किस प्रकार की ?
उत्तर-
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य ने विदेशी पूंजीपतियों की बड़ी सहायता की। देशी उद्योगों को नष्ट किया गया। इनके स्थान पर विदेशी पूंजीपतियों को प्रोत्साहित किया गया । इंग्लैंड की औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् इंग्लैंड के पूंजीपतियों ने यहां कारखाने लगाए। उन्हें यहां सस्ते मज़दूर मिलते थे और सरकार से पूरा सहयोग मिलता था। विदेशी पूंजीपतियों ने यहां रेलवे लाइनों में भी खूब पूंजी लगाई। वैसे भी उद्योग स्थापित करने की सुविधाएं भी उन्हें ही दी जाती थीं। कर की व्यवस्था भी उन के पक्ष में थी। विदेशी माल पर कर नहीं लगता था जबकि भारतीय माल पर शुल्क की दर बढ़ा दी गई थी। रेलों की स्थापना भी विदेशी व्यापार को सुविधा पहुंचाने के लिए की गई थी । सच तो यह है कि अंग्रेजी साम्राज्य ने विदेशी पूंजीपतियों की खूब सहायता की ।

प्रश्न 2.
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन रेलों के विस्तार के कारण तथा उनका महत्त्व बताएं ।
उत्तर-
भारत में पहली रेलवे लाइन (1853) में डल्हौजी के समय में मुम्बई से थाना तक आरम्भ की गई । इसकी लम्बाई 21 मील थी। 1905 ई० तक लगभग 28,000 मील लम्बी रेलवे लाइन बनकर तैयार हो गई थी। रेलें यातायात का महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुईं । रेलों के कारण अन्तरिक सुरक्षा मजबूत हुई । सेना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में सुविधा हो गई। रेलों के कारण कच्चा माल बन्दरगाहों से कारखानों तक सफलतापूर्वक ले जाया जाने लगा और तैयार माल कारखानों से विभिन्न मण्डियों में भेजा जाने लगा। रेलों के कारण मशीनी चीजों के आयात में वृद्धि हुई । उदाहरण के लिए कपास का निर्यात पहले से तीन गुणा अधिक होने लगा और कपड़े का आयात पहले से दो गुणा ज्यादा हो गया । सच तो यह है कि रेलों के और पूंजीपतियों को हुआ।

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प्रश्न 3.
भारत में धन की निकासी किन तरीकों से होती थी ?
उत्तर-
अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारत को बहुत हानि हुई। देश का धन देश के काम आने के स्थान पर विदेशियों के काम आने लगा। 1757 के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा इसके कर्मचारियों ने भारत से प्राप्त धन को इंग्लैण्ड भेजना आरम्भ कर दिया। कहते हैं कि 1756 ई० से 1765 तक लगभग 60 लाख पौंड की राशि भारत से बाहर गई। और तो और लगान आदि से प्राप्त राशि भी भारतीय माल खरीदने में व्यय की गई। अतिरिक्त सिविल सर्विस और सेना के उच्च अफसरों के वेतन का पैसा भी देश से बाहर जाता था। औद्योगिक विकास का भी अधिक लाभ विदेशियों को ही हुआ। विदेशी पूंजीपति इस देश पर धन लगाते थे और लाभ की रकम इंग्लैण्ड में ले जाते थे। इस तरह भारत का धन कई प्रकार से विदेशों में जाने लगा।

प्रश्न 4.
स्थायी बन्दोबस्त क्या था तथा उसके क्या आर्थिक प्रभाव थे ?
उत्तर-
अंग्रेज़ शासक कृषि के क्षेत्र में भी भूमि से अधिक से अधिक आय प्राप्त करना चाहते थे। इसी उद्देश्य को सामने रख कर लगान व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। कार्नवालिस ने 1793 में बंगाल और बिहार में ‘परमानेंट सेटलमैंट’ अथवा स्थायी व्यवस्था की। इसके अन्तर्गत लगान वसूल करने वाले ज़मींदार भूमि के स्वामी बना दिये गये। इस व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण आर्थिक प्रभाव पड़े। इस प्रकार सरकार की वार्षिक आय भी निश्चित हो गई जिस से बजट बनाना सरल हो गया। परन्तु किसानों की स्थिति केवल मुज़ारों की ही बन कर रह गई। ज़मींदार उन के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकता था। सभी ज़मींदारों के लिए निश्चित लगान देना इतना सुगम सिद्ध न हुआ। बहुत से ज़मींदारों को अपनी भूमि बेचनी पड़ी। ये भूमि व्यापारी वर्ग के धनी साहूकारों ने खरीद ली। ये नये ज़मींदार शहरों में रहते थे तथा इनके गुमाश्ते किसानों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। भूमि से उपज कम होने लगी। परिणामस्वरूप कृषि और कृषक की दशा खराब हो गई।

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प्रश्न 5.
कौन-से नए विचारों के प्रभावाधीन भारत में सामाजिक सुधार लाने के प्रयास किए गए ?
उत्तर-
आरम्भ में कम्पनी के शासकों ने भारतीय समाज के प्रति विशेष रुचि न दिखाई। उनमें से अधिकांश का विचार था कि एक पुरानी सभ्यता होने के कारण भारतीय सभ्यता में परिवर्तन नहीं होना चाहिये। परन्तु 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक नई विचारधारा बल पकड़ने लगी। विज्ञान और यान्त्रिकी की उन्नति के साथ लोगों के विचारों और सामाजिक मूल्यों पर भी प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप यह रुचि बढ़ने लगी कि समाज को बदला जाये। ऐसे कानून बनाये जायें जिनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति न्याय प्राप्त करने में बराबर का अधिकारी हो। ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाई जाएं जिनसे आर्थिक प्रगति हो और जनसाधारण जीवन की आरम्भिक आवश्यकताओं का आनन्द भोग सकें। ऐसे रीति-रिवाजों का अन्त किया जाये जो अन्धविश्वासों पर आधारित थे। इसके साथ इंग्लैण्ड में ईसाई मत के प्रचार के समर्थक भी इस बात पर जोर देते थे कि भारतीय समाज को नवीन रंग में रंगा जाये।

प्रश्न 6.
भारत में अंग्रेजों ने शिक्षा सम्बन्धी क्या नीति अपनाई ?
उत्तर-
1813 में यह निर्णय किया गया कि भारतीयों को विज्ञान की शिक्षा भी दी जाये। बीस वर्ष तक यह विवाद चलता रहा कि अंग्रेजी साम्राज्य में शिक्षा भारतीय संस्कृति के अनुसार दी जाये अथवा पश्चिमी संस्कृति के आधार पर। 1835 में यह निर्णय हुआ कि पश्चिमी ढंग की शिक्षा अंग्रेजी भाषा के माध्यम द्वारा उच्च स्तर पर दी जाये। इसी नीति के आधार पर 1857 में बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) और मद्रास (चेन्नई) में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये। इसके बाद धीरे-धीरे अन्य शहरों में भी विश्वविद्यालय और कॉलेज स्थापित हुए। नवीन शिक्षा नीति अपनाये जाने के अनेक कारण थे –

  • अंग्रेज़ अफसरों की बहुसंख्या इस बात में विश्वास रखती थी कि आधुनिक यूरोपीय सभ्यता विश्व की अन्य सभ्यताओं की तुलना में उत्तम है।
  • सरकारी कार्यों के लिए शिक्षित भारतीयों की आवश्यकता थी।
  • ईसाई पादरियों का विचार था कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भारतीय जल्दी ही ईसाई बन जायेंगे।
  • कुछ का विश्वास था कि भारतीय अंग्रेज़ी रहन-सहन अपना लेंगे तो वे इंग्लैण्ड में बनी वस्तुओं का अधिक प्रयोग करेंगे और इस प्रकार अंग्रेजों के व्यापार में भी वृद्धि होगी।
  • बहुत-से भारतीय भी यह मांग करने लगे थे कि अंग्रेजी भाषा के द्वारा ही विज्ञान और साहित्य की शिक्षा दी जाये।

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प्रश्न 7.
अंग्रेजी साम्राज्य ने भारत में मध्य वर्ग के उत्थान में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य की समृद्धि के कारण भारत में मध्य वर्ग का जन्म हुआ। कम्पनी को अपने व्यापार की वृद्धि के लिये भारतीय व्यापारियों की सहायता की आवश्यकता थी। इसलिए जैसे-जैसे अंग्रेज़ी व्यापार का विकास हुआ, भारतीय व्यापारी भी धनी बने और उन का महत्त्व भी बढ़ा। इन्हीं व्यापरियों ने साहूकारी शुरू कर ऋण दिये। इन्होंने ही भूमि खरीदने की ओर ध्यान दिया। अधिक धनी साहूकारों ने निजी उद्योग स्थापित किये। इनमें से बहुत से लोग अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्ष में थे। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरियों में भी उनकी संख्या में वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षा पाकर मध्य वर्गों के लोग डॉक्टर, अध्यापक और वकील बने। इस प्रकार मध्य वर्ग का प्रभाव बढ़ता गया।

प्रश्न 8.
अंग्रेजी साम्राज्य में सामाजिक सुधारों का वर्णन करो।
अथवा
अंग्रेजी साम्राज्य में भारत में किस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन हुए ?
उत्तर-
अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में समाज सुधार की ओर ध्यान दिया। उन्होंने 1829 ई० में सती-प्रथा पर रोक लगा दी। उस समय राजपूत लोग लड़कियों को पैदा होते ही मार देते थे। इसी तरह कुछ अन्य लोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने बच्चों की बलि दे देते थे। अतः पहले लॉर्ड विलियम बैंटिंक और फिर लॉर्ड हार्डिंग ने बाल हत्या पर रोक लगी दी। उस समय विधवाओं को समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी। अतः 1856 ई० में लॉर्ड डल्हौज़ी ने एक कानून द्वारा विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा दे दी। अंग्रेज़ों का विचार था कि भारतीय समाज की गिरी हुई दशा को केवल पश्चिमी शिक्षा के प्रसार से ही सुधारा जा सकता है। अतः भारत में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बना दिया गया। अंग्रेजों के प्रयत्नों से भारत में स्त्री शिक्षा का प्रसार भी हुआ।

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प्रश्न 9.
रैय्यतवाड़ी लगान व्यवस्था की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
1820 ई० में थामस मुनरो मद्रास का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसने भूमि का प्रबन्ध एक नए ढंग से किया जिसे रैय्यतवाड़ी प्रथा के नाम से पुकारा जाता है। यह प्रबन्ध पहले-पहल दक्षिण के प्रान्तों में लागू किया। सरकार ने भूमि-कर उन लोगों से लेने का निश्चय किया जो अपने हाथों से कृषि करते थे। अतः सरकार तथा कृषकों के बीच जितने भी मध्यस्थ थे उन्हें हटा दिया। यह प्रबन्ध स्थायी प्रबन्ध की अपेक्षा अधिक लाभदायक था क्योंकि इससे कृषकों के अधिकार बढ़ गए तथा सरकारी आय में वृद्धि हुई। इस प्रथा में कुछ दोष भी थे-जो भूमि कृषि के बिना रह जाती थी उसे सरकारी भूमि समझा जाता था। ऐसी भूमि में कृषि करने का अधिकार किसी भी किसान को न था। फलस्वरूप यह भूमि प्रायः खाली पड़ी रहती थी। इस प्रथा के कारण गांव का भाई-चारा समाप्त होने लगा। गांव की पंचायतों का महत्त्व भी कम हो गया। प्रत्येक किसान एक पृथक् व्यक्तित्व बन कर रह गया।

प्रश्न 10.
महलवाड़ी भूमि-प्रबन्ध की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
रैय्यतवाड़ी प्रथा के दोषों को दूर करने के लिए उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में एक और नया प्रयोग किया गया जिसे महलवाड़ी प्रबन्ध कहा जाता है। इस प्रबन्ध की विशेषता यह थी कि इसके द्वारा भूमि का सम्बन्ध न तो किसी बड़े ज़मींदार के साथ जोड़ा जाता था और न ही किसी कृषक के साथ। यह प्रबन्ध वास्तव में गांव के समूचे भाई-चारे के साथ होता था। यदि कोई किसान अपना भाग नहीं देता था तो उसकी वसूली गांव के भाई-चारे से की जाती थी। ऐसे प्रबन्ध के कारण सरकार को कभी हानि नहीं होती थी। प्रत्येक गांव में जो भूमि अविभाजित रह जाती थी, उसे भाई-चारे की संयुक्त सम्पत्ति माना जाता था। ऐसी भूमि को ‘शामलात भूमि’ कहते थे। इस प्रबन्ध को सबसे अच्छा प्रबन्ध माना जाता है क्योंकि इसमें पहले के दोनों प्रबन्धों के गुण विद्यमान थे। इस प्रबन्ध में केवल एक ही दोष था। वह यह था कि इसके अनुसार लोगों को बहुत अधिक भूमि-कर देना पड़ता था।

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प्रश्न 11.
ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय किसानों की निर्धनता के क्या कारण थे ?
उत्तर-
ब्रिटिश शासनकाल में किसानों की दशा बड़ी ही शोचनीय थी। उनकी निर्धनता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। उनकी निर्धनता के कारणों का वर्णन इस प्रकार है-

  1. ब्रिटिश शासन काल में ज़मींदारी प्रथा प्रचलित थी। भूमि के स्वामी बड़े-बड़े ज़मींदार होते थे जो किसानों का बहुत शोषण करते थे। वे उनसे बेगार भी लेते थे।
  2. किसानों के खेती करने के ढंग बहुत पुराने थे। कृषि के लिए अच्छे बीज तथा खाद की कोई व्यवस्था नहीं थी। सिंचाई के उपयुक्त साधन उपलब्ध न होने के कारण किसानों को केवल वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता था।
  3. ब्रिटिश सरकार ने किसानों की दशा सुधारने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
  4. किसान प्रायः साहूकारों से ऋण लेता था जिस पर उसे भारी ब्याज देना पड़ता था। सरकार की ओर से उन्हें ऋण देने का कोई प्रबन्ध नहीं था।
  5. किसानों को बहुत अधिक भूमि-कर देना पड़ता था। यह भी उनकी निर्धनता का एक बहुत बड़ा कारण था।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अंग्रेजी कम्पनी की व्यापारिक नीति कैसी थी और भारत पर इसका क्या आर्थिक प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
अंग्रेजों की व्यापारिक नीति से अभिप्राय उस नीति से है जो उन्होंने भारत के देशी तथा विदेशी व्यापार के प्रति अपनाई। आरम्भ में अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का मुख्य ध्येय भारतीय कपड़े को सस्ते दामों पर खरीद कर विदेशी मण्डियों में महंगे दामों पर बेचना था। परन्तु जब कम्पनी की लाभ नीति इंग्लैण्ड के उद्योगों के लिए घातक सिद्ध हुई, तो कम्पनी को अपनी नीति में परिवर्तन लाना पड़ा। औद्योगिक क्रान्ति के कारण इंग्लैण्ड में मशीनों द्वारा अधिक से अधिक माल तैयार होने लगा। इस सारे माल की खपत के लिए इंग्लैण्ड के व्यापारियों को अधिक से अधिक मण्डियों की आवश्यकता थी। अतः वहां के व्यापारी वर्ग ने इंग्लैण्ड की सरकार पर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने के लिए दबाव डालना आरम्भ कर दिया। फलस्वरूप 1813 ई० में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार छीन लिए गए और भारत को एक स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र घोषित कर दिया। भारत के द्वार विदेशी वस्तुओं के लिए खोल दिये गये। उधर ब्रिटेन ने भारत के बने माल पर प्रतिवर्ष कर बढ़ाने आरम्भ कर दिये। 1824 ई० में भारतीय कैलिको पर 65\(\frac{1}{2}\)% और भारतीय मलमल पर 37\(\frac{1}{2}\)% शुल्क देना पड़ता था। भारतीय चीनी पर उसकी लागत से तीन गुणा अधिक कर देना पड़ता था। ऐसी भी कुछ भारतीय वस्तुएं थीं जिन पर इंग्लैण्ड ने 400% शुल्क लगा दिया। स्पष्ट है कि स्वतन्त्र व्यापारिक नीति ने भारत के व्यापारिक हितों को बड़ी हानि पहुंचाई।

नीति का आर्थिक प्रभाव-अंग्रेजी कम्पनी की व्यापारिक नीति का भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। भारत के देशी उद्योग नष्ट हो गये। भारतीय मजदूर तथा कारीगर बेकार हो गए और वे निर्धनता में अपना जीवन व्यतीत करने लगे। अधिक आयात के कारण भारत धन का भुगतान करने में असमर्थ हो गया। भारत के व्यापारिक असन्तुलन के कारण अनेक अंग्रेज़ उद्योगपतियों को अपनी पूंजी भारत में लगाने के लिए प्रेरित किया गया। परिणामस्वरूप देश में रेलों तथा सड़कों का जाल बिछ गया। परन्तु इससे भी अंग्रेजों को ही लाभ पहुंचा।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

प्रश्न 2.
अंग्रेजी साम्राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक और भूमि-कर सम्बन्धी नीतियों का भारत की अर्थ-व्यवस्था तथा समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य की व्यापारिक, औद्योगिक तथा भूमि-कर सम्बन्धी नीतियों का भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके अधीन भूमि का क्रय-विक्रय आरम्भ हो गया। अंग्रेजों ने भारत में भूमि की पट्टेदारी नए ढंग से आरम्भ की। बंगाल के स्थायी बन्दोबस्त द्वारा ज़मींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार सरकार को लगान देने वाले ठेकेदार भूमि के स्वामी बन गए। पट्टेदारी की प्रचलित सभी विधियां किसानों के हितों के विरुद्ध थीं। जमींदार किसी भी समय कृषकों को बेदखल कर सकता था। इस नियम की आड़ में वे कृषकों से मनचाही रकम बटोरने लगे। रैय्यतवाड़ी प्रथा के अनुसार यद्यपि भूमि का स्वामी किसान को मान लिया गया तथापि कर की दर इतनी अधिक थी कि किसानों को साहूकारों से धन ब्याज पर लेना पड़ता था। अंग्रेज़ी शासन का भारत की कृषि पर भी बहुत प्रभाव पड़ा। ज़मींदार किसानों से पैसा तो खूब ऐंठते थे, परन्तु भूमि सुधार की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं देते थे। किसान के पास इतना भी धन नहीं रह पाता था कि वह स्वयं भूमि का सुधार कर सके। फलस्वरूप भारतीय कृषि पिछड़ने लगी।

अंग्रेजी शासन के अधीन भारतीय उद्योग-धन्धे भी नष्ट हो गए। भारत का सूती कपड़ा उद्योग बिल्कुल ठप्प हो गया। भारत में बने सूती कपड़े की इंग्लैण्ड में बड़ी मांग थी। परन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर आयात कर बढ़ा दिया और कम्पनी की कपड़ा सम्बन्धी आयात नीति पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए। धीरे-धीरे इंग्लैण्ड की सरकार ने ऐसे नियम बना दिए कि भारत का माल इंग्लैंड में बिकने की बजाय इंग्लैंड का माल भारत में बिकने लगा। इंग्लैण्ड में औद्योगिक विकास के कारण इंग्लैंड की आयात-निर्यात की नीति में भारी परिवर्तन आया। भारत से कच्चा माल आयात करना तथा तैयार माल का निर्यात करना उनका उद्देश्य बन गया। अंग्रेजी शासन के कारण भारत का काफ़ी सारा धन प्रति-वर्ष इंग्लैण्ड जाने लगा। अंग्रेजी राज्य के अधीन भारत में बेकारी और निर्धनता का वातावरण पैदा हो गया। कृषकों पर अधिक करों तथा भारतीय उद्योग-धन्धों की समाप्ति के कारण अनेक लोग बेकार हो गए। अंग्रेज़ी शासन के कारण भारतीय व्यापार भी ठप्प हो गया। कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर पूरी तरह अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।

प्रश्न 3.
ब्रिटिश काल में उद्योगों के विकास की कमजोरियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
अंग्रेज़ी शासन के अधीन औद्योगिक विकास के मार्ग की किन्हीं पांच बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
ब्रिटिश शासन के आरम्भ के साथ उद्योगों में तीन बातें घटित हुईं। पहली यह कि उन्होंने भारतीय कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया। दूसरे, इस देश को इंग्लैण्ड के औद्योगिक माल की मण्डी बना दिया। तीसरे, इस देश में कुछ नए उद्योग आरम्भ किए गए। अब देखना यह है कि इस औद्योगिक विकास की कमजोरियां क्या थीं-

1. भारी उद्योगों का अभाव-अंग्रेजों ने भारत में मूल उद्योग आरम्भ न किए। यदि ऐसा होता तो भारत में औद्योगिक विकास की आधारशिला तैयार हो जाती। परन्तु अंग्रेज़ भारत को उन्नत औद्योगिक राष्ट्र के रूप में देखना ही नहीं चाहते थे।

2. कम्पनी की आवश्यकताओं को प्राथमिकता-अंग्रेजों ने भारत में केवल वही उद्योग स्थापित किए जिनके उत्पादों की उन्हें आवश्यकता थी।

3. उद्योगों का एकाधिकार-सभी बड़े-बड़े उद्योगों का स्वामित्व अंग्रेजों को दिया गया। बहुत कम भारतीयों को उद्योग स्थापित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

4 उद्योगों का असमान वितरण-अंग्रेज़ों ने भारत के कुछ ही भागों में उद्योग स्थापित किए। शेष भाग उद्योगों से वंचित रहे।

5. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन न देना-अंग्रेजों ने भारत में छोटे तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन न दिया। ऐसे उद्योगों द्वारा ही भारत की अधिकांश जनता को लाभ पहुँच सकता था।

6. कच्चे माल का निर्यात-अंग्रेज़ इंग्लैण्ड के हित में काम करते थे। वे इस देश से कच्चा माल इंग्लैण्ड को सस्ते दामों पर निर्यात करते थे और फिर तैयार माल लाकर भारत में महँगे दामों पर बेचते थे।

7. प्रशिक्षण का अभाव-अंग्रेजों ने न अधिक इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित किए और न ही श्रमिकों के प्रशिक्षण के लिए ही कोई प्रबन्ध किया। ऐसी अवस्था में उद्योगों का पूर्ण विकास नहीं हो सकता था।

8. दूषित कर-प्रणाली-अंग्रेजों ने कर प्रणाली भी इंग्लैण्ड के पक्ष में ही स्थापित की। उन्होंने इंग्लैण्ड से आने वाले माल पर कस्टम ड्यूटी माफ कर दी। इसके विपरीत भारतीय माल पर इंग्लैण्ड में भारी कर लगा दिए। परिणामस्वरूप पहले भारतीय उद्योगों का विनाश हुआ और बाद में भारत इंग्लैण्ड के तैयार माल की मण्डी बन गया।

सच तो यह है कि अंग्रेजों ने भारत में औद्योगिक विकास की दृष्टि से उद्योग स्थापित न किए थे। उनका मुख्य उद्देश्य इंग्लैण्ड को लाभ पहुँचाना था।

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प्रश्न 4.
18वीं तथा 19वीं शताब्दी में भारत के आर्थिक शोषण की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की आर्थिक नीति की विवेचना कीजिए जिसके फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था की बरबादी हुई।
उत्तर-
18वीं शताब्दी में भारत का शासन ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ में आ गया। कम्पनी सरकार ने अपने स्वार्थ तथा इंग्लैण्ड के हितों को बढ़ावा देने के लिए भारत तथा भारतीयों का खूब आर्थिक शोषण किया। इस उद्देश्य से अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित कार्य किए-

1. ग्रामीण कपड़ा उद्योगों का विनाश-अंग्रेजी सरकार अपने गुमाश्तों द्वारा भारतीय जुलाहों से कपड़े का सस्ते दामों पर जबरदस्ती सौदा कर लेती थी। सौदा करने के लिए जुलाहों को पेशगी राशि दे दी जाती थी। यदि वे पेशगी लेने से इन्कार करते तो उन्हें पीटा जाता था और कोड़े लगाए जाते थे। इस प्रकार जुलाहे अपना माल कम्पनी को छोड़कर किसी के पास नहीं बेच सकते थे, भले ही उन्हें वहाँ से कितनी ही अधिक राशि क्यों न मिलती हो। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे भारतीय जुलाहों की कपड़ा उद्योग में रुचि समाप्त हो गई और भारतीय कपड़ा उद्योग समाप्त हो गया।

2. इंग्लैण्ड में भारतीय माल पर अधिक कर-इंग्लैण्ड में भारतीय कपड़े की बड़ी माँग थी। परन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने भारतीय कपड़े पर भारी आयात कर लगा दिया। फलस्वरूप इंग्लैण्ड पहुँचते-पहुँचते भारतीय कपड़ा इतना महँगा हो जाता था कि वहां के लोग इसे खरीदने से भी डरने लगे। अतः इंग्लैण्ड में भारतीय कपड़े की माँग बिल्कुल समाप्त हो गई।

3. भारत का मण्डी के रूप में प्रयोग-इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के बाद अनेक कारखाने खुल गए और भारी मात्रा में उत्पादन होने लगा। इन कारखानों को कच्चा माल जुटाने तथा वहाँ के तैयार माल को बेचने के लिए अंग्रेजों ने भारत को एक मण्डी बना दिया। वे यहाँ का सारा कच्चा माल सस्ते दामों पर खरीद कर इंग्लैण्ड भेजने लगे। इंग्लैण्ड का तैयार माल भारत में बिना रोक-टोक आने लगा और यहाँ उसे महँगे दामों पर बेचा जाने लगा। परिणामस्वरूप भारत का धन निरन्तर इंग्लैण्ड पहुँचने लगा।

4. व्यापार पर एकाधिकार-अंग्रेजी कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। एक ओर तो वे भारतीय जुलाहों से सस्ते दामों पर कपड़े का सौदा कर लेते थे, दूसरी ओर सारा कच्चा माल पहले से ही खरीदकर अपने गोदामों में भर लेते थे। विवश होकर भारतीय जुलाहों को किया गया सौदा पूरा करने के लिए महंगे दामों पर अंग्रेजों से कच्चा माल खरीदना पड़ता था। परिणामस्वरूप देखते ही देखते देश में निर्धनता और बेकारी फैल गई।

5. इंग्लैण्ड के हित में नए उद्योग-अंग्रेजों ने भारत में कुछ नए उद्योग भी लगाए। परन्तु इनका उद्देश्य भी भारत का आर्थिक शोषण करना ही था। उदाहरण के लिए, इंग्लैण्ड में चाय की माँग थी तो भारत में बड़े पैमाने पर चाय के बागान लगाए गए। इसी प्रकार कपास तथा पटसन आदि की खेती, नील उद्योग आदि सभी इंग्लैण्ड के हितों की ही पूर्ति करते थे। इन उद्योगों के आरम्भ से भारत आवश्यक उद्योगों में पिछड़ गया।
सच तो यह है कि अंग्रेज़ी सरकार ने अपनी प्रत्येक नीति भारत का धन हड़पने के लिए ही निर्धारित की।

प्रश्न 5.
अंग्रेजों के अधीन भारत के सामाजिक जीवन में क्या-क्या परिवर्तन हुए ? किन्हीं पांच परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
अंग्रेज़ इस देश में व्यापारी तथा शासक के रूप में लगभग 350 वर्ष तक रहे। उन्होंने लगभग 200 वर्ष तक यहां शासन भी किया। इस देश में उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेज़ी सत्ता को दृढ़ करना था। इसलिए उन्होंने हमारे सामाजिक क्षेत्रों में काफी परिवर्तन किए। इन परिवर्तनों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. आधुनिक शिक्षा का आरम्भ-आधुनिक शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों की देन है। 1835 ई० में यह निर्णय लिया गया कि भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होगा। 1854 ई० में वुड डिस्पैच तथा 1882 ई० में हण्टर आयोग के सुझावों को स्वीकार किया गया। इनके अनुसार देश में शिक्षा विभाग की स्थापना हुई, विश्वविद्यालय खोले गए तथा अनेक स्कूलों तथा कॉलेजों की व्यवस्था की गई। प्राइवेट स्कूलों को अनुदान देने की प्रणाली आरम्भ की गई। अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। इस प्रकार भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई।

2. जाति बन्धन में ढील तथा सती प्रथा का अन्त-अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई पादरियों के प्रचार के कारण भारत में जाति बन्धन टूटने लगे। ईसाई पादरी ऊंच-नीच की परवाह नहीं करते थे। इससे प्रभावित होकर निम्न जातियों के लोग ईसाई धर्म स्वीकार करने लगे। यह बात हिन्दू समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गई। इस खतरे को टालने के लिए उस समय के समाज-सुधारकों ने जाति-प्रथा की निन्दा की। परिणामस्वरूप जाति बन्धन काफ़ी ढीले हो गए। उस समय हिन्दू समाज में सती-प्रथा भी प्रचलित थी। इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने दिसम्बर, 1829 में एक कानून पास किया और सती-प्रथा को कानून के विरुद्ध घोषित कर दिया।

3. बाल-हत्या तथा नर-बलि पर रोक, विधवा विवाह की आज्ञा-मध्य भारत की कुछ जातियां दहेज आदि की कठिनाई से बचने के लिए कन्याओं को पैदा होते ही मार डालती थीं। इस पर रोक लगाने के लिए लॉर्ड वैल्ज़ली ने 1802 में एक कानून पास किया। इसके अनुसार बाल-हत्या पर रोक लगा दी गई। भारत के कुछ भागों में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नर-बलि दी जाती थी। यह प्रथा मद्रास में विशेष रूप से प्रचलित थी। विलियम बैंटिंक ने इस क्रूर प्रथा का भी अन्त कर दिया। विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए जुलाई, 1856 ई० में सरकार ने विधवा-विवाह को कानून द्वारा वैध घोषित कर दिया।

4. स्त्री शिक्षा का प्रसार-राजा राम मोहन राय, जगन्नाथ शंकर सेठ, रानाडे, महात्मा फूले तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयत्नों के फलस्वरूप स्त्रियों को ये सुविधाएं मिलीं-

  1. उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की आज्ञा दे दी गई,
  2. उनके लिए अलग कॉलेजों की व्यवस्था की गई,
  3. उन्हें विश्वविद्यालयों में भी प्रवेश पाने की आज्ञा दे दी गई।

5. साम्प्रदायिकता का आरम्भ-अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को दृढ़ बनाए रखने के लिए “फूट डालो और राज्य करो” की नीति अपनाई। इस नीति से देश में साम्प्रदायिकता का विष फैलने लगा।

6. भारतीय सभ्यता और संस्कृति का ह्रास-भारत में अंग्रेज़ी शासन स्थापित होने से भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को भारी धक्का लगा। अंग्रेजों ने इस बात का प्रचार किया कि भारतीय असभ्य हैं और अंग्रेज़ उन्हें सभ्यता का पाठ पढ़ाने आए हैं। अत: भारतीय उनकी सभ्यता को उच्च मानकर उसी के प्रभाव में बहने लगे। इस प्रकार एक लम्बे समय तक भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विकास रुका रहा।

7. भारतीय मध्यम वर्ग का उदय-अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना से भारत में मध्यम वर्ग का उदय हुआ। नवीन भूमि कानूनों के कारण ज़मींदार, महाजन तथा व्यापारी लोग अस्तित्व में आये। यही लोग बीसवीं शताब्दी में भारत की मध्यम श्रेणी के रूप में उभरे। पैसा अधिक होने के कारण इस श्रेणी के लोगों ने पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण की और राष्ट्रीय आन्दोलन में लोगों का नेतृत्व किया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 19 अंग्रेजी साम्राज्य के समय में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन

प्रश्न 6.
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत की कृषि की क्या दशा थी ? अंग्रेज़ी राज्य में इसमें कौन-कौन से परिवर्तन आए ? कोई पांच परिवर्तन लिखिए।
उत्तर-
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व कृषि की दशा-अंग्रेजों के आगमन से पूर्व खेती-बाड़ी की दशा अधिक अच्छी नहीं थी। कृषि का उद्देश्य केवल किसानों की आवश्यकताओं को पूरा करना था। किसान को जिस चीज़ की जितनी मात्रा में आवश्यकता होती, वह केवल उतनी ही वस्तु का उत्पादन करता था। वह खाने के लिए अनाज, तेल के लिए सरसों, तोरिया, तिल, तारामीरा आदि तथा मीठे के लिए गन्ना उगा लेता था। वह वस्त्रों के लिए कपास और अपने पशुओं के लिए आवश्यक चारा भी उगा लेता था। अपनी आवश्यकता से अधिक वह किसी भी चीज़ का उत्पादन नहीं करता था।

उस समय की खेती में कुछ अन्य त्रुटियां भी थीं। खेती करने का ढंग पुराना था। सिंचाई के साधन भी अधिक विकसित नहीं थे। किसानों को सिंचाई के लिए अधिकतर वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता था। यदि वर्षा ठीक समय पर उचित मात्रा में हो जाती तो उपज अच्छी हो जाती थी। इसके विपरीत वर्षा कम होने पर सूखा पड़ जाता और अधिक होने पर बाढ़ आ जाती थी। परिणामस्वरूप फसलें नष्ट हो जाती थीं और लोगों को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ता था।

अंग्रेजी राज्य में कृषि में परिवर्तन-18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति आई और वहां अनेक कारखाने खुल गए। इन कारखानों को चलाने के लिए अंग्रेजों को कच्चे माल की आवश्यकता थी। यह कच्चा माल भारतीय कृषि से मिल सकता था। इसलिए उन्होंने भारत की कृषि को उन्नत करने में रुचि ली और इसमें निम्नलिखित परिवर्तन किए-

1. यातायात के साधनों का विकास-उन्होंने यातायात के साधनों का विकास किया। उन्होंने किसान को अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित किया ताकि वे अतिरिक्त उपज को बेच कर अधिक धन कमा सकें। कमाई के अच्छे अवसर देखकर किसान अपनी कृषि में सुधार लाने लगे।

2. आदर्श कृषि फार्म-देश में बड़े-बड़े फार्म खोले गए जिनमें नमूने की (आदर्श) खेती की जाती थी। इन्हें देखकर किसान भी अपनी खेती में सुधार लाने का प्रयत्न करने लगे।

3. सिंचाई के साधनों का विकास-सिंचाई के लिए देश के विभिन्न भागों में नहरें तथा कुएं खोदे गए। देश के दक्षिणी भागों में वर्षा का पानी इकट्ठा करके अथवा नदियों से पानी लेकर सिंचाई के लिए बड़े-बड़े तालाब बनाए गए।

4. नई फसलों का उत्पादन सरकार ने ऐसी फसलों के उत्पादन पर अधिक बल दिया जिनका प्रयोग कच्चे माल के रूप में हो सकता था। उन्होंने बाहर से भी कुछ नई फसलें लाकर भारत में बोई। इन फसलों में अमेरिकन कपास, आलू, सिनकोना आदि प्रमुख थीं।

5. नये कृषि यन्त्र-कृषि के औजारों में परिवर्तन किया गया। अब लकड़ी के पुराने हलों के स्थान पर लोहे के नये हल चलाए गए।

6. उत्तम प्रकार के बीज-उत्तम प्रकार के बीज पैदा करने के लिए पूना में एक अनुसंधान विभाग खोला गया।

7. ऋण संस्थाएं-किसानों की सहायता के लिए कुछ संस्थाएं खोली गईं ताकि किसान धनवान महाजनों के चंगुल से बचें।

प्रश्न 7.
व्याख्या सहित बताओ कि अंग्रेजी शासन ने ग्रामों की आर्थिकता में कौन-कौन से परिवर्तन किए ?
उत्तर-
अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के समय भारत की लगभग 95 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में ही रहती थी। उस समय प्रत्येक गांव अपने आप में एक इकाई था। ग्रामीण आर्थिकता का आधार आत्म-निर्भरता थी। गांव के किसान खेती करते थे और अन्य लोग उनकी खेती सम्बन्धी तथा अन्य आवश्यकताओं को पूरा करते थे। उदाहरण के लिए जुलाहे उनके लिए कपड़ा बुनते थे, कुम्हार उन्हें बर्तन आदि देते थे और बढ़ई तथा लुहार उनके लिए हल, पंजालियां आदि बनाते थे। इसके बदले में किसान केवल वही वस्तुएं उगाते थे जिनकी उन्हें या गांववासियों को आवश्यकता होती थी। आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का उत्पादन नहीं किया जाता था। देश में अंग्रेजी राज्य स्थापित होने के कारण ग्रामों की आर्थिकता में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. व्यापारिक उपजों पर बल-इंग्लैंड के कारखानों को चलाने के लिए अधिक मात्रा में कच्चे माल की आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड में अधिक अन्न भी चाहिए था। अंग्रेजों ने यह कच्चा माल और अनाज भारत से प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सबसे पहले सड़कों, रेलों तथा भाप से चलने वाले जहाजों में सुधार किया ताकि देश के भिन्न-भिन्न भागों से माल को इंग्लैंड तक आसानी से पहुंचाया जा सके। इसके साथ ही भारतीय किसानों को व्यापारिक फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया गया ताकि इंग्लैंड में उनकी मांग को पूरा किया जा सके। फलस्वरूप गांवों में व्यापारिक फसलों की खेती होने लगी।

2. सिक्के का प्रसार-व्यापार आरम्भ होने से सिक्के का प्रसार बढ़ गया। अब किसान अपनी उपज बेचकर धन कमाने लगे और गांव में कई सेवाओं के बदले वे अनाज के स्थान पर नकद पैसे देने लगे। गांवों से कई लोग अधिक धन कमाने की इच्छा से नगरों में आकर भी काम करने लगे।

3. नए भूमि-प्रबन्ध-ग्रामों की आर्थिकता में सबसे बड़ा परिवर्तन नए भूमि-प्रबन्ध आरम्भ होने से आया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा में भूमि का स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसमें बड़े-बड़े ज़मींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया गया और सदियों से भूमि पर खेती करने वाले किसान भूमि-हीन हो गए। वे अपने ज़मींदारों की इच्छा के दास थे। फलस्वरूप उनके मन में खेती के प्रति उत्साह कम हो गया। नए भूमि-प्रबन्ध के कारण ग्रामों की आर्थिकता पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा।

4. नई न्याय प्रणाली-गांवों की आर्थिकता में पंचायतों का बड़ा महत्त्व था। प्रत्येक गांव में झगड़ों का निपटारा पंचायतें ही करती थीं और सभी को उसका निर्णय मानना पड़ता था। इसलिए झगड़ों के निपटारे पर अधिक धन और समय नष्ट नहीं होता था, परन्तु अंग्रेजों ने एक नई न्याय-प्रणाली आरम्भ की। इसके अनुसार अब गांव के झगड़ों का निपटारा पंचायतें नहीं कर सकती थीं। फलस्वरूप गांव के लोगों को भारी हानि उठानी पड़ी।

सच तो यह है कि अंग्रेजों के शासन काल में ग्रामीण आर्थिकता का रूप बिल्कुल बदल गया।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 9 महासागर Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 9 महासागर

PSEB 11th Class Geography Guide महासागर Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द में दीजिए-

प्रश्न (i)
जलमंडल धरती की सतह का कितने प्रतिशत भाग घेरता है ?
उत्तर-
71%.

प्रश्न (ii)
धरती को नीला ग्रह क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
धरती पर जल के अधिक होने के कारण।

प्रश्न (iii)
समुद्रों की गहराई को कैसे मापा जाता है ?
उत्तर-
सॉनिक डैप्थ रिकार्डर द्वारा।

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प्रश्न (iv)
प्लैक्टन किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जीव-जंतुओं के गले सड़े अंश।

प्रश्न (v)
हिंद महासागर की एक गहरी खाई (Trench) का नाम लिखें।
उत्तर-
सुंडा खाई। (Sunda Trench)।

प्रश्न (vi)
विश्व के सबसे बड़े महासागर का नाम क्या है ?
उत्तर-
प्रशांत महासागर।

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प्रश्न (vii)
ऐगुल्लास धारा (Agulhas Current) कौन-से महासागर की धारा है ?
(क) हिंद महासागर
(ख) अंध महासागर
(ग) आर्कटिक महासागर
(घ) शांत महासागर।
उत्तर-
(क) हिंद महासागर।

प्रश्न (vii)
प्रशांत महासागर की सबसे गहरी खाई (Deepest Trench) का नाम क्या है ?
उत्तर-
मेरिआना।

प्रश्न (ix)
हिंद महासागर की औसत गहराई कितनी है ?
उत्तर-
3960 मीटर।

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प्रश्न (x)
प्रशांत महासागर के किनारे किन पाँच महाद्वीपों को छूते हैं ?
उत्तर-

  1. उत्तरी अमेरिका
  2. दक्षिणी अमेरिका
  3. एशिया
  4. आस्ट्रेलिया
  5. अंटार्कटिका।

प्रश्न (xi)
सुनामी लहरें क्या होती हैं ?
उत्तर-
महासागर के धरातल पर भूकंप के कारण बहुत ऊंची लहरें उठती हैं, जिन्हें सुनामी. कहते हैं।

प्रश्न (xii)
तापमान अक्षांश और गहराई बढ़ने से कम होता है, क्यों ?
उत्तर-
भूमध्य रेखा पर पूरा वर्ष सूर्य की किरणें लंब रूप में पड़ती हैं और इसलिए वहाँ तापमान अधिक होता है, परंतु ध्रुवीय क्षेत्रों में तापमान कम होता है। गहराई के बढ़ने से तापमान कम हो जाता है। 200 मीटर की गहराई पर तापमान 15.9°C रहता है परंतु 1000 मीटर की गहराई पर केवल 5°C हो जाता है।

प्रश्न (xiii)
भूमध्य रेखा के नज़दीक गर्मी की ऋतु में खुले महासागर का औसत तापमान क्या होता है ?
उत्तर-
26° C.

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प्रश्न (xiv)
क्या गल्फ स्ट्रीम (Gulf Stream) गर्म जल की धारा है ?
उत्तर-
हाँ, यह गर्म जल की धारा है।

प्रश्न (xv)
अल्बेडो (Albedo) की परिभाषा दें।
उत्तर-
सूर्य की किरणों के परिवर्तन को अल्बेडो कहते हैं।

प्रश्न (xvi)
खारापन (लवणता) क्या होता है ?
उत्तर-
खारेपन से अभिप्राय समुद्री जल में घुले हुए नमक की मात्रा है।

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प्रश्न (xvii)
निम्नलिखित अक्षांशों में से सबसे अधिक खारापन कहाँ होगा ?
(क) 10°A – 15°N
(ख) 15°N – 40°N
(ग) 60°S – 70°S.
उत्तर-
(ख) 15°N – 40°N पर सबसे अधिक खारापन होगा।

प्रश्न (xviii)
महासागरों के जल का खारापन नापने की इकाई क्या है ?
(क) 10 ग्राम
(ख) 1000 ग्राम
(ग) 100 ग्राम।
उत्तर-
(ख) 1000 ग्राम।

प्रश्न (xix)
सागरीय लवणता को कौन-से तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-
(i) हिंद महासागर संसार का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है, जोकि तीन तरफ से स्थल भागों (अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया) से घिरा हुआ है। इसका विस्तार 20° पूर्व से लेकर 115° पूर्व तक है। इसकी औसत गहराई 4000 मीटर है। यह सागर उत्तर में बंद है और दक्षिण में अंध महासागर और प्रशांत महासागर से मिल जाता है।
(ii) समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—इस महासागर में कई पहाड़ियाँ मिलती हैं-

(क) मध्यवर्ती पहाड़ी (Mid Indian Ridge) कन्याकुमारी से लेकर अंटार्कटिका महाद्वीप तक 75° पूर्व देशांतर के साथ-साथ स्थित है। इसके समानांतर पूर्वी हिंद पहाड़ी और पश्चिमी हिंद पहाड़ियाँ स्थित हैं। दक्षिण में ऐमस्ट्रडम-सेंट पॉल पठार स्थित है।
(ख) अफ्रीका के पूर्वी सिरे पर स्कोटा छागोश पहाड़ी।
(ग) हिंद महासागर के पश्चिम में मैडगास्कर और प्रिंस ऐडवर्ड पहाड़ियाँ और कार्ल्सबर्ग पहाड़ियाँ स्थित हैं।

(ii) सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-कई पहाड़ियों (Ridges) के कारण हिंद महासागर कई छोटे-छोटे बेसिनों में बँट गया है, जैसे-खाड़ी बंगाल, अरब सागर, सोमाली बेसिन, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन और दक्षिणी हिंद बेसिन।

(iv) समुद्री निवाण (Ocean Deeps)—इस सागर में समुद्री निवाण बहुत कम हैं। सबसे अधिक गहरा स्थान सुंडा खाई (Sunda Trench) के निकट प्लैनट निवाण है, जोकि 4076 फैदम गहरा है।

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(v) सीमावर्ती सागर (Marginal Sea)-हिंद महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर उत्तर की ओर हैं, जो इस प्रकार हैं-

(क) लाल सागर (Red Sea)
(ख) खाड़ी सागर (Persian Gulf)
(ग) अरब सागर (Arabian Sea)
(घ) खाड़ी बंगाल (Bay of Bengal)
(ङ) मोज़म्बिक चैनल (Mozambique Strait)
(च) अंडमान सागर (Andaman Sea)।

(vi) द्वीप (Islands)

(क) श्रीलंका और मैलागासी जैसे बड़े द्वीप
(ख) अंडमान-निकोबार, जंजीबार, लक्षद्वीप और मालदीव,
(ग) मारीशस और रीयूनियन जैसे ज्वालामुखी द्वीप।

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प्रश्न (xx)
अंतर स्पष्ट करें-लवणता/तापमान।
उत्तर-
लवणता उस अनुपात को कहते हैं, जो घुले हुए पदार्थों के भार और समुद्री जल के भार में होती है। महासागरीय जल के तापमान पर महासागरों की गतियाँ निर्भर करती हैं। महासागरीय जल के तापमान का प्रमुख स्रोत सूर्य की गर्मी है।

2. निम्नलिखित को परिभाषित करें-

प्रश्न (i)
महाद्वीपीय ढलान।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ से आगे महासागर की ओर तीखी ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं।

प्रश्न (ii)
सपाट पर्वत (Guyots) और सागरीय पर्वत (Sea Mount)।
उत्तर-
सपाट शिखर वाली पहाड़ियों को. सपाट पर्वत कहते हैं। 1000 मीटर से अधिक ऊँची पहाड़ियों को समुद्री पर्वत कहते हैं।

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प्रश्न (iii)
जल चक्र।
उत्तर-
समुद्री जल के वाष्पीकरण द्वारा वायुमंडल और जल पर पानी के चक्र में घूमने को जल चक्र कहा जाता है।

प्रश्न (iv)
गहरे मैदान (Abyssal Plains) और महाद्वीपीय ढलान (Continental Slopes)।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ से आगे महासागर की ओर तीखी ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं। महाद्वीपीय ढलान से आगे समतल मैदान (3000 से 6000 मीटर तक) को गहरा सागरीय मैदान कहते हैं।

प्रश्न (v)
महासागरीय धाराएँ।
उत्तर-
महासागर के एक भाग से दूसरे भाग की ओर एक विशेष दिशा में लगातार प्रवाह को महासागरीय धाराएँ कहते हैं।

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प्रश्न (vi)
सागरीय धाराएँ क्यों पैदा होती हैं ? कोई चार कारण विस्तार से लिखें।
उत्तर-
समुद्र विज्ञान (Oceanography)—महासागरों का अध्ययन प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है। महासागरों की परिक्रमा, ज्वारभाटे की जानकारी आदि ईसा से कई वर्ष पूर्व ही प्राप्त थी। जलवायु, समुद्री मार्गों, जीवविज्ञान आदि पर प्रभाव के कारण समुद्री विज्ञान भौतिक भूगोल में एक विशेष स्थान रखता है।

समुद्र विज्ञान दो शब्दों Ocean + Graphy के मेल से बना है। इस प्रकार इस विज्ञान में महासागरों का वर्णन होता है। एम०ए०मोरमर (M.A. Mormer) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों की आकृति, स्वरूप, पानी और गतियों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of the Science of Oceans-its form, nature, waters and movements.)। मोंक हाऊस के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों के भौतिक और जैव गुणों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of a wide range of Physical and biological phenomena of oceans.)

I डब्ल्यू० फ्रीमैन (W. Freeman) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान भौतिक भूगोल का वह भाग है, जो पानी की गतियों
और मूल शक्तियों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में ज्वारभाटा, धाराओं, तट रेखाओं, समुद्री धरातल और जीवों का अध्ययन शामिल होता है।”

महासागर-विस्तार (Ocean-Extent)-पृथ्वी के तल पर जल में डूबे हुए भाग को जलमंडल (Hydrosphere) कहते हैं। जलमंडल में महासागर, सागर, खाड़ियाँ, झीलें आदि सभी जल-स्रोत आ जाते हैं। सौर-मंडल में पृथ्वी ही एक-मात्र ग्रह है, जिस पर जलमंडल मौजूद है। इसी कारण पृथ्वी पर मानव-जीवन संभव है।

पृथ्वी के लगभग 71% भाग पर जलमंडल का विस्तार है। इसलिए इसे जल-ग्रह (Watery Planet) कहते हैं। अंतरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है, इसलिए इसे नीला ग्रह (Blue Planet) भी कहते हैं।

धरातल पर जलमंडल लगभग 3,61,059,000 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं जोकि पृथ्वी के धरातल के कुल क्षेत्रफल का 71% भाग है।
उत्तरी गोलार्द्ध का 61% भाग और दक्षिणी गोलार्द्ध का 81% भाग महासागरों द्वारा घिरा हुआ है। उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का विस्तार अधिक है, इसलिए इसे (Water Hemisphere) भी कहते हैं। जल और थल का विभाजन प्रति ध्रुवीय (Antipodal) है। उत्तरी ध्रुव की ओर चारों तरफ आर्कटिक महासागर स्थित है और दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका महाद्वीप द्वारा घिरा हुआ है ।

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जलमंडल का क्षेत्रफल (Area of Hydrosphere) ब्रिटिश भूगोल वैज्ञानिक जॉन मरें (John Murray) ने जलमंडल का क्षेत्रफल 3626 लाख वर्ग किलोमीटर बताया है । महासागरों में प्रमुख प्रशांत महासागर, अंधमहासागर, हिंद महासागर और आर्कटिक महासागर हैं । प्रशांत महासागर सबसे बड़ा महासागर है, जो जलमंडल के 45.1% भाग पर फैला हुआ है ।

Areas of Different Oceans

Ocean — Area (Sq. K.m.)
प्रशांत महासागर — 16,53, 84,000
अंध महासागर — 8,22,17,000
हिंद महासागर — 7,34,81,000
आर्कटिक महासागर –1,40,56,000

महासागरों की औसत गहराई 3791 मीटर है। स्थल मंडल की अधिकतम ऊँचाई एवरेस्ट चोटी (Everest Peak) है, जोकि समुद्र तल से 8848 मीटर ऊँची है। जलमंडल की अधिकतम गहराई 11,033 मीटर, फिलीपीन देश के निकट प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में चैलंजर निवाण (Challeger Deep) में है। इस प्रकार यदि संसार के सबसे ऊँचे शिखर ऐवरेस्ट को प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में डुबो दिया जाए, तो उसके शिखर पर 2000 मीटर से अधिक पानी होगा।

प्रश्न (vii)
अंध महासागर की कोई दो गर्म पानी की धाराओं की व्याख्या करें।
उत्तर-

  • फ्लोरिडा गर्म पानी की धारा-यह धारा दक्षिणी-पूर्वी (यू०एस०ए०) तट से होते हुए चलती है, जोकि फ्लोरिडा की धारा के नाम से जानी जाती है। ..
  • नॉर्वे की गर्म पानी की धारा-अंध महासागर के पूर्वी हिस्से में पहुँचकर (North Atlantic Drift) उत्तरी अटलांटिक धारा दो हिस्सों में बाँटी जाती है, उत्तर की ओर मुड़ा हुआ हिस्सा नॉर्वे के तटों के साथ-साथ होता हुआ आर्कटिक (Arctic) सागर में जा मिलता है, जो नॉर्वे की गर्म पानी की धारा के नाम से जाना जाता है।

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प्रश्न (viii)
न्यूफाउंडलैंड में धुंध होने के कारण क्या हैं ? कारण बताएं।
उत्तर-
न्यूफाउंडलैंड के निकट खाड़ी की गर्म धारा और लैब्रेडोर की ठंडी धाराएँ आपस में मिलती हैं। इनके प्रभाव से धुंध पैदा हो जाती है और जहाज़ों के आने-जाने में रुकावट पैदा होती है।

प्रश्न (ix)
महासागरीय धाराओं और ज्वारभाटा में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-
महासागरों में एक विशेष दिशा में लगातार प्रवाह को महासागरीय धाराएँ कहते हैं। जबकि सागरीय जल के समय के अनुसार उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं।

प्रश्न (x)
गहराई के साथ समुद्री तापमान में बदलाव क्यों आता है ? ताप-परतों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
गहराई के साथ-साथ समुद्री जल का तापमान कम होता जाता है। सूर्य की किरणें 100 फैदम तक ही पानी को गर्म करती हैं। पहली परत 500 मीटर तक होती है। दूसरी परत 500-1000 मीटर तक होती है, जिसे थर्मोक्लाईन कहते हैं। इससे अधिक गहराई पर तापमान कम होना शुरू होने लगता है।

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प्रश्न (xi)
सागरीय धाराओं का तापमान पर क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर-
धाराओं से ऊपर बहने वाली पवनें अपने साथ गर्मी या सर्दी ले जाती हैं। गर्म धाराओं के प्रभाव से निकट के क्षेत्र में तापमान ऊँचा हो जाता है और जलवायु सम हो जाती है। (Warm currents raises and cold currents lowers the temprature)। ठंडी धाराओं के कारण सर्दी की ऋतु आरंभ हो जाती है।

प्रश्न (xii)
महासागरीय जल के तापमान वितरण के ऊपर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों के बारे में विस्तार से लिखें।
उत्तर-
1. विस्तार और आकार (Shape and Size)—यह त्रिभुज (A) आकार का महासागर पृथ्वी के 30% भाग पर फैला हुआ है। इसकी औसत गहराई 5000 मीटर है। उत्तर में यह बेरिंग समुद्र और आर्कटिक महासागर द्वारा बंद है। प्रशांत महासागर भूमध्य रेखा पर लगभग 16000 कि०मी० चौड़ा है।

2. समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—प्रशांत महासागर में पहाड़ियों (Ridges) की कमी है। इसके कुछ भागों में पठारों के रूप में उठे हुए चबूतरे पाए जाते हैं। प्रमुख उभार इस प्रकार हैं –

  • हवाई उभार, जोकि लगभग तीन हज़ार कि०मी० लंबा है।
  • अल्बेट्रोस पठार, जोकि लगभग 1500 कि०मी० लंबा है।
  • इस सागर में अनेक उभार (Swell), ज्वालामुखी पहाड़ियाँ और प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं।

3. सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-प्रशांत महासागर में कई प्रकार के बेसिन मिलते हैं, जो छोटी-छोटी पहाड़ियों (Ridges) द्वारा एक-दूसरे से अलग हैं। प्रमुख बेसिन इस प्रकार हैं –

  • ऐलुशीयन बेसिन
  • फिलिपीन बेसिन
  • फिज़ी बेसिन
  • पूर्वी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन
  • प्रशांत अंटार्कटिका बेसिन।

4. सागरीय निवाण (Ocean Deeps)—इस महासागर में लगभग 32 निवाण मिलते हैं, जिनमें से अधिक Trenches हैं। इस सागर के निवाण (Deeps) और खाइयाँ (Trenches) अधिकतर इसके पश्चिमी भाग में हैं। इस सागर में सबसे गहरा स्थान मैरियाना खाई (Mariana Trench) है, जिसकी गहराई 11022 मीटर है। इसके अलावा ऐलुशीयन खाई, क्यूराइल खाई, जापान खाई, फिलीपाइन खाई, बोनिन खाई, मिंडानो टोंगा खाई और एटाकामा खाई प्रसिद्ध सागरीय निवाण हैं, जिनकी गहराई 7000 मीटर से भी अधिक है।

5. सीमवर्ती सागर (Marginal Seas)—प्रशांत महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर पश्चिमी भागों में मिलते हैं। इसके पूर्वी भाग में कैलीफोर्निया की खाड़ी और अलास्का की खाड़ी है। शेष महत्त्वपूर्ण सागर पश्चिमी भाग में हैं(i) बेरिंग सागर (Bering Sea) (ii) पीला सागर (Yellow Sea) (iii) ओखोत्सक सागर (Okhotsk Sea) (iv) जापान सागर (Japan Sea) (v) चीन सागर (China Sea)।

6. द्वीप (Islands)—प्रशांत महासागर में लगभग 20 हज़ार द्वीप पाए जाते हैं। प्रमुख द्वीप ये हैं-

  • ऐलुशियन द्वीप और ब्रिटिश कोलंबिया द्वीप।
  • महाद्वीपीय द्वीप, जैसे-क्यूराईल द्वीप, जापान द्वीप समूह, फिलीपाइन द्वीप, इंडोनेशिया द्वीप और न्यूज़ीलैंड द्वीप।
  • ज्वालामुखी द्वीप जैसे-हवाई द्वीप।
  • प्रवाल द्वीप, जैसे-फिजी द्वीप।

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प्रश्न (xiii)
लहरें (तरंगें) क्या होती हैं ?
उत्तर-
पवनों के प्रभाव से महासागरीय तल का जल ऊँचा-नीचा होता है, जिन्हें लहरें कहते हैं।

प्रश्न (xiv)
सुनामी लरहें (तरंगें) क्या होती हैं और इनके कारण होने वाली तबाही के बारे में एक नोट लिखें।
उत्तर–
महासागर के धरातल पर भूकंप के कारण बहुत ऊँची लहरें उठती हैं, जिन्हें सुनामी कहते हैं। ये लहरें बहुत विनाशकारी होती हैं। इन सुनामी लहरों के कारण सन् 2004 में दक्षिणी भारत में जान और माल का बहुत नुकसान हुआ था।

प्रश्न (xv)
लहरों की लंबाई क्या होती है ? .
उत्तर-
महासागरों में लहरों के कारण जल ऊँचा-नीचा होता रहता है, जिन्हें तरंगें या लहरें कहते हैं। लहरों के ऊपरी भाग को शिखर (Crest) और निचले भाग को गर्त (Trough) कहते हैं। इस शिखर और गर्भ के बीच की लंबाई को लहर की लंबाई कहते हैं।

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प्रश्न (xvi)
लहर की ऊँचाई क्या होती है ?
उत्तर-
लहर के निचले हिस्से गर्त (Trough) से लेकर लहर के शिखर तक की ऊँचाई को लहर की ऊँचाई कहते हैं।

प्रश्न (xvi)
लहरों और पवनों का आपसी संबंध बताएँ। लहरों की गति देखने के लिए किस फॉर्मूले का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
महासागरों का जल हवा की दिशा के साथ लहरों के रूप में गतिशील होता है। जल के ऊपर उठने और नीचे आने की क्रिया को लहर कहते हैं। लहरों को मापने के लिए नीचे लिखे फार्मूले का प्रयोग किया जाता है।
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प्रश्न (xvii)
Surge की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
जब कोई लहर समुद्र-तट की ओर आती है, तो उसे Swash या Surge कहते हैं। यह लहर हानिकारक होती है।

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प्रश्न (xix)
ज्वारभाटा कब आता है ?
उत्तर-
समुद्र का जल नियमित रूप से दिन में दो बार (24 घंटे में) ऊपर उठता है और नीचे आता है। इसे ज्वारभाटा कहते हैं।

प्रश्न (xx)
ज्वार दिन में कितनी बार आता है और इनका आपसी अंतर (Magnitude) क्या होता है ?
उत्तर-
प्रत्येक स्थान पर ज्वार 12 घंटे 26 मिनट के बाद आता है। हर रोज़ ज्वार पिछले दिन की तुलना में देर से आता है।

प्रश्न (xxi)
एक औसतन ज्वार की ऊँचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
0.55 मीटर।

प्रश्न (xxii)
अंतर स्पष्ट करेंऊँचा ज्वार (Spring Tide) और छोटा ज्वार (Neap Tide)
उत्तर-
ऊँचा ज्वार (Spring Tide)-सबसे ऊँचे ज्वार को ऊँचा ज्वार कहते हैं। यह हालत अमावस्या (New Moon) और पूर्णिमा (Full Moon) को होती है।
छोटा ज्वार (Neap Tide)-अमावस्या के सात दिन बाद या पूर्णिमा के सात दिन बाद ज्वार की ऊँचाई दूसरे दिनों की तुलना में नीची रह जाती है। इसे छोटा ज्वार कहते हैं। इस हालत को शुक्ल और कृष्ण पक्ष की अष्टमी कहते हैं, जब चाँद आधा (Half Moon) होता है।

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3. विस्तार से दें-

प्रश्न (i)
महासागरीय बेसिन (Ocean Basin) क्या होता है ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
महासागरीय बेसिन (Ocean Basin)-समुद्री धरातल के ऊँचे-नीचे भाग को महासागरीय बेसिन कहते हैं। इसके फर्श पर पठार, टीले, घाटियाँ और खाइयाँ मिलती हैं। महासागरीय बेसिन को नीचे लिखे प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है-

1. महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)-समुद्री किनारे के साथ समुद्री हिस्से को महाद्वीपीय शैल्फ कहा जाता है। महाद्वीपीय शैल्फ समुद्री किनारों से लेकर समुद्रों के नीचे उस सीमा तक फैले हुए होते हैं, जहाँ से समुद्र की गहराई शुरू होती है। महाद्वीपीय शैल्फ की औसत गहराई 100 फैदम (Fathom) तक मानी जाती है, परंतु कई बार यह अधिक भी हो सकती है। इसकी ढलान बहुत कम होने के कारण यह समतल ही नज़र आती है।

विस्तार-महासागरों के 7.5% भाग (260 लाख वर्ग किलोमीटर) पर महाद्वीपीय शैल्फों का विस्तार है। इसका सबसे अधिक विस्तार अंधमहासागर (13.3%) में है। इसकी औसत चौड़ाई 67 किलोमीटर और गहराई लगभग 72 फैदम होती है। आर्कटिक सागर के तट पर इसका विस्तार 1000 किलोमीटर से भी अधिक है।

उत्पत्ति-महाद्वीपीय शैल्फ की उत्पत्ति के बारे में विचारकों के नीचे लिखे विचार हैं-

  • कुछ विचारकों के अनुसार महाद्वीपीय शैल्फ वास्तव में स्थल का बढ़ा हुआ रूप होता है। समुद्र तल के ऊपर उठ जाने से या स्थल भाग के नीचे धंस जाने से महाद्वीपीय शैल्फ की रचना हुई।
  • यह भी माना जाता है कि सागरीय अपरदन से भी इनकी रचना हुई।
  • नदियों, लहरों, वायु आदि द्वारा तलछट के निक्षेप से भी इनका निर्माण हुआ।

महत्त्व-महाद्वीपीय शैल्फ मनुष्य के लिए काफी लाभदायक है। इन प्रदेशों में मछलियों के भंडार होते हैं। यहाँ तेल और गैस का उत्पादन होता है। यहाँ समुद्री जीवों और वनस्पति की अधिकता होती है।

2. महाद्वीपीय ढलान (Continental Slope) समुद्री फ़र्श का यह भाग महाद्वीपीय शैल्फ के समाप्त होने पर शुरू होता है और गहरे समुद्री मैदान तक जारी रहता है। दूसरे शब्दों में महाद्वीपीय ढलान महाद्वीपीय शैल्फ और गहरे समुद्री मैदान के बीच का भाग होता है। इस भाग की गहराई 100 फैदम से लेकर 2000 फैदम तक मानी जाती है। (भाव 200 मीटर से 4000 मीटर तक)। इसका कुल विस्तार 8.5% क्षेत्रफल पर है। इसका सबसे अधिक विस्तार अंध महासागर में है, जो कि 72.4% होता है। इस ढाल का औसत कोण 4° होता है, परंतु स्पेन के निकट यह कोण 36° होता है। इस ढाल की मुख्य रूप से पाँच किस्में हैं –

  • कैनियन द्वारा कटे हुए ढाल।
  • पहाड़ियों और बेसिन वाला मंद ढाल।
  • दरार के कारण टूटा हुआ ढाल।
  • सीढ़ीदार ढाल।
  • समुद्री टीलों वाला ढाल।

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3. गहरा समुद्री मैदान (Deep Sea Plain)-महाद्वीपीय ढलान से निचले चौड़े और समतल क्षेत्र को गहरे समुद्री मैदान कहा जाता है। इनकी औसत गहराई 3000 से लेकर 6000 मीटर तक होती है। कुल महासागर में इसका विस्तार 7.7% है। इसका सबसे अधिक विस्तार प्रशांत महासागर में है। इन मैदानों की ढाल 1/1000 से भी कम होती है। इन मैदानों के ऊपर कई भू-दृश्य पाए जाते हैं, जैसे—समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges), समुद्री टीले (Sea Mounts) आदि। इस भाग में अधिकतर मरे हुए जानवरों के अवशेष, हड्डियाँ, खोल और कीचड़ आदि पाए जाते हैं। समुद्री निवाण (Ocean Deeps)—समुद्री मैदानों में पाए जाने वाले सबसे गहरे हिस्सों को समुद्री निवाण कहा जाता है। इनका क्षेत्रफल बहुत कम और ढलान बहुत अधिक तीखी होती है।

4. समुद्री निवाण (Ocean Deeps) आमतौर पर द्वीप श्रृंखलाओं के निकट, ज्वालामुखी पर्वतों और भूकंप वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। कुल महासागरों के 7% भाग पर समुद्री निवाण पाए जाते हैं। विश्व के कुल सागरों में 57 खाइयाँ हैं, जिनमें से 32 प्रशांत महासागर में, 19 अंधमहासागर में और 6 हिंद महासागर में हैं। इन खाइयों की नीचे लिखी विशेषताएं है-

  • ये महासागरों के किनारे के साथ-साथ पाई जाती हैं।
  • ये अधिकतर ज्वालामुखी क्षेत्रों में होती हैं।
  • ये द्वीप श्रृंखलाओं की चाप के साथ-साथ मिलती हैं।

5. समुद्री कटक, घाटियाँ, पठार और ज्वालामुखी पहाड़ियाँ (Ocean Ridges, Valleys, Plateaus and Volcano Hills)-समुद्रों में कई स्थानों पर समुद्री कटक, घाटियाँ, पठार और ज्वालामुखी पहाड़ियाँ पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए अंध-महासागर में मध्यवर्ती कटक (Mid-Atlantic Ridge) ग्रीनलैंड से लेकर अंटार्कटिक तक फैली हुई है।

प्रश्न (ii)
पंजाब की जलगाहों के विषय में जानकारी दें और इनका प्रदूषण रोकने के लिए सुझाव दें।
उत्तर-
पंजाब के दो जलगाह नीचे लिखे हैं-
1. हरीके पत्तन जलगाह-यह जलगाह बहुत गहरी और बड़ी, जल की आर्द्रभूमि है, जो पंजाब के तरनतारन जिले में स्थित है। 1953 ई० में हरीके के स्थान पर सतलुज नदी के पानी को बांधकर इस जलगाह को बनाया गया था। यहाँ सतलुज और ब्यास नदियों का संगम होता है। यह जलगाह मनुष्य द्वारा बनाई गई है, जोकि 4100 हैक्टेयर के क्षेत्र में तीन जिलों तरनतारन, फिरोजपुर और कपूरथला में फैली हुई है।

2. कांजली जलगाह-पंजाब के कपूरथला जिले की यह जलगाह 1870 ई० में सिंचाई के उद्देश्य से बनाई गई थी। यह जलगाह काली बेंई जोकि ब्यास नदी में से निकलती है, के बहाव को बाँधकर बनाई गई थी। इस जलगाह को 2002 ई० में रामसर समझौते के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व वाली जलगाहों वाला दर्जा दिया गया था।

इनके प्रदूषण की रोकथाम के लिए जरूरी सुझाव-इन जलगाहों में फैंके गए कूड़ा-कर्कट के कारण प्रदूषण होता है। यह कूड़ा-कर्कट पानी के ऊपर तैरता रहता है इसलिए इन जलगाहों को प्रदूषण से बचाने के लिए इनमें कूड़ाकर्कट न फेंका जाए।

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प्रश्न (iii)
महासागरीय जल के तापमान वितरण पर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों के बारे में विस्तार से लिखें।
उत्तर-
सागरों का जल, तापमान का एक उत्तम संचालक होता है, इसलिए थल की तुलना में जल देर से गर्म होता है और देर से ठंडा होता है। सागरीय जल का तापमान सभी स्थानों पर एक-समान नहीं होता। सागरीय जल का अलगअलग तापमान नीचे लिखी बातों पर निर्भर करता है-

1. भूमध्य रेखा से दूरी-भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें पूरा वर्ष सीधी पड़ती हैं, इसलिए भूमध्यवर्ती सागरों में तापमान अधिक होता है और पूरा वर्ष एक-समान रहता है। भूमध्य रेखा के ऊपर यह तापमान 26°C के लगभग होता है। 70° अक्षांश पर सागरीय जल का तापमान 5°C पाया जाता है। इसी प्रकार उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में तापमान कम हो जाता है।

2. प्रचलित पवनें-जब स्थायी पवनें चलती हैं, तो सागरों की सतह के जल को गतिशील बना देती हैं। एक स्थान से हिले हुए जल का स्थान लेने के लिए निचला जल ऊपर आ जाता है। इसे Upwelling of Water कहते हैं। इसके फलस्वरूप सागरों के तापमान पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

3. सागरीय धाराओं का प्रभाव-सागरीय धाराएँ जिस क्षेत्र से आती हैं, उसका जल अपने साथ ले आती हैं। यदि कोई सागरीय धारा भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर चल रही हो, तो स्वाभाविक तौर पर ध्रुवों का जल जब भूमध्यरेखीय धाराओं के संपर्क में आएगा, तो उसका तापमान भी बढ़ जाएगा। जो धारा ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर चलती है, तो उसका तापमान कम हो जाएगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सागरीय धाराएँ सागरों के तापमान पर गहरा प्रभाव डालती हैं। खाड़ी की गर्म धारा पश्चिमी यूरोप के तापमान को 5°C तक बढ़ा देती है परन्तु लैबरेडोर की ठंडी धारा तापमान को 0°C तक कम कर देती है।

4. खारेपन की मात्रा-सागरों का खारापन भी सागरीय जल के तापमान को प्रभावित करता है। सागरों का जल जितना अधिक खारा होगा, उतना ही तापमान अधिक होगा। जितना खारापन कम होगा, उतना ही तापमान कम होगा।

5. थल-मंडलों का प्रभाव-उष्ण-कटिबंध में स्थल द्वारा घिरे हुए सागरों का तापमान अधिक होता है, परंतु शीत कटिबंध में कम होता है।

6. समुद्र की गहराई-समुद्र की गहराई बढ़ने से तापमान कम होता जाता है। ऊपरी सतह से लेकर 1800 मीटर की गहराई तक सागरीय जल का तापमान 15°C से कम होकर 20°C तक रह जाता है। 1800 से 4000 मीटर की गहराई तक यह तापमान 2°C से कम होकर 1.6°C रह जाता है।

प्रश्न (iv)
अलग-अलग सागरों में खारेपन की मात्रा को प्रभावित करने वाले तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र का पानी हमेशा खारा होता है। सागरीय जल के 1000 ग्राम पानी में लगभग 35 ग्राम नमक घुला हुआ होता है। खारेपन की यह मात्रा भिन्न-भिन्न सागरों में भिन्न-भिन्न होती है। खारेपन की यह भिन्नता नीचे लिखे तत्त्वों पर निर्भर करती है-

1. ताजे जल की पूर्ति (Supply of Fresh Water) ताज़े पानी की अधिकता से सागरों में खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। साफ़ जल की पूर्ति कई साधनों द्वारा होती है। भूमध्यरेखीय खंड में अधिक वर्षा के कारण सागरीय जल में खारेपन की मात्रा कम होती है, इसलिए कर्क रेखा और मकर रेखा के आसपास खारेपन की मात्रा अधिक होती है। ध्रुवीय प्रदेशों में हिम (बर्फ) के पिघलने से साफ़ जल प्राप्त होता रहता है, जिससे खारापन कम हो जाता है। बड़ी नदियों के मुहानों पर खारापन कम होता है।

2. वाष्पीकरण (Evaporation)—जिन महासागरों में वाष्पीकरण अधिक होता है, उनका जल अधिक खारा होगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा सागरीय-जल वाष्प बनकर ऊपर उठता है और बाकी बचे जल में खारेपन की मात्रा बढ़ जाती है। अधिक तापमान, वायु की तीव्रता और शुष्कता के कारण सागरों में खारापन अधिक होता है। कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट अधिक वाष्पीकरण के कारण खारापन अधिक होता है। कम तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण खारापन कम हो जाता है।

3. पवनों की दिशा (Wind Direction) यदि एक ही दिशा से तेज़ गति वाली पवनें दूसरी दिशा की ओर चल रही हों, तो वे सागरों की सतह का जल भी अपने साथ बहाकर ले जाती हैं, जिस कारण सागरों में खारेपन की मात्रा परिवर्तित होती रहती है। नीचे उतरती पवनों के कारण अधिक वाष्पीकरण और अधिक खारापन होता है।

4. सागरीय जल की गति (Movement of the Sea Water) सागरों के जल की गति द्वारा भी खारेपन पर प्रभाव पड़ता है। सागरों का जल गतिशील होने के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है और अपने मूल गुणों को भी बहाकर ले जाता है। यदि मूल जल में खारेपन की मात्रा अधिक होगी, तो नए स्थान का खारापन अधिक हो जाएगा। दूसरी तरफ अधिक ताज़ा जल नए स्थान का खारापन कम कर देता है।

5. समुद्री धाराएँ (Currents)-खुले सागरों में धाराएँ एक भाग से दूसरे भाग तक जल ले जाती हैं । गर्म धाराएँ खारेपन की मात्रा को बढ़ा देती हैं, जबकि ठंडी धाराओं के साथ खारेपन की मात्रा कम हो जाती है।

6. समुद्री जल की मिश्रण क्रिया (Mixing of Water)–ज्वारभाटा, लहरें और धाराएँ समुद्री जल को दूर दूर तक बहाकर ले जाती हैं। जल के इस मिश्रण से स्थानीय रूप में खारापन बढ़ जाता है या कम हो जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न (v)
समुद्री धाराएँ क्या होती हैं ? ये किस प्रकार पैदा होती हैं ? उदाहरण भी दें।
उत्तर-
समुद्री धाराएँ (Ocean Currents)-समुद्र के एक भाग से दूसरे भाग की ओर, एक विशेष दिशा में पानी के लगातार प्रवाह को समुद्री धाराएँ कहते हैं (Regular Movement of water from one part of the ocean to another is called an ocean current)। समुद्री धाराओं में पानी नदियों के समान आगे बढ़ता है। इनके किनारे स्थिर पानी वाले होते हैं। इन्हें समुद्री नदियाँ भी कहते हैं (An ocean current is like a river in the ocean)।

धाराओं के पैदा होने के कारण (Causes)—समुद्री धाराओं के पैदा होने के प्रमुख कारण नीचे लिखे हैं-

1. प्रचलित पवनें (Prevailing Winds)- हवा अपनी अपार शक्ति के कारण पानी को गति देती है। धरातल पर चलने वाली स्थायी पवनें (Planetary winds) लगातार एक ही दिशा में चलने के कारण धाराओं को जन्म देती हैं। संसार की प्रमुख धाराएँ स्थायी पवनों की दिशा के अनुसार चलती हैं (Ocean currents are wind determined)। मौसमी पवनें (Seasonal Winds) भी धाराओं की दिशा और उत्पत्ति में सहायक होती हैं।

उदाहरण (Examples)-

  • व्यापारिक पवनें (Trade Winds)—इनके द्वारा उत्तरी और दक्षिणी भूमध्य रेखीय धाराएँ (Equatorial Currents) पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं।
  • पश्चिमी पवनें (Westerlies)-इनके प्रभाव से खाड़ी की धारा (Gulf Stream) और क्यूरोशियो (Kuroshio) धारा पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है।

2. तापमान की भिन्नता (Difference in Temperature)-गर्म पानी हल्का होकर फैलता है और उसकी ऊँचाई बढ़ जाती है। ठंडा पानी भारी होने के कारण नीचे बैठ जाता है। कम ताप के कारण ठंडा पानी सिकुड़कर भारी हो जाता है। इस प्रकार समुद्र के पानी की सतह बराबर नहीं रहती और धाराएँ चलती हैं।

3. खारेपन में भिन्नता (Difference in Salinity)–अधिक खारा पानी भारी होने के कारण तल के नीचे की ओर बहता है। कम खारा पानी हल्का होने के कारण तल पर ही बहता है।

उदाहरण (Examples)

(क) भूमध्य सागर के अधिक खारे पानी की धारा तल के नीचे अंध महासागर की ओर चलती है।
(ख) बाल्टिक सागर (Baltic Sea) से कम खारे पानी की धारा तल पर उत्तरी सागर (North sea) की ओर बहती है।

4. वाष्पीकरण और वर्षा की मात्रा (Evaporation and Rainfall)-अधिक वाष्पीकरण से पानी भारी और अधिक खारा हो जाता है और तल की ओर नीचा हो जाता है, परंतु वर्षा अधिक होने से पानी हल्का हो जाता है और उसका तल ऊँचा हो जाता है। इस प्रकार ऊँचे तल से निचले तल की ओर धाराएँ चलती हैं।

5. धरती की दैनिक गति (Rotation)-फैरल के सिद्धान्त (Ferral’s law) के अनुसार धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। धरती की गति के कारण धाराओं का प्रवाह गोल आकार का बन जाता है।
उदाहरण (Examples)–धाराओं का चक्र उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा के अनुकूल (Clockwise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत (Anti-Clockwise) चलता है।

6. तटों का आकार (Shape of Coasts)-तटों का आकार धाराओं के मार्ग में रोक पैदा कर देता है। समुद्री जल तटों से टकराकर धाराओं के रूप में बहने लगता है। धाराएँ तट के सहारे मुड़ जाती हैं। यदि थल प्रदेश न होते, तो धरती के आस-पास एक महान् भूमध्य रेखीय धारा (Great Equatorial Current) चलती।

उदाहरण (Examples)-

(क) ब्राज़ील के नुकीले तट पर सेन-रॉक अंतरीप (Cape san-Rocque) से टकराकर भूमध्य रेखीय धारा ब्राजील की धारा के रूप में बहती है।

(ख) महाद्वीपों की खाड़ियों वाले तटों पर पानी की अधिक मात्रा इकट्ठी हो जाती है। जिस प्रकार मैक्सिको की खाड़ी (Gulf of Maxico) से फ्लोरिडा (Florida) की धारा।

7. ऋतु परिवर्तन (Change of Season) मौसम के अनुसार पवनों की दिशा में परिवर्तन होने के कारण धाराओं की दिशा भी बदल जाती है।
उदाहरण (Examples)-हिंद महासागर में गर्मी की ऋतु में S.W. Monsoon Drift और सर्दी की ऋतु में N.E. Monsoon Drift बहती है।

प्रश्न (vi)
अंध महासागर की धाराओं का वर्णन करें और पड़ोसी देशों पर उनके प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
अंध महासागर की धाराएँ (Currents of the Atlantic Ocean)-अंध महासागर स्पष्ट रूप से उत्तरी और दक्षिणी अंध महासागर के दो भागों में बंटा हुआ है। दोनों भागों में धाराओं का प्रभाव-क्रम एक समान है। उत्तरी अंध महासागर में धाराएँ घड़ी की सुइयों की दिशा (Clockwise) में चक्र पूरा करती हैं, परंतु दक्षिणी अंध महासागर में घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा (Anti-clockwise) में चक्र पूरा करती हैं। अंध महासागर की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित हैं-

1. उत्तरी भूमध्य रेखीय धारा (North Equatorial Current)—यह गर्म जल की धारा है, जो भूमध्य रेखा के उत्तर में व्यापारिक पवनों के प्रभाव से पूर्व से पश्चिम दिशा में बहती है। इस धारा का जल मैक्सिको की खाड़ी (Gulf of Maxico) में इकट्ठा हो जाता है।

2. खाड़ी की धारा (Gulf Stream Current)-उत्पत्ति (Origin)—यह धारा मैक्सिको की खाड़ी में एकत्रित जल द्वारा पैदा होती है, इसीलिए इसे खाड़ी की धारा कहते हैं । यह धारा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के साथ-साथ उत्तर की ओर न्यूफाउंडलैंड (New Foundland) तक बहती है। यह गर्म जल की धारा है, जो एक नदी के समान तेज़ चाल से बहती है। इसका रंग नीला होता है। यह लगभग 1 कि०मी० गहरी, 50 कि०मी० चौड़ी है और इसकी गति 8 कि०मी० प्रति घंटा है।

शाखाएँ और क्षेत्र (Branches and Area)—यह धारा 40° उत्तरी अक्षांश के निकट पश्चिमी पवनों (Westerlies) के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती है। इसकी मुख्य धारा यूरोप की ओर बहती है, जिसे उत्तरी अटलांटिक प्रवाह (North Atlantic Drift) कहते हैं। यह एक धीमी धारा है, जिसे पश्चिमी पवनों के कारण पश्चिमी पवन प्रवाह (West Wind Drift) भी कहते हैं । यूरोप के तट पर यह धारा कई शाखाओं में बँट जाती है। ब्रिटेन का चक्कर लगाती हुई एक शाखा नॉर्वे के तट को पार करके आर्कटिक सागर में स्पिट्ज़बर्जन (Spitsbergen) तक पहुँच जाती है, जहाँ इसे नार्वेजियन (Norwegian) धारा कहते हैं।

प्रभाव (Effects) –

  • यह एक गर्म जल धारा है, जो ठंडे अक्षांशों में गर्म जल पहुँचाती है।
  • यह धारा पश्चिमी यूरोप को गर्मी प्रदान करती है। यूरोप में सर्दी की ऋतु में साधारण से ऊँचा तापमान इसी धारा की देन है।
  • पश्चिमी यूरोप की सुहावनी जलवायु इस धारा की देन है, इसलिए इसे यूरोप की जीवन रेखा (Life line of Europe) भी कहते हैं।
  • पश्चिमी यूरोप की बंदरगाहें सर्दी की ऋतु में नहीं जमतीं और व्यापार के लिए खुली रहती हैं।
  • इस धारा के ऊपर से निकलने वाली पश्चिमी पवनें (westerlies) यूरोप में बहुत वर्षा करती हैं।

3. कनेरी की धारा (Canary Current)-यह ठंडे जल की धारा है, जो स्पेन, पुर्तगाल और अफ्रीका के उत्तर-पश्चिमी भागों पर कनेरी द्वीप के निकट से गुज़रती है। दैनिक गति के प्रभाव से उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट का कुछ जल दक्षिण की ओर मुड़कर भूमध्य रेखा की ओर निकलता है। इसके प्रभाव से सहारा (Sahara) मरुस्थल शुष्क रहता है।

4. लैबरेडोर की धारा (Labrador Current)—यह ठंडे पानी की धारा है, जो आर्कटिक सागर (Arctic Ocean) से उत्तरी अंध-महासागर की ओर बहती है। यह धारा बैफिन खाड़ी (Bafin Bay) से निकलकर कनाडा के तट के साथ बहती हुई न्यूफाउंडलैंड तक आ जाती है। यहाँ यह खाड़ी की धारा के साथ मिल जाती है, जिससे घना कोहरा पैदा होता है। इसकी एक शाखा सेंट लारेंस (St. Lawrence) घाटी में दाखिल होती है, जो कई महीने बर्फ से जमी रहती है।

प्रभाव (Effects)-

  • ये प्रदेश बर्फ से ढके रहने के कारण अनुपजाऊ हैं।
  • इस ठंडी धारा के कारण इस प्रदेश के तट की बंदरगाहें सर्दी की ऋतु में जम जाती हैं और व्यापार बंद हो जाता है।
  • ये धाराएँ अपने साथ आर्कटिक सागर पर बर्फ की बड़ी-बड़ी चट्टानें ले आती हैं। कोहरे के कारण जहाज़ इन हिमशैलों से टकराकर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं।

5. दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा (South Equatorial Current)—यह धारा भूमध्य रेखा के दक्षिण में भूमध्य रेखा के समानांतर बहती है। व्यापारिक पवनों के प्रभाव से यह पूर्व से पश्चिम की दिशा में बहती है। यह गर्म जल की धारा है, जो अफ्रीका की गिनी की खाड़ी (Gulf of Guinea) से आरम्भ होकर ब्राज़ील के (Brazil) तट तक बहती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 1

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न (vii)
किसी देश की जलवायु और व्यापार पर समुद्री धाराओं के प्रभाव का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्री धाराओं का प्रभाव (Effects of Ocean Currents) समुद्री धाराएँ निकट के क्षेत्रों के मानवीय जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं। धाराओं का यह प्रभाव कई प्रकार से होता है
1. जलवायु पर प्रभाव (Effects on Climate)-

  • जलवायु (Climate)-जिन तटों पर गर्म या ठंडी धाराएँ चलती हैं, वहाँ की जलवायु क्रमशः गर्म या ठंडी हो जाती है।
  • तापमान (Temperature)-धाराओं के ऊपर बहने वाली पवनें अपने साथ गर्मी या सर्दी ले जाती हैं। गर्म धाराओं के प्रभाव से तटीय प्रदेशों का तापमान अधिक हो जाता है और जलवायु सम हो जाती है (Warm currents raise and cold temperature lower the temperature of the neighbouring areas) I OST धारा के कारण सर्दी की ऋतु में तापमान बहुत कम हो जाता है और जलवायु विषम और कठोर हो जाती है।

उदाहरण (Examples)-

(i) लैबरेडोर (Labrador) की ठंडी धारा के प्रभाव से कनाडा का पूर्वी तट और क्यूराईल (Kurile) की ठंडी धारा के प्रभाव से साइबेरिया का पूर्वी तट सर्दी ऋतु में बर्फ से जमा रहता है।

(ii) खाड़ी की गर्म धारा के प्रभाव से ब्रिटिश द्वीप समूह और नॉर्वे के तट के भागों का तापमान उच्च रहता है और पानी सर्दी की ऋतु में भी नहीं जमता। जलवायु सुहावनी और सम रहती है।

(iii) वर्षा (Rainfall)-गर्म धाराओं के निकट के प्रदेशों में अधिक वर्षा होती है परंतु ठंडी धाराओं के निकट के प्रदेशों में कम वर्षा होती है। गर्म धाराओं के ऊपर बहने वाली पवनों में नमी धारण करने की शक्ति बढ़ जाती है, पर ठंडी धाराओं के संपर्क में आकर पवनें ठंडी हो जाती हैं और वे अधिक नमी धारण नहीं कर सकतीं।

उदाहरण (Examples)-

  • उत्तर-पश्चिमी यूरोप में खाड़ी की गर्म धारा के कारण और जापान के पूर्वी तट पर क्यूरोशियो की गर्म धारा के कारण अधिक वर्षा होती है।
  • संसार के प्रमुख मरुस्थलों के तटों के नज़दीक ठंडी धाराएँ बहती हैं, जैसे सहारा तट पर कनेरी धारा, कालाहारी तट पर बेंगुएला धारा, ऐटेकामा तट पर पेरू की धारा।

(iv) धुंध की उत्पत्ति (Fog)-गर्म और ठंडी धाराओं के मिलने से धुंध और कोहरा पैदा हो जाता है। गर्म धारा के ऊपर की हवा ठंडी हो जाती है। उसके जलकण सूर्य की किरणों का रास्ता रोककर कोहरा पैदा कर देते हैं।
उदाहरण (Examples)-खाड़ी की गर्म धारा और लैबरेडोर की गर्म धारा के ऊपर की हवा के मिलने से न्यूफाऊंडलैंड (New Foundland) के निकट धुंध पैदा हो जाती है।

(v) तूफ़ानी चक्रवात (Cyclones)-गर्म और ठंडी धाराओं के मिलने से गर्म हवा बड़े वेग से ऊपर उठती है और तेज़ तूफानी चक्रवातों को जन्म देती है।

2. व्यापार पर प्रभाव (Effects on Trade)-

(i) बंदरगाहों का खुला रहना (Open Sea-ports)-ठंडे प्रदेशों में गर्म धाराओं के प्रभाव से सर्दियों में बर्फ नहीं जमती और बंदरगाह व्यापार के लिए सारा साल खुले रहते हैं, परंतु ठंडी धाराओं के निकट का तट बर्फ से जमा रहता है। ठंडी धाराएँ व्यापार में रुकावट डालती हैं।

उदाहरण (Examples)–

  • खाड़ी की धारा के कारण नॉर्वे और ब्रिटिश द्वीप समूह की बंदरगाहें पूरा वर्ष खुली रहती हैं, परंतु हॉलैंड, फिनलैंड और स्वीडन की बंदरगाहें समुद्र का पानी जम जाने के कारण सर्दी की ऋतु में बंद हो जाती हैं।
  • लैबरेडोर की ठंडी धारा के कारण पूर्वी कनाडा और सेंट लॉरेंस घाटी (St. Lawrance Valley) की बंदरगाहें तथा क्यूराईल की ठंडी धारा के कारण व्लाडिवॉस्टक (Vladivostok) की बंदरगाहें सर्दी की ऋतु में जम जाती हैं।

(ii) समुद्री मार्ग (Ocean Routes)-धाराएँ जल-मार्ग को निर्धारित करती हैं। ठंडे सागरों से ठंडी धाराओं के साथ बहकर आने वाले हिम-शैल (Icebergs) जहाज़ों का बहुत नुकसान करते हैं। इनको ध्यान में रखकर समुद्री मार्ग निर्धारित किए जाते हैं।

(iii) जहाजों की गति पर प्रभाव (Effect on the velocity of the Ships)-प्राचीन काल में धाराओं का बादबानी जहाज़ों की गति पर प्रभाव पड़ता था। धाराओं के अनुकूल दिशा में चलने से उनकी गति बढ़ जाती थी, परंतु विपरीत दिशा में जाने से उनकी चाल कम हो जाती थी। आजकल भाप से चलने वाले जहाज़ों (Steam Ships) की गति पर धाराओं का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

(iv) समुद्र के जल की शुद्धि-धाराओं के कारण समुद्र का जल गतिशील, शुद्ध और साफ रहता है। धाराएँ तट पर जमा पदार्थ दूर बहाकर ले जाती हैं और समुद्र तट गंदे होने से बचे रहते हैं।

(v) दुर्घटनाएँ-कोहरे और धुंध के कारण दृश्यता (visibility) कम हो जाती है। आमतौर पर जहाज़ों के डूबने और टकराने की दुर्घटनाएं होती रहती हैं।

3. समुद्री जीवों पर प्रभाव (Effects on Marine life)-
समुद्री जीवों का भोजन (Plankton)-धाराएँ समुद्री जीवों की प्राण हैं। ये अपने साथ अनेकों गली-सड़ी वस्तुएँ (plankton) बहाकर ले आती हैं। ये पदार्थ मछलियों के भोजन का आधार हैं।

प्रश्न (viii)
महासागरीय धाराओं के प्रभाव लिखें।
उत्तर-
महासागरीय जल में खारापन (Salinity of Ocean Water)-
महासागरीय जल सदा खारा होता है, परंतु यह कहीं कम खारा और कहीं अधिक खारा होता है। सागर के इस खारेपन को ही महासागरीय खार या जल की लवणता कहा जाता है। यह खारापन महासागरीय जल में पाए जाने वाले नमक के कारण होता है। प्रसिद्ध सागर वैज्ञानिक मरे (Murray) के अनुसार प्रति घन किलोमीटर जल में 4/4 करोड़ टन नमक होता है। यदि महासागरीय जल के कुल नमक को बिछाया जाए, तो संपूर्ण पृथ्वी पर लगभग 150 मीटर मोटी परत बन जाएगी।

महासागरों का औसत खारापन (Average Salinity of Ocean)-
खुले महासागरों के जल में पाए जाने वाले लवणों के घोल को खारापन कहते हैं। (The total Salt Content of Oceans is Called Salinity.) । सागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम प्रति हजार अर्थात् 35% होता है। खुले महासागरों में 1000 ग्राम जल में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। ऐसे जल के खारेपन को 35 ग्राम प्रति हज़ार (Thirty five per thousand) कहा जाता है क्योंकि खारेपन को प्रति हज़ार ग्राम में ही दर्शाया जाता है।

महासागरों में खारेपन के कारण (Origin of Salinity in the Ocean)-
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब महासागरों की रचना हुई तो उस समय पृथ्वी के अधिकतर नमक इस जल में घुल गए। इसके बाद स्थलों से आने वाली अनगिनत नदियाँ अपने साथ घोल के रूप में नमक महासागरों में निक्षेप कर रही हैं, जिससे महासागरों में खारेपन की वृद्धि होती रही है। वाष्पीकरण द्वारा महासागरों का ताज़ा जल वायुमंडल में मिलकर वर्षा का कारण बनता है। यह वर्षा नदियों के रूप में स्थल पर नमक प्रवाहित करके महासागरों में पहुँचाती है।

सागरीय जल के नमक (Salts of Ocean)-
सागरीय जल में पाए जाने वाले नमक इस प्रकार हैं–

(i) सोडियम क्लोराइड — 77.8 प्रतिशत
(ii) मैग्नीशियम क्लोराइड — 10.9 प्रतिशत
(iii) मैग्नीश्यिम सल्फेट — 4.7 प्रतिशत
(iv) कैल्शियम सल्फेट — 3.6 प्रतिशत
(v) पोटाशियम सल्फेट — 2.5 प्रतिशत
(vi) कैल्शियम कार्बोनेट — 0.3 प्रतिशत
(vii) मैग्नीशियम ब्रोमाइड — 0.2 प्रतिशत

खारेपन का महत्त्व (Importance of Salinity) –
समुद्री जल के खारेपन का महत्त्व नीचे लिखे अनुसार है-

  • समुद्र में खारेपन की भिन्नता के कारण धाराएँ उत्पन्न होती हैं; जो निकटवर्ती क्षेत्रों में जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • समुद्री जल में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट नमक समुद्री जीव-जंतुओं विशेषकर मूंगा (Coral) और पंक (Ooze) का ज़ोन है, जिससे इनकी हड्डियाँ और पिंजर बनते हैं।
  • खारेपन के कारण धरती पर वनस्पति उगती है।
  • लवण ठंडे महासागरों को जमने नहीं देते और जीव-जंतु विशेष रूप से बहुमूल्य मछलियाँ नहीं मरती और जल परिवहन चालू रहता है।
  • खारेपन के कारण जल का घनत्व बढ़ जाता है, इसीलिए जहाज़ तैरते हैं।

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प्रश्न (ix)
गर्म और ठंडी धाराओं का आस-पास के क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
महासागरीय जल में तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-अर्ध-खुले सागरों और खुले सागरों के तापमान में भिन्नता होती है। इसका कारण यह है कि अर्ध खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव पड़ता है।

(क) महासागरों में जल पर तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-महासागरों में जल-तल (Water-surface) के तापमान का क्षैतिज विभाजन नीचे लिखे अनुसार है :

  • भूमध्य रेखीय भागों के जल का तापमान 26° सैल्सियस, ध्रुवीय क्षेत्रों में 0° सैल्सियस से -5° (minus five degree) सैल्सियस और 20°, 40° और 60° अक्षांशों के तापमान क्रमशः 23°, 14° और 1° सैल्सियस रहता है। इस प्रकार भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर महासागरीय जल का क्षैतिज तापमान कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें लंब और ध्रुवों की ओर तिरछी पड़ती हैं।
  • ऋतु परिवर्तन के साथ महासागरों के ऊपरी तल के तापमान में परिवर्तन आ जाता है। गर्मी की ऋतु में दिन लंबे होने के कारण तापमान ऊँचा और सर्दी की ऋतु में दिन छोटे होने के कारण तापमान कम रहता है।
  • स्थल की तुलना में जल देरी से गर्म और देरी से ही ठंडा होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में जल की तुलना में स्थल अधिक है और दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का क्षेत्र अधिक है। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध में समुद्री जल का तापमान स्थलीय प्रभाव के कारण ऊँचा रहता है। इसकी तुलना में जल की अधिकता के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान कम रहता है।

3. अर्ध-खले सागरों में जल के तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Partially Enclosed Seas) अर्ध-खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती स्थलखंडों का प्रभाव अधिक पड़ता है।

(i) लाल सागर और फारस की खाड़ी (Red Sea and Persian Gulf)—ये दोनों अर्ध-खुले सागर हैं, जो संकरे जल संयोजकों (Straits) द्वारा हिंद महासागर से मिले हुए हैं। इन दोनों के चारों ओर मरुस्थल हैं, जिनके प्रभाव से तापमान उच्च, क्रमश: 32° से० और 34° से० रहता है। विश्व में सागरीय तल का अधिक-सेअधिक तापमान 34° से० है, जोकि फारस की खाड़ी में पाया जाता है।

कुछ सागरों के जल का तापमान-

सागर — तापमान
लाल सागर — 32°C.
खाड़ी फारस –34°C.
बाल्टिक सागर –10°C.
उत्तरी सागर –17°C.
प्रशांत महासागर –19.1°C.
हिंद महासागर –17.0°C.
अंध महासागर — 16.9°C.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 6

(ii) बाल्टिक सागर (Baltic Sea)-इस सागर में तापमान कम रहता है और शीत ऋतु में यह बर्फ में बदल जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह शीत प्रदेशों से घिरा हुआ है, जोकि सर्दियों में बर्फ से ढके रहते हैं। इसकी तुलना में निकट का विस्तृत उत्तर सागर (North Sea) कभी भी नहीं जमता। इसका कारण यह है कि एक तो यह खुला सागर है और दूसरा अंध महासागर की तुलना में गर्म जलं इसमें बेरोक प्रवेश करता है।

(iii) भूमध्य सागर या रोम सागर (Mediterranean Sea)—यह भी एक अर्ध-खुला समुद्र है, जो जिब्राल्टर (Gibraltar) जल संयोजक द्वारा अंध महासागर से जुड़ा हुआ है। इसका तापमान उच्च रहता है क्योंकि इसके दक्षिण और पूर्व की ओर मरुस्थल हैं। दूसरा, इस जल संयोजक की ऊँची कटक महासागर के जल को इस सागर में बहने से रोकती है।

महासागरीय जल में ताप का लंबवर्ती विभाजन-(Vertical Distribution of Temperature of Ocean Water)-सूर्य का ताप सबसे पहले महासागरीय तल का जल प्राप्त करता है और सबसे ऊपरी परत गर्म होती है। सूर्य के ताप की किरणें ज्यों-ज्यों गहराई में जाती हैं, तो बिखराव (Scattering), परावर्तन (Reflection) और प्रसारण (Diffusion) के कारण उनकी ताप-शक्ति नष्ट हो जाती है। इस प्रकार तल के नीचे के पानी का तापमान गहराई के साथ कम होता जाता है।

महासागरीय जल का तापमान-
गहराई के अनुसार (According to Depth)-

गहराई (Depth) मीटर — तापमान (°C)
200 — 15.9°C
400 —  10.0°C
1000 — 4.5°C
2000 — 2.3°C
3000 — 1.8°C
4400 — 1.7°C

1. महासागरीय जल का तापमान गहराई बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि सूर्य की किरणें अपना प्रभाव महाद्वीपीय बढ़ौतरी की अधिकतम गहराई भाव 183 मीटर (100 फैदम) तक ही डाल सकती हैं।
2. महाद्वीपीय तट के नीचे महासागरों में तापमान अधिक कम होता है परंतु अर्ध-खुले सागरों में तापमान जल संयोजकों की कटक तक ही गिरता है और इससे आगे कम नहीं होता।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 7

हिंद महासागर के ऊपरी तल और लाल सागर के ऊपरी तल का तापमान लगभग समान (27°C) होता है। इन दोनों के बीच बाब-अल-मेंडर जल संयोजक की कटक है। उस गहराई तक दोनों में तापमान एक समान कम होता है क्योंकि इस गहराई तक हिंद महासागर का जल लाल सागर में प्रवेश करता रहता है। परंतु इससे अधिक गहराई पर लाल सागर का तापमान कम नहीं होता, जबकि हिंद महासागर में यह निरंतर कम होता रहता है।

3. गहराई के साथ तापमान कम होने की दर सभी गहराइयों में एक समान नहीं होती। लगभग 100 मीटर की गहराई तक जल का तापमान निकटवर्ती धरातलीय तापमान के लगभग बराबर होता है। धरातल से 1000 से 1800 मीटर की गहराई पर तापमान लगभग 15° से कम होकर लगभग 2°C रह जाता है। 4000 मीटर की गहराई पर तापमान कम होकर 1.6°C रह जाता है। महासागरों में किसी भी गहराई पर तापमान 1°C से कम नहीं होता। यद्यपि ध्रुवीय महासागरों की ऊपरी परत जम जाती है, पर निचला पानी कभी नहीं जमता। इसी कारण मछलियाँ और अन्य जीव-जन्तु निचले जल में मरते नहीं।

महासागरीय जल में खारापन (Salinity of Ocean Water)-
महासागरीय जल सदा खारा होता है, परंतु यह कहीं कम खारा और कहीं अधिक खारा होता है। सागर के इस खारेपन को ही महासागरीय खार या जल की लवणता कहा जाता है। यह खारापन महासागरीय जल में पाए जाने वाले नमक के कारण होता है। प्रसिद्ध सागर वैज्ञानिक मरे (Murray) के अनुसार प्रति घन किलोमीटर जल में 4/4 करोड़ टन नमक होता है। यदि महासागरीय जल के कुल नमक को बिछाया जाए, तो संपूर्ण पृथ्वी पर लगभग 150 मीटर मोटी परत बन जाएगी।

महासागरों का औसत खारापन (Average Salinity of Ocean)-
खुले महासागरों के जल में पाए जाने वाले लवणों के घोल को खारापन कहते हैं। (The total Salt Content of Oceans is Called Salinity.) । सागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम प्रति हजार अर्थात् 35% होता है। खुले महासागरों में 1000 ग्राम जल में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। ऐसे जल के खारेपन को 35 ग्राम प्रति हज़ार (Thirty five per thousand) कहा जाता है क्योंकि खारेपन को प्रति हज़ार ग्राम में ही दर्शाया जाता है।

महासागरों में खारेपन के कारण (Origin of Salinity in the Ocean)-
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब महासागरों की रचना हुई तो उस समय पृथ्वी के अधिकतर नमक इस जल में घुल गए। इसके बाद स्थलों से आने वाली अनगिनत नदियाँ अपने साथ घोल के रूप में नमक महासागरों में निक्षेप कर रही हैं, जिससे महासागरों में खारेपन की वृद्धि होती रही है। वाष्पीकरण द्वारा महासागरों का ताज़ा जल वायुमंडल में मिलकर वर्षा का कारण बनता है। यह वर्षा नदियों के रूप में स्थल पर नमक प्रवाहित करके महासागरों में पहुँचाती है।

सागरीय जल के नमक (Salts of Ocean)-
सागरीय जल में पाए जाने वाले नमक इस प्रकार हैं–

(i) सोडियम क्लोराइड — 77.8 प्रतिशत
(ii) मैग्नीशियम क्लोराइड — 10.9 प्रतिशत
(iii) मैग्नीश्यिम सल्फेट — 4.7 प्रतिशत
(iv) कैल्शियम सल्फेट — 3.6 प्रतिशत
(v) पोटाशियम सल्फेट — 2.5 प्रतिशत
(vi) कैल्शियम कार्बोनेट — 0.3 प्रतिशत
(vii) मैग्नीशियम ब्रोमाइड — 0.2 प्रतिशत

खारेपन का महत्त्व (Importance of Salinity) –
समुद्री जल के खारेपन का महत्त्व नीचे लिखे अनुसार है-

  • समुद्र में खारेपन की भिन्नता के कारण धाराएँ उत्पन्न होती हैं; जो निकटवर्ती क्षेत्रों में जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • समुद्री जल में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट नमक समुद्री जीव-जंतुओं विशेषकर मूंगा (Coral) और पंक (Ooze) का ज़ोन है, जिससे इनकी हड्डियाँ और पिंजर बनते हैं।
  • खारेपन के कारण धरती पर वनस्पति उगती है।
  • लवण ठंडे महासागरों को जमने नहीं देते और जीव-जंतु विशेष रूप से बहुमूल्य मछलियाँ नहीं मरती और जल परिवहन चालू रहता है।
  • खारेपन के कारण जल का घनत्व बढ़ जाता है, इसीलिए जहाज़ तैरते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न (x)
हिंद महासागर की धाराओं का वर्णन करें। उत्तरी हिंद महासागर की धाराओं का मानसून पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
हिंद महासागर की धाराएँ (Currents of Indian Ocean)-हिंद महासागर के माध्यम से धाराओं और पवनों के संबंध को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। यहाँ मानसून पवनों के कारण समुद्री धाराओं का क्रम भी मौसमी (Seasonal) होता है। उत्तरी हिंद महासागर में चलने वाली धाराएँ, मानसून पवनों के कारण प्रति छह महीने बाद अपनी दिशा बदल लेती हैं। परंतु दक्षिणी हिंद महासागर में धाराएँ पूरा वर्ष एक ही दिशा में चलने के कारण स्थायी होती हैं।

उत्तरी हिंद महासागर की परिवर्तनशील धाराएँ-मानसून के प्रभाव के कारण धाराएँ पूरा वर्ष अपनी दिशा बदलती रहती हैं। वास्तव में कोई भी निश्चित धारा नहीं मिलती। छह महीने के बाद इन धाराओं की दिशा और क्रम बदल जाता है।

  • दक्षिण-पश्चिमी मानसून प्रवाह (S.W. Monsoon Drift)–यह धारा गर्मी की ऋतु में दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनों के प्रभाव से चलती है। इस धारा का जल अफ्रीका के पूर्वी तट के साथ बहकर अरब सागर, श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी का चक्कर लगाता है। यह धारा बर्मा के तट तक पहुँच जाती है।
  • उत्तर-पूर्वी मानसून प्रवाह (N.E. Monsoon Drift)-सर्दी की ऋतु में मानसून पवनों की दिशा उल्टी हो जाती है और धाराओं का क्रम भी उल्टा हो जाता है। यह धारा बर्मा के तट से शुरू होकर बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का चक्कर लगाकर अफ्रीका के पूर्वी तट तक बहती है।

दक्षिणी हिंद महासागर की स्थायी धाराएँ-ये धाराएँ पूरा वर्ष एक ही दिशा में चलती हैं, इसलिए इन्हें स्थायी धाराएँ कहते हैं। ये धाराएँ घड़ी की विपरीत दिशा में (Anti-clockwise) चक्कर काटती हैं।

1. दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा (South Equatorial Current)-यह एक गर्म धारा है जो भूमध्य रेखा के दक्षिण में व्यापारिक पवनों के प्रभाव से पूर्व से पश्चिम दिशा में बहती है। यह धारा इंडोनेशिया से निकलकर अफ्रीका के पूर्वी तट तक बहती है। मैडागास्कर द्वीप के निकट यह दक्षिण की ओर मुड़ जाती है।

2. भारतीय विपरीत धारा (Indian Counter Current)-भूमध्य रेखा के निकट पश्चिम से पूर्व दिशा में बहने वाली धारा को भारतीय विपरीत धारा कहते हैं।

3. मोज़म्बीक की धारा (Mozambique Current)—मैडागास्कर (मलागासी द्वीप) के कारण भूमध्य रेखीय – धारा कई शाखाओं में बँट जाती है-

  • मैडागास्कर धारा (Medagasker)-यह गर्म धारा मैडागास्कर के पूर्व में बहती है। इसमें दक्षिणी भूमध्य रेखीय धारा कई शाखाओं में बँट जाती है।
  • मोज़म्बीक धारा (Mozambique Current)-यह मैडागास्कर द्वीप के पश्चिम में एक तंग भाग Mozambique channel में बहती है। यह धारा भँवर के रूप में होती है। (iii) ऐगुलॉस धारा (Agulhas Current) ऊपर लिखित दोनों धाराएं मिलकर मैडागास्कर के दक्षिण में एक नई धारा को जन्म देती है, जिसे ऐगुलॉस धारा कहते हैं।

4. अंटार्कटिक धारा (Antarctic Current)-यह ठंडे जल की धारा है।।
5. पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की धारा (West Australian Current)—यह ठंडी धारा ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट पर बहती है।

6. विपरीत भूमध्य रेखीय धारा (Counter Equatorial Current)-पानी की अधिकता और धरती की दैनिक गति के कारण भूमध्य रेखा के साथ-साथ विपरीत भूमध्य रेखीय धारा बहती है। यह धारा पश्चिम से पूर्व में अफ्रीका के गिनी तट तक बहती है। इसे गिनी की धारा (Guinea stream) भी कहते हैं।

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PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 9

7. ब्राज़ील की धारा (Brazilian Current)—यह एक गर्म पानी की धारा है, जो ब्राज़ील तट के साथ दक्षिण की ओर बहती है। उत्तर की ओर ब्राज़ील की गर्म धारा के मिलने से कोहरा पैदा हो जाता है। इससे जहाज़ों का आना-जाना बंद हो जाता है।

8. फाकलैंड धारा (Falkland Current)-यह ठंडी धारा दक्षिणी अमेरिका के दक्षिणी सिरे (Cape Horn) और फाकलैंड के निकट बहती है। उत्तर की ओर ब्राज़ील की गर्म धारा के मिलने से कोहरा पैदा हो जाता है। इससे जहाजों का आना-जाना बंद हो जाता है।

9. अंटार्कटिक प्रवाह (Antarctic Drift)—यह बहुत ठंडे पानी की धारा है, जो अंटार्कटिक महाद्वीप के चारों तरफ पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती है। यह अंध महासागर, शांत महासागर और हिंद महासागर की सांझी धारा है। थल की कमी के कारण यह पश्चिमी पवनों के प्रवाह से लगातार बहती है।

10. बैंगुऐला धारा (Benguela Current)—यह ठंडे पानी की धारा दक्षिणी अफ्रीका के पश्चिमी तट पर बहती है। व्यापारिक पवनों के कारण तल का गर्म जल दूर बह जाता है और नीचे का ठंडा पानी ऊपर आ जाता है, जिसे Upwelling of water कहते हैं। अफ्रीका में कालाहारी मरुस्थल इसी धारा के कारण है।

प्रश्न (xi)
ज्वारभाटा किसे कहते हैं ? ये कैसे पैदा (बनते) होते हैं और इनका क्या महत्त्व है ? विस्तार से लिखें।
उत्तर-
ज्वारभाटा समुद्र की एक गति है। समुद्र का जल नियमित रूप से प्रतिदिन दो बार ऊँचा उठता है और दो बार नीचे उतरता है। “समुद्री जल के इस नियमित उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं।” (“Regular rise and fall of sea water is called Tides.”)। पानी के ऊपर उठने की क्रिया को ज्वार (Flood or High Tide or Incoming Tide) कहते हैं। पानी के नीचे उतरने की क्रिया को भाटा (Ebb or low Tide or Out Going Tide) कहते हैं।

विशेषताएँ :

  1. प्रत्येक स्थान पर ज्वारभाटे की ऊँचाई अलग-अलग होती है।
  2. प्रत्येक स्थान पर ज्वार और भाटे का समय अलग-अलग होता है।
  3. समुद्र का पानी 6 घंटे 13 मिनट तक ऊपर चढ़ता है और इतनी ही देर में नीचे उतरता है।
  4. ज्वारभाटा एक स्थान पर नित्य ही एक समय पर नहीं आता।

उत्पत्ति के कारण (Causes of Origin)—पुरातन काल में यूनान और रोम के निवासियों को ज्वारभाटे की जानकारी थी। ज्वारभाटे की उत्पत्ति का मूल कारण चंद्रमा की आकर्षण शक्ति होती है। सबसे पहले न्यूटन ने यह बताया था कि सूर्य और चंद्रमा की गतियों (Movements) तथा ज्वारभाटा में आपस में कुछ संबंध होता है।

चाँद अपने आकर्षण बल (Gravitational Attraction) के कारण धरती के जल को अपनी ओर खींचता है। स्थल-भाग कठोर होता है, इस कारण खींचा नहीं जा सकता, परंतु जल-भाग तरल होने के कारण ऊपर उठ जाता है। यह पानी चाँद की ओर उठता है। वहाँ से निकट का पानी सिमटकर ऊपर उठता जाता है, जिसे ऊँचा ज्वार (High Tide) कहते हैं। जिस स्थान पर पानी की मात्रा कम रह जाती है, वहाँ पानी अपने तल से नीचे गिर जाता है, उसे नीचा ज्वार (Low Tide) कहते हैं। धरती की दैनिक गति के कारण प्रत्येक स्थान पर दिन-रात में दो बार ज्वार आता है। एक ही समय में धरती के तल पर दो बार ज्वार पैदा होते हैं-एक ठीक चाँद के सामने और दूसरा उसकी विपरीत दिशा में (Diametrically Opposite)। चाँद की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार उठता है, इसे सीधा ज्वार (Direct Tide) कहते हैं। विपरीत दिशा में अपकेंद्रीय बल (Centrifugal Force) के कारण पानी ऊपर उठता है और ऊँचा ज्वार पैदा होता है। इसे Indirect Tide कहते हैं। इस प्रकार धरती के एक तरफ ज्वार आकर्षण शक्ति की अधिकता के कारण और दूसरी तरफ अपकेंद्रीय शक्ति की अधिकता के कारण पैदा होते हैं।

सूर्य का प्रभाव (Effect of Sun)-सभी ग्रहों पर सूर्य का प्रभाव होता है। धरती पर सूर्य और चंद्रमा दोनों का आकर्षण होता है। समुद्र के जल पर भी दोनों का आकर्षण होता है। सूर्य चाँद की तुलना में बहुत दूर है, इसलिए सूर्य की आकर्षण शक्ति बहुत साधारण है और चाँद की तुलना में 5/11 भाग कम है।

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ऊँचा ज्वारभाटा (Spring Tide)—सबसे अधिक ऊँचे ज्वार को बड़ा ज्वार कहते हैं। यह महीने में दो बार पूर्णिमा (Full Moon) और अमावस्या (New Moon) को होता है।

कारण (Causes)-इस दशा में सूर्य, चंद्रमा और धरती एक सीधी रेखा में होते हैं। सूर्य और चाँद की सांझी आकर्षण शक्ति बढ़ जाने से ज्वार-शक्ति बढ़ जाती है। सूर्य और चाँद के कारण उत्पन्न ज्वार इकट्ठे हो जाते हैं (Spring tide is the sum of Solar and Lunar tides.)। इन दिनों में ज्वार अधिक ऊँचा और भाटा कम-से-कम नीचा होता है। ऊँचा ज्वार साधारण ज्वार से 20% अधिक ऊँचा होता है।

लघु ज्वार (Neap Tide)-अमावस्या के सात दिन बाद या पूर्णिमा के सात दिन बाद ज्वार की ऊँचाई दूसरे दिनों की तुलना में नीची रह जाती है। इसे लघु-ज्वार कहते हैं। इस हालत को शुक्ल और कृष्ण पक्ष की अष्टमी कहते हैं, जब आधा चाँद (Half Moon) होता है।

कारण (Causes)-इस हालत में सूर्य और चाँद, धरती के समकोण (At Right Angles) पर होते हैं। सूर्य और चांद की आकर्षण-शक्ति विपरीत दिशाओं में काम करती है। जहाँ सूर्य ज्वार पैदा करता है, चाँद वहाँ भाटा पैदा करता है। सूर्य और चाँद के ज्वार-भाटा एक-दूसरे को कम करते हैं (Neap tide is the difference of Solar and Lunar tides)। इन दिनों में ऊँचा ज्वार, कम ऊँचा और भाटा कम नीचा होता है। लघु ज्वार अक्सर साधारण ज्वार से 20% कम ऊँचा होता है।

ज्वारभाटे के लाभ (Advantages)-

  1. ज्वारभाटा समुद्र के तटों को साफ़ रखता है। यह उतार के समय कूड़ा-कर्कट, कीचड़ आदि को अपने साथ बहाकर ले जाता है।
  2. ज्वारभाटे की हलचल के कारण समुद्र का पानी जमता नहीं।
  3. ज्वार के समय नदियों के मुहानों पर पानी की गहराई बढ़ जाती हैं, जिससे बड़े-बड़े जहाज़ सेंट लारेंस, हुगली, हडसन नदी में प्रवेश कर सकते हैं। ज्वारभाटे के समय को बताने के लिए टाईम-टेबल बनाए जाते हैं।
  4. ज्वारभाटे के मुड़ते हुए पानी से पन-बिजली पैदा की जा सकती है। इस बिजली का प्रयोग करने के लिए फ्रांस और अमेरिका में कई प्रयत्न किए गए हैं।
  5. ज्वारभाटे के कारण बहुत सी सिप्पियां, कोड़ियाँ, अन्य वस्तुएँ आदि तट पर इकट्ठी हो जाती है। कई समुद्री जीव तटों पर पकड़े जाते हैं।
  6. ज्वारभाटा बंदरगाहों की अयोग्यता को दूर करते हैं और आदर्श बंदरगाहों को जन्म देते हैं। कम गहरी बंदरगाहों में बड़े-बड़े जहाज़ ज्वार के साथ दाखिल हो जाते हैं और भाटे के साथ वापस लौट आते हैं, जैसे-कोलकाता, कराची, लंदन आदि।
  7. ज्वारभाटा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को सरल, आसान और निरंतर रखता है।

हानियाँ (Disadvantages)-

  1. ज्वारभाटे से कभी-कभी जहाज़ों को नुकसान होता है। छोटे-छोटे जहाज़ और नाव डूब जाते हैं।
  2. इससे बंदरगाहों के निकट रेत जम जाने से जहाजों के आने-जाने में रुकावट आती है।
  3. ज्वारभाटे के कारण मिट्टी के बहाव के कारण डेल्टा नहीं बनते।
  4. मछली पकड़ने के काम में रुकावट होती है।
  5. ज्वार का पानी जमा होने से तट पर दलदल बन जाती है।

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Geography Guide for Class 11 PSEB महासागर Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न | (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पृथ्वी के कितने % भाग पर जल है ?
उत्तर-
71%।

प्रश्न 2.
महाद्वीपीय शैल्फ तट की औसत गहराई बताएँ।
उत्तर-
150 से 200 मीटर।

प्रश्न 3.
विश्व में सबसे अधिक गहरे स्थान के बारे में बताएँ।
उत्तर-
मेरियाना खाई – 11022 मीटर।

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प्रश्न 4.
किस महासागर के मध्य में ‘S’ आकार की पहाड़ी है ?
उत्तर-
अंध महासागर।।

प्रश्न 5.
किस महासागर में सबसे अधिक खाइयाँ हैं ?
उत्तर-
प्रशांत महासागर।

प्रश्न 6.
जल में डूबी पहाड़ियों की कुल लंबाई बताएँ।
उत्तर-
7500 कि० मी०।

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प्रश्न 7.
किसी एक प्रसिद्ध केनीयन का नाम बताएँ।
उत्तर-
ओशनो ग्राफर केनीयन।

प्रश्न 8.
महाद्वीपीय ढलान का कोण बताएँ।
उत्तर-
2°-5° तक।

प्रश्न 9.
संसार के प्रमुख महासागरों के नाम बताएँ।
उत्तर-
प्रशांत महासागर, अंध महासागर, हिंद महासागर, आर्कटिक महासागर।

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प्रश्न 10.
पृथ्वी को जलीय ग्रह क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
अधिक जल होने के कारण।

प्रश्न 11.
किस गोलार्द्ध को जलीय गोलार्द्ध कहते हैं ?
उत्तर-
दक्षिणी गोलार्द्ध।

प्रश्न 12.
किस यंत्र से समुद्र की गहराई मापी जाती है ?
उत्तर-
Sonic Depth Recorder.

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प्रश्न 13.
महासागरीय जल के गर्म होने की क्रियाएं बताएँ।
उत्तर-
विकिरण और संवहन।

प्रश्न 14.
महासागरों में नमक के स्रोत बताएँ।
उत्तर-
नदियाँ, लहरें और ज्वालामुखी।

प्रश्न 15.
महासागरीय जल के प्रमुख लवणों के नाम बताएँ।
उत्तर-
सोडियम क्लोराइड, मैग्नीशियम क्लोराइड, मैग्नीशियम सल्फेट, कैल्शियम सल्फेट, पोटाशियम सल्फेट।

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प्रश्न 16.
तरंग के दो भाग बताएँ।
उत्तर-
शिखर और गहराई।

प्रश्न 17.
भूमध्य रेखा पर सागरीय जल का ताप बताएँ।
उत्तर-
भूमध्य रेखा – 26°

प्रश्न 18.
पलावी हिम शैल के दो स्रोत बताएँ।
उत्तर-
अलास्का और ग्रीन लैंड।

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प्रश्न 19.
घिरे हुए एक सागर का नाम और उसका खारापन बताएँ।
उत्तर-
ग्रेट साल्ट झील – 220 ग्राम प्रति हज़ार।

प्रश्न 20.
भूमध्य रेखा के निकट खारापन कम क्यों है ?
उत्तर-
अधिक वर्षा के कारण।

प्रश्न 21.
काले सागर में खारापन कम क्यों है ?
उत्तर-
नदियों से ताज़ा पानी प्राप्त होने के कारण।

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प्रश्न 22.
लाल सागर में खारापन अधिक क्यों है ?
उत्तर-
नदियों की कमी और अधिक वाष्पीकरण के कारण।

प्रश्न 23.
महासागरों में औसत खारापन बताएँ।
उत्तर-
35 ग्राम प्रति हज़ार।

प्रश्न 24.
महासागरीय जल की तीन गतियाँ बताएँ।
उत्तर-

  1. तरंगें
  2. धाराएँ
  3. ज्वारभाटा।

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प्रश्न 25.
ज्वारभाटा कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर-
लघु ज्वारभाटा और ऊँचा ज्वारभाटा।

प्रश्न 26.
तरंगों के तीन प्रमुख प्रकार बताएँ।
उत्तर-
सरफ, स्वैश और अध-प्रवाह।

प्रश्न 27.
ऊँचा ज्वारभाटा कब उत्पन्न होता है ?
उत्तर-
अमावस्या और पूर्णिमा को।

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प्रश्न 28.
लघु ज्वारभाटा कब होता है ?
उत्तर-
कृष्ण और शुक्ल अष्टमी को।

प्रश्न 29.
अंध-महासागर में सबसे प्रसिद्ध गर्म धारा बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी की धारा।

प्रश्न 30.
ज्वारभाटा के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण बताएँ।
उत्तर-
चंद्रमा की आकर्षण-शक्ति।

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प्रश्न 31.
सरफ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
तटीय क्षेत्रों की टूटती लहरों को।

प्रश्न 32.
ज्वार की सबसे अधिक ऊँचाई कहाँ होती है ?
उत्तर-
फंडे की खाड़ी में।

प्रश्न 33.
न्यूफाउंडलैंड के निकट कोहरा क्यों पैदा होता है ?
उत्तर-
लैबरेडोर की ठंडी और खाड़ी की धारा मिलने के कारण।

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प्रश्न 34.
प्रशांत महासागर की दो ठंडी धाराओं के नाम बताएँ।
उत्तर-
पेरु की धारा और कैलीफोर्निया की धारा।

प्रश्न 35.
कालाहारी मरुस्थल के तट पर कौन-सी धारा चलती है ?
उत्तर-
बैंगुएला की धारा।

प्रश्न 36.
दो ज्वारों के बीच समय का अंतर बताएँ।
उत्तर-
12 घंटे 26 मिनट।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
पृथ्वी का जल-मंडल कितने प्रतिशत है ?
(क) 51%
(ख) 61%
(ग) 71%
(घ) 81%.
उत्तर-
71%.

प्रश्न 2.
विश्व में सबसे गहरी खाई कौन-सी है ?
(क) पोरटोरिको
(ख) मेरियाना
(ग) सुंडा
(घ) एटाकामा।
उत्तर-
मेरियाना।

प्रश्न 3.
कौन-सा भाग महासागरीय तल का सबसे अधिक भाग घेरता है ?
(क) निमग्न तट
(ख) महाद्वीपीय फाल
(ग) महासागरीय मैदान
(घ) खाइयाँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय मैदान।

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प्रश्न 4.
महाद्वीपीय निमग्न तट की औसत गहराई है-
(क) 100 फैदम
(ख) 500 फुट
(ग) 300 मीटर
(घ) 400 मीटर।
उत्तर-
100 फैदम।

प्रश्न 5.
विश्व में सबसे छोटा महासागर कौन-सा है ?
(क) हिंद महासागर
(ख) अंध महासागर
(ग) आर्कटिक महासागर
(घ) प्रशांत महासागर।
उत्तर-
आर्कटिक महासागर ।

प्रश्न 6.
महासागरों में खारेपन को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण कारक है-
(क) धाराएँ
(ख) पवनें
(ग) वाष्पीकरण
(घ) जल-मिश्रण।
उत्तर-
वाष्पीकरण।

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प्रश्न 7.
विश्व में औसत खारापन है-
(क) 35 ग्राम प्रति हज़ार
(ख) 210 ग्राम प्रति हज़ार
(ग) 16 ग्राम प्रति हज़ार
(घ) 112 ग्राम प्रति हज़ार।
उत्तर-
35 ग्राम प्रति हज़ार।

प्रश्न 8.
किस सागर में सबसे अधिक खारापन है ?
(क) लाल सागर
(ख) बाल्टिक सागर
(ग) मृत सागर
(घ) भूमध्य सागर।
उत्तर-
मृत सागर।

प्रश्न 9.
काले सागर में औसत खारापन है-
(क) 170 ग्राम प्रति हज़ार
(ख) 18 ग्राम प्रति हज़ार
(ग) 40 ग्राम प्रति हज़ार
(घ) 330 ग्राम प्रति हजार।
उत्तर-
18 ग्राम प्रति हजार

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित में प्रशांत महासागर की धारा बताएँ।
(क) मैडगास्कर की धारा
(ख) खाड़ी की धारा
(ग) क्यूरोशियो की धारा
(घ) लैबरेडोर की धारा।
उत्तर-
क्यूरोशियो की धारा।

प्रश्न 11.
महासागरीय धाराओं का प्रमुख कारण है-
(क) पवनें
(ख) जल के घनत्व में अंतर
(ग) पृथ्वी की दैनिक गति
(घ) स्थल खंडों की रुकावट।
उत्तर-
पवनें।

प्रश्न 12.
लघु ज्वार कब होता है ?
(क) पूर्णिमा
(ख) अमावस्या
(ग) अष्टमी
(घ) पूर्ण चंद्रमा।
उत्तर-
अष्टमी।

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प्रश्न 13.
अंध महासागर की गर्म धारा है।
(क) खाड़ी की धारा
(ख) कनेरी की धारा
(ग) लैबरेडोर की धारा
(घ) अंटार्कटिका की धारा।
उत्तर-
खाड़ी की धारा।

प्रश्न 14.
कालाहारी मरुस्थल के तट पर बहने वाली धारा है-
(क) खाड़ी की धारा
(ख) बैंगुएला की धारा
(ग) मानसून की धारा ।
(घ) लैबरेडोर की धारा।
उत्तर-
बैंगुएला की धारा।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
जलमंडल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पृथ्वी के तल पर पानी के नीचे डूबे हुए भाग को जलमंडल (Hydrosphere) कहते हैं। जलमंडल के अधीन महासागर, सागर, खाड़ी, झील आदि सब आ जाते हैं।

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प्रश्न 2.
जलमंडल का विस्तार बताएँ।
उत्तर-
प्रसिद्ध भूगोल वैज्ञानिक क्रुम्मेल (Krummel) के अनुसार जलमंडल का विस्तार पृथ्वी के 71% भाग पर है। जलमंडल लगभग 3626 लाख वर्ग किलोमीटर पर फैला हुआ है।

प्रश्न 3.
जलीय गोलार्द्ध (Water Hemisphere) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उत्तरी गोलार्द्ध में 40% जल और 60% थल भाग हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में 81% जल और 19% थल भाग हैं।
दक्षिणी गोलार्द्ध में जल अधिक होने के कारण यह जलीय गोलार्द्ध कहलाता है। उत्तरी गोलार्द्ध को थल गोलार्द्ध (Land Hemisphere) कहा जाता है।

प्रश्न 4.
विश्व के प्रसिद्ध चार महासागरों के नाम और उनके क्षेत्रफल बताएँ।
उत्तर-

  1. प्रशांत महासागर – 1654 लाख वर्ग कि०मी०
  2. अंध महासागर – 822 लाख वर्ग कि०मी०
  3. हिंद महासागर – 735 लाख वर्ग कि०मी० .
  4. आर्कटिक महासागर – 141 लाख वर्ग कि०मी०

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प्रश्न 5.
महासागरीय फ़र्श को कितने मुख्य भागों में बाँटा जाता है ?
उत्तर-
महासागरीय फ़र्श को चार मुख्य भागों में बाँटा जाता है-

  1. महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)
  2. महाद्वीपीय missing (Continental Slope)
  3. महाद्वीपीय मैदान (Deep Sea Plain)
  4. समुद्री गहराई (Ocean Deeps)

प्रश्न 6.
महासागरीय फ़र्श पर सबसे अधिक मिलने वाली भू-आकृतियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  • समुद्री उभार (Ridges)
  • पहाड़ियाँ (Hills)
  • समुद्री टीले (Sea Mounts)
  • डूबे हुए द्वीप (Guyots)
  • खाइयाँ (Trenches)
  • कैनियान (Canyons)
  •  प्रवाह भित्तियाँ (Coral Reefs)।

प्रश्न 7.
पृथ्वी को जल ग्रह और नीला ग्रह क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
पृथ्वी के तल पर 71% भाग पर जलमंडल का विस्तार है, इसलिए इसे जल ग्रह (Watery Planet) कहते हैं। इस कारण अंतरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है और इसे नीला ग्रह (Blue Planet) कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न 8.
प्रति-ध्रुवीय स्थिति (Anti-Podal) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इसका अर्थ है कि पृथ्वी पर जल और स्थल एक-दूसरे के विपरीत स्थित हैं। यदि पृथ्वी के केंद्र से कोई व्यास खींचा जाए तो उसके एक सिरे पर जल और दूसरे सिरे पर स्थल होगा। यह स्थिति Diametrically Opposite होगी।

प्रश्न 9.
पृथ्वी पर सबसे बड़ा महासागर कौन-सा है और उसका क्षेत्रफल कितना है ?
उत्तर–
प्रशांत महासागर पृथ्वी का सबसे बड़ा महासागर है, जिसका क्षेत्रफल 1654 लाख वर्ग किलोमीटर है।

प्रश्न 10.
महासागरों की गहराई किस यंत्र से मापी जाती है ?
उत्तर-
महासागरों की गहराई Sound Waves का प्रयोग करके Sonic Depth Recorder नामक यंत्र के द्वारा मापी जाती है।

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प्रश्न 11.
पृथ्वी के सबसे ऊँचे भाग और महासागरों के सबसे गहरे भाग में कितना अंतर है ?
उत्तर-
पृथ्वी के सबसे ऊँचे भाग मांऊट एवरेस्ट की ऊँचाई 8848 मीटर है और सबसे गहरे भाग मेरियाना खाई की गहराई 11033 मीटर है और दोनों में अंतर 19881 मीटर है। यदि एवरेस्ट शिखर को मेरियाना खाई में डुबो दिया जाए, तो इसके शिखर पर 2185 मीटर गहरा पानी होगा।

प्रश्न 12.
महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf) किसे कहते हैं ?
उत्तर-
महाद्वीपों के चारों ओर के मंद ढलान वाले, समुद्री हिस्से को महाद्वीपीय शैल्फ कहा जाता है। यह क्षेत्र जल में डूबा रहता है।

प्रश्न 13.
महाद्वीपीय शैल्फ की औसत गहराई और विस्तार बताएँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ की औसत गहराई 100 फैदम (Fathom) या 183 मीटर मानी जाती है। महासागरों के 7.6% भाग (360 लाख वर्ग कि०मी०) पर इसका विस्तार है। सबसे अधिक विस्तार अंध महासागर में 13.3% क्षेत्र पर है।

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प्रश्न 14.
महाद्वीपीय ढलान (Continental Slope) की परिभाषा दें।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ से आगे गहरे समुद्री भाग तक तीखी ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं। इसकी औसत ढलान 2° से 5° तक होती है और इसकी गहराई 200 मीटर से 3660 मीटर तक होती है। इसका सबसे अधिक विस्तार अंध महासागर के 12.4% भाग पर है।

प्रश्न 15.
महाद्वीपीय शैल्फ की रचना की विधियाँ बताएँ।
उत्तर-

  • जल सतह के ऊपर उठने या थल सतह के धंसने से।
  • अपरदन से।
  • तटों पर निक्षेप से।

प्रश्न 16.
विश्व में सबसे गहरी खाई कौन-सी है ?
उत्तर-
अंधमहासागर में गुयाम द्वीप के निकट मेरियाना खाई (11033 मीटर गहरी) सबसे गहरी खाई है।

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प्रश्न 17.
समुद्री खाई और कैनियन में क्या अंतर है ?
उत्तर-
महासागरीय फ़र्श पर गहरे मैदान में बहुत गहरी, तंग, लंबी और तीखी ढलान वाली गहराई को खाई (Trench) कहते हैं। परंतु महाद्वीपीय शैल्फ और ढलान पर तीखी ढलान वाली गहरी घाटियों और खाइयों को समुद्री कैनियन (Canyons) कहते हैं।

प्रश्न 18.
प्रशांत महासागर की तीन खाइयों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  • चैलंजर खाई
  • होराइज़न खाई
  • ऐमडन खाई।

प्रश्न 19.
विश्व में कुल कितनी खाइयाँ हैं ? सबसे अधिक खाइयाँ किस महासागर में हैं ?
उत्तर-
विश्व में सभी महासागरों में 57 खाइयाँ हैं। सबसे अधिक खाइयाँ प्रशांत महासागर में हैं।

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प्रश्न 20.
प्रशांत महासागर की उत्पत्ति के बारे में बताएँ।
उत्तर-
एक विचार के अनुसार पृथ्वी से चंद्रमा के अलग होने के बाद बने गर्त से प्रशांत महासागर बना है। दूसरे विचार के अनुसार एक विशाल भू-खंड के धंस जाने से यह महासागर बना है।

प्रश्न 21.
मध्यवर्ती अंध महासागरीय कटक का वर्णन करें।
उत्तर-
यह ‘S’ आकार की कटक 14400 कि०मी० लंबी है और अंध-महासागर के मध्य में उत्तर में आइसलैंड से लेकर दक्षिण में बोविट टापू तक फैली हुई है और औसत रूप में 4000 मीटर गहरी है।

प्रश्न 22.
अंध महासागर की तीन प्रसिद्ध कटकोम के नाम बताएँ
उत्तर-

  1. डॉल्फिन कटक
  2. चैलंजर कटक
  3. वैलविस कटक
  4. रियो ग्रांड कटक
  5. विवल टामसन कटक।

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प्रश्न 23.
हिंद महासागर का क्षेत्रफल और आकार बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर का कुल क्षेत्रफल लगभग 735 लाख वर्ग किलोमीटर है, जोकि जल-मंडल का 20% भाग है। यह त्रिकोण आकार का महासागर उत्तर में बंद है और स्थल-खंड से घिरा हुआ है।

प्रश्न 24.
हिंद महासागर को आधा-महासागर (Half Ocean) क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
हिंद महासागर का विस्तार केवल कर्क रेखा तक है और उत्तर में यह स्थल-खंड से बंद है। यह केवल दक्षिणी गोलार्द्ध में ही पूरी तरह फैला हुआ है, इसलिए इसे आधा महासागर कहते हैं।

प्रश्न 25.
हिंद महासागर का सबसे गहरा स्थान बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर में सुंडा खाई (Sunda Trench) सबसे गहरा स्थान है, जो 7450 मीटर गहरा है और इंडोनेशिया के निकट स्थित है।

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प्रश्न 26.
महासागरों के तापमान के विभाजन पर कौन-से कारक प्रभाव डालते हैं ?
उत्तर-

  • भूमध्य रेखा से दूरी
  • प्रचलित पवनें और धाराएँ
  • थल खंडों का प्रभाव
  • हिम खंडों का बहाव।

प्रश्न 27.
उत्तरी सागर का तापमान ऊँचा क्यों रहता है ?
उत्तर-
खाड़ी की गर्म धारा के कारण।

प्रश्न 28.
लाल सागर और खाड़ी फारस के जल का तापमान बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी फारस के जल का तापमान 34°C और लाल सागर के जल का तापमान 32°C रहता है।

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प्रश्न 29.
1° अक्षांश पर महासागरों के जल के तापमान के कम होने की क्या दर है ?
उत्तर-
1° अक्षांश पर 0.3°C तापमान कम होता है।

प्रश्न 30.
महासागरों के तापमान का कटिबंधों के अनुसार विभाजन बताएँ।
उत्तर-

  • उष्ण कटिबंध में उच्च तापमान (27°C)
  • शीतोष्ण कटिबंध में मध्यम तापमान (15°C)
  • ध्रुवीय कटिबंध में निम्न तापमान (0°C)

प्रश्न 31.
महासागरों में सूर्य की किरणों का प्रभाव कितनी गहराई तक होता है ?
उत्तर-
लगभग 183 मीटर तक।

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प्रश्न 32.
तीन महासागरों की सतह के जल का तापमान बताएँ।
उत्तर-

  • प्रशांत महासागर – 19.1°C
  • हिंद महासागर – 17.03°C
  • अंध महासागर-16.9°C

प्रश्न 33.
4000 मीटर की गहराई पर महासागरों का तापमान कितना होता है ?
उत्तर-
1.7°C.

प्रश्न 34.
हिंद महासागर और लाल सागर की 2400 मीटर की गहराई पर पानी के तापमान में बहुत अंतर क्यों है ?
उत्तर-
इन दोनों सागरों में बॉब० एल० मंदेब (Bob-el Mandeb) नाम के कटक पानी के मिलने में रुकावट डालते हैं। हिंद महासागर की गहराई पर 15°C तापमान है जबकि लाल सागर में 21°C है।

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प्रश्न 35.
महासागरों के खारेपन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
महासागरीय जल का खारापन वह अनुपात है, जो घुले हुए नमक की मात्रा और सागरीय जल की मात्रा में होता है।

प्रश्न 36.
महासागरीय खारेपन के स्रोत बताएँ।
उत्तर-

  • नदियाँ
  • लहरें
  • ज्वालामुखी।

प्रश्न 37.
महासागरीय जल में से नमक हटा लेने से क्या प्रभाव होगा ?
उत्तर-

  • महासागरीय जल के नमक को यदि भू-तल पर बिछा दिया जाए, तो भू-तल पर 55 मीटर की परत बिछ जाएगी।
  • समुद्र तल लगभग 30 मीटर नीचा हो जाएगा।

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प्रश्न 38.
महासागरीय जल का औसत खारापन कितना है ?
उत्तर-
महासागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम नमक प्रति 1000 ग्राम जल है और इसे 35% के रूप में प्रकट किया जाता है।

प्रश्न 39.
महासागरीय जल के पाँच प्रसिद्ध लवण (नमक) और उनकी मात्रा बताएँ।
उत्तर-

  1. सोडियम क्लोराइड – 77.8%
  2. मैग्नीशियम क्लोराइड – 10.9%
  3. मैग्नीशियम सल्फेट – 4.7%
  4. कैल्शियम सल्फेट – 3.6%
  5. पोटाशियम सल्फेट – 2.5%

प्रश्न 40.
महासागरीय जल के खारेपन को नियंत्रित करने वाले तीन कारक बताएँ।
उत्तर-

  • तजें जल की प्रपत्ति वर्षा ओर नदियों से
  • वाष्पीकरण की तीव्रता और मात्रा।
  • पवनों और धाराओं द्वारा पानी की मिश्रण क्रिया।

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प्रश्न 41.
पानी के उत्थान (Upwelling of Water) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जिस प्रदेश से प्रचलित पवनें पानी बहाकर ले जाती हैं, उस स्थान पर नीचे से पानी की गहरी सतह ऊपर आ जाती है। इस क्रिया को पानी का उत्थान कहते हैं।

प्रश्न 42.
कर्क रेखा और मकर रेखा पर अधिक खारेपन के तीन कारण बताएँ।
उत्तर-

  • बादल रहित आकाश के कारण तीव्र वाष्पीकरण।
  • उच्च वायुदाब पेटियों के कारण वर्षा की कमी।
  • बड़ी नदियों का न होना।

प्रश्न 43.
भूमध्य रेखीय खंड में खारापन कम क्यों है ?
उत्तर-

  • हर रोज़ तेज़ वर्षा होने के कारण।
  • बड़ी-बड़ी नदियों (अमेज़न आदि) के कारण ताज़े जल की प्राप्ति।

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प्रश्न 44.
ध्रुवीय प्रदेशों में न्यूनतम खारेपन का कारण बताएँ।
उत्तर-

  • सूर्य का ताप कम है और वाष्पीकरण कम है।
  • हिम पिघलने से ताज़े जल की प्राप्ति।
  • विशाल नदियों से ताज़े जल की प्राप्ति।

प्रश्न 45.
भूमध्य सागर और लाल सागर में उच्च खारापन क्यों हैं ?
उत्तर-
भूमध्य सागर (39%) और लाल सागर (41%) में अधिक खारेपन का मुख्य कारण निकट के मरुस्थलों के कारण तीव्र वाष्पीकरण है। बड़ी नदियों की कमी के कारण ताज़े जल की प्राप्ति कम है।

प्रश्न 46.
काला सागर और बाल्टिक सागर में खारापन कम क्यों है ? .
उत्तर-
काला सागर (18%) और बाल्टिक सागर (8%) में कम खारेपन का मुख्य कारण इन शीत प्रदेशों में वाष्पीकरण की कमी है। अधिक वर्षा, हिम के पिघलने और बड़ी नदियों से ताज़े जल की पर्याप्त प्राप्ति है।

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प्रश्न 47.
मृत सागर कहाँ स्थित है और इसमें बहुत ऊँचा खारापन क्यों है ?
उत्तर-
मृत सागर पश्चिमी एशिया में इज़रायल और जॉर्डन देशों की सीमा पर स्थित है। इस पूर्ण बंद सागर में 237% खारापन है। आस-पास के शुष्क मरुस्थलों के कारण वाष्पीकरण तेज़ होता है, वर्षा नहीं होती, यह एक अंदरूनी प्रवाह वाला सागर है और कोई भी नदी इससे बाहर नहीं बहती।

प्रश्न 48.
किन्हीं तीन घिरे हुए बंद सागरों और झीलों के नाम और खारापन बताएँ।
उत्तर-

  • मृत सागर – 237.5%
  • ग्रेट साल्ट लेक – 220%
  • वान झील – 330%.

प्रश्न 49.
महासागर के जल की कौन-सी विभिन्न गतियाँ हैं ?
उत्तर-
महासागर के जल की तीन प्रकार की गतियाँ हैं-

  • लहरें
  • धाराएँ
  • ज्वारभाटा।

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प्रश्न 50.
समुद्री लहरें क्या होती हैं ?
उत्तर-
महासागरों में जल के ऊपर उठने और नीचे आने की गति (हलचल) को लहर कहा जाता है।

प्रश्न 51.
लहर के दो प्रमुख भाग बताएँ।
उत्तर-
लहर में जल के ऊपर उठे हुए भाग को शिखर (Crest) और निचले भाग को गर्त (Trough) कहते हैं।

प्रश्न 52.
लहर की लंबाई की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
लहर के एक शिखर से दूसरे शिखर तक की दूरी को लहर की लंबाई कहते हैं।

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प्रश्न 53.
लहर की गति का नियम क्या है ?
उत्तर-
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प्रश्न 54.
महासागरीय लहरों की प्रमुख किस्में बताएँ।
उत्तर-

  1. सी (sea)
  2. स्वैल (Swell)
  3. सर्फ (Surf)।

प्रश्न 55.
स्वॉश (Swash) और बैकवॉश (Backwash) में क्या अंतर है ?
उत्तर-
लहर का जल जब तट पर प्रवाह करता है, तो उसे स्वॉश कहते हैं। तट से लौटते हुए जल को उल्ट प्रवाह या बैकवॉश (Backwash) कहते हैं।

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प्रश्न 56.
सागरीय धारा की परिभाषा दें।
उत्तर-
समुद्र के एक भाग से दूसरे भाग की ओर, एक निश्चित दिशा में, विशाल जल-राशि के लगातार प्रवाह को सागरीय धारा कहते हैं।

प्रश्न 57.
ड्रिफ्ट और धारा में क्या अंतर है ?
उत्तर-
जब पवनों के वेग से, सागर तल पर जल धीमी गति से आगे बढ़ता है, तो उसे ड्रिफ्ट कहते हैं, जैसेमानसून ड्रिफ्ट। जब सागरीय जल तेज़ गति से आगे बढ़ता है तो उसे धारा कहते हैं।

प्रश्न 58.
धाराओं की उत्पत्ति के तीन प्रमुख कारण बताएँ।
उत्तर-

  • प्रचलित पवनें
  • तापमान और खारेपन में विभिन्नता
  • पृथ्वी की दैनिक गति।

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प्रश्न 59.
उत्तरी हिंद महासागर में धाराएँ सर्दी और गर्मी में अपनी दिशा क्यों बदल लेती हैं ?
उत्तर-
यहाँ गर्मियों में दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनें चलती हैं, परंतु सर्दियों में उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें चलती हैं। पवनों की दिशा बदलने से धाराएँ भी अपनी दिशा बदल लेती हैं।

प्रश्न 60.
धाराओं के संबंध में फैरल के सिद्धान्त का उल्लेख करें।
उत्तर-
फैरल के सिद्धान्त के अनुसार धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर और दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं।

प्रश्न 61.
महासागरों में भूमध्य रेखीय विपरीत धारा का क्या कारण है ?
उत्तर-
भूमध्य रेखा पर अपकेंद्रीय बल अधिक होने के कारण जल पृथ्वी की परिभ्रमण दिशा के साथ-साथ पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर बहता है।

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प्रश्न 62.
तीनों महासागरों की सांझी धारा कौन-सी है ?
उत्तर–
तीनों महासागरों में निर्विघ्न विस्तार के कारण जल की लगातार एक सांझी धारा बहती है, जिसे पश्चिमी पवन प्रवाह कहते हैं।

प्रश्न 63.
पश्चिमी यूरोप पर गल्फ स्ट्रीम के कोई दो प्रभाव बताएँ।
उत्तर-

  • पश्चिमी यूरोप में सर्दी की ऋतु में तापमान साधारण से 50°C ऊँचा रहता है।
  • पश्चिमी यूरोप की बंदरगाहें सारा साल व्यापार के लिए खुली रहती हैं।

प्रश्न 64.
नीचे लिखी धाराओं के कारण कौन-कौन से मरुस्थल बनते हैं
(i) कनेरी की धारा
(ii) पेरु की धारा
(iii) बैंगुएला की धारा।
उत्तर-
(i) कनेरी की धारा – सहारा मरुस्थल
(ii) पेरु की धारा – ऐटेकामा मरुस्थल
(iii) बैंगुएला की धारा – कालाहारी मरुस्थल।

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प्रश्न 65.
हिम शैलों (खंडों) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जल में तैरते हुए हिम खंडों के बड़े-बड़े टुकड़ों को हिम शैल कहते हैं। इनका 1/10 भाग ही जल की सतह के ऊपर रहता है।

प्रश्न 66.
हिम शैलों के किन्हीं दो प्रदेशों के नाम बताएँ।
उत्तर-
अलास्का और ग्रीनलैंड।

प्रश्न 67.
अंध महासागर की कौन-सी दो धाराएँ न्यूफाऊंडलैंड के निकट आपस में मिलती हैं ?
उत्तर-
लैबरेडोर की ठंडी धारा और खाड़ी की गर्म धारा।

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प्रश्न 68.
ज्वारभाटा की परिभाषा दें।
उत्तर-
सागरीय जल के नियमित उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं। पानी के ऊपर उठने को ज्वार और पानी के नीचे उतरने की क्रिया को भाटा कहते हैं।

प्रश्न 69.
विश्व में सबसे ऊँचा ज्वार कहाँ आता है ?
उत्तर-
दक्षिण-पूर्वी कनाडा की फंडे की खाड़ी (Bay of Funday) में 22 मीटर ऊँचा ज्वार आता है।

प्रश्न 70.
ज्वारभाटे की उत्पत्ति का प्रमुख कारण क्या है ?
उत्तर–
ज्वारभाटे की उत्पत्ति का प्रमुख कारण चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति है।

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प्रश्न 71.
ऊँचा ज्वार और लघु ज्वार में क्या अंतर है ?
उत्तर-
जब सूर्य, चाँद और धरती एक सीधी रेखा में होते हैं, तो सबसे अधिक ऊँचे ज्वार को ऊँचा ज्वार कहते हैं। जब सूर्य और चाँद धरती से समकोण की स्थिति में होते हैं, तो कम ऊँचे ज्वार को लघु ज्वार कहते हैं।

प्रश्न 72.
लघु ज्वार और ऊँचा ज्वार किन तिथियों को आते हैं ?
उत्तर-
ऊँचा ज्वार अमावस्या और पूर्णिमा को आते हैं, जबकि लघु ज्वार अष्टमी वाले दिनों में आते हैं।

प्रश्न 73.
दो बंदरगाहों के नाम बताएँ, जहाँ जहाज़ ज्वारभाटा की मदद से प्रवेश करते हैं ?
उत्तर-
कोलकाता और कराची।

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प्रश्न 74.
किसी स्थान पर ज्वार हर दिन 52 मिनट देरी से क्यों आता है ?
उत्तर-
चाँद पृथ्वी के सामने 24 घंटे बाद पहले स्थान पर नहीं आता, बल्कि 13° के कोण में आगे बढ़ जाता है। इसलिए किसी स्थान को चाँद के सामने आने के लिए 13° x 4 = 52 मिनट का अधिक समय लगता है।

प्रश्न 75.
ज्वार की दीवार से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब ज्वार का जल नदी में प्रवेश कर जाता है, तो वह जल की विपरीत दिशा में बहता है। ज्वार की लहर की ऊँचाई बढ़ जाती है। इसे ज्वार की दीवार कहते हैं।

प्रश्न 76.
किन नदियों में ज्वार की दीवार बनती है ?
उत्तर-
हुगली नदी, अमेज़न नदी, हडसन नदी।

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लघु उत्तरात्मक प्रश्न । (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
मनुष्य के लिए महासागरों की महत्ता का वर्णन करें।
उत्तर-
महासागरों की महत्ता (Significance of Oceans)—महासागर अनेक प्रकार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के लिए उपयोगी हैं-

  1. महासागर जलवायु पर व्यापक प्रभाव डालते हैं।
  2. महासागर मनुष्यों के लिए मछलियों और खाद्य-पदार्थों के विशाल भंडार हैं।
  3. समुद्री जंतुओं से तेल, चमड़ा आदि कई उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं।
  4. महासागरों के कम गहरे क्षेत्रों में तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार हैं और वहाँ कई खनिज भी मिलते हैं।
  5. महासागरों में ज्वारीय और भू-तापीय ऊर्जा पैदा की जा सकती है।
  6. महासागर आवाजाही के महत्त्वपूर्ण, सस्ते और प्राकृतिक स्रोत हैं।

प्रश्न 2.
“महासागर भविष्य के भंडार हैं।” कथन की व्याख्या करें।
उत्तर-
महासागर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से धरती पर नमी, वर्षा, तापमान आदि पर प्रभाव डालते हैं। महासागर बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए खाद्य-पदार्थों के विशाल स्रोत हैं। मछलियाँ मानवीय भोजन का 10% भाग प्रदान करती हैं। मनुष्य कई प्रकार के उपयोगी पदार्थों के लिए महासागरों पर निर्भर करता है। खनिज तेल के 20% भंडार महासागर में मौजूद हैं। कई देशों में ऊर्जा संकट पर नियंत्रण करने के लिए महासागर से ज्वारीय और भू-तापीय ऊर्जा प्राप्त की जाती है। इस प्रकार भविष्य में मनुष्य की बढ़ती हुई माँगों की पूर्ति महासागरों से ही की जा सकेगी, इसीलिए महासागरों को भविष्य के भंडार कहा जाता है।

प्रश्न 3.
महाद्वीपीय शैल्फ और महाद्वीपीय ढलान में अंतर बताएँ।
उत्तर-
महाद्वीपीय शैल्फ (Continental Shelf)-

  1. महाद्वीपों के चारों ओर पानी के नीचे डूबे चबूतरों को महाद्वीपीय शैल्फ कहते हैं।
  2. इसकी औसत गहराई 200 मीटर (100 फैदम) होती है।
  3. सभी महासागरों के 7.5% भाग पर इसका विस्तार है।
  4. इसकी औसत ढलान 1° से कम है।
  5. मछली क्षेत्रों और पैट्रोलियम के कारण इसकी आर्थिक महत्ता है।

महाद्वीपीय ढलान (Continental Slope)-

  1. महाद्वीपीय शैल्फ से महासागर के ओर की ढलान को महाद्वीपीय ढलान कहते हैं।
  2. इसकी औसत गहराई 200 मीटर से 3000 मीटर तक होती है।
  3. सभी महासागरों के 8.5% भाग पर इसका विस्तार है।
  4. इसकी औसत ढलान 2° से 5° तक है।
  5. इस पर अनेक समुद्री कैनियन मिलती हैं।

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प्रश्न 4.
समुद्री पर्वत और डूबे हुए द्वीप में अंतर बताएँ।
उत्तर-
समुद्री पर्वत (Sea Mounts)-

  1. यह एक प्रकार की समुद्री पहाड़ी होती है।
  2. यह समुद्र तल से 1000 मीटर ऊँचे होते हैं।
  3. इनकी चोटियाँ नुकीली होती हैं।

डूबे हुए द्वीप (Guyots)-

  1. ये ज्वालामुखी चोटियों के बचे-खुचे भाग होते हैं।
  2. ये समुद्री द्वीप कम ऊँचे होते हैं।
  3. इनकी चोटियाँ कटाव के कारण चौकोर होती

प्रश्न 5.
समुद्री खाई और समुद्री कैनियन में अंतर बताएँ।
उत्तर –
समुद्री खाई (Sub-marine Trench)-

  1. ये समुद्र के गहरे भागों में मिलती हैं।
  2. ये लंबी, गहरी और तंग खाइयाँ होती हैं।
  3. ये मोड़दार पर्वतों के साथ पाई जाती हैं।
  4. मेरियाना खाई सबसे गहरी खाई है, जोकि 11 किलोमीटर गहरी है।

समुद्री कैनियन (Sub-marine Canyon)-

  1. ये महाद्वीपीय शैल्फ और ढलानों पर मिलती हैं।
  2. ये तंग और गहरी ‘V’ आकार की घाटियाँ होती हैं।
  3. ये समुद्री तटों और नदियों के मुहानों पर पाई जाती हैं।
  4. बैरिंग कैनियन विश्व में सबसे बड़ी कैनियन है, जोकि 400 किलोमीटर लंबी है।

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प्रश्न 6.
धरती पर महासागरों को जलवायु के महान् नियंत्रक क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
महासागर जलवायु पर व्यापक प्रभाव डालते हैं, इसलिए इन्हें जलवायु के प्रमुख नियंत्रक कहा जाता है।

  • महासागर धरती पर नमी, वर्षा और तापमान के विभाजन पर प्रभाव डालते हैं।
  • महासागर सूर्य की ऊर्जा के भंडार हैं।
  • महासागरों के कारण तटीय भागों में समकारी जलवायु पाई जाती है।
  • समुद्री धाराएँ अपने निकट के तटीय प्रदेशों के तापमान को समकारी बनाती हैं।

प्रश्न 7.
झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन के विभाजन के बारे में बताएँ।
उत्तर-
झीलों और आंतरिक सागरों में खारापन (Salinity in Lakes and Inland Seas)-झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन की मात्रा इनमें गिरने वाली नदियों, वाष्पीकरण की मात्रा और स्थिति के कारण भिन्न-भिन्न है। झीलों में नदियों के गिरने से ताज़ा जल अधिक हो जाता है और खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। अधिक तापमान से वाष्पीकरण अधिक होता है, जिससे खारापन बढ़ जाता है। कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में खारापन 14 ग्राम प्रति हज़ार ग्राम जल है, परंतु दक्षिणी भाग में यह मात्रा 170 ग्राम प्रति हजार ग्राम जल है। संयुक्त राज्य अमेरिका की साल्ट झील में खारापन 220 ग्राम प्रति हज़ार है। जॉर्डन में मृत सागर (Dead Sea) में खारापन 238 ग्राम प्रति हज़ार है। तुर्की की वैन झील (Van Lake) में खारेपन की मात्रा 330 ग्राम प्रति हज़ार है। यहाँ अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण खारापन अधिक है।

प्रश्न 8.
सागरीय जल के खारेपन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
समुद्र के जल का स्वाद खारा होता है। यह खारापन कई स्थानों पर अधिक और कई स्थानों पर कम होता है। समुद्र के जल में खारापन पैदा करने में नदियों का योगदान होता है। नदियों के पानी में कई तरह के नमक घुले होते हैं, जिन्हें नदियाँ अपने साथ समुद्रों में ले जाती हैं। इन नमक युक्त पदार्थों को ही खारेपन का नाम दिया जाता है। अनुमान है कि विश्व की सभी नदियाँ हर वर्ष 5 अरब 40 करोड़ टन नमक समुद्रों में ले जाती हैं। समुद्रों का औसत खारापन 35% होता है, परंतु सभी समुद्रों में यह एक समान नहीं होता। कहीं बहुत अधिक और कहीं बहुत कम होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न 9.
झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन का विभाजन बताएँ।
उत्तर-
झीलों और आंतरिक सागरों (Lakes and Inland Seas) में खारापन झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन की मात्रा इन में गिरने वाली नदियों, वाष्पीकरण की मात्रा और स्थिति के कारण भिन्न-भिन्न होती है। झीलों में नदियों के गिरने से ताज़ा जल अधिक हो जाता है और खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है, जिससे खारापन अधिक हो जाता है। कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में खारापन 14 ग्राम प्रति हज़ार है, परंतु दक्षिणी भाग में यह मात्रा 170 ग्राम प्रति हज़ार है। संयुक्त राज्य अमेरिका की साल्ट झील में खारापन 220 प्रति हज़ार है। जार्डन में मृत सागर (Dead Sea) में खारापन 238 ग्राम प्रति हज़ार है। तुर्की की वैन झील (Van Lake) में खारेपन की मात्रा 330 ग्राम प्रति हज़ार है। यहाँ अधिक खारापन अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण होता है।

प्रश्न 10.
अलग-अलग सागरों के खारेपन की मात्रा पर वाष्पीकरण का क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
जिन महासागरों में वाष्पीकरण अधिक होगा, उनका जल अधिक खारा होगा। ऐसा इसलिए होता है कि वाष्पीकरण की क्रिया द्वारा सागरीय जल वाष्प बनकर उड़ जाता है और बाकी बचे जल में खारेपन की मात्रा अधिक हो जाती है। अधिक तापमान, वायु की तीव्रता और शुष्कता के कारण सागरों का खारापन बढ़ जाता है। कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट अधिक वाष्पीकरण के कारण खारापन अधिक होता है। कम तापमान और कम वाष्पीकरण के कारण खारापन कम हो जाता है।

प्रश्न 11.
महासागरीय धाराओं की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-

  1. धाराएँ लगातार एक निश्चित दिशा में बहती हैं।
  2. गर्म धाराएँ निचले अक्षांशों से ऊँचे अक्षांशों की ओर बहती हैं।
  3. ठंडी धाराएँ ऊँचे अक्षांशों से निचले अक्षांशों की ओर बहती हैं।
  4. उत्तरी गोलार्द्ध में धाराएँ अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं।
  5. निचले अक्षांशों में पूर्वी तटों पर गर्म धाराएँ और पश्चिमी तटों पर ठंडी धाराएँ बहती हैं।
  6. उच्च अक्षांशों में पश्चिमी तटों पर गर्म धाराएँ और पूर्वी तटों पर ठंडी धाराएँ बहती हैं।

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प्रश्न 12.
हुगली नदी में जहाज़ चलाने के लिए ज्वारभाटे की महत्ता बताएँ।
उत्तर-
हुगली नदी में ज्वारभाटे की विशेष महत्ता है। कोलकाता बंदरगाह एक कम गहरी और कृत्रिम बंदरगाह है। जब ज्वार के समय पानी ऊपर होता है, तो कोलकाता की कम गहरी बंदरगाह में बड़े-बड़े जहाज़ दाखिल हो जाते हैं। इस प्रकार पानी के बड़े-बड़े जहाज़ समुद्र में कई मील अंदर तक प्रवेश कर जाते हैं। भाटे के समय जहाज़ वापस हो जाते हैं। कोलकाता हुगली नदी के किनारे समुद्र तट से 120 किलोमीटर दूर है। परंतु हुगली नदी में आने वाले ऊँचे ज्वारभाटे के कारण पानी के जहाज़ कोलकाता तक पहुँच जाते हैं। जब ज्वार नहीं होता, तो जहाज़ों को कोलकाता से 70 किलोमीटर दूर डायमंड हार्बर (Diamond Harbour) में रुके रहना पड़ता है।

प्रश्न 13.
ज्वार की दीवार पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।।
उत्तर-
ज्वार की दीवार (Tidal Wall)-नदियों के मुहाने में पानी की ऊँची दीवार को ज्वार की दीवार कहते हैं। जब ज्वार उठता है, तो पानी की एक धारा नदी घाटी में प्रवेश करती हैं। यह, लहर नदी के जल को विपरीत दिशा में बहाने का यत्न करती है, ज्वार की लहर की ऊँचाई बहुत बढ़ जाती है। नदियों में पानी का बहाव विपरीत हो जाता है। पानी समुद्र से अंदर की ओर बहने लगता है। पानी की इस ऊँची दीवार को ज्वार-दीवार कहते हैं। ज्वारदीवार विशेषकर उन नदियों में दिखाई देती है, जिनका खुला मुहाना कुप्पी जैसा होता है। तंग मुँह और तेज़ धारा के कारण ज्वार-लहर के आगे एक दीवार खड़ी हो जाती है। यह ज्वार-दीवार बहुत विनाशकारी होती है। इससे नावें उलट जाती हैं। जहाज़ों के रस्से टूट जाते हैं। जहाज़ नष्ट हो जाते हैं । हुगली नदी में इन दीवारों के कारण छोटी नावों को बहुत नुकसान होता है। यंग-सी घाटी (चीन) में 3-4 मीटर ऊँची ज्वार की दीवार पाई जाती है, जो 16 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से नदी में अंदर बढ़ती जाती है।

प्रश्न 14.
“धाराएँ प्रचलित पवनों के द्वारा निर्धारित होती हैं।” व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रचलित पवनें (Prevailing Winds)-हवा अपनी अपार शक्ति के कारण पानी को गति देती है। धरातल पर चलने वाली स्थायी पवनें (Planetary Winds) लगातार एक ही दिशा में चलने के कारण धाराओं को जन्म देती हैं। विश्व की प्रमुख धाराएँ स्थायी पवनों की दिशा के अनुसार चलती हैं। (Ocean currents are wind determined) । मौसमी पवनें (Seasonal Winds) भी धाराओं की दिशा और उत्पत्ति में सहायक होती हैं।

उदाहरण (Examples)-

  1. व्यापारिक पवनें (Trade Winds)—इनके द्वारा उत्तरी और दक्षिणी भूमध्य रेखीय धाराएँ (Equational Currents) पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं।
  2. पश्चिमी पवनें (Westerlies)—इनके प्रभाव से खाड़ी की धारा (Gulf Stream) और क्यूरोशियो (Curoshio) धारा पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है।

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प्रश्न 15.
किसी क्षेत्र की वर्षा पर धाराओं के प्रभाव का उल्लेख करें।
उत्तर-
गर्म धाराओं के निकट के प्रदेशों में वर्षा अधिक होती है, परंतु ठंडी धाराओं के निकट के प्रदेशों में वर्षा कम होती है। गर्म धाराओं के ऊपर बहने वाली पवनों में नमी धारण करने की शक्ति बढ़ जाती है, परंतु ठंडी धाराओं के संपर्क में आकर पवनें ठंडी हो जाती हैं और अधिक नमी धारण नहीं कर सकतीं।

उदाहरण (Examples)–

  • उत्तर-पश्चिमी यूरोप में खाड़ी की गर्म धारा के कारण और जापान के पूर्वी तट पर क्यूरोशिओ की गर्म धारा के कारण अधिक वर्षा होती है।
  • विश्व के प्रमुख मरुस्थलों के तटों के निकट ठंडी धाराएँ बहती हैं, जैसे-सहारा तट पर कैनेरी धारा, कालाहारी तट पर बेंगुएला धारा, ऐटेकामा तट पर पेरू की धारा।

प्रश्न 16.
खाड़ी की धारा का वर्णन करते हुए इसके प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
खाड़ी की धारा (Gulf Stream Current)
उत्पत्ति (Origin)—यह धारा खाड़ी मैक्सिको में एकत्र पानी द्वारा पैदा होती है, इसीलिए इसे खाड़ी की धारा कहते हैं। यह धारा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के साथ-साथ उत्तर की ओर न्यूफाउंडलैंड (New Foundland) तक बहती है। यह गर्म पानी की धारा है, जो एक नदी के समान तेज़ चाल से चलती है। इसका रंग नीला होता है। यह लगभग 1 किलोमीटर गहरी और 50 किलोमीटर चौड़ी है और इसकी गति 8 किलोमीटर प्रति घंटा है।

शाखाओं के क्षेत्र (Areas)- 40° उत्तरी अक्षांशों के निकट यह धारा पश्चिमी पवनों (Westerlies) के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती है। इसकी मुख्य धारा यूरोप की ओर बहती है, जिसे उत्तरी अटलांटिक प्रवाह (North Atlantic Drift) कहते हैं। यह एक धीमी धारा है, जिसे पश्चिमी पवनों के कारण पश्चिमी पवन प्रवाह (West Wind Drift) भी कहते हैं। यूरोप के तट पर यह धारा कई शाखाओं में बाँटी जाती है। ब्रिटेन का चक्कर लगाती हुई एक शाखा नॉर्वे के तट को पार करके आर्कटिक सागर में स्पिटसबर्जन (Spitsbergen) तक पहुँच जाती है, जहाँ इसे नॉर्वेजियन धारा (Norwegian Current) कहते हैं।

प्रभाव (Effects)-

  1. यह एक गर्म जलधारा है, जो ठंडे अक्षांशों में गर्म जल पहुँचाती है।
  2. यह धारा पश्चिमी यूरोप को गर्मी प्रदान करती है। यूरोप में सर्दी की ऋतु में साधारण तापमान इसी धारा की देन है।
  3. पश्चिमी यूरोप की सुहावनी जलवायु इसी धारा की देन है, इसलिए इसे यूरोप की जीवन-रेखा (Life Line of Europe) भी कहते हैं।
  4. पश्चिमी यूरोप के बंदरगाह सर्दी की ऋतु में नहीं जमते और व्यापार के लिए खुले रहते हैं।
  5. इस धारा के ऊपर से निकलने वाली पश्चिमी पवनें (Westerlies) यूरोप में बहुत वर्षा करती हैं।

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प्रश्न 17.
लैबरेडोर की धारा का वर्णन करें।
उत्तर-
लैबरेडोर की धारा (Labrador Current)—यह ठंडे पानी की धारा है, जो आर्कटिक सागर (Arctic Ocean) से उत्तरी अंध-महासागर की ओर बहती है। यह धारा बैफिन खाड़ी (Baffin Bay) से निकलकर कनाडा के तट के साथ बहती हुई न्यूफाउंडलैंड तक आ जाती है। यहाँ यह खाड़ी की धारा के साथ मिल जाती है, जिससे घना कोहरा पैदा होता है, इसकी एक शाखा सैंट लारेंस (St. Lawrance) घाटी में प्रवेश करती है, जो कई महीने बर्फ से जमी रहती है।

प्रभाव (Effects)-

  • ये प्रदेश बर्फ से ढके रहने के कारण अनुपजाऊ होते हैं।
  • ठंडी धारा के कारण इस प्रदेश के बंदरगाह सर्दी की ऋतु में जम जाते हैं और व्यापार बंद हो जाता है।
  • यह धारा अपने साथ आर्कटिक सागर से बर्फ के बड़े-बड़े खंड (Icebergs) ले आती है। कोहरे के कारण जहाज़ इन खंडों से टकराकर दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं।

प्रश्न 18.
उत्तरी हिंद महासागर की धाराओं पर मानसून पवनों के प्रभाव के बारे में बताएँ।
उत्तर-
हिंद महासागर की धाराएं (Currents of Indian Ocean)-धाराओं और पवनों का संबंध हिंद महासागर में स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। यहाँ मानसून पवनों के कारण समुद्री धाराओं का क्रम भी मौसमी (Seasonal) होता है। यहाँ उत्तरी हिंद महासागर में चलने वाली धाराएँ, मानसून पवनों के कारण छह महीने के बाद अपनी दिशा बदल लेती हैं। परंतु दक्षिणी हिंद महासागर में धाराएँ पूरा वर्ष एक ही दिशा में चलने के कारण स्थायी होती हैं।

मानसून के प्रभाव के कारण धाराएँ सारा साल अपनी दिशा बदलती रहती हैं। वास्तव में कोई भी निश्चित धारा नहीं मिलती। छह महीने बाद इन धाराओं की दिशा और कर्म बदल जाते हैं।

प्रश्न 19.
ज्वारभाटा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
ज्वारभाटा समुद्र की एक गति है। समुद्र का जल नियमित रूप से प्रतिदिन दो बार ऊपर उठता है और दो बार नीचे उतरता है। “समुद्री जल के इस नियमित उतार-चढ़ाव को ज्वारभाटा कहते हैं।” (Regular rise and fall of sea water is called Tides) जल के ऊपर उठने की क्रिया को ज्वार (Flood or High Tides or Incoming Tide) कहते हैं। जल के नीचे उतरने की क्रिया को भाटा (Ebb or low Tide or Outgoing Tide) कहते हैं।

विशेषताएँ

  1. प्रत्येक स्थान पर ज्वारभाटे की ऊँचाई अलग-अलग होती है।
  2. प्रत्येक स्थान पर ज्वार और भाटे का समय अलग-अलग होता है।
  3. समुद्र का जल 6 घंटे 13 मिनट तक ऊपर चढ़ता है और इतनी ही देर में नीचे उतरता है।
  4. ज्वारभाटा एक स्थान पर नित्य ही एक समय नहीं आता।

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प्रश्न 20.
ज्वारभाटे की उत्पत्ति के कारण बताएँ।
उत्तर-
उत्पत्ति के कारण (Causes of Origin) चंद्रमा अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravitational Attraction) के कारण धरती के जल को अपनी ओर खींचता है। स्थल भाग कठोर होता है, इस कारण वह खींचा नहीं जा सकता, परंतु जल भाग तरल होने के कारण ऊपर उठता जाता है। यह जल चंद्रमा की ओर उठता है। वहाँ से निकट का जल सिमटकर ऊपर उठता जाता है, जिसे उच्च ज्वार (High Tide) कहते हैं। जिस स्थान पर जल की मात्रा कम रह जाती है, वहाँ जल अपने तल से नीचे गिर जाता है, उसे नीचा ज्वार (Low Tide) कहते हैं। धरती की दैनिक गति के कारण प्रत्येक स्थान पर दिन-रात में दो बार ज्वार आता है। एक ही समय में धरती के तल पर दो बार ज्वार पैदा होते हैंएक ठीक चाँद के सामने और दूसरा उसकी विपरीत दिशा में (Diametrical Opposite) चाँद की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार उठता है। इसे सीधा ज्वार (Direct Tide) कहते हैं। विपरीत दिशा में अपकेंद्रीय बल (Centrifugal Force) के कारण ज्वार उठता है और ऊँचा ज्वार पैदा होता है। इसे अप्रत्यक्ष ज्वार (Indirect Tide) कहते हैं। इस प्रकार धरती के एक तरफ ज्वार आकर्षण शक्ति की अधिकता के कारण और दूसरी तरफ अपकेंद्रीय शक्ति की अधिकता के कारण पैदा होते हैं।

प्रश्न 21.
लघु ज्वार और ऊँचे ज्वार में अंतर बताएँ।
उत्तर-
ऊँचा ज्वार (Spring Tide)-सबसे अधिक ऊँचे ज्वार को ऊँचा ज्वार कहते हैं। यह दशा अमावस्या (New moon) और पूर्णिमा (Full Moon) के दिन होती है।

कारण (Causes)-इस दशा में सूर्य, चाँद और धरती एक सीधी रेखा में होते हैं। सूर्य और चाँद की सांझी आकर्षण-शक्ति अधिक हो जाने से ज्वार-शक्ति बढ़ जाती है। सूर्य और चाँद के कारण उत्पन्न ज्वार इक्ट्ठे हो जाते हैं। (Spring tide is the sum of solar and luner tides.)। इन दिनों में ज्वार अधिक ऊँचा और भाटा बहुत कम नीचा होता है। ऊँचे ज्वार साधारण ज्वार से 20% अधिक ऊँचे होते हैं।

लघु ज्वार (Neap Tide)-अमावस्या के सात दिन बाद या पूर्णिमा के सात दिन बाद ज्वार की ऊँचाई दूसरे दिनों की तुलना में नीची रह जाती है। इसे लघु ज्वार कहते हैं। इस दशा को शुक्ल और कृष्ण पक्ष की अष्टमी कहते हैं, जब चाँद आधा (Half Moon) होता है।

कारण (Causes)—इस दशा में सूर्य और चाँद धरती की समकोण दशा (At Right Angles) पर होते हैं। सूर्य और चाँद की गुरुत्वाकर्षण शक्ति विपरीत दिशाओं में काम करती है। जहाँ सूर्य ज्वार पैदा करता है, वहाँ चाँद भाटा पैदा करता है। सूर्य और चाँद के ज्वारभाटा एक-दूसरे को कम करते हैं। (Neap tide is the difference of solar and luner tides) । इन दिनों में ऊँचा ज्वार कम ऊँचा और भाटा कम नीचा होता है। छोटा ज्वार प्रायः साधारण ज्वार से 20% कम ऊँचा होता है।

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प्रश्न 22.
दो ज्वारों के बीच कितने समय का अंतर होता है ?
उत्तर-
ज्वारभाटे का नियम (Law of Tides)—किसी स्थान पर ज्वारभाटा नित्य एक समय पर नहीं आता। धरती अपनी धुरी पर 24 घंटों में एक पूरा चक्कर लगाती है। इसलिए विचार किया जाता है कि ज्वार प्रत्येक स्थान पर 12 घंटे बाद आए, परंतु प्रत्येक स्थान पर ज्वार 12 घंटे 26 मिनट बाद आता है। हर रोज़ ज्वार पिछले दिन की तुलना में देर से आता है।

कारण (Causes)–चाँद धरती के चारों ओर 28 दिनों में पूरा चक्कर लगाता है। धरती के चक्कर का 28 वाँ भाग चाँद हर रोज़ आगे बढ़ जाता है। इसलिए किसी स्थान को चाँद के सामने दोबारा आने में 24 घंटे से कुछ अधिक समय ही लगता है। 24 घंटे 60 मिनट

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दूसरे शब्दों में, हर 24 घंटे के बाद चाँद अपनी पहले वाली स्थिति से लगभग 13° (360/28 = 13°) आगे निकल जाता है। इसलिए किसी स्थान को चाँद के ठीक सामने आने में 13 x 4 = 52 मिनट अधिक समय लग जाता है क्योंकि दिन में दो बार ज्वार आता है, इसलिए प्रतिदिन ज्वार 26 मिनट के अंतर से अनुभव किया जाता है। पूरे 12 घंटे बाद पानी का चढ़ाव देखने में नहीं आता, बल्कि ज्वार 12 घंटे 26 मिनट बाद आता है। 6 घंटे 13 मिनट तक जल ऊपर उठता और उसके बाद 6 घंटे 13 मिनट तक जल नीचे उतरता रहता है। ज्वार के उतार-चढ़ाव का यह क्रम चलता रहता है।

निबंधात्मक प्रश्न । (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
अंध महासागर की स्थल रूपरेखा के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर-
अंधमहासागर (Atlantic Ocean)-
1. विस्तार और आकार (Shape and Size) इस सागर का क्षेत्रफल 8 करोड़ 20 लाख किलोमीटर है जोकि कुल सागरीय क्षेत्रफल का 1/6 भाग है। इसका आकार अंग्रेज़ी के ‘S’ अक्षर जैसा है। यह सागर भूमध्य रेखा पर लगभग 2560 कि०मी० चौड़ा है, परंतु दक्षिण की ओर इसकी चौड़ाई 4800 कि० मी० है। यह सागर उत्तर की ओर से बंद है, जबकि दक्षिण की ओर से खुला होने के कारण यह हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के साथ मिल जाता है।

2. समुद्र तल (Ocean Floor)—इस सागर के तटों पर चौड़ा महाद्वीपीय शैल्फ पाया जाता है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका के तटों पर इसकी चौड़ाई 400 कि०मी० तक होती है। यहाँ प्रसिद्ध मछली क्षेत्र पाए जाते हैं।

3. समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—इस सागर में नीचे लिखी प्रमुख समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges) हैं

  • अंध महासागरीय मध्यवर्ती पहाड़ी (Central Ridge)
  • डॉल्फिन पहाड़ी (Dolphin Ridge)
  • दक्षिणी भाग में चैलंजर पहाड़ी (Challanger Ridge)
  • उत्तरी भाग में टैलीग्राफ पठार।

4. सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-अंध महासागर में कई छोटे-छोटे बेसिन पाए जाते हैं, जैसे

  • लैबरोडोर बेसिन
  • स्पेनिश बेसिन
  • उत्तरी अमेरिका बेसिन
  • केपवरडे बेसिन
  • गिनी का बेसिन
  • ब्राज़ील का बेसिन।

5. अंध-महासागर के निवाणं (Deeps of Atlantic Ocean)-इस सागर के तट के साथ-साथ मोड़दार पर्वत होने के कारण यहाँ निवाण (Deeps) कम ही मिलते हैं। Mr. Murry के अनुसार इस सागर में 10 निवाण हैं। प्रमुख इस प्रकार हैं-

(i) प्यूरटो रीको निवाण (Puerto Rico Deep) यह इस सागर का सबसे गहरा स्थान (4812 फैदम) है।
(ii) रोमांच निवाण (Romanche Deep)—यह 4030 फैदम गहरा है।

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(iii) दक्षिणी सैंडविच निवाण (South Sandwitch Deep)-यह फाकलैंड के निकट 4575 फैदम गहरा है।
(iv) सीमावर्ती सागर (Marginal Sea)-अंध-महासागर में सीमावर्ती समुद्र कम ही मिलते हैं। इसमें पाए जाने वाले सीमावर्ती सागर अधिकतर यूरोप की ओर हैं। प्रमुख सीमावर्ती सागर इस प्रकार हैं-

(क) बाल्टिक सागर (Baltic Sea)
(ख) उत्तरी सागर (North Sea)
(ग) रोम सागर (Mediterranean Sea)
(घ) काला सागर (Black Sea)
(ङ) कैरेबीयन सागर (Caribbean Sea)
(च) बेफिन की खाड़ी (Baffin Bay)
(छ) खाड़ी मैक्सिको (Mexica Bay)
(ज) हडसन की खाड़ी (Hudson Bay)।

(v) द्वीप (Islands)—इस सागर में ग्रेट ब्रिटेन और न्यूफाउंडलैंड महत्त्वपूर्ण द्वीप हैं, जोकि महाद्वीपीय शैल्फ के ऊँचे भाग हैं। वेस्ट इंडीज़ द्वीपों का समूह है, जोकि चाप के रूप में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के बीच फैला हुआ है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये डूबे हुए पहाड़ों के ऊँचे उठे हुए भाग हैं। मध्यवर्ती उभार पर कई द्वीप मिलते हैं, जैसे-

(क) फैरोस द्वीप (Faroes Island)
(ख) अज़ोरस द्वीप (Azores Island)
(ग) फाकलैंड द्वीप (Falkland Island)
(घ) सेंट हैलेना द्वीप (St. Helena Island)
(ङ) बरमुदा द्वीप (Barmuda Island)।
(च) अफ्रीका तट पर ज्वालामुखी के केपवरडे द्वीप और कनेरी द्वीप आदि।

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प्रश्न 2.
प्रशांत महासागर की स्थल रुपरेखा के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर-
1. विस्तार और आकार (Shape and Size)—यह त्रिभुज (A) आकार का महासागर पृथ्वी के 30% भाग पर फैला हुआ है। इसकी औसत गहराई 5000 मीटर है। उत्तर में यह बेरिंग समुद्र और आर्कटिक महासागर द्वारा बंद है। प्रशांत महासागर भूमध्य रेखा पर लगभग 16000 कि०मी० चौड़ा है।

2. समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—प्रशांत महासागर में पहाड़ियों (Ridges) की कमी है। इसके कुछ भागों में पठारों के रूप में उठे हुए चबूतरे पाए जाते हैं। प्रमुख उभार इस प्रकार हैं –

  • हवाई उभार, जोकि लगभग तीन हज़ार कि०मी० लंबा है।
  • अल्बेट्रोस पठार, जोकि लगभग 1500 कि०मी० लंबा है।
  • इस सागर में अनेक उभार (Swell), ज्वालामुखी पहाड़ियाँ और प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं।

3. सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-प्रशांत महासागर में कई प्रकार के बेसिन मिलते हैं, जो छोटी-छोटी पहाड़ियों (Ridges) द्वारा एक-दूसरे से अलग हैं। प्रमुख बेसिन इस प्रकार हैं –

  • ऐलुशीयन बेसिन
  • फिलिपीन बेसिन
  • फिज़ी बेसिन
  • पूर्वी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन
  • प्रशांत अंटार्कटिका बेसिन।

4. सागरीय निवाण (Ocean Deeps)—इस महासागर में लगभग 32 निवाण मिलते हैं, जिनमें से अधिक Trenches हैं। इस सागर के निवाण (Deeps) और खाइयाँ (Trenches) अधिकतर इसके पश्चिमी भाग में हैं। इस सागर में सबसे गहरा स्थान मैरियाना खाई (Mariana Trench) है, जिसकी गहराई 11022 मीटर है। इसके अलावा ऐलुशीयन खाई, क्यूराइल खाई, जापान खाई, फिलीपाइन खाई, बोनिन खाई, मिंडानो टोंगा खाई और एटाकामा खाई प्रसिद्ध सागरीय निवाण हैं, जिनकी गहराई 7000 मीटर से भी अधिक है।

5. सीमवर्ती सागर (Marginal Seas)—प्रशांत महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर पश्चिमी भागों में मिलते हैं। इसके पूर्वी भाग में कैलीफोर्निया की खाड़ी और अलास्का की खाड़ी है। शेष महत्त्वपूर्ण सागर पश्चिमी भाग में हैं(i) बेरिंग सागर (Bering Sea) (ii) पीला सागर (Yellow Sea) (iii) ओखोत्सक सागर (Okhotsk Sea) (iv) जापान सागर (Japan Sea) (v) चीन सागर (China Sea)।

6. द्वीप (Islands)—प्रशांत महासागर में लगभग 20 हज़ार द्वीप पाए जाते हैं। प्रमुख द्वीप ये हैं-

  • ऐलुशियन द्वीप और ब्रिटिश कोलंबिया द्वीप।
  • महाद्वीपीय द्वीप, जैसे-क्यूराईल द्वीप, जापान द्वीप समूह, फिलीपाइन द्वीप, इंडोनेशिया द्वीप और न्यूज़ीलैंड द्वीप।
  • ज्वालामुखी द्वीप जैसे-हवाई द्वीप।
  • प्रवाल द्वीप, जैसे-फिजी द्वीप।

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प्रश्न 3.
हिंद महासागर के फर्श का वर्णन करें।
उत्तर-
(i) हिंद महासागर संसार का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है, जोकि तीन तरफ से स्थल भागों (अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया) से घिरा हुआ है। इसका विस्तार 20° पूर्व से लेकर 115° पूर्व तक है। इसकी औसत गहराई 4000 मीटर है। यह सागर उत्तर में बंद है और दक्षिण में अंध महासागर और प्रशांत महासागर से मिल जाता है।
(ii) समुद्री पहाड़ियाँ (Ridges)—इस महासागर में कई पहाड़ियाँ मिलती हैं-

(क) मध्यवर्ती पहाड़ी (Mid Indian Ridge) कन्याकुमारी से लेकर अंटार्कटिका महाद्वीप तक 75° पूर्व देशांतर के साथ-साथ स्थित है। इसके समानांतर पूर्वी हिंद पहाड़ी और पश्चिमी हिंद पहाड़ियाँ स्थित हैं। दक्षिण में ऐमस्ट्रडम-सेंट पॉल पठार स्थित है।

(ख) अफ्रीका के पूर्वी सिरे पर स्कोटा छागोश पहाड़ी।
(ग) हिंद महासागर के पश्चिम में मैडगास्कर और प्रिंस ऐडवर्ड पहाड़ियाँ और कार्ल्सबर्ग पहाड़ियाँ स्थित हैं।

(ii) सागरीय बेसिन (Ocean Basin)-कई पहाड़ियों (Ridges) के कारण हिंद महासागर कई छोटे-छोटे बेसिनों में बँट गया है, जैसे-खाड़ी बंगाल, अरब सागर, सोमाली बेसिन, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया का बेसिन और दक्षिणी हिंद बेसिन।

(iv) समुद्री निवाण (Ocean Deeps)—इस सागर में समुद्री निवाण बहुत कम हैं। सबसे अधिक गहरा स्थान सुंडा खाई (Sunda Trench) के निकट प्लैनट निवाण है, जोकि 4076 फैदम गहरा है।

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(v) सीमावर्ती सागर (Marginal Sea)-हिंद महासागर में अधिकतर सीमावर्ती सागर उत्तर की ओर हैं, जो इस प्रकार हैं-

(क) लाल सागर (Red Sea)
(ख) खाड़ी सागर (Persian Gulf)
(ग) अरब सागर (Arabian Sea)
(घ) खाड़ी बंगाल (Bay of Bengal)
(ङ) मोज़म्बिक चैनल (Mozambique Strait)
(च) अंडमान सागर (Andaman Sea)।

(vi) द्वीप (Islands)

(क) श्रीलंका और मैलागासी जैसे बड़े द्वीप
(ख) अंडमान-निकोबार, जंजीबार, लक्षद्वीप और मालदीव,
(ग) मारीशस और रीयूनियन जैसे ज्वालामुखी द्वीप।

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प्रश्न 4.
महासागरों के विस्तार का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र विज्ञान (Oceanography)—महासागरों का अध्ययन प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है। महासागरों की परिक्रमा, ज्वारभाटे की जानकारी आदि ईसा से कई वर्ष पूर्व ही प्राप्त थी। जलवायु, समुद्री मार्गों, जीवविज्ञान आदि पर प्रभाव के कारण समुद्री विज्ञान भौतिक भूगोल में एक विशेष स्थान रखता है।

समुद्र विज्ञान दो शब्दों Ocean + Graphy के मेल से बना है। इस प्रकार इस विज्ञान में महासागरों का वर्णन होता है। एम०ए०मोरमर (M.A. Mormer) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों की आकृति, स्वरूप, पानी और गतियों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of the Science of Oceans-its form, nature, waters and movements.)। मोंक हाऊस के अनुसार, “समुद्र विज्ञान महासागरों के भौतिक और जैव गुणों का अध्ययन है।” (Oceanography is the study of a wide range of Physical and biological phenomena of oceans.) I ___डब्ल्यू० फ्रीमैन (W. Freeman) के अनुसार, “समुद्र विज्ञान भौतिक भूगोल का वह भाग है, जो पानी की गतियों
और मूल शक्तियों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में ज्वारभाटा, धाराओं, तट रेखाओं, समुद्री धरातल और जीवों का अध्ययन शामिल होता है।”

महासागर-विस्तार (Ocean-Extent)-पृथ्वी के तल पर जल में डूबे हुए भाग को जलमंडल (Hydrosphere) कहते हैं। जलमंडल में महासागर, सागर, खाड़ियाँ, झीलें आदि सभी जल-स्रोत आ जाते हैं। सौर-मंडल में पृथ्वी ही एक-मात्र ग्रह है, जिस पर जलमंडल मौजूद है। इसी कारण पृथ्वी पर मानव-जीवन संभव है।

पृथ्वी के लगभग 71% भाग पर जलमंडल का विस्तार है। इसलिए इसे जल-ग्रह (Watery Planet) कहते हैं। अंतरिक्ष से पृथ्वी का रंग नीला दिखाई देता है, इसलिए इसे नीला ग्रह (Blue Planet) भी कहते हैं।

धरातल पर जलमंडल लगभग 3,61,059,000 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं जोकि पृथ्वी के धरातल के कुल क्षेत्रफल का 71% भाग है।
उत्तरी गोलार्द्ध का 61% भाग और दक्षिणी गोलार्द्ध का 81% भाग महासागरों द्वारा घिरा हुआ है। उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का विस्तार अधिक है, इसलिए इसे (Water Hemisphere) भी कहते हैं। जल और थल का विभाजन प्रति ध्रुवीय (Antipodal) है। उत्तरी ध्रुव की ओर चारों तरफ आर्कटिक महासागर स्थित है और दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका महाद्वीप द्वारा घिरा हुआ है ।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 2

जलमंडल का क्षेत्रफल (Area of Hydrosphere) ब्रिटिश भूगोल वैज्ञानिक जॉन मरें (John Murray) ने जलमंडल का क्षेत्रफल 3626 लाख वर्ग किलोमीटर बताया है । महासागरों में प्रमुख प्रशांत महासागर, अंधमहासागर, हिंद महासागर और आर्कटिक महासागर हैं । प्रशांत महासागर सबसे बड़ा महासागर है, जो जलमंडल के 45.1% भाग पर फैला हुआ है ।

Areas of Different Oceans

Ocean — Area (Sq. K.m.)
प्रशांत महासागर — 16,53, 84,000
अंध महासागर — 8,22,17,000
हिंद महासागर — 7,34,81,000
आर्कटिक महासागर –1,40,56,000

महासागरों की औसत गहराई 3791 मीटर है। स्थल मंडल की अधिकतम ऊँचाई एवरेस्ट चोटी (Everest Peak) है, जोकि समुद्र तल से 8848 मीटर ऊँची है। जलमंडल की अधिकतम गहराई 11,033 मीटर, फिलीपीन देश के निकट प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में चैलंजर निवाण (Challeger Deep) में है। इस प्रकार यदि संसार के सबसे ऊँचे शिखर ऐवरेस्ट को प्रशांत महासागर की मेरियाना खाई में डुबो दिया जाए, तो उसके शिखर पर 2000 मीटर से अधिक पानी होगा।

प्रश्न 5.
सागरीय जल के खारेपन से क्या अभिप्राय है ? विश्व के भिन्न-भिन्न सागरों में खारेपन के विभाजन का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र के जल का स्वाद खारा होता है। खारापन कई स्थानों पर अधिक और कई स्थानों पर कम होता है। समुद्र के जल में खारापन पैदा करने में दरिया के पानी का हाथ होता है। दरिया के पानी में कई प्रकार के नमक घुले हुए होते हैं, जिन्हें दरिया अपने साथ समुद्र में ले जाते हैं। इन नमक पदार्थों को भी खारेपन का नाम दिया जाता है। अनुमान है कि विश्व के सभी दरिया हर वर्ष 5 अरब 40 करोड़ टन नमक समुद्र में ले जाते हैं। समुद्रों का औसत खारापन 35% होता है, परंतु यह सब समुद्रों में एक समान नहीं है। कहीं बहुत अधिक है और कहीं बहुत कम। विश्व के भिन्न-भिन्न सागरों में खारेपन का विभाजन इस प्रकार है-

खारेपन का विभाजन-कई भौगोलिक तत्त्वों के कारण भिन्न-भिन्न सागरों में खारेपन की मात्रा में भिन्नता पाई जाती है-

1. खुले महासागरों में खारापन (Salinity in Open Seas)-

(i) भूमध्य रेखा के आस-पास के क्षेत्र (Near the Equator)—इन सागरों में औसत खारापन कम है, जोकि प्रति हजार ग्राम पानी में लगभग 34 ग्राम है।
कारण (Causes)

  • अधिक वर्षा का होना।
  • अमेज़न और कांगो जैसी बड़ी-बड़ी नदियों से ताज़े जल की प्राप्ति।

(ii) कर्क और मकर रेखा के निकट (Near the Tropics)—यहाँ खारेपन की मात्रा सबसे अधिक है, जोकि 36% है।
कारण (Causes)-

  • अधिक वाष्पीकरण का होना।
  • वर्षा का कम होना।
  • बड़ी नदियों की कमी होना।

(iii) ध्रुवीय क्षेत्र (Polar Areas)-इन क्षेत्रों में खारेपन की मात्रा 20 से 30 ग्राम प्रति हज़ार होती है।
GARUT (Causes) –

  • कम तापमान के कारण कम वाष्पीकरण का होना।
  • पश्चिमी पवनों द्वारा अधिक वर्षा का होना।
  • बर्फ के पिघलने से ताज़े जल की प्राप्ति होना।

2. घिरे हुए समुद्रों में खारापन (Salinity in Enclosed Seas)-इन सागरों के खारेपन में काफी अंतर पाया जाता है। जैसे-

  • भूमध्य सागर में जिब्रालटर के निकट खारेपन की मात्रा 37 ग्राम प्रति हज़ार से 39 ग्राम प्रति हज़ार होती है। अधिक खारापन शुष्क गर्म ऋतु, अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण होता है।
  • लाल सागर में 39 ग्राम प्रति हज़ार, खाड़ी स्वेज़ 41 ग्राम प्रति हज़ार और खाड़ी फारस में 38 ग्राम प्रति हज़ार खारेपन की मात्रा पाई जाती है।
  • काला सागर में 17 ग्राम प्रति हजार और इज़ेव सागर में 18 ग्राम प्रति हज़ार खारेपन की मात्रा है। बाल्टिक सागर में यह केवल 8 ग्राम प्रति हज़ार है।

कारण (Causes)-

  • यहाँ वाष्पीकरण कम है।
  • बड़ी-बड़ी नदियों का पानी साफ है।
  • हिम के पिघलने से भी अधिक जल की प्राप्ति होती है।

3. झीलों और आंतरिक सागरों में (Lakes and Inland Seas)-झीलों और आंतरिक सागरों में खारेपन की मात्रा इनमें गिरने वाली नदियों, वाष्पीकरण की मात्रा और स्थिति के कारण भिन्न-भिन्न है। समुद्रों में नदियों के गिरने से ताज़ा जल अधिक हो जाता है और खारेपन की मात्रा कम हो जाती है। अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है, जिससे खारापन अधिक हो जाता है। कैस्पियन सागर के उतरी भाग में खारेपन की मात्रा 14 ग्राम प्रति हज़ार है, परंतु दक्षिणी भाग में यह मात्रा 170 ग्राम प्रति हज़ार है। संयुक्त राज्य अमेरिका की साल्ट झील में खारेपन की मात्रा 220 ग्राम प्रति हज़ार है। जॉर्डन में मृत सागर (Dead Sea) में खारेपन की मात्रा 238 ग्राम प्रति हज़ार है। तुर्की की वैन झील (Van Lake) में खारेपन की मात्रा 330 ग्राम प्रति हज़ार है। यहाँ अधिक खारापन अधिक वाष्पीकरण और नदियों की कमी के कारण होता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर

प्रश्न 6.
महासागरों में तापमान के क्षितिजीय विभाजन का वर्णन करें।
उत्तर-
महासागरीय जल में तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-अर्ध-खुले सागरों और खुले सागरों के तापमान में भिन्नता होती है। इसका कारण यह है कि अर्ध खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव पड़ता है।

(क) महासागरों में जल पर तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Ocean Water)-महासागरों में जल-तल (Water-surface) के तापमान का क्षैतिज विभाजन नीचे लिखे अनुसार है :

  • भूमध्य रेखीय भागों के जल का तापमान 26° सैल्सियस, ध्रुवीय क्षेत्रों में 0° सैल्सियस से -5° (minus five degree) सैल्सियस और 20°, 40° और 60° अक्षांशों के तापमान क्रमशः 23°, 14° और 1° सैल्सियस रहता है। इस प्रकार भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर महासागरीय जल का क्षैतिज तापमान कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की किरणें लंब और ध्रुवों की ओर तिरछी पड़ती हैं।
  • ऋतु परिवर्तन के साथ महासागरों के ऊपरी तल के तापमान में परिवर्तन आ जाता है। गर्मी की ऋतु में दिन लंबे होने के कारण तापमान ऊँचा और सर्दी की ऋतु में दिन छोटे होने के कारण तापमान कम रहता है।
  • स्थल की तुलना में जल देरी से गर्म और देरी से ही ठंडा होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में जल की तुलना में स्थल अधिक है और दक्षिणी गोलार्द्ध में जल का क्षेत्र अधिक है। इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध में समुद्री जल का तापमान स्थलीय प्रभाव के कारण ऊँचा रहता है। इसकी तुलना में जल की अधिकता के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध में तापमान कम रहता है।

3. अर्ध-खले सागरों में जल के तापमान का क्षैतिज विभाजन (Horizontal Distribution of Temperature in Partially Enclosed Seas) अर्ध-खुले सागरों के तापमान पर निकटवर्ती स्थलखंडों का प्रभाव अधिक पड़ता है।

(i) लाल सागर और फारस की खाड़ी (Red Sea and Persian Gulf)—ये दोनों अर्ध-खुले सागर हैं, जो संकरे जल संयोजकों (Straits) द्वारा हिंद महासागर से मिले हुए हैं। इन दोनों के चारों ओर मरुस्थल हैं, जिनके प्रभाव से तापमान उच्च, क्रमश: 32° से० और 34° से० रहता है। विश्व में सागरीय तल का अधिक-सेअधिक तापमान 34° से० है, जोकि फारस की खाड़ी में पाया जाता है।

कुछ सागरों के जल का तापमान-

सागर — तापमान
लाल सागर — 32°C.
खाड़ी फारस –34°C.
बाल्टिक सागर –10°C.
उत्तरी सागर –17°C.
प्रशांत महासागर –19.1°C.
हिंद महासागर –17.0°C.
अंध महासागर — 16.9°C.

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 6

(ii) बाल्टिक सागर (Baltic Sea)-इस सागर में तापमान कम रहता है और शीत ऋतु में यह बर्फ में बदल जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह शीत प्रदेशों से घिरा हुआ है, जोकि सर्दियों में बर्फ से ढके रहते हैं। इसकी तुलना में निकट का विस्तृत उत्तर सागर (North Sea) कभी भी नहीं जमता। इसका कारण यह है कि एक तो यह खुला सागर है और दूसरा अंध महासागर की तुलना में गर्म जलं इसमें बेरोक प्रवेश करता है।

(iii) भूमध्य सागर या रोम सागर (Mediterranean Sea)—यह भी एक अर्ध-खुला समुद्र है, जो जिब्राल्टर (Gibraltar) जल संयोजक द्वारा अंध महासागर से जुड़ा हुआ है। इसका तापमान उच्च रहता है क्योंकि इसके दक्षिण और पूर्व की ओर मरुस्थल हैं। दूसरा, इस जल संयोजक की ऊँची कटक महासागर के जल को इस सागर में बहने से रोकती है।

महासागरीय जल में ताप का लंबवर्ती विभाजन-(Vertical Distribution of Temperature of Ocean Water)-सूर्य का ताप सबसे पहले महासागरीय तल का जल प्राप्त करता है और सबसे ऊपरी परत गर्म होती है। सूर्य के ताप की किरणें ज्यों-ज्यों गहराई में जाती हैं, तो बिखराव (Scattering), परावर्तन (Reflection) और प्रसारण (Diffusion) के कारण उनकी ताप-शक्ति नष्ट हो जाती है। इस प्रकार तल के नीचे के पानी का तापमान गहराई के साथ कम होता जाता है।

महासागरीय जल का तापमान-
गहराई के अनुसार (According to Depth)-

गहराई (Depth) मीटर — तापमान (°C)
200 — 15.9°C
400 —  10.0°C
1000 — 4.5°C
2000 — 2.3°C
3000 — 1.8°C
4400 — 1.7°C

1. महासागरीय जल का तापमान गहराई बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है। इसका कारण यह है कि सूर्य की किरणें अपना प्रभाव महाद्वीपीय बढ़ौतरी की अधिकतम गहराई भाव 183 मीटर (100 फैदम) तक ही डाल सकती हैं।

2. महाद्वीपीय तट के नीचे महासागरों में तापमान अधिक कम होता है परंतु अर्ध-खुले सागरों में तापमान जल संयोजकों की कटक तक ही गिरता है और इससे आगे कम नहीं होता।

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हिंद महासागर के ऊपरी तल और लाल सागर के ऊपरी तल का तापमान लगभग समान (27°C) होता है। इन दोनों के बीच बाब-अल-मेंडर जल संयोजक की कटक है। उस गहराई तक दोनों में तापमान एक समान कम होता है क्योंकि इस गहराई तक हिंद महासागर का जल लाल सागर में प्रवेश करता रहता है। परंतु इससे अधिक गहराई पर लाल सागर का तापमान कम नहीं होता, जबकि हिंद महासागर में यह निरंतर कम होता रहता है।

3. गहराई के साथ तापमान कम होने की दर सभी गहराइयों में एक समान नहीं होती। लगभग 100 मीटर की गहराई तक जल का तापमान निकटवर्ती धरातलीय तापमान के लगभग बराबर होता है। धरातल से 1000 से 1800 मीटर की गहराई पर तापमान लगभग 15° से कम होकर लगभग 2°C रह जाता है। 4000 मीटर की गहराई पर तापमान कम होकर 1.6°C रह जाता है। महासागरों में किसी भी गहराई पर तापमान 1°C से कम नहीं होता। यद्यपि ध्रुवीय महासागरों की ऊपरी परत जम जाती है, पर निचला पानी कभी नहीं जमता। इसी कारण मछलियाँ और अन्य जीव-जन्तु निचले जल में मरते नहीं।

प्रश्न 7.
महासागरीय जल में खारेपन के कारण और महत्ता बताएँ।
उत्तर-
महासागरीय जल में खारापन (Salinity of Ocean Water)-
महासागरीय जल सदा खारा होता है, परंतु यह कहीं कम खारा और कहीं अधिक खारा होता है। सागर के इस खारेपन को ही महासागरीय खार या जल की लवणता कहा जाता है। यह खारापन महासागरीय जल में पाए जाने वाले नमक के कारण होता है। प्रसिद्ध सागर वैज्ञानिक मरे (Murray) के अनुसार प्रति घन किलोमीटर जल में 4/4 करोड़ टन नमक होता है। यदि महासागरीय जल के कुल नमक को बिछाया जाए, तो संपूर्ण पृथ्वी पर लगभग 150 मीटर मोटी परत बन जाएगी।

महासागरों का औसत खारापन (Average Salinity of Ocean)-
खुले महासागरों के जल में पाए जाने वाले लवणों के घोल को खारापन कहते हैं। (The total Salt Content of Oceans is Called Salinity.) । सागरीय जल का औसत खारापन 35 ग्राम प्रति हजार अर्थात् 35% होता है। खुले महासागरों में 1000 ग्राम जल में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। ऐसे जल के खारेपन को 35 ग्राम प्रति हज़ार (Thirty five per thousand) कहा जाता है क्योंकि खारेपन को प्रति हज़ार ग्राम में ही दर्शाया जाता है।

महासागरों में खारेपन के कारण (Origin of Salinity in the Ocean)-
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब महासागरों की रचना हुई तो उस समय पृथ्वी के अधिकतर नमक इस जल में घुल गए। इसके बाद स्थलों से आने वाली अनगिनत नदियाँ अपने साथ घोल के रूप में नमक महासागरों में निक्षेप कर रही हैं, जिससे महासागरों में खारेपन की वृद्धि होती रही है। वाष्पीकरण द्वारा महासागरों का ताज़ा जल वायुमंडल में मिलकर वर्षा का कारण बनता है। यह वर्षा नदियों के रूप में स्थल पर नमक प्रवाहित करके महासागरों में पहुँचाती है।

सागरीय जल के नमक (Salts of Ocean)-
सागरीय जल में पाए जाने वाले नमक इस प्रकार हैं–

(i) सोडियम क्लोराइड — 77.8 प्रतिशत
(ii) मैग्नीशियम क्लोराइड — 10.9 प्रतिशत
(iii) मैग्नीश्यिम सल्फेट — 4.7 प्रतिशत
(iv) कैल्शियम सल्फेट — 3.6 प्रतिशत
(v) पोटाशियम सल्फेट — 2.5 प्रतिशत
(vi) कैल्शियम कार्बोनेट — 0.3 प्रतिशत
(vii) मैग्नीशियम ब्रोमाइड — 0.2 प्रतिशत

खारेपन का महत्त्व (Importance of Salinity) –
समुद्री जल के खारेपन का महत्त्व नीचे लिखे अनुसार है-

  • समुद्र में खारेपन की भिन्नता के कारण धाराएँ उत्पन्न होती हैं; जो निकटवर्ती क्षेत्रों में जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • समुद्री जल में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट नमक समुद्री जीव-जंतुओं विशेषकर मूंगा (Coral) और पंक (Ooze) का ज़ोन है, जिससे इनकी हड्डियाँ और पिंजर बनते हैं।
  • खारेपन के कारण धरती पर वनस्पति उगती है।
  • लवण ठंडे महासागरों को जमने नहीं देते और जीव-जंतु विशेष रूप से बहुमूल्य मछलियाँ नहीं मरती और जल परिवहन चालू रहता है।
  • खारेपन के कारण जल का घनत्व बढ़ जाता है, इसीलिए जहाज़ तैरते हैं।

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प्रश्न 8.
समुद्री तरंगों की रचना और किस्मों का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्री तरंगें या लहरें (Sea Waves)—पवनों के प्रभाव के कारण समुद्री तल के किसी भाग में जल ऊँचा और किसी भाग में नीचा होता है। इस क्रिया को लहर कहते हैं। लहरों के कारण जल आगे को नहीं बढ़ता, बल्कि अपने स्थान पर ही ऊँचा-नीचा और आगे-पीछे होता रहता है। लहर के ऊपर उठे भाग को तरंग शिखर (Crest) और निचले भाग को तरंग गर्त (Trough) कहते हैं। एक शिखर से दूसरे शिखर तक और एक गर्त से दूसरे गर्त तक की लंबाई को Wave Length कहा जाता है। गर्त और शिखर के बीच की दूरी को लहर की ऊँचाई (Amplitude of Wave) कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 9 महासागर 15

लहर की किस्में (Types of Waves) –
पवनों द्वारा उत्पन्न महासागरीय जल की तरंगें तीन किस्म की होती हैं-

  1. सी
  2. स्वैल
  3. सरफ।

1. सी (Sea)—पवनों के घर्षण से कई बार एक ही समय में विभिन्न लंबाई (Wave Length) वाली और विभिन्न दिशाओं में बढ़ने वाली तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ‘सी’ (Sea) कहकर पुकारा जाता है।

2. महातरंग या स्वैल (Swell)-जब सी नामक अनियमित तरंगें महासागरीय जल-तल को उथल-पुथल करने वाली पवनों के प्रभाव से मुक्त होकर नियमित रूप में तरंग शिखर और तरंग गर्त की श्रृंखला में बढ़ती हैं, तो इन्हें महातरंग या स्वैल कहा जाता है।

3. सरफ (Surf)-जब महातरंग या स्वैल तट के निकट गहरे पानी (Deep Water) में पहुँचती है, तो इसके तरंग शिखर आपस में मिलकर ऊँचे हो जाते हैं, तरंग शिखर आगे की ओर झुक जाता है और टूट जाता है। तब इन्हें ब्रेकर या भंग-तरंग (Breaker) कहते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
अन्तर्विवाह से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
वह विवाह जिसमें व्यक्ति को एक निश्चित समूह, जाति या उपजाति के अंदर ही विवाह करवाना पड़े, अन्तर्विवाह होता है।

प्रश्न 2.
विवाह संस्था की उत्पत्ति के कोई दो महत्त्वपूर्ण आधार बताइये।
उत्तर-
शारीरिक आवश्यकता, भावात्मक आवश्यकता, समाज को आगे बढ़ाना तथा बच्चों का पालन-पोषण करके विवाह की संस्था सामने आयी।

प्रश्न 3.
एक विवाह किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब एक पुरुष का एक समय में एक स्त्री के साथ विवाह होता है तो इसे एक विवाह का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 4.
साली विवाह किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब एक व्यक्ति अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् उसकी बहन से विवाह कर लेता है तो उसे साली विवाह कहते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 5.
बहुपति विवाह के प्रकार बताइये।
उत्तर-
यह दो प्रकार का होता है-भातृ बहुपति विवाह जिसमें स्त्री के सभी पति भाई होते हैं तथा अभ्रातृ बहुपति विवाह जिसमें स्त्री के सभी पति भाई नहीं होते।

प्रश्न 6.
बहुपत्नी विवाह के प्रकार बताइये।
उत्तर-
यह दो प्रकार का होता है-द्वि-पत्नी विवाह जिसमें एक व्यक्ति की दो पत्नियाँ होती हैं तथा बहुपत्नी विवाह जिसमें व्यक्ति की कई पत्नियाँ होती हैं।

प्रश्न 7.
अन्तर्विवाह के कुछ उदाहरण दीजिए।
उत्तर-
मुसलमानों में शिया तथा सुन्नी अन्तर्वैवाहिक समूह हैं। ईसाइयों में रोमन कैथोलिक तथा प्रोटैस्टैंट अन्तर्वैवाहिक समूह है।

प्रश्न 8.
विवाह को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
लुण्डबर्ग के अनुसार, “विवाह के नियम तथा तौर-तरीके होते हैं जो पति पत्नी के एक-दूसरे के प्रति अधिकारों, कर्तव्यों तथा विशेष अधिकारों का वर्णन करते हैं।”

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 9.
परिवार के दो प्रकार्य बताइये।
उत्तर-

  1. परिवार बच्चों का समाजीकरण करता है।
  2. परिवार बच्चे को सम्पत्ति प्रदान करता है।

प्रश्न 10.
आकार के आधार पर परिवार के स्वरूपों के नाम लिखिए।
उत्तर-
आकार के आधार पर परिवार के तीन प्रकार होते हैं-केन्द्रीय परिवार, संयुक्त परिवार तथा विस्तृत परिवार।

प्रश्न 11.
सत्ता के आधार पर परिवार के स्वरूपों के नाम लिखिए।
उत्तर-
सत्ता के आधार पर परिवार के दो प्रकार होते हैं-पितृसत्तात्मक व मातृसत्तात्मक।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 12.
वैवाहिक सम्बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वह नातेदारी जो विवाह के पश्चात् बनती है, उसे वैवाहिक नातेदारी कहते हैं। उदाहरण के लिए सास, ससुर, जमाई, बहू इत्यादि।

प्रश्न 13.
संयुक्त परिवार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
वह परिवार जिसमें दो से अधिक पीढ़ियों के लोग रहते हैं तथा एक रसोई में खाना खाते हैं, संयुक्त परिवार होता है।

प्रश्न 14.
नातेदारी से आप क्या समझते हैं ? .
उत्तर-
नातेदारी में वह संबंध शामिल होते हैं जो काल्पनिक या वास्तविक वंश परम्परागत बन्धनों पर आधारित तथा समाज द्वारा प्रभावित होते हों।

प्रश्न 15.
नातेदारी के प्रकार बताइये।
उत्तर-
नातेदारी दो प्रकार की होती है :- वैवाहिक तथा रक्त संबंधी।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
संस्था शब्द से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संस्था न तो लोगों का समूह है तथा न ही संगठन है। संस्था तो किसी कार्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिमापों की व्यवस्था है। संस्था तो किसी विशेष महत्त्वपूर्ण मानवीय क्रियाओं के इर्द-गिर्द केन्द्रित रूढ़ियों तथा लोक रीतियों का गुच्छा है। संस्थाएं तो संरचित प्रक्रियाएं हैं जिसके द्वारा व्यक्ति अपने कार्य करता है।

प्रश्न 2.
अधिमान्य नियम किसे कहते हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक संस्था के कुछ अधिमान्य नियम होते हैं जिन्हें सबको मानना पड़ता है। उदाहरण के लिए विवाह एक ऐसी संस्था है जो पति-पत्नी के बीच संबंधों को नियमित करती है। इस प्रकार शैक्षिक संस्थाओं के रूप में स्कूल तथा कॉलेज के अपने-अपने नियम तथा कार्य करने के तौर-तरीके होते हैं।

प्रश्न 3.
अनुलोम तथा प्रतिलोम क्या है ?
उत्तर-

  • अनुलोम-यह एक प्रकार का सामाजिक नियम है जिसके अनुसार उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से विवाह कर सकता है।
  • प्रतिलोम-यह एक प्रकार का विवाह है जिसमें निम्न जाति का लड़का उच्च जाति की लड़की से विवाह करता है। इस प्रकार के विवाह को मान्यता नहीं मिलती है।

प्रश्न 4.
बहुविवाह के दो प्रकारों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-

  1. बहपति विवाह-इस प्रकार के विवाह में एक स्त्री के कई पति होते हैं तथा इसके दो प्रकार होते हैं। भ्रातृ बहुपति विवाह जिसमें सभी पति भाई होते हैं तथा गैर-भ्रातृ बहुपति विवाह जिसमें सभी पति भाई नहीं होते।
  2. बहुपत्नी विवाह-इस प्रकार के विवाह में एक पति की एक समय में कई पत्नियाँ होती हैं।

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प्रश्न 5.
भ्रातृत्व बहपति विवाह किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इस प्रकार के विवाह में एक पत्नी के कई पति होते हैं तथा वह सभी आपस में भाई होते हैं। बच्चों का पिता बड़े भाई को माना जाता है तथा पत्नी से संबंध बनाने से पहले बड़े भाई की आज्ञा लेनी पड़ती है।

प्रश्न 6.
निकटाभिगमन निषेध की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
निकटाभिगमन निषेध का अर्थ है शारीरिक अथवा वैवाहिक संबंध उन दो व्यक्तियों के बीच एक-दूसरे के साथ रक्त संबंधित हैं अथवा एक परिवार से संबंध रखते हैं। इस प्रकार के संबंध सभी मानवीय समाजों में वर्जित हैं। किसी भी संस्कृति में रक्त संबंधियों के बीच किसी प्रकार के लैंगिक संबंधों की आज्ञा नहीं होती है।

प्रश्न 7.
गोत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर-
गोत्र रिश्तेदारों का समूह होता है जो किसी साझे पूर्वज की एक रेखीय संतान होते हैं। पूर्वज साधारणतया कल्पित ही होते हैं क्योंकि उनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता। यह बहिर्वैवाहिक समूह होते हैं। यह वंश समूह का ही विस्तृत रूप है जोकि माता या पिता के अनुरेखित रक्त संबंधियों से बनता है।

प्रश्न 8.
सलिंग तथा विलिंग सहोदर विवाह के मध्य अन्तर कीजिए।
उत्तर-

  • सलिंग विवाह एक प्रकार का विवाह है जिसमें दो भाइयों या दो बहनों के बच्चों का विवाह कर दिया जाता है। मुसलमानों में यह विवाह प्रचलित है।
  • विलिंग सहोदर विवाह में व्यक्ति के मामा की बेटी या बुआ की लड़की के साथ विवाह हो जाता है। इस प्रकार के विवाह गोंड, उराओं तथा खड़िया जनजातियों में प्रचलित हैं।

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प्रश्न 9.
निकटता तथा दूरी के आधार पर नातेदारी को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
निकटता तथा दूरी के आधार पर तीन प्रकार की नातेदारी होती है-

  • प्राथमिक रिश्तेदार-वह रिश्तेदार जिनके साथ हमारा सीधा तथा नज़दीक का रक्त संबंध होता है जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन।
  • द्वितीय रिश्तेदार-यह हमारे प्राथमिक रिश्तेदारों के प्राथमिक रिश्तेदार होते हैं जैसे कि पिता के पितादादा।
  • तृतीय रिश्तेदार-वह रिश्तेदार जो हमारे द्वितीय संबंधियों के प्राथमिक रिश्तेदार होते हैं जैसे कि चाचा की पत्नी-चाची।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्थाओं पर संक्षेप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
1. विवाह-विवाह सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसकी सहायता से व्यक्ति को अपनी पत्नी के साथ संबंध बनाने तथा बच्चे पैदा करने की आज्ञा होती है। विवाह के बाद ही परिवार का निर्माण होता है।

2. परिवार-जब व्यक्ति विवाह करता है तथा बच्चे पैदा करता है तो परिवार का निर्माण होता है। परिवार ही व्यक्ति को जीवन जीने के तरीके सिखाता है तथा उसे समाज में रहने के तरीके सिखाता है।

3. नातेदारी-नातेदारी रिश्तेदारों की व्यवस्था है जिसमें रक्त संबंधी व वैवाहिक संबंधी रिश्तेदार शामिल होते हैं। रिश्तेदारी के बिना व्यक्ति जीवन जी नहीं सकता है।

प्रश्न 2.
विवाह की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-

  • विवाह एक सर्वव्यापक संस्था है जो प्रत्येक समाज में पाई जाती है।
  • विवाह लैंगिक संबंधों को सीमित तथा नियन्त्रित करता है।
  • विवाह से व्यक्ति के लैंगिक संबंधों को सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है।
  • विवाह से स्त्री व पुरुष को सामाजिक स्थिति प्राप्त हो जाती है।
  • अलग-अलग समाजों में अलग-अलग प्रकार के विवाह होते हैं।
  • इसकी सहायता से धार्मिक रीति-रिवाजों को सुरक्षित रखा जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 3.
विवाह के स्वरूपों के रूप में एक विवाह तथा बहविवाह के बीच विवाह के मध्य अंतर कीजिए।
उत्तर-
1. एक विवाह-आजकल के समय में एक विवाह का प्रचलन सबसे अधिक है। इस प्रकार के विवाह में एक पुरुष एक समय में एक ही स्त्री से विवाह करवा सकता है। इसमें एक पति या पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह ग़ैर-कानूनी है। पति-पत्नी के संबंध गहरे, स्थायी तथा प्यार से भरपूर होते हैं।

2. बहुविवाह-बहुविवाह का अर्थ है एक से अधिक विवाह करवाना। अगर एक स्त्री या पुरुष एक से अधिक विवाह करवाए तो इसे बहुविवाह कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-बहुपत्नी विवाह तथा बहुपति विवाह । बहुपति विवाह दो प्रकार का होता है-भ्रातृ बहुपति विवाह तथा गैर-भ्रातृ बहुपति विवाह।

प्रश्न 4.
परिवार के प्रकार्यों को समझाइये।
उत्तर-

  • परिवार में बच्चे का समाजीकरण होता है। परिवार में व्यक्ति समाज में रहने के तौर-तरीके सीख़ता है तथा अच्छा नागरिक बनता है।
  • परिवार हमारी संस्कृति को संभालता है। प्रत्येक परिवार अपने बच्चों को संस्कृति देता है जिससे संस्कृति का पीढ़ी दर पीढ़ी संचार होता रहता है।
  • परिवार में व्यक्ति की संपत्ति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच जाती है तथा इससे व्यक्ति के जीवन भर की कमाई सुरक्षित रह जाती है।
  • पैसे की आवश्यकता व्यक्ति की आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए होती हैं तथा इस कारण ही परिवार पैसे का भी प्रबन्ध करता है।
  • परिवार व्यक्ति के ऊपर नियन्त्रण रखता है ताकि वह गलत रास्ते पर न जाए।

प्रश्न 5.
(अ) अनुलोम (ब) प्रतिलोम (स) लेवीरेट/ देवर विवाह (द) सोरोरेट/साली विवाह जैसी अवधारणाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
(अ) अनुलोम-यह एक प्रकार का सामाजिक नियम है जिसके अनुसार उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से विवाह कर सकता है।
प्रतिलोम-यह एक प्रकार का विवाह है जिसमें निम्न जाति का लड़का उच्च जाति की लड़की से विवाह करता है। इस प्रकार के विवाह को मान्यता नहीं मिलती है।

(ब) अनुलोम-यह एक प्रकार का सामाजिक नियम है जिसके अनुसार उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से विवाह कर सकता है।
प्रतिलोम-यह एक प्रकार का विवाह है जिसमें निम्न जाति का लड़का उच्च जाति की लड़की से विवाह करता है। इस प्रकार के विवाह को मान्यता नहीं मिलती है।

(स) देवर विवाह-विवाह की इस प्रथा में पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी पति के छोटे भाई से विवाह कर लेती है। इससे परिवार की जायदाद सुरक्षित रह जाती है तथा परिवार टूटने से बच जाता है। बच्चों का पालन-पोषण ठीक ढंग से हो जाता है।

(द) साली विवाह-इस विवाह में पुरुष अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् अपनी साली से विवाह करवा लेता है। यह दो प्रकार का होता है-सीमित साली विवाह तथा समकालीन साली विवाह।

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IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
संस्था से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताएं बताइये।
उत्तर-
संस्था का अर्थ (Meaning of Institution)-हम अपने जीवन में हजारों बार इस संस्था शब्द का प्रयोग करते हैं। एक आम इन्सान की नज़र में संस्था का अर्थ किसी इमारत (Building) तक ही सीमित रहता है जबकि एक समाज शास्त्री की नज़र में इसका अर्थ किसी इमारत या लोगों के समूह से नहीं लिया जाता। समाज शास्त्री तो संस्था का अर्थ विस्तृत शब्दों में तथा समाज के अनुसार करते हैं। इनके अनुसार एक संस्था नियमों तथा परिमापों की व्यवस्था है जो मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में मदद करती हैं। इस तरह संस्था तो व्यक्तियों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए रूढ़ियों तथा लोक रीतियों का समूह है। यह तो वह प्रक्रिया है जिनकी मदद से व्यक्ति अपने कार्य करता है। संस्था तो सम्बन्धों की वह संगठित व्यवस्था है जिसमें समाज की कीमतें शामिल होती हैं तथा जो समाज की आवश्यकताओं को पूरा करती है। इसका कार्य मनुष्य की आवश्यताओं को पूरा करना होता है तथा मनुष्य के कार्य तथा व्यवहारों को पूरा करना होता है। इसमें पदों तथा भूमिकाओं का भी जाल होता है तथा इन्हें विभाजित किया जाता है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि संस्था मनुष्य की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कार्यविधियां, व्यवस्थाओं तथा नियमों का संगठन है। मनुष्य को अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए अनेक समूहों का सदस्य बनना पड़ता है। हर समूह में अपने सदस्यों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बहुत कोशिशें होती रहती हैं। बहुत-सी सफल तथा असफल कोशिशों के बाद समूह अपने सदस्य की ज़रूरतों को पूरा करने के तरीके ढूंढ लेता है तथा समूह के सभी सदस्य इन तरीकों को मान लेते हैं। इस तरह समूह के सभी नहीं तो ज्यादातर सदस्य इनको मान लेते हैं। इस तरह समाज में कुछ विशेष हालातों के लिए कुछ विशेष प्रकार के तरीके निर्धारित हो जाते हैं तथा इन तरीकों के विरुद्ध काम करना ठीक नहीं समझा जाता। इस तरह मनुष्यों की विशेष आवश्यकताओं को पूरा करना तथा सभी के द्वारा मान्यता प्राप्त कार्यविधियों को संस्था कहते हैं।

परिभाषाएं (Definitions) –

  • मैरिल तथा एलडरिज़ (Meril and Eldridge) के अनुसार, “सामाजिक संस्थाएं सामाजिक प्रतिमान हैं जोकि मनुष्य प्राणियों के अपने मौलिक कार्यों को करने में व्यवस्थित व्यवहार को स्थापित करती है।”
  • एलवुड (Elwood) के अनुसार, “संस्था इकट्ठे मिलकर रहने के प्रतिमानित तरीके हैं जो समुदाय की सत्ता द्वारा स्वीकृत, व्यवस्थित तथा स्थापित किए गए हों।”
  • सुदरलैंड (Sutherland) के अनुसार, “समाजशास्त्रीय भाषा में संस्था उन लोक रीतों तथा रूढ़ियों का समूह है जो मनुष्यों के उद्देश्यों या लक्षणों को प्राप्ति में केन्द्रित हो जाता है।”

इस तरह उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्था का विकास किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही हुआ है। इसलिए यह रीति-रिवाजों, परिमापों, नियमों, कीमतों आदि का भी समूह है। समनर (sumner) ने अपनी पुस्तक “Folkways” में, सामाजिक संरचना को भी संस्था में शामिल कर लिया है। संस्था व्यक्ति को व्यक्तिगत व्यवहार के तरीके पेश करती है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि संस्था क्रियाओं का वह संगठन होता है, जिसे समाज किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वीकार कर लेता है। समाज में अलगअलग सभाएं पाई जाती हैं तथा हर एक सभा की अपनी ही संस्था होती है, जिसके द्वारा वह अपने उद्देश्य की पूर्ति कर लेती है। उदाहरण के लिए राज्य की संस्था सरकार होती है। यह संस्थाएं व्यक्तियों को आपस में बाँध कर रखती हैं।

संस्था की विशेषताएं (Characteristics of Institution) –

1. यह सांस्कृतिक तत्त्वों से बनती है (It is made up of cultural things)-समाज में संस्कृति के जो तत्त्व मौजूद होते हैं जैसे रूढ़ियों, लोकरीतियों, परिमाप, प्रतीमान के संगठन को संस्था कहते हैं। एक समाज शास्त्री ने तो इसे प्रथाओं का गुच्छा कहा है। जब समाज में मिलने वाली प्रथाएं रीति-रिवाज, लोकरीतियां, रूढियां संगठित हो जाती हैं तथा एक व्यवस्था का रूप धारण कर लेती हैं तो यह संस्था है। इस तरह व्यवस्था संस्कृति में मिलने वाले तत्त्वों से बनती है तथा यह फिर मनुष्य की अलग-अलग आवश्यकताओं को पूरा करती है।

2. यह स्थायी होती है (It is Permanent) एक संस्था तब तक उपयोगी नहीं हो सकती जब तक वह ज्यादा समय तक लोगों की ज़रूरतों को पूरा न करे। अगर वह कम समय तक लोगों की आवश्यकता को पूरा करती है तो वह संस्था नहीं बल्कि सभा कहलाएगी। इस तरह संस्था अधिक समय तक लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि संस्था कभी भी अलोप हो सकती है। किसी भी संस्था मांग समय के अनुसार होती है। किसी विशेष समय में किसी संस्था की मांग कम भी हो सकती है तथा अधिक भी। अगर किसी समय में किसी संस्था की आवश्यकता नहीं होती या कोई संस्था अगर लोगों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती तो वह धीरे-धीरे अलोप हो जाती है।

3. इसके कुछ विशेष उद्देश्य होते हैं (It has some special motives or objectives)-जब भी संस्था का निर्माण होता है तो उसका कोई विशेष उद्देश्य होता है। संस्था को यह ज्ञान होता है कि अगर वह बन रही है तो उसके क्या उद्देश्य हैं। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्तियों की विशेष प्रकार की ज़रूरतों को पूरा करना है। इस तरह लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना ही इनका विशेष उद्देश्य होता है परन्तु फिर भी यह हो सकता है कि समय बदलने के साथ-साथ संस्था लोगों की आवश्यकताओं को पूरा न कर सके तो फिर इन स्थितियों में उसकी जगह कोई और संस्था उत्पन्न हो जाती है।

4. संस्कृति के उपकरण (Cultural Equipments)-संस्था के उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्कृति के भौतिक पक्ष का सहारा लिया जाता है, जैसे फर्नीचर, ईमारत इत्यादि। इनका रूप तथा व्यवहार दोनों ही निश्चित किए जाते हैं। इस तरह अगर संस्था को अपने उद्देश्य पूरे करने हैं तो उसे भौतिक संस्कृति से बहुत कुछ लेना पड़ता है। अभौतिक संस्कृति जैसे विचार, लोक रीतियां, रूढ़ियां इत्यादि तो पहले ही संस्था में रहते हैं।

5. अमूर्तता (Abstractness)—जैसे कि ऊपर बताया गया है कि संस्था का विकास लोक रीतियों, रूढ़ियों, रिवाजों के साथ होता है। ये सभी अभौतिक संस्कृति का ही भाग हैं तथा अभौतिक संस्कृति के इन पक्षों को हम देख नहीं सकते केवल महसूस कर सकते हैं। इस तरह संस्था में अमूर्त्तता का पक्ष शामिल होता है। इसे स्पर्श नहीं सकते केवल महसूस किया जा सकता है। संस्था किसी स्पर्श करने वाली वस्तुओं का संगठन नहीं बल्कि नियमों, कार्य प्रणालियों, लोक रीतों का संगठन है जोकि मनुष्य की ज़रूरत को पूरा करने के लिए विकसित होती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 2.
एक सामाजिक संस्था के रूप में विवाह पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
विवाह स्त्री व पुरुष का समाज की ओर से स्वीकृत मेल है जो नए गृहस्थ का निर्माण करता है। विवाह न केवल आदमी व औरत के सम्बन्धों को ही मान्यता प्रदान करता है बल्कि इससे अन्य सम्बन्धों को भी मान्यता मिलती है। विवाह का अर्थ केवल सम्भोग नहीं है बल्कि विवाह परिवार की नींव है। विवाह की सहायता से व्यक्ति लैंगिक सम्बन्धों में प्रवेश करता है, घर बसाता है व सन्तान पैदा करके उसका पालन-पोषण करता है।

विवाह का अर्थ (Meaning of Marriage)-साधारण शब्दों में विवाह से अर्थ केवल लिंग सम्बन्धों की पूर्ति तक ही लिया जाता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह अर्थ बिल्कुल ही अधूरा है। विवाह का अर्थ है कि उस संस्था में विरोधी लिंगों के मेल जिसके द्वारा परिवार का निर्माण हो व समाज के द्वारा स्वीकारा जाए अर्थात् विवाह की संस्था का अर्थ केवल लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति ही नहीं बल्कि सामाजिक स्वीकृति से भी जोड़ते हैं।

विवाह की परिभाषाएं (Definitions of Marriage) –
1. मजूमदार (Majumdar) के अनुसार, “विवाह पुरुष व स्त्री का सामाजिक तौर से स्वीकार किया हुआ मेल होता है या पुरुष व स्त्री के मेल और सम्भोग को मान्यता प्रदान करने के लिए समाज द्वारा निकाली एक प्रतिनिधि या गौण संस्था है जिसका उद्देश्य है-(1) घर की स्थापना (2) लैंगिक सम्बन्धों में प्रवेश (3) बच्चे पैदा करना (4) बच्चों का पालन-पोषण करना ।”

2. वैस्टर मार्क (Western Mark) के अनुसार, “विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों से होने वाला वह सम्बन्ध है, जो प्रथा या कानून द्वारा स्वीकार किया गया है जिसमें विवाह के दोनों पक्षों के और उनसे पैदा होने वाले बच्चों के अधिकार व कर्त्तव्य भी शामिल होते हैं।”

3. एण्डर्सन व पार्कर (Anderson and Parker) के अनुसार, “विवाह एक या ज्यादा पुरुषों व एक या अधिक स्त्रियों के बीच समाज द्वारा स्वीकारा स्थायी सम्बन्ध है, जिसमें पितृत्व हेतु सम्भोग की आज्ञा होती है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि विवाह की संस्था एक ऐसी संस्था है, जिसके ऊपर हमारे समाज की संरचना भी निर्भर करती है। आदमी व औरत के लैंगिक सम्बन्धों को नियमित करके ही हम बच्चों के पालन-पोषण पर ध्यान दे सकते हैं। इसी कारण इस संस्था को सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त होती है। जब यह लिंग सम्बन्ध समाज के द्वारा स्वीकारे बिना ही स्थापित हो जाएं तो हम उस विवाह को या उन सम्बन्धों को गैर-कानूनी करार दे देते हैं व पैदा हुए बच्चों के लिए भी ‘नाजायज़ बच्चा’ (illegal child) शब्द का प्रयोग करते हैं। इस कारण विवाह का अर्थ केवल लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति ही नहीं बल्कि व्यक्ति इस संस्था का सदस्य बन कर कई और तरह के काम करता है, जो समाज के विकास के लिए ज़रूरी होते हैं।

प्रश्न 3.
विवाह के विभिन्न प्रकारों अथवा स्वरूपों को विस्तार से समझाइये।
उत्तर-
प्रत्येक समाज अपने आप में दूसरे समाज से अलग है। प्रत्येक समाज के अपने-अपने नियम, परम्पराएं व संस्थाएं होती हैं व प्रत्येक समाज में अलग-अलग संस्थाओं के भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं। क्योंकि प्रत्येक समाज में इन प्रकारों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार बनाया जाता है। इस तरह विवाह नामक संस्था की अलगअलग समाजों में उनकी आवश्यकताओं के मुताबिक प्रकार किस्में या रूप हैं। इन रूपों का वर्णन निम्नलिखित है-

1. एक विवाह (Monogamy)-आजकल के आधुनिक युग में एक विवाह का प्रचलन अधिक है। इस तरह से विवाह में एक आदमी एक समय में एक ही औरत से विवाह करवा सकता है। एक पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह ग़ैर-कानूनी है। इसमें पति-पत्नी के सम्बन्ध अधिक स्थाई, गहरे, प्यार व हमदर्दी पूर्ण होते हैं। इसमें बच्चों का पालन-पोषण सही ढंग से हो सकता है और उन्हें माता-पिता का भरपूर प्यार मिलता है। इस तरह के विवाह में पति-पत्नी में पूरा तालमेल होता है जिससे परिवार में झगड़े होने की सम्भावना काफ़ी कम रहती है। किन्तु इस तरह के विवाह में कई समस्याएं भी हैं। पत्नी अथवा पति के अस्वस्थ होने पर सारे काम रुक जाते हैं व बच्चों की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया जा सकता।

2. बहु पति विवाह (Polyandry)- इसमें एक स्त्री के कई पति होते हैं। यह आगे दो प्रकार का होता है।

(i) भ्रातृ बहुपति विवाह (Fraternal Polyandry)-इस विवाह के अनुसार स्त्री के सारे पति आपस में भाई होते हैं पर कभी-कभी ये सगे भाई न होकर एक ही जाति के व्यक्ति भी होते हैं। इस विवाह की प्रथा में सबसे बड़ा भाई एक स्त्री से विवाह करता है और उसके सब भाई उस पर पत्नी के रूप में अधिकार मानते हैं व सारे उससे लैंगिक सम्बन्ध रखते हैं। यदि कोई छोटा भाई विवाह करता है तो उसकी पत्नी भी सब भाइयों की पत्नी होती है जितने बच्चे होते हैं वह सब बड़े भाई के माने जाते हैं व सम्पत्ति में अधिकार भी सबसे अधिक बड़े भाई या सबसे पहले पति का होता है। भारत में ये प्रथा मालाबार, पंजाब, नीलगिरि, लद्दाख, सिक्किम व आसाम में पाई जाती है।

(ii) गैर-भ्रातृ बहुपति विवाह (Non Fraternal Polyandry) बहुपति विवाह के इस प्रकार में एक स्त्री के पति आपस में भाई नहीं होते। यह सब पति भिन्न-भिन्न स्थान के रहने वाले होते हैं। ऐसे हालात में स्त्री निश्चित समय के लिए एक पति के पास रहती है व फिर दूसरे के पास व फिर तीसरे के पास। इस तरह सम्पूर्ण वर्ष वह अलग-अलग पतियों के पास जीवन व्यतीत करती है। जिस समय में एक स्त्री एक पति के पास रहती है उस समय दौरान दूसरे पतियों को उससे सम्बन्ध बनाने का अधिकार नहीं होता। बच्चा होने के पश्चात् कोई एक पति एक विशेष संस्कार से उसका पिता बन जाता है। वह गर्भावस्था में स्त्री को तीर कमान भेंट करता है व उसे बच्चे का पिता मान लिया जाता है। बारी-बारी सभी पतियों को ऐसा करने दिया जाता है।

3. बहु-पत्नी विवाह (Polygyny)-बहु-पत्नी विवाह की प्रथा भारतवर्ष में पुराने समय में प्रचलित थी। राजा और उसके बड़े-बड़े मन्त्री बहुत सी पत्नियों को रखा करते थे। उस समय राजा के स्तर का अनुमान उसके द्वारा रखी गयी पत्नियों से होता था। मध्यकाल में भी मुग़ल वंशों में बहुत-सी पत्नियां रखने की प्रथा प्रचलित थी और अब भी मुसलमानों में चार विवाहों की प्रथा प्रचलित है। पुरुष की लैंगिक इच्छा को पूरा करने और परिवार की इच्छा को पूरा करने के कारण विवाह की इस प्रथा को अपनाया गया। इस प्रथा से समाज में बहुत सी समस्याएं पैदा हो गयी हैं और समाज में स्त्री को निम्न स्तर प्राप्त होता है।

4. साली विवाह (Sarorate-Marriage)—इस विवाह में पुरुष अपनी पत्नी की बहन के साथ विवाह करता है। साली के साथ विवाह दो तरह का होता है। साली विवाह में पुरुष अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी बहन के साथ विवाह करता है। समकाली साली विवाह में पति अपनी पत्नी की सभी छोटी बहनों को अपनी पत्नी जैसा समझ लेता है। विवाह की इस पहली प्रथा का प्रचलन दूसरी प्रथा से अधिक प्रचलित है। इस प्रथा में परिवार के टूटने की शंका नहीं रहती और बच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह से हो जाता है।

5. देवर विवाह (Levirate Marriage)-विवाह की इस प्रथा के अनुसार पत्नी अपने पति की मौत के बाद पति के छोटे भाई से विवाह करती है। इस प्रथा के कारण ही एक तो घर की जायदाद सुरक्षित रहती है और दूसरा परिवार भी टूटने से बच जाता है, तीसरा बच्चों का पालन-पोषण ठीक ढंग से हो जाता है। इस प्रथा के अनुसार लड़के के माता-पिता को लड़की के माता-पिता का मूल्य वापिस नहीं करना पड़ता।

6. प्रेम विवाह (Love Marriage)-आधुनिक समाज में प्रेम विवाह का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। इस विवाह में लड़का और लड़की में कॉलेज में पढ़ते हुए या इकट्ठे दफ्तर में नौकरी करते हुए पहली नज़र में ही प्यार हो जाता है। उनमें आपस की मुलाकातों का सिलसिला आरम्भ हो जाता है। वह दोनों होटल, सिनेमा, पार्क आदि में मिलते रहते हैं। वह सच्चे प्यार और आपस में जीने मरने की कसमें खाते हैं। समाज उनको विवाह करने से रोकता है और उनके रास्ते में कई तरह की समस्याएं खड़ी करने की कोशिश की जाती है पर वह दोनों अपने फैसले पर अटल रहते हैं। यदि लड़का और लड़की के माता-पिता उनके विवाह को इजाजत नहीं देते हैं। वह दोनों अदालत में जाकर कानूनी तौर पर विवाह कर लेते हैं। इस तरह इस विवाह को प्रेम विवाह कहा जाता है।

7. अन्तर्विवाह (Endogamy)—अन्तर्विवाह के अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी ही जाति की स्त्री से विवाह करवाना पड़ता था। अन्तर्विवाह के गुणों का वर्णन इस प्रकार है। इसके साथ रक्त की शुद्धता को सम्भाल कर रखा जाता है। इसके साथ समाज में एकता को बनाये रखा जाता है। इसके साथ सामूहिक जाति की सम्पत्ति सुरक्षित रहती है। इस विवाह में स्त्रियां काफ़ी खुश रहती हैं क्योंकि अपनी ही संस्कृति मिलने से उनका आपस में तालमेल अच्छा बैठता है। परन्तु दूसरी तरफ इस तरह का विवाह देश की एकता में रुकावट पैदा करता है। इस तरह जातिवाद को बढ़ावा मिलता है जिससे सामाजिक प्रगति में रुकावट पैदा होती है।

8. बहिर्विवाह (Exogemy)-बहिर्विवाह का अर्थ अपने गोत्र अपने गांव के बाहर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करना है। एक ही गोत्र और गांव के आदमी और औरत आपस में भाई-बहन माने जाते हैं। वैस्टमार्क के अनुसार ऐसे विवाह का उद्देश्य नज़दीकी रिश्तेदारी में यौन सम्बन्धों को स्थापित न करना। यह विवाह प्रगतिवाद का सूचक है। इस विवाह से अलग-अलग समूहों में सम्बन्ध बढ़ता है। जैविक दृष्टिकोण से भी इस विवाह को उचित माना गया है। इस विवाह का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि इसमें लड़का और लड़की को एक-दूसरे के विचारों को समझने में मुश्किल होती है। बर्हिविवाह करने से अलग-अलग समूहों में प्यार बढ़ता है। इस तरह राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिलता है।

9. अनुलोम विवाह (Anulom Marriage)-अनुलोम हिन्दू विवाह का एक नियम है जिसमें उच्च जाति या पुरुष अपने से नीची जाति की लड़कियों से विवाह कर सकता है। उदाहरण के तौर पर एक ब्राह्मण व्यक्ति क्षत्रिय, वैश्य और निम्न जाति की लड़की के साथ विवाह कर सकता था। इसका मुख्य कारण निम्न जाति के लोग उच्च जाति में विवाह करना अपनी इज्जत समझते थे क्योंकि इस तरह के विवाह से उनको भी समाज में उच्च स्थान मिल जाता था।

10. प्रतिलोम विवाह (Pratilom Marriage)–इस तरह के विवाह में निम्न जाति के पुरुष उच्च जाति की स्त्रियों के साथ विवाह करते थे। मनु ने इस तरह के विवाह का सख्त विरोध किया है। मनु के अनुसार इस तरह के विवाह से पैदा हुई सन्तान को अस्पृश्य माना जाता है। मनु ने ब्राह्मण स्त्री और निम्न जाति पुरुष से पैदा हुई सन्तान को चंडाल की संज्ञा दी थी। इसलिए इस तरह का विवाह हमेशा संकीर्णता के साथ देखा गया है। इस तरह से पैदा हुई सन्तान को किसी भी वंश के नाम को धारण नहीं कर सकती थी।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 4.
विवाह को परिभाषित कीजिए। जीवन साथी चुनने के नियमों को विस्तार से लिखिए।
उत्तर-
विवाह स्त्री व पुरुष का समाज की ओर से स्वीकृत मेल है जो नए गृहस्थ का निर्माण करता है। विवाह न केवल आदमी व औरत के सम्बन्धों को ही मान्यता प्रदान करता है बल्कि इससे अन्य सम्बन्धों को भी मान्यता मिलती है। विवाह का अर्थ केवल सम्भोग नहीं है बल्कि विवाह परिवार की नींव है। विवाह की सहायता से व्यक्ति लैंगिक सम्बन्धों में प्रवेश करता है, घर बसाता है व सन्तान पैदा करके उसका पालन-पोषण करता है।

विवाह का अर्थ (Meaning of Marriage)-साधारण शब्दों में विवाह से अर्थ केवल लिंग सम्बन्धों की पूर्ति तक ही लिया जाता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह अर्थ बिल्कुल ही अधूरा है। विवाह का अर्थ है कि उस संस्था में विरोधी लिंगों के मेल जिसके द्वारा परिवार का निर्माण हो व समाज के द्वारा स्वीकारा जाए अर्थात् विवाह की संस्था का अर्थ केवल लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति ही नहीं बल्कि सामाजिक स्वीकृति से भी जोड़ते हैं।

विवाह की परिभाषाएं (Definitions of Marriage) –
1. मजूमदार (Majumdar) के अनुसार, “विवाह पुरुष व स्त्री का सामाजिक तौर से स्वीकार किया हुआ मेल होता है या पुरुष व स्त्री के मेल और सम्भोग को मान्यता प्रदान करने के लिए समाज द्वारा निकाली एक प्रतिनिधि या गौण संस्था है जिसका उद्देश्य है-(1) घर की स्थापना (2) लैंगिक सम्बन्धों में प्रवेश (3) बच्चे पैदा करना (4) बच्चों का पालन-पोषण करना ।”

2. वैस्टर मार्क (Western Mark) के अनुसार, “विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों से होने वाला वह सम्बन्ध है, जो प्रथा या कानून द्वारा स्वीकार किया गया है जिसमें विवाह के दोनों पक्षों के और उनसे पैदा होने वाले बच्चों के अधिकार व कर्त्तव्य भी शामिल होते हैं।”

3. एण्डर्सन व पार्कर (Anderson and Parker) के अनुसार, “विवाह एक या ज्यादा पुरुषों व एक या अधिक स्त्रियों के बीच समाज द्वारा स्वीकारा स्थायी सम्बन्ध है, जिसमें पितृत्व हेतु सम्भोग की आज्ञा होती है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि विवाह की संस्था एक ऐसी संस्था है, जिसके ऊपर हमारे समाज की संरचना भी निर्भर करती है। आदमी व औरत के लैंगिक सम्बन्धों को नियमित करके ही हम बच्चों के पालन-पोषण पर ध्यान दे सकते हैं। इसी कारण इस संस्था को सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त होती है। जब यह लिंग सम्बन्ध समाज के द्वारा स्वीकारे बिना ही स्थापित हो जाएं तो हम उस विवाह को या उन सम्बन्धों को गैर-कानूनी करार दे देते हैं व पैदा हुए बच्चों के लिए भी ‘नाजायज़ बच्चा’ (illegal child) शब्द का प्रयोग करते हैं। इस कारण विवाह का अर्थ केवल लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति ही नहीं बल्कि व्यक्ति इस संस्था का सदस्य बन कर कई और तरह के काम करता है, जो समाज के विकास के लिए ज़रूरी होते हैं।

साथी के चुनाव के नियम (Rules of Mate Selection)—प्रत्येक समाज में जीवन साथी के चुनाव के नियम पाए जाते हैं, जो व्यक्ति को यह बताते हैं कि वह किस लड़की या लड़के से विवाह करवा सकता है व किससे नहीं करवा सकता यह नियम निम्नलिखित है-

  1. अन्तर्विवाह (Endogamy)
  2. बहिर्विवाह (Exogamy) –
  3. अनुलोम (Hyperpamy)
  4. प्रतिलोम (Hypogamy)

अन्तर्विवाह (Endogamy)-अन्तर्विवाह के नियम के द्वारा व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति आगे उप-जातियों में (Sub-caste) बंटी हुई थी। इस प्रकार व्यक्ति को उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति प्रथा के समय अन्तः विवाह के इस नियम को बहुत सख्ती से लागू किया गया था। यदि कोई व्यक्ति इस नियम की उल्लंघना करता था तो उसको जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था व उससे हर तरह के सम्बन्ध भी तोड़ लिए जाते थे। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार समाज को चार जातियों में बांटा हुआ था।

यह जातियां आगे उप-जातियों में बंटी हुई थीं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी उप-जाति में ही विवाह करवाता था। वर्तमान भारतीय समाज में विवाह के इस रूप में काफ़ी परिवर्तन देखने को मिलता है।

होईबल (Hoebal) के अनुसार, “अन्तर्विवाह एक सामाजिक नियम है जो यह मांग करता है कि व्यक्ति अपने सामाजिक समूह में जिसका वह सदस्य है विवाह करवाए।”
(“Endogamy is a social rule which demands that a person should marry with in a group at in which he is a member.”)

बहिर्विवाह (Exogamy) – विवाह की संस्था एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। कोई भी समाज किसी जोडे को बिना विवाह के पति-पत्नी के सम्बन्धों को स्थापित करने की स्वीकृति नहीं देता। इसी कारण प्रत्येक समाज विवाह स्थापित करने के लिए कुछ नियम बना लेता है। सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साथी का चुनाव करना होता है। बहिर्विवाह में भी साथी के चुनाव करने का नियम होता है।

कई समाज में जिन व्यक्तियों में रक्त के सम्बन्ध होते हैं या अन्य किसी किस्म से वह एक-दूसरे से सम्बन्धित हों तो ऐसी अवस्था में उन्हें विवाह करने की स्वीकृति नहीं दी जाती।

इस प्रकार बहिर्विवाह का अर्थ होता है कि व्यक्ति को अपने समूह में विवाह करवाने की मनाही होती है। एक ही माता-पिता के बच्चों को आपस में विवाह करने से रोका जाता है।

मुसलमानों में माता-पिता के रिश्तेदारों में विवाह करने की इजाजत दी जाती है। इंग्लैण्ड के रोमन कैथोलिक चर्च में व्यक्ति को अपनी पत्नी की मौत के पश्चात अपनी साली से विवाह करने की इजाजत नहीं दी जाती।
ऑस्ट्रेलिया में लड़का अपने पिता की पत्नी से विवाह कर सकता है यदि वह उसकी सगी मां नहीं है।

बर्हिविवाह के नियम अनुसार व्यक्ति को अपनी जाति, गोत्र, स्पर्वर, सपिंड आदि में विवाह करवाने की आज्ञा नहीं दी जाती इसके कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं

1. गोत्र बहिर्विवाह-गोत्र बहिर्विवाह का अर्थ यह होता है कि व्यक्ति को अपने गोत्र में विवाह करवाने की इजाजत नहीं दी जाती। अर्थात् एक ही गोत्र के व्यक्तियों में विवाहित सम्बन्ध स्थापित नहीं किए जा सकते। गोत्र का अर्थ गायों को पालने वाला समूह होता है। मैक्स मूलर के अनुसार जो लोग अपनी गायों को एक ही स्थान पर बाँधते थे, उनमें नैतिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते थे जिस कारण वह आपस में विवाह नहीं करवा सकते थे। इस प्रकार गोत्र में उन व्यक्तियों को शामिल किया जाता है जिनमें नैतिक सम्बन्ध या रक्त सम्बन्ध पाए जाएं। इसी कारण एक गोत्र के व्यक्ति को दूसरे गोत्र के व्यक्ति से विवाह करवाने की इजाजत नहीं दी जाती।

2. स्पर्वर बहिर्विवाह-स्पर्वर बहिर्विवाह के नियम अनुसार एक ही पर्वर (Pravara) के लड़के व लड़की को विवाह करवाने की इजाजत नहीं होती। पर्वर में उन व्यक्तियों को शामिल किया जाता है जिनमें साझे ऋषि-पूर्वज होते हैं। इस प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने पर्वर के पूर्वजों से सम्बन्धित औरत से विवाह नहीं करवा सकता।

3. सपिंडा बहिर्विवाह-सपिण्ड बहिर्विवाह के नियम अनुसार उन सभी व्यक्तियों को शामिल किया जाता है जिनके माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी एक ही होते हैं। पुत्र के शरीर में माता-पिता दोनों के रक्त कण होते हैं। वैज्ञानिकों ने रक्त से सम्बन्धित रिश्तेदारों में माता द्वारा पांच पीढ़ियों व पिता द्वारा सात पीढ़ियों के व्यक्तियों को शामिल किया है। इस तरह से सम्बन्धित लोगों में पुरुष व स्त्री विवाह नहीं करवा सकते। माता व पिता की तरफ से पीढ़ियों को निश्चित करना समाज के अपने ऊपर निर्भर करता है।

गांव बहिर्विवाह-इस नियम के अनुसार एक गांव के व्यक्ति आपस में विवाह नहीं करवा सकते। उत्तरी भारत में विवाह का यह नियम काफ़ी प्रचलित है। एक ही गांव के व्यक्तियों को आपस में सगे-सम्बन्धियों से भी अधिक माना जाता है। जैसे पंजाब में आमतौर से यह शब्द कहे जाते हैं कि गांव की बहन बेटी सबकी ही होती इसके अतिरिक्त गांव में लोग एक-दूसरे को रिश्तेदारियों के नाम से ही बुलाना शुरू कर देते हैं।

5. टोटम बहिर्विवाह-इस विवाह के नियम के अनुसार एक टोटम की पूजा करने वाले व्यक्ति आपस में विवाह नहीं करवा सकते। टोटम का अर्थ किसी पौधे या जानवर आदि को अपना देवता मान लेते हैं। इस प्रकार का नियम भारत के कबाईली लोगों में पाया जाता है। इसमें व्यक्ति अपने टोटम से बर्हिविवाह करवाता है।

अनुलोम विवाह (Hypergamy)-अनुलोम विवाह का वह नियम होता है जिसमें लड़की का विवाह उसके बराबर या उससे ऊंची जाति वाले लड़के के साथ किया जाता है। दूसरे अर्थ अनुसार उच्च जाति का पुरुष, निम्न जाति की स्त्री से जब विवाह करवाता था तो उसे अनुलोम विवाह का नाम दिया जाता था। इस प्रकार के विवाह को कुलीन विवाह का नाम भी दिया जाता है। इस प्रकार के विवाह में ब्राह्मण लड़की, केवल ब्राह्मण लड़के से ही विवाह करवा सकती है। क्षत्रिय लड़की क्षत्रिय लड़के या ब्राह्मण लड़के से विवाह करवा सकती है। वैश्य लड़की वैश्य लड़के या क्षत्रिय लड़के या ब्राह्मण लड़के से विवाह करवा सकती है।

इसके अतिरिक्त ब्राह्मण लड़का किसी भी जाति की लड़की से विवाह करवा सकता है। क्षत्रिय लड़का ब्राह्मण लड़की के अलावा बाकी किसी भी लड़की से विवाह करवा सकता है। वैश्य लड़का ब्राह्मण व क्षत्रिय लड़की के अलावा किसी भी लड़की से व निम्न जाति का लड़का केवल निम्न जाति की लड़की से ही विवाह करवा सकता है। जब अन्तः विवाह के द्वारा समाज में समस्याएं पैदा होनी आरम्भ हो गईं तो अनुलोम विवाह को प्रोत्साहन मिला।

कुलीन विवाह भी अनुलोम विवाह की भान्ति थे। इस नियम अनुसार एक ही जाति का व्यक्ति, उसी जाति या निम्न जाति की लड़की से विवाह करवा सकता था। कुलीन विवाह के पाए जाने के कुछ कारण भी थे। एक तो यह कि प्रत्येक कोई अपनी लड़की का विवाह उच्च जाति के लड़के से करना चाहता था। उच्च जाति में लड़कियों की कमी होनी शुरू हो जाती थी। इस कारण कई लड़कों को बिना विवाह के ही ज़िन्दगी गुजारनी पड़ जाती थी। लड़की की कीमत बढ़ जाती थी। कई बार उच्च जाति का वर ढूंढ़ते समय उन्हें बड़ी उम्र के व्यक्ति से अपनी लड़की का विवाह करना पड़ जाता था। बहु विवाह की प्रथा भी इसी नियम के कारण ही पाई जाती थी। इसके अतिरिक्त अनैतिकता में भी बढ़ोत्तरी हुई व औरत की स्थिति में काफ़ी गिरावट आई। इस प्रकार कुलीन विवाह की प्रथा ने भी हमारे भारतीय समाज में कई सामाजिक बुराइयां पैदा की जिन्हें समाप्त करने के लिए सरकार को कई कानून बनाने पड़े।

प्रतिलोम विवाह (Hypogamy)-अन्तर्जातीय विवाह का दूसरा नियम प्रतिलोम है। यह नियम अनुलोम के बिल्कुल विपरीत है। इस नियम के अनुसार निम्न जाति का लड़का उच्च जाति की लड़की से विवाह करवाता था। जैसे ब्राह्मण जाति की लड़की क्षत्रिय जाति के लड़के से विवाह करवाए या फिर क्षत्रिय जाति का लड़का ब्राह्मण लड़की से। प्रतिलोम विवाह के नियम में यदि निम्न जाति का लड़का उच्च जाति की लड़की से विवाह करवाता था तो उससे पैदा सन्तान किसी भी जाति में नहीं रखी जाती थी व उसको चाण्डाल कहा जाता था।

अन्तर्जातीय विवाह के दोनों रूप हमारे भारतीय समाज में विकसित रहे हैं। वर्तमान समाज में अन्तर्जातीय विवाह की पाबन्दी नहीं है। जाति प्रथा का भेद-भाव भी हमारे भारतीय समाज में समाप्त हो गया है। अन्तर्जातीय विवाह की मदद से हम भारतीय समाज में पाई जा रही कई सामाजिक बुराइयों का खात्मा कर सकेंगे।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 5.
परिवार किसे कहते हैं ? परिवार की मूलभूत विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
यदि हम मानवीय समाज का अध्ययन करें तो हमें पता चलेगा कि सबसे पहला समूह परिवार ही है। प्राचीन समय में तो श्रम-विभाजन परिवारों के आधार पर ही होता था। हमें कोई भी समाज ऐसा नहीं मिलेगा जहां कि परिवार नाम की संस्था न हो। आदिम समाज से लेकर आधुनिक समाज तक प्रत्येक स्थान पर यह संस्था मौजूद रही है। चाहे और बहुत सारी संस्थाएं विकसित हैं या समाप्त हो गईं पर परिवार की संस्था वहीं पर ही खड़ी है। चाहे आजकल के विकसित समाज में परिवार का महत्त्व कुछ कम हो गया है, परिवार के बहुत सारे कार्य अन्य संस्थाओं ने ले लिए हैं, परन्तु आजकल भी मानव की अधिकतर क्रियाएं परिवार को केन्द्र मानकर ही होती हैं। मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जिस तरह का परिवार बच्चे को प्राप्त होता है, उसी प्रकार का चरित्र बच्चे का बनता है व वह उसी अनुसार आगे चलकर कार्य करता है। सामाजिक विघटन व समाज की बहुत सारी समस्याओं के कारण ही परिवार में विघटन होता है।

परिवार सामाजिक संगठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण समूह है, अंग्रेजी शब्द ‘Family’ रोमन भाषा के शब्द ‘Famulous’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘नौकर’। रोमन कानून के अनुसार इस शब्द का अर्थ ऐसे समूह से है, जिसमें नौकर, दास या मालिक वह सभी सदस्य शामिल होते हैं जो रक्त सम्बन्धों या विवाह सम्बन्धों पर आधारित होते हैं। यह एक ऐसा समूह है, जो आदमी व औरत की लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए समाज द्वारा बनाया जाता है। बच्चा परिवार में पल कर बड़ा होता है व समाज का एक नागरिक बनता है।

साधारण शब्दों में परिवार का अर्थ पति-पत्नी व उनके बच्चों से है, पर समाज शास्त्र में इसका अर्थ केवल लोगों का संग्रह ही नहीं बल्कि उनके आपसी सम्बन्धों की व्यवस्था है व इसका मुख्य उद्देश्य बच्चे पैदा करना, उनका पालन-पोषण करना, समाजीकरण करना व लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति करना है।

परिभाषाएं (Definitions) –
1. मैकाइवर (Maclver) के अनुसार, “परिवार बच्चों की उत्पत्ति व पालन-पोषण की व्यवस्था करने के लिए काफ़ी रूप से निश्चित व स्थायी यौन सम्बन्धों से परिभाषित एक समूह है।”

2. जी० पी० मर्डोक (G. P. Murdock) के अनुसार, “परिवार एक ऐसा समूह है, जिसकी विशेषताएं साझी रिहायश, आर्थिक सहयोग व सन्तान की उत्पत्ति या प्रजनन हैं। इसमें दोनों लिंगों के बालिग शामिल होते हैं, जिनमें कम-से-कम दो में समाज द्वारा स्वीकृत लैंगिक सम्बन्ध होता है व लैंगिक सम्बन्धों में बने इन बालिगों में अपने या स्वीकृत एक या अधिक बच्चे होते हैं।”

3. एच० एम० जॉनसन (H. M. Johnson) के अनुसार, “परिवार रक्त, विवाह या गोद लेने के आधार पर सम्बद्ध दो या दो से अधिक व्यक्तियों का समूह है। इन सभी व्यक्तियों को एक परिवार का सदस्य समझा जाता है।”

इस प्रकार परिवार वह समूह है जिसमें आदमी व औरत के लैंगिक सम्बन्धों को समाज के द्वारा स्वीकृत किया जाता है। यह एक सर्व व्यापक समूह है। इसके अर्थ के बारे में अन्त में हम यह कह सकते हैं कि परिवार एक जैविक इकाई है जिसको लैंगिक सम्बन्धों के लिए एक संस्था के तौर पर स्वीकृत किया जाता है। इसमें सदस्य एक दूसरे से निजी रूप से प्रजनन की प्रक्रिया से जुड़े होते हैं। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि परिवार में मातापिता व बच्चों को शामिल किया जाता है, जो प्रत्येक समाज में विकसित हैं।

विशेषताएं (Characteristics)-

1. सर्वव्यापकता (Universality)-परिवार एक सामाजिक समूह है। यह मानवीय इतिहास में पहली संस्था के रूप में जाना जाता है क्योंकि प्रत्येक समय पर प्रत्येक समाज में यह किसी-न-किसी किस्म में विकसित रहा है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी परिवार का सदस्य ज़रूर होता है।

2. भावात्मक आधार (Emotional Basis)-परिवार मानवीय समाज की नींव होता है जो व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होती है जैसे-सन्तान उत्पत्ति, पति-पत्नी सम्बन्ध, वंश परम्परा कायम रखना, जायदाद की सुरक्षा आदि जैसी भावनाएं भी इसमें सम्मिलित होती हैं व इसके साथ ही सहयोग, प्यार, त्याग इत्यादि की भावना का भी विकास होता है जो समाज की प्रगति व विकास के लिए भी आवश्यक होता है।

3. रचनात्मक प्रभाव (Formative Influence) सामाजिक संरचना में परिवार को एक महत्त्वपूर्ण इकाई माना जाता है। परिवार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए भी रचनात्मक प्रभाव डालता है। परिवार ही पहली ऐसी संस्था होती है जिसमें रहकर बच्चा सामाजिक व्यवहार के बारे में जानकारी लेता है। व्यक्ति का बहुपक्षीय विकास परिवार की संस्था में ही हो सकता है।

4. लघु आकार (Small Size)-परिवार का आकार सीमित होता है क्योंकि जिन्होंने जन्म लिया होता है या जिनमें विवाह के सम्बन्ध होते हैं उसे ही परिवार में शामिल किया जाता है। प्राचीन समय में जब कृषि प्रधान समाज होता था तो संयुक्त परिवार पाया जाता था जिसमें माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, ताया-ताई इकट्ठे मिलकर रहते थे। जैसे-जैसे समाज में शिक्षा का विकास हुआ, स्त्रियों का नौकरी करना आरम्भ हुआ इत्यादि के साथ मूल परिवार अस्तित्व में आया जिसमें माता-पिता व बच्चे ही केवल शामिल किए जाते हैं। छोटे आकार का अर्थ होता है कि परिवार में व्यक्ति की सदस्यता केवल जन्म पर आधारित होती है व इसमें रक्त सम्बन्ध भी पाए जाते हैं।

5. सामाजिक संरचना में केन्द्रीय स्थान (Central position in the Social Structure)-परिवार पर हमारा सारा समाज आधारित होता है व अलग-अलग सभाओं का निर्माण भी परिवार से ही होता है। इसी कारण सामाजिक संरचना में इसको केन्द्रीय स्थान प्राप्त होता है। आरम्भिक समाज में संगठन परिवार पर ही आधारित होता था। सामाजिक प्रगति भी इस पर आधारित होती थी। चाहे आजकल के समय में अन्य संस्थाओं ने परिवार के कई काम ले लिए हैं परन्तु फिर भी कुछ काम समाज के लिए परिवार जो कर सकता है, वह दूसरी संस्थाएं नहीं कर सकती।

6. सदस्यों की ज़िम्मेदारी (Responsibility of the members)—परिवार का प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे से जुड़ा होता है व परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को भी संभालते हैं। इसमें किसी भी सदस्य में स्वार्थ की भावना नहीं होती बल्कि वह जो कुछ भी करता है अपने परिवार के विकास के लिए ही करता है। यहां तक कि उसमें त्याग की भावना का विकास भी परिवार में रहकर ही होता है। जिस तरह के निजी सम्बन्ध परिवार के सदस्यों में पाए जाते हैं उस प्रकार के सम्बन्ध किसी दूसरी संस्था में नहीं पाए जाते। परिवार में यदि कोई भी व्यक्ति बीमार पड़ जाता है तो दूसरे सदस्य अपना फर्ज़ समझने लगते हैं कि उस व्यक्ति की सेवा करें। इस प्रकार उनमें सहयोग की भावना का भी विकास हो जाता है।

7. यौन सम्बन्ध (Sexual relation)-परिवार के द्वारा ही आदमी व औरत में यौन सम्बन्धों की स्थापना होती है क्योंकि समाज के द्वारा स्वीकृति भी विवाह के पश्चात् ही परिवार का निर्माण करने की होती है। आरम्भिक समाज में यौन सम्बन्धों की उत्पत्ति से सम्बन्धित किसी प्रकार के कोई नियम नहीं होते थे तो परिवार का वास्तविक रूप भी नहीं था। हमारे सामने समाज भी विघटन की दिशा की ओर अग्रसर था।

प्रश्न 6.
परिवार के विभिन्न प्रकारों को विस्तार से समझाइये ।
उत्तर-
अलग-अलग समाजों में अलग-अलग आधारों पर कई प्रकार के परिवार पाए जाते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(A) सत्ता के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family on the Basis of Authority)-सत्ता के आधार पर परिवार के निम्नलिखित प्रकार हैं

  1. पित प्रधान परिवार (Patriarchal Family)
  2. मातृ प्रधान परिवार (Matriarchal Family)

1. पितृ प्रधान परिवार (Patriarchal Family)-इस प्रकार के परिवार की किस्म में सम्पूर्ण शक्ति आदमी के हाथ में होती है। परिवार का मुखिया भी आदमी को बनाया जाता है। वंश परम्परा भी पिता पर ही निर्भर होती है। विवाह के पश्चात् औरत, आदमी के घर रहने लग जाती है व जायदाद भी केवल लडकों के बीच बांटी जाती है। घर में सबसे बड़े लड़के को सबसे अधिक आदर व सम्मान मिलता है। उसकी घर में इज्ज़त पिता के बराबर ही होती है। घर के हर तरह के ज़रूरी मामलों में भी आदमियों की ही दखलअंदाजी को ठीक समझा जाता है। यदि हम प्राचीन हिन्दू समाज की तरफ देखें तो भी वैदिक ग्रन्थों के अनुसार आदमी को ही औरत के लिए परमात्मा समझा जाता था। पिता के मरने के पश्चात् उसके सारे अधिकार उनके पुत्र को मिल जाते हैं।

2. मातृ प्रधान परिवार (Matriarchal Family)-इस प्रकार के परिवार में स्त्री जाति की ही समाज में प्रधानता होती थी। घर की सारी जायदाद की मलकीयत भी उसके हाथ में होती थी। परिवार की स्त्रियों का ही सम्पत्ति पर अधिकार होता है। विवाह के पश्चात् लड़का-लड़की के घर रहने चला जाता था। पुरोहितों का काम भी स्त्रियां ही करती थीं। परिवार की जायदाद का विभाजन भी स्त्रियों के बीच ही होता था। स्त्री की वंश- परम्परा ही आगे चलती थी। मैकाइवर ने मात प्रधान परिवार की कुछ विशेषताओं का वर्णन किया जो निम्नानुसार है –

  • इन बच्चों का वंश परिवार में मां के वंश के साथ निर्धारित होता है। इसलिए बच्चे पिता के कुल के नहीं बल्कि मां के कुल से सम्बन्धित समझे जाते हैं।
  • स्त्री व उसकी मां, भाई-बहन व बहनों के बच्चे शामिल होते हैं।
  • इन परिवारों के बीच पुत्र को पिता से कोई सम्पत्ति नहीं प्राप्त होती क्योंकि सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार माता द्वारा निश्चित किए जाते हैं।
  • सामाजिक सम्मान के पद पुत्र की बजाए भांजे को मिलते हैं।
  • इन परिवारों का अर्थ यह नहीं कि समाज में सभी अधिकार औरतों के होते हैं, आदमियों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होते। कई क्षेत्रों में पुरुषों को कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं, परन्तु मिलते औरतों के द्वारा ही हैं।

(B) विवाह के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family On the Basis of Marriage)विवाह के आधार पर परिवार के निम्नलिखित प्रकार हैं

  1. एक विवाही परिवार (Monogamous Family)
  2. बहु-पत्नी विवाह (Polygamous Family)
  3. बहु-पति परिवार (Polyandrous Family)

1. एक विवाही परिवार (Monogamous Family)-जब एक पुरुष एक स्त्री से या एक स्त्री एक पुरुष से विवाह करवाती है तो इस विवाह के आधार पर जो परिवार पाया जाता है उसको एक विवाह परिवार का नाम दिया जाता है। आधुनिक समय में इस परिवार को अधिक महत्ता प्राप्त है। इस परिवार की किस्म में सदस्यों का रहन-सहन का दर्जा ऊंचा होता है। बच्चों की परवरिश बहुत अच्छे ढंग से होती है। पुरुष व स्त्री के सम्बन्धों में भी बराबरी पाई जाती है। इसमें बच्चों की संख्या भी बहुत कम होती है। जिस कारण परिवार का आकार छोटा होता है।

2. बहु-पत्नी परिवार (Polygamous Family)-परिवार की इस प्रकार में एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह करवाता है। आरम्भ के राजा-महाराजाओं के समय इस प्रकार के विवाह द्वारा पाए गए परिवार को महत्ता प्राप्त थी। राजा-महाराजा कितने-कितने विवाह करवा लेते थे व पैदा हुए बच्चों का सम्मान भी काफ़ी होता था। फर्क कई बार यह होता था कि पहली पत्नी से पैदा हुए बच्चे को राजगद्दी दी जाती थी। आधुनिक समय में भारत में कानून द्वारा इस प्रकार के विवाह की पाबन्दी लगा दी है।

3. बहु-पति परिवार (Polyandrous Family)-इस प्रकार के परिवार में एक स्त्री के कितने ही पति होते थे। इसमें दो प्रकार पाए जाते हैं। इस प्रकार के परिवार को भ्रातृ विवाही परिवार का नाम दिया जाता है व दूसरे प्रकार के परिवार में स्त्री के सभी पतियों का भाई होना ज़रूरी नहीं होता। इस कारण इसको गैर भ्रातृ विवाही परिवार का नाम दिया जाता है। इस प्रकार के परिवार में स्त्री बारी-बारी सभी पतियों के पास रहती है। कुछ कबायली समाज में अभी भी इस प्रकार के विवाह की प्रथा के आधार पर परिवार पाए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर देहरादून के ‘ख़स’ कबीले व आस्ट्रेलिया के कुछ कबीलों में भी इस प्रकार के परिवार पाए जाते हैं।

(C) वंश के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family On the Basis of Nomenclature)-

  1. पितृ वंशी परिवार (Patrilineal)
  2. मातृ वंशी परिवार (Matrilineal)
  3. दो वंश-नामी परिवार (Bilinear)
  4. अरेखकी परिवार (Nonunilineal)

पितृ वंशी परिवार में व्यक्ति का वंश अपने पिता वाला होता है। इस प्रकार का परिवार आजकल भी पाया जा रहा है। मात वंशी परिवार में मां के वंश नाम ही बच्चों को प्राप्त होता है। दो वंश नामी परिवार में माता व पिता दोनों का वंश साथ-साथ चलता है व अरेखकी परिवार में वंश के रिश्तेदार जो माता द्वारा या पिता द्वारा होते हों, इसके आधार पर पाया जाता है।

(D) रहने के स्थान के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family On the Basis of Residence)—इस आधार पर परिवार के तीन प्रकार हैं-

  1. पितृ स्थानीय परिवार (Patrilocal Family)
  2. मातृ स्थानीय परिवार (Matrilocal Family)
  3. नव-स्थानीय परिवार (Neolocal Family)

पितृ स्थानीय परिवार में विवाह के बाद लड़की पति के घर जाकर रहने लग जाती है व मातृ स्थानीय परिवार में पति विवाह के पश्चात् पत्नी के घर रहने लग जाता है व नव स्थानीय परिवार में विवाह के पश्चात् पति-पत्नी दोनों अपना अलग किस्म का घर बनाकर रहने लग जाते हैं।

(E) रिश्तेदारी के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family On the Basis of Relatives)- लिंटन ने इस प्रकार के परिवारों को दो भागों में बांटा है-

  1. रक्त सम्बन्धी परिवार (Consanguine family)
  2. विवाह सम्बन्धी परिवार (Conjugal family)

रक्त सम्बन्धी परिवार में केवल लिंग सम्बन्ध नहीं बल्कि दूसरे ही शामिल होते हैं। इस प्रकार के परिवार में सम्बन्ध व्यक्ति के जन्म पर आधारित होते हैं। यह तलाक होने पर भी टूटता नहीं। विवाह सम्बन्धी परिवार में पतिपत्नी व उनके अविवाहित बच्चे पाए जाते हैं।
इस प्रकार का परिवार पति-पत्नी के तलाक होने के पश्चात् टूट जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 7.
समकालीन समय में परिवार संस्था में होने वाले परिवर्तनों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
आधुनिक समय में परिवार नामक संस्था में हर पक्ष से परिवर्तन आ गए हैं क्योंकि जैसे-जैसे हमारे सामाजिक ढांचे में परिवर्तन आ रहे हैं, उसी तरह से पारिवारिक व्यवस्था भी बदल रही है। परिवार की बनावट और कामों पर नए हालातों का काफ़ी प्रभाव पड़ा है। अब हम देखेंगे कि परिवार के ढांचे और कामों में किस तरह के परिवर्तन आए हैं-

1. स्थिति में परिवर्तन-पुराने समय में लडकी के जन्म को शाप माना जाता था। उसको शिक्षा भी नहीं दी जाती थी। धीरे-धीरे समाज में जैसे-जैसे परिवर्तन आए, औरत ने भी शिक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी। पहले विवाह के बाद औरत सिर्फ़ पति पर ही निर्भर होती थी पर आजकल के समय में काफ़ी औरतें आर्थिक पक्ष से आज़ाद हैं और वह पति पर कम निर्भर हैं। कई स्थानों पर तो पत्नी की तनख्वाह पति से ज़्यादा है। इन हालातों में पारिवारिक विघटन की स्थिति पैदा होने का खतरा हो जाता है। इसके अलावा पति-पत्नी की स्थिति आजकल बराबर होती है जिसके कारण दोनों का अहं एक-दूसरे से नीचा नहीं होता। इस कारण दोनों में लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता है और इससे बच्चे भी प्रभावित होते हैं। इस तरह ऐसे कई और कारण हैं जिनके कारण परिवार के टूटने के खतरे काफ़ी बढ़ जाते हैं और बच्चे तथा परिवार दोनों मुश्किल में आ जाते हैं।

शैक्षिक कार्यों में परिवर्तन-समाज में परिवर्तन आने के साथ इसकी सारी संस्थाओं में भी परिवर्तन आ रहे हैं। परिवार जो भी काम पहले अपने सदस्यों के लिए करता था। उनमें भी ख़ासा परिवर्तन आया है। प्राचीन समाजों में बच्चा शिक्षा परिवार में ही लेता था और शिक्षा भी परिवार के परम्परागत काम से सम्बन्धित होती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि संयुक्त परिवार प्रणाली होती थी और जो काम पिता करता था वही काम पुत्र भी करता था और पिता के अधीन पुत्र भी उस काम में माहिर हो जाता था। धीरे-धीरे आधुनिकता के अधीन बच्चा पढ़ाई करने के लिए शिक्षण संस्थाओं में जाने लग गया और इसके कारण वह अब परिवार के परम्परागत कामों से दूर होकर कोई अन्य कार्य अपनाने लग गया है। इस तरह परिवार का शिक्षा का परम्परागत काम उससे कट कर शिक्षण संस्थाओं के पास चला गया है।

2. आर्थिक कार्यों में परिवर्तन-पहले समय में परिवार आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र होता था। रोटी कमाने का सारा काम परिवार ही करता था जैसे-आटा पीसने का काम, कपड़ा बनाने का काम, आदि। इस तरह जीने के सारे साधन परिवार में ही उपलब्ध थे। पर जैसे-जैसे औद्योगीकरण शुरू हुआ और आगे बढ़ा, उसके साथ-साथ परिवार के यह सारे काम बड़े-बड़े उद्योगों ने ले लिए हैं, जैसे कपड़ा बनाने का काम कपड़े की मिलें कर रही हैं, आटा चक्की पर पीसा जाता है। इस तरह परिवार के आर्थिक कार्य कारखानों में चले गए हैं। इस तरह आर्थिक उत्पादन की ज़िम्मेदारी परिवार से दूसरी संस्थाओं ने ले ली है।

3. धार्मिक कार्यों में परिवर्तन-पुराने समय में परिवार का एक मुख्य काम परिवार के सदस्यों को धार्मिक शिक्षा देना होता है। परिवार में ही बच्चे को नैतिकता और धार्मिकता के पाठ पढ़ाए जाते हैं। पर जैसे-जैसे नई वैज्ञानिक खोजें और आविष्कार सामने आएं, वैसे-वैसे लोगों का दृष्टिकोण बदलकर धार्मिक से वैज्ञानिक हो गया। पहले ज़माने में धर्म की बहुत महत्ता थी, परन्तु विज्ञान ने धार्मिक क्रियाओं की महत्ता कम कर दी है। इस प्रकार परिवार के धार्मिक काम भी अब पहले से कम हो गए हैं।

4. सामाजिक कार्यों में परिवर्तन-परिवार के सामाजिक कार्यों में भी काफ़ी परिवर्तन आया है। पराने ज़माने में पत्नी अपने पति को परमेश्वर समझती थी। पति का यह फर्ज़ होता था कि वह अपनी पत्नी को खुश रखे। इसके अलावा परिवार अपने सदस्यों पर सामाजिक नियन्त्रण रखने का भी काम करता था, पर अब सामाजिक नियन्त्रण का कार्य अन्य एजेंसियां, जैसे पुलिस, सेना, कचहरी आदि, के पास चला गया है। इसके अलावा बच्चों के पालनपोषण का काम भी परिवार का होता था। बच्चा घर में ही पलता था और बड़ा हो जाता था और घर के सारे सदस्य उसको प्यार करते थे। पर धीरे-धीरे आधुनिकीकरण के कारण औरतों ने घर से निकलकर बाहर काम करना शुरू कर दिया और बच्चों की परवरिश के लिए क्रैच खुल गए जहां बच्चों को दूसरी औरतों द्वारा पाला जाने लग गया। इस तरह परिवार के इस काम में भी कमी आ गई है।

5. पारिवारिक एकता में कमी-पुराने जमाने में विस्तृत परिवार हुआ करते थे, पर आजकल परिवारों में यह एकता और विस्तृत परिवार खत्म हो गए हैं। हर किसी के अपने-अपने आदर्श हैं। कोई एक-दूसरे की दखलअंदाजी पसंद नहीं करता। इस तरह वह इकट्ठे रहते हैं, खाते-पीते हैं पर एक-दूसरे के साथ कोई वास्ता नहीं रखते। उनमें एकता का अभाव होता है।

प्रश्न 8.
नातेदारी को परिभाषित कीजिए तथा इसके प्रकारों को विस्तार से समझाइये।
उत्तर-
नातेदारी का अर्थ (Meaning of Kinship)-Kin शब्द अंग्रेजी भाषा का शब्द है, जोकि शब्द Cynn से निकला है जिसका अर्थ केवल ‘रिश्तेदार’ होता है और समाज शास्त्रियों और मानव वैज्ञानियों ने अपने अध्ययन के वक्त इस ‘रिश्तेदार’ शब्द को मुख्य रखा है। नातेदारी शब्द में रिश्तेदार होते हैं ; जैसे रक्त सम्बन्धी, सगे और रिश्तेदार।

आम शब्दों में समाज शास्त्र में नातेदारी व्यवस्था से मतलब उन नियमों के संकूल से है जो वंश क्रम, उत्तराधिकार, विरासत, विवाह, विवाह के बाहर लैंगिक सम्बन्धों, निवास आदि का नियमन करते हुए समाज विशेष में मनुष्य या उसके समूह की स्थिति उसके रक्त के सम्बन्धों या विवाहिक सम्बन्धों के पक्ष से निर्धारित करते हों। इसका यह अर्थ हुआ कि असली या रक्त और विवाह द्वारा बनाए और विकसित सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था नातेदारी व्यवस्था कहलाती है। इसका साफ़ एवं स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि वह सम्बन्ध जो खून द्वारा बनाए होते हैं और विवाह द्वारा बन जाते हैं वह सभी नातेदारी व्यवस्था का हिस्सा होते हैं। इसमें वह सारे रिश्तेदार शामिल होते हैं जोकि खून और विवाह द्वारा बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, मामा-मामी, ताया-ताई, भाई-बहन, सास-ससुर, साला-साली आदि। यह सभी हमारे रिश्तेदार होते हैं और नातेदारी व्यवस्था का हिस्सा होते हैं।

परिभाषाएं (Definitions) –

  1. लूसी मेयर (Lucy Mayor) के अनुसार, “बंधुत्व या नातेदारी में, सामाजिक सम्बन्धों को जैविक शब्दों में व्यक्त किया जाता है।”
  2. चार्ल्स विनिक (Charles Winick) के अनुसार, “नातेदारी व्यवस्था में वह सम्बन्ध शामिल किए जाते हैं जो कल्पित या वास्तविक वंश परम्परागत बन्धनों पर आधारित और समाज द्वारा प्रभावित होते हैं।”
  3. लैवी टास (Levi Strauss) के अनुसार, “नातेदारी व्यवस्था एक निरंकुश व्यवस्था है।”
  4. रैडक्लिफ ब्राऊन (Redcliff Brown) के अनुसार, “परिवार और विवाह के अस्तित्व से पैदा हुए या इसके परिणामस्वरूप पैदा हुए सारे सम्बन्ध नातेदारी व्यवस्था में होते हैं।”
  5. डॉ० मजूमदार (Dr. Majumdar) के अनुसार, “सारे समाजों में मनुष्य भिन्न प्रकार के बन्धनों में समूह में बंधे हुए हैं। इन बन्धनों में सबसे सर्वव्यापक और सबसे ज़्यादा मौलिक वह बन्धन है जोकि सन्तान पैदा करने पर आधारित है जोकि आन्तरिक मानव प्रेरणा है। यही नातेदारी कहलाती है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि दो व्यक्ति रिश्तेदार होते हैं यदि उनके पूर्वज एक ही हों तो वह एक व्यक्ति की संतान होते हैं। नातेदारी व्यवस्था रिश्तेदारों की व्यवस्था है जोकि रक्त सम्बन्धों या विवाह सम्बन्धों पर आधारित होता है। नातेदारी व्यवस्था सांस्कृतिक है और इसकी बनावट सारे संसार में अलगअलग है। नातेदारी व्यवस्था में उन सभी असली या नकली रक्त-सम्बन्धों को शामिल किया जाता है जो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। एक नाजायज़ बच्चे को नातेदारी में ऊंचा स्थान प्राप्त नहीं हो सकता, पर एक गोद लिए बच्चे को नातेदारी व्यवस्था में ऊंचा स्थान प्राप्त हो जाता है। यह एक विशेष नातेदारी समूह की व्यवस्था है जिसमें सारे रिश्तेदार शामिल होते हैं और जो एक-दूसरे के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियां समझते हैं। इस तरह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त असली या नकली रक्त के और विवाह द्वारा स्थापित और गहरे सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था को नातेदारी व्यवस्था कहा जाता है।

नातेदारी के प्रकार (Types of Kinship)-व्यक्ति की नज़दीकी और दूरी के आधार पर नातेदारी को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है। नातेदारी में सभी रिश्तेदारों में एक जैसे सम्बन्ध नहीं पाए जाते हैं। जो सम्बन्ध हमारे अपने माता-पिता, पति-पत्नी, बच्चों के साथ होंगे वह हमारे अपने चाचे-भतीजे, मामा-मामी के साथ नहीं हो सकते क्योंकि हमारा अपने माता-पिता, पति-पत्नी के साथ जो सम्बन्ध है वह चाचा, भतीजे, मामा आदि के साथ नहीं हो सकता। उनमें बहुत ज्यादा गहरे सम्बन्ध नहीं पाए जाते। इस नज़दीकी और दूरी के आधार पर नातेदारी को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. प्राथमिक रिश्तेदार (Primary relatives)-पहली श्रेणी की नातेदारी में प्राथमिक रिश्तेदार जैसे, पतिपत्नी, पिता-पुत्र, माता-पुत्र, माता-पुत्री, पिता-पुत्री, बहन-बहन, भाई-बहन, बहन-भाई, भाई-भाई आदि आते हैं। मरडोक के अनुसार, यह आठ प्रकार के होते हैं। यह प्राथमिक इसलिए होते हैं क्योंकि इनमें सम्बन्ध प्रत्यक्ष और गहरे होते हैं।

2. गौण सम्बन्धी (Secondary relations)-हमारे कुछ रिश्तेदार प्राथमिक होते हैं जैसे, माता, पिता, बहन, भाई आदि। इनके साथ हमारा प्रत्यक्ष रिश्ता होता है। पर कुछ रिश्तेदार ऐसे होते हैं जिनके साथ हमारा प्रत्यक्ष रिश्ता नहीं होता बल्कि, हम उनके साथ प्राथमिक रिश्तेदार के माध्यम के साथ जुड़े होते हैं जैसे-माता का भाई, पिता का भाई, माता की बहन, पिता की बहन, बहन का पति, भाई की पत्नी आदि। इन सब के साथ हमारा गहरा रिश्ता नहीं होता बल्कि यह गौण सम्बन्धी होते हैं। मर्डोक के अनुसार, यह सम्बन्ध 33 प्रकार के होते हैं।

3. तीसरे दर्जे के सम्बन्धी (Tertiary Kins) सबसे पहले रिश्तेदार प्राथमिक होते हैं और फिर गौण सम्बन्धी अर्थात् प्राथमिक सम्बन्धों की मदद के साथ रिश्ते बनते हैं। तीसरी प्रकार के सम्बन्धी वह होते हैं जो गौण सम्बन्धियों के प्राथमिक रिश्तेदार हैं। जैसे पिता के भाई का पुत्र, माता के भाई की पत्नी-(मामी), पत्नी के भाई की पत्नी अर्थात् साले की पत्नी, माता की बहन का पति अर्थात् मौसा जी इत्यादि। मर्डोक ने इनकी संख्या 151 दी है।

इस प्रकार यह तीन श्रेणियों की नातेदारी होती है पर यदि हम चाहें तो हम चौथी और पांचवीं श्रेणी के बारे में ज्ञान सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 9.
सामाजिक जीवन में नातेदारी के महत्त्व को समझाइये।
उत्तर-
नातेदारी व्यवस्था का सामाजिक संरचना में एक विशेष स्थान है। इसके साथ ही समाज की बनावट बनती है। यदि नातेदारी व्यवस्था ही न हो तो समाज एक संगठन की तरह नहीं बन सकेगा और सही तरीके से काम नहीं कर सकेगा। इसलिए इसका महत्त्व काफ़ी बढ़ गया है जिसका वर्णन अग्रलिखित है

1. नातेदारी सम्बन्धों के माध्यम से ही कबाइली और खेती वाले समाजों के बीच अधिकार और परिवार एवं विवाह, उत्पादन और उपभोग की पद्धति और राजनीतिक सत्ता के अधिकारों का निर्धारण होता है। शहरी समाजों में भी विवाह और पारिवारिक उत्सवों के समय नातेदारी सम्बन्धों का महत्त्व देखने को मिलता है।

2. नातेदारी, परिवार और विवाह में गहरा सम्बन्ध है। नातेदारी के माध्यम से ही इस बात का निर्धारण होता है कि कौन किसके साथ विवाह कर सकता है और कौन-कौन से सम्बन्धों की शब्दावली भी है। नातेदारी से ही वंश सम्बन्ध, गोत्र और खानदान का निर्धारण होता है और वंश, गोत्र और खानदान में बहिर्विवाह का सिद्धान्त पाया जाता है।

3. पारिवारिक जीवन, वंश सम्बन्ध, गोत्र और खानदान के सदस्यों के बीच नातेदारी के आधार पर ही जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों एवं कर्म-काण्डों में किसका क्या अधिकार और ज़िम्मेदारी है, इसका निर्धारण होता है, जैसे ; विवाह के संस्कार और इसके साथ जुड़े कर्म-काण्डों में बड़े भाई, मां और बुआ का विशेष महत्त्व है। मृत्यु के बाद आग कौन देगा, इसका सम्बन्ध भी नातेदारी पर निर्भर करता है। जिन लोगों को आग देने का अधिकार होता है, नातेदारी उनके उत्तराधिकार को निश्चित करती है। सामाजिक संगठन (जन्म, विवाह, मौत) और सामूहिक उत्सवों के मौकों और नातेदारी या रिश्तेदारों को बुलाया जाना जरूरी होता है, ऐसा करने के साथ सम्बन्धों में और मज़बूती बढ़ती है।

4. नातेदारी व्यवस्था के साथ समाज को मज़बूती मिलती है। नातेदारी व्यवस्था सामाजिक संगठन को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि नातेदारी व्यवस्था ही न हो तो सामाजिक संगठन टूट जाएगा और समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी।

5. नातेदारी व्यवस्था लैंगिक सम्बन्धों को निश्चित करती है। नातेदारी व्यवस्था में लैंगिक सम्बन्ध बनाने, हमारे समाज में वर्जित है। यदि नातेदारी व्यवस्था न हो तो समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी और नाजायज़ लैंगिक सम्बन्ध और अवैध बच्चों की भरमार होगी जिसके साथ समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।

6. नातेदारी व्यवस्था विवाह निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अपने गोत्र में विवाह नहीं करवाना, माता की तरफ से कितने रिश्तेदार छोड़ने हैं, पिता की तरफ से कितने रिश्तेदार छोड़ने हैं, यह सब कुछ नातेदारी व्यवस्था पर भी निर्भर करता है। यदि यह व्यवस्था न हो तो विवाह करने में किसी भी नियम की पालना नहीं होगी जिसके कारण समाज में अव्यवस्था फैल जाएगी।

7. नातेदारी व्यवस्था मनुष्य को मानसिक शान्ति प्रदान करती है। आजकल के औद्योगिक समाज में चाहे हमारे विचार Practical हो चुके हैं पर फिर भी मनुष्य नातेदारी के बन्धनों से मुक्त नहीं हो सका है। वह अपने बुजुर्गों की तस्वीरें घर में टांग कर रखता है, उनकी तस्वीरों का संग्रह करता है, मरने के बाद उनका श्राद्ध करता है। मनुष्य जाति नातेदारी पर आधारित समूहों में रही है। नातेदारी के बिना व्यक्ति एक मरे हुए व्यक्ति के समान है। हमारे रिश्तेदार हमें सबसे ज्यादा जानते हैं, पहचानते हैं। वह अपने आपको अपने परिवार का हिस्सा समझते हैं। यदि हम किसी परेशानी में होते हैं तो हमारे रिश्तेदार हमें मानसिक तौर पर शान्त करते हैं। हम अपने रिश्तेदारों में ही रह कर सबसे ज्यादा प्रसन्नता और आनन्द महसूस करते हैं।

8. हमारी नातेदारी ही हमारे विवाह और परिवार का निर्धारण करती है कि किसके साथ विवाह करना है, किसके साथ नहीं करना है। सगोत्र, अन्तर्जातीय विवाह सब कुछ ही नातेदारी पर ही निर्भर करता है। परिवार में ही खून और विवाह के सम्बन्ध पाए जाते हैं। नातेदारी के कारण ही विवाह और नातेदारी में व्यवस्था पैदा होती है।

प्रश्न 10.
वैवाहिक तथा रक्त सम्बन्धों में अन्तर कीजिए।
उत्तर-
(i) रक्त संबंधी नातेदारी (Consanguinity) सगोत्र नातेदारी शुरुआती परिवार के आधार पर और इसमें पैदा हुए असली या नकली रक्त के वंश परम्परागत सम्बन्धों को सगोत्र नातेदारी कहते हैं। आम शब्दों में वह सभी रिश्तेदार या व्यक्ति जो रक्त के बन्धनों में बन्धे होते हैं उनको सगोत्र नातेदारी कहते हैं। रक्त का सम्बन्ध चाहे असली हो या नकली इसको नातेदारी व्यवस्था में तो ही ऊंचा स्थान प्राप्त होता है। यदि इस सम्बन्ध को समाज की मान्यता प्राप्त हो। उदाहरण के तौर पर नाजायज़ बच्चे को, चाहे उसके साथ भी रक्त सम्बन्ध होता है, समाज में मान्यता प्राप्त नहीं होती क्योंकि उसको समाज की मान्यता प्राप्त नहीं होती और गोद लिए बच्चे को, चाहे उसके साथ रक्त सम्बन्ध नहीं होता, समाज में मान्यता प्राप्त होती है और वह सगोत्र प्रणाली का हिस्सा होते हैं। रक्त सम्बन्धों को हर प्रकार के समाजों में मान्यता प्राप्त है।

इस तरह इस चर्चा से स्पष्ट है कि शुरुआती परिवार के आधार पर रक्त-वंश परम्परागत सम्बन्धों से पैदा हुए सारे रिश्तेदार इस सगोत्र नातेदारी प्रणाली में शामिल है। हम उदाहरण ले सकते हैं बहन-भाई, मामा, चाचा, ताया, नाना-नानी, दादा-दादी आदि। यहाँ यह बताने योग्य है कि रक्त सम्बन्ध सिर्फ़ पिता वाली तरफ से ही नहीं होता बल्कि माता वाली तरफ से भी होता है। इस तरह पिता वाली तरफ से रक्त सम्बन्धियों को पितृ पक्ष रिश्तेदार कहते हैं और माता वाली तरफ से रक्त सम्बन्धियों को मात पक्ष रिश्तेदार।

वर्गीकरण-खून के आधार पर आधारित रिश्तेदारों को अलग-अलग नामों के साथ जाना जाता है। एक ही मां-बाप के बच्चे, जो आपस में सगे भाई-बहन होते हैं, को सिबलिंग (Sibling) कहते हैं और सौतेले बहन-भाई को हॉफ़ सिबलिंग (Half sibling) कहते हैं। पिता वाली तरफ सिर्फ आदमियों के रक्त सम्बन्धियों जो सिर्फ आदमी होते हैं उनको सगा-सम्बन्धी (Agnates) कहते हैं और इसी तरह माता वाली तरफ सिर्फ औरतों के रक्त सम्बन्धियों जो सिर्फ औरतें होती हैं, उनको (Utrine) कहते हैं। इसी तरह वह लोग जो रक्त सम्बन्धों के कारण सम्बन्धित हों, उनको रक्त सम्बन्धी रिश्तेदार (Consanguined kin) कहा जाता है। इन रक्त सम्बन्धियों को दो हिस्सों में बांटा जाता है।

  • एक रेखकी रिश्तेदार (Unilineal Kin)-इस प्रकार की रिश्तेदारी में वह व्यक्ति आते हैं जो वंश क्रम की सीधी रेखा द्वारा सम्बन्धित हों जैसे पिता, पिता का पिता, पुत्र और पुत्र का पुत्र ।
  • कुलेटरल या समानान्तर रिश्तेदार (Collateral Kin)-इस प्रकार के रिश्तेदार वह व्यक्ति होते हैं, जो हर रिश्तेदारों के द्वारा असीधे तौर पर सम्बन्धित हों जैसे पिता का भाई चाचा, मां की बहन मौसी, मां का भाई मामा आदि।

(ii) विवाह संबंधी नातेदारी (Affinity)—इसको सामाजिक नातेदारी का नाम भी दिया जाता है। इस प्रकार की नातेदारी में उस तरह के रिश्तेदार शामिल होते हैं जो किसी आदमी या औरत के विवाह करने से पैदा होते हैं। जब किसी लड़के का लड़की से विवाह होता है तो उसका सिर्फ लड़की के साथ ही सम्बन्ध स्थापित नहीं होता बल्कि लड़की के माध्यम से उसके परिवार के बहुत सारे सदस्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसी तरह जब लड़की का लड़के के साथ विवाह होता है तो लड़की का भी लड़के के परिवार के सारे सदस्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इस तरह सिर्फ विवाह करवाने के साथ ही लड़का-लड़की के कई प्रकार के नए रिश्ते अस्तित्व में आ जाते हैं। इस तरह विवाह पर आधारित नातेदारी को विवाहिक नातेदारी का नाम दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर जीजा-साला, साढू-जमाई, ससुर, ननद, भाभी, बहु, सास आदि। इस तरह की नातेदारी की प्राणीशास्त्री महत्ता के साथ-साथ सामाजिक महत्ता भी होती है। प्राणीशास्त्रीय महत्त्व तो पति-पत्नी के लिए है पर सास-ससुर, देवर, ननद, भाभी, साढ़, साली, साला, जमाई आदि रिश्ते सामाजिक होते हैं। मॉर्गन ने दुनिया के कई भागों में प्रचलित साकेदारियों का अध्ययन किया और इनको वर्णनात्मक और व्यक्तिनिष्ठ नामकरण के साथ तो मनुष्य श्रेणियों में बांटा है। वर्णनात्मक प्रणाली में आम-तौर पर विवाहिक सम्बन्धियों के लिए एक ही नाम दिया जाता है। ऐसे नाम नातेदारी की तुलना में सम्बन्ध के बारे में ज्यादा बताते हैं। व्यक्तिनिष्ठ शब्द असली सम्बन्धों के बारे में बताते हैं। जैसे-अंकल को हम मामा, चाचा, फुफड़ और मौसा के लिए प्रयोग करते हैं। यह पहले प्रकार की उदाहरण है। परन्तु फादर या पिता के लिए कोई शब्द प्रयोग नहीं हो सकते।

इस तरह Nephew को भतीजे या भांजे के लिए, cousin को मामा, चाचा, ताया, मासी, बुआ के बच्चों के लिए प्रयोग किया जाता है। इस तरह Sister-in-law को साली और ननद और Brother-in-law को देवर तथा साले के लिए प्रयोग किया जाता है।

इस तरह आधुनिक समाज में नए-नए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। असल में यह सारे शब्द नातेदारी के सूचक हैं और विवाहिक नातेदारी पर आधारित होते हैं। जैसे व्यक्ति को जमाई का दर्जा, पति का दर्जा, औरत को बहू और पत्नी का दर्जा विवाह के कारण ही प्राप्त होता है। इस तरह हम बहुत सारी वैवाहिक रिश्तेदारियों को गिन सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

वस्तुनिष्ठ प्रश्न 

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :

प्रश्न 1.
समाज की आधारभूत इकाई कौन-सी होती है ?
(A) परिवार
(B) विवाह
(C) नातेदारी
(D) सरकार।
उत्तर-
(A) परिवार।

प्रश्न 2.
यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए समाज ने एक संस्था को मान्यता दी है जिसे ……. कहते हैं।
(A) विवाह
(B) परिवार
(C) सरकार
(D) नातेदारी।
उत्तर-
(A) विवाह।

प्रश्न 3.
बच्चे का समाजीकरण कौन शुरू करता है ?
(A) सरकार
(B) परिवार
(C) पड़ोस
(D) खेल समूह।
उत्तर-
(B) परिवार।

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प्रश्न 4.
कौन अगली पीढ़ी को संस्कृति का हस्तांतरण करता है ?
(A) पड़ोस
(B) सरकार
(C) परिवार
(D) समाज।
उत्तर-
(C) परिवार।

प्रश्न 5.
यौन इच्छा ने किस संस्था को जन्म दिया ?
(A) परिवार
(B) समाज
(C) सरकार
(D) विवाह।
उत्तर-
(D) विवाह।

प्रश्न 6.
मातुलेय परिवारों में किन रिश्तेदारों में निकटता होती है ?
(A) मामा-भांजा
(B) माता-पुत्री
(C) पिता-पुत्र
(D) चाचा-भतीजा।
उत्तर
(A) मामा-भांजा।

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प्रश्न 7.
रक्त सम्बन्धी या सीधे सम्बन्धी ……. सम्बन्धी होते हैं।
(A) प्राथमिक
(B) द्वितीय
(C) तृतीय
(D) चतुर्थ।
उत्तर-
(A) प्राथमिक।

प्रश्न 8.
जो सम्बन्ध हमारे माता पिता के लिए प्राथमिक होता है उसे क्या कहते हैं ?
(A) प्राथमिक सम्बन्ध
(B) द्वितीय सम्बन्ध
(C) तृतीय सम्बन्ध
(D) चतुर्थ सम्बन्ध।
उत्तर-
(B) द्वितीय सम्बन्ध।

प्रश्न 9.
जो सम्बन्धी द्वितीय सम्बन्धों से बनते हैं वह हमारे ……….. सम्बन्धी होते हैं।
(A) प्राथमिक
(B) द्वितीय
(C) तृतीय
(D) चतुर्थ।
उत्तर-
(C) तृतीय।

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प्रश्न 10.
बच्चे की प्रथम पाठशाला कौन सी होती है ?
(A) सरकार
(B) परिवार
(C) खेल समूह
(D) पड़ोस।
उत्तर-
(B) परिवार।

प्रश्न 11.
उस परिवार को क्या कहते हैं जिसमें पति पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं ?
(A) केंद्रीय परिवार
(B) संयुक्त परिवार ।
(C) विस्तृत परिवार
(D) नव स्थानीय परिवार।
उत्तर-
(A) केन्द्रीय परिवार।

प्रश्न 12.
इनमें से कौन सा परिवार का कार्य है ?
(A) बच्चे का समाजीकरण
(B) बच्चों पर नियंत्रण
(C) बच्चे का पालन-पोषण
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 13.
विवाह के आधार पर परिवार का प्रकार बताएं।
(A) एक विवाह परिवार
(B) बहु विवाही परिवार
(C) समूह विवाही परिवार
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 14.
नातेदारी के कितने प्रकार होते हैं ?
(A) एक
(B) दो
(C) तीन
(D) चार।
उत्तर-
(B) दो।

प्रश्न 15.
प्राथमिक रिश्तेदार कितने प्रकार के होते हैं ?
(A) पाँच
(B) छः
(C) आठ
(D) दस।
उत्तर-
(C) आठ।

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प्रश्न 16.
द्वितीयक सम्बन्धी कितने प्रकार के होते हैं ?
(A) 30
(B) 33
(C) 36
(D) 39.
उत्तर-
(B) 33.

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. ……….. परिवार में पिता की सत्ता चलती है।
2. ………… परिवार में माता की सत्ता चलती है।
3. ………….. विवाह में अपने समूह में ही विवाह करवाया जाता है।
4. ……….. परिवार में दो या अधिक पीढ़ियों में परिवार इकट्ठे रहते हैं।
5. बहुपति विवाह …………….. प्रकार का होता है।
6. आकार के आधार पर परिवार ……….. प्रकार के होते हैं।
7. सत्ता के आधार पर परिवार …………… प्रकार के होते हैं।
उत्तर-

  1. पितृसत्तात्मक,
  2. मातृसत्तात्मक,
  3. अन्तः,
  4. संयुक्त,
  5. दो,
  6. तीन,
  7. दो।

III. सही/गलत (True/False) :

1. एकाकी परिवार में संपूर्ण नियंत्रण पिता के हाथों में होता है।
2. स्त्रियों की संख्या कम होने के कारण बहुपति विवाह होते हैं।
3. बहुविवाह संसार में सबसे अधिक प्रचलित हैं।
4. नातेदारी के दो प्रकार होते हैं।
5. परिवार संस्कृति के वाहक के रूप में कार्य करता है।
6. मातृवंशी परिवार में सम्पत्ति पुत्री को नहीं मिलती है।
7. परिवार के सदस्यों में रक्त संबंध होते हैं।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. गलत,
  4. सही,
  5. सही,
  6. गलत,
  7. सही।

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IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
एक विवाह का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब एक पुरुष एक स्त्री से विवाह करता है तो उसे एक विवाह कहते हैं।

प्रश्न 2.
बहुविवाह के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर-
बहुविवाह के तीन प्रकार हैं।

प्रश्न 3.
द्विविवाह में एक पुरुष की कितनी पत्नियां होती हैं ?
उत्तर-
द्विविवाह में एक पुरुष की दो पत्नियां होती हैं।

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प्रश्न 4.
बहुपति विवाह में एक स्त्री के कितने पति हो सकते हैं ?
उत्तर-
बहुपति विवाह में एक स्त्री के कई पति हो सकते हैं।

प्रश्न 5.
अन्तर्विवाह का अर्थ बताएं।
उत्तर-
जब व्यक्ति केवल अपनी ही जाति में विवाह करवा सकता हो उसे अंतर्विवाह कहा जाता है।

प्रश्न 6.
बर्हिविवाह का अर्थ बताएं।
उत्तर-
जब व्यक्ति को अपनी गोत्र के बाहर परंतु अपनी जाति के अंदर विवाह करवाना पड़े तो उसे बर्हिविवाह कहते हैं।

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प्रश्न 7.
यह शब्द किसके हैं, “विवाह एक समझौता है जिसमें बच्चों की पैदाइश तथा देखभाल होती
उत्तर-
यह शब्द मैलीनोवस्की के हैं।

प्रश्न 8.
संसार में विवाह का कौन-सा प्रकार सबसे अधिक प्रचलित है ?
उत्तर-
संसार में विवाह का सबसे अधिक प्रचलित प्रकार एक विवाह है।

प्रश्न 9.
बहु-पत्नी विवाह का अर्थ।
उत्तर-
जब एक पुरुष कई स्त्रियों के साथ विवाह करवाए तो उसे बहु-पत्नी विवाह कहते हैं।

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प्रश्न 10.
बहु-पति विवाह का अर्थ।
उत्तर-
जब कई पुरुष मिलकर एक स्त्री से विवाह करते हैं, तो उसे बहु-पति विवाह कहते हैं।

प्रश्न 11.
एफिनिटी क्या होता है ?
उत्तर-
सामाजिक सम्बन्ध जो विवाह पर आधारित होते हैं, उन्हें एफिनिटी कहते हैं।

प्रश्न 12.
यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त संस्था कौन-सी है ?
उत्तर-
यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए समाज ने एक संस्था को मान्यता दी हुई है, जिसे परिवार कहते हैं।

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प्रश्न 13.
यौन इच्छा ने किस प्रथा को जन्म दिया ?
उत्तर-
यौन इच्छा ने विवाह नामक प्रथा को जन्म दिया।

प्रश्न 14.
विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
यौन सम्बन्धों को समाज ने एक प्रथा के द्वारा मान्यता दी हुई है, जिसे विवाह कहते हैं।

प्रश्न 15.
कुलीन विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
जब एक ही जाति में ऊंचे कुलों से सम्बन्धित लड़के-लड़की का विवाह होता है तो उसे कुलीन विवाह कहते हैं।

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प्रश्न 16.
प्रेम विवाह का प्राचीन नाम क्या है ?
उत्तर-
प्रेम विवाह का प्राचीन नाम गंधर्व विवाह है।

प्रश्न 17.
भ्रातृक बहुपति विवाह का अर्थ बताएं।
उत्तर-
अगर सभी भाई एक स्त्री से इकट्ठे विवाह करें तो उसे भ्रातृक बहुपति विवाह कहते हैं।

प्रश्न 18.
कौन-से पुरुष को पूर्ण पुरुष कहा जाता है ?
उत्तर-
जिस पुरुष के स्त्री तथा बच्चे हों, उसे पूर्ण पुरुष कहा जाता है।

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प्रश्न 19.
अन्तर्विवाह का कोई कारण बताओ।
उत्तर-
रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए अन्तर्विवाह की आवश्यकताएं पड़ी।

प्रश्न 20.
प्राथमिक सम्बन्धी कौन-से होते हैं ? ।
उत्तर-
रक्त सम्बन्धी या सीधे सम्बन्ध प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं, जैसे कि पिता, माता, भाई, बहन इत्यादि।

प्रश्न 21.
द्वितीय सम्बन्धी कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
जो हमारे माता या पिता का प्राथमिक सम्बन्धी होता है वह हमारे लिए द्वितीय सम्बन्धी होता है, जैसे मामा, चाचा, ताया, बुआ इत्यादि।

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प्रश्न 22.
तृतीय सम्बन्धी कौन-से होते हैं ? .
उत्तर-
जो सम्बन्धी द्वितीय सम्बन्धों से बनते हैं वह हमारे तृतीय सम्बन्धी होते हैं, जैसे पिता की बहन का पति, माता के भाई की पत्नी इत्यादि।

प्रश्न 23.
समूह विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
जब बहुत सारी स्त्रियों का बहुत सारे पुरुषों के साथ इकट्ठे विवाह होता है, उसे समूह विवाह कहते

प्रश्न 24.
बहिर्विवाह में किससे बाहर विवाह करना पड़ता है ?
उत्तर-
बहिर्विवाह में अपने सपिण्ड, प्रवर तथा गोत्र से बाहर करना पड़ता है।

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प्रश्न 25.
अन्तर्विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
जब व्यक्ति को अपने समूह या जाति के अन्दर विवाह करना पड़े तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 26.
प्रतिलोम विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
जब निम्न जाति का पुरुष उच्च जाति की स्त्री से विवाह करता है तो उसे प्रतिलोम विवाह कहते हैं।

प्रश्न 27.
कौन-सी संस्था परिवार के निर्माण में सहायक होती है ?
उत्तर-
विवाह नामक संस्था परिवार के निर्माण में सहायक होती है।

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प्रश्न 28.
किस संस्था से समाज विघटन से बचता है ?
उत्तर-
विवाह नामक संस्था के कारण समाज का विघटन नहीं होता।

प्रश्न 29.
बहु-पत्नी विवाह का अर्थ बताएं।
उत्तर-
जब एक व्यक्ति एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करवाए तो उसे बहु-पत्नी विवाह कहते हैं।

प्रश्न 30.
बहु-पति विवाह का अर्थ बताएं।
उत्तर-
जब एक स्त्री के कई पति हों तो उस विवाह को बहुपति विवाह कहते हैं।

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प्रश्न 31.
बहु-पति विवाह के कितने प्रकार होते हैं ?
उत्तर-
बहुपति विवाह के दो प्रकार-भ्रातृ बहुपति विवाह तथा गैर-भ्रात बहुपति विवाह होते हैं।

प्रश्न 32.
एक विवाह को आदर्श क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि इससे परिवार अधिक स्थायी रहते हैं।

प्रश्न 33.
पितृ सत्तात्मक परिवार में ……….. शक्ति अधिक होती है।
उत्तर-
पितृ सत्तात्मक परिवार में पिता की शक्ति अधिक होती है।

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प्रश्न 34.
मातृ सत्तात्मक परिवार में …………… की सत्ता चलती है।
उत्तर-
मातृ सत्तात्मक परिवार में माता की सत्ता चलती है।

प्रश्न 35.
रक्त सम्बन्धी परिवार में कौन-से सम्बन्ध पाए जाते हैं ?
उत्तर-
रक्त सम्बन्धी परिवार में रक्त सम्बन्ध पाए जाते हैं।

प्रश्न 36.
सदस्यों के आधार पर परिवार के कितने तथा कौन-से प्रकार होते हैं ?
उत्तर-
सदस्यों के आधार पर परिवार के तीन प्रकार केन्द्रीय परिवार, संयुक्त परिवार तथा विस्तृत परिवार होते हैं।

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प्रश्न 37.
विवाह के आधार पर परिवार के कितने तथा कौन-से प्रकार होते हैं ?
उत्तर-
विवाह के आधार पर परिवार के दो प्रकार-एक विवाही परिवार तथा बहुविवाही परिवार होते हैं।

प्रश्न 38.
वंश के आधार पर कितने प्रकार के परिवार होते हैं ?
उत्तर-
चार प्रकार के परिवार ।

प्रश्न 39.
केन्द्रीय परिवार का अर्थ बताएं।
उत्तर-
वह परिवार जिसमें पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे रहते हों उसे केन्द्रीय परिवार कहा जाता है।

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प्रश्न 40.
हिन्दू विधवा पुनर्विवाह एक्ट कब पास हुआ था ?
उत्तर-
सन् 1856 में।

प्रश्न 41.
शब्द Family किस भाषा के शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर है ?
उत्तर-
शब्द Family लातीनी भाषा के शब्द का अंग्रेज़ी रूपान्तर है।

प्रश्न 42.
शब्द Family लातीनी भाषा के किस शब्द से निकला है ?
उत्तर-
शब्द Family लातीनी भाषा के शब्द Famulus से निकला है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 43.
परिवार के स्वरूप में परिवर्तन का एक कारण बताओ।
उत्तर-
आजकल स्त्रियां घर से जाकर दफ्तरों में काम करने लगी हैं जिससे उनकी परिवार तथा पति पर निर्भरता काफ़ी कम हो गई है।

प्रश्न 44.
परिवार एक सर्वव्यापक संस्था है। कैसे ?
उत्तर-
परिवार एक सर्वव्यापक संस्था है क्योंकि यह प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में पाया जाता है।

प्रश्न 45.
परिवार में सदस्यों के बीच किस प्रकार के सम्बन्ध होते हैं ?
उत्तर-
परिवार में सदस्यों के बीच रक्त सम्बन्ध होते हैं।

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प्रश्न 46.
समाज में परिवार का किस प्रकार का स्थान होता है ?
उत्तर-
समाज में परिवार का केन्द्रीय स्थान होता है।

प्रश्न 47.
परिवार के सदस्यों में किस प्रकार के गुण पाए जाते हैं ? ।
उत्तर-
परिवार के सदस्यों में हमदर्दी, त्याग, प्रेम जैसे गुण पाए जाते हैं।

प्रश्न 48.
परिवार के दो जैविक कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. परिवार में ही व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ सम्बन्ध बनाता है।
  2. परिवार में ही सन्तान उत्पन्न होती है।

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प्रश्न 49.
परिवार के दो आर्थिक कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. परिवार सदस्यों के खाने का प्रबन्ध करता है।
  2. परिवार एक उत्पादक इकाई के रूप में कार्य करता है।

प्रश्न 50.
परिवार में उत्तराधिकार का निर्धारण कैसे होता है ?
उत्तर-
बेटों में जायदाद का समान विभाजन कर दिया जाता है।

प्रश्न 51.
परिवार के दो सामाजिक कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. परिवार व्यक्ति को सामाजिक स्थिति प्रदान करता है।
  2. परिवार संस्कृति को अगली पीढ़ी को सौंप देता है।

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प्रश्न 52.
कौन-सी संस्था बच्चे का समाजीकरण करती है ?
उत्तर-
परिवार नामक संस्था बच्चे का समाजीकरण करती है।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती है। स्पष्ट करें।
उत्तर-
विवाह के कारण व्यक्ति को समाज में कई सारे पद मिल जाते हैं, जैसे-पति, पिता, जीजा, दामाद इत्यादि। इन सभी पदों में ज़िम्मेदारी होती है। विवाह से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती है।

प्रश्न 2.
मनु ने प्रतिलोम विवाह के बारे में कौन-से विचार व्यक्त किए हैं ?
उत्तर-
मनु के अनुसार निम्न जाति के पुरुष का उच्च जाति की स्त्री से विवाह करना पाप है। इसे उन्होंने निषेध करार दिया है। इस प्रकार के विवाह से पैदा होने वाली सन्तान को उन्होंने चण्डाल कहा है।

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प्रश्न 3.
अनुलोम विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
जब एक उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से विवाह करता है तो उसे अनुलोम विवाह कहते हैं। इस प्रकार के विवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त है तथा इस प्रकार के विवाह साधारणतया होते रहते थे।

प्रश्न 4.
विवाह पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-
कई समाजों में विवाह करवाने के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं कि किस समूह में विवाह करना है तथा किस में नहीं। साधारणतया रक्त सम्बन्धी, एक ही गोत्र वाले व्यक्ति आपस में विवाह नहीं करवा सकते।

प्रश्न 5.
गैर-भातृ बहुपति विवाह।
उत्तर-
बहुपति विवाह का वह प्रकार जिसमें पत्नी के सभी पति आपस में भाई नहीं होते गैर-भ्रातृ बहुपति विवाह होता है। विवाह के पश्चात् पत्नी निश्चित समय के लिए अलग-अलग पतियों के साथ रहती है।

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प्रश्न 6.
बहुपत्नी विवाह का अर्थ।
उत्तर-
यह विवाह का वह प्रकार है जिसमें एक व्यक्ति की एक से अधिक पत्नियां होती हैं। यह दो प्रकार का होता है-प्रतिबन्धित तथा अप्रतिबन्धित बहु-पत्नी विवाह । इस प्रकार का विवाह आजकल वर्जित है।

प्रश्न 7.
बहु-पत्नी विवाह में स्त्रियों की स्थिति।
उत्तर-
बहु-पत्नी विवाह में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न होती है क्योंकि उसे कई पुरुषों से विवाह तथा संबंध रखने पड़ते हैं। इसका उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है तथा उनकी सामाजिक स्थिति भी निम्न होती है।

प्रश्न 8.
एक विवाह पर संक्षेप नोट लिखें।
उत्तर-
जब एक ही स्त्री से एक ही पुरुष विवाह करवाता है तो विवाह को एक विवाह कहते हैं। जब तक दोनों जीवित हैं अथवा एक दूसरे से तलाक नहीं ले लेते, वह दूसरा विवाह नहीं करवा सकते।

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प्रश्न 9.
बहु-पति विवाह के दो अवगुण।
उत्तर-

  1. इस प्रकार के विवाह में स्त्री का स्वास्थ्य खराब हो जाता है क्योंकि उसे कई पतियों की लैंगिक इच्छा को पूर्ण करना पड़ता है।
  2. इस प्रकार के विवाह में स्त्री के लिए पतियों में झगडे होते रहते हैं।

प्रश्न 10.
एक विवाह के दो गुण।
उत्तर-

  1. एक विवाह में पति-पत्नी के संबंध अधिक गहरे होते हैं।
  2. इस विवाह में बच्चों का पालन-पोषण ठीक ढंग से हो जाता है।
  3. इस विवाह में पारिवारिक झगड़े कम होते हैं।
  4. इसमें पति-पत्नी में तालमेल रहता है।

प्रश्न 11.
बहुपत्नी विवाह के मुख्य कारण बताएं।
उत्तर-

  1. पुरुषों की अधिक यौन संबंधों की इच्छा के कारण बहुपत्नी विवाह सामने आए।
  2. लड़कियां पैदा होने के कारण तथा लड़का होने की इच्छा के कारण यह विवाह बढ़ गए।
  3. राजा-महाराजाओं के अधिक पत्नियां रखने के शौक के कारण यह विवाह सामने आए।

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प्रश्न 12.
परिवार क्या होता है ?
उत्तर-
परिवार उस समूह को कहते हैं जो यौन सम्बन्धों पर आधारित है और जो इतना छोटा व स्थायी है कि उससे बच्चों की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण हो सके। इसमें सभी रक्त संबंधी शामिल होते हैं।

प्रश्न 13.
पितृ सत्तात्मक परिवार कौन-सा होता है ?
उत्तर-
वह परिवार जहां सारे अधिकार पिता के हाथ में होते हैं, परिवार पिता के नाम पर चलता है तथा परिवार पर पिता का पूरा नियन्त्रण होता है। घर के सभी सदस्यों को पिता की आज्ञा के अनुसार कार्य करना पड़ता है।

प्रश्न 14.
मातृ-सत्तात्मक परिवार।
उत्तर-
वह परिवार जहां सारे अधिकार माता के हाथ में होते हैं, परिवार माता के नाम पर चलता है तथा परिवार पर माता का नियन्त्रण होता है। सम्पत्ति पर माता का अधिकार होता है तथा माता के पश्चात् सम्पत्ति पुत्री को प्राप्त होती है।

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प्रश्न 15.
विवाह के आधार पर परिवार के कितने प्रकार होते हैं ?
उत्तर-
विवाह के आधार पर परिवार दो प्रकार के होते हैं-

  1. एक विवाही परिवार
  2. बहु विवाही परिवार।

प्रश्न 16.
परिवार में शिक्षा संबंधी कार्यों में परिवर्तन।
उत्तर–
पहले परिवार बच्चों को शिक्षा देता था परन्तु अब इसमें परिवर्तन आ गया है। अब परिवार का यह कार्य स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों ने लिया है। पहले परिवार के बड़े बुजुर्ग बच्चों को शिक्षा देते थे परन्तु अब यह कार्य औपचारिक संस्थाओं के पास है।

प्रश्न 17.
परिवार की केंद्रीय स्थिति।
उत्तर-
परिवार की समाज में केन्द्रीय स्थिति है क्योंकि परिवार के बिना समाज अस्तित्व में नहीं आ सकता तथा प्रत्येक व्यक्ति समाज में ही रहना पसंद करता है। परिवार के कारण ही समाज अस्तित्व में आता है।

प्रश्न 18.
बच्चों का पालन-पोषण।
उत्तर-
बच्चों का पालन-पोषण परिवार का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है क्योंकि परिवार ही बच्चों की सभी आवश्यकताएं पूर्ण करता है। परिवार उसे अच्छा नागरिक बनाने के लिए सभी चीजें उपलब्ध करवाता है।

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प्रश्न 19.
घर की व्यवस्था।
उत्तर-
परिवार अपने सदस्यों के लिए घर की व्यवस्था करता है। घर के बिना परिवार न तो बन सकता है तथा न ही प्रगति कर सकता है। इस प्रकार घर की व्यवस्था करके परिवार सदस्यों के व्यक्तित्व का विकास भी करता है।

प्रश्न 20.
परिवार में सहयोग।
उत्तर-
पति तथा पत्नी एक-दूसरे से सहयोग करते हैं ताकि परिवार का कल्याण हो सके। वह अपने बच्चों तथा परिवार को अच्छा जीवन देने के लिए एक-दूसरे से सहयोग करते हैं। पति-पत्नी के सहयोग के कारण ही परिवार सामने आता है।

प्रश्न 21.
साझे परिवार पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव।
उत्तर-
साझे परिवार में रहने वाले व्यक्ति पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के अधीन आ रहे हैं। इस कारण वह अपने सांझे परिवारों को छोड़ रहे हैं तथा केंद्रीय परिवार बसा रहे हैं। इस तरह साझे परिवार खत्म हो रहे हैं।

प्रश्न 22.
परिवार के दो कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. परिवार में व्यक्ति की सम्पत्ति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँच जाती है तथा किसी तीसरे व्यक्ति के पास नहीं जाती।
  2. बच्चों के पालन-पोषण तथा सुरक्षा का कार्य परिवार का ही होता है तथा उनका सही विकास परिवार में ही हो सकता है।

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प्रश्न 23.
परिवार के कार्यों में कोई दो परिवर्तन।
उत्तर-

  1. आजकल के परिवार अधिक प्रगतिशील हो रहे हैं।
  2. स्त्रियां घरों से बाहर निकल कर कार्य कर रही हैं जिस कारण उनके कार्य बदल रहे हैं।
  3. परिवार के मुखिया का नियन्त्रण कम हो गया है तथा सभी अपनी इच्छा से कार्य करते हैं।

प्रश्न 24.
नवस्थानीय परिवार।
उत्तर-
इस प्रकार के परिवार में विवाह के पश्चात् पति-पत्नी अपने माता-पिता के घर जाकर नहीं रहते बल्कि अपना नया घर बसाते हैं तथा बिना रोक-टोक के रहते हैं। आजकल इस प्रकार के परिवार पाए जाते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक संस्था।
उत्तर-
संस्था न तो लोगों का समूह है और न ही संगठन है। सामाजिक संस्था तो किसी कार्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिमाप की व्यवस्था है। संस्था तो किसी विशेष महत्त्वपूर्ण क्रिया के आस-पास केन्द्रित रूढियों और लोक रीतों का जाल है। संस्थाएं तो संरचिंत प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने कार्य करता है।

प्रश्न 2.
संस्था के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताइये।
उत्तर-

  1. निश्चित उद्देश्य-संस्था विशेष मानवीय आवश्यकता के लिए विकसित होती है। बिना उद्देश्य के संस्था नहीं होती है। इस प्रकार संस्था किसी निश्चित उद्देश्य के लिए बनती है।
  2. एक विचार-विचार ही संस्था का आवश्यक तत्त्व है। किसी भी आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक विचार की शुरुआत होती है जिसको समूह अपने लिए आवश्यक समझता है। इस कारण इसकी रक्षा हेतु वह संस्था को विकसित करता है।

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प्रश्न 3.
संस्था की चार विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. संस्था व्यवस्था एक इकाई है।
  2. संस्था के स्पष्ट तौर पर परिभाषित उद्देश्य हैं।
  3. संस्था अमूर्त होती है।
  4. संस्था की एक परम्परा व प्रतीक होता है।

प्रश्न 4.
संस्था के कोई चार कार्य बतायें।
उत्तर-

  1. संस्था समाज के ऊपर नियन्त्रण रखती है।
  2. संस्था व्यक्ति को पद एवं भूमिका प्रदान करती है।
  3. संस्था उद्देश्य को पूरा करने में मदद करती है।
  4. संस्था सांस्कृतिक एकसारता प्रदान करती है।
  5. संस्था संस्कृति की वाहक है।

प्रश्न 5.
संस्था कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर-
वैसे तो संस्थाएं कई प्रकार की होती हैं, पर साधारणतया संस्थाएं चार प्रकार की होती हैं-

  1. सामाजिक संस्थाएं (Social Institutions)
  2. राजनैतिक संस्थाएं (Political Institutions)
  3. आर्थिक संस्थाएं (Economic Institutions)
  4. धार्मिक संस्थाएं (Religious Institutions)।

प्रश्न 6.
विवाह का अर्थ।
उत्तर–
प्रत्येक समाज में परिवार की स्थापना के लिए स्त्री व पुरुष के लिंगक सम्बन्धों को स्थापित करने की मान्यता विवाह द्वारा दी जाती है। इस प्रकार लिंग सम्बन्धों को निश्चित करने व संचालित करने के लिए बच्चों के पालनपोषण की ज़िम्मेदारी को निर्धारित करने व परिवार को स्थाई रूप देने के लिए बनाए गए नियमों को विवाह कहते हैं। परिवार बसाने के लिए दो या दो से अधिक स्त्रियों व पुरुषों के बीच ज़रूरी सम्बन्ध स्थापित करने व उन्हें स्थिर रखने के लिए संस्थात्मक व्यवस्था को विवाह कहते हैं। जिसका उद्देश्य घर की स्थापना, यौन सम्बन्धों में प्रवेश व बच्चों का पालन-पोषण है।

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प्रश्न 7.
एक विवाह।
उत्तर-
आजकल के आधुनिक युग में एक विवाह का प्रचलन सबसे अधिक है। इस तरह के विवाह में एक पुरुष एक ही समय, एक ही स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। एक विवाह में पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह करना गैरकानूनी माना जाता है। इसमें पति-पत्नी के सम्बन्ध गहरे, स्थायी और प्यार हमदर्दी वाले होते हैं। इसमें बच्चों का पालनपोषण अच्छे ढंग से हो जाता है। उनको माता-पिता का पूरा प्यार मिलता है। पति-पत्नी में प्यार और तालमेल होता है। इसमें पुरुष और स्त्री के सम्बन्धों में समान अधिकार पाये जाते हैं।

प्रश्न 8.
एक विवाह के गुण।
उत्तर-

  1. पति-पत्नी के सम्बन्ध अधिक गहरे होते हैं।
  2. इसमें बच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह होता है।
  3. पति-पत्नी में तालमेल अधिक रहता है।
  4. पारिवारिक झगड़े कम होते हैं।
  5. व्यक्ति मनोवैज्ञानिक और जैविक तनावों से मुक्त रहता है।
  6. लड़का और लड़की दोनों को समान अधिकार प्राप्त होता है।

प्रश्न 9.
एक विवाह के अवगुण।
उत्तर-

  1. बीमारी या गर्भावस्था में पति-पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध नहीं रख सकता इसलिए वह बाहर जाना आरम्भ कर देता है।
  2. बाहरी सम्बन्धों की वजह से अनैतिकता बढ़ती है।
  3. कई मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
  4. पति का पत्नी के बीमार होने से घरेलू काम रुक जाते हैं, जिससे बच्चों का पालन-पोषण सही नहीं हो पाता।

प्रश्न 10.
बहिर्विवाह से क्या अर्थ है ?
उत्तर-
बहिर्विवाह का अर्थ है कि अपनी गोत्र, अपने सपिण्ड और टोटम से बाहर वैवाहिक सम्बन्ध पैदा करने पड़ते हैं। एक ही गोत्र, सपिण्ड और टोटम के पुरुष और स्त्री आपस में भाई-बहन माने जाते हैं। वैस्ट मार्क के अनुसार इस विवाह का उद्देश्य नज़दीक के रिश्तेदारों में यौन सम्बन्ध स्थापित न होने देना है। ये विवाह प्रगतिवाद का सूचक है और ये विवाह भिन्न-भिन्न वर्गों में सम्पर्क बढ़ाता है। जैविक दृष्टिकोण से यह विवाह ठीक माना गया है। इस विवाह का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि इसमें वर-वधू को एक-दूसरे के विचारों को जानने में बड़ी मुश्किलें आती हैं।

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प्रश्न 11.
अन्तर्विवाह।
उत्तर-
अन्तर्विवाह में व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करना पड़ता था। इसमें विवाह का एक बन्धन क्षेत्र होता है जिसके अनुसार आदमी औरत एक निश्चित सामाजिक समूह के अधीन ही विवाह कर सकते हैं। इसके साथ समूह की एकता रखी जा सकती है। यह राष्ट्रीय एकता और सामाजिक प्रगति में रुकावट पैदा करती है। इसके साथ जातिवाद की भावना को भी बढ़ावा मिलता है।

प्रश्न 12.
दो पत्नी विवाह।
उत्तर-
इस प्रकार के विवाह में एक पुरुष का विवाह दो स्त्रियों के साथ होता है। ये दोनों स्त्रियां उस पुरुष की पत्नियां होती हैं। इसलिये इस विवाह को दो पत्नी विवाह कहा जाता है। इसमें पुरुष को दो पत्नियां रखने की इजाजत दी जाती है।

प्रश्न 13.
बहु-पत्नी प्रथा।
उत्तर-
यह बहु-विवाह का एक अन्य रूप है। इस तरह के विवाह में व्यक्ति एक से अधिक पत्नियों के साथ विवाह करवाता है। रिउटर के अनुसार बहु-पत्नी विवाह विवाह का वह रूप है, जिसमें व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक पत्नियों को रख सकता है। ये प्रथा संसार के सभी समाजों में पाई जाती है। पुरुष में यौन की इच्छा और बड़े परिवार की चाह के कारण इस विवाह प्रथा को अपनाया गया।

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प्रश्न 14.
बहु-पत्नी विवाह के कारण।
उत्तर-

  1. पुरुषों की अधिक यौन सम्बन्धों की इच्छाओं के कारण बहु विवाह होते हैं।
  2. बड़े परिवार की इच्छा के कारण यह विवाह होते हैं।
  3. लड़कियां होने पर लड़कों की इच्छा के कारण यह विवाह होते हैं।
  4. स्त्रियों की गणना बढ़ने के कारण भी यह विवाह होते थे।
  5. राजाओं, महाराजाओं की अधिक पत्नियां रखने के शौक के कारण इस प्रकार के विवाह होते थे।

प्रश्न 15.
बहु-पत्नी विवाह के गुण।
उत्तर-

  1. बच्चों का बढ़िया पालन-पोषण हो जाता है।
  2. मर्दो की अधिक यौन इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है।
  3. सम्पत्ति घर में ही रहती है।
  4. सन्तान शक्तिशाली और सेहतमंद पैदा होती है।
  5. एक पत्नी के बीमार होने से घर के काम चलते रहते हैं।
  6. लिंग सम्बन्धों की पूर्ति के कारण अनैतिकता नहीं फैलती।

प्रश्न 16.
बहु-पत्नी विवाह के अवगुण।
उत्तर-

  1. इसके साथ स्त्रियों का दर्जा निम्न होता है।
  2. स्त्रियों की यौन इच्छा पूरी नहीं होती, जिसके लिये वह बाहर जाती हैं और अनैतिकता फैलती है।
  3. अधिक पत्नियों के कारण उनमें झगड़ा रहता है।
  4. परिवार में अशान्ति रहती है।
  5. परिवार में आर्थिक बोझ बढ़ता है।

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प्रश्न 17.
कुलीन विवाह।
उत्तर-
हिन्दू समाज में बहु-पत्नी विवाह का सबसे मुख्य उदाहरण कुलीन बहु-विवाह है। सभी चाहते हैं कि उनकी लड़कियों का विवाह बड़ी जाति के लड़कों के साथ हो पर कुलीन वंश की गिनती अधिक नहीं थी। एक-एक कुलीन ब्राह्मण 100-100 लड़कियों के साथ विवाह करवाता था। इस कारण दहेज प्रथा बढ़ गई और समाज में अनैतिकता भी बढ़ गई।

प्रश्न 18.
साली विवाह।
उत्तर-
इस विवाह में पुरुष अपनी स्त्री की बहन के साथ विवाह करता है। ये विवाह दो तरह का होता है। सीमित साली विवाह, समकालीन साली विवाह, सीमित साली विवाह में पुरुष अपनी स्त्री की मौत के बाद उसकी बहन के साथ विवाह करता है। समकालीन साली विवाह में पुरुष अपनी स्त्री की सभी-बहनों को अपनी पत्नियों के समान मानता है। पहली किस्म का प्रचलन अधिक है। इनमें परिवार नहीं टूटता और बच्चों का पालन-पोषण अधिक अच्छी तरह होता है।

प्रश्न 19.
देवर विवाह।
उत्तर-
विवाह की इस प्रथा में पत्नी अपने पति की मौत के बाद उसके भाई के साथ विवाह करवाती है। इसके साथ परिवार की सम्पत्ति सुरक्षित रह जाती है। परिवार टूटने से बचता है। बच्चों का पालन-पोषण ठीक हो जाता है। इस विवाह के साथ लड़के के माता-पिता को लड़की का मूल्य वापिस नहीं करना पड़ता।

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प्रश्न 20.
बहु-पति विवाह।
उत्तर-
इस विवाह में एक स्त्री बहुत से पतियों के साथ विवाह करती है। एक ही समय में वह सभी की पत्नी होती है इसके दो प्रकार हैं। भ्रात बहु-पति विवाह, जिसमें स्त्री के सभी पति आपस में भाई होते हैं और गैर-भ्रातृ बहु-पति विवाह, जिसमें स्त्री के सभी पति आपस में भाई नहीं होते। ग़रीबी और स्त्रियों की कम गिनती के कारण ये प्रथा बढ़ी।

प्रश्न 21.
भ्रातृ बहु-पति विवाह।
उत्तर-
इस विवाह की प्रथा के अनुसार स्त्री के सारे पति परस्पर भाई हुआ करते थे अथवा एक ही जाति के व्यक्ति होते थे। इस विवाह की प्रथा में सबसे बड़ा भाई एक स्त्री से विवाह करता है तथा उसके सब भाइयों का उस पर पत्नी रूप में अधिकार होता है व सारे उससे लैंगिक सम्बन्ध रखते हैं। यदि कोई छोटा भाई विवाह करता है तो उसकी भी पत्नी सब भाइयों की पत्नी होती है, जो बच्चे होते हैं वो सब बड़े भाई के नाम से माने जाते हैं व सम्पत्ति पर भी अधिकार बड़े भाई का अधिक होता है।

प्रश्न 22.
गैर-भ्रातृ बहु-पति विवाह।
उत्तर–
बहु-पति विवाह की इस प्रकार में एक औरत के पति आपस में भाई नहीं होते। यह पति सब भिन्न-भिन्न स्थानों में रहते हैं। ऐसे समय में औरत निश्चित समय के लिए एक पति के पास रहती है इस प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे के पास। इस तरह सारा साल अलग-अलग पतियों के पास जीवन व्यतीत करती है। जिस समय एक स्त्री एक पति के पास रहती है उस समय दूसरे पतियों को उससे सम्बन्ध बनाने का अधिकार नहीं होता। बच्चा होने पर एक विशेष संस्कार अनुसार पति उसका पिता बन जाता है जो वह गर्भावस्था में स्त्री को धनुष (तीर-कमान) भेंट करता है। उसे उस बच्चे का पिता मान लिया जाता है।

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प्रश्न 23.
परिवार का अर्थ।
उत्तर-
परिवार एक ऐसी संस्था है जिससे स्त्री व पुरुष समाज से मान्यता प्राप्त लिंग सम्बन्ध स्थापित करता है। परिवार व्यक्तियों का वह समूह है जो एक विशेष नाम से पहचाना जाता है जिसमें पति-पत्नी के स्थाई लिंग सम्बन्ध होते हैं जिसमें सदस्यों के पालन-पोषण की पूर्ण व्यवस्था होती है जिससे सदस्यों में खून के सम्बन्ध होते हैं व इसके सदस्य एक खास निवास स्थान पर रहते हैं।

प्रश्न 24.
परिवार की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. परिवार सर्वव्यापक है।
  2. परिवार लिंग सम्बन्धों से उत्पन्न समूह है।
  3. परिवार का सामाजिक आधार में केन्द्रीय स्थान होता है।
  4. परिवार में रक्त सम्बन्धों का बन्धन होता है।
  5. परिवार में सदस्यों की ज़िम्मेदारी अन्य सदस्य चुनते हैं।
  6. परिवार सामाजिक नियन्त्रण का आधार होता है।

प्रश्न 25.
परिवार व सामाजिक नियन्त्रण।
उत्तर-
परिवार ही बच्चों पर नियन्त्रण रखता है व उसको नियन्त्रण में रहना सिखाता है। परिवार उस पर इस प्रकार से नियन्त्रण रखता है कि उसमें ग़लत आदतें न उत्पन्न हो सकें। परिवार अपने सदस्यों के हर तरह के व्यवहार व क्रियाओं पर नियन्त्रण रखता है। इस तरह बच्चा अनुशासन में रहना सीखता जाता है। इस प्रकार परिवार बच्चे पर निगरानी रखकर एक तरह से सामाजिक नियन्त्रण रखता है।

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प्रश्न 26.
परिवार व समाजीकरण।
उत्तर-
परिवार माता-पिता व बच्चों की स्थायी संस्था है, जिसका प्रथम कार्य बच्चों का समाजीकरण करना है। परिवार में बच्चा हमदर्दी, प्यार व ज़िम्मेदारी की पालना करना सीखता है। परिवार से ही वह छोटे, बराबर के व बड़ों के प्रति व्यवहार प्रकट करना सीखता है। परिवार में उसकी आदतों, अनुभवों, शिक्षाओं व कार्यों से ही आगे जाकर समाज में उसका काम व आचरण निश्चित होता है। परिवार में ही वह सामाजिक रीति-रिवाजों, रस्मों, आचरण, नियमों, सामाजिक बन्धनों की पालना इत्यादि सीखता है। इस प्रकार परिवार समाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।

प्रश्न 27.
एकाकी परिवार क्या है ?
उत्तर-
इकाई परिवार वह परिवार है जिसमें पति-पत्नी व उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। विवाह के बाद बच्चे अपना अलग घर कायम कर लेते हैं। यह सबसे छोटे परिवार होते हैं। यह परिवार अधिक प्रगतिशील होते हैं व उनके फैसले तर्क के आधार पर होते हैं। इसमें पति-पत्नी को बराबर का दर्जा हासिल होता है। आजकल इकाई परिवार का अधिक चलन है।

प्रश्न 28.
इकाई परिवार की विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. केन्द्रीय परिवार या इकाई परिवार आकार में छोटा होता है।
  2. इकाई परिवार में सम्बन्ध सीमित होते हैं।
  3. परिवार के प्रत्येक सदस्य को महत्त्व मिलता है।
  4. परिवार की सत्ता साझी होती है।

प्रश्न 29.
इकाई परिवार के गुण (लाभ)।
उत्तर-

  1. इकाई परिवारों में औरतों की स्थिति ऊंची होती है।
  2. इसमें रहने-सहने का दर्जा उच्च वर्ग का होता है।
  3. व्यक्ति को मानसिक सन्तुष्टि मिलती है।
  4. व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है।
  5. सदस्यों में सहयोग की भावना होती है।

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प्रश्न 30.
इकाई परिवार के अवगुण (हानियां)।
उत्तर-

  1. यदि माता या पिता में से कोई बीमार पड़ जाए तो घर के कामों में रुकावट आ जाती है।
  2. इसमें बेरोज़गार व्यक्ति का गुजारा मुश्किल से होता है।
  3. पति की मौत के पश्चात् यदि औरत अशिक्षित हो तो परिवार की पालना कठिन हो जाती है।
  4. कई बार आर्थिक मुश्किलों के कारण पति-पत्नी में लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं।

प्रश्न 31.
संयुक्त परिवार।
उत्तर-
संयुक्त परिवार एक मुखिया की ओर से शासित अनेकों पीढ़ियों के रक्त सम्बन्धियों का एक ऐसा समूह है जिनका निवास, चूल्हा व सम्पत्ति संयुक्त होते हैं। वह सब कर्तव्यों व बन्धनों में बंधे रहते हैं। संयुक्त परिवार की विशेषताएं हैं-(1) साझा चूल्हा (2) साझा निवास (3) साझी सम्पत्ति (4) मुखिया का शासन (5) बड़ा आकार। आजकल इस प्रकार के परिवारों की बजाय केन्द्रीय परिवार चलन में आ गए हैं।

प्रश्न 32.
संयुक्त जायदाद या ‘संयुक्त सम्पत्ति’।
उत्तर-
संयुक्त परिवार में सम्पत्ति पर सभी सदस्यों का बराबर अधिकार होता है। प्रत्येक सदस्य अपनी सामर्थ्य अनुसार इस सम्पत्ति में अपना योगदान डालता है। जिस व्यक्ति को जितनी आवश्यकता होती है वह उतनी सम्पत्ति खर्च कर लेता है। परिवार का कर्त्ता साझी जायदाद की देख-रेख करता है।

प्रश्न 33.
साझा रसोई-घर।
उत्तर-
संयुक्त परिवार की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके सभी सदस्य एक ही रसोई घर का इस्तेमाल करते हैं। भाव यह कि उनका खाना एक ही जगह बनता है व उसे वह इकट्ठे ही मिलकर खाते हैं। ऐसा करते समय वह अपने विचार एक-दूसरे से बांटते हैं। इससे उनका आपसी प्यार व हमदर्दी बनी रहती है।

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प्रश्न 34.
साझे परिवार में कर्ता।
उत्तर-
संयुक्त परिवार में घर के मुखिया की मुख्य भूमिका होती है जिसको कर्ता कहते हैं। परिवार का सबसे बड़ा सदस्य परिवार का मुखिया या कर्ता होता है। परिवार से सम्बन्धित सारे महत्त्वपूर्ण फैसले उसके द्वारा लिए जाते हैं। वह परिवार की साझी सम्पत्ति की देखभाल करता है। परिवार के सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। कर्ता की मृत्यु के पश्चात् परिवार की देखभाल की ज़िम्मेदारी उसके सबसे बड़े बेटे पर आ जाती है और वह परिवार का कर्ता बन जाता है।

प्रश्न 35.
संयुक्त परिवार के गुण (लाभ)।
उत्तर-

  1. संयुक्त परिवार संस्कृति व समाज की सुरक्षा करता है।
  2. संयुक्त परिवार बच्चों का पालन-पोषण करता है।
  3. संयुक्त परिवार सामाजिक नियन्त्रण व मनोरंजन का केन्द्र होता है।
  4. संयुक्त परिवार सम्पत्ति के विभाजन को रोकता है, उत्पादन में बढ़ोत्तरी व खर्च में कमी करता है।
  5. बुजुर्गों व बीमार सदस्यों की मदद करता है।

प्रश्न 36.
संयुक्त परिवार के अवगुण (हानियां)।
उत्तर-

  1. संयुक्त परिवार में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाता।
  2. संयुक्त परिवार में औरतों का निम्न दर्जा होता है।
  3. इनमें व्यक्तियों की खाली रहने की आदत पड़ जाती है।
  4. चिंता न होने से अधिक संतान उत्पत्ति होती है।
  5. लड़ाई-झगड़े अधिक होते हैं।
  6. पति-पत्नी को एकान्त प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 37.
क्यों संयुक्त परिवार टूट रहे हैं ?
उत्तर-
संयुक्त परिवारों के टूटने के कई कारण हैं; जैसे-

  1. धन की बढ़ती महत्ता के कारण।
  2. पश्चिमी प्रभाव के कारण।
  3. औद्योगीकरण के बढ़ने के कारण।
  4. सामाजिक गतिशीलता के सामने आने के कारण।
  5. जनसंख्या की बढ़ती दर के कारण।
  6. यातायात के साधनों का विकास की वजह से।
  7. स्वतन्त्रता व समानता के आदर्श के सामने आने से।
  8. औरतों के आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने से।

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प्रश्न 38.
पितृ-मुखी परिवार क्या है ?
अथवा
पितृसत्तात्मक परिवार।
उत्तर-
जैसे कि नाम से ही ज्ञात होता है कि इस प्रकार के परिवारों की सत्ता या शक्ति पूरी तरह से पिता के हाथ में होती है। परिवार के सम्पूर्ण कार्य पिता के हाथ में होते हैं। वह ही परिवार का कर्ता होता है। परिवार के सभी छोटे या बड़े कार्यों में पिता का ही कहना माना जाता है। परिवार के सभी सदस्यों पर पिता का ही नियन्त्रण होता है। इस तरह का परिवार पिता के नाम पर ही चलता है। पिता के वंश का नाम पुत्र को मिलता है व पिता के वंश का महत्त्व होता है। आजकल इस प्रकार के परिवार मिलते हैं।

प्रश्न 39.
मातृ-वंशी परिवार।
अथवा
मातृसत्तात्मक परिवार।
उत्तर-
जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है कि परिवार में सत्ता या शक्ति माता के हाथ ही होती है। बच्चों पर माता के रिश्तेदारों का अधिकार अधिक होता है न कि पिता के रिश्तेदारों का। स्त्री ही मूल पूर्वज मानी जाती है। सम्पत्ति का वारिस पुत्र नहीं बल्कि मां का भाई या भांजा होता है। परिवार मां के नाम से चलता है। इस प्रकार का परिवार भारत में कुछ कबीलों में जैसे गारो, खासी आदि में मिल जाता है।

प्रश्न 40.
परिवार के मुख्य कार्य बताओ।
उत्तर-

  1. लैंगिक सम्बन्धों की पूर्ति करता है।
  2. सन्तान पैदा करना।
  3. सदस्यों की सुरक्षा व पालन-पोषण करता है।
  4. सम्पत्ति की देखभाल व आय-व्यय का प्रबन्ध करता है।
  5. धर्म की शिक्षा देना।
  6. बच्चों का समाजीकरण करता है।
  7. संस्कृति का संचार व विकास करता है।
  8. परिवार सामाजिक नियन्त्रण में मदद करता है।

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प्रश्न 41.
परिवार के कार्यों में परिवर्तन।
उत्तर-

  1. परिवार अधिकतर प्रगतिशील हो रहे हैं।
  2. धार्मिक उत्तरदायित्वों की पालना की भावना कम हो रही है।
  3. पारिवारिक महत्त्व काफ़ी कम हो गया है।
  4. औरतें काम करने के लिए बाहर जाती हैं, इसलिए उनके काम बदल रहे हैं।
  5. संयुक्त परिवार कम हो रहे हैं।

प्रश्न 42.
रक्त सम्बन्धी परिवार।
उत्तर-
इस प्रकार के परिवार में रक्त-सम्बन्ध का स्थान सर्वोच्च होता है। इनमें किसी प्रकार के लिंग सम्बन्ध नहीं होते। इसमें पति-पत्नी भी होते हैं परन्तु वह परिवार के आधार नहीं होते। इसमें सदस्यता जन्म पर आधारित होती है। तलाक भी इन परिवारों को भिन्न नहीं कर सकता और यह स्थाई होते हैं।

प्रश्न 43.
पितृ स्थानीय परिवार।
उत्तर-
इस प्रकार के परिवार में लड़की विवाह के उपरान्त अपने पिता का घर छोड़कर अपने पति के घर जाकर रहने लग जाती है और पति के माता-पिता व पति के साथ वहीं घर बसाती है। इस प्रकार के परिवार आमतौर से प्रत्येक समाज में मिल जाते हैं।

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प्रश्न 44.
नव स्थानीय परिवार।
उत्तर-
इस प्रकार के परिवार पहली दोनों किस्मों से भिन्न हैं। इसमें पति-पत्नी कोई भी एक-दूसरे के पिता के घर जाकर नहीं रहते बल्कि वह किसी और स्थान पर जाकर नया घर बसाते हैं। इसलिए इसको नव स्थानीय परिवार कहते हैं। आजकल के औद्योगिक समाज में इस तरह के परिवार आम पाए जाते हैं।

प्रश्न 45.
नातेदारी क्या होती है ?
अथवा
नातेदारी।
उत्तर-
चार्लस विनिक के अनुसार, “नातेदारी व्यवस्था में वे सम्बन्ध शामिल किये जाते हैं जोकि कल्पित या वास्तविक वंश परम्परागत बन्धनों के ऊपर आधारित एवं समाज के द्वारा प्रभावित होते हैं।”

प्रश्न 46.
नातेदारी को कितने भागों में बांटा जा सकता है?
उत्तर-
निम्न तीन में बांटा जा सकता है-

  1. व्यावहारिक नातेदारी।
  2. सगोत्र नातेदारी।
  3. कल्पित या रस्मी नातेदारी।

प्रश्न 47.
सगोत्र नातेदारी क्या होती है ?
उत्तर-
वह सभी व्यक्ति जिनमें रक्त का बन्धन है, सगोत्र नातेदारी का ही भाग होते हैं। रक्त का सम्बन्ध यद्यपि वास्तविक हो या कल्पित तो ही इसी आधार के ऊपर सम्बन्धित व्यक्तियों को नातेदारी व्यवस्था में स्थान प्राप्त है यदि इसको सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है।

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प्रश्न 48.
वंश समूह क्या होता है ?
उत्तर-
वंश समूह माता या पिता में से किसी एक के रक्त सम्बन्धियों से मिलकर बनता है। इन सभी सम्बन्धियों के किसी एक स्त्री या पुरुष के साथ वास्तविक वंश परम्परागत होते (Ties) हैं। सभी सदस्य वास्तविक साझे पूर्वज की सन्तान होने के कारण अपने वंश समूह में विवाह नहीं करवाते। इस प्रकार वंश समूह उन रक्त के सम्बन्धियों का समूह होता है। जो साझे पूर्वज की एक रेखकी सन्तान होते है और जिनकी पहचान को अनुरेखित किया जाता
है।

प्रश्न 49.
गोत्र क्या होते हैं ?
उत्तर-
गोत्र वंश समूह का ही विस्तृत रूप है, जोकि माता-पिता के किसी एक के अनुरेखित रक्त सम्बन्धियों से मिलकर बनता है। इस तरह गोत्र रिश्तेदारों का समूह होता है, जो किसी साझे पूर्वज की एक रेखकी सन्तान होती है। पूर्वज आमतौर पर कल्पित ही होते हैं। क्योंकि इनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता है। यह बहिर्विवाही समूह होते हैं।

प्रश्न 50.
वैवाहिक नातेदारी।
उत्तर-
वैवाहिक नातेदारी पति-पत्नी के यौन सम्बन्धों पर आधारित होती है। यद्यपि उनमें कोई रक्त सम्बन्ध नहीं होता। परन्तु उनमें विवाह के बाद सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। विवाह के बाद व्यक्ति को पति के साथ जवाई, फूफड़, जीजा, सांदू आदि के रुतबे हासिल होते हैं। इस तरह स्त्री को भी पत्नी के साथ-साथ, देवराणी, जेठानी, चाची, ताई इत्यादि का रुतबा प्राप्त होता है। इस तरह के रुतबों को वैवाहिक नातेदारी का नाम दिया जाता है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
विवाह की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
विवाह की विशेषताओं का वर्णन नीचे दिया गया है-
1. विवाह एक सर्वव्यापक संस्था है (It is an universal insitutions)-विवाह की संस्था चाहे प्राचीन थी, चाहे आधुनिक है, सभी समाजों में पाई जाती है। यह सर्वव्यापक है। इस संस्था के बिना किसी स्थिर समाज की हम कल्पना तक नहीं कर सकते।

2. इस संस्था के द्वारा आदमी व औरत के लैंगिक सम्बन्धों को सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है (Social sanction)-बिना सामाजिक मान्यता के यह सम्बन्ध गैर कानूनी करार दिए जाते हैं। इस संस्था का सदस्य बन कर व्यक्ति अपने दूसरे अधिकारों को भी जान जाता है व उसका दायरा कुछ सीमित हो जाता है।

3. दो विरोधी लिंगों का सम्बन्ध इस संस्था को जन्म देता है (Development of institution)-इससे मानव अपनी जैविक ज़रूरत को भी पूरा कर लेता है। पशुओं में भी विरोधी लिंगों का मेल होता है। लेकिन मानवों के इस मेल के द्वारा विवाह की संस्था का जन्म होता है परन्तु जानवरों का इस संस्था से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता।

4. विवाह की संस्था के द्वारा व्यक्ति को सामाजिक स्थिति भी प्राप्त हो जाती है (Provide social status)-विवाह के पश्चात् पुरुष व स्त्री, पति-पत्नी के रूप में स्वीकृत किए जाते हैं। बच्चा पैदा होने के बाद उनकी सामाजिक स्थिति माता-पिता से सम्बन्धित हो जाती है जिसके साथ परिवार का जन्म हो जाता है।

5. विवाह को एक समझौता भी समझा जाता है (Social Contract)—इसमें आदमी व औरत न केवल अपनी लिंग इच्छाओं की पूर्ति करते हैं बल्कि बच्चों के पालन-पोषण का बोझ भी सम्भालते हैं व पारिवारिक उत्तरदायित्वों को भी अदा किया जाता है।

6. विवाह के प्रकार अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पाए जाते हैं (Different types in different societies)—प्रत्येक समाज की अपनी ही संस्कृति होती है जिसकी सुरक्षा से बाकी संस्थाएं जुड़ी होती हैं। उदाहरण के लिए मुसलमानों की संस्कृति एक से अधिक विवाह की आज्ञा दे देती है परन्तु हिन्दुओं की संस्कृति इसके विपरीत है अर्थात् एक से अधिक विवाह को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं होती।

7. विवाह के द्वारा व्यक्ति को कानूनन मान्यता प्राप्त हो जाती है (Legal Sanction)-इससे पुरुष व स्त्री के विवाह सम्बन्ध भी स्थापित हो जाते हैं।

8. इस संस्था के द्वारा धार्मिक रीति-रिवाज भी सुरक्षित रहते हैं। चाहे आधुनिक समय में कोर्ट-मैरिज होने लगी है, परन्तु धार्मिक संस्कार अभी भी इस संस्था से जुड़े हुए हैं।

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प्रश्न 2.
एक विवाह का क्या अर्थ है ? इसके कारणों, लाभों तथा कमियों का वर्णन करें।
उत्तर-
आधुनिक समय में अधिकतर पाई जाने वाली विवाह का प्रकार ‘एक विवाह’ है। एक विवाह का अर्थ है जब एक आदमी, एक समय एक ही औरत से या एक औरत, एक समय, एक ही आदमी से विवाह करवाती है तो इसको एक विवाह का नाम दिया गया है। आजकल के सांस्कृतिक समाजों में इसको काफ़ी महत्ता प्राप्त है।

मैलिनोवस्की (Malinoviski) के अनुसार, “एक विवाह ही, विवाह का वास्तविक प्रकार है, जो पाई जा रही है व पाई जाती रहेगी।”
पीडीगंटन (Piddington) के अनुसार, “एक विवाह, विवाह का वह स्वरूप है, जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति एक से अधिक स्त्रियों के साथ एक ही समय पर विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता।”

वुकेनोविक के अनुसार, “उसी विवाह को एक विवाह कहना ठीक होता है, जिसमें न केवल एक व्यक्ति की पत्नी या पति हो, बल्कि किसी की भी मौत हो जाने पर दूसरा विवाह न करे। आमतौर पर एक पति या पत्नी के जीते जी किसी से न विवाह करना ही एक विवाह माना जाता है।”

भारतीय समाज में हिन्दू धर्म के अनुसार भी एक विवाह को ही आदर्श विवाह माना जाता है। प्राचीन समय से ही स्त्री के लिए उसका पति ही परमेश्वर होता था। पति की मौत के साथ वह औरत आप भी सती होना बेहतर समझती थी। भारत में हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 के अधीन भी बहु-विवाह को समाप्त कर दिया गया व एक विवाह करने की ही स्वीकृति हो गई। आधुनिक समय में तो कानून इतने सख्त हैं कि तलाक लिए बिना आदमी व औरत दूसरा विवाह नहीं करवा सकते। कुछ हालातों में दूसरे विवाह की इजाजत दी गई जैसे सन्तान न होने की सूरत में. पति या पत्नी में कोई एक ला-इलाज बीमारी से सम्बन्धित हो आदि।

कारण (Causes)-

1. आधुनिक समाज में एक विवाह की प्रथा ही प्रचलित रही है। इस प्रथा के आने से ही हमारे समाज में भी प्रगति हुई है। जहां एक विवाह की प्रथा पाई गई उस समाज में प्रगति भी अधिक हुई। समाज की प्रगति के लिए भी एक विवाह को आवश्यक समझा गया।

2. स्त्रियों व पुरुषों की जनसंख्या की दर में बराबरी पाए जाने के कारण भी एक विवाह ही ज़रूरी समझा गया। इस अनुपात की बराबरी के कारण समाज में स्थिरता भी आ गई।

3. एकाधिकार की भावना के कारण भी एक विवाह को स्वीकृति प्राप्त हुई। आदिम समाज में जब विवाह की संस्था अधिक नियमित नहीं थी हुई तो कोई भी आदमी, किसी भी औरत से सम्बन्ध रख लेता था। कुछ देर के बाद उनमें ईर्ष्या की भावना पैदा होनी शुरू हो गई क्योंकि प्रत्येक आदमी यह इच्छा रखने लगा कि उसकी औरत, दूसरे आदमी के पास न जाए। उस समय जो आदमी शारीरिक तौर पर अधिक बलवान् थे, उन्होंने स्त्री पर एकाधिकार रखना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे आजकल के समय में आदमी व औरत दोनों के द्वारा एकाधिकार की भावना को अपनाया जाने लगा व आधुनिक समाज में एक विवाह के प्रकार को अपनाया गया।

4. प्राचीन समय में स्त्री का मूल्य रखा जाता था। जो भी पुरुष उस कीमत को अदा कर देता था उसको वह स्त्री दे दी जाती थी। इसके अतिरिक्त परिवार की स्थिरता के कारण एक पुरुष व एक स्त्री का विवाह प्रचलित था।

एक विवाह के लाभ (Advantages of Monogamy)-

1. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन (Change in the Status of Women)–प्राचीन समय से स्त्रियों की समाज में काफ़ी निम्न स्थिति थी। पुरुष ने जिस तरह चाहा, उसी तरह का स्त्री से व्यवहार किया। यहां तक कि आश्रम व्यवस्था में स्त्री ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश नहीं कर सकती थी। उस का कार्य केवल बच्चे पैदा करना, घर का काम करना इत्यादि तक सीमित था।

इसके अतिरिक्त यदि जाति-प्रथा पर नजर डालें तो वहां भी औरत के जन्म को बुरा समझा जाता था। बिना पुरुष के उसको समाज में जीने का कोई अधिकार नहीं होता था वह पति की मौत पर अपने आप को सती कर देती थी। धीरे-धीरे जब शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन हुआ तो उनकी स्थिति पुरुषों के समान हो गई। इसी कारण एक विवाह की प्रथा के साथ स्त्री ने अपनी स्थिति को स्त्री के समान ही समझा। इस विवाह के प्रकार ने स्त्री की स्थिति में अधिक परिवर्तन किया।

2. बच्चों का पालन-पोषण (Up-bringing of Children)-एक विवाह के प्रकार के आधार पर जो परिवार पाया गया, उसमें बच्चों की परवरिश पहले से अधिक अच्छे ढंग से हो गई। दूसरे विवाह के प्रकारों में बच्चों में ईर्ष्या की भावना रहती थी। यहां तक कि परिवार के सभी सदस्यों में प्यार केवल दिखावा मात्र तक ही सीमित था। इस विवाह की किस्म से माता-पिता द्वारा बच्चों को सम्पूर्ण प्यार प्राप्त हुआ। उनकी हर तरह की ज़रूरतों की ओर ध्यान दिया गया। बच्चों में योग्यता व ज्ञान बढ़ा। उसके व्यक्तित्व का भी विकास हुआ।

3. परिवार की स्थिरता (Stability of Family)-एक विवाह से परिवार पहले से अधिक स्थिर हो गए। आदमी व औरत को एक-दूसरे के विचार समझने का मौका मिला। परिवार तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक पुरुष व स्त्री दोनों में सूझ-बूझ न हो। बहु-विवाह में लड़ाई-झगड़ा अधिक रहता था, न तो पुरुष स्त्री को पूरा प्यार दे सकता था न ही स्त्री पुरुष को पूरा प्यार दे सकती थी। तनाव की स्थिति तकरीबन विकसित रहती थी। इस स्थिति का प्रभाव बच्चों पर पड़ता था जिससे बच्चों का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता था। इसी कारण एक विवाह की प्रथा के द्वारा ही पारिवारिक जिन्दगी को अधिक स्थिरता प्राप्त हुई।

4. जायदाद का विभाजन (Division of Property)-जायदाद का विभाजन बहु-विवाह में एक समस्या बन जाती थी। कई बार तो भाई-भाई आपस में एक-दूसरे को मारने के लिए भी तैयार हो जाते थे। परन्तु एक विवाह की प्रथा में इस समस्या का हल हो गया। व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसकी जायदाद उसके बच्चों में बराबरी से विभाजित कर दी जाती थी।

5. रहन-सहन का उच्च-स्तर (Higher Standard of living)-आधुनिक समय में व्यक्ति की ज़िन्दगी प्राचीन समय से अधिक आरामदायक हो गई। एक पुरुष को केवल एक ही स्त्री व एक स्त्री को केवल एक ही पुरुष की देखभाल करनी पड़ती थी। हरेक व्यक्ति अपने बच्चों को अपनी इच्छा अनुसार अधिक-से-अधिक अच्छी शिक्षा दे सकता है व अपने आराम की सहूलतें भी प्राप्त कर लेता है। बहु-विवाह की प्रथा में अधिक बच्चों की परवरिश भी मुश्किल हो जाती थी। एक विवाह की प्रथा से सीमित परिवार को ज्यादातर अपनाया गया।

एक विवाह की कमियां (Demerits of Monogamy)-

1. एक विवाह की प्रथा में जब स्त्री बच्चा पैदा करने की अवस्था में होती है तो वह पुरुष को पूरा सहयोग नहीं दे सकती इसके अतिरिक्त बीमारी के समय पुरुष अपनी लैंगिक इच्छा की पूर्ति के लिए घर से बाहर जाना शुरू हो गया जिससे वेश्याओं को समाज में जगह मिल गई। कई स्थितियों में पुरुष व स्त्री को मजबूरन इकटे रहना पड़ता है चाहे उनमें आपसी प्यार न हो तो भी पुरुष व स्त्री दोनों अपनी जैविक भूख को मिटाने के लिए घर से बाहर जाने लगे हैं।

2. दूसरी कमी एक विवाह की प्रथा का कारण यह रहा कि यदि घर में पति या पत्नी दोनों में से कोई भी एक बीमार हो या दोनों, ऐसी स्थिति में घर बिलकुल बेहाल हो जाता है। बच्चों को खाने-पीने की समस्या का सामना करना पड़ जाता है व कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है।

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प्रश्न 3.
बहु-विवाह की परिभाषाओं, प्रकारों, कारणों, लाभों तथा हानियों सहित व्याख्या करें।
उत्तर-
बहु-विवाह का अर्थ है जब तक एक से अधिक आदमी या औरतों से विवाह करने की स्वीकृति हो, उसको बह-विवाह का नाम दिया गया है। बलसेरा (Balsera) के अनुसार, “विवाह की वह प्रकार जिसमें पतियों व पत्नियों की बहुलता होती है, वह बहु-विवाह कहलाता है।”
बहु-विवाह के आगे भी कुछ प्रकार पाए गए हैं जो निम्नलिखित अनुसार है-

  1. दो-पत्नी विवाह (Bigamy)
  2. बहु-पत्नी विवाह (Polygyny)
  3. बहु-पति विवाह (Polyandry)

दो-पत्नी विवाह (Bigamy)-विवाह की इस प्रथा में एक पुरुष को केवल दो स्त्रियों से विवाह करवाने की आज्ञा होती है। विवाह का यह प्रकार पंजाब में भी प्रचलित रहा था।

बहु-पत्नी विवाह (Polygyny) विवाह के इस प्रकार का अर्थ है जब एक पुरुष का विवाह अधिक स्त्रियों से कर दिया जाता है, तो उसको बहु-पत्नी विवाह कहा जाता है।

के० एम० कपाड़िया (Kapadia) के अनुसार, “बहु-पत्नी विवाह, विवाह का वह प्रकार होता है, जिसमें पुरुष एक ही समय एक से अधिक स्त्रियां रख सकता है।”
जी० डी० मिचैल (G.D. Mitchell) के अनुसार, “एक पुरुष यदि एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करवाता है तो उसको बहु-पत्नी विवाह का नाम दिया जाता है।

यह दो प्रकार का होता है :

  1. प्रतिबन्धित बहु-पत्नी विवाह (Restricted Polygyny Marriage) .
  2. अप्रतिबन्धित बहु-पत्नी विवाह (Unrestricted Polygyny Marriage)

प्रतिबन्धित बहु-पत्नी विवाह (Restricted Polygyny)-बहु-पत्नी विवाह के इस प्रकार में पत्नियों की संख्या सीमित कर दी जाती है। व्यक्ति उस सीमा से अधिक पत्नियां व्यक्ति नहीं रख सकता। मुसलमानों में प्रतिबन्धित बहु-पत्नी विवाह की प्रथा अनुसार एक व्यक्ति के लिए पत्नियों की संख्या भी निश्चित कर दी जाती है।

अप्रतिबन्धित बहु-पत्नी विवाह (Unrestricted Polygyny)–इस प्रथा के अनुसार कोई भी पुरुष जितनी मर्जी पत्नियां रख सकता है। भारत में भी प्राचीन समय में विवाह की यह प्रथा ही प्रचलित थी।

बहु-पत्नी विवाह के कारण (Causes of Polygyny)-वैस्टर मार्क ने बहु-पत्नी विवाह के कई कारण दिए हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. स्त्रियों के पुरुषों से जल्दी बूढ़े हो जाने के कारण बहु-पत्नी विवाह प्रचलित रहा। बच्चा पैदा होने के पश्चात् स्त्रियों की सेहत भी कमजोर हो जाती थी। ऐसा अधिकतर असभ्य समाजों में पाया गया है।
  2. विवाह के पश्चात् कुछ समय स्त्री व पुरुष के वैवाहिक सम्बन्धों पर पाबन्दी लगा दी जाती थी। उदाहरण के तौर पर गर्भवती स्त्री के लिए भी यौन सम्बन्धों पर पाबन्दी होती थी। इस कारण भी एक से अधिक विवाह की आज्ञा दी जाती थी।
  3. पुरुषों में अधिक यौन सम्बन्धों की इच्छा भी इस विवाह के कारणों में मुख्य थी व कई बार पुरुषों द्वारा परिवर्तन चाहने के कारण भी बहु-पत्नी विवाह प्रचलित था।
  4. विशाल परिवार को प्राचीन समय में अच्छा दर्जा प्राप्त होता था। बड़े आकार के परिवार की इच्छा भी बहुपत्नी विवाह को प्रभावित करती थी।
  5. प्राचीन कबीले-समाजों में समाज को सम्मान प्राप्त करने के लिए भी कबीले के सरदार एक से अधिक विवाह करवाने में विश्वास रखते थे। क्योंकि लोग उसको अधिक अमीर परिवार से सम्बन्धित कर देते थे।

बहु-पत्नी विवाह के लाभ (Merits of Polygyny)-

  1. बहु-पत्नी विवाह की प्रथा से बच्चों का पालनपोषण बहुत बढ़िया ढंग से हो जाता था क्योंकि कई औरतें मिल कर उनकी देखभाल कर लेती थीं। यदि एक औरत बीमार हो जाती थी तो दूसरी औरत उसके बच्चों को रोटी इत्यादि दे देती थी।
  2. इस विवाह का लाभ यह भी था कि वेश्याओं के पास पुरुष को जाकर पैसा बर्बाद करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। घर में ही उसको अधिक काम इच्छा के लिए आवश्यक नवीनता भी प्राप्त हो जाती थी। इसकारण घर की सम्पत्ति भी सुरक्षित रहती थी।
  3. इस प्रथा से बच्चे भी स्वस्थ होते थे। क्योंकि एक स्त्री को ही अकेले बहुत बच्चों को जन्म देने के लिए उपयोग नहीं किया जाता था।
  4. बहु-पत्नी विवाह से जब कुलीन विवाह पाया गया तो निम्न जाति की लड़की भी उच्च जाति के लड़के से शादी करने लगी जिसके परिणामस्वरूप समाज में भाईचारे की भावना भी अधिक जागृत हुई।

बहु-पत्नी विवाह की हानियां (Demerits of Polygyny)-

  1. बहु-पत्नी विवाह की सबसे बड़ी कमी यह थी कि स्त्रियों का दर्जा समाज में बहुत निम्न था। क्योंकि स्त्री को केवल पुरुष के मनोरंजन के साधन रूप में ही समझा जाता था। आदमी के लिए औरत के प्रति प्यार की भावना नहीं थी बल्कि वह उसको केवल लिंग इच्छा की पूर्ति से ही सम्बन्ध रखता था। औरत की भावनाओं की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता था। समाज में तो औरत की कोई पहचान ही नहीं थी।
  2. स्त्रियां जब लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति से अधूरी रह जाती थी तो वह घर से बाहर जाकर अपने यौन सम्बन्ध कायम करने लग जाती थी क्योंकि एक पुरुष बहु-पत्नियों से विवाह करवा कर अपनी सन्तुष्टि तो कर सकता है परन्तु स्त्रियों की सन्तुष्टि नहीं हो सकती।
  3. परिवार में विवाह की इस प्रथा के साथ-माहौल दुःखदायक ही रह जाता था क्योंकि अधिक पत्नियां होने से आपस में लड़ाई-झगड़ा लगा रहता था।
  4. बहु-पत्नी विवाह की प्रथा के कारण समाज में परिवार के मुखिया पर आर्थिक बोझ अधिक होता था क्योंकि कमाने वाला एक होता था व बाकी परिवार के सभी सदस्य उस पर ही निर्भर होते थे। परिवार के रहन-सहन का दर्जा काफ़ी निम्न हो जाता था।
  5. बहु-पत्नी विवाह में परिवार का आकार बड़ा होता था जिस कारण मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा रहती थीं।

प्रश्न 4.
बहु-पति विवाह के प्रकारों, कारणों, लाभों तथा हानियों सहित व्याख्या करें।
उत्तर-
संसार के कई समाजों में बहु-पति विवाह की प्रथा प्रचलित है। बहु-पति विवाह का अर्थ विवाह की वह प्रथा है जिसमें एक औरत एक ही समय में एक से अधिक आदमियों से विवाह करवाए। उसको बह-पति विवाह का नाम दिया जाता है। अधिकतर यह विवाह तिब्बत (Tibet) पोलीनेशिया (Polynesia) के मार्कयूज़नीम, मालाबार के टोडा (Todas) मलायाद्वीप के कुछ कबीलों में अभी भी प्रचलित है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में महाभारत के अनुसार पांच पाण्डव भाइयों की भी एक ही पत्नी थी। भारत में देहरादून के खस कबीले, मध्य भारत के टोडा कबीले, केरल के कोट कबीले में भी बह-पति विवाह की प्रथा अभी भी प्रचलित है। इसके अतिरिक्त कई पहाडी कबीलों में भी इसी प्रथा को मान्यता प्राप्त हुई है। बहु-पति विवाह के बारे अलग-अलग विद्वानों के विचार नीचे दिए जा रहे हैं-

के० एम० कपाड़िया (K.M. Kapadia) के अनुसार, “बहु-पति विवाह एक ऐसी संस्था है जिसमें एक स्त्री के एक ही समय एक से अधिक पति होते हैं या इस प्रथा के अनुसार सभी भाइयों की सामूहिक रूप से एक पत्नी या कई पत्नियां होती हैं।” ___* जी० डी० मिचैल (G. D. Mitchell) के अनुसार, “एक स्त्री का दो या दो से अधिक पुरुषों से विवाह की प्रथा बहु-पति विवाह है।” इस प्रकार जिस विवाह में एक स्त्री के एक से अधिक पति हों को बहु-पति विवाह कहा जाता है।

बहु-पति विवाह के प्रकार (Types of Polyandrous Marriage)-बहु-पति विवाह के दो मुख्य रूप पाए होते हैं :

  1. भ्रातृ बहु-पति विवाह (Fraternal Polyandry)
  2. गैर-भ्रातृ बहु-पति विवाह (Non-Fraternal Polyandry)

भ्रातृ बहु-पति विवाह (Fraternal Polyandry)-बहु-पति विवाह के इस प्रकार के अनुसार स्त्री के सभी पति आपस में भाई होते हैं। बड़े भाई को बच्चे का पिता समझा जाता था व बाकी छोटे भाई उस औरत के पति होते हैं व वह अपने बड़े भाई की आज्ञा के बिना यौन सम्बन्ध नहीं स्थापित कर सकते थे। घर में बड़े भाई की आज्ञा ही चलती थी व उसकी ही ज़िम्मेदारी होती थी कि वह बच्चों का पालन-पोषण करे। विवाह के पश्चात् यदि पति का और भाई भी जन्म लेता है तो उसको भी उस औरत का पति ही समझा जाता था। यदि बड़े के अलावा कोई और भाई भी किसी और जगह विवाह कर ले तो भी उसकी औरत के बाकी भाइयों से पत्नी वाले सम्बन्ध ही होते थे। यदि भाई इस बात को न मानें, अपनी पत्नी पर केवल अपना अधिकार ही समझे तो उसको जायदाद में से बेदखल कर दिया जाता था। भारत में नीलगिरी, लद्दाख, सिक्किम, असम इत्यादि में भी यह प्रथा पाई जाती है।

गैर-भ्रातृ बहुपति विवाह (Non-Fraternal Polyandry)-बहुपति विवाह के इस प्रकार में स्त्री के सभी पति भाई नहीं होते बल्कि वह सब अलग-अलग स्थान पर रहते हैं। औरत के लिए समय निश्चित किया जाता है कि उसने कितने समय के लिए एक पति के पास रहना है। निश्चित समय समाप्त होने पर वह दूसरे पति के साथ रहती है। इस प्रकार बारी-बारी वह सब पतियों के साथ रहती है। इस प्रकार में यदि स्त्री की मृत्यु हो जाए तो सारे पतियों को विधुर सा जीवन जीना पड़ता है। कई कबीले जिनमें यह प्रथा पाई जाती है तो सब जब स्त्री गर्भवती होती है तो गर्भ अवस्था में जो पति उसको तीरकमान भेंट करता है तो उसी को बच्चे का पिता स्वीकार कर लिया जाता है व बारी-बारी सभी पतियों को इस रस्म के अदा करने का अधिकार दिया जाता है। इस प्रकार इस प्रथा अनुसार यह भी नियम होता है कि एक निश्चित समय के लिए वह जिस पति के साथ रह रही होती है तो बाकी पतियों के उसके साथ लिंग सम्बन्धों की आज्ञा नहीं होती।

बहु-पति विवाह के कारण (Causes of Polyandry)-

1. प्राचीन कबीलों में रहते हुए लोगों के लिए एक व्यक्ति द्वारा पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी उठानी मुश्किल होती थी जिस कारण व्यक्ति मिल कर एक स्त्री से विवाह करवा लेते थे। डॉ० कपाड़िया के अनुसार यह प्रथा कठोर प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण भी पाई जाती थी। प्राचीन समय में रोजी रोटी के लिए व्यक्ति को बहुत लम्बा समय अपने परिवार से दूर रहना पड़ता था इस कारण कुछ व्यक्ति इस काम में व्यस्त रहते थे व बाकी पुरुष परिवार की देख-रेख के लिए घर रहते थे।

2. बढ़ती हुई जनसंख्या को सीमित करने के लिए भी विवाह की यह प्रथा पाई गई। इसमें परिवार सीमित रहता है। क्योंकि बच्चे कम पैदा होते हैं।

3. कई स्थानों पर रोजी रोटी के साधन सीमित होने के कारण भी यह प्रथा पाई गई क्योंकि कमाने वालों की संख्या सीमित साधनों के कारण अधिक थी व खाने वाले कम हो जाते थे, जिससे उनमें खुशहाली भी थी।

4. कई समाज शास्त्रियों के अनुसार विवाह की इस प्रथा के प्रचलित होने का कारण औरतों की संख्या का मर्दो की संख्या से कम होना भी है। ___5. कुछ क्षेत्रों में लड़की की कीमत अदा करने पर ही उसको पत्नी बनाया जा सकता था व कई बार लड़की की कीमत इतनी अधिक होती थी कि अकेले व्यक्ति की हैसियत से बाहर होती थी। इस कारण कई व्यक्ति मिलकर उसको पत्नी बनाने के लिए कीमत अदा करने के काबिल होते थे। इसी कारण वह सभी मिलकर एक ही औरत को अपनी पत्नी स्वीकार कर लेते थे।

बहुपति विवाह के लाभ (Merits of Polyandry)-
1. बहु-पति विवाह की प्रथा से जनसंख्या सीमित की जा सकती है क्योंकि कई समाजों में ग़रीबी का कारण भी बढ़ती. आबादी द्वारा होता है, इस प्रथा से बच्चों की संख्या कम हो जाती है।

2. इस प्रथा से जैसे जनसंख्या सीमित होती है उसी तरह रहन-सहन का दर्जा ऊंचा हो जाता है, क्योंकि कमाने वाले पर परिवार का बोझ काफ़ी कम होता है। कमाने वालों की संख्या अधिक होती है जिस कारण परिवार पर किसी प्रकार का आर्थिक बोझ नहीं पड़ता।

3. संयुक्त परिवार इस प्रथा के द्वारा ही पाया जाता है व साथ ही परिवार का आकार भी सीमित होता है। इस कारण लड़ाई-झगड़े भी कम हो जाते हैं क्योंकि प्रत्येक परिवार का सदस्य, परिवार के साझे लाभ के लिए ही मेहनत करता है।

4. बहुपति विवाह की प्रथा में बच्चों का पालन-पोषण अधिक स्थिर ढंग से होता है क्योंकि बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी परिवार के सभी सदस्यों की साझी होती है। माता व पिता का प्यार जो बच्चों के व्यक्तित्व के निर्माण के लिए पाया जाता है, भी बच्चों को प्राप्त हो जाता है। संघर्ष की स्थिति बहुत कम पाई जाती है।

बहुपति विवाह की हानियाँ (Demerits of Polyandry)-
1. बहुपति विवाह का सबसे बड़ा नुकसान औरतों के स्वास्थ्य से सम्बन्धित होता है क्योंकि एक स्त्री को कितने ही पुरुषों की लैंगिक इच्छा की पूर्ति करनी पड़ती है जिस कारण उनका स्वास्थ्य कमज़ोर हो जाता था।

2. विवाह की इस प्रथा से जन्म दर बहुत कम होती थी। यदि यह विवाह कुछ कबीलों में विकसित रहा तो आने वाले वर्षों में हो सकता है कि समाज भी समाप्त हो जाए।

3. सभी पुरुषों की काम वासना पूरी नहीं की जा सकती क्योंकि औरत के लिए प्रत्येक आदमी के पास रहने का समय निश्चित किया जाता है। जब वह निश्चित समय एक आदमी के पास रह रही होती है तो बाकी आदमियों को उसके साथ सहवास करने की मनाही होती है। ऐसी स्थिति में आदमी अपनी काम इच्छा की पूर्ति के लिए घर से बाहर निकल जाते हैं। इस प्रकार परिवार व समाज दोनों के बीच झगड़े से अनैतिकता में अधिकता पाई जाती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 5.
विवाह की संस्था में आ रहे परिवर्तनों का वर्णन करो।
उत्तर-
1. सरकार द्वारा लाए गए परिवर्तन-जब विवाह को एक संस्था के रूप में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हुई तो इस संस्था में कई प्रकार के परिवर्तन भी लाए गए। विवाह सम्बन्धी कानून पास किए गए जिनमें हिन्दू मैरिज एक्ट सन् 1955 (Hindu Marriage Act 1955) में पास किया गया। इस कानून के तहत बहु-विवाह की प्रथा पर पाबन्दी लगा दी गई। एक विवाह को ही समाज द्वारा स्वीकारा गया व एक आदर्श विवाह भी माना गया। बाल विवाह जैसी बुराई जो बहुत समय से इस समाज में चली आ रही थी, को भी समाप्त किया गया व कानून की उल्लंघना करने वाले को कठोर सज़ा दिए जाने का भी प्रावधान बना। तलाक सम्बन्धी कानून भी पास किया ताकि आदमी व औरत की ज़िन्दगी तनाव भरपूर न रहे। पुराने समय में औरत से चाहे पति दुर्व्यवहार करे तो भी उसको अपनी सारी ज़िन्दगी बितानी पड़ती थी परन्तु अब आदमी व औरत दोनों को छूट दी गई है कि कोई भी अपने कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल कर सकता है ताकि सुख से भरपूर जीवन व्यतीत कर सके।

2. विवाह को सामाजिक समझौते से सम्बन्धित किया गया-पुरानी विचारधारा के अनुसार आदमी व औरत के लिए विवाह एक धार्मिक बन्धन तक ही सीमित होता था, परन्तु आजकल की विचारधारा के अनुसार विवाह को इस बात तक सही बताया कि यदि पुरुष व स्त्री के बीच अच्छे सम्बन्ध हैं तो ठीक है, नहीं तो इस समझौते को तोड़ा भी जा सकता है। कई हालातों में जबरदस्ती विवाह कर दिया जाता है तो बाद में सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए पति-पत्नी के द्वारा आप भी फ़ैसला लिया जा सकता है क्योंकि दोनों के लिए नियम भी समान के बनाए जाते हैं। आधुनिक समय में विवाह को निजी खुशी से सम्बन्धित किया है ताकि परिवार में बच्चों की देखभाल भी ठीक ढंग से हो सके।

3. औरतों की स्थिति में परिवर्तन-जैसे-जैसे औरतें समाज के प्रत्येक क्षेत्र में हिस्सा लेने लगी हैं वैसे-वैसे विवाह का स्वरूप भी बदल गया है। शुरू में समाज में औरत आर्थिक पक्ष से बिलकुल ही दूसरों पर आधारित होती थी। इस तरह वह हर तरह का दुःख भी बर्दाश्त कर लेती थी। परन्तु धीरे-धीरे औरत ने जब शिक्षा प्राप्त कर ली तो उससे वह आर्थिक तौर पर स्वतन्त्र हो गई। वह अपने फ़ैसले आप लेने लगी। कानूनी पक्ष से भी उसे काफ़ी मदद प्राप्त हुई। पति के जुल्म करने की स्थिति में वह उससे अलग होकर अपना जीवन अधिक अच्छी तरह गुज़ारने लगी। इस प्रकार जब औरत ने समाज में अपनी एक जगह बना ली तो विवाह की संस्था में स्वयं परिवर्तन आ गया। तलाक दर में तेजी आई। औरत की स्थिति पहले से अधिक अच्छी हो गई।

4. शिक्षा के विकास द्वारा परिवर्तन-शुरू में शिक्षा की ओर कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था। इसी कारण धार्मिक संस्कार को पूरा करने के लिए विवाह की प्रथा विकसित रही। परन्तु जैसे-जैसे शिक्षा में बढ़ोत्तरी हुई तो विवाह को ज़रूरी न समझा गया व न ही छोटी उम्र में लड़की व लड़के की शादी की गई। शिक्षित बच्चे अपनी मर्जी से विवाह करवाने की इच्छा जाहिर करने लगे।

5. औद्योगीकरण के विकास द्वारा लाया परिवर्तन-पुराने समाज में विवाह सम्बन्धी नियम इतने कठोर होते थे कि हर एक व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था। यदि वह उस नियम की उल्लंघना भी करता तो उसको सज़ा दी जाती थी। परन्तु जैसे-जैसे पैसे का महत्त्व समाज में बढ़ा तो विवाह के सम्बन्धों में परिवर्तन आ गया। प्राचीन समय की भान्ति विवाह में पवित्रता नहीं रही। आदमी व औरत ने अपने सम्बन्धों को भी काफ़ी हद तक पैसे के सुपुर्द कर दिया जिस कारण कई बार उनका एक-दूसरे पर विश्वास भी समाप्त हो जाता है व वह अलग रहना शुरू कर देते हैं। इसके अतिरिक्त औरतों व आदमियों दोनों तरफ से कुछ कमियां पैदा हो गई हैं जिनसे विवाह की संस्था की प्रबलता में भी कमी आई।

प्रश्न 6.
परिवार के मुख्य कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-
अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने परिवार के कार्यों को अपने-अपने ढंग से वर्गीकृत किया। इनका वर्णन अग्रलिखित अनुसार है
I. जैविक कार्य (Biological Functions of Family)

1. लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति (Satisfaction of Sexual desire) परिवार का यह ज़रूरी कार्य तब से पाया जा रहा है जब से मानवीय समाज पाया गया है क्योंकि लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति परिवार का प्रारम्भिक कार्य होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति ही आदमी व औरत को लम्बे समय तक जोड़े रखती है, जिसके साथ इनमें शख्सियत का भी निर्माण होता है। यदि हम इस इच्छा को दबा देते हैं तो इससे कई ऐसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं जिनसे सामाजिक सम्बन्ध भी टूट जाते हैं।

2. सन्तान उत्पत्ति (Reproduction)—मानवीय समाज को जीवित रखने के लिए भी यह ज़रूरी होता है कि हम मानवीय नस्ल को आगे से आगे बढ़ाएं। हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार व्यक्ति को तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती जब तक उसके पुत्र पैदा नहीं होता। समाज भी परिवार से बाहर पैदा हुए बच्चे को गैर-कानूनी करार दे देता है। इसी कारण परिवार को ही सन्तान उत्पत्ति का मनोरथ कहा जाता है।

3. रहने की व्यवस्था (Provision of Shelter)-परिवार के द्वारा व्यक्ति की सुरक्षा का प्रबन्ध भी किया जाता है। व्यक्ति के रहने के लिए घर की व्यवस्था की जाती है ताकि रोज़ाना के कार्यों से वापिस आकर वह घर में अपने परिवार सहित रह सके। आजकल के समय में क्लबों, होटलों आदि में चाहे आदमी को रहने के लिए जगह मिल जाती है परन्तु घर उसके लिए स्वर्ग के समान होता है क्योंकि जो आराम उसको घर में रहकर मिलता है वह कहीं और नहीं मिलता।

4. बच्चों का पालन-पोषण (Upbringing of Children) बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी का कार्य भी परिवार का ही होता है। बच्चा पैदा करने का अर्थ यह नहीं कि उसको परिवार की ज़रूरत नहीं बल्कि बच्चे का सही विकास माता-पिता की देख-रेख में ही ठीक हो सकता है। यह ठीक है कि आधुनिक समय में औरतों के रोज़गार में आ जाने से बच्चों की सम्भाल परिवार से बाहर क्रैचों में जाकर होने लगी है, परन्तु फिर भी हम यह देखते हैं कि जो बच्चे माता-पिता की देख-रेख में बड़े होते हैं, उनमें अधिक गुणों का भी विकास हुआ होता है। हैवलॉक (Havelock) के अनुसार अमेरिका में माँ का दूध पीने वाले बच्चों के बीच मृत्यु दर, दूसरा दूध पीने वाले बच्चों से बहुत कम है। इस प्रकार परिवार की सहायता के साथ ही हम बच्चों की परवरिश ठीक ढंग से कर सकते हैं व इससे ही बच्चे का सम्पूर्ण विकास भी हो सकता है।

II. आर्थिक कार्य (Economic Functions)-परिवार को शुरू से आर्थिक कार्यों का केन्द्र माना जाता रहा है क्योंकि अपने सदस्यों की आर्थिक सुरक्षा भी इसी से प्राप्त होती है। परंपरागत समाजों में तो काफ़ी चीजें घर में रहकर ही बनाई जाती थीं। परिवार के आर्थिक कार्य इस प्रकार हैं-

1. जायदाद की सुरक्षा (Protection of Property)—परिवार में व्यक्ति की जायदाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच जाती है। प्राचीन समय में अधिकतर पितृ प्रधान परिवार में जायदाद का विभाजन केवल लड़कों में ही किया जाता था परन्तु आजकल के आधुनिक समय में जायदाद का विभाजन कानून के द्वारा लड़के व लड़की दोनों के बीच किया जाने लगा है। यदि कोई व्यक्ति विवाहित नहीं होता तो उसकी मौत के बाद जायदाद के विभाजन पीछे, रिश्तेदारों के बीच भी लड़ाई शुरू हो जाती है। इस प्रकार जायदाद परिवार के सदस्यों के बीच परिवार के मुखिया की इच्छा के मुताबिक विभाजित कर दी जाती है।

2. पैसे का प्रबन्ध (Provision of Money)-पैसे की ज़रूरत परिवार के सदस्यों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए होती है। इस कारण परिवार के मुखिया द्वारा ही प्राचीन समय में पैसे का प्रबन्ध किया जाता था। आजकल आदमी व औरत दोनों मिलकर मेहनत करके परिवार के सदस्यों की ज़रूरतों को पूरा करते हैं।

III. परिवार के सामाजिक कार्य(Social functions of family)—

1. समाजीकरण (Socialization)-परिवार में व्यक्ति समाज के बीच रहने के तौर-तरीके सीखकर ही एक अच्छा नागरिक बनता है व परिवार के द्वारा ही बच्चे का सामाजिक सम्पर्क भी स्थापित होता है। व्यक्ति का जन्म परिवार में होता है व सबसे पहले वह अपने माता-पिता के सम्पर्क में आता है क्योंकि उसकी प्राथमिक ज़रूरतों की पूर्ति भी इन्हीं से ही होती है। स्थिति व भूमिका की प्राप्ति भी व्यक्ति के परिवार में ही रहकर होती है। प्रदत्त पद की प्राप्ति भी परिवार से ही होती है।

परिवार में रहकर ही बच्चे के व्यक्तित्व का विकास होता है। यह सामाजिक विशेषता उसको परिवार में रहकर ही प्राप्त होती है। सैण्डरसन ने व्यक्ति की पशु प्रवृत्तियों को नियन्त्रण में रखना, अच्छी आदतों का निर्माण करना, ज़िम्मेदारियों को समझना व व्यक्ति में स्वः विश्वास का विकास करना भी परिवार के द्वारा किए जाने वाले कार्यों के रूप में स्वीकार किया गया है। सहयोग, प्यार, कुर्बानी, अनुशासन इत्यादि जैसे गुणों का विकास भी बच्चे में परिवार के बीच रहकर ही होता है। जिस प्रकार की शिक्षा बच्चा परिवार में रहकर प्राप्त करता है, उस प्रकार का असर बच्चे में समाज के लिए भी विकसित हो जाता है। उसको हर तरह से समाज में व्यवहार करने के बारे में पता लग जाता है।

2. सामाजिक संस्कृति को सुरक्षित रखना व आगे पहुंचाना (Protection and transmission of culture)-परिवार हमारी संस्कृति को सम्भालता है व यह संस्कृति ही हमारी सामाजिक विरासत होती है। इसमें निरन्तरता बनी रहती है। प्रत्येक परिवार अपनी यह ज़िम्मेदारी समझता है कि वह नई पीढ़ी को अच्छे संस्कार, आदतें, रीति-रिवाज, परम्पराएं इत्यादि प्रदान करे, बच्चा वह हर चीज़ अचेतन प्रक्रिया में ही सीखता रहता है। क्योंकि वह जो कुछ भी अपने माता-पिता को करता देखता है वही वह आप करने लग जाता है। प्रत्येक परिवार के अपने रीति-रिवाज होते हैं जिन पर वह आधारित होता है। परिवार कुछ चीजें बच्चों को चेतन रूप में भी सिखाता है ताकि बच्चा परिवार के बनाए हुए आदर्शों के मुताबिक चले। इस प्रकार इस निरन्तरता के आधार पर ही परिवार की संस्कृति सुरक्षित भी रहती है व अगली पीढ़ी तक भी पहुंच जाती है।

3. सामाजिक नियन्त्रण (Social Control)-परिवार को सामाजिक नियन्त्रण की एक एजेंसी के रूप में महत्ता प्राप्त है क्योंकि यह पहली एजेंसी होती है जिसमें बच्चे पर नियन्त्रण रखा जाता है ताकि गलत आदतों का निर्माण उसमें न हो सके। उदाहरण के लिए माता-पिता बच्चे के झूठ बोलने पर नियन्त्रण रखते हैं, बड़ों के साथ गलत व्यवहार आदि पर नियन्त्रण करते हैं ताकि बच्चा परिवार के बनाए हुए कुछ नियमों की पालना करे। प्रत्येक सदस्य परिवार के लिए ऐसा काम करना चाहता है जिससे समाज में उसके परिवार का गौरव अधिक बढ़े। परिवार अपने सदस्यों के हर तरह के व्यवहार व क्रियाओं पर नियन्त्रण रखता है। इससे बच्चा आज्ञाकारी व अनुशासन प्रिय बन जाता है। यदि घर का एक बच्चा अपने बड़े भाई बहन या माता-पिता से गलत तरीके से व्यवहार करेगा तो समाज के बाकी सदस्यों के साथ भी वह दुर्व्यवहार करने लग जाता है। जैसे चोरी करना जोकि समाज के कानूनों के द्वारा जुर्म करार दिया जाता है। उसकी आदत भी कई बार परिवार के बड़े सदस्यों को देखकर सीखी जाती है। यदि परिवार के माता-पिता बच्चे के किसी प्रकार की वस्तु चोरी करके घर लाने पर मनाही नहीं करेंगे तो बच्चा बड़ा होकर यही काम करने लगेगा। इसी तरह से परिवार बच्चे पर हर तरह की निगरानी रखकर सामाजिक नियन्त्रण रखता है।

4. स्थिति प्रदान करना (Provide Status)-परिवार में रहकर बच्चे को अपने स्थान व भूमिका का पता · चलता है। प्राचीन समाज में तो बच्चा जैसे भी परिवार में पैदा होता था उसी तरह का आदर उसको प्राप्त होने लग जाता था। जैसे अमीर परिवार, राजा-महाराजा के परिवार, जागीरदार के परिवार आदि में पैदा हुए बच्चे को उतना ही सम्मान समाज में प्राप्त होता था जितना उसके माता-पिता को। उसकी स्थिति वही होती थी। एक गरीब घर में पैदा हुए बच्चे की स्थिति भी निम्न होती थी। चाहे आजकल के समय में बच्चा समाज के बीच अपनी स्थिति परिश्रम से प्राप्त करने लगा है परन्तु फिर भी कुछ सीमा तक बच्चा जिस तरह के परिवार में जन्म लेता है उसको उसी प्रकार कम या अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

IV. शिक्षा सम्बन्धी कार्य (Educational Function)-परिवार बच्चे की शिक्षा के लिए प्राथमिक साधन होता है क्योंकि सबसे प्रथम शिक्षा बच्चा परिवार में रहकर ही प्राप्त करता है। अच्छी आदतें सीखना व और अन्य कई गुण आदि परिवार से ही सम्बन्धित होते हैं। प्राचीन समाजों में व्यापार सम्बन्धी शिक्षा, धर्म सम्बन्धी शिक्षा, अच्छा नागरिक बनने सम्बन्धी, बच्चा परिवार में ही प्राप्त करता है। चाहे आज के समाज में बच्चे के शिक्षात्मक कार्य दूसरी संस्थाओं के पास चले गए हैं परन्तु फिर भी कुछ सीमा तक परिवार अभी भी इस शिक्षा सम्बन्धी कार्यों को अदा कर रहा है।

V. राजनीतिक कार्य (Political Function)-राजनीतिक क्षेत्र के लिए परिवार को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं। कनफ्यूशियस के अनुसार मनुष्य सबसे पहला सदस्य परिवार का है व बाद में राज्य का। आदिम (Primitve) समाज में परिवार की महत्ता राजनीतिक पक्ष से अधिक प्रबल होती थी। समाज अलग-अलग कबीलों में बंटा हुआ था। इन कबीलों के ऊपर सबसे बड़ी आयु वाले व्यक्तियों को मुखिया बनाया जाता था। परिवार में भी सबसे बड़ी आयु वाला मुखिया होता था व परिवार के बाकी सदस्य उसके मुताबिक चलते थे। भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली में भी परिवार के मुखिया की ही प्रतिनिधिता होती थी। यह मुखिया परिवार का दादा, पड़दादा आदि हो सकता था। परिवार के सदस्यों को अलग-अलग स्थितियां व रोल दिए जाते थे जिन्हें निभाना परिवार के प्रत्येक सदस्य का फर्ज होता था। परिवार की स्थिरता भी इसी कारण होती थी। आधुनिक समाज में परिवार के असंगठन का कारण ही परिवार के राजनीतिक कार्यों की कमी होती है। परिवार ही व्यक्ति को एक राजनीतिक व्यक्ति बनाने में मदद करता है जिससे व्यक्ति समाज का एक अच्छा नागरिक बन सकता है। यह राजनीतिक संगठन ही एक.ऐसा ताकतवर संगठन होता है जो व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों को भी नियमित करता है। सो पारिवारिक संगठन ही हमारे सामाजिक संगठन के लिए उत्तरदायी होता है। इस प्रकार परिवार राजनीतिक कार्य भी अदा करता है।

VI. धार्मिक कार्य (Religious Function)-धार्मिक संस्कारों के बारे जानकारी व्यक्ति को परिवार से ही प्राप्त होती है। जैसे हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार तब तक धार्मिक संस्कार अधूरे होते हैं जब तक पत्नी न हो। परिवार धार्मिक क्रियाओं का केन्द्र होता है। भारतीय समाज में विवाह को ही धार्मिक बन्धन का नाम दिया जाता है। धार्मिक क्रियाओं के द्वारा ही इसको पूरा किया जाता है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के धार्मिक संस्कार परिवार द्वारा अदा किए जाते हैं। व्यक्ति में नैतिकता का विकास भी धर्म के द्वारा होता है। धर्म एक प्रकार से व्यक्ति पर नियन्त्रण भी रखता है। इससे व्यक्ति में अच्छे गुणों का विकास होता है जैसे कुर्बानी अथवा त्याग की भावना, प्यार, सहयोग इत्यादि।

धर्म के आधार पर ही पारिवारिक जीवन भी निर्भर करता है। इस प्रकार धर्म अपने सदस्यों को धार्मिक आदर्शों, नियमों आदि प्रति पहचान करवाता है जिससे व्यक्तियों में एकता इत्यादि की भावना भी कायम रहती है। चाहे आजकल के समाज में लोगों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो गया है परन्तु फिर भी परिवार धार्मिक रिवाजों को कायम रख रहा है।

VII. मनोरंजन के कार्य (Recreational Function) परिवार अपने सदस्यों के मनोरंजन के लिए भी सहूलतें प्रदान करता है। शुरू के समाज में व्यक्ति रात के समय परिवार में इकट्ठे बैठकर एक-दूसरे से अपनी रोज़ाना की बातचीत करते थे व परिवार के बुजुर्ग सदस्य अपनी बाल कथाएं आदि सुनाकर शेष का मनोरंजन करते थे। उस समय मनोरंजन के दूसरे साधन विकसित नहीं थे। इसके अतिरिक्त त्योहारों के समय भी परिवार के सदस्य इकट्ठे मिल कर नाचते, गाना गाते थे जिनसे सबका मनोरंजन होता था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

प्रश्न 7.
गोत्र के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
गोत्र को वंश समूह का विस्तृत रूप कह सकते हैं। जब कोई वंश समूह विकास के कारण बढ़ जाता है तो वह गोत्र का रूप धारण कर लेता है। यह माता या पिता के अनुरेखित रक्त सम्बन्धियों को मिलाकर बनता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि गोत्र रक्त के रिश्तेदारों का समूह होता है और वह सभी किसी साझे पूर्वज के एक रेखकी सन्तान होते हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि यह साझे पूर्वज काल्पनिक होते हैं क्योंकि उनके बारे में किसी को पता नहीं होता है।

गोत्र किसी ऐसे व्यक्ति या पूर्वज से शुरू होता है जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता। क्योंकि यह माना जाता है कि उसने ही परिवार को या उस गोत्र को शुरू किया था इसलिए उसको संस्थापक मान लिया जाता है। उस गोत्र का नाम भी उसके पूर्वज के नाम के साथ रख लिया जाता है। गोत्र हमेशा एक तरफ को चलती है मतलब किसी बच्चे के माता-पिता के गोत्र एक नहीं हो सकते वह हमेशा अलग-अलग होंगे। यह एक पक्ष का ही होता है। इसका यह अर्थ है कि माता की गोत्र अलग परिवारों का इकट्ठ है और पिता की गोत्र भिन्न परिवारों का इकट्ठ है। इस तरह यह गोत्र बाहर व्यक्ति का समूह होता है। एक ही गोत्र में विवाह नहीं हो सकता।

परिभाषाएं (Definitions) –

(1) मजूमदार (Majumdar) के अनुसार, “एक क्लैन या सिब अक्सर कुछ वंश समूहों का जुट होता है जोकि आपसी उत्पत्ति एक कल्पित पूर्वज से मानते हैं जोकि मनुष्य या मनुष्य की तरह, पशु, वृक्ष, पौधा या निर्जीव वस्तु हो सकता है।”
(“A clan or sib is often the combination of a few lineages and descent into may be ultimately traced to a mythical ancestor, who may be human, human like, animal, plant or even in animate.”)

(2) पिंडिगटन (Pidington) के अनुसार, “एक गोत्र जिसको कभी-कभी कुल (Sib) भी कहते हैं, एक बाहर विवाही सामाजिक समूह है जिसके सदस्य अपने आपको एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित समझते हैं, जो आमतौर पर अपनी उत्पत्ति एक काल्पनिक वंशानुक्रम द्वारा किसी बड़े-बूढ़ों से मानते हैं।”
(“A clan some times called sib is an exogamous social group whose members regard themselves as being related to each other usually by functional descent from a common ancestor.”)

(3) रिवर्ज़ (Rivers) के अनुसार, “गोत्र में कबीले का एक बाहर विवाहित विभाजन है जिसके सदस्य अपने ही कुछ बन्धनों द्वारा एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित रहते हैं। इस बन्धन का आकार एक साझे पूर्वज की सन्तान या वंश होने में विश्वास एक साझा टोटम या एक साझे भू-भाग में निवास हो सकता है।”(“Clan is an exogamous division of tribe the members of which are held to be related to one another by same common lies, it may be descent from a common ancestor, possession of a common totom or hibitationed of a common territory.”) .

इन परिभाषाओं को देखकर हम कह सकते हैं कि गोत्र एक काफ़ी बड़ा रक्त समूह होता है जोकि एक वंश के सिद्धान्त पर आधारित होता है। गोत्र अपने आप में एक पूरा सामाजिक संगठन है जोकि एक समाज की अलगअलग गोत्रों को एक खास रूप अर्थात् और काम प्रदान करती है। गोत्र या तो मातृ वंशी होती है या फिर पितृ वंशी, मतलब कि बच्चे या तो पिता की गोत्र के सदस्य होते हैं या फिर माता की गोत्र के सदस्य । एक गोत्र बाहरी समूह होता है अर्थात् विवाह गोत्र से बाहर होना चाहिए है। इसलिए माता-पिता के गोत्र अलग-अलग होने चाहिए।

गोत्र की विशेषताएं (Characteristics of Clan) –

1. गोत्र की सदस्यता वंश पर आधारित होती है (Membership of Clan depends upon Lineage)गोत्र की सदस्यता वंश परम्परा पर आधारित होती है। यह चाहे पितृ वंशी या मातृ वंशी हो सकता है जोकि उस समाज पर निर्भर करता है। व्यक्ति की गोत्र उसके हाथ में नहीं होती। यह उसकी इच्छा पर भी आधारित नहीं होती। यह तो जन्म पर आधारित होता है। व्यक्ति जिस गोत्र में जन्म लेता है उसका सदस्य बन जाता है। व्यक्ति जिस गोत्र में जन्म लेता है, उसमें ही बड़ा होता है और उसमें ही मर जाता है।

2. हर गोत्र का नाम होता है (Each clan has a name)-हर गोत्र का एक खास नाम होता है। चाहे यह नाम, पशु, वृक्ष, किसी प्राकृतिक वस्तु आदि से भी लिया जा सकता है। यह चार प्रकार के होते हैं-भू-भागी नाम, टोटम वाले नाम, उपनाम, ऋषि नाम।

3. एक पक्ष (Unilateral)–गोत्र हमेशा एक पक्ष का होता है। यह कभी भी दो पक्ष की नहीं हो सकती। इसका मतलब यह हुआ कि गोत्र या पितृ वंशी समूह होगा या मातृ वंशी समूह। पितृ वंशी समूह से मतलब है कि वह बच्चा पिता के वंश का सदस्य होगा और मातृ वंशी से मतलब है कि वह माता के वंश का सदस्य होगा। इस तरह सिर्फ एक पक्ष होगा दोनों तरफ से नहीं।

4. गोत्र के सदस्य एक स्थान पर नहीं रहते (Member of a clan do not live at one place)-गोत्र के सदस्यों में खून का सम्बन्ध होता है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक ही स्थान पर रहते हों। इनका निवास स्थान साझा नहीं होता।

5. साझा पूर्वज (Common Ancestor)—गोत्र का एक साझा पूर्वज होता है चाहे उस पूर्वज के बारे में किसी को पता नहीं होता। यह साझा पूर्वज हमेशा कल्पना पर आधारित होता है। चाहे वह पूर्वज असल में भी हो सकते हैं पर यह आमतौर पर कल्पित भी हो सकता है।

6. बर्हिविवाही समूह (Exogamous group)-गोत्र एक बर्हिविवाही समूह है। इसका मतलब है कि कोई भी एक ही गोत्र में विवाह नहीं करवा सकता। यह वर्जित होता है। यह इस वज़ह के कारण होता है क्योंकि गोत्र के सारे सदस्य एक साझे असली या कल्पित पूर्वज की पैदावार होते हैं और उन सभी में खून के सम्बन्ध होते हैं। इस वज़ह के कारण उस रिश्ते में बहन-भाई हुए और इनमें वर्जित है। विवाह अपनी गोत्र से बाहर ही करवाया जा सकता है

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 7 विवाह, परिवार तथा नातेदारी

विवाह, परिवार तथा नातेदारी PSEB 11th Class Sociology Notes

  • प्रत्येक समाज ने अपने सदस्यों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए कुछ संस्थाओं का निर्माण किया होता है। संस्था सामाजिक व्यवस्था का एक ढांचा है जो एक समुदाय के सदस्यों के व्यवहार को निर्देशित करती है। यह विशेष प्रकार की आवश्यकता को पूर्ण करती है जो समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक है।
  • संस्थाओं की कुछ विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह विशेष आवश्यकताएं पूर्ण करती हैं, यह नियमों का एक गुच्छा हैं, यह अमूर्त व सर्वव्यापक होती हैं, यह स्थायी होती हैं जिनमें आसानी से परिवर्तन नहीं आते, इनमें प्रकृति सामाजिक होती है इत्यादि।
  • विवाह एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो प्रत्येक समाज में पाई जाती है। यह समाज की एक मौलिक संस्था . है। विवाह से दो विरोधी लिंगों के व्यक्तियों को पति-पत्नी के रूप में इकट्ठे रहने की आज्ञा मिल जाती है। वह लैंगिक संबंध स्थापित करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं तथा समाज के आगे बढ़ने में योगदान देते हैं।
  • वैसे तो समाज में विवाह के कई प्रकार मिलते हैं परन्तु एक विवाह तथा बहु विवाह ही प्रमुख हैं। बहुविवाह आगे दो भागों में विभाजित हैं-बहुपति विवाह तथा बहुपत्नी विवाह । बहुपति विवाह कई जनजातीय समाजों में प्रचलित है तथा बहुपत्नी विवाह पहले हमारे समाजों में प्रचलित था।
  • हमारे समाज में जीवन साथी के चुनाव के कई तरीके प्रचलित हैं जिनमें से अन्तर्विवाह (Endogamy) तथा बहिर्विवाह (Exogamy) प्रमुख हैं। अन्तर्विवाह में व्यक्ति को एक निश्चित समूह के अंदर ही विवाह करना पड़ता है तथा बहिर्विवाह में व्यक्ति को एक निश्चित समूह से बाहर विवाह करवाना पड़ता है।
  • विवाह की संस्था में पिछले कुछ समय में कई प्रकार के परिवर्तन आए हैं। इन परिवर्तनों के कई मुख्य कारण हैं जैसे कि औद्योगीकरण, नगरीकरण, आधुनिक शिक्षा, नए कानूनों का बनना, स्त्रियों की स्वतन्त्रता, पश्चिमी समाजों का प्रभाव इत्यादि।
  • परिवार एक ऐसी सर्वव्यापक संस्था है जो प्रत्येक समाज में किसी न किसी रूप में मौजद है। व्यक्ति केजीवन में परिवार नामक संस्था का काफ़ी अधिक प्रभाव है तथा इसके बिना व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता।
  • परिवार के कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह सर्वव्यापक संस्था है, इसका भावात्मक आधार होता है, इसका आकार छोटा होता है यह स्थायी तथा अस्थायी दोनों प्रकार का होता है, यह व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करता है इत्यादि।
  • परिवार के कई प्रकार होते हैं तथा इनके रहने के स्थान, सत्ता, सदस्यों इत्यादि के आधार पर कई भागों में विभाजित किया जा सकता है।
  • पिछले कुछ समय में परिवार नामक संस्था में कई प्रकार के परिवर्तन आए हैं जैसे कि आकार का छोटा होना, परिवारों का टूटना, स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन, नातेदारी के संबंधों का कमज़ोर होना, कार्यों में परिवर्तन इत्यादि।
  • नातेदारी व्यक्ति के रिश्तों की व्यवस्था है। इसमें कई प्रकार के रिश्ते आते हैं। नातेदारी को दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है। वह दो आधार हैं-रक्त संबंध तथा विवाह।
  • नज़दीकी तथा दूरी के आधार पर तीन प्रकार के रिश्तेदार पाए जाते हैं-प्राथमिक, द्वितीय तथा तृतीय प्रकार के रिश्तेदार। प्राथमिक रिश्तेदार माता-पिता, बहन-भाई होते हैं। द्वितीय रिश्तेदार हमारे प्राथमिक रिश्तेदारों के प्राथमिक रिश्तेदार होते हैं जैसे पिता का पिता-दादा। तृतीय प्रकार के रिश्तेदार द्वितीय रिश्तेदारों के प्राथमिक रिश्तेदार होते हैं जैसे-चाचा का पुत्र-चचेरा भाई।
  • पितृसत्तात्मक (Patriarchal)-वह परिवार जहाँ पिता की सत्ता चलती हो तथा उसका ही नियन्त्रण हो।
  • मातृसत्तात्मक (Matriarchal)—वह परिवार जहाँ माता की सत्ता चलती हो तथा उसका ही नियन्त्रण हो।
  • एकाकी परिवार (Nuclear Family)—वह परिवार जहाँ पति, पत्नी व उनके बिन ब्याहे बच्चे रहते हों।
  • संयुक्त परिवार (Joint Family)-वह परिवार जिसमें दो या अधिक पीढ़ियों के सदस्य इकट्ठे रहते हों तथा एक ही रसोई में से खाना खाते हों।
  • अन्तर्विवाह (Endogamy)-एक निश्चित समूह, जैसे कि जाति में ही विवाह करवाना।
  • बहिर्विवाह (Exogamy)-एक निश्चित समूह, जैसे कि गोत्र या परिवार से बाहर विवाह करवाना।
  • एक विवाह (Monogamy)-जब एक स्त्री का एक पुरुष से विवाह हो उसे एक विवाह कहते हैं।
  • बहु विवाह (Polygamy)-जब एक पुरुष या स्त्री दो या अधिक विवाह करवाएं तो उसे बहुविवाह कहते है।
  • विवाह मूलक नातेदारी (Affinal Kinship)—वह रिश्तेदारी जो व्यक्ति के विवाह के पश्चात् बनती है जैसे कि जमाई, जीजा, इत्यादि।
  • रक्त मूलक नातेदारी (Consanguineous Kinship)—वह नातेदारी जो व्यक्ति के जन्म के पश्चात् ही बन जाती है जैसे-पुत्र, पुत्री, माता, पिता, भाई, बहन इत्यादि।
  • नातेदारी (Kinship)-सामाजिक संबंध जो वास्तविक या काल्पनिक आधारों पर रक्त या विवाह के अनुसार बनते हों।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न-
हर्ष के उत्थान व साम्राज्य विस्तार के सन्दर्भ में उसकी राज्य-व्यवस्था व प्रशासन की चर्चा करें।
अथवा
एक विजेता और शासन प्रबन्ध के रूप में हर्ष की प्राप्तियों का उल्लेख करें।
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। देश में अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य उभर आये थे। इनमें से एक थानेश्वर का वर्धन राज्य भी था। प्रभाकर वर्धन के समय में यह काफ़ी शक्तिशाली था। उसकी मृत्यु के बाद 606 ई० में हर्षवर्धन राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। वैसे भी हर्ष अपने राज्य की सीमाओं में वृद्धि करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अनेक सैनिक अभियान किए। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार उसने देश में राजनीतिक एकता की स्थापना की और देश को अच्छा शासन प्रदान किया। संक्षेप में, उसके जीवन तथा सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है-

I. प्रारम्भिक जीवन-

हर्षवर्धन थानेश्वर के राजा प्रभाकर वर्धन का पत्र था। उसकी माता का नाम यशोमती था। हर्ष की जन्म तिथि के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उसका जन्म 589-90 ई० के लगभग हुआ था। बचपन में हर्ष को अच्छी शिक्षा दी गई। उसे घुड़सवारी करना, तीर कमान चलाना तथा तलवार चलाना भी सिखाया गया। कुछ ही वर्षों में वह युद्ध-कला में निपुण हो गया। जब वह केवल 14 वर्ष का था तो हूणों ने थानेश्वर राज्य पर आक्रमण किया। उनका सामना करने के लिए उसके बड़े भाई राज्यवर्धन को भेजा गया। परन्तु हर्ष ने भी युद्ध में उसका साथ दिया, भले ही पिता की बीमारी का समाचार मिलने के कारण उसे मार्ग से ही वापस लौटना पड़ा। उसके राजमहल पहुंचते ही उसका पिता चल बसा और उसकी माता सती हो गई। इसी बीच राज्यवर्धन भी हूणों को पराजित कर वापस अपनी राजधानी लौट आया। उसे अपने पिता की मृत्यु का इतना दुःख हुआ कि उसने राजगद्दी पर बैठने से इन्कार कर दिया और साधु बन जाने की इच्छा प्रकट की। परन्तु हर्ष के प्रयत्नों से उसे राजगद्दी स्वीकार करनी पड़ी।

सिंहासनारोहण तथा विपत्तियां-606 ई० में बंगाल के शासक शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन को मरवा डाला। उसकी मृत्यु के पश्चात् हर्षवर्धन थानेश्वर की राजगद्दी पर बैठा। वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। इसलिए उसे अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उसकी सबसे बड़ी समस्या अपने भाई तथा बहनोई के वध का बदला लेना था। उसे अपनी बहन राज्यश्री को भी कारावास से मुक्त करवाना था जिसे मालवा के शासक ने बन्दी बना रखा था। उसने एक विशाल सेना संगठित की और मालवा के राजा के विरुद्ध प्रस्थान किया। परन्तु उसी समय हर्ष को यह समाचार मिला कि उसकी बहन कैद से मुक्त होकर विन्धयाचल के जंगलों में चली गई है। हर्ष ने उसकी खोज आरम्भ कर दी और आखिर जंगली सरदारों की सहायता से उसे खोज निकाला। उसने अपनी बहन को ठीक उस समय बचा लिया जब वह सती होने की तैयारी कर रही थी। तत्पश्चात् हर्ष ने कन्नौज और थानेश्वर के राज्यों को मिलाकर उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली राज्य की नींव रखी।

II. विजयें तथा साम्राज्य विस्तार-

राज्य में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् हर्ष ने राज्य विस्तार की ओर ध्यान दिया। उसने अनेक विजयें प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार किया

1. बंगाल विजय-बंगाल का शासक शशांक था। उसने हर्षवर्धन के बड़े भाई को धोखे से मार दिया था। शशांक से बदला लेने के लिए हर्ष ने कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन से मित्रता कर ली और उसकी सहायता से शशांक को पराजित कर दिया। लेकिन जब तक शशांक जीवित रहा, उसने हर्ष को बंगाल पर अधिकार न करने दिया।

2. पांच प्रदेशों की विजय-बंगाल विजय के पश्चात् हर्ष ने लगातार कई वर्षों तक युद्ध किए। 606 ई० से लेकर 612 ई० तक उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों को जीता। ये प्रदेश शायद पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा थे।

3. वल्लभी की विजय-हर्ष के समय वल्लभी (गुजरात) काफ़ी धनी प्रदेश था। हर्ष ने एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण किया और वहां के शासक ध्रुवसेन द्वितीय को हराया। कहते हैं कि बाद में वल्लभी नरेश ने हर्ष के साथ मित्रता कर ली। ध्रुवसेन द्वितीय के व्यवहार से प्रसन्न होकर हर्ष ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह भी किया।

4. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष ने उत्तरी भारत को विजय करने के बाद दक्षिणी भारत को जीतने का निश्चय किया। उस समय दक्षिणी भारत में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था। 633 ई० में नर्मदा नदी के किनारे दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्ष पहली बार पराजित हुआ और उसे वापस लौटना पड़ा।

5. सिन्ध विजय-बाण के अनुसार हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु ह्यनसांग लिखता है कि उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र प्रदेश था। हर्ष ने इस प्रदेश को विजय नहीं किया था।

6. बफ़र्कीले प्रदेश पर विजय-बाण लिखता है कि हर्ष ने एक बर्फीले प्रदेश को जीता। यह बर्फीला प्रदेश शायद नेपाल था। कहते हैं कि हर्ष ने कश्मीर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।

7. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई आक्रमण किए। परन्तु शशांक के विरोध के कारण वह इस प्रदेश को न जीत सका। 620 ई० में शशांक की मृत्यु के बाद उसने गंजम पर एक बार फिर आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया।

राज्य-विस्तार-हर्ष लगभग सारे उत्तरी भारत का स्वामी था। उसके राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी को छती थीं। पूर्व में उसका राज्य कामरूप से लेकर उत्तर-पश्चिम में पूर्वी पंजाब तक विस्तृत था। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था। कन्नौज हर्ष के इस विशाल राज्य की राजधानी थी।

III. राज्य व्यवस्था एवं प्रशासन —

1. केन्द्रीय शासन-ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष एक परिश्रमी शासक था। यद्यपि वह अन्य राजाओं की तरह ठाठ-बाठ से रहता था, फिर भी वह अपने कर्तव्य को नहीं भूलता था। जनता की भलाई करने के लिए वह प्रायः खाना, पीना और सोना भी भूल जाता था। यूनसांग के अनुसार हर्ष एक दानी तथा उदार राजा था। वह भिक्षुओं, ब्राह्मणों तथा निर्धनों को खुले मन से दान देता था। कहते हैं कि प्रयाग की सभा में उसने अपना सारा कोष, वस्त्र तथा .. पण दान में दे दिए थे। ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष के शासन का उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। राजा प्रजा के हित को सदा ध्यान में रखता था। जनता के दुःखों की जानकारी प्राप्त करने के लिए वह समय-समय पर राज्य का भ्रमण भी किया करता था।

2. प्रान्तीय शासन-हर्ष ने अपने राज्य को भुक्ति, विषय, ग्राम आदि प्रशासनिक इकाइयों में बांटा हुआ था। भुक्ति के मुख्य अधिकारी को ‘उपारिक’, विषय के अधिकारी को ‘विषयपति’ तथा ग्राम के अधिकारी को ‘ग्रामक’ कहते थे। कहते हैं कि विषय और ग्राम के बीच भी एक प्रशासनिक इकाई थी जिसे ‘पथक’ कहा जाता था।

3. भूमि का विभाजन-ह्यूनसांग लिखता है कि सरकारी भूमि चार भागों में बंटी हुई थी। पहले भाग की आय राजकीय कार्यों पर व्यय की जाती थी। दूसरे भाग की आय से मन्त्रियों तथा अन्य कर्मचारियों को वेतन दिए जाते थे। तीसरे भाग की आय भिक्षुओं तथा ब्राह्मणों में दान के रूप में बांट दी जाती थी। चौथे भाग की आय से विद्वानों को पुरस्कार दिए जाते थे।

4. दण्ड विधान-ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष का दण्ड विधान काफ़ी कठोर था। देश निकाला तथा मृत्यु दण्ड भी प्रचलित थे। सामाजिक सिद्धान्तों का उल्लंघन करने वाले अपराधी के नाक, कान आदि काट दिए जाते थे। परन्तु साधारण अपराधों पर केवल जुर्माना ही किया जाता था।

5. सेना-ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया हुआ था। उसकी सेना में 50,000 पैदल, 1 लाख घुड़सवार तथा 60,000 हाथी थे। इसके अतिरिक्त उसकी सेना में कुछ रथ भी सम्मिलित थे।

6. अभिलेख विभाग-ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष ने एक अभिलेख विभाग की भी व्यवस्था की हुई थी। यह विभाग उसके शासनकाल की प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना का रिकार्ड रखता था।

7. आय के साधन-यूनसांग लिखता है कि सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/ 6 भाग लिया जाता था। प्रजा से अन्य भी कुछ कर वसूल किए जाते थे। । सच तो यह है कि हर्ष एक महान् विजेता था। उसने अपने विजित प्रदेशों को संगठित किया और लोगों को एक अच्छा शासन प्रदान किया। उसके विषय में डॉ० रे चौधरी ने ठीक ही कहा है, “वह प्राचीन भारत के महानतम् राजाओं में से एक था।” (“He was one of the greatest kings of ancient India.”)

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के समय के सांस्कृतिक विकास की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
उत्तर-
हर्ष कालीन संस्कृति काफ़ी सीमा तक गुप्तकालीन संस्कृति का ही रूप थी। फिर भी इस युग में संस्कृति के विकास को नई दिशा मिली। मन्दिरों की संस्था का रूप निखरा। वैदिक परम्परा और शिव का रूप निखरा तथा भक्ति का आरम्भ हुआ। नालन्दा विश्वविद्यालय इस काल की शाखा है। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन आरम्भ हुआ। इस सांस्कृतिक विकास की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं

1. नालन्दा-

हर्ष स्वयं बौद्ध धर्म का संरक्षक था। उसने सैंकड़ों मठ और स्तूप बनवाये। परन्तु उसके समय में नालन्दा का मठ अपनी चरम सीमा पर था। ह्यनसांग ने भी अपने वृत्तान्त में इस बात की पुष्टि की है। वह लिखता है कि भारत में मठों की संख्या हज़ारों में थी। परन्तु किसी का भी ठाठ-बाठ और गौरव नालन्दा जैसा नहीं था। यहाँ जिज्ञासु और शिक्षकों सहित दस हज़ार भिक्षु रहते थे। वे महायान और हीनयान सम्प्रदायों के सिद्धान्त और शिक्षाओं का अध्ययन करते थे। इसके अतिरिक्त वेदों, ‘क्लासिकी’ रचनाओं, व्याकरण, चिकित्सा और गणित का अध्ययन किया जाता था।

ह्यनसांग के वृत्तान्त से स्पष्ट पता चलता है कि नालन्दा के भिक्षु ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। उनका जनसामान्य से सम्पर्क टूट चुका था। उनमें प्राचीन बौद्ध धर्म के आदर्शों का प्रचार करने का उत्साह नहीं रहा था। वैसे भी बौद्ध धर्म प्रचार के स्थान पर दर्शन की सूक्ष्मताओं में उलझ गया। जैन मत की स्थिति भी बौद्ध मत जैसी ही थी। इधर समाज में ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति में सुधार किया। उन्होंने साधारण गृहस्थी के साथ अटूट सम्पर्क बना लिया था। वे अब परिवार के जन्म, मृत्यु और विवाह जैसे सभी महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित संस्कारों में अपनी सेवाएं अर्पित करते थे। ब्राह्मणों ने बौद्ध मत की तरह ही मन्दिर, मूर्ति पूजा और निजी चढ़ावे की प्रथा को भी अपना लिया था। उन्होंने भी अपने विद्यालय स्थापित कर लिए थे। ये मन्दिरों से सम्बन्धित होते थे। समय पाकर ये विद्यालय ब्राह्मणों की बपौती बन गए। उन दिनों का संस्कृत विद्यालय नालन्दा की भान्ति ही प्रसिद्ध था।

2. मन्दिर की संस्था –

इस काल में मन्दिरों का महत्त्व काफ़ी बढ़ गया था। वास्तुकला की दृष्टि से भी मन्दिर का स्वरूप पूर्णतः विकसित हो चुका था।
1. इस काल में चालुक्य, पल्लव और पाण्डेय राजाओं ने भव्य मन्दिर बनवाये।

2. मठ चट्टान को तराश कर भी बनाये जाते थे और स्वतन्त्र नींव पर भी। परन्तु अब स्वतन्त्र मठ भी बनाये गये। मन्दिर अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। इस काल के कई प्रभावशाली मन्दिर आज भी मिलते हैं। ये मन्दिर बादामी, ऐहोल, काँची और महाबलीपुरम् में देखे जा सकते हैं। समुद्र तट पर निर्मित महाबलीपुरम् का मन्दिर इस काल की मन्दिर निर्माण कला का उत्कृष्ट नमूना है।

3. स्वतन्त्र नींव पर निर्मित ऐलोरा का प्रसिद्ध कैलाशनाथ मन्दिर अद्वितीय है। यह एक पहाड़ी को काट कर बनाया हुआ है। इसका निर्माण काल बादामी, ऐहोल, काँची और महाबलीपुरम् के स्वतन्त्र नींव पर बने हुए मन्दिरों से बाद का है।

4. यह मन्दिर आठवीं सदी में राष्ट्रकूट राजाओं के समय में बन कर तैयार हुआ था। यह मन्दिर पहाड़ी के किनारे को काट कर बनाया गया है, किन्तु यह आकाश और धरती के बीच इस प्रकार खड़ा है मानो धरती से ही उभरा हो। इसकी बनावट में स्वतन्त्र नींवों पर बने मन्दिरों के स्वरूप का विशेष ध्यान रखा गया है।

5. इसकी शैली भी दक्षिण के मन्दिरों से मिलती-जुलती है। अनुमान है कि इस मन्दिर निर्माण में काफ़ी संख्या में संगतराशों और मजदूरों ने काम किया होगा। इस पर धन भी काफ़ी खर्च हुआ होगा। हज़ार वर्ष बीतने के बाद भी आज मन्दिर उतना ही सुन्दर तथा शानदार है।

6. धनी सौदागर और राजा मन्दिरों को दान देते थे। कम सामर्थ्य वाले व्यक्ति भी अपनी श्रद्धा के अनुसार मूर्तियाँ, दीपक और तेल आदि वस्तुएँ चढ़ाते थे।

7. मन्दिरों में कई प्रकार के सेवक काम करते थे, परन्तु पूजा का काम केवल ब्राह्मणों के हाथों में था।

8. संगीत अर्थात् गाना-बजाना भी मन्दिर में होने वाले धार्मिक कृत्य का एक आवश्यक अंग था। समय पाकर नृत्य भी मन्दिर के धर्म कार्य से जुड़ गया और भरत-नाट्यम नृत्य एक अत्यन्त उच्चकोटि की कला बन गया। इस प्रकार मन्दिर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र बन गए। एक बात बड़े खेद की है कि शूद्र और चाण्डालों को मन्दिर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।

वैदिक परम्परा और दर्शन का पुनर्जागरण-

(i) ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ने से वैदिक परम्परा का महत्त्व बढ़ा। ब्राह्मण वैदिक परम्परा के संरक्षक बन गए। वे समझते थे कि वैदिक परम्परा को तत्कालीन आक्रमणकारी अर्थात् शक, कुषाण और हूण भ्रष्ट कर रहे हैं। इसी कारण उन्होंने दक्षिण के दरबारों में शरण लेनी शुरू कर दी। दक्षिण भारत में राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने के लिए वैदिक परम्परा के ज्ञान को उच्च योग्यता माना जाता है।

(ii) इस काल में वेदान्त-दर्शन का महत्त्व बढ़ गया। इस दर्शन का सबसे पहला बड़ा व्याख्याता केरल का ब्राह्मण शंकराचार्य था। उनके अनुसार वेद पावन-पुनीत हैं। उसका मत उपनिषदों पर आधारित था। वह अनावश्यक संस्कारों और संस्कार विधियों के विरुद्ध था। इसलिए उसने अपने मठों में सीधी-सादी पूजा की प्रथा आरम्भ की। शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में चार बड़े मठों की स्थापना की। यह मठ थे-हिमालय में बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी, उड़ीसा में पुरी और सौराष्ट्र में द्वारका। उसने सारे देश की यात्रा की और सभी प्रकार के दार्शनिक और धार्मिक नेताओं से शास्त्रार्थ किया। उनके दर्शन का मूलभूत आधार एकेश्वरवादी अद्वैत अर्थात् केवल एक ही निर्विशेष सत्य का दर्शन है।

3. भक्ति का आरम्भ-

इस काल में कई शैव और वैष्णव तमिल धार्मिक नेताओं ने एक व्यक्तिगत इष्टदेव के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने सम्बन्धी प्रचार आरम्भ कर दिया था। इन शैव भक्तों को नायनार और वैष्णव भक्तों को आलवार कहा जाता था। सातवीं सदी तक शिव और विष्णु की महिमा में लिखे उनके भजन अत्यन्त लोकप्रिय हो चुके थे। उनके प्राप्त भजन संग्रह हैं : शैवों का तिरुमुराए और वैष्णवों का नलियार-प्रबन्धम्।

4. प्रादेशिक भाषाएं-

इस काल में संस्कृत भाषा ने गौरवमयी स्थान प्राप्त कर लिया था। साथ में प्रादेशिक बोलियों और साहित्य का भी खूब विकास हुआ। पल्लव राजाओं ने अपने शिलालेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग आरम्भ कर दिया था। उन्होंने संस्कृत और तमिल भाषा भी अपनाई। उनके शिलालेखों का व्यावहारिक दृष्टि से आवश्यक भाग तमिल में था। सातवीं सदी के एक चालुक्य शिलालेख में कन्नड़ का लोकभाषा के रूप में और संस्कृत का कुलीन वर्ग की भाषा के रूप में स्पष्ट उल्लेख है। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि पल्लव काल में साहित्य की भाषा तमिल थी। इस समय का बहुत सारा साहित्य आज भी उपलब्ध . है। निःसन्देह इस काल में तमिल साहित्य का खूब विकास हुआ। सच तो यह है कि इस काल में शिक्षा का स्तर उन्नत था। बौद्ध धर्म अवनति पर और हिन्दू वैदिक धर्म उत्कर्ष की ओर था। मन्दिर परम्परा के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ रहा था। भारतीय दर्शन का प्रचार हुआ और प्रादेशिक भाषाओं का प्रसार हुआ। यह युग वास्तव में संस्कृति का संक्राति-काल था।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
स्थानेश्वर (थानेसर) राज्य की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
पुष्यभूति ने।

प्रश्न 2.
प्रभाकरवर्धन कौन था ?
उत्तर-
प्रभाकरवर्धन स्थानेश्वर का एक योग्य शासक था।

प्रश्न 3.
हर्षवर्धन सिंहासन पर कब बैठा ?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में सिंहासन पर बैठा।

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प्रश्न 4.
असम का पुराना नाम क्या था ?
उत्तर-
असम का पुराना नाम कामरूप था।

प्रश्न 5.
हर्षवर्धन की जानकारी देने वाले चार स्रोतों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. बाणभट्ट के हर्षचरित तथा कादम्बरी
  2. हर्षवर्धन के नाटक रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका,
  3. ह्यनसांग का वृत्तांत,
  4. ताम्रलेख।

प्रश्न 6.
हर्षवर्धन ने कौन-कौन से नाटक लिखे ?
उत्तर-
रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका।

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प्रश्न 7.
हर्षवर्धन की बहन का नाम लिखें।
उत्तर-
राज्यश्री।

प्रश्न 8.
हर्षवर्धन ने कौन-से चालुक्य राजा के साथ युद्ध किया ?
उत्तर-
हर्षवर्धन ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध किया।

प्रश्न 9.
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम लिखें।
उत्तर-
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम बाणभट्ट था।

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प्रश्न 10.
ह्यूनसांग कौन था ? वह भारत किस राजा के समय आया ?
उत्तर-
ह्यूनसांग एक चीनी यात्री था। जो हर्षवर्धन के राज्यकाल में भारत आया।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) हर्ष ने …………. को अपनी नई राजधानी बनाया।
(ii) हर्ष को चालुक्य नरेश …………….. ने हराया।
(iii) हर्ष का दरबारी कवि ……………: था।
(iv) ह्यूनसांग ने …………… एशिया होते हुए भारत की यात्रा की।
(v) हर्ष वर्धन …………….. धर्म का अनुयायी था।
उत्तर-
(i) कन्नौज
(ii) पुलकेशिन द्वितीय
(iii) बाणभट्ट
(iv) मध्य
(v) बौद्ध।

3. सही/ग़लत कथन-

(i) हर्ष के समय में बौद्ध धर्म सारे भारत में लोकप्रिय था।– (×)
(ii) हर्षवर्धन की पहली राजधानी पाटलिपुत्र थी।– (×)
(iii) ह्यूनसांग द्वारा लिखी पुस्तक का नाम ‘सी० यू० की०’ है।– (√)
(iv) 643 ई० में हर्ष ने कन्नौज में धर्म सभा का आयोजन किया।– (√)
(v) हर्ष एक सहनशील तथा दानी राजा था।– (√)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न (i)
हर्ष की जीवनी लिखी है-
(A) फाह्यान ने
(B) कालिदास ने
(C) बाणभट्ट ने
(D) युवान च्वांग ने।
उत्तर-
(C) बाणभट्ट ने

प्रश्न (ii)
महेन्द्र वर्मन नरेश था-
(A) चालुक्य वंश का
(B) शक वंश का
(C) राष्ट्रकूट वंश का
(D) पल्लव वंश का ।
उत्तर-
(D) पल्लव वंश का ।

प्रश्न (iii)
हर्ष के समय का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र था-
(A) नालंदा
(B) तक्षशिला
(C) प्रयाग
(D) कन्नौज।
उत्तर-
(A) नालंदा

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प्रश्न (iv)
पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था-
(A) राज्य वर्धन
(B) हर्षवर्धन
(C) प्रभाकर वर्धन
(D) स्वयं पुष्य भूति।
उत्तर-
(B) हर्षवर्धन

प्रश्न (v)
हर्ष ने निम्न स्थान पर हुई सभा में दिल खोल कर दान दिया था–
(A) कश्मीर
(B) कन्नौज
(C) प्रयाग
(D) तक्षशिला।
उत्तर-
(C) प्रयाग

III. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
किन्हीं दो हूण शासकों के नाम लिखें।
उत्तर-
तोरमाण तथा मिहिरकुल दो प्रसिद्ध हूण शासक थे।

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प्रश्न 2.
बाणभट्ट की दो रचनाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
बाणभट्ट की दो रचनाओं के नाम हैं-हर्षचरित तथा कादम्बरी।

प्रश्न 3.
हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाले चीनी यात्री का नाम बताओ और यह कब से कब तक भारत में रहा ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाला चीनी यात्री ह्यनसांग था। वह 629 से 645 ई० तक भारत में रहा।

प्रश्न 4.
चार वर्धन शासकों के नाम।
उत्तर-
चार वर्धन शासकों के नाम ये हैं-नरवर्धन, प्रभाकरवर्धन, राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन।

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प्रश्न 5.
हर्ष की बहन का नाम बताओ तथा वह किस राजवंश में ब्याही हुई थी ?
उत्तर-
हर्ष की बहन का नाम राज्यश्री था। वह मौखरी राजवंश में ब्याही हुई थी।

प्रश्न 6.
वर्धन शासकों की आरम्भिक तथा बाद की राजधानी का नाम क्या था ? ।
उत्तर-
वर्धन शासकों की आरम्भिक राजधानी थानेश्वर थी। बाद में उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया।

प्रश्न 7.
शशांक कहां का शासक था और उसने कौन-सा प्रसिद्ध वृक्ष कटवा दिया था ?
उत्तर-
शशांक बंगाल (गौड़) का शासक था। उसने गया का बोधि वृक्ष कटवा दिया था।

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प्रश्न 8.
हर्ष का पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध कौन-से वर्ष में हुआ और इसमें किसकी विजय हुई ?
उत्तर-
हर्ष का पुलकेशिन द्वितीय के साथ 633 ई० में युद्ध हुआ। इसमें पुलकेशिन द्वितीय की विजय हुई।

प्रश्न 9.
चालुक्य वंश के शासकों की तीन शाखाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
चालुक्य वंश के शासकों की तीन शाखाएं थीं-बैंगी के पूर्वी चालुक्य, बादामी के पश्चिमी चालुक्य और लाट चालुक्य।

प्रश्न 10.
दक्षिण के पल्लव शासकों की राजधानी का नाम तथा उनके शिलालेखों का व्यावहारिक भाग किस भाषा में है ?
उत्तर-
दक्षिण के पल्लव शासकों की राजधानी कांचीपुरम् थी। उनके शिलालेखों का व्यावहारिक भाग तमिल भाषा में है।

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प्रश्न 11.
हर्ष के समकालीन पल्लव शासक का नाम तथा राजकाल।
उत्तर-
हर्ष का समकालीन पल्लव शासक महेन्द्र वर्मन था। उसका राज्यकाल 600 ई० से 630 ई० तक था।

प्रश्न 12.
हर्ष के समय मदुराई में किस वंश का राज्य था और यह कितने वर्षों तक बना रहा ?
उत्तर-
हर्ष के समय मदुराई में पाण्डेय वंश का राज्य था। यह लगभग 200 वर्षों तक बना रहा।

प्रश्न 13.
किस शासक के समय किस विहार को दान में 200 गांवों की उपज अथवा लगान मिला हुआ था ?
उत्तर-
हर्ष के समय में नालन्दा विहार को 200 गांवों की उपज अथवा लगान मिला हुआ था।

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प्रश्न 14.
हर्ष के काल में नालन्दा में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या क्या थी तथा यहाँ कौन-से धार्मिक तथा सांसारिक विषय पढ़ाए जाते थे ?
उत्तर-
हर्ष के समय नालन्दा में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या 10 हज़ार थी। यहां महायान तथा हीनयान के सिद्धान्त, वेद, क्लासिकी रचनाएं, चिकित्सा, व्याकरण और गणित के विषय पढ़ाए जाते थे।

प्रश्न 15.
दक्षिण के किन चार स्थानों में प्रभावशाली मन्दिर मिले हैं ?
उत्तर-
दक्षिण के जिन चार स्थानों पर प्रभावशाली मन्दिर मिले हैं, वे हैं–बादामी, ऐहोल, कांची तथा महाबलिपुरम्।

प्रश्न 16.
पहाड़ी को काटकर बनाया गया कैलाशनाथ मन्दिर कहां है और यह किस वंश के राज्यकाल में पूरा हुआ था ?
उत्तर-
पहाड़ी को काटकर बनाया गया कैलाशनाथ मन्दिर ऐलोरा में है। यह राष्ट्रकूट वंश के राज्यकाल में पूरा हुआ था।

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प्रश्न 17.
दक्षिण में नायनार तथा आलवार भक्त कौन-से सम्प्रदायों के साथ सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
नायनार भक्त शैव सम्प्रदाय से तथा आलवार भक्त वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे।

प्रश्न 18.
नायनार तथा आलवार भक्त कौन-सी भाषा में लिखते थे तथा उनके दो भजन संग्रहों के नाम बताएं।
उत्तर-
नायनार तथा आलवार भक्त तमिल भाषा में लिखते थे। उनके दो भजन संग्रहों के नाम हैं-तिरुमुराए तथा नलियार प्रबन्धम्।

प्रश्न 19.
शंकराचार्य कहां के रहने वाले थे और उन्होंने किन चार प्रमुख मठों की स्थापना कहां की ? .
उत्तर-
शंकराचार्य केरल के रहने वाले थे। उन्होंने हिमालय में केदारनाथ, दक्षिण में शृंगेरी, उड़ीसा में पुरी तथा सौराष्ट्र में द्वारिका में मठ बनवाये।

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प्रश्न 20.
उत्तरी भारत के कौन-से चार प्रदेश हर्ष के साम्राज्य से बाहर थे ? ।
उत्तर-
उत्तरी भारत के जो चार प्रदेश हर्ष के साम्राज्य से बाहर थे, वे थे-कश्मीर, नेपाल, कामरूप (असम) और सौराष्ट्र।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की विजयों के बारे में बतायें।
उत्तर-
पुलकेशिन द्वितीय बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्यों में सबसे शक्तिशाली शासक था। वह एक महान् विजेता था। उसने 610 ई० से 642 ई० तक शासन किया। उसका राज्य दक्षिणी गुजरात से दक्षिणी मैसूर तक फैला हुआ था। उसने अनेक विजयें प्राप्त की-

  • उसने उत्तरी भारत के सबसे शक्तिशाली राजा हर्षवर्धन को पराजित किया। यह उसकी बहुत बड़ी विजय मानी जाती है।
  • उसने पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन प्रथम को पराजित किया और उसके राज्य के कई प्रदेश अपने अधिकार में ले लिए।
  • उसने राष्ट्रकूटों के आक्रमण का बड़ी वीरता से सामना किया। उसने कादम्बों की राजधानी बनवासी को भी लूटा था।

प्रश्न 2.
हर्ष के अधीन राजाओं के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के साम्राज्य का एक बड़ा भाग अधीन राजाओं का था। उन्होंने हर्ष को अपना महाराजाधिराज स्वीकार कर लिया। वे हर्ष को नियमित रूप से नज़राना देते थे और युद्ध के समय सैनिक सहायता भी करते थे। हर्ष का अपने अधीन सभी शासकों पर नियन्त्रण एक-सा नहीं था। इनमें से कुछ ‘सामन्त’ तथा ‘महासामन्त’ कहलाते थे। कुछ शासकों को राजा की पदवी भी प्राप्त थी। उन्हें कई अवसरों पर सम्राट की वन्दना के लिए स्वयं उपस्थित होना पड़ता था। हर्ष को अपनी सेना सहित अनेक राज्यों में से गुजरने का पूरा अधिकार था। कुछ अधीन राजाओं को अपने पुत्र और निकट सम्बन्धियों को हर्ष के दरबार में रहने के लिए भेजना पड़ता था। जब सामन्त अपने प्रदेश में किसी को लगान-मुक्त भूमि देते तो उन्हें दान-पात्र पर हर्ष द्वारा चलाये गये सम्वत् का प्रयोग करना पड़ता था। कुछ राजाओं को तो लगान-मुक्त भूमि देने के लिए भी सम्राट की आज्ञा लेनी पड़ती थी।

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प्रश्न 3.
हर्ष के राज्य की प्रशासनिक इकाइयों तथा उनके कर्मचारियों के बारे में बताएं।
उत्तर-
हर्ष ने अपने साम्राज्य को भिन्न-भिन्न प्रशासनिक इकाइयों में बांटा हुआ था। बंस-खेड़ा के शिलालेख में उसके साम्राज्य के चार प्रादेशिक भागों का वर्णन है। ये थे-विषय, भुक्ति, पथक और ग्राम। परन्तु मधुबन के शिलालेख में इनमें से केवल पहले, दूसरे और चौथे भागों का उल्लेख है। साम्राज्य का आरम्भिक विभाजन भुक्ति था, जिन्हें प्रान्त समझा जा सकता था। भुक्ति में कई ‘विषय’ होते थे। प्रत्येक विषय में बहुत से ग्राम होते थे। कई प्रदेशों में विषय और ग्राम के बीच एक और प्रशासनिक इकाई होती थी जिसे ‘पथक’ कहते थे।

भुक्ति के अधिकारी को उपरिक कहा जाता था। विषय का सबसे बड़ा अधिकारी विषयपति कहलाता था! ग्राम के प्रमुख अधिकारी को ग्रामक कहते थे। वह अपना कार्य ग्राम के बड़े-बूढ़ों की सभा की सहायता द्वारा करता था।

प्रश्न 4.
हर्ष के अधीन लगान व्यवस्था तथा लगान-मुक्त भूमि के बारे में बताएं।
उत्तर-
हर्षवर्धन के अधीन राज्य की आय का मुख्य साधन लगान (भूमिकर) था। यूनसांग के अनुसार लगान को ‘भाग’, ‘कर’ या ‘उद्रंग’ कहा जाता था। किसानों को कई अन्य कर भी देने पड़ते थे। कहने को तो उन्हें सरकार को भूमि की उपज का छठा भाग ही देना पड़ता था, परन्तु वास्तव में यह दर अधिक थी। कभी-कभी सरकार उनसे छठे भाग से भी अधिक भूमि कर की मांग करती थी। हर्ष ने लगान-मुक्त भूमि के प्रबन्ध को भी विशेष महत्त्व दिया। इसके अनुसार प्रबन्धक कर्मचारियों को सरकार द्वारा वेतन के स्थान पर कुछ भूमि से कर वसूल करने का अधिकार दे दिया जाता था। लगान-मुक्त भूमि का पूरापूरा लिखित हिसाब-किताब रखा जाता था। इसके लिए एक पृथक् विभाग बना दिया गया था। प्रत्येक कर्मचारी को कर-मुक्त भूमि से सम्बन्धित एक ‘आदेश-पत्र’ दिया जाता था जो सामान्यतः ताम्रपत्र पर लिखा होता था।

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प्रश्न 5.
शंकराचार्य के दर्शन तथा कार्य के बारे में बतायें।
उत्तर-
शंकराचार्य 9वीं शताब्दी के महान् विद्वान् तथा दार्शनिक हुए हैं। उन्होंने सभी हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन किया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उनके गुरु ने उन्हें ‘धर्महंस’ की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने बौध धर्म के दार्शनिकों तथा प्रचारकों को चुनौती दी और उन्हें वाद-विवाद में अनेक बार पराजित किया। उन्होंने भारत की चारों दिशाओं में एक-एक मठ बनवाया। ये मठ थे-जोशी मठ, शृंगेरी मठ, पुरी मठ तथा द्वारिका मठ। यही मठ आगे चलकर हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध केन्द्र बने। उन्होंने साधु-संन्यासियों के कुछ संघ भी स्थापित किए। शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध-दर्शन की शिक्षा बन्द कर दी गई और उसका स्थान हिन्दू दर्शन ने ले लिया। शंकराचार्य ने लोगों में ‘अद्वैत दर्शन’ का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को बताया कि ब्रह्म और संसार में कोई अन्तर नहीं है। सभी जीवों की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और अन्त में वे ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।

प्रश्न 6.
वर्धन काल में दक्षिण में प्रादेशिक अभिव्यक्ति के बारे में बताओ।
उत्तर-
वर्धन काल में देश के दक्षिणी भाग में प्रादेशिक अभिव्यक्ति के प्रमाण मिलते हैं। इस समय तक संस्कृत भाषा का महत्त्व पुनः बढ़ गया था। दक्षिण में तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। यह वहां के सामाजिक तथा धार्मिक उच्च वर्ग की भाषा बन गई। ऐसा होने पर भी ‘प्राकृत’ भाषा के विकास में कोई अन्तर नहीं आया। इस दृष्टि से ‘तमिल’ भाषा ने भी विशेष उन्नति की। उदाहरणार्थ पल्लव शासकों ने अपने शिलालेखों में संस्कृत का प्रयोग किया। परन्तु उसके शिलालेखों का व्यावहारिक दृष्टि से आवश्यक भाग ‘तमिल’ में ही होता था। इसी प्रकार चालुक्यों के शिलालेखों में ‘कन्नड़’ भाषा तथा कन्नड़ साहित्य का वर्णन मिलता है। इससे भी बढ़ कर पल्लव शासकों का सारा साहित्य तमिल भाषा में ही मिलता है। तमिल देश में तमिल साहित्य का विकास स्पष्ट रूप से प्रादेशिक अभिव्यक्ति की ओर संकेत करता है।

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प्रश्न 7.
हर्ष के समय में नालन्दा के विहार की स्थिति क्या थी ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के समय में नालन्दा का मठ अपने चरम शिखर पर था। यूनसांग ने भी अपने विवरण में नालन्दा का बड़ा रोचक वर्णन किया है। यह वर्णन भी नालन्दा के तत्कालीन गौरव की पुष्टि करता है। यूनसांग लिखता है कि भारत में मठों की संख्या हजारों में थी। परन्तु किसी का भी ठाठबाठ और बड़प्पन नालन्दा जैसा नहीं था। नालन्दा के विहार में जिज्ञासु और शिक्षकों सहित दस हज़ार भिक्षु रहते थे। वे महायान और हीनयान सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और शिक्षाओं का अध्ययन करते थे। इसके अतिरिक्त यहां वेदों, ‘क्लासिकी रचनाओं, व्याकरण, चिकित्सा और गणित की पढ़ाई भी होती थी। नालन्दा के खण्डहर आज भी बड़े प्रभावशाली हैं।

प्रश्न 8.
वर्धन काल में मन्दिर की संस्था का सामाजिक महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
वर्धनकाल में मन्दिर की संस्था को बहुत अधिक सामाजिक महत्त्व दिया जाने लगा था। विद्यालय प्रायः महत्त्वपूर्ण मन्दिरों से ही सम्बन्धित होते थे। लोगों की मन्दिरों में बड़ी श्रद्धा थी। धनी तथा राजा लोग दिल खोल कर मन्दिरों को दान देते थे। साधारण लोग भी मन्दिरों में जाकर मूर्तियां, दीपक, तेल आदि चढ़ाते थे। मन्दिरों में संगीत और नृत्य भी होता था जिसे धर्म का अंग माना जाने लगा था। कई प्रकार के सेवक मन्दिरों में काम करते थे, पर मन्दिर के भीतर पूजा केवल ब्राह्मणों के हाथों में थी। भरत-नाट्यम नृत्यु एक अत्यन्त उच्च कोटि की कला बन गया। इस प्रकार मन्दिर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र बन गये। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि शूद्रों और चाण्डालों को मन्दिर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।

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प्रश्न 9.
दक्षिण में नायनार तथा आलवार भक्तों के बारे में बतायें।
उत्तर-
वर्धन काल में कछ शैव और वैष्णव प्रचारकों ने मानवीय देवताओं के प्रति श्रद्धाभक्ति का प्रचार करना आरम्भ कर दिया था। इसका प्रचार करने वाले शैव नेता नायनार तथा वैष्णव नेता आलवार कहलाते थे। उन्होंने शिव तथा विष्णु की आराधना में अनेक भजनों की रचना की जो दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होने लगे। उनके भजनों के संग्रह आज भी उपलब्ध हैं। शैवों के भजन संग्रह ‘तिरुमुराए’ तथा वैष्णवों का भजन संग्रह ‘नलिआर प्रबन्धम्’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भक्त और भगवान् (विष्णु अथवा शिव) के आपसी सम्बन्धों को बहुत अधिक महत्त्व दिया। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि नायनारों तथा आलवारों का सम्बन्ध उच्च वर्गों से नहीं था। वे प्रायः कारीगरों तथा कृषक श्रेणियों से सम्बन्ध रखते थे। उनमें कुछ स्त्रियां भी सम्मिलित थीं। उन्होंने अपना प्रचार साधारण बोलचाल की (तमिल) भाषा में किया और इसी भाषा में अपने भजन लिखे।

प्रश्न 10.
भारत के इतिहास में हूणों ने क्या भूमिका निभाई ?
उत्तर-
हूण मध्य एशिया की एक जंगली तथा असभ्य जाति थी। इन लोगों ने छठी शताब्दी के आरम्भ तक उत्तर-पश्चिम भारत के एक बहुत बड़े भाग पर अपना अधिकार जमा लिया। भारत में हूणों के दो प्रसिद्ध शासक तोरमाण तथा मिहिरकुल हुए हैं। तोरमाण ने 500 ई० के लगभग मालवा पर अधिकार कर लिया था। उसने “महाराजाधिराज” की उपाधि भी धारण की। तोरमाण की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मिहिरकुल अथवा मिहिरगुल ने शाकल (Sakala) को अपनी राजधानी बनाया। उत्तरी भारत के राजाओं के साथ युद्ध में मिहिरकुल पकड़ा गया। बालादित्य उसका वध करना चाहता था, परन्तु उसने अपनी मां के कहने पर उसे छोड़ दिया। इसके पश्चात् उसने गान्धार को विजय किया। कहते हैं कि उसने लंका पर भी विजय प्राप्त कर ली। 542 ई० में मिहिरकुल की मृत्यु हो गई और भारत में हूणों का प्रभाव कम हो गया।

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प्रश्न 11.
मैत्रक कौन थे ? उनके सबसे महत्त्वपूर्ण शासकों का वर्णन करो।
उत्तर-
मैत्रक लोग वल्लभी के शासक थे। ये पहले गुप्त शासकों के अधीन थे। उनकी स्वतन्त्रता की क्रिया बुद्धगुप्त (477-500) के समय में आरम्भ हुई। उसके समय में भ्रात्रक नामक एक मैत्रक सौराष्ट्र के सीमावर्ती प्रान्त का गवर्नर था। भ्रात्रक के बाद उसके पुत्र द्रोण सिंह ने ‘महाराजा’ की उपाधि धारण की और एक प्रकार से अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की।

गुप्त सम्राट् नरसिंह ने भी उसकी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार स्वतन्त्र मैत्रक राज्य की स्थापना हुई। छठी शताब्दी तक उन्होंने अपनी शक्ति काफ़ी मज़बूत कर ली। यहां तक कि सम्राट हर्षवर्धन ने सातवीं शताब्दी में अपनी पुत्री का विवाह भी वल्लभी के प्रसिद्ध शासक ध्रुवसेन द्वितीय के साथ किया था। हर्ष की मृत्यु के पश्चात् एक मैत्रक शासक धारसेन चतुर्थ ने ‘महाराजाधिराज’ तथा ‘चक्रवर्ती’ की उपाधियां धारण की। 8वीं शताब्दी में वल्लभी राज्य पर अरबों का अधिकार हो गया।

प्रश्न 12.
आप मौखरियों के विषय में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
गुप्त वंश के पतन के पश्चात् कन्नौज (कान्यकुब्ज) में मौखरी वंश की नींव पड़ी। इस वंश का प्रथम शासक हरिवर्मन था। उसके उत्तरकालीन गुप्त सम्राटों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। मौखरी वंश का दूसरा प्रसिद्ध शासक ईशान वर्मन (Ishana Varman) था। उसने आन्ध्र एवं शूलिक राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसकी मृत्यु पर उसका पुत्र गृहवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना। वह मौखरी वंश का अन्तिम सम्राट् था। उसका विवाह हर्ष की बहन राज्यश्री से हुआ था। मालवा के गुप्त सम्राट् देवगुप्त से उसकी शत्रुता थी। देवगुप्त ने गृहवर्मन को पराजित किया और उसे मार डाला। उसने उसकी पत्नी राज्यश्री को भी कारावास में डाल दिया। बाद में अपनी बहन को छुड़ाने के लिए हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्धन ने देवगुप्त पर आक्रमण किया और उसका वध कर दिया। अन्त में कन्नौज हर्षवर्धन के साम्राज्य का अंग बन गया।

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प्रश्न 13.
मदुराई के पाण्डेय शासकों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर–
पाण्डेय वंश दक्षिणी भारत का एक प्रसिद्ध वंश था। इस वंश द्वारा स्थापित राज्य में मदुरा, तिन्नेवली और ट्रावनकोर के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे। मदुरा इस राज्य की राजधानी थी। पाण्डेय वंश का आरम्भिक इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है। सातवीं और आठवीं शताब्दी में पाण्डेय शक्ति में वृद्धि हुई, परन्तु दसवीं शताब्दी में वे चोल राजाओं से पराजित हुए। हारने के बाद वे 12वीं शताब्दी तक चोल नरेशों के अधीन सामन्तों के रूप में प्रशासन करते रहे। 13वीं शताब्दी में उन्होंने पाण्डेय राज्य की फिर से नींव रखी। 14वीं शताब्दी में वे गृह-युद्ध में उलझ गए। तब पाण्डेय वंश के दो भाइयों में सिंहासन प्राप्ति के लिए युद्ध छिड़ गया। इन परिस्थितियों में अलाउद्दीन खिलजी के प्रतिनिधि मलिक काफूर ने पाण्डेय राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसने इस राज्य को खूब लूटा। अन्त में द्वारसमुद्र के होयसालों ने पाण्डेय राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

प्रश्न 14.
ह्यूनसांग के विवरण से भारतीय जीवन पर क्या प्रकाश पड़ता है ?
अथवा
‘सी-यू-की’ पुस्तक का लेखक कौन था ? इसका ऐतिहासिक महत्त्व संक्षेप में लिखो।
उत्तर-
यूनसांग एक चीनी यात्री था। वह बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करने तथा बौद्ध साहित्य का अध्ययन करने के लिए भारत आया था। वह 8 वर्ष तक हर्ष की राजधानी कन्नौज में रहा। उसने ‘सी-यू-की’ नामक पुस्तक में अपनी भारत यात्रा का वर्णन किया है। वह लिखता है कि हर्ष बड़ा परिश्रमी, कर्तव्यपरायण और प्रजाहितैषी शासक था। उस समय का समाज चार जातियों में बंटा हुआ था। शूद्रों से बहुतं घृणा की जाती थी। लोगों का नैतिक जीवन काफ़ी ऊंचा था। लोग चोरी करना, मांस खाना, नशीली वस्तुओं का सेवन करना बुरी बात समझते थे। लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। देश में ब्राह्मण धर्म उन्नति पर था, परन्तु बौद्ध धर्म भी कम लोकप्रिय नहीं था।

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प्रश्न 15.
हर्षवर्धन के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
हर्षवर्धन एक महान् चरित्र का स्वामी था। उसे अपने परिवार से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त करवाने और उसे ढूंढने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिर । वह एक सफल विजेता तथा कुशल प्रशासक था। उसने थानेश्वर के छोटे से राज्य को उत्तरी भारत के विशाल राज्य का रूप दिया। वह प्रजाहितैषी और कर्तव्यपरायण शासक था।

यूनसांग ने उसके शासन प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है। उसके अधीन प्रजा सुखी और समृद्ध थी। हर्ष धर्म-परायण और सहनशील भी था। उसने बौद्ध धर्म को अपनाया और सच्चे मन से इसकी सेवा की। उसने अन्य धर्मों का समान आदर किया। दानशीलता उसका एक अन्य बड़ा गुण था। वह इतना दानी था कि प्रयाग की एक सभा में उसने अपने वस्त्र भी दान में दे दिए थे और अपना तन ढांपने के लिए अपनी बहन से एक वस्त्र लिया था। हर्ष स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था और उसने कला और विद्या को संरक्षण प्रदान किया।

प्रश्न 16.
हर्षकालीन भारत में शिक्षा-प्रणाली का वर्णन करो।
उत्तर-
हर्षवर्धन स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था। अतः उसके समय में शिक्षा का खूब प्रसार हुआ। आरम्भिक शिक्षा के केन्द्र ब्राह्मणों के घर अथवा छोटे-छोटे मन्दिर थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को मठों में जाना पड़ता था। उच्च शिक्षा के लिए देश में विश्वविद्यालय भी थे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय चिकित्सा-विज्ञान तथा गया का विश्वविद्यालय धर्म शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। ह्यूनसांग ने नालन्दा विश्वविद्यालय को शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र बताया है। यह पटना से लगभग 65 किलोमीटर दूर नालन्दा नामक गांव में स्थित था। इसमें 8,500 विद्यार्थी तथा 1500 अध्यापक थे। नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना कोई सरल कार्य नहीं था। यहां गणित, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरण तथा चिकित्सा-विज्ञान आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे।

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प्रश्न 17.
पल्लव राज्य की नींव किसने रखी ? इस वंश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक कौन था ?
उत्तर-
पल्लव राज्य दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली राज्य था। हर्षवर्धन के समय इस राज्य में मद्रास, त्रिचनापल्ली, तंजौर तथा अर्काट के प्रदेश शामिल थे। कांची उसकी राजधानी थी। इस राज्य की नींव 550 ई० में सिंह वर्मन ने रखी थी। उसके एक उत्तराधिकारी सिंह विष्णु ने 30 वर्ष तक शासन किया तथा पल्लव राज्य को सुदृढ़ किया। महेन्द्र वर्मन पल्लव वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने 600 ई० से 630 ई० तक शासन किया। वह हर्षवर्धन का समकालीन था तथा उसी की भान्ति एक उच्चकोटि का नाटककार तथा कवि था। ‘मत्तविलास प्रहसन’ (शराबियों की मौज) उसकी एक सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। महेन्द्र वर्मन पहले जैन मत में विश्वास रखता था। परन्तु बाद में वह शैवमत को मानने लगा। उसके समय में महाबलिपुरम में अनेक सुन्दर मन्दिर बने।

प्रश्न 18.
पल्लवों और चालुक्यों के शासनकाल की मन्दिर वास्तुकला का वर्णन करो।
उत्तर-
पल्लव और चालुक्य दोनों ही कला-प्रेमी थे। उन्होंने वैदिक देवी-देवताओं के अनेक मन्दिर बनवाए। ये मन्दिर पत्थरों को काटकर बनाये जाते थे। पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन द्वारा महाबलिपुरम में बनवाये गये सात रथ-मन्दिर सबसे प्रसिद्ध हैं। यह नगर अपने समुद्र तट मन्दिर के लिए भी प्रसिद्ध है। पल्लवों ने अपनी राजधानी कांची में अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया, जिनमें से कैलाश मन्दिर सबसे प्रसिद्ध है। कहते हैं कि ऐहोल में उनके द्वारा बनवाये गए 70 मन्दिर विद्यमान हैं। चालुक्य राजा भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं रहे। उन्होंने बादामी और पट्टकदल नगरों में मन्दिरों का निर्माण करवाया। पापनाथ मन्दिर तथा वीरुपाक्ष मन्दिर इनमें से काफ़ी प्रसिद्ध हैं। पापनाथ मन्दिर का बुर्ज उत्तर भारतीय शैली में और वीरुपाक्ष मन्दिर विशुद्ध दक्षिणी भारतीय शैली में बनवाया गया है।

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IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यूनसांग कौन था ? उसने हर्षकालीन भारत की राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक अवस्था के बारे में क्या लिखा है ?
अथवा
यूनसांग हर्ष के शासन-प्रबन्ध के विषय में क्या बताता है ?
उत्तर-
यूनसांग एक प्रसिद्ध चीनी यात्री था। वह हर्ष के शासनकाल में भारत आया। उसे यात्रियों का ‘राजा’ भी कहा जाता है। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था और बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करना चाहता था। इसलिए 629 ई० में वह भारत की ओर चल पड़ा। वह चीन से 629 ई० में चला और ताशकन्द, समरकन्द और बलख से होता हुआ 630 ई० में गान्धार पहुंचा। गान्धार में कुछ समय ठहरने के बाद वह भारत में आ गया। उसने कई वर्षों तक बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वह हर्ष की राजधानी कन्नौज में भी 8 वर्ष तक रहा। अन्त में 644 ई० में वह वापिस चीन लौटा। उसने अपनी भारत यात्रा का वर्णन ‘सीयू-की’ नामक पुस्तक में किया है। इस ग्रन्थ में उसने शासन प्रबन्ध तथा भारत के विषय में अनेक बातें लिखी हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है-

I. हर्ष और उसके शासन-प्रबन्ध के विषय में-यूनसांग ने लिखा है कि राजा हर्ष एक परिश्रमी तथा कर्तव्यपरायण शासक था। वह अपने कर्त्तव्य को कभी नहीं भूलता था। जनता की भलाई करने के लिए वह सदा तैयार रहता था। हर्ष एक बहुत बड़ा दानी भी था। प्रयाग की सभा में उसने अपना सारा धन और आभूषण दान में दे दिये थे। सरकारी भूमि चार भागों में बँटी हुई थी-पहले भाग की आय शासन-कार्यों में, दूसरे भाग की आय मन्त्रियों तथा अन्य कर्मचारियों को वेतन देने में, तीसरे भाग की आय दान में और चौथे भाग की आय विद्वानों आदि को इनाम देने में खर्च की जाती थी। हर्ष का दण्ड विधान काफ़ी कठोर था। कई अपराधों पर अपराधी के नाक-कान काट लिए जाते थे। हर्ष के पास एक शक्तिशाली सेना थी जिसमें पच्चीस हज़ार पैदल, एक लाख घुड़सवार तथा लगभग साठ हजार हाथी थे। सेना में रथ भी थे। सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। प्रजा से कुछ अन्य कर भी लिये जाते थे, परन्तु ये सभी कर हल्के थे। हर्ष ने एक अभिलेख विभाग की व्यवस्था की हुई थी। यह विभाग उसके शासन-काल की प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना का रिकार्ड रखता था।

II. सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के विषय में-ह्यूनसांग ने चार जातियों का वर्णन किया है। ये जातियाँ थींब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । उसके अनुसार शूद्रों से दासों जैसा व्यवहार किया जाता था। इस समय के लोग सादे वस्त्र पहनते थे। पुरुष अपनी कमर के चारों ओर कपड़ा लपेट लेते थे। स्त्रियाँ अपने शरीर को एक लम्बे वस्त्र से ढक लेती थीं। वे श्रृंगार भी करती थीं। लोग चोरी से डरते थे। वे किसी की वस्तु नहीं उठाते थे। माँस खाना और नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना बुरी बात मानी जाती थी। देश की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। ग्रामों में खेती-बाड़ी मुख्य व्यवसाय था। नगरों में व्यापार उन्नति पर था। मकान ईंटों और लकड़ी के बनाये जाते थे।

III. धार्मिक जीवन के बारे में-हयूनसांग ने भारत को ‘ब्राह्मणों का देश’ कहा है। वह लिखता है कि देश में ब्राह्मणों का धर्म उन्नति पर था, परन्तु बौद्ध धर्म भी अभी तक काफी लोकप्रिय था। हर्ष प्रत्येक वर्ष प्रयाग में एक सभा बुलाता था। इस सभा में वह विद्वानों तथा ब्राह्मणों को दान दिया करता था।

प्रश्न 2.
हर्षवर्धन की प्रमुख विजयों का वर्णन कीजिए।
अथवा
हर्षवर्धन की किन्हीं पांच सैनिक सफलताओं की व्याख्या कीजिए। विदेशों के साथ उसके कैसे संबंध थे ?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। उसकी प्रमुख विजयों का वर्णन इस प्रकार है-

1. बंगाल विजय-बंगाल का शासक शशांक था। उसने हर्षवर्धन के बड़े भाई का धोखे से वध कर दिया था। उससे बदला लेने के लिए हर्ष ने कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन से मित्रता की। दोनों की सम्मिलित सेनाओं ने शशांक को पराजित कर दिया। परन्तु शशांक जब तक जीवित रहा, उसने हर्ष को बंगाल पर अधिकार न करने दिया। उसकी मृत्यु के पश्चात् ही हर्ष बंगाल को अपने राज्य में मिला सका।

2. पांच प्रदेशों की विजय-बंगाल विजय के पश्चात् हर्ष ने निरन्तर कई वर्षों तक युद्ध किए। 606 ई० से लेकर 612 ई० तक उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। ये प्रदेश सम्भवतः पंजाब, कन्नौज़, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा थे।

3. वल्लभी की विजय-हर्ष के समय वल्लभी (गुजरात) काफ़ी धनी प्रदेश था। हर्ष ने एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण किया और वहां के शासक ध्रुवसेन को परास्त किया। कहते हैं कि वल्लभी नरेश ने बाद में हर्ष के साथ मित्रता कर ली। ध्रुवसेन के व्यवहार से प्रसन्न होकर हर्ष ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

4. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष ने उत्तरी भारत की विजय के पश्चात् दक्षिणी भारत को जीतने का निश्चय किया। उस समय दक्षिणी भारत में पुलकेशिन द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था। 620 ई० के लगभग नर्मदा नदी के पास दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्ष को पहली बार पराजय का मुंह देखना पड़ा। अत: वह वापस लौट आया। इस प्रकार दक्षिण में नर्मदा नदी उसके राज्य की सीमा बन गई।

5. सिन्ध विजय-बाण के अनुसार हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया और वहां अपना अधिकार कर लिया। परन्तु यूनसांग लिखता है कि उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र प्रदेश था। हर्ष ने इस प्रदेश को विजित नहीं किया था।

6. बर्फीले प्रदेश पर विजय-बाण लिखता है कि हर्ष ने एक बर्फीले प्रदेश को विजय किया। यह बर्फीला प्रदेश सम्भवतः नेपाल था। कहते हैं कि हर्ष ने कश्मीर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।

7. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई आक्रमण किए, परन्तु शशांक के विरोध के कारण वह इस प्रदेश को विजित करने में सफल न हो सका। 643 ई० में शशांक की मृत्यु के पश्चात् उसने गंजम पर फिर एक बार आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। .

8. राज्य विस्तार-हर्ष लगभग सारे उत्तरी भारत का स्वामी था। उसके राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी को छूती थीं। पूर्व में उसका राज्य कामरूप से लेकर उत्तर-पश्चिम में पूर्वी पंजाब तक विस्तृत था। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था। हर्ष के इस विशाल राज्य की राजधानी कन्नौज़ थी।

9. विदेशों से सम्बन्ध-हर्ष ने चीन और फारस आदि कई देशों के साथ मित्रता स्थापित की। कहते हैं कि हर्ष तथा फारस का शासक समय-समय पर एक-दूसरे को उपहार भेजते रहते थे।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल

प्रश्न 3.
(क) हर्ष के शासन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएं बताओ। (ख) उसके चरित्र पर भी प्रकाश डालिए।
उत्तर-
(क) यूनसांग के लेखों से हमें हर्ष के राज्य प्रबन्ध के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। उसे हर्ष का शासन प्रबन्ध देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी। उसने हर्ष के शासन प्रबन्ध के बारे में निम्नलिखित बातें लिखी हैं-

राजा-हर्ष एक प्रजापालक शासक था। वह सदा प्रजा की भलाई में जुटा रहता था। यूनसांग लिखता है कि हर्ष प्रजाहितार्थ कार्य करते समय खाना-पीना और सोना भी भूल जाता था। समय-समय पर वह अपने राज्य में भ्रमण भी करता था। वह बुराई करने वालों को दण्ड देता था तथा नेक काम करने वालों को पुरस्कार देता था।

मन्त्री-राजा की सहायता के लिए मन्त्री होते थे। मन्त्रियों के अतिरिक्त अनेक कर्मचारी थे जो मन्त्रियों की सहायता करते थे।

प्रशासनिक विभाजन-प्रशासनिक कार्य को ठीक ढंग से चलाने के लिए उसने अपने सारे प्रदेश को प्रान्तों, जिलों और ग्रामों में बांटा हुआ था। प्रान्तों का प्रबन्ध ‘उपारिक’ नामक अधिकारी के अधीन होता था। जिले का प्रबन्ध ‘विषयपति’ तथा ग्रामों का प्रबन्ध पंचायतें करती थीं।

आय के साधन-यूनसांग लिखता है कि हर्ष की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त कई अन्य कर भी थे। कर इतने साधारण थे कि प्रजा उन्हें सरलतापूर्वक चुका सकती थी।

दण्ड विधान-दण्ड बड़े कठोर थे। अपराधी के नाक-कान आदि काट दिए जाते थे।
सेना-हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना में लगभग दो लाख सैनिक थे। सेना में घोड़े, हाथी तथा रथ का भी प्रयोग किया जाता था।
अभिलेख विभाग-सरकारी काम-काजों का लेखा-जोखा रखने के लिए एक अलग विभाग था।

(ख) हर्ष का चरित्र-हर्षवर्धन एक उच्च कोटि के चरित्र का स्वामी था। उसे अपने भाई-बहन से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ़ने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिरा। अपने भाई राज्यवर्धन के वध का बदला लेने के लिए हर्ष ने उसके हत्यारे शशांक से टक्कर ली और उसे पराजित किया। इसी प्रकार अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् उसने तब तक राजगद्दी स्वीकार न की, जब तक उसका बड़ा भाई जीवित रहा।

हर्षवर्धन एक वीर योद्धा और सफल विजेता था। विजेता के रूप में उसकी तुलना महान् गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से की जाती है। उसमें अशोक के गुण भी विद्यमान थे। अशोक की भान्ति वह भी शान्तिप्रिय और धर्म में आस्था रखने वाला व्यक्ति था। उसने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अनेक कार्य किए और अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। हर्ष उदार और दानी भी था। उसकी गणना इतिहास में सबसे अधिक दानी राजाओं में की जाती है। कहते हैं कि वह प्रतिदिन 500 ब्राह्मणों और 100 बौद्ध भिक्षुओं को भोजन तथा वस्त्र देता था। प्रयाग की एक सभा में तो उसने अपना सब कुछ दान में दे दिया। यहां तक कि उसने अपने वस्त्र भी दान में दिये और स्वयं अपनी बहन राज्यश्री से एक चादर मांग कर शरीर पर धारण की।

हर्षवर्धन एक उच्चकोटि का विद्वान् था और विद्वानों का आदर करता था। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् बाणभट्ट उसी के समय में हुआ था जिसने ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ जैसे महान् ग्रन्थों की रचना की। हर्ष ने स्वयं भी ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रिय-दर्शिका’ नामक तीन नाटक लिखे जिन्हें साहित्य के क्षेत्र में उच्च स्थान प्राप्त है। साहित्य में उसकी प्रशंसा करते हुए ई० वी० हवेल ने ठीक ही लिखा है, “हर्ष की कलम में भी वही तीव्रता थी जैसी उसकी तलवार में थी।”

हर्षवर्धन एक उच्च कोटि का शासन प्रबन्धक था। उसने ऐसे शासन प्रबन्ध की नींव रखी जिसका उद्देश्य जनता को सुखी और समृद्ध बनाना था। वह अपने राज्य की आय का पूरा हिसाब रखता था और इसका व्यय बड़ी सूझ-बूझ से करता था। उसका सैनिक संगठन भी काफ़ी दृढ़ था। यह सच है कि उसके समय में सड़कें सुरक्षित नहीं थीं, तो भी उसके कठोर दण्डविधान के कारण राज्य में शान्ति बनी रही। निःसन्देह हर्ष एक सफल शासक था। डॉ० वैजनाथ शर्मा के शब्दों में, “हर्ष एक आदर्श शासक था जिसमें दया, सहानुभूति, प्रेम, भाई-चारा आदि सभी गुण एक साथ विद्यमान थे।”

सच तो यह है कि हर्ष एक महान् विजेता था। उसने अपने विजित प्रदेशों को संगठित किया और लोगों को एक अच्छा शासन प्रदान किया। उसके विषय में डॉ० रे चौधरी ने ठीक कहा है, “वह प्राचीन भारत के महानतम राजाओं में से एक था।”

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 7 दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 7 दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 7 दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ

PSEB 11th Class Agriculture Guide दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
प्रायः गाय के दूध से कितना खोया तैयार हो सकता है ?
उत्तर-
एक किलो दूध से लगभग 200 ग्राम खोया तैयार हो जाता है।

प्रश्न 2.
भंस के दूध से आमतौर पर कितना खोया तैयार हो सकता है ?
उत्तर-
एक किलो दूध से लगभग 250 ग्राम खोया तैयार हो जाता है।

प्रश्न 3.
गाय के एक किलोग्राम दूध में से कितना पनीर तैयार हो सकता है ?
उत्तर-
180 ग्राम।

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प्रश्न 4.
भैंस के एक किलोग्राम दूध में से कितना पनीर तैयार हो सकता है ?
उत्तर-
250 ग्राम।

प्रश्न 5.
जाग लगा कर दूध से बनाए जाने वाले पदार्थ लिखो।
उत्तर-
दही, लस्सी।

प्रश्न 6.
गाय के दूध में कितने प्रतिशत फैट होती है ?
उत्तर-
कम से कम 4%1

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प्रश्न 7.
गाय के दूध में कितने प्रतिशत एस०एन०एफ० होती है ?
उत्तर-
8.5% एस०एन०एफ० होती है।

प्रश्न 8.
भैंस के दूध में कितने प्रतिशत फैट होती है ?
उत्तर-
6% फैट होती है।

प्रश्न 9.
भैंस के दूध में कितने प्रतिशत एस०एन०एफ० होती है ?
उत्तर-
9% एस०एन०एफ० ।

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प्रश्न 10.
टोन्ड दूध में कितनी फैट होती है ?
उत्तर-
टोन्ड दूध में 3% फैट होती है।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो –

प्रश्न 1.
मनुष्य के खाद्य में दूध का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
दूध में सरलता से पचने वाले पौष्टिक तत्व होते हैं। दूध एक संतुलित आहार है तथा शाकाहारी प्राणियों के आहार का अनिवार्य भाग है। मनुष्य दूध का प्रयोग जन्म से लेकर सारी ज़िन्दगी किसी न किसी रूप में करता रहता है। दूध में फैट, प्रोटीन, धातु, विटामिन आदि आहारीय तत्व होते हैं।

प्रश्न 2.
दूध में कौन-कौन से खाद्य तत्त्व पाए जाते हैं ?
उत्तर-
दूध में हड्डियों की बनावट तथा मज़बूती के लिए धातु जैसे-कैल्शियम आदि होता है, प्रोटीन, फैट, विटामिन आदि लगभग सभी पौष्टिक तत्त्व होते हैं।

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प्रश्न 3.
व्यापारिक स्तर पर दूध से कौन-कौन से पदार्थ बनाए जाते हैं ?
उत्तर-
खोया, पनीर, दहीं आदि तथा खोया तथा पनीर के प्रयोग से कई तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं।

प्रश्न 4.
खोये को कितने डिग्री तापमान पर कितने दिन तक रखा जा सकता है ?
उत्तर-
खोए को आम तापमान पर 13 दिनों के लिए तथा कोल्ड स्टोर में ढाई माह तक आसानी से संभाल कर रख सकते हैं।

प्रश्न 5.
घी को ज्यादा समय के लिए किस तरह संभाल कर रखा जा सकता है ?
उत्तर-
घी में पानी की मात्रा बहुत कम होनी चाहिए तथा टीन के सील बंद डिब्बे के अंदर घी को 21°C पर छः माह के लिए संभाला जा सकता है।

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प्रश्न 6.
पनीर को कितने डिग्री तापमान पर कितने दिन तक रखा जा सकता है ?
उत्तर-
पनीर को ठीक ढंग से बनाया गया हो तो दो सप्ताह के लिए फ्रीज में स्टोर किया जा सकता है। पनीर बनाने के भिन्न-भिन्न तरीकों के अनुसार पनीर को 2-4 दिनों से 5-6 माह तक स्टोर किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
दूध के पदार्थ बनाने के लिए प्रशिक्षण कहां से लिया जा सकता है ?
उत्तर-
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना, गडवासु लुधियाना तथा नैशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीच्यूट करनाल से ली जा सकती है।

प्रश्न 8.
उब्ल टोन्ड और स्टैंडर्ड दूध के स्तर लिखो।
उत्तर-
PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 7 दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ 1

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प्रश्न 9.
खोये को सुरक्षित रखने का तरीका लिखो।
उत्तर-
खोये को संभालने के लिए पोलीथीन कागज़ में लपेट कर ठंडे स्थान पर रखा जाता है। खोये को आम तापमान पर 13 दिन तक तथा कोल्ड स्टोर में अढाई माह तक रखा जा सकता है।

प्रश्न 10.
खोये से बनने वाली मिठाइयों के नाम लिखो।
उत्तर-
खोये से बनने वाली मिठाइयां हैं-पेड़े, गुलाब जामुन, कलाकंद, बर्फी आदि।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो –

प्रश्न 1.
दूध के पदार्थ बनाकर बेचने के क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
कच्चा दूध जल्दी ही खराब हो जाता है। इसलिए दूध से दूध की वस्तुएं बनाई जाती हैं ताकि दूध को लम्बे समय तक संभाल कर रखा जा सके। दूध की तुलना में दूध से बने पदार्थ महंगे भाव के बिकते हैं तथा दूध उत्पादक को अच्छा लाभ मिल जाता है। दूध के पदार्थ दूध से भार तथा आकार में कम होते हैं तथा इनको लाने ले जाने का खर्चा भी कम होता है तथा आसान भी रहता है। इनके मण्डीकरण में बिचोले नहीं होते। इसलिए आमदन भी अधिक होती है। घर के सदस्यों को घर में ही रोजगार मिल जाता है।

प्रश्न 2.
पनीर बनाने की विधि लिखो।
उत्तर-
उबलते दूध में तेज़ाबी घोल, सिट्रिक तेज़ाब (नींबू का सत्) या लैक्टिक तेज़ाब डाल कर फटाया जाता है। फ़टे दूध पदार्थ को मलमल के कपड़े में डाल कर इसमें से पिच्छ को अलग कर दिया जाता है। फिर ठण्डा करके इसको पैक करके संभाल लिया जाता है या प्रयोग कर लिया जाता है। इसको दो सप्ताह तक फ्रीज में रखा जा सकता है।

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प्रश्न 3.
खोया बनाने की विधि लिखो।
उत्तर-
दूध को कड़ाही में डाल कर गर्म किया जाता है तथा बहुत संघन होने तक इसे खुरचने से हिलाते रहते हैं तथा कड़ाही को खुरचते रहते हैं। इसके बाद कड़ाही को आग से उतार कर संघन पदार्थ को ठंडा करके खोए का पेड़ा बना लिया जाता है। गाय के एक किलो दूध में 200 ग्राम तथा भैंस के एक किलोग्राम दूध से 250 ग्राम खोया तैयार हो जाता है।

प्रश्न 4.
अलग-अलग श्रेणियों के दूध के क्या कानूनी स्तर हैं ?
उत्तर-
दूध के पदार्थों का मण्डीकरण करने के लिए कुछ कानूनी स्तरों को ध्यान में रखना चाहिए। यह स्तर हैं-

  • पदार्थ बनाते समय सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए।
  • पदार्थ को बेचने के लिए पैक करके इसके ऊपर लेबल लगा कर पूरी जानकारी लिखनी चाहिए।
  • पदार्थ संबंधी मशहूरी या इश्तिहार में ठीक-ठीक सूचना देनी चाहिए।
  • पदार्थों में मानकीय गुणवत्ता बनाए रखनी चाहिए।

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प्रश्न 5.
दूध के पदार्थ बनाकर बेचते समय मण्डीकरण के कौन-कौन से तथ्यों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ?
उत्तर-

  • शहरी मण्डी तथा गांव के उत्पादकों में दूरी को समाप्त करना चाहिए।
  • दूध की प्रोसेसिंग तथा जीवाणु रहित डिब्बाबंदी की आधुनिक तकनीकों को अपनाना चाहिए।
  • उत्पादकों को अपने क्षेत्र में आसानी से बिकने वाले पदार्थ बनाने चाहिए।
  • दूध उत्पादकों को इकट्ठे होकर सहकारी सभाएं बना कर उत्पाद बेचने चाहिए।
  • दूध उत्पादकों को व्यापारिक स्तर पर आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करके पदार्थ बनाने चाहिए।
  • कानूनी स्तरों का ध्यान रखना चाहिए।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दूध से तैयार पदार्थों की ढुलाई आसान क्यों हो जाती है ?
उत्तर-
क्योंकि दूध पदार्थों का भार कम हो जाता है।

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प्रश्न 2.
खोए को साधारण तापमान पर कितने दिनों के लिए संभाल कर रख सकते हैं ?
उत्तर-
13 दिनों तक।

प्रश्न 3.
दूध से पनीर बनाने के लिए गर्म दूध में क्या मिलाया जाता है ?
उत्तर-
नींबू का सत् (सिट्रिक एसिड)।

प्रश्न 4.
घी जल्दी खराब होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
आवश्यकता से अधिक पानी की मात्रा, प्रकाश तथा हवा।

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प्रश्न 5.
पनीर से तैयार होने वाली मिठाइयां कौन-सी हैं ?
उत्तर-
रसगुल्ला, छैना मुर्गी।

प्रश्न 6.
नैशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीच्यूिट कहां है ?
उत्तर-
करनाल में।

प्रश्न 8.
टोन्ड दूध में कितनी फैट होती है ?
उत्तर-
3.0%.

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प्रश्न 9.
टोन्ड दूध में एस०एन०एफ० की मात्रा बताओ।
उत्तर-
8.5%.

लघु उत्तरीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
दूध किनके खाद्य का महत्त्वपूर्ण अंग है ?
उत्तर–
गर्भवती औरतों, बच्चों, नौजवानों, बड़ी आयु के इन्सानों तथा रोगियों के खाद्य का महत्त्वपूर्ण अंग है।

प्रश्न 2.
दूध के पदार्थ बना कर बेचने का एक लाभ बताओ।
उत्तर-
दूध के पदार्थ बना कर बेचने से दूध की तुलना में अधिक लाभ मिल जाता है।

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प्रश्न 3.
दूध का आधा हिस्सा किस तरह खपत हो जाता है ?
उत्तर-
दूध की कुल पैदावार का लगभग आधा हिस्सा आम प्रचलित दूध पदार्थों को बनाने में खपत हो जाता है।

प्रश्न 4.
दूध से कौन-कौन से पदार्थ बनाए जाते हैं ?
उत्तर-
खोए की मिठाई, छैने की मिठाई, खीर, रबड़ी, कुलफी, आईसक्रीम, टोन्ड दूध, स्परेटा दूध, दही, गाढ़ा दूध, दूध का पाऊडर, मक्खन, बच्चों के लिए दूध का पाऊडर आदि।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न-
घी बनाने तथा संभालने का ढंग बताओ।
उत्तर-
दूध में से मक्खन या क्रीम निकाल कर गर्म करके घी बनाया जाता है। घी को संभालने के लिए इसको अच्छी तरह बंद कर के रखा जाता है। प्रकाश तथा हवा से घी जल्दी खराब हो जाता है। इसलिए इसको सील बंद डिब्बे में रखना चाहिए। घी में पानी की अधिक मात्रा होने से यह जल्दी खराब हो जाता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 7 दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ

दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • मानवता के लिए दूध का वरदान मिला है। दूध एक अनमोल (बहुमूल्य) तथा बहुत बढ़िया पौष्टिक पदार्थ है।
  • दूध में कई आहारीय तत्व जैसे-प्रोटीन, हड्डियों के लिए कैल्शियम, अन्य धातुएं आदि होते हैं।
  • दूध के मण्डीकरण में सहकारी सभाओं का बहुत योगदान है।
  • गाय के दूध में कम-से-कम फैट की मात्रा 4% होनी चाहिए तथा एस०एन०एफ० (Solid not fat S.N.F.) की मात्रा 8.5% होनी चाहिए।
  • भैंस के दूध में फैट की मात्रा 6% तथा एस०एन०एफ० की मात्रा 9% होनी चाहिए।
  • दूध की श्रेणियां हैं-टोन्ड दूध, डबल टोन्ड दूध, स्टैंडर्ड दूध।
  • कच्चा दूध जल्दी खराब हो जाता है। इसलिए दूध के पदार्थ बनाकर इसको लम्बे समय तक संभाला जा सकता है।
  • दूध के पदार्थों से दूध की तुलना में अधिक कमाई की जा सकती है।
  • दूध से बनाए जाने वाले पदार्थ हैं-खोया, पनीर, घी, दही आदि।
  • गाय के एक किलोग्राम दूध में से 200 ग्राम खोया तथा 180 ग्राम पनीर मिल जाता है।
  • भैंस के एक किलोग्राम दूध में 250 ग्राम खोया तथा 250 ग्राम पनीर मिल जाता
  • आधुनिक तकनीकों से दूध पदार्थ बनाने की जानकारी पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना, गुरु अंगद देव वैटरनरी तथा एनीमल साईंसज़ विश्वविद्यालय, लुधियाना तथा नैशनल डेयरी रिसर्च ईस्टीच्यूट, करनाल से भी प्राप्त की जा सकती है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 18 अंग्रेजी साम्राज्य का विकास और संगठन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 18 अंग्रेजी साम्राज्य का विकास और संगठन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 18 अंग्रेजी साम्राज्य का विकास और संगठन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न-
अंग्रेजी साम्राज्य के समय राज प्रबन्ध एवं सिविल सर्विस की व्याख्या करो।
उत्तर-
अंग्रेज़ी प्रशासन की चार मुख्य शाखाएं थीं :
(1) सिविल सर्विस
(2) सेना
(3) पुलिस
(4) न्याय एवं कानून व्यवस्था। भारत में अंग्रेज़ी सरकार ने प्रशासन की इन चार शाखाओं की ओर विशेष ध्यान दिया। इन शाखाओं के संगठन एवं कार्यों का वर्णन इस प्रकार है :

I. सिविल सर्विस-

18वीं शताब्दी तक अंग्रेज़ी कम्पनी केवल व्यापारिक कम्पनी नहीं रह गई थी। इसके राजनीति में आ जाने के कारण इसे अनेक प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते थे। कम्पनी के कर्मचारी ये दोनों काम साथ-साथ ठीक ढंग से नहीं कर सकते थे। अतः कार्नवालिस ने कम्पनी के सिविल प्रशासन को व्यापारिक कारोबार से पृथक् कर दिया। उसने प्रशासनिक कर्मचारियों की भर्ती तथा वेतन सम्बन्धी कुछ विशेष नियम भी निर्धारित किए। उसने कर्मचारियों द्वारा व्यक्तिगत व्यापार करने और भेटे तथा रिश्वत लेने पर रोक लगा दी। उसने कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिए ताकि वे रिश्वत न लें। उसने कर्मचारियों को वरिष्ठता के आधार पर तरक्की देने की व्यवस्था भी की। इस क्षेत्र में अन्य भी कई कार्य किए गए। इंग्लैण्ड से भारत आने वाले कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने के लिए 1806 ई० में हेलिबरी के स्थान पर एक कॉलेज खोला गया। इसी प्रकार कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर की जाने लगी।

सिविल सर्विस में भर्ती के लिए भारतीयों को भी छूट दी गई थी। परन्तु इस सम्बन्ध में उनके मार्ग में अनेक कठिनाइयां थीं। प्रथम, यह परीक्षा इंग्लैण्ड में होती थी और वह भी अंग्रेजी में। दूसरे, उन सब विषयों की परीक्षा देनी पड़ती थी जो उस समय इंग्लैण्ड में पढ़ाए जाते थे। तीसरे, इसके लिए अधिकतम आयु केवल 19 वर्ष थी। अतः 1863 तक केवल एक ही भारतीय यह परीक्षा पास कर सका। इसी कारण पढ़े-लिखे भारतीय यह मांग करने लगे कि सिविल सर्विस की प्रतियोगी परीक्षा एक ही समय इंग्लैण्ड के साथ-साथ भारत में भी हो और परीक्षा में बैठने के लिए अधिकतम आयु 19 वर्ष के स्थान पर 21 वर्ष होनी चाहिए।

1886 में तीन प्रकार की सिविल सर्विस बनाई मई— ‘इण्डियन सिविल सर्विस’, ‘प्रोविंशीयल सिविल सर्विस’ ‘और प्रोफेशनल सर्विस ‘ इनमें से प्रोफेशनल सर्विस का सम्बन्ध, पब्लिक वर्क्स, इन्जीनियरिंग, डॉक्टरी, वन, जंगलात, चुंगी, रेलवे और डाक-तार से था। परन्तु इस बदली के साथ अब भी भारतीय अफसरों की संख्या में कोई विशेष वृद्धि न हुई। इसके विपरीत इस समय तक अंग्रेज़ कर्मचारियों की संख्या लगभग एक हज़ार थी और सभी जिलों और दफ्तरों के महत्त्वपूर्ण कार्य उन्हीं के हाथ में थे। अपनी ईमानदारी और परिश्रम के कारण यह नौकरशाही अंग्रेजी साम्राज्य के लिए वरदान सिद्ध हुई। इसी कारण इसे साम्राज्य का ‘स्टील फ्रेम’ कहा जाता था। परन्तु इसके साथ-साथ यह अंग्रेज़ वर्ग न तो भारतीयों के प्रति कोई सहानुभूति रखता था और न ही उनके विचारों को अच्छी प्रकार समझता था। अतः यह नौकरशाही धीरे-धीरे ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को खोखला करने का काम करने लगी।

II. सेना

भारत में अंग्रेजी प्रशासन का मुख्य स्तम्भ सेना थी। सेना के द्वारा ही अंग्रेज़ों ने भारतीय राजाओं को विजित किया, भारत ने अपने साम्राज्य की विदेशी शत्रुओं से रक्षा की तथा आन्तरिक विद्रोहों को दबाया। कम्पनी की सेना में अधिकांश सिपाही भारतीय थे। 1857 ई० में अंग्रेज़ी सेना में सैनिकों की कुल संख्या 311,400 थी जिनमें से 265,900 भारतीय थे। परन्तु कार्नवालिस के दिनों में कोई भी भारतीय सेना में अधिकारी के पद पर न था। 1856 ई० में केवल तीन भारतीय सैनिकों को 300 रु० प्रति मास का वेतन मिलता था। कम्पनी की सेना में भारतीयों की इतनी अधिक संख्या होने के दो कारण थे। पहला कारण था कि भारतीय कम वेतन पर ही मिल जाते थे। दूसरा कारण यह था कि इंग्लैण्ड की जनसंख्या इतनी कम थी कि भारत विजय के लिए वहां से इतने अधिक सैनिक जुटाना सम्भव न था।

III. पुलिस

पुलिस भी भारत में कम्पनी राज्य का मुख्य आधार थी। यह कार्य कार्नवालिस ने आरम्भ किया। उसने जमींदारों से पुलिस सम्बन्धी ज़िम्मेदारियां छीन ली और एक नियमित पुलिस व्यवस्था की नींव रखी। अंग्रेज़ी प्रदेश को विभिन्न क्षेत्रों अथवा थानों में बांट दिया गया जिसका मुखिया दारोगा कहलाता था। दारोगा किसी भारतीय को ही नियुक्त किया जाता था। बाद में प्रत्येक जिले में एक पुलिस सुपरिटेण्डेण्ट की नियुक्ति की गई। अन्य विभागों की भान्ति पुलिस विभाग में भी भारतीयों को बड़े-बड़े पदों से वंचित रखा गया। गांव में चौकीदार ने ही पुलिस की ज़िम्मेदारी निभानी जारी रखी। पुलिस ने धीरे-धीरे अपने पैर फैलाए और अपनी शक्ति का विस्तार किया। वह डकैती आदि की घटनाओं की संख्या घटाने में सफल रही। परन्तु भारतीय जनता के साथ अंग्रेज़ी पुलिस कोई सहानुभूति नहीं रखती थी और भारतीयों के प्रति उसका व्यवहार अमानवीय था।

IV. न्याय व्यवस्था एवं कानून-

वारेन हेस्टिंग्ज तथा लॉर्ड डल्हौज़ी ने भारत में नई न्याय-व्यवस्था की नींव रखी। प्रत्येक जिले में एक दीवानी अदालत होती थी। इसका न्यायाधीश सिविल सर्विस में से लिया जाता था। दीवानी अदालत के अधीन रजिस्ट्रार की अदालतें होती थीं। इन अदालतों के अतिरिक्त ‘मुन्सिफ’ ‘अमीन’ नामक भारतीय न्यायाधीशों की अदालतें भी होती थीं। ज़िलों के न्यायालयों के विरुद्ध अपील सुनने के लिए प्रांतीय अदालतें थीं। सबसे ऊपर एक सदर दीवानी अदालत थी। इस समय भी न्याय-व्यवस्था में 1833 ई० में और नया परिवर्तन आया। इस वर्ष के चार्टर एक्ट द्वारा कानून बनाने का अधिकार गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् को दे दिया गया। कानूनों का संग्रह किया गया और भारतीय दण्ड संहिता’ बनाई गई। कुछ अन्य संहिताओं का निर्माण हुआ। इस तरह सारे देश में समान कानून लागू किए गए।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से लेकर एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
सहायक सन्धि किसने चलाई ?
उत्तर-
लॉर्ड वैलजली ने।

प्रश्न 2.
लॉर्ड वैलजली द्वारा सहायक सन्धि चलाने का मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
लॉर्ड वैलजली द्वारा सहायक सन्धि चलाने का मुख्य कारण कम्पनी का विस्तार करना था।

प्रश्न 3.
सहायक सन्धि को सबसे पहले किस शासक ने स्वीकार किया ?
उत्तर-
सहायक सन्धि को सबसे पहले हैदराबाद के निज़ाम ने स्वीकार किया।

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प्रश्न 4.
लैप्स की नीति किसने चलाई थी ?
उत्तर-
लॉर्ड डलहौजी ने।

प्रश्न 5.
दो ऐसे राज्यों के नाम बताओ, जिन्हें लैप्स की नीति के अनुसार अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल किया गया।
उत्तर-
सतारा तथा नागपुर।

प्रश्न 6.
लॉर्ड डलहौजी कब से कब तक भारत का गवर्नर जनरल रहा ?
उत्तर-
लॉर्ड डलहौजी 1848 से 1856 तक भारत का गवर्नर जनरल रहा।

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प्रश्न 7.
अवध को अंग्रेज़ी राज्य में कब मिलाया गया ? .
उत्तर-
1856 ई० में।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) टीपू सुल्तान ने मंगलौर की सन्धि द्वारा ………… से समझौता किया।
(ii) तीसरा अंग्रेज़-मैसूर युद्ध लॉर्ड ………….. के समय में हुआ।
(iii) अवध को लॉर्ड …………… ने अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया।
(iv) बसीन (भसीन) की सन्धि लॉर्ड ……………. के समय में हुई।
(v) इंडियन लॉ कमीशन …………. ई० में बनाया गया।
उत्तर-
(i) अंग्रेजों
(ii) कार्नवालिस
(iii) डल्हौज़ी
(iv) वैलेज़ली
(v) 1833.

3. सही/ग़लत कथन

(i) पंजाब को 1856 में अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया गया। — (×)
(ii) नागपुर भौंसले सरदारों का केन्द्र था। — (√)
(iii) गायकवाड़ सरदारों का केन्द्र बड़ौदा था। — (√)
(iv) लॉर्ड हेस्टिंग्ज़ ने पंजाब की सिक्ख शक्ति को चोट पहुंचाई। — (×)
(v) इण्डियन पीनल कोड 1861 ई० में बनाया गया। — (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
1888 में किस प्रकार की सिविल सर्विस बनाई गई ?
(A) इंडियन सिविल सर्विस
(B) प्रोविंशियल सिविल सर्विस
(C) प्रोफैशनल सिविल सर्विस
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न (ii)
भारतीयों के लिए सिविल से संबंधित अड़चन थी
(A) परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी
(B) हिन्दी में परीक्षा
(C) आयु सीमा अधिक होना
(D) प्रवेश फीस एक लाख रुपये।
उत्तर-
(A) परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी

प्रश्न (iii)
ब्रिटिश सरकार ने सर्वप्रथम निम्न एक्ट द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी पर नियन्त्रण बढ़ाना शुरू किया-
(A) पिट्स इंडिया एक्ट
(B) रेगूलेटिंग एक्ट
(C) भारत सरकार अधिनियम, 1935
(D) इंडियन कौंसिल एक्ट, 1919 ।
उत्तर-
(B) रेगूलेटिंग एक्ट

प्रश्न (iv)
सबसे पहले किस शहर में कार्पोरेशन स्थापित की गई ?
(A) बम्बई
(B) कलकत्ता
(C) मद्रास
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न (v)
सिविल सर्विस की परीक्षा में पास होने वाला पहला भारतीय था-
(A) अवींद्र नाथ टैगोर
(B) सतिन्द्र नाथ टैगोर
(C) रवींद्र नाथ टैगोर
(D) बजेंद्र नाथ टैगोर ।
उत्तर-
(B) सतिन्द्र नाथ टैगोर

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विकास और संगठन के बारे में जानकारी के स्रोतों के चार प्रकारों के नाम बताएं।
उत्तर-
भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के विकास और संगठन के बारे में जानकारी के स्रोत है- (i) ईस्ट इण्डिया कम्पनी व 1858 के बाद अंग्रेज़ी सरकार के प्रशासनिक रिकार्ड, गवर्नर जनरलों तथा अंग्रेज़ अधिकारियों के द्वारा छोड़ी गई महत्त्वपूर्ण डायरियां, दस्तावेज तथा चिट्ठियां।

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प्रश्न 2.
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के लिए कौन-से तीन गवर्नर जनरलों ने विशेष योगदान दिया ?
उत्तर-
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के लिये वैल्जली, हेस्टिंग्ज तथा डल्हौजी ने विशेष योगदान दिया।

प्रश्न 3.
हेस्टिग्ज़ व डल्हौज़ी के नाम किन दो भारतीय शक्तियों पर विजय पाने के लिए माने जाते हैं ?
उत्तर-
हेस्टिंग्ज़ व डल्हौजी के नाम मराठों तथा पंजाब पर विजय प्राप्त करने के लिए माने जाते हैं।

प्रश्न 4.
वैल्जली का कार्यकाल क्या था ?
उत्तर-
वैल्जली 1798 से 1805 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर जनरल रहा।

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प्रश्न 5.
वैल्जली ने कम्पनी का प्रभाव बढ़ाने के लिए जिस विशेष ढंग को अपनाया उसका नाम बताएं तथा इसके अन्तर्गत आने वाला पहला भारतीय राज्य कौन-सा था ?
उत्तर-
वैल्जली ने कम्पनी का प्रभाव बढ़ाने के लिए ‘सबसिडरी सिस्टम’ अपनाया। इसके अन्तर्गत आने वाला भारतीय राज्य हैदराबाद का राज्य था।

प्रश्न 6.
हैदरअली के अंग्रेजों से दो युद्ध कब हुए तथा टीपू सुल्तान ने किस सन्धि द्वारा अंग्रेजों से समझौता कर लिया ?
उत्तर-
हैदरअली के अंग्रेजों से दो युद्ध 1767-69 तथा 1780-84 में हुए। टीपू सुल्तान में मंगलौर की सन्धि के द्वारा अंग्रेज़ों से समझौता किया।

प्रश्न 7.
अंग्रेज़ों तथा मैसूर में तीसरी लड़ाई कब हुई तथा टीपू सुल्तान अंग्रेजों के साथ युद्ध में कब मारा गया ?
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा मैसूर राज्य के बीच तीसरी लड़ाई 1790-92 में हुई। टीपू सुल्तान अंग्रेजों के साथ युद्ध में 1799 में मारा गया।

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प्रश्न 8.
मराठा सरदारों के चार केन्द्र कौन-से थे ?
उत्तर-
मराठा सरदारों के चार केन्द्र थे—ग्वालियर, इन्दौर, नागपुर तथा बड़ौदा।

प्रश्न 9.
बसीन की सन्धि कब और किनके बीच हुई ?
उत्तर-
बसीन की सन्धि 1802 ई० में अंग्रेज़ों तथा बड़ौदा के गायकवाड़ और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच हुई।

प्रश्न 10.
1803 के युद्ध के बाद अंग्रेज़ों की भौंसले तथा शिण्डे सरदारों के साथ कौन-सी सन्धियां हुई ?
उत्तर-
1803 के युद्ध के बाद अंग्रेजों की भौंसले के साथ देवगांव की सन्धि तथा शिण्डे के साथ सुरजी अर्जुन गांव की सन्धि हुई।

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प्रश्न 11.
1803 की सन्धियों द्वारा कौन-से इलाकों पर अंग्रेज़ों का अधिकार स्थापित हो गया ?
उत्तर-
1803 की सन्धियों द्वारा गंगा यमुना दोआब, दिल्ली तथा आगरा पर अंग्रेज़ों का अधिकार स्थापित हो गया।

प्रश्न 12.
मराठों की शक्ति का अन्त पूरी तरह किस गवर्नर-जनरल के समय में हुआ तथा इसका कार्याकाल क्या
उत्तर-
मराठों की शक्ति का अन्त पूरी तरह हेस्टिग्ज़ के काल में हुआ। उस का कार्यकाल 1813 से 1823 ई० तक था।

प्रश्न 13.
पेशवा का राज्य किस वर्ष में समाप्त हुआ ?
उत्तर-
पेशवा का राज्य 1818 ई० में समाप्त हुआ।

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प्रश्न 14.
पिण्डारियों को लूटमार की कार्यवाही में किसका प्रोत्साहन प्राप्त था तथा इनका खात्मा किस गवर्नरजनरल के समय में किया गया ?
उत्तर-
पिण्डारियों को लूटमार की कार्यवाही में मराठा सरदारों का प्रोत्साहन प्राप्त था। इन का खात्मा हेस्टिंग्ज़ के समय में हुआ।

प्रश्न 15.
1819 में राजस्थान की कितनी रियासतें अंग्रेजों के अधीन हो गईं तथा इन में से तीन प्रमुख रियासतों के नाम बताएं।
उत्तर-
1819 में राजस्थान की 19 रियासतें अंग्रेजों के अधीन हो गईं। इनमें से प्रमुख रियासतें जयपुर, जोधपुर और उदयपुर थीं।

प्रश्न 16.
नेपाल के साथ युद्ध कब हुआ तथा किस सन्धि के द्वारा कौन-से तीन पहाड़ी इलाके अंग्रेजों के प्रभाव अधीन आ गए ?
उत्तर-
अंग्रेज़ों का 1814-16 में नेपाल के साथ युद्ध हुआ। सुगौली की सन्धि के द्वारा तीन पहाड़ी इलाके कुमायूं, गढ़वाल तथा शिमला अंग्रेजों के अधीन आ गए। .

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प्रश्न 17.
बर्मा के साथ युद्ध कब हुआ तथा इसके परिणामस्वरूप भारत का कौन-सा इलाका अंग्रेजों के अधीन हो गया।
उत्तर-
बर्मा के साथ युद्ध (1823-26) में हुआ। इसके परिणामस्वरूप असम का इलाका अंग्रेजों के प्रभाव अधीन हो गया।

प्रश्न 18.
सिन्ध को अंग्रेजी साम्राज्य में कब मिलाया गया तथा इसके बाद भारत का कौन-सा राज्य स्वतन्त्र रह गया ?
उत्तर-
1843 में सिन्ध को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया। इसके बाद भारत का लाहौर राज्य स्वतन्त्र रह गया।

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह का सबसे छोटा पुत्र कौन था तथा वह कब गद्दी पर बैठा एवं उसकी संरक्षिका कौन बनी ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का सबसे छोटा पुत्र दलीप सिंह था। वह 1844 में गद्दी पर बैठा और महारानी जिंदा उसकी संरक्षिका बनी।

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प्रश्न 20.
हार्डिंग ने खालसा फौज के विरुद्ध एक युद्ध का एलान कब किया तथा इस युद्ध की तीन महत्त्वपूर्ण लड़ाइयां कौन-सी थीं ?
उत्तर-
हार्डिंग ने 1845 में खालसा फौज के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी। इस युद्ध की तीन महत्त्वपूर्ण लड़ाइयां मुदकी, फेरूशहर तथा सबरांओ की लड़ाइयां थीं।

प्रश्न 21.
अंग्रेज़ों तथा सिक्खों के बीच में दोनों युद्धों की कौन-सी दो लड़ाइयों में अंग्रेज़ों को मार खानी पड़ी।
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा सिक्खों के बीच दोनों युद्धों में फेरूशहर और चिल्लियांवाला की लड़ाइयों में अंग्रेजों को भारी हार खानी पड़ी थी।

प्रश्न 22.
अंग्रेजों के साथ पहला युद्ध कब हुआ तथा खालसा सेना का अंग्रेजों से हारने का मुख्य कारण कौनसा था ?
उत्तर-
अंग्रेजों के साथ पहला सिक्ख युद्ध 1846 में समाप्त हो गया। खालसा सेना का हारने का मुख्य कारण सेनापतियों द्वारा धोखा देना था।

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प्रश्न 23.
अंग्रेज़ों और सिक्खों के बीच पहले युद्ध के बाद कौन-सी सन्धि हुई ?
उत्तर-
अंग्रेज़ों और सिक्खों के बीच पहले युद्ध के बाद 1846 में लाहौर की सन्धि हुई।

प्रश्न 24.
पहले युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कौन-से तीन इलाके लाहौर दरबार से ले लिए ?
उत्तर-
पहले युद्ध के बाद अंग्रेजों ने जालन्धर दोआब, कांगड़ा तथा कश्मीर के इलाके लाहौर दरबार से ले लिये।

प्रश्न 25.
अंग्रेजों ने कश्मीर किसको दिया तथा वह पहले कहां का राजा था ?
उत्तर-
अंग्रेजों ने कश्मीर राजा गुलाब सिंह को दिया। वह पहले जम्मू का राजा था।

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प्रश्न 26.
दिसम्बर 1846 में कौन-सी सन्धि हुई तथा इसके द्वारा किसको लाहौर में कम्पनी का रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया ?
उत्तर-
दिसम्बर, 1846 में भैंरोवाल की सन्धि हुई। इसके द्वारा हैनरी लारेंस को लाहौर में कम्पनी का रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया।

प्रश्न 27.
1846 के बाद अंग्रेजों के अधीन लाहौर दरबार के विरुद्ध विद्रोह करने वाले कौन-से प्रमुख व्यक्ति थे ?
उत्तर-
1846 के बाद अंग्रेज़ों के अधीन लाहौर दरबार के विरुद्ध विद्रोह करने वाले सरदार चत्तर सिंह अटारीवाला तथा मुल्तान का दीवान मूलराज थे।

प्रश्न 28.
अंग्रेज़ों तथा सिक्खों के बीच में दो प्रमुख लड़ाइयां कौन-सी थीं ?
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा सिक्खों के बीच दो प्रमुख लड़ाइयां चिल्लियांवाला तथा गुजरात की लड़ाइयां थीं।

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प्रश्न 29.
पंजाब को कब और किस गवर्नर-जनरल ने अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया ?
उत्तर-
पंजाब को लॉर्ड डल्हौज़ी ने 1849 में अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया।

प्रश्न 30.
‘लैप्स के सिद्धान्त’ से क्या अभिप्राय था ?
उत्तर-
लैप्स के सिद्धान्त से अभिप्राय डल्हौज़ी के उस सिद्धान्त से था जिस के अन्तर्गत सन्तानहीन शासकों के राज्य अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिए जाते थे। वे पुत्र गोद लेकर अंग्रेजों की अनुमति के बिना उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं कर सकते थे।

प्रश्न 31.
‘लैप्स के सिद्धान्त’ के अन्तर्गत कौन-सी चार रियासतें समाप्त कर दी गईं ?
उत्तर-
लैप्स के सिद्धान्त के अन्तर्गत सतारा, उदयपुर नागपुर तथा झांसी की रियासतें समाप्त कर दी गईं।

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प्रश्न 32.
1856 में अवध को किस दलील के आधार पर अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया तथा उस समय वहां का शासक कौन था ?
उत्तर-
1856 में अवध को कुशासन के आरोप में अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिया गया। उस समय वहां का शासक नवाब वाजिद अलीशाह था।

प्रश्न 33.
डल्हौज़ी के समय कौन-से चार अधीन शासकों की पेंशन बन्द कर दी गई ?
उत्तर-
डल्हौज़ी के समय नाना साहिब, कर्नाटक के नवाब तथा सूरत और तंजौर के राजाओं की पेंशन बन्द कर दी gayi

प्रश्न 34.
1857 का विद्रोह कौन-सी तारीख को तथा किस स्थान पर आरम्भ हुआ ?
उत्तर-
1857 का विद्रोह 10 मई, 1857 को मेरठ में आरम्भ हुआ।

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प्रश्न 35.
भारतीय सैनिकों ने किसको अपना बादशाह घोषित किया तथा वह इस समय किस शहर में था ?
उत्तर-
भारतीय सैनिकों ने बहादुरशाह ज़फर को अपना बादशाह घोषित किया। वह उस समय दिल्ली शहर में था।

प्रश्न 36.
जिन स्थानों पर भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था उनमें से चार के नाम बताएं।
उत्तर-
भारतीय सैनिकों ने नसीराबाद, ग्वालियर, लखनऊ तथा कानपुर मे विद्रोह कर दिया था।

प्रश्न 37.
1857-58 के विद्रोह के प्रमुख नेताओं में से चार के नाम बताएं।
उत्तर-
1857-58 के विद्रोह के प्रमुख नेताओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहिब, तात्या टोपे तथा कुंवर सिंह थे ।

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प्रश्न 38.
1857-58 के विद्रोह में किन चार वर्गों ने भाग नहीं लिया ?
उत्तर-
1857-58 के विद्रोह में व्यापारियों, साहूकारों, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग तथा ज़मींदारों ने भाग नहीं लिया।

प्रश्न 39.
बर्तानिया की सरकार ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर कब तथा किस एक्ट द्वारा नियन्त्रण बढ़ाना शुरू किया ?
उत्तर-
बर्तानिया की सरकार ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर 1773 में रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा नियंत्रण बढ़ाना शुरू किया।

प्रश्न 40.
कब तथा किस एक्ट द्वारा बंगाल में गर्वनर जनरल नियुक्त किया गया ?
उत्तर-
1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा बंगाल में गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया।

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प्रश्न 41.
“बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल’ कब तथा किस एक्ट के अन्तर्गत बना एवं इसके कितने सदस्य थे ?
उत्तर-
‘बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल’ 1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट के द्वारा बनाया गया। इसके छः सदस्य थे।

प्रश्न 42.
1858 में गवर्नर जनरल को कौन-सी उपाधि दी गई तथा इसके द्वारा उसे किसके प्रतिनिधि के रूप में देशी रियासतों से निपटने का अधिकार मिला ?
उत्तर-
1858 में गवर्नर जनरल को वायसराय की उपाधि दी गई। इसके द्वारा उसे साम्राज्ञी के निजी प्रतिनिधि के रूप में देशी रियासतों से निपटने का अधिकार मिला।

प्रश्न 43.
1858 तथा 1861 में गर्वनर जनरल की सहायता के लिए कौन-सी दो कौंसिलें बनाई गईं ?
उत्तर-
1858 तथा 1861 में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए “एग्जेक्टिव कौंसिल’ तथा ‘लैजिस्लेटिव कौंसिलें’ बनाई गईं।

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प्रश्न 44.
कौन-सी दो प्रेजीडेंसियों अथवा मुख्य प्रान्तों में गवर्नरों की सहायता के लिए ‘लैजिस्लेटिव कौंसिल’ बनाई गई ?
उत्तर-
बम्बई (मुम्बई) तथा बंगाल की प्रेजीडेंसियों (अथवा मुख्य प्रान्तों) में गवर्नर की सहायता के लिए लैजिस्लेटिव कौंसिल बनाई गई।

प्रश्न 45.
1858 में भारत में बर्तानवी साम्राज्य की देख-रेख किस मन्त्री को सौंपी गई तथा उसकी सहायता के लिए कौन-सी कौंसिल बनाई गई ?
उत्तर-
1858 में भारत में बर्तानवी साम्राज्य की देख-रेख ‘सैक्ट्री ऑफ स्टेट’ को सौंपी गई। उसकी सहायता के लिए ‘इण्डिया कौंसिल’ बनाई गई।

प्रश्न 46.
किस वर्ष में सिविल सर्विस की परीक्षा में पहला भारतीय कामयाब हुआ तथा उसका क्या नाम था ?
उत्तर-
1863 में सिविल सर्विस की परीक्षा में पहला भारतीय कामयाब हुआ था। उसका नाम सतिन्द्र नाथ टैगोर था।

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प्रश्न 47.
सिविल सर्विस में भारतीयों के आने में दो मुख्य अड़चनें कौन-सी थीं ?
उत्तर-
पहली अड़चन यह थी कि परीक्षा इंग्लैण्ड में होती थी । दूसरी अड़चन उसका माध्यम अंग्रेज़ी था।

प्रश्न 48.
1888 में किस प्रकार की तीन सिविल सर्विस बनाई गई ?
उत्तर-
1888 में बनाई गई तीन प्राकर की सिविल सर्विस इण्डियन सिविल सर्विस, प्रोविंशियल सिविल सर्विस और प्रोफैशनल सर्विस थी।

प्रश्न 49.
प्रोफैशनल सर्विस का सम्बन्ध किन चार विभागों से था ?
उत्तर-
प्रोफैशनल सर्विस का सम्बन्ध पब्लिक वर्कस, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी, जंगल, महसूल, रेलवे और डाक-तार विभाग से था।

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प्रश्न 50.
1856 में सेना में भारतीयों को दिया जाने वाला अधिकतम वेतन कितना था तथा उसे पाने वालों की संख्या क्या थी ?
उत्तर-
1856 में सेना में भारतीयों को दिया जाने वाला अधिकतम वेतन 300 रु० था। केवल तीन ही भारतीय सैनिक यह वेतन प्राप्त करते थे।

प्रश्न 51.
भारतीयों को कमीशन किस वर्ष के बाद मिलना शुरू हुआ तथा इस समय तक भारतीयों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा सैनिक पद कौन-सा था ?
उत्तर-
1914 में भारतीयों को कमीशन मिलना शुरू हुआ। उस समय सूबेदार का पद सबसे बड़ा था जो भारतीयों को दिया जाता था।

प्रश्न 52.
1857-58 के बाद भारतीयों को सेना में नौकरी के दृष्टिगत कौन-सी दो जातियों में बांट दिया गया ?
उत्तर-
1857-58 के बाद भारतीयों को योद्धा और अयोद्धा नामक दो जातियों में बांट दिया गया।

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प्रश्न 53.
1858 के बाद सेना में किन तीन इलाकों के लोगों की संख्या बढ़ गई ?
उत्तर-
1858 के बाद सेना में गोरखों,पठानों तथा पंजाबियों की संख्या बढ़ गई।

प्रश्न 54.
पुलिस का प्रबन्ध कौन-से गवर्नर जनरल ने आरम्भ किया तथा जिला स्तर पर पुलिस अधिकारी कौनसा था ?
उत्तर-
पुलिस का प्रबन्ध कार्नवालिस ने आरम्भ किया। जिला स्तर का पुलिस अधिकारी सुपरिन्टेंडेन्ट था।

प्रश्न 55.
सदर दीवानी तथा सदर निज़ामत अदालतें कौन-से गवर्नर जनरल के कार्यकाल में स्थापित की गई और बाद में इनका स्थान किन अदालतों ने ले लिया ?
उत्तर-
सदर दीवानी तथा सदर निज़ामत अदालतें कार्नवालिस के कार्यकाल में स्थापित हुईं। बाद में इनका स्थान हाई कोर्ट ने ले लिया।

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प्रश्न 56.
‘इण्डियन लॉ कमीशन’ कब बनाया गया तथा ‘इण्डियन पैनल कोड कब बनाया गया ?
उत्तर-
इण्डियन लॉ कमीशन 1833 में बनाया गया तथा इण्डियन पैनल कोड 1861 में बनाया गया।

प्रश्न 57.
कानून के शासक (रूल ऑफ लॉ) से क्या अभिप्राय था ?
उत्तर-
कानून के शासक से अभिप्राय यह था कि सभी व्यक्ति कानून के सामने समान हैं।

प्रश्न 58.
अंग्रेजी साम्राज्य के समय भारत में कौन-सी दो संस्थाएं बनाई गई तथा इससे सम्बन्धित सबसे महत्त्वपूर्ण नाम कौन-से गवर्नर जनरल का है ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य के समय नगरपालिका तथा ज़िला बोर्ड स्थापित किए गए। इन संस्थाओं से सम्बन्धित सबसे महत्त्वपूर्ण नाम लॉर्ड रिपन का है।

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प्रश्न 59.
सबसे पहले किन तीन शहरों में कार्पोरेशन या बड़ी नगरपालिकाएं स्थापित की गई ?
उत्तर-
सब से पहले बम्बई (मुम्बई), कलकत्ता (कोलकाता) तथा मद्रास (चेन्नई) में कार्पोरेशन या बड़ी नगरपालिकाएं स्थापित की गईं।

प्रश्न 60.
न्याय प्रबन्ध में जिला स्तर पर एक अफसर किन दो नामों में सिविल तथा फौजदारी मुकद्दमों का फैसला देता था ?
उत्तर-
न्याय प्रबन्ध में जिला स्तर पर एक अफसर जज और मैजिस्ट्रेट के रूप में सिविल और फौजदारी मुकद्दमों का फैसला देता था।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
लॉर्ड हेस्टिग्ज़ ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
लॉर्ड हेस्टिंग्ज़ ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के विस्तार में अनेक प्रकार से योगदान किया।

  • उसने कुमायूं , गढ़वाल, शिमला, अल्मोड़ा, नैनीताल, मसूरी आदि के क्षेत्र अंग्रेजी राज्य में मिलाए।
  • उसने पेशवा, भौंसले तथा होल्कर की संयुक्त सेनाओं को हराया। उसने पेशवा को पेंशन देकर उसकी पदवी समाप्त कर दी और उसके राज्य को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया।
  • उसने राजस्थान की जयपुर, उदयपुर, जोधपुर, बूंदी आदि 19 राजपूती रियासतों को सहायक सन्धि द्वारा कम्पनी राज्य के अधीन कर लिया।
  • उसने भोपाल, मालवा और कछार के राज्य भी अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिये।

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प्रश्न 2.
सिन्ध को अंग्रेज़ों ने किस प्रकार अपने अधीन किया ? क्या सिन्ध को अंग्रेज़ी राज्य में मिलाना अंग्रेज़ों का अच्छा कार्य था ?
उत्तर-
यूरोप तथा एशिया में रूस का प्रभाव बढ़ रहा था। एशिया में रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए अंग्रेज़ अफ़गानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ों को यह भी भय था कि पंजाब का शासक महाराजा रणजीत सिंह सिन्ध पर अधिकार कर लेगा। इसलिए अंग्रेजों ने 1832 ई० में सिन्ध के साथ व्यापारिक सन्धि की। 1839 ई० में उन्होंने वहां के अमीरों को सहायक सन्धि स्वीकार करने के लिए विवश किया। आखिर 1843 ई० में चार्ल्स नेपियर ने सिन्ध को अंग्रेजी में मिला लिया। सिन्ध को अंग्रेजी राज्य में मिलाना अंग्रेजों का अच्छा कार्य नहीं था, क्योंकि सिन्ध के लोग निर्दोष थे। उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के साथ छेड़खानी नहीं की थी। चार्ल्स नेपियर ने स्वयं कहा था कि अंग्रेजों को सिन्ध पर अधिकार करने का कोई अधिकार नहीं था।

प्रश्न 3.
भारत में अंग्रेजी राज्य के विस्तार में सहायक सन्धि का क्या योगदान रहा ?
उत्तर-
भारत में अंग्रेज़ी राज्य के विस्तार में सहायक सन्धि का बड़ा सक्रिय योगदान रहा। इस नीति का मुख्य आधार अंग्रेज़ी शक्ति के प्रभाव को भारतीय राज्यों में बढ़ावा देना था। सबल भारतीय शक्तियां निर्बल राज्यों को हडपने में लगी हुई थीं। इन कमज़ोर राज्यों को संरक्षण की आवश्यकता थी। वे मिटने की बजाए अर्द्ध-स्वतन्त्रता स्वीकार करने के लिए तैयार थे। सहायक सन्धि उनके उद्देश्यों को पूरा कर सकती थी। उनकी बाहरी आक्रमण और भीतरी गड़बड़ से सुरक्षा के लिए अंग्रेज़ी सरकार वचनबद्ध होती थी। अतः इस नीति को अनेक भारतीय राजाओं ने स्वीकार कर लिया जिनमें हैदराबाद, अवध, मैसूर, अनेक राजपूत राजा तथा मराठा प्रमुख थे। परन्तु इसके अनुसार सन्धि स्वीकार करने वाले राजा को अपने व्यय पर एक अंग्रेज़ी सेना रखनी पड़ती थी। परिणामस्वरूप उनकी विदेश नीति अंग्रेजों के अधीन आ जाती थी। परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेज़ी राज्य का खूब विस्तार हुआ।

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प्रश्न 4.
सबसिडरी सिस्टम से क्या अभिप्राय था ?
उत्तर-
सबसिडरी सिस्टम अथवा सहायक-सन्धि एक प्रकार का प्रतिज्ञा-पत्रं था जिसे भारतीय शासकों पर ज़बरदस्ती थोपा गया। इसके अनुसार कम्पनी देशी राजा को आन्तरिक और बाहरी खतरे के समय सैनिक सहायता देने का वचन देती थी, जिस के बदले में देशी राजा को अनेक शर्ते माननी पड़ती थीं।

1. उसे अपने राज्य में एक अंग्रेजी सेना रखनी पड़ती थी और उसका खर्च भी उसे देना पड़ता था। यदि वह सेना का खर्च नहीं दे पाता था तो उसे अपने राज्य का कुछ भाग अंग्रेज़ों को देना पड़ता था।

2. उसे अंग्रेज़ों का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ता था और वह उनकी अनुमति के बिना किसी भी शासक से सन्धि तथा युद्ध नहीं कर सकता था।

3. उसे अंग्रेजों को सर्वोच्च शक्तिं मानना पड़ता था।

4. वह अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी भी यूरोपियन को नौकरी पर नहीं रख सकता था। इस शर्त का उद्देश्य भारत में फ्रांसीसियों के प्रभाव को कम करना था।

5. उसे अपने राज्य में एक अंग्रेज़ रैजीडैन्ट रखना पड़ता था जिसके परामर्श से ही उसे अपना सारा शासन-कार्य चलाना पड़ता था। यह एक ऐसी शर्त थी जिसके द्वारा देशी राज्यों की गतिविधियों पर सदैव अंग्रेजों की दृष्टि बनी रहती थी। परन्तु कम्पनी को संरक्षित राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन देना पड़ता था।

6. आपसी झगड़ों की दशा में उसे अंग्रेजों को मध्यस्थ स्वीकार करना पड़ता था और उसके निर्णय को मानना पड़ता था।

प्रश्न 5.
1803 की सन्धि का मराठों की शक्ति पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
1803 की सन्धि का मराठों की शक्ति पर कुप्रभाव पड़ा। भौंसले के साथ देवगांव की सन्धि हई और शिण्डे के साथ सुरजी अर्जुनगांव की सन्धि हुई। इन सन्धियों में गंगा-यमुना दोआब का प्रदेश अंग्रेजों के अधीन हो गया। दिल्ली और आगरा पर भी अंग्रेजों का प्रभाव स्थापित हो गया। इधर भौंसले से कटक, बलासोर आदि इलाके लेकर ‘उत्तरी सरकारों’ के दोनों ओर स्थित मद्रास (चेन्नई) और बंगाल के अंग्रेजी प्रदेश को आपस में मिला दिया गया। मराठों के हैदराबाद के निज़ाम पर भी सभी अधिकार समाप्त हो गये। इसके अतिरिक्त शिण्डे और भौंसले को अंग्रेजों की पेशवा के साथ हुई बसीन की सन्धि भी स्वीकार करनी पड़ी। उनकी राजधानियों में भी अंग्रेज़ रेजीडेन्ट’ रखे गये। अब केवल होल्कर ही शेष बचा था। इस प्रकार अंग्रेजी कम्पनी के प्रभाव और प्रदेश में बड़ी वृद्धि हुई और अंग्रेज़ अब भारत में सबसे बड़ी शक्ति बन गये।

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प्रश्न 6.
अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के संदर्भ में पंजाब में 1845 से 1849 के दौरान मुख्य घटनाएं क्या थी ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य 1845 तक लगभग सारे भारत को अपनी लपेट में ले चुका था। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने पंजाब पर अधिकार करने के प्रयास तीव्र कर दिए। उन्होंने लाहौर दरबार की सेना द्वारा सतलुज नदी पार करने पर दिसम्बर, 1845 में युद्ध की घोषणा कर दी। मुदकी, फेरूशाह और सबराओं में खूनी लड़ाइयां हुईं। दोनों पक्षों के हज़ारों सैनिक और अधिकारी मारे गये। खालसा सेना को उसके सेनापतियों ने धोखा दिया । अतः खालसा सेना की फरवरी, 1846 तक पराजय हो गई । इस वर्ष लाहौर की सन्धि हुई। इसके अनुसार दलीप सिंह को गद्दी पर रहने दिया गया। उससे जालन्धर दोआब, कांगड़ा और कश्मीर के प्रदेश ले लिये गये। दिसम्बर, 1846 में अंग्रेजों ने भैरोवाल की सन्धि द्वारा हैनरी लारेन्स को लाहौर में “रेज़िडेन्ट” नियुक्त किया। अंग्रेज़ों के अपमानजनक व्यवहार के कारण एक बार फिर युद्ध छिड़ गया। चिल्लियांवाला और गुजरात की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में दोनों पक्षों को भारी हानि उठानी पड़ी। अन्त में 1849 में पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिया गया।

प्रश्न 7.
लैप्स का सिद्धान्त क्या था ? इस सिद्धान्त के अनुसार अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाये गये किन्हीं चार राज्यों के नाम बताओ।
उत्तर-
लैप्स का सिद्धान्त लॉर्ड डल्हौजी ने चलाया। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि किसी देशी रियासत का शासक बिना सन्तान के मर जाता था तो उसका राज्य अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिया जाता था। देशी राजाओं को पुत्र गोद लेने और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार नहीं था। लैप्स की नीति के अनुसार डल्हौजी ने निम्नलिखित राज्यों को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया-

  • सतारा-सतारा के शासक की निःसन्तान मृत्यु हो गई। लॉर्ड डल्हौजी ने उसका राज्य अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया।
  • नागपुर-नागपुर के राजा के पुत्र की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा रानी ने जसवन्तराय नामक एक बालक को गोद लिया। परन्तु अंग्रेजों ने उसे मृतक राजा का उत्तराधिकारी स्वीकार न किया और नागपुर राज्य को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया।
  • सम्बलपुर-लॉर्ड डल्हौजी ने सम्बलपुर राज्य को भी लैप्स के सिद्धान्त के अनुसार अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया।
  • जोधपुर-सम्बलपुर के पश्चात् जोधपुर की बारी आई। इसे भी अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया गया।

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प्रश्न 8.
अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन सिविल सर्विस के संगठन के बारे में बताएं।
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन सिविल सर्विस का सूत्रपात लॉर्ड कार्नवालिस ने किया था। उसने अनुभव किया कि जब तक कम्पनी के कर्मचारियों को अच्छे वेतन नहीं दिए जाते उनमें भ्रष्टाचार बना रहेगा। सिविल सर्विस के अन्तर्गत ये पग उठाए गए-
(i) उसने कर्मचारियों के निजी व्यापार, भेटों तथा घूस का कानून द्वारा निषेध कर दिया।
(ii) उसने कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिये ताकि वे रिश्वत आदि न लें।

(iii) उसने सिविल सर्विस में पदोन्नति का आधार वरिष्ठता (Seniority) को बनाया। इस प्रकार उन पर कोई बाह्य दबाव नहीं डाला जा सकता था। 1853 ई० तक सिविल सर्विस में नियुक्तियां ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संचालक ही करते रहे। परन्तु 1853 ई० के चार्टर एक्ट के अनुसार यह निश्चित हुआ कि सिविल सर्विस में भर्ती प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर होगी। सिविल सर्विस की एक विशेषता यह थी कि कार्नवालिस के समय से भारतीयों को प्रतियोगिता की परीक्षा में बैठने दिया जाता था। 500 पौंड अथवा उससे अधिक वेतन वाले सभी पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित थे। भारतीयों को केवल अधीन पदों पर नियुक्त किया जाता था क्योंकि वे कम वेतन पर काम करने को तैयार हो जाते थे।

प्रश्न 9.
1858 के बाद भारतीय सेना में कौन-से परिवर्तन हुए ?
उत्तर-
1858 के बाद भारतीय सेना में अनेक परिवर्तन किए गए-

  • सारी सेना के लिए एक ही ‘कमाण्डर-इन-चीफ’ नियुक्त किया गया । वह गवर्नर-जनरल की ‘ऐग्जेक्टिव-कौंसिल’ का विशेष सदस्य होता था।
  • अंग्रेज़ सैनिकों की संख्या में वृद्धि की गई ताकि वे आवश्यकता पड़ने पर काम आ सकें।
  • तोपखाने और बारूदखाने में भारतीयों की संख्या में कमी की गई।
  • प्रत्येक रैजिमैंट में अलग-अलग धर्मों और जातियों के सैनिकों की संख्या कुछ इस प्रकार निश्चित की गई कि वे अफसरों के विरुद्ध संगठित न हो सकें।
  • जिन जातियों के लोगों ने 1857-58 के विद्रोह में भाग लिया था उनको सैनिक नौकरी के अयोग्य समझा गया।
  • शेष भारतीयों को भी ‘योद्धा’ और ‘अयोद्धा’ जातियों में विभक्त कर केवल पहली जाति के लोगों को ही भारतीय सेना में भर्ती करने की नीति अपनाई गई। इस प्रकार सेना में पठानों, गोरखों और पंजाबियों की संख्या में वृद्धि की गई। सिक्खों की संख्या विशेष रूप से अधिक थी।
  • राज्य की कुल आमदनी का आधे से भी अधिक भाग सेना पर खर्च किया जाने लगा। इस प्रकार एक सशक्त सेना की व्यवस्था की गई।

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प्रश्न 10.
अंग्रेज़ी साम्राज्य के अधीन न्याय व्यवस्था का भारतीयों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन वारेन हेस्टिंग्ज़ तथा लॉर्ड डल्हौजी ने भारत में नई न्याय-व्यवस्था की नींव रखी। ये संस्थाएं स्थानीय लोगों की समस्याओं को सुलझाती थीं। ये स्थानीय लोगों पर हलके कर लगाती थीं और इस प्रकार एकत्रित धन को स्थानीय जनता की भलाई के लिए व्यय करती थीं। अतः लोग ये कर सहर्ष चुकाते थे। ‘कानून का शासन'(रूल ऑफ लॉ) जो पश्चिमी देशों का आदर्श था, भारत में भी प्रचलित हो गया। सिद्धान्त रूप में सभी व्यक्ति कानून के समक्ष बराबर थे। परन्तु व्यावहारिक रूप में भारतीयों और यूरोपीयों में अन्तर बना रहा। यूरोपियों के लिये अलग अदालतें तथा कानून थे। न्याय प्राप्त करने में धन का महत्त्व बढ़ गया। अतः धनी भारतीयों को गरीबों की तुलना में कहीं अधिक जल्दी न्याय मिलने लगा।

कार्नवालिस के समय से ही भारतीयों की डिप्टी मैजिस्ट्रेट और सब-जज आदि पदों पर नियुक्ति होने लगी थी। बैंटिंक ने भारतीयों को और भी अधिक संख्या में न्याय प्रबन्ध में शामिल किया। धीरे-धीरे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की संख्या न्याय-प्रशासन में बढ़ती गई। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि नये कानून को जानने वाले भारतीय वकीलों की संख्या में भी वृद्धि हुई, क्योंकि मुकद्दमेबाज़ी में कचहरी जाने वालों की संख्या भी बढ़ रही थी। भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष में नेतृत्व करने वाले मध्य वर्ग में वकीलों का विशेष स्थान एवं योगदान था।

प्रश्न 11.
कम्पनी के अधीन केन्द्रीय शासन की संरचना का वर्णन करो।
उत्तर-
कम्पनी के केन्द्रीय शासन का आरम्भ 1773 ई० का रेग्यूलेटिंग एक्ट पास होने के बाद हुआ। इस एक्ट के अनुसार बंगाल के गर्वनर को पांच वर्ष के लिए भारत के अंग्रेजी प्रदेशों का गवर्नर जनरल बना दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कौंसिल भी बनाई गई। 1784 ई० में पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने का प्रयास किया गया। कम्पनी के राजनीतिक कार्यों की देखभाल करने के लिए इंग्लैण्ड में एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल स्थापित किया गया जिसके 6 सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटिश पार्लियामैण्ट द्वारा की जाती थी। गवर्नर-जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या अब चार के स्थान पर तीन कर दी गई। गवर्नर -जनरल की पार्लियामैण्ट के सदस्यों की आज्ञा के बिना न कोई सन्धि कर सकता था और न कोई युद्ध । इसी प्रकार अन्य भी कई एक्ट पास किए गए। 1853 ई० के चार्टर एक्ट द्वारा भारत का केन्द्रीय शासन पूरी तरह गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया। अब वह इंग्लैण्ड की सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भारत का शासन चलाने लगा।

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प्रश्न 12.
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के पुलिस विभाग की रूप रेखा प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
भारत मे अंग्रेज़ों का पुलिस विभाग भी काफ़ी सशक्त था। लॉर्ड कार्नवालिस ने ज़मींदारों को उनके पुलिस कार्यों से निवृत्त कर दिया। देश में कानून तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए उसने विधिवत् पुलिस की स्थापना की। उसने पुलिस क्षेत्र में अनेक कार्य किये। उसने भारत में प्राचीन थाना प्रणाली को आधुनिक रूप प्रदान किया। इस प्रकार इस क्षेत्र में भारत ब्रिटेन से भी आगे निकल गया। जहां अभी तक पुलिस व्यवस्था पनप नहीं पाई थी, वहां उसने थानों की श्रृंखलाएं स्थापित की जोकि भारतीय अधिकारी के अधीन होती थीं। इस अधिकारी को दारोगा कहते थे। कालान्तर में जिलों के पुलिस संगठन के नेतृत्व के लिए D. S. P. का पद स्थापित किया गया। इस पद पर केवल अंग्रेज़ लोग ही नियुक्त किया जाते थे। गांवों में पुलिस के कार्य गांव के चौकीदार ही करते रहे। अंग्रेजों की पुलिस मध्य भारत में ठगी का अन्त करने में सफल हुई।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
लॉर्ड वैल्ज़ली के अधीन अंग्रेज़ी साम्राज्य के विस्तार का वर्णन कीजिए।
अथवा
सहायक संधि क्या थी ? अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में क्या योगदान रहा ?
उत्तर-
प्लासी तथा बक्सर की लड़ाइयों के पश्चात् बंगाल में अंग्रेज़ी राज्य की नींव पक्की हो गई। परन्तु भारत में अंग्रेजों के साम्राज्य विस्तार के इतिहास में लॉर्ड वैल्ज़ली को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वह जिस समय भारत में आया था उस समय सुल्तान टीपू, निज़ाम और मराठे अंग्रेजों के विरुद्ध थे और वे अंग्रेज़ों को भारत से निकाल देना चाहते थे। वैल्ज़ली बड़ा योग्य शासक था और वह भारतीय राजनीति से भली-भान्ति परिचित था। परिस्थितियों को देखते हुए उसने हस्तक्षेप न करने की नीति त्याग दी और उसके स्थान पर ‘हस्तक्षेप’ की नीति को अपनाया। वह भारत में अंग्रेज़ी राज्य को विस्तृत करके कम्पनी को भारत की सर्वोच्च शक्ति बनाना चाहता था। उसने अंग्रेज़ी साम्राज्य का विस्तार करने के लिए अनेक साधन अपनाए। परन्तु ‘सहायक सन्धि’ उसका सबसे बड़ा शस्त्र था।

युद्धों तथा अधिवहन द्वारा राज्य का विस्तार-वैल्जली ने मराठों को दो युद्धों में हराकर दिल्ली, आगरा, कटक, बलासौर, गुजरात, भड़ौच और बुन्देलखण्ड को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया। वैल्ज़ली ने सन् 1799 ई० में टीपू सुल्तान को मैसूर के चौथे युद्ध में हरा कर कनारा, कोयम्बटूर और श्रीरंगपट्टम को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। वैल्जली को जब भी किसी राज्य को अंग्रेज़ी राज्य में मिलाने का अवसर मिला उसने उस अवसर पर पूरा-पूरा लाभ उठाया। उसने अवसर पाते ही तंजौर, सूरत तथा कर्नाटक के शासकों को पेंशन देकर इन राज्यों को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

सहायक सन्धि द्वारा राज्य विस्तार-वैल्ज़ली ने अंग्रेजी राज्य का विस्तार करने के लिए एक नई नीति अपनाई जिसको ‘सहायक सन्धि’ के नाम से पुकारा जाता है। जो भी देशी राजा इस सहायक सन्धि को स्वीकार करता था, उसे ये शर्ते माननी पड़ती थीं :-(1) उसे अपने राज्य में अंग्रेज़ी सेना रखनी पड़ती थी और उसका खर्च भी उसे ही देना पड़ता था। यदि वह सेना का खर्च नहीं दे पाता था तो उसे अपने राज्य का कुछ भाग अंग्रेजों को देना पड़ता था। (2) वह अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी भी शासक से सन्धि तथा युद्ध नहीं कर सकता था। (3) उसे अंग्रेजों को सर्वोच्च शक्ति मानना पड़ता था। (4) उसे अपने राज्य में एक अंग्रेजी रैजीडेन्ट रखना होता था। (5) वह अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी भी यूरोपियन को नौकर नहीं रख सकता था। (6) उसे आपसी झगड़ों से भी अंग्रेजों को पंच मानना पड़ता था। इन शर्तों को मानने वाले राजा को वचन दिया जाता था कि अंग्रेज़ उसकी आन्तरिक विद्रोहों तथा बाहरी आक्रमणों से रक्षा करेंगे।

सहायक सन्धि को सबसे पहले हैदराबाद के निजाम ने स्वीकार किया क्योंकि वह मराठों से डरा हुआ था। निज़ाम ने बैलारी तथा कड़प्पा के प्रदेश भी अंग्रेजों को दे दिए। 1799 ई० में वैल्ज़ली ने सूरत के राजा को पेंशन दे दी और सूरत को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया। सन् 1801 ई० में कर्नाटक के नवाब की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने उसके लड़के की पेंशन नियत कर दी और उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार वैल्ज़ली द्वारा राज्य विस्तार के लिए अपनाए गए सभी शस्त्रों में से सहायक सन्धि का शस्त्र बड़ा महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ और वह अपने संकल्प में सफल रहा।

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प्रश्न 2.
लॉर्ड डल्हौजी द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार की व्याख्या कीजिए।
अथवा
लार्ड डल्हौजी के अधीन लैप्स की नीति द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार कैसे हुआ ?
उत्तर-
लॉर्ड डल्हौज़ी 1848 ई० से 1856 ई० तक भारत के गवर्नर-जनरल के पद पर रहा। वह उन गवर्नर-जनरलों में से एक था जिन्होंने अंग्रेज़ी राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उसके काल में अंग्रेज़ी सत्ता का इतना विस्तार हुआ कि भारत में अंग्रेजी राज्य का मानचित्र ही बदल गया। उसने अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के लिए प्रत्येक उचित तथा अनुचित पग उठाया।

1. युद्धों द्वारा राज्य विस्तार-लॉर्ड डल्हौजी ने सबसे पहले युद्धों की नीति अपनाई। सिक्खों के दूसरे युद्ध में अंग्रेजों ने सिक्खों को पराजित कर दिया और पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। बर्मा की लड़ाई के परिणामस्वरूप लोअर बर्मा पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। डल्हौज़ी ने सिक्किम के राजा को हराकर सिक्किम के राज्य को भी अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

2. लैप्स की नीति द्वारा राज्य विस्तार-लार्ड डल्हौज़ी भारत के इतिहास में अपनी लैप्स की नीति के लिए प्रसिद्ध है। लैप्स की नीति के अनुसार देशी राजाओं को पुत्र गोद लेने का अधिकार नहीं दिया गया था और पुत्रहीन राजा की मृत्यु पर उसके राज्य को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया जाता था। यद्यपि इस नीति का कम्पनी के अधिकारियों की ओर से भी विरोध किया गया, तो भी डल्हौज़ी अपनी नीति पर डटा रहा और उसने विरोध की कोई परवाह न की। इस नीति का सहारा लेकर उसने अनेक राज्यों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित कर लिया-

(i) 1849 ई० में अप्पा साहिब की मृत्यु हो गई। डल्हौजी ने इस अवसर का लाभ उठाया और सतारा को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।
(ii) झांसी की रानी को भी पुत्र गोद लेने की आज्ञा नहीं दी गई और उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।

(iii) 1855 ई० में नागपुर के राजा की मृत्यु हो गई। उसने मरने से पहले किसी को गोद नहीं लिया था। जब रानी ने जसवन्तराय को गोद ले लिया तो अंग्रेजों ने उसे सिंहासन का उत्तराधिकारी स्वीकार न किया और नागपुर के राज्य को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया।

(iv) इस नीति के अनुसार डल्हौजी ने जैतपुर, सम्बलपुर, उदयपुर और बघाट के राज्यों को भी अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

3. पेंशनों तथा पदवियों की समाप्ति-लैप्स की नीति द्वारा देशी राज्यों को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करके भी डल्हौज़ी की सन्तुष्टि न हुई। अब उसने देशी राजाओं की पेंशन तथा पदवियां समाप्त करनी आरम्भ कर दी। सन् 1852 में पेशवा बाजीराव की मृत्यु हो गई। डल्हौजी ने बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहिब की पेंशन बन्द कर दी और पेशवा की उपाधि समाप्त कर दी। 1855 ई० में कर्नाटक के नवाब की मृत्यु हो गई और डल्हौज़ी ने उसका पद भी समाप्त कर दिया। 1855 ई० में ही तंजौर के राजा की भी मृत्यु हो गई। उसका कोई पुत्र न था। डल्हौज़ी ने इसका लाभ उठाते हुए उसकी पुत्रियों के लिए पेंशन बन्द कर दी और उसकी जागीर छीन ली।

4. कुशासन के आरोप में-लॉर्ड डल्हौजी ने सन् 1856 में कुशासन की आड़ में अवध के राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिलाने तथा नवाब को 12 लाख रुपया वार्षिक पेंशन देने का निर्णय किया। ये सब बातें एक सन्धि-पत्र के रूप में नवाब को भेज दी गईं और नवाब को इस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया। परन्तु नवाब ने हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। इस पर डल्हौजी ने उसे नवाबी से हटाकर कलकत्ता (कोलकाता) भेज दिया। इस प्रकार अवध को बलपूर्वक अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। हैदराबाद के निज़ाम ने सहायक सन्धि के अनुसार अपने राज्य मे अंग्रेजी सेना रखी हुई थी। निजाम ने इस सेना के लिए बरार का प्रदेश अंग्रेज़ों को दे दिया।

प्रश्न 3.
सहायक-प्रणाली के विषय में आप क्या जानते हैं ? इसकी मुख्य शर्ते कौन-कौन सी थीं ?
उत्तर-
सहायक-सन्धि अथवा सहायक-प्रणाली लार्ड वैल्ज़ली की कूटनीति का प्रमाण थी। वह बड़ा ही साम्राज्यवादी था। उसने भारत में कम्पनी राज्य का विस्तार करने के लिए सहायक सन्धि की नीति का सहारा लिया। यह सन्धि एक प्रकार का प्रतिज्ञा-पत्र था जिसे भारतीय शासकों पर जबरदस्ती थोपा गया। भारतीय राजा भी यह प्रतिज्ञा-पत्र स्वीकार करने पर विवश थे। इसका कारण यह था कि वे बड़े अयोग्य और असंगठित थे। ..यह नीति कम्पनी के लिए बिल्कुल नई नहीं थी। क्लाइव के समय से ही कम्पनी भारतीय शासकों के साथ ऐसा व्यवहार करती आ रही थी। क्योंकि वैल्जली ने इस नीति को एक निश्चित रूप-रेखा प्रदान की थी, इसलिए इस नीति का नाम उसके नाम के साथ जुड़कर रह गया है।

सहायक-सन्धि की शर्ते-सहायक-सन्धि देशी राजाओं तथा कम्पनी के बीच होती थी। इसके अनुसार कम्पनी देशी राज्य को आन्तरिक और बाहरी खतरे के समय सैनिक सहायता देने का वचन देती थी, जिसके बदले में देशी राजा को अनेक शर्ते माननी पड़ती थीं । इन सभी शर्तों का वर्णन इस प्रकार है-

1. उसे अपने राज्य में एक अंग्रेज़ी सेना रखनी पड़ती थी और उसका खर्च भी देना पड़ता था यदि वह सेना का खर्च नहीं दे पाता था तो उसे अपने राज्य का कुछ भाग अंग्रेजों को देना पड़ता था।

2. उसे अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ता था और वह उनकी अनुमति के बिना किसी भी शासक से युद्ध या सन्धि नहीं कर सकता था।

3. उसे अंग्रेजों को सर्वोच्च शक्ति मानना पड़ता था।

4. वह अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी भी यूरोपियन को नौकरी पर नहीं रख सकता था। इस शर्त का उद्देश्य भारत में फ्रांसीसियों के प्रभाव को कम करना था।

5. उसे अपने राज्य में एक अंग्रेज़ रैजीडेण्ट रखना पड़ता था जिसके परामर्श से ही उसे अपना सारा शासन-कार्य चलाना पड़ता था। यह एक ऐसी शर्त थी जिसके द्वारा देशी राज्यों की गतिविधियों पर सदैव अंग्रेजों की दृष्टि बनी रहती थी।

6. आपसी झगड़ों की दशा में उसे अंग्रेजों को मध्यस्थ स्वीकार करना पड़ता था और उनके निर्णय को मानना पड़ता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 18 अंग्रेजी साम्राज्य का विकास और संगठन

प्रश्न 4.
सहायक सन्धि से अंग्रेजों को जो लाभ हुए उनका वर्णन करो।
उत्तर-
सहायक सन्धि भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य का विस्तार करने की दिशा में अंग्रेजों का एक कूटनीतिक पग था। इस सन्धि द्वारा उन्हें अनेक लाभ पहुंचे जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. सहायक सन्धि द्वारा अंग्रेज़ों को सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इससे कम्पनी के साधन काफ़ी बढ़ गए। सन्धि स्वीकार करने वाले राज्यों से प्राप्त धन तथा उससे प्राप्त किए प्रदेशों से मिलने वाले राजस्व से कम्पनी की आर्थिक स्थिति काफ़ी दृढ़ हो गई। इस धन की सहायता से अंग्रेजों ने देशी राज्यों में ऐसे सैनिक भर्ती किए जो सदैव अंग्रेजों के इशारों पर नाचते थे। मजे की बात यह थी कि इस सेना का व्यय भी देशी राज्यों को सहन करना पड़ता था। अतः इस व्यवस्था के फलस्वरूप एक तो अंग्रेजों की शक्ति काफ़ी बढ़ गई, दूसरे वे सैनिक व्यय की चिन्ता से भी मुक्त हो गए।

2. इस सन्धि के कारण कम्पनी का देशी राज्यों पर प्रत्यक्ष और कड़ा नियन्त्रण स्थापित हो गया। अब अंग्रेजों को इस बात का भय नहीं रहा कि देशी राजा कोई संघ बनाकर कम्पनी का विरोध करेंगे।

3. इस व्यवस्था के कारण कम्पनी राज्य आन्तरिक विद्रोहों तथा बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित हो गया। सैनिक शक्ति बढ़ जाने से उन्हें बाह्य आक्रमणों के भय से छुटकारा मिल गया, जबकि देशी राज्यों में रखी हुई अंग्रेजी सेना के भय से आन्तरिक विद्रोह का कोई भय न रहा।

4. इस सन्धि को स्वीकार करने वाले देशी राज्यों में आपसी झगड़े कम हो गए। इसका कारण यह था कि ऐसे झगड़ों का निर्णय अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले लिया था। भारतीय शासक जानते थे कि अंग्रेज़ अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय देंगे।

5. इस सन्धि के कारण ही अंग्रेज़ भारत में फ्रांसीसियों का प्रभुत्व समाप्त करने में सफल हो सके। इस व्यवस्था के अनुसार देशी राज्यों में केवल अंग्रेज़ी सेना और अंग्रेज़ कर्मचारी ही रखे जा सकते थे। फलस्वरूप फ्रांसीसियों की सभी योजनाओं तथा आशाओं पर पानी फिर गया।

6. इस व्यवस्था द्वारा अंग्रेज़ भारत में काफ़ी शक्तिशाली हो गए, परन्तु किसी अन्य यूरोपीय शक्ति को उनसे किसी प्रकार की कोई ईर्ष्या न हुई। इसका कारण यह था कि देशी राजाओं की स्वतन्त्रता प्रकट रूप में स्थिर रखी जाती थी। अन्य यूरोपीय शक्तियां अंग्रेजों की इस कूटनीति को न समझ सकीं।

7. सहायक प्रणाली के कारण कम्पनी का राज्य-क्षेत्र युद्ध के भीषण परिणामों से सुरक्षित हो गया। अब कोई भी युद्ध कम्पनी के राज्य-क्षेत्र में नहीं बल्कि किसी-न-किसी देशी राज्य की भूमि पर लड़ा जाता था।

8. इस व्यवस्था द्वारा भारत में शान्ति स्थापना में सहयोग मिला। देशी राज्यों के आपसी झगड़े समाप्त होने तथा महत्त्वाकांक्षाओं पर अंकुश लग जाने से देश के वातावरण में शान्ति की लहर दौड़ गई।

9. इस व्यवस्था द्वारा देशी राज्यों की शक्ति बिल्कुल कम कर दी गई थी। अतः अंग्रेजों को अब बिना किसी कठिनाई के साम्राज्य विस्तार करने का अवसर मिल गया।

प्रश्न 5.
लॉर्ड हेस्टिंग्ज के शासन की प्रमुख घटनाओं का वर्णन करो।
अथवा
लार्ड हेस्टिग्ज़ की सैनिक सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
लार्ड हेस्टिग्ज़ के प्रशासनिक सुधारों का वर्णन करें।
उत्तर-
लार्ड हेस्टिंग्ज़ 1813 ई० में भारत में कम्पनी राज्य का गवर्नर-जनरल बन कर आया। वह 1823 ई० तक इस पद पर रहा। उसने लॉर्ड वैल्ज़ली की हस्तक्षेप व अग्रगामी नीति को अपनाया और कम्पनी राज्य को सदृढ़ बनाने का निश्चय किया। उसके शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है

1. नेपाल से युद्ध (1814-1818 ई०)-हेस्टिंग्ज़ के शासन-काल की प्रमुख घटना नेपाल से युद्ध था। नेपाल के गोरखे दक्षिण की ओर विस्तार कर रहे थे और उन्होंने कई गांवों पर अधिकार कर लिया था। अत: अंग्रेजों और गोरखों में युद्ध स्वाभाविक था। अंग्रेजी सेना को बार-बार पराजय का मुंह देखना पड़ा। अतः अंग्रेजों ने कई गोरखा सिपाहियों को धन का लोभ देकर अपनी तरफ मिला लिया। ऐसी दशा में गोरखों ने अंग्रेजों से सन्धि करने में भलाई समझी। 1816 ई० को सुगौली नामक स्थान पर दोनों पक्षों में सन्धि हुई।

2. पिण्डारों का दमन (1819-1820)-पिण्डारे लुटेरों का एक गिरोह था। इसमें सभी वर्गों तथा सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित थे। ये लोग मध्य भारत के प्रदेशों राजपूताना, मालवा, गुजरात, दक्षिणी बिहार आदि प्रदेशों में गांवों को निर्दयतापूर्वक आग लगा देते थे और बचे हुए लोगों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार करते थे। लॉर्ड हेस्टिग्ज़ इनका दमन करना चाहता था।

लॉर्ड हेस्टिंग्ज़ ने सबसे पहले मराठों से बातचीत की और उनसे पिण्डारों की सहायता न करने का वचन ले लिया। तत्पश्चात् उसने पिण्डारों पर आक्रमण कर दिया। उत्तर तथा दक्षिण दोनों दिशाओं से उन्हें घेर लिया गया। 4 वर्षों के भीषण संघर्ष के पश्चात् पिण्डारों की शक्ति पूरी तरह नष्ट हो गई।

3. मराठों से युद्ध (1817-18 ई०)- अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को किर्की नामक स्थान पर बुरी तरह हराया और उसे 80 हज़ार पौंड वार्षिक पेंशन देकर बिठूर में रहने की आज्ञा दी गई। इधर अप्पा साहिब ने नागपुर में सीताबाल्दी नामक स्थान पर विद्रोह कर दिया परन्तु वह भी पराजित हुआ। इन्दौर में मराठों ने जसवन्त राव होल्कर की पत्नी का वध करके अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, परन्तु उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी और इन्दौर पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। इन सभी झड़पों के परिणामस्वरूप पेशवा का पद छिन गया तथा सिन्धिया ने अजमेर और गायकवाड़ ने अहमदाबाद के प्रदेश अंग्रेजों को सौंप दिए। इस प्रकार सिन्ध, पंजाब तथा कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया।

4. मध्य भारत तथा राजपूताना में अंग्रेजी प्रभुत्व की स्थापना- लॉर्ड हेस्टिग्ज़ ने मध्य भारत तथा राजपूताना के अनेक छोटे-छोटे राज्यों को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। इस प्रकार कोटा, भोपाल, उदयपुर, जोधपुर, जयपुर, बीकानेर आदि अनेक राज्यों पर अंग्रेज़ी प्रभुत्व छा गया।

5. प्रशासनिक सुधार- लार्ड हेस्टिंग्ज़ ने अनेक प्रशासनिक सुधार भी किए-

  • उसने भारतीयों की नियुक्ति उच्च पदों पर की।
  • उसने अदालतों की संख्या में वृद्धि कर दी और जजों की संख्या बढ़ा दी। इस प्रकार मुकद्दमों का निर्णय जल्दी होने लगा।
  • उसने शिक्षा के प्रसार के लिए देश के विभिन्न भागों में अनेक स्कूल खुलवाए। कलकत्ता (कोलकाता) में उसने एक कॉलेज की नींव रखी।
  • उसके शासनकाल में समाचार-पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। यह भारतीय भाषा में छपने वाला सबसे पहला समाचार-पत्र था। लॉर्ड हेस्टिग्ज़ ने सार्वजनिक निर्माण कार्यों में भी रुचि दिखाई और देश में अनेक नहरें तथा पुल बनवाए।

सच तो यह है कि लॉर्ड हेस्टिंग्ज़ ने लॉर्ड वैल्जली के अधूरे कार्य को पूरा किया। उसके प्रयत्नों से कम्पनी राज्य भारत की सर्वोच्च शक्ति बन गया।

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प्रश्न 6.
(क) लैप्स का सिद्धान्त क्या था ? इसके द्वारा कौन-कौन से राज्य प्रभावित हुए ?
(ख) यह सिद्धान्त 1857 ई० की महान् क्रान्ति के लिए कहां तक उत्तरदायी था ?
अथवा
डल्हौज़ी के लैप्स के सिद्धान्त तथा उसके विभिन्न राज्यों पर क्रियात्मक रूप से निरीक्षण कीजिए।
उत्तर-
लैप्स का सिद्धान्त- लैप्स का सिद्धान्त लॉर्ड डल्हौजी ने अपनाया । इसके अनुसार यदि अंग्रेज़ी के किसी आश्रित राज्य का कोई शासक बिना सन्तान के मर जाता था तो उसके द्वारा गोद लिए हुए पुत्र को सिंहासन पर नहीं बिठाया जा सकता था और ऐसे राज्य को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया जाता था।

प्रभावित राज्य-

1. सतारा-1848 ई० में सतारा के शासक की नि:सन्तान मृत्यु हो गई। अत: डल्हौजी ने इस आधार पर कि यह अंग्रेजों द्वारा स्थापित तथा आश्रित राज्य है, सतारा को ब्रिटिश साम्राज्य में विलीन कर लिया। राजा द्वारा गोद लिए पुत्र को उसका उत्तराधिकारी स्वीकार न किया गया। कम्पनी के संचालकों ने भी सतारा राज्य के विलीनीकरण के सम्बन्ध में डल्हौजी का समर्थन किया।

2. झांसी-झांसी का शासन पेशवा बाजीराव द्वितीय के अधीन था। 1817 ई० में वह अंग्रेजों से हार गया था और उसने पराजित होने के पश्चात् यह राज्य अंग्रेजों को सौंप दिया था। परन्तु इसी वर्ष वारेन हेस्टिंग्ज़ ने यहां की राजगद्दी पर राव रामचन्द्र को बिठा दिया था। 1853 ई० में राव रामचन्द्र के वंश के अन्तिम शासक राव गंगाधर की नि:सन्तान मृत्यु हो गई। इस पर लॉर्ड डल्हौजी ने उसके दत्तक पुत्र आनन्द राव के उत्तराधिकार को स्वीकार न किया और झांसी का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में विलीन कर लिया। मृत्यु से पूर्व गंगाधर ने अंग्रेजों से पुत्र गोद लेने की अनुमति भी माँगी थी, परन्तु अंग्रेजों ने उसे स्वीकृति नहीं दी थी।

3. नागपुर-1853 ई० में नागपुर राज्य भी लैप्स की नीति का शिकार बना। मराठों के चौथे युद्ध में इस राज्य पर वारेन हेस्टिंग्ज़ ने विजय प्राप्त की थी। परन्तु 1818 ई०में उसने यह राज्य पुनः वहां के प्राचीन वंश (भौंसले वंश) के एक सदस्य को सौंप दिया था। इस वंश का अन्तिम शासक 1853 ई० में निःसन्तान चल बसा। मृत्यु से पूर्व उसने कोई पुत्र भी गोद नहीं लिया था, परन्तु वह अपनी पत्नी को पुत्र गोद लेने के लिए अवश्य कह गया था। उसकी पत्नी ने यशवन्त राव को अपना दत्तक पुत्र बनाया। परन्तु डल्हौजी ने उसे मान्यता न दी और नागपुर को अंग्रेज़ी राज्य का अंग बना लिया। _ डल्हौज़ी ने यह राज्य इस आधार पर अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया था कि रानी ने पुत्र को देर से गोद लिया है। परन्तु हिन्दू कानून के अनुसार इस प्रकार लेने से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी। अत: नागपुर का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय एकदम अनुचित था।

4. सम्बलपुर-सम्बलपुर के राजा की 1849 ई० में नि:सन्तान मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पूर्व उसने यह इच्छा प्रकट की कि उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका राज्य अंग्रेज़ी संरक्षण में चला जाए। उसने कोई पुत्र भी गोद नहीं लिया था। इसी बात को आधार मानते हुए डल्हौजी ने सम्बलपुर का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।

5. जैतपुर, उदयपुर तथा बघाट–डल्हौजी ने लैप्स की नीति द्वारा तीन अन्य छोटे-छोटे राज्य भी अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिये। ये राज्य थे-जैतपुर, उदयपुर तथा बघाट। जैतपुर तथा बघाट 1850 में , जबकि उदयपुर 1851 ई० में डल्हौजी की नीति का शिकार हुए। इतिहासकारों का कथन है कि इन छोटे-छोटे राज्यों के अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिल जाने से अंग्रेज़ों को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक उठानी पड़ी।

6. करौली-लॉर्ड डल्हौजी ने अपनी लैप्स नीति का प्रहार राजस्थान में स्थित करौली राज्य पर भी करना चाहा। परन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया। इंग्लैण्ड की सरकार का कहना था कि करौली एक आश्रित राज्य न होकर संरक्षित मित्र राज्य (Protected Ally) है।

1857 की क्रांति के लिए उत्तरदायित्व-

यह सच है कि लैप्स के सिद्धान्त द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाओं में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। परन्तु इसके विनाशकारी परिणाम भी निकले जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. यह सिद्धान्त 1857 ई० के विद्रोह का प्रमुख कारण बना। इस सिद्धान्त द्वारा जिन राजकुमारों के राज्य हड़प लिए गए थे, वे सभी अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए। उन्होंने अंग्रेजों से बदला लेने के लिए 1857 ई० की क्रान्ति के बीज बोए।

2. भारतीय शासकों के साथ-साथ लैप्स की नीति के कारण उन राज्यों की जनता भी अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई जिनके राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिए गए थे। वहां जनता इसे अपने राजा का तथा अपना अपमान समझती थी। फलस्वरूप लोग अंग्रेजों से घृणा करने लगे और उनसे बदला लेने की ताक में रहने लगे।

3. लैप्स के सिद्धान्त के अनुसार किसी भी राजा को पुत्र गोद लेने की आज्ञा न देना हिन्दू कानूनों का उल्लंघन था। फलस्वरूप हिन्दुओं के कानूनवेत्ता भी अंग्रेजों को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे।

4. लैप्स की नीति से बचे हुए राज्यों के शासकों तथा लोगों के मन में भी शक और भय की भावनाएँ उत्पन्न हो गईं। वे अपने आपको सुरक्षित करने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध योजनाएं बनाने लगे ।

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प्रश्न 8.
पंजाब को अंग्रेजों ने किस प्रकार अपने अधीन किया ?
उत्तर-
1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् सिक्खों का नेतृत्व करने वाला कोई योग्य नेता न रहा। शासन की सारी शक्ति सेना के हाथ में आ गई। अंग्रेजों ने इस अवसर का लाभ उठाया और सिक्ख सेना के प्रमुख अधिकारियों को लालच देकर अपने साथ मिला लिया। इसके साथ-साथ उन्होंने पंजाब के आस-पास के इलाकों में अपनी सेनाओं की संख्या बढ़ानी आरम्भ कर दी और सिक्खों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगे। उन्होंने सिक्खों से युद्ध किये, दोनों युद्धों में सिक्ख सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। परन्तु अपने अधिकारियों की गद्दारी के कारण वे पराजित हुए। प्रथम युद्ध के बाद अंगज़ों ने पंजाब का केवल कुछ भाग अंग्रेज़ी राज्य में मिलाया और वहाँ सिक्ख सेना के स्थान पर अंग्रेज़ सैनिक रख दिये गये। परन्तु 1849 ई० में दूसरे सिक्ख दूसरे युद्ध की समाप्ति पर लॉर्ड डल्हौज़ी ने पूरे पंजाब को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया।
इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा पंजाब-विजय की कहानी काफ़ी रोचक है जिसका कारण वर्णन इस प्रकार है –

1. पहला सिक्ख युद्ध-अंग्रेज़ काफ़ी समय से पंजाब को अपने राज्य में मिलाने का प्रयास कर रहे थे। रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेजों को अपनी इच्छा पूरी करने का अवसर मिल गया। उन्होंने सतलुज के किनारे अपने किलों को मजबूत करना आरम्भ कर दिया। सिक्ख नेता अंग्रेजों की सैनिक तैयारियों को देखकर भड़क उठे। अत: 1845 ई० में सिक्ख सेना सतलुज को पार करके फिरोजपुर के निकट आ डटी। कुछ ही समय पश्चात् अंग्रेज़ों और सिक्खों में लड़ाई आरम्भ हो गई। इसी समय सिक्खों के मुख्य सेनापति तेजसिंह और वजीर लालसिंह अंग्रेजों से मिल गये। उनके इस विश्वासघात के कारण मुदकी तथा फिरोजशाह के स्थान पर सिक्खों की हार हुई। सिक्खों ने साहस से काम लेते हुए 1846 ई० में सतलुज को पार करके लुधियाना के निकट अंग्रेज़ों पर धावा बोल दिया। यहाँ अंग्रेज बुरी तरह से पराजित हुए और उन्हें पीछे हटना पड़ा। परन्तु गुलाबसिंह के विश्वासघात के कारण अलीवाल और सभराओं के स्थान पर सिक्खों को एक बार फिर हार का मुँह देखना पड़ा। मार्च, 1846 ई० में गुलाबसिंह के प्रयत्नों से सिक्खों और अंग्रजों के बीच एक सन्धि हो गई। सन्धि के अनुसार सिक्खों को अपना काफ़ी सारा प्रदेश और डेढ़ करोड़ रुपया अंग्रेज़ों को देना पड़ा। दिलीपसिंह के युवा होने तक पंजाब में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक अंग्रेजी सेना रख दी गई।

2. दूसरा सिक्ख युद्ध और पंजाब में अंग्रेजी राज्य की स्थापना-1848 ई० में अंग्रेज़ों और सिक्खों में पुनः युद्ध छिड़ गया। अंग्रेज़ों ने मुलतान के लोकप्रिय गवर्नर दीवान मूलराज को जबरदस्ती हटा दिया था। यह बात वहाँ के नागरिक सहन न कर सके और उन्होंने अनेक अंग्रेज अफसरों को मार डाला। अतः लॉर्ड डल्हौजी ने सिक्खों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयाँ रामनगर ( 22 नवम्बर, 1848 ई०), मुलतान (दिसम्बर, 1848 ई०), चिल्लियांवाला (13 जनवरी, 1849 ई०) और गुजरात ( फरवरी, 1849 ई०) में लड़ी गईं। रामनगर की लड़ाई में कोई निर्णय न हो सका। परन्तु मुलतान, चिल्लियांवाला और गुजरात के स्थान पर सिक्खों की हार हुई। सिक्खों ने 1849 ई० में पूरी तरह अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इस विजय के पश्चात् अंग्रेजों ने पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 5 गुप्त काल

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 5 गुप्त काल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 5 गुप्त काल

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
मौर्य साम्राज्य के पतन तथा गुप्त साम्राज्य के उत्थान के बीच भारत में महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
अशोक की मृत्यु के शीघ्र बाद ही मौर्य साम्राज्य का पतन और विघटन आरम्भ हो गया। चौथी शताब्दी ई० के आरम्भ में गुप्त साम्राज्य उभरने लगा था। अत: हम देखते हैं कि इन दोनों साम्राज्यों के बीच लगभग 500 वर्षों का अन्तर है। इन 500 वर्षों में इस देश में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन जहां एक ओर सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन से सम्बन्धित थे, वहां इनका सम्बन्ध राजनीतिक क्षेत्र में भी था। राजनीतिक परिवर्तनों ने गुप्त साम्राज्य के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। इन परिवर्तनों का वर्णन इस प्रकार है-

1. मगध में मौर्य वंश के उत्तराधिकारी-अशोक की 232 ई० पू० में मृत्यु हुई। उसके उत्तराधिकारियों की दुर्बलता के कारण उप राजा अपने-अपने क्षेत्र में स्वायत्त बन गए। परिणामस्वरूप साम्राज्य का तेजी से विघटन होने लगा। मौर्य वंश का राज्य अशोक की मृत्यु के पश्चात् आधी शताब्दी तक स्थिर रहा होगा। 180 ई० पू० में अशोक के अन्तिम उत्तराधिकारी की हत्या हो गई।

अशोक के उत्तराधिकारी की हत्या करने वाले का नाम पुष्यमित्र था और वह ब्राह्मण था। कहा जाता है कि उसने बौद्धों पर अत्याचार किये और ब्राह्मणों को संरक्षण प्रदान किया। पुष्पमित्र ने शुंग नाम के एक नये राज्य वंश की नींव रखी। उसके उत्तराधिकारियों ने लगभग सौ वर्ष तक पाटलिपुत्र की गद्दी से मगध पर शासन किया। उस समय मगध राज्य केवल गंगा के मैदान के मध्य भाग तक ही सीमित था। उसके उपरान्त मगध में कण्व नाम के राज्य वंश की स्थापना हुई। 28 ई० पू० में कण्वों का भी अन्त हो गया। इसके बाद मगध राज्य का महत्त्व क्षीण हो गया। परन्तु देश के अन्य भागों में कई महत्त्वपूर्ण राज्य स्थापित हो चुके थे।

2. यूनानी राज्य-अशोक की मृत्यु के थोड़े समय पश्चात् एक मौर्य राजकुमार ने गान्धार प्रदेश में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। लगभग उसी समय निकटवर्ती बैक्ट्रिया और पार्थिया सैल्यूकस के उत्तराधिकारियों से स्वतन्त्र हो गए। यहां के यूनानी शासक डिमिट्रियस ने गान्धार प्रदेश और बाद में उसके दक्षिण अफगानिस्तान और मकरान प्रदेश को भी विजय कर लिया। इन प्रदेशों को यूनानी क्रमशः ‘अराकोशिया’ और ‘जेड्रोशिया’ कहते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि अशोक की मृत्यु के 50 वर्षों के भीतर ही उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में यूनानियों का आधिपत्य स्थापित हो गया।

इस देश का सबसे अधिक विख्यात यूनानी राज्य मिनाण्डर था। उसे बौद्ध साहित्य में मिलिन्द कहा गया है। मिलिन्द ने 155 ई० पू० से 130 ई० पू० तक अर्थात् 25 वर्ष शासन किया। उसकी राजधानी तक्षशिला थी। उसने शंग राजाओं को गंगा के मैदान से खदेड़ने का असफल प्रयास किया था। तक्षशिला के एक और यूनानी राजा हैल्यिोडोरस ने अपने एक राजदूत को आधुनिक मध्य प्रदेश में स्थित बेसनगर (विदिशा) के शासक के पास भेजा था। इस बात की जानकारी हमें बेसनगर से प्राप्त हैल्योडोरस के स्तम्भ से मिलती है। इस सम्बन्ध में अति महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हैल्योडोरस वासुदेव अर्थात् विष्णु का उपासक था।

3. शक राज्य-पहली शताब्दी ई० पू० के आरम्भ में शक लोगों ने यूनानियों को अफगानिस्तान एवं पंजाब से खदेड़ दिया। शक मध्य एशिया के भ्रमणशील कबीलों में से थे। उन्हें वहां से यू-ची लोगों ने निकाल दिया था और अब शकों ने यूनानियों पर दबाव डाला और उन्हें पहले बैक्ट्रिया से तथा बाद में भारत के उत्तर-पश्चिम से निकाल दिया। भारत में पहला शक राजा भोज था। शकों के आरम्भिक राजाओं में सबसे विख्यात गोंडोफार्नीज था जिसका काल पहली शताब्दी के पूवार्द्ध में था।

इसी सदी के उत्तरार्द्ध में शकों को यू-ची लोगों ने फिर खदेड़ दिया। अब शक लोगों ने भारत के उत्तर-पश्चिम में गुजरात तथा मालवा की ओर अपना राज्य स्थापित किया। उनका सबसे प्रसिद्ध राजा रुद्रदमन था। उसका शासन गुजरात, मालवा और पश्चिमी राजस्थान पर था। रुद्रदमन के उत्तराधिकारी उसके समान शक्तिशाली न थे। फिर भी गुजरात में उनका राज्य लगभग 200 वर्ष तक स्थिर रहा। शक राज्य का अन्त गुप्त वंश के राजाओं द्वारा पांचवीं सदी ई० के आरम्भ में हुआ।

4. कुषाण राज्य-जिन राजाओं ने शकों को अफगानिस्तान और पंजाब में खदेड़ा था वे यू-ची की कुषाण शाखा के दो राजा थे-कजुल और विम कडफीसिज़। उन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिम में कुषाण राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क था। उसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी। कनिष्क का राज्य पेशावर, बनारस और सांची तक फैला हुआ था। इसमें मथुरा भी शामिल था। मथुरा को कुषाण राज्य की दूसरी राजधानी समझा जाता था। कहा जाता है कि कनिष्क मध्य एशिया में लड़ता हुआ मारा गया। वह बौद्ध धर्म का महान् संरक्षक था। कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने लगभग सौ वर्षों तक शासन किया। तीसरी शताब्दी ई. के मध्य में ईरान के सासानी राजाओं ने पेशावर और तक्षशिला को जीत कर कुषाणों को अपने अधीन कर लिया।

5. राजा खारवेल-अशोक की मृत्यु के कुछ ही समय पश्चात् मौर्य साम्राज्य का पूर्वी प्रान्त मौर्यों के हाथ से निकल गया। यहां के कलिंग प्रदेश में सत्ता खारवेल के हाथ में आ गई। हाथी-गुफा अभिलेख से पता चलता है कि वह जैन धर्म का संरक्षक था। उसने कई युद्ध किए। उसने भारत के उत्तर-पश्चिम में यूनानियों पर आक्रमण किया और दक्षिण में पाण्डेय राज्य को पराजित किया। उसका यह भी दावा है कि उसने उत्तर तथा दक्षिण में अनेक राजाओं को हराया। खारवेल को प्राचीन उड़ीसा का सबसे महान् राजा माना जाता है।

6. सातवाहन राज्य-अशोक के देहान्त के थोड़े ही समय बाद विन्ध्य पर्वत के दक्षिण के इलाके मौर्य साम्राज्य से छिन गये। पश्चिमी दक्कन में एक नये राज्य का उत्थान हुआ जिसके शासक सातवाहन के नाम से प्रसिद्ध हुए। सातवाहन राज्य के संस्थापकों को अशोक ने अपने शिलालेख में आन्ध्र कहा है। सम्भवतः वह मौर्य सम्राटों के अधीन अधिकारी रहे थे। सातवाहन राजा शातकर्णि इतना शक्तिशाली था कि खारवेल भी उसे हरा न सका। शातकर्णि के राज्य में गोदावरी नदी की सम्पूर्ण घाटी शामिल थी।

7. दक्षिण के राज्य-सातवाहन सत्ता का पतन तीसरी सदी ई० पू० तक आरम्भ हो चुका था। उनके उतार-चढ़ाव के बाद कदम्ब वंश दक्षिणी-पश्चिमी दक्कन में शक्तिशाली बन गया। इधर पल्लवों ने सातवाहनों के दक्षिणी-पूर्वी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। पल्लव राजाओं की राजधानी कांचीपुरम थी। यह बौद्ध, जैन, आजीविका तथा ब्राह्मणिक विद्या के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुई। पल्लव वंश का शासन छठी सदी ई० तक रहा।

इस समय वाकाटक वंश भी बड़ा शक्तिशाली हुआ। यह राज्य आधुनिक बरार और मध्य प्रदेश में तीसरी सदी ई० से छठी सदी तक रहा। कृष्णा नदी के निचले भाग में तीन मुख्य राज्य थे, जिनके अधीन कई छोटी-छोटी रियासतें भी थीं। इन तीन बड़े राज्यों पर चोल, चेर और पाण्डेय वंशी राजाओं का शासन था। कृष्णा नदी के पूर्वी तट पर चोल, पश्चिमी तट पर चेर तथा प्रायद्वीप के छोर पर पाण्डेय राजा राज्य करते थे। प्रायः ये राज्य आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। किन्तु इनमें से किसी एक के पास अन्यों का राज्य हथियाने की शक्ति न थी। इनमें चेर कभी चोलों से मिल जाते थे तो कभी पाण्डेयों से।
सच तो यह है कि इस अवधि में देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों से विभाजित था। गुप्त राजाओं ने फिर से इस देश में राजनीतिक एकता स्थापित की।

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प्रश्न 2.
गुप्त साम्राज्य के प्रशासन के सन्दर्भ में इसके उत्थान तथा विस्तार की चर्चा करें।
उत्तर-
मौर्य साम्राज्य पतन के पश्चात् भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सभी भागों में अनेक राजनीतिक परिवर्तन आए। इन सभी परिवर्तनों के मध्य चक्रवर्ती शासक के आदर्श की महत्ता बराबर बनी रही। यहां कई राजाओं ने भारत के उत्तर तथा दक्षिण में अश्वमेघ यज्ञ किये और चक्रवर्तिन होने का दावा किया। इनमें गुप्त वंश का स्थान सर्वोच्च है। इस वंश ने देश के सभी छोटे-बड़े राज्यों का अन्त कर दिया और यहां राजनीतिक एकता स्थापित की। समाज में गुप्त साम्राज्य के उत्थान, विस्तार तथा पतन की कहानी का वर्णन इस प्रकार है-

1. चन्द्रगुप्त प्रथम-लगभग 319 ई० पू० में गुप्त वंश के शासक चन्द्रगुप्त ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। वह गुप्त वंश का तीसरा शासक था। इस राजवंश के संस्थापक आरम्भ में सम्भवतः धनी ज़मींदार थे। परन्तु चन्द्रगुप्त ने अपनी वीरता के कारण अपना स्तर उन्नत किया। उसकी 335 ई० में मृत्यु हो गई। तब चन्द्रगुप्त का राज्य बिहार के कुछ भागों में और पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित था। यह लगभग वही प्रदेश था जिस पर 600 वर्ष पहले कभी अजातशत्रु शासन किया करता था।

2. चन्द्रगुप्त-मगध के गुप्त राज्य को साम्राज्य में परिणित करने वाला गुप्त शासक समुद्रगुप्त था। उसने 335 ई० से 375 ई० तक शासन किया। इलाहाबाद प्रशस्ति के अनुसार उसने उत्तर में चार राज्यों को जीता। पूर्व और दक्षिण के कई राजा उसकी प्रभुता मानते थे। राजस्थान के नौ गणराज्यों को उसे नज़राना देना पड़ा। भारत के मध्य भाग और दक्कन के कबायली राजाओं और आसाम तथा नेपाल के शासकों ने भी चन्द्रगुप्त को नज़राना दिया। समुद्रगुप्त अपने दक्षिणी अभियान से पूर्वी तट पर स्थित पल्लव राज्य की राजधानी कांचीपुरम तक गया। यह आधुनिक मद्रास (चेन्नई) के निकट है। समुद्रगुप्त ने एक शक राजा और लंका के राजा से भी नज़राना लिया। सच तो यह है कि उसने गुप्त साम्राज्य का खूब विस्तार किया। उसका गंगा के लगभग सारे मैदान पर सीधा अधिकार था तथा राजस्थान के कबीले उसको नज़राना देते थे। इस प्रकार समुद्रगुप्त को गुप्त साम्राज्य का संस्थापक समझा जा सकता है। वह कला का संरक्षक भी माना जाता है।

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3. चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य-समुद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय गद्दी पर बैठा। उसने भी चालीस वर्ष (375415 ई०) तक राज्य किया। उसका सबसे बड़ा युद्ध शकों के विरुद्ध था। यह 388 ई० से 410 ई० तक चलता रहा। बीस वर्षों के लम्बे युद्ध के अन्त में शकों की पराजय हुई। पूरा पश्चिमी भारत अब गुप्त साम्राज्य में मिल गया। चन्द्रगुप्त ने वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर वाकाटक राज्यवंश से राजनीतिक सन्धि की। जब रुद्रसेन की 390 ई० में मृत्यु हुई तो राज्य की देखभाल रानी के हाथ में आ गई। वह लगभग 410 ई० तक राज्य करती रही। इन वर्षों में वाकाटक राज्य एक तरह से गुप्त साम्राज्य का ही अंग बना रहा। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य’ अर्थात् ‘वीरता का सूर्य’ की उपाधि धारण की। अपने बल एवं वीरता के दृश्यों को उसने अपने सिक्कों पर भी अंकित किया।

प्रश्न 3.
गुप्तकाल के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन पर लेख लिखें।
उत्तर-
गुप्तकालीन समाज एक निखरा हुआ रूप लिए हुआ था। भारतीय जीवन का प्रत्येक पक्ष उन्नति की चरम सीमा पर था। व्यापार काफ़ी उन्नत था। उद्योग विकसित थे। लोग समृद्ध तथा धन-धान्य से परिपूर्ण थे। अधिक धन ने वेशभूषा, खान-पान तथा अन्य सामाजिक पहलुओं को प्रभावित किया। हिन्दू धर्म का समुद्र फिर ठाठे मारने लगा। ऐसा लगता था मानो बौद्ध धर्म इसी समुद्र में डूब रहा हो। इतना होने पर भी बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए थे। वास्तव में यह धार्मिक सहनशीलता का युग था। यदि गुप्त समाज को एक आदर्श समाज कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गुप्तकाल के समाज की पूरी झांकी इस प्रकार है-

I. सामाजिक जीवन –

गुप्तकाल के शिलालेख तथा मुद्रायें इस काल की सामाजिक व्यवस्था पर काफ़ी प्रभाव डालते हैं। गुप्तकाल की सामाजिक अवस्था का वर्णन इस प्रकार है

i) वस्त्र और भोजन-गुप्तकालीन सिक्कों पर बने चित्रों को देख कर कहा जा सकता है कि लोग गर्मियों में धोती और उत्तरीय (चादर) तथा सर्दियों में पायजामा और कोट पहनते थे। स्त्रियां चोली और साड़ी का प्रयोग करती थीं। विशेष अवसरों पर लोग रेशमी वस्त्र पहना करते थे। बालियां, चूड़ियां, हार, अंगूठियां तथा कड़े आदि आभूषणों का बड़े चाव से प्रयोग होता था। लोगों का जीवन सादा था। मांस का अधिक प्रयोग नहीं होता था।

ii) स्त्रियों का स्थान-इस काल में स्त्रियां शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं तथा गायन विद्या सीख सकती थीं। लड़कियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता था। विधवा विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी। परन्तु सती प्रथा का प्रचलन अधिक नहीं था। बहुत कम स्त्रियां सती हुआ करती थीं।

iii) जाति-प्रथा-इस काल में जाति-प्रथा के बन्धन कठोर नहीं थे। किसी भी जाति का व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कोई भी व्यवसाय अपना सकता था। शूद्रों से बड़ा अच्छा व्यवहार किया जाता था।

iv) आमोद-प्रमोद-इस काल में लोग शतरंज तथा चौपड़ खेलते थे। वे रथ-दौड़ों में भी भाग लिया करते थे। शिकार खेलना, नाटक, संगीत तथा तमाशे आदि आमोद-प्रमोद के अन्य साधन थे।

II. आर्थिक जीवन–

गुप्त शासकों ने प्रजा के प्रति बड़ी उदार नीति अपनाई। देश में चारों ओर शान्ति थी। शान्त वातावरण पाकर देश में कृषि, उद्योग, व्यापार आदि में असाधारण उन्नति हुई। परिणामस्वरूप देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। संक्षेप में, गुप्त काल में लोगों की आर्थिक दशा का वर्णन इस प्रकार है-

1. कृषि-गुप्त काल में अधिकतर लोग कृषि का व्यवसाय अपनाये हुए थे। वे चावल, गेहूं, जौ, मटर, तेल निकालने के बीजों, विभिन्न सब्जियों, जड़ी-बूटियों आदि की कृषि करते थे। इन सभी उपजों का वर्णन हमें ‘अमरकोष’ तथा ‘वृहत् संहिता’ से उपलब्ध होता है। भूमि समस्त परिवार की सांझी सम्पत्ति मानी जाती थी। ग्राम-पंचायत की आज्ञा के बिना भूमि बेची नहीं जा सकती थी। सिंचाई के लिए कृषक वर्षा पर निर्भर रहते थे। वैसे सरकार की ओर से नहरों और झीलों आदि का समुचित प्रबन्ध किया गया था। स्कन्दगुप्त के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र ने सुदर्शन झील की मुरम्मत करवाई थी। गुप्त सम्राटों ने कृषि के विकास में बड़ा उत्साह दिखाया था।

2. उद्योग-धन्धे-गुप्तकालीन उद्योग-धन्धे भी काफ़ी विकसित थे। यूनसांग के अनुसार, “सातवीं शताब्दी में लोग रेशम, मलमल, लिनन और ऊन का प्रयोग करते थे। बाण ने भी लिनन से बुने हुए रेशम आदि का उल्लेख किया है। राज्यश्री के विवाह में क्षौम, दुकूल तथा ललातंतु के बने हुए वस्त्रों का प्रदर्शन किया गया था। कपड़ा उद्योग बंगाल, बनारस तथा मथुरा में केन्द्रित था। .. हाथी दांत का काम भी जोरों पर था। हाथी दांत की अनेक चीजें बनती थीं। हाथी दांत का फर्नीचर तथा मुद्राओं में भी प्रयोग किया जाता था। सोना, चांदी, सीसा, तांबा तथा कांसा आदि से सम्बन्धित व्यवसाय भी प्रचलित थे। लोहे की ढलाई की जाती थी। महरौली का स्तम्भ इस उद्योग की शान का सबसे सुन्दर नमूना है। महात्मा बुद्ध की तांबे की मूर्ति भागलपुर के पास सुल्तानगंज में मिली है। यह भारतीय कारीगरी का प्राचीन गौरव है।

3. व्यापार-गुप्त काल में व्यापार की दशा उन्नत थी। व्यापार सड़कों तथा नदियों द्वारा होता था। देश के मुख्य नगर अर्थात् भड़ौच, उज्जयिनी, पैठन, प्रयाग, विदिशा, बनारस, गया, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, कौशाम्बी, मथुरा, अहिच्छत्र और पेशावर आदि सड़कों द्वारा एक-दूसरे से मिले हुए थे। गाड़ियां, पशु तथा नावें यातायात के मुख्य साधन थे। भारतीय लोगों ने ऐसे जहाज़ भी बनाए हुए थे जिसमें 500 आदमी एक-साथ यात्रा कर सकते थे। देश में अनेक बन्दरगाहें थीं जिनके द्वारा पूर्वी द्वीपसमूह तथा पश्चिमी देशों से व्यापार होता था। गुजरात और पश्चिमी तट की प्रसिद्ध बन्दरगाहें कल्याण, चोल, भड़ौच और कैम्बे थीं। भारत से विदेशों को मणियां, मोती, सुगन्धित पदार्थ, कपड़ा, गर्म मसाले, नील, नारियल, औषधियां और हाथदांत की वस्तुएं भेजी जाती थीं। विदेशों से सोना, चांदी, तांबा, टीन, जस्ता, कपूर, रेशम, मूंगा, खजूर और घोड़े आदि आयात किए जाते थे।

4. श्रेणियां-गुप्त काल की आर्थिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता श्रेणी अथवा ‘गिल्ड प्रणाली’ थी। प्रत्येक . . व्यवसाय के लोग अपने व्यवसाय के प्रबन्ध के लिए एक संस्था बना लेते थे। व्यापारियों और साहूकारों की श्रेणियों के अतिरिक्त जुलाहों, तेलियों और संगतराशों ने भी अपनी-अपनी श्रेणियां बना ली थीं। प्रत्येक श्रेणी की एक कार्यकारिणी होती थी। वही उसका कार्य चलाती थी। वैशाली से 274 मोहरें प्राप्त हुई हैं। इन्हें प्रत्येक श्रेणी अपने पत्रों को बन्द करने में प्रयोग करती थी। श्रेणियों के अपने अलग नियम थे। इन नियमों को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त थी। श्रेणी के सभी झगड़े श्रेणी का मुखिया निपटाया करता था। इन श्रेणियों के कारण व्यापार तथा उद्योग खूब फले-फूले।

III. धार्मिक जीवन-

गुप्त काल में हिन्दू धर्म पुनः लोकप्रिय हुआ। डॉ० कीथ (Dr. Keith) ने इस विषय में इस प्रकार लिखा है-“The Gupta empire signified revival of Brahmanism and Hinduism.” गुप्त शासक स्वयं भी हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। उनके शासन काल में ‘विष्णु’ तथा ‘सूर्य’ की उपासना की जाने लगी। इनकी मूर्तियां बनाकर मन्दिरों में रखी जाती थीं। देश में फिर से यज्ञ आदि भी होने लगे। यद्यपि गुप्त सम्राट् हिन्दू धर्म के अनुयायी थे तो भी वे हठधर्मी नहीं कहे जा सकते। इस काल में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म भी लोकप्रिय थे। गुप्त राजा इन धर्मों को भी आर्थिक सहायता देते थे। अफगानिस्तान, कश्मीर और पंजाब में बौद्ध धर्म अत्यन्त लोकप्रिय था। जैन धर्म की दो सभाएं इसी काल में हुईं।

सच तो यह है कि गुप्तकाल में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई। गुप्तकाल का समाज एक आदर्श समाज था। व्यापार तथा अन्य उद्योग-धन्धे विकसित थे। फलस्वरूप लोगों का जीवन-स्तर ऊंचा था। धर्म के क्षेत्र में भी कुछ नवीन विचारधाराओं का उदय हुआ। गुप्त कालीन समाज निःसन्देह प्रत्येक क्षेत्र में समृद्ध था।

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प्रश्न 4.
गुप्त काल में कला, साहित्य, विज्ञान तथा तकनॉलोजी की उन्नति की चर्चा करें।
उत्तर-
गुप्तकाल का भारत के प्रचीन इतिहास में विशेष स्थान है। विद्वानों ने इसे ‘स्वर्ण काल’ का नाम दिया है। इस काल में अनेक मन्दिर तथा गुफाओं का निर्माण हुआ। उन दिनों कालिदास जैसे महान् साहित्यकार पैदा हुए। विज्ञान तथा तकनॉलोजी के क्षेत्र में भी भारत ने खूब उन्नति की। इन सब सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

I. कला के क्षेत्र में विकास–

1. भवन निर्माण कला तथा मूर्तिकला-गुप्त सम्राटों को भवन निर्माण कला से विशेष लगाव था। उन्होंने अपने राज्य में अनेक आकर्षक मन्दिर बनवाए। भूमरा का शिव मन्दिर, देवगढ़ का मन्दिर तथा भितरी गांव का मन्दिर देखने योग्य हैं। मन्दिरों के अतिरिक्त गुप्त काल की गुफाएं भी उस समय की श्रेष्ठ भवन निर्माण कला की प्रतीक हैं। मध्यप्रदेश में भीलसा के निकट उदयगिरी का गुफा-मन्दिर भी कला का उच्च नमूना प्रस्तुत करता है। गुप्तकालीन मठों में सांची और गया में स्थित मठ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

गुप्त काल में भवन निर्माण कला के साथ-साथ मूर्ति कला ने खूब उन्नति की। गुप्तकाल में सबसे अधिक मूर्तियां महात्मा बुद्ध तथा बौधिसत्वों की बनीं। इनमें से कुछ मूर्तियां मथुरा तथा सारनाथ से प्राप्त हुई हैं। बुद्ध की ये मूर्तियां गुप्त कालीन शिल्पकला के सौन्दर्य का प्रतीक हैं। मथुरा से प्राप्त खड़े बुद्ध की मूर्ति गुप्तकाल की शिल्प-कला का सजीव उदाहरण है। इसमें बुद्ध के धुंघराले बाल, बारीक वस्त्र तथा आकर्षक आभूषण बड़ी बारीकी से तराशे गए हैं। बुद्ध की मूर्तियों के अतिरिक्त इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य आदि देवताओं की भी अनेक सुन्दर मूर्तियां बनाई गई हैं। देवगढ़, ग्वालियर आदि स्थानों से प्राप्त मूर्तियों से हमें गुप्त काल की अनोखी शिल्प-काल के दर्शन होते हैं।

2. चित्रकला-गुप्तकाल में चित्रकला भी उन्नति की चरम सीमा को छूने लगी। गुप्तकाल की चित्र-कला के दर्शन हमें मध्य भारत में अजन्ता की गुफाओं तथा ग्वालियर में बाघ की गुफाओं में होते हैं। अजन्ता की गुफाओं पर अनेक प्रकार के चित्र चित्रित हैं। तत्कालीन चित्रकारों ने अपने चित्रों में महात्मा बुद्ध की जीवनी को बड़ी निपुणता से चित्रित किया है। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के चित्र, पशु-पक्षियों के चित्र, राजकुमारियों के रहन-सहन के चित्र तथा वृक्षों के चित्रों को बड़ी बारीकी से चित्रित किया गया है। सभी चित्रों में बड़े ही गूढ भावों को उभारा गया है। बाघ की गुफाओं के चित्र भी कला की दृष्टि से कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इनके चित्र प्रायः अजन्ता के चित्रों से मिलते-जुलते हैं।

3. संगीत-कला-विद्वानों का मत है कि गुप्त काल में संगीत-कला में भी असाधारण विकास हुआ। गुप्त सम्राटों के संगीत-प्रेम का परिचय हमें इलाहाबाद स्तम्भ लेख तथा गुप्त काल की मुद्राओं से मिलता है। इलाहाबाद स्तम्भ लेख हमें समुद्रगुप्त के महान् संगीतज्ञ होने की जानकारी देता है। इसके अतिरिक्त उनकी कुछ मुद्राएं भी प्राप्त हुई हैं। इन मुद्राओं में उसे वीणा पकड़े हुए दिखाया गया है। स्पष्ट है कि उसे संगीत-कला से अगाध प्रेम था। संगीत-कला प्रेमी सम्राट ने संगीत के विकास में अवश्य ही विशेष रूचि दिखाई होगी। इसी प्रकार स्कन्दगुप्त भी बड़ा संगीत प्रेमी था। उसके संरक्षण में संगीत उन्नति की पराकाष्ठा को छने लगा।

4. धातु-कला तथा मुद्रा-कला-गुप्त काल में धातु-कला काफ़ी विकसित थी। उस समय के उपलब्ध धातु-कला के नमूने कारीगरों की निपुणता के द्योतक हैं। नालन्दा से प्राप्त बुद्ध की तांबे की मूर्ति अत्यन्त आकर्षक है। फुट 7 1/2 ऊंची यह मूर्ति धातु-कला की दृष्टि से अपना उदाहरण आप ही है। इस प्रकार दिल्ली के निकट महरौली में स्थित गुप्त काल का लौहस्तम्भ भी इस कला का उत्कृष्ट नमूना है। इस स्तम्भ की प्रमुख विशेषता यह है कि सदियां बीतने पर भी यह स्तम्भ ज्यों का त्यों खड़ा है। इस पर आंधी, धूप, वर्षा, तूफान आदि किसी भी प्रकार की प्राकृतिक शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। गुप्त काल ने मुद्रा-कला में भी अद्भुत सफलता प्राप्त की। लगभग सभी गुप्त सम्राटों के सिक्के प्राप्त हुए हैं। सोने, चांदी तथा तांबे के बने ये सिक्के गुप्त काल की विकसित मुद्रा-कला के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यद्यपि गुप्त काल के आरम्भिक सिक्कों पर विदेशी प्रभाव झलकता है, फिर भी चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा कुमारगुप्त के सिक्के स्पष्ट रूप से भारतीयता के प्रतीक हैं।

II. साहित्य में उन्नति-

गुप्त काल में अनेक साहित्यकारों ने अपनी साहित्यिक कृतियों में गुप्तकाल की शान में वृद्धि की। कालिदास इस युग का अद्वितीय रत्न था। वह संस्कृत का महान् कवि तथा नाटककार था। उसने इतने उत्कृष्ट नाटक लिखे कि प्रशंसा में उसे भारतीय शेक्सपियर के नाम से याद किया जाता है। उसकी प्रमुख रचनाएं ये हैं-‘रघुवंश’, ‘मालविकाग्निमित्रम’, ‘ऋतु संहार’, ‘कुमारसम्भव’, ‘विक्रमोर्वशी’ आदि। ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ नाटक उसकी अमर कृति है। गुप्त काल की दूसरी महान् विभूति ‘विशाखदत्त’ था। उसकी अमर कृतियों में ‘मुद्राराक्षस’ तथा ‘देवीचन्द्रगुप्तम’ के नाम लिये जा सकते हैं। शूद्रक चौथी शताब्दी का सुप्रसिद्ध नाटककार था। उसने मृच्छकटिक नामक नाटक की रचना की। विष्णु शर्मा ने इस काल में भारत को पंचतन्त्र नामक एक अमूल्य अमर कृति दी। इस युग में पुराणों को नवीन रूप दिया गया। स्मृतियां भी इसी युग की देन हैं। कहते हैं, इस युग में ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ के संशोधित संस्करण तैयार किए गए। ईश्वर कृष्ण, वात्स्यायन तथा प्रशस्तपाद इस युग के महान् दार्शनिक थे। ईश्वर कृष्ण ने ‘सांख्यकारिका’ की रचना की। वात्स्यायन ने न्यायसूत्र पर ‘न्याय भाष्य’ की रचना की। इसी प्रकार प्रशस्तपाद ने ‘पदार्थ धर्म’ संग्रह लिखा। इनके अतिरिक्त ‘असंग’, ‘वसुबन्धु’, ‘धर्मपाल’, ‘चन्द्रकर्ति’ आदि अन्य कई दार्शनिक हुए। इस काल में समुद्रगुप्त के दरबारी हरिषेण ने इलाहाबाद प्रशस्ति लिखी जो समुद्रगुप्त की सफलताओं पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है।

III. विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति-

गुप्त काल में गणित, ज्योतिष तथा चिकित्सा विज्ञान में काफ़ी प्रगति हुई-
1. आर्यभट्ट गुप्त युग का महान् गणितज्ञ तथा ज्योतिषी था। उसने ‘आर्यभट्टीय’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यह अंकगणित, रेखागणित तथा बीजगणित के विषयों पर प्रकाश डालता है। उसने गणित को स्वतन्त्र विषय के रूप में स्वीकार करवाया। संसार को ‘बिन्दु’ का सिद्धान्त भी उसी ने दिया। आर्यभट्ट पहला व्यक्ति था जिसने यह घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उसने सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के वास्तविक कारणों पर भी प्रकाश डाला।

2. गुप्त युग का दूसरा महान् ज्योतिषी अथवा नक्षत्र-वैज्ञानिक वराहमिहिर था। उसने ‘पंच सिद्धान्तिका’, ‘बृहत् संहिता’ तथा ‘योग-यात्रा’ आदि ग्रन्थों की रचना की।

3. ब्रह्मगुप्त एक महान् ज्योतिषी तथा गणितज्ञ था। उसने न्यूटन से भी बहुत पहले गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को स्पष्ट किया।

4. वाग्यभट्ट इस युग का महान् चिकित्सक था। उसका ‘अष्टांग संग्रह’ नामक ग्रन्थ चिकित्सा जगत् के लिए अमूल्य निधि है। इसमें चरक तथा सुश्रुत नामक महान् चिकित्सकों की संहिताओं का सार दिया गया है।

5. इस काल में पाल-काव्य ने ‘हस्त्यायुर्वेद’ की रचना की। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध पशु चिकित्सा से है। लोगों को उस समय रसायनशास्त्र तथा धातु विज्ञान का भी ज्ञान था।

IV. तकनॉलाजी (तकनीकी) –

गुप्त काल में धातु-कला की तकनीकी में बड़ा विकास हुआ। उस समय के उपलब्ध धातुकला के नमने कारीगरों की निपुणता के द्योतक हैं। नालन्दा से प्राप्त बुद्ध की तांबे की मूर्ति अत्यन्त आकर्षक है। इसी प्रकार दिल्ली के निकट महरौली में स्थित गुप्त काल का लौह-स्तम्भ भी कला का उत्कृष्ट नमूना है। इस स्तम्भ की प्रमुख विशेषता यह है कि सदियां बीतने पर भी यह स्तम्भ ज्यों का त्यों खड़ा है। इस पर आंधी, धूप, वर्षा, तूफान आदि किसी प्राकृतिक शक्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। गुप्तकाल ने मुद्रा-कला में भी अद्भुत सफलता प्राप्त की। लगभग सभी गुप्त सम्राटों के सिक्के प्राप्त हुए हैं। सोने, चांदी तथा तांबे के बने ये सिक्के गुप्त काल की विकसित मुद्रा-कला के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। भारतीय इतिहास में मुद्रा-कला में वास्तविक निखार का प्रमाण हमें गुप्तकालीन सिक्कों से ही मिलता है। गुप्तकालीन सिक्कों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये पूर्णतया भारतीय रंग में रचित है। इनकी हर बात में भारतीयता झलकती है। भारतीय भाषा, भारतीय चित्र तथा भारतीय सम्वत् इन सिक्कों की मुख्य विशेषताएं हैं। यद्यपि गुप्त काल के आरम्भिक सिक्कों पर विदेशी प्रभाव झलकता है फिर भी चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा कुमारगुप्त के सिक्के स्पष्ट रूप से भारतीयता के प्रतीक हैं।

सच तो यह है कि गुप्त काल में भवन-निर्माण कला, चित्रकला, शिल्पकला, संगीत-कला, धातु-कला, मुद्रा-कला आदि सभी कलाओं में आश्चर्यजनक विकास हुआ। सुन्दर भवनों से देश अलंकृत हुआ, मूर्तियों में चेतना का संचार हुआ और भारतीय संगीत से समस्त वातावरण गूंज उठा। साहित्य का रूप निखरा । कालिदास की रचनाओं, पुराणों तथा स्मृतियों ने धार्मिक साहित्य की शोभा बढ़ाई। आर्यभट्ट, वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त ने नक्षत्र सम्बन्धी इतने महान् ग्रन्थों की रचना की कि वे आज भी वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। इस सबका श्रेय गुप्त सम्राटों को प्राप्त है।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
गुप्त वंश का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त था।

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प्रश्न 2.
भारत आने वाले पहले चीनी यात्री का नाम क्या था ?
उत्तर-
भारत आने वाले पहले चीनी यात्री का नाम फाह्यान था।

प्रश्न 3.
इलाहाबाद का स्तम्भ लेख किस गुप्त शासक के बारे में है ?
उत्तर-
समुद्रगुप्त।

प्रश्न 4.
कौन से गुप्त शासक को ‘भारतीय नैपोलियन’ कह कर पुकारा जाता है ?
उत्तर-
समुद्रगुप्त।

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प्रश्न 5.
गुप्त वंश के किस राजा द्वारा अश्वमेध यज्ञ रचाया गया था ?
उत्तर-
गुप्त वंश के राजा समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ रचाया गया था।

प्रश्न 6.
समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी का क्या नाम था ?
उत्तर-
समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी का नाम रामगुप्त था।

प्रश्न 7.
गुप्तकाल के दो सुन्दर मन्दिरों के नाम लिखो।
उत्तर-
भूमरा तथा देवगढ़ के मंदिर।

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प्रश्न 8.
गुप्तकालीन चित्रकारी के श्रेष्ठ नमूनों के कोई दो स्थान बताइये।
उत्तर-
गुप्तकाल की चित्रकारी के श्रेष्ठ नमूने अजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं में मिलते हैं।

प्रश्न 9.
गुप्तकाल का प्रसिद्ध चिकित्सक कौन था ?
उत्तर-
गुप्तकाल का प्रसिद्ध चिकित्सक चरक था।

प्रश्न 10.
गुप्तकालीन धातुकला का उत्कृष्ट नमूना कौन-सा था ?
उत्तर-
गुप्तकालीन धातुकला का उत्कृष्ट नमूना महरौली का लौह-स्तम्भ है।

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प्रश्न 11.
किस काल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है ?
उत्तर-
गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) शकुंतला नामक नाटक का लेखक ………….. था।
(ii) गुप्त शासक ………………. धर्म के अनुयायी थे।
(iii) गुप्त वंश का सबसे पराक्रमी राजा …………. था।
(iv) चीनी यात्री फाह्यान ……….. के दरबार में 6 वर्ष तक रहा।
(v) गुप्तकाल का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय …………….. था।
उत्तर-
(i) कालिदास
(ii) हिंदू
(iii) समुद्रगुप्त
(iv) चंद्रगुप्त विक्रमादित्य
(v) नालंदा।

3. सही/ग़लत कथन-

(i) तोरमाण तथा मिहिरकुल प्रसिद्ध हूण शासक थे। –(√)
(ii) श्वेताम्बर तथा दिग़म्बर बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय थे। –(×)
(iii) चंद्रगुप्त द्वितीय के समय गुजरात तथा काठियावाड़ में शक वंश का शासन था। –(√)
(iv) गुप्तकाल की राजभाषा संस्कृत थी। –(√)
(v) कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त का उत्तराधिकारी था। –(×)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न (i)
‘मेघदूत’ का लेखक कौन था ?
(A) विशाखादत्त
(B) कालिदास
(C) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
(D) हरिषेण ।
उत्तर-
(B) कालिदास

प्रश्न (ii)
गुप्तकाल का एक प्रसिद्ध नाटककार था
(A) भास
(B) भारवि
(C) बाणभट्ट
(D) वराहमिहिर ।
उत्तर-
(A) भास

प्रश्न (iii)
आर्यभट्ट था-
(A) प्रसिद्ध नाटककार
(B) विख्यात सेनापति
(C) ज्योतिष तथा गणित का विद्वान्
(D) धर्म-प्रवर्तक।
उत्तर-
(C) ज्योतिष तथा गणित का विद्वान्

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प्रश्न (iv)
दक्षिण के राजाओं को हराने वाला गुप्त शासक था-
(A) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(B) समुद्रगुप्त
(C) चन्द्रगुप्त प्रथम
(D) स्कंदगुप्त ।
उत्तर-
(B) समुद्रगुप्त

प्रश्न (v)
‘शाकारि’ की उपाधि धारण करने वाला गुप्त शासक था-
(A) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(B) समुद्रगुप्त
(C) रामगुप्त
(D) कुमार गुप्त।
उत्तर-
(A) चन्द्रगुप्त द्वितीय

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कौन-सी दो विदेशी भाषाओं में मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद के काल के बारे में बताने वाले स्रोत मिलते
उत्तर-
मौर्य साम्राज्य के पतन के काल की जानकारी के स्रोत यूनानी तथा चीनी भाषाओं में मिले हैं।

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प्रश्न 2.
शंग तथा कण्व वंशों के संस्थापकों के नाम बताओ।
उत्तर-
शुंग वंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग तथा कण्व वंश का संस्थापक वसुदेव था।

प्रश्न 3.
उत्तर-पश्चिम भारत में सबसे प्रसिद्ध यूनानी राजा तथा उसकी राजधानी का नाम बताएं।
उत्तर-
उत्तर-पश्चिम में सबसे प्रसिद्ध यूनानी राजा मिनाण्डर था। उसकी राजधानी स्यालकोट थी।

प्रश्न 4.
पहले पहलव (पार्थियन) शासक तथा उसकी राजधानी का नाम बताएं।
उत्तर-
पहला पहलव शासक गोंडोफर्नीज़ था। उसकी राजधानी तक्षशिला थी।

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प्रश्न 5.
शकों का राज्य कौन-से चार प्रदेशों पर था ?
उत्तर-
शकों का राज्य गुजरात, मालवा, मथुरा तथा पश्चिमी राजस्थान में था।

प्रश्न 6.
सबसे प्रसिद्ध शक शासक तथा उससे सम्बन्धित अभिलेख का नाम बताएं।
उत्तर-
सबसे प्रसिद्ध शक शासक का तथा इससे सम्बन्धित अभिलेख का नाम है-जूनागढ़ अभिलेख।

प्रश्न 7.
कुषाण कबीले के पहले दो शासकों के नाम बताओ।
उत्तर-
कुषाण कबीले के पहले दो शासक थे-कजुल केडफीसिज़ और विम केडफीसिज़।

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प्रश्न 8.
कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक तथा उसकी राजधानी का नाम बताएं।
उत्तर-
कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था जिसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी।

प्रश्न 9.
कुषाण काल में बौद्ध धर्म की कौन-सी सभा हुई तथा यह कहां बुलाई गई थी ?
उत्तर-
कुषाण काल में बौद्ध धर्म की चौथी सभा हुई। यह महासभा कश्मीर में बुलाई गई थी।

प्रश्न 10.
कुषाण काल में कौन-सी कला-शैली का विकास हुआ तथा यह किस धर्म से सम्बन्धित थी ?
उत्तर-
कुषाण काल में गान्धार कला-शैली का विकास हुआ। यह कला-शैली बौद्ध धर्म से सम्बंधित थी।

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प्रश्न 11.
कुषाण कला के कौन-से शासक के साथ शक सम्वत् जोड़ा जाता है और यह आज किस देश का सरकारी सम्वत् है ?
उत्तर-
शक सम्वत् कुषाण शासक कनिष्क के साथ जोड़ा जाता है। यह आज भारत का सरकारी सम्वत् है।

प्रश्न 12.
कौन-से शासक को उसके सिक्के पर धनुष, पगड़ी, कोट तथा जूतों के साथ दिखाया गया है और उसका राज्य कहां से कहां तक फैला हुआ था ?
उत्तर-
कनिष्क को उसके सिक्के पर धनुष, पगड़ी, कोट और जूतों के साथ दिखाया गया है। उसका राज्य मध्य एशिया में खुरासान से लेकर भारत में बनारस और सांची तक फैला हुआ था जिसमें पंजाब भी शामिल था।

प्रश्न 13.
कार्ली का चैत्य तथा अमरावती का स्तूप कौन-से राजवंश के समय में बनाए गए तथा इसका सबसे महत्त्वपूर्ण शासक कौन था और उसका राज्य किस प्रदेश में फैला हुआ था ?
उत्तर-
कार्ली का चैत्य तथा अमरावती का स्तूप सातवाहन राजवंश के समय में बनाए गए। इस वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक, गौतमीपुत्र शातकर्णि था जिसका राज्य पश्चिमी दक्कन में फैला हुआ था।

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प्रश्न 14.
प्राचीन दक्कन के किस राजवंश का काल रोम के साथ व्यापार के लिए प्रसिद्ध है और उसके समय में किन दो धर्मों को संरक्षण दिया गया ?
उत्तर-
प्राचीन दक्कन के सातवाहन राजवंश का काल रोम के साथ व्यापार के लिए प्रसिद्ध है। इस राजवंश के समय में वैष्णव धर्म तथा बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन दिया गया।

प्रश्न 15.
तीसरी सदी ई० में दक्षिण में उभरने वाले चार नए राज्यों के नाम बताएं।
उत्तर-
तीसरी सदी ई० में दक्षिण में उभरने वाले चार राज्य थे-कदम्ब, पल्लव, वाकाटक, चेर।

प्रश्न 16.
तीसरी सदी में कृष्णा नदी के दक्षिण में तीन मुख्य राज्य कौन से थे ?
उत्तर-
तीसरी सदी में कृष्णा नदी के दक्षिण में तीन मुख्य राज्य थे-चोल, चेर और पाण्डेय।

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प्रश्न 17.
गुप्त वंश के तीसरे शासक का नाम तथा उसने किस वंश की राजकुमारी के साथ विवाह किया था ?
उत्तर-
गुप्त वंश का तीसरा शासक चन्द्रगुप्त प्रथम था। उसने लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया था।

प्रश्न 18.
समुद्रगुप्त की विजयों के बारे में बताने वाला अभिलेख किस शासक द्वारा बनाए गए स्तम्भ पर मिलता है और यह कहां है ?
उत्तर-
समुद्रगुप्त की विजयों के बारे में वर्णन अशोक द्वारा बनाए गए स्तम्भ पर मिलता है। यह स्तम्भ इलाहाबाद में है।

प्रश्न 19.
चीनी यात्री फाह्यान कौन-से शासक के समय में भारत आया था और उसका राज्यकाल क्या था ?
उत्तर-
फाह्यान गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में भारत आया था। उसका राज्य काल 375 ई० से 415 ई० तक था।

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प्रश्न 20.
कौन-सा गुप्त शासक अपने सिक्के पर वीणा बजाता हुआ दर्शाया गया है तथा उसका राज्यकाल क्या था ?
उत्तर-
गुप्त शासक समुद्रगुप्त को अपने सिक्के पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। उसका राज्यकाल 335 ई० से 375 ई० तक था।

प्रश्न 21.
कौन-सा गुप्त शासक अपने सिक्के पर धनुषधारी के रूप में दर्शाया गया है और उसकी सबसे बड़ी विजय कौन-सी थी ?
उत्तर-
गुप्त शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को अपने सिक्के पर धनुषधारी के रूप में दर्शाया गया है। उसकी सबसे बड़ी विजय गुजरात तथा पश्चिमी मालवा के शासकों के विरुद्ध थी।

प्रश्न 22.
कौन-सी जाति के विदेशी आक्रमणकारियों ने गुप्त साम्राज्य के पतन में योगदान दिया और यह किन दो बातों में गुप्त सैनिकों से आगे थे ?
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य के पतन में हूण जाति ने योगदान दिया। हूण घुड़सवारी और तीर-अंदाज़ी में गुप्त सैनिकों से आगे थे।

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प्रश्न 23.
गुप्त साम्राज्य के सीधे प्रशासन के अधीन कौन-से क्षेत्र थे ?
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य के सीधे प्रशासन के अधीन उत्तरी बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र सम्मिलित थे।

प्रश्न 24.
गुप्त साम्राज्य के प्रान्तों के प्रशासकों के कौन-से दो नाम थे ?
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य में प्रान्तों के प्रशासकों को कुमारामात्य अथवा उपारिक महाराज कहा जाता था।

प्रश्न 25.
गुप्त काल में भारत का व्यापार कौन से चार देशों से था ?
उत्तर-
गुप्त काल में भारत का व्यापार बर्मा, चीन, रोम तथा श्रीलंका से होता था।

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प्रश्न 26.
गुप्त काल में बनाये जाने वाले कपड़े की चार किस्में बतायें।
उत्तर-
गुप्त काल में बनाये जाने वाले कपड़े की चार किस्में थीं-रेशमी, सूती, मलमल तथा लिलन।

प्रश्न 27.
मनु की लिखी हुई पुस्तक का क्या नाम है और इसमें समाज के किस वर्ग की श्रेष्ठता पर बल दिया गया है।
उत्तर-
मनु द्वारा लिखी पुस्तक का नाम मानवधर्मशास्त्र है। इसमें ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता पर बल दिया गया हैं।

प्रश्न 28.
मनु के अतिरिक्त कानून के क्षेत्र में ग्रन्थ लिखने वाले चार प्रसिद्ध विद्वानों के नाम लिखो।
उत्तर-
मनु के अतिरिक्त कानून के क्षेत्र में ग्रन्थ लिखने वाले चार प्रसिद्ध विद्वान् थे-याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति तथा कात्यायन।

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प्रश्न 29.
चिकित्सा के क्षेत्र में दो प्रसिद्ध गुप्तकालीन विद्वानों के नाम बताओ।
उत्तर-
चिकित्सा के क्षेत्र में दो प्रसिद्ध गुप्तकालीन विद्वान् थे-चरक और सुश्रुत।

प्रश्न 30.
गुप्त काल में बने लौह स्तम्भ की ऊँचाई क्या है, यह कहां है ?
उत्तर-
लौह स्तम्भ 23 फुट से भी ऊंचा है। यह दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 31.
‘हिन्द’ से क्या भाव है ?
उत्तर-
‘हिन्द’ से भाव है-अंक।

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प्रश्न 32.
वराहमिहिर की लिखी पुस्तक का नाम बताओ। यह किस क्षेत्र में लिखी गई ?
उत्तर-
वराहमिहिर की पुस्तक का नाम ‘पंच सिद्धान्तिका’ है। यह खगोल विज्ञान के क्षेत्र में लिखी गई।

प्रश्न 33.
बुद्ध की कौन-सी मूर्ति से सुन्दरता, ओज तथा दया की पूर्ण एकसारता प्रकट होती है तथा यह वर्तमान भारत के कौन-से नगर के निकट पाई गई है ?
उत्तर-
बुद्ध की सारनाथ में मिली मूर्ति में सुन्दरता, ओज तथा दया की पूर्ण एकसारता प्रकट होती है। यह वर्तमान पटना के निकट पाई गई है।

प्रश्न 34.
अवलोकितेश्वर बोधिसत्व का चित्र कहां मिला है तथा यह बौद्ध धर्म के किस सम्प्रदाय से सम्बन्धित
उत्तर-
अवलोकितेश्वर बोधिसत्व का चित्र अजन्ता की एक गुफा में मिला है। यह बौद्ध के महायान सम्प्रदाय से सम्बन्धित है।

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प्रश्न 35.
उदयगिरी में विष्णु के कौन-से अवतार की मूर्ति मिली है और यह वर्तमान भारत में किस राज्य में है ?
उत्तर-
उदयगिरी में विष्णु के वराह अवतार की मूर्ति मिली है। यह स्थान वर्तमान भारत के मध्य-प्रदेश राज्य में है।

प्रश्न 36.
संस्कृत व्याकरण में प्राचीन भारत के सबसे प्रसिद्ध दो विद्वानों के नाम बताओ।
उत्तर-
संस्कृत व्याकरण में प्राचीन भारत के सबसे प्रसिद्ध दो विद्वानों के नाम हैं-पाणिनी और पातंजलि।

प्रश्न 37.
गुप्त काल में संस्कृत कौन-से वर्ग की भाषा थी और नाटकों में कौन-से दो प्रकार के पात्र प्राकृत का प्रयोग करते थे ?
उत्तर-
गुप्त काल में संस्कृत कुलीन वर्ग की भाषा थी। नाटकों में स्त्रियां तथा समाज के निम्न वर्गों के पात्र प्राकृत का प्रयोग करते थे।

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प्रश्न 38.
पुराणों का संकलन किस काल में हुआ तथा किस काल में लिखे गये ?
उत्तर-
पुराणों का संकलन गुप्त काल में हुआ। ये भविष्य काल में लिखे गए हैं।

प्रश्न 39.
महाभारत तथा रामायण का संकल्प किस काल में हुआ तथा इनसे सम्बन्धित दो अवतार कौन थे ?
उत्तर-
महाभारत तथा रामायण का संकलन गुप्त काल में हुआ। इनसे सम्बन्धित दो अवतार क्रमशः कृष्ण तथा राम थे।

प्रश्न 40.
शद्रक के नाटक का तथा संस्कृत के गद्य साहित्य के बेहतरीन नमूने का नाम बताओ।
उत्तर-
शूद्रक का नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ था। संस्कृत के गद्य साहित्य का बेहतरीन नमूना पंचतन्त्र को माना जाता है।

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प्रश्न 41.
कालिदास से पहले के संस्कृत के दो प्रसिद्ध नाटककारों के नाम लिखो।
उत्तर-
कालिदास से पहले के संस्कृत के दो प्रसिद्ध नाटककारों के नाम थे : अश्वघोष तथा भास।

प्रश्न 42.
कालिदास की दो प्रसिद्ध रचनाओं के नाम लिखो।
उत्तर-
‘मेघदूत’ तथा ‘शाकुन्तलम्’ कालिदास की दो प्रसिद्ध रचनाएं हैं।

प्रश्न 43.
गुप्त काल में अधिकांश बौद्ध साहित्य किस भाषा में लिखा गया तथा बौद्ध धर्म से सम्बन्धित मूर्तियां किन दो स्थानों पर मिली हैं ?
उत्तर-
गुप्त काल में अधिकांश बौद्ध साहित्य पाली भाषा में लिखा गया। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित मूर्तियां सारनाथ और मथुरा में मिली हैं।

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प्रश्न 44.
गुप्त काल में दक्षिण की कौन-सी भाषा में साहित्य लिखा गया तथा इस साहित्य को क्या कहा जाता
उत्तर-
गुप्तकाल में दक्षिण की तमिल भाषा में साहित्य लिखा गया और इसे संगम (शंगम) साहित्य कहा गया।

प्रश्न 45.
गुप्त वंश के शासकों में से किस शासक को भारतीय नेपोलियन कहा गया है ?
उत्तर-
समुद्रगुप्त को।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कुषाण शासकों का भारत के इतिहास में क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
बहुत समय पहले मध्य एशिया में यू-ची नामक जाति बसी हुई थी। कुषाण इसी यू-ची जाति की एक शाखा थी। इस वंश के लोगों ने भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था। वह सम्भवतः 120 ई० में सिंहासन पर बैठा। कनिष्क ने कश्मीर, पंजाब, मथुरा तथा मगध पर विजय प्राप्त की। उसने चीन पर आक्रमण करके खोतान तथा यारकन्द को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। इस प्रकार इसका राज्य उत्तर में बुखारा से लेकर दक्षिण में यमुना नदी तक फैल गया। पूर्व में यह बनारस से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक फैल गया। कुषाण शासकों ने भारत में रह कर पूरी तरह अपना भारतीयकरण कर लिया था। कनिष्क द्वारा बौद्ध धर्म को अपनाना इस बात का बहुत बड़ा प्रमाण है।

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प्रश्न 2.
सातवाहन राजाओं का भारतीय इतिहास में क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
सातवाहन राजा दक्षिण-पश्चिम में राज्य करते थे। सम्भवत: आरम्भिक सातवाहन मौर्य साम्राज्य के अधीन कार्य करते थे। अशोक की मृत्यु के बाद इन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली। इस वंश के राजा शातकर्णि ने अपनी शक्ति का काफ़ी विस्तार किया। उसने मगध के शुंग वंश से मालवा का प्रदेश छीन लिया। ईसा की पहली शताब्दी में पश्चिम-दक्षिण पर शकों ने अधिकार कर लिया। इसलिए सातवाहन शासकों ने पूर्व के प्रदेशों को जीत कर इस हानि को पूरा किया। यह प्रदेश उनके नाम पर ही बाद में आन्ध्र प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरी शताब्दी ई० पूर्व में सातवाहन वंश से एक अन्य पराक्रमी शासक हुआ जिसका नाम गौतमीपुत्र शातकर्णि था। उसने पश्चिमी दक्षिण में शकों को बाहर निकाल दिया। ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सातवाहन राज्य में क़ाठियावाड़ से लेकर आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी तक फैल गया। सातवाहनों ने कुल मिला कर लगभग 450 वर्षों तक शासन किया। इसके बाद उनका पतन हो गया।

प्रश्न 3.
गुप्त साम्राज्य के सैनिक प्रशासन की मौर्य सैनिक प्रबन्ध के साथ तुलना करें।
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य का सैनिक प्रशासन मौर्य काल के सैनिक प्रबन्ध की भान्ति ही सुव्यवस्थित था। दोनों ही कालों में प्रधान सेनापति की सहायता घुड़सवार सेना तथा हाथी सेना के मुख्य अधिकारी करते थे। इसके अतिरिक्त दोनों ही युगों में सेना को नकद वेतन दिया जाता था। परन्तु दोनों के सैनिक प्रबन्ध में कुछ भिन्नताएं भी थीं। मौर्य शासकों के पास विशाल सेना थी। परन्तु जागीरदारी प्रथा के कारण गुप्त शासकों को युद्ध के समय अपने अधीनस्थ राजाओं की सेना पर निर्भर रहना पड़ता था। सैनिक अधिकारियों के नाम भी दोनों कालों में भिन्न-भिन्न थे। इसके अतिरिक्त मौर्य काल की भान्ति गुप्त काल में सैनिक व्यवस्था के लिए विशेष समितियां नहीं थीं।

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प्रश्न 4.
गुप्त काल में स्त्रियों की दशा कैसी थी ?
उत्तर-
गुप्त काल में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। परन्तु मौर्य काल की तुलना में स्त्री के मान और स्वतन्त्रता में कमी आ गई थी। इस काल में बाल-विवाह तथा सती प्रथा के प्रचलन से स्त्री के व्यक्तिगत विकास में बाधा पड़ी। प्रायः स्त्री से यही आशा की जाती थी कि वह घर की चारदीवारी में रह कर घरेलू जीवन ही व्यतीत करे। परिवार में उनकी स्थिति पुरुषों के अधीन थी। रामायण तथा महाभारत में उनकी पुरुषों के अधीन रहने की दशा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति में भी इस स्थिति की पुष्टि की गई है। फिर भी कुछ स्त्रियां घरेलू जीवन से हटकर स्वतन्त्र जीवन भी व्यतीत करती थीं। इनमें नर्तकियां, भिक्षुणियां तथा नाटकों में भाग लेने वाली स्त्रियां सम्मिलित थीं।

प्रश्न 5.
भारत के इतिहास में यूनानियों का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
भारत के इतिहास में यूनानियों का बहुत महत्त्व रहा है। यूनानी साम्राज्य के अधीन भारत का मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया तथा चीन से काफ़ी व्यापार होने लगा और भारतीय संस्कृति विदेशों में फैली। भारत के व्यापारियों ने मलाया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि कई देशों में उपनिवेश स्थापित किए। ये सभी देश धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति का केन्द्र बन गए। यूनानियों का भारतीय कला पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। भारतीय तथा यूनानी मूर्तिकला के सम्मिश्रण से एक नई कला शैली का जन्म हुआ। इस कला शैली को गान्धार कला शैली के नाम से पुकारा जाता है। इस कला शैली में महात्मा बुद्ध की कई सुन्दर मूर्तियां बनाई गईं। यूनानी शासक मिनांडर ने अपने राजदूत बेसनगर (विदिशा) में भेजा था। जिससे यूनानियों तथा भारतीयों का आपसी सहयोग बढ़ा।

प्रश्न 6.
भारतीय इतिहास में शकों ने क्या भूमिका निभाई ?
उत्तर-
शक लोक मध्य एशिया के एक खानाबदोश कबीले से सम्बन्धित थे। इन्हें यू-ची जाति के लोगों ने वहां से खदेड़ दिया था। पहली शताब्दी ई० पूर्व के प्रारम्भ में शकों ने यूनानियों से बैक्ट्रिया तथा उत्तर-पश्चिमी भारत की राजसत्ता छीन ली। भारत में पहला शक शासक भोज था। परन्तु गोंडोफर्नीस नामक इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक हुआ। गोंडोफर्नीस प्रथम शताब्दी पूर्व हुआ था। शक लोक उत्तर-पश्चिमी भारत में अधिक समय तक न रह सके। यहां से भी उन्हें यू-ची जाति के लोगों ने मार भगाया। यहां से वे गुजरात तथा मालवा गए तथा इन प्रदेशों को उन्होंने अपनी राजसत्ता का केन्द्र बनाया। यहां का सर्वाधिक प्रसिद्ध शक शासक रुद्रदमन था जिसने कई महत्त्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त की। जूनागढ़ से प्राप्त एक अभिलेख में उसे एक महान् शासक बताया गया है। परन्तु रुद्रदमन के उत्तराधिकारी उसकी भान्ति योग्य तथा शक्तिशाली नहीं थे। इसलिए ईस्वी की पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गुप्त शासकों ने उनकी सत्ता का अन्त कर दिया।

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प्रश्न 7.
खारवेल को प्राचीन उड़ीसा का सबसे महान् शासक क्यों समझा जाता है ?
उत्तर-
प्राचीन उड़ीसा मौर्य साम्राज्य के पूर्वी प्रान्त का एक भाग था। अशोक की मृत्यु के बाद यह प्रान्त अधिक समय तक मौर्यों के अधीन न रह सका। लगभग पहली शताब्दी ई० पूर्व में यहां के कलिंग प्रदेश का शासन खारवेल के हाथों मेंcआ गया। उसने कई सफलताएं प्राप्त की जिनका उल्लेख हाथी-गुफा अभिलेख में मिलता है। यह अभिलेख भुवनेश्वर के निकट खण्डगिरि से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि खारवेल ने कई सैन्य-अभियानों का नेतृत्व किया। उसने सबसे पहले उत्तर-पश्चिम में यूनानियों पर हमला किया तथा दक्षिण भारत में पाण्डेय राज्य की शक्ति को कुचला। उसने पश्चिम-दक्षिण के राजाओं को भी हराया तथा मगध पर अपना अधिकार कर लिया। उसकी इन सफलताओं के आधार पर ही उसे प्राचीन उड़ीसा का सबसे महान् शासक समझा जाता है।

प्रश्न 8.
ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में चोल राज्य का वर्णन करो।
उत्तर-
चोलों ने सबसे पहले पाण्डेय राज्य के उत्तर-पूर्व में पेन्नार तथा वेलूर नदियों के बीच के प्रदेश पर शासन किया। उनकी राजनीतिक सत्ता का मुख्य केन्द्र उर्युर था। चोलों का विश्वसनीय इतिहास दूसरी शताब्दी ई० में राजा कारिकाल के समय से मिलता है। उसने 100 ई० के लगभग शासन किया। उसकी सबसे बड़ी सफलता पुहार की स्थापना करना था जो बाद में कावेरीपत्तम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह कावेरी नदी पर स्थित लगभग 160 किलोमीटर लम्बा तटबन्ध था। इसे श्रीलंका से बन्दी बनाये गये 12,000 दासों के श्रम से बनाया गया। यही तटबन्ध चोल राज्य की राजधानी बना और वाणिज्य-व्यापार के केन्द्र के रूप में उभरा। चोलों के पास एक विशाल सेना भी थी। परन्तु चौथी शताब्दी ई० पू० के लगभग चेरों और पल्लवों ने उनकी शक्ति का अन्त कर दिया।

प्रश्न 9.
समुद्रगुप्त की प्रमुख सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समुद्रगुप्त गुप्त वंश का एक महान् शासक था। वह 335 ई० में राजगद्दी पर बैठा। आर्यवर्त की पहली लड़ाई में उसने तीन राजाओं के संघ को हराया। दक्षिणी भारत की विजय उसकी बहुत बड़ी सफलता मानी जाती है। वह 346 ई० में अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से चला। दक्षिण में अनेक राजाओं को रौंदता हुआ विशाल धन सम्पदा के साथ वापस लौट आया। वापसी पर उसने आर्यवर्त के नौ राजाओं के संघ को तोड़ा। तत्पश्चात् उसने अश्वमेघ यज्ञ रचाया और ‘चक्रवर्ती सम्राट्’ की उपाधि धारण की। उसकी इन विजयों के कारण उसे भारतीय नेपोलियन कह कर पुकारा जाता है। समुद्रगुप्त कला और साहित्य का भी प्रेमी था। वीणा बजाने में वह इतना निपुण था कि उसकी तुलना प्रायः नारद से की जाती है।

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प्रश्न 10.
फाह्यान द्वारा वर्णित भारतीय जीवन का वर्णन करो।
अथवा
फाह्यान कौन था ? भारत के सम्बन्ध में उसने क्या कहा है ?
उत्तर-
फाह्यान एक चीनी यात्री था। वह चन्द्रगुप्त विक्रमादिव्य के समय में बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करने और बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए भारत आया था। उसने अपने लेखों में तत्कालीन भारतीय जीवन का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वह लिखता है कि लोग सदाचारी, समृद्ध और दानी थे। वे मांस तथा नशीले पदार्थों से घृणा करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत अधिक थी। उस समय की सरकार श्रेष्ठ थी और प्रजा के हितों का पूरा ध्यान रखती थी। दण्ड अधिक कठोर नहीं थे, फिर भी लोगों को चोर-डाकुओं का कोई भय नहीं रहता था। सरकारी कर्मचारी योग्य और ईमानदार थे। पाटलिपुत्र नगर की शोभा निराली थी। यहां स्थित अशोक का महल विशेष दर्शनीय था। देश में हिन्दू धर्म लोकप्रिय था। परन्तु बौद्धधर्म की लोकप्रियता अभी कम नहीं हुई थी।

प्रश्न 11.
गुप्त काल की चित्रकला के नमूने कहां मिलते हैं और उनका क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
गुप्त काल की चित्रकला के नमूने अजन्ता की गुफाओं की दीवारों पर मिलते हैं। यहां के एक चित्र में एक राजकुमारी को मृत्यु शैय्या पर दिखाया गया है। इस चित्र में भावों को बड़े सुन्दर ढंग से उभारा गया है। चित्र देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि राजकुमारी के रोग का इलाज नहीं हो सका है और उसके सम्बन्धी अपनी लाचारी पर बहुत दुःखी हैं। एक अन्य चित्र में गौतम बुद्ध (सिद्धार्थ) को घर छोड़ते हुए दिखाया गया है। चित्र में वे पत्नी और बच्चों पर अन्तिम दृष्टि डाल रहे हैं। एक चित्र में महात्मा बुद्ध को सुजाता नामक स्त्री चावल खिला रही है। एक चित्र में माता और पुत्र दिखाए गये हैं। बच्चे के हाथ भिक्षा के लिए फैले हुए हैं। ये सभी चित्र कला की दृष्टि से बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि भारत में चित्रकला एक लम्बे समय से विकसित हो रही थी जो गुप्त काल में अपनी उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच गई।

प्रश्न 12.
गुप्त काल की मूर्तिकला का सर्वोत्तम नमूना कौन-सा है और उसकी क्या विशेषता है ?
उत्तर-
गुप्त काल में मूर्तिकला के क्षेत्र में अद्वितीय विकास हुआ। इस काल में अधिकतर महात्मा बुद्ध और बौधिसत्वों की मूर्तियां बनाई गईं। इनमें से सारनाथ में बुद्ध की मूर्ति इस कला का सर्वोत्तम नमूना है। इसमें महात्मा बुद्ध को रत्न जड़ित आसन पर बैठे दिखाया गया है। वह प्रचार करने की मुद्रा में हैं। उनके चेहरे पर बिखरी मुस्कान मूर्तिकारों की कारीगरी की उच्चता को प्रकट करती है। इस मूर्ति को देखकर यूं लगता है मानो बुद्ध विश्व कल्याण की भावना से प्रेरित होकर अपना उपदेश दे रहे हों। भारतीय शैली में बनी यह मूर्ति गान्धार शैली की मूर्तियों से कहीं अधिक सुन्दर है। इसमें बुद्ध के धुंघराले बाल,बारीक वस्त्र तथा आकर्षक आभूषणों को बड़े ही कलात्मक ढंग से दिखाया गया है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 5 गुप्त काल

प्रश्न 13.
“चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर पहुंच गया।” इस कथन पर प्रकाश डालो।
अथवा
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की मुख्य उपलब्धियों पर प्रकाश डालो।
उत्तर-
चन्द्रगुप्त द्वितीय समुद्रगुप्त का वीर पुत्र था। वह 375 ई० में राजगद्दी पर बैठा। उसने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाया और अनेक विजयें प्राप्त की। सबसे पहले उसने बंगाल को जीता और फिर वहलीक जाति और अवन्ति गणराज्य पर विजय प्राप्त की। उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता मालवा, काठियावाड़ और गुजरात की विजय थी। यहां के शक राजाओं को पराजित करके ही उसने ‘विक्रमादित्य’ अर्थात् वीरता का सूर्य की उपाधि धारण की। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में कला और साहित्य का भी बड़ा विकास हुआ। संस्कृत का महान् कवि कालिदास उसी के समय में ही हुआ था। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में शासन-प्रबन्ध बड़ी कुशलता से चलता था। जनता हर प्रकार से सुखी और समृद्ध थी। अतः हम कह सकते हैं कि उसके समय में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर पहुंच गया।

प्रश्न 14.
5वीं शताब्दी में भारत पर हूणों के आक्रमण के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
पांचवीं शताब्दी में भारत पर हूण आक्रमणों के ये परिणाम निकले :

  • इन आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य का अन्त हो गया। स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारी बड़े अयोग्य थे, इसलिए वे हूणों का सामना न कर पाये। परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर रह गया।
  • भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई और देश छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया।
  • हूणों ने बहुत से ऐतिहासिक भवन नष्ट कर डाले तथा अमूल्य पुस्तकों को जलाकर राख कर दिया। इस प्रकार उन्होंने बहुत से ऐतिहासिक स्रोतों को नष्ट कर दिया।
  • अनेक हूण भारत में ही बस गये। उन्होंने भारतीय स्त्रियों से विवाह कर लिये और हिन्दू समाज में अपनी जातियाँ बना लीं। इस प्रकार भारत में नई जातियों तथा उपजातियों का जन्म हुआ।

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प्रश्न 15.
आर्यभट्ट का खगोल विज्ञान में क्या योगदान था ?
उत्तर-
आर्यभट्ट गुप्त काल का एक महान् वैज्ञानिक एवं खगोलशास्त्री था। उसने अपनी नवीन खोजों द्वारा खगोलशास्त्र को काफ़ी समृद्ध बनाया। ‘आर्य भट्टीय’ उसका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उसने यह सिद्ध किया कि सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण, राहू और केतू नामक राक्षसों के कारण नहीं लगते बल्कि जब चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच में आ जाता है तो चन्द्रग्रहण होता है। आर्यभट्ट ने स्पष्ट रूप में यह लिख दिया था कि सूर्य नहीं घूमता बल्कि पृथ्वी ही अपनी धुरी के चारों ओर घूमती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि खगोल विज्ञान में आर्यभट्ट ने महान् योगदान दिया।

प्रश्न 16.
‘षटशास्त्र’ के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुप्त काल में ब्राह्मणों ने उपनिषदों के गूढ़ विचारों की व्याख्या के लिए दर्शन की छः प्रणालियों का विकास किया। यही छः प्रणालियां ‘षट्शास्त्र’ अथवा षट्दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये प्रणालियां हैं

(क) कपिल का सांख्य दर्शन-इसके अनुसार प्रकृति और आत्मा अमर है। इसे नास्तिक दर्शन भी माना जा सकता है क्योंकि इसमें पदार्थ और आत्मा के दोहरे अस्तित्व को स्वीकार किया गया है।

(ख) पातंजलि का योग दर्शन-पातंजलि के विचार में आत्मा और प्रकृति के साथ-साथ परमात्मा भी अमर है। (ग) गौतम का न्याय दर्शन-इस दर्शन के अनुसार मनुष्य ज्ञान द्वारा परमात्मा को पा सकता है।

(घ) कणाद का वैशेषिक दर्शन-इसमें कणाद लिखता है कि संसार की रचना अदृश्य अणु शक्तियों के मेल से हुई है।
(ङ) जैमिनी का पूर्व मीसांसा दर्शन-इस दर्शन में वेद में बताई गई धार्मिक क्रियाओं को अपनाने पर अधिक बल दिया गया है।
(च) व्यास का उत्तर मीसांसा दर्शन-इस दर्शन में व्यास जी कहते हैं कि प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में परमात्मा का हाथ है। ईश्वर के अतिरिक्त सब कुछ मिथ्या है।

प्रश्न 17.
भारत का दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध था ?
उत्तर-
भारत के दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के साथ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। इन देशों में भारतीय संस्कृति का प्रभाव भारतीय व्यापारियों तथा धर्म प्रचारकों द्वारा पहुंचा। फलस्वरूप कुछ देशों में बौद्ध धर्म और कुछ में ब्राह्मण धर्म अत्यन्त लोकप्रिय हुए। भारतीय व्यापारियों की सहायता से विशेष रूप से थाईलैण्ड, कम्बोडिया और जावा में कई छोटी बस्तियों का विकास हुआ। समय पाकर इन देशों में ब्राह्मणीय संस्कार और रिवाज बौद्ध मत से भी अधिक प्रचलित हो गए। राजकाज की भाषा के रूप में संस्कृत का प्रयोग होने लगा। थाईलैंड की प्राचीन राजधानी को रामायण की अयोध्या के नाम पर ‘अयूधिया’ कहा जाता था। इन देशों में भारतीय प्रभाव हर स्थान पर एक समान नहीं था। इसके अतिरिक्त दक्षिणी-पूर्वी एशिया के लोगों ने भारतीय संस्कृति के कुछ विशेष पहलुओं को ही अपनाया और उन्हें अपने ही ढंग से विकसित किया।

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प्रश्न 18.
कालिदास पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
कालिदास संस्कृत का श्रेष्ठ कवि तथा महान् नाटककार था। उसे प्रायः ‘भारतीय शेक्सपीयर’ कह कर पुकारा जाता है। कालिदास गुप्त काल में उत्पन्न हुआ और वह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दराबर की शोभा था। एक जनश्रुति के अनुसार उसका जन्म एक ब्राह्मण के यहां हुआ था। बचपन में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई। उसका पालन-पोषण एक ग्वाले ने किया। फिर भी वह बड़ा होकर महान् कवि तथा नाटककार बना। कालिदास की प्रसिद्ध रचनाएं ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’, ‘मेघदूत’, ‘ऋतु संहार’, ‘रघुवंश’, ‘मालविकाग्निमित्र’, ‘कुमार सम्भव’ हैं। इनमें से ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इस विषय में एक बात कही जाती है, “सभी काव्य में नाट्य कला श्रेष्ठ है, सभी नाटकों में ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ श्रेष्ठ है। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ नाटक में चौथा अंक श्रेष्ठ है और चौथे अंक में वे पंक्तियां श्रेष्ठ हैं, जब कण्व ऋषि अपनी दत्तक पुत्री शकुन्तला को विदा कर रहे हैं।”

प्रश्न 19.
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की मृत्यु के पश्चात् गुप्त साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। इस साम्राज्य के पतन के अनेक कारण थे-

  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी निर्बल थे। फलस्वरूप वे देश का शासन ठीक ढंग से न चला सके।
  • गुप्त शासकों में उत्तराधिकार का कोई नियम नहीं था। इसलिए लगभग प्रत्येक शासक की मृत्यु के पश्चात् राजगद्दी के लिए गृह-युद्ध हुआ करते थे। इन युद्धों से गुप्त साम्राज्य की शक्ति शीण होती गई।
  • निर्बल शासकों के काल में विद्रोही शक्तियों ने ज़ोर पकड़ना आरम्भ कर दिया। फलस्वरूप गुप्त वंश के पतन की प्रक्रिया तेज़ हो गई।
  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पश्चात् किसी गुप्त राजा ने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
  • बाद में गुप्त राजाओं को अनेक युद्ध लड़ने पड़े जिससे उनका राजकोष खाली हो गया। धन के अभाव में वे ठीक ढंग से शासन न कर सके।
  • इसी समय हूणों के निरन्तर आक्रमण होने लगे। गुप्त शासक उनके आक्रमणों का अधिक समय तक सामना न कर सके। फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

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IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“कनिष्क बौद्ध धर्म, कला एवं साहित्य का महान् संरक्षक था।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
बौद्ध धर्म के संरक्षक के रूप में सम्राट् कनिष्क का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
कला तथा साहित्य के विकास में कनिष्क के योगदान की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
कनिष्क कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। वह लगभग 78 ई० में राजगद्दी पर बैठा और पुरुषपुर को अपनी राजधानी बनाया। उसके समय में बौद्ध धर्म की नई शाखा ‘महायान’ का उदय हुआ। उसने इस नई शाखा का खूब प्रचार किया।

कनिष्क को कला और साहित्य से बड़ा प्रेम था। उसने अनेक विहार, मठ तथा स्तूप बनाए। प्रसिद्ध विद्वान् अश्वघोष तथा नागार्जुन उसी के समय में ही हुए थे। बौद्ध धर्म, कला तथा साहित्य के संरक्षक के रूप में कनिष्क के कार्यों का वर्णन इस प्रकार है

बौद्ध धर्म को संरक्षण कनिष्क आरम्भ में पारसी-धर्म का और फिर हिन्दू धर्म का अनुयायी रहा, परन्तु अश्वघोष के प्रभाव में आने के बाद उसने बौद्ध धर्म अपना लिया। उसने अशोक की भान्ति बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित कार्य किए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

बौद्ध धर्म को संरक्षण-

  • बौद्ध धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर करने के लिए कनिष्क ने कुण्डलवन में चौथी बौद्ध सभा बुलाई। इसमें 500 भिक्षु शामिल हुए। इसके सभापति वसुमित्र तथा उप-सभापति अश्वघोष थे। इस सभा में सारे बौद्ध साहित्य क निरीक्षण किया गया। सभा में हुए निर्णयों को ताम्रपत्रों पर लिखकर पत्थर के सन्दूकों में बन्द करवा दिया गया। इस प्रकार बौद्ध धर्म की 18 शाखाओं के आपसी मतभेद दूर हो गए।
  • कनिष्क ने विदेशों में प्रचारक भेजे। फलस्वरूप चीन, जापान, मध्य एशिया के कई देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार हुआ।
  • कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो शाखाओं में बंट गया। कनिष्क ने महायान शाखा के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। .
  • उसने बौद्ध भिक्षुओं की आर्थिक रूप में सहायता की। उसने भिक्षुओं के लिए अनेक मठ तथा विहार बनवाए।

कला तथा साहित्य का विकास-

  • कलाकृतियां-कनिष्क एक महान् निर्माता भी था। उसने चार नए नगर बसाए। ये नगर हैं-पेशावर, मथुरा, कनिष्कपुर तथा तक्षशिला। इन नगरों में बने विहार तथा मूर्तियां बड़ी ही सुन्दर हैं।
  • कला शैलियां-कनिष्क के संरक्षण में मूर्तिकला की अनेक नई शैलियां विकसित हुईं। ये मथुरा, सारनाथ, अमरावती तथा गान्धार में पनपती रहीं, परन्तु इन शैलियों का मुख्य स्रोत गान्धार कला शैली थी। इस शैली के अनुसार भारतीय विचारों तथा धर्म के अंगों को यूनानी कला में उतारा गया। इस काल में मुद्रा कला का भी विकास हुआ।
  • विद्या तथा साहित्य-कनिष्क कला-प्रेमी होने के साथ-साथ विद्या तथा साहित्य का प्रेमी भी था। अनेक विद्वान उसके दरबार की शोभा थे। अश्वघोष उसके दरबार का रत्न था। उसने ‘बुद्ध चरित्’ तथा ‘सूत्रालंकार’ की रचना की थी। नागार्जुन, चरक आदि उच्चकोटि के विद्वान् भी कनिष्क के दरबार की शोभा थे।

प्रश्न 2.
समुद्रगुप्त ने किस प्रकार अपने राज्य को विशाल तथा शक्तिशाली बनाया ?
अथवा
समुद्रगुप्त की सैनिक सफलताओं का वर्णन करो। उसे भारतीय नेपोलियन क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
समुद्रगुप्त गुप्तवंश का एक प्रतापी राजा था। वह विद्वान्, संगीतज्ञ, कला प्रेमी और प्रजा हितकारी शासक था। उसने सैनिक के रूप में बहुत अधिक यश पाया। उसकी सफलताओं का महत्त्वपूर्ण विवरण हमें इलाहाबाद प्रशस्ति’ में मिलता है। उसकी प्रमुख सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. उत्तरी भारत की विजय-समुद्रगुप्त ने सबसे पहले आर्यावर्त की पहली लड़ाई में अच्युत, नागसेन तथा गणपति नाग नामक राजाओं को परास्त किया। नागसेन और गणपति नाग ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए उत्तरी भारत के अन्य सात राजाओं के साथ मिलकर एक संघ बना लिया। समुद्रगुप्त उस समय दक्षिण विजय के लिए गया हुआ था। उसने लौट कर इन सभी राजाओं को बुरी तरह पराजित किया।

2. दक्षिण भारत की विजय-समुद्रगुप्त ने दक्षिणी भारत के राजाओं को पराजित किया। इनमें से सबसे पहले उसने दक्षिणी कोशल के राजा पर विजय प्राप्त की। इसी बीच दक्षिण के कई राजाओं ने मिलकर एक संघ बना लिया। कांची नरेश विष्णुगोप इस संघ का नेता था। समुद्रगुप्त ने इस संघ से टक्कर ली और इसे पराजित किया। समुद्रगुप्त ने पालघाट, महाराष्ट्र और खान देश आदि राजाओं को भी परास्त किया। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिणी भारत के किसी भी राज्य को अपने साम्राज्य में शामिल नहीं किया। वह इन राज्यों से केवल कर प्राप्त करता रहा।

3. अन्य विजयें-समुद्रगुप्त ने कई सीमावर्ती राज्यों जैसे समतट, कामरूप, कर्तृपुर और नेपाल आदि पर भी विजय प्राप्त की। इन राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। कई जातियों ने समुद्रगुप्त से युद्ध किए बिना ही उसकी अधीनता स्वीकार ली। ये जातियां थीं-मालव, आभीर, यौद्धेय, शूद्रक और अर्जुनायन।

समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन क्यों ?- समुद्रगुप्त की महान् विजयों के कारण इतिहासकार उसे भारतीय नेपोलियन का नाम देते हैं। वह नेपोलियन की भान्ति एक पराक्रमी विजेता था। जिस प्रकार नेपोलियन ने अपनी सैनिक शक्ति से समस्त यूरोप को भयभीत कर दिया था उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने सैनिक अभियानों से लगभग सारे भारत में अपना दबदबा बैठा लिया था। अपने विजयी जीवन में उसे न कभी ‘ट्राफाल्गार’ तथा ‘वाटरलू’ जैसी पराजय का सामना करना पड़ा और न ही उसे आजीवन कारावास का दण्ड मिला। समुद्रगुप्त के महान् कार्यों को देखते हए डॉ० वी० ए० स्मिथ ने ठीक ही कहा है, “समुद्रगुप्त वास्तव में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति था जो भारतीय नेपोलियन कहलाने का अधिकारी है।”

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प्रश्न 3.
समुद्रगुप्त की सांस्कृतिक (कला एवं साहित्य संबंधी) सफलताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
(i) कला-प्रेमी-समुद्रगुप्त एक महान् कला-प्रेमी था। योद्धा होते हुए भी उसकी कोमल प्रवृत्तियां सुरक्षित रहीं। उसे संगीत से विशेष लगाव था। अपनी मुद्राओं पर वह वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। इससे सिद्ध होता है कि वह वीणावादन में भी प्रवीण था। उसके प्रसिद्ध दरबारी कवि हरिषेण के वाक्यों में “वह संगीत-कला में नारद तथा तुम्बरु को भी लज्जित करता था।” उसकी मुद्राएं उसकी कलाप्रियता का प्रमाण हैं। ये मुद्राएं सोने की थीं। इस पर राजा के अतिरिक्त हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र अंकित थे। इतनी आकर्षक मुद्राएं बनाने का श्रेय समुद्रगुप्त को ही जाता है।

(ii) साहित्य प्रेमी-समुद्रगुप्त विद्वानों का आश्रयदाता था। वह उच्च कोटि का कवि तथा साहित्यकार था और उसे कविराज की उपाधि प्राप्त थी। अनेक विद्वान् उसके दरबार की शोभा थे। हरिषेण उसके समय का एक महान् विद्वान् माना जाता था। ‘इलाहाबाद प्रशस्ति’ हरिषेण की एक प्रसिद्ध साहित्यिक रचना है जो काव्य का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। असंगत तथा वसुबन्ध भी उसके दरबार की शोभा थे। उनकी रचनाएं समुद्रगुप्त के लिए गौरव का विषय थीं।

प्रश्न 4.
चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के राज्यकाल तथा सैनिक सफलताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य समुद्रगुप्त का योग्य पुत्र था। वह 380 ई० में सिंहासन पर बैठा। सबसे पहले उसने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाया। उसने स्वयं नाग वंश की राजकुमारी कुबेरनाग से विवाह किया। अपनी कन्या का विवाह उसने रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया। इस सम्बन्ध के कारण ही वह गुजरात तथा सौराष्ट्र के शक राजाओं को पराजित करने में सफल हो सका।
विजयें-चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

  • बंगाल विजय-चन्द्रगुप्त ने सबसे पहले बंगाल के विद्रोही राजाओं को हराया और बंगाल को अपने राज्य में मिला लिया।
  • अवन्ति की विजय-चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अवन्ति के गणराज्य पर भी विजय प्राप्त की। इसके अतिरिक्त उसने कुषाण गणतन्त्रों को भी हराया।
  • वाहलीक जाति पर विजय-महरौली के स्तम्भ-लेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने सिन्धु नदी के मुहानों की सातों शाखाओं को पार किया और वाहलीक जाति को हराया।
  • मालवा, गुजरात तथा काठियावाड़ की विजय-चन्द्रगुप्त द्वितीय ने इन प्रदेशों पर 388 ई० से 409 ई० के बीच के समय में विजय प्राप्त की। इस विजय के पश्चात् उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। – मालवा, गुजरात तथा काठियावाड़ की विजयों के कारण भारत में शकों की शक्ति समाप्त हो गई और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का राज्य अरब सागर तक फैल गया। .

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प्रश्न 5.
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (द्वितीय) के राज्य प्रबंध की मुख्य विशेषताएं बताओ। क्या उसने कला एवं साहित्य को भी संरक्षण दिया ?
उत्तर-
चन्द्रगुप्त द्वितीय एक उच्च कोटि का शासन-प्रबन्धक था। प्रजा की भलाई करना वह अपना कर्त्तव्य समझता था। फाह्यान ने उसके शासन-प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है। शासन की सभी शक्तियां सम्राट् के हाथ में थीं। सम्राट् को शासन कार्यों में सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् थी। मन्त्रियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्य चार प्रान्तों में बंटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त का प्रबन्ध गवर्नर के हाथ में था। प्रान्त विषयों (जिलों) में तथा विषय गांवों में बंटे हुए थे। विषय का प्रबन्ध ‘विषयपति’ तथा ग्राम का प्रबन्ध ‘ग्रामक’ करता था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा न्यायप्रिय शासक था। वह निष्पक्ष न्याय करता था। दण्ड बहुत नर्म थे। मृत्यु दण्ड किसी को नहीं दिया जाता था। फिर भी देश में शान्ति थी। सड़कें सुरक्षित थीं और चोर-डाकुओं का कोई भय नहीं था। सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/3 भाग होता था। सरकारी कर्मचारियों को नकद वेतन दिया जाता था। वे बहुत ईमानदार थे और प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार करते थे।

कला और साहित्य को संरक्षण-अपने पिता समुद्रगुप्त की तरह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी कला और साहित्य का प्रेमी था। उसके अधीन सभी प्रकार की कलाओं और साहित्य ने बड़ी उन्नति की। उसके शासन में महात्मा बुद्ध तथा अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की सुन्दर मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां कला की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। उसके शासन काल में अनेक शानदार मन्दिरों का निर्माण भी हुआ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय एक उच्च कोटि का विद्वान् था और वह विद्वानों का बड़ा आदर करता था। उसके समय में संस्कृत भाषा और संस्कृत साहित्य का बड़ा विकास हुआ। संस्कृत का सबसे प्रसिद्ध कवि कालिदास उसी के समय में हुआ था। उसने मेघदूत, रघुवंश आदि उच्च कोटि के संस्कृत ग्रन्थों की रचना की थी।

प्रश्न 6.
गुप्त काल में भारत की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा का वर्णन करो।
उत्तर-
गुप्त काल में भारत की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा का वर्णन इस प्रकार है-

1. सामाजिक दशा-इस काल में लोग बड़ा सादा और पवित्र भोजन करते थे। मांस तथा शराब का प्रयोग नहीं किया जाता था। लोग लहसुन तक नहीं खाते थे। वे गर्मियों में धोती तथा चद्दर और सर्दियों में पायजमा तथा कोट पहनते थे। स्त्रियां चोली और साड़ी का प्रयोग करती थीं। विशेष अवसरों पर लोग रेशमी कपड़े पहना करते थे। स्त्रियों और पुरुषों दोनों को आभूषण पहनने का बड़ा शौक था। वे बालियां, चूड़ियां, हार, अंगूठियां तथा कड़े आदि पहनते थे। स्त्रियों की दशा काफ़ी अच्छी थी। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने और संगीत सीखने की पूरी स्वतन्त्रता थी। जाति-प्रथा के बन्धन कठोर नहीं थे। किसी भी जाति का व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कोई भी व्यवसाय अपना सकता था। लोग अपना मन बहलाने के लिए शतरंज तथा चौपड़ खेलते थे। कभी-कभी वे रथदौड़ों में भी भाग लिया करते थे। शिकार खेलने, नाटक तथा तमाशे देखना उनके मनोरंजन के अन्य साधन थे।

2. धार्मिक दशा-गुप्त काल में हिन्दू धर्म फिर से लोकप्रिय हुआ। गुप्त शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। इस काल में हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं जैसे ‘विष्ण’, ‘शिव’ तथा ‘सर्य’ की उपासना की जाने लगी। इनकी मूर्तियां बना कर मन्दिरों में रखी जाती थीं। इस काल में यज्ञों आदि पर खूब जोर दिया जाता था। यद्यपि गुप्त सम्राट् हिन्दू धर्म के अनुयायी थे तो भी वे हठधर्मी नहीं कहे जा सकते। लोगों को कोई भी धर्म अपनाने की पूरी स्वतन्त्रता थी।

3. आर्थिक दशा-इस काल में लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। किसान गेहूँ, जौ, चावल, कपास, बाजरा आदि की कृषि करते थे। जहाज़ बनाना, कपड़ा बुनना तथा हाथी दांत का काम करना भी लोगों के व्यवसाय थे। इस काल में व्यापार भी काफ़ी उन्नत था। विदेशी व्यापार तो विशेष रूप से चमका हुआ था। अतः भारत के धन-धान्य में काफ़ी वृद्धि हुई। उस समय वस्तुओं के भाव भी कम थे। लोगों का जीवन बहुत सुखी था।

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प्रश्न 7.
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों का विवेचन करें।
अथवा
गुप्त साम्राज्य के पतन के किन्हीं पांच कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य का पतन बड़े आश्चर्य की बात है। गुप्त वंश ने समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कन्दगुप्त जैसे प्रतापी राजाओं को जन्म दिया। उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार भी किया और कुशल प्रबन्ध की व्यवस्था भी की। फिर भी इस वंश का पतन हो गया। वास्तव में बाद के गुप्त राजा इस महान् साम्राज्य को सम्भालने में असमर्थ रहे। एक तो शासक कमज़ोर थे, दूसरे हूणों के आक्रमण आरम्भ हो गए। ऐसी अनेक बातों के कारण गुप्त वंश का पतन हुआ। इन सभी का वर्णन इस प्रकार है-

1. निर्बल उत्तराधिकारी-गुप्त साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण उत्तरकालीन गुप्त शासकों की निर्बलता थी। स्कन्दगुप्त के पश्चात् पुरुगुप्त, नरसिंह गुप्त, बालादित्य गुप्त, बुद्धगुप्त और भानुगुप्त आदि सभी गुप्त शासक विशाल साम्राज्य को सम्भालने में असमर्थ रहे। उनमें महान् शासकों जैसे गुण नहीं थे। वे न तो महान् सैनिक ही थे और न ही महान् शासक प्रबन्धक। अतः कमज़ोर उत्तराधिकारी राज्य को सम्भालने में असफल रहे।

2. उत्तराधिकार के नियम का अभाव-गुप्त राजाओं में उत्तराधिकार का निश्चित नियम नहीं था। लगभग प्रत्येक राजा की मृत्यु के पश्चात् गृह युद्ध छिड़ते रहे। इससे राज्य की शक्ति क्षीण होती गई और उसकी मान-मर्यादा को काफ़ी ठेस पहुंची। यही बात अन्त में गुप्त साम्राज्य को ले डूबी।

3. सीमान्त नीति-चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पश्चात् किसी गुप्त राजा ने राज्य की सीमा सुरक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वहां न तो कोई दुर्ग बनवाए गए और न ही वहां सेनाएं रखी गईं। जब देश पर हूणों ने आक्रमण किए तो वे सीधे देश के भीतरी भागों में चले आए। यदि हूणों को सीमाओं पर ही खदेड़ दिया जाता तो गुप्त वंश का पतन शायद रुक जाता, परन्तु उचित सीमा व्यवस्था न होने के कारण गुप्त वंश का पतन हो गया।

4. साम्राज्य की विशालता-गुप्त साम्राज्य काफ़ी विशाल था। इतने बड़े साम्राज्य को उन दिनों सम्भालना कोई आसान कार्य नहीं था। यातायात के साधन सुलभ न थे। शक्तिशाली गुप्त शासकों ने साम्राज्य पर पूरा नियन्त्रण रखा। इसके विपरीत दुर्बल राजाओं के काल में साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

5. आन्तरिक विद्रोह-समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त की असीम सैनिक शक्ति के सामने अनेक भारतीय राजाओं ने घुटने टेक दिए थे। परन्तु बाद के गुप्त राजाओं के काल में इन शक्तियों ने फिर जोर पकड़ लिया। राज्य में अनेक विद्रोह होने लगे जिसके कारण गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न होता चला गया।

6. कमजोर आर्थिक दशा-धन सुदृढ़ शासन व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है। इतिहास साक्षी कि धन के अभाव के कारण कई साम्राज्य पतन के गड्ढे में जा गिरे। गुप्त साम्राज्य के साथ भी यही हुआ। बाद के गुप्त राजाओं को युद्धों में काफ़ी धन व्यय करना पड़ा। इससे सरकारी कोष खाली हो गया। अत: आर्थिक रूप से कमजोर राज्य एक दिन रेत की दीवार के समान गिर पड़ा।

7. हूण जातियों के आक्रमण-हूणों के आक्रमण ने भी गुप्त साम्राज्य को काफ़ी आघात पहुंचाया। इनका पहला आक्रमण स्कन्दगुप्त के काल में हुआ। उसने उन्हें बुरी तरह पराजित किया, यह आक्रमण स्कन्दगुप्त के बाद भी जारी रहे। इन आक्रमणों से साम्राज्य निर्बल हुआ और विद्रोही शक्तियों ने सिर उठाना आरम्भ कर दिया। अप्रत्यक्ष रूप से गुप्त राज्य पहले ही खोखला हो चुका था। इस पर हूणों ने बार-बार आक्रमण करने आरम्भ कर दिए। जब तक गुप्त शासकों में इसका मुकाबला करने की क्षमता थी, वे मुकाबला करते रहे। आखिर गुप्त साम्राज्य इसका प्रहार सहन न कर सका और यह पतन के गड्ढे में जा गिरा।

8. सैनिक निर्बलता-गुप्त काल समृद्धि और वैभव का युग था। सभी सैनिकों को अच्छा वेतन मिलता था। लम्बे समय तक युद्ध न होने के परिणामस्वरूप सैनिक आलसी तथा कमजोर हो गए। अतः जब देश पर आक्रमण होने आरम्भ हुए तो वे आक्रमणकारियों का सामना करने में असफल रहे। आन्तरिक विद्रोह को भी वे न कुचल सके। अत: जिस साम्राज्य की सैनिक शक्ति ही दुर्बल पड़ गई हो तो उस राज्य का पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। सच तो यह है कि साथ-साथ अनेक बातों के घटित होने के कारण गुप्त वंश का पतन हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 5 गुप्त काल

प्रश्न 8.
गुप्त काल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है ? किन्हीं पांच महत्त्वपूर्ण कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
गुप्त काल में भारत उन्नति की चरम सीमा पर था। इस युग में समाज नवीन आदर्शों में ढला। देश को राजनीतिक एकता प्राप्त हुई तथा महान् ग्रन्थों की रचना हुई। सुन्दर मन्दिरों तथा मूर्तियों ने देश की शोभा को बढ़ाया। देश के धन-धान्य में वृद्धि हुई। अतः इस युग को इतिहासकारों ने ‘स्वर्ण-युग’ का नाम दिया। संक्षेप में, गुप्त काल को अग्रलिखित कारणों से प्राचीन भारत का ‘स्वर्ण-युग’ कहा जाता है-

1. राजनीतिक एकता–मौर्यवंश के बाद देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया था। शक, कुषाण आदि विदेशी जातियों ने भारत के अधिकांश भागों पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु चौथी शताब्दी में गुप्त शासकों ने भारत को इन विदेशी शक्तियों से मुक्त कराया और देश में राजनीतिक एकता की स्थापना की।

2. आदर्श शासन-समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे महान् गुप्त राजाओं ने देश में एक आदर्श शासन स्थापित किया। वे प्रजा के सुख का ध्यान रखते थे। देश में चारों ओर शान्ति, सुख और समृद्धि थी।

3. आदर्श समाज-गुप्त कालीन समाज एक आदर्श समाज था। लोगों का नैतिक जीवन बहुत ऊंचा था। चोरी का चिन्ह मात्र नहीं था। लोग दयालु थे और किसी भी प्राणी की हत्या नहीं करते थे। मांस और मदिरा का तो कहना ही क्या, वे प्याज और लहसुन भी नहीं खाते थे।

4. हिन्दू धर्म की उन्नति-गुप्त काल में हिन्दू धर्म ने विशेष उन्नति की। गुप्तवंश के शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे तथा विष्णु के उपासक थे। उन्होंने देश में हिन्दू मन्दिरों की स्थापना करवाई और अपने सिक्कों पर गरुड़, कमल, यक्ष आदि के चित्र अंकित करवाये।

5. धार्मिक सहनशीलता-गुप्त काल धार्मिक सहनशीलता का युग था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि गुप्त शासक हिन्दू धर्म में विश्वास रखते थे, परन्तु उन्होंने लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की हुई थी। वे हिन्दू धर्म के साथ साथ अन्य धर्मों का मान करते थे और उन्हें आर्थिक सहायता देते थे।

6. शिक्षा और साहित्य में उन्नति-गुप्त काल में नालन्दा, कन्नौज, तक्षशिला, उज्जैन तथा वल्लभी के विश्वविद्यालय शिक्षा के विख्यात केन्द्र थे। इन विश्वविद्यालयों में हजारों छात्र निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। इस काल में साहित्य की बड़ी उन्नति हुई। महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’, ‘मेघदूत’ एवं ‘रघुवंश’ आदि विश्वविख्यात ग्रन्थों की रचना इसी काल में की।

7. संस्कृत भाषा की उन्नति-गुप्त सम्राटों ने संस्कृत भाषा के उत्थान में बड़ा योगदान दिया। चन्द्रगुप्त द्वितीय स्वयं संस्कृत का एक प्रकाण्ड पण्डित था। अनेक विद्वानों ने अपनी पुस्तकें संस्कृत भाषा में लिखीं।

8. ललित कलाओं की उन्नति-गुप्त काल में बनी अजन्ता की गुफाएं चित्रकला का सुन्दर नमूना है। भगवान् बुद्ध और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा भूमरा का शिव मन्दिर उस समय की उन्नत कलाओं के अनूठे उदाहरण हैं।
इन बातों से स्पष्ट होता है कि गुप्त काल वास्तव में ही भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग था।

PSEB 11th Class Economics Solutions Chapter 29 पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति

Punjab State Board PSEB 11th Class Economics Book Solutions Chapter 29 पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Economics Chapter 29 पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति

PSEB 11th Class Economics पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
पंजाब सरकार की आय के मुख्य कर साधन कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-
पंजाब सरकार की आय के मुख्य साधनों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है कर साधन-इन साधनों में बिक्री कर, उत्पादन कर, भूमि लगान, स्टैम्प ड्यूटी तथा रजिस्ट्री, मोटर गाड़ियों पर कर, विद्युत् कर, यात्रा कर इत्यादि शामिल किए जाते हैं।

प्रश्न 2.
पंजाब सरकार के विकासवादी व्यय की दो मुख्य मदों का वर्णन करें।
उत्तर-
कृषि (Agriculture)-कृषि, सहकारिता तथा पशुपालन की उन्नति के लिए सरकार व्यय करती है। वर्ष 2020-21 में इस मद पर ₹ 13267 करोड़ व्यय होने का अनुमान लगाया गया।

प्रश्न 3.
पंजाब सरकार के गैर-विकासवादी व्यय की मदों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्य प्रबन्ध (Administration)-पंजाब सरकार को राज्य प्रबन्ध, पुलिस तथा शान्ति स्थापित करने के लिए व्यय करना पड़ता है। वर्ष 2020-21 में इस मद पर व्यय करने के लिए ₹ 6954 करोड़ रखे गए।

PSEB 11th Class Economics Solutions Chapter 29 पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति

प्रश्न 4. पंजाब में सरकार की आय के मुख्य साधन बिक्री कर, उत्पादन कर, भूमि लगान, स्टैम्प ड्यूटी आदि
उत्तर-
सही।

प्रश्न 5.
पंजाब सरकार की आय व्यय से अधिक है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 6. पंजाब सरकार द्वारा विकासवादी व्यय ………. हैं।
(a) शिक्षा
(b) कृषि
(c) स्वास्थ्य
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 7.
वर्ष 2020-21 में पंजाब सरकार की कुल आय ……………. करोड़ रुपए होने का अनुमान था।
(a) 151048
(b) 152048
(c) 153048
(d) 164048
उत्तर-
(c) 153048

प्रश्न 8.
सन् 2020-21 में पंजाब सरकार का कुल व्यय ₹ ………….. करोड़ होने का अनुमान था।
(a) 152805
(b) 162805
(c) 172805
(d) 1828808
उत्तर-
(a) 152805

प्रश्न 9.
पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक है।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 10.
पंजाब सरकार को सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर कम व्यय करना चाहिए।
उत्तर-
सही।

PSEB 11th Class Economics Solutions Chapter 29 पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति

प्रश्न 11.
पंजाब सरकार की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए सुझाव दें।
उत्तर-
पंजाब को विकासवादी व्यय अधिक करना चाहिए और ग्रांटें देनी बन्द करनी चाहिए।

प्रश्न 12.
पंजाब सरकार पर 2020-21 का कुल ऋण ₹ 20 लाख करोड़ था।
उत्तर-
सही।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
पंजाब सरकार की आय के दो कर साधनों का वर्णन करें।
उत्तर-
पंजाब सरकार को करों द्वारा तथा गैर-कर साधनों द्वारा आय प्राप्त होती है। वर्ष 2020-21 में लगभग ₹ 153048 करोड़ की कुल आय प्राप्त होने का अनुमान था। पंजाब सरकार के कर साधन निम्नलिखित हैं-

  1. बिक्री कर (Sale Tax)- बिक्री कर पंजाब सरकार की आय का मुख्य साधन है। यह कर वस्तुओं तथा सेवाओं की बिक्री के समय लगाया जाता है। वर्ष 2020-21 में बिक्री द्वारा ₹ 5575 करोड़ की आय होने की सम्भावना थी।
  2. राज्य उत्पादन कर (State Excise Duty)-यह कर नशीले पदार्थों पर लगाया जाता है और 2020-21 में इस कर से ₹ 6550 करोड़ प्राप्त होने की संभावना थी।

प्रश्न 2.
पंजाब सरकार की आय के दो गैर-कर साधनों की व्याख्या करें।
उत्तर-
पंजाब सरकार को गैर-कर साधनों द्वारा भी आय प्राप्त होती है। इसके मुख्य साधन निम्नलिखित हैं-

  1. साधारण सेवाएं (General Services)-पंजाब द्वारा साधारण सेवाओं जैसे कि पुलिस, जेल, लोक सेवा से प्राप्त होती है। इस प्रकार ₹ 6754 करोड़ की आय पंजाब सरकार को प्राप्त होने की सम्भावना थी।
  2. आर्थिक विकास (Economics Services) आर्थिक सेवाओं का अर्थ सिंचाई, भूमि सुधार, पशु पालन, मछली पालन, यातायात इत्यादि सेवाओं से प्राप्त होने वाली आय से होता है। वर्ष 2020-21 में पंजाब सरकार को आर्थिक सेवाओं द्वारा ₹ 898 करोड़ की आय प्राप्त होने का अनुमान था।

प्रश्न 3.
पंजाब सरकार के दो विकास व्यय बताएं।
उत्तर-
विकास व्यय (Development Expenditure)-विकास व्यय में मुख्यतः शिक्षा, स्वास्थ्य उद्योग, सड़कें, विद्युत् इत्यादि पर व्यय को शामिल किया जाता है।

  1. शिक्षा (Education)-पंजाब सरकार द्वारा स्कूलों, कॉलेजों तथा तकनीकी संस्थाओं के संचालन पर व्यय किया जाता है। 2020-21 में पंजाब सरकार द्वारा ₹ 13037 करोड़ व्यय किए जाने का अनुमान था।
  2. स्वास्थ्य सुविधाएं (Medical Facilities)-पंजाब सरकार द्वारा स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। इसके लिए गांवों में प्राइमरी स्वास्थ्य केन्द्र, शहरों तथा कस्बों में अस्पताल स्थापित किए गए हैं। 2020-21 में स्वास्थ्य सुविधाओं पर व्यय करने के लिए ₹ 4532 करोड़ रखे गए थे।

प्रश्न 4.
पंजाब सरकार के दो गैर विकास व्यय बताएं।
उत्तर-
गैर-विकास व्यय (Non-Development Expenditure)- पंजाब सरकार को गैर-विकास व्यय जैसे कि राज्य प्रशासन, पुलिस, कर्मचारियों को वेतन तथा पेंशन देने पर काफ़ी धन व्यय करना पड़ता है। इसको गैर-विकास व्यय कहा जाता है।

  1. राज्य प्रशासन (Civil Administration)-पंजाब सरकार प्रशासन पर व्यय करती है जैसे कि पुलिस, सरकारी कर्मचारी तथा मन्त्रियों के लिए रखे गए कर्मचारियों पर काफ़ी व्यय करना पड़ता है। 2020-21 में राज्य प्रशासन पर पंजाब सरकार ने ₹ 27629 करोड़ व्यय किए।
  2. ऋण सेवाएं (Debts Services)-पंजाब सरकार द्वारा प्राप्त किए गए ऋण पर ब्याज दिया जाता है। यह ऋण केन्द्र सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक से प्राप्त किया जाता है। 2020-21 में पंजाब सरकार द्वारा ब्याज के रूप में ₹ 19075 करोड़ व्यय करने का अनुमान था।

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III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
पंजाब सरकार की आय के कर साधनों का वर्णन करें।
उत्तर-
पंजाब सरकार को करों द्वारा तथा गैर-कर साधनों द्वारा आय प्राप्त होती है। वर्ष 2017-18 में लगभग ₹ 60080 करोड़ की कुल आय प्राप्त होने का अनुमान था। पंजाब सरकार के कर साधन निम्नलिखित हैं-
1. जी० एस० टी० (G.S.T.)-बिक्री कर पंजाब सरकार की आय का मुख्य साधन है। यह कर वस्तुओं तथा सेवाओं की बिक्री के समय लगाया जाता है। वर्ष 2020-21 में बिक्री द्वारा ₹ 5578 करोड़ की आय होने की सम्भावना थी जोकि कुल आय का 39.56% भाग थी।

2. राज्य उत्पादन कर (Excise Duty)-इस कर को आबकारी कर भी कहा जाता है। यह कर नशीली वस्तुओं जैसे कि अफीम, शराब, भांग इत्यादि पर लगाया जाता है। आबकारी कर द्वारा 2020-21 में ₹ 6250 करोड़ की आय होने की सम्भावना थी जोकि कुल आय का 9.17% भाग थी।

3. केन्द्रीय करों में भाग (Share from Central Taxes)-कुछ कर केन्द्र सरकार द्वारा लगाए जाते हैं जैसे कि आय कर, उत्पादन कर, मृत्यु कर इत्यादि। इन करों में से राज्य सरकार को भाग दिया जाता है। 2020-21 में पंजाब सरकार को केन्द्रीय करों से ₹ 14021 करोड़ की आय प्राप्त होने का अनुमान था।

4. भूमि लगान (Land Revenue)-भूमि के मालिए द्वारा भी सरकार को आय प्राप्त होती है। वर्ष 2020-21 में पंजाब सरकार को इस कर द्वारा ₹ 78 करोड़ की आय होने का अनुमान था।

प्रश्न 2.
पंजाब सरकार के विकासवादी व्यय की संक्षेप व्याख्या करो।
उत्तर-
पंजाब सरकार द्वारा किए जाने वाले व्यय को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(A) विकासवादी व्यय
(B) गैर-विकासवादी व्यय।
विकासवादी व्यय की मुख्य मदें इस प्रकार हैं-
1. शिक्षा (Education)-पंजाब सरकार को शिक्षा अर्थात् स्कूल, कॉलेज तथा तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के लिए व्यय करना पड़ता है। प्राइवेट स्कूलों तथा कॉलेजों को आर्थिक सहायता दी जाती है। वर्ष 2020-21 में शिक्षा पर ₹ 13037 करोड़ व्यय होने का अनुमान था।

2. स्वास्थ्य सुविधाएं (Medical Facilities)-लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए पंजाब सरकार को व्यय करना पड़ता है। गांवों तथा शहरों में बीमार लोगों को इलाज की सुविधाएं प्रदान करने के लिए अस्पताल स्थापित किए गए हैं। वर्ष 2020-21 में स्वास्थ्य सुविधाओं पर पंजाब सरकार ने ₹ 4532 करोड़ व्यय करने के लिए रखे थे।

3. कृषि, सहकारिता तथा पशु-पालन (Agriculture, co-operation and Animal Husbandary)पंजाब सरकार द्वारा कृषि के विकास के लिए बहुत व्यय किया जाता है। किसानों को आधुनिक औज़ार, बढ़िया बीज तथा रासायनिक उर्वरक प्रदान की जाती है। वर्ष 2020-21 में पंजाब सरकार ने ₹ 13067 करोड़ कृषि के विकास पर व्यय करने के लिए रखे थे।

4. सिंचाई तथा बहुमुखी योजनाएं (Irrigation and Multipurpose Projects)-पंजाब में सिंचाई की तरफ अधिक ध्यान दिया जाता है। इसलिए पंजाब सरकार सिंचाई तथा बहुमुखी योजनाओं पर बहुत व्यय करती है। इसलिए नहरें, ट्यूबवैल, विद्युत् घरों के विकास पर काफ़ी व्यय किया जाता है। वर्ष 2020-21 में पंजाब सरकार ने ₹ 2510 करोड़ व्यय करने के लिए रखे थे।

प्रश्न 3.
पंजाब सरकार की आय के गैर-कर साधनों की व्याख्या करें।
उत्तर-
पंजाब सरकार को गैर-कर साधनों द्वारा भी आय प्राप्त होती है। इसके मुख्य साधन निम्नलिखित हैं-
1. साधारण सेवाएं (General Services)-पंजाब द्वारा साधारण सेवाओं जैसे कि पुलिस, जेल, लोक सेवा कमीशन इत्यादि से प्राप्त होती है। वर्ष 2020-21 में कुल आय का ₹ 6754 करोड़ साधारण सेवाओं से प्राप्त होने का अनुमान था।

2. आर्थिक विकास (Economics Services)-आर्थिक सेवाओं का अर्थ सिंचाई, भूमि सुधार, पशु पालन, मछली पालन, यातायात इत्यादि सेवाओं से प्राप्त होने वाली आय से होता है। वर्ष 2020-21 में पंजाब सरकार को आर्थिक सेवाओं द्वारा ₹ 898 करोड़ की आय प्राप्त होने का अनुमान था।

3. ऋण सेवाएं, लाभांश तथा लाभ (Debt Services, Dividends and Profits)-पंजाब सरकार को ऋण देने के बदले में ब्याज प्राप्त होता है। यह ऋण नगर पालिकाओं अथवा व्यक्तियों को दिया जाता है। इससे सरकार को ब्याज प्राप्त होता है। पंजाब सरकार को 2020-21 में इस मद द्वारा ₹ 5.2 करोड़ की आय प्राप्त होने की सम्भावना थी।

4. केन्द्रीय सरकार से प्राप्त सहायता (Aid from central Government) राज्य सरकार को केन्द्रीय सरकार से सहायता प्राप्त होती है जोकि योजनाओं को लागू करने पर व्यय की जाती है। पंजाब सरकार को वर्ष 2020-21 में केन्द्र सरकार से ₹ 30113 करोड़ की आय प्राप्त होने का अनुमान था।

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IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
पंजाब सरकार की आय के मुख्य साधन तथा व्यय की मदों का वर्णन करें।
(Explain the main sources of Revenue and Heads of Expenditure of the Punjab Government.)
उत्तर-
पंजाब सरकार की आय के मुख्य साधन तथा व्यय की मदों का विवरण इस प्रकार है-
आय के मुख्य साधन (Main Sources of Revenue) – पंजाब सरकार ने बजट 2020-21 के अनुसार पंजाब की कुल आय ₹ 153048 करोड़ होने का अनुमान था तथा कुल व्यय का अनुमान ₹ 154805 करोड़ था। पंजाब सरकार की आय के ढांचे (Pattern) को हम अग्रलिखित अनुसार स्पष्ट कर सकते हैं-
1. शिक्षा (Education)-पंजाब सरकार द्वारा स्कूलों, कॉलेजों तथा तकनीकी संस्थाओं के संचालन पर व्यय किया जाता है। 2020-21 में पंजाब सरकार द्वारा ₹ 13267 करोड़ व्यय किए जाने का अनुमान था।

2. स्वास्थ्य सुविधाएं (Medical Facilities)-पंजाब सरकार द्वारा स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। इसके लिए गांवों में प्राइमरी स्वास्थ्य केन्द्र, शहरों तथा कस्बों में अस्पताल स्थापित किए गए हैं। 2020-21 में स्वास्थ्य सुविधाओं पर व्यय करने के लिए ₹ 4532 करोड़ रखे गए थे।

3. कृषि तथा ग्रामीण विकास (Agriculture & Rural Development)-पंजाब का मुख्य व्यवसाय कृषि है। सरकार द्वारा कृषि के विकास के लिए व्यय किया जाता है। किसानों को आधुनिक औजार, बीज तथा रासायनिक उर्वरक प्रदान किए जाते हैं। इसके लिए 2020-21 में ₹ 6547 करोड़ व्यय का अनुमान लगाया गया तथा ग्रामीण विकास पर ₹ 678 करोड़ व्यय होने का अनुमान था।

4. सामाजिक सुरक्षा तथा कल्याण (Social Security and Welfare)-पंजाब सरकार सामाजिक सुरक्षा तथा लोगों के कल्याण के लिए भी व्यय करती है। अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों तथा निर्धन लोगों को बुढ़ापा पेंशन दी जाती है। 2020-21 में पंजाब सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा तथा कल्याण पर व्यय करने के लिए ₹ 4728 करोड़ रखे गए थे।

5. उद्योग तथा खनिज (Industries and Minerals) पंजाब सरकार छोटे तथा बड़े पैमाने के उद्योगों को सुविधाएं प्रदान करती है। इन उद्योगों को कम कीमत पर प्लाट, मशीनें, कच्चा माल तथा विद्युत् आपूर्ति की जाती है। सरकार उद्योगों के माल की बिक्री का प्रबन्ध भी करती है। 2020-21 में उद्योगों तथा खनिज पर ₹ 2473 करोड़ व्यय करने का अनुमान था।

B. गैर-विकास व्यय (Non-Development Expenditure)-पंजाब सरकार को गैर-विकास व्यय जैसे कि राज्य प्रशासन, पुलिस, कर्मचारियों को वेतन तथा पेंशन देने पर काफ़ी धन व्यय करना पड़ता है। इसको गैर-विकास व्यय कहा जाता है।
1. राज्य प्रशासन (Civil Administration) पंजाब सरकार प्रशासन पर व्यय करती है जैसे कि पुलिस, सरकारी कर्मचारी तथा मन्त्रियों के लिए रखे गए कर्मचारियों पर काफ़ी व्यय करना पड़ता है। 2020-21 में राज्य प्रशासन पर पंजाब सरकार ने ₹ 24639 करोड़ व्यय किए गए।

2. ऋण सेवाएं (Debts Services)-पंजाब सरकार द्वारा प्राप्त किए गए ऋण पर ब्याज दिया जाता है। यह ऋण केन्द्र सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक से प्राप्त किया जाता है। 2020-21 में पंजाब सरकार द्वारा ब्याज के रूप ₹ 19075 करोड़ व्यय करने का अनुमान था।

3. कर वसूली पर व्यय (Direct Demand on Revenue)-पंजाब सरकार द्वारा बहुत से कर लगाए जाते हैं जैसे कि बिक्री कर, राज्य उत्पादन कर, मनोरंजन कर इत्यादि। इन करों को एकत्रित करने के लिए सरकार को व्यय करना पड़ता है। 2020-21 में करों को एकत्रित करने के लिए ₹ 1800 करोड़ व्यय होने का अनुमान था।

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4. पेंशन तथा अन्य सेवाएं (Pension and other services)-पंजाब सरकार द्वारा पेंशन तथा अन्य सेवाएं प्रदान करने पर व्यय किया जाता है। 2020-21 में ₹ 122067 करोड़ पेंशन तथा अन्य सेवाओं पर व्यय होने का अनुमान था।