PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

PSEB 12th Class Economics धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
चिरकालीन विकास की परिभाषा दीजिए।
उत्तर-
चिरकालीन विकास वह क्रिया है, जिसमें आर्थिक विकास द्वारा न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि भविष्य की पीढ़ी की लम्बे समय तक की आवश्यकताओं की अधिकतम पूर्ति की जाती है।

प्रश्न 2.
हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय की धारणा को स्पष्ट करो।
उत्तर-
हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय – राष्ट्रीय पूंजी की घिसावट।

  • शुद्ध राष्ट्रीय आय-एक देश में निवासियों द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं, सेवाओं के बाजार मूल्य को शुद्ध राष्ट्रीय आय कहा जाता है।
  • राष्ट्रीय पूंजी की घिसावट-प्राकृतिक साधनों में कमी + वातावरण की अधोगति।

प्रश्न 3.
साधनों की सीमित उपलब्धता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
साधनों की सीमित उपलब्धता से अभिप्राय है, प्राकृतिक साधनों भूमि, जल, खनिज, जंगल इत्य, की मात्रा का आवश्यकता से कम पाया जाना। आर्थिक विकास के लिए सीमित साधनों के उचित प्रयोग के लिए चयन की समस्या उत्पन्न होती है।

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प्रश्न 4.
भारत में वनों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
सन् 2011 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 67.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन पाए जाते थे जोकि कुल क्षेत्रफल का 20% हिस्सा है। एक देश के वातावरण को संतुलित रखने के लिए देश में 33 प्रतिशत क्षेत्रफल पर वन होने चाहिए।

प्रश्न 5.
वातावरण की अधोगति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वातावरण की अधोगति से अभिप्राय है जल, भूमि, खनिज तथा जलवायु का दुरुपयोग होना जिससे देश की धरती बंजर हो जाती है, जिससे कृषि तथा औद्योगिक विकास रुक जाता है।

प्रश्न 6.
औद्योगिक प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप जल, वायु, शोर, भूमि तथा मौसम की अधोगति को औद्योगिक प्रदूषण कहा जाता है।

प्रश्न 7.
एक अर्थव्यवस्था की वास्तविक आय में इस प्रकार वृद्धि होना जिससे पर्यावरण संरक्षण तथा जीवन की गुणवत्ता बनी रहे, जिससे न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि भावी पीढ़ी को अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके को चिरकालीन विकास कहते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 8.
धारणीय विकास का अर्थ है ……….
(a) प्राकृतिक साधनों का कुशल प्रयोग
(b) भावी पीढ़ी के जीवन की गुणवत्ता बनी रहे।
(c) प्रदूषण में वृद्धि न हो
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 9.
हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय (-) ………….
उत्तर-
पूंजी की घिसावट।

प्रश्न 10.
विशुद्ध बचतें (Genuine Savings) = बचत की दर (-) मनुष्य निर्मित पूंजी की घिसावट (-)
उत्तर-
प्राकृतिक पूंजी की घिसावट।

प्रश्न 11.
भूमि की अधोगति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मिट्टी के कटाव तथा पानी के जमाव के कारण भूमि के उपजाऊपन की क्षति को भूमि की अधोगति कहते हैं।

प्रश्न 29.
आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
आर्थिक वृद्धि से अभिप्राय है दीर्घकाल में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि होना।

प्रश्न 13.
आर्थिक विकास (Economic Development) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक विकास से अभिप्राय है प्रति व्यक्ति वास्तविक आय और आर्थिक कल्याण में दीर्घकाल में वृद्धि होना।

प्रश्न 14.
चिरकालीन विकास (Sustainable Development) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चिरकालीन विकास का अर्थ है प्रति व्यक्ति आय, आर्थिक कल्याण में वृद्धि के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ी के आर्थिक कल्याण को बनाए रखना।

प्रश्न 15.
जीवन की गुणवत्ता का अर्थ लोगों के स्वास्थ्य तथा शिक्षा जीवन से होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 16.
वायु प्रदूषण का अर्थ है वायु में जीवन के लिए ज़रूरी तत्त्वों में प्रदूषण।
उत्तर-
सही।

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II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
चिरकालीन विकास से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धारणीय आर्थिक विकास का अर्थ-धारणीय आर्थिक विकास (Sustainable Economic Development) की धारणा बरंट्रडलैंड रिपोर्ट (Brendtland Report) में पहली बार 1987 में प्रयोग की गई। इस सम्बन्ध में विकास तथा पर्यावरण के लिए विश्व कमीशन (World Commission on environment and development) की स्थापना की गई थी। इस कमीशन के अनुसार विकास की प्रक्रिया का सम्बन्ध वर्तमान की कम समय की आवश्यकताओं से नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध लम्बे समय के आर्थिक विकास से होता है। रॉबर्ट रिपीटो के शब्दों में, “धारणीय विकास एक ऐसी विकास नीति है जोकि प्राकृतिक तथा मानवीय साधनों, वित्तीय तथा भौतिक भण्डारों का प्रबन्धीकरण इस प्रकार करती है जिससे दीर्घकाल में धन तथा भलाई में वृद्धि हो।”

प्रश्न 2.
पर्यावरण की अधोगति (Environment Degradation) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर–
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में आर्थिक विकास की वृद्धि के लिए कृषि उत्पादन तथा उद्योगों का विकास किया गया ताकि बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। परन्तु मशीनीकरण पर अधिक ज़ोर तथा खनिज पदार्थों के बिना सोचे-समझे अधिक प्रयोग से पर्यावरण की अधोगति में वृद्धि हुई है। पर्यावरण की अधोगति से अभिप्राय जल, भूमि, खनिज तथा जलवायु का दुरुपयोग होना जिससे एक देश की धरती बंजर हो जाती है।

प्रश्न 3.
वायु प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वायु प्रदूषण-वायु में मुख्य तौर पर 21% ऑक्सीजन, 1% कार्बन डाइऑक्साइड तथा 78.09% नाइट्रोजन की मात्रा पाई जाती हैं। उद्योगों के विकास से वायु में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड गैसें शामिल हो जाती हैं। इन गैसों के शामिल होने से टी०बी०, दमा, खांसी इत्यादि बीमारियां फैल जाती हैं। इसको वायु प्रदूषण कहा जाता है।

प्रश्न 4.
जल प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जल प्रदूषण-उद्योगों के विकास से जो रासायनिक कूड़ा-कर्कट तथा गन्दा जल निकलता है, इसको नदियों, झीलों तथा नहरों में छोड़ दिया जाता है। इससे जहरीले पदार्थ तथा हानिकारक धातुओं के कण पानी में शामिल हो जाते हैं यह पानी पीने के लिए प्रयोग किया जाता है, जिस कारण बीमारियां फैलती हैं। इसको जल प्रदूषण कहा जाता

प्रश्न 5.
ध्वनि प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
ध्वनि प्रदूषण-उद्योगों में मशीनों के चलने के कारण शोर उत्पन्न होता है। इससे मज़दूरों की सुनने की शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मशीनों में से निकलने वाला धुआं तथा कण बहुत-सी बीमारियों को जन्म देते हैं। इससे टी०बी०, दमा, ब्लड प्रैशर तथा दिमागी तनाव इत्यादि बीमारियां उत्पन्न होती हैं।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न | (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
धारणीय विकास के मुख्य लक्षण बताओ।
उत्तर-
धारणीय विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति इस ढंग से की जाती है, ताकि भविष्य की पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से कर सके। धारणीय आर्थिक विकास के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. लम्बे समय तक प्रति व्यक्ति आय तथा आर्थिक भलाई में वृद्धि हो।
  2. प्राकृतिक साधनों का प्रयोग वर्तमान में आवश्यकता से अधिक न किया जाए।
  3. भविष्य की पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं को आसानी से पूरा कर सके।
  4. बिना प्रदूषण के अच्छा जीवन स्तर व्यतीत किया जा सके।

प्रश्न 2.
धारणीय आर्थिक विकास का माप कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
धारणीय आर्थिक विकास का माप दो धारणाओं से किया जाता है-

  1. हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय (Green Net National Income)-हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय (-) प्राकृतिक साधनों का प्रयोग (-) पर्यावरण अधोगति।
  2. वास्तविक बचत (Genuine Savings)-वास्तविक बचत = बचत की दर (-) मनुष्य द्वारा उत्पादित पूंजी की घिसावट (-) प्राकृतिक साधनों का प्रयोग (-) पर्यावरण अधोगति।

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प्रश्न 3.
भारत में साधनों की प्राप्ति का वर्णन करो।
उत्तर-
भारत सम्बन्धी कहा जाता है कि यह एक अमीर देश है परन्तु इसमें रहने वाले लोग ग़रीब हैं। भारत में साधन अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। लोहा तथा कोयला अधिक मात्रा में हैं परन्तु खनिज, पेट्रोल तथा तेल की कमी पाई जाती है। भारत में जल साधनों की कोई कमी नहीं। भारत का क्षेत्रफल भी विशाल है। मानवीय साधन बहुत अधिक हैं, परन्तु इन साधनों का प्रयोग उचित ढंग से नहीं किया गया। वन साधनों की कमी पाई जाती है। प्रत्येक देश क्षेत्रफल का 33% भाग वनों के अधीन होना चाहिए, परन्तु भारत में केवल 20% हिस्से पर वन हैं। 54% भूमि पर कृषि नहीं की जाती। भू-क्षरण, सेम, बाढ़ इत्यादि समस्याएं हैं। उद्योगों का विकास किया गया है जिससे औद्योगिक प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है। इसलिए साधनों की प्राप्ति तो काफ़ी है परन्तु इसका उचित तरह से प्रयोग नहीं किया गया।

प्रश्न 4.
भारत में प्राकृतिक साधनों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत में प्राकृतिक साधन निम्नलिखित हैं-

  1. भूमि साधन-भारत का भौगोलिक क्षेत्र 329 मिलियन हेक्टेयर है। इस क्षेत्र में से 46 प्रतिशत भाग कृषि उत्पादन अधीन है।
  2. जल साधन-भारत में जल साधन काफ़ी मात्रा में हैं। पूरे वर्ष बहने वाली नदियां हैं, परन्तु जल साधनों के 38 प्रतिशत भाग का प्रयोग किया जाता है।
  3. वन-भारत में कुल क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग वनों के अधीन है।
  4. खनिज-भारत में लोहा तथा कोयला काफ़ी मात्रा में है, परन्तु तांबा, जिंक, निकल, सल्फर तथा पेट्रोल इत्यादि कम मात्रा में प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 5.
पर्यावरण की अधोगति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पर्यावरण की अधोगति से अभिप्राय यह है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि उत्पादन तथा उद्योगों का विकास इतनी तीव्रता से किया गया, जिससे भूमि बंजर हो गई, खनिज पदार्थों का दुरुपयोग किया गया, वायु तथा जल प्रदूषित हो गए, कृषि उत्पादन के कारण क्षार तथा सेम की समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। इसको पर्यावरण की अधोगति कहा जाता है।

प्रश्न 6.
कृषि उत्पादन द्वारा भूमि की अधोगति कैसे हुई है ?
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादन में वृद्धि की गई। वनों की कटाई करके कृषि की गई। इससे भूमि की अधोगति हुई है। जैसे कि भारत का कुल क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है। इस क्षेत्रफल में से 144 मिलियन हेक्येटर भूमि, भूमि कटाव की शिकार हो गई है। 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि, काला शोरा, सेम तथा भूमि कटाव के कारण खराब हो गई है। इस प्रकार 54% हिस्से की अधोगति हो चुकी है जिसमें सुधार करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 7.
प्रदूषण की किस्में बताएं।
उत्तर-

  1. वायु प्रदूषण-वायु में मुख्य तौर पर 21% ऑक्सीजन, 1% कार्बन डाइऑक्साइड तथा 87% नाइट्रोजन की मात्रा पाई जाती है। उद्योगों के विकास से वायु में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड गैसें शामिल हो जाती हैं। इन गैसों के शामिल होने से टी० बी०, दमा, खांसी इत्यादि बीमारियां फैल जाती हैं। इसको वायु प्रदूषण कहा जाता है।
  2. जल प्रदूषण-उद्योगों के विकास से जो रासायनिक कूड़ा-कर्कट तथा गन्दा जल निकलता है, इसको नदियों, झीलों तथा नहरों में छोड़ दिया जाता है। इससे जहरीले पदार्थ तथा हानिकारक धातुओं के कण पानी में शामिल हो जाते हैं यह पानी पीने के लिए प्रयोग किया जाता है, जिस कारण बीमारियां फैलती हैं। इसको जल प्रदूषण कहा जाता है।
  3. ध्वनि प्रदूषण-उद्योगों में मशीनों के चलने के कारण शोर उत्पन्न होता है। इससे मजदूरों की सुनने की शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मशीनों में से निकलने वाला धुआं तथा कण बहुत-सी बीमारियों को जन्म देते हैं। इससे टी० बी०, दमा, ब्लड प्रैशर तथा दिमागी तनाव इत्यादि बीमारियां उत्पन्न होती हैं।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
धारणीय आर्थिक विकास से क्या अभिप्राय है ? इसकी मुख्य विशेषताएं बताओ। इसका माप कैसे किया जाता है ?
(What is sustainable Economic Growth? Explain the main features of sustainable Economic Growth. How is it measured ?)
उत्तर-
धारणीय आर्थिक विकास का अर्थ-धारणीय आर्थिक विकास (Sustainable Economic Development) की धारणा बरंट्रडलैंड रिपोर्ट (Brendtland Report) में पहली बार 1987 में प्रयोग की गई। इस सम्बन्ध में विकास तथा पर्यावरण के लिए विश्व कमीशन (World Commission on environment and development) की स्थापना की गई थी। इस कमिशन के अनुसार विकास की प्रक्रिया का सम्बन्ध वर्तमान की कम समय की आवश्यकताओं से नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध लम्बे समय के आर्थिक विकास से होता है। वर्तमान काल के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूमि, जल, खनिज पदार्थों तथा वनों इत्यादि का प्रयोग लापरवाही से न किया जाए ताकि भविष्यकाल के लोगों की आवश्यकताओं की अवहेलना की जाए तथा पर्यावरण का दुरुपयोग किया जाए।

पर्यावरण में भूमि तथा मौसम को ही शामिल नहीं किया जाता बल्कि इसमें जानवर, पशु, पक्षी, पौधे, जंगल, इत्यादि भी शामिल होते हैं। इस प्रकार धारणीय विकास का अर्थ आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप वर्तमान तथा भविष्य की नस्लें अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकें। रोबर्ट रिपीटो के शब्दों में, “धारणीय विकास एक ऐसी विकास नीति है जोकि प्राकृतिक तथा मानवीय साधनों, वित्तीय तथा भौतिक भण्डारों का प्रबन्धीकरण इस प्रकार करती है, जिससे दीर्घकाल में धन तथा भलाई में वृद्धि हो।” धारणीय आर्थिक विकास की विशेषताएं-धारणीय विकास की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. प्रति व्यक्ति आय तथा आर्थिक भलाई में धारणीय वृद्धि।
  2. प्राकृतिक साधनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग न किया जाए।
  3. वर्तमान पीढ़ी, प्राकृतिक साधनों का प्रयोग इस प्रकार करें कि भविष्य की पीढ़ी के लिए आवश्यकताएं पूरी करने के लिए साधनों की कमी न हो।
  4. प्राकृतिक साधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए, जिससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि न हो। आर्थिक विकास से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो सकती है। जिससे वर्तमान तथा भविष्य की नस्लों की जीवन गुणवत्ता (Quality of life) पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
  5. इसमें वातावरण सुरक्षा की ओर अधिक जोर दिया गया है।
  6. इसमें संरचनात्मक, तकनीकी तथा संस्थागत परिवर्तन पर अधिक ज़ोर नहीं दिया गया।
  7. धारणीय विकास का अर्थ जीवन गुणवत्ता का विकास है। अच्छी जीवन गुणवत्ता से अभिप्राय अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, शुद्ध वातावरण, शुद्ध जल, वायु तथा अच्छी सामाजिक सुरक्षा से होता है।

धारणीय विकास के सूचक तथा शर्ते-

  • प्रति व्यक्ति आय तथा जीवन गुणवत्ता का विकास।
  • प्राकृतिक साधनों पर वातावरण का सद् उपयोग।
  • ग्रामीण जीवन का सर्वपक्षीय विकास तथा आधुनिक सुविधाएं, पानी, बिजली, टी० वी०, टेलीफोन इत्यादि सुविधाओं में वृद्धि।
  • कृषि उत्पादन में कीटनाशक तथा रासायनिक खादों का कम प्रयोग।
  • उद्योगों द्वारा जल, वायु, तथा ध्वनि प्रदूषण में कमी।

धारणीय आर्थिक विकास की माप विधिधारणीय विकास का माप दो समष्टि धारणाओं द्वारा किया जा सकता है –
1. हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय (Green Net National Income) हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय का माप निम्नलिखित सूत्र द्वारा किया जाता है हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय ( – ) प्राकृतिक पूंजी की घिसावट |

  • शुद्ध राष्ट्रीय आय-देश में अंतिम वस्तुओं तथा सेवाओं के एक वर्ष के उत्पादन को शुद्ध राष्ट्रीय आय कहा जाता है।
  • प्राकृतिक पूंजी की घिसावट-प्राकृतिक पूंजी का अर्थ है प्राकृतिक साधन तथा वातावरण का योग।

प्राकृतिक साधनों तथा वातावरण की घिसावट का अर्थ है, इन साधनों के प्रयोग द्वारा मूल्य में कमी। वास्तविक बचत (Genuine Savings)-वास्तविक बचत द्वारा भी चिरकालीन विकास का माप किया जाता है। इस उद्देश्य के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग होता है| वास्तविक बचत = बचत की दर (-) मनुष्य द्वारा बनाई पूंजी की घिसावट – प्राकृतिक पूंजी की घिसावट |

वास्तविक बचत अधिक होने का अर्थ है अधिक चिरकालीन विकास की दर।

  1. बचत की दर-आय में से उपभोग खर्च घटाकर जो राशि शेष बच जाती है।
  2. मनुष्य द्वारा बनाई पूंजी की घिसावट-मनुष्य द्वारा बनाई मशीनों तथा औज़ारों की घिसावट।
  3. प्राकृतिक पूंजी की घिसावट-प्राकृतिक पूंजी की घिसावट में प्राकृतिक साधनों तथा वातावरण के निरन्तर प्रयोग द्वारा मूल्य में हुए नुकसान को शामिल किया जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

प्रश्न 2.
साधनों की सीमित उपलब्धता से क्या अभिप्राय है ? भारत में साधनों की प्राप्ति का वर्णन कीजिए।
(What do you mean by Limited Availability of Resources? Explain the availability of Resources in India.)
उत्तर-
प्रो० लईस के अनुसार, “किसी देश में साधनों की मात्रा, उस देश के आर्थिक विकास की मात्रा तथा सीमा का निर्धारण करती है।” अल्पविकसित देशों का विकास उस देश में प्राप्त साधनों पर निर्भर करता है। प्राकृतिक साधनों में भूमि, जल साधन, खनिज पदार्थ, वन, मौसम इत्यादि को शामिल किया जाता है। मनुष्यों को देश के कुछ साधनों का ज्ञान होता है, परन्तु कुछ साधन प्रकृति की गोद में छिपे होते हैं, जिनको ढूंढ़ने की आवश्यकता होती है। इस तरह कुछ साधन जैसे कि भूमि, जल, मछलियां, वन इत्यादि का पुनर्निर्माण होता रहता है परन्तु कुछ साधन जैसे कि खनिज, पेट्रोल इत्यादि समाप्त होने वाले होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक देश में साधनों की सीमित उपलब्धता पाई जाती है।

आर्थिक विकास के लिए इन साधनों के उचित प्रयोग की आवश्यकता होती है। साधन विकास के निर्देशक सिद्धान्त-

  1. साधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए ताकि साधनों का दुरुपयोग कम-से-कम हो।
  2. पूर्ण निर्मित साधनों तथा नष्ट योग्य साधनों का प्रयोग अच्छे ढंग से किया जाए।
  3. साधनों द्वारा बहुपक्षीय उद्देश्यों की पूर्ति की जाए, जैसे कि डैमों द्वारा बिजली, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण इत्यादि उद्देश्यों की पूर्ति होती है।
  4. उद्योगों की स्थापना साधनों की प्राप्ति के स्थानों पर करके उत्पादन लागत में कमी की जाए।
  5. शक्ति की पूर्ति में वृद्धि करके दूसरे साधनों का उत्तम प्रयोग किया जाए।

भारत में प्राकृतिक साधन-
1. भूमि साधन-भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है। इसमें से 306 मिलियन हेक्टेयर सम्बन्धी आंकड़े उपलब्ध हैं। यदि हम बंजर, भूमि, वन अधीन क्षेत्र, चरागाहें तथा बेकार भूमि को छोड़ देते हैं तो कृषि योग्य 141 मिलियन हेक्टेयर भूमि रह जाती है, जोकि कुल भूमि का 46% हिस्सा है। सरकार को 54% भूमि जिस पर कृषि नहीं होती इसलिए उचित नीति बनाने की आवश्यकता है।

2. वन साधन-ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना अनुसार भारत में सन् 2017 में 69 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर वन पाए जाते थे, जोकि कुल क्षेत्रफल का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है, भूमि के 33 प्रतिशत क्षेत्र पर वन होने चाहिए। परन्तु वन साधन बढ़ने की जगह पर कम होते जा रहे हैं। प्रत्येक वर्ष 1.3 से 1.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन काटे जाते हैं, जिससे प्राप्त लकड़ी टीक, बोर्ड, प्लाई इत्यादि के उद्योगों में प्रयोग होती है। सरकार ने 2015 में वनों सम्बन्धी नीति का निर्माण किया है। 33% क्षेत्र पर वन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है।

3. जल साधन-भारत में जल साधन काफ़ी मात्रा में पाए जाते हैं। प्रो० बी० एस० नाग तथा जी० एन० कठपालिया ने अनुमान लगाया कि 1974 से 2005 तक 4000 कुइबक किलोमीटर वर्षा हुई। इसको तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। 2150 कुइबक किलोमीटर जल नदियों में चला जाता है तथा 700 कुइब्रक किलोमीटर जल वायुमडल में भाप बनकर उड़ जाता है। 1974 में 380 कुइबक किलोमीटर मीट्रिक जल का प्रयोग किया जाता था जोकि 2017 में बढ़कर 250 कुइबक किलोमीटर होने का अनुमान है। भारत में पूरे वर्ष बहने वाली नदियाँ हैं, जिन पर डैम बनाएं गए हैं। नहरों, टैंकों तथा ट्यूबवैलों द्वारा सिंचाई की जाती है। नदियों की सफाई की ओर और अधिक ध्यान दिया जा रहा है।

4. मछली पालन-भारत, विश्व में मछली पालने के क्षेत्र में तीसरा स्थान रखता है। समुद्र के किनारे पर रहने वाले एक मिलियन मछुआरे, मछलियों द्वारा जीवन पोषण करते हैं। 1951 में 0.7 मिलियन टन मछलियों का उत्पादन किया गया जोकि 2017-18 में बढ़कर 9.9% मिलियन टन हो गया। परन्तु भारत द्वारा एशिया में 9 प्रतिशत मछलियों का उत्पादन किया जाता है जबकि जापान द्वारा 43 प्रतिशत उत्पादन किया जाता है।

5. खनिज साधन-भारत में कोयला तथा लोहा काफ़ी मात्रा में पाए जाते हैं परन्तु कॉपर, जिंक, निकल, सल्फर, पेट्रोल इत्यादि खनिज पदार्थों की कमी पाई जाती है। परन्तु भारत में कोयले की खानें बहुत नीचे पाई जाती हैं, जिनमें से कोयला निकालने की लागत बहुत अधिक आती है। 1994 में सरकार ने नई खनिज नीति की घोषणा की है। जिस द्वारा खनिज पदार्थों को निजी क्षेत्र तथा विदेशी निवेशकों को सौंपने की योजना है। दसवीं योजना में खनिज साधनों को निजी क्षेत्र में विकसित करने का प्रोग्राम है।
भारत में साधनों को देखकर यह कह सकते हैं कि साधन सीमित मात्रा में हैं। इनका प्रयोग करने के लिए उचित नीति की आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
पर्यावरण की अधोगति (Environmental Degradation) से क्या अभिप्राय है ? भारत में साधनों की अधोगति पर प्रकाश डालें।
(What is meant by Environment Degradation? Discuss its effects on degradation of Resources in India.)
उत्तर-
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में आर्थिक विकास की वृद्धि के लिए कृषि उत्पादन तथा उद्योगों का विकास किया गया ताकि बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। परन्तु मशीनीकरण पर अधिक ज़ोर तथा खनिज पदार्थों के बिना सोचे-समझे अधिक प्रयोग से पर्यावरण की अधोगति में वृद्धि हुई है। पर्यावरण की अधोगति से अभिप्राय जल, भूमि, खनिज तथा जलवायु का दुरुपयोग होना, जिससे एक देश की धरती बंजर हो जाती है।

भारत में साधनों की अधोगति अग्रलिखित अनुसार हुई है –
1. कृषि तथा भूमि अधोगति (Agriculture and Land Degradation)-भारत के कृषि उत्पादन मंत्रालय अनुसार भारत में भूमि अधोगति तथा भू-क्षरण (Soil Erosion) की समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है। बाढ़ों तथा आंधियां इत्यादि ऋतु उपद्रवों के कारण भूमि की ऊपरी परत के हट जाने को भू-क्षरण कहा जाता है। भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र 329 मिलियन हेक्टेयर में से 144 मिलियन हेक्टेयर भूमि, भू-अपरदन का शिकार हो चुकी है। 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि भूमि कटाव, काला शोरा तथा सेम के कारण खराब हो गई है। इस प्रकार कुल भूमि के 534 प्रतिशत भाग की अधोगति हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त सरकार ने चरागाहों की देखरेख की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार 11 मिलियन हेक्टेयर चरागाह का क्षेत्र बंजर भूमि बन गया है।

2. वनों की कटाई तथा भूमि अधोगति-भारत में भूमि अधोगति के अन्य कारणों में वनों की कटाई सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है। भारत में 1951 से 1972 तक वनों अधीन 34 लाख हेक्टेयर भूमि पर कटाई की गई। इस क्षेत्र में से 72 प्रतिशत क्षेत्र पर कृषि तथा 17 प्रतिशत क्षेत्र पर उद्योग, सड़कें, यातायात, संचार, डैम इत्यादि बनाए गए। इसकी ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों तथा वन विभाग की है, जिन्होंने वनों की देख-रेख की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

3. जल संसाधन अधोगति-भारत को विश्व का जल साधन भरपूर देश कहा जाता है। वनों की बेरहमी से कटाई के कारण, वर्षा के पानी का अधिक भाग समुद्र में चला जाता है। भारत में लगभग 250 मिलियन लोग बाढ़ वाले क्षेत्र पर निवास करते हैं। विश्व के 70 प्रतिशत लोग जो बाढ़ का शिकार होते हैं, भारत तथा बंगलादेश में रहते हैं। भारत के आर्थिक नियोजन की बड़ी गलती जल संसाधनों का उचित प्रयोग नहीं करना है। बाढ़ों के कारण वार्षिक 12000 करोड़ से 18000 करोड़ रु० की हानि होती है। पंजाब तथा हरियाणा में सेम की समस्या के कारण हज़ारों एकड़ भूमि बेकार हो गई है। शोरे की समस्या का भी सामना करना पड़ता है। सरकार ने जल संसाधनों के प्रयोग की ओर उचित नीति का निर्माण नहीं किया।

4. खनन तथा पर्यावरण समस्याएं-भारत ने खानों में से खनिज पदार्थों का अधिक प्रयोग किया, परन्तु सरकार ने पर्यावरण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे भूमि, जल, वन तथा वायु, अधोगति में वृद्धि हुई है, जोकि इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –

  • खानों के मालिकों ने कृषि भूमि पर सड़कें, रेलों, नहरों तथा नगरों का निर्माण किया
  • खनिजों की धूल (Dust) द्वारा वायु प्रदूषण की समस्या के साथ कृषि उत्पादकता के कम होने की समस्या उत्पन्न हुई है।
  • कोयले की खानों में आग लगने से जान, माल के नुकसान के अतिरिक्त लाखों हेक्टेयर भूमि बेकार हो गई है।
  • वर्षा का पानी खानों में से निकलकर नदियों, टैंकों में प्रदूषण पैदा करता है।
  • इस कारण जंगलों की कटाई होती है तथा भूमि कटाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  • जो लोग खानों में काम करते हैं, उनको दमा तथा अन्य बीमारियां लग जाती हैं। इसलिए भारत को अमेरिका की तरह खानों सम्बन्धी कानून बनाकर उचित नीति द्वारा खानों का सद्उपयोग करना चाहिए।

प्रश्न 4.
भारत में पर्यावरण अधोगति के कारण बताओ। वातावरण को कैसे बचाया जा सकता है ? (What are the causes of degradation of Environment in India ? How can Environment he saved ?)
उत्तर-
भारत में वातावरण अधोगति के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. जनसंख्या की वृद्धि– भारत में 1951 में जनसंख्या 36 करोड़ थी। 2011 में जनसंख्या 121 करोड़ हो गई है। जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उद्योगों तथा कृषि के विकास के कारण साधनों की अधोगति हुई है।
  2. औद्योगीकरण में वृद्धि-उद्योगों के विकास के कारण देश में जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि हुई है। इससे बीमारियां बढ़ गई हैं।
  3. शहरीकरण की ओर झुकाव-गांवों के लोग शहरों में रहने के लिए आ गए हैं। उनको सुविधाएं प्रदान करना एक समस्या बन गई है। इस कारण साधनों की अधोगति में वृद्धि हुई है।
  4. कृषि उत्पादन में वृद्धि-लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादकता में वृद्धि की गई। नई कृषि नीति अनुसार रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयों का अधिक प्रयोग किया गया, इससे प्रदूषण में वृद्धि हुई
  5. निर्धनता–भारत के लोगों में निर्धनता के कारण जलाने के लिए लकड़ी तथा गोबर के उपलों का प्रयोग किया जाता है। इससे प्राकृतिक पूंजी की अधोगति हुई है।
  6. यातायात के साधनों का कम विकास-देश में सड़कों का विस्तार उतनी तीव्रता से न हुआ, जितनी तीव्रता से वाहनों (स्कूटर, कारों) की संख्या में वृद्धि हुई है।

पर्यावरण के बचाव के लिए उपाय-

  1. जनसंख्या पर नियंत्रण-भारत में तीव्रता से बढ़ रही जनसंख्या पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है। इससे पर्यावरण की अधोगति को रोका जा सकता है।
  2. सामाजिक चेतना-लोगों में हवा, पानी, खनिज तथा प्रदूषण सम्बन्धी चेतना उत्पन्न करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण में शुद्धता लाने के लिए योगदान डाल सकता है।
  3. वन लगाना-पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए वनों का विस्तार करना चाहिए।
  4. कृषि प्रदूषण-कृषि उत्पादन क्षेत्र में प्रदूषण रोकने के लिए रासायनिक खादों का कम प्रयोग किया जाए। वृक्ष लगाकर भू-अपरदन की समस्याओं को घटाना चाहिए।
  5. औद्योगिक प्रदूषण-उद्योगों द्वारा जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण फैलता है। भारत सरकार ने 17 उद्योगों की सूची तैयार की है जोकि अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। नए उद्योगों को स्थापित करते समय प्रदूषण मापदंड स्थापित करने चाहिए।
  6. जल प्रबन्ध-भारत में लोगों को शुद्ध जल पीने के लिए प्रदान करने के लिए जल प्रदूषण को रोकने की आवश्यकता है। इससे सभी लोगों के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ सकता है। इस प्रकार लोगों के रहन-सहन सम्बन्धी सुधार करके पर्यावरण की अधोगति पर रोक लगाई जा सकती है। विश्व बैंक के अनुसार भारत में पर्यावरण की अधोगति को ठीक करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 5.7% भाग व्यय करना पड़ रहा है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

प्रश्न 5.
ग्लोबल वार्मिंग से क्या अभिप्राय है? ग्लोबल वार्मिंग के कारण तथा प्रभाव स्पष्ट करो। (What is Global Warming ? Discuss its causes and effects ?)
उत्तर-
ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ (Meaning of Global Warming) ग्लोबल वार्मिंग अथवा वैश्विक तापन का अर्थ विश्व भर में वातावरण में बढ़ रही गर्मी से है। विश्व में जब से औद्योगिक क्रान्ति पैदा हुई है तब से लेकर आज तक विश्व के तापमान में वृद्धि हो रही है। 20वीं शताब्दी के मध्य से लेकर आज तक तापमान में जो वृद्धि हुई है वह पिछले 150 वर्ष में इतनी वृद्धि तापमान में नहीं देखी गई। अमरीका के वैज्ञानिकों का यह विचार है कि विश्व के तापमान में 10 Degree तक वृद्धि हो सकती है। वैश्विक तापन का मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होना है। ग्रीन आऊस गैसों में मुख्य रूप से कार्बनडाईआक्साईड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस आक्साइइ (N2O), ओजोन (O3), क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFCs) आदि गैसें शामिल हैं। ग्लोबल वार्मिंग विश्व की कितनी बड़ी समस्या है यह साधारण आदमी समझ नहीं पाता। आम लोग समझते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से फिलहाल संसार को कोई खतरा नहीं है। परन्तु यह धारणा ठीक नहीं है।

बढ़ते हुए तापमान को न रोका गया तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण (Causes of Global warming)-
1. जंगलों की कटाई (Deforestation)ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण जंगलों की कटाई है। आधुनिकीकरण के कारण पेड़ों की कटाई गांवों को शहरीकरण में बदलाव, हर खाली जगह पर बिल्डिंग, कारखाना या अन्य कोई कमाई के लिए स्रोत खोले जा रहे हैं। लकड़ी का प्रयोग इमारतो के निर्माण, खाना बनाने आदि के लिए बड़े स्तर पर होने के कारण अमरीका तथा आस्ट्रेलिया जैसे देशों में जहां जंगल अधिक मात्रा में हैं वहां जंगलों को अपने आप आग लग जाती है जिसको बुझाने के लिए सरकार को बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

2. उद्योगों का विकास (Growth of Industries) ग्लोबल वार्मिंग का एक कारण विश्व में औद्योगिकरण को भी माना जाता है। फ्रांस में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात विश्व में बड़े पैमाने पर उद्योगों का विकास हुआ है। इस से प्रदूषण में वृद्धि हुई है। ग्रीन हाउस गैसों कार्बन डाईआक्साइड, मीथेन, ओजोन आदि की वृद्धि के कारण विश्व के तापमान में वृद्धि तेजी से हो रही है।

3. मोटर वाहनों का विकास (Growth of Automobiles)-जैसे-जैसे विश्व ने आर्थिक विकास किया है उसके साथ लोगों की आय में तेजी से वृद्धि हुई है। इससे लोगों ने मोटर वाहनों का अधिक प्रयोग करना शुरू कर दिया है। मोटर वाहनों के अधिक प्रयोग के कारण विश्व में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है। इस कारण तापमान में वृद्धि हुई है।

4. वातावरण में गैसों का विकास (Growth of Gases in Atmosphere)-कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि ज्वालापुखी विस्फोट के कारण भी विश्व में गैसों की वृद्धि हुई है। इस कारण भी ग्लोबल वार्मिंग हुई है। जब ज्वालामुखी में विस्फोट होता है तो अन्त कार्बन डाईआक्साईड का प्रवाह होता है। इस कारण भी ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होती है।

5. मानव क्रियाओं का विकास (Growth of Human Activities) मानव क्रियाएं भी ग्लोबल वार्मिंग का कारण बन गई है। हम घरों में एयरकंडीशनर, फ्रिज, कोल्ड स्टोर आदि अधिक मात्रा में प्रयोग करने लगे हैं। इससे भी ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा हैता है अर्थात् जहरीली गैसें निकलती हैं जिस कारण तापमान में वृद्धि होती है जनसंख्या में वृद्धि प्रदूषण के कारण अधिक अनाज़ पैदा करने के लिए आधुनिक खादों का प्रयोग तथा कीट नाशकों के प्रयोग कारण भी प्रदूषण में वृद्धि होती है। वातावरण में प्रदूषण के फैलने से भी ग्लोबल वार्मिंग हो रही है।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव (Effects of Global Warming) – ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ रही है इस के दुष्प्रभाव इस प्रकार हो सकते हैं –
1. ग्लेशियरों का पिघलना (Melting of Glaciers)-ताप बढ़ने से ग्लेशियर पिघलने लगते हैं और उनका आकार कम होने लगता है। भारत में उत्तराखण्ड में 8 फरवरी 2021 को ग्लेशियर के पिघले से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई जिससे बहुत से लोगों की मृत्यु हुई है और बहुत से लोग लापता हैं। इस प्रकार ग्लेशियर लगातार कम हो रहे हैं जिसका कारण ग्लोबल वार्मिंग है।

2. बढ़ता समुद्री जलस्तर (Rising Sea Level)-ग्लेशियरों के पिघलने से प्राप्त जल सागरों में मिलता हो तो समुद्री जल स्तर में वृद्धि हो जाती है। समुद्री जलस्तर बढ़ने से समुद्री तटों पर जो शहर बसे हुए हैं उन में बाढ़ का खतरा बन जाता है।

3. नदियों में बाढ़ (Floods in Rivers) ग्लेशियरों से कई बार हमारी नदियां निकलती है। इन नदियों में जल का प्रवाह बढ़ने से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिस कारण बहुत से शहरों तथा गांवों में बाढ़ के कारण बहुत हानि सहन करनी पढ़ती है।

4. कृषि पर प्रभाव (Effect on Agriculture)-ग्लोबल वार्मिंग के कारण कभी गर्म तेज़ हवाएं चलती हैं और कभी अधिक वर्षा होती है। इस कारण कृषि में उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मछली उद्योग को भी ग्लोबल वार्मिंग से नुकसान होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

5. मानव तथा जानवरों पर बुरा प्रभाव (Bad Effect on Living Beings) ग्लोबल वार्मिंग के कारण मनुष्यों को बहुत सी बीमारियों का सामना करना पड़ता है। पशुओं तथा पक्षियों की बहुत सी प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

PSEB 12th Class Economics बुनियादी ढांचा और ऊर्जा Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढांचा शब्द किस भाषा से लिया गया है?
(a) लैटिन
(b) ग्रीक
(c) फ्रैंच
(d) संस्कृत।
उत्तर-
(c) फ्रैंच।

प्रश्न 2.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
किसी देश में आर्थिक तथा सामाजिक सेवाएं प्रदान करना बुनियादी ढांचा कहलाता है।

प्रश्न 3.
Infra शब्द का अर्थ नीचे का और Structure का अर्थ ढांचा होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 4.
देश में शिक्षा संस्थान, अस्पताल, पार्क आदि के विकास को ……. बुनियादी ढांचा कहा जाता
उत्तर-
सामाजिक अथवा नरम बुनियादी ढांचा (Soft-Infrastructure)।

प्रश्न 5.
देश में सड़कें, रेलें, पुल, बिजली, पानी सहूलतों को ……. बुनियादी ढांचा कहा जाता है।
उत्तर-
सख्त (सथूल) बुनियादी ढांचा (Hard Infrastructure)।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 6.
सामाजिक बुनियादी ढांचे का विकास देश में आर्थिक उत्पादन की वृद्धि के लिए सहायक होता है। (सही/गलत)
उत्तर-
सही।

प्रश्न 7.
आर्थिक और सामाजिक बुनियादी ढांचा एक दूसरे पर निर्भर करते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 8.
बुनियादी ढांचे के विकास का आर्थिक-विकास पर प्रभाव नहीं पड़ता।
उत्तर-
गलत।

प्रश्न 9.
मानव पूँजी का विकास …………… बुनियादी ढांचे का भाग है।
उत्तर-
सामाजिक।

प्रश्न 10.
आर्थिक बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे में कोई अन्तर नहीं है।
उत्तर-
गलत।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ उन आधारभूत सहूलतों से हैं जिन द्वारा देशवासियों को यातायात तथा जीवन स्तर के लिए सहूलते प्रदान की जा सकें। इनका उद्देश्य देश में कृषि, उद्योग, यातायात, संचार का विकास करके चिरकालीन आर्थिक विकास करना होता है। बुनियादी ढांचे में रेलों, सड़कों, सिंचाई, बिजली, पानी, सेहत, ऊर्जा आदि सुविधा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 2.
आर्थिक बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure) देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान डालता है। इसमें यातायात, संचार, सड़कों, रेलों, बिजली पानी कौशल, तकनीक के विकास द्वारा कृषि और उद्योगों के उत्पादन में वृद्धि की जाती है। इस द्वारा देश में चिरकालीन विकास होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 3.
सामाजिक बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर–
सामाजिक बुनियादी ढांचे (Social Infrastructure) से अभिप्राय उन सहूलतों से है जो लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए सहयोगी होती हैं। इन सहूलतों में शिक्षा, सेहत, घर निर्माण, पार्क, अस्पताल, सभ्याचारक केन्द्र सथापित करना होता है।

प्रश्न 4.
ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत बताओ?
उत्तर-
ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत इस प्रकार हैं-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा 1

प्रश्न 5.
परंपरागत ऊर्जा के किसी एक स्त्रोत का वर्णन करें।
उत्तर-
कोयला (Coal) कोयला ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण परंपरागत स्रोत है। भारत में कोयले के 326 बिलियन भंडार हैं। इस का वार्षिक उत्पादन 396 मिलियन टन किया जाता है। इसके भंडार, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और बंगाल में पाए जाते हैं।

प्रश्न 6.
किसी एक गैर पारम्परिक ऊर्जा के स्रोत का वर्णन करें।
उत्तर-
सूर्य ऊर्जा (Solar Energy)-यह ऊर्जा सूर्य की रोशनी द्वारा उत्पन्न होती है। फोटोवोल्टैनिक सैल, सूर्य की किरणों की ओर लगाए जाते हैं। इस द्वारा जो बिजली उत्पन्न होती है उस का प्रयोग घरेलू कामों के लिए किया जाता है। जैसे कि खाना बनाने, रोशनी और जल साफ़ करने आदि कामों के लिए किया जाता है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न | (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढाचे का अर्थ बताएं, बुनियादी ढांचे का वर्गीकरण स्पष्ट करें।
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ (Meaning of Infrastructure)-बुनियादी ढांचे का अर्थ उन आधारभूत सहूलतों से है जिन के द्वारा अर्थव्यवस्थता के संचालन को चिरकालीन विकास के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसमें उन आधारभूत सहूलतों को शामिल किया जाता है जो आर्थिक विकास का आधार बनती हैं। बुनियादी ढांचे में सड़कों, रेलों, पुल, जल आपूर्ति, बिजली संचार, इंटरनैट आदि को शामिल किया जाता है।

बुनियादी ढांचे का वर्गीकरण (Classification of Infrastructure) बुनियादी ढांचे के वर्गीकरण को दो भागों में बांटा जा सकता है।

  1. स्थूल बुनियादी ढांचा (Hard Infrastructure)-इसको आर्थिक बुनियादी ढांचा भी कहा जाता है। इसमें भौतिक वस्तुओं को शामिल किया जाता है जैसे कि सड़कें, रेलवे, फ्लाईओवर, बिजली आदि का विकास शामिल किया जाता है।
  2. नरम बुनियादी ढांचा (Soft Infrastructure)-नरम बुनियादी ढांचे को सामाजिक ढांचा भी कहा जाता है। इसमें अस्पताल, शिक्षा संस्थान, पार्क, मनोरंजन सहूलतों को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 2.
आर्थिक बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? ।
उत्तर-

  • आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure)-इस बुनियादी ढांचे में स्थूल वस्तुओं को शामिल किया जाता है जिसमें सड़कें, रेलवे, बिजली, कृषि विकास औद्योगिक सुविधाएं, ऊर्जा आदि शामिल होते हैं। इससे उत्पादन क्रियाओं में गति पैदा होती है और देश का आर्थिक विकास तेज़ हो जाता है। लोगों की आय और रोजगार में वृद्धि होती है।
  • सामाजिक बुनियादी ढांचा (Social Infrastructure)-सामाजिक बुनियादी ढांचे को नरम बुनियादी ढांचा भी कहा जाता है। इसमें सामाजिक सेवाएं शामिल होती हैं। जिनकी सहायता से उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है। सरकार द्वारा लोगों को शिक्षा, सेहत, तकनीकी शिक्षा, खेल के मैदान, पार्क आदि सहूलतें प्रदान की जाती हैं। इन सहूलतों के कारण लोगों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है और आर्थिक विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3.
बुनियादी ढांचे के महत्त्व को स्पष्ट करें।
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का महत्त्व (Importance of Infrastructure) –

  1. आर्थिक विकास में वृद्धि-बुनियादी ढांचे द्वारा देश में आर्थिक विकास की गति तेज़ हो जाती है। आर्थिक विकास ही प्रत्येक देश का मुख्य उद्देश्य होता है इसके लिए बुनियादी ढांचा अति आवश्यक है।
  2. रोज़गार में वृद्धि-जब देश में आर्थिक ढांचे का निर्माण होता है जिस द्वारा सड़कें, नहरें, पुल आदि बनते हैं तो इसके निर्माण के समय रोज़गार में वृद्धि होती है और बनने के पश्चात् और बहुत से उद्योग स्थापित हो जाते हैं। इसलिए रोजगार में वृद्धि होने लगती है।
  3. उत्पाद शक्ति में वृद्धि-आधारभूत ढांचे के विकास से लोगों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है। उत्पादन शक्ति बढ़ने से न केवल देश के लोगों की आवश्यकताएं पूरी होती हैं बल्कि विदेशों में वस्तुओं का निर्यात बढ़ने से विदेशी मुद्रा के रूप में आय प्राप्त होती है।
  4. जीवन स्तर के लिए सहायक–देश में साफ सुथरा वातावरण, सेहत सहूलतों के बढ़ने से लोगों के काम करने की समर्था में वृद्धि होती है। उन की आय बढ़ जाती है और इस से राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।

प्रश्न 4.
ऊर्जा के परम्परागत तथा गैर परम्परागत स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. परम्परागत स्रोत (Conventional Sources)-इनको गैर-नवीनीकरण (Non-Renewable Source) भी कहा जाता है अर्थात इनका प्रयोग एक बार ही किया जा सकता है जितनी देर तक देश में इन स्रोतों के भंडार होते हैं तब तक ही यह प्रयोग में आ सकते हैं जैसे कि कोयला (Coal), पैट्रोल तथा गैस (Patrol and Gas) और बिजली (Electricity) आदि।
  2. गैर परम्परागत स्रोत (Non-Conventional Sources)-इनको नवीनीकरण स्रोत (Renewable Sources) कहा जाता है। यह प्रकृति की मुफ्त देन होती है जिसका प्रयोग हम बार बार कर सकते हैं। इन स्रोतों द्वारा ऊर्जा पैदा करना आसान होता है। जैसे कि सूर्य ऊर्जा (Solar Energy), वायु ऊर्जा (Wind Energy), बायो गैस ऊर्जा (BioGas Energy) आदि इसके महत्त्वपूर्ण रूप हैं। ये स्रोत प्रकृति द्वारा दिये जाते हैं और इनका अन्त नहीं होता। इन स्रोतों को विकसित करने की आवश्यकता है जिससे दीर्घकाल तक विकास किया जा सकता है।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? बुनियादी ढांचे की किस्में बताएं। (What is meant by Infrastructure ? Explain the types of Infrastructure.)
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ (Meaning of Intrastructure)-बुनियादी ढांचे शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ्रांस में 1880 में किया गया। यह फ्रेन्च भाषा के दो शब्दों को मिलाकर बनाया गया। Infra जिसका अर्थ है नीचे का (Below) और Structure का अर्थ है ढांचा (Building) बुनियादी ढांचा आधार होता है जिसके ऊपर अर्थव्यवस्था का ढांचा तैयार किया जाता है। 1987 में अमरीका की राष्ट्रीय खोज कौंसिल (National Reserach Council) ने सार्वजनिक ढांचे के रूप में इसका प्रयोग किया जिससे हाईवेज़, हवाई अड्डे, टैलीकमिनीकेशन और जल आपूर्ति के लिए इसका प्रयोग किया गया।

बुनियादी ढांचे से अभिप्राय उन सहूलतों से है जिन के द्वारा अर्थव्यवस्था का संचालन किया जाता है जिससे चिरकालीन विकास हो सके। बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक अथवा निजी ढांचे को शामिल किया जाता है। इसमें सड़कें (Roads), रेलवे (Railways), पुल (Bridges) जल आपूर्ति (Water Supply), सीवरेज़ (Sewage), बिजली (Electricity), संचार (Telecommunication) और इन्टरनेट (Internet) आदि को शामिल किया जाता है। इसको परिभाषा देते हुए जैफ़री फलमर (Joffery Fulmer) ने कहा है, “बुनियादी ढांचा अन्तर सम्बन्धत प्रणाली को कहा जाता है जिस द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं की सुविधा प्रदान करके चिरकालीन विकास अथवा सामाजिक जीवन स्थितियाँ पैदा करके वातावरण को ठीक रखा जाता है।” (“Infrastructure is the physical components of inter-related system providing commodities and services essential to enable sustain or enhance social living conditions to maintain the surrounding or environment.” Jaffery Fulmer).

बुनियादी ढांचे का वर्गीकरण (Classification of Infrastructure) बुनियादी ढांचे को दो भागों में बांटा जा सकता है-

  1. सख्त और स्थूल बुनियादी ढांचा (Hard Infrastructure)-सख्त बुनियादी ढांचे में भौतिक काम (Physical Network) होते हैं। जिस के द्वारा उद्योगों (Industries) का संचालन किया जाता है। इनमें सड़कें, पुल, फ्लाईओवर, रेलें आदि का विकास शामिल होता है। इस को आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure) भी कहा जाता है।
  2. नरम बुनियादी ढांचा (Soft Infrastructure)-नरम बुनियादी ढांचे में वे संस्थाएं शामिल होती हैं जिन के द्वारा आर्थिक, सेहत, सामाजिक वातावरण और अस्पताल, पार्क, मनोरंजन सहूलतें, कानून व्यवस्था आदि सेवाओं को शामिल किया जाता है। इस को सामाजिक बुनियादी ढांचा भी कहा जाता है।

बुनियादी ढांचे की किस्में (Types of Infrastructure)-बुनियादी ढांचे की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं-
1. आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure)-आर्थिक बुनियादी ढांचे में सड़कें, यातायात के साधन, जलापूर्ति, सीवरेज, कृषि का विकास, औद्योगिक विकास ऊर्जा आदि के विकास को शामिल किया जाता है। जिस से उत्पादन में वृद्धि होती है।

2. सामाजिक बुनियादी ढांचा (Social Infrastructure)-इसमें समाजिक सुविधाओं को शामिल किया जाता है जिनमें शिक्षा संस्थान, अस्पताल, पार्क आदि के विकास पर बल दिया जाता है। इसकी व्याख्या 1965 में प्रो. हैलसेन ने की थी।

3. निजी बुनियादी ढांचा (Personal Infrastructure)-निजी बुनियादी ढांचे में मानव पूँजी (Human Capital) को शामिल किया जाता है। जब लोग शिक्षा प्राप्त करके अपने कौशल का विकास करते हैं और उनकी सेहत अच्छी होती है तो उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है। इसको निजी बुनियादी ढांचा कहा जाता है।

4. भौतिक बुनियादी ढांचा (Material Infrastructure)-भौतिक बुनियादी ढांचे में अचल पूँजी (Immoveable Capital) को शामिल किया जाता है। इस में उद्योगों का विकास, कृषि की उत्पादन शक्ति में वृद्धि करके लोगों की आवश्यकता को पूरा किया जाता है।

5. ज़रूरी बुनियादी ढांचा (Core Infrastructure)-कुछ अर्थशास्त्रियों ने बुनियादी ढांचे क्षेत्रों में जरूरी बुनियादी ढांचे को शामिल किया है इसमें निवेश द्वारा आय में वृद्धि, मुद्रा स्फीति को काबू में रखना, उद्योगों का विकास, सड़कें, नहरें, बिजली आदि को शामिल किया जाता है।

6. आधारभूत बुनियादी ढांचा (Basic Infrastructure)-इसमें सड़कें, नहरें, रेलें, बंदरगाहों का विकास, भूमि की उपज में वृद्धि आदि को शामिल किया जाता है। यदि हम देखें तो बुनियादी ढांचे को दो किस्मों आर्थिक बुनियादी ढांचा और सामाजिक बुनियादी ढांचे को अलगअलग नाम दिये गए हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 2.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व को स्पष्ट करें। (What is meant by Infrastructure ? Discuss the importantce of Infrastructure)
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ (Meaning of Infrastructure)-बुनियादी ढांचे से अभिप्राय उन आधारभूत सुविधाओं से है जिन के द्वारा देश का आर्थिक विकास तेजी से किया जा सकता है। इन में कृषि पैदावार, औद्योगिक विकास, सड़कें, यातायात के साधन, रेलवे, बिजली, जलापूर्ति आदि सुविधाओं को शामिल किया जाता है।

बुनियादी ढांचे का महत्त्व (Importance of Infrastructure)-

  1. आर्थिक विकास में वृद्धि (Increase in Economic Development)-प्रत्येक देश का मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास प्राप्त करना होता है। इस के लिए बुनियादी ढांचे का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। देश में उत्पादन में वृद्धि होती है। मानव पूँजी का विकास होता है तो आर्थिक विकास तेजी से होता है।
  2. रोज़गार में वृद्धि (Increase in Employment)-बुनियादी ढांचे के विकास से देश में रोज़गार के नए अवसर पैदा होते हैं। जब देश में सड़कें, पुल, डैम आदि का निर्माण होता है तो रोज़गार में वृद्धि होती है। यह काम पूरा होते ही उद्योग स्थापित होते हैं, कृषि पैदावार बढ़ जाती है, होटल, बैंक, सुविधाएं अधिक हो जाती हैं तो रोज़गार में और वृद्धि होती है।
  3. उत्पादन शक्ति में वृद्धि (Increase in Productivity)-उत्पादन शक्ति में वृद्धि बुनियादी ढांचे पर निर्भर करती है। जब देश में आर्थिक तथा सामाजिक बुनियादी ढांचे का विकास होता है तो लोगों की उत्पादन शक्ति बढ़ जाती है जिस द्वारा न केवल देश के लोगों की आवश्यकताएं पूरी होती हैं बल्कि विदेशों की ज़रूरतों को पूरा किया जाता है।
  4. अर्थव्यवस्था के संचालन में सहायक (Helpful in Functioning of the Economy)-किसी देश के प्राकृतिक तथा मानव संसाधनों के उचित उपयोग के लिए भी बुनियादी ढांचा महत्त्वपूर्ण होता है। यातायात, संचार, बिजली, पानी, बैंकिंग आदि सहूलतें आर्थिक विकास के लिए अति आवश्यक होती हैं। इस से देश के साधनों का पूर्ण उपयोग संभव होता है।
  5. विदेशी काम के लिए सहायक (Helpful in Outsourcing)-जब विदेशी कंपनियां आपना काम दूसरे देशों में प्रारंभ करती हैं तो वहाँ के लोगों से सहयोग लिया जाता है। यदि लोगों को काम करने का ज्ञान है और वे आधुनिक, कम्पूयटर आदि को संचालन कर सकते हैं तो काल सैंटर (Call Center) खोल कर आय प्राप्त कर सकते हैं।
  6. जीवन स्तर के लिए सहायक (Helpful in Standard of Living)-जिस देश में बुनियादी ढांचा विकसित हो जाता है उस देश के लोगों को रोजगार प्राप्त होता है। उनकी आय बढ़ जाती है।

इससे रहन-सहन पर अच्छा प्रभाव पढ़ता है। लोग अपने बच्चों को शिक्षा और उच्च शिक्षा दिलवाने के काबिल हो जाते हैं। इससे लोगों की काम करने की शक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है और आर्थिक विकास होता है।

प्रश्न 3.
भारत में ऊर्जा के स्रोतों को वर्णन करो। Explain the sources of Energy in India.
उत्तर-
ऊर्जा आर्थिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसको दो भागों में बांट कर स्पष्ट किया जा सकता है|
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा 2
(A) परम्परागत स्रोत (Conventional Source)-परम्परागत स्रोत को गैर नवीनीकरण स्रोत भी कहा जाता है। जैसे जैसे हम परम्परागत स्रोतों का प्रयोग करते हैं तो धीरे-धीरे इन के भंडार समाप्त हो जाते हैं। इस कारण इन को गैर नवीनीकरण स्रोत कहा जाता है।

परम्परागत स्रोत दो प्रकार के होते हैं।

  • व्यापारिक स्रोत (Conventional Source)
  • गैर-व्यापारिक स्त्रोत (Non-conventional Source) ।

व्यापारिक स्त्रोंतो में मुख्य स्रोत

  1. कोयला
  2. पैट्रोल और प्राकृतिक गैस
  3. बिजली होते है और गैर

व्यापारिक स्रोत

  • लकड़ी
  • कृषि कूड़ा करकट
  • सूखा गोबर (उपले)।

इस अध्याय में हम व्यापारिक परम्परागत स्रोतों का अध्ययन करेंगे-
1. कोयला (Coal)-भारत में व्यापारिक परम्परागत स्रोत कुल स्रोतों का 74% हैं जिनमे कोयले का भाग 44% हैं। 2020-21 में अनुमान लगाया गया है कि कोयले के भंडार 100 साल के पश्चात समाप्त हो जाएंगे। कोयला उत्पादन में भारत का विश्व में चौथा स्थान है। भारत में कोयला थर्मल प्लांटों, फैक्ट्रियों, रेलों आदि में प्रयोग किया जाता है। कोयले के भंडार उड़ीसा, बिहार, बंगाल तथा मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। भारत में भूरे कोयले (Liginite) के भंडार भी हैं जो कि नवेली (Neyveli) में पाए जाते हैं। इस कोयले का भंडार लगभग 3300 मिलियन टन है।

2. पैट्रोल तथा प्राकृतिक गैस (Petrol & Natural Gas)-पैट्रोल भी ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसका प्रयोग विश्व भर में किया जाता है। पैट्रोल का प्रयोग वाहनों (Automobiles) रेल गाड़ियों (Railway), हवाई जहाजों (Aeroplans) और समुद्री जहाजों (Ships) आदि के लिए किया जाता है। भारत में पैट्रोल आसाम, बाम्बे हाई और गुजरात में मिलता है। 2000-01 में अनुमान लगाया गया था कि भारत में 32 मिलियन टन पैट्रोल के भण्डार हैं यह देश की 25% आवश्यकताओं को पूरा करता है।

बाकी पैट्रोल खाड़ी देशों से आयात किया जाता है। भारत में तेल साफ करने की पहली रिफाइनरी आसाम में लगाई गई थी। इस के पश्चात भारत में 13 और रिफाइनरियाँ स्थापत की गई हैं जिन की तेल शोधक क्षमता 604 लाख टन है। यदि इस रफ्तार से पैट्रोल का प्रयोग भारत के पैट्रोल भण्डारों से किया गया तो 20-25 वर्ष में यह भंडार समाप्त हो जाएंगे। प्राकृतिक गैस भी ऊर्जा का स्रोत है। यह रासायनिक खाद और कैमीकल के उद्योगों में प्रयोग होती है। इस को खाना बनाने में भी प्रयोग किया जाता है।

3. बिजली (Electricity)-बिजली सब से अधिक प्रयोग किया जाने वाला और सब से अधिक प्रचलित ऊर्जा स्रोत है। इस का प्रयोग व्यापारिक कार्यों तथा घरेलू उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इस का प्रयोग खाना बनाने, पंखे, ऐ०सी० फ्रिज, कपड़ा धोने की मशीनों आदि के लिए किया जाता है। इस को कृषि उपकरणों को चलाने, उद्योगों के संचालन, व्यापारिक संस्थानों तथा घरेलू उपयोग के लिए किया जाता है।

भारत में कुल बिजली का 25% भाग कृषि के लिए, 36% भाग उद्योगों के लिए 24% भाग घरेलू कामों के लिए तथा अन्य 15% भाग और कामों के लिए प्रयोग किया जाता है। भारत में बिजली पैदा करने के तीन स्रोत हैं।

  • थर्मल शक्ति (Thermal Power)
  • हाईड्रो इलैक्ट्रिक शक्ति (Hydro Electric Power)
  • अणु शक्ति (Neuclear Power)।

31 मार्च 2020 तक भारत में बिजली पैदा करने की क्षमता 356100 MW है। जिसमें 68% थर्मल प्लांटों द्वारा प्राप्त की जाती है जिसका हिस्सा अब कम हो रहा है।

गैर-परम्परागत स्रोत (Non-Conventional Source)-गैर-परम्परागत स्रोतों को नवीनीकरण स्रोत (Renewable Source) भी कहा जाता है। गैर-परम्परागत स्रोत निम्नलिखित अनुसार हैं-
1. सौर ऊर्जा (Solar Energy)-सौर ऊर्जा एक महत्त्वपूर्ण और ऊर्जा का मुफ्त स्रोत है। विश्व में जितनी कुल ऊर्जा की ज़रूरत है उससे 15000 गुणा अधिक सौर ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। एक वर्ग km में 20 MW प्लांट की स्थापना की जा सकती है। सौर ऊर्जा को तीन भागों में बांटा जा सकता है। कम तापमान वाले यंत्र (100°C), मध्य ताप यत्र (100°C से 300°C) और उच्च ताप यंत्र 300°C से अधिक ऊर्जा पैदा करने के लिए यंत्र। इन का प्रयोग होटलों में, डेयरी फार्मों में, कपड़ा उद्योगों में तथा घर के कामों के लिए किया जा सकता है।

2. वायु ऊर्जा (Wind Energy) वायु द्वारा भी ऊर्जा पैदा की जा सकती है। भू-मध्य रेखा पर अधिक गर्म जलवायु होती है। जैसे हम उत्तरी पोल तथा दक्षणी पोल की तरफ जाते हैं। गर्मी कम होती जाती है। जहां पर वायु 15 km/h (15 km प्रति घंटा) की रफ्तार से चलती है वहां पर वायु ऊर्जा यन्त्र लगाए जा सकते हैं। यदि वायु 25 km/ h से 30 km/h की रफ्तार से चलती है वहाँ पर ज्यादा ऊर्जा पैदा की जा सकती है। भारत में अनुमान है कि 20,000 MW ऊर्जा वायु ऊर्जा द्वारा पैदा की जा सकती है।

3. बायो-ऊर्जा (Bio-Energy)-बायो ऊर्जा भी ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। यह लकड़ी उद्योग, कृषि तथा घरों से निकलने वाले कचरे के प्रयोग से ऊर्जा के निर्माण में सहायक होता है। पशुओं के गोबर से भी गैस प्राप्त की जा सकती है जिस का प्रयोग घर में खाना बनाने के लिये किया जा सकता है। कचरे द्वारा जो ऊर्जा पैदा की जाती है इस का दोहरा लाभ होता है। एक तो कचरे से पैदा होने वाला प्रदूषण समापत हो जाता है तथा इस के प्रयोग द्वारा जो बिजली उत्पन्न होती है उस का प्रयोग भी होता है। विकसित देशों में बायो ऊर्जा द्वारा भी ऊर्जा प्राप्त की जा रही है। आधुनिक युग में अनु ऊर्जा (Atomic Energy) के प्लांट भी स्थापित किये जा रहे हैं जिस द्वारा ऊर्जा पैदा करके देश की आवश्यकताओं को पूरा करने के यत्न किये जा रहे हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 4.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? आर्थिक बुनियादी ढांचे के अंश बताएं।
(What do you mean by Infrastructure? Give brief account of components of economic Infrastructure?)
उत्तर-
बुनियादी ढांचे से अभिप्राय वह सुविधायें, काम अथवा सेवाएं हैं जो कि अर्थव्यवस्था के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों का विकास करने के लिए योगदान डालते हैं। देश का पूँजी भण्डार जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिए आवश्यक सेवाएं प्रदान करता है उस को बुनियादी ढांचा कहा जाता है। (“Infrastructure means the services and facilities which are helpful in development of Primary secondary & teritary sectors of the economy.”)
आर्थिक बुनियादी ढांचे के अंश- (Components of Economic Infrastructure) आर्थिक बुनियादी ढांचे के तीन अंश होते हैं –
1. ऊर्जा (Energy)
2. यातायात (Transportation)
3. संचार (Communication)
1. ऊर्जा (Energy)-ऊर्जा के बगैर औद्योगिक विकास संभव नहीं होता। ऊर्जा दो प्रकार की होती है। व्यावहारिक ऊर्जा (Commercial Energy) जिसमें कोयला (Coal), पैट्रोल (Petrol) प्राकृतिक गैस (Natural Gas) और बिजली (Electricity) को शामिल किया जाता है। गैर परंपरागत ऊर्जा में लकड़ी, पशुओं तथा कृषि का कचरा शामिल किया जाता है।

व्यावहारिक ऊर्जा के स्रोत इस प्रकार हैं-

  • कोयला (Coal)-कोयला ऊर्जा का पुरातन तथा महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत में कोयला काफी मात्रा में पाया जाता है। इस के भण्डार 100 वर्ष तक चलने की संभावना है।
  • पैट्रोल (Petrol)-पैट्रोल भी ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत में यह आसाम, बांबे हाई और गुजरात में पाया जाता है। इस के भण्डार देश की 25% आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
  • प्राकृतिक गैस (Natural Gas)-प्राकृतिक गैस भी बुनियादी ढांचे का अंश है। इस का प्रयोग घरों में खाना बनाने तथा खाद बनाने के लिए किया जाता हैं।
  • बिजली (Electricity)-बिजली भारत में थर्मल प्लांटों हाईड्रो इलैक्ट्रिक पावर और अणु शक्ति से प्राप्त की जाती है।

(A) गैर परंपरागत स्रोत (Non Conventional Sources)-

  • सूर्य ऊर्जा (Solar Energy)-भारत में यह महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकता है क्योंकि वर्ष के 365 दिनों में से 325 से 335 दिन तक सूर्य ऊर्जा उत्पादन की जा सकती है।
  • वायु ऊर्जा (Wind Energy)-भारत के पठारी इलाके में वायु ऊर्जा उत्पादन की जा सकती है।
  • बायो ऊर्जा (Bio-Energy)-यह पशुओं तथा कृषि के कचरे से पैदा की जा सकती है।

(B) यातायात (Transportation) यातायात भी बुनियादी ढांचे का महत्त्वपूर्ण अंश है। यातायात में रेलवे, सड़कें, जल यातायात, हवाई यातायात को शामिल किया जाता है।

  • रेल यातायात (Rail Transportation)-भारत में रेल यातायात सब से महत्त्वपूर्ण यातायात का स्रोत है। इस समय रेलों का जाल देश भर में फैला हुआ है। भारत में रेलवे ट्रैक 1,15,000 km है। यह एशिया में सब से अधिक और विश्व में दूसरे स्थान पर है। यह ट्रैक 67368 km क्षेत्र में फैला हुआ है।
  • सड़क यातायात (Road Transportation)-भारत में मार्च 2019 तक 1,32,500 km राष्ट्रीय सड़क मार्ग तथा 1,76,166 km राज्य सड़क मार्ग से सड़कों द्वारा मुसाफिरों तथा माल का आवागमन होता है।
  • जल यातायात (Water Transportation)-जल यातायात भी बुनियादी ढांचे का महत्त्वपूर्ण साधन है। यह भारत में 14,500 km क्षेत्र में फैला हुआ है जिसमें से 5,685 km व्यापारिक वाहनों के लिये प्रयोग किया जाता है।
  • हवाई यातायात (Air Transportation)-हवाई यातायात से लोग एक स्थान से दूसरे स्थानों तक सफर करते हैं तथा माल भी दूसरे स्थानों पर भेजा जाता है। भारत में दो हवाई कंपनियां हैं। पहली Air India जिस द्वारा 28 अन्तर्राष्ट्रीय तथा 13 घरेलू उड़ानें भरी जाती हैं। दूसरी Indian Airlines जो देश में 58 स्थानों को आपस में जोड़ती है।

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(C) संचार (Communication)-संचार में डाक सेवाएं (Postal Services), टैलीफोन सेवाएं (Telephone Services) तथा टैलीग्राम सेवाएं (Telegraphic Services) को शामिल किया जाता है।

  1. डाक सेवाएं (Postal Services) भारत में डाक विभाग बहुत पुरातन संचार का साधन है। भारत में इस समय लगभग 1,56,000 डाकखाने हैं। जिन में से 1,39,000 डाकखाने गाँव में स्थित है। प्रत्येक डाकखाने को पिन कोड दिया गया है। यह डाकखाने E Post, Speed Post, Express Post, Satellite Post आदि सेवाएं प्रदान करते हैं।
  2. टैलीफोन सेवाएं (Telephone Services)-भारत में टैलीफोन भी संचार का साधन है। टैलीफोन सेवाओं में भारत एशिया भर में पहले स्थान पर है। STD की सुविधा 23000 से अधिक स्थान पर दी जाती है।
  3. टैलीग्राफ सेवाएं (Telegraph Services)-भारत में लगभग 45,000 टैलीग्राफ दफ्तर हैं। इनके द्वारा देश में लिखती संदेश भेजे जाते हैं। इन आर्थिक सेवाओं द्वारा देश के आर्थिक विकास में वृद्धि होती है। प्रत्येक बजट में आर्थिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के लिए यत्न किये जा रहे हैं। इस द्वारा देश के आर्थिक विकास में तेजी से वृद्धि होने की संभावना है|

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 19 भारत में कृषि

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 19 भारत में कृषि Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 भारत में कृषि

PSEB 12th Class Economics भारत में कृषि Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कृषि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत में कृषि का महत्त्वभारत की राष्ट्रीय आय का अधिक भाग कृषि से प्राप्त होता है और कृषि उत्पादन रोज़गार का मुख्य स्रोत है।

प्रश्न 2.
कृषि उत्पादन तथा कृषि उत्पादकता में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
कृषि उत्पादकता में खाद्य उपज जैसे गेहूं इत्यादि और कृषि उत्पादकता द्वारा प्रति हेक्टेयर उत्पादन का माप किया जाता है।

प्रश्न 3.
भूमि सुधारों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भूमि सुधारों से अभिप्राय है

  • ज़मींदारी प्रथा का खात्मा
  • काश्तकारी प्रथा में सुधार
  • चकबंदी
  • भूमि की अधिक-से-अधिक सीमा निर्धारित करना
  • सहकारी खेती।

प्रश्न 4.
भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के कोई दो कारण बताओ।
उत्तर-

  1. सिंचाई की कमी।
  2. कृषि के पुराने ढंग।

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प्रश्न 5.
किसी खेत में पशुओं तथा फ़सलों के उत्पादन सम्बन्धी कला तथा विज्ञान को ……….. कहते हैं।
(a) अर्थशास्त्र
(b) समाजशास्त्र
(c) कृषि
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(c) कृषि।

प्रश्न 6.
कृषि उत्पादकता में .. …………. उत्पादन का माप किया जाता है।
(a) कुल उत्पादन
(b) प्रति हेक्टेयर
(c) फसलों के
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(b) प्रति हेक्टेयर।

प्रश्न 7.
कृषि उत्पादन में ………….. में परिवर्तन का माप किया जाता है।
उत्तर-
उपज।

प्रश्न 8.
भूमि के भू-स्वामी से सम्बन्धित तत्त्वों को ……………. तत्त्व कहा जाता है।
उत्तर-
संस्थागत तत्त्व।

प्रश्न 9.
(1) ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति
(2) चक्कबंदी
(3) सहकारी खेती आदि को ……………… सुधार कहा जाता है।
उत्तर-
भूमि सुधार।

प्रश्न 10.
गेहूं, चावल, दालें, आदि फ़सलों को ……………. फ़सलें कहा जाता है।
उत्तर-
खाद्य फ़सलें।

प्रश्न 11.
भारत में वर्ष 2019-20 में 296.65 मिलियन टन अनाज की पैदावार हुई।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 12.
जिस नीति द्वारा उन्नत बीज, रासायनिक खाद, सिंचाई, कृषि, वित्त आदि में सुधार किया गया है उसको नई कृषि नीति कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

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प्रश्न 13.
कृषि से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
एक खेत में फसलों तथा पशुओं की पैदावार को कृषि कहा जाता है।

प्रश्न 14.
कृषि में संस्थागत तत्त्वों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भूमि के आकार और स्वामित्व से सम्बन्धित तत्त्वों को कृषि के संस्थागत तत्त्व कहा जाता है।

प्रश्न 15.
कृषि में तकनीकी तत्त्वों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कृषि में खेतीबाड़ी की विधियों को कृषि के तकनीकी तत्त्व कहा जाता है।

प्रश्न 16.
भारत में कृषि की उत्पादकता के पिछड़ेपन के लिए मुख्य तीन प्रकार के तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादकता के पिछड़ेपन के लिए मानवीय, संस्थागत और तकनीकी तत्त्व आते हैं।

प्रश्न 17.
नई कृषि नीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में उन्नत बीज, रासायनिक खाद्य, सिंचाई और कृषि सुधारों को कृषि की नई नीति कहा जाता है।

प्रश्न 18.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में नई कृषि के फलस्वरूप अनाज की वृद्धि को हरित क्रान्ति कहा जाता है।

प्रश्न 19.
भारत में 2019-20 में चावल का उत्पादन 117.47 मिलियन टन और गेहूँ का उत्पादन 106.21 मिलियन टन हुआ।
उत्तर-
सही।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कवि की कोई दो समस्याएं बताएं।
उत्तर-
1. कम उत्पादकता (Less Productivity)-भारत में विकसित देशों की तुलना में प्रति श्रमिक उत्पादकता बहुत कम है। भारत में प्रति श्रमिक उत्पादकता 1146 डालर जबकि नार्वे में 97879 डालर है। इसी तरह विभिन्न फसलों का उत्पादन भी बहुत कम है। गेहूं, चावल, कपास, पटसन इत्यादि उपज की पैदावार पश्चिमी देशों से बहुत कम है।

2. कृषि उत्पादन तथा रोज़गार (Agriculture and Employment)-भारत में कृषि रोज़गार का महत्त्वपूर्ण साधन है। 1951 में 97 मिलियन लोगों को रोज़गार कृषि उत्पादन में प्राप्त होता था। 2019-20 में 519 मिलियन लोग (57.9%) कृषि उत्पादन के पेशे में लगे हुए थे। भारत में लगभग दो तिहाई जनसंख्या का कृषि उत्पादन क्षेत्र पर निर्भर रहना, जहां कृषि के महत्त्व का सूचक है, वहां देश के अल्पविकसित होने का प्रमाण है।

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प्रश्न 2.
भारत में कृषि की कोई दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादन की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं-
1. कम उत्पादकता- भारत में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हो हुई है परंतु विश्व के कई देशों से यह अब भी बहुत कम है। 2019-20 में भारत में गेहूं का उत्पादन 3307 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि इंग्लैंड में 8810 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। चावल को पैदावार भारत में 2659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जबकि अमेरिका में 686 किलोगाम पनि हेक्टेयर है ! इस्पसे गना लगता है कि भारत की तुलना में प्रत्येक देशों में फसलों की उपज अति है।

2. क्षेत्रीय असमानता–भारतीय ताषि में क्षेत्रीय असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत के कई राज्यों जैसे कि हरियाणा, पंजाब, आग प्रदेश, महाराष्ट्र, इत्यादि में अनाज का उत्पादन काफ़ी बढ़ा है। परन्तु कुछ राज्यों जैसे कि बिहार, छतीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि में खुराक-अनाज के उत्पादन में बहुत कम वृद्धि हुई है।

प्रश्न 3.
भारत में कृषि की समस्याओं को हल करने के लिए कोई दो सुझाव दें।
उत्तर-

  • जनसंख्या का कम दवाय-कृषि की उन्नति के लिए अनिवार्य है कि भूमि पर जनसंख्या का दबाव कम किया जाए। इसीलिए उद्योगों का विकास अनिवार्य है।
  • मशीनीकरण-कृषि के विकास के लिए नए यन्त्र बनाए जाने चाहिए। इससे उत्पादकता में वृद्धि होगी।

प्रश्न 4.
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् किसी एक भूमि सुधार का वर्णन करें।
उत्तर-
भूमि की उच्चतम सीमा- भूमि की उच्चतम सीमा का अर्थ है कि एक मनुष्य अथवा परिवार अधिक-सेअधिक कितनी कृषि योग्य भूमि का मालिक हो सकता है। यदि किसी मनुष्य अथवा परिवार के पास उच्चतम सीमा से अधिक भूमि है तो भूमि भू-स्वामियों से ले ली जाएगी इसके बदले में मुआवजा दिया जाएगा। यह अधिक प्राप्त भूमि छोटे किसानों, काश्तकारों तथा भूमिहीन कृषि मज़दूरों में विभाजित की जाएगी। इसका मुख्य उद्देश्य देश में भूमि का समान तथा उचित वितरण करके उत्पादन में वृद्धि करना है।

प्रश्न 5.
कृषि की नई नीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नई कृषि नीति का अर्थ- भारत में कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए लॉर्ड फाऊंडेशन की प्रधानगी अधीन एक दल 1959 में अमेरिका से आया। इस दल की सिफारिशों को ध्यान में रखकर जो नीति अपनाई गई उसको नई कृषि नीति कहा जाता है। नई कृषि नीति से अभिप्राय उस नीति से है जिसका उद्देश्य कृषि विकास के नए साधनों, उन्नत बीजों, रासायनिक खाद, सिंचाई, कृषि वित्त, पौधों की सुरक्षा करना तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है।

प्रश्न 6.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप अनाज में हुई 25% वृद्धि को हरित क्रान्ति का नाम दिया गया है। प्रो० जे० जी० हुगर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द का प्रयोग 1968 में होने वाले आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए किया जाता है, जो भारत में अनाज के उत्पादन में हुआ था तथा अब भी जारी है।” हरित क्रान्ति के मुख्य कारण-

  • सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि,
  • रासायनिक खादों का प्रयोग,
  • उन्नत बीज,
  • बहु-फसली कृषि,
  • आधुनिक कृषि यंत्र,
  • साख सुविधाएं हैं।”

III. लयु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कृषि के महत्त्व को स्पष्ट करो।
उत्तर-
भारत में कृषि बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि 60% जनसंख्या कृषि क्षेत्र पर निर्भर करती है। कृषि के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. राष्ट्रीय आय-भारत में राष्ट्रीय आय का लगभग आधा भाग कृषि क्षेत्र से प्राप्त होता है।
  2. रोज़गार-भारत में कृषि रोज़गार का मुख्य स्रोत है। सन् 2015 में 60 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त कर रही थी।
  3. विदेशी व्यापार–भारत के विदेशी व्यापार में कृषि का बहुत महत्त्व है। कृषि पदार्थों का निर्यात करके विदेशों से मशीनों का आयात किया जाता है।
  4. आर्थिक विकास- भारत की कृषि देश के आर्थिक विकास का आधार है। दशम् योजना में कृषि के विकास पर अधिक जोर दिया गया है।

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प्रश्न 2.
भारत में कृषि विकास के लिए किए गए प्रयत्नों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि के विकास के लिए बहुत प्रयत्न किए गए हैं।
1. उत्पादकता में वृद्धि-कृषि की उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए नए बीजों का प्रयोग किया गया है। फसलों के ढांचे के रूप में परिवर्तन किया जा रहा है।
2. तकनीकी उपाय-तकनीकी उपायों में-

  • सिंचाई का विस्तार,
  • बहुफसली कृषि
  • खाद्य
  • अधिक उपज देने वाले बीज
  • वैज्ञानिक ढंग से कृषि इत्यादि द्वारा कृषि विकास किया गया है।

3. संस्थागत उपाय-संस्थागत उपायों में

  • ज़मींदारी का खात्मा
  • काश्तकारी प्रथा
  • साख-सुविधाएं
  • बिक्री संबंधी सुधार शामिल हैं।

4. नई कृषि नीति-कृषि के विकास के लिए सरकार ने नई कृषि नीति अपनाई है, इसमें

  • अनुसंधान
  • पूंजी निर्माण
  • बिक्री तथा स्टोरज़
  • जल संरक्षण
  • सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि करना शामिल किए गए हैं।

प्रश्न 3.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है? हरित क्रान्ति के प्रभावों का वर्णन करो।
उत्तर-
भारत में नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप अनाज में हुई 25% वृद्धि को हरित क्रान्ति का नाम दिया गया है। प्रो० जे० जी० हुगर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द का प्रयोग 1968 में होने वाले आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए किया जाता है, जो भारत में अनाज के उत्पादन में हुआ था तथा अब भी जारी है।” हरित क्रान्ति के मुख्य कारण-

  • सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि,
  • रासायनिक खादों का प्रयोग,
  • उन्नत बीज,
  • बहु-फसली कृषि,
  • आधुनिक कृषि यंत्र,
  • साख सुविधाएं हैं।

प्रभाव-हरित क्रांति के मुख्य प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. हरित क्रांति के फलस्वरूप उत्पादन में बहुत वृद्धि हो गई है।
  2. हरित क्रांति के फलस्वरूप किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।
  3. हरित क्रांति से गांवों में रोज़गार बढ़ने की संभावना हो सकती है।
  4. हरित क्रांति के कारण उद्योगों के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ा है।
  5. भारत में आर्थिक विकास तथा स्थिरता के उद्देश्यों की पूर्ति हो सकी है।
  6. देश में कीमतों के स्तर में कम वृद्धि हुई है।
  7. हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भोज्य पदार्थों के आयात में कमी आई है।

प्रश्न 4.
भारत में दूसरी हरित क्रान्ति के लिए क्या प्रयत्न किये गए?
उत्तर-
भारत में बाहरवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में दूसरी हरित क्रान्ति लाने के लिए निम्नलिखित प्रयत्न किये गए-

  1. सिंचाई सुविधाओं को दो गुणा क्षेत्र में बढ़ाया जाएगा।
  2. वर्षा के पानी से सिंचाई की जाएगी।
  3. बेकार भूमि को खेती योग्य बनाया जाएगा।
  4. खेती प्रति किसानों को अधिक ज्ञान प्रदान किया जाएगा।
  5. साधारण फसलों के स्थान पर फल, फूल की खेती पर अधिक जोर दिया जाएगा।
  6. पशुपालन तथा मछली पालन को अधिक महत्त्व दिया जाएगा।
  7. कृषि मंडीकरण में सुधार करने की आवश्यकता है।
  8. भूमि सुधारों को लागू किया जाएगा।
  9. खोज के काम में तेजी लाई जाएगी।
  10. कृषि उत्पादन में वृद्धि की जाएगी।

ग्यारहवीं योजना का लक्ष्य दूसरी हरित क्रान्ति को प्राप्त करना था।

IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत के कृषि-उत्पादन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(Explain the main features of Agriculture production in India.)
उत्तर-
कृषि उत्पादन को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। भारत में कुल मज़दूर शक्ति का 65% भाग कृषि उत्पादन में लगा हुआ है। 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद का 55.4% हिस्सा कृषि उत्पादन का योगदान था, जोकि 1990-91 में 30.9% रह गया। 2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद का 25% भाग कृषि उत्पादन का योगदान था। 2019-20 में 296.65 मिलियन टन अनाज की पैदावार हुई।

भारत की कृषि उत्पादन की कुछ मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-
1. कम उत्पादकता (Less Productivity)-भारत में विकसित देशों की तुलना में प्रति श्रमिक उत्पादकता बहुत कम है। भारत में प्रति श्रमिक उत्पादकता 1146 डालर जबकि नार्वे में 97879 डालर है। इसी तरह विभिन्न फसलों का उत्पादन भी बहुत कम है। गेहूं, चावल, कपास पटसन इत्यादि उपज की पैदावार पश्चिमी देशों से बहुत कम है।

2. कृषि उत्पादन तथा रोज़गार (Agriculture and Employment) भारत में कृषि रोज़गार का महत्त्वपूर्ण साधन है। 1951 में 97 मिलियन लोगों को रोज़गार कृषि उत्पादन में प्राप्त होता था। 2019-20 में 57.9% लोग कृषि उत्पादन के पेशे में लगे हुए थे। भारत में लगभग दो तिहाई जनसंख्या का कृषि उत्पादन क्षेत्र पर निर्भर रहना, जहां कृषि के महत्त्व का सूचक है, वहां देश के अल्पविकसित होने का प्रमाण है।

3. कृषि उत्पादन तथा उद्योग (Agriculture and Industry)-भारत जैसे अल्पविकसित देश में आर्थिक विकास की आरम्भिक स्थिति में कृषि का औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इससे उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है। कृषि के विकास से लोगों की आय बढ़ जाती है। इसीलिए औद्योगिक वस्तुओं की मांग में वृद्धि होती है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 19 भारत में कृषि

4. वर्षा पर अधिक निर्भरता (More Dependence on Rains)-भारत में कृषि उत्पादन प्रकृति पर अधिक निर्भर करती है। भारत में कुल भूमि का 70% हिस्सा वर्षा पर निर्भर करता है। यदि भारत में वर्षा नहीं पड़ती तो कोई फसल नहीं होती, क्योंकि पानी नहीं होता।

5. अर्द्ध व्यापारिक कृषि (Semi-Commercial Farming)—भारत में न तो कृषि जीवन निर्वाह के लिए की जाती है तथा न ही पूर्ण तौर पर व्यापारिक फ़सलों की बिजाई की जाती है। वास्तव में कृषि उत्पादन इन दोनों का मिश्रण है, जिसको अर्द्ध व्यापारिक कहा जाता है।

6. छोटे तथा सीमांत किसान (Small and Marginal Farmers)-देश में अधिकतर किसान छोटे तथा सीमांत हैं। इसका अभिप्राय है कि किसानों के पास भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े हैं, जिन पर जीवन निर्वाह के लिए कृषि की जाती है। बहुत-से किसानों के पास अपनी भूमि नहीं है, वह दूसरे किसानों से भूमि किराए पर लेकर कृषि करते हैं।

7. आन्तरिक व्यापार (Internal Trade)-भारत में 90% लोग अपन – 7765% हिस्सा अनाज, चाय, चीनी, दालें, दूध इत्यादि पर खर्च करते हैं। भारत जैसे अल्पविकसित देशों में कृषि का अधिक महत्त्व है।

8. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार (International Trade)-बहुत-सी कृषि आधारित वस्तुएं जैसे कि चाय, चीनी, मसाले, तम्बाकू, तेलों के बीज निर्यात किए जाते हैं। इससे विदेशी मुद्रा प्राप्त की जाती है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में कृषि पैदावार में 4% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। इस योजनाकाल में कृषि पर 1,34,636 करोड़ रुपए व्यय किए गए। 2020-21 में कृषि क्षेत्र में 3.4% वृद्धि की संभावना है।

प्रश्न 2.
भारत में कृषि उत्पादन की मुख्य समस्याओं का वर्णन करो। इन समस्याओं के हल के लिए सुझाव दीजिए।
(Explain the main problems of Agriculture Production in India. Suggest measures to solve the problems.)
अथवा
भारत के कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन के कारण बताओ। पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
(Discuss the main causes of backwardness of Agricultural Productivity. Suggest measures to remove the backwardness.)
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादन की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं
1. कम उत्पादकता-भारत में कृषि उत्पादकता में वृद्धि तो हुई है परंतु विश्व के कई देशों से यह अब भी बहुत कम है। 2019-20 में भारत में गेहूं का उत्पादन 3509 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि इंग्लैंड में 8810 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। चावल की पैदावार भारत में 2659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जबकि स्पेन में 6323 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इससे पता लगता है कि भारत की तुलना में प्रत्येक देशों में फसलों की उपज अधिक है।

2. क्षेत्रीय असमानता-भारतीय कृषि में क्षेत्रीय असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत के कई राज्यों जैसे कि हरियाणा, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि में अनाज का उत्पादन काफ़ी बढ़ा है। परन्तु कुछ राज्यों जैसे कि बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि में खुराक-अनाज के उत्पादन में बहुत कम वृद्धि हुई

3. संस्थागत तत्त्व-भारत में कृषि उत्पादन कम होने का एक कारण संस्थागत तत्त्व है। इसका एक मुख्य कारण भू-माल की प्रणाली (Land Tenure System) रही है। चाहे स्वतन्त्रता के पश्चात् ज़मींदारी प्रथा को खत्म कर दिया गया है, परंतु भू-मालिक आज भी मनमानी करते हैं। दूसरा, खेतों का छोटा आकार (Small size of farms) भी भारतीय कृषि के पिछड़ेपन का कारण है। भारत में खेतों का औसत आकार लगभग 2.3 हेक्टेयर है।

4. भूमि पर जनसंख्या का भार-कृषि के पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण है हमारे देश में कृषि पर बहुत अधिक लोग निर्भर करते हैं। भारत में सामाजिक वातावरण भी कृषि के लिए रुकावट है। भारतीय किसान अनपढ़ तथा अज्ञानी हैं, इसलिए नई तकनीकों का प्रयोग आसानी से खेतों पर लागू नहीं कर सकता।

5. कृषि के पुराने ढंग-भारत में कृषि करने का ढंग पुराना है। आज भी पुराने कृषि यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। ट्रैक्टर तथा आधुनिक कृषि यन्त्रों का कम प्रयोग होता है। अधिक ऊपज वाले बीजों का भी कम प्रयोग किया जाता है। कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए खाद्य का अधिक महत्त्व है, परन्तु भारत के किसान उचित मात्रा में खाद्य का प्रयोग भी नहीं कर सकते।

6. तकनीकी तत्त्व-तकनीकी तत्त्वों में सिंचाई की कम सुविधा, मानसून का जुआ, मिट्टी के दोष, कमज़ोर पशु, पुराने यन्त्रों का प्रयोग, फसलों की बीमारियाँ, दोषपूर्वक बिक्री प्रथा, साख-सुविधाओं की कमी इत्यादि शामिल हैं।

समस्याओं का समाधान अथवा कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सुझाव –

  • जनसंख्या का कम दबाव-कृषि की उन्नति के लिए अनिवार्य है कि भूमि पर जनसंख्या का दबाव कम किया जाए। इसीलिए उद्योगों का विकास अनिवार्य है।
  • मशीनीकरण-कृषि के विकास के लिए नए यन्त्र बनाए जाने चाहिए। इससे उत्पादकता में वृद्धि होगी।
  • सिंचाई सुविधाएं-सबसे अधिक ध्यान सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि करने की ओर देना चाहिए इससे आधुनिक खाद्य, अच्छे बीज तथा वैज्ञानिक कृषि सम्भव होगी।
  • वित्त सुविधाएं-किसानों को सस्ते ब्याज पर काफ़ी मात्रा में धन मिलना चाहिए। व्यापारिक बैंकों को गांवों में अधिक-से-अधिक शाखाएं खोलनी चाहिए।
  • भूमि सुधार-भारत में कृषि की उन्नति के लिए अनिवार्य है कि भूमि सुधार किए जाएं। काश्तकारी का लगान निश्चित होना चाहिए। यदि किसान लगान देते रहें, उनको बेदखल नहीं किया जाना चाहिए।
  • कृषि मण्डीकरण-कृषि मण्डीकरण में अन्य सुधार करने की आवश्यकता है। किसानों को उनकी फ़सल की उचित कीमत दिलाने के प्रयत्न करने चाहिए। शिक्षा प्रसार, छोटे किसानों को सहायता, योग प्रशासन, नई तकनीक का प्रयोग इत्यादि बहुत-से उपायों से कृषि के पिछड़ेपन को दूर करने की समस्याओं का हल किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप कृषि पैदावार 2019-20 में 296.65 मिलियन टन हुआ है।

प्रश्न 3.
भारत में स्वतन्त्रता के बाद होने वाले मुख्य भूमि सुधारों का वर्णन करो। भूमि सुधारों की धीमी गति के कारण तथा सफलता के लिए सुझाव दीजिए।
(Explain the main Land Reforms undertaken after the independence in India. Discuss the causes of slow progress and suggest measures for the success of Land Reforms.)
उत्तर-
कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए संस्थागत तत्त्वों (Institutional factors) का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। प्रो० मिर्डल अनुसार, “मनुष्य तथा भूमि में पाए जाने वाले नियोजित तथा संस्थागत पुनर्गठन को भूमि सुधार कहा जाता है” भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् निम्नलिखित भूमि सुधार किए गए-
1. ज़मींदारी प्रथा का अन्त-ब्रिटिश शासन दौरान ज़मींदारी प्रथा आरम्भ की गई थी। इसमें भूमि का स्वामी ज़मींदार होता था। वह किसानों को लगान पर भूमि काश्त करने के लिए देता था। 1950 में सबसे पहले बिहार में तथा बाद में सारे भारत में कानून पास किया गया, जिस अनुसार ज़मींदारी प्रथा का अन्त किया गया है। ज़मींदारी प्रथा में काश्तकारों का शोषण किया जाता था। ज़मींदारी प्रथा का खात्मा देश के भूमि सुधारों में पहला विशेष पग है।

2. काश्तकारी प्रथा में सुधार-जब कोई कृषि भूमि का मालिक स्वयं कृषि नहीं करता, बल्कि दूसरे मनुष्य को लगान पर जोतने के लिए भूमि दे देता है तो उस मनुष्य को काश्तकार (Tenant) कहते हैं। इस प्रथा को काश्तकारी प्रथा कहा जाता है। भारत में लगभग 40% भूमि इस प्रथा के अन्तर्गत है। इस सम्बन्ध में सुधार करने के लिए स्वतन्त्रता के पश्चात् कानून पास किए गए हैं। इस द्वारा लगान को निर्धारित किया गया है तथा काश्त अधिकारों की सुरक्षा सम्बन्धी कानून पास किए गए हैं। इसके परिणामस्वरूप भूमि उपज में वृद्धि हुई है।

3. भूमि की उच्चतम सीमा-भूमि की उच्चतम सीमा का अर्थ है एक मनुष्य अथवा परिवार अधिक-से अधिक कितनी कृषि योग्य भूमि का मालिक हो सकता है। यदि किसी मनुष्य अथवा परिवार के पास उच्चतम सीमा से अधिक भूमि है तो भूमि भू-स्वामियों से ले ली जाएगी इसके बदले में मुआवजा दिया जाएगा। यह अधिक प्राप्त भूमि छोटे किसानों, काश्तकारों तथा भूमिहीन कृषि मजदूरों में विभाजित की जाएगी। इसका मुख्य उद्देश्य देश में भूमि का समान तथा उचित वितरण करके उत्पादन में वृद्धि करना है।

4. चकबन्दी-भारत में किसानों के खेत छोटे-छोटे तथा इधर-उधर बिखरे हुए हैं। जब तक खेतों का आकार उचित नहीं होगा भूमि तथा अन्य साधनों का उचित प्रयोग नहीं किया जा सकता। छोटे-छोटे खेतों को एक बड़े खेत में बदलने को चकबन्दी कहा जाता है। पंजाब तथा हरियाणा में चकबन्दी का काम पूरा हो चुका है। शेष राज्यों में यह कार्य तेजी से चल रहा है।

5. सहकारी कृषि-सहकारी कृषि वह कृषि है जिसमें प्रत्येक किसान का अपनी भूमि पर पूरा हक होता है, परन्तु कृषि सामूहिक रूप से की जाती है। परन्तु भारत में सहकारी कृषि में सफलता प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि किसान अपनी भूमि की साझ का प्रयोग करना पसन्द नहीं करते।। भूमि के सम्बन्ध में मिलकियत, उपज, काश्तकारों के अधिकारों सम्बन्धी रिकार्ड रखने के लिए कम्प्यूटर का 26 राज्यों में प्रयोग किया जा रहा है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 19 भारत में कृषि

भूमि सुधारों की धीमी गति के कारण-भारत में भूमि सुधारों की धीमी गति के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भूमि सुधारों की नीति को धीरे-धीरे तथा बिना तालमेल के लागू किया गया।
  2. राजनीतिक इच्छा की कमी के कारण भूमि सुधारों की प्रगति धीमी रही।
  3. विभिन्न राज्यों में भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों का भिन्न-भिन्न होना।
  4. भूमि सुधार सम्बन्धी कानून दोषपूर्ण होने के कारण मुकद्दमेबाजी होती है।
  5. भूमि सुधारों की प्रभावपूर्ण अमल की कमी।

भूमि सुधारों की सफलता के लिए सुझाव-भूमि सुधारों की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं-

  • भूमि सम्बन्धी नए रिकार्ड तैयार किए जाएं।
  • भूमि सुधार सम्बन्धी कानून सरल तथा स्पष्ट होने चाहिए।
  • भूमि सुधारों में मुकद्दमे का फैसला करने के लिए विशेष अदालतों द्वारा कम समय में फैसले किए जाएं।
  • भूमि सुधारों सम्बन्धी गांवों के लोगों को पूरी तरह प्रचार द्वारा जानकारी दी जाए।
  • उच्चतम सीमा के कानून में दोष दूर करके एकत्रित की भूमि को तुरन्त काश्तकारों में विभाजित किया जाए।
  • भूमि सुधारों के कारण जिन किसानों को भूमि प्राप्त होती है, उनको वित्त की सुविधा देनी चाहिए ताकि भूमि का उचित प्रयोग किया जा सके।

प्रश्न 4.
नई कृषि नीति से क्या अभिप्राय है? नई कृषि नीति की विशेषताओं तथा प्राप्तियों का वर्णन कीजिए।
(What is New Agricultural Strategy ? Discuss the main features and achievement of New Agricultural Strategy.)
उत्तर-
नई कृषि नीति का अर्थ-भारत में कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए लॉर्ड फाऊंडेशन की प्रधानगी अधीन एक दल 1959 में अमेरिका से आया। इस दल की सिफारिशों को ध्यान में रखकर जो नीति अपनाई गई उसको नई कृषि नीति कहा जाता है। नई कृषि नीति से अभिप्राय उस नीति से है जिसका उद्देश्य कृषि विकास के नए साधनों, उन्नत बीजों, रासायनिक खाद, सिंचाई, कृषि वित्त, पौधों की सुरक्षा करना तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। विशेषताएं-नई कृषि नीति की मुख्य विशेषताएं हैं-

  1. नई कृषि तकनीक को अपनाया गया है।
  2. देश के चुने हुए भागों में उन्नत बीज, सिंचाई, रासायनिक खाद का प्रयोग करना।
  3. एक से अधिक फसलों की पैदावार करना।
  4. ग्रामीण विकास के सभी कार्यों में तालमेल करना।
  5. कृषि पदार्थों की उचित कीमत का निर्धारण करना।

भारत में नई कृषि नीति 17 जिलों में आरम्भ की गई। पंजाब में लुधियाना जिले में घनी कृषि जिला कार्यक्रम अपनाया गया है। नई कषि नीति की प्राप्तियां (Achievements of New Agricultural Strategy)-

1. खाद्य पदार्थों की उपज में वृद्धि-कृषि विकास की नई नीति से उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। इसके परिणामस्वरूप 1966 में हरित क्रान्ति आ गई। अनाज का उत्पादन 1951 में 62 मिलियन टन था। 2017-18 में अनाज का उत्पादन 284.83 मिलियन टन हो गया।

2. प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि-कृषि वृद्धि की नई नीति के परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है। 1970-71 में गेहूँ का उत्पादन 23.8 मिलियन टन था। 2016-17 गेहूँ का उत्पादन 97.4 मिलियन टन हो गया।

3. दूसरे किसानों से प्रेरणा-कृषि की नई नीति की सफलता से इस प्रोग्राम के बाहर के क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को भी उन्नत बीजों, कीड़ेमार दवाइयों तथा खाद्यों का प्रयोग करने की प्रेरणा मिली है। किसान के दृष्टिकोण में परिवर्तन-नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप किसानों की कृषि सम्बन्धी दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है तथा किसान की सामाजिक, आर्थिक तथा संस्थागत सोच बदल गई है।

5. वर्ष में एक से अधिक फ़सलें-नई कृषि नीति लागू होने के कारण किसान वर्ष में एक से अधिक फ़सलें प्राप्त करने लगे हैं। किसानों की आय तथा जीवन स्तर में वृद्धि हुई है।

6. अनाज में आत्म-निर्भरता-नई कृषि नीति लागू होने से कृषि उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। इसलिए भारत में किसान आत्म-निर्भरता होने में सफल हुए हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या की अनाज सम्बन्धी आवश्यकताओं को देश में से ही पूरा किया जाता है।

7. औद्योगिक विकास-नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप अनाज का आयात नहीं किया जाएगा। इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी। उसका इस्तेमाल उद्योगों के विकास के लिए सम्भव होगा।

8. इंद्रधनुष क्रान्ति-राष्ट्रीय कृषि नीति 2015 में इंद्रधनुष क्रान्ति लाने का लक्ष्य रखा गया है। इन्द्रधनुष जैसे कृषि उत्पादन पैदावार में 4% वार्षिक वृद्धि (हरित क्रान्ति) दूध की पैदावार में वृद्धि (सफेद क्रान्ति) मछली पालन उद्योग का विकास (नीली क्रान्ति) करने का लक्ष्य रखा गया है। यह मुख्यतया नई कृषि नीति का परिणाम है।

9. न्यूनतम सुरक्षित मूल्य-वर्ष 2020-21 में गेहूँ की सुरक्षित कीमत ₹ 1975 प्रति क्विंटल तथा चावल की कीमत ₹ 1860 प्रति क्विंटल और कपास ₹ 4600 प्रति क्विंटल निर्धारण की गई है। दिल्ली-यूपी सीमा पर किसानों के प्रदर्शन के बाद केन्द्र सरकार ने रबी की उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) इस प्रकार बढ़ा दिया है-

अनाज MSP
1. गेहूँ 1975
2. सरसों 7520
3. चना 4800

प्रश्न 5.
भारत में हरित क्रान्ति की कठिनाइयां बताएं। उसमें सुधार के सुझाव दें।
(Discuss the deficulties of Green Revolution in India. Suggest measures for its improvement.)
उत्तर-
कठिनाइयां –
1. केवल गेहूं क्रान्ति-इसमें कोई सन्देह नहीं कि हरित क्रान्ति के अधीन कुछ फसलों का उत्पादन बहुत बढ़ा है परन्तु अधिकतर गेहूं का ही उत्पादन, आधुनिक बीज जैसे कल्याण, सोना सोनालिका, सफ़ेद लर्मा तथा छोण लर्मा आदि के प्रयोग से, बढ़ा है जिसके कारण अधिकतर लोग इसे गेहूं क्रान्ति का नाम देना पसन्द करते हैं। इसी कारण हरित क्रान्ति के अधीन दूसरी फसलों का उत्पादन भी बढ़ाना चाहिए।

2. केवल अनाज की फसलों में ही क्रान्ति-हरित क्रान्ति अनाज की फसलों में ही आई है। ऐसी क्रान्ति व्यापारिक फसलों में भी आनी चाहिए। व्यापारिक फसलों में अभी तक अधिक फसल देने वाले बीज प्रयोग नहीं किये गये हैं । इस कारण यदि इनकी ओर अधिक ध्यान न दिया गया तो व्यापारिक फसलें बहुत धीरे-धीरे उन्नति करेंगी। कई व्यक्तियों को तो इस बात का सन्देह है कि यदि व्यापारिक फसलों का उत्पादन बढ़ाया गया तो कुल उत्पादन बढ़ने के स्थान पर कम हो जाएगा। वह इसलिए कि लोग व्यापारिक फसलों के स्थान पर उपभोक्ता वस्तुएं बीजने लग जायेंगे।

3. केवल बड़े-बड़े किसानों को ही लाभ-इसके अतिरिक्त यह देखने में आया है कि छोटे किसानों को इसका कोई लाभ नहीं हुआ है। लाभ केवल बड़े किसानों को ही पहुंचा है। छोटे किसानों को तो हरित क्रान्ति के कारण हानि ही हुई है क्योंकि कृषि साधनों में वृद्धि के कारण उनकी उत्पादन लागत बहुत बढ़ गई है। इस तरह क्रान्ति के कारण धन के असमान वितरण में वृद्धि हुई है।

4. असन्तुलित विकास-कुछ विशेषज्ञों का विचार है कि यदि हरित क्रान्ति समस्त देश में न लाई गई तो कुछ भाग दूसरे भागों से आगे निकल जायेंगे अर्थात् आर्थिक रूप से उन्नत हो जायेंगे जिसके कारण देश में क्षेत्रीय असन्तुलन की समस्या पैदा हो जाएगी।

5. कृषि आदानों की काले बाज़ार में बिक्री-यह ठीक है कि कृषि आदानों (Inputs) की मांग बहुत बढ़ गई है और उनकी पूर्ति दुर्लभ हो गई है जिसके फलस्वरूप कृषि उत्पादनों की बिक्री काले बाज़ार में ऊंचे दामों पर हो रही है। धनी किसान उन्हें खरीद सकते थे, पर निर्धन किसान उन्हें खरीद नहीं पाते।

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6. पूंजीकृत फार्मों को प्रोत्साहन-हरित क्रान्ति से बड़े-बड़े पूंजीकृत फार्मों को प्रोत्साहन मिल रहा है। बढ़िया खाद का प्रयोग करने में तथा ट्यूबवैल लगाने में काफ़ी मात्रा में धन लगाना पड़ता है। एक निर्धन किसान इसके बारे में कभी सोच भी नहीं सकता। इसका लाभ तो केवल धनी किसानों को ही हो रहा है जो बड़े-बड़े फार्म बना रहे हैं।

7. तालमेल का अभाव-हरित क्रान्ति की रफ्तार इस कारण भी धीमी है क्योंकि विभिन्न संस्थाओं में आपसी तालमेल नहीं है। सरकार तो अधिक बल केवल रासायनिक खाद के उत्पादन पर ही दे रही है। यह ठीक है कि हरित क्रान्ति लाने में खाद का बड़ा महत्त्व है, पर अकेली खाद भी क्या कर सकती है, जब तक किसान के पास पूंजी, मशीनें तथा सिंचाई आदि सुविधाओं का अभाव हो। ऋण प्रदान करने वाली संस्थाओं, खाद प्रदान करने वाली संस्थाओं, बीज प्रदान करने वाली संस्थाओं तथा सिंचाई की सुविधाएं प्रदान करने वाली संस्थाओं में तालमेल नहीं है।

सुझाव-
1. बढ़िया बीजों का खुला प्रयोग-हरित क्रान्ति को अधिक सफल बनाने के लिए देश में ऐसी सुविधाएं होनी चाहिएं जिनके साथ हरित क्रान्ति लानी सम्भव हो जाए। हम जानते हैं कि गेहूं की आधुनिक प्रकार की फसल की तरह दूसरी फसलों में अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। शुष्क भूमि पर अधिक उपज देने वाली फसलों के बीजों का प्रयोग करने के लिए किसानों को प्रेरणा देनी चाहिए।

2. उर्वरकों का खुला प्रयोग-उर्वरकों का प्रयोग बढ़ाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। गोबर को खाद के रूप में प्रयोग पर अधिक बल देना चाहिए। रासायनिक खादों की मांग हरित क्रान्ति के साथ बढ़ेगी। इस कारण देश में और कारखाने खाद तैयार करने के लिए लगाने चाहिएं।

3. सिंचाई की सुविधाएं-हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए अधिक बल सिंचाई की सुविधाओं को प्रदान करने पर देना चाहिए। सरकार को छोटे स्तर की सिंचाई योजनाएं बनानी चाहिएं। ट्यूबवैल लगाने के लिए ऋण की सुविधाएं देनी चाहिएं।

4. मशीनों का प्रयोग-हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए अधिक मशीनों का प्रयोग आवश्यक है। इसलिए देश में सस्ती मशीनें बनानी चाहिएं। किसानों को मशीनें खरीदने के लिए ऋण देने चाहिएं। विशेषतया ऐसी मशीनें बनानी चाहिए, जो छोटे किसान भी प्रयोग कर सकें

5. लाभों का समान वितरण-अब तक हुई हरित क्रान्ति से पैदा हुए लाभ सभी धनी किसानों या बड़े किसानों को हुए हैं। छोटे किसानों को तो कृषि साधनों पर व्यय बढ़ने के कारण हानि ही हुई है। सरकार को अनुकूल रणनीति अपनाकर इन लाभों की असमान बांट पर नियन्त्रण रखना चाहिए।

6. अन्य प्रकार की क्रान्तियां-कृषक के उपज क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र जैसे दूध देने वाले पशु पालना, फल पैदा करना आदि में भी क्रान्ति लानी चाहिए।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

PSEB 12th Class Economics आर्थिक नियोजन के उद्देश्य Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक नियोजन से अभिप्राय देश के साधनों का प्रयोग राष्ट्रीय प्राथमिकताओं अनुसार करके निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति करना होता है।

प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक नियोजन का काल कितना है तथा आर्थिक नियोजन कब आरम्भ किया गया ?
उत्तर-
भारत में रूस के आर्थिक नियोजन की सफलता को देखते हुए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की गईं। प्रथम योजना 1951-56 तक बनाई गई।

प्रश्न 3.
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना 1947 में प्रारम्भ हुई।
उत्तर-
ग़लत।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

प्रश्न 4.
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना का काल ………… था।
उत्तर-
1951-56.

प्रश्न 5.
इस समय भारत में तेरहवीं योजना चल रही है।
उत्तर-
गलत।

प्रश्न 6.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 2012-17 है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 7.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना की विकास दर का उद्देश्य 9% वार्षिक रखा गया है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 8.
नियोजन के उद्देश्य से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नियोजन के उद्देश्यों से अभिप्राय दीर्घकाल में प्राप्त करने वाले उद्देश्यों से होता है।

प्रश्न 9.
योजनाओं के उद्देश्यों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
योजनाओं के उद्देश्यों से अभिप्राय अल्पकालीन उद्देश्यों से होता है।

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प्रश्न 10.
भारत का प्रधानमंत्री योजना आयोग का अध्यक्ष होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 11.
भारत में योजना आयोग के स्थान पर …………….. बन गया है।
उत्तर-
नीति आयोग।

प्रश्न 12.
भारत में तेहरवीं पंचवर्षीय योजना 2017-2022 चल रही है।
उत्तर-
गलत।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक नियोजन को स्पष्ट करते भारत के योजना आयोग ने कहा, “आर्थिक नियोजन का अर्थ है, राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार साधनों का आर्थिक क्रियाओं में प्रयोग करना।”

प्रश्न 2.
आर्थिक नियोजन के कोई दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य-भारत में आर्थिक योजनाओं के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि-आर्थिक योजनाओं का मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि कृषि, उद्योग इत्यादि का विकास करके राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना है।
  2. कृषि का विकास-कृषि के विकास में योजनाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। सन् 1966 से कृषि की तकनीक पर जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप हरित क्रान्ति हो सकी है। योजनाओं के काल में भोजन पदार्थों का उत्पादन तीन गुणा बढ़ गया है।

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III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में योजना काल तथा प्रत्येक योजना के उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के जीवनकाल का वर्णन इस प्रकार है –
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य 1
1. प्रथम योजना (1951-56) के मुख्य उद्देश्य-

  • कृषि पैदावार में वृद्धि
  • आय तथा धन का समान वितरण।

2. द्वितीय योजना (1956-61) के मुख्य उद्देश्य-

  • औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि
  • भारी उद्योगों का विकास।

3. तीसरी योजना (1961-66) के मुख्य उद्देश्य-

  • अनाज में आत्मनिर्भरता
  • असमानता को दूर करना।

4. चौथी योजना (1969-74) के मुख्य उद्देश्य-

  • विकास दर में वृद्धि
  • कीमत स्थिरता।

5. पाँचवीं योजना (1974-79) के मुख्य उद्देश्य-

  • गरीबी दूर करना
  • यातायात तथा शक्ति का विकास 1979-80 एकवर्षीय योजना

6. छठी योजना (1980-85) के मुख्य उद्देश्य-

  • ग़रीबों का जीवन स्तर ऊंचा करना
  • असमानता दूर करना।

7. सातवीं योजना (1985-90) के मुख्य उद्देश्य-

  • रोज़गार में वृद्धि
  • कृषि उत्पादन में वृद्धि। 1990-92 एकवर्षीय योजनाएं

8. आठवीं योजना (1992-97) के मुख्य उद्देश्य-

  • मानवीय शक्ति का पूर्ण प्रयोग
  • सर्व शिक्षा अभियान।

9. नौवीं योजना (1997-2002) के मुख्य उद्देश्य-

  • कृषि तथा ग्रामीण विकास
  • जनसंख्या की वृद्धि पर रोक।

10. दशम् योजना (2002-07) के मुख्य उद्देश्य-

  • जीवन स्तर का विकास
  • असमानता को घटाना।

11. ग्यारहवीं योजना (2007-12) के मुख्य उद्देश्य-

  • कृषि तथा ग्रामीण विकास
  • रोज़गार में वृद्धि।

12. 12वीं योजना (2012-17) के मुख्य उद्देश्य-

  • आर्थिक विकास में 9% वार्षिक वृद्धि
  • कृषि में 4% वार्षिक वृद्धि

प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक नियोजन के लम्बे समय के क्या उद्देश्य हैं ?
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के लम्बे समय के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि
  2. आय तथा धन का समान वितरण
  3. देश में मानवीय शक्ति का पूर्ण उपयोग तथा पूर्ण रोज़गार की स्थिति को प्राप्त करना।

प्रश्न 3.
भारत के आर्थिक नियोजन के अल्पकालीन उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के अल्पकालीन उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • कृषि पैदावार में वृद्धि
  • औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि
  • अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता
  • कीमत स्थिरता
  • ग़रीबी दूर करना
  • रोज़गार में वृद्धि
  • शिक्षा का प्रसार
  • जनसंख्या पर नियन्त्रण
  • ऊँचा जीवन स्तर।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

प्रश्न 4.
नीति आयोग पर नोट लिखें।
उत्तर-
नीति आयोग का पूरा नाम भारत परिवर्तन संस्थान [National Institute of Transforming India (NITI)] है। इस संस्था को योजना आयोग के स्थान पर बनाया गया है। जनवरी 2015 को नीति आयोग के बनाने की मंजूरी दी। यह संस्था थिंक टैंक (Think Tank) के रूप में काम करेगी। इस संस्था ने 2017 के पश्चात् काम करना शुरू कर दिया है।

प्रश्न 5.
नीति आयोग और योजना आयोग में अन्तर बताएं।
उत्तर –

अन्तर का आधार योजना आयोग नीति आयोग
1. निर्माण योजना आयोग का निर्माण 1 मार्च, 1950 में किया गया है। नीति आयोग का निर्माण 2015 को किया गया है।
2. कार्य इस का कार्य राज्य सरकारों को फंड वितरण करवाना है। नीति आयोग सुझाव देने वाली संस्था है।
3. राज्य सरकारों का योगदान समिति योगदान था। राज्यों का महत्त्व बढ़ गया है।
4. योजना निर्माण यह योजना का निर्माण करती है। योजना आयोग योजना का निर्माण करता था जिस को राज्य लागू करते थे।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्यों का वर्णन करो। (Explain the main objectives of Economic Planning of India.)
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य-भारत में आर्थिक योजनाओं के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि-आर्थिक योजनाओं का मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि कृषि, उद्योग इत्यादि का विकास करके राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना है।

2. कृषि का विकास-कृषि के विकास में योजनाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। सन् 1966 से कृषि की तकनीक पर जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप हरित क्रान्ति हो सकी है। योजनाओं के काल में भोजन पदार्थों का उत्पादन तीन गुणा बढ़ गया है।

3. उद्योगों का विकास- भारत में योजनाओं के परिणामस्वरूप बहुत सरलता मिली है। भारत के प्राथमिक तथा पूंजीगत उद्योग बहुत विकसित हुए हैं जैसे कि लोहा तथा इस्पात, मशीनरी, खाद्य रासायनिक उद्योगों ने विकास किया है।

4. जीवन स्तर में वृद्धि-पंचवर्षीय योजनाओं का एक उद्देश्य जीवन स्तर में वृद्धि करना है। देश में लोगों का जीवन स्तर कई बातों पर निर्भर करता है जैसे कि प्रति व्यक्ति आय, कीमतों में स्थिरता, आय का समान वितरण, टी० वी०, फ्रिज, कारें, स्कूटरों, टेलीफोन, इत्यादि की प्राप्ति।।

5. आर्थिक असमानताओं में कमी-भारत में प्रत्येक पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य अमीर तथा निर्धन में अन्तर को कम करना रहा है। आर्थिक असमानता देश में शोषण का प्रतीक होती है। इसलिए अमीर लोगों पर प्रगतिशील कर (Taxes) लगाए जाते हैं तो गरीब लोगों को सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।

6. रोज़गार में वृद्धि योजनाओं का एक उद्देश्य मानवीय शक्ति का अधिक प्रयोग करके रोज़गार में वृद्धि करना है। प्रत्येक योजना में विशेष प्रयत्न किया जाता है कि देश में बेरोजगारों को रोजगार प्रदान किया जाए, जिससे राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि हो सके।

7. आत्मनिर्भरता-पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य देश में कृषि, उद्योग इत्यादि क्षेत्रों को प्राप्त साधनों के अनुसार उत्पादन के संबंध में आत्मनिर्भर बनाना है। तीसरी पंचवर्षीय योजना के पश्चात् आत्मनिर्भरता के उद्देश्य की ओर अधिक ध्यान दिया गया। बारहवीं योजना (2012-17) का मुख्य उद्देश्य निर्यात में वृद्धि करके तथा आंतरिक साधनों की सहायता से आत्मनिर्भरता के उद्देश्य को पूरा रखा गया।

8. आर्थिक स्थिरता-आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए आर्थिक स्थिरता के उद्देश्य की प्राप्ति अनिवार्य होती है। आर्थिक विकास से अभिप्राय है कि देश में अधिक तीव्रता तथा मंदी नहीं आनी चाहिए। कीमतों में बहुत वृद्धि अथवा कमी देश के आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव डालती है। इसलिए योजनाओं में आर्थिक स्थिरता को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

9. बहुपक्षीय विकास-योजनाओं में कृषि, उद्योग, यातायात, व्यापार, बिजली, सिंचाई इत्यादि बहुत-सी उत्पादन क्रियाओं के विकास को महत्त्व दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य देश का बहुपक्षीय विकास करना है।

10. सामाजिक कल्याण-भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का एक उद्देश्य सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना है। स्वतन्त्रता के समय भारत गरीबी के कुचक्र में फंसा हुआ था। योजनाओं द्वारा भारत में गरीबी को घटाने के प्रयत्न किए गए हैं ताकि धन तथा आय की असमानता को घटाकर सामाजिक कल्याण में वृद्धि की जा सके।

योजना आयोग के अनुसार, “भारत में योजनाओं का मुख्य उद्देश्य जनता के जीवन स्तर में वृद्धि करना तथा आर्थिक सम्पन्न जीवन के मौके प्रदान करना है। नियोजन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र के भौतिक, मानवीय तथा पूंजीगत साधनों का प्रभावशाली उपयोग करके वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि करना तथा आय, धन और अवसर की असमानता को दूर करना है।” भारत की प्रति व्यक्ति आय 2014-15 में बढ़कर 88533 रुपए हो गई है। आर्थिक नियोजन के लिए NDA की सरकार ने योजना आयोग (Planning Commission) का नाम बदल कर नीति आयोग (NITI AAYOG) कर दिया है और इसके ढांचे में परिवर्तन किया है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

प्रश्न 2.
नीति आयोग और योजना आयोग में अन्तर बताएं। (Explain the difference between Niti Aayog and Planning Commission.)
अथवा
नीति आयोग से क्या अभिप्राय है ? नीति आयोग की संरचना तथा उद्देश्य बताएं। (What is Niti Aayog ? Explain the Composition and functions of Niti Aayog.)
उत्तर-
नीति आयोग (Niti Aayog) (National Institute for Transforming India)-नीति आयोग राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (National Institute for Transforming India) भारत सरकार द्वारा गठित एक नया संस्थान है जिसे योजना आयोग (Planning Commission) के स्थान पर बनाया गया है।

1. जनवरी 2015 को इस नए संस्थान के बारे में जानकारी देने वाला मन्त्रिमण्डल का प्रस्ताव जारी किया गया। यह संस्थान सरकार के थिंक टैंक (Think Tank) के रूप में सेवाएं प्रदान करेगा। यह संस्था निर्देशात्मक एवं गतिशीलता प्रदान करेगा। नीति आयोग, केन्द्र और राज्य स्तरों पर सरकार को प्रमुख कारकों के संबंध में प्रासंगिक महत्त्वपूर्ण एवं तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराएगा। इसमें आर्थिक मोर्चे पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आयात, देश के भीतर और अन्य देशों की बेहतरीन पद्धतियों का प्रसार, नए नीतिगत विचारों का समावेश और महत्त्वपूर्ण विषयों पर आधारित समर्थन से सम्बन्धित मामले शामिल होंगे।

नीति आयोग और योजना आयोग में अन्तर (Difference between Niti Aayog and Planning Commission)-15 मार्च 1950 को एक प्रस्ताव के माध्यम से योजना आयोग (Planning Commission) की स्थापना की गई थी। इसके स्थान पर 1 जनवरी 2015 को मन्त्रिमण्डल के प्रस्ताव द्वारा नीति आयोग (Niti Aayog) की स्थापना की गई है। सरकार ने यह कदम राज्य सरकारों, विशेषज्ञों तथा प्रासंगिक संस्थानों सहित सभी हितधारकों से व्यापक विचार-विमर्श के बाद उठाया है। इन दोनों में मुख्य अन्तर इस प्रकार है1. योजना आयोग (Planning Commission) के पास यह शक्ति थी कि वह राज्य सरकारों को फंड प्रदान करता था, परन्तु अब यह शक्ति वित्त मन्त्रालय के पास होगी। नीति आयोग (Niti Aayog) एक सुझाव देने वाली संस्था के रूप में काम करेगी।

2. योजना आयोग (Planning Commission) में राज्य सरकारों का योगदान सीमित होता था। वह वर्ष में एक बार वार्षिक योजना पास करवाने के लिए आते थे। नीति आयोग (Niti Aayog) में राज्य सरकारों की भूमिका बढ़ गई है।

3. योजना आयोग (Planning Commission) जो योजना बनाता है वह उपर से नीचे की ओर लागू की जाती थी। नीति आयोग (Niti Aayog) में गावों से ऊपर की ओर योजना लागू होगी।

4. क्षेत्रीय कौंसिल (Regional Council) का काम नीति आयोग (Niti Aayog) को स्थानिक तथा क्षेत्रीय समस्याओं से अवगत कराना होगा। योजना आयोग (Planning Commission) में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं थी।

5. योजना आयोग (Planning Commission) केन्द्रीय योजनाओं का निर्माण करता था परन्तु नीति आयोग (Niti Aayog) किसी योजना का निर्माण नहीं करेगा। इस का मुख्य कार्य निर्धारत प्रोग्राम को ठीक ढंग से संचालन करना होगा। इस प्रकार नीति आयोग एक विमर्श देने वाला संस्थान होगा।

6. नीति आयोग (Niti Aayog) का एक नया कार्य यह होगा कि आर्थिक नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) को महत्त्व देना। योजना आयोग में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। नीति आयोग की कौंसिल में सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री और केन्द्रीय प्रशासक क्षेत्रों के प्रबन्धकों को शामिल किया गया है।

नीति आयोग की संरचना (Composition of Niti Aayog)- नीति आयोग की संरचना इस प्रकार है-

  1. चेयरपर्सन (Chairperson)-प्रधानमन्त्री।
  2. प्रबन्धकीय कौंसिल (Governing Council)-इस में सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री, Union Territories के प्रबन्धक तथा अंडमान निकोबार के विधायक तथा लैफ्टीनेंट गवर्नर शामिल होंगे।
  3. क्षेत्रीय कौंसिलें (Regional Councils)—इसमें क्षेत्र के मुख्यमन्त्री, केन्द्रीय गायक प्रदेशों के लैपटीनैंट गवर्नर होंगे जो कि अन्तर्राज्य तथा अन्तर-क्षेत्रीय समस्याओं के प्रति विचार-विमर्श करेंगे।
  4. प्रबन्धकीय ढांचा (Organizational Framework)-पूरा समय काम करने के लिए नीति आयोग में वाईस चेयरपर्सन, तीन पूरा समय सदस्य, दो अल्प समय सदस्य (जोकि महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों, खोज संस्थानों में से होंगे)। चार पद अथवा स्थिति के कारण (Ex-Officio) सदस्य जो केन्द्र सरकार में मन्त्री होंगे, एक मुख्यकार्यकारी अफसर (यह भारत सरकार में सैक्रेटरी के पद पर होगा) जो इसके संचालन और देख-रेख के लिए काम करेगा।
  5. विभिन्न क्षेत्रों के निपुण (Experts of Various fields)-नीति आयोग में कृषि उद्योग, व्यापार आदि विभिन्न क्षेत्रों के निपुण लोगों को शामिल किया जाएगा।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

नीति आयोग के कार्य अथवा उद्देश्य (Functions or Objectives of Niti Aayog) नीति आयोग निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए कार्य करेगा

  1. राज्यों की सक्रिय भागीदारी (Active Involvement of States)-राष्ट्रीय उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करना जिसके द्वारा प्रधानमन्त्री और मुख्यमन्त्रियों को राष्ट्रीय एजेंडा का प्रारूप उपलब्ध कराना है।
  2. सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देना (Foster Co-operative Federalism)-भारत में सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देने के उद्देश्य से राज्यों का सहयोग तथा भागीदारी को अधिक महत्त्व देना क्योंकि सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।
  3. ग्राम स्तर पर योजना (Plan at the Village Level)-ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजना तैयार करने के लिए तन्त्र विकसित करेगा और इसे उत्तरोत्तर उच्च स्तर तक पहुंचाएगा।
  4. राष्ट्रीय सुरक्षा के अनुसार आर्थिक नीति (Economic Policy according to National Security)नीति आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि जो क्षेत्र विशेष रूप से उसे सौंपे गए हैं उनकी आर्थिक कार्य नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को शामिल किया गया है।
  5. निम्न वर्गों पर विशेष ध्यान (More Attention to deprived classes)-उन वर्गों पर विशेष रूप से ध्यान देगा जिन पर आर्थिक विकास से उचित प्रकार से लाभान्वित ना हो पाने का जोखिम होगा।
  6. दीर्घकाल और रणनीतिक नीति (Strategic and Long Term Policy)-दीर्घकाल और रणनीतिक नीति तथा कार्यक्रम का ढांचा तैयार करेगा और पहल करेगा और निगरानी करेगा।
  7. थिंक टैंक (Think Tank) समान विचारधारा वाले और महत्त्वपूर्ण हितधारकों, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय थिंक टैंक और शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के बीच भागीदारी को प्रोत्साहन देगा।
  8. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग (International Co-operation)-राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों तथा हितधारकों के सहयोग से नए विचारों से उद्यमशीलता सहायक प्रणाली बनाएगा।
  9. अन्तर क्षेत्रीय और अन्तर विभागीय मुद्दों के लिए एक मंच (One Platform for inter-sectoral and inter-departmental issues)-विकास के एजेंडे के कार्यान्वयन में तेजी लाने के क्रम में अन्तर-क्षेत्रीय और अन्तर-विभागीय मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
  10. अत्याधुनिक कला संसाधन केन्द्र (Art Resource Centre)-आयोग का एक उद्देश्य यह भी है कि देश में आधुनिक कला संसाधन केन्द्र स्थापित किया जाए जिस की जानकारी विकास से जुड़े सभी लोगों को प्रदान की जाए।
  11. सक्रिय मूल्यांकन (Proper Evaluation)-कार्यक्रमों और उपायों के संचालन का सक्रिय मूल्यांकन और सक्रिय निगरानी की जाएगी।
  12. क्षमता निर्माण पर ज़ोर (Focus on capacity Building)-कार्यक्रमों और नीतियों के संचालन के लिए क्षमता निर्माण पर जोर देना भी नीति आयोग का उद्देश्य है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

PSEB 12th Class Economics स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति क्या थी ?
उत्तर-
डॉ० करम सिंह गिल के अनुसार, “स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक अल्पविकसित, गतिहीन, अर्द्ध-सामन्तवादी, घिसी हुई तथा खण्डित अर्थव्यवस्था थी।”

प्रश्न 2.
अर्थव्यवस्था की संरचना (Structive) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अर्थव्यवस्था की आर्थिक स्थिति का ज्ञान उस अर्थव्यवस्था की संरचना से होता है। अर्थव्यवस्था की संरचना का अर्थ उसको उत्पादन के आधार पर क्षेत्रों में विभाजित करने से होता है।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय कृषि की क्या दशा थी ?
अथवा
स्वतन्त्रता के समय प्राथमिक क्षेत्र की क्या अवस्था थी ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय कृषि देश का प्रमुख व्यवसाय बन गई परन्तु इसकी उत्पादकता इतनी कम थी कि भारत एक निर्धन देश बनकर रह गया।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता के समय भारत का संरचनात्मक ढांचा अथवा मुख्य आर्थिक क्रियाएं क्या थी ?
उत्तर-
कृषि का महत्त्व बहुत अधिक था, जबकि उद्योगों का महत्त्व कम या तरश्री क्षेत्र अर्थात् सेवाएं यातायात, संचार, बैंकिंग, व्यापार इत्यादि का राष्ट्रीय आय में हिस्सा बहुत कम था।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 5.
स्वतन्त्रता के समय प्राथमिक, द्वितीयक तथा तरश्री क्षेत्र के महत्त्व अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था का संरचनात्मक ढांचा किस तरह का था ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय प्राथमिक क्षेत्र द्वारा 1947 में राष्ट्रीय आय का 58.7% भाग उत्पादन किया गया। द्वितीयक क्षेत्रों द्वारा 14.3 प्रतिशत तथा तरश्री क्षेत्र द्वारा 27 प्रति भाग योगदान पाया गया।

प्रश्न 6.
प्राथमिक क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्राथमिक क्षेत्र में

  • कृषि
  • जंगलात तथा छतरियां बनाना।
  • मछली पालन
  • खाने तथा खनन को शामिल किया जाता है।

इन चार प्रकार की क्रियाओं को प्राथमिक क्षेत्र कहते हैं। स्वतन्त्रता समय 72.7% लोग इस क्षेत्र में लगे हुए थे।

प्रश्न 7.
द्वितीयक क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
द्वितीयक क्षेत्र में-

  • निर्माण उद्योग
  • बिजली तथा जल पूर्ति को शामिल किया जाता है।

इस क्षेत्र में स्वतन्त्रता के समय 10% लोग कार्य में लगे हुए थे।

प्रश्न 8.
तरश्री क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तरश्री क्षेत्र सेवाओं का क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र में-

  • व्यापार
  • संचार
  • यातायात
  • स्टोर सुविधाएं
  • अन्य सेवाओं को शामिल किया जाता है।

स्वतन्त्रता के समय भारत में 2 प्रतिशत लोग तरश्री क्षेत्र में कार्य करते थे।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 9.
प्राथमिक क्षेत्र में उद्योगों को शामिल किया जाता है।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 10.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था ………….
(a) अल्पविकसित और गतिहीन
(b) सामन्तवादी और घिसी हुई
(c) खण्डित
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
अर्थव्यवस्था की संरचना में ………………. क्षेत्र शामिल होता है।
(a) प्राथमिक क्षेत्र
(b) गौण क्षेत्र
(c) टरश्री क्षेत्र
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
स्वतन्त्रता के समय भारत में मुख्य पेशा …………. था।
उत्तर-
कृषि।

प्रश्न 13. स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था विकसित अर्थव्यवस्था थी।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 14.
प्राथमिक क्षेत्र में ………. को शामिल किया जाता है।
(a) कृषि
(b) जंगलात तथा छत्तरियाँ बनाना
(c) मछली पालन
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 15.
द्वितीयक क्षेत्र में कृषि को शामिल किया जाता है।
उत्तर-
ग़लत।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 16.
टरश्री क्षेत्र सेवाओं से सम्बन्धित क्षेत्र होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 17.
अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जिसमें जीवन स्तर नीचा होता है, ग़रीबी है और प्रति व्यक्ति आय कम होती है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 18.
गतिहीन अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जिसमें आय में परिवर्तन की दर में बहुत कम परिवर्तन होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 19.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था न तो पूर्ण सामन्तवादी थी और न ही पूर्ण पूंजीवादी थी बल्कि यह तो अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था थी।
उत्तर-
सही।

II. अति लप उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ बताएं।
उत्तर-
1. पिछड़ी हुई, गतिहीन, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था-डॉक्टर करम सिंह गिल के अनुसार, स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई, गतिहीन तथा अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। 1947-48 में प्रति व्यक्ति आय 250 रु० के लगभग थी। ब्रिटिश शासन काल के सौ वर्षों में प्रति व्यक्ति आय की औसत वार्षिक वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत के लगभग थी।

2. पिछड़ी हुई खेती-स्वतन्त्रता के समय भारत में 72% जनसंख्या कृषि पर कार्य करती थी। राष्ट्रीय आय का 57% भाग खेती द्वारा प्राप्त किया जाता था। कृषि की उत्पादकता बहुत कम थी। इसके कई कारण थे जैसे कि ज़मींदारी प्रथा, वर्षा पर निर्भरता, कृषि के पुराने ढंग तथा सिंचाई की कम सुविधाएं।

प्रश्न 2.
अल्पविकसित अर्थव्यवस्था से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था (Underdeveloped Economy) स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था थी। एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती थी। 1947-48 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 230 रुपये के लगभग थी। देश की अधिकतर जनसंख्या बहुत अधिक निर्धन थी। लोगों को पेट भर भोजन नहीं मिलता था। रहने के लिए मकानों और पहनने के लिए कपड़ों का अभाव था। देश में अधिकतर लोग बेरोज़गार थे।

प्रश्न 3.
अर्द्ध सामन्तवादी अर्थव्यवस्था से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था (Semi Feudal Economy)-कृषि में पूरी तरह अंग्रेज़ों ने ज़मींदारी प्रथा प्रारंभ करके भूमि के स्वामित्व के अधिकार ज़मींदार को दे दिए। वास्तविक काश्तकार का भूमि पर कोई कानूनी अधिकार नहीं रह गया। स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों में लगान हमेशा के लिए निश्चित था परन्तु भूमि का किराया बढ़ता जा रहा था। इसलिए काश्तकारों ने भूमि उपकाश्तकारों को लगान पर देनी आरंभ कर दी।

सरकार तथा वास्तविक काश्तकार के बीच बहुत-से बिचौलिए उत्पन्न हो गए। ये बिचौलिए बिना कोई परिश्रम किए किसान से उसके उत्पादन का काफ़ी भाग प्राप्त कर लिया करते थे। किसानों की अवस्था बहुत खराब थी। भारत के जिन भागों में रैयतवाड़ी तथा मेंहलवाड़ी प्रथा थी वहां भी बड़े-बड़े किसानों ने भूमि काश्त के लिए काश्तकारों को दे दी थी। इस प्रकार इन क्षेत्रों सभी बहुत-से बिचौलिए उत्पन्न हो गए थे। इस प्रकार सारे भारत में ही भूमिपति तथा काश्तकार के सामन्तवादी सम्बन्ध पापित हो गए।

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प्रश्न 4.
स्थिर अर्थव्यवस्था का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
स्थिर अर्थव्यवस्था (Stagnent Economy)-अंग्रेज़ी शासन काल में भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग स्थिरता की अवस्था में थी। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय वृद्धि की दर 0.5% थी। जनसंख्या में वृद्धि दर काफ़ी ऊंची थी। समस्यापूर्ण अर्थव्यवस्था-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था अनेक समस्याओं से घिरी हुई थी-जैसे शरणार्थियों के पुनः विस्थापन की समस्या, निर्धनता की समस्या, ऊँची कीमतों की समस्या, बेरोज़गारी की समस्या, खाद्यान्न की समस्या इत्यादि।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को स्पष्ट करो।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को डॉक्टर करम सिंह गिल ने निम्नलिखित अनुसार, स्पष्ट किया है-

  1. अल्पविकसित अर्थव्यवस्था-अल्पविकसित अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जिसमें जीवन स्तर नीचा है, ग़रीबी है, प्रति व्यक्ति आय कम है, आर्थिक विकास की दर नीची है।
  2. गतिहीन अर्थव्यवस्था गतिहीन अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है, जिसमें प्रति व्यक्ति आय की दर में परिवर्तन बहुत कम होता है। भारत में बर्तानवी शासन दौरान प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि लगभग 0.5% वार्षिक दर पर हुई।
  3. अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था-अंग्रेजों ने भारत में जागीरदारी प्रथा द्वारा इसको अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था बना दिया।
  4. घिसी हुई अर्थव्यवस्था-एक अर्थव्यवस्था में साधनों का अधिक प्रयोग होने के कारण उनमें घिसावट तथा टूट-फूट हो जाती है। भारत में साधनों का प्रयोग दूसरे महायुद्ध समय किया गया।
  5. खण्डित अर्थव्यवस्था-स्वतन्त्रता समय भारत के दो भाग हो गए। भारत तथा दूसरा पाकिस्तान। इसको बिखरी हुई अर्थव्यवस्था कहा जाता है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता समय भारतीय कृषि की क्या दशा थी?
उत्तर-
स्वतन्त्रता समय भारत की कृषि पिछड़ी हुई दशा में थी। 1947 में भारत की केवल 13 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर कृषि की जाती थी। इससे 527 लाख टन अनाज का उत्पादन किया जाता था। भारत में सिंचाई, बीज, खाद्य, आधुनिक तकनीकें, साख इत्यादि का कम प्रयोग किया जाता था। कृषि का व्यापारीकरण हो गया था अर्थात् कृषि जीवन निर्वाह की जगह पर बाज़ार में बिक्री के लिए की जाती थी। भूमि पर जनसंख्या का बहुत भार था। किसानों पर लगान का भार बहुत अधिक होने के कारण ऋण में फंसे हुए थे। देश की 70% जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय उद्योगों की क्या दशा थी?
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय उद्योग पिछड़ी हुई दशा में थे। ब्रिटिश पूंजी की मदद से कुछ उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग स्थापित किए गए। इनमें कपड़ा, उद्योग, चीनी उद्योग, माचिस उद्योग, जूट उद्योग इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतन्त्रता के समय कपड़े का उत्पादन 428 करोड़ वर्गमीटर, चीनी का 10 लाख टन तथा सीमेंट का उत्पादन 26 लाख टन हुआ।

कुछ नियति प्रोत्साहन उद्योग स्थापित हो चुके थे, क्योंकि बागान तथा खानों के उद्योगों का विकास किया गया। इन उद्योगों से प्राप्त लाभ बर्तानियों को भेजा जाता था। स्वतन्त्रता समय भारत में 12.5% जनसंख्या उद्योगों में लगी हुई थी। जबकि अमरीका में 32% तथा इंग्लैंड में 42% लोग उद्योगों के कार्य करते थे। अंग्रेज़ी शासन से पहले भारत के कुटीर उद्योग कलात्मक उत्पादन के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध थे, परन्तु अंग्रेज़ी नीति के परिणामस्वरूप उनका पतन हो गया।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा व्यावसायिक ढांचे की व्याख्या करो।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारत में उत्पादन (Output) का विवरण इस प्रकार है-

  1. प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)-प्रथमिक क्षेत्र द्वारा 1947 में राष्ट्रीय आय में 58.7 प्रतिशत योगदान पाया गया। इस क्षेत्र में कृषि, जंगलात तथा लंठा बनाना, मछली पालन तथा खानों को शामिल किया जाता है। राष्ट्रीय आय में इस क्षेत्र का अधिक योगदान इस बात का प्रतीक है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई थी।
  2. द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)-स्वतन्त्रता समय द्वितीयक क्षेत्र द्वारा राष्ट्रीय उत्पादन में 14.3% योगदान था। इसमें उद्योग बिजली तथा जल पूर्ति को शामिल किया जाता है।
  3. तरी क्षेत्र (Territary Sector)-इस क्षेत्र में बैंक, बीमा कम्पनियों इत्यादि सेवाओं को शामिल किया जाता है, जिसके द्वारा राष्ट्रीय आय अथवा उत्पादन में 27% योगदान पाया गया। व्यावसायिक वितरण (Occupational Distribution) भारत में 72.7 प्रति जनसंख्या प्राथमिक क्षेत्र में और 10.1 प्रतिशत जनसंख्या सेवा क्षेत्रों में लगी हुई थी।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 5.
स्वतन्त्रता के समय बर्तानवी राज्य द्वारा बस्तीवादी लूट-खसूट के रूपों का वर्णन करो।
अथवा
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण बताओ।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण देश में अंग्रेजों का लगभग 200 वर्ष का शासन तथा बस्तीवादी लूट-खसूट तथा शोषण था। भारतीय अर्थव्यवस्था की लूट-खसूट तथा शोषण निम्नलिखित अनुसार किया गया-

  1. विदेशी व्यापार द्वारा शोषण-ब्रिटिश सरकार ने विदेशी व्यापार की ऐसी नीति अपनाई, जिस द्वारा कच्चा माल भारत से प्राप्त किया जाता था तथा तैयार माल भारत में बेचा जाता था। इस कारण इंग्लैंड तथा उद्योग विकसित हुए।
  2. हस्तशिल्प तथा लघु उद्योगों का विनाश-अंग्रेज़ी शासन से पहले भारत में हस्तशिल्पकला तथा लघु उद्योग बहुत विकसित थे। अंग्रेजों ने इंग्लैण्ड में बने तैयार माल को कम मूल्य पर बेचकर भारत के हस्तशिल्प तथा लघु उद्योगों का विनाश किया।
  3. लगान का दुरुपयोग- भारत में ज़मींदारी प्रथा आरम्भ की गई। इससे ब्रिटिश शासन को लगान के रूप में बहुत सी राशि प्राप्त हो जाती थी। उसका प्रयोग भारत में किए जाने वाले माल पर खर्च किया गया।
  4. प्रबन्ध पर फिजूलखर्च-अंग्रेजी सरकार ने अंग्रेजों को भारत के प्रशासन तथा सेना पर बहुत खर्च किया। उपनिवेश के रूप में भारत को पहले विश्व युद्ध (1914-18) तथा दूसरे विश्वयुद्ध (1939-45) दोनों में भाग लेना पड़ा तथा भार भी भारत का सहन करना पड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण भारत की लूट-खसूट थी, जिसको दादा भाई नौरोजी ने निकास सिद्धान्त का नाम दिया है।

IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की क्या विशेषताएं थीं?
(What were the features of Indian Economy on the eve of Independence ?)
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखितानुसार थीं
1. पिछड़ी हुई, गतिहीन, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था-डॉक्टर करम सिंह गिल के अनुसार, स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई, गतिहीन तथा अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। 1947-48 में प्रति व्यक्ति आय 250 रु० के लगभग थी। ब्रिटिश शासन काल के सौ वर्षों में प्रति व्यक्ति आय की औसत वार्षिक वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत के लगभग थी।

2. पिछड़ी हुई खेती-स्वतन्त्रता के समय भारत में 72% जनसंख्या कृषि पर कार्य करती थी। राष्ट्रीय आय का 57% भाग खेती द्वारा योगदान पाया जाता था। कृषि की उत्पादकता बहुत कम थी। इसके कई कारण थे जैसे कि ज़मींदारी प्रथा, वर्षा पर निर्भरता, कृषि के पुराने ढंग तथा सिंचाई की कम सुविधाएं।

3. औद्योगिक पिछड़ापन-स्वतन्त्रता के समय औद्योगिक दृष्टिकोण से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत पिछड़ी हुई थी। देश में बुनियादी तथा आधारभूत उद्योगों की कमी थी। देश में उपभोक्ता उद्योग जैसे कि सूती कपड़ा, चीनी, पटसन, सीमेंट इत्यादि मुख्य थे, परन्तु इन उद्योगों में उत्पादन कम किया जाता था।

4. घरेलू तथा छोटे पैमाने के उद्योगों का पतन-ब्रिटिश शासन से पहले भारत में घरेलू तथा छोटे पैमाने के उद्योग विकसित थे, जिन द्वारा कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता था। इन वस्तुओं की विश्वभर में मांग की जाती थी। अंग्रेजों को बड़े पैमाने पर तैयार सामान भारत में भेजकर भारत के घरेलू तथा छोटे पैमाने के उद्योगों को नष्ट कर दिया।

5. सामाजिक ऊपरी पूंजी का कम विकास-सामाजिक ऊपरी पूंजी का अर्थ रेलवे, यातायात के अन्य साधन, सड़कों, बैंकों इत्यादि के विकास से होता है, उस समय 97500 मील पक्की सड़कें 33.86 मीटर लम्बी रेलवे लाइन थी। बिजली का उत्पादन 20 लाख किलोवाट था तथा सिर्फ 3000 गांवों में बिजली की सुविधा थी। इस प्रकार सामाजिक ऊपरी पूंजी की कमी थी।

6. सीमित विदेशी व्यापार-1947-48 में 792 करोड़ रु० का विदेशी व्यापार किया गया। भारत में से कच्चा माल तथा कृषि पैदावार की वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। निर्यातों में सूती कपड़ा, कपास, अनाज, पटसन, चाय इत्यादि वस्तुएं शामिल थीं। भारत का विदेशी व्यापार अनुकूल था। इंग्लैंड तथा राष्ट्र मण्डल के अन्य देशों से भारत मुख्य तौर पर व्यापार करता था।

7. व्यावसायिक रचना-भारत में स्वतन्त्रता के समय 72.7 प्रतिशत जनसंख्या प्राथमिक क्षेत्र 10.1%, द्वितीयक क्षेत्र तथा 17.2% जनसंख्या सेवा क्षेत्रों में कार्य करती थी। इससे पता चलता है कि स्वतन्त्रता के समय कृषि लोगों का मुख्य पेशा था तथा उद्योग कम विकसित थे।

8. उत्पादन संरचना-स्वतन्त्रता के समय भारत में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान 58.7% था। इसमें कृषि, जंगल, मछली पालन तथा खनिज शामिल थे। द्वितीयक क्षेत्र का योगदान 14.3% तथा सेवा क्षेत्र का योगदान 27 प्रतिशत था। इस संरचना से पता चलता है कि प्राथमिक क्षेत्र का योगदान अधिकतम था जोकि भारत के पिछड़ेपन का सूचक है।

9. जनसंख्या की समस्या-स्वतन्त्रता के समय भारत की जनसंख्या लगभग 36 करोड़ थी। देश में 83% जनसंख्या अनपढ़ थी। जन्म दर 40 प्रति हज़ार तथा मृत्यु दर 27 थी। अधिक जन्मदर तथा मृत्युदर पिछडेपन का सचक थी।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

10. पूंजी निर्माण की कम दर-स्वतन्त्रता के समय भारत में बचत तथा निवेश दर 7% थी इस कारण भी भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक तौर पर पिछड़ी हुई थी।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को स्पष्ट करें। (Discuss the nature of Indian Economy on the eve of Independence.)
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के समय अर्थव्यवस्था की हालत का वर्णन करते हुए डॉक्टर करम सिंह गिल ने कहा है, “स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक अल्पविकसित, गतिहीन, अर्द्धसामन्ती अर्थव्यवस्था थी।”
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था 1
1. पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था (Underdeveloped Economy) स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था थी। एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती थी। 1947-48 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 230 रुपये के लगभग थी। देश की अधिकतर जनसंख्या बहुत अधिक निर्धन थी। लोगों को पेट भर भोजन नहीं मिलता था। रहने के लिए मकानों और पहनने के लिए कपड़ों का अभाव था। देश में अधिकतर लोग बेरोज़गार थे।

2. अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था (Semi Feudal Economy)-कृषि में पूरी तरह अंग्रेजों ने जमींदारी प्रथा प्रारंभ करके भूमि के स्वामित्व के अधिकार ज़मींदार को दे दिए। वास्तविक काश्तकार का भूमि पर कोई कानूनी अधिकार नहीं रह गया। स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों में लगान हमेशा के लिए निश्चित था परन्तु भूमि का किराया बढ़ता जा रहा था। इसलिए काश्तकारों ने भूमि उपकाश्तकारों को लगान पर देनी आरंभ कर दी। सरकार तथा वास्तविक काश्तकार के बीच बहुत-से बिचौलिए उत्पन्न हो गए।

ये बिचौलिए बिना कोई परिश्रम किए किसान से उसके उत्पादन का काफ़ी भाग प्राप्त कर लिया करते थे। किसानों की अवस्था बहुत खराब थी। भारत के जिन भागों में रैयतवाड़ी तथा महलवाड़ी प्रथा थी वहां भी बड़े-बड़े किसानों ने भूमि काश्त के लिए काश्तकारों को दे दी थी। इस प्रकार इन क्षेत्रों में भी बहुतसे बिचौलिए उत्पन्न हो गए थे। इस प्रकार सारे भारत में ही भूमिपति तथा काश्तकार के सामन्तवादी सम्बन्ध स्थापित हो गए।

3. विच्छेदित अर्थव्यवस्था (Disintegrated Economy)-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक विच्छेदित अर्थव्यवस्था थी। 1947 में जब ब्रिटिश शासन का अन्त हुआ तो इस देश की अर्थव्यवस्था का भारतीय अर्थव्यवस्था तथा पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में विभाजन कर दिया गया था। विभाजन ने देश की अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया था। अविभाजित भारत का 77 प्रतिशत क्षेत्रफल तथा 81 प्रतिशत जनसंख्या भारत के हिस्से में आई।

इसके विपरीत 23 प्रतिशत क्षेत्रफल तथा 19 प्रतिशत जनसंख्या पाकिस्तान के हिस्से में आई। देश का गेहूं, कपास तथा जूट पैदा करने वाला अधिकतर भाग पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। परन्तु अधिकतर कारखाने भारत के हिस्से में रह गये। विभाजन का एक प्रभाव तो यह हुआ कि कपड़े बनाने वाले कारखाने तो भारत में रह गये, परन्तु कपास पैदा करने वाले पश्चिमी पंजाब तथा सिंध के क्षेत्र पाकिस्तान के हिस्से में आये। जूट के कारखाने कलकत्ता (कोलकाता) में थे परन्तु पटसन पैदा करने वाले खेत पूर्वी बंगाल में थे जो पाकिस्तान का एक भाग बन गया था। इस प्रकार भारत को अपने कारखानों के लिए कच्चा माल आयात करने के लिए पाकिस्तान पर निर्भर रहना पड़ा।

4. विहसित अर्थव्यवस्था (Deprecrated Economy) स्वतन्त्रता के अवसर पर भारतीय अर्थव्यवस्था एक विह्रसित अर्थव्यवस्था थी। प्रत्येक अर्थव्यवस्था के साधनों का अधिक प्रयोग करने से उनमें घिसावट तथा टूट-फूट हो जाती है। परन्तु यदि किसी अर्थव्यवस्था के साधनों की घिसावट को दूर करने का कोई प्रबन्ध नहीं किया जाता तो अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण की मात्रा कम हो जाती है। इसके फलस्वरूप उत्पादन क्षमता भी कम हो जाती है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

ऐसी अर्थव्यवस्था को विह्रसित अर्थव्यवस्था कहा जाता है। दूसरे महायुद्ध के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था एक विह्रसित अर्थव्यवस्था बन गई थी। महायुद्ध के दौरान मशीनरी तथा अन्य औज़ारों का बहुत अधिक उपयोग किया गया। इसके फलस्वरूप इनमें घिसाई तथा टूट-फूट बहुत अधिक हुई। इन मशीनों को बदलने के लिए नयी मशीनें विदेशों से आयात की जानी थीं क्योंकि भारत में मशीनों का उत्पादन नहीं था। परन्तु युद्ध के कारण विदेशों से मशीनों का आयात करना सम्भव नहीं था, इसलिए भारत से काफ़ी उद्योगों की मशीनें बेकार हो गईं, इन उद्योगों की उत्पादन क्षमता कम हो गई।

5. स्थिर अर्थव्यवस्था (Stagnent Economy)-अंग्रेजी शासन काल में भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग स्थिरता की अवस्था में थी। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय वृद्धि की दर 0.5% थी। जनसंख्या में वृद्धि दर काफ़ी ऊंची थी। समस्यापूर्ण अर्थव्यवस्था-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था अनेक समस्याओं से घिरी हुई थी-जैसे शरणार्थियों के पुनः विस्थापन की समस्या, निर्धनता की समस्या, ऊँची कीमतों की समस्या, बेरोज़गारी की समस्या, खाद्यान्न की समस्या इत्यादि।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

PSEB 12th Class Economics विदेशी विनिमय दर Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
विदेशी विनिमय भण्डार से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विदेशी मुद्रा तथा सोने के भण्डार को विदेशी विनिमय कहते हैं।

प्रश्न 2.
विदेशी विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रो० क्राऊथर के शब्दों में, “विदेशी विनिमय दर उस दर का माप है कि एक मुद्रा की इकाई के बदले दूसरी मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिलती हैं।”

प्रश्न 3.
सन्तुलन विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सन्तुलन विनिमय दर दो मुद्राओं में वह विनिमय दर है, जहां पर विदेशी मुद्रा की माँग और विदेशी मुद्रा की पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाती है।

प्रश्न 4.
विदेशी मुद्रा बाजार की परिभाषा दें।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार वह बाज़ार है, जिसमें विभिन्न देशों की मुद्राओं को बेचा-खरीदा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 5.
विदेशी मुद्रा बाज़ार की भूमिकाएँ बताएँ।
उत्तर-
यह बाज़ार क्रय शक्ति के अंतरण, साख सुविधा और जोखिम से बचाव आदि भूमिकाएं निभाता है।

प्रश्न 6.
विदेशी मुद्रा बाज़ार में सन्तुलन कैसे स्थापित होता है ?
उत्तर-
स्वतन्त्र रूप से उच्चावचन कर रहे मुद्रा बाज़ार में विदेशी मुद्राओं की माँग तथा पूर्ति से सन्तुलन स्थापित होता है।

प्रश्न 7.
स्थिर विनिमय दर से क्या भाव है ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर वह दर होती है, जो देश की सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है।

प्रश्न 8.
समता मान क्या है ?
उत्तर-
मुद्रा की इकाई में स्वर्ण मान की समानता के आधार पर निर्धारित होने वाली विदेशी विनिमय दर को समता मान कहा जाता है।

प्रश्न 9.
विनिमय दर की ब्रैनवुड प्रणाली से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
1945 में ब्रैनवुड के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.) की स्थापना के साथ हर एक देश की करंसी का मूल्य सोने के रूप में निर्धारण किया गया। इसे स्थिर विनिमय दर प्रणाली कहते हैं।

प्रश्न 10.
I.M.F. द्वारा स्थिर विनिमय दर कब तक प्रचलित रही ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर 1946 से 1971 तक प्रचलित रही।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 11.
विश्व में 1972 के बाद विनिमय दर कैसे निर्धारण होती है ?
उत्तर-
विनिमय दर 1972 के बाद करंसी की माँग तथा पूर्ति द्वारा विदेशी विनिमय बाज़ार में निर्धारण होती है।

प्रश्न 12.
विदेशी मुद्रा में चालू बाज़ार (Spot Market) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यदि विदेशी मुद्रा की प्रकृति दैनिक किस्म की हो तो इसको चालू बाज़ार कहते हैं।

प्रश्न 13.
बढ़ोत्तरी बाज़ार से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
यदि विदेशी मुद्रा का भुगतान भविष्य में करना होता है तो इसको बढ़ौत्तरी बाज़ार (Forward Market) कहा जाता है।

प्रश्न 14.
चलत सीमा बन्ध (Crawling Peg) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चलत सीमा बन्ध एक ऐसी स्थिति है, जिसमें देश की करंसी के मूल्य में 1% तक परिवर्तन किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
प्रबन्धित तरल चलिता (Managed Floting) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रबन्धित तरल चलिता ऐसी स्थिति है, जिसमें करंसी का मूल्य नियमों तथा अधिनियमों के अनुसार ही निर्धारण किया जा सकता है और परिवर्तन सीमा नहीं होती।

प्रश्न 16.
NEER (Nominal Effective Exchange Rate) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी मुद्रा की औसत सापेक्ष शक्ति का मान प्रभावी विनिमय दर कहा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 17.
REER (Real Effective Exchange Rate) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (REER) वास्तविक विनिमय दर होती है। यह प्रचलित कीमतों पर आधारित होती है।

प्रश्न 18.
RER (Real Exchange Rate) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वास्तविक विनिमय दर (RER) का अर्थ स्थिर कीमतों पर आधारित विनिमय दर से होता है। इसमें कीमत परिवर्तन के प्रभाव को दूर किया जाता है।

प्रश्न 19.
अवमूल्यन क्या है ?
उत्तर-
सरकार द्वारा अपने देश की मुद्रा का मूल्य विदेशी मुद्रा के मुकाबले कम करना ही अवमूल्यन होता है।

प्रश्न 20.
वह विनिमय दर जो देश की सरकार द्वारा निर्धारण की जाती है इसको ………….. कहते हैं।
(क) स्थिर विनिमय दर
(ख) परिवर्तनशील विनिमय दर
(ग) अनुमानित विनिमय दर
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) स्थिर विनिमय दर।

प्रश्न 21.
विनिमय दर का सन्तुलन ………………. द्वारा स्थापित होता है।
(क) सरकार
(ख) विश्व बैंक
(ग) केन्द्रीय बैंक
(घ) मांग तथा पूर्ति।
उत्तर-
(घ) मांग तथा पूर्ति।

प्रश्न 22.
विदेशी मुद्रा और सोने के भंडार को विदेशी मुद्रा कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 23. मुद्रा की एक इकाई में सोने की समानता के आधार पर निर्धारण होने वाली विदेशी विनिमय दर को समता मान कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 24.
जब विदेशी मुद्रा की प्रकृति दैनिक किस्म की हो तो इस को चालू बाज़ार कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 25.
सरकार द्वारा अपने देश की मुद्रा का मूल्य विदेशी मुद्रा की तुलना में बढ़ाने को अवमूल्यन कहते ङ्केहैं।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 26.
विनिमय दर से अभिप्राय अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में एक करंसी की बाकी करंसियों के रूप में
(क) कीमत से है
(ख) विनिमय के अनुपात से है
(ग) दोनों (क) और (ख)
(घ) वस्तु विनिमय से है।
उत्तर-
(क) कीमत से है।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
विदेशी विनिमय दर से क्या भाव है ?
उत्तर-
प्रो० क्राऊघर के शब्दों में, “विनिमय दर इसका माप है कि एक मुद्रा की इकाई के बदले में दूसरी मुद्रा की कितनी और इकाइयां मिलती हैं। विनिमय दर उस दर को कहते हैं जिससे एक देश की करेन्सी की एक इकाई के बदले विदेशी मुद्रा की कितनी और इकाइयां मिल सकती हैं।”

प्रश्न 2.
विदेशी मुद्रा बाज़ार को परिभाषित करो।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार वह बाज़ार है जहां भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की मुद्रा का व्यापार होता है। हर एक देश अपनी मुद्रा को बेचकर दूसरे देश की मुद्रा की खरीद करता है ताकि विदेशों से वस्तुएं और सेवाएं आयात की जा सकें। जिस बाज़ार में अलग-अलग देशों की मुद्रा का विनिमय किया जाता है उस बाज़ार को विदेशी मुद्रा बाज़ार कहा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 3.
सन्तुलन विनिमय दर से क्या भाव है ?
उत्तर-
सन्तुलन विनिमय दर दो मुद्रा में वह विनिमय दर है जहां पर विदेशी मुद्रा की मांग और विदेशी मुद्रा की पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होती है। विनिमय दर वह दर होती है जिससे एक देश की मुद्रा का विनिमय दूसरे देश की मुद्रा के साथ किया जाता है।

प्रश्न 4.
बढ़ौत्तरी बाज़ार (Forward Market) से क्या भाव है ?
उत्तर-
बढ़ौत्तरी बाज़ार वह बाज़ार है जिसमें विदेशी मुद्रा की खरीद-बेच की वृद्धि तो आज की जाती है परन्तु खरीद बेच निश्चित पहले निर्धारित समय के बाद की जाती है। इस बाज़ार में भविष्य की विनिमय दर का उल्लेख आज fabell GIII (A forward market is that in which the foreign exchange is promised to be delivered in future.)

प्रश्न 5.
विदेशी मुद्रा के चालू बाज़ार और वृद्धि बाज़ार में अन्तर करो।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा का चालू बाज़ार वह बाज़ार होता है जहां दैनिक स्वभाव की खरीद बेच रोज़ाना की है। बढ़ौत्तरी बाज़ार में समझौता आज किया जाता है। परन्तु विदेशी मुद्रा की खरीद-बेच भविष्य में निश्चित समय के बाद होती है।

प्रश्न 6.
चलत सीमा बन्ध (Crawling Peg) और पबंदित तरलचलिता (Manged Float) में अन्तर बताएँ।
उत्तर-
चलत सीमा बन्ध एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें देश की करेन्सी का मूल्य 1% परिवर्तन किया जा सकता है। पबंधित तरलचलिता एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें करेन्सी का मूल्य नियमों तथा अर्धनियमों के अनुसार ही किया जा सकता है तथा परिवर्तन सीमा नहीं होती।

प्रश्न 7.
विदेशी मुद्रा की मांग क्यों की जाती है ?
उत्तर-
विदेशी मुद्रा की मांग निम्नलिखित कारणों से की जाती है-

  • बाकी विश्व से वस्तुएं तथा सेवाएं आयात करने के लिए।
  • बाकी विश्व को अनुदान देने के लिए।
  • बाकी विश्व में निवेश करने के लिए।
  • अन्तर्राष्ट्रीय ऋण का भुगतान करने के लिए।

प्रश्न 8.
विदेशी मुद्रा की पूर्ति के स्त्रोत बताएं।
उत्तर-

  1. घरेलू वस्तुओं की विदेशों में मांग हो तो वस्तुओं का निर्यात करके विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
  2. विदेशी निवेशकों द्वारा देश में किया गया प्रत्यक्ष विदेशी निवेश।
  3. देश के नागरिकों द्वारा विदेशों में काम करके विदेशी मुद्रा का हस्तांतरण।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 9.
विदेशी विनिमय दर का सन्तुलन कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर-
विदेशी विनिमय दर का सन्तुलन दर को विदेशी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति निर्धारण करती है।

प्रश्न 10.
स्थिर विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर वह दर है जो कि देश की सरकार द्वारा निर्धारण की जाती है और विनिमय दर में परिवर्तन भी सरकार द्वारा ही किया जाता है। करेंसी का मूल्य, उसमें छुपी हुई सोने की मात्रा के अनुसार निश्चित किया जाता है।

प्रश्न 11.
लोचशील विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर वह दर है जो कि देश मुद्रा की मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारण होती है। जिस बाज़ार में करेंसी की विनिमय दर निर्धारण होती है उस को विनिमय दर बाज़ार कहा जाता है। जिस प्रकार एक वस्तु की कीमत खुले बाज़ार में मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारण होती है वैसे ही देश की करेंसी का मूल्य मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारण होता है।

प्रश्न 12.
स्थिर विनिमय दर तथा लोचशील विनिमय दर में अन्तर बताएं।
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर-स्थिर विनिमय दर वह दर है जो कि किसी देश की सरकार द्वारा निर्धारण की जाती है और इसमें परिवर्तन भी सरकार द्वारा ही किया जाता है। लोचशील विनिमय दर-लोचशील विनिमय दर वह दर है जो कि करेंसी की मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है और इसमें परिवर्तन मांग तथा पूर्ति में तबदीली कारण होता है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
विदेशी मुद्रा बाजार से क्या भाव है ? विदेशी मुद्रा बाज़ार के मुख्य कार्य बताओ।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार वह बाज़ार है जिसमें विदेशी मुद्रा का व्यापार किया जाता है। हर देश की मुद्रा की विनिमय दर उस मुद्रा की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। विदेशी मुद्रा के मुख्य कार्य-

  1. हस्तांतरण कार्य-विदेशी मुद्रा बाज़ार का मुख्य कार्य भिन्न-भिन्न देशों की करन्सी के व्यापार द्वारा खरीद शक्ति का हस्तांतरण करना होता है।
  2. साख कार्य-विदेशी व्यापार करने के लिए विदेशी मुद्रा के रूप में साख मुद्रा का प्रबन्ध करना ही विदेशी ङ्के मुद्रा का मुख्य कार्य होता है।
  3. जोखिम से बचाव का कार्य-विदेशी मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के जोखिम के बाद का काम ही विदेशी मुद्रा बाज़ार करता है, जहां माँग तथा पूर्ति द्वारा विदेशी मुद्रा का मूल्य निश्चित हो जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 2.
विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति के चार स्त्रोत बताओ।
अथवा
विदेशी मुद्रा की मांग क्यों की जाती है ? इसकी पूर्ति कैसे होती है ?
उत्तर-
विदेशी मुद्रा की माँग (Demand for Foreign Exchange)

  • विदेशों के साथ आयात तथा निर्यात करने के लिए।
  • विदेशों को तोहफे तथा ग्रांट भेजने के लिए।
  • विदेशों में परिसम्पत्तियां (Assets) खरीदने के लिए।
  • विदेशी मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन के कारण लाभ कमाने के लिए।

विदेशी मुद्रा की पूर्ति (Supply of Foreign Exchange)

  1. विदेशी जब देश की वस्तुओं और सेवाओं की खरीद निर्यात के लिए करते हैं तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति होती
  2. विदेशों द्वारा देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने के साथ विदेशी मुद्रा की पूर्ति होती है।
  3. विदेशी मुद्रा के व्यापारी लाभ कमाने के लिए विदेशी मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि करते हैं।
  4. देश के नागरिक जो विदेशों में रहते हैं उस परिवार को विदेशी मुद्रा के रूप में पैसे बेचते हैं ताकि विदेशी मुद्रा की पूर्ति हो सके।

प्रश्न 3.
स्थिर विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ?
अथवा
स्थिर विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। विश्व में 1880 से 1914 ई० तक स्वर्ण मान प्रणाली अपनाई जाती थी। इस प्रणाली में विदेशी मुद्रा में विनिमय करने के लिए करन्सी का मूल्य सोने के रूप में मापते थे। हर एक देश की मुद्रा विनिमय मूल्य सोने के मूल्य की तुलना द्वारा किया जाता था।

इस प्रकार सोने को विभिन्न-विभिन्न देशों की करन्सी में एक सांझी इकाई माना जाता था। उदाहरण के तौर पर अगर भारत में 1 ग्राम सोने का मूल्य ₹ 50 है और अमेरिका में सोने का मूल्य 1 डॉलर है तो भारत के रुपये का विनिमय मूल्य 50 होगा। डॉलर के रूप में इस विनिमय प्रणाली को स्वर्ण मान प्रणाली कहा जाता था| दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रटनवुड प्रणाली अपनाई गई है जिसमें हर एक मुद्रा का मूल्य अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा सोने के रूप में व्यक्त किया जाता था। हर एक मुद्रा के सोने के मूल्य की तुलना के साथ विनिमय दर निश्चित की जाती है।

प्रश्न 4.
विदेशी मुद्रा बाजार में सन्तुलन को स्पष्ट करो।
अथवा
विनिमय दर के सन्तुलन को स्पष्ट करो।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार में विनिमय दर उस बिन्दु पर होती है जहां विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति बराबर होती है। रेखाचित्र 1 अनुसार अमेरिका के डॉलर की माँग DD और SS है। सन्तुलन E बिन्दु पर होता है। इसलिए विनिमय दर निर्धारित हो जाती है। अगर विनिमय दर OR1, हो जाए तो रुपये के रूप में डॉलर ज्यादा मात्रा में पैसे देने पड़ेंगे तो डॉलर की माँग R1D1 हो जाएगी। OR पूर्ति R1S1 हो जाएगी। इसलिए विनिमय दर OR1 से कम होकर OR निश्चित हो जाएगी।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर 1
अगर किसी समय विनिमय दर OR1 निश्चित होती है तो पूर्ति R2S2 कम है और माँग R2D2 ज्यादा है। इसलिए विनिमय रेखाचित्र 1 दर बढ़कर OR हो जाएगी। विनिमय दर का सन्तुलन माँग और पूर्ति द्वारा विदेशी मुद्रा बाज़ार में निर्धारित होता है।

प्रश्न 5.
स्थिर विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर देश की सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है और यह वह स्थिर दर रहती है। स्थिर विनिमय दर माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित नहीं होती बल्कि विनिमय दर 1920 से पहले स्वर्णमान प्रणाली द्वारा निर्धारित की जाती थी। इस प्रणाली में हर एक देश की मुद्रा का मूल्य सोने के रूप में परिभाषित किया जाता था। हर देश की मुद्रा के स्वर्ण मुद्रा मूल्य की तुलना करके विनिमय दर निर्धारित की जाती थी। उदाहरण के लिए रुपये का मूल्य = 2 ग्राम सोना और डॉलर का मूल्य 100 ग्राम सोना तो 1 डॉलर = 100/2 = ₹ 50 निर्धारित होता था। ब्रैटनवुड कुछ सुधार करके समान योजक सीमा प्रणाली अपनाई गई।

प्रश्न 6.
लोचशील विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर किसी देश की माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में हर एक देश की मुद्रा की माँग और पूर्ति उस देश की करंसी के विनिमय मूल्य को निर्धारित करती है।

जैसा कि रेखाचित्र में विदेशी करन्सी की माँग और पर्ति द्वारा सन्तुलन E बिन्दु पर स्थापित होता है। जहां OR विनिमय दर निर्धारित हो जाती है। अगर विदेशी करन्सी की माँग बढ़ जाती है तो विनिमय दर में वृद्धि हो जाएगी अर्थात् विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए ज्यादा देशी मुद्रा देनी पड़ेगी। अगर विदेशी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है तो विनिमय दर कम हो जाएगी। इससे यह नतीजा प्राप्त होता है कि विदेशी मुद्रा की जितनी माँग बढ़ जाएगी विनिमय मूल्य उतना अधिक हो जाएगा और विदेशी मुद्रा की पूर्ति जितनी ज्यादा होगी विनिमय मूल्य उतना कम हो जाएगा।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर 2

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 7.
स्थिर विनिमय दर के लाभ और हानियां बताओ।
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर वह दर होती है जोकि देश की सरकार द्वारा निश्चित होती है और इसके मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं-
मुख्य लाभ (Merits)

  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय विदेशी मुद्रा बाज़ार में स्थिरता स्थापित होती है।
  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है।
  • इसके साथ बड़े पैमाने के उतार-चढ़ाव उत्पन्न नहीं होते।

हानियां (Demerits)-

  • इसके साथ व्यापक रूप में अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां रखनी पड़ती हैं क्योंकि मुद्रा सोने में परिवर्तनशील होती है।
  • इसके साथ पूँजी का विदेशों में आना-जाना कम हो जाता है क्योंकि स्वर्ण भण्डार ज़्यादा रुपये पड़ते हैं।
  • यह जोखिम पूँजी को उत्साहित करती है।

प्रश्न 8.
लोचशील विनिमय दर के लाभ और हानियां बताओ।
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर बाज़ार में माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है।
मुख्य लाभ (Merits)-

  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां रखने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
  • इसके साथ पूँजी का निवेश करना आसान होता है।
  • यह जोखिम पूँजी को उत्साहित करती है।

हानियां (Demerits)

  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में अस्थिरता पैदा हो जाती है।
  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  • इसके साथ बड़े पैमाने पर उतार-चढ़ाव पैदा होता है।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्थिर विनिमय दर से क्या भाव है ? स्थिर विनिमय दर कैसे निर्धारित की जाती है ? इसके गुण और . अवगुण बताओ।
(What is Fixed Exchange Rate ? How is fixed exchange rate determined ? Give its merits and demerits ?)
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर का अर्थ (Meaning of Fixed Exchange Rate)-स्थिर विनिमय दर विनिमय की वह दर है जोकि सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है। इस प्रणाली में विनिमय दर सरकार निश्चित करती है और यह दर स्थिर होती है। (Fixed Exchange rate is that exchange rate which is fixed by the government and it is fixed) स्थिर विनिमय दर में सरकार अपनी इच्छा अनुसार थोड़ा परिवर्तन कर सकती है।

स्थिर विनिमय दर का निर्धारण (Determination of Fixed Exchange Rate)-इसके निर्धारण के लिए दो प्रणालियां अपनाई गई हैं-
1. स्वर्ण मान प्रणाली (Gold Standard System)-स्थिर विनिमय दर प्रणाली का सम्बन्ध 1880-1914 तक स्वर्ण मान प्रणाली के साथ था। इस प्रणाली में हर एक देश को अपनी करन्सी का मूल्य सोने के रूप में बताना पड़ता था। एक करन्सी का मूल्य दूसरी करन्सी में निर्धारित करने के लिए हर एक करन्सी के सोने के रूप में मूल्य की तुलना दूसरी करन्सी के सोने के रूप में मूल्य के साथ की जाती थी। इस प्रकार स्थिर विनिमय दर निर्धारित होती थी जिसको विनिमय का टक्साली समता मूल्य (What for value of exchange) कहा जाता था। उदाहरण के लिए भारत के एक रुपये के साथ 100 ग्राम सोना तथा अमेरिका के एक डॉलर के साथ 20 ग्राम सोने का विनिमय किया जा सकता है तो भारत के रुपये का विनिमय मूल्य \(\frac{100}{20}\) = 5 अमेरिकन डॉलर निर्धारित किया जाता था या विनिमय दर 1 : 5 थी।

2. समानयोजक सीमा प्रणाली (Adjustable Peg System)-बैटनवुड प्रणाली (Bretton Wood System) दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रैटनवुड के स्थान पर विश्व के देशों ने समानयोजक सीमा प्रणाली को अपनाया था। यह प्रणाली स्थिर विनिमय दर को सोने के रूप में ही परिभाषित करके निश्चित की जाती थी। परन्तु इसमें कुछ समानयोजक या परिवर्तनशील की सम्भावना रखी गई। हर एक करन्सी का मूल्य अमेरिका के डॉलर के रूप में ही परिभाषित किया गया। कोई करन्सी के मूल्य में समानयोजक या तबदीली अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्वीकृति के साथ ही की जा सकती थी।

स्थिर विनिमय दर के लाभ (Merits of Fixed Exchange System)-
1. आर्थिक स्थिरता (Economic Stability)-इस प्रणाली का मुख्य लाभ यह था कि सभी देशों में आर्थिक उतार-चढ़ाव की सम्भावना नहीं होती थी। व्यापारिक चक्रों पर नियन्त्रण करने के लिए यह प्रणाली लाभदायक सिद्ध हुई है। इसके साथ आर्थिक नीतियों का निर्माण अच्छे ढंग के साथ किया जाने लगा।

2. विश्व आधार का विस्तार (Expansion of World Trade)-स्थिर दर के साथ विश्व व्यापार का विस्तार हो गया क्योंकि इस के साथ विनिमय पर अनिश्चित परिवर्तन नहीं होता है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को उत्साह प्राप्त हो गया।

3. समष्टि नीतियों का तालमेल (Co-ordination of Macro Policies)-स्थिर विनिमय दर समष्टि नीतियों में तालमेल उत्पन्न करने में सहायक हुई है। इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के समझौते ज़्यादा समय तक किये जा सकते हैं। इस प्रकार विश्व अर्थव्यवस्था में विनिमय दर नीतियों में सहायता करती है।

हानियां (Demerits)-स्थिर विनिमय दर के दोष निम्नलिखित हैं-
1. विशाल अन्तर्राष्ट्रीय निधियां (International Reserved)-स्थिर विनिमय प्रणाली का प्रतिपादन करने के लिए अधिक मात्रा में अन्तर्राष्ट्रीय निधियों की ज़रूरत पड़ती थी। हर एक देश को बहुत सारा धन सोने के रूप में सम्भालना पड़ता था क्योंकि देश की करन्सी सीधे या उल्टे रूप में सोने में बदली जा सकती थी।

2. पूँजी की कम गति (Less movement of Capital)—स्थिर विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर को स्थिर रखने के लिए सरकार को सोने के रूप में भण्डार स्थापित करने पड़ते थे। इसलिए पूँजी में गतिशीलता बहुत कम थी। पूँजी का निवेश विदेशों में कम मात्रा में किया जाता था।

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3. साधनों की अनुकूल बांट (Inefficient Resource Allocation)-स्थिर विनिमय दर में साधनों की बांट कुशल ढंग के साथ नहीं की जा सकती थी। उत्पादन के साधनों के उत्तम प्रयोग के लिए हर एक देश में पूँजी की ज़रूरत होती है। पूँजी निर्माण की कम प्राप्ति के कारण साधनों की अनुकूल बाँट सम्भव थी। स्थिर विनिमय दर के साथ जोखिम पूँजी को ही उत्साह प्राप्त नहीं होता। जिन कार्यों में पूँजी लगानी जोखिम का कार्य होता है उनके कार्य में कोई देश पूँजी लगाने को तैयार नहीं होता था क्योंकि विनिमय दर स्थिर रहती थी।

प्रश्न 2.
लोचशील विनिमय दर से क्या भाव है ? लोचशील विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ? इस प्रणाली के गुण और अवगुण बताओ।
(What is Flexible Exchange Rate? How is Flexible Exchange Rate determined? Explain the merits and demerits of this system.)
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर का अर्थ (Meaning of Flexible Exchange Rate)-लोचशील विनिमय दर वह दर होती है जो कि किसी करन्सी की माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। इस दर का निर्धारित करने के लिए कोई सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता। इस हालत में करन्सी को बाजार में खुला छोड़ दिया जाता है जो कि विदेशी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति द्वारा बाज़ार शक्तियां निर्धारित होती हैं। विनिमय दर में लगातार परिवर्तन होता रहता है जहाँ विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति बराबर हो जाती है। इसको विनिमय दर की समता दर (Per Rate of Exchange) कहते हैं। इस को सन्तुलन दर भी कहा जाता है।

लोचशील विनिमय दर का निर्धारण (Determination of Flexible Exchange Rate)-प्रो० के० के० कुरीहारा के अनुसार, “मुफ्त विनिमय दर उस जगह पर निश्चित होगी जहां विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति बराबर हो जाएगी।” लोचशील विनिमय दर दो तत्त्वों द्वारा निर्धारित होती है-
(A) विदेशी मुद्रा की माँग (Demand for Foreign Exchange)-विदेशी मुद्रा का जब भुगतान किया जाता है तो इस महत्त्व के लिए विदेशी मुद्रा की मांग उत्पन्न होती है। एक देश में विदेशी मुद्रा की माँग निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न होती है-

  • विदेशों में वस्तुएं तथा सेवाएं आयात करने के लिए।
  • अन्तर्राष्ट्रीय कर्जे का भुगतान करने के लिए।
  • विश्व के दूसरे देशों में निवेश करने के लिए।
  • बाकी विश्व को तोहफे तथा ग्रांट देने के लिए।
  • विदेशी मुद्रा के सट्टा उद्देश्य के साथ लाभ कमाने के लिए।

अगर हम भारत के रुपये तथा अमेरिका के डॉलर के सम्बन्ध में डॉलर की माँग और विनिमय मूल्य का प्रतिपादन करना चाहते हैं तो विदेशी मुद्रा की माँग और विनिमय मूल्य का उल्ट सम्बन्ध होता है अर्थात् अमेरिका के डॉलर की कीमत जो रुपये के रूप में की जाती है इसका उल्ट सम्बन्ध होता है। इसके लिए जब विनिमय मूल्य कम होता जाता है तो डॉलर की माँग में वृद्धि होती है। इस प्रकार माँग वक्र ऋणात्मक ढलान की तरफ़ होता है।

विदेशी मुद्रा की पूर्ति (Supply of foreign exchange)–विदेशी मुद्रा की प्राप्ति द्वारा इसकी पूर्ति निश्चित होती है। विदेशी मुद्रा की पूर्ति निम्नलिखित तत्त्वों पर निर्भर करती है-

  • वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात के साथ अर्थात् जब विदेशी भारत में वस्तुओं तथा सेवाओं की खरीद करते
  • प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के साथ।
  • विदेशी मुद्रा के दलाल या सट्टा खेलने वालों के द्वारा भारत में भेजी गई विदेशी मुद्रा के साथ। ‘
  • विदेशों में काम कर रहे भारतीयों द्वारा देश में भेजी गई बचतों के साथ।
  • विदेशी राजदूत द्वारा भारत में सैर-सपाटे के साथ।

विनिमय दर और विदेशी मुद्रा की पूर्ति का सीधा सम्बन्ध होता है। जब विनिमय दर बढ़ती है तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती है। जब विनिमय दर कम हो जाती है तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति कम हो जाती है। इस प्रकार पूर्ति वक्र धनात्मक ढलान वाली हो जाती है।

विनिमय की सन्तुलन दर (Equilibrium Exchange Rate)-विनिमय की सन्तुलन दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहां विदेशी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होते हैं। इसको रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता रेखाचित्र 3 में विनिमय दर निर्धारण को स्पष्ट किया गया है। विदेशी मुद्रा (डॉलर) की माँग तथा पूर्ति को OX रेखा पर और रुपये की तुलना में डॉलर के विनिमय मूल्य को OY रेखा पर दिखाया गया है।

विदेशी मुद्रा की मांग DD और पूर्ति SS एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। इसके साथ OR विनिमय दर निश्चित हो जाती है। अगर कोई समय विनिमय दर OR1 हो जाती है तो विदेशी मुद्रा की माँग R1d1 कम हो जाएगी और पूर्ति R2S2 बढ़ जाएगी। इसके साथ विनिमय दर कम होकर OR रह जाएगी। इसके विपरीत अगर विनिमय दर कम होकर OR2 रह जाती है तो विदेशी मुद्रा की माँग R2d2 ज़्यादा है और पूर्ति R2S2 कम है। इसलिए विनिमय दर OR2 से बढ़कर OR हो जाएगी। इस प्रकार विनिमय दर विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर 3

लोचशील विनिमय दर के गुण (Merits of Flexible Rate of Exchange)लोचशील विनिमय दर के गुण इस प्रकार हैं –

  1. अन्तर्राष्ट्रीय निधियों की ज़रूरत न होना-इस प्रणाली में देश के केन्द्रीय बैंक को अन्तर्राष्ट्रीय भंडारे की कोई ज़रूरत नहीं होती।
  2. पूँजी में वृद्धि (More Capital Movement)-लोचशील विनिमय दर प्रणाली में देश विदेशों में पूँजी निवेश करते हैं क्योंकि देश के केन्द्रीय बैंक को अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां रखने की ज़रूरत नहीं होती। इसलिए पूँजी गतिशीलता का लाभ सारे देशों को होता है।
  3. व्यापार में वृद्धि (Increase in Trade)-विनिमय प्रणाली में व्यापार पर पाबन्दियां लगाने की ज़रूरत नहीं होती है। हर एक देश स्वतन्त्रता के साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कर सकता है।
  4. साधनों की उत्तम बांट-लोचशील विनिमय दर में देश के साधनों की उत्तम बाँट सम्भव होती है। इसके साथ साधनों की कागज़ सुविधा में वृद्धि होती है और देश के विकास के अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

लोचशील विनिमय दर के दोष (Demerits of Flexible Exchange Rate)-लोचशील विनिमय दर के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –

  1. विनिमय दर में अस्थिरता (Instability of Exchange Rate)-विनिमय दर में परिवर्तन लोचशील विनिमय दर प्रणाली में निरन्तर होता रहता है। इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में विदेशी मुद्रा की कीमत में अस्थिरता पैदा हो जाती है।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता (Instability in International Trade)-लोचशील विनिमय दर में अस्थिरता होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भी अस्थिरता पाई जाती है। हर एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के राह में रुकावटें खड़ी कर देता है।
  3. समष्टि नीतियों में समस्या (Problems in Macro Policies)-समष्टि आर्थिक नीतियों के निर्माण में बहुत सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। विनिमय दर दिन-प्रतिदिन परिवर्तित होती है। इसलिए समय की नीतियों का न्याय करना मुश्किल हो जाता है। अमेरिका के डॉलर, इंग्लैण्ड के पौंड और यूरोप के यूरो को मज़बूत और सख्य करन्सियां कहा जाता है। क्योंकि करन्सी की माँग विश्व भर में है और लोगों का विश्वास अधिक है।

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दूसरी तरफ भारत, पाकिस्तान के रुपये और विकासशील देशों की करन्सियों को कमज़ोर तथा नर्म (Weak and Soft) करन्सी कहा जाता है क्योंकि इनकी मांग कम है और इनका मूल्य लगातार कम होने का कारण इनकी विनिमय दर कम है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 23 ग्रामीण ऋण

PSEB 12th Class Economics ग्रामीण ऋण Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता का कोई एक उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
उत्पादक व्यय-इस उद्देश्य के लिए ऋण जमीन खरीदने अथवा ज़मीन के सुधार के लिए प्राप्त किया जाता |

प्रश्न 2.
ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
किसान निर्धन होने के कारण कृषि अथवा पारिवारिक व्यय के लिए ऋण लेता है।

प्रश्न 3.
ग्रामीण ऋणग्रस्तता का कोई एक प्रभाव बताओ।
उत्तर-
ऋण से किसान अपनी भूमि बेचकर ऋण तथा ब्याज का भार उतारता है। इसलिए वह भूमिरहित मज़दूर बन जाता है।

प्रश्न 4.
ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या के लिए कोई एक सुझाव दीजिए।
उत्तर-
भारत में किसानों पर चले आ रहे पुराने ऋण का निपटारा करना चाहिए। बहुत पुराने ऋण को समाप्त कर देना चाहिए।

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प्रश्न 5.
श्री ………….. का यह कथन ठीक है, “भारतीय किसान कर्जे में जन्म लेता है, कर्ज़ में रहता है तथा कर्ज़ में मर जाता है।”
(a) एम० एल० डार्लिंग
(c) मनमोहन सिंह
(c) एस० एस० जोहल
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(a) एम० एल० डार्लिंग।

प्रश्न 6.
अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण तथा विनियोग सर्वेक्षण (1980-81) के अनुसार भारत में .. प्रतिशत कृषक परिवार ऋणग्रस्त हैं।
(a) 43%
(b) 53%
(c) 63%
(d) 73%.
उत्तर-
(a) 43%.

प्रश्न 7.
भारत में ग्रामीण ऋण का मुख्य कारण …… ……
(a) निर्धनता
(b) पैतृक ऋण
(c) मानसून की अनिश्चितता
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 8.
ऋणग्रस्तता के मुख्य प्रतिकूल प्रभाव …
(a) आर्थिक प्रभाव
(b) सामाजिक प्रभाव
(c) नैतिक प्रभाव
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 9.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता सम्बन्धी अनुमान सबसे पहले किसने लगाया ?
उत्तर-
भारत में ग्राणीण ऋणग्रस्तता का अनुमान समय से पहले 1911 में श्री मैकलेगन ने लगाया।

प्रश्न 10.
भारत में उत्पादक व्यय के लिए 35.1% ऋण प्राप्त किया जाता है।
उत्तर-
सही।

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प्रश्न 11.
भारत में किसान पारिवारिक व्यय के लिए 51% ऋण प्राप्त करते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 12.
पारिवारिक व्यय के लिए भारत के किसान द्वारा ऋण का कितने प्रतिशत ऋण प्राप्त किया जाता
(a) 30%
(b) 51%
(c) 50%
(d) 60%.
उत्तर-
(b) 51%.

प्रश्न 13.
भारत में उत्पादन उद्देश्य के लिए सबसे कम ऋण प्राप्त किया जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 14.
अल्पकाल के ग्रामीण ऋण के उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
किसानों को 15 मास अथवा इससे कम समय के लिए ऋण अनिवार्य है। इस ऋण का उद्देश्य घरेलू व्ययों को पूरा करना होता है।

प्रश्न 15.
मध्यकालीन ऋण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसानों को कुछ ऋण मध्यम समय के लिए भी प्राप्त करना पड़ता है। यह ऋण 15 मास से 5 वर्ष के समय तक हो सकता है।

प्रश्न 16.
दीर्घकाल के ऋण को स्पष्ट करो।
उत्तर-
किसानों द्वारा 5 वर्ष से अधिक समय के लिए जो ऋण अनिवार्य है, उसको दीर्घकाल का ऋण कहा जाता है।

प्रश्न 17.
उत्पादक तथा अन-उत्पादक ऋण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उत्पादक ऋण वह ऋण होता है, जोकि भूमि के विकास अथवा कृषि की आवश्यकताओं बीज, खाद, औज़ारों इत्यादि पर व्यय करने के लिए प्राप्त किया जाता है। अन-उत्पादक व्यय शादियों, जन्म, मृत्यु अथवा मुकद्दमेबाजी के लिए प्राप्त किया जाता है।

प्रश्न 18.
ग्रामीण उधार में व्यापारिक बैंकों का योगदान स्पष्ट करो।
उत्तर-
2016-17 में 4 लाख करोड़ रु० का उधार व्यापारिक बैंकों द्वारा दिया गया।

प्रश्न 19.
किसान उधार कार्ड योजना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसान उधार कार्ड योजना (Kishan Credit Card Scheme) भारत में 1998-99 में आरम्भ की गई। 2012-13 तक 82 लाख कार्ड दिए गए।

प्रश्न 20.
कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक के योगदान पर नोट लिखो।
उत्तर-
कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास राष्ट्रीय बैंक (NABARD) की स्थापना जुलाई, 1982 में की गई। इस बैंक का उद्देश्य ग्रामों में सड़कों, सिंचाई, पुलों, पक्की गलियों इत्यादि की सुविधाओं के लिए उधार का प्रबन्ध करना है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए 2012-13 तक इस बैंक ने 42221 करोड़ रु० का ऋण प्रदान किया है।

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प्रश्न 21.
जो ऋण किसान अपनी वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लेता है, जिसकी अवधि 15 महीने तक की होती है को अल्पकालीन साख कहते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 22.
जो ऋण खेती के यन्त्र खरीदने, कुआं खुदवाने आदि कार्यों को पूरा करने के लिए 5 साल की अवधि के लिए लेता है को ……….. साख कहते हैं।
उत्तर-
मध्यकालीन साख (Medium Term Credit)।

प्रश्न 23.
जो ऋण पुराने कर्जे चुकाने, ट्रैक्टर खरीदने अथवा ज़मीन खरीदने के लिए 15 से 20 साल तक की अवधि के लिए लिए जाते हैं उनको … …. साख कहते हैं।
उत्तर-
दीर्घकालीन साख (Long Term Credit)।

प्रश्न 24.
जो कर्ज़ जन्म मृत्यु अथवा मुकद्दमेबाज़ी पर व्यय के लिए लिया जाता है को अन-उत्पादक कहते
उत्तर-
सही।

प्रश्न 25.
भारत में कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास राष्ट्रीय बैंक (NABARD) की स्थापना सन् …… में की गई।
(a) 1962
(b) 1972
(c) 1982
(d) 1992.
उत्तर-
(c) 1982.

प्रश्न 26.
भारत में कृषक को सबसे अधिक ऋण ………….. द्वारा दिया जाता है।
(a) साहूकार
(b) व्यापारी
(c) व्यापारिक और ग्रामीण बैंक
(d) सहकारी समितियां।
उत्तर-
(c) व्यापारिक और ग्रामीण बैंक।

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प्रश्न 27.
भारत में आज भी कृषक साहूकार से ऋण प्राप्त करता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 28.
भारत में 2012-13 में संस्थागत ग्रामीण ऋण …………. था।
(a) 59%
(b) 69%
(c) 79%
(d) 89%.
उत्तर-
(b) 69%.

प्रश्न 29.
भारत में गैर-संस्थागत ग्रामीण ऋण बढ़ रहा है ?
उत्तर-
ग़लत।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण बताओ।
उत्तर-
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं –

  • निर्धनता-भारत का किसान निर्धन है। कृषि करने के लिए उसको कम समय तथा लंबे समय के ऋण की आवश्यकता पड़ती है।
  • धार्मिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज-भारतीय किसान सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों पर बहुत व्यय करता है। इस कारण जन्म, मृत्यु, शादी इत्यादि उद्देश्यों के लिए ऋण लेना पड़ता है।

प्रश्न 2.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के प्रभाव बताओ।
उत्तर-
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के मुख्य प्रभाव इस प्रकार हैं –

  1. आर्थिक प्रभाव-छोटे तथा सीमांत काश्तकारों को अपनी ज़मीन गिरवी रखकर ऋण लेना पड़ता है। ऋण तथा ब्याज वापिस करने के लिए उनको ज़मीन बेचनी पड़ती है तथा वह भूमिरहित मज़दूर बन जाता
  2. सामाजिक प्रभाव-सामाजिक तौर पर ऋण काश्तकार, साहूकार को गुलाम बना देता है। इसके । परिणामस्वरूप साहूकार किसान का शोषण करता है।

प्रश्न 3.
ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या के लिए उपाय बताओ।
उत्तर-
ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या के लिए दो प्रकार के सुझाव दिए जाते हैं –
(A) पुराने ऋण का निपटारा-बहुत से राज्यों में कानून बनाए गए हैं ताकि पुराने ऋण का निपटारा किया जा सके।

  • नए कानून अनुसार जहां किसान ने ऋण का ब्याज ऋण की राशि से बढ़कर दिया है, उस स्थिति में पुराना ऋण समाप्त किया जाए।
  • पुराने ऋण की मूल राशि वापिस की जाए अथवा सरकारी एजेंसियों से कम ब्याज पर ऋण लेकर पुराने ऋण की वापसी की जाए।

(B) नए ऋण पर नियन्त्रण-पुराने ऋण के निपटारे से समस्या का हल नहीं किया जा सकता। इसलिए नए ऋण केवल उत्पादक उद्देश्यों के लिए दिए जाएं। ब्याज की दर कम की जाए। सामाजिक तथा धार्मिक उद्देश्यों के लिए ऋण को निरुत्साहित किया जाए।

प्रश्न 4.
उत्पादक तथा अन-उत्पादक उधार से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में ग्रामीण कृषि उत्पादन वित्त की आवश्यकताओं का वर्गीकरण इस प्रकार है –

  1. उत्पादक उधार-किसानों को बीज, रासायनिक खाद, पानी, औज़ार इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उधार लेना पड़ता है। इसको उत्पादक उधार कहा जाता है।
  2. अन-उत्पादक उधार-शादियों, जन्म-मृत्यु, मुकद्दमेबाजी इत्यादि आवश्यकताओं के लिए प्राप्त किया – ऋण अन-उत्पादक होता है।

प्रश्न 5.
अल्प, मध्यम तथा दीर्घकालीन ऋण क्या होता है ?
उत्तर-
अल्प, मध्यम तथा दीर्घकालीन उधार-उधार को समय के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
1. अल्पकाल उधार-किसानों को अल्पकाल के लिए अल्पकाल की आवश्यकता पड़ती है जोकि 15 महीनों के लिए होता है, घरेलू आवश्यकताओं के लिए प्राप्त किया जाता है। किसान को बीज, खाद, दवाइयों की खरीद करनी होती है। इस उद्देश्य के लिए जो ऋण प्राप्त किया जाता है, वह फसल की कटाई उपरान्त अदा किया जाता है।

2. मध्यमकालीन उधार-किसान को उधार की आवश्यकता मध्यमकाल के लिए भी पड़ती है। यह ऋण 15 महीने से 5 वर्ष के समय तक का होता है। ट्रैक्टर, ट्यूबवैल तथा अन्य कृषि उत्पादन औज़ारों की खरीद करने के लिए मध्यमकाल के ऋण की आवश्यकता होती है। इस ऋण की वापसी के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है।

3. दीर्घकालीन उधार-दीर्घकालीन ऋण 5 वर्ष से 20 वर्ष तक के समय के लिए प्राप्त किया जाता है। यह ऋण अन्य ज़मीन खरीदने के लिए अथवा पुराने ऋण का भुगतान करने के लिए लिया जाता है। इस ऋण की वापसी दीर्घकाल में की जाती है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण

प्रश्न 6.
संस्थागत ऋण के कोई दो स्रोत बताएं।
उत्तर-

  • सहकारी साख समितियां-सहकारी साख समितियां उधार का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। 1950-51 में सहकारी समितियों द्वारा 23 करोड़ रु० का उधार दिया गया। 2016-17 में यह उधार 267 करोड़ रु० हो गया।
  • सहकारी कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक-किसानों की दीर्घकाल की आवश्यकताओं की पर्ति के लिए सहकारी साख बैंक स्थापित किए गए हैं। सहकारी बैंक भी साख का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। 1984-85 में सहकारी बैंकों द्वारा 3440 करोड़ रु० का ऋण दिया गया। 2016-17 में – 97321 हज़ार करोड़ रु० का ऋण दिया गया।

प्रश्न 7.
नाबार्ड पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD)-भारत के रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया ने अल्पकाल तथा दीर्घकाल की कृषि उत्पादन ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 1982 में कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की। इसकी अधिकारित पूंजी 2000 करोड़ रु० है। इस बैंक ने 6280 करोड़ रु० की अधिक पूंजी 2001-02 में एकत्रित की। यह बैंक ग्रामीण क्षेत्र की अल्पकाल तथा दीर्घकाल की उधार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थापित किया गया है। NABARD द्वारा 2016-17 में 51411 करोड़ रु० का ऋण अल्पकाल की आवश्यकताओं के लिए दिया गया, जिस पर रियायती ब्याज दर 3% निर्धारित की।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Typé Questions)

प्रश्न 1.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के अनुमान को स्पष्ट करो।
अथवा
भारत में रिज़र्व बैंक के सर्व-भारती ऋण सर्वेक्षण 1991-92 का उल्लेख करो।
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् 1991-92 में रिज़र्व बैंक इंडिया सर्वभारती ऋण सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 42.8 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों पर ऋण था। 1971 में ग्रामीण परिवारों पर 500 रु० का औसत ऋण था जोकि 1991 में बढ़कर 1906 रु० हो गया था। किए गए सर्वेक्षण में काश्तकारों तथा गैर- काश्तकारों पर ऋण का अनुमान लगाया गया। यह ऋण ग्रामीण परिवारों द्वारा दी गई सूचना पर आधारित था। इस ऋण में संस्थागत ऋण (बैंकों, सहकारी बैंकों अथवा अन्य सरकारी संस्थाओं से प्राप्त ऋण) तथा गैर-संस्थागत ऋण (साहूकार, जागीरदार, रिश्तेदारों, महाजनों तथा मित्रों से प्राप्त ऋण) को शामिल किया गया था।

प्रश्न 2.
भारत में ग्रामीण परिवारों द्वारा लिए ऋण के उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
भारत में ग्रामीण परिवारों द्वारा प्राप्त ऋण का प्रतिशत विवरण इस प्रकार है –
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण 1

  1. उत्पादक व्यय-1971 से 1981 तक उत्पादक व्यय 50.1 से बढ़ाकर 69.2 प्रतिशत किया गया, परन्तु 1981 से 2019 तक उत्पादक व्यय घटकर 19% प्रतिशत रह गया है।
  2. पारिवारिक व्यय-पारिवारिक व्यय में 1971 से 1981 तक कुछ कमी आई। परन्तु 1981 से 2020 तक यह फिर बढ़कर 38% हो गया।
  3. अन्य व्यय-बीमारी, लड़ाई, मुकद्दमेबाज़ी, नशे इत्यादि उद्देश्यों के लिए ऋण में बहुत वृद्धि हुई है। 2020 में यह व्यय 22% था।

प्रश्न 3.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण बताओ।
उत्तर-
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं –

  1. निर्धनता-भारत का किसान निर्धन है। कृषि करने के लिए उसको कम समय तथा लंबे समय के ऋण की आवश्यकता पड़ती है।
  2. धार्मिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज-भारतीय किसान सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों पर बहुत व्यय करता है। इस कारण जन्म, मृत्यु, शादी इत्यादि उद्देश्यों के लिए ऋण लेना पड़ता है।
  3. विरसे में ऋण-किसान को पिता की मृत्यु के पश्चात् जब ज़मीन-जायदाद प्राप्त होती है तो विरसे में ऋण भी चुकाना पड़ता है। पिता-पुरखी ऋण का भार भी किसान को सहन करना पड़ता है।
  4. दोषपूर्ण ऋण प्रणाली-भारत में ऋण प्रणाली दोषपूर्ण है। किसान को अधिक ऋण महाजन, ज़मींदारों, रिश्तेदारों अथवा मित्रों से लेना पड़ता है। सरकारी एजेंसियों से प्राप्त ऋण की प्रणाली जटिल होने के कारण किसान साहूकार के ऋण के जाल में फंस जाता है।

प्रश्न 4.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के प्रभाव बताओ।
उत्तर-
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के मुख्य प्रभाव इस प्रकार हैं –

  • आर्थिक प्रभाव-छोटे तथा सीमांत काश्तकारों को अपनी ज़मीन गिरवी रखकर ऋण लेना पड़ता है। ऋण तथा ब्याज वापिस करने के लिए उसको ज़मीन बेचनी पड़ती है तथा वह भूमिरहित मज़दूर बन जाता है।
  • सामाजिक प्रभाव-सामाजिक तौर पर ऋण काश्तकार, साहूकार को गुलाम बना देता है। इसके परिणामस्वरूप साहूकार किसान का शोषण करता है।
  • राजनीतिक प्रभाव-आजकल के युग में लोकतंत्र है। काश्तकारों को अपनी वोट साहकार के कहने अनुसार ही डालनी पड़ती है। इस प्रकार उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 5.
ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या के लिए उपाय बताओ।
उत्तर-
ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या के लिए दो प्रकार के सुझाव दिए जाते हैं –
(A) पुराने ऋण का निपटारा-बहुत से राज्यों में कानून बनाए गए हैं ताकि पुराने ऋण का निपटारा किया जा सके।

  • नए कानून अनुसार जहां किसान ने ऋण का ब्याज ऋण की राशि से बढ़कर दिया है, उस स्थिति में पुराना ऋण समाप्त किया जाए।
  • पुराने ऋण की मूल राशि वापिस की जाए अथवा सरकारी एजेंसियों से कम ब्याज पर ऋण लेकर पुराने ऋण की वापसी की जाए।

(B) नए ऋण पर नियन्त्रण-पुराने ऋण के निपटारे से समस्या का हल नहीं किया जा सकता। इसलिए नए ऋण केवल उत्पादक उद्देश्यों के लिए दिए जाएं। ब्याज की दर कम की जाए। सामाजिक तथा धार्मिक उद्देश्यों के लिए ऋण को निरुत्साहित किया जाए।

प्रश्न 6.
कृषि उत्पादन वित्त का वर्गीकरण स्पष्ट करो।
उत्तर-
भारत में ग्रामीण कृषि उत्पादन वित्त की आवश्यकताओं का वर्गीकरण इस प्रकार है –

  1. उत्पादक उधार-किसानों को बीज, रासायनिक खाद्य, पानी, औज़ार इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उधार लेना पड़ता है। इसको उत्पादक उधार कहा जाता है।
  2. अन-उत्पादक उधार-शादियों, जन्म-मृत्यु, मुकद्दमेबाजी इत्यादि आवश्यकताओं के लिए प्राप्त किया ऋण अन-उत्पादक होता है।
  3. अल्पकाल उधार-यह ऋण 15 माह तक के समय के लिए होता है, जो फसल की कटाई उपरान्त वापिस किया जाता है।
  4. मध्यमकाल उधार-यह ऋण 15 माह से 5 वर्ष तक के समय के लिए प्राप्त किया जाता है। इसका उद्देश्य कृषि उत्पादन औज़ारों की खरीद करना होता है।
  5. दीर्घकाल उधार-यह उधार 5 वर्ष से 20 वर्ष के समय के लिए प्राप्त किया जाता है। इसका उद्देश्य भूमि खरीदना अथवा ट्रैक्टर-ट्यूबवैल पर व्यय करना होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण

प्रश्न 7.
ग्रामीण साख में सहकारी उधार समितियों के योगदान की व्याख्या करो।
उत्तर-
भारत में आर्थिक विकास के लिए ग्रामीण सहकारी उधार समितियों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। ये समितियां अल्पकाल तथा दीर्घकाल के ऋण की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं।
अल्पकाल की ग्रामीण सहकारी उधार संस्थाएं –

  1. राज्य सहकारी बैंक
  2. ज़िला केन्द्रीय सहकारी बैंक
  3. प्राइमरी कृषि उत्पादन उधार समितियां।

दीर्घकाल की ग्रामीण सहकारी संस्थाएं-

  • राज्य सहकारी कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास बैंक
  • प्राइमरी सहकारी कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास बैंक इस प्रकार सहकारी उधार समितियों का संस्थागत ढांचा कार्य करता है, जिस द्वारा अल्पकाल तथा दीर्घकाल की उधार आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।

भारत में 2012-13 में प्राइमरी सहकारी उधार समितियों ने 102592 करोड़ रु० का उधार दिया था। इस समय 369 जिलों में जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक स्थापित हैं तथा 30 राज्यों में राज्य सहकारी बैंक स्थापित किए गए हैं। इन बैंकों द्वारा अल्पकाल तथा दीर्घकाल का उधार प्रदान किया जाता है। दिए गए उधार पर ब्याज की दर कम होती है। इन सहकारी समितियों की मुख्य समस्या दिए गए उधार की कम वापसी है। दिए गए उधार का 40% हिस्सा किसानों ने वापिस नहीं किया है।

प्रश्न 8.
भारत में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के योगदान को स्पष्ट करो।
उत्तर-
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1975 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक योजना आरम्भ की थी जोकि उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद तथा गोरखपुर, हरियाणा में भिवानी, राजस्थान में जयपुर तथा पश्चिमी बंगाल में मालदा ज़िलों में आरम्भ की गई। यह योजना केन्द्र (50%), राज्य सरकारों (15%), व्यापारिक बैंक (35%), पूंजी के योगदान द्वारा आरम्भ की गई थी। क्षेत्रीय बैंक मुख्य तौर पर व्यापारिक बैंकों की तरह ही कार्य करते हैं, परन्तु इनमें मुख्य अन्तर यह है कि क्षेत्रीय बैंक एक अथवा दो जिलों में ही कार्य करते हैं, जिन द्वारा छोटे किसानों को उधार दिया जाता है तथा यह उधार केवल उत्पादक कार्यों के लिए होता है।

ब्याज की दर कम प्राप्त की जाती है। यह बैंक कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक की सहायता से कार्य करते हैं। लोगों द्वारा जमा करवायी राशि पर व्यापारिक बैंकों से 1% अधिक ब्याज दिया जाता है। इस समय भारत के 23 राज्यों में 196 केन्द्रीय बैंक स्थापित हैं, जिनकी 14500 शाखाएं कार्य कर रही हैं। इन बैंकों ने 2012-13 में 57757 करोड़ रु० का ऋण प्रदान किया गया है।

इन बैंकों की मुख्य त्रुटि यह है कि उधार देते समय बहुत-सी पाबंदियां लगाई गई हैं। इसलिए साधारण निर्धन किसानों को उचित मात्रा में अनिवार्य ऋण प्राप्त नहीं होता। डॉ० ए० एस० खुसरो की प्रधानगी अधीन एक कमेटी की स्थापना की गई, जिसने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के दोष दूर करने के सुझाव दिए हैं। रिज़र्व बैंक ने ऐम० सी० भंडारी कमेटी की स्थापना की है, जिसने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के विस्तार के लिए कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक के अधिक योगदान पर जोर दिया है।

प्रश्न 9.
ग्रामीण उधार में नबार्ड (NABARD) के योगदान को स्पष्ट करो।
उत्तर-
भारत के रिज़र्व बैंक ने ग्रामीण कृषि उत्पादन उधार की सुविधाओं पर आरम्भ से ध्यान दिया है। इस उद्देश्य के लिए जुलाई, 1982 में कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की गई। इस बैंक की अधिकारित पूंजी आरम्भ में 100 करोड़ रु० थी, जोकि बढ़ाकर 500 करोड़ रु० तथा फिर सन् 2000 में 2000 करोड़ रु० की गई है। इस बैंक द्वारा 6280 करोड़ रु. 2006-07 तथा 38489 करोड़ रु० 2019-20 में अन्य प्राप्त करके उधार की सुविधाओं में वृद्धि की है जोकि 60 हज़ार करोड़ रु० हो गया है। नाबार्ड द्वारा कृषि के विकास ग्रामों में छोटे पैमाने तथा घरेलू उद्योग स्थापित करने इत्यादि कार्य किए जाते हैं। यह बैंक ग्रामीण क्षेत्रीय बैंकों तथा क्षेत्रीय सेवा योजनाओं द्वारा गांवों में विकासवादी योजनाओं का संचालन करता है।

IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण तथा प्रभाव स्पष्ट करो। ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या के हल के लिए सुझाव दीजिए।
(Discuss the causes and effects of Rural Indebetedness in India. Suggest measures to solve the problem of Rural Indebtedness.)
उत्तर-
भारत में किसान पुराने समय से ऋणग्रस्तता की समस्या का शिकार रहा है। इसलिए श्री एम० एल० डार्लिंग ने यह ठीक कहा जाता है, “भारतीय किसान ऋण में जन्म लेता है, ऋण में जीवित रहता है तथा ऋण में मर जाता है।” (“‘The Indian Farmer is born in debt, lives in debt and dies in debt.” – M.L. Darling)

भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के अनुमान (Estimates of Indebtedness in India)-भारत में समय पर ग्रामीण ऋणग्रस्तता सम्बन्धी अनुमान लगाए गए हैं। 1924 में एम० एल० डारलिंग ने भारत के काश्तकारों पर 600 करोड़ रु० के ऋण का अनुमान लगाया था। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने 1951, 1961 तथा 1971 में ग्रामीण ऋणग्रस्तता सम्बन्धी सर्वेक्षण किए। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन (N.S.S.O.) ने सर्व भारती ऋण तथा निवेश सर्वेक्षण 1981, 1982 तथा 1991, 1992, 2020 में किए। इन सर्वेक्षणों के आधार पर भारत में ग्रामीण परिवारों पर औसत ऋण का विवरण इस प्रकार दिया गया है।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण 2
Source: R.B.I. Bulletin, 2020.
भारत में रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि 1971 में 42.8% परिवारों पर औसत 500 रु० का ऋण था, जोकि 2020 में बढ़कर 200000 रु० का हो गया है। ऋण के बढ़ने का कारण कीमत स्तर में वृद्धि होना है। परन्तु परिवारों की संख्या 1981 में घटकर 20% रह गई तथा 2020 में लगभग 50% परिवारों पर ऋण का भार 2 लाख रु० था। इसमें संस्थागत संस्थाओं जैसे कि सहकारी समितियों तथा व्यापारिक बैंकों से प्राप्त किया जाने वाले ऋण तथा गैर-संस्थागत संस्थाओं साहूकार, ज़मींदार, व्यापारी अथवा रिश्तेदारों से प्राप्त किया ऋण शामिल है।

N.S.S.O. (National Sample Survey Organization) राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन ने 29th राऊंड सर्वे में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के सम्बन्ध में यह कहा है –

  1. भारत में 48.6% किसानों पर ऋण है।
  2. जिन किसानों पर ऋण है उनमें से 61% के पास एक हेक्टर से कम भूमि है।
  3. किसानों पर जो ऋण है उसमें 41.6% ऋण गैर-कार्यों के लिए, 30.6%, पूंजीगत तथा 27.8% खेती सम्बन्धी कार्यों के लिए लिया गया।
  4. काश्तकारों पर जो ऋण है उसमें 57.7% सरकारी ऋण, संस्थाओं द्वारा तथा 42.3% गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा दिया जाता है।
  5. गैर-सरकारी ऋण का अनुमान 48000 करोड़ रु० है जिस पर 30% ब्याज प्राप्त किया जाता है।

ग्रामीण परिवारों द्वारा प्राप्त ऋण का वर्गीकरण (Classification of Loans of All Rural Households)-
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (R.B.I.) के सर्वेक्षण 2011 में ग्रामीण परिवारों पर ऋण का वर्गीकरण अग्रलिखित अनुसार किया गया-
A. उत्पादक उद्देश्य-भारत में ज़मीन तथा काश्तकारी यन्त्र खरीदने के लिए ऋण लिया जाता है। कुल ऋण में से 35.1% हिस्सा उत्पादक उद्देश्यों के लिए होता है।
B. पारिवारिक व्यय-परिवार के व्यय के लिए भी ऋण प्राप्त किया जाता है, जोकि कुल ऋण का 51% हिस्सा होता है।
C. अन्य उद्देश्य-ऋण, बीमारी, लड़ाई-झगड़े, फ़िजूलखर्ची अथवा नशा करने के लिए भी प्राप्त किया जाता है जोकि कुल ऋण का 27.9% हिस्सा होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण (Causes of Rural Indebtedness)-भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण इस प्रकार हैं-

  1. निर्धनता-काश्तकारों पर ऋण का सबसे प्रमुख कारण काश्तकारों की निर्धनता है। काश्तकार निर्धन होने के कारण ऋण प्राप्त करते हैं, जोकि बीमारी, शराब, शादी के लिए प्राप्त किया जाता है। निर्धन होने के कारण ऋण की वापसी कठिन होती है।
  2. पिता-पुरखीय ऋण-भारत के काश्तकारों पर ऋण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण विरासत में मिला ऋण होता है। भारत के किसान को जहां विरासत में ज़मीन प्राप्त होती है, उसको ऋण भी प्राप्त होता है.। पितापुरखीय ऋण का भार अधिक होने के कारण किसान सारा जीवन ऋण उतारने के प्रयत्न में ही मर जाता
  3. पिछड़ी हुई कृषि-भारत में कृषि का पिछड़ापन भी काश्तकारों के ऋण का कारण है। कृषि का उत्पादन कम होने के कारण किसान अच्छे यन्त्र, पशु, बीज, खाद्य इत्यादि आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ऋण लेता है।
  4. सामाजिक तथा धार्मिक आवश्यकताएं-ग्रामों में सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यय किया जाता है जैसे कि शादी, जन्म, मृत्यु इत्यादि समय किसानों को बहुत व्यय करना पड़ता है। इस उद्देश्य के लिए ऋण प्राप्त किया जाता है।
  5. दोषपूर्वक ऋण प्रणाली-भारत में किसान आमतौर पर साहूकार से ऋण प्राप्त करता है। सरकारी एजेंसियों से आसानी से ऋण प्राप्त नहीं होता, जिस कारण काश्तकार गाँव में साहूकार से ऋण लेने के लिए मजबूर हो जाता है। एक बार साहूकार के जाल में फंसकर ऋण में से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है।

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के परिणाम (Effects of Rural Indebtedness)-ग्रामीण ऋणग्रस्तता के परिणाम इस प्रकार हैं-

  • आर्थिक परिणाम-छोटे किसान ऋण प्राप्त करते हैं, जिसको वापिस करना मुश्किल होता है। इसलिए अन्त में ज़मीन बेचकर ऋण उतारा जाता है। इस कारण काश्तकारों के पास जमीन नहीं रहती तथा वह मज़दूर बन जाते हैं।
  • सामाजिक परिणाम-ग्रामों में ऋणग्रस्तता की समस्या से सामाजिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है। ऋण प्राप्त करने के पश्चात् काश्तकार द्वारा साहूकारों को नफरत करने लगते हैं। इससे निर्धन तथा अमीर का अन्तर बढ़ जाता है। इसलिए समाज में किसानों की स्थिति कमजोर हो जाती है। यह समस्या बिहार, उडीसा, आन्ध्र प्रदेश में अधिक पाई जाती है, जहां पर किसानों का शोषण किया जाता है।
  • राजनीतिक परिणाम साहूकार किसानों को अपनी इच्छानुसार वोट डालने के लिए मजबूर करते हैं। राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के उपरान्त साहूकार किसान विरोधी कानून बनाने में सफल होते हैं।

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के हल के लिए उपाय (Measures of Solve the Rural Indebtedness)-ग्रामीण ऋणग्रस्तता सम्बन्धी दो प्रकार के सुझाव दिए जाते हैं-
A. वर्तमान ऋण का भार घटाना-किसानों पर वर्तमान ऋण के भार को घटाने की आवश्यकता है। इस उद्देश्य के लिए निम्नलिखित नीति का प्रयोग करना चाहिए –

  • बहुत पुराने ऋण को समाप्त कर देना चाहिए, जहां काश्तकार प्राप्त की गई राशि से अधिक ब्याज दे चुके हैं।
  • पिता-पुरखीय ऋण की मात्रा से अधिक ब्याज दे चुके हैं।
  • पुराने ऋण की सिर्फ मूल राशि को सरकारी एजेंसियों द्वारा भुगतान करके पुराना ऋण समाप्त कर देना चाहिए।

B. भविष्य के लिए ऋण पर नियन्त्रण (Control over future Indebtedness)-
पुराने ऋण का भुगतान करने के उपरान्त भविष्य के लिए इस प्रकार की नीति बनानी चाहिए –

  • निर्धन किसानों की आय में वृद्धि करने के यत्न करने चाहिएं।
  • ग्रामों में फिजूलखर्ची को रोकने की आवश्यकता है। इसलिए पंचायतों को योगदान डालना चाहिए।
  • किसानों को कम ब्याज पर ऋण सुविधाएं प्रदान करनी चाहिएं ताकि किसान अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। इस प्रकार उत्पादक ऋण की सुविधाओं में वृद्धि करके ऋणग्रस्तता की समस्या का हल किया जा सकता है।

2006-07 में केन्द्र सरकार ने 71680 करोड़ रु० ऋण राहत योजना अधीन विभाजित किए थे। सहकारी ऋण संस्थाओं द्वारा सन् 2006 में 14000 करोड़ रु० ऋण राहत के रूप में विभाजित किए गए। किसानों को ऋण से राहत दिलवानी चाहिए ताकि वह आत्महत्या न करें। 2020 में 40 लाख करोड़ रु० का ऋण दिया गया। बजट 2016-17 में सीमान्त काश्तकारों के ऋण में से सरकारी ऋण 70,000 करोड़ रु० की माफी दी है। गैर-सरकारी ऋण से राहत दिलाने के लिए सरकार योजना बना रही है।

प्रश्न 2.
भारत में कृषि उत्पादन वित्त की आवश्यकता को स्पष्ट करो। कृषि उत्पादन उधार की विशेषताएं बताओ।
(Explain the need for Agriculture Finance in India. Discuss the main features of Agricultural Finance.)
उत्तर-
प्रत्येक उत्पादक क्रिया के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। भारत में कृषि उत्पादन लोगों का मुख्य पेशा । है। इसलिए कृषि उत्पादन के लिए वित्त बहुत महत्त्वपूर्ण है।
कृषि उत्पादन वित्त की आवश्यकता (Need for Agricultural Finance)-

कृषि उत्पादन वित्त की आवश्यकता उत्पादक कार्यों के लिए होती है जैसे कि भूमि सुधार, कुएं तथा ट्यूबवैलों का निर्माण इत्यादि फसल को बीजने से लेकर मंडीकरण तक विभिन्न कार्यों के लिए वित्त अनिवार्य है। कृषि उत्पादन की आवश्यकताएं निम्नलिखित अनुसार हैं-
1. उत्पादक तथा अन-उत्पादक उधार-उत्पादन की विभिन्न क्रियाओं के लिए उधार की आवश्यकता होती है जैसे कि एक किसान ने बीज, रासायनिक खाद, पानी, औज़ार इत्यादि की खरीद करनी होती है। इसके बिना भूमि पर कुछ स्थायी सुधार करने की आवश्यकता होती है जैसे कि कुओं की खुदाई, खेत के इर्द-गिर्द बाड़ लगाना, भूमि को समतल करना। इन कार्यों के लिए उधार अथवा ऋण की आवश्यकता होती है, जिसको उत्पादक ऋण कहा जाता है। दूसरी ओर अन-उत्पादक ऋण वह ऋण होता है जो उपभोग के उद्देश्य के लिए प्राप्त किया जाता है।

जैसे कि शादियों पर किया गया व्यय, जन्म तथा मृत्यु के समय किया गया व्यय, मुकद्दमेबाजी पर भी व्यय करने के लिए उधार लिया जाता है। ऐसे ऋण की वापसी करनी मुश्किल होती है। अल्प, मध्यम तथा दीर्घकालीन उधार-उधार को समय के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जाता है –
(i) अल्पकाल उधार-किसानों को अल्पकाल के लिए अल्पकाल की आवश्यकता पड़ती है जोकि 15 महीनों के लिए होता है, घरेलू आवश्यकताओं के लिए प्राप्त किया जाता है। किसान को बीज, खाद, दवाइयों की खरीद करनी होती है। इस उद्देश्य के लिए जो ऋण प्राप्त किया जाता है, वह फसल की कटाई उपरान्त अदा किया जाता है।

(ii) मध्यमकालीन उधार-किसान को उधार की आवश्यकता मध्यमकाल के लिए भी पड़ती है। यह ऋण 15 महीने से 5 वर्ष के समय तक का होता है। ट्रैक्टर, ट्यूबवैल तथा अन्य कृषि उत्पादन औज़ारों की खरीद करने के लिए मध्यमकाल के ऋण की आवश्यकता होती है। इस ऋण की वापसी के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है।

(iii) दीर्घकालीन उधार-दीर्घकालीन ऋण 5 वर्ष से 20 वर्ष तक के समय के लिए प्राप्त किया जाता है। यह ऋण अन्य ज़मीन खरीदने के लिए अथवा पुराने ऋण का भुगतान करने के लिए लिया जाता है। इस ऋण की वापसी दीर्घकाल में की जाती है।

कृषि उत्पादन उधार की विशेषताएं (Main Features of Agricultural Finance)-

  1. कृषि उत्पादन उधार की आवश्यकता स्थायी होती है।
  2. कृषि उत्पादन प्रकृति पर निर्भर करता है। इसलिए कृषि उपज की निश्चितता न होने के कारण उधार की आवश्यकता होती है।
  3. कृषि उत्पादकता में भूमि को गिरवी रखकर उधार प्राप्त किया जाता है। भूमि को जल्दी नकदी के रूप में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। इसी कारण उधार लेने की मजबूरी होती है।
  4. कृषि उत्पादन में उपज को बीमा नहीं करवाया जा सकता। इसलिए कृषि उत्पादन के जोखिम को किसान स्वयं सहन करता है। इसी कारण उसको ऋण की आवश्यकता होती है।
  5. कृषि को मानसून पवनों के साथ जुआ कहा जाता है। इसलिए उपज की मात्रा तथा गुणवत्ता प्रकृति पर निर्भर करती है। इस कारण भी उधार लेना अनिवार्य होता है।
  6. फसल बीजने से फसल की कटाई तक काफ़ी अधिक समय होता है। इस समय में किसान ने निजी उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। इस कारण भी उसको उधार की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 3.
ग्रामीण उधार के विभिन्न स्रोतों का वर्णन करो। (Explain the main sources of Agriculture finance in India.)
अथवा
भारत में ग्रामीण उधार के लिए विभिन्न वित्तीय संस्थाओं के योगदान को स्पष्ट करो।
(Explain the contribution of different financial Institutions regarding Agricultural finance in India.)
उत्तर-
भारत में ग्रामीण उधार देने के दो स्रोत हैं। संस्थागत स्रोत जिनमें सरकार, सहकारी बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक शामिल हैं तथा गैर-संस्थागत स्रोत जिनमें साहूकार, व्यापारी, रिश्तेदार तथा मित्रों को शामिल किया जाता है। इन स्रोतों से प्राप्त उधार का विवरण इस प्रकार है –
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण 3
भारत में संस्थागत स्रोत से उधार में निरन्तर वृद्धि हो रही है। 1950-51 में 7% उधार संस्थागत स्रोतों द्वारा दिया जाता था। 2013-14 में यह बढ़कर 69% हो गया है। गैर-संस्थागत उधार 1950-51 में 93% था जोकि अब घटकर 31% रह गया है। साहूकारों द्वारा 2020-21 में 95000 करोड़ रु० का उधार दिया गया। भारत में संस्थागत उधार बहुतसी एजेंसियों द्वारा दिया जाता है।

संस्थागत साख (Institutional Finance)-भारत में संस्थागत साख में बहुत वृद्धि हुई है। 1984-85 में संस्थागत उधार 6230 करोड़ रु० दिया गया, जोकि 2020-21 में बढ़कर 195000 करोड़ रु० हो गया है। संस्थागत साख मुख्य तौर पर निम्नलिखित संस्थाओं द्वारा दिया जाता है।
1. सहकारी साख समितियां-सहकारी साख समितियां उधार का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। 1950-51 में __ सहकारी समितियों द्वारा 23 करोड़ रु० का उधार दिया गया। 2020-21 में यह उधार 485 करोड़ रु० हो गया।

2. सहकारी कृषि तथा ग्रामीण विकास बैंक-किसानों की दीर्घकाल की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहकारी साख बैंक स्थापित किए गए हैं। सहकारी बैंक भी साख का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। 1984-85 में सहकारी बैंकों द्वारा 3440 करोड़ रु० का ऋण दिया गया। 2020-21 में 95000 हज़ार करोड़ रु० का ऋण दिया गया।

3. व्यापारिक बैंक-भारत में व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण इस कारण किया गया, क्योंकि व्यापारिक बैंक कृषि उत्पादन की साख आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते थे। व्यापारिक बैंक कृषि उत्पादन में अल्पकाल तथा मध्यम काल समय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उधार देते हैं। 2013-14 में व्यापारिक बैंकों में 368616 करोड़ रु० का उधार दिया गया, जोकि 2020-21 में बढ़कर 50,000 करोड़ रु० हो गया।

4. लीड बैंक योजना- भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् प्रो० डी० आर० गाडगिल की सिफ़ारिशों अनुसार लीड बैंक योजना आरम्भ की गई, जिसमें प्रत्येक जिले में एक बैंक को गांवों में साख प्रदान करने का कार्य सौंपा गया। इस योजना अधीन 1994-95 में 8255 करोड़ रु० कृषि उत्पादन कार्यों के लिए उधार दिए गए। 2020-21 में इन बैंकों द्वारा 15000 करोड़ रु० का उधार दिया गया।

5. ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक-ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक की योजना श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आरम्भ की गई। यह योजना 1975 में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान तथा पश्चिमी बंगाल में आरम्भ की गई थी। प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक की अधिकारित पूंजी एक करोड़ रु० निश्चित की गई, जिसमें 50% केन्द्र सरकार, 15% राज्य सरकारें तथा 35% व्यापारिक बैंकों द्वारा पूंजी का प्रबन्ध किया गया। इस योजना का मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकता को पूरा करना था। विशेषकर छोटे तथा सीमान्त किसानों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय बैंक स्थापित किए गए। इस समय 23 राज्यों में 196 क्षेत्रीय बैंक हैं, जिनकी 14500 ब्रांचे कार्य कर रही हैं। 2020-21 में क्षेत्रीय बैंकों ने 25000 हज़ार करोड़ रु० का ऋण दिया।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 23 ग्रामीण ऋण

6. कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD) भारत के रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया ने अल्पकाल तथा दीर्घकाल की कृषि उत्पादन ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 1982 में कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की। इसकी अधिकारित पूंजी 2000 करोड़ रु० है। इस बैंक द्वारा 6280 करोड़ रु० की अधिक पूंजी 2001-02 में एकत्रित की। यह बैंक ग्रामीण क्षेत्र की अल्पकाल तथा दीर्घकाल की उधार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थापित किया गया है।

NABARD द्वारा 2010-11 में 1521 करोड़ रु० का ऋण अल्पकाल की आवश्यकताओं के लिए दिया गया, जिस पर रियायती ब्याज दर 3% निर्धारित की गई थी। यह संस्था सहकारी समितियों, सहकारी बैंकों तथा राज्य सरकारों द्वारा दीर्घकाल के ऋण की आवश्यकताओं की पूर्ति भी करती है। इस बैंक द्वारा ग्रामीण संरचनात्मक विकास फंड की स्थापना की गई है, जिस अनुसार भिन्न-भिन्न योजनाओं के लिए ऋण प्रदान किया जाता है।

1996 में 18300 करोड़ रु० का व्यय ग्रामीण विकास योजनाओं के लिए प्रदान किया गया जिसमें सड़कों, पुलों, सिंचाई योजनाओं का विस्तार किया गया। 2020-21 में इस उद्देश्य के लिए 25000 करोड़ रुपए का ऋण प्रदान किया गया है। वित्त मन्त्री निर्मला सीतरमण ने 2020-21 के बजट में कृषि उधार देने के लिए ₹ 15 लाख करोड़ रखे हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

PSEB 12th Class Economics भुगतान सन्तुलन Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
भुगतान सन्तुलन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान सन्तुलन एक वर्ष में एक देश का बाकी विश्व के देशों से आर्थिक लेन-देन के लेखांकन का विवरण होता है।

प्रश्न 2.
भुगतान सन्तुलन लेखे से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
एक वित्त वर्ष में एक देश द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन के सार को भुगतान सन्तुलन लेखा कहा जाता है।

प्रश्न 3.
भुगतान शेष खाता सदैव सन्तुलित होता है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-
भुगतान शेष खाता तकनीकी दृष्टि से सदैव सन्तुलित होता है और इसको दोहरी लेखा पद्धति (Double Entry System) में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें भुगतान तथा प्राप्तियां बराबर होती हैं।

प्रश्न 4.
आर्थिक नीतियों का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य क्या है ?
उत्तर-
भुगतान सन्तुलन प्राप्त करना।

प्रश्न 5.
व्यापार शेष से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
व्यापार शेष में वस्तुओं के निर्यात और आयात का विवरण होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 6.
व्यापार शेष तथा भुगतान शेष में अन्तर बताएँ।
उत्तर-
व्यापार शेष, भुगतान शेष का अंश है।

प्रश्न 7.
दृश्य मदों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
दृश्य मदों में वस्तुओं के लेन-देन का विवरण होता है।

प्रश्न 8.
व्यापार शेष में किस प्रकार की मदों को शामिल किया जाता है ?
उत्तर-
व्यापार शेष में दृश्य मदों के निर्यात तथा आयात को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 9.
भुगतान शेष में अदृश्य मदों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान शेष में अदृश्य मदों में सेवाओं के निर्यात तथा आयात को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 10.
भुगतान शेष में किस प्रकार की मदों को शामिल किया जाता है ?
उत्तर-
भुगतान शेष में दृश्य तथा अदृश्य मदों को शामिल किया जाता है।
अथवा
भुगतान शेष में वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात तथा आयात को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 11.
भुगतान सन्तुलन के चालू खाते से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान सन्तुलन के चालू खाते में दृश्य मदों, अदृश्य मदों और एक पक्षीय अन्तरण को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 12.
भुगतान सन्तुलन के पूँजी खाते से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
एक देश के निवासियों तथा सरकार की परिसम्पत्तियों और देनदारियों के लेन-देन को पूँजी खाते में शामिल किया जाता है।

प्रश्न 13.
भुगतान शेष में चालू खाते तथा पूँजी खाते के बिना और कौन-कौन सी मदों को शामिल किया जाता है ?
उत्तर-
चालू खाते और पूँजी खाते के बिना भुगतान शेष में सरकारी रिज़र्व सौदे और भूल चूक को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 14.
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन क्या है ?
उत्तर-
जब किसी देश की देनदारियां उसकी लेनदारियों से कम होती हैं, तो इसको प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन कहते हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 15.
व्यापार शेष में ₹ 5000 करोड़ का घाटा है और आयात का मूल्य ₹ 9000 करोड़ है। निर्यात का मूल्य कितना है ?
उत्तर-
निर्यात का मूल्य = ₹ 4000 करोड़ क्योंकि व्यापार शेष निर्यात के मूल्य तथा आयात के मूल्य का अन्तर होता है।

प्रश्न 16.
व्यापार शेष में ₹ 300 करोड़ का घाटा है, निर्यात का मूल्य ₹ 500 करोड़ है। आयात का मूल्य कितना है ?
उत्तर-
आयात का मूल्य ₹ 800 करोड़ होगा क्योंकि व्यापार शेष निर्यात के मूल्य तथा आयात के मूल्य का अन्तर होता है।

प्रश्न 17.
कौन-सी मदें व्यापार शेष का निर्धारण करती है ?
उत्तर-
निर्यात तथा आयात, व्यापार शेष का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 18.
व्यापार शेष में अतिरेक (Surplus) कब होता है ?
उत्तर-
व्यापार शेष अतिरेक (Surplus) तब होता है जब निर्यात, आयात से अधिक हों।

प्रश्न 19.
चालू खाते की चार मदें बताएँ।
उत्तर-
चालू खाते की मदें-

  1. वस्तुओं तथा सेवाओं का निर्यात
  2. वस्तुओं तथा सेवाओं का आयात
  3. निजी अन्तरण (उपहार) (Private Transfers)
  4. सरकारी अन्तरण (विदेशों से सहायता) (Official Transfers)।

प्रश्न 20.
पूँजी खाते की चार मदें बताएँ।
उत्तर-
पूँजी खाते की मदें-

  • निजी लेन-देन
  • सरकारी लेन-देन
  • अप्रत्यक्ष निवेश
  • पत्राधार निवेश।

प्रश्न 21.
दृश्य मदों में ……………. के लेन-देन का विवरण होता है।
उत्तर-
वस्तुओं।

प्रश्न 22.
अदृश्य मदों में …………. के लेन-देन का विवरण होता है।
उत्तर-
सेवाओं।

प्रश्न 23.
भुगतान सन्तुलन में …………. मदों के निर्यात और आयात को शामिल किया जाता है।
(क) दृश्य मदों
(ख) अदृश्य मदों
(ग) दृश्य और अदृश्य मदों
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) दृश्य और अदृश्य मदों।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 24.
व्यापार संतुलन में दृश्य के निर्यात और आयात को शामिल किया जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 25.
व्यापार सन्तुलन और भुगतान सन्तुलन में कोई अन्तर नहीं होता।
उत्तर-
ग़लत।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भुगतान सन्तुलन से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
भुगतान सन्तुलन लेखे से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान सन्तुलन एक वर्ष में एक देश का बाकी विश्व के देशों से आर्थिक लेन-देन के लेखांकन का विवरण होता है। एक वित्त वर्ष में एक देश द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन के सार को भुगतान शेष लेखा कहा जाता है। यह समष्टि अर्थशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अंश है।

प्रश्न 2.
व्यापार शेष से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
व्यापार शेष में वस्तुओं के निर्यात तथा आयात के लेन-देन का विवरण होता है। एक देश द्वारा एक वर्ष में निर्यात वस्तुओं तथा आयात वस्तुओं के अन्तर को व्यापार सन्तुलन कहा जाता है। इसको दृश्य मदें (Visible goods) भी कहा जाता है। व्यापार शेष में सेवाओं (अदृश्य मदों) के लेन-देन को शामिल नहीं किया जाता।

प्रश्न 3.
व्यापार शेष तथा भुगतान शेष में अन्तर बताएं।
उत्तर-
व्यापार शेष एक वित्त वर्ष में दृश्य मदों (वस्तुओं) के लेन-देन का विवरण होता है जबकि भुगतान सन्तुलन एक वित्त वर्ष में दृश्य मदों (वस्तुओं) के आयात और निर्यात के साथ-साथ अदृश्य मदों (सेवाओं) के आयात-निर्यात को भी शामिल किया जाता है। जहाज़रानी, बीमा बैंकिंग ब्याज, भुगतान, लाभांश, सैलानियों के खर्च को दृश्य मदों में शामिल किया जाता है।

प्रश्न 4.
भुगतान सन्तुलन की दृश्य तथा अदृश्य मदें क्या हैं ?
उत्तर-
दृश्य मदें (Visible Items)-दृश्य मदों में वस्तुओं के आयात तथा निर्यात को शामिल किया जाता है। अदृश्य मदें (Invisible Items)—इसमें विदेशों की दी गईं सेवाएं तथा विदेशों से प्राप्त की गई सेवाओं को शामिल किया जाता है। इनको अदृश्य मदें इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका निर्माण धातु से नहीं होता जैसे कि –

  • समुद्री जहाजों की सेवाओं का आयात तथा निर्यात
  • बैंकिंग सेवाओं का आयात तथा निर्यात।

प्रश्न 5.
भुगतान शेष के चालू खाते से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान शेष के चालू खाते का अर्थ है कि अल्पकाल में वस्तुओं के वास्तविक लेन-देन का लेखा-जोखा। इसमें दृश्य तथा अदृश्य दोनों प्रकार की वस्तुओं तथा सेवाओं के आयात तथा निर्यात को शामिल किया जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 6.
भुगतान शेष के पूंजी खाते से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान शेष के पूंजी खाते का अर्थ है कि अल्पकाल तथा दीर्घकाल में पूंजी के अन्तर प्रवाह तथा बाहरी प्रवाह का लेखा-जोखा। इसमें व्यक्तियों तथा सरकार द्वारा विदेशों से प्राप्त ऋण उधार देना। अनुदान तथा स्वर्ण के आदान-प्रदान को शामिल किया जाता है। यह अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन का लेखा-जोखा होता है।

प्रश्न 7.
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन का अर्थ बताएं।
उत्तर-
प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन-भुगतान सन्तुलन को प्रतिकूल कहा जाता है जब देश की प्राप्तियां कम होती हैं और देनदारी अधिक होती है इस स्थिति में भुगतान सन्तुलन को बराबर करने के लिए स्वर्ण में भुगतान करना पड़ता है अथवा अल्पकालीन ऋण लेकर सन्तुलन स्थापित करना पड़ता है। इस स्थिति में देश की प्राप्तियां कम होती हैं और भुगतान अधिक होता है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भुगतान शेष से क्या अभिप्राय है ? भुगतान शेष की दृश्य तथा अदृश्य मदों को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर-
भुगतान शेष एक वित्त वर्ष में एक देश और शेष विश्व के देशों के साथ लेन-देन का विवरण होता है। इसमें दृश्य (Visible) तथा अदृश्य (Invisible) मदें शामिल होती हैं।
(i) दृश्य मदें (Visible Items)-दृश्य मदों में वस्तुओं के निर्यात तथा आयात को शामिल किया जाता है। जब निर्यात वस्तुओं तथा आयात वस्तुओं का चालू लेखा पेश किया जाता है तो इसको व्यापार सन्तुलन कहा जाता है। जैसा कि गेहूँ, कपड़े, लोहे आदि का आयात तथा निर्यात।

(ii) अदृश्य मदें (Invisible Items)-जब एक देश बाकी विश्व के देशों को सेवाएं प्रदान करता है और बाकी विश्व के देशों से सेवाएं प्राप्त की जाती हैं तो इनको अदृश्य मदें कहा जाता है। इसमें सेवाओं के निर्यात और आयात को शामिल किया जाता है। अदृश्य मदों में निम्नलिखित मदों को शामिल किया जाता है –

  1. जहाज़रानी, वस्तु सेवाओं की आयात और निर्यात
  2. बैंकिंग सेवाओं की आयात और निर्यात
  3. बीमा सेवाओं की आयात और निर्यात
  4. ब्याज का भुगतान तथा प्राप्ति
  5. लाभांश के रूप में भुगतान तथा प्राप्ति। ङ्केप्रश्न

2. भुगतान शेष के लेन-देन के वगीकरणण की पाँच श्रेणियों की व्याख्या करें। उत्तर- भुगतान शेष के लेन-देन के वर्गीकरण को मुख्य पाँच श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है-

  1. श्रेणी I. वस्तुओं तथा सेवाओं का लेखा-इस श्रेणी में वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात तथा आयात को शामिल किया जाता है।
  2. श्रेणी II. एक पक्षीय अन्तरण लेखा-इस खाते में एक देश द्वारा बाकी विश्व को दिए गए उपहार तथा अनुदान और प्राप्त किए अनुदान और उपहार का विवरण होता है।
  3. श्रेणी III. दीर्घकालीन पूँजी लेखा-देश के निवासियों तथा सरकार विदेशी परिसम्पत्तियों की वृद्धि या कमी का विवरण होता है। इसी प्रकार विदेशी निवासियों तथा सरकार के पास इस देश की दीर्घकालिक परिसम्पत्तियों ” की वृद्धि तथा कमी का विवरण होता है।
  4. श्रेणी IV अल्पकालीन निजी पूँजी लेखा-देश के निवासियों के पास निजी विदेशी परिसम्पत्तियों में वृद्धि या कमी का विवरण होता है। इसी प्रकार विदेशी निवासियों के पास इस देश की परिसम्पत्तियों में वृद्धि या कमी का विवरण भी इस खाते में शामिल किया जाता है।
  5. श्रेणी V अल्पकालीन सरकारी पूँजी लेखा-इस देश की सरकार तथा किसी मौद्रिक अधिकारियों द्वारा विदेशी अल्पकालिक परिसम्पत्तियों की मालकी में वृद्धि या कमी के साथ-साथ विदेशी सरकार तथा उनकी एजेन्सियों द्वारा अल्पकालिक परिसम्पत्तियों की वृद्धि तथा कमी का विवरण होता है।

प्रश्न 3.
(a) चालू लेखे
(b) पूँजी लेखे के अंशों (Components) की व्याख्या करें। उत्तर-भुगतान शेष के दो खाते होते हैं-
A. चालू खाता (Current Account) चालू खाते के मुख्य अंश निम्नलिखित हैं –

  • दृश्य मदें-वस्तुओं तथा सेवाओं का आयात और निर्यात।
  • अदृश्य मदें-सेवाओं का आयात और निर्यात।
  • एक पक्षीय अन्तरण-एक देश द्वारा विदेशों को दिए गए तथा प्राप्त किए उपहार तथा अनुदान।

B. पूँजी खाता (Capital Account)-पूँजी खाते के मुख्य अंश निम्नलिखित हैं –

  • सरकारी सौदे-एक देश द्वारा विदेशों को ऋण देना तथा प्राप्त करना जिस द्वारा परिसम्पत्तियों तथा देनदारियों की स्थिति प्रभावित होती है।
  • निजी सौदे-इस देश के व्यक्तियों द्वारा विदेश में निवेश करना तथा विदेशी व्यक्तियों द्वारा इस देश में निवेश करना शामिल करते हैं।
  • प्रत्यक्ष निवेश-विदेशों में निजी व्यक्तियों द्वारा किया गया निवेश तथा उस निवेश पर नियन्त्रण रखना।
  • पोर्ट फोलियो निवेश-विदेशों में शेयर, बान्ड आदि की खरीद परन्तु इस निवेश पर नियन्त्रण न होना। विदेशी पूँजीपतियों द्वारा इस देश में किया गया पोर्ट फोलियो निवेश भी पूँजी खाते में शामिल किया जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 4.
भुगतान शेष के चालू खाते से क्या अभिप्राय है ? इस खाते की मुख्य मदों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
भुगतान शेष का चालू खाता वह खाता है जिसमें वस्तुओं, सेवाओं तथा एक पक्षीय अन्तरण का लेखा-जोखा रखा जाता है। मुख्य मदें (Main Components)-

  1. दृश्य मदें (Visible Items) चालू खाते में दृश्य मदों अर्थात् वस्तुओं तथा सेवाओं के आयात तथा निर्यात को शामिल किया जाता है। जब किसी देश की वस्तुओं के आयात तथा निर्यात का विवरण दिया जाता है तो इसको व्यापार शेष कहा जाता है।
  2. अदृश्य मदें (Invisible Items)-इसमें सेवाओं (Services) के आयात तथा निर्यात को शामिल किया जाता है। इनमें यातायात, संचार, बीमा, बैंकिंग आदि सेवाएं शामिल की जाती हैं।
  3. निवेश आय (Investment Income)-एक देश द्वारा विदेशों में किए गए निवेश से प्राप्त ब्याज तथा लाभ और इनके भुगतान के विवरण को चालू खाते में शामिल किया जाता है।
  4. उपहार तथा ग्रांट (Gifts and Grants) चालू खाते में एक पक्षीय भुगतान जैसा कि उपहार और ग्रांट जो विदेशों से प्राप्त किया गया तथा एक पक्षीय भुगतान जो विदेशों को दिया गया, इसको शामिल किया जाता है।

प्रश्न 5.
भुगतान शेष के पूँजी खाते से क्या अभिप्राय है ? इस खाते की मुख्य मदों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
पूँजी खाते से अभिप्राय उस खाते से है जिसमें एक देश की सरकार तथा निवासियों का शेष विश्व की सरकार तथा निवासियों से सम्बन्ध होता है। इसमें परिसम्पत्तियों तथा देनदारियों में परिवर्तन होता है। पूँजी खाते की मुख्य मदें इस प्रकार हैं-

  • सरकारी सौदे-जब एक देश की सरकार दूसरे देशों की सरकार से ऋण प्राप्त करती है जिस द्वारा परिसम्पत्तियों में परिवर्तन होता है तो इनको सरकारी सौदे कहा जाता है।
  • निजी सौदे-यह गैर-सरकारी सौदे होते हैं जब एक देश के निवासी विदेशों में तथा विदेशी इसमें निवेश करते हैं तो इनको निजी सौदे कहा जाता है। इनको भी पूँजी खाते में शामिल किया जाता है।
  • प्रत्यक्ष विदेशी निवेश-जब इस देश के निवासियों द्वारा विदेशों में तथा विदेशी निवासियों द्वारा इस देश में निवेश करके उस पर नियन्त्रण रखा जाता है तो इसको प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कहा जाता है।
  • पोर्ट फोलियो निवेश (Port folio Investment)-एक देश के निवासी विदेशों में शेयर्स, बान्ड तथा प्रतिभूतियों की खरीद करते हैं और विदेशियों द्वारा इसमें शेयर्स, बान्ड आदि की खरीद की जाती है तो इसको पोर्ट फोलियो निवेश कहा जाता है। इस निवेश पर निवेशकर्ता का नियन्त्रण नहीं होता।

प्रश्न 6.
भुगतान शेष हमेशा सन्तुलन में होता है। स्पष्ट करें।
अथवा
भुगतान शेष के लेखे को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर-
एक देश की प्राप्तियां तथा भुगतान को दोहरी अंकन प्रणाली द्वारा रिकार्ड किया जाता है। दोहरी अंकन प्रणाली में प्राप्तियां तथा देनदारियां हमेशा बराबर होती हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि भुगतान शेष सदैव सन्तुलित रहता है परन्तु व्यावहारिक तौर पर यह असन्तुलित हो सकता है। इसको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन 1
लेखे की दृष्टि से भुगतान शेष सदैव सन्तुलन में होता है। जैसा कि प्राप्तियां 300 + 300 + 100 + 300 = ₹ 1000. करोड़ भुगतान 600 + 100 + 80 + 220 == ₹ 1000 करोड़ के बराबर है।

प्रश्न 7.
भुगतान शेष की स्वप्रेरित मदों तथा समायोजक मदों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भुगतान शेष को अर्थशास्त्री दो भागों में बांटते हैं-

  • स्वप्रेरित मदें (Autoxomous Items)-स्वप्रेरित मदों का अर्थ उन मदों से होता है जिनका मुख्य उद्देश्य , अधिकतम लाभ कमाना होता है। इनका सम्बन्ध भुगतान शेष में समानता स्थापित करना नहीं होता। इन मदों को रेखा से ऊपर की मदों का नाम भी दिया जाता है।
  • समायोजक मदें (Accomodating Items)-समायोजक मदें वे मदें होती हैं जिनका उद्देश्य लाभ अधिकतम – करना होता है। इनका सम्बन्ध लाभ के धनात्मक तथा ऋणात्मक होने से होता है। समायोजक मदों द्वारा भुगतान शेष में समानता स्थापित की जाती है। इन मदों को रेखा से नीचे की मदें भी कहा जाता है।

प्रश्न 8.
भुगतान शेष में असन्तुलन से क्या अभिप्राय है ? इसकी किस्मों का वर्णन करें।।
उत्तर-
भुगतान शेष में असन्तुलन दो प्रकार का हो सकता है-घाटे का भुगतान सन्तुलन, बचत का भुगतान सन्तुलन।
1. घाटे का भुगतान सन्तुलन (Deficit Balance of Payments)-जब किसी देश की प्राप्तियां (Receipts) कम होती हैं और देनदारियां (Payments) अधिक होती हैं तो इस स्थिति को घाटे का भुगतान सन्तुलन कहा जाता है। इस स्थिति को प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन (Unfavourable Balance of Payment) की स्थिति भी कहा जाता है। जब देश के निर्यात कम होते हैं और आयात अधिक होते हैं तो देश को सन्तुलन स्थापित करने के लिए ऋण लेना पड़ता है अथवा सोने के रूप में भुगतान करना पड़ता है।

2. बचत का भुगतान शेष (Surplus Balance of Payments)-जब किसी देश की प्राप्तियां (Credits or Receipts) अधिक होती हैं और देनदारियां (Debits or Payments) कम होती हैं तो इस स्थिति को अनुकूल भुगतान शेष (Favourable Balance of Payments) कहा जाता है। जब देश का निर्यात अधिक होता है और आयात कम होता है तो देश को विदेशों से सोना प्राप्त होता है अथवा देश द्वारा विदेशों को अल्पकालिक ऋण दिए जाते हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 9.
भुगतान शेष में असन्तुलन के कारण बताओ।
उत्तर-
भुगतान शेष में असन्तुलन के मुख्य कारण इस प्रकार हैं-
A. आर्थिक कारण (Economic Causes)

  • बड़े पैमाने पर विकासवादी खर्च कारण, आयात में बहुत वृद्धि होती है और असन्तुलन पैदा हो जाता है।
  • किसी देश में व्यापार चक्रों के कारण सुस्ती और मन्दीकाल की अवस्था के कारण भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।
  • देश में मुद्रा स्फीति के कारण विदेशों से आयात में वृद्धि होती है और असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।
    देश में विदेशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं के स्थान पर प्रतिस्थापनों का विकास हो जाता है तो इससे शेष. घाटे में कमी हो
  • जाती है।
  • देश में उत्पादन लागत में कमी कारण भुगतान शेष में परिवर्तन उत्पन्न होता है।

B. राजनीतिक कारण (Political Causes)-जब देश में राजनीतिक स्थिरता नहीं होती तो पूँजी का निकास विदेशों में अधिक होता है और पूँजी का आयात कम हो जाता है तो भुगतान शेष में असन्तुलन पैदा हो जाता है।

C. सामाजिक कारण (Social Causes)-देश में लोगों के स्वाद, फैशन तथा प्राथमिकता में परिवर्तन के कारण भी असन्तुलन पैदा हो सकता है।

प्रश्न 10.
भुगतान शेष के असन्तुलन को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर-
भुगतान शेष के असन्तुलन को निम्नलिखित विधियों से ठीक किया जा सकता है-

  • निर्यात प्रोत्साहन (Export Promotion)-देश के निर्यात में वृद्धि करने के लिए उद्यमियों तथा निर्यातकर्ता को सहायता प्रदान करनी चाहिए। इस प्रकार भुगतान असन्तुलन ठीक किया जा सकता है!
  • आयात प्रतिस्थापन (Import Substitution)–विदेशों से आयात करने वाला वस्तुओं के स्थान पर देश में ही उन वस्तुओं का उत्पादन करके भुगतान शेष के असन्तुलन को ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार देश की आवश्यकताएं देश में ही पूर्ण हो जाती हैं। आयात पर रोक लगानी चाहिए।
  • अवमूल्यन (Devaluation)-देश की करन्सी का मूल्य विदेशी मुद्रा की तुलना में घटाने को अवमूल्यन कहा जाता है। यह लोचशील विनिमय प्रणाली में सम्भव होता है। इससे निर्यात में वृद्धि होती है।
  • मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण (Control over Inflation) देश में मुद्रा स्फीति की दर को नियन्त्रण में करके देश की वस्तुओं की माँग विदेशों में बढ़ाई जा सकती है। इससे भुगतान असन्तुलन की स्थिति ठीक हो जाती है।

प्रश्न 11.
भुगतान सन्तुलन तथा राष्ट्रीय आय लेखे में सम्बन्ध स्पष्ट करें। .
उत्तर-
भुगतान सन्तुलन के खाते में भुगतान और प्राप्तियों को दोहरी अंकन प्रणाली द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इसी प्रकार राष्ट्रीय आय के लेखे भी दोहरी अंकन प्रणाली के अनुसार ही बनाए जाते हैं। राष्ट्रीय आय में अन्तिम उपभोग को इस प्रकार स्पष्ट किया जाता है-
Y = C+ I + G + X
इसमें Y = राष्ट्रीय आय, C = वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग, I = निवेश खर्च, X = निर्यात खर्च राष्ट्रीय आय का माप खुली अर्थव्यवस्था में इस प्रकार किया जाता है-
Y = C + S + T + M
इसमें Y = राष्ट्रीय आय, C = उपभोग खर्च, S = बचत, T = करों का भुगतान, M = आयात खर्च।
∴ C+ I + G + X = C+ S + T + M
I+ G+ X = S + T + M
Injections = Leakages
देश में निवेश, सरकारी खर्च तथा निर्यात द्वारा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है तथा बचत, कर और आयात द्वारा आय का विकास होता है। इस प्रकार भुगतान सन्तुलन हमेशा सन्तुलन में रहता है।

प्रश्न 12.
भारत में भुगतान सन्तुलन के ढांचे को स्पष्ट करें।
उत्तर-
भारत में भुगतान सन्तुलन लेखे में सरकार की प्राप्तियां तथा भुगतान का विवरण होता है। भुगतान सन्तुलन ढांचे में तीन सैक्शन होते हैं-
(i) चालू खाता
(ii) पूँजी खाता
(iii) रिज़र्व प्रयोग अथवा समष्टि भुगतान सन्तुलन।
भारत के भुगतान सन्तुलन ढांचे को 2011-12 के आंकड़ों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –
India’s Balance of Payments : Summary (2011-12)
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन 2

Source : Economic Survey 2012-13. इस सूची पत्र से स्पष्ट होता है कि (i) चालू लेखा सन्तुलन (-) 78155 मिलियन डालर था। व्यापार सन्तुलन (-) 189759 मिलियन डालर और अदृश्य मदों से प्राप्ति 111604 मिलियन डालर थी। (ii) पूँजी लेखे में 67755 मिलियन डालर की आय प्राप्त हुई। इस प्रकार (ii) विदेशी मुद्रा के रिज़र्व भण्डार में प्रयोग के लिए 12831 मिलियन डालर की कमी हुई।

प्रश्न 13.
व्यापार शेष तथा भुगतान शेष में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-
व्यापार शेष एक देश में वस्तुओं के आयात मूल्य तथा निर्यात मूल्य का अन्तर होता है। भुगतान शेष एक विशाल धारणा है। इसमें व्यापार शेष के साथ-साथ चालू खाते तथा पूँजी खाते के लेन-देन को भी शामिल किया जाता है। इनमें मुख्य अन्तर इस प्रकार हैं –

व्यापार शेष (Balance of Trade) भुगतान शेष (Balance of Payments)
(1) इसमें वस्तुओं के निर्यात तथा आयात का विवरण होता है। (1) इसमें वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात तथा आयात का विवरण होता है।
(2) इसमें पूँजीगत लेन-देन को शामिल नहीं किया जाता जैसे कि परिसम्पत्तियों की खरीद बेच। (2) इसमें पूँजीगत लेन-देन को शामिल किया जाता है।
(3) यह एक सीमित धारणा है जोकि भुगतान शेष का एक भाग है। (3) यह एक विशाल धारणा है। व्यापार शेष इस धारणा का एक भाग होता है।
(4) व्यापार शेष प्रतिकूल, अनुकूल या सन्तुलन में हो सकता है। (4) भुगतान शेष सदैव बराबर होता है क्योंकि प्राप्तियां तथा भुगतान बराबर होते हैं।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भुगतान शेष लेखे से क्या अभिप्राय है ? इसके मुख्य अंशों को स्पष्ट करें।
(What is meant by Balance of Payment Account ? Describe components of Balance of Payment Account.)
अथवा
भुगतान शेष की दृश्य मदों तथा अदृश्य मदों से क्या अभिप्राय है ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट करो।
(What is meant by Visible and Invisible Items in Balance of Payment Account ? Explain with examples.)
उत्तर-
भुगतान शेष लेखांकन का अर्थ (Meaning of Balance of Payments Account)-भुगतान शेष लेखांकन का अर्थ एक देश का शेष विश्व के साथ आर्थिक लेन-देन के विवरण का लेखा-जोखा होता है। (The B.O.P. account is a summary of international transactions of a country in a financial year.)
भुगतान सन्तुलन को दोहरी अंकन प्रणाली द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इसलिए भुगतान शेष लेखांकन का ढांचा इस प्रकार का होता है जिसमें भुगतान शेष सदैव सन्तुलन में रहता है।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन 3
भुगतान शेष के मुख्य अंश अथवा तत्त्व (Components) of B.O.P.)
अथवा
भुगतान शेष की दृश्य तथा अदृश्य मदें (Visible and Invisible Items of Balance of Payments)-
भुगतान शेष की मुख्य मदों को ऊपर दिए ढांचे अथवा संरचना में दिखाया गया है। इनको निम्नलिखित अनुसार स्पष्ट किया जा सकता है-
1. वस्तुओं का निर्यात तथा आयात (दृश्य मदें)[Export and Import of Goods (Visible Items)] वस्तुओं के निर्यात तथा आयात को दृश्य मदें कहा जाता है। ऊपर दिए सूची पत्र 7.1 के अनुसार, वस्तुओं का निर्यात ₹ 300 करोड़ और वस्तुओं का आयात ₹ 600 करोड़ है। इस किस्म के व्यापार को दृश्य मदें कहा जाता है। इन मदों का विवरण कस्टम अधिकारियों द्वारा रखा जाता है।

2. सेवाओं का निर्यात तथा आयात (अदृश्य मदें) [Export and Import of Services (Invisible Items)]-हर एक देश विदेशों की सेवाएं प्रदान करता है और विदेशों से सेवाएं आयात की जाती हैं। सेवाओं के आदान-प्रदान को अदृश्य मदें कहा जाता है। सेवाओं में मुख्य रूप से निम्नलिखित मदों से आय को शामिल किया जाता है।

  • जहाज़रानी, बैंकिंग तथा बीमा (Shipping, Banking and Insurance) हर एक देश विदेशों को जहाज़रानी, बैंकिंग तथा बीमा की सेवाएं प्रदान करता है और बाकी विश्व के देशों से यह सेवाएं प्राप्त की जाती हैं। इनको अदृश्य मदें कहा जाता है।
  • टूरिज्म से आय (Income from Tourism)-टूरिज्म से आय को भी अदृश्य निर्यात कहा जाता है।
  • ब्याज तथा लाभांश (Interest and Dividends)-अदृश्य मदों में एक देश के निवासियों द्वारा निवेश करने से प्राप्त ब्याज तथा लाभांश को भी सेवाओं के निर्यात में शामिल किया जाता है। इस प्रकार सेवाओं के निर्यात तथा आयात द्वारा अदृश्य मदों से शुद्ध प्राप्त आय को भुगतान सन्तुलन में शामिल किया जाता है। इनको अदृश्य मदें (Invisible Items) कहा जाता है।

3. एक पक्षीय अन्तरण (Unilateral Transfers)-एक पक्षीय अन्तरण का अर्थ है एक देश द्वारा विश्व के शेष देशों को उपहार (Gifts), सहायता (Donations) आदि भेजना तथा बाकी विश्व के देशों से उपहार सहायता विदेशी धन प्राप्त करता है। जब विदेशों से उपहार या सहायता प्राप्त की जाती है तो इसके बदले में वर्तमान अथवा भविष्य में कोई भुगतान नहीं करना पड़ता। ये प्राप्तियां तथा भुगतान देश की सरकार तथा निजी नागरिकों द्वारा लिए या दिए जाते हैं।

4. पूँजीगत प्राप्तियां तथा भुगतान (Capital Receipts and Payments)-पूँजीगत प्राप्तियों में निवेश आय जैसा कि लगान, व्याज, लाभ और मज़दूरी के रूप में विश्व के शेष देशों से प्राप्त की जाती है। इसको पूँजीगत प्राप्ति में शामिल किया जाता है। इस प्रकार पूँजीगत भुगतान में लगान, ब्याज, लाभ और मजदूरी के रूप में बाकी विश्व के देशों को किए गए भुगतान को पूंजीगत भुगतान में शामिल किया जाता है। इनको भुगतान सन्तुलन लेखे में प्राप्तियां तथा भुगतान के रूप में लिखा जाता है। इनमें ऋण, निवेश, परिसम्पत्तियों की बिक्री, सोना चांदी तथा विदेशी मुद्रा के भण्डार को शामिल किया जाता है। भारत में भुगतान शेष के लेन-देन के वर्गीकरण को भागों में बांटा जाता है-

  • वस्तुओं तथा सेवा का खाता (Goods and Services Account)
  • एक पक्षीय अन्रण खाता (Unilateral Transfers Account)
  • दीर्घकालिक पूँजी खाता (Long Term Capital Account)
  • अल्पकालिक निजी पूँजी खाता (Short Term Private Capital Account)
  • अल्पकालिक सरकारी पूँजी खाता (Short Term Official Capital Account)

प्रश्न 2.
भुगतान शेष से क्या अभिप्राय है ? भुगतान शेष के प्रतिकूल होने के कारण बताएं। भुगतान शेष के असन्तुलन को ठीक करने के उपाय बताएं।
(What is meant by B.O.P. ? Discuss the Causes of adverse B.O.P. Suggest measures to correct dis-equilibrium in B.O.P.)
उत्तर-
भुगतान शेष एक देश का बाकी विश्व के देशों से निश्चित समय में अन्य देशों से आदान-प्रदान का विवरण होता है। हर एक देश विदेशों को वस्तुएं तथा सेवाएं भेजता है जिससे उस देश को आय प्राप्त होती है। वस्तुएं तथा सेवाएं मंगवाने से उस देश को भुगतान करना पड़ता है। भुगतान शेष वस्तुएं, सेवाएं तथा हर प्रकार के पूँजी आदान-प्रदान को शामिल करता है। सी० पी० किंडलबरजर के अनुसार, “एक देश का भुगतान शेष उस देश के निवासियों और विदेशी निवासियों के अन्तर्गत आर्थिक लेन-देन का विधिपूर्वक लेखा जोखा होता है।’ (The balance of payment of country is a systematic record of all economic transactions between its residents and residents of foreign countries.” C.P. Kindle-berger
भुगतान शेष = शुद्ध व्यापार शेष + शुद्ध सेवाओं में सन्तुलन + शुद्ध एक पक्षीय भुगतान + शुद्ध पूँजीगत लेखा सन्तुलन। व्यापार शेष (B.O.T.), भुगतान सन्तुलन का एक भाग होता है।

असन्तुलित भुगतान शेष के कारण (Causes of Disequilibrium in Balance of Payments)-
भुगतान शेष सदैव सन्तुलन में होता है परन्तु जब भुगतान शेष घाटे वाला (Deficit) अथवा बचत वाला (Surplus) होता है तो इसको पूँजी लेखे की सहायता से सन्तुलन में किया जाता है। जब हम भुगतान शेष में असन्तुलन की बात करते हैं तो इसका सम्बन्ध चालू खाते (Current Account) से होता है। भुगतान सन्तुलन के असन्तुलित होने के मुख्य कारण निम्नलिखित होते हैं-

1. आर्थिक तत्त्व (Economic Factors) –

  • अधिक विकासवादी खर्च (Huge Development Expenditure)-जब देश की सरकार देश के आर्थिक विकास पर बहुत अधिक खर्च करती है तो इस स्थिति में विदेशों से मशीनें और औज़ार आयात किए जाते हैं। इस कारण भुगतान शेष में घाटे का असन्तुलन पैदा हो जाता है।
  • व्यापारिक चक्र (Trade Cycles)-सुस्ती तथा मन्दी के कारण देश में सरकार को अधिक खर्च करना । पड़ता है। इसके फलस्वरूप घाटे वाला असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। तेज़ीकाल के समय सरकार अधिक निर्यात करके विदेशी मुद्रा कमाती है। इससे बचत वाला असन्तुलन उत्पन्न होता है।
  • मुद्रा स्फीति (Inflation)-देश में मुद्रा स्फीति के कारण वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। देश के निर्यात कम हो जाते हैं और आयात बढ़ जाते हैं। इसलिए घाटे वाला असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।
  • आयात प्रतिस्थापन (Import Substitution)-आयात प्रतिस्थापन का अर्थ है विदेशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं का देश में ही उत्पादन करना। इस उद्देश्य के लिए विदेशों से नई मशीनें आयात की जाती हैं और भुगतान शेष घाटे वाला हो जाता है।
  • उत्पादन लागत में परिवर्तन (Change in Cost of Production)—जब तकनीक का विकास होता है तो इससे उत्पादन लागत में परिवर्तन हो जाता है। लागत कम होने से निर्यात में वृद्धि होती है और भुगतान शेष में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।

2. राजनीतिक तत्त्व (Political Factors)-

  • राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability)-जब किसी देश में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति होती है तो इससे पूँजी का विकास होता है और पूंजी का प्रवेश कम होने से घाटे के असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
  • आयात कर में कमी (Reduction in Import duty)-जब देश की सरकार, आयात कर में कमी करती है तो इस कारण आयात में वृद्धि होती है और घाटे वाला असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।

3. सामाजिक तत्त्व (Social Factors) –

  • स्वाद तथा फैशन में परिवर्तन (Changes in Tastes and Fashion)-जब किसी देश के लोगों के स्वाद, फैशन तथा प्राथमिकताओं में परिवर्तन होता है तो इसके परिणामस्वरूप आयात और निर्यात में परिवर्तन हो जाता है। इससे भी असन्तुलन उत्पन्न होता है।
  • जनसंख्या में वृद्धि (Population Growth)-जब एक देश में जनसंख्या में वृद्धि तेजी से होती है जो इससे वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग में वृद्धि हो जाती है। परिणामस्वरूप भुगतान शेष में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है।

भुगतान शेष के असन्तुलन को ठीक करने के उपाय (Measures to Correct dis-equilibrium in B.O.P.) –
भुगतान शेष को निम्नलिखित विधियों से ठीक किया जा सकता है –

  1. निर्यात प्रोत्साहन (Export Promotion)-जब किसी देश में भुगतान शेष घाटे वाला होता है तो उस स्थिति में निर्यात में वृद्धि हो सके। इस प्रकार घाटे वाला असन्तुलन ठीक हो सकता है।
  2. आयात प्रतिस्थापन (Import Substitution)-सरकार को आयात की जाने वाली वस्तुओं के स्थान पर देश में ही उन वस्तुओं का उत्पादन करना चाहिए। इससे आयात मूल्य में कमी हो जाएंगी और भुगतान शेष का असन्तुलन ठीक हो जाएगा।
  3. विदेशी मुद्रा पर नियन्त्रण (Exchange Control)-सरकार को विदेशी मुद्रा पर नियन्त्रण रखना चाहिए। निर्यात करने वाले उद्यमियों की विदेशी मुद्रा में आय को केन्द्रीय बैंक में जमा करवाना चाहिए और अधिक · महत्त्वपूर्ण आयात पर ही विदेशी मुद्रा को खर्च करना चाहिए। इससे भी भुगतान शेष में सुधार हो सकता है।
  4. मुद्रा का अवमूल्यन (Devaluation of Currency)-एक देश को घरेलू मुद्रा का अवमूल्यन करना चाहिए। अवमूल्यन का अर्थ है किसी देश की मुद्रा का मूल्य दूसरे देशों की मुद्रा की तुलना में कम करना होता है। इससे विदेशी लोग इस देश की वस्तुओं तथा सेवाओं की अधिक खरीददारी करते हैं। इससे भुगतान असन्तुलन ठीक हो जाता है। परन्तु यह स्थिर विनिमय दर प्रणाली में ही सम्भव होता है।

5. मुद्रा की मूल्य कमी (Depreciation of Currency)-देश की मुद्रा की ख़रीद शक्ति को कम करने की प्रक्रिया को मुद्रा की मूल्य कमी कहा जाता है। यह परिवर्तनशील विनिमय दर प्रणाली में सम्भव होता है। यहां पर विनिमय दर माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। इससे निर्यात को प्रोत्साहन प्राप्त होता है और आयात कम हो जाता है।

6. मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण (Control Over Inflation)-जब किसी देश के कीमत स्तर में वृद्धि होती है तो उस देश की वस्तुओं की माँग विदेशों में कम हो जाती है, इसलिए स्फीति के स्तर को कम करके निर्यात में वृद्धि करनी चाहिए। इससे भुगतान असन्तुलन ठीक हो जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

v. संख्यात्मक प्रश्न (Numericals)

प्रश्न 1.
व्यापार का घाटा ₹ 5000 करोड़ है। आयात का मूल्य ₹ 9000 करोड़ है तो निर्यात का मूल्य ज्ञात करें।
उत्तर-
व्यापार का घाटा = ₹5000 करोड़, आयात
= ₹ 9000 करोड़ व्यापार का घाटा = निर्यात – आयात
= (-) 5000 = निर्यात –9000
= (-) 5000 + 9000 = निर्यात
निर्यात = ₹4000 करोड़ उत्तर

प्रश्न 2.
व्यापार शेष का घाटा ₹ 300 करोड़ है। निर्यात का मूल्य ₹ 500 करोड़ है। आयात का मूल्य ज्ञात करो।
उत्तर-
व्यापार शेष का घाटा = ₹ 300 करोड़, निर्यात = ₹ 500 करोड़
व्यापार शेष का घाटा = निर्यात – आयात
(-) 300 = 500 – आयात
आयात = 500 + 300
= ₹ 800 करोड़ उत्तर

प्रश्न 3.
एक देश का निर्यात ₹ 10,000 करोड़ है। आयात ₹ 12,000 करोड़ है। व्यापार शेष ज्ञात करो।
उत्तर –
व्यापार शेष = निर्यात – आयात
= 10,000 – 12,000
= (-) ₹ 2000 करोड़
व्यापार शेष का घाटा = ₹ 2000 करोड़ उत्तर

प्रश्न 4.
एक देश का आयात मूल्य ₹ 70050 करोड़ है। निर्यात मूल्य ₹ 85025 करोड़ है। व्यापार सन्तुलन ज्ञात करें।
उत्तर-
व्यापार शेष = निर्यात का मूल्य – आयात का मूल्य
= 85025 – 70050 = ₹ 14975 करोड़ उत्तर

प्रश्न 5.
यदि व्यापार बाकी (-) ₹600 करोड़ है और निर्यात की कीमत ₹ 500 करोड़ है तो आयत की कीमत पता कीजिए।
उत्तर-
व्यापार बाकी = निर्यात – आयात
-600 = 500 – आयात – 600 – 500 = – आयात
-1100 = – आयात
आयात की कीमत = ₹ 1100 करोड़ उत्तर

प्रश्न 6.
यदि व्यापार बाकी (-) ₹ 900 करोड़ है और निर्यात की कीमत ₹600 करोड़ है तो आयात की कीमत पता कीजिए।
उत्तर –
व्यापार बाकी = निर्यात की कीमत – आयात की कीमत
– 900 = 600 – आयात की कीमत
– 900 – 600 = – आयात की कीमत
– 1500 = – आयात की कीमत
आयात की कीमत = ₹ 1500 करोड़ उत्तर

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 7.
यदि व्यापार बाकी (-) ₹ 1000 करोड़ है और निर्यात की कीमत ₹ 600 करोड़ है तो आयात की कीमत पता कीजिए।
उत्तर-
व्यापार बाकी = निर्यात की कीमत – आयात की कीमत
(-) 1000 = 600 – आयात की कीमत
– 1000 – 600 = – आयात की कीमत
– 1600 = – आयात की कीमत
आयात की कीमत = ₹ 1600 करोड़ उत्तर

प्रश्न 8.
यदि व्यापार बाकी ₹ 800 करोड़ का घाटा दर्शाता है। निर्यात की कीमत ₹ 900 करोड़ है तो आयात की कीमत ज्ञात करें।
उत्तर-
व्यापार बाकी = निर्यात – आयात
– 800 = 900 – आयात
– 800 – 900 = – आयात
– 1700 = – आयात
आयात = ₹ 1700 करोड़ उत्तर

प्रश्न 9.
यदि व्यापार बाकी ₹ 1600 करोड़ का घाटा दर्शाता है। निर्यात की कीमत ₹ 1800 करोड़ है तो आयात की कीमत पता करें।
उत्तर-
व्यापार बाकी = निर्यात – आयात
– 1600 = 1800 – आयात
– 1600 – 1800 = – आयात
– 3400 = – आयात
आयात = ₹ 3400 करोड़ उत्तर

प्रश्न 10.
व्यापार शेष ₹ 1200 करोड़ का घाटा दर्शाता है। यदि निर्यात की कीमत ₹ 1100 करोड़ है तो आयात की कीमत पता करें।
उत्तर-
व्यापार शेष = निर्यात – आयात
– 1200 = 1100 – आयात
– 1200 – 1100 = – आयात
– 2300 = – आयात
आयात = ₹ 2300 करोड़ उत्तर।

प्रश्न 11.
जब निर्यातों का मूल्य आयातों के मूल्य से ……….. होता है तो व्यापार शेष पक्ष का होगा।
उत्तर-
अधिक।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 15 भुगतान सन्तुलन

प्रश्न 12.
जब निर्यातों का मूल्य आयातों के मूल्य से ………… होता है तो व्यापार शेष प्रतिकूल होगा।
उत्तर-
कम।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 22 निर्धनता की समस्या

PSEB 12th Class Economics निर्धनता की समस्या Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
निर्धनता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
निर्धनता से अभिप्राय जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सेहत इत्यादि को पूरा करने की अयोग्यता होती है।

प्रश्न 2.
भारत में सापेक्ष निर्धनता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सापेक्ष निर्धनता से अभिप्राय है तुलनात्मक निर्धनता।

प्रश्न 3.
निरपेक्ष निर्धनता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
निरपेक्ष निर्धनता से अभिप्राय उपभोग के विशेष बिन्दु को कम स्थिति में व्यय किया जाए, जिसको निर्धनता रेखा कहा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या

प्रश्न 4.
भारत के किस राज्य में सबसे अधिक तथा किस राज्य में सबसे कम निर्धनता है ?
उत्तर-
भारत में सबसे अधिक निर्धनता बिहार में पाई जाती है। बिहार में 55 प्रतिशत लोग निर्धनता रेखा से नीचे जीवन बिता रहे हैं। पंजाब में सबसे कम निर्धनता है। 12 प्रतिशत लोग निर्धनता रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

प्रश्न 5.
जीवन स्वास्थ्य तथा कार्यकुशलता के लिए न्यूनतम उपभोग आवश्यकताओं की प्राप्ति की अयोग्यता को निर्धनता कहते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 6.
भिखारी अथवा अनियमित मज़दूर जिनके पास कभी-कभी धन आ जाता है को ……… निर्धन कहते हैं।
उत्तर-
चिरकालिक निर्धन (Chronic Poor)।

प्रश्न 7.
वह व्यक्ति जिन के पास अधिकांश समय धन होता है परन्तु कभी-कभी अल्पकाल के लिए रोज़गार नहीं मिलता उनको ………… निर्धन कहते हैं।
उत्तर-
अल्पकालिक निर्धन (Transient Poor)।

प्रश्न 8.
वह व्यक्ति जो कभी भी निर्धन नहीं होते उनको ………….. निर्धन कहते हैं।
उत्तर-
और-निर्धन (Non-Poor)।

प्रश्न 9.
वह सीमा बिन्दू जो किसी देश में लोगों को निर्धन तथा अनिर्धन में विभाजित करता है को ……………. कहते हैं।
उत्तर-
निर्धनता रेखा (Poverty Line)।

प्रश्न 10.
निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के रूप में मापा जाता है को ………… अनुपात कहते हैं।
उत्तर-
व्यक्ति गणना अनुपात (Head Count Ratio)।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या

प्रश्न 11.
भारत में निर्धनता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण बढ़ती हुई जनसंख्या है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 12.
गरीबी रेखा की सीमा आय रूप में की जाए अथवा उपभोग रूप में की जाए ?
उत्तर-
उपभोग रूप में।

प्रश्न 13.
भारत में गरीबी रेखा की सीमा किस माप दण्ड में निर्धारण होती है ?
उत्तर-
आय द्वारा।

प्रश्न 14.
व्यक्तिगत गणना अनुपात से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
व्यक्तिगत गणना अनुपात द्वारा गरीबों को गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के रूप में माप करना होता है।

प्रश्न 15.
सन् 2012 में गरीबी रेखा को पुनः प्रभावित करने का आदेश किस संस्था ने दिया ?
उत्तर-
सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इण्डिया।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
सापेक्ष तथा निरपेक्ष निर्धनता से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
सापेक्ष निर्धनता-जब विभिन्न देशों, क्षेत्रों अथवा वर्गों में तुलना की जाती है तथा तुलनात्मक आय कम होती है तो इसको सापेक्ष निर्धनता कहा जाता है, जैसे कि अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय 58036 डालर है तथा भारत में प्रति व्यक्ति आय 6490 डालर है। इस प्रकार अमीर देशों की तुलना में भारत निर्धन देश है। निरपेक्ष निर्धनता-भारत में निरपेक्ष निर्धनता को निर्धन रेखा द्वारा मापते हैं। भारत के गाँवों में 1054 रु० प्रति माह तथा शहरों में 1984 रु० प्रति माह उपभोग व्यय करने वाले व्यक्तियों को निर्धन कहा जाता है, क्योंकि वह निर्धनता रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करते हैं।

प्रश्न 2.
निर्धनता रेखा से क्या अभिप्राय है? क्या निर्धनता रेखा का आय अथवा उपभोग के रूप में निर्धारण करना चाहिए ?
उत्तर–
प्रति व्यक्ति व्यय से सम्बन्धित यह ऐसा बिन्दु है, जोकि किसी क्षेत्र के व्यक्तियों को निर्धन होने अथवा निर्धन न होने में विभाजित करता है। भारत में निर्धन होने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में 816 रु० का व्यय तथा शहरी क्षेत्र के लिए 1000 रु० के व्यय को निर्धनता का बिन्दु मानकर निर्धनता रेखा को निश्चित किया गया है। निर्धनता रेखा को निर्धारण करने के लिए आय से उपभोग (consumption) को सूचक मानना चाहिए, क्योंकि आय द्वारा खरीद शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है जबकि उपभोग द्वारा यह पता लगता है कि मनुष्य कौन-सी वस्तुओं का प्रयोग करता है तथा कितनी मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इस कारण उपभोग द्वारा निर्धनता रेखा को निर्धारित करना चाहिए। योजना आयोग ने निर्धनता रेखा की नई सीमा 67 रुपये प्रतिदिन करने की सिफ़ारिश की है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या

प्रश्न 3.
भारत में निर्धनता के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर-
भारत में निर्धनता के कारण (Causes of Poverty in India)—निर्धनता के कारण ही भारत की अर्थव्यवस्था कम विकसित है। भारत में निर्धनता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. विकास की कम दर-भारत की योजनाओं में आर्थिक विकास का लक्ष्य 5% वार्षिक रखा गया। परन्तु वास्तव में विकास दर 2.4% प्राप्त की गई। इस कारण निर्धनता की स्थिति पाई जाती है।
  2. राष्ट्रीय उत्पाद का कम स्तर- भारत में राष्ट्रीय उत्पाद का स्तर यू०एन०ओ० की शर्तों अनुसार नीचा है। कम प्रति व्यक्ति आय भी निर्धनता का सूचक है। भारत की GDP 2020-21 में, 1.34 लाख करोड़ तथा P.C.I ₹ 1,38,000 थी।

प्रश्न 4.
भारत में निर्धनता को दूर करने हेतु कोई दो सुझाव दें।
उत्तर-
निर्धनता को दूर करने के लिए सुझाव (Suggestion to Remove Poverty)
1. विकास की दर में वृद्धि-भारत में विकास की दर में वृद्धि करनी चाहिए। यदि देश में कृषि, उद्योग, वाणिज्य, यातायात की वृद्धि की जाए तो रोज़गार के अधिक अवसर प्रदान करके निर्धनता को दूर किया जा सकता है।

2. जनसंख्या पर रोक-भारत में तीव्रता से बढ़ रही जनसंख्या पर रोक लगाने के लिए जन्म दर में कमी करने की आवश्यकता है। इससे निर्धनता को दूर किया जा सकता है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में निर्धनता रेखा का कैसे निर्धारण किया जाता है ?
उत्तर-
भारत में निर्धनता रेखा को निश्चित करने के लिए निम्नलिखित विधि को अपनाया जाता है –

  1. उपभोग पर व्यय में सिर्फ निजी उपभोग व्यय को शामिल किया जाता है। सरकार द्वारा वस्तुओं पर किए व्यय को शामिल नहीं किया जाता।
  2. निजी उपभोग व्यय में सिर्फ खाद्य पदार्थों पर व्यय को ही शामिल नहीं किया जाता, बल्कि गैर-खाद्य पदार्थों पर व्यय को भी शामिल किया जाता है।
  3. खुराक पर व्यय की मदों से प्रति व्यक्ति भोजन में प्राप्त कैलोरियों द्वारा माप किया जाता है। अमीर तथा निर्धन वर्गों द्वारा उपभोग की कैलोरियों का विस्तार (Range) तथा स्तर (Level) मापा जाता है।
  4. विभिन्न वर्ग के लोगों द्वारा किए गए उपभोग से प्राप्त कैलोरियों के आधार पर आवृत्ति वितरण तैयार की जाती है। इस प्रकार निर्धन लोग कम कैलोरी तथा अमीर लोग अधिक कैलोरी भोजन का उपभोग करते हैं।
  5. आवृत्ति के आधार पर संख्या की जाती है। इससे ग्रामीण क्षेत्र के लिए विभिन्न तथा शहरी क्षेत्र के लिए विभिन्न निर्धनता रेखा निश्चित की जाती है। इस निर्धनता रेखा के बिन्दु से नीचे रहने वाले व्यक्तियों की संख्या की जाती है।

प्रश्न 2.
भारत में ग्रामीण तथा शहरी निर्धनता की स्थिति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
भारत में निर्धनता रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों की कुल संख्या में निरन्तर कमी हो रही है। इसको सूची पत्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। विश्व बैंक ने 18 अप्रैल 2013 को रिपोर्ट में कहा है कि भारत में एक तिहाई जनसंख्या गरीब है।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या 1
Source: NITI Aayog (NSSO)

  1. भारत में 1970-71 में 25 करोड़ गरीब थे, जिनकी संख्या 2019-20 में 22 करोड़ थी।
  2. शहरी क्षेत्र में 1970-71 में निर्धनों की संख्या 42% थी जो कि 2019-20 में 14% हो गई है।
  3. ग्रामीण क्षेत्र में 1970-71 में निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 54% थी, जोकि 2019-20 में घटकर 20% रह गई है।
  4. भारत में निर्धनों की कुल संख्या 1970-71 में 51 प्रतिशत थी। 2019-20 में यह संख्या घटकर 17% रह गई है। 2022 तक गरीबों की संख्या 18% रहने का अनुमान है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या

प्रश्न 3.
भारत में निर्धनता के मुख्य कारण बताओ।
उत्तर-
भारत में निर्धनता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. कम विकास दर-भारत में वार्षिक विकास दर 4 प्रतिशत हो रही है, परन्तु जनसंख्या में वृद्धि 2 प्रतिशत वार्षिक होने के कारण प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि 2.4 प्रतिशत हुई। इसी कारण निर्धनता पाई जाती है।
  2. जनसंख्या में वृद्धि- भारत में जनसंख्या में वृद्धि इतनी तीव्रता से हुई है, जिस कारण निर्धनों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है।
  3. बेरोज़गारी- भारत में बेरोज़गारी तथा अल्पबेरोज़गारी ने निर्धनता में वृद्धि की है। देश में 2 करोड़ से – अधिक बेरोज़गार हैं।
  4. संस्थागत ढांचे की कमी- भारत में बिजली, पानी, सड़कें, यातायात तथा संचार, शिक्षा, सेहत इत्यादि बुरी स्थिति में हैं। इसलिए उत्पादन में वृद्धि कम दर पर हुई है तथा निर्धनता पाई जाती है।

प्रश्न 4.
निर्धनता दूर करने के लिए सरकार द्वारा उठाए कोई दो पगों की व्याख्या करो।
अथवा
स्वर्ण जयंती ग्राम स्वयं रोज़गार योजना तथा स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना पर नोट लिखो।
उत्तर-
1. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वयं रोजगार योजना निर्धनता दूर करने के लिए यह योजना अप्रैल 1999 में लागू की गई। यह योजना केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा 75:25 के अनुपात में व्यय के आधार पर बनाई जाती है। इस योजना द्वारा स्वयं रोज़गार के लिए ऋण की सुविधाओं का प्रबन्ध किया गया है। इस योजना पर जनवरी, 2019-20 तक 48000 करोड़ रु० व्यय किए गए।

2. स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना- यह योजना शहरी स्वयं रोज़गार तथा शहरी मज़दूरी रोज़गार प्रोग्राम को एकत्रित करके 1997 में आरम्भ की गई। यह योजना भी केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा 75:25 अनुपात अनुसार व्यय के आधार पर बनाई गई है। इस योजना पर जनवरी, 2019-20 में 5270 करोड़ रु० व्यय किए गए। इस राशि से 28 हज़ार शहरी गरीब परिवारों को रोजगार प्रदान किया गया।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
निर्धनता से क्या अभिप्राय है? भारत में निर्धनता के कारण बताओ। निर्धनता दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
(What is meant by Poverty ? Discuss the causes of Poverty in India ? Suggest measures to remove Poverty.)
उत्तर-
निर्धनता का अर्थ (Meaning of Poverty)-निर्धनता से अभिप्राय जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सेहत इत्यादि को पूरा करने की अयोग्यता होती है। निर्धनता को दो रूपों में प्रकट किया जाता है –
(A) सापेक्ष निर्धनता (Relative Poverty)-यू० एन० ओ० की रिपोर्ट अनुसार सापेक्ष निर्धनता का अर्थ तुलनात्मक निर्धनता से होता है, जब विभिन्न देशों, क्षेत्रों अथवा वर्गों की तुलना की जाती है तथा तुलनात्मक आय कम होती है अथवा इसको सापेक्ष निर्धनता कहा जाता है। जैसे कि भारत की प्रति व्यक्ति आय 6490डालर, अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 58030 डालर की तुलना में बहुत कम है। इसलिए भारत गरीब देश है। भारत में निर्धन व्यक्तियों की संख्या बिहार में 55% तथा पंजाब में 12% है। यह क्षेत्रीय निर्धनता है। इसी तरह कम आय 20% लोगों के पास राष्ट्रीय आय 7 प्रतिशत तथा अधिक आय वाले 20% लोगों के पास राष्ट्रीय आय 46 प्रतिशत है। यह वर्ग निर्धनता है।

(B) निरपेक्ष निर्धनता (Absolute Poverty)-भारत में निरपेक्ष निर्धनता को निर्धनता रेखा द्वारा मापते हैं। निर्धनता रेखा से अभिप्राय न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रति माह औसत व्यय की रेखा होती है। भारत में 2004-05 की कीमतों के अनुसार ग्रामों में 816 रु० तथा शहरों में 1000 रु० प्रति माह व्यय करने वाले व्यक्तियों को निर्धनता रेखा से नीचे का जीवन व्यतीत करने वाले निर्धन व्यक्ति कहा जाता है।

भारत में निर्धनता का विस्तार (Extent of Poverty in India)-भारत में 2019-20 में 22 करोड़ व्यक्ति निर्धन थे अर्थात् इनमें से 20% लोग ग्रामों तथा 14% लोग शहरों में निर्धन थे। जनसंख्या में से 35% लोग निर्धनता रेखा से नीचे थे। बाहरवीं योजना अनुसार 2022 तक 18% प्रतिशत लोग निर्धनता रेखा से नीचे रह जाएंगे। भारत के विभिन्न राज्यों में से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा में निर्धनों की संख्या अधिक है जबकि हिमाचल प्रदेश/हरियाणा तथा पंजाब में निर्धनों की संख्या कम है। बिहार में सबसे अधिक 55% लोग निर्धन हैं, जबकि पंजाब में सबसे कम 12% लोग निर्धन हैं।

भारत में निर्धनता के कारण (Causes of Poverty in India)-निर्धनता के कारण ही भारत की अर्थव्यवस्था कम विकसित है। भारत में निर्धनता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
1. विकास की कम दर- भारत की योजनाओं में आर्थिक विकास का लक्ष्य 10% वार्षिक रखा गया। परन्तु वास्तव में विकास दर 5.7% प्राप्त की गई। इस कारण निर्धनता की स्थिति पाई जाती है।

2. राष्ट्रीय उत्पाद का कम स्तर- भारत में राष्ट्रीय उत्पाद का स्तर यू० एन० ओ० की शर्तों अनुसार नीचा है। प्रचलित कीमतों पर 2019-20 में शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद 134 लाख करोड़ रु० तथा प्रति व्यक्ति आय 1,38,000 रु० थी। कम प्रति व्यक्ति आय भी निर्धनता का सूचक है।

3. अधिक जनसंख्या- भारत में निर्धनता का मुख्य तथा बड़ा कारण जनसंख्या का अधिक होना है। जनसंख्या की वृद्धि का कारण देश में जन्म दर से मृत्यु दर में बहुत अधिक कमी होना है। 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी जोकि 2011 में 121 करोड़ हो गई है।

4. बढ़ती कीमतें-देश में उत्पादन की वृद्धि की कम दर तथा जनसंख्या की वृद्धि की अधिक दर के कारण कीमतों में वृद्धि तीव्रता से हो रही है। इससे निर्धन लोग अपनी आवश्यकताएं पूरी करने में असमर्थ हैं। 2019-20 में कीमतों में वृद्धि 5.2% रही।

5. पूंजी की कमी-भारत में प्राकृतिक साधन तो अधिक मात्रा में पाए जाते हैं परन्तु पूंजी की कमी के कारण साधनों का उचित प्रयोग नहीं हो रहा। इस कारण उत्पादकता कम है तथा निर्धनता पाई जाती है।

निर्धनता को दूर करने के लिए सुझाव (Suggestion to Remove Poverty)-

  1. विकास की दर में वृद्धि-भारत में विकास की दर में वृद्धि करनी चाहिए । यदि देश में कृषि, उद्योग, वाणिज्य, यातायात की वृद्धि की जाए तो रोज़गार के अधिक अवसर प्रदान करके निर्धनता को दूर किया जा सकता है।
  2. जनसंख्या पर रोक-भारत में तीव्रता से बढ़ रही जनसंख्या पर रोक लगाने के लिए जन्म दर में कमी करने की आवश्यकता है। इससे निर्धनता को दूर किया जा सकता है।
  3. आय की असमानता में कमी-भारत में अमीर लोगों पर अधिक कर लगाकर प्राप्त हुई आय को निर्धनों की भलाई पर व्यय करना चाहिए। इससे आर्थिक असमानता आएगी तथा निर्धनता को दूर किया जा सकेगा।
  4. निर्धनों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति- सरकार को निर्धन लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पग उठाने चाहिए । इस उद्देश्य के लिए निर्धनों के लिए अधिक रोज़गार तथा परिवार नियोजन पर ज़ोर देना चाहिए।
  5. तकनीक में परिवर्तन- भारत में श्रम संघनी तकनीक द्वारा बेरोज़गारी को दूर किया जाए, कीमतों में स्थिरता द्वारा पिछड़े क्षेत्रों का विकास करके लोगों के लिए स्वयं रोज़गार के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 2.
भारत में सरकार द्वारा निर्धनता को दूर करने के लिए किए गए उपायों का वर्णन करो। (Discuss the measures undertaken by Indian Government to remove poverty.)
अथवा
भारत में निर्धनता घटाओ प्रोग्रामों पर प्रकाश डालें। (Explain the main programmes to remove poverty in India.)
अथवा
भारत में रोजगार की वृद्धि के लिए बनाई योजनाओं को स्पष्ट करो। (Explain the programmes increase employment in India.)
उत्तर-
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं में निर्धनता घटाने के लिए निम्नलिखित प्रोग्राम रखे हैं –
1. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (PMGSY)-यह योजना दिसम्बर, 2000 में आरम्भ की गई। इस योजना का उद्देश्य सभी ग्रामों को जिनमें 1000 से अधिक लोग रहते हैं तथा पहाड़ी क्षेत्रों में 500 से अधिक जनसंख्या है, उनको 2009 तक सड़कों द्वारा शहरों से जोड़ा जाएगा। 2019-20 तक इस योजना पर 20,000 करोड़ रु० व्यय करके 2.42 लाख किलोमीटर लम्बी सड़क पूरी की गई है।

2. इन्दिरा आवास योजना (I.A.Y.)-इस योजना में अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को मुफ्त आवास का प्रबन्ध करना है। यह योजना केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा 75:25 की दर से लागत के आधार पर बनाई गई है। इस योजना अधीन मैदानी क्षेत्रों में 25,000 रु० तथा पहाड़ी क्षेत्रों में 27,500 रु० की सहायता दी जाती है। 2019-20 में इस योजना पर 15000 करोड़ रु० व्यय करके 35 लाख घरों का निर्माण किया जा चुका है।

3. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वः रोज़गार योजना (SGSY)-गांवों में निर्धनता दूर करने के लिए ग्रामीण विकास के उद्देश्य के लिए यह योजना अप्रैल, 1999 में आरम्भ की गई। इस योजना में निर्धनता रेखा से ऊपर रहने वाले निर्धन लोगों को स्वयं रोज़गार के लिए ऋण दिया जाता है। यह योजना केन्द्र तथा राज्य सरकार द्वारा 75:25 की दर पर ऋण सुविधाएं प्रदान करती है जोकि बैंकों द्वारा दिया जाता है। इस योजना अधीन सरकार ने 2018-19 तक 10 हजार करोड़ रु० के ऋण प्रदान किए तथा 135.75 लाख लोगों को स्वयं रोज़गार प्रदान किया।

4. सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (S.G.RY.)-यह योजना 25 सितम्बर, 2001 को आरम्भ की गई। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में नकद तथा अनाज के रूप में मजदूरी देकर रोज़गार प्रदान करना है। इस उद्देश्य के लिए केन्द्र सरकार अनाज का 75% हिस्सा तथा नकद मज़दूरी का 100% हिस्सा लगाती है। इस योजना में वर्ष 2019-20 में 0.90 लाख टन अनाज तथा 21,000 करोड़ रु० नकद व्यय किए गए।

5. राष्ट्रीय कार्य के बदले अनाज योजना (N.P.P.W.P.)-यह योजना नवम्बर, 2004 में आरम्भ की गई। इस योजना का उद्देश्य देश के 150 सबसे पिछड़े जिलों में जहां सूखा, बाढ़, सेम की स्थिति है, उनमें कार्य के बदले अनाज प्रदान करके लोगों की जीविका बनाए रखना है तथा नकद मज़दूरी भी दी जाती है। 2004-05 में इस योजना पर 2020 करोड़ रु० तथा 20 लाख टन अनाज देकर 7.85 करोड़ मानवीय दिन (8 घंटे) काम दिया गया। जनवरी, 2020 तक वर्ष पर 5000 करोड़ रु० तथा 42 लाख टन अनाज दिया जा चुका है।

6. सूखा, रेगिस्तान बेकार भूमि विकास प्रोग्राम-यह योजना 1973-74 में आरम्भ की गई। 2017-18 में इस योजना पर 1820 करोड़ रु० व्यय किए गए ताकि बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाया जा सके।

7. स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार योजना (S.J.S.R.Y.)-शहरी क्षेत्र में रोजगार के लिए चल रही शहरी स्वयं रोज़गार प्रोग्राम तथा शहरी मज़दूरी रोज़गार प्रोग्राम इत्यादि को मिलाकर स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना केन्द्र तथा राज्य सरकारों के 75:25 अनुपात के सहयोग से चलाई गई। 2019-20 में 1900 करोड़ रु० व्यय किए गए जिस द्वारा 5 लाख शहरी गरीब लोगों को रोजगार प्रदान किया गया।

8. वाल्मीकि-अम्बेदकर आवास योजना (V.A.M.B.A.Y.)-यह योजना दिसम्बर, 2001 में आरम्भ की गई। इस योजना का उद्देश्य गंदी बस्तियों तथा शहरी निर्धन बस्तियों में शौचालय (Toilets) बनाना था। इस उद्देश्य के लिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा 50:50 की दर पर व्यय किया जाता है। इस योजना को निर्मल भारत अभियान का नाम दिया गया है। 2017-18 में इस योजना पर 1311 करोड़ रु० व्यय करने का लक्ष्य है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 22 निर्धनता की समस्या

9. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी स्कीम (MGNREGS)-यह योजना आर्थिक तौर पर पिछड़े जिलों में आरम्भ की गई। इस योजना पर 2017-18 में 40 हज़ार करोड़ रुपए व्यय किये गए। जिस द्वारा 4.78 करोड़ परिवारों को इस स्कीम के अधीन रोज़गार प्रदान किए गये। इस स्कीम के अन्तर्गत प्रतिदिन मज़दूरी ₹ 132 निर्धारण की गई है।

10. आम आदमी बीमा योजना (AABY)—यह योजना 18 से 59 वर्ष के मज़दूरों पर लागू होगी जिसमें साधारण मृत पर 30,000 रु० दिये जाएंगे दुर्घटना की स्थिति में ₹ 75000 दिये जाएंगे। यदि अपाहज हो जाए तो ₹ 37500 दिये जाएंगे। इसके लिए ₹ 100 की किश्त देनी होती है। 30 अप्रैल, 2016 तक इस योजना के अन्तर्गत 5 करोड़ मजदूरों का बीमा हो चुका है।

11. कौशल विकास योजना (Skill Development Yojna)-गांवों में बच्चों के कौशल विकास के लिए 2019-20 में ₹ 4900 करोड़ खर्च किये जाएंगे।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 21 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 21 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 21 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति

PSEB 12th Class Economics 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक सुधारों से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
नई आर्थिक नीति का अर्थ बताओ।
उत्तर-
भारत में 1991 से किए गए आर्थिक सुधारों को नई आर्थिक नीति कहा जाता है।

प्रश्न 2.
उदारीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उदारीकरण का अर्थ है उद्योगों तथा व्यापार को परका की अनावश्यक पाबन्दियों से मुक्त करके अधिक प्रतियोगी बनाना।

प्रश्न 3.
निजीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का संचालन तथा मालकी निजी क्षेत्र को परिवर्तित करने की क्रिया को निजीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 4.
विश्वीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विश्वीकरण का अर्थ है अर्थव्यवस्था का बाकी देशों से बिना रुकावट सम्बन्धी उत्पादन, व्यापार तथा वित्त सम्बन्धी आदान-प्रदान स्थापित करना।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 21 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति

प्रश्न 5.
नई आर्थिक नीति के पक्ष में कोई एक तर्क दें।
उत्तर-
नई आर्थिक नीति द्वारा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करके विकसित देशों के समान आर्थिक विकास किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
नई आर्थिक नीति के विपक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-
नई आर्थिक नीति से विदेशी पूंजी तथा तकनीक पर निर्भरता बढ़ जाएगी। इससे उन्नत देशों को अधिक लाभ होगा।

प्रश्न 7.
आर्थिक सुधारों की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर-
भारत में राजकोषीय घाटा निरन्तर बढ़ रहा है।

प्रश्न 8.
राजकोषीय घाटे से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजकोषीय घाटा कुल व्यय तथा कुल आय मनफी ऋण का अन्तर होता है।

प्रश्न 9.
विश्व व्यापार संगठन (W.T.0.) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में विश्वीकरण के विकास के लिए बनाई गई संस्था को विश्व व्यापार संगठन कहा जाता है।

प्रश्न 10.
भारत में आर्थिक सुधारों अथवा नई आर्थिक नीति की आवश्यकता क्यों थी ?
उत्तर-

  • भारत में राजकोषीय घाटा अधिक हो गया था।
  • भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो गया था।
  • विदेशी मुद्रा कोष कम हो गया था।

प्रश्न 11.
भारत में आर्थिक सुधारों की आवश्यकता थी क्योंकि
(a) भारत में राजकोषीय घाटा अधिक हो गया था।
(b) भुगतान सन्तुलन लगातार प्रतिकूल हो गया था।
(c) विदेशी मुद्रा कोष में बहुत कमी आ गई थी।
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
नई आर्थिक नीति में उद्योग और व्यापार के लिए लाइसेंस के स्थान पर ……………. की नीति अपनाई है।
उत्तर-
उदारीकरण।

प्रश्न 13.
नई आर्थिक नीति में कोटा प्रणाली के स्थान पर . ………….. की नीति अपनाई गई।
उत्तर-
निजीकरण।

प्रश्न 14.
नई आर्थिक नीति में परमिट प्रणाली के स्थान पर ………….. नीति अपनाई गई।
उत्तर-
वैश्वीकरण।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 21 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति

प्रश्न 15.
नई आर्थिक नीति अथवा आर्थिक सुधारों में किस नीति को अपनाया गया ?
(a) उदारीकरण
(b) निजीकरण
(c) वैश्वीकरण
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 16.
पहली पीढ़ी (First Generation) के सुधारों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वह सुधार जो प्रशासनिक मशीनरी द्वारा साधारण रूप में चलाए जाते हैं और इन सम्बन्धी विधानक कारवाई की ज़रूरत नहीं होती।

प्रश्न 17.
दूसरी पीढ़ी (Second Generation) के सुधारों से क्या अभिप्राय है ? .
उत्तर-
वह सुधार जिनके लिए विधानक (कानूनी) कारवाई की आवश्यकता होती है उनको दूसरी पीढ़ी के सुधार कहा जाता है।

प्रश्न 18.
आर्थिक सुधारों का ऋणात्मक प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
आर्थिक सुधारों से विदेशी निवेश और तकनीक पर निर्भरता बढ़ जाती है। .

प्रश्न 19.
भारत में आर्थिक सुधारों का पहला चरण कब प्रारम्भ हुआ ?
(a) 1951
(b) 1971
(c) 1991
(d) 2011.
उत्तर-
(c) 1991.

प्रश्न 20.
भारत में आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण कब प्रारम्भ हुआ ?
उत्तर-
1999 में।

प्रश्न 21.
विश्व व्यापार संगठन (WTO) गैट (GATT) का उत्तराधिकारी है।
उत्तर-
सही।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
नई आर्थिक नीति (1991) क्यों आवश्यक हुई ?
उत्तर-
भारत में 1991 में आर्थिक सुधार की आवश्यकता इन कारणों से पड़ी-

  1. भारत में भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल था, जिस कारण विदेशी ऋण का भार बढ़ गया था।
  2. भारत में आर्थिक संकट था। राजकोषीय घाटा बहुत बढ़ गया था।
  3. इराक की जंग के कारण तेल की कीमतें तथा साधारण कीमत स्तर निरन्तर बढ़ गया था।
  4. भारत में सार्वजनिक क्षेत्र असफल हो गया था। बहुत से सार्वजनिक उद्योगों में हानि हो रही थी।

प्रश्न 2.
निजीकरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
नई आर्थिक नीति की एक विशेषता यह है कि निजीकरण का विस्तार किया गया है। सरकार द्वारा चलाए जाने वाले उद्योगों को निजी क्षेत्र में परिवर्तित किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय किए गए –
(1) सार्वजनिक क्षेत्र में 17 उद्योगों की जगह पर 4 उद्योग

  • सुरक्षा औज़ार
  • एटोमिक शक्ति
  • खाने
  • रेलवे सुरक्षित किए गए हैं। शेष सभी उद्योग निजी क्षेत्र के लिए खुले हैं।

(2) सार्वजनिक क्षेत्र की वर्तमान इकाइयों के शेयर निजी क्षेत्र में बेचे जाएंगे।
(3) अब वित्तीय संस्थाओं तथा उद्योगों में निजी निवेश किया जा सकेगा। इससे निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 45% से बढ़कर 55% हो जाएगी।

प्रश्न 3.
विनिवेश से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की बिक्री को विनिवेश कहा जाता है। आरम्भ में सरकार ने बीमार इकाइयां, जिन उद्योगों में हानि होती थी, उनको बेचने का निर्णय लिया। परन्तु धीरे-धीरे उद्योगों की कार्यकुशलता में वृद्धि करने के लिए बहुत-से अन्य उद्योगों का विनिवेश करना आरम्भ किया। इस प्रकार की प्रक्रिया आजकल चल रही है।

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प्रश्न 4.
वैश्वीकरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
नई आर्थिक नीति की एक विशेषता अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण है। वैश्वीकरण का अर्थ है एक अर्थव्यवस्था का शेष विश्व के देशों से उत्पादन, व्यापार तथा वित्तीय सम्बन्ध स्थापित करना तथा विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबन्ध हटाना। भारत में खुलेपन की नीति के लिए निम्नलिखित उपाय किए गए हैं-

  1. विदेशी निवेशक अब भारतीय कम्पनियों में 51% से 100% तक निवेश कर सकते हैं।
  2. व्यापार पर लगे प्रतिबन्ध 5 वर्षों में हटा दिए गए।
  3. विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए, विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड की स्थापना की गई है।

प्रश्न 5.
विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation-W.T.O.) क्या है?
उत्तर-
विश्व व्यापार संगठन (W.T.O.) की स्थापना 1 जून, 1995 में की गई। यह संगठन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि करने तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए स्थापित किया गया है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य व्यापार पर लगाए जाने वाले करों में कमी तथा अन्य रुकावटों को दूर करके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में मुकाबले की स्थिति उत्पन्न करना है जिससे विश्वभर के लोगों को लाभ प्राप्त हो सके। यह संस्था गैट (GATT) की उत्तराधिकारी है। विश्व व्यापार संगठन ने बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार से सम्बन्धित व्यापार तथा निवेश को शामिल करके अपने कार्य क्षेत्र को विशाल किया है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मुख्य आर्थिक सुधारों से क्या अभिप्राय है?
अथवा
नई आर्थिक नीति के अंश बताओ।
उत्तर-
भारत में जुलाई, 1991 से लागू किए विभिन्न नीति सम्बन्धों, उपायों तथा नीतियों से है, जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था में उत्पादकता तथा कुशलता में वृद्धि करके प्रतियोगी वातावरण तैयार करना है। इस नीति के अंश निम्नलिखित हैं –

  • देश में उद्योगों तथा व्यापार के लिए प्रचलित लाइसेंस नीति की जगह उदारीकरण की नीति को लागू करना।
  • उद्योगों में कोटा प्रणाली की जगह पर निजीकरण की नीति को लागू करना।
  • विदेशी नीति में परमिट की जगह पर वैश्वीकरण की नीति को लागू करना।

प्रश्न 2.
भारत में नई आर्थिक नीति उदारीकरण वाली है। इस सम्बन्ध में उठाए गए पग बताओ।
उत्तर-
भारत में नई आर्थिक नीति में अर्थव्यवस्था को सरकार के सीधे तथा भौतिक कन्ट्रोल से मुक्त किया गया है। इसको उदारीकरण (Liberalisation) वाली नीति कहा जाता है। इस सम्बन्धी निम्नलिखित पग उठाए गए हैं –

  1. ‘नई औद्योगिक नीति’ में उदारवादी नीति को अपनाया गया है, जिसकी घोषणा जुलाई, 1991 में की गई। सिगरेट, सुरक्षा, औज़ार, खतरनाक रसायन, दवाइयां, औद्योगिक ऊर्जा तथा शराब, इन 6 उद्योगों को छोड़कर शेष किसी उद्योग के लिए लाइसेंस लेने की आवश्यकता नहीं।
  2. अब एम० आर० टी० पी० (एकाधिकार तथा व्यापार रोक कानून) की धारणा को समाप्त किया गया है। अब किसी फ़र्म को निवेश सम्बन्धी निर्णय लेते समय सरकार की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं।
  3. लघु पैमाने के उद्योगों की निवेश सीमा एक करोड़ रु० की गई।
  4. मशीनों के आयात की स्वतन्त्रता दी गई।
  5. उच्च तकनीक वाले कम्प्यूटर तथा उपकरण के आयात की छूट दी गई।

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प्रश्न 3.
नई आर्थिक नीति के उद्देश्य लिखो।
उत्तर-

  • आर्थिक विकास की दर में तीव्रता से वृद्धि।
  • औद्योगिक क्षेत्र में प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करना।
  • निजी क्षेत्र द्वारा प्रतियोगिता से सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता में वृद्धि।
  • राजकोषीय घाटे में कमी तथा मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण।
  • आर्थिक समानता में कमी।

IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत की नई आर्थिक नीति की विशेषताएं बताओ। (Explain the features of New Economic Policy of India.)
उत्तर-
नई आर्थिक नीति की मुख्य विशेषताएं अनलिखित हैं-
1. उदारीकरण (Liberalisation)-नई आर्थिक नीति की प्रथम विशेषता उदारीकरण की नीति का अपनाना है। उदारीकरण से अभिप्राय उद्योगों तथा व्यापार को सरकार की अनावश्यक पाबंदियों से मुक्त करवाना है, जिस व्यापार उदारीकरण से कोरिया, सिंगापुर इत्यादि अल्पविकसित देशों ने आर्थिक विकास किया है, उसी तरह भारत भी आर्थिक विकास कर सकता है। इस उद्देश्य के लिए 6 उद्योगों को छोड़कर शेष उद्योगों के लिए लाइसेंस लेने की नीति समाप्त की गई। नई नीति में पंजीकरण (Registration) योजनाएं समाप्त की गई हैं।

2. निजीकरण (Privatisation)-जो उद्योग प्रथम सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, उनको निजी क्षेत्र के लिए छीनने की नीति को निजीकरण की नीति कहा जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र की असफलता को देखते हुए सरकार ने निजीकरण को आंशिक अथवा पूर्ण रूप में अपनाया है, इस नीति को (U Turn) का नाम दिया गया है अर्थात् सार्वजनिक उद्योगों का निजीकरण करना।

3. वैश्वीकरण (Globalisation)-एक देश का दूसरे देशों से मुक्त व्यापार, पूंजी आदान-प्रदान तथा मनुष्यों की गतिशीलता को वैश्वीकरण कहा जाता है। इसका उद्देश्य विदेशी पूंजी का प्रयोग करके विश्व अर्थव्यवस्था को शक्तिशाली बनाना है। विदेशी व्यापार को उत्साहित करके विदेशी निवेश में वृद्धि करना तथा मानवीय पूंजी का एक देश से दूसरे देशों में प्रयोग करना, वैश्वीकरण मनुष्य का मुख्य उद्देश्य है।

4. राजकोषीय सुधार (Fiscal Reforms)-राजकोषीय सुधार भी नई आर्थिक नीति की विशेषता है। इस नीति में सरकार अपनी आय में वृद्धि करके व्यय में कमी करने का यत्न करेगी ताकि देश में उत्पादन तथा आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव न पड़े। इस उद्देश्य के लिए कर प्रणाली में सुधार किए गए हैं। आयातनिर्यात कर घटाए गए हैं। उत्पादन कर में कमी की गई है।

5. मौद्रिक सुधार (Monetary Reforms)-भारत में नई आर्थिक नीति अनुसार मौद्रिक नीति में परिवर्तन किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य कीमत स्तर को स्थिर रखना है। सरकार ने इस उद्देश्य के लिए नरसिंगम कमेटी ने मौद्रिक सुधारों के लिए सिफ़ारिशें कीं, जिनको लागू किया गया है। इस उद्देश्य के लिए नकद रिज़र्व अनुपात (C.R.R.) को घटाकर 5% किया गया है। ब्याज की दर, मांग तथा पूर्ति अनुसार निश्चित की जाएगी। बैंकों को कार्य करने की स्वतन्त्रता दी गई है।

6. सार्वजनिक क्षेत्र नीति (Public Sector Policy)-सार्वजनिक क्षेत्र को भारत की स्वतन्त्रता के समय आर्थिक विकास का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया था। परन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में असफलता के कारण अब सरकार ने 6 उद्योगों को इस क्षेत्र के लिए रिज़र्व रखा है, बाकी के उद्योग निजी क्षेत्र को बेच दिए जाएंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के बहुत से उद्योगों का विनिवेश कर दिया जाएगा। इस क्षेत्र के शेयर वित्तीय संस्थाओं, साधारण लोगों तथा श्रमिकों को बेचे जाएंगे।

प्रश्न 2.
भारत की नई आर्थिक नीति के पक्ष में तर्क दो। (Give arguments in favour of New Economic Policy of India.)
उत्तर-
नई आर्थिक नीति में जो सुधार किए गए हैं, उसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं –
1. आर्थिक विकास की दर में वृद्धि-भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् 1951 से 1991 तक आर्थिक विकास की दर में वृद्धि 3.6% वार्षिक थी, जबकि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि 1.4% थी। 1991: 2009 तक विकास दर 7.2% वार्षिक हो गई। इससे स्पष्ट है कि आर्थिक सुधारों के कारण आर्थिक विकास में वृद्धि हुई है। 2017-18 में विकास दर 7.4% प्राप्त की गई।

2. औद्योगिक क्षेत्र की प्रतियोगिता में वृद्धि-औद्योगिक क्षेत्र की प्रतियोगिता में वृद्धि के लिए भी आर्थिक सुधार आवश्यक हैं। भारत के उद्योगों में उत्पादन लागत अधिक होने के कारण इनको सुरक्षा प्रदान की गई। इससे उद्योगों में मुकाबला करने की शक्ति बहुत घट गई। परिणामस्वरूप भारत का विदेशी व्यापार 1951 में विश्व व्यापार का 2% हिस्सा था, यह 1991 में घटकर 0.5 प्रतिशत रह गया। 2017-18 में भारत में विदेशी व्यापार 1.6% हो गया है। इसलिए आर्थिक सुधारों की आवश्यकता थी।

3. गरीबी तथा असमानता में कमी-भारत में गरीबी, असमानता तथा बेरोज़गारी की समस्या को योजनाओं द्वारा दूर नहीं किया जा सका। नई नीति द्वारा मानवीय साधनों का विकास करके रोज़गार तथा उत्पादन में वृद्धि करके लोगों की गरीबी को दूर करना भी इसका उद्देश्य है।

4. राजकोषीय घाटे तथा मुद्रास्फीति में कमी-भारत में राजकोषीय घाटा 1990-91 में 8.5% हो गया था। इससे देश में मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो गई। सरकार को आन्तरिक तथा बाहरी ऋण लेना पड़ा। नई नीति द्वारा राजकोषीय घाटे पर काबू पाकर मुद्रा स्फीति में कमी सम्भव होगी।

5. सार्वजनिक उद्यमों की कार्यकुशलता में वृद्धि-सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में कार्यकुशलता तथा उत्पादकता में बहुत कमी है। नई आर्थिक नीति से सार्वजनिक क्षेत्र के दोष दूर करके इनकी कार्यकुशलता में वृद्धि की जाएगी। इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक उद्यमों की प्रतियोगिता शक्ति बढ़ जाएगी।

प्रश्न 3.
भारत की नई आर्थिक नीति के विपक्ष में तर्क दीजिए। (Give arguments Against New Economic Policy of India.)
उत्तर-
नई आर्थिक नीति के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क देकर इसकी आलोचना की गई है –

  1. कृषि को कम महत्त्व-भारत में नई आर्थिक नीति में उद्योगों के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया गया है। कृषि उत्पादन क्षेत्र के विकास की ओर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। भारत में कृषि के विकास के बिना आर्थिक विकास प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  2. विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दबाव-भारत में खुले बाज़ार की नीति को अपनाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं जैसे कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.) तथा विश्व बैंक (World Bank) ने उदारीकरण की नीति अपनाने के लिए दबाव पाया, जिस कारण यह नीति अपनाई गई। भारत को इन संस्थाओं से ऋण प्राप्त होता है। इसलिए नई आर्थिक नीति अपनाई गई।
  3. विदेशी ऋण तथा तकनीक पर अधिक निर्भरता-नई आर्थिक नीति की आलोचना में कहा जाता है कि विदेशी ऋण पर भारत की निर्भरता बढ़ गई है। विदेशी तकनीक का आयात अनिवार्य हो गया है, क्योंकि भारत में उद्योगों की प्रतियोगिता शक्ति को आधुनिक तकनीकों के बगैर बढ़ाया नहीं जा सकता। विदेशी ऋण तथा तकनीकों पर निर्भरता देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
  4. निजीकरण को अधिक महत्त्व-निजीकरण की नीति को नई आर्थिक नीति में आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र में रोज़गार के अधिक अवसर प्रदान किए जाते थे। निजीकरण द्वारा एकाधिकारी शक्तियों का विकास होगा, जिस द्वारा लोगों का शोषण किया जाएगा। बेरोज़गारी, काला धन, भ्रष्टाचार, श्रमिक शोषण, धन असमानता इत्यादि की बुराइयां उत्पन्न हो जाएंगी।
  5. अनिवार्य वस्तुओं की कमी-नई आर्थिक नीति द्वारा आरामदायक तथा विलास वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि होगी। स्कूटर, कारें, टेलीविज़न इत्यादि वस्तुओं की पैदावार बढ़ जाएगी, परन्तु अनिवार्य उपभोक्ता वस्तुएं तथा सामाजिक भलाई के लिए पैदावार में कमी आएगी। इससे गरीब लोगों के कष्ट में वृद्धि होगी।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 21 1991 से आर्थिक सुधार अथवा नई आर्थिक नीति

प्रश्न 4.
भारत की नई आर्थिक नीति (1991) की विशेषताएं बताओ। (Explain the main features of New Economic Policy of India.)
उत्तर-
भारत में 1991 में नई आर्थिक नीति अनुसार उदारीकरण की नीति अपनाई गई। इस उद्देश्य के लिए भारत सरकार ने 24 जुलाई, 1991 को नई औद्योगिक नीति की घोषणा की। इस नीति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1. लाइसेंस की समाप्ति-उद्योगों को राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रतियोगी बनाने के लिए 6 उद्योगों को छोड़कर बाकी उद्योगों को स्थापित करने के लिए लाइसेंस समाप्त किया गया।
भारत में-

      • शराब
      • सिगरेट
      • सुरक्षा उपकरण

(4) ख़तरनाक रसायन तथा (5) दवाइयों को छोड़कर शेष उद्योगों को लाइसेंस देने की आवश्यकता नहीं।

2. पंजीकरण की समाप्ति-नई औद्योगिक नीति के अनुसार नए उद्योग स्थापित करने अथवा उद्योगों में उत्पादन के विस्तार के लिए सरकारी आज्ञा की कोई आवश्यकता नहीं। सरकार को केवल सूचना ही देनी पड़ेगी।

3. सार्वजनिक क्षेत्र का संकुचन-सार्वजनिक क्षेत्र के लिए कुल 8 उद्योग सुरक्षित रखे गए हैं, जैसे कि परमाणु ऊर्जा, रेलवे, खानें, सैनिक साजो सामान इत्यादि, शेष सभी क्षेत्र में धीरे-धीरे निजी क्षेत्र को उत्पादन के अधिकार दिए जाएंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के शेयर साधारण जनता तथा श्रमिकों में बेचकर इन उद्योगों की कार्यकुशलता में वृद्धि की जाएगी।

4. विदेशी पूंजी-नई नीति में विदेशी पूंजी निवेश सीमा 40% से बढ़ाकर 51% कर दी गई है। इस सम्बन्ध में विदेशी मुद्रा नियमन कानून (FERA) में आवश्यक संशोधन किया जाएगा। विदेशी पूंजी सम्बन्धी देश का केन्द्रीय बैंक, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया, पूरी नज़र रखेगा।

5. बोर्डों का गठन-विदेशी पूंजी के सम्बन्ध में चुने हुए क्षेत्रों में निवेश करने के लिए विशेष अधिकार प्राप्त बोर्डों की स्थापना की गई है। यह बोर्ड बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से बातचीत करके पूंजी लगाने के लिए अनिवार्य पग उठाएगा।

6. लघु उद्योगों को सुरक्षा-नई नीति में लघु उद्योगों की निवेश सीमा एक करोड़ रु० की गई है। इन उद्योगों द्वारा कुछ वस्तुओं के उत्पादन को सुरक्षित रखा जाएगा; जिनका उत्पादन बड़े उद्योग नहीं कर सकेंगे।

7. एकाधिकारी कानून से छूट- एकाधिकारी कानून के अधीन आने वाली कम्पनियों को भारी छूट दी गई है। अब निवेश की सीमा समाप्त की गई है। उद्यमी बिना परमिट नए उद्योग स्थापित कर सकेंगे। इस नीति में लाइसेंस की समाप्ति तथा एकाधिकारी कम्पनियों पर रोक हटा ली गई है। इसका मुख्य उद्देश्य विदेशी पूंजी को उत्साहित करके देश के उद्योगों का विकास करना है।

प्रश्न 5.
विश्व व्यापार संगठन (W.T.O.) पर नोट लिखो। भारतीय अर्थव्यवस्था पर विश्व व्यापार संगठन का प्रभाव स्पष्ट करो।
(Write a note on World Trade Organization (W.T.O.). Explain the effects of World Trade Organization on Indian Economy.)
उत्तर-
विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation-W.T.O.) की स्थापना 1 जून, 1995 को हुई। यह अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है, जोकि गैट (GATT) की बैठकों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं तथा सेवाओं के आयात-निर्यात में आने वाली रुकावटों को दूर करके, विदेशी निवेश के अवसरों में वृद्धि करना, व्यापार सम्बन्धी बुद्धिजीवी संपदा अधिकार (TRIPS) तथा व्यापार सम्बन्धित निवेश उपायों (TRIMS) का विस्तार करना है। इस संगठन के मुख्य उद्देश्य हैं-

  • वस्तुओं को मुक्त प्रवाह की आज्ञा देने के लिए रुकावटें दूर करना।
  • पूंजी के मुक्त प्रवाह के लिए प्रेरक वातावरण तैयार करके निवेश में वृद्धि करना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रतियोगिता की स्थिति उत्पन्न करके उपभोक्ताओं को कम लागत पर वस्तुएं उपलब्ध करवाना।
  • विश्व के विभिन्न देशों को विश्व व्यापार में बुद्धिजीवी सम्पदा तथा व्यापार सम्बन्धित निवेश के लिए अधिक अवसर प्रदान करना।

विश्व व्यापार संगठन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव-
(Effects of World Trade Organisation on Indian Economy)
A. अनुकूल प्रभाव (Favourable Effects)

  1. निर्यात प्रोत्साहन-विश्व व्यापार संगठन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए निर्यात के अधिक अवसर प्रदान करेगा। इससे भारत का विदेशी व्यापार, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अधिक योगदान डाल सकेगा।
  2. विकसित देशों की कोटा प्रणाली की समाप्ति-विश्व व्यापार संगठन द्वारा विकसित देशों द्वारा अपनाई जाने वाली कोटा प्रणाली को समाप्त किया जाएगा। इससे भारत के कपड़े के निर्यात में वृद्धि होगी।
  3. कृषि को विकसित देशों द्वारा कम सहायता-विश्व व्यापार संगठन की शर्ते लागू होने से विकसित देश कृषि क्षेत्र को कम सहायता प्रदान कर सकेंगे। इससे भारत में से कृषि पदार्थों के निर्यात में वृद्धि होगी।

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B. प्रतिकूल प्रभाव (Unfavourable Effects) –

  1. श्रम बाज़ार प्रति पक्षपात-विश्व व्यापार संगठन द्वारा पूंजी बाज़ार की ओर अधिक ध्यान दिया जा रहा है, जबकि श्रम बाज़ार से पक्षपात की नीति अपनाई जा रही है। संगठन अनुसार पूंजी का निवेश एक देश द्वारा दूसरे देशों में बिना रुकावट किया जा सकता है। परन्तु श्रम बाज़ार में ऐसी स्वतन्त्रता नहीं होगी। इससे भारत जैसे कम विकसित देशों को हानि होगी।
  2. लघु पैमाने के उद्योगों पर बुरा प्रभाव-विश्व व्यापार संगठन बड़े पैमाने के उद्योगों तथा लघु पैमाने के उद्योगों में भिन्नता नहीं करता। इस कारण लघु पैमाने के उद्योगों को न सिर्फ देश में बड़े पैमाने के उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से प्रतियोगिता करनी पड़ेगी, बल्कि विदेशी उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का मुकाबला भी करना पड़ेगा। इससे अगरबत्ती, आइसक्रीम, मिनरल वाटर इत्यादि उद्योग नष्ट हो जाएंगे।
  3. विकसित देशों के दोहरे मापदण्ड-अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि विकसित देशों द्वारा दोहरे मापदण्ड अपनाए जाते हैं। एक ओर अमेरिका अपने किसानों को बहुत अधिक सब्सिडी देता है। भारत से निर्यात कपड़ों पर बहुत अधिक कर लगाया जाता है। भारत से निर्यात दुशालें, रसायन, सिले-सिलाए कपड़े इत्यादि पर पाबंदी लगाई जाती है, क्योंकि ये वस्तुएं बच्चों द्वारा उत्पादित की जा सकती हैं। इसी तरह जापान से निर्यात किए जाने वाले लोहा तथा इस्पात पर पाबन्दी लगाई हुई है। इस प्रकार के दोहरे मापदण्डों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।