PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

अब्दुस समद स्वाँ 1713-26 ई० (Abdus Samad Khan 1713-26 A.D.)

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिखों की दशा कैसी थी ? अब्दुस समद खाँ ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया ?
(What was the condition of the Sikhs after the martyrdom of Banda Singh Bahadur ? How did Abdus Samad Khan tackle the Sikhs ?)
अथवा
अब्दुस समद खाँ ने 1713-1716 तक सिखों की शक्ति कुचलने के लिए क्या कदम उठाए ?
(What steps were taken by Abdus Samad Khan to crush the powers of the Sikhs during 1713-1726 ?)
अथवा
अब्दुस समद खाँ के सिखों के साथ 1713 से 1726 तक कैसे संबंध थे ? (What were the relations of the Sikhs with Abdus Samad Khan during 1713 to 1726 ?)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ को 1713 ई० में मुग़ल सम्राट फर्रुखसियर द्वारा लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया गया था। उसे इस उद्देश्य से इस पद पर नियुक्त किया गया था कि वह पंजाब में सिखों की शक्ति का पूर्णत: दमन कर दे। उसने बंदा सिंह बहादुर को बंदी बना लिया और उसे दिल्ली लाकर 1716 ई० में शहीद कर दिया। फर्रुखसियर अब्दुस समद खाँ की इस कार्यवाई से बहुत प्रसन्न हुआ। अब्दुस समद खाँ के सिखों के साथ संबंधों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—
1. फर्रुखसियर का आदेश (Farrukhsiyar Edict)-1716 ई० में मुग़ल सम्राट् फर्रुखसियर ने एक शाही आदेश जारी किया। इसमें मुग़ल अधिकारियों को यह आदेश दिया कि जो भी सिख तम्हारे हाथ लगे, उसकी हत्या कर दो। सिखों को सहायता अथवा शरण देने वालों को भी यही सज़ा दी जाए। यदि कोई व्यक्ति सिखों को बंदी बनाने में सरकार की सहायता करे तो उसे पुरस्कार दिया जाए।

2. अब्दुस समद खाँ द्वारा सिखों के विरुद्ध उठाए गए पग (Steps taken by Abdus Samad Khan against the Sikhs)—शाही आदेश के जारी होने के पश्चात् अब्दुस समद खाँ ने सिखों पर घोर अत्याचार आरंभ कर दिए। सैंकड़ों निर्दोष सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाकर लाहौर लाया जाता। जल्लाद इन सिखों को घोर यातनाएँ देने के पश्चात् शहीद कर देते। अब्दुस समद खाँ की इस कठोर नीति से बचने के लिए बहुत-से सिखों ने लक्खी वन और शिवालिक पर्वत में जाकर शरण ली। इस प्रकार अपने शासनकाल के आरंभिक कुछ वर्षों में अब्दुस समद खाँ की सिखों के विरुद्ध दमनकारी नीति बहुत सफल रही। इससे प्रसन्न होकर फर्रुखसियर ने उसे ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया।

3. सिखों में फूट (Split among the Sikhs)—बंदा सिंह बहादुर के बलिदान के पश्चात् सिख परस्पर फूट का शिकार हो गए। वे तत्त खालसा और बंदई खालसा नामक दो मुख्य संप्रदायों में विभाजित हो गए। तत्त खालसा गुरु गोबिंद सिंह जी के धार्मिक सिद्धांतों के दृढ़ समर्थक थे। बंदई खालसा बंदा सिंह बहादुर को अपना नेता मानने लगे थे। तत्त खालसा वाले आपस में मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फतह’ कहते थे जबकि बंदई खालसा ‘फतह धर्म और फतह दर्शन’ शब्दों का प्रयोग करते थे। तत्त खालसा वाले नीले रंग के वस्त्र धारण करते थे जबकि बंदई खालसा वाले लाल रंग के। दोनों संप्रदायों के बीच परस्पर मतभेद दिन प्रतिदिन बढ़ते गए। फलस्वरूप सिख अब्दुस समद खाँ के अत्याचारों का संगठित होकर सामना न कर पाए।

4. परिस्थितियों में परिवर्तन (Change in Circumstances)-1720 ई० के पश्चात् परिस्थितियों में कुछ परिवर्तन आए और सिखों की स्थिति में सुधार होने लगा। शाही दरबार षड्यंत्रों का अड्डा बन कर रह गया था। परिणामस्वरूप केंद्रीय सरकार सिखों की ओर अपना वाँछित ध्यान न दे पाई। पंजाब में अब्दुस समद खाँ भी ईसा खाँ और हुसैन खाँ के विद्रोहों का दमन करने में उलझ गया। भाई मनी सिंह जी ने बैसाखी के अवसर पर 1721 ई० में अमृतसर में तत्त खालसा और बंदई खालसा में परस्पर समझौता करवा दिया । परिणामस्वरूप सिख फिर से एक हो गए।

5. सिखों की कार्यवाहियाँ (Activities of the Sikhs) स्थिति में परिवर्तन आने से सिखों में एक नया जोश पैदा हुआ। उन्होंने सौ-सौ सिखों के जत्थे बना लिए और मुग़ल प्रदेशों में लूटपाट आरंभ कर दी। उन्होंने उन हिंदुओं और मुसलमानों को दंड देना आरंभ कर दिया था जिन्होंने सिखों, उनकी स्त्रियों और बच्चों को मुग़लों के सुपुर्द कर दिया था। अब्दुस समद खाँ ने सिखों को सबक सिखाने के लिए असलम खाँ के अधीन कुछ सेना अमृतसर भेजी। सिखों ने इस सेना पर अचानक आक्रमण करके उसे कड़ी पराजय दी। इस लड़ाई में असलम खाँ को लड़ाई का मैदान छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ा।

6. अब्दुस समद खाँ की असफलता (Failure of Abdus Samad Khan)-अब्दुस समद खाँ अपने सभी प्रयासों के बावजूद सिखों का दमन करने में विफल रहा। इसके कई कारण थे। पहला, अब्दुस समद खाँ अब बूढ़ा होने लगा था। दूसरा, सिखों में परस्पर एकता स्थापित हो गई थी। तीसरा, अब्दुस समद खाँ को मुग़ल अधिकारियों के षड्यंत्रों का शिकार होना पड़ा। चौथा, उसे केंद्र से पर्याप्त सहायता न प्राप्त हुई। 1726 ई० में अब्दुस समद खाँ को पदच्युत कर दिया गया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध 1
MARTYRDOM OF BHAI MANI SINGH JI

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

जकरिया रवाँ 1726-45 ई० (Zakariya Khan 1726-45 A.D.)

प्रश्न 2.
सिखों की शक्ति कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या पग उठाए ? उसके प्रयासों से उसे कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई ?
(What measures were adopted by Zakariya Khan to crush the powers of the Sikhs ? How far did he succeed in his efforts ?)
अथवा
जकरिया खाँ के राज्यकाल में सिखों के कत्लेआम का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe briefly the persecution of the Sikhs in the reign of Zakariya Khan.)
अथवा
जकरिया खाँ के सिखों के साथ संबंधों की चर्चा करें।
(Discuss the relations of Zakariya Khan with the Sikhs.)
अथवा
जकरिया खाँ के सिखों के साथ निपटने के लिए किस प्रकार के प्रयत्न किए ? (How did Zakariya Khan treat with the Sikhs ?)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या कदम उठाए ? उसे अपने प्रयत्नों में किस प्रकार सफलता मिली ?
(What measures were adopted by Zakariya Khan to crush the power of the Sikhs ? How far did he succeed in his efforts ?)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ के बाद उनका पुत्र जकरिया खाँ लाहौर का सूबेदार बना था। वह इस पद पर 1726 ई० से 1745 ई० तक रहा। जकरिया खाँ के शासनकाल तथा उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाइयाँ (Harsh measures against the Sikhs)—जकरिया खाँ ने पद संभालते ही सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए 20,000 सैनिकों को भर्ती किया। गाँवों के मुकद्दमों तथा चौधरियों को यह आदेश दिया गया कि वे सिखों को अपने क्षेत्र में शरणं न दें। जकरिया खाँ ने यह घोषणा की कि किसी सिख के संबंध में सूचना देने वाले को 10 रुपये, बंदी बनवाने वाले को 25 रुपए, बंदी बनाकर सरकार के सुपुर्द करने वाले को 50 रुपए और सिर काटकर सरकार को भेंट करने वाले को 100 रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा। इस प्रकार सिखों पर अत्याचारों का दौर पुनः आरंभ हो गया। सैंकड़ों सिखों को लाहौर के दिल्ली गेट में शहीद किया जाने लगा। इसके कारण इस स्थान का नाम ही ‘शहीद गंज’ पड़ गया।

2. भाई तारा सिंह जी वाँ का बलिदान (Martyrdom of Bhai Tara Singh Ji Van)-भाई तारा सिंह जी अमृतसर जिला के गाँव वाँ का निवासी था। उसने बंदा सिंह बहादुर की लड़ाइयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नौशहरा का चौधरी साहिब राय सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता था। जब सिख इस बात पर आपत्ति उठाते तो वह सिखों का अपमान करता। भाई तारा सिंह जी वाँ के लिए यह बात असहनीय थी। एक दिन उसने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़कर बेच दिया और मिले हुए पैसों को लंगर के लिए दे दिया। इस पर सिखों को सबक सिखाने दे. लिए साहिब राय ने जकरिया खाँ से सहायता की माँग की तो जकरिया खाँ ने 2200 घुड़सवार सिखों के विरुद्ध भेजे। भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके 22 साथी मुग़लों का सामना करते हुए शहीद हो गए। परंतु इससे पूर्व उन्होंने 300 मुगल सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया था। एस० एस० सीतल के शब्दों में,
“उस (तारा सिंह) के बलिदान का सिखों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा।”1

3. सिखों की जवाबी.कार्यवाइयाँ (Retaliatory measures of the Sikhs)-भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके साथियों के बलिदान ने सिखों में एक नया जोश पैदा किया। उन्होंने गुरिल्ला युद्धों द्वारा सरकारी कोषों को लूटना आरंभ कर दिया। उन्होंने कई स्थानों पर आक्रमण करके सरकार के पिठुओं को मार डाला। जब जकरिया खाँ इन सिखों के विरुद्ध अपने सैनिकों को भेजता तो वे झट वनों और पहाड़ों में जा छुपते।

4. हैदरी ध्वज की घटना (Incident of Haidri Flag) जकरिया खाँ ने सिखों का अंत करने के लिए विवश होकर जेहाद का नारा लगाया। हजारों की संख्या में मुसलमान इनायत उल्ला खाँ के ध्वज तले एकत्रित हो गए। उन्हें ईद के शुभ दिन एक हैदरी ध्वज दिया गया और यह कहा गया कि इस ध्वज तले लड़ने वालों को अल्ला अवश्य विजय देगा। परंतु एक दिन लगभग 7 हज़ार सिखों ने इन गाज़ियों पर अचानक आक्रमण करके हज़ारों गाज़ियों की हत्या कर दी। इस घटना से सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा।

5. जकरिया खाँ का सिखों से समझौता (Agreement of Zakariya Khan with the Sikhs) अब ज़करिया खाँ ने सिखों को प्रसन्न करने की नीति अपनाई। उसने 1733 ई० में घोषणा की कि यदि सिख सरकार विरोधी कार्यवाइयों को बंद कर दें तो उन्हें एक लाख रुपए वार्षिक आय वाली एक जागीर व उनके नेता को ‘नवाब’ की उपाधि दी जाएगी। पहले तो सिख इस समझौते के विरुद्ध थे, परंतु बाद में उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। सिखों ने नवाब की उपाधि सरदार कपूर सिंह फैज़लपुरिया को दी।

6. बुड्डा दल एवं तरुणा दल का गठन (Formation of Buddha Dal & Taruna Dal)-मुग़लों से समझौता हो जाने पर नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे पुन: अपने घरों में लौट आएं। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्हें दो जत्थों में संगठित कर दिया। ये जत्थे थेबुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्ष से बड़ी आयु के सिखों को शामिल किया गया तथा तरुणा दल में उससे कम आयु वाले सिखों को। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में विभाजित किया गया था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देख-रेख करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का सामना करता था।

7. मुग़लों और सिखों के बीच पुनः संघर्ष (Renewed Struggle between the Mughals and the. Sikhs)-अपनी शक्ति को संगठित करने के बाद सिखों ने अपनी सैनिक कार्यवाइयों को फिर से आरंभ कर दिया। उन्होंने शाही खजाने को लुटना आरंभ कर दिया था। अतः जकरिया खाँ ने क्रोधित होकर सिखों को दी गई जागीर को 1735 ई० में ज़ब्त कर लिया। सिखों के विरुद्ध पुनः कड़ी सैनिक कार्यवाई के आदेश दिए गए। परिणामस्वरूप. सिख वनों की ओर चले गए। इस अवसर का लाभ उठाकर मुग़लों ने हरिमंदिर साहिब पर अधिकार कर लिया।

8. भाई मनी सिंह जी का बलिदान (Martyrdom of Bhai Mani Singh Ji)-भाई मनी सिंह जी 1721 ई० से हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी चले आ रहे थे। उन्होंने जकरिया खाँ को यह निवेदन किया कि यदि वह सिखों को दीवाली के अवसर पर हरिमंदिर साहिब आने की अनुमति दे तो वे 5,000 रुपए भेंट करेंगे। जकरिया खाँ ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। परंतु सिख अमृतसर में एकत्रित हो ही रहे थे, कि जकरिया खाँ के सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर दिया और कई निर्दोष सिखों को शहीद कर दिया। फलस्वरूप हरिमंदिर साहिब में दीवाली का उत्सव न मनाया जा सका। जकरिया खाँ ने भाई मनी सिंह जी से 5,000 रुपए की माँग की। भाई मनी सिंह जी यह पैसा देने में असमर्थ रहे अतः उन्हें बंदी बनाकर लाहौर भेज दिया गया। भाई साहिब को इस्लाम ग्रहण करने को कहा गया, परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें 1738 ई० में निर्ममतापूर्वक शहीद कर दिया गया। इस घटना से सिखों में रोष की लहर दौड़ गई। प्रसिद्ध इतिहासकार खुशवंत सिंह के विचारानुसार,
“पवित्र एवं पूज्य योग मुख्य पुजारी (भाई मनी सिंह) के बलिदान के कारण सिख भड़क उठे।”2

9. सिखों का नादिरशाह को लूटना (Sikhs robbed Nadir Shah)-1739 ई० में नादिरशाह दिल्ली में भारी लूटपाट करके पंजाब से होता हुआ वापिस ईरान जा रहा था। जब सिखों को यह सूचना मिली तो उन्होंने आक्रमण करके उसका बहुत-सा खज़ाना लूट लिया। नादिरशाह ने जकरिया खाँ को यह चेतावनी दी कि शीघ्र ही सिख पंजाब के शासक होंगे।

10. जकरिया खाँ द्वारा सिखों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाइयाँ (Strong actions against the Sikhs by Zakariya Khan) नादिरशाह की चेतावनी का जकरियाँ खाँ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सिखों के विनाश के लिए अनेक पग उठाए। सिखों का पुनः प्रतिदिन बड़ी निर्दयता से शहीद किया जाने लगा। कुछ प्रमुख शहीदों का वर्णन इस प्रकार है

i) भाई बोता सिंह जी (Bhai Bota Singh Ji)—जकरियाँ खाँ ने असंख्य सिखों को शहीद करने के पश्चात् यह घोषणा की कि उसने सिखों का नामो-निशान मिटा दिया है। सिखों का अस्तित्व दर्शाने के लिए भाई बोता सिंह जी ने सराय नूरदीन में एक चौंकी स्थापित कर ली और वहाँ चुंगीकर लेना आरंभ कर दिया। जकरिया खाँ ने उसे गिरफ्तार करने के लिए कुछ सेना भेजी। भाई बोता सिंह जी शत्रुओं का डटकर सामना करते हुए शहीद हो गए।

ii) भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी (Bhai Mehtab Singh Ji and Bhai Sukha Singh Ji) अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव का चौधरी मस्सा रंघड़ हरिमंदिर साहिब की पवित्रता को भंग कर रहा था। इस कारण सिख उसे एक सबक सिखाना चाहते थे। एक दिन भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सखा सिंह जी कुछ बोरियों में पत्थर भर कर तथा ऊपर कुछ सिक्के रखकर हरिमंदिर साहिब पहुँच गए। सैनिकों द्वारा पूछने पर उन्होंने बताया कि वह लगान उगाह कर लाए हैं । मस्सा रंघड़ सिक्कों से भरी बोरियाँ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। जैसे ही वह ये बोरियाँ लेने नीचे झुका उसी समय भाई मेहताब सिंह जी ने तलवार के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर। बाद में मुग़लों ने भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी को बंदी बनाकर 1740 ई० . में बड़ी निर्दयता से शहीद कर दिया गया।

iii) बाल हकीकत राय जी (Bal Haqiqat Rai Ji)—बाल हकीकत राय जी स्यालकोट का रहने वाला था। एक दिन कुछ मुसलमान लड़कों ने हिंदू देवी-देवताओं के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। बाल हकीकत राय जी यह सहन न कर सके। उसने हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में कुछ अनुचित शब्द कहे। इस पर बाल .हकीकत राय जी पर मुकद्दमा चलाया गया तथा मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई। यह घटना 1742 ई० की है। इस घटना के कारण लोगों ने ज़ालिम मुग़ल शासन का अंत करने का प्रण लिया।

iv) भाई तारू सिंह जी (Bhai Taru Singh Ji)—भाई तारू सिंह जी माझा क्षेत्र के पूहला गाँव के निवासी थे। वह अपनी आय से अक्सर सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था । जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को लाहौर बुलाकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वह किसी भी मूल्य पर सतगुरु की दी हुई पवित्र दात केशों को नहीं दे सकते। हाँ वह अपने केश अपनी खोपड़ी सहित उतरवा सकते हैं। इस पर जल्लादों ने भाई तारू सिंह की खोपड़ी उतार दी। यह घटना 1745 ई० की है। जब भाई साहिब जी की खोपड़ी उतारी जा रही थी तो वह जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। इस अद्वितीय बलिदान ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न कर दिया।

11. जकरिया खाँ की मृत्यु (Death of Zakariya Khan) जकरिया खाँ ने निस्संदेह अपने शासन काल में सिखों पर घोर अत्याचार किए। वह अपने अथक प्रयत्नों के बावजूद सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। जकरिया खाँ की 1 जुलाई, 1745 ई० को मृत्यु हो गई। पतवंत सिंह का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“किसी ने भी सिखों का इससे अधिक उत्साह के साथ दमन नहीं किया जितना कि जकरिया खाँ ने।”3

1. “The news of his martyrdom, deeply moved the feelings of the Sikhs.” S.S. Seetal, Rise of the Sikh Power in the Punjab (Ludhiana : 1982) p. 166. .
2. “The killing of the pious and venerable head priest caused deep resentment among the Sikhs.” . Khushwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1989) Vol. 1, p. 237.
3. “No one persecuted the Sikhs with greater zeal than Zakariya Khan.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 83.
याहिया रवाँ 1746-47 ई० (Yahiya Khan 1746 – 47 A.D.)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

प्रश्न 3.
संक्षेप में अब्दुस समद खाँ तथा जकरिया खाँ के सिखों के साथ संबंधों की चर्चा करें।
(Briefly describe the relations of Abdus Samad Khan and Zakariya Khan with the Sikhs.)
उत्तर-
1. सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाइयाँ (Harsh measures against the Sikhs)—जकरिया खाँ ने पद संभालते ही सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए 20,000 सैनिकों को भर्ती किया। गाँवों के मुकद्दमों तथा चौधरियों को यह आदेश दिया गया कि वे सिखों को अपने क्षेत्र में शरणं न दें। जकरिया खाँ ने यह घोषणा की कि किसी सिख के संबंध में सूचना देने वाले को 10 रुपये, बंदी बनवाने वाले को 25 रुपए, बंदी बनाकर सरकार के सुपुर्द करने वाले को 50 रुपए और सिर काटकर सरकार को भेंट करने वाले को 100 रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा। इस प्रकार सिखों पर अत्याचारों का दौर पुनः आरंभ हो गया। सैंकड़ों सिखों को लाहौर के दिल्ली गेट में शहीद किया जाने लगा। इसके कारण इस स्थान का नाम ही ‘शहीद गंज’ पड़ गया।

2. भाई तारा सिंह जी वाँ का बलिदान (Martyrdom of Bhai Tara Singh Ji Van)-भाई तारा सिंह जी अमृतसर जिला के गाँव वाँ का निवासी था। उसने बंदा सिंह बहादुर की लड़ाइयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नौशहरा का चौधरी साहिब राय सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता था। जब सिख इस बात पर आपत्ति उठाते तो वह सिखों का अपमान करता। भाई तारा सिंह जी वाँ के लिए यह बात असहनीय थी। एक दिन उसने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़कर बेच दिया और मिले हुए पैसों को लंगर के लिए दे दिया। इस पर सिखों को सबक सिखाने दे. लिए साहिब राय ने जकरिया खाँ से सहायता की माँग की तो जकरिया खाँ ने 2200 घुड़सवार सिखों के विरुद्ध भेजे। भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके 22 साथी मुग़लों का सामना करते हुए शहीद हो गए। परंतु इससे पूर्व उन्होंने 300 मुगल सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया था। एस० एस० सीतल के शब्दों में,
“उस (तारा सिंह) के बलिदान का सिखों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा।”1

3. सिखों की जवाबी.कार्यवाइयाँ (Retaliatory measures of the Sikhs)-भाई तारा सिंह जी वाँ और उसके साथियों के बलिदान ने सिखों में एक नया जोश पैदा किया। उन्होंने गुरिल्ला युद्धों द्वारा सरकारी कोषों को लूटना आरंभ कर दिया। उन्होंने कई स्थानों पर आक्रमण करके सरकार के पिठुओं को मार डाला। जब जकरिया खाँ इन सिखों के विरुद्ध अपने सैनिकों को भेजता तो वे झट वनों और पहाड़ों में जा छुपते।

4. हैदरी ध्वज की घटना (Incident of Haidri Flag) जकरिया खाँ ने सिखों का अंत करने के लिए विवश होकर जेहाद का नारा लगाया। हजारों की संख्या में मुसलमान इनायत उल्ला खाँ के ध्वज तले एकत्रित हो गए। उन्हें ईद के शुभ दिन एक हैदरी ध्वज दिया गया और यह कहा गया कि इस ध्वज तले लड़ने वालों को अल्ला अवश्य विजय देगा। परंतु एक दिन लगभग 7 हज़ार सिखों ने इन गाज़ियों पर अचानक आक्रमण करके हज़ारों गाज़ियों की हत्या कर दी। इस घटना से सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा।

5. जकरिया खाँ का सिखों से समझौता (Agreement of Zakariya Khan with the Sikhs) अब ज़करिया खाँ ने सिखों को प्रसन्न करने की नीति अपनाई। उसने 1733 ई० में घोषणा की कि यदि सिख सरकार विरोधी कार्यवाइयों को बंद कर दें तो उन्हें एक लाख रुपए वार्षिक आय वाली एक जागीर व उनके नेता को ‘नवाब’ की उपाधि दी जाएगी। पहले तो सिख इस समझौते के विरुद्ध थे, परंतु बाद में उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। सिखों ने नवाब की उपाधि सरदार कपूर सिंह फैज़लपुरिया को दी।

6. बुड्डा दल एवं तरुणा दल का गठन (Formation of Buddha Dal & Taruna Dal)-मुग़लों से समझौता हो जाने पर नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे पुन: अपने घरों में लौट आएं। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्हें दो जत्थों में संगठित कर दिया। ये जत्थे थेबुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्ष से बड़ी आयु के सिखों को शामिल किया गया तथा तरुणा दल में उससे कम आयु वाले सिखों को। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में विभाजित किया गया था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देख-रेख करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का सामना करता था।

7. मुग़लों और सिखों के बीच पुनः संघर्ष (Renewed Struggle between the Mughals and the. Sikhs)-अपनी शक्ति को संगठित करने के बाद सिखों ने अपनी सैनिक कार्यवाइयों को फिर से आरंभ कर दिया। उन्होंने शाही खजाने को लुटना आरंभ कर दिया था। अतः जकरिया खाँ ने क्रोधित होकर सिखों को दी गई जागीर को 1735 ई० में ज़ब्त कर लिया। सिखों के विरुद्ध पुनः कड़ी सैनिक कार्यवाई के आदेश दिए गए। परिणामस्वरूप. सिख वनों की ओर चले गए। इस अवसर का लाभ उठाकर मुग़लों ने हरिमंदिर साहिब पर अधिकार कर लिया।

8. भाई मनी सिंह जी का बलिदान (Martyrdom of Bhai Mani Singh Ji)-भाई मनी सिंह जी 1721 ई० से हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी चले आ रहे थे। उन्होंने जकरिया खाँ को यह निवेदन किया कि यदि वह सिखों को दीवाली के अवसर पर हरिमंदिर साहिब आने की अनुमति दे तो वे 5,000 रुपए भेंट करेंगे। जकरिया खाँ ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। परंतु सिख अमृतसर में एकत्रित हो ही रहे थे, कि जकरिया खाँ के सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर दिया और कई निर्दोष सिखों को शहीद कर दिया। फलस्वरूप हरिमंदिर साहिब में दीवाली का उत्सव न मनाया जा सका। जकरिया खाँ ने भाई मनी सिंह जी से 5,000 रुपए की माँग की। भाई मनी सिंह जी यह पैसा देने में असमर्थ रहे अतः उन्हें बंदी बनाकर लाहौर भेज दिया गया। भाई साहिब को इस्लाम ग्रहण करने को कहा गया, परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें 1738 ई० में निर्ममतापूर्वक शहीद कर दिया गया। इस घटना से सिखों में रोष की लहर दौड़ गई। प्रसिद्ध इतिहासकार खुशवंत सिंह के विचारानुसार,
“पवित्र एवं पूज्य योग मुख्य पुजारी (भाई मनी सिंह) के बलिदान के कारण सिख भड़क उठे।”2

9. सिखों का नादिरशाह को लूटना (Sikhs robbed Nadir Shah)-1739 ई० में नादिरशाह दिल्ली में भारी लूटपाट करके पंजाब से होता हुआ वापिस ईरान जा रहा था। जब सिखों को यह सूचना मिली तो उन्होंने आक्रमण करके उसका बहुत-सा खज़ाना लूट लिया। नादिरशाह ने जकरिया खाँ को यह चेतावनी दी कि शीघ्र ही सिख पंजाब के शासक होंगे।

10. जकरिया खाँ द्वारा सिखों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाइयाँ (Strong actions against the Sikhs by Zakariya Khan) नादिरशाह की चेतावनी का जकरियाँ खाँ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सिखों के विनाश के लिए अनेक पग उठाए। सिखों का पुनः प्रतिदिन बड़ी निर्दयता से शहीद किया जाने लगा। कुछ प्रमुख शहीदों का वर्णन इस प्रकार है

i) भाई बोता सिंह जी (Bhai Bota Singh Ji)—जकरियाँ खाँ ने असंख्य सिखों को शहीद करने के पश्चात् यह घोषणा की कि उसने सिखों का नामो-निशान मिटा दिया है। सिखों का अस्तित्व दर्शाने के लिए भाई बोता सिंह जी ने सराय नूरदीन में एक चौंकी स्थापित कर ली और वहाँ चुंगीकर लेना आरंभ कर दिया। जकरिया खाँ ने उसे गिरफ्तार करने के लिए कुछ सेना भेजी। भाई बोता सिंह जी शत्रुओं का डटकर सामना करते हुए शहीद हो गए।

ii) भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी (Bhai Mehtab Singh Ji and Bhai Sukha Singh Ji) अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव का चौधरी मस्सा रंघड़ हरिमंदिर साहिब की पवित्रता को भंग कर रहा था। इस कारण सिख उसे एक सबक सिखाना चाहते थे। एक दिन भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सखा सिंह जी कुछ बोरियों में पत्थर भर कर तथा ऊपर कुछ सिक्के रखकर हरिमंदिर साहिब पहुँच गए। सैनिकों द्वारा पूछने पर उन्होंने बताया कि वह लगान उगाह कर लाए हैं । मस्सा रंघड़ सिक्कों से भरी बोरियाँ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। जैसे ही वह ये बोरियाँ लेने नीचे झुका उसी समय भाई मेहताब सिंह जी ने तलवार के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर। बाद में मुग़लों ने भाई मेहताब सिंह जी तथा भाई सुखा सिंह जी को बंदी बनाकर 1740 ई० . में बड़ी निर्दयता से शहीद कर दिया गया।

iii) बाल हकीकत राय जी (Bal Haqiqat Rai Ji)—बाल हकीकत राय जी स्यालकोट का रहने वाला था। एक दिन कुछ मुसलमान लड़कों ने हिंदू देवी-देवताओं के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। बाल हकीकत राय जी यह सहन न कर सके। उसने हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में कुछ अनुचित शब्द कहे। इस पर बाल .हकीकत राय जी पर मुकद्दमा चलाया गया तथा मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई। यह घटना 1742 ई० की है। इस घटना के कारण लोगों ने ज़ालिम मुग़ल शासन का अंत करने का प्रण लिया।

iv) भाई तारू सिंह जी (Bhai Taru Singh Ji)—भाई तारू सिंह जी माझा क्षेत्र के पूहला गाँव के निवासी थे। वह अपनी आय से अक्सर सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था । जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को लाहौर बुलाकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वह किसी भी मूल्य पर सतगुरु की दी हुई पवित्र दात केशों को नहीं दे सकते। हाँ वह अपने केश अपनी खोपड़ी सहित उतरवा सकते हैं। इस पर जल्लादों ने भाई तारू सिंह की खोपड़ी उतार दी। यह घटना 1745 ई० की है। जब भाई साहिब जी की खोपड़ी उतारी जा रही थी तो वह जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। इस अद्वितीय बलिदान ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न कर दिया।

11. जकरिया खाँ की मृत्यु (Death of Zakariya Khan) जकरिया खाँ ने निस्संदेह अपने शासन काल में सिखों पर घोर अत्याचार किए। वह अपने अथक प्रयत्नों के बावजूद सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। जकरिया खाँ की 1 जुलाई, 1745 ई० को मृत्यु हो गई। पतवंत सिंह का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“किसी ने भी सिखों का इससे अधिक उत्साह के साथ दमन नहीं किया जितना कि जकरिया खाँ ने।”3

1. “The news of his martyrdom, deeply moved the feelings of the Sikhs.” S.S. Seetal, Rise of the Sikh Power in the Punjab (Ludhiana : 1982) p. 166. .
2. “The killing of the pious and venerable head priest caused deep resentment among the Sikhs.” . Khushwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1989) Vol. 1, p. 237.
3. “No one persecuted the Sikhs with greater zeal than Zakariya Khan.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 83.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

याहिया रवाँ 1746-47 ई० (Yahiya Khan 1746 – 47 A.D.)

प्रश्न 4.
याहिया खाँ ने सिखों की ताकत को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए ? (What steps were taken by Yahiya Khan to crush the power of the Sikhs ?)
उत्तर-
ज़करिया खाँ की मृत्यु के बाद याहिया खाँ दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के सहयोग से 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना। वह 1747 ई० तक इस पद पर रहा। सिखों पर अत्याचार करने के लिए वह अपने पिता ज़करिया खाँ से एक कदम आगे था। उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों की गतिविधियाँ (Activities of the Sikhs)-ज़करिया खाँ की मृत्यु का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया था। उन्होंने पंजाब के कई गाँवों में चौधरियों तथा मुकद्दमों की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के कारण हत्या कर दी थी। इसके अतिरिक्त सिख पंजाब के कई क्षेत्रों में खूब लूटपाट करते थे।

2. जसपत राय की मृत्यु (Death of Jaspat Rai)-1746 ई० में सिखों के एक जत्थे ने गोंदलावाला गाँव से बहुत-सी भेड़-बकरियों को पकड़ लिया। लोगों की शिकायत पर जसपत राय ने सिखों को ये भेड़-बकरियाँ लौटाने का आदेश दिया। सिखों के इंकार करने पर उसने सिखों पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई के दौरान जसपत राय मारा गया। इस कारण मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई।

3. लखपत राय की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही (Actions of Lakhpat Rai against the Sikhs)जसपत राय की मृत्यु का समाचार पाकर उसका भाई दीवान लखपत राय आग-बबूला हो गया। उसने यह प्रण किया कि वह सिखों का नामो-निशान मिटा कर ही दम लेगा। याहिया खाँ ने सिखों को उनके धर्म-ग्रंथों को पढने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गुरु शब्द के प्रयोग पर रोक लगा दी। इस उद्देश्य से उसने गुड़ के स्थान पर लोगों को रोड़ी शब्द का प्रयोग करने के लिए कहा, क्योंकि गुड़ शब्द की आवाज़ गुरु के साथ मिलती-जुलती थी। इसी प्रकार ग्रंथ के स्थान पर पोथी शब्द का प्रयोग करने का आदेश दिया गया। इन आदेशों का उल्लंघन करने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने बहुत-से सिखों को बंदी बनाया और उनको लाहौर लाकर शहीद कर दिया।

4. पहला घल्लूघारा (First Holocaust)-1746 ई० में याहिया खाँ और लखपत राय के नेतृत्व में मग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को काहनूवान में घेर लिया। सिख बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका पीछा किया। सिख भारी संकट में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 सिखों को बंदी बना लिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से याद किया जाता है। गुरबख्श सिंह का यह कहना पूर्णतः ठीक है,
“1746 के इस विनाशकारी झटके ने सिखों के इस विश्वास को और बल प्रदान किया कि वे अत्याचारियों का सर्वनाश करें।”4

5. याहिया खाँ का पतन (Fall of Yahiya Khan)-नवंबर, 1746 ई० में याहिया खाँ के छोटे भाई शाहनवाज़ खाँ ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह चार मास तक रहा। इस विद्रोह के अंत में शाहनवाज़ खाँ सफल रहा और उसने 17 मार्च, 1747 ई० को याहिया खाँ को कारावास में डाल दिया। इस प्रकार उसके अत्याचारों का अंत हुआ।

4. “This devastating blow to the Sikhs in 1746 made them more determined than ever to put an end to the genocide.” Gurbakhsh Singh, The Sikh Faith : A Universal Message (Amritsar : 1997) p. 93.

प्रश्न 5.
1726-1746 तक जकरिया खाँ तथा याहिया खाँ ने सिखों की ताकत कुचलने के लिए क्या कदम उठाए ?
(What steps were taken by Zakariya Khan and Yahiya Khan from 1726-1746 in order to crush the power of the Sikhs ?)
अथवा
ज़करिया खाँ तथा याहिया खाँ के अधीन सिखों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन करें।
(Describe the persecution of the Sikhs during the rule of Zakariya Khan and Yahiya Khan.)
उत्तर-
ज़करिया खाँ की मृत्यु के बाद याहिया खाँ दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के सहयोग से 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना। वह 1747 ई० तक इस पद पर रहा। सिखों पर अत्याचार करने के लिए वह अपने पिता ज़करिया खाँ से एक कदम आगे था। उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों की गतिविधियाँ (Activities of the Sikhs)-ज़करिया खाँ की मृत्यु का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया था। उन्होंने पंजाब के कई गाँवों में चौधरियों तथा मुकद्दमों की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के कारण हत्या कर दी थी। इसके अतिरिक्त सिख पंजाब के कई क्षेत्रों में खूब लूटपाट करते थे।

2. जसपत राय की मृत्यु (Death of Jaspat Rai)-1746 ई० में सिखों के एक जत्थे ने गोंदलावाला गाँव से बहुत-सी भेड़-बकरियों को पकड़ लिया। लोगों की शिकायत पर जसपत राय ने सिखों को ये भेड़-बकरियाँ लौटाने का आदेश दिया। सिखों के इंकार करने पर उसने सिखों पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई के दौरान जसपत राय मारा गया। इस कारण मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई।

3. लखपत राय की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही (Actions of Lakhpat Rai against the Sikhs)जसपत राय की मृत्यु का समाचार पाकर उसका भाई दीवान लखपत राय आग-बबूला हो गया। उसने यह प्रण किया कि वह सिखों का नामो-निशान मिटा कर ही दम लेगा। याहिया खाँ ने सिखों को उनके धर्म-ग्रंथों को पढने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गुरु शब्द के प्रयोग पर रोक लगा दी। इस उद्देश्य से उसने गुड़ के स्थान पर लोगों को रोड़ी शब्द का प्रयोग करने के लिए कहा, क्योंकि गुड़ शब्द की आवाज़ गुरु के साथ मिलती-जुलती थी। इसी प्रकार ग्रंथ के स्थान पर पोथी शब्द का प्रयोग करने का आदेश दिया गया। इन आदेशों का उल्लंघन करने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने बहुत-से सिखों को बंदी बनाया और उनको लाहौर लाकर शहीद कर दिया।

4. पहला घल्लूघारा (First Holocaust)-1746 ई० में याहिया खाँ और लखपत राय के नेतृत्व में मग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को काहनूवान में घेर लिया। सिख बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका पीछा किया। सिख भारी संकट में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 सिखों को बंदी बना लिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से याद किया जाता है। गुरबख्श सिंह का यह कहना पूर्णतः ठीक है,
“1746 के इस विनाशकारी झटके ने सिखों के इस विश्वास को और बल प्रदान किया कि वे अत्याचारियों का सर्वनाश करें।”4

5. याहिया खाँ का पतन (Fall of Yahiya Khan)-नवंबर, 1746 ई० में याहिया खाँ के छोटे भाई शाहनवाज़ खाँ ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह चार मास तक रहा। इस विद्रोह के अंत में शाहनवाज़ खाँ सफल रहा और उसने 17 मार्च, 1747 ई० को याहिया खाँ को कारावास में डाल दिया। इस प्रकार उसके अत्याचारों का अंत हुआ।

4. “This devastating blow to the Sikhs in 1746 made them more determined than ever to put an end to the genocide.” Gurbakhsh Singh, The Sikh Faith : A Universal Message (Amritsar : 1997) p. 93.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

प्रश्न 6.
1716 ई० से 1747 ई० तक सिखों के कत्लेआम का संक्षिप्त वर्णन करें। (Explain in brief the persecution of the Sikhs during 1716 to 1747 A.D.)
अथवा
1716-1747 के समय दौरान मुग़ल गवर्नरों ने सिखों को कुचलने के लिए क्या प्रयास किया ? मुगल गवर्नर सिखों को कुचलने में क्यों असफल रहे ?
(What steps did the Mughal Governors take to crush the Sikhs between 1716-1747 ? Why did the Mughal Governors fail to suppress the Sikhs ?)
नोट-
उत्तर के लिए विद्यार्थी प्रश्न नं० 1, 2 एवं 4 का उत्तर देखें।

मीर मन्नू 1748-53 ई०. (Mir Mannu 1748-53 A.D.)

प्रश्न 7.
मीर मन्नू के अधीन सिखों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन कीजिए। उसकी विफलता के कारण भी बताएँ।
(Discuss the persecution of the Sikhs under Mir Mannu. Explain the causes of his failure also.)
अथवा
मीर मन्नू के सिखों के साथ कैसे संबंध थे ? वह अपने उद्देश्य को पूर्ण करने में क्यों विफल रहा ? (Describe Mir Mannu’s relations with the Sikhs. Why did he fail to achieve his objective ?)
अथवा
मीर मन्नू कौन था ? सिखों को कुचलने में उसकी विफलता के क्या कारण थे ? (Who was Mir Mannu ? What were the causes of his failure to crush the Sikhs ?)
अथवा
मीर मन्नू के सिखों के साथ संबंधों की चर्चा कीजिए। (Describe the relations Mir Mannu had with the Sikhs.)
अथवा
मुईन-उल-मुल्क (मीर मन्नू) के जीवन और सफलताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the career and achievements of Muin-Ul-Mulk (Mir Mannu)).
अथवा
मीर मन्नू ने सिखों के साथ निपटने के लिए क्या प्रयत्न किए? (What was the strategy of Mir Mannu to fight against the sikhs ?)
उत्तर-
मीर मन्नू मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला के वज़ीर कमरुद्दीन का पुत्र था। वह मुईन-उल-मुल्क के नाम से भी जाना जाता था। वह एक वीर, अनुशासित तथा योग्य राजनीतिज्ञ था। मीर मन्नू के इन्हीं गुणों के कारण उसे पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया गया था। वह 1748 ई० से 1753 ई० तक पंजाब का सूबेदार रहा। हरबंस सिंह के अनुसार, “मीर मन्नू अपने पूर्व-अधिकारियों से अधिक सिखों का कट्टर शत्रु सिद्ध हुआ।”5
1. मीर मन्न की मश्किलें (Difficulties of Mir Mannu) मीर मन्न जब पंजाब का सूबेदार बना तब उसके सामने पहाड़ सी मुश्किलें थीं। सिंहासन की प्राप्ति के लिए याहिया खाँ और शाहनवाज खाँ के बीच संघर्ष के कारण पंजाब में अराजकता फैल गई थी। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण ने पंजाब की राजनीतिक स्थिति को जटिल बना दिया था। सिखों ने अपनी लूटपाट की कार्यवाइयाँ तेज़ कर दी थीं। राज्यकोष लगभग रिक्त पड़ा था। मीर मन्नू ने इन मुश्किलों पर नियंत्रण करने के लिए विशेष पग उठाने का निर्णय लिया।

2. सिखों के विरुद्ध कार्यवाई (Action against the Sikhs)-मीर मन्नू ने सर्वप्रथम अपना ध्यान सिखों की ओर लगाया। उसने सिखों का विनाश करने के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी सेना भेजी। उसने जालंधर के फ़ौजदार अदीना बेग को सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने के आदेश दिए। सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाया जाने लगा। अदीना बेग और सिखों में हुई एक लड़ाई में 600 सिख शहीद हो गए। फलस्वरूप सिखों ने वनों में शरण ली।

3. रामरौणी दुर्ग का घेरा (Siege of Ramrauni Fort)-सिख अक्तूबर, 1748 ई० में दीवाली के अवसर पर अमृतसर में एकत्रित हुए। जब मीर मन्नू को यह समाचार मिला तो वह एक विशाल सेना के साथ अमृतसर की ओर बढ़ा। सिखों ने रामरौणी दुर्ग में जाकर शरण ली। मीर मन्नू ने रामरौणी दुर्ग को घेर लिया। यह घेरा चार माह तक जारी रहा। ऐसे समय में जस्सा सिंह रामगढ़िया अपने सैनिकों सहित सिखों की सहायता के लिए पहुँचा। इसी समय मीर मन्नू को यह सूचना मिली कि अहमदशाह अब्दाली पंजाब पर आक्रमण करने वाला है। फलस्वरूप मीर मन्नू ने सिखों के साथ समझौता कर लिया और घेरा उठा लिया। समझौते के अनुसार मीर मन्नू ने सिखों को पट्टी में एक जागीर दी ताकि वे शाँति से रहें।

4. अब्दाली का दूसरा आक्रमण (Second Invasion of Abdali)-अहमदशाह अब्दाली ने दिसंबर, 1748 ई० में पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। मीर मन्नू ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए अब्दाली से समझौता कर लिया। इसके अनुसार मीर मन्नू ने सियालकोट, गुजरात, पसरूर और औरंगाबाद का लगान अब्दाली को देना मान लिया। यह लगान 14 लाख रुपए वार्षिक था।

5. नासिर खाँ एवं शाह नवाज़ खाँ के विद्रोह (Revolts of Nasir Khan and Shah Nawaz Khan)दिल्ली के वज़ीर सफदरजंग के भड़काने पर फ़ौजदार नासिर खाँ तथा मुलतान के सूबेदार शाहनवाज़ खाँ ने मीर मन्नू के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शाहनवाज़ खाँ ने सिखों को भी लाहौर में अशांति फैलाने के लिए उकसाया। मीर मन्नू ने कौड़ा मल को शाहनवाज़ खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। इस लड़ाई में शाहनवाज़ खाँ मारा गया।

6. अब्दाली का तीसरा आक्रमण (Third Invasion of Abdali)-अब्दाली ने 1751 ई० के अंत में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण कर दिया। 6 मार्च, 1752 ई० में अहमदशाह अब्दाली और मीर मन्नू की सेनाओं के बीच लाहौर के निकट बड़ा घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में मीर मन्नू को बंदी बना लिया गया। इस प्रकार अहमदशाह अब्दाली का 1752 ई० में पंजाब पर अधिकार हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने मीर मन्नू को ही पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया और उसे सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का आदेश दिया।

7. सिखों पर पुनः अत्याचार (Renewal of Sikh Persecution)—मीर मन्नू ने सिखों का सर्वनाश करने के लिए बड़े जोरदार प्रयास आरंभ कर दिए। सिखों के सिरों के मूल्य निश्चित किए गए। सिखों को शरण देने वालों को कठोर दंड दिए गए। मार्च, 1753 ई० में जब सिख होला मोहल्ला के अवसर पर माखोवाल में एकत्रित हुए थे तो अदीना बेग ने अचानक आक्रमण करके बहुत-से सिखों की हत्या कर दी। सिख स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाकर लाहौर ले जाया गया। इन स्त्रियों और बच्चों पर जो अत्याचार किए गए, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्त्री को सवा-सवा मन अनाज प्रतिदिन पीसने के लिए दिया जाता। छोटे बच्चों को उनकी माताओं से छीनकर उनके सामने हत्या की जाती। इन घोर अत्याचारों के बावजूद सिखों की संख्या कम होने की अपेक्षा बढ़ती चली गई। उस समय यह लोकोक्ति बहुत प्रचलित थी
“मन्नू असाडी दातरी, असीं मन्नू दे सोए।
ज्यों-ज्यों मन्नू वड्दा, असीं दून सवाए होए।”

8. मीर मन्नू की मृत्यु (Death of Mir Mannu)-3 नवंबर, 1753 ई० को मीर मन्नू को यह सूचना मिली कि कुछ सिख तिलकपुर में एक गन्ने के खेत में छुपे हुए हैं। वह तुरंत सिखों का अंत करने के लिए अपने घोड़े पर सवार होकर वहाँ पहुँच गया। वहाँ पर सिखों द्वारा चलाई गई गोलियों के कारण उसका घोड़ा घबरा गया। उसने मीर मन्नू को नीचे गिरा दिया, परंतु उसका एक पाँव घोड़े की रकाब में फंस गया। घोड़ा उसी प्रकार मीर मन्नू को घसीटता गया जिसके कारण मीर मन्नू की मृत्यु हो गई। इस प्रकार प्रकृति ने मीर मन्नू से उसके अत्याचारों का प्रतिशोध ले लिया। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एन० के० सिन्हा ने ठीक लिखा है,

“अप्रत्यक्ष रूप में मीर मन्नू सिखों की शक्ति बढ़ाने के लिए उत्तरदायी था।”6
1. दल खालसा का संगठन (Organisation of the Dal Khalsa)-मीर मन्नू की विफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण दल खालसा का संगठन था। सिखों ने मीर मन्नू के अत्याचारों का डटकर सामना करने के लिए स्वयं को 12 जत्थों में संगठित कर लिया था। सिख दल खालसा का अत्यधिक सम्मान करते थे और इसके आदेश पर कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। परिणामस्वरूप मीर मन्नू के लिए सिखों का दमन करना कठिन हो गया।

2. सिखों के असाधारण गुण (Uncommon qualities of the Sikhs)–सिखों में अपने धर्म के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश और असीमित बलिदान की भावनाएँ थीं। वे अत्यधिक मुश्किलों की घड़ी में भी अपने धैर्य का त्याग नहीं करते थे। मीर मन्नू ने सिखों पर असीमित अत्याचार किए, परंतु वह सिखों को विचलित करने में असफल रहा। अतः सिखों के इन असाधारण गुणों के कारण भी मीर मन्नू विफल रहा।

3. सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति (Guerilla tactics of the Sikhs)-सिखों ने मुग़ल सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई अर्थात् सिखों को जब अवसर मिलता, वे मुग़ल सेना पर आक्रमण करते और लूटपाट करने के बाद पुनः वनों में जाकर शरण ले लेते। अतः आमने-सामने की टक्कर के अभाव में मीर मन्नू सिखों की शक्ति का दमन करने में विफल रहा।

4. दीवान कौड़ा मल्ल का सिखों से सहयोग (Cooperation of Diwan Kaura Mal with the Sikhs) दीवान कौड़ा मल्ल मीर मन्न का प्रमुख परामर्शदाता था। सहजधारी सिख होने के कारण वह सिखों से सहानुभूति रखता था। मीर मन्नू उसके परामर्श के बिना सिखों के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं करता था। जब भी मीर मन्नू ने सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का निर्णय किया तो दीवान कौड़ा मल्ल उसे सिखों से समझौता करने के लिए मना लेता था। अतः दीवान कौड़ा मल्ल का सहयोग भी सिख शक्ति को बचाए रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ।

5. अदीना बेग की दोहरी नीति (Dual Policy of Adina Beg)—अदीना बेग जालंधर दोआब का फ़ौजदार था। वह मीर मन्नू के बाद पंजाब का सूबेदार बनना चाहता था। मीर मन्नू ने जब भी उसे सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का आदेश दिया तो उसने इसका पालन नहीं किया। वह पंजाब में अशांति के माहौल को बनाए रखना चाहता था। अतः अदीना बेग की दोहरी नीति भी मीर मन्नू की विफलता का कारण बनी।

6. मीर मन्नू की समस्याएँ (Problems of Mir Mannu)-अपने शासनकाल के दौरान कई समस्याओं से घिरा रहने के कारण भी मीर मन्नू सिखों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। उसकी पहली बड़ी समस्या अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण थे। इन आक्रमणों के कारण उसे सिखों के विरुद्ध कार्यवाई स्थगित करनी पड़ती थी। दूसरा, दिल्ली का वज़ीर सफदरजंग भी उसे पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र रचता रहता था। उसके कहने पर ही नासिर खाँ और शाह नवाज़ खाँ ने मीर मन्नू के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। फलस्वरूप मीर मन्नू इन समस्याओं से जूझने में ही व्यस्त रहा।

5. “Mir Mannu proved a worse foe of the Sikhs than his predecessors.” Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (New Delhi : 1983) p. 134.
6. “Indirectly, Mir Mannu was responsible for the growth of the power of the Sikhs.” Dr. N.K. Sinha, Rise of the Sikh Power (Calcutta : 1973) p. 19.

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मीर मन्न की विफलता के कारण (Causes of the Failure of Mir Mannu)

प्रश्न 8.
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the main reasons of the failure of Mir Mannu against the Sikhs ?)
अथवा
मीर मन्नू सिखों को कुचलने में क्यों असफल रहा ?
(Why did Mir Mannu fail to crush the Sikhs ?)
अथवा
मीर मन्नू की असफलता के कारणों की व्याख्या करें।
(Explain the causes of failure of Mir Mannu.) :
उत्तर-
मीर मन्नू ने सिखों का अंत करने के लिए अथक प्रयास किए, परंतु इसके बावजूद वह सिखों का दमन करने में विफल रहा। उसकी विफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. दल खालसा का संगठन (Organisation of the Dal Khalsa)-मीर मन्नू की विफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण दल खालसा का संगठन था। सिखों ने मीर मन्नू के अत्याचारों का डटकर सामना करने के लिए स्वयं को 12 जत्थों में संगठित कर लिया था। सिख दल खालसा का अत्यधिक सम्मान करते थे और इसके आदेश पर कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। परिणामस्वरूप मीर मन्नू के लिए सिखों का दमन करना कठिन हो गया।

2. सिखों के असाधारण गुण (Uncommon qualities of the Sikhs)–सिखों में अपने धर्म के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश और असीमित बलिदान की भावनाएँ थीं। वे अत्यधिक मुश्किलों की घड़ी में भी अपने धैर्य का त्याग नहीं करते थे। मीर मन्नू ने सिखों पर असीमित अत्याचार किए, परंतु वह सिखों को विचलित करने में असफल रहा। अतः सिखों के इन असाधारण गुणों के कारण भी मीर मन्नू विफल रहा।

3. सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति (Guerilla tactics of the Sikhs)-सिखों ने मुग़ल सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई अर्थात् सिखों को जब अवसर मिलता, वे मुग़ल सेना पर आक्रमण करते और लूटपाट करने के बाद पुनः वनों में जाकर शरण ले लेते। अतः आमने-सामने की टक्कर के अभाव में मीर मन्नू सिखों की शक्ति का दमन करने में विफल रहा।

4. दीवान कौड़ा मल्ल का सिखों से सहयोग (Cooperation of Diwan Kaura Mal with the Sikhs) दीवान कौड़ा मल्ल मीर मन्न का प्रमुख परामर्शदाता था। सहजधारी सिख होने के कारण वह सिखों से सहानुभूति रखता था। मीर मन्नू उसके परामर्श के बिना सिखों के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं करता था। जब भी मीर मन्नू ने सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का निर्णय किया तो दीवान कौड़ा मल्ल उसे सिखों से समझौता करने के लिए मना लेता था। अतः दीवान कौड़ा मल्ल का सहयोग भी सिख शक्ति को बचाए रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ।

5. अदीना बेग की दोहरी नीति (Dual Policy of Adina Beg)—अदीना बेग जालंधर दोआब का फ़ौजदार था। वह मीर मन्नू के बाद पंजाब का सूबेदार बनना चाहता था। मीर मन्नू ने जब भी उसे सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का आदेश दिया तो उसने इसका पालन नहीं किया। वह पंजाब में अशांति के माहौल को बनाए रखना चाहता था। अतः अदीना बेग की दोहरी नीति भी मीर मन्नू की विफलता का कारण बनी।

6. मीर मन्नू की समस्याएँ (Problems of Mir Mannu)-अपने शासनकाल के दौरान कई समस्याओं से घिरा रहने के कारण भी मीर मन्नू सिखों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। उसकी पहली बड़ी समस्या अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण थे। इन आक्रमणों के कारण उसे सिखों के विरुद्ध कार्यवाई स्थगित करनी पड़ती थी। दूसरा, दिल्ली का वज़ीर सफदरजंग भी उसे पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र रचता रहता था। उसके कहने पर ही नासिर खाँ और शाह नवाज़ खाँ ने मीर मन्नू के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। फलस्वरूप मीर मन्नू इन समस्याओं से जूझने में ही व्यस्त रहा।

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on Abdus Samad Khan.)
अथवा
अब्दुस समद खाँ के अधीन सिखों पर किए गए अत्याचारों का संक्षेप में ब्योरा दें।
(Briefly explain the repressions done on the Sikhs by Abdus Samad Khan.)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ 1713-1726 ई० तक पंजाब का गवर्नर रहा। अब्दुस समद खाँ 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर तथा उसके अन्य साथियों को पकड़ने में सफल हुआ। इसके पश्चात् सिखों पर अत्याचारों का दौर प्रारंभ हो गया। अब्दुस समद खाँ की दमनकारी कार्यवाहियों से प्रसन्न होकर मुग़ल बादशाह फ़र्रुखसियर ने उसको ‘राज्य की तलवार’ का खिताब दिया। अब्दुस समद खाँ अपने पूरे प्रयत्नों के बावजूद सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। परिणामस्वरूप 1726 ई० में उसको उसके पद से हटा दिया गया।

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प्रश्न 2.
बंदई खालसा तथा तत्त खालसा से क्या अभिप्राय है ? उनके बीच मतभेद कैसे समाप्त हुआ ?
(What do you mean by Bandai and Tat Khalsa ? How were their differences resolved ?)
अथवा
बंदई खालसा व तत्त खालसा में मतभेद कैसे समाप्त हुए ?
(How were the differences between Bandai Khalsa and Tat Khalsa finished ?)
अथवा
तत्त खालसा और बंदई खालसा में क्या मतभेद था ? इनके बीच समझौता किसने करवाया ?
(What was the difference between Tat Khalsa and Bandai Khalsa ? Who compromised them ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिखों की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of the Sikhs after the martyrdom of Banda Singh Bahadur?)
उत्तर-
1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिख बंदई खालसा एवं तत्त खालसा नामक दो दलों में बँट गए। वे सिख जो गुरु गोबिंद सिंह जी के सिद्धांतों को मानते थे तत्त खालसा तथा जो बंदा सिंह बहादुर के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे बंदई खालसा कहलवाए। बंदई खालसा बंदा सिंह बहादुर को अपना गुरु मानते थे जबकि तत्त खालसा वाले गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानते थे। 1721 ई० में हरिमंदिर साहिब के प्रमुख ग्रंथी भाई मनी सिंह जी ने इन दोनों दलों में समझौता करवा दिया। इससे सिख संगठन की शक्ति में वृद्धि हुई।

प्रश्न 3.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ निपटने की किस प्रकार कोशिश की ?
(How did Zakariya Khan try to deal with the Sikhs ?)
अथवा
जकरिया खाँ के अधीन सिखों के दमन का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Discuss briefly the persecution of the Sikhs under Zakariya Khan.)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या कदम उठाए ? (What measures were atopted by Zakariya Khan to crush the power of the Sikhs ?)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जकरिया खाँ ने क्या कदम उठाए तथा वह अपने प्रयत्नों में कहां तक सफल रहा ?
(What measures were adopted by Zakariya Khan to crush the power of the Sikhs ? How far did he succeeded in his efforts ?)
उत्तर-
ज़करिया खाँ 1726 ई० में पंजाब का गवर्नर नियुक्त हुआ। उसने सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए कठोर नीति अपनाई। बड़ी संख्या में सिखों को पकड़कर मौत के घाट उतार दिया गया। जब वह सिखों को कुचलने में असफल रहा तो उसने 1733 ई० में सिखों के साथ समझौता कर लिया। कुछ समय के पश्चात् सिखों ने मुग़लों पर पुनः आक्रमण करने शुरू कर दिए। इस कारण जकरिया खाँ को सिखों के प्रति अपनी नीति बदलनी पड़ी। उसने सिखों का फिर से कत्लेआम शुरू कर दिया।

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प्रश्न 4.
तारा सिंह वाँ कौन था ? उसकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Who was Tara Singh Van ? What is the importance of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई तारा सिंह जी वाँ पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on Bhai Tara Singh Ji Van.)
उत्तर-
भाई तारा सिंह जी वाँ अपनी पंथ सेवा और वीरता के कारण सिखों में बहुत लोकप्रिय थे। नौशहरा का चौधरी साहिब राय जानबूझ कर सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता था। एक दिन भाई तारा सिंह वाँ ने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़कर बेच दिया और उन पैसों को लंगर के लिए दे दिया। जब साहिब राय को पता चला तो उसने सिखों को सबक सिखाने के लिए उन पर आक्रमण कर दिया। भाई तारा सिंह वाँ और उसके 22 साथी रात भर मुग़ल सेनाओं से लोहा लेते हुए शहीद हो गए। यह घटना फरवरी, 1726 ई० की है।

प्रश्न 5.
भाई मनी सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या प्रभाव पड़ा ?
(Who was Bhai Mani Singh Ji ? What is the impact of his martyrdom in Sikh History ?).
अथवा
भाई मनी सिंह जी के बलिदान के कारण लिखो। (What were the causes of the martyrdom of Bhai Mani Singh Ji ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी तथा उनकी शहीदी बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Bhai Mani Singh Ji and his martyrdom ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी की शहीदी के कोई तीन कारण बताओ।
(Write any three causes of the martyrdom of Bhai Mani Singh Ji.)
अथवा
भाई मनी सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bhai Mani Singh Ji.)
अथवा
भाई मनी सिंह जी कौन थे ? उनके बलिदान के कारण लिखें। (Who was Bhai Mani Singh Ji ? What were the causes of his martyrdom ?)
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी दरबार साहिब, अमृतसर में मुख्य ग्रंथी थे। जकरिया खाँ ने सिखों पर दरबार साहिब जाने पर रोक लगा दी। भाई मनी सिंह जी ने दीवाली के अवसर पर सिखों को दरबार साहिब में एकत्रित होने की जकरिया खाँ से अनुमति ले ली। इसके बदले उन्होंने 5,000 रुपये जकरिया खाँ को देने का वचन दिया। परंतु दीवाली के एक दिन पूर्व ही जकरिया खाँ ने अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। इस कारण भाई मनी सिंह जी जकरिया खाँ को 5000 रुपए न दे सके। अत: 1738 ई० में उनको लाहौर में बड़ी निर्ममता के साथ शहीद कर दिया गया। इस शहीदी के कारण सिख भड़क उठे।

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प्रश्न 6.
भाई तारू सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Who was Bhai Taru Singh Ji ? What is the significance of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई तारू सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on Bhai Taru Singh Ji.)
उत्तर-
भाई तारू सिंह जी गाँव पूहला के निवासी थे। वह खेती-बाड़ी का व्यवसाय करते थे और इससे होने वाली आय से सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था। परिणामस्वरूप भाई साहिब को गिरफ्तार कर लिया गया। जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को इस्लाम ग्रहण करने के लिए कहा। भाई साहिब जी ने इन दोनों बातों से इंकार कर दिया। इस कारण भाई साहिब जी की खोपड़ी को उतार कर 1 जुलाई, 1745 ई० को शहीद कर दिया गया।

प्रश्न 7.
नादिर शाह कौन था ? उसने भारत पर कब आक्रमण किया ? उसके इस आक्रमण का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Who was Nadir Shah ? When did he invade India ? What was the effect of his invasion on the Punjab ?)
अथवा
नादिर शाह के पंजाब पर आक्रमण तथा इसके प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन करो।
(Give a brief account of Nadir Shah’s invasion on Punjab and its impact.)
उत्तर-
नादिरशाह ईरान का बादशाह था। उसने 1739 ई० में भारत पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान उसने भयंकर लूटमार मचाई। ईरान लौटते समय जब वह पंजाब में से गुजर रहा था तो सिखों ने उसका बहुत सा खजाना लूट लिया। इस घटना से नादिरशाह आश्चर्यचकित रह गया। नादिरशाह ने जकरिया खाँ को चेतावनी दी कि यदि उसने सिखों के विरुद्ध कठोर पग न उठाए तो सिख शीघ्र ही पंजाब पर अपना अधिकार कर लेंगे। परिणामस्वरूप जकरिया खाँ ने सिखों पर अधिक अत्याचार आरंभ कर दिए।

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प्रश्न 8.
बुड्डा दल और तरुणा दल पर एक सक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a brief note on Buddha Dal and Taruna Dal.)
अथवा
बुड्डा दल और तरुणा दल का गठन कब किया गया ? सिख इतिहास में इनका क्या महत्त्व है ?
(When were Buddha Dal and Taruna Dal organised ? What is their importance in Sikh History ?)
अथवा बुड्डा दल तथा तरुणा दल से क्या अभिप्राय है ? संक्षेप में वर्णन करें। (What do you mean by ‘Buddha Dal’ and ‘Taruna Dal’ ? Explain in brief.)
अथवा
तरुणा दल पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a brief note on Taruna Dal.)
उत्तर-
1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति को मजबूत करने के उद्देश्य से उन्हें दो दलों में संगठित कर दिया। ये दल थे बुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्ढा दल में 40 वर्ष से अधिक आयु के सिखों को शामिल किया गया। तरुणा दल में चालीस वर्ष से कम आयु वाले अर्थात् युवा सिखों को भर्ती किया गया। तरुणा दल को आगे पाँच भागों में बाँटा गया था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देखभाल करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का मुकाबला करता था। इस प्रकार नवाब कपूर सिंह ने सिखों को भविष्य में होने वाले संघर्ष के लिए तैयार कर दिया।

प्रश्न 9.
याहिया खाँ कौन था ? उसके शासनकाल के संबंध में संक्षेप जानकारी दें। (Who was Yahiya Khan ? Give a brief information of his rule.)
उत्तर-
याहिया खाँ 1746 ई० से 1747 ई० में पंजाब का नया सूबेदार रहा। उसने सिखों के प्रति दमनकारी नीति जारी रखी। 1746 ई० में सिखों के साथ हुई एक लड़ाई में लाहौर के दीवान लखपत राय का भाई जसपत राय मारा गया था। इसका बदला लेने के लिए लखपत राय ने याहिया खाँ के साथ मिलकर काहनूवान (गुरदासपुर) में सिखों पर अचानक आक्रमण कर दिया। परिणामस्वरूप सात हजार सिख शहीद हुए। सिख इतिहास में इस खूनी घटना को ‘छोटा घल्लूघारा’ के नाम से याद किया जाता है। 1747 ई० में याहिया खाँ का तख्ता पलट दिया गया।

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प्रश्न 10.
प्रथम अथवा छोटे घल्लूघारे (1746 ई०) के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the First Holocaust or the Chhota Ghallughara of 1746 ?)
अथवा
पहले घल्लूघारे के बारे में आप क्या जानते हैं?
(What do you know about First Holocaust ?)
अथवा
‘छोटा घल्लूघारा’ पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on ‘Chhota Ghallughara’.)
अथवा
‘छोटा घल्लूघारा’ के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the ‘Chhota Ghallughara’.).
उत्तर-
याहिया खाँ और लखपत राय ने सिखों को कुचलने के लिए एक विशाल सेना तैयार की। इस सेना ने सिखों को अचानक काहनूवान ने घेर लिया। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 को बंदी बना लिया गया। सिखों को प्रथम बार इतनी भारी प्राण हानि उठानी पड़ी थी। इसके कारण इस घटना को इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा कहा जाता है। यह घल्लूघारा मई, 1746 ई० को हुआ। इस घल्लूघारे के बावजूद सिखों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

प्रश्न 11.
मीर मन्नू द्वारा सिखों के विरुद्ध की गई कार्यवाहियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Describe briefly the sikh persecution under Mir Mannu.)
अथवा
मीर मन्नू द्वारा सिखों के द्रमन का अध्ययन करें।
(Study the persecution of Sikhs by Mir Mannu.)
अथवा
मार मन्नू आर सिखा के संबंधों का वर्णन कीजिए। (Write briefly the relations of Mir Mannu with the Sikhs.)
उत्तर-
मीर मन्नू 1748 ई० से लेकर 1753 ई० तक पंजाब का सूबेदार रहा। उसने सिखों की शक्ति को । कुचलने के लिए हर संभव प्रयास किए। सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाकर लाहौर में शहीद किया जाने लगा। मीर मन्नू के इन अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने जंगलों और पहाड़ों में शरण ली। सिखों के हाथ न आने के कारण मीर मन्नू के सैनिकों ने सिख स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाना आरंभ कर दिया। उन पर अति निर्मम अत्याचार किए गए। इन घोर अत्याचारों के बावजूद मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

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प्रश्न 12.
मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में क्यों असफल रहा ? (Why did Mir Mannu fail to crush the Sikh power ?)
अथवा
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the failure of Mir Mannu against the Sikhs ?)
उत्तर-

  1. मीर मन्नू की असफलता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि सिख भारी कठिनाइयों के बावजूद कभी साहस नहीं छोड़ते थे।
  2. सिखों की छापामार युद्ध नीति ने मीर मन्नू को असफल बनाने में मुख्य भूमिका निभाई।
  3. मीर मन्नू का दीवान कौड़ा मल सिखों के साथ सहानुभूति रखता था।
  4. जालंधर दोआब के फ़ौजदार अदीना बेग की दुरंगी नीति के कारण भी मीर मन्नू असफल रहा।
  5. मीर मन्नू को अपने शासन काल में बहुतसी समस्याओं का सामना भी करना पड़ा था। परिणामस्वरूप वह सिखों को कुचलने में कामयाब न हो सका।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
1716 ई० से 1752 ई० तक लाहौर के किसी एक मुग़ल सूबेदार का नाम बताएँ।
अथवा
पंजाब के किसी एक सूबेदार का नाम बताएँ जिसने सिखों पर अत्याचार किए।
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ।

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प्रश्न 2.
अब्दुस समद खाँ लाहौर का सूबेदार कब नियुक्त हुआ था ?
उत्तर-
1713 ई०।

प्रश्न 3.
अब्दुस समद खाँ की सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता कौन-सी थी ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर क्रो बंदी बनाना।

प्रश्न 4.
अब्दुस समद खाँ को मुग़ल सम्राट् फ़र्रुखसियर ने कौन-सी उपाधि दी ?
उत्तर-
‘राज्य की तलवार’

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प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर की मृत्यु के बाद सिखों के जो दो संप्रदाय बन गए थे, उनके नाम बताओ।
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की मृत्यु के पश्चात् सिख कौन-से दो दलों में बँट गए ?
उत्तर-
बंदई खालसा एवं तत्त खालसा।

प्रश्न 6.
बंदई और तत्त खालसा में क्या अंतर था ?
अथवा
बंदई खालसा से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
तत्त खालसा से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बंदई खालसा बंदा सिंह बहादुर के सिद्धांतों में तथा तत्त खालसा गुरु गोबिंद सिंह जी के सिद्धांतों में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 7.
बंदई खालसा एवं तत्त खालसा के मध्य झगड़ा कब खत्म हुआ ?
उत्तर-
1721 ई०

प्रश्न 8.
बंदई खालसा एवं तत्त खालसा के मध्य मतभेदों को किसने समाप्त करवाए ?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

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प्रश्न 9.
सहजधारी सिख किन्हें कहा जाता था?
उत्तर-
ये वो गैर-सिख थे जो सिख पंथ के सिद्धांतों में तो विश्वास रखते थे, परन्तु इसमें प्रविष्ट नहीं हुए थे।

प्रश्न 10.
जकरिया खाँ कौन था ?
उत्तर-
लाहौर का सूबेदार।

प्रश्न 11.
जकरिया खाँ कब लाहौर का सूबेदार बना ?
उत्तर-
1726 ई०।

प्रश्न 12.
जकरिया खाँ के शासनकाल में शहीद किए जाने वाले किसी एक प्रसिद्ध सिख का नाम बताएँ।
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

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प्रश्न 13.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ समझौता कब किया ?
उत्तर-
1733 ई०।

प्रश्न 14.
सिखों के उस नेता का नाम बताएँ जिसे 1733 ई० के समझौते के अनुसार नवाब की उपाधि से सम्मानित किया गया था ?
उत्तर-
सरदार कपूर सिंह।

प्रश्न 15.
सिखों के दो दलों के नाम बताओ।
उत्तर-
बुड्डा दल और तरुणा दल।

प्रश्न 16.
बुड्डा दल एवं तरुणा दल की स्थापना कब की गई थी ?
उत्तर-
1734 ई०।

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प्रश्न 17.
बुड्डा दल तथा तरुणा दल की स्थापना कहाँ की गई थी ?
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 18.
बुड्डा दल तथा तरुणा दल का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
नवाब कपूर सिंह।

प्रश्न 19.
बुड्डा दल से क्या भाव है ?
उत्तर-
बुड्ढा दल 40 वर्ष से अधिक आयु वाले सिखों का दल था।

प्रश्न 20.
तरुणा दल से क्या भाव है ?
उत्तर-
तरुणा दल सिख नौजवानों का दल था।

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प्रश्न 21.
हैदरी झंडे की घटना किसके शासनकाल में हुई ?
उत्तर-
ज़करिया खाँ।

प्रश्न 22.
भाई तारा सिंह जी वाँ कब शहीद हुए ?
उत्तर-
1726 ई०

प्रश्न 23.
भाई मनी सिंह जी कौन थे ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब, अमृतसर के मुख्य ग्रंथी।

प्रश्न 24.
भाई मनी सिंह जी को कब शहीद किया गया था ?
उत्तर-
1738 ई०।

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प्रश्न 25.
भाई मनी सिंह जी को किसने शहीद करवाया था ?
उत्तर-
ज़करिया खाँ ने।

प्रश्न 26.
नादिर शाह कौन था ?
उत्तर-
ईरान का शासक।

प्रश्न 27.
नादिर शाह ने भारत पर कब आक्रमण किया ?
उत्तर-
1739 ई०।

प्रश्न 28.
नादिर शाह के भारतीय आक्रमण का कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
वह भारत पर विजय प्राप्त कर एक महान् विजेता बनना चाहता था।

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प्रश्न 29.
मस्सा रंगड़ कौन था ?
उत्तर-
अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव का चौधरी।

प्रश्न 30.
बाल हकीकत राय जी को कब शहीद किया गया था ?
उत्तर-
1742 ई०।

प्रश्न 31.
बाल हकीकत राय जी की शहीदी का क्या कारण था ?
उत्तर-
क्योंकि उसने बीबी फातिमा के संबंध में कुछ अपमानजनक शब्द कहे थे।

प्रश्न 32.
जकरिया खाँ की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर-
1745 ई० में।

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प्रश्न 33.
याहिया खाँ लाहौर का सूबेदार कब बना ?
उत्तर-
1746 ई० में।

प्रश्न 34.
छोटा अथवा पहला घल्लूघारा कब हुआ ?
उत्तर-
1746 ई०।

प्रश्न 35.
छोटा घल्लूघारा कहाँ हुआ ?
उत्तर-
काहनूवान।

प्रश्न 36.
मीर मन्नू लाहौर का सूबेदार कब बना ?
उत्तर-
1748 ई० में।

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प्रश्न 37.
पंजाब में मुगल शासन का अंत कब हुआ?
उत्तर-
1752 ई०।

प्रश्न 38.
मुइनुल-मुल्क किस अन्य नाम से विख्यात हुआ ?
उत्तर-
मीर मन्नू।

प्रश्न 39.
पंजाब में मुग़लों का अंतिम सूबेदार कौन था ?
अथवा
पंजाब में अफ़गानों का प्रथम सूबेदार कौन था ?
उत्तर-
मीर मन्नू।

प्रश्न 40.
मीर मन्नू कौन था?
उत्तर-
दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन का पुत्र।

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प्रश्न 41.
मीर मन्नू सिखों का विरोधी क्यों था ?
उत्तर-
क्योंकि वह पंजाब में सिखों का बढ़ता हुआ प्रभाव सहन करने को तैयार नहीं था।

प्रश्न 42.
मुग़लों के विरुद्ध सिखों की सफलता के क्या कारण थे ? कोई एक बताएँ।
उत्तर-
सिखों का गुरिल्ला युद्ध नीति को अपनाना।

प्रश्न 43.
कौड़ा मल कौन था ?
उत्तर-
मीर मन्नू का दीवान।

प्रश्न 44.
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलताओं का कोई एक कारण बताएँ।
अथवा
मीर मन्नू सिखों की ताकत को खत्म करने में क्यों असफल रहा ? कोई एक कारण लिखो।
उत्तर-
सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति।।

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प्रश्न 45.
सिख कौड़ा मल को मिट्ठा मल क्यों कहते थे ?
उत्तर-
क्योंकि वह सिखों से सहानुभूति रखता था

प्रश्न 46.
मीर मन्नू की मृत्यु कब हुई थी ?
उत्तर-
1753 ई०।

प्रश्न 47.
अदीना बेग कौन था ?
उत्तर-
मीर मन्नू के समय जालंधर दोआब का फ़ौजदार।

प्रश्न 48.
मुगलानी बेगम कौन थी?
उत्तर-
पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की विधवा।

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प्रश्न 49.
मीर मन्नू की विधवा का क्या नाम था?
उत्तर-
मुग़लानी बेगम।

प्रश्न 50.
मुग़लानी बेगम पंजाब की सूबेदार कब बनी थी ?
उत्तर-
1753 ई०।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ को………में लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया गया।
उत्तर-
(1713 ई०)

प्रश्न 2.
अब्दुस समद खाँ को सिखों के विरुद्ध दमन की नीति के लिए उसे ……….की उपाधि के साथ सम्मानित किया गया।
उत्तर-
(राज्य की तलवार)

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प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद सिख……तथा ……..नामक दो संप्रदायों में बंट गए।
उत्तर-
(तत्त खालसा, बंदई खालसा)

प्रश्न 4.
1721 ई० में……ने तत्त खालसा व बंदई खालसा में समझौता करवाया।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

प्रश्न 5.
जकरिया खाँ से पहले पंजाब का सूबेदार …………. था।
उत्तर-
(अब्दुस समद खाँ)

प्रश्न 6.
जकरिया खाँ……..में लाहौर का सूबेदार नियुक्त हुआ।
उत्तर-
(1726 ई०)

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प्रश्न 7.
जकरिया खाँ ने……में सिखों के साथ समझौता किया।
उत्तर-
(1733 ई०)

प्रश्न 8.
1733 ई० के समझौते अनुसार नवाब का खिताब………को दिया गया।
उत्तर-
(सरदार कपूर सिंह)

प्रश्न 9.
बुड्ढा दल और तरुणा दल का गठन ………… ई० में किया गया।
उत्तर-
(1734 ई०)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी को…..में शहीद किया गया।
उत्तर-
(1738 ई०)

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प्रश्न 11.
मस्सा रंगड़ ……………. गाँव का चौधरी था।
उत्तर-
(मंडियाला)

प्रश्न 12.
अमृतसर जिले के मंडियाला गाँव के चौधरी …….. ने हरिमंदिर साहिब की पवित्रता को भंग कर दिया था।
उत्तर-
(मस्सा रंगड़)

प्रश्न 13.
……….में नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण किया।
उत्तर-
(1739 ई०)

प्रश्न 14.
नादिर शाह………..का शासक था।
उत्तर-
(ईरान)

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प्रश्न 15.
पहला या छोटा घल्लूघारा…….में घटित हुआ।
उत्तर-
(1746 ई०)

प्रश्न 16.
पहले घल्लूघारे के समय पंजाब का सूबेदार………था।
उत्तर-
(याहिया खाँ)

प्रश्न 17.
मीर मन्नू को………के नाम से भी जाना जाता है। .
उत्तर-
(मुइन-उल-मुल्क)

प्रश्न 18.
मीर मन्नू पंजाब का सूबेदार………में नियुक्त हुआ।
उत्तर-
(1748 ई०)

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प्रश्न 19.
मीर मन्नू ……..को जालंधर दोआब का फ़ौजदार नियुक्त किया।
उत्तर-
(अदीना बेग)

प्रश्न 20.
मीर मन्नू की मृत्यु. ….में हुई।
उत्तर-
(1753 ई०)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ 1716 ई० में पंजाब का सूबेदार बना।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
अब्दुस समद खाँ को मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
अब्दुस समद खाँ को ‘राज की तलवार’ कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के बाद पंजाब के सिख तत्त खालसा और बंदई खालसा नामक दो संप्रदायों में बँट गए थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
भाई मनी सिंह जी ने तत्त खालसा और बंदई खालसा में आपसी समझौता करवाया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
तत्त खालसा और बंदई खालसा के मध्य समझौता 1721 ई० में हुआ।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 7.
जकरिया खाँ 1720 ई० में लाहौर का सूबेदार नियुक्त हुआ।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
1726 ई० में भाई तारा सिंह जी वाँ को शहीद किया गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ 1733 ई० में समझौता किया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
बुड्डा दल व तरुणा दल का गठन सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया ने किया।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 11.
बुड्ढा दल और तरुणा दल की स्थापना 1734 ई० में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
जकरिया खाँ ने 1738 ई० में भाई मनी सिंह जी को शहीद किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
नादिर शाह ने 1739 ई० में भारत पर आक्रमण किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 14.
बाल हकीकत राय जी को अब्दुस समद खाँ के समय शहीद किया गया था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 15.
भाई तारू सिंह जी को 1745 ई० में शहीद किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
जकरिया खाँ की मौत 1745 ई० में हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
पहला या छोटा घल्लूघारा 1746 ई० में घटित हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 18.
मीर मन्नू 1748 ई० में पंजाब का नया सूबेदार बना।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 19.
अहमद शाह अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
मीर मन्नू की मृत्यु 1754 ई० में हुई।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 21.
मीर मन्नू के समय अदीना बेग जालंधर दुआब का फ़ौजदार था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
1716 ई० में पंजाब का सूबेदार कौन था ?
(i) अब्दुस समद खाँ
(ii) अहमद शाह अब्दाली
(iii) मीर मन्नू
(iv) जकरिया खाँ।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 2.
फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को किस उपाधि से सम्मानित किया ?
(i) खान बहादुर
(ii) राज्य की तलवार
(ii) नासिर खान
(iv) मिट्ठा मल।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
बंदई खालसा और तत्त खालसा में समझौता कब हुआ ?
(i) 1711 ई० में
(ii) 1716 ई० में
(iii) 1721 ई० में
(iv) 1726 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
बंदई खालसा और तत्त खालसा में समझौता किसने करवाया था ?
(i) बाबा दीप सिंह जी ने
(ii) नवाब कपूर सिंह ने
(iii) भाई मनी सिंह जी ने
(iv) भाई तारू सिंह जी ने।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 5.
जकरिया खाँ पंजाब का सूबेदार कब बना ?
(i) 1716 ई० में
(ii) 1717 ई० में
(iii) 1726 ई० में
(iv) 1728 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
हैदरी ध्वज की घटना किसके शासन काल में हुई ?
(i) अब्दुस समद ख़ाँ
(ii) याहिया खाँ
(iii) अहमद शाह अब्दाली
(iv) जकरिया खाँ।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 7.
सिखों और मुग़लों में समझौता कब हुआ ?
(i) 1721 ई० में
(ii) 1724 ई० में
(ii) 1733 ई० में
(iv) 1734 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 8.
बुडा दल एवं तरुणा दल का गठन कब किया गया था ?
(i) 1730 ई० में
(ii)- 1735 ई० में
(iii) 1733 ई० में
(iv) 1734 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 9.
बुडा दल एवं तरुणा दल का गठन किसने किया था ?
(i) नवाब कपूर सिंह ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा दीप सिंह जी ने
(iv) भाई मेहताब सिंह ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1721 ई० में
(ii) 1733 ई० में
(iii) 1734 ई० में
(iv) 1738 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 11.
नादिर शाह ने भारत पर कब आक्रमण किया ?
(i) 1736 ई० में
(ii) 1737 ई० में
(iii) 1738 ई० में
(iv) 1739 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 12.
नादिर शाह कहाँ का शासक था ?
(i) अफ़गानिस्तान
(ii) ईराक
(iii) बलोचिस्तान
(iv) ईरान।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 13.
मस्सा रंगड़ कौन था ?
(i) मंडियाला गाँव का चौधरी
(ii) वाँ गाँव का चौधरी
(iii) जालंधर का फ़ौजदार
(iv) सरहिंद का फ़ौजदार।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 14.
बाल हकीकत राय जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1739 ई० में
(ii) 1740 ई० में
(iii) 1741 ई० में
(iv) 1742 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 15.
जकरिया खाँ की मृत्यु कब हुई ?
(i) 1742 ई० में
(ii) 1743 ई० में
(iii) 1744 ई० में
(iv) 1745 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 16.
पहला घल्लूघारा अथवा छोटा घल्लूघारा कहाँ हुआ था ?
(i) काहनूवान
(ii) कूप
(iii) सरहिंद
(iv) मंडियाला।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 17.
पहला अथवा छोटा घल्लूघारा कब हुआ ?
(i) 1733 ई० में
(ii) 1734 ई० में
(iii) 1739 ई० में
(iv) 1746 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 18.
मीर मन्नू पंजाब का सूबेदार कब बना ?
(i) 1748 ई० में
(ii) 1751 ई० में
(iii) 1752 ई० में
(iv) 1753 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 19.
अदीना बेग कौन था ?
(i) मीर मन्नू का परामर्शदाता
(ii) जकरिया खाँ का दीवान
(iii) जालंधर दोआब का फ़ौजदार
(iv) गाँव मंडियाला का चौधरी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 20.
मीर मन्नू की मृत्यु कब हुई ?
(i) 1750 ई० में
(ii) 1751 ई० में
(iii) 1752 ई० में
(iv) 1753 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 21.
मीर मन्नू सिखों के विरुद्ध क्यों असफल रहा ?
(i) अदीना बेग़ की दोहरी नीति के कारण
(ii) सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति के कारण
(iii) मीर मन्नू के अत्याचार के कारण
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 22.
मुगलानी बेगम पंजाब की सूबेदार कब बनी ? ”
(i) 1751 ई० में
(ii) 1752 ई० में
(iii) 1753 ई० में
(iv) 1754 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
अब्दुस समद खाँ पर एक नोट लिखो।
(Write a note on Abdus Samad Khan.)
अथवा
1713 से 1726 ई० के दौरान अब्दुस समद खाँ और सिखों के संबंधों की व्याख्या करें।
(Explain Abdus Samad Khan relations with the Sikhs from 1713-1726.)
उत्तर-
पंजाब में सिखों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने के लिए मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने 1713 ई० में अब्दुस समद खाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दुस समद खाँ 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर तथा उसके अन्य साथियों को पकड़ने में सफल हुआ। इससे अब्दुस समद खाँ के हौंसले बुलंद हो गए और उसने सिखों पर अत्याचारों का दौर प्रारंभ कर दिया। प्रतिदिन सिखों को बंदी बनाकर लाहौर लाया जाता और वहाँ शहीद कर दिया जाता। उसकी यह मनकारी नीति बड़ी सफल रही। उसकी सफलता से प्रसन्न होकर मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने उसको ‘राज्य की तलवार’ का खिताब दिया। उसके अत्याचारों से बचने के लिए बहुत-से सिख जंगलों तथा पहाड़ों की ओर भाग गए थे पर बाद में उन्होंने मुग़लों पर छापामार आक्रमण कर दिया। अब्दुस समद खाँ सिखों के आक्रमण को रोकने में असफल रहा। परिणामस्वरूप 1726 ई० में उसको उसके पद से हटा दिया गया।

प्रश्न 2.
बंदई खालसा तथा तत्त खालसा से क्या अभिप्राय है ? उनके बीच मतभेद कैसे समाप्त हुआ ? (What do you mean by Bandai and Tat Khalsa ? How were their differences resolved ?)
अथवा
तत्त खालसा और बंदई खालसा में क्या मतभेद था? इनके बीच समझौता किसने करवाया ?
(What was the difference between Tat Khalsa and Bandai Khalsa ? Who compromised them ?)
उत्तर-
1. तत्त खालसा-तत् खालसा कट्टर सिखों का एक संप्रदाय था। यह एक सर्वाधिक शक्तिशाली गुट था। तत् खालसा के सदस्य गुरु ग्रंथ साहिब में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा उसके नियमों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते थे। वे गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा निर्धारित नीले वस्त्र पहनते थे। वे एक-दूसरे को मिलते समय वाहेगुरु जी का खालसा एवं वाहेगुरु जी की फतेह’ कहकर सम्बोधन करते थे। वे बंदा सिंह बहादुर द्वारा सिख धर्म में किए गए परिवर्तनों को स्वीकार नहीं करते थे। वे किसी भी प्रकार के चमत्कार दिखाने के विरुद्ध थे। वे बंदा सिंह बहादुर को गुरु की पदवी दिए जाने के विरुद्ध थे।

2. बंदई खालसा-बंदई खालसा सिखों का दूसरा महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय था। बंदा सिंह बहादुर के सैनिक अभियानों ने उनके दिलों पर जादुई प्रभाव डाला था। 1716 ई० में बंदा सिंह बहादुर द्वारा दी गई अद्वितीय शहीदी से वे बहुत प्रभावित हुए। इस कारण बंदई खालसा के लोग बंदा सिंह बहादुर को गुरु समझ कर उसकी उपासना करने लगे। अनेक लोगों का यह विश्वास था कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व बंदा बहादुर को गुरुगद्दी सौंप दी थी। वे बंदा सिंह बहादुर द्वारा दिए गए दो नारों ‘फतेह धर्म’ एवं ‘फतेह दर्शन’ में विश्वास रखते थे। वे बंदा सिंह बहादुर द्वारा निर्धारित लाल रंग के वस्त्र पहनते थे।

3. समझौता-1721 ई० में हरिमंदिर साहिब के प्रमुख ग्रंथी भाई मनी सिंह जी ने दोनों दलों के मध्य समझौता करवा दिया। इस समझौते के परिणामस्वरूप बंदई खालसा व तत्त खालसा एक हो गए। यह समझौता सिख धर्म के विकास के लिए एक मील पत्थर सिद्ध हुआ।

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प्रश्न 3.
जकरिया खाँ ने सिखों के साथ निपटने की किस प्रकार कोशिश की ?
(How did Zakariya Khan try to deal with the Sikhs ?)
अथवा
ज़करिया खाँ के अधीन सिखों के दमन का संक्षिप्त वर्णन करें। (Discuss briefly the persecution of the Sikhs under Zakariya Khan.)
उत्तर-
ज़करिया खाँ 1726 ई० में पंजाब का गवर्नर बना। उसने सिखों के प्रति दमन की नीति अपनाई।
1. उसने अपना पद सम्भालते ही सिखों के विरुद्ध दमनकारी कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी। उसने सिखों की शक्ति का पूर्णतः दमन करने के लिए 20,000 सैनिकों को भर्ती किया।

2. उसने गाँवों के मुकद्दमों, चौधरियों और ज़मींदारों को इस बात के लिए चेतावनी दी कि वे सिखों को अपने अधीन क्षेत्र में शरण न लेने दें और यदि कोई सिख कहीं दिखाई दे तो उसकी सूचना तुरंत सरकार को दी जाए। इसके अतिरिक्त जकरिया खाँ ने एक आदेश द्वारा यह घोषणा की कि किसी सिख के संबंध में सूचना देने वाले को, बंदी बनाने वाले को और सिर काटकर सरकार को भेट करने वाले को विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जाएगा।

3. सैंकड़ों सिखों को प्रतिदिन लाहौर के दिल्ली गेट में शहीद किया जाने लगा। इस कारण इस स्थान का नाम ‘शहीद गंज’ पड़ गया।

4. इसके बावजूद जब वह अपने उद्देश्य में असफल रहा तो उसने सिखों को प्रसन्न करने की योजना बनाई। उसने 1733 ई० में सिखों के नेता सरदार कपूर सिंह को नवाब का खिताब और एक बड़ी जागीर प्रदान की।

5. सिखों ने इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी शक्ति को पुनः संगठित करना प्रारंभ कर दिया। जकरिया खाँ इसे सहन करने को तैयार न था। अतः उसने सिखों को पुनः कुचलने का प्रयत्न किया। उसने सिखों को दी गई जागीर वापस ले ली और सिखों को पकड़ कर कत्ल करने के आदेश दिए। परिणामस्वरूप भाई मनी सिंह जी, भाई महताब सिंह जी, भाई तारू सिंह जी और बाल हकीकत राय जी जैसे प्रसिद्ध व्यक्तियों को शहीद कर दिया गया। इसके बावजूद जकरिया खाँ अपने अंत तक सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

प्रश्न 4.
तारा सिंह वाँ कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? ।
(Who was Tara Singh Van ? What is the importance of his martyrdom in Sikh History ?)
उत्तर-
तारा सिंह अमृतसर जिला के गांव वाँ के निवासी थे। वह अपनी सिख पंथ की सेवा और वीरता के कारण सिखों में बहुत लोकप्रिय थे। उन्होंने बंदा सिंह बहादुर की लड़ाइयों में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। अब वह अपने गाँव में कृषि करने लग पड़े थे। नौशहरा का चौधरी साहिब राय सिखों के खेतों में अपने घोड़े छोड़ देता जिसके कारण वे फसलों को नष्ट कर देते। जब सिख इस बात पर आपत्ति उठाते तो वह सिखों का बड़ा अपमान करता। सिख इस अपमान को सहन नहीं कर सकते थे। एक दिन तारा सिंह वाँ ने साहिब राय की एक घोड़ी को पकड़ कर बेच दिया और उन पैसों का राशन खरीदकर लंगर के लिए दे दिया। जब साहिब राय को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने जकरिया खाँ से सहायता की माँग की। जकरिया खाँ ने 2200 घुड़सवार सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भेजे। तारा सिंह वाँ और उनके 22 साथियों ने रात भर मुग़ल सेनाओं के खूब छक्के छुड़ाए तथा अंत में शहीद हो गए। इससे पूर्व उन्होंने 300 मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया था और बहुत-से अन्य को घायल कर दिया था। यह घटना फरवरी, 1726 ई० की है। तारा सिंह वां की शहीदी ने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न किया।

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प्रश्न 5.
भाई मनी सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या प्रभाव पड़ा ? (Who was Bhai Mani Singh Ji ? What is the impact of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी के बलिदान के कारण लिखो। (What were the causes of the martyrdom of Bhai Mani Singh Ji ?)
अथवा
भाई मनी सिंह जी तथा उनकी शहीदी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Bhai Mani Singh Ji and his martyrdom ?)
अथवा भाई मनी सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bhai Mani Singh Ji.).
उत्तर-
ज़करिया खाँ के काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना भाई मनी. सिंह जी की शहीदी थी। भाई मनी सिंह जी दरबार साहिब, अमृतसर में मुख्य ग्रंथी थे। सिख उनका बहुत मान-सम्मान करते थे। जकरिया खाँ ने सिखों पर दरबार साहिब जाने पर रोक लगा दी। भाई मनी सिंह जी ने 5 हज़ार रुपये के बदले दीवाली के अवसर पर सिखों को दरबार साहिब में एकत्रित होने की जकरिया खाँ से अनुमति ले ली। बड़ी संख्या में सिख अमृतसर में एकत्रित होने शुरू हो गए। परंतु दीवाली के एक दिन पूर्व ही जकरिया खाँ ने अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। इस कारण सिखों में भगदड़ मच गई और दीवाली पर सिख एकत्रित न हो सके। जकरिया खाँ ने भाई मनी सिंह जी को बंदी बना लिया और उनसे 5 हज़ार रुपए की माँग की। मेला न हो सकने के कारण वह इतनी बड़ी राशि नहीं दे सकते थे। इसके बदले उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा गया। भाई मनी सिंह जी के इंकार करने पर 1738 ई० में उनको लाहौर में बड़ी निर्ममता के साथ शहीद कर दिया गया। इस शहीदी के कारण सिख भड़क उठे। उन्होंने मुग़ल साम्राज्य को जड़ से उखाड़ने का निर्णय कर लिया।

प्रश्न 6.
भाई तारू सिंह जी कौन थे ? उनकी शहीदी का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(Who was Bhai Taru Singh Ji ? What is the significance of his martyrdom in Sikh History ?)
अथवा
भाई तारू सिंह जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bhai Taru Singh Ji.)
उत्तर-
भाई तारू सिंह जी गाँव पूहला के निवासी थे। वह खेती-बाड़ी का व्यवसाय करते थे और इससे होने वाली आय से सिखों की सहायता करते थे। सरकार की दृष्टि में यह एक घोर अपराध था। जंडियाला के हरिभगत नामक व्यक्ति ने भाई साहिब को गिरफ्तार करवा दिया। उनको लाहौर ले जाया गया जहाँ जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी को इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा। इसके बदले उनको दुनिया भर की खुशियाँ देने का लालच दिया गया। भाई साहिब ने इन दोनों बातों से इंकार कर दिया। इस कारण जकरिया खाँ ने भाई तारू सिंह जी की खोपड़ी उतारने के आदेश दिए। आदेश की पालना करते हुए जल्लादों ने भाई साहिब की खोपड़ी उतारनी प्रारंभ कर दी। जब भाई साहिब की खोपड़ी उतारी जा रही थी तब वह जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। उनका शरीर लहू-लुहान हो गया था पर वह अपने निश्चय पर अटल रहे। वह इसके 22 दिनों बाद 1 जुलाई, 1745 ई० को शहीद हो गए। इस अभूतपूर्व शहीदी ने सिखों में एक नया जोश भर दिया।

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प्रश्न 7.
नादिर शाह कौन था ? उसके आक्रमण का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Who was Nadir Shah ? What was the effect of his invasion on the Punjab ?)
अथवा
नादिर शाह के पंजाब पर आक्रमण तथा इसके प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of Nadir Shah’s invasion on Punjab and its impact.)
उत्तर-
नादिर शाह ईरान का बादशाह था। उसने भारत पर 1739 ई० में आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान उसने भारत में भारी लूटमार मचाई। वह इतना क्रूर था कि शत्रु उसका नाम सुनते ही थर-थर काँपने लग जाते थे। वापसी के दौरान जब वह दिल्ली से लूटमार कर पंजाब में से गुजर रहा था तो सिखों ने उस पर अचानक हमला करके उसका बहुत-सा खज़ाना लूट लिया। इस घटना से नादिर शाह आश्चर्यचकित रह गया। उसने इन सिखों के संबंध में पंजाब के सूबेदार जकरिया खाँ से पूछताछ की। उसने जकरिया खाँ को यह चेतावनी दी कि यदि उसने सिखों के विरुद्ध कठोर पग न उठाए तो सिख शीघ्र ही पंजाब पर अपना अधिकार कर लेंगे। परिणामस्वरूप जकरिया खाँ ने सिखों पर अधिक अत्याचार आरंभ कर दिए पर नादिर शाह के आक्रमण के बाद पंजाब में अव्यवस्था फैल गई थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को अधिक संगठित करना आरंभ कर दिया था। शीघ्र ही पंजाब में उनका प्रभुत्व बढ़ गया।

प्रश्न 8.
बड़ा दल और तरुणा दल पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a brief note on Buddha Dal and Taruna Dal.)
अथवा
बुड्डा दल और तरुणा दल के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Buddha Dal and Taruna Dal ?)
अथवा
बुड्डा दल तथा तरुणा दल से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by ‘Buddha Dal’ and ‘Taruna Dal’ ?)
उत्तर-
1733 ई० में सिखों का मुग़लों से समझौता हो जाने के कारण सिखों को अपनी शक्ति संगठित करने का सुनहरी अवसर मिला। नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे जंगलों और पहाड़ों को छोड़कर पुनः अपने घरों को लौट आएँ। इस प्रकार पिछले दो दशकों से मुग़लों और सिखों में चले आ रहे संघर्ष का अंत हुआ और सिखों को कुछ राहत मिली। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति को मज़बूत करने के उद्देश्य से उन्हें दो दलों में संगठित कर दिया। ये दल थे बुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्षों से अधिक आयु के सिखों को शामिल किया गया और इससे कम आयु के सिखों को तरुणा दल में। तरुणा दल को आगे पाँच भागों में बाँटा गया था। प्रत्येक भाग में 1300 से लेकर 2000 सिख थे और प्रत्येक भाग का अपना एक अलग नेता था। बुड्ढा दल धार्मिक स्थानों की देख-भाल करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का मुकाबला करता था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 12 अब्दुस समद खाँ, जकरिया खाँ और मीर मन्नू-उनके सिखों के साथ संबंध

प्रश्न 9.
याहिया खाँ कौन था ? उसके शासन काल के संबंध में संक्षेप जानकारी दें। (Who was Yahiya Khan ? Give a brief information of his rule.)
उत्तर-
ज़करिया खाँ की मृत्यु के बाद याहिया खाँ दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के सहयोग से 1746 ई० में लाहौर का सूबेदार बना। वह 1747 ई० तक इस पद पर रहा। सिखों पर अत्याचार करने के लिए वह अपने पिता जकरिया खाँ से एक कदम आगे था। उसके सिखों के साथ संबंधों का वर्णन इस प्रकार है—
1. सिखों की गतिविधियाँ-जकरिया खाँ की मृत्यु का लाभ उठाकर सिखों ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया था। उन्होंने पंजाब के कई गाँवों में चौधरियों तथा मुकद्दमों की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के कारण हत्या कर दी थी। इसके अतिरिक्त सिख पंजाब के कई क्षेत्रों में खूब लूटपाट करते थे।

2. जसपत राय की मृत्यु-1746 ई० में सिखों के एक जत्थे ने गोंदलावाला गाँव से बहुत-सी भेड़-बकरियों को पकड़ लिया। लोगों की शिकायत पर जसपत राय ने सिखों को ये भेड़-बकरियाँ लौटाने का आदेश दिया। सिखों के इंकार करने पर उसने सिखों पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई के दौरान जसपत राय मारा गया। इस कारण मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई।

3. लखपत राय की सिखों के विरुद्ध कार्यवाही-जसपत राय की मृत्यु का समाचार पाकर उसके भाई दीवान लखपत राय का खून खौल उठा। उसने यह प्रण किया कि वह सिखों का नामो-निशान मिटा कर ही दम लेगा। याहिया खाँ ने सिखों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए। इन आदेशों का उल्लंघन करने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने बहुत-से सिखों को बंदी बनाया और उनको लाहौर लाकर शहीद कर दिया।

4. पहला घल्लूघारा-1746 ई० में याहिया खाँ और लखपत राय के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को काहनूवान में घेर लिया। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और 3,000 सिखों को बंदी बना लिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से याद किया जाता है।

प्रश्न 10.
प्रथम अथवा छोटे घल्लूघारे (1746 ई०) के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the First Holocaust or the Chhota Ghallughara of 1746 ?)
अथवा
‘छोटा घल्लूघारा’ पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on ‘Chhota Ghallughara.’)
उत्तर-
सिखों का सर्वनाश करने के लिए याहिया खाँ और लखपत राय ने एक भारी सेना तैयार की। इस सेना ने लगभग 15,000 सिखों को अचानक काहनूवान में घेर लिया। सिख वहाँ से बचकर बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका बड़ी तेजी से पीछा किया। यहाँ पर सिख बहुत मुश्किल में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे की ओर मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे तथा आगे पहाड़ी राजा और लोग भी उनके कट्टर शत्रु थे। सिखों के पास खाद्य सामग्री बिल्कुल नहीं थी। चारे की कमी के कारण घोड़ों की भी भूख से बुरी दशा थी। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और मुग़लों ने 3,000 सिखों को बंदी बना लिया। इन सिखों को लाहौर में शहीद कर दिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इसके कारण इस घटना को इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से स्मरण किया जाता है। यह घल्लूघारा मई, 1746 ई० को हुआ। इस विनाशकारी घल्लूघारे के बावजूद सिखों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

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प्रश्न 11.
मीर मन्नू कौन था ? उसने अपने शासन काल में सिखों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की ? (Who was Mir Mannu ? What steps did he take against the Sikhs during his rule ?)
अथवा
मीर मन्नू द्वारा सिखों के उत्पीड़न का अध्ययन करें। (Study the persecution of Sikhs by Mir Mannu.)
अथवा
मीर मन्नू को और किस नाम से जाना जाता है ? इसका शासन काल सिख शक्ति के उत्थान के लिए कैसे सफल हुआ?
(What was the other name of Mir Mannu ? How did the rule of Mir Mannu help in the rise of Sikh power ?)
अथवा
मीर मन्नू और सिखों के संबंधों का वर्णन कीजिए। (Write briefly the relations of Mir Mannu with the Sikhs.)
उत्तर-
मीर मन्नू को मुइन-उल-मुल्क के नाम से भी जाना जाता था। वह 1748 ई० से लेकर 1752 ई० तक मुगल बादशाह की ओर से तथा 1752 ई० से लेकर 1753 ई० तक अहमदशाह अब्दाली की ओर से पंजाब का सूबेदार रहा। मीर मन्नू सिखों का बहुत कट्टर शत्रु था। अत: मीर मन्नू ने अपना पद संभालने के पश्चात् सर्वप्रथम अपना ध्यान सिखों की ओर लगाया। उन्होंने समूचे पंजाब में बहुत गड़बड़ी फैलाई हुई थी। मीर मन्नू ने सिखों का दमन करने के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी सैन्य-टुकड़ियाँ भेजीं। उसने जालंधर के फ़ौजदार अदीना बेग को सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के आदेश दिए। ऐसे ही आदेश पहाड़ी राजाओं को भी दिए गए। फलस्वरूप सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाया जाने लगा और उन्हें लाहौर में शहीद किया जाने लगा। जून, 1748 ई० में अदीना बेग और सिखों में हुई एक लड़ाई में 600 सिख शहीद हो गए। अतः सिखों ने आत्म-रक्षा के लिए पर्वतों और वनों में जाकर शरण ली। वे अवसर मिलने पर मुग़ल सेनाओं पर आक्रमण करते और लूटपाट करके पुनः लौट जाते। मीर मन्नू ने सिखों का सर्वनाश करने के लिए बड़े जोरदार प्रयास आरंभ कर दिए। सिखों के सिरों के मूल्य निश्चित किए गए। सिखों को शरण देने वालों को कठोर दंड दिए गए। मार्च, 1753 ई० में जब सिख होला मोहल्ला के अवसर पर माखोवाल में एकत्रित हुए थे तो अदीना बेग ने अचानक आक्रमण करके बहुत-से सिखों की हत्या कर दी। सिख स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाकर लाहौर ले जाया गया। इन स्त्रियों और बच्चों पर जो अत्याचार किए गए, उनका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक स्त्री को सवा-सवा मन अनाज प्रतिदिन पीसने के लिए दिया जाता। दूध पीते बच्चों को उनकी माताओं से बलपूर्वक छीनकर उनके सामने हत्या की जाती। इन घोर अत्याचारों के बावजूद सिखों की संख्या कम होने की अपेक्षा बढ़ती चली गई। उस समय यह लोकोक्ति बहुत प्रचलित थी—

“मन्नू असाडी दातरी, असीं मन्नू दे सोए।
ज्यों-ज्यों मन्नू वड्दा, असीं दून सवाए होए।”

प्रश्न 12.
मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में क्यों असफल रहा ? (Why did Mir Mannu fail to crush the Sikh Power ?)
अथवा
मीर मन्नू की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ? कोई छः कारण बतायें।
(What were the causes of the failure of Mir Mannu against the Sikhs ? Write any six Causes.)
अथवा
मीर मन्नू सिखों के विरुद्ध क्यों असफल रहा ?
(Why Mir Mannu was unsuccessful against the Sikhs ?)
उत्तर-
मीर मन्नू ने सिखों का अंत करने के लिए अथक प्रयास किए, परंतु इसके बावजूद वह सिखों का दमन करने में विफल रहा। उसकी विफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. दल खालसा का संगठन—मीर मन्नू की विफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण दल खालसा का संगठन था। सिख दल खालसा का अत्यधिक सम्मान करते थे और इसके आदेश पर कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे। परिणामस्वरूप मीर मन्नू के लिए सिखों का दमन करना कठिन हो गया।

2. सिखों के असाधारण गुण सिखों में अपने धर्म के लिए दृढ़ निश्चय, अपार जोश और असीमित बलिदान की भावनाएँ थीं। वे अत्यधिक मुश्किलों की घड़ी में भी अपने धैर्य का त्याग नहीं करते थे। मीर मन्नू ने सिखों पर असीमित अत्याचार किए, परंतु वह सिखों को विचलित करने में विफल रहा।

3. सिखों की गुरिल्ला युद्ध नीति-सिखों ने मुग़ल सेना के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाई अर्थात् सिखों को जब अवसर मिलता, वे मुग़ल सेना पर आक्रमण करते और लूटपाट करने के बाद पुनः वनों में जाकर शरण ले लेते। अतः आमने-सामने की टक्कर के अभाव में मीर मन्नू सिखों की शक्ति का दमन करने में विफल रहा।

4. दीवान कौड़ा मल्ल का सिखों से सहयोग-दीवान कौड़ा मल्ल मीर मन्नू का प्रमुख परामर्शदाता था। सहजधारी सिख होने के कारण वह सिखों से सहानुभूति रखता था। अतः जब भी मीर मन्नू ने सिखों के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का निर्णय किया तो दीवान कौड़ा मल्ल उसे सिखों से समझौता करने के लिए मना लेता था। अतः दीवान कौड़ा मल्ल का सहयोग भी सिख शक्ति को बचाए रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ।।

5. मीर मन्नू की समस्याएँ-मीर मन्नू अपने शासनकाल के दौरान कई समस्याओं से घिरा रहने के कारण भी मीर मन्नू सिखों का पूर्ण दमन करने में विफल रहा। उसकी पहली बड़ी समस्या अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण थे। इन आक्रमणों के कारण उसे सिखों के विरुद्ध कार्यवाई स्थगित करनी पड़ती थी। दूसरा, दिल्ली का वज़ीर सफदरजंग भी उसे पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र रचता रहता था। फलस्वरूप मीर मन्नू इन समस्याओं से जूझने में ही व्यस्त रहा।

6. मीर मन्नू के अत्याचार-मीर मन्नू ने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए निर्दोष लोगों पर भारी अत्याचार किए। इस कारण ये लोग सिखों के साथ मिल गए। इस कारण सिखों की शक्ति बहुत बढ़ गई। परिणामस्वरूप मीर मन्नू सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
शाही आदेश जारी होने के पश्चात् अब्दुस समद खाँ ने सिखों पर घोर अत्याचार आरंभ कर दिए। सैंकड़ों निर्दोष सिखों को प्रतिदिन बंदी बनाकर लाहौर लाया जाता। उन्हें इस्लाम धर्म में शामिल होने पर प्राण-दान का लोभ दिया जाता। किंतु गुरु के सिख ऐसे जीवन से शहीद होना अधिक अच्छा समझते थे। जल्लाद इन सिखों को घोर यातनाएँ देने के पश्चात् उनको शहीद कर देते। अब्दुस समद खाँ की इस कठोर नीति से बचने के लिए बहुत-से सिखों ने लक्खी वन और शिवालिक पहाड़ियों में जाकर शरण ली। यहाँ पर उन्हें भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्हें कई-कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता था अथवा वे वृक्षों के पत्ते और छाल खाकर अपनी भूख मिटाते रहे। मुग़ल अधिकारियों ने पीछे रह गई स्त्रियों और बच्चों पर कहर ढाना आरंभ कर दिया। इस प्रकार अपने शासनकाल के आरंभिक कुछ वर्षों तक अब्दुस समद खाँ की सिखों के विरुद्ध दमनकारी नीति बहुत सफल रही। इससे प्रसन्न होकर फर्रुखसियर ने उसे ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया।

  1. अब्दुस समद खाँ कौन था ?
  2. शाही आदेश जारी होने के पश्चात् ……….. ने सिखों पर घोर अत्याचार आरंभ कर दिए।
  3. सिखों को कहाँ शहीद किया जाता था ?
  4. अब्दुस समद खाँ के अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने क्या किया ?
  5. फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को किस उपाधि से सम्मानित किया था ?

उत्तर-

  1. अब्दुस समद खाँ लाहौर का सूबेदार था।
  2. अब्दुस समद खाँ।
  3. सिखों को लाहौर में शहीद किया जाता था।
  4. अब्दुस समद खाँ के अत्याचारों से बचने के लिए सिखों ने जंगलों व शिवालिक पहाड़ियों में जाकर शरण ली।
  5. फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को ‘राज्य की तलवार’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

2
ज़करिया खाँ सिखों की दिन-प्रतिदिन बढ़ रही कार्यवाइयों से बहुत परेशान था। उसने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए जेहाद का नारा लगाया। फलस्वरूप हज़ारों की संख्या में मुसलमान उसके ध्वज तले एकत्रित हो गए। इस सेना का नेतृत्व मीर इनायत उल्ला खाँ को सौंपा गया। उन्हें ईद के शुभ दिन एक हैदरी ध्वज दिया गया और यह घोषणा की गई कि इस ध्वज तले लड़ने वालों को अल्ला अवश्य विजय देगा। जब सिखों को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उन्होंने पुनः वनों और पहाड़ों की शरण ली। एक दिन लगभग 7 हज़ार सिखों ने इन गाज़ियों पर अचानक आक्रमण करके भारी विनाश किया। हज़ारों गाज़ियों की हत्या कर दी गई। इसके अतिरिक्त सिख उनका सामान भी लूटकर ले गए। इस घटना से जहाँ सरकार की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा वहीं इस अद्वितीय सफलता से सिखों का प्रोत्साहन बढ़ गया।

  1. जकरिया खाँ कौन था ?
  2. जेहाद से क्या भाव है ?
  3. हैदरी झंडे की कमान किसे सौंपी गई थी?
  4. हैदरी झंडे की घटना समय पंजाब का सूबेदार कौन था ?
    • अब्दुस समद खाँ
    • मीर मन्नू
    • जकरिया खाँ
    • अहमद शाह अब्दाली।
  5. सिखों ने कहाँ शरण ली थी ?

उत्तर-

  1. जकरिया खाँ लाहौर का सूबेदार था।
  2. जेहाद से भाव है धार्मिक लड़ाई।
  3. हैदरी झंडे की कमान मीर इनायत उल्ला खाँ को सौंपी गई थी।
  4. जकरिया खाँ।
  5. सिखों ने जंगलों तथा पहाड़ों में जाकर शरण ली।

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3
मुग़लों से समझौता हो जाने पर सिखों को अपनी शक्ति को संगठित करने का स्वर्ण अवसर मिला। नवाब कपूर सिंह ने सिखों को यह संदेश भेजा कि वे वनों और पर्वतों को छोड़कर पुन: अपने घरों में लौट आएँ। इस प्रकार गत दो दशक से मुग़लों और सिखों में चले आ रहे संघर्ष का अंत हुआ और सिखों ने सुख की साँस ली। 1734 ई० में नवाब कपूर सिंह ने सिखों की शक्ति दृढ़ करने के उद्देश्य से उन्हें दो जत्थों में संगठित कर दिया। ये जत्थे थे-बुड्डा दल और तरुणा दल। बुड्डा दल में 40 वर्ष से बड़ी आयु के सिखों को सम्मिलित किया गया और इससे कम आयु वाले सिखों को तरुणा दल में। तरुणा दल को आगे पाँच जत्थों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक जत्थे में 1300 से 2000 सिख थे और प्रत्येक जत्थे का अपना एक अलग नेता तथा झंडा था। बुड्डा दल धार्मिक स्थानों की देख-रेख करता था जबकि तरुणा दल शत्रुओं का सामना करता था। इन दलों ने भविष्य में सिख इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  1. मुग़लों तथा सिखों के मध्य समझौता कब हुआ ?
  2. मुगलों तथा सिखों के मध्य समझौते समय पंजाब का सूबेदार कौन था ?
    • अहमद शाह अब्दाली
    • मीर मन्नू
    • जकरिया खाँ
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।
  3. नवाब कपूर सिंह कौन था ?
  4. बुड्डा दल तथा तरुणा दल का गठन कब किया गया था ?
  5. बुड्डा दल तथा तरुणा दल में कौन-कौन शामिल थे ?

उत्तर-

  1. मुग़लों तथा सिखों के मध्य समझौता 1733 ई० में हुआ था।
  2. जकरिया खाँ।
  3. नवाब कपूर सिंह 18वीं सदी में सिखों का एक प्रसिद्ध नेता था।
  4. बुड्ढा दल तथा तरुणा दल का गठन 1734 ई० में किया गया था।
  5. बुड्डा दल में 40 वर्ष से अधिक आयु के सिख तथा तरुणा दल में नौजवानों को शामिल किया गया था।

4
भाई मनी सिंह जी के बलिदान को सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सिख पंथ की अद्वितीय सेवा के कारण उनका सिखों में बहुत सम्मान था। वे 1721 ई० से हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी चले आ रहे थे। जकरिया खाँ के सैनिकों द्वारा हरिमंदिर साहिब पर अधिकार और वहाँ पर सिखों को न जाने देने के लिए स्थापित की गई सैनिक चौकियों के कारण वे बहत निराश हुए। 1738 ई० में भाई मनी सिंह जी ने जकरिया खाँ को यह निवेदन किया कि यदि वह सिखों को दीवाली के अवसर पर हरिमंदिर साहिब आने की अनुमति दे तो वे 5,000 रुपये भेट करेंगे। जकरिया खाँ ने यह प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया। वास्तव में उसके दिमाग में एक योजना आई। इस योजनानुसार वह अमृतसर में दीवाली के अवसर पर एकत्रित होने वाले सिखों पर अचानक आक्रमण करके उनका सर्वनाश करना चाहता था।

  1. भाई मनी सिंह जी कौन थे ?
  2. भाई मनी सिंह जी ने किसे विनती की कि सिखों को अमृतसर में दीवाली के अवसर पर इकट्ठे होने की आज्ञा दी जाए ?
  3. भाई मनी सिंह जी ने सिखों को अमृतसर आने के लिए जकरिया खाँ को कितने रुपये देने का निवेदन किया ?
    • 2,000 रुपये
    • 3,000 रुपये
    • 4,000 रुपये
    • 5,000 रुपये।
  4. भाई मनी सिंह जी को कब शहीद किया गया था ?
  5. भाई मनी सिंह जी की शहीदी का क्या परिणाम निकला ?

उत्तर-

  1. भाई मनी सिंह जी 1721 ई० में हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी थे।
  2. लाहौर के सूबेदार जकरिया खाँ को।
  3. 5,000 रुपये।
  4. भाई मनी सिंह जी को 1738 ई० में शहीद किया गया था।
  5. इस कारण सिखों में एक नया जोश पैदा हुआ।

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5
सिखों का सर्वनाश करने के लिए याहिया खाँ और लखपत राय ने एक भारी सेना तैयार की। उनके नेतृत्व में मुग़ल सेना ने लगभग 15,000 सिखों को अचानक काहनूवान में घेर लिया। सिख वहाँ से बचकर बसोली की पहाड़ियों की ओर चले गए। मुग़ल सैनिकों ने उनका बड़ी तेज़ी से पीछा किया। यहाँ पर सिख भारी संकट में फंस गए। एक ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं और दूसरी ओर रावी नदी में बाढ़ आई हुई थी। पीछे की ओर मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रहे थे तथा आगे पहाड़ी राजा और लोग भी उनके कट्टर शत्रु थे। सिखों के पास खाद्य सामग्री बिल्कुल नहीं थी। चारे की कमी के कारण घोड़ों की भी भूख से बुरी दशा थी। इस आक्रमण में 7,000 सिख शहीद हो गए और मुग़लों ने 3,000 सिखों को बंदी बना लिया। इन सिखों को लाहौर में शहीद कर दिया गया। सिखों के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब सिखों की एक बार में ही इतनी भारी प्राण-हानि हुई। इस दर्दनाक घटना को सिख इतिहास में पहला अथवा छोटा घल्लूघारा के नाम से स्मरण किया जाता है। यह घल्लूघारा मई, 1746 ई० को हुआ।

  1. पहला घल्लूघारा कब घटित हुआ ?
  2. पहले घल्लूघारे के समय लाहौर का सूबेदार कौन था ?
  3. पहले घल्लूघारे में कितने सिखों ने शहीदी प्राप्त की थी ?
  4. पहले घल्लूघारे में मुगलों ने …………… सिखों को बंदी बना लिया।
  5. पहले घल्लूघारे को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?

उत्तर-

  1. पहला घल्लूघारा मई, 1746 ई० में घटित हुआ।
  2. पहले घल्लूघारे के समय लाहौर का सूबेदार याहिया खाँ था।
  3. पहले घल्लूघारे में 7000 सिखों ने शहीदी प्राप्त की थी।
  4. 3000.
  5. पहले घल्लूघारे को छोटे घल्लूघारा के नाम से भी जाना जाता है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

द्वितीय एंग्लो-सिरव युद्ध के कारण (Causes of the Second Anglo-Sikh War)

प्रश्न 1.
उन परिस्थितियों का वर्णन करो जिनके कारण द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध हुआ। इस युद्ध के लिए अंग्रेज़ कहाँ तक उत्तरदायी थे ?
(Discuss the circumstances leading to the Second Anglo-Sikh War. How far were the British responsible for it ?)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के मुख्य कारण क्या थे ? ।
(What were the main causes of Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के महत्त्वपूर्ण कारणों की व्याख्या करें। (Explain the important causes of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण लिखें।
(Write the reasons of Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में अंग्रेजों की विजय हई और सिखों को पराजय का सामना करना पड़ा। अंग्रेज़ों द्वारा सिखों के साथ किया गया अपमानजनक व्यवहार और थोपी गई संधियों से सिखों में रोष भड़क उठा। इसका परिणाम द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के रूप में सामने आया। इस युद्ध के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—

1. सिखों की अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने की इच्छा (Sikh desire to avenge their defeat in the First Anglo-Sikh War)—यह सही है कि अंग्रेजों के साथ प्रथम युद्ध में सिख पराजित हो गए थे, परंतु इससे उनका साहस किसी प्रकार कम नहीं हुआ था। इस पराजय का मुख्य कारण सिख नेताओं लाल सिंह तथा तेजा सिंह द्वारा की गई गद्दारी थी। सिख सैनिकों को अपनी योग्यता पर पूर्ण विश्वास था। वे अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे। उनकी यह प्रबल इच्छा द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध का एक मुख्य कारण बनी।

2. लाहौर तथा भैरोवाल की संधियों से पंजाबी असंतुष्ट (Punjabis were dissatisfied with the Treaties of Lahore and Bhairowal)-अंग्रेज़ों तथा सिखों के बीच हुए प्रथम युद्ध के पश्चात् अंग्रेज़ों ने लाहौर दरबार के साथ लाहौर तथा भैरोवाल नामक दो संधियाँ कीं। इन संधियों द्वारा जालंधर दोआब जैसे प्रसिद्ध उपजाऊ प्रदेश को अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया था। कश्मीर के क्षेत्र को अंग्रेजों ने अपने मित्र गुलाब सिंह के सुपुर्द कर दिया था। पंजाब के लोग महाराजा रणजीत सिंह के अथक प्रयासों से निर्मित साम्राज्य का विघटन होता देख सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए सिखों को अंग्रेजों से एक और युद्ध लड़ना पड़ा।

3. सिख सैनिकों में असंतोष (Resentment among the Sikh Soldiers) लाहौर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने खालसा सेना की संख्या 20,000 पैदल तथा 12,000 घुड़सवार निश्चित कर दी थी। इस कारण हजारों की संख्या में सिख सैनिकों को नौकरी से हटा दिया गया था। इससे इन सैनिकों के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष उत्पन्न हो गया तथा वे अंग्रेजों के साथ युद्ध की तैयारियाँ करने लगे।

4. महारानी जिंदां से दुर्व्यवहार (Harsh Treatment with Maharani Jindan)-अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह की विधवा महारानी जिंदां से जो अपमानजनक व्यवहार किया, उसने सिखों में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त रोष को और भड़का दिया। महारानी जिंदां को अंग्रेज़ों ने लाहौर की संधि द्वारा अवयस्क महाराजा दलीप सिंह की संरक्षक माना था। परंतु अंग्रेजों ने भैरोवाल की संधि के द्वारा महारानी के समस्त अधिकार छीन लिए। 1847 ई० में अंग्रेजों ने महारानी को शेखूपुरा के दुर्ग में नज़रबंद कर दिया। 1848 ई० में महारानी जिंदां को देश निकाला देकर बनारस भेज दिया। महारानी जिंदां के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण समूचे पंजाब में अंग्रेजों के प्रति रोष की लहर दौड़ गई।

5. दीवान मूलराज का विद्रोह (Revolt of Diwan Moolraj)-द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ करने में मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह को विशेष स्थान प्राप्त है। 1844 ई० में मूलराज को मुलतान का नया नाज़िम बनाया गया। परंतु अंग्रेजों की गलत नीतियों के कारण दिसंबर, 1847 ई० को दीवान मूलराज ने अपना त्याग-पत्र दे दिया। 1848 ई० में सरदार काहन सिंह को मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त किया गया। मूलराज से चार्ज लेने के लिए काहन सिंह के साथ दो अंग्रेज़ अधिकारियों वैनस एग्नयू तथा एंड्रसन को भेजा गया। मूलराज ने उनका स्वागत किया किन्तु मूलराज के कुछ सिपाहियों ने 20 अप्रैल, 1848 ई० को आक्रमण करके उनकी हत्या कर दी तथा काहन सिंह को बंदी बना लिया। उनकी हत्या के लिए मूलराज को दोषी ठहराया गया। इस कारण उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का ध्वज उठा लिया। भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ऐसे ही अवसर की प्रतीक्षा में था। वह चाहता था कि यह विद्रोह अधिक भड़क उठे तथा उसे पंजाब पर अधिकार करने का अवसर मिल जाए। डॉक्टर कृपाल सिंह के अनुसार,
“वह चिंगारी जिसने अग्नि प्रज्वलित की तथा जिसमें पंजाब का स्वतंत्र राज्य जलकर भस्म हो गया, मुलतान से उठी थी।”1

6. चतर सिंह का विद्रोह (Revolt of Chattar Singh)-सरदार चतर सिंह अटारीवाला हज़ारा का नाज़िम था। उसके एक सिपाही ने एक अंग्रेज़ अधिकारी कर्नल कैनोरा की उसके द्वारा चतर सिंह को अपमानित करने के कारण हत्या कर दी। इस पर अंग्रेजों ने सरदार चतर सिंह को पदच्युत कर दिया तथा उसकी जागीर ज़ब्त कर ली। इस कारण चतर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी। परिणामस्वरूप चारों ओर विद्रोह की अग्नि फैल गई।

7. शेर सिंह का विद्रोह (Revolt of Sher Singh)—शेर सिंह सरदार चतर सिंह का पुत्र था। जब शेर सिंह को अपने पिता के विरुद्ध किए गए अंग्रेज़ों के दुर्व्यवहार का पता चला तो उसने भी 14 सितंबर, 1848 ई० को अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी। उसकी अपील पर कई सिख सिपाही उसके ध्वज तले एकत्रित हो गए।

8. लॉर्ड डल्हौज़ी की नीति (Policy of Lord Dalhousie)-जनवरी, 1848 ई० में लॉर्ड डलहौज़ी भारत का नया गवर्नर-जनरल बना था। उसने लैप्स की नीति द्वारा भारत की बहुत-सी रियासतों को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। केवल पंजाब ही एक ऐसा राज्य था, जिसे अभी तक अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया जा सका था। वह किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। यह अवसर उसे दीवान मूलराज, चतर सिंह तथा शेर सिंह द्वारा किए गए विद्रोहों से मिला।

जब पंजाब में विद्रोह की आग भड़कती दिखाई दी तो लॉर्ड डलहौज़ी ने विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाई करने का आदेश दिया। अंग्रेज़ कमांडर-इन-चीफ लॉर्ड ह्यूग गफ 16 नवंबर को सेना लेकर शेर सिंह का सामना करने के लिए चनाब नदी की ओर चल पड़ा।

1. “The spark which arose from Multan kindled the conflagration and reduced the sovereign state of the Punjab to ashes” Dr. Kirpal Singh, History and Culture of the Punjab (Patiala : 1978) Vol. 3, p. 80..

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युद्ध की घटनाएं (Events of the War)

प्रश्न 2.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य हुए दूसरे युद्ध की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन करें। . (Discuss in brief the events of the Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों की कुटिल नीतियों ने अंग्रेज़-सिख संबंधों को एक और युद्ध के कगार पर ला के खड़ा कर दिया। मूलराज, चतर सिंह तथा शेर सिंह के विद्रोह को देखते हुए लॉर्ड डलहौज़ी ने लॉर्ड ह्यूग गफ को सिखों का दमन करने के लिए भेजा। परिणामस्वरूप, दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध की मुख्य घटनाएँ निम्नलिखित थीं—

1. रामनगर की लड़ाई (Battle of Ramnagar)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की पहली लड़ाई 22 नवंबर, 1848 ई० को रामनगर के स्थान पर हुई। अंग्रेजी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। उसके अधीन 20,000 सैनिक थे। सिख सेनाओं का नेतृत्व शेर सिंह कर रहा था। उसके साथ 15,000 सैनिक थे। सिंखों के आक्रमण ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। इस लड़ाई से लॉर्ड गफ को पता चला कि सिखों का सामना करना कोई सहज काम नहीं है।

2. चिल्लियाँवाला की लड़ाई (Battle of Chillianwala)—चिल्लियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। यह 13 जनवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। जब लॉर्ड ह्यूग गफ़ को यह सूचना मिली कि चतर सिंह अपने सैनिकों सहित शेर सिंह की सहायता को पहुँच रहा है तो उसने 13 जनवरी को शेर सिंह के सैनिकों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। इस लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना के 695
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MAHARAJA DALIP SINGH
सैनिक, जिनमें 132 अफ़सर भी मारे गए। अंग्रेजों की चार तोपें भी सिखों के हाथ लगीं। सीताराम कोहली के अनुसार,
“जब से भारत पर अंग्रेज़ों ने अधिकार किया था, चिल्लियाँवाला की लड़ाई में यह उनकी सबसे कड़ी पराजय थी।”2

3. मुलतान की लड़ाई (Battle of Multan)—मुलतान में दीवान मूलराज के विद्रोह करने के बाद शेर सिंह । उसके साथ जा मिला था। अंग्रेजों ने एक चाल चली। उन्होंने नकली पत्र लिखकर शेर सिंह तथा मूलराज में भाँति उत्पन्न कर दी। परिणामस्वरूप, शेर सिंह ने मूलराज का साथ छोड़ दिया। दिसंबर, 1848 ई० में जनरल विश ने मुलतान के किले को घेरा डाल दिया। अंग्रेज़ों की ओर से फेंका गया एक गोला भीतर रखे बारूद पर जा गिरा। इस कारण बहुत-सा बारूद नष्ट हो गया तथा मूलराज के 500 सैनिक भी मारे गए। इस भारी क्षति के कारण मूलराज के लिए युद्ध जारी रखना बहुत कठिन हो गया। अंततः विवश होकर 22 जनवरी, 1849 ई० को मूलराज ने अंग्रेजों के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। मुलतान की इस विजय से चिल्लियाँवाला में अंग्रेजों का जो अपमान हुआ था, उसकी काफ़ी सीमा तक पूर्ति हो गई।

4. गुजरात की लड़ाई (Battle of Gujarat)—गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो -सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक लड़ाई थी। इस लड़ाई में चतर सिंह तथा भाई महाराज सिंह शेर सिंह की सहायता के लिए आ गए। अफ़गानिस्तान के बादशाह दोस्त मुहम्मद खाँ ने भी सिखों की सहायता के लिए 3,000 घुडसवार सेना भेजी। सिख सेना की संख्या 40,000 थी। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड गफ ही कर रहा था। अंग्रेज़ों इतिहास में तोपों की लड़ाई के नाम से विख्यात है।

यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को हुई थी। सिखों की तोपों का बारूद शीघ्र ही समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने अपनी तोपों से सिख सेनाओं पर भारी आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिख सेना को भारी क्षति पहुँची। उनके 3,000 से 5,000 तक सैनिक इस लड़ाई में मारे गए। इस लड़ाई के पश्चात् सिख सैनिकों में भगदड़ मच गई। 10 मार्च, 1849 ई० को चतर सिंह, शेर सिंह ने रावलपिंडी के निकट जनरल गिल्बर्ट के सम्मुख हथियार डाल दिए। प्रसिद्ध इतिहासकार पतवंत सिंह के अनुसार,
“इस प्रकार द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध का अंत हुआ तथा इसके साथ रणजीत सिंह के गौरवशाली साम्राज्य पर पर्दा पड़ गया।”3

2. “Chillianwala was the worst defeat the British had suffered since their occupation of India.” Sita Ram Kohli, Sunset of the Sikh Empire (Bombay : 1967) p. 175.
3. “Thus ended the Second Sikh War, and with it the curtain came down on Ranjit Singh’s proud empire.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 172.

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युद्ध के परिणाम (Consequences of the War)

प्रश्न 3.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिए। (Discuss the main results of the Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का अंत (End of the Empire of Maharaja Ranjit Singh)दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का पूर्णतः अंत हो गया। अंतिम सिख महाराजा दलीप सिंह को सिंहासन से उतार दिया गया। उसे पंजाब को छोड़कर देश के किसी भी भाग में रहने की छूट दी गई। लाहौर दरबार की समस्त संपत्ति पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। विख्यात कोहेनूर हीरा दलीप सिंह से लेकर महारानी विक्टोरिया को भेंट किया गया। कुछ समय के पश्चात् महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड भेज दिया गया। 1893 ई० में उनकी पेरिस में मृत्यु हो गई।

2. सिख सेना भंग कर दी गई (Sikh Army was Disbanded)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के पश्चात् सिख सेना को भी भंग कर दिया गया। अधिकाँश सिख सैनिकों को कृषि व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया गया। कुछ को ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती कर लिया गया।

3. दीवान मूल राज तथा भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड (Banishment of Diwan Moolraj and Bhai Maharaj Singh)-दीवान मूलराज को पहले मृत्यु दंड दिया गया था। बाद में इसे काले पानी की सज़ा में बदल दिया गया। परंतु उनकी 11 अगस्त, 1851 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में मृत्यु हो गई। भाई महाराज सिंह को पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) के बंदीगृह में रखा गया। तत्पश्चात् उसे सिंगापुर जेल भेज दिया गया जहाँ 5 जुलाई, 1856 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

4. चतर सिंह तथा शेर सिंह को दंड (Punishment to Chattar Singh and Sher Singh)-अंग्रेज़ों ने स० चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह को बंदी बना लिया था। उन्हें पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) की जेलों में रखा गया। 1854 ई० में सरकार ने उन दोनों को मुक्त कर दिया।

5. पंजाब के लिए नया प्रशासन (New Administration for the Punjab)-पंजाब के अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय के पश्चात् अंग्रेजों ने पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की। यह 1849 ई० से 1853 ई० तक बना रहा। अंग्रेज़ों ने पंजाब की प्रशासनिक संरचना में कई परिवर्तन किए। उत्तर-पश्चिमी सीमा को अधिक सुरक्षित बनाया गया। न्याय व्यवस्था को अधिक सुलभ बनाया गया। पंजाब में सड़कों तथा नहरों का जाल बिछा दिया गया। कृषि को प्रोत्साहन दिया गया। जागीरदारी प्रथा समाप्त कर दी गई। व्यापार वृद्धि के प्रयत्न किए गए। पंजाब में पश्चिमी-ढंग की शिक्षा प्रणाली आरंभ की गई। इन सुधारों ने पंजाबियों के दिलों को जीत लिया। परिणामस्वरूप वे 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहे।

6. पंजाब की रियासतों से मित्रता का व्यवहार (Friendly attitude towards Princely States of the Punjab)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पटियाला, नाभा, जींद, मालेरकोटला, फरीदकोट तथा कपूरथला की रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। अंग्रेजों ने इनसे मित्रता बनाए रखी तथा इन रियासतों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित न किया गया।

प्रश्न 4.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य हुए दूसरे युद्ध के कारणों तथा परिणामों का वर्णन करें।
(Discuss the causes and results of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण तथा परिणामों का वर्णन करें। (What were the causes and results of the 2nd Anglo-Sikh War ? Explain.)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का अंत (End of the Empire of Maharaja Ranjit Singh)दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का पूर्णतः अंत हो गया। अंतिम सिख महाराजा दलीप सिंह को सिंहासन से उतार दिया गया। उसे पंजाब को छोड़कर देश के किसी भी भाग में रहने की छूट दी गई। लाहौर दरबार की समस्त संपत्ति पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया। विख्यात कोहेनूर हीरा दलीप सिंह से लेकर महारानी विक्टोरिया को भेंट किया गया। कुछ समय के पश्चात् महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड भेज दिया गया। 1893 ई० में उनकी पेरिस में मृत्यु हो गई।

2. सिख सेना भंग कर दी गई (Sikh Army was Disbanded)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के पश्चात् सिख सेना को भी भंग कर दिया गया। अधिकाँश सिख सैनिकों को कृषि व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया गया। कुछ को ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती कर लिया गया।

3. दीवान मूल राज तथा भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड (Banishment of Diwan Moolraj and Bhai Maharaj Singh)-दीवान मूलराज को पहले मृत्यु दंड दिया गया था। बाद में इसे काले पानी की सज़ा में बदल दिया गया। परंतु उनकी 11 अगस्त, 1851 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में मृत्यु हो गई। भाई महाराज सिंह को पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) के बंदीगृह में रखा गया। तत्पश्चात् उसे सिंगापुर जेल भेज दिया गया जहाँ 5 जुलाई, 1856 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

4. चतर सिंह तथा शेर सिंह को दंड (Punishment to Chattar Singh and Sher Singh)-अंग्रेज़ों ने स० चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह को बंदी बना लिया था। उन्हें पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) की जेलों में रखा गया। 1854 ई० में सरकार ने उन दोनों को मुक्त कर दिया।

5. पंजाब के लिए नया प्रशासन (New Administration for the Punjab)-पंजाब के अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय के पश्चात् अंग्रेजों ने पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की। यह 1849 ई० से 1853 ई० तक बना रहा। अंग्रेज़ों ने पंजाब की प्रशासनिक संरचना में कई परिवर्तन किए। उत्तर-पश्चिमी सीमा को अधिक सुरक्षित बनाया गया। न्याय व्यवस्था को अधिक सुलभ बनाया गया। पंजाब में सड़कों तथा नहरों का जाल बिछा दिया गया। कृषि को प्रोत्साहन दिया गया। जागीरदारी प्रथा समाप्त कर दी गई। व्यापार वृद्धि के प्रयत्न किए गए। पंजाब में पश्चिमी-ढंग की शिक्षा प्रणाली आरंभ की गई। इन सुधारों ने पंजाबियों के दिलों को जीत लिया। परिणामस्वरूप वे 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहे।

6. पंजाब की रियासतों से मित्रता का व्यवहार (Friendly attitude towards Princely States of the Punjab)-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पटियाला, नाभा, जींद, मालेरकोटला, फरीदकोट तथा कपूरथला की रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। अंग्रेजों ने इनसे मित्रता बनाए रखी तथा इन रियासतों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित न किया गया।

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पंजाब का विलय (Annexation of the Punjab)

प्रश्न 5.
“पंजाब का विलय एक घोर विश्वासघात था।” संक्षिप्त व्याख्या करें।
(“Annexation of the Punjab was a violent breach of trust.” Discuss briefly.)
अथवा
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब विलय का आलोचनात्मक वर्णन करें।
(Explain critically Lord Dalhousie’s annexation of Punjab.)
अथवा
“लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय सिद्धांतहीन तथा अनुचित था।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(“The annexation of Punjab by Lord Dalhousie to the British Empire was unprincipled and unjustified.” Do you agree to this view ? Give arguments in your favour.)
उत्तर-
लॉर्ड डलहौज़ी भारत में 1848 ई० में गवर्नर-जनरल बनकर आया था। वह भारत के गवर्नर-जनरलों में सबसे बड़ा साम्राज्यवादी था। पंजाब को भी उसकी साम्राज्यवादी नीति का शिकार होना पड़ा। 29 मार्च, 1849 ई० को लाहौर को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल करने की घोषणा की गई। इसके पश्चात् लाहौर दुर्ग से सिखों का झंडा उतार दिया गया तथा अंग्रेज़ों का झंडा फहराया गया। इस प्रकार पंजाब के सिख राज्य का अंत हो गया।
I. डलहौज़ी की विलय की नीति के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Dalhousie’s Policy of Annexation)
डब्ल्यू डब्ल्यू० हंटर, मार्शमेन तथा एस० एम० लतीफ आदि इतिहासकारों ने लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब के अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए हैं—

1. सिखों ने वचन भंग किया (Sikhs had broken their Promises)-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया कि सिखों ने भैरोवाल संधि की शर्ते भंग की। सिख सरदारों ने यह वचन दिया था कि वे अंग्रेज़ रेजीडेंट को पूर्ण सहयोग देंगे। परंतु उन्होंने राज्य में अशाँति तथा विद्रोह भड़काने का प्रयत्न किया। लॉर्ड डलहौज़ी ने दीवान मूलराज के विद्रोह को पूरी सिख जाति का विद्रोह बताया। उसके अनुसार यह विद्रोह सिख राज्य की स्थापना के लिए किया गया था। सरतार चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह ने विद्रोह करके मूलराज का साथ दिया। इस प्रकार बिगड़ रही परिस्थितियों पर नियंत्रण पाने के लिए पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय आवश्यक था। इसी कारण लॉर्ड डलहौज़ी ने कहा था,
“निस्संदेह मुझे यह पक्का विश्वास है कि मेरी कार्यवाई समयानुसार, न्यायपूर्ण तथा आवश्यक थी।”4

2. पंजाब अच्छा मध्यवर्ती राज्य न रहा (Punjab remained no more a useful Buffer State)लॉर्ड हार्डिंग का विचार था कि पंजाब एक लाभप्रद मध्यवर्ती राज्य प्रमाणित होगा। इससे ब्रिटिश राज्य को अफ़गानिस्तान की ओर से किसी ख़तरे का सामना नहीं करना पड़ेगा। परंतु उनका यह विचार गलत प्रमाणित हुआ क्योंकि सिखों तथा अफ़गानों में मित्रता स्थापित हो गई। इसीलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

3. ऋण न लौटाना (Non-payment of the Loans)-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया कि भैरोवाल की संधि की शर्तों के अनुसार लाहौर दरबार ने अंग्रेज़ों को 22 लाख रुपए वार्षिक देने थे। परंतु लाहौर दरबार ने एक पाई भी अंग्रेज़ों को न दी। इसलिए पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।

4. पंजाब पर अधिकार करना लाभप्रद था (It was advantageous to annex Punjab)-प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में विजय के पश्चात् अंग्रेज़ों का मत था कि आर्थिक दृष्टि से पंजाब कोई लाभप्रद प्राँत नहीं है। परंतु पंजाब में दो वर्ष तक रह कर उन्हें ज्ञात हो गया कि यह राज्य तो कई दृष्टियों से भी अंग्रेजों के लिए लाभप्रद प्रमाणित हो सकता है। इन कारणों से लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को हड़प करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।

5. पंजाब के लोगों के लिए लाभप्रद (Advantageous for the people of Punjab) लॉर्ड डलहौज़ी . का पंजाब पर अधिकार करना पंजाब के लोगों के लिए एक वरदान सिद्ध हुआ। महाराजा रणजीत सिंह के बाद लाहौर दरबार षड्यंत्रों का अखाड़ा बन चुका था। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर चोरों, डाकुओं तथा ठगों ने अपना धंधा जोरों से शुरू कर दिया था। अंग्रेज़ों ने पंजाब का अपने राज्य में विलय करके वहाँ फिर से शाँति स्थापित की। पुलिस तथा न्याय प्रणाली को अधिक कुशल बनाया गया। कृषि तथा व्यापार को प्रोत्साहन दिया गया। पंजाब में सड़कों तथा नहरों का जाल बिछाया गया। लोगों को पश्चिमी शिक्षा देने की व्यवस्था की गई।

6. पंजाब का अधिकार आवश्यक था (Annexation of the Punjab was Inevitable)-यह कहा जाता है कि यदि पंजाब का विलय न किया जाता तो सिखों ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र रचते रहना था। इसका प्रभाव भारत के अन्य भागों में भी पड़ सकता था। इसलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

4. “I have an undoubting conviction of the expediency, the justice and necessity of my act.”. Lord Dalhousie.

II. डलहौज़ी की विलय की नीति के विरुद्ध तर्क (Arguments against Dalhousie’s Policy of Annexation)
ईवांज बैल, जगमोहन महाजन, गंडा सिंह और खुशवंत सिंह आदि इतिहासकारों द्वारा लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब के विलय के विरुद्ध निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं—

1. सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया (Sikhs were Provoked to Revolt)—प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद बहुत-सी ऐसी घटनाएँ घटीं जिन्होंने सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया। लाहौर की संधि के अनुसार पंजाब के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्र अंग्रेज़ों ने छीन लिए थे। परिणामस्वरूप उसके कोष पर कुप्रभाव पड़ा। लाहौर दरबार की अधिकाँश सेना को भंग कर दिया गया। अंग्रेज़ों ने महारानी जिंदां से बहुत बुरा व्यवहार किया। उन्होंने दीवान मूलराज तथा सरदार चतर सिंह को विद्रोह के लिए भड़काया। परिणामस्वरूप सिखों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के लिए विवश किया गया।

2. विद्रोह समय पर न दबाया गया (Revolt was not suppressed in Time)-जब मुलतान में विद्रोह की आग भड़की तो उस पर तुरंत नियंत्रण न किया गया। आठ माह तक विद्रोह फैलने देना, एक गहरी राजनीतिक चाल थी। इसी मध्य चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह ने विद्रोह कर दिया था। इस तरह अंग्रेज़ों को पंजाब में सैनिक कार्यवाही करने का बहाना मिल गया तथा पंजाब को हड़प लिया गया।

3. अंग्रेजों ने संधि की शर्ते पूरी न की (British had not fulfilled the terms of the Treaty)अंग्रेज़ों का कहना था कि उन्होंने संधि की शर्ते पूरी की हैं। परंतु अंग्रेज़ों ने संधि की केवल वही शर्ते पूरी की जो उनके लिए लाभप्रद थीं। उदाहरणतया लाहौर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने यह शर्त मानी थी कि वे दिसंबर, 1846 ई० के पश्चात् लाहौर से अपनी सेनाएँ हटा लेंगे। जब यह समय आया तो उन्होंने भैरोवाल की संधि अनुसार इस अवधि में वृद्धि कर दी। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग्रेज़ों का यह कहना कि उन्होंने संधि की शर्तों को पूरा किया, नितांत झूठ है।

4. लाहौर दरबार ने संधि की शर्ते पूरी करने में पूर्ण सहयोग दिया (Lahore Darbar gave full Cooperation in fulfilling the terms of the Treaty)-लाहौर दरबार ने तो पंजाब पर अंग्रेज़ों का अधिकार होने तक संधि की शर्ते पूरी निष्ठा से पूरी की। लाहौर सरकार पंजाब में रखी गई अंग्रेजी सेना का पूरा खर्च दे रही थी। उसने दीवान मूलराज, चतर सिंह और शेर सिंह द्वारा की गई बगावतों की निंदा की और इनके दमन में अंग्रेज़ी सेना को पूर्ण सहयोग दिया।

5. ऋण के संबंध में वास्तविकता (Facts about Loans) लॉर्ड डलहौज़ी का यह आरोप कि लाहौर दरबार ने ऋण की एक पाई भी वापिस नहीं की, तथ्यों के बिल्कुल विपरीत है। लाहौर में अंग्रेज़ रेजीडेंट फ्रेडरिक करी ने लॉर्ड डलहौजी को एक पत्र लिखा था जिसमें कहा गया था कि लाहौर दरबार ने 13,56,837 रुपए मूल्य का सोना जमा करवा दिया है। यदि लाहौर दरबार ने अपना सारा ऋण नहीं लौटाया तो इसका उत्तरदायित्व अंग्रेज़ रेजीडेंट पर था।

6. पूरी सिख सेना तथा लोगों ने विद्रोह नहीं किया था (The whole Sikh Army and the People did not Revolt)-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया था कि पंजाब की सारी सिख सेना तथा लोगों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। परंतु यह कथन भी सत्य नहीं है। पंजाब के केवल मुलतान तथा हज़ारा प्रांतों में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हआ था। अधिकाँश सिख सेना तथा लोग अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान् रहे।

7. पंजाब पर अधिकार एक विश्वासघात था (Annexation of Punjab was a breach of Trust)दिसंबर 1846 ई० में हुई भैरोवाल की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने पंजाब का सारा शासन अपने हाथों में ले लिया था। इस प्रकार पंजाब की सत्ता का वास्तविक स्वामी अंग्रेज़ रेजीडेंट फ्रेडरिक करी था। अंग्रेजों ने पंजाब में शाँति व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से लाहौर में अंग्रेज सेना भी रख ली थी। ऐसी स्थिति में मुलतान तथा हज़ारा में हुए विद्रोह के दमन का समस्त दायित्व अंग्रेज़ रेजीडेंट का था। यदि इन विद्रोहों में कोई विफल रहा था तो वह अंग्रेज़ रेजीडेंट था। अपने अपराध के लिए दलीप सिंह को सज़ा देना अन्यायपूर्ण बात थी। यह एक घोर विश्वासघात नहीं तो और क्या था ?

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय राजनीतिक तथा नैतिक दृष्टि से बिल्कुल गलत था। अंत में हम मेजर ईवांज़ बैल के इन शब्दों से सहमत हैं,
“यह वास्तव में कोई विजय नहीं, अपितु नितांत विश्वासघात था।”5

5. “It was in fact, no conquest, but a violent breach of trust.”Major Evans Bell, The Annexation of the Punjab and the Maharaja Daleep Singh (Patiala : 1970) p. 6.

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संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के कारणों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Explain in brief the causes of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त ब्योरा दें। (Give a brief description of the main causes of the Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के तीन मुख्य कारण क्या थे ?
(What were the three main causes for the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-

  1. सिख प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में हुई अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे।
  2. अंग्रेज़ों ने महारानी जिंदां से जो अपमानजनक व्यवहार किया, उससे सिख भड़क उठे।
  3. मुलतान के दीवान मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था।
  4. लॉर्ड डलहौज़ी पंजाब को जल्द-से-जल्द अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना चाहता था।
  5. चतर सिंह एवं शेर सिंह के विद्रोह ने अग्नि में घी डालने का काम किया।

प्रश्न 2.
दीवान मूलराज के विद्रोह पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a note on the revolt of Diwan Moolraj.)
अथवा
मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the revolt of Diwan Moolraj of Multan.)
उत्तर-
दीवान मूलराज 1844 ई० में मुलतान का नया गवर्नर बना था। उससे लिया जाने वाला वार्षिक लगान बढ़ा दिया गया। इस कारण दीवान मूलराज ने गवर्नर के पद से त्याग-पत्र दे दिया। काहन सिंह को मुलतान का नया गवर्नर नियुक्त किया गया। दो अंग्रेज़ अधिकारियों एगन्यू और एंडरसन को उसकी सहायता के लिए भेजा गया। अंग्रेज़ों ने इनके कत्ल का झूठा आरोप मूलराज पर लगाया। परिणामस्वरूप वह विद्रोह करने के लिए मजबूर हो गया।

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प्रश्न 3.
हज़ारा के चतर सिंह के विद्रोह के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the revolt of Chattar Singh of Hazara ?)
उत्तर-
सरदार चतर सिंह अटारीवाला हजारा का नाज़िम था। उसके द्वारा भड़काए गए हज़ारा के मुसलमानों ने 6 अगस्त, 1848 ई० को सरदार चतर सिंह के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया। यह देख कर सरदार चतर सिंह ने कर्नल कैनोरा को विद्रोहियों के विरुद्ध कार्रवाही करने का आदेश दिया। कर्नल कैनोरा ने चतर सिंह के आदेश को मानने से इंकार कर दिया। कैप्टन ऐबट ने सरदार चतर सिंह को. पदच्युत कर दिया। इस कारण चतर सिंह का खून खौल उठा तथा उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी।

प्रश्न 4.
चिलियाँवाला की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a note on the battle of Chillianwala.)
अथवा
चिलियाँवाला की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Chillianwala ?)
उत्तर-
चिलियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की एक महत्त्वपूर्ण लड़ाई थी। लॉर्ड ह्यग गफ़, जो अंग्रेजी सेनापति था को यह सूचना मिली कि चतर सिंह उसके प्रतिद्वंद्वी शेर सिंह की सहायता के लिए आ रहा है। इसलिए ह्यग गफ़ ने चतर सिंह के पहुंचने से पहले ही 13 जनवरी, 1849 ई० को चिलियाँवाला में शेर सिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस घमासान लड़ाई में सिखों ने अंग्रेजों के खूब छक्के छुड़ाए।

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प्रश्न 5.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के दौरान हुई गुजरात की लड़ाई का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the battle of Gujarat in the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की अंतिम तथा निर्णायक लड़ाई थी। यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 40,000 थी तथा उनका नेतृत्व चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह कर रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेज़ सैनिकों की संख्या 68,000 थी और लॉर्ड ह्यूग गफ़ उनका सेनापति था। इस युद्ध में सिखों की हार हुई। परिणामस्वरूप पंजाब को 29 मार्च, 1849 ई० को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।

प्रश्न 6.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ?(What were the results of the Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई तीन प्रभाव लिखें। (Explain any three effects of Social Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रभावों का अध्ययन संक्षेप में करें। (Study in brief the results of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के तीन प्रभाव लिखें।
(Explain the three effects of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या परिणाम निकले? (What were the results of the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-

  1. दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।
  2. पंजाब के अंतिम शासक महाराजा दलीप सिंह को 50,000 पौंड वार्षिक पेंशन देकर सिंहासन से उतार दिया गया।
  3. उससे प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा लेकर महारानी विक्टोरिया को भेंट किया गया।
  4. दीवान मूलराज तथा महाराजा दलीप सिंह को देश निष्कासन का दंड दिया गया
  5. पंजाब का शासन प्रबंध चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की गई।

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प्रश्न 7.
क्या लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब का अंग्रेजी राज्य में विलय उचित था ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was it justified for Lord Dalhousie to annex Punjab to the British empire ? Give arguments in support of your answer.)
अथवा
“पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना एक घोर विश्वासघात था।” व्याख्या करें।
(“Annexation of Punjab was a violent breach of trust.” Explain.)
अथवा
क्या पंजाब का विलय उचित था ? कारण लिखो।
(Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
अथवा
क्या पंजाब का संयोजन न्याय संगत था ? कारण बताओ।
(Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
उत्तर-
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल करना किसी प्रकार भी उचित नहीं था। अंग्रेजों ने सर्वप्रथम लाहौर संधि के अंतर्गत पंजाब के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्र छीन लिए। लाहौर दरबार की अधिकाँश सेना भंग कर दी गई, जिससे सैनिकों में रोष उत्पन्न हो गया। अंग्रेजों ने महारानी जिंदां को राज्य के प्रशासन से अलग कर दिया। मुलतान के गवर्नर दीवान मूलराज तथा हज़ारा के गवर्नर चतर सिंह को पहले विद्रोह के लिए उकसाया गया तथा फिर उनके विद्रोह को फैलने दिया गया ताकि बहाना बनाकर पंजाब को अधिकार में ले सकें।

प्रश्न 8.
डलहौज़ी के इस पक्ष में तर्क दें कि उसके द्वारा पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।
(Give arguments in favour of Dalhousie’s annexation of the Punjab to the British Empire.)
अथवा
डलहौज़ी की पंजाब विलय की नीति के पक्ष में तर्क दीजिए। (Give arguments in favour of Dalhousie’s policy of the annexation of the Punjab.)
अथवा
क्या पंजाब का विलय उचित था ? कारण लिखो। (Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
उत्तर-

  1. सिखों ने भैरोवाल की संधि की शर्तों को भंग किया था।
  2. दीवान मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था।
  3. पंजाब में शांति स्थापित करने के लिए उसको अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाना अनिवार्य था।
  4. पंजाब अंग्रेज़ी साम्राज्य के लिए ख़तरा बन सकता था।
  5. पंजाब पर अधिकार अंग्रेजी साम्राज्य के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता था।

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प्रश्न 9.
महाराजा दलीप सिंह पर नोट लिखें। (Write a note on Maharaja Dalip Singh.)
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह रणजीत सिंह का सबसे छोटा पुत्र था। वह 15 सितंबर, 1843 ई० को पंजाब का नया महाराजा बना था। महाराजा दलीप सिंह ने लाल सिंह को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया जो गद्दार निकला। परिणामस्वरूप पहले तथा दूसरे एंग्लो-सिख युद्धों में सिखों को पराजय का मुख देखना पड़ा। अंग्रेजों ने महाराजा दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया। 22 अक्तूबर, 1893 ई० को महाराजा दलीप सिंह की पेरिस में मृत्यु हो गई।

प्रश्न 10.
महारानी जींद कौर (जिंदां) पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
[Write a brief note on Maharani Jind Kaur (Jindan).] .
अथवा
महारानी जिंदां के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharani Jindan ?)
उत्तर-
महारानी जिंदां, महाराजा रणजीत सिंह की रानी थी। उसे 15 सितंबर, 1843 ई० को पंजाब के नवनियुक्त महाराजा दलीप सिंह की संरक्षिका बनाया गया था । इसीलिए अंग्रेजों ने दिसंबर, 1846 ई० में भैरोवाल की संधि के अंतर्गत महारानी जिंदां के सभी अधिकार छीन लिए तथा उसकी डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। महारानी भेष बदल कर नेपाल पहुँचने में सफल हो गई। यहाँ अंग्रेजों ने दोनों को एक साथ न रहने दिया। 1 अगस्त, 1863 ई० को महारानी जिंदां इंग्लैंड में इस संसार से चल बसीं।

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प्रश्न 11.
भाई महाराज सिंह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Bhai Maharaj Singh.)
उत्तर-
भाई महाराज सिंह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत भाई बीर सिंह के शिष्य थे। वह पंजाब की स्वतंत्रता के पक्ष में थे। अतः उन्होंने मुलतान के दीवान मूलराज, हज़ारा के सरदार. चतर सिंह अटारीवाला तथा उसके पुत्र शेर सिंह को अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सभी लड़ाइयों में भाग लिया। उनको पहले कलकत्ता (कोलकाता) तथा बाद में सिंगापुर की जेल में रखा गया। वहीं पर उनकी 5 जुलाई, 1856 ई० को मृत्यु हो गई।

बहु-विकल्पीय प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
उत्तर-
1848-49 ई०।

प्रश्न 2.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
उत्तर-
लॉर्ड डलहौज़ी।

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प्रश्न 3.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का कोई एक कारण लिखिए।
उत्तर-
सिख प्रथम युद्ध में हुई अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे।

प्रश्न 4.
महारानी जिंदां कौन थी ?
अथवा
महारानी जिंदां (जिंद कौर) कौन थी ?
उत्तर-
वह महाराजा दलीप सिंह की माँ।

प्रश्न 5.
दीवान मूलराज कौन था ?
उत्तर-
मुलतान का नाज़िम (गवर्नर)।

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प्रश्न 6.
दीवान मूलराज द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
अंग्रेजों ने दीवान मूलराज से वसूल किए जाने वाले वार्षिक लगान की राशि में भारी वृद्धि कर दी थी।

प्रश्न 7.
सावन मल कौन था ?
उत्तर-
दीवान मूलराज का पिता व मुलतान का नाज़िम

प्रश्न 8.
चतर सिंह अटारीवाला कौन था ?
उत्तर-
हज़ारा का नाज़िम।

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प्रश्न 9.
शेर सिंह कौन था ?
उत्तर-
चतर सिंह अटारीवाला का पुत्र।

प्रश्न 10.
शेर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा क्यों खड़ा किया था ?
उत्तर-
वह अंग्रेजों द्वारा उसके पिता के साथ किए गए दुर्व्यवहार के कारण।

प्रश्न 11.
भाई महाराज सिंह कौन था ?
उत्तर-
वह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत थे।

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प्रश्न 12.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध किसके विद्रोह से शुरू हुआ ?
अथवा
किसके विद्रोह ने द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ किया ?
उत्तर-
दीवान मूलराज।

प्रश्न 13.
रामनगर की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
22 नवंबर, 1848 ई०

प्रश्न 14.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
13 जनवरी, 1849 ई०

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प्रश्न 15.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की अंतिम लड़ाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई।

प्रश्न 16.
गुजरात की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
उत्तर-
21 फरवरी, 1849 ई०।

प्रश्न 17.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के दौरान लड़ी गई उस लड़ाई का नाम बताएँ जो तोपों की लड़ाई के नाम से विख्यात है ?
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई।।

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प्रश्न 18.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।

प्रश्न 19.
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में कब शामिल किया गया ?
अथवा
पंजाब को अंग्रेजी सामाज्य में कब मिलाया गया?
उत्तर-
29 मार्च, 1849 ई०।

प्रश्न 20.
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल करने के पक्ष में दिए जाने वाला कोई एक तर्क बताएँ।
उत्तर-
पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में शामिल करना पंजाब के लोगों के लिए लाभप्रद था।

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प्रश्न 21.
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल करने के विरुद्ध दिए जाने वाला एक तर्क बताएँ।
उत्तर-
अंग्रेजों ने सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया।

प्रश्न 22.
भाई महाराज सिंह कौन था ?
उत्तर-
वह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत भाई बीर सिंह का शिष्य था।

प्रश्न 23.
भाई महाराज सिंह की मौत कब हुई थी ?
उत्तर-
1856 ई०।

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प्रश्न 24.
भाई महाराज सिंह की मौत कहाँ हुई थी ?
उत्तर-
सिंगापुर।

प्रश्न 25.
पंजाब का अंतिम सिख महाराजा कौन था ?
अथवा
पंजाब का आखिरी सिख शासक कौन था ?
अथवा
सिखों का अंतिम सिख महाराजा कौन था?
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह।

प्रश्न 26.
महाराजा दलीप सिंह की मृत्य कहाँ हुई थी ?
उत्तर-
पेरिस में।

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प्रश्न 27.
महाराजा दलीप सिंह की मौत कब हुई थी ?
उत्तर-
1893 ई०

प्रश्न 28.
महारानी जिंदां की मृत्य कब हुई थी ?
उत्तर-
1863 ई०।

प्रश्न 29.
सिख साम्राज्य के पतन का कोई एक मुख्य कारण बताएँ ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी अयोग्य निकले।

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(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
अंग्रेज़ों एवं सिखों के बीच दूसरी लड़ाई ………….. ई० में हुई।
उत्तर-
(1848-49)

प्रश्न 2.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर जनरल……….था।
उत्तर-
(लॉर्ड डलहौज़ी)

प्रश्न 3.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा…………….था।
उत्तर-
(दलीप सिंह)

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प्रश्न 4.
महाराजा दलीप सिंह की माँ का नाम…………..था।
उत्तर-
(महारानी जिंदां)

प्रश्न 5.
1844 ई० में……………मुलतान का नाजिम नियुक्त हुआ।
उत्तर-
(दीवान मूलराज)

प्रश्न 6.
सरदार चतर सिंह अटारीवाला………का नाज़िम था।
उत्तर-
(हज़ारा)

प्रश्न 7.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की पहली लड़ाई का नाम……..था। .
उत्तर-
(रामनगर)

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प्रश्न 8.
रामनगर की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(22 नवंबर, 1848 ई०)

प्रश्न 9.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई……….को हुई।
उत्तर-
(13 जनवरी, 1849 ई०)

प्रश्न 10.
गुजरात की लड़ाई इतिहास में…………..की लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर-
(तोपों)

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प्रश्न 11.
अंग्रेजों ने पंजाब को अपने साम्राज्य में………….को सम्मिलित किया था।
उत्तर-
(29 मार्च, 1849 ई०)

(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध 1848-49 ई० में लड़ा गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लॉर्ड डलहौज़ी भारत का गवर्नर जनरल था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा दलीप सिंह था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
महारानी जिंदां महाराजा दलीप सिंह की माँ थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
दीवान मूलराज 1846 ई० में मुलतान का नाज़िम बना।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 6.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध रामनगर की लड़ाई से आरंभ हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
राम नगर की लड़ाई 12 नवंबर, 1846 ई० को हुई।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना को एक कड़ी पराजय का सामना करना पड़ा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध गुजरात की लड़ाई के साथ समाप्त हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
गुजरात की लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में 29 मार्च, 1849 ई० में शामिल किया गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
महाराजा दलीप सिंह पंजाब का अंतिम सिख महाराजा था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 14.
सिखों का अंतिम महाराजा रणजीत सिंह था।
उत्तर-
गलत

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
(i) 1844-45 ई० में
(ii) 1845-46 ई० में
(iii) 1847-48 ई० में
(iv) 1848-49 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 2.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
(i) लॉर्ड लिटन
(ii) लॉर्ड रिपन
(iii) लॉर्ड डलहौज़ी
(iv) लॉर्ड हार्डिंग।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 3.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा कौन था?
(i) महाराजा शेर सिंह
(ii) महाराजा रणजीत सिंह
(iii) महाराजा दलीप सिंह
(iv) महाराजा खड़क सिंह।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 4.
महारानी जिंदां कौन थी ?
(i) महाराजा दलीप सिंह की माता
(ii) महाराजा खड़क सिंह की बहन
(iii) महाराजा शेर सिंह की पत्नी
(iv) राजा गुलाब सिंह की पुत्री।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
दीवान मूलराज कौन था ?
(i) गुजरात का नाज़िम
(ii) मुलतान का नाज़िम
(iii) कश्मीर का नाज़िम
(iv) पेशावर का नाज़िम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
दीवान मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कब किया था ?
(i) 1844 ई० में
(ii) 1845 ई० में
(iii) 1846 ई० में
(iv) 1848 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 7.
सरदार चतर सिंह अटारीवाला कहाँ का नाज़िम था ?
(i) हज़ारा
(ii) मुलतान
(iii) कश्मीर
(iv) पेशावर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध किस लड़ाई के साथ आरंभ हुआ ?
(i) मुलतान की लड़ाई
(ii) चिल्लियाँवाला की लड़ाई
(iii) गुजरात की लड़ाई
(iv) रामनगर की लड़ाई।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 9.
रामनगर की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 12 नवंबर, 1846 ई०
(ii) 15 नवंबर, 1847 ई०
(iii) 17 नवंबर, 1848 ई०
(iv) 22 नवबर, 1848 ई०
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 10.
चिल्लियाँवाला की लड़ाई कब हुई ?
(i) 22 नवंबर, 1848 ई०
(ii) 3 जनवरी, 1848 ई०
(iii) 10 जनवरी, 1849 ई०
(iv) 13 जनवरी, 1849 ई०।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 11.
मुलतान का युद्ध कब समाप्त हुआ ?
(i) 22 जनवरी, 1849 ई०
(ii) 23 जनवरी, 1849 ई०
(iii) 24 जनवरी, 1849 ई०
(iv) 25 जनवरी, 1849 ई०
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
दूसरा ऐंग्लो-सिख युद्ध किस लड़ाई के साथ समाप्त हुआ ?
अथवा
उस लड़ाई का नाम लिखें जो इतिहास में ‘तोपों की लड़ाई’ के नाम से प्रसिद्ध है।
(i) मुलतान की लड़ाई
(ii) रामनगर की लड़ाई
(iii) गुजरात की लड़ाई
(iv) चिल्लियाँवाला की लड़ाई।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 13.
गुजरात की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
(i) 22 नवंबर, 1848 ई०
(ii) 13 जनवरी, 1849 ई०
(iii) 22 जनवरी, 1849 ई०
(iv) 21 फरवरी, 1849 ई०।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 14.
पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में कब सम्मिलित किया गया ?
(i) 1849 ई०
(ii) 1850 ई०
(iii) 1848 ई०
(iv) 1947 ई०
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
पंजाब का अंतिम सिख महाराजा कौन था ?
(i) महाराजा दलीप सिंह
(i) महाराजा रणजीत सिंह
(iii) महाराजा खड़क सिंह
(iv) महाराजा शेर सिंह।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 16.
महाराजा दलीप सिंह की मृत्यु कब हुई थी ?
(i) 1857 ई० में
(ii) 1893 ई० में
(iii) 1849 ई० में
(iv) 1892 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 17.
महाराजा दलीप सिंह की मृत्यु कहाँ हुई थी ?
(i) पंजाब
(ii) पेरिस
(iii) नेपाल
(iv) लंदन।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के छः कारणों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Explain in brief the six causes of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध के छः मुख्य कारण क्या थे ?
(What were the six main causes for the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—
1. सिखों की अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने की इच्छा—यह सही है कि अंग्रेज़ों के साथ प्रथम युद्ध में सिख पराजित हो गए थे, परंतु इससे उनका साहस किसी प्रकार कम नहीं हुआ था। इस पराजय का मुख्य कारण सिख नेताओं द्वारा की गई गद्दारी थी। सिख सैनिकों को अपनी योग्यता पर पूर्ण विश्वास था। वे अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहते थे। उनकी यह इच्छा द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध का एक मुख्य कारण बनी।

2. लाहौर तथा भैरोवाल की संधियों से पंजाबी असंतुष्ट-अंग्रेजों तथा सिखों के बीच हुए प्रथम युद्ध के पश्चात् अंग्रेजों ने लाहौर दरबार के साथ लाहौर तथा भैरोवाल नामक दो संधियाँ कीं। पंजाब के लोग महाराजा रणजीत सिंह के अथक प्रयासों से निर्मित साम्राज्य का इन संधियों द्वारा किया जा रहा विघटन होता देख सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए सिखों को अंग्रेजों से एक और युद्ध लड़ना पड़ा।

3. सिख सैनिकों में असंतोष-लाहौर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने खालसा सेना की संख्या 20,000 पैदल तथा 12,000 घुड़सवार निश्चित कर दी थी। इस कारण हज़ारों की संख्या में सिख सैनिकों को नौकरी से हटा दिया गया था। इससे इन सैनिकों के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष उत्पन्न हो गया तथा वे अंग्रेजों के साथ युद्ध की तैयारियाँ करने लगे।

4. महारानी जिंदां से दुर्व्यवहार अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह की विधवा महारानी जिंदां से जो अपमानजनक व्यवहार किया, उसने सिखों में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त रोष को और भड़का दिया। वह इस अपमान का बदला लेने चाहते थे।

5. दीवान मूलराज का विद्रोह-द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ करने में मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह को विशेष स्थान प्राप्त है। 20 अप्रैल, 1848 ई० को मुलतान में दो अंग्रेज़ अधिकारियों वैनस एग्नय तथा एंडरसन के किए गए कत्लों के लिए मूलराज को दोषी ठहराया गया। इस कारण उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का ध्वज उठा लिया।

6. लॉर्ड डलहौज़ी की नीति-1848 ई० में लॉर्ड डलहौज़ी भारत का नया गवर्नर-जनरल बना था। वह बहुत बड़ा साम्राज्यवादी था। वह पंजाब को अपने अधीन करने के लिए किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। यह अवसर उसे दीवान मूलराज, चतर सिंह तथा शेर सिंह द्वारा किए गए विद्रोहों से मिला।

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प्रश्न 2.
दीवान मूलराज के विद्रोह पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a note on the revolt of Diwan Mulraj.)
अथवा
मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the revolt of Diwan Mulraj of Multan.)
उत्तर-
दीवान मूलराज 1844 ई० में मुलतान का नया गवर्नर बना था। वह लगभग 1372 लाख रुपए वार्षिक लगान लाहौर दरबार को देता था। बाद में यह राशि बढ़ाकर 20 लाख रुपए वार्षिक कर दी गई थी, परंतु इसके साथ ही उसके प्राँत का तीसरा भाग भी उससे ले लिया गया। इस कारण दीवान मूलराज ने गवर्नर के पद से त्यागपत्र दे दिया। मार्च, 1848 ई० में रेजीडेंट फ्रेडरिक करी ने मूलराज का त्याग-पत्र स्वीकार कर लिया। उसने काहन सिंह को मुलतान का नया गवर्नर नियुक्त करने का निर्णय किया। उसकी सहायता के लिए दो अंग्रेज अधिकारियों एग्नयू और एंडरसन को उसके साथ भेजा गया। मूलराज ने बिना किसी विरोध के 19 अप्रैल, 1848 ई० को किले की चाबियाँ काहन सिंह को सौंप दी, परंतु 20 अप्रैल को मूलराज के सिपाहियों ने दोनों अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर दी। अंग्रेजों ने इसके लिए मूलराज को दोषी ठहराया। इसलिए मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अंग्रेज़ों ने इस विद्रोह का दमन करने की अपेक्षा इसे फैलने दिया ताकि उन्हें लाहौर दरबार पर आक्रमण करने का अवसर मिल सके।

प्रश्न 3.
हज़ारा के चतर सिंह के विद्रोह के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the revolt of Chattar Singh of Hazara ?)
उत्तर-
सरदार चतर सिंह अटारीवाला हज़ारा का नाज़िम था। उसकी लड़की की सगाई महाराजा दलीप सिंह के साथ हुई थी, परंतु अंग्रेज़ इस रिश्ते के विरुद्ध थे, क्योंकि इससे सिखों की राजनीतिक शक्ति बढ़ जानी थी। यह शक्ति अंग्रेजों की पंजाब को हड़पने की नीति के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर सकती थी। कैप्टन ऐबट जिसे सरदार चतर सिंह का परामर्शदाता नियुक्त किया गया था, सिख राज्य को नष्ट करने की योजना तैयार कर रहा था। उस द्वारा भड़काए गए हज़ारा के मुसलमानों ने 6 अगस्त, 1848 ई० को सरदार चतर सिंह के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया। यह देख कर सरदार चतर सिंह ने कर्नल कैनोरा को विद्रोहियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दिया। कर्नल कैनोरा जो कैप्टन ऐबट के साथ मिला हुआ था, ने चतर सिंह के आदेश को मानने से इन्कार कर दिया। उसने अपनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाकर दो सिख सिपाहियों को मार डाला। उसी समय एक सिख सिपाही ने आगे बढ़कर अपनी तलवार से कैनोरा की जान ले ली। जब इस घटना का समाचार ऐबट ने पाया तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा। उसने सरदार चतर सिंह को पदच्युत कर दिया तथा उसकी जागीर ज़ब्त कर ली। इस कारण चतर सिंह का खून खौल उठा तथा उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा कर दी।

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प्रश्न 4.
चिलियाँवाला की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a note on the battle of Chillianwala.)
उत्तर-
चिलियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। लॉर्ड ह्यग गफ, जो अंग्रेजी सेनापति था, शेर सिंह की सेना का मुकाबला करने के लिए और सैनिक सहायता पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहा था। इसी बीच ह्यग गफ को यह सूचना मिली कि चतर सिंह ने अटक के किले पर अधिकार कर लिया है और वह शेर सिंह की सहायता के लिए आ रहा है। ऐसा होने पर अंग्रेजों के लिए घोर संकट पैदा हो सकता था। इसलिए ह्यग गफ ने चतर सिंह के पहुंचने से पहले ही 13 जनवरी, 1849 ई० को चिलियाँवाला में शेर सिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस घमासान लड़ाई में शेर सिंह के सैनिकों ने अंग्रेजों के खूब छक्के छुड़ाए। इस लड़ाई में अंग्रेजों की इतनी अधिक क्षति हुई कि इंग्लैंड में भी हाहाकार मच गई। इस अपमानजनक पराजय के कारण सेनापति लॉर्ड ह्यग गफ के सम्मान को भारी आघात पहुँचा। उसके स्थान पर चार्ल्स नेपियर को अंग्रेज़ी सेना का नया सेनापति नियुक्त करके भारत भेजा गया।

प्रश्न 5.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के दौरान हुई गुजरात की लड़ाई का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the battle of Gujarat in the Second Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो सिख युद्ध की अंतिम तथा निर्णायक लड़ाई थी। यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 40,000 थी तथा उनका नेतृत्व चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह कर रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेज़ सैनिकों की संख्या 68,000 थी और लॉर्ड ह्यग गफ उनका सेनापति था। क्योंकि इस लड़ाई में दोनों पक्षों की ओर से तोपों का खूब प्रयोग किया गया इसलिए गुजरात की लड़ाई को तोपों की लड़ाई भी कहा जाता है। सिखों ने अंग्रेजों का बड़ी वीरता से सामना किया, परंतु उनका गोला-बारूद समाप्त हो जाने पर अंततः उन्हें पराजित होना पड़ा। इस लड़ाई में सिखों की भारी क्षति हुई और उनमें भगदड़ मच गई। चतर सिंह, शेर सिंह तथा महाराज सिंह रावलपिंडी की ओर भाग गए। अंग्रेज़ सैनिकों ने उनका पीछा किया। उन्होंने 10 मार्च को शस्त्र डाल दिए जबकि शेष सैनिकों ने 14 मार्च को अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस लड़ाई में विजय के पश्चात् 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में : सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह के राज्य का अंत हो गया।

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प्रश्न 6.
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ? (What were the results of the Second Anglo-Sikh War ?)
अथवा
दसरे ऐंग्लो-सिख यद्ध के प्रभावों का अध्ययन संक्षेप में करें। (Study in brief the results of Second Anglo-Sikh War.)
अथवा
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई छः प्रभाव बताएँ। (Write six effects of Second Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के बड़े दूरगामी परिणाम निकले। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार—
1. महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का अंत-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का पूर्णतः अंत हो गया। अंतिम सिख महाराजा दलीप सिंह को सिंहासन से उतार दिया गया।

2. सिख सेना भंग कर दी गई—दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के पश्चात् सिख सेना को भी भंग कर दिया गया। अधिकाँश सिख सैनिकों को कृषि व्यवसाय में लगाने का प्रयत्न किया गया। कुछ को ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती कर लिया गया।

3. दीवान मूल राज तथा भाई महाराज सिंह को निष्कासन का दंड दीवान मूलराज के मृत्यु दंड को काले पानी की सज़ा में बदल दिया गया। परंतु उनकी 11 अगस्त, 1851 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में मृत्यु हो गई। भाई महाराज सिंह को सिंगापुर जेल भेज दिया गया जहाँ 5 जुलाई, 1856 ई० को उसकी मृत्यु हो गई।

4. चतर सिंह तथा शेर सिंह को दंड-अंग्रेजों ने स० चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह को बंदी बना लिया था। उन्हें पहले इलाहाबाद तथा बाद में कलकत्ता (कोलकाता) की जेलों में रखा गया। 1854 ई० में सरकार ने उन दोनों को मुक्त कर दिया।

5. पंजाब के लिए नया प्रशासन —पंजाब के अंग्रेजी साम्राज्य में विलय के पश्चात् अंग्रेज़ों ने पंजाब का प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक बोर्ड की स्थापना की। यह 1849 ई० से 1853 ई० तक बना रहा। इन सुधारों ने पंजाबियों के दिलों को जीत लिया। परिणामस्वरूप वे 1857 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार रहे।

6. पंजाब की रियासतों में मित्रता का व्यवहार-दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पटियाला, नाभा, जींद, मालेरकोटला, फरीदकोट तथा कपूरथला की रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। इससे अंग्रेज़ों ने इनसे मित्रता बनाए रखीं और इन रियासतों को अंग्रेज़ी राज्य में सम्मिलित न किया गया।

प्रश्न 7.
क्या लॉर्ड डलहौजी द्वारा पंजाब का संयोजन न्याय संगत था ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was the annexation of Punjab by Lord Dalhousie Justified ? Give reasons in your favour.)
अथवा
“पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना एक घोर विश्वासघात था।” व्याख्या करें। (“Annexation of Punjab was a violent breach of trust.” Explain.)
अथवा
क्या पंजाब का विलय उचित था ? कारण लिखो। (Was the annexation of Punjab justified ? Give reasons.)
अथवा
क्या पंजाब का संयोजन न्याय संगत था ? इसके पक्ष में छः तर्क दें। (P.S.E.B. July 2019) (Was the annexation of Punjab justified ? Give six reasons for it.)
उत्तर-
1. सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया-प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद बहुत-सी ऐसी घटनाएँ घटीं जिन्होंने सिखों को विद्रोह के लिए भड़काया। लाहौर की संधि के अनुसार पंजाब के कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्र अंग्रेज़ों ने छीन लिए थे। अंग्रेज़ों ने महारानी जिंदां से बहुत बुरा व्यवहार किया। उन्होंने दीवान मूलराज तथा सरदार चतर सिंह को विद्रोह के लिए भड़काया। परिणामस्वरूप सिखों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के लिए विवश किया गया।

2. विद्रोह समय पर न दबाया गया-जब मुलतान में विद्रोह की आग भड़की तो उस पर तुरंत नियंत्रण न किया गया। आठ माह तक विद्रोह फैलने देना, एक गहरी राजनीतिक चाल थी। इस तरह अंग्रेज़ों को पंजाब में सैनिक कार्यवाही करने का बहाना मिल गया तथा पंजाब को हड़प लिया गया।

3. अंग्रेजों ने संधि की शर्ते पूरी न की-अंग्रेजों का कहना था कि उन्होंने संधि की शर्ते पूरी की हैं। परंतु अंग्रेज़ों ने संधि की केवल वही शर्ते पूरी की जो उनके लिए लाभप्रद थीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग्रेज़ों का यह कहना कि उन्होंने संधि की शर्तों को पूरा किया, नितांत झूठ है।

4. लाहौर दरबार ने संधि की शर्ते पूरी करने में पूर्ण सहयोग दिया-लाहौर दरबार ने तो पंजाब पर अंग्रेज़ों का अधिकार होने तक संधि की शर्ते पूरी निष्ठा से पूरी की। लाहौर सरकार पंजाब में रखी गई अंग्रेज़ी सेना का पूरा खर्च दे रही थी। उसने दीवान मूलराज, चतर सिंह और शेर सिंह द्वारा की गई बगावतों की निंदा की और इनके दमन में अंग्रेजी सेना को पूर्ण सहयोग दिया।

5. पूरी सिख सेना तथा लोगों ने विद्रोह नहीं किया था-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया था कि पंजाब की सारी सिख सेना तथा लोगों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। परंतु यह कथन भी सत्य नहीं है। पंजाब के केवल मुलतान तथा हज़ारा प्रांतों में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ था। अधिकाँश सिख सेना तथा लोग अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान् रहे।

6. पंजाब पर अधिकार एक विश्वासघात था-पंजाब पर अंग्रेजों द्वारा अधिकार एक घोर विश्वासघात था। 1846 ई० में हुई भैरोवाल की संधि अनुसार पंजाब में शांति व्यवस्था बनाए रखने की सारी ज़िम्मेदारी अंग्रेज़ों की थी। परन्तु अंग्रेजों ने पंजाब में बिगड़ती हुई परिस्थितियों के लिए महाराजा दलीप सिंह को दोषी माना।

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प्रश्न 8.
डलहौज़ी के इस पक्ष में कोई छः तर्क दें कि उसके द्वारा पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।
(Give any six arguments in favour of Dalhousie’s annexation of the Punjab to the British Empire.)
अथवा
डलहौज़ी की पंजाब विलय की नीति के पक्ष में तर्क दीजिएवं (Give arguments in favour of Dalhousie’s policy of the annexation of Punjab.)
उत्तर-
1. सिखों ने वचन भंग किया-लॉर्ड डलहौजी ने यह आरोप लगाया कि सिखों ने भैरोवाल संधि की शर्ते भंग की। सिख सरदारों ने यह वचन दिया था कि वे अंग्रेज़ रेजीडेंट को पूर्ण सहयोग देंगे। परंतु उन्होंने राज्य में अशांति तथा विद्रोह भड़काने का प्रयत्न किया। लॉर्ड डलहौज़ी ने दीवान मूलराज के विद्रोह को पूरी सिख जाति का विद्रोह बताया। सरतार चतर सिंह तथा उसके पुत्र शेर सिंह ने विद्रोह करके मूलराज का साथ दिया। इस प्रकार बिगड़ रही परिस्थितियों पर नियंत्रण पाने के लिए पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय आवश्यक था।

2. पंजाब अच्छा मध्यवर्ती राज्य न रहा-लॉर्ड हार्डिंग का विचार था कि पंजाब एक लाभप्रद मध्यवर्ती राज्य प्रमाणित होगा। इससे ब्रिटिश राज्य को अफ़गानिस्तान की ओर से किसी ख़तरे का सामना नहीं करना पड़ेगा। परंतु उनका यह विचार गलत प्रमाणित हुआ क्योंकि सिखों तथा अफ़गानों में मित्रता स्थापित हो गई। इसीलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

3. ऋण न लौटाना-लॉर्ड डलहौज़ी ने यह आरोप लगाया कि भैरोवाल की संधि की शर्तों के अनुसार लाहौर दरबार ने अंग्रेजों को 22 लाख रुपए वार्षिक देने थे। परंतु लाहौर दरबार ने एक पाई भी अंग्रेजों को न दी। इसलिए पंजाब को अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करना उचित था।

4. पंजाब पर अधिकार करना लाभप्रद था-प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध में विजय के पश्चात् अंग्रेजों का मत था कि आर्थिक दृष्टि से पंजाब कोई लाभप्रद प्राँत नहीं है। परंतु पंजाब में दो वर्ष तक रह कर उन्हें ज्ञात हो गया कि यह राज्य तो कई दृष्टियों से भी अंग्रेजों के लिए लाभप्रद प्रमाणित हो सकता है। इन कारणों से लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को हड़प करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।

5. पंजाब पर अधिकार आवश्यक था-यह कहा जाता है कि यदि पंजाब का विलय न किया जाता तो सिखों ने अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध सदैव षड्यंत्र रचते रहना था। इसका प्रभाव भारत के अन्य भागों में भी पड़ सकता था। इसलिए लॉर्ड डलहौज़ी ने पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना आवश्यक समझा।

6. पंजाब के लोगों के लिए लाभप्रद-लॉर्ड डलहौज़ी के पंजाब पर अधिकार करने के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि ऐसा करके उसने पंजाब के लोगों के लिए एक अच्छा कार्य किया। ऐसा करके उन्होंने पंजाब में फैली अराजकता को दूर किया। प्रशासन में महत्त्वपूर्ण सुधारों को लागू किया। इस तरह पंजाब का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय पंजाब के लोगों के लिए वरदान प्रमाणित हुआ।

प्रश्न 9.
महाराजा दलीप सिंह पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Maharaja Dalip Singh.)
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह रणजीत सिंह का सबसे छोटा पुत्र था। वह 15 सितंबर, 1843 ई० को पंजाब का नया महाराजा बना था। उस समय उसकी आयु 5 वर्ष की थी, इसलिए महारानी जिंदां को उसका संरक्षक बनाया गया। महाराजा दलीप सिंह ने राज्य का प्रशासन चलाने के लिए हीरा सिंह को राज्य का नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। यद्यपि वह बहुत समझदार था, परंतु उसने पंडित जल्ला को मुशीर-ए-खास (विशेष परामर्शदाता) नियुक्त करके बहुत-से दरबारियों को रुष्ट कर लिया था। 1844 ई० में हीरा सिंह की हत्या के पश्चात् जवाहर सिंह को नया प्रधानमंत्री बनाया गया, परंतु वह बड़ा हठी तथा अयोग्य था। उसे सितंबर, 1845 ई० में कंवर पिशौरा सिंह की हत्या के कारण सैनिकों ने मृत्यु दंड दे दिया था। उसके पश्चात् लाल सिंह को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया गया। वह पहले से ही अंग्रेजों से मिला हुआ था। परिणामस्वरूप पहले तथा दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्धों में सिखों को पराजय का मुख देखना पड़ा। अंग्रेज़ों ने महाराजा दलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया और 29 मार्च, 1849 ई० को पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। 22 अक्तब्रूर, 1893 ई० को महाराजा दलीप सिंह की पेरिस में मृत्यु हो गई।

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प्रश्न 10.
महारानी जींद कौर (जिंदां) पर एक नोट लिखो। [Write a note on Maharani Jind Kaur (Jindan).]
अथवा
महारानी जिंदां के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharani Jindan ?)
उत्तर-
महारानी जिंदां, महाराजा दलीप सिंह की माता तथा महाराजा रणजीत सिंह की रानी थी। जब 15 सितंबर, 1843 ई० को दलीप सिंह पंजाब का नया महाराजा बना तो महारानी जिंदां को उसका संरक्षक बनाया गया। क्योंकि महारानी जिंदां पंजाब को स्वतंत्र रखना चाहती थी इसलिए वह अंग्रेज़ों की आँखों में खटकती थी। इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिसंबर, 1846 ई० में लाहौर दरबार से हुई भैरोवाल की संधि के अंतर्गत महारानी जिंदां के सभी अधिकार छीन लिए तथा उसकी डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। अगस्त, 1847 ई० में अंग्रेज़ों ने महारानी को शेखूपुरा के किले में नज़रबंद कर दिया और मई, 1848 को देश निकाला देकर बनारस भेज दिया। जेल में महारानी से क्रूर व्यवहार किया गया। अप्रैल, 1849 ई० में महारानी भेष बदल कर नेपाल पहुँचने में सफल हो गई। 1861 ई० में जब महाराजा दलीप सिंह इंग्लैंड से भारत आया तो महारानी जिंदां उससे मिलने नेपाल से भारत आई। महाराजा दलीप सिंह अपनी माता को इंग्लैंड ले गया। यहाँ अंग्रेजों ने दोनों को एक साथ न रहने दिया। अंततः 1 अगस्त, 1863 ई० को महारानी इस संसार से चल बसीं।

प्रश्न 11.
भाई महाराज सिंह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Bhai Maharaj Singh.)
उत्तर-
भाई महाराज सिंह नौरंगाबाद के प्रसिद्ध संत भाई बीर सिंह के शिष्य थे। 1845 ई० में वह भाई बीर सिंह की मृत्यु के पश्चात् गद्दी पर बैठे। वह पंजाब की स्वतंत्रता को बनाए रखने के पक्ष में थे। इस उद्देश्य के साथ उन्होंने गाँव-गाँव जाकर प्रचार करना आरंभ किया। अत: सरकार ने उनकी संपत्ति जब्त कर ली तथा उनको बंदी करवाने वाले को 10,000 रुपए ईनाम देने की घोषणा की। इसके बावजूद भाई महाराज सिंह बिना किसी भय के अपना प्रचार करते रहे। उन्होंने मुलतान के दीवान मूलराज, हज़ारा के सरदार चतर सिंह अटारीवाला तथा उसके पुत्र शेर सिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सभी लड़ाइयों में भाग लिया। वह गुजरात की लड़ाई के पश्चात् सिख सैनिकों द्वारा अंग्रेजों के समक्ष हथियार डालने के विरुद्ध थे। ऐसा किया जाने पर वह जम्मू चले गए। उन्होंने काबुल के शासक के साथ मिलकर 3 जनवरी, 1850 ई० को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई। इस योजना के बारे में अंग्रेजों को पूर्व ही सूचना मिल गई। परिणामस्वरूप भाई महाराज सिंह को 28 दिसंबर, 1849 ई० को बंदी बना लिया गया। उनको पहले कलकत्ता तथा बाद में सिंगापुर की जेल में रखा गया। यहाँ उनकी 5 जुलाई, 1856 ई० को मृत्यु हो गई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध को आरंभ करने में मुलतान के दीवान मूलराज के विद्रोह को विशेष स्थान प्राप्त है। मुलतान सिख राज्य का एक प्राँत था। 1844 ई० में यहाँ के नाज़िम (गवर्नर) सावन मंल की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मूलराज को नया नाज़िम बनाया गया। इस अवसर पर अंग्रेज़ रेज़िडेंट ने मुलतान प्राँत द्वारा लाहौर दरबार को दिया जाने वाला वार्षिक लगान 13,47,000 रुपए से बढ़ाकर 19,71,500 रुपए कर दिया। 1846 ई० में इसमें वृद्धि करके इसे 30 लाख रुपए कर दिया गया। दूसरी ओर अंग्रेजों ने मुलतान में बिकने वाली कुछ आवश्यक वस्तुओं पर से कर हटा लिया और मुलतान का 1/3 भाग भी वापस ले लिया। इन कारणों से दीवान मूलराज सरकार को बढ़ा हुआ लगान नहीं दे सकता था। अतः उसने इस संबंध में ब्रिटिश सरकार के पास अनेक बार प्रार्थना की परंतु इन्हें रद्द कर दिया गया। अतः विवश होकर दिसंबर, 1847 ई० को दीवान मूलराज ने अपना त्यागपत्र दे दिया। मार्च 1848 ई० में नए रेज़िडेंट फ्रेड्रिक करी ने सरदार काहन सिंह को मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त करने का निर्णय किया। मूलराज से चार्ज लेने के लिए काहन सिंह के साथ दो अंग्रेज़ अधिकारियों वैनस एग्नयू तथा एंड्रसन को भेजा गया। मूलराज ने उनका अच्छा स्वागत किया। 19 अप्रैल को मूलराज ने दुर्ग की चाबियाँ काहन सिंह को सौंप दी, परंतु अगले दिन 20 अप्रैल को मूलराज के कुछ सिपाहियों ने आक्रमण करके दोनों अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या कर दी तथा काहन सिंह को बंदी बना लिया। प्रैड्रिक करी ने मुलतान के विद्रोह के लिए मूलराज को दोषी ठहराया।

  1. दीवान मूलराज को कब मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त किया गया था ?
  2. दीवान मूलराज ने किस कारण अपना अस्तीफ़ा दिया था ?
  3. 1848 ई० में रेजिडेंट फ्रेड्रिक करी ने किसे मुलतान का नया नाजिम नियुक्त किया था ?
  4. अंग्रेज़ों ने किन दो अफ़सरों के कत्ल की जिम्मेवारी दीवान मूलराज पर डाली ?
  5. प्रैड्रिक करी ने मुलतान के विद्रोह के लिए …………. को दोषी ठहराया।

उत्तर-

  1. दीवान मूलराज को 1844 ई० में मुलतान का नया नाज़िम नियुक्त किया गया था।
  2. उसके द्वारा दिए जाने वाले वार्षिक लगान में बहुत अधिक बढ़ौत्तरी कर दी गई थी।
  3. सरदार काहन सिंह को।
  4. वैनस एग्नयू तथा एंड्रसन।
  5. मूलराज।

2
चिल्लियाँवाला की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। यह लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को लड़ी गई थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ का कहना था कि उसके पास शेर सिंह का सामना करने के लिए शक्तिशाली सेना नहीं है। इसलिए वह और सैन्य शक्ति के पहुंचने की प्रतीक्षा कर रहा है परंतु जब लॉर्ड ह्यूग गफ़ को यह सूचना मिली कि चतर सिंह ने अटक के किले पर अधिकार कर लिया है और वह अपने सैनिकों सहित शेर सिंह की सहायता को पहुँच रहा है तो उसने 13 जनवरी को शेर सिंह के सैनिकों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। इस लड़ाई में शेर सिंह के सैनिकों ने अंग्रेज़ी सेना में खलबली मचा दी। उनके 695 सैनिक, जिनमें 132 अफसर थे, इस लड़ाई में मारे गए तथा अन्य 1651 घायल हो गए। अंग्रेजों की चार तोपें भी सिखों के हाथ लगीं।

  1. दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण लड़ाई कौन-सी थी ?
  2. चिल्लियाँवाला की लड़ाई कब हुई ?
  3. शेर सिंह कौन था ?
  4. चिल्लियाँवाला की लड़ाई में किसकी हार हुई ?
  5. चिल्लियाँवाला की लड़ाई में कितने अंग्रेज़ अफसर मारे गए थे ?
    • 132
    • 142
    • 695
    • 165

उत्तर-

  1. दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण लड़ाई चिल्लियाँवाला की लड़ाई थी।
  2. यह लड़ाई 13 जनवरी, 1849 ई० को हुई।
  3. शेर सिंह हज़ारा के नाज़िम सरदार चतर सिंह का पुत्र था।
  4. चिल्लियाँवाला की लड़ाई में अंग्रेजों की पराजय हुई।
  5. 132

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 23 द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध : कारण, परिणाम तथा पंजाब का विलय

3
गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सब से महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक लड़ाई प्रमाणित हुई। इस लड़ाई में चतर सिंह के सैनिक शेर सिंह के सैनिकों से आ मिले थे। उनकी सहायता के लिए भाई महाराज सिंह भी गुजरात पहुँच गया था। इसके अतिरिक्त अफ़गानिस्तान के बादशाह दोस्त मुहम्मद खाँ ने सिखों की सहायता के लिए अपने पुत्र अकरम खाँ के नेतृत्व में 3000 घुड़सवार सेना भेजी। इस लड़ाई में सिख सेना की संख्या 40,000 थी। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व अभी भी लॉर्ड ह्यग गफ़ ही कर रहा था क्योंकि सर चार्ल्स नेपियर अभी भारत नहीं पहुंचा था। अंग्रेजों के पास 68,000 सैनिक थे। इस लड़ाई में दोनों ओर से तोपों का भारी प्रयोग किया गया था जिससे यह लड़ाई इतिहास में तोपों की लड़ाई नाम से विख्यात है। यह लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० को प्रातः 7.30 बजे आरंभ हुई थी। सिखों की तोपों का बारूद शीघ्र ही समाप्त हो गया। जब अंग्रेजों को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपनी तोपों से सिख सेनाओं पर भारी आक्रमण कर दिया। सिख सैनिकों ने अपनी तलवारें निकाल ली परंतु तोपों का मुकाबला वे कब तक कर सकते थे। इस लड़ाई में सिख सेना को भारी क्षति पहुँची।

  1. गुजरात की लड़ाई दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा ……… लड़ाई प्रमाणित हुई।
  2. गुजरात की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
  3. गुजरात की लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व कौन कर रहा था ?
  4. गुजरात की लड़ाई को तोपों की लड़ाई क्यों कहा जाता था ?
  5. गुजरात की लड़ाई में कौन विजयी रहे ?

उत्तर-

  1. निर्णायक।
  2. गुजरात की लड़ाई 21 फरवरी, 1849 ई० में लड़ी गई थी।
  3. गुजरात की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था।
  4. गुजरात की लड़ाई को तोपों की लड़ाई इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें दोनों ओर से भारी तोपों का प्रयोग किया गया था।
  5. गुजरात की लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रथम ऐंग्लो-सिरव युद्ध के कारण (Causes of the First Anglo-Sikh War)

प्रश्न 1.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारणों का वर्णन करें।
(Describe the causes of the First Anglo-Sikh War between British and Sikhs.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के क्या कारण थे ?
(What were the causes of First Anglo-Sikh War ?)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो सिख युद्ध के कारणों का वर्णन करें।
(Describe the causes of First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह के समय ही पंजाब का घेराव आरंभ कर दिया था। उन्होंने जानबूझ कर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनका अंत प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के रूप में हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति (British Policy of Encircling the Punjab) अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेज़ों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेज़ों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेज़ों ने फिरोजपुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इसी वर्ष अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को सिंध की ओर बढ़ने से रोक दिया। अतः पंजाब को हड़प करना अब कुछ ही दिनों की बात रह गई थी। इस कारण अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता (Anarchy in the Punjab) जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय (Defeat of the British in the First Afghan War)-अंग्रेज़ों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेजों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुंचा। अंग्रेज़ अपनी अफगानिस्तान में हुई पराजय के अपयश को किसी अन्य विजय से धोना चाहते थे। यह विजय उन्हें पंजाब में ही मिल सकती थी, क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावांडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध विलय (Annexation of Sind by the British)-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अत: 1843 ई० में अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियां (Military Preparations of the Britishers)-1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग ने गवर्नर जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने कर्नल रिचमंड के स्थान पर लड़ाकू स्वभाव वाले मेजर ब्रॉडफुट को उत्तर-पश्चिमी सीमा का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। लॉर्ड ग्रफ़ जोकि अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ था, ने अंबाला में अपना हेड क्वार्टर स्थापित कर लिया था। मार्च, 1845 ई० में देश के अन्य भागों से और सेनाएँ फिरोज़पुर, लुधियाना तथा अंबाला में भेजी गईं। इन सैनिक तैयारियों के कारण सिखों एवं अंग्रेजों के बीच परस्पर खाई और बढ़ गई।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति (Appointment of Major Broadfoot)-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। वह यह विचार लेकर पंजाब की सीमा पर आया था कि अंग्रेज़ों ने सिखों के साथ युद्ध करने का निर्णय कर लिया है। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“ब्रॉडफुट की लुधियाना में पोलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्ति एक और सोची-समझी चाल थी जोकि पंजाब में शीघ्र आरंभ होने वाले युद्ध को सामने रखकर की गई थी।”1
ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयां की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

7 लाल सिंह व तेजा सिंह द्वारा लड़ाई के लिए उकसाना (Incitement for War by Lal Singh & Teja Singh)-जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को लाहौर सरकार का नया वज़ीर नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई तेजा सिंह को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ये दोनों पहले ही गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। उस समय सिख सेना की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। वे चाहते थे कि सिखों की इस शक्तिशाली सेना को अंग्रेजों के साथ लड़वाकर इसे दुर्बल कर दिया जाए। ऐसा करने पर ही वे अपने पदों पर बने रह पाएँगे। इस कारण उन्होंने सिख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उनके भड़काने पर सिख सेना ने 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार किया। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। अत: 13 दिसंबर, 1845 ई० को गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिख सेना पर यह दोष लगाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी कि उसने अंग्रेज़ी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया है।

1. “The appointment of Broadfoot as political agent at Ludhiana was also a calculated move made with an eye on the fast approaching war with the Punjab.” Dr. Fauja Singh, After Ranjit Singh (New Delhi : 1982) p. 136.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

युद्ध की घटनाएँ तथा परिणाम (Events and Results of the War)

प्रश्न 2.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध की मुख्य घटनाएँ क्या थीं ? इस युद्ध के क्या परिणाम निकले ? संक्षेप में वर्णन करें।
(What were the main events of the First Anglo-Sikh War ? Briefly explain the consequences of this War.)
अथवा
पहले आंग्ल-सिख युद्ध की मुख्य घटनाओं और नतीजों का अध्ययन कीजिए। (Study the main events and results of the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के कारण विवश होकर सिख सैनिकों को 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार करना पड़ा। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। लॉर्ड हार्डिंग ने सिखों पर आक्रमण का दोष लगाया और 13 दिसंबर, 1845 ई० को युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध के दूरगामी प्रभाव पड़े। प्रथम आंग्लसिख युद्ध की घटनाओं एवं परिणामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
I. युद्ध की घटनाएँ (Events of the War)

1. मुदकी की लड़ाई (Battle of Mudki)—अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 5,500 थी और उनका नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना की संख्या 12,000. थी और उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें अफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह अपने कुछ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। परिणामस्वरूप सिख सेना पराजित हुई। प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम कोहली के अनुसार,
“मुदकी की लड़ाई ने अंग्रेजों के इस बढ़ रहे विश्वास को गलत प्रमाणित कर दिया कि सिखों का सामना करना कोई मुश्किल कार्य नहीं है।”2

2. फिरोजशाह की लड़ाई (Battle of Ferozeshah)-सिखों और अंग्रेजों में दूसरी प्रसिद्ध लड़ाई फिरोज़शाह में 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई। इसमें अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व ह्यूग गफ़, जॉन लिटलर तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह एवं तेजा सिंह कर रहे थे। इस लड़ाई में सिखों ने अंग्रेज़ों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि एक बार तो उन्हें नानी याद आ गई। अंग्रेजों ने बिना शर्त शस्त्र फेंकने के संबंध में विचार करना आरंभ किया। ठीक उस समय लाल सिंह और तेजा सिंह ने गद्दारी की तथा अपने सैनिकों को लेकर रणभूमि से भाग गए। इस प्रकार विजित हुई खालसा सेना सेनापतियों की गद्दारी के कारण पराजित हुई। जनरल हैवलाक का कहना था कि,
“इस प्रकार की एक और लड़ाई साम्राज्य को हिला देगी।”3

3. बद्दोवाल की लड़ाई (Battle of Baddowal)-लाहौर दरबार के निर्देश पर रणजोध सिंह, 10,000 सैनिकों को साथ लेकर लुधियाना से 18 मील दूर स्थित बद्दोवाल पहुँचा। 21 जनवरी, 1846 ई० को बद्दोवाल के स्थान पर हुई इस लड़ाई में सिख बहुत वीरता से लड़े। सिखों ने अंग्रेजों के शस्त्र तथा खाद्य सामग्री भी लूट ली। अंग्रेज़ हार कर लुधियाना की ओर भाग गए।

4. अलीवाल की लड़ाई (Battle of Aliwal) रणजोध सिंह अपने सैनिकों को साथ लेकर अलीवाल की ओर चल पड़ा। अलीवाल में सिख अभी अपने मोर्चे लगा रहे थे कि अचानक 28 जनवरी, 1846 ई० के दिन हैरी स्मिथ के अधीन अंग्रेज़ी सेना ने सिखों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। रणजोध सिंह की गद्दारी के कारण इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई।

5. सभराओं की लड़ाई (Battle of Sobraon)—सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। इस लड़ाई से पूर्व 30,000 सिख सैनिक सभराओं पहुँच चुके थे। लाल सिंह तथा तेजा सिंह सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेजी सेना की कुल संख्या 15,000 थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे। 10 फरवरी, 1846 ई० वाले दिन अंग्रेज़ों ने सिख सेना पर आक्रमण कर दिया। ठीक इसी समय पूर्व निर्मित योजनानुसार लाल सिंह और तेजा सिंह मैदान से भाग गए। फलस्वरूप सिख सेना बिखरने लग पड़ी। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला आगे आए। उनकी बहादुरी और कुशलता देखकर अंग्रेज़ भी हैरान रह गए। शाम सिंह अटारीवाला की शहीदी के कारण सिख सेना का साहस टूट गया। इस प्रकार अंततः इस लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे। एच० एस० भटिया एवं एस० आर० बक्शी के अनुसार, “सभराओं की लड़ाई प्रत्येक पक्ष से निर्णायक थी।”4

2. “The battle of Mudki served to dispel a notion that had gained credence with the British that the Sikhs were no great force to be reckoned with.” S.R. Kohli, Sunset of the Sikh Empire (Bombay : 1967) pp. 107-108.
3. “Another such action will shake the Empire.” General Havelock.
4. “The battle of Sobraon was decisive in every respect.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. IV, p. 174.

II. युद्ध के परिणाम । (Results of the War)
अंग्रेज़ों एवं सिखों के मध्य हुए प्रथम युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी- सरकार तथा लाहौर दरबार के मध्य १ मार्च, 1846 ई० को ‘लाहौर की संधि’ हुई।

लाहौर की संधि (Treaty of Lahore)
अंग्रेज़ों एवं सिखों के मध्य हुई लाहौर की संधि की मुख्य शर्ते निम्नलिखित थीं—

  1. अंग्रेज़ी सरकार और महाराजा दलीप सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों में सदैव शाँति तथा मित्रता बनी रहेगी।
  2. लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  3. महाराजा ने सतलुज और ब्यास नदियों के मध्य सभी मैदानी और पर्वतीय क्षेत्र एवं दुर्ग अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिए।
  4. अंग्रेज़ों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपए की बड़ी राशि की माँग की। इतनी राशि लाहौर सरकार के कोष से नहीं मिल सकती थी। इसलिए एक करोड़ रुपए के बदले कश्मीर और हज़ारा के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिए।
  5. लाहौर राज्य की पैदल सेना की संख्या 20,000 और घुड़सवार सेना की संख्या 12,000 निश्चित कर दी गई।
  6. जब कभी आवश्यकता हो, अंग्रेज़ी सेनाएँ बिना किसी बाधा के लाहौर राज्य में से गुज़र सकेंगी। .
  7. महाराजा ने वचन दिया कि वह अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना किसी अंग्रेज़, यूरोपियन तथा अमेरिकन को नौकर नहीं रखेगा।
  8. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा का संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।
  9. अंग्रेज़ सरकार लाहौर राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी, परंतु जहाँ कहीं आवश्यक होगा, परामर्श देगी।
  10. अंग्रेज़ सरकार की आज्ञा के बिना लाहौर सरकार अपनी सीमाओं में परिवर्तन नहीं करेगी।

पूरक संधि (Supplementary Treaty)
लाहौर की संधि के दो दिन पश्चात् ही अर्थात् 11 मार्च, 1846 ई० को इस संधि में कुछ अतिरिक्त शर्ते सम्मिलित की गईं। इन शर्तों का विवरण निम्नलिखित है—

  1. लाहौर के नागरिकों की समुचित सुरक्षा के लिए 1846 ई० के अंत तक अंग्रेजों की पर्याप्त सेना लाहौर में ही रहेगी।
  2. लाहौर का दुर्ग और शहर पूरी तरह अंग्रेज़ी सेना के अधिकार में होगा। लाहौर. सरकार सैनिकों के आवास की व्यवस्था करेगी तथा उन सैनिकों का सारा खर्च देगी।
  3. दोनों सरकारें अपनी सीमाएँ निर्धारित करने के लिए शीघ्र ही अपने-अपने कमिश्नर नियुक्त करेंगी।

भैरोवाल की संधि (Treaty of Bhairowal)
अंग्रेज़ी सरकार ने लाहौर दरबार के साथ 16 दिसंबर, 1846 ई० को एक नयी संधि की। यह संधि इतिहास में भैरोवाल की संधि के नाम से विख्यात है। इस संधि की मुख्य शर्ते निम्नलिखिप्त थीं—

  1. अंग्रेज़ी सरकार लाहौर सरकार के सभी विभागों की देख-रेख के लिए ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त करेगी।
  2. जब तक महाराजा दलीप सिंह नाबालिग रहेगा, राज्य की शासन-व्यवस्था एक कौंसिल ऑफ़ रीजैंसी द्वारा चलाई जाएगी। इसके 8 सदस्य होंगे।
  3. महारानी जिंदां को शासन-प्रबंध से पृथक् कर दिया गया तथा उसे 12 लाख रुपए वार्षिक पेंशन दी गई।
  4. महाराजा की रक्षा करने तथा देश में शाँति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सेना लाहौर में रहेगी।
  5. यदि गवर्नर जनरल राजधानी की सुरक्षा के लिए आवश्यक समझे तो ब्रिटिश सैनिक लाहौर राज्य के किसी भी दुर्ग अथवा सैनिक छावनी पर अधिकार कर सकेंगे।
  6. ब्रिटिश सेना के खर्च के लिए लाहौर राज्य ब्रिटिश सरकार को 22 लाख रुपए प्रति वर्ष देगा।
  7. इस संधि की शर्ते महाराजा दलीप सिंह के वयस्क होने तक अर्थात् 4 सितंबर, 1854 ई० तक लागू रहेंगी। प्रसिद्ध लेखक डॉ० जी० एस० छाबड़ा का कहना है,

“इस प्रकार भैरोवाल की संधि ने सिख शक्ति की मृत्यु की घंटी बजी दी तथा इस संधि ने अंग्रेज़ों को । पंजाब का वास्तविक शासक बना दिया।”5

5. “The Treaty of Bhairowal thus rang the death knell of the Sikh power and it made the British the real masters of the Punjab.” Dr. G.S. Chhabra, Advanced History of the Punjab (Jalandhar : 1972) Vol. 2, p. 269.

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प्रथम ऐंग्लो-सिरव युद्ध के कारण तथा परिणाम (Causes and Results of the First Anglo-Sikh War)

प्रश्न 3.
अंग्रेजों तथा सिखों के बीच प्रथम युद्ध के कारण एवं परिणाम बताएँ।
(Discuss the causes and results of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के कारणों तथा परिणामों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(Briefly describe the causes and results of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारणों और परिणामों का वर्णन करें।
(Describe the causes and results of the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह के समय ही पंजाब का घेराव आरंभ कर दिया था। उन्होंने जानबूझ कर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनका अंत प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के रूप में हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति (British Policy of Encircling the Punjab) अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेज़ों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेज़ों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेज़ों ने फिरोजपुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इसी वर्ष अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को सिंध की ओर बढ़ने से रोक दिया। अतः पंजाब को हड़प करना अब कुछ ही दिनों की बात रह गई थी। इस कारण अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता (Anarchy in the Punjab) जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय (Defeat of the British in the First Afghan War)-अंग्रेज़ों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेजों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुंचा। अंग्रेज़ अपनी अफगानिस्तान में हुई पराजय के अपयश को किसी अन्य विजय से धोना चाहते थे। यह विजय उन्हें पंजाब में ही मिल सकती थी, क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावांडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध विलय (Annexation of Sind by the British)-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अत: 1843 ई० में अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियां (Military Preparations of the Britishers)-1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग ने गवर्नर जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने कर्नल रिचमंड के स्थान पर लड़ाकू स्वभाव वाले मेजर ब्रॉडफुट को उत्तर-पश्चिमी सीमा का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। लॉर्ड ग्रफ़ जोकि अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ था, ने अंबाला में अपना हेड क्वार्टर स्थापित कर लिया था। मार्च, 1845 ई० में देश के अन्य भागों से और सेनाएँ फिरोज़पुर, लुधियाना तथा अंबाला में भेजी गईं। इन सैनिक तैयारियों के कारण सिखों एवं अंग्रेजों के बीच परस्पर खाई और बढ़ गई।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति (Appointment of Major Broadfoot)-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। वह यह विचार लेकर पंजाब की सीमा पर आया था कि अंग्रेज़ों ने सिखों के साथ युद्ध करने का निर्णय कर लिया है। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“ब्रॉडफुट की लुधियाना में पोलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्ति एक और सोची-समझी चाल थी जोकि पंजाब में शीघ्र आरंभ होने वाले युद्ध को सामने रखकर की गई थी।”1
ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयां की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

7. लाल सिंह व तेजा सिंह द्वारा लड़ाई के लिए उकसाना (Incitement for War by Lal Singh & Teja Singh)-जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को लाहौर सरकार का नया वज़ीर नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई तेजा सिंह को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ये दोनों पहले ही गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। उस समय सिख सेना की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। वे चाहते थे कि सिखों की इस शक्तिशाली सेना को अंग्रेजों के साथ लड़वाकर इसे दुर्बल कर दिया जाए। ऐसा करने पर ही वे अपने पदों पर बने रह पाएँगे। इस कारण उन्होंने सिख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उनके भड़काने पर सिख सेना ने 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार किया। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। अत: 13 दिसंबर, 1845 ई० को गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिख सेना पर यह दोष लगाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी कि उसने अंग्रेज़ी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया है।

1. “The appointment of Broadfoot as political agent at Ludhiana was also a calculated move made with an eye on the fast approaching war with the Punjab.” Dr. Fauja Singh, After Ranjit Singh (New Delhi : 1982) p. 136.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

प्रश्न 4.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारण, घटनाएँ तथा परिणामों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Discuss in brief the causes, events and results of the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने महाराजा रणजीत सिंह के समय ही पंजाब का घेराव आरंभ कर दिया था। उन्होंने जानबूझ कर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनका अंत प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के रूप में हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति (British Policy of Encircling the Punjab) अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेज़ों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेज़ों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेज़ों ने फिरोजपुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इसी वर्ष अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को सिंध की ओर बढ़ने से रोक दिया। अतः पंजाब को हड़प करना अब कुछ ही दिनों की बात रह गई थी। इस कारण अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता (Anarchy in the Punjab) जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय (Defeat of the British in the First Afghan War)-अंग्रेज़ों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेजों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुंचा। अंग्रेज़ अपनी अफगानिस्तान में हुई पराजय के अपयश को किसी अन्य विजय से धोना चाहते थे। यह विजय उन्हें पंजाब में ही मिल सकती थी, क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावांडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध विलय (Annexation of Sind by the British)-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अत: 1843 ई० में अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियां (Military Preparations of the Britishers)-1844 ई० में लॉर्ड हार्डिंग ने गवर्नर जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने कर्नल रिचमंड के स्थान पर लड़ाकू स्वभाव वाले मेजर ब्रॉडफुट को उत्तर-पश्चिमी सीमा का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया। लॉर्ड ग्रफ़ जोकि अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ था, ने अंबाला में अपना हेड क्वार्टर स्थापित कर लिया था। मार्च, 1845 ई० में देश के अन्य भागों से और सेनाएँ फिरोज़पुर, लुधियाना तथा अंबाला में भेजी गईं। इन सैनिक तैयारियों के कारण सिखों एवं अंग्रेजों के बीच परस्पर खाई और बढ़ गई।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति (Appointment of Major Broadfoot)-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। वह यह विचार लेकर पंजाब की सीमा पर आया था कि अंग्रेज़ों ने सिखों के साथ युद्ध करने का निर्णय कर लिया है। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“ब्रॉडफुट की लुधियाना में पोलिटिकल एजेंट के रूप में नियुक्ति एक और सोची-समझी चाल थी जोकि पंजाब में शीघ्र आरंभ होने वाले युद्ध को सामने रखकर की गई थी।”1
ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयां की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

7. लाल सिंह व तेजा सिंह द्वारा लड़ाई के लिए उकसाना (Incitement for War by Lal Singh & Teja Singh)-जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद लाल सिंह को लाहौर सरकार का नया वज़ीर नियुक्त किया गया। उसने अपने भाई तेजा सिंह को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। ये दोनों पहले ही गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। उस समय सिख सेना की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी। वे चाहते थे कि सिखों की इस शक्तिशाली सेना को अंग्रेजों के साथ लड़वाकर इसे दुर्बल कर दिया जाए। ऐसा करने पर ही वे अपने पदों पर बने रह पाएँगे। इस कारण उन्होंने सिख सेना को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उनके भड़काने पर सिख सेना ने 11 दिसंबर, 1845 ई० को सतलुज नदी को पार किया। अंग्रेज़ इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में थे। अत: 13 दिसंबर, 1845 ई० को गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिख सेना पर यह दोष लगाते हुए युद्ध की घोषणा कर दी कि उसने अंग्रेज़ी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया है।

1. “The appointment of Broadfoot as political agent at Ludhiana was also a calculated move made with an eye on the fast approaching war with the Punjab.” Dr. Fauja Singh, After Ranjit Singh (New Delhi : 1982) p. 136.

I. युद्ध की घटनाएँ (Events of the War)
1. मुदकी की लड़ाई (Battle of Mudki)—अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 5,500 थी और उनका नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना की संख्या 12,000. थी और उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें अफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह अपने कुछ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। परिणामस्वरूप सिख सेना पराजित हुई। प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम कोहली के अनुसार,
“मुदकी की लड़ाई ने अंग्रेजों के इस बढ़ रहे विश्वास को गलत प्रमाणित कर दिया कि सिखों का सामना करना कोई मुश्किल कार्य नहीं है।”2

2. फिरोजशाह की लड़ाई (Battle of Ferozeshah)-सिखों और अंग्रेजों में दूसरी प्रसिद्ध लड़ाई फिरोज़शाह में 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई। इसमें अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व ह्यूग गफ़, जॉन लिटलर तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह एवं तेजा सिंह कर रहे थे। इस लड़ाई में सिखों ने अंग्रेज़ों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि एक बार तो उन्हें नानी याद आ गई। अंग्रेजों ने बिना शर्त शस्त्र फेंकने के संबंध में विचार करना आरंभ किया। ठीक उस समय लाल सिंह और तेजा सिंह ने गद्दारी की तथा अपने सैनिकों को लेकर रणभूमि से भाग गए। इस प्रकार विजित हुई खालसा सेना सेनापतियों की गद्दारी के कारण पराजित हुई। जनरल हैवलाक का कहना था कि,
“इस प्रकार की एक और लड़ाई साम्राज्य को हिला देगी।”3

3. बद्दोवाल की लड़ाई (Battle of Baddowal)-लाहौर दरबार के निर्देश पर रणजोध सिंह, 10,000 सैनिकों को साथ लेकर लुधियाना से 18 मील दूर स्थित बद्दोवाल पहुँचा। 21 जनवरी, 1846 ई० को बद्दोवाल के स्थान पर हुई इस लड़ाई में सिख बहुत वीरता से लड़े। सिखों ने अंग्रेजों के शस्त्र तथा खाद्य सामग्री भी लूट ली। अंग्रेज़ हार कर लुधियाना की ओर भाग गए।

4. अलीवाल की लड़ाई (Battle of Aliwal) रणजोध सिंह अपने सैनिकों को साथ लेकर अलीवाल की ओर चल पड़ा। अलीवाल में सिख अभी अपने मोर्चे लगा रहे थे कि अचानक 28 जनवरी, 1846 ई० के दिन हैरी स्मिथ के अधीन अंग्रेज़ी सेना ने सिखों पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बहुत भयानक थी। रणजोध सिंह की गद्दारी के कारण इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई।

5. सभराओं की लड़ाई (Battle of Sobraon)—सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। इस लड़ाई से पूर्व 30,000 सिख सैनिक सभराओं पहुँच चुके थे। लाल सिंह तथा तेजा सिंह सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेजी सेना की कुल संख्या 15,000 थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे। 10 फरवरी, 1846 ई० वाले दिन अंग्रेज़ों ने सिख सेना पर आक्रमण कर दिया। ठीक इसी समय पूर्व निर्मित योजनानुसार लाल सिंह और तेजा सिंह मैदान से भाग गए। फलस्वरूप सिख सेना बिखरने लग पड़ी। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला आगे आए। उनकी बहादुरी और कुशलता देखकर अंग्रेज़ भी हैरान रह गए। शाम सिंह अटारीवाला की शहीदी के कारण सिख सेना का साहस टूट गया। इस प्रकार अंततः इस लड़ाई में अंग्रेज़ विजयी रहे। एच० एस० भटिया एवं एस० आर० बक्शी के अनुसार, “सभराओं की लड़ाई प्रत्येक पक्ष से निर्णायक थी।”4

2. “The battle of Mudki served to dispel a notion that had gained credence with the British that the Sikhs were no great force to be reckoned with.” S.R. Kohli, Sunset of the Sikh Empire (Bombay : 1967) pp. 107-108.
3. “Another such action will shake the Empire.” General Havelock.
4. “The battle of Sobraon was decisive in every respect.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. IV, p. 174.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के मुख्य कारणों का संक्षिप्त ब्योरा दें।
(Give a brief description of the main causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई तीन कारण बताएँ।
(Briefly describe the three main causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के लिए उत्तरदायी किन्हीं तीन कारणों की चर्चा कीजिए। (Describe any three causes responsible for the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-

  1. पंजाब को अपने अधीन करने के लिए अंग्रेजों ने पंजाब को चारों ओर से घेरा डालना आरंभ कर दिया था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता फैल गई थी।
  3. अंग्रेज़ पंजाब पर विजय प्राप्त करके अफ़गानिस्तान में हुई अपनी बदनामी को दूर करना चाहते थे।
  4. सिखों के नेता लाल सिंह और तेजा सिंह खालसा फ़ौज को अंग्रेजों के साथ लड़वा कर इसे कमज़ोर करना चाहते थे।
  5. 1844 ई० में मेजर ब्राडफुट की नियुक्ति ने अग्नि में घी डालने का कार्य किया।

प्रश्न 2.
मुदकी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the battle of Mudki.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों का नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज़ सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यूग गफ़ कर रहा था। अंग्रेज़ों का विचार था कि वह सिख सेना को सहजता से हरा देंगे, परंतु सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें हफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह युद्ध क्षेत्र से भाग गया। अतः सिख सेना की पराजय हुई।

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प्रश्न 3.
फिरोज़शाह अथवा फेरूशहर की लड़ाई के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Ferozshah or Pherushahar ?)
उत्तर-
21 दिसंबर, 1845 ई० को फिरोजशाह अथवा फेरूशहर नामक स्थान पर सिखों तथा अंग्रेजों के मध्य एक ज़बरदस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजों के सैनिकों का नेतृत्व लॉर्ड हग गफ़, जान लिटलर और लॉर्ड हार्डिंग जैसे अनुभवी सेनापति कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सैनिकों का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह जैसे देशद्रोही तथा विश्वासघाती कर रहे थे। उनके द्वारा की गई गद्दारी के कारण सिख सेना की पराजय हुई।

प्रश्न 4.
सभराओं की लड़ाई के संबंध में एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the battle of Sobraon.)
उत्तर-
सभराओं की लड़ाई सिखों तथा अंग्रेजों के मध्य लड़े जाने वाले प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। यह लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई थी। अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह कर रहे थे। इस लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी वीरता से अंग्रेज़ों के खूब दाँत खट्टे किए। इस लड़ाई के अंत में सिखों को हार का सामना करना पड़ा।

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प्रश्न 5.
लाहौर की संधि (9 मार्च, 1846 ई०) पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। [Write a brief note on the Treaty of Lahore (9 March, 1846.)] .
अथवा
लाहौर की संधि के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Treaty of Lahore ?)
अथवा
1846 ई० की लाहौर की संधि की कोई पाँच धाराएँ लिखें। (Write any five conditions of the Treaty of Lahore of 1846.)
उत्तर-

  1. अंग्रेज़ी सरकार तथा महाराजा दलीप सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों में सदैव मित्रता बनी रहेगी।
  2. लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ दिया।
  3. महाराजा ने सतलुज और ब्यास नदियों के मध्य सभी क्षेत्र एवं दुर्ग अंग्रेज़ों को सुपुर्द कर दिए।
  4. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपए की बड़ी राशि की माँग की।
  5. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा का संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 6.
भैरोवाल की संधि के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Treaty of Bhairowal ?) ..
अथवा
भैरोवाल की संधि पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए।
(Write a short note on the Treaty of Bhairowal.)
अथवा
भैरोवाल की संधि की मुख्य शर्ते लिखें। (Write the main clauses of the Treaty of Bhairowal.)
उत्तर-
भैरोवाल की संधि अंग्रेज़ों तथा लाहौर दरबार के मध्य 16 दिसंबर, 1846 ई० को की गई थी। इस संधि के अनुसार लाहौर दरबार का प्रशासन चलाने के लिए एक ब्रिटिश रेज़िडेंट नियुक्त किया गया। रेज़िडेंट की सहायता के लिए आठ सदस्यीय परिषद् बनाई गई। रानी जिंदां को शासन व्यवस्था से अलग कर उसकी वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। महाराजा की सुरक्षा तथा राज्य में शांति के लिए एक ब्रिटिश सेना रखने का निर्णय किया गया। भैरोवाल की संधि द्वारा अंग्रेजों ने पंजाब को काफ़ी शक्तिहीन बना दिया।

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प्रश्न 7.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के प्रभावों का अध्ययन कीजिए। (Study in brief the results of First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के परिणामों का संक्षिप्त विवरण दें।
(Give in brief the results of First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के क्या परिणाम निकले ?
(What were the results of the First Anglo-Sikh War?)
उत्तर-

  1. लाहौर के महाराजा ने सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  2. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपये की माँग की।
  3. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा का संरक्षक तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।
  4. भैरोवाल की संधि के अनुसार यह निर्णय लिया गया कि अंग्रेजी सरकार लाहौर सरकार के सभी विभागों की देख-रेख के लिए ब्रिटिश रेज़िडेंट नियुक्त करेगी।
  5. महारानी जिंदां को शासन प्रबंध से अलग कर दिया गया तथा उसकी 17 लाख रुपए सालाना पैंशन लगा दी गई।

प्रश्न 8.
शाम सिंह अटारीवाला पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Sham Singh Attariwala.)
उत्तर-
शाम सिंह अटारीवाला सिख पंथ के एक महान् योद्धा थे। 18 वर्ष की आयु में शाम सिंह अटारीवाला भी महाराजा रणजीत की सेना में शामिल हो गए। अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य हुई 10 फरवरी, 1846 ई० को सभराओं की लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने भी भाग लिया। लाल सिंह और तेजा सिंह जो सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे। अचानक लड़ाई के मैदान में से भाग गए। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला सत् श्री अकाल के जयकार गुंजाते हुए शत्रु पर टूट पड़े। अंत में वह लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

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प्रश्न 9.
पहले अंग्रेज़-सिख युद्ध के पीछे अंग्रेजों ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल क्यों नहीं किया ?
(Why the British did not annex the Punjab to their empire after the First Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-

  1. यदि पंजाब को उस समय अंग्रेज़ी साम्राज्य में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी जाती तो सिख सैनिक अंग्रेजों की सिरदर्दी का बहुत बड़ा कारण बन सकते थे।
  2. अंग्रेज़ चाहते थे कि पंजाब अंग्रेज़ी राज्य तथा अफ़गानिस्तान के मध्य मध्यवर्ती राज्य का काम देता रहे।
  3. पंजाब को नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेज़ों को भारी संख्या में अंग्रेज़ सैनिक पंजाब में रखने पड़ते। इनसे अंग्रेजों के खर्च में काफ़ी वृद्धि हो जाती।
  4. गवर्नरजनरल का मत है कि पंजाब प्रांत आर्थिक रूप से अंग्रेजों के लिए लाभप्रद सिद्ध नहीं हो सकेगा।
  5. पंजाब को शक्ति की अपेक्षा दुर्बलता का स्रोत समझा जाता था।

प्रश्न 10.
प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार के मुख्य कारणों का वर्णन कीजिए।
(Write main reasons of the defeat of the Sikhs in the First Anglo-Sikh War.).
उत्तर-

  1. प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार का सबसे मुख्य कारण लाल सिंह और तेजा सिंह की गद्दारी थी।
  2. सिख सेना में जो यूरोपियन अधिकारी भर्ती किए हुए थे। वे सिख राज्य के सभी भेद अंग्रेज़ों को देते रहे।
  3. उस समय अंग्रेज़ संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के साथ संबंध रखते थे।
  4. अंग्रेज़ों के साधन सिखों की तुलना में बहुत अधिक थे।
  5. अंग्रेजों के सेनापतियों को युद्धों का बहुत अनुभव था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
महाराजा दलीप सिंह किस का पुत्र था ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह ने कब-से-कब तक शासन किया ?
उत्तर-
1843 ई० से 1849 ई० तक।

प्रश्न 3.
प्रथम तथा द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा कौन था ?
उत्तर-
महाराजा दलीप सिंह।

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प्रश्न 4.
लाल सिंह कौन था ?
उत्तर-
लाहौर दरबार का प्रधानमंत्री।

प्रश्न 5.
तेजा सिंह कौन था ?
उत्तर-
खालसा सेना का सेनापति।

प्रश्न 6.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
अथवा
अंग्रेजों एवं सिखों के मध्य प्रथम युद्ध कब हुआ?
अथवा
अंग्रेजों की सिखों के साथ पहली लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
1845-46 ई०।

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प्रश्न 7.
प्रथम ऐंग्लो सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
उत्तर-
लॉर्ड हार्डिंग।

प्रश्न 8.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के लिए उत्तरदायी कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
अंग्रेजों ने पंजाब का चारों ओर से घेराव आरंभ कर दिया था।

प्रश्न 9.
मुदकी की लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
18 दिसंबर, 1845 ई०।

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प्रश्न 10.
फिरोजशाह अथवा फेरूशहर की लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
21 दिसंबर, 1845 ई०

प्रश्न 11.
सभराओं की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
उत्तर-
10 फरवरी, 1846 ई०।

प्रश्न 12.
सभराओं की लड़ाई में बहादुरी से लड़ता हुआ सिखों का कौन-सा सेनापति शहीद हुआ था?
उत्तर-
शाम सिंह अटारीवाला।

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प्रश्न 13.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध किस लड़ाई से समाप्त हुआ था ?
उत्तर-
सभराओं की लड़ाई।

प्रश्न 14.
अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य प्रथम युद्ध में पराजय किसकी हुई थी?
उत्तर-
सिखों की।

प्रश्न 15.
अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य पहला युद्ध किस संधि के साथ समाप्त हुआ था?
उत्तर-
लाहौर की संधि।

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प्रश्न 16.
लाहौर की संधि कब की गई थी ?
उत्तर-
9 मार्च, 1846 ई०।

प्रश्न 17.
भैरोवाल की संधि कब हुई थी ?
उत्तर-
16 दिसंबर, 1846 ई० को।

प्रश्न 18.
भैरोवाल की संधि की एक मुख्य शर्त क्या थी ?
उत्तर-
लाहौर दरबार के सारे विभागों की देख-रेख एक ब्रिटिश रेजिडेंट करेगा।

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प्रश्न 19.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कश्मीर किसे दे दिया ?
उत्तर-
गुलाब सिंह।

प्रश्न 20.
पहले ऐंग्लो-सिख युद्ध में सिखों की पराजय का मुख्य कारण कौन-सा था ?
उत्तर-
उनके नेताओं द्वारा किया गया विश्वासघात।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मौत के पश्चात् पंजाब का महाराजा…………………..बना।
उत्तर-
(खड़क सिंह)

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प्रश्न 2.
अंग्रेजों ने सिंध पर………में कब्जा कर लिया।
उत्तर-
(1843 ई०)

प्रश्न 3.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध………में हुआ।
उत्तर-
(1845-46 ई०)

प्रश्न 4.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा………था।
उत्तर-
(दलीप सिंह)

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प्रश्न 5.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय खालसा और फौज का सेनापति………..था।
उत्तर-
(तेजा सिंह)

प्रश्न 6.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाहौर दरबार का प्रधान मंत्री………था।
उत्तर-
(लाल सिंह)

प्रश्न 7.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय अंग्रेज़ी फौज का सर्वोच्च कमांडर……………था।
उत्तर-
(लार्ड ह्यूग गफ़)

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प्रश्न 8.
मुदकी की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(18 दिसंबर, 1845 ई०)

प्रश्न 9.
फिरोजशाह की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(21 दिसंबर, 1845 ई०)

प्रश्न 10.
सभराओं की लड़ाई………….को हुई।
उत्तर-
(10 फरवरी, 1846 ई०)

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प्रश्न 11.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध का अंत…………की लड़ाई से हुआ।
उत्तर-
(सभराओं)

प्रश्न 12.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध………….की संधि के साथ समाप्त हुआ।
उत्तर-
(लाहौर)

प्रश्न 13.
भैरोवाल की संधि…………..को हुई।
उत्तर-
(16 दिसंबर, 1846 ई०)

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(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध 1947 ई० में हुआ।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा शेर सिंह था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 3.
लॉर्ड हार्डिंग, ऐलन ब्रो के बाद गवर्नर जनरल बना।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 4.
लार्ड ह्यूग गफ़ प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय अंग्रेज़ी सेना का कमांडर-इन-चीफ़ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाल सिंह खालसा फ़ौज का सेनापति था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 6.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाल सिंह लाहौर दरबार में प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 7.
मुदकी की लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० को हुई।।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
फिरोजशाह की लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
अलीवाल की लड़ाई 21 जनवरी, 1846 ई० को हुई थी।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 10.
अलीवाल की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व हैरी स्मिथ ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
सभराओं की लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
सभराओं की लड़ाई में सिख विजयी रहे।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 13.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध भैरोवाल की संधि के साथ समाप्त हुआ।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
अंग्रेज़ी सरकार व लाहौर दरबार के मध्य लाहौर की संधि 9 मार्च, 1846. ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
अंग्रेज़ों व सिखों के मध्य भैरोवाल की संधि 16 दिसंबर, 1846 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
प्रथम तथा द्वितीय एंग्लो-सिख युद्ध के समय पंजाब का महाराजा कौन था ?
(i) महाराजा दलीप सिंह
(ii) महाराजा रणजीत सिंह
(iii) महाराज खड़क सिंह
(iv) महाराजा शेर सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था ?
(i) लॉर्ड डलहौज़ी
(ii) लॉर्ड हार्डिंग
(iii) लॉर्ड रिपन
(iv) लॉर्ड डफरिन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध कब लड़ा गया ?
(i) 1839-40 ई० में
(ii) 1841-42 ई० में ।
(iii) 1843-44 ई० में
(iv) 1845-46 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 4.
लाल सिंह लाहौर दरबार में किस पद पर नियुक्त थे?
(i) विदेश मंत्री
(ii) प्रधानमंत्री
(iii) मुख्य सेनापति
(iv) दीवान।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 5.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय लाल सिंह कौन था?
(i) सेनापति
(ii) महाराजा
(iii) प्रधानमंत्री
(iv) विदेश मंत्री।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
अंग्रेज़ों ने सिंध पर कब अधिकार कर लिया था ?
(i) 1842 ई० में
(ii) 1843 ई० में
(iii) 1844 ई० में
(iv) 1845 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 7.
गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सिखों के साथ युद्ध की घोषणा कब की ?
(i) 1848 ई०
(ii) 1849 ई०
(iii) 1865 ई०
(iv) 1845 ई०।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 8.
प्रथम तथा द्वितीय ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय अंग्रेजी सेना का कमांडर-इन-चीफ कौन था ?
(i) लॉर्ड ह्यूग मफ़
(ii) लॉर्ड डफरिन
(iii) मेजर ब्रॉडफुट
(iv) रॉबर्ट कस्ट।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
मुदकी की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 12 दिसंबर, 1844 ई०
(ii) 12 दिसंबर, 1845 ई०
(iii) 18 दिसंबर, 1845 ई०
(iv) 18 दिसंबर, 1846 ई०
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
फिरोजशाह की लड़ाई कब की गई थी ?
(i) 18 दिसंबर, 1845 ई०
(ii) 19 दिसंबर, 1845 ई०
(iii) 20 दिसंबर, 1845 ई०
(iv) 21 दिसंबर, 1845 ई०
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 11.
सभराओं की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 21 दिसंबर, 1845 ई०
(ii) 10 फरवरी, 1846 ई०
(iii) 15 फरवरी, 1846 ई०
(iv) 10 फरवरी, 1847 ई०
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
अंग्रेजों और सिखों में प्रथम युद्ध कौन-सी संधि के साथ समाप्त हुआ ?
(i) लाहौर की संधि
(ii) अमृतसर की संधि
(iii) भैरोवाल की संधि
(iv) त्रिपक्षीय संधि।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 13.
लाहौर की संधि कब हुई थी ?
(i) 10 फरवरी, 1845 ई०
(ii) 10 फरवरी, 1846 ई०
(iii) 7 मार्च, 1846 ई०
(iv) 9 मार्च, 1846 ई०।।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 14.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कश्मीर किसको दे दिया?
(i) गुलाब सिंह को
(ii) ध्यान सिंह को
(iii) हीरा सिंह को
(iv) हरी सिंह को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
भैरोवाल की संधि कब हुई थी ?
(i) 9 मार्च, 1846 ई०
(ii) 11 मार्च, 1846 ई०
(iii) 16 दिसंबर, 1846 ई०
(iv) 26 दिसंबर, 1846 ई०।
उत्तर-
(iii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कारणों की व्याख्या कीजिए। (Give a description of the causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
पहले ऐंग्लो-सिख युद्ध के छः मुख्य कारण क्या थे ?
(What were the six main causes of First Anglo-Sikh War ?) :
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के कोई छः कारण बताएँ।
(Briefly describe any six main causes of the First Anglo-Sikh War.)
अथवा
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के लिए उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिए। (Discuss the causes responsible for the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
1. अंग्रेजों की पंजाब का घेरा डालने की नीति –अंग्रेज़ दीर्घकाल से पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न ले रहे थे। 1809 ई० में अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि करके उसे सतलुज पार के क्षेत्रों की ओर बढ़ने से रोक दिया था। 1835-36 ई० में अंग्रेजों ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया। 1835 ई० में अंग्रेजों ने फिरोज़पुर पर अधिकार कर लिया। 1838 ई० में अंग्रेजों ने फिरोज़पुर में सैनिक छावनी स्थापित कर ली। इस कारण अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

2. पंजाब में फैली अराजकता-जून, 1839 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में अराजकता फैल गई थी। सिंहासन की प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का एक नया दौर आरंभ हुआ। 1839 ई० से लेकर 1845 ई० के 6 वर्ष के समय के दौरान पंजाब में पाँच सरकारें बदलीं। डोगरों ने अपने षड्यंत्रों द्वारा महाराजा रणजीत सिंह के वंश को बर्बाद कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया।

3. प्रथम अफ़गान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय-अंग्रेजों को प्रथम बार अफ़गानिस्तान के साथ हुए प्रथम युद्ध (1839-42 ई०) में पराजय का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में हुए भारी विनाश के कारण अंग्रेज़ों के मान-सम्मान को भारी आघात पहुँचा। अंग्रेजों ने अपने यश को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से अपना रुख पंजाब की ओर किया । क्योंकि उस समय पंजाब की स्थिति बहुत डावाँडोल थी।

4. अंग्रेज़ों का सिंध पर अधिकार-सिंध का भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। अतः 1843 ई० में अंग्रेज़ों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेजों के परस्पर संबंधों में तनाव और बढ़ गया।

5. अंग्रेजों की सैनिक तैयारियाँ-लॉर्ड हार्डिंग ने 1844 ई० में गवर्नर-जनरल का पद संभालने के पश्चात् सिखों के विरुद्ध जोरदार सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी। अंग्रेज़ी सेना ने पंजाब को चारों तरफ से घेराव करना शुरू कर दिया था। इसने स्थिति को और अधिक विस्फोटक बना दिया था।

6. मेजर ब्रॉडफुट की नियुक्ति-नवंबर, 1844 ई० में मेजर ब्रॉडफुट को मिस्टर क्लार्क के स्थान पर लुधियाना का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया। वह सिखों का घोर शत्रु था। ब्रॉडफुट ने बहुत-सी ऐसी कार्यवाइयाँ की जिनके कारण सिख अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे।

प्रश्न 2.
मुदकी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the battle of Mudki.)
उत्तर-
अंग्रेज़ों तथा सिखों में पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 18 दिसंबर, 1845 ई० को मुदकी नामक स्थान पर लड़ी गई थी। इस लड़ाई में सिख सैनिकों की संख्या 5,500 थी और उनका नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। दूसरी ओर अंग्रेज सेना की संख्या 12,000 थी और उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़ कर रहा था। अंग्रेजों का विचार था कि वह सिख सेना को सहजता से हरा देंगे, परंतु सिख सेना ने अंग्रेजों के ऐसे दाँत खट्टे किए कि उनमें अफरा-तफरी मच गई। यह देखकर लाल सिंह घबरा गया। वह तो सिख सेना को मरवाने आया था, परंतु यहाँ तो इसके विपरीत बात हो रही थी। यह देख कर लाल सिंह अपने कुछ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। सिख सेना फिर भी अंग्रेज़ों का वीरता से सामना करती रही, परंतु सेनापति के बिना और अल्पसंख्या के कारण अंततः उसकी पराजय हुई। यह विजय अंग्रेज़ों को बहुत महँगी पड़ी क्योंकि इस लड़ाई में उनके कई प्रसिद्ध योद्धा मारे गये थे।

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प्रश्न 3.
फिरोजशाह अथवा फेरूशहर की लड़ाई के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the battle of Ferozshah or Pherushahar ?)
उत्तर-
21 दिसंबर, 1845 ई० को फिरोज़शाह अथवा फेरूशहर नामक स्थान पर सिखों तथा अंग्रेजों के मध्य एक ज़बरदस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजों की सैनिक संख्या 17 हज़ार थी और उनके पास 69 तोपें थीं। उनका नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़, जान लिटलर और लॉर्ड हार्डिंग जैसे अनुभवी सेनापति कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सैनिकों की संख्या 25-30 हज़ार थी और उनके पास 100 तोपें थीं। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह जैसे देश-द्रोही तथा विश्वासघाती कर रहे थे। इस लड़ाई में सिखों ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि उन्हें नानी स्मरण हो आई। वे बिना शर्त सिखों के आगे समर्पण करने के बारे विचार करने लगे, परंतु भाग्य अंग्रेज़ों के साथ था। लाल सिंह और तेजा सिंह की गद्दारी के कारण अंतत: 22 दिसंबर को सिख सेना की पराजय हुई।

प्रश्न 4.
सभराओं की लड़ाई के संबंध में एक नोट लिखें। (Write a note on the battle of Sobraon.)
उत्तर-
सभराओं की लड़ाई सिखों तथा अंग्रेज़ों के मध्य लड़े जाने वाले प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी जो 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई के लिए सिखों तथा अंग्रेजों ने विशाल तैयारियाँ की थीं। अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व लॉर्ड ह्यग गफ़, लॉर्ड हार्डिंग तथा कई अन्य अनुभवी सेनापति कर रहे थे। दूसरी ओर सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह कर रहे थे। इन दोनों गद्दारों ने लड़ाई से पूर्व ही अंग्रेज़ों को महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ दे दी थीं। इस निर्णायक लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के खूब दाँत खट्टे किए। दूसरी ओर लाल सिंह तथा तेजा सिंह युद्ध क्षेत्र से भाग निकले और जाते-जाते सतलुज नदी पर बनाए किश्तियों के पुल को भी तोड़ गए। इस कारण सिखों की भारी क्षति हुई और आखिर इस लड़ाई में उनकी पराजय हुई।

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प्रश्न 5.
लाहौर की संधि (9 मार्च, 1846 ई०) पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। [Write a brief note on the Treaty of Lahore (9 March, 1846.)]
उत्तर-
अंग्रेज़ों एवं सिखों के मध्य हुए प्रथम युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार तथा लाहौर दरबार के मध्य 9 मार्च, 1846 ई० को एक संधि हुई। यह संधि इतिहास में ‘लाहौर की संधि’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि की मुख्य शर्ते ये थीं—

  1. अंग्रेज़ी सरकार तथा महाराजा दलीप सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों में सदैव शाँति तथा मित्रता बनी रहेगी।
  2. लाहौर के महाराजा ने अपने और अपने उत्तराधिकारी की ओर से सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  3. महाराजा ने सतलुज और ब्यास नदियों के मध्य सभी मैदानी और पर्वती क्षेत्र एवं दुर्ग अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिए।
  4. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपए की बड़ी राशि की माँग की।
  5. लाहौर राज्य की सेना घटा कर पैदल सेना की संख्या 20,000 और घुड़सवार सेना की संख्या 12,000 निश्चित कर दी गई।
  6. जब कभी आवश्यकता हो अंग्रेज़ी सेनाएँ बिना किसी बाधा के लाहौर में से गुज़र सकेंगी।
  7. अंग्रेजों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा की संरक्षिका तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 6.
भैरोवाल की संधि के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Treaty of Bhairowal ?)
अथवा
भैरोवाल की संधि पर एक नोट लिखिए। (Write a note on the Treaty of Bhairowal.)
उत्तर-
यह संधि अंग्रेजों तथा लाहौर दरबार के मध्य 16 दिसंबर, 1846 ई० को की गई थी। इस संधि के अनुसार लाहौर दरबार का प्रशासन चलाने के लिए एक ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त किया गया। महारानी जिंदां को राज परिवार से अलग करके उनकी डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेंशन निश्चित कर दी गई। रेजीडेंट की सहायता के लिए आठ सदस्यीय परिषद् बनाई गई। महाराजा की सुरक्षा तथा राज्य में शांति बनाए रखने के लिए एक ब्रिटिश सेना रखने का निर्णय किया गया। इस सेना के व्यय के लिए लाहौर दरबार ने अंग्रेजों को 22 लाख रुपए वार्षिक देना मान लिया। इस संधि की शर्ते महाराजा दलीप सिंह के वयस्क होने तक अर्थात् 4 सितंबर, 1854 ई० तक लागू रहनी थीं। भैरोवाल की संधि द्वारा अंग्रेजों ने यद्यपि पंजाब पर अधिकार नहीं किया था, परंतु इसे काफ़ी शक्तिहीन बना दिया था। वास्तव में अंग्रेज़ पंजाब के शासक बन गए थे और सिखों का शासन नाममात्र ही रह गया था।

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प्रश्न 7.
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के क्या परिणाम निकले ?
(What was the results of First Anglo-Sikh War ?)
अथवा
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के क्या प्रभाव पड़े ?
(What were the effects of First Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। यह युद्ध 1846 ई० को लाहौर की संधि के अनुसार समाप्त हुआ। इस संधि के अनुसार—

  1. लाहौर के महाराजा ने अपने और अपने उत्तराधिकारियों की ओर से सतलुज दरिया के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर सदा के लिए अपना अधिकार छोड़ना स्वीकार कर लिया।
  2. अंग्रेजों ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 1.50 करोड़ रुपये की माँग की।
  3. लाहौर राज्य की सेना घटाकर पैदल सेना. 20,000 और घुड़सवार सेना 12,000 निश्चित कर दी गई।
  4. जब कभी आवश्यकता हो, अंग्रेज़ी सेनाएँ बिना किसी बाधा के लाहौर राज्य में से गुज़र सकेंगी।
  5. अंग्रेज़ों ने दलीप सिंह को लाहौर का महाराजा, रानी जिंदां को महाराजा की संरक्षिका तथा लाल सिंह को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया।

16 दिसंबर, 1846 ई० को भैरोवाल की संधि के अनुसार यह निर्णय लिया गया कि

  1. अंग्रेजी सरकार लाहौर सरकार के सभी विभागों की देख-रेख के लिए ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त करेगी।
  2. जब तक महाराजा दलीप सिंह नाबालिग रहेगा (अर्थात् सितंबर, 1854 ई० तक) राज्य की शासन-व्यवस्था आठ सरदारों की एक कौंसिल ऑफ रीजैंसी द्वारा चलाई जाएगी।
  3. महारानी जिंदां को शासन-प्रबंध से पृथक् कर दिया तथा यह निर्णय हुआ कि उसे 17 लाख रुपए वार्षिक पेंशन दी जाएगी।

प्रश्न 8.
शाम सिंह अटारीवाला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Sham Singh Attariwala.)
उत्तर-
शाम सिंह अटारवाला सिख पंथ के एक महान् योद्धा थे। वह अमृतसर के अटारी गाँव के निवासी थे। उनके पिता सरदार निहाल सिंह महाराजा रणजीत सिंह की सेवा में थे। 18 वर्ष की आयु में शाम सिंह अटारीवाला महाराजा की सेना में भर्ती हुए। वह महाराजा रणजीत सिंह के अनेक सैनिक अभियानों में सम्मिलित हुए थे। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में व्याप्त अराजकता के कारण तथा अंग्रेजों द्वारा पंजाब को हड़पने के लिए किए जाने वाले प्रयासों के कारण शाम सिंह के मन को गहरा आघात लगा। वह पंजाब की स्वतंत्रता को कायम रखना चाहते थे। 1845 ई० के अंत में अंग्रेज़ों तथा सिखों में प्रथम युद्ध आरंभ हो गया। 10 फरवरी, 1846 ई० को अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य सभराओं की लड़ाई में शाम सिंह अटारीवाला ने भी भाग लिया। लाल सिंह एवं तेजा सिंह की गद्दारी के कारण सिख सेना बिखरने लग पड़ी। ऐसे अवसर पर सरदार शाम सिंह अटारीवाला के नेतृत्व में खालसा सेना ने तलवारें निकाल लीं और सत् श्री अकाल के जयकार गुंजाते हुए शत्रु पर टूट पड़े। उन्होंने बहुतसे अंग्रेज़ी सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया। उनकी बहादुरी देखकर अंग्रेज़ भी हैरान रह गए। अंत में वह लड़तेलड़ते शहीद हो गए।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

प्रश्न 9.
पहले आंग्ल-सिख युद्ध के पीछे अंग्रेजों ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में शामिल क्यों नहीं किया ?
(Why the British did not annex the Punjab to their empire after the First Anglo-Sikh War ?)
उत्तर-
अंग्रेजों ने यद्यपि सभराओं की लड़ाई में सिखों को हरा दिया था, परंतु अभी भी खालसा सेना के कई हजार सैनिक शस्त्रों सहित पंजाब में कई स्थानों पर विद्यमान थे। यदि पंजाब को उस समय अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी जाती तो ये सैनिक अंग्रेजों की सिरदर्दी का एक बड़ा कारण बन सकते थे। पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित न करने का दूसरा बड़ा कारण यह था कि अंग्रेज़ चाहते थे कि पंजाब अंग्रेजी राज्य तथा अफ़गानिस्तान के मध्य मध्यवर्ती राज्य का काम देता रहे। यदि अंग्रेज़ पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में शामिल कर लेते तो उनकी सीमाएँ अफ़गानिस्तान तक बढ़ जातीं। इससे अंग्रेजों के लिए नई समस्याएँ उत्पन्न हो जातीं। अंग्रेज़ इन समस्याओं से निपटने के लिए अभी तैयार नहीं थे। इसके अतिरिक्त पंजाब को नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेजों को भारी संख्या में अंग्रेज़ सैनिक पनाब में रखने पड़ते। इससे अंग्रेजों के खर्च में काफ़ी वृद्धि हो जाती। गवर्नर-जनरल का मत था कि पंजाब प्रांत आर्थिक रूप से अंग्रेजों के लिए लाभप्रद सिद्ध नहीं हो सकता। वह पंजाब को शक्ति की अपेक्षा दुर्बलता का स्रोत समझता था।

प्रश्न 10.
प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार के मुख्य कारणों का वर्णन कीजिए। (Write main reasons of the defeat of the Sikhs is the First Anglo-Sikh War.)
उत्तर-
1. प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध में सिखों की हार का सबसे मुख्य कारण लाल सिंह और तेजा सिंह की गद्दारी थी। लाल सिंह प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त था जबकि तेजा सिंह मुख्य सेनापति के रूप में कार्य कर रहा था। ये दोनों नेता अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अंग्रेजों के साथ जा मिले। कहावत है कि जब जहाज़ का चालक ही अपने जहाज़ को तबाह करने के लिए तैयार हो जाए तो उस जहाज़ का डूबना निश्चित है। कुछ ऐसी ही हालत सिख सेना की हुई। यद्यपि वे इस समूचे युद्ध के दौरान बहुत वीरता और उत्साह से लड़े, परंतु नेताओं की गद्दारी उन्हें ले डूबी।

2. सिख सेना में जो यूरोपियन अधिकारी भर्ती हुए थे, वे गुप्त रूप से अंग्रेजों के साथ मिले हुए थे। वे सिख राज्य के सभी भेद अंग्रेजों को देते रहे।

3. इनके अतिरिक्त उस समय अंग्रेज़ संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के साथ संबंध रखते थे। स्वाभाविक रूप में उनके साधन सिखों की तुलना में बहुत अधिक थे। (iv) अंग्रेज़ों के सेनापतियों को युद्धों का बहुत अनुभव था। वे ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए पूरी ईमानदारी तथा लगन के साथ लड़े। ऐसी स्थिति में सिखों की पराजय अनिवार्य थी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
1842 ई० में लॉर्ड आकलैंड के स्थान पर लॉर्ड एलिनब्रो को भारत का नया गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। लॉर्ड एलिनब्रो अफ़गानिस्तान की पराजय से हुई अंग्रेजों की बदनामी को दूर करना चाहता था। इसलिए उसने सिंध पर अधिकार करने का निर्णय किया। यह क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। सिंध के अमीर चाहे अंग्रेजों के पक्के वफ़ादार थे, परंतु एलिनब्रो ने उन पर झूठे दोष लगाकर सिंध के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी। 1843 ई० में अंग्रेज़ों ने सिंध पर अधिकार कर लिया। क्योंकि सिख सिंध को अपने साम्राज्य में शामिल करना चाहते थे, इसलिए सिखों एवं अंग्रेज़ों के परस्पर संबंधों में कड़वाहट और बढ़ गई।

  1. लॉर्ड एलिनब्रो कौन था ?
  2. लॉर्ड एलिनब्रो भारत का गवर्नर-जनरल कब बना ?
    • 1812 ई०
    • 1822 ई०
    • 1832 ई०
    • 1842 ई०
  3. अंग्रेज़ सिंध पर अधिकार क्यों करना चाहते थे ?
  4. अंग्रेजों ने सिंध पर अधिकार कब कर लिया था ?
  5. अंग्रेजों द्वारा सिंध पर अधिकार का क्या परिणाम निकला ?

उत्तर-

  1. लॉर्ड एलिनब्रो भारत का गवर्नर-जनरल था।
  2. 1842 ई०।
  3. क्योंकि सिंध भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्वपूर्ण था।
  4. अंग्रेजों ने 1843 ई० में सिंध पर अधिकार कर लिया था।
  5. अंग्रेजों के द्वारा सिंध पर अधिकार के कारण अंग्रेजों तथा सिखों के संबंधों में तनाव आ गया था।

2
सिखों और अंग्रेज़ों में दूसरी प्रसिद्ध लड़ाई फिरोज़शाह अथवा फेरूशहर में 21 दिसंबर, 1845 ई० को लड़ी गई। यह स्थान मुदकी से 10 मील की दूरी पर स्थित है। अंग्रेज़ इस लड़ाई के लिए पूर्ण रूप से तैयार थे। उन्होंने फिरोज़पुर, अंबाला तथा लुधियाना से अपनी सेनाओं को फिरोज़शाह पर आक्रमण करने के लिए बुला लिया था। इस लड़ाई में अंग्रेजों के सैनिकों की संख्या 17,000 थी। अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व सुप्रसिद्ध एवं अनुभवी सेनापति लॉर्ड ह्यूग गफ़, जॉन लिटलर तथा लॉर्ड हार्डिंग कर रहे थे। सिख सैनिकों की संख्या 25,000 से 30,000 के लगभग थी। सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह एवं तेजा सिंह कर रहे थे। अंग्रेज़ों को यह पूरा विश्वास था कि सिख सेनापतियों की गद्दारी के कारण वे इस लड़ाई को सरलता से विजित कर लेंगे, परंतु सिखों ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि एक बार तो उन्हें भारत में अंग्रेजी साम्राज्य डावाँडोल होता दिखाई दिया।

  1. फिरोजशाह की लड़ाई कब हुई ?
  2. लॉर्ड ह्यूग गफ़ कौन था ?
  3. फिरोजशाह की लड़ाई में सिख सेना का नेतृत्व किसने किया था ?
  4. फिरोजशाह की लड़ाई में अंग्रेजों के सैनिकों की संख्या ………. थी।
  5. फिरोजशाह की लड़ाई में किसकी हार हुई ?

उत्तर-

  1. फिरोजशाह की लड़ाई 21 दिसंबर, 1845 ई० में हुई।
  2. लॉर्ड ह्यूग गफ़ अंग्रेज़ों का प्रधान सेनापति था।
  3. फिरोज़शाह की लड़ाई में सिख सेना का नेतृत्व लाल सिंह तथा तेजा सिंह ने किया था।
  4. 17000
  5. फिरोजशाह की लड़ाई में सिखों की हार हुई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 22 प्रथम ऐंग्लो-सिख युद्ध : कारण एवं परिणाम

3
सभराओं की लड़ाई सिखों एवं अंग्रेजों के प्रथम युद्ध की अंतिम लड़ाई थी। यह लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को लड़ी गई थी। इस लड़ाई से पूर्व 30,000 सिख सैनिक सभराओं पहुँच चुके थे। उन्होंने अंग्रेजों का डटकर सामना करने के लिए मोर्चे तैयार करने आरंभ कर दिए थे। लाल सिंह तथा तेजा सिंह, जोकि सिख सेना का नेतृत्व कर रहे थे, क्षणक्षण के समाचार अंग्रेजों को पहुंचा रहे थे। सिख सेना का सामना करने के लिए अंग्रेजों ने भी खूब तैयारी की थी। इस लड़ाई में अंग्रेजी सेना की कुल संख्या 15,000 थी। लॉर्ड ह्यूग गफ़ तथा लॉर्ड हार्डिंग इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे। 10 फरवरी, 1846 ई० वाले दिन अंग्रेजों ने सिख सेना पर आक्रमण कर दिया। सिख सेना की जवाबी कार्यवाई के
कारण अंग्रेज़ी सेना को पीछे हटना पड़ा। ठीक इसी समय पूर्व निर्मित योजनानुसार पहले लाल सिंह और फिर तेजा सिंह मैदान से भाग गए। तेजा सिंह ने भागने से पहले बारूद से भरी नावें डुबो दी तथा साथ ही पुल को भी तोड़ दिया।

  1. पहले ऐंग्लो-सिख युद्ध के समय कौन-सी लड़ाई अंग्रेजों तथा सिखों के मध्य अंतिम लड़ाई थी ?
  2. सभराओं की लड़ाई कब हई थी ?
  3. सभराओं की लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व ……….. तथा …………. ने किया था।
  4. सभराओं की लड़ाई में किसकी हार हुई ?
  5. सभराओं की लड़ाई में किस सिख नेता ने अपनी बहादुरी के जौहर दिखाए थे ?

उत्तर-

  1. सभराओं की लड़ाई अंग्रेज़ों तथा सिखों के मध्य अंतिम लड़ाई थी।
  2. सभराओं की लड़ाई 10 फरवरी, 1846 ई० को हुई थी।
  3. लॉर्ड ह्यूग गफ़, लॉर्ड हार्डिंग।
  4. सभराओं की लड़ाई में सिखों की हार हुई।
  5. सभराओं की लड़ाई में सरदार शाम सिंह अटारीवाला ने अपनी बहादुरी के जौहर दिखाए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत की विदेश नीति से आप क्या समझते हैं ? भारत की विदेश नीति के निर्धारक तत्वों के बारे में लिखिए।
(What do you understand by Foreign Policy of India ? Discuss about the Determinants of Indian Foreign Policy.)
अथवा
भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने वाले विभिन्न तत्वों की चर्चा कीजिए। (Explain the various determinants of India’s Foreign Policy.)
उत्तर-
विदेश नीति का अर्थ-आधुनिक युग अन्तर्राष्ट्रीयवाद का युग है। विश्व का प्रत्येक राज्य आत्मनिर्भर नहीं है। प्रत्येक राज्य को अपने हितों को पूरा करने के लिए अन्य राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करने पड़ते हैं। इन सम्बन्धों का संचालन विदेश नीति द्वारा किया जाता है। साधारण शब्दों में विदेश नीति उन सिद्धान्तों और साधनों का एक समूह है जिसे राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करने के लिए, अपने उद्देश्यों को सही बताने के लिए और उनको प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। विभिन्न राष्ट्र दूसरे के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपने व्यवहार के अनुसार बनाने के लिए विदेश नीति का प्रयोग करता है।
डॉ० महेन्द्र कुमार के शब्दों में, “विदेश नीति कार्यों की सोची-समझी क्रिया दिशा है, जिससे राष्ट्रीय हित की विचारधारा के अनुसार विदेशी सम्बन्धों में उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।”

रुथना स्वामी के शब्दों में, “विदेश नीति ऐसे सिद्धान्तों और व्यवहार का समूह है जिनके द्वारा राज्य के अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों को नियमित किया जाता है।”

1947 में स्वन्तत्र होने के पश्चात् भारत को स्वतन्त्र रूप से अपनी विदेश नीति बनाने का अवसर मिला। भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर अपनी विदेश नीति में परिवर्तन किए। भारतीय विदेश नीति को निर्धारित करने में अनेक तत्त्वों ने सहयोग दिया है। ये तत्त्व अग्रलिखित हैं

1. संवैधानिक आधार (Constitutional Basis) भारत के संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए, बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए। इस विषय में भी निर्देश दिए गए हैं।
अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित कार्य करने के लिए कहा गया है –

(क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ावा देना।
(ख) दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों तथा कानूनों के लिए सम्मान उत्पन्न करना।
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने के लिए मध्यस्थ का रास्ता अपनाना। राज्यनीति के इन निर्देशक सिद्धान्तों ने भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

2. भौगोलिक तत्त्व (Geographical Factors)-भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने में भौगोलिक तत्त्व ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत का समुद्र तट बहुत विशाल है। भारत के समुद्र तट की लम्बाई 3500 मील के लगभग है। हिन्द महासागर पर जिस किसी का भी प्रभुत्व हो वह आसानी से भारत के विदेशी व्यापार को अपने हाथ में ले सकता है और राजनीतिक दृष्टि से भी भारत के लिए खतरा पैदा कर सकता है। अंग्रेज़ों का भारत में शासन स्थापित करने का कारण उनकी समुद्री शक्ति ही थी। भारत की सुरक्षा के लिए नौ-सेना का शक्तिशाली होना अति आवश्यक है और इसलिए भारत अपनी नौ-सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए लगा हुआ है। परन्तु भारत की नौ-सेना को इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा रूस की नौ-सेना के मुकाबले में आने में अभी काफ़ी समय लगेगा। इसलिए भारत ने ब्रिटेन के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखे हैं।

भारत की सीमाएं पाकिस्तान, चीन, नेपाल और बर्मा के साथ लगती हैं। कश्मीर राज्य के कुछ प्रदेश ऐसे भी हैं, जिनकी सीमा अफगानिस्तान और रूस के साथ लगती है। यद्यपि इस समय वे पाकिस्तान के कब्जे में हैं। भारत की उत्तरी सीमा पर चीन है। चीन और भारत के बीच में हिमालय है जो प्राचीन और मध्ययुगों में प्रहरी का काम करता था। इसी कारण भारत पर कभी कोई महत्त्वपूर्ण आक्रमण उत्तर की ओर से नहीं हुआ था। परन्तु अब स्थिति बदल गई है। यह स्थिति वायुयानों के निर्माण के कारण और अन्य शस्त्रों के आविष्कारों से बदली है। 1962 में चीन के आक्रमण ने भारत की आंखें खोल दी हैं। उत्तरी सीमा की सुरक्षा के लिए चीन के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध होने आवश्यक हैं। इसलिए भारत का आरम्भ से ही यह प्रयास रहा है कि आज भी सरकार साम्यवादी चीन से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास कर रही है। इसके अतिरिक्त भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया है ताकि चीन से शत्रुता न हो।

विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवादी गुट और पश्चिमी गुट में जो विरोध है उसके कारण दोनों ही गुट इस प्रयत्न में रहे हैं कि भारत के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करें। भारत की भौगोलिक स्थिति हिन्द महासागर के मध्य में है। समुद्र मार्ग से उसका सम्बन्ध पश्चिमी एशिया और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के राज्यों के साथ समान रूप से है। उत्तर में स्थित चीन और रूस भी इससे अधिक दूरी पर नहीं हैं और उनकी सीमाएं भी भारत के साथ लगती हैं। इस स्थिति में किसी एक गुट में शामिल होना और उसके साथ सैनिक सन्धियां करना भारत की सुरक्षा के लिए हानिकारक है। भारत की तटस्थता की नीति इन्हीं भौगोलिक तत्त्वों का परिणाम है।

3. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background)-किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति पर उस राष्ट्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रभाव होता है और भारतीय विदेश नीति भी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के प्रभाव से मुक्त नहीं है। 200 वर्ष के दीर्घकाल तक भारत को अंग्रेज़ों की दासता में रहना पड़ा, फलस्वरूप भारत अन्य राष्ट्रों की तुलना में ग्रेट ब्रिटेन के सम्पर्क में अधिक रहा और इसी कारण इंग्लैण्ड की सभ्यता व संस्कृति का भारत पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा। अंग्रेज़ी भाषा ने भारत में दूसरी भाषा का स्थान प्राप्त कर लिया है और विश्व का ज्ञान वस्तुतः भारतीयों को अंग्रेजों द्वारा ही हुआ। अत: दोनों के विचारों व दृष्टिकोण में समानता होनी स्वाभाविक है। यद्यपि भारतीयों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए निरन्तर कष्ट सहे और अथक संघर्ष किया, परन्तु सशस्त्र क्रान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ी और द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् बदलती हुई परिस्थितियों के कारण अंग्रेज़ों ने स्वयं अपने प्रभुत्व का अन्त कर दिया जिस कारण दोनों देशों में इस पृष्ठभूमि के कारण आज भी मित्रता बनी हुई है और भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य भी है।

भारत व पाकिस्तान के सम्बन्धों के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। स्वतन्त्रता संघर्ष में मुसलमानों ने एक पृथक् राष्ट्र की मांग की और भारत दो टुकड़ों में विभाजित हो गया। भारतीय इस विभाजन का कारण मुसलमानों को मानते हैं। भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है इसलिए वह किसी धर्म से मतभेद नहीं करता, पाकिस्तान एक इस्लामी राज्य है और भारत में रहने वाले 18 करोड़ मुसलमानों के प्रति अपनी विशेष ज़िम्मेदारी का अहसास करवाना चाहता है। मध्यकालीन युग में मुसलमानों ने भारत को रौंदा व शासन किया और आज भी पाकिस्तान ऐसा अनुभव करता है कि वह पुनः भारत को जीत सकता है। मध्यकालीन युग की स्मृति आज भी दोनों राष्ट्रों के सम्बन्धों व धारणाओं को प्रभावित करती है। कश्मीर समस्या इसी कारण हल नहीं हो पा रही क्योंकि पाकिस्तान वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों पर अपना अधिकार मानता है जबकि भारत कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता है। भौगोलिक दृष्टि से इन दोनों राष्ट्रों का हित सहयोग की नीति के अन्तर्गत है, परन्तु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इनके सम्बन्धों को कटु बनाती है।

चिरकाल तक साम्राज्यवाद के कारण शोषित व परतन्त्र रहने के कारण भारत की विदेश नीति पर प्रभाव पड़ा है और अब इसकी विदेश नीति का मुख्य सिद्धान्त साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का विरोध करना है और इसी कारण भारत एशिया व अफ्रीका में होने वाले स्वाधीनता संघर्षों का समर्थन करता रहा है।

4. आर्थिक तत्त्व (Economic Factors)-भारत की विदेश नीति के निर्धारण में आर्थिक तत्त्व ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ उस समय भारत की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। भारत में उस समय अनाज की भारी कमी थी और वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ रही थीं। भारत अनाज और अन्य आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए अमेरिका और ब्रिटेन पर निर्भर करता था। भारत का विदेशी व्यापार मुख्यतः ब्रिटेन व अमेरिका के साथ था। जिन मशीनरियों व खाद्य सामग्रियों को विदेशों में मंगवाना होता है वह भी उसे इन देशों से ही मुख्यतः प्राप्त करनी होती हैं और साथ ही अमेरिका व ब्रिटेन की पर्याप्त पूँजी भारत के अनेक कल-कारखानों में लगी हुई है और इनके साथ में यह स्वाभाविक था कि भारत की विदेश नीति पश्चिमी पूंजीवादी राज्यों के प्रति सद्भावनापूर्ण रही। 1950 के पश्चात् भारत और सोवियत संघ धीरे-धीरे एक-दूसरे के नजदीक आने लगे और भारत सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों से तकनीकी तथा आर्थिक सहायता प्राप्त करने लगा।

दोनों गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई। पिछले कुछ वर्षों में भारत व रूस में भी व्यापारिक सम्बन्धों में वृद्धि हुई है, परन्तु अमेरिका व ब्रिटेन की तुलना में भारत का व्यापार साम्यवादी देशों के साथ अभी बहुत कम है। यदि भारत का सम्बन्ध पूंजीवादी राष्ट्र से मैत्रीपूर्ण न रहे तो इस विदेशी नीति के परिवर्तन से उसकी आर्थिक व्यवस्था को भारी आघात पहुंच सकता है। आजकल भारत अपने विदेशी व्यापार में वृद्धि करने के लिए एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर रहा है। वास्तव में भारत की विदेश नीति और इसके आर्थिक विकास में घनिष्ट सम्बन्ध है।

(क) जनसंख्या (Population) हमारे देश की विदेशी नीति को इसकी जनसंख्या भी प्रभावित करती है। इसी के कारण किसी राष्ट्र का विकास मन्द हो सकता है और एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र की सहायता पर निर्भर होना पड़ता है। जनसंख्या के कारण ही बड़ा राष्ट्र भी थोड़ी जनसंख्या वाले राज्य की तुलना में कमज़ोर प्रतीत होता है। भारत जैसा विशाल देश जनसंख्या के कारण आर्थिक विकास के कार्यों में जापान और अमेरिका की तुलना में कमजोर रह जाता है। इसके अतिरिक्त हमें सैनिक व्यय में भी कटौती करनी पड़ती है। इस जनसंख्या के कारण ही हमें विदेशों पर खाद्य सामग्री के लिए भी आश्रित होना पड़ता है। मोरगैन्थों के अनुसार, भारत ऐसा प्रमुख उदाहरण है, जिसकी विदेश नीति अन्न संकट के कारण कमज़ोर हुई है।

(ख) प्राकृतिक सम्पदा (Natural Sources)-किसी राष्ट्र की विदेशी नीति को निःसन्देह उस देश की प्राकृतिक सम्पदाएं भी पर्याप्त प्रभावित करती हैं। प्राकृतिक सम्पदाएं राष्ट्र के उद्योग व व्यापार के विकास का कारण होती हैं। अमेरिका व रूस के पास प्राकृतिक सम्पदाएं अधिक थीं जिनसे ये राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर बने और सैनिक शक्ति को प्राप्त करने में सफल हुए। भारत की स्वतन्त्र विदेश नीति में भी इन प्राकृतिक सम्पदाओं का अपना स्थान है।

(ग) प्राविधिकी (Technology)-प्रत्येक राष्ट्र को आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिए प्रारम्भ में विदेशी सहायता व प्राविधिकी पर निर्भर होना पड़ा है। उदाहरणतया अमेरिका प्रारम्भ में विदेशी धन व प्राविधिकी पर निर्भर रहा, जापान को समृद्ध व सशक्त बनने के लिए विदेशी धन पर नहीं बल्कि विदेशी प्राविधिकी पर अधिक आश्रित होना पड़ा, इसी तरह रूस को भी औद्योगिक राष्ट्र बनने के लिए विदेशी धन व प्राविधिकी की सहायता लेनी पड़ी। 1949 के पश्चात् चीनी समृद्धि के लिए रूसी पूंजी व प्राविधिकी उत्तरदायी है।

5. राष्ट्रीय हित (National Interest)-विदेश नीति के निमार्ण में राष्ट्रीय हित ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 4 दिसम्बर, 1947 को संविधान सभा में पण्डित नेहरू ने कहा था कि “आप चाहे कोई भी नीति अपनाएं, विदेश नीति का निर्धारण करने की कला राष्ट्रीय हित के सम्पादन में ही निहित है। हम अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सहयोग और स्वतन्त्रता की चाहे कितनी ही बातें करें और उनका कैसा ही अर्थ लगाएं पर अन्त में एक सरकार अपने राष्ट्र की भलाई के लिए ही कार्य करती है और कोई भी सरकार ऐसा कदम नहीं उठा सकती जो उसके राष्ट्र के लिए अहितकर हो। अतः सरकार का स्वरूप चाहे साम्राज्यवादी हो या साम्यवादी अथवा समाजवादी, उसका विदेश मन्त्री मूलत: राष्ट्रीय हित के लिए ही सोचता है।”

6. विचारधारा का प्रभाव (Impact of Ideology)-विदेश नीति का निर्माण करने से उस देश की विचारधारा का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय कांग्रेस ने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तरह-तरह के आदर्श संसार के सामने प्रस्तुत किए थे। कांग्रेस ने सदैव विश्व शान्ति और शान्तिपूर्ण सह-जीवन का समर्थन तथा साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का घोर विरोध किया। सत्तारूढ़ होने पर कांग्रेस को अपनी विदेश नीति का निर्माण इन्हीं आदर्शों पर करना था। कांग्रेस महात्मा गांधी के आदर्शों तथा सिद्धान्तों से भी काफ़ी प्रभावित थी।

अत: भारत की विदेश नीति गांधीवाद से काफ़ी प्रभावित थी। इसलिए भारत की विदेश नीति में विश्व-शान्ति पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। समाजवादी देशों के प्रति भारत की सहानुभूति बहुत कुछ मार्क्सवादी प्रभाव का परिणाम मानी जाती है। पश्चिमी के उदारवाद का भी भारत की विदेश नीति पर काफ़ी प्रभाव है। हमारी विदेश नीति के निर्माता पं० नेहरू पश्चिमी लोकतन्त्रीय परम्पराओं से बहुत प्रभावित थे। वे पश्चिमी लोकतन्त्र और साम्यवाद दोनों की अच्छाइयों को पसन्द करते थे और उनकी बुराइयों से दूर रहना चाहते थे। अतः गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया गया। वर्तमान में साम्यवादी विचारधारा लुप्त होती जा रही है। साम्यवादी देशों ने अपनी विचारधाराओं में परिवर्तन किए हैं। इसलिए अब वह आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण पर बल दे रहे हैं। भारत पर भी इस विचारधारा के स्पष्ट चिन्ह दिखाई दे रहे हैं।

7. अन्तर्राष्ट्रीय तत्त्व (International Factors)—भारत की विदेश नीति के निर्धारण में अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ उस समय रूसी गुट और अमरीकी गुट में शीत युद्ध चल रहा था। संसार के प्रायः सभी देश उस समय दो गुटों में विभाजित थे। पं० जवाहर लाल नेहरू ने किसी एक गुट में शामिल होने के स्थान पर गुटों से अलग रहना देश के हित में समझा। अत: भारत ने गुट-निरपेक्ष नीति का अनुसरण किया। पिछले कुछ वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में परिवर्तन हुआ है। अमेरिका और चीन के सम्बन्धों में सुधार हुआ है और अमेरिका और पाकिस्तान बहुत नज़दीक है। इस अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति के कारण भारत और रूस और समीप आए हैं। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में अमेरिका ही एकमात्र सुपर शक्ति रह गया है। इसीलिए भारत भी अमेरिका के साथ अपने आर्थिक, सामाजिक सम्बन्धों को मज़बूत बनाने की दिशा में प्रयास कर रहा है।

8. सैनिक तत्त्व (Military Factors)-सैनिक तत्त्व ने भी भारत की विदेश नीति को प्रभावित किया है। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सैनिक दृष्टि से बहुत निर्बल था। इसलिए भारत ने दोनों गुटों से सैनिक सहायता प्राप्त करने के लिए गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई। 1954 में अमेरिका और पाकिस्तान में एक सैनिक सन्धि हुई जिस कारण पाकिस्तान को अमेरिका से बहुत अधिक सैनिक सहायता मिली। भारत ने अमेरिका की इस नीति का विरोध किया और भारत ने सैनिक सहायता सोवियत संघ से प्राप्त करनी शुरू कर दी। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका ने खुलेआम पाकिस्तान का साथ दिया और भारत पर दबाव डालने के लिए अपना सातवां जंगी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा तो भारत को सोवियत संघ से 20 वर्षीय सन्धि करनी पड़ी। आजकल अमेरिका पाकिस्तान को आधुनिकतम हथियार दे रहा है, जिसका भारत ने अमरीका से विरोध किया है पर अमेरिका अपनी नीति पर अटल है। अतः भारत को भी अपनी रक्षा के लिए रूस तथा अन्य देशों से आधुनिकतम हथियार खरीदने पड़ रहे हैं।

9. राष्ट्रीय संघर्ष (National Struggle)—भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन ने विदेश नीति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। (1) राष्ट्रीय आन्दोलन ने भारत में महाशक्तियों के संघर्ष को मोहरा बनने से बचने का संकल्प उत्पन्न किया। (2) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक क्षेत्र में गुट-निरपेक्ष रहते हुए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की भावना जागृत हुई। (3) प्रत्येक तरह के उपनिवेशवाद, जातिवाद व रंग मतभेद का विरोध करने का साहस उत्पन्न हुआ व (4) स्वाधीनता संघर्ष के लिए सहानुभूति उत्पन्न हुई।

10. वैयक्तिक तत्त्व (Personal Factors) भारतीय विदेश नीति पर इस राष्ट्र के महान् नेताओं के वैयक्तिक तत्त्वों का भी प्रभाव पड़ा। पण्डित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से हमारी विदेश नीति पर्याप्त प्रभावित हुई। पण्डित नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व फासिस्टवाद के घोर विरोधी थे और वह समस्याओं का समाधान करने के लिए शान्तिपूर्ण मार्ग के समर्थक थे। वह मैत्री-सहयोग व सह-अस्तित्व के पोषक थे। साथ ही अन्याय का विरोध करने के लिए शक्ति प्रयोग के समर्थक भी थे। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने अपने विचारों द्वारा हमारी विदेश नीति के ढांचे को ढाला।

पण्डित जवाहर लाल नेहरू के अतिरिक्त डॉ० राधाकृष्णन, कृष्णा मेनन, पणिक्कर जैसे महान नेताओं के विचारों ने भी हमारी विदेश नीति को प्रभावित किया। साम्यवादी चीन के प्रति जो प्रारम्भिक वर्षों में नीति अपनाई गई उसमें मुख्य रूप से पणिक्कर के व्यक्तित्व का प्रभाव था और भारत चीन की मैत्री का उचित अनुमान न लगा सका। उस समय पणिक्कर चीन में भारतीय राजदूत थे और पण्डित नेहरू उन्हीं की रिपोर्टों के आधार पर चीन के विषय में गलत अनुमान लगाते रहे। फलस्वरूप हमें चीन के हाथों मुंह की खानी पड़ीं, परन्तु 1962 की घटना ने हमारी विदेश नीति को यथार्थवाद की ओर अग्रसर किया। स्वर्गीय शास्त्री जी व भूतपूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी के काल में हमने अपनी विदेश नीति के मूल तत्त्वों को कायम रखते हुए उसमें व्यावहारिक तत्त्वों का भी प्रयोग किया।

शान्ति-प्रियता, सहिष्णुता, मैत्री, सहयोग एवं सह-अस्तित्व के तत्त्व आज भी हमारी विदेश नीति के आधार पर स्तम्भ हैं, किन्तु इन आधार स्तम्भों का धरातल व्यावहारिकता व यथार्थवाद पर आधारित है। शान्ति के गगनभेदी नारे ही केवल शान्ति स्थापित नहीं कर सकते हैं बल्कि इन नारों को गुन्ज़ाने वाले भारत को सर्वप्रथम सशक्त व समर्थ राष्ट्र बनाना ज़रूरी है। शत्रु राष्ट्रों का मुकाबला करने के लिए भारत को एक शक्तिशाली सैन्य राष्ट्र बनाना अनिवार्य हैं अन्यथा शान्ति व सहयोग का नारा गुन्जायमान होने के स्थान पर कण्ठ में अवरुद्ध होकर रह जाएगा। यद्यपि भारत की किसी प्रकार की आक्रामक व विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा नहीं है किन्तु आत्म-रक्षा के लिए सैनिक दृढ़ता अनिवार्य है तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी आवाज़ बुलन्द रह सकेगी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Explain the main features of India’s Foreign Policy.)
अथवा
भारत की विदेश नीति के मौलिक सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Describe Basic Principles of the Foreign Policy of India.)
अथवा
भारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करो। (Describe main Basic Principles of Foreign Policy of India.)
अथवा
विदेश नीति क्या होती है ? भारतीय विदेश नीति के अधीन पंचशील तथा गुट-निरपेक्षता का वर्णन करें।
(What do you mean by ‘Foreign Policy’ ? Discuss the Principles of ‘Non-Alignment’ and ‘Panchsheel’ under Indian foreign policy.)
उत्तर-
विदेश नीति का अर्थ-इसके लिए प्रश्न नं. 1 देखें।
भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ। यद्यपि यह सत्य है कि भारत ब्रिटिश शासन के दौरान भी अपनी विदेश नीति का निर्माण करता था और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में भाग लेता था, परन्तु वास्तव में भारत के नेता चाहते थे कि वह एक स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्माण करें जोकि ब्रिटिश शासन से मुक्त होकर सम्भव था। अत: 1947 में जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो यह सुनहरा अवसर भारत के नेताओं को प्राप्त हुआ और भारत ने एक नए ढंग से अपनी विदेश नीति का निर्माण करना शुरू किया। परन्तु यह शुभारम्भ बिल्कुल नया नहीं था। मार्च, 1950 में लोकसभा में भाषण देते हुए पं० जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हम विदेश नीति के क्षेत्र में एकदम नया शुभारम्भ कर रहे हैं। यह एक ऐसी नीति है जो हमारे अतीत के इतिहास से और हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ी हुई है। इसका विकास उन सिद्धान्तों के अनुसार हुआ है जिनकी घोषणा अतीत के समय-समय पर करते रहे हैं।”

पामर एवं पार्किंस (Palmer and Perkins) के शब्दों में, “भारत की विदेश नीति की जड़ें विगत कई शताब्दियों में विकसित सभ्यताओं के मूल में छिपी हैं और चिन्तन शैलियां, ब्रिटिश नीतियों की विरासत, स्वाधीनता आन्दोलन तथा विदेशी मामलों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहुंच, गांधीवादी दर्शन के प्रभाव, अहिंसा तथा साध्य और साधनों के महत्त्व के गांधीवादी सिद्धान्तों आदि का प्रभावशाली योग रहा है।”

भारत की विदेश नीति की विशेषताएं (FEATURES OF INDIA’S FOREIGN POLICY)-

भारत की विदेश नीति की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएं हैं-

1. गुट-निरपेक्षता की नीति (Non-Alignment) भारत की विदेश नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गटनिरपेक्षता है। भारत एक गुट-निरपेक्ष देश है और इसकी विदेश नीति भी गुट-निरपेक्षता पर आधारित है। पं० नेहरू ने कहा था-“जहां तक सम्भव हो, हम इन शक्ति गुटों से अलग रहना चाहते हैं, जिनके कारण पहले भी महायुद्ध हुए हैं और भविष्य में भी हो सकते हैं।” गुट-निरपेक्षता का अर्थ है-अपनी स्वतन्त्र नीति। जब तक भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू रहे तब तक भारत पूर्ण रूप से गुट-निरपेक्षता की नीति पर बल देता रहा। अप्रैल, 1955 में बांडुंग सम्मेलन हुआ जिसमें गुट-निरपेक्षता का नारा दिया गया और उस समय से यह काफ़ी लोकप्रिय है। परन्तु 1962 में जब भारत पर चीन ने आक्रमण किया और भारत की युद्ध में हार हुई तो इसका विश्वास गुट-निरपेक्षता पर धीरे-धीरे कम होने लगा और भारत ने भी अन्य गुटों में शामिल होने वाले देशों की तरह सोवियत संघ की ओर हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। इन सम्बन्धों को और घनिष्ठ बनाने के लिए भारत ने रूस के साथ 1971 में एक महत्त्वपूर्ण सन्धि की। इस सन्धि के कारण आलोचकों ने भारत की विदेश नीति पर यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि भारत की विदेश नीति गुट-निरपेक्ष नहीं रही है, परन्तु यह आरोप सही नहीं है।

गुट-निरपेक्षता का अर्थ यह नहीं है कि भारत अन्य देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता। भूतपूर्व जनता सरकार ने मार्च, 1977 में सत्ता में आने पर गुट-निरपेक्षता की नीति पर बल दिया। जनता पार्टी ने यह घोषणा की थी कि जिस गुट-निरपेक्षता को श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा महत्त्व दिया गया था अब उसे पूर्ण रूप से लागू किया जाएगा। सातवां गुट-निरपेक्ष सम्मेलन मार्च, 1983 में दिल्ली में हुआ। भारत ने 7 मार्च, 1983 को गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का नेतृत्व सम्भाल लिया जबकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालते हुए सभी देशों से विश्व शान्ति, पूर्ण-नि:शस्त्रीकरण और नई आर्थिक व्यवस्था के लिए अभियान और ज्यादा तेज़ करने का आह्वान किया। इन्दिरा गांधी के पश्चात् श्री राजीव गांधी ने, वी० पी० सिंह ने, चन्द्रशेखर, पी० वी० नरसिम्हा राव, एच० डी० देवेगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, डा० मनमोहन सिंह और श्री नरेन्द्र मोदी ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया।

2. विश्व शान्ति और सुरक्षा की नीति (Policy of World Peace and Security)-भारत की विदेश नीति का सिद्धान्त, विश्वशान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है। भारत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने के पक्ष में है। इसके लिए भारत आपसी बातचीत द्वारा या मध्यस्थता के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने के पक्ष में है। भारत ने सदैव विश्वशान्ति की स्थापना और सुरक्षा की नीति ही अपनाई है। यद्यपि पाकिस्तान ने भारत पर कई बार आक्रमण किया है तब भी भारत ने आपसी बातचीत के द्वारा पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने की कोशिश की है। 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारत का काफ़ी क्षेत्र अपने अधीन कर लिया तब भी भारत-चीन के साथ सम्बन्ध सुधारने के लिए प्रयास कर रहा है।

3. साम्राज्यवादियों तथा उपनिवेशियों का विरोध (Opposition of Imperialists and Colonialists)भारत स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा है जिस कारण भारत ने सदैव साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया है। भारत साम्राज्यवाद को विश्वशान्ति का शत्रु मानता है और साम्राज्यवाद युद्ध को जन्म देता है। इसलिए भारत के नेताओं ने समय-समय पर दूसरे देशों में जाकर व संयुक्त राष्ट्र में भाषण देकर दूसरे देशों की समस्याओं को सुलझाने के साथ-साथ गुलाम देशों को साम्राज्यवाद से मुक्त करवाने का प्रयत्न किया है। भारत ने सभी गुलाम देशों में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन किया है और जब भी साम्राज्यवाद ने अपने पैर जमाने का प्रयास किया है तभी भारत ने उसका विरोध किया है। उदाहरण के लिए, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् जब हालैण्ड ने इण्डोनेशिया पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहा तो भारत ने उसका विरोध किया। इसीलिए भारत ने एशिया तथा अफ्रीका के देशों को संगठित किया और संयुक्त राष्ट्र में इण्डोनेशिया की स्वतन्त्रता का प्रश्न उठाया। सच्चाई यह है कि इण्डोनेशिया को स्वतन्त्र करवाने में भारत ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

1956 में जब इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने मिल कर स्वेज नहर पर कब्जा करने के लिए हमला किया तब भारत ने मिस्र (Egypt) का साथ दिया और इंग्लैण्ड तथा फ्रांस को आक्रमणकारी घोषित किया। इसी प्रकार भारत ने मलाया, अल्जीरिया, कांगो, मोराक्को आदि देशों को स्वतन्त्र करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा (Cuba) पर अपना अधिकार जमाने का प्रयास किया तब भारत ने इसका विरोध किया। भारत की भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कई बार संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को सम्बोधित करते हुए उपनिवेशवाद को पूरी तरह समाप्त करने की अपील की। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने उपनिवेशवाद को पूरी तरह समाप्त करने की अपील की।

भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने उपनिवेशवाद विरोधी नीति को बुलन्द किया है। सितम्बर, 1986 में भारत के विदेश मन्त्री शिवशंकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में नामीबिया को दक्षिण अफ्रीका से मुक्त कराने के लिए एक दस सूत्रीय कार्यवाही योजना का प्रस्ताव रखा। दिसम्बर, 1989 में भारत ने पनामा में अमरीकी सैनिक हस्तक्षेप की निन्दा करते हुए मांग की कि वहां से अपनी सेनाएं तुरन्त वापस बुलाए।

4. जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध (Opposed to the Policy of Caste, Colour and Discriminations etc.)-भारत की विदेश नीति का एक अन्य मूल सिद्धान्त यह है कि भारत ने जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध सदैव आवाज़ उठाई है। भारत शुरू से ही जाति-पाति के बन्धन को समाप्त करने के पक्ष में रहा है और उसने अपनी विदेश नीति द्वारा समय-समय पर ऐसे प्रयत्न किए हैं जिनसे वह इस नीति को विश्व से समाप्त कर सके। अमेरिका में नीग्रो तथा दक्षिणी अफ्रीका में काले लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जा रहा। भारत ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार का विरोध किया है और इसी तरह रोडेशिया (जिम्बाब्वे) में भारत गोरे लोगों के शासन को समाप्त करवाने के पक्ष में रहा है। राजीव गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और विश्व नेताओं से अपनी बातचीत में दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति की कड़ी आलोचना की है।

राजीव गांधी ने रंगभेद की नीति को मानवता के नाम पर कलंक बताते हुए कहा है कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को समाप्त करने के लिए विश्व समुदाय तत्काल व्यापक व सम्बद्ध कार्यक्रम प्रारम्भ करे। राजीव गांधी के मतानुसार रंगभेद को समाप्त करने का सबसे प्रभावी तरीका दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के खिलाफ व्यापक और अनिवार्य आर्थिक प्रतिबन्ध लगाना है। श्री राजीव गांधी ने विश्व समुदाय का आह्वान किया कि प्रिटोरिया शासन का समर्थन करने वाली एक मात्र आधा दर्जन सरकारों को पीछे धकेल कर दक्षिणी अफ्रीका के विरुद्ध कठोर कदम उठाए और उसे मज़बूर करे कि वह अश्वेतों से बातचीत करें और रंगभेद की नीति समाप्त करें। जाति, रंग व भेदभाव को खत्म करने के लिए 27 अप्रैल, 1994 को दक्षिणी अफ्रीका में बहु-जातीय चुनाव हुए।

5. अन्य देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध (Friendly relations with other States)-भारत की विदेश नीति की एक अन्य विशेषता यह है कि भारत विश्व के अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए सदैव तैयार रहता है। भारत ने न केवल मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एशिया के देशों से ही बढ़ाए हैं बल्कि उसने विश्व के अन्य देशों से भी अपने सम्बन्ध बढ़ाए हैं। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कई बार स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि भारत सभी देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। 11 फरवरी, 1981 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने निर्गुट राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि हमने उपनिवेशवाद से मुक्ति पाई है और अब सभी देशों को मित्र बनाने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। हमें अन्यों की सुरक्षा की छतरी नहीं चाहिए, हम तो सभी देशों को मित्र बनाना चाहते हैं।

श्रीमती गांधी ने कहा जहां मैत्री है हम उसे मज़बूत करना चाहते हैं, जहां उदासीनता है वहां सद्भाव और रुचि पैदा करने का प्रयत्न और जहां शत्रुता है वहां हम उसे कम करने की कोशिश कर रहे हैं। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार स्पष्ट घोषणा की कि भारत सभी देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। वी० पी० सिंह और पी० वी० नरसिम्हा राव की सरकार ने अन्य देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रयास किए। निःसन्देह भारत सरकार ने अपने पड़ोसी देशों के साथ ही बड़ी शक्तियों के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम करने के लिए कुछ भी कसर नहीं उठा रखी है। वर्तमान समय में श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार भी अन्य देशों से मित्रता के सम्बन्ध कायम करने के प्रयत्न कर रही है।

6. एशियाई अफ्रीकी देशों का संगठन (Unity of Afro-Asian Countries)-भारत ने पारस्परिक आर्थिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों को मज़बूत बनाने के लिए एशिया तथा अफ्रीका के देशों को संगठित करने का प्रयास किया है। भारत का विचार है कि ये देश संगठित होकर उपनिवेशवाद का अच्छी तरह से विरोध कर सकेंगे तथा अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता के लिए वातावरण उत्पन्न कर सकेंगे। इसके अतिरिक्ति एशिया तथा अफ्रीकी देशों का संगठन होना इसलिए भी आवश्यक है ताकि वे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकें। साम्राज्यवादी देश अथवा विकसित देश यह समझते हैं कि एशिया तथा अफ्रीका के अविकसित देश आर्थिक तथा तकनीकी सहायता के लिए उन पर निर्भर रहेंगे और वे इस प्रकार उन पर अपना प्रभुत्व जमा सकेंगे।

परन्तु भारत ने अच्छी तरह समझ लिया कि इन देशों के लिए सबसे बड़ा खतरा नव उपनिवेशवाद (NeoColonialism) है। इन देशों की मुख्य समस्या राष्ट्र निर्माण है। राष्ट्र निर्माण के दो पहलू हैं-आर्थिक और राजनीतिक। आर्थिक क्षेत्र में इन देशों को मुख्य शक्तियां सहायता देकर उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता को समाप्त करने के लिए तैयार बैठी थीं। अतः यह डर था कि कहीं से अविकसित देश आर्थिक सहायता के बदले महान् शक्तियों से अपनी स्वतन्त्रता का सौदा न कर बैठें। इस स्थिति के भयंकर परिणाम हो सकते हैं।

अतः भारत ने अपने हितों और अन्य देशों के हितों को देखते हुए एशिया-अफ्रीका के देशों को संगठित किया ताकि ये देश किसी गुट में सम्मिलित न हों और स्वतन्त्रता के मूल्य को समझें। भारत ने इन देशों को गुट-निरपेक्षता का रास्ता दिखाया तथा अनेक देशों ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया और इस प्रकार गुट-निरपेक्ष दोनों का एक गुट बन गया। – इस दिशा में भारत ने 1947 में ही काम करना आरम्भ कर दिया था। 1947 में दिल्ली में एशियाई देशों का सम्मेलन हुआ जिसमें एशिया के देशों के लगभग सभी राष्ट्रवादी नेता सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन में उपनिवेशवाद को एशिया में से समाप्त करने का प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रकार एशिया के देशों का संगठन दिल्ली में आरम्भ हुआ।

18 अप्रैल, 1995 में बांडुंग सम्मेलन हुआ। जिसमें 29 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में उपनिवेशवाद की निन्दा की गई और पंचशील सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया। भारत के प्रधानमन्त्री पं० नेहरू संयुक्त अरब गणराज्य (United Arab Republic) के कर्नल नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने दिल्ली में एक सम्मेलन किया और एशिया तथा अफ्रीका के देशों को संगठित करने पर विचार किया। इस प्रकार भारत ने एशिया और अफ्रीका के देशों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मई, 1994 को दक्षिणी अफ्रीका गुट निरपेक्ष देशों के समूह में शामिल हो गया।

7. संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों को महत्त्व देना (Importance to Principles of United Nations)-भारत की विदेश नीति में संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों को भी महत्त्व दिया गया है और भारत द्वारा सदा से ही यह प्रयास किया गया है कि वह विश्वशान्ति स्थापित करने के लिए युद्धों को रोके। भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों का पालन किया है और कभी किसी देश पर हमला नहीं किया है।

1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया तब भारत ने शीघ्र ही इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया। इसी तरह 1965 और 1977 में भारत-पाकिस्तान युद्ध होने पर भारत ने संयुक्त राष्ट्र की अपील पर तुरन्त युद्ध बन्द कर दिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया है और संयुक्त राष्ट्र के साथ पूरा सहयोग दिया है। भारत 7 बार सुरक्षा परिषद् का अस्थायी सदस्य रह चुका है। भारत के डॉ० नगेन्द्र सिंह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश तथा मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। 1989 में न्यायमूर्ति आर० एस० पाठक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश बने। भारत संयुक्त राष्ट्र की 18 सदस्यीय निःशस्त्रीकरण समिति का सदस्य है। भारत ने समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शान्ति की स्थापना के लिए की गई कार्यवाहियों का न केवल समर्थन किया है बल्कि सहयोग भी दिया है।

8. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत तटस्थ नहीं है (India is not neutral in International Politics)यद्यपि भारत की विदेश नीति का मुख्य आधार गुट-निरपेक्षता है, परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि भारत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बिल्कुल भाग नहीं लेता। भारत किसी गुट में शामिल न होने के कारण ठीक को ठीक तथा गलत को गलत कहने वाली नीति अपनाता है। पं० नेहरू के ये शब्द आज भी सजीव हैं-“जहां स्वतन्त्रता के लिए खतरा उपस्थित हो, आपको धमकी दी जाती हो तथा जहां आक्रमण होता हो, वहां न तो हम तटस्थ रह सकते हैं और न ही तटस्थ रहेंगे।”
भारत न तो रूस का पक्षपात करता है और न ही अमेरिका का। यही कारण है कि जब कोरिया का युद्ध हुआ तो भारत ने अन्य गुट-निरपेक्ष देशों की भान्ति सोवियत संघ को दोषी ठहराया और वियतनाम के युद्ध में अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहराया।

9. राष्ट्रमण्डल की सदस्यता (Membership of Commonwealth of Nations)-भारत की विदेश नीति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता राष्ट्रमण्डल की सदस्यता है। जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब कुछ नेताओं का विचार था कि भारत को राष्ट्रमण्डल का सदस्य नहीं रहना चाहिए क्योंकि इसकी सदस्यता भारत की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध है। परन्तु भारत का राष्ट्रमण्डल का सदस्य बनने में ही हित था और राष्ट्रमण्डल की सदस्यता की भारत की स्वाधीनता में बाधा नहीं है। राष्ट्रमण्डल स्वतन्त्र राष्ट्रों का एक स्वैच्छिक समुदाय है जो आपसी सहयोग तथा सफलता द्वारा अपनी आम समस्याओं को हल करने का प्रयत्न करते हैं। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता ने भारत को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाने के योग्य बनाया है। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुई है।

10. निःशस्त्रीकरण का समर्थन (Support of Disarmament)-भारत की विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण पहलू निःशस्त्रीकरण का समर्थन है। भारत ने सदा ही निःशस्त्रीकरण का समर्थन किया। भारत का अटल विश्वास है कि शस्त्रों की होड़ में स्थायी विश्व शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार यह कहा था कि शस्त्रीकरण की होड़ से विश्व शान्ति को खतरा पैदा हो गया है और इस बात पर जोर दिया है कि निःशस्त्रीकरण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में भारत ने सम्पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के लिए कई बार प्रस्ताव पेश किए हैं। अक्तूबर, 1987 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह प्रस्ताव रखा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा परमाणु हथियार वाले सभी देशों को इन हथियारों का प्रसार रोकने के लिए सहमत कराए और साथ ही इन हथियारों का उत्पादन पूरी तरह रोकना चाहिए तथा हथियारों को बनाने के लिए काम में आने वाले विस्फोटक पदार्थ के उत्पादन में भी पूरी तरह कटौती करनी चाहिए।

11. भारत की परमाणु नीति (Atomic Policy of India)-भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पहलू इसकी परमाणु नीति है। हालांकि स्वतन्त्रता के एक लम्बे समय तक भारत परमाणु सामग्री में अधिक सम्पन्न नहीं था, लेकिन फिर भी उसकी परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट थी। 1974 और 1998 में किए गए परमाणु विस्फोटों ने भारत की परमाणु क्षमता से विश्व को अवगत करा दिया है। अब भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है। इन्दिरा गांधी से लेकर वर्तमान सरकारों तक सभी का भारत की परमाणु नीति के विषय में एक स्पष्ट दृष्टिकोण रहा है। भारत परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपायों के प्रयोग करने का समर्थक रहा है। भारत हमेशा निःशस्त्रीकरण का समर्थक रहा है और विश्व में परमाणु अस्त्रों की होड़ की कड़ी आलोचना करता है। इतना ही नहीं भारत सरकार का यह भी कहना है कि वह आक्रमण के समय परमाणु हथियार गिराने की पहल नहीं करेगी।

भारत एक निश्चित समय-सीमा के अन्तर्गत विश्व से सभी परमाणु अस्त्रों की समाप्ति चाहता है। भारत परमाणु शक्ति के विषय में किसी भी भेदभावपूर्ण संधि को स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि उसने 1968 में परमाणु सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए। वर्तमान में भी भारत ने ‘व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि’ (सी० टी० बी० टी०) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं क्योंकि यह सन्धि भी भेदभावपूर्ण है। आज भारत की परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट है कि उसने परमाणु बम बनाने के सभी विकल्प खुले रखे हुए हैं।

12. पंचशील (Panchsheel)-भारत की विदेश नीति का एक और महत्त्वपूर्ण भाग है पंचशील, जो भारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह सिद्धान्त 1954 में बड़ा लोकप्रिय हुआ जब भारत और चीन के बीच तिब्बत प्रश्न पर सन्धि हुई। राज्यों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने के लिए पांच सिद्धान्तों की रचना की गई, जिसे पंचशील के नाम से पुकारा जाता है। भारत द्वारा जब भी कोई निर्णय अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर लिया जाता है तो वह इन पांच सिद्धान्तों को सामने रख कर लेता है। भारत ने सदैव प्रयास किया है कि इन पांच सिद्धान्तों को अन्य देश भी स्वीकार करें। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रों को एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए।
  • किसी राष्ट्र को दूसरे पर आक्रमण नहीं करना चाहिए।
  • कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे।
  • विश्व के सभी देश एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें चाहे वह अमीर हों या गरीब, कम क्षेत्र वाले हों या अधिक क्षेत्र वाले, छोटे हों या बड़े।
  • शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व अर्थात् सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर शान्तिपूर्वक रहें।

अप्रैल, 1955 में बांडुंग सम्मेलन हुआ जिसमें विश्व के सभी गुट-निरपेक्ष देशों ने भाग लिया और भारत ने भी भाग लिया, जिसके दौरान पंचशील सिद्धान्तों में पांच और सिद्धान्त जोड़ दिए गए

  • मानवीय मौलिक अधिकारों का सम्मान करना।
  • अकेले अथवा सामूहिक ढंग से आत्म-सुरक्षा करना अर्थात् यदि कोई देश भारत पर आक्रमण कर देता है तो वह चुपचाप न बैठ कर आक्रमणकारी का मुकाबला करेगा। परन्तु स्वयं युद्ध के लिए कभी पहल नहीं करेगा। 1962 में चीन आक्रमण, 1965 में पाकिस्तान तथा 1971 में बंगला देश की समस्या को लेकर पाकिस्तान के साथ युद्ध में भारत ने डट कर मुकाबला किया।
  • भारत जितने भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के समझौते या सन्धियां करेगा वह आत्म-निर्भर हो कर करेगा न किसी दबाव में आकर करेगा।
  • विभिन्न देशों के साथ होने वाले झगड़ों को भारत शान्तिपूर्वक निपटाएगा।

13. क्षेत्रीय सहयोग (Regional Co-operation)-भारत का सदा ही क्षेत्रीय सहयोग में विश्वास रहा है। भारत ने क्षेत्रीय सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए 1985 में क्षेत्रीय सहयोग के लिए दक्षिण-एशियाई संघ (South Asian Association of Regional Co-operation) की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसे संक्षेप में ‘सार्क’ (SAARC) कहा जाता है। इस संघ में भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान तथा मालद्वीप भी शामिल हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 18 भारत की विदेश नीति-निर्धारक तत्त्व एवं मूलभूत सिद्धान्त

प्रश्न 3.
परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति की प्रासंगिकता की व्याख्या करें।
(Discuss the Relevance of India’s Policy of Non-alignment in changing International Scenario.)
उत्तर-
शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् फरवरी, 1992 में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन में मिस्र ने कहा था कि सोवियत संघ के विघटन, सोवियत गुट तथा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। अत: इसे समाप्त कर देना चाहिए। परन्तु न तो यह कहना उचित होगा कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया और न ही यह कि इसे समाप्त कर देना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का औचित्य निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है-

  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
  • निशस्त्रीकरण, विश्व शान्ति एवं मानवाधिकारों का सुरक्षा के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आज भी प्रासंगिक
  • नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ को अमेरिका के प्रभुत्व से मुक्त करवाने के लिए भी इसका औचित्य है।
  • उन्नत एवं विकासशील देशों में सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।
  • अशिक्षा बेरोजगारी, आर्थिक समानता जैसी समस्याओं के समूल नाश के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का लोकतांत्रिक स्वरूप इसकी सार्थकता को प्रकट करता है।
  • गुट-निरपेक्ष देशों की एकजुटता ही इन देशों के हितों की रक्षा कर सकती है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में लगातार बढ़ती सदस्य संख्या इसके महत्त्व एवं प्रासंगिकता को दर्शाती है। आज गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या 25 से बढ़कर 120 हो गई है अगर आज इस आन्दोलन का कोई औचित्य नहीं रह गया है या कोई देश इसे समाप्त करने की मांग कर रहा है तो फिर इसकी सदस्य संख्या बढ़ क्यों रही है। इसकी बढ़ रही सदस्य संख्या इसकी सार्थकता, महत्त्व एवं इसकी ज़रूरत को दर्शाती है।
  • गुट-निरपेक्ष देशों का आज भी इस आन्दोलन के सिद्धान्तों में विश्वास एवं इसके प्रति निष्ठा इसके महत्त्व को बनाए गए हैं।
    अत: यह कहना कि वर्तमान एक ध्रुवीय विश्व में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया है, उचित नहीं लगता।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
विदेश नीति से क्या भाव है ?
अथवा
विदेश नीति से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विदेश नीति उन सिद्धान्तों और साधनों का एक समूह है जो राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करने, अपने उद्देश्यों को सही बताने और उनको प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। विभिन्न राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपने व्यवहार के अनुसार बनाने के लिए विदेश नीति का प्रयोग करता है।
डॉ० महेन्द्र कुमार के शब्दों में, “विदेश नीति कार्यों की सोची समझी क्रिया दिशा है जिससे राष्ट्रीय हित की विचारधारा के अनुसार विदेशी सम्बन्धों में उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।”
रुथना स्वामी के शब्दों में, “विदेश नीति ऐसे सिद्धान्तों और व्यवहार का समूह है जिनके द्वारा राज्य के अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों को नियमित,किया जाता है।”

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प्रश्न 2.
गुट-निरपेक्षता का क्या अर्थ है ?
अथवा
भारत की गुट-निरपेक्ष विदेश नीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी शक्ति गुट में शामिल न होना और शक्तिशाली गुटों के सैनिक बन्धनों व अन्य सन्धियों से दूर रहना। पण्डित नेहरू ने कहा था, “जहां तक सम्भव होगा हम उन शक्ति गुटों से अलग रहना चाहते हैं जिनके कारण पहले भी महायुद्ध हुए हैं और भविष्य में भी हो सकते हैं।” गुट-निरपेक्षता का यह भी अर्थ है कि देश अपनी नीति का निर्माण स्वतन्त्रता से करेगा न कि किसी गुट के दबाव में आकर । गुंट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता नहीं है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीनता नहीं है। स्वर्गीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी के अनुसार, “गुट-निरपेक्षता में न तो तटस्थता है और न ही समस्याओं के प्रति उदासीनता। इसमें सिद्धान्त के आधार पर सक्रिय और स्वतन्त्र रूप से निर्णय करने की भावना निहित है।” भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति एक सकारात्मक नीति है, केवल नकारात्मक नहीं है।

प्रश्न 3.
भारतीय विदेश नीति की तीन विशेषताएं बताइए।
अथवा
भारत की विदेश नीति के कोई चार मूल सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर-
भारत की विदेश नीति की मुख्य विशेषताएं या सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • गुट-निरपेक्षता–भारत की विदेश नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुट-निरपेक्षता है।
  • विश्व शान्ति और सुरक्षा की नीति-भारत की विदेश नीति का आधारभूत सिद्धान्त विश्व शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है। भारत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने के पक्ष में है। भारत ने सदैव विश्व शान्ति की स्थापना और सुरक्षा की नीति अपनाई है।
  • साम्राज्यवादियों तथा उपनिवेशों का विरोध-भारत स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा है जिसके कारण भारत ने सदैव साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया है। भारत साम्राज्यवाद को विश्व शान्ति का शत्रु मानता है और साम्राज्यवाद युद्ध को जन्म देता है।
  • भारत ने सदैव ही जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध विश्व में आवाज़ उठाई है।

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प्रश्न 4.
पंचशील क्या है ? भारतीय पंचशील के सिद्धान्त बताएं।
अथवा
पंचशील से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
पंचशील भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। पंचशील भारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह सिद्धान्त 1954 में बड़ा लोकप्रिय हुआ जब भारत और चीन के बीच तिब्बत के प्रश्न पर सन्धि हुई। दोनों राज्यों के बीच मैत्री के सम्बन्ध बनाए रखने के लिए पांच सिद्धान्तों की रचना की गई, जिन्हें पंचशील के नाम से पुकारा जाता है। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्र को एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए।
  • किसी राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करना चाहिए।
  • विश्व के सभी देश एक-दूसरे के समान माने जाएं तथा सहयोग करें चाहे वे अमीर हों या ग़रीब, कम क्षेत्र वाले हों या बड़े क्षेत्र वाले, छोटे हों या बड़े।
  • कोई भी राष्ट्र दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे।
  • शान्तिपूर्ण सह-अस्तुित्व अर्थात् सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहें।

प्रश्न 5.
भारतीय विदेश नीति के मुख्य निर्धारक तत्त्वों का वर्णन करें।
अथवा
भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने वाले किन्हीं चार तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने में अनेक तत्त्वों ने सहयोग दिया है जिसमें मुख्य निम्नलिखित हैं.

  • संवैधानिक आधार–भारत के संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, बताया गया है। अनुच्छेद 51 के अनुसार भारत सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को बढ़ावा देना चाहिए तथा दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाने चाहिए।
  • राष्ट्रीय हित-विदेशी नीति के निर्माण में राष्ट्रीय हित ने सर्वाधिक भूमिका निभाई है। भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपने हितों की रक्षा के लिए अपनाई है। भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रमण्डल का सदस्य और संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनना स्वीकार किया है।
  • आर्थिक तत्त्व-भारत की विदेश नीति के निर्धारण में आर्थिक तत्त्व ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • राष्ट्रीय हित-भारतीय विदेश नीति का एक अन्य निर्धारक तत्व राष्ट्रीय हित है।

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प्रश्न 6.
भारत की परमाणु नीति क्या है ?
अथवा
भारत की परमाणु नीति का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र है और वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी विदेश नीति का संचालन करता है। भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसकी परमाणु नीति (Atomic Policy) है। हालांकि स्वतन्त्रता के एक लम्बे समय तक भारत परमाणु सामग्री में अधिक सम्पन्न नहीं था लेकिन फिर भी उसकी परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट थी। 1974 और 1998 में किए गए परमाणु विस्फोटों ने भारत की परमाणु क्षमता से विश्व को अवगत करा दिया है। अब भारत एक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है। इन्दिरा गान्धी से लेकर वर्तमान सरकारों तक सभी का भारत की परमाणु नीति के विषय में एक स्पष्ट दृष्टिकोण रहा है। भारत परमाणु शक्ति का शान्तिपूर्ण उपायों के लिए प्रयोग करने का समर्थक रहा है। भारत हमेशा निःशस्त्रीकरण का समर्थक रहा है और विश्व में परमाणु अस्त्रों की होड़ की कड़ी आलोचना करता है। इतना ही नहीं भारत सरकार का यह भी कहना है कि वह आक्रमण के समय परमाणु बम गिराने की पहल नहीं करेगी।

प्रश्न 7.
भारत की अपने पड़ोसी देशों के प्रति क्या नीति है ?
उत्तर-
भारत सदैव ही पड़ोसी देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध चाहता है। भारत का मानना है कि बिना मित्रतापूर्ण सम्बन्ध के कोई भी देश सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विकास नहीं कर सकता। इसलिए भारत ने पाकिस्तान, चीन, बंग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल एवं भूटान आदि पड़ोसी देशों से सम्बन्ध मधुर बनाये रखने के लिए समय-समय पर कई कदम उठाये हैं। उन्हीं महत्त्वपूर्ण कदमों में एक कदम सार्क की स्थापना है। इससे न केवल भारत के अन्य देशों के साथ सम्बन्ध ही मधुर होंगे, बल्कि दक्षिण एशिया और अधिक विकास कर सकेगा। भारत की नीति यह है कि पड़ोसी देशों के साथ जो भी मतभेद हैं, उन्हें युद्ध से नहीं, बल्कि बातचीत द्वारा हल किया जाना चाहिए।

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प्रश्न 8.
इसका क्या भाव है कि भारत उपनिवेशवाद और नस्लवाद का विरोधी है ?
अथवा
भारत की नस्लवाद के प्रति क्या नीति है?
उत्तर-
भारत ने सदैव ही उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद का विरोध किया है। भारत स्वयं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का शिकार रहा है जिस कारण भारत ने सदैव साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध किया है। भारत उपनिवेशवाद को विश्व-शान्ति का शत्रु मानता है इसलिए भारत के नेताओं ने समय-समय पर दूसरे देशों में जाकर व संयुक्त राष्ट्र में भाषण देकर दूसरे देशों की समस्याओं को सुलझाने के साथ-साथ गुलाम देशों को उपनिवेशवाद से मुक्त करवाने का प्रयत्न किया है।

भारत की विदेश नीति का एक अन्य मूल सिद्धान्त यह है कि भारत ने जाति, रंग व भेदभाव की नीति के विरुद्ध सदैव आवाज़ उठाई है। भारत शुरू से ही जाति-पाति के बन्धन को समाप्त करने के पक्ष में रहा है और उसने अपनी विदेश नीति द्वारा समय-समय पर ऐसे प्रयत्न किए हैं जिनसे वह इस नीति को विश्व से समाप्त कर सके। अमेरिका में नीग्रो तथा दक्षिणी अफ्रीका में काले लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जा रहा। भारत ने दक्षिणी अफ्रीका की सरकार का विरोध किया और इसी तरह रोडेशिया (जिम्बाब्बे) में भारत गोरे लोगों के शासन को समाप्त करवाने के पक्ष में रहा।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
गुट-निरपेक्षता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी शक्ति गुट में शामिल न होना और शक्तिशाली गुटों के सैनिक बन्धनों व अन्य सन्धियों से दूर रहना। गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता नहीं है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि गुटनिरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीनता नहीं है।

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प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति की दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • गुट-निरपेक्षता–भारत की विदेश नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता गुट-निरपेक्षता है। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है किसी गुट में शामिल न होना और स्वतन्त्र नीति का अनुसरण करना। भारत सरकार ने सदा ही गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया है।
  • विश्व-शान्ति और सुरक्षा की नीति-भारत की विदेश नीति का आधारभूत सिद्धान्त विश्व-शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना है। ..

प्रश्न 3.
पंचशील से आपका क्या भाव है?
उत्तर-
पंचशील भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। पंचशील भारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह सिद्धान्त 1954 में बड़ा लोकप्रिय हुआ जब भारत और चीन के बीच तिब्बत के प्रश्न पर सन्धि हुई। दोनों राज्यों के बीच मैत्री के सम्बन्ध बनाए रखने के लिए पांच सिद्धान्तों की रचना की गई, जिन्हें पंचशील के नाम से पुकारा जाता है।

प्रश्न 4.
पंचशील के कोई दो सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  1. राष्ट्र को एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए।
  2. किसी राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करना चाहिए।

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प्रश्न 5.
भारतीय विदेश नीति के मुख्य निर्धारक तत्त्वों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. संवैधानिक आधार-भारत के संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, बताया गया है।
  2. राष्ट्रीय हित-विदेश नीति के निर्माण में राष्ट्रीय हित ने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपने हितों की रक्षा के लिए अपनाई है।

प्रश्न 6.
विदेश नीति से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विदेश नीति उन सिद्धान्तों और साधनों का एक समूह है जो राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करे, अपने उद्देश्यों को सही बताए और उनको प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं। विभिन्न राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए और अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को अपने व्यवहार के अनुसार बनाने के लिए विदेश नीति का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 7.
भारत की परमाणु नीति क्या है?
उत्तर-
भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उसकी परमाणु नीति (Atomic Policy) है। हालांकि स्वतन्त्रता के एक लम्बे समय तक भारत परमाण सामग्री में अधिक सम्पन्न नहीं था, लेकिन फिर भी उसकी परमाणु नीति बिल्कुल स्पष्ट थी 1974 और 1998 में किए गए परमाणु विस्फोटों ने भारत की परमाणु क्षमता से विश्व को अवगत करा दिया है। भारत परमाणु शक्ति का शान्तिपूर्ण उपायों के लिए प्रयोग करने का समर्थक रहा है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
विदेश नीति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
विदेश नीति उन नियमों और सिद्धान्तों का समूह है जिनके माध्यम से एक देश दूसरे देश के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।

प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति का निर्माता किसे माना जाता है ?
उत्तर-
पण्डित जवाहर लाल नेहरू।

प्रश्न 3.
भारत की विदेश नीति के कोई दो आधारभूत सिद्धान्त लिखो। .
उत्तर-

  1. गुट-निरपेक्षता
  2. पंचशील।

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प्रश्न 4.
भारतीय विदेश नीति के कोई दो निर्धारक तत्त्व बताओ।
उत्तर-

  1. भारत की भौगोलिक स्थिति
  2. भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास।

प्रश्न 5.
पंचशील से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
पंचशील उन पांच सिद्धान्तों का समूह है जिनका वर्णन 1954 में भारत और चीन के बीच हुए एक समझौते की प्रस्तावना में किया गया था।

प्रश्न 6.
पंचशील के दो मुख्य सिद्धान्त क्या हैं ?
उत्तर-

  1. एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता और प्रभुसत्ता का परस्पर सम्मान।
  2. किसी राष्ट्र को दूसरे पर आक्रमण नही करना चाहिए।

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प्रश्न 7.
भारत की अपने पड़ोसी देशों के प्रति क्या नीति है ?
उत्तर-
भारत ने अपने पड़ोसियों के प्रति मित्रता एवं सहयोग की नीति अपनाई है।

प्रश्न 8.
भारत के विश्व के देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का कोई एक सिद्धान्त बताइए।
उत्तर-
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा।

प्रश्न 9.
क्या भारत पंचशील के सिद्धान्तों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
हाँ, भारत पंचशील के सिद्धान्तों में विश्वास रखता है।

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प्रश्न 10.
किस भारतीय प्रधानमन्त्री को पंचशील सिद्धान्तों का प्रतिपादक माना जाता है ?
उत्तर-
पं० जवाहर लाल नेहरू को।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत को …………… को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।
2. भारतीय …………… की महत्त्वपूर्ण विशेषता गुट-निरपेक्षता है।
3. भारतीय विदेश नीति के निर्माता …………… हैं।
4. बाडुंग सम्मेलन सन् ………… में हुआ।
5. भारत ने सदैव ही रंगभेद एवं साम्राज्यवाद का ………….. किया है।
उत्तर-

  1. 15 अगस्त, 1947
  2. विदेश नीति
  3. पं० जवाहर लाल नेहरू
  4. 1955
  5. विरोध।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें

1. भारत एक शांतिप्रिय देश है।
2. भारत एक साम्राज्यवादी देश है।
3. भारत एक उपनिवेशवादी देश है।
4. आर्थिक तत्त्व भारतीय विदेश नीति को प्रभावित करते हैं।
5. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भारतीय विदेश नीति को प्रभावित नहीं करती।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा भारतीय विदेश नीति का आंतरिक निर्धारक तत्त्व है ?
(क) संवैधानिक आधार
(ख) भौगोलिक तत्त्व
(ग) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा भारतीय विदेश नीति का बाहरी निर्धारक तत्त्व है?
(क) राष्ट्रीय हित
(ख) अंतर्राष्ट्रीय संगठन
(ग) आर्थिक तत्त्व
(घ) संवैधानिक आधार।
उत्तर-
(ख) अंतर्राष्ट्रीय संगठन

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी भारतीय विदेश नीति की विशेषता है ?
(क) गुट-निरपेक्षता
(ख) साम्राज्यवादियों का विरोध
(ग) उपनिवेशवादियों का विरोध
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
पंचशील के सिद्धान्तों का प्रतिपादन कब किया गया ?
(क) 1954
(ख) 1956
(ग) 1958
(घ) 1960
उत्तर-
(क) 1954

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा पंचशील का सिद्धान्त है ?
(क) राष्ट्रों को एक-दूसरे की प्रभुसत्ता का सम्मान करना चाहिए
(ख) एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण नहीं करेगा।
(ग) एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के आंतरिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

राजनीतिक दशा (Political Condition)

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी के जन्म समय ( 16वीं शताब्दी के आरंभ में) पंजाब की राजनीतिक दशा का वर्णन करो।
(Describe the political condition of Punjab at the time (In the beginning of the 16th century) of Guru Nanak Dev Ji’s birth.)
अथवा
बाबर के पंजाब पर किए गए आक्रमणों की संक्षिप्त जानकारी देते हुए उसकी सफलता के कारण बताएँ।
(While describing briefly the invasions of Babur over Punjab, explain the causes of his success.)
अथवा
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक अवस्था का वर्णन करें।
(Describe the political condition of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत दयनीय थी। पंजाब षड्यंत्रों का अखाड़ा बना हुआ था। उस समय पंजाब दिल्ली सल्तनत के अधीन था। इस पर लोधी वंश के सुल्तानों का शासन था। 16वीं शताब्दी के आरंभ में राजनीतिक दशा का शाब्दिक चित्रण निम्नलिखित अनुसार है—
लोधियों के अधीन पंजाब (The Punjab under the Lodhis)

1. ततार खाँ लोधी (Tatar Khan Lodhi)-1469 ई० में दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोधी ने ततार खाँ लोधी को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह इस पद पर 1485 ई० तक रहा। उसने बहुत कठोरता पूर्वक पंजाब पर शासन किया। 1485 ई० में ततार खाँ लोधी ने सुल्तान बहलोल लोधी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने अपने शहज़ादे निज़ाम खाँ को ततार खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। ततार खाँ निज़ाम खाँ से लड़ता हुआ मारा गया।

2. दौलत खाँ लोधी (Daulat Khan Lodhi)-दौलत खाँ लोधी ततार खाँ लोधी का पुत्र था। उसे 1500 ई० में नए सुल्तान सिकंदर लोधी ने पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह सिकंदर लोधी के शासनकाल में तो पूर्ण रूप से वफ़ादार रहा परंतु सुल्तान इब्राहीम के शासनकाल में वह स्वतंत्र होने के स्वप्न देखने लगा। इस संबंध में उसने, आलम खाँ लोधी जो कि इब्राहीम का सौतेला भाई था, के साथ मिलकर षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। जब इन षड्यंत्रों के संबंध में इब्राहीम लोधी को ज्ञात हुआ, तो उसने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को बंदी बना लिया। शीघ्र ही दिलावर खाँ पुनः पंजाब पहुँचने में सफल हो गया। यहाँ पहुँचकर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार के संबंध में बताया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

3. प्रजा की दशा (Condition of Subject)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी। शासक वर्ग का प्रजा की ओर ध्यान ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। हिंदुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उन्हें तलवार की नोक पर बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल किया जाता था। संक्षिप्त में उस समय चारों ओर अत्याचार, छल-कपट और भ्रष्टाचार फैला हुआ था। गुरु नानक देव जी ने वार माझ में इस प्रकार लिखा है—

काल काति राजे कसाई धर्म पंख कर उडरिया॥
कूड़ अमावस सच्च चंद्रमा दीसै नाहि कह चढ़िया॥

बाबर के आक्रमण
(Invasions of Babur)
1519 ई० से 1526 ई० के मध्य पंजाब को अपने अधिकार में लेने के लिए एक त्रिकोणीय संघर्ष आरंभ हो गया। यह संघर्ष इब्राहीम लोधी, दौलत खाँ लोधी तथा बाबर के बीच आरंभ हुआ। इस संघर्ष में अंततः बाबर विजयी हुआ। बाबर का जन्म मध्य एशिया में स्थित फरगना की राजधानी, अंदीजान में 14 फरवरी, 1483 ई० को हुआ था। वह तैमूर वंश से संबंध रखता था। बाबर ने भारत पर अपने साम्राज्य के विस्तार, भारतीय धन लूटने तथा भारत में इस्लाम के प्रसार के उद्देश्य से आक्रमण किए।

1. बाबर के प्रथम दो आक्रमण (First Two Invasions of Babur)—बाबर ने 1519 ई० में पंजाब पर दो बार आक्रमण किए। क्योंकि ये आक्रमण पंजाब के सीमावर्ती इलाकों पर किए गए थे। इसलिए इनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

2. बाबर का तीसरा आक्रमण 1520 ई० (Third Invasion of Babur 1520 A.D.)-बाबर ने 1520 ई० में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण किया। बाबर ने बहुसंख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी और उन्हें बेरहमी से लूटा। हज़ारों लोगों को बंदी बना लिया गया। गुरु नानक देव जी जो इस समय सैदपुर में ही थे, ने बाबर के इस आक्रमण की तुलना पाप की बारात के साथ की है। उन्होंने बाबर के अत्याचारों का वर्णन ‘बाबर वाणी’ में इस प्रकार किया है
खुरासान खसमाना किया, हिंदुस्तान डराया॥
आपे दोस न देई कर्ता, जम करि मुगल चढ़ाया।
ऐती मार पई करलाणै, तैं की दर्द न आया॥
बाबर की सेनाओं ने गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया था। तत्पश्चात् जब बाबर को यह ज्ञात हुआ कि उसकी सेनाओं ने किसी संत-महापुरुष को बंदी बनाया है, तो उसने शीघ्र उनकी रिहाई का आदेश दिया।

3. बाबर का चौथा आक्रमण 1524 ई० (Fourth Invasion of Babur 1524 A.D.)—पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी के निमंत्रण पर बाबर ने 1524 ई० में पंजाब पर चौथा आक्रमण किया। वह बिना किसी विशेष विरोध के लाहौर तक पहुँच गया था। लाहौर के पश्चात् उसने दौलत खाँ लोधी के सहयोग से दीपालपुर पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् बाबर ने समस्त जालंधर दोआब को अपने अधिकार में ले लिया। बाबर ने जालंधर दोआब तथा सुल्तानपुर के प्रदेशों का शासन दौलत खाँ को सौंपा। क्योंकि यह दौलत खाँ की उम्मीदों से बहुत कम था, इसलिए उसने बाबर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। बाबर ने उसे पराजित कर दिया तो वह शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग गया। बाबर के काबुल लौटने के पश्चात् शीघ्र ही दौलत खाँ ने पुनः पंजाब पर अधिकार कर लिया।

4. बाबर का पाँचवाँ आक्रमण 1525-26 (Fifth Invasion of Babur 1525-26 A.D.)-बाबर ने दौलत खाँ को पाठ पढ़ाने के लिए नवंबर 1525 ई० में भारत पर पाँचवीं बार आक्रमण किया। बाबर के आगमन का समाचार पाकर दौलत खाँ ज़िला होशियारपुर में स्थित मलोट के दुर्ग में जाकर छुप गया। बाबर ने दुर्ग को घेरे में ले लिया। दौलत खाँ ने कुछ सामना करने के पश्चात् अपने शस्त्र फैंक दिए। इस प्रकार बाबर ने एक बार फिर समूचे पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया। पंजाब की विजय से प्रोत्साहित होकर बाबर ने अपनी सेनाओं को दिल्ली की ओर बढ़ने का आदेश दिया। जब इब्राहीम लोधी को इस संबंध में समाचार मिला तो वह बाबर का सामना करने के लिए पंजाब की ओर चल पड़ा। 21 अप्रैल, 1526 ई० को दोनों सेनाओं के मध्य पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोधी पराजित हुआ। इस प्रकार भारत में लोधी वंश का अंत हो गया और मुग़ल वंश की स्थापना हुई।

5. बाबर की विजय के कारण (Causes of Babur’s Success)—बाबर की विजय के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। प्रथम, इब्राहीम लोधी अपनी प्रजा में बहुत बदनाम था। इस कारण प्रजा ने सुल्तान का साथ न दिया। द्वितीय, उसकी सेना बड़ी निर्बल थी तथा अधिकतर लूट-मार ही करती थी। तृतीय, बाबर एक योग्य सेनापति था। उसकी सेना को कई लड़ाइयों का अनुभव था। चतुर्थ, बाबर के पास तोपखाना था और इब्राहीम के सैनिक तीर कमानों तथा तलवारों के साथ उसका मुकाबला न कर सके। इन कारणों से अफगानों की पराजय हुई तथा बाबर विजयी रहा।

सामाजिक दशा
(Social Condition)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 2.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज की मुख्य विशेषताएँ बयान करो।।
(Discuss the main features of the society of Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में सामाजिक अवस्था का वर्णन करें। (Discuss the social condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। दूसरी ओर हिंदू अधिक जनसंख्या में थे परंतु उन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती समझा जाता था। डॉक्टर जसबीर सिंह आहलुवालिया के अनुसार,
“जिस समय गुरु नानक जी ने अवतार धारण किया तो उस समय से पूर्व ही भारतीय समाज जड़ एवं पतित हो चुका था।”1
1. “When Guru Nanak appeared on the horizon, the Indian society had already become static and decadent.” Dr. Jasbir Singh Ahluwalia, Creation of Khalsa : Fulfilment of Guru Nanak’s Mission (Patiala : 1999) p. 19.

मुस्लिम समाज की विशेषताएँ (Features of the Muslim Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. समाज तीन वर्गों में विभाजित था (Society was divided into Three Classes)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित था।

  • उच्च वर्ग (The Upper Class)-इस वर्ग में अमीर, खान, शेख़, मलिक, इकतादार, उलमा और काजी इत्यादि शामिल थे। इस वर्ग के लोग बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बहुत भव्य महलों में निवास करते थे। उच्च श्रेणी के लोगों की सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर होते थे।
  • मध्य वर्ग (The Middle Class)-इस श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, कृषक, विद्वान्, लेखक और राज्य के छोटे कर्मचारी शामिल थे। उनके जीवन तथा उच्च वर्ग के लोगों के जीवन-स्तर में बहुत अंतर था। किंतु हिंदुओं की तुलना में वे बहुत अच्छा जीवन बिताते थे।
  • निम्न वर्ग (The Lower Class)—इस वर्ग में दास-दासियाँ, नौकर और श्रमिक शामिल थे। इनकी संख्या बहुत अधिक थी। उनका जीवन अच्छा नहीं था। उनके स्वामी उन पर बहुत अत्याचार करते थे।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत कम शिक्षित होती थीं। बहु-विवाह और तलाक प्रथा ने उनकी दशा और दयनीय बना दी थी।

3. भोजन (Diet)-उच्च वर्ग के मुसलमान कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। वे माँस, हलवा, पडी और मक्खन इत्यादि का बहुत प्रयोग करते थे। उनमें मदिरापान की प्रथा सामान्य हो गई थी। मदिरा के अतिरिक्त वे अफीम और भाँग का भी प्रयोग करते थे। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों का भोजन साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-उच्च वर्ग के मुसलमानों के वस्त्र बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल से निर्मित थे। निम्न वर्ग के लोग सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुषों में कुर्ता और पायजामा पहनने की, जबकि स्त्रियों में लंबा बुर्का पहनने की प्रथा थी।

5. शिक्षा (Education)-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी, जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे।

6. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे।

हिंदू समाज की विशेषताएँ (Features of the Hindu Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. जाति प्रथा (Caste System)-हिंदू समाज कई जातियों व उप-जातियों में विभाजित था। समाज में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना कारण ब्राह्मणों के प्रभाव में बहुत कमी आ गयी थी। इसा कारण अर्थात् मुस्लिम शासन के कारण ही क्षत्रियों ने नए व्यवसाय जैसे दुकानदारी, कृषि इत्यादि अपना लिए थे। वैश्य व्यापार और कृषि का ही व्यवसाय करते थे। शूद्रों के साथ इस काल में दुर्व्यवहार किया जाता था। इन जातियों के अतिरिक्त समाज में बहुत-सी अन्य जातियाँ एवं उप-जातियाँ प्रचलित थीं। ये जातियाँ परस्पर बहुत घृणा करती थीं।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों के समान नहीं था। लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उनका अल्पायु में ही विवाह कर दिया जाता था। इस काल में सती प्रथा बहुत ज़ोरों पर थी। विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी।

3. खान-पान (Diet)-हिंदुओं का भोजन साधारण होता था। अधिकाँश हिंदू शाकाहारी होते थे। उनका भोजन गेहूँ, चावल, सब्जियाँ, घी और दूध इत्यादि से तैयार किया जाता था। वे माँस, लहसुन और प्याज का प्रयोग नहीं करते थे। ग़रीब लोगों का भोजन बहुत साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-हिंदुओं का पहनावा बहुत साधारण होता था। वे प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते थे। वे सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे। स्त्रियाँ साड़ी, चोली और लहंगा पहनती थीं। निर्धन लोग चादर से ही अपना शरीर ढाँप लेते थे।

5. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-हिंदू नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लडाइयाँ और मल्लयद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इनके अतिरिक्त हिंदू अपने त्यौहारों दशहरा, दीवाली, होली आदि में भी भाग लेते थे।

6. शिक्षा (Education)-हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था।

उपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम और हिंदू समाज में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। समाज में झूठ, धोखा, छल और कपट इत्यादि का बोलबाला था। लोगों के चरित्र का पतन हो चुका था। उनमें मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं रही थी। डॉक्टर ए० सी० बैनर्जी का यह कहना बिल्कुल सही है,
“यह अनिश्चितता तथा हलचल का लंबा अंधकारमय काल था जिसने लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपने भद्दे दाग छोड़े।”2
2. “It was a long, dark age of uncertainty and restlessness, leaving its ugly scars on all aspects of people’s life.” Dr. A.C. Banerjee, Guru Nanak and His Times (Patiala : 1984) p. 19.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के जन्म समय पंजाब की राजनीतिक तथा सामाजिक दशा का वर्णन करें।
(Explain the political and social conditions of Punjab at the birth of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक तथा सामाजिक दशा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the political and social conditions of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत दयनीय थी। पंजाब षड्यंत्रों का अखाड़ा बना हुआ था। उस समय पंजाब दिल्ली सल्तनत के अधीन था। इस पर लोधी वंश के सुल्तानों का शासन था। 16वीं शताब्दी के आरंभ में राजनीतिक दशा का शाब्दिक चित्रण निम्नलिखित अनुसार है—
लोधियों के अधीन पंजाब (The Punjab under the Lodhis)

1. ततार खाँ लोधी (Tatar Khan Lodhi)-1469 ई० में दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोधी ने ततार खाँ लोधी को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह इस पद पर 1485 ई० तक रहा। उसने बहुत कठोरता पूर्वक पंजाब पर शासन किया। 1485 ई० में ततार खाँ लोधी ने सुल्तान बहलोल लोधी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने अपने शहज़ादे निज़ाम खाँ को ततार खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। ततार खाँ निज़ाम खाँ से लड़ता हुआ मारा गया।

2. दौलत खाँ लोधी (Daulat Khan Lodhi)-दौलत खाँ लोधी ततार खाँ लोधी का पुत्र था। उसे 1500 ई० में नए सुल्तान सिकंदर लोधी ने पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया। वह सिकंदर लोधी के शासनकाल में तो पूर्ण रूप से वफ़ादार रहा परंतु सुल्तान इब्राहीम के शासनकाल में वह स्वतंत्र होने के स्वप्न देखने लगा। इस संबंध में उसने, आलम खाँ लोधी जो कि इब्राहीम का सौतेला भाई था, के साथ मिलकर षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। जब इन षड्यंत्रों के संबंध में इब्राहीम लोधी को ज्ञात हुआ, तो उसने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को बंदी बना लिया। शीघ्र ही दिलावर खाँ पुनः पंजाब पहुँचने में सफल हो गया। यहाँ पहुँचकर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार के संबंध में बताया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

3. प्रजा की दशा (Condition of Subject)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी। शासक वर्ग का प्रजा की ओर ध्यान ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। हिंदुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उन्हें तलवार की नोक पर बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल किया जाता था। संक्षिप्त में उस समय चारों ओर अत्याचार, छल-कपट और भ्रष्टाचार फैला हुआ था। गुरु नानक देव जी ने वार माझ में इस प्रकार लिखा है—

काल काति राजे कसाई धर्म पंख कर उडरिया॥
कूड़ अमावस सच्च चंद्रमा दीसै नाहि कह चढ़िया॥

आर्थिक दशा
(Economic Condition)

प्रश्न 4.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की कृषि, व्यापार तथा उद्योगों के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about agriculture, trade and industries of the Punjab in the beginning of the sixteenth century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक दशा की मुख्य विशेषताएँ बयान करो।
(Describe the main features of the economic condition of Punjab in the beginning of the sixteenth century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी। उपजाऊ भूमि, विकसित व्यापार तथा लोगों के परिश्रम ने पंजाब को एक समृद्ध प्रदेश बना दिया। 16वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों के आर्थिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. कृषि (Agriculture)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। पंजाब की भूमि बहुत उपजाऊ थी। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे किंतु नहरों, तालाबों और कुओं का प्रयोग भी किया जाता था। यहाँ पर फसलों की भरपूर पैदावार होती थी। यहाँ की मुख्य फसलें गेहूँ, कपास, जौ, मकई, चावल और गन्ना थीं। फसलों की भरपूर उपज होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

2. उद्योग (Industries)-कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। यहाँ सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। समाना, सुनाम, सरहिंद, दीपालपुर, जालंधर, लाहौर और मुलतान इस उद्योग के प्रसिद्ध केंद्र थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के लिए उद्योग भी प्रचलित थे।

3. पशु पालन (Animal Rearing)-पंजाब के कुछ लोग पशु पालन का व्यवसाय करते थे। पंजाब में पालतू रखे जाने वाले मुख्य पशु गाय, बैल, भैंसे, घोड़े, खच्चर, ऊँट, भेड़ें और बकरियाँ इत्यादि थे। इन पशुओं से दूध, ऊन और भार ढोने का काम लिया जाता था।

4. व्यापार (Trade) पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। व्यापार का कार्यकछ विशेष श्रेणियों के हाथ में होता था। हिंदुओं की क्षत्रिय, महाजन, बनिया, सूद और अरोड़ा नामक जातियाँ तथा मुसलमानों में बोहरा और खोजा नामक जातियाँ व्यापार का कार्य करती थीं। माल के परिवहन का कार्य बनजारे करते थे। पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब घोड़े, फर, कस्तूरी और मेवे आयात करता था।

5. व्यापारिक नगर (Commercial Towns)-16वीं शताब्दी के आरंभ में लाहौर और मुलतान पंजाब के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। इनके अतिरिक्त पेशावर, जालंधर, लुधियाना, फिरोज़पुर, सुल्तानपुर, सरहिंद, स्यालकोट, कुल्लू, चंबा और काँगड़ा भी व्यापारिक दृष्टि से पंजाब के प्रसिद्ध नगर थे।

6. जीवन स्तर (Standard of Living)-उस समय पंजाब के लोगों के जीवन स्तर में बहुत अंतर था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था, किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था, परंतु हिंदू अपना निर्वाह बहुत मुश्किल से करते थे। समाज में निर्धनों और कृषकों का जीवन-स्तर निम्न था। वे प्रायः साहूकारों के ऋणी रहते थे।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 5.
सोलहवीं शताब्दी में पंजाब के लोगों की सामाजिक व आर्थिक दशा कैसी थी ?
(What were the social and economic condition of people of Punjab in 16th century ?)
अथवा
सोलहवीं सदी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक और आर्थिक हालत का वर्णन करें।
(What were the social and economic condition of Punjab in the beginning of 16th century ? Discuss it.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। दूसरी ओर हिंदू अधिक जनसंख्या में थे परंतु उन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती समझा जाता था। डॉक्टर जसबीर सिंह आहलुवालिया के अनुसार,
“जिस समय गुरु नानक जी ने अवतार धारण किया तो उस समय से पूर्व ही भारतीय समाज जड़ एवं पतित हो चुका था।”1
1. “When Guru Nanak appeared on the horizon, the Indian society had already become static and decadent.” Dr. Jasbir Singh Ahluwalia, Creation of Khalsa : Fulfilment of Guru Nanak’s Mission (Patiala : 1999) p. 19.

मुस्लिम समाज की विशेषताएँ (Features of the Muslim Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. समाज तीन वर्गों में विभाजित था (Society was divided into Three Classes)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित था।

  • उच्च वर्ग (The Upper Class)-इस वर्ग में अमीर, खान, शेख़, मलिक, इकतादार, उलमा और काजी इत्यादि शामिल थे। इस वर्ग के लोग बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बहुत भव्य महलों में निवास करते थे। उच्च श्रेणी के लोगों की सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर होते थे।
  • मध्य वर्ग (The Middle Class)-इस श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, कृषक, विद्वान्, लेखक और राज्य के छोटे कर्मचारी शामिल थे। उनके जीवन तथा उच्च वर्ग के लोगों के जीवन-स्तर में बहुत अंतर था। किंतु हिंदुओं की तुलना में वे बहुत अच्छा जीवन बिताते थे।
  • निम्न वर्ग (The Lower Class)—इस वर्ग में दास-दासियाँ, नौकर और श्रमिक शामिल थे। इनकी संख्या बहुत अधिक थी। उनका जीवन अच्छा नहीं था। उनके स्वामी उन पर बहुत अत्याचार करते थे।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत कम शिक्षित होती थीं। बहु-विवाह और तलाक प्रथा ने उनकी दशा और दयनीय बना दी थी।

3. भोजन (Diet)-उच्च वर्ग के मुसलमान कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। वे माँस, हलवा, पडी और मक्खन इत्यादि का बहुत प्रयोग करते थे। उनमें मदिरापान की प्रथा सामान्य हो गई थी। मदिरा के अतिरिक्त वे अफीम और भाँग का भी प्रयोग करते थे। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों का भोजन साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-उच्च वर्ग के मुसलमानों के वस्त्र बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल से निर्मित थे। निम्न वर्ग के लोग सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुषों में कुर्ता और पायजामा पहनने की, जबकि स्त्रियों में लंबा बुर्का पहनने की प्रथा थी।

5. शिक्षा (Education)-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी, जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे।

6. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे।

हिंदू समाज की विशेषताएँ (Features of the Hindu Society)
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. जाति प्रथा (Caste System)-हिंदू समाज कई जातियों व उप-जातियों में विभाजित था। समाज में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना कारण ब्राह्मणों के प्रभाव में बहुत कमी आ गयी थी। इसा कारण अर्थात् मुस्लिम शासन के कारण ही क्षत्रियों ने नए व्यवसाय जैसे दुकानदारी, कृषि इत्यादि अपना लिए थे। वैश्य व्यापार और कृषि का ही व्यवसाय करते थे। शूद्रों के साथ इस काल में दुर्व्यवहार किया जाता था। इन जातियों के अतिरिक्त समाज में बहुत-सी अन्य जातियाँ एवं उप-जातियाँ प्रचलित थीं। ये जातियाँ परस्पर बहुत घृणा करती थीं।

2. स्त्रियों की दशा (Position of Women)-हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों के समान नहीं था। लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उनका अल्पायु में ही विवाह कर दिया जाता था। इस काल में सती प्रथा बहुत ज़ोरों पर थी। विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी।

3. खान-पान (Diet)-हिंदुओं का भोजन साधारण होता था। अधिकाँश हिंदू शाकाहारी होते थे। उनका भोजन गेहूँ, चावल, सब्जियाँ, घी और दूध इत्यादि से तैयार किया जाता था। वे माँस, लहसुन और प्याज का प्रयोग नहीं करते थे। ग़रीब लोगों का भोजन बहुत साधारण होता था।

4. पहनावा (Dress)-हिंदुओं का पहनावा बहुत साधारण होता था। वे प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते थे। वे सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे। स्त्रियाँ साड़ी, चोली और लहंगा पहनती थीं। निर्धन लोग चादर से ही अपना शरीर ढाँप लेते थे।

4. मनोरंजन के साधन (Means of Entertainment)-हिंदू नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लडाइयाँ और मल्लयद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इनके अतिरिक्त हिंदू अपने त्यौहारों दशहरा, दीवाली, होली आदि में भी भाग लेते थे।

5. शिक्षा (Education)-हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था।

उपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि 16वीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम और हिंदू समाज में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। समाज में झूठ, धोखा, छल और कपट इत्यादि का बोलबाला था। लोगों के चरित्र का पतन हो चुका था। उनमें मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं रही थी। डॉक्टर ए० सी० बैनर्जी का यह कहना बिल्कुल सही है,
“यह अनिश्चितता तथा हलचल का लंबा अंधकारमय काल था जिसने लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपने भद्दे दाग छोड़े।”2
2. “It was a long, dark age of uncertainty and restlessness, leaving its ugly scars on all aspects of people’s life.” Dr. A.C. Banerjee, Guru Nanak and His Times (Patiala : 1984) p. 19.

धार्मिक अवस्था (Religious Condition)

प्रश्न 6.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों की धार्मिक अवस्था का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the religious condition of the people of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में दो मुख्य धर्म हिंदू धर्म तथा इस्लाम प्रचलित थे। ये दोनों धर्म आगे कई संप्रदायों में विभाजित थे। इनके अतिरिक्त पंजाब में बौद्ध मत तथा जैन मत भी प्रचलित थे। इन धर्मों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. हिंदू धर्म (Hinduism)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का सबसे प्रमुख धर्म हिंदू धर्म था। हिंदू धर्म वेदों में विश्वास रखता था। 16वीं शताब्दी में पंजाब के लोगों में रामायण तथा महाभारत बहुत लोकप्रिय थे। इस काल के समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व था। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कार ब्राह्मणों के बिना अधूरे समझे जाते थे। इस काल में ब्राह्मणों का चरित्र बहुत गिर चुका था। वे अपने स्वार्थों के लिए लोगों को लूटने के उद्देश्य से धर्म की गलत व्याख्या करते थे। वे भोली-भाली जनता को लूटकर बहुत खुशी अनुभव करते थे। उस समय पंजाब में हिंदू धर्म की निम्नलिखित संप्रदाएँ प्रचलित थीं

i) शैव मत (Shaivism)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में शैव मत बहुत लोकप्रिय था। इस मत के लोग शिव के अधिकतर पुजारी थे। उन्होंने स्थान-स्थान पर शिवालय स्थापित किए थे जहाँ शैव मत की शिक्षा दी जाती थी। शैव मत को मानने वाले जोगी कहलाते थे। जोगियों की मुख्य शाखा को नाथपंथी कहा जाता था। इसकी स्थापना गोरखनाथ ने की थी। क्योंकि जोगी कान में छेद करवा कर बड़े-बड़े कुंडल डालते थे इसलिए उन्हें कानफटे जोगी भी कहा जाता था। पंजाब में जोगियों का प्रमुख केंद्र जेहलम में गोरखनाथ का टिल्ला था। जोगियों ने ब्राह्मणों की रस्मों तथा जाति प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया।

ii) वैष्णव मत (Vaishnavism)-वैष्णव मत भी पंजाब में काफ़ी लोकप्रिय था। इस मत के लोग विष्णु तथा उसके अवतारों की पूजा करते थे। इस काल में श्री राम तथा श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मान कर उनकी पूजा की जाती थी। इनकी स्मृति में पंजाब में अनेक स्थानों पर विशाल तथा सुंदर मंदिरों का निर्माण किया गया। इस मत के अनुयायी मदिरा तथा माँस आदि का प्रयोग नहीं करते थे।

iii) शक्ति मत (Shaktism)-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों में शक्ति मत भी प्रचलित था। इस मत को मानने वाले लोग दुर्गा, काली तथा अन्य देवियों की पूजा करते थे। वे इन देवियों को शक्ति का प्रतीक समझते थे। इन देवियों को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। इन देवियों की स्मृति में अनेक मंदिरों का निर्माण किया गया। इनमें से ज्वालामुखी, चिंतपुरणी, चामुण्डा देवी तथा नैना देवी के मंदिर बहुत प्रसिद्ध थे।

2. इस्लाम (Islam)-इस्लाम की स्थापना हज़रत मुहम्मद साहिब ने 7वीं शताब्दी में मक्का में की थी। उन्होंने समाज में प्रचलित सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों का खंडन किया। उन्होंने एक ईश्वर तथा आपसी भ्रातृत्व का संदेश दिया। 16वीं शताब्दी के आरंभ में इस्लाम धर्म का प्रचार बड़ी तीव्र गति से हो रहा था। इसके दो प्रमुख कारण थे। प्रथम, भारत पर शासन करने वाले सभी सुल्तान मुसलमान थे। दूसरा, उन्होंने तलवार की नोक पर लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया। इस्लाम के अनुयायी सुन्नी तथा शिया नामक दो संप्रदायों में बंटे हुए थे। सुन्नी मुसलमानों की संख्या अधिक थी तथा वे कट्टर विचारों के थे। मुसलमानों के धार्मिक नेताओं को उलमा कहा जाता था। वे इस्लामी कानूनों की व्याख्या करते थे तथा लोगों को पवित्र जीवन बिताने की प्रेरणा देते थे। वे अन्य धर्मों को घृणा की दृष्टि से देखते थे।

3. सूफ़ी मत (Sufism)-सूफी मत इस्लाम से संबंधित एक संप्रदाय था। यह मत पंजाब में बहुत लोकप्रिय हुआ। यह मत 12 सिलसिलों में बँटा हुआ था। इनमें से चिश्ती तथा सुहरावर्दी सिलसिले पंजाब में बहुत प्रसिद्ध थे। पंजाब में थानेश्वर, हाँसी, नारनौल तथा पानीपत सूफ़ियों के प्रसिद्ध केंद्र थे। इस मत के लोग केवल एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। वे मनुष्य की सेवा करना अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझते थे। वे संगीत में विश्वास रखते थे। सूफ़ियों ने हिंदुओं तथा मुसलमानों में आपसी मेलजोल रखने, सुल्तानों को कट्टर नीति का त्याग करने के लिए प्रेरित करने, साहित्य तथा संगीत की उन्नति के लिए प्रशंसनीय योगदान दिया।

4. जैन मत (Jainism)-जैन मत पंजाब के व्यापारी वर्ग में प्रचलित था। इस मत के लोग 24 तीर्थंकरों, त्रिरत्नों, अहिंसा, कर्म सिद्धांत तथा निर्वाण में विश्वास रखते थे। वे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे।

5. बौद्ध मत (Buddhism)-16वीं शताब्दी में पंजाब में बौद्ध मत को हिंदू धर्म का एक भाग माना जाता था। महात्मा बुद्ध को विष्णु का ही एक अवतार मानते थे। पंजाब के बहुत कम लोग इस मत में शामिल थे।

गुरु नानक देव जी ने अपनी रचनाओं में अनेक स्थानों पर 16वीं शताब्दी के लोगों की धार्मिक अवस्था का वर्णन किया है। उनके अनुसार हिंदू तथा मुसलमान दोनों धर्म बाह्याडंबरों जैसे शरीर पर भस्म मलना, माथे पर तिलक लगाना, कानों में कुंडल डालना, नदी में स्नान करना, रोजे रखना तथा कब्रों आदि की पूजा पर बहुत ज़ोर देते थे। धर्म की वास्तविकता को लोग पूरी तरह से भूल चुके थे। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“संक्षेप में गुरु साहिब के आगमन के समय भारत के दोनों धर्म-हिंदू धर्म तथा इस्लाम-भ्रष्टाचारी तथा पतित हो चुके थे। वे अपनी पवित्रता तथा गौरव को गंवा चुके थे।”3
3. “In short, at the time of Guru Nanak’s advent both the religions in India, Hinduism and Islam, had become corrupt and degraded. They had lost their pristine purity and glory.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1993) p.12.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 7.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक तथा धार्मिक अवस्था का वर्णन करें।
(Describe the social and religious condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। दूसरी ओर हिंदू अधिक जनसंख्या में थे परंतु उन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती समझा जाता था। डॉक्टर जसबीर सिंह आहलुवालिया के अनुसार,
“जिस समय गुरु नानक जी ने अवतार धारण किया तो उस समय से पूर्व ही भारतीय समाज जड़ एवं पतित हो चुका था।”1
1. “When Guru Nanak appeared on the horizon, the Indian society had already become static and decadent.” Dr. Jasbir Singh Ahluwalia, Creation of Khalsa : Fulfilment of Guru Nanak’s Mission (Patiala : 1999) p. 19.

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा कैसी थी ?
(What was the political condition of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक अवस्था ब्यान करें।
(Explain the political condition of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बड़ी खराब थी। लोधी सुल्तानों की ग़लत नीतियों के परिणामस्वरूप यहाँ अराजकता फैली हुई थी। शासक वर्ग भोग-विलास में डूबा रहता था। सरकारी कर्मचारी, काज़ी तथा उलमा भ्रष्ट एवं रिश्वतखोर हो गए थे। मुसलमान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। उन्हें बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाता था। राज्य की शासन-व्यवस्था भंग होकर रह गई थी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी ने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

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प्रश्न 2.
“16वीं सदी के आरंभ में पंजाब त्रिकोणी संघर्ष का अखाड़ा था।” व्याख्या करें।
(“’In the beginning of the 16th century, the Punjab was a cockpit of triangular struggle.” Explain.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब ‘त्रिकोणी संघर्ष’ का वर्णन कीजिए।
(Explain the triangular struggle of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
पंजाब के तिकोने (त्रिकोने) संघर्ष के बारे में आप क्या जानते हैं ? (P.S.E.B. June 2017) (What do you know about the triangular struggle in Punjab ?)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब में हुए त्रिकोणीय संघर्ष के बारे में संक्षेप में लिखें।
(Write in brief about the triangular struggle of the Punjab in the beginning of the 16th country.)
उत्तर-
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब त्रिकोणे संघर्ष का अखाड़ा था। यह त्रिकोणा संघर्ष काबुल के शासक बाबर, दिल्ली के शासक इब्राहीम लोधी तथा पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोधी के मध्य चल रहा था। दौलत खाँ लोधी पंजाब का स्वतंत्र शासक बनना चाहता था। इस संबंध में जब इब्राहीम लोधी को पता चला तो उसने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को बंदी बनाकर कारावास में डाल दिया। दौलत खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। इस त्रिकोणे संघर्ष के अंत में बाबर की जीत हुई।

प्रश्न 3.
दौलत खाँ लोधी कौन था ? (Who was Daulat Khan Lodhi ? )
अथवा
दौलत खाँ लोधी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Daulat Khan Lodhi.)
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी 1500 ई० में पंजाब का सूबेदार नियुक्त हुआ था। वह पंजाब में स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने के स्वप्न देख रहा था। इस संबंध में जब इब्राहीम लोधी को पता चला तो उसने दौलत खाँ लोधी को शाही दरबार में उपस्थित होने को कहा। दौलत खाँ ने अपने छोटे पुत्र दिलावर खाँ को दिल्ली भेज दिया। दिलावर खाँ को दिल्ली पहुँचते ही बंदी बना लिया गया। शीघ्र ही वह किसी प्रकार कारागार से भागने में सफल हो गया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।

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प्रश्न 4.
बाबर के भारत पर आक्रमण के कोई तीन कारण लिखें। (Write any three causes of the invansions of Babur over India.)
उत्तर-

  1. बाबर अपने सामग्रज्य का विस्तार करना चाहता था।
  2. वह भारत से अतुल्य संपदा लूटना चाहता था।
  3. वह भारत में इस्लाम का प्रसार करना चाहता था।

प्रश्न 5.
बाबर ने सैदपुर पर कब आक्रमण किया ? सिख इतिहास में इस आक्रमण का क्या महत्त्व है ? (When did Babar invade Saidpur ? What is its importance in Sikh History ?)
अथवा
बाबर के पंजाब के तीसरे हमले का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of Babur’s third invasion over Punjab.)
उत्तर-
बाबर ने सैदपुर पर 1520 ई० में आक्रमण किया यहाँ के लोगों ने बाबर का सामना किया। फलस्वरूप बाबर ने क्रोधित होकर बड़ी संख्या में लोगों की हत्या कर दी और उनके मकानों एवं महलों को लूटपाट करने के पश्चात् आग लगा दी गई। हज़ारों स्त्रियों को बंदी बना लिया गया और उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। गुरु नानक देव जी जो इस समय सैदपुर में ही थे, ने बाबर की सेनाओं द्वारा लोगों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन ‘बाबर वाणी’ में किया है। बाबर की सेनाओं ने गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया था। बाद में बाबर की सेना ने गुरु जी को रिहा कर दिया।

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प्रश्न 6.
पानीपत की पहली लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दो।
(Give a brief account of the First Battle of Panipat.)
अथवा
बाबर तथा इब्राहीम लोधी के मध्य युद्ध कब तथा क्यों हुआ ? ।
(Why and when did the battle take place between Babur and Ibrahim Lodhi ?)
अथवा
पानीपत की पहली लड़ाई तथा इसके महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें।
(Explain the First Battle of Panipat and its significance.)
उत्तर-
बाबर ने पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी को सबक सिखाने के लिए नवंबर, 1525 ई० में पंजाब पर पाँचवीं बार आक्रमण किया। दौलत खाँ बाबर के सामने थोड़ा सा डटा परंतु शीघ्र ही उसने अपने हथियार डाल दिए। बाबर ने पंजाब की विजय से प्रोत्साहित होकर दिल्ली की ओर रुख किया। 21 अप्रैल, 1526 ई० को दोनों सेनाओं के बीच पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोधी की पराजय हुई। पानीपत की इस निर्णायक विजय के कारण भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हुई।

प्रश्न 7.
पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर क्यों विजयी रहा ? (What led to the victory of Babur in the First Battle of Panipat ?)
अथवा
भारत में बाबर की विजय और अफ़गानों की पराजय के कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the causes of victory of Babur and defeat of the Afghans in India.)
उत्तर-

  1. दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोधी अपने दुर्व्यवहार और अत्याचार के कारण बहुत बदनाम था।
  2. इब्राहीम लोधी की सेना बहुत निर्बल थी।
  3. बाबर एक योग्य सेनापति था। उसको युद्धों का काफ़ी अनुभव था।
  4. बाबर द्वारा तोपखाने के प्रयोग ने भारी तबाही मचाई।

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प्रश्न 8.
पानीपत की प्रथम लड़ाई के तीन मुख्य परिणाम लिखें। (Write the three main results of the first battle of Panipat.)
उत्तर-

  1. लोधी वंश का अंत हो गया।
  2. मुग़ल साम्राज्य की स्थापना हो गई।
  3. नई युद्ध प्रणाली का आरंभ हुआ।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के अनुसार शासक अन्यायकारी क्यों थे? (According to Guru Nanak Dev Ji why the rulers were unjust ?)
उत्तर-

  1. वे हिंदुओं से ज़जिया एवं तीर्थ यात्रा कर वसूलते थे।
  2. वे किसानों एवं जनसाधारण पर बहुत अत्याचार करते थे। .
  3. वे रिश्वत लिए बिना इन्साफ (न्याय) नहीं करते थे।

प्रश्न 10.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक अवस्था कैसी थी?
(What was the social condition of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जन्म समय पंजाबियों की सामाजिक दशा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the social condition of Punjab at the time of birth of Guru Nanak Dev ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का समाज मुसलमान और हिंदू नामक दो वर्गों में बँटा हुआ था। मुसलमानों को विशेष अधिकार प्राप्त थे क्योंकि वे शासक वर्ग से संबंधित थे। उन्हें राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। दूसरी ओर हिंदुओं को लगभग सारे अधिकारों से वंचित रखा गया था। मुसलमान उनको काफिर कहते थे। मुसलमान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय थी।

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प्रश्न 11.
सोलहवीं शताब्दी के शुरू में पंजाब में स्त्रियों की स्थिति कैसी थी? (What was the social condition of women in Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं सदी के प्रारंभ में पंजाब की स्त्रियों की हालत के विषय में वर्णन कीजिए।
(Describe about the condition of women in Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। हिंदू समाज में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर नहीं समझा जाता था। उस समय बहुत-सी लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। उनका अल्पायु में विवाह कर दिया जाता था। उनकी शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। उस समय सती प्रथा भी पूरे जोरों पर थी। विधवा पर अनेक प्रकार की पाबंदियाँ लगायी जाती थीं। मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन पर कई पाबंदियाँ लगाई गई थीं।

प्रश्न 12.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में मुसलमानों की श्रेणियों का वर्णन करें।
(Give an account of the Muslim classes of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम समाज तीन श्रेणियों में बँटा हुआ था—

  1. उच्च श्रेणी-उच्च श्रेणी में अमीर, खान, शेख, काज़ी और उलमा शामिल थे। इस श्रेणी के लोग बड़े ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे।
  2. मध्य श्रेणी-मध्य श्रेणी में व्यापारी, सैनिक, किसान और राज्य के छोटे-छोटे कर्मचारी सम्मिलित थे। उनके जीवन तथा उच्च श्रेणी के जीवन में काफ़ी अंतर था।
  3. निम्न श्रेणी-इस श्रेणी में अधिकतर दास-दासियाँ एवं मज़दूर सम्मिलित थे। उन्हें अपना जीवन निर्वाह करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। उनको अपने स्वामी के अत्याचारों को सहन करना पड़ता था।

प्रश्न 13.
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब के समाज में मुसलमानों की सामाजिक अवस्था किस प्रकार थी?
(What was the social condition of Muslims of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जन्म के समय पंजाब के मुसलमान समाज की दशा के ऊपर रोशनी डालें।
(Throw light on the condition of muslim society of Punjab on the eve of Guru Nanak Dev Ji’s birth.)
उत्तर-
शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण 16वीं शताब्दी में मुसलमानों की स्थिति हिंदुओं की अपेक्षा अच्छी थी। उस समय मुस्लिम समाज-उच्च श्रेणी, मध्य श्रेणी तथा निम्न श्रेणी में बँटा हुआ था। उच्च श्रेणी में अमीर, खान, शेख तथा मलिक इत्यादि आते थे। वे बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। मध्य श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, किसान तथा राज्य के छोटे कर्मचारी सम्मिलित थे। वे भी अच्छा जीवन व्यतीत करते थे। निम्न श्रेणी में दास-दासियाँ एवं मज़दूर सम्मिलित थे। उन्हें अपने जीवन के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी।

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प्रश्न 14.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में हिंदुओं की सामाजिक अवस्था कैसी थी ?
(What was the social condition of the Hindus of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में हिंदुओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। समाज का बहुवर्ग होते हुए भी उन्हें लगभग सारे अधिकारों से वंचित रखा गया था। उनको काफिर और जिम्मी कहा जाता था। उन्हें जजिया और यात्रा कर आदि देने पड़ते थे। मुसलमान हिंदुओं को बलपूर्वक इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश करते थे। उस समय हिंदू समाज कई जातियों व उपजातियों में बँटा हुआ था। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों से घृणा करते थे। हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी।

प्रश्न 15.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के बारे में संक्षेप जानकारी दें।
(Give a brief account of prevalent education in the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है। मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। राज्य सरकार उन्हें अनुदान देती थी। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे अधिक शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे। हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी।

प्रश्न 16.
16वीं शताब्दी के आरंभ में लोगों के मनोरंजन के साधनों पर टिप्पणी लिखिए।
(Write a note on the means of entertainment of the people of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे समारोहों और महफिलों में बढ़कर भाग लेते थे। इनमें संगीतकार और नर्तकियाँ उनका मनोरंजन करती थीं। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे। मुसलमान ईद, नौरोज और शब-ए-बरात इत्यादि के त्योहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। 16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू, नृत्य, गीत और संगीत के बहत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे।

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प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक हालत का संक्षिप्त ब्योरा दें।
(Give a brief account of the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
16वीं शताब्दी में पंजाब की आर्थिक दशा का संक्षिप्त वर्णन करें। .
(Briefly explain the economic condition of Punjab during the 16th century.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब की आर्थिक दशा का वर्णन कीजिए।
(Briefly mention the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब के लोग आर्थिक तौर पर खुशहाल थे। पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। भूमि उपजाऊ होने के कारण यहाँ फ़सलों की भरपूर पैदावार होती थी। इस कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार की संज्ञा दी जाती थी। पंजाब के लोगों का दूसरा मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी और गैर-सरकारी दोनों तरह के थे। उस समय पंजाब में कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग और लकड़ी उद्योग बहुत प्रसिद्ध थे। उस समय पंजाब का व्यापार बड़ा विकसित था।

प्रश्न 18.
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब की खेती-बाड़ी संबंधी संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the agriculture of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य कार्य खेती-बाड़ी था। पंजाब की ज़मीन बहुत उपजाऊ थी। खेती के अधीन और भूमि लाने के लिए राज्य सरकार की ओर से कृषकों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। यहाँ के लोग बड़े परिश्रमी थे। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे किंतु नहरों, तालाबों और कुओं का प्रयोग भी किया जाता था। पंजाब की प्रमुख फ़सलें गेहूँ, जौ, मक्का, चावल, और गन्ना थीं। फ़सलों की भरपूर पैदावार होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के उद्योग के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Punjab industries in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के प्रसिद्ध उद्योगों का विवरण दें। (Give an account of the main industries of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। सरकारी उद्योग बड़े-बड़े शहरों में स्थापित थे जबकि व्यक्तिगत (निजी) गाँवों में । पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इनमें सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के उद्योग भी प्रचलित थे।

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प्रश्न 20.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के व्यापार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the trade of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। माल के परिवहन का कार्य बनजारे करते थे। मेलों और त्योहारों के समय विशेष मंडियाँ लगाई जाती थीं। उस समय पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब इन देशों में घोड़े, फर, कस्तुरी और मेवे आयात करता था।

प्रश्न 21.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का जीवन स्तर कैसा था? (What was the living standard of people in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
उस समय पंजाब के लोगों का जीवन स्तर एक-सा नहीं था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था और वे ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बड़े शानदार महलों में रहते थे। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था , परंतु हिंदुओं का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं था। समाज में निम्न श्रेणी के लोग न तो अच्छे वस्त्र पहन सकते थे न ही अच्छा भोजन खा सकते थे। वे प्रायः साहूकारों के ऋणी रहते थे।

प्रश्न 22.
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू धर्म की धार्मिक स्थिति कैसी थी ?
(What was the religious position of Hinduism in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का प्रमुख धर्म हिंदू धर्म था। यह धर्म भारत का सबसे प्राचीन धर्म था। इस धर्म के लोग वेदों में विश्वास रखते थे। 16वीं शताब्दी में पंजाब में रामायण तथा महाभारत बहुत लोकप्रिय थे। वे अनेक देवी-देवताओं की पूजा, तीर्थ यात्राओं, नदियों में स्नान करने को बहुत पवित्र समझते थे। वे ब्राह्मणों का बहुत सम्मान करते थे। ब्राह्मणों के सहयोग के बिना कोई भी धार्मिक कार्य अधूरा समझा जाता था।

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प्रश्न 23.
इस्लाम पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Islam.)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में इस्लाम की दशा कैसी थी ? (What was the condition of Islam in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
हिंदू धर्म के पश्चात् पंजाब का दूसरा मुख्य धर्म इस्लाम था। इसकी स्थापना सातवीं शताब्दी में मक्का में हज़रत मुहम्मद साहिब द्वारा की गई थी। उन्होंने अरब समाज में प्रचलित सामाजिक-धार्मिक बुराइयों का खंडन किया। उन्होंने एक ईश्वर तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। उनके अनुसार प्रत्येक मुसलमान को पाँच सिद्धांतों पर चलना चाहिए। इन सिद्धांतों को जीवन के पाच स्तंभ कहा जाता है।

प्रश्न 24.
सुन्नियों के बारे में एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on the Sunnis.)
अथवा
सुन्नी मुसलमान। . (The Sunni Musalman.)
उत्तर-
पंजाब के मुसलमानों की बहुसंख्या सुन्नियों की थी। दिल्ली सल्तनत के सभी सुल्तान तथा मुग़ल सम्राट सुन्नी थे। इसलिए उन्होंने सुन्नियों को प्रोत्साहित किया तथा उन्हें विशेष सुविधाएँ प्रदान की। उस समय नियुक्त किए जाने वाले सभी काज़ी, मुफ्ती तथा उलेमा जी कि न्याय तथा शिक्षा देने का कार्य करते थे, सुन्नी संप्रदाय से संबंधित थे। सुन्नी हज़रत मुहम्मद साहिब को अपना पैगंबर समझते थे। वे कुरान को अपना सबसे पवित्र ग्रंथ समझते थे। वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वह इस्लाम के बिना किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं थे। वे हिंदुओं के कट्टर दुश्मन थे तथा उन्हें काफिर समझते थे।

प्रश्न 25.
शिया कौन थे? वर्णन करो। (Who were the Shias ? Explain.)
अथवा
शिया। (The Shias.)
उत्तर-
सुन्नियों के पश्चात् पंजाब के मुसलमानों में दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान शिया संप्रदाय को प्राप्त था। वे भी सुन्नियों की भांति हज़रत मुहम्मद साहिब को अपना पैगंबर मानते थे। वे कुरान को अपना पवित्र ग्रंथ स्वीकार करते थे। वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे भी प्रतिदिन पाँच बार नमाज पढ़ते थे। वे भी रमज़ान के महीने में रोज़े रखते थे। वे भी मक्का की यात्रा करना आवश्यक समझते थे। शिया तथा सुन्नियों में कुछ अंतर थे। इन मतभेदों के कारण सुन्नी तथा शिया एक-दूसरे के विरोधी हो गए।

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प्रश्न 26.
उलमा कौन थे ? उनके प्रमुख कार्य क्या थे। (Who were Ulemas ? What were their main functions ?)
उत्तर-

  1. उलमा कौन थे ? उलमा इस्लाम के विद्वान थे।
  2. उलमा के कार्य- उलमा के प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे—
    • वे इस्लामी कानून (शरीअत) की व्याख्या करते थे।
    • वे सुल्तान को हिंदुओं के विरुद्ध जिहाद के लिए प्रेरित करते थे।
    • वे इस्लाम के प्रसार के लिए योजनाएँ तैयार करते थे।

प्रश्न 27.
सूफ़ी मत की मुख्य शिक्षाएँ लिखें। (Write the main teachings of Sufism.)
अथवा
सूफ़ी कौन थे? (Who were Sufies ?)
उत्तर-

  1. सूफ़ी मुसलमानों का एक प्रसिद्ध संप्रदाय था।
  2. वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे अल्लाह को छोड़कर किसी अन्य की उपासना में विश्वास नहीं रखते थे।
  3. उनके अनुसार अल्लाह सर्वशक्तिमान् एवं सर्वव्यापक है।
  4. अल्लाह को प्राप्त करने के लिए वे पीर अथवा गुरु का होना अत्यावश्यक मानते थे। वे संगीत में विश्वास रखते थे।
  5. वे मानवता की सेवा को अपना परम धर्म मानते थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in one Word to one Sentence)

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा कैसी थी ?
अथवा
बाबर के आक्रमण के समय पंजाब की राजनीतिक दशा कैसी थी ?
उत्तर-
बहुत शोचनीय।

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प्रश्न 2.
पंजाब की राजनीतिक दशा के संबंध में गुरु नानक देव जी ने क्या फरमाया है ?
उत्तर-
प्रत्येक ओर झूठ एवं रिश्वत का बोलबाला था।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के जन्म के समय दिल्ली पर किस शासक का शासन था ?
अथवा
लोधी वंश का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
बहलोल लोधी।

प्रश्न 4.
सिकंदर लोधी कौन था ?
उत्तर-
भारत का सुल्तान।

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प्रश्न 5.
सिकंदर लोधी कब सिंहासन पर बैठा था ?
उत्तर-
1489 ई०।

प्रश्न 6.
इब्राहीम लोधी कब सिंहासन पर बैठा था ?
उत्तर-
1517 ई०।

प्रश्न 7.
लोधी वंश का अंतिम शासक कौन था ?
उत्तर-
इब्राहीम लोधी।

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प्रश्न 8.
दौलत खाँ लोधी कौन था ?
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी 1500 ई० से 1525 ई० तक पंजाब का सूबेदार था।

प्रश्न 9.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का शासक कौन था ?
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी।

प्रश्न 10.
पंजाब के त्रिकोणे संघर्ष से क्या भाव है ?
उत्तर-
16वीं सदी के आरंभ में इब्राहीम लोधी, दौलत खाँ लोधी तथा बाबर के मध्य चलने वाले सघंर्ष से है।

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प्रश्न 11.
बाबर कहाँ का शासक था ?
उत्तर-
काबुल।

प्रश्न 12.
बावर कौन था ?
उत्तर-
बावर काबुल का शासक था।

प्रश्न 13.
बाबर ने पंजाब पर अपना प्रथम आक्रमण कब किया ?
उत्तर-
1519 ई०।

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प्रश्न 14.
बाबर ने भारत पर आक्रमण क्यों किया ? कोई एक कारण लिखें।
उत्तर-
वह अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था।

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी ने बाबर के किस आक्रमण की तुलना ‘पाप की बारात’ से की है ?
उत्तर-
सैदपुर आक्रमण की।

प्रश्न 16.
बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण कब किया ?
उत्तर-
1520 ई०

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प्रश्न 17.
बाबर से सैदपुर पर आक्रमण के समय किस सिख गुरु साहिबान को बंदी बना लिया था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी।

प्रश्न 18.
गुरु नानक देव जी को किस मुग़ल बादशाह ने गिरफ्तार किया था ?
उत्तर-
बाबर ने।

प्रश्न 19.
पानीपत की प्रथम लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
21 अप्रैल, 1526 ई०।

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प्रश्न 20.
पानीपत की प्रथम लड़ाई किसके मध्य हुई ?
उत्तर-
बाबर तथा इब्राहीम लोधी।

प्रश्न 21.
पानीपत की पहली लड़ाई का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
भारत में मुग़ल वंश की स्थापना।

प्रश्न 22.
पानीपत की प्रथम लड़ाई के पश्चात् भारत में किस वंश की स्थापना हुई ?
उत्तर-
मुग़ल वंश।

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प्रश्न 23.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का समाज किन दो प्रमुख वर्गों में विभाजित था ?
उत्तर-
मुस्लिम एवं हिंदु।

प्रश्न 24.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज कितने वर्गों में विभाजित था ?
उत्तर-
तीन।

प्रश्न 25.
16वीं शताब्दी पंजाब के मुस्लिम समाज की उच्च श्रेणी की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर-
वे बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे।

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प्रश्न 26.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का हिंदू समाज कितनी जातियों में बँटा था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 27.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में स्त्रियों की दशा कैसी थी ?
उत्तर-
बहुत अच्छी नहीं थी।

प्रश्न 28.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में मुस्लिम शिक्षा के एक प्रसिद्ध केंद्र का नाम बताएँ।
उत्तर-
लाहौर।

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प्रश्न 29.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय बताएँ।
उत्तर-
कृषि।

प्रश्न 30.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की किसी एक प्रमुख फ़सल का नाम बताएँ।
उत्तर-
गेहूँ।

प्रश्न 31.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सर्वाधिक विख्यात उद्योग कौन-सा था ?
उत्तर-
कपड़ा उद्योग।

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प्रश्न 32.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का एक सर्वाधिक प्रसिद्ध गर्म वस्त्र तैयार करने के केंद्र का नाम बताओ।
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 33.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब से निर्यात की जाने वाली किन्हीं दो प्रमुख वस्तुओं के नाम बताएँ।
उत्तर-
वस्त्र तथा अन्न।

प्रश्न 34.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की किसी एक व्यापारिक श्रेणी का नाम बताएँ।
उत्तर-
महाजन।

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प्रश्न 35.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के योगियों की मुख्य शाखा को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नाथपंथी अथवा गोरखपंथी।

प्रश्न 36.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के योगियों की मुख्य शाखां को क्या कहा गया था ?
उत्तर-
वे शिव की पूजा करते थे।

प्रश्न 37.
योगियों को कनफटे योगी क्यों कहा जाता था ?
उत्तर-
क्योंकि वे कानों में बड़े-बड़े कुंडल डालते थे।।

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प्रश्न 38.
शैव मत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इस मत के लोग शिव जी के पुजारी थे।

प्रश्न 39.
वैष्णव मत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इस मत के लोग विष्णु तथा उसके अवतारों की पूजा करते थे।

प्रश्न 40.
शक्ति मत से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
इस मत के लोग दुर्गा, काली आदि देवियों की पूजा करते थे।

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प्रश्न 41.
इस्लाम की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर-
हज़रत मुहम्मद साहिब।

प्रश्न 42.
इस्लाम कितने स्तंभों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
पाँच।

प्रश्न 43.
चिश्ती सिलसिले के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती।

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प्रश्न 44.
शेख मुइनुद्दीन ने चिश्ती सिलसिले की स्थापना कहाँ की थी ?
उत्तर-
अजमेर।

प्रश्न 45.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का सबसे प्रसिद्ध नेता कौन था ?
उत्तर-
शेख फ़रीद जी।

प्रश्न 46.
सुहरावर्दी सिलसिले का संस्थापक कौन था?
उत्तर-
ख्वाज़ा बहाउद्दीन जकरिया।

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प्रश्न 47.
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव कहाँ रखी गई थी ?
उत्तर-
मुलतान में।

प्रश्न 48.
सूफ़ियों का कोई एक मुख्य सिद्धांत बताएँ।
उत्तर-
वे केवल एक अल्लाह में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 49.
उलमा कौन होते थे ?
उत्तर-
वह मुसलमानों के धार्मिक नेता थे।

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प्रश्न 50.
जजिया से क्या भाव है ?
उत्तर-
गैर मुसलमानों से वसूल किया जाने वाला एक धार्मिक कर।

प्रश्न 51.
भक्ति लहर का कोई एक मुख्य सिद्धांत लिखें।
उत्तर-
एक परमात्मा में विश्वास।

प्रश्न 52.
पंजाब में भक्ति लहर का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी।

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प्रश्न 53.
पंजाब में किस धर्म का विकास हुआ ?
उत्तर-
सिख धर्म का।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत……थी।
उत्तर-
(शोचनीय)

प्रश्न 2.
बहलोल लोधी ने……..में लोधी वंश की स्थापना की थी।”
उत्तर-
(1451 ई०)

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प्रश्न 3.
1469 ई० में गुरु नानक जी के जन्म समय दिल्ली का सुल्तान……था।
उत्तर-
(बहलोल लोधी)

प्रश्न 4.
इब्राहीम लोधी……..में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।
उत्तर-
(1517 ई०)

प्रश्न 5.
दौलत खाँ लोधी पंजाब का गवर्नर ………. में बना।
उत्तर-
(1500 ई०)

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प्रश्न 6.
1519 ई० से 1526 ई० के समय दौरान पंजाब को अपने अधीन करने के लिए………..संघर्ष आरंभ हो
उत्तर-
(तिकोणा)

प्रश्न 7.
1504 ई० में बाबर……….का शासक बना।
उत्तर-
(काबुल)

प्रश्न 8.
1519 ई० से 1526 ई० के दौरान बाबर ने पंजाब पर……..आक्रमण किए थे।
उत्तर-
(पाँच)

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प्रश्न 9.
बाबर ने पंजाब पर पहला आक्रमण……….में किया।
उत्तर
(1519 ई०)

प्रश्न 10.
बाबर ने……..आक्रमण के दौरान गुरु नानक देव जी को बंदी बना लिया था।
उत्तर-
(सैदपुर)

प्रश्न 11.
पानीपत का पहला आक्रमण………को हुआ।
उत्तर-
(21 अप्रैल, 1526 ई०)

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प्रश्न 12.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज……..वर्गों में विभाजित था।
उत्तर-
(तीन)

प्रश्न 13.
पंजाब में मुसलमानों के उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र…….और………थे।
उत्तर-
(लाहौर, मुलतान)

प्रश्न 14.
16वीं सदी के आरंभ में हिंदू समाज में ………………. को प्रमुखता प्राप्त थी।
उत्तर-
(ब्राह्मणों)

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प्रश्न 15.
16वीं सदी के आरंभ में स्त्रियों की दशा अच्छी………थी।
उत्तर-
(नही)

प्रश्न 16.
16वीं सदी के आरंभ में अधिकाँश हिंदू …………भोजन खाते थे।
उत्तर-
(शाकाहारी)

प्रश्न 17.
सदी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय……….था।
उत्तर-
(कृषि)

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प्रश्न 18.
16वी सदी के आरंभ में पंजाब का सब से प्रसिद्ध उद्योग………..था।
उत्तर-
(कपड़ा उद्योग)

प्रश्न 19.
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब में गर्म वस्त्र तैयार करने के प्रसिद्ध केंद्र…….और………था।
उत्तर-
(अमृतसर, कश्मीर)

प्रश्न 20.
16वीं सदी के आरंभ में ……… और………… पंजाब के सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र थे।
उत्तर-
(लाहौर, मुलतान)

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प्रश्न 21.
जोगी मत की स्थापना ……………. ने की थी।
उत्तर-
(गोरखनाथ)

प्रश्न 22.
……………भक्ति लहर का बानी था?
उत्तर-
(गुरु नानक देव जी)

प्रश्न 23.
इस्लाम का संस्थापक ……………. था।
उत्तर-
(हज़रत मुहम्मद साहिब)

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प्रश्न 24.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का सबसे प्रसिद्ध प्रचारक …………… था।
उत्तर-
(शेख फ़रीद)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बहुत अच्छी थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
लोधी वंश का संस्थापक सिकंदर लोधी था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 3.
बहलोल लोधी 1451 ई० में सिंहासन पर बैठा था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
सिकंदर लोधी 1489 ई० में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
इब्राहीम लोधी 1517 ई० में लोधी वंश का नया सुल्तान बना था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
दौलत खाँ लोधी 1469 ई० में पंजाब का सूबेदार नियुक्त हुआ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 7.
बाबर का जन्म 1494 ई० में हुआ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
बाबर ने 1504 ई० में काबुल पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
बाबर ने भारत पर पहला आक्रमण 1519 ई० में किया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
बाबर ने सैदपुर पर 1524 ई० में आक्रमण किया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी ने बाबर के सैदपुर के आक्रमण की तुलना पाप की बारात से की है। . .
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
बाबर और इब्राहिम लोधी के मध्य पानीपत की पहली लड़ाई 21 अप्रैल, 1526 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज दो श्रेणियों में बँटा हुआ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
मुस्लिम समाज की निम्न श्रेणी में सबसे अधिक संख्या किसानों की थी।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 15.
16वीं शताब्दी के मुस्लिम समाज में स्त्रियों का बहत सम्मान किया जाता था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 16.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में मुस्लिम शिक्षा के दो प्रसिद्ध केंद्र लाहौर और मुलतान थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के हिंदू समाज में ब्राह्मणों को प्रमुखता प्राप्त थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 18.
16वीं शताब्दी के आरंभ में क्षत्रियों का मुख्य व्यवसाय खेतीबाड़ी करना था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी में स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशु पालन था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 21.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में सब से अधिक गेहूँ की पैदावार की जाती थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सबसे प्रसिद्ध उद्योग कपड़ा उद्योग था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 23.
16वीं शताब्दी में कश्मीर शालों के उद्योग के लिए अधिक प्रसिद्ध था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 24.
गोरखनाथ ने जोगियों की नाथ पंथी संप्रदाय की स्थापना की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
इस्लाम की स्थापना हज़रत मुहम्मद साहिब ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 26.
चिश्ती सिलसिले की नींव शेख मुइनुद्दीन चिश्ती ने रखी थी। .
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 27.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का प्रमुख प्रचारक शेख फ़रीद था। .
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
सुहरावर्दी सिलसिले का संस्थापक शेख बहाउद्दीन जकरिया था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
लोधी वंश की स्थापना किसने की थी ?
(i) बहलोल लोधी
(ii) दौलत खाँ लोधी
(iii) सिकंदर लोधी
(iv) इब्राहीम लोधी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 2.
बहलोल लोधी कब सिंहासन पर बैठा था?
(i) 1437 ई० में
(ii) 1451 ई० में
(iii) 1489 ई० में
(iv) 1517 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 3.
इब्राहीम लोधी कब दिल्ली के सिंहासन पर बैठा ?
(i) 1489 ई० में
(ii) 1516 ई० में
(iii) 1517 ई० में
(iv) 1526 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
दौलत खाँ लोधी कौन था ?
(i) पंजाब का सूबेदार
(ii) दिल्ली का सूबेदार
(iii) अवध का सूबेदार
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 5.
दौलत खाँ लोधी किस राज्य का स्वतंत्र शासक बनना चाहता था ?
(i) मगध
(ii) दिल्ली ।
(iii) पंजाब
(iv) गुजरात।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
दौलत खाँ लोधी को पंजाब का सूबेदार कब नियुक्त किया गया था?
(i) 1489 ई० में
(i) 1500 ई० में
(iii) 1517 ई० में
(iv) 1526 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 7.
पंजाब के त्रिकोणीय संघर्ष में कौन शामिल नहीं था ?
(i) बाबर
(ii) दौलत खाँ लोधी
(iii) इब्राहीम लोधी
(iv) आलम खाँ लोधी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 8.
बाबर ने पंजाब पर प्रथम आक्रमण कब किया ?
(i) 1509 ई० में ।
(ii) 1519 ई० में
(iii) 1520 ई० में
(iv) 1524 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 9.
बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण कब किया था ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1520 ई० में
(iii) 1524 ई० में
(iv) 1526 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
बाबर के सैदपुर आक्रमण के समय कौन-से सिख गुरु साहिब को बंदी बनाया गया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 11.
बाबर और इब्राहीम लोधी के मध्य पानीपत की प्रथम लड़ाई कब हुई ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1525 ई० में ।
(iii) 1526 ई० में
(iv) 1556 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 12.
पानीपत की प्रथम लड़ाई में किसकी पराजय हुई ?
(i) बाबर की
(ii) महाराणा प्रताप की
(iii) इब्राहीम लोधी की
(iv) दौलत खाँ लोधी की।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 13.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज कितने वर्गों में विभाजित था ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 14.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की उच्च श्रेणी में निम्नलिखित में से कौन शामिल नहीं थे ?
(i) मलिक
(ii) शेख
(iii) इक्तादार
(iv) व्यापारी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 15.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज में कौन शामिल था ?
(i) व्यापारी
(ii) सैनिक
(iii) किसान
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 16.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की निम्न श्रेणी में निम्नलिखित में से कौन शामिल नहीं थे?
(i) काजी
(ii) नौकर
(iii) दास
(iv) मज़दूर।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुसलमानों का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा का केंद्र कौन-सा था ?
(i) सरहिंद
(ii) जालंधर
(iii) पेशावर
(iv) लाहौर।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 18.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय क्या था ?
(i) व्यापार
(ii) कृषि
(iii) उद्योग
(iv) पशु-पालन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सबसे प्रसिद्ध फ़सल कौन-सी थी ?
(i) गेहूँ
(ii) चावल
(iii) गन्ना
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 20.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सबसे प्रसिद्ध उद्योग कौन-सा था?
(i) चमड़ा उद्योग
(ii) वस्त्र उद्योग
(iii) शस्त्र उद्योग
(iv) हाथी दाँत उद्योग।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 21.
16वीं शताब्दी के आरंभ में निम्नलिखित में से कौन-सा गरम कपड़ा उद्योग का केंद्र नहीं था ?
(i) जालंधर
(ii) अमृतसर
(iii) कश्मीर
(iv) काँगड़ा।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 22.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र कौन-सा था ?
(i) लाहौर
(ii) लुधियाना
(iii) जालंधर
(iv) अमृतसर।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 23.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का प्रमुख धर्म कौन-सा था ?
(i) इस्लाम
(ii) हिंदू
(iii) इसाई
(iv) सिख।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 24.
योगियों की नाथपंथी शाखा की स्थापना किसने की थी ?
(i) गोरखनाथ
(ii) शिवनाथ
(iii) महात्मा बुद्ध
(iv) स्वामी महावीर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 25.
पुराणों में विष्णु के कितने अवतारों का वर्णन किया गया है ?
(i) 5
(ii) 10
(iii) 24
(iv) 25
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 26.
16वीं शताब्दी के आरंभ में निम्नलिखित में से कौन-सा मत हिंदू धर्म के साथ संबंधित नहीं था ?
(i) शैव मत
(ii) वैष्णव मत
(iii) शक्ति मत
(iv) सूफी मत।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 27.
इस्लाम का संस्थापक कौन था ?
(i) अबु बकर
(ii) उमर
(iii) हज़रत मुहम्मद साहिब
(iv) अली।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 28.
इस्लाम की स्थापना कब की गई थी ?
(i) पाँचवीं शताब्दी में
(ii) छठी शताब्दी में
(iii) सातवीं शताब्दी में
(iv) आठवीं शताब्दी में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 29.
इस्लाम का पहला खलीफ़ा कौन था ?
(i) अली
(ii) अबु बकर
(iii) उमर
(iv) उथमान।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 30.
सूफ़ी शेखों की विचारधारा को क्या कहा जाता है ?
(i) पीर
(i) दरगाह
(iii) तस्स वुफ़
(iv) सिलसिला।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 31.
चिश्ती सिलसिले का संस्थापक कौन था ?
(i) ख्वाजा मुइनुदीन चिश्ती
(ii) शेख बहाउदीन जकरिया
(iii) शेख फ़रीद जी
(iv) शेख निज़ामुदीन औलिया।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 32.
पंजाब में चिश्ती सिलसिले का सबसे प्रसिद्ध प्रचारक कौन था ?
(i) शेख निज़ामुद्दीन औलिया
(ii) शेख फ़रीद
(iii) शेख कुतबउदीन बख्तीआर काकी
(iv) ख्वाजा मुइनुदीन चिश्ती।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 33.
पंजाब में सुहरावर्दी सिलसिले का मुख्य केंद्र कहाँ था ?
(i) मुलतान
(ii) लाहौर
(iii) जालंधर
(iv) अमृतसर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 34.
निम्नलिखित में से किसने कव्वाली गाने की प्रथा को आरंभ किया ?
(i) इस्लाम ने
(ii) सूफ़ियों ने
(iii) हिंदुओं ने
(iv) सिखों ने।
उत्तर-
(i)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक हालत कैसी थी ? (What was the political condition of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक अवस्था ब्यान करें। (Explain the political condition of Punjab in the beginning of 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा बड़ी डावाँडोल थी। लोधी सुल्तानों की गलत नीतियों के कारण चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। शासक वर्ग भोग-विलास में डूबा हुआ था। दरबारों में प्रतिदिन जश्न मनाए जाते थे। इन जश्नों में नर्तकियाँ बड़ी संख्या में भाग लेती थीं और मदिरा के दौर चलते थे। फलस्वरूप प्रजा की ओर ध्यान देने के लिए किसी के पास समय ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। यहाँ तक कि काजी एवं उलमा भी रिश्वत लेकर न्याय करते थे। मुसलमान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। उन्हें तलवार के बल पर इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाता था। राज्य की शासन-व्यवस्था भंग होकर रह गई थी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी ने स्वतंत्र होने का प्रयास किया। इस संबंध में उसने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। बाबर ने दौलत खाँ लोधी को पराजित करके 1525 ई० के अंत में पंजाब पर अधिकार कर लिया था। उसने 21 अप्रैल, 1526 ई० में पानीपत के प्रथम युद्ध में सुल्तान इब्राहीम लोधी को पराजित करके भारत में मुगल वंश की स्थापना की।

प्रश्न 2.
“16वीं सदी के आरंभ में पंजाब त्रिकोणे संघर्ष का अखाड़ा था।” व्याख्या करें। . .
(“’In the beginning of the 16th century, the Punjab was a cockpit of triangular struggle.” Explain.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब में ‘त्रिकोणीय संघर्ष’ का वर्णन कीजिए। (Explain the ‘Triangular struggle’ of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
पंजाब 16वीं सदी के आरंभ में त्रिकोणे संघर्ष का अखाड़ा था। यह त्रिकोणा संघर्ष राजसत्ता को प्राप्त करने के लिए काबुल के शासक बाबर, दिल्ली के शासक इब्राहीम लोधी तथा पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोधी के मध्य चल रहा था। दौलत खाँ लोधी पंजाब का स्वतंत्र शासक बनने के स्वप्न देख रहा था। इस संबंध में जब इब्राहीम लोधी को पता चला तो उसने दौलत खाँ लोधी को स्थिति को स्पष्ट करने के लिए शाही दरबार में उपस्थित होने को कहा। दौलत खाँ ने सुल्तान के क्रोध से बचने के लिए अपने छोटे पुत्र दिलावर खाँ को दिल्ली भेजा। दिल्ली पहुँचने पर इब्राहीम लोधी ने उसे बंदी बना कर कारावास में डाल दिया। दिलावर खाँ किसी प्रकार कारावास से भागने में सफल हो गया। पंजाब पहुँच कर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उसके साथ किए गए अपमानजनक व्यवहार के बारे में जानकारी दी। दौलत खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। बाबर भी इसी स्वर्ण अवसर की प्रतीक्षा में था। इस त्रिकोणे संघर्ष के अंत में बाबर विजयी हुआ। उसने 1525-26 ई० में न केवल पंजाब अपितु दिल्ली पर भी कब्जा कर लिया। इस प्रकार भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हुई।

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प्रश्न 3.
दौलत खाँ लोधी कौन था ? दौलत खौ लोधी एवं इब्राहीम लोधी के बीच संघर्ष के क्या कारण थे ?
(Who was Daulat Khan Lodhi ? What were the causes of struggle between Daulat Khan Lodhi and Ibrahim Lodhi ?)
अथवा
दौलत खाँ लोधी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Daulat Khan Lodhi.)
उत्तर-
दौलत खाँ लोधी पंजाब का सूबेदार (गवर्नर) था। वह इस पद पर 1500 ई० में नियुक्त हुआ था। दौलत खाँ लोधी और सुल्तान इब्राहीम लोधी के बीच संघर्ष का मुख्य कारण यह था कि दौलत खाँ पंजाब में स्वतंत्र शासन स्थापित करने का यत्न कर रहा था। इस संबंध में उसने आलम खाँ लोधी जोकि इब्राहीम लोधी का सौतेला भाई था और जो दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करना चाहता था, के साथ मिलकर षड्यंत्र करने आरंभ कर दिये थे। जब इन षड्यंत्रों के संबंध में इब्राहीम लोधी को ज्ञात हुआ तो उसने दौलत खाँ लोधी को शाही दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया। दौलत खाँ ने सुल्तान के क्रोध से बचने के लिए अपने छोटे पुत्र दिलावर खाँ को दिल्ली भेज दिया। जब दिलावर खाँ दिल्ली पहुंचा तो उसे बंदी बना लिया गया। उससे बहुत दुर्व्यवहार किया गया। शीघ्र ही वह किसी प्रकार कारागार से भागने और पुनः पंजाब लौटने में सफल हो गया। यहाँ पहुँच कर उसने अपने पिता दौलत खाँ को दिल्ली में उससे किए दुर्व्यवहार के संबंध में बताया। दौलत खाँ लोधी ने इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। बाद में दौलत खाँ लोधी बाबर के विरुद्ध हो गया था। बाबर ने अपने पाँचवें आक्रमण के दौरान दौलत खाँ लोधी को पराजित कर पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया था।

प्रश्न 4.
बाबर कौन था ? उसने पंजाब पर किस समय के दौरान और कितने आक्रमण किए ? इन आक्रमणों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Who was Babar ? When and how many times did he invade Punjab ? Write briefly about these invasions.)
अथवा
पंजाब पर बाबर द्वारा किए गए आक्रमणों का संक्षिप्त वर्णन करें। . (Give a brief account of Babar’s invasions over Punjab.)
उत्तर-
बाबर काबुल का शासक था। उसने 1519 ई० से 1526 ई० के समय के दौरान पंजाब पर पाँच आक्रमण किए। बाबर ने पंजाब पर पहला आक्रमण 1519 ई० में किया। इस आक्रमण के दौरान बाबर ने भेरा और बाजौर नामक क्षेत्रों पर अधिकार किया। बाबर के वापस जाते ही वहाँ के लोगों ने पुनः इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसी वर्ष बाबर ने पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। इस बार बाबर ने पेशावर को अपने अधिकार में ले लिया। 1520 ई० में बाबर ने पंजाब पर अपने तीसरे आक्रमण के दौरान बाजौर, भेरा और स्यालकोट के प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लिया। तत्पश्चात् बाबर ने सैदपुर पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान बाबर ने सैदपुर में भारी लूट-पाट की। मुग़ल सेनाओं ने अन्य लोगों के साथ-साथ गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया। बाद में बाबर के कहने पर उन्हें रिहा कर दिया गया। 1524 ई० में दौलत खाँ लोधी के निमंत्रण पर बाबर ने पंजाब पर चौथी बार आक्रमण किया। बाबर ने बिना किसी कठिनाई के पंजाब पर अधिकार कर लिया। बाद में दौलत खाँ लोधी बाबर के विरुद्ध हो गया। दौलत खाँ लोधी को सबक सिखाने के लिए बाबर ने पंजाब पर पाँचवीं बार नवंबर, 1525 ई० में आक्रमण किया। बाबर ने दौलत खाँ को पराजित करके पंजाब पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् बाबर ने 21 अप्रैल, 1526 ई० में पानीपत के प्रथम युद्ध में सुल्तान इब्राहीम लोधी को पराजित करके भारत में मुग़ल वंश की स्थापना की।

प्रश्न 5.
बाबर ने सैदपुर पर कब आक्रमण किया ? सिख इतिहास में इस आक्रमण का क्या महत्त्व है ? (When did Babar invade Saidpur ? What is its importance in Sikh History ?)
उत्तर-
बाबर ने सैदपुर पर 1520 ई० में आक्रमण किया। यहाँ के लोगों ने बाबर का सामना किया। फलस्वरूप बाबर ने क्रोधित होकर बड़ी संख्या में लोगों की हत्या कर दी और उनके मकानों एवं महलों को लूट-पाट करने के पश्चात् आग लगा दी गई। हजारों स्त्रियों को बंदी बना लिया गया और उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। गुरु नानक देव जी जो इस समय सैदपुर में ही थे, ने बाबर की सेनाओं द्वारा लोगों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन ‘बाबर वाणी’ में किया है। बाबर की सेनाओं ने गुरु नानक देव जी को भी बंदी बना लिया था। बाद में जब बाबर को इस संबंध में ज्ञात हुआ कि उसकी सेनाओं ने किसी संत महापुरुष को बंदी बनाया है तो उसने शीघ्र ही उनकी रिहाई का आदेश दे दिया। बाबर ने अपनी आत्मकथा तुज़क-ए-बाबरी में लिखा है कि यदि उसे मालूम होता कि इस शहर में ऐसा महात्मा निवास करता है तो वह कभी भी इस शहर पर आक्रमण न करता। गुरु नानक देव जी के कहने पर बाबर ने बहत-से अन्य निर्दोष लोगों को भी रिहा कर दिया। इस प्रकार सिखों और मुग़लों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों की शुरुआत हुई।

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प्रश्न 6.
पानीपत की पहली लड़ाई के ऊपर नोट लिखें।
(Give a brief account of the First Battle of Panipat.)
अथवा
बाबर तथा इब्राहीम लोधी के मध्य युद्ध कब तथा क्यों हुआ ? (Why and when did the battle take place between Babar and Ibrahim Lodhi ?)
अथवा
पानीपत की पहली लड़ाई तथा इसके महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Explain the First Battle of Panipat and its significance.)
उत्तर-
बाबर ने पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ लोधी को सबक सिखाने के उद्देश्य से नवंबर, 1525 ई० में पंजाब पर पाँचवीं बार आक्रमण किया। दौलत खाँ ने थोड़ा सामना करने के पश्चात् अपने शस्त्र फेंक दिए। बाबर ने उसे क्षमा कर दिया। इस प्रकार बाबर ने एक बार फिर समूचे पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया। पंजाब की विजय से प्रोत्साहित होकर बाबर ने इब्राहीम लोधी के साथ दो-दो हाथ करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उसने अपनी सेनाओं को दिल्ली की ओर बढ़ने का आदेश दिया। जब इब्राहीम लोधी को इस संबंध में समाचार मिला तो वह अपने साथ एक लाख सैनिकों को लेकर बाबर का सामना करने के लिए पंजाब की ओर चल पड़ा। बाबर के अंतर्गत उस समय 20 हज़ार सैनिक थे। 21 अप्रैल, 1526 ई० को दोनों सेनाओं के बीच पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोधी की पराजय हुई और वह युद्ध-भूमि में मारा गया। पानीपत की इस निर्णयपूर्ण विजय के कारण पंजाब से लोधी वंश सदा के लिए समाप्त हो गया और अब यह मुग़ल वंश के अधीन हो गया।

प्रश्न 7.
पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर क्यों विजयी रहा ? (What led to the victory of Babar in the First battle of Panipat ?)
अथवा
भारत में बाबर की विजय और अफ़गानों की पराजय के कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the causes of victory of Babar and defeat of the Afghans in India.)
उत्तर-
पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोधी अपने दुर्व्यवहार और अत्याचार के कारण अपने सरदारों और प्रजा में बहुत बदनाम था। वे ऐसे शासक से छुटकारा पाना चाहते थे। इब्राहीम लोधी की सेना भी बहुत निर्बल थी। उसके बहुत-से सैनिक केवल लूटमार के उद्देश्य से एकत्रित हुए थे। उनके लड़ने के ढंग पुराने थे और उनमें योजना की कमी थी। इब्राहीम लोधी ने पानीपत में 8 दिनों तक बाबर की सेना पर आक्रमण न करके भारी राजनीतिक भूल की। यदि वह बाबर को सुरक्षा प्रबंध मज़बूत न करने देता तो शायद युद्ध का परिणाम कुछ और ही निकलता। बाबर एक योग्य सेनापति था। उसको युद्धों का काफ़ी अनुभव था। बाबर द्वारा तोपखाने के प्रयोग ने भारी तबाही मचाई। इब्राहीम लोधी के सैनिक अपने तीरकमानों और तलवारों के साथ इनका मुकाबला न कर सके। इनके कारण अफ़गानों की पराजय हुई और बाबर विजयी रहा।

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प्रश्न 8.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक अवस्था का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Explain the social condition of Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जन्म समय पंजाबियों की सामाजिक दशा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the social condition of Punjab at the time of birth of Guru Nanak Dev ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का समाज दो मुख्य वर्गों मुसलमान और हिंदू में बंटा हुआ था। शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण मुसलमानों को समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। वे राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त थे। दूसरी ओर हिंदुओं को लगभग सारे अधिकारों से वंचित रखा गया था। मुसलमान उनको काफ़िर कहते थे। मुसलमान हिंदुओं पर इतने अत्याचार करते थे कि बहुत-से हिंदू मुसलमान बनने के लिए विवश हो गए। उस समय समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत दयनीय थी। उच्च श्रेणी के मुसलमानों के वस्त्र बहुत बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल के बने होते थे। शिकार, घुड़दौड़, शतरंज, नाच-गाने, संगीत, जानवरों की लड़ाइयाँ और ताश उस समय के लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन थे।

प्रश्न 9.
सोलहवीं शताब्दी के शुरू में पंजाब में स्त्रियों की स्थिति कैसी थी ? (What was the condition of women in Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के शुरू में पंजाब में स्त्रियों की दशा बहुत शोचनीय थी। हिंदू समाज में स्त्रियों का स्थान पुरुषों के बराबर नहीं था। उनको घर की चारदीवारी के अंदर बंद रखा जाता था। उस समय बहुत-सी लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। उस समय लड़कियों का विवाह अल्पायु में कर दिया जाता था। बाल विवाह के कारण उनकी शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। उस समय सती प्रथा भी पूरे जोरों पर थी। विधवा को पुनः शादी करने की आज्ञा नहीं थी। मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज की ओर से उन पर कई प्रतिबंध लगाए गए थे। वेश्या प्रथा, तलाक प्रथा और पर्दा प्रथा के कारण उनकी हालत बड़ी दयनीय हो गई थी। मुस्लिम समाज में उच्च वर्ग की स्त्रियों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्राप्त थीं पर इनकी संख्या बहुत कम थी।

प्रश्न 10.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम समाज किन-किन श्रेणियों में बंटा हुआ था और वे कैसा जीवन व्यतीत करते थे ?
(In to which classes were the Muslim society of the Punjab divided and what type of the life did they lead in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब के समाज में मुसलमानों की श्रेणियों का वर्णन करें।
(Give an account of the Muslim Classes of Punjab in the beginning of the. 16th Century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मुस्लिम समाज तीन श्रेणियों में बंटा हुआ था—

1. उच्च श्रेणी-उच्च श्रेणी में अमीर, खान, शेख, काज़ी और उलमा शामिल थे। इस श्रेणी के लोग बड़े ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बड़े-बड़े महलों में रहते थे। वे अपना अधिकतर समय जश्न मनाने में व्यतीत करते थे। उलमा तथा काज़ी मुसलमानों के धार्मिक नेता थे। इनका मुख्य कार्य इस्लामी कानूनों की व्याख्या करना तथा लोगों को न्याय देना था।

2. मध्य श्रेणी-मध्य श्रेणी में व्यापारी, सैनिक, किसान और राज्य के छोटे-छोटे कर्मचारी सम्मिलित थे। उनके जीवन तथा उच्च श्रेणी के लोगों के जीवन में काफ़ी अंतर था। परंतु उनका जीवन स्तर हिंदुओं की उच्च श्रेणी के मुकाबले बहुत अच्छा था।

3. निम्न श्रेणी-इस श्रेणी में अधिकतर दास-दासियाँ एवं मज़दूर सम्मिलित थे। इनका जीवन अच्छा नहीं था। उन्हें अपना जीवन निर्वाह करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। उनको अपने स्वामी के अत्याचारों को सहन करना पड़ता था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 3 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दशा

प्रश्न 11.
16वीं सदी के आरंभ में पंजाब के समाज में मुसलमानों की सामाजिक अवस्था किस प्रकार थी ?
(What was the social condition of Muslims of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के मुस्लिम समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. समाज तीन वर्गों में विभाजित था-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब का मुस्लिम समाज उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित-था।

i) उच्च वर्ग-इस वर्ग में अमीर, खान, शेख़, मलिक, इकतादार, उलमा और काज़ी इत्यादि शामिल थे। इस वर्ग के लोग बहुत ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बहुत भव्य महलों में निवास करते थे। उन की सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर होते थे।

ii) मध्य वर्ग—इस श्रेणी में सैनिक, व्यापारी, कृषक, विद्वान्, लेखक और राज्य के छोटे कर्मचारी शामिल थे। उनके जीवन तथा उच्च वर्ग के लोगों के जीवन-स्तर में बहुत अंतर था। किंतु हिंदुओं की तुलना में वे बहुत अच्छा जीवन बिताते थे।

iii) निम्न वर्ग-इस वर्ग में दास-दासियाँ, नौकर और श्रमिक शामिल थे। इनकी संख्या बहुत अधिक थी। उनका जीवन अच्छा नहीं था। उनके स्वामी उन पर बहुत अत्याचार करते थे।

2. स्त्रियों की दशा-मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। वे बहुत कम शिक्षित होती थीं। बहुविवाह और तलाक प्रथा ने उनकी दशा और दयनीय बना दी थी।

3. भोजन-उच्च वर्ग के मुसलमान कई प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। वे माँस, हलवा, पूड़ी और मक्खन इत्यादि का बहुत प्रयोग करते थे। निम्न वर्ग से संबंधित लोगों का भोजन साधारण होता था।

4. पहनावा-उच्च वर्ग के मुसलमानों के वस्त्र बहुमूल्य होते थे। ये वस्त्र रेशम और मखमल से निर्मित थे। निम्न वर्ग के लोग सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुषों में कुर्ता और पायजामा पहनने की, जबकि स्त्रियों में लंबा बुर्का पहनने की प्रथा थी।

5. शिक्षा-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी, जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे।

6. मनोरंजन के साधन-16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे अपने त्योहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते थे।

प्रश्न 12.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के समाज में हिंदुओं की सामाजिक अवस्था कैसी थी ?
(What was the social condition of the Hindus of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. जाति प्रथा—हिंदू समाज कई जातियों व उप-जातियों में विभाजित था। समाज में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना के कारण क्षत्रियों ने नए व्यवसाय जैसे दुकानदारी, कृषि इत्यादि अपना लिए थे। वैश्य व्यापार और कृषि का ही व्यवसाय करते थे। निम्न जातियों के साथ इस काल में दुर्व्यवहार किया जाता था।

2. स्त्रियों की दशा-हिंदू समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों के समान नहीं था। लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उनका अल्पायु में ही विवाह कर दिया जाता था। इस काल में सती प्रथा बहुत ज़ोरों पर थी। विधवा को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी।

3. खान-पान—हिंदुओं का भोजन साधारण होता था। अधिकाँश हिंदू शाकाहारी होते थे। उनका भोजन गेहूँ, चावल, सब्जियाँ, घी और दूध इत्यादि से तैयार किया जाता था। वे माँस, लहसुन और प्याज़ का प्रयोग नहीं करते थे। गरीब लोग साधारण रोटी के साथ लस्सी पीकर अपना निर्वाह करते थे।

4. पहनावा—हिंदुओं का पहनावा बहुत साधारण होता था। वे प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे। पुरुष धोती और कुर्ता पहनते थे। वे सिर पर पगड़ी भी बाँधते थे। स्त्रियाँ साड़ी, चोली और लहंगा पहनती थीं। निर्धन लोग चादर से ही अपना शरीर ढाँप लेते थे।

5.  मनोरंजन के साधन-हिंदू नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लड़ाइयाँ और मल्लयुद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इसके अतिरिक्त हिंदू अपने त्योहारों दशहरा, दीवाली, होली आदि में भी भाग लेते थे।

6. शिक्षा-16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था। धनी वर्ग के हिंदू मदरसों से उच्च शिक्षा प्राप्त करते थे।

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प्रश्न 13.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के बारे में संक्षेप जानकारी दें।
(Give a brief account of prevalent education in the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी। मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। राज्य सरकार उन्हें अनुदान देती थी। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। मदरसे प्रायः शहरों में ही होते थे। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे अधिक शिक्षा केंद्र लाहौर और मलतान में थे। इनके अतिरिक्त जालंधर, सुल्तानपुर, समाना, नारनौल, भटिंडा, सरहिंद, स्यालकोट और काँगड़ा भी शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे। हिंदू लोग ब्राह्मणों से मंदिरों और पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे। इनमें प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जानकारी दी जाती थी। पंजाब में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु हिंदुओं का कोई केंद्र नहीं था। धनी वर्ग के हिंदू अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए मुसलमानों के मदरसों में भेज देते थे। उनकी संख्या न के बराबर थी क्योंकि मुसलमान हिंदुओं को घृणा की दृष्टि से देखते थे।

प्रश्न 14.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन क्या थे ?
(What were the main means of entertainment of the people of Punjab in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमान अपना मनोरंजन कई साधनों से करते थे। वे शिकार करने, चौगान खेलने, जानवरों की लड़ाइयाँ देखने और घुड़दौड़ में भाग लेने के बहुत शौकीन थे। वे समारोहों और महफिलों में बढ़कर भाग लेते थे। इनमें संगीतकार और नर्तकियाँ उनका मनोरंजन करती थीं। वे शतरंज और चौपड़ खेलकर भी अपना मनोरंजन करते थे। मुसलमान ईद, नौरोज और शब-ए-बरात इत्यादि के त्योहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते थे। 16वीं शताब्दी के आरंभ में हिंदू, नृत्य, गीत और संगीत के बहुत शौकीन थे। वे ताश और शतरंज भी खेलते थे। गाँवों के लोग जानवरों की लड़ाइयाँ और मल्लयुद्ध देखकर अपना मनोरंजन करते थे। इनके अतिरिक्त हिंदू अपने त्योहारों में भी भाग लेते थे।

प्रश्न 15.
सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की आर्थिक हालत का संक्षिप्त ब्योरा दें।
(Give a brief account of the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
अथवा
16वीं शताब्दी में पंजाब की आर्थिक हालत का वर्णन करें।
(Briefly explain the economic condition of Punjab during the 16th century.)
अथवा
16वीं सदी के शुरू में पंजाब की आर्थिक दशा का वर्णन कीजिए।
(Briefly mention the economic condition of the Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी। उपजाऊ भूमि, विकसित व्यापार तथा लोगों के परिश्रम ने पंजाब को एक समृद्ध प्रदेश बना दिया। 16वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों के आर्थिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. कृषि-16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। पंजाब की भूमि बहुत उपजाऊ थी। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे। यहाँ पर फसलों की भरपूर पैदावार होती थी। यहाँ की मुख्य फसलें गेहूँ, कपास, जौ, मकई, चावल और गन्ना थीं। फसलों की भरपूर उपज होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

2. उद्योग-कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। यहाँ सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के लिए उद्योग भी प्रचलित थे।

3. पशु पालन-पंजाब के कुछ लोग पशु पालन का व्यवसाय करते थे। पंजाब में पालतू रखे जाने वाले मुख्य पशु गाय, बैल, भैंसे, घोड़े, खच्चर, ऊँट, भेड़ें और बकरियाँ इत्यादि थे। इन पशुओं से दूध, ऊन और भार ढोने का काम लिया जाता था।

4. व्यापार–पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। व्यापार का कार्य कुछ विशेष श्रेणियों के हाथ में होता था। पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब घोड़े, फर, कस्तूरी और मेवे आयात करता था।

5. व्यापारिक नगर-16वीं शताब्दी के आरंभ में लाहौर और मुलतान पंजाब के दो प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। इनके अतिरिक्त पेशावर, जालंधर, अमृतसर तथा लुधियाना पंजाब के अन्य प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे।

6. जीवन स्तर-उस समय पंजाब के लोगों के जीवन स्तर में बहुत अंतर था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था, किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था, परंतु हिंदू अपना निर्वाह बहुत मुश्किल से करते थे। समाज में निर्धनों और कृषकों का जीवन-स्तर बहुत निम्न था।

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प्रश्न 16.
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब की खेती-बाड़ी संबंधी संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the agriculture of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पंजाब के लोगों का मुख्य कार्य खेती-बाड़ी था। पंजाब की जमीन बहुत उपजाऊ थी। खेती के अधीन और भूमि लाने के लिए राज्य सरकार की ओर से कृषकों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। यहाँ के लोग बड़े परिश्रमी थे। सिंचाई के लिए कृषक मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करते थे किंतु नहरों, तालाबों और कुओं का प्रयोग भी किया जाता था। इन कारणों से चाहे पंजाब के कृषक पुराने ढंग से खेती करते थे तब भी यहाँ फसलों की भरपूर पैदावार होती थी। पंजाब की प्रमुख फसलें गेहूँ, जौ, मक्का , चावल और गन्ना थीं। इनके अतिरिक्त पंजाब में कपास, बाजरा, ज्वार, सरसों और कई किस्मों की दालें भी पैदा की जाती थीं। फसलों की भरपूर पैदावार होने के कारण पंजाब को भारत का अन्न भंडार कहा जाता था।

प्रश्न 17.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के उद्योग के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Punjab Industries in the beginning of the 16th century ?)
अथवा
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के प्रसिद्ध उद्योगों का विवरण दें। (Give an account of the main industries of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
कृषि के पश्चात् पंजाब के लोगों का मुख्य व्यवसाय उद्योग था। ये उद्योग सरकारी भी थे और व्यक्तिगत भी। सरकारी उद्योग बड़े-बड़े शहरों में स्थापित थे जबकि व्यक्तिगत (निजी) गाँवों में। पंजाब के उद्योगों में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रसिद्ध था। वहाँ सूती, ऊनी और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र निर्मित होते थे। क्योंकि पंजाब के उच्च वर्ग के लोगों में रेशमी वस्त्र की बहुत माँग थी, इसलिए पंजाब में यह वस्त्र अधिक मात्रा में तैयार किया जाता था। समाना, सुनाम, सरहिंद, दीपालपुर, जालंधर, लाहौर और मुलतान इस उद्योग के प्रसिद्ध केंद्र थे। गुजरात और स्यालकोट में चिकन के वस्त्र तैयार किए जाते थे। मुलतान और सुल्तानपुर शीट के वस्त्रों के लिए विख्यात थे। स्यालकोट में धोतियाँ, साड़ियाँ, पगड़ियाँ और बढ़िया कढ़ाई वाली लुंगियाँ तैयार की जाती थीं। अमृतसर, काँगड़ा और कश्मीर गर्म वस्त्र तैयार करने के प्रसिद्ध केंद्र थे। कपड़ा उद्योग के अतिरिक्त उस समय पंजाब में चमड़ा, शस्त्र, बर्तन, हाथी दाँत और खिलौने इत्यादि बनाने के लिए उद्योग भी प्रचलित थे।

प्रश्न 18.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के व्यापार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the trade of Punjab in the beginning of the 16th century.)
उत्तर-
पंजाब का व्यापार काफ़ी विकसित था। व्यापार का कार्य कुछ विशेष श्रेणियों के हाथ में होता था। हिंदुओं की क्षत्रिय, महाजन, बनिये, सूद और अरोड़ा नामक जातियाँ तथा मुसलमानों की बोहरा और खोजा नामक जातियाँ व्यापार का कार्य करती थीं। माल के परिवहन का कार्य बनजारे करते थे। व्यापारी चोरों, डाकुओं के भय से काफिलों के रूप में चलते थे। उस समय हुंडी बनाने की भी प्रथा थी। शाहूकार ब्याज पर पैसा देते थे। मेलों और त्योहारों के समय विशेष मंडियाँ लगाई जाती थीं। पंजाब में ऐसी मंडियाँ मुलतान, लाहौर, जालंधर, दीपालपुर, सरहिंद, सुनाम और समाना इत्यादि स्थानों पर लगाई जाती थीं। इन मंडियों से बड़ी संख्या में लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदते थे। पशुओं के व्यापार के लिए भी पंजाब में विशेष मंडियाँ लगती थीं। उस समय पंजाब का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अफ़गानिस्तान, ईरान, अरब, सीरिया, तिब्बत, भूटान और चीन इत्यादि देशों के साथ होता था। पंजाब से इन देशों को अनाज, वस्त्र, कपास, रेशम और चीनी निर्यात की जाती थी। इन देशों से पंजाब घोड़े, फर, कस्तूरी और मेवे आयात करता था।

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प्रश्न 19.
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का जीवन स्तर कैसा था ? (What was the living standard of people in the beginning of the 16th century ?)
उत्तर-
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब के लोगों का जीवन स्तर एक-सा नहीं था। मुसलमानों के उच्च वर्ग के लोगों के पास धन का बाहुल्य था और वे ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। वे बड़े शानदार महलों में रहते थे। उनकी पोशाकें बहुत कीमती होती थीं तथा वे विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन खाते थे। सुरा तथा सुंदरी उनके जीवन का एक अभिन्न अंग था। उनकी सेवा के लिए बड़ी संख्या में नौकर, दास तथा दासियाँ होती थीं। हिंदुओं के उच्च वर्ग के पास धन तो बहुत था किंतु मुसलमान उनसे यह धन लूट कर ले जाते थे। इसलिए वे अपना धन छुप कर खर्च करते थे। समाज के मध्य वर्ग में मुसलमानों का जीवन स्तर तो अच्छा था, परंतु हिंदुओं का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं था। हिंदू अपना निर्वाह बहुत मुश्किल से करते थे। समाज में निर्धनों और कृषकों का जीवन स्तर बहुत निम्न था। वे न तो अच्छे वस्त्र पहन सकते थे न ही अच्छा भोजन खा सकते थे। वे प्रायः साहूकारों के ऋणी रहते थे।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
बहलोल लोधी की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सिकंदर लोधी 1489 ई० में दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसने 1517 ई० तक शासन किया। मुस्लिम इतिहासकारों की दृष्टि में वह एक बहुत ही न्यायप्रिय और दयालु सुल्तान था परंतु उसकी न्यायप्रियता और दया केवल मुसलमानों तक ही सीमित थी। वह फिरोजशाह तुग़लक तथा औरंगजेब की भाँति एक कट्टर मुसलमान था। वह हिंदुओं को बहुत घृणा की दृष्टि से देखता था। उसने हिंदुओं के प्रति बहुत कठोर और अत्याचारपूर्ण नीति अपनाई। उसने हिंदुओं के अनेक प्रसिद्ध मंदिरों को नष्ट कर दिया था तथा उनके स्थानों पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। उसने हिंदुओं का यमुना में स्नान करने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने हिंदुओं को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल करना आरंभ कर दिया। उसने बोधन नामक एक ब्राह्मण को इसलिए मृत्यु के घाट उतार दिया क्योंकि उसने हिंदू धर्म को इस्लाम धर्म के समान अच्छा कहा था।

  1. सिकंदर लोधी कौन था ?
  2. सिकंदर लोधी कब सिंहासन पर बैठा ?
    • 1485 ई०
    • 1486 ई०
    • 1487 ई०
    • 1489 ई०
  3. मुस्लिम इतिहासकार सिकंदर लोधी को कैसा सुल्तान मानते थे ?
  4. सिकंदर लोधी ने हिंदुओं के प्रति कौन-सा कदम उठाया ?
  5. सिकंदर लोधी ने बोधन ब्राह्मण को क्यों मौत के घाट उतार दिया था ?

उत्तर-

  1. सिकंदर लोधी दिल्ली का सुल्तान था । उसने 1489 ई० से 1517 ई० तक शासन किया।
  2. 1489 ई०।
  3. एक बहुत ही न्यायप्रिय व दयालु सुल्तान।
  4. उसने हिंदुओं को ज़बरदस्ती इस्लाम धर्म में शामिल कर लिया।
  5. उसने हिंदू धर्म को इस्लाम धर्म के बराबर अच्छा कहा था।

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2
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी। शासक वर्ग जश्नों में अपना समय व्यतीत करते थे। ऐसी स्थिति में प्रजा की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था। सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो चुके थे। चारों ओर रिश्वत का बोलबाला था। सुल्तान तो सुल्तान, काज़ी और उलेमा भी रिश्वत लेकर न्याय देते थे। हिंदुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए थे। उन्हें तलवार की नोक पर बलपूर्वक इस्लाम धर्म में शामिल किया जाता था।

  1. 16वीं सदी के आरंभ में प्रजा की हालत कैसी थी ?
  2. 16वीं सदी के आरंभ में सरकारी कर्मचारियों का आचरण कैसा था ?
  3. 16वीं सदी के आरंभ में सुल्तान, काज़ी तथा उलेमा न्याय कैसे करते थे ?
  4. 16वीं सदी के आरंभ में राज्य की ओर से क्या नीति अपनाई जाती थी ?
  5. 16वीं शताब्दी में शासक वर्ग ……… में अपना समय व्यतीत करते थे।

उत्तर-

  1. 16वीं सदी के आरंभ में प्रजा की हालत दयनीय थी।
  2. उस समय सरकारी कर्मचारी बहुत भ्रष्ट हो चुके थे।
  3. उस समय सुल्तान, काजी तथा उलेमा रिश्वत लेकर न्याय करते थे।
  4. उस समय राज्य की ओर से हिंदुओं पर बहुत अत्याचार किए जाते थे।
  5. जश्नों ।

3
16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा भी बहुत दयनीय थी। उस समय समाज हिंदू और मुसलमान नामक दो मुख्य वर्गों में विभाजित था। क्योंकि मुसलमान शासक वर्ग से संबंध रखते थे, इसलिए उन्हें समाज में विशेष अधिकार प्राप्त थे। उन्हें राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। दूसरी ओर हिंदू जोकि जनसंख्या के अधिकाँश भाग से संबंधित थे, को लगभग सभी अधिकारों से वंचित रखा गया था। उन्हें काफिर और जिम्मी कहकर पुकारा जाता था। मुसलमान हिंदुओं पर इतने अत्याचार करते थे कि बहुत-से हिंदू मुसलमान बनने पर विवश हो गए थे।

  1. 16वीं सदी के आरंभ में पंजाब की सामाजिक दशा को बहुत खराब क्यों माना जाता था ?
  2. 16वीं सदी के आरंभ में किन लोगों को अधिकारों से वंचित रखा गया था ?
  3. काफ़िर किसे कहा जाता था ?
  4. जज़िया क्या था ?
  5. मुसलमान ………… वर्ग से संबंध रखते थे।

उत्तर-

  1. क्योंकि समाज में स्त्रियों की हालत बड़ी दयनीय थी।
  2. हिंदुओं को।
  3. गैर-मुसलमानों को काफ़िर समझा जाता था।
  4. जज़िया हिंदुओं से लिया जाने वाला एक कर था।
  5. शासक।

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4
16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई थी। मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य उलेमा और मौलवी करते थे। वे मस्जिदों, मकतबों और मदरसों में शिक्षा देते थे। राज्य सरकार उन्हें अनुदान देती थी। मस्जिदों और मकतबों में प्रारंभिक शिक्षा दी जाती थी जबकि मदरसों में उच्च शिक्षा। मदरसे प्रायः शहरों में ही होते थे। उस समय मुसलमानों के पंजाब में सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र लाहौर और मुलतान में थे। इनके अतिरिक्त जालंधर, सुल्तानपुर, समाना, नारनौल, बठिंडा, सरहिंद, स्यालकोट और काँगड़ा भी शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे।

  1. 16वीं सदी के आरंभ में शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति क्यों नहीं हुई थी ?
  2. क्या मौलवी मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य करते थे ?
  3. मुसलमानों को आरंभिक शिक्षा कहाँ दी जाती थी ?
  4. 16वीं शताब्दी के आरंभ में मुसलमानों की शिक्षा का कोई एक प्रसिद्ध केंद्र का नाम लिखें।
  5. मदरसे प्रायः …………… में होते थे।

उत्तर-

  1. 16वीं शताब्दी के आरंभ में शिक्षा देने की जिम्मेवारी सरकार की नहीं होती थी।
  2. हाँ, मौलवी मुसलमानों को शिक्षा देने का कार्य करते थे।
  3. मुसलमानों को आरंभिक शिक्षा मस्जिदों तथा मकतबों में दी जाती थी।
  4. 16वीं सदी के आरंभ में मुसलमानों की शिक्षा का एक प्रसिद्ध केंद्र लाहौर था।
  5. शहरों।

5
सूफी मत 16वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब में बहुत लोकप्रिय था। सूफी संत शेख अथवा पीर के नाम से भी जाने जाते थे। वे एक अल्लाह में विश्वास रखते थे। वे अल्लाह को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार अल्लाह सर्वशक्तिमान् है और वह प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। अल्लाह को प्राप्त करने के लिए वे प्रेम भावना पर बल देते थे। वे धर्म के बाह्याडंबरों में विश्वास नहीं रखते थे। अल्लाह को प्राप्त करने के लिए वे पीर अथवा गुरु का होना अत्यावश्यक मानते थे। वे संगीत में भी विश्वास रखते थे। उन्होंने कव्वाली गाने की प्रथा चलाई। मनुष्य की सेवा करना वे आवश्यक मानते थे। उनका जाति-प्रथा में कोई विश्वास नहीं था। वे अन्य धर्मों का आदर करते थे। सूफ़ी शेखों की विचारधारा को तस्सवुफ़ भी कहा जाता है।

  1. सूफ़ी मत किस धर्म से संबंधित था ?
  2. सूफ़ी शेख अन्य किस नाम से जाने जाते थे ?
  3. सूफ़ी शेखों की विचारधारा को क्या कहा जाता है ?
  4. सूफी मत का कोई एक सिद्धांत लिखें।
  5. अल्लाह को प्राप्त करने के लिए सूफ़ी किस का होना आवश्यक मानते थे ?
    • पीर
    • कव्वाली
    • दरगाह
    • उपरोक्त सारे।

उत्तर-

  1. सूफी मत इस्लाम धर्म से संबंधित था।
  2. सूफ़ी शेख ‘पीर’ के नाम से जाने जाते थे।
  3. सूफ़ी शेखों की विचारधारा को तस्सवुफ़ कहा जाता था।
  4. वह एक अल्लाह में विश्वास रखते हैं।
  5. पीर।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण की परिभाषा लिखो। इसके रास्ते में आने वाली समस्याओं का वर्णन करो।
(Define National Integration. Explain the difficulties faced in the way of National Integration.)
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली तीन रुकावटों का वर्णन करें तथा भारत में एकता बनाए रखने के लिए तीन सुझाव भी दें।
(Explain three obstacles in the way of National Integration and also give any three suggestions to maintain National Integration in India.)
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण की परिभाषा लिखो। भारत में इसकी समस्याओं को हल करने के लिए सुझाव लिखो।
(Define National Integration. Write suggestions to solve the Problems of National Integration in India.)
उत्तर-
किसी भी राज्य की राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता उसके लिए सर्वोपरि होती है। कोई भी राज्य यह सहन नहीं कर सकता है कि उसकी राष्ट्रीय अखण्डता का विनाश हो। राष्ट्रीय अखण्डता राष्ट्रीय एकीकरण पर निर्भर करती है। राष्ट्रीय एकीकरण राज्य की प्रथम आवश्यकता है। राज्य के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के अन्दर रहने वाले विभिन्न लोगों में एकता की भावना हो और यही भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। राष्ट्रीय का सम्बन्ध अनेकता में एकता स्थापित करना है। राष्ट्रीय एकीकरण की भावना द्वारा विभिन्न धर्मों, जातियों व भाषाओं के लोगों में परस्पर मेल-जोल बढ़ा कर एकता का विकास किया जाना है।

भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० एस० राधाकृष्णन (Dr. S Radhakrishnan) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक घर नहीं है जो चूने और ईंटों से बनाया जा सकता है। यह एक औद्योगिक योजना भी नहीं है जिस पर विशेषज्ञों द्वारा विचार किया जा सकता है और रचनात्मक रूप दिया जा सकता है। इसके विपरीत एकीकरण एक ऐसा विचार है जिसका विकास लोगों के दिलों में होता है। यह एक चेतना है जिससे जनसाधारण को जागृत करना है।” (‘National integration is not a house which could be built by mortar and bricks. It is not an industrial plan. which could be discussed and implemented by experts. Integration, on the contrary, is a thought which must go into the heart of the people. It is the consciousness which must awaken the people at large.”’)

प्रो० माइरन वीनर (Myron Weiner) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण का अभिप्राय उन विघटनकारी आन्दोलनों पर निगरानी रखना है जो राष्ट्र को खण्डित कर सकते हों और सम्पूर्ण समाज में ऐसी अभिवृत्तियों का होना है जो संकीर्ण हितों की अपेक्षा राष्ट्रीय और सार्वजनिक हितों को प्राथमिकता देती है।”

एच० ए० गन्नी (H.A. Gani) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक ऐसी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों के दिलों में एकता, दृढ़ता और सम्बद्धता की भावना विकसित होती हो और उनमें सामान्य नागरिकता की भावना अथवा राष्ट्र के प्रति वफ़ादारी की भावना का विकास होता है।” (“National integration is a socio-psychological and educational process through which a feeling of unity, solidarity and cohesion develops in the hearts of people and a sense of common citizenship or feeling of loyality to the nation is fostered among them.”)

भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधाएं (OBSTACLES IN THE WAY OF NATIONAL INTEGRATION IN INDIA)-

जैसा कि प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है कि भारत में अनेक विभिन्नताएं हैं, ये सभी विभिन्नताएं वास्तव में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधाएं बनती हैं। इसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है

1. भाषा (Language)-भारत एक बहुभाषी राज्य है तथा सदैव से ही रहा है, भाषा की समस्या राष्ट्रीय अखण्डता के लिए खतरा बन चुकी है। भाषा को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में तनाव बढ़ता है। यूं तो हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाया गया है पर अहिन्दी भाषी प्रान्तों में हिन्दी विरोधी आन्दोलनों को जन्म दिया। यही कारण है कि आज भी राजकाज की भाषा अंग्रेज़ी ही चली आ रही है। यद्यपि सरकार ने इसके समाधान के लिए कुछ कदम उठाए हैं जैसा कि त्रि-भाषायी फार्मूला, पर इसको कोई अधिक सफलता नहीं मिल पाई है।

2. क्षेत्रवाद (Regionalism) क्षेत्रवाद या प्रादेशिकता का अर्थ है कि सारे की अपेक्षा किसी एक विशेष क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखना। भारत में प्रादेशिकता की यह समस्या अत्यन्त गम्भीर है तथा एक देशव्यापी सिद्धान्त बन गया है। यह राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बन गया है। इसके विकास के तीन प्रमुख कारण हैं। सर्वप्रथम इसका कारण ऐसा औद्योगिक या आर्थिक विकास जिसके कारण साधारण व्यक्ति को बहुत कम लाभ हुआ है। लोगों को बताया गया था कि उनके कष्टों का कारण ब्रिटिश शासन है तथा स्वतन्त्रता के बाद एक खुशहाल तथा सम्पन्न युग का प्रारम्भ होगा, पर ये सभी वायदे झूठे निकले तथा लोगों को सिवाए निराशा, कठिनाइयों व शोषण के कुछ नहीं मिला। दूसरा कारण था कि पिछड़े हुए क्षेत्रों के लोगों ने यह अनुभव करना आरम्भ कर दिया कि कारखाने या उद्योग लगाने में, रोज़गार की सुविधाएं उपलब्ध करवाने में, बांधों-पुलों इत्यादि के निर्माण में तथा केन्द्रीय अनुदान प्रदान करने में उनको अनदेखा किया जा रहा है। तीसरा इसका कारण यह भी रहा कि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं ने शक्ति के लिए नंगा नाच करना प्रारम्भ कर दिया। इसमें वे कभी-कभी क्षेत्रवाद का प्रचार करने से भी न चूकते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में क्षेत्रीयवाद का काफ़ी बोलबाला है। यह राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा तो है ही साथ-ही-साथ राष्ट्रीयता अखण्डता के लिए सीधा खतरा भी है।

3. साम्प्रदायिकतावाद (Communalism)-अंग्रेजी शासन से पहले भारत में साम्प्रदायिकता देखने को नहीं मिलती थी यद्यपि युद्ध होते थे पर वे राजाओं के बीच थे। जनता में कटुता की भावना न थी। अकबर जैसा सम्राट तो हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थक था। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत में साम्प्रदायिकता फैलाने का कार्य अंग्रेज़ों ने किया उनके द्वारा यहा फूट डालो राज्य करो की नीति अपनाई गई। क्योंकि उन्होंने सत्ता मुसलमानों से छीनी थी इसलिए प्रारम्भ में उन्होंने मुसलमान विरोधी तथा हिन्दू समर्थक नीति को अपनाथा। बाद में जब उन्हें मुसलमानों से कोई डर न रहा तो उनकी नीति मुसलमान समर्थक तथा हिन्दू विरोधी हो गई। उन्होंने साम्प्रदायिकता चुनाव प्रणाली को प्रारम्भ किया। यही साम्प्रदायिकता की आग धीरे-धीरे इतनी बढ़ी कि सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा एक लेखक शायर इकबाल भी पाकिस्तान के नारे लगाने लगा। जिन्नाह ने द्वि-राष्ट्रीय सिद्धान्त को अपनाया। इस प्रकार इसका अन्त अत्यधिक खून-खराबे के बाद भारत विभाजन तथा पाकिस्तान के निर्माण के रूप में हुआ। स्वतन्त्रता के पश्चात् भी यह आग ठण्डी न हुई। जो मुसलमान भारत में रह गए वे अल्प मत में होने के कारण अपने प्रति दुर्व्यवहार की शिकायत करते हैं। हिन्दू-मुसलमानों में तनाव यदा-कदा बढ़ता रहता है तो साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। जिनमें न जाने कितनी जानें चली जाती हैं। कभी कानपुर, कभी मुरादाबाद, कभी मेरठ तो कभी दिल्ली में ये दंगे होते ही रहते हैं। महाराष्ट्र में भी हिन्दू-मुस्लिम फसाद होते रहते हैं। भारत में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के कारण साम्प्रदायिक दंगे-फसाद में वृद्धि हुई जोकि राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद को कार सेवकों ने गिरा दिया जिसके बाद देश के अनेक भागों में भीषण साम्प्रदायिक दंगे फसाद हुए। 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुए।

4. जातिवाद (Casteism) जातिवाद की समस्या ने भी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पहुंचाई है। इस समस्या के सम्बन्ध में प्रथम राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन में भाषण करते हुए तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने कहा था, “यद्यपि जाति का एक सामाजिक बुराई के रूप में अन्त हो रहा है, तथापि अब उसने एक राजनीतिक और प्रशासकीय बुराई का रूप धारण कर लिया है। हम जाति के प्रति निष्ठाओं को चुनाव जीतने के लिए नौकरियों में अधिक लोगों को रखने के लिए प्रयोग कर रहे हैं।”

श्री जयप्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है।” जातीय संगठनों ने भारत की राजनीति में वही हिस्सा लिया है जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों ने लिया है। चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर किया जाता है और चुनाव प्रचार में जाति पर वोटें मांगी जाती हैं। प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है।

5. ग़रीबी (Poverty)—ग़रीबी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में महत्त्वपूर्ण बाधा है। भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ग़रीबी है। ग़रीब व्यक्ति अपने आपको और अपने परिवार को जीवित रखने के लिए संघर्ष में जुटा रहता है। जब एक ग़रीब व्यक्ति या ग़रीब वर्ग किसी दूसरे व्यक्ति या वर्ग को खुशहाल पाता है तो उसमें निराशा और घृणा की भावना उत्पन्न होती है और राजनीतिज्ञ ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर आन्दोलन करवाते हैं। जो क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं वह आर्थिक विकास के लिए आन्दोलन करते हैं और कई बार अलग राज्य की मांग भी करते हैं।

6. सभी राजनीतिक दल संविधान के मूल मूल्यों पर सहमत नहीं (An the Political Parties do not accept the basic values of Constitution)-सभी राजनीतिक दल संविधान में निहित मूल मूल्यों (Basic Values) पर सहमत नहीं है। विशेषकर साम्यवादी और साम्प्रदायिकतावादी दल संविधान के मूल मूल्यों में विश्वास नहीं रखते। साम्यवादियों ने जब पश्चिमी बंगाल और केरल में सरकारें बनाईं तो उन्होंने सार्वजनिक रूप में घोषणा की थी कि उन्होंने संविधान को तोड़ने के उद्देश्य से सरकारें बनाई हैं। साम्प्रदायिक दल धर्म-निरपेक्षता में विश्वास नहीं रखते जो कि संविधान का आधारभूत सिद्धान्त है।

7. अनपढ़ता (Illiteracy)-भारत की अधिकांश जनता अशिक्षित है, जिसके स्वार्थी नेता अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए आम जनता को आसानी से मनचाहे रास्ते पर ले जाते हैं और अनपढ़ जनता स्वार्थी नेताओं की बातों में आकर आन्दोलन के पथ पर चल पड़ती है। कई बार आन्दोलनकारियों को यह भी पता होता कि उनके आन्दोलन का लक्ष्य क्या है और वे किस ओर जा रहे हैं ? स्वार्थी नेता धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर सीधे-सीधे लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।

8. समाजवाद की असफलता (Failure of Socialism) प्रो० गोविंदराम वर्मा के मतानुसार समाजवाद की असफलता ने भी राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को पैदा किया है। यदि समाजवाद सफल हो जाता तो आर्थिक विकास का फल सभी को चखने को मिलता। परन्तु अब बेरोज़गारी, पिछड़ापन, गरीबी, आर्थिक असमानता आदि ऐसे ही विघटनकारी आर्थिक तत्त्व हैं जो देश में भावनात्मक एकता पैदा नहीं करने देते, जिससे गम्भीर राजनीतिक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं और देश की राजनीतिक व्यवस्था को भी खतरा पहुंचता है।

9. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली (Defective Educational System) भारत की शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों में चरित्र का निर्माण और अनुशासन कायम करने में सफल नहीं हुई। नैतिक और राष्ट्रीय मूल्यों का विकास नहीं हो रहा। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि अधिकांश शिक्षा संस्थाएं व्यक्तिगत व्यक्तियों तथा संस्थाओं के हाथ में है। भारतीय शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय एकीकरण की भावना विकसित करने में सफल नहीं रही।

10. असन्तुलित क्षेत्रीय विकास (Unbalanced Regional Development)-भारत के सभी क्षेत्रों का एकजैसा विकास नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्रों का बहुत अधिक विकास हुआ है जबकि कुछ क्षेत्र आज भी पिछड़े हुए हैं। पिछड़े हुए क्षेत्रों के लोगों में यह भावना विकसित हो गई है कि सरकार उनके साथ भेदभाव कर रही है और यदि ये अलग हो जाएं तो अपना विकास कर सकेंगे। अतः असन्तुलित क्षेत्रीय विकास राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा है।

11. आन्दोलनों और हिंसा की राजनीति (Politics of Agitations and Violence)-पिछले कुछ वर्षों से भारत की राजनीति में आन्दोलन और हिंसा में वृद्धि हुई है। संविधान शान्तिपूर्वक साधनों द्वारा विरोध प्रकट करने का अधिकार देता है, पर राजनीति में हिंसा की घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। राजनीतिक हत्याओं में बहुत वृद्धि हुई है। चुनावों में कई स्थानों पर मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने के लिए बमों, बन्दूकों, छुरों-भालों आदि का खुलेआम प्रयोग किया जाता है। अतः आन्दोलनों और हिंसा की राजनीति राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक गम्भीर खतरा है।

12. भ्रष्टाचार (Corruption)-भारतीय प्रशासन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भ्रष्टाचार है और इसने भी राष्ट्रीय एकीकरण में बाधा पहुंचाई है। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और चारों तरफ भाई-भतीजावाद चल रहा है, जिस कारण जनता का विश्वास प्रशासन के प्रति नहीं रहा। इसके फलस्वरूप दंगे-फसाद होते हैं जो राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधक हैं। हिंसा और अराजकतावाद के वातावरण ने राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को और अधिक गम्भीर बनाया है।

13. सरकार की नीति (Government’s Policy) सरकार की नीति भी राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या के मार्ग में बाधा बनी हुई है। सरकार राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधक तत्त्वों को नष्ट करने में सफल नहीं हुई। यद्यपि कांग्रेसी नेता जातिवाद, क्षेत्रीयवाद, साम्प्रदायिकता आदि के विरुद्ध आवाज़ उठाते रहते हैं परन्तु व्यवहार में कांग्रेस ने जातिवाद और क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा ही दिया है। यह भी कहा जाता है कि सरकार सख्ती से कार्यवाही नहीं करती क्योंकि उसे उन लोगों के मत भी प्राप्त करने होते हैं। कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों के प्रतिसदैव ढीली नीति अपनाई है क्योंकि साधारणत: मुस्लिम वोट कांग्रेस के ही समझे जाते हैं।

14. क्षेत्रीय दल (Regional Parties) क्षेत्रीय दलों में वृद्धि राष्ट्रीय एकीकरण के लिए समस्या है। भारत में राष्ट्रीय दलों के मुकाबले में क्षेत्रीय दलों की संख्या बहुत अधिक है। 2016 में चुनाव आयोग ने 53 राजनीतिक दलों को राज्य स्तर के दलों के रूप में मान्यता प्रदान की। वर्तमान समय में क्षेत्रीय दलों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय हित को महत्त्व न देकर क्षेत्रीय हितों पर जोर देते हैं। क्षेत्रीय दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काते हैं। आजकल कई राज्यों में क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय हित को हानि पहुंचाते हैं।

15. विदेशी ताकतें (Foreign Powers)-विदेशी ताकतें कुछ वर्षों से भारत में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रही हैं। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने कई बार कहा कि विदेशी ताकतों से भारत की एकता व अखण्डता को खतरा है। पाकिस्तान खुले रूप में पंजाब और जम्मू-कश्मीर के आतंकवादियों को आधुनिक हथियार और वित्तीय सहायता दे रहा है।

16. आतंकवाद (Terrorism)—आतंकवाद पिछले कुछ वर्षों से भारत की एकता व अखण्डता के लिए खतरा बना हुआ है।
राष्ट्रीय एकीकरण की समस्याओं को दूर करने के उपाय-इसके लिए प्रश्न नं० 2 देखें।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

प्रश्न 2.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने के सुझाव दीजिए।
(Give suggestions to remove hindrances which come in the way of National Integration in India.)
उत्तर-
भारत की एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकीकरण अति आवश्यक है। बिना राष्ट्रीय एकीकरण के राष्ट्रीय अखण्डता को कायम नहीं रखा जा सकता। अतः राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए उन बाधाओं को दूर करना आवश्यक है जो राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में रोड़ा अटकाए हुए हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय हैं-

1. आर्थिक विकास (Economic Development)-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए देश का आर्थिक विकास करना अति आवश्यक है। बेरोजगारी को दूर करके, आर्थिक विषमता को कम करके, गरीबी को दूर करके तथा आर्थिक लाभों को न्यायपूर्ण ढंग से वितरित करके ही राष्ट्रीय एकीकरण की सम्भावना को बढ़ाया जा सकता है।

2. राजनीतिक वातावरण में सुधार (Reforms in Political Atmosphere)-राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए देश के राजनीतिक वातावरण में सुधार करने भी ज़रूरी है। आज देश के विभिन्न सम्प्रदायों, जाति क्षेत्र के लोगों में एक-दूसरे के प्रति वांछित विश्वास का अभाव है। इस अविश्वास की स्थिति में राष्ट्रीय एकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः राष्ट्रीय एकीकरण के लिए विभिन्न जातियों सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों में विश्वास की भावना उत्पन्न करने के लिए राजनीतिक वातावरण में सुधार होना चाहिए।

3. समुचित शिक्षा व्यवस्था (Proper Education System)-समुचित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है। शिक्षा प्रणाली देश की आवश्यकताओं के अनुकूल होनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे साम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद आदि की समस्याओं को हल किया जा सके। विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम ‘ऐसे होने चाहिए जिससे विद्यार्थियों में यह चेतना पैदा हो कि वे पहले भारतीय हैं और बाद में पंजाबी, बंगाली एवं मराठी हैं। पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो विद्यार्थियों में धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक हो।

4. भाषायी समस्या का समाधान (Solution of Linguistic Problem)-राष्ट्रीय एकीकरण को बनाए रखने के लिए भाषायी समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है। राज्यों के पुनर्गठन पर पुनः विचार किया जाना चाहिए और जिन लोगों की भाषा के आधार पर मांग उचित है उस राज्य की स्थापना की जानी चाहिए। यह ठीक है कि हिन्दी को हिन्दी विरोधी लोगों पर नहीं थोपना चाहिए। यह राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए राष्ट्र भाषा का विकसित होना अति आवश्यक है। त्रि-भाषायी फार्मूले को सही ढंग से लागू किया जाना चाहिए।

5. सन्तुलित आर्थिक विकास (Balanced Economic Development)-राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए यह आवश्यक है कि देश के सभी क्षेत्रों का योजनाबद्ध आर्थिक विकास किया जाए। पिछड़े हुए क्षेत्रों का विकास बड़ी तेज़ी से किया जाना चाहिए।

6. धर्म निरपेक्षता को वास्तविक बनाना (Secularism should be real) यद्यपि संविधान द्वारा भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, परन्तु इसे व्यावहारिक रूप देना अति आवश्यक है। लोगों में एक-दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता विकसित करना ज़रूरी है। यदि सरकारी कर्मचारी किसी धर्म विशेष के अनुयायियों के साथ पक्षपात करते पाए जाएं तो उनको कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।

7. भ्रष्टाचार को दूर करना (To remove Corruption) राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए प्रशासन में भ्रष्टाचार समाप्त करना आवश्यक है। भाई-भतीजावाद बन्द होना चाहिए।

8. सांस्कृतिक आदान-प्रदान-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए विभिन्न भाषायी समुदायों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान अधिक-से-अधिक होना चाहिए। ऐसी संस्कृति का विकास होना चाहिए जो हमारे आधुनिक समाज के अनुरूप हो।

9. राजनीतिक दलों का योगदान (Contribution of Political Parties)-राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों का सहयोग अनिवार्य है। राजनीतिक दलों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए, धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय भावनाओं को नहीं भड़काना चाहिए। राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक स्वस्थ जनमत का निर्माण करना चाहिए।

10. सरकार की नीतियों में परिवर्तन (Change in the Policies of Government)-राष्ट्रीय एकीकरण के लिए केन्द्रीय सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना होगा। सरकार को भेदभाव की नीति का त्याग करना होगा। कोई भी निर्णय लेते समय सरकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक राज्य उसी के दल द्वारा शासित है अथवा नहीं। सरकार को लोगों की उचित मागों को तुरन्त स्वीकार कर लेना चाहिए ताकि जनता को आन्दोलन करने का अवसर न मिले। जब सरकार आन्दोलन के बाद मांगों को मानती है तो उससे लोगों में यह धारणा बन जाती है कि सरकार शक्ति की भाषा ही समझती है।

11. साम्प्रदायिक संगठनों पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Communal Organisation)-राष्ट्रीय अखण्डता व एकता को बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिक संगठनों एवं दलों पर कठोर प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। परन्तु इसके साथसाथ ही आवश्यक है कि आम जनता को इस प्रकार के प्रतिबन्धों के औचित्य के सम्बन्धों में प्रशिक्षित किया जाए।

12. राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान (Respect for National Symbols)-राष्ट्रीय एकता अखण्डता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि सभी भारतीय राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करें। राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना सभी का कर्त्तव्य है।

13. सिद्धान्तों पर आधारित राजनीति (Value Based Politics)-राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक सिद्धान्तों व मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए। राजनीतिज्ञों को धर्म, जाति, भाषा, अल्पसंख्या आदि की राजनीति से मुक्त होना पड़ेगा। पिछले कुछ वर्षों से कुछ नेताओं ने मूल्यों पर आधारित राजनीति की बात कह है पर आवश्यकता इसको अपनाने की है।

14. भावनात्मक एकीकरण (Emotional Integration) राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए भावनात्मक एकीकरण का होना आवश्यक है। भावनात्मक एकीकरण को देखा नहीं जा सकता और न ही खरीदा जा सकता है। यह भावना तो लोगों के दिलों में पाई जाती है और इसका विकास भी लोगों के मन और दिलों में होना चाहिए। लोगों के सामने देश प्रेम, त्याग, बलिदान आदि के आदर्श रखे जाने चाहिए ताकि सभी लोगों में भातृभाव व प्रेम की भावना विकसित हो।

15. अमीरी एवं ग़रीबी का अन्तर कम करना (To Narrow the gap between Rich and Poor) भारत में राष्ट्रीय एकता बनाये रखने के लिए आवश्यक है, कि अमीरी एवं ग़रीबी के अन्तर को कम किया जाए।

16. सस्ता एवं सरल न्याय (Cheap and efficient Justice)-भारत में न्यायिक प्रक्रिया महंगी एवं जटिल होने से कारण गरीब लोगों को न्याय नहीं मिल पाता, जिससे उनका राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास उठने लगता है। अत: सरकार को चाहिए कि लोगों को सस्ता एवं सरल न्याय उपलब्ध करवाएं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

प्रश्न 3.
भारत के राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या के बारे में आप क्या जानते हैं ? भारत के द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण करने के लिए आज तक क्या कदम उठाए गए हैं ?
(What do you know by the problem of Indian National Integration ? What steps have been taken towards Indian National Integration ?).
अथवा
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए क्या कदम उठाए गए हैं ? (What steps have been taken towards Indian National Integration ?)
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ-इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखिए।

राष्ट्रीय एकीकरण के लिए किए गए प्रयत्न (EFFORTS TOWARDS NATIONAL INTEGRATION)-

राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए किए गए प्रयत्नों को हम तीन भागों में बांट सकते हैं-

(1) सरकार द्वारा बनाए गए कानून।
(2) सरकारी तथा औपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य।
(3) अनौपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य।

1. सरकार द्वारा बनाए गए कानून-1961 में साम्प्रदायिक प्रचार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो कानून पास किए। एक कानून द्वारा ऐसे किसी भी कार्य को कानून द्वारा दण्डनीय बना दिया गया जिससे विभिन्न धार्मिक मूल वंश पर आधारित अथवा भाषायी समुदायों अथवा जातियों के बीच शत्रुता और घृणा फैलती हो। दूसरे कानून द्वारा चुनाव में, धर्म मूल वंश, सम्प्रदाय, जाति अथवा भाषायी भावनाओं को उभारना दण्डनीय अपराध बना दिया गया। इन कानूनों में यह भी व्यवस्था की गई है कि जिस व्यक्ति को इस कानून के अन्तर्गत दण्ड मिलेगा। वह न तो चुनाव में मतदान कर सकता है और न ही चुनाव लड़ सकता है। 1963 में 16वां संशोधन किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य भारत की अखण्डता और प्रभुसत्ता को सुरक्षित रखने से है। इस संशोधन द्वारा यह निश्चित किया गया कि राज्य विधानमण्डल या संसद् का चुनाव लड़ने से पहले तथा चुने जाने के बाद प्रत्येक उम्मीदवार को यह शपथ लेनी पड़ती है कि मैं भारतीय संविधान के प्रति वफ़ादार रहूंगा और भारत की अखण्डता व प्रभुसत्ता को बनाए रखूगा। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।

2. सरकारी या औपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य-सरकार ने राष्ट्रीय एकीकरण का विकास करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए हैं
राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन 1961 (National Integration Conference 1961)-नई दिल्ली में 28 सितम्बर से 1 अक्तूबर, 1961 तक राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, प्रमुख शिक्षा शास्त्रियों, लेखकों और वैज्ञानिकों को आमन्त्रित किया गया। इस सम्मेलन का मत था कि राजनीतिक दलों ने सम्प्रदायवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद आदि को बढ़ावा देने में प्रोत्साहन दिया है। इसलिए सम्मेलन ने राजनीतिक दलों के लिए एक आचार संहिता पर बल दिया। इस संहिता में निम्नलिखित बातें कही गईं-

  • किसी भी दल को कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे विभिन्न धर्मों एवं भाषायी समुदायों में घृणा पैदा हो या उनके बीच तनाव उत्पन्न हो।
  • राजनीतिक दलों को साम्प्रदायिक, जातिगत, क्षेत्रीय अथवा भाषायी समस्याओं पर कोई ऐसा आन्दोलन शुरू नहीं करना चाहिए जिससे शान्ति के लिए कोई खतरा पैदा होता हो।
  • राजनीतिक दलों को अन्य दलों द्वारा आयोजित सभाओं, प्रदर्शनों आदि को तोड़ने के कोई काम नहीं करने चाहिए।
  • सरकार को नागरिक स्वतन्त्रताओं पर कोई अनुचित प्रतिबन्ध नहीं लगाने चाहिए और न ही उसे कोई ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे राजनीतिक दलों की सामान्य गतिविधियों में बाधाएं उत्पन्न होती हों।
  • दलगत हितों की प्राप्ति के लिए राजनीतिक सत्ता को प्रयोग में नहीं लाया जाना चाहिए। सम्मेलन ने यह सुझाव दिया कि शिक्षा को समवर्ती सूची में स्थान दिया जाए ताकि शिक्षा में एकरूपता लायी जा सके।

राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् (National Integration Council)-राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन, 1961 में ही राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् की भी रचना की गई जिसमें प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, राजनीतिक दलों के सात नेता, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष, दो शिक्षा शास्त्री, अनुसूचित जातियों और जन-जातियों का आयुक्त तथा प्रधानमन्त्री द्वारा मनोनीत सात व्यक्तियों को स्थान दिया गया। इस परिषद् को सामान्य जनता, प्रेस तथा विद्यार्थियों के लिए आचार-संहिता बनाने का काम दिया गया। इस परिषद् का कार्य अल्पसंख्यकों की शिकायतों पर विचार करना भी था। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् को राष्ट्रीय एकीकरण के सभी पहलुओं पर विचार करने और उसके बारे में अपनी सिफ़ारिशें पेश करने का निर्देश दिया था।

राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का पुनर्गठन-राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का समय-समय पर पुनर्गठन किया गया। 12 अप्रैल, 2010 को राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का पुनर्गठन किया गया। 147 सदस्यीय परिषद् में 14 प्रमुख केन्द्रीय मंत्रियों सहित विपक्षी दल के नेता भी शामिल किए गए।
राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक-सितम्बर, 2013 को राष्ट्रीय एकता परिषद् की महत्त्वपूर्ण बैठक नई दिल्ली में हुई। इस बैठक में मुजफ्फरनगर दंगों के साम्प्रदायिक हिंसा का मुद्दा छाया रहा। प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राज्यों को साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए कठोर कार्यवाही करने को कहा।

3. अनौपचारिक संगठनों द्वारा किए गए कार्य-अनौपचारिक संगठनों में दो संगठन महत्त्वपूर्ण(1) इन्सानी बिरादरी तथा (2) अखिल भारतीय साम्प्रदायिकता विरोधी समिति। इन्सानी बिरादरी की स्थापना अगस्त, 1970 में की गई। श्री जय प्रकाश नारायण को इस संगठन का अध्यक्ष और शेख अब्दुल्ला को इसका उपाध्यक्ष बनाया गया, परन्तु इन संगठनों को साम्प्रदायिक संगठन कहा गया। अखिल भारतीय साम्प्रदायिकता विरोध समिति की नेता श्रीमती सुभद्रा जोशी थी। इस संगठन का विश्वास है कि देश में साम्प्रदायिक दंगों के लिए साम्प्रदायिकतावाद की संगठित शक्तियां उत्तरदायी हैं और इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सबसे अधिक प्रमुख है। इस समिति का छठा सम्मेलन 1974 में दिल्ली में हुआ। इस सम्मेलन में साम्प्रदायिक संगठनों पर कानून प्रतिबन्धों के लगाने की बात कही गई। इस समिति में कहा है कि जनसंघ जैसे साम्प्रदायिक संगठनों के प्रतिबन्धों को राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् में स्थान नहीं दिया जाना चाहिए तथा शिक्षा प्रणाली को धर्म-निरपेक्ष बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष (Conclusion)-संक्षेप में, राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं, जिनसे राष्ट्रीय अखण्डता व एकता को खतरा पैदा हो गया है। आज देश को कमजोर करने वाली पृथक्कतावादी तथा साम्प्रदायिक ताकतों का कड़ाई से मुकाबला करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के विभिन्न पहलुओं का विस्तार सहित वर्णन करो। (Write different aspects of National Integration in India in detail.)
उत्तर-
आज भारतीय राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रीय एकीकरण की है। भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के विभिन्न पक्ष इस प्रकार हैं

1. राष्ट्रीय एकीकरण का राजनीतिक पहल-राष्ट्रीय एकीकरण की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की राजनीतिक मांगों की ओर उचित ध्यान दिया जाए। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ऐसी सत्ता की स्थापना होनी चाहिए जिसके प्रति लोग वफ़ादार हों। भारतीय संघ के राज्यों का पुनर्गठन इसलिए भाषा के आधार पर किया गया है और आज भारत में 29 राज्य हैं। केन्द्र और राज्यों में जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें हैं और उनमें जनता की निष्ठा हैं, परन्तु भारतीय जनता राजनीतिक दृष्टि से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हैं। आज भी विभिन्न भागों में अलग राज्य की स्थापना की मांग चली आ रही है।

2. राष्ट्रीय एकीकरण का सामाजिक पहलू-राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पहलू का अर्थ यह है कि देश में सभी भागों का विकास हो और लोगों में बहुत अधिक आर्थिक असमानताएं नहीं होनी चाहिएं। देश के पिछड़े क्षेत्र का विकास करना अति आवश्यक है। राष्ट्र के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत में यद्यपि संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है, परन्तु इसके बावजूद आज भी देश के कई भागों में जाति-पाति के भेदभाव को दूर करना आवश्यक है।

3. राष्ट्रीय एकीकरण का सांस्कृतिक पक्ष-भारत में विभिन्न संस्कृतियों के लोग रहते हैं। संविधान ने सभी अल्प-संख्यकों को अपनी संस्कृति, अपनी भाषा तथा लिपि को कायम रखने तथा विकसित करने की स्वतन्त्रता दी है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद भारत में रहने वाले अल्प-संख्यकों को यह सन्देह है कि भारत के बहु-संख्यक उनको संस्कृति को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील हैं। भारत के सांस्कृतिक अल्प-संख्यकों को यह सन्देह है कि भारत के बहु-संख्यक उनको अपनी ही संस्कृति में शामिल करने के इच्छुक हैं। अल्प-संख्यकों का ऐसा सन्देह राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में एक बाधा है तथा इस क्षेत्र को ही राष्ट्रीय एकीकरण का सांस्कृतिक पक्ष माना जाता है।

4. राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष-राष्ट्रीय एकीकरण कोई ऐसा भवन नहीं है जिसका निर्माण अच्छे भवन निर्माताओं द्वारा ईंटों तथा गारे से किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण वास्तव में एक धारणा अथवा विचार है जिसका निवास लोगों के हृदयों में होना अनिवार्य है। यह एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की चेतना तथा भावना है। परन्तु भारत में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषायी, आतंकवाद तथा प्रान्तवाद के तत्त्व भारतीयों के हृदयों में ऐसी चेतना अथवा भावना विकसित नहीं होने देते हैं। ऐसी चेतना अथवा भावना के विकास की आवश्यकता को ही भारत में राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष माना जाता है।

5. राष्ट्रीय एकीकरण का आर्थिक पक्ष-राष्ट्रीय एकीकरण का आर्थिक पहलू इस बात की मांग करता है कि देश के सभी भागों का विकास हो और लोगों में बहुत अधिक आर्थिक असमानताएं नहीं होनी चाहिए। देश के पिछड़े क्षेत्रों का विकास करना अति आवश्यक है। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ग़रीबी और बेकारी को दूर करना आवश्यक है क्योंकि ग़रीब और बेरोज़गार व्यक्ति के लिए एकीकरण का कोई महत्त्व नहीं है। यदि अधिकांश जनता ग़रीब है और देश के अनेक क्षेत्र बहुत पिछड़े हैं तो राष्ट्रीय एकीकरण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ लिखो।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का साधारण अर्थ यह है कि एक देश में रहने वाले विभिन्न धर्मों, वर्गों, नस्लों तथा भाषाओं के लोगों में एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की भावना हो और वे अपने को एक अनुभव करते हों। राज्य के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के अन्दर रहने वाले लोगों में एकता की भावना हो और यही भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। राष्ट्रीय एकीकरण का सम्बन्ध अनेकताओं में एकता स्थापित करना है। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० एस० राधाकृष्णन के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक घर नहीं जो चूने और ईंटों से बनाया जा सके। यह एक औद्योगिक योजना भी नहीं है जिस पर विशेषज्ञों द्वारा विचार किया जा सके। इसके विपरीत एकीकरण का ऐसा विचार है जिसका विकास लोगों के दिलों में होता है। यह एक चेतना है जिसने जनसाधारण को जागृत करना है।” एच० ए० गन्नी के मतानुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक ऐसी सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों के दिलों में एकता, दृढ़ता और सम्बद्धता की भावना विकसित होती है और उनमें सामान्य नागरिकता की भावना अथवा राष्ट्र के प्रति वफ़ादारी की भावना का विकास होता है।”

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प्रश्न 2.
भारत के लिए राष्ट्रीय एकीकरण की विशेष आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण राज्य की पहली आवश्यकता है। राज्य के विकास के लिए यह ज़रूरी है कि राज्य के अन्दर रहने वाले विभिन्न लोगों के मध्य एकता की भावना हो और यह भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या पूरी तरह मौजूद है और यह भारत की राष्ट्रीय अखण्डता के लिए खतरा पैदा कर रही है। बहुत सारे राज्यों में पाई जाने वाली अलगाववादी प्रवृत्तियां, भाषायी भेदभाव, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, क्षेत्रीयवाद, आन्दोलन व हिंसा, असन्तुलित क्षेत्रीय विकास आदि समस्याओं ने भारतीय एकीकरण को बहुत प्रभावित किया है। ये सभी बातें इसका सबूत है कि भारत की राष्ट्रीय एकीकरण की समस्याओं का स्वरूप गम्भीर है। इसका एक बड़ा कारण भारत का विशाल क्षेत्रफल है जिसमें जाति, भाषा, धर्म, सभ्याचारिक, रीति-रिवाज आदि अनेक भिन्नताएं मिलती हैं। कुछ स्वार्थी लोग या राजनीतिक दल इन समस्याओं के द्वारा जनता की भावनाओं को जनाधार प्राप्त करने के लिए भड़काते हैं और इस तरह राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को गम्भीर बनाकर देश की अखण्डता के वास्ते खतरा पैदा कर देते हैं। राष्ट्रीय एकीकरण के अभाव में ही हिन्दुस्तान का बंटवारा हुआ था और पाकिस्तान की स्थापना हुई थी जिसका मुख्य आधार धार्मिक था। अत: भारत को अपनी राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकीकरण की सख्त ज़रूरत है ताकि भारत इन समस्याओं का दृढ़तापूर्ण सामना कर सके।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली किन्हीं चार बाधाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में चार रूकावटें लिखें।
उत्तर-
भारत में अनेक विभिन्नताएं हैं। ये सभी भिन्नताएं वास्तव में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधाएं हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है-

  • भाषा-भाषा की समस्या राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन चुकी है। भाषा को लेकर विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में तनाव बढ़ता है।
  • क्षेत्रवाद–क्षेत्रवाद या प्रादेशिकता का अर्थ है कि सारे देश की अपेक्षा किसी एक विशेष क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखना। भारत में प्रादेशिकता की यह समस्या अत्यन्त गम्भीर है।
  • सम्प्रदायवाद-सम्प्रदायवाद राष्ट्रीय एकीकरण में बहुत बड़ी बाधा है।
  • जातिवाद ने भी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पैदा की है।

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प्रश्न 4.
साम्प्रदायिकता का राष्ट्रीय एकीकरण पर क्या प्रभाव है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए साम्प्रदायिकता बाधा कैसे है?
उत्तर-
आजकल भारत की महत्त्वपूर्ण समस्या साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता ने राष्ट्रीय एकीकरण को बहुत अधिक प्रभावित किया है। साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है। साम्प्रदायिकता की भावना बढ़ने से लोगों की सोच साम्प्रदायिक रंग में रंगती जा रही है जिस कारण लोग राष्ट्र की अपेक्षा अपने-अपने सम्प्रदाय के प्रति अधिक वफ़ादार होते जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता का तेजी से विकास होने के कारण राष्ट्रीय एकीकरण की गति धीमी हो गई है। साम्प्रदायिकता के प्रभाव के कारण लोग राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर होते जा रहे हैं। साम्प्रदायिकता की समस्या को हल किए बिना राष्ट्रीय एकीकरण का ध्येय पूरा नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 5.
इंसानी बिरादरी का निर्माण क्यों किया गया था ?
अथवा
इन्सानी बिरादरी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
इन्सानी बिरादरी एक गैर-सरकारी संगठन है, जिसकी स्थापना 1970 में प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खां (सरहदी गान्धी) की प्रेरणा से हुई। श्री जय प्रकाश नारायण को इस संगठन का अध्यक्ष तथा श्री शेख अब्दुला को उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य साम्प्रदायिक शक्तियों को नष्ट करके राष्ट्रीय भावना को विकसित करना था। सहनशीलता, आपसी समझ और सराहना (Toleration, Mutual Understanding and Appreciation) इस संगठन के तीन मूल तन्त्र थे परन्तु यह संगठन प्रभावी सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि यह संगठन यह भी निश्चित नहीं कर पाया है कि देश में किन संगठनों को साम्प्रदायिक संगठन कहा जाए।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रीय एकीकरण के राजनीतिक और सामाजिक पहलू का वर्णन करें।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के राजनीतिक पक्ष का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
1. राष्ट्रीय एकीकरण का राजनीतिक पहलू-राष्ट्रीय एकीकरण की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की राजनीतिक मांगों की ओर उचित ध्यान दिया जाए। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ऐसी सत्ता की स्थापना होनी चाहिए जिसके प्रति लोग वफ़ादार हो। भारतीय संघ के राज्यों का पुनर्गठन इसलिए भाषा के आधार पर किया गया है और आज भारत में 29 राज्य हैं। केन्द्र और राज्यों में जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें हैं और उनमें जनता की निष्ठा है, परन्तु भारतीय जनता राजनीतिक दृष्टि से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं है। आज भी विभिन्न भागों में अलग राज्य की स्थापना की मांग चली आ रही है।

2. राष्ट्रीय एकीकरण का सामाजिक पहलू-राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पहलू का अर्थ यह है कि देश में सभी भागों का विकास हो और लोगों में बहुत अधिक आर्थिक असमानताएं नहीं होनी चाहिएं। देश के पिछड़े क्षेत्रों का विकास करना अति आवश्यक है। राष्ट्र से सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार होना चाहिएं। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के साथ धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत में यद्यपि संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है, परन्तु इसके बावजूद आज भी देश के कई भागों में जाति-पाति के भेदभाव को दूर करना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मनौवज्ञानिक पक्ष से आपका क्या भाव है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष क्या है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण कोई ऐसा भवन नहीं है जिसका निर्माण अच्छे भवन निर्माताओं द्वारा ईंटों तथा गारे से किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण वास्तव में एक धारणा अथवा विचार है जिसका निवास लोगों के हृदयों में होना अनिवार्य है। यह एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की चेतना तथा भावना है। परन्तु भारत में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषायी आतंकवाद तथा प्रान्तवाद के तत्त्व भारतीयों के हृदयों में ऐसी चेतना अथवा भावना विकसित नहीं होने देते हैं। ऐसी चेतना अथवा भावना के विकास की आवश्यकता को ही भारत में राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष माना जाता है।

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प्रश्न 8.
राष्ट्रीय एकीकरणा के विकास में ‘शिक्षा’ क्या भूमिका निभा सकती है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण साधन है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में राजनीतिक चेतना पैदा होती है और शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे साम्राज्यवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद आदि की समस्याओं को हल किया जा सके। शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में धर्म-निरपेक्ष-दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है। शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में यह भावना विकसित की जा सकती है कि वे पहले भारतीय और बाद में पंजाबी, बंगाली, मराठी आदि है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए चार सुझाव दीजिए।
उत्तर-
राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए उन बाधाओं को दूर करना आवश्यक है जो राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधक हैं। इन बाधाओं को दूर करने के निम्नलिखित उपाय हैं-

  • आर्थिक विकास-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए देश का आर्थिक विकास करना अति आवश्यक है। बेरोज़गारी को दूर करके, आर्थिक विषमता को कम करके, ग़रीबी को दूर करके तथा आर्थिक लाभों को न्यायपूर्ण ढंग से वितरित करके ही राष्ट्रीय एकीकरण की सम्भावना को बढ़ाया जा सकता है।
  • राजनीतिक वातावरण में सुधार- राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए देश के राजनीतिक वातावरण में सुधार करना भी ज़रूरी है। अतः राष्ट्रीय एकीकरण के लिए विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों के विकास की भावना उत्पन्न करने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक वातावरण में सुधार होना चाहिए।
  • समुचित शिक्षा व्यवस्था-समुचित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है।
  • भाषायी समस्या का समाधान-राष्ट्रीय एकीकरण को बनाए रखने के लिए भाषायी समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है।

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प्रश्न 10.
भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण के लिए उठाए गए मुख्य कदमों का वर्णन कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए सरकार द्वारा उठाए गए किन्हीं चार उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • 1961 में साम्प्रदायिक प्रचार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो कानून पास किए गए। कानून द्वारा चुनाव में धर्म, मूल, वंश, सम्प्रदाय, जाति अथवा भाषायी भावनाओं को उभारना दण्डनीय अपराध बना दिया गया।
  • 1963 में संविधान में 16वां संशोधन किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य भारत की अखण्डता और प्रभुसत्ता
    को सुरक्षित रखने से है।
  • 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।
  • सरकार ने 1961 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय एकीकरण को प्रोत्साहन देने के लिए राजनीतिक दलों के लिए एक आचार संहिता पर बल दिया गया।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् क्या है ?
उत्तर-
सितम्बर-अक्तूबर, 1961 में प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा पर नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृह मन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, शिक्षा शास्त्री, प्रसिद्ध पत्रकार, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों से जुड़े प्रसिद्ध व्यक्तियों ने भाग लिया। सम्मेलन में एक राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् (National Integration Council) का निर्माण किया गया। इस परिषद् में प्रधानमन्त्री के अलावा केन्द्रीय गृह मन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, राजनीतिक दलों के सात नेता, दो शिक्षा शास्त्री, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अध्यक्ष, अनुसूचित जातियों तथा जन-जातियों के कमिश्नर तथा प्रधानमन्त्री द्वारा नियुक्त सात अन्य लोगों को नियुक्त किया गया। इस परिषद् की समय-समय पर प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में बैठकें होती रहती हैं जिसमें राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए मार्ग खोजे जाते हैं।

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प्रश्न 12.
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए जातिवाद किस प्रकार रुकावट बनता है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए जातिवाद बाधा कैसे है?
उत्तर-
जातिवाद की समस्या ने राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बहुत बाधा पहुंचाई है। इस समस्या के सम्बन्ध में प्रथम राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन में भाषण करते हुए तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने कहा था, “यद्यपि जाति का एक सामाजिक बुराई के रूप में अन्त हो रहा है, तथापि अब उसने एक राजनीतिक और प्रशासकीय बुराई का रूप धारण कर लिया है। हम जाति के प्रति निष्ठाओं को चुनाव जीतने के लिए अथवा नौकरियों में अधिक लोगों को रखने के लिए प्रयोग कर रहे हैं।”

श्री जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है।” जातीय संगठनों ने भारत की राजनीति में वही हिस्सा लिया है जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों ने लिया है। चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर किया जाता है और चुनाव प्रचार में जाति पर वोटें मांगी जाती हैं। प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है। राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा जातीय हितों को प्राथमिकता दी जा रही है।

प्रश्न 13.
ग़रीबी राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में कैसे रुकावट है ?
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ग़रीबी बाधा कैसे है?
उत्तर-
ग़रीबी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में महत्त्वपूर्ण बाधा है। भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ग़रीबी है। ग़रीब व्यक्ति अपने आपको और अपने परिवार को जीवित रखने के लिए संघर्ष में जुटा रहता है। जब एक ग़रीब व्यक्ति या ग़रीब वर्ग किसी दूसरे व्यक्ति या वर्ग को खुशहाल पाता है तो उसमें निराशा और घृणा की भावना उत्पन्न होती है और राजनीतिज्ञ ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर आन्दोलन करवाते हैं। जो क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं वह आर्थिक विकास के लिए आन्दोलन करते हैं और कई बार अलग राज्य की मांग भी करते हैं।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का साधारण अर्थ यह है कि एक देश में रहने वाले विभिन्न धर्मों, वर्गों, नस्लों तथा भाषाओं के लोगों में एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की भावना हो और वे अपने को एक अनुभव करते हों। राज्य के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राज्य के अन्दर रहने वाले लोगों में एकता की भावना हो और यही भावना राष्ट्रीय एकीकरण का सार है। राष्ट्रीय एकीकरण का सम्बन्ध अनेकताओं में एकता स्थापित करना है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय एकीकरण की कोई एक प्रसिद्ध परिभाषा बताएं।
उत्तर-
डॉ० एस० राधाकृष्णन के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक घर नहीं जो चूने और ईंटों से बनाया जा सके। यह एक औद्योगिक योजना भी नहीं है जिस पर विशेषज्ञों द्वारा विचार किया जा सके। इसके विपरीत एकीकरण का ऐसा विचार है जिसका विकास लोगों के दिलों में होता है। यह चेतना है, जिसने जनसाधारण जो जागृत किया है।”

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली किन्हीं दो बाधाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. भाषा-भारत एक बहुभाषी राज्य है और सदैव से ही रहा है। भाषा की समस्या राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन चुकी है।
  2. क्षेत्रवाद-क्षेत्रवाद या प्रादेशिकता का अर्थ है कि सारे देश की अपेक्षा किसी एक विशेष क्षेत्र के प्रति निष्ठा रखना।

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प्रश्न 4.
राष्ट्रीय एकीकरण के मनोवैज्ञानिक पक्ष से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण कोई ऐसा भवन नहीं है जिसका निर्माण अच्छे भवन निर्माताओं द्वारा ईंटों तथा गारे से किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण वास्तव में एक धारणा अथवा विचार है जिसका निवास लोगों के हृदयों में होना अनिवार्य है। यह एक ही राष्ट्र से सम्बन्धित होने की चेतना तथा भावना है। परन्तु भारत में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषायी झगड़े, आतंकवाद तथा प्रान्तवाद के तत्त्व भारतीयों के हृदयों में ऐसी चेतना अथवा भावना विकसित नहीं होने देते हैं। ऐसी चेतना अथवा भावना के विकास की आवश्यकता को ही भारत में राष्ट्रीय एकीकरण का मनोवैज्ञानिक पक्ष माना जाता है।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने के कोई दो उपाय लिखिए।
उत्तर-

  1. आर्थिक विकास-राष्ट्रीय एकीकरण लाने के लिए देश का आर्थिक विकास करना अति आवश्यक
  2. राजनीतिक वातावरण में सुधार-राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने के लिए देश के राजनीतिक वातावरण में सुधार करना भी ज़रूरी है।

प्रश्न 6.
राष्ट्रीय एकीकरण कौन्सिल क्या है?
उत्तर-
सितम्बर-अक्तूबर, 1961 में प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा पर नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय गृह मन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री, शिक्षा शास्त्री, प्रसिद्ध पत्रकार, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों से जुड़े प्रसिद्ध व्यक्तियों ने भाग लिया। सम्मेलन में एक राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् (National Integration Council) का निर्माण किया गया।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय एकीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
एक ही देश में रहने वाले विभिन्न संस्कृतियों के लोगों में एक ही राष्ट्र से सम्बन्ध होने की भावना विकसित करना राष्ट्रीय एकीकरण का वास्तविक अर्थ है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय एकीकरण की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
माईरन बीनर के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण की धारणा का अभिप्राय क्षेत्रीय राष्ट्रीयता की ऐसी भावना विकसित करना है, जो अन्य वर्गीय निष्ठाओं को समाप्त करती है, या उन छोटी निष्ठाओं से श्रेष्ठ होती है।”

प्रश्न 3.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के दो पक्षों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. राजनीतिक पक्ष
  2. माजिक पक्ष।

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प्रश्न 4.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के किसी एक पहलू के बारे में लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण का राजनीतिक पक्ष देश के क्षेत्रीय संगठन से सम्बन्धित है।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का निर्माण कब हुआ ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण परिषद् का निर्माण सन् 1961 में किया गया।

प्रश्न 6.
‘इंसानी बिरादरी’ नाम की संस्था का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
‘इंसानी बिरादरी’ नाम की संस्था के संस्थापक खान अब्दुल गफ्फार खान थे।

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प्रश्न 7.
राष्ट्रीय एकीकरण के आर्थिक पक्ष का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण के आर्थिक पक्ष का अर्थ यह है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों का असन्तुलित आर्थिक विकास न हो, बल्कि सभी क्षेत्रों का उचित तथा सन्तुलित विकास हो।

प्रश्न 8.
राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पक्ष का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पक्ष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध भारतीय समाज में शताब्दियों से चली आ रही जाति प्रथा से है, जब जाति के आधार पर मनुष्य के साथ पक्षपात किया जाए, तो ऐसी स्थिति राष्ट्रीय एकीकरण के सामाजिक पक्ष का प्रतीक होती है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रीय एकीकरण के रास्ते में आने वाली दो रुकावटों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. साम्प्रदायिकता
  2. जातिवाद।

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प्रश्न 10.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के विकास के लिए कोई एक सुझाव लिखें।
उत्तर-
गरीबी और बेरोज़गारी दूर करना।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय एकीकरण के लिए जातिवाद किस प्रकार रुकावट बनता है ?
उत्तर-
निम्न जातियों के साथ दुर्व्यवहार तथा जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था, राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा बनती है।

प्रश्न 12.
धरती के बेटों के सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धरती के बेटों के सिद्धान्त का अभिप्राय अपने ही राज्य के लोगों को रोज़गार इत्यादि के अवसरों में प्राथमिकता देना है।

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प्रश्न 13.
माओवादी हिंसा ने राष्ट्रीय एकीकरण को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-
माओवादी हिंसा देश की एकता और अखंडता को कमज़ोर कर रही है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राष्ट्रीय अखण्डता …………….. पर निर्भर करती है।
2. राष्ट्रीय एकीकरण का सम्बन्ध अनेकता में ……….. स्थापित करना है।
3. भारत में जाति, भाषा, धर्म एवं संस्कृति की अनेक …………. पाई जाती हैं।
4. भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में ………. भाषाओं का वर्णन किया गया है।
5. सन् ………. में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय एकीकरण
  2. एकता
  3. विभिन्नताएं
  4. 22
  5. 1956.

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें-

1. जातिवाद की समस्या ने राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पहुंचाई है।
2. गरीबी राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा नहीं होती।
3. अनपढ़ता राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देती है।
4. राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने में शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
5. भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा पहुंचाई है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है, “कि भारत के सामने यह खतरा है, कि वह अनेक छोटे-छोटे सर्वसत्तावादी राष्ट्रों में बंट जायेगा।”
(क) डॉ० एस० राधाकृष्णन
(ख) प्रो० सुनीता कुमार चैटर्जी
(ग) प्रो० आर० भास्करण
(घ) रजनी कोठारी।
उत्तर-
(ख) प्रो० सुनीता कुमार चैटर्जी

प्रश्न 2.
भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बाधा है
(क) क्षेत्रवाद
(ख) साम्प्रदायिकता
(ग) जातिवाद
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

प्रश्न 3.
“समाजवाद की असफलता ने भी राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को पैदा किया है।” यह कथन किसका
(क) पं० नेहरू
(ख) श्री लाल बहादुर शास्त्री
(ग) प्रो० गोविन्द राम वर्मा
(घ) श्री अटल बिहारी वाजपेयी।
उत्तर-
(ग) प्रो० गोविन्द राम वर्मा

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए ?
(क) आर्थिक विकास
(ख) राजनीतिक वातावरण में सुधार
(ग) समुचित शिक्षा व्यवस्था
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 17 राष्ट्रीय एकीकरण

प्रश्न 5.
निम्न में से एक राष्ट्रीय एकीकरण का पक्ष माना जाता है-
(क) राजनीतिक पक्ष
(ख) सामाजिक पक्ष
(ग) सांस्कृतिक पक्ष
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

महाराजा रणजीत सिंह का चरित्र एवं व्यक्तित्व (Character and Personality of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के चरित्र और शख्सीयत का विस्तारपूर्वक वर्णन करें। (Explain in detail the character and personality of Maharaja Ranjit Singh)
अथवा
रणजीत सिंह का एक मनुष्य के रूप में वर्णन करें। (Describe Ranjit Singh as a man)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। (Give a character estimate of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की एक व्यक्ति, एक सेनानी, एक शासक और एक राजनीतिज्ञ के रूप में चर्चा करें।
(Discuss Maharaja Ranjit Singh as a man, a general, a ruler and a diplomat.)
अथवा
आप रणजीत सिंह को इतिहास में क्या स्थान देंगे ? उसे शेर-ए-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
(What place would you assign to Ranjit Singh in the history ? Why is he called Sher-i-Punjab ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल भारत के अपितु विश्व के महान् व्यक्तियों में की जाती है। वह बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। वह अपने गुणों के कारण पंजाब में एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना करने में सफल हुआ। उसे ठीक ही पंजाब का शेर-ए-पंजाब कहा जाता है। महाराजा रणजीत सिंह के आचरण और व्यक्तित्व का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I. मनुष्य के रूप में
(As a Man)

1. शक्ल सूरत (Appearance)—महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल-सूरत अधिक आकर्षक नहीं थी। उसका कद मध्यम तथा शरीर पतला था। बचपन में चेचक हो जाने के कारण उसकी एक आँख भी जाती रही थी। इसके बावजूद महाराजा के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि कोई भी भेंटकर्ता उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। उसके चेहरे से एक विशेष प्रकार की तेजस्विता झलकती थी।

2. परिश्रमी एवं सक्रिय (Hard-working and Active)-महाराजा रणजीत सिंह बहुत परिश्रमी एवं सक्रिय व्यक्ति था। वह इस बात में विश्वास रखता था कि महान् व्यक्तियों को सदैव परिश्रमी एवं सक्रिय रहना चाहिए। महाराजा सुबह से लेकर रात को देर तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था। वह राज्य के बड़े-से-बड़े कार्य से लेकर लघु-से-लघु कार्य की ओर व्यक्तिगत ध्यान देता था।

3. साहसी एवं वीर (Courageous and Brave)—महाराजा रणजीत सिंह बहुत ही साहसी एवं वीर व्यक्ति था। उसे बाल्यकाल से ही युद्धों में जाने, शिकार खेलने, तलवार चलाने और घुड़सवारी करने का बहुत शौक था। उसने अल्पायु में ही हशमत खान चट्ठा का सिर काटकर अपनी वीरता का प्रमाण प्रस्तुत किया था। वह भयंकर लड़ाइयों के समय भी बिल्कुल घबराता नहीं था अपितु युद्ध में प्रथम कतार में लड़ता था।

4. अनपढ़ किंतु बुद्धिमान (Illiterate but Intelligent)—महाराजा रणजीत सिंह की पढ़ाई में रुचि नहीं थी। फलस्वरूप वह अशिक्षित ही रहा। अशिक्षित होने पर भी वह बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और अद्भुत स्मरण-शक्ति का स्वामी था। उसे अपने राज्य के गाँवों के हज़ारों नाम और उनकी भौगोलिक दशा मौखिक रूप से याद थे। वह जिस व्यक्ति को एक बार देख लेता था उसे वह कई वर्षों के पश्चात् भी पहचान लेता था। उसकी समझ-बूझ इतनी थी कि विदेशों से आए यात्री भी चकित रह जाते थे।

5. दयालु स्वभाव (Kind Hearted)-महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। महाराजा ने कभी भी अपने शत्रुओं के साथ भी अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं किया। लाहौर के इस शासक ने जिन्हें युद्ध-भूमि में पराजित किया, न केवल गले से लगाया, बल्कि उनकी संतान को भी जागीरें तथा पुरस्कार प्रदान किए। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था। उसकी दया की कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।
प्रसिद्ध लेखक फकीर सैयद वहीदुदीन के अनुसार,
“लोक दिलों में रणजीत सिंह की लोकप्रिय तस्वीर एक विजयी नायक अथवा एक शक्तिशाली सम्राट की अपेक्षा एक दयालु पितामह के लिए अधिक छाई है। उनमें ये तीनों गुण थे, परंतु उनकी दयालुता उनकी आन-शान तथा राज्य शक्ति पीछे छोड़ आई है तथा अभी तक जीवित है।”1.

6. सिख-धर्म का श्रद्धालु अनुयायी (A devoted follower of Sikhism)-महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। वह अपनी इन विजयों के लिए धन्यवाद हेतु दरबार साहिब अमृतसर जाकर भारी चढ़ावा चढ़ाता था। वह स्वयं को गुरुघर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-एखालसा’ और दरबार को ‘दरबार खालसा जी’ कहता था। उसने सिंह साहिब की उपाधि को धारण किया था।. उसके सिक्कों पर ‘नानक सहाय’ तथा ‘गोबिंद सहाय’ शब्द अंकित थे। उसकी शाही मोहर पर ‘अकाल सहाय’ शब्द अंकित थे। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत-से गुरुद्वारों में नवीन भवनों का निर्माण करवाया। हरिमंदिर साहिब के गुंबद पर सीने का काम करवाया। संक्षेप में कहें तो वह तन-मन से सिख धर्म का अनन्य श्रद्धालु था।

6. सहिष्णु (Tolerant) यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों का सम्मान करता था। वह धार्मिक पक्षपात तथा सांप्रदायिकता से कोसों दूर था। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख, हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उदाहरणतया उसका विदेश मंत्री फकीर अज़ीज-उद्दीन मुसलमान, प्रधानमंत्री ध्यान सिंह डोगरा और सेनापति मिसर दीवान चंद हिंदू थे। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोगों को अपने रस्मों-रिवाज की पूरी स्वतंत्रता थी। डॉ० भगत सिंह के अनुसार,

“प्राचीन तथा मध्यकालीन भारतीय इतिहास का कोई भी शासक रणजीत सिंह की सहिष्णुता की नीति की समानता नहीं कर सकता।”2

1. “Ranjit Singh’s popular image is that of a kindly patriarch rather than that of conquering ‘ hero or a mighty monarch. He was all three, but his humanity has outlived his splendour and power.” Fakir Syed Waheeduddin, The Real Ranjit Singh (Patiala : 1981) p. 8.
2. “No ruler of ancient or medieval Indian history could match Ranjit Singh in his cosmopolitan approach.” Dr. Bhagat Singh, Life and Times of Maharaja Ranjit Singh (New Delhi : 1990) p. 337.

II. एक सेनानी तथा विजेता के रूप में
(As a General and Conqueror)
महाराजा रणजीत सिंह की गणना विश्व के महान् सेनानियों में की जाती है। उसने अपने जीवन में जितने भी युद्ध किए किसी में भी पराजय का मुख नहीं देखा। वह बड़ी से बड़ी विपदा आने पर भी नहीं घबराता था। उदाहरणतया 1823 ई० में नौशहरा की लड़ाई में खालसा सेना ने साहस छोड़ दिया था। ऐसे समय महाराजा रणजीत सिंह भाग कर युद्ध क्षेत्र में सबसे आगे पहुँचा तथा सैनिकों में नया जोश भरा।

निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह एक महान् विजेता भी था। 1797 ई० में जब रणजीत सिंह शुकरचकिया मिसल की गद्दी पर विराजमान हुआ तो उसके अधीन बहुत कम क्षेत्र था। उसने अपनी योग्यता तथा वीरता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में बदल दिया था। उसके राज्य में लाहौर, अमृतसर, कसूर, स्यालकोट, काँगड़ा, गुजरात, जम्मू, अटक, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश समिलित थे। महाराजा की विजयों के कारण उसका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिमी में पेशावर तक फैला था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० गंडा सिंह के अनुसार, “वह (महाराजा रणजीत सिंह) भारत के महान् नायकों में से एक था।”3

III. एक प्रशासक के रूप में
(As an Administrator) : निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह एक उच्चकोटि का प्रशासक था। उसके शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण था। प्रशासन चलाने के लिए महाराजा ने कई योग्य तथा ईमानदार मंत्री नियुक्त किए थे। महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभक्त किया हुआ था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी। गाँव का प्रशासन पंचायत के हाथ होता था। प्रजा की स्थिति जानने के लिए महाराजा प्रायः भेष बदलकर राज्य के विभिन्न भागों का भ्रमण करता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रजा बड़ी समृद्ध थी।

महाराजा रणजीत सिंह यह बात भी भली-भाँति समझता था कि साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली सेना का होना अत्यावश्यक है। वह प्रथम भारतीय शासक था जिसने अपनी सेना को यूरोपीय पद्धति का सैनिक प्रशिक्षण देना आरंभ किया। महाराजा स्वयं सेना का निरीक्षण करता था। सैनिकों का ‘हुलिया’ रखने तथा घोड़ों को ‘दागने’ की प्रथा भी आरंभ की गई। सैनिकों तथा उनके परिवारों का राज्य की ओर से पूरा ध्यान रखा जाता था। डॉ० एच० आर० गुप्ता का यह कहना बिल्कुल ठीक है, “वह भारतीय इतिहास के उत्तम शासकों में से एक था।”4

3. “Rightly he may claim to be one of the greatest heroes of India.” Dr. Ganda Singh, Maharaja Ranjit Singh, Quoted from, the Panjab Past and Present (Patiala : Oct. 1980) Vol. XIV, p. 15.
4. “He was one of the best rulers in Indian history.” Dr. H. R. Gupta, History of the Sikhs (New Delhi : 1991) Vol. 5, p. 596.

IV. एक कूटनीतिज्ञ के रूप में
(As a Diplomat)
महाराजा रणजीत सिंह एक सफल कूटनीतिज्ञ था। अपने राजनीतिक जीवन के शुरू में उसने शक्तिशाली मिसल सरदारों के सहयोग से दुर्बल मिसलों पर अधिकार किया। तत्पश्चात् उसने एक-एक करके इन शक्तिशाली मिसलों को भी अपने अधीन कर लिया। वह जिन शासकों को पराजित करता था उन्हें आजीविका के लिए जागीरें भी प्रदान करता था। इसलिए वे महाराजा का विरोध नहीं करते थे। महाराजा ने अपनी कूटनीति से जहाँदद खाँ से अटक का किला बिना युद्ध किए ही प्राप्त कर लिया था। 1835 ई० में जब अफ़गानिस्तान का शासक दोस्त मुहम्मद खाँ आक्रमण करने आया तो महाराजा ने ऐसी चाल चली कि वह लड़े बिना ही युद्ध क्षेत्र से भाग गया।

1809 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से मित्रता करके अपने राजनीतिक विवेक का प्रमाण दिया। यह उसकी दुर्बलता नहीं अपितु उसके राजनीतिक विवेक तथा दूरदर्शिता का प्रमाण था। उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति के संबंध में भी महाराजा ने राजनीतिक समझदारी का प्रमाण दिया। अफ़गानिस्तान पर आक्रमण न करना महाराजा की बुद्धिमत्ता का एक अन्य प्रमाण था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० भगत सिंह के अनुसार,
“कूटनीति में उसे परास्त करना कोई सहज कार्य नहीं था।”5

5. “It was not easy to beat him in diplomacy.” Dr. Bhagat Singh, op. cit., p. 339.

V. पंजाब के इतिहास में उसका स्थान . (HIs Place in the History of the Punjab)
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल भारत अपितु विश्व के महान् शासकों में की जाती है। विभिन्न इतिहासकार महाराजा रणजीत सिंह की तुलना मुग़ल बादशाह अकबर, मराठा शासक शिवाजी, मिस्र के शासक महमत अली एवं फ्रांस के शासक नेपोलियन आदि से करते हैं। इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ इन शासकों से कहीं अधिक थीं। जिस समय महाराजा रणजीत सिंह सिंहासन पर बैठा तो उसके पास केवल नाममात्र का राज्य था। किंतु महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता एवं कुशलता के साथ एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। ऐसा करके उन्होंने सिख साम्राज्य के स्वप्न को साकार किया। महाराजा रणजीत सिंह का शासन प्रबंध भी बहुत उच्चकोटि का था। उनके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। प्रजा के दुःखों को दूर करने के लिए महाराजा सदैव तैयार रहता था तथा प्रायः राज्य का भ्रमण भी किया करता था। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उनके दरबार में सिख, हिंदू, मुसलमान, यूरोपियन इत्यादि सभी धर्मों के लोग उच्च पदों पर नियुक्त थे। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाकर उन्हें एक सूत्र में बाँधा। वह एक महान् दानी भी थे। उन्होंने अपने साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए एक शक्तिशाली सेना का भी निर्माण किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ मित्रता स्थापित करके अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का प्रमाण दिया। इन सभी गुणों के कारण आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह को ‘शेरए-पंजाब’ के नाम से स्मरण करते हैं। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह को पंजाब के इतिहास में एक गौरवमयी स्थान प्राप्त है।
अंत में हम डॉ० एच० आर० गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“एक व्यक्ति, योद्धा, जरनैल, विजेता, प्रशासक, शासक तथा राजनीतिवेत्ता के रूप में रणजीत सिंह को . विश्व के महान् शासकों में उच्च स्थान प्राप्त है।”6

6. “As a man, warrior, general, conqueror, administrator, ruler and diplomat, Ranjit Singh occupies a high position among the greatest sovereigns of the world.” Dr. H.R. Gupta, op. cit., p. 596.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का एक व्यक्ति के रूप में आप कैसे वर्णन करेंगे?
(How do you describe about Maharaja Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की शख्सियत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the personality of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के चरित्र और व्यक्तित्व की तीन विशेषताएँ बताएँ।
(Mention the three characteristics of the character and personality of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह शक्ल-सूरत से अधिक आकर्षक नहीं था, तथापि प्रकृति ने उसे अद्भुत स्मरण शक्ति तथा अदम्य साहस का वरदान देकर इस कमी को पूरा किया। महाराजा रणजीत सिंह का स्वभाव बड़ा दयालु था। वह अपनी प्रजा से बहुत प्यार करता था। उसने अपने शासनकाल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड नहीं दिया था। महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का सच्चा सेवक था। इसके बावजूद उनका अन्य धर्मों के साथ व्यवहार बड़ा सम्मानजनक था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह एक दयालु शासक था । कैसे ? (Maharaja Ranjit Singh was a kind ruler. How ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। अपने शासनकाल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने उन शासकों को जिन्हें युद्ध-भूमि में पराजित किया उन्हें जागीरें तथा पुरस्कार प्रदान किए। महाराजा ने अपने शासनकाल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु-दंड नहीं दिया था। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था। उसकी दया की कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का श्रद्धालु अनुयायी था । अपने पक्ष में तर्क दीजिए।
(Maharaja Ranjit Singh was a devoted follower of Sikhism. Give arguments in your favour.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। वह अपनी विजयों को उस परमात्मा की कृपा समझता था। वह स्वयं को गुरु घर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ कहता था। वह स्वयं को ‘महाराजा’ कहलवाने के स्थान पर ‘सिंह साहिब’ कहलवाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत-से नवीन गुरुद्वारों का निर्माण करवाया। वह तन-मन-धन से सिख धर्म का अनन्य श्रद्धालु था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह एक धर्म-निरपेक्ष शासक थे। कैसे ?
(Maharaja Ranjit Singh was a secular ruler. How ?)
उत्तर-
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। वह अपनी सहिष्णुता की नीति से विभिन्न धर्मों के लोगों के दिल जीतने में सफल रहा। उसके राज्य में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख , हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोगों को अपने रस्मों-रिवाजों की पूरी स्वतंत्रता थी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रशासक के रूप में उल्लेख कीजिए।
(Describe Maharaja Ranjit Singh as an administrator.)
अथवा
एक शासन प्रबंधक के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharaja Ranjit Singh as an administrator ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह सिख पंथ का महान् विजेता था तथा एक उच्चकोटि का शासक प्रबंधक था। उसने प्रशासन को कुशलता से चलाने के उद्देश्य से योग्य व ईमानदार मन्त्रियों को नियुक्त किया गया था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी। गाँव का प्रशासन पंचायत के हाथ में होता था। प्रजा की स्थिति जानने के लिए महाराजा भेष बदल कर राज्य का भ्रमण भी किया करता था। महाराजा रणजीत सिंह ने इसके साम्राज्य की सुरक्षा व विस्तार के लिए शक्तिशाली सेना का भी गठन किया था।

प्रश्न 6.
“महाराजा रणजीत सिंह एक महान् सेनानी एवं विजेता था।” व्याख्या करें।
(“Maharaja Ranjit Singh was a great general and conqueror.” Explain.)
अथवा
“एक सैनिक और जरनैल के रूप” में महाराजा रणजीत सिंह के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Maharaja Ranjit Singh as a Soldier and a General ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक महान् सेनापति एवं विजेता था। उसने अपनी योग्यता तथा वीरता से अपने राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। उसके राज्य में लाहौर, अमृतसर, स्यिालकोट, काँगड़ा, गुजरात जम्मू, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश शामिल थे। महाराजा की विजयों के कारण उसका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला हुआ था।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह को शेरे-पंजाब क्यों कहा जाता है ? (Why Maharaja Ranjit Singh is called Sher-i-Punjab ?)
अथवा
आप रणजीत सिंह को इतिहास में क्या स्थान देंगे? उनको शेरे-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
(What place would you assign in History to Ranjit Singh ? Why is he called Sher-iPunjab ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक सफल विजेता होने के साथ-साथ वह एक कुशल प्रबंधक भी सिद्ध हुआ। उसके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना था। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई थी। उसने सेना का पश्चिमीकरण किया। उसने अंग्रेजों के साथ मित्रता करके पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित होने से बचाए रखा। इन सभी गुणों के कारण रणजीत सिंह को शेर-ए-पंजाब कहा जाता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह की कोई एक विशेषता बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का स्वभाव बड़ा दयालु था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को किस घोड़े से विशेष लगाव था ?
उत्तर-
लैली।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह सिख-धर्म का श्रद्धालु अनुयायी था। इसके संबंध में कोई एक प्रमाण दीजिए।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को क्या कहते थे ?
उत्तर-
सरकार-ए-खालसा।

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह अपने आप को क्या कह कर बुलाते थे ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह अपने आप को क्या कहा करता था ?
उत्तर-
सिख पंथ का कूकर।

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प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के दरबार को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
दरबार-ए-खालसा।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के एक गैर-सिख मंत्री का नाम बताएँ।
उत्तर-
फकीर अज़ीज़-उद्दीन।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी इतिहासकार का नाम बताएँ।
उत्तर-
सोहन लाल सूरी।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह को एक महान् सेनानायक क्यों माना जाता है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को किसी भी लड़ाई में पराजय का सामना नहीं करना पड़ा था।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह एक सफल कूटनीतिज्ञ था। इसके संबंध में कोई एक प्रमाण दीजिए।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने अफ़गानिस्तान पर अधिकार न करके अपनी सूझ-बूझ का प्रमाण दिया।

प्रश्न 11.
पंजाब के किस शासक को शेर-ए-पंजाब के नाम से याद किया जाता है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को।

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प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह को शेर-ए-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को विशाल सिख साम्राज्य तथा उत्तम शासन व्यवस्था की स्थापना की।

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह को पारस क्यों कहा जाता था ?
उत्तर-
क्योंकि वह अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखता था।

(ii) रिक्त स्थान भरें । (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल सूरत………नहीं थी।
उत्तर-
(आकर्षक)

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को सबसे अधिक……..नामक घोड़े से प्यार था।
उत्तर-
(लैली)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह स्वयं को सिख पंथ का……..समझते थे।
उत्तर-
(कूकर)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को……..कहते थे। .
उत्तर-
(सरकार-ए-खालसा)

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह अपने दरबार को………..कहते थे।
उत्तर-
(दरबार खालसा जी)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह शराब के बहुत………थे।
उत्तर-
(शौकीन)

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह को……….के नाम से याद किया जाता है।
उत्तर-
(शेर-ए-पंजाब)

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(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
महाराजा सिंह बड़ा मेहनती तथा फुर्तीला था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को लैली नामक घोड़े से बहुत प्यार था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह अपने आप को सिख धर्म का कूकर समझते थे।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहते थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह को केवल सिख धर्म के साथ प्रेम था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह शराब के साथ बहुत घृणा करते थे।
उत्तर-
गलत

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह न केवल एक महान् विजेता थे बल्कि एक उच्च कोटि के शासन प्रबंधक भी थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह को आज भी लोग शेर-ए-पंजाब के नाम से याद करते हैं।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह की क्या विशेषता थी ?
(i) वह बहुत परिश्रमी और सक्रिय था
(ii) उसका स्वभाव बहुत दयालु था
(iii) वह अनपढ़ किंतु बुद्धिमान था
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह को किस घोड़े से विशेष लगाव था ?
(i) लैली
(ii) सैली
(iii) चेतक
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को क्या कहकर बुलाता था ?
(i) सरकार-ए-आम
(ii) सरकार-ए-खास
(iii) सरकार-ए-खालसा
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के दरबार का सबसे प्रसिद्ध विद्वान् कौन था ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) फ़कीर अज़ीजुद्दीन
(iii) राजा ध्यान सिंह
(iv) दीवान मोहकम चंद।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 5.
पंजाब के कौन-से शासक को शेरे-पंजाब के नाम से याद किया जाता है ?
(i) महाराजा रणजीत सिंह को
(ii) मझराजा दलीप सिंह को
(iii) महाराजा शेर सिंह को
(iv) महाराजा खड़क सिंह को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ‘शाही मोहर’ पर कौन-से शब्द अंकित थे ?
(i) नानक सहाय
(ii) अकाल सहाय
(iii) गोबिंद सहाय
(iv) तेग़ सहाय।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का एक व्यक्ति के रूप में आप कैसे वर्णन करेंगे ? (How do you describe about Maharaja Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Ranjit Singh as a man ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आचरण एवं व्यक्तित्व का वर्णन करें। (Write about the character and personality of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह चाहे अनपढ़ थे, परंतु वह बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। उनको हज़ारों गाँवों के नाम तथा उनकी भौगोलिक स्थिति मौखिक रूप से स्मरण थी। वह जिस व्यक्ति को एक बार देख लेते उसको कई वर्षों बाद भी पहचान लेते थे। महाराजा रणजीत सिंह का स्वभाव बड़ा दयालु था। वह अपनी प्रजा से बहुत प्यार करते थे। उन्होंने अपने शत्रुओं से कभी भी निर्दयतापूर्वक व्यवहार नहीं किया था। महाराजा ने अपने शासन काल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड नहीं दिया था। महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म के सच्चे सेवक थे। वह अपना प्रतिदिन का कार्य प्रारंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनते तथा अरदास करते थे। वह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहते थे। उन्होंने नानक सहाय और गोबिंद सहाय नाम के सिक्के जारी किए। उन्होंने गुरुद्वारों को भारी दान दिया। इसके बावजूद महाराजा रणजीत सिंह का अन्य धर्मों के साथ व्यवहार रिवाज मनाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। महाराजा अन्य धर्म के लोगों को भी दिल खोल कर दान दिया करते थे।

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प्रश्न 2.
एक मनुष्य के रूप में महाराजा रणजीत सिंह की छः विशेषताएँ क्या थी ? (What were the six features of Maharaja Ranjit Singh as a man ?),
उत्तर-
1. शक्ल सूरत-महाराजा रणजीत सिंह की शक्ल-सूरत अधिक आकर्षक नहीं थी। उसका कद मध्यम तथा शरीर पतला था। बचपन में चेचक हो जाने के कारण उसकी एक आँख भी जाती रही थी। परंतु महाराजा के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि कोई भी भेंटकर्ता उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।

2. परिश्रमी एवं सक्रिय—महाराजा रणजीत सिंह बहुत परिश्रमी एवं सक्रिय व्यक्ति था। महाराजा सुबह से लेकर रात को देर तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था। वह राज्य के बड़े-से-बड़े कार्य से लेकर लघु-से-लघु कार्य की ओर व्यक्तिगत ध्यान देता था।

3. साहसी एवं वीर-महाराजा रणजीत सिंह बहुत ही साहसी एवं वीर व्यक्ति था। उसे बाल्यकाल से ही युद्धों में जाने, शिकार खेलने, तलवार चलाने और घुड़सवारी करने का बहुत शौक था। वह भयंकर लड़ाइयों के समय भी बिल्कुल घबराता नहीं था अपितु युद्ध में प्रथम कतार में लड़ता था।

4. दयालु स्वभाव-महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। महाराजा ने कभी भी अपने शत्रुओं के साथ भी अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं किया। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था।

5. सिख-धर्म का श्रद्धालु अनुयायी-महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। वह स्वयं को . गुरुघर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ और दरबार को ‘दरबार खालसा जी’ कहता था।

6. शिक्षा का संरक्षक-महाराजा रणजीत सिंह यद्यपि स्वयं अनपढ़ था। परंतु उसने शिक्षा के प्रसार के लिए अनेक स्कूल खोले। आपने फ़ारसी, उर्दू, हिंदी तथा गुरमुखी पढ़ाने वाली संस्थाओं को अनुदान तथा जागीरें प्रदान की।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह एक दयालु शासक था। कैसे ? (Maharaja Ranjit Singh was a kind ruler. How ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपनी दया के कारण प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। अपने शासनकाल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने सिख मिसलदारों, राजपूत राजाओं, पठान शासकों तथा अफ़गान सम्राटों को एक-एक करके विजित किया। आश्चर्य की बात यह है कि महाराजा ने कभी भी अपने शत्रुओं के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार नहीं किया। उस समय काबुल तथा दिल्ली के सम्राट् जो सिंहासन के स्वामी बनते रहे, वे न केवल अन्य निकट दशा में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ते रहे। ऐसे समय लाहौर के इस शासक ने जिन्हें युद्ध-भूमि में पराजित किया, न केवल गले से लगाया, बल्कि उनकी संतान को भी जागीरें तथा पुरस्कार प्रदान किए। महाराजा ने अपने शासनकाल के दौरान किसी भी अपराधी को मृत्यु-दंड नहीं दिया था। वह निर्धनों, पीड़ितों तथा कृषकों की सहायता के लिए प्रत्येक क्षण तैयार रहता था। उसकी दया की कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का श्रद्धालु अनुयायी था। अपने पक्ष में तर्क दीजिए।
(Maharaja Ranjit Singh was a devoted follower of Sikhism. Give arguments in your favour.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी की एक कलगी अपने तोशेखाने में रखी हुई थी जिसको छूना वह अपने लिए सौभाग्य मानता था। वह अपनी विजयों को उस परमात्मा की कृपा समझता था। इन विजयों के लिए धन्यवाद हेतु वह दरबार साहिब अमृतसर जाकर भारी चढ़ावा चढ़ाता था। वह स्वयं को गुरु घर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ कहता था। वह स्वयं को ‘महाराजा’ कहलवाने के स्थान पर ‘सिंह साहिब’ कहलवाता था। उसके सिक्कों पर ‘नानक सहाय’ तथा ‘गोबिंद सहाय’ के शब्द अंकित थे। उसकी शाही मोहर पर ‘अकाल सहाय’ शब्द अंकित थे। सेना में ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह’ का जय घोष किया जाता था। सरकारी कार्यों के लिए गुरु ग्रंथ साहिब के सम्मुख शपथ दिलाई जाती थी। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत-से नवीन गुरुद्वारों का निर्माण करवाया तथा उनकी देख-रेख के लिए बड़ी-बड़ी जागीरें दीं। संक्षेप में, कहें तो वह तन-मन-धन से सिख धर्म का अनन्य श्रद्धालु था।

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह एक धर्म-निरपेक्ष शासक थे। कैसे ? (Maharaja Ranjit Singh was a Secular ruler. How ?)
उत्तर-
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। वह धार्मिक पक्षपात तथा साँप्रदायिकता से कोसों दूर था। वह यह बात भली-भाँति जानता था कि एक शक्तिशाली तथा चिरस्थाई साम्राज्य की स्थापना के लिए सभी धर्मों के लोगों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। वह अपनी सहिष्णुता की नीति से विभिन्न धर्मों के लोगों के दिल जीतने में सफल रहा। उसके राज्य में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख, हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उदाहरणतया उसका विदेश मंत्री फकीर अजीज-उद्दीन मुसलमान, प्रधानमंत्री ध्यान सिंह डोगरा, वित्त मंत्री दीवान भवानी दास और सेनापति मिसर दीवान चंद हिंदू थे। इसी तरह जनरल मैतूरा, कोर्ट, गार्डनर इत्यादि यूरोपीय थे। दान देने के विषय में भी महाराजा किसी धर्म से किसी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं करता था। उसने हिंदू मंदिरों, मुस्लिम मस्जिदों तथा मकबरों की देख-रेख के लिए पर्याप्त धन दिया। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोगों को अपने रस्मो-रिवाज की पूरी स्वतंत्रता थी।

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प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रशासक के रूप में उल्लेख कीजिए।
(Describe Maharaja Ranjit Singh as an administrator.)
अथवा
एक शासन प्रबंधक के रूप में महाराजा रणजीत सिंह के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Ranjit Singh as an administrator ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक उच्च कोटि का शासन प्रबंधक था। उसके शासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण था। प्रशासन में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई योग्य तथा ईमानदार मंत्री नियुक्त किए थे। प्रशासन को कुशलता से चलाने के लिए महाराजा ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभक्त किया हुआ था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई मौजा अथवा गाँव थी। गाँव का प्रशासन पंचायत के हाथ में होता था। महाराजा पंचायतों के कार्य में कभी हस्तक्षेप नहीं करता था। वह प्रजा हित को कभी दृष्टिविगतं नहीं होने देता था। उसने राज्य के अधिकारियों को भी यह आदेश दिया था कि वे जन हित के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की स्थिति जानने के लिए महाराजा प्रायः भेष बदल कर राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेशों की अवहेलना करने वाले अधिकारियों को दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी गई थीं। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय में प्रजा बड़ी समृद्ध थी।

प्रश्न 7.
“महाराजा रणजीत सिंह एक महान् सेनानी एवं विजेता था।” व्याख्या करें। (“Maharaja Ranjit Singh was a great general and conqueror.” Explain.).
अथवा
“एक सैनिक और जरनैल के रूप” में महाराजा रणजीत सिंह के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Maharaja Ranjit Singh as a Soldier and a General ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह अपने समय का एक महान् सेनानी था। अपने जीवन में उसने जितने भी युद्ध किए, किसी में भी पराजय का मुख नहीं देखा। वह बड़ी-से-बड़ी विपदा आने पर भी नहीं घबराता था। महाराजा अपने सैनिकों के कल्याण का पूरा ध्यान रखता था। बदले में वे भी महाराजा के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते थे। महान् सेनानी होने के साथ-साथ महाराजा रणजीत सिंह एक महान् विजेता भी था। 1797 ई० में जब रणजीत सिंह शुकरचकिया मिसल की गद्दी पर विराजमान हुआ तो उसके अधीन बहुत कम क्षेत्र था। उसने अपनी योग्यता तथा वीरता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। उसके राज्य में लाहौर, अमृतसर, कसूर, स्यालकोट, काँगड़ा, गुजरात, जम्मू, अटक, मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर जैसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश सम्मिलित थे। इन प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह को कई भयंकर युद्ध लड़ने पड़े। महाराजा की विजयों के कारण उसका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक और पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला हुआ था।

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प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह को शेरे पंजाब क्यों कहा जाता है ? (Why is Maharaja Ranjit Singh called Sher-i-Punjab ?)
अथवा
आप रणजीत सिंह को इतिहास में क्या स्थान देंगे ? उनको शेरे-पंजाब क्यों कहा जाता है ?
(What place would you assign in history to Ranjit Singh ? Why is he called Sher-iPunjab ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल भारत अपितु विश्व के महान् शासकों में की जाती है। विभिन्न इतिहासकार महाराजा रणजीत सिंह की तुलना मुग़ल बादशाह अकबर, मराठा शासक शिवाजी, मिस्र के शासक मेहमत अली एवं फ्राँस के शासक नेपोलियन आदि से करते हैं। इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ इन शासकों से कहीं अधिक थीं। जिस समय महाराजा रणजीत सिंह सिंहासन पर बैठा तो उसके पास केवल नाममात्र का राज्य था। किंतु महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता एवं कुशलता के साथ एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। ऐसा करके उन्होंने सिख साम्राज्य के स्वप्न को साकार किया। महाराजा रणजीत सिंह का शासन प्रबंध भी बहुत उच्चकोटि का था। उसके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। प्रजा के दुःखों को दूर करने के लिए महाराजा सदैव तैयार रहता था तथा प्रायः राज्य का भ्रमण भी किया करता था महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उनके दरबार में सिख, हिंदू, मुसलमान, यूरोपियन इत्यादि सभी धर्मों के लोग उच्च पदों पर नियुक्त थे। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपना कर उन्हें एक सूत्र में बाँधा। वह एक महान् दानी भी थे। उन्होंने अपने साम्राज्य की सुरक्षा एवं विस्तार के लिए एक शक्तिशाली सेना का भी निर्माण किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ मित्रता स्थापित करके अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का प्रमाण दिया। इन सभी गुणों के कारण आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह को ‘शेर-ए-पंजाब’ के नाम से स्मरण करते हैं। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह को पंजाब के इतिहास में एक गौरवमयी स्थान प्राप्त है।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था। वह अपना प्रतिदिन का कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ सुनता था तथा अरदास करता था। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी की एक कलगी अपने तोशेखाने में रखी हुई थी जिसको छूना वह अपने लिए सौभाग्य मानता था। वह अपनी विजयों को उस अकाल पुरख की कृपा समझता था। इन विजयों के लिए धन्यवाद हेतु वह दरबार साहिब अमृतसर जाकर भारी चढ़ावा चढ़ाता था। वह स्वयं को गुरुघर का और सिख पंथ का ‘कूकर’ मानता था। वह अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ और दरबार को ‘दरबार खालसा जी’ कहता था। वह स्वयं को ‘महाराजा’ कहलवाने के स्थान पर ‘सिंह साहिब’ कहलवाता था। उसके सिक्कों पर ‘नानक सहाय’ तथा ‘गोबिंद सहाय’ शब्द अंकित थे। उसकी शाही मोहर पर ‘अकाल सहाय’ शब्द अंकित थे।

  1. महाराजा रणजीत सिंह को सिख धर्म में अटल विश्वास था ? कोई एक उदाहरण दें।
  2. कूकर से क्या भाव है ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को क्या कहता था ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह की शाही मोहर पर कौन-से शब्द अंकित थे ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के सिक्कों पर ………… तथा ……….. के शब्द अंकित थे।

उत्तर-

  1. वह अपना दैनिक कार्य आरंभ करने से पूर्व गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ सुनता तथा अरदास करता था।
  2. कूकर से भाव है-दास एवं नौकर।
  3. महाराजा रणजीत सिंह अपनी सरकार को सरकार-ए-खालसा कहता था।
  4. महाराजा रणजीत सिंह की शाही मोहर पर अकाल सहाय शब्द अंकित थे।
  5. नानक सहाय, गोबिंद सहाय।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 21 महाराजा रणजीत सिंह का आचरण और व्यक्तित्व

2
यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था फिर भी वह अन्य धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। वह धार्मिक पक्षपात तथा सांप्रदायिकता से कोसों दूर था। वह यह बात भली-भाँति जानता था कि एक शक्तिशाली तथा चिरस्थाई साम्राज्य की स्थापना के लिए सभी धर्मों के लोगों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। वह अपनी सहिष्णुता की नीति से विभिन्न धर्मों के लोगों के दिल जीतने में सफल रहा। उसके राज्य में नौकरियाँ योग्यता के आधार पर दी जाती थीं। उसके दरबार में उच्च पदों पर सिख, हिंदू, मुसलमान, डोगरे तथा यूरोपीय नियुक्त थे। उदाहरणतया उसका विदेश मंत्री फकीर अज़ीज-उद्दीन मुसलमान, प्रधानमंत्री ध्यान सिंह डोगरा, वित्त मंत्री दीवान भवानी दास और सेनापति मिसर दीवान चंद हिंदू थे। इसी तरह जनरल वेंतूरा, कोर्ट, गार्डनर इत्यादि यूरोपीय थे।

  1. महाराजा रणजीत सिंह एक सहनशील शासक था। कैसे ?
  2. ध्यान सिंह डोगरा कौन था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
  4. दीवान भवानी दास कौन था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह का सेनापति ………… था।

उत्तर-

  1. वह सभी धर्मों का आदर करता था।
  2. ध्यान सिंह डोगरा महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री था।
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री फ़कीर अज़ीजुद्दीन था।
  4. दीवान भवानी दास महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री था।
  5. मिसर दीवान चंद।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
पुराणों की हिंदू धर्म में विशेषता और इसके प्रमुख लक्षणों की जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Puranas in Hinduism and their basic salient features.)
अथवा
पुराण साहित्य के प्रमुख लक्षणों और इनका हिंदू धर्म में महत्त्व के बारे में संक्षेप में और भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the salient features of Purana literature and its importance in Hinduism.)
अथवा
पुराणों से क्या भाव है ? विभिन्न पुराणों का संक्षेप में वर्णन दो। (What is meant by Puranas ? Give a brief account of the various Puranas.)
अथवा
प्रसिद्ध पुराणों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Give a brief account of important Puranas.)
अथवा
पुराणों की विषय-वस्तु एवं महत्ता के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the subject-matter of Puranas.)
अथवा
पुराणों की रचना किस प्रकार हुई ? जानकारी दें। (Explain how Puranas were written ?)
अथवा
पुराण साहित्य के मुख्य विषयों के बारे में जानकारी दें। (Describe the main contents of Purana literature.)
अथवा
पौराणिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Discuss the importance of Pauranic Literature.)
अथवा
पुराणों बारे संक्षिप्त जानकारी दें।
(Write in brief about the Puranas.)
पथवा प्रसिद्ध पाँच पुराणों के बारे में जानकारी दें। (Give information about famous five Puranas.)
उत्तर-
पुराण हिंदू धर्म के पुरातन ग्रंथ हैं। पुराण से भाव है प्राचीन। ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। ये कब लिखे गये इस का कोई पक्का उत्तर अभी तक नहीं मिला है। ये किसी एक शताब्दी की रचना नहीं हैं। इनका वर्णन अथर्ववेद, उपनिषदों और महाकाव्यों आदि में आता है। समय-समय पर इनमें तबदीलियाँ की जाती रहीं और नये अध्यायों को जोड़ा जाता रहा। गुप्त काल में पुराणों को अंतिम रूप दिया गया। इस तरह पुराणों की रचना अनेक लेखकों द्वारा की गई है। पुराणों को “पाँचवां वेद” कहा जाता था और शूद्रों को इनको पढ़ने की आज्ञा दी गई थी।
पुराणों की कुल संख्या 18 है। यह पुराण तीन भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 6 पुराण आते हैं और यह शिव, वैष्णव और ब्रह्म पुराण कहलाते हैं।
इनके भाग इस तरह हैं :—

1. शिव पुराण—

  • वायु,
  • लिंग,
  • स्कंद,
  • अग्नि,
  • मत्स्य और
  • कूर्म।

2. वैष्णव पुराण—

  • विष्णु,
  • भगवद्,
  • नारद,
  • गरुड़,
  • पद्म और
  • वराह

3. ब्रह्म पुराण—

  • ब्रह्मा,
  • ब्रह्मांड,
  • ब्रह्मावैव्रत,
  • मारकंडेय,
  • भविष्य और
  • वामन।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। मिथिहास वह कथा कहानियाँ होती हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं होता परंतु वे लोगों में बहुत प्रचलित होती हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा होता था। ये भाग हैं-

(1) सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
(2) प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
(3) वंश-इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
(4) मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
(5) वंशानचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था। यह बात यहाँ याद रखने योग्य है कि हमें मूल पुराण उपलब्ध नहीं हैं। ये पुराण हमें आजकल जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं उनमें यह जरूरी नहीं कि उनमें दिया गया वर्णन इस बाँट अनुसार हो। पुराणों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है :—

  1. ब्रह्म पुराण (The Brahman Purana)-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं। इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण, आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण (The Padma Purana)-यह सबसे विशाल पुराण है। इस में लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, भूमि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इन के अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है। इस में अनेकों मिथिहासिक कथायें भी दर्ज हैं।
  3. विष्णु पुराण (The Vishnu Purana)-इस पुराण में 23,000 श्लोक दिये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि विष्णु ही सर्वोच्च देवता है। उसने ही संसार की रचना की और इसका पालनहार है। इसमें दी गई कथाओं में प्रह्लाद और ध्रुव की कथायें प्रसिद्ध हैं। इस में इस संसार और स्वर्ग के लोगों की अनेकों विचित्र बातों का भी वर्णन है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है। पाँचवें और अंतिम खंड में कृष्ण की अनेक अलौकिक लीलाओं की चर्चा की गई है।
  4. वायु पुराण (The Vayu Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक हैं । इस में शिव की महिमा के साथ संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इस लिए इस को शिव पुराण भी कहते हैं। इस में अनेक वंशों का वर्णन किया गया है। प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण इन की बहुत ऐतिहासिक महत्ता है। इसमें दिया गया भूगौलिक वर्णन भी बड़ा लाभदायक है।
  5. भगवद् पुराण (The Bhagavata Purana)-विष्णु देवता के साथ संबंधित पुराणों में भगवद् पुराण सब से अधिक लोकप्रिय है। इस में कृष्ण के जीवन से संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध और साक्ष्य दर्शन के संस्थापक कपिल को विष्णु का अवतार बताया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इस पुराण का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
  6. नारद पुराण (The Narada Purana)-इस पुराण में 25,000 श्लोक दिये गये हैं। यह विष्ण भक्ति से संबंधित पुराण है। इस में प्राचीन कालीन भारत में प्रचलित विद्या के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इस में वंशों का विवरण नहीं मिलता।
  7. मारकंडेय पुराण (The Markandeya Purana)-इस पुराण में 900 श्लोक दिये गये हैं। इस में वैदिक देवताओं इंद्र, सूर्य और अग्नि आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है।
  8. अग्नि पुराण (The Agni Purana)-इस पुराण में 15,400 श्लोक दिये गये हैं। एक परंपरा के अनुसार इस पुराण को अग्नि देवता ने आप ऋषि विशिष्ट को सुनाया था। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे युद्धनीति, यज्ञ विधि, ज्योतिष, भूगोल, राजनीति, कानून, छंद शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, व्रत, दान, श्राद्ध और विवाह आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। निस्संदेह यह पुराण एक विश्वकोष की तरह
  9. भविष्य पुराण (The Bhavishya Purana)—इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में ब्रह्म, विष्ण, शिव और सूर्य देवताओं से संबंधित अनेक कथायें दी गई हैं। इस में अनेक प्राचीन राजवंशों और ऋषियों का भी वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक कर्मकांडों की भी चर्चा की गई है।
  10. ब्रह्मावैव्रत पुराण (The Brahmavaivarta Purana)—इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण में ब्रह्म को इस संसार का रचयिता कहा गया है। इस में कृष्ण के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में राधा का वर्णन भी आता है। इस में गणेश को कृष्ण का अवतार कहा गया है।
  11. लिंग पुराण (The Linga Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक दिये गये हैं। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में शिव अवतारों, व्रतों तथा तीर्थों का वर्णन किया गया है। इस में लिंग की शिव के रूप में उपासना का उपदेश दिया गया है।
  12. वराह पुराण (The Varaha Purana)-इस में 10,700 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की तरह वराह अवतार के रूप में पूजा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में शिव, दुर्गा और गणेश से संबंधित वर्णन . भी दिया गया है।
  13. स्कंद पुराण (The Skanda Purana)—यह एक विशाल पुराण था। इस में 51,000 श्लोकों का वर्णन किया गया था। यह पुराण आजकल उपलब्ध नहीं है। इस के बारे में जानकारी अन्य ग्रंथों में दी गई उदाहरणों से प्राप्त होती है। इस पुराण में मुख्य तौर पर शिव की पूजा के बारे बताया गया है। इस के अतिरिक्त इस में भारत के अनेक तीर्थ स्थानों और मंदिरों के बारे बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।
  14. वामन पुराण (The Vamana Purana)इस पुराण में 10,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण के अधिकतर भाग में शिव, विष्णु और गणेश आदि देवताओं की पूजा के बारे वर्णन किया गया है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का भी वर्णन मिलता है।
  15. कूर्म पुराण (The Kurma Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु के कुर्म अवतार की पूजा का वर्णन है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का वर्णन भी मिलता है।
  16. मत्स्य पुराण (The Matsya Purana)-इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। यह पुराण मत्स्य (मछली) तथा मनु के मध्य एक वार्तालाप है। जब इस संसार का विनाश हुआ तब इस मछली ने मनु की सुरक्षा की थी। इस में अनेक प्रसिद्ध राजवंशों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक मेलों और तीर्थ स्थानों का भी वर्णन है।
  17. गरुढ़ पुराण (The Garuda Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की पूजा से संबंधित अनेक विधियों का वर्णन है। इस में यज्ञ विद्या, छंद शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, खगोल विज्ञान, शारीरिक विज्ञान और भूत-प्रेतों के बारे जानकारी दी गई है। इस में अंतिम संस्कार संबंधी, सती संबंधी और पितर श्राद्धों के संबंध में विस्तावपूर्वक जानकारी दी गई है।
  18. ब्रह्माण्ड पुराण (The Brahmanda Purana)—इस पुराण में 12,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण को ब्रह्मा ने पढ़ के सुनाया था। इस में अनेक राजवंशों और तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है।

पुराणों का महत्त्व (Importance of the Puranas)-
पुराण भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र पेश करते हैं। आज के हिंदू धर्म में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वह इन पुराणों की ही देन हैं । इन पुराणों में हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं की पूजा विधियों, व्रतों, श्राद्धों, जन्म, विवाह और मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों के बारे भरपूर प्रकाश डाला गया है। मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद की कल्पना इन पुराणों की ही देन है। इन पुराणों ने भारत में पितर पूजा के रिवाज को अधिक प्रचलित किया। लोगों को दान देने के लिए प्रेरित किया गया। पुराणों में दिये गये प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक पक्ष से काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है। इन में तीर्थ स्थानों और मंदिरों के विवरण से हमें उस समय की कला के बारे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन के अतिरिक्त ये पुराण प्राचीन कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्था के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हैं। निस्संदेह यदि पुराणों को भारतीय संस्कृति का विश्वकोष कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी। डॉक्टर आर० सी० हाज़रा का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“पुराणों ने हिंदुओं के जीवन में दो हज़ार से अधिक वर्षों तक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने आम लोगों तक उच्च दर्जे के ऋषियों के विचारों को बिना किसी मतभेद के पहुँचाया। इन ग्रंथों के लेखकों ने प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए ऐसे नुस्खे बताये जो उनके सामाजिक और धार्मिक जीवन के लिए लाभदायक सिद्ध हों।”1

1. “The Puranas have played a very important part in the life of the Hindus for more than two thousand years. They have brought home to the common man the wisdom of the saints of the highest order without creating any discord. The authors of these works took every individual into consideration and made such prescriptions as would benefit him in his social and religious life.” Dr. R. C. Hazra, The Cultural Heritage of India (Colcutta : 1975) Vol. 2, p. 269.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 2.
उपनिषदों की विषयवस्तु और महत्त्व के विषय में संक्षिप्त भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the subject matter and importance of Upanishads.)
अथवा
‘उपनिषद्’ शब्द के अर्थ तथा महत्त्व के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Give a brief account of importance and meaning of Upanishad.)
अथवा
उपनिषदों की विषय-वस्तु एवं महत्ता के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the contents of Upanishads and their importance.)
अथवा
उपनिषदों का विषय-वस्तु क्या है ? उल्लेख करें।
(Explain the subject matter of Upanishads.)
अथवा
उपनिषद् साहित बारे भावपूर्ण संक्षिप्त जानकारी दें।
(Describe briefly meaningful about the Upanishad literature.)
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं पर एक नोट लिखो।
(Write a short note on the main teachings of the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं का वर्णन करो।
(Discuss the main teachings of the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं के बारे आप क्या जानते हो ?
(What do you know about the main teachings of the Upanishads ?)
अथवा
उपनिषदों के प्रमुख सिद्धांतों के बारे आप क्या जानते हो ?
(What do you know about the main doctrines of the Upanishads ?)
अथवा
उपनिषद् से क्या भाव है ? इनकी मुख्य विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन करो।
(What is meant by Upanishads ? Give a brief account of their main features.)
अथवा
उपनिषदों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Give brief introduction about the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में जानकारी दें। दो प्रथम उपनिषदों के नाम बताएँ।
(Write about the main teachings of the Upanishads. Name two earliest Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं पर नोट लिखो ।
(Write a note on the main teachings of the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं दो उपनिषदों के बारे में भावपूर्ण जानकारी दें।
(What is meant by Upanishads ? Describe any two of them in brief.)
अथवा
उपनिषद से क्या भाव है ? कोई एक प्रसिद्ध उपनिषद के बारे में जानकारी दीजिए।
(What is meant by Upanishads ? Describe any one popular Upanishads.)
उत्तर-
भारतीय दर्शन प्रणाली का वास्तविक आरंभ उपनिषदों से माना जाता है। उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें दुनिया के सबसे ऊँचे आध्यात्मिक ज्ञान के मोती पिरोये हुए हैं। इन मोतियों की चमक से मनुष्य का आंतरिक अंधेरा दूर हो जाता है और ऐसा प्रकाश होता है जिस के आगे सूर्य का प्रकाश भी कम हो जाता है। यदि उपनिषदों को भारतीय दर्शन का मूल स्रोत कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी। उपनिषद् तीन शब्दों के मेल से बना है। ‘उप’ से भाव है नज़दीक, ‘नि’ से भाव है श्रद्धा और ‘षद्’ से भाव है बैठना। इस तरह उपनिषद् से भाव है श्रद्धा भाव से नज़दीक बैठना। वास्तव में उपनिषद् एक ऐसा ज्ञान है जो एक गुरु अपने पास (समीप) बैठे हुए शिष्य को गुप्त रूप से प्रदान करता है। उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है क्योंकि इनको वेदों का अंतिम भाग समझा जाता है। वेदांत से भाव अंतिम ज्ञान है। इसका भाव यह है कि उपनिषदों में ऐसा ज्ञान दिया गया है जिस के बाद और अन्य कोई ज्ञान नहीं है। उपनिषदों की रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 550 ई० पू० से 100 ई०पू० के मध्य की गई। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। इनमें से ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मुंडुक्य, तैतरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, ब्रहदआरण्यक, श्वेताश्वतर नामों के उपनिषदों को सब से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। छांदोगय एवं ब्रहदआरण्यक नामक उपनिषदों की रचना सबसे पहले हुई थी। इनकी रचना 550 ई० पू० से 450 ई० पू० के मध्य हुई। उपनिषदों की मुख्य शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं—

1. आत्मा का स्वरूप (Nature of Self)-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। आत्मा नित भी है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता।

2. ब्रह्म का स्वरूप (Nature of the Absolute)-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उस के ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

3. आत्मा और ब्रह्म की अभेदता (Identity of Self and the Absolute)-उपनिषदों में, ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं किया। वे इनको एक ही मूल तत्त्व समझते थे। इस कारण वे उपनिषदों में बहुत बार आत्मा की जगह ब्रह्म और ब्रह्म शब्द की जगह आत्मा का प्रयोग करते हैं। भेद केवल शब्दों का है परंतु अर्थ अथवा तत्त्व का भेद नहीं है। जगत् का मूल तत्त्व एक ही है। उसी को कभी आत्मा और कभी ब्रह्म कहा जाता है। जैसे कोई नदी सागर में मिलकर एक हो जाती है ठीक उसी तरह आत्मा परमात्मा में मिलकर एक हो जाती है। क्योंकि आत्मा और ब्रह्म एक ही है इस लिए उनमें भेद नहीं किया जा सकता। संक्षेप में एक बूंद में सागर और सागर में बूंद को देखना ही उपनिषदक दर्शन है।

4. सृष्टि की रचना (Creation of the World)-उपनिषदों में सृष्टि की रचना संबंधी अनेक वर्णन मिलते हैं। इन में बताया गया है कि ब्रह्म ने सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना से पहले ब्रह्म अपने आप में मौजूद था। फिर ब्रह्म ने सोचा कि वह अनेक रूपों में प्रगट हो जाये। परिणामस्वरूप उसने तेज़ पैदा किया। उत्पन्न होने वाले तेज़ ने भी संकल्प किया कि मैं अनेक रूपों वाला हो जाऊँ। फलस्वरूप उसने जल की सृजना की। जल ने अनेक जीव जंतु और अन्न को पैदा किया। इस तरह सृष्टि की रचना आरंभ हुई।

5. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)–उपनिषद् कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उस द्वारा किये गये कर्मों का फल ज़रूर भुगतना पड़ता है। जैसे कर्म हमने पिछले जन्म में किये हैं वैसा फल हमें इस जीवन में प्राप्त होगा। इस जन्म में किये गये कर्मों का फल हमें अगले जीवन में प्राप्त होगा। इसलिए हमारे जीवन के सुख अथवा दुःख हमारे किये गये कर्मों पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए हमें सदा शुभ कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए और पाप कर्मों से दूर रहना चाहिए। मनुष्य अपने बुरे कर्मों के कारण परमात्मा से बिछड़ा रहता है और वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आता रहता है।

6. नैतिक गुण (Moral Virtues)-उपनिषदों में मनुष्यों के नैतिक गुणों पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इन गुणों को अपना कर मनुष्य इस भवसागर से पार हो सकता है। ये गुण हैं—

  • सदा सच बोलो
  • सभी जीवों से प्यार करो।
  • दूसरों के दुःखों को अपना दुःख समझें।
  • अहंकार, लालच और बुरी इच्छाओं से कोसों दूर रहो।
  • चोरी और ठगी आदि न करो।
  • धर्म का पालन करो।
  • वेदों के अध्ययन, शिक्षा, देवताओं और पितरों की ओर लापरवाही न दिखाओ।
  • लोक कल्याण की ओर लापरवाही का प्रयोग न करो।
  • अध्यापक का पूरा आदर करो।

7. माया (Maya) उपनिषदों में पहली बार माया के सिद्धाँत पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस जगत् और उसके पदार्थों को माया कहा गया है। अज्ञानी पुरुष जगत् के आकर्षक पदार्थों के पीछे दौड़ते हैं। इनको प्राप्त करने के उद्देश्य से वे बुरे से बुरा ढंग अपनाने से भी नहीं डरते। इस माया के कारण उस की बुद्धि पर पर्दा पड़ा रहता है और वह हमेशा जन्म-मरण के चक्रों में फिरता रहता है। ज्ञानी पुरुष माया के रहस्य को समझते हैं नतीजे के तौर पर वह ज़हर रूपी माया से प्यार नहीं करते। ऐसे व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

8. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष मनुष्य के ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है जिस पर पहुँच कर मनुष्य सब कुछ जान लेता है और सब कुछ पा लेता है। मोक्ष के आनंद के आगे संसार के सभी आनंद घटिया हैं। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष केवल ज्ञान के मार्ग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एस० एन० सेन का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषदों में बड़े गहरे दार्शनिक विचार दिये गये हैं और जो बाद में दर्शन के विकास का मूल आधार बने।”2

2. “The Upanishads are rich in deep philosophical content and are the bed-rock on which all the latter philosophical development rests.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p.4.

प्रश्न 3.
उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म से भाव और स्वरूप का वर्णन करो। (Explain the meaning and nature of Self and the Absolute.)
अथवा
आत्मा और ब्रह्म के मध्य क्या संबंध है ? व्याख्या करो। (What is the relationship between Self and the Absolute ? Explain.)
उत्तर-
उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के संबंध में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। आत्मा क्या है ? ब्रह्म से क्या भाव है ? इन दोनों का स्वरूप क्या है और उन दोनों के मध्य क्या संबंध हैं इस संबंध में संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

(क) आत्मा का स्वरूप (Nature of Self)-
उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत ज्यादा प्रयोग किया गया है क्योंकि इसे संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सब तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। आत्मा के स्वरूप को उपनिषदों में अग्रलिखित ढंगों से प्रकट किया गया है—

  1. आत्मा निश्चित सत्ता है (Self is certain Being) उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। इस लिए इस को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह स्वयं सिद्ध है। इस को सभी भौतिक और अभौतिक तत्त्वों का आधार माना गया है। कोई भी अनुभव आत्मा के बिना नहीं हो सकता परंतु वह अनुभव कर्ता नहीं है। वह स्वयं अनुभव अतीत है भाव ज्ञाता ज्ञात नहीं। वह तो समूचे अनुभव का साक्षी है।
  2. आत्मा नित्य है (Self is Permanent)-आत्मा नित्य है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता। यह सारी मानसिक क्रियाओं से दूर है इसलिए उस पर सांसारिक परिवर्तनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में यह परिवर्तन की सृजना करती है परंतु उससे अतीत रहती है। इस तरह आत्मा की नित्यता से इंकार नहीं किया जा सकता।
  3. पाँच कोषों का सिद्धांत (The Doctrine of Five Layers)-आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए तैतरीय उपनिषद् में पाँच कोषों का सिद्धांत पेश किया गया है। ये पाँच कोष हैं—
    • अन्नमयी कोष—यह अचेतन और निर्जीव पदार्थ है। यह भौतिक स्तर पर आता है।
    • प्राणमयी कोष-यह जीवन स्तर पर आता है। इस में सारी वनस्पति और पशु शामिल है।
    • मनोमयी कोष-यह चेतना का स्तर है। यह जीवन का उद्देश्य है । जीवन चेतना तक पहुँच कर खुश होता है।
    • विज्ञानमयी कोष-यह आत्म चेतन का स्तर है। इस में चेतना अपने अंदर तार्किक बुद्धि का विकास करती है।
    • आनंदमयी कोष-यह आत्मा का वास्तविक स्तर है।
      इस में अनेकता और भेद की भावना नष्ट हो जाती है। पहले चारों कोष इस आनंद में लीन हो जाते हैं जो उनके विकास की अंतिम मंज़िल है। इस तरह पाँच कोष सिद्धांत यह सिद्ध करता है कि आत्मा शुद्ध चेतन आनंद स्वरूप है।
  4. चार अवस्थायें (The Four Stages)–मांडूक्य उपनिषद् आत्मा के असली स्वरूप को समझाने के लिए चेतना के आधार पर आत्मा की चार अवस्थाओं का विश्लेषण करता है। चार अवस्थायें ये हैं—
    • जागृत अवस्था-इस में मन इंद्रियों के सहारे जगत् की वस्तुओं का आनंद अनुभव करता है।
    • स्वप्न अवस्था-इस में चेतना अपने अंदर से ही अनेक तरह के चित्रों (प्रतिबिंबों) के रूप में प्रकट होती है।
    • सुंसप्ति अवस्था-यह गहरी नींद की अवस्था है। इस में अनुभव किये आनंद को वास्तविक नहीं माना जा सकता।
    • तुरीय अवस्था-यह धर्म अवस्था है। इसमें अज्ञान नष्ट हो जाता है। आत्मा जिस आनंदमयी अवस्था में पहुँचती है उसका वर्णन करना असंभव है।

(ख) ब्रह्म का स्वरूप (Nature of the Absolute)
‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा के एक धातु “बृह” से निकला है जिस का अर्थ है उगना, बढ़ना और फूट निकलना। इस से यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उस की शक्तियाँ असीम हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उस को सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सभी गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उसके ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है। ब्रह्म के स्वरूप का विश्लेषण निम्नलिखित ढंग के अनुसार किया जा सकता है—

  1. ब्रह्म सर्व रूप है (Absolute is Qualified Essence)-उपनिषदों में ऋषियों ने अनेक स्थानों पर ब्रह्म को सर्वरूप बताया है। मुंडक उपनिषद् में ब्रह्म के स्वरूप के बारे में कहा गया है कि ब्रह्म ही हमारे सामने, पीछे, दक्षिण-उत्तर, पश्चिम-पूर्व, ऊपर तथा नीचे है। ब्रह्म ही विश्व है। वृहद्-आरण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि पहले ब्रह्म ही था और जब उस ने अपने स्वरूप को रूपमान किया तो वह सर्वरूप हो गया। छांदोग्य उपनिषद् में आता है कि ब्रह्म सभी कारवाइयों, सभी इच्छाओं, सभी गंधों और सभी स्वादों को चखता हुआ सब तक पहुँचता है। भाव यह कि ब्रह्म सब कुछ है।

2. ब्रह्म निर्गुण स्वरूप है (Absolute is Attributeless Essence)-उपनिषदों में ब्रह्म को निर्गुण स्वरूप भी बताया गया है। उसका कोई भी रूप, रंग, आकार आदि नहीं है। इसी कारण उसको न देखा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है। मुंडक उपनिषद् में ब्रह्म को न देखने योग्य, न ग्रहण करने योग्य और बिना गोत्र, आँखों, कान, हाथ, पैर आदि वाला बताया गया है। शंकर का कहना है कि ब्रह्म जगत् का कारण तो है परंतु यह जगत् में परिवर्तित नहीं होता। वह इस परिवर्तन का आधार है। क्योंकि ब्रह्म वर्णनातीत है इस लिए उस के लिए “नेति, नेति” (अंत नहीं, अंत नहीं) शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

3. ब्रह्म जगत् का कारण है (Absolute is the Cause of World) उपनिषदों में ब्रह्म को जगत् का मूल कारण बताया गया है। तैतरीय उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म वह है जिस से सभी वस्तुओं की उत्पत्ति होती है और जिस के आधार पर वे सभी अस्तित्व में रहती हैं और अंत में जिस के अंदर फिर समा जाती हैं। छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्म को ‘तजलॉन’ कहा गया है जिस का अर्थ है जगत् का जन्म ब्रह्म से होता है, उस के सहारे रहता है और अंत में उस में लीन हो जाता है। इस का भाव यह है कि ब्रह्म में से जगत् की अभिव्यक्ति हुई है और इस अभिव्यक्ति का निमित्त और उपादान कारण ब्रह्म ही है।

4. ब्रह्म प्रकाश का स्रोत है (Absolute is the Source of Lights)-उपनिषदों में ब्रह्म को सारे प्रकाश का स्रोत माना गया है। सूर्य, चाँद, वारे आदि ब्रह्म के प्रकाश के अंश के साथ ही प्रकाश देते हैं। ब्रह्म प्रकाश को भौतिक प्रकाश का रूप नहीं समझना चाहिए क्योंकि भौतिक प्रकाश को आँखें देख सकती हैं परंतु ब्रह्म प्रकाश को केवल योग शक्ति के द्वारा देखा जा सकता है। ब्रह्म का यह अध्यातम प्रकाश संसार की प्रत्येक वस्तु में मौजूद है।

5. ब्रह्म सत्य है (Absolute is Existence)-उपनिषदों में ब्रह्म को पूर्ण सत्य का रूप माना गया है। दर्शन में सत्य से भाव अस्तित्व से है। ब्रह्म सर्व अस्तित्व का आधार है। इस कारण जहाँ भी अस्तित्व मौजूद है वह ब्रह्म के कारण ही होता है। ब्रह्म अपनी सत्ता के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं बल्कि वह संसार के सभी जीवों और तत्त्वों की सत्ता का आधार माना जाता है। परिणामस्वरूप ब्रह्म को सत्य स्वरूप माना जाता है।

6. ब्रह्म आनंद है (Absolute is Bliss)-उपनिषदों में ब्रह्म को आनंदमयी भी माना गया है। यहाँ यह याद रखने योग्य है कि ब्रह्म का यह आनंद संसार की खुशियों जैसा नहीं होता यह आनंद सागर की भाँति अनंत और अथाह होता है। ब्रह्म के आनंद पर ही संसार के सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। इसी कारण ही सारे जीव जीते हैं। प्रत्येक जीवन अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस आनंद को महसूस करता है। अंत में सारे जीव इस आनंद में लीन हो जाते हैं। ब्रह्म के इस आनंद का कोई अंत नहीं है क्योंकि वह पूर्ण आनंद स्वरूप है।

आत्मा और ब्रह्म की अभेदता (Identity of Self and the Absolute)
उपनिषदों में ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं किया। वे इनको एक ही मूल तत्त्व समझते थे। इस कारण वे उपनिषदों में बहुत बार आत्मा शब्द के स्थान पर ब्रह्म और ब्रह्म शब्द के स्थान पर आत्मा का प्रयोग करते हैं। भेद केवल शब्दों का है परंतु अर्थ अथवा तत्त्व का भेद नहीं है। जगत् का मूल तत्त्व एक ही है। उसको कभी आत्मा और कभी ब्रह्म कहा जाता है। जैसे कोई नदी सागर में मिलकर एक हो जाती है। ठीक उसी तरह आत्मा परमात्मा में मिलकर एक हो जाती है। क्योंकि आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप एक ही है इस लिए उनमें भेद नहीं किया जा सकता। संक्षेप में एक बूंद में सागर और सागर में बूंद को देखना ही उपनिषदक दर्शन है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 4.
भगवद्गीता की मुख्य शिक्षाओं का संक्षेप में वर्णन करो। (Give a brief account of the main teachings of Bhagvadgita.)
अथवा
भगवद्गीता का मुख्य संदेश क्या है ? स्पष्ट करें।
(Explain the basic teachings of Bhagvadgita.)
अथवा
कर्मयोग के बारे में विस्तृत चर्चा करो।
(Discuss in detail the Karama Yoga.)
उत्तर-
भगवद्गीता महाभारत का एक हिस्सा है। इस को गीता के नाम से अधिक जाना जाता है। इस में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले दिया था। उपनिषदों में दी गई विचारधारा आम लोगों की समझ से बाहर थी। गीता में दिये गये विचार जनसाधारण पर जादुई प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि गीता आज भी हिंदुओं में हरमन प्यारी है। गीता की मुख्य शिक्षाओं का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. परमात्मा (God)-गीता. में परमात्मा को सृष्टि का निर्माता बताया गया है। वह एक है। वह सर्वव्यापक है और हर जीव तथा वस्तु में मौजूद है। परंतु यही सब जीवों का सृजनहार, रक्षक और विनाशक है। परमात्मा ही ज्ञान, सत्य, सुख-दुःख, हिंसा, अहिंसा, निडर, खुशी, गमी, प्रसिद्धि और अनादर आदि का मूल है। गीता के दसवें अध्याय में कहा गया है “मैं सब का आरंभ हूँ। सब की उत्पत्ति मेरे से ही है। यह जानते हुए पूर्ण विश्वास रखने वाले बुद्धिमान व्यक्ति मेरी पूजा करते हैं ।” परमात्मा अमर है। वह जन्म और मृत्यु से रहित है। वह सब से महान् है।

2. आत्मा (Atma)—गीता के अनुसार शरीर आत्मा नहीं है। जन्म-मृत्यु का संबंध शरीरों के साथ है, आत्मा के साथ नहीं। आत्मा सदैव रहने वाला अविनाशी तत्त्व है। परंतु जल, वायु, अस्त्र-शस्त्र आदि का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह न कभी अस्तित्व में आता है और न ही उसका अंत होता है। शरीर के मरने पर भी यह नहीं मरता। जिस तरह मनुष्य अपने पुराने और फटे हुए कपड़े उतार देता है और नये कपड़े पहन लेता है ठीक उसी तरह ही यह आत्मा पुराने शरीरों को छोड़ देती है और नया शरीर धारण कर लेती है।

3. कर्मयोग (Karamayoga)-कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उस के फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म-जन्मांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उस को अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सब से ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

4. भक्तियोग (Bhaktiyoga)-भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है।

  • प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  • स्वार्थ भक्ति-ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  • ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  • निर्गुण भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  • सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  • कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है।
  • श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए हैं जो कम पढ़े लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

5. ज्ञानयोग (Jnanayoga)-भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में से ज्ञानयोग को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति न ही सच्चा कर्मयोगी हो सकता है और न ही सच्चा भक्त हो सकता है। मानव जीवन की प्राप्ति के बाद जो जीव अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह कर्मों के चक्र से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुई बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 5.
मानव जाति के कल्याण के कारण भगवद्गीता में दर्शाये गये तीनों मार्गों के बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the three paths shown in the Bhagvadgita for the benefit of mankind ?)
अथवा
भगवद्गीता के दर्शाए गए तीन योग कौन से हैं ? चर्चा करें।
(Which are the three Yogas mentioned in the Bhagvad Gita ? Discuss.)
अथवा
भगवद्गीता में कितने योग दर्शाए गए हैं ? विस्तार सहित वर्णन करें। (How many Yogas are referred to in the Bhagvadgita ? Discuss in detail.)
उत्तर-
भगवद्गीता अथवा गीता हिंदुओं का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। इस में मानव के जीवन की प्रत्येक समस्या का हल सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। गीता मुक्ति के लिए कोई एक जीवन मार्ग नहीं बताता। इस का कथन है कि अगर मनुष्य के स्वभाव अलग-अलग हैं, तो उसको अलग-अलग मार्गों के द्वारा ही अपने उच्चतम उद्देश्य पर पहुँचाना होगा। ये तीन मार्ग हैं-कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। मनुष्य अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार ही अपने जीवन का मार्ग चुनते हैं।

1. कर्मयोग (Karamayoga)-कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उस के फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म-जन्मांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उस को अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सब से ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

2. भक्तियोग (Bhaktiyoga)-भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है।

  • प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  • स्वार्थ भक्ति-ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  • ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  • निर्गुण भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  • सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  • कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है।
  • श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए हैं जो कम पढ़े लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

3. ज्ञानयोग (Jnanayoga)-भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में से ज्ञानयोग को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति न ही सच्चा कर्मयोगी हो सकता है और न ही सच्चा भक्त हो सकता है। मानव जीवन की प्राप्ति के बाद जो जीव अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह कर्मों के चक्र से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुई बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
भगवद्गीता के निष्काम कर्म बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Nishkama Karma of Bhagvadgita ?)
उत्तर-
कर्मयोग (Karamayoga)-कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उस के फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म-जन्मांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उस को अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सब से ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

प्रश्न 7.
भगवद्गीता में अंकित उपदेश किसने किसे दिया था ? गीता के तीन योगों में से भक्ति योग के बारे में चर्चा करें।
(Who gave the lesson as contained in the Bhagvadgita and to whom ? Of the three Yogas in the Gita, write about the Bhakti Yoga.)
अथवा
भगवद्गीता में दर्शाए तीन योग कौन-से हैं ? भक्ति योग के बारे में चर्चा करें।
(Which are three Yogas mentioned in the Bhagvadgita ? Discuss Bhakti Yoga.)
उत्तर-
भगवद्गीता में अंकित उपदेश भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।
भक्तियोग (Bhaktiyoga)-भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है।

  1. प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  2. स्वार्थ भक्ति-ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  3. ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  4. निर्गुण भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  5. सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  6. कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है।
  7. श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए हैं जो कम पढ़े लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

प्रश्न 8.
धर्म शास्त्रों से आप क्या समझते हैं ? मुख्य धर्म शास्त्रों पर एक नोट लिखें।
(What do you mean by Dharma Shastras ? Write a note on the main Dharma Shastras.)
अथवा
धर्म शास्त्रों में किन विषयों को छुआ गया है ? वर्णन करो।
(Which subjects have been touched in Dharma Shastras ? Explain.)
अथवा
धर्म शास्त्र से क्या भाव है ? किसी एक धर्म शास्त्र का वर्णन करें। (What is Dharma Shastra ? Explain any one of the Dharma Shastra.)
अथवा
धर्म शास्त्रों के महत्त्व का वर्णन करो।
(Explain the importance of Dharma Shastras.)
अथवा
शास्त्र से क्या भाव है ? किसी एक हिंदू शास्त्र की जानकारी दें।
[What is Shastra ? Give brief description of any Hindu scripture (Shastras).]
अथवा
किसी एक धर्म शास्त्र को आधार बनाकर शास्त्र साहित्य के बारे में जानकारी दें।
(Describe the Shastra, literature on the basis of any one Shastra.)
अथवा
हिंदू शास्त्रों बारे जानकारी दें। [Write a brief note on Hindu Scriptures (Shastras).]
अथवा
शास्त्रों के मुख्य लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the main features of Shastras.)
अथवा
शास्त्रों के आध्यात्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the spiritual importance of Shastras.)
अथवा
धर्म शास्त्रों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Dharma Shastras.)
उत्तर-
धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं । इनको स्मृति भी कहा जाता है। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन धर्म शास्त्रों के रचनाकाल के बारे इतिहासकारों में मतभेद हैं। आम सुझाव यह है कि इनकी रचना पहली सदी ई० पू० से पाँचवीं सदी ई० पू० के मध्य हई। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गये हैं। इनमें केवल विष्णु स्मृति गद्य रूप में लिखी गई है जबकि बाकी के तीनों धर्म शास्त्र कविता के रूप में लिखे गये हैं। इन धर्म शास्त्रों में प्राचीन कालीन भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत है। प्रमुख धर्मशास्त्रों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:—

1. मनु स्मृति (Manu Smriti)—मनु स्मृति को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस की रचना मनु ने की थी। मनु को संसार का पहला कानूनदाता माना जाता है। उसने अपनी रचना में धर्म की उत्पत्ति और उसके स्रोतों के बारे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है। इस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य अंकित किये गये हैं। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और शूद्रों को सब से नीच समझा जाता है। इस में मानव जीवन के चार आश्रमों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों और महत्त्व के बारे बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की गई है। इस में मनु ने राजाओं को कौन से नियमों की पालना करनी चाहिए के बारे भी जानकारी दी है। उस अनुसार राजा को प्रशासन प्रबंध चलाने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन करना चाहिए। राजा को स्थानिक प्रबंध में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए।

मनु का कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों और बुजुर्गों के सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उनके नाराज़ होने पर भी हमें गुस्से में नहीं आना चाहिए। क्योंकि हम उन के ऋण को चुका नहीं सकते। जो व्यक्ति इन का निरादर करता है उस को 100 पन जुर्माना किया जाये। मनु के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और सम्पत्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए। उनके विचारों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। उनको स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए। वह बाल विवाह के पक्ष में था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का विरोध किया। मनु के अनुसार लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस अनुसार दुराचारी और पापी व्यक्तियों को नर्क में अनेक कष्टों को सहन करना पड़ेगा। वह जुए के घोर विरोधी थे। उनके अनुसार सरकार के द्वारा वस्तुओं की कीमतें निर्धारित की जानी चाहिए। इन विषयों के अतिरिक्त मनु ने अपनी रचना में दान, योग, तप, पुनर्जन्म, मोक्ष के बारे में भी जानकारी प्रदान की है।

2. याज्ञवल्कय स्मृति (Yajnavalkya Smriti)-याज्ञवल्कय स्मृति चाहे मनु स्मृति के मुकाबले संक्षेप है परंतु वह अनेक पक्षों से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। इस में दिया गया वर्णन नियमबद्ध है और भाषा प्रवाहमयी है। इस का रचनाकाल 100 ई० पू० से 300 ई० के मध्य माना जाता है। याज्ञवल्कय की स्मृति तीन अध्यायों में बाँटी गई है। पहले अध्याय में गर्भ धारण करने से लेकर विवाह तक के संस्कार, पत्नी के कर्त्तव्य, चार वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, यज्ञ, दान के नियमों, श्राद्ध के नियमों और उन्हें करवाने से प्राप्त फल, राजा और उसके मंत्रियों के लिए निर्धारित योग्यतायें, न्याय व्यवस्था और अपराधियों के लिए सज़ायें और कर व्यवस्था आदि का वर्णन है। दूसरे अध्याय में धर्म शास्त्र और अर्थ शास्त्र में अंतर, संपत्ति के स्वामित्व संबंधी, दास, जुए, चोरी, बलात्कार, सीमावाद संबंधी आदि के नियमों की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय में मनुष्य के अंतिम संस्कार, शोक काल, शुद्धि के साधन, आत्मा, मोक्ष मार्ग, पापियों, योगियों, आत्म ज्ञान के साधनों, नरक, प्रायश्चित के उद्देश्य, मदिरापान और जीव हत्या आदि विषयों के बारे प्रकाश डाला गया है।

याज्ञवल्कय की स्मृति और मन की स्मृति के मध्य कुछ बातों पर मतभेद था। मनु ने जहाँ ब्राह्मण को शूद्र की लड़की के साथ विवाह करने की आज्ञा दी है वहाँ याज्ञवल्कय इस के विरोधी थे। मनु ने नियोग की निंदा की है परंतु याज्ञवल्कय इस के पक्ष में थे। मनु का कहना था कि विधवाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं होना चाहिए जबकि याज्ञवल्कय इसके पूरी तरह पक्ष में था। मनु जुए के सख्त विरुद्ध थे जबकि याज्ञवल्कय इस को बुरा नहीं समझता था। वह इसको सरकार के नियंत्रण में ला कर माल प्राप्त करने के पक्ष में था। याज्ञवल्कय ने अपनी स्मृति में शारीरिक विज्ञान और चिकित्सा संबंधी बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की है।

3. विष्णु स्मृति (Vishnu Smriti)-इस स्मृति कीचना 100 ई० से 300 ई० के मध्य की गई थी। यह गद्य रूप में लिखी गई थी। इस में कुछ श्लोक मनु और याज्ञवल्कय स्मृतियों में से लिये गये हैं। विष्णु स्मृति में आर्यव्रत का क्षेत्र मनु स्मृति के मुकाबले अधिक विस्तारपूर्वक माना है। इस में लगभग सारा भारत शामिल है। इस से सिद्ध होता है कि विष्णु स्मृति की रचना के समय आर्य सारे भारत में बिखर गये थे। राजा प्रशासन की धुरी होता था। अपने राज्य का विस्तार करना और प्रजा की रक्षा करना उसके प्रमुख कार्य समझे जाते थे। राजा प्रशासन प्रबंध को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से एक मंत्रिपरिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति का मुख्य आधार उनकी योग्यता और राज्य के प्रति वफादारी थी। राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता था। प्रशासन की सब से छोटी इकाई को ग्राम (गाँव) कहते थे। प्रजा को निष्पक्ष न्याय देना राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य समझा जाता था। विष्णु स्मृति में अपराधों की किस्मों और उनको मिलने वाली सज़ाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
मनु स्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मणों पर उनकी समाज में सर्वोच्च स्थिति के कारण कर नहीं लगाया जाना चाहिए परंतु विष्णु स्मृति इस के पक्ष में थी। विष्णु स्मृति जुए के विरुद्ध थी और इसको समाज पर एक घोर कलंक समझती थी। यह समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था और आश्रम प्रथा में विश्वास रखती थी। शूद्र भी संन्यासी होते थे जबकि मनु स्मृति के अनुसार वे संन्यास धारण नहीं कर सकते थे। इस काल में स्त्रियों की दशा पहले से बदत्तर (बुरी) हो गई थी। इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस समय समाज में सती प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया था। विष्णु स्मृति में लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। उनको मलेच्छों से न बोलने के लिए भी कहा गया है। विष्णु स्मृति में यव, माषा, स्वर्ण, निषक, किश्णाल आदि सिक्कों का वर्णन भी मिलता है। इस से पता चलता है कि उस समय व्यापार न केवल वस्तु-विनिमय बल्कि सिक्कों से भी किया किया जाता था।

4. नारद स्मृति (Narda Smriti)-इस स्मृति की रचना 100 ई० से 400 ई० के मध्य की गई थी। इस स्मृति में भी कुछ श्लोक मनु स्मृति से लिये गये हैं परंतु इस की अनेक विशेषतायें अपनी हैं। राज्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित सूचना देने के लिए राजा की ओर से गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। कुल, श्रेणी और गण जनहित संस्थायें थीं। ये संस्थायें अपने नियम बनाती थीं। राजा उन के आंतरिक मामलों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। नारद स्मृति में राज्य के न्याय प्रबंध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। राजा को राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके निर्णय अंतिम होते थे। यदि किसी चोर को न पकड़ा जा सकता तो चोरी हुए सामान का मूल्य राजा को अपने खज़ाने से देना पड़ता है। चोर को शरण देना या चोरी का सामान खरीदने वाले को भी सज़ा का बराबर हकदार माना जाता था। अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ायें निर्धारित की गई हैं। निर्दोष सिद्ध करने के लिए सात प्रकार की परीक्षाओं का वर्णन किया गया है।

नारद जुआखोरी को सरकार के नियंत्रण के नीचे लाने के पक्ष में थे ताकि राज्य को उससे कुछ आय प्राप्त हो सके। वह विधवा को अपने पति की संपत्ति दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का समर्थन किया। उसने समाज में प्रचलित 15 किस्मों के दासों का वर्णन किया है। इनका मुख्य कार्य उपरोक्त तीन जातियों की सेवा करना था। उनको संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। व्यापार में साझेदारी की प्रथा थी और लाभ तथा हानि सांझेदारों द्वारा लगाई गई पूंजी के हिसाब से बाँटा जाता था। नारद ने दीनार, पन और स्वर्ण नामी सिक्कों का वर्णन किया है। उसने विद्यार्थियों या शिल्पियों की सिखलाई के लिए भी कुछ नियम निर्धारित किये थे। उनको अपने स्वामी की कार्यशाला में जाकर काम सीखना पड़ता था। वे अपने निर्धारित शिक्षाकाल से पहले अपने स्वामी को छोड़ नहीं सकते थे। ऐसा करने वाले शिल्पी को भारी दंड दिया जाता था।

ऊपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि धर्म शास्त्रों में हिंदुओं के विभिन्न कानूनों और रीति-रिवाजों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इनकी बहुत महत्ता है। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“धर्म शास्त्रों ने जिनको स्मृतियाँ भी कहा जाता है, हिंदुओं के जीवन में पिछले दो हज़ार वर्षों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि वेदों को धर्म का अंतिम स्त्रोत समझा जाता है परंतु व्यवहार में सारे भारत के हिंदू अपने धार्मिक कर्तव्यों और रस्मों के लिए स्मृति ग्रंथों की ओर देखते हैं। उनको हिंदू कानून और सामाजिक रीति-रिवाजों का सब से भरोसेयोग्य स्त्रोत भी समझा जाता है।”3

3. “The Dharma Sastras, also called Smritis, have played a very important part in Hindu life during the last two thousand years. Although the Vedas are regarded as the ultimate sources of Dharma, in practice it is the Smriti works to which the Hindus all over India turn for the real exposition of religious duties and usages. They are also regarded as the only authentic sources of Hindu law and social customs.” Dr. R. C. Majumdar, The History and Culture of the Indian People (Bombay : 1953) Vol. 2, pp. 254-55.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 9.
मनु स्मृति से क्या भाव है ? इस में किन विषयों का वर्णन किया गया है ?
(What is ineant by Manu Smriti ? What subjects have been discussed in it ?)
अथवा
मनु स्मृति के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करो।
(What do you know about Manu Smriti ? Explain.)
उत्तर-
धर्म शास्त्रों में मनु स्मृति की गणना प्रथम स्थान पर की जाती है। इस को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस का रचना काल 200 ई० पू० से 200 ई० के मध्य माना जाता है। इस में 27,000 श्लोक हैं और इस के 12 अध्याय हैं। यह संस्कृत में कविता रूप में लिखी गई है। मनु को संसार का पहला कानूनदाता समझा जाता है। अपनी कृति में मनु ने अपने युग में भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। प्रमुख नियमों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:—

1. धर्म के चार स्रोत (Four Sources of Dharma)-मनु की भारतीय संस्कृति को सब से बड़ी देन धर्म के चार स्त्रोतों के बारे जानकारी देना है। उस के अनुसार वेद धर्म का पहला स्रोत है। ये विश्व के सारे धर्मों को मूल तत्त्व प्रदान करते हैं। दूसरा स्रोत स्मृति है। स्मृति से भाव है वे बातें जिन को याद शक्ति के सहारे लिखा गया है। स्मृति श्रुति से भिन्न होती है। श्रुति में वे बातें सम्मिलित हैं जिन को सीधा परमात्मा से सुना गया है। स्मृति में धर्म शास्त्र और श्रुति में वेद आते हैं। वह व्यक्ति जो श्रुति और स्मृति में दिये गये कानूनों का पालन करता है, वह इस जीवन में प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है और अगले जीवन में भी अथाह खुशी का भागी बनता है। तीसरा स्रोत मान्यता प्राप्त रीति-रिवाज हैं परंतु ये शिष्टाचार पर आधारित होने चाहिए। चौथा स्रोत वह है जिस को आत्मा माने परंतु वह भी शिष्टाचार पर आधारित होना चाहिए।

2. प्रशासनिक नियम (Administrative Laws)-मनु स्मृति में राजा का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। वह राज्य का मुखिया होता था। उस को देवता स्वरूप समझा जाता था। उसका मुख्य कर्त्तव्य धर्म और प्रजा की रक्षा करना था। प्रजा के लिए उसकी आज्ञा का पालन करना ज़रूरी था। राजा निरंकुश नहीं होता था। वह प्रशासन को अच्छे ढंग (तरीके) से चलाने के उद्देश्य से 7 अथवा

3. मंत्रियों की एक मंत्रि-परिषद् का गठन करता था। इसका अध्यक्ष मुख्यमात्य होता था जो आम तौर पर ब्राह्मण होता था। इन मंत्रियों की योग्यतायें और कर्तव्यों के बारे, युद्ध के नियमों के बारे, राजा के द्वारा लगाये जाने वाले प्रजा पर करों के बारे विशेष तौर पर प्रकाश डाला गया है। मनु ब्राह्मणों पर कर लगाये जाने के पक्ष में नहीं था। अपंग व्यक्तियों से भी कर नहीं लिये जाते थे। प्रशासन की सुविधा के लिए राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता था। प्रशासन की सब से छोटी इकाई ग्राम (गाँव) थी जिस का अध्यक्ष ग्रामिणी होता था। स्थानिक प्रशासन में राजा बहुत कम हस्तक्षेप करता था।

4. न्याय व्यवस्था (Judicial Administration)-मन ने कानून के क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान दिया। वह पहला व्यक्ति था जिसने दीवानी और फौजदारी कानूनों में अंतर स्पष्ट किया। प्रजा को निष्पक्ष न्याय देना वह राजा का पहला कर्त्तव्य समझता था। राजा अपने राज्य में अनेक अदालतें स्थापित करता था। कुल, श्रेणी तथा गणों को भी अपनी अदालतें स्थापित करने का अधिकार प्राप्त था। न्याय से संतुष्ट न होने पर कोई भी फरियादी राजा से फरियाद कर सकता था। मनु ने 18 किस्मों के अपराधों का वर्णन किया है। जैसे ऋण वापस न देना, वचन भंग, विश्वासघात, चोरी, डाका, मानहानि, उत्तराधिकारी संबंधी, पर-स्त्री गमन, वेतन न देना, सीमा संबंधी विवाद आदि। भिन्न-भिन्न अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न सज़ायें निर्धारित की गई हैं। मनु ब्राह्मणों को मृत्युदंड देने के पक्ष में नहीं था। अपराधियों से अपराध कबूल करवाने के उद्देश्य से उनको कई बार अग्नि परीक्षा अथवा जल परीक्षा देनी पडती थी। संक्षेप में आधुनिक कानून की कोई ऐसी शाखा नहीं थी जो मनु की दृष्टि से ओझल रह गई हो।

वर्ण व्यवस्था (Varna System)—मनु समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था के पक्ष में था। उसके अनुसार ब्राह्मण परमात्मा के मुँह से, क्षत्रिय बाजुओं से, वैश्य पेट से और शूद्र पैरों से पैदा हुए। ब्राह्मण को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। उसके प्रमुख काम वेद पढ़ना और पढ़ाना, दूसरों के लाभ के लिए यज्ञ करना, दान देना और qलेना, न्यायाधीश और राजा के प्रमुख सलाहकार का काम करना आदि थे। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करें। क्षत्रिय का काम लोगों की रक्षा करना था। इस के अतिरिक्त उनको वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना और उपहार देने के लिए कहा गया है। वैश्य का मुख्य काम वाणिज्य-व्यापार, खेतीबाड़ी और पशु पालन था। वह भी वेदों का अध्ययन करते थे। शूद्रों का काम ऊपर वाली तीन जातियों की बड़ी नम्रता के साथ सेवा करना था। उनको वेदों का अध्ययन करने की आज्ञा नहीं थी।

5. चार आश्रम (The Four Ashramas)—मनु ने मनुष्य के जीवन को 100 वर्षों का मान कर उसको 25-25 वर्षों के चार आश्रमों में बाँटा। इनके नाम थे-ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संयास आश्रम। ये सारे आश्रम ऊपर लिखित तीन जातियों के लिए निर्धारित किये गये थे। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य था। इस में बच्चा 5 वर्ष से लेकर 25 वर्षों तक विद्या प्राप्त करता था। गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य विवाह करके संतान उत्पन्न करता था। वह अपने परिवार के पालन-पोषण का पूरा ख्याल रखता था। परिवार में पुत्र का होना ज़रूरी समझा जाता था। वाणप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य अपना घर बाहर छोड़ कर जंगलों में चला जाता था और तपस्वी जीवन व्यतीत करने का यत्न करता था। चौथा और अंतिम आश्रम संयास का था। यह 75 से 100 वर्षों तक चलता था। इस में मनुष्य एक संयासी की भाँति जीवन व्यतीत करता था और मुक्ति प्राप्त करने का यत्न करता था।

6. स्त्रियों संबंधी विचार (Views about Women)-मनु स्त्रियों को स्वतंत्रता दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसका विचार था कि अविवाहित लड़की का उसके पिता द्वारा, विवाहित लड़की का उसके पति द्वारा और पति की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों द्वारा ख्याल रखा जाना चाहिए। उस का कहना था कि स्त्रियाँ पुरुष को गलत रास्ते पर लगाती हैं। वह स्त्रियों की बातों पर विश्वास किये जाने के पक्ष में नहीं थे। मनु ने बाल विवाह का समर्थन किया। उसका कहना था कि लड़कियों की 8 से 12 वर्ष की आयु तक शादी कर देनी चाहिए। मनु ने विधवा विवाह और नियोग प्रथा का विरोध किया। नियोग प्रथा के अनुसार कोई विधवा पुत्र पैदा करने के लिए अपने किसी देवर से विवाह करवा सकती थी। मनु स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिये जाने के पक्ष में नहीं था। वह केवल ‘स्त्री धन’ जो दहेज के रूप में अपने साथ लाई थी प्राप्त कर सकती थी। स्त्रियों पर लगाये गये इन प्रतिबंधों के बावजूद मनु ने गृहणी के रूप में स्त्रियों का बड़ा सम्मान किया है। उसका कहना था, “जहाँ स्त्रियों का सत्कार किया जाता है वहाँ परमात्मा निवास करता है जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं किया जाता वहाँ सारे धार्मिक कार्य बेकार हो जाते हैं।”

7. कुछ अन्य विचार (Some other Views)—मनु ने लोगों को शुद्ध और पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए कहा। उसका कहना था कि दुराचारी मनुष्य हमेशा दुःखी रहता है। वह झूठ बोलने वालों को महाचोर समझता था। ऐसे पापी सीधा नरक में जाते हैं। उसका कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापक और बुजुर्गों का हमेशा सत्कार करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता उसको दंड दिया जाना चाहिए। मनु ने वाणिज्य व्यापार के नियमों संबंधी भी प्रकाश डाला है। ए० ए० मैकडोनल के शब्दों में,
“किसी और ग्रंथ ने सारे भारत में सदियों तक इतनी प्रसिद्धि और प्रमाण प्राप्त नहीं किये, जितने मानव धर्म शास्त्र ने जिसको मनु स्मृति भी कहा जाता था।”4

4. “No work has enjoyed so great a reputation and authority throughout India for centuries as the Manava Dharmasastra, also called the Manu Smriti.” A. A. Macdonell, Political, Legal and Military History of India, ed. by H.S. Bhatia (New Delhi : 1984) Vol. 1, p. 153.

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(क) पुराण
(ख) उपनिषद्
(ग) शास्त्र।
[Write short notes on any two of the following
(a) Puranas
(b) Upanishads
(c) Shastras.]
उत्तर-
पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। मिथिहास वह कथा कहानियाँ होती हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं होता परंतु वे लोगों में बहुत प्रचलित होती हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा होता था। ये भाग हैं-
(1) सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
(2) प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
(3) वंश-इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
(4) मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
(5) वंशानचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था। यह बात यहाँ याद रखने योग्य है कि हमें मूल पुराण उपलब्ध नहीं हैं। ये पुराण हमें आजकल जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं उनमें यह जरूरी नहीं कि उनमें दिया गया वर्णन इस बाँट अनुसार हो। पुराणों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है :—

  1. ब्रह्म पुराण (The Brahman Purana)-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं। इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण, आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण (The Padma Purana)-यह सबसे विशाल पुराण है। इस में लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, भूमि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इन के अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है। इस में अनेकों मिथिहासिक कथायें भी दर्ज हैं।
  3. विष्णु पुराण (The Vishnu Purana)-इस पुराण में 23,000 श्लोक दिये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि विष्णु ही सर्वोच्च देवता है। उसने ही संसार की रचना की और इसका पालनहार है। इसमें दी गई कथाओं में प्रह्लाद और ध्रुव की कथायें प्रसिद्ध हैं। इस में इस संसार और स्वर्ग के लोगों की अनेकों विचित्र बातों का भी वर्णन है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है। पाँचवें और अंतिम खंड में कृष्ण की अनेक अलौकिक लीलाओं की चर्चा की गई है।
  4. वायु पुराण (The Vayu Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक हैं । इस में शिव की महिमा के साथ संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इस लिए इस को शिव पुराण भी कहते हैं। इस में अनेक वंशों का वर्णन किया गया है। प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण इन की बहुत ऐतिहासिक महत्ता है। इसमें दिया गया भूगौलिक वर्णन भी बड़ा लाभदायक है।
  5. भगवद् पुराण (The Bhagavata Purana)-विष्णु देवता के साथ संबंधित पुराणों में भगवद् पुराण सब से अधिक लोकप्रिय है। इस में कृष्ण के जीवन से संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध और साक्ष्य दर्शन के संस्थापक कपिल को विष्णु का अवतार बताया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इस पुराण का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
  6.  नारद पुराण (The Narada Purana)-इस पुराण में 25,000 श्लोक दिये गये हैं। यह विष्ण भक्ति से संबंधित पुराण है। इस में प्राचीन कालीन भारत में प्रचलित विद्या के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इस में वंशों का विवरण नहीं मिलता।
  7. मारकंडेय पुराण (The Markandeya Purana)-इस पुराण में 900 श्लोक दिये गये हैं। इस में वैदिक देवताओं इंद्र, सूर्य और अग्नि आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है।
  8. अग्नि पुराण (The Agni Purana)-इस पुराण में 15,400 श्लोक दिये गये हैं। एक परंपरा के अनुसार इस पुराण को अग्नि देवता ने आप ऋषि विशिष्ट को सुनाया था। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे युद्धनीति, यज्ञ विधि, ज्योतिष, भूगोल, राजनीति, कानून, छंद शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, व्रत, दान, श्राद्ध और विवाह आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। निस्संदेह यह पुराण एक विश्वकोष की तरह
  9. भविष्य पुराण (The Bhavishya Purana)—इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में ब्रह्म, विष्ण, शिव और सूर्य देवताओं से संबंधित अनेक कथायें दी गई हैं। इस में अनेक प्राचीन राजवंशों और ऋषियों का भी वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक कर्मकांडों की भी चर्चा की गई है।
  10. ब्रह्मावैव्रत पुराण (The Brahmavaivarta Purana)—इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण में ब्रह्म को इस संसार का रचयिता कहा गया है। इस में कृष्ण के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में राधा का वर्णन भी आता है। इस में गणेश को कृष्ण का अवतार कहा गया है।
  11. लिंग पुराण (The Linga Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक दिये गये हैं। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में शिव अवतारों, व्रतों तथा तीर्थों का वर्णन किया गया है। इस में लिंग की शिव के रूप में उपासना का उपदेश दिया गया है।
  12. वराह पुराण (The Varaha Purana)-इस में 10,700 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की तरह वराह अवतार के रूप में पूजा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में शिव, दुर्गा और गणेश से संबंधित वर्णन . भी दिया गया है।
  13. स्कंद पुराण (The Skanda Purana)—यह एक विशाल पुराण था। इस में 51,000 श्लोकों का वर्णन किया गया था। यह पुराण आजकल उपलब्ध नहीं है। इस के बारे में जानकारी अन्य ग्रंथों में दी गई उदाहरणों से प्राप्त होती है। इस पुराण में मुख्य तौर पर शिव की पूजा के बारे बताया गया है। इस के अतिरिक्त इस में भारत के अनेक तीर्थ स्थानों और मंदिरों के बारे बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।
  14. वामन पुराण (The Vamana Purana)इस पुराण में 10,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण के अधिकतर भाग में शिव, विष्णु और गणेश आदि देवताओं की पूजा के बारे वर्णन किया गया है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का भी वर्णन मिलता है।
  15. कूर्म पुराण (The Kurma Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु के कुर्म अवतार की पूजा का वर्णन है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का वर्णन भी मिलता है।
  16. मत्स्य पुराण (The Matsya Purana)-इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। यह पुराण मत्स्य (मछली) तथा मनु के मध्य एक वार्तालाप है। जब इस संसार का विनाश हुआ तब इस मछली ने मनु की सुरक्षा की थी। इस में अनेक प्रसिद्ध राजवंशों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक मेलों और तीर्थ स्थानों का भी वर्णन है।
  17. गरुढ़ पुराण (The Garuda Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की पूजा से संबंधित अनेक विधियों का वर्णन है। इस में यज्ञ विद्या, छंद शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, खगोल विज्ञान, शारीरिक विज्ञान और भूत-प्रेतों के बारे जानकारी दी गई है। इस में अंतिम संस्कार संबंधी, सती संबंधी और पितर श्राद्धों के संबंध में विस्तावपूर्वक जानकारी दी गई है।
  18. ब्रह्माण्ड पुराण (The Brahmanda Purana)—इस पुराण में 12,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण को ब्रह्मा ने पढ़ के सुनाया था। इस में अनेक राजवंशों और तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है।

भारतीय दर्शन प्रणाली का वास्तविक आरंभ उपनिषदों से माना जाता है। उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें दुनिया के सबसे ऊँचे आध्यात्मिक ज्ञान के मोती पिरोये हुए हैं। इन मोतियों की चमक से मनुष्य का आंतरिक अंधेरा दूर हो जाता है और ऐसा प्रकाश होता है जिस के आगे सूर्य का प्रकाश भी कम हो जाता है। यदि उपनिषदों को भारतीय दर्शन का मूल स्रोत कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी। उपनिषद् तीन शब्दों के मेल से बना है। ‘उप’ से भाव है नज़दीक, ‘नि’ से भाव है श्रद्धा और ‘षद्’ से भाव है बैठना। इस तरह उपनिषद् से भाव है श्रद्धा भाव से नज़दीक बैठना। वास्तव में उपनिषद् एक ऐसा ज्ञान है जो एक गुरु अपने पास (समीप) बैठे हुए शिष्य को गुप्त रूप से प्रदान करता है। उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है क्योंकि इनको वेदों का अंतिम भाग समझा जाता है। वेदांत से भाव अंतिम ज्ञान है। इसका भाव यह है कि उपनिषदों में ऐसा ज्ञान दिया गया है जिस के बाद और अन्य कोई ज्ञान नहीं है। उपनिषदों की रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 550 ई० पू० से 100 ई०पू० के मध्य की गई। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। इनमें से ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मुंडुक्य, तैतरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, ब्रहदआरण्यक, श्वेताश्वतर नामों के उपनिषदों को सब से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। छांदोगय एवं ब्रहदआरण्यक नामक उपनिषदों की रचना सबसे पहले हुई थी। इनकी रचना 550 ई० पू० से 450 ई० पू० के मध्य हुई। उपनिषदों की मुख्य शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं—

  1. आत्मा का स्वरूप (Nature of Self)-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। आत्मा नित भी है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता।

2. ब्रह्म का स्वरूप (Nature of the Absolute)-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उस के ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

3. आत्मा और ब्रह्म की अभेदता (Identity of Self and the Absolute)-उपनिषदों में, ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं किया। वे इनको एक ही मूल तत्त्व समझते थे। इस कारण वे उपनिषदों में बहुत बार आत्मा की जगह ब्रह्म और ब्रह्म शब्द की जगह आत्मा का प्रयोग करते हैं। भेद केवल शब्दों का है परंतु अर्थ अथवा तत्त्व का भेद नहीं है। जगत् का मूल तत्त्व एक ही है। उसी को कभी आत्मा और कभी ब्रह्म कहा जाता है। जैसे कोई नदी सागर में मिलकर एक हो जाती है ठीक उसी तरह आत्मा परमात्मा में मिलकर एक हो जाती है। क्योंकि आत्मा और ब्रह्म एक ही है इस लिए उनमें भेद नहीं किया जा सकता। संक्षेप में एक बूंद में सागर और सागर में बूंद को देखना ही उपनिषदक दर्शन है।

4. सृष्टि की रचना (Creation of the World)-उपनिषदों में सृष्टि की रचना संबंधी अनेक वर्णन मिलते हैं। इन में बताया गया है कि ब्रह्म ने सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना से पहले ब्रह्म अपने आप में मौजूद था। फिर ब्रह्म ने सोचा कि वह अनेक रूपों में प्रगट हो जाये। परिणामस्वरूप उसने तेज़ पैदा किया। उत्पन्न होने वाले तेज़ ने भी संकल्प किया कि मैं अनेक रूपों वाला हो जाऊँ। फलस्वरूप उसने जल की सृजना की। जल ने अनेक जीव जंतु और अन्न को पैदा किया। इस तरह सृष्टि की रचना आरंभ हुई।

5. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)–उपनिषद् कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उस द्वारा किये गये कर्मों का फल ज़रूर भुगतना पड़ता है। जैसे कर्म हमने पिछले जन्म में किये हैं वैसा फल हमें इस जीवन में प्राप्त होगा। इस जन्म में किये गये कर्मों का फल हमें अगले जीवन में प्राप्त होगा। इसलिए हमारे जीवन के सुख अथवा दुःख हमारे किये गये कर्मों पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए हमें सदा शुभ कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए और पाप कर्मों से दूर रहना चाहिए। मनुष्य अपने बुरे कर्मों के कारण परमात्मा से बिछड़ा रहता है और वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आता रहता है।

6. नैतिक गुण (Moral Virtues)-उपनिषदों में मनुष्यों के नैतिक गुणों पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इन गुणों को अपना कर मनुष्य इस भवसागर से पार हो सकता है। ये गुण हैं—

  • सदा सच बोलो
  • सभी जीवों से प्यार करो।
  • दूसरों के दुःखों को अपना दुःख समझें।
  • अहंकार, लालच और बुरी इच्छाओं से कोसों दूर रहो।
  • चोरी और ठगी आदि न करो।
  • धर्म का पालन करो।
  • वेदों के अध्ययन, शिक्षा, देवताओं और पितरों की ओर लापरवाही न दिखाओ।
  • लोक कल्याण की ओर लापरवाही का प्रयोग न करो।
  • अध्यापक का पूरा आदर करो।

7. माया (Maya) उपनिषदों में पहली बार माया के सिद्धाँत पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस जगत् और उसके पदार्थों को माया कहा गया है। अज्ञानी पुरुष जगत् के आकर्षक पदार्थों के पीछे दौड़ते हैं। इनको प्राप्त करने के उद्देश्य से वे बुरे से बुरा ढंग अपनाने से भी नहीं डरते। इस माया के कारण उस की बुद्धि पर पर्दा पड़ा रहता है और वह हमेशा जन्म-मरण के चक्रों में फिरता रहता है। ज्ञानी पुरुष माया के रहस्य को समझते हैं नतीजे के तौर पर वह ज़हर रूपी माया से प्यार नहीं करते। ऐसे व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

8. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष मनुष्य के ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है जिस पर पहुँच कर मनुष्य सब कुछ जान लेता है और सब कुछ पा लेता है। मोक्ष के आनंद के आगे संसार के सभी आनंद घटिया हैं। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष केवल ज्ञान के मार्ग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एस० एन० सेन का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषदों में बड़े गहरे दार्शनिक विचार दिये गये हैं और जो बाद में दर्शन के विकास का मूल आधार बने।”2

2. “The Upanishads are rich in deep philosophical content and are the bed-rock on which all the latter philosophical development rests.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p.4.

धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं । इनको स्मृति भी कहा जाता है। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन धर्म शास्त्रों के रचनाकाल के बारे इतिहासकारों में मतभेद हैं। आम सुझाव यह है कि इनकी रचना पहली सदी ई० पू० से पाँचवीं सदी ई० पू० के मध्य हई। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गये हैं। इनमें केवल विष्णु स्मृति गद्य रूप में लिखी गई है जबकि बाकी के तीनों धर्म शास्त्र कविता के रूप में लिखे गये हैं। इन धर्म शास्त्रों में प्राचीन कालीन भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत है। प्रमुख धर्मशास्त्रों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:—

1. मनु स्मृति (Manu Smriti)—मनु स्मृति को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस की रचना मनु ने की थी। मनु को संसार का पहला कानूनदाता माना जाता है। उसने अपनी रचना में धर्म की उत्पत्ति और उसके स्रोतों के बारे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है। इस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य अंकित किये गये हैं। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और शूद्रों को सब से नीच समझा जाता है। इस में मानव जीवन के चार आश्रमों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों और महत्त्व के बारे बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की गई है। इस में मनु ने राजाओं को कौन से नियमों की पालना करनी चाहिए के बारे भी जानकारी दी है। उस अनुसार राजा को प्रशासन प्रबंध चलाने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन करना चाहिए। राजा को स्थानिक प्रबंध में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए।

मनु का कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों और बुजुर्गों के सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उनके नाराज़ होने पर भी हमें गुस्से में नहीं आना चाहिए। क्योंकि हम उन के ऋण को चुका नहीं सकते। जो व्यक्ति इन का निरादर करता है उस को 100 पन जुर्माना किया जाये। मनु के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और सम्पत्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए। उनके विचारों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। उनको स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए। वह बाल विवाह के पक्ष में था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का विरोध किया। मनु के अनुसार लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस अनुसार दुराचारी और पापी व्यक्तियों को नर्क में अनेक कष्टों को सहन करना पड़ेगा। वह जुए के घोर विरोधी थे। उनके अनुसार सरकार के द्वारा वस्तुओं की कीमतें निर्धारित की जानी चाहिए। इन विषयों के अतिरिक्त मनु ने अपनी रचना में दान, योग, तप, पुनर्जन्म, मोक्ष के बारे में भी जानकारी प्रदान की है।

2. याज्ञवल्कय स्मृति (Yajnavalkya Smriti)-याज्ञवल्कय स्मृति चाहे मनु स्मृति के मुकाबले संक्षेप है परंतु वह अनेक पक्षों से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। इस में दिया गया वर्णन नियमबद्ध है और भाषा प्रवाहमयी है। इस का रचनाकाल 100 ई० पू० से 300 ई० के मध्य माना जाता है। याज्ञवल्कय की स्मृति तीन अध्यायों में बाँटी गई है। पहले अध्याय में गर्भ धारण करने से लेकर विवाह तक के संस्कार, पत्नी के कर्त्तव्य, चार वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, यज्ञ, दान के नियमों, श्राद्ध के नियमों और उन्हें करवाने से प्राप्त फल, राजा और उसके मंत्रियों के लिए निर्धारित योग्यतायें, न्याय व्यवस्था और अपराधियों के लिए सज़ायें और कर व्यवस्था आदि का वर्णन है। दूसरे अध्याय में धर्म शास्त्र और अर्थ शास्त्र में अंतर, संपत्ति के स्वामित्व संबंधी, दास, जुए, चोरी, बलात्कार, सीमावाद संबंधी आदि के नियमों की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय में मनुष्य के अंतिम संस्कार, शोक काल, शुद्धि के साधन, आत्मा, मोक्ष मार्ग, पापियों, योगियों, आत्म ज्ञान के साधनों, नरक, प्रायश्चित के उद्देश्य, मदिरापान और जीव हत्या आदि विषयों के बारे प्रकाश डाला गया है।

याज्ञवल्कय की स्मृति और मन की स्मृति के मध्य कुछ बातों पर मतभेद था। मनु ने जहाँ ब्राह्मण को शूद्र की लड़की के साथ विवाह करने की आज्ञा दी है वहाँ याज्ञवल्कय इस के विरोधी थे। मनु ने नियोग की निंदा की है परंतु याज्ञवल्कय इस के पक्ष में थे। मनु का कहना था कि विधवाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं होना चाहिए जबकि याज्ञवल्कय इसके पूरी तरह पक्ष में था। मनु जुए के सख्त विरुद्ध थे जबकि याज्ञवल्कय इस को बुरा नहीं समझता था। वह इसको सरकार के नियंत्रण में ला कर माल प्राप्त करने के पक्ष में था। याज्ञवल्कय ने अपनी स्मृति में शारीरिक विज्ञान और चिकित्सा संबंधी बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

3. विष्णु स्मृति (Vishnu Smriti)-इस स्मृति कीचना 100 ई० से 300 ई० के मध्य की गई थी। यह गद्य रूप में लिखी गई थी। इस में कुछ श्लोक मनु और याज्ञवल्कय स्मृतियों में से लिये गये हैं। विष्णु स्मृति में आर्यव्रत का क्षेत्र मनु स्मृति के मुकाबले अधिक विस्तारपूर्वक माना है। इस में लगभग सारा भारत शामिल है। इस से सिद्ध होता है कि विष्णु स्मृति की रचना के समय आर्य सारे भारत में बिखर गये थे। राजा प्रशासन की धुरी होता था। अपने राज्य का विस्तार करना और प्रजा की रक्षा करना उसके प्रमुख कार्य समझे जाते थे। राजा प्रशासन प्रबंध को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से एक मंत्रिपरिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति का मुख्य आधार उनकी योग्यता और राज्य के प्रति वफादारी थी। राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता था।

प्रशासन की सब से छोटी इकाई को ग्राम (गाँव) कहते थे। प्रजा को निष्पक्ष न्याय देना राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य समझा जाता था। विष्णु स्मृति में अपराधों की किस्मों और उनको मिलने वाली सज़ाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
मनु स्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मणों पर उनकी समाज में सर्वोच्च स्थिति के कारण कर नहीं लगाया जाना चाहिए परंतु विष्णु स्मृति इस के पक्ष में थी। विष्णु स्मृति जुए के विरुद्ध थी और इसको समाज पर एक घोर कलंक समझती थी। यह समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था और आश्रम प्रथा में विश्वास रखती थी। शूद्र भी संन्यासी होते थे जबकि मनु स्मृति के अनुसार वे संन्यास धारण नहीं कर सकते थे। इस काल में स्त्रियों की दशा पहले से बदत्तर (बुरी) हो गई थी। इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस समय समाज में सती प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया था। विष्णु स्मृति में लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। उनको मलेच्छों से न बोलने के लिए भी कहा गया है। विष्णु स्मृति में यव, माषा, स्वर्ण, निषक, किश्णाल आदि सिक्कों का वर्णन भी मिलता है। इस से पता चलता है कि उस समय व्यापार न केवल वस्तु-विनिमय बल्कि सिक्कों से भी किया किया जाता था।

4. नारद स्मृति (Narda Smriti)-इस स्मृति की रचना 100 ई० से 400 ई० के मध्य की गई थी। इस स्मृति में भी कुछ श्लोक मनु स्मृति से लिये गये हैं परंतु इस की अनेक विशेषतायें अपनी हैं। राज्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित सूचना देने के लिए राजा की ओर से गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। कुल, श्रेणी और गण जनहित संस्थायें थीं। ये संस्थायें अपने नियम बनाती थीं। राजा उन के आंतरिक मामलों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। नारद स्मृति में राज्य के न्याय प्रबंध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। राजा को राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके निर्णय अंतिम होते थे। यदि किसी चोर को न पकड़ा जा सकता तो चोरी हुए सामान का मूल्य राजा को अपने खज़ाने से देना पड़ता है। चोर को शरण देना या चोरी का सामान खरीदने वाले को भी सज़ा का बराबर हकदार माना जाता था। अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ायें निर्धारित की गई हैं। निर्दोष सिद्ध करने के लिए सात प्रकार की परीक्षाओं का वर्णन किया गया है।

नारद जुआखोरी को सरकार के नियंत्रण के नीचे लाने के पक्ष में थे ताकि राज्य को उससे कुछ आय प्राप्त हो सके। वह विधवा को अपने पति की संपत्ति दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का समर्थन किया। उसने समाज में प्रचलित 15 किस्मों के दासों का वर्णन किया है। इनका मुख्य कार्य उपरोक्त तीन जातियों की सेवा करना था। उनको संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। व्यापार में साझेदारी की प्रथा थी और लाभ तथा हानि सांझेदारों द्वारा लगाई गई पूंजी के हिसाब से बाँटा जाता था। नारद ने दीनार, पन और स्वर्ण नामी सिक्कों का वर्णन किया है। उसने विद्यार्थियों या शिल्पियों की सिखलाई के लिए भी कुछ नियम निर्धारित किये थे। उनको अपने स्वामी की कार्यशाला में जाकर काम सीखना पड़ता था। वे अपने निर्धारित शिक्षाकाल से पहले अपने स्वामी को छोड़ नहीं सकते थे। ऐसा करने वाले शिल्पी को भारी दंड दिया जाता था।

ऊपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि धर्म शास्त्रों में हिंदुओं के विभिन्न कानूनों और रीति-रिवाजों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इनकी बहुत महत्ता है। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“धर्म शास्त्रों ने जिनको स्मृतियाँ भी कहा जाता है, हिंदुओं के जीवन में पिछले दो हज़ार वर्षों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि वेदों को धर्म का अंतिम स्त्रोत समझा जाता है परंतु व्यवहार में सारे भारत के हिंदू अपने धार्मिक कर्तव्यों और रस्मों के लिए स्मृति ग्रंथों की ओर देखते हैं। उनको हिंदू कानून और सामाजिक रीति-रिवाजों का सब से भरोसेयोग्य स्त्रोत भी समझा जाता है।”3

3. “The Dharma Sastras, also called Smritis, have played a very important part in Hindu life during the last two thousand years. Although the Vedas are regarded as the ultimate sources of Dharma, in practice it is the Smriti works to which the Hindus all over India turn for the real exposition of religious duties and usages. They are also regarded as the only authentic sources of Hindu law and social customs.” Dr. R. C. Majumdar, The History and Culture of the Indian People (Bombay : 1953) Vol. 2, pp. 254-55.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुराण साहित्य के प्रमुख लक्षण संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe the salient features of Purana Literature in brief but meaningful.)
अथवा
पुराणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Puranas ?)
उत्तर-पुराण हिंदू धर्म के पुरातन ग्रंथ हैं। पुराण से भाव है प्राचीन। ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। समयसमय पर इनमें तबदीलियाँ की जाती रहीं और नये अध्यायों को जोड़ा जाता रहा। इस तरह पुराणों की रचना अनेक लेखकों द्वारा की गई है। पुराणों को “पाँचवां वेद” कहा जाता था और शूद्रों को इनको पढ़ने की आज्ञा दी गई थी। पुराणों की कुल संख्या 18 है। यह पुराण तीन भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 6 पुराण आते हैं और यह शिव, वैष्णव और ब्रह्म पुराण कहलाते हैं।

प्रश्न 2.
पुराणों में क्या वर्णन किया गया है ? (What is discussed in the Puranas ?)
उत्तर-
पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटे गए हैं। ये भाग हैं—

  1. सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
  2. प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
  3. वंश- इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
  4. मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
  5. वंशानुचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था।

प्रश्न 3.
दो प्रसिद्ध पुराणों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दें। (Describe in brief but meaningfully the two popular Puranas.)
उत्तर-

  1. ब्रह्म पुराण-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं। इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण-यह सबसे विशाल पुराण है। इसमें लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है।

प्रश्न 4.
पुराण साहित्य के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Purana Literature.)
उत्तर-
पुराण भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र पेश करते हैं। आज के हिंदू धर्म में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वह इन पुराणों की ही देन हैं। इन पुराणों में हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं की पूजा विधियों, व्रतों, श्राद्धों, जन्म, विवाह और मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों के बारे भरपूर प्रकाश डाला गया है। मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद इन पुराणों की ही देन है। इन पुराणों ने भारत में पितर पूजा के रिवाज को अधिक प्रचलित किया। पुराणों में दिये गये प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक पक्ष से काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है।

प्रश्न 5.
उपनिषदों से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Upanishads ?)
उत्तर-
उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 550 ई० पू० से 100 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है।

प्रश्न 6.
उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप क्या है ? . (What is the nature of Self and Absolute according to the Upanishads ?)
उत्तर-

  1. आत्मा का स्वरूप-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है।
  2. ब्रह्म का स्वरूप-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है, जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है।

प्रश्न 7.
उपनिषदों के अनुसार ‘ब्रह्म’ निराकार है। प्रकाश डालिए। (According to Upanishads ‘Brahma’ is formless. Elucidate.)
अथवा
उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म जगत का कारक है। चर्चा कीजिए। (According to Upanishads Brahma is the Creator of Universe. Discuss.)
hods ?
उत्तर-
ब्रह्मा को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उसके ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

प्रश्न 8.
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to the Upanishads ?)
उत्तर-
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख-सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।

प्रश्न 9.
भगवद्गीता पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Bhagvadgita.)
उत्तर-
भगवद्गीता हिंदुओं का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। यह महाभारत का एक हिस्सा है। इस को गीता के नाम से अधिक जाना जाता है। इस में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले दिया था। गीता में दिये गये विचार जनसाधारण पर जादुई प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि गीता आज भी हिंदुओं में हरमन प्यारी है। इस में मानव के जीवन की प्रत्येक समस्या का हल सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है।

प्रश्न 10.
कर्मयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Karamayoga.)
उत्तर-
कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई

प्रश्न 11.
ज्ञानयोग से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Jnanayoga ?)
उत्तर-
भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुआ बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 12.
धर्म शास्त्र क्या है ? (What are the Dharma Shastras ?)
उत्तर-
धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गए हैं। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 13.
पुराण साहित्य के प्रमुख लक्षण संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe the salient features of Purana Literature in brief but meaningful.)
अथवा
पुराणों से क्या अभिप्राय है ?
(What is meant by Puranas ?)
उत्तर-
पुराण हिंदू धर्म के पुरातन ग्रंथ हैं। पुराण से भाव है प्राचीन। ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। ये कब लिखे गये इस का कोई पक्का उत्तर अभी तक नहीं मिला है। ये किसी एक शताब्दी की रचना नहीं है। इनका वर्णन अथर्ववेद, उपनिषदों और महाकाव्यों आदि में आता है। समय-समय पर इनमें तबदीलियाँ की जाती रहीं और नये अध्यायों को जोड़ा जाता रहा। गुप्त काल में पुराणों को अंतिम रूप दिया गया। इस तरह पुराणों की रचना अनेक लेखकों द्वारा की गई है। पुराणों को “पाँचवां वेद” कहा जाता था और शूद्रों को इनको पढ़ने की आज्ञा दी गई थी। पुराणों की कुल संख्या 18 है। यह पुराण तीन भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 6 पुराण आते हैं और यह शिव, वैष्णव और ब्रह्म पुराण कहलाते हैं। इनके भाग इस तरह हैं

1. शिव पुराण—

  • वायु ,
  • लिंग,
  • स्कंद,
  • अग्नि,
  • मत्सय और
  • कूर्म।

2. वैष्णव पुराण—

  • विष्णु ,
  • भगवद् ,
  • नारद,
  • गरुड़,
  • पद्म और
  • वराह।

3. ब्रह्म पुराण—

  • ब्रह्म,
  • ब्रह्मांड,
  • ब्रह्मवैव्रत,
  • मारकंडेय,
  • भविष्य और
  • वामन।

प्रश्न 14.
पुराणों में क्या वर्णन किया गया है ? (What is discussed in the Puranas ?)
उत्तर-
पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। मिथिहास वह कथा कहानियाँ होती हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं होता परंतु वे लोगों में बहुत प्रचलित होती हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा होता था। ये भाग हैं—

  1. सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
  2. प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
  3. वंश-इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
  4. मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
  5. वंशानुचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था। यह बात यहाँ याद रखने योग्य है कि हमें मूल पुराण उपलब्ध नहीं हैं । ये पुराण हमें आजकल जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं । यह आवश्यक नहीं है कि उनका विभाजन इसी प्रकार हो।

प्रश्न 15.
किसी पाँच पुराणों का संक्षिप्त वर्णन करो।
(Give a brief account any five Puranas.)
अथवा
चार प्रसिद्ध पुराणों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दें। (Describe in brief but meaningfully the four popular Puranas.)
उत्तर-

  1. ब्रह्म पुराण-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं । इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण-यह सबसे विशाल पुराण है। इसमें लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है।
  3. विष्णु पुराण-इस पुराण में 23,000 श्लोक दिये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि विष्णु ही सर्वोच्च देवता है। उसने ही संसार की रचना की और पालनहार है। इसमें दी गई कथाओं में प्रह्लाद और ध्रुव की कथायें प्रसिद्ध हैं। इस में इस संसार और स्वर्ग के लोगों की अनेकों विचित्र बातों का भी वर्णन है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है।
  4. वायु पुराण-इस पुराण में 11,000 श्लोक हैं। इस में शिव की महिमा के साथ संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इस लिए इस को शिव पुराण भी कहते हैं। इस में अनेक वंशों का वर्णन किया गया है। प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण इन की बहुत ऐतिहासिक महत्ता है।
  5. भगवद् पुराण-विष्णु देवता के साथ संबंधित पुराणों में भगवद् पुराण सब से अधिक लोकप्रिय है। इस में कृष्ण के जीवन से संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध और साक्ष्य दर्शन के संस्थापक कपिल को विष्णु का अवतार बताया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इस पुराण का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

प्रश्न 16.
पुराण साहित्य के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Purana Literature.) .
अथवा
पुराण साहित्य की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What are the salient features of Purana Literature ?).
अथवा
हिंदू धर्म में पुराणों का बहुत महत्त्व है ? चर्चा कीजिए।
(Puranas are very important in Hinduism. Discuss.)
अथवा
हिंदू धर्म में पुराणों का आध्यात्मिक महत्त्व संक्षिप्त रूप में दर्शाएं। (Show in brief the spiritual importance of Puranas in Hinduism.)
अथवा
पुराण साहित्य की महानता के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of Purana Literature.)
उत्तर-
पुराण भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र पेश करते हैं। आज के हिंदू धर्म में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वह इन पुराणों की ही देन हैं। इन पुराणों में हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं की पूजा विधियों, व्रतों, श्राद्धों, जन्म, विवाह और मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों के बारे भरपूर प्रकाश डाला गया है। मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद की कल्पना इन पुराणों की ही देन है। इन पुराणों ने भारत में पितर पूजा के रिवाज को अधिक प्रचलित किया। लोगों को दान देने के लिए प्रेरित किया गया। पुराणों में दिये गये प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक पक्ष से काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है। इन में तीर्थ स्थानों और मंदिरों के विवरण से हमें उस समय की कला के बारे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन के अतिरिक्त ये पुराण प्राचीन कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्था के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हैं। निस्संदेह यदि पुराणों को भारतीय संस्कृति का विश्वकोष कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी।

प्रश्न 17.
उपनिषदों से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Upanishads ?)
अथवा
पाँच उपनिषदों के नाम और उनकी महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the name of five Upanishads and their importance.)
अथवा
उपनिषद् साहित्य के बारे में जानकारी दीजिए।
(Give information about Upanishads literature.)
उत्तर-
उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदाँत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहुत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”

प्रश्न 18.
उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप क्या है ? (What is the nature of Self and Absolute according to the Upanishads ?)
उत्तर-
1. आत्मा का स्वरूप-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। आत्मा नित भी है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता।

2. ब्रह्म का स्वरूप-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है, जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उस के ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निसंदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

प्रश्न 19.
उपनिषदों के अनुसार ‘ब्रह्म’ निराकार है। प्रकाश डालिए। (According to Upanishads ‘Brahma’ is formless. Elucidate.)
अथवा
उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म जगत का कारक है। चर्चा कीजिए।
(According to Upanishads Brahma is the Creator of Universe. Discuss.)
उत्तर –
‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है जिस का अर्थ उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उसके ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

प्रश्न 20.
पाँच कोषों के सिद्धांत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Doctrine of five Layers ?)
उत्तर-
आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए तैतरीय उपनिषद् में पाँच कोषों का सिद्धांत पेश किया गया है। ये पाँच कोष हैं—

  1. अन्नमयी कोष-यह अचेतन और निर्जीव पदार्थ है। यह भौतिक स्तर पर आता है।
  2. प्राणमयी कोष-यह जीवन स्तर पर आता है। इस में सारी वनस्पति और पशु शामिल है।
  3. मनोमयी कोष-यह चेतना का स्तर है। यह जीवन का उद्देश्य है। जीवन चेतना तक पहुँच कर खुश होता है।
  4. विज्ञानमयी कोष-यह आत्म चेतन का स्तर है। इस में चेतना अपने अंदर तार्किक बुद्धि का विकास करती है।
  5. आनंदमयी कोष-यह आत्मा का वास्तविक स्तर है। इस में अनेकता और भेद की भावना नष्ट हो जाती है। पहले चारों कोष इस आनंद में लीन हो जाते हैं जो उनके विकास की अंतिम मंज़िल है। इस तरह पाँच कोष सिद्धांत यह सिद्ध करता है कि आत्मा शुद्ध चेतन आनंद स्वरूप है।

प्रश्न 21.
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to the Upanishads ?)
उत्तर-
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष मनुष्य के ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है जिस पर पहुँच कर मनुष्य सब कुछ जान लेता है और सब कुछ पा लेता है। मोक्ष के आनंद के आगे संसार के सभी आनंद घटिया हैं। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष केवल ज्ञान के मार्ग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 22.
कर्मयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a short note on the Karamayoga.)
उत्तर-
कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उसके फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म जमांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उसको अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सबसे ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

प्रश्न 23.
भक्तियोग का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the Bhaktiyoga.)
उत्तर-
भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है—

  1. प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  2. स्वार्थ भक्ति- ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  3. ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  4. निर्गुण भक्ति- यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  5. सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  6. कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है ।
  7. श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए है जो कम पढ़े-लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

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प्रश्न 24.
ज्ञानयोग से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Jnanayoga ?)
उत्तर-
भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में से ज्ञानयोग को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति न ही सच्चा कर्मयोगी हो सकता है और न ही सच्चा भक्त हो सकता है। मानव जीवन की प्राप्ति के बाद जो जीव अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह कर्मों के चक्र से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुआ बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 25.
भगवद्गीता पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Bhagvadgita.)
उत्तर-
भगवद्गीता हिंदुओं का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। यह महाभारत का एक हिस्सा है। इस को गीता के नाम से अधिक जाना जाता है। इस में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले दिया था। उपनिषदों में दी गई विचारधारा आम लोगों की समझ से बाहर थी। गीता में दिये गये विचार जनसाधारण पर जादुई प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि गीता आज भी हिंदुओं में हरमन प्यारी है। इस में मानव के जीवन की प्रत्येक समस्या का हल सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। गीता मुक्ति के लिए कोई एक जीवन मार्ग नहीं बताता। इस का कथन है कि अगर मनुष्य के स्वभाव अलग-अलग हैं, तो उसको अलग-अलग मार्गों के द्वारा ही अपने उच्चतम उद्देश्य पर पहुँचना होगा। ये तीन मार्ग हैं-कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। मनुष्य अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार ही अपने जीवन का मार्ग चुनते हैं।

प्रश्न 26.
धर्म शास्त्र के प्रमुख लक्षण संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Dharma Shastras.)
अथवा
धर्म शास्त्र क्या है?
(What are the Dharma Shastras ?)
अथवा
धर्म शास्त्रों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Dharma Shastras.)
अथवा
शास्त्र साहित्य के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Shastra Literature.)
अथवा
धर्म शास्त्रों के साहित्यिक महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the literary importance of Dharma Shastras.)
उत्तर-
धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं। इनको स्मृति भी कहा जाता है। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन धर्म शास्त्रों के रचना काल के बारे इतिहासकारों में मतभेद हैं। आम सुझाव यह है कि इनकी रचना पहली सदी ई० पू० से पाँचवीं सदी ई० पू० के मध्य हुई। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गये हैं। इनमें केवल विष्णु स्मृति गद्य रूप में लिखी गई है जबकि बाकी के तीनों धर्म शास्त्र कविता के रूप में लिखे गये हैं। इन धर्म शास्त्रों में प्राचीन कालीन भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 27.
मनु स्मृति पर संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Manu Smriti.)
अथवा
मनु स्मृति के बारे में जानकारी दें। (Give information about Manu Smriti.)
उत्तर-
मनु स्मृति को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस की रचना मनु ने की थी। मनु को संसार का पहला कानूनदाता माना जाता है। उसने अपनी रचना में धर्म की उत्पत्ति और उसके स्रोतों के बारे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की है। इस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य अंकित किये गये हैं। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और शूद्रों को सब से नीच समझा जाता है। इस में मानव जीवन के चार आश्रमों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों और महत्त्व के बारे बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की गई है। इस में मनु ने राजाओं को कौन से नियमों की पालना करनी चाहिए के बारे में जानकारी दी है। उस अनुसार राजा को प्रशासन प्रबंध चलाने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन करना चाहिए। राजा को स्थानिक प्रबंध में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए। मनु का कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों और बुजुर्गों के सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उनके नाराज़ होने पर भी हमें गुस्से में नहीं आना चाहिए। क्योंकि हम उन के ऋण को चुका नहीं सकते। जो व्यक्ति इन का निरादर करता है उस को 100 पन जुर्माना किया जाये। मनु के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और संपत्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए।

प्रश्न 28.
चार आश्रम से क्या अभिप्राय है ?
(What do you mean by the Four Ashramas ?) .
उत्तर-
मनु ने मनुष्य के जीवन को 100 वर्षों का मान कर उसको 25-25 वर्षों के चार आश्रमों में बाँटा। इनके नाम थे-ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। ये सारे आश्रम ऊपर लिखित तीन जातियों के लिए निर्धारित किये गये थे। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य था। इस में बच्चा 5 वर्ष से लेकर 25 वर्षों तक विद्या प्राप्त करता था। गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य विवाह करके संतान उत्पन्न करता था। वह अपने परिवार के पालन-पोषण का पूरा ख्याल रखता था। परिवार में पुत्र का होना जरूरी समझा जाता था। वाणप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य अपना घर बाहर छोड़ कर जंगलों में चला जाता था और तपस्वी जीवन व्यतीत करने का यत्न करता था। चौथा और अंतिम आश्रम संन्यास का था। यह 75 से 100 वर्षों तक चलता था। इस में मनुष्य एक संन्यासी की भाँति जीवन व्यतीत करता था और मुक्ति प्राप्त करने का यत्न करता था।

प्रश्न 29.
मनु स्मृति में स्त्रियों संबंधी क्या विचार दिए गए हैं ? (What views are given about women in Manu Smriti ?)
उत्तर-
मनु स्त्रियों को स्वतंत्रता दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसका विचार था कि अविवाहित लड़की का उसके पिता द्वारा, विवाहित लड़की का उसके पति द्वारा और पति की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों द्वारा ख्याल रखा जाना चाहिए। उस का कहना था कि स्त्रियाँ पुरुष को गलत रास्ते पर लगाती हैं। वह स्त्रियों की बातों पर विश्वास किये जाने के पक्ष में नहीं थे। मनु ने बाल विवाह का समर्थन किया। उसका कहना था कि लड़कियों की 8 से 12 वर्ष की आयु तक शादी कर देनी चाहिए। मनु ने विधवा विवाह और नियोग प्रथा का विरोध किया। नियोग प्रथा के अनुसार कोई विधवा पुत्र पैदा करने के लिए अपने किसी देवर से विवाह करवा सकती थी। मनु स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिये जाने के पक्ष में नहीं था। वह केवल ‘स्त्री धन’ जो दहेज के रूप में अपने साथ लाई थी प्राप्त कर सकती थी। स्त्रियों पर लगाये गये इन प्रतिबंधों के बावजूद मनु ने गृहणी के रूप में स्त्रियों का बड़ा सम्मान किया है। उसका कहना था, “जहाँ स्त्रियों का सत्कार किया जाता है वहाँ परमात्मा निवास करता है जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं किया जाता वहाँ सारे धार्मिक कार्य बेकार हो जाते हैं।”

प्रश्न 30.
याज्ञवल्कय स्मृति से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you know about Yajnavalkya Smriti ?)
उत्तर-
याज्ञवल्कय स्मृति चाहे मनु स्मृति के मुकाबले संक्षेप है परंतु वह अनेक पक्षों से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। इस में दिया गया वर्णन नियमबद्ध है और भाषा प्रवाहमयी है। इस का रचनाकाल 100 ई० पू० से 300 ई० के मध्य माना जाता है। याज्ञवल्कय की स्मृति तीन अध्यायों में बाँटी गई है। पहले अध्याय में गर्भ धारण करने से लेकर विवाह तक के संस्कार, पत्नी के कर्त्तव्य, चार वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, यज्ञ, दान के नियमों ,श्राद्ध के नियमों और उन्हें करवाने से प्राप्त फल, राजा और उसके मंत्रियों के लिए निर्धारित योग्यतायें, न्याय व्यवस्था और अपराधियों के लिए सज़ायें और कर व्यवस्था आदि का वर्णन है। दूसरे अध्याय में धर्म शास्त्र और अर्थ शास्त्र में अंतर, संपत्ति के स्वामित्व संबंधी, दास, जुए, चोरी, बलात्कार, सीमावाद संबंधी आदि के नियमों की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय में मनुष्य के अंतिम संस्कार, शोक काल, शुद्धि के साधन, आत्मा, मोक्ष मार्ग, पापियों, योगियों, आत्म ज्ञान के साधनों, नरक, प्रायश्चित के उद्देश्य, मदिरापान और जीव हत्या आदि विषयों के बारे प्रकाश डाला गया है।

प्रश्न 31.
विष्णु स्मृति पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Vishnu Smriti.)
उत्तर-
इस स्मृति की रचना 100 ई० से 300 ई० के मध्य की गई थी। यह गद्य रूप में लिखी गई थी। इस में कछ श्लोक मनु और याज्ञवल्कय स्मृतियों में से लिये गये हैं। विष्णु स्मृति में आर्यव्रत का क्षेत्र मनु स्मृति के मुकाबले अधिक विस्तारपूर्वक माना है। इस में लगभग सारा भारत शामिल है। इस से सिद्ध होता है कि विष्णु स्मृति की रचना के समय आर्य सारे भारत में बिखर गये थे। राजा प्रशासन की धुरी होता था। अपने राज्य का विस्तार करना और प्रजा की रक्षा करना उसके प्रमुख कार्य समझे जाते थे। राजा प्रशासन प्रबंध को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से एक मंत्रि परिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति का मुख्य आधार उनकी योग्यता और राज्य के प्रति वफादारी थी। विष्णु स्मृति जुए के विरुद्ध थी और इसको समाज पर एक घोर कलंक समझती थी। यह समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था और आश्रम प्रथा में विश्वास रखती थी। इस काल में स्त्रियों की दशा पहले से बदत्तर (बुरी) हो गई। इस का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि उस समय समाज में सती प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया था। विष्णु स्मृति में लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है।

प्रश्न 32.
नारद स्मृति के बारे में आप क्या जानते हो? (What do you know about Narda Smriti ?)
उत्तर-
इस स्मृति की रचना 100 ई० से 400 ई० के मध्य की गई थी। इस स्मृति में भी कुछ श्लोक मनु स्मृति से लिये गये हैं परंतु इस की अनेक विशेषतायें अपनी हैं। राज्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित सूचना देने के लिए राजा की ओर से गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। कुल, श्रेणी और गण जनहित संस्थायें थीं। ये संस्थायें अपने नियम बनाती थीं। राजा उन के आंतरिक मामलों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। नारद स्मृति में राज्य के न्याय प्रबंध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। राजा को राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके निर्णय अंतिम होते थे। यदि किसी चोर को न पकड़ा जा सकता तो चोरी हुए सामान का मूल्य राजा को अपने खज़ाने से देना पड़ता है। चोर को शरण देना या चोरी का सामान खरीदने वाले को भी सज़ा का बराबर हकदार माना जाता था। अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ायें निर्धारित की गई हैं। निर्दोष सिद्ध करने के लिए सात प्रकार की परीक्षाओं का वर्णन किया गया है। नारद जुआखोरी को सरकार के नियंत्रण के नीचे लाने के पक्ष में थे ताकि राज्य को उससे कुछ आय प्राप्त हो सके। वह विधवा को अपने पति की संपत्ति दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का समर्थन किया। उसने समाज में प्रचलित 15 किस्मों के दासों का वर्णन किया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. पुराण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-पुराण से अभिप्राय है प्राचीन।

प्रश्न 2. पुराण किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर-संस्कृत।

प्रश्न 3. पाँचवां वेद किसे कहा जाता है ?
उत्तर-पुराणों को।

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प्रश्न 4. कुल कितने पुराण हैं ?
अथवा
पुराणों की कुल संख्या बताएँ।
उत्तर-18.

प्रश्न 5. पुराणों को कितने भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-पुराणों को तीन भागों में बाँटा गया है।

प्रश्न 6. पुराणों को कौन-से तीन भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-

  1. शिव पुराण
  2. वैष्णव पुराण
  3. ब्रह्म पुराण।

प्रश्न 7. पुराण कितने माने जाते हैं ? पांच के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. पुराण 18 माने जाते हैं।
  2. पांच पुराणों के नाम शिव पुराण, विष्णु पुराण, लिंग पुराण, ब्रह्मण्ड पुराण और पदम पुराण थे।

प्रश्न 8. दो प्रसिद्ध पुराणों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. शिव पुराण
  2. वैष्णव पुराण।

प्रश्न 9. शिव पुराण में शामिल किसी एक पुराण का नाम लिखो।
उत्तर- लिंग पुराण।

प्रश्न 10. वैष्णव पुराण में शामिल किसी एक पुराण का नाम बताओ।
उत्तर-विष्णु पुराण।।

प्रश्न 11. ब्रह्म पुराण में शामिल एक पुराण का नाम बताओ।
उत्तर- ब्रह्मांड पुराण।

प्रश्न 12. प्रत्येक पुराण को कितने भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर- पाँच भागों में।

प्रश्न 13. पुराणों के किस भाग में संसार की उत्पत्ति के बारे में वर्णन किया गया है ?
उत्तर-सर्ग भाग में।

प्रश्न 14. पुराणों के किस भाग को ऐतिहासिक पक्ष से महत्त्वपूर्ण समझा जाता है ?
उत्तर–पाँचवें भाग को।

प्रश्न 15. पुराणों में से कौन-सा पुराण सर्वाधिक प्राचीन है ?
उत्तर-ब्रह्म पुराण।

प्रश्न 16. ब्रह्म पुराण को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-आदि पुराण।।

प्रश्न 17. ब्रह्म पुराण में कितने श्लोक हैं ?
उत्तर-14,000 श्लोक।

प्रश्न 18. अग्नि पुराण और भविष्य पुराण में श्लोकों की गिनती बताओ।
उत्तर-अग्नि पुराण में श्लोकों की संख्या 15,400 तथा भविष्य पुराण में श्लोकों की संख्या 14,000 है।.

प्रश्न 19. कौन-सा पुराण सर्वाधिक विशाल है ?
उत्तर-पदम पुराण।

प्रश्न 20. पदम पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-55,000 श्लोक।

प्रश्न 21. सबसे बड़ा पुराण कौन-सा है और उसमें कितने श्लोक हैं ?
उत्तर- सबसे बड़ा पुराण पदम पुराण तथा उसमें 55,000 श्लोक हैं।

प्रश्न 22. विष्णु पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-23,000 श्लोक।

प्रश्न 23. वायु पुराण को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-शिव पुराण।

प्रश्न 24. भगवद् पुराण का संबंध कौन-से देवता के साथ संबंधित है ?
अथवा
भगवद् पुराण किस देवते से संबंधित है ?
उत्तर- भगवद् पुराण विष्णु देवता के साथ संबंधित है।

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प्रश्न 25. नारद पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-25,000 श्लोक।

प्रश्न 26. नारद पुराण किस देवता के साथ संबंधित है ?
उत्तर-विष्णु देवता के साथ।

प्रश्न 27. किस पुराण में सबसे कम श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-मारकंडेय पुराण।

प्रश्न 28. मारकंडेय पुराण में कुल कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-900 श्लोक।

प्रश्न 29. मारकंडेय पुराण में वर्णन किए गए किन्हीं दो देवताओं के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. इंद्र
  2. अग्नि।

प्रश्न 30. भविष्य पुराण कौन-से देवताओं के साथ संबंधित है ?
उत्तर-

  1. ब्रह्म
  2. विष्णु
  3. शिव
  4. सूर्य।

प्रश्न 31. स्कंद पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-51,000 श्लोक।

प्रश्न 32. स्कंद पुराण किस देवता के साथ संबंधित है ?
उत्तर-शिव देवता के साथ।

प्रश्न 33. मत्स्य पुराण में किनके मध्य वार्तालाप का वर्णन मिलता है ?
उत्तर-मत्स्य (मछली) तथा मनु के मध्य ।

प्रश्न 34. गरुढ़ पुराण किस देवता के साथ संबंधित है ?
उत्तर-विष्णु देवता के साथ।

प्रश्न 35. पुराणों का एक मुख्य विषय बताओ।
उत्तर-संसार की उत्पत्ति।

प्रश्न 36. उपनिषद् से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
उपनिषद् की परिभाषा करें।
उत्तर-उपनिषद् से अभिप्राय है श्रद्धा भाव से नज़दीक बैठना।

प्रश्न 37. उपनिषदों को वेदांत क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-क्योंकि इनको वेदों का अंतिम भाग माना जाता है।

प्रश्न 38. उपनिषदों की रचना किस भाषा में की गई है ?
उत्तर-संस्कृत।

प्रश्न 39. उपनिषदों का रचना काल क्या है ?
उत्तर-550 ई० पू० से 100 ई० पू०

प्रश्न 40. उपनिषदों की कुल संख्या क्या है ?
उत्तर-108.

प्रश्न 41. मुख्य उपनिषद कितने हैं ?
उत्तर-मुख्य उपनिषद् 11 हैं।

प्रश्न 42. प्रसिद्ध पाँच उपनिषदों के नाम बताएँ।
अथवा
किन्हीं दो उपनिषदों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. ईश
  2. केन
  3. कठ
  4. प्रश्न
  5. तैतरीय।

प्रश्न 43. दो प्रथम उपनिषदों के नाम बताएँ।
उत्तर-छांदोग्य तथा वृहद आरण्यक।

प्रश्न 44. आरंभ में कितने उपनिषद थे ? इनमें से पाँच के नाम बताओ।
अथवा
आरंभ में उपनिषदों की संख्या कितनी थी ? चार के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. आरंभ में उपनिषदों की संख्या 11 थी।
  2. इनमें से पाँच के नाम ईश, केन, कठ, तैतरीय और प्रश्न हैं।

प्रश्न 45. छांदोग्य एवं वृहद आरण्यक नाम के उपनिषदों की रचना कब हुई ?
उत्तर-550 ई० पू० से 450 ई० पू०।

प्रश्न 46. उपनिषदों के कोई दो मुख्य विषय बताएँ।
उत्तर-

  1. आत्मा का स्वरूप
  2. कर्म का सिद्धांत।

प्रश्न 47. उपनिषदों के अनुसार क्या आत्मा परिवर्तनशील है ?
उत्तर-नहीं।

प्रश्न 48. उपनिषदों में वर्णन किये गए दो नैतिक गण बताएँ।
उत्तर-

  1. सदा सच बोलो
  2. सभी जीवों से प्यार करो।

प्रश्न 49. उपनिषदों के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-मोक्ष प्राप्त करना।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 50. भगवद् गीता किस महाकाव्य का हिस्सा है ?
उत्तर-भगवद् गीता महाभारत का हिस्सा है।

प्रश्न 51. भगवद् गीता की रचना किस भाषा में की गई है ?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 52. भगवद् गीता में कितने श्लोकों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-700 श्लोकों का।

प्रश्न 53. भगवद् गीता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-परमात्मा का गीत।

प्रश्न 54. भगवद् गीता में अंकित उपदेश किसने किसे दिया था ?
उत्तर-भगवद् गीता में अंकित उपदेश भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।

प्रश्न 55. भगवद् गीता में कितने योगों का वर्णन है ?
उत्तर- भगवद् गीता में तीन योगों का वर्णन है।

प्रश्न 56. गीता के तीन योग कौन-से हैं ?
उत्तर-गीता के तीन योग हैं-कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग।

प्रश्न 57. गीता का कोई एक उपदेश बताएँ।
उत्तर–प्रत्येक व्यक्ति को कर्मों का फल ज़रूर भोगना पड़ता है।

प्रश्न 58. गीता के अनुसार भक्ति कितनी तरह की होती है ?
उत्तर-गीता के अनुसार भक्ति तीन तरह की होती है।

प्रश्न 59. गीता में दिए भक्तियोग की कोई एक किस्म बताएँ।
उत्तर-ज्ञान भक्ति।

प्रश्न 60. भगवद् गीता का सबसे पहले अंग्रेज़ी में अनुवाद किसने किया ?
उत्तर-एडविन अरनोल्ड ने।

प्रश्न 61. किस विद्वान् ने भगवद गीता पर टीका लिखा ?
उत्तर-रामानुज ने भगवद् गीता पर टीका लिखा।

प्रश्न 62. धर्म शास्त्रों से क्या भाव है ?
अथवा धर्म शास्त्र क्या हैं ?
उत्तर-धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं।

प्रश्न 63. धर्म शास्त्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण व प्रसिद्ध कौन-सा है ?
उत्तर-मनुस्मृति।

प्रश्न 64. धर्म शास्त्र किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 65. कौन-सा धर्म शास्त्र सर्वाधिक प्राचीन है ?
उत्तर-मनु शास्त्र

प्रश्न 66. मानवता का पितामह किसको माना जाता है ?
उत्तर-मानवता का पितामह मनु को माना जाता है।

प्रश्न 67. मनुस्मृति का लेखक कौन था ?
उत्तर-मनु।

प्रश्न 68. मनु स्मृति को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-मानवधर्म शास्त्र।

प्रश्न 69. किस धर्म शास्त्र में चार वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन किया जाता है ?
उत्तर-मनु स्मृति में।

प्रश्न 70. मानवता के जीवन को कितने आश्रमों में बाँटा गया है ?
उत्तर-चार आश्रमों में।

प्रश्न 71. शास्त्रों में दर्शाए गए चार आश्रमों के नाम लिखें।
अथवा
मनु स्मृति में कौन-से चार आश्रम बताए गए ?
उत्तर-शास्त्रों में दर्शाए चार आश्रमों के नाम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और सन्यास हैं।

प्रश्न 72. किसी एक आश्रम का नाम लिखो।
उत्तर-गृहस्थ आश्रम।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 73. क्या मनु स्मृति के अनुसार शूद्रों को वेदों के पढ़े जाने की आज्ञा दी जानी चाहिए ?
उत्तर-नहीं।

प्रश्न 74. मनु स्मृति में धर्म के कितने स्रोत बताए गए हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 75. मनु स्मृति के अनुसार धर्म का कोई एक स्रोत बताएँ।
उत्तर-वेद।

प्रश्न 76. कौन-सा धर्म शास्त्र समाज में जुए के विरुद्ध था ?
उत्तर-विष्णु स्मृति।

प्रश्न 77. कौन-सा धर्म शास्त्र विधवा विवाह के पक्ष में था ?
उत्तर-नारद स्मृति।

प्रश्न 78. धर्म शास्त्रों में किन विषयों को छुआ गया है ?
उत्तर-धर्म शास्त्रों में कानूनों तथा समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों को छुआ गया है।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. पुराण से भाव ……….. है।
उत्तर-प्राचीन

प्रश्न 2. पुराण ………….. भाषा में लिखे गए थे।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 3. पुराणों की कुल संख्या ………. है।
उत्तर-18

प्रश्न 4. प्रत्येक पुराण ……….. भागों में विभाजित है।
उत्तर- पाँच

प्रश्न 5. ………… में संसार की उत्पत्ति के बारे में वर्णन किया गया है।
उत्तर-सर्ग

प्रश्न 6. ………… में प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-वंशानचरित

प्रश्न 7. ब्रह्म पुराण को ……….. भी कहा जाता है।
उत्तर-आदि पुराण

प्रश्न 8. सबसे विशाल पुराण का नाम ………. पुराण है।
उत्तर-पद्म

प्रश्न 9. वायु पुराण को ……….. पुराण भी कहते थे।
उत्तर-शिव

प्रश्न 10. गरुड़ पुराण में ………….. श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-18,000

प्रश्न 11. नारद पुराण में ………….. श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-25,000

प्रश्न 12. ……………. पुराण सभी पुराणों में से छोटा है।
उत्तर-मारकंडेय पुराण

प्रश्न 13. उपनिषदों को ……… भी कहा जाता है।
उत्तर-वेदांत

प्रश्न 14. उपनिषदों ने ………. कोषों का सिद्धांत प्रचलित किया।
उत्तर-पाँच

प्रश्न 15. भगवद्गीता …………’का एक भाग है।
उत्तर-महाभारत

प्रश्न 16. भगवद्गीता में ………… श्लोक हैं।
उत्तर-700

प्रश्न 17. गीता का उपदेश ……….. ने दिया।
उत्तर-श्री कृष्ण जी

प्रश्न 18. भगवद्गीता में ……… योगों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-तीन

प्रश्न 19. धर्मशास्त्र ……….. भाषा में लिखे गए हैं।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 20. ……… को मानवता का पितामह कहा जाता है।
उत्तर-मनु

प्रश्न 21. मनुस्मृति को ………… धर्मशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-मानव

प्रश्न 22. मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और संपत्ति के अधिकार ……… होना चाहिए।
उत्तर-नहीं

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. पुराणों की रचना संस्कृत भाषा में की गई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. पुराणों को पाँचवां वेद भी कहा जाता था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. पुराणों की कुल संख्या 10 है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 4. ब्रह्म पुराण सबसे विशाल पुराण है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. पद्म पुराण में 55,000 श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. वायु पुराण को शिव पुराण भी कहते हैं।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 7. भगवद् पुराण में शिव की महिमा गाई गई है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. नारद् पुराण विष्णु भक्ति के साथ संबंधित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. पुराणों में अग्नि पुराण सबसे छोटा पुराण है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 10. भविष्य पुराण में 14,000 श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. संकद पुराण में 51,000 श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. मत्स्य पुराण में एक मछली और मनु के मध्य वार्तालाप का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. उपनिषदों की कुल संख्या 108 है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. उपनिषदों की रचना पालि भाषा में की गई है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. उपनिषद पाँच कोषों के सिद्धांत में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. भगवद्गीता रामायण का ही एक भाग है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 17. भगवद्गीता को 18 अध्यायों में बांटा गया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. गीता का उपदेश श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को दिया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 19. भगवद्गीता चार योगों में विश्वास रखता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 20. हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथों को धर्मशास्त्रों के नाम से जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 21. मनुस्मृति की रचना याज्ञवल्कय ने की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 22. मानवता का पितामाह मनु को माना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 23. नारद स्मृति विधवा विवाह के पक्ष में था।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
पुराणों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 6
(ii) 10
(iii) 15
(iv) 18
उत्तर-
(iv) 18

प्रश्न 2.
पुराण किस भाषा में लिखे गए हैं ?
(i) संस्कृत
(ii) हिंदी
(iii) खड़ी बोली
(iv) बृजभाषा।
उत्तर-
(i) संस्कृत

प्रश्न 3.
पुराणों को कितने भागों में विभाजित किया गया है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 6
उत्तर-
(i) 3

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण शिव पुराण नहीं है ?
(i) वायु
(ii) विष्णु
(iii) स्कंद
(iv) लिंग।
उत्तर-
(ii) विष्णु

प्रश्न 5.
पुराणों के किस भाग में प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों का वर्णन किया गया है ?
(i) वंश
(ii) वंशानुचरित
(iii) सर्ग
(iv) मनवंत्र।
उत्तर-
(i) वंश

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण सबसे प्राचीन है ?
(i) ब्रह्म पुराण
(ii) पद्म पुराण
(iii) विष्णु पुराण
(iv) अग्नि पुराण।
उत्तर-
(i) ब्रह्म पुराण

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण सबसे विशाल है ?
(i) विष्णु पुराण
(ii) स्कंद पुराण
(iii) वामन पुराण
(iv) पद्म पुराण।
उत्तर-
(iv) पद्म पुराण।

प्रश्न 8.
पद्म पुराण में दिए गए श्लोकों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 15,000
(ii) 23,000
(iii) 51,000
(iv) 55,000.
उत्तर-
(iv) 55,000.

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण सबसे छोटा है ?
(i) वराह पुराण
(ii) वामन पुराण
(iii) पद्म पुराण
(iv) मार्कंडेय पुराण।
उत्तर-
(iv) मार्कंडेय पुराण।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किस पुराण में अंतिम संस्कार संबंधी जानकारी दी गई है, ?
(i) नारद पुराण
(ii) वायु पुराण
(iii) गरुड़ पुराण
(iv) भविष्य पुराण।
उत्तर-
(iii) गरुड़ पुराण

प्रश्न 11.
उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 6
(ii) 11
(iii) 18
(iv) 108.
उत्तर-
(iv) 108.

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन-सा उपनिषद् नहीं है ?
(i) ईश
(ii) केन
(iii) छंद
(iv) स्कंद।
उत्तर-
(iv) स्कंद।

प्रश्न 13.
भगवद्गीता का उपदेश किसने दिया था ?
(i) श्री कृष्ण जी
(ii) अर्जुन
(iii) श्री रामचंद्र जी
(iv) शिव जी।
उत्तर-
(i) श्री कृष्ण जी

प्रश्न 14.
भगवद्गीता निम्नलिखित में से किस ग्रंथ का भाग है ?
(i) रामायण
(ii) महाभारत
(iii) बौद्धचरित
(iv) कथावथु।
उत्तर-
(ii) महाभारत

प्रश्न 15.
भगवद्गीता में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
(i) 500
(ii) 700
(iii) 800
(iv) 900.
उत्तर-
(i) 500

प्रश्न 16.
हिंदुओं के प्राचीन कानूनी ग्रंथों को क्या कहा जाता है ?
(i) वेद
(ii) महाभारत
(iii) रामायण
(iv) धर्मशास्त्र।
उत्तर-
(iv) धर्मशास्त्र।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित में से किस शास्त्र को मानव धर्म शास्त्र के नाम से जाना जाता है ?
(i) याज्ञवल्कय स्मृति
(ii) मनु स्मृति
(iii) विष्णु स्मृति
(iv) नारद स्मृति।
उत्तर-
(ii) मनु स्मृति

प्रश्न 18.
मानवता का पितामह किसे माना जाता है ?
(i) नारद
(ii) विष्णु
(iii) मनु
(iv) याज्ञवल्कय।
उत्तर-
(iii) मनु

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण स्त्रियों की स्वतंत्रता के विरुद्ध था ?
(i) मनु स्मृति
(ii) नारद स्मृति
(ii) विष्णु स्मृति
(iv) याज्ञवल्कय स्मृति।
उत्तर-
(i) मनु स्मृति

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षण एवं महत्ता का वर्णन कीजिए।
(Describe the salient features and importance of Vedic literature.)
अथवा
चार वेदों के प्रमुख लक्षणों के बारे में भावपूर्ण संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Describe the Pre-eminent features of four Vedas in brief but meaningful.)
अथवा
वैदिक साहित्य से क्या भाव है ? आरम्भिक और उत्तर वैदिक काल के साहित्य का संक्षेप में वर्णन करो।
(What is meant by Vedic literature ? Explain briefly the early and later Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य की संक्षेप जानकारी दो । चार वेदों पर संक्षेप में नोट लिखें।
(Give a brief introduction of Vedic literature. Write short notes on four Vedas as well.)
अथवा
वैदिक साहित्य की मुख्य विशेषताओं और महत्ता का वर्णन करो। (Explain the main features and importance of the Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के बारे बताएँ।
(Give a brief introduction about the Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the salient features of Vedic literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य से भाव उस साहित्य से है जिसकी रचना आर्यों ने की थी। इस साहित्य को अनमोल ज्ञान का भंडार माना जाता है। इस में जीवन की आध्यात्मिक और अन्य समस्याओं के समाधान का वर्णन किया गया है। निस्संदेह वैदिक साहित्य को लिखने का मुख्य उद्देश्य धार्मिक था परन्तु इस से वैदिक और उत्तर वैदिक काल के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन की भी स्पष्ट झलक प्राप्त होती है। इसी कारण इस साहित्य को प्राचीन काल भारतीय इतिहास लिखने के लिए एक बहुत ही विश्वसनीय स्रोत माना जाता है। यह सारा साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। रचना काल के आधार पर वैदिक साहित्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है। आरंभिक वैदिक काल का साहित्य और उत्तर वैदिक काल का साहित्य। इनका संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

(क) आरंभिक वैदिक काल का साहित्य (Early Vedic Literature)-
आरंभिक वैदिक काल के साहित्य में चार वेद, ब्राह्मण, आरण्य और उपनिषद् आदि शामिल हैं। इस साहित्य को स्मति भी कहा जाता है क्योंकि इसकी रचना मनुष्यों के द्वारा नहीं बल्कि परमात्मा के बताये जाने पर ऋषियों द्वारा की गई। इसलिए इस साहित्य को परमात्मा के ज्ञान का भंडार माना जाता है।

1. चार वेद (The Four Vedas)-वेदों को भारत का सब से प्राचीन साहित्य माना जाता है। इन को सारे भारतीय दर्शन का मूल माना जाता है। वेद शब्द “विद” धातु से निकला है जिसका अर्थ है “जानना” या “ज्ञान”। दूसरे शब्दों में वेदों को आर्यों के ज्ञान का भंडार कहा जा सकता है। वेद चार हैं :-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

ऋग्वेद (The Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है। इस की रचना 1500-1000 ई० पू० में हुई। इस में 1028 सूक्त हैं जिनको 10 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की उपासना की गई है। सबसे अधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। इनकी संख्या 250 है। ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। इन की पूजा लड़ाई में विजय के लिए, धन और संतान तथा सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद को आर्य लोगों के जीवन को जानने के लिए बहुमूल्य स्रोत माना जाता है।

सामवेद (The Samaveda)-सामवेद में कुल 1875 मंत्र दिये गये हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी सारे मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञों के समय पुरोहित निश्चित स्वरों में गाते थे। इसी कारण सामवेद को “गायन ग्रंथ” भी कहा जाता है। यदि इस वेद को भारतीय संगीत कला का स्रोत कह दिया जाये तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

यजुर्वेद (The Yajurveda)-यजुर्वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में यज्ञों को किये जाने के ढंग भी बताये गये हैं। वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा गया है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी बताये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के धार्मिक और सामाजिक जीवन के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

अथर्ववेद (The Atharvaveda)—इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। इस वेद को सबसे बाद में वेदों की गिनती में शामिल किया गया है। इस वेद में 731 सूक्त दिये गये हैं। यह वेद जादू-टोनों और भूतों तथा चुडैलों को वश में करने के मंत्रों का संग्रह है। इस में अनेक बीमारियों से बचने के लिए औषधियों का भी वर्णन किया गया है।

2. ब्राह्मण ग्रंथ (The Brahmanas) ब्राह्मण ग्रंथों की रचना वेदों की रचना के बाद हुई। इनमें वेदों की सरल व्याख्या की गई है ताकि साधारण लोग उनके अर्थ समझ सकें। प्रत्येक वेद के अलग-अलग ब्राह्मण हैं। एतरेय ब्राह्मण, तैत्तरीय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण आदि नाम के ब्राह्मण सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यह गद्य में लिखे गये हैं। इनसे यज्ञों और बलियों की विधियों का ज्ञान प्राप्त होता है। इनमें कई प्रसिद्ध राजाओं के बहादुरी से भरपूर कारनामों का भी वर्णन मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर ब्राह्मण ग्रंथों की बड़ी महत्ता है।

3. आरण्यक (The Aranyakas)—ये ग्रंथ ब्राह्मण ग्रंथों का ही हिस्सा हैं। ये ग्रंथ जंगलों में रहने वाले साधुओं के लिये लिखे गये हैं। इनमें आध्यात्मिक विषयों और नैतिक कर्तव्यों पर अधिक जोर दिया गया है। इनमें यज्ञों और बलियों की रस्मों के बारे में भी समझाया गया है। ऐतरेय आरण्यक, कोषतकी आरण्यक, तैत्तरीय आरण्यक और बृहद आरण्यक नामों के ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं।

4. उपनिषद् (The Upanishads)-उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”1

1. “The Upanishadic philosophy is rightly regarded as the source of all Indian Philosophy.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 119.

(ख) उत्तर वैदिक काल का साहित्य
(Later Vedic Literature)
उत्तर वैदिक काल के साहित्य में वेदांग, सूत्र, उपवेद, पुराण, धर्म-शास्त्र और महाकाव्य आदि शामिल हैं। इस काल में रचे साहित्य को स्मृति भी कहा जाता है क्योंकि इस की रचना ऋषियों ने अपने ज्ञान के द्वारा की।

  1. वेदांग (The Vedangas)—वेदांग से अभिप्राय है वेदों के अंग। इनकी गिनती 6 है और ये अलग-अलग विषयों से संबंधित हैं। इनके नाम शिक्षा, छंद, कल्प, व्याकरण, निरुक्त और ज्योतिष हैं। इनमें से कल्प वेदांग सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसमें आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है। वेदों को समझने के लिए और उनका ठीक उच्चारण करने के लिए वेदांगों को विशेष महत्त्व प्राप्त है।
  2. सूत्र (The Sutras)-उत्तर वैदिक काल में साहित्य लिखने की एक नई शैली की शुरुआत हुई। इनको सूत्र कहा जाता है। इनमें कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बातें कहने का यत्न किया गया है। इस का उद्देश्य यह था कि लोग वैदिक साहित्य को आसानी से याद कर सकें। इनको तीन श्रेणियों में बाँटा गया है।
    • स्त्रोत सूत्र-इसमें सोम यज्ञ, बलियाँ और अन्य धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है।
    • ग्रह सूत्र-यह सूत्र सब सूत्रों से महत्त्वपूर्ण है। इस में जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
    • धर्म सूत्र-इसमें उस समय के प्रचलित कानूनों और रिवाजों का वर्णन किया गया है।
  3. उपवेद (The Upavedas)-उपवेद सहायक वेद हैं। इनकी संख्या चार है—
    • आयुर्वेद-इसमें औषधियों का वर्णन किया गया है।
    • धनुर्वेद-इसमें युद्ध-कला का वर्णन किया गया है।
    • गन्धर्ववेद-इसमें संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
    • शिल्प वेद-इसमें कला और भवन निर्माण कला से संबंधित जानकारी दी गई है।
  4. धर्मशास्त्र (The Dharma Shastras)-धर्म शास्त्र हिंदुओं के कानूनी ग्रंथ थे। इन को स्मृति ग्रंथ भी कहा जाता है। इनमें से मनु स्मृति सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति और नारद स्मृति भी बहुत प्रसिद्ध शास्त्र माने जाते हैं। इनमें चार जातियों, आश्रमों, नित्य की रस्मोंरीतियों, शासकों के कर्त्तव्य और न्यायिक व्यवस्था आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर धर्मशास्त्रों की बहुत महत्ता है।
  5. पुराण (The Puranas)—पुराण से अभिप्राय है प्राचीन यह हिंदुओं के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए हमारा एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पुराणों की कुल संख्या 18 है। इनमें से विष्णु, भागवत, मत्स्य और वायु पुराण बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा हुआ है। पहले भाग में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे में विश्व की पुनः उत्पत्ति, तीसरे भाग में देवताओं के वंशों, चतुर्थ में महायुगों और पाँचवें भाग में प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक तौर पर पुराणों का पाँचवां भाग बहुत लाभदायक है।
  6. दर्शन के षट-शास्त्र (Six Shastras of Philosophy)-उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—
    • कपिल का सांख्य शास्त्र,
    • पतंजलि का योग शास्त्र,
    • गौतम का न्याय शास्त्र
    • कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
    • जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
    • व्यास का उत्तर मीमांसा।
      इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

महाकाव्य (The Epics)-रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है। महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में 1,00,000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पांडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। प्रोफेसर एच० वी० श्रीनिवास मूर्ति का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“दोनों महाकाव्य रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के अलग-अलग पक्षों पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने पर्याप्त सीमा तक हमारे लोगों के चरित्र और जीवन को परिवर्तित किया है। इस तरह वे पुराने और नये भारत के मध्य एक मजबूत कड़ी हैं।”2

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

वैदिक साहित्य का महत्त्व (Importance of the Vedic Literature)-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है ? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है ? ज्ञान क्या है ? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इस तरह वैदिक साहित्य हिंदू धर्म को जानने के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य आर्यों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए भी हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है। संक्षेप में वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एक दर्पण का कार्य करता है। आधुनिक काल में यह न केवल भारतीय बल्कि विदेशी लेखकों और विद्वानों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। निस्संदेह यह हमारे लिए एक बहुत ही गर्व की बात है। प्रसिद्ध लेखकों वी० पी० शाह तथा के० एस० बहेरा का यह कहना उचित है कि,
“वैदिक साहित्य आर्यों द्वारा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को दी गई सबसे अमूल्य देन है। निःसंदेह, वेद मख्य तौर पर धार्मिक साहित्य है, परंतु इनसे सीधे रूप से उस समय की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दशा के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।”3

2. “The two great epics, the Ramayana and the Mahabharata, throw a flood of light on various aspects of Indian culture. They have to a large extent, moulded the character and life of our people. Thus they form the strongest link between India, old and new.” Prof. H. V. Sreenivasa Murthy, History and Culture of India to 1000 A.D. (New Delhi : 1980) p. 68.
3. “The Vedic literature is a magnificient contribution of the Aryan’s to the Indian culture and civilisation. No doubt the Vedas are predominantly religious literature but the Vedas directly indicate about religious, social, economic and political conditions of the time.” B.P. Saha and K.S. Bahera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p.72.

प्रश्न 2.
निम्नलिखित के बारे पहचान कराएँ—
(1) पुराण,
(2) उपनिषद्
(3) ऋग्वेद,
(4) शास्त्र।
[Explain the following :
(1) Puranas
(2) Upanishads
(3) Rigveda
(4) Shastras.]
उत्तर-
1. पुराण (Purana)—पुराण से अभिप्राय है प्राचीन यह हिंदुओं के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए हमारा एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पुराणों की कुल संख्या 18 है। इनमें से विष्णु, भागवत, मत्स्य और वायु पुराण बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा हुआ है। पहले भाग में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे में विश्व की पुनः उत्पत्ति, तीसरे भाग में देवताओं के वंशों, चतुर्थ में महायुगों और पाँचवें भाग में प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक तौर पर पुराणों का पाँचवां भाग बहुत लाभदायक है।

2. उपनिषद् (Upanishads)—उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”1

3. ऋग्वेद (Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है। इस की रचना 1500-1000 ई० पू० में हुई। इस में 1028 सूक्त हैं जिनको 10 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की उपासना की गई है। सबसे अधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। इनकी संख्या 250 है। ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। इन की पूजा लड़ाई में विजय के लिए, धन और संतान तथा सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद को आर्य लोगों के जीवन को जानने के लिए बहुमूल्य स्रोत माना जाता है।

4. शास्त्र (Shashtras)—धर्म शास्त्र हिंदुओं के कानूनी ग्रंथ थे। इन को स्मृति ग्रंथ भी कहा जाता है। इनमें से मनु स्मृति सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति और नारद स्मृति भी बहुत प्रसिद्ध शास्त्र माने जाते हैं। इनमें चार जातियों, आश्रमों, नित्य की रस्मोंरीतियों, शासकों के कर्त्तव्य और न्यायिक व्यवस्था आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर धर्मशास्त्रों की बहुत महत्ता है।

1. “The Upanishadic philosophy is rightly regarded as the source of all Indian Philosophy.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 119.

प्रश्न 3.
धार्मिक क्षेत्र में चार वेदों तथा उनके महत्त्व के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the four Vedas and their importance in the field of Religion.)
अथवा
वेद कितने माने जाते हैं तथा इनके नाम क्या हैं ? संक्षेप परंतु प्रभावशाली जानकारी दें।
(How many Vedas are there ? Explain with their names in brief but meaningful.)
अथवा
वेदों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
(Describe the main features of the Vedas.)
अथवा
चार वेदों के प्रमुख लक्षणों की जानकारी दीजिए।
(Describe the salient features of the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के नाम लिखें। किन्हीं दो के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Write the names of the four Vedas. Explain in brief any two Vedas.)
अथवा
वेदों की रचना किस प्रकार हुई ? दो वेदों की संक्षिप्त जानकारी दें।
(How Vedas were written ? Discuss any two in brief.)
अथवा
चारों वेदों की महत्ता की संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए। (Describe in brief, but meaningful the importance of the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के बारे में संक्षेप से बताएँ। (Write in brief about the four Vedas.)
अथवा
वेदों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Vedas ?)
अथवा
चार वेदों के नाम बताएँ। ऋग्वेद के बारे में विस्तार से बताएँ।
(Name the four Vedas. Explain Rigveda in detail.)
अथवा
ऋग्वेद के विषय-वस्तु के बारे में जानकारी दें। चार वेदों के नाम बताएँ।
(Discuss the subject-matter of the Rigveda. Name the four Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद की विषय-वस्तु पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the subject-matter of the Rigveda.)
अथवा
कुल वेद कितने हैं ? किन्हीं दो वेदों के बारे में व्याख्या करें।
(What are the total number of Vedas ? Explain any two Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद एवं सामवेद के प्रमुख विषयों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the main contents of Rigveda and Samaveda.)
अथवा
चार वेदों के बारे में संक्षेप में भावपूरित जानकारी दीजिए।
(Describe in brief meaningfully the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के आध्यात्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the spiritual importance of the four Vedas.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य में वेदों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वेद चार हैं। इनके नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद हैं। अथर्ववेदं को वेदों की संख्या में सब से बाद में शामिल किया गया। इस कारण पहले तीन वेदों को “तरई” के नाम से भी जाना जाता है। ये वेद संस्कृत में लिखे गये हैं। ये हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं। वेद शब्द “विद्” धातु से निकला है जिस का अर्थ है ज्ञान या जानना। दूसरे शब्दों में वेदों को आर्यों के ज्ञान का भंडार कहा जा सकता है। यह ज्ञान ऋषियों ने ईश्वर से प्राप्त किया था। इसी कारण वेदों को “श्रुति” भी कहा जाता है। वेदों का रचना काल 1500 ई० पू० से 600 ई० पू० माना जाता है। निस्संदेह वेद आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक इतिहास को जानने के लिए हमारा एक अनमोल स्रोत हैं। वेदों की विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ऋग्वेद (The Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। ऋग “ऋक” शब्द से निकला है जिसका अर्थ है स्तुति में रचे गये मंत्र। इसी कारण ऋग्वेद को देवताओं की स्तुति में रचे गये मंत्रों का समूह कहा जाता है। ऋग्वेद की रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। यह वो समय था जब आर्य पंजाब में रहते थे। ऋग्वेद एक विशाल ग्रंथ है। इस में 1028 सूक्त हैं। एक सूक्त में अनेक मंत्र होते हैं। ऋग्वेद में मंत्रों की कुल संख्या 10,580 है। इन को दस अध्यायों में बाँटा गया है। इनमें कुछ अध्याय बड़े हैं और कुछ छोटे। पहला और दसवाँ अध्याय (मंडल) सब से बड़े हैं। इन दोनों मंडलों में 191-191 सूक्त दिये गये हैं। दूसरे मंडल से लेकर सातवें मंडल में दिये गये सूक्तों को ऋग्वेद का दिल माना जाता है। ये शेष मंडलों से पुराने समझे जाते हैं। ऋग्वेद के नवम अध्याय में केवल सोम देवता से संबंधित मंत्र दिये गये हैं।
ऋग्वेद में सबसे अधिक मंत्र (250) इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। अग्नि की प्रशंसा में 200 मंत्र हैं। बाकी के मंत्र वरुण, सूर्य, रुद्र, सोम, ऊषा, रात्रि और सरस्वती आदि देवी-देवताओं को समर्पित हैं। इन सभी देवीदेवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। ये देवता बहुत शक्तिशाली और महान् थे। वे मनुष्य का रूप धारण करते थे और अपने श्रद्धालुओं की प्रार्थनाओं से खुश हो कर उन पर कई प्रकार की कृपा करते थे। उनकी पूजा युद्ध में विजय के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुखी और लंबे जीवन तथा संतान की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद में अनेक ऋषियों ने मंत्र लिखे हैं। इनमें विश्वामित्र, भारद्वाज, वशिष्ट, वामदेव, अत्री, कण्व तथा ग्रितस्मद बहुत प्रसिद्ध थे। ऋग्वेद में अपाला, घोषा, विश्ववरा, मुदगालिनी तथा लोपामुद्रा आदि स्त्रियों के भी मंत्र दिये गये हैं। ऋग्वेद में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र भी दिया गया है जिसे हिंदू आज भी प्रतिदिन पढ़ते हैं। ऋग्वेद की रचना यद्यपि धार्मिक तौर पर की गई थी परंतु इस की ऐतिहासिक महत्ता भी बहुत है।

2. सामवेद (The Samaveda) साम शब्द से भाव सरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। ये मंत्र दो भागों में बाँटे गये हैं जिन को पूर्वरचिका तथा उत्तररचिका कहते हैं। पूर्वरचिका में 650 मंत्र हैं जबकि उत्तररचिका में 1225 मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। इन मंत्रों को सात स्वरों में गाया जाता था। इन मंत्रों को गाते समय तीन प्रकार के वाद्यों वेणु, दुंदुभि और वीणा का प्रयोग किया जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

3. यजुर्वेद (The Yajurveda)—यर्जु से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इस लिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

4. अथर्ववेद (The Atharvaveda)-अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। इस वेद का नाम अथर्वन ऋषि के नाम से पड़ा। यह ऋषि जादुई शक्तियों का स्वामी था और भूतों-प्रेतों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध था। अथर्ववेद वास्तव में जादू टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता चलता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था। वे अग्नि की सहायता से मनुष्यों को भूतों-प्रेतों से बचा कर उनकी सहायता करते थे। अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र हैं। इन मंत्रों में से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। यह वेद 20 अध्यायों में बाँटा गया है। इस का 20वाँ अध्याय सब से बड़ा है जिसमें 928 मंत्रों का वर्णन है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

प्रश्न 4.
चार वेदों में से यजुर्वेद के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Yajurveda among the four vedas.)
उत्तर-
यर्जु से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इस लिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 5.
वैदिक साहित्य से आप क्या समझते हैं ? वैदिक साहित्य के प्रमुख विषय कौन-कौन से हैं ?
(What is meant by the Vedic literature ? What are the main subjects of the Vedic literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य के मुख्य विषयों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the main contents of the Vedic literature.)
अथवा
वेदों के महत्त्वपूर्ण पक्षों के बारे में बहस करें।
(Examine the important aspects of the Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद में कौन से मुख्य विषय छुए गए हैं ? ऋग्वेद के बीच कुल मंत्रों की संख्या बताओ।
(Which main subjects are touched in the Rigveda ? Mention the total number of hymns given in Rigveda.)
अथवा
ऋग्वेद की विषय-वस्तु के बारे जानकारी दो। पुरुष सूक्त के बारे संक्षेप नोट लिखो ।
(Write about the subject-matter of the Rigveda. Write a brief note on the PurushSukta hymn.)
अथवा
हिंदू धर्म के प्रमुख सिद्धांतों के बारे में जानकारी दें। (Write about the main features of Hinduism.)
अथवा
वेदों के धार्मिक विचारों के बारे में बताएँ। (Give an account of the religious thoughts of the Vedas.)
अथवा
आध्यात्मिक क्षेत्र में वेदों का क्या महत्त्व है ? स्पष्ट करें।
(Explain the spirityal importance of the Vedas.)..
उत्तर-
वैदिक साहित्य में मुख्य तौर पर हिंदू धर्म के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है। इसमें बहुदेववाद, एकेश्वरवाद और सर्वेश्वरवाद का वर्णन किया गया है। इस में परमात्मा को खुश करने के लिए यज्ञों और बलियों का भी वर्णन मिलता है। इसमें यह भी बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? आत्मा क्या हैं और ब्रह्म क्या है ? आत्मा और ब्रह्म में क्या संबंध है कर्म और आवागमन सिद्धांत क्या है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? स्वर्ग-नरक क्या हैं ? इन विषयों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. बहुदेववाद (Polytheism)—ऋग्वेद के वर्णन से पता चलता है कि आरंभ में आर्य प्रकृति की शक्तियों को देवता समझ कर उनकी पूजा करते थे। आर्यों ने प्रकृति की हर चमकने वाली, भयानक अथवा सुंदर नज़र आने वाली हर शक्ति को कोई न कोई देवी अथवा देवता समझ लिया। ऋग्वेद के अनुसार आर्य 33 देवताओं की पूजा करते थे। इनको 3 भागों में बाँटा गया था। ये भाग इस प्रकार थे- आकाश के देवता, पृथ्वी के देवता और पृथ्वी तथा आकाश के मध्य निवास करने वाले देवता। इन सभी देवताओं को शक्तिशाली और महान् समझा गया था। कभी एक देवता की स्तुति की जाती और कभी दूसरे की। इस तरह बहुदेववाद का सिद्धांत प्रचलित हुआ।

2. एकेश्वरवाद (Monotheism) वैदिक काल के बहुदेववाद के पीछे सदैव ही एकेश्वरवाद या एक ईश्वर का विचार रहा है। ऋग्वेद में ऐसी कई उदाहरणें मिलती हैं जैसे इंद्र ब्रह्म है, देवताओं का प्राणदाता एक है, ‘सभी देवता एक ही हैं केवल ऋषियों ने उनका विभिन्न रूपों में वर्णन किया है।’ ईश उपनिषद् में कहा गया है, “वह अग्नि है, वही सूर्य है, वो ही वायु है, वो ही चंद्रमा है, वो ही शुक्र है, वो ही ब्रह्म है, वो ही जल है और वो ही प्रजापति है।” “ज्योतियों की ज्योति एक है।” इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य एक सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास रखते थे।

3. सर्वेश्वरवाद (Henotheism)—यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था। ऋग्वेद के एक सूक्त में कहा गया है, “हे देवताओ आप में से कोई छोटा नहीं है, आप में से कोई छोटा बच्चा नहीं है। आप सभी महान् हैं।” इस तरह आर्यों के लिए उनके सभी देवता बराबर थे।

4. यज्ञ और बलियाँ (Yajnas and Sacrifices)—वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहुत विधिपूर्वक किया जाता था ताकि किसी छोटी-सी गलती के कारण देवता नाराज़ न हो जायें। सबसे पहले यज्ञ के लिए वेदी बनाई जाती थी। फिर इसमें पवित्र अग्नि जलाई जाती थी। इस अग्नि में घी, दूध, चावल और सोमरस डाला जाता था। इन यज्ञों के दौरान कई जानवरों जैसे बकरी, भेड़ और घोड़ों आदि की बलि भी दी जाती थी। छोटे यज्ञ पारिवारिक स्तर के होते थे जबकि बड़े यज्ञ अमीर लोगों के द्वारा करवाये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में यह यज्ञ अधिक जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी। डॉक्टर एस० आर० गोयल के अनुसार,
“वैदिक धर्म को निश्चित तौर पर यज्ञ तथा बलियों का एक धर्म समझा जाता था। पूजा करने वाला प्रार्थनाओं के उच्चारण से कुछ भेंटें देता था और देवता से इसके बदले में किसी वरदान की आशा करता था।”4

5. संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? (How was World Created ?)-संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस से संबंधित हमें ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से जानकारी प्राप्त होती है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति से पहले अकेला ईश्वर ही था। उसके बिना चारों तरफ अंधकार था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने संसार की रचना कर दी । उसने न केवल मनुष्य, पशु, पक्षी आदि बनाये बल्कि सूर्य, चाँद, तारों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों तथा फूलों आदि की भी रचना की । उपनिषदों में भी यह वर्णन बार-बार आता है कि ब्रह्म ने सारे ब्रह्माण्ड की रचना की।

6. आत्मा क्या है (What is Self)-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है। यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक यह कर्मों के बंधन से मुक्त न हो जाये। ऐसा होने पर यह ब्रह्म में लीन हो जाती है । इस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता।

7. ब्रह्म क्या है ? (What is Absolute ?)-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह सत्य मन और आनंद रूप है। वह संपूर्ण
ज्ञान का भंडार है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है। इसी कारण ब्रह्म और आत्मा में कोई मूल भेद नहीं रह जाता।

8. पितरों की पूजा (Worship of Forefathers)-ऋग्वेद में पितरों की पूजा का वर्णन मिलता है। पितर स्वर्गों में निवास करते थे। यह आर्यों के आरंभिक बुजुर्ग थे। उनकी पूजा भी देवताओं के समान की जाती थी। ऋग्वेद में बहुत सारे मंत्र उनकी स्तुति में दिये गये हैं। पितरों की पूजा इस आशा से की जाती थी कि वे अपने वंश की रक्षा करेंगे, उनके दुःख, मुसीबतों को दूर करेंगे, उनको धन, शक्ति, लंबी आयु तथा संतान देंगे। समय के साथसाथ आर्यों की पितर पूजा के प्रति आस्था में वृद्धि होती गई।

9. ऋत और धर्मन (Rita and Dharman)—ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में ऋत और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। ऋत से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करके प्रकाश देती है। इस तरह ऋत एक सच्चाई है। इस का उल्ट अनऋत (झूठ) है। उपनिषदों के समय धर्म शब्द ने ऋत का स्थान ल लिया। ‘धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे। अच्छे मनुष्य अपना जीवन धर्मन अनुसार व्यतीत करते थे।

10. कर्म और आवागमन (Karma and Transmigration)-वैदिक साहित्य में इस बात का बार-बार वर्णन आया है कि मनुष्य अपनी किस्मत का स्वयं ही निर्माता है। जैसे वह कर्म करेगा वैसा ही उसको फल प्राप्त होगा। यदि उसके कर्म अच्छे होंगे तो वह आवागमन के चक्करों से छुटकारा प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यदि उसके कर्म बुरे हैं वह सदा ही दुःखी रहेगा और किसी भी स्थिति में आवागमन से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म मनुष्य का साथ उस तरह नहीं छोड़ते जैसे कि उसकी परछाईं।

11. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। वह एंद्रीय सुख भोग कर और धन प्राप्त करके यह समझता है कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। वह यह भूल जाता है कि सभी सुख क्षण-भंगुर हैं। इन कारणों के लिए वह कभी भवसागर से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी-शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती है।

12. स्वर्ग और नरक में विश्वास (Faith in Heaven and Hell)—वैदिक साहित्य में इस बात का वर्णन मिलता है कि आर्य स्वर्ग और नरक में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार जो व्यक्ति अपना जीवन नैतिक नियमों के अनुसार व्यतीत करता है, दान देता है और कभी किसी को कोई दुःख तकलीफ नहीं देता, वह मौत के बाद स्वर्ग में निवास करता है। यह वो स्थान है जहाँ देवताओं का वास है। यहाँ सदा ही खुशी रहती है। दूसरी ओर पापी और अधर्मी व्यक्ति मौत के बाद नरक में जाते हैं। पुराणों आदि में नरक में मिलने वाले घोर दुःखों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

13. पुरुष सूक्त (Purusha-Sukta)-पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जाँघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। इस से कई इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ऋग्वैदिकं काल में जाति प्रथा प्रचलित हो गई थी। परंतु इस के संबंध में ऋग्वेद में कहीं और कोई वर्णन नहीं मिलता। यह कहा जाता है कि पुरुष सूक्त की रचना भी ऋग्वेद से कई सौ वर्ष बाद की गई थी। इसकी भाषा ऋग्वेद से भिन्न है। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

4. “Vedic religion was essentially a religion of yaznas or sacrifices. The worshipper offered some oblations to god with the chanting of prayers and expected that god would grant him desired boon in return.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 72.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऋग्वेद के प्रमुख लक्षणों का संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Rigveda.)
अथवा
ऋग्वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the importance of Rigveda in the Rigvedic literature.)
उत्तर-
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। इसकी रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। इसमें 1028 सूक्त हैं जिनको 10 मंडलों (अध्यायों) में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कुल 10,552 मंत्र हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की स्तुति की गई है। ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं। इनकी संख्या 250 हैं। भारतीय दर्शन को जानने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है।

प्रश्न 2.
सामवेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Samaveda ?)
उत्तर-
साम शब्द से भात्र सुरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

प्रश्न 3.
यजुर्वेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of the Yajurveda.)
उत्तर-
यजुर से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है।

प्रश्न 4.
अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Atharvaveda.)
अथवा
अथर्ववेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? उल्लेख करें। (What do you know about Atharvaveda ? Explain.)
उत्तर-
अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। अथर्ववेद वास्तव में जादू-टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता लगता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहुत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था।

प्रश्न 5.
दर्शन के षट शास्त्र क्या हैं एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Six Shastras of Philosophy ?)
अथवा
खट दर्शन के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Khat Darshan.)
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—

  1. कपिल का सांख्य शास्त्र,
  2. पतंजलि का योग शास्त्र,
  3. गौतम का न्याय शास्त्र
  4. कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
  5. जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
  6. व्यास का उत्तर मीमांसा।

इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रश्न 6.
महाकाव्य से क्या अभिप्राय है एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What do you mean by Epics and their importance ?)
उत्तर-
रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय श्री रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है। महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में 1.00.000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पाँडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं।

प्रश्न 7.
वैदिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य का क्या महत्त्व है ? (What is importance of the Vedic Literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ बताओ। (Describe the prominent features of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में बताओ। (Describe the salient features of Vedic Literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है? ज्ञान क्या है? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है।

प्रश्न 8.
वैदिक साहित्य के किन्हीं दो विषयों के बारे में संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the two subjects of Vedic Literature.)
उत्तर-

  1. सर्वेश्वरवाद-यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था।
  2. यज्ञ और बलियाँ-वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहत विधिपूर्वक किया जाता था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी।

प्रश्न 9.
वैदिक साहित्य के अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Self and Absolute according to Vedic Literature ?)
उत्तर-

  1. आत्मा क्या है ?-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है।
  2. ब्रह्म क्या है?- ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है।

प्रश्न 10.
ऋत और धर्मन से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Rita and Dharman ?)
उत्तर-
ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में ऋत और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। ऋत से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य, चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करेके प्रकाश देती है। ‘धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे।

प्रश्न 11.
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती

प्रश्न 12.
पुरुष सूक्त के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Purusha-Sukta ?)
उत्तर-
पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जांघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

प्रश्न 13.
ऋग्वेद के प्रमुख लक्षणों का संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Rigveda.)
अथवा
ऋग्वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of Rigveda in the Rigvedic literature.)
उत्तर-
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। इसकी रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। यह वह समय था जब आर्य पंजाब में रहते थे। ऋग्वेद एक विशाल ग्रंथ है। इसमें 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कुल 10,552 मंत्र हैं। इन्हें दस मंडलों (अध्यायों) में विभाजित किया गया है। इनमें कुछ मंडल छोटे हैं तथा कुछ बड़े। ऋग्वेद में सर्वाधिक 250 मंत्र इंद्र देवता की तथा 200 मंत्र अग्नि देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं। शेष मंत्र वरुण, सूर्य, ऊषा, सरस्वती तथा अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। ये सभी देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं। इनकी उपासना युद्ध में विजय के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुखमय तथा लंबे जीवन के लिए तथा संतान प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद में विख्यात गायत्री मंत्र भी दिया गया है जिसे हिंदू आज भी प्रतिदिन पढ़ते हैं। ऋग्वेद की रचना का मुख्य उद्देश्य यद्यपि धार्मिक था किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्त्व है। यह वैदिक काल के लोगों के जीवन को जानने का हमारा एकमात्र तथा बहुमूल्य स्रोत है। भारतीय दर्शन को जानने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है।

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प्रश्न 14.
सामवेद के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Samaveda ?)
उत्तर-
साम शब्द से भाव सुरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। ये मंत्र दो भागों में बाँटे गये हैं जिन को पूर्वरचिका तथा उत्तररचिका कहते हैं। पूर्वरचिका में 650 मंत्र हैं जबकि उत्तररचिका में 1225 मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। इन मंत्रों को सात स्वरों में गाया जाता था। इन मंत्रों को गाते समय तीन प्रकार के वाद्यों वेणु, दुंदुभि और वीणा का प्रयोग किया जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

प्रश्न 15.
यजुर्वेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of the Yajurveda.)
उत्तर-
यजुर से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कुहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथसाथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 16.
अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Atharvaveda.)
अथवा
अथर्ववेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? उल्लेख करें। (What do you know about Atharvaveda ? Explain.)
उत्तर-
अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। इस वेद का नाम अर्थवन ऋषि के नाम से पड़ा। यह ऋषि जादुई शक्तियों का स्वामी था और भूतों-प्रेतों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध था। अथर्ववेद वास्तव में जादू-टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता लगता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहुत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था। वे अग्नि की सहायता में मनुष्यों को भूतों-प्रेतों से बचा कर उनकी सहायता करते थे। अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र हैं। इन मंत्रों में से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। यह वेद 20 अध्यायों में बाँटा गया है। इस का 20वाँ अध्याय सब से बड़ा है जिसमें 928 मंत्रों का वर्णन है।

प्रश्न 17.
दर्शन के षट शास्त्र क्या हैं एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Six Shastras of Philosophy ?)
अथवा
खट दर्शन के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Khat Darshan.)
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—

  1. कपिल का सांख्य शास्त्र,
  2. पतंजलि का योग शास्त्र,
  3. गौतम का न्याय शास्त्र
  4. कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
  5. जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
  6. व्यास का उत्तर मीमांसा।

इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवनमृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रश्न 18.
महाकाव्य से क्या अभिप्राय है एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What do you mean by Epics and their importance ?)”
उत्तर-
रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं । रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय श्री रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है । महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में.1,00,000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पाँडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। इनमें कुछ काल्पनिक घटनाओं का वर्णन किया गया है। इसके बावजूद ऐतिहासिक पक्ष से इन दोनों महाकाव्यों का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 19.
वैदिक साहित्य के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य का क्या महत्त्व है ?
(What is importance of the Vedic Literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ बताओ।
(Describe the prominent features of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में बताओ।
(Describe the salient features of Vedic Literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है ? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है ? ज्ञान क्या है ? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इस तरह वैदिक साहित्य हिंदू धर्म को जानने के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य आर्यों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए भी हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है। संक्षेप में वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एक दर्पण का कार्य करता है। आधुनिक काल में यह न केवल भारतीय बल्कि विदेशी लेखकों और विद्वानों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। निस्संदेह यह हमारे लिए एक बहुत ही गर्व की बात है।

प्रश्न 20.
वेदों की संख्या और इनके रचयिता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the number of Vedas and their author.)
अथवा
वैदिक साहित्य के किसी पाँच प्रमुख विषयों के बारे में वर्णन करो।
(Give a brief account of the main five subjects of the Vedic Literature.)
अथवा
वेदों में क्या दर्शाया गया है ? स्पष्ट करें।
(What has been described in Vedas ? Explain.)
अथवा
वैदिक साहित्य के किसी एक विषय के बारे में संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the one subject of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के विषय-वस्तु के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the subject matter of Vedic Literature.)
उत्तर-

  1. वेदों की संख्या-वेदों की संख्या चार है। इनके नाम हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
  2. विषय-वस्तु-वेदों के मुख्य विषय निम्नलिखित हैं—
    • सर्वेश्वरवाद-यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था।
    • यज्ञ और बलियाँ-वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहुत विधिपूर्वक किया जाता था। छोटे यज्ञ पारिवारिक स्तर के होते थे जबकि बड़े यज्ञ अमीर लोगों के द्वारा करवाये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में यह यज्ञ जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी।
    • संसार की उत्पत्ति कैसे हुई-संसार की उत्पत्ति कैसे हुई? इस से संबंधित हमें ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से जानकारी प्राप्त होती है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति से पहले अकेला ईश्वर ही था। उसके बिना चारों तरफ अंधकार था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने संसार की रचना कर दी।
    • आत्मा क्या है-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है।
    • ब्रह्म क्या है?-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह अमर है।

प्रश्न 21.
वैदिक साहित्य के अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Self and Absolute according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
1. आत्मा क्या है ?-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है। यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक यह कर्मों के बंधन से मुक्त न हो जाये। ऐसा होने पर यह ब्रह्म में लीन हो जाती है। इस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता।

2. ब्रह्म क्या है ?-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है । वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह सत्य मन और आनंद रूप है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है। इसी कारण ब्रह्म और आत्मा में कोई मूल भेद नहीं रह जाता।

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प्रश्न 22.
रित और धर्मन से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Rita and Dharman ?)
उत्तर-
ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में रित और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। रित से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य, चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करके प्रकाश देती है। इस तरह रित एक सच्चाई है। इस का उल्ट अनऋत (झूठ) है। उपनिषदों के समय धर्म शब्द ने रित का स्थान ले लिया। धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे। अच्छे मनुष्य अपना जीवन धर्मन अनुसार व्यतीत करते थे।

प्रश्न 23.
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। वह एंद्रीय सुख भोग कर और धन प्राप्त करके यह समझता है कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। वह यह भूल जाता है कि सभी सुख क्षण-भंगुर हैं। इन कारणों के लिए वह कभी भवसागर से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती है।

प्रश्न 24.
पुरुष सूक्त के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Purusha-Sukta ?)
उत्तर-
पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जांघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। इस से कई इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ऋग्वैदिक काल में जाति प्रथा प्रचलित हो गई थी। परंतु इस के संबंध में ऋग्वेद में कहीं और कोई वर्णन नहीं मिलता। यह कहा जाता है कि पुरुष सूक्त की रचना भी ऋग्वेद से कई सौ वर्ष बाद की गई थी। इसकी भाषा ऋग्वेद से भिन्न है। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. वैदिक साहित्य से क्या भाव है ?
उत्तर- वैदिक साहित्य से भाव उस साहित्य से है जिसकी रचना आर्यों द्वारा की गई थी।

प्रश्न 2. वैदिक साहित्य की रचना किस भाषा में की गई है?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 3. वैदिक साहित्य को कितने भागों में बाँटा गया है?
उत्तर-दो भागों में।

प्रश्न 4. वेदों का रचना काल बताएँ।
उत्तर-1500-600 ई० पू०

प्रश्न 5. वेदों की रचना किसने की ?
अथवा
वेदों का रचियता किसे माना जाता है ?
अथवा
हिंदू धर्म के अनुसार वेदों का रचयिता कौन है ?
उत्तर-वेदों की रचना ईश्वर के कहने पर ऋषियों ने की।

प्रश्न 6. श्रुति से क्या भाव है ?
उत्तर-श्रुति से भाव उस वैदिक साहित्य से है, जिसकी रचना ईश्वर के बताने पर ऋषियों द्वारा की गई।

प्रश्न 7. स्मृति से क्या भाव है ?
उत्तर-स्मृति से भाव उस वैदिक साहित्य से है, जिसकी रचना ईश्वर के बताने ऋषियों ने अपने ज्ञान द्वारा की।

प्रश्न 8. वेद से क्या भाव है ?
उत्तर-वेद से भाव है ज्ञान का भंडार।

प्रश्न 9. वेद शब्द किस भाषा से तथा कैसे बना ?
उत्तर-वेद शब्द संस्कृत भाषा के शब्द विद् से बना है, जिसका भाव है जानना।

प्रश्न 10. कुल कितने वेद हैं ?
उत्तर-कुल चार वेद हैं।

प्रश्न 11. चार वेदों की बाँट किसने की थी ?
उत्तर-चार वेदों की बाँट ऋषि वेद व्यास ने की थी।

प्रश्न 12. चार वेदों के नाम बताएँ।
अथवा
किन्हीं दो वेदों के नाम बताएँ।
उत्तर-चार वेदों के नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद है।

प्रश्न 13. वेदों के नाम व संख्या बताएँ।
उत्तर-वेदों के नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद थे और इनकी संख्या चार है।

प्रश्न 14. भारत का सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण वेद कौन-सा है ?
अथवा
सबसे पुराना वेद कौन-सा माना जाता है ?
उत्तर-ऋग्वेद।

प्रश्न 15. ऋग्वेद का रचना काल क्या है ?
उत्तर-1500-1000 ई० पूर्व।

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प्रश्न 16. ऋग्वेद में कुल कितने सूक्त दिए गए हैं ?
उत्तर-1028 सूकत।

प्रश्न 17. ऋग्वेद को कुल कितने मंडलों में बाँटा गया है ?
उत्तर-10 मंडलों में।

प्रश्न 18. ऋग्वेद में कुल कितने भजन हैं ?
अथवा
ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या बताएँ।
उत्तर-ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या 10,552 हैं।

प्रश्न 19. ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र किस देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं ?
उत्तर-इंद्र देवता की।

प्रश्न 20. ऋग्वेद में इंद्र देवता की प्रशंसा में कुल कितने मंत्र दिये गए हैं ?
उत्तर–250 मंत्र।

प्रश्न 21. ऋग्वेद में जिन ऋषियों के मंत्र दिए गए हैं, उनमें से किन्हीं चार के नाम लिखें।
अथवा
ऋग्वेद में मंत्र लिखने वाले किन्हीं चार ऋषियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. वामदेव
  2. विश्वामित्र
  3. भारद्वाज
  4. अत्री।

प्रश्न 22. ऋग्वेद में जिन स्त्रियों ने मंत्र लिखें हैं उनमें से किन्हीं दो के नाम बताएँ।
अथवा
ऋग्वेद में मंत्र लिखने वाली किन्हीं दो स्त्रियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. अपाला
  2. घोषा।

प्रश्न 23. हिंदुओं के प्रसिद्ध गायत्री मंत्र का वर्णन किस वेद में किया गया है ?
उत्तर-ऋग्वेद में।

प्रश्न 24. किस वेद को भारतीय संगीत कला का स्रोत कहा जाता है ?
उत्तर-सामवेद को।

प्रश्न 25. सामवेद में कुल कितने मंत्र दिए गए हैं ?
उत्तर-875 मंत्र।

प्रश्न 26. वेदों में दिए गए मंत्रों को गाने वाले पुरोहितों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-उद्गात्री।

प्रश्न 27. किस वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं ?
उत्तर-यजुर्वेद में।

प्रश्न 28. यज्ञों के समय बलि देने वाले पुरोहितों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-होतरी।

प्रश्न 29. यजुर्वेद को कौन-से दो भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-

  1. शुक्ल यजुर्वेद
  2. कृष्ण यजुर्वेद ।

प्रश्न 30. किस वेद की रचना सबसे बाद में हुई ?
उत्तर- अथर्ववेद।

प्रश्न 31. अथर्ववेद में कुल कितने सूक्त दिए गए हैं ?
उत्तर-731 सूक्त।

प्रश्न 32. किस वेद में जादू टोनों के मंत्रों का संग्रह है ?
उत्तर-अथर्ववेद।

प्रश्न 33. किन्हीं दो वेदों के नाम बताओ जो त्रिविधिया में शामिल थे ?
उत्तर-

  1. ऋग्वेद
  2. सामवेद।

प्रश्न 34. ब्राह्मण ग्रंथों की रचना क्यों की, गई थी ?
उत्तर-वेदों की सरल व्याख्या के लिए।

प्रश्न 35. किन्हीं दो ब्राह्मण ग्रंथों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. ऐतरीय ब्राह्मण
  2. तैत्तरीय ब्राह्मण।

प्रश्न 36. जंगलों में रहने वाले साधुओं के निर्देशों के लिए कौन-से ग्रंथों की रचना की गई थी ?
उत्तर- अरणायक ग्रंथों की।

प्रश्न 37. वेदांग से क्या भाव है ?
उत्तर-वेदों का अंग।

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प्रश्न 38. किन्हीं दो वेदांगों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. शिक्षा
  2. कल्प।

प्रश्न 39. आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किस वेदांग में दिया गया है ?
उत्तर-कल्प वेदांग में।

प्रश्न 40. किन्हीं दो तरह के सूत्रों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. स्रोत सूत्र
  2. ग्रह सूत्र।

प्रश्न 41. उपवेद कितने हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 42. किन्हीं दो उपवेदों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. आयुर्वेद
  2. धनुर्वेद।

प्रश्न 43. किस वेद में औषधियों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-आयुर्वेद।

प्रश्न 44. उस वेद का नाम बताओ जिस में युद्ध-कला का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-धनुर्वेद।

प्रश्न 45. गंधर्ववेद में किन विषयों पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर-संगीत कला के।

प्रश्न 46. योग शास्त्र की रचना किसने की थी ?
उत्तर-पतंजलि।

प्रश्न 47. किन्हीं दो शास्त्रों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. योग शास्त्र
  2. न्याय शास्त्र।

प्रश्न 48. भारत के दो प्रसिद्ध महाकाव्य कौन-से है ?
उत्तर-

  1. रामायण
  2. महाभारत।

प्रश्न 49. भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य कौन-सा है ?
उत्तर-महाभारत।

प्रश्न 50. महाभारत की रचना किसने की थी ?
उत्तर-महर्षि वेद व्यास जी ने।

प्रश्न 51. महाभारत में कितने श्लोक दिए हैं ?
उत्तर-महाभारत में एक लाख से ज्यादा श्लोक दिए गए हैं।

प्रश्न 52. रामायण की रचना किसने की थी ?
उत्तर-महर्षि वाल्मीकि जी ने।

प्रश्न 53. रामायण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-24,000 श्लोक।

प्रश्न 54. वैदिक साहित्य के कोई दो मुख्य विषय बताओ।
उत्तर-

  1. आत्मा क्या है
  2. ऋत और धर्मन।

प्रश्न 55. ऋग्वेद के अनुसार आर्यों के देवताओं की कुल गिनती कितनी है ?
उत्तर-33.

प्रश्न 56. ऋग्वेद के किस सूक्त से संसार की उत्पत्ति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है ?
उत्तर-ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से संसार की उत्पत्ति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 57. वैदिक साहित के अनुसार मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-मोक्ष प्राप्त करना।

प्रश्न 58. ऋग्वेद के किस सूक्त में चार जातियों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-पुरुष सूक्त में।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. वेदों की कुल संख्या ………. है।
उत्तर-चार

प्रश्न 2. ……….. आर्यों का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है।
उत्तर-ऋग्वेद

प्रश्न 3. ऋग्वेद में ………… सूक्त हैं।
उत्तर-1028

प्रश्न 4. सामवेद को ………… ग्रंथ भी कहा जाता है।
उत्तर-गायन

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प्रश्न 5. …………. में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं।
उत्तर-यजुर्वेद

प्रश्न 6. …….. में अनेक बीमारियों से बचने के लिए औषधियों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-अथर्ववेद

प्रश्न 7. उपनिषदों की कुल संख्या ……….. है।
उत्तर-108

प्रश्न 8. वेदांग से भाव है ……….. के अंग।
उत्तर-वेदों

प्रश्न 9. वेदांगों की कुल संख्या ………… है।
उत्तर-6

प्रश्न 10. ……….. में युद्ध कला का वर्णन किया गया है।
उत्तर-धनुर्वेद

प्रश्न 11. …………. में संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
उत्तर-गधर्व वेद

प्रश्न 12. योग शास्त्र का लेखक ……… था।
उत्तर-पतंजलि

प्रश्न 13. न्याय शास्त्र के लेखक का नाम ……….. था।
उत्तर-गौतम

प्रश्न 14. रामायण की रचना ……….. ने की थी।
उत्तर-महर्षि वाल्मीकि जी

प्रश्न 15. महाभारत की रचना ………… ने की थी।
उत्तर- महर्षि वेद व्यास जी

प्रश्न 16. यज्ञों के समय आहूति देने वाले पुजारियों को …….. कहा जाता है।
उत्तर-होत्री

प्रश्न 17. वैदिक साहित्य ………. भाषा में लिखा गया है।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 18. पुरुष-सूक्त का वर्णन ……… में किया गया है।
उत्तर–ऋग्वेद

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. ऋग्वैदिक साहित्य को स्मृति भी कहा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. वेदों की कुल संख्या आठ है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. ऋग्वेद आर्यों का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. वेदों को पालि भाषा में लिखा गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. महर्षि वेद व्यास जी ने वेदों का विभाजन किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. ऋग्वेद को 10 मंडलों में बांटा गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र अग्नि देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. उदगात्री वह पुरोहित थे जो सुर-ताल में मंत्रों का उच्चारण करते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. यर्जुवेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. अर्थववेद को ब्रह्मदेव के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. ब्राह्मण ग्रंथ उपनिषदों का अंग है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 12. उपनिषदों की कुल गिनती 108 है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. वेदांगों में कलप वेदांग को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. धर्म सूत्र में मौर्य काल में प्रचलित कानूनों और रिवाज़ों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. उपवेदों की कुल गिनती चार है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. आर्युवेद में युद्ध कला का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 17. कपिल ने सांख्य शास्त्र की रचना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकी जी ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 19. महाभारत में दिए गए श्लोकों की संख्या 24,000 है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 20. वैदिक साहित्य के अनुसार मानवीय जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य को किस भाषा में लिखा गया है ?
(i) पालि में
(ii) प्राकृति में
(iii) हिंदी में
(iv) संस्कृत में।
उत्तर-
(iv) संस्कृत में।

प्रश्न 2.
वेदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 4
(ii) 5
(iii) 6
(iv) 18
उत्तर-
(i) 4

प्रश्न 3.
वेदों का विभाजन किस ऋषि ने किया था ?
(i) वेद व्यास
(ii) विशिष्ठ
(iii) विश्वामित्र
(iv) गौतम।
उत्तर-
(i) वेद व्यास

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण है ?
(i) ऋग्वेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(i) ऋग्वेद

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद नहीं है ?
(i) गंधर्ववेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(i) गंधर्ववेद

प्रश्न 6.
ऋग्वेद में कितने सूक्त दिए गए हैं ?
(i) 1028
(ii) 1873
(iii) 731
(iv) 10,552
उत्तर-
(i) 1028

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद त्रिविधा में शामिल नहीं है ?
(i) अथर्ववेद
(ii) यर्जुवेद
(iii) ऋग्वेद
(iv) सामवेद।
उत्तर-
(i) अथर्ववेद

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से किस वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं ?
(i) ऋग्वेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(iii) यर्जुवेद

प्रश्न 9.
आरण्यक ग्रंथ किन ग्रंथों का भाग है ?
(i) उपनिषद
(ii) ब्राह्मण
(iii) धर्मशास्त्र
(iv) महाभारत।
उत्तर-
(ii) ब्राह्मण

प्रश्न 10.
उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 18
(ii) 108
(iii) 48
(iv) 128
उत्तर-
(ii) 108

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किस उपवेद में दवाइयों का वर्णन किया गया है
(i) आयुर्वेद
(ii) धर्नुवेद
(iii) गंधर्ववेद
(iv) शिल्पवेद।
उत्तर-
(i) आयुर्वेद

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किसने योग शास्त्र की रचना की थी ?
(i) कपिल
(ii) पंतजलि
(iii) गौतम
(iv) व्यास।
उत्तर-
(ii) पंतजलि

प्रश्न 13.
रामायण की रचना, किसने की थी ?
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने
(iii) महर्षि विश्वामित्र जी ने
(iv) महर्षि गौतम जी ने।
उत्तर-
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने

प्रश्न 14.
रामायण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
(i) 14,000
(ii) 20,000
(iii) 24,000
(iv) 26,000।
उत्तर-
(iii) 24,000

प्रश्न 15.
महाभारत की रचना किसने की थी ?
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने
(iii) महर्षि गौतम जी ने
(iv) महर्षि विशिष्ठ जी ने।
उत्तर-
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई० Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the life of the founder of the Sikh faith Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
सिख धर्म कैसे आरंभ हुआ ?
(How Sikhism came into being ?)
अथवा
सिख धर्म के प्रारंभ के विषय में जानकारी दीजिए।
(Explain the origin of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के बारे में भावपूर्वक संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief but meaning the origin of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म का आरंभ कैसे और किसने किया ? चर्चा कीजिए। (How did Sikhism was originated and by whom ? Discuss.) .
अथवा
सिख धर्म का आरंभ क्यों और कैसे हुआ ? चर्चा कीजिए।
(Why and how the Sikhism was originated ? Elucidate.)
अथवा
सिख धर्म के संस्थापक के जीवन पर प्रकाश डालें। (Throw light on the life of the founder of the Sikh faith.)
अथवा
सिख धर्म के संस्थापक के जीवन पर एक नोट लिखें। (Write a note on the life of the founder of the Sikh faith.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the life of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
“सिख धर्म को गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया। प्रकाश डालिए।” (“Sikhism was orginated by Guru Nanak Dev Ji.” Elucidate.)
उत्तर-
सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी की गणना विश्व के महापुरुषों में की जाती है। गुरु नानक साहिब ने अज्ञानता के अंधकार में भटक रही मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। उन्होंने लोगों को सत्यनाम और भ्रातृत्व का संदेश दिया। गुरु नानक साहिब जी के महान् जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अगदार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 16 ई० को पूर्णिमा के दिन राय भोय की तलवंडी में हुआ। यह स्थान अब पाकिस्तान के शेखूपुरा जिला में इस पवित्र स्थान को आजकल ननकाणा साहिब कहा जाता है। गुरु नानक साहिब के पिता जी का नाम महा कालू जी और माता जी का नाम तृप्ता देवी जी था। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु साहिब के जन्म के समय अनेक चमत्कार हुए। भाई गुरदास जी लिखते हैं—
सतगुरु नानक प्रगटिया मिटी धुंध जग चानण होया॥ जिओ कर सरज निकलिया तारे छपे अंधेर पलोया॥

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2. बचपन और शिक्षा (Childhood and Education)-गुरु नानक देव जी बचपन से ही बहुत गंभीर और विचारशील स्वभाव के थे। उनका झुकाव खेलों की ओर कम और प्रभु-भक्ति की ओर अधिक था। गुरु साहिब जब सात वर्ष के हुए तो उन्हें पंडित गोपाल की पाठशाला में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा गया। इसके पश्चात् गुरु साहिब ने पंडित बृजनाथ से संस्कृत तथा मुल्ला कुतुबुद्दीन से फ़ारसी और अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। जब गुरु नानक देव जी 9 वर्ष के हुए तो पुरोहित हरिदयाल को उन्हें जनेऊ पहनाने के लिए बुलाया गया। परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि वे केवल दया, संतोष, जत और सत से निर्मित जनेऊ पहनेंगे जो न टूटे, न जले और न ही मलिन हो पाये।

3. भिन्न-भिन्न व्यवसायों में (In Various Occupations)-गुरु नानक देव जी को अपने विचारों में मगन देखकर उनके पिता जी ने उन्हें किसी कार्य में लगाने का यत्न किया। सर्वप्रथम गुरु नानक देव जी को भैंसें चराने का कार्य सौंपा गया परंतु गुरु नानक देव जी ने कोई रुचि न दिखाई। फलस्वरूप अब गुरु साहिब को व्यापार में लगाने का निर्णय किया गया। गुरु जी को 20 रुपये दिए गए और मंडी भेजा गया। मार्ग में गुरु साहिब को भूखे साधुओं की टोली मिली। गुरु नानक देव जी ने अपने सारे रुपये इन साधुओं को भोजन खिलाने में व्यय कर दिए और खाली हाथ लौट आए। यह घटना इतिहास में ‘सच्चा सौदा’ के नाम से जानी जाती है।

4. विवाह (Marriage)-गुरु नानक देव जी की सांसारिक कार्यों में रुचि उत्पन्न करने के लिए मेहता कालू जी ने आपका विवाह बटाला निवासी मूल चंद की सुपुत्री सुलक्खनी देवी जी से कर दिया। उस समय आपकी आयु 14 वर्ष थी। समय के साथ आपके घर दो पुत्रों श्री चंद और लखमी दास ने जन्म लिया।

5. सुल्तानपुर में नौकरी (Service at Sultanpur)-जब गुरु नानक देव जी 20 वर्ष के हुए तो मेहता कालू जी ने आपको सुल्तानपुर में अपने जंवाई जयराम के पास भेज दिया। उनकी सिफ़ारिश पर नानक जी को मोदीखाना अन्न भंडार में नौकरी मिल गई। गुरु साहिब ने यह कार्य बड़ी योग्यता से किया।

6. ज्ञान प्राप्ति (Enlightenment)-गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर में रहते हुए प्रतिदिन सुबह बेईं नदी में स्नान करने के लिए जाते थे। एक दिन वे स्नान करने गए और तीन दिनों तक लुप्त रहे। इस समय उन्हें सत्य ज्ञान की प्राप्ति हुई । उस समय गुरु नानक साहिब की आयु 30 वर्ष थी। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् गुरु साहिब ने सर्वप्रथम “न को हिंदू, न को मुसलमान” शब्द कहे।

7. उदासियाँ (Travels)-गुरु नानक देव जी ने 1499 ई० में ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं को उदासियाँ भी कहा जाता है। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता एवं अंधविश्वास को दूर करना था तथा परस्पर भ्रातृभाव व एक ईश्वर का प्रचार करना था। भारत में गुरु नानक साहिब जी ने दर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक तथा पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में आसाम तक की यात्रा की। गुरु साहिब भारत से बाहर मक्का, मदीना, बगदाद तथा लंका भी गए। गुरु साहिब की यात्राओं के बारे में हमें उनकी बाणी से महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। गुरु नानक साहिब जी ने अपने जीवन के लगभग 21 वर्ष इन यात्राओं में बिताए। इन यात्राओं के दौरान गुरु नानक देव जी लोगों में फैले अंध-विश्वास को काफी सीमा तक दूर करने में सफल हुए तथा उन्होंने नाम के चक को चारों दिशाओं में फैलाया।

8. करतारपुर में निवास (Settled at Kartarpur)-गुरु नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर 1521 ई० में करतारपुर नामक नगर की स्थापना की। यहाँ गुरु साहिब जी ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की। गुरु साहिब का यह कार्य सिख पंथ के विकास के लिए एक मील पत्थर सिद्ध हुआ। गुरु नानक साहिब की प्रमुख वाणियों के नाम जपुजी साहिब, वार माझ, आसा दी वार, सिद्ध गोष्टि, वार मल्हार, बारह माह और पट्टी इत्यादि हैं।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)–गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई लहणा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार भाई लहणा जी गुरु अंगद देव जी बने। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने एक ऐसा पौधा लगाया जो गुरु गोबिंद सिंह जी के समय एक घने वृक्ष का रूप धारण कर गया। डॉक्टर हरी राम गुप्ता के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति एक बहुत ही दूरदर्शिता वाला कार्य था।”1

10. ज्योति-जोत समाना (Immersed in Eternal Light)—गुरु नानक देव जी 22 सितंबर, 1539 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

1. The apperiance of Angod was a step of far-reaching significance.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Guru New Delhi : 1973 p.81.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (1)
GURU NANAK DEV JI

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का वर्णन करें इनका क्या उद्देश्य था ? (Write a note on the Udasis of Guru Nanak Dev Ji. What was the aim of these Udasis ?)
अथवा
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (What is meant by Udasis ? Give a brief account of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
संक्षेप में गुरु नानक देव जी की उदासियों का वर्णन करें। उनका क्या उद्देश्य था ? (Briefly discuss the travels (Udasis) of Guru Nanak Dev Ji. What was their aim ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। इन उदासियों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ? (Describe briefly the Udasis of Guru Nanak Dev Ji. What was their impact on society ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की चार उदासियों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the four Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
1439 ई० में ज्ञान – प्राप्ति के पश्चात् गुरु नानक देव ही देश और विदेशों की लंबी यात्रा के लिए निकल पूरे गुर मानष्य 21 वर्ष इन यात्राओं में व्यतीत किए। गुरु नानक साहिब की इन यात्राओं को उदासियाँ भी कहा जाता है क्योंकि गुरु साहिब जी इस समय के दौरान घर-द्वार त्याग कर एक उदासी की भाँति भ्रमण करते रहे। गुरु नानक साहिब जी ने कुल कितनी उदासियाँ कीं, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। आधुनिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि गुरु नानक देव जी की उदासियों की संख्या तीन थी।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (2)
GURDWARA NANKANA SAHIB: PAKISTAN

उदासियों का उद्देश्य (Objects of the Udasis)
गुरु नानक देव जी की उदासियों का प्रमुख उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता और अंध-विश्वासों को दूर करना था। उस समय हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्म के मार्ग से भटक चुके थे। हिंदू ब्राह्मण और योगी जिनका प्रमुख कार्य भटके हुए लोगों को सही मार्ग दिखाना था, वे स्वयं ही भ्रष्ट और आचरणहीन हो चुके थे। लोगों ने असंख्य देवी-देवताओं, कब्रों, वृक्षों, सर्पो और पत्थरों इत्यादि की आराधना आरंभ कर दी थी। मुसलमानों के धार्मिक नेता भी चरित्रहीन हो चुके थे। उस समय अधिकाँश मुसलमान भोग-विलास का जीवन व्यतीत करते थे। समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। समाज में स्त्रियों की दशा बहुत ही दयनीय थी। गुरु नानक साहिब जी ने अज्ञानता में भटक रहे इन लोगों को प्रकाश का एक नया मार्ग बताने के लिए यात्राएँ कीं।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० एस० एस० कोहली के अनुसार,
“इस महापुरुष ने अपने मिशन को इस देश तक सीमित नहीं रखा। उसने सारी मानवता की जागति के लिए दूर-दूर के देशों की यात्राएँ कीं।”2

प्रथम उदासी (First Udasi)
गुरु नानक देव जी ने 1499 ई० के अंत में अपनी पहली यात्रा आरंभ की। इन यात्राओं के समय भाई मरदाना जी उनके साथ रहे। इस यात्रा को गुरु नानक देव जी ने 12 वर्ष में संपूर्ण किया और वह पूर्व से दक्षिण की ओर गए। इस यात्रा के दौरान गुरु जी ने निम्नलिखित प्रमुख स्थानों की यात्रा की—

1. सैदपुर (Saidpur)-गुरु नानक देव जी अपनी प्रथम उदासी के दौरान सर्वप्रथम सैदपुर पहुँचे। यहाँ पहुँचने पर मलिक भागो ने गुरु साहिब को एक ब्रह्मभोज पर निमंत्रण दिया, परंतु गुरु साहिब एक निर्धन बढ़ई भाई लालो के घर ठहरे। जब इस संबंध में मलिक भागो ने गुरु नानक साहिब से पूछा तो उन्होंने एक हाथ में मलिक भागो के भोज और दूसरे हाथ में भाई लालो की सूखी रोटी लेकर ज़ोर से दबाया। मलिक भागो के भोज से खून और भाई लालो की रोटी में से दूध निकला। इस प्रकार गुरु साहिब ने उसे बताया कि हमें श्रम तथा ईमानदारी की कमाई करनी चाहिए।

2. तालुंबा (Talumba)-तालुंबा में गुरु नानक देव जी की भेंट सज्जन ठग से हुई। उसने यात्रियों के लिए अपनी हवेली में एक मंदिर और मस्जिद बनाई हुई थी। वह दिन के समय तो यात्रियों की खूब सेवा करता किंतु रात के समय उन्हें लूटकर कुएँ में फैंक देता था। वह गुरु नानक देव जी और मरदाना के साथ भी कुछ ऐसा ही करने की योजनाएँ बना रहा था। रात्रि के समय जब गुरु नानक साहिब ने वाणी पढ़ी तो सज्जन ठग गुरु साहिब के चरणों में गिर पड़ा। गुरु नानक देव जी ने उसे क्षमा कर दिया। इस घटना के पश्चात् सज्जन ने अपना शेष जीवन सिख धर्म का प्रचार करने में व्यतीत किया। के० एस० दुग्गल के अनुसार,
“सज्जन की सराय जो कि एक वधस्थल था, एक धर्मशाला में परिवर्तित हो गया।”3

3. कुरुक्षेत्र (Kurukshetra)—गुरु नानक देव जी सूर्य ग्रहण के अवसर.पर कुरुक्षेत्र पहुँचे। इस अवसर पर हज़ारों ब्राह्मण और साधु एकत्रित हुए थे। कहा जाता है कि एक श्रद्धालु ने उन्हें हिरण का माँस भेट किया। गुरु जी ने उस श्रद्धालु को वहाँ ही वह माँस पकाने की आज्ञा दे दी। ब्राह्मण यह सहन करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने गुरु जी को भला-बुरा कहना आरंभ कर दिया। गुरु साहिब शाँत बने रहे। उन्होंने ब्राह्मणों को समझाया कि हमें व्यर्थ की बातों पर झगड़ने की अपेक्षा अपनी आत्मा को पवित्र रखने की ओर ध्यान देना चाहिए। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए। अधिकाँश इतिहासकार इस घटना से सहमत नहीं हैं।

4. दिल्ली (Delhi)-दिल्ली में गुरु नानक देव जी मजनूं का टिल्ला में रुके। कहा जाता है कि गुरु नानक साहिब ने दिल्ली में इब्राहीम लोधी के एक मुर्दा हाथी को जीवित कर दिया था। सिख परंपरा के अनुसार इस घटना को ठीक नहीं माना जाता।

5. हरिद्वार (Haridwar)—गुरु नानक देव जी जब हरिद्वार पहुँचे तो वहाँ बड़ी संख्या में हिंदू स्नान करते हुए पूर्व की ओर मुँह करके सूर्य और पितरों को पानी दे रहे थे। ऐसा देखकर गुरु साहिब ने पश्चिम की ओर मुँह करके पानी देना आरंभ कर दिया। यह देखकर लोग गुरु जी से पूछने लगे कि वे क्या कर रहे हैं। गुरु जी ने कहा कि वे करतारपुर में अपने खेतों को पानी दे रहे हैं। यह उत्तर सुनकर लोग हंस पड़े और कहने लगे कि यह पानी यहाँ से 300 मील दूर उनके खेतों में कैसे पहुँच सकता है ? गुरु जी ने उत्तर दिया कि यदि तुम्हारा पानी लाखों मील दूर स्थित सूर्य तक पहुँच सकता है तो मेरा पानी इतने निकट स्थित खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता ? गुरु जी के इस उत्तर से लोग बहुत प्रभावित हुए तथा उनके अनुयायी बन गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

6. गोरखमता (Gorakhmata)-हरिद्वार के पश्चात् गुरु नानक देव जी गोरखमता पहुँचे। गुरु नानक साहिब ने यहाँ के सिद्ध योगियों को बताया कि कानों में कुंडल पहनने, शरीर पर विभूति रमाने, गैंख बजाने से अथवा सिर मुँडवा देने से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। मुक्ति तो आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है। ये योगी गुरु साहिब के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित हुए। उस समय से ही गोरखमता का नाम नानकमता पड़ गया।

7. बनारस (Banaras)-बनारस भी हिंदुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु नानक देव जी का पंडित चतर दास से मूर्ति-पूजा के संबंध में एक दीर्घ वार्तालाप हुआ। गुरु जी के उपदेशों से प्रभावित होकर चतर दास गुरु जी का सिख बन गया।

8. कामरूप (Kamrup)-धुबरी से गुरु नानक देव जी कामरूप (असम) पहुँचे। यहाँ की प्रसिद्ध जादूगरनी नूरशाही ने अपनी सुंदरता के बल पर गुरु जी को भटकाने का असफल प्रयास किया। गुरु जी ने उसे जीवन का सही मनोरथ बताया।

9. जगन्नाथ पुरी (Jagannath Puri)-असम की यात्रा के पश्चात् गुरु नानक देव जी उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी पहुँचे! पंडितों ने गुरु साहिब को जगन्नाथ देवता की आरती करने के लिए कहा। गुरु नानक साहिब ने उन्हें बताया कि उस परम पिता परमात्मा की आरती प्रकृति सदैव करती रहती है।

10. लंका (Ceylon)-गुरु नानक जी दक्षिण भारत के प्रदेशों से होते हुए लंका पहुँचे। गुरु साहिब के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होकर लंका का राजा शिवनाथ गुरु जी का अनुयायी बन गया।

11. पाकपटन (Pakpattan)—लंका से पंजाब वापसी के समय गुरु नानक देव जी पाकपटन में ठहरे। यहाँ वे शेख फरीद जी की गद्दी पर बैठे शेख़ ब्रह्म को मिले। यह मुलाकात दोनों के लिए एक प्रसन्नता का स्रोत सिद्ध हुई।

2. “The Great Master did not confine his mission to this country; he travelled far and wide to far off lands and countries in order to enlighten humanity as a whole.” S.S. Kohli, Travels of Guru Nanak (Chandigarh : 1978) p. IX.
3. “Sajjan’s den of an assassin was transformed into a dharmsala.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 16.

द्वितीय उदासी
(Second Udasi)
गुरु नानक देव जी ने 1513-14 ई० में अपनी द्वितीय उदासी उत्तर की ओर आरंभ की। इस उदासी में उन्हें चार वर्ष लगे। इस उदासी के दौरान गुरु नानक साहिब निम्नलिखित प्रमुख स्थानों पर गए—

  1. पहाड़ी रियासतें (Hilly States)—गुरु नानक देव जी ने मंडी, रवालसर, ज्वालामुखी, काँगड़ा, बैजनाथ और कुल्लू इत्यादि पहाड़ी रियासतों की यात्रा की। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से प्रभावित होकर इन पहाड़ी रियासतों के बहुत-से लोग उनके अनुयायी बन गए।
  2. कैलाश पर्वत (Kailash Parvat) गुरु नानक देव जी तिब्बत से होते हुए कैलाश पर्वत पहुँचे। गुरु साहिब के यहाँ पहुँचने पर सिद्ध बहुत हैरान हुए। गुरु नानक देव जी ने उन्हें बताया कि संसार में से सत्य लुप्त हो गया है और चारों ओर भ्रष्टाचार और झूठ का बोलबाला है। इसलिए गुरु साहिब ने उन्हें मानवता का पथ-प्रदर्शन करने का संदेश दिया।
  3. लद्दाख (Ladakh)-कैलाश पर्वत के पश्चात् गुरु नानक देव जी लद्दाख पहुँचे। यहाँ के बहुत-से लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए।
  4. कश्मीर (Kashmir)-कश्मीर में स्थित मटन में गुरु नानक देव जी का पंडित ब्रह्मदास से काफ़ी लंबा धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ। गुरु नानक साहिब ने उसे समझाया कि मुक्ति केवल वेदों और रामायण इत्यादि को पढ़ने से नहीं अपितु उनमें दी गई बातों पर अमल करके प्राप्त की जा सकती है।
  5. हसन अब्दाल (Hasan Abdal)-गुरु नानक देव जी पंजाब की वापसी यात्रा के समय हसन अब्दाल ठहरे। यहाँ एक अहँकारी फकीर वली कंधारी ने गुरु नानक साहिब को कुचलने के उद्देश्य से एक बहुत बड़ा पत्थर पहाड़ी से नीचे की ओर लुढ़का दिया। गुरु साहिब ने इसे अपने पंजे से रोक दिया। इस स्थान को आजकल पंजा साहिब कहा जाता है।
  6. स्यालकोट (Sialkot) स्यालकोट में गुरु नानक देव जी की मुलाकात एक मुसलमान संत हमजा गौस से हुई। उसने किसी बात पर नाराज़ होकर अपनी शक्ति द्वारा सारे शहर को नष्ट करने का निर्णय कर लिया था। परंतु जब वह गुरु साहिब से मिला तो वह उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपना निर्णय बदल दिया। इस घटना का लोगों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

तृतीय उदासी
(Third Udasi) गुरु नानक देव जी ने 1517 ई० में अपनी तृतीय उदासी आरंभ की। इस उदासी के दौरान गुरु साहिब पश्चिमी एशिया के देशों की ओर गए। इस उदासी के दौरान गुरु नानक साहिब ने निम्नलिखित प्रमुख स्थानों की यात्रा की—

  1. मुलतान (Multan)-मुलतान में बहुत-से सूफ़ी संत निवास करते थे। मुलतान में गुरु साहिब की भेंट प्रसिद्ध सूफी संत शेख बहाउद्दीन से हुई। शेख बहाउद्दीन उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए।
  2. मक्का (Mecca)मक्का हज़रत मुहम्मद साहिब का जन्म स्थान है । सिख परम्परा के अनुसार गुरु नानक . देव जी जब मक्का पहुँचे तो काअबे की ओर पाँव करके सो गए। जब काज़ी रुकनुद्दीन ने यह देखा तो वह क्रोधित
    हो गया। कहा जाता है कि जब काजी ने गुरु साहिब के पाँव पकड़कर दूसरी ओर घुमाने आरंभ किए तो मेहराब भी उसी ओर घूमने लग पड़ा। यह देखकर मुसलमान बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब ने उन्हें समझाया कि अल्लाह सर्वव्यापक है।
  3. मदीना (Madina)-मक्का के पश्चात् गुरु नानक देव जी मदीना पहुँचे। गुरु साहिब ने अपने उपदेशों का प्रचार किया। यहाँ गुरु साहिब का इमाम आज़िम के साथ शास्त्रार्थ भी हुआ।
  4. बगदाद (Baghdad)-बगदाद में गुरु नानक देव जी की भेंट शेख बहलोल से हुई। वह गुरु साहिब की वाणी से प्रभावित होकर उनका श्रद्धालु बन गया।
  5. कंधार और काबुल (Qandhar and Kabul)-बगदाद की यात्रा के पश्चात् गुरु नानक देव जी पहले कंधार और फिर काबुल पहुँचे। गुरु नानक देव जी ने यहाँ अपने उपदेशों का प्रचार किया। काबुल के बहुत-से लोग गुरु साहिब के श्रद्धालु बन गए। वे आज भी गुरु नानक साहिब का बहुत सम्मान करते हैं।
  6. पेशावर (Peshawar)-पेशावर में गुरु नानक साहिब का योगियों से काफी दोघं वार्तालाप हआ। गुरु साहिब ने उन्हें धर्म का वास्तविक मार्ग बताया।

सैदपुर (Saidpur)-गुरु नानक देव जी जब 1520-21 ई० में सैदपुर पहुँचे तो उस समय बाबर ने पंजाब पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से वहाँ पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के समय मुग़ल सेनाओं ने बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। सैदपुर में भारी लूटपाट की गई और घरों में आग लगा दी गई। स्त्रियों को अपमानित किया गया। हज़ारों की संख्या में पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया। इन बंदी बनाए गए लोगों में गुरु नानक साहिब जी भी थे। जब बाद में बाबर को यह ज्ञात हुआ कि गुरु साहिब एक महान् संत हैं तो वह गुरु जी के दर्शनों के लिए स्वयं आया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने न केवल गुरु नानक साहिब को बल्कि बहुत से अन्य बंदियों को भी रिहा कर दिया। बाबर के अत्याचारों के संबंध में गुरु नानक साहिब बाबर वाणी में लिखते हैं,

“जैसी मैं आवे खसम की वाणी तैसड़ा करी ज्ञान वे लालो।
पाप की जंज लै काबलह धाया जोरि मंमे दान वे लालो।
शर्म धर्म दोए छप खलोए कूड़ फिरे प्रधान वे लालो।
काजियां ब्राह्मणां की गल थक्की अगद पढ़े शैतान वे लालो”

इसके पश्चात् गुरु नानक देव जी तलवंडी आ गए। इस प्रकार गुरु नानक साहिब की इन यात्राओं की श्रृंखला 1521 ई० में समाप्त हुई।

उदासियों का प्रभाव (Impact of the Udasis)-
गुरु नानक देव जी की यात्राओं के बहुत महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। वे लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करने और उनमें एक नई जागृति लाने में काफी सीमा तक सफल हुए। उन्होंने अपनी मधुर वाणी द्वारा बड़े-बड़े विद्वानों, योगियों, सिद्धों, ब्राह्मणों, चोरों, ठगों और अपराधियों का दिल जीत लिया। गुरु साहिब से मिलने के पश्चात् इन व्यक्तियों की जीवन-धारा ही परिवर्तित हो गई। गुरु साहिब के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों की संख्या में लोग उनके श्रद्धालु बन गए। अंत में हम डॉक्टर एस० एस० कोहली के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वे (गुरु नानक साहिब) एक पवित्र उद्देश्य को पूर्ण करना चाहते थे और इसमें उन्हें चमत्कारी सफलता प्राप्त हुई”4

4. “He had a.holy mission to perform and his performance was no less than a miracle.” Dr.S.S. Kohli, Travels of Guru Nanak (Chandigarh : 1978) p. XV.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief the basic teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the main teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ लिखें।
(Write down the teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म की प्रमुख सदाचारक शिक्षाओं पर नोट लिखें।
(Write a note on the major ethical teachings of Sikhism.)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने मानव समाज के विकास के लिए क्या उपदेश दिए ? चर्चा करें।
(Discuss the teachings of Guru Nanak Dev Ji for the development of Human society.)
अथवा
रु नानक देव जी की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त, परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Describe in brief, but meaningful the basic teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की मूल नैतिक शिक्षाओं पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the basic ethical teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म की मुख्य शिक्षाओं पर नोट लिखें।
(Write a short note on the main teachings of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म की शिक्षाओं के बारे में बताएँ।
(Explain the teachings of Sikhism.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में चर्चा करें। (Discuss the main teachings of the Guru Granth Sahib.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ बड़ी सरल किंतु प्रभावशाली थीं। गुरु जी की शिक्षाओं ने लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव डाला। उनकी शिक्षाएँ किसी एक वर्ग, जाति अथवा प्राँत के लिए नहीं थीं। इनका. संबंध तो सारी मानव जाति से था। गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ईश्वर एक है (The Unity of God)-गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। सिख परंपरा के अनुसार मूलमंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘१’ है, वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक साहिब के अनुसार ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और उसका विनाश करता है। ऐसी शक्तियाँ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवताओं में नहीं हैं। इस कारण प्रभु के सम्मुख इन देवी-देवताओं का कोई महत्त्व नहीं है। ईश्वर के सम्मुख वे उसी प्रकार हैं जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों और हज़ारों हैं, परंतु ईश्वर एक है। उस परमपिता ईश्वर को कई नामों से जाना जाता है। जैसे-हरि, गोपाल, वाहेगुरु, साहिब, अल्लाह, खुदा और राम इत्यादि। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

“दूजा काहे सिमरिए जन्मे ते मर जाए।
ऐको सिमरो नानका, जो जल थल रिहा समाए।’

2. निर्गुण और सगुण (Nirguna and Sarguna)—ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। सर्वप्रथम ईश्वर ने भूमि और आकाश की रचना की थी और वह अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर ईश्वर ने इस संसार की रचना की। इस रचना द्वारा ईश्वर ने अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था।

3. रचयिता, पालनकर्ता और नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)-ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और इसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना करने से पूर्व कोई पृथ्वी, आकाश नहीं थे और चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का आदेश ही चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके आदेश के साथ ही चारों ओर मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियाँ, पर्वत और वन इत्यादि अस्तित्व में आ गए। ईश्वर ही इस संसार का पालनकर्ता है। वही सभी को रोज़ी-रोटी देता है। ईश्वर की जब इच्छा हो, वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है।

4. सर्वशक्तिमान् (Sovereign)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह जो चाहता है, वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि ईश्वर चाहे तो वह भिखारी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं—

कुदरत कवण कहा वीचारु॥
वारिआ न जावा एक वार॥ जो
तुधु भावै साई भली कार॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥

5. सदैव रहने वाला (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान् है। यह अस्थिर है। ईश्वर सदैव रहने वाला है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों, लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान हैं, किंतु ईश्वर नहीं।

6. निराकार और सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर कार है। उसका कोई आकार अथवा रंग-रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है किंतु ईश्वर सर्वव्यापक भी है। गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर की लीला निराली है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। इसलिए ईश्वर को अपने से दूर न समझो। वह तुम्हारे निकट ही है। गुरु नानक साहिब जी का कथन है,
“सभी में एक प्रकाश है और यह उसी का प्रकाश है जो सभी में विद्यमान है”

7. ईश्वर की महानता (Greatness of God)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सबसे महान् है। उसकी महानता का वर्णन करना असंभव है। हज़ारों और लाखों भक्तों और संतों ने ईश्वर की महानता का गुणगान किया है फिर भी यह उसकी महिमा भंडार का छोटा-सा भाग ही है। उसकी महिमा मनुष्य की कल्पना से दूर है। उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसके ज्ञान, उसकी देन, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महिमा का ज्ञाता स्वयं ही है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

पताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इक धात॥ लेखा होई त लिखीए लेखै होई विणासु॥
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु॥

8. माया (Maya)-गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र इत्यादि क चक्र में फंसा रहता है। इसी को माया कहते हैं। मनमुख व्यक्ति रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ पाता। माया, जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

9. हऊमै (Haumai)—मनमुख व्यक्ति में हऊमै (अहं) की भावना बड़ी प्रबल होती है। अहं के कारण वह मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान पाता। वह ईश्वर के आदेश की अपेक्षा अपनी मनमानी करता है। अहं के कारण वह संसार की बुराइयों में फंसा रहता है और ईश्वर से दूर रहता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा आवागमन के चक्र में और फंस जाता है। डॉक्टर तारन सिंह के अनुसार,
“हऊमै मन की वह अवस्था है जो मनुष्य को वास्तविकता से तथा उसके जीवन के उद्देश्य से दूर रखती है तथा इस प्रकार उसका मुक्ति तथा परमात्मा से मिलन नहीं होने देती।”5

10. इंद्रियजन्य भूख (Evil Impulses)-मनमुख व्यक्ति सदैव इंद्रियजन्य भूख से घिरा रहता है। काम. क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मनुष्य के पाँच शत्रु हैं। इनके कारण मनुष्य पाप करता है तथा लोगों को धोखा देता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने के स्थान पर आवागमन की जंजीरों में और भी दृढ़ता से जकड़ा जाता है और उसे यमदूतों की मार पड़ती है।

11. पुरोहित वर्ग का खंडन (Condemnation of the Priestly Class)-गुरु नानक देव जी ने पंडित और मुल्ला इत्यादि पुरोहित वर्ग का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेद शास्त्र और कुरान तो पढ़ते थे किंतु उनका अंतःकरण शुद्ध नहीं था। वे लोगों को धोखा देते थे और उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर उन्हें लूटते थे।
इस कारण गुरु नानक साहिब ने लोगों को उनके पीछे न चलने का परामर्श दिया। गुरु नानक साहिब का कथन था कि पुरोहित वर्ग जो कि लोगों का सही नेतृत्व करने की अपेक्षा स्वयं कुमार्ग पर चल रहा है, को उस ईश्वर के दरबार में कठोर दंड मिलेगा और वे आवागमन के चक्र में फंसे रहेंगे।

12. जाति प्रथा का खंडन (Condemnation of the Caste System)-उस समय का हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जाति से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया।

13. मूर्ति पूजा का खंडन (Condemnation of Idol Worship)-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कहना था कि पत्थर की मूर्तियाँ निर्जीव हैं। यदि उन्हें पानी में फैंक दिया जाए तो वे डूब जाएँगी। जो मूर्तियाँ स्वयं की रक्षा नहीं कर पातीं, वे मनुष्य को कैसे इस भवसागर से पार उतार सकती हैं ? इसलिए मूर्तियों की पूजा करना व्यर्थ है। हमें केवल एक ईश्वर की ही पूजा करनी चाहिए।

14. स्त्रियों का उद्धार (Uplift of Women)-गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्थान पुरुषों की जूती के समान था। उनमें असंख्य कुरीतियाँ प्रचलित थीं। उस समय स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा जाता था तथा उनका पशुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। गुरु नानक साहिब ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने स्त्रियों का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए और उनके समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,
“सो क्यों मंदा आखिए जित जन्मे राजान।”

15. नाम और शब्द (Nam and Shabad)-गुरु नानक देव जी नाम जपने और शब्द की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। इन पर चलकर मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर उसे नरक से नहीं बचा सकता। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए।

16. गुरु का महत्त्व (Importance of Guru)-गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु के बिना मनुष्य को सभी ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर लाता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेषोल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानव-गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

17. आत्म-समर्पण (Self Surrender)-गुरु नानक देव जी के अनुसार कोई भी मनुष्य तब तक उस परम पिता परमात्मा को नहीं पा सकता जब तक कि वह स्वयं को पूरी तरह उसको समर्पण न कर दे। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपने अस्तित्व को मिटाना आवश्यक है। नदी तथा उस पर उठा बुलबुला एक ही है। यदि बुलबुला अपने अस्तित्व को नदी के जल से भिन्न समझने लगे तो यह उसकी भूल है। वह नदी से उत्पन्न हुआ है और उसे नदी में ही मिल जाना है।

18. हुक्म (Hukam)-गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म (आदेश) अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुष्य को परमात्मा का हुक्म मानना चाहिए। जो मनुष्य ऐसा करता है, परमात्मा उस पर अपनी कृपा करता है और उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य परमात्मा के आदेश को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरें खाता है। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोई॥
नानक हुकमै जे बुझे त हउमै कहे न कोई॥

19. उचित आचार (Right Conduct)-गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। दूसरों की सेवा करना ठीक आचार की आधारशिला है। दूसरों की सेवा के योग्य होने के लिए श्रम करना आवश्यक है,। दूसरों की कमाई पर जीने को गुरु जी निम्न आचरण का चिन्ह मानते थे। मुक्ति के लिए गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन का त्याग करने के पक्ष में नहीं थे।

20. सच्च-खंड (Sach Khand)-गुरु नानक देव जी के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सच्चखंड को प्राप्त करना है। सच्च-खंड तक पहुँचने के लिए मनुष्य को धर्म-खंड, ज्ञान-खंड, शर्म-खंड तथा कर्मखंड में से गुजरना होता है। सच्च-खंड आखिरी अवस्था है। सच्च-खंड में आत्मा पूर्णतया परमात्मा में लीन हो जाती है तथा मानव के कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वह परमानंद अवस्था में पहुँच जाता है।

5. “Haumai is that condition of mind which keeps man ignorant of the true reality, the true purpose of life, and thus keeps him away from salvation and union with God.” Dr. Taran Singh, Teachings of Guru Nanak Dev (Patiala : 1990) p. 36.

शिक्षाओं का महत्त्व (Importance of Teachings)
गुरु नानक देव जी के उपदेशों ने न केवल धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों अपितु राजनीतिक क्षेत्र को भी. प्रभावित किया। गुरु साहिब के उपदेशों ने समाज में छाए अंधविश्वासों के काले बादलों पर सूर्य की किरणें फैलाने का कार्य किया। परिणामस्वरूप लोगों में एक नई जागृति का संचार होने लगा। वे व्यर्थ के रस्म-रिवाज छोड़कर एक परमात्मा की पूजा करने लगे। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा का खंडन करके, परस्पर भ्रातृ-भाव का प्रचार करके, स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा देकर, संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की स्थापना करके एक नए समाज की आधारशिला रखी। गुरु जी ने अपने उपदेशों द्वारा उस समय के शासकों को भी झकझोर डाला। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एच० आर० गुप्ता के अनुसार,
“इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने समूची मानवता के लिए एक ऐसी देन दी जो अभी तक प्रभावशाली है तथा भविष्य में भी यह संपूर्ण विश्व के सिखों को प्रेरित तथा उनका मार्ग दर्शन करती रहेगी।”6

6. “Thus Nanak left for all mankind a legacy which is still going strong and will continue to surprise and serve the Sikhs all over the world and for all times to come.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi :1973) p.56.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा उनकी कुछ मूल शिक्षाएँ बताएँ। (Explain Guru Nanak’s life and his basic teachings.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा शिक्षाओं के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करें।
(Discuss in detail the life and teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा उपदेशों के बारे में लिखें। (Write the life and teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ बड़ी सरल किंतु प्रभावशाली थीं। गुरु जी की शिक्षाओं ने लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव डाला। उनकी शिक्षाएँ किसी एक वर्ग, जाति अथवा प्राँत के लिए नहीं थीं। इनका. संबंध तो सारी मानव जाति से था। गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ईश्वर एक है (The Unity of God)-गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। सिख परंपरा के अनुसार मूलमंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘१’ है, वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक साहिब के अनुसार ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और उसका विनाश करता है। ऐसी शक्तियाँ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवताओं में नहीं हैं। इस कारण प्रभु के सम्मुख इन देवी-देवताओं का कोई महत्त्व नहीं है। ईश्वर के सम्मुख वे उसी प्रकार हैं जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों और हज़ारों हैं, परंतु ईश्वर एक है। उस परमपिता ईश्वर को कई नामों से जाना जाता है। जैसे-हरि, गोपाल, वाहेगुरु, साहिब, अल्लाह, खुदा और राम इत्यादि। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

“दूजा काहे सिमरिए जन्मे ते मर जाए।
ऐको सिमरो नानका, जो जल थल रिहा समाए।’

2. निर्गुण और सगुण (Nirguna and Sarguna)—ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। सर्वप्रथम ईश्वर ने भूमि और आकाश की रचना की थी और वह अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर ईश्वर ने इस संसार की रचना की। इस रचना द्वारा ईश्वर ने अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था।

3. रचयिता, पालनकर्ता और नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)-ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और इसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना करने से पूर्व कोई पृथ्वी, आकाश नहीं थे और चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का आदेश ही चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके आदेश के साथ ही चारों ओर मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियाँ, पर्वत और वन इत्यादि अस्तित्व में आ गए। ईश्वर ही इस संसार का पालनकर्ता है। वही सभी को रोज़ी-रोटी देता है। ईश्वर की जब इच्छा हो, वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है।

4. सर्वशक्तिमान् (Sovereign)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह जो चाहता है, वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि ईश्वर चाहे तो वह भिखारी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं—

कुदरत कवण कहा वीचारु॥
वारिआ न जावा एक वार॥ जो
तुधु भावै साई भली कार॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥

5. सदैव रहने वाला (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान् है। यह अस्थिर है। ईश्वर सदैव रहने वाला है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों, लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान हैं, किंतु ईश्वर नहीं।

6. निराकार और सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर कार है। उसका कोई आकार अथवा रंग-रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है किंतु ईश्वर सर्वव्यापक भी है। गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर की लीला निराली है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। इसलिए ईश्वर को अपने से दूर न समझो। वह तुम्हारे निकट ही है। गुरु नानक साहिब जी का कथन है,
“सभी में एक प्रकाश है और यह उसी का प्रकाश है जो सभी में विद्यमान है”

7. ईश्वर की महानता (Greatness of God)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सबसे महान् है। उसकी महानता का वर्णन करना असंभव है। हज़ारों और लाखों भक्तों और संतों ने ईश्वर की महानता का गुणगान किया है फिर भी यह उसकी महिमा भंडार का छोटा-सा भाग ही है। उसकी महिमा मनुष्य की कल्पना से दूर है। उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसके ज्ञान, उसकी देन, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महिमा का ज्ञाता स्वयं ही है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

पताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इक धात॥ लेखा होई त लिखीए लेखै होई विणासु॥
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु॥

8. माया (Maya)-गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र इत्यादि क चक्र में फंसा रहता है। इसी को माया कहते हैं। मनमुख व्यक्ति रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ पाता। माया, जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

9. हऊमै (Haumai)—मनमुख व्यक्ति में हऊमै (अहं) की भावना बड़ी प्रबल होती है। अहं के कारण वह मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान पाता। वह ईश्वर के आदेश की अपेक्षा अपनी मनमानी करता है। अहं के कारण वह संसार की बुराइयों में फंसा रहता है और ईश्वर से दूर रहता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा आवागमन के चक्र में और फंस जाता है। डॉक्टर तारन सिंह के अनुसार,
“हऊमै मन की वह अवस्था है जो मनुष्य को वास्तविकता से तथा उसके जीवन के उद्देश्य से दूर रखती है तथा इस प्रकार उसका मुक्ति तथा परमात्मा से मिलन नहीं होने देती।”5

10. इंद्रियजन्य भूख (Evil Impulses)-मनमुख व्यक्ति सदैव इंद्रियजन्य भूख से घिरा रहता है। काम. क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मनुष्य के पाँच शत्रु हैं। इनके कारण मनुष्य पाप करता है तथा लोगों को धोखा देता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने के स्थान पर आवागमन की जंजीरों में और भी दृढ़ता से जकड़ा जाता है और उसे यमदूतों की मार पड़ती है।

11. पुरोहित वर्ग का खंडन (Condemnation of the Priestly Class)-गुरु नानक देव जी ने पंडित और मुल्ला इत्यादि पुरोहित वर्ग का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेद शास्त्र और कुरान तो पढ़ते थे किंतु उनका अंतःकरण शुद्ध नहीं था। वे लोगों को धोखा देते थे और उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर उन्हें लूटते थे।
इस कारण गुरु नानक साहिब ने लोगों को उनके पीछे न चलने का परामर्श दिया। गुरु नानक साहिब का कथन था कि पुरोहित वर्ग जो कि लोगों का सही नेतृत्व करने की अपेक्षा स्वयं कुमार्ग पर चल रहा है, को उस ईश्वर के दरबार में कठोर दंड मिलेगा और वे आवागमन के चक्र में फंसे रहेंगे।

12. जाति प्रथा का खंडन (Condemnation of the Caste System)-उस समय का हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जाति से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया।

13. मूर्ति पूजा का खंडन (Condemnation of Idol Worship)-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कहना था कि पत्थर की मूर्तियाँ निर्जीव हैं। यदि उन्हें पानी में फैंक दिया जाए तो वे डूब जाएँगी। जो मूर्तियाँ स्वयं की रक्षा नहीं कर पातीं, वे मनुष्य को कैसे इस भवसागर से पार उतार सकती हैं ? इसलिए मूर्तियों की पूजा करना व्यर्थ है। हमें केवल एक ईश्वर की ही पूजा करनी चाहिए।

14. स्त्रियों का उद्धार (Uplift of Women)-गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्थान पुरुषों की जूती के समान था। उनमें असंख्य कुरीतियाँ प्रचलित थीं। उस समय स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा जाता था तथा उनका पशुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। गुरु नानक साहिब ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने स्त्रियों का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए और उनके समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,
“सो क्यों मंदा आखिए जित जन्मे राजान।”

15. नाम और शब्द (Nam and Shabad)-गुरु नानक देव जी नाम जपने और शब्द की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। इन पर चलकर मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर उसे नरक से नहीं बचा सकता। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए।

16. गुरु का महत्त्व (Importance of Guru)-गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु के बिना मनुष्य को सभी ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर लाता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेषोल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानव-गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

17. आत्म-समर्पण (Self Surrender)-गुरु नानक देव जी के अनुसार कोई भी मनुष्य तब तक उस परम पिता परमात्मा को नहीं पा सकता जब तक कि वह स्वयं को पूरी तरह उसको समर्पण न कर दे। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपने अस्तित्व को मिटाना आवश्यक है। नदी तथा उस पर उठा बुलबुला एक ही है। यदि बुलबुला अपने अस्तित्व को नदी के जल से भिन्न समझने लगे तो यह उसकी भूल है। वह नदी से उत्पन्न हुआ है और उसे नदी में ही मिल जाना है।

18. हुक्म (Hukam)-गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म (आदेश) अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुष्य को परमात्मा का हुक्म मानना चाहिए। जो मनुष्य ऐसा करता है, परमात्मा उस पर अपनी कृपा करता है और उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य परमात्मा के आदेश को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरें खाता है। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोई॥
नानक हुकमै जे बुझे त हउमै कहे न कोई॥

19. उचित आचार (Right Conduct)-गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। दूसरों की सेवा करना ठीक आचार की आधारशिला है। दूसरों की सेवा के योग्य होने के लिए श्रम करना आवश्यक है,। दूसरों की कमाई पर जीने को गुरु जी निम्न आचरण का चिन्ह मानते थे। मुक्ति के लिए गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन का त्याग करने के पक्ष में नहीं थे।

20. सच्च-खंड (Sach Khand)-गुरु नानक देव जी के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सच्चखंड को प्राप्त करना है। सच्च-खंड तक पहुँचने के लिए मनुष्य को धर्म-खंड, ज्ञान-खंड, शर्म-खंड तथा कर्मखंड में से गुजरना होता है। सच्च-खंड आखिरी अवस्था है। सच्च-खंड में आत्मा पूर्णतया परमात्मा में लीन हो जाती है तथा मानव के कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वह परमानंद अवस्था में पहुँच जाता है।

5. “Haumai is that condition of mind which keeps man ignorant of the true reality, the true purpose of life, and thus keeps him away from salvation and union with God.” Dr. Taran Singh, Teachings of Guru Nanak Dev (Patiala : 1990) p. 36.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षिप्त वर्णन करें। (What do you know about the early career of Guru Angad Dev Ji ? Explain briefly.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी अथवा भाई लहणा जी सिखों के दूसरे गुरु थे। उनका गुरु काल 1539 ई० से 1552 ई० तक रहा। गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अंगद देव जी का पहला नाम भाई लहणा जी था। उनका जन्म 31 मार्च, 1504 ई०को मत्ते की सराय नामक गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम फेरूमल था तथा वह क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। भाई लहणा जी की माता जी का नाम सभराई देवी जी था। वह बहुत धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। भाई लहणा जी पर उनके धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई लहणा जी का बचपन हरीके एवं खडूर साहिब में व्यतीत हुआ। आरंभ में भाई लहणा जी दुर्गा माता के भक्त थे। 15 वर्ष के होने पर उनका विवाह मत्ते की सराए के निवासी श्री देवी चंद की सुपुत्री बीबी खीवी जी के साथ कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों दातू और दासू तथा दो पुत्रियों बीबी अमरो और बीबी अनोखी ने जन्म लिया।

3. लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बने (Lehna Ji becomes the disciple of Guru Nanak Dev Ji)-भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी से भेंट करने से पूर्व दुर्गा माता के भक्त थे। वह प्रतिवर्ष ज्वालामुखी (ज़िला काँगड़ा) देवी के दर्शन के लिए जाते थे। एक दिन खडूर साहिब में भाई जोधा जी के मुख से ‘आसा दी वार’ का पाठ सुना। यह पाठ सुनकर भाई लहणा जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गुरु नानक देव जी के दर्शन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। आगामी वर्ष जब भाई लहणा जी ज्वालामुखी की यात्रा के लिए निकले तो वह मार्ग में करतारपुर में गुरु नानक देव जी के दर्शनों के लिए रुके। वह गुरु साहिब के महान् व्यक्तित्व और मधुर वाणी को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए, इसलिए भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बन गए और गुरु-चरणों में ही अपना जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-भाई लहणा जी ने पूर्ण श्रद्धा के साथ गुरु नानक साहिब की अथक सेवा की। भाई लहणा जी की सच्ची भक्ति और अपार प्रेम को देखकर गुरु नानक देव जी ने गुरुगद्दी उनके सुपुर्द करने का निर्णय किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। भाई लहणा को अंगद का नाम दिया गया। यह घटना 7 सितंबर, 1539 ई० की है। गुरु नानक साहिब द्वारा गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना सिखइतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यदि गुरु नानक साहिब अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व ऐसा न करते तो निस्संदेह सिख धर्म का अस्तित्व लुप्त हो जाना था। इसका कारण यह था कि सिख धर्म अभी अच्छी प्रकार से संगठित नहीं था। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से जो लोग प्रभावित हुए थे उनकी संख्या दूसरे लोगों की अपेक्षा नगण्य थी। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति से सिख धर्म को एक निश्चित दिशा प्राप्त हुई तथा इसका आधार मज़बूत हुआ। जी० सी० नारंग का यह कहना पूर्णतः सही है,
“यदि गुरु नानक जी उत्तराधिकारी की नियुक्ति के बिना ही ज्योति जोत समा जाते तो आज सिख धर्म नहीं होना था।”7

7. “Had Nanak died without a successor, there would have been no Sikhism today.” G.C. Narang, Transformation of Sikhism (New Delhi : 1989) p. 29.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (3)
GURU ANGAD DEV JI

प्रश्न 6.
सिख-धर्म के आरंभिक विकास में गुरु अंगद देव जी का क्या योगदान है ? वर्णन कीजिए ।
(What is the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के सिख पंथ के विकास में योगदान का संक्षेप वर्णन करें।
(Give a brief account of the contribution made by Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला बड़ा संकट हिंदू धर्म से था। सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi) गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”8

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद साहिब जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में एक जन्म साखी लिखवाई। इस जन्म साखी को भाई पैड़ा मौखा जी ने लिखा था। इस साखी को भाई बाला की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने कुल 62 शब्दों की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णत: सही है,
“सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना । संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. सिख मत में अनुशासन (Discipline in Sikhism)-गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। उनके दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड ने, अपनी मधुर आवाज़ के कारण अहंकार में आकर गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप, उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही रागियों को अपनी ग़लती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन की मर्यादा को बनाए रखा।

7. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)—गुरु अंगद साहिब यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

8. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)—गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

9. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद साहिब जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोलीं और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

10. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

11. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)—इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गुरु घर में अनुशासन स्थापित करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,
“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”10
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”11

8. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaeodic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
9. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of The Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
10. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 69.
11. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

प्रश्न 7.
गुरु अंगद देव जी के जीवन तथा सिख पंथ के विकास में उनके योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the life and contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के जीवन एवं सफलता का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe in brief, the life and achievements of Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला बड़ा संकट हिंदू धर्म से था। सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi) गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”8

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद साहिब जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में एक जन्म साखी लिखवाई। इस जन्म साखी को भाई पैड़ा मौखा जी ने लिखा था। इस साखी को भाई बाला की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने कुल 62 शब्दों की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णत: सही है,
“सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना । संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. सिख मत में अनुशासन (Discipline in Sikhism)-गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। उनके दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड ने, अपनी मधुर आवाज़ के कारण अहंकार में आकर गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप, उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही रागियों को अपनी ग़लती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन की मर्यादा को बनाए रखा।

7. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)—गुरु अंगद साहिब यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

8. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)—गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

9. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद साहिब जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोलीं और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

10. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

11. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)—इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गुरु घर में अनुशासन स्थापित करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,
“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”10
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”11

8. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaeodic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
9. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of The Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
10. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 69.
11. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 8.
गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the early career and difficulties of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गरु अमरदास जी के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (4)
GURU AMAR DAS JI

I. गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन
(Early Life of Guru Amardas Ji)

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को ज़िला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बख्त कौर था।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी जी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियोंबीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद साहिब जी का सिख बनना (To become the Disciple of Guru Angad SahibJi)एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया। एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद साहिब जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

II. गुरु अमरदास जी की प्रारंभिक कठिनाइयाँ (Guru Amar Das Ji’s Early Difficulties)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी, गुरु अंगद साहिब जी के आदेश पर खडूर साहिब से गोइंदवाल साहिब आ गए। यहाँ गुरु जी को आरंभ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—

  1. दासू और दातू का विरोध (Opposition of Dasu and Dattu)—गुरु अमरदास जी को अपने गुरुकाल के आरंभ में, गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को असली उत्तराधिकारी घोषित किया। उनका कहना था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है। एक दिन दातू ने क्रोधित होकर गोइंदवाल साहिब जाकर भरे दरबार में गुरु जी को ठोकर मारी जिसके कारण वह गद्दी से नीचे गिर पड़े। इस पर भी गुरु साहिब ने बहुत ही नम्रता से दातू से क्षमा माँगी। इसके पश्चात् गुरु जी गोइंदवाल साहिब को छोड़कर अपने गाँव बासरके
  2. चले गए। सिख संगतों ने दातू को अपना गुरु मानने से इंकार कर दिया। अंतत: निराश होकर वह खडूर साहिब लौट गया। बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिख संगतों के कहने पर गुरु अमरदास जी पुनः गोइंदवाल साहिब आ गए।

2. बाबा श्रीचंद का विरोध (Opposition of Baba Sri Chand)-बाबा श्रीचंद जी गुरु नानक जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने गुरु अंगद देव जी का विरोध इसलिए न किया क्योंकि उन्हें गुरुगद्दी गुरु नानक साहिब ने स्वयं सौंपी थी। परंतु गुरु अंगद देव जी के पश्चात् उन्होंने अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। बाबा श्रीचंद जी के अनेक समर्थक थे। गुरु अमरदास जी ने ऐसे समय में दृढ़ता से काम लेते हुए सिखों को स्पष्ट किया कि उदासी संप्रदाय के सिद्धांत गुरु नानक देव जी के उपदेशों के विपरीत हैं। उनके तर्कों से प्रभावित होकर सिखों ने बाबा श्रीचंद जी का साथ छोड़ दिया। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिखों को उदासी संप्रदाय से सदैव के लिए पृथक् कर दिया।

3. गोइंदवाल साहिब के मुसलमानों का विरोध (Opposition by the Muslims of Goindwal Sahib)-गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देखकर वहाँ के मुसलमानों ने सिखों को परेशान करना आरंभ कर दिया। वे सिखों का सामान चोरी कर लेते। वे सतलुज नदी से जल भर कर लाने वाले सिखों के घड़े पत्थर मार कर तोड़ देते थे। सिख इस संबंध में गुरु जी से शिकायत करते। अमरदास जी ने सिखों को शाँत रहने का उपदेश दिया। एक बार गाँव में कुछ सशस्त्र व्यक्ति आ गए। इन मुसलमानों का उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। उन्होंने बहुत से मुसलमानों को यमलोक पहुँचा दिया। लोग सोचने लगे कि मुसलमानों को परमात्मा की ओर से यह दंड मिला है। इस प्रकार उनका सिख धर्म में विश्वास और दृढ़ हो गया।

4. हिंदुओं द्वारा विरोध (Opposition by the Hindus)-गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों से प्रभावित होकर बहुत से लोग सिख धर्म में शामिल होते जा रहे थे। सिख धर्म में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता था। लंगर में सब एक साथ भोजन करते थे। इसके अतिरिक्त बाऊली का निर्माण होने से सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान भी मिल गया था। गोइंदवाल साहिब के उच्च जातियों के हिंदू यह बात सहन न कर सके। उन्होंने मुग़ल बादशाह अकबर के पास यह झूठी शिकायत की कि गुरु जी हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। इस आरोप की जाँच के लिए अकबर ने गुरु साहिब को अपने दरबार में बुलाया। गुरु अमरदास जी ने अपने श्रद्धालु भाई जेठा जी को भेजा। भाई जेठा जी से मिलने के पश्चात् अकबर ने गुरु जी को निर्दोष घोषित किया। इससे सिख लहर को और उत्साह मिला।

प्रश्न 9.
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अमरदास जी की भूमिका पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the role of Guru Amardas Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
श्री गुरु अमरदास जी द्वारा बसाये गए नये नगर गोइंदवाल साहिब में किए गए कार्य बताओ।
(Describe the tasks done by Guru Amardas Ji at new place Goindwal Sahib.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का वर्णन करें।
(Describe the contribution of Guru Amar Das Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अमरदास जी की सिख धर्म के विकास में की गई सेवाओं का वर्णन करो।
(Describe the services rendered by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के सिख पंथ के संगठन तथा प्रसार के लिए किए गए कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe in brief the organisational development and spread of Sikhism by Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के संगठन र विकास के लिए गुरु अमरदास जी ने क्या-क्या कार्य किए ?
(What were the measures taken by Guru Amar Das Ji for the consolidation and expansion of Sikhism ?)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णत: संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में,
“गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”12

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव – जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत” का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”13

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि-ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (5)
BAOLI SAHIB : GOINDWAL SAHIB

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”14

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था.। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए।
गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। इस पर अकबर ने यह जागीर बीबी भानी जी को दे दी। इस जागीर पर बाद में गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की स्थापना की। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 को ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”15
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”16

12. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
13. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala: 1982) p 25.
14. “The establishment of Manji system gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
15. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29.
16. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.”Dr.D.S. Dhillon Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 10.
गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों का मूल्यांकन करें। (Examine the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
“गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे।” बताएँ। (“Guru Amar Das Ji was a great social reformer.” Discuss.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का नाम सिख इतिहास में एक महान् समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध है। वह सिखों की सामाजिक संरचना को एक नया रूप देना चाहते थे। वह सिखों को तात्कालीन समाज के जटिल नियमों से मुक्त करना चाहते थे ताकि उनमें आपसी भ्रातृत्व स्थापित हो। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधार का संक्षिप्त वर्णन निम्न अनुसार है—

जातीय भेद-भाव तथा छुआ-छूत का खंडन (Denunciation of Caste Distinctions and Untouchability)-गुरु अमरदास जी ने जातीय एवं छुआ-छूत की प्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जाति पर अभिमान करने वाले मूर्ख तथा गंवार हैं। उन्होंने संगतों को यह हुक्म दिया कि जो कोई उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कुछ सामान्य कुएँ खुदवाए। इन कुओं से प्रत्येक जाति के लोगों को पानी लेने का अधिकार था। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया।

2. लड़कियों की हत्या का खंडन (Denunciation of Female Infanticide)-उस समय लड़कियों के जन्म को अशुभ माना जाता था। समाज में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने इस कुप्रथा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जो व्यक्ति ऐसा करता है वह घोर पाप का सहभागी बनता है । उन्होंने सिखों को इस अपराध से दूर रहने का उपदेश दिया।

3. बाल विवाह का खंडन (Denunciation of Child Marriage)-उस समय समाज में प्रचलित परंपराओं के अनुसार लड़कियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता था। इस कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई थी। गुरु अमरदास जी ने बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार किया।

4. सती प्रथा का खंडन (Denunciation of Sati System)-उस समय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं में से सबसे घृणा योग्य कुप्रथा सती प्रथा की थी। इस अमानवीय प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे जबरन पति की चिता के साथ जीवित जला दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने शताब्दियों से चली आ रही इस कुप्रथा के विरुद्ध एक ज़ोरदार अभियान चलाया। गुरु साहिब का कथन था
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोटि मरनि॥
भाव उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती तो वह है जो अपने पति के वियोग की पीड़ा में प्राण त्याग दे।

5. पर्दा प्रथा का खंडन (Denunciation of Purdah System)-उस समय समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन भी काफ़ी बढ़ गया था। यह प्रथा स्त्रियों के शारीरिक तथा मानसिक विकास में एक बड़ी बाधा थी। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने यह आदेश दिया कि संगत अथवा लंगर में सेवा करते समय कोई भी स्त्री पर्दा न करे।

6. नशीली वस्तुओं का विरोध (Prohibition of Intoxicants)-उस समय समाज में शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों का प्रयोग बहुत बढ़ गया था। इस कारण समाज का दिन-प्रतिदिन नैतिक पतन होता जा रहा था। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इन नशों के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उनका कथन था कि जो मनुष्य शराब पीता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह अपने-पराए का भेद भूल जाता है। मनुष्य को ऐसी झूठी शराब नहीं पीनी चाहिए, जिस कारण वह परमात्मा को भूल जाए।

7. विधवा विवाह के पक्ष में (Favoured Widow Marriage)-जो स्त्रियाँ सती होने से बच जाती थीं, उन्हें सदैव विधवा का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। समाज की ओर से विधवा विवाह पर प्रतिबंध लगा हुआ था। विधवा का जीवन नरक के समान था। गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा को खेदजनक बताया। उनका कथन था कि हमें विधवा का पूरा सम्मान करना चाहिए। गुरु जी ने बाल विधवा के पुनर्विवाह के पक्ष में प्रचार किया।

8. जन्म, विवाह तथा मृत्यु के.समय के नवीन नियम (New Ceremonies related to Birth, Marriage and Death)-उस समय समाज में जन्म, विवाह तथा मृत्यु से संबंधित जो रीति-रिवाज प्रचलित थे, वे बहुत जटिल थे। गुरु साहिब ने सिखों के लिए इन अवसरों पर विशेष नियम बनाए। ये नियम पूर्णतः सरल थे। गुरु साहिब ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर गाने के लिए अनंदु साहिब की रचना की। इसमें 40 पौड़ियाँ हैं। इसके अतिरिक्त विवाह के समय लावाँ की नई प्रथा आरंभ की गई।

9. त्योहार मनाने का नवीन ढंग (New Mode of Celebrating Festivals)-गुरु अमरदास जी ने सिखों को वैसाखी, माघी तथा दीवाली के त्योहारों को नवीन ढंग से मनाने के लिए कहा। इन तीनों त्योहारों के अवसरों पर बड़ी संख्या में सिख गोइंदवाल साहिब पहुँचते थे। गुरु साहिब का यह पग सिख पंथ के प्रचार में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर बी० एस० निझर के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी द्वारा आरंभ किए गए इन सामाजिक सुधारों को सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाले समझे जाने चाहिएँ।”17

17. “These social reforms introduced by Guru Amar Das must be regarded as a turning point in the history of Sikhism.” Dr. B.S. Nijjar, op. cit., p. 83.

प्रश्न 11.
गुरु अमरदास जी के जीवन एवं सफलताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the life and achievements of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को गुरुगद्दी पर बिराजमान होते समय किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा ? सिख मत के संगठन और विस्तार के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदमों की चर्चा कीजिए ।
(What were the difficulties faced by Guru Amar Das Ji at the time of his accession ? Discuss the steps taken by him to consolidate and expand Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन (Early Life of Guru Amardas Ji)-

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को ज़िला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बख्त कौर था।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी जी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियोंबीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद साहिब जी का सिख बनना (To become the Disciple of Guru Angad SahibJi)-एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया। एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद साहिब जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णत: संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)-गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में,
“गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”12

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव – जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत” का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”13

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि-ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।
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4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”14

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था.। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए।

गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। इस पर अकबर ने यह जागीर बीबी भानी जी को दे दी। इस जागीर पर बाद में गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की स्थापना की। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 को ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”15
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”16

12. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
13. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala: 1982) p 25.
14. “The establishment of Manji system gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
15. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29.
16. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.”Dr.D.S. Dhillon Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 12.
गुरु रामदास जी के जीवन और सफलताओं का वर्णन करें।
(Describe the life and the achievements of Guru Ram Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी के योगदान के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the contribution of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से लेकर 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनके गुरुकाल में सिख पंथ के संगठन और विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। गुरु रामदास जी के आरंभिक जीवन और उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
I. गुरु रामदास जी का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Guru Ram Das.Ji)

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु रामदास जी का जन्म 24 सितंबर, 1534 ई० को चूना मंडी लाहौर में हुआ था। आपको पहले भाई जेठा जी के नाम से जाना जाता था। आपके पिता जी का नाम हरिदास जी तथा माता जी का नाम दया कौर जी था। वे सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। जेठा जी के माता-पिता बहुत निर्धन थे।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई जेठा जी बचपन से ही धार्मिक विचारों वाले थे। एक बार आपके माता जी ने आपको उबले हुए चने बेच कर कुछ कमाने को कहा। बाहर जाते समय उन्हें कुछ भूखे साधु मिल गए। आपने सारे चने इन भूखे साधुओं को खिला दिए-और स्वयं खाली हाथ लौट आए। आप लोगों की सेवा करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। एक बार आपको एक सिख जत्थे के साथ गोइंदवाल साहिब जाने का अवसर मिला। आप वहाँ पर गुरु अमरदास जी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बन गए। गुरु अमरदास जी भाई जेठा जी की भक्ति और गुणों को देखकर बहुत प्रभावित हुए। इसलिए गुरु साहिब ने 1553 ई० में अपनी छोटी लड़की बीबी भानी जी का विवाह उनके साथ कर दिया। भाई जेठा जी के घर तीन लड़कों का जन्म हुआ। उनके नाम पृथी चंद (पृथिया), महादेव और अर्जन देव थे।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship) विवाह के पश्चात् भी भाई जेठा जी गोइंदवाल साहिब में ही रहे तथा पहले की तरह गुरु जी की सेवा करते रहे। भाई जेठा जी की निष्काम सेवा, नम्रता और मधुर स्वभाव ने गुरु अमरदास जी का मन मोह लिया था। इसलिए 1 सितंबर, 1574 ई० में गुरु अमरदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय से भाई जेठा जी को रामदास जी कहा जाने लगा। इस प्रकार गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु बने।

II. गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (7)
GURU RAM DAS JI

  1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”18

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With the Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। गुरु रामदास जी को देखकर उन्होंने यह प्रश्न किया, “सुनाइए दाढ़ा इतना लंबा क्यों बढ़ाया है ?” गुरु साहिब ने उत्तर दिया, “आप जैसे महापुरुषों के चरण साफ़ करने के लिए।” यह कहकर गुरु साहिब अपनी दाढ़ी से श्रीचंद के चरण साफ करने लगे। श्रीचंद ने अपने पाँव फौरन पीछे खींच लिए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) तथा लावाँ द्वारा विवाह करने की प्रथा का आरंभ था। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसेजाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब को 500 बीघा भूमि दान में दी। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। गुरु अर्जन देव जी प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)—गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, “गत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”19

18. “Masand System played a big role in consolidating Sikhism.” S. S. Gandhi, History of the Sikh Gurus (Delhi : 1978) p. 209.
19. “During the short period of his Guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

प्रश्न 13.
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी के योगदान के बारे में जानकारी दो। (Describe the cntribution of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।

1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”18

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With the Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। गुरु रामदास जी को देखकर उन्होंने यह प्रश्न किया, “सुनाइए दाढ़ा इतना लंबा क्यों बढ़ाया है ?” गुरु साहिब ने उत्तर दिया, “आप जैसे महापुरुषों के चरण साफ़ करने के लिए।” यह कहकर गुरु साहिब अपनी दाढ़ी से श्रीचंद के चरण साफ करने लगे। श्रीचंद ने अपने पाँव फौरन पीछे खींच लिए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) तथा लावाँ द्वारा विवाह करने की प्रथा का आरंभ था। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसेजाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब को 500 बीघा भूमि दान में दी। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। गुरु अर्जन देव जी प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)—गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, “गत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”19

19. “During the short period of his Guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 14.
गुरु अर्जन देव जी के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन करें। गुरुगद्दी पर बैठते समय उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(Describe briefly the early life of Guru Arjan Dev Ji. What difficulties he had to face at the time of his accession to Guruship ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे। उनका गुरु काल 1581 से 1606 ई० तक था। गुरु अर्जन देव जी के गुरु काल में जहाँ सिख पंथ का अद्वितीय विकास हुआ, वहीं उनके बलिदान से सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु जी के आरंभिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

गुरु अर्जन देव जी का आरंभिक जीवन (Early Career of Guru Arjan Dev Ji)

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। आप गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे तथा सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। आपके माता जी का नाम बीबी भानी जी था। बीबी भानी जी बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। इसलिए अर्जन देव जी के मन पर इसका गहन प्रभाव पड़ा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अर्जन देव जी बचपन से ही संबके विशेषकर अपने नाना गुरु अमरदास जी के बड़े लाडले थे। गुरु अमरदास जी ने एक बार भविष्यवाणी की, “यह मेरा दोहता वाणी का बोहथा होगा” अर्थात् यह एक ऐसी नाव बनेगा जो मानवता को संसार-सागर से पार उतारेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। गुरु अर्जन देव जी आरंभ से ही बड़े धार्मिक विचारों के थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी तथा गुरुवाणी के संबंध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आपका विवाह मऊ गाँव (फिल्लौर) के निवासी कृष्ण चंद की सुपुत्री गंगा देवी जी से हुआ। 1595 ई० में आपके घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र पृथी चंद बड़ा स्वार्थी तथा बेईमान था। दूसरा पुत्र महादेव वैरागी स्वभाव का था। उसकी सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। तीसरे तथा सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी थे। उनमें गुरुभक्ति, सेवा भाव तथा नम्रता आदि गुण प्रमुख थे। इसी कारण गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जन देव जी को 1581 ई० में अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु बने।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (8)
GURU ARJAN DEV JI

II. गुरु अर्जन देव जी की कठिनाइयाँ
(Difficulties of Guru Arjan Dev Ji)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अर्जन साहिब को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. पृथी चंद का विरोध (Opposition of Prithi Chand)-पृथी चंद गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बड़ा होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना हक समझता था परंतु गुरु अमरदास जी ने उसके कपटी तथा स्वार्थी स्वभाव को देखते हुए अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस पर उसने अपने पिता जी को दुर्वचन कहे। उसने गुरु रामदास जी के ज्योति-जोत समाने के समय यह अफवाह फैला दी कि गुरु अर्जन देव जी ने उन्हें विष देकर मरवा दिया है। गुरु अर्जन देव जी की दस्तारबंदी के समय पृथी चंद ने गुरु साहिब से दस्तार (पगड़ी) छीन कर अपने सिर पर रख ली। उसने गुरु अर्जन साहिब से संपत्ति भी ले ली। उसने लंगर के लिए आई माया भी हड़पनी आरंभ कर दी। जब 1595 ई० में गुरु साहिब के घर हरगोबिंद साहिब जी का जन्म हुआ तो उसने इस बालक की हत्या के कई प्रयत्न किए। उसने लाहौर के मुग़ल कर्मचारी सुलही खाँ से मिलकर बादशाह अकबर को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया। इस प्रकार पृथिया ने गुरु अर्जन साहिब को परेशान करने में कोई यत्न खाली न छोड़ा।

2. कट्टर मुसलमानों का विरोध (Opposition of Orthodox Muslims)-गुरु अर्जन साहिब को कट्टर मुसलमानों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। ये मुसलमान सिखों के बढ़ते प्रभाव के कारण उनके दुश्मन बन गए। कट्टरपंथी मुसलमानों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए सरहिंद में ‘नक्शबंदी’ लहर का गठन किया। इस लहर का नेता शेख अहमद सरहिंदी था। 1605 ई० में जहाँगीर मुग़लों का नया बादशाह बना। वह बहुत कट्टर विचारों का था। नक्शबंदियों ने जहाँगीर को सिखों के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध उपयुक्त कार्यवाही करने का मन बना लिया।

3. ब्राह्मणों का विरोध (Opposition of Brahmans)-गुरु अर्जन देव जी को पंजाब के हिंदुओं के प्रमुख वर्ग अर्थात् ब्राह्मणों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। इसका कारण यह था कि सिख धर्म के प्रचार के कारण समाज में ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत कम होता जा रहा था। सिखों ने ब्राह्मणों के बिना अपने रीति-रिवाज मनाने शुरू कर दिए थे। गुरु अर्जन देव जी ने जब आदि-ग्रंथ साहिब का संकलन किया तो ब्राह्मणों ने मुग़ल सम्राट अकबर से यह शिकायत की कि इसमें हिंदुओं तथा मुसलमानों के विरुद्ध बहुत कुछ लिखा है। जाँच करने पर अकबर का कहना था कि यह ग्रंथ तो पूजनीय है।

4. चंदू शाह का विरोध (Opposition of Chandhu Shah)-चंदू शाह जो कि लाहौर का दीवान था __ अपनी पुत्री के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंदू शाह के आदमियों ने चंदू शाह.को गुरु अर्जन साहिब के सुपुत्र हरगोबिंद से रिश्ता करने का सुझाव दिया। इस पर उसने गुरु जी को अपशब्द कहे। बाद में अपनी पत्नी के विवश करने पर चंदू शाह यह रिश्ता करने के लिए सहमत हो गया। क्योंकि उस समय तक सिखों को चंदू शाह द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल गया था इसलिए उन्होंने गुरु जी को यह रिश्ता स्वीकार न करने के लिए प्रार्थना की। परिणामस्वरूप गुरु साहिब ने यह रिश्ता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अब चंदू शाह एक लाख रुपया लेकर गुरु जी के पास पहुँचा और गुरु जी को दहेज का लालच देने लगा। गुरु जी ने चंदू शाह से कहा, “मेरे शब्द पत्थर पर लकीर हैं। यदि तू समस्त संसार को भी दहेज में दे दे तो भी मेरा पुत्र तेरी पुत्री से विवाह नहीं करेगा।” इस पर चंदू शाह गुरु जी का घोर शत्रु बन गया।

प्रश्न 15.
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अर्जन देव जी द्वारा अपनाई गई विधि के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the measures adopted by Guru Arjan Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के समय सिख धर्म के हुए विकास के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful the development of Sikhism during Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की विशेष देन की चर्चा करें।
(Discuss the special contribution of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अर्जन देव जी के योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the contribution of Guru Arjan Dev Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म एवं परंपरा के विकास में गुरु अर्जन देव जी के योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the role of Guru Arjan Dev Ji in the development of Sikh faith and tradition.)
अथवा
सिख पंथ के संगठन एवं विकास में गुरु अर्जन साहिब के योगदान बारे जानकारी दें।
(Discuss Guru Arjan Sahib’s contribution to the organisation and development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की विभिन्न सफलताओं का वर्णन करें। (Give an account of the various achievements of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का गुरु काल 1581 ई० से 1606 ई० तक था। उनके गुरुगद्दी पर बैठने से सिख इतिहास में एक नए युग का आगमन हुआ। गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों का विवरण निम्नलिखित है—

1. हरिमंदिर साहिब का निर्माण (Construction of Harmandir Sahib)–गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सर्वप्रथम महान् कार्य हरिमंदिर साहिब का निर्माण था। सर्वप्रथम गुरु अर्जन देव जी ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू कराए गए अमृतसर सरोवर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसके पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृत सरोवर में हरिमंदिर (ईश्वर का मंदिर) साहिब का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। इसकी नींव 13 जनवरी, 1588 ई० में प्रसिद्ध सूफी संत मीयाँ मीर जी ने रखी थी। सिखों ने गुरु जी को हरिमंदिर साहिब को आस-पास की इमारतों से ऊँचा बनवाने के लिए कहा परंतु गुरु साहिब का कहना था कि जो नीचा होगा, वही ऊँचा कहलाने के योग्य होगा। इसलिए इसका भवन अन्य भवनों से नीचा रखा गया। हरिमंदिर साहिब की एक अन्य विशेषता इसकी चारों दिशाओं में बनाए गए एक-एक द्वार हैं। इसका अर्थ यह था कि संसार की चारों दिशाओं से लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ आ सकते हैं। 1601 ई० में हरिमंदिर साहिब का निर्माण-कार्य संपूर्ण हुआ।
इस समय गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि इस मंदिर की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। सिख वहाँ बड़ी संख्या में आने लगे। फलस्वरूप जल्दी ही हरिमंदिर साहिब
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (9)
SRI HARMANDIR SAHIB : AMRITSAR
सिखों का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। प्रसिद्ध लेखक जी० एस० तालिब के अनुसार,
“इस मंदिर एवं सरोवर का सिखों के लिए वही स्थान है जो मक्का का मुसलमानों के लिए, जेरूस्लेम का यहूदियों तथा ईसाइयों के लिए तथा बौद्ध गया का बौद्धों के लिए।”20

2. तरन तारन की स्थापना (Foundation of Tarn Taran)-1590 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने माझा क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के लिए अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर भी खुदवाया गया। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव-सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन्होंने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

3. करतारपुर एवं हरिगोबिंदपुर की स्थापना (Foundation of Kartarpur and Hargobindpur)गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर जिला में करतारपुर नगर की स्थापना की। करतारपुर से अभिप्राय था ‘ईश्वर का शहर’। यह शहर ब्यास और सतलुज नदियों के मध्य स्थित है। करतारपुर में गुरु साहिब ने गंगसर नामक एक सरोवर भी बनवाया। इस प्रकार करतारपुर जालंधर दोआब में एक प्रसिद्ध प्रचार केंद्र बन गया। 1595 ई० में गुरु साहिब ने अपने पुत्र हरगोबिंद जी के जन्म की प्रसन्नता में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की।

4. लाहौर में बाऊली का निर्माण (Construction of Baoli at Lahore)-गुरु अर्जन देव जी एक बार सिख संगतों के आग्रह पर लाहौर गए। यहाँ उन्होंने डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इस प्रकार उस क्षेत्र के सिखों को भी एक तीर्थ स्थान मिल गया।

5. मसंद प्रथा का विकास (Development of Masand System)-मसंद प्रथा का विकास निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ऊँचा स्थान’। गुरु साहिब के प्रतिनिधि संगत में ऊँचे स्थान पर बैठते थे, इसलिए उन्हें मसंद कहा जाने लगा। सिखों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण गुरु साहिब को लंगर तथा अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांश (दशम् भाग) गुरु साहिब को भेंट करे। इस पैसे को एकत्रित करने के लिए गुरु साहिब ने मसंद नियुक्त किए। ये मसंद अपने क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ धन भी एकत्रित करते थे तथा इस धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आकर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा के कारण सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर के क्षेत्रों में संभव हो सका। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग सिख धर्म में सम्मिलित हुए। दूसरा, इस प्रथा के कारण गुरु घर की आय निश्चित हो गई। इस कारण सिख धर्म एवं गुरु साहिब की लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)—गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य सिख पंथ के विकास के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका प्रमुख उद्देश्य पूर्व सिख गुरुओं की वाणी को वास्तविक रूप में अंकित करना तथा सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य रामसर नामक सरोवर के किनारे आरंभ किया गया। भाई गुरदास जी ने वाणी को लिखने का कार्य किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी की और अपनी वाणी शामिल की। इनके अतिरिक्त इनमें कई भक्तों, सूफी संतों और भट्टों इत्यादि की वाणी भी दर्ज की गई। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी शामिल कर ली गई तथा आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिखों को एक पावन धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। इसने सिखों में एक नई जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।”21

7. घोड़ों का व्यापार (Trade of Horses)-गुरु अर्जन देव जी सिखों की आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिखों को अरब देशों के साथ घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। इसके तीन लाभ हुए। प्रथम, सिख अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जिस कारण उनकी आर्थिक दशा सुधर गई। दसरा, वे अच्छे घुड़सवार बन गए। तीसरा, इसने समाज में प्रचलित इस भ्रम पर गहरा आघात किया कि समुद्र पार जाने से ही किसी व्यक्ति का धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

8. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar) गुरु अर्जन देव जी तथा मुग़ल सम्राट अकबर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। गुरु अर्जन देव जी के विरोधियों पृथिया, चंदू शाह, ब्राह्मणों एवं कट्टरपंथी मुसलमानों ने अकबर को गुरु साहिब जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया परंतु उनकी चालें बेकार गईं। कई मुसलमानों ने अकबर को यह कहकर भड़काने का प्रयास किया कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं, परंतु अकबर इस ग्रंथ को पूजनीय मानता था। गुरु अर्जन देव के अनुरोध करने पर अकबर ने कृषकों के लगान में 10% की कमी कर दी। इसके कारण जहाँ गुरु साहिब की ख्याति में वृद्धि हुई, वहीं सिख पंथ के विकास में भी काफ़ी सहायता मिली।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देने से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु साहिब ने उसे पूर्ण रूप से सशस्त्र होकर गुरुगद्दी पर बैठने और सेना रख्नने का भी आदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने न केवल गुरुगद्दी की परंपरा __ को ही बनाए रखा, बल्कि इसके स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया।

10. गरु अर्जन देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Arjan Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने सिख्ख पंथ के विकास में अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हरिमंदिर साहिब, तरनतारन, हरगोबिंदपुर, करतारपुर और लाहौर में बाऊली की स्थापना, मसंद प्रथा के विकास तथा आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिख धर्म को नई दिशा मिली। फलस्वरूप यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभर कर सामने आया। प्रोफ़ेसर हरबंस सिंह के शब्दों में,
“पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी के अधीन सिख धर्म अच्छी प्रकार दृढ़ हो गया था।”22
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० मनसुखानी के अनुसार,
“गुरु अर्जन जी के गुरु काल में सिख धर्म का तीव्र विकास हुआ है।”23

20. “This temple and the pool became Sikhism what Mecca is to Islam, Jerusalem to Judaism and Christianity and Bodh Gaya to Buddhism.” G.S. Talib, An Introduction to Sri Guru Granth Sahib (Patiala : 1991) p. 10.
21. “The compilation of the Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1973) p. 97
22. “Under Cuu Arjan, the Fifth Garu, Sikhism became more firmly established.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi: 1004), p. 37.
23. During the period of Guru Arjan, Sikhism took a significant stride.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhisra (New Delhi : 1982) p. 144.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 16.
गुरु अर्जन देव जी के आरंभिक जीवन का वर्णन करें। उनकी सिख धर्म को क्या देन है ? (Briefly describe the early life of Guru Arjan Dev Ji. What is his contribution to Sikhism ?)
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे। उनका गुरु काल 1581 से 1606 ई० तक था। गुरु अर्जन देव जी के गुरु काल में जहाँ सिख पंथ का अद्वितीय विकास हुआ, वहीं उनके बलिदान से सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु जी के आरंभिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I गुरु अर्जन देव जी का आरंभिक जीवन
(Early Career of Guru Arjan Dev Ji)

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। आप गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे तथा सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। आपके माता जी का नाम बीबी भानी जी था। बीबी भानी जी बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। इसलिए अर्जन देव जी के मन पर इसका गहन प्रभाव पड़ा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अर्जन देव जी बचपन से ही संबके विशेषकर अपने नाना गुरु अमरदास जी के बड़े लाडले थे। गुरु अमरदास जी ने एक बार भविष्यवाणी की, “यह मेरा दोहता वाणी का बोहथा होगा” अर्थात् यह एक ऐसी नाव बनेगा जो मानवता को संसार-सागर से पार उतारेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। गुरु अर्जन देव जी आरंभ से ही बड़े धार्मिक विचारों के थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी तथा गुरुवाणी के संबंध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आपका विवाह मऊ गाँव (फिल्लौर) के निवासी कृष्ण चंद की सुपुत्री गंगा देवी जी से हुआ। 1595 ई० में आपके घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र पृथी चंद बड़ा स्वार्थी तथा बेईमान था। दूसरा पुत्र महादेव वैरागी स्वभाव का था। उसकी सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। तीसरे तथा सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी थे। उनमें गुरुभक्ति, सेवा भाव तथा नम्रता आदि गुण प्रमुख थे। इसी कारण गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जन देव जी को 1581 ई० में अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु बने।

गुरु अर्जन देव जी का गुरु काल 1581 ई० से 1606 ई० तक था। उनके गुरुगद्दी पर बैठने से सिख इतिहास में एक नए युग का आगमन हुआ। गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों का विवरण निम्नलिखित है—

1. हरिमंदिर साहिब का निर्माण (Construction of Harmandir Sahib)–गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सर्वप्रथम महान् कार्य हरिमंदिर साहिब का निर्माण था। सर्वप्रथम गुरु अर्जन देव जी ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू कराए गए अमृतसर सरोवर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसके पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृत सरोवर में हरिमंदिर (ईश्वर का मंदिर) साहिब का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। इसकी नींव 13 जनवरी, 1588 ई० में प्रसिद्ध सूफी संत मीयाँ मीर जी ने रखी थी। सिखों ने गुरु जी को हरिमंदिर साहिब को आस-पास की इमारतों से ऊँचा बनवाने के लिए कहा परंतु गुरु साहिब का कहना था कि जो नीचा होगा, वही ऊँचा कहलाने के योग्य होगा। इसलिए इसका भवन अन्य भवनों से नीचा रखा गया। हरिमंदिर साहिब की एक अन्य विशेषता इसकी चारों दिशाओं में बनाए गए एक-एक द्वार हैं। इसका अर्थ यह था कि संसार की चारों दिशाओं से लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ आ सकते हैं। 1601 ई० में हरिमंदिर साहिब का निर्माण-कार्य संपूर्ण हुआ।
इस समय गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि इस मंदिर की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। सिख वहाँ बड़ी संख्या में आने लगे। फलस्वरूप जल्दी ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। प्रसिद्ध लेखक जी० एस० तालिब के अनुसार, “इस मंदिर एवं सरोवर का सिखों के लिए वही स्थान है जो मक्का का मुसलमानों के लिए, जेरूस्लेम का यहूदियों तथा ईसाइयों के लिए तथा बौद्ध गया का बौद्धों के लिए।”20

2. तरन तारन की स्थापना (Foundation of Tarn Taran)-1590 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने माझा क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के लिए अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर भी खुदवाया गया। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव-सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन्होंने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

3. करतारपुर एवं हरिगोबिंदपुर की स्थापना (Foundation of Kartarpur and Hargobindpur)गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर जिला में करतारपुर नगर की स्थापना की। करतारपुर से अभिप्राय था ‘ईश्वर का शहर’। यह शहर ब्यास और सतलुज नदियों के मध्य स्थित है। करतारपुर में गुरु साहिब ने गंगसर नामक एक सरोवर भी बनवाया। इस प्रकार करतारपुर जालंधर दोआब में एक प्रसिद्ध प्रचार केंद्र बन गया। 1595 ई० में गुरु साहिब ने अपने पुत्र हरगोबिंद जी के जन्म की प्रसन्नता में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की।

4. लाहौर में बाऊली का निर्माण (Construction of Baoli at Lahore)-गुरु अर्जन देव जी एक बार सिख संगतों के आग्रह पर लाहौर गए। यहाँ उन्होंने डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इस प्रकार उस क्षेत्र के सिखों को भी एक तीर्थ स्थान मिल गया।

5. मसंद प्रथा का विकास (Development of Masand System)-मसंद प्रथा का विकास निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ऊँचा स्थान’। गुरु साहिब के प्रतिनिधि संगत में ऊँचे स्थान पर बैठते थे, इसलिए उन्हें मसंद कहा जाने लगा। सिखों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण गुरु साहिब को लंगर तथा अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांश (दशम् भाग) गुरु साहिब को भेंट करे। इस पैसे को एकत्रित करने के लिए गुरु साहिब ने मसंद नियुक्त किए। ये मसंद अपने क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ धन भी एकत्रित करते थे तथा इस धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आकर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा के कारण सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर के क्षेत्रों में संभव हो सका। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग सिख धर्म में सम्मिलित हुए। दूसरा, इस प्रथा के कारण गुरु घर की आय निश्चित हो गई। इस कारण सिख धर्म एवं गुरु साहिब की लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)—गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य सिख पंथ के विकास के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका प्रमुख उद्देश्य पूर्व सिख गुरुओं की वाणी को वास्तविक रूप में अंकित करना तथा सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य रामसर नामक सरोवर के किनारे आरंभ किया गया। भाई गुरदास जी ने वाणी को लिखने का कार्य किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी की और अपनी वाणी शामिल की। इनके अतिरिक्त इनमें कई भक्तों, सूफी संतों और भट्टों इत्यादि की वाणी भी दर्ज की गई। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी शामिल कर ली गई तथा आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिखों को एक पावन धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। इसने सिखों में एक नई जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।”21

7. घोड़ों का व्यापार (Trade of Horses)-गुरु अर्जन देव जी सिखों की आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिखों को अरब देशों के साथ घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। इसके तीन लाभ हुए। प्रथम, सिख अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जिस कारण उनकी आर्थिक दशा सुधर गई। दसरा, वे अच्छे घुड़सवार बन गए। तीसरा, इसने समाज में प्रचलित इस भ्रम पर गहरा आघात किया कि समुद्र पार जाने से ही किसी व्यक्ति का धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

8. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar) गुरु अर्जन देव जी तथा मुग़ल सम्राट अकबर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। गुरु अर्जन देव जी के विरोधियों पृथिया, चंदू शाह, ब्राह्मणों एवं कट्टरपंथी मुसलमानों ने अकबर को गुरु साहिब जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया परंतु उनकी चालें बेकार गईं। कई मुसलमानों ने अकबर को यह कहकर भड़काने का प्रयास किया कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं, परंतु अकबर इस ग्रंथ को पूजनीय मानता था। गुरु अर्जन देव के अनुरोध करने पर अकबर ने कृषकों के लगान में 10% की कमी कर दी। इसके कारण जहाँ गुरु साहिब की ख्याति में वृद्धि हुई, वहीं सिख पंथ के विकास में भी काफ़ी सहायता मिली।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देने से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु साहिब ने उसे पूर्ण रूप से सशस्त्र होकर गुरुगद्दी पर बैठने और सेना रख्नने का भी आदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने न केवल गुरुगद्दी की परंपरा को ही बनाए रखा, बल्कि इसके स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया।

10. गरु अर्जन देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Arjan Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने सिख्ख पंथ के विकास में अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हरिमंदिर साहिब, तरनतारन, हरगोबिंदपुर, करतारपुर और लाहौर में बाऊली की स्थापना, मसंद प्रथा के विकास तथा आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिख धर्म को नई दिशा मिली। फलस्वरूप यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभर कर सामने आया। प्रोफ़ेसर हरबंस सिंह के शब्दों में,
“पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी के अधीन सिख धर्म अच्छी प्रकार दृढ़ हो गया था।”22
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० मनसुखानी के अनुसार,
“गुरु अर्जन जी के गुरु काल में सिख धर्म का तीव्र विकास हुआ है।”23

20. “This temple and the pool became Sikhism what Mecca is to Islam, Jerusalem to Judaism and Christianity and Bodh Gaya to Buddhism.” G.S. Talib, An Introduction to Sri Guru Granth Sahib (Patiala : 1991) p. 10.
21. “The compilation of the Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1973) p. 97
22. “Under Cuu Arjan, the Fifth Garu, Sikhism became more firmly established.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi: 1004), p. 37.
23. During the period of Guru Arjan, Sikhism took a significant stride.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhisra (New Delhi : 1982) p. 144.

प्रश्न 17.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए जिम्मेवार हालातों का वर्णन करें। (Explain the circumstances responsible for the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के विषय में विस्तार सहित वर्णन करें। इसकी क्या महत्ता थी ? (Write in detail about the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji and its significance.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए जिम्मेदार कारणों का वर्णन करें। शहीदी का वास्तविक कारण क्या था ?
(Explain the causes which led to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the real cause of his martyrdom ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारणों की व्याख्या कीजिए। उनकी शहीदी का क्या महत्त्व था ?
(Examine the circumstances leading to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the significance of his martyrdom ?)
अथवा
उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए जो गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी थीं। उनके बलिदान का क्या महत्त्व था ?
(Describe the circumstances that led to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the significance of his martyrdom ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारण एवं महत्त्व बताएँ।
(Discuss the causes and importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास की अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना से सिख पंथ में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारणों और महत्त्व का वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)

1. जहाँगीर की धार्मिक कट्टरता (Fanaticism of the Jahangir)-जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उसकी यह कट्टरता गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। वह इस्लाम धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को कभी सहन नहीं कर सकता था। वह पंजाब में सिखों के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करने के किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। इस संबंध में उसने अपनी आत्मकथा तुज़कए-जहाँगीरी में स्पष्ट लिखा है।

2. सिख पंथ का विकास (Development of Sikh Panth)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में सिख पंथ की बढ़ती लोकप्रियता का भी योगदान है। हरिमंदिर साहिब के निर्माण, तरनतारन, करतारपुर और हरगोबिंदपुर के नगरों तथा मसंद प्रथा की स्थापना के कारण सिख पंथ दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होता चला गया। गुरु ग्रंथ साहिब की रचना के कारण सिख धर्म के प्रचार में बहुत सहायता मिली। यह बात मुग़लों के लिए असहनीय थी। इसलिए उन्होंने सिखों की शक्ति का दमन करने का निर्णय किया।।

3. पृथी चंद की शत्रुता (Enmity of Prithi Chand)-पृथी चंद गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। वह बड़ा लोभी और स्वार्थी था। उसे गुरुगद्दी नहीं मिली इसलिए वह गुरु साहिब से रुष्ट था। उसने इस बात की घोषणा की कि वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक उसे गुरुगद्दी प्राप्त नहीं हो जाती। उसने मसंदों द्वारा गुरुघर के लंगर के लिए लाया धन हड़प करना आरंभ कर दिया। उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर प्रचलित करना आरंभ कर दिया। उसने मुग़ल अधिकारियों के साथ मिलकर गुरु जी के विरुद्ध षड्यंत्र रचे। इन षड्यंत्रों ने मुगलों में गुरु जी के विरुद्ध और शत्रुता उत्पन्न कर दी।

4. चंदू शाह की शत्रुता (Enmity of Chandu Shah)-चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंदू शाह को गुरु साहिब के पुत्र हरगोबिंद का नाम सुझाया गया। इस पर उसने गुरु जी की शान में बहुत-से अपमानजनक शब्द कहे। परंतु पत्नी द्वारा विवश करने पर वह यह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। गुरु साहिब को चंदू शाह द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल चुका था, इसलिए उन्होंने इस शगुन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इस पर चंदू शाह ने अपने प्रतिशोध का बदला लेने के लिए जहाँगीर के कान भरने आरंभ कर दिए। जहाँगीर पर इसका प्रभाव पड़ा और उसने गुरु जी के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का मन बना लिया।

5. नक्शबंदियों का विरोध (Opposition of Naqshbandis)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का भी बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों का संप्रदाय था। यह संप्रदाय इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता देख कभी सहन नहीं कर सकता था। शेख अहमद सरहिंदी जो कि नक्शबंदियों का नेता था का मुग़ल दरबार में काफी प्रभाव था। उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। इसलिए जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब के विरुद्ध कार्यवाई करने का निर्णय किया।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)-आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन भी गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बना। गुरु साहिब के विरोधियों ने जहाँगीर को कहा कि इस ग्रंथ में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं। गुरु जी का कहना था कि इस ग्रंथ में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी गई जो किसी भी धर्म के विरुद्ध हो। जहाँगीर ने ग्रंथ साहिब जी में हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में भी लिखने के लिए कहा। गुरु साहिब का कहना था कि वे ईश्वर के आदेश के बिना ऐसा नहीं कर सकते। निस्संदेह, जहाँगीर के लिए यह बात असहनीय थी।

7. खुसरो की सहायता (Help to Khusrau)-गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहज़ादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तात्कालिक कारण बना। शहज़ादा खुसरो अपने पिता के विरुद्ध असफल विद्रोह के बाद भाग कर पंजाब आ गया। पंजाब पहुँचकर खुसरो गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तरन तारन पहुँचा। गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया और उसे काबुल जाने के लिए कुछ वांछित सहायता प्रदान की। जब जहाँगीर को इस बात का पता चला तो उसने लाहौर के गवर्नर मुर्तज़ा खान को आदेश दिया कि गुरु साहिब को गिरफ्तार कर लिया जाए।

II. बलिदान कैसे हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जन देव जी को 24 मई, 1606 ई० को बंदी बनाकर लाहौर लाया गया। जहाँगीर ने गुरु जी को मृत्यु के बदले 2 लाख रुपए जुर्माना देने के लिए कहा। गुरु जी ने यह जुर्माना देने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप मुग़ल अत्याचारियों ने गुरु साहिब को लोहे के तपते तवे पर बिठाया और शरीर पर गर्म रेत डाली गई। गुरु साहिब ने इन अत्याचारों को ईश्वर की इच्छा समझकर, यह कहते हुए अपना बलिदान दे दिया

तेरा किया मीठा लागे।
हरि नाम पदार्थ नानक माँगे।।

इस प्रकार 30 मई, 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी लाहौर में शहीद हो गए।
III. गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व (Importance of the Martyrdom of Guru Arjan Dev Ji)
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुआ। इस बलिदान के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले—

1. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का गुरु हरगोबिंद जी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने सिखों को सशस्त्र करने का निश्चय किया। उन्होंने अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। यहाँ सिखों को शस्त्रों का प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार सिख एक संत-सिपाही बनकर उभरने लगे। प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल के अनुसार,
“गुरु अर्जन देव जी के बलिदान ने समस्या को प्रबल बनाया। इसने पंजाब तथा सिख राजनीति को नई दिशा दी।”24

2. सिखों में एकता (Unity among the Sikhs)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से सिख यह अनुभव करने लगे कि मुग़लों के अत्याचार के विरुद्ध उनमें एकता का होना अति आवश्यक है। अतः सिख तीव्रता से एकता के सूत्र में बंधने लगे।

3. सिखों और मुग़लों के संबंधों में परिवर्तन (Change in the relationship between Mughals and the Sikhs)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से पूर्व मुग़लों और सिखों के मध्य संबंध सुखद थे किंतु अब स्थिति पूर्णतया परिवर्तित हो चुकी थी। सिखों के दिलों में मुग़लों से प्रतिशोध लेने की भावना भड़क उठी थी। मुग़लों को भी सिखों का गुरु हरगोबिंद जी के अधीन सशस्त्र होना प्रसंद नहीं था। इस प्रकार सिखों तथा मुग़लों के बीच खाई और बढ़ गई।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

4. सिखों पर अत्याचार (Persecution of the Sikhs)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के साथ ही मुग़लों के सिखों पर अत्याचार आरंभ हो गए। जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद जी को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। शाहजहाँ के समय गुरु जी को मुग़लों के साथ लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। 1675 ई० में औरंगजेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को दिल्ली में शहीद कर दिया था। उसके शासनकाल में सिखों पर घोर अत्याचार किए गए। सिखों ने गुरु गोबिंद सिंह जी, बंदा सिंह बहादुर तथा अन्य सिख नेताओं के अधीन मुग़ल अत्याचारों का डटकर सामना किया तथा हँसते-हँसते शहीदियाँ दीं।

5. सिख धर्म की लोकप्रियता (Popularity of Sikhism)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिख धर्म पहले की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हो गया। इस घटना से न केवल हिंदू अपितु बहुत-से मुसलमान भी प्रभावित हुए। वे बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होना आरंभ हो गए। इस प्रकार गुरु अर्जन देव जी के बलिदान ने सिख इतिहास में एक नए युग का आरंभ किया।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख धर्म के विकास में एक नया मोड़ था।”25

24. “Guru Arjan’s martyrdom precipitated the issues. It gave a new complexion to the shape of things in the Punjab and the Sikh polity.” K.S. Duggal, Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 123.
25. “The martyrdom of Guru Arjan marks a turning point in the development of Sikh religion.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhism (New Delhi : 1982) p. 146.

प्रश्न 18.
गुरु हरगोबिंद जी के जीवन के बारे में विस्तृत नोट लिखो। (Write a detailed note on the life of Guru Hargobind Ji.)
अथवा
गरु हरगोबिंद जी के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु थे। वे 1606 ई० से लेकर 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस काल का सिख पंथ के इतिहास में विशेष महत्त्व है। गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपना कर न केवल सिख लहर के स्वरूप को ही बदला अपितु सिखों में स्वाभिमान की भावना भी उत्पन्न की। परिणामस्वरूप उनके समय में सिख पंथ का न केवल रूपांतरण ही हुआ अपितु इसका अद्वितीय विकास भी हुआ। उनके जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

  1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 14 जून, 1595 ई० को जिला अमृतसर के गाँव वडाली में हुआ था। वह गुरु अर्जन देव जी के एक मात्र पुत्र थे। आप की माता जी का नाम गंगा देवी जी था।
  2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु हरगोबिंद जी बाल्यकाल से ही बहुत होनहार थे। आप ने पंजाबी, संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन किया था। बाबा बुड्डा जी ने आपको न केवल धार्मिक शिक्षाएँ ही दीं अपितु घुड़सवारी तथा शस्त्र-विद्या में भी प्रवीण कर दिया। विवाह के कुछ समय के पश्चात् आप के घर पाँच पुत्रों-गुरदित्ता जी, अणि राय जी, सूरज मल जी, अटल राय जी तथा तेग बहादुर जी और एक पुत्री बीबी वीरो जी ने जन्म लिया।
  3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने लाहौर जाने से पूर्व, जहाँ उन्होंने अपना बलिदान दिया था, हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय हरगोबिंद जी की आयु केवल 17 वर्ष थी। इस प्रकार हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु बने। वह 1606 ई० से लेकर 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।
  4. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-नोट-इस भाग के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न नं० 19 का उत्तर देखें।
  5. गुरु हरगोबिंद जी के मुगलों के साथ संबंध (Relations of Guru Hargobind Ji with the Mughals)-नोट-इस भाग के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न नं० 20 का उत्तर देखें।

प्रश्न 19.
सिख धर्म में गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई ‘मीरी-पीरी’ की युक्ति के बारे में आलोचनात्मक : घर्चा कीजिए।
(Examine critically the new method ‘Miri-Piri’ adopted by Guru Hargobind Ji.)
अथवा
गुरु हरगोविंद जी की नई नीति से क्या भाव है ? इस नीति की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करते हुए इसका महत्व भी बताएँ।
(What is meant by the New Policy of Guru Hargobind Ji ? Describe its main features and importance.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए श्री गुरु हरगोबिंद जी की ओर से चलाए गए ‘मीरी और पीरी’ के ढंग की चर्चा कीजिए।
(Discuss the new method ‘Miri and Piri’ adopted by Sri Guru Hargobind Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी का सिख लहर को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Hargobind Ji to Sikh Movement ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी से सिख लहर में पीरी के साथ मीरी का अंश भी आ गया। स्पष्ट करें।
[Guru Hargobind introduced militant (Miri) element alongwith spirituality (Piri) in the Sikh Movement. Explain.]
अथवा
मीरी तथा पीरी क्या है ? व्याख्या करें।
(What is Miri and Piri ? Explain.)
अथवा
सिख धर्म में ‘मीरी-पीरी के सिद्धांत की व्याख्या करो।
(Discuss the method ‘Miri-Piri’ in Sikhism.)
अथवा
मीरी एवं पीरी के सिद्धांत के बारे में जानकारी दीजिए। (Discuss the concept of Miri and Piri.)
अथवा
मीरी एवं पीरी के संकल्प के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the concept of Miri and Piri.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों को संत सिपाही के रूप में कैसे बदला ? (How Guru Hargobind Ji changed the Sikhs into Sant Sipahis ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा 1606 ई० में गुरुगद्दी पर बैठने के साथ ही सिख पंथ में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। ऐसी स्थिति में गुरु हरगोबिंद जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए सिखों को शस्त्र उठाने होंगे। अतः गुरु साहिब ने सिखों को संत सिपाही बनाने की नवीन नीति धारण की। इस नीति को अपनाने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (10)
GURU HARGOBIND JI

1. मुग़लों की धार्मिक नीति में परिवर्तन (Change in the Religious Policy of the Mughals)जहाँगीर से पूर्व के शासकों के साथ सिखों के संबंध मधुर थे। बाबर ने गुरु नानक देव जी के प्रति सम्मान प्रकट किया था। हुमायूँ ने राज-गद्दी की पुनः प्राप्ति के लिए गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद प्राप्त किया। मुग़ल बादशाह अकबर ने गुरु अमरदास जी के समय स्वयं गोइंदवाल साहिब में आकर लंगर छका था। उसने गुरु रामदास जी को 500 बीघे भूमि दान में दी तथा पंजाब के किसानों का एक वर्ष का लगान माफ कर दिया था। परंतु 1605 ई० में बादशाह बना जहाँगीर बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के सिवाय किसी अन्य धर्म को विकसित होते नहीं देख सकता था। अतः इन बदली हुई परिस्थितियों में गुरु साहिब को भी नई नीति अपनानी पड़ी।

2. गुरु अर्जन देव जी का बलिदान (Martyrdom of Guru Arjan Dev Ji)-जहाँगीर के लिए सिखों की बढ़ती लोकप्रियता असहनीय थी। इस लहर के दमन के लिए उसने 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया। गुरु अर्जन देव के बलिदान ने सिखों को स्पष्ट कर दिया था यदि वे जीवित रहना चाहते हैं तो उन्हें शस्त्रधारी बनकर मुगलों से टक्कर लेनी होगी। इस प्रकार गुरु अर्जन देव जी का बलिदान गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति धारण करने के लिए काफ़ी सीमा तक उत्तरदायी था।

3. गुरु अर्जन देव जी का अंतिम संदेश (Last Message of Guru Arjan Dev Ji)-गुरु अर्जन देव जी ने अपने बलिदान से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को यह संदेश भेजा कि, “उसे पूरी तरह शस्त्रों से सुसज्जित होकर गद्दी पर बैठना चाहिए। अपनी पूर्ण योग्यता के अनुसार सेना रखनी चाहिए।” अतः गुरु साहिब के इन शब्दों को व्यावहारिक रूप देने का गुरु हरगोबिंद जी ने निश्चय किया।

4. जाटों का स्वभाव (Character of the Jats)-सिख पंथ में सम्मिलित होने वाले लोगों में जाटों की संख्या सबसे अधिक थी। ये जाट साहसी, वीर तथा स्वाभिमानी थे। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से उनका खून खौल उठा। उन्होंने गुरु हरगोबिंद जी को शस्त्रधारी होने के लिए प्रेरित किया तथा स्वयं भी इस कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति धारण करने में जाटों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

नई नीति की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of the New Policy)

1. मीरी तथा पीरी तलवारें धारण करना (Wearing of Miri and Piri Swords)—गुरु हरगोबिंद जी ने गुरुगद्दी पर विराजमान होते समय मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण कीं। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी और पीरी तलवार धार्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी। गुरु हरगोबिंद साहिब ने एक ओर सिखों को सतनाम का जाप करने तथा दूसरी ओर शस्त्र धारण करने का संदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई इस मीरी तथा पीरी नीति का सिख इतिहास पर बहुत गहन प्रभाव पड़ा।

2. सेना का संगठन (Organisation of Army)-गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सिख पंथ की रक्षा के लिए सेना का संगठन करने का भी निर्णय किया गया। उन्होंने सिखों को यह आदेश दिया कि वे गुरु साहिब की सेना में भर्ती हों। फलस्वरूप 500 योद्धा आपकी सेना में भर्ती हुए। इन सैनिकों को सौ-सौ के पाँच जत्थों में विभाजित किया गया। प्रत्येक जत्था पाँच जत्थेदारों के अधीन रखा गया। इनके अतिरिक्त गुरु साहिब ने 52 अंगरक्षक भी भर्ती किए। धीरे-धीरे गुरु साहिब की सेना की संख्या बढ़कर 2500 हो गई। गुरु जी की सेना में पठानों की एक अलग रैजमैंट बनाई गई। इसका सेनापति पँदा खाँ को नियुक्त किया गया।

3. शस्त्र तथा घोड़े एकत्र करना (Collection of Arms and Horses)-गुरु हरगोबिंद जी ने मसंदों को यह आदेश दिया कि वे सिखों से धन की अपेक्षा शस्त्र एवं घोड़े एकत्रित करें। सिखों से भी कहा कि वे मसंदों को शस्त्र एवं घोड़े भेंट करें। गुरु जी के इस आदेश का मसंदों और सिखों ने बड़े उत्साह से स्वागत किया। फलस्वरूप गुरु जी की सैन्य-शक्ति अधिक दृढ़ हो गई।

4. अकाल तख्त साहिब का निर्माण (Construction of Akal Takhat Sahib)—गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अकाल तख्त साहिब का निर्माण उनकी नई नीति का ही महत्त्वपूर्ण भाग था। अकाल तख्त साहिब का निर्माण गुरु हरगोबिंद जी ने हरिमंदिर साहिब के सामने करवाया था। इसके भीतर एक 12 फीट ऊँचे चबूतरे का निर्माण किया जो एक तख्त के समान था। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद जी सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देते, उनके सैनिक कारनामे देखते, मसंदों से घोड़े और शस्त्र स्वीकार करते, ढाडी वीर-रस की वारें सुनाते तथा सिखों के परस्पर झगड़ों का भी निपटारा करते थे। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“अकाल तख्त सिखों की सबसे पवित्र संस्था है। इसने सिख समुदाय के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।”26

5. राजनीतिक प्रतीकों को अपनाना (Adoptation of Royal Symbols)-गुरु हरगोबिंद जी अपनी नई नीति के अंतर्गत राजसी ठाठ-बाठ से रहने लगे। उन्होंने अब सेली (ऊन की माला) के स्थान पर कमर में दो तलवारें धारण कीं। एक शानदार दरबार की स्थापना की गई। उन्होंने अब राजाओं की भाँति दस्तार के ऊपर कल्गी सुशोभित करनी आरंभ कर दी। उन्होंने ‘सच्चा पातशाह’ की उपाधि धारण की। गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने अब बहुमूल्य वस्त्र धारण करते और अपने अंगरक्षकों के साथ चलते थे।

6. अमृतसर की किलाबंदी (Fortification of Amritsar)-अमृतसर न केवल सिखों का सर्वाधिक पावन धार्मिक स्थान ही था, अपितु यह उनका विख्यात सैनिक प्रशिक्षण केंद्र भी था। इसलिए गुरु जी ने इस
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (11)
AKAL TAKHT SAHIB : AMRITSAR
महत्त्वपूर्ण स्थान की सुरक्षा के लिए अमृतसर शहर के चारों ओर एक दीवार बनवा दी। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया गया जिसका नाम लोहगढ़ रखा गया।

7. गुरु जी के प्रतिदिन के जीवन में परिवर्तन (Changes in the daily life of the Guru)-अपनी नवीन नीति के कारण गुरु हरगोबिंद जी के प्रतिदिन के जीवन में भी कई परिवर्तन आ गए थे। उन्होंने अब शिकार खेलना आरंभ कर दिया था। उन्होंने अपने दरबार में अब्दुला तथा नत्था मल को वीर-रस से परिपूर्ण वारें गाने के लिए भर्ती किया। एक विशेष संगीत मंडली की स्थापना की गई जो रात्रि को ऊँची आवाज़ में जोशीले शब्द गाती हुई हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा करती थी। गुरु साहिब ने अपने जीवन में ये परिवर्तन केवल सिखों में वीरता की भावना उत्पन्न करने के लिए किए थे।

26. “Sri Akal Takhat is one of the most sacred institutions of Sikhism. It has played historic role in the sociopolitical transformation of the Sikh community.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 140.

नई नीति का आलोचनात्मक मूल्याँकन (Critical Estimate of the New Policy)
जब गुरु हरगोबिंद साहिब जी की नई नीति ने कई संदेह उत्पन्न कर दिए। डॉक्टर ट्रंप का कहना है कि गुरु जी ने अपने पूर्व गुरुओं के आदर्शों को त्याग दिया था। वास्तव में गुरु हरगोबिंद साहिब की नई नीति का गलत आँकलन किया गया है। गुरु साहिब ने पुरानी सिख परंपरा का त्याग नहीं किया था। वे प्रतिदिन सुबह हरिमंदिर साहिब ‘आसा दी वार’ का पाठ सुनते थे तथा उन्होंने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न स्थानों में अपने प्रचारक भेजे। यदि गुरु साहिब ने अपने प्रतिदिन के जीवन में कुछ परिवर्तन किए तो उसका उद्देश्य केवल सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करना था। समय के साथ-साथ गुरु साहिब की सिखों की नई नीति के संबंध में उत्पन्न हुई शंकाएँ दूर होनी आरंभ हो गई थीं। वास्तव में गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु नानक देव जी के उपदेशों को ही वास्तविक रूप दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बक्शी के शब्दों
“यद्यपि बाहरी रूप में ऐसा लगता था कि गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु नानक जी के उद्देश्यों को परिपूर्ण करने में भिन्न मार्ग अपनाया, किंतु यह मुख्य तौर पर गुरु नानक जी के आदर्शों पर ही आधारित था।”27

नई नीति का महत्त्व (Importance of the New Policy)
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। सिख अब संत सिपाही बन गए। वे ईश्वर की भक्ति के साथ-साथ शस्त्रों का भी प्रयोग करने लग पड़े। इस नीति के अभाव में सिखों का पावन भ्रातृत्व समाप्त हो गया होता अथवा फिर वे फकीरों और संतों की एक श्रेणी बनकर रह जाते । गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के परिणामस्वरूप पंजाब के जाट अधिक संख्या में सिख पंथ में सम्मिलित हुए। इस नई नीति के कारण सिखों एवं मुग़लों के संबंधों में आपसी तनाव और बढ़ गया। शाहजहाँ के समय गुरु साहिब को मुग़लों के साथ चार युद्ध लड़ने पड़े। इन युद्धों में सिखों की विजय से मुग़ल साम्राज्य के गौरव को धक्का लगा। अंत में हम के० एस० दुग्गल के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु हरगोबिंद जी का सबसे महान् योगदान सिखों के जीवन मार्ग को एक नई दिशा देना था। उसने संतों को सिपाही बना दिया किंतु फिर भी परमात्मा के भक्त रहे”28

27. “Though outwardly, it may appear that Guru Hargobind persued a slightly different course for fulfilling the mission of Guru Nanak, yet, basically, it was Curu Nanak’s ideals that he preached.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, op. cit., Vol. 1, p. 24.
28. “Guru Hargobind’s greatest contribution is that he gave a new turn to the Sikh way of life. He turned saints into soldiers and yet remained a man of God.” K.S. Duggal, Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 164.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 20.
गुरु हरगोबिंद जी के जहाँगीर तथा शाहजहाँ के साथ संबंधों का संक्षिप्त विवरण दें।
(Describe briefly the relationship of Guru Hargobind Ji with Jahangir and Shah Jahan.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी एवं मुग़लों के संबंधों पर एक विस्तृत लेख लिखो। (Write a detailed note on relations between Guru Hargobind Ji and the Mughals.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़लों के साथ संबंधों की चर्चा करें। (Explain the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughals.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। उनके गुरुगद्दी के काल के दौरान उनके मुग़लों के साथ संबंधों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—
प्रथम काल 1606-27 ई० (First Period 1606-27 A.D.)

1. गरु हरगोबिंद जी ग्वालियर में बंदी (Imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior)गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। गुरु जी द्वारा उसकी पुत्री के साथ विवाह करने से पुन: इंकार करने पर उसने जहाँगीर को गुरु साहिब के विरुद्ध भडक़ाया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने उन्हें बंदी बना लिया। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण बंदी बनाया। इस नीति से उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो गई थीं तथा गुरु जी के विरोधियों ने भी जहाँगीर के कान भरे कि गुरु जी विद्रोह करने की तैयारियाँ कर रहे हैं।

2. कारावास की अवधि (Period of Imprisonment) इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं कि गुरु हरगोबिंद साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे। दाबिस्तान-ए-मज़ाहिब के लेखक के अनुसार गुरु साहिब 12 वर्ष कारागृह में रहे। डॉक्टर इंदू भूषण बैनर्जी यह समय पाँच वर्ष, तेजा सिंह एवं गंडा सिंह दो वर्ष और सिख साखीकार यह समय चालीस दिन बताते हैं। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु हरगोबिंद साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

3. गुरु साहिब की रिहाई (Release of the Guru Sahib)—गुरु हरगोबिंद जी की रिहाई के संबंध में भी इतिहासकारों ने कई मत प्रकट किए हैं। सिख साखीकारों का कहना है कि गुरु जी को बंदी बनाने के बाद जहाँगीर बहुत बेचैन रहने लग पड़ा था। भाई जेठा जी ने जहाँगीर को पूर्णत: ठीक कर दिया। उनके ही निवेदन पर जहाँगीर ने गुरु साहिब को रिहा कर दिया। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि जहाँगीर ने यह निर्णय सूफी संत मीयाँ मीर जी के निवेदन पर लिया था। कुछ अन्य इतिहासकारों के विचारानुसार जहाँगीर गुरु साहिब के बंदी काल के दौरान सिखों की गुरु जी के प्रति श्रद्धा देखकर बहुत प्रभावित हुआ। फलस्वरूप जहाँगीर ने गुरु साहिब की रिहाई का आदेश दिया। गुरु जी की जिद्द पर ग्वालियर के दुर्ग में ही बंदी 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करना पड़ा। इसके कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी छोड़ बाबा’ भी कहा जाने लगा।

4. जहाँगीर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Jahangir) शीघ्र ही जहाँगीर को यह विश्वास हो गया था कि गुरु साहिब निर्दोष थे और गुरु साहिब के कष्टों के पीछे चंदू शाह का बड़ा हाथ था। इसलिए जहाँगीर ने चंदू शाह को दंड देने के लिए सिखों के सुपुर्द कर दिया। यहाँ तक कि जहाँगीर ने अकाल तख्त साहिब के निर्माण कार्य के लिए सारा खर्चा देने की पेशकश की, परंतु गुरु जी ने इंकार कर दिया। इस प्रकार गुरु जी की ग्वालियर की रिहाई के पश्चात् तथा जहाँगीर की मृत्यु तक जहाँगीर एवं गुरु जी के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहे।

द्वितीय काल 1628-35 ई० । (Second Period 1628-35 A.D.)
1628 ई० में शाहजहाँ मुग़लों का नया बादशाह बना। उसके शासनकाल में एक बार फिर सिखों और मुग़लों में निम्नलिखित कारणों से संबंध बिगड़ गए—

  1. शाहजहाँ की धार्मिक कट्टरता (Shah Jahan’s Fanaticism)—शाहजहाँ बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने हिंदुओं के कई मंदिरों को नष्ट करवा दिया। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली के स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण करवा दिया था। फलस्वरूप सिखों में उसके प्रति अत्यधिक रोष उत्पन्न हो गया था।
  2. नक्शबंदियों का विरोध (Opposition of Nagashbandis) नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। गुरु अर्जन देव जी को शहीद करवाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। शाहजहाँ के सिंहासन पर बैठने के पश्चात् एक बार फिर नक्शबंदियों ने शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ गुरु साहिब के विरुद्ध हो गया।
  3. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति भी सिखों तथा मुग़लों के मध्य संबंधों को बिगाड़ने का एक प्रमुख कारण बनी। इस नीति के कारण गुरु साहिब ने सैन्य शक्ति का संगठन कर लिया था। सिख श्रद्धालुओं ने उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कहकर संबोधित करना आरंभ कर दिया था। शाहजहाँ इस नीति को मुग़ल साम्राज्य के लिए गंभीर खतरा समझता था। इसलिए उसने गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया।
  4. कौलाँ का मामला (Kaulan’s Affair)-कौलाँ के मामले के कारण गुरु साहिब और शाहजहाँ के बीच तनाव में और वृद्धि हुई। कौलाँ लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की पुत्री थी। वह ‘गुरु अर्जन देव जी की वाणी को बहुत चाव से पढ़ती थी। काजी भला यह कैसे सहन कर सकता था। फलस्वरूप उसने अपनी बेटी पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए। कौलाँ तंग आकर गुरु साहिब की शरण में चली गई। जब काज़ी को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने गुरु साहिब के विरुद्ध शाहजहाँ के खूब कान भरे।।

सिखों और मुग़लों की लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and Mughals)
मुग़लों और सिखों के बीच 1634-35 ई० में हुई चार लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. अमृतसर की लड़ाई 1634 ई० (Battle of Amritsar 1634 A.D.)-1634 ई० में अमृतसर में मुग़लों और सिखों के बीच प्रथम लड़ाई हुई। शाहजहाँ अपने सैनिकों सहित अमृतसर के निकट शिकार खेल रहा था। शिकार खेलते समय शाहजहाँ का एक विशेष बाज़ उड़ गया। सिखों ने इस बाज़ को पकड़ लिया। मुग़ल सैनिकों ने बाज़ वापस करने की माँग की। सिखों के इंकार करने पर दोनों पक्षों में लड़ाई हो गई। इसमें कुछ मुग़ल सैनिक मारे गए। क्रोधित होकर शाहजहाँ ने लाहौर से मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7,000 सैनिकों की एक टुकड़ी अमृतसर भेजी। इस लड़ाई में गुरु साहिब के अतिरिक्त पैंदा खाँ ने अपनी वीरता प्रदर्शित की। मुखलिस खाँ गुरु साहिब से लड़ता हुआ मारा गया। परिणामस्वरूप मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस लड़ाई में विजय के कारण सिख सेनाओं का साहस बहुत बढ़ गया। इस लड़ाई के संबंध में लिखते हुए प्रो० हरबंस सिंह का कहना है,
“अमृतसर की लड़ाई यद्यपि एक छोटी घटना थी किंतु इसके दूरगामी परिणाम निकले।”29

2. लहरा की लड़ाई 1634 ई० (Battle of Lahira 1634 A.D.)-शीघ्र ही मुग़लों तथा सिखों के मध्य लहरा (भटिंडा के निकट) नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई के कारण दो घोड़े थे जिनके नाम दिलबाग तथा गुलबाग थे। इन दोनों घोड़ों को बखत मल और तारा चंद नामक दो मसंद काबुल से गुरु साहिब को भेंट करने के लिए ला रहे थे। मार्ग में ये दोनों घोड़े मुग़लों ने छीन लिए। गुरु साहिब का एक सिख भाई बिधी चंद भेष बदलकर दोनों घोड़े शाही घुड़साल से निकाल लाया। शाहजहाँ ने क्रोधित होकर तुरंत लल्ला बेग तथा कमर बेग के नेतृत्व में एक भारी सेना सिखों के दमन के लिए भेजी। लहरा नामक स्थान पर भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़लों के दोनों सेनापति लल्ला बेग तथा कमर बेग मारे गए। इस लड़ाई में भाई जेठा जी भी शहीद हो गए। अंत में सिख विजयी रहे।

3. करतारपुर की लड़ाई 1635 ई० (Battle of Kartarpur 1635 A.D.)-मुग़लों तथा सिखों के मध्य तीसरी लड़ाई 1635 ई० में करतारपुर में हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। वह हरगोबिंद जी की सेना में पठान टुकड़ी का सेनापति था। उसने गुरु साहिब का एक बाज़ चोरी करके अपने दामाद को दे दिया। गुरु साहिब के पूछने पर उसने इस बात से इंकार कर दिया। जब गुरु जी को पैंदा खाँ के झूठ का पता चला तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। पैंदा खाँ मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की शरण में चला गया। पैंदा खाँ के उकसाने पर शाहजहाँ ने पैंदा खाँ और काले खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना सिखों के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में तेग़ बहादुर जी ने अपने शौर्य का खूब प्रदर्शन किया। इस लड़ाई में गुरु साहिब से लड़ते हुए काले खाँ, पैंदा खाँ और उसका पुत्र कुतब खाँ मारे गए। इस प्रकार गुरु जी को एक शानदार विजय प्राप्त हुई।

4. फगवाड़ा की लड़ाई 1635 ई० (Battle of Phagwara 1635 A.D.)—करतारपुर की लड़ाई के __पश्चात् गुरु हरगोबिंद जी कुछ समय के लिए फगवाड़ा आ गए। यहाँ अहमद खाँ के नेतृत्व में कुछ मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। चूंकि मुग़ल सैनिकों की संख्या बहुत कम थी इसलिए फगवाड़ा में दोनों सेनाओं में मामूली झड़प हुई। फगवाड़ा की लड़ाई गुरु हरगोबिंद जी के समय में मुग़लों तथा सिखों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई थी।

लड़ाइयों का महत्त्व
(Importance of the Battles)
गुरु हरगोबिंद जी के काल में मुग़लों तथा सिखों के मध्य लड़ी गई विभिन्न लड़ाइयों का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है। इन लडाइयों में सिख विजयी रहे थे। इन लड़ाइयों में विजय के कारण सिखों का साहस बहुत बढ़ गया था। सिखों ने अपने सीमित साधनों के बलबूते पर इन लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। अत: गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। बहुत-से लोग सिख धर्म में सम्मिलित हो गए। परिणामस्वरूप सिख पंथ का बड़ी तीव्रता से विकास होने लगा। प्रसिद्ध इतिहासकार पतवंत सिंह के अनुसार__ “इन लड़ाइयों का ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में नहीं था कि ये कितनी बड़ी थीं अपितु इस बात में था कि इन्होंने आक्रमणकारियों के वेग को रोका तथा उनकी शक्ति को चुनौती दी। इसने मुगलों के विरुद्ध चेतना का संचार किया तथा दूसरों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत की।”30

29. “This Amritsar action was a small incident, but its implications were far-reaching.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Dehi : 1994) p. 49.
30. “The historical importance of these battles did not lie in their scale, but in the fact that the aggressor’s writ was rejected and his power scorned. A mood of defiance was generated against the Mughals and an example set for others.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 42.

गुरु हरराय जी (GURU HAR RAI JI)

प्रश्न 21.
गुरु हरराय जी के जीवन और उपलब्धियों के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Guru Har Rai Ji’s early career and achievements ?)
उत्तर-
गुरु हरराय जी सिखों के सातवें गुरु थे। उनके गुरुकाल (1645 से 1661 ई०) को सिख पंथ का शाँतिकाल कहा जा सकता है। गुरु हरराय जी के आरंभिक जीवन तथा उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु हरराय जी का जन्म 30 जनवरी, 1630 ई० को कीरतपुर साहिब नामक स्थान पर हुआ। उनके माता जी का नाम बीबी निहाल कौर जी था। आप गुरु हरगोबिंद जी के पौत्र तथा बाबा गुरदित्ता जी के पुत्र थे।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)—आप बाल्यकाल से ही शाँत प्रकृति, मृदुभाषी तथा दयालु स्वभाव के थे। कहते हैं कि एक बार हरराय जी बाग में सैर कर रहे थे। उनके चोले से लग जाने से कुछ फूल झड़ गए। यह देखकर आपकी आँखों में आँसू आ गए। आप किसी का भी दुःख सहन नहीं कर सकते थे। आपका विवाह अनूप शहर (यू० पी०) के दया राम जी की सुपुत्री सुलक्खनी जी से हुआ। आपके घर दो पुत्रों रामराय तथा हरकृष्ण ने जन्म लिया।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु हरगोबिंद जी के पाँच पुत्र थे। बाबा गुरदित्ता, अणि राय तथा अटल राय अपने पिता के जीवन काल में स्वर्गवास को चुके थे। शेष दो में से सूरजमल का सांसारिक मामलों की ओर आवश्यकता से अधिक झुकाव था तथा तेग़ बहादुर जी का बिल्कुल नहीं। इसलिए गुरु हरगोबिंद जी ने बाबा गुरदित्ता के छोटे पुत्र हरराय जी को अपना उत्तराधिकारी बनाया। आप 8 मार्च, 1645 ई० को गुरुगद्दी पर विराजमान हुए। इस प्रकार आप सिखों के सातवें गुरु बने।

4. गुरु हरराय जी के समय में सिख धर्म का विकास (Development of Sikhism under Guru Har Rai Ji)- गुरु हरराय जी 1645 ई० से 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। आपने सिख धर्म के प्रचार के लिए तीन मुख्य केंद्र स्थापित किए जिन्हें ‘बख्शीशें’ कहा जाता था। पहली बख्शीश एक संन्यासी गिरि की थी जिसकी भक्ति से प्रसन्न होकर गुरु साहिब ने उसका नाम भक्त भगवान रख दिया। उसने पूर्वी भारत में सिख धर्म के बहुत-से केंद्र स्थापित किए। इनमें पटना, बरेली तथा राजगिरी के केंद्र प्रसिद्ध हैं। दूसरी बख्शीश सुथरा शाह की थी। उसे सिख धर्म के प्रचार के लिए दिल्ली भेजा गया। तीसरी बख्शीश भाई फेरु की थी। उनको राजस्थान भेजा गया था। इसी प्रकार भाई नत्था जी को ढाका, भाई जोधा जी को मुलतान भेजा गया तथा आप स्वयं पंजाब के कई स्थानों जैसे जालंधर, करतारपुर, हकीमपुर, गुरदासपुर, अमृतसर, पटियाला, अंबाला तथा हिसार आदि गए।

5. फूल को आशीर्वाद (Phool Blessed)—एक दिन काला नामक श्रद्धालु अपने भतीजों संदली तथा फूल को गुरु हरराय जी के दर्शन हेतु ले आया। उनकी शोचनीय हालत को देखते हुए गुरु साहिब ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि एक दिन वे बहुत धनी बनेंगे। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। फूल की संतान ने फूलकिया मिसल की स्थापना की।

6. दारा की सहायता (Help to Prince Dara)-गुरु हरराय जी के समय दारा शिकोह पंजाब का गवर्नर था। वह औरंगज़ेब का बड़ा भाई था। सत्ता प्राप्त करने के प्रयास में औरंगजेब ने उसे विष दे दिया। इस कारण वह बहुत बीमार हो गया। उसने गुरु साहिब से आशीर्वाद माँगा। गुरु साहिब ने अमूल्य जड़ी-बूटियाँ देकर दारा की चिकित्सा की। इस कारण वह गुरु साहिब का आभारी हो गया। वह प्रायः उनके दर्शन के लिए आया करता।
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GURU HAR RAI JI

7. गुरु हरराय साहिब को दिल्ली बुलाया गया (Guru Har Rai was summoned to Delhi)औरंगज़ेब को संदेह था कि गुरु ग्रंथ साहिब में कुछ श्लोक इस्लाम धर्म के विरुद्ध हैं। इस बात की पुष्टि के लिए उसने आपको अपने दरबार में उपस्थित होने के लिए कहा। गुरु साहिब ने अपने पुत्र रामराय को औरंगज़ेब के पास भेजा। औरंगज़ेब ने ‘आसा दी वार’ में से एक पंक्ति की ओर संकेत करते हुए उससे पूछा कि इसमें मुसलमानों का विरोध क्यों किया गया है। यह पंक्ति थी,
मिटी मुसलमान की पेडै पई कुम्हिआर॥
घड़ भांडे इटा कीआ जलदी करे पुकार॥
इसका अर्थ था मुसलमान की मिट्टी कुम्हार के घमट्टे में चली जाएगी जो इससे बर्तन तथा ईंटें बनाएगा। जैसेजैसे वह जलेगी तैसे-तैसे मिट्टी चिल्लाएगी। औरंगजेब के क्रोध से बचने के लिए रामराय ने कहा कि इस पंक्ति में भूल से बेईमान शब्द की अपेक्षा मुसलमान शब्द लिखा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी के इस अपमान के कारण आपने रामराय को गुरुगद्दी से वंचित कर दिया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु हरराय जी ने ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरुगद्दी अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण को सौंप दी। गुरु हरराय जी 6 अक्तूबर, 1661 ई० को ज्योति जोत समा गए।

9. गुरु हरराय जी के कार्यों का मूल्याँकन (Estimate of the works of Guru Har Rai Ji)-गुरु हरराय जी ने सिख पंथ के विकास में अमूल्य योगदान दिया। आप जी ने माझा, दोआबा और मालवा में सिख धर्म का प्रचार किया। आपने संगत और पंगत की मर्यादा को पूरी तेजी के साथ जारी रखा। आपके दवाखाने से बिना किसी भेद-भाव के नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा प्रदान की जाती थी। इस प्रकार आपने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 22.
गुरु हरकृष्ण जी के समय सिख पंथ के हुए विकास का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of development of Sikhism during the pontificate of Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर –
गुरु हरकृष्ण जी सिख इतिहास में बाल गुरु के नाम से जाने जाते हैं। वे 1661 ई० से लेकर 1664 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। उनके अधीन सिख पंथ में हुए विकास का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parents)-गुरु हरकृष्ण जी का जन्म 7 जुलाई, 1656 ई० में कीरतपुर साहिब में हुआ। आप गुरु हरराय साहिब जी के छोटे पुत्र थे। आप जी की माता का नाम सुलक्खनी
जी था। रामराय आपके बड़े भाई थे।

2. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)—गुरु हरराय साहिब जी ने अपने बड़े पुत्र रामराय को उसकी अयोग्यता के कारण गुरुगद्दी से वंचित कर दिया था । 6 अक्तूबर, 1661 ई० को गुरु हरराय साहिब जी ने हरकृष्ण जी को गुरुगद्दी सौंप दी। उस समय हरकृष्ण साहिब जी की आयु मात्र 5 वर्ष थी। इस कारण इतिहास में आपको बाल गुरु के नाम से याद किया जाता है। यद्यपि आप उम्र में बहुत छोटे थे पर फिर भी आप बहुत उच्च प्रतिभा के स्वामी थे। आप में अद्वितीय सेवा भावना, बड़ों के प्रति मान-सम्मान, मीठा बोलना, दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा अटूट भक्ति-भावना इत्यादि के गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। इन गुणों के कारण ही गुरु हरराय जी ने आपको गुरुगद्दी सौंपी। इस प्रकार आप सिखों के आठवें गुरु बने। आप 1664 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

3. रामराय का विरोध (Opposition of Ram Rai)-रामराय गुरु हरराय जी का बड़ा पुत्र होने के कारण गुरु साहिब के पश्चात् गुरुगद्दी का अधिकारी स्वयं को समझता था, परंतु गुरु हरराय जी उसे पहले ही गुरुगद्दी से वंचित कर चुके थे। जब उसे ज्ञात हुआ कि गुरुगद्दी हरकृष्ण साहिब को सौंपी गई है तो वह यह बात सहन न कर
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GURU HAR KRISHAN JI
सका। उसने गद्दी हथियाने के लिए षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए। उसने बहुत-से बेईमान और स्वार्थी मसंदों को अपने साथ मिला लिया। इन मसंदों द्वारा उसने यह घोषणा करवाई कि वास्तविक गुरु रामराय हैं और सभी सिख उसी को अपना गुरु मानें परंतु वह उसमें सफल न हो पाया। फिर उसने औरंगजेब से सहायता लेने का प्रयास किया। औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाया ताकि दोनों गुटों की बात सुनकर वह अपना निर्णय दे सके।

4. गुरु साहिब का दिल्ली जाना (Guru Sahib’s Visit to Delhi)-गुरु हरकृष्ण जी को दिल्ली लाने का कार्य औरंगज़ेब ने राजा जय सिंह को सौंपा। राजा जय सिंह ने अपने दीवान परस राम को गुरु जी के पास भेजा। गुरु हरकृष्ण जी ने औरंगज़ेब से मिलने और दिल्ली जाने से इंकार कर दिया, परंतु परस राम के यह कहने पर कि दिल्ली की संगतें गुरु हरकृष्ण साहिब जी के दर्शनों के लिए बेताब हैं, गुरु हरकृष्ण जी ने दिल्ली जाना तो स्वीकार कर लिया, परंतु औरंगज़ेब से भेंट करने से इंकार कर दिया। आप 1664 ई० में दिल्ली चले गए और राजा जय सिंह के घर निवास करने के लिए मान गए। गुरु हरकृष्ण जी की औरंगज़ेब से भेंट हुई अथवा नहीं, इस संबंध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद पाए जाते हैं।

5. ज्योति-जोत समाना (Immersed in Eternal Light)-उन दिनों दिल्ली में चेचक और हैजा फैला हुआ था। गुरु हरकृष्ण जी ने यहाँ बीमारों, निर्धनों और लावारिसों की तन, मन और धन से अथक सेवा की। चेचक और हैजे के सैंकड़ों रोगियों को ठीक किया, परंतु इस भयंकर बीमारी का आप स्वयं भी शिकार हो गए। यह बीमारी उनके लिए घातक सिद्ध हुई। उन्हें बहुत गंभीर अवस्था में देखते हुए श्रद्धालुओं ने प्रश्न किया कि आपके पश्चात् उनका नेतृत्व कौन करेगा तो आप ने एक नारियल मंगवाया। नारियल और पाँच पैसे रखकर माथा टेका और “बाबा बकाला” का उच्चारण करते हुए 30 मार्च, 1664 ई० को दिल्ली में ज्योति-जोत समा गए। आपकी याद में यहाँ गुरुद्वारा बाला साहिब का निर्माण किया गया है।

गुरु हरकृष्ण जी ने कोई अढ़ाई वर्ष के लगभग गुरुगद्दी संभाली और गुरु के रूप में आपने सभी कर्त्तव्य बड़ी सूझ-बूझ से निभाए। आप इतनी कम आयु में भी तीक्ष्ण बुद्धि, उच्च विचार और अलौकिक ज्ञान के स्वामी थे।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of the early life of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नवम् गुरु थे। उनका गुरुकाल 1664 ई० से 1675 ई० तक रहा। गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए अनेक प्रदेशों की यात्राएँ कीं। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु जी के प्रारंभिक जीवन और यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ। आप गुरु हरगोबिंद जी के पाँचवें तथा सबसे छोटे पुत्र थे। आपके माता जी का नाम नानकी जी था। आपके पिता जी ने आपके जन्म पर भविष्यवाणी की कि यह बालक सत्य तथा धर्म के मार्ग पर चलेगा तथा अत्याचार का डट कर मुकाबला करेगा। गुरु जी का यह कथन सत्य सिद्ध हुआ।

2. बाल्यकाल तथा शिक्षा (Childhood and Education)-बचपन में आपका नाम त्यागमल था। जब आप पाँच वर्ष के हुए तो आपने बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी से शिक्षा प्राप्त करनी आरंभ की। आपने पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, इतिहास, दर्शन, गणित, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त की। आपको घुड़सवारी तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा भी दी गई। करतारपुर की लड़ाई में आपकी वीरता देखकर आपके पिता गुरु हरगोबिंद जी ने आपका नाम त्यागमल से बदल कर तेग बहादुर रख दिया।
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GURU TEGH BAHADUR JI

3. विवाह (Marriage)-तेग़ बहादुर जी का विवाह करतारपुर वासी लाल चंद जी की सुपुत्री गुजरी जी से हुआ। आपके घर 1666 ई० में एक पुत्र ने जन्म लिया। इस बालक का नाम गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास रखा गया।

4. बकाला में निवास (Settlement at Bakala)-गुरु हरगोबिंद जी ने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने पौत्र हरराय जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने तेग बहादुर जी को अपनी पत्नी गुजरी जी तथा माता नानकी जी को लेकर बकाला चले जाने का आदेश दिया। यहाँ तेग बहादुर जी 20 वर्ष तक रहे।

5. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु हरकृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व यह संकेत दिया था कि सिखों का अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बकाला पहुँचा तो 22 सोढियों ने अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूँढा । वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका समुद्री जहाज डूब रहा था तो उसने शुद्ध मन से गुरु साहिब के आगे अरदास की कि यदि उसका जहाज़ डूबने से बच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। उसका जहाज़ किनारे लग गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेंट करने के लिए बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देखकर चकित रह गया। वास्तविक गुरु को ढूँढने के लिए उसने बारी-बारी प्रत्येक गुरु को दो-दो मोहरें भेंट की। नकली गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में श्री तेग़ बहादुर जी को दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेंट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० से 1675 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

6. धीरमल का विरोध (Opposition of Dhir Mal)-धीरमल गुरु हरराय जी का बड़ा भाई था। बकाला में स्थापित 22 मंजियों से एक धीरमल की भी थी। जब धीरमल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसने कुछ गुंडों के साथ गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। इस घटना से सिख रोष से भर उठे। वे धीरमल को पकड़कर गुरु जी के पास लाए। धीरमल द्वारा क्षमा याचना पर गुरु साहिब ने उसे क्षमा कर दिया।

प्रश्न 24.
गुरु तेग बहादुर जी की धर्म यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the religious tours of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
1664 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब तथा पंजाब से बाहर की यात्राएँ आरंभ कर दीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों को सत्य तथा प्रेम का संदेश देना था। गुरु साहिब की यात्राओं के उद्देश्य के संबंध में लिखते हुए विख्यात इतिहासकार एस० एस० जौहर का कहना है,
“गुरु तेग़ बहादुर ने लोगों को नया जीवन देने तथा उनके भीतर नई भावना उत्पन्न करना आवश्यक समझा।”31

31. “Guru Tegh Bahadur thought it necessary to infuse a new life and rekindle a new spirit among the people.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 104.

पंजाब की यात्राएँ (Travels of Punjab)

  1. अमृतसर (Amritsar)-गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1664 ई० में अमृतसर से किया। उस समय हरिमंदिर साहिब में पृथी चंद का पौत्र हरजी मीणा कुछ भ्रष्टाचारी मसंदों के साथ मिलकर स्वयं गुरु बना बैठा था। गुरु साहिब के आने की सूचना मिलते ही उसने हरिमंदिर साहिब के सभी द्वार बंद करवा दिए। जब गुरु साहिब वहाँ पहुँचे तो द्वार बंद देखकर उन्हें दुःख हुआ। अतः वह अकाल तख्त के निकट एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। यहाँ पर अब एक छोटा-सा गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे ‘थम्म साहिब’ कहते हैं।
  2. वल्ला तथा घुक्केवाली (Walla and Ghukewali)-अमृतसर से गुरु तेग़ बहादुर जी वल्ला नामक गाँव गए। यहाँ लंगर में महिलाओं की अथक सेवा से प्रसन्न होकर गुरु जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा कहा “माईयाँ रब्ब रजाईयाँ”। वल्ला के पश्चात् गुरु जी घुक्केवाली गाँव गए। इस गाँव में अनगिनत वृक्षों के कारण गुरु जी ने इसका नाम ‘गुरु का बाग’ रख दिया।
  3. खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन, खेमकरन आदि (Khadur Sahib, Goindwal Sahib, Tarn Taran, Khem Karan etc.)-गुरु तेग बहादुर साहिब की यात्रा के अगले पड़ाव खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब तथा तरन तारन थे। यहाँ पर गुरु जी ने लोगों को प्रेम तथा भाईचारे का संदेश दिया। तत्पश्चात् गुरु साहिब खेमकरन गए। यहाँ के एक श्रद्धालु चौधरी रघुपति राय ने गुरु साहिब को एक घोड़ी भेंट की।
  4. कीरतपुर साहिब और बिलासपुर (Kiratpur Sahib and Bilaspur)-माझा प्रदेश की यात्रा पूर्ण करने के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी कीरतपुर साहिब पहुँचे। वे रानी चंपा के निमंत्रण पर बिलासपुर पहुँचे। गुरु साहिब यहाँ तीन दिन ठहरे। गुरु साहिब ने रानी को 500 रुपए देकर माखोवाल में कुछ भूमि खरीदी तथा एक नए नगर की स्थापना की जिसका नाम उनकी माता जी के नाम पर “चक्क नानकी” रखा गया। बाद में यह स्थान श्री आनंदपुर साहिब के नाम से विख्यात हुआ।

पूर्वी भारत की यात्राएँ (Travels of Eastern India)
पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी ने पूर्वी भारत की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन निनलिखित अनुसार है—

1. सैफाबाद और धमधान (Saifabad and Dhamdhan)-अपनी पूर्वी भारत की यात्रा के दौरान सर्वप्रथम गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने सैफाबाद तथा धमधान की यात्रा की। यहाँ गुरु साहिब के दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आए। सिख धर्म के इस बढ़ते हुए प्रचार को देखकर औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को बंदी बना लिया।

2. मथुरा और वृंदावन (Mathura and Brindaban)-अंबर के राजा राम सिंह के कहने पर औरंगज़ेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को छोड़ दिया। छूटने के बाद गुरु साहिब दिल्ली से मथुरा तथा वृंदावन पहुँचे। इन दोनों स्थानों पर गुरु साहिब ने धर्म प्रचार किया और संगतों को उपदेश दिए।

3. आगरा और प्रयाग (Agra and Paryag)—गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की यात्रा का अगला पड़ाव आगरा था। यहाँ पर वह एक बुजुर्ग श्रद्धालु माई जस्सी के घर ठहरे। तत्पश्चात् गुरु साहिब प्रयाग पहुँचे। यहाँ गुरु साहिब ने संन्यासियों, साधुओं और योगियों को उपदेश देते हुए फरमाया “साधो मन का मान त्यागो।”
8. बनारस (Banaras)-प्रयाग की यात्रा के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी बनारस पहुँचे। यहाँ सिख संगतें प्रतिदिन बड़ी संख्या में गुरु साहिब के दर्शन और उनके उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होतीं। यहाँ के लोगों का विश्वास था कि कर्मनाशा नदी में स्नान करने वाले व्यक्ति के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। गुरु साहिब ने स्वयं इस नदी में स्नान किया और कहा कि नदी में स्नान करने से कुछ नहीं होता मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है।

4. ससराम और गया (Sasram and Gaya) बनारस के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी सासराम पहुँचे। यहाँ पर एक श्रद्धालु सिख ‘मसंद फग्गू शाह’ ने गुरु साहिब की बहुत सेवा की। तत्पश्चात् गुरु साहिब गया पहँचे। यह बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु साहिब ने लोगों को सत्य तथा परस्पर भ्रातृभाव का संदेश दिया।

5. पटना (Patna)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी 1666 ई० में पटना पहुँचे। यहाँ पर सिख संगतों (श्रद्धालुओं) ने गुरु साहिब का भव्य स्वागत किया। गुरु साहिब ने सिख सिद्धांतों पर प्रकाश डाला तथा पटना को ‘गुरु का घर’ कहकर सम्मानित किया। गुरु साहिब ने अपनी पत्नी और माता जी को यहाँ छोड़कर स्वयं मुंगेर के लिए प्रस्थान किया।

6.ढाका (Dhaka) ढाका पूर्वी भारत में सिख धर्म का एक प्रमुख प्रचार केंद्र था। गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के आगमन के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख-धर्म में शामिल हुए। गुरु साहिब ने यहाँ संगतों को जातिपाति के बंधनों से ऊपर उठने और नाम स्मरण से जुड़ने का संदेश दिया।

7. असम (Assam)–ढाका की यात्रा के बाद गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी अंबर के राजा राम सिंह के निवेदन पर असम गए। असमी लोग जादू-टोनों में बहुत कुशल थे। गुरु जी की उपस्थिति में जादू-टोने वाले प्रभावहीन होने लगे और उन्हें गुरु जी का लोहा मानना पड़ा। वे गुरु जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके दर्शनों के लिए आने लगे और उन्होंने अपनी भूल के लिए क्षमा याचना की। तत्पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी अपने परिवार सहित पंजाब लौट आए और चक्क नानकी में रहने लगे।

मालवा और बांगर प्रदेश की यात्राएँ (Tours of Malwa and Bangar Region)
1673 ई० के मध्य में गुरु तेग़ बहादुर जी ने पंजाब के मालवा और बांगर प्रदेश की दूसरी बार यात्रा आरंभ की। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफ़ाबाद, मलोवाल, ढिल्लवां, भोपाली, खीवा, ख्यालां, तलवंडी, भठिंडा और धमधान आदि प्रदेशों में गए। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब ने स्थान-स्थान पर धर्म प्रचार के केंद्र खोले और गुरु नानक जी का संदेश घर-घर पहुँचाया। गुरु साहिब के सर्वपक्षीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार हरबंस सिंह के इन शब्दों से सहमत हैं, “गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं ने देश में एक तूफान-सा ला दिया। यह न तो पहले जैसा देश रहा और न ही वे लोग। उनमें नई जागृति आ चुकी थी।”32

32. “Guru Tegh Bahadur’s tours left the country in ferment. It was not the same country again, nor the same people. A new awakening had spread.” Harbans Singh, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1982) p. 92.

प्रश्न 25.
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की शहीदी के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the martyrdom of Sri Guru Tegh Bahadur Sahib Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों और परिणामों का वर्णन करें। (Discuss the causes and results of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों तथा महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त विवरण दें। उनके बलिदान का देश एवं समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Give a brief account of the circumstances leading to the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji. Also explain the effects of his execution on the country and the society.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी किन कारणों से हुई ? इन्हें कब, कहाँ और कैसे शहीद किया गया ?
(What were the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ? When, where and how was he executed ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारण और महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान इतिहास की एक अति महत्त्वपूर्ण घटना है। धर्म तथा मानवता के लिए अपना बलिदान देकर गुरु साहिब ने अपना नाम चिरकाल के लिए अमर कर लिया। गुरु जी के बलिदान से जुड़े तथ्यों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—0

1. मुग़लों और सिखों में शत्रुता (Enmity between the Mughals and the Sikhs)-1605 ई० तक सिखों और मुग़लों में मैत्रीपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, परंतु जब 1606 ई० में मुग़ल सम्राट जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया तो ये संबंध शत्रुता में बदल गए। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण उन्हें जहाँगीर द्वारा दो वर्ष के लिए ग्वालियर के दुर्ग में नज़रबंद कर दिया गया। शाहजहाँ के काल में गुरु हरगोबिंद जी को चार लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। औरंगजेब के शासनकाल में सिखों और मुग़लों के बीच शत्रुता में और वृद्धि हो गई। यही शत्रुता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी।

2. औरंगजेब की कट्टरता (Fanaticism of Aurangzeb)-औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता भी गुरु साहिब के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में चारों ओर इस्लाम धर्म का बोलबाला देखना चाहता था। इसलिए उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं तथा उनके त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए। 1679 ई० में हिंदुओं पर पुनः जजिया कर लगा दिया गया। तलवार के बल पर लोगों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाने लगा। औरंगज़ेब ने यह भी आदेश दिया कि सिखों के सभी गुरुद्वारों को गिरा दिया जाए और मसंदों को देश निकाला दे दिया जाए। डॉक्टर आई० बी० बैनर्जी के अनुसार,
“निस्संदेह औरंगजेब के सिंहासन पर बैठने के साथ ही साम्राज्य की सारी नीति को उलट दिया गया और एक नए युग का सूत्रपात हुआ।”33

3. नक्शबंदियों का औरंगज़ेब पर प्रभाव (Impact of Naqashbandis on Aurangzeb)-कट्टर सुन्नी मुसलमानों के नक्शबंदी संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती न बन जाए। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध औरंगजेब को भड़काना आरंभ कर दिया।

4. सिख धर्म का प्रचार (Spread of Sikhism)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब की सिख धर्म के प्रचार के लिए की गई यात्राओं से प्रभावित होकर हज़ारों लोग सिख मत में सम्मिलित हो गए थे। गुरु साहिब जी ने सिख मत के प्रचार में तीव्रता और योग्यता लाने के लिए सिख प्रचारक नियुक्त किए तथा उन्हें संगठित किया। सिख धर्म का हो रहा विकास तथा उसका संगठन औरंगज़ेब की सहन शक्ति से बाहर था।

5. रामराय की शत्रुता (Enmity of Ram Rai)-रामराय गुरु हरकृष्ण जी का बड़ा भाई था। गुरु हरकृष्ण जी के पश्चात् जब गुरुगद्दी तेग़ बहादुर जी को मिल गई तो वह यह सहन न कर पाया। उसने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए कई हथकंडे अपनाने आरंभ किए। जब उसके सभी प्रयास असफल रहे तो उसने गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के विरुद्ध औरंगज़ेब के कान भरने आरंभ कर दिए।

6. कश्मीरी पंडितों की पुकार (Call of Kashmiri Pandits)-कश्मीरी ब्राह्मण अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति के संबंधों में बहुत दृढ़ थे तथा समस्त भारत में उनका आदर होता था। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने इस्लाम धर्म कबूल करवाने के लिए ब्राह्मणों पर घोर अत्याचार किए। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका 16 सदस्यों का एक दल 25 मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुँचा। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को यह बता दें कि यदि वे गुरु तेग़ बहादुर जी को मुसलमान बना लें तो वे बिना किसी विरोध के इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे।

33. “Necessarily, on the accession of Aurangzeb the entire policy of the Empire was reversed and a new era commenced.” Dr. I.B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol 2, p. 68.

II. बलिदान किस प्रकार हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
औरंगज़ेब ने गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी को दिल्ली बुलाने का निश्चय किया। गुरु तेग़ बहादुर जी अपने तीन साथियों-भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को लेकर 11 जुलाई, 1675 ई० को श्री आनंदपुर साहिब से दिल्ली के लिए रवाना हुए। मुग़ल अधिकारियों ने उन्हें रोपड़ के निकट गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 4 महीने तक सरहिंद के कारावास में रखा गया तथा औरंगजेब के आदेश पर 6 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली दरबार में पेश किया गया। औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम धर्म अथवा मृत्यु में से एक स्वीकार करने को कहा। गुरु साहिब तथा उनके तीनों साथियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। मुग़लों ने गुरु जी को हतोत्साहित करने के लिए उनके तीनों साथियों भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को उनके सम्मुख शहीद कर दिया। इसके पश्चात् गुरु जी को कोई चमत्कार दिखाने के लिए कहा गया, परंतु गुरु साहिब ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप 11 नवंबर,1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरु जी का शीश धड़ से अलग कर दिया गया। हरबंस सिंह तथा एल० एम० जोशी का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“यह भारतीय इतिहास की सर्वाधिक दिल दहला देने वाली एवं कंपाने वाली घटना थी।”34

जिस स्थान पर गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद किया गया उस स्थान पर गुरुद्वारा शीश गंज का निर्माण किया गया। भाई लक्खी शाह गुरु जी के धड़ को अपनी बैलगाड़ी में छुपा कर अपने घर ले आया। यहाँ उसने गुरु जी के धड़ का अंतिम संस्कार करने के लिए अपने घर को आग लगा दी। इस स्थान पर आजकल गुरुद्वारा रकाब गंज बना हुआ है।

34. “This was a most moving and earthshaking event in the history of India.” Harbans Singh and L.M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1973) p. 248.

III. बलिदान का महत्त्व (Significance of the Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान की घटना न केवल सिख इतिहास अपितु समूचे विश्व इतिहास की एक अतुलनीय घटना है। इस बलिदान से न केवल पंजाब, अपितु भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के साथ ही महान् मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। डॉक्टर त्रिलोचन सिंह के शब्दों में,
“गुरु तेग़ बहादुर जी के महान् बलिदान के सिखों पर प्रभावशाली एवं दूरगामी प्रभाव पड़े।”35

1. इतिहास की एक अद्वितीय घटना (A Unique Event of History)-संसार का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। ये बलिदान अधिकतर अपने धर्म की रक्षा अथवा देश के लिए दिए गए। परंतु गुरु तेग़ बहादुर जी ने मानवता तथा सत्य के लिए अपना शीश दिया। निस्संदेह संसार के इतिहास में यह एक अतुलनीय उदाहरण थी। इसी कारण गुरु तेग़ बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा जाता है।

2. सिखों में प्रतिशोध की भावना (Feeling of revenge among the Sikhs)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के फलस्वरूप समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। अतः सिखों ने मुग़लों के अत्याचारी शासन का अंत करने का निर्णय किया।

3. हिंदू धर्म की रक्षा (Protection of Hinduism)-औरंगज़ेब के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचारों से तंग आकर बहुत-से हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार करना आरंभ कर दिया था। हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो चुका था। ऐसे समय में गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया। इस बलिदान ने हिंदू कौम में एक नई जागृति उत्पन्न की। अतः वे औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए तैयार हो गए। ,

4. खालसा का सृजन (Creation of the Khalsa)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब धर्म की रक्षा के लिए उनका संगठित होना अत्यावश्यक है। इस उद्देश्य से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया। खालसा पंथ के सृजन ने ऐसी बहादुर जाति को जन्म दिया जिसने मुग़लों और अफ़गानों का पंजाब से नामो-निशान मिटा दिया।

5. बलिदानों की परंपरा का आरंभ होना (Beginning of the tradition of Sacrifice)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ कर दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस मार्ग का अनुसरण करते हुए अनेक कष्ट सहन किए। आपके छोटे साहिबजादों को जीवित नींवों
में चिनवा दिया गया। बड़े साहिबजादे युद्धों में शहीद हो गए। गुरु साहिब के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर तथा उनके साथ सैंकड़ों सिखों ने बलिदान दिए। सिखों ने मुग़ल अत्याचारों के आगे हँस-हँस कर बलिदान दिए। इस प्रकार गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ।

6. सिखों और मुग़लों में लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and the Mughals)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों एवं मुग़लों के बीच लड़ाइयों का एक लंबा दौर आरंभ हुआ। इन लड़ाइयों के दौरान सिख चट्टान की तरह अडिग रहे। अपने सीमित साधनों के बावजूद सिखों ने अपनी वीरता के कारण महान् मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के इन शब्दों
से सहमत हैं,
“गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके बहुत गहरे परिणाम निकले।”36

35. “The impact of the great sacrifice of Guru Tegh Bahadur was extremely powerful and far-reaching in its consequences on the Sikh people.” Dr. Trilochan Singh, Guru Tegh Bahadur : Prophet and Martyr (New Delhi : 1978) p. 179.
36. “The Martyrdom of Guru Tegh Bahadur was an event of great significance in the history of India. It had farreaching consequences.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 231.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 26.
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the life of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी लिखें।
(Write about the life of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी न केवल पंजाब बल्कि संसार के महान् व्यक्तियों में से एक थे। सिख पंथ का जिस योग्यता एवं बुद्धिमता से गुरु गोबिंद सिंह जी ने नेतृत्व किया, उसकी इतिहास में कोई अन्य उदाहरण मिलनी बहुत ही मुश्किल है। खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही उन्होंने सिख पंथ में नए युग का सूत्रपात किया। गुरु गोबिंद सिंह जी के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage) मात्र 9 वर्ष की आयु में अपने पिता जी को धर्म की रक्षा हेतु बलिदान देने की प्रेरणा देने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर, 1666 ई० को पटना साहिब में हुआ था। आप गुरु तेग़ बहादुर जी के इकलौते पुत्र थे। आपकी माता जी का नाम गुजरी जी था। आपका आरंभिक नाम गोबिंद दास अथवा गोबिंद राय रखा गया। 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् आपका नाम गोबिंद सिंह पड़ गया था। गोबिंद दास के जन्म के समय एक मुस्लिम फकीर भीखण शाह ने यह भविष्यवाणी की थी, कि यह बालक बड़ा होकर महापुरुष बनेगा और यह भविष्यवाणी सत्य निकली।

2. बचपन (Childhood)-गोबिंद दास ने अपने बचपन के पहले 6 वर्ष पटना साहिब में ही व्यतीत किए। बचपन से ही गोबिंद दास में एक महान् योद्धा के सभी गुण विद्यमान् थे। वह तीरकमान तथा अन्य शस्त्रों से खेलते, अपने साथियों को दो गुटों में विभाजित करके उनमें कृत्रिम युद्ध करवाते। वह कई बार अपना दरबार लगाते तथा साथी बच्चों के झगड़ों के फैसले भी करते। उनके बचपन की अनेक घटनाओं से उनकी वीरता तथा बुद्धिमता की उदाहरण मिलती है। गुरु गोबिंद सिंह जी के नाबालिग काल में उनकी सरपरस्ती उनके मामा श्री कृपाल चंद जी ने की।

3. शिक्षा (Education)-1672 ई० में आप परिवार सहित आनंदपुर साहिब आ गए। यहाँ पर आप की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध किया गया। आपने भाई साहिब चंद से गुरमुखी, पंडित हरिजस से संस्कृत और काज़ी पीर मुहम्मद से फ़ारसी और अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। आपने घुड़सवारी और शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण बजर सिंह नामी एक राजपूत से प्राप्त किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-औरंगज़ेब के अत्याचारों से तंग आकर कश्मीरी पंडितों का एक जत्था अपनी दःखभरी याचना लेकर गुरु तेग़ बहादुर जी के पास मई, 1675 ई० में आनंदपुर साहिब पहुँचा। कश्मीरी पंडितों की गुहार तथा पुत्र की प्रेरणा पर धर्म की रक्षा हेतु गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देने का निश्चय किया। गुरु साहिब ने दिल्ली में अपनी शहीदी देने से पूर्व गोबिंद दास को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किए जाने की घोषणा की। इस प्रकार गोबिंद दास को सिख परंपरा के अनुसार 11 नवंबर, 1675 ई० को गुरुगद्दी पर बैठाया गया। इस तरह आप 9 वर्ष की आयु में सिखों के दशम गुरु बने। आप 1708 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

5. विवाह (Marriage)–कहा जाता है कि गोबिंद दास जी ने बीबी जीतो जी, बीबी सुंदरी जी और बीबी साहिब देवाँ जी नामक तीन स्त्रियों से विवाह किया था। गुरु साहिब को चार पुत्र-रत्नों की प्राप्ति हुई। इनके नाम साहिबज़ादा अजीत सिंह जी, साहिबजादा जुझार सिंह जी, साहिबजादा जोरावर सिंह जी और साहिबजादा फतह सिंह जी थे।

6. सेना का संगठन (Army Organisation)-गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह घोषणा की कि जिस सिख के चार पुत्र हों, वह दो पुत्र गुरु साहिब की सेना में भर्ती करवाए। इसके
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (14)
GURU GOBIND SINGH JI
साथ ही गुरु साहिब ने यह आदेश भी दिया कि सिख धन के स्थान पर घोड़े और शस्त्र भेंट करें। शीघ्र ही गुरु साहिब की सेना में बहुत-से सिख भर्ती हो गए और उनके पास बहुत-से शस्त्र और घोड़े भी एकत्रित हो गए। इन सब के पीछे गुरु साहिब का उद्देश्य मुग़ल साम्राज्य को टक्कर देना था।

7. शाही प्रतीक धारण करना (Adoptation of Royal Symbols)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दादा गुरु हरगोबिंद साहिब जी की भाँति शाही प्रतीकों को धारण करना आरंभ कर दिया। वह अपनी दस्तार में कलगी सजाने लग पड़े। उन्होंने सिंहासन और छत्र का प्रयोग करना आरंभ कर दिया। इनके अतिरिक्त गुरु साहिब ने एक विशेष नगाड़ा भी बनवाया, जिसका नाम रणजीत नगाड़ा रखा गया।

8. नाहन से निमंत्रण (Invitation from Nahan) गुरु गोबिंद सिंह जी की सैनिक गतिविधियों के कारण कहलूर का शासक, भीम चंद गुरु साहिब से ईर्ष्या करने लग पड़ा था। गुरु साहिब अभी किसी भी प्रकार के सैनिक द्वंद्व में पड़ना नहीं चाहते थे। इसी समय नाहन के राजा, मेदनी प्रकाश ने उन्हें नाहन आने का निमंत्रण दिया। गुरु साहिब ने यह निमंत्रण तुरंत स्वीकार कर लिया और वह माखोवाल से अपने परिवार सहित नाहन चले गए। यहाँ पर गुरु साहिब ने एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम पाऊँटा साहिब रखा गया।

9. पाऊँटा साहिब में गतिविधियाँ (Activities at Paonta Sahib)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने पाऊँटा साहिब में सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देना आरंभ कर किया। उन्हें घुड़सवारी, तीर कमान और शस्त्रों का प्रयोग करने में निपुण बनाया गया। गुरु साहिब ने साढौरा के पीर बुद्ध शाह की सिफ़ारिश पर 500 पठानों को भी अपनी सेना में भर्ती कर लिया। पाऊँटा साहिब में ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने बड़े उच्च कोटि के साहित्य की भी रचना की। गुरु साहिब ने अपने दरबार में 52 प्रसिद्ध कवियों को संरक्षण दिया हुआ था। इनमें सैनापत, नंद लाल, हंस राम एवं अनी राय प्रमुख थे। आपकी साहित्यिक रचना का उद्देश्य परमात्मा की प्रसँसा करना और सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करना था। गुरु साहिब की साहित्यिक क्षेत्र में देन अद्वितीय थी।

प्रश्न 27.
गुरु गोबिंद सिंह जी की पूर्व खालसा काल तथा उत्तर खालसा काल में लड़ी गई लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन दो।
(Give a brief account of Pre-Khalsa and Post-Khalsa battles of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के पूर्व खालसा काल तथा उत्तर खालसा काल की लड़ाइयों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the Pre-Khalsa and Post-Khalsa battles of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की प्रसिद्ध लड़ाइयों का वर्णन करें। (Describe the important battles of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर विराजमान होते ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी सैनिक गतिविधियाँ आरंभ कर दीं। गुरु जी की सैनिक गतिविधियों ने पहाड़ी राजाओं तथा मुग़लों को उनके विरुद्ध कर दिया। परिणामस्वरूप नौबत युद्ध तक आ गई। गुरु गोबिंद सिंह जी की पूर्व-खालसा तथा उत्तर-खालसा काल की लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. भंगाणी की लड़ाई 1688 ई० (Battle of Bhangani 1688 A.D.)—गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं के बीच प्रथम लड़ाई भंगाणी में हुई। इस लड़ाई के कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा पाऊँटा साहिब में सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देने से पहाड़ी राजाओं में घबराहट उत्पन्न हो गई। दूसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी मूर्ति-पूजा और जाति-प्रथा के विरुद्ध प्रचार करते थे। इसे पहाड़ी राजा अपने धर्म में हस्तक्षेप समझते थे। तीसरा, पहाड़ी राजाओं ने सिख संगतों द्वारा लाए जा रहे उपहारों को मार्ग में ही लूटना आरंभ कर दिया था। गुरु साहिब यह बात पसंद नहीं करते थे। चौथा, गुरु जी द्वारा भीम चंद को सफेद हाथी देने से इंकार करना था। पाँचवां, मुग़ल सरकार ने इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए भड़काया। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद और श्रीनगर के शासक फतह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं के गठबंधन ने गुरु साहिब पर भंगाणी नामक स्थान पर 22 सितंबर, 1688 ई० को आक्रमण कर दिया।

इस लडाई के आरंभ होने से पूर्व ही गुरु साहिब की सेना के पठान सैनिक गरु साहिब को धोखा दे गए। ऐसे समय साढौरा का पीर बुद्ध शाह गुरु साहिब की सहायता के लिए अपने चार पुत्रों और 700 सैनिकों सहित रणभूमि में पहुँच गया । इस लड़ाई में गुरु हरगोबिंद साहिब की सुपुत्री बीबी वीरो के पाँच पुत्रों ने बहुत वीरता दिखाई। इस लड़ाई में पहाड़ी राजाओं के बहुत-से सैनिक और प्रसिद्ध नेता मारे गए। भीम चंद और फतह शाह युद्ध-भूमि से भाग गए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह ने इस लड़ाई में शानदार विजय प्राप्त की। इस विजय से गुरु साहिब की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।

2. नादौन की लड़ाई 1690 ई० (Battle of Nadaun 1690 A.D.)-भंगाणी की लड़ाई के पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी पुनः श्री आनंदपुर साहिब आ गए। इसी समय पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों को दिया जाने वाला वार्षिक खिराज (कर) देना बंद कर दिया। जब औरंगजेब को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसके आदेश पर जम्मू के सूबेदार मीयाँ खाँ ने तुरंत अपने एक जरनैल, आलिफ खाँ के अंतर्गत मुगलों की एक भारी सेना इन पहाड़ी राजाओं ने विरुद्ध भेजी। ऐसे समय में भीम चंद ने गुरु साहिब को सहायता के लिए निवेदन किया। गुरु साहिब ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया। 20 मार्च, 1690 ई० को काँगड़ा के पास नादौन में भीम चंद और आलिफ खाँ की सेनाओं में लड़ाई आरंभ हुई। इस लड़ाई में गुरु साहिब और सिखों की वीरता के कारण आलिफ खाँ को पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार गुरु साहिब के सहयोग से भीम चंद और उसके साथी पहाड़ी राजाओं को विजय प्राप्त हुई।

3. खानजादा का अभियान 1694 ई० (Expedition of Khanzada 1694 A.D.)-गुरु गोबिंद सिंह जी की बढ़ती हुई लोकप्रियता औरंगजेब के लिए चिंता का विषय बन गई। उसके आदेश पर लाहौर के सूबेदार, दिलावर खाँ ने अपने पुत्र खानजादा रुस्तम खाँ के अंतर्गत गुरु जी के विरुद्ध सेना भेजी। उसने रात्रि के अंधकार में आक्रमण करने की योजना बनाई। रुस्तम खाँ के आगमन का रात्रि को पहरा दे रहे सिख को पता चल गया। उसने फ़ौरन इसकी सूचना सिखों को दी। सिखों ने जैकारे की आवाज़ गुंजाई और गोलियाँ चलानी आरंभ की। परिणामस्वरूप, मुग़ल सैनिक बिना मुकाबला किए ही युद्ध के मैदान से भाग निकले।

4. कुछ सैनिक अभियान 1695-96 ई० (Some Military Expeditions 1695-96 A.D.)-1695-96 ई० .. में मुगलों ने गुरु जी की शक्ति को कुचलने के लिए हुसैन खाँ, जुझार सिंह तथा शहजादा मुअज्जम के अधीन कुछ सैनिक अभियान भेजे । ये सभी अभियान किसी न किसी कारण असफल रहे तथा गुरु जी की शक्ति कायम
रही।

5. श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई 1701 ई० (First Battle of Sri Anandpur Sahib 1701 A.D.)-खालसा पंथ की स्थापना के बाद गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति के कारण पहाड़ी राजाओं में घबराहट पैदा हो गई। कहलूर के राजा भीम चंद, जिसकी रियासत में श्री आनंदपुर साहिब स्थित था, ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। इस पर भीम चंद ने कुछ पहाड़ी राजाओं से मिलकर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले में सिखों की संख्या बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं का खूब डटकर सामना किया। जब पहाड़ी राजाओं ने देखा कि सफलता मिलने की कोई आशा नहीं है तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली।

6. श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1704 ई० (Second Battle of Sri Anandpur Sahib 1704 A.D.)-पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह जी से प्रतिशोध लेने की खातिर मुग़ल सेनाओं से मिलकर मई, 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब को दूसरी बार घेर लिया! घेरे की अवधि बहुत लंबी हो गई, जिस कारण दुर्ग __ के भीतर खाद्य-सामग्री कम होनी आरंभ हो गई। इसलिए मुगलों का मुकाबला करना कठिन हो गया। गुरु साहिब ने सिखों को कुछ और दिन संघर्ष जारी रखने को कहा। परंतु 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़ कर चले गए। दूसरी ओर शाही सेना भी बहुत परेशान थी। उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया, कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन कस्मों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

7. सिरसा की लड़ाई 1704 ई० (Battle of the Sirsa 1704 A.D.)– श्री आनंदपुर साहिब छोड़ते ही मुग़ल सैनिकों ने गुरु गोबिंद सिंह जी पर फिर आक्रमण कर दिया। शाही सेना तथा सिखों में सिरसा में लड़ाई हुई। इस समय सिरसा नदी में बाढ़ कारण सिखों में भगदड़ मच गई। इसी भगदड़ में गुरु साहिब के छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी तथा फतह सिंह जी और माता गुजरी जी उनसे बिछुड़ गए। गंगू जो गुरु साहिब का पुराना सेवक था, ने लालच में आकर उन्हें सरहिंद के नवाब वज़ीर खाँ को सौंप दिया। नवाब वज़ीर खाँ ने इन दोनों छोटे साहिबजादों को 27 दिसंबर, 1704 ई० को दीवार में जीवित चिनवा दिया।

8. चमकौर साहिब की लड़ाई 1704 ई० (Battle of Chamkaur 1704 A.D.)-इसके उपरांत गुरु गोबिंद सिंह जी अपने 40 सिखों के साथ चमकौर साहिब पहुँचे। गुरु जी तथा उनके साथियों ने एक गढ़ी में शरण ली। मुग़ल सेना ने गढ़ी पर 22 दिसंबर, 1704 ई० को आक्रमण कर दिया। यह बड़ी जबरदस्त लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह जी तथा जुझार सिंह जी ने अत्यंत वीरता का प्रदर्शन किया और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। जब पाँच सिख शेष रह गए तो उन्होंने खालसा पंथ के लिए गुरु साहिब से गढ़ी छोड़ देने की प्रार्थना की। गुरु जी ने इस प्रार्थना को सिख पंथ का आदेश समझकर अपने साथ तीन सिखों को लेकर गढ़ी छोड़ दी।

9. गुरु जी माछीवाड़ा में (Guru Ji in Machhiwara)-गुरु गोबिंद सिंह जी चमकौर की लड़ाई के पश्चात् माछीवाड़ा के वनों में पहुंचे। यहाँ दो मुसलमान भाइयों नबी खाँ तथा गनी खाँ ने गुरु जी को एक पालकी में बिठा कर मुग़ल सैनिकों से उनकी रक्षा की। दीना कांगड़ नामक स्थान पर पहुँचने पर गुरु जी ने ज़फ़रनामा नामक फ़ारसी में एक चिट्ठी औरंगजेब को लिखी। इस चिट्ठी में गुरु जी ने बहुत निर्भीकता से औरंगजेब के अत्याचारों की आलोचना की।

10. खिदराना की लड़ाई 1705 ई० (Battle of Khidrana 1705 A.D.)-गुरु गोबिंद सिंह जी तथा मुग़ल सेना में लड़ी जाने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाई खिदराना में हुई। 29 दिसंबर, 1705 ई० को सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिखों ने बड़ी वीरता दिखाई और बड़ी शानदार विजय प्राप्त हुई। इसी लड़ाई में वे 40 सिख भी शहीद हो गए, जो श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उनके अद्वितीय बलिदान से प्रभावित होकर गुरुं साहिब ने उन्हें मुक्ति का वरदान दिया। इसी कारण खिरदाना का नाम श्री मुक्तसर साहिब पड़ गया। प्रसिद्ध लेखक करतार सिंह के अनुसार,
“यह सच है कि वह (गुरु गोबिंद सिंह जी) मुग़ल साम्राज्य अथवा शक्ति को नष्ट न कर सके परंतु इसे जड़ से हिलाकर रख दिया था।”37

37. “It is true that he did not actually uproot the Mughal empire or power, but he shook it violently to its very foundations.” Kartar Singh, Life of Guru Gobind Singh (Ludhiana : 1976) p. 222.

प्रश्न 28.
खालसा पंथ के सृजन का वर्णन करें। (Describe about the creation of Khalsa Panth.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन क्यों किया ? इसके मुख्य सिद्धांतों एवं महत्त्व का भी वर्णन करें।
(Why was Khalsa created by Guru Gobind Singh Ji ? Explain its main principles and importance.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के द्वारा ‘खालसा सृजना’ के क्या कारण थे ? चर्चा कीजिए।
(What were the reasons of ‘Khalsa Sirjana’ by Guru Gobind Singh Ji ? Discuss.)
अथवा
खालसा पंथ के सृजन के बारे में आप क्या जानते हैं ? पाँच प्यारों के नाम बताएँ।
[What do you know about the creation of Khalsa Panth ? Name the Panj Piaras (Five Beloved ones).]
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा कैसे प्रकट किया ?
(How did Gobind Singh create Khalsa ?)
अथवा
खालसा पंथ का सृजन किस प्रकार हुआ ? संक्षेप उत्तर लिखें। (How Khalsa Panth was created ? Answer briefly.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की रचना करके सिख लहर को संपन्न किया। स्पष्ट करें।
(Guru Gobind Singh completed the Sikh Movement with the creation of the Khalsa. Explain.)
अथवा
खालसा निर्माण प्रभाव के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the effects of creation of Khalsa.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का सबसे महान् कार्य 1699 ई० में वैसाखी वाले दिन खालसा पंथ का सृजन करना था। खालसा पंथ के सृजन को सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात माना जाता है। खालसा पंथ की स्थापना के कारण, उसकी स्थापना तथा उसके महत्त्व का विवरण निम्नलिखित अनुसार है। प्रसिद्ध लेखक हरबंस सिंह के अनुसार,
“यह इतिहास का एक महान्, रचनात्मक कार्य था जिसने लोगों के दिलों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए।”38
I. खालसा पंथ का सृजन क्यों किया गया ? (Why was Khalsa Panth Created ?)

1. मुगलों का अत्याचारी शासन (Tyrannical Rule of the Mughals)-जहाँगीर के काल से ही मुग़ल सिख संबंधों में तनाव उत्पन्न हो गया था। यह तनाव औरंगज़ेब के काल में सभी सीमाएँ पार कर चुका था। औरंगज़ेब ने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा दिया था। उसने हिंदुओं की धार्मिक रस्मों पर प्रतिबंध लगा दिए तथा जजिया कर को पुनः लागू कर दिया। उसने सिखों के गुरुद्वारों को गिराए जाने के भी आदेश दिए। उसने
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (15)
CREATION OF THE KHALSA
बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले गैर-मुसलमानों की हत्या करवा दी। सबसे बढ़कर उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद करवा दिया। अत: मुग़लों के इन बढ़ रहे अत्याचारों का अंत करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करने का निर्णय किया।

2. पहाड़ी राजाओं का विश्वासघात (Treachery of the Hill Chiefs)—गुरु गोबिंद सिंह जी मुग़लों के विरुद्ध संघर्ष के लिए पहाड़ी राजाओं को साथ लेना चाहते थे। परंतु गुरु जी इस बात से परिचित थे कि पहाड़ी राजाओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने ऐसे सैनिकों को तैयार करने का निर्णय किया जो मुग़लों की शक्ति का सामना कर पाएँ। फलस्वरूप खालसा पंथ की स्थापना की गई।

3. जातीय बंधन (Shackles of the Caste System) भारतीय समाज में जाति-प्रथा शताब्दियों से चली आ रही थी। फलस्वरूप समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों के साथ बुरा व्यवहार करते थे। इस जाति-प्रथा ने भारतीय समाज को एक घुण की भाँति भीतर ही भीतर से खोखला बना दिया था। पूर्व हुए सभी गुरु साहिबान ने संगत और पंगत की संस्थाओं द्वारा जाति प्रथा को कड़ा आघात पहुँचाया था, किंतु यह अभी भी समाप्त नहीं हुई थी। अतः गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें जाति-पाति का कोई स्थान न हो।

4. दोषपूर्ण मसंद प्रथा (Defective Masand System)-दोषपूर्ण मसंद प्रथा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना का महत्त्वपूर्ण कारण बनी। समय के साथ-साथ मसंद अपने प्रारंभिक आदर्शों को भूल गए और बड़े भ्रष्टाचारी और अहंकारी बन गए। उन्होंने सिखों को लूटना आरंभ कर दिया। उनका कहना था कि वे गुरुओं को बनाने वाले हैं। बहुत से प्रभावशाली मसंदों ने अपनी अलग गुरुगद्दी स्थापित कर ली थी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इन मसंदों से छुटकारा पाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना करने का निर्णय किया।

5. गुरुगद्दी का पैतृक होना (Hereditary Nature of Guruship)-गुरु अमरदास जी द्वारा गुरुगद्दी को पैतृक बना दिए जाने से भी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। जिसको भी गुरुगद्दी न मिली, उसने गुरु घर का विरोध करना आरंभ कर दिया। पृथी चंद, धीर मल्ल और रामराय ने तो गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए मुग़लों के साथ मिलकर कई षड्यंत्र भी रचे । इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें धीर मल्लों और राम रायों जैसों के लिए कोई स्थान न हो।

6. जाटों का स्वभाव (Nature of Jats)—गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय से ही बड़ी संख्या में जाट सिख धर्म में सम्मिलित हो गए थे। जाट स्वभाव से ही निडर, स्वाभिमानी और वीर थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे याद्धाओं का सहयोग प्राप्त करना चाहते थे ताकि अत्याचारियों का अंत किया जा सके। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

7. गुरु गोबिंद सिंह जी का उद्देश्य (Mission of Guru Gobind Singh Ji)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘बचित्र नाटक’ में लिखा है, कि उनके जीवन का उद्देश्य संसार में धर्म-प्रचार का कार्य करना और अत्याचारियों का विनाश करना है। अत्याचारियों के विनाश के लिए तलवार उठाना अत्यावश्यक है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया। गुरु गोबिंद सिंह जी का कथन था,

हम यह काज जगत में आए। धर्म हेतु गुरुदेव पठाए।।
जहाँ तहाँ तुम धर्म बिथारो।। दुष्ट देखियन पकड़ पछारो।।

38. “It was a grand creative deed of history which wrought revolutionary change in men’s minds.” Harbans Singh, Guru Gobind Singh (New Delhi : 1979)p.50. :

II. खालसा पंथ का सृजन कैसे किया गया ?
(How Khalsa was Created ?)
खालसा पंथ की स्थापना के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने * 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन विद्यार्थी यह बात विशेष तौर पर नोट करें कि खालसा की स्थापना के समय बैसाखी का दिवस 30 मार्च था। 1752 ई० में अंग्रेजों ने भारत में ग्रेगोरियन कैलेंडर को प्रचलित किया। अत: भारत में पूर्व प्रचलित विक्रमी कैलेंडर में 12 दिनों की बढ़ौतरी की गई। इस कारण आजकल बैसाखी सामान्य तौर पर 13 अप्रैल को मनाई जाती है।

श्री आनंदपुर साहिब में केसगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। इस दीवान में 80,000 सिखों ने भाग लिया। जब लोगों ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया तो गुरु जी मंच पर आए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाल कर एकत्रित सिखों से कहा कि, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है जो धर्म के लिए अपना शीश भेंट करे ?” जब गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया तो भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए आगे आए। गुरु जी उसे पास हो एक तंबू में ले गए। कुछ समय के पश्चात् गुरु जी खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आ गए। उन्होंने एक और सिख से बलिदान की माँग की। अब भाई धर्मदास जी आगे आए। इस क्रम को तीन बार और दोहराया गया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। गुरु जी उन्हें बारी-बारी से तंबू में ले जाते थे तथा खून से भरी तलवार लेकर लौटते थे। कुछ समय के पश्चात् गुरु जी ने इन पाँचों को केसरी रंग के कपड़े पहना कर स्टेज पर लाए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया। गुरु साहिब ने इन पाँच प्यारों को पहले खंडे का पाहुल छकाया और बाद में स्वयं इन प्यारों से अमृत छका। इसी कारण गुरु गोबिंद सिंह जी को ‘आपे गुरु चेला’ कहा जाता है। इस प्रकार खालसा पंथ का सृजन हुआ। ” गोबिंद सिंह जी का कथन था,

खालसा मेरो रूप है खास॥
खालसा में हौं करु निवास।।

III. खालसा पंथ के सिद्धांत
(Principles of the Khalsa Panth) गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की पालना के लिए कुछ विशेष नियम भी बनाए कुछ प्रमुख नियमों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को ‘खंडे का पाहुल’ छकना होगा।
  2. खालसा ‘पाँच कक्कार’ अर्थात् केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण धारण करेगा।
  3. खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करेगा।
  4. खालसा पुरुष अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  5. खालसा जाति-प्रथा और ऊँच-नीच में विश्वास नहीं रखेगा।
  6. खालसा शस्त्र धारण करेगा और धर्म-‘युद्ध के लिए सदैव तैयार रहेगा।
  7. खालसा श्रम द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करेगा और अपनी आय का दशांश धर्म के लिए दान करेगा।
  8. खालसा प्रातः काल जागकर स्नान करने के पश्चात् गुरवाणी का पाठ करेगा।
  9. खालसा परस्पर भेंट के समय ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जो की फ़तह’ कहेंगे।
  10. खालसा नशीले पदार्थों का सेवन, पर स्त्री गमन इत्यादि बुराइयों से कोसों दूर रहेगा।
  11. खालसा देश, धर्म की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए सदैव तैयार रहेगा।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

IV. खालसा की सृजना का महत्त्व (Importance of the Creation of Khalsa)
1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन न केवल पंजाब के इतिहास, बल्कि भारत के इतिहास में एक युग परिवर्तक घटना मानी जाती है। निस्संदेह, खालसा पंथ की स्थापना के बड़े दूरगामी परिणाम निकले।

  1. सिखों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग इसमें शामिल होने लग पड़े। गुरु साहिब ने स्वयं हज़ारों सिखों को पाहुल छकाकर खालसा बनाया। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने खालसा पंथ के किसी भी पाँच सिखों को अमृत छकाने का अधिकार देकर खालसा पंथ में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि की।
  2. आदर्श समाज का निर्माण (Creation of an Ideal Society)-खालसा पंथ की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। खालसा पंथ में ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें निम्न और पिछड़ी श्रेणियों को समानता का दर्जा दिया गया। खालसा समाज में अंध-विश्वासों तथा नशीले पदार्थों के सेवन करने के लिए कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार गुरु जी ने खालसा पंथ को रच कर स्वस्थ समाज की रचना की। डॉक्टर इंद्रपाल सिंह के अनुसार,
    “खालसा की महानता इस बात में है कि यह जाति एवं नस्ल की अपेक्षा मानव भाईचारे की बात करता है।”39
  3. मसंद प्रथा एवं पंथ विरोधी संप्रदायों का अंत (End of Masand System and Sects which were against Panth)—मसंद प्रथा में आई कुरीतियाँ खालसा पंथ के निर्माण का एक प्रमुख कारण बनी थीं। इसलिए जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, तो उसमें मसंदों को कोई स्थान नहीं दिया गया। गुरु जी ने सिखों को आदेश दिया, कि वे इनसे किसी प्रकार का कोई संबंध न रखें।
  4. सिखों में नया जोश (New spirit among the Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण __ परिणाम सिखों में एक नया जोश तथा शक्ति पैदा हुई। वे अपने आप को शेर के समान बहादुर समझने लग पड़े। उन्होंने अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब शस्त्र उठा लिए। उन्होंने मुग़लों और अफ़गानों से होने वाली लड़ाइयों में अद्वितीय वीरता और बलिदान के प्रमाण दिए।
  5. निम्न जातियों के लोगों का उद्धार (Upliftment of the Downtrodden People)—खालसा पंथ की स्थापना निम्न जातियों के उद्धार का संदेश थी। इससे पूर्व शूद्रों और अन्य निम्न जातियों के लोगों से बहुत दुर्व्यवहार किया जाता था। गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों को खालसा पंथ में शामिल करके उन्हें उच्च जातियों के बराबर
    स्थान दिया। गुरु जी ने यह महान् पग उठाकर निम्न जाति के लोगों में एक नया जोश भरा। गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में वे महान् योद्धा सिद्ध हुए।
  6. खालसा पंथ में लोकतंत्र (Democracy in Khalsa Panth)-1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं पाँच प्यारों को उन्हें अमृतपान करवाने का निवेदन किया। ऐसा करना एक महान् क्रांतिकारी कदम था। गुरु साहिब ने यह घोषणा की थी कि कहीं भी पाँच खालसा एकत्रित होकर अन्य सिखों को अमृत छका सकते हैं। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों में लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित किया।
  7. सिखों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान (Rise of Political Power of the Sikhs)-खालसा पंथ ‘ की स्थापना के साथ ही सिखों की राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ। असंख्य बलिदान के बाद वे पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। तत्पश्चात् 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख-साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार अंत में खालसों का स्वप्न साकार हुआ। अंत में हम डॉक्टर जी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
    “खालसा पंथ के सृजन को मानव इतिहास का एक आश्चर्यजनक कारनामा माना जा सकता है।’40

39. “The grandeur of Khalsa is that it is above all notion of caste and creed and speaks only of universal brotherhood.” Dr. Inderpal Singh, The Grandeur of Khalsa (Amritsar : 1999) p. 3.
40. “Creation of the Khalsa was a unique phenomenon in the annals of mankind.” Dr. G. S. Dhillon, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 1999) p.22.

प्रश्न 29.
सिख धर्म में खालसा के सृजन के महत्त्व के बारे में चर्चा करें। (Discuss the importance of creation of Khalsa in Sikhism.)
उत्तर-
खालसा की सृजना का महत्त्व (Importance of the Creation of Khalsa)
1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन न केवल पंजाब के इतिहास, बल्कि भारत के इतिहास में एक युग परिवर्तक घटना मानी जाती है। निस्संदेह, खालसा पंथ की स्थापना के बड़े दूरगामी परिणाम निकले।

1. सिखों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग इसमें शामिल होने लग पड़े। गुरु साहिब ने स्वयं हज़ारों सिखों को पाहुल छकाकर खालसा बनाया। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने खालसा पंथ के किसी भी पाँच सिखों को अमृत छकाने का अधिकार देकर खालसा पंथ में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि की।

2. आदर्श समाज का निर्माण (Creation of an Ideal Society)-खालसा पंथ की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। खालसा पंथ में ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें निम्न और पिछड़ी श्रेणियों को समानता का दर्जा दिया गया। खालसा समाज में अंध-विश्वासों तथा नशीले पदार्थों के सेवन करने के लिए कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार गुरु जी ने खालसा पंथ को रच कर स्वस्थ समाज की रचना की। डॉक्टर इंद्रपाल सिंह के अनुसार,
“खालसा की महानता इस बात में है कि यह जाति एवं नस्ल की अपेक्षा मानव भाईचारे की बात करता है।”39

3. मसंद प्रथा एवं पंथ विरोधी संप्रदायों का अंत (End of Masand System and Sects which were against Panth)—मसंद प्रथा में आई कुरीतियाँ खालसा पंथ के निर्माण का एक प्रमुख कारण बनी थीं। इसलिए जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, तो उसमें मसंदों को कोई स्थान नहीं दिया गया। गुरु जी ने सिखों को आदेश दिया, कि वे इनसे किसी प्रकार का कोई संबंध न रखें।

4. सिखों में नया जोश (New spirit among the Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण __ परिणाम सिखों में एक नया जोश तथा शक्ति पैदा हुई। वे अपने आप को शेर के समान बहादुर समझने लग पड़े। उन्होंने अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब शस्त्र उठा लिए। उन्होंने मुग़लों और अफ़गानों से होने वाली लड़ाइयों में अद्वितीय वीरता और बलिदान के प्रमाण दिए।

5. निम्न जातियों के लोगों का उद्धार (Upliftment of the Downtrodden People)—खालसा पंथ की स्थापना निम्न जातियों के उद्धार का संदेश थी। इससे पूर्व शूद्रों और अन्य निम्न जातियों के लोगों से बहुत दुर्व्यवहार किया जाता था। गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों को खालसा पंथ में शामिल करके उन्हें उच्च जातियों के बराबर
स्थान दिया। गुरु जी ने यह महान् पग उठाकर निम्न जाति के लोगों में एक नया जोश भरा। गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में वे महान् योद्धा सिद्ध हुए।

6. खालसा पंथ में लोकतंत्र (Democracy in Khalsa Panth)-1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं पाँच प्यारों को उन्हें अमृतपान करवाने का निवेदन किया। ऐसा करना एक महान् क्रांतिकारी कदम था। गुरु साहिब ने यह घोषणा की थी कि कहीं भी पाँच खालसा एकत्रित होकर अन्य सिखों को अमृत छका सकते हैं। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों में लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित किया।

7. सिखों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान (Rise of Political Power of the Sikhs)-खालसा पंथ ‘ की स्थापना के साथ ही सिखों की राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ। असंख्य बलिदान के बाद वे पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। तत्पश्चात् 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख-साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार अंत में खालसों का स्वप्न साकार हुआ। अंत में हम डॉक्टर जी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“खालसा पंथ के सृजन को मानव इतिहास का एक आश्चर्यजनक कारनामा माना जा सकता है।’40

39. “The grandeur of Khalsa is that it is above all notion of caste and creed and speaks only of universal brotherhood.” Dr. Inderpal Singh, The Grandeur of Khalsa (Amritsar : 1999) p. 3.
40. “Creation of the Khalsa was a unique phenomenon in the annals of mankind.” Dr. G. S. Dhillon, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 1999) p.22.

प्रश्न 30.
गुरु गोबिंद सिंह जी के चरित्र एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।
(Discuss the character and achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करें। (Make an evaluation of the personality of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के बहुपक्षीय व्यक्तित्व की ऐतिहासिक उदाहरणों सहित व्याख्या करें। (Illustrate historically the multi-dimensional personality of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के एक मनुष्य, एक सैनिक और एक धार्मिक नेता के बारे में विस्तार से लिखो।
(Write in detail about Guru Gobind Singh Ji as a Man, as a Soldier and as a Religious Leader.)
अथवा
आप गुरु गोबिंद सिंह जी के एक मनुष्य, एक सैनिक, एक विद्वान् तथा एक धार्मिक नेता बारे क्या जानते हैं ?
(What do you know about Guru Gobind Singh Ji as a Man, as a Soldier, as a Scholar and as a Saint ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा उपलब्धियों का विवरण दें। . (Give an account of the career and achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी विश्व के महान् व्यक्तियों में से एक थे। उनके व्यक्तित्व में अनेक गुण- थे। वह संपूर्ण मनुष्य, महान् योद्धा, अत्याचारियों के शत्रु, उच्चकोटि के कवि, समाज सुधारक, उत्तम संगठनकर्ता तथा महान् पैगंबर थे।
मनुष्य के रूप में (As a Man)

  1. शक्ल सूरत (Physical Appearance)-गुरु गोबिंद सिंह जी का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। उनका कद लंबा, रंग गोरा तथा शरीर गठित था। उनका मुख मंडल भव्य था। वह बहुत मृदुभाषी थे। उनका पहरावा बहुत सुंदर होता था तथा वह सदैव शस्त्रों से सुसज्जित रहते थे। उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके जादुई व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होता था।
  2. गृहस्थ जीवन (House Holder) गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े आज्ञाकारी पुत्र, विचारवान् पिता और आदर्श पति थे। उन्होंने अपनी माता जी की आज्ञा मानते हुए श्री आनंदपुर साहिब का किला खाली कर दिया था। इसके पश्चात् चाहे उन्हें भारी कष्टों का सामना करना पड़ा परंतु उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की। गुरु जी ने अपने पुत्रों को भी अत्याचारों का वीरता से सामना करने का सबक सिखाया।
  3. उच्च चरित्र (High Character)–गुरु गोबिंद सिंह जी महान् चरित्र के स्वामी थे। झूठ, छल, कपट तो उन्हें छू भी न पाया था। युद्ध हो अथवा शाँति, उन्होंने कभी भी धैर्य नहीं छोड़ा था। वह स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे। वह प्रत्येक प्रकार के नशे के विरुद्ध थे। उन्होंने अपने सिखों को भी उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया।
  4. कुर्बानी की प्रतिमा (Embodiment of Sacrifices)-गुरु गोबिंद सिंह जी कुर्बानी के पुंज थे। 9 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता गुरु तेग़ बहादुर जी को बलिदान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन के सभी सुख त्याग दिए। अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए गुरु जी के चारों साहिबजादों, माता तथा अनेक सिखों ने बलिदान दिए। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं मिलता।

एक विद्वान् के रूप में (As a Scholar)
गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। उन्हें अनेक भाषाओं जैसे अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, हिंदी तथा संस्कृत आदि का ज्ञान था। ‘जापु साहिब’, ‘बचित्तर नाटक’, ‘ज़फ़रनामा’, ‘चंडी दी वार’ तथा ‘अकाल उस्तति’ आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ संपूर्ण मानवता को स्वतंत्रता, भाईचारे, सामाजिक असमानता को दूर करने तथा अत्याचारों का मुकाबला करने की प्रेरणा देती हैं। इसके अतिरिक्त ये रचनाएँ आत्मा को शाँति भी प्रदान करती हैं। निस्संदेह ये रचनाएँ भक्ति एवं शक्ति के सुमेल का सुंदर उदाहरण हैं । आपने अपने दरबार में उच्चकोटि के 52 कवियों को आश्रय दिया हुआ था। इनमें से सैनापत, नंद लाल, गोपाल तथा उदै राय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। विख्यात इतिहासकार दविंद्र कुमार का यह कथन बिल्कुल ठीक है। “वह (गुरु गोबिंद सिंह जी) एक महान् कवि थे।41

41. “He was a poet par excellence.” Devindra Kumar, Guru Gobind Singh’s Contribution to the Indian · Literature, cited in, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 2000) p. 127.

योद्धा तथा सेनापति के रूप में (As a Warrior and General)-
गुरु गोबिंद सिंह जी अपने समय के महान् योद्धा तथा सेनापति थे। वह घुड़सवारी, तीर चलाने तथा शस्त्र चलाने में बहुत प्रवीण थे। वह प्रत्येक युद्ध में अपने सैनिकों का नेतृत्व करते थे। गुरु जी ने लड़ाई में भी नैतिक सिद्धांतों का सदैव पालन किया। उन्होंने कभी भी रणभूमि से भाग रहे सिपाहियों तथा निहत्थों पर आक्रमण न किया। उनके तथा शत्रुओं के साधनों में आकाश-पाताल का अंतर था, फिर भी गुरु जी ने उनके विरुद्ध बड़ी शानदार सफलता प्राप्त की। उदाहरणस्वरूप गुरु जी ने भंगाणी की लड़ाई में, आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में, चमकौर साहिब की लड़ाई में तथा खिदराना की लड़ाई में कम सैनिकों तथा सीमित साधनों के होते हुए भी पहाड़ी राजाओं तथा मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे। गुरु जी के सैनिक सदैव अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे।

धार्मिक नेता के रूप में (As a Religious Leader)-
निस्संदेह गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् धार्मिक नेता थे। गुरु जी ने अपने जीवन का अधिकाँश समय लड़ाइयों में व्यतीत किया परंतु इन लड़ाइयों का उद्देश्य धर्म की रक्षा करना ही था। गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना धार्मिक उद्देश्यों के लिए ही की थी। उन्होंने प्रत्येक सिख को यह आदेश दिया था कि वह सुबह उठकर स्नान के पश्चात् गुरुवाणी का पाठ करे। वह एक ईश्वर की ही पूजा करे तथा पवित्र जीवन व्यतीत करे। उनकी धार्मिक महानता का प्रमाण इस बात से मिलता है कि जब उन्हें साहिबजादों के बलिदान की सूचना दी गई तो झट खड़े होकर उन्होंने ईश्वर का धन्यवाद किया कि उनके पुत्रों के प्राण धर्म के लिए गए। डॉ० आई० बी० बैनर्जी के अनुसार, “गुरु गोबिंद सिंह जी और चाहे जो कुछ भी थे परंतु सब से पहले वह एक धार्मिक नेता थे।”42

समाज सुधारक के रूप में (As a Social Reformer)-
गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् समाज सुधारक भी थे। उन्होंने खालसा पंथ में निम्न जातियों के लोगों को भी उच्च जातियों के समान स्थान दिया। ऐसा करके गुरु जी ने शताब्दियों पुराने जाति-पाति के बंधनों को तोड़कर रख दिया। गुरु जी का कहना था, “मानस की जात सभै एकै पहिचानबो।” गुरु जी ने अपने सिखों को मादक पदार्थों से दूर रहने को कहा। उन्होंने सती तथा पर्दा प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इस प्रकार गुरु साहिब ने एक आदर्श समाज को जन्म दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

संगठनकर्ता के रूप में (As an Organiser)-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। उस समय औरंगज़ेब का शासन था। वह गैर-मुसलमानों के अस्तित्व को कभी सहन करने के लिए तैयार नहीं था। उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद कर दिया था। सिखों में मसंद प्रथा बहुत भ्रष्ट हो गई थी। हिंदुओं में बहादुरी एवं आत्म-विश्वास की भावनाएँ खत्म हो चुकी थीं एवं वे मुग़लों के अत्याचार सहने के अभ्यस्त हो चुके थे। पहाड़ी राजा अपने स्वार्थों के कारण मुग़ल सरकार से मिले हुए थे। ऐसे विरोधी तत्त्वों के रहते गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। सचमुच यह एक महान् कार्य था। इसने लोगों में एक ऐसा जोश भरा जिसके आगे मुग़ल साम्राज्य को भी घुटने टेकने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर मदनजीत कौर के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु गोबिंद सिंह जी के योगदान ने भारतीय इतिहास एवं विश्व संभ्यता के चित्रपट पर दूरगामी प्रभाव छोड़े।”43

42. “Whatever else he might have been, Guru Gobind Singh was first and foremost a great religious leader.”Dr. I. B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol. 2, p. 157.
43. “Guru Gobind Singh’s contributions had left imprints of deep impact on the canvas of Indian history and world civilisation.” Prof. Madanjit Kaur, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 2000) p.1.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की सिख पंथ को देन के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the contribution of Guru Nanak Dev Ji to Sikhism.)
उत्तर-
15वीं शताब्दी में, जब गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ तो उस समय लोग अज्ञानता के अँधकार में भटक रहे थे। समाज में महिलाओं की दशा बहुत खराब थी। गुरु नानक देव जी ने लोगों में नई जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। गुरु जी ने संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की नींव डाली। गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुई।

प्रश्न 2.
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों के क्या उद्देश्य थे ?
(What do you mean by Udasis ? What were the aims of Guru Nanak Dev Ji’s Udasis ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य तथा महत्त्व था ?
(What were the aims and importance of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी द्वारा विभिन्न दिशाओं में की गई यात्राओं को उनकी उदासियाँ कहा जाता है। इन उदासियों का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता तथा अंधविश्वास को दूर करना था। वह एक ईश्वर की पूजा तथा भाईचारे का संदेश जन-साधारण तक पहुंचाना चाहते थे। गुरु नानक साहब ? लोगों को अपने विचारों से अवगत करवाया। उन्होंने समाज में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों, कर्मकांडों तथा कुप्रथाओं का खंडन किया।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी की किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of any two important Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी सैदपुर से शुरू की। मलिक भागों द्वारा पूछने पर गुरु जी ने बताया कि हमें मेहनत की कमाई से गुजारा करना चाहिए न कि बेईमानी के पैसों से।
  2. हरिद्वार में गुरु नानक साहिब ने लोगों को यह बात समझाई कि गंगा स्नान करने से या पितरों को पानी देने से कुछ प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार लिखिए। (Write an essence of the teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है। वह निराकार तथा सर्वव्यापक है।
  2. गुरु जी माया को मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे।
  3. गुरु जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मनुष्य के पाँच शत्रु बताते हैं। इनके कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।
  4. गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का खंडन किया।

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nank Dev Ji’s concept of God ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about God ?)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया।
  2. केवल ईश्वर ही संसार को रचने वाला, पालने वाला तथा नाश करने वाला है।
  3. ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी।
  4. ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता।

प्रश्न 6.
गुरु नानक साहिब ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खंडन क्यों किया ? (Why did Guru Nanak Sahib condemn the Brahmans and Mullas ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ब्राह्मणों में श्रद्धा भक्ति का अभाव था। वे सारा दिन वेद-शास्त्र पढ़ते थे, परंतु उन पर अमल नहीं करते थे। वे लोगों को धोखा देते थे तथा उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर लूटते थे। कुछ ऐसी ही स्थिति मुसलमानों में मुल्लाओं की थी। वे भी व्यर्थ के रीति-रिवाजों पर बल देते थे। वे अन्य धर्मों के लोगों को बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते थे। इन कारणों से गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खंडन किया।

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा प्रथाओं का खंडन किया ?
(Which prevalent religious beliefs and conventions were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने कौन-से प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खंडन किया ? (What type of religious beliefs and rituals were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित समस्त अंधविश्वासों तथा व्यवहारों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने वेद, शास्त्र, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, तथा जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अवसरों से संबंधित संस्कारों का विरोध किया। ब्राह्मण इन रस्मों के मुख्य समर्थक थे। उन्होंने जोगियों की पद्धति को भी दो कारणों से स्वीकार न किया। प्रथम, जोगियों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव था। दूसरा, वे अपने सामाजिक दायित्व से दूर भागते थे। गुरु नानक देव जी अवतारवाद में भी विश्वास नहीं रखते थे।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ? संक्षेप में उत्तर दें। (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of Maya ? Explain in brief)
अथवा
गुरु नानक देव जी के माया के संकल्प का वर्णन करें। (Describe Guru Nank Dev Ji’s concept of Maya.)”
उत्तर-
गुरु नानक देव जी मानते थे कि माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, सुंदर नारी, पुत्र आदि के चक्रों में फंसा रहता है। इसे ही माया कहते हैं। माया जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसका मौत के बाद साथ नहीं देती। माया के कारण वह आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of “Guru’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के गुरु संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of. ‘Guru’ ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को एक वास्तविक सीढ़ी मानते थे। वह ही मनुष्य को मोह और अहं से दूर करता है। वही नाम और शब्द की आराधना करने का ढंग बताता है। गुरु के बिना भक्ति भाव और ज्ञान असंभव है। गुरु के बिना मनुष्य को चारों और अँधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अँधकार से प्रकाश की ओर लाता है। सच्चा गुरु ईश्वर स्वयं है, जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में ‘नाम’ का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of ‘Nam’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी नाम की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। नाम आराधना के कारण मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। नाम की आराधना करने वाले मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं तथा उसके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। उसकी आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह खिली रहती है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में हुक्म का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Hukam’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। सारा संसार उस परमात्मा के हुक्म के अनुसार चलता है। उसके हुक्म के अनुसार ही जीव इस संसार में जन्म लेता है या उसकी मृत्यु होती है। उसे प्रशंसा प्राप्त होती है अथवा वह नीच बन जाता है। हुक्म के कारण ही उसे सुखदुःख प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के हुक्म को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरे खाता है।

प्रश्न 12.
गुरु नानक देव जी के स्त्री जाति संबंधी क्या विचार थे ? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about women ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों की जूती के समान था। उन्हें जानवरों की भाँति खरीदा अथवा बेचा जाता था। गुरु नानक देव जी बाल-विवाह, बहु-विवाह तथा सती प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का समर्थन किया। इस संबंध में उन्होंने स्त्रियों को संगत एवं पंगत में सम्मिलित होने की आज्ञा दी।

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी के संदेश का सामाजिक अर्थ क्या था ? (What was the social meaning of Guru Nanak Dev Ji’s message ?) Solis
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के संदेश के सामाजिक अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनका संदेश प्रत्येक के लिए था। कोई भी स्त्री-पुरुष गुरु जी द्वारा दर्शाए गए मार्ग को अपना सकता था। गुरु जी ने सामाजिक समानता का प्रचार किया। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। सामाजिक समानता के संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु जी ने संगत तथा पंगत (लंगर) नामक दो संस्थाएँ चलाईं। लंगर तैयार करते समय जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था।

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से किस प्रकार भिन्न थीं ?
(How far were the teachings of Guru Nanak Dev Ji different from the Bhakti reformers ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा निराकार है। वह कभी भी मानवीय रूप को धारण नहीं करता। भक्ति प्रचारकों ने कृष्ण तथा राम को परमात्मा का अवतार माना। गुरु नानक देव जी मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे। जबकि भक्ति प्रचारकों का इसमें पूर्ण विश्वास था। गुरु नानक देव जी गृहस्थ जीवन में विश्वास रखते थे। क्ति प्रचारक गृहस्थ जीवन को मुक्ति की राह में आने वाली एक बड़ी रुकावट मानते थे। गुरु नानक देव जी ने गत तथा पंगत नामक दो संस्थाएँ स्थापित की। भक्ति प्रचारकों ने ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं की।

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी एक क्रांतिकारी थे। अपने उत्तर की पुष्टि में कोई चार तर्क दीजिए।
(Guru Nanak Dev Ji was a revolutionary. Give any four arguments in support of your answer.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने अवतारवाद का जोरदार शब्दों में खंडन किया।
  2. गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा के विरोध में भी ज़ोरदार आवाज़ उठाई।
  3. गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया।
  4. गुरु नानक देव जी ने हिंदू रीति-रिवाजों का खंडन किया।

प्रश्न 16.
गुरु नानक देव जी एक सुधारक थे। इस पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए। (Guru Nanak Dev Ji was a reformer. Give any four arguments in its favour.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने कभी भी किसी देवी-देवता को बुरा नहीं कहा था।
  2. गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा का खंडन नहीं किया अपितु जाति प्रथा से उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या का विरोध किया था।
  3. गुरु नानक देव जी ने उस समय हिंदुओं में प्रचलित रस्मों जैसे उपवास, तीर्थ यात्रा, सूर्य को पानी देने तथा गंगा स्नान इत्यादि का पूर्ण रूप से खंडन नहीं किया था।
  4. गुरु नानक देव जी ने हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों में दिए गए ज्ञान को कभी भी बुरा नहीं कहा।

प्रश्न 17.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 कहाँ तथा कैसे व्यतीत किए ? (How and where did Guru Nanak Dev Ji spend last 18 years of his life ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने करतारपुर ( अर्थात् ईश्वर का नगर) नामक नगर की स्थापना की। इसी स्थान पर गुरु जी ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु जी ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की ‘संगत’ से अभिप्राय उस सभा से था जो प्रतिदिन गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए होती थी। ‘पंगत’ से अभिप्राय था–पंक्ति में बैठकर लंगर छकना। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
उत्तर-

  1. गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया।
  2. उन्होंने गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया।
  3. गुरु अंगद देव जी ने संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया।
  4. उन्होंने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया।

प्रश्न 19.
गुरु अंगद साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ? (What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurmukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को संशोधित कर नया रूप प्रदान किया। परिणामस्वरूप, इस लिपि को समझना लोगों के लिए सरल हो गया। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हई। इस लिपि के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि विद्या के प्रसार में भी सहायक सिद्ध हुई।

प्रश्न 20.
गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का खंडन किस प्रकार किया ? (How did Guru Angad Dev Ji denounce the Udasi sect ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का सिख मत के विकास की ओर एक अन्य प्रशंसनीय कार्य उदासी मत का खंडन करना था। इस मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सपत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संयास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था, जबकि गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सिद्धांत गुरु नानक देव जी के सिद्धांतों से मिलते थे। इस कारण बहुत-से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता।

प्रश्न 21.
“गुरु अंगद साहिब बहुत अनुशासन प्रिय थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? (“Guru Angad Dev Ji was a great disciplinarian.’ Do you agree to it ?)
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। गुरु जी के दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड, अपनी मधुर आवाज़ के कारण बहुत गर्व करने लग पड़े थे। अपने अहंकार में आकर उन्होंने मुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। कुछ समय के पश्चात् उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया।

प्रश्न 22.
गुरु अंगद साहिब तथा हुमायूँ में हुई भेंट की संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the meeting between Guru Angad Sahib and Humayun.)
उत्तर-
1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ को शेरशाह सूरी के हाथों कन्नौज के स्थान पर कड़ी पराजय हुई थी। पराजय के पश्चात् हुमायूँ खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में इतने लीन थे कि उन्होंने आँखें खोलकर न देखा। हुमायूँ ने क्रोधित होकर अपनी तलवार म्यान से निकाल ली। उसी समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँग ली।

प्रश्न 23.
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? : (What do you know about Sangat ?).
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होती थी। गुरु अंगद साहिब ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के बिना कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

प्रश्न 24.
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
लंगर प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Langar system ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें। (Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-
पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 25.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on importance of Sangat and Pangat.)
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होती थी। गुरु अंगद साहिब ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के बिना कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 26.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das Ji face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-

  1. गुरुगद्दी पर विराजमान होने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को सबसे पहले गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु पुत्र होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार जताया।
  2. गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद भी गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने भी गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया।

प्रश्न 27.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ। (Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (From an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.) .
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।
  2. उन्होंने लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया।
  3. उन्होंने सिख पंथ के प्रचार के लिए मंजी प्रथा की स्थापना की।
  4. गुरु साहिब ने सिख धर्म को उदासी मत से अलग रखकर इसे लुप्त होने से बचा लिया।

प्रश्न 28.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is importance of the construction of the Baoli of Goindwal Sahib in Sikh History ?)
अथवा
गोइंदवाल साहिब को सिख धर्म का केंद्र क्यों कहा जाता है ? (Why is Goindwal Sahib called the centre of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला कदम गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करवाना था। इस पवित्र बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को हिंदुओं से अलग तीर्थ स्थान देना चाहते थे। दूसरा, वह वहाँ के लोगों की पानी की कठिनाई को दूर करना चाहते थे। बाऊली के निर्माण से सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 29.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का डटकर विरोध किया।
  2. गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया।
  3. उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा की बड़े ज़ोरदार शब्दों में निंदा की।
  4. गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 30.
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji system ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें। (Write a note on Manji system.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का एक और महान कार्य था मंजी प्रथा की स्थापना करना। उनके समय में सिखों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि गुरु जी के लिए प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचना असंभव था। अतः गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के प्रदेशों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। इसके अतिरिक्त वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे।

प्रश्न 31.
गुरु अमरदास जी के मुगलों के साथ कैसे संबंध थे ? (What type of relations did Guru Amar Das Ji have with the Mughals ?)
अथवा
मुगल बादशाह अकबर तथा गुरु अमरदास जी के मध्य संबंधों का उल्लेख कीजिए। (Describe the relations between Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
अथवा
मुगल सम्राट अकबर तथा गुरु अमरदास जी के बीच संबंधों का उल्लेख करें। (Explain the relations between the Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के मुग़लों के साथ संबंध मैत्रीपूर्ण थे। 1568 ई० में अकबर गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु साहिब के दर्शन करने से पूर्व मर्यादानुसार लंगर खाया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व और लंगर प्रबंध से बहुत प्रभावित हुआ। उसने लंगर प्रबंध को चलाने के लिए कुछ गाँवों की जागीर गुरु जी की सुपुत्री बीबी भानी जी के नाम लगा दी। अकबर की इस यात्रा के कारण गुरु अमरदास जी की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक फैल गई। इससे सिख धर्म का प्रसार और प्रचार बढ़ा।

प्रश्न 32.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?)
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरु काल 1574 ई० से 1581 ई० तक रहा। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य भी आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म के प्रचार तथा उसके विकास के लिए धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों को समाप्त किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा।

प्रश्न 33.
रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? [What is the importance of foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 34.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi system ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत त्याग और वैराग्य पर बल देता था। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद जी के जीवन से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। इसलिए गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी ने जोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता था। गुरु अमरदास जी के काल में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया।

प्रश्न 35.
गुरुगद्दी पर बैठने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji after he ascended the Gurgaddi.)
अथवा
गुरु बनने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji immediately after his accession to Gurgaddi. Explain briefly.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के पश्चात् गुरु अर्जन साहिब को सर्वप्रथम अपने बड़े भाई पृथी चंद के विरोध का सामना करना पड़ा। वह बड़ा होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझता था। उसने मुग़ल बादशाह जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काने का हर संभव प्रयत्न किया। पंजाब के कट्टर मुसलमान पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव से घबरा रहे थे। उन्होंने गुरु जी के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरे। कट्टर मुसलमान होने के कारण जहाँगीर पर इनका बहुत प्रभाव पड़ा। चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के सुपुत्र हरगोबिंद जी के साथ करना चाहता था। गुरु जी के इंकार करने के कारण वह उनका घोर शत्रु बन गया।

प्रश्न 36.
गुरु अर्जन देव जी ने सिख पंथ के विकास में क्या योगदान दिया ? (What was Guru Arjan Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अर्जन साहिब जी के संगठनात्मक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the organisational works of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण करके सिखों को एक पावन तीर्थ स्थान प्रदान किया।
  2. गुरु साहिब ने कई पवित्र नगरों जैसे तरनतारन, हरिगोबिंदपुर और करतारपुर की स्थापना की।
  3. उन्होंने लाहौर में एक बाऊली का निर्माण करवाया।
  4. मसंद प्रथा का विकास गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों में से एक था। इस प्रथा से सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर तक हुआ।

प्रश्न 37.
गुरु अर्जन देव जी द्वारा हरिमंदिर साहिब की स्थापना और इसकी महत्ता के बारे में बताइए।
(Describe briefly the’importance of the foundation of Harmandir Sahib by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a brief note on Harmandir Sahib.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब की स्थापना एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the foundation and importance of Harmandir Sahib.)
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब का सिख इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी स्थापना सिखों के पाँचवें गुरु अर्जन देव जी ने की थी। गुरु अर्जन साहिब ने इसकी नींव 1588 ई० में विख्यात सूफी संत मियाँ मीर जी द्वारा रखवाई थी। हरिमंदिर से अभिप्राय था-ईश्वर का मंदिर। गुरु साहिब ने हरिमंदिर साहिब का भवन इर्द-गिर्द के सभी भवनों से निम्न रखाया क्योंकि गुरु साहिब का मानना था कि जो निम्न होगा, वही उच्च कहलाने के योग्य होगा। शीघ्र ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे पवित्र तीर्थ-स्थान बन गया।

प्रश्न 38.
मसंद व्यवस्था तथा इसके महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand system and its importance.)
अथवा
मसंद प्रथा के विकास तथा संगठन का वर्णन कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand system.)
अथवा
मसंद प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about Masand system ? Explain.)
अथवा
मसंद प्रथा किसने शुरू की ? इसके उद्देश्य बताएँ। (Who started Masand system ? What were its aims ?)
अथवा
मसंद प्रथा के संगठन तथा विकास की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand system.)
अथवा
मसंद प्रथा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand system.)
उत्तर-
मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से बना है जिसका अर्थ है ‘उच्च स्थान’। इस प्रथा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। इसका वास्तविक विकास गुरु अर्जन साहिब जी के समय में हुआ। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दसवाँ भाग गुरु साहिब को भेंट करें। मसंदों का मुख्य कार्य इसी धन को इकट्ठा करना था। ये मसंद धन एकत्रित करने के साथ-साथ सिख धर्म का प्रचार भी करते थे। मसंद प्रथा सिख पंथ के विकास में एक मील पत्थर सिद्ध हुई।

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प्रश्न 39.
तरन तारन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Write a short note on Tarn Taran and its importance.)
उत्तर-
गुरु अर्जन साहिब ने 1590 ई० में तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर की खुदवाई भी आरंभ करवाई। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भवसागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत-से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन जाटों ने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

प्रश्न 40.
पृथी चंद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Prithi Chand.)
अथवा
पृथी चंद कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Prithi Chand ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
पृथी चंद गुरु अर्जन साहिब का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बहुत स्वार्थी स्वभाव का था। यही कारण है कि गुरु रामदास जी ने गुरुगद्दी गुरु अर्जन साहिब को सौंपी। इससे पृथी चंद क्रोधित हो उठा। पृथी चंद ने गुरुगद्दी के लिए गुरु अर्जन देव का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया। वह यह आशा लगाए बैठा था कि गुरु अर्जन साहिब के पश्चात् गुरुगद्दी उसके पुत्र मेहरबान को अवश्य मिलेगी परंतु जब हरगोबिंद जी का जन्म हुआ तो उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया। इसलिए वह गुरु अर्जन साहिब के प्राणों का शत्रु बन गया।

प्रश्न 41.
चंद्र शाह कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Chandu Shah ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
अथवा
चंदू शाह गुरु अर्जन देव जी का विरोधी क्यों बन गया था ? (Why Chandu Shah opposed Guru Arjan Dev Ji ?)’
अथवा
चंदू शाह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Chandu Shah.)
उत्तर-
चंद्र शाह लाहौर प्रांत का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। उसके परामर्शदाताओं ने उसे अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब जी के लड़के हरगोबिंद से करने का परामर्श दिया। इस पर चंदू शाह ने कहा कि वह कभी भी नाली की गंदी ईंट को उपने चौबारे की शान नहीं बनने देगा। बाद में वह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। उसने गुरु अर्जन साहिब को शगुन भेजा। गुरु अर्जन साहिब ने इस शगुन को लेने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप चंदू शाह ने मुग़ल बादशाह अकबर तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध बहुत भड़काया।

प्रश्न 42.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly explain the causes responsible for the martyrdom of the Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-

  1. मुग़ल बादशाह जहाँगीर एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह पंजाब में सिखों के तीव्रता से बढ़ रहे प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।
  2. लाहौर का दीवान चंदू शाह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के लडके हरगोबिंद से करना चाहता था। गुरु साहिब द्वारा इंकार करने पर वह गुरु साहिब का घोर शत्रु बन गया।
  3. पृथी चंद इस बात को सहन करने को कभी तैयार नहीं था कि गुरुगद्दी उसे न मिलकर किसी ओर को मिले।
  4. गुरु अर्जन देव जी द्वारा जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो को दी गई सहायता भी उनके बलिदान का तत्कालिक कारण बनी।

प्रश्न 43.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of Naqshbandis in the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आरंभ किया गया एक आंदोलन था। शेख अहमद सरहिंदी जो कि उस समय नक्शबंदियों का नेता था बहुत कट्टर विचारों का था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को.तैयार नहीं था। उसका मुग़ल दरबार में काफ़ी प्रभाव था। इसलिए उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन साहिब जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने का निश्चय किया।

प्रश्न 44.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdrom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहजादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तात्कालिक कारण बनी। शहज़ादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता के विरुद्ध राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वह तरन तारन पहुँचा। सिख गुरुओं के साथ मुगलों के बहुत घनिष्ठ संबंध थे, यह स्वाभाविक था कि गुरु अर्जन देव जी उससे सहानुभूति रखते। कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया। जब जहाँगीर को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसे गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का स्वर्ण अवसर मिल गया।

प्रश्न 45.
क्या गुरु अर्जन देव जी को राजनीतिक कारणों से शहीद किया गया अथवा धार्मिक कारणों से ? संक्षिप्त जानकारी दें।।
(Was Guru Arjan Dev Ji martyred for political or religious causes ? Write briefly.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० में लाहौर में शहीद किया गया था। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए धार्मिक कारण उत्तरदायी थे। जहाँगीर की आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँगीर धार्मिक कारणों से गुरु साहिब को शहीद करना चाहता था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह भारत में केवल इस्लाम धर्म को प्रफुल्लित देखना चाहता था।

प्रश्न 46.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व लिखें। (Write the importance of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom in the Sikh History ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly describe the importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। इस बलिदान के कारण शाँति से रह रहे सिख भड़क उठे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि अब शस्त्र उठाने बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपनाई। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की। इस प्रकार सिख एक संत सिपाही बन गए। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों एवं मुग़लों में मित्रतापूर्वक संबंधों का अंत हो गया। इसके पश्चात् सिखों और मुग़लों के मध्य एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। दूसरी ओर इस शहीदी ने सिखों को संगठित करने में सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 47.
सिख पंथ के रूपांतरण में गरु हरगोबिंद साहिब ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Hargobind Sahib in transformation of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी के गुरु काल की सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Briefly describe the achievements of Guru Hargobind’s pontificate.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उन्होंने मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण कीं। गुरु जी ने मुग़ल अत्याचारियों का सामना करने के लिए एक सेना का गठन किया। उन्होंने अमृतसर की रक्षा के लिए लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों का सांसारिक मामलों में निर्देशन करने के लिए गुरु हरगोबिंद जी ने हरिमंदिर साहिब के सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण आरंभ करवाया। गुरु हरगोबिंद साहिब ने शाहजहाँ के समय में मुग़लों के साथ चार लड़ाइयाँ लड़ीं जिनमें गुरु साहिब को विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 48.
गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी नीति को क्यों धारण किया ?
(What were the main causes of the adoption of New Policy or Miri and Piri by Guru Hargobind Ji ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद द्वारा नई नीति क्यों अपनाई गई ? (Why did Guru Hargobind Sahib adopt the ‘New Policy’ ?)
उत्तर-

  1. मुग़ल बादशाह जहाँगीर बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को नहीं देख सकता था। इस बदली हुई स्थिति में गुरु साहिब को नई नीति अपनानी पड़ी।
  2. 1606 ई० में जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब को लाहौर में शहीद कर दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के उद्देश्य से सिखों को हथियार-बंद करने का फैसला किया।

प्रश्न 49.
गुरु हरगोबिंद साहिब की नई नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of Guru Hargobind Sahib’s New Policy ?)
अथवा
गरु हरगोबिंद जी की नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the New Policy or Miri and Piri of Guru Hargobind Ji ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की ‘नई नीति’ क्या थी ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें। (What were the ‘New Policy’ of Guru Hargobind Ji ? What were its main features ?)
उत्तर-

  1. गुरु हरगोबिंद साहिब बहुत शान-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की।
  2. सिख पंथ की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने एक सेना का गठन किया।
  3. गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि सिख उन्हें धन के स्थान पर शस्त्र और घोड़ें भेंट करें।
  4. सिखों के राजनीतिक एवं अन्य सांसारिक मामलों के समाधान के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के निकट अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया।

प्रश्न 50.
मीरी और पीरी के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? इसकी ऐतिहासिक महत्ता बताएँ। (What is Miri and Piri ? Describe its historical importance.)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? (What is meant by Miri and Piri ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Briefly describe the importance of the New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने गुरुगद्दी पर विराजमान होने के समय मीरी एवं पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी जबकि पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। इसके कारण प्रथम, सिखों में जोशीली भावना का संचार हुआ। दूसरा, अब उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का निर्णय किया। तीसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस नीति का अनुसरण करते हुए खालसा पंथ का सृजन किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 51.
गुरु हरगोबिंद जी के ग्वालियर में बंदी बनाए जाने पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior.)
अथवा
जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी क्यों बनाया ? (Why did Jahangir arrest Guru Hargobind Sahib ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नीति के कारण बंदी बनाया। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

प्रश्न 52.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on relations between Guru Hargobind Sahib and Mughal emperor Jahangir.)
उत्तर-
1605 ई० में मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही मुग़ल-सिख संबंधों में एक नया मोड़ आया। जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब को शहीद करवा दिया था। मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के उद्देश्य के साथ गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति धारण की। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बना कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। बाद में जहाँगीर ने गुरु जी को रिहा करने का आदेश दिया। इसके बाद गुरु हरगोबिंद साहिब तथा जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए।

प्रश्न 53.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों के बीच लड़ाइयों के क्या कारण थे ? (What were the causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब और मुग़लों के बीच लड़ाइयों के कोई चार कारण लिखो। (Write any four causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals.)
उत्तर-

  1. मुग़ल सम्राट शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था।
  2. शाहजहाँ के समय नक्शबंदियों के नेता शेख मासूम ने सम्राट को सिखों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करने के लिए भड़काया।
  3. गुरु हरगोबिंद जी ने अपनी सेना में बहुत-से मुग़ल सेना के भगौड़ों को भर्ती कर लिया था।
  4. सिख श्रद्धालु गुरु जी को ‘सच्चा पातशाह’ कहने लगे थे।

प्रश्न 54.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य हुई अमृतसर की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
Give a brief account of the battle of Amritsar fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी और मुग़लों के मध्य अमृतसर में प्रथम लड़ाई 1634 ई० में हुई। इस लड़ाई का मुख्य कारण एक बाज़ था। उस समय मुग़ल बादशाह शाहजहाँ एक विशेष बाज़ उड़ गया। सिखों ने उसको पकड़ लिया। फलस्वरूप शाहजहाँ ने सिखों को सबक सिखाने के लिए मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7000 सैनिक भेजे। सिखों ने मुग़ल सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। इस लड़ाई में मुखलिस खाँ मारा गया। परिणामस्वरूप मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार मुग़लों और सिखों के मध्य हुई इस प्रथम लड़ाई में सिख विजयी रहे।

प्रश्न 55.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुगलों के बीच हुई करतारपुर की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते
(What do you know about the battle of Kartarpur fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
1635 ई० में मुग़लों तथा सिखों के मध्य करतारपुर में लड़ाई हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। गुरु हरगोबिंद जी ने उसके अहंकारी होने के कारण उसे अपनी फ़ौज में से निकाल दिया था। पैंदा खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए खूब भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ ने एक सेना गुरु हरगोबिंद जी के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़ल सेना को अंत में पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 56.
गुरु हरगोबिंद जी की मुग़लों के साथ हुई लड़ाइयों का वर्णन करें तथा उनका ऐतिहासिक महत्त्व भी बताएँ।
(Write briefly Guru Hargobind Ji’s battles with the Mughals. What is their significance in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी की मुग़लों (शाहजहाँ के समय) के साथ 1634-35 ई० में चार लड़ाइयाँ हुईं। प्रथम लड़ाई 1634 ई० में अमृतसर में हुई। इसी वर्ष मुग़लों एवं सिखों में लहरा नामक लड़ाई हुई। 1635 ई० में गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य तीसरी लड़ाई करतारपुर में हुई। इस लड़ाई में गुरु साहिब के दो पुत्रों गुरुदित्ता जी तथा तेग़ बहादुर जी ने वीरता के जौहर दिखाए। इसी वर्ष फगवाड़ा में मुग़लों तथा गुरु हरगोबिंद जी के मध्य अंतिम लड़ाई हुई। इन लड़ाइयों में सिख अपने सीमित साधनों के बावजूद सफल रहे।

प्रश्न 57.
गुरु हरगोबिंद जी को बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Hargobind Ji known as ‘Bandi Chhor Baba’ ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बनाकर उन्हें ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। उस समय इस दुर्ग में 52 अन्य राजा भी बंदी बनाए हुए थे। ये सभी राजा गुरु जी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब की मौजूदगी में वे अपने कष्ट भूल गए। जब जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को रिहा करने का निर्देश दिया तो गुरु जी ने कहा कि वे तब तक रिहा नहीं होंगे जब तक 52 राजाओं को नहीं छोड़ा जाता। अंततः मजबूर होकर जहाँगीर ने इन राजाओं को भी रिहा कर दिया। इसी कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड बाबा’ कहा जाने लगा।

प्रश्न 58.
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें। (Write a note on Akal Takht Sahib.)
अथवा
अकाल तख्त साहिब के निर्माण का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of building of Sri Akal Takht Sahib in Sikh History ?)
उत्तर-
अकाल तख्त साहिब का निर्माण गुरु हरगोबिंद साहिब का महान् कार्य था। सिखों के राजनीतिक तथा सांसारिक पथ-प्रदर्शन के लिए उन्होंने अकाल तख्त साहिब की नींव रखी। अकाल तख्त साहिब का निर्माण कार्य गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ई० में आरंभ करवाया था। यह कार्य 1609 ई० में संपूर्ण हुआ। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के राजनीतिक एवं सैनिक मामलों का नेतृत्व करते. थे। यहाँ वह सैनिकों को प्रशिक्षण भी देते थे।

प्रश्न 59.
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughal Emperor Shah Jahan.)
उत्तर-
शाहजहाँ बहुत कट्टर सुन्नी बादशाह था। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था। दूसरा, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सैना तैयार किए जाने तथा उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कह कर संबोधन करना शाहजहाँ को एक आँख नहीं भाता था। 1634-35 ई० के समय के दौरान सिखों तथा मुसलमानों के मध्य अमृतसर, लहरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा नामक लड़ाइयाँ हुईं। इन लड़ाइयों में सिख विजयी रहे तथा मुग़लों को पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 60.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़ल सम्राटों के संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Write a brief note on the relations between Guru Hargobind Ji and the Mughal Emperors.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के दो समकालीन मुग़ल बादशाह जहाँगीर तथा शाहजहाँ थे। ये दोनों बादशाह बहुत कट्टर विचारों के थे। इस कारण गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए मीरी तथा पीरी की नीति धारण की। कुछ समय के लिए जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। बाद में जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद जी से मित्रता स्थापित कर ली। 1634-35 ई० के समय में शाहजहाँ के शासन काल में मुग़लों तथा सिखों के मध्य चार लड़ाइयाँ-अमृतसर, लहरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा लड़ी गईं। इनमें गुरु हरगोबिंद साहिब विजयी रहे।

प्रश्न 61.
सिख पंथ के विकास में गुरु हर राय जी का गुरुकाल क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
(Why is pontificate of Guru Har Rai Ji considered important in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हर राय जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Har Rai Ji.)
अथवा
सिख धर्म में गुरु हर राय जी का क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Har Rai Ji for the development of Sikh religion ?)
उत्तर-
सिखों के सातवें गुरु, गुरु हर राय जी 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। उनका गुरुकाल सिख धर्म के शांतिपूर्वक विकास का काल था। गुरु हर राय साहिब ने सिख धर्म का प्रचार करने के लिए पंजाब के कई स्थानों का भ्रमण किया। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब से बाहर अपने प्रचारक भेजे। परिणामस्वरूप सिख धर्म का काफ़ी प्रसार हुआ। गुरवाणी का गलत अर्थ बताने के कारण गुरु हर राय साहिब ने अपने बड़े पुत्र राम राय को गुरुगद्दी से बेदखल कर दिया। गुरु जी ने अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 62.
धीरमल संबंधी एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note about Dhirmal.) .
उत्तर-
धीरमल गुरु हर राय जी का बड़ा भाई था। वह चिरकाल से गुरुगद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था। जब धीर मल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसके क्रोध की कोई सीमा न रही। उसने शींह नामक एक मसंद के साथ मिल कर गुरु जी की हत्या का षड्यंत्र रचा। शीह के साथियों ने गुरु साहिब के घर का बहुत-सा सामान लूट लिया। बाद में धीरमल तथा शींह द्वारा क्षमा याचना करने पर गुरु साहिब ने उन्हें क्षमा कर दिया।

प्रश्न 63.
गुरु हरकृष्ण जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। उनको बाल गुरु क्यों कहा जाता है ? (Write a brief note on Guru Harkrishsn Ji. Why is he called Bal Guru ?)
अथवा
सिख धर्म में गुरु हरकृष्ण जी का क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Harkrishan Ji in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हरकृष्ण जी पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर-
सिखों के आठवें गुरु, गुरु हरकृष्ण जी गुरु हर राय जी के छोटे पुत्र थे। वह 1661 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए। उस समय उनकी आयु केवल पाँच वर्ष थी। इस कारण उनको ‘बाल गुरु’ के नाम से याद किया जाता है। गुरु हरकृष्ण जी के बड़े भाई रामराय के उकसाने पर औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली आने का आदेश दिया। गुरु साहिब 1664 ई० में दिल्ली गए। उन दिनों दिल्ली में भयानक चेचक एवं हैजा फैला हुआ था। गुरु जी ने वहाँ पर बीमारों की अथक सेवा की। वह 30 मार्च, 1664 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

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प्रश्न 64.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने अपनी गुरुगद्दी के दौरान (1664-1675 ई०) पंजाब और बाहर के प्रदेशों की अनेक यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख सिद्धांतों का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने पंजाब तथा पंजाब के बाहर अनेक स्थानों की यात्राएं कीं। गुरु साहिब की इन यात्राओं ने सिख पंथ के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इससे गुरु साहिब की ख्याति चारों ओर फैल गई।

प्रश्न 65.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की तलाश किसने की ओर क्यों ? (Who found Guru Tegh Bahadur Ji and why ?)
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। इसलिए 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा ने इसका हल ढूँढ़ा। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में डूबने लगा था तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। गुरु कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह बकाला पहुँचा। जब मक्खन शाह ने तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” अर्थात् गुरु मिल गया है।

प्रश्न 66.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के उत्तरदायी कारणों का वर्णन करें। (Highlight the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में सबसे प्रमुख योगदान औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता का था।
  2. औरंगजेब सिख धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।
  3. राम राय ने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए औरंगज़ेब को गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध भड़काया।
  4. कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी।

प्रश्न 67.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Discuss the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र सरहिंद था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति और सिख मत का बढ़ रहा प्रचार असहनीय था। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए औरंगजेब के कान भरने आरंभ कर दिए। उनकी कार्यवाई ने जलती पर तेल डालने का काम किया। अत: औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया।

प्रश्न 68.
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmans ?)
उत्तर-
औरंगजेब चाहता था कि कश्मीर के ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के पास पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया।,

प्रश्न 69.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनका बलिदान राजनीतिक कारणों से हुआ अथवा धार्मिक कारणों से ? व्याख्या करें।
(When and where was Guru Tegh Bahadur Ji martyred ? Did his martyrdom take place due to political or religious causes ? Discuss.)
अथवा
क्या गुरु तेग बहादुर जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was Guru Tegh Bahadur Ji a political offender ? Give arguments in support of your answer.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी पंजाब के इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। गुरु साहिब को 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद किया गया था। गुरु साहिब को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया था। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह औरंगजेब का शासन था। वह भारत में इस्लाम के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म को सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया था। हिंदुओं को पुनः जजिया कर देने के लिए विवश किया गया। औरंगज़ेब सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था।

प्रश्न 70.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की ऐतिहासिक महत्ता का वर्णन करो। (Explain the historical importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की महत्ता बताओ। (Explain the importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारण समूचा पंजाब क्रोध और रोष की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य रहेगा, तब तक अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। तत्पश्चात् सिखों और मुग़लों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया।

प्रश्न 71.
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(What difficulties were faced by Guru Gobind Singh Ji when he attained the Gurgaddi ?)
उत्तर-

  1. गुरु गोबिंद सिंह जी स्वयं बाल्यावस्था में थे। उनकी आयु केवल 9 वर्ष थी।
  2. मुग़ल सम्राट औरंगजेब बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं था।
  3. औरंगजेब के बढ़ते हुए अत्याचारों पर अंकुश लगाना आवश्यक था।
  4. धीरमल तथा रामराय गुरुगद्दी न मिलने के कारण गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे।

प्रश्न 72.
भंगाणी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhangani.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के भंगाणी युद्ध का वर्णन करें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Describe Guru Gobind Singh’s battle of Bhangani and also explain its importance.)
उत्तर-
भंगाणी के युद्ध के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु गोबिंद सिंह जी की सैनिक तैयारियों से पहाड़ी राजाओं को अपनी स्वतंत्रता खतरे में अनुभव होने लगी। पहाड़ी राजा सिख संगतों को बहुत परेशान करते थे। मुग़ल सरकार भी इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध भड़का रही थी। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद तथा श्रीनगर के शासक फ़तह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं ने 22 सितंबर, 1688 ई० को भंगाणी के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में सिखों की शानदार विजय हुई।

प्रश्न 73.
नादौण की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle on Nadaun.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई में पराजय के बाद पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह जी से मित्रता स्थापित कर ली थी। उन्होंने मुग़लों को वार्षिक खिराज (कर) भेजना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप आलिफ खाँ के अधीन एक सेना पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध भेजी गई। उसने 20 मार्च, 1690 ई० को पहाड़ी राजाओं के नेता भीम चंद की सेना पर नादौण में आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी ने भीम चंद का साथ दिया। इस संयुक्त सेना ने मुग़ल सेना को परास्त कर दिया।

प्रश्न 74.
खालसा की स्थापना के कारणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Give in brief the causes of the creation of Khalsa.)
अथवा
गरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सजन क्यों किया? (Why did Guru Gobind Singh Ji create the Khalsa ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के लिए उत्तरदायी मुख्य कारणों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए। (Give a brief description of the circumstances responsible for the creation of Khalsa.)
अथवा
1699 ई० में खालसा की स्थापना के लिए उत्तरदायी कोई चार कारण लिखें। (Write any four causes that led to the creation of Khalsa in 1699 A.D.)
अथवा
खालसा पंथ की स्थापना के क्या कारण थे ? (What were the causes of the foundation of the Khalsa Panth ?)
उत्तर-

  1. मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। उन्होंने गैर-मुसलमानों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया था।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी खालसा की स्थापना करके मसंद प्रथा का अंत करना चाहते थे।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी जाटों का सहयोग प्राप्त करने के लिए खालसा की स्थापना करना चाहते थे।

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प्रश्न 75.
खालसा पंथ की स्थापना कब, कहाँ और कैसे हुई ? (When, where and how was the Khalsa founded ?)
अथवा
खालसा की स्थापना पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की स्थापना किस प्रकार की ? (How Khalsa was created by Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
खालसा पंथ की सजना कैसे की गई ? (How was Khalsa sect created ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन श्री आनंदपुर साहिब में केशगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। गुरु जी ने म्यान से तलवार निकाली और एकत्रित सिखों को संबोधित किया, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है, जो धर्म के लिए अपना शीश भेंट करे ?” इस पर भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए आगे आया। गुरु जी के आदेश पर भाई धर्म दास जी, भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया और खालसा पंथ की स्थापना की।

प्रश्न 76.
खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन करो। (Explain the main principles of the Khalsa.)
उत्तर-

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक को ‘खंडे का पाहुल’ छकना पड़ेगा।
  2. प्रत्येक खालसा पुरुष अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  3. प्रत्येक खालसा एक ईश्वर की पूजा करेगा।
  4. प्रत्येक खालसा पाँच कक्कार-केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण अवश्य धारण करेगा।

प्रश्न 77.
खालसा पंथ की स्थापना के महत्त्व पर एक नोट लिखो। (Write a note on the importance of the Khalsa.)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था? (What was the importance of the foundation of Khalsa ?)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था? (Study the importance of the creation of Khalsa.)
उत्तर-

  1. खालसा की स्थापना के पश्चात् लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे।
  2. खालसा की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ।
  3. खालसा की स्थापना करके गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में नव प्राण फूंके।
  4. खालसा की स्थापना के कारण मसंद प्रथा का अंत हुआ।

प्रश्न 78.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the first battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की बढ़ रही शक्ति के कारण पहाड़ी राजाओं के मन की शांति भंग हो गई। कहलूर के राजा भीम चंद ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने यह माँग मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि, गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह भूमि उचित मूल्य देकर खरीदी थी। इस पर भीम चंद ने पहाड़ी राजाओं से मिल कर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले का घेरा कई दिनों तक जारी रहा। जब पहाड़ी राजाओं को कोई सफलता न मिली तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली।

प्रश्न 79.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the second battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर–
पहाड़ी राजाओं और मुग़ल सेना ने 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। घेरे के लंबे हो जाने के कारण 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़कर चले गए। दूसरी ओर शाही सेना ने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन झूठी कसमों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ अन्य सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने 20 दिसंबर, 1704 ई० को श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

प्रश्न 80.
चमकौर साहिब की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the battle of Chámkaur Sahib.) .
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ने के पश्चात् मुग़ल सेना ने उनका पीछा जारी रखा। गुरु साहिब ने चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में 40 सिखों सहित शरण ली। शीघ्र ही मुग़ल सैनिकों ने इस गढ़ी को घेर लिया। 22 दिसंबर, 1704 ई० में हुई चमकौर साहिब की यह लड़ाई बहुत घमासान लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादों-साहिबज़ादा अजीत सिंह जी तथा साहिबजादा जुझार सिंह जी ने वीरता प्रदर्शित की और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

प्रश्न 81.
खिदराना (श्री मुक्तसर साहिब) की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। [Write a brief note on the battle of Khidrana (Sri Mukatsar Sahib.)]
उत्तर-
सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने 29 दिसंबर, 1705 ई० को एक विशाल सेना के साथ गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में गुरु जी को शानदार विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में वे 40 सिख भी लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, जो श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उन 40 सिखों को गुरु जी ने मुक्ति का वरदान दिया। उस समय से खिदराना श्री मुक्तसर साहिब के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 82.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख पंथ में सांप्रदायिक बँटवारे तथा बाह्य खतरों की समस्या को किस प्रकार हल किया ?
(How did Guru Gobind Singh Ji settle the sectarian divisions and external dangers to Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख पंथ में सांप्रदायिक बँटवारे तथा बाह्य खतरों से निपटने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु जी ने इस बात की घोषणा की कि सारे सिख उनके ‘खालसा’ है और प्रत्यक्ष रूप से उनसे जुड़े हुए हैं । इस प्रकार मसंदों की मध्यस्थता समाप्त हो गई। मीणों, धीरमलियों, रामरइयों तथा हिंदालियों को सिख पंथ से निकाल दिया गया । बाझ खतरों से निपटने के लिए गुरु जी ने सारे सिखों को शस्त्रधारी रहने का आदेश दिया।

प्रश्न 83.
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the literary activities of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में बताइए। (Describe the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक गतिविधियों पर रोशनी डालिए।
(Evaluate the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वह उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। गुरु साहिब ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, हिंदी, फारसी, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं का प्रयोग किया। जापु साहिब, बचित्तर नाटक, ज़फ़रनामा, चंडी दी वार आपकी महान् रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं आपकी रचनाओं से हमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दरबार में 52 उच्चकोटि के कवियों को संरक्षण दिया था।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 84.
ज़फ़रनामा क्या है ? (What is Zafarnama ?)
अथवा
ज़फ़रनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें । (Write a short note on Zafarnama.)
उत्तर-
जफ़रनामा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को फ़ारसी में लिखे गए एक पत्र का नाम है। इसे गुरु जी ने दीना कांगड़ नामक स्थान से लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगज़ेब तथा पहाड़ी राजाओं की ओर से कुरान की झूठी शपथ लेकर धोखा करने का वर्णन निर्भीकता से किया है। गुरु जी के इस पत्र को भाई दया सिंह जी ने औरंगज़ेब तक पहुँचाया था। इस पत्र का औरंगजेब पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 85.
गुरु गोबिंद सिंह जी के सामाजिक सुधारों का इतिहास में क्या महत्व है ? (What is the importance of social reforms of Guru Gobind Singh Ji in History ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके समाज में एक क्रांति ला दी। इसमें सम्मिलित होने वाले निम्न जातियों के लोगों को भी उच्च जातियों के बराबर स्थान दिया गया। गुरु जी ने अपने अनुयायियों को शराब, भांग तथा अन्य मादक पदार्थों से दूर रहने के लिए कहा। गुरु जी ने सिखों को महिलाओं का पूर्ण सम्मान करने के लिए कहा। मसंद प्रथा का अंत कर गुरु जी ने सिखों को उनके शोषण से बचाया।

प्रश्न 86.
“गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् संगठनकर्ता थे ।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं ?
(“Guru Gobind Singh Ji was a builder par-excellence”. Do you agree to this statement ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। सचमुच यह एक महान् कार्य था । इसने लोगों में नया जोश उत्पन्न किया। वे महान योद्धा बन गए और धर्म के नाम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गए । उन्होंने तब तक सुख की साँस न ली जब तक पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों के शासन का अंत न कर लिया गया तथा पंजाब में एक स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना न कर ली गई।

प्रश्न 87.
गुरु गोबिंद सिंह जी के व्यक्तित्व की कोई चार विशेषताएँ बताएँ । (Mention any four characteristics of Guru Gobind Singh Ji’s personality.)
उत्तर-

  1. गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े उच्च चरित्र के स्वामी थे।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्च कोटि के कवि तथा साहित्यकार थे।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् समाज सुधारक थे।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी में एक महान् योद्धा तथा सेनापति के गुण विद्यमान थे।

प्रश्न 88.
गुरु नानक देव जी की सिख पंथ को देन के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the contribution of Guru Nanak Dev Ji to Sikhism.)
उत्तर-
15वीं शताब्दी में, जब गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ तो उस समय भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा बहुत शोचनीय थी। मुसलमान शासक वर्ग से संबंधित थे। वे हिंदुओं से बहुत घृणा करते थे और उन पर भारी अत्याचार करते थे। धर्म केवल एक दिखावा बन कर रह गया था। लोग अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे थे। समाज में महिलाओं की दशा बहुत खराब थी। गुरु नानक देव जी ने लोगों में प्रचलित अंध-विश्वासों को दूर करने के लिए तथा उनमें नई जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं के दौरान गुरु जी ने लोगों से एक ईश्वर की पूजा करने, आपसी भ्रातृत्व, महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने, शुद्ध व पवित्र जीवन व्यतीत करने तथा अंध-विश्वासों को त्यागने का प्रचार किया। गुरु जी जहाँ भी गए उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा लोगों पर गहरा प्रभाव डाला। गुरु जी ने शासक वर्ग तथा उसके कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उन्होंने संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की नींव डाली। गुरु जी के जीवन काल में ही एक नया भाईचारा अस्तित्व में आ चुका था। गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुई।

प्रश्न 89.
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों के क्या उद्देश्य थे ? (What do you mean by Udasis ? What were the aims of Guru Nanak Dev Ji’s Udasis ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य तथा महत्त्व था ? (What were the aims and importance of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की उदासियों से अभिप्राय उनकी यात्राओं से था। गुरु नानक साहिब की उदासियों का मुख्य उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता तथा अंध-विश्वासों को दूर करना था। वह एक ईश्वर की पूजा तथा आपसी भ्रातृत्व का संदेश जन-साधारण तक पहुँचाना चाहते थे। उस समय हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही धर्म के वास्तविक सिद्धांतों को भूल कर अपने मार्ग से भटक चुके थे। हिंदू ब्राह्मण तथा जोगी, जिनका मुख्य कार्य भटके हुए लोगों का उचित दिशा निर्देशन करना था, वह स्वयं ही भ्रष्ट तथा चरित्रहीन हो चुके थे। जब धर्म के ठेकेदार स्वयं ही अंधकार में भटक रहे हों तो जन-साधारण की दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लोगों ने अनगिनत देवीदेवताओं, कब्रों, वृक्षों, साँपों तथा पत्थरों आदि की पूजा आरंभ कर दी थी। इस प्रकार धर्म की सच्ची भावना समाप्त हो चुकी थी। समाज जातियों तथा उपजातियों में विभाजित था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। समाज में महिलाओं की दशा दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती के समान समझा जाता था। गुरु नानक देव जी ने अज्ञानता के अंधेरे में भटक रहे इन लोगों को प्रकाश का एक नया मार्ग दिखाने के लिए यात्राएँ कीं।

प्रश्न 90.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की किन्हीं पाँच महत्त्वपूर्ण उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of any five important Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपनी उदासियों का आरंभ सैदपुर से किया। यहाँ उन्हें मलिक भागो नाम के ज़मींदार ने ब्रह्म भोज पर आमंत्रित किया परंतु गुरु साहिब एक निर्धन बढ़ई भाई लालो के घर ठहरे। मलिक भागो द्वारा पूछने पर गुरु जी ने बताया कि हमें कभी भी हराम की कमाई नहीं खानी चाहिए तथा ईमानदारी का जीवन व्यतीत करना चाहिए। तालुंबा के स्थान पर गुरु साहिब की भेंट सज्जन ठग से हुई। वह यात्रियों को अपनी सराय में ठहराता और रात्रि में उन्हें लूट कर उनकी हत्या कर देता था। वह गुरु नानक देव जी की वाणी से प्रभावित होकर उनका अनुयायी बन गया। उसने अपना शेष जीवन सिख धर्म के प्रचार में लगाया। गोरखमत्ता में गुरु नानक देव जी ने सिद्ध योगियों को बताया कि कानों में कुंडल डालने, शरीर पर भस्म मलने, शंख बजाने आदि से मुक्ति नहीं मिलती अपितु मुक्ति तो आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है। जगन्नाथ पुरी में गुरु नानक देव जी ने लोगों को समझाया कि वह औपचारिक आरती को कोई महत्त्व न दें। उस परम पिता परमात्मा की आरती प्रकृति सदैव करती रहती है। मक्का में गुरु नानक देव जी ने काज़ी रुकनुद्दीन को यह समझाया कि अल्लाह सर्वव्यापक है।

प्रश्न 91.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में बताइए।
(Describe the prime teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की कोई पाँच शिक्षाओं का वर्णन कीजिए। (Describe any five teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है। वह निराकार तथा सर्वव्यापक है। वह अजर-अमर है। वह सर्व-शक्तिमान तथा दयालु है। वह निर्गुण भी है तथा सगुण भी। वह इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता तथा नाशवानकर्ता है। अतः हमें उस ईश्वर को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा नहीं करनी चाहिए। गुरु जी माया को मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे। मनमुख व्यक्ति सदैव माया के चक्र में फंसा रहता है । माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है। गुरु जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मनुष्य के पाँच शत्रु बताते हैं । इन के कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों तथा धर्म के बाह्य आडंबरों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु जी उस व्यक्ति के धर्म को सत्य मानते थे जिसका हृदय सच्चा हो। गुरु जी के अनुसार गुरु के बिना मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं है। वह परमात्मा को सच्चा गुरु मानते हैं जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है। गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्त करना असंभव है। वह अंजन में निरंजन रहने के समर्थक थे।

प्रश्न 92.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nanak’s concept of God ?)
अथवा
मूल-मंत्र के आधार पर गुरु नानक देव जी द्वारा परमात्मा के बताए स्वरूप की व्याख्या करें। (Describe the nature of God according to Mul Mantra of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक साहिब जी के अनुसार परमात्मा एक है। चर्चा कीजिए। (As per Guru Nanak Sahib Ji God is One. Discuss.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। अन्य देवी-देवता ईश्वर के सम्मुख उसी प्रकार हैं जैसे तेजमय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों-हज़ारों हैं परंतु ईश्वर एक है। केवल ईश्वर ही संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं नाशवानकर्ता है। ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। पहले ईश्वर अपने आप में रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। बाद में उसने संसार की रचना की तथा इस रचना द्वारा अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहता है वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। वह अमर है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। वह निराकार भी है और सर्वव्यापक भी। उसका कोई आकार नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। वह सबसे महान् है। उसकी महानता अवर्णनीय है। वास्तव में वह अपनी महानता का ज्ञाता स्वयं है।

प्रश्न 93.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा प्रथाओं का खंडन किया ?
(Which prevalent religious beliefs and conventions were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने कौन-से प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खंडन किया ? (What type of religious beliefs and rituals were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित समस्त अंध-विश्वासों का खंडन किया। उन्होंने वेद, शास्त्र, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा तथा जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अवसरों से संबंधित संस्कारों का विरोध किया। इन रस्मों के मुख्य समर्थक ब्राह्मण थे। उन्होंने जोगियों की पद्धति को भी स्वीकार न किया। इसके दो कारण थे—

  1. जोगियों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव था।
  2. वे अपने सामाजिक दायित्व से दूर भागते थे।

गुरु नानक देव जी अवतारवाद में विश्वास नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने वैष्णव भक्ति को भी रद्द कर दिया। उन्होंने इस्लाम धर्म के नेताओं, जिन्हें मल्ला कहा जाता था, के धार्मिक विश्वासों का खंडन किया। भगवे वस्त्र धारण करना, कानों में कुंडल डालना, शरीर पर लगाना, माथे पर तिलक लगाना, शंख बजाना, कब्रों तथा मस्जिदों आदि की पूजा को गुरु जी धर्म नहीं मानते थे। गुरु नानक देव जी ने उस व्यक्ति के धर्म को सत्य माना जिसका हृदय सत्य है।

प्रश्न 94.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of Maya ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र आदि के चक्रों में फंसा रहता है। इसे ही माया कहते हैं। मनमुख रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ सकता। गुरु नानक देव जी ने माया को सर्पगी माया ममता मोहणी, माया मोह, त्रिकुटी तथा सूहा रंग इत्यादि के नामों से पुकारा है। माया जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। गुरु जी कहते हैं कि मनुष्य सोना-चाँदी आदि एकत्रित करके सोचता है कि वह संसार का बहुत बड़ा व्यक्ति बन गया है परंतु वास्तव में वह व्यक्ति अपने जीवन के लिए विष एकत्रित कर रहा होता है। इसी प्रकार वह दुविधा में फंस कर अपने जीवन का नाश कर लेता है। संक्षेप में माया मनुष्य की खुशियों का स्रोत नहीं अपितु उसके दु:खों का भंडार है। जो व्यक्ति माया का शिकार होता है उसे ईश्वर के दरबार में कोई स्थान नहीं मिलता।

प्रश्न 95.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of ‘Guru’ in Guru Nanak Dev’s teachings ?)
अथवा
गरु नानक देव जी के गुरु संबंधी विचार क्या थे ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of ‘Guru’ ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु का बहुत महत्त्व मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली एक वास्तविक सीढ़ी है। गुरु ही मनुष्य को मोह और अहं के रोग से दूर करता है। वही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग का अनुसरण करने का ढंग बताता है। गुरु के बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु के बिना मनुष्य को चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश की ओर ले जाता है। वह प्रत्येक असंभव कार्य को संभव बना सकता है। अत: उसके साथ मिलने से ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। वह सदा निरवैर रहता है। दोस्त तथा दुश्मन उसके लिए एक हैं। यदि कोई दुश्मन भी उसकी शरण में आ जाए तो वह उसे माफ कर देता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। परमात्मा की दया के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेष उल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानवीय गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है, जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

प्रश्न 96.
गुरु नानक देव जी के स्त्री जाति संबंधी क्या विचार थे? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about women ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों की जूती के समान था तथा उन्हें केवल भोग-विलास की एक वस्तु समझा जाता था तथा उन्हें जानवरों की भाँति खरीदा अथवा बेचा जा सकता था। उनमें अनेक कुरीतियाँ जैसे बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा तथा तलाक
प्रथा इत्यादि प्रचलित थीं। इन्हीं कारणों से लड़की के जन्म को अशुभ माना जाता था। गुरु नानक देव जी ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने समाज में स्त्रियों का सम्मान बढ़ाने हेतु एक जोरदार अभियान चलाया। वह बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा इत्यादि कुरीतियों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का समर्थन किया। इस संबंध में उन्होंने स्त्रियों को संगत एवं पंगत में सम्मिलित होने की आज्ञा दी। गुरु जी का विचार था कि हमें स्त्रियों से जो कि महान् सम्राटों को जन्म देती हैं, के साथ कभी भी बुरा बर्ताव नहीं करना चाहिए। वह स्त्रियों को शिक्षा दिए जाने के पक्ष में थे।

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प्रश्न 97.
गुरु नानक देव जी के संदेश का सामाजिक अर्थ क्या था ? (What was the social meaning and significance of Guru Nanak Dev Ji’s message ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ? (What was the impact of teachings of Guru Nanak Dev Ji on Punjab ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के संदेश के सामाजिक अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनका संदेश प्रत्येक के लिए था। कोई भी स्त्री-पुरुष गुरु जी द्वारा दर्शाए गए मार्ग को अपना सकता था । मुक्ति का मार्ग सबके लिए खुला था। गुरु जी ने सामाजिक समानता का प्रचार किया। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। सामाजिक समानता के संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु जी ने संगत तथा पंगत (लंगर) नामक दो संस्थाएँ चलाईं। लंगर तैयार करते समय जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। गुरु नानक देव जी ने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय की नीति और व्याप्त भ्रष्टाचार की जोरदार शब्दों में निंदा की। शासक वर्ग के साथ-साथ गुरु जी ने अत्याचारी सरकारी कर्मचारियों की भी आलोचना की। इस प्रकार गुरु नानक देव जी ने पंजाब के समाज को एक नया स्वरूप देने का उपाय किया।

प्रश्न 98.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से किस प्रकार भिन्न थीं ? (How far were the teachings of Guru Nanak different from the Bhakti reformers ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से कई पक्षों से भिन्न थीं। गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा निराकार है। वह कभी भी मानवीय रूप को धारण नहीं करता। भक्ति प्रचारकों ने कृष्ण तथा राम को परमात्मा का अवतार माना। गुरु नानक देव जी मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे जबकि भक्ति प्रचारकों का इसमें पूर्ण विश्वास था। गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म का प्रसार करने के लिए गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके गुरुगद्दी को जारी रखा। दूसरी ओर बहुत कम भक्ति प्रचारकों ने गुरुगद्दी की परंपरा को जारी रखा। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उनका अस्तित्व खत्म हो गया। गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन में विश्वास रखते थे। भक्ति प्रचारक गृहस्थ जीवन को मुक्ति की राह में आने वाली एक बड़ी रुकावट मानते थे। गुरु नानक साहिब ने संगत तथा पंगत नामक दो संस्थाएँ स्थापित की। इनमें प्रत्येक स्त्री, पुरुष अथवा बच्चे बिना किसी भेद-भाव के सम्मिलित हो सकते थे। भक्ति प्रचारकों ने ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं की। गुरु नानक देव जी संस्कृत को पवित्र भाषा नहीं मानते थे। उन्होंने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की आम भाषा पंजाबी में किया। अधिकतर भक्ति प्रचारक संस्कृत को पवित्र भाषा समझते थे।

प्रश्न 99.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष कहाँ तथा कैसे व्यतीत किए ? (How and where did Guru Nanak Dev Ji spend last 18 years of his life ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर 1521 ई० में करतारपुर (अर्थात् ईश्वर का नगर) नामक नगर की स्थापना की। इसी स्थान पर गुरु साहिब ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की। संगत’ से अभिप्राय उस सभा से था जो प्रतिदिन गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए होती थी। इस संगत में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को शामिल होने का अधिकार था। इसमें केवल एक परमात्मा के नाम का जाप होता था। ‘पंगत’ से अभिप्राय था-एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकना। लंगर में जाति अथवा धर्म इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। ये दोनों संस्थाएँ गुरु साहिब के उपदेशों का प्रसार करने में सहायक सिद्ध हुईं। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की। गुरु साहिब का यह कार्य सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। गुरु साहिब की प्रमुख वाणियों के नाम जपुजी साहिब, वार माझ, आसा दी वार, सिद्ध गोष्टि, वार मल्हार, बारह माह और पट्टी इत्यादि हैं।

प्रश्न 100.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी की किन्हीं पाँच ऐसी सफलताओं का वर्णन करें जिनके कारण सिख धर्म का विकास हुआ ? (Write any five achievements of Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी के कार्यों का मूल्याँकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Angad Dev Ji for the spread of Sikhism)
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने सिख धर्म के विकास के लिए क्या योगदान दिया ? जानकारी दीजिए।
(What contribution has been given by Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism ? Describe.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० से लेकर 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस समय के दौरान गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए कई महत्त्वपूर्ण पग उठाए। उन्होंने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया। गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया ताकि लोग उसे सरलतापूर्वक समझ सकें। गुरु अंगद साहिब ने गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित किया। गुरु जी ने स्वयं ‘नानक’ के नाम के अंतर्गत वाणी की रचना की। यह गुरु अर्जन देव जी द्वारा संकलित ग्रंथ साहिब की तैयारी का प्रथम चरण सिद्ध हुआ। संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया गया। इन संस्थाओं ने जाति प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। गुरु अंगद देव जी ने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया। उन्होंने सिख पंथ को उदासी मत से पृथक् करके बहुत प्रशंसनीय कार्य किया। सिख पंथ के विकास के लिए गोइंदवाल साहिब नामक एक नए ‘नगर की स्थापना की गई। यहाँ पर एक बाऊली का निर्माण आरंभ किया गया। सिख पंथ के विकास कार्यों को जारी रखने के लिए गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 101.
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ? (What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurmukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरमुखी लिपि यद्यपि गुरु अंगद देव जी से पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे उस समय लंडे-महाजनी लिपि कहा जाता था। इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति भ्रम में पड़ सकता था इसलिए गुरु अंगद देव जी ने इस लिपि में वांछित सुधार करके इसे एक नया रूप प्रदान किया। फलस्वरूप इस लिपि को समझना सामान्य जन के लिए सरल हो गया। यह लिपि सिखों को उनके गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य का स्मरण करवाती थी। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। इस लिपि के प्रचलित होने के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। यह लिपि सिखों को उनके गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य का स्मरण करवाती थी। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि सिखों में विद्या के प्रसार के लिए भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। इनके अतिरिक्त इस लिपि के कारण सिखों का हिंदुओं से अलग अस्तित्व स्थापित किया जा सका। निस्संदेह गुरमुखी लिपि का प्रचार सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 102.
“गुरु अंगद देव जी बहुत अनुशासन प्रिय थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? (Guru Angad Dev Ji was a great disciplinarian.’ Do you agree to it ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। एक बार गुरु जी के दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों जिनके नाम सत्ता और बलवंड थे, अपनी मधुर आवाज़ के कारण बहुत गर्व करने लग पड़े थे। उनका ख्याल था कि उनके मधुर कीर्तन के कारण ही गुरु जी की संगत में वृद्धि होनी आरंभ हुई है। अपने अहंकार में आकर उन्होंने गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी की विनतियों के बावजूद वे अपनी जिद्द पर कायम रहे। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही उन्हें अपनी गलती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन बनाए रखने की मर्यादा को बनाए रखा।

प्रश्न 103.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the importance of Sangat and Pangat.)
अथवा
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Sangat ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें। (Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-

1. संगत-संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के सम्मिलित हो सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था। संगत में जाने वाले व्यक्ति का काया कल्प हो जाता था। उसके सभी पाप धुल जाते थे तथा उसमें ज्ञान का नया प्रकाश हो जाता था। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती थीं। वह भवसागर से पार हो जाता था। इस संस्था ने समाज से सामाजिक असमानता को दूर करने में और सिखों को संगठित करने में बहुत सहायता प्रदान की। निस्संदेह यह संस्था सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई।

पंगत-पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। गुरु अमरदास जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर खाए बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। पहले पंगत और पीछे संगत का नारा दिया गया। मुग़ल सम्राट अकबर और हरिपुर के राजा ने भी गुरु अमरदास जी के दर्शन करने से पूर्व लंगर खाया था। यह देर रात्रि तक चलता रहता था। शेष लंगर पक्षियों और जानवरों को खिला दिया जाता था। लंगर प्रत्येक धर्म और जाति के लोगों के लिए खुला था। सिख धर्म के प्रसार में लंगर संस्था का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। इस संस्था ने समाज में जाति प्रथा और छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने में भी बड़ी सहायता की। इस संस्था के कारण सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ।

प्रश्न 104.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के शीघ्र पश्चात् गुरु अमरदास जी को सर्वप्रथम गुरु अंगद देव जी के दोनों पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उनका कहना था कि गुरु पुत्र होने के कारण वे गुरुगद्दी के वास्तविक अधिकारी हैं। उन्होंने गुरु अमरदास जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया। उनका कथन था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है? बाबा श्रीचंद जी जो कि गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र थे, गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। इसलिए गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए उन्होंने गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया। गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देख कर गोइंदवाल साहिब के मुसलमान सिखों से ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सिखों के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। पर गुरु अमरदास जी ने सिखों को शाँत बने रहने के लिए कहा। उनका कथन था कि संतों के लिए प्रतिशोध लेना ठीक नहीं। व्यक्ति जो बीजेगा उसे वही काटना पड़ेगा। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों के कारण उच्च जाति के हिंदू भी गुरु साहिब का विरोध करने लग पड़े क्योंकि वे इन सुधारों को अपने धर्म में एक हस्तक्षेप मानते थे।

प्रश्न 105.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ। (Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी द्वारा की गई पाँच मुख्य सेवाओं का वर्णन करो।
(Write down the five services done by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के कार्यों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the works of Guru Amar Das Ji for the spread of Sikhism 🙂
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का अध्ययन करें। (Study the contribution of Guru Amar Das Ji to the growth of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अमरदास जी की भूमिका के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the role of Guru Amar Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस समय के दौरान गुरु अमरदास जी ने सिख पंथ के विकास के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए। उन्होंने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में आरंभ की गई बाऊली के निर्माण को पूर्ण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया गया। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री उनसे भेंट करने से पर्व लंगर अवश्य खाए। मंजी प्रथा की स्थापना सिख धर्म के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई। गरु साहिब ने सिख मत को उदासी मल से अलग रखकर सिख धर्म को हिंदू धर्म में लुप्त होने से बचा लिया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जसे… सती प्रथा, पर्दा प्रथा, विधवा विवाह की मनाही, जाति प्रथा और नशीले पदार्थों के सेवन इत्यादि का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु जी ने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में तेयार की। उन्होंने नानक नाम के अंतर्गत वाणी की रचना की। गुरु अमरदास जी ने भाई जेठा जी । गुरु रामदास जी) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 106.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of the construction of the Baoli oi Goindwal Sanih in sviles History ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोडं बाल साहिब में एक बाऊला का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण-कार्य 1552 ई० में आरंभ किया गया था और यह 1559 ई० में संपण हुआ था। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को क म तीर्थ न देना चाहते थे ताकि उन्हें हिंदू धर्म से अलग किया जा सके। दूसरा, वह वहाँ के लंगों की पानी के संबंध में कठिनाई को दूर करना चाहते थे। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। बाऊली का निमा काम पूर्ण होने पर गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली का निर्माण सिख पंथ के विकास के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य प्रमाणित हुआ। इससे सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब सिरमों को हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं थी। इस कारण सिख धर्म अधिक लोकप्रिय होने लगा। गोहंदगन साहिब सिख गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया।

प्रश्न 107.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कोई पाँच सामाजिक सुधारों का वर्णन करें। (Describe any five social reforms of Guru Amar Das Ji.) i
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। उन्होंने समाज में शताब्दियों से चली आ रही सती प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इस प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी लो उस स्त्री को बलपूर्वक उसके पति की चिता के साथ ही जीवित जला दिया जाना था। गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया। इन कुरीतियों के कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई। गुरु साहिब विधवा विवाह के पक्ष में थे। उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा और छुआछूत की बड़े जोरदार शब्दों में निंदा की। इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए गुरु साहिब ने उनके दर्शन के लिए आने वाले सभी यात्रियों के लिए लंगर छकना (भोजन करना) आवश्यक कर दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने परस्पर भ्रातृभाव का प्रचार किया। गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे। उन्होंने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में बनाईं। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने एक नए समाज का सूत्रपात किया।

प्रश्न 108.
मंजी प्रथा क्या थी ? सिख धर्म के विकास में इसने क्या योगदान दिया?
(What was the Manji System ? How did it contribute to the development of Sikhism ?)
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji System ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Manji System.)
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी का एक महान् कार्य था। उनके समय सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए उनका व्यक्तिगत रूप में प्रत्येक सिख के पास पहुँचना संभव नहीं था। इस कारण गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के क्षेत्रों में निवास करने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार का पद केवल बहुत ही श्रद्धालु सिखों को दिया जाता था। उनका पद पैतृक नहीं होता था। मंजीदार का प्रचार क्षेत्र किसी विशेष क्षेत्र तक सीमित नहीं था। वे प्रचार के संबंध में अपनी इच्छानुसार किसी भी क्षेत्र में जा सकते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। वे गुरु साहिब के हुकमों को सिख संगत तक पहुँचाते थे। वे लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे । वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी पर बैठकर धार्मिक उपदेश देते थे इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास एवं संगठन में बहुमूल्य योगदान दिया।

प्रश्न 109.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?) .
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी ने मुख्य भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
(Guru Ram Das Ji played a vital role for the development of Sikhism. Discuss.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। यहाँ पर गुरु साहिब ने अलग-अलग व्यवसायों से संबंधित 52 व्यापारियों को बसाया। यह बाज़ार ‘गुरु का बाज़ार’ के नाम से विख्यात हुआ। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म का प्रचार करने के लिए और सिखों से विकास कार्यों के लिए वांछित धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य चले आ रहे दीर्घकालीन मतभेदों को समाप्त करके एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा और वाणी की रचना की । उन्होंने समाज में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। 1581 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु रामदास जी ने सिख पंथ को बहुमूल्य देन प्रदान की।

प्रश्न 110.
रामदासपुरा ( अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? [What is the importance of the foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-
गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।शीघ्र ही यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र बन गया। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। पहले अमृतसर सरोवर की खुदवाई का कार्य आरंभ किया गया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया जो शीघ्र ही उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया। इसे सिखों का मक्का कहा जाने लगा। इस के अतिरिक्त यह सिखों की एकता एवं स्वतंत्रता का प्रतीक भी बन गया।

प्रश्न 111.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi Sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi System ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद की त्याग वृत्ति से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था जबकि गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सभी सिद्धांत गुरु नानक साहिब के सिद्धांतों से मिलते थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भुलाकर उदासी मत को ही न अपना लें। इसलिए गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी ने ज़ोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता। गुरु रामदास जी के समय में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया। इससे एक नए युग का सूत्रपात हुआ। अब उदासियों ने सिख मत का प्रचार करने में कोई कसर बाकी न रखी। फलस्वरूप सिख मत बहुत तीव्र गति से विकसित होने लगा।

प्रश्न 112.
गुरुगद्दी पर बैठने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? . (What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji after he ascended the Gurgaddi.)
अथवा
गुरु बनने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Write a brief note on the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji immediately after his accession to Gurgaddi.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी को सर्वप्रथम अपने बड़े भाई पृथी चंद के विरोध का सामना करना पड़ा। बड़ा भाई होने के नाते वह गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझता था। उसने यह घोषणा की कि जब तक वह गुरुगद्दी प्राप्त नहीं कर लेता वह कभी भी गुरु अर्जन देव जी को सुख की साँस नहीं लेने देगा। उसने मुग़ल बादशाह को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काने का हर संभव प्रयत्न किया। पंजाब के कट्टर मुसलमान पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को कभी सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने पहले अकबर तथा फिर जहाँगीर के कान भरे। अकबर पर तो इन बातों का कोई प्रभाव न पड़ा पर कट्टर मुसलमान होने के कारण जहाँगीर पर इनका बहुत प्रभाव पड़ा। चंदू शाह लाहौर का दीवान था। उसके दूतों ने उसे अपनी लड़की का रिश्ता गुरु अर्जन देव जी के सुपुत्र हरगोबिंद जी से करने का सुझाव दिया। यह सुनकर चंदू शाह तिलमिला उठा। उसने गुरु जी के संबंध में कई अपमानजनक शब्द कहे। तत्पश्चात् चंदू शाह की पत्नी के विवश करने पर वह रिश्ता करने के लिए सहमत हो गया। परंतु गुरु जी ने अब यह रिश्ता मानने से इंकार कर दिया। इस कारण चंदू शाह गुरु जी का घोर शत्रु बन गया तथा वह गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा।

प्रश्न 113.
गुरु अर्जन देव जी ने सिख पंथ के विकास में क्या योगदान दिया ? (What was Guru Arjan Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अर्जन देव जी के द्वारा दिए गए योगदान के बारे में बताओ।
(Describe the contribution of Guru Arjan Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की तीन महत्त्वपूर्ण सफलताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालें। (Throw a brief light on three important achievements of Guru Arjan Devji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के संगठनात्मक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the organisational works of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में गुरु अर्जन देव जी का योगदान बड़ा महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने अपनी गुरुगद्दी के समय (1581-1606 ई०) सिख पंथ के विकास के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए। अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण करके गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को उनका सबसे पावन तीर्थं स्थान प्रदान किया। गुरु साहिब ने बारी दोआब और जालंधर दोआब में तरन तारन, हरगोबिंदपुर और करतारपुर नामक नए नगरों की स्थापना की। लाहौर में एक बाऊली का निर्माण करवाया। मसंद प्रथा का विकास गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ सिखों से दशांस भी एकत्रित करते थे। 1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के लिए सबसे महान् कार्य माना जाता है। सिख इसे अपना सर्वाधिक पावन धार्मिक ग्रंथ मानते हैं। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को आर्थिक पक्ष से समृद्ध बनाने के लिए अरब देशों के साथ घोड़ों के व्यापार को प्रोत्साहित किया। 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देकर सिख पंथ में नव प्राण फूंके।

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प्रश्न 114.
गुरु अर्जन देव जी द्वारा हरिमंदिर साहिब की स्थापना और इसकी महत्ता के बारे में बताइए।
(Describe briefly the importance of the foundation of Harmandir Sahib by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a brief note on Harmandir Sahib.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब की स्थापना एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the foundation and importance of Harmandir Sahib.)
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब जी की स्थापना गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक थी। इसका निर्माण अमृत सरोवर के मध्य आरंभ किया गया। गुरु अर्जन देव जी ने इसकी नींव 1588 ई० में विख्यात सूफी संत मीयाँ मीर द्वारा रखवाई थी। हरिमंदिर साहिब से अभिप्राय था-ईश्वर का मंदिर। गुरु साहिब ने हरिमंदिर साहिब का भवन इर्द-गिर्द के सभी भवनों से निम्न रखवाया क्योंकि गुरु साहिब का कथन था कि जो निम्न होगा, वही उच्च कहलाने के योग्य होगा। हरिमंदिर साहिब के चारों ओर द्वार बनवाए गए जिससे अभिप्राय था कि इस मंदिर में विश्व की चारों दिशाओं के लोग बिना किसी भेद-भाव के आ सकते हैं। हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य 1601 ई० में संपूर्ण हुआ। गुरु अर्जन देव जी ने यह घोषणा की कि हरिमंदिर साहिब की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। यदि कोई यात्री सच्ची श्रद्धा से अमृत सरोवर में स्नान करेगा तो उसे इस भव सागर से मुक्ति प्राप्त होगी। इसका लोगों के दिलों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचने लगे। शीघ्र ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे विख्यात तीर्थ-स्थान बन गया।

प्रश्न 115.
मसंद व्यवस्था तथा इसके महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand System and its importance.)
अथवा
मसंद प्रथा के विकास तथा संगठन का वर्णन कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand System.)
अथवा
मसंद प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about Masand System ? Explain.)
अथवा
मसंद प्रथा किसने शुरू की ? इसके उद्देश्य क्या थे ?
(Who started Masand System ? What were its aims ?)
अथवा
मसंद प्रथा को किसने शुरू किया था ?
(Who started Masand System ?)
अथवा
मसंद प्रथा के संगठन तथा विकास की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand System.)
अथवा
मसंद प्रथा संबंधी संक्षिप्त ब्योरा दें। (Give a brief description of Masand System.)
उत्तर-
मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से बना है जिससे अभिप्राय है ‘उच्च स्थान’ । इस प्रथा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। परंतु इसका वास्तविक विकास गुरु अर्जन देव जी के समय में हुआ। उस समय तक सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए गुरु अर्जन देव जी को लंगर और सिख पंथ के अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांस (दशम भाग) गुरु साहिब को भेंट करे । इस धन को एकत्रित करने के लिए उन्होंने मसंदों को नियुक्त किया। ये मसंद धन एकत्रित करने के साथ-साथ सिख धर्म का प्रचार भी करते थे। मसंद सिखों से एकत्रित किए धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आ कर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा आरंभ में बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुई। इससे एक तो सिख धर्म का प्रचार दूर-दूर के क्षेत्रों में किया जा सका और दूसरे, गुरु घर की आय भी निश्चित हो गई। बाद में मसंद भ्रष्टाचारी हो गए और उन्होंने गुरु साहिब के लिए कई मुश्किलें उत्पन्न करनी आरंभ कर दीं। फलस्वरूप गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।

प्रश्न 116.
तरन तारन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Write a short note on Tarn Taran and its importance.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने माझा के क्षेत्र में सिख धर्म का प्रचार करने के लिए 1590 ई० में अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर की खुदवाई भी आरंभ करवाई। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म का अपना लिया। इन जाटों ने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की। इन जाटों ने अपने स्वभाव तथा आदतों के कारण सिख धर्म को एक सैनिक धर्म में परिवर्तित किया। इन सैनिकों ने बाद में पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों का अंत किया तथा स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की।

प्रश्न 117.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन और महत्त्व के संबंध में बताएँ। [Write a note on the compilation and importance of Adi Granth (Guru Granth Sahib Ji.)]
अथवा
गुरु अर्जन देव जी ने कौन-से पवित्र ग्रंथ का संपादन किया ?
(Which sacred Granth was edited by Guru Arjan Dev Ji ? Describe.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी पर संक्षेप में नोट लिखें। (Write a note on Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था और सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का कार्य रामसर में आरंभ किया। इसमें गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन देव जी की वाणी सम्मिलित की गई। गुरु अर्जन साहिब जी के सर्वाधिक 2,216 शब्द सम्मिलित किए गए। इनके अतिरिक्त गुरु अर्जन देव ने कुछ अन्य संतों और भक्तों की वाणी को सम्मिलित किया। आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। यह महान कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। बाद में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी इसमें सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन सिख इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इससे सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में भिन्न-भिन्न धर्म और जाति के लोगों की रचनाएँ सम्मिलित करके एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 15वीं तथा 17वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति जानने के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी हमारा मुख्य स्रोत है। इनके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य तथा भाषाओं का एक अमूल्य खजाना है।

प्रश्न 118.
पृथी चंद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Prithi Chand.)
अथवा
पृथी चंद कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Prithi Chand ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
पृथी चंद अथवा पृथिया गुरु रामदास जी का सबसे बड़ा पुत्र और गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बहुत स्वार्थी एवं लोभी स्वभाव का था। इसके कारण गुरु रामदास जी ने उसे गुरुगद्दी सौंपने की अपेक्षा गुरु अर्जन देव जी को सौंपी। पृथी चंद यह जानकर क्रोधित हो उठा। वह तो गुरुगद्दी पर बैठने के लिए काफी समय से स्वप्न देख रहा था। परिणामस्वरूप गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए उसने गुरु अर्जन देव का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया। उसने घोषणा की कि वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक उसे गुरुगद्दी प्राप्त नहीं हो जाती। उसका यह विचार था कि गुरु अर्जन देव जी के पश्चात् गुरुगद्दी उसके पुत्र मेहरबान को अवश्य मिलेगी, परंतु जब गुरु साहिब के घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ तो उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया। इसलिए वह गुरु अर्जन देव जी के प्राणों का शत्रु बन गया। उसने मुग़ल अधिकारियों के साथ मिलकर गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए। उसके ये षड्यंत्र गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक कारण बने।

प्रश्न 119.
चंदू शाह कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Chandu Shah ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
अथवा
चंदू शाह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Chandu Shah.)
उत्तर-
चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंद्र शाह के परामर्शदाताओं ने उसे अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन देव जी के लड़के हरगोबिंद से करने का परामर्श दिया। इससे चंदू तिलमिला उठा। उसने गुरु अर्जन देव जी की शान में बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बाद में चंदू शाह की पत्नी द्वारा विवश करने पर वह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। उसने इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए गुरु अर्जन साहिब को शगुन भेजा, क्योंकि अब तक गुरु साहिब को चंदू शाह द्वारा उनके संबंध में कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल चुका था। इसलिए उन्होंने इस शगुन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। जब चंदू शाह को यह ज्ञात हुआ तो उसने गुरु साहिब से अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेने का निर्णय किया। उसने पहले मुग़ल बादशाह अकबर तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। इसका जहाँगीर पर वांछित प्रभाव पड़ा और उसने गुरु जी के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का निर्णय किया। अत: चंदू शाह का विरोध गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 120.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कोई पाँच मुख्य कारण बताएँ। (Mention five main causes for the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कोई तीन मुख्य कारण बताएं। (Examine three major causes of martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहादत के कारणों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss about the causes of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के क्या कारण थे? (What were the causes of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर की धर्मांधता गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इसलिए वह इस्लाम धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित नहीं देखना चाहता था। पंजाब में सिखों का दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा प्रभाव उसे अच्छा नहीं लग रहा था। इसे समाप्त करने के लिए वह किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। इस संबंध में हमें उसकी आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी से स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है । गुरु अर्जन देव जी द्वारा आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन भी उनके बलिदान का एक कारण बना। गुरु साहिब के विरोधियों ने जहाँगीर के यह कहकर कान भरने आरंभ कर दिए कि इस ग्रंथ में बहुत-सी बातें इस्लाम धर्म के विरुद्ध लिखी गई हैं। जहाँगीर ने गुरु साहिब को आदेश दिया कि वे गुरु ग्रंथ साहिब जी से कुछ शब्दों को निकाल दें परंतु गुरु साहिब ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। लाहौर का दीवान चंदू शाह अपनी लड़की के लिए किसी अच्छे वर की खोज में था। उसके परामर्शदाताओं ने उसे यह परामर्श दिया कि वह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के लड़के हरगोबिंद से कर दे। इस पर चंदू शाह ने गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। इस कारण गुरु साहिब ने यह रिश्ता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप चंदू शाह गुरु साहिब का घोर शत्रु बन गया। गुरु अर्जुन देव जी द्वारा जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो को दी गई सहायता भी उनके बलिदान का कारण बनी। यह कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो को अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह करने में सहायता दी थी।

प्रश्न 121.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of Naqashbandis in the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आरंभ किया गया एक आंदोलन था। इस आंदोलन का मुख्य केंद्र सरहिंद में था। यह आंदोलन पंजाब में सिखों के तीव्रता से बढ़ रहे प्रभाव को देखकर बौखला उठा था। इसका कारण यह था कि यह आंदोलन इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता देख कभी सहन नहीं कर सकता था।शेख अहमद सरहिंदी जो कि उस समय नक्शबंदियों का नेता था बहुत कट्टर विचारों का था। उसका मुग़ल दरबार में काफी प्रभाव था। इसलिए उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन साहिब जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उसका कथन था कि यदि समय रहते सिखों का दमन न किया गया तो इसका इस्लाम पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव के विरुद्ध कार्यवाही करने का निश्चय किया।

प्रश्न 122.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहज़ादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तुरंत कारण बना। शहज़ादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता के विरुद्ध राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। जब शाही सेनाओं ने खुसरो को पकड़ने का यत्न किया तो वह भाग कर पंजाब आ गया। पंजाब पहुँच कर खुसरो गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तरन तारन पहुँचा। अकबर का पौत्र होने के कारण, जिसके सिख गुरुओं के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध थे, यह स्वाभाविक था कि गुरु अर्जन देव जी उससे सहानुभूति रखते। साथ ही गुरुघर में आकर कोई भी व्यक्ति गुरु साहिब को आशीर्वाद देने की याचना कर सकता था। कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया और उसे काबुल जाने के लिए कुछ वांछित सहायता भी प्रदान की। जब जहाँगीर को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसे गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का स्वर्ण अवसर मिल गया। उसने लाहौर के गवर्नर मुर्तज़ा खाँ को आदेश दिया कि गुरु साहिब को गिरफ्तार कर लिया जाए। उन्हें घोर यातनाएँ देकर मौत के घाट उतार दिया जाए तथा उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाए।

प्रश्न 123.
गुरु अर्जन देव जी को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनके बलिदान का मुख्य कारण धार्मिक था। अपने पक्ष में तर्क दें।
(When and where was Guru Arjan Dev Ji martyred ? The main reason of his martyrdom was religious. Give arguments in its favour.)
अथवा
क्या गुरु अर्जन देव जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Was Guru Arjan Dev Ji a political offender ? Briefly explain.)
अथवा
क्या गुरु अर्जन देव जी को राजनीतिक कारणों से शहीद किया गया अथवा धार्मिक कारणों से ? संक्षिप्त जानकारी दें।
(Was Guru Arjan Dev Ji martyred for political or religious causes ? Write briefly.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० में लाहौर में शहीद किया गया था। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए धार्मिक कारण उत्तरदायी थे। गुरु साहिब ने खुसरो की कोई सहायता नहीं की थी। गुरु साहिब द्वारा खुसरो के माथे पर तिलक लगाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता क्योंकि ऐसा करना सिख परंपरा के विपरीत था। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं किया कि गुरु अर्जन साहिब ने शहज़ादा खुसरो की कोई सहायता की थी। गुरु साहिब शहज़ादा खुसरो को उन्हें दंड दिए जाने से लगभग एक माह पूर्व मिले थे। यदि गुरु साहिब ने कोई अपराध किया होता तो उन्हें शीघ्र दंड दिया जाना था। तुज़क-एजहाँगीरी को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँगीर धार्मिक कारणों से गुरु साहिब को शहीद करना चाहता था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह भारत में केवल इस्लाम धर्म को प्रफुल्लित देखना चाहता था। वह गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने गुरु अर्जन देव जी पर शहज़ादा खुसरो की सहायता का आरोप लगाकर उन्हें शहीद कर दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 124.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व लिखें। (Write the importance of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly describe the importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ। इस बलिदान के कारण सिख धर्म का स्वरूप ही बदल गया। इससे शांतिपूर्वक रह रहे सिख भड़क उठे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि अब धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपनाई। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। इस प्रकार गुरु जी ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों एवं मुग़लों में मित्रतापूर्ण संबंधों का अंत हो गया। इसके पश्चात् सिखों और मुग़लों के मध्य एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। यह संघर्ष मग़लों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। दूसरी ओर इसने सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन के अतिरिक्त गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारण सिख धर्म पहले से अधिक लोकप्रिय हो गया। निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिख इतिहास में एक मील पत्थर सिद्ध हुई।

प्रश्न 125.
सिख पंथ के रूपांतरण में गुरु हरगोबिंद साहिब ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Hargobind Sahib in transformation of Sikhism ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब के योगदान के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the contribution of Guru Hargobind Sahib for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। सिख पंथ के रूपांतरण में गुरु हरगोबिंद साहिब का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह बहुत शानो-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने सच्चा पातशाह की उपाधि तथा मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण की : मोरी तलवार सांसारिक सत्ता की और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। गुरु जी ने मुग़ल अत्याचारियों का सामना करने के लिए एक सेना का गठन करने का निर्णय किया। उन्होंने सिखों को घोड़े और शस्त्र भेट करने के लिए कहा। अमृतसर की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों का सांसारिक मामलों में निर्देशन करने के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। गुरु साहिब के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर जहाँगीर ने उन्हें कुछ समय के लिए ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बना लिया था। शाहजहाँ के समय में गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़लों के साथ चार लड़ाइयाँ लड़ीं जिनमें गुरु साहिब को विजय प्राप्त हुई। गुरु जी ने कीरतपुर साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गुरु हरगोबिंद साहिब ने सिख धर्म का खूब प्रचार किया।

प्रश्न 126.
गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी नीति को क्यों धारण किया ?
(What were the main causes of the adoption of New Policy or Miri and Piri by Guru Hargobind Ji ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी ने आगे दिये कारणों से नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी की नीति धारण की—

  1. जहाँगीर से पूर्व मुग़लों तथा सिखों के मध्य संबंध मैत्रीपूर्ण चले आ रहे थे। 1605 ई० में जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक नए युग का आरंभ हुआ। वह बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के बिना किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता नहीं देख सकता था। इस बदली हुई स्थिति ने गुरु साहिब को नई नीति अपनाने के लिए बाध्य कर दिया।
  2. 1606 ई० में जहाँगीर ने सिखों की बढ़ती हुई शक्ति का अंत करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन देव जी को लाहौर में शहीद कर दिया। इस शहीदी का गुरु हरगोबिंद साहिब पर गहरा प्रभाव पड़ा। अतः उन्होंने मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के उद्देश्य से सिखों को हथियारों से लैस करने का निर्णय किया।
  3. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद को यह संदेश भेजा कि वह हथियारों से सुसज्जित होकर गुरुगद्दी पर बैठे तथा अपनी योग्यता के अनुसार सेना भी रखे। अपने पिता के इस अंतिम संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति को अपनाया।
  4. पंजाब के जाट बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित थे। वे अत्याचारी के समक्ष झुकना नहीं जानते थे। उन्होंने गुरु हरगोबिंद साहिब को नई नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया।

प्रश्न 127.
गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई नई नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of Guru Hargobind’s New Policy ?)
अथवा
मीरी एवं पीरी के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी-पीरी के सिद्धांत के बारे में जानकारी दीजिए।
(Discuss the concept of Miri-Piri.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कौन-सी नई नीति अपनाई ? प्रकाश डालें। (Which New Policy was adopted by Guru Hargobind Sahib Ji’? Elucidate ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। ( Mention any five features of New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए नई नीति अपनाने का निर्णय किया। वे बहुत शान-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने सम्राट् की भाँति चमकीले वस्त्र पहनने आरंभ किए और सच्चा पातशाह की उपाधि धारण की। उन्होंने मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। सिख पंथ की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने एक सेना का गठन करने का निर्णय किया। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि सिख उन्हें धन के स्थान पर शस्त्र और घोड़े भेट करें। अमृतसर शहर को पूर्णतः सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से गुरु साहिब ने लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों के राजनीतिक एवं अन्य सांसारिक मामलों के समाधान के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के निकट अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद साहिब ने अपने सिखों को संत सिपाही बना दिया। इस नई नीति के फलस्वरूप सिखों एवं मुगलों के परस्पर संबंध बिगड़ने आरंभ हो गए। यदि गुरु हरगोबिंद साहिब ने नई नीति न अपनाई होती तो सिखों का पावन भ्रातृत्व या तो समाप्त हो गया होता अथवा फिर वे फ़कीरों और संतों की एक श्रेणी बन कर रह जाता।

प्रश्न 128.
मीरी और पीरी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? इसकी ऐतिहासिक महत्ता बताएँ। (What is Miri and Piri ? Describe its historical importance.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Briefly describe the importance of the New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने गुरुगद्दी पर बैठने के समय बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए मीरी एवं पीरी नामक दो तलवारें धारण करने का निर्णय किया। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी जबकि पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। गुरु साहिब द्वारा ये दोनों तलवारें धारण करने से अभिप्राय यह था कि आगे से वे अपने अनुयायियों का धार्मिक नेतृत्व करने के अतिरिक्त सांसारिक मामलों में भी नेतृत्व करेंगे। गुरु हरगोबिंद साहिब ने एक ओर सिखों को सतनाम का जाप करने और दूसरी ओर अपनी रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का आदेश दिया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई इस मीरी और पीरी की नीति का सिख इतिहास पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसके कारण सर्वप्रथम सिखों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ। दूसरा, अब उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का निर्णय किया। तीसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस नीति का अनुसरण करते हुए खालसा पंथ का सृजन किया। चौथा, इस नीति के कारण सिखों और मुग़लों और अफ़गानों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ जिसमें अंतत: सिख विजयी रहे।

प्रश्न 129.
गुरु हरगोबिंद जी के ग्वालियर में बंदी बनाए जाने पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। गुरु जी द्वारा उसकी पुत्री के साथ विवाह करने से पुनः इंकार करने पर उसने जहाँगीर को गुरु साहिब के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने उन्हें बंदी बना लिया। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण बंदी बनाया। इस नीति से उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो गई थीं तथा गुरु साहिब के विरोधियों ने भी जहाँगीर के कान भरे कि गुरु जी विद्रोह करने की तैयारियाँ कर रहे हैं। इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है कि गुरु हरगोबिंद साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

प्रश्न 130.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on relations between Guru Hargobind Sahib and Mughal Emperor Jahangir.)
उत्तर-
1605 ई० में मुग़ल सम्राट जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही मुग़ल-सिख संबंधों में एक नया मोड़ आया। जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। सिंहासन पर बैठने के तुरंत पश्चात् उसने गुरु अर्जन देव जी को शहीद करवा दिया था। इस कारण मुग़ल-सिख संबंधों में तनाव पैदा हो गया। मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के उद्देश्य के साथ गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति धारण की। उन्होंने अपनी योग्यता के अनुसार कुछ सेना भी रखी। जहाँगीर यह सहन करने के लिए तैयार न था। चंद्र शाह ने भी गुरु हरगोबिंद साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए जहाँगीर को भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बना कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। गुरु साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। भाई जेठा जी तथा सूफी संत मीयाँ मीर जी के कहने पर जहाँगीर ने गुरु जी को रिहा करने का आदेश दिया। गुरु जी के कहने पर जहाँगीर ने ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बनाए 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करने का आदेश दिया। इस कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड़ बाबा’ कहा जाने लगा। इसके बाद गुरु हरगोबिंद साहिब तथा जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए।

प्रश्न 131.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों के बीच लड़ाइयों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों (शाहजहाँ) के मध्य लड़ाइयों के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—

  1. मुग़ल सम्राट शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था। सिख इस अपमान को किसी हालत में सहन करने को तैयार नहीं थे।
  2. शाहजहाँ के समय नक्शबंदियों के नेता शेख मासूम ने सम्राट को सिखों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करने के लिए भड़काया।
  3. गुरु जी ने अपनी सेना में बहुत से मुग़ल सेना के भगौड़ों को भर्ती कर लिया था। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कई राजसी चिह्नों को धारण कर लिया था। सिख श्रद्धालु गुरु जी को ‘सच्चा पातशाह’ कहने लगे थे। निस्संदेह शाहजहाँ भला यह कैसे सहन करता।
  4. कौलां लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की बेटी थी। वह गुरु अर्जन साहिब की वाणी से प्रभावित होकर गुरु जी की शरण में चली गई थी। इस काजी द्वारा भड़काने पर शाहजहाँ ने गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया।

प्रश्न 132.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य हुई अमृतसर की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(Give a brief account of the battle of Amritsar fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय में मुग़लों और सिखों के मध्य अमृतसर में 1634 ई० में प्रथम लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई का मुख्य कारण एक बाज़ था। कहा जाता है कि उस समय मुग़ल बादशाह शाहजहाँ अपने कुछ सैनिकों सहित अमृतसर के निकट एक वन में शिकार खेल रहा था। दूसरी ओर गुरु हरगोबिंद साहिब और उनके कुछ सिख भी उसी वन में शिकार खेल रहे थे। शिकार खेलते समय शाहजहाँ का एक विशेष बाज़ जो उसे ईरान के सम्राट ने भेट किया था, उड़ गया। सिखों ने इस को पकड़ लिया। उन्होंने यह बाँज़ मुग़लों को लौटाने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप शाहजहाँ ने सिखों को सबक सिखाने के उद्देश्य से मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7000 सैनिक भेजे। सिख सैनिकों ने मुग़ल सैनिकों का डटकर सामना किया। इस लड़ाई में मुखलिस खाँ मारा गया। इस कारण मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार मुग़लों और सिखों के मध्य हुई इस प्रथम लड़ाई में सिख विजयी रहे। इस विजय के कारण सिखों के हौसले बुलंद हो गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 133.
गुरु हरगोबिंद जी के समय हुई लहिरा की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Lahira fought in the times of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
अमृतसर की लड़ाई के शीघ्र पश्चात् मुग़लों तथा सिखों के मध्य लहिरा (भटिंडा के निकट) नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई का कारण दो घोड़े थे जिनके नाम दिलबाग तथा गुलबाग थे। इन दोनों घोड़ों को, जो कि बहुत बढ़िया नस्ल के थे बखत मल और तारा चंद नामक दो मसंद काबुल से गुरु साहिब को भेट करने के लिए ला रहे थे। मार्ग में ये दोनों घोड़े मुग़लों ने छीन लिए और उन्हें शाही घुड़साल में पहुँचा दिया। यह बात गुरु साहिब का एक सिख भाई बिधी चंद सहन न कर सका। वह भेष बदल कर दोनों घोड़े शाही घुड़साल से निकाल लाया और गुरु साहिब के पास पहुँचा दिया। जब शाहजहाँ को यह सूचना मिली तो वह क्रोधित हो उठा। उसने तुरंत लल्ला बेग तथा कमर बेग के नेतृत्व में एक भारी सेना सिखों के दमन के लिए भेजी। लहिरा नामक स्थान पर मुग़लों तथा सिखों के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़लों की भारी प्राण हानि हुई और उनके दोनों सेनापति लल्ला बेग तथा कमर बेग भी मारे गए। इस लड़ाई में भाई जेठा जी भी शहीद हो गए। इस लड़ाई में सिख विजयी रहे।

प्रश्न 134.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के बीच हुई करतारपुर की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Kartarpur fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
1635 ई० में मुग़लों तथा सिखों के मध्य करतारपुर में तीसरी लड़ाई हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। वह गुरु हरगोबिंद जी की सेना में पठान टुकड़ी का सेनापति था। अमृतसर की लड़ाई में उसने वीरता का प्रमाण दिया, परंतु अब वह बहुत अहंकारी हो गया था। उसने गुरु साहिब का एक बाज़ चोरी करके अपने दामाद को दे दिया। गुरु साहिब के पूछने पर उसने इस बात से इंकार कर दिया कि उसे बाज़ के संबंध में कुछ पता है। तत्पश्चात् जब गुरु जी को पैंदा खाँ के झूठ का पता चला तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। पैंदा खाँ ने इस अपमान का बदला लेने का निर्णय किया। वह मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की शरण में चला गया। उसने शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए खूब भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ ने पैंदा खाँ और काले खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना गुरु हरगोबिंद जी के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में गुरु जी के दो पुत्रों भाई गुरदित्ता जी तथा तेग़ बहादुर जी ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। इस लड़ाई में गुरु साहिब से लड़ते हुए काले खाँ, पैंदा खाँ और उसका पुत्र कुतब खाँ मारे गए। मुग़ल सेना को भारी जन हानि हुई। इस प्रकार गुरु जी को एक और शानदार विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 135.
गुरु हरगोबिंद जी को ‘बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Hargobind Ji known as ‘Bandi Chhor Baba’ ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बना कर भेज दिया था। उस समय इस दुर्ग में 52 राजा राजनीतिक कारणों से बंदी बनाए हुए थे। ये सभी राजा गुरु जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब की मौजूदगी में वे अपने सभी कष्ट भूल गए थे। पर जब जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को रिहा करने का निर्देश दिया तो दुर्ग में बंदी दूसरे राजाओं को बहुत निराशा हुई। क्योंकि गुरु साहिब को इन राजाओं से काफी हमदर्दी हो गई थी इसलिए गुरु साहिब ने जहाँगीर को यह संदेश भेजा कि वह तब तक रिहा नहीं होंगे जब तक उनके साथ बंदी 52 राजाओं को भी रिहा नहीं कर दिया जाता। अंततः मजबूर होकर जहाँगीर ने इन राजाओं की रिहाई का निर्देश जारी कर दिया। इसी कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी छोड़ बाबा’ कहा जाने लगा।

प्रश्न 136.
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें। (Write a note on Akal Takht.)
अथवा
अकाल तख्त साहिब के निर्माण का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of building Sri Akal Takht in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई नई नीति के विकास में अकाल तख्त साहिब का निर्माण बहुत सहायक सिद्ध हुआ।वास्तव में यह गुरु साहिब का एक महान् कार्य था।अकाल तख्त (ईश्वर की गद्दी) साहिब का निर्माण कार्य गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ई० में आरंभ करवाया था। यह कार्य 1609 ई० में संपूर्ण हुआ। इसके भीतर एक 12 फीट ऊँचे चबूतरे का निर्माण किया गया जो एक तख्त के समान था। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के राजनीतिक एवं सांसारिक मामलों का नेतृत्व करते थे। यहाँ वे सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देते थे तथा उनके मल्ल युद्ध तथा अन्य सैनिक कारनामे देखते थे। यहीं पर वे मसंदों से घोड़े और शस्त्र स्वीकार करते थे। सिखों में जोश उत्पन्न करने के लिए यहाँ ढाडी वीर-रस की वारें सुनाते थे। यहाँ पर बैठकर ही गुरु हरगोबिंद जी सिखों के परस्पर झगड़ों का भी निपटारा करते थे। वास्तव में अकाल तख्त सिखों की राजनीतिक गतिविधियों का एक प्रमुख स्थल बन गया।

प्रश्न 137.
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ संबंध कैसे थे ? संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughal Emperor Shah Jahan.)
उत्तर-
जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् 1628 ई० में शाहजहाँ मुग़लों का नया बादशाह बना। उसके शासनकाल में कई कारणों से मुग़ल-सिख संबंधों में तनाव पैदा हो गया। प्रथम, शाहजहाँ बहुत कट्टर सुन्नी बादशाह था। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनाई गई बावली को गंदगी से भरवा दिया था तथा लंगर के लिए बनाए गए भवन को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था। दूसरा, नक्शबंदियों ने सिखों के विरुद्ध शाहजहाँ को भड़काने में कोई प्रयास न छोड़ा। तीसरा, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सेना तैयार किए जाने तथा उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कह कर संबोधन करना एक आँख नहीं भाता था। चौथा, लाहौर के एक काजी की लड़की जिसका नाम कौलां था, गुरु जी की शिष्या बन गई थी। इस कारण उस काजी ने शाहजहाँ को सिखों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने के लिए उत्तेजित किया। 1634-35 ई० के समय के दौरान सिखों तथा मुगलों के मध्य अमृतसर, लहिरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा नामक लड़ाइयाँ हुईं। इन लड़ाइयों में सिख विजयी रहे तथा मुग़लों को पराजय का सामना करना पड़ा। परिणामस्वरूप गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।

प्रश्न 138.
सिख पंथ के विकास में गुरु हर राय जी का समय क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
(Why is pontificate of Guru Har Rai Ji considered important in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हर राय जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Har Rai Ji.)
अथवा
गुरु हर राय जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Guru Har Rai Ji ?)
उत्तर-
गुरु हर राय जी 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनकी गुरुगद्दी का समय सिख इतिहास में शांति का काल कहा जा सकता है। गुरु हर राय साहिब जी सिख धर्म का प्रचार करने के लिए पंजाब के कई स्थानों पर जैसे जालंधर, अमृतसर, करतारपुर, गुरदासपुर, फिरोज़पुर, पटियाला, अंबाला, करनाल और हिसार इत्यादि स्थानों पर गए। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब से बाहर अपने प्रचारक भेजे । अपने प्रचार दौरे के दौरान गुरु साहिब ने अपने एक श्रद्धालु फूल को यह आशीर्वाद दिया कि उसकी संतान शासन करेगी। गुरु साहिब की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। शाहजहाँ का बड़ा पुत्र दारा गुरु घर का बहुत प्रेमी था। 1658 ई० में राज्य सिंहासन की प्राप्ति के लिए उत्तराधिकार युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में दारा की पराजय हुई और वह गुरु हर राय के पास आशीर्वाद लेने के लिए आया। गुरु साहिब ने उसके साहस को बढ़ावा दिया। बादशाह बनने के पश्चात् औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाया। गुरु साहिब ने अपने बड़े पुत्र राम राय को दिल्ली भेजा। गुरुवाणी का गलत अर्थ बताने के कारण गुरु हर राय साहिब ने उसे गुरुगद्दी से बेदखल कर दिया और अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण साहिब को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 139.
गुरु हरकृष्ण जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। उनको बाल गुरु क्यों कहा जाता है ? (Write a brief note on Guru Harkrishan Ji. Why is he called Bal Guru ?)
अथवा
गुरु हरकृष्ण जी पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी गुरु हर राय जी के छोटे पुत्र थे। वह 1661 ई० में गुरुगद्दी पर बैठे। वह सिखों के आठवें गुरु थे। जिस समय वह गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु केवल पाँच वर्ष थी। इस कारण उनको ‘बाल गुरु’ के नाम से स्मरण किया जाता है। गुरु हरकृष्ण जी के बड़े भाई राम राय ने आप जी को गुरुगद्दी दिए जाने का कट्टर विरोध किया, क्योंकि वह अपने आपको गुरुगद्दी का वास्तविक अधिकारी मानता था। जब वह अपनी कुटिल चालों में सफल न हो सका तो उसने औरंगजेब से सहायता माँगी। इस संबंध में औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली आने का आदेश दिया। गुरु साहिब 1664 ई० में दिल्ली गए। वहाँ वह राजा जय सिंह के यहाँ ठहरे। उन दिनों दिल्ली में भयानक चेचक एवं हैजा फैला हुआ था। गुरु जी ने इन बीमारों, गरीबों एवं अनाथों की भरसक सेवा की। वह स्वयं भी चेचक के कारण बीमार पड़ गए। वह 30 मार्च, 1664 ई० को ज्योति-जोत समा गए। ज्योति-जोत समाने से पूर्व आपके मुख . से ‘बाबा बकाला’ नामक शब्द निकले, जिससे भाव था कि सिखों का अगला उत्तराधिकारी बाबा बकाला में है।

प्रश्न 140.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी गुरुगद्दी के समय (1664-75 ई०) के दौरान पंजाब और पंजाब से बाहर के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख धर्म का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने वल्ला, घुक्केवाली, खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन, खेमकरन, कीरतपुर साहिब और बिलासपुर इत्यादि पंजाब के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी पूर्वी भारत की यात्राओं पर निकल पड़े। अपनी इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफाबाद, धमधान, दिल्ली, मथुरा, वृंदावन, आगरा, कानपुर, प्रयाग, बनारस, गया, पटना, ढाका और असम इत्यादि स्थानों पर गए। इन यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी अपने परिवार सहित पंजाब आ गए। यहाँ पर आकर गुरु साहिब ने एक बार फिर पंजाब के विख्यात स्थानों की यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की ये यात्राएँ सिखपंथ के विकास के लिए बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुईं। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग सिख मत में सम्मिलित हुए।

प्रश्न 141.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
उत्तर-
1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हरकृष्ण जी ने सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बाबा बकाला पहुँचा कि गुरु साहिब आगामी गुरु का नाम बताए बिना ज्योति-जोत समा गए हैं तो 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूँढा। वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में घिर कर डूबने लगा तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेट करेगा। गुरु साहिब की कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेट करने के लिए सपरिवार बाबा बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देख कर चकित रह गया। उसने वास्तविक गुरु को ढूंढने की एक योजना बनाई। वह बारी-बारी प्रत्येक गुरु के पास गया तथा उन्हें दो-दो मोहरें भेट करता गया। झूठे गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेट करने का वचन दिया था, परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह बहुत प्रसन्न हुआ और वह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 142.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के बलिदान के कारणों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the reasons for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कोई पाँच कारण लिखें। (Write any five causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
औरंगज़ेब की कट्टरता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बना। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में इस्लाम धर्म को छोड़कर अन्य किसी धर्म के अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवाकर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं। हिंदुओं के त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। उसने सिखों के कई विख्यात गुरुद्वारों को गिरवा देने का आदेश जारी किया। ऐसे समय में नक्शबंदियों ने जो कि कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था, ने भी सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ कर दिया था। नक्शबंदी पंजाब और पंजाब से बाहर सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन नहीं कर सकते थे। राम राय ने गुरुगद्दी को प्राप्त करने के लिए गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। इन षड्यंत्रों का औरंगजेब पर वांछित प्रभाव पड़ा। कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी। उस समय औरंगज़ेब कश्मीर के सभी पंडितों को मुसलमान बनाने पर तुला हुआ था। इंकार करने वालों की हत्या कर दी जाती। कोई मार्ग दिखाई न देता देखकर उन्होंने गुरु तेग़ बहादुर जी से सहायता के लिए निवेदन किया जो गुरु साहिब ने स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 143.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Evaluate the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh . Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति, सिख मत का बढ़ रहा प्रचार और मुसलमानों की गुरु घर के प्रति बढ़ रही प्रवृत्ति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं लोगों में आ रही जागृति और सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती ही न बन जाए। ऐसा होने की दशा में भारत में मुस्लिम समाज की जड़ें हिल सकती थीं। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ किया। उनकी इस कार्यवाही ने जलती पर तेल डालने का कार्य किया। उस समय शेख़ मासूम नक्शबंदियों का नेता था। वह अपने पिता शेख़ अहमद सरहिंदी से भी अधिक कट्टर था। उसका विचार था कि यदि पंजाब में सिखों का शीघ्र दमन नहीं किया गया तो भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डगमगा सकती है। परिणामस्वरूप औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया। निस्संदेह हम कह सकते हैं कि गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

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प्रश्न 144.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmins ?)
उत्तर-
कश्मीर में रहने वाले ब्राह्मणों का सारे भारत के हिंदू बहुत आदर करते थे। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के पास अपनी करण याचना लेकर पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो वह सोच में पड़ गए। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय, जो उस समय 9 वर्ष के थे, ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुन कर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया। गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को बता दें कि यदि वे मुरु तेग़ बहादुर को मुसलमान बना लें तो वे इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। जब औरंगज़ेब को इस बात का पता चला तो उसने गुरु जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनाने का निश्चय किया।

प्रश्न 145.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनका बलिदान राजनीतिक कारणों से हुआ अथवा धार्मिक कारणों से ?
(When and where was Guru Tegh Bahadur Ji martyred ? Did his martyrdom took place due to political or religious causes ? Discuss.)
अथवा
क्या गुरु तेग़ बहादुर जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was Guru Tegh Bahadur Ji a political offender ? Give arguments in support of your answer.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० में दिल्ली में शहीद किया गया था। गुरु साहिब को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का शासन था। वह बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह भारत में इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म का अस्तित्व सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया था और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। हिंदुओं को राज्य की नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें पुनः जजिया कर देने के लिए विवश किया गया। उनके धार्मिक रीतिरिवाजों को मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। औरंगज़ेब सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। नक्शबंदी जो कि कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था, को पंजाब में तीव्रता के साथ सिखों के बढ़ रहे प्रभाव के कारण इस्लाम धर्म के लिए खतरा अनुभव हुआ। इसलिए उसने औरंगजेब को भड़काया। उस समय कश्मीर में औरंगजेब के सूबेदार शेर अफ़गान ने कश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म में सम्मिलित करने के लिए अत्याचारों का एक दौर आरंभ किया हुआ था। प्रतिदिन बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म को स्वीकार न करने वाले पंडितों को मौत के घाट उतारा जाने लगा। इन पंडितों की पुकार पर गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देने का निर्णय किया।

प्रश्न 146.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के कारणों के बारे में जानकारी दें। (Describe the reasons for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले । संसार के इतिहास में गुरु साहिब जी का बलिदान एकमात्र ऐसा बलिदान था जो किसी अन्य धर्म की रक्षा के लिए दिया गया था। इस बलिदान के कारण समूचा पंजाब क्रोध और प्रतिशोध की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब के इस बलिदान ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थापित रहेगा, तब तक उनके अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उन्होंने 1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन किया। तत्पश्चात् सिखों और मुगलों के बीच एक लंबे संघर्ष की शुरुआत हुई। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया था। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों में धर्म के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ हो गई। अंत में महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत सिख पंजाब में एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इसके अतिरिक्त हिंदू धर्म के अस्तित्व को पूर्ण रूप से खत्म होने से बचा लिया गया।

प्रश्न 147.
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? (What difficulties were faced by Guru Gobind Singh Ji when he attained the Gurugaddi ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को आंतरिक तथा बाह्य अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी की आयु केवल 9 वर्ष थी परंतु उनके सामने पहाड़ जैसी चुनौतियाँ थीं। प्रथम, उस समय मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का शासन था। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं था। इसी कारण उसनें गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद कर दिया। औरंगज़ेब के बढ़ते हुए अत्याचारों को नुकेल डालना आवश्यक था। द्वितीय, पहाड़ी राजा अपने निहित स्वार्थों के कारण गुरु गोबिंद सिंह जी के विरुद्ध थे। तीसरा, धीरमलिए तथा रामसइए गुरुगद्दी न मिलने के कारण गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे। चौथा, उस समय मसंद प्रणाली में अनेकों दोष आ गए थे। मसंद अब बहुत भ्रष्ट हो गए थे। वे सिखों को लूटने में प्रसन्नता अनुभव करते थे। पाँचवां, उस समय हिंदू भी सदियों की गुलामी के कारण उत्साहहीन थे। परिणामस्वरूप सिखों को फिर से संगठित करने की आवश्यकता थी।

प्रश्न 148.
भंगाणी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhangani.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के भंगाणी युद्ध का वर्णन करें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Describe Guru Gobind Singh’s battle of Bhangani and also explain its importance.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई गुरु गोबिंद सिंह जी तथा पहाड़ी राजाओं के बीच हुई प्रथम लड़ाई थी। यह लड़ाई 22 सितंबर, 1688 ई० में हुई थी। इस लड़ाई के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, गुरु गोबिंद सिंह जी की चल रही सैनिक तैयारियों को देखकर पहाड़ी राजाओं में घबराहट फैल गई थी। उन्हें अपनी स्वतंत्रता ख़तरे में अनुभव होने लगी। दूसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी के समाज-सुधार के कार्यों को पहाडी राजा अपने धर्म में हस्तक्षेप समझते थे। तीसरा, ये पहाड़ी राजा सिख संगतों को बहुत तंग करते थे। चौथा, मुग़ल सरकार भी इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भड़का रही थी। पाँचवां, कहलूर का राजा भीम चंद गुरु साहिब से बहुत ईर्ष्या करता था। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद तथा श्रीनगर के शासक फ़तह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं के एक गठबंधन ने 22 सितंबर, 1688 ई० में भंगाणी के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सढौरा के पीर बुद्ध शाह ने गुरु साहिब को सहायता दी। सिखों ने पहाड़ी राजाओं का डटकर सामना किया। इस लड़ाई में अंततः सिखों की विजय हुई। इस विजय के कारण सिखों का उत्साह बहुत बढ़ गया तथा गुरु साहिब की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। पहाड़ी राजाओं ने गुरु साहिब का विरोध छोड़कर उनसे मित्रता करने में ही अपनी भलाई समझी।

प्रश्न 149.
नादौन की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Nadaun.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई के पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी पाऊँटा साहिब छोड़कर पुनः आनंदपुर साहिब आ गए। इस समय औरंगज़ेब दक्षिण के युद्धों में उलझा हुआ था। यह स्वर्ण अवसर देखकर पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों को दिया जाने वाला वार्षिक खिराज (कर) देना बंद कर दिया। जब औरंगज़ेब को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने जम्मू के सूबेदार मीयाँ खाँ को इन पहाड़ी राजाओं को पाठ पढ़ाने का आदेश दिया। मीयाँ खाँ ने तुरंत आलिफ खाँ के अंतर्गत मुग़लों की एक भारी सेना इन पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भेजी। ऐसे गंभीर समय में भीम चंद ने गुरु साहिब को सहायता के लिए निवेदन किया। गुरु साहिब ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया और वे स्वयं अपने सिखों को साथ लेकर सहायता के लिए पहुँचे। 20 मई, 1690 ई० को काँगड़ा से लगभग 30 किलोमीटर दूर नादौन में भीम चंद और आलिफ खाँ की सेनाओं में लड़ाई आरंभ हुई। इस लड़ाई में काँगड़ा के राजा कृपाल चंद ने आलिफ खाँ का साथ दिया। इस लड़ाई में गुरु साहिब और उनके सिखों ने अपनी वीरता के ऐसे जौहर दिखाए कि आलिफ खाँ और उसके सैनिकों को रणभूमि से भागने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार गुरु साहिब के सहयोग से भीम चंद और उसके साथी पहाडी राजाओं को विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 150.
खालसा की स्थापना के कारणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Give in brief the causes of the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन क्यों किया ? । (Why did Guru Gobind Singh create the Khalsa ?) .
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के लिए उत्तरदायी मुख्य कारणों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of the circumstances responsible for the creation of Khalsa.)
अथवा
1699 ई० में खालसा की स्थापना के लिए उत्तरदायी कोई पाँच कारण लिखें। (Write any five causes that led to the creation of Khalsa in 1699 A.D.)
उत्तर-
जहाँगीर के समय से मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। औरंगज़ेब तो सारी सीमाएँ ही लांघ गया। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया और उनके रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गैर-मुसलमानों को तलवार के बल पर इस्लाम धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया। 1675 ई० में उसने गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया। पहाड़ी राजा बहुत स्वार्थी और विश्वासघाती थे। गुरु गोबिंद सिंह जी को ऐसे सैनिकों की आवश्यकता पड़ी जो मुग़लों का डटकर सामना कर सकें। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो। वे मसंद प्रथा को समाप्त करने के लिए सिखों को एक नए रूप में संगठित करना चाहते थे। अब तक सिख-धर्म में सम्मिलित होने वाले लोगों में बहुसंख्या जाटों की थी। वे स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे योद्धाओं का सहयोग प्राप्त करना चाहते थे। बचित्तर नाटक में गुरु गोबिंद सिंह जी लिखते हैं कि उनके जीवन का उद्देश्य संसार में धर्म-प्रचार का कार्य करना एवं अत्याचारियों का नाश करना है। अपने इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

प्रश्न 151.
खालसा पंथ की स्थापना कब, कहाँ और कैसे हुई ?
(When, where and how was the Khalsa founded ?)
अथवा
खालसा की स्थापना पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ख़ालसा की स्थापना किस प्रकार की? (How Khalsa was created by Guru Gobind Singh Ji ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में केसगढ़ नामक स्थान पर एक भारी दीवान सजाया। इस दीवान में 80,000 सिखों ने भाग लिया। जब सभी लोग बैठ गए तो गुरु जी मंच पर आए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाली और एकत्रित सिखों को संबोधित किया, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है जो धर्म के लिए अपना शीश भेट करे ?” ये शब्द सुनकर दीवान में सन्नाटा छा गया। जब गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया तो भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए उपस्थित हुआ। गुरु जी उसे पास ही एक तंबू में ले गए जहाँ उन्होंने दया राम को बिठाया और खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आ गए। गुरु जी ने एक और सिख से बलिदान की माँग की। अब भाई धर्मदास जी उपस्थित हुआ। इस क्रम को तीन बार और दोहराया गया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया। गुरु साहिब ने इन पाँच प्यारों को पहले खंडे का पाहुल पिलाया और बाद में स्वयं इन प्यारों से पाहुल पिया। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 152.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन कब किया और इसके मुख्य सिद्धांत क्या हैं ?
(When was the Khalsa created by Guru Gobind Singh Ji and what are its main principles ?)
अथवा
खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन करो। (Explain the main principles of the Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा स्थापित किए गए ‘खालसा पंथ’ के मुख्य सिद्धाँत लिखो। (Write the main principles of the ‘Khalsa Panth’ founded by Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० में बैसाखी के दिन किया। खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांत ये थे—

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए ‘खंडे का पाहुल’ छकना आवश्यक है।
  2. प्रत्येक खालसा अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  3. प्रत्येक खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा नहीं करेगा।
  4. प्रत्येक खालसा पाँच कक्कार–केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण अवश्य धारण करेगा।
  5. प्रत्येक खालसा भोर होते ही जागकर स्नान करने के पश्चात् गुरवाणी का पाठ करेगा।
  6. प्रत्येक खालसा श्रम द्वारा अपनी आजीविका कमाएगा और अपनी आय का दशांस धर्म के लिए दान देगा।
  7. प्रत्येक खालसा शस्त्र धारण करेगा और धर्म युद्ध के लिए सदैव तैयार रहेगा।
  8. प्रत्येक खालसा सिगरेट, नशीले पदार्थों के सेवन, पर-स्त्री गमन इत्यादि बुराइयों से कोसों दूर रहेगा।
  9. प्रत्येक खालसा परस्पर मिलते समय ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह’ कहेगा।

प्रश्न 153.
खालसा पंथ की स्थापना के महत्त्व पर एक नोट लिखो। (Write a note on the importance of the Khalsa.)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the foundation of Khalsa ?)
अथवा
खालसा की स्थापना के महत्त्व का अध्ययन कीजिए। (Study the importance of the creation of Khalsa.)
उत्तर-
खालसा पंथ की स्थापना सिख इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसके दूरगामी परिणाम निकले। खालसा की स्थापना के पश्चात् लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। खालसा की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। इसमें ऊँच-नीच का कोई स्थान नहीं था। समस्त जातियों को समान समझा जाने लगा। इस प्रकार निम्न और पिछड़े वर्गों को एक नया सम्मान प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त इस समाज में अंध-विश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं था। खालसा की स्थापना करके गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में नव प्राण फूंके। अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब उन्होंने शस्त्र उठा लिए। दुर्बल से दुर्बल सिख भी अब स्वयं को शेर की भाँति वीर समझने लगा। उन्होंने वीरता की नई उदाहरणें स्थापित की। अंत में वे पंजाब से मुग़लों तथा अफ़गानों के अत्याचारी शासन का उन्मूलन करके और महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफल हुए।

प्रश्न 154.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the first battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग खालसा पंथ में सम्मिलित होने लगे थे। गुरु जी की दिन-प्रतिदिन बढ़ रही इस शक्ति के कारण पहाड़ी राजाओं के मन की शांति भंग हो गई थी। कहलूर के राजा भीम चंद, जिसकी रियासत में श्री आनंदपुर साहिब स्थित था, ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने यह माँग मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह भूमि उचित मूल्य देकर क्रय की थी। इस पर भीम चंद ने कुछ अन्य पहाड़ी राजाओं से मिल कर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले का घेरा कई दिनों तक जारी रहा। किले के भीतर यद्यपि सिखों की संख्या बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं का खूब डट कर सामना किया। जब पहाड़ी राजाओं को सफलता मिलने की कोई आशा न रही तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली। यह संधि पहाड़ी राजाओं की एक चाल थी तथा वह अवसर देखकर गुरु गोबिंद सिंह जी पर एक ज़ोरदार आक्रमण करना चाहते थे।

प्रश्न 155.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the second battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
पहाड़ी राजा गुरु गोबिंद सिंह जी से अपनी हुई निरंतर पराजयों के अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने मुग़ल सेनाओं से मिलकर मई, 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। इस संयुक्त सेना ने दुर्ग के भीतर जाने के अनेक प्रयास किए, परंतु सिख योद्धाओं ने इन सभी प्रयासों को असफल बना दिया। घेरे के लंबे हो जाने के कारण दुर्ग के भीतर खाद्य-सामग्री कम होनी आरंभ हो गई। इसलिए सिखों के लिए अधिक समय तक लड़ाई को जारी रखना संभव नहीं था। अतः कुछ सिखों ने गुरु साहिब को श्री आनंदपुर साहिब का दुर्ग छोड़ने का निवेदन किया। गुरु साहिब ने सिखों को कुछ दिन और संघर्ष जारी रखने का परामर्श दिया। इस परामर्श को न मानते हुए 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़कर चले गए। दूसरी ओर इतने लंबे समय से घेरे के कारण शाही सेना भी बहुत परेशान थी। इसलिए उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन झूठी कसमों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ अन्य सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने 20 दिसंबर, 1704 ई० को श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

प्रश्न 156.
चमकौर साहिब की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the battle of Chamkaur Sahib.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा श्री आनंदपुर साहिब का दुर्ग छोड़ने के पश्चात् मुग़ल सेनाएँ बहुत तीव्रता से उनका पीछा कर रही थीं। गुरु साहिब ने चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में 40 सिखों सहित शरण ली। 22 दिसंबर, 1704 ई० को हजारों की संख्या में मुग़ल सैनिकों ने इस गढ़ी को घेरे में ले लिया। चमकौर साहिब की यह लड़ाई बहुत घमासान लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह तथा जुझार सिंह ने र ह वीरता प्रदर्शित की कि मुग़लों को दिन में तारे दिखाई देने लगे। उन्होंने असंख्य मुसलमानों को मृत्यु की गोद में सुलाया और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। चमकौर साहिब की उस लड़ाई में जो वीरता सिखों ने दिखाई उसकी कोई अन्य उदाहरण मिलना बहुत कठिन है । पाँच सिखों के अनुरोध पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने चमकौर साहिब की गढ़ी को छोड़ दिया। गढ़ी छोड़ते समय गुरु जी ने मुगल सेना को ललकारा, परंतु वह गुरु साहिब का कुछ न बिगाड़ सकी।

प्रश्न 157.
खिदराना (मुक्तसर ) की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। [Write a brief note on the battle of Khidrana (Mukatsar).]
उत्तर-
खिदराना की लड़ाई गुरु जी तथा मुग़ल सेना में लड़ी जाने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी माछीवाड़ा के जंगलों में अनेक कठिनाइयाँ झेलते हुए खिदराना पहुँचे थे। जब मुग़लों को इस बात का पता चला तो सरहिंद के नवाब वज़ीर खाँ ने खिदराना में गुरु साहिब पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उसने 29 दिसंबर, 1705 ई० को एक विशाल सेना के साथ गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिखों ने बड़ी वीरता दिखाई। उन्होंने मुग़ल सेना के ऐसे छक्के छुड़ाए कि वे युद्ध स्थल छोड़ कर भाग गए। इस प्रकार गुरु जी को अपनी इस अंतिम लड़ाई में बड़ी शानदार विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में वह 40 सिख भी लड़ते-लड़ते शहीद हो गए थे जो आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उनकी कुर्बानी से प्रभावित होकर और उनके नेता महा सिंह, जो जीवन की अंतिम साँसें ले रहा था, की विनती को स्वीकार करके गुरु साहिब ने उनके द्वारा लिखे गए बेदावे को फाड़ दिया और उन्हें मुक्ति का वर दिया। इस कारण खिदराना का नाम श्री मुक्तसर साहिब पड़ गया।

प्रश्न 158.
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the literary activities of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में बताइए। (Describe the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक उपलब्धियों का मूल्यांकन करें। (Evaluate the literary achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
साहित्य के क्षेत्र में गुरु गोबिंद सिंह जी का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह स्वयं उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। उनके द्वारा रचित अधिकाँश साहित्य सिरसा नदी में बह गया था। फिर भी जो साहित्य हम तक पहुँचा है, उससे आपके महान् विद्वान् होने का पर्याप्त प्रमाण मिलता है। गुरु साहिब ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, हिंदी, फ़ारसी, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं का प्रयोग किया। जापु साहिब, बचित्तर नाटक, ज़फ़रनामा, चंडी दी वार आप की महान् रचनाएँ हैं। इनमें आपने विभिन्न विषयों पर भरपूर प्रकाश डाला है। ये रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं। इनसे हमें ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी भी प्राप्त होती है। आपकी ये रचनाएँ इतनी जोश से भरी हैं कि इन्हें पढ़ कर मुर्दा दिलों में भी जान आ जाती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दरबार में 52 उच्चकोटि के कवियों को संरक्षण दिया था। इन में से नंद लाल, सैनापत, गोपाल तथा उदै राय के नाम उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 159.
ज़फ़रनामा क्या है ? (What is Zafarnama ?)
अथवा
ज़फ़रनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Zafarnama.)
उत्तर-
ज़फ़रनामा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए एक पत्र का नाम है। यह पत्र फ़ारसी में लिखा गया था। इसे गुरु जी ने दीना काँगड़ (फरीदकोट) नामक स्थान से लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब का तथा पहाड़ी राजाओं तथा मुग़ल सेनापतियों की ओर से कुरान की झूठी शपथ लेकर भी गुरु जी से धोखा करने का उल्लेख बड़े साहस से किया है। गुरु गोबिंद सिंह जी लिखते हैं—
“ऐ औरंगजेब तू झूठा दीनदार बना घूमता है, तुझ में तनिक भी सत्य नहीं, तुझे खुदा तथा मुहम्मद में कोई विश्वास नहीं। यह भी कोई वीरता नहीं कि हमारे 40 भूखे सिंहों पर तेरी लाखों की सेना आक्रमण करे। तू तथा तेरे सैन्य अधिकारी सभी मक्कार तथा कायर हैं। तुम झूठे तथा धोखेबाज़ हो। निस्संदेह तुम राजाओं के राजा तथा विख्यात सेनापति हो, परंतु तुम सच्चे धर्म से कोसों दूर हो। तुम्हारे मुँह में कुछ और है तो दिल में कुछ और।”
गुरु जी के इस पत्र का औरंगजेब के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने गुरु जी से भेंट का संदेश भेजा, परंतु गुरु जी अभी मार्ग में ही थे कि औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई।

प्रश्न 160.
“गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् संगठनकर्ता थे।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं ? (“Guru Gobind Singh Ji was a builder par-excellence.” Do you agree to this statement ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। उस समय औरंगज़ेब के अधीन मुग़ल सरकार किसी भी लहर, विशेष रूप से सिख लहर को सहन करने के लिए तैयार नहीं थी। उसने गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया था। सिखों में मसंद प्रथा बहुत भ्रष्ट हो गई थी। हिंदू बहुत समय से निरुत्साहित थे। पहाड़ी राजा अपने स्वार्थी हितों के कारण मुग़ल सरकार से मिले हुए थे। ऐसे विरोधी तत्त्वों के बावजूद गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। संचमुच यह एक महान् कार्य था। इसने लोगों में नया जोश उत्पन्न किया। वे महान योद्धा बन गए और धर्म के नाम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गए। उन्होंने तब तक सुख की साँस न ली जब तक पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों के शासन का अंत न कर लिया गया तथा पंजाब में एक स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना न कर ली गई।

प्रश्न 161.
गुरु गोबिंद सिंह जी के व्यक्तित्व की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। (Mention any five characteristics of Guru Gobind Singh Ji’s personality.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी अपने समय के महान् योद्धा तथा सेनानी थे। वह घुड़सवारी, तीरअंदाज़ी तथा शस्त्र चलाने में बहुत कुशल थे। वह प्रत्येक लड़ाई में अपने सैनिकों का नेतृत्व करते थे। वह लड़ाई के मैदान में भारी कठिनाइयों के बावजूद चट्टान की भाँति अडिग रहते थे। अपने सीमित साधनों के बावजूद गुरु साहिब ने पहाडी राजाओं तथा मुग़लों के विरुद्ध शानदार सफलता प्राप्त की। गुरु गोबिंद सिंह जी सिंह की भाँति वीर तथा निडर थे। यद्यपि गुरु जी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने कभी भी अत्याचारियों से समझौता न किया। गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखा गया ज़फ़रनामा (पत्र) उनकी निडरता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् नेता थे। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने मुग़लों के साथ युद्ध किए तथा अपना सर्वस्व न्योछावर किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को एक ईश्वर की पूजा और गुरु वाणी का पाठ करने के लिए प्रेरित किया। गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। जाप साहिब, बचित्तर नाटक तथा ज़फ़रनामा आपकी महान् रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में गुरु साहिब ने पंजाबी, हिंदी, संस्कृत, अरबी तथा फ़ारसी आदि भाषाओं का प्रयोग किया है। निस्संदेह गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक धरोहर अमूल्य है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सिख धर्म में कितने गुरु हुए हैं ?
उत्तर-
सिख धर्म में दस गुरु हुए हैं।

प्रश्न 2.
सिख धर्म के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी थे।

प्रश्न 3.
सिख धर्म का आरंभ किसने और कब किया?
उत्तर-
सिख धर्म का आरंभ गुरु नानक देव जी ने 1469 ई० में किया।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवंडी (पाकिस्तान) में हुआ था।

प्रश्न 5.
‘सतिगुरु नानक प्रगटिआ मिटी धुंध जगि चानणु होआ’ किसकी रचना है ?
उत्तर-
यह रचना भाई गुरदास जी की है।

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी के जन्म स्थान को आजकल क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
ननकाणा साहिब ।।

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
मेहता कालू।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी के पिता जी किस जाति से संबंधित थे ?
उत्तर-
वे बेदी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे।

प्रश्न 9.
मेहता कालू जी कौन थे ?
उत्तर-
मेहता कालू जी गुरु नानक देव जी के पिता थे।

प्रश्न 10.
तृप्ता देवी जी कौन थी ?
उत्तर-
तृप्ता देवी जी गुरु नानक देव जी की माता जी थीं।

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी का नाम नानक क्यों रखा गया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का नाम नानक इसलिए रखा गया क्योंकि उनका जन्म अपने ननिहाल में हुआ था।

प्रश्न 12.
गुरु नानक देव जी की बहन का क्या नाम था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की बहन का नाम नानकी जी था।

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प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी के किन्हीं दो अध्यापकों के नाम बताओ जिनसे उन्होंने बचपन में शिक्षा प्राप्त की थी।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने बचपन में पंडित गोपाल तथा मौलवी कुतुबुद्दीन से शिक्षा प्राप्त की थी।

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर-
बीबी सुलक्खनी जी

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी के दोनों सुपुत्रों के नाम बताएँ।
उत्तर-
श्रीचंद तथा लखमी दास।

प्रश्न 16.
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी क्यों भेजा गया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को नौकरी करने के लिए भेजा गया।

प्रश्न 17.
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी किसके पास भेजा गया था?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी अपनी बहन बीबी नानकी के पास भेजा गया था।

प्रश्न 18.
गुरु नानक देव जी को ज्ञान की प्राप्ति कब और कहाँ हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को ज्ञान की प्राप्ति 1499 ई० में बेईं नदी (सुल्तानपुर) में हुई।

प्रश्न 19.
गुरु नानक देव जी ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम कौन-से शब्द कहे ?
उत्तर-
“न को हिंदू न को मुसलमान”

प्रश्न 20.
गुरु नानक देव जी की उदासियों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की उदासियों से अभिप्राय उनकी यात्राओं से है।

प्रश्न 21.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और नाम का प्रचार करना।

प्रश्न 22.
गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी कब और कहाँ से आरंभ की ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी 1499 ई० में सैदपुर (ऐमनाबाद) से आरंभ की।

प्रश्न 23.
गुरु नानक देव जी ने लगभग कितने वर्ष उदासियों में व्यतीत किए ?
उत्तर-
21 वर्ष।

प्रश्न 24.
कौन-सा व्यक्ति गुरु नानक साहिब के साथ सदैव रहता था?
उत्तर-
भाई मरदाना जी।

प्रश्न 25.
कौन-सा व्यक्ति गुरु नानक देव जी का प्रथम शिष्य बना ?
उत्तर-
भाई लालो जी।।

प्रश्न 26.
गुरु नानक देव जी सैदपुर (ऐमनाबाद) में मलिक भागो का भोजन खाने से क्यों इंकार कर दिया था ?
उत्तर-
उसकी कमाई ईमानदारी की नहीं थी।

प्रश्न 27.
गुरु नानक देव जी सज्जन ठग को कहाँ मिले ?
उत्तर-
तालुंबा में।

प्रश्न 28.
गुरु नानक देव जी ने कुरुक्षेत्र में लोगों को क्या शिक्षा दी ?
उत्तर-
उन्हें बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा अपनी आत्मा को पवित्र रखने की ओर ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 29.
हरिद्वार में गुरु नानक देव जी ने किस प्रकार से लोगों के अंधविश्वासों का खंडन किया ?
उत्तर-
उनके द्वारा दिया जाने वाला पानी दूसरे लोक में नहीं पहुँच सकता।

प्रश्न 30.
गुरु नानक देव जी ने किस स्थान पर सूर्य को पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की ओर पानी दिया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने हरिद्वार में सूर्य को पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की ओर पानी दिया।

प्रश्न 31.
गुरु नानक देव जी ने गोरखमता में जोगियों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर-
मुक्ति बाह्याडंबरों से नहीं बल्कि आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है।

प्रश्न 32.
नूरशाही कौन थी ?
उत्तर-
कामरूप की प्रसिद्ध जादूगरनी।

प्रश्न 33.
बनारस में गुरु नानक देव जी का किस पंडित से वाद-विवाद हुआ ?
उत्तर-
पंडित चतरदास।।

प्रश्न 34.
उड़ीसा के किस मंदिर में गुरु साहिब ने लोगों को आरती का सही अर्थ बताया ?
उत्तर-
जगन्नाथ पुरी के मंदिर में।

प्रश्न 35.
गुरु नानक साहिब ने कैलाश पर्वत के सिद्धों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर-
वह मानवता की सेवा करें।

प्रश्न 36.
गुरु नानक देव जी लंका में कौन-से शासक को मिले थे ?
उत्तर-
शिवनाथ को।

प्रश्न 37.
मक्का में गुरु नानक साहिब के साथ क्या घटना हुई ?
उत्तर-
यहाँ काज़ी रुकुनुद्दीन ने गुरु जी के पाँव पकड़ कर दूसरी ओर किए तो काबा भी उसी ओर घूम गया।

प्रश्न 38.
हसन अब्दाल अब.किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-
पंजा साहिब के नाम से।

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प्रश्न 39.
गुरु नानक देव जी को किस मुग़ल बादशाह ने कब और कहाँ कुछ समय के लिए बंदी बना लिया था ?
उत्तर-
बाबर ने 1520 ई० में सैदपुर (ऐमनाबाद) में।

प्रश्न 40.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर के संबंध में क्या विचार थे ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है।

प्रश्न 41.
गुरु नानक देव जी की कोई एक मुख्य शिक्षा बताएँ।
उत्तर-
ईश्वर एक है और वह सर्वशक्तिमान् है।

प्रश्न 42.
गुरु नानक साहिब के श्रम के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
हमें परिश्रम करके अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिए।

प्रश्न 43.
गुरु नानक देव जी के अनुसार मनुष्य के कितने शत्रु हैं?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 44.
गुरु नानक देव जी की शिक्षा में गुरु का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है।

प्रश्न 45.
गुरु नानक देव जी के अनुसार नाम जपने का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है।

प्रश्न 46.
मनमुख व्यक्ति की कोई एक विशेषता बताएँ।
उत्तर-
मनमुख व्यक्ति इंद्रिय-जन्य भूख से घिरा रहता है।

प्रश्न 47.
आत्म-समर्पण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आत्म-समर्पण से अभिप्राय अहं का त्याग है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

प्रश्न 48.
नदरि से क्या भाव है ?
उत्तर-
नदरि से अभिप्राय ईश्वर की दया से है।

प्रश्न 49.
आदेश से क्या भाव है ?
उत्तर-
आदेश से अभिप्राय ईश्वर की इच्छा से है।

प्रश्न 50.
‘किरत’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किरत से अभिप्राय मेहनत तथा ईमानदारी के श्रम से है।

प्रश्न 51.
‘अंजन माहि निरंजन’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
‘अंजन माहि निरंजन’ से अभिप्राय संसार की बुराइयों में रहते हुए सत्य जीवन व्यतीत करने से है।

प्रश्न 52.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के सारांश का तीन शब्दों में उल्लेख करें।
उत्तर-
श्रम करो, नाम जपो तथा बाँट कर खाओ।

प्रश्न 53.
कीर्तन की प्रथा किस गुरु ने आरंभ की ?
उत्तर-
कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की।

प्रश्न 54.
गुरु नानक देव जी एक समाज सुधारक थे। अपने पक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-
उन्होंने स्त्रियों में प्रचलित कुप्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया।

प्रश्न 55.
गुरु नानक देव जी ने कब और किस नगर की स्थापना की ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने 1521 ई० में करतारपुर की स्थापना की।

प्रश्न 56.
रावी किनारे किस गुरु ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
रावी किनारे गुरु नानक देव जी ने करतारपुर नामक नगर बसाया।

प्रश्न 57.
करतारपुर से क्या भाव है ?
उत्तर-
परमात्मा का शहर।

प्रश्न 58.
करतारपुर में गुरु नानक साहिब ने कौन-सी दो संस्थाएँ स्थापित की ?
उत्तर-
‘संगत और पंगत’।

प्रश्न 59.
संगत एवं पंगत की स्थापना कौन-से गुरु ने कहाँ की ?
अथवा
संगत की स्थापना किसने की थी ?
अथवा
पंगत की स्थापना किसने की थी?
उत्तर-
संगत एवं पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में की थी।

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प्रश्न 60.
संगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संगत से अभिप्राय उस समूह से है जो एकत्रित होकर गुरु जी के उपदेश सुनते हैं।

प्रश्न 61.
पंगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पंगत से अभिप्राय पंक्तियों में बैठकर लंगर खाने से है।

प्रश्न 62.
लंगर प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 63.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन का अंतिम समय कहाँ व्यतीत किया ?
उत्तर-
करतारपुर (पाकिस्तान) में।

प्रश्न 64.
गुरु नानक देव जी की किसी दो मुख्य वाणियों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. जपुजी साहिब
  2. बारह माह।

प्रश्न 65.
बाबर वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की ?
उत्तर-
बाबर वाणी की रचना गुरु नानक साहिब ने की थी।

प्रश्न 66.
गुरु नानक देव जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
उत्तर-
1539 ई० में।

प्रश्न 67.
गुरु नानक देव जी ने किसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी को।

प्रश्न 68.
भाई लहणा जी को अंगद का नाम किसने दिया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 69.
गुरु नानक देव जी द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
इससे सिख धर्म में गुरुगद्दी की परंपरा चल पड़ी।

प्रश्न 70.
सिख धर्म के दूसरे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
सिखों के दूसरे गुरु, गुरु अंगद साहिब जी थे।

प्रश्न 71.
गुरु अंगद देव जी ने कब-से-कब तक गुरुगद्दी का संचालन किया ?
उत्तर-
1539 ई० से लेकर 1552 ई०

प्रश्न 72.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कब और कहाँ हआ ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब का जन्म 1504 ई० में मत्ते दी सराय (मुक्तसर) नामक गाँव में हुआ।

प्रश्न 73.
गुरु अंगद देव जी के माता का नाम बताएँ।
उत्तर-
सभराई देवी जी।

प्रश्न 74.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
फेरुमल जी।

प्रश्न 75.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई लहणा जी।

प्रश्न 76.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का प्रसिद्ध केंद्र कौन-सा था ?
उत्तर-
खडूर साहिब।

प्रश्न 77.
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का सुधार किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का खडूर साहिब में सुधार किया

प्रश्न 78.
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का और कहाँ सुधार किया ?
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का संशोधन किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का खडूर साहिब में सुधार किया।

प्रश्न 79.
दूसरे गुरु ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
दूसरे गुरु ने गोइंदवाल पहिब का नगर बसाया।

प्रश्न 80.
गोइंदवाल साहिब की नींव किसने तथा कब रखी ?
अथवा
गोइंदवाल साहिब की स्थापना किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी ने गोइंदवाल साहिब की नींव 1546 ई० में रखी थी।

प्रश्न 81.
गुरु अंगद साहिब जी ने किन दो संस्थाओं का विकास किया ?
उत्तर-
संगत और पंगत।

प्रश्न 82.
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण योगदान बताएँ।
उत्तर-
उन्होंने गुरुमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया।

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प्रश्न 83.
गुरु अंगद साहिब जी के समय में खडूर साहिब में लंगर का प्रबंध कौन करता था ?
उत्तर–
बीबी खीवी जी।

प्रश्न 84.
लंगर संस्था की मुखी किस गुरु की पत्नी व कौन थी ?
उत्तर-
लंगर संस्था की मुखी गुरु अंगद देव जी की सुपत्नी बीबी खीवी जी थी।

प्रश्न 85.
लंगर संस्था का सिखों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
लंगर संस्था के कारण हिंदुओं की जाति प्रथा को गहरा आघात पहुँचा।

प्रश्न 86.
उदासी मत का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
बाबा श्रीचंद जी।

प्रश्न 87.
उदासी मत से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उदासी मत में संन्यासी जीवन पर बल दिया जाता था।

प्रश्न 88.
गुरु अंगद साहिब के काल के कौन-से मुख्य रागी थे जिन्होंने संगत का अनुशासन भंग किया ?
अथवा
सिख धर्म में अनुशासन लाने के लिए गुरु अंगद देव जी ने कौन-से दो गायकों को सज़ा दी ?
उत्तर-
सत्ता तथा बलवंड।

प्रश्न 89.
कौन-सा मुग़ल बादशाह गुरु अंगद देव जी से मिलने आया था ?
उत्तर-
हुमायूँ।

प्रश्न 90.
गुरु अंगद साहिब जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी को।

प्रश्न 91.
सिखों के तीसरे गरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 92.
गुरु अमरदास जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
1552 ई० से 1574 ई० तक।

प्रश्न 93.
गुरु अमरदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1479 ई० में।

प्रश्न 94.
गुरु अमरदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
तेज भान भल्ला।

प्रश्न 95.
गुरु अमरदास जी जिस समय गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु क्या थी ?
उत्तर-
73 वर्ष।

प्रश्न 96.
गुरु अमरदास जी के पुत्रों के नाम बताएँ।
अथवा
मोहन और मोहरी कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के पुत्रों का नाम बाबा मोहन तथा बाबा मोहरी थे।

प्रश्न 97.
गुरु अमरदास जी की पुत्रियों के नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी की पुत्रियों के नाम बीबी भानी तथा बीबी दानी थे।

प्रश्न 98.
बीबी भानी कौन थी ?
उत्तर–
बीबी भानी गुरु अमरदास जी की सपत्री थी।।

प्रश्न 99.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 100.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली के निर्माण का उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
सिखों को एक नया तीर्थ स्थल देना।

प्रश्न 101.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी सीढ़ियाँ बनाई गई थीं ?
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब में 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं।

प्रश्न 102.
सिख धर्म के प्रसार के लिए गुरु अमरदास जी द्वारा किया गया कोई एक कार्य बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया।

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प्रश्न 103.
मंजी प्रथा की स्थापना किस गुरु साहिब ने तथा क्यों आरंभ की थी ?
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए की थी।

प्रश्न 104.
मंजी संस्था किस गुरु ने प्रारंभ की तथा कुल मंजियाँ कितनी थीं ?
उत्तर-
मंजी संस्था गुरु अमरदास जी ने प्रारंभ की तथा कुल 22 मंजियाँ थीं।

प्रश्न 105.
मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
मंजी प्रथा ने सिख धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 106.
गुरु अमरदास जी की सर्वाधिक प्रसिद्ध वाणी कौन-सी है ?
उत्तर-
अनंदु साहिब।

प्रश्न 107.
अमंदु साहिब वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की ?
अथवा
अनंदु साहिब किस की रचना है ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 108.
गुरु अमरदास जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने के पक्ष में प्रचार किया।

प्रश्न 109.
स्त्री जाति के सुधार के लिए गुरु अमरदास जी ने कौन-सा एक कार्य किया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का खंडन किया।

प्रश्न 110.
गुरु अमरदास जी से भेंट करने कौन-सा मुग़ल बादशाह गोइंदवाल साहिब आया था ?
उत्तर-
अकबर।

प्रश्न 111.
किस मुग़ल बादशाह ने गोइंदवाल साहिब पंगत में बैठकर लंगर छका ?
उत्तर-
मुग़ल बादशाह अकबर ने गोइंदवाल साहिब में पंगत में बैठकर लंगर छका।

प्रश्न 112.
गुरुगद्दी को वंशानुगत किस गुरु ने बनाया था ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 113.
गुरु अमरदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी को।

प्रश्न 114.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
1574 ई० में।

प्रश्न 115.
सिखों के चौथे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 116.
गुरु रामदास जी का गुरुकाल कौन-सा था ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था।

प्रश्न 117.
गुरु रामदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1534 ई० में ।

प्रश्न 118.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई जेठा जी।

प्रश्न 119.
गुरु रामदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
हरीदास सोढी।

प्रश्न 120.
गुरु रामदास जी की पत्नी का नाम लिखें।
उत्तर-
बीबी भानी जी।

प्रश्न 121.
पृथी चंद कौन था ?
उत्तर-
पृथी चंद गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था।

प्रश्न 122.
गुरु रामदास जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
उत्तर-
1574 ई० में।

प्रश्न 123.
गुरु रामदास जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता का उल्लेख करें।
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने रामदासपुरा शहर की स्थापना की।

प्रश्न 124.
चौथे गुरु रामदास जी ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
रामदासपुरा।

प्रश्न 125.
रामदासपुरा की स्थापना का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
रामदासपुरा की स्थापना से सिखों को उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 126.
अमृतसर नगर की नींव कब और किस गुरु ने रखी थी?
अथवा
अमृतसर की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
अमृतसर नगर की नींव 1577 ई० में गुरु रामदास जी ने रखी थी।

प्रश्न 127.
सिखों और उदासियों के बीच समझौता किस गुरु के समय में हुआ ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी के समय।

प्रश्न 128.
गुरु रामदास जी तथा उदासियों के मध्य समझौता सिख पंथ के लिए किस प्रकार लाभदायक सिद्ध हुआ?
उत्तर-
इस समझौते के कारण सिखों तथा उदासियों के मध्य चली आ रही शत्रुता समाप्त हो गई।

प्रश्न 129.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
अथवा
सिख धर्म में मसंद प्रथा किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

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प्रश्न 130.
मसंद प्रथा का एक उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
सिख धर्म का प्रचार करना।

प्रश्न 131.
कौन-सा मुगल बादशाह गुरु रामदास जी के पास आया था ?
उत्तर-
अकबर।

प्रश्न 132.
विवाह के समय लावाँ प्रथा का आरंभ किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 133.
गुरु रामदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे बनाया ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को।

प्रश्न 134.
सिखों के पाँचवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 135.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कब हुआ?
उत्तर-
15 अप्रैल, 1563 ई में।

प्रश्न 136.
गुरु अर्जन देव जी के माता-पिता का नाम बताओ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की माता जी का नाम बीबी भानी तथा पिता जी का नाम गुरु रामदास जी था।

प्रश्न 137.
गुरु अर्जन देव जी कब से लेकर कब तक गुरुगद्दी पर बने रहे ?
उत्तर-
1581 ई० से लेकर 1606 ई० तक।

प्रश्न 138.
पृथिया कौन था ?
उत्तर-
पृथिया गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरु अर्जन देव जी का ज्येष्ठ भाई था।

प्रश्न 139.
पृथी चंद ने किस संप्रदाय की नींव रखी ?
उत्तर-
मीणा संप्रदाय की।

प्रश्न 140.
पृथिया ने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ?
उत्तर-
क्योंकि पृथिया स्वंय को गुरुगदी का वास्तविक अधिकारी मानता था ।

प्रश्न 141.
मेहरबान किसका पुत्र था ?
उत्तर-
मेहरबान पृथी चंद का पुत्र था।

प्रश्न 142.
गुरु अर्जन देव जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता बताएँ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर में हरिमंदिर साहिब की स्थापना की।

प्रश्न 143.
हरिमंदिर साहिब से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब से अभिप्राय है हरि (परमात्मा) का मंदिर (घर)।

प्रश्न 144.
हरिमंदिर साहिब का निर्माण किस गुरु ने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने।

प्रश्न 145.
हरिमंदिर साहिब की आधारशिला किसने और कब रखी ?
उत्तर-
सूफ़ी संत मीयाँ मीर ने 1588 ई० में।

प्रश्न 146.
श्री दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-
बाबा बुड्डा जी।

प्रश्न 147.
हरिमंदिर साहिब की चारों दिशाओं में चार द्वार क्यों बनाए गए हैं ?
अथवा
हरिमंदिर साहिब के चार दरवाजे किस उपदेश का संकेत करते हैं ?
उत्तर-
यह मंदिर चार जातियों और चार दिशाओं से आने वाले लोगों के लिए खुला है।

प्रश्न 148.
करतारपुर शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
करतारपुर शब्द से अभिप्राय है ईश्वर का नगर।

प्रश्न 149.
‘तरन तारन’ का भावार्थ क्या है ?
उत्तर-
तरन तारन का अर्थ यह है कि इस सरोवर में स्नान करने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाएगा।

प्रश्न 150.
तरन तारन नगर का निर्माण किसने किया ?
उत्तर-
तरन तारन नगर का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने किया ।

प्रश्न 151.
मसंद प्रथा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधियों को मसंद कहते थे।

प्रश्न 152.
मसंद प्रथा के आरंभ किए जाने का एक मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
सिख धर्म का प्रसार करने के लिए।

प्रश्न 153.
मसंद प्रथा का महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
इससे सिख धर्म लोकप्रिय हुआ।

प्रश्न 154.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
उत्तर-
सिखों के नेतृत्व के लिए एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी।

प्रश्न 155.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में रामसर में किया गया था।

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प्रश्न 156.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और किसने किया था, ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब तथा किस गुरु ने किया ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन साहिब जी ने किया था।

प्रश्न 157.
आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने के लिए गुरु अर्जन देव जी ने किसकी सहायता ली ?
उत्तर-
भाई गुरदास जी की।

प्रश्न 158.
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब में।

प्रश्न 159.
हरिमंदिर साहिब जी में आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कब किया गया था ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का हरिमंदिर साहिब में प्रथम प्रकाश 16 अगस्त, 1604 ई० को किया गया था।

प्रश्न 160.
हरिमंदिर साहिब के पहले मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-
बाबा बुड्डा जी।

प्रश्न 161.
आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शब्द किसके हैं ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के।

प्रश्न 162.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों की वाणी शामिल की गई है ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 भक्तों की वाणी शामिल की गई है।

प्रश्न 163.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भट्टों की बाणी संकलित है ?
उत्तर-
11 भट्टों की।

प्रश्न 164.
उन दो भक्तों के नाम लिखो जिनकी वाणी को गुरु ग्रंथ साहिब जी में शामिल किया गया।
उत्तर-

  1. कबीर जी,
  2. फरीद जी।

प्रश्न 165.
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी है।

प्रश्न 166.
बाबा बुड्डा जी कौन थे ?
उत्तर-
वह दरबार साहिब अमृतसर के प्रथम मुख्य ग्रंथी थे।

प्रश्न 167.
सिखों के केंद्रीय धार्मिक गुरुद्वारे का नाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों के केंद्रीय धार्मिक गुरुद्वारे का नाम श्री हरिमंदिर साहिब (अमृतसर) है।

प्रश्न 168.
चंदू शाह कौन था ?
उत्तर-
चंदू शाह लाहौर का दीवान था।

प्रश्न 169.
शेख अहमद सरहिंदी कौन था ?
उत्तर-
शेख अहमद सरहिंदी नक्शबंदी संप्रदाय का नेता था। वह बहुत कट्टर विचारों का था।

प्रश्न 170.
खुसरो कौन था ?
उत्तर-
खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 171.
शहीदी प्राप्त करने वाले सिखों के प्रथम गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 172.
गुरु अर्जन देव जी की शहादत किस मुगल बादशाह के समय में हुई ?
उत्तर-
जहाँगीर के समय।

प्रश्न 173.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
जहाँगीर की धार्मिक कट्टरता।

प्रश्न 174.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी कब हुई ?
उत्तर-
30 मई, 1606 ई० को।

प्रश्न 175.
गुरु अर्जन देव जी को कब तथा कहाँ शहीद किया गया था ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० को लाहौर में शहीद किया गया था।

प्रश्न 176.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का एक प्रभाव बताओ।
उत्तर-
इस शहीदी के कारण सिखों की भावनाएँ भड़क उठीं।

प्रश्न 177.
सिखों के छठे गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी।

प्रश्न 178.
छठे गुरु जी ने कौन-सी नई रीति रचाई ?
उत्तर-
उन्होंने मीरी तथा पीरी नाम की नई नीति अपनाई।

प्रश्न 179.
गुरु हरगोबिंद जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
उनका गुरुकाल 1606 ई० से 1645 ई० तक था।

प्रश्न 180.
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 1595 ई० में अमृतसर जिले में वडाली गाँव में हुआ।

प्रश्न 181.
गुरु हरगोबिंद जी के पिता का नाम क्या था ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

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प्रश्न 182.
बीबी वीरो कौन थी ?
उत्तर-
वह गुरु हरगोबिंद जी की सुपुत्री थी।

प्रश्न 183.
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति अपनाने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी।

प्रश्न 184.
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति की कोई एक विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
मीरी और पीरी की तलवारें धारण करना।

प्रश्न 185.
‘मीरी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘मीरी’ तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी। प

प्रश्न 186.
‘पीरी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘पीरी’ तलवार आध्यात्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी।

प्रश्न 187.
अकाल तख्त साहिब का निर्माण किस गुरु साहिब ने तथा कहाँ किया था ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने अमृतसर में दरबार साहिब के सामने।

प्रश्न 188.
अकाल तख्त साहिब से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
अकाल तख्त साहिब से अभिप्राय है-ईश्वर की गद्दी।

प्रश्न 189.
अकाल तख्त साहिब पर बैठ कर गुरु हरगोबिंद साहिब कौन-सा मुख्य कार्य करते थे?
उत्तर-
वह राजनीतिक तथा सांसारिक मामलों पर विचार करते थे।

प्रश्न 190.
छठे गुरु हरगोबिंद साहिब को किस बादशाह ने कहाँ कैद किया ?
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने ग्वालियर के दुर्ग में।

प्रश्न 191.
मुग़ल सम्राट् जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में क्यों नज़रबंद किया था? कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
जहाँगीर एक कट्टर सुन्नी बादशाह था।

प्रश्न 192.
गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता था?
अथवा
बंदी छोड़ बाबा किसको और क्यों कहा जाता है ?
अथवा
सिखों के किस गुरु को ‘बंदी छोड़’ कहा जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि अपनी रिहाई के समय उन्होंने वहाँ 52 अन्य बंदी राजाओं को रिहा करवाया था।

प्रश्न 193.
कौलां कौन थी?
उत्तर-
कौलां लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की लड़की तथा गुरु हरगोबिंद साहिब की अनुयायी थी।

प्रश्न 194.
शाहजहाँ तथा सिखों में संबंध बिगड़ने का कोई एक कारण बताएँ।
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य लड़ाइयों का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
शाहजहाँ का धार्मिक कट्टरपन।

प्रश्न 195.
गुरु हरगोबिंद साहिब एवं मुग़लों के मध्य प्रथम लड़ाई कब तथा कहाँ हुई ?
उत्तर-
1634 ई० में अमृतसर में।

प्रश्न 196.
अमृतसर की लड़ाई में विजय किसकी हुई ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी की।

प्रश्न 197.
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने किस नए नगर की स्थापना की?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कीरतपुर साहिब नामक नए नगर की स्थापना की।

प्रश्न 198.
‘कीरतपुर’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
‘कीरतपुर’ शब्द का अर्थ है-जहाँ ईश्वर की कीर्ति होती हो।

प्रश्न 199.
गुरु हरगोबिंद साहिब कब तथा कहाँ ज्योति-जोत समाए थे?
उत्तर-
1645 ई० में कीरतपुर साहिब में।

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प्रश्न 200.
गुरु हरगोबिंद जी का उत्तराधिकारी कौन था?
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब ने किसको अपना उत्तराधिकारी बनाया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के उत्तराधिकारी का नाम गुरु हर राय जी था।

प्रश्न 201.
गुरु हर राय जी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी का जन्म 30 जनवरी, 1630 ई० को कीरतपुर साहिब में हुआ।

प्रश्न 202.
सिखों के सातवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
सिखों के सातवें गुरु, गुरु हर राय जी थे।

प्रश्न 203.
सातवें गुरु हर राय जी का गुरुकाल लिखें।
उत्तर-
वह गुरुगद्दी पर 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक आसीन रहे।

प्रश्न 204.
गुरु हर राय जी कब ज्योति-जोत समाये ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी 1661 ई० में ज्योति-जोत समाये।

प्रश्न 205.
गुरु हर राय जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
हरकृष्ण जी को।

प्रश्न 206.
सिखों के आठवें गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी थे।

प्रश्न 207.
गुरु हरकृष्ण जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?
उत्तर-
उनका जन्म 7 जुलाई, 1656 ई० को कीरतपुर साहिब में।

प्रश्न 208.
सिखों के बाल गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण साहिब जी थे।

प्रश्न 209.
गुरु हरकृष्ण जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
1661 ई० से 1664 ई० तक।

प्रश्न 210.
गुरु हरकष्ण जी कब और कहाँ ज्योति-जोत समा गए थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी 1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाए थे।

प्रश्न 211.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर साहिब का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ था।

प्रश्न 212.
गुरु तेग बहादुर साहिब के माता-पिता का नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की माता जी का नाम नानकी तथा पिता जी का नाम गुरु हरगोबिंद साहिब था।

प्रश्न 213.
गुरु तेग बहादुर जी का बचपन का क्या नाम था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी का प्रथम नाम क्या था ?
उत्तर-
त्याग मल।

प्रश्न 214.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम क्या था ?
उत्तर-
गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास।

प्रश्न 215.
“गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” नामक शब्द किसने तथा किसके बारे में कहे थे ?
उत्तर-
ये शब्द मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी के संबंध में कहे थे।

प्रश्न 216.
गुरु तेग़ बहादुर जी का गुरुगद्दी पर बने रहने का समय बताएँ।
उत्तर-
1664 ई० से 1675 ई० तक।

प्रश्न 217.
धीर मल कौन था?
उत्तर-
धीर मल बाबा गुरदित्ता जी का बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 218.
रामराय कौन था ?
उत्तर-
रामराय गुरु हर राय जी का बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 219.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य क्या था?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य सिख धर्म का प्रचार करना और लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करना था।

प्रश्न 220.
पंजाब से बाहर किन्हीं दो स्थानों के नाम बताएँ जहाँ गुरु तेग़ बहादुर जी ने यात्राएँ कीं।
उत्तर-
दिल्ली तथा आसाम।

प्रश्न 221.
पंजाब के किन्हीं दो प्रसिद्ध स्थानों के नाम बताएँ जिनकी यात्रा गुरु तेग़ बहादुर जी ने की थी।
उत्तर-
अमृतसर तथा गोइंदवाल साहिब।

प्रश्न 222.
श्री आनंदपुर साहिब का पहला (प्रारंभिक) नाम क्या था?
उत्तर-
श्री आनंदपुर साहिब का पहला नाम माखोवाल अथवा चक नानकी था।

प्रश्न 223.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का कोई एक मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
औरंगज़ेब सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।

प्रश्न 224.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब की शहीदी का मुख्य कारण क्या था?
उत्तर-
कश्मीरी पंडितों की पुकार।

प्रश्न 225.
गुरु तेग़ बहादुर जी के समय में कश्मीर का गवर्नर कौन था?
उत्तर-
शेर अफ़गान।

प्रश्न 226.
नवम् गुरु. तेग़ बहादुर जी की शहादत के समय किस बादशाह की हुकूमत थी ?
उत्तर-
नवम् गुरु तेग़ बहादुर जी की शहादत के समय मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की हुकूमत थी।

प्रश्न 227.
गुरु तेग बहादुर जी को कौन-से मुग़ल बादशाह ने कब शहीद करवाया था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी कब, कहाँ तथा किस मुग़ल बादशाह के समय में हुई ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद करवाया था।

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प्रश्न 228.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी कब और कहाँ हुई ?
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० में दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद किया गया था।

प्रश्न 229.
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु साहिब के बलिदान के पश्चात् सिखों और मुग़लों में संघर्ष का एक लंबा अध्याय आरंभ हुआ।

प्रश्न 230.
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द किस गुरु के लिए प्रयोग किए जाते हैं ?
उत्तर-
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द गुरु तेग़ बहादुर जी के लिए प्रयोग किए जाते हैं।

प्रश्न 231.
सिखों के दशम तथा अंतिम गुरु कौन थे?
उत्तर-
सिखों के दशम और अंतिम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी थे।

प्रश्न 232.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश 26 दिसंबर, 1666 ई० को पटना में हुआ था।

प्रश्न 233.
गुरु गोबिंद सिंह जी के माता-पिता का नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम माता गुजरी जी था और पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर जी था।

प्रश्न 234.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम क्या था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम गोबिंद दास अथवा गोबिंद राय था।

प्रश्न 235.
गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन कहाँ व्यतीत हुआ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन पटना साहिब में व्यतीत हुआ।

प्रश्न 236.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब से लेकर कब तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी 1675 ई० से लेकर 1708 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे।

प्रश्न 237.
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादों (सुपुत्रों) के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. साहिबज़ादा अजीत सिंह,
  2. साहिबजादा जुझार सिंह,
  3. साहिबज़ादा जोरावर सिंह तथा
  4. साहिबजादा फ़तह सिंह थे।

प्रश्न 238.
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में कहलूर (बिलासपुर) का शासक कौन था?
उत्तर-
भीम चंद।

प्रश्न 239.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा बनाए गए नगारे का क्या नाम था ?
उत्तर-
रणजीत नगारा।

प्रश्न 240.
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं में कब और कहाँ प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी?
अथवा
भंगाणी की लड़ाई कब तथा किनके मध्य लड़ी गई?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं में प्रथम लड़ाई 1688 ई० में भंगाणी में हुई थी।

प्रश्न 241.
नादौन की लड़ाई कब और किसके मध्य हुई थी?
उत्तर-
नादौन की लड़ाई 1690 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी तथा मुग़लों के मध्य हुई थी।

प्रश्न 242.
श्री आनंदपुर साहिब का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
माखोवाल।

प्रश्न 243.
श्री आनंदपुर साहिब का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
यहाँ गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की थी।

प्रश्न 244.
किस गुरु साहिब ने तथा कब मसंद प्रथा का अंत कर दिया था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने मसंद प्रथा का अंत 1699 ई० में खालसा पंथ के सृजन के समय किया था।

प्रश्न 245.
खालसा सजना किस गुरु साहिब ने कहाँ और कब की ?
उत्तर-
खालसा सृजना गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में 1699 ई० में की।

प्रश्न 246.
खालसा पंथ का सृजन कब और किस गुरु ने किया था ?
उत्तर-
खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने किया था।

प्रश्न 247.
खालसा पंथ का सृजन कब और कहाँ हुआ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन कब और कहाँ किया था ?
उत्तर-
खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० को आनंदपुर साहिब में किया गया था।

प्रश्न 248.
खालसा की स्थापना का कोई एक मुख्य कारण लिखें।
उत्तर-
मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के लिए।

प्रश्न 249.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की सजना के समय कितने प्यारे सजाए थे ?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 250.
पाँच प्यारों की साजना कौन-से गुरु ने कब और कहाँ की ?
उत्तर-
पाँच प्यारों की साजना गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में की।

प्रश्न 251.
खालसा का कोई एक सिद्धांत बताएँ।
उत्तर-
प्रत्येक खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा नहीं करेगा।

प्रश्न 252.
खालसा सदस्य एक-दूसरे से मिलते समय कैसे संबोधित करते थे.?
उत्तर-
‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह।

प्रश्न 253.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने प्रत्येक खालसा को कितने कक्कार धारण करने के लिए कहा ?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 254.
प्रत्येक सिख के लिए कौन से पाँच कक्कार धारण करने अनिवार्य हैं ?
उत्तर-
केश, कड़ा, कंघा, कच्छहरा एवं कृपाण।

प्रश्न 255.
खालसा की स्थापना का महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
इसकी स्थापना से सिखों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ।

प्रश्न 256.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
1701 ई० में।

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प्रश्न 257.
सरहिंद के उस फ़ौजदार का नाम बताएँ जिसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को जीवित ही दीवार में चिनवाने का आदेश दिया।
उत्तर-
वज़ीर खाँ।

प्रश्न 258.
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय सरहिंद का फ़ौजदार कौन था ?
उत्तर-
वज़ीर खाँ।

प्रश्न 259.
चमकौर साहिब की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
चमकौर साहिब की लड़ाई 22 दिसंबर, 1704 ई० को हुई।

प्रश्न 260.
गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादे किस लड़ाई में शहीद हुए थे ?
उत्तर-
चमकौर साहिब की लड़ाई में।

प्रश्न 261.
दशम गुरु जी के चारों साहिबजादे कहाँ-कहाँ शहीद हुए ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादे कहां-कहां शहीद हुए ?
उत्तर-
दशम गुरु जी के दो बड़े साहिबज़ादे चमकौर साहिब में और दो छोटे साहिबज़ादे सरहिंद में शहीद हुए।

प्रश्न 262.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब को कौन-सी चिट्ठी लिखी थी ?
उत्तर-
ज़फ़रनामा (विजय पत्र)।

प्रश्न 263.
ज़फ़रनामा की रचना किसने और किस स्थान पर की ?
उत्तर-
ज़फ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना काँगड़ के स्थान पर की।

प्रश्न 264.
भाई दया सिंह कौन थे ?
उत्तर-
भाई दया सिंह जी ने गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखी ज़फ़रनामा नामक चिट्ठी औरंगजेब को पहुँचाई थी।

प्रश्न 265.
गुरु गोबिंद सिंह जी और मुगलों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
खिदराना की।

प्रश्न 266.
‘चाली मुक्ते’ कौन-सी लड़ाई से संबंध रखते हैं ?
उत्तर-
खिदराना की।

प्रश्न 267.
भाई महां सिंह ने कहाँ तथा कब शहीदी प्राप्त की ?
उत्तर-
भाई महां सिंह ने खिदराना के स्थान पर दिसंबर, 1705 ई० में शहीदी प्राप्त की।

प्रश्न 268.
खिदराना की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
1705 ई० में।

प्रश्न 269.
तलवंडी साबो को ‘गुरु की काशी’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि यहाँ गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने बहुत से साहित्य की रचना की।

प्रश्न 270.
बचित्तर नाटक तथा जफ़रनामा की रचना किसने की ?
उत्तर-
बचित्तर नाटक तथा ज़फ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने की।

प्रश्न 271.
गुरु गोबिंद सिंह जी की अधूरी स्वैजीवनी उनकी किस रचना में मिलती है ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की स्वैजीवनी उनकी रचना बचित्तर नाटक में मिलती है।

प्रश्न 272.
आदि ग्रंथ साहिब जी को कब, कहाँ तथा किस गुरु ने गुरु ग्रंथ साहिब का दर्जा दिया ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह ने गुरुतागही किसको और कब दी ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी को 6 अक्तूबर, 1708 ई० में नदेड़ के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब का दर्जा दिया।

प्रश्न 273.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब तथा कहाँ ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ के स्थान पर 7 अक्तूबर, 1708 ई० को ज्योति-जोत समाए।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. ……………. में गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ।
उत्तर-1469 ई०

प्रश्न 2. गुरु नानक देव जी के पिता जी का नाम ……………. था। ‘
उत्तर-मेहता कालू

प्रश्न 3. गुरु नानक देव जी की माता जी का नाम ………………. था।
उत्तर-तृप्ता देवी

प्रश्न 4. गुरु नानक देव जी की बहन का नाम ……………….. था।
उत्तर-नानकी

प्रश्न 5. गुरु नानक देव जी ने सच्चा सौदा ……………. रुपयों से किया।
उत्तर-20

प्रश्न 6. गुरु नानक देव जी ने ……………… के मोदीखाने में नौकरी की।
उत्तर-सुल्तानपुर लोधी

प्रश्न 7. गुरु नानक देव जी के ज्ञान-प्राप्ति के समय उनकी आयु ………… थी।
उत्तर-30 वर्ष

प्रश्न 8. गुरु नानक देव जी ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम …………….. शब्द कहे।
उत्तर-न को हिंदू, न को मुसलमान

प्रश्न 9. गुरु नानक देव जी की उदासियों से भाव है
उत्तर-यात्राएँ

प्रश्न 10. गुरु नानक देव जी की उदासियों का मुख्य उद्देश्य ……………. था।
उत्तर-लोगों की अज्ञानता को दूर करना

प्रश्न 11. गुरु नानक देव जी की यात्राओं के समय ……….. सदैव उनके साथ रहता था।
उत्तर- भाई मरदाना

प्रश्न 12. गुरु नानक देव जी की सज्जन ठग के साथ मुलाकात …………….. में हुई।
उत्तर-तालुंबा

प्रश्न 13. गुरु नानक देव जी ने ……… और …….. नामक दो संस्थाओं की स्थापना की।
उत्तर-संगत, पंगत

प्रश्न 14. गुरु नानक देव जी ……………….. में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-1539 ई०

प्रश्न 15. गुरु नानक देव जी ने ……………. को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
उत्तर- भाई लहणा जी

प्रश्न 16. सिखों के दूसरे गुरु …………….. थे।
उत्तर-गुरु अंगद देव जी

प्रश्न 17.गुरु अगद देव जी का आराभक नाम ……………… था।
उत्तर-भाई लहणा जी

प्रश्न 18. गुरु अंगद देव जी …………….. में गुरुगद्दी पर बैठे थे।
उत्तर-1539 ई०

प्रश्न 19. गुरु अंगद देव जी ने ……………. लिपि को लोकप्रिय बनाया।
उत्तर-गुरमुखी

प्रश्न 20. ………. उदासी मत के संस्थापक थे।
उत्तर-बाबा श्रीचंद जी

प्रश्न 21. सिखों के तीसरे गुरु ………………. थे।
उत्तर-गुरु अमरदास जी

प्रश्न 22. गुरु अमरदास जी ……………….. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1552 ई०

प्रश्न 23. गुरु अमरदास जी ने ……………. में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-गोइंदवाल साहिब

प्रश्न 24. मंजी प्रथा की स्थापना ………………… ने की थी।
उत्तर-गुरु अमरदास जी

प्रश्न 25. ……………… सिखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-गुरु रामदास जी

प्रश्न 26. गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-भाई जेठा जी

प्रश्न 27. गुरु रामदास जी …………………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1574 ई०

प्रश्न 28. गुरु रामदास जी ने ………………. में रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-1577 ई०

प्रश्न 29. ……………… ने मसंद प्रथा की स्थापना की।
उत्तर-गुरु रामदास जी

प्रश्न 30. गुरु अर्जन देव जी सिखों के …………….. गुरु थे।
उत्तर-पाँचवें

प्रश्न 31. गुरु अर्जन देव जी ………………. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1581 ई०

प्रश्न 32. पृथी चंद ने ……………… संप्रदाय की स्थापना की।
उत्तर-मीणा

प्रश्न 33. चंदू शाह …………….. का दीवान था।
उत्तर-लाहौर

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प्रश्न 34. हरिमंदिर साहिब का निर्माण …………… ने करवाया।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 35. हरिमंदिर साहिब की नींव पत्थर ……………….. ने रखा।
उत्तर-मीयाँ मीर

प्रश्न 36. ……………. ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किया।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 37. आदि ग्रंथ साहिब जी के लेखन का महान् कार्य ………….. में संपूर्ण हुआ।
उत्तर-1604 ई०

प्रश्न 38. हरिमंदिर साहिब में पहला मुख्य ग्रंथी ……………… को नियुक्त किया गया।
उत्तर–बाबा बुड्डा जी

प्रश्न 39. गुरु अर्जन देव जी को …………….. में शहीद किया गया।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 40. गुरु हरगोबिंद साहिब का. जन्म ……………. में हुआ।
उत्तर-1595 ई०

प्रश्न 41. गुरु हरगोबिंद साहिब जी के पिता जी का नाम ………….. था।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 42. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ……………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 43. ………….. ने मीरी और पीरी नीति को अपनाया।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 44. अकाल तख्त साहिब का निर्माण …………… ने करवाया था।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 45. ……….. में अकाल तख्त साहिब का निर्माण आरंभ किया गया था।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 46. ……………..को बंदी छोड़ बाबा कहा जाता है।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 47. अमृतसर की लड़ाई …………… में हुई।
उत्तर-1634 ई०

प्रश्न 48. लहरा की लड़ाई का मुख्य कारण ………..और ……… नामक दो घोड़े थे।
उत्तर-दिलबाग, गुलबाग

प्रश्न 49. गुरु हरगोबिंद साहिब ने ……………. नामक नगर की स्थापना की।
उत्तर-कीरतपुर साहिब

प्रश्न 50. गुरु हरगोबिंद साहिब ने …………… को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
उत्तर-गुरु हर सय जी

प्रश्न 51. ………………. सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-गुरु हर राय जी

प्रश्न 52. गुरु हर राय जी का जन्म …………… में हुआ।
उत्तर-1630 ई०

प्रश्न 53. गुरु हर राय जी ……………. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1645 ई०

प्रश्न 54. ………………….. सिखों के आठवें गुरु थे।
उत्तर-गुरु हरकृष्ण जी

प्रश्न 55. गुरु हरकृष्ण जी ……………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1661 ई०

प्रश्न 56. …………… को बाल गुरु के नाम से याद किया जाता है।
उत्तर-गुरु हरकृष्ण जी

प्रश्न 57. …………………. सिखों के नवम् गुरु थे।
उत्तर-गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 58. गुरु तेग बहादुर जी का जन्म ……………. में हुआ था।
उत्तर-अमृतसर

प्रश्न 59. गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम ……………. था।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 60. गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का नाम ……………..था।
उत्तर-नानकी

प्रश्न 61. गुरु तेग बहादुर जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-त्याग मल

प्रश्न 62. गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम …………. था।
उत्तर-गोबिंद राय

प्रश्न 63. गुरु तेग बहादुर जी की.खोज ……………. ने की थी।
उत्तर-मक्खन शाह लुबाणा

प्रश्न 64. गुरु तेग़ बहादुर जी ………….. में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-1664 ई०

प्रश्न 65. गुरु तेग़ बहादुर जी को…….. के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-औरंगजेब

प्रश्न 66. गुरु तेग़ बहादुर जी को ……..में शहीद किया गया।
उत्तर-11 नवंबर, 1675 ई०

प्रश्न 67. गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के……..गुरु थे।
उत्तर-दशम

प्रश्न 68. गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म……..को हुआ।
उत्तर-26 दिसंबर, 1666 ई०

प्रश्न 69. गुरु गोबिंद सिंह का जन्म……..में हुआ।
उत्तर-पटना साहिब

प्रश्न 70. गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का नाम……..था।
उत्तर-गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 71. गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम…….. था।
उत्तर-गुजरी

प्रश्न 72. गुरु गोबिंद सिंह जी……….में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-1675 ई०

प्रश्न 73. गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं के मध्य पहली लड़ाई……में हुई।
उत्तर-भंगाणी

प्रश्न 74. भंगाणी की लड़ाई………में हुई।
उत्तर-1688 ई०

प्रश्न 75. नादौन की लड़ाई……में हुई।
उत्तर-1690 ई०

प्रश्न 76. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन……….को किया।
उत्तर-30 मार्च, 1699 ई०

प्रश्न 77. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन……..में किया।
उत्तर-श्री आनंदपुर साहिब

प्रश्न 78. गुरु गोबिंद सिंह जी के पहले प्यारे ……..थे।
उत्तर-भाई दया राम जी

प्रश्न 79. ………में श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई हुई।
उत्तर-1701 ई०

प्रश्न 80. …….. में श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई हुई।
उत्तर-1704 ई०

प्रश्न 81. गुरु गोबिंद सिंह जी और मुग़लों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई …….की लड़ाई थी।
उत्तर-खिदराना

प्रश्न 82. गुरु गोबिंद सिंह जी………में ज्योति ज्योत समा गए।
उत्तर-1708 ई०

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1. गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. गुरु नानक देव जी के जन्म स्थान को आजकल पंजा साहिब कहा जाता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. गुरु नानक देव जी के पिता जी का नाम मेहता कालू था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. गुरु नानक देव जी की माता जी का नाम सभराई देवी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. गुरु नानक देव जी की बहन का नाम नानकी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. गुरु नानक देव जी बेदी जाति के साथ संबंधित थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. गुरु नानक देव जी ने 40 रुपयों से सच्चा सौदा किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी सैदपुर से आरंभ की।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. गुरु नानक देव जी ने संगत और पंगत नामक दो संस्थाओं की स्थापना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. गुरु नानक देव जी एक परमात्मा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. गुरु नानक देव जी जाति प्रथा और मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 12. गुरु नानक देव जी स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने के पक्ष में थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. गुरु नानक देव जी 1539 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. गुरु अंगद देव जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम भाई लहणा जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 17. उदासी मत की स्थापना बाबा श्रीचंद जी ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. गुरु अंगद देव जी की मुग़ल बादशाह अकबर के साथ भेंट हुई थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 19. गुरु अमरदास जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 20. गुरु अमरदास जी 1552 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 21. गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल गहिब में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 22. गुरु रामदास जी ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 23. गुरु रामदास जी सिंखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 24. गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम भाई जेठा जी था। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 25. गुरु रामदास जी ने 1578 ई० को रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 26. गुरु अमरदास जी ने मसंद प्रथा को आरंभ किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 27. गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 28. मीणा संप्रदाय की स्थापना पृथी चंद ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 29. चंदू शाह मुलतान का दीवान था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 30. हरिमंदिर साहिब का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने करवाया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 31. हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य 1688 ई० में आरंभ किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 32. हरिमंदिर साहिब की नींव सूफी संत मीयाँ मीर ने रखी थी।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 33. मसंद प्रथा के विकास में गुरु अर्जन देव जी ने सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 34. बाबा बुड्डा जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को लिखने का कार्य किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 35. गुरु अर्जन देव जी को 1606 ई० में शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 36. गुरु अर्जन देव जी को औरंगजेब के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 37. गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 38. गुरु हरगोबिंद साहिब का जन्म 1595 ई० में हुआ था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 39. गुरु हरगोबिंद साहिब जी के पिता जी का नाम गुरु अर्जन देव जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 40. गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1606 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 41. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने मीरी और पीरी नीति का प्रचलन किया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 42. गुरु अर्जन देव जी ने अकाल तख्त साहिब के निर्माण का कार्य किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 43. गुरु हरगोबिंद साहिब जी को बंदी छोड़ बाबा कहा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 44. सिखों और मुग़लों के मध्य पहली लड़ाई अमृतसर में हुई।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 45. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कीरतपुर साहिब नामक एक नगर की स्थापना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 46. गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1635 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 47. गुरु हर राय जी सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 48. गुरु हर राय जी का जन्म 1630 ई० में हुआ था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 49. गुरु हर राय जी के पिता जी का नाम बाबा बुड्डा जी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 50. गुरु हर राय जी की माता जी का नाम बीबी निहाल कौर था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 51. गुरु हर राय जी 1661 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 52. गुरु हरकृष्ण जी सिखों के आठवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 53. गुरु हरकृष्ण जी को बाल गुरु के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 54. गुरु हरकृष्ण जी 1664 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 55. गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 56. गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म अमृतसर में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 57. गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1621 ई० में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 58. गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम गुरु हरकृष्ण जी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 59. गुरु तेग बहादुर जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 60. गुरु तेग़ बहादुर जी का आरंभिक नाम त्याग मल था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 61. गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 62. मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी की खोज की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 63. गुरु तेग बहादुर जी 1664 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 64. गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1666 ई० में किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 65. गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्राओं के दौरान सर्वप्रथम अमृतसर पहुँचे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 66. औरंगजेब ने 1664 ई० में हिंदुओं पर पुनः जज़िया कर लगाया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 67. गुरु तेग़ बहादुर जी के समय शेर अफ़गान कश्मीर का गवर्नर था। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 68. औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली में शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 69. गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० को शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 70. गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 71. गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर, 1666 ई० को हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 72. गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 73. गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 74. गुरु गोबिंद सिंह जी का आरंभिक नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 75. भंगाणी की लड़ाई 1688 ई० में लड़ी गई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 76. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सृजना 1699 ई० में की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 77. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सजना के समय पाँच प्यारों का चुनाव किया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 78. श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई 1701 ई० में हुई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 79. श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1706 ई० में हुई थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 80. चमकौर साहिब की लड़ाई 1704 ई० में हुई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 81. गुरु गोबिंद सिंह जी ने ज़फ़रनामा को फ़ारसी भाषा में लिखा था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 82. खिदराना की लड़ाई 1705 ई० में लड़ी गई।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 83. गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्म-कथा का नाम बचित्तर नाटक है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 84. गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ में ज्योति-ज्योत समाए थे।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
सिख धर्म के संस्थापक कौन थे ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1459 ई० में
(ii) 1469 ई० में
(iii) 1479 ई० में
(iv) 1489 ई० में।
उत्तर-(ii)

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) मेहता कालू
(ii) जैराम
(iii) श्री चंद
(iv) फेरुमलं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन गुरु नानक देव जी की बहन थी ?
(i) नानकी जी
(ii) भानी जी
(iii) दानी जी
(iv) खीवी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी ने सच्चा सौदा कितने रुपयों के साथ किया था ?
(i) 10
(ii) 20
(iii) 30
(iv) 50
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का उद्देश्य क्या था ?
(i) लोगों में फैले अंधविश्वास को दूर करना
(ii) नाम का प्रचार करना
(iii) आपसी भाईचारे का प्रचार करना
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी कहाँ से आरंभ की ?
(i) गोरखमता
(ii) हरिद्वार
(iii) सैदपुर
(iv) कुरुक्षेत्र।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी की मुलाकात सजन ठग से कहाँ हुई थी ?
(i) तालुंबा में
(ii) सैदपुर में।
(iii) दिल्ली में
(iv) धुबरी में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
मक्का में कौन-से काजी ने गुरु नानक साहिब को काबे की तरफ पाँव करके सोने से रोका था ?
(i) बहाउदीन
(ii) कुतुबुदीन
(iii) रुकनुदीन
(iv) शमसुदीन।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में कब निवास किया ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1520 ई० में
(iii) 1521 ई० में
(iv) 1522 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा का क्या स्वरूप है ? ।
(i) वह सर्वशक्तिमान है
(ii) वह सदैव रहने वाला है
(iii) वह निर्गुण और सगुण है
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 12.
कीर्तन की प्रथा किस गुरु ने आरंभ की ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
(i) भाई जेठा जी को
(ii) भाई दुर्गा जी को
(iii) भाई लहणा जी को
(iv) श्री चंद जी को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1529 ई० में
(iii) 1539 ई० में,
(iv) 1549 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 15.
सिखों के दूसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अंगद देव जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 16.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई जेठा जी
(ii) भाई लंहणा जी
(iii) भाई गुरदित्ता जी
(iv) भाई दासू जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 17.
गुरु अंगद देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1529 ई० में
(ii) 1538 ई० में
(iii) 1539 ई० में
(iii) 1552 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) गोइंदवाल साहिब
(ii) अमृतसर
(iii) खडूर साहिब
(iv) सुल्तानपुर लोधी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 19.
किस गुरु साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 20.
उदासी मत का संस्थापक कौन था
(i) बाबा श्री चंद जी
(ii) बाबा लख्मी दास जी
(iii) बाबा मोहन जी
(iv) बाबा मोहरी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 21.
सिखों के तीसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 22.
गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1539 ई० में
(ii) 1550 ई० में
(iii) 1551 ई० में
(iv) 1552 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 23.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने ।
(iii) गुरु रामदास जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 24.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी पौड़ियाँ बनाई गई थीं ?
(i) 62
(ii) 72
(iii) 73
(iv) 84
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 25.
किस गुरु साहिबान ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु रामदास जी ने ।
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 26.
गुरु अमरदास जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) अमृतसर
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) लाहौर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 27.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1552 ई० में
(ii) 1564 ई० में
(iii) 1568 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 28.
सिखों के चौथे गुरु,कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 29.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई बाला जी
(ii) भाई जेठा जी
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई मेरदाना जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 30.
गुरु रामदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1534 ई० में
(ii) 1552 ई० में
(iii) 1554 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 31.
रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना किस गुरु साहिबान ने की थी ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु रामदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु हरगोबिंद जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 32.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
(i) गुरु रामदास जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु अमरदास जी ने
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 33.
किस गुरु साहिबान के समय उदासियों और सिखों के बीच समझौता हुआ था ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु रामदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 34.
सिखों के पाँचवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 35.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1539 ई० में
(ii) 1560 ई० में
(iii) 1563 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 36.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कहाँ हुआ था ?
(i) अमृतसर
(ii) खडूर साहिब
(iii) गोइंदवाल साहिब
(iv) तरन तारन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 37.
पृथिया ने किस संप्रदाय की स्थापना की थी ?
(i) मीणा
(ii) उदासी
(iii) हरजस
(iv) निरंजनिया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 38.
गुरु अर्जन देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1580 ई० में
(ii) 1581 ई० में
(iii) 1585 ई० में
(iv) 1586 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 39.
चंदू शाह कौन था ?
(i) लाहौर का दीवान
(ii) जालंधर का फ़ौजदार
(iii) पंजाब का सूबेदार
(iv) मुलतान का दीवान।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 40.
गुरु अर्जन देव जी ने हरिमंदिर साहिब की नींव कब रखी थी ?
(i) 1581 ई० में
(ii) 1585 ई० में
(iii) 1587 ई० में
(iv) 1588 ई० में।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 41.
हरिमंदिर साहिब की नींव किसने रखी थी ?
(i) गुरु अर्जन साहिब जी ने
(ii) बाबा फ़रीद जी ने
(iii) संत मीयाँ मीर जी ने
(iv) बाबा बुड्डा जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 42.
गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य किसको दिया ?
(i) बाबा बुड्डा जी को
(ii) भाई गुरदास जी को
(iii) भाई मोहकम चंद जी को
(iv) भाई मनी सिंह जी को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 43.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब पूर्ण हुआ ?
(i) 1600 ई० में
(ii) 1601 ई० में ।
(iii) 1602 ई० में
(iv) 1604 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 44.
हरिमंदिर साहिब जी के पहले मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
(i) भाई गुरदास जी
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) बाबा बुड्डा जी
(iv) बाबा दीप सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 45.
जहाँगीर की आत्मकथा का क्या नाम था ?
(i) तुजक-ए-बाबरी
(ii) तुज़क-ए-जहाँगीरी
(iii) जहाँगीरनामा
(iv) आलमगीरनामा।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 46.
शहीदी देने वाले प्रथम गुरु कौन थे ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 47.
गुरु अर्जन देव जी को कहाँ शहीद किया गया था ?
(i) दिल्ली
(ii) अमृतसर
(iii) लाहौर
(iv) मुलतान।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 48.
गुरु अर्जन देव जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1604 ई० में
(ii) 1605 ई० में
(iii) 1606 ई० में
(iv) 1609 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 49.
सिखों के छठे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अर्जन देव जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु हर राय जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 50.
गुरु हरगोबिंद जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1506 ई० में
(ii) 1556 ई० में
(iii) 1605 ई० में
(iv) 1606 ई० में।

प्रश्न 51.
मीरी और पीरी की प्रथा किस गुरु साहिब ने आरंभ की ?
(i) गुरु अर्जन देव जी ने
(ii) गुरु हरगोबिंद जी ने
(iii) गुरु तेग बहादुर जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 52.
अकाल तख्त साहिब का निर्माण किस गुरु साहिब ने करवाया था ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने
(iv) गुरु तेग बहादुर जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 53.
‘बंदी छोड़ बाबा’ किसको कहा जाता है ?
(i) बंदा सिंह बहादुर को
(ii) भाई मनी सिंह जी को
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी को
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 54.
गुरु हरगोबिंद साहिब और मुग़लों में लड़ी गई अमृतसर की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 1606 ई० में
(ii) 1624 ई० में
(iii) 1630 ई० में
(iv) 1634 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 55.
गुरु हरगोबिंद साहिब जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1628 ई० में
(ii) 1635 ई० में
(iii) 1638 ई० में
(iv) 1645 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 56.
सिखों के सातवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरगोबिंद साहिब जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 57.
गुरु हर राय जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1635 ई० में
(ii) 1637 ई० में
(iii) 1645 ई० में
(iv) 1655 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 58.
सिखों के आठवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरकृष्ण जी
(ii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iii) गुरु हर राय जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 59.
सिख इतिहास में ‘बाल गुरु’ के नाम से किसको जाना जाता है ?
(i) गुरु रामदास जी को
(ii) गुरु हर राय जी को
(ii) गुरु हरकृष्ण जी को
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी को।
उत्तर-
(ii)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 60.
गुरु हरकृष्ण जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1645 ई० में
(ii) 1656 ई० में
(iii) 1661 ई० में
(iv) 1664 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 61.
गुरु हरकृष्ण जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1662 ई० में
(iii) 1663 ई० में
(iv) 1664 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 62.
सिखों के नवम् गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 63.
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1621 ई० में
(iii) 1631 ई० में
(iv) 1656 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 64.
गुरु तेग़ बहादुर जी के बचपन का क्या नाम था ?
(i) हरी मल
(ii) त्याग मल
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई जेठा जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 65.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) बाबा गुरदित्ता जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 66.
उस व्यक्ति का नाम .बताएँ जिसने यह प्रमाणित किया कि गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के वास्तविक गुरु हैं ?
(i) मक्खन शाह मसतूआना
(ii) मक्खन शाह लुबाणा
(iii) बाबा बुड्डा जी ,
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 67.
गुरु तेग बहादुर जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1666 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 68.
किस मुग़ल बादशाह के आदेशानुसार गुरु तेग बहादुर जी को शहीद किया गया ?
(i) जहाँगीर
(ii) शाहजहाँ
(iii) औरंगजेब
(iv) बहादुरशाह प्रथम।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 69.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कहाँ शहीद किया गया ?
(i) लाहौर में
(ii) दिल्ली में
(iii) अमृतसर में
(iv) पटना में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 70.
गुरु तेग बहादुर जी को कब शहीद किया गया ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 71.
सिखों के दशम् तथा अंतिम गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु गोबिंद सिंह जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 72.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1646 ई० में
(ii) 1656 ई० में
(iii) 1666 ई० में
(iv) 1676 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 73.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) पटना साहिब
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) श्री आनंदपुर साहिब।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 74.
गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 75.
गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का क्या नाम था ?
(i) गुजरी जी
(ii) नानकी जी
(iii) सुलक्खनी जी
(iv) खीवी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 76.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम क्या था ?
(i) गोबिंद नाथ
(ii) गोबिंद दास
(iii) भाई जेठा जी
(iv) भाई लहणा जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 77.
गुरु गोबिंद सिंह जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1666 ई० में
(ii) 1670 ई० में
(iii) 1672 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 78.
भंगाणी की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 1686 ई० में
(ii) 1687 ई० में
(iii) 1688 ई० में
(iv) 1690 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 79.
नादौन की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1688 ई० में
(ii) 1690 ई० में
(iii) 1694 ई० में
(iv) 1695 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 80.
खालसा पंथ की स्थापना किस गुरु ने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 81.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कब की थी ?
(i) 1688 ई० में
(ii) 1690 ई० में
(iii) 1695 ई० में
(iv) 1699 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 82.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कहाँ की थी ?
(i) अमृतसर
(ii) श्री आनंदपुर साहिब
(iii) कीरतपुर साहिब
(iv) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(i)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 83.
खालसा की सृजना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने प्रत्येक खालसा को कितने कक्कार धारण करना ज़रूरी बताया ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 84.
श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई कब हुई ?
(i) 1699 ई० में
(ii) 1701 ई० में
(iii) 1703 ई० में
(iv) 1704 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 85.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई कब हुई
(i) 1707 ई० में
(ii) 1702 ई० में
(iii) 1704 ई० में
(iv) 1705 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 86.
चमकौर साहिब की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1702 ई० में
(ii) 1703 ई० में
(iii) 1704 ई० में
(iv) 1706 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 87.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ज़फ़रनामा को किस भाषा में लिखा था ?
(i) हिंदी में
(ii) संस्कृत में
(iii) पंजाबी में
(iv) फ़ारसी में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 88.
चाली मुक्ते कौन-सी लड़ाई के साथ संबंधित हैं ?
(i) चमकौर साहिब की लड़ाई के साथ
(ii) खिदराना की लड़ाई के साथ
(iii) आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई के साथ
(iv) आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई के साथ।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 89.
बचित्तर नाटक की रचना किसने की ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 90.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1705 ई० में
(ii) 1706 ई० में
(iii) 1707 ई० में
(iv) 1708 ई० में।
उत्तर-
(iv)