Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल Questions and Answers, Notes.
PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल
प्रश्न 1.
हिन्दी-साहित्य के आदिकाल के नामकरण सम्बन्धी विभिन्न विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुए अपना मत व्यक्त कीजिए।
अथवा
हिन्दी-साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल कहना कहाँ तक उचित है ? अपना मत व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी-साहित्य के प्रारम्भिक काल की साहित्य-सामग्री की प्रामाणिकता का कोई ठोस आधार अभी तक भी नहीं मिल सका है जिसके कारण इस काल के नामकरण की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है। साधारणतया इतिहासकारों ने दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक के साहित्य रचनाकाल को हिन्दी साहित्य का आरम्भिक काल’ कहा है। विभिन्न विद्वानों ने इस काल का नामकरण अपने-अपने तौर पर किया है। कुछ प्रसिद्ध इतिहासकारों के मत यहाँ प्रस्तुत हैं
1. मिश्र बन्धुओं का नामकरण :
आदिकाल : मिश्र बन्धुओं ने ‘मिश्रबन्धु विनोद’ में हिन्दी-साहित्य के इस आरम्भिक युग को ‘आदिकाल’ की संज्ञा दी है। उन्होंने अपने नामकरण के सम्बन्ध में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं दिया, चूंकि यह युग हिन्दी-साहित्य का आदि युग था। अत: उन्होंने इसे आदिकाल की संज्ञा से विभूषित किया। इस नामकरण में वैज्ञानिक पद्धति का सर्वथा अभाव था।
2. आचार्य शुक्ल का नामकरण :
वीरगाथा काल : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी-साहित्य का प्रथम इतिहास ग्रन्थ लिखा। उसमें उन्होंने हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल को ‘वीरगाथा काल’ की संज्ञा दी। अपने मत के पक्ष में उन्होंने रासो ग्रन्थों को आधार बनाया, किन्तु इनमें से अधिकांश ग्रन्थ या तो इस काल के बाद की रचनाएँ सिद्ध हुए या फिर उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध थी तथा कुछ रचनाएँ केवल नोटिस मात्र थीं। शुक्ल जी ने विद्यापति पदावली और खुसरो की पहेलियों को छोड़ अन्य सभी ग्रन्थों को वीरगाथात्मक मानते हुए ही इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी और श्री मेनारिया जी ने अधिकांश आधार ग्रन्थों की प्रामाणिकता को संदिग्ध मानते हुए शुक्ल जी के नामकरण से असहमति प्रकट की। मेनारिया जी ‘खुमान रासो’ को आदिकालीन रचना नहीं मानते। श्री नाहटा जी ने तो इसका रचना काल संवत् 1730 और संवत् 1760 के बीच दिया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान रूप में पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता भी सिद्ध नहीं हो सकी।
शुक्ल जी ने ‘विजयपाल रासो’ को वीरगाथात्मक रचना माना है जबकि यह एक श्रृंगार परक काव्य है। सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रेम प्रसंगों से भरा है। साथ ही खुमान रासो, हम्मीर रासो, जयचन्द्र प्रकाश, जय-मयंक-जस-चन्द्रिका, पृथ्वीराज रासो तथा परमाल रासो आदि ग्रन्थ एकदम अनैतिहासिक हैं। अत: हम कह सकते हैं कि जिन रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ किया वह निम्नलिखित कारणों से अनुपयुक्त है
(i) इस नामकरण में इस युग के धार्मिक साहित्य की पूर्णतः अपेक्षा की गई है, जो इसकी एक व्यापक प्रवृत्ति का परिचायक है।
(ii) इस युग का नामकरण जिन रचनाओं को आधार मान कर किया गया, इनमें अधिकांश अप्रामाणिक हैं, कुछ नोटिस मात्र हैं तथा कुछ का रचना काल बाद का सिद्ध हो चुका है।
अत: शुक्ल जी के नामकरण ‘वीर गाथाकाल’ को हम उपयुक्त नहीं मान सकते।
3. डॉ० श्याम सुन्दर दास जी ने भी आचार्य शुक्ल के मत का समर्थन किया है।
4. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का नामकरण :
बीजवपन काल : आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल को ‘बीजवपन काल’ की संज्ञा दी है। उनके हिन्दी साहित्य का इतिहास नामकरण का आधार यह था कि इस युग में क्योंकि अनेकानेक प्रवृत्तियों का उद्भव हुआ। अत : इसे ‘बीजवपन काल’ कहना चाहिए। सूक्षमता से विचार करने पर हम पाते हैं कि इस युग के हिन्दी साहित्य में किसी भी नई साहित्यिक प्रवृत्ति ने जन्म नहीं लिया बल्कि इस युग की सारी ही प्रवृत्तियाँ अपभ्रंश आदि के पूर्ववर्ती साहित्य की परम्परा का विकास थीं। अत: द्विवेदी जी का नामकरण भी उपयुक्त नहीं माना जा सकता।
5. डॉ० रामकुमार वर्मा का नामकरण : संधिकाल तथा चारण काल :
डॉ० वर्मा का मत था कि इस युग में क्योंकि अपभ्रंश की समाप्ति और प्राचीन हिन्दी का उद्भव हुआ अत: इस काल को ‘संधिकाल’ कहना चाहिए। आपने सं० 750-1000 तक की रचनाओं को संधिकाल में रखा है। सं० 1000 से 1375 तक के काल को आपने ‘चारण काल’ की संज्ञा दी, क्योंकि इस काल में चारणों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के प्रशस्ति गान की प्रवृत्ति अधिक होने की बात, वे मानते हैं।
हमारे मत में किसी भी युग को दो नाम देना उचित नहीं है और न ही इस युग की शैलियों और व्यक्तियों को बांटना युक्ति संगत है। दूसरे यह नामकरण भाषा के आधार पर किया गया है। ऐसा करने से हिन्दी साहित्य का विकास और परिवर्तन क्रम का अध्ययन असम्भव हो जाएगा। तीसरे इस युग के जैन साहित्य को कहीं भी स्थान न मिल पायेगा। अतः डॉ० रामकुमार वर्मा का नामकरण भी उपयुक्त नहीं।
6. श्री राहुल सांकृत्यायन का नामकरण : सिद्ध-सामन्त काल :
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल को ‘सिद्ध सामन्त काल’ की संज्ञा दी है। इस नामकरण के मूल में उन्होंने शुक्ल जी की भान्ति ही प्रवृत्ति विशेष को आधार बनाया है। उनके विचारानुसार यह नाम अधिक सार्थक है, क्योंकि इस युग में एक ओर सिद्धों की वाणी गूंज रही थी तो दूसरी ओर सामन्तों की स्तुति हो रही थी। राहुल जी का यह नामकरण भी सार्थक नहीं है, क्योंकि एक तो सिद्ध साहित्य अपभ्रंश में है और सामन्त साहित्य हिन्दी में, दूसरे भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह नाम अनुपयुक्त है। राहुल जी ने अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी को एक भाषा माना है, जो सही नहीं है।
7. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का नामकरण : आदिकाल :
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल के नामकरण में निर्णयात्मक योगदान दिया है। उनके मतानुसार यह काल-खण्ड विविध विकासोन्मुख प्रवृत्तियों का युग है। जिस साहित्य को शुक्ल जी ने धार्मिक और साम्प्रदायिक कह कर उपेक्षा कर दी है उसमें भी सहज और उदात्त मानवीय भावनाओं के दर्शन होते हैं तथा धर्म, अध्यात्म या सम्प्रदाय विशेष का नाम साहित्य की सहज प्रेरणा में बाधक नहीं हो सकता। यदि हम ऐसा मान लें तो भक्तिकाल का समूचा साहित्य हमें एक तरफ रख देना होगा। इसके अतिरिक्त श्रृंगार, लोक रुचियों में विविधता भी इस युग में देखी जा सकती है। अत: डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी इस काल को वीरगाथा काल न कह कर ‘आदिकाल’ कहना अधिक संगत मानते हैं। यद्यपि वे स्वयं इस नामकरण से सन्तुष्ट नहीं हैं, क्योंकि यह नामकरण भ्रामक धारणा की सृष्टि करने वाला है। किन्तु उन्होंने कहा है कि यह नाम बुरा नहीं है।
द्विवेदी जी ने इस काल को बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल माना है जो उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। अत: द्विवेदी जी का नामकरण ‘आदिकाल’ ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। इसी नाम को अधिकांश इतिहासकारों, विद्वानों ने मान्यता दी है। हिन्दी साहित्य में आज तक जो प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं उन सबका आदिम बीज हमें इस युग ‘आदिकाल’ के साहित्य में खोज सकते हैं। इस युग की आध्यात्मिक, शृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का विकास हम परवर्ती ‘युगों के साहित्य’ में देखते हैं। द्विवेदी जी के मत से सहमत होते हुए हम हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल को ‘आदिकाल’ नामकरण अधिक संगत मानते हैं।
प्रश्न 2.
आदिकालीन परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसलिए किसी भी काल के साहित्य को समझने के लिए उन परिस्थितियों का ठीक-ठीक अवलोकन करना ज़रूरी होता है, जो उस युग के साहित्य को जन्म देती हैं। इसलिए आदिकाल के साहित्य के इतिहास को जानने के लिए उस युग की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का जानना ज़रूरी है।
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ:
आदिकाल की सीमा आचार्य शुक्ल जी ने सम्वत् 1050 से सम्वत् 1375 तक मानी है, जिसे अधिकांश इतिहासकारों ने मान्यता दी है। इस काल की राजनीतिक परिस्थितियां भारत के अन्तिम शक्ति सम्पन्न हिन्दू शासक हर्ष वर्धन की मृत्यु से आरम्भ होती हैं। हर्ष वर्धन जितनी देर जीवित रहे, उन्होंने मुसलमानों को भारत पर आक्रमण करने से रोके रखा किन्तु उनके उत्तराधिकारी इसमें सफल न हो पाए क्योंकि उनकी मृत्यु के साथ ही भारत की संगठित राजसत्ता टुकड़े-टुकड़े हो गई थी। परिणामस्वरूप अव्यवस्था, विश्रृंखलता, गृहकलह सिर उठाने लगी थी। आपस में लड़लड़ कर यहाँ के राजा इतने कमज़ोर हो गए थे कि बाहरी आक्रमण का मिल कर मुकाबला न कर सके। फलस्वरूप यहाँ मुसलमानों का शासन स्थापित हो गया। इस प्रकार के वातावरण में किसी विशेष प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति पनप एवं विकसित नहीं हो सकी।
मुसलमानों के आक्रमण उन स्थानों पर अधिक हो रहे थे, जहाँ हिन्दी विकसित हो रही थी। इसलिए उन क्षेत्रों के साहित्य में युद्ध के बादलों की छाया स्पष्ट देखने को मिलती है। इस काल में एक ओर तो मुसलमानों के आक्रमण हो रहे थे तो दूसरी ओर यहाँ के राजा भी जनता के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे थे। जनता पर उनके अत्याचार दिनों-दिन बढ़ते ही जा रहे थे। ऐसे वातावरण में कवियों का एक वर्ग लड़ मरकर जीना चाहता था तो दूसरा आध्यात्मिक पक्ष के बारे में सोचता था। इस युग के राजाओं के आश्रय में पल रहे कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का बहुत बढ़ा-चढ़ा कर यशोगान किया। स्वतन्त्र रूप से रचना करने वाले कवियों के लिए उस युग का वातावरण उपयुक्त नहीं था।
2. सामाजिक परिस्थितियाँ:
इस युग की राजनीतिक परिस्थितियों ने सामाजिक परिस्थितियों को भी प्रभावित किया। जनता धर्म और राज्य दोनों ओर से पीड़ित थी। दोनों ही उसका शोषण कर रहे थे। जाति-पाति के बन्धन कड़े होते जा रहे थे। नारी का सम्मान कम हो गया था। उसे मात्र भोग की वस्तु समझा जाने लगा था, स्त्रियों का खरीदना बेचना, उनका अपहरण कर लेना साधारण सी बात थी। सती प्रथा अपना विकराल रूप धारण कर चुकी थी। साधारण गृहस्थियों पर योगियों का आतंक छाया रहता था। जन्त्र-तन्त्र, जादू टोना भी अकाल और महामारी को दूर करने में असमर्थ हो रहे थे। लोगों को अपनी रोटी रोज़ी के लिए नाना प्रकार की मुसीबतें उठानी पड़ती थीं।
ऐसी विकट सामाजिक परिस्थितियों में हिन्दी कवियों को अपनी रचनाओं के लिए सामग्री जुटानी पड़ी।
3. धार्मिक परिस्थितियाँ:
आदिकाल के आरम्भ होने से पूर्व भारत का धार्मिक वातावरण शान्त था। अनेक उपासना पद्धतियाँ एक साथ चल रही थीं, किन्तु सातवीं शताब्दी के आरम्भ से जैन और शैव मत आपस में टकराने लगे। 12वीं शती तक वैष्णव धर्म भी शक्तिशाली हो गया था। बौद्ध धर्म भी जन्त्र-मन्त्र, जादू टोने की भूल-भुल्लैयों में खो गया था। जनता में आत्मविश्वास की कमी आने लगी थी। धार्मिक स्थलों की दुर्दशा हो चली थी। क्या हिन्दू मन्दिर और क्या बौद्ध विहार सभी व्यभिचार, आडम्बर, धन लोलुपता आदि दोषों से ग्रस्त हो चुके थे। पुजारी और महन्त धर्म के वास्तविक रूप को भूल कर धन के मोह में फँस चुके थे।
इसी युग में देश में इस्लाम धर्म का भी प्रवेश हुआ। शासक बन जाने पर इस्लाम ने हिन्दू धर्म के लिए एक बहुत बड़ा खतरा खड़ा कर दिया किन्तु धार्मिक नेता अपने स्वार्थ को त्याग कर जनता को सही दिशा न दिखा सके। शूद्र कही जाने वाली जाति को उन्होंने गले नहीं लगाया जिसके फलस्वरूप उनमें से बहुत लोगों ने इस्लाम धर्म को अपना लिया। धार्मिक परिस्थितियाँ अत्यन्त विषम और असन्तुलित होने के कारण जनसाधारण में गहरा असन्तोष, क्षोभ और भ्रम छाया हुआ था। इस युग के कवियों ने भी इसी मानसिक स्थिति के अनुरूप खण्डन मण्डन, हठयोग, वीरता एवं श्रृंगार का साहित्य लिखा।
4. आर्थिक परिस्थितियाँ:
सम्राट हर्षवर्धन के बाद कोई दृढ़ हिन्दू राज्य स्थापित न हो सकने के कारण हर राजा अपनी सत्ता को बढ़ाने के लिए ललायित हो उठा। नित्य लड़ाइयाँ लड़ी जाने लगी, जिससे राजाओं की आर्थिक दशा क्षीण हिन्दी साहित्य का इतिहास हुई। राजाओं ने अपने खजाने भरने के लिए जनता से धन प्राप्त करने के लिए अत्याचार शुरू किए और धीरे-धीरे आम आदमी की हालत इतनी खस्ता हो गई कि उसने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी सन्तान तक को बेचना शुरू कर दिया। मुसलमानों के आक्रमण शुरू हुए। उन्होंने जो लूटमार की इससे देश की जनता और ग़रीब हो गई।
5. सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:
भारतीय संस्कृति में चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला और वास्तुकला का बड़ा गौरवमय स्थान था किन्तु मुसलमानों ने आकर इस परम्परा को छिन्न-भिन्न कर के रख दिया। उन्होंने हर कला में हस्तक्षेप शुरू किया। यहां तक कि भारतीय उत्सवों, मेलों, परिधानों और विवाह आदि सभी पर मुस्लिम रंग छाने लगा। इस प्रकार हम इस युग को भारतीय कलाओं के ह्रास का युग भी कह सकते हैं।
प्रश्न 3.
आदिकालीन राज्याश्रित काव्यधारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए इसकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
आदिकालीन चारण काव्य की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
आदिकालीन वीर गाथा काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हिन्दी-साहित्य के आदिकाल में राजपूत राजाओं के आश्रित चारण कवियों द्वारा निर्मित काव्य ‘चारण काव्य’ कहलाता है। इसका प्रधान विषय वीर गाथाओं से सम्बद्ध है। अतः इसे वीरगाथा काव्य भी कहते हैं। राज्याश्रित कवियों द्वारा लिखे साहित्य को ही राज्याश्रित काव्यधारा कहा जाता है। . इसी युग में भारत पर मुसलमानों के आक्रमणों में तेजी आई। अत: इसके प्रतिरोध के लिए एवं राजाओं की शक्ति प्रदर्शन में निहित वैयक्तिक प्रतिष्ठा की भावना की पूर्ति हेतु वीर रस प्रधान काव्य रचनाओं का होना नितान्त स्वाभाविक था। चूंकि राजनीतिक प्रशासन की दृष्टि से यह युग राजे महाराजाओं और सामन्तों का युग था। इस कारण उनके आश्रय में रहने वाले कवियों, चारणों ने ही अधिकांश रूप में वीर रस प्रधान काव्य की रचना की।
इस युग के वीरगाथा काव्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता को लेकर काफ़ी वाद-विवाद हुआ और हो रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदिकाल का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए जिन बारह पुस्तकों का सहारा लिया उनमें से केवल चार ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं-खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो और परमाल रासो। इनमें से खुमानरासो और पृथ्वीराज रासो प्रबन्ध काव्य हैं तथा अन्य दोनों वीर गीतिकाव्य । इन ग्रन्थों की प्रामाणिकता के साथ-साथ इनकी ऐतिहासिकता भी संदिग्ध है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि ये सभी ग्रन्थ अपने मूल रूप में आज प्राप्त नहीं हैं। इनकी भाषा शैली तथा विषय सामग्री को देखते हुए लगता है कि लगातार शताब्दियों तक इनमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होता रहा। यथा परमाल रासो किसी भी सूरत में मूल प्राचीन ‘आल्हाखण्ड’ नहीं हो सकता। खुमान रासो में 16वीं शती तक की घटनाओं का संकलन है। पृथ्वीराज रासो की भी यही स्थिति है। केवल बीसलदेव रासो में कम हेर-फेर हुआ है परन्तु इसकी कथा में भी असम्बद्ध घटनाओं की भरमार है।
इन रचनाओं की ऐतिहासिकता संदिग्ध होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि चारण कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति गान में अपनी कल्पना और अतिशयोक्ति का प्रयोग किया। इस तरह उन्होंने अपने चरित नायकों को सर्वविजेता और उनके चरित्र को उदात्त और उत्कृष्ट सिद्ध करने का प्रयास किया है। पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज को उन राजाओं पर भी विजय प्राप्त करते बताया गया है जो उसके कई शताब्दी पूर्व या बाद में विद्यमान् थे तथा जिन समकालीन राजाओं का इस ग्रन्थ में उल्लेख हुआ है उनके अस्तित्व से ही इतिहास इन्कार करता है। यदि चारण काव्य अथवा वीर गाथा काव्य की ऐतिहासिकता, प्रामाणिकता और प्रक्षिप्तता को नजर अन्दाज कर दिया जाए तो साहित्यिक दृष्टि से इस काव्यधारा का साहित्य अति सुन्दर है। इसमें वीर रस का प्रौढ़ परिपाक हुआ है। युद्ध वीररस की काव्यशास्त्रीय सम्पूर्ण सामग्री का ऐसा एकत्र अभिनव समन्वय भारतीय आधुनिक भाषाओं के किसी भी काव्य में शायद ही उपलब्ध हो सके।
काव्यगत विशेषताएँ:
राज्याश्रित काव्यधारा के वीरगाथा काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
1. वीर और श्रृंगार रस का समन्वय:
आदिकाल में अनेक ‘रासो’ ग्रन्थों की रचना हुई। रासो शब्द वीरता का परिचायक है। इन ग्रन्थों में वीर रस की प्रधानता है। अपने आश्रयदाताओं की वीरता को उभारना और प्रशंसा कर पारितोषिक प्राप्त करना कवियों का मुख्य लक्ष्य था। किसी भी दृष्टि से क्यों न हो वीर रस का पूर्ण और प्रभावशाली वर्णन इस युग के साहित्य में हुआ है। उस युग का वातावरण पूर्णतया युद्ध एवं शस्त्रों की झंकार का था। अतः वीर रस का परिपाक स्वाभाविक ही है। इस युग के साहित्य में वीर रस के सहायक माने जाने वाले रौद्र, भयानक आदि रसों का भी उचित वर्णन हुआ है। आदिकाल में वीरता का ताण्डव नृत्य शृंगार के प्रांगण में हुआ। यह इस युग के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है। इस युग में अधिकांश युद्ध किसी-न-किसी नारी के लिए होते थे अथवा कवियों ने किसी सुन्दर नारी की कल्पना कर ली।
फलस्वरूप इस युग के काव्य में कंगना की झंकार और तलवार की खनखनाहट एक साथ सुनाई देती है। कहीं-कहीं तो श्रृंगार और वीर रस का समन्वय इतना अधिक मुखरित हो गया है कि वीरता की मूल भावनाएँ प्रायः दब-सी गई हैं। इन वीरगाथाओं में श्रृंगार कभी-कभी वीरता का सहकारी और कभी-कभी उसका उत्पादक बनकर आया है। वीरगाथा काव्य में श्रृंगार का वर्णन वासना के आंगन से बाहर नहीं झांक पाया। वह उत्तेजित तो कर सकता है पर प्रेम भंगार की सहज भावना को मिटा नहीं सकता। यह स्वीकार करना होगा कि वीर और श्रृंगार रसों का समन्वय इस युग के कलाकारों की जागरूकता और कुशाग्रता का परिचायक है। उन्होंने श्रृंगार और वीर रस के अन्तर्गत परम्पराओं का पूर्ण रूप से निर्वाह किया है।
2. युद्धों का सजीव वर्णन:
वीरगाथा काव्य या चारण काव्य में युद्धों और युद्धों के काम आने वाली सामग्री का संजीव वर्णन हुआ है। वीरता और युद्धों की प्रमुख प्रवृत्ति के कारण इस सजीवता का रहस्य स्पष्ट है। इस युग का कवि राज्याश्रित था। राजदरबारों में नित्य युद्ध की चर्चा होती रहती थी। दूसरे कवि लोग एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में तलवार रखते थे। प्रायः युद्धों में भाग भी लिया करते थे। अतः उनके युद्ध वर्णन में सजीवता आना स्वाभाविक था। इस युग के कवियों ने चूंकि स्वयं युद्धों में भाग लिया था, अतः युद्ध के साथ-साथ प्रयुक्त सामग्रियों के सजीव वर्णनों में भी सजीवता स्वाभाविक रूप से आ गई। हिन्दी साहित्य में ऐसा सजीव वर्णन अन्य कोई कवि न कर सका। केवल रीतिकालीन कवि भूषण की कविता में ऐसी झलक अवश्य देखने को मिलती है। चतुरंगिनी सेना की साज सज्जा, दोनों एक समान प्रबल दलों की गुत्थम-गुत्थी तथा दर्पपूर्ण शब्दावली, सेना प्रस्थान असि-प्रहार एवं शस्त्रों की झंकार और ‘शत्रुपक्ष’ के पलायन का प्रभावपूर्ण चित्रण इस युग के काव्य की प्रमुख विशिष्टता है। सजीव शब्द गुम्फ वीर रस तथा तदनुकूल ओज गुण और गौड़ी वृत्ति का पोषक है।
3. सामन्ती जीवन और सभ्यता संस्कृति का सजीव चित्रण:
चारण काव्य अथवा वीरगाथा काव्य में सामन्ती जीवन और सभ्यता संस्कृति का भी सजीव चित्रण हुआ है। इसकी प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया का सजीव वर्णन उनके काव्य में देखने को मिलता है। इस युग के कवि क्योंकि राजदरबारों तक ही सीमित थे। अत: उन्होंने सामन्ती जीवन को बहुत निकट से देखा था। पृथ्वीराज रासो ऐसे चित्रों से भरा पड़ा है।
4. सामान्य जन-जीवन के चित्रण का अभाव:
सामन्ती राजतन्त्रवादी परम्पराओं वाले इस युग में आम आदमी का राजाओं, सामन्तों की आज्ञाओं का आँख मूंद कर पालन करने के सिवा अन्य कोई मान और मूल्य नहीं था। ऐसी दशा में राज्याश्रित कविजन जनसाधारण की ओर ध्यान देते तो कैसे देते? फलस्वरूप जन-जीवन इस काल के काव्यों में कहीं भी उभर नहीं पाया, बस उसकी एक झलक मात्र ही उसमें देखने को मिलती है। जीवन-समाज के प्रति दायित्व निर्वाह में इस युग के कवि पूर्णतः असफल रहे।
5. आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्ति:
चारण कवियों को अपने आश्रयदाताओं से अनेक प्रकार की जागीरें और उपाधियाँ आदि प्राप्त होती थीं। इस कारण अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से इन कवियों ने अपनी कल्पना और अतिशयोक्ति के बल पर अपने आश्रयदाताओं के चरित्र को अधिक उदात्त और उत्कृष्ट चित्रित किया। उन्हें अपनी आजीविका के लिए यह सब करना पड़ा। इसी उद्देश्य से उन्होंने अनेक युद्धों के लिए उत्तरदायी किसी-न हिन्दी साहित्य का इतिहास किसी सुन्दर नारी की कल्पना की, क्योंकि वीरों को युद्ध के उपरान्त विश्रामकाल में मन बहलाने के लिए प्रेम की आवश्यकता होती है इसलिए चारण कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के अनेक विवाह करने की गाथा भी कही है। तब हर विवाह युद्ध में विजय प्राप्त करने पर ही होता था। पृथ्वीराज रासो में चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज के 12 विवाह होने का वर्णन किया है।
6. संकुचित राष्ट्रीयता:
वीरगाथा काव्य या चारण काव्य के अध्ययन के उपरान्त ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग में राष्ट्रीयता का अर्थ संकुचित था। ‘राष्ट्र’ शब्द समूचे देश का सूचक न होकर अपने-अपने प्रदेश एवं छोटे-छोटे राज्यों का सूचक था। अजमेर और दिल्ली के राजकवि को कन्नौज, कालिंजर अथवा किसी अन्य राज्य के समृद्ध होने अथवा नष्ट होने का कोई सुख अथवा दुःख नहीं था। एक राजा का आश्रय छोड़ देने पर सम्भवतः वे उस राज्य को पराया समझने लग जाते होंगे। मिथ्याभिमान तथा प्रतिशोध भावना से पूर्ण उस युग के राजाओं से परिपालित कवियों की इस संकुचित प्रवृत्ति पर न आश्चर्य होता है और न उनके प्रति घृणा के भाव जागृत होते हैं। हाँ, दुर्भाग्य पर अवश्य दया आती है।
डॉ० श्याम सुन्दर दास ने ठीक ही कहा है कि, ‘हिन्दी के आदि युग में अधिकांश ऐसे ही कवि हुए जिन्हें समाज को संगठित तथा सुव्यवस्थित कर उसे विदेशी आक्रमणों से रक्षा करने में समर्थ बनाने की उतनी चिन्ता नहीं थी जितनी अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा द्वारा स्वार्थ साधन करने की थी।’ उस युग के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की सेना में तो वीरता के भाव भरे किन्तु उनकी वाणी राष्ट्र के कोटि-कोटि जनों में वीरता की भावना न भर सकी। कारण इस युग का कवि जन-जीवन से कटा हुआ था। वे राष्ट्र भक्त नहीं राज भक्त थे।
7. कल्पना प्राचुर्य एवं ऐतिहासिकता का अभाव-इस युग के चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा और पारितोषिक पाने के लोभ में उनके चरित काव्य को अतिशयोक्तिपूर्ण कल्पना का सहारा लेकर लिखा। इन कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का शौर्य प्रदर्शित करने के लिए ऐसे ऐतिहासिक पुरुषों से उनका युद्ध करवाया जो उस युग के नहीं थे। ऐसे में ऐतिहासिकता की रक्षा कैसे हो सकती थी ? डॉ० श्याम सुन्दर दास के अनुसार कुछ रचनाओं में तो इतिहास की तिथियों तथा घटनाओं का इतना अधिक विरोध मिलता है कि उन्हें समसामयिक रचना मानने में बहुत ही असमंजस होता है………….। इन पुस्तकों की भाषा भी इतनी बेठिकाने की और अनियमित है कि तथ्य निरूपण में उसकी सहायता नहीं ली जा सकी।
8. प्रकृति चित्रण:
वीरगाथा काव्य की एक विशेषता यह है कि इस युग के कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रकृति का चित्रण उसके आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में किया है। वस्तु वर्णन भी पर्याप्त उपयुक्त है। हाँ, प्रकृति के स्वतन्त्र चित्रण की ओर कवियों ने प्रायः नहीं या बहुत कम ध्यान दिया है। कहीं-कहीं तो प्रकृति चित्रण नीरसता का ही संचार करता है। कहीं-कहीं प्रकृति चित्रण वस्तु गणना मात्र बनकर रह गया है। हाँ, प्रकृति का उद्दीपन रूप अधिक है और पर्याप्त सजीव भी बन पड़ा है।
9. डिंगल भाषा का प्रयोग:
वीरगाथा काव्य की एक उल्लेखनीय विशेषता है-उसकी भाषा। विद्वानों ने इसे ‘डिंगल भाषा’ का नाम दिया है। साहित्यिक राजस्थानी मिश्रित पुरानी हिन्दी को ‘डिंगल’ कहते हैं। वीर विषय की दृष्टि से, यह भाषा अत्यधिक उपयुक्त मानी गई है। ब्रज भाषा का भी ‘पिंगल’ नाम से प्रयोग इस युग में हुआ। इस्लामी प्रभाव के फलस्वरूप अरबी, फ़ारसी और तुर्की भाषाओं के भी कुछ शब्द इस काल के काव्य में देखने को मिलते हैं। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का भी खूब प्रयोग हुआ है। वास्तव में हम कह सकते हैं कि भले ही ऐतिहासिकता की कसौटी पर इस युग का काव्य खरा न उतरा हो लेकिन साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
आदिकाल के प्रमुख कवि
1. विद्यापति
जीवन परिचय-विद्यापति का जन्म बिहार प्रान्त के दरभंगा जिले के अन्तर्गत विसपी गाँव में हआ। इस गाँव को गढ़ विपसी भी कहा जाता है। कहते हैं यह गाँव राजा शिव सिंह ने सिंहासन रूढ़ होने पर इन्हें उपहारस्वरूप भेंट किया था। विद्यापति के जन्म काल के विषय में विद्वानों में काफ़ी मतभेद है किन्तु हम रामवृक्ष बेनीपुरी जी द्वारा बताए इनके जन्म काल सन् 1350 ई० को सही मानते हैं, क्योंकि विद्यापति को विसपी गाँव दान दिये जाने का जो ताम्रपत्र उपलब्ध है उसमें दान देने की तिथि 293 लक्ष्मणाब्द लिखा है, जो सन् 1402 से 1403 बैठता है। विद्यापति उस समय 52 वर्ष के थे।
विद्यापति मैथिल ब्राह्मण थे और ठाकुर इनका आस्पद था, इनके पिता गणपति ठाकुर राजमन्त्री थे। वे एक अच्छे कवि भी थे। उन्होंने ‘गंगा भक्ति तरंगिनी’ नामक पुस्तक की रचना भी की थी। विद्यापति अपने पिता के साथ राजा गणेश्वर के दरबार में जाया करते थे। राजा गणेश्वर के बाद कीर्ति सिंह गद्दी पर बैठे। विद्यापति ने अपनी प्रथम कृति ‘कीर्तिलता’ का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया। कीर्ति सिंह के बाद देव सिंह राजा हुए। उनके बाद राजा शिव सिंह ने शासन भार सम्भाला। विद्यापति और राजा शिव सिंह का साथ अन्त तक बना रहा। विद्यापति ने राजा शिव सिंह और उनकी पत्नी लखिमादई के प्रेम को अपनी पदावली में स्थान देकर उन्हें अमर कर दिया। विद्यापति की मृत्यु के सम्बन्ध में निम्नलिखित पद प्रचलित है
विद्यापति क आयु अक्सान।
कार्तिक धवल त्रयोदसि जान॥
इस पद के अनुसार विद्यापति की मृत्यु कार्तिक शुक्ला पक्ष त्रयोदशी को हुई। इनकी मृत्यु सन् 1440 में हुई मानी जाती है। इसकी चिता पर एक शिव मन्दिर की स्थापना की गई जो आज भी वहाँ मौजूद है।
रचनाएँ:
विद्यापति ने संस्कृत, अपभ्रंश और प्रारम्भिक मैथिली में रचनाएँ की हैं। उनको सर्वाधिक ख्याति पदावली के कारण प्राप्त हुई इनकी अन्य उपलब्ध रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं
- कीर्तिलता
- कीर्ति पताका
- भू-परिक्रमा
- पुरुष परीक्षा
- लिखनावली
- शैव सर्वस्व सार
- गंगावाक्यावली
- विभागसार
- दान वाक्यावली
- दुर्गा भक्ति तरंगिनी
ये सभी रचनाएँ कवि ने किसी-न-किसी राजा की प्रशस्ति में लिखी हैं। साहित्यिक परिचय-विद्यापति को हिन्दी का आदि गीतकार कहा जाता है। ये मैथिल कोकिल के नाम से भी प्रसिद्ध है। मधुर गीतों के रचयिता होने के कारण उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ भी कहा जाता है। चूंकि इन्होंने मैथिली लोकभाषा में पद रचना की अतः उन्हें मैथिल कवि भी कहा जाता है। विद्यापति की कीर्ति का आधार उनकी अपभ्रंश में लिखी कीर्तिलता तथा कीर्ति पताका नामक रचनाएँ तथा पदावली हैं।
कीर्तिलता-कीर्ति पताका-इन रचनाओं में कवि ने राजा कीर्ति सिंह की वीरता, उदारता, गुण-ग्राहकता आदि का वर्णन किया है। बीच-बीच में कुछ देशी भाषा के पद्य रखे हुए हैं। अपभ्रंश के दोहा, चौपाई, छप्पय, धन्द, गाथा आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है।
पदावली-मैथिली में लिखी ‘पदावली’ विद्यापति की अत्यन्त लोक प्रिय रचना है। इसकी पहुँच झोंपड़ी से लेकर राजाओं के महल तक है। कहते हैं प्रसिद्ध कृष्ण भक्त चैतन्य महाप्रभु तो पदावली के पदों का कीर्तन करते-करते मूर्छित हो जाया करते थे। बंगाल वासियों में इनके अनेक पदों को बंगला रूप प्रदान कर दिया है। बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में नववधु की सखियाँ पदावली के पद गाकर शिक्षा देती हैं। डॉ० ग्रियसन विद्यापति पदावली के सम्बन्ध में “The songs of Vidyapati’ नामक पुस्तक में लिखते हैं-जिस प्रकार ईसाई पादरी सालमन के गान गाते हैं इसी प्रकार हिन्दू भक्त विद्यापति के अनूठे पदों का गान करते हैं।
पदावली में विद्यापति ने राधा-कृष्ण की प्रणय लीलाओं का बड़ा ही हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। इसमें भक्ति कम शृंगारिक भावनाएँ अधिक हैं। इनके वयःसन्धि आदि के वर्णन तो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण बन पड़े हैं। जैसे-
सैसव यौवन दुहु मिलि गेल।
स्रवन क पथ दुहु लोचन लेल॥
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मुकुर लई अब करई सिंगार।
सखि पूछई कइसे सुरत-बिहार॥
विद्यापति को इसी कारण कुछ विद्वान् शृंगारी कवि मानते हैं भक्त नहीं। यह ठीक है कि पदावली के अनेक पद भक्ति की मर्यादा से बाहर हो गए हैं किन्तु ऐसा तो कहीं-कहीं सूरदास ने भी किया है फिर भी सूरदास की गणना भक्त कवियों में ही होती है।
आचार्य रामचन्द्रशुक्ल भी विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानते हुए कहते हैं-“विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं । इन पदों की रचना जयदेव के गीत गोबिन्द के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए।”
विद्यापति के पदों में आध्यात्मिकता का रंग देखने वालों पर व्यंग्य करते हुए शुक्ल जी आगे कहते हैं–आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं उन्हें चढ़ा कर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोबिन्द’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्ण भक्तों के श्रृंगारी पदों को भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या कहते हैं। पता नहीं बाल लीला के पदों को वे क्या कहेंगे कुछ भी हो विद्यापति ने पदावली में शृंगार के दोनों रूपों-संयोग और वियोग का यथोचित रूप में चित्रण किया है। इनमें से संयोग श्रृंगार को चित्रण करने में उनकी तूलिका तन्मय हो गई है। भाषा का माधुर्य और भावों की सुकुमारिता-इन दोनों का अलौकिक संगम पदावली में देखने को मिलता है। रूप वर्णन का एक चित्र देखिए-
सहजहि आनन सुन्दर रे, भँउह सुरेखल आँखि।
पंकज मधुपिवि मधुकर, उड़ए पसारय पाँखि।
वयः सन्धि का एक सुन्दर पद देखिए-नायिका के शरीर में आने वाले परिवर्तन के बारे में कवि कहते हैं
कटि का गौरव पाओल नितम्ब, एक क खीन अओक अबलम्ब।
प्रगट हास अब गोपाल भेल, उरज प्रकट अब तन्हिक लेल॥
सद्यःस्नाता का एक नयनाभिराम चित्र देखिए –
कामिनी करए सनाने, हेरितहि हृदय हनए पँचवाने।
चिकुर गरए जलधारा, जानि मुख ससि उर रोए अँधारा॥
विद्यापति ने कृष्ण की भक्ति के भी कुछ अच्छे पद लिखे हैं । एक पद यहाँ प्रस्तुत है –
तातल सैकत वारि बिन्दु सम, सुत मित रमनि समाजे।
तोहे बिसारि मद ताहे समरपितु अब मुझु होवे कोन काजे॥
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि विद्यापति में भक्ति भावना थी किन्तु उस पर शृंगार भावना ने विजय पा ली थी। श्रीकृष्ण के रूप वर्णन, उनकी वंशी माधुरी के ठन्हों पर अनेक सुन्दर पद लिखे हैं। वस्तुतः विद्यापति संक्रमण काल के कवि थे। एक ओर वे आदिकाल का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो दूसरी ओर हिन्दी में वे भक्ति और शृंगार परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं। वे ‘शैव सर्वस्वसार’ रचनाओं में भक्तिभाव में झूमते हुए दिखाई देते हैं और ‘पदावली’ में वे शृंगार और प्रणय के रस में आकण्ठ मग्न हैं। इस प्रकार विद्यापति को आप वीर कवि, भक्ति कवि या शृंगारी कवि जिस भी रूप से देखें वे उसी में परिपूर्ण दिखाई देते हैं। एक ओर उनकी कीर्ति लता’, ‘कीर्ति पताका’ चारण काव्य की वीर गाथाओं की याद दिलाती है तो दूसरी ओर उनकी ‘पदावली’ कृष्ण भक्त कवियों तथा रीतिकालीन कवियों की श्रृंगारपरक सुकोमल भाव सामग्री की मूल प्रेरक सिद्ध हो जाती है।
2. अमीर खुसरो
‘अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अबुलहसन था। खुसरो इनका उपनाम था और अनेक बादशाहों से इनाम पाने के कारण अमीर कहलाते थे। इनका उपनाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि असली नाम लुप्तप्राय हो गया। इनका जन्म ऐटा जिले के पटियाली गाँव में सन् 1253 ई० को हुआ । इनका अधिकांश जीवन शासकीय सेवा में बीता। इन्होंने अपनी आँखों से गुलाम वंश का पतन, खिलजी वंश का उत्थान-पतन तथा तुग़लक वंश का आरम्भ देखा। इनके जीवन में दिल्ली के सिंहासन पर ग्यारह सुल्तान बैठे जिनमें से सात की इन्होंने सेवा की।
अमीर खुसरो बड़े प्रसन्नचित्त, मिलनसार और उदार थे। सुल्तानों और सरदारों से इन्हें जो कुछ धन मिलता था वे उसे बाँट देते थे। प्रशासन के अमीर होने पर और कवि सम्राट् होने पर भी ये अमीर ग़रीब सभी से बराबर मिलते थे। आप दूसरे, मुसलमानों की तरह धार्मिक कट्टरपन से कोसों दूर थे। इनकी रचनाओं से पता चलता है कि इनके एक पुत्री और तीन पुत्र थे।
रचनाएँ:
अमीर खुसरो अरबी, फारसी, तुर्की और हिन्दी भाषाओं के पूरे विद्वान् थे। थोड़ा बहुत संस्कृत भाषा भी जानते थे। कहा जाता है कि खुसरो ने 99 पुस्तकें लिखी थीं जिनमें कई लाख अशआर’ (काव्य पंक्तियाँ) थे परन्तु आज इनके केवल 20-22 ग्रन्थ ही प्राप्त हैं। इन ग्रन्थों में ‘खालिक बारी’ और ‘किस्सा चहार दरवेश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनकी लिखी पहेलियाँ, दोसुखने और मुकरियाँ आज भी बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं।
साहित्यिक परिचय:
जिस युग में कविगण या चारण केवल वीर प्रशस्तियाँ गा कर ही अपने कर्त्तव्य से मुक्त होने की बात सोचते थे और समाज के चित्तरंजन के लिए कुछ भी लिखने का प्रयत्न नहीं करते थे, उस युग में हमें केवल खुसरो ही एक ऐसा कवि दिखाई देता है जिसने केवल ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में लोक हृदय को आकृष्ट करने वाली सरल, सरस रचनाएँ लिखीं। खुसरो को खड़ी बोली का प्रथम कवि होने का गौरव प्राप्त है।
खालिकबारी:
यह ग्रंथ तुरकी, अरबी, फ़ारसी और हिन्दी का पर्याय-कोश है। यह कोश लिखकर खुसरो ने हिन्दी से अरबी-फारसी और अरबी-फ़ारसी से हिन्दी सीखने वालों का मार्ग अत्यन्त प्रशस्त कर दिया। इनकी यह रचना फ़ारसी के आरम्भिक छात्रों में अत्यन्त लोकप्रिय है। इस विदेशी, विधर्मी लेखक की हिन्दी भाषा की पवित्रता और श्रेष्ठता पर अगाध श्रद्धा देखकर हमें आज के ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा के उपासकों पर दया-सी आती है। वे लोग हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के पक्ष में प्रचार करते हैं । महात्मा गाँधी जैसे महान् नेता भी एक बार तो उनके झांसे में आकर हिन्दुस्तानी की वकालत कर बैठे थे। यह मुस्लिम कवि या लेखक हिन्दी की इसलिए महत्ता या श्रेष्ठता स्वीकार करता है कि उस पर विदेशी प्रभाव नहीं है। वह सर्वथा स्वतन्त्र शुद्ध और सुसंस्कृत भाषा है। खालिकबारी का एक उदाहरण देखिए-
खलिकबारी सिरजनहार।
बाहिद एक विदा कर्तार ॥
मुश्क काफूर अस्त कस्तूरी कपूर ।
हिंदवी आनंद शादी और सरूर ॥
मूश चुहा गुर्वः बिल्ली मार नाग ।
सोजनो रिश्तः बहिंदी सुई ताग ॥
गंदुम गेहूँ नखूद चना शाली है धान ।
ज़रत जोन्हरी असद मसूर बर्ग है पान ॥
क्या हिन्दुस्तानी के समर्थक इस शुद्ध हिन्दी को विदेशी तत्वों से लाद कर इसे ‘वर्णन संकर’ बना देने के लिए कमर नहीं कसे बैठे हैं। हमें उन पर दया भी आती है और रोष भी।
खुसरो की पहेलियाँ:
खुसरो अपनी पहेलियों के भी काफ़ी लोकप्रिय हुए । शायद ही कोई ऐसा हिन्दी भाषा-भाषी व्यक्ति हो जिसके मुख पर खुसरो की कोई-न-कोई पहेली न विराजती हो। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हिन्दी साहित्य का इतिहास खुसरो के नाम पर प्रचलित कुछ पहेलियाँ बाद में उनके नाम से जोड़ दी गई हैं तथा उनकी स्व-रचित पहेलियों की भाषा में कुछ हद तक बदल गई हैं। कुछ पहेलियाँ बानगी रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं-
तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया।
बाप का उसके नाम जो पूछा आधा नाम बताया।
आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेली मेरी।
अमीर खुसरो यो कहें अपने नाम न बोली ॥
उत्तर:
‘निबोली’ (नीम का फल)।
(ii) फारसी बोले आईना, तुरकी सोचे पाईना।
हिन्दी बोलते आरसी आए, मुँह देखे जो इसे बताए ।।
उत्तर:
‘आईना’ (दर्पण)।
(ii) आदि कटे तो सब को पार, मध्य कटे तो सब को मारे।
अन्त कटे तो सबको मीठा, सो खुसरो मैं आँखो दीहा ॥
उत्तर:
‘काजल’।
(iv) बीसों का सिर काट लिया, न मारा न खून किया ॥
उत्तर:
‘नाखून’।
(v) खेत में उपजे सब कोई खाय, घर में उपजे घर को खाय॥
उत्तर:
‘फूट’ (खरबूजे जैसा एक फल जो फीका होता है, ज़रा बड़ा होने पर फट जाता है। इसलिए पंजाबी में उसे फुट कहते हैं)
(vi) एक नार दो को लै बैठी, टेढ़ी हो के बिल में बैठी।
जिस के बैठे उसे सुहाय, खुसरो उसके बल जाय।
उत्तर:
‘पायजामा’।
(vii) एक नार ने अचरज कीन्हा, साँप पकड़ ताल में दीन्हा।
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खाए, ताल सूख साँप मर जाए।
उत्तर:
‘दिया बाती’।
दोसुखने-खुसरो के दोसुखने भी जन-जन में आज तक प्रचलित हैंकुछ दोसुखने यहाँ प्रस्तुत हैं
जूता क्यों न पहना – समोसा क्यों न खाया ? – तला न था।
अनार क्यों न चखा – वजीर क्यों न रखा ? – दाना न था।
(दाना का अर्थ अक्लमंद होता है)
पण्डित क्यों पियासा- गदहा क्यों उदासा ? – लोटा न था।
पण्डित क्यों न नहाया – धोबिन क्यों मारी गई ? – धोती न थी।
पान सड़ा क्यों — घोड़ा अड़ा क्यों ? – फेरा न था।
मुकरनियाँ : खुसरो की मुकरनियाँ तो गाँवों में बहुत ही प्रचलित हैं। कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं
(1) सिगरी रैन मोहि संग जागा, भोर भई तब बिछुड़ न लागा।
उसके बिछुड़े फाटत हिया, क्यों सखि, साजन ? ना सखि, ‘दिया’ ।
(2) सरब सलोना सब गुन नीका।
वा बिन सब दिन लागे फीका।
वाके सर पर होवै कौन।
ए सखि,साजन ? ना सखि, ‘लौन’ ।।
(3) वह आवे तब शादी होय।
उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे बाके बोल।
क्यों सखि, साजन ? ना सखि, ‘ढोल’॥
लोकगीत : अमीर खुसरो ने ऐसे बहुत-से गीत लिखे हैं जो ग्रामीण स्त्रियों में लोक गीतों के रूप में आज भी प्रचलित हैं। कुछ गीतों की पंक्तियाँ यहाँ दी जा रही हैं-
(1) अम्मा, मेरे बाबा को भेजो जी, कि सावन आया।
बेटी, तेरा बाबा तो बुड्ढा री, कि सावन आया।
(2) चूक भई कुछ वासो ऐसी, देश छोड़ भयो पर देशी।
(3) मेरा जोवना नवेलरा भयो है गुलाल।
कैसे दर दीनी बकस मोरी लाल ॥
नुस्खे:
खुसरो ने आयुर्वेद और यूनानी उपचार पद्धति के अनुसार अनेक नुस्खे भी लिखे हैं जिनका प्रयोग गाँवों में बड़ी बूढ़ियाँ आज भी करती हैं। आँखों का एक नुस्खा यहाँ प्रस्तुत है
लोध फिटकरी मुर्दासंग । हल्दी, जीरा एक एक टंग॥
अफीम चना भर मिर्च चार । उरद बराबर थोथा डार ।।
पोस्त के पानी पोटली करे। तुरत पीर नैनों की हरे॥
कव्वाली और सितार के आविष्कारक-अमीर खुसरो प्रसिद्ध गवैये भी थे। ध्रुपद के स्थान पर कव्वाली बनाकर उन्होंने बहुत से नए राग निकाले थे, जो आज तक प्रचलित हैं। कहा जाता है कि उन्होंने बीन में कुछ परिवर्तन करके ‘सितार’ बनाया था। सन् 1324 ई० में खुसरो के गुरु निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु हो गयी। खुसरो उस समय बंगाल में बादशाह गियासुद्दीन तुग़लक के साथ दौरे पर थे। समाचार सुनते ही तुरन्त वहाँ से चल दिये। उनकी कब्र के पास पहुँचकर उन्होंने यह दोहा पढ़ा-
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केश।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥
कहते हैं कि गुरु की मृत्यु के बाद खुसरो ने अपना सब कुछ ग़रीबों में बाँट दिया और स्वयं उनकी मजार पर जा बैठे। उसी वर्ष अर्थात् सन् 1324 ई० में उनकी मृत्यु हो गयी। उनको भी इनके गुरु की कब्र के करीब दफनाया गया। सन् 1605 ई० में ताहिर बेरा नामक अमीर ने वहाँ पर मकबरा बनवा दिया। संक्षेप में, हम इतना ही कहना चाहेंगे कि खुसरो हिन्दी खड़ी बोली के पहले कवि हुए हैं जिन्होंने बोल-चाल की भाषा का प्रयोग कर हिन्दी कविता को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
3. चन्दबरदाई
आदिकाल के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि चन्दबरदाई का जन्म लाहौर में हुआ था। इसके पिता का नाम रावमल्ह था। ये जगाति गोत्र के ब्रह्मभट्ट थे। पृथ्वीराज चौहान के जन्म से पूर्व इनके पिता इन्हें लेकर महाराज सोमेश्वर के दरबार में आ गए थे। चन्द से महाराज बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपने दरबार में रख लिया। धीरे-धीरे वे महाराज के विश्वासपात्र बन गए। इस घटना से यह सिद्ध होता है कि चन्द पृथ्वीराज चौहान से बड़े थे। पृथ्वीराज का जन्म सम्वत् 1205 माना जाता है। मिश्र बन्धुओं ने पृथ्वीराज और चन्दबरदाई की आयु में 23 वर्ष का अन्तर बताया है। इस आधार पर चन्द का जन्म सं० 1183 के लगभग बैठता है किन्तु चन्द की प्रसिद्ध रचना पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्दों के अनुसार पृथ्वीराज, संयोगिता और चन्द का जन्म एक ही साथ हुआ था। इस कारण चन्द की जन्म तिथि के सम्बन्ध में अभी तक कोई निश्चय नहीं हो पाया।
किन्तु इतना तो सर्वमान्य है कि चन्द और पृथ्वीराज जीवनपर्यन्त साथ रहे। आखेट में, मंत्रणा में, राज्यसभा में, सर्वत्र पृथ्वीराज के लिए चन्द की उपस्थिति अपेक्षित थी।
‘रासो’ के अनुसार पृथ्वीराज और चन्द की मृत्यु भी एक ही दिन हुई थी। जब शहाबुद्दीन गौरी के हाथों पराजित पृथ्वीराज बन्दी के रूप में गज़नी ले जाए गए थे तो चन्द भी योगी का भेष धारण कर गज़नी पहुँच गया। किसी-न-किसी तरह चन्द ने गौरी के कानों तक यह बात पहुँचा दी कि पृथ्वीराज शब्दबेधी बाण चलाने की कला जानता है। गौरी ने पृथ्वीराज की आँखें फोड़ दी थीं, इसलिए उसके लिए यह एक तमाशे से बढ़कर कुछ न था। उसने इस तमाशे को सबको दिखाने का प्रबन्ध किया। भरी सभा में चन्द ने पृथ्वीराज को यह समझा दिया कि गौरी कहाँ है।
चार बांस चौबीस गज़ अष्ट अंगुल प्रमान।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूकियो चौहान॥
इस संकेत को पाकर महाराज पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण चलाया और वह गौरी के तालू को बेधता हुआ निकल गया। इधर गौरी के सैनिकों से अपमानित होने की अपेक्षा चन्द ने पहले पृथ्वीराज को छुरा घोंप दिया और फिर स्वयं भी उसी छुरे से आत्महत्या कर ली। इस प्रकार सं० 1249 में इस महान् कवि का प्राणान्त हुआ।
रचनाएँ:
चन्दबरदाई द्वारा केवल एक ही ग्रंथ लिखा गया माना जाता है। जिसका नाम है ‘पृथ्वीराज रासो’- इस ग्रन्थ की आज तक चार प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं। इन चारों में अनेक घटनाओं, नामों और तिथियों का अन्तर होने के कारण इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता अभी तक विद्वानों में वाद-विवाद का विषय बनी हुई है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासवेत्ता ‘गार्सा दि तासी’ के अनुसार चन्दबरदाई ने ‘जै चन्द्र प्रकाश या जयचन्द्र का इतिहास’ नामक एक और ग्रन्थ लिखा है। जिसका उल्लेख वार्ड महोदय ने भी किया है परन्तु सर एच० इलियट का अनुमान है कि चन्द्रकृत जयचन्द्र प्रकाश कोई भिन्न ग्रन्थ नहीं वरण पृथ्वीराज रासो का कन्नौज खण्ड भाग है जिसका अनुवाद कर्नल टाड ने ‘संगोप्तानेम’ के नाम से एशियाटिक जर्नल में प्रकाशित किया था।
रासो का काव्य सौन्दर्य:
अपनी कृति के साहित्यिक सौन्दर्य पर प्रकाश डालता हुआ कवि स्वयं आदि पर्व में कहता है-
अति ढक्यौ न उधार सलिल जिमि जानि सिवालह।
वरन वरन सुवृत हार चतुरंग विसालह॥
……. ………….. …………….
…………. . …………. ………………
जुत अजुत अग्गि विचार बहुवचन छन्द छुटयौ न कहि।
घटि बढ़ि कोई मच्यह पढ़े चन्द दोस दिज्जोन चहि।
अर्थात्:
“इस रासो का अर्थ न तो अत्यन्त ढका हुआ है और न ही सवर्था स्पष्ट तथा बोधगम्य है, किन्तु जल के मध्य में सिवार के समान है। तात्पर्य यह है कि अर्थ अनुगंधान करने पर प्रतीत होता है। प्रत्येक वर्ण से युक्त अर्थ लाल, पीले, सफ़ेद आदि अनेक प्रकार के पुष्पों से, चारों ओर से गूंथे हुए विशाल हार की तरह शोभायमान है। रासो में विमल-अमल वाणी का विलास है, अर्थात् छन्दोंभंग आदि दोषों से रहित है, सुन्दर वचनों से युक्त उत्कृष्ट वर्णन है। मन को आनन्दित करने वाले मनोहर शब्द हैं, अर्थात् वीर रस में ओजस्वी शब्द हैं।”
अपनी कृति के सम्बन्ध में चन्दबरदाई का यह कथन सत्य प्रतीत होता है। रासो’ का काव्य सौन्दर्य और साहित्यिक सौष्ठव बेजोड़ है। रासो में उत्कृष्ट भाव व्यंजना और सुन्दर अलंकारों की छटा, रसभरी कल्पनाओं का विलास, मन को मोहने वाली उक्तियां, उसे हिन्दी के उत्कृष्ट काव्य ग्रन्थों की श्रेणी में ला खड़ा करती हैं। ‘रासो’ एक सफल महाकाव्य है। इसमें, प्रधानतः दो रस हैं-श्रृंगार और वीर। पृथ्वीराज जितना रणबांकुरा है, उतना सजीला-कटीला, बांका जवान भी है। कवि ने उसके इन दोनों रूपों को बड़ी सुघड़ता से निभाया है। रासो में ऋतु, नखशिख, नगर, आखेट, वन, सेना युद्धादि के वर्णन बड़े मोहक और मुंह बोलते रूपचित्र जैसे लगते हैं। रूप और सौन्दर्य के चित्रण में तो कवि ने कमाल ही कर दिया है। पृथ्वीराज की रानियों ने नखशिख, रूप सौन्दर्य और शृंगार के चित्रण में तो कवि ने अपना हृदय खोल कर रख दिया है।
युद्ध के प्रसंगों से रासो भरा पड़ा है। कवि ने अपने ग्रन्थ में पृथ्वीराज के शौर्य का प्रदर्शन करने के अनेक कल्पना प्रसूत युद्ध प्रसंगों को स्थान दिया है। रासो’ के सभी युद्ध वर्णन बड़े सजीव और अद्वितीय हैं। भाव पक्ष के अतिरिक्त रासो का कला पक्ष भी चमत्कारपूर्ण है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, उदाहरण, अतिश्योक्ति इत्यादि अलंकारों को सर्वाधिक स्थान मिला है। रासो में लगभग 72 छन्द देखने में आते हैं जिनमें 32 मात्रिक और 30 वार्णिक हैं। रासो की भाषा अभी तक विवाद का विषय बनी हुई है। कुछ विद्वान् इसे राजस्थानी या डिंगल कहते हैं तो कुछ अपभ्रंश। किन्तु हिमाचल के प्रसिद्ध कहानीकार श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी इसे पुरानी हिन्दी मानते हैं। हमें उनका तर्क ही संगत प्रतीत होता है।
लघु प्रश्नोत्तर
आदिकाल
प्रश्न 1.
आदिकाल का समय कब से कब तक माना जाता है?
उत्तर:
आदिकाल का समय संवत् 1050 से संवत् 1375 तक माना जाता है।
प्रश्न 2.
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने आदिकाल को कौन-सा नाम दिया है ?
उत्तर:
आचार्य शुक्ल जी ने आदिकाल को वीरगाथा काल कहा है।
प्रश्न 3.
आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल नामकरण किस आधार पर किया है?
उत्तर:
आचार्य शुक्ल जी ने वीरगाथा काल नामकरण का आधार रासो ग्रन्थों को बनाया है।
प्रश्न 4.
कन्हीं दो रासो ग्रन्थों के नाम उनके रचनाकारों के नाम सहित लिखें।
उत्तर:
- पृथ्वी राज रासो-चन्दबरदाई
- परमाल रासो-जगनिक
प्रश्न 5.
आचार्य महावीर-प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को कौन-सा नाम दिया है ?
उत्तर:
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने आदिकाल को बीजवपन काल की संज्ञा दी है।
प्रश्न 6.
डॉ० रामकुमार वर्मा ने आदिकाल को कौन-सी संज्ञा दी है ?
उत्तर:
डॉ० राजकुमार वर्मा ने आदिकाल को संधिकाल तथा चारणकाल कहा है।
प्रश्न 7.
श्री राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी के आदिकाल को कौन-सा नाम दिया है?
उत्तर:
राहुल जी ने आदिकाल को सिद्ध सामन्त काल की संज्ञा दी।
प्रश्न 8.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल को यह नामकरण किस विद्वान् ने दिया है?
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के आदिकाल को आदिकाल की संज्ञा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने दी है।
प्रश्न 9.
सन्, ई० और विक्रमी संवत् में कितने वर्षों का अन्तर है?
उत्तर:
सन्, ई० और संवत् में 57 वर्षों का अन्तर है।
प्रश्न 10.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल की किन्हीं चार प्रवृत्तियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
- वीर रस की प्रधानता
- चरित काव्यों की प्रधानता
- आश्रयदाताओं का गुणगान
- इतिहास की अपेक्षा कल्पना की प्रचुरता
प्रश्न 11.
आदिकाल का आरम्भ किस शक्ति सम्पन्न हिन्दू शासक की मृत्यु के बाद हुआ?
उत्तर:
आदिकाल का आरम्भ सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद हुआ।
प्रश्न 12.
आदिकाल में मुसलमानी शासन किस कारण से आरम्भ हुआ?
उत्तर:
सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद मुसलमानी आक्रमण और तेज़ हो गए। भारतीय राजाओं की आपसी फूट और अव्यवस्था के कारण भारत में मुसलमानों का शासन स्थापित हो गया।
प्रश्न 13.
आदिकाल में स्त्री की दशा कैसी थी? ।
उत्तर:
आदिकाल में स्त्री की दशा बड़ी शोचनीय थी। उसे मात्र भोग की वस्तु समझा जाता था। स्त्री का बेचना, खरीदना या अपहरण करना साधारण बात थी।
प्रश्न 14.
आदिकाल में कौन-कौन से नए धर्म प्रचलित हए?
उत्तर:
आदिकाल में बौद्ध और जैन धर्म प्रचलित हुए।
प्रश्न 15.
पृथ्वीराजरासो के रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर:
पृथ्वीराजरासो के रचनाकार कवि चन्दबरदाई हैं।
प्रश्न 16.
आदिकालीन किन्हीं दो प्रमुख कवियों के नाम उनकी कृतियों सहित लिखें।
उत्तर:
आदिकाल में नरपतिनाल्ह द्वारा लिखित बीसल देव रासो तथा अब्दुल रहमान द्वारा लिखित संदेश रासक।
प्रश्न 17.
रासो ग्रन्थों की प्रमुख विशेषता क्या है ?
उत्तर:
रासो ग्रन्थों में वीर और शृंगार रस का समन्वय देखने को मिलता है।
प्रश्न 18.
आदिकालीन साहित्य में किस बात की कमी दिखाई पड़ती है?
उत्तर:
आदिकालीन साहित्य में राष्ट्रीयता की कमी दिखाई पड़ती है। उस युग में राष्ट्र शब्द समूचे देश का सूचक न होकर अपने-अपने प्रदेश या राज्य का सूचक था।
प्रश्न 19.
आदिकालीन लोकाश्रित काव्य धारा की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
खुसरो की पहेलियां, विद्यापति पदावली, ढोलामारूश दूहा तथा आलाहखण्ड।
प्रश्न 20.
विद्यापति की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
कीर्तिलता, कीर्ति पताका।
प्रश्न 21.
अमीर खुसरो की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखो।
उत्तर:
खालिक बारी और किस्सा चार दरवेश।
बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
‘भू-परिक्रमा’ रचना के रचनाकार कौन हैं ?
(क) विद्यापति
(ख) केशव
(ग) अज्ञेय
(घ) चंदवरदाई
उत्तर:
(क) विद्यापति
प्रश्न 2.
आदिकाल को वीरगाथा काल की संज्ञा किसने दी ?
(क) विद्यापति
(ख) रामचन्द्र शुक्ल
(ग) केशव
(घ) मिश्रबंधु
उत्तर:
(ख) रामचन्द्र शुक्ल
प्रश्न 3.
आरंभिक युग को आदिकाल की संज्ञा किसने दी ?
(क) रामचंद्र शुक्ल
(ख) मिश्रबंधु
(ग) विद्यापति
(घ) अज्ञेय।
उत्तर:
(ख) मिश्रबंधु
प्रश्न 4.
संधि काल और चारण काल की संज्ञा किसने दी ?
(क) रामचंद्र शुक्ल
(ख) रामकुमार वर्मा
(ग) विद्यापति
(घ) अज्ञेय
उत्तर:
(ख) रामकुमार वर्मा
प्रश्न 5.
विजयपाल रासो रचना को वीर गाथात्मक माना है?
(क) शुक्ल ने
(ख) अज्ञेय ने
(ग) मिश्रबंधु ने
(घ) विद्यापति ने
उत्तर:
(क) शुक्ल ने
प्रश्न 6.
‘पदावली’ रचना के लेखक कौन हैं ?
(क) विद्यापति
(ख) केशव
(ग) शुक्ल
(घ) घनानंद
उत्तर:
(क) विद्यापति
प्रश्न 7.
मुकरियां और पहेलियां के सर्वप्रसिद्ध रचनाकार हैं ।
(क) अज्ञेय
(ख) अमीर खुसरो
(ग) सिसरो
(घ) घनानंद
उत्तर:
(ख) अमीर खुसरो