Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल Questions and Answers, Notes.
PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल
प्रश्न 1.
भक्तिकाल की परिस्थितियों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
किसी भी युग का साहित्य एवं साहित्यकार तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का मानना है कि-‘प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है। जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के रूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों के अनुसार होती है।’ इसी बात को ध्यान में रखकर हम यहां भक्तिकालीन परिस्थितियों की चर्चा कर रहे हैं
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ:
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से भक्तिकाल को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। पहले भाग में तुगलक और लोधी वंश का शासन दिल्ली पर रहा (सं० 1375 से सं० 1583 तक) और दूसरे भाग में मुग़ल वंश के बाबर, हुमायूँ, अकबर जहांगीर और शाहजहां का शासन रहा (सं० 1583 से सं० 1700 तक) इस दृष्टि से यह काल विक्षुब्ध, अशान्त तथा संघर्षमय काल कहा जा सकता है। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के पश्चात् भारत में कोई भी दृढ़ हिन्दू राज्य नहीं रह गया था। परिणामतः मुहम्मद गौरी ने यहाँ शासन करने की ठानी, जबकि इससे पूर्व सभी मुसलमान आक्रमणकारी लूट मार कर के लौट जाते थे। कुतुबुद्दीन ऐबक ने यहाँ गुलामवंश की नींव रखी फिर खिलजी वंश के अलाउद्दीन ने केन्द्रीय शासन को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया। किन्तु उसके आँख मूंदते ही बहुत-से हिन्दू राजा उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने-अपने राज्यों की स्थापना की और 15वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते राजपूताना एक प्रमुख शक्ति बन गया। सन् 1526 में पानीपत के मैदान में बाबर ने इब्राहीम लोधी को पराजित करके मुग़ल शासन की नींव डाली जिसके अकबर, जहांगीर और शाहजहां बड़े पराक्रमी शासक हुए।
इस काल के आरम्भ में कट्टर तथा साम्प्रदायिक मुसलमान शासकों द्वारा हिन्दू जनता पर अकथनीय अत्याचार ढाए गए और हिन्दू आपस में बंटे हुए होने के कारण पिसते रहे । किन्तु बाद में जब हिन्दुओं में कुछ संगठन हुआ तो अकबर सरीखे बादशाहों ने उनकी महत्ता को समझ हिन्दुओं को मन्त्री पदों पर भी आसीन किया तथा संस्कृत तथा देशी भाषाओं के साहित्य संगीत और कला को प्रोत्साहन दिया। इन परिस्थितियों से साहित्य भी प्रभावित हुआ। उस समय राजाओं के अत्याचार का मुकाबला संतों की वाणी ने किया और गुरु नानक सरीखे कवि ने ‘राजे सिंह मुकदम कुत्ते’ तक शब्द कह डाले।
सामाजिक परिस्थितियाँ:
मुसलमानों का शासन स्थापित हो जाने के कारण यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आदान-प्रदान हुआ वहां हिन्दुओं में आत्मलघुता के कारण जात-पात और शादी-ब्याह के नियम और कड़े हो गए। मुसलमानों ने हिन्दू लड़कियों से शादियों करनी शुरू की। परिणामस्वरूप एक ही परिवार के कुछ लोग मुसलमान और कुछ हिन्दू रह गए। जाति-पाति के जो बन्धन कठोर हो रहे थे उनके विरुद्ध आवाज़ भी उठनी शुरू हो गयी थी। कबीर, गुरु नानक इत्यादि संत कवियों ने इसका खुलकर विरोध किया ‘हरि को भजे सो हरि का होई’ का नारा उन्होंने लगाया। शेरशाह ने ज़मींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था किन्तु मुग़लों ने इसे फिर आरंभ कर दिया जिससे उस वर्ग में भोग-विलास तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन बिताने की आदत सी पड़ गई। इसी विलासिता से बचने के लिए हिन्दुओं में पर्दे और बाल-विवाह का प्रचलन हुआ।
हिन्दुओं के पास धन संचित करने के कोई साधन नहीं रह गए थे और उनमें से अधिकांश को निर्धनता, अभावों एवं आजीविका के लिए निरन्तर संघर्ष में जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर बहुत निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्त थे। धार्मिक परिस्थितियाँ-उस समय के भारत में तीन प्रकार की धार्मिक परिस्थितियाँ थीं। पहली बौद्ध-धर्म की विकृत अवस्था, दूसरी वैष्णव धर्म की परम्परागत अवस्था तथा तीसरी विदेशी धार्मिक अवस्था जिसने सूफी धर्म को जन्म दिया।
महात्मा बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म दो गुटों में बँट गया। हीनयान और महायान। हीनयान में दार्शनिक पक्ष की दार्शनिक जटिलता थी अतः कम लोगों की आस्था उस पर टिक सकी। महायान में सिद्धान्त के स्थान पर व्यवहार पक्ष की प्रधानता थी। उसमें सभी वर्गों के लोगों को शामिल होने की आज्ञा थी। पहला अधिक कट्टरता के कारण संकुचित होता गया तो दूसरा अधिक उदारता के कारण विकृत। शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने बौद्ध-धर्म पर प्रखर प्रहार किया और वैदिक-धर्म का पुनरुद्धार किया। सुसंस्कृत जनता शंकर धर्म के उपदेशों से प्रभावित हुई। महायान सम्प्रदाय ने जनता के असंस्कृत वर्ग को जन्त्र-मन्त्र, अभिचार और चमत्कार से वशीभूत किए रखा। यही सम्प्रदाय आगे चलकर मन्त्रयान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी से चौरासी सिद्ध दीक्षित हुए। सिद्धों ने जन्त्र-मन्त्र को अपनाते हुए भी इसमें बहुत-से सुधार किए। इन्हीं सिद्धों का विकसित रूप नाथ सम्प्रदाय हुआ। इन्हीं सिद्धों और नाथों की मुख्य-मुख्य रूढ़ियाँ सन्त मत की धार्मिक पृष्ठ-भूमि बनीं।
भक्ति की लहर दक्षिण से आई। शंकराचार्य ने बौद्ध-धर्म के विरोध में अद्वैतवाद का प्रचार किया। इसकी प्रतिक्रिया में अनेक दार्शनिक सम्प्रदाय चल निकले, जिनमें नारायण की भक्ति पर अधिक बल दिया गया। विष्णु के अवतार राम और कृष्ण की कल्पना की गई। रामानन्द ने भक्ति का मार्ग सबके लिए खोला और जन-भाषा में अपने सिद्धान्तों पर प्रचार किया।
प्रश्न 2.
भक्तिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भक्ति-काल के आरम्भ होने से पूर्व ही प्रान्तीय भाषाएँ अपने-अपने अपभ्रंशों का अनुसरण करते हुए हिन्दी के समान्तर साहित्य रचना में प्रवृत्त थीं। इनमें वर्ण्य विषयों, काव्य रूपों तथा रचना शैलियों की विविध परम्पराएँ प्रचलित थीं जो कुछ अटपटी और अनगढ़-सी प्रतीत होती थीं। धीरे-धीरे इनमें निखार आने लगा। भक्ति-काल के आते-आते इनमें और अधिक निखार आया तथा नवीन संस्कारों का प्रवेश हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धों, नाथों और सूफियों की परम्पराओं का विकास होने लगा और साहित्य निर्माण की नवीन पद्धतियों और प्रवृत्तियों के रूप उभरने लगे। इस क्षेत्र में हिन्दी भाषा सब से आगे रही।
सूफी कवियों ने जैन कवियों की शील-वैराग्य परंपरा को विकसित किया। ज्ञानमार्गी सन्तों ने प्राकृत साहित्य में प्रचलित सूक्तियों के अनुकरण में ‘दूहा’ छन्द अपनाया जिसे बाद में ‘साखियों के लिए अपना लिया गया। बौद्ध सिद्धों द्वारा अपनायी शैली जिसमें संवाद शैली और लोक प्रचलित गीतों की परम्परा प्रमुख थी-का विकास निर्गुण सन्तों के काव्य में देखने को मिलता है-यथा बारहमासा आदि के रूप में साहित्य रचना।
निर्गुण भक्ति-काव्य ने नाथ साहित्य से अधिक प्रभाव ग्रहण किया। सन्त कवियों की वाणी में नाथ पंथ के योग साधना और निवृत्ति मार्ग का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। दूसरी ओर सूफी कवियों में पौराणिक आख्यानों का प्रयोग न करते हुए प्रेमाख्यानों का अपने मत के प्रचार के लिए उपयोग किया।
अमीर खुसरो और फैज़ी ने फ़ारसी साहित्य में भारतीय विषयों का समावेश कर परवर्ती फ़ारसी कवियों को प्रेरणा दी। भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद फ़ारसी भाषा में होने लगे। फ़ारसी साहित्य के अनुकरण पर सूफी मार्गी सन्तों ने मसनवी शैली को हिन्दी साहित्य रचना में अपनाया। उपर्युक्त साहित्यिक प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि में भक्ति-काव्य की रचना प्रारम्भ हुई जिसकी सामान्य प्रवृत्तियाँ अग्रलिखित हैं
1. सदाचार तथा नैतिक भावना पर बल:
निर्गुण साहित्य की प्रेरणा प्राचीन काल से ही विद्यमान रही है जिसे बौद्ध धर्म की श्रमण संस्कृति से बल और बढ़ावा मिला। इसका उद्देश्य व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए आध्यात्मिक दृष्टि का सहारा लेना था। कालान्तर में महायानियों द्वारा उसे ‘बहुजन हिताय’ का नया मोड़ दिया जिसमें वैदिक आदर्श सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की ध्वनि प्रतिध्वनित थी। भक्ति-काल में इसी सिद्धान्त की पूर्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक भावना पर बल दिया गया। कबीर की साखियाँ उस संदर्भ में विशेष महत्त्व रखती हैं।
2. व्यक्तिगत साधना की अपेक्षा सामूहिक पूजन अर्चन पर बल:
विदेशी एवं विजातीय मुसलमानों के आक्रमणों और शासन के फलस्वरूप हिन्दुओं ने आत्म रक्षार्थ उपाय खोजने शुरू किये। हिन्दू जनता मुसलमानों से भयभीत होने की अपेक्षा अधिक सजग और सचेत हो गई। हिन्दुओं के काशी और मथुरा जैसे स्थानों पर बड़े-बड़े मन्दिर गिरा दिये जाने के फलस्वरूप छोटे-छोटे मन्दिरों की बाढ़-सी आ गई। घर-घर देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हो गयीं। यह अपने ढंग की एक सामूहिक जागृति थी जिसके फलस्वरूप व्यक्तिगत साधना की अपेक्षा सामूहिक पूजन-अर्चन, भजन-कीर्तन की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ने लगी। सगुण भक्त कवियों ने अपने काव्य द्वारा इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। राम भक्त कवियों ने टकराव की स्थिति को दूर कर वैष्णव, शैव और शाक्तों को एक करने का प्रयास कर आपसी भेदभाव दूर किये। उन परिस्थितियों में जातीय एकता अत्यावश्यक थी।
3. लोक भाषाओं का महत्त्व:
भक्ति कालीन कवियों ने आम आदमी तक अपने विचार पहुँचाने के उद्देश्य से लोक भाषाओं को अति उत्तम साधन माना। उन्होंने मौखिक परम्परा की स्तरीय रचनाओं को भी लिपिबद्ध कर उन्हें सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। लोक भाषाओं को महत्त्व दिये जाने का ही यह फल है कि भक्ति-काल में जहाँ महाकाव्यों के माध्यम से शास्त्रीय शैली में राजपुरुषों तथा दिव्य नायकों को महत्त्व मिलने लगा, वहाँ जन जीवन की उपेक्षित अनुभूतियों को भी अभिव्यक्ति मिलने लगी। साथ ही इस काल में लोक गीतों, लोक कथाओं आदि को भी यथेष्ठ सम्मान मिलने लगा। ये सभी रचनाएँ लोक रुचि के अनुरूप थीं। अतः ये जनसाधारण में अत्यधिक लोकप्रिय हुईं। ज्ञान मार्गी सन्त कवियों ने आम बोलचाल की भाषा को अपनाया तो प्रेम मार्गी सूफी सन्त कवियों में अवधी भाषा को और कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा और राम भक्त कवियों में अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं में अपना साहित्य रचा। यही कारण है कि इस युग का साहित्य सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ क्योंकि यह मूल रूप में जनसाधारण के लिए उन्हीं की भाषा में लिखा गया था।
4. समन्वयात्मक दृष्टि को बढ़ावा:
लोगों में आत्म विश्वास बढ़ने का यह परिणाम हुआ कि पारस्परिक सहयोग के लिए समन्वयात्मक दृष्टि से काम लिया जाने लगा। सूफी सन्तों की समन्वयात्मक प्रवृत्ति ज्ञान मार्गी सन्तों ने भी अपनाई। तुलसी का तो समूचा काव्य ही समन्वय की जीती जागती तस्वीर है। समन्वय की इस भावना से जो साहित्य रचा गया उससे धार्मिक साम्प्रदायिकता का स्वर क्षीण हो गया। सन्त कवियों-कबीर और गुरु नानक को तथा सूफी सन्त कवियों को हिन्दू और मुसलमान समान रूप से आदर की दृष्टि से देखते हैं। नानक पन्थी और कबीर पन्थी हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी।
5. नाम की महत्ता:
जप कीर्तन आदि निर्गुणधारा के एवं सगुण धारा के कवियों में समान रूप से मान्य है। कबीर ‘नाम’ को सभी रसायनों से उत्तम समझते हैं – “सभी रसायन हम करौ, नहीं नाम सम कोय” सूफी कवि और कृष्ण भक्त कवि कीर्तन की महत्ता को स्वीकार करते हैं। सूर कहते हैं – “भरोसौ नाम को भारी” तुलसी ने तो नाम को राम से भी बड़ा माना है।
संक्षेप में, कहें तो ‘नाम’ में निर्गुण और सगुण दोनों का समन्वय हो गया है। एक उदाहरण प्रस्तुत है
‘अगुन सगुन दुई ब्रह्म स्वरूपा। अकथ अगाध अनादि अनुपा॥
मोरे मत बढ़ नाम दुहुँ ते। किये जेहि जुग निज बस निज बूते॥
कबीर ने भी कहा-‘निर्गुण की सेवा करो सगुण का धरि ध्यान।’
6. गुरु की महिमा:
गुरु के महत्त्व को निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं के कवियों ने स्वीकार किया है। कबीर कहते हैं- “गरु हैं बड़े गोबिन्द से मन में देख विचारि।’ जायसी ने भी पद्मावत में गुरु के महत्त्व को दर्शाने वाला पात्र ‘सुआ’ का निर्माण किया-‘गुरु सुआ जेहि पन्थ दिखावा’ ! सूरदास ने लिखा-‘बल्लभ नख चन्द्र छटा बिन सब जग माहिं अँधेरा’ और तुलसी ने ‘मानस’ के आरम्भ में गुरु वन्दना करते हुए लिखा-‘बन्दउँ गुरु पद पद्म परागा’। भक्ति-कालीन कवियों ने गुरु को ईश्वर से मिलाने वाला या ईश्वर से मिलने का मार्ग बताने वाला तथा जीवन पथ में सही राह दिखाने वाला माना है।
7. भक्ति-भावना की प्रधानता-भक्ति-काल की निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं में भक्ति-भावना पर अधिक बल दिया गया। कबीर ने कहा-‘हरि भक्ति जाने बिना बुडि मुआ संसार’। सूफी सन्तों का प्रेम भी भक्ति का ही रूप है और सगुण भक्त तो भक्त हैं ही। सगुण भक्त-कवियों ने ज्ञान का नहीं भक्ति-विरोधी ज्ञान का विरोध किया। सूरदास और नन्ददास ने भ्रमर गीत के माध्यम से यही बात कहनी चाही है। तुलसी तो थे ही समन्वयवादी। उन्होंने ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं किया। वे कहते हैं-‘ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरिह भव सम्भव खेदा।’ तुलसी दास ने ज्ञान और भक्ति का समन्वय करते हुए भक्ति को प्रधानता दी है। उन्होंने भक्ति को चिन्तमणि कहा है और ज्ञान को दीपक, जो माया की हवा में बुझ जाता है।
8. शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा निजी अनुभव पर विशेष बल-भक्ति-कालीन कवियों ने शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा निजी अनुभव को अधिक महत्त्व दिया। कबीर जी ‘ढाई अक्षर प्रेम के’ का महत्त्व देते हुए शास्त्र ज्ञान को निरर्थक बताते हुए कहते हैं-‘पोथी पढ़ि जग मुआ, पण्डित हुआ न कोय।’ तुलसी जी ने भी केवल वाक्य ज्ञान को अपर्याप्त मानते हुए कहा है – ‘वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावे कोई।’ सूर और नन्ददास की गोपियाँ तो अपने प्रेम के निजी अनुभव के आधार पर उद्धव जैसे ज्ञानी को भी यह कहने पर विवश कर देती हैं-
जे ऐसे मरजाद मेटि मोहन को ध्यावें।
काहे न परमानन्द प्रेम पदवी सबु पावें ॥
ज्ञान जोग सब कर्म ते प्रेम परे हैं साँच।
हौं या पटतर देत हौं हीरा आगे काँच॥
उपर्युक्त समान प्रवृत्तियों के होते हुए भी निर्गुण और सगुण भक्ति धारा के कवियों के दृष्टिकोण में थोड़ा बहुत अन्तर था किन्तु लक्ष्य दोनों का एक ही था-जीवन को ऊँचा उठाना, भक्ति द्वारा ईश्वर की प्राप्ति। साधन अथवा मार्ग भले ही अलग-अलग थे, पर लक्ष्य एक ही था।
भक्तिकाल के प्रमुख कवि
1. कबीर प्रश्न
1. कबीर जी का संक्षिप्त जीवन परिचय देकर उनकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन परिचय-हिन्दी-साहित्य में भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा का कबीर जी को प्रवर्तक माना जाता है। कबीर जी भक्तिकाल के उन जन कवियों में से हैं जिन्होंने जन-भाषा में भक्ति का प्रकाश फैलाकर लोक मानस को पवित्र किया। उनकी प्रेममयी वाणी जहाँ मानव मन को मानवीय गरिमा से भर देती है, वहाँ उनकी ओजस्वी वाणी मानसिक और दिमागी संकीर्णताओं के बन्धन से मुक्त करती है। किन्तु खेद का विषय है कबीर जी के वास्तविक नाम, जन्म, मृत्यु, निवास स्थान एवं पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में निर्विवाद रूप में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कबीर पन्थी साहित्य में ‘कबीर चरित्र बोध’ में कबीर जी का जन्म वि० सम्वत् 1455 में ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा दिन सोमवार को हुआ लिखा गया है। इसके प्रमाण में निम्नलिखित दोहा दिया गया है
चौदह सौ पचपन साल गये, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए।
अनेक विद्वानों ने इसी तिथि को कबीर जी का जन्म होना स्वीकार किया है।
अनन्त दास की परचई के अनुसार कबीर जी की मृत्यु सं० 1575 में हुई। इस तरह उन्होंने 120 वर्ष की दीर्घ आयु पाई। प्रमाणस्वरूप अग्रलिखित दोहा प्रस्तुत किया जाता है
संवत् पन्द्रह सौ पचहत्तर कियौ मगहर को गौन।
अगहन सुदी एकादसी रलौ पौन में पौन॥
रचनाएँ:
इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि कबीर जी ने पुस्तकीय शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। उन्होंने स्वयं कहा है ‘मसि कागद छुओ नहिं कलम गहि नहि हाथ।’ उन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को महत्त्व दिया। उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने कबीर जी की समस्त वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से किया। इसके तीन भाग हैं
1. साखी 2. सबद 3. रमैणी।
डॉ० श्याम सुन्दर दास जी ने कबीर जी की सभी रचनाओं को ‘कबीर ग्रंथावली’ के रूप में प्रकाशित किया है। काव्यगत विशेषताएँ-कबीर वाणी का अध्ययन करने पर हम उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ पाते हैं
1. निर्गुण उपासना–कबीर जी ने ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना पर बल दिया। उनका मानना था कि ईश्वर एक है और वह निर्गुण निराकार है। वह पंच भौतिक तत्वों से परे अनाम और अजन्मा है। कबीर जी कहते हैं
जाके मुँह माथा नहीं, नाही रूप कुरूप।
पहुंप वास ते पातरा, ऐसा तत अनूप॥
निराकार निर्गुण ब्रह्म ही इस सारी सृष्टि का कर्ता है, परन्तु वह अजन्मा है, अनित्य है
जन्म मरन से रहित है, मेरा साहिब सोय।
बलिहारी वह पीव की, जिन सिरजा सब कोय॥
कबीर वाणी में अनेक स्थानों पर ‘राम’ शब्द आया है। इससे कबीर जी का आशय दशरथ पुत्र श्रीराम से न होकर ‘पूर्ण ब्रह्म’ ही है।
2. एकेश्वरवाद-कबीर जी ऐसे पहले भारतीय थे जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उनके बाद सभी सन्त कवियों ने उनका अनुसरण किया। मुसलमान भी एकेश्वर तथा उसके निराकार रूप में विश्वास रखते थे और हिन्दुओं में भी बहुत-से लोग बहुदेववाद में विश्वास नहीं रखते थे बल्कि सभी देवी-देवताओं को एक ही ईश्वर का रूप मानते थे – ‘एकं सत्यं विद्या बहुधा वदन्ति’ हिन्दुओं का निर्गुणवाद खुदावाद के बहुत निकट आ जाता था। इसलिए कबीर जी ने एकेश्वरवाद का प्रचार कर–‘राम और रहीम’, ‘कृष्ण और करीम’ को एक ही ईश्वर का रूप बताया। उन्होंने कहा जिस प्रकार काली गाय और गोरी गाय के दूध में कोई अन्तर नहीं, उसी तरह अल्लाह और ईश्वर में भी कोई अन्तर नहीं है। दोनों एक ही रूप हैं। वे कहते हैं–
खालिक खलक खलक में खालिक सब घट रहयौ समाई॥
3. भक्ति-भावना-कबीर जी ने ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रेम-भक्ति को मूलाधार माना है। कबीर के अनुसार, ‘ढाई अक्षर’ प्रेम के पढ़ने वाला पण्डित हो जाता है किन्तु यह प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन है। इसमें जो आत्म-त्याग करता है वही प्रभु को पाता है। कबीर जी कहते हैं
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाही नाहिं।
सीस उतारै भुईं धरै, तब पहुँचो घर माहिं॥
यह प्रेम न तो खेतों में उगता है और न हाट पर बिकता है। इसका मोल तो सिर है जो दे वह ले जाए
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देइ लै जाय॥
कबीर की भक्ति निर्गुण राम की भक्ति है। कबीर जी कहते हैं कि संसार में जन्म लेकर जिसने ईश्वर की भक्ति नहीं की, जिसने प्रेम का स्वाद नहीं लिया उस मनुष्य का जीवन व्यर्थ है
कबीर प्रेम न चाखिया, चषि न लीया साव।
सूने घर का पाहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव॥
कबीर की यह भक्ति ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से, बिना किसी शर्त आत्म-समर्पण की भावना है। वे कहते हैं
फाड़ि पुटोला धज करौ, कामलड़ी पहिराउं।
जिहि जिहि भेषां हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराऊं॥
कबीर जी कहते हैं कि आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण भावना और एकान्तनिष्ठा कुत्ते जैसी होनी चाहिए.
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
ज्यूं हरि राखे त्यू रहौं, जो देवे सो खाऊँ॥
4. गुरु महिमा-सभी भक्तिकालीन कवियों ने गुरु की महिमा का गुण-गान किया है। कबीर जी की मान्यता है कि गुरु कृपा बिना ईश्वर की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिए वे गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हुए कहते हैं
गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागू पायं।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोबिन्द दियो बताय॥
कबीर एक स्थान पर गुरु और गोबिन्द को एक मानते हुए कहते हैं कि सतगुरु से मिलन या साक्षात्कार उसी अवस्था में हो सकता है जब शिष्य अपने आपे (अहंभाव) को त्याग दे।
गुरु गोबिन्द तो एक हैं, दूजा यहु आकार।
आपा मेट जीवत मरौ, तो पावे करतार॥
कबीर के अनुसार, ‘सतगुरमिलिआ मारगु दिखाइआ’ तथा गुरु की कृपा से ही हरि रूपी धन को पाया है-‘गुर प्रसादि हरि धन पायो।’
5. नाम-स्मरण पर बल-कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर के नाम-स्मरण में बड़ी शक्ति है। नाम- स्मरण से ही व्यक्ति की मुक्ति सम्भव हो सकती है। कबीर जी कहते हैं
मेरा मन सुमिरै राम कुँ मेरा मन रामहि आहि।
अब मन रामहि द्वै रह्या सीस नवावौ काहि॥
कबीर शरीर रहते नाम भजन करने की सलाह देते हुए कहते हैं
लूटि सकै तौ लूटियौ, राम नाम है लूटि।
पीछे ही पछताहुगे, यहु मन जैहे छूटि॥
नाम जपने से ही त्रिगुणात्मक माया के बन्धन कट जाते हैं। कबीर जी कहते हैं
गुण गायें गुण नाम कटैं, रटै न राम वियोग।
अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्यूं पावे दुर्लभ योग॥
कबीर जी कहते हैं कि नाम-स्मरण से भक्ति और मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है
चरण कंवल चित्त लाइये, राम नाम गुन गाइ रे।
कहै कबीर संसा नहीं, भक्ति, मुक्ति गति पाइ रे॥
6. माया का विरोध-ज्ञानमार्गी सन्त कवियों ने माया को ईश्वर भक्ति और प्राप्ति में बाधक मानते हुए उसे महाठगनि कहा और इससे बचकर रहने का उपदेश दिया। कबीर जी कहते हैं कि माया ही सारे संसार के दुःखों का कारण है
माया तरवर त्रिविध का, साखा दुःख संताप।
सीतला सपनै नहीं, फल फीको तनि ताप॥
कबीर जी इस माया से बचने का एक ही उपाय, सतगुरु की कृपा बताते हुए कहते हैं
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खाँड।
सत गुरु की कृपा भई, नहीं तो करती भाँड॥
7. रहस्यवाद-कबीर जी की भक्ति-साधना प्रेम मूलक है। प्रेम ही भक्ति का समुद्र है। कबीर की प्रेम भावना ने राम के निर्गुण रूप को मधुर और सहज ग्राह्य बना दिया है। निर्गुण ब्रह्मवाद की यह वैयक्तिक साधना कबीर के काव्य में रहस्यवाद का रूप लेकर जगमगाई है। उनके रहस्यवाद में आत्मा के भावात्मक तादाम्य की साधना का प्रकाशन है। प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्य प्रेम में देखी जाती है। अत: रहस्यवाद की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और विरहिणी के आश्रय में होती है। इसीलिए कबीर ने आत्मा को परमात्मा की पत्नी माना है जो पिया मिलन की आस में दिन-रात तड़पती रहती है। जब आत्मा का परमात्मा से तादात्मय हो जाता है, दोनों मिलकर एक हो जाते हैं तभी रहस्यवाद का आदर्श पूर्णता को प्राप्त होता है। कबीर जी कहते हैं
लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥
कबीर जी कहते हैं-‘राम मेरे पीव मैं तो राम की बहुरिया’ किन्तु उस ‘प्रियतम’ से मिलन कब होगा ? उसके विरह में तो जिया नहीं जाता
विरह भुवंगम तन बसै, मन्त्र न लागै कोई।
राम वियोगी न जिवै, जिवै तो बौरा होई॥
उसकी राह देखते-देखते तो आँखों में झांइयां भी पड़ गई हैं
अंखड़ियाँ झईं पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़िया छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि॥
आखिर वह दिन कब आयेगा जब प्रियतम से मिलन होगा
वे दिन कब आवेंगे भाई।
का कारनि हम देह धरि है मिलिवा अंग लगाई।
8. पाखण्ड एवं आडम्बर का विरोध-कबीर प्रगतिशील समाज सुधारक थे। उनके युग में हिन्दुओं और मुसलमानों में धार्मिक पाखण्ड एवं आडम्बर अपनी चरम सीमा पर थे। कबीर ने समाज सुधार की भावना से इन सब का विरोध किया। उन्होंने हिन्दुओं को कहा
पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
ताते वह चाकी भलि, पीस खाय संसार॥
और मुसलमानों से कहा
मसजिद भीतर मुला पुकारे, क्या साहब तेरा बहरा है।
चिउंटी ने पर तेवर बाजे, तो भी साहब सुनता है।
जातिपाति का खण्डन करते हुए उन्होंने कहा
एक जोति से सबै उत्पन्ना, का बामन का सूदा।
इस प्रकार कबीर ने कपटी साधुओं, ढोंगी पण्डितों की निन्दा भी की और तीर्थ, व्रत, नियम आदि आडम्बरों की भी
2. मलिक मुहम्मद जायसी
प्रश्न 2.
मलिक मुहम्मद जायसी का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उसके काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
मलिक मुहम्मद जायसी का हिन्दी-साहित्य में स्थान निर्धारित कीजिए।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल की प्रेम मार्गी शाखा अथवा सूफ़ी सन्त परम्परा में अपना विशेष स्थान रखते हैं। जायसी जी के जन्म के बारे में आज तक विद्वानों में मतभेद बना हुआ है। सभी विद्वानों के मतों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि इनका जन्म वि० सं० 1550 के लगभग और मृत्यु वि० सं० 1600 के करीब हुई थी। जायसी का वास्तविक नाम मुहम्मद था। मलिक शब्द एक उपाधि का परिचायक है जो सम्भवतः उन्हें वंश-परम्परा से प्राप्त हुई थी। परम्परा के अनुसार आप अरब से आए मुसलमान थे, भारतीय नहीं किन्तु जायस-ज़िला रायबरेली (उत्तर प्रदेश) में आकर बस गए थे। अतः उनको जायसी कहा जाने लगा। जायसी ने स्वयं लिखा है
जायस नगर मोर अस्थानू। नगर क नाम आदि उदयानू॥
जायसी अपने बाल्यकाल में ही अपने माता-पिता से विमुक्त हो गये। उनका विवाह भी हुआ था। उनके पुत्रों की एक दुर्घटना में मकान की दीवार के नीचे दबकर मर जाने की दन्तकथा प्रसिद्ध है। तब विरक्त होकर जायसी अपना अधिकांश समय साधु-सन्तों की संगति में बिताने लगे। कहा जाता है कि उस समय के प्रसिद्ध सूफ़ी सन्त मुबारक शाह बोदले ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया। आगे चलकर एक-दूसरे सन्त शेख मुहीउद्दीन भी जायसी के गुरु के नाम से जाने जाते हैं।
अंत: साक्ष्य सामग्री के अनुसार जायसी एक आँख से काने थे, मुंह पर चेचक के दाग थे, बायीं टांग, बायां हाथ और भुजा भी काम नहीं करते थे। कहते हैं कि एक बार शेरशाह सूरी इनकी कुरूपता को देखकर हँस पड़े थे। तब जायसी ने तुरन्त कहा-“मोहि को हंसाति कि कुम्हारहि” अर्थात् मुझ पर नहीं उस कुम्हार (खुदा) पर हँसो जिसने मुझे बनाया है। यह सुन शेरशाह सूरी शर्मिन्दा भी हुए और जायसी से क्षमा याचना भी की।
जायसी अपने जीवन के अधिकांश भाग में अमेठी के राजा के आश्रय में रहे। वहीं उनकी मृत्यु सन् 1542 ई० सम्वत् 1600 के आसपास हुई। आज भी उनकी कब्र वहीं विद्यमान है।
रचनाएं:
कुछ विद्वान् जायसी की रचनाओं की संख्या 20-21 के करीब मानते हैं परन्तु केवल 6 रचनाओं को ही प्रमाणिक माना जाता है जो निम्नलिखित हैं.
- अखरावट,
- आखिरी कलाम,
- मसलनामा,
- कहरनामा,
- चित्रलेखा तथा
- पद्मावत
इनमें ‘पद्मावत’ हिन्दी साहित्य का प्रथम प्रमाणिक महाकाव्य माना जाता है। यह ग्रन्थ दोहा चौपाई शैली में लिखा गया है, जिसे आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में अपनाया।
पद्मावत निश्चय ही हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय हुआ कि इसका अनुवाद बंगला, उर्दू, फारसी, फ्रैंच और अंग्रेज़ी भाषाओं में भी हो चुका है।
काव्यगत विशेषताएँ:
जायसी के काव्य में हम निम्नलिखित विशेषताएँ देखते हैं
1. हिन्दू-मुस्लिम एकता:
मुसलमानों का शासन स्थायी हो जाने के फलस्वरूप हिन्दू और मुसलमानों में आपसी वैमनस्य को भंग करने का प्रयास सन्त कवियों ने आरम्भ किया। उसे सूफ़ी मुसलमान फकीरों ने पूरा किया। इन मुसलमान फकीरों (सन्तों) ने अहिंसा और प्रेम का मार्ग अपनाया। जायसी जैसे अनेक सूफ़ी सन्त प्रेम की पीर की कहानियाँ लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे। ये कहानियाँ हिन्दुओं के घरों की थी जिसे उन्होंने मुस्लिम शैली के अनुसार आम लोगों के सामने रखा। ‘पदमावत’ में जायसी ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों जातियों के तत्वों का सहारा लिया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ इन जातियों के आपसी वैमनस्य को दूर कर उन्हें एक-दूसरे के निकट करने में समर्थ हुआ। जायसी स्वयं कहते हैं
बिरछि एक लगी दुइ डारा, एकहिं ते नामा परकारा।
मातु कै रकत पिता के बिन्दु, उपजै दुवै तुरक और हिन्दू॥
सन्त कवियों की शुष्क साधना (ज्ञान मार्ग) से जो बात सम्भव न हो सकी, जायसी के प्रेम मार्ग ने उसे सरलता से पूरा कर दिया।
2. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना-जायसी ने पद्मावत में राजा रत्नसेन और रानी पद्मावती की प्रेम कहानी को आधार बनाकर सूफ़ी मत की पारमार्थिक साधना का प्रचार किया। सूफ़ी मत के अनुसार ईश्वर एक है और सर्वव्यापक है। आत्मा पति है तो ईश्वर पत्नी (सन्त कवि आत्मा को परमात्मा की पत्नी मानते थे।) जिस प्रकार लौकिक संसार में पति अपनी पत्नी को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पति परमात्मा रूपी पत्नी को प्राप्त करने के लिए साधना करता है। मिलन के मार्ग में शैतान अनेक बाधाएँ खड़ी करता है। गुरु की सहायता से आत्मा रूपी पति इन बाधाओं को पार करने में सफल होता है। सूफ़ी सिद्धान्तों के अनुसार भी ‘इश्क हकीकी’ को प्राप्त करने के हिन्दी साहित्य का इतिहास लिए ‘इश्क मजाज़ी’ की सीढ़ी को पार करना पड़ता है। भाव यह है कि जो व्यक्ति ईश्वर के बनाये बन्दों से प्यार नहीं करता, वह ईश्वर से प्यार करने का अधिकारी नहीं है। जायसी ने पद्मावत के अन्त में ‘तन चित उर मन राजा कीन्हा’ आदि कह कर लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना की है।
3. श्रृंगार वर्णन-रति भाव से परिपुष्ट श्रृंगार रस ही ‘पद्मावत’ का अंगी रस है, जिसके दोनों पक्षों संयोग और वियोग का मनोहारी और रमणीय वर्णन कवि ने किया है।
(i) संयोग वर्णन-जायसी के संयोग में हमें श्रृंगार के अनुभावों और संचारी भावों की योजना तो देखने को न मिलेगी परन्तु श्रृंगार के आधारभूत आलम्बन (नायिका) का चित्रण, प्रेमाश्रय (नायक) का वर्णन और संयोग की नाना अनुभूतियों की नितान्त भाव प्रवण, सजीव और रसात्मक व्यंजना अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई है। निम्नलिखित पंक्तियाँ जायसी के आलम्बन चित्रण-कौशल का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, जिसमें कवि ने यौवन के भार से झुकी किशोरी पद्मावती के अंग-प्रत्यंग का ललित, रमणीय, सजीव और मनमोहक वर्णन प्रस्तुत किया है
जग बेधा तेहि अंग सुवासा। भंवर आइ लुब्धै चहु पासा॥
बेनी नाग मलैगिरि पैठी।ससि माथे दइज होई बैठी॥
भौं धनुष साधे सर फेरे। नयन कुरंग भूलि जनु है॥
नासिक कीर कँवल मुख सोहा। पदमिनि रूप देखि जग मोहा॥
मानिक अधर दसन जनु हीरा। हियहुलसैं कुच कनक गंभीरा॥
जायसी द्वारा रचित पद्मावत के ‘लक्ष्मी समुद्र-खण्ड’ तथा ‘पद्मावती-रत्न सेन भेंट खण्ड’ में संयोग वर्णन उत्कृष्ट कोटि का हुआ है। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि पद्मावत में संयोग के जो चित्र दिये गये हैं उनमें सामान्य रूप से मानसिक और भावात्मक पक्ष की प्रधानता है।
(i) वियोग वर्णन-जायसी ने वियोग पक्ष की अत्यन्त मार्मिक अनुभूति ‘पद्मावत’ में प्रस्तुत की है। यों तो कवि ने नागमती और पद्मावती दोनों का वियोग वर्णन प्रस्तुत किया है, किन्तु नागमति का वियोग वर्णन तो बेजोड़ है जो हिन्दी साहित्य में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। ‘. जायसी ने नागमती की जिस परिस्थिति का चित्रण किया है उसकी एक दारुण पृष्ठभूमि भी उन्होंने दी है। नागमती का पति राजा रत्न सेन तोते के मुख से दूसरी स्त्री के सौन्दर्य की बात सुनकर सात समुद्र पार सिंहल द्वीप में उसे प्राप्त करने के लिए राज-पाट, घर-बार सब कुछ छोड़कर योगी बन कर चला गया लेकिन नागमती की गोद सूनी है। नागमती की इस दारुण स्थिति का चित्र कवि निम्नलिखित पंक्तियों में प्रस्तुत करता है
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिऊ नहिं जात, जात वर जीऊ॥
थमए नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा॥
जायसी ने नागमती के विरह में सामान्य हृदय तत्व की सृष्टिव्यापिनी भावना की व्यंजना की है। इस भावना में कवि ने मनुष्य और पशु-पक्षी को एक सूत्र में पिरोकर देखा है। रानी नागमती पक्षियों से अपनी विरह-व्यथा कहती फिरती है, वृक्षों के नीचे रात-रात भर रोती रहती है। इस तरह जायसी ने मनुष्य के हृदय में पशु-पक्षियों से सहानुभूति प्राप्त करने की सम्भावना के साथ-साथ पक्षियों के हृदय में भी सहानुभूति का संचार किया है। जैसे निम्नलिखित पंक्तियों में
फिरि फिर रोव, कोई नहीं डोला। आदि राति विहंगम बोला॥
तू फिरि फिर दाहै सब पांखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखि॥
जायसी ने विरह वर्णन के अन्तर्गत विरहजन्य कृशता का भी स्वाभाविक चित्रण किया है। उनकी अत्युक्तियों में भी गम्भीरता नज़र आती है। उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं
दहि कोयला भइ कंत सनेहा। तोला मांसु रही नहिं देहा॥
रकत न रहा विरह तन जरा। रती रती होइ नैन्ह ढरा॥
अथवा
हाड़ भए सब किंगरी, नसैं भई सब तांति।
रोव रोंव ते धुनि उठे, कहौ विथा केही भांति।
जायसी ने एक स्थान पर पद्मावती की कृशता का भी करुण चित्र प्रस्तुत किया है
कंवल सूख पंखुरी बेहरानी। गलि गलि कै मिलि छार हिरानी।
नागमती के विरह वर्णन का सर्वाधिक मर्मस्पर्शी प्रसंग वह बारहमासा है जिसमें जायसी ने क्रम से बारह महीनों में नागमती की वियोग व्यथा का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम नि:संकोच कह सकते हैं कि जायसी ने विरह वर्णन में अपनी प्रतिभा और रसप्रवणता का पूर्ण परिचय दिया है।
4. रहस्यवाद-जायसी सूफ़ी सम्प्रदाय से थे जिसमें ईश्वर की कल्पना प्रेम के रूप में की जाती है। प्रेम के द्वारा साधक परम सत्ता तक पहुँचने का प्रयास करता है और अन्त में उसी में लीन होकर परमानन्द को प्राप्त करता है। जायसी के काव्य में वर्णित इसी भावना को रहस्यवाद कहा जाता है।
किन्तु भारतीय परिवेश अपनाने के कारण उनके रहस्यवाद पर भारतीय अद्वैतवाद का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। ‘पद्मावत’ में इस परमानन्द की अनुभूति के अनेक चित्र देखने को मिलते हैं, यथा
हीरामन तोते के मुँह से पद्मावती का नख-शिख वर्णन सुनकर राजा रत्न सेन मूर्छित हो जाता है। इस मूर्छित अवस्था में उसे मिलन की आनन्दमयी अनुभूति होती है। मूर्छा भंग होने पर राजा रोने लगता है, जैसे आत्मा पुनः मृत्यु लोक में आने पर रोने लगती है
जब भा चेत उठा वैरागा। बउर जनौं सोई उठि जागा॥
आवत जग बालक जस रोआ। उठा रोइ हा ज्ञान सो खोआ॥
हौं तौं अहा अमरपुर जहाँ। इहां मरनपुर आएहुँ कहाँ।
जायसी ने प्रकृति के बीच ईश्वरीय सत्ता के रहस्यमय-आभास का बड़ा मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किया है
रवि ससि नखत दिपहिं आहि जोति। रतन पदारथ मानक मोती।
जहँ-जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥
नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर समीर॥
हँसत जो देखा हँ सभा, दसन जोति नग हीर॥
5. इतिहास और कल्पना का मिश्रण-जायसी ने पद्मावत में इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय किया है। इतिहास में हमें अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई और रानी पद्मिनी की आकृति दर्पण में देखने आदि की घटनाएँ ही मिलती हैं। इसके अतिरिक्त जायसी ने राजस्थान और पंजाब की लोक कथाओं को आधार बनाकर तथा अनेक काल्पनिक घटनाओं का समावेश कर पद्मावत की रचना की। इसके लिए जायसी ने अनेक कथानक रूढ़ियों का भी प्रयोग किया है।
6. भाषा, छन्द और अलंकार-जायसी की भाषा ठेठ अवधी है। यद्यपि उनकी भाषा तुलसीदास की भाषा के समान साहित्यिक एवं पाण्डित्यपूर्ण नहीं है, फिर भी अपनी स्वाभाविकता, सरलता तथा प्रसाद एवं माधुर्य गुणों से ओत-प्रोत है। जायसी ने दोहा-चौपाई छन्द का प्रयोग किया और लगभग सभी सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने इस शैली को अपनाया। जायसी को हम लोकभाषा और लोक जीवन के कवि कह सकते हैं।
पद्मावत में कवि ने मसनवी शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में सारी कथा एक ही छन्द में कही जाती है। जायसी से पूर्व भारतीय साहित्य में यह परम्परा नहीं मिलती। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि जायसी भक्तिकालीन प्रेममार्गी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उनके काव्य में प्रेम अभिव्यंजना, प्रबन्ध कुशलता, रहस्य भावना, विरह वर्णन तथा अभिव्यंजना कौशल आदि गुण होने के कारण इन्हें हिन्दी साहित्य के उच्च कोटि के कवि माना जाता है।
3. सूरदास
प्रश्न 3.
सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
सूरदास का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन कृष्ण भक्ति-शाखा के प्रमुख कवि के जन्म एवं जीवन वृत्त के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। विद्वानों में इनके जन्म समय में काफ़ी मतभेद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म सम्वत् 1535 मानते हैं तो कुछ 1540 स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार इनकी मृत्यु भी सं० 1620 और सं० 1640 मानी जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि इनका जन्म सं० 1535-40 के बीच तथा मृत्यु सं० 1620-40 के बीच हुई होगी।
सूरदास के जन्म स्थान के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् मथुरा के पास ‘रुनकता’ नामक गाँव को तथा कुछ विद्वान् दिल्ली के निकट ‘सीही’ गाँव को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनका अन्धे होना भी विवाद का विषय है। यह तो निश्चित है कि ये अन्धे थे, पर क्या जन्म से ? इस प्रश्न का दो टूक उत्तर नहीं मिलता। इनकी कविता में प्रकृति की शोभा और रूप वर्णन को देखते हुए इस धारणा की पुष्टि होती है कि इन्होंने जीवन और जगत् को अपनी आँखों से देखा था। जनश्रुति के आधार पर यह स्वीकार किया जाता है कि ये यौवन काल में अन्धे हुए।
सूरदास जी के माता-पिता के सम्बन्ध में भी कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा इन्हें ब्रह्म भाट मानते हैं तो डॉ० दीनदयाल गुप्त इन्हें सारस्वत ब्राह्मण मानते हैं। जो बात प्रमाणित है वह यह है कि आप दिल्ली-मथुरा के बीच गऊघाट पर रहते थे। यहीं इनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य जी से हुई। सूरदास जी वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होकर वहीं श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने लगे। मन्दिर के समीप ही ‘पसौली’ नामक स्थान पर आप निवास करते थे। श्रीनाथ जी के मन्दिर में भजन-कीर्तन आप अन्तिम समय तक करते रहे। कहते हैं कि मृत्यु के समय भी आप ‘खंजन नयन रूप रस माते’ पद गा रहे थे।
रचनाएँ:
काशी नागरी प्रचारिकी सभा की खोज रिपोर्ट के अनुसार आपकी 25 के करीब रचनाएँ बतायी गई हैं। किन्तु इनमें से तीन रचनाएँ (1) सूरसागर, (2) सूर सारावली तथा (3) साहित्य लहरी ही प्रमाणित मानी जाती हैं। इनमें सूरसागर सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह रचना ‘ श्रीमद्भागवत्’ की काव्यमयी छाया है, अनुवाद नहीं। इसमें लगभग 5000 पद संग्रहीत हैं।
काव्यगत विशेषताएँ:
सूरदास जी भक्ति-कालीन सगुण भक्ति-धारा की कृष्ण भक्ति-शाखा के प्रमुख कवि हैं। इनके उच्च कोटि के भक्त होने का यह प्रमाण है कि गोसाईं विट्ठलनाथ ने इन्हें ‘अष्टछाप’ भक्तों में मूर्धन्य स्थान पर रखा था। इनके काव्य का अध्ययन करने पर हमें निम्नलिखित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं
1. भक्ति-भावना-सूरदास सगुण के उपासक थे। विशेषकर भगवान् विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को अपना इष्ट मानते थे। ऐसा वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने का प्रभाव था। वल्लभ सम्प्रदाय में कृष्ण भक्ति की व्यवस्था है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित कृष्ण भक्ति के अनुरूप ही सूरदास जी ने लीला गान किया है। आचार्य शुक्ल ने सूर की इस प्रवृत्ति को ‘लोक रंजन’ कहा है। सूरदास सगुण भक्त थे तथा निर्गुण के प्रति उदासी वे कहते हैं
रूप रेख गुण जाति जुगाति बिनु निरालम्ब कित धावै।
सब विधि अगम विचारहिं ताते ‘सूर’ सगुण पद गावै॥
सूरदास अपनी दीनता प्रभु के आगे विनीत भाव से प्रकट करते हुए कहते हैं
प्रभु हौं सब पतितनि को टीको।
मोहि छांड़ि तुम और उधारे, मिटे सूल क्यों जी को।
कोऊ न समरथ अध करिवे को, खेंचि कहत हौं लीकौ॥
आत्म-निवेदन करते हुए सूर प्रभु से कहते हैं कि हे प्रभु! आप जैसे रखोगे वैसे ही रहूँगा। आप तो सबके हृदय की बात जानते हैं । अतः मुख से क्या कहूँ
जैसेहिं राखहु तैसेहि रहि हौं।
जानत हों दुख-सुख सब जन को मुख करि कहा कहौ॥
………………………………………..
कमलनयन घनस्याम मनोहर अनुचर भयौ रहौं।
‘सूरदास’ प्रभु भगत कृपानिधि तुम्हरे चरण गहौं।
सूरदास ने भी सन्त कवियों की तरह नाम जपने अथवा नाम स्मरण के महत्त्व को स्वीकार किया है। वे कहते हैं
सोई रसना जो हरि गुन गावै।
………………………………………..
कर तेई जे स्याम सेवै, चरननि चलि वृन्दावन जावै।
‘सूरदास’ जैहै बलि बाकी जो, हरिजू सों प्रीति बढ़ावे॥
2. सख्य भाव-सूरदास जी ने प्रमुख रूप से सख्य, वात्सल्य और मधुरा-भक्ति को प्रकट करने वाले पद लिखे हैं। सूरदास आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध पति-पत्नी का सम्बन्ध नहीं बल्कि सखि-सखा का सम्बन्ध मानते हैं। दो मित्रों में जैसा खुलापन होता है, ऐसा सूरदास अपने प्रभु में खुलापन रखते हैं। इसीलिए भगवान् को गोपियों के मुख से खरी-खोटी कहलाने में नहीं चूके। प्रेमाधिक्य में खरा-खोटा कहना स्वाभाविक ही है। सूरदास का ‘भ्रमरगीत’ तो है ही उपालम्भ साहित्य का एक रूप। गोपियाँ उपालम्भ देती हुई कहती हैं
हरि काहे के अन्तर्जामी ?
जो हरि मिलत नहीं यही औसर, अवधी बतावत लामी।
तथा
ऊधो जाके माथे भाग।
कुब्जा को पटरानी कीन्हीं, हमहिं देत वैराग।
ऐसे उपालम्भ व्यक्ति उसी को दे सकता है जिसके प्रति उसे अथाह प्रेम हो।
डॉ० हरिवंश लाल शर्मा कहते हैं- “सूरदास के सखा भाव में विशेषता यह है कि उसमें एक ओर तो मनोवैज्ञानिक रूप से मानवीय सम्बन्धों का निर्वाह किया गया है और दूसरी ओर उसमें भक्ति-भाव की पूर्ण तल्लीनता और भावात्मकता की अनुभूति है।”
3. वात्सल्य वर्णन-सूर के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है-वात्सल्य वर्णन जो बेजोड़ तो है ही अत्यन्त स्वाभाविक भी है। इस रस का कोई भी रूप, भाव इनकी लेखनी से अछूता नहीं रह पाया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ठीक ही कहते हैं कि, ‘सूरदास वात्सल्य रस का कोना-कोना झांक आये हैं।’ डॉ० हरिवंश लाल शर्मा लिखते हैं- “यदि कहा जाए कि सूर ने पुरुष होते हुए भी माता का हृदय पाया तो असंगत नहीं होगा।” सूरदास ने वात्सल्य भाव की भक्ति का जो हिन्दी साहित्य का इतिहास निष्काम और इन्द्रिय सुख की कामना से रहित होती है-माता यशोदा के माध्यम से ऐसा सरल, स्वाभाविक और हृदयग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है। श्री कृष्ण की बाल लीलाओं और गोचारण लीलाओं के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं
(i) कर पग गहि अंगूठा मुख मेलत।
प्रभु पौढ़े पालने अकेले हरषि-हरषि अपने रंग खेलत॥
(ii) जसोदा हरि पालने झुलावै।
हल्रावै दुलराई मल्हावै, जोई-सोई कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निदरिया, काहे न आनि सुवावै॥
(iii) चंद खिलौना लैहों मैया मेरी, चंद खिलौना लैहौँ।
धौरी को पयपान न करिहौँ बेनी सिर न गुंथैहौं।
इसी प्रकार ‘मैया मैं नहीं माखन खायो’, ‘मैया कबहि बढ़ौगी चोटी’ तथा ‘मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ’ आदि पदों में माता और पुत्र के स्नेह का चित्रण किया गया है। हमारा विश्वास है कि संसार की किसी भी भाषा के साहित्य में ऐसी बाल लीलाओं का वर्णन नहीं मिलेगा। श्री कृष्ण की बाल चेष्टाओं के चित्रण में सूरदास ने कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है।
4. श्रृंगार वर्णन-सूर के काव्य में शृंगार रस का चित्रण भी खूब बेजोड़ है। शृंगार भावना को भक्ति-भावना से अनुरंजित कर वास्तव में सूर ने उसे भक्ति का उज्ज्वल रस ही बना दिया है। सूरदास ने शृंगार रस का चित्रण राधा तथा गोपियों के प्रेम के रूप में किया है। बचपन में साथ-साथ खेलने वाले सखा-सखियां यौवन में प्रिय-प्रिया बन गये। गोपियों का प्रेम ‘लरिकाई का प्रेम है’ सो कैसे छूट सकता है। उन्हें तो श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ अच्छा ही नहीं लगता
‘सूर स्याम बिनु और न भावै, कोऊ कितनौ समुझावै।’
राधा और श्रीकृष्ण की लीला वास्तव में गोपिकाओं रूपी भक्त-जनों के लिए प्रेम के चरम आदर्श का प्रतीक है। इसलिए कवि ने राधा और श्रीकृष्ण की प्रेम लीला का व्यापक चित्रण अपनी कवित्व शक्ति के समस्त उपकरणों द्वारा किया है। राधा श्रीकृष्ण से प्रेम करने पर श्रीकृष्णमय हो गई है। उसकी सखियां कहती हैं
सुनि राधा यह कहा विचार।
वै तैरे तू उनकै रंग, अपनो मुख क्यों न निहारे॥
और श्रीकृष्ण भी तो राधा के बस में हो गये हैं
स्याम भये राधा बस ऐसे।
चातक स्वाति, चकोर चंद ज्यौं, चक्रवाक रवि जैसे॥
सूर के श्रृंगार रस में संयोग की अपेक्षा वियोग वर्णन में अधिक प्रखरता है। सूर सागर’ में लीला वर्णन के बाद ‘भ्रमर गीत’ की रचना वास्तव में वियोग वर्णन के लिए ही की गई है। श्रीकृष्ण के मथुरा गमन के बाद गोपियों को कालिन्दी ‘अति कारी’ दिखाई देती हैं तथा रात ‘काली नागिन’ जैसी प्रतीत होती है, रात जागते जागते कटती है
आजु रैनि नहिं नींद परी।
जागत गिनत गगन के तारे, रसना रटत गोबिन्द हरी॥
विरह की पीड़ा ही ऐसी होती है
मिलि विछुरन की वेदन न्यारी।
जाहि लगै सोई पे जाने, विरह-पीर अति भारी॥
जब यह रचना रची विधाता, तब ही क्यों न संभारी।
सूरदास प्रभु काहे जिवाई, जनमत ही किन मारी॥
उद्धव जी मथुरा लौटकर राधा की वियोगावस्था का जिस प्रकार वर्णन करते हैं उससे पत्थर भी पिघल जाता है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं सूर का काव्य अपने लोक रंजक रूप के कारण, अपनी भक्ति-भावना के कारण, वात्सल्य और श्रृंगार के कारण इतना श्रेष्ठ है कि किसी कवि को यह कहना पड़ा था-सूर सूर तुलसी ससि।
4. तुलसीदास
प्रश्न 4.
गोस्वामी तुलसीदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
तुलसीदास का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने गोस्वामी तुलसीदास जी को भगवान् तथागत बुद्ध के बाद भारत का पहला लोकनायक कहा है। तुलसी का जन्म समय और जीवन आज तक विवाद का विषय बने हुए हैं। अधिकतर विद्वान् तुलसीदास जी का जन्म सं0 1589 मानते हैं तथा मृत्यु सं0 1680 में होना स्वीकार करते हैं। इनके जन्म स्थान के विषय में भी मतभेद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म राजापुर तो कुछ विद्वान् सूकर खेत (वर्तमान सोरों) को स्वीकार करते हैं किन्तु इतना निश्चित और निर्विवाद है कि आप इन दोनों स्थानों पर रहे।
प्रचलित धारणा के अनुसार तुलसी के पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी था। गंडमूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें बचपन में ही त्याग दिया था। जन्म से अभागे तुलसी को न माता-पिता का दुलार मिला, न कुटुम्ब का सुख । जीविका के लिए इन्हें द्वार-द्वार भटकना पड़ता था। संयोग से इनकी बाबा नरहरिदास से भेंट हो गई। बाबा राम भक्त थे। उन्होंने ही तुलसी को वेद-वेदान्त और शास्त्रों का ज्ञान दिया और संस्कृत भाषा की शिक्षा दी।
तुलसी जी का जवान होने पर विवाह दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हो गया। परन्तु भाग्य ने यहाँ भी इनका साथ नहीं दिया। चारों ओर से प्रेम-प्यार से वंचित भावुक युवक तुलसी पत्नी के प्रति आवश्यकता से अधिक आसक्त रहने लगे। एक बार उसके मायके चले जाने पर उसके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गये। वहाँ पत्नी की फटकार सुनकर तुलसी ने घर-बार के माया बन्धनों को तोड़ दिया। वे श्री राम के अनन्य भक्त बन गये। गृहस्थ त्याग और वैराग्य धारण कर तुलसी जी ने भारत के सभी तीर्थों की यात्रा की। तत्पश्चात् काशी के महान् पण्डित शेष सनातन से अन्यान्य शास्त्रों का अध्ययन किया। खपकर दो जून भोजन जुटाने वाले तुलसी को रूढ़ि जर्जर सामन्ती समाज ने अभाव और विपन्नता का जो विष दिया उसने तुलसी को विषपायी नीलकण्ठ बना दिया।
इसी नीलकंठ ने ‘रामचरितमानस ‘ के रूप में मानो लोक मंगल की गंगा बहा दी। उन्होंने श्रीराम के पावन-चरित्र में शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वय करके उन्हें नारायण से नर बता कर और नर में नारायण का रूप दिखा कर अपनी जीवन साधना से एक ऐसी प्राणवान् लोक क्रान्ति का सृजन और पोषण किया जिससे निराशा और निस्पन्द हिन्दू जाति की शिथिल धमनियों में उत्साह और आशा का संचार कर जीने का नया सहारा दिया।
रचनाएँ:
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘तुलसी ग्रन्थावली’ के अनुसार इनकी निम्नलिखित 12 रचनाएँ ही प्रमाणिक हैं। तुलसी ग्रन्थावली के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है
- रामचरितमानस,
- रामलला नहछू,
- वैराग्य संदीपनी,
- बरवै रामायण,
- पार्वती मंगल,
- जानकी मंगल,
- रामाज्ञा प्रश्न,
- कवितावली,
- गीतावली,
- कृष्ण गीतावली,
- विनय पत्रिका,
- दोहावली।
काव्यगत विशेषताएँ-तुलसी जैसा व्यक्ति युगों में एक पैदा होता है। तुलसीदास जी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त थे और सारे संसार को ‘सियाराममय’ देखते थे। भक्त होने के साथ-साथ तुलसी दार्शनिक, पण्डित, कवि, नीतिज्ञ, समाज सुधारक और विचारक के रूप में बहुमुखी प्रतिभा रखने वाले थे। तुलसीदास जी भक्तिकाल के पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने भारतीय समाज, भारतीय जनता की समस्याओं को भली प्रकार समझा और सही ढंग से उनका समाधान प्रस्तुत किया।
गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य का अध्ययन करने पर हमें निम्नलिखित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं
1. भक्ति-भावना:
तुलसीदास जी श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान् विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किया। तुलसी के श्रीराम विश्व की समस्त चेतना के मूल स्रोत हैं, विश्व के सब प्राणी हिन्दी साहित्य का इतिहास मात्र में वे जीव होकर व्याप्त हैं। श्री राम परमब्रह्म और परमात्मा हैं। तुलसी के अनुसार निर्गुण और सगुण ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। भक्त के प्रेम के कारण ही निर्गुण ब्रह्म सगुण का रूप धारण करता है
सगुनहि आगुनहिं नहीं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा॥
अगुण अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुण सो होई॥
तुलसीदास ने भक्ति और प्रेम पिपासा में चातक को आदर्श माना है। मर्यादा के अनुकूल अन्य देवी-देवताओं से प्रार्थना करते हुए उन्होंने उनसे राम भक्ति की याचना कर अपनी अनन्यता की रक्षा की है। उनकी भक्ति सेवक सेव्य भाव की थी। इसके बिना वे मुक्ति को असम्भव मानते हैं
सेवक सेव्य भाव बिन, भवन तरिये उरगारि।
तुलसी श्रीराम की भक्ति के मार्ग को अत्यन्त सीधा, सरल और सहज मानते हैं। जो भी इस पर निष्कपट भाव से चलता है वह ही मुक्ति को प्राप्त करता है।
सूधे मन सूधे वचन सुधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल विधि, रघुवर प्रेम-प्रसूति॥
तुलसी पूर्ण रूप से श्रीराम के प्रति समर्पित हैं। उनके लिए तो श्रीराम के चरणों का अनुराग ही सब कुछ है
तुलसी चाहत जन्म भरि, राम चरण अनुराग।
तुलसीदास की भक्ति की एक विशेषता उनका दैन्य भाव है। ‘विनय पत्रिका’ और ‘कवितावली’ में अपनी दीनता को उन्होंने अनेक स्थानों पर प्रकट किया है। वे कहते हैं
राम सो बड़ो है कौन, मो सो कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मो सो कौन खोटो॥
तुलसीदास जी ने ईश्वर प्राप्ति के मार्गों, ज्ञान और भक्ति को भिन्न नहीं माना
ज्ञानहि भक्ति हि नहिं कछु भेदा। उभय हरिहिं भव सम्भव खेदा॥
ऐसा लिखते हुए भी उन्होंने भक्ति को प्रधानता दी है। भक्ति को प्रधानता देने का काव्यमय कारण भी दिया है। वह यह कि भक्ति माया से मोहित नहीं हो सकती
मोहि न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि यह नीति अनूपा॥
ज्ञान में प्रत्यूह भी अधिक हैं। इसलिए ज्ञान मार्ग की अपेक्षा भक्ति ही सुलभ हैं। तुलसी ने ज्ञान को दीपक माना है जो संसार की हवा से बुझ सकता है और भक्ति को चिन्तामणि माना है, जिस पर हवा का असर नहीं पड़ता। भक्ति साधना ही नहीं साध्य भी है। इसी भक्ति-भावना के कारण उन्होंने सगुणोपासना को प्रधानता दी और वे ब्रह्म के सगुण अवतार श्रीराम’ के वर्णन में सफल हुए।
2. जनभाषा का प्रयोग:
तुलसी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने अपना काव्य जन भाषा में रचा, संस्कृत में नहीं, क्योंकि तुलसी जानते थे कि जनता की बात जनता तक उसी की भाषा में जितनी शीघ्रता से पहुँचती है, समझी जाती है उतनी शीघ्रता से किसी दूसरी भाषा में कही बात नहीं। उन्होंने उस समय की दोनों जन भाषाओं-अवधी और ब्रज में अपने काव्य की रचना की। ‘बरवै रामायण’, ‘राम लला नहछू’ आदि में पूर्वी अवधी, ‘रामचरितमानस’ में पश्चिमी अवधी तथा ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘विनय पत्रिका’ आदि की रचना ब्रज भाषा में की। संस्कृत कठिन भाषा होने के कारण तुलसी को लगा कि वे अपनी बात जन साधारण तक इस भाषा में न पहुँचा पायेंगे, हालांकि पंडित समाज में इसका विरोध भी हुआ किन्तु उनका मानना था
का भाषा का संस्कृत, भाव चाहिए साँच।
काम जो आवे कामरी, का लै करै कमाँच॥
3. हिन्दू धर्म और जाति के रक्षक-तुलसी के काव्य ने हिन्दू धर्म और जाति की रक्षा करने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया उसे कोई भी हिन्दू भुला नहीं सकता। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ के द्वारा भक्ति के साथ शील, आचार, मर्यादा और लोक संग्रह का सन्देश सुनाकर हिन्दू जाति में एक अपूर्व दृढ़ता उत्पन्न कर दी। सर्वप्रथम तुलसीदास ने हिन्दुओं में प्रचलित वैष्णव, शैव और शाक्त गुटों को एक करने का प्रयास किया। तुलसी से पूर्व इन तीनों गुटों या सम्प्रदायों में लड़ाई-झगड़े ही नहीं, मार-काट तक की नौबत आ जाया करती थी। तुलसीदास जी ने ‘मानस’ की कथा शंकर भगवान् द्वारा पार्वती जी को सुनाई है। शंकर भगवान् प्रभु श्रीराम को अपना इष्ट कहते हैं। इससे कहीं वैष्णवों को अधिमान न हो जाए इसलिए तुलसी श्रीराम के मुख से कहलाते हैं कि शंकर भगवान् मेरे इष्ट हैं, पूज्य हैं। सेतुबन्ध से पूर्व श्रीराम विधिवत् शंकर भगवान् की पूजा अर्चना करते हैं। साथ ही तुलसीदास जी ने श्रीराम के मुख से कहलवाया
शिवद्रोही मम दास कहावा।
सो नर सपनेहुं मोहि नहिं भावा॥
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहहूँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावै मोरि॥
‘रामचरितमानस’ के बालकाण्ड में दशरथ, मुनि वशिष्ठ, कौशल्या आदि सभी पात्र शंकर भगवान् की सौगन्ध खाते हैं-मानो वे उनके इष्ट हों। अब रह गयी शाक्तों की बात। ‘मानस’ की कथा में शिव पत्नी सती जी श्रीराम की परीक्षा लेने सीता जी के वेश में जाती है। इसी बात पर शंकर भगवान् अपनी पत्नी का त्याग कर देते हैं । ‘एति तन सतिहिं भेंट मोहि नाहि’ क्योंकि उन्होंने प्रभु पत्नी जगत् माता सीता जी का रूप धारण किया था। इसी तरह श्रीराम भी शंकर पत्नी को माता कहते हैं। सती दूसरे जन्म में पार्वती जी बनी जो आज भी हिन्दुओं में शक्ति का रूप मानी जाती है। मानस’ के प्रभाव के कारण ही आज हर हिन्दू घर में समान रूप से भगवान् विष्णु, भगवान् शंकर और शक्ति-दुर्गा माता की पूजा होती है। तुलसी यदि ‘मानस’ की रचना न करते तो शायद हिन्दू जाति का आज नामोनिशान भी न होता।
तुलसीदास जी ने श्रीराम का चरित्र शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वित रूप में चित्रित किया है। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं और भगवान् भी। वह एक आदर्श पुत्र, भाई, पति, मित्र, स्वामी, पिता एवं शत्रु हैं। तुलसी ने उनके चरित्र द्वारा समाज में व्यक्ति के सुधार की ओर ध्यान दिया जबकि उससे पूर्व सभी भक्त एवं सन्त कवियों ने समाज सुधार की ओर ही ध्यान दिया था-‘मानस’ के सभी पात्र आदर्श हैं।
तुलसी ने वर्ण व्यवस्था का पक्ष लेकर, राम राज्य जैसे आदर्श समाज की कल्पना हिन्दू जाति को एक कवच समान प्रदान की जिससे इस्लाम धर्म के प्रचार को रोका जा सका। अकेले ‘मानस’ ने ही हिन्दू जाति को मुस्लिम बनने से रोक लिया। तुलसी के काव्य की यह सबसे बड़ी विशेषता है। उन्होंने जो लिखा वह कोरी कल्पना न था बल्कि ‘नाना पुराण निगमागम’ का निचोड़ था, ज्ञान और भक्ति का समन्वित रूप था। हम भी तुलसी के साथ यह कहने में कोई संकोच नहीं करते सियाराममय सब जग जानी। करो प्रणाम जोरि जुग पाणी॥
4. समन्वयवादिता:
तुलसी के काव्य में समन्वयवादिता का गुण सर्वत्र विद्यमान है। उनके काव्य में लोक और शास्त्र ही नहीं, वैराग्य और गार्हस्थ्य का, ज्ञान, भक्ति और कर्म का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पंडित और अपण्डित का, आदर्श और व्यवहार का समन्वय देखने को मिलता है। सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक सभी क्षेत्रों में उनका समन्वय रूप उजागर हुआ है।
5. मुक्तक काव्य:
तुलसीदास की दोहावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका आदि कृतियाँ मुक्तक काव्य की कोटि में आती हैं। हिन्दी-साहित्य के मुक्तक साहित्य की ये उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में कवि की आत्मानुभूतियों का चित्रण हुआ है। किन्तु तुलसीदास ने राम कथा को जिस रूप में ग्रहण किया है उसमें भावुकता के लिए स्थान बहुत कम है, जहाँ वह है भी वह मर्यादित है। उनके कृष्ण काव्य में सूर जैसी भावुकता उत्पन्न नहीं हो सकी। हाँ, उनकी ‘विनय पत्रिका’ आत्म-निवेदन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है।
6. प्रबन्ध कौशल:
तुलसी प्रमुखतः प्रबन्ध काव्यकार हैं। ‘रामचरितमानस’ प्रबन्ध कौशल की दृष्टि से हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। ‘मानस’ की कथा का आधार आध्यात्मक रामायण’ और ‘वाल्मीकि रामायण’ है, किन्तु उस कथा हिन्दी साहित्य का इतिहास के निर्वाह में अनेक मौलिक एवं नवीन प्रसंगों की उद्भावना कर, तुलसी ने अपनी मौलिकता एवं कलात्मकता का परिचय दिया है। यथा श्रीराम सीता जी के प्रथम मिलन का फुलवारी दृश्य, धनुष भंग के समय परशुराम जी का तुरन्त जनक सभा में प्रकट होना आदि के दृश्य। मानस की कथा चार-चार वक्ताओं और श्रोताओं के माध्यम से कही गई है किन्तु कहीं भी रोचकता में बाधा नहीं पड़ती। ‘मानस’ में महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान हैं। श्रीराम धीरोदात्त नायक हैं, शृंगार, वीर आदि सभी रसों से ‘मानस’ अनुप्राणित है और सबसे बड़ी बात ‘मानस’ का चरित्र-चित्रण इतना स्वाभाविक एवं सशक्त बन पड़ा है कि लगता है तुलसी मनोविज्ञान के भी कुशल ज्ञाता थे। मानस के सभी पात्र अलौकिक होते हुए भी लौकिक प्रतीत होते हैं-मानवीय संवेदना से युक्त एवं सुख-दुःख को अनुभव करने वाले।
वस्तुत:
तुलसी के काव्य की आत्मा बड़ी विराट है। उनके भावना लोक की परिधि बड़ी व्यापक और विशाल है और इसे भावभूमि में जितना व्यापक संचरण तुलसी के कवि हृदय ने किया है, उतना और किसी ने नहीं।
लघु प्रश्नोत्तर
भक्ति काल
प्रश्न 1.
भक्ति काल का समय कब से कब तक का माना जाता है।
उत्तर:
भक्ति काल का समय संवत् 1375 से संवत् 1700 तक माना जाता है।
प्रश्न 2.
भक्ति काल में कौन-सी दो प्रमुख धाराएँ प्रचलित हुई?
उत्तर:
निर्गुण भक्ति धारा तथा सगुण भक्ति धारा।
प्रश्न 3.
निर्गुण भक्ति धारा की कितनी शाखाएँ थीं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
निर्गुण भक्ति धारा की दो शाखाएं थीं-ज्ञान मार्गी भक्ति शाखा तथा प्रेम मार्गी भक्ति शाखा।
प्रश्न 4.
सगुण भक्ति धारा की कितनी शाखाएँ थीं ? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
सगुण भक्ति धारा की दो शाखाएँ थीं-कृष्णा भक्ति शाखा तथा राम भक्ति शाखा।
प्रश्न 5.
ज्ञान मार्गी शाखा के किन्हीं चार कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कबीर दास, गुरु नानक देव, रैदास तथा मलूक दास।
प्रश्न 6.
प्रेम मार्गी काव्य के प्रमुख दो कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी तथा कुतुबन।
प्रश्न 7.
कृष्ण भक्ति शाखा के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सूरदास, नन्द दास।
प्रश्न 8.
भक्ति काल की प्रत्येक शाखा तथा उसके प्रतिनिधि कवि का नाम लिखें।
उत्तर:
ज्ञान मार्गी शाखा-कबीर प्रेम मार्गी शाखा-जायसी कृष्ण मार्गी शाखा-सूरदास राम मार्गी शाखा–तुलसीदास
प्रश्न 9.
अष्टछाप के कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास यह चारों कवि महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। नन्ददास, चतुर्भुज दास, छीत स्वामी तथा गोविन्द स्वामी यह चारों महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलदास के शिष्य थे।
प्रश्न 10.
दो कृष्ण भक्त कवियों के नाम लिखें जो किसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित नहीं थे?
उत्तर:
- रसखान
- मीराबाई
प्रश्न 11.
अवधी भाषा के दो ग्रन्थों के नाम लिखें।
उत्तर:
- पद्मावत
- रामचरितमानस।
प्रश्न 12.
कवित्त और सवैये लिखने वाले प्रसिद्ध कवि का नाम लिखिए।
उत्तर:
रसखान।
प्रश्न 13.
भ्रमर गीत रचने वाले दो कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
सूरदास, नन्ददास।
प्रश्न 14.
भ्रमर गीत का प्रमुख प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर:
भ्रमर गीत का प्रमुख प्रतिपाद्य निर्गुण का खण्डन और सगुण का मण्डन है।
प्रश्न 15.
ब्रज भाषा के दो ग्रन्थों के नाम लिखें।
उत्तर:
विनय पत्रिका, सूरसागर।
प्रश्न 16.
रामचरितमानस में प्रयुक्त छन्दों के नाम लिखें।
उत्तर:
दोहा, सोरठा, चौपाई।
प्रश्न 17.
निम्नलिखित रचनाओं के कवियों के नाम लिखें। रामचरितमानस, बीजक, सूरसागर, पद्मावत
उत्तर:
तुलसी, कबीर, सूरदास, जायसी।
प्रश्न 18.
भक्ति काल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग क्यों है? केवल दो कारण बताएं।
उत्तर:
(क) समन्वय की व्यापक भावना।
(ख) शील और सदाचार का महत्त्व।
प्रश्न 19.
भक्ति काल की दो सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख करें?
उत्तर:
(क) नाम की महत्ता
(ख) भक्ति-भावना की प्रधानता।
प्रश्न 20.
सन्त काव्य की चार प्रवृत्तियों के नाम लिखें?
उत्तर:
- निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर जोर देना।
- रूढ़ियों एवं आडम्बरों का विरोध करना।
- जाति-पाति के भेदभाव का खण्डन।
प्रश्न 21.
प्रेममार्गी सूफ़ी काव्य धारा के प्रमुख कवियों तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
कुतुबन-मृगावती। मंझन-मधुमालती। जायसी-पद्मावत। उसमान-चित्रावली। कासिमशाह-हंसजवाहिर। नूरमुहम्मद–इन्द्रावती।
प्रश्न 22.
सूफ़ी काव्य की दो प्रमुख प्रवृत्नियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
- मसनवी पद्धति।
- हिन्दू संस्कृति का चित्रण।
प्रश्न 23.
निम्नलिखित ग्रन्थों की भाषा लिखिएपद्मावत, गीतावली, बीजक, अखरावट
उत्तर:
पद्मावत-अवधी गीतावली-ब्रजभाषा बीजक-सधुक्कड़ी अखरावट-अवधी।
प्रश्न 24.
हिन्दी साहित्य का इतिहास सर्वप्रथम किसने लिखा?
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।
प्रश्न 25.
तुलसीदास किस मुग़ल सम्राट् के समकालीन थे?
उत्तर:
सम्राट अकबर।
प्रश्न 26.
संत काव्य परम्परा में आने वाले उत्तर प्रदेश के दो कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
कबीरदास, रैदास।
प्रश्न 27.
कबीर वाणी का संग्रह किस ग्रन्थ में हुआ है ? इसके कितने भाग हैं ?
उत्तर:
कबीर वाणी का संग्रह बीजक नामक ग्रन्थ में हुआ है। इसके साखी, सबद तथा रमैणी तीन भाग हैं।
प्रश्न 28.
भ्रमर गीत में गोपियों ने ईश्वर के किस रूप को श्रेष्ठ कहा है?
उत्तर:
सगुण रूप।
प्रश्न 29.
जायसी भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं?
उत्तर:
जायसी भक्तिकाल निर्गुण भक्ति धारा की प्रेममार्गी शाखा के कवि हैं।
प्रश्न 30.
मीरा की भक्ति किस प्रकार की है?
उत्तर:
माधुर्य भाव की।
प्रश्न 31.
जायसी का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी।
प्रश्न 32.
सूरदास की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
सूरसागर एवं सूरसारावली।
प्रश्न 33.
तुलसीकृत ब्रज भाषा के किन्हीं दो ग्रन्थों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कृष्ण गीतावली, दोहावली।
प्रश्न 34.
सूरदास को किस रस का सम्राट माना जाता है?
उत्तर:
वात्सल्य रस।।
प्रश्न 35.
पद्मावत की रचना किस शैली में हुई है?
उत्तर:
पद्मावत की रचना दोहा-चौपाई शैली में हुई है।
प्रश्न 36.
कबीर दास के गुरु का नाम लिखें।
उत्तर:
श्री रामानन्द जी कबीर दास के गुरु थे।
भक्तिकालीन प्रमुख कवि
1. कबीर
प्रश्न 1.
कबीर किस काल के और किस धारा के कवि हैं ?
उत्तर:
कबीर भक्तिकालीन निर्गुण भक्ति धारा के कवि हैं।
प्रश्न 2.
कबीर ने ईश्वर की उपासना किस रूप में की?
उत्तर:
कबीर ने ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की।
प्रश्न 3.
कबीर आत्मा और परमात्मा को किस रूप में मानते हैं ?
उत्तर:
कबीर आत्मा को पत्नी और परमात्मा को पति रूप में मानते हैं।
प्रश्न 4.
कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उनकी भाषा में अनेक भाषाओं के शब्दों का मिश्रण है, इसलिए उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहते हैं। वैसे भी कबीर साधुओं की तरह कई जगह घूमे जिस कारण उनकी भाषा पर अनेक भाषाओं का प्रभाव है।
प्रश्न 5.
कबीर ने गुरु को गोबिन्द से बड़ा क्यों माना है?
उत्तर:
गुरु की कृपा से ही गोबिन्द के दर्शन होते हैं।
2. जायसी
प्रश्न 1.
जायसी का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर:
जायसी का पूरा नाम मलिक मुहम्मद जायसी है।
प्रश्न 2.
जायसी भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं?
उत्तर:
जायसी भक्तिकालीन निर्गुण भक्ति धारा की प्रेम मार्गी शाखा के कवि हैं।
प्रश्न 3.
जायसी की रचनाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
पद्मावत्, अखरावट, चित्रलेखा, आखिरी कलाम
प्रश्न 4.
हिन्दी का प्रथम प्रमाणिक महाकाव्य किसे माना जाता है ?
उत्तर:
जायसी कृत पद्मावत।
प्रश्न 5.
पद्मावत की कोई-सी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(क) विरहवर्णन
(ख) लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति।
प्रश्न 6.
जायसी आत्मा और परमात्मा को किस रूप में मानते हैं?
उत्तर:
जायसी आत्मा को पति तथा परमात्मा को पत्नी मानते हैं।
प्रश्न 7.
जायसी के काव्य की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
खण्डात्मक प्रवृत्ति से परहेज़ तथा रहस्यवाद।
3. सूरदास
प्रश्न 1.
सूरदास भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं ?
उत्तर:
सूरदास भक्तिकालीन सगुण भक्तिधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।
प्रश्न 2.
सूरदास की रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
सूरसागर, साहित्य लहरी तथा सूरसारावली।
प्रश्न 3.
सूरदास की रचनाओं की भाषा कौन-सी है?
उत्तर:
सूरदास की रचनाओं की भाषा ब्रज है।
प्रश्न 4.
सूरदास किस रस के सम्राट माने जाते हैं ?
उत्तर:
सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट् माने जाते हैं।
प्रश्न 5.
सूरदास आत्मा और परमात्मा को किस रूप में मानते हैं ?
उत्तर:
सूरदास आत्मा और परमात्मा को सखा मानते हैं।
प्रश्न 6.
सूरदास के काव्य की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
वात्सल्य वर्णन और श्रृंगार वर्णन।।
प्रश्न 7.
भ्रमरगीत का प्रमुख प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर:
भ्रमरगीत में गोपियों के विरह का वर्णन कर कवि ने निर्गुण पर सगुण की विजय दिखाई है।
4. तुलसीदास
प्रश्न 1.
तुलसीदास भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं?
उत्तर:
तुलसीदास भक्तिकालीन सगुण भक्ति धारा की राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।
प्रश्न 2.
तुलसीदास द्वारा रचित किन्हीं चार रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
रामचरित मानस, कवितावली, विनय पत्रिका, पार्वती मंगल।
प्रश्न 3.
तुलसीदास द्वारा रचित काव्य मुख्यतः किस भाषा में हैं ?
उत्तर:
अवधी।
प्रश्न 4.
तुलसीदास द्वारा रचित किन्हीं दो ब्रज भाषा की रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
गीतावली तथा दोहावली।
प्रश्न 5.
तुलसी काव्य की कोई-सी दो विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
जनभाषा का प्रयोग तथा समन्वयवादिता।
प्रश्न 6.
तुलसी द्वारा लिखित प्रबन्ध काव्य का नाम लिखिए।
उत्तर:
रामचरितमानस।
प्रश्न 7.
तुलसी द्वारा लिखित मुक्तक काव्य का नाम लिखिए।
उत्तर:
विनयपत्रिका।
बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
भक्तिकाल का समय माना जाता है ?
(क) सं० 1350 से 1700 ई०
(ख) संवत 1350 से 1600
(ग) सं० 1700 से 1900 ई०
(घ) सं० 1900 से आज तक
उत्तर:
(क) सं० 1350 से 1700 ई०
प्रश्न 2.
निर्गुण भक्ति काव्य के प्रतिनिधि माने जाते हैं ?
(क) संत कबीरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) सूरदास
(घ) विद्यापति
उत्तर:
(क) संत कबीरदास
प्रश्न 3.
रामभक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि हैं ?
(क) कबीरदास
(ख) सूरदास
(ग) तुलसीदास
(घ) केशव
उत्तर:
(ग) तुलसीदास
प्रश्न 4.
कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं ।
(क) सूरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) कबीरदास
(घ) केशवदास
उत्तर:
(क) सूरदास
प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म किन भागों में बंट गया ?
(क) हीनयान
(ख) महायान
(ग) हीनयान और महायान
(घ) कौई नहीं
उत्तर:
(ग) हीनयान और महायान
प्रश्न 6.
पद्मावत काव्य के रचयिता कौन हैं ?
(क) कबीरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) सूरदास
(घ) जायसी
उत्तर:
(घ) जायसी