Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल Textbook Exercise Questions and Answers.
PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 6 वर्धन सम्राट् एवं उनका काल
अध्याय का विस्तृत अध्ययन
(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)
प्रश्न-
हर्ष के उत्थान व साम्राज्य विस्तार के सन्दर्भ में उसकी राज्य-व्यवस्था व प्रशासन की चर्चा करें।
अथवा
एक विजेता और शासन प्रबन्ध के रूप में हर्ष की प्राप्तियों का उल्लेख करें।
उत्तर-
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। देश में अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य उभर आये थे। इनमें से एक थानेश्वर का वर्धन राज्य भी था। प्रभाकर वर्धन के समय में यह काफ़ी शक्तिशाली था। उसकी मृत्यु के बाद 606 ई० में हर्षवर्धन राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। वैसे भी हर्ष अपने राज्य की सीमाओं में वृद्धि करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अनेक सैनिक अभियान किए। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार उसने देश में राजनीतिक एकता की स्थापना की और देश को अच्छा शासन प्रदान किया। संक्षेप में, उसके जीवन तथा सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है-
I. प्रारम्भिक जीवन-
हर्षवर्धन थानेश्वर के राजा प्रभाकर वर्धन का पत्र था। उसकी माता का नाम यशोमती था। हर्ष की जन्म तिथि के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उसका जन्म 589-90 ई० के लगभग हुआ था। बचपन में हर्ष को अच्छी शिक्षा दी गई। उसे घुड़सवारी करना, तीर कमान चलाना तथा तलवार चलाना भी सिखाया गया। कुछ ही वर्षों में वह युद्ध-कला में निपुण हो गया। जब वह केवल 14 वर्ष का था तो हूणों ने थानेश्वर राज्य पर आक्रमण किया। उनका सामना करने के लिए उसके बड़े भाई राज्यवर्धन को भेजा गया। परन्तु हर्ष ने भी युद्ध में उसका साथ दिया, भले ही पिता की बीमारी का समाचार मिलने के कारण उसे मार्ग से ही वापस लौटना पड़ा। उसके राजमहल पहुंचते ही उसका पिता चल बसा और उसकी माता सती हो गई। इसी बीच राज्यवर्धन भी हूणों को पराजित कर वापस अपनी राजधानी लौट आया। उसे अपने पिता की मृत्यु का इतना दुःख हुआ कि उसने राजगद्दी पर बैठने से इन्कार कर दिया और साधु बन जाने की इच्छा प्रकट की। परन्तु हर्ष के प्रयत्नों से उसे राजगद्दी स्वीकार करनी पड़ी।
सिंहासनारोहण तथा विपत्तियां-606 ई० में बंगाल के शासक शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन को मरवा डाला। उसकी मृत्यु के पश्चात् हर्षवर्धन थानेश्वर की राजगद्दी पर बैठा। वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। इसलिए उसे अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उसकी सबसे बड़ी समस्या अपने भाई तथा बहनोई के वध का बदला लेना था। उसे अपनी बहन राज्यश्री को भी कारावास से मुक्त करवाना था जिसे मालवा के शासक ने बन्दी बना रखा था। उसने एक विशाल सेना संगठित की और मालवा के राजा के विरुद्ध प्रस्थान किया। परन्तु उसी समय हर्ष को यह समाचार मिला कि उसकी बहन कैद से मुक्त होकर विन्धयाचल के जंगलों में चली गई है। हर्ष ने उसकी खोज आरम्भ कर दी और आखिर जंगली सरदारों की सहायता से उसे खोज निकाला। उसने अपनी बहन को ठीक उस समय बचा लिया जब वह सती होने की तैयारी कर रही थी। तत्पश्चात् हर्ष ने कन्नौज और थानेश्वर के राज्यों को मिलाकर उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली राज्य की नींव रखी।
II. विजयें तथा साम्राज्य विस्तार-
राज्य में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् हर्ष ने राज्य विस्तार की ओर ध्यान दिया। उसने अनेक विजयें प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार किया
1. बंगाल विजय-बंगाल का शासक शशांक था। उसने हर्षवर्धन के बड़े भाई को धोखे से मार दिया था। शशांक से बदला लेने के लिए हर्ष ने कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन से मित्रता कर ली और उसकी सहायता से शशांक को पराजित कर दिया। लेकिन जब तक शशांक जीवित रहा, उसने हर्ष को बंगाल पर अधिकार न करने दिया।
2. पांच प्रदेशों की विजय-बंगाल विजय के पश्चात् हर्ष ने लगातार कई वर्षों तक युद्ध किए। 606 ई० से लेकर 612 ई० तक उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों को जीता। ये प्रदेश शायद पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा थे।
3. वल्लभी की विजय-हर्ष के समय वल्लभी (गुजरात) काफ़ी धनी प्रदेश था। हर्ष ने एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण किया और वहां के शासक ध्रुवसेन द्वितीय को हराया। कहते हैं कि बाद में वल्लभी नरेश ने हर्ष के साथ मित्रता कर ली। ध्रुवसेन द्वितीय के व्यवहार से प्रसन्न होकर हर्ष ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह भी किया।
4. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष ने उत्तरी भारत को विजय करने के बाद दक्षिणी भारत को जीतने का निश्चय किया। उस समय दक्षिणी भारत में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था। 633 ई० में नर्मदा नदी के किनारे दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्ष पहली बार पराजित हुआ और उसे वापस लौटना पड़ा।
5. सिन्ध विजय-बाण के अनुसार हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु ह्यनसांग लिखता है कि उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र प्रदेश था। हर्ष ने इस प्रदेश को विजय नहीं किया था।
6. बफ़र्कीले प्रदेश पर विजय-बाण लिखता है कि हर्ष ने एक बर्फीले प्रदेश को जीता। यह बर्फीला प्रदेश शायद नेपाल था। कहते हैं कि हर्ष ने कश्मीर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।
7. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई आक्रमण किए। परन्तु शशांक के विरोध के कारण वह इस प्रदेश को न जीत सका। 620 ई० में शशांक की मृत्यु के बाद उसने गंजम पर एक बार फिर आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया।
राज्य-विस्तार-हर्ष लगभग सारे उत्तरी भारत का स्वामी था। उसके राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी को छती थीं। पूर्व में उसका राज्य कामरूप से लेकर उत्तर-पश्चिम में पूर्वी पंजाब तक विस्तृत था। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था। कन्नौज हर्ष के इस विशाल राज्य की राजधानी थी।
III. राज्य व्यवस्था एवं प्रशासन —
1. केन्द्रीय शासन-ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष एक परिश्रमी शासक था। यद्यपि वह अन्य राजाओं की तरह ठाठ-बाठ से रहता था, फिर भी वह अपने कर्तव्य को नहीं भूलता था। जनता की भलाई करने के लिए वह प्रायः खाना, पीना और सोना भी भूल जाता था। यूनसांग के अनुसार हर्ष एक दानी तथा उदार राजा था। वह भिक्षुओं, ब्राह्मणों तथा निर्धनों को खुले मन से दान देता था। कहते हैं कि प्रयाग की सभा में उसने अपना सारा कोष, वस्त्र तथा .. पण दान में दे दिए थे। ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष के शासन का उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। राजा प्रजा के हित को सदा ध्यान में रखता था। जनता के दुःखों की जानकारी प्राप्त करने के लिए वह समय-समय पर राज्य का भ्रमण भी किया करता था।
2. प्रान्तीय शासन-हर्ष ने अपने राज्य को भुक्ति, विषय, ग्राम आदि प्रशासनिक इकाइयों में बांटा हुआ था। भुक्ति के मुख्य अधिकारी को ‘उपारिक’, विषय के अधिकारी को ‘विषयपति’ तथा ग्राम के अधिकारी को ‘ग्रामक’ कहते थे। कहते हैं कि विषय और ग्राम के बीच भी एक प्रशासनिक इकाई थी जिसे ‘पथक’ कहा जाता था।
3. भूमि का विभाजन-ह्यूनसांग लिखता है कि सरकारी भूमि चार भागों में बंटी हुई थी। पहले भाग की आय राजकीय कार्यों पर व्यय की जाती थी। दूसरे भाग की आय से मन्त्रियों तथा अन्य कर्मचारियों को वेतन दिए जाते थे। तीसरे भाग की आय भिक्षुओं तथा ब्राह्मणों में दान के रूप में बांट दी जाती थी। चौथे भाग की आय से विद्वानों को पुरस्कार दिए जाते थे।
4. दण्ड विधान-ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष का दण्ड विधान काफ़ी कठोर था। देश निकाला तथा मृत्यु दण्ड भी प्रचलित थे। सामाजिक सिद्धान्तों का उल्लंघन करने वाले अपराधी के नाक, कान आदि काट दिए जाते थे। परन्तु साधारण अपराधों पर केवल जुर्माना ही किया जाता था।
5. सेना-ह्यूनसांग लिखता है कि हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया हुआ था। उसकी सेना में 50,000 पैदल, 1 लाख घुड़सवार तथा 60,000 हाथी थे। इसके अतिरिक्त उसकी सेना में कुछ रथ भी सम्मिलित थे।
6. अभिलेख विभाग-ह्यूनसांग के अनुसार हर्ष ने एक अभिलेख विभाग की भी व्यवस्था की हुई थी। यह विभाग उसके शासनकाल की प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना का रिकार्ड रखता था।
7. आय के साधन-यूनसांग लिखता है कि सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/ 6 भाग लिया जाता था। प्रजा से अन्य भी कुछ कर वसूल किए जाते थे। । सच तो यह है कि हर्ष एक महान् विजेता था। उसने अपने विजित प्रदेशों को संगठित किया और लोगों को एक अच्छा शासन प्रदान किया। उसके विषय में डॉ० रे चौधरी ने ठीक ही कहा है, “वह प्राचीन भारत के महानतम् राजाओं में से एक था।” (“He was one of the greatest kings of ancient India.”)
प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के समय के सांस्कृतिक विकास की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
उत्तर-
हर्ष कालीन संस्कृति काफ़ी सीमा तक गुप्तकालीन संस्कृति का ही रूप थी। फिर भी इस युग में संस्कृति के विकास को नई दिशा मिली। मन्दिरों की संस्था का रूप निखरा। वैदिक परम्परा और शिव का रूप निखरा तथा भक्ति का आरम्भ हुआ। नालन्दा विश्वविद्यालय इस काल की शाखा है। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन आरम्भ हुआ। इस सांस्कृतिक विकास की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं
1. नालन्दा-
हर्ष स्वयं बौद्ध धर्म का संरक्षक था। उसने सैंकड़ों मठ और स्तूप बनवाये। परन्तु उसके समय में नालन्दा का मठ अपनी चरम सीमा पर था। ह्यनसांग ने भी अपने वृत्तान्त में इस बात की पुष्टि की है। वह लिखता है कि भारत में मठों की संख्या हज़ारों में थी। परन्तु किसी का भी ठाठ-बाठ और गौरव नालन्दा जैसा नहीं था। यहाँ जिज्ञासु और शिक्षकों सहित दस हज़ार भिक्षु रहते थे। वे महायान और हीनयान सम्प्रदायों के सिद्धान्त और शिक्षाओं का अध्ययन करते थे। इसके अतिरिक्त वेदों, ‘क्लासिकी’ रचनाओं, व्याकरण, चिकित्सा और गणित का अध्ययन किया जाता था।
ह्यनसांग के वृत्तान्त से स्पष्ट पता चलता है कि नालन्दा के भिक्षु ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे। उनका जनसामान्य से सम्पर्क टूट चुका था। उनमें प्राचीन बौद्ध धर्म के आदर्शों का प्रचार करने का उत्साह नहीं रहा था। वैसे भी बौद्ध धर्म प्रचार के स्थान पर दर्शन की सूक्ष्मताओं में उलझ गया। जैन मत की स्थिति भी बौद्ध मत जैसी ही थी। इधर समाज में ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति में सुधार किया। उन्होंने साधारण गृहस्थी के साथ अटूट सम्पर्क बना लिया था। वे अब परिवार के जन्म, मृत्यु और विवाह जैसे सभी महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित संस्कारों में अपनी सेवाएं अर्पित करते थे। ब्राह्मणों ने बौद्ध मत की तरह ही मन्दिर, मूर्ति पूजा और निजी चढ़ावे की प्रथा को भी अपना लिया था। उन्होंने भी अपने विद्यालय स्थापित कर लिए थे। ये मन्दिरों से सम्बन्धित होते थे। समय पाकर ये विद्यालय ब्राह्मणों की बपौती बन गए। उन दिनों का संस्कृत विद्यालय नालन्दा की भान्ति ही प्रसिद्ध था।
2. मन्दिर की संस्था –
इस काल में मन्दिरों का महत्त्व काफ़ी बढ़ गया था। वास्तुकला की दृष्टि से भी मन्दिर का स्वरूप पूर्णतः विकसित हो चुका था।
1. इस काल में चालुक्य, पल्लव और पाण्डेय राजाओं ने भव्य मन्दिर बनवाये।
2. मठ चट्टान को तराश कर भी बनाये जाते थे और स्वतन्त्र नींव पर भी। परन्तु अब स्वतन्त्र मठ भी बनाये गये। मन्दिर अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। इस काल के कई प्रभावशाली मन्दिर आज भी मिलते हैं। ये मन्दिर बादामी, ऐहोल, काँची और महाबलीपुरम् में देखे जा सकते हैं। समुद्र तट पर निर्मित महाबलीपुरम् का मन्दिर इस काल की मन्दिर निर्माण कला का उत्कृष्ट नमूना है।
3. स्वतन्त्र नींव पर निर्मित ऐलोरा का प्रसिद्ध कैलाशनाथ मन्दिर अद्वितीय है। यह एक पहाड़ी को काट कर बनाया हुआ है। इसका निर्माण काल बादामी, ऐहोल, काँची और महाबलीपुरम् के स्वतन्त्र नींव पर बने हुए मन्दिरों से बाद का है।
4. यह मन्दिर आठवीं सदी में राष्ट्रकूट राजाओं के समय में बन कर तैयार हुआ था। यह मन्दिर पहाड़ी के किनारे को काट कर बनाया गया है, किन्तु यह आकाश और धरती के बीच इस प्रकार खड़ा है मानो धरती से ही उभरा हो। इसकी बनावट में स्वतन्त्र नींवों पर बने मन्दिरों के स्वरूप का विशेष ध्यान रखा गया है।
5. इसकी शैली भी दक्षिण के मन्दिरों से मिलती-जुलती है। अनुमान है कि इस मन्दिर निर्माण में काफ़ी संख्या में संगतराशों और मजदूरों ने काम किया होगा। इस पर धन भी काफ़ी खर्च हुआ होगा। हज़ार वर्ष बीतने के बाद भी आज मन्दिर उतना ही सुन्दर तथा शानदार है।
6. धनी सौदागर और राजा मन्दिरों को दान देते थे। कम सामर्थ्य वाले व्यक्ति भी अपनी श्रद्धा के अनुसार मूर्तियाँ, दीपक और तेल आदि वस्तुएँ चढ़ाते थे।
7. मन्दिरों में कई प्रकार के सेवक काम करते थे, परन्तु पूजा का काम केवल ब्राह्मणों के हाथों में था।
8. संगीत अर्थात् गाना-बजाना भी मन्दिर में होने वाले धार्मिक कृत्य का एक आवश्यक अंग था। समय पाकर नृत्य भी मन्दिर के धर्म कार्य से जुड़ गया और भरत-नाट्यम नृत्य एक अत्यन्त उच्चकोटि की कला बन गया। इस प्रकार मन्दिर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र बन गए। एक बात बड़े खेद की है कि शूद्र और चाण्डालों को मन्दिर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।
वैदिक परम्परा और दर्शन का पुनर्जागरण-
(i) ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ने से वैदिक परम्परा का महत्त्व बढ़ा। ब्राह्मण वैदिक परम्परा के संरक्षक बन गए। वे समझते थे कि वैदिक परम्परा को तत्कालीन आक्रमणकारी अर्थात् शक, कुषाण और हूण भ्रष्ट कर रहे हैं। इसी कारण उन्होंने दक्षिण के दरबारों में शरण लेनी शुरू कर दी। दक्षिण भारत में राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने के लिए वैदिक परम्परा के ज्ञान को उच्च योग्यता माना जाता है।
(ii) इस काल में वेदान्त-दर्शन का महत्त्व बढ़ गया। इस दर्शन का सबसे पहला बड़ा व्याख्याता केरल का ब्राह्मण शंकराचार्य था। उनके अनुसार वेद पावन-पुनीत हैं। उसका मत उपनिषदों पर आधारित था। वह अनावश्यक संस्कारों और संस्कार विधियों के विरुद्ध था। इसलिए उसने अपने मठों में सीधी-सादी पूजा की प्रथा आरम्भ की। शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में चार बड़े मठों की स्थापना की। यह मठ थे-हिमालय में बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी, उड़ीसा में पुरी और सौराष्ट्र में द्वारका। उसने सारे देश की यात्रा की और सभी प्रकार के दार्शनिक और धार्मिक नेताओं से शास्त्रार्थ किया। उनके दर्शन का मूलभूत आधार एकेश्वरवादी अद्वैत अर्थात् केवल एक ही निर्विशेष सत्य का दर्शन है।
3. भक्ति का आरम्भ-
इस काल में कई शैव और वैष्णव तमिल धार्मिक नेताओं ने एक व्यक्तिगत इष्टदेव के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने सम्बन्धी प्रचार आरम्भ कर दिया था। इन शैव भक्तों को नायनार और वैष्णव भक्तों को आलवार कहा जाता था। सातवीं सदी तक शिव और विष्णु की महिमा में लिखे उनके भजन अत्यन्त लोकप्रिय हो चुके थे। उनके प्राप्त भजन संग्रह हैं : शैवों का तिरुमुराए और वैष्णवों का नलियार-प्रबन्धम्।
4. प्रादेशिक भाषाएं-
इस काल में संस्कृत भाषा ने गौरवमयी स्थान प्राप्त कर लिया था। साथ में प्रादेशिक बोलियों और साहित्य का भी खूब विकास हुआ। पल्लव राजाओं ने अपने शिलालेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग आरम्भ कर दिया था। उन्होंने संस्कृत और तमिल भाषा भी अपनाई। उनके शिलालेखों का व्यावहारिक दृष्टि से आवश्यक भाग तमिल में था। सातवीं सदी के एक चालुक्य शिलालेख में कन्नड़ का लोकभाषा के रूप में और संस्कृत का कुलीन वर्ग की भाषा के रूप में स्पष्ट उल्लेख है। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि पल्लव काल में साहित्य की भाषा तमिल थी। इस समय का बहुत सारा साहित्य आज भी उपलब्ध . है। निःसन्देह इस काल में तमिल साहित्य का खूब विकास हुआ। सच तो यह है कि इस काल में शिक्षा का स्तर उन्नत था। बौद्ध धर्म अवनति पर और हिन्दू वैदिक धर्म उत्कर्ष की ओर था। मन्दिर परम्परा के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ रहा था। भारतीय दर्शन का प्रचार हुआ और प्रादेशिक भाषाओं का प्रसार हुआ। यह युग वास्तव में संस्कृति का संक्राति-काल था।
महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न
I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक
प्रश्न 1.
स्थानेश्वर (थानेसर) राज्य की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
पुष्यभूति ने।
प्रश्न 2.
प्रभाकरवर्धन कौन था ?
उत्तर-
प्रभाकरवर्धन स्थानेश्वर का एक योग्य शासक था।
प्रश्न 3.
हर्षवर्धन सिंहासन पर कब बैठा ?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में सिंहासन पर बैठा।
प्रश्न 4.
असम का पुराना नाम क्या था ?
उत्तर-
असम का पुराना नाम कामरूप था।
प्रश्न 5.
हर्षवर्धन की जानकारी देने वाले चार स्रोतों के नाम लिखें।
उत्तर-
- बाणभट्ट के हर्षचरित तथा कादम्बरी
- हर्षवर्धन के नाटक रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका,
- ह्यनसांग का वृत्तांत,
- ताम्रलेख।
प्रश्न 6.
हर्षवर्धन ने कौन-कौन से नाटक लिखे ?
उत्तर-
रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिका।
प्रश्न 7.
हर्षवर्धन की बहन का नाम लिखें।
उत्तर-
राज्यश्री।
प्रश्न 8.
हर्षवर्धन ने कौन-से चालुक्य राजा के साथ युद्ध किया ?
उत्तर-
हर्षवर्धन ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध किया।
प्रश्न 9.
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम लिखें।
उत्तर-
हर्षचरित तथा कादम्बरी के लेखक का नाम बाणभट्ट था।
प्रश्न 10.
ह्यूनसांग कौन था ? वह भारत किस राजा के समय आया ?
उत्तर-
ह्यूनसांग एक चीनी यात्री था। जो हर्षवर्धन के राज्यकाल में भारत आया।
2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-
(i) हर्ष ने …………. को अपनी नई राजधानी बनाया।
(ii) हर्ष को चालुक्य नरेश …………….. ने हराया।
(iii) हर्ष का दरबारी कवि ……………: था।
(iv) ह्यूनसांग ने …………… एशिया होते हुए भारत की यात्रा की।
(v) हर्ष वर्धन …………….. धर्म का अनुयायी था।
उत्तर-
(i) कन्नौज
(ii) पुलकेशिन द्वितीय
(iii) बाणभट्ट
(iv) मध्य
(v) बौद्ध।
3. सही/ग़लत कथन-
(i) हर्ष के समय में बौद्ध धर्म सारे भारत में लोकप्रिय था।– (×)
(ii) हर्षवर्धन की पहली राजधानी पाटलिपुत्र थी।– (×)
(iii) ह्यूनसांग द्वारा लिखी पुस्तक का नाम ‘सी० यू० की०’ है।– (√)
(iv) 643 ई० में हर्ष ने कन्नौज में धर्म सभा का आयोजन किया।– (√)
(v) हर्ष एक सहनशील तथा दानी राजा था।– (√)
4. बहु-विकल्पीय प्रश्न-
प्रश्न (i)
हर्ष की जीवनी लिखी है-
(A) फाह्यान ने
(B) कालिदास ने
(C) बाणभट्ट ने
(D) युवान च्वांग ने।
उत्तर-
(C) बाणभट्ट ने
प्रश्न (ii)
महेन्द्र वर्मन नरेश था-
(A) चालुक्य वंश का
(B) शक वंश का
(C) राष्ट्रकूट वंश का
(D) पल्लव वंश का ।
उत्तर-
(D) पल्लव वंश का ।
प्रश्न (iii)
हर्ष के समय का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र था-
(A) नालंदा
(B) तक्षशिला
(C) प्रयाग
(D) कन्नौज।
उत्तर-
(A) नालंदा
प्रश्न (iv)
पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था-
(A) राज्य वर्धन
(B) हर्षवर्धन
(C) प्रभाकर वर्धन
(D) स्वयं पुष्य भूति।
उत्तर-
(B) हर्षवर्धन
प्रश्न (v)
हर्ष ने निम्न स्थान पर हुई सभा में दिल खोल कर दान दिया था–
(A) कश्मीर
(B) कन्नौज
(C) प्रयाग
(D) तक्षशिला।
उत्तर-
(C) प्रयाग
III. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
किन्हीं दो हूण शासकों के नाम लिखें।
उत्तर-
तोरमाण तथा मिहिरकुल दो प्रसिद्ध हूण शासक थे।
प्रश्न 2.
बाणभट्ट की दो रचनाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
बाणभट्ट की दो रचनाओं के नाम हैं-हर्षचरित तथा कादम्बरी।
प्रश्न 3.
हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाले चीनी यात्री का नाम बताओ और यह कब से कब तक भारत में रहा ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के राज्यकाल में आने वाला चीनी यात्री ह्यनसांग था। वह 629 से 645 ई० तक भारत में रहा।
प्रश्न 4.
चार वर्धन शासकों के नाम।
उत्तर-
चार वर्धन शासकों के नाम ये हैं-नरवर्धन, प्रभाकरवर्धन, राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन।
प्रश्न 5.
हर्ष की बहन का नाम बताओ तथा वह किस राजवंश में ब्याही हुई थी ?
उत्तर-
हर्ष की बहन का नाम राज्यश्री था। वह मौखरी राजवंश में ब्याही हुई थी।
प्रश्न 6.
वर्धन शासकों की आरम्भिक तथा बाद की राजधानी का नाम क्या था ? ।
उत्तर-
वर्धन शासकों की आरम्भिक राजधानी थानेश्वर थी। बाद में उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया।
प्रश्न 7.
शशांक कहां का शासक था और उसने कौन-सा प्रसिद्ध वृक्ष कटवा दिया था ?
उत्तर-
शशांक बंगाल (गौड़) का शासक था। उसने गया का बोधि वृक्ष कटवा दिया था।
प्रश्न 8.
हर्ष का पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध कौन-से वर्ष में हुआ और इसमें किसकी विजय हुई ?
उत्तर-
हर्ष का पुलकेशिन द्वितीय के साथ 633 ई० में युद्ध हुआ। इसमें पुलकेशिन द्वितीय की विजय हुई।
प्रश्न 9.
चालुक्य वंश के शासकों की तीन शाखाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
चालुक्य वंश के शासकों की तीन शाखाएं थीं-बैंगी के पूर्वी चालुक्य, बादामी के पश्चिमी चालुक्य और लाट चालुक्य।
प्रश्न 10.
दक्षिण के पल्लव शासकों की राजधानी का नाम तथा उनके शिलालेखों का व्यावहारिक भाग किस भाषा में है ?
उत्तर-
दक्षिण के पल्लव शासकों की राजधानी कांचीपुरम् थी। उनके शिलालेखों का व्यावहारिक भाग तमिल भाषा में है।
प्रश्न 11.
हर्ष के समकालीन पल्लव शासक का नाम तथा राजकाल।
उत्तर-
हर्ष का समकालीन पल्लव शासक महेन्द्र वर्मन था। उसका राज्यकाल 600 ई० से 630 ई० तक था।
प्रश्न 12.
हर्ष के समय मदुराई में किस वंश का राज्य था और यह कितने वर्षों तक बना रहा ?
उत्तर-
हर्ष के समय मदुराई में पाण्डेय वंश का राज्य था। यह लगभग 200 वर्षों तक बना रहा।
प्रश्न 13.
किस शासक के समय किस विहार को दान में 200 गांवों की उपज अथवा लगान मिला हुआ था ?
उत्तर-
हर्ष के समय में नालन्दा विहार को 200 गांवों की उपज अथवा लगान मिला हुआ था।
प्रश्न 14.
हर्ष के काल में नालन्दा में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या क्या थी तथा यहाँ कौन-से धार्मिक तथा सांसारिक विषय पढ़ाए जाते थे ?
उत्तर-
हर्ष के समय नालन्दा में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या 10 हज़ार थी। यहां महायान तथा हीनयान के सिद्धान्त, वेद, क्लासिकी रचनाएं, चिकित्सा, व्याकरण और गणित के विषय पढ़ाए जाते थे।
प्रश्न 15.
दक्षिण के किन चार स्थानों में प्रभावशाली मन्दिर मिले हैं ?
उत्तर-
दक्षिण के जिन चार स्थानों पर प्रभावशाली मन्दिर मिले हैं, वे हैं–बादामी, ऐहोल, कांची तथा महाबलिपुरम्।
प्रश्न 16.
पहाड़ी को काटकर बनाया गया कैलाशनाथ मन्दिर कहां है और यह किस वंश के राज्यकाल में पूरा हुआ था ?
उत्तर-
पहाड़ी को काटकर बनाया गया कैलाशनाथ मन्दिर ऐलोरा में है। यह राष्ट्रकूट वंश के राज्यकाल में पूरा हुआ था।
प्रश्न 17.
दक्षिण में नायनार तथा आलवार भक्त कौन-से सम्प्रदायों के साथ सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
नायनार भक्त शैव सम्प्रदाय से तथा आलवार भक्त वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे।
प्रश्न 18.
नायनार तथा आलवार भक्त कौन-सी भाषा में लिखते थे तथा उनके दो भजन संग्रहों के नाम बताएं।
उत्तर-
नायनार तथा आलवार भक्त तमिल भाषा में लिखते थे। उनके दो भजन संग्रहों के नाम हैं-तिरुमुराए तथा नलियार प्रबन्धम्।
प्रश्न 19.
शंकराचार्य कहां के रहने वाले थे और उन्होंने किन चार प्रमुख मठों की स्थापना कहां की ? .
उत्तर-
शंकराचार्य केरल के रहने वाले थे। उन्होंने हिमालय में केदारनाथ, दक्षिण में शृंगेरी, उड़ीसा में पुरी तथा सौराष्ट्र में द्वारिका में मठ बनवाये।
प्रश्न 20.
उत्तरी भारत के कौन-से चार प्रदेश हर्ष के साम्राज्य से बाहर थे ? ।
उत्तर-
उत्तरी भारत के जो चार प्रदेश हर्ष के साम्राज्य से बाहर थे, वे थे-कश्मीर, नेपाल, कामरूप (असम) और सौराष्ट्र।
III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की विजयों के बारे में बतायें।
उत्तर-
पुलकेशिन द्वितीय बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्यों में सबसे शक्तिशाली शासक था। वह एक महान् विजेता था। उसने 610 ई० से 642 ई० तक शासन किया। उसका राज्य दक्षिणी गुजरात से दक्षिणी मैसूर तक फैला हुआ था। उसने अनेक विजयें प्राप्त की-
- उसने उत्तरी भारत के सबसे शक्तिशाली राजा हर्षवर्धन को पराजित किया। यह उसकी बहुत बड़ी विजय मानी जाती है।
- उसने पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन प्रथम को पराजित किया और उसके राज्य के कई प्रदेश अपने अधिकार में ले लिए।
- उसने राष्ट्रकूटों के आक्रमण का बड़ी वीरता से सामना किया। उसने कादम्बों की राजधानी बनवासी को भी लूटा था।
प्रश्न 2.
हर्ष के अधीन राजाओं के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के साम्राज्य का एक बड़ा भाग अधीन राजाओं का था। उन्होंने हर्ष को अपना महाराजाधिराज स्वीकार कर लिया। वे हर्ष को नियमित रूप से नज़राना देते थे और युद्ध के समय सैनिक सहायता भी करते थे। हर्ष का अपने अधीन सभी शासकों पर नियन्त्रण एक-सा नहीं था। इनमें से कुछ ‘सामन्त’ तथा ‘महासामन्त’ कहलाते थे। कुछ शासकों को राजा की पदवी भी प्राप्त थी। उन्हें कई अवसरों पर सम्राट की वन्दना के लिए स्वयं उपस्थित होना पड़ता था। हर्ष को अपनी सेना सहित अनेक राज्यों में से गुजरने का पूरा अधिकार था। कुछ अधीन राजाओं को अपने पुत्र और निकट सम्बन्धियों को हर्ष के दरबार में रहने के लिए भेजना पड़ता था। जब सामन्त अपने प्रदेश में किसी को लगान-मुक्त भूमि देते तो उन्हें दान-पात्र पर हर्ष द्वारा चलाये गये सम्वत् का प्रयोग करना पड़ता था। कुछ राजाओं को तो लगान-मुक्त भूमि देने के लिए भी सम्राट की आज्ञा लेनी पड़ती थी।
प्रश्न 3.
हर्ष के राज्य की प्रशासनिक इकाइयों तथा उनके कर्मचारियों के बारे में बताएं।
उत्तर-
हर्ष ने अपने साम्राज्य को भिन्न-भिन्न प्रशासनिक इकाइयों में बांटा हुआ था। बंस-खेड़ा के शिलालेख में उसके साम्राज्य के चार प्रादेशिक भागों का वर्णन है। ये थे-विषय, भुक्ति, पथक और ग्राम। परन्तु मधुबन के शिलालेख में इनमें से केवल पहले, दूसरे और चौथे भागों का उल्लेख है। साम्राज्य का आरम्भिक विभाजन भुक्ति था, जिन्हें प्रान्त समझा जा सकता था। भुक्ति में कई ‘विषय’ होते थे। प्रत्येक विषय में बहुत से ग्राम होते थे। कई प्रदेशों में विषय और ग्राम के बीच एक और प्रशासनिक इकाई होती थी जिसे ‘पथक’ कहते थे।
भुक्ति के अधिकारी को उपरिक कहा जाता था। विषय का सबसे बड़ा अधिकारी विषयपति कहलाता था! ग्राम के प्रमुख अधिकारी को ग्रामक कहते थे। वह अपना कार्य ग्राम के बड़े-बूढ़ों की सभा की सहायता द्वारा करता था।
प्रश्न 4.
हर्ष के अधीन लगान व्यवस्था तथा लगान-मुक्त भूमि के बारे में बताएं।
उत्तर-
हर्षवर्धन के अधीन राज्य की आय का मुख्य साधन लगान (भूमिकर) था। यूनसांग के अनुसार लगान को ‘भाग’, ‘कर’ या ‘उद्रंग’ कहा जाता था। किसानों को कई अन्य कर भी देने पड़ते थे। कहने को तो उन्हें सरकार को भूमि की उपज का छठा भाग ही देना पड़ता था, परन्तु वास्तव में यह दर अधिक थी। कभी-कभी सरकार उनसे छठे भाग से भी अधिक भूमि कर की मांग करती थी। हर्ष ने लगान-मुक्त भूमि के प्रबन्ध को भी विशेष महत्त्व दिया। इसके अनुसार प्रबन्धक कर्मचारियों को सरकार द्वारा वेतन के स्थान पर कुछ भूमि से कर वसूल करने का अधिकार दे दिया जाता था। लगान-मुक्त भूमि का पूरापूरा लिखित हिसाब-किताब रखा जाता था। इसके लिए एक पृथक् विभाग बना दिया गया था। प्रत्येक कर्मचारी को कर-मुक्त भूमि से सम्बन्धित एक ‘आदेश-पत्र’ दिया जाता था जो सामान्यतः ताम्रपत्र पर लिखा होता था।
प्रश्न 5.
शंकराचार्य के दर्शन तथा कार्य के बारे में बतायें।
उत्तर-
शंकराचार्य 9वीं शताब्दी के महान् विद्वान् तथा दार्शनिक हुए हैं। उन्होंने सभी हिन्दू ग्रन्थों का अध्ययन किया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उनके गुरु ने उन्हें ‘धर्महंस’ की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने बौध धर्म के दार्शनिकों तथा प्रचारकों को चुनौती दी और उन्हें वाद-विवाद में अनेक बार पराजित किया। उन्होंने भारत की चारों दिशाओं में एक-एक मठ बनवाया। ये मठ थे-जोशी मठ, शृंगेरी मठ, पुरी मठ तथा द्वारिका मठ। यही मठ आगे चलकर हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध केन्द्र बने। उन्होंने साधु-संन्यासियों के कुछ संघ भी स्थापित किए। शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध-दर्शन की शिक्षा बन्द कर दी गई और उसका स्थान हिन्दू दर्शन ने ले लिया। शंकराचार्य ने लोगों में ‘अद्वैत दर्शन’ का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को बताया कि ब्रह्म और संसार में कोई अन्तर नहीं है। सभी जीवों की उत्पत्ति ब्रह्म से होती है और अन्त में वे ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।
प्रश्न 6.
वर्धन काल में दक्षिण में प्रादेशिक अभिव्यक्ति के बारे में बताओ।
उत्तर-
वर्धन काल में देश के दक्षिणी भाग में प्रादेशिक अभिव्यक्ति के प्रमाण मिलते हैं। इस समय तक संस्कृत भाषा का महत्त्व पुनः बढ़ गया था। दक्षिण में तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। यह वहां के सामाजिक तथा धार्मिक उच्च वर्ग की भाषा बन गई। ऐसा होने पर भी ‘प्राकृत’ भाषा के विकास में कोई अन्तर नहीं आया। इस दृष्टि से ‘तमिल’ भाषा ने भी विशेष उन्नति की। उदाहरणार्थ पल्लव शासकों ने अपने शिलालेखों में संस्कृत का प्रयोग किया। परन्तु उसके शिलालेखों का व्यावहारिक दृष्टि से आवश्यक भाग ‘तमिल’ में ही होता था। इसी प्रकार चालुक्यों के शिलालेखों में ‘कन्नड़’ भाषा तथा कन्नड़ साहित्य का वर्णन मिलता है। इससे भी बढ़ कर पल्लव शासकों का सारा साहित्य तमिल भाषा में ही मिलता है। तमिल देश में तमिल साहित्य का विकास स्पष्ट रूप से प्रादेशिक अभिव्यक्ति की ओर संकेत करता है।
प्रश्न 7.
हर्ष के समय में नालन्दा के विहार की स्थिति क्या थी ?
उत्तर-
हर्षवर्धन के समय में नालन्दा का मठ अपने चरम शिखर पर था। यूनसांग ने भी अपने विवरण में नालन्दा का बड़ा रोचक वर्णन किया है। यह वर्णन भी नालन्दा के तत्कालीन गौरव की पुष्टि करता है। यूनसांग लिखता है कि भारत में मठों की संख्या हजारों में थी। परन्तु किसी का भी ठाठबाठ और बड़प्पन नालन्दा जैसा नहीं था। नालन्दा के विहार में जिज्ञासु और शिक्षकों सहित दस हज़ार भिक्षु रहते थे। वे महायान और हीनयान सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और शिक्षाओं का अध्ययन करते थे। इसके अतिरिक्त यहां वेदों, ‘क्लासिकी रचनाओं, व्याकरण, चिकित्सा और गणित की पढ़ाई भी होती थी। नालन्दा के खण्डहर आज भी बड़े प्रभावशाली हैं।
प्रश्न 8.
वर्धन काल में मन्दिर की संस्था का सामाजिक महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
वर्धनकाल में मन्दिर की संस्था को बहुत अधिक सामाजिक महत्त्व दिया जाने लगा था। विद्यालय प्रायः महत्त्वपूर्ण मन्दिरों से ही सम्बन्धित होते थे। लोगों की मन्दिरों में बड़ी श्रद्धा थी। धनी तथा राजा लोग दिल खोल कर मन्दिरों को दान देते थे। साधारण लोग भी मन्दिरों में जाकर मूर्तियां, दीपक, तेल आदि चढ़ाते थे। मन्दिरों में संगीत और नृत्य भी होता था जिसे धर्म का अंग माना जाने लगा था। कई प्रकार के सेवक मन्दिरों में काम करते थे, पर मन्दिर के भीतर पूजा केवल ब्राह्मणों के हाथों में थी। भरत-नाट्यम नृत्यु एक अत्यन्त उच्च कोटि की कला बन गया। इस प्रकार मन्दिर धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का प्रमुख केन्द्र बन गये। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि शूद्रों और चाण्डालों को मन्दिर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।
प्रश्न 9.
दक्षिण में नायनार तथा आलवार भक्तों के बारे में बतायें।
उत्तर-
वर्धन काल में कछ शैव और वैष्णव प्रचारकों ने मानवीय देवताओं के प्रति श्रद्धाभक्ति का प्रचार करना आरम्भ कर दिया था। इसका प्रचार करने वाले शैव नेता नायनार तथा वैष्णव नेता आलवार कहलाते थे। उन्होंने शिव तथा विष्णु की आराधना में अनेक भजनों की रचना की जो दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होने लगे। उनके भजनों के संग्रह आज भी उपलब्ध हैं। शैवों के भजन संग्रह ‘तिरुमुराए’ तथा वैष्णवों का भजन संग्रह ‘नलिआर प्रबन्धम्’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भक्त और भगवान् (विष्णु अथवा शिव) के आपसी सम्बन्धों को बहुत अधिक महत्त्व दिया। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि नायनारों तथा आलवारों का सम्बन्ध उच्च वर्गों से नहीं था। वे प्रायः कारीगरों तथा कृषक श्रेणियों से सम्बन्ध रखते थे। उनमें कुछ स्त्रियां भी सम्मिलित थीं। उन्होंने अपना प्रचार साधारण बोलचाल की (तमिल) भाषा में किया और इसी भाषा में अपने भजन लिखे।
प्रश्न 10.
भारत के इतिहास में हूणों ने क्या भूमिका निभाई ?
उत्तर-
हूण मध्य एशिया की एक जंगली तथा असभ्य जाति थी। इन लोगों ने छठी शताब्दी के आरम्भ तक उत्तर-पश्चिम भारत के एक बहुत बड़े भाग पर अपना अधिकार जमा लिया। भारत में हूणों के दो प्रसिद्ध शासक तोरमाण तथा मिहिरकुल हुए हैं। तोरमाण ने 500 ई० के लगभग मालवा पर अधिकार कर लिया था। उसने “महाराजाधिराज” की उपाधि भी धारण की। तोरमाण की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मिहिरकुल अथवा मिहिरगुल ने शाकल (Sakala) को अपनी राजधानी बनाया। उत्तरी भारत के राजाओं के साथ युद्ध में मिहिरकुल पकड़ा गया। बालादित्य उसका वध करना चाहता था, परन्तु उसने अपनी मां के कहने पर उसे छोड़ दिया। इसके पश्चात् उसने गान्धार को विजय किया। कहते हैं कि उसने लंका पर भी विजय प्राप्त कर ली। 542 ई० में मिहिरकुल की मृत्यु हो गई और भारत में हूणों का प्रभाव कम हो गया।
प्रश्न 11.
मैत्रक कौन थे ? उनके सबसे महत्त्वपूर्ण शासकों का वर्णन करो।
उत्तर-
मैत्रक लोग वल्लभी के शासक थे। ये पहले गुप्त शासकों के अधीन थे। उनकी स्वतन्त्रता की क्रिया बुद्धगुप्त (477-500) के समय में आरम्भ हुई। उसके समय में भ्रात्रक नामक एक मैत्रक सौराष्ट्र के सीमावर्ती प्रान्त का गवर्नर था। भ्रात्रक के बाद उसके पुत्र द्रोण सिंह ने ‘महाराजा’ की उपाधि धारण की और एक प्रकार से अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की।
गुप्त सम्राट् नरसिंह ने भी उसकी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार स्वतन्त्र मैत्रक राज्य की स्थापना हुई। छठी शताब्दी तक उन्होंने अपनी शक्ति काफ़ी मज़बूत कर ली। यहां तक कि सम्राट हर्षवर्धन ने सातवीं शताब्दी में अपनी पुत्री का विवाह भी वल्लभी के प्रसिद्ध शासक ध्रुवसेन द्वितीय के साथ किया था। हर्ष की मृत्यु के पश्चात् एक मैत्रक शासक धारसेन चतुर्थ ने ‘महाराजाधिराज’ तथा ‘चक्रवर्ती’ की उपाधियां धारण की। 8वीं शताब्दी में वल्लभी राज्य पर अरबों का अधिकार हो गया।
प्रश्न 12.
आप मौखरियों के विषय में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
गुप्त वंश के पतन के पश्चात् कन्नौज (कान्यकुब्ज) में मौखरी वंश की नींव पड़ी। इस वंश का प्रथम शासक हरिवर्मन था। उसके उत्तरकालीन गुप्त सम्राटों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। मौखरी वंश का दूसरा प्रसिद्ध शासक ईशान वर्मन (Ishana Varman) था। उसने आन्ध्र एवं शूलिक राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसकी मृत्यु पर उसका पुत्र गृहवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना। वह मौखरी वंश का अन्तिम सम्राट् था। उसका विवाह हर्ष की बहन राज्यश्री से हुआ था। मालवा के गुप्त सम्राट् देवगुप्त से उसकी शत्रुता थी। देवगुप्त ने गृहवर्मन को पराजित किया और उसे मार डाला। उसने उसकी पत्नी राज्यश्री को भी कारावास में डाल दिया। बाद में अपनी बहन को छुड़ाने के लिए हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्धन ने देवगुप्त पर आक्रमण किया और उसका वध कर दिया। अन्त में कन्नौज हर्षवर्धन के साम्राज्य का अंग बन गया।
प्रश्न 13.
मदुराई के पाण्डेय शासकों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर–
पाण्डेय वंश दक्षिणी भारत का एक प्रसिद्ध वंश था। इस वंश द्वारा स्थापित राज्य में मदुरा, तिन्नेवली और ट्रावनकोर के कुछ प्रदेश सम्मिलित थे। मदुरा इस राज्य की राजधानी थी। पाण्डेय वंश का आरम्भिक इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है। सातवीं और आठवीं शताब्दी में पाण्डेय शक्ति में वृद्धि हुई, परन्तु दसवीं शताब्दी में वे चोल राजाओं से पराजित हुए। हारने के बाद वे 12वीं शताब्दी तक चोल नरेशों के अधीन सामन्तों के रूप में प्रशासन करते रहे। 13वीं शताब्दी में उन्होंने पाण्डेय राज्य की फिर से नींव रखी। 14वीं शताब्दी में वे गृह-युद्ध में उलझ गए। तब पाण्डेय वंश के दो भाइयों में सिंहासन प्राप्ति के लिए युद्ध छिड़ गया। इन परिस्थितियों में अलाउद्दीन खिलजी के प्रतिनिधि मलिक काफूर ने पाण्डेय राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसने इस राज्य को खूब लूटा। अन्त में द्वारसमुद्र के होयसालों ने पाण्डेय राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
प्रश्न 14.
ह्यूनसांग के विवरण से भारतीय जीवन पर क्या प्रकाश पड़ता है ?
अथवा
‘सी-यू-की’ पुस्तक का लेखक कौन था ? इसका ऐतिहासिक महत्त्व संक्षेप में लिखो।
उत्तर-
यूनसांग एक चीनी यात्री था। वह बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करने तथा बौद्ध साहित्य का अध्ययन करने के लिए भारत आया था। वह 8 वर्ष तक हर्ष की राजधानी कन्नौज में रहा। उसने ‘सी-यू-की’ नामक पुस्तक में अपनी भारत यात्रा का वर्णन किया है। वह लिखता है कि हर्ष बड़ा परिश्रमी, कर्तव्यपरायण और प्रजाहितैषी शासक था। उस समय का समाज चार जातियों में बंटा हुआ था। शूद्रों से बहुतं घृणा की जाती थी। लोगों का नैतिक जीवन काफ़ी ऊंचा था। लोग चोरी करना, मांस खाना, नशीली वस्तुओं का सेवन करना बुरी बात समझते थे। लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। देश में ब्राह्मण धर्म उन्नति पर था, परन्तु बौद्ध धर्म भी कम लोकप्रिय नहीं था।
प्रश्न 15.
हर्षवर्धन के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
हर्षवर्धन एक महान् चरित्र का स्वामी था। उसे अपने परिवार से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त करवाने और उसे ढूंढने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिर । वह एक सफल विजेता तथा कुशल प्रशासक था। उसने थानेश्वर के छोटे से राज्य को उत्तरी भारत के विशाल राज्य का रूप दिया। वह प्रजाहितैषी और कर्तव्यपरायण शासक था।
यूनसांग ने उसके शासन प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है। उसके अधीन प्रजा सुखी और समृद्ध थी। हर्ष धर्म-परायण और सहनशील भी था। उसने बौद्ध धर्म को अपनाया और सच्चे मन से इसकी सेवा की। उसने अन्य धर्मों का समान आदर किया। दानशीलता उसका एक अन्य बड़ा गुण था। वह इतना दानी था कि प्रयाग की एक सभा में उसने अपने वस्त्र भी दान में दे दिए थे और अपना तन ढांपने के लिए अपनी बहन से एक वस्त्र लिया था। हर्ष स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था और उसने कला और विद्या को संरक्षण प्रदान किया।
प्रश्न 16.
हर्षकालीन भारत में शिक्षा-प्रणाली का वर्णन करो।
उत्तर-
हर्षवर्धन स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था। अतः उसके समय में शिक्षा का खूब प्रसार हुआ। आरम्भिक शिक्षा के केन्द्र ब्राह्मणों के घर अथवा छोटे-छोटे मन्दिर थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को मठों में जाना पड़ता था। उच्च शिक्षा के लिए देश में विश्वविद्यालय भी थे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय चिकित्सा-विज्ञान तथा गया का विश्वविद्यालय धर्म शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। ह्यूनसांग ने नालन्दा विश्वविद्यालय को शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र बताया है। यह पटना से लगभग 65 किलोमीटर दूर नालन्दा नामक गांव में स्थित था। इसमें 8,500 विद्यार्थी तथा 1500 अध्यापक थे। नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना कोई सरल कार्य नहीं था। यहां गणित, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरण तथा चिकित्सा-विज्ञान आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे।
प्रश्न 17.
पल्लव राज्य की नींव किसने रखी ? इस वंश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक कौन था ?
उत्तर-
पल्लव राज्य दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली राज्य था। हर्षवर्धन के समय इस राज्य में मद्रास, त्रिचनापल्ली, तंजौर तथा अर्काट के प्रदेश शामिल थे। कांची उसकी राजधानी थी। इस राज्य की नींव 550 ई० में सिंह वर्मन ने रखी थी। उसके एक उत्तराधिकारी सिंह विष्णु ने 30 वर्ष तक शासन किया तथा पल्लव राज्य को सुदृढ़ किया। महेन्द्र वर्मन पल्लव वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने 600 ई० से 630 ई० तक शासन किया। वह हर्षवर्धन का समकालीन था तथा उसी की भान्ति एक उच्चकोटि का नाटककार तथा कवि था। ‘मत्तविलास प्रहसन’ (शराबियों की मौज) उसकी एक सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। महेन्द्र वर्मन पहले जैन मत में विश्वास रखता था। परन्तु बाद में वह शैवमत को मानने लगा। उसके समय में महाबलिपुरम में अनेक सुन्दर मन्दिर बने।
प्रश्न 18.
पल्लवों और चालुक्यों के शासनकाल की मन्दिर वास्तुकला का वर्णन करो।
उत्तर-
पल्लव और चालुक्य दोनों ही कला-प्रेमी थे। उन्होंने वैदिक देवी-देवताओं के अनेक मन्दिर बनवाए। ये मन्दिर पत्थरों को काटकर बनाये जाते थे। पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन द्वारा महाबलिपुरम में बनवाये गये सात रथ-मन्दिर सबसे प्रसिद्ध हैं। यह नगर अपने समुद्र तट मन्दिर के लिए भी प्रसिद्ध है। पल्लवों ने अपनी राजधानी कांची में अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया, जिनमें से कैलाश मन्दिर सबसे प्रसिद्ध है। कहते हैं कि ऐहोल में उनके द्वारा बनवाये गए 70 मन्दिर विद्यमान हैं। चालुक्य राजा भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं रहे। उन्होंने बादामी और पट्टकदल नगरों में मन्दिरों का निर्माण करवाया। पापनाथ मन्दिर तथा वीरुपाक्ष मन्दिर इनमें से काफ़ी प्रसिद्ध हैं। पापनाथ मन्दिर का बुर्ज उत्तर भारतीय शैली में और वीरुपाक्ष मन्दिर विशुद्ध दक्षिणी भारतीय शैली में बनवाया गया है।
IV. निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
यूनसांग कौन था ? उसने हर्षकालीन भारत की राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक अवस्था के बारे में क्या लिखा है ?
अथवा
यूनसांग हर्ष के शासन-प्रबन्ध के विषय में क्या बताता है ?
उत्तर-
यूनसांग एक प्रसिद्ध चीनी यात्री था। वह हर्ष के शासनकाल में भारत आया। उसे यात्रियों का ‘राजा’ भी कहा जाता है। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था और बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करना चाहता था। इसलिए 629 ई० में वह भारत की ओर चल पड़ा। वह चीन से 629 ई० में चला और ताशकन्द, समरकन्द और बलख से होता हुआ 630 ई० में गान्धार पहुंचा। गान्धार में कुछ समय ठहरने के बाद वह भारत में आ गया। उसने कई वर्षों तक बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वह हर्ष की राजधानी कन्नौज में भी 8 वर्ष तक रहा। अन्त में 644 ई० में वह वापिस चीन लौटा। उसने अपनी भारत यात्रा का वर्णन ‘सीयू-की’ नामक पुस्तक में किया है। इस ग्रन्थ में उसने शासन प्रबन्ध तथा भारत के विषय में अनेक बातें लिखी हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है-
I. हर्ष और उसके शासन-प्रबन्ध के विषय में-यूनसांग ने लिखा है कि राजा हर्ष एक परिश्रमी तथा कर्तव्यपरायण शासक था। वह अपने कर्त्तव्य को कभी नहीं भूलता था। जनता की भलाई करने के लिए वह सदा तैयार रहता था। हर्ष एक बहुत बड़ा दानी भी था। प्रयाग की सभा में उसने अपना सारा धन और आभूषण दान में दे दिये थे। सरकारी भूमि चार भागों में बँटी हुई थी-पहले भाग की आय शासन-कार्यों में, दूसरे भाग की आय मन्त्रियों तथा अन्य कर्मचारियों को वेतन देने में, तीसरे भाग की आय दान में और चौथे भाग की आय विद्वानों आदि को इनाम देने में खर्च की जाती थी। हर्ष का दण्ड विधान काफ़ी कठोर था। कई अपराधों पर अपराधी के नाक-कान काट लिए जाते थे। हर्ष के पास एक शक्तिशाली सेना थी जिसमें पच्चीस हज़ार पैदल, एक लाख घुड़सवार तथा लगभग साठ हजार हाथी थे। सेना में रथ भी थे। सरकार की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। प्रजा से कुछ अन्य कर भी लिये जाते थे, परन्तु ये सभी कर हल्के थे। हर्ष ने एक अभिलेख विभाग की व्यवस्था की हुई थी। यह विभाग उसके शासन-काल की प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना का रिकार्ड रखता था।
II. सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के विषय में-ह्यूनसांग ने चार जातियों का वर्णन किया है। ये जातियाँ थींब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र । उसके अनुसार शूद्रों से दासों जैसा व्यवहार किया जाता था। इस समय के लोग सादे वस्त्र पहनते थे। पुरुष अपनी कमर के चारों ओर कपड़ा लपेट लेते थे। स्त्रियाँ अपने शरीर को एक लम्बे वस्त्र से ढक लेती थीं। वे श्रृंगार भी करती थीं। लोग चोरी से डरते थे। वे किसी की वस्तु नहीं उठाते थे। माँस खाना और नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना बुरी बात मानी जाती थी। देश की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। ग्रामों में खेती-बाड़ी मुख्य व्यवसाय था। नगरों में व्यापार उन्नति पर था। मकान ईंटों और लकड़ी के बनाये जाते थे।
III. धार्मिक जीवन के बारे में-हयूनसांग ने भारत को ‘ब्राह्मणों का देश’ कहा है। वह लिखता है कि देश में ब्राह्मणों का धर्म उन्नति पर था, परन्तु बौद्ध धर्म भी अभी तक काफी लोकप्रिय था। हर्ष प्रत्येक वर्ष प्रयाग में एक सभा बुलाता था। इस सभा में वह विद्वानों तथा ब्राह्मणों को दान दिया करता था।
प्रश्न 2.
हर्षवर्धन की प्रमुख विजयों का वर्णन कीजिए।
अथवा
हर्षवर्धन की किन्हीं पांच सैनिक सफलताओं की व्याख्या कीजिए। विदेशों के साथ उसके कैसे संबंध थे ?
उत्तर-
हर्षवर्धन 606 ई० में राजगद्दी पर बैठा। राजगद्दी पर बैठते समय वह चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। शत्रुओं से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक युद्ध करने पड़े। कुछ ही वर्षों में लगभग सारे उत्तरी भारत पर उसका अधिकार हो गया। उसकी प्रमुख विजयों का वर्णन इस प्रकार है-
1. बंगाल विजय-बंगाल का शासक शशांक था। उसने हर्षवर्धन के बड़े भाई का धोखे से वध कर दिया था। उससे बदला लेने के लिए हर्ष ने कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मन से मित्रता की। दोनों की सम्मिलित सेनाओं ने शशांक को पराजित कर दिया। परन्तु शशांक जब तक जीवित रहा, उसने हर्ष को बंगाल पर अधिकार न करने दिया। उसकी मृत्यु के पश्चात् ही हर्ष बंगाल को अपने राज्य में मिला सका।
2. पांच प्रदेशों की विजय-बंगाल विजय के पश्चात् हर्ष ने निरन्तर कई वर्षों तक युद्ध किए। 606 ई० से लेकर 612 ई० तक उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। ये प्रदेश सम्भवतः पंजाब, कन्नौज़, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा थे।
3. वल्लभी की विजय-हर्ष के समय वल्लभी (गुजरात) काफ़ी धनी प्रदेश था। हर्ष ने एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण किया और वहां के शासक ध्रुवसेन को परास्त किया। कहते हैं कि वल्लभी नरेश ने बाद में हर्ष के साथ मित्रता कर ली। ध्रुवसेन के व्यवहार से प्रसन्न होकर हर्ष ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
4. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष ने उत्तरी भारत की विजय के पश्चात् दक्षिणी भारत को जीतने का निश्चय किया। उस समय दक्षिणी भारत में पुलकेशिन द्वितीय सबसे अधिक शक्तिशाली शासक था। 620 ई० के लगभग नर्मदा नदी के पास दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हर्ष को पहली बार पराजय का मुंह देखना पड़ा। अत: वह वापस लौट आया। इस प्रकार दक्षिण में नर्मदा नदी उसके राज्य की सीमा बन गई।
5. सिन्ध विजय-बाण के अनुसार हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण किया और वहां अपना अधिकार कर लिया। परन्तु यूनसांग लिखता है कि उस समय सिन्ध एक स्वतन्त्र प्रदेश था। हर्ष ने इस प्रदेश को विजित नहीं किया था।
6. बर्फीले प्रदेश पर विजय-बाण लिखता है कि हर्ष ने एक बर्फीले प्रदेश को विजय किया। यह बर्फीला प्रदेश सम्भवतः नेपाल था। कहते हैं कि हर्ष ने कश्मीर प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।
7. गंजम की विजय-गंजम की विजय हर्ष की अन्तिम विजय थी। उसने गंजम पर कई आक्रमण किए, परन्तु शशांक के विरोध के कारण वह इस प्रदेश को विजित करने में सफल न हो सका। 643 ई० में शशांक की मृत्यु के पश्चात् उसने गंजम पर फिर एक बार आक्रमण किया और इस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। .
8. राज्य विस्तार-हर्ष लगभग सारे उत्तरी भारत का स्वामी था। उसके राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी को छूती थीं। पूर्व में उसका राज्य कामरूप से लेकर उत्तर-पश्चिम में पूर्वी पंजाब तक विस्तृत था। पश्चिम में अरब सागर तक का प्रदेश उसके अधीन था। हर्ष के इस विशाल राज्य की राजधानी कन्नौज़ थी।
9. विदेशों से सम्बन्ध-हर्ष ने चीन और फारस आदि कई देशों के साथ मित्रता स्थापित की। कहते हैं कि हर्ष तथा फारस का शासक समय-समय पर एक-दूसरे को उपहार भेजते रहते थे।
प्रश्न 3.
(क) हर्ष के शासन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएं बताओ। (ख) उसके चरित्र पर भी प्रकाश डालिए।
उत्तर-
(क) यूनसांग के लेखों से हमें हर्ष के राज्य प्रबन्ध के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। उसे हर्ष का शासन प्रबन्ध देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी। उसने हर्ष के शासन प्रबन्ध के बारे में निम्नलिखित बातें लिखी हैं-
राजा-हर्ष एक प्रजापालक शासक था। वह सदा प्रजा की भलाई में जुटा रहता था। यूनसांग लिखता है कि हर्ष प्रजाहितार्थ कार्य करते समय खाना-पीना और सोना भी भूल जाता था। समय-समय पर वह अपने राज्य में भ्रमण भी करता था। वह बुराई करने वालों को दण्ड देता था तथा नेक काम करने वालों को पुरस्कार देता था।
मन्त्री-राजा की सहायता के लिए मन्त्री होते थे। मन्त्रियों के अतिरिक्त अनेक कर्मचारी थे जो मन्त्रियों की सहायता करते थे।
प्रशासनिक विभाजन-प्रशासनिक कार्य को ठीक ढंग से चलाने के लिए उसने अपने सारे प्रदेश को प्रान्तों, जिलों और ग्रामों में बांटा हुआ था। प्रान्तों का प्रबन्ध ‘उपारिक’ नामक अधिकारी के अधीन होता था। जिले का प्रबन्ध ‘विषयपति’ तथा ग्रामों का प्रबन्ध पंचायतें करती थीं।
आय के साधन-यूनसांग लिखता है कि हर्ष की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। यह कर उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त कई अन्य कर भी थे। कर इतने साधारण थे कि प्रजा उन्हें सरलतापूर्वक चुका सकती थी।
दण्ड विधान-दण्ड बड़े कठोर थे। अपराधी के नाक-कान आदि काट दिए जाते थे।
सेना-हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना में लगभग दो लाख सैनिक थे। सेना में घोड़े, हाथी तथा रथ का भी प्रयोग किया जाता था।
अभिलेख विभाग-सरकारी काम-काजों का लेखा-जोखा रखने के लिए एक अलग विभाग था।
(ख) हर्ष का चरित्र-हर्षवर्धन एक उच्च कोटि के चरित्र का स्वामी था। उसे अपने भाई-बहन से बड़ा प्रेम था। अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ़ने के लिए वह जंगलों की खाक छानता फिरा। अपने भाई राज्यवर्धन के वध का बदला लेने के लिए हर्ष ने उसके हत्यारे शशांक से टक्कर ली और उसे पराजित किया। इसी प्रकार अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् उसने तब तक राजगद्दी स्वीकार न की, जब तक उसका बड़ा भाई जीवित रहा।
हर्षवर्धन एक वीर योद्धा और सफल विजेता था। विजेता के रूप में उसकी तुलना महान् गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से की जाती है। उसमें अशोक के गुण भी विद्यमान थे। अशोक की भान्ति वह भी शान्तिप्रिय और धर्म में आस्था रखने वाला व्यक्ति था। उसने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अनेक कार्य किए और अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। हर्ष उदार और दानी भी था। उसकी गणना इतिहास में सबसे अधिक दानी राजाओं में की जाती है। कहते हैं कि वह प्रतिदिन 500 ब्राह्मणों और 100 बौद्ध भिक्षुओं को भोजन तथा वस्त्र देता था। प्रयाग की एक सभा में तो उसने अपना सब कुछ दान में दे दिया। यहां तक कि उसने अपने वस्त्र भी दान में दिये और स्वयं अपनी बहन राज्यश्री से एक चादर मांग कर शरीर पर धारण की।
हर्षवर्धन एक उच्चकोटि का विद्वान् था और विद्वानों का आदर करता था। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् बाणभट्ट उसी के समय में हुआ था जिसने ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ जैसे महान् ग्रन्थों की रचना की। हर्ष ने स्वयं भी ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रिय-दर्शिका’ नामक तीन नाटक लिखे जिन्हें साहित्य के क्षेत्र में उच्च स्थान प्राप्त है। साहित्य में उसकी प्रशंसा करते हुए ई० वी० हवेल ने ठीक ही लिखा है, “हर्ष की कलम में भी वही तीव्रता थी जैसी उसकी तलवार में थी।”
हर्षवर्धन एक उच्च कोटि का शासन प्रबन्धक था। उसने ऐसे शासन प्रबन्ध की नींव रखी जिसका उद्देश्य जनता को सुखी और समृद्ध बनाना था। वह अपने राज्य की आय का पूरा हिसाब रखता था और इसका व्यय बड़ी सूझ-बूझ से करता था। उसका सैनिक संगठन भी काफ़ी दृढ़ था। यह सच है कि उसके समय में सड़कें सुरक्षित नहीं थीं, तो भी उसके कठोर दण्डविधान के कारण राज्य में शान्ति बनी रही। निःसन्देह हर्ष एक सफल शासक था। डॉ० वैजनाथ शर्मा के शब्दों में, “हर्ष एक आदर्श शासक था जिसमें दया, सहानुभूति, प्रेम, भाई-चारा आदि सभी गुण एक साथ विद्यमान थे।”
सच तो यह है कि हर्ष एक महान् विजेता था। उसने अपने विजित प्रदेशों को संगठित किया और लोगों को एक अच्छा शासन प्रदान किया। उसके विषय में डॉ० रे चौधरी ने ठीक कहा है, “वह प्राचीन भारत के महानतम राजाओं में से एक था।”