Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.
PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में बांटे जाने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है।
प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के चार रूप हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी व दासता।
प्रश्न 3.
सामाजिक स्तरीकरण के तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
यह सर्वव्यापक है, यह सामाजिक है, इसमें असमानता होती है तथा प्रत्येक समाज में इसका अलग आधार होता है।
प्रश्न 4.
जागीर व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
मध्यकालीन यूरोप की वह व्यवस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीरदार बनाकर उसे लगान एकत्र करने की आज्ञा दी जाती थी।
प्रश्न 5.
शब्द ‘जाति’ कहां से लिया गया है ?
उत्तर-
शब्द जाति (Caste) स्पैनिश तथा पुर्तगाली शब्द Caste से निकला है जिसका अर्थ है प्रजाति या वंश।
प्रश्न 6.
वर्ण व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज की वह व्यवस्था जिसमें समाज को पेशे के आधार पर चार भागों में विभाजित कर दिया जाता था।
प्रश्न 7.
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्धता स्थितियों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्राचीन समय के हिन्दू समाज के चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र।
प्रश्न 8.
छुआ-छूत से तुम क्या समझते हो ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था के समय अलग-अलग जातियों को एक-दूसरे को स्पर्श करने की मनाही थी जिसे अस्पृश्यता कहते थे।
प्रश्न 9.
कुछ सुधारकों के नाम लिखो जिन्होंने छुआ छूत के खिलाफ विरोध प्रकट किया ।
उत्तर-
राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फूले, महात्मा गांधी, डॉ० बी० आर० अंबेदकर इत्यादि।
प्रश्न 10.
वर्ग क्या है ?
उत्तर-
वर्ग लोगों का वह समूह है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है जैसे कि पैसा, पेशा, सम्पत्ति इत्यादि।
प्रश्न 11.
वर्ग व्यवस्था के किस्सों के नाम लिखो।
उत्तर-
मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग पाए जाते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग।
प्रश्न 12.
मार्क्स ने कौन-से वर्गों का वर्णन किया है ?
उत्तर-
पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग।
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
सामाजिक असमानता क्या है ?
उत्तर-
जब समाज के सभी व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के मौके प्राप्त न हों, उनमें जाति, जन्म, प्रजाति, रंग, पैसा, पेशे के आधार पर अंतर हो तथा अलग-अलग समूहों में अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता हो तो इसे असमानता का नाम दिया जाता है।
प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-
- जाति-जाति स्तरीकरण का एक रूप है जिसमें अलग-अलग जातियों के बीच स्तरीकरण पाया जाता है।
- वर्ग-समाज में बहुत से वर्ग पाए जाते हैं तथा उनमें अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता है।
प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
- जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा व्यक्ति योग्यता होते हुए भी इसे बदल नहीं सकता है।
- जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था तथा अलग-अलग जातियों के बीच विवाह करवाने की पांबदी थी।
प्रश्न 4.
अन्तर्विवाह क्या है ?
उत्तर-
अन्तर्विवाह विवाह करवाने का ही एक प्रकार है जिसके अनुसार व्यक्ति को अपने समूह अर्थात् जाति या उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस कारण सभी अपने समूह में ही विवाह करवाते थे।
प्रश्न 5.
प्रदूषण तथा शुद्धता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का क्रम पवित्रता तथा अपवित्रता के संकल्प के साथ जुड़ा हुआ था। इसका अर्थ है कि कुछ जातियों को परंपरागत रूप से शुद्ध समझा जाता था तथा उन्हें समाज में उच्च स्थिति प्राप्त थी। कुछ जातियों को प्रदूषित समझा जाता था तथा उन्हें सामाजिक व्यवस्था में उन्हें निम्न स्थान प्राप्त था।
प्रश्न 6.
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है देश में बड़े-बड़े उद्योगों का बढ़ाना। जब गांवों के लोग नगरों की तरफ जाएं तथा वहां रहने लग जाए तो इस प्रक्रिया को नगरीकरण कहा जाता है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रश्न 7.
वर्ग व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
- प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतना होती है कि उसका पद अथवा सम्मान दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है।
- इसमे लोग अपनी ही श्रेणी के सदस्यों के साथ गहरे संबंध रखते हैं तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उनके संबंध सीमित होते हैं।
प्रश्न 8.
नई मध्यम वर्ग पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
पिछले कुछ समय से समाज में एक नया मध्य वर्ग सामने आया है। इस वर्ग में डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर, अध्यापक, छोटे-मोटे व्यापारी, नौकरी पेशा लोग होते हैं। उच्च वर्ग इस मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-
- स्तरीकरण एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है। कोई भी मानवीय समाज ऐसा नहीं जहां स्तरीकरण की प्रक्रिया न पाई जाती हो।
- स्तरीकरण में समाज के प्रत्येक सदस्य की स्थिति समान नहीं होती। किसी की स्थिति उच्च तथा किसी
की निम्न होती है। - स्तरीकरण में समाज का विभाजन विभिन्न स्तरों में होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती है। वर्गों में उच्चता निम्नता के संबंध होते हैं।
- चाहे इसमें अलग-अलग स्तरें होती हैं परन्तु उन स्तरों में आपसी निर्भरता भी पाई जाती है।
प्रश्न 2.
किस प्रकार वर्ग सामाजिक स्तरीकरण से संबंधित है ?
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण से वर्ग हमेशा ही संबंधित रहा है। अलग-अलग समाजों में अलग-अलग वर्ग पाए जाते हैं। चाहे प्राचीन समाज हों या आधुनिक समाज, इनमें अलग-अलग आधारों पर वर्ग पाए जाते हैं। यह आधार पेशा, पैसा, जाति, धर्म, प्रजाति, भूमि इत्यादि होते हैं। इन आधारों पर कई प्रकार के वर्ग मिलते हैं।
प्रश्न 3.
जाति तथा वर्ग व्यवस्था में अंतर बताइए।
उत्तर-
वर्ग- | जाति- |
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। | (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी। |
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। | (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी। |
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। | (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं। |
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। | (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी। |
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। | (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है। |
प्रश्न 4.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के चार कारक लिखो।
उत्तर-
- भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
- भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
- देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
- नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।
प्रश्न 5.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख रूपों के रूप में जाति तथा वर्ग के बीच अंतर बताइए।
उत्तर-
वर्ग- | जाति- |
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। | (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी। |
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। | (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी। |
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। | (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं। |
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। | (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी। |
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। | (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है। |
IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :
प्रश्न 1.
स्तरीकरण को परिभाषित करो। सामाजिक स्तरीकरण की क्या विशेषताएं हैं ?
उत्तर-
जिस प्रक्रिया के द्वारा हम व्यक्तियों तथा समूहों को स्थिति पदक्रम के अनुसार स्तरीकृत करते हैं उसको स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। शब्द स्तरीकरण अंग्रेजी भाषा के शब्द Stratification का हिन्दी रूपान्तर है जिसमें strata का अर्थ है स्तरें (Layers) । इस शब्द की उत्पत्ति लातीनी भाषा के शब्द Stratum से हुई है। इस व्यवस्था के द्वारा सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए अलग-अलग स्तरों में बांटा हुआ है। कोई भी दो व्यक्ति, स्वभाव या किसी और पक्ष से, एक समान नहीं होते हैं। इस असमानता की वजह से उनमें कार्य करने की योग्यता का गुण भी अलग होता है। इस वजह से असमान गुणों वाले व्यक्तियों को अलग-अलग वर्गों में बांटने से हमारा समाज व्यवस्थित रूप से कार्य करने लग जाता है। व्यक्ति को विभिन्न स्तरों में बांट कर उनके बीच उच्च या निम्न सम्बन्धों का वर्णन किया जाता है। चाहे उनकी स्थिति के आधार पर सम्बन्ध उच्च या निम्न होते हैं परन्तु फिर भी वह एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इस उच्चता तथा निम्नता की अलग-अलग वर्गों में विभाजन को स्तरीकरण कहा जाता है।
अलग-अलग समाजों में स्तरीकरण भी अलग-अलग पाया जाता है। ज्यादातर व्यक्तियों को पैसे, शक्ति, सत्ता के आधार पर अलग किया जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ अलग-अलग सामाजिक समूहों को अलग-अलग भागों में बांटने से होता है। सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने दी है जिसका वर्णन इस प्रकार है-
1. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “सामाजिक असमानता अचेतन रूप से अपनाया गया एक ऐसा तरीका है जिसके द्वारा विभिन्न समाज यह विश्वास दिलाते हैं कि सबसे ज्यादा पदों को चेतन रूप से सबसे ज्यादा योग्य व्यक्तियों को रखा गया है। इसलिए प्रत्येक समाज में आवश्यक रूप से असमानता तथा सामाजिक स्तरीकरण रहना चाहिए।”
2. सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज की जनसंख्या का उच्च तथा निम्न पदक्रमात्मक तौर पर ऊपर आरोपित वर्गों में विभेदीकरण से है। इसको उच्चतम तथा निम्नतम सामाजिक स्तरों के विद्यमान होने के माध्यम से प्रकट किया जाता है। इस सामाजिक स्तरीकरण का सार तथा आधार समाज विशेष के सदस्यों में अधिकार तथा सुविधाएं, कर्तव्यों तथा ज़िम्मेदारियों, सामाजिक कीमतों तथा अभावों, सामाजिक शक्तियों तथा प्रभावों के असमान वितरण से होता है।”
3. पी० गिज़बर्ट (P.Gisbert) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों या वर्गों में बाँटने की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह उच्चता तथा अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च तथा निम्न अलग-अलग समूहों तथा व्यक्तियों की भूमिकाओं तथा पदों को निर्धारित करता है। इसमें जन्म, जाति, पैसा, लिंग, शक्ति इत्यादि के आधार पर तथा व्यक्तियों में पाए जाने वाले पदक्रम को दर्शाया जाता है। विभिन्न समूहों में उच्चता तथा निम्नता के सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा व्यक्ति की स्थिति का समाज में निश्चित स्थान होता है। इसी के आधार पर व्यक्ति को समाज में सम्मान प्राप्त होता है।
स्तरीकरण की विशेषताएं या लक्षण (Features or Characteristics of Stratification)-
1. स्तरीकरण सामाजिक होता है (Stratification is Social) विभिन्न समाजों में स्तरीकरण के आधार अलग-अलग होते हैं। जब भी हम समाज में पाई जाने वाली चीज़ को दूसरी चीज़ से अलग करते हैं तो जब तक उस अलगपन को समाज के बाकी सदस्य स्वीकार नहीं कर लेते उस समय तक उस विभिन्नता को स्तरीकरण का आधार नहीं माना जाता। कहने का अर्थ है कि जब तक समूह के व्यक्ति स्तरीकरण को निर्धारित न करें उस समय तक स्तरीकरण नहीं पाया जा सकता। हम स्तरीकरण को उस समय मानते हैं जब समाज के सभी सदस्य असमानताओं को मान लेते हैं। इस तरह सभी के मानने के कारण हम कह सकते हैं कि स्तरीकरण सामाजिक होता
2. स्तरीकरण सर्वव्यापक प्रक्रिया है (Stratification is a Universal Process)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया हरेक समाज में पाई जाती है। यदि हम प्राचीन भारतीय कबाइली या किसी और समाज की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि कुछ न कुछ भिन्नता तो उस समय भी पाई जाती थी। लिंग की भिन्नता तो प्राकृतिक है जिसके आधार पर व्यक्तियों को बाँटा जा सकता है। आधुनिक तथा जटिल समाज में तो स्तरीकरण के कई आधार हैं। कहने का अर्थ यह है कि स्तरीकरण के आधार चाहे अलग-अलग समाजों में अलग-अलग रहे हैं, परन्तु स्तरीकरण प्रत्येक समाज में सर्वव्यापक रहा है। .
3. अलग-अलग वर्गों की असमान स्थिति (Inequality of status of different classes)-सामाजिक स्तरीकरण में व्यक्तियों की स्थिति या भूमिका समान नहीं होती है। किसी की सब से उच्च, किसी की उससे कम तथा किसी की बहुत निम्न होती है। व्यक्ति की स्थिति सदैव एक समान नहीं रहती। उसमें परिवर्तन आते रहते हैं। कभी वह उच्च स्थिति पर पहुंच जाता है तथा कभी निम्न स्थिति पर। कहने का अर्थ है कि व्यक्ति की स्थिति में असमानता पाई जाती है। यदि किसी की स्थिति पैसे के आधार पर उच्च है तो किसी की इस आधार पर निम्न होती है।
4. उच्चता तथा निम्नता का सम्बन्ध (Relation of Upper and Lower Class)-स्तरीकरण में समाज को विभिन्न स्तरों में बांटा होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती हैं। मुख्य रूप से समाज को दो भागों में बांटा होता है-उच्चतम तथा निम्नतम । समाज में एक तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति उच्च होती है तथा दूसरी तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति निम्न होती है। इनके बीच भी कई वर्ग स्थापित हो जाते हैं जैसे कि मध्यम उच्च वर्ग, मध्यम निम्न वर्ग। परन्तु इनमें उच्च तथा निम्न का सम्बन्ध ज़रूर होता है।
5. स्तरीकरण अन्तक्रियाओं को सीमित करती है (Stratification restricts interaction)-स्तरीकरण की प्रक्रिया में अन्तक्रियाएं विशेष स्तर तक ही सीमित होती हैं। साधारणतः हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही सम्बन्ध स्थापित करता है। इस वजह से वह अपने दिल की बात उनसे share करता है। व्यक्ति की मित्रता भी उसके अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही होती है। इस प्रकार व्यक्ति की अन्तक्रिया और स्तरों के सदस्यों के साथ नहीं बल्कि अपनी ही स्तर के सदस्यों के होती है। कई बार व्यक्ति दूसरी स्तर के सदस्यों से सम्पर्क रख कर अपने आप को adjust नहीं कर सकता।
6. स्तरीकरण प्रतियोगिता की भावना को विकसित करती है (It develops the feeling of competition)-स्तरीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति में परिश्रम तथा लगन की भावना पैदा करती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में चेतन होता है। वह हमेशा आगे बढ़ने की कोशिश करनी शुरू कर देता है क्योंकि उसको अपने से उच्च स्थिति वाले व्यक्ति नज़र आते हैं। व्यक्ति अपनी योग्यता का प्रयोग करके प्रतियोगिता में आगे बढ़ना चाहता है। इस प्रकार व्यक्ति की उच्च स्तर के लिए पाई गई चेतनता व्यक्ति में प्रतियोगिता की भावना पैदा करती है। प्रत्येक व्यक्ति में अपने आप को समाज में ऊँचा उठाने की इच्छा होती है तथा वह अपने परिश्रम के साथ अपनी इच्छा पूर्ण कर सकता है। वह परिश्रम करता है तथा और वर्गों के व्यक्तियों के साथ प्रतियोगिता करता है। इस तरह वह अपने आप को ऊँचा उठा सकता है।
प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के बारे में विस्तृत रूप में विचार विमर्श करो।
उत्तर-
1. वर्ण स्तरीकरण (Varna Stratification)-वर्ण स्तरीकरण में जातीय भिन्नता तथा व्यक्ति की योग्यता तथा स्वभाव काफ़ी महत्त्वपूर्ण आधार है। शुरू में भारत में आर्य लोगों के आने के बाद भारतीय समाज दो भागों आर्यों तथा दस्यु या original inhabitants में बंट गया था। बाद में आर्य लोग, जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, अपने गुणों तथा स्वभाव के आधार पर चार वर्णों में विभाजित हो गए। इस तरह समाज चार वर्णों या चार हिस्सों में बंट गया था तथा स्तरीकरण का यह स्वरूप हमारे सामने आया। इस पदक्रम में ब्राह्मण की स्थिति सबसे उच्च होती थी। इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण का कार्य निश्चित तथा एक-दूसरे से भिन्न थे। वर्ण व्यवस्था का आरम्भिक रूप जन्म पर आधारित नहीं था बल्कि व्यक्ति के गुणों पर आधारित था जिसमें व्यक्ति अपने गुणों तथा आदतों को बदल कर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकता था। परन्तु वर्ण बदलना एक कठिन कार्य था जिसे आसानी से नहीं बदला जा सकता था।
2. दासता या गुलामी का स्तरीकरण (Slavery Stratification)-दास एक मनुष्य होता है जो किसी और मनुष्य के पूरी तरह नियन्त्रण में होता है। वह अपने मालिक की दया पर जीता है जिसे कोई अधिकार भी नहीं होता. है। मालिक कुछ एक मामलों में उसकी सुरक्षा करता है जैसे कि उसे किसी और का दास बनने से रोकना। परन्तु वह अधिकारविहीन व्यक्ति होता है जिसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है। वह पूरी तरह अपने मालिक की सम्पत्ति माना जाता है। इस तरह दास प्रथा वाले समाजों में बहुत ज्यादा असमानता पाई जाती है। अमेरिका, अफ्रीका इत्यादि महाद्वीपों में यह प्रथा 19वीं शताब्दी में पाई जाती थी। इसमें दास अपने मालिक के अधीन होता था तथा मालिक उसे किसी और के हाथों बेच भी सकता था। दास एक तरह से मालिक की सम्पत्ति था। दास की इस निम्न स्थिति की वजह से उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे जिस वजह से उसे समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। क्योंकि वह मालिक के अधीन होता था जिस वजह से मालिक उससे कठोर परिश्रम करवाता था तथा वह करने को मजबूर था। दासों को खरीदा तथा बेचा भी जाता था।
आधुनिक समय आते-आते दास प्रथा का विरोध होने लग गया जिस वजह से यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई तथा दासों ने किसानों का रूप ले लिया परन्तु इन समाजों में दास तथा मालिक के रूप में स्तरीकरण पाया जाता था।
3. सामन्तवाद (Feudalism)—दास प्रथा के साथ-साथ सामन्तवाद भी सामने आया। सामन्त लोग बहुत सारी ज़मीन के टुकड़े के मालिक होते थे तथा वह अपनी ज़मीन खेती करने के लिए और लोगों को या तो किराए पर दिया करते थे या पैदावार का बंटवारा करते थे। मध्य काल में तो सामन्त प्रथा को यूरोप में कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त थी। प्रत्येक सामन्त की एक विशेष स्थिति, विशेषाधिकार तथा कर्त्तव्य हुआ करते थे। उस समय में ज़मीन पर कृषि करने वाले लोगों के अधिकार काफ़ी कम हुआ करते थे। वह न्याय प्राप्त नहीं कर सकते थे तथा सामन्तों के रहमोकरम पर निर्भर होते थे। इस समय में श्रम विभाजन भी होता था। सामन्त प्रथा में सरदारों तथा पुजारियों के हाथ में सत्ता होती थी। भारत में ज़मींदार तो थे, परन्तु सामन्त प्रथा के लक्षण जाति प्रथा की वजह से नहीं थे। भारत में पाए जाने वाले ज़मींदार यूरोप में पाए जाने वाले सामन्तों से भिन्न थे। भारत के ज़मींदार प्रजा से राजा के लिए कर उगाहने का कार्य करते थे तथा ज़रूरत पड़ने पर राजा को अपनी सेना भी देते थे। जब राजा कमज़ोर हो गए तो बहुत सारे ज़मींदारों तथा सामन्तों ने अपने अलग-अलग राज्य स्थापित कर लिए। इस तरह ज़मींदारी प्रथा या सामन्तवाद के समय भी सामाजिक स्तरीकरण समाज में पाया जाता था।
4. नस्ली स्तरीकरण अथवा प्रजातीय स्तरीकरण (Racial Stratification)-अलग-अलग समाजों में नस्ल के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में बांटा हुआ होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-काकेशियन (सफेद), मंगोलाइड (पीले) तथा नीग्रोआइड (काले) लोग। इन उपरोक्त नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने भेजते हैं। यहां तक कि आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में चाहे इस प्रकार के स्वरूप में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी यह स्तरीकरण का एक स्वरूप है। गोरे काले व्यक्तियों को अपने से निम्न समझते हैं जिस वजह से वह उनसे काफ़ी भेदभाव करते हैं। नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेषाधिकारों में फर्क पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस प्रकार का फर्क देख सकते हैं। पश्चिमी समाजों में इस प्रकार का स्तरीकरण देखने को मिलता है।
5. जातिगत स्तरीकरण (Caste Stratification)-जो स्तरीकरण जन्म के आधार पर होता है उसे जातिगत स्तरीकरण का नाम दिया जाता है क्योंकि बच्चे की जाति जन्म के साथ ही निश्चित हो जाती है। प्राचीन तथा परम्परागत भारतीय समाज में हम जातिगत स्तरीकरण के स्वरूप की उदाहरण देख सकते हैं। इसका भारतीय समाज में ज्यादा प्रभाव था कि भारत में विदेशों से आकर रहने लगे लोगों में भी जातिगत स्तरीकरण शुरू हो गया था। उदाहरणतः मुसलमानों में भी कई प्रकार की जातियां या समूह पाए जाते हैं। समय के साथ-साथ इन जातियों में हज़ारों उप-जातियां पैदा हो गईं तथा इन उप-जातियों में भी स्तरीकरण पाया जाता है। यह स्तरीकरण जन्म पर आधारित होता है इसलिए इसे बन्द स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। स्तरीकरण का यह स्वरूप और स्वरूपों की तुलना में काफ़ी स्थिर तथा निश्चित था क्योंकि व्यक्ति ने जिस जाति में जन्म लिया होता है वह तमाम उम्र अपनी उस जाति को बदल नहीं सकता था। इस प्रकार के स्तरीकरण में अपनी जाति या समूह बदलना मुमकिन नहीं होता। इस तरह जातिगत आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।
6. वर्ग स्तरीकरण (Class Stratification)-इसको सर्वव्यापक स्तरीकरण भी कहते हैं क्योंकि इस प्रकार के स्तरीकरण का स्वरूप प्रत्येक समाज में मिल जाता है। इसको खुला स्तरीकरण भी कहते हैं। वर्ग स्तरीकरण चाहे आधुनिक समाजों में देखने को मिलता है परन्तु प्राचीन समाजों में भी स्तरीकरण का यह स्वरूप मिल जाता था। इस प्रकार का स्तरीकरण जीव वैज्ञानिक आधारों को छोड़कर सामाजिक सांस्कृतिक आधारों जैसे आय, पेशा, सम्पत्ति, सत्ता, धर्म, शिक्षा, कार्य-कुशलता इत्यादि के आधार पर देखने को मिलता है। इसमें व्यक्ति को एक निश्चित स्थान प्राप्त हो जाता है तथा समान स्थिति वाले व्यक्ति इकट्ठे होकर समाज में एक वर्ग या स्तर का निर्माण करते हैं। इस तरह समाज में अलग-अलग प्रकार के वर्ग या स्तर बन जाते हैं तथा उनमें उच्च निम्न के सम्बन्ध सामाजिक स्थिति निश्चित तथा स्पष्ट नहीं होती क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्थिति कभी भी बदल सकती है। व्यक्ति परिश्रम करके पैसा कमा कर उच्च वर्ग में भी जा सकता है तथा पैसा खत्म होने की सूरत में निम्न वर्ग में भी आ सकता है। इस समाज में व्यक्ति के पद की महत्ता होती है। किसी समाज में कोई पद महत्त्वपूर्ण है तो किसी समाज में कोई पद। यह अन्तर प्रत्येक समाज की अलग-अलग संस्कृति, परम्पराओं, मूल्यों इत्यादि की वजह से होता है क्योंकि यह प्रत्येक समाज में अलग-अलग होते हैं। इस वजह से प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के आधार भी अलगअलग होते हैं। इस तरह हमारे समाजों में वर्ग स्तरीकरण पाया जाता है।
प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के कौन से कारक हैं ?
उत्तर-
1. सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन (Socio-religious reform movements)-भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के स्थापित होने से पहले भी कुछ धार्मिक लहरों ने जाति प्रथा की आलोचना की थी। बुद्ध धर्म तथा जैन धर्म से लेकर इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने भी जाति प्रथा का खण्डन किया। इनके साथ-साथ इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने तो जाति प्रथा की जम कर आलोचना की। 19वीं शताब्दी में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरों ने भी जाति प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। राजा राम मोहन राय की तरफ से चलाया गया ब्रह्मो समाज, दयानंद सरस्वती की तरफ से चलाया गया आर्य समाज, राम कृष्ण मिशन इत्यादि इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरें थीं। इनके अतिरिक्त ज्योति राव फूले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य समाज में सभी को समानता का दर्जा दिलाना था। जाति प्रथा की विरोधता तो महात्मा गांधी तथा डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने भी की थी। महात्मा गांधी ने शोषित जातियों को हरिजन का नाम दिया तथा उन्हें अन्य जातियों की तरह समान अधिकार दिलाने के प्रयास किए। आर्य समाज ने मनुष्य के जन्म के स्थान पर उसके गुणों को अधिक महत्त्व दिया। इन सभी लोगों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से होनी चाहिए न कि उसके जन्म से।
2. भारत सरकार के प्रयास (Efforts of Indian Government)-अंग्रेजी राज्य के समय तथा भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कई महत्त्वपूर्ण कानून पास किए गए जिन्होंने जाति प्रथा को कमज़ोर करने में गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेज़ी राज्य से पहले जाति तथा ग्रामीण पंचायतें काफ़ी शक्तिशाली थीं। यह पंचायतें तो अपराधियों को सज़ा तक दे सकती थीं तथा जुर्माने तक लगा सकती थी। अंग्रेजी शासन के दौरान जातीय असमर्थाएं दर करने का कानून (Caste Disabilities Removal Act, 1850) पास किया गया जिसने जाति पंचायतों को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। इस प्रकार विशेष विवाह कानून (Special Marriage Act, 1872) ने अलग-अलग जातियों के बीच विवाह को मान्यता दी जिसने परम्परागत जाति प्रथा को गहरे रूप से प्रभावित किया। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् Untouchability Offence Act, 1955 7811 Hindu Marriage Act, 1955 À 47 Gila gent at TET 3779116 लगाया। Hindu Marriage Validation Act पास हुआ जिससे अलग-अलग धर्मों, जातियों, उपजातियों इत्यादि के व्यक्तियों के बीच होने वाले विवाह को कानूनी घोषित किया गया।
3. अंग्रेज़ों का योगदान (Contribution of Britishers)-जाति प्रथा के विरुद्ध एक खुला संघर्ष ब्रिटिश काल में शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भारत में कानून के आगे सभी की समानता का सिद्धान्त लागू किया। जाति पर आधारित पंचायतों से उनके न्याय करने के अधिकार वापिस ले लिए गए। सरकारी नौकरियां प्रत्येक जाति के लिए खोल दी गईं। अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था धर्म निष्पक्ष थी। अग्रेजों ने भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना करके तथा रेलगाड़ियों, बसों इत्यादि की शुरुआत करके जाति प्रथा को करारा झटका दिया। उद्योगों में सभी मिल कर कार्य करते थे तथा रेलगाड़ियों, बसों के सफर ने अलग-अलग जातियों के बीच सम्पर्क स्थापित किया। अंग्रेज़ों की तरफ से भूमि की खुली खरीद-फरोख्त के अधिकार ने गाँवों में जातीय सन्तुलन को काफ़ी मुश्किल कर दिया।
4. औद्योगीकरण (Industrialization)-औद्योगीकरण ने ऐसी स्थितियां पैदा की जो जाति व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस कारण उद्योगों में कई ऐसे नए कार्य उत्पन्न हो गए जो तकनीकी थे। इन्हें करने के लिए विशेष योग्यता तथा ट्रेनिंग की आवश्यकता थी। ऐसे कार्य योग्यता के आधार पर मिलते थे। इसके साथ सामाजिक संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों को ऊपर उठने का मौका प्राप्त हुआ। औद्योगीकरण ने भौतिकता में बढ़ोत्तरी करके पैसे के महत्त्व को बढ़ा दिया। पैसे के आधार पर तीन वर्ग-धनी वर्ग, मध्य वर्ग तथा निर्धन वर्ग पैदा हो गए। प्रत्येक वर्ग में अलग-अलग जातियों के लोग पाए जाते थे। औद्योगीकरण से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे उद्योगों में कार्य करने लग गए, इकट्ठे सफर करने लगे तथा इकट्ठे ही खाना खाने लगे जिससे अस्पृश्यता की भावना खत्म होनी शुरू हो गई। यातायात के साधनों के विकास के कारण अलग-अलग धर्मों तथा जातियों के बीच उदार दृष्टिकोण का विकास हुआ जोकि जाति व्यवस्था के लिए खतरनाक था। औद्योगीकरण ने द्वितीय सम्बन्धों को बढ़ाया तथा व्यक्तिवादिता को जन्म दिया जिससे सामुदायिक नियमों का प्रभाव बिल्कुल ही खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सम्बन्ध कानून के अनुसार खत्म होने लग गए। अब सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के आधार पर होते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को काफ़ी गहरा आघात लगाया।
5. नगरीकरण (Urbanization)–नगरीकरण के कारण ही जाति प्रथा में काफ़ी परिवर्तन आए। अधिक जनसंख्या, व्यक्तिगत भावना, सामाजिक गतिशीलता तथा अधिक पेशों जैसी शहरी विशेषताओं ने जाति प्रथा को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। बड़े-बड़े शहरों में लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना पड़ता है। वह यह नहीं देखते कि उनका पडोसी किस जाति का है। इससे उच्चता निम्नता की भावना खत्म हो गई। नगरीकरण के कारण जब लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए तो अन्तर्जातीय विवाह होने लग गए। इस प्रकार नगरीकरण ने अस्पृश्यता के अन्तरों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया।
6. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-अंग्रेजों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू किया जिसमें विज्ञान तथा तकनीक पर अधिक बल दिया जाता है। शिक्षा के प्रसार से लोगों में जागति आई तथा इसके साथ परम्परागत कद्रों-कीमतों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। जन्म पर आधारित दर्जे के स्थान पर प्रतियोगिता में प्राप्त दर्जे का महत्त्व बढ़ गया। स्कूल, कॉलेज इत्यादि पश्चिमी तरीके से खुल गए जहां सभी जातियों के बच्चे इकट्ठे मिलकर शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसने भी जाति प्रथा को गहरा आघात दिया।
प्रश्न 4.
वर्ग व्यवस्था को परिभाषित कीजिए। इनकी विशेषताओं को लिखो।
उत्तर–
प्रत्येक समाज कई वर्गों में विभाजित होता है व प्रत्येक वर्ग की समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इस स्थिति के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। वर्ग की मुख्य विशेषता वर्ग चेतनता होती है। इस प्रकार समाज में जब विभिन्न व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसको वर्ग व्यवस्था कहते हैं। प्रत्येक वर्ग आर्थिक पक्ष से एक-दूसरे से अलग होता है।
1. मैकाइवर (MacIver) ने वर्ग को सामाजिक आधार पर बताया है। उस के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एकत्रता वह हिस्सा होता है जिसको सामाजिक स्थिति के आधार पर बचे हुए हिस्से से अलग कर दिया जाता है।”
2. मोरिस जिन्सबर्ग (Morris Ginsberg) के अनुसार, “वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सांझे वंशक्रम, व्यापार सम्पत्ति के द्वारा एक सा जीवन ढंग, एक से विचारों का स्टाफ, भावनाएं, व्यवहार के रूप में रखते हों व जो इनमें से कुछ या सारे आधार पर एक-दूसरे से समान रूप में अलग-अलग मात्रा में पाई जाती हो।”
3. गिलबर्ट (Gilbert) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों की एकत्र विशेष श्रेणी है जिस की समाज में एक विशेष स्थिति होती है, यह विशेष स्थिति ही दूसरे समूहों से उनके सम्बन्ध निर्धारित करती है।”
4. कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के विचार अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी परिभाषित किया जा सकता है।”
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक वर्ग कई व्यक्तियों का वर्ग होता है, जिसको समय विशेष में एक विशेष स्थिति प्राप्त होती है। इसी कारण उनको कुछ विशेष शक्ति, अधिकार व उत्तरदायित्व भी मिलते हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इसी कारण हर व्यक्ति परिश्रम करके सामाजिक वर्ग में अपनी स्थिति को ऊँची करना चाहता है। प्रत्येक समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति निश्चित नहीं होती। उसकी स्थिति में गतिशीलता पाई जाती है। इस कारण यह खुला स्तरीकरण भी कहलाया जाता है। व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति को आप निर्धारित करता है। यह जन्म पर आधारित नहीं होता।
वर्ग की विशेषताएं (Characteristics of Class)-
1. श्रेष्ठता व हीनता की भावना (Feeling of superiority and inferiority)—वर्ग व्यवस्था में भी ऊँच व नीच के सम्बन्ध पाए जाते हैं। उदाहरणतः उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से अपने आप को अलग व ऊँचा महसूस करते हैं। ऊँचे वर्ग में अमीर लोग आ जाते हैं व निम्न वर्ग में ग़रीब लोग। अमीर लोगों की समाज में उच्च स्थिति होती है व ग़रीब लोग भिन्न-भिन्न निवास स्थान पर रहते हैं। उन निवास स्थानों को देखकर ही पता लग जाता है कि वह अमीर वर्ग से सम्बन्धित हैं या ग़रीब वर्ग से।
2. सामाजिक गतिशीलता (Social mobility)-वर्ग व्यवस्था किसी भी व्यक्ति के लिए निश्चित नहीं होती। वह बदलती रहती है। व्यक्ति अपनी मेहनत से निम्न से उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है व अपने गलत कार्यों के परिणामस्वरूप ऊंची से निम्न स्थिति पर भी पहुंच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी आधार पर समाज में अपनी इज्जत बढ़ाना चाहता है। इसी कारण वर्ग व्यवस्था व्यक्ति को क्रियाशील भी रखती है।
3. खुलापन (Openness)-वर्ग व्यवस्था में खुलापन पाया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति को पूरी आजादी होती है कि वह कुछ भी कर सके। वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी व्यापार को अपना सकता है। किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता के आधार पर बन सकता है। निम्न वर्ग के लोग मेहनत करके उच्च वर्ग में आ सकते हैं। इसमें व्यक्ति के जन्म की कोई महत्ता नहीं होती। व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता पर निर्भर करती है।
4. सीमित सामाजिक सम्बन्ध (Limited social relations)-वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध सीमित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बराबर के वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखना अधिक ठीक समझते हैं। प्रत्येक वर्ग अपने ही लोगों से नज़दीकी रखना चाहते हैं। वह दूसरे वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।
5. उपवर्गों का विकास (Development of Sub-Classes)-आर्थिक दृष्टिकोण से हम वर्ग व्यवस्था को तीन भागों में बाँटते हैं उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। परन्तु आगे हर वर्ग कई और उपवर्गों में बाँटा होता है, जैसे एक अमीर वर्ग में भी भिन्नता नज़र आती है। कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ उससे कम व कुछ सबसे है। इस प्रकार वर्ग, उप वर्गों से मिल कर बनता है।
6. विभिन्न आधार (Different basis)-वर्ग के भिन्न-भिन्न आधार हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। उसके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग पाए गए हैं। एक तो पूंजीपति वर्ग, दूसरा श्रमिक वर्ग। हर्टन व हंट के अनुसार हमें याद रखना चाहिए कि वर्ग मूल में, विशेष जीवन ढंग है। ऑगबर्न व निमकौफ़, मैकाइवर गिलबर्ट ने वर्ग के लिए सामाजिक आधार को मुख्य माना है। जिन्ज़बर्ग, लेपियर जैसे वैज्ञानिकों ने सांस्कृतिक आधार को ही वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है।
7. वर्ग पहचान (Identification of class)—वर्ग व्यवस्था में बाहरी दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार हम देख कर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न का। हमारे आधुनिक समाज में कोठी, कार, स्कूटर, टी० वी०, वी० सी० आर, फ्रिज आदि व्यक्ति के स्थिति चिन्ह को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार बाहरी संकेतों से हमें वर्ग भिन्नता का पता चल जाता है।
8. वर्ग चेतनता (Class Consciousness)—प्रत्येक सदस्य अपनी वर्ग स्थिति के प्रति पूरी तरह चेतन होता है। इसी कारण वर्ग चेतना, वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषता है। वर्ग चेतना व्यक्ति को आगे बढ़ने के मौके प्रदान करती है क्योंकि चेतना के आधार पर ही हम एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार भी इसके द्वारा ही निश्चित होता है।
प्रश्न 5.
भारत में कौन-से नए वर्गों का उद्भव हुआ है ?
उत्तर-
पिछले कुछ समय से देश में जाति व्यवस्था के स्थान पर वर्ग व्यवस्था सामने आ रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास हुए, लोगों ने पढ़ना शुरू किया जिस कारण जाति व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो रही है तथा वर्ग व्यवस्था का दायरा बढ़ रहा है। अब वर्ग व्यवस्था कोई साधारण संकल्प नहीं रहा। आधुनिक समय में अलग-अलग आधारों पर बहुत से वर्ग सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से भूमि सुधार किए गए जिस कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। हरित क्रान्ति ने इस प्रक्रिया में और योगदान दिया। पुराने किसान, जिनके पास काफ़ी भूमि थी, के साथ एक नया कृषक वर्ग सामने आया जिसके पास कृषि करने की तकनीकों की कला तथा तजुर्बा है। यह वह लोग हैं जो सेना या अन्य प्रशासनिक सेवाओं से सेवानिवृत्त होकर अपना पैसा कृषि के कार्यों में लगा रहे हैं तथा काफ़ी पैसा कमा रहे हैं। यह परंपरागत किसानों का उच्च वर्ग नहीं है, परन्तु इन्हें सैंटलमैन किसान (Gentlemen Farmers) कहा जाता है।
इसके साथ-साथ एक अन्य कृषक वर्ग सामने आ रहा है जिसे ‘पूंजीपति किसान’ कहा जाता है। यह वह किसान हैं जिन्होंने नई तकनीकों, अधिक फसल देने वाले बीजों, नई कृषि की तकनीकों, अच्छी सिंचाई सुविधाओं. बैंकों से उधार लेकर तथा यातायात व संचार के साधनों का लाभ उठाकर अच्छा पैसा कमाया है। परन्तु छोटे किसान इन सबका फायदा नहीं उठा सके हैं तथा निर्धन ही रहे हैं। इस प्रकार भूमि सुधारों तथा नई तकनीकों का लाभ सभी किसान समान रूप से नहीं उठा सके हैं। यह तो मध्यवर्गीय किसान हैं जिन्होंने सरकार की तरफ से उत्साहित करने वाली सुविधाओं का लाभ उठाया है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियों के किसानों ने कृषि की आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाया है। – इसके बाद मध्य वर्ग भी सामने आया जिसे उपभोक्तावाद की संस्कृति ने जन्म दिया है। इस मध्य वर्ग को संभावित मार्किट के रूप में देखा गया जिस कारण बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्ग की तरफ आकर्षित हुई। अलग-अलग कंपनियों के विज्ञापनों में उच्च मध्य वर्ग को एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है। आजकल यह ऐसा मध्य वर्ग सामने आ रहा है जो अपने स्वाद तथा उपभोग को सबसे अधिक महत्त्व देता है तथा एक सांस्कृतिक आदर्श बन रहा है। इस प्रकार नए मध्य वर्ग के उभार ने देश में आर्थिक उदारवाद के संकल्प को सामने लाया है।
आधुनिक भारत में मौजूद वर्ग व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सभी वर्गों ने एक देश के बीच एक राष्ट्रीय आर्थिकता बनाने में सहायता की है। अब मध्य वर्ग में गांवों के लोग भी शामिल हो रहे हैं। अब गांव में रहने वाले अलग-अलग कार्य करने वाले लोग अलग-अलग नहीं रह गए हैं। अब जाति आधारित प्रतिबंधों का खात्मा हो गया है तथा वर्ग आधारित चेतना सामने आ रही है।
प्रश्न 6.
भारत में वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
- भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
- भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
- देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
- नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।
प्रश्न 7.
मार्क्सवादी तथा वेबर का वर्ग परिप्रेक्षय क्या है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण का संघर्षवाद का सिद्धान्त दिया है और यह सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों के कारण ही आगे आया है। मार्क्स ने केवल सामाजिक कारकों को ही सामाजिक स्तरीकरण एवं भिन्न-भिन्न वर्गों में संघर्ष का सिद्धान्त माना है।
मार्क्स ने यह सिद्धान्त श्रम विभाजन के आधार पर दिया। उसके अनुसार श्रम दो प्रकार का होता है-शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम और यही अन्तर ही सामाजिक वर्गों में संघर्ष का कारण बना।
मार्क्स का कहना है कि समाज में साधारणत: दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता है। इस मलकीयत के आधार पर ही पहला वर्ग उच्च स्थिति में एवं दूसरा वर्ग निम्न स्थिति में होता है। मार्क्स पहले (मालिक) वर्ग को पूंजीपति वर्ग और दूसरे (गैर-मालिक) वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग, मज़दूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है और मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यही स्तरीकरण का परिणाम है।
मार्क्स का कहना है कि स्तरीकरण के आने का कारण ही सम्पत्ति का असमान विभाजन है। स्तरीकरण की प्रकृति उस समाज के वर्गों पर निर्भर करती है और वर्गों की प्रकृति उत्पादन के तरीकों पर उत्पादन का तरीका , तकनीक पर निर्भर करता है। वर्ग एक समूह होता है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के समान होते हैं, इस तरह वह सभी व्यक्ति जो उत्पादन की शक्तियों पर नियन्त्रण रखते हैं। वह पहला वर्ग यानि कि पूंजीपति वर्ग होता है जो उत्पादन की शक्तियों का मालिक होता है। दूसरा वर्ग वह है तो उत्पादन की शक्तियों का मालिक नहीं है बल्कि वह मजदूरी या मेहनत करके अपना समय व्यतीत करता है यानि कि यह मजदूर वर्ग कहलाता है। भिन्न-भिन्न समाजों में इनके भिन्न-भिन्न नाम हैं जिनमें ज़मींदारी समाज में ज़मींदार और खेतीहर मज़दूर और पूंजीपति समाज में पूंजीपति एवं मज़दूर । पूंजीपति वर्ग के पास उत्पादन की शक्ति होती है और मज़दूर वर्ग के पास केवल मजदूरी होती है जिसकी सहायता के साथ वह अपना गुजारा करता है। इस प्रकार उत्पादन के तरीकों एवं सम्पत्ति के समान विभाजन के आधार पर बने वर्गों को मार्क्स ने सामाजिक वर्ग का नाम दिया है।
मार्क्स के अनुसार “आज का समाज चार युगों में से गुजर कर हमारे सामने आया है।”
(a) प्राचीन समाजवादी युग (Primitive Ancient Society or Communism)
(b) प्राचीन समाज (Ancient Society)
(c) सामन्तवादी युग (Feudal Society)
(d) पूंजीवाद युग (Capitalist Society)
मार्क्स के अनुसार पहले प्रकार के समाज में वर्ग अस्तित्व में नहीं आये थे। परन्तु उसके पश्चात् के समाजों में दो प्रमुख वर्ग हमारे सामने आये। प्राचीन समाज में मालिक एवं दास। सामन्तवादी में सामन्त एवं खेतीहारी मजदूर वर्ग। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी एवं मजदूर वर्ग। प्रायः समाज में मजदूरी का कार्य दूसरे वर्ग के द्वारा ही किया गया। मजदूर वर्ग बहुसंख्यक होता है और पूंजीवादी वर्ग कम संख्या वाला।
मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो प्रकार के वर्गों का अनुभव किया है। परन्तु मार्क्स के फिर भी इस मामले में विचार एक समान नहीं है। मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी समाज में तीन वर्ग होते हैं। मज़दूर, सामन्त एवं ज़मीन के मालिक (land owners) मार्क्स ने इन तीनों में से अन्तर आय के साधनों लाभ एवं जमीन के किराये के आधार पर किया है। परन्तु मार्क्स की तीन पक्षीय व्यवस्था इंग्लैण्ड में सामने कभी नहीं आई।
मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ तीन वर्गीय व्यवस्था दो वर्गीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी एवं मध्यम वर्ग समाप्त हो जायेगा। इस बारे में उसने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र में कहा है। मार्क्स ने विशेष समाज के अन्य वर्गों का उल्लेख भी किया है। जैसे बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग को उसने दो उपवर्ग जैसे प्रभावी बुर्जुआ और छोटे बुर्जुआ वर्गों में बांटा है। प्रभावी बुर्जुआ वह होते हैं जो बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति होते हैं और जो हज़ारों की संख्या में मजदूरों को कार्य करने को देते हैं। छोटे बुर्जुआ वह छोटे उद्योगपति या दुकानदार होते हैं जिनके व्यापार छोटे स्तर पर होते हैं और वह बहुत अधिक मज़दूरों को कार्य नहीं दे सकते। वह काफ़ी सीमा तक स्वयं ही कार्य करते हैं। मार्क्स यहां पर फिर कहता है कि पूंजीवाद के विकसित होने के साथ-साथ मध्यम वर्ग व छोटीछोटी बुर्जुआ उप जातियां समाप्त हो जाएंगी या फिर मज़दूर वर्ग में मिल जाएंगे। इस तरह समाज में पूंजीपति व मज़दूर वर्ग रह जाएगा।
वर्गों के बीच सम्बन्ध (Relationship between Classes)—मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का आर्थिक शोषण करता रहता है और मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करता रहता है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्ध विरोध वाले होते हैं। यद्यपि कुछ समय के लिये दोनों वर्गों के बीच का विरोध शान्त हो जाता है परन्तु वह विरोध चलता रहता है। वह आवश्यक नहीं कि यह विरोध ऊपरी तौर पर ही दिखाई दे। परन्तु उनको इस विरोध का अहसास तो होता ही रहता है।”
मार्क्स के अनुसार वर्गों के बीच आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता एवं संघर्ष पर आधारित होते हैं। हम उदाहरण ले सकते हैं पूंजीवादी समाज के दो वर्गों का। एक वर्ग पूंजीपति का होता है दूसरा वर्ग मज़दूर का होता है। यह दोनों वर्ग अपने अस्तित्व के लिये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन की शक्तियां एक मलकीयत नहीं होती हैं। उसके पास रोटी कमाने हेतु अपनी मेहनत के अतिरिक्त और कछ नहीं होता। वह रोटी कमाने के लिये पूंजीपति वर्ग के पास अपनी मेहनत बेचते हैं और उन पर ही निर्भर करते हैं। वह अपनी मज़दूरी पूंजीपतियों के पास बेचते हैं जिसके बदले पूंजीपति उनको मेहनत का किराया देता है। इसी किराये के साथ मज़दूर अपना पेट पालता है। पूंजीपति भी मज़दूरों की मेहनत पर ही निर्भर करता है। क्योंकि मजदूरों के बिना कार्य किये न तो उसका उत्पादन हो सकता है और न ही उसके पास पूंजी एकत्रित हो सकती है।
इस प्रकार दोनों वर्ग एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। परन्तु इस निर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि उनमें सम्बन्ध एक समान होते हैं। पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का शोषण करता है। वह कम धन खर्च करके अधिक उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका स्वयं का लाभ बढ़ सके। मज़दूर अधिक मज़दूरी मांगता है ताकि वह अपना व परिवार का पेट पाल सके। उधर पूंजीपति मज़दूरों को कम मज़दूरी देकर वस्तुओं को ऊँची कीमत पर बेचने की कोशिश करता है ताकि उसका लाभ बढ़ सके। इस प्रकार दोनों वर्गों के भीतर अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष (Conflict of Interest) चलता रहता है। यह संघर्ष अन्ततः समतावादी व्यवस्था (Communism) को जन्म देगा जिसमें न तो विरोध होगा न ही किसी का शोषण होगा, न ही किसी के ऊपर अत्याचार होगा न ही हितों का संघर्ष होगा और यह समाज वर्ग रहित समाज होगा।
मनुष्यों का इतिहास-वर्ग संघर्ष का इतिहास (Human history-History of Class struggle)—मार्क्स का कहना है कि मनुष्यों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हम किसी भी समाज की उदाहरण ले सकते हैं। प्रत्येक समाज में अलग-अलग वर्गों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष तो चलता ही रहा है।
इस तरह मार्क्स का कहना था कि सभी समाजों में साधारणतः पर दो वर्ग रहे हैं-मजदूर तथा पूंजीपति वर्ग। दोनों में वर्ग संघर्ष चलता ही रहता है। इन में वर्ष संघर्ष के कई कारण होते हैं जैसे कि दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा आर्थिक अन्तर होता है जिस कारण वह एक-दूसरे का विरोध करते हैं। पूंजीपति वर्ग बिना परिश्रम किए ही अमीर होता चला जाता है तथा मज़दूर वर्ग सारा दिन परिश्रम करने के बाद भी ग़रीब ही बना रहता है। समय के साथसाथ मज़दूर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना लेता है तथा यह संगठन पूंजीपतियों से अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष का परिणाम यह होता है कि समय आने पर मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति कर देता है तथा क्रान्ति के बाद पूंजीपतियों का खात्मा करके अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं। पूंजीपति अपने पैसे की मदद से प्रति क्रान्ति की कोशिश करेंगे परन्तु उनकी प्रति क्रान्ति को दबा दिया जाएगा तथा मजदूरों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। पहले साम्यवाद तथा फिर समाजवाद की स्थिति आएगी जिसमें हरेक को उसकी ज़रूरत तथा योग्यता के अनुसार मिलेगा। समाज में कोई वर्ग नहीं होगा तथा यह वर्गहीन समाज होगा जिसमें सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। कोई भी उच्च या निम्न नहीं होगा तथा मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित रहेगी। मार्क्स का कहना था कि चाहे यह स्थिति अभी नहीं आयी है परन्तु जल्द ही यह स्थिति आ जाएगी तथा समाज में से स्तरीकरण खत्म हो जाएगा।
मैक्स वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त-वर्ग, स्थिति समूह तथा दल (Max Weber’s Theory of Stratification-Class, Status, grouped and Party) मैक्स वैबर ने स्तरीकरण का सिद्धान्त दिया था जिसमें उसने वर्ग, स्थिति समूह तथा दल की अलग-अलग व्याख्या की थी। वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त तर्कसंगत तथा व्यावहारिक माना जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त को काफ़ी महत्त्व प्रदान किया है। वैबर ने स्तरीकरण को तीन पक्षों से समझाया है तथा वह है वर्ग, स्थिति तथा दल। इन तीनों ही समूहों को एक प्रकार से हित समूह कहा जा सकता है जो न केवल अपने अंदर लड़ सकते हैं बल्कि यह एक दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं बल्कि यह एक-दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं। यह एक विशेष सत्ता के बारे में बताते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से संबंधित भी होते हैं। अब हम इन तीनों का अलग-अलग विस्तार से वर्णन करेंगे।
वर्ग (Class)—मार्ल मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा आर्थिक आधार पर दी थी तथा उसी प्रकार वैबर ने भी वर्ग की धारणा आर्थिक आधार पर दी है। वैबर के अनुसार, “वर्ग ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी समाज के आर्थिक मौकों की संरचना में समान स्थिति में होता है तथा जो समान स्थिति में रहते हैं। “यह स्थितियां उनकी आर्थिक शक्ति के रूप तथा मात्रा पर निर्भर करती है।” इस प्रकार वैबर ऐसे वर्ग की बात करता है जिस में लोगों की एक विशेष संख्या के लिए जीवन के मौके एक समान होते हैं। चाहे वैबर की यह धारणा मार्क्स की वर्ग की धारणा से अलग नहीं है परन्तु वैबर ने वर्ग की कल्पना समान आर्थिक स्थितियों में रहने वाले लोगों के रूप में की है आत्म चेतनता समूह के रूप में नहीं। वैबर ने वर्ग के तीन प्रकार बताए हैं जोकि निम्नलिखित हैं :-
- सम्पत्ति वर्ग (A property Class)
- अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)
- सामाजिक वर्ग (A Social class)
1. सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)-सम्पत्ति वर्ग वह वर्ग होता है जिस की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितनी सम्पत्ति अथवा जायदाद है। यह वर्ग नीचे दो भागों में बांटा गया है-
i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Positively Privileged Property Class)-इस वर्ग के पास काफ़ी सम्पत्ति तथा जायदाद होती है तथा यह इस जायदाद से हुई आय पर अपना गुजारा करता है। यह वर्ग उपभोग करने वाली वस्तुओं के खरीदने या बेचने, जायदाद इकट्ठी करके अथवा शिक्षा लेने के ऊपर अपना एकाधिकार कर सकता है।
ii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Negatively Privileged Property Class)-इस वर्ग के मुख्य सदस्य अनपढ़, निर्धन, सम्पत्तिहीन तथा कर्जे के बोझ नीचे दबे हुए लोग होते हैं। इन दोनों समूहों के साथ एक विशेष अधिकार प्राप्त मध्य वर्ग भी होता है जिसमें ऊपर वाले दोनों वर्गों के लोग शामिल होते हैं। वैबर के अनुसार पूंजीपति अपनी विशेष स्थिति होने के कारण तथा मजदूर अपनी नकारात्मक रूप से विशेष स्थिति होने के कारण इस समूह में शामिल होता है।
2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)—यह उस प्रकार का समूह होता है जिस की स्थिति बाज़ार में मौजूदा सेवाओं का लाभ उठाने के मौकों के साथ निर्धारित होती है। यह समूह आगे तीन प्रकार का होता है-
i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Positively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग का उत्पादक फैक्टरी वालों के प्रबंध पर एकाधिकार होता है। यह फैक्ट्रियों वाले बैंकर, उद्योगपति, फाईनैंसर इत्यादि होते हैं। यह लोग प्रबंधकीय व्यवस्था को नियन्त्रण में रखने के साथ-साथ सरकारी आर्थिक नीतियों पर भीषण प्रभाव डालते हैं।
ii) विशेषाधिकार प्राप्त मध्य अधिग्रहण वर्ग (The Middle Privileged Acquisition Class)—यह वर्ग मध्य वर्ग के लोगों का वर्ग होता है जिसमें छोटे पेशेवर लोग, कारीगर, स्वतन्त्र किसान इत्यादि शामिल होते हैं।
iii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Negatively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग में छोटे वर्गों के लोग विशेषतया कुशल, अर्द्ध कुशल तथा अकुशल मजदूर शामिल होते हैं।
3. सामाजिक वर्ग (Social Class)—इस वर्ग की संख्या काफी अधिक होती है। इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की तरक्की के कारण निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देता है। परन्तु वैबर सामाजिक वर्ग की व्याख्या विशेष अधिकारों के अनुसार नहीं करता। उसके अनुसार मज़दूर वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, सम्पत्ति वाले लोग इत्यादि इसमें शामिल होते हैं।
वैबर के अनुसार किन्हीं विशेष स्थितियों में वर्ग के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं तथा इस कार्य करने की प्रक्रिया को वैबर ने वर्ग क्रिया का नाम दिया है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया कि वर्ग क्रिया जैसी बात अक्सर हो सकती है। वैबर का कहना था कि वर्ग में वर्ग चेतनता नहीं होती बल्कि उनकी प्रकृति पूर्णतया आर्थिक होती है। उनमें इस बात की भी संभावना नहीं होती कि वह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करेंगे। एक वर्ग लोगों का केवल एक समूह होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बाज़ार में एक जैसी होती है। वह उन चीज़ों को इकट्ठे करने में जीवन के ऐसे परिवर्तनों को महसूस करते हैं, जिनकी समाज में कोई इज्जत होती है तथा उनमें किसी विशेष स्थिति में वर्ग चेतना विकसित होने की तथा इकट्ठे होकर क्रिया करने की संभावना होती है। वैबर का कहना था कि अगर ऐसा होता है तो वर्ग एक समुदाय का रूप ले लेता है।
स्थिति समूह (Status Group)-स्थिति समूह को साधारणतया आर्थिक वर्ग स्तरीकरण के विपरीत समझा जाता है। वर्ग केवल आर्थिक मान्यताओं पर आधारित होता है जोकि समान बाज़ारी स्थितियों के कारण समान हितों वाला समूह है। परन्तु दूसरी तरफ स्थिति समूह सांस्कृतिक क्षेत्र में पाया जाता है यह केवल संख्यक श्रेणियों के नहीं होते बल्कि यह असल में वह समूह होते हैं जिनकी समान जीवन शैली होती है, संसार के प्रति समान दृष्टिकोण होता है तथा यह लोग आपस में एकता भी रखते हैं।
वैबर के अनुसार वर्ग तथा स्थिति समूह में अंतर होता है। हरेक का अपना ढंग होता है तथा इनमें लोग असमान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल का अध्यापक। चाहे उसकी आय 8-10 हजार रुपये प्रति माह होगी जोकि आज के समय में कम है परन्तु उसकी स्थिति ऊंची है। परन्तु एक स्मगलर या वेश्या चाहे माह में लाखों कमा रहे हों परन्तु उनका स्थिति समूह निम्न ही रहेगी क्योंकि उनके पेशे को समाज मान्यता नहीं देता। इस प्रकार दोनों के समूहों में अंतर होता है। किसी पेशे समूह को भी स्थिति समूह का नाम दिया जाता है क्योंकि हरेक प्रकार के पेशे में उस पेशे से संबंधित लोगों के लिए पैसा कमाने के समान मौके होते हैं। यही समूह उनकी जीवन शैली को समान भी बनाते हैं। एक पेशा समूह के सदस्य एक-दूसरे के नज़दीक रहते हैं, एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं तथा उनके मूल्य भी एक जैसे ही होते हैं। यही कारण है कि इसके सदस्यों का दायरा विशाल हो जाता है।
दल (Party)-वैबर के अनसार दल वर्ग स्थिति के साथ निर्धारित हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यह दल किसी न किसी स्थिति में उन सदस्यों की भर्ती करता है जिनकी विचारधारा दल की विचारधारा से मिलती हो। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए दल स्थिति दल ही बने । वैबर का कहना है कि दल हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में आए अर्थात् राज्य या सरकार की शक्ति उनके हाथों में हो। वैबर का कहना है कि चाहे दल राजनीतिक सत्ता का एक हिस्सा होते हैं परन्तु फिर भी सत्ता कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है जैसे कि पैसा, अधिकार, प्रभाव, दबाव इत्यादि। दल राज्य की सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा राज्य एक संगठन होता है। दल की हरेक प्रकार की क्रिया इस बात की तरफ ध्यान देती है कि सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाए। वैबर ने राज्य का विश्लेषण किया तथा इससे ही उसने नौकरशाही का सिद्धान्त पेश किया। वैबर के अनुसार दल दो प्रकार के होते हैं।
पहला है सरप्रस्ती का दल (Patronage Party) जिनके लिए कोई स्पष्ट नियम, संकल्प इत्यादि नहीं होते। यह किसी विशेष मौके के लिए बनाए जाते हैं तथा हितों की पूर्ति के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है। दूसरी प्रकार का दल है सिद्धान्तों का दल (Party of Pricniples) जिसमें स्पष्ट या मज़बूत नियम या सिद्धान्त होते हैं। यह दल किसी विशेष अवसर के लिए नहीं बनाए जाते। वैबर के अनुसार चाहे इन तीनों वर्ग, स्थिति समूह तथा दल में काफी अन्तर होता है परन्तु फिर भी इनमें आपसी संबंध भी मौजूद होता है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):
प्रश्न 1.
यह शब्द किसके हैं ? “एक सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग होता है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर दूसरों से भिन्न किया जा सकता है।”
(A) मार्क्स
(B) मैकाइवर
(C) वैबर
(D) आगबर्न।
उत्तर-
(B) मैकाइवर।
प्रश्न 2.
वर्ग व्यवस्था का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
(A) जाति प्रथा कमजोर हो रही है
(B) निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुंच रहे हैं।
(C) व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।
प्रश्न 3.
इनमें से कौन-सी वर्ग की विशेषता नहीं है ?
(A) पूर्णतया अर्जित
(B) खुलापन
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता
(D) समूहों की स्थिति में उतार-चढ़ाव।
उत्तर-
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता।
प्रश्न 4.
वर्ग तथा जाति में क्या अन्तर है ?
(A) जाति जन्म पर तथा वर्ग योग्यता पर आधारित होता है
(B) व्यक्ति वर्ग को बदल सकता है पर जाति को नहीं
(C) जाति में कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं पर वर्ग में नहीं
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 5.
वर्ग की विशेषता क्या है ?
(A) उच्च निम्न की भावना
(B) सामाजिक गतिशीलता
(C) उपवर्गों का विकास
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।।
प्रश्न 6.
उस व्यवस्था को क्या कहते हैं जिसमें समाज में व्यक्तियों को अलग-अलग आधारों पर विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है ?
(A) जाति व्यवस्था
(B) वर्ग व्यवस्था
(C) सामुदायिक व्यवस्था
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) वर्ग व्यवस्था।
प्रश्न 7.
जातियों के स्तरीकरण से क्या अर्थ है ?
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(B) समाज को इकट्ठा करना
(C) समाज को अलग करना
(D) समाज को कभी अलग कभी इकट्ठा करना।
उत्तर-
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन।
प्रश्न 8.
जाति प्रथा से हमारे समाज को क्या हानि हुई है ?
(A) समाज को बांट दिया गया
(B) समाज के विकास में रुकावट
(C) समाज सुधार में बाधक
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।
प्रश्न 9.
इनमें से जाति व्यवस्था क्या है ?
(A) राज्य
(B) सामाजिक संस्था
(C) सम्पत्ति
(D) सरकार।
उत्तर-
(B) सामाजिक संस्था।
प्रश्न 10.
पुरातन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
(A) चार
(B) पांच
(C) छः
(D) सात।
उत्तर-
(A) चार।
प्रश्न 11.
जाति प्रथा का क्या कार्य है ?
(A) व्यवहार पर नियन्त्रण
(B) कार्य प्रदान करना
(C) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।
प्रश्न 12.
भारतीय समाज में श्रम विभाजन किस पर आधारित था ?
(A) श्रम
(B) जाति व्यवस्था
(C) व्यक्तिगत योग्यता
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) जाति व्यवस्था।
II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :
1. समाज को अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया को ………….
2. जाति एक …………… वैवाहिक समूह है।
3. घूर्ये ने जाति के ……….. लक्षण दिए हैं।
4. वर्ण व्यवस्था …………. पर आधारित होती थी।
5. जाति व्यवस्था ………………… पर आधारित होती है।
6. ………….. ने पूँजीपति तथा मज़दूर वर्ग के बारे में बताया था।
7. जाति प्रथा में …………… प्रमुख जातियां होती थीं।
उत्तर-
- सामाजिक स्तरीकरण,
- अंतः,
- छ:,
- पेशे,
- जन्म,
- कार्ल मार्क्स,
- चार ।
III. सही/गलत (True/False) :
1. जाति बहिर्वैवाहिक समूह है।।
2. घूर्ये ने जाति की छः विशेषताएं दी थीं।
3. जाति व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता की धारणा सामने आई।
4. ज्योतिबा फूले ने जाति व्यवस्था में सुधार लाने का कार्य किया।
उत्तर-
- गलत,
- सही,
- सही,
- सही।
IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :
प्रश्न 1.
……………. व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।
प्रश्न 2.
शब्द Caste किस भाषा के शब्द से निकला है ?
उत्तर-
शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द से निकला है।
प्रश्न 3.
जाति किस प्रकार का वर्ग है ?
उत्तर-
बन्द वर्ग।
प्रश्न 4.
जाति प्रथा में किसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी ?
उत्तर-
जाति प्रथा में प्रथम वर्ण को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
प्रश्न 5.
जाति प्रथा में किस जाति का शोषण होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में निम्न जातियों का शोषण होता था।
प्रश्न 6.
अन्तर्विवाह का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता है तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।
प्रश्न 7.
जाति में व्यक्ति का पेशा किस प्रकार का होता है ?
उत्तर-
जाति में व्यक्ति का पेशा जन्म पर आधारित होता है अर्थात् व्यक्ति को अपने परिवार का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता है।
प्रश्न 8.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 में पास हुआ था।
प्रश्न 9.
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1976 में पास हुआ था।
प्रश्न 10.
हिन्दू विवाह अधिनियम ……………… में पास हुआ था।
उत्तर-
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में पास हुआ था।
प्रश्न 11.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में किस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था ?
उत्तर-
इस अधिनियम में किसी भी व्यक्ति को अस्पृश्य कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। यह 1955 में पास हुआ था।
प्रश्न 12.
सामाजिक स्तरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं।
प्रश्न 13.
जाति किस प्रकार के विवाह को मान्यता देती है ?
उत्तर-
जाति अन्तर्विवाह को मान्यता देती है।
प्रश्न 14.
प्राचीन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज चार भागों में विभाजित था।
प्रश्न 15.
जाति व्यवस्था का क्या लाभ था ?
उत्तर-
इसने हिन्दू समाज का बचाव किया, समाज को स्थिरता प्रदान की तथा लोगों को एक निश्चित व्यवसाय प्रदान किया था।
प्रश्न 16.
जाति प्रथा में किस प्रकार का परिवर्तन आ रहा है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खत्म हो रही है, अस्पृश्यता खत्म हो रही है तथा परम्परागत पेशे खत्म हो रहे हैं।
प्रश्न 17.
जाति की मुख्य विशेषता क्या है ?
उत्तर-
जाति को जन्मजात सदस्यता होती है, समाज का खण्डात्मक विभाजन होता है तथा व्यक्ति को परम्परागत पेशा प्राप्त होता है।
प्रश्न 18.
जाति प्रथा से क्या हानि होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा से निम्न जातियों का शोषण होता है, अस्पृश्यता बढ़ती है तथा व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।
प्रश्न 19.
जाति की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता का आधार जन्म है।
प्रश्न 20.
स्तरीकरण का स्थायी रूप क्या है ?
उत्तर-
स्तरीकरण का स्थायी रूप जाति है।
प्रश्न 21.
किस संस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है।
प्रश्न 22.
जाति शब्द किस भाषा से उत्पन्न हुआ है ?
उत्तर-
जाति शब्द अंग्रेजी भाषा के Caste शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जो कि पुर्तगाली शब्द Casta से बना
प्रश्न 23.
जाति के कौन-से मुख्य आधार हैं ?
उत्तर-
जाति एक बड़ा समूह होता है जिसका आधार जातीय भिन्नता तथा जन्मजात भिन्नता होता है।
प्रश्न 24.
जाति में आपसी सम्बन्ध किस पर आधारित होते हैं ?
उत्तर-
जाति में आपसी सम्बन्ध उच्चता और निम्नता पर आधारित होते हैं।
प्रश्न 25.
जाति में किसकी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा सबसे ज़्यादा थी तथा ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा था।
प्रश्न 26.
जाति प्रथा में प्रतिबन्ध क्यों लगाए जाते थे ?
उत्तर-
- इसलिए ताकि विभिन्न जातियां एक-दूसरे के सम्पर्क में न आएं।
- इसलिए ताकि जाति श्रेष्ठता तथा निम्नता बनाई रखी जा सके।
प्रश्न 27.
जाति प्रथा में व्यवसाय कैसे निश्चित होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में व्यवसाय परम्परागत होता था अर्थात् परिवार का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था।
प्रश्न 28.
अन्तर्विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
इस नियम के अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था अर्थात् वह . अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं करवा सकता।
प्रश्न 29.
औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर-
उद्योगों में अलग-अलग जातियों के लोग मिलकर कार्य करने लग गए जिससे उच्चता निम्नता के सम्बन्ध खत्म होने शुरू हो गए।
प्रश्न 30.
क्या वर्ग अन्तर्वैवाहिक है?
उत्तर-
जी हां, वर्ग अन्तर्वैवाहिक भी होता है तथा बर्हिविवाही भी।
प्रश्न 31.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
जाति प्रथा में चार मुख्य जातियां होती थी तथा वह थी-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जाति। यह ही जाति का पदक्रम होता था।
प्रश्न 32.
वर्ग का आधार क्या है?
उत्तर-
वर्ग का आधार पैसा, प्रतिष्ठा, शिक्षा, पेशा इत्यादि होते हैं।
प्रश्न 33.
जाति व्यवस्था का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का मूल आधार कुछ जातियों की उच्चता तथा कुछ जातियों की निम्नता थी।
प्रश्न 34.
जाति में खाने-पीने तथा सामाजिक संबंधों पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-
जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों में खाने-पीने तथा उनमें सामाजिक संबंध रखने की भी मनाही होती
प्रश्न 35.
वर्ग का आधार क्या है ?
उत्तर-
आजकल वर्ग का आधार पैसा, व्यापार, पेशा इत्यादि है।
प्रश्न 36.
अब तक कौन-से वर्ग अस्तित्व में आए हैं ?
उत्तर-
अब तक अलग-अलग आधारों पर हजारों वर्ग अस्तित्व में आए हैं।
प्रश्न 37.
वर्ग की सदस्यता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।
प्रश्न 38.
आजकल वर्ग अंतर का निर्धारण किस आधार पर होता है ?
उत्तर-
शिक्षा, पैसा, पेशा, रिश्तेदारी इत्यादि के आधार पर।
प्रश्न 39.
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने किया था ?
उत्तर-
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने दिया था।
प्रश्न 40.
पैसे के आधार पर हम लोगों को कितने वर्गों में विभाजित कर सकते हैं ?
उत्तर-
पैसे के आधार पर हम लोगों को उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग में विभाजित कर सकते हैं।
प्रश्न 41.
वर्ग में किस प्रकार के संबंध पाए जाते हैं ?
उत्तर-
वर्ग में औपचारिक तथा अस्थाई संबंध पाए जाते हैं।
प्रश्न 42.
स्तरीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है।
प्रश्न 43.
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार आर्थिक अर्थात् पैसा होता है।
प्रश्न 44.
क्या जाति बदल रही है ?
उत्तर-
जी हां, जाति वर्ग में बदल रही है।
अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित हुआ था तथा समाज में इस कारण उच्च-निम्न की एक निश्चित व्यवस्था तथा भावना होती थी। इस निश्चित व्यवस्था को ही जाति में पदक्रम कहते हैं।
प्रश्न 2.
व्यक्ति की सामाजिक स्थिति कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति पर निर्भर करती है जबकि वर्ग व्यवस्था में उसकी सामाजिक स्थिति उसकी व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर निर्भर करती है।
प्रश्न 3.
जाति सहयोग की भावना विकसित करती है।
उत्तर-
यह सच है कि जाति सहयोग की भावना विकसित करती है। एक ही जाति के सदस्यों का एक ही पेशा होने के कारण वह आपस में मिल-जुल कर कार्य करते हैं तथा सहयोग करते हैं।
प्रश्न 4.
कच्चा भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में पानी का प्रयोग हो उसे कच्चा भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में कई जातियों से कच्चा भोजन कर लिया जाता था तथा कई जातियों से पक्का भोजन।
प्रश्न 5.
पक्का भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में घी अथवा तेल का प्रयोग किया जाता है इसे पक्का भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में किसी विशेष जाति से ही पक्का भोजन ग्रहण किया जाता है।
प्रश्न 6.
आधुनिक शिक्षा तथा जाति।
उत्तर-
लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जिस कारण धीरे-धीरे उन्हें जाति व्यवस्था के अवगुणों का पता चल रहा है। इस कारण अब उन्होंने जाति की पाबन्दियों को मानना बंद कर दिया है।
प्रश्न 7.
जाति में सामाजिक सुरक्षा।
उत्तर-
अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई समस्या आती है तो जाति के सभी सदस्य इकट्ठे होकर उस समस्या को हल करते हैं। इस प्रकार जाति में व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।
प्रश्न 8.
जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित।
उत्तर-
यह सच है कि व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है क्योंकि व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है। वह योग्यता होने पर भी उसकी सदस्यता को छोड़ नहीं सकता है।
प्रश्न 9.
रक्त की शुद्धता बनाए रखना।
उत्तर-
जब व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करवाता है तो इससे जाति की रक्त की शुद्धता बनी रहती है तथा अन्य जाति में विवाह न करवाने से उनका रक्त अपनी जाति में शामिल नहीं होता।
प्रश्न 10.
जाति की एक परिभाषा दें।
उत्तर-
राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstd) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक तथा एक से अधिक विषयों के ऊपर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”
प्रश्न 11.
निम्न जाति का शोषण।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का काफ़ी शोषण किया जाता था। उनके साथ काफ़ी बुरा व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिए जाते थे।
प्रश्न 12.
जाति व्यवस्था में दो परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर-
- अलग-अलग कानूनों के पास होने से जाति प्रथा में अस्पृश्यता के भेदभाव का खात्मा हो रहा है।
- अलग-अलग पेशों के आगे आने के कारण अलग-अलग जातियों के पदक्रम तथा उनकी उच्चता में परिवर्तन आ रहा है।
प्रश्न 13.
जातीय समाज का खण्डात्मक विभाजन।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में समाज चार भागों में विभाजित होता था पहले भाग में ब्राह्मण आते थे, दूसरे भाग में क्षत्रिय, तीसरे भाग में वैश्य तथा चतुर्थ भाग में निम्न जातियों के व्यक्ति आते थे।
प्रश्न 14.
विवाह संबंधी जाति में परिवर्तन।
उत्तर-
अब लोग इकट्ठे कार्य करते हैं तथा नज़दीक आते हैं। इससे अन्तर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं। लोग अपनी इच्छा से विवाह करवाने लग गए हैं। बाल विवाह खत्म हो रहे हैं, विधवा विवाह बढ़ रहे हैं तथा विवाह संबंधी प्रतिबन्ध खत्म हो गए हैं।
लघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को कितने भागों में बाँटा है ?
उत्तर-
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को चार भागों में बाँटा है-
- प्राचीन साम्यवादी युग
- प्राचीन समाज
- सामन्तवादी समाज
- पूंजीवादी समाज।
प्रश्न 2.
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण का परिणाम क्या है ?
उत्तर-
मार्क्स का कहना है कि समाज में दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता। इस मलकीयत के आधार पर ही मालिक वर्ग की स्थिति उच्च तथा गैर-मालिक वर्ग की स्थिति निम्न होती है। मालिक वर्ग को मार्क्स पूंजीपति वर्ग तथा गैर-मालिक वर्ग को मजदूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है तथा मजदूर वर्ग अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यह ही स्तरीकरण का परिणाम है।
प्रश्न 3.
वर्गों में आपसी सम्बन्ध किस तरह के होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्गों में आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता तथा संघर्ष वाले होते हैं। पूंजीपति तथा मज़दूर दोनों अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। मजदूर वर्ग को रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचना पड़ता है। वह पूंजीपति को अपना परिश्रम बेचते हैं तथा रोटी कमाने के लिए उस पर निर्भर करते हैं। उसकी मज़दूरी के एवज में पूंजीपति उनको मजदूरी का किराया देते हैं। पूंजीपति भी मज़दूरों पर निर्भर करता है, क्योंकि मजदूर के कार्य किए बिना उसका न तो उत्पादन हो सकता है तथा न ही उसके पास पूंजी इकट्ठी हो सकती है। परन्तु निर्भरता के साथ संघर्ष भी चलता रहता है क्योंकि मज़दूर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उससे संघर्ष करता रहता है।
प्रश्न 4.
मार्क्स के स्तरीकरण के सिद्धान्त में कौन-सी बातें मख्य हैं ?
उत्तर-
- सबसे पहले प्रत्येक प्रकार के समाज में मुख्य तौर पर दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा दूसरे के पास नहीं होते हैं।
- मार्क्स के अनुसार समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति उच्च होती है तथा जिस के पास साधन नहीं होते उसकी स्थिति निम्न होती है।
- सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप उत्पादन की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
- मार्क्स के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्ग संघर्ष किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में मौजूद रहा है।
प्रश्न 5.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार, प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग-एक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं। इनमें संघर्ष होता है जिसे मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है। शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा वह इन उत्पादन के साधनों के साथ अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग मजदूर वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते हैं। इसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। यह वर्ग पहले वर्ग से हमेशा शोषित होता है जिस कारण दोनों वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।
प्रश्न 6.
जाति का अर्थ।
अथवा
जाति।
उत्तर-
हिन्दू सामाजिक प्रणाली में एक उलझी हुई एवं दिलचस्प संस्था है जिसका नाम ‘जाति प्रणाली’ है। यह शब्द पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘जन्म’। इस प्रकार यह एक अन्तर-वैवाहिक समूह होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के ऊपर आधारित है, इसमें कार्य (धन्धा) पैतृक एवं परम्परागत होता है। रहना-सहना, खाना-पीना, सम्बन्धों पर कई प्रकार के नियम (बन्धन) होते हैं। इसमें कई प्रकार की पाबन्दियां भी होती हैं, जिनका पालन उन सदस्यों को करना ज़रूरी होता है।
प्रश्न 7.
जाति व्यवस्था की कोई चार विशेषताएं बतायें।
उत्तर-
- जाति की सदस्यता जन्म के आधार द्वारा होती है।
- जाति में सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध होते हैं।
- जाति में खाने-पीने के बारे में प्रतिबन्ध होते हैं।
- जाति में अपना कार्य पैतृक आधार पर मिलता है।
- जाति एक अन्तर-वैवाहिक समूह है, विवाह सम्बन्धी बन्दिशें हैं।
- जाति में समाज अलग-अलग हिस्सों में विभाजित होता है।
- जाति प्रणाली एक निश्चित पदक्रम है।
प्रश्न 8.
पदक्रम क्या होता है ?
उत्तर-
जाति प्रणाली में एक निश्चित पदक्रम होता था, अभी भी भारत वर्ष में ज्यादातर भागों में ब्राह्मण वर्ण की जातियों को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था। इसी प्रकार दूसरे क्रम में क्षत्रिय आते थे। वर्ण व्यवस्था के अनुसार तीसरा स्थान ‘वैश्यों’ का था, उसी प्रकार ही समाज में वैसा ही आज माना जाता था। इसी क्रम के अनुसार सबसे बाद वाले क्रम में चौथा स्थान निम्न जातियों का था। समाज में किसी भी व्यक्ति की स्थिति आज भी भारत के ज्यादा भागों में उसी प्रकार से ही निश्चित की जाती थी।
प्रश्न 9.
सदस्यता जन्म पर आधारित।
अथवा
जाति की सदस्यता कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता जन्म के आधार पर मानी जाती थी। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का फैसला अथवा निर्धारण स्वयं नहीं कर सकता। जिस जाति में वह जन्म लेता है उसका सामाजिक दर्जा भी उसी के आधार पर ही निश्चित होता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, वह अपनी जाति को अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता था। जाति की सदस्यता यदि जन्म के आधार पर मानी जाती थी तो उसकी सामाजिक स्थिति उसके जन्म के आधार पर होती थी न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर।
प्रश्न 10.
जाति में खाने-पीने सम्बन्धी किस तरह के प्रतिबन्ध हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में कुछ इस तरह के नियम बताये गये हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि कौन-कौन सी जातियों अथवा वर्गों में कौन-कौन से खाने-पीने के बारे में बताया गया था। इस तरह खाने-पीने की वस्तुओं को दो भागों में बांटा गया था। सारे भोजन को तो एक कच्चा भोजन माना जाता था और दूसरा पक्का भोजन। इसमें कच्चे भोजन को पानी द्वारा तैयार किया जाता था और पक्के भोजन को घी (Ghee) द्वारा तैयार किया जाता था। आम नियम यह था कि कच्चा भोजन कोई भी व्यक्ति तब तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसी जाति के ही व्यक्ति द्वारा तैयार न किया जाये। परन्तु दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में यदि क्षत्रिय एवं वैश्य भी तैयार करते थे, तो ब्राह्मण उसको ग्रहण कर लेते थे।
प्रश्न 11.
जाति से सम्बन्धित व्यवसाय।
उत्तर-
जाति व्यवस्था के नियमों के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित किया जाता था। उसमें उसे परम्परा के अनुसार अपने पैतृक धन्धे को ही अपनाना पड़ता था। जैसे ब्राह्मणों का काम समाज को शिक्षित करना था और क्षत्रियों के ऊपर सुरक्षा का दायित्व था और कृषि के कार्य वैश्यों में विभाजित थे। इसी प्रकार निम्न जातियों का कार्य बाकी तीनों समुदायों की सेवा करने का कार्य था। इसी प्रकार जिस बच्चे का जन्म जिस जाति विशेष में होता था उसे व्यवसाय के रूप में भी वही काम करना होता था। इस प्रणाली में व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कोई व्यवसाय नहीं कर सकता था। इस जाति प्रकारों में सभी चारों वर्ग अपने कार्य को अपना धर्म समझ कर करते थे।
प्रश्न 12.
जाति के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की प्रथा में जाति भिन्न तरह से अपने सदस्यों की सहायता करती है, उसमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
- जाति व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण करती है।
- व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
- हर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है।
- व्यक्ति एवं जाति के रक्त की शुद्धता बरकरार रखती है।
- जाति राजनीतिक स्थिरता प्रदान करती है।
- जाति अपने तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखती है!
- जाति शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करती है।
- जाति विशेष व्यक्ति के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का ध्यान करवाती है।
प्रश्न 13.
जाति एक बन्द समूह है।
उत्तर-
जाति एक बन्द समूह है, जब हम इस बात का अच्छी तरह से विश्लेषण करेंगे तो जवाब ‘हां’ में ही आयेगा। इससे यही अर्थ है कि बन्द समूह की जिस जाति में व्यक्ति का जन्म होता था, उसी के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति तय होती थी। व्यक्ति अपनी जाति को छोड़कर, दूसरी जाति में भी नहीं जा सकता। न ही वह अपनी जाति को बदल सकता है। इस तरह इस व्यवस्था में हम देखते हैं कि चाहे व्यक्ति में अपनी कितनी भी योग्यता हो, वह उसे प्रदर्शित नहीं कर पाता था क्यों जो उसे अपनी जाति समूह के नियमों के अनुसार कार्य करना होता था क्योंकि इसका निर्धारण ही व्यक्ति के जन्म के आधार पर था न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर। इस प्रकार जाति एक बन्द समूह ही था जिससे व्यक्ति अपनी इच्छा के आधार पर बाहर नहीं निकल सकता।
प्रश्न 14.
जाति के गुण बतायें।
उत्तर-
- जाति व्यवसाय का विभाजन करती है।
- जाति सामाजिक एकता को बनाये रखती है।
- जाति रक्त शुद्धता को बनाये रखती है।
- जाति शिक्षा के नियमों को बनाती है।
- जाति समाज में सहयोग से रहना सिखाती है।
- मानसिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
प्रश्न 15.
जाति चेतनता।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की यह सबसे बड़ी त्रुटि थी कि उसमें कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के प्रति ज़्यादा सचेत नहीं होता था और यह कमी हर व्यवस्था में भी पाई जाती थी। क्योंकि इस व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति के आधार पर निश्चित होती थी, इसलिए व्यक्तिगत रूप से उतना जागरूक ही नहीं होता था। जब कि उसकी स्थिति एवं पहचान उनके जन्म के अनुसार ही होनी थी, तो उसे पता होता था कि उसे कौन-कौन से कार्य और कैसे करने हैं। यदि कोई व्यक्ति उच्च जाति में जन्म ले लेता था तो उसे पता होता था कि उसके क्या कर्त्तव्य हैं, यदि उसका जन्म निम्न जाति में हो जाता था, तो उसे पता ही होता था कि उसे सारे समाज की सेवा करनी है और इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल अन्दाजी नहीं करता था और उसी को दैवी कारण मानकर अपना जीवन-यापन करता जाता था।
प्रश्न 16.
जाति में बदलाव के कारणों के बारे में लिखें।
उत्तर-
19वीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों एवं धार्मिक विद्वानों की कोशिशों ने समाज में काफ़ी बदलाव की कोशिशें की और कई सामाजिक कुरीतियों का जमकर खण्डन किया। इन्हीं कारणों को हम संक्षेप में इस तरह बता सकते हैं-
- समाज सुधार आंदोलनों के कारण।
- भारत सरकार की कोशिशें एवं कानूनों का बनना।
- अंग्रेज़ी साम्राज्य का इसमें योगदान।
- औद्योगीकरण के कारणों से आई तबदीली।
- शिक्षा के प्रसार के कारण।
- यातायात एवं संचार व्यवस्था के कारण।
- आपसी मेल-जोल की वजह से।
प्रश्न 17.
जाति के अवगुण।
उत्तर-
स्त्रियों की दशा खराब होती है।
- यह प्रथा अस्पृश्यता को बढ़ावा देती है।
- यह जातिवाद को बढ़ाती है।
- इससे सांस्कृतिक संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
- सामाजिक एकता एवं गतिशीलता को रोकती है।
- सामाजिक संतुलन को भी खराब करती है।
- व्यक्तियों की कार्य-कुशलता में भी कमी आती है।
- सामाजिक शोषण के कारण गिरावट आती है।
प्रश्न 18.
जाति एवं वर्ग में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर-
जाति धर्म पर आधारित है परन्तु वर्ग पैसे के ऊपर आधारित है।
- जाति समुदाय का हित है, वर्ग में व्यक्तिगत हितों की बात है।
- जाति को बदला नहीं जा सकता, वर्ग को बदला जा सकता है।
- जाति बन्द व्यवस्था है परन्तु वर्ग खुली व्यवस्था का हिस्सा है।
- जाति लोकतन्त्र के विरुद्ध है पर वर्ग लोकतान्त्रिक क्रिया है।
- जाति में कई तरह के प्रतिबन्ध हैं, वर्ग में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं।
- जाति में चेतना की कमी होती है परन्तु वर्ग में व्यक्ति चेतन होता है।
प्रश्न 19.
श्रेणी व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार श्रेणी के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष कर्त्तव्य, अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। श्रेणी चेतनता ही श्रेणी की मुख्य ज़रूरत होती है। श्रेणी के बीच व्यक्ति अपने आप को कुछ सदस्यों से उच्च तथा कुछ से निम्न समझता है।
प्रश्न 20.
वर्ग की दो विशेषताएं।
उत्तर-
- वर्ग चेतनता–प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतनता होती है कि उसका पद या आदर दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है। अर्थात् व्यक्ति को उच्च, निम्न या समानता के बारे में पूरी चेतनता होती है।
- सीमित सामाजिक सम्बन्ध-वर्ग व्यवस्था में लोग अपने ही वर्ग के सदस्यों से गहरे सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध सीमित होते हैं।
प्रश्न 21.
धन तथा आय-वर्ग व्यवस्था के निर्धारक।
उत्तर-
समाज के बीच उच्च श्रेणी की स्थिति का सदस्य बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। परन्तु पैसे के साथ व्यक्ति आप ही उच्च स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता परन्तु उसकी अगली पीढ़ी के लिए उच्च स्थिति निश्चित हो जाती है। आय के साथ भी व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि ज्यादा आमदनी से ज्यादा पैसा आता है। परन्तु इसके लिए यह देखना ज़रूरी है कि व्यक्ति की आमदनी ईमानदारी की है या काले धन्धे द्वारा प्राप्त है।
बड़े उत्तरों वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के अलग-अलग लक्षण होते हैं क्योंकि यह सामाजिक कीमतों तथा प्रमुख विचारधाराओं पर आधारित होती हैं, इसलिए स्तरीकरण के आधार भी अलग-अलग होते हैं।
सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का स्वरूप अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पाया जाता है। यह प्रत्येक समाज में पाई जाने वाली सामाजिक कीमतों से सम्बन्धित होता है। इसलिए सामाजिक स्तरीकरण के आधार भी कई होते हैं। परन्तु सभी आधारों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-
- जैविक अथवा प्राणी शास्त्रीय आधार (Biological Basis)
- सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-Cultural Basis) अब हम स्तरीकरण के इन दोनों प्रमुख आधारों का विस्तार से वर्णन करेंगे।
1. जैविक आधार (Biological Basis)—जैविक आधार पर समाज में व्यक्तियों को उनके जन्म के आधार पर उच्च तथा निम्न स्थान दिए जाते हैं। उनकी व्यक्तिगत योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता है। आम शब्दों में, समाज के अलग-अलग व्यक्तियों तथा समूहों में मिलने वाले उच्च निम्न के सम्बन्ध जैविक आधारों पर निर्धारित हो सकते हैं।
सामाजिक स्तरीकरण के जैविक आधारों का सम्बन्ध व्यक्ति के जन्म से होता है। व्यक्ति को समाज में कई बार उच्च तथा निम्न स्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती है। निम्नलिखित कुछ जैविक आधारों का वर्णन इस प्रकार है।
(i) जन्म (Birth)-समाज में व्यक्ति के जन्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। यदि हम प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज की सामाजिक व्यवस्था को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि जन्म के आधार पर ही समाज में व्यक्ति को उच्च या निम्न स्थिति प्राप्त होती थी।
जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको उसी जाति से जोड़ दिया जाता था तथा इस जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को स्थिति प्राप्त होती थी। व्यक्ति अपनी योग्यता तथा परिश्रम से भी अपनी जाति बदल नहीं सकता था। इस प्रकार जाति प्रथा में एक पदक्रम बना रहता था। इस विवरण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि व्यक्ति को समाज में स्थिति उसकी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार नहीं प्राप्त होती थी। जाति प्रथा में सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था का मुख्य आधार जन्म होता था। जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को समाज में उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता था।
इसमें व्यक्ति की निजी योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता था। निजी योग्यता न तो जाति बदलने में मददगार थी तथा न ही अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए मददगार थी। ज्यादा से ज्यादा निजी योग्यता व्यक्ति को अपनी ही जाति में ऊँचा कर सकती थी। अपनी जाति में ऊँचा होने के बावजूद भी वह अपने से उच्च जाति से निम्न ही रहेगा। जातीय स्तरीकरण में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी योग्यता के ऊपर निर्धारित नहीं होती थी बल्कि व्यक्ति के जन्म के आधार पर निर्धारित होती थी।
(ii) आयु (Age)-जन्म के बाद आयु के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। कई अन्य समाजशास्त्रियों ने भी आयु के आधार पर व्यक्ति की अलग-अलग अवस्थाएं बताई हैं। किसी भी समाज में छोटे बच्चे की स्थिति उच्च नहीं होती क्योंकि उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ होता। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उस तरह उसकी बुद्धि का विकास होता है। बुद्धि के विकास के साथ वह परिपक्व हो जाता है। इसलिए उसको प्राथमिकता दी जाती है। भारत सरकार में भी ज्यादा संख्या बड़ी आयु के लोगों की है। राष्ट्रपति बनने के लिए भी सरकार ने आयु निश्चित की होती है। भारत में यह उम्र 35 साल की है। यदि हम प्राचीन भारतीय समाज की पारिवारिक प्रणाली को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि बड़ी आयु के व्यक्तियों का ही परिवार पर नियन्त्रण होता था। भारत में वोट डालने का अधिकार 18 साल के व्यक्ति को ही प्राप्त है।
राजनीति को चलाने के लिए बुजुर्ग व्यक्ति एक स्तम्भ का कार्य करते हैं। यह ही जवान पीढ़ी को तैयार करते हैं। इस प्रकार सरकार ने विवाह की संस्था में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति की आयु निश्चित कर दी है ताकि बाल विवाह की प्रथा को रोका जा सके। संसार के सभी समाजों में बड़ी आयु के लोगों की इज्जत होती है। कई कबीलों में तो बडी आयु के लोगों की कौंसिल बनाई जाती है जिसके द्वारा समाज में महत्त्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के कबीलों के बीच प्रशासकीय अधिकार बड़ी आयु के व्यक्तियों को ही स्वीकार किया जाता है।
(iii) लिंग (Sex)-लिंग भी स्तरीकरण का आधार होता है। लिंग के आधार पर भेद आदमी तथा औरत का ही होता है। यदि हम प्राचीन समाजों पर नजर डालें तो उन समाजों में लिंग के आधार पर ही विभाजित होती थी। औरतें घर का कार्य करती थीं तथा आदमी घर से बाहर जा कर खाने-पीने की चीजें इकट्ठी करते थे।
सत्ता के आधार पर परिवार को दो हिस्सों में विभाजित किया गया है –
- पितृ सत्तात्मक परिवार (Patriarchal Family)
- मातृ सत्तात्मक परिवार (Matriarchal Family)
इन दोनों तरह के परिवारों के प्रकार लिंग के आधार पर पाए जाते हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की सत्ता महत्त्वपूर्ण थी तथा परिवार पिता की सत्ता में रहता था। परन्तु मातृसत्तात्मक परिवार में परिवार के ऊपर नियन्त्रण माता का ही होता था। यदि हम प्राचीन हिन्दू समाज को देखें तो लिंग के आधार पर आदमी की स्थिति समाज में उच्च थी। लिंग के आधार पर आदमी तथा औरतों के कार्यों में भिन्नता पायी जाती थी। लिंग के आधार पर पाई जाने वाली भिन्नता अभी भी आधुनिक समाजों में कुछ हद तक विकसित है। चाहे सरकार ने प्रयत्न करके औरतों को आगे बढ़ाने की कोशिशें भी की हैं। शिक्षा के क्षेत्र में औरतों को कुछ राज्यों में मुफ्त शिक्षा प्राप्त हो रही है। परन्तु आज भी कुछ फ़र्क नज़र आता है। पश्चिमी देशों में चाहे औरत तथा आदमी को प्रत्येक क्षेत्र में बराबर समझा जाता रहा है परन्तु अमेरिका में राष्ट्रपति का पद औरत नहीं सम्भाल सकती। आदमी तथा औरत की कुछ भूमिकाएं तो प्राकृतिक रूप से ही अलग होती हैं जैसे बच्चे को जन्म देने का कार्य औरत का ही होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लिंग भी स्तरीकरण का बहुत ही पुराना आधार रहा है जिसके द्वारा समाज में आदमी तथा औरत की स्थिति को निश्चित किया जाता है।
(iv) नस्ल (Race)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का आधार नस्ल भी रही है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-
(a) काकेशियन (Caucasion)
(b) मंगोलाइड (Mangoloid)
(c) नीग्रोआइड (Negroid)
इन तीनों नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में सबसे उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। यहां तक कि यह आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में विभिन्न नस्लों में पाई जाने वाली भिन्नता में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी नस्ल सामाजिक स्तरीकरण का एक आधार बनी हुई है। नस्ल श्रेष्ठता के आधार पर गोरे कालों से विवाह नहीं करवाते। काले व्यक्तियों के साथ गोरे बहुत भेदभाव करते हैं। कोई काला व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बन सकता है। इस तरह स्पष्ट है कि नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेष अधिकारों में भेद पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस आधार पर भेद देख सकते हैं। गोरे लोग एशिया के लोगों के साथ इस आधार पर भेद रखते हैं क्योंकि वह अपने आपको पीले तथा काले लोगों से उच्च समझते
2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-cultural basis) केवल जैविक आधार पर ही नहीं बल्कि सामाजिक आधारों पर भी समाज में स्तरीकरण पाया जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक आधार कई तरह के होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
(i) पेशे के आधार पर (Occupational basis)-पेशे के आधार पर समाज को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है। कुछ पेशे समाज में ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं तथा कुछ कम। वर्ण व्यवस्था में समाज में स्तरीकरण पेशे के आधार पर ही होता था। व्यक्ति जिस पेशे को अपनाता था उसको उसी पेशे के अनुसार समाज में स्थिति प्राप्त हो जाती थी। जैसे जो व्यक्ति वेदों इत्यादि की शिक्षा प्राप्त करके लोगों को शिक्षित करने का पेशा अपना लेता था तो उसको ब्राह्मण वर्ण में शामिल कर लिया जाता था। पेशा अपनाने की इच्छा व्यक्ति की अपनी होती थी। डेविस के अनुसार विशेष पेशे के लिए योग्य व्यक्तियों की प्राप्ति उस पेशे की स्थिति को प्रभावित करती है। कई समाज वैज्ञानिकों ने पेशे को सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार माना है।
आधुनिक समाज में व्यक्ति जिस प्रकार की योग्यता रखता है वह उसी तरह का पेशा अपना लेता है। उदाहरण के तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर इत्यादि के पेशे को क्लर्क, चपड़ासी इत्यादि के पेशे से ज्यादा उत्तम स्थान प्राप्त होता है। जो पेशे समाज के लिए नियन्त्रण रखने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, उन पेशों को भी समाज में उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार विभिन्न पेशों, गुणों, अवगुणों इत्यादि को परख कर समाज में उनको स्थिति प्राप्त होती है।
चाहे पुराने समाजों में पेशे भी जाति पर आधारित होते थे तथा व्यक्ति की स्थिति जाति के अनुसार निर्धारित होती थी परन्तु आधुनिक समाजों में जाति की जगह व्यवसाय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। एक I.A.S. अफसर की स्थिति एक चपड़ासी से निश्चित रूप से उच्च होती है। उसी तरह अफसरों, जजों इत्यादि का पेशा तथा नाम एक होने के बावजूद उनका स्तर समान नहीं है। संक्षेप में अलग-अलग कार्यों तथा पेशों के आधार पर समाज में स्तरीकरण होता है। उदाहरणतः चाहे कोई वेश्या जितना मर्जी चाहे पैसा कमा ले परन्तु उसके कार्य के आधार पर समाज में उसका स्थान हमेशा निम्न ही रहता है।
(ii) राजनीतिक आधार (Political base)-राजनीतिक आधार पर तो प्रत्येक समाज में अलग-अलग स्तरीकरण पाया जाता है। भारतीय समाज में भी राजनीतिक स्तरीकरण का आधार पाया जाता है। भारत में वंश के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण रही है। भारत एक लोकतान्त्रिक समाज है। इसमें राजनीति की मुख्य शक्ति राष्ट्रपति के पास होती है। उपराष्ट्रपति की स्थिति उससे निम्न होती है। प्रत्येक समाज में दो वर्ग पाए जाते हैं तथा वह है शासक वर्ग व शासित वर्ग शासक वर्ग की स्थिति शासित वर्ग से उच्च होती है। प्रशासनिक व्यवस्था में विभिन्न अफसरों को उनकी नौकरी के स्वरूप के अनुसार ही स्थिति प्राप्त होती है। सोरोकिन के अनुसार, “यदि राजनीतिक संगठन में विस्तार होता है तो राजनीतिक स्तरीकरण बढ़ जाता है।”
राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक स्तरीकरण में भी complexity बढ़ती जाती है। यदि किसी क्रान्ति के कारण राजनीतिक व्यवस्था में एक दम परिवर्तन आ जाता है तो राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है। भारत में वैसे तो कई राजनीतिक पार्टियां पाई जाती हैं परन्तु जिस पार्टी की स्थिति उच्च होती है वह ही देश पर राज करती है। प्राचीन कबाइली समाज में प्रत्येक कबीले का एक मुखिया होता था जो अपने कबीले की समस्याएं दूर करता था तथा अपने कबीले के प्रति वफ़ादार होता था। राजाओं महाराजाओं के समय राजा के हाथ में शासन होता था, वह जिस तरह चाहता था उस तरह ही अपने राज्य को चलाता था।
परिवार में राजनीति होती है। पिता की स्थिति सब से उच्च होती है। देश के प्रशासन में सब से उच्च स्थिति राष्ट्रपति की होती है। फिर उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप-मन्त्री इत्यादि की बारी आती है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में कुछ नेता ऊँचे कद के होते हैं तथा कुछ निम्न कद के। कुछ नेता राष्ट्रीय स्तर के होते हैं तथा कुछ प्रादेशिक स्तर के होते हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर की तथा कुछ प्रादेशिक स्तर की होती हैं। उस पार्टी की स्थिति उच्च होगी जिसके हाथ में राजनीतिक सत्ता होती है तथा उस पार्टी की स्थिति निम्न रहेगी जिसके पास सत्ता नहीं होती। उदाहरणतः आज बी० जे० पी० की केन्द्र सरकार होने के कारण उसकी स्थिति उच्च है तथा कांग्रेस की स्थिति निम्न है।
(iii) आर्थिक आधार (Economic basis)-कार्ल मार्क्स के अनुसार आर्थिक आधार ही सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार है। उनके अनुसार समाज में हमेशा दो ही वर्ग पाए जाते हैं
(a) उत्पादन के साधनों के मालिक (Owners of means of production)
(b) उत्पादन के साधनों से दूर (Those who don’t have means of production)
जो व्यक्ति उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं, उनकी स्थिति समाज में उच्च होती है। इनको कार्ल मार्क्स ने पूंजीपति का नाम दिया है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग होता है जो पूंजीपति लोगों के अधीन कार्य करता है। पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग का पूर्ण शोषण करता है। समाज में पैसे के आधार पर समाज को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जाता है-
- उच्च वर्ग (Higher Class)
- मध्यम वर्ग (Middlwe Class)
- निम्न वर्ग (Lower Class)
इस प्रकार इन वर्गों में श्रेष्ठता तथा हीनता वाले सम्बन्ध पाए जाते हैं। सोरोकिन के अनुसार, स्तरीकरण के आधार के रूप में आर्थिक तत्त्वों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। मुख्य उतार-चढ़ाव दो तरह का होता है-आर्थिक क्षेत्र में किसी भी समूह की उन्नति तथा गिरावट तथा स्तरीकरण की प्रक्रिया में आर्थिक तत्त्वों की महता का कम या ज्यादा होना। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक पिरामिड की ऊँचाई की तरफ बढ़ना तथा एक स्तर पर पहुँच कर चौड़ाई में बढ़ना तथा ऊँचाई की तरफ बढ़ने से रुकना।
संक्षेप में हम आधुनिक समाज को औद्योगिक समाज का नाम देते हैं। इस समाज में व्यक्ति का सम्पत्ति पर अधिकार होना या न होना स्तरीकरण का आधार होता है। इस प्रकार आर्थिक आधार भी स्तरीकरण के आधारों में से मुख्य माना गया है।
(iv) शिक्षा के आधार पर (On the basis of education) शिक्षा के आधार पर भी हम समाज को स्तरीकृत कर सकते हैं। शिक्षा के आधार पर समाज को दो भागों में स्तरीकृत किया जाता है-एक तो है पढ़ा-लिखा वर्ग तथा दूसरा है अनपढ़ वर्ग। इस प्रकार पढ़े-लिखे वर्ग की स्थिति अनपढ़ वर्ग से उच्च होती है। जो व्यक्ति परिश्रम करके उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं तो समाज में उनको ज्यादा इज्जत प्राप्त हो जाती है। आधुनिक समाज में स्तरीकरण का यह आधार भी महत्त्वपूर्ण होता है। समाज में पढ़े-लिखे व्यक्ति की इज्जत अनपढ़ से ज्यादा होती है। अब एक प्रोफैसर की स्थिति, जिसने पी० एच० डी० की है, निश्चित रूप से मौट्रिक पास व्यक्ति से उच्च होगी। एक इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक की स्थिति चपड़ासी से उच्च होगी क्योंकि उन्होंने चपड़ासी से ज्यादा शिक्षा प्राप्त की है। इस तरह शिक्षा के आधार पर भी समाजों में स्तरीकरण होता है।
(v) धार्मिक आधार (Religious basis)-धार्मिक आधार पर भी समाज को स्तरीकृत किया जाता है। प्राचीन हिन्दू भारतीय समाज में धार्मिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती थी क्योंकि वह धार्मिक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते थे तथा उस ज्ञान को आगे पहुंचाते थे। भारतीय समाज में कई प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। प्रत्येक धर्म को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको दूसरे धार्मिक समूहों से ऊंचा समझने लग जाता है। इस प्रकार धर्म के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। भारत में बहुत सारे धर्म हैं जो अपने आपको और धर्मों से श्रेष्ठ समझते हैं। प्रत्येक धर्म के व्यक्ति यह कहते हैं कि उनका धर्म और धर्मों से अच्छा है। एक धर्म, जिसके सदस्यों की संख्या ज्यादा है, निश्चित रूप से दूसरे धर्मों से उच्च कहलवाया जाएगा। हम भारत में हिन्दू तथा इसाई धर्म की उदाहरण ले सकते हैं। इस तरह धर्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।
(vi) रक्त सम्बन्धी आधार (On the basis of blood relations) व्यक्ति जिस वंश में जन्म लेता है, उसके आधार पर भी समाज में उसको उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता है। जैसे राजा का पुत्र बड़ा होकर राजा के पद पर विराजमान हो जाता था। इस प्रकार व्यक्ति को समाज में कई बार सामाजिक स्थिति परिवार के आधार पर भी प्राप्त होती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के अलग-अलग महत्त्वपूर्ण आधार हैं। इसके बहुत सारे भेद होते हैं जिनके आधार पर समाज में असमानताएं पाई जाती हैं।
प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था क्या होती है ? घूर्ये द्वारा दी गई विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
शब्द जाति अंग्रेजी भाषा के शब्द Caste का हिन्दी रूपांतर है। शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द Casta में से निकला है जिसका अर्थ नस्ल अथवा प्रजाति है। शब्द Caste लातिनी भाषा के शब्द Castus से भी सम्बन्धित है जिसका अर्थ शुद्ध नस्ल है। प्राचीन समय में चली आ रही जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित होती थी तथा व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्राचीन समय में तो व्यक्ति के जन्म से ही उसका कार्य, उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाते थे क्योंकि उसे अपनी जाति का परंपरागत पेशा अपनाना पड़ता था तथा उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार ही उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती थी। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों के जीवन पर बहुत सी पाबन्दियां लगाती थीं तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन पाबन्दियों को मानना आवश्यक होता था।
इस प्रकार जाति व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति के ऊपर जाति के नियमों के अनुसार कई पाबंदियां थीं। जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है जो अपने सदस्यों के जीवन सम्बन्धों, पेशे इत्यादि के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध रखता है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण आधारों में से एक थी तथा यह इतनी शक्तिशाली थी कि कोई भी व्यक्ति इसके विरुद्ध कार्य करने का साहस नहीं करता था।
परिभाषाएं (Definitions)-जाति व्यवस्था की कुछ परिभाषाएं प्रमुख समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
1. राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstdt) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक अथवा अधिक विषयों पर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”
2. रिज़ले (Rislay) के अनुसार, “जाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का संकलन है जिसका एक समान नाम होता है तथा जो काल्पनिक पूर्वज-मनुष्य अथवा दैवीय के वंशज होने का दावा करते हैं, जो समान पैतृक कार्य अपनाते हैं तथा वह विचारक जो इस विषय पर राय देने योग्य हैं, इसे समजातीय समूह मानते हैं।”
3. ब्लंट (Blunt) के अनुसार, “जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह अथवा अन्तर्वैवाहिक समूहों का एकत्र है जिसका एक नाम है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत है, जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाती है, एक आम परम्परागत पेशे को अपनाती है अथवा एक आम उत्पत्ति की दावा करती है तथा साधारण एक समरूप समुदाय को बनाने वाली समझी जाती है।”
4. मार्टिनडेल तथा मोना चेसी (Martindale and Mona Chesi) के अनुसार, “जाति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें किसी व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित होते हैं, जिसे संस्कारों तथा धर्म की तरफ से मान्यता तथा स्वीकृति प्राप्त होती है।”
जाति व्यवस्था के कुछ लक्षण जी० एस० घर्ये ने दिए हैं:-
(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(ii) अलग-अलग हिस्सों में पदक्रम
(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां
(iv) भिन्न-भिन्न जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार
(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी
(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दी।
अब हम घूर्ये द्वारा दी विशेषताओं का वर्णन विस्तार से करेंगे-
(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society) जाति व्यवस्था हिन्दू समाज को कई भागों में बांट देती है जिसमें प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर देती है। इस वजह से सदस्यों के बीच किसी विशेष समूह का हिस्सा होने के कारण चेतना होती है तथा इसी वजह से ही वह अपने आप को उस समूह का अटूट अंग समझने लग जाता है। समाज की इस तरह हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों के अन्तर्कार्यों का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता है। यह भी देखने में आया है कि अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के तरीके तथा रस्मों-रिवाज अलग-अलग होते हैं। एक जाति के लोग अधिकतर अपनी जाति के सदस्यों के साथ ही अन्तक्रिया करते हैं। इस प्रकार घूर्ये के अनुसार प्रत्येक जाति अपने आप में पूर्ण सामाजिक जीवन बिताने वाली सामाजिक इकाई होती है।
(ii) पदक्रम (Hierarchy) भारत के अधिकतर भागों में ब्राह्मण वर्ण को सबसे उच्च दर्जा दिया गया था। जाति व्यवस्था में एक निश्चित पदक्रम देखने को मिलता है। इस व्यवस्था में उच्च तथा निम्न जातियों का दर्जा तो लगभग निश्चित ही होता है परन्तु बीच वाली जातियों में कुछ अस्पष्टता है। परन्तु फिर भी दूसरे स्थान पर क्षत्रिय तथा तीसरे स्थान पर वैश्य आते थे।
(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on feeding and social intercourse)-जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट तथा विस्तृत नियम मिलते हैं जो यह बताते हैं कि कोई व्यक्ति किस जाति से सामाजिक मेल-जोल रख सकता है तथा कौन-सी जातियों से खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। सम्पूर्ण भोजन को कच्चे तथा पक्के भोजन की श्रेणी में रखा जाता है। कच्चे भोजन को पकाने के लिए पानी का प्रयोग तथा पक्के भोजन को पकाने के लिए घी का प्रयोग होता है। जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध में प्रतिबन्ध लगे होते हैं।
(iv) अलग-अलग जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार (Civil and religious disabilities and priviledges of various castes)—अलग-अलग जातियों के विशेष नागरिक तथा धार्मिक अधिकार तथा निर्योग्यताएं होती थीं। कुछ जातियों के साथ किसी भी प्रकार के मेल-जोल पर पाबन्दी थी। वह मंदिरों में भी नहीं जा सकते थे तथा कुँओं से पानी भी नहीं भर सकते थे। उन्हें धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। उनके बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था। परन्तु कुछ जातियां ऐसी भी थीं जिन्हें अन्य जातियों पर कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे।
(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी (Lack of unrestricted choice of occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार कुछ जातियों के विशेष, परम्परागत तथा पैतृक पेशे होते थे। जाति के सदस्यों को परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था चाहे अन्य पेशे कितने भी लाभदायक क्यों न हों। परन्तु कुछ पेशे ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी कर सकता था। इसके साथ बहुत-सी जातियों के पेशे निश्चित होते थे।
(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on Marriage)-भारत के बहुत से हिस्सों में जातियों तथा उपजातियों में विभाजन मिलता है। यह उपजाति समूह अपने सदस्यों को बाहर वाले व्यक्तियों के साथ विवाह करने से रोकते थे। जाति व्यवस्था की विशेषता उसका अन्तर्वैवाहिक होना है। व्यक्ति को अपनी उपजाति से बाहर ही विवाह करवाना पड़ता था। विवाह सम्बन्धी नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को उसकी जाति से बाहर निकाल दिया जाता था।
प्रश्न 4.
जाति प्रथा की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी (Membership was based on birth)-जाति व्यवस्था की सबसे पहली विशेषता यह थी कि इसकी सदस्यता व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर नहीं बल्कि उसके जन्म पर आधारित होती थी। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का निर्धारण नहीं कर सकता। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसकी स्थिति उसी के अनुसार निश्चित हो जाती थी। व्यक्ति में जितनी चाहे मर्जी योग्यता क्यों न हो वह अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था।
2. सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबंध (Restrictions on Social relations)-प्राचीन समय में समाज को अलग-अलग वर्गों के बीच विभाजित किया गया था तथा धीरे-धीरे इन वर्गों ने जातियों का रूप ले लिया। सामाजिक संस्तरण में किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से अच्छी थी तथा किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से निम्न थी। इस प्रकार सामाजिक संस्तरण के अनुसार उनके बीच सामाजिक सम्बन्ध भी निश्चित हो गए। यही कारण है कि अलग-अलग वर्गों में उच्च निम्न की भावना पाई जाती थी। इन अलग-अलग जातियों के ऊपर एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखने के ऊपर प्रतिबन्ध थे तथा वह एक-दूसरे से दूरी बना कर रखते थे। कुछ जातियों को तो पढ़ने-लिखने कुँओं से पानी भरने तथा मन्दिरों में जाने की भी आज्ञा नहीं थी। प्राचीन समय में ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उपनयान संस्कार पूर्ण करना पड़ता था। कुछेक वर्गों के लिए तो इस संस्कार को पूर्ण करने के लिए आयु निश्चित की गई थी, परन्तु कुछ को तो वह संस्कार पूर्ण करने की आज्ञा ही नहीं थी। इस प्रकार अलग-अलग जातियों के बीच सामाजिक सम्बन्धों को रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।
3. खाने-पीने पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Eatables) जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट नियम मिलते थे जो यह बताते थे कि किस व्यक्ति ने किसके साथ सम्बन्ध रखने थे अथवा नहीं तथा वह किन जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। सम्पूर्ण भोजन को दो भागों में विभाजित किया गया था तथा वह थे कच्चा भोजन तथा पक्का भोजन। कच्चा भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए पानी का प्रयोग होता था तथा पक्का भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए घी का प्रयोग होता था। साधारण नियम यह था कि कोई व्यक्ति कच्चा भोजन उस समय तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसकी अपनी ही जाति के व्यक्ति की तरफ से तैयार न किया गया हो। इसलिए बहत-सी जातियां ब्राह्मण द्वारा कच्चा भोजन स्वीकार कर लेती थी परन्तु इसके विपरीत ब्राह्मण किसी अन्य जाति के व्यक्ति से कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करते थे। पक्के भोजन को भी किसी विशेष जाति के व्यक्ति की तरफ से ही स्वीकार किया जाता था। इस प्रकार जाति व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों के बीच खाने-पीने के सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगाए हुए थे तथा सभी के लिए इनकी पालना करनी ज़रूरी थी।
4. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबंदी (Restriction on Occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार प्रत्येक जाति का कोई न कोई पैतृक तथा परंपरागत पेशा होता था तथा व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसे उसी जाति का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था। व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता था। उसे बचपन से ही अपने परम्परागत पेशे की शिक्षा मिलनी शुरू हो जाती थी तथा जवान होते-होते वह उस कार्य में निपुण हो जाता है। चाहे कुछ कार्य ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी व्यक्ति कर सकता था जैसे कि व्यापार, कृषि, मज़दूरी, सेना में नौकरी इत्यादि। परन्तु फिर भी अधिकतर लोग अपनी ही जाति का पेशा अपनाते. थे। इस समय चार मुख्य वर्ण होते थे। पहले वर्ण का कार्य पढ़ना, पढ़ाना तथा धार्मिक कार्यों को पूर्ण करवाना था। दूसरे वर्ण का कार्य देश की रक्षा करना तथा राज्य चलाना था। तीसरे वर्ण का कार्य व्यापार करना, कृषि करना इत्यादि था। चौथे तथा अन्तिम वर्ण का कार्य ऊपर वाले तीनों वर्गों की सेवा करना था तथा इन्हें अपने परम्परागत कार्य ही करने पड़ते थे।
5. जाति अन्तर्वैवाहिक होती है (Caste is endogamous)-जाति व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था। जाति व्यवस्था बहुत-सी जातियों तथा उपजातियों में विभाजित होती थी। यह उपजातियां अपने सदस्यों को अपने समूह से बाहर विवाह करने की आज्ञा नहीं देती। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति अथवा उपजाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु अन्तर्विवाह के नियम में कुछ छूट भी मौजूद थी। किसी विशेष स्थिति में अपनी जाति से बाहर विवाह करवाने की आज्ञा थी। परन्तु साधारण नियम यह था कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। इस प्रकार सभी जातियों के लोग अपने समूहों में ही विवाह करवाते थे।
6. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society)-जाति व्यवस्था द्वारा हिन्दू समाज को कई भागों में विभाजित कर दिया गया था तथा प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर दिये गए थे। इस कारण ही सदस्यों में अपने समूह का एक हिस्सा होने की चेतना उत्पन्न होती थी अर्थात् वह अपने आप को उस समूह का अभिन्न अंग समझने लग जाते थे। समाज के इस प्रकार अलग-अलग हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों की सामाजिक अन्तक्रिया का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता था। जाति के नियमों को न मानने वालों को जाति पंचायत की तरफ से दण्ड दिया जाता था। अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के ढंग तथा रस्मों-रिवाज भी अलग-अलग ही होते थे। प्रत्येक जाति अपने आप में एक सम्पूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत करने वाली सामाजिक इकाई होती थी।
7. पदक्रम (Hierarchy)–जाति व्यवस्था में अलग-अलग जातियों के बीच एक निश्चित पदक्रम मिलता था जिसके अनुसार यह पता चलता था कि किस जाति की सामाजिक स्थिति किस प्रकार की थी तथा उनमें किस प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते थे। चारों जातियों की इस व्यवस्था में एक निश्चित स्थिति होती थी तथा उनके कार्य भी उस संस्तरण तथा स्थिति के अनुसार निश्चित होते थे। कोई भी इस व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा कर सकता था क्योंकि यह व्यवस्था तो सदियों से चली आ रही थी।
प्रश्न 5.
जाति प्रथा के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
अलग-अलग समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों ने भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन किया तथा अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है। उन्होंने जाति प्रथा के अलग-अलग कार्यों का भी वर्णन किया है। उन सभी के जाति प्रथा के दिए कार्यों के अनुसार जाति प्रथा के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों का वर्णन इस प्रकार हैं-
1. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation) जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पैतृक गुणों वाली निपुणता स्वयं ही उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि जिस परिवार में वह पैदा होता है उससे पेशे सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार बिना कोई औपचारिक शिक्षा लिए उसका विशेषीकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा समाज में होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती है तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है इस प्रकार जाति प्रथा व्यक्ति के कार्य का निर्धारण करती है।
2. सामाजिक सुरक्षा (Social Security)-जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के अन्य सदस्यों की सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसे इस बात का पता होता है कि अगर उसके ऊपर किसी प्रकार का आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का संकट आएगा तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा दो प्रकार से सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। पहली तो यह सदस्यों की सामाजिक स्थिति को निश्चित करती है तथा दूसरी यह उनकी प्रत्येक प्रकार के संकट से रक्षा करती है। इस प्रकार जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
3. मानसिक सुरक्षा (Mental Security)-जाति व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति तथा भूमिका निर्धारित होती है। उसने कौन-सा पेशा अपनाना है, कैसी शिक्षा लेनी है, कहां पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने हैं तथा किस जाति से किस प्रकार का व्यवहार करना है। यह सब कुछ जाति के नियमों द्वारा ही निश्चित किया जाता है। इससे व्यक्ति को किसी प्रकार की अनिश्चिता का सामना नहीं करना पड़ता। उसके अधिकार तथा कर्त्तव्य अच्छी तरह स्पष्ट होते हैं। जाति ही सभी नियमों का निश्चय करती है। इस प्रकार व्यक्ति के जीवन की जो समस्याएं अथवा मुश्किलें होती हैं उन्हें जाति बहुत ही आसानी से सुलझा लेती है। इससे व्यक्ति को दिमागी तथा मानसिक सुरक्षा प्राप्त हो जाती है।
4. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)-चाहे वैज्ञानिक आधार पर यह मानना मुश्किल है, परन्तु यह कहा जाता है कि जाति रक्त की शुद्धता बना कर रखती है क्योंकि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है। अन्तर्वैवाहिक होने के कारण एक जाति के सदस्य किसी अन्य जाति के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करते तथा उनका रक्त उन्हीं में शुद्ध रह जाता है। अन्य समाजों में भी रक्त की शुद्धता बनाकर रखने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु इससे कई प्रकार की मुश्किलें तथा संघर्ष उत्पन्न हो गए हैं। फिर भी भारत में यह नियम पूर्ण सफलता के साथ चला था। जाति में विवाह सम्बन्धी कठोर पाबन्दियां थीं। कोई भी अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करवा सकता था। यही कारण है कि जाति के विवाह जाति में ही होते थे। इस नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। इससे रक्त की शुद्धता बनी रहती थी।
5. राजनीतिक स्थायित्व (Political Stability)-जाति व्यवस्था हिन्दू राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य आधार थी। राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार तथा कर्त्तव्य उसकी जाति निर्धारित करती थी क्योंकि लोगों का जाति के नियमों पर विश्वास दैवीय शक्तियों से भी अधिक होता था। इस कारण जाति के नियमों को मानना प्रत्येक व्यक्ति का मुख्य कर्त्तव्य था। आजकल तो अलग-अलग जातियों ने अपने-अपने राजनीतिक संगठन बना लिए हैं जो चुनावों के बाद अपने सदस्यों की सहायता करते हैं तथा जीतने के बाद अपनी जाति के लोगों का विशेष ध्यान रखते हैं। इस प्रकार जाति के सदस्यों को लाभ होता है। इस प्रकार यह जाति का राजनीतिक कार्य होता है।
6. शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निश्चय (Fixing rules of education)-जाति व्यवस्था अलग-अलग जातियों के लिए विशेष प्रकार की शिक्षा का निर्धारण करती थी। इस प्रकार की शिक्षा का आधार धर्म था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को पेशे सम्बन्धी जानकारी भी देती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य सम्बन्धी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती है। इस प्रकार जाति व्यवस्था व्यक्ति को सैद्धान्तिक तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती थी। जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा लेने के नियम बनाती थी। जाति ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति का व्यक्ति कितने समय के लिए शिक्षा प्राप्त करेगा तथा कौन-कौन से नियमों की पालना करेगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए उस जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।
7. तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखना (To preserve technical secrets)-प्रत्येक जाति के कुछ परम्परागत कार्य होते थे। उस परम्परागत कार्य के कुछ तकनीकी रहस्य भी होते थे जो केवल उसे करने वालों को ही पता होते हैं। इस प्रकार जब यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते थे तो यह तकनीकी रहस्य भी अगली पीढ़ी के पास चले जाते थे। क्योंकि यह कार्य केवल उस जाति ने करने होते थे इसलिए यह भेद भी जाति तक ही रहते थे। इनका रहस्य भी नहीं खुलता था। इस प्रकार जाति तकनीकी भेदों को गुप्त रखने का भी कार्य करती थी।
8. सामाजिक एकता (Social Unity) हिन्दू समाज को एकता में बाँधकर रखने में जाति व्यवस्था ने काफ़ी महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में बाँट दिया था तथा प्रत्येक भाग के कार्य भी अलग-अलग ही थे। जैसे श्रम विभाजन में कार्य अलग-अलग होते हैं वैसे ही जाति व्यवस्था ने भी सभी को अलग-अलग कार्य दिए थे। इस प्रकार सभी भाग अलग-अलग कार्य करते हुए एक-दूसरे की सहायता करते तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस कारण ही अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।
9. व्यवहार पर नियन्त्रण (Control on behaviour)-जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति तथा उसके सदस्यों के लिए नियम बनाए हुए थे कि किस व्यक्ति ने किस प्रकार का व्यवहार करना है। जाति प्रथा के नियमों के कारण ही व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को नियन्त्रण में रखता था तथा उन नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करता था। शिक्षा, विवाह, खाने-पीने, सामाजिक सम्बन्धों इत्यादि जैसे पक्षों के लिए जाति प्रथा के नियम होते थे जिस कारण व्यक्तिगत व्यवहार नियन्त्रण में रहते थे।
10. विवाह सम्बन्धी कार्य (Function of Marriage)-प्रत्येक जाति अन्तर्वैवाहिक होती थी अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति तथा उपजाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति प्रथा का यह सबसे महत्त्वपूर्ण नियम था कि व्यक्ति अपने वंश अथवा परिवार से बाहर विवाह करवाएगा परन्तु वह अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाएगा। यदि कोई अपनी जाति अथवा उपजाति से बाहर विवाह करवाता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस प्रकार जाति विवाह सम्बन्धी कार्य भी पूर्ण करती थी।
प्रश्न 6.
जाति प्रथा के गुणों तथा अवगुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति अपने आप में एक ऐसा समूह है जिसने हिन्दू समाज तथा भारत में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। जितना कार्य अकेला जाति व्यवस्था ने किया है उतने कार्य अन्य संस्थाओं ने मिल कर भी नहीं किए होंगे। इससे हम देखते हैं कि जाति व्यवस्था के बहुत से गुण हैं। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ कुछ अवगुण भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
जाति व्यवस्था के गुण अथवा लाभ (Merits or Advantages of Caste System)-
1. सामाजिक सुरक्षा देना (To give social security)—जाति प्रथा का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के सदस्यों की सहायता करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन्हें इस बात का पता होता है कि अगर उन्हें किसी प्रकार की समस्या आएगी तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा सदस्यों की सामाजिक स्थिति भी निश्चित करती थी तथा प्रतियोगिता की सम्भावना को भी कम करती थी।
2. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष पेशे अथवा कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पारिवारिक कार्य के प्रति गुण स्वयं ही पैदा हो जाते थे। जिस परिवार में बच्चा पैदा होता था उससे कार्य सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार बिना किसी औपचारिक शिक्षा के विशेषीकरण हो जाता था। इसके साथ ही जाति व्यवस्था समाज में पेशे के लिए होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती थी तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती थी। इस प्रकार जाति व्यवस्था का यह गुण काफ़ी महत्त्वपूर्ण था।
3. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)—जाति प्रथा एक अन्तर्वैवाहिक समूह है। अन्तर्वैवाहिक का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था तथा अगर कोई इस नियम को नहीं मानता था तो उसे जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। ऐसा करने का यह लाभ होता था कि बाहर वाली किसी जाति के साथ रक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे तथा अपनी जाति के रक्त की शुद्धता बनी रहती थी। इस प्रकार जाति का एक गुण यह भी था कि यह रक्त की शुद्धता बनाए रखने में सहायता करती थी।
4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण यह था कि यह सभी व्यक्तियों में अपने कर्त्तव्य के प्रति प्रेम तथा निष्ठा की भावना उत्पन्न करती थी। निम्न प्रकार के कार्य भी व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझ कर अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों में यह भावना भर देती थी कि प्रत्येक सदस्य को उसके पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में पेशा मिला है। उसे यह भी विश्वास दिलाया जाता था कि वर्तमान कर्त्तव्यों को पूर्ण करने से ही अगले जन्म में उच्च स्थिति प्राप्त होगी। इसका लाभ यह था कि निराशा खत्म हो गई तथा सभी अपना कार्य अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया हुआ था तथा इन चारों भागों को अपने कार्यों का अच्छी तरह से पता था। यह सभी अपना कार्य अच्छे ढंग से करते थे तथा समय के साथ-साथ अपने पेशे के रहस्य अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देते थे। इस प्रकार समाज में पेशे के प्रति स्थिरता बनी रही थी तथा श्रम विभाजन के साथ विशेषीकरण भी हो जाता था।
5. शिक्षा के नियम बनाना (To make rules of education)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने शिक्षा लेने के सम्बन्ध में निश्चित नियम बनाए हुए थे तथा धर्म को शिक्षा का आधार बनाया हुआ था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण, पेशे सम्बन्धी जानकारी तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य संबंधी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी जानकारी भी देती है। जाति व्यवस्था ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति के व्यक्ति ने कितनी शिक्षा लेनी है तथा कौन-से नियमों का पालन करना है। इस प्रकार जाति व्यवस्था ही प्रत्येक सदस्य के लिए उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।
6. सामाजिक एकता को बना कर रखना (To maintain social unity)—जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने हिन्दू समाज को एकता में बाँध कर रखा। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया था तथा प्रत्येक भाग को अलग-अलग कार्य भी दिए थे। जिस प्रकार श्रम विभाजन में प्रत्येक का कार्य अलगअलग होता है उसी प्रकार जाति व्यवस्था ने भी समाज में श्रम विभाजन को पैदा किया था। यह सभी भाग अलगअलग कार्य करते थे तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस प्रकार अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।
जाति व्यवस्था के अवगुण (Demerits of Caste System)-चाहे जाति व्यवस्था के बहुत से गुण थे तथा इसने सामाजिक एकता रखने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, परन्तु फिर भी इस व्यवस्था के कारण समाज में कई बुराइयां भी पैदा हो गई थीं। जाति व्यवस्था के अवगुण निम्नलिखित हैं-
1. स्त्रियों की निम्न स्थिति (Lower Status of Women) जाति व्यवस्था के कारण स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न हो गई थी। जाति व्यवस्था के नियन्त्रणों के कारण हिन्दू स्त्रियों की स्थिति परिवार में नौकरानी से अधिक नहीं थी। जाति अन्तर्वैवाहिक समूह था जिस कारण लोगों ने अपनी जाति में वर ढूंढ़ने के लिए बाल विवाह का समर्थन किया। इससे बहुविवाह तथा बेमेल विवाह को समर्थन मिला। कुलीन विवाह की प्रथा ने भी बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह तथा दहेज प्रथा जैसी समस्याओं को जन्म दिया। स्त्रियां केवल घर पर ही कार्य करती रहती थीं। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं थे। इस प्रकार स्त्रियों से सम्बन्धित सभी समस्याओं की जड़ ही जाति व्यवस्था थी। जाति व्यवस्था ने ही स्त्रियों की प्रगति पर पाबंदी लगा दी तथा बाल विवाह पर बल दिया। विधवा विवाह को मान्यता न दी। स्त्रियां केवल परिवार की सेवा करने के लिए ही रह गई थीं।
2. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता जैसी समस्या का जन्म भी जाति प्रथा की विभाजन की नीति के कारण ही हुआ था। कुल जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग को अपवित्र मान कर इसलिए अपमानित किया जाता था क्योंकि वह जो कार्य करते थे उसे अपवित्र माना जाता था। उनकी काफ़ी दुर्दशा होती थी तथा उनके ऊपर बहुत से प्रतिबंध लगे हुए थे। वह आर्थिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकते थे। इस प्रकार जाति व्यवस्था के कारण जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग समाज के ऊपर बोझ बन कर रह गया था। इस कारण समाज में निर्धनता आ गई। अलगअलग जातियों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत उत्पन्न हो गई तथा जातिवाद जैसी समस्या हमारे सामने आई।
3. जातिवाद (Casteism)—जाति व्यवस्था के कारण ही लोगों की मनोवृत्ति भी सिकुड़ती चली गई। लोग विवाह सम्बन्धों तथा अन्य प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के लिए जाति के नियमों पर निर्भर थे जिस कारण जातिवाद की भावना बढ़ गई। उच्च तथा निम्न स्थिति के कारण लोगों में गर्व तथा हीनता की भावना उत्पन्न हो गई। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा ने उनके बीच दूरियां पैदा कर दी। इस कारण देश में जातिवाद की समस्या सामने आई। जातिवाद के कारण लोग अपने देश के बारे में नहीं सोचते तथा इस समस्या को बढ़ाते हैं।
4. सांस्कृतिक संघर्ष (Cultural Conflict)-जाति एक बंद समूह है तथा अलग-अलग जातियों में एकदूसरे के साथ सम्बन्ध रखने पर प्रतिबंध होते थे। इन सभी जातियों के रहने-सहने के ढंग अलग-अलग थे। इस सामाजिक पृथक्ता ने सांस्कृतिक संघर्ष की समस्या को जन्म दिया। अलग-अलग जातियां अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों में विभाजित हो गईं। इन समूहों में कई प्रकार के संघर्ष देखने को मिलते थे। कुछ जातियां अपनी संस्कृति को उच्च मानती थीं जिस कारण वह अन्य समूहों से दूरी बना कर रखती थी। इस कारण उनमें संघर्ष के मौके पैदा होते रहते थे।
5. सामाजिक गतिशीलता को रोकना (To stop social mobility)-जाति व्यवस्था में स्थिति का विभाजन जन्म के आधार पर होता था। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्रत्येक सदस्य को अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में पता होता था कि यह परिवर्तित नहीं हो सकती, इसी तरह ही रहेगी। इस भावना ने आलस्य को बढ़ाया। इस व्यवस्था में वह प्रेरणा नहीं होती, जिसमें व्यक्ति अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित होते थे क्योंकि वह परिश्रम करके भी अपनी सामाजिक स्थिति परिवर्तित नहीं कर सकते थे। यह बात आर्थिक प्रगति में भी रुकावट बनती थी। योग्यता होने के बावजूद भी लोग नया आविष्कार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें अपना पैतृक कार्य अपनाना पड़ता था। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा के कारण भारत में कई प्रकार के उद्योग पिछड़े हुए थे क्योंकि जाति व्यवस्था उन्हें ऐसा करने से रोकती थी।
6. कार्य कुशलता में रुकावट (Obstacle in efficiency)—प्राचीन समय में व्यक्तियों में कार्य-कुशलता में कमी होने का प्रमुख कारण जाति व्यवस्था तथा जाति का नियन्त्रण था। सभी जातियों के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करते थे बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इसके साथ ही जातियां धार्मिक संस्कारों पर इतना बल देती थी कि लोगों का अधिकतर समय तो इन संस्कारों को पूर्ण करने में ही निकल जाता था। जातियों में पेशा वंश के अनुसार होता था तथा लोगों को अपना परम्परागत पेशा ही अपनाना पड़ता था चाहे उनमें उस कार्य के प्रति योग्यता होती थी अथवा नहीं। इस कारण उनमें कार्य के प्रति उदासीनता आ जाती थी।
7. जाति व्यवस्था तथा प्रजातन्त्र (Caste System and Democracy) —जाति व्यवस्था आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन के विरुद्ध है। समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक चेतना प्रजातन्त्र के तीन आधार हैं, परन्तु जाति व्यवस्था इन सिद्धान्तों के विरुद्ध जाकर भाग्य के सहारे रहने वाले समाज का निर्माण करती थी। यह व्यवस्था असमानता पर आधारित थी। जाति व्यक्ति को अपने नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने की आज्ञा देती थी जोकि प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध है। कुछ जातियों पर बहुत से प्रतिबंध लगा दिए गए थे जिस कारण योग्यता होते हुए भी वह समाज में ऊपर उठ नहीं सकते थे। इन लोगों की स्थिति नौकरों जैसी होती थी जोकि प्रजातन्त्र के समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध है।
प्रश्न 7.
वर्ग के विभाजन के अलग-अलग आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
वर्ग की व्याख्या व विशेषताओं के आधार पर हम वर्ग के विभाजन के कुछ आधारों का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया गया है
(1) परिवार व रिश्तेदार (2) सम्पत्ति व आय, पैसा (3) व्यापार (4) रहने के स्थान की दिशा (5) शिक्षा (6) शक्ति (7) धर्म (8) नस्ल (9) जाति (10) स्थिति चिन्ह।
1. परिवार व रिश्तेदारी (Family and Kinship)—परिवार व रिश्तेदारी भी वर्ग की स्थिति निर्धारित करने के लिए जिम्मेवार होता है। बीयरस्टेड के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार व रिश्तेदारी का महत्त्व सारे समाज में बराबर नहीं होता, बल्कि यह तो अनेक आधारों में एक विशेष आधार है जिसका उपयोग सम्पूर्ण व्यवस्था में एक अंग के रूप में किया जा सकता है। परिवार के द्वारा प्राप्त स्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। जैसे टाटा बिरला आदि के परिवार में पैदा हुई सन्तान पूंजीपति ही रहती है क्योंकि उनके बुजुर्गों ने इतना पैसा कमाया होता है कि कई पीढ़ियां यदि न भी मेहनत करें तो भी खा सकती हैं। इस प्रकार अमीर परिवार में पैदा हुए व्यक्ति को भी वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार परिवार व रिश्तेदारी की स्थिति के आधार पर भी व्यक्ति को वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।
2. सम्पत्ति, आय व पैसा (Property, Income and Money) वर्ग के आधार पर सम्पत्ति, पैसे व आय को प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण जगह प्राप्त होती है। आधुनिक समाज को इसी कारण पूंजीवादी समाज कहा गया है। पैसा एक ऐसा स्रोत है जो व्यक्ति को समाज में बहुत तेजी से उच्च सामाजिक स्थिति की ओर ले जाता है। मार्टिनडेल व मोनाचेसी (Martindal and Monachesi) के अनुसार, “उत्पादन के साधनों व उत्पादित पदार्थों पर व्यक्ति का काबू जितना अधिक होगा उसको उतनी ही उच्च वर्ग वाली स्थिति प्राप्त होती है।” प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने पैसे को ही वर्ग निर्धारण के लिए मुख्य माना। अधिक पैसा होने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अमीर है। उनकी आय भी अधिक होती है। इस प्रकार धन, सम्पत्ति व आय के आधार पर भी वर्ग निर्धारित होता है।”
3. पेशा (Occupation)-सामाजिक वर्ग का निर्धारक पेशा भी माना जाता है। व्यक्ति समाज में किस तरह का पेशा कर रहा है, यह भी वर्ग व्यवस्था से सम्बन्धित है। क्योंकि हमारी वर्ग व्यवस्था के बीच कुछ पेशा बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाए गए हैं व कुछ पेशे कम महत्त्वपूर्ण । इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि की पारिवारिक स्थिति चाहे जैसी भी हो परन्तु पेशे के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति उच्च ही रहती है। लोग उनका आदर-सम्मान भी पूरा करते हैं। इस प्रकार कम पढ़े-लिखे व्यक्ति का पेशा समाज में निम्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पेशा भी वर्ग व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने के लिए कोई-न-कोई काम करना पड़ता है। इस प्रकार यह काम व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार करता है। वह जिस तरह का पेशा करता है समाज में उसे उसी तरह की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति गलत पेशे को अपनाकर पैसा इकट्ठा कर भी लेता है तो उसकी समाज में कोई इज्जत नहीं होती। आधुनिक समाज में शिक्षा से सम्बन्धित पेशे की अधिक महत्ता पाई जाती है।
4. रहने के स्थान की दिशा (Location of residence)—व्यक्ति किस जगह पर रहता है, यह भी उसकी वर्ग स्थिति को निर्धारित करता है। शहरों में हम आम देखते हैं कि लोग अपनी वर्ग स्थिति को देखते हुए, रहने के स्थान का चुनाव करते हैं। जैसे हम समाज में कुछ स्थानों के लिए (Posh areas) शब्द भी प्रयोग करते हैं। वार्नर के अनुसार जो परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहर के काल में पुश्तैनी घर में रहते हैं उनकी स्थिति भी उच्च होती है। कहने से भाव यह है कि कुछ लोग पुराने समय से अपने बड़े-बड़े पुश्तैनी घरों में ही रह जाते हैं। इस कारण भी वर्ग व्यवस्था में उनकी स्थिति उच्च ही बनी रहती है। बड़े-बड़े शहरों में व्यक्तियों के निवास स्थान के लिए भिन्न-भिन्न कालोनियां बनी रहती हैं। मज़दूर वर्ग के लोगों के रहने के स्थान अलग होते हैं। वहां अधिक गन्दगी भी पाई जाती है। अमीर लोग बड़े घरों में व साफ़-सुथरी जगह पर रहते हैं जबकि ग़रीब लोग झोंपड़ियों या गन्दी बस्तियों में रहते हैं।
5. शिक्षा (Education)-आधुनिक समाज शिक्षा के आधार पर दो वर्गों में बँटा हुआ होता है-
- शिक्षित वर्ग (Literate Class)
- अनपढ़ वर्ग (Illiterate Class)
शिक्षा की महत्ता प्रत्येक वर्ग में पाई जाती है। साधारणतः पर हम देखते हैं कि पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में इज्जत की नज़र से देखा जाता है। चाहे उनके पास पैसा भी न हो। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान सामाजिक स्थिति अनुसार शिक्षा की प्राप्ति को ज़रूरी समझने लगा है। शिक्षा की प्रकृति भी व्यक्ति की वर्ग स्थिति के निर्धारण के लिए जिम्मेवार होती है। औद्योगीकृत समाज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊँची होती है।
6. शक्ति (Power)-आजकल औद्योगीकरण के विकास के कारण व लोकतन्त्र के आने से शक्ति भी वर्ग संरचना का आधार बन गई है। अधिक शक्ति का होना या न होना व्यक्ति के वर्ग का निर्धारण करती है। शक्ति से व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का भी निर्धारण होता है। शक्ति कुछ श्रेष्ठ लोगों के हाथ में होती है व वह श्रेष्ठ लोग नेता, अधिकारी, सैनिक अधिकारी, अमीर लोग होते हैं। हमने उदाहरण ली है आज की भारत सरकार की। नरेंद्र मोदी की स्थिति निश्चय ही सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह से ऊँची होगी क्योंकि उनके पास शक्ति है, सत्ता उनके हाथ में है, परन्तु मनमोहन सिंह के पास नहीं है। इस प्रकार आज भाजपा की स्थिति कांग्रेस से उच्च है क्योंकि केन्द्र में भाजपा पार्टी की सरकार है।
7. धर्म (Religion)-राबर्ट बियरस्टड ने धर्म को भी सामाजिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। कई समाज ऐसे हैं जहां परम्परावादी रूढ़िवादी विचारों का अधिक प्रभाव पाया जाता है। उच्च धर्म के आधार पर स्थिति निर्धारित होती है। आधुनिक समय में समाज उन्नति के रास्ते पर चल रहा है जिस कारण धर्म की महत्ता उतनी नहीं जितनी पहले होती थी। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च होती थी परन्तु आजकल नहीं। पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति निश्चित रूप से व हिन्दुओं व ईसाइयों से बढ़िया है क्योंकि वहां राज्य का धर्म ही इस्लाम है। इस प्रकार कई बार धर्म भी वर्ग स्थिति निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
8. नस्ल (Race)-दुनिया से कई समाज में नस्ल भी वर्ग निर्माण या वर्ग की स्थिति बताने में सहायक होती है। गोरे लोगों को उच्च वर्ग का व काले लोगों को निम्न वर्ग का समझा जाता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में एशिया के देशों के लोगों को बुरी निगाह से देखा जाता है। इन देशों में नस्ली हिंसा आम देखने को मिलती है। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति काफ़ी चली है।
9. जाति (Caste)—भारत जैसे देश में जहां जाति प्रथा सदियों से भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जाति वर्ग निर्धारण का बहुत महत्त्वपूर्ण आधार थी। जाति जन्म पर आधारित होती है। जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म लिया है वह अपनी योग्यता से भी उसको बदल नहीं सकता।
10. स्थिति चिन्ह (Status symbol) स्थिति चिन्ह लगभग हर एक समाज में व्यक्ति की वर्ग व्यवस्था को निर्धारित करता है। आजकल के समय, कोठी, कार, टी० वी०, टैलीफोन, फ्रिज आदि का होना व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति के पास अच्छा जीवन व्यतीत करने वाली कितनी सुविधाएं हैं। यह सब स्थिति चिन्हों में शामिल होती हैं, जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं।
इस विवरण के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति के वर्ग के निर्धारण में केवल एक कारक ही उत्तरदायी नहीं होता, बल्कि कई कारक उत्तरदायी होते हैं।
प्रश्न 8.
जाति व वर्ग में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य आधार जाति व वर्ग हैं। जाति को एक बन्द व्यवस्था व वर्ग को एक खुली व्यवस्था कहा जाता है। पर वर्ग अधिक खुली अवस्था नहीं है क्योंकि किसी भी वर्ग को अन्दर जाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती है व उस वर्ग के सदस्य रास्ते में काफ़ी रोड़े अटकाते हैं। कई विद्वान् यह कहते हैं कि जाति व वर्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं है परन्तु दोनों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलेगा कि दोनों में काफ़ी अन्तर है। इनका वर्णन नीचे लिखा है-
1. जाति जन्म पर आधारित होती है पर वर्ग का आधार कर्म होता है (Caste is based on birth but class is based on action)—जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, वह तमाम आयु उसी से जुड़ा होता है।
वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता शिक्षा, आय, व्यापार योग्यता पर आधारित होती है। व्यक्ति जब चाहे अपनी सदस्यता बदल सकता है। एक ग़रीब वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति मेहनत करके अपनी सदस्यता अमीर वर्ग से ही जोड़ सकता है। वर्ग की सदस्यता योग्यता पर आधारित होती है। यदि व्यक्ति में योग्यता नहीं है व वह कर्म नहीं करता है तो वह उच्च स्थिति से निम्न स्थिति में भी जा सकता है। यदि वह कर्म करता है तो वह निम्न स्थिति से उच्च स्थिति में भी जा सकता है। जिस प्रकार जाति धर्म पर आधारित है पर वर्ग कर्म पर आधारित होता है।
2. जाति का पेशा निश्चित होता है पर वर्ग का नहीं (Occupation of caste is determined but not of Class)-जाति प्रथा में पेशे की व्यवस्था भी व्यक्ति के जन्म पर ही आधारित होती थी अर्थात् विभिन्न जातियों से सम्बन्धित पेशे होते थे। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना होता था। वह सारी उम्र उस पेशे को बदल कर कोई दूसरा कार्य भी नहीं अपना सकता था। इस प्रकार न चाहते हुए भी उसको अपनी जाति के पेशे को ही अपनाना पड़ता था।
वर्ग व्यवस्था में पेशे के चुनाव का क्षेत्र बहुत विशाल है। व्यक्ति की अपनी इच्छा होती है कि वह किसी भी पेशे को अपना ले। विशेष रूप से व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता था कि वह किसी भी पेशे को अपना लेता है। विशेष रूप से पर व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता है वह उसी पेशे को अपनाता है क्योंकि उसका विशेष उद्देश्य लाभ प्राप्ति की ओर होता था व कई बार यदि वह एक पेशे को करते हुए तंग आ जाता है तो वह दूसरे किसी और पेशे को भी अपना सकता है। इस प्रकार पेशे को अपनाना व्यक्ति की योग्यता पर आधारित होता है।
3. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है पर वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है (Membership of Caste is ascribed but membership of class is achieved)-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से सम्बन्धित होती थी अर्थात् स्थिति वह स्वयं प्राप्त नहीं करता था बल्कि जन्म से ही सम्बन्धित होती थी। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति के लिए ‘प्रदत्त’ (ascribed) शब्द का उपयोग किया जाता था। इसी कारण जाति व्यवस्था में स्थिरता बनी रहती थी। व्यक्ति का पद वह ही होता था जो उसके परिवार का हो। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति ‘अर्जित’ (achieved) होती है भाव कि उसको समाज में अपनी स्थिति प्राप्त करनी पड़ती है। इसी कारण व्यक्ति शुरू से ही मेहनत करनी शुरू कर देता है। व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न स्थिति से उच्च स्थिति भी प्राप्त कर लेता है। इसमें व्यक्ति के जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता। व्यक्ति की मेहनत व योग्यता उसके वर्ग व स्थिति के बदलने में महत्त्वपूर्ण होती है।
4. जाति बन्द व्यवस्था है व वर्ग खुली व्यवस्था है (Caste is a closed system but class is an open system)-जाति प्रथा स्तरीकरण का बन्द समूह होता है क्योंकि व्यक्ति को सारी उम्र सीमाओं में बन्ध कर रहना पड़ता है। न तो वह जाति बदल सकता है न ही पेशा। श्रेणी व्यवस्था स्तरीकरण का खुला समूह होता है। इस प्रकार व्यक्ति को हर किस्म की आज़ादी होती है। वह किसी भी क्षेत्र में मेहनत करके आगे बढ़ सकता है। उसको समाज में अपनी निम्न स्थिति से ऊपर की स्थिति की ओर बढ़ने के पूरे मौके भी प्राप्त होते हैं। वर्ग का दरवाज़ा प्रत्येक के लिए खुला होता है। व्यक्ति अपनी योग्यता, सम्पत्ति, मेहनत के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है व वह अपनी सारी उम्र में कई वर्गों का सदस्य बनता है।
5. जाति व्यवस्था में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में कोई नहीं होती (There are many restrictions in caste system but not in any class)-जाति प्रथा द्वारा अपने सदस्यों पर कई पाबन्दियां लगाई जाती थीं।
खान-पान सम्बन्धी, विवाह, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि सम्बन्धी बहत पाबन्दियां थीं। व्यक्ति की ज़िन्दगी पर जाति का पूरा नियन्त्रण होता था। वह उन पाबिन्दयों को तोड़ भी नहीं सकता था। __ वर्ग व्यवस्था में व्यक्तिगत आज़ादी होती थी। भोजन, विवाह आदि सम्बन्धी किसी किस्म का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। किसी भी वर्ग का व्यक्ति दूसरे वर्ग के व्यक्ति से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता था।
6. जाति में चेतनता नहीं होती पर वर्ग में चेतनता होती है (There is no caste consciousness but there is class consciousness)-जाति व्यवस्था में जाति चेतनता नहीं पाई जाती थी। इसका एक कारण तो था कि चाहे निम्न जाति के व्यक्ति को पता था कि उच्च जातियों की स्थिति उच्च है, परन्तु फिर भी वह इस सम्बन्धी कुछ नहीं कर सकता था। इसी कारण वह परिश्रम करना भी बन्द कर देता था। उसको अपनी योग्यता अनुसार समाज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था।
वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतनता पाई जाती थी। इसी चेतनता के आधार पर तो वर्ग का निर्माण होता था। व्यक्ति इस सम्बन्धी पूरा चेतन होता था कि वह कितना परिश्रम करे ताकि उच्च वर्ग स्थिति को प्राप्त कर सके। इसी प्रकार वह हमेशा अपनी योग्यता को बढ़ाने की ओर ही लगा रहता था।
सामाजिक स्तरीकरण PSEB 11th Class Sociology Notes
- हमारे समाज में चारों तरफ असमानता व्याप्त है। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई अमीर है, कोई निर्धन है, कोई पतला है कोई मोटा है, कोई कम साक्षर है तथा कोई अधिक। ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण समाज में प्राचीन समय से ही असमानता चली आ रही है तथा चलती रहेगी।
- समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है। ऐसा कोई भी समाज नहीं है जहां स्तरीकरण मौजूद न हो। चाहे प्राचीन समाजों जैसे सरल एवं सादे समाज हों या आधुनिक समाजों जैसे जटिल समाज, स्तरीकरण प्रत्येक समाज में मौजूद होता है।
- स्तरीकरण की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह सर्वव्यापक प्रक्रिया है, इसकी प्रकृति सामाजिक होती है, प्रत्येक समाज में इसी प्रकार अलग होती है, इसमें उच्चता-निम्नता के संबंध होते हैं।
- सभी समाजों में मुख्य रूप से चार प्रकार के स्तरीकरण के रूप पाए जाते हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी तथा गुलामी। भारतीय समाज को जितना जाति व्यवस्था ने प्रभावित किया है शायद किसी अन्य सामाजिक संस्था ने नहीं किया है।
- जाति एक अन्तर्वेवाहिक समूह है जिसमें व्यक्तियों के ऊपर अन्य जातियों के साथ मेल-जोल के कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं तथा व्यक्ति के जन्म के अनुसार उसकी जाति तथा स्थिति निश्चित होती है।
- आधुनिक समाजों में स्तरीकरण का एक नया रूप सामने आया है तथा वह है वर्ग व्यवस्था। वर्ग लोगों का एक समूह होता है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है। उदाहरण के लिए उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, श्रमिक वर्ग, उद्योगपति वर्ग, डॉक्टर वर्ग इत्यादि।
- जागीरदारी व्यवस्था मध्यकालीन यूरोप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रही है। एक व्यक्ति को राजा की तरफ से काफ़ी भूमि दी जाती थी तथा वह व्यक्ति काफ़ी अमीर हो जाता था। उसके बच्चों के पास यह भूमि पैतृक रूप से चली जाती थी।
- गुलामी भी 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में संसार के अलग-अलग देशों में मौजूद रही है जिसमें गुलाम को उसका मालिक खरीद लेता था तथा उसके ऊपर सम्पूर्ण अधिकार रखता था।
- जी० एस० घुर्ये एक भारतीय समाजशास्त्री था जिसने जाति व्यवस्था के ऊपर अपने विचार दिए। उनके अनुसार जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि इसकी परिभाषा देना मुमकिन नहीं है। इसलिए उन्होंने जाति व्यवस्था के छ: लक्षण दिए हैं।
- भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् जाति व्यवस्था में बहुत से कारणों की वजह से बहुत से परिवर्तन आए हैं तथा आ भी रहे हैं। अब धीरे-धीरे जाति व्यवस्था खत्म हो रही है। अब जाति पर आधारित प्रतिबन्ध खत्म हो रहे हैं, जाति के विशेषाधिकार खत्म हो गए हैं, संवैधानिक प्रावधानों ने सभी को समानता प्रदान की है
तथा जाति प्रथा को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। - सभी समाजों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग मिलते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन वर्गों में मुख्य रूप से पैसे के आधार पर अंतर पाया जाता है।
- जाति एक प्रकार का बन्द वर्ग है जिसे परिवर्तित करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। परन्तु वर्ग एक ऐसा खुला वर्ग है जिसे व्यक्ति अपने परिश्रम तथा योग्यता से किसी भी समय बदल सकता है।
- कार्ल मार्क्स के अनुसार समाज में अलग-अलग समय में दो प्रकार के वर्ग रहे हैं। पहला है पूंजीपति वर्ग · तथा द्वितीय है श्रमिक वर्ग। दोनों के बीच अधिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए हमेशा से ही संघर्ष चला आ रहा है तथा दोनों के बीच होने वाले संघर्ष को वर्ग संघर्ष कहा जाता है।
- वर्ग व्यवस्था में नए रूझान आ रहे हैं। पिछले काफी समय से एक नया वर्ग उभर कर सामने आया है जिसे हम मध्य वर्ग का नाम देते हैं। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।
- वर्ण (Varna)-प्राचीन समय में समाज को पेशे के आधार पर कई भागों में विभाजित किया गया था तथा प्रत्येक भाग को वर्ण कहते थे। चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जातियां।
- जाति (Caste)—वह अन्तर्वैवाहिक समूह जिसमें अन्य जातियों के साथ संबंध रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।
- वर्ग (Class)—वह आर्थिक समूह जिसे किसी न किसी आधार पर दूसरे आर्थिक समूह से अलग किया जा सकता है।
- जागीरदारी व्यवस्था (Feudalism)—मध्यकाल से यूरोपियन समाज में महत्त्वपूर्ण संस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीदार बना दिया जाता था तथा वह भूमि से लगान एकत्र करता था।
- स्तरीकरण (Stratification)-समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया।