PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 9 सामाजिक संरचना

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना की अवधारणा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज के अलग-अलग अन्तर्सम्बन्धित भागों के व्यवस्थित रूप को सामाजिक संरचना कहा जाता है।

प्रश्न 2.
वह कौन-सा पहला समाजशास्त्री है जिसने सबसे पहले सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग किया ?
उत्तर-
हरबर्ट स्पैंसर (Herbert Spencer) ने सबसे पहले शब्द सामाजिक संरचना का प्रयोग किया।

प्रश्न 3.
शब्द संरचना कहाँ से लिया गया है ?
उत्तर-
संरचना (Structure) शब्द लातिनी भाषा के शब्द ‘Staruer’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘इमारत’।

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना के सामाजिक तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्रस्थिति तथा भूमिका सामाजिक संरचना के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं।

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प्रश्न 5.
‘समाजशास्त्र के सिद्धान्त’ पुस्तक किसने लिखी है ?
उत्तर-
पुस्तक ‘The Principal of Sociology’ हरबर्ट स्पैंसर ने लिखी थी।

प्रश्न 6.
प्रस्थिति क्या है ?
उत्तर-
प्रस्थिति वह रूतबा है जो व्यक्ति को समाज में रहते हुए मिलता है।

प्रश्न 7.
सामाजिक प्रस्थिति के दो प्रकारों के नाम बताओ।
उत्तर-
प्रदत्त प्रस्थिति तथा अर्जित प्रस्थिति दो प्रकार की सामाजिक परिस्थितियां हैं।

प्रश्न 8.
आरोपित तथा अर्जित प्रस्थिति की अवधारणा किसने दी है ?
उत्तर-
यह शब्द राल्फ लिंटन (Ralph Linton) ने दिए थे।

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प्रश्न 9.
आरोपित प्रस्थिति के कुछ उदाहरण लिखो।
उत्तर-
पिता की परिस्थिति तथा ब्राह्मण की परिस्थिति प्रदत्त परिस्थिति की दो उदाहरण हैं।

प्रश्न 10.
अर्जित प्रस्थिति के कुछ उदाहरण लिखो।
उत्तर-
डिप्टी कमिश्नर तथा प्रधानमन्त्री की परिस्थिति अर्जित परिस्थिति है।

प्रश्न 11.
भूमिका को परिभाषित करो।।
उत्तर-
लुण्डबर्ग के अनुसार, भूमिका व्यक्ति का किसी समूह या अवस्था में आशा किया गया व्यावहारिक तरीका है।

प्रश्न 12.
भूमिका की कोई दो विशेषताओं को बताइए।
उत्तर-

  1. भूमिका प्रस्थिति अथवा पद का कार्यात्मक पक्ष होती है।
  2. भूमिका को सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
टालक्ट पारसन्ज़ (Talcott Parsons) के अनुसार, सामाजिक संरचना शब्द को परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, एजेन्सियों तथा सामाजिक प्रतिमानों व साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा परिस्थितियों की विशेष क्रमबद्धता के लिए प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 2.
प्रस्थिति तथा भूमिकाओं के मध्य दो समानताओं को लिखिए।
उत्तर-

  1. प्रस्थिति तथा भूमिका एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें कभी भी अलग नहीं किया जा सकता।
  2. प्रस्थिति समाज में व्यक्ति की स्थिति होती है तथा भूमिका प्रस्थिति का व्यावहारिक पक्ष है।
  3.  दोनों प्रस्थिति तथा भूमिका परिवर्तनशील है तथा बदलती रहती हैं।

प्रश्न 3.
परिवार की संरचना का चित्रणात्मक वर्णन करो।
उत्तर-
PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना 1

प्रश्न 4.
आरोपित तथा अर्जित प्रस्थिति के मध्य अंतर बताइए।
उत्तर-

  • आरोपित प्रस्थिति व्यक्तियों को जन्म के अनुसार प्राप्त होती है जबकि अर्जित प्रस्थिति हमेशा व्यक्ति अपने परिश्रम से प्राप्त करता है।
  • आरोपित प्रस्थितियों के कई आधार होते हैं जबकि अर्जित प्रस्थिति का आधार केवल व्यक्ति का परिश्रम होता है।

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प्रश्न 5.
किस प्रकार भूमिका एक सीखा हुआ व्यवहार है ?
उत्तर-
यह सब सत्य है कि भूमिकाएं सीखा हुआ व्यवहार है क्योंकि भूमिकाएं व्यवहारों का वह गुच्छा है जिन्हें या तो समाजीकरण या फिर निरीक्षण से सीखा जाता है। इसके साथ व्यक्ति सीखे हुए व्यवहार को जो अर्थ देता है, वह ही सामाजिक भूमिका है।

प्रश्न 6.
प्रस्थिति तथा भूमिका को संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
देखें पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न I (6, 11)

प्रश्न 7.
प्रस्थिति क्या है ?
उत्तर-
व्यक्ति की समूह में पाई गई स्थिति को सामाजिक प्रस्थिति का नाम दिया जाता है। यह स्थिति वह है जो व्यक्ति को अपने लिंग, अंतर, आयु, जन्म, कार्य इत्यादि की पहचान विशेषाधिकारों के संकेतों तथा कार्य के प्रतिमानों द्वारा प्राप्त होती है।

प्रश्न 8.
भूमिका प्रतिमान (Role Set) क्या है ?
उत्तर-
एक व्यक्ति को समाज में रहते हुए कई पद या प्रस्थितियां प्राप्त होती हैं। इन सभी पदों से सम्बन्धित भूमिकाओं के एकत्र को भूमिका सैट कहा जाता है। उदाहरण के लिए किसी समूह के 11वीं कक्षा के विद्यार्थी को बहुत से व्यक्तियों से मिलना पड़ता है तथा वह प्रत्येक से अलग ढंग से बात करता है। प्रत्येक से सम्बन्धित अलगअलग भूमिकाओं के एकत्र को भूमिका सैट कहते हैं।

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प्रश्न 9.
भूमिका संघर्ष से आप क्या समझते हैं ? उदाहरण सहित बताओ।
उत्तर-
प्रत्येक व्यक्ति के पास बहुत से पद होते हैं तथा प्रत्येक पद के साथ अलग-अलग भूमिका जुड़ी होती है। व्यक्ति को इन भूमिकाओं को निभाना पड़ता है। जब वह इन सभी भूमिकाओं से तालमेल नहीं बिठा पाता तथा सभी को ठीक ढंग से नहीं निभा सकता तो इसे भूमिका संघर्ष कहा जाता है।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना की तीन विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
1. प्रत्येक समाज की संरचना अलग-अलग होती है क्योंकि समाज में पाए जाने वाले अंगों का सामाजिक जीवन में अलग-अलग ढंग होता है। प्रत्येक समाज के संस्थागत नियम अलग-अलग होते हैं जिस कारण संरचना अलग होती है।

2. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है क्योंकि इसका निर्माण जिन इकाइयों से होता है वह सब अमूर्त होती है। इनका कोई ठोस रूप नहीं होता। हम इन्हें केवल महसूस कर सकते हैं जिस कारण यह अमूर्त होती है।

3. सामाजिक संरचना में संस्थाओं, सभाओं, परिमापों को एक विशेष व्यवस्था से बताने की कोई योजना नहीं बनाई जाती बल्कि इसका विकास सामाजिक अन्तक्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है।

प्रश्न 2.
आरोपित प्रस्थिति क्या है ? इसके कुछ उदाहरण लिखो।
उत्तर-
प्रदत्त पद वह पद होता है जिसे व्यक्ति बिना परिश्रम किए प्राप्त कर लेता है। वह जिस परिवार या समाज में पैदा होता है, उसे उसके अनुसार ही पद प्राप्त हो जाता है। जैसे प्राचीन हिन्दू समाज में जाति प्रथा में ब्राह्मणों को उच्च स्थान प्राप्त था। जो व्यक्ति जाति में पैदा होता था उसका समाज में उच्च स्थान होता था। लिंग, जाति, जन्म, आयु, रिश्तेदारी (Sex, Caste, Birth, Age, Kinship etc.) इत्यादि के आधार पर प्रदत्त पद बिना किसी प्रयत्न से प्राप्त किए जाते हैं। इस प्रकार का पद बिना किसी परिश्रम के प्राप्त हो जाता है तथा इस पद को कोई भी छीन नहीं सकता।

प्रश्न 3.
‘भूमिका सामाजिक संरचना का एक तत्त्व है।’ संक्षिप्त रूप में लिखिए।
उत्तर–
सामाजिक संरचना की इकाइयों के उप-समूह होते हैं तथा इन समूहों में सदस्यों की निश्चित नियमों के अनुसार भूमिकाएं दी जाती हैं। व्यक्तियों के बीच अन्तक्रियाएं होती हैं तथा अन्तक्रियाओं को स्पष्ट करने के लिए व्यक्तियों को भूमिकाएं दी जाती हैं। भूमिका व्यक्ति का विशेष स्थिति में व्यवहार होता है जो उसके पद से सम्बन्धित होता है। अगर सामाजिक संरचना में कोई परिवर्तन आता है तो व्यक्तियों के पदों तथा भूमिकाओं में भी परिवर्तन आ जाता है। इन भूमिकाओं के कारण ही लोगों के बीच सम्बन्ध स्थापित रहते हैं तथा सामाजिक संरचना

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प्रश्न 4.
‘प्रस्थिति सामाजिक संरचना का एक तत्त्व है।’ संक्षिप्त रूप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रस्थिति सामाजिक संरचना का एक तत्व है। उप-समूह सामाजिक संरचना की इकाइयां होते हैं तथा इन समूहों में प्रत्येक व्यक्ति को कई स्थितियाँ प्राप्त होती हैं। लोगों के बीच अन्तक्रियाएं होती रहती हैं तथा इन अन्तक्रियाओं को स्पष्ट करने के लिए व्यक्तियों को कई स्थितियाँ दे दी जाती हैं। जब व्यक्ति को स्थिति प्राप्त होती है तो उसे अलग-अलग स्थितियों के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है। अगर सामाजिक संरचना में कोई परिवर्तन आता है तो निश्चित तौर पर लोगों की स्थितियों के बीच भी परिवर्तन आ जाता है। इन स्थितियों के कारण ही लोगों के बीच संबंध स्थापित होते हैं तथा सामाजिक संरचना कायम रहती है।

प्रश्न 5.
प्रस्थिति तथा भूमिका किस प्रकार अन्तर्सम्बन्धित हैं ? व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
यह सत्य है कि पद तथा भूमिका अंतर्संबंधित है। वास्तव में दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर दोनों में से एक चीज़ दी जाएगी तथा दूसरी नहीं तो इन दोनों का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। दूसरा तो यह अर्थ है कि अधिकार दे दिए परन्तु ज़िम्मेदारी नहीं दी अथवा ज़िम्मेदारी दे दी परन्तु अधिकार नहीं। एक के न होने की स्थिति में दूसरा ठीक ढंग से कार्य नहीं कर सकता। अगर किसी के पास अधिकारी का पद है परन्तु ज़िम्मेदारी नहीं दी गई तो उस अधिकारी का समाज को कोई फायदा नहीं है। इस प्रकार अगर किसी को कोई भूमिका या जिम्मेदारी दे दी जाती है परन्तु कोई अधिकार या पद नहीं दिया जाता तो भी वह भूमिका ठीक ढंग से नहीं निभा सकेगा। इस प्रकार यह दोनों ही एक-दूसरे के साथ गहरे रूप से अन्तर्सम्बन्धित है।

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं पर विचार-विमर्श कीजिए।
उत्तर-
समाज कोई अखण्ड व्यवस्था नहीं है जो टूट न सके। समाज कई भागों से मिलकर बनता है। समाज को बनाने वाले अलग-अलग भाग या इकाइयां अपने निर्धारित कार्य करते हुए आपस में अन्तर्सम्बन्धित रहती हैं तथा एक प्रकार का सन्तुलन पैदा करते हैं। समाज शास्त्र की भाषा में इस सन्तुलन को सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। इसके विपरीत जब समाज के यह अलग-अलग अन्तर्सम्बन्धित भाग जब एक-दूसरे से मिल कर ढांचे का निर्माण करते हैं तो इस ढांचे को सामाजिक संरचना कहा जाता है। संक्षेप में, संरचना का अर्थ उन इकाइयों के जोड़ से हैं जो आपस में अन्तर्सम्बन्धित है।

हैरी एम० जानसन (Harry M. Johnson) के अनुसार, “सामाजिक ढांचे का निर्माण अलग-अलग अंगों के परस्पर सम्बन्धों से होता है। चाहे सामाजिक संरचना में इन हिस्सों में परिवर्तन होता रहता है परन्तु फिर भी इसमें स्थिरता बनी रहती है। जानसन के अनुसार, “किसी भी चीज़ की संरचना उसके अंगों में पाए जाने वाले सापेक्ष तौर पर स्थायी अन्तर्सम्बन्धों को कहते हैं। साथ ही अंग शब्द में कुछ न कुछ स्थिरता की मात्रा लुप्त रहती है क्योंकि सामाजिक व्यवस्था लोगों की संरचना को इन क्रियाओं में पाई जाने वाली नियमितता की मात्रा या दोबारा आवर्तन में ढूंढा जाना चाहिए।”

मैकाइवर के विचार (Views of MacIver)-मैकाइवर ने भी सामाजिक संरचना को अमूर्त कहा है जिसमें कई समूह जैसे कि परिवार, श्रेणी, समुदाय, जाति इत्यादि आ जाते हैं।
इस समाजशास्त्री ने सामाजिक संरचना की स्थिरता तथा परिवर्तनशील प्रवृत्ति को स्वीकार किया है। मैकाइवर तथा पेज के अनुसार, “सामाजिक संरचना अपने आप में अस्थित तथा परिवर्तनशील है। इसका हरेक अवस्था में निश्चित स्थान होता है तथा इसके कई मुख्य तत्त्व ऐसे होते हैं जिनमें ज़्यादा परिवर्तन पाया जाता है।”

सामाजिक संरचना की विशेषताएं (Characteristics of Social Structure) –

1. अलग-अलग समाजों में अलग-अलग संरचना होती है (Different Societies have different Social Structures)-प्रत्येक समाज के अपने अलग नियम होते हैं क्योंकि समाज के अलग-अलग अंगों में पाए जाने वाले सम्बन्धों का सामाजिक जीवन के बीच अलग ही स्थान होता है। इसके अतिरिक्त अलग-अलग समय में भी सामाजिक संरचना अलग होती है। यह अन्तर इसलिए होता है क्योंकि समाज की इकाइयों में जो व्यवस्थित क्रम या सम्बन्ध पाए जाते हैं, वह अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होते हैं।

2. समाज के बाहरी रूप को दिखाना (It shows the external aspect of society) सामाजिक संरचना का सम्बन्ध समाज की अन्दरूनी व्यवस्था से नहीं बल्कि बाहरी रूप को दिखाने से है। उदाहरण के लिए जैसे मनुष्य के शरीर के अलग-अलग अंग मिलकर इसका निर्माण करते हैं तथा शरीर का बाहरी ढांचा बनाते हैं, उसी तरह समाज के अलग-अलग हिस्से जुड़ कर समाज के बाहरी ढांचे का निर्माण करते हैं। जैसे मनुष्य के शरीर की बनावट के बारे में हम हाथों, टांगों, बांहों, पेट, सिर, गर्दन इत्यादि को लेकर बताते हैं। परन्तु यहां इनके कार्यों के बारे में नहीं बताते। सिर्फ शारीरिक ढांचे के बाहरी हिस्से को बताते हैं।

3. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है (Social Structure is abstract)-सामाजिक संरचना समाज की अलग-अलग इकाइयों के अन्तर्सम्बन्धों की क्रमबद्धता को कहते हैं। सामाजिक ढांचे की इस क्रमबद्धता का कोई मूर्त रूप या आकार नहीं होता। इनको न तो पकड़ा जा सकता है न ही देखा जा सकता है। इसको केवल महसूस किया जा सकता है या इसके बारे में सोचा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, जैसे सूर्य की तेज़ रोशनी के रंग, आकार का वर्णन नहीं किया जा सकता तथा न ही पकड़ा जा सकता है। इसको केवल हम महसूस कर सकते हैं कि धूप कम है या ज्यादा। इस तरह हम सम्बन्धों को सिर्फ महसूस कर सकते हैं तथा यह कह सकते हैं कि हमारी सामाजिक संरचना अमूर्त होती है।

4. संरचना के अन्दर उप-संरचनाओं का पाया जाना (Hierarchy of Sub-structure ina Structure)हमारे शारीरिक ढांचे का निर्माण कई छोटे-छोटे ढांचों से मिलकर बनता है। जैसे रीढ़ की हड्डी का ढांचा, गर्दन का ढांचा, हाथ, पैर इत्यादि का ढांचा। इस तरह किसी शैक्षिक संस्था का ढांचा ले लो तो स्टाफ, प्रिंसीपल, दफ़्तर इत्यादि के उप ढांचे मिलकर सम्पूर्ण शैक्षिक संस्था के ढांचे का निर्माण करते हैं। इन उप-ढांचों में कई और उपढांचे होते हैं। उसी तरह समाज एक स्तर में नहीं बल्कि अलग-अलग स्तरों में विभाजित होता है तथा इन सभी से मिलकर ही सामाजिक संरचना बनती है।

5. सामाजिक संरचना परिवर्तनशील होती है (Social Structure is Changeable)-रैडक्लिफ ब्राऊन के अनुसार, सामाजिक संरचना में गतिशील निरन्तरता रहती है। यह स्थिर नहीं होती। जैसे मनुष्य के ढांचे में परिवर्तन आते रहते हैं। उसी तरह समाज की संरचना में भी परिवर्तन आते रहते हैं। परन्तु परिवर्तन का यह अर्थ नहीं कि सामाजिक संरचना के मुख्य तत्त्व बदल जाते हैं। जैसे शारीरिक परिवर्तन से मुख्य तत्त्वों में परिवर्तन नहीं आता उसी तरह सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाले अंग बदलते रहते हैं परन्तु इसके मुख्य तत्त्वों में कोई अन्तर नहीं आता है।

6. सामाजिक संरचना की हरेक इकाई का निश्चित स्थान होता है (Every unit of social structure has a definite position)-हमारी सामाजिक संरचना जिन अलग-अलग इकाइयों से मिल कर बनती है उन सब की स्थिति निश्चित तथा सीमित होती है। कोई भी इकाई दूसरी इकाई का स्थान नहीं ले सकती तथा न ही अपनी सीमा से बाहर जाती है।

7. सामाजिक संरचना के कुछ तत्त्व सर्वव्यापक होते हैं (Some elements of Social Structure are universal)—प्रत्येक समाज में सामाजिक संरचना के कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जो सर्वव्यापक होते हैं। उदाहरण के तौर पर सामाजिक सम्बन्धों को ले लो। कोई भी समाज सामाजिक सम्बन्धों के बिना विकसित नहीं हो सकता। इस वजह से यह हरेक समाज में कायम होते हैं। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक संरचना में कुछ तत्त्व तो हरेक समाज में मौजूद होते हैं तथा कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं जो प्रत्येक समाज में अलग-अलग होते हैं तथा इनके आधार पर ही हम एक समाज की सामाजिक संरचना को दूसरे समाज की सामाजिक संरचना से अलग कर सकते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचनाओं को बनाए रखने के लिए कौन सी व्यवस्था सहायक है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना में लगभग सभी मनुष्यों ने स्वयं को अलग-अलग सभाओं में संगठित किया होता . है ताकि कुछ समाज उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके। परन्तु इन उद्देश्यों की पूर्ति तब ही की जा सकती है जब सामाजिक संरचना कुछ प्रचालन व्यवस्थाओं (Operational systems) पर निर्भर हो तथा जो इसे बनाए रखने में सहायता कर सकें। इसका अर्थ है कि कुछ प्रचालन व्यवस्थाएं ऐसी होनी चाहिए जिनकी सहायता से सामाजिक संरचना को बना कर रखा जा सके। कुछेक व्यवस्थाओं का वर्णन इस प्रकार है

1. मानक व्यवस्थाएं (Normative Systems)-मानक व्यवस्थाएं समाज के सदस्यों के सामने कुछ आदर्श तथा कीमतें रखती हैं। समाज के सदस्य सामाजिक कीमतों तथा आदर्शों के साथ भावात्मक महत्त्व (Emotional importance) जोड़ देते हैं। अलग-अलग समूह, सभाएं, संस्थाएं, समुदाय इत्यादि इन नियमों परिभाषों के अनुसार एक-दूसरे के साथ अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। समाज के अलग-अलग सदस्य इन नियमों परिमापों के अनुसार अपनी भूमिकाएं निभाते रहते हैं।

2. स्थिति व्यवस्था (Position System)-स्थिति व्यवस्था का अर्थ उन परिस्थितियों तथा भूमिकाओं से है जो अलग-अलग व्यक्तियों को दिए जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएं तथा आशाएँ अलग-अलग तथा असीमित होती हैं। प्रत्येक समाज में प्रत्येक व्यक्ति के पास अलग-अलग तथा बहुत-सी स्थितियाँ या पद होते हैं। उदाहरण के लिए एक परिवार में ही व्यक्ति एक समय पर पुत्र, पिता, भाई, जेठ, देवर, जीजा, साला इत्यादि सब कुछ है। जब वह अपनी पत्नी के साथ बात कर रहा होता है तो वह पति की भूमिका निभा रहा होता है। इस समय वह पिता या पुत्र की भूमिका के बारे में सोच रहा होता है। दूसरे शब्दों में सामाजिक संरचना के ठीक ढंग से कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि स्थितियाँ तथा भूमिकाओं का भी ठीक ढंग से विभाजन किया जाए।

3. स्वीकृत व्यवस्था (Sanction System)-नियमों को ठीक ढंग से लागू करने के लिए समाज एक स्वीकृत व्यवस्था प्रदान करता है। अलग-अलग भागों के बीच तालमेल बिठाने के लिए यह आवश्यक है कि नियमों, परिमापों को ठीक ढंग से लागू किया जाए। स्वीकृत सकारात्मक भी हो सकती तथा नकारात्मक भी। जो लोग सामाजिक नियमों, परिमापों को मानते हैं उन्हें समाज की तरफ से इनाम मिलता है। जो लोग समाज के नियमों को नहीं मानते हैं, उन्हें समाज की तरफ से सज़ा मिलती है। सामाजिक संरचना की स्थिरता स्वीकृत व्यवस्था की प्रभावशीलता पर निर्भर करती है।

4. पूर्वानुमानित प्रक्रियाओं की व्यवस्था (System of Ahticipated Responses)-पूर्वानुमानित प्रक्रियाओं की व्यवस्था व्यक्तियों से आशा करती है कि वह सामाजिक व्यवस्था में भाग ले। समाज के सदस्यों के भाग लेने से ही सामाजिक संरचना चलती रहती है। सामाजिक संरचना के सफलतापूर्वक कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों को अपने उत्तरदायित्वों के बारे में पता हो। समाज के सदस्य प्रमाणित व्यवहार को समाजीकरण की प्रक्रिया की सहायता से ग्रहण करते हैं जिससे वह अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का पूर्वानुमान लगा लेते हैं तथा उस प्रकार व्यवहार करते हैं। इस प्रकार पूर्व अनुमानित प्रक्रियाओं की व्यवस्था भी सामाजिक संरचना की स्थिरता का कारण बनती है।

5. कार्यात्मक व्यवस्था (Action System)-टालग्र पारसन्ज ने सामाजिक कार्य (Social Action) के संकल्प पर काफी बल दिया है। उसके अनुसार सामाजिक सम्बन्धों का जाल (समाज) व्यक्तियों के बीच होने वाली क्रियाओं तथा अन्तक्रियाओं में से निकला है। इस प्रकार कार्य व्यवस्था एक प्रमुख तत्त्व बन जाता है। जिससे समाज क्रियात्मक (Active) रहता है तथा सामाजिक संरचना चलती रहती है।

प्रश्न 3.
सामाजिक संरचना क्या है ? सामाजिक संरचना के तत्त्व क्या हैं ?
उत्तर-
हमारा समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। इस की अलग-अलग इकाइयां हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी होने के साथ-साथ एक-दूसरे से सम्बन्धित भी हैं। कोई भी कार्य वह एक-दूसरे की मदद के बगैर नहीं कर सकती हैं अर्थात् उनमें एक सहयोग पाया जाता है। इसकी इकाइयां-समूह, संस्थाएं, सभाएं, संगठन इत्यादि हैं। इन इकाइयों का अकेले कोई अस्तित्व नहीं है बल्कि जब यह इकाइयां एक-दूसरे से सम्बन्धित हो जाती हैं तो एक ढांचे का रूप लेती हैं। इनकी सम्बन्धता में व्यवस्था तथा क्रम पाया जाता है तो ही हमारा समाज ठीक तरीके से कार्य करता है। क्रम तथा व्यवस्था को हम एक उदाहरण से सरल बना सकते हैं। जैसे डैस्क, बैंच, टीचर, प्रिंसीपल, चौकीदार, विद्यार्थी, इमारत इत्यादि एक जगह रखने से स्कूल का निर्माण नहीं होता। स्कूल का निर्माण उस समय होगा जब अलग-अलग इकाइयों एक व्यवस्थित तरीके से अपने-अपने निश्चित स्थान पर कार्य कर रही हों तो हम उसे स्कूल का नाम दे सकते हैं। प्रत्येक समाज की सामाजिक संरचना अलग-अलग होती है क्योंकि उसकी निर्माण करने वाली इकाइयों का क्रम अलग-अलग होता है।

हमारा समाज भी परिवर्तनशील है। समय-समय पर इस में प्राकृतिक शक्तियों या व्यक्तियों के आविष्कारों से परिवर्तन आता रहता है। इस वजह से सामाजिक ढांचा भी बदलता रहता है। इसकी इकाइयां भी मूर्त नहीं होती हैं क्योंकि हम इन्हें पकड़ नहीं सकते हैं। चाहे सामाजिक ढांचे के हिस्से जैसे परिवार, धर्म, संस्था, सभा, आर्थिकता इत्यादि एक जैसे होते हैं परन्तु इन के प्रकारों में अन्तर होता है। जैसे किसी समाज में पिता प्रधान परिवार हैं तथा किसी समाज में माता प्रधान परिवार अर्थात् हिस्सों में चाहे समानता होती है परन्तु इनके विशेष प्रकार अलग-अलग होते हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि सामाजिक ढांचा वह व्यवस्थित प्रबन्ध है जिसके द्वारा सामाजिक सम्बन्धों को एक धागे में बांधा जा सकता है।

सामाजिक संरचना के तत्त्व (Elements of Social Structure)-

हैरी एम० जानसन तथा पारसन्ज़ के अनुसार सामाजिक संरचना में चार निम्नलिखित तत्त्व हैं-

  1. उप समूह (Sub groups)
  2. भूमिकाएं (Roles)
  3. सामाजिक परिमाप (Social Norms)
  4. सामाजिक कीमतें (Social Values)

1. उप समूह (Sub Groups)-जानसन तथा पारसन्ज़ के अनुसार सामाजिक संरचना को बनाने वाली इकाइयां या उप समूह होते हैं। हरेक बड़ा समूह उप-समूहों से मिलकर बनता है। उदाहरण के तौर पर, शैक्षिक समूह के अन्तर्गत स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, परिवार, धर्म इत्यादि वह सभी उप-समूह शामिल किए जाते हैं जो शैक्षिक समूह से किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं। व्यक्तियों को इन समूहों तथा उप-समूहों से भूमिकाएं तथा पद प्राप्त होते हैं। पद तथा भूमिका का स्थान समाज में निश्चित होता है। समाज में व्यक्ति जन्म लेते तथा मरते हैं परन्तु यह पद तथा भूमिका उसी तरह निश्चित रहते हैं। जन्म लेने वाला व्यक्ति इन्हें ग्रहण कर लेता है तथा एक व्यक्ति के मरने के बाद दूसरा व्यक्ति उसी पद तथा भूमिका को ग्रहण कर लेता है। उदाहरण के लिए अगर देश का प्रधानमन्त्री मर जाए तो दूसरा व्यक्ति प्रधानमन्त्री बन कर पद तथा भूमिका को उसी तरह सुचारु कर देता है। कहने का अर्थ यह है कि उप-समूह संक्षेप तथा स्थाई होते हैं। यह कभी भी ख़त्म नहीं होते। इनके सदस्य चाहे बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए परिवार, स्कूल, कॉलेज उसी तरह अपने स्थान पर कायम रहते हैं जैसे कि पुराने समय में थे। अंतर केवल यह होता है कि इन में कार्य करने वाले व्यक्ति बदलते रहते हैं।।

2. भूमिकाएं (Roles)—सामाजिक संरचना के उप-समूह में व्यक्ति को निश्चित प्रतिमान के द्वारा भूमिका से सम्बन्धित किया जाता है। समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। इन सम्बन्धों के विकास के लिए व्यक्तियों तथा समूहों के बीच अन्तक्रियाएं होती हैं। इन अन्तक्रियाओं में क्रियाशीलता को स्पष्ट करने के लिए भूमिका तथा पद को परिभाषित किया जाता है। भूमिका व्यक्ति के उस व्यवहार से सम्बन्धित होती है जो व्यक्ति किसी विशेष स्थिति में करता है तथा विशेष पद से सम्बन्धित जो कार्य व्यक्ति ने करने होते हैं उनको सामाजिक मान्यता द्वारा निर्धारित किया जाता है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन होने से समाज में सदस्यों के पदों तथा भूमिकाओं में परिवर्तन होता है। इन भूमिकाओं के ही निश्चित तथा स्थायी सम्बन्धों से सामाजिक संरचना जुड़ी होती है तथा काम करती रहती है।

3. सामाजिक परिमाप (Social Norms) भूमिकाएं तथा उप-समूह सामाजिक परिमापों से सम्बन्धित होते हैं क्योंकि इन परिमापों के द्वारा व्यक्ति के कार्यों का मूल्यांकन किया जाता है। इसी वजह से भूमिकाएं तथा उपसमूह स्थिर होते हैं।

सामाजिक परिमापों में कई नियम तथा उपनियम होते हैं। यह व्यक्तिगत व्यवहार में वह मान्यता प्राप्त तरीके होते हैं जिनके साथ सामाजिक संरचना का निर्माण होता है। सामाजिक आदर्श उन परिमापों से जुड़े होते हैं। अगर यह परिमाप न हो तो व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं जान सकता तथा न ही हमारी सामाजिक संरचना कायम रह सकती है। उदाहरण के तौर पर पिता-पुत्र, मां-बेटी, भाई-बहन, अध्यापक-विद्यार्थी इत्यादि की भूमिकाओं को प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की आपसी ज़िम्मेदारियों को सामाजिक परिमापों के द्वारा ही बनाया जाता है। सामाजिक संरचना के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं।

सामाजिक परिमाप के द्वारा विशेष स्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार को संचालित तथा निर्देशित किया जाता है जिससे भूमिकाएं तथा उप समूह कायम रहते हैं। यह सामाजिक संरचना का तीसरा मुख्य तत्त्व है।

4. सामाजिक कीमतें (Social Values)-जानसन के अनुसार कीमतें मापदण्ड होती हैं क्योंकि इनके द्वारा सामाजिक परिमापों का मूल्यांकन किया जाता है। यह समाज के सदस्यों की भावनाओं को प्रभावित करती है। व्यक्ति जब किसी चीज़ के बारे में बात करता है या फ़ैसला लेता है तो उसके ऊपर भावनाओं का प्रभाव ज़रूर रहता है।

परिमाप शब्द का प्रयोग विशेष व्यावहारिक प्रतिमान के लिए किया जाता है जबकि कीमतें साधारण मापदण्ड होती हैं। इनको हम उच्च स्तर के परिमाप भी कह सकते हैं। सामाजिक विघटन को रोकने के लिए तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए सामाजिक कीमतों का अपना महत्त्व होता है। समूह की भावनाएं भी इन कीमतों से ही सम्बन्धित होती हैं। इनमें कार्यात्मक सम्बन्ध भी पाया जाता है जिससे सामाजिक सम्बन्धों का जाल नहीं टूटता तथा इन सम्बन्धों में तालमेल बना रहता है। व्यक्ति तथा समूह में भावनाओं का तालमेल स्थापित हो जाता है जिससे व्यवहारों का चुनाव तथा मूल्यांकन करने के लिए कीमतों का प्रयोग मापदण्ड के रूप में किया जाता है। सामाजिक कीमतों के द्वारा व्यक्तियों या समूहों की क्रियाओं की जांच करके उनको अच्छे या बुरे, उच्च या निम्न वर्ग में भी बांटा जा सकता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

प्रश्न 4.
प्रस्थिति को परिभाषित कीजिए। इनकी विशेषताओं को विस्तृत रूप में लिखिए।
उत्तर-
पद या प्रस्थिति का अर्थ (Meaning of Status)-समाज में स्थिति सामाजिक कीमतों से सम्बन्धित होती है। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में पुरुषों की स्थिति औरतों से उच्च होती है। स्थिति से अर्थ व्यक्ति का समूह में पाया गया स्थान होता है। यह स्थान व्यक्ति को विशेष प्रकार के अधिकारों द्वारा प्राप्त होता है जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। आमतौर पर एक व्यक्ति समाज में रहते हुए कई प्रकार के पदों को अदा कर रहा होता है अर्थात् व्यक्ति जितने भी समूहों या संस्थाओं का सदस्य होता है उतने ही उस के पद होते हैं। इस पद के द्वारा ही व्यक्ति समाज में उच्च या निम्न नज़र से देखा जाता है।

पद वह सामाजिक स्थिति होती है जिसको व्यक्ति समाज में रह कर समाज के सदस्यों द्वारा स्वीकार करने पर प्राप्त करता है। समाज में हरेक व्यक्ति का कोई न कोई पद होता है। यह समाज में किसी व्यक्ति की सम्पूर्ण सामाजिक स्थिति का एक हिस्सा होता है। इसी वजह से इसको सामाजिक व्यवस्था का आधार माना जाता है। पद का बाहरी चित्र व्यक्ति अपने कार्यों से प्रकट करता है तथा इस का महत्त्व हमें दूसरे के पद से तुलना करके ही पता चला सकता है। इससे एक तरह समाज के लोगों के अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया जाता है जिससे व्यक्ति की समाज में रहते हुए एक पहचान स्थापित हो जाती है।

प्रस्थिति या पद की परिभाषाएं (Definitions of Status)-
1. सेकार्ड तथा बरकमैन (Secard and Berkman) के अनुसार, “पद समूह तथा व्यक्तियों के वर्ग द्वारा अनुमानित किसी व्यक्ति का मूल्य होता है।”

2. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “पद आम सामाजिक व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त तथा प्रदान की गई स्थितियां हैं जो विचारपूर्वक नियमित न होकर अपने आप विकसित होती हैं तथा लोगों के विचारों तथा लोगों की रीतियों पर आधारित होती है।”

3. लिंटन (Linton) के अनुसार, “किसी व्यवस्था विशेष में किसी समय विशेष में एक व्यक्ति को जो स्थान प्राप्त होता है, वह ही उस की व्यवस्था के बीच उस व्यक्ति का पद या स्थिति होती है। अपनी स्थिति को वैध सिद्ध करने के लिए व्यक्ति को जो कुछ करना पड़ता है, उस को पद कहते हैं।”

4. मैकाइवर तथा पेज (MacIver and Page) के अनुसार, “पद वह सामाजिक स्थान है जो उस को ग्रहण करने वाले के लिए उस से व्यक्तिगत गुणों तथा सामाजिक सेवा के अतिरिक्त आदर, प्रतिष्ठा तथा प्रभाव की मात्रा निश्चित करता है।”

इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समूह के बीच एक निश्चित समय में व्यक्ति को जो दर्जा या स्थान प्राप्त होता है वह उस का सामाजिक पद होता है। पद समूह में होता है इसलिए वह जितने समूहों का सदस्य होता है उस को उतने पद प्राप्त होते हैं।

सामाजिक प्रस्थिति अथवा पद की विशेषताएं (Features of Social Status)-

1. व्यक्ति का पद समाज की संस्कृति द्वारा निश्चित होता है (Status of a man is determined by the culture of society)-व्यक्ति का पद समाज की सांस्कृतिक कीमतों द्वारा निर्धारित होता है। कौन-सा व्यक्ति किस पद पर बैठेगा, उस पद के कौन-से अधिकार तथा कर्त्तव्य हैं ? इस का फैसला समाज के लोग करेंगे। जो स्थिति व्यक्ति समाज में रह कर प्राप्त करता है उससे सम्बन्धित उस के कार्य भी होते हैं। उदाहरण के लिए मातृ प्रधान परिवार के बीच माता का पद ऊँचा होता है तथा माता ही घर के फैसले लेती है तथा घर के सदस्यों की ज़िम्मेदारी उठाती है। पिता प्रधान परिवार के बीच पिता का पद ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है तथा जायदाद भी पिता के नाम ही होती है, घर के सदस्यों की ज़िम्मेदारी भी पिता की ही होती है।

2. समाज में व्यक्ति के पद को समझने के लिए दूसरे व्यक्ति के पद से तुलना करके ही समझा जा सकता है (Status of a person is determined by comparing it with status of other person) हम किसी व्यक्ति के पद को दूसरे व्यक्ति के पद के साथ तुलना करके ही समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए मुख्याध्यापक के पद के बिना अध्यापक की स्थिति को समझना असम्भव होता है। कहने का अर्थ यह है कि पद तुलनात्मक शब्द होता है। इसके अर्थ को दूसरे सदस्य के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। .

3. हरेक प्रस्थिति का समाज में एक स्थान होता है (Every status has a place in society)-प्रत्येक पद समाज के आदर तथा विशेषाधिकारों के संकेतों तथा कार्यों के परिमापों द्वारा ही पहचाना जाता है। उदाहरण के लिए दफ़्तर में एक बड़े अफसर तथा क्लर्क का पद अलग-अलग होता है। इनको सामूहिकता के आधार पर ही बताया जाता है।

4. भूमिका निश्चित होना (Determination of Roles)—पद तथा उससे सम्बन्धित भूमिका भी निश्चित हो जाती है। यह भूमिका भी सामाजिक कीमतों के आधार पर निर्धारित की जाती है। व्यक्ति पद द्वारा प्राप्त की गई भूमिका को निभाता है। समाज में कुछ भूमिकाएं विशेष होती हैं क्योंकि वह समाज के महत्त्वपूर्ण तथा ज़रूरी कार्यों से सम्बन्धित होती हैं।

5. एक व्यक्ति कई पदों पर हो सकता है (One person can be on many Status)-व्यक्ति केवल एक ही पद प्राप्त नहीं करता है बल्कि अलग-अलग सामाजिक हालातों में वह अलग-अलग पदों पर बैठता है। एक ही व्यक्ति किसी क्लब का प्रधान, स्कूल में टीचर, परिवार में पिता, पुत्र, चाचा, मामा इत्यादि कई पद प्राप्त कर सकता है। इस तरह व्यक्ति अपनी शिक्षा, योग्यता के अनुसार सारे पदों के बीच सम्बन्ध तथा सन्तुलन बनाए रखता है या रखने की कोशिश करता है।

6. पद के आधार पर समाज में स्तरीकरण हो जाता है (Stratification in Society based on Statuses)-इस का अर्थ है कि समाज में व्यक्तियों को अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है। इससे सामाजिक गतिशीलता भी बढ़ती है। अलग-अलग वर्गों में बाँटे जाने के कारण समाज में अलग-अलग स्तर बन जाते हैं जिससे समाज अपने आप ही स्तरीकृत हो जाता है।

7. पद का मनोवैज्ञानिक आधार भी होता है (Status has psychological base)-क्योंकि समाज में रहते हुए व्यक्ति लगातार उच्च पद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है इसलिए व्यक्ति में भावनाओं का निर्माण हो जाता है। क्योंकि इसके साथ इज्ज़त तथा बेइज्जती भी जुड़ी होती है इसी लिए यह व्यक्ति के मानसिक क्षेत्र से सम्बन्धित होते हैं। व्यक्ति को जब उसकी योग्यता के अनुसार पद पर लगाया जाता है तो वह मानसिक तौर पर सन्तुष्ट हो जाता है।

प्रश्न 5.
भूमिका को परिभाषित कीजिए। इसकी विशेषताओं को विस्तृत रूप में लिखिए।
उत्तर-
हरेक स्थिति के साथ कुछ मांगें (Demands) जुड़ी होती हैं जो यह बताती हैं कि किस समय व्यक्ति से किस प्रकार के कार्य की उम्मीद की जाती है। यह भूमिका का क्रियात्मक पक्ष है । इस में व्यक्ति अपनी योग्यता, लिंग, पेशे, पैसे इत्यादि के आधार पर कोई पद प्राप्त करता है तथा उस को उस पद के सन्दर्भ में परम्परा, कानून या नियम के अनुसार जो भी भूमिका निभानी पड़ती है वह उसका कार्य है। इस तरह यह स्पष्ट है कि कार्य की धारणा में दो तत्त्व हैं-उम्मीद तथा क्रियाएं। उम्मीद से अर्थ है कि वह किसी विशेष समय में विशेष प्रकार का व्यवहार करे तथा क्रिया या भूमिका उस विशेष स्थिति का कार्य होगा। इस तरह उसकी भूमिका बंधी हई होगी।

समाज की सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए सामाजिक पद का महत्त्व उस समय तक नहीं हो सकता जब तक व्यक्ति को उस से सम्बन्धित रोल प्राप्त न हो। पद तथा भूमिका एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। समाज में व्यक्तियों को उनके कार्यों के आधार पर भी अलग किया जाता है। कुछ व्यक्ति डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, क्लर्क, अफसर इत्यादि होते हैं जो अपने कार्यों के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े हुए होते हैं क्योंकि एक व्यक्ति सभी कार्यों में माहिर नहीं हो सकता।

इस तरह हम कह सकते हैं कि हरेक पद के साथ सम्बन्धित कार्यों का सैट होता है। इन कार्यों के सैट को रोल या भूमिका कहा जाता है। इस तरह व्यक्ति किसी-न-किसी पद के ऊपर होता है तथा उस पद से सम्बन्धित उस को कोई न कोई कार्य करने पड़ते हैं। इन कार्यों के सैट को भूमिका कहा जाता है। इस तरह स्पष्ट है कि अलगअलग पदों के लिए अलग-अलग भूमिकाएं होती हैं। भूमिका उस व्यवहार का प्रतिनिधित्व करती है जो किसी पद को प्राप्त करने वाले व्यक्ति से करने की आशा की जाती है। भूमिका तथा पद एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते। भूमिका पूर्ण रूप से पद के ऊपर निर्भर करती है। इस वजह से अलग-अलग पदों पर व्यक्ति अलग-अलग कार्य करता है

परिभाषाएं (Definitions)-
1. लिंटन (Linton) के अनुसार, “भूमिका का अर्थ सांस्कृतिक प्रतिमानों के योग से है जो किसी विशेष पद से सम्बन्धित होता है। इस प्रकार इस में वह सभी कीमतें तथा व्यवहार शामिल हैं जो समाज किसी पद को ग्रहण करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों को प्रदान करता है।”

2. सार्जेंट (Sargent) के अनुसार, “किसी भी व्यक्ति की भूमिका उसके सामाजिक व्यवहार का एक प्रतिमान या प्रकार है जो उस समूह की ज़रूरतों, उम्मीदों तथा हालातों के अनुसार उचित प्रतीत होता है।”

3. लुण्डबर्ग (Lundberg) के अनुसार, “भूमिका व्यक्ति का किसी समूह या अवस्था में उम्मीद किया हुआ व्यावहारिक तरीका होता है।”
इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि भूमिका का अर्थ व्यक्ति के पूर्ण व्यवहार से नहीं बल्कि उस विशेष व्यवहार से है जो वह किसी विशेष हालात में करता है। भूमिका वह तरीका है जिसमें व्यक्ति अपनी स्थिति से सम्बन्धित कर्तव्यों को पूरा करता है।

भूमिका की विशेषताएं (Characteristics of Social Role) –

1. भूमिका कार्यात्मक होती है (Role is functional)—पारसन्ज़ के अनुसार कर्ता अन्य कर्ताओं के साथ सम्बन्धित होते हुए भी कार्य करता है। व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुसार कार्य करने पड़ते हैं क्योंकि उससे अपनी स्थिति के अनुरूप कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भूमिका कार्यात्मक होती है।

2. भूमिका संस्कृति द्वारा नियमित होती है (Role is determined by culture)-हरेक व्यक्ति को सामाजिक परम्पराओं, नियमों या संस्कृति के अनुसार कोई न कोई स्थिति प्राप्त होती है। यह स्थिति संस्कृति द्वारा दी जाती है। हरेक स्थिति से सम्बन्धित भूमिका भी होती है तथा उस स्थिति पर बैठे व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह अपना कार्य तथा भूमिका को निभाए। उसको अपनी भूमिका सामाजिक नियमों तथा संस्कृति के अनुसार ही निभानी पड़ती है। इसलिए यह संस्कृति द्वारा नियमित होती है।

3. एक व्यक्ति कई भूमिकाओं से सम्बन्धित होता है (One individual is related with many roles)—एक ही व्यक्ति कई कार्य करने के योग्य होता है जिस वजह से उसको कई स्थितियां तथा उनसे सम्बन्धित भूमिकाएं भी प्राप्त हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति बच्चे का पिता, स्कूल का अध्यापक, क्लब का सदस्य, धार्मिक सभा का नेता इत्यादि भूमिकाएं निभाता है। उस तरह अकेला व्यक्ति कई प्रकार की भूमिकाएं निभाने के योग्य होता है।

4. एक भूमिका को दूसरी भूमिका के सन्दर्भ में समझा जा सकता है (One Role can be understandable only within the context of other roles)-अगर हमें किसी भूमिका के महत्त्व को समझना है तो उसे हम किसी और सम्बन्धित भूमिका के सन्दर्भ में रख कर ही समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए एक परिवार में पति, पत्नियां तथा बच्चों की भूमिका को अगर समझना है तो इन को एक-दूसरे के सन्दर्भ में ही समझ सकते हैं। पत्नी तथा बच्चों के बिना पति की भूमिका अर्थहीन हो जाएगी।

5. भूमिका का निर्धारण सामाजिक मान्यता द्वारा होता है (Role are determined by social sanctious)—दो व्यक्तियों का स्वभाव एक जैसा नहीं होता है। अगर समाज के सदस्यों को उन की इच्छा के अनुसार भूमिका न दी जाए तो कोई भी कार्य ठीक तरह से नहीं हो सकेगा तथा कुछ व्यक्ति सामाजिक कीमतें के विरुद्ध कार्य करने लगेंगे। इसलिए समाज में सिर्फ उन भूमिकाओं को स्वीकार किया जाता है जिन को समाज की मान्यता प्राप्त होती है। यह हमारी सामाजिक संस्कृति ही निर्धारित करती है कि कौन सी भूमिकाएं, किन व्यक्तियों के द्वारा तथा कैसे निभायी जाएंगी।

6. व्यक्ति की योग्यता का महत्त्व (Importance of individuals ability)- जब एक व्यक्ति कई प्रकार की भूमिकाएं निभा रहा होता है तो यह ज़रूरी नहीं कि वह इन सब भूमिकाओं को निभाने के योग्य हो क्योंकि कई बार व्यक्ति किसी विशेष भूमिका को निभाने में सफल होता है तो दूसरी भूमिका निभाने में असफल भी हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार हर भूमिका को अच्छे, ज्यादा अच्छे या गलत तरीके से भी निभा. सकता है।

7. अलग-अलग भूमिकाओं का अलग-अलग महत्त्व (Different importance of different roles)इस का अर्थ है कि समाज में कुछ भूमिकाएं महत्त्वपूर्ण हिस्सों से सम्बन्धित होती हैं, उन का महत्त्व ज्यादा होता है क्योंकि इस प्रकार की भूमिकाओं को अदा करने के लिए व्यक्ति को ज्यादा परिश्रम तथा प्रशिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। इस तरह की भूमिकाओं को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं कहा जाता हैं। उदाहरण के तौर पर I.A.S. से सम्बन्धित भूमिकाएं समाज के लिए महत्त्वपूर्ण होती हैं क्योंकि यह समाज की सुरक्षा के लिए होती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
इनमें से कौन-सी सामाजिक संरचना की विशेषता है ?
(A) संरचना किसी चीज़ के बाहरी ढांचे का बोध करवाती है
(B) सामाजिक संरचना के कई तत्त्व होते हैं।
(C) भिन्न-भिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न संरचना होती है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना एक…….
(A) स्थायी धारणा है
(B) अस्थायी धारणा है
(C) टूटने वाली धारणा है।
(D) बदलने वाली धारणा है।
उत्तर-
(A) स्थायी धारणा है।

प्रश्न 3.
सबसे पहले सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग किस समाज शास्त्रीय ने किया था ?
(A) नैडल
(B) हरबर्ट स्पैंसर
(C) टालक्ट पारसन्ज
(D) मैलिनोवस्की।
उत्तर-
(B) हरबर्ट स्पैंसर।

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना का निर्माण कौन करता है ?
(A) समुदाय
(B) धर्म
(C) मूल्य
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 5.
अलग-अलग इकाइयों के क्रमबद्ध रूप को क्या कहते हैं ?
(A) अन्तक्रिया
(B) व्यवस्था
(C) संरचना
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(C) संरचना।

प्रश्न 6.
आधुनिक समाजों की संरचना किस प्रकार की होती है ?
(A) साधारण
(B) जटिल
(C) व्यवस्थित
(D) आधुनिक।
उत्तर-
(B) जटिल।

प्रश्न 7.
भूमिका किसके द्वारा नियमित होती है ?
(A) समाज
(B) समूह
(C) संस्कृति
(D) देश।
उत्तर-
(C) संस्कृति।

प्रश्न 8.
भूमिका की कोई विशेषता बताएं।
(A) एक व्यक्ति की कई भूमिकाएं होती हैं।
(B) भूमिका हमारी संस्कृति द्वारा नियमित होती है।
(C) भूमिका कार्यात्मक होती है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 9.
किसके कारण समाज अलग-अलग वर्गों में बांटा जाता है ?
(A) भूमिका
(B) प्रस्थिति
(C) प्रतिष्ठा
(D) रोल।
उत्तर-
(B) प्रस्थिति।

प्रश्न 10.
सामाजिक पद की विशेषता बताएं।
(A) प्रत्येक पद का समाज में स्थान होता है।
(B) पद के कारण भूमिका निश्चित होती है।
(C) पद समाज की संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है।
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
व्यक्ति को समाज में रहकर मिली प्रस्थिति को क्या कहते हैं ?
(A) पद
(B) रोल
(C) भूमिका
(D) जिम्मेदारी।
उत्तर-
(A) पद।

प्रश्न 12.
जो पद व्यक्ति को जन्म के आधार पर प्राप्त होता है उसे क्या कहते हैं ?
(A) अर्जित पद
(B) प्राप्त पद
(C) प्रदत्त पद
(D) भूमिका पद।
उत्तर-
(C) प्रदत्त पद।

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प्रश्न 13.
जो पद व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त करता है उसे क्या कहते हैं ?
(A) प्राप्त पद
(B) भूमिका पद
(C) प्रदत्त पद
(D) अर्जित पद।
उत्तर-
(D) अर्जित पद।

प्रश्न 14.
प्रदत्त पद का आधार क्या होता है ?
(A) जन्म
(B) आयु
(C) लिंग
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 15.
अर्जित पद का आधार क्या होता है ?
(A) शिक्षा
(B) पैसा
(C) व्यक्तिगत योग्यता
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज के अलग अलग अन्तर्सम्बन्धित भागों के व्यवस्थित रूप को …………….. कहते हैं।
2. जब एक व्यक्ति को बहुत सी भूमिकाएं प्राप्त हो जाएं तो इसे …………… कहते हैं।
3. ……….. वह स्थिति है जो व्यक्ति को मिलती है तथा निभानी पड़ती है।
4. ………….. प्रस्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती है।
5. ………….. प्रस्थिति व्यक्ति अपने परिश्रम से प्राप्त करता है।
6. तथा …………….. एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उत्तर-

  1. सामाजिक संरचना,
  2. भूमिका प्रतिमान,
  3. प्रस्थिति,
  4. प्रदत्त,
  5. अर्जित,
  6. प्रस्थिति व भूमिका।

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III. सही/गलत (True/False) :

1. सर्वप्रथम शब्द सामाजिक संरचना का प्रयोग हरबर्ट स्पैंसर ने दिया था।
2. समाज के सभी भाग अन्तर्सम्बन्धित होते हैं।
3. स्पैंसर ने पुस्तक The Principle of Sociology लिखी थी।
4. प्रस्थिति तीन प्रकार की होती है।।
5. प्रदत्त प्रस्थिति व्यक्ति परिश्रम से प्राप्त करता है।
6. अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त हो जाती है।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. गलत,
  6. गलत।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना समाज के किस भाग के बारे में बताती है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना समाज के बाहरी भाग के बारे में बताती है।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना का निर्माण कौन-सी इकाइयां करती हैं ?
उत्तर-
समाज की महत्त्वपूर्ण इकाइयां जैसे कि संस्थाएं, समूह, व्यक्ति इत्यादि सामाजिक संरचना का निर्माण करती है।

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प्रश्न 3.
संरचना की इकाइयों से हमें क्या मिलता है ?
उत्तर-
संरचना की इकाईयों से हमें क्रमबद्धता मिलती है।

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना किस प्रकार की धारणा है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना एक स्थायी धारणा है जो हमेशा मौजूद रहती है।

प्रश्न 5.
सामाजिक संरचना का मूल आधार क्या है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना का मूल आधार आदर्श व्यवस्था है।

प्रश्न 6.
टालक्ट पारसन्ज़ ने कितने प्रकार की सामजिक संरचनाओं के बारे में बताया है ?
उत्तर-
पारसन्ज़ ने चार प्रकार की सामाजिक संरचनाओं के बारे में बताया है।

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प्रश्न 7.
किन समाजशास्त्री ने सामाजिक संरचना को मानवीय शरीर के आधार पर समझाया है ?
उत्तर-
हरबर्ट स्पैंसर ने सामाजिक संरचना को मानवीय शरीर के आधार पर समझाया है।

प्रश्न 8.
क्या सभी समाजों की संरचना एक जैसी होती है ?
उत्तर-
जी नहीं, अलग-अलग समाजों की संरचना अलग-अलग होती है।

प्रश्न 9.
सामाजिक संरचना के कौन-से दो तत्त्व होते हैं ?
उत्तर–
सामाजिक संरचना के दो प्रमुख तत्त्व आदर्शात्मक व्यवस्था तथा पद व्यवस्था होते हैं।

प्रश्न 10.
आधुनिक समाजों की संरचना किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
आधुनिक समाजों की संरचना जटिल होती है।

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प्रश्न 11.
प्राचीन समाजों की संरचना किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
प्राचीन समाजों की संरचना साधारण तथा सरल थी।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संरचना क्या होती है ?
उत्तर-
अलग-अलग इकाइयों के क्रमबद्ध रूप को संरचना कहा जाता है। इसका अर्थ है कि अगर अलगअलग इकाइयों को एक क्रम में लगा दिया जाए तो एक व्यवस्थित रूप हमारे सामने आता है जिसे हम संरचना कहते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना का निर्माण कौन करता है ?
उत्तर-
सामाजिक संरचना का निर्माण परिवार, धर्म, समुदाय, संगठन, समूह मूल्य, पद इत्यादि जैसी सामाजिक इकाइयां तथा प्रतिमान करते हैं। इनके अतिरिक्त आदर्श व्यवस्था, कार्यात्मक व्यवस्था, स्वीकृति व्यवस्था भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

प्रश्न 3.
क्या सामाजिक संरचना अमूर्त होती है ?
उत्तर-
जी हाँ, सामाजिक संरचना अमूर्त होती है क्योंकि सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली संस्थाएँ, प्रतिमान, आदर्श इत्यादि अमूर्त होते हैं तथा हम इन्हें देख नहीं सकते। इस कारण सामाजिक संरचना भी अमूर्त होती

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प्रश्न 4.
टालक्ट पारसन्ज़ ने सामाजिक संरचना के कौन-से प्रकार दिए हैं ?
उत्तर-
पारसन्ज़ ने सामाजिक संरचना के चार प्रकार दिए हैं तथा वे हैं

  1. सर्वव्यापक अर्जित प्रतिमान
  2. सर्वव्यापक प्रदत्त प्रतिमान
  3. विशेष अर्जित प्रतिमान
  4. विशेष प्रदत्त प्रतिमान।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना।
उत्तर-
हमारा समाज कई इकाइयों के सहयोग की वजह से पाया जाता है। ये इकाइयां संस्थाएं, सभाएं, समूह, पद, भूमिका इत्यादि होते हैं। इन इकाइयों के मिश्रण से ही ‘समाज’ का निर्माण नहीं होता बल्कि इन इकाइयों में पाई गई तरतीब के व्यवस्थित होने से होता है। उदाहरण के तौर पर लकड़ी, फैवीकोल, कीलें, पालिश इत्यादि को एक जगह पर रख दिया जाए तो हम उसे मेज़ नहीं कह सकते। बल्कि जब इन सभी को एक विशेष तरतीब में रख दिया जाए तथा उन को तरतीब में जोड़ दिया जाए तो हम मेज का ढांचा तैयार कर सकते हैं। इस तरह हमारे समाज की इकाइयों का निश्चित तरीके से व्यवस्था में पाया जाना सामाजिक संरचना कहलाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना के चार मुख्य तत्त्व।
उत्तर-
टालक्ट पारसंज़ तथा हैरी० एम० जानसन के अनुसार सामाजिक संरचना के चार मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • उप समूह (Sub groups)
  • भूमिकाएं (Roles)
  • सामाजिक परिमाप (Social Norms)
  • सामाजिक कीमतें (Social Values)।

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प्रश्न 3.
टालक्ट पारसंज़ द्वारा दी सामाजिक संरचना की परिभाषा।
उत्तर-
टालक्ट पारसंज़ के अनुसार, “सामाजिक संरचना शब्द को अन्तः सम्बन्धित एजेंसियों तथा सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए पदों तथा भूमिकाओं की विशेष क्रमबद्धता के लिए प्रयोग किया जाता है।”

प्रश्न 4.
सामाजिक संरचना की दो विशेषताएं।
उत्तर-
1. प्रत्येक समाज की संरचना अलग होती है-प्रत्येक समाज की संरचना अलग-अलग होती है क्योंकि समाज में पाए जाने वाले अंगों का सामाजिक जीवन अलग-अलग होता है। प्रत्येक समाज के संस्थागत नियम अलग-अलग होते हैं। इसलिए दो समाजों की संरचना एक सी नहीं होती।

2. सामाजिक संरचना अमूर्त होती है-सामाजिक संरचना अमूर्त होती है क्योंकि इसका निर्माण जिन इकाइयों से होता है जैसे संस्था, सभा, परिमाप इत्यादि सभी अमूर्त होती हैं। इनका कोई ठोस रूप नहीं होता हम केवल इन्हें महसूस कर सकते हैं। इसलिए यह अमूर्त होती हैं।

प्रश्न 5.
सामाजिक संरचना अंतः क्रियाओं की उपज है।
उत्तर-
सामाजिक संरचना में संस्थाओं, सभाओं, परिमापों इत्यादि को एक विशेष तरीके से बताने के लिए कोई योजना नहीं बनाई जाती बल्कि इसका विकास अंतः क्रियाओं के नतीजे के फलस्वरूप पाया जाता है। इसलिए इस सम्बन्ध में चेतन रूप में प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 6.
सामाजिक पद या प्रस्थिति।
उत्तर-
व्यक्ति की समूह में पाई गई स्थिति को सामाजिक पद का नाम दिया जाता है। यह स्थिति वह है जिस को व्यक्ति लिंग, भेद, उम्र, जन्म, कार्य इत्यादि की पहचान के विशेष अधिकारों द्वारा प्राप्त करता है तथा अधिकारों के संकेत तथा काम में प्रतिमान द्वारा प्रकट किया जाता है। जैसे कोई बड़ा अफसर आता है तो सभी खड़े हो जाते हैं, यह इज्जत उसके सम्बन्धित पद की वजह से प्राप्त होती है। उसके कामों के साथ सम्बन्धित विशेष प्रतिमानों को ही सामाजिक पद का नाम दिया जाता है।

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प्रश्न 7.
प्रदत्त पद।
उत्तर-
प्रदत्त पद वह पद होता है जिसको व्यक्ति बिना परिश्रम किए प्राप्त करता है। जैसे प्राचीन हिन्दू समाज में जाति प्रथा में ब्राह्मणों को ऊँचा स्थान प्राप्त था। व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था उसका स्थान उस जाति के सामाजिक स्थान के अनुसार होता था। लिंग, जाति, उम्र, रिश्तेदारी इत्यादि प्रदत्त पद के आधार हैं जो बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 8.
सामाजिक भूमिका।
उत्तर-
हरेक सामाजिक पद के साथ सम्बन्धित कार्य निश्चित होते हैं। इसमें व्यक्ति अपनी स्थिति से सम्बन्धित कार्यों को पूरा करता है तथा अपने अधिकारों का प्रयोग करता है। डेविस के अनुसार व्यक्ति अपने पद की ज़रूरतों को पूरा करने के तरीके अपनाता है। इसको भूमिका कहा जाता है। इस तरह भूमिका से अर्थ व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यवहार नहीं बल्कि विशेष स्थिति में करने वाले व्यवहार तक ही सीमित है।

प्रश्न 9.
भूमिका की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
1. यह सामाजिक मान्यता द्वारा निर्धारित होते हैं क्योंकि यह संस्कृति का आधार है। सामाजिक कीमतों के विरुद्ध किए जाने वाली भूमिका को स्वीकार नहीं किया जाता।

2. समाज के बीच परिमाप तथा कीमतें परिवर्तनशील होती हैं जिसके फलस्वरूप भूमिका बदल जाती है। अलग-अलग स्कूलों में अलग-अलग भूमिका की महत्ता होती है।

प्रश्न 10.
सामाजिक पद की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. हरेक पद का समाज में स्थान होता है।
  2. पद समाज की संस्कृति द्वारा निर्धारित होता है।
  3. पद हमेशा तुलनात्मक होता है।
  4. पद का मनोवैज्ञानिक आधार होता है।
  5. पद के कारण भूमिका निश्चित होती है।

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प्रश्न 11.
भूमिका की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. एक व्यक्ति की कई भूमिकाएं होती हैं।
  2. भूमिका हमारी संस्कृति द्वारा नियमित होती है।
  3. भूमिका कार्यात्मक होती है।
  4. भूमिका परिवर्तनशील होती है।
  5. अलग-अलग भूमिकाओं की अलग-अलग महत्ता होती है।

प्रश्न 12.
भूमिका का महत्त्व।
उत्तर-

  1. भूमिका सामाजिक व्यवस्था तथा संतुलन बनाए रखती है।
  2. भूमिका व्यक्ति की क्रियाओं को संचालित करती है।
  3. भूमिका समाज में कार्यों को बांटती है।
  4. भूमिका अंतः क्रियाओं को नियमित करती है।
  5. भूमिका व्यक्ति को क्रियाशील बनाकर उसके व्यवहार को प्रभावित करती है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक संरचना के बारे में अलग-अलग समाजशास्त्रियों द्वारा दिए विचारों का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर-
अलग-अलग समाज शास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों ने सामाजिक संरचना की परिभाषाएं दी हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. हरबर्ट स्पैंसर के विचार (Views of Herbert Spencer) हरबर्ट स्पैंसर पहला समाजशास्त्री था जिसने समाज की संरचना पर प्रकाश डाला, परन्तु वह स्पष्ट परिभाषा देने में असमर्थ रहा। उसने अपनी किताब Principles of Socioldgy में सामाजिक संरचना के अर्थ को जैविक आधार द्वारा बताया। स्पैंसर ने शारीरिक ढांचे (Organic structure) के आधार पर सामाजिक ढांचे के अर्थों को स्पष्ट करना चाहा।

स्पैंसर के अनुसार शरीर के ढांचे में कई भाग होते हैं जैसे टांगे, बाहें, नाक, कान, मुंह, हाथ इत्यादि। इन सभी भागों में एक संगठित तरीका पाया जाता है जिसके आधार पर यह सारे हिस्से मिल कर शरीर के लिए कार्य करते हैं अर्थात् हमारा शरीर इन अलग-अलग हिस्सों की अन्तर्निर्भरता तथा अन्तर्सम्बन्धता की वजह से ही कार्य करने योग्य होता है। चाहे शारीरिक ढांचे के सभी हिस्से हरेक मनुष्य के ढांचे में एक जैसे होते हैं परन्तु इनकी प्रकार अलग-अलग होती है। इसी वजह से कुछ व्यक्ति लम्बे, छोटे, मोटे, पतले होते हैं। यही हाल सामाजिक ढांचे का है। चाहे इसके सभी हिस्से सभी समाजों में एक जैसे होते हैं परन्तु इनके प्रकार में परिवर्तन होता है। इसी वजह से एक समाज का ढांचा दूसरे समाज से अलग होता है। इस तरह स्पैंसर ने सिर्फ अलग-अलग अंगों के कार्य करने के आधार पर इसको सम्बन्धित रखा परन्तु कार्य के साथ इनकी आपसी सम्बन्धता भी ज़रूरी होती है। स्पैंसर ने बहुत ही सरल अर्थों में सामाजिक संरचना के बारे में अपने विचार दिए जिस वजह से सामाजिक संरचना का.अर्थ काफ़ी अस्पष्ट रह गया है।

2. एस० एफ० नैडल के विचार (Views of S. F. Nadal) नैडल के अनुसार, “मूर्त जनसंख्या हमारे समाज के सदस्यों के बीच एक-दूसरे के प्रति अपने रोल निभाते हुए सम्बन्धों के जो व्यावहारिक प्रतिबन्धित तरीके या व्यवस्था अस्तित्व में आती है उसे समाज की संरचना कहते हैं।”

नैडल के अनुसार संरचना अलग-अलग हिस्सों का व्यवस्थित प्रबन्ध है। यह समाज के सिर्फ बाहरी हिस्से से सम्बन्धित है तथा समाज के कार्यात्मक हिस्से से बिल्कुल ही अलग है। नैडल के संरचना के संकल्प को समझने के लिए उसके एक समाज के संकल्प की व्याख्या को समझना ज़रूरी है। नैडल के अनुसार एक समाज का अर्थ व्यक्तियों के उस समूह से है जिसमें अलग-अलग व्यक्ति संस्थागत सामाजिक आधार पर एक-दूसरे से इस तरह सम्बन्धित रहते हैं कि सामाजिक नियम लोगों के व्यवहारों को निर्देशित तथा नियन्त्रित करते हैं। इस तरह नैडल के एक समाज के अनुसार इसमें तीन तत्त्व हैं तथा वे तत्त्व हैं व्यक्ति, उनमें होने वाली अन्तक्रियाएं तथा अन्तक्रियाओं के कारण उत्पन्न होने वाले सामाजिक सम्बन्ध।

नैडल के अनुसार व्यवस्थित व्यवस्था का सम्बन्ध किसी भी वस्तु की रचना से होता है न कि उसके कार्यात्मक पक्ष से। उदाहरण के तौर पर सितार के कार्यात्मक पक्ष का ध्यान किए बगैर भी अर्थात् इसके सुरों की तरतीब को समझे बगैर भी हम उसकी संरचना या ढांचे का पता कर सकते हैं। इस तरह कई और समाज जिनके कार्यात्मक पक्ष के बारे में हमें बिल्कुल ज्ञान नहीं होता पर फिर भी हम उसकी बाहरी रचना को समझ सकते हैं। इस तरह नैडल के अनुसार समाज का अर्थ व्यक्तियों का वह समूह होता है जिसमें व्यक्ति संस्थात्मक सामाजिक नियम, उनके व्यवहारों को निर्देशित तथा नियमित करते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाज के अलग-अलग अंगों में पाए जाने वाले अंगों की आपसी सम्बन्धता की व्यवस्थित या नियमित क्रमबद्धता को ही सामाजिक संरचना कहते हैं।

3. रैडक्लिफ़ ब्राऊन के विचार (Views of Redcliff Brown)-ब्राऊन समाज शास्त्र के संरचनात्मक कार्यात्मक स्कूल से सम्बन्ध रखता था। उसके अनुसार, “सामाजिक संरचना के तत्त्व मनुष्य हैं, संरचना अपने आप में व्यक्तियों में संस्थात्मक, परिभाषित तथा नियमित सम्बन्धों के प्रबन्धों की व्यवस्था है।” ब्राऊन के अनुसार सामाजिक संरचना स्थिर नहीं होती बल्कि एक गतिशील निरन्तरता है। सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आते रहते हैं परन्तु मौलिक तत्त्व नहीं बदलते। संरचना तो बनी रहती है परन्तु कई बार आम संरचना के स्वरूप में परिवर्तन आ जाते हैं।

4. टालक्ट पारसन्ज़ के विचार (Views of Talcott Parsons)-पारसन्ज़ ने भी सामाजिक संरचना को अमूर्त बताया है। पारसन्ज़ के अनुसार, “सामाजिक संरचना शब्द को परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, ऐजंसियों तथा सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में हरके सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा भूमिकाओं की विशेष तरतीब ‘या क्रमबद्धता के लिए प्रयोग किया जाता है।”

इस समाजशास्त्री के अनुसार जैसे शरीर के अलग-अलग अंगों में परस्पर सम्बन्ध होता है उसी तरह सामाजिक संरचना की अलग-अलग इकाइयों में भी आपसी सम्बन्ध होता है जिस के साथ एक विशेष व्यवस्था कायम होती है तथा इस व्यवस्था के अधीन ही हरेक व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका तथा पद को अदा करता है। इन पदों से ही अलग-अलग संस्थाओं का जन्म होता है। जब यह सभी एक विशेष व्यवस्था के साथ संगठित तथा परस्पर ‘सम्बन्धित हो जाते हैं तो ही सामाजिक ढांचा कायम होता है।

इन समाजशास्त्रियों ने सामाजिक संरचना के लिए संस्थाओं, सभाओं, समूहों तथा कार्यात्मक व्यवस्थाओं इत्यादि के अध्ययन को भी शामिल किया है।

उपरोक्त लिखी सामाजिक संरचना की परिभाषाओं के आधार पर हम इसके अर्थों को संक्षेप रूप में इस तरह बता सकते हैं-

  1. सामाजिक संरचना एक अमूर्त संकल्प है।
  2. समाज के व्यक्ति समाज की अलग-अलग इकाइयों जैसे संस्थाएं, सभाएं, समूहों इत्यादि से सम्बन्धित होते हैं। इस वजह से ये संस्थाएं, सभाएं इत्यादि सामाजिक संरचना की इकाइयां हैं।
  3. ये संस्थाएं, समूह इत्यादि एक विशेष तरतीब से एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं जिससे सामाजिक संरचना में क्रम पैदा होता है।
  4. यह समाज के बाहरी हिस्से से सम्बन्धित होते हैं।
  5. सामाजिक संरचना समय तथा परिवर्तनों से बनती है।
  6. इसमें निरन्तरता तथा गतिशीलता पाई जाती है।

इस तरह हम देखते हैं कि समाज में परिवर्तन आने से इसके अंगों में भी परिवर्तन आ जाता है तथा यह अलगअलग समाजों में अलग-अलग होते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि समाज के अलग-अलग अंग होते हैं। जब यह एक निश्चित तरीके से व्यवस्थित होते हैं तो समाज का एक स्वरूप पैदा होता है जिसे सामाजिक संरचना कहा जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

प्रश्न 2.
सामाजिक पद या परिस्थिति के प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
पदों के वर्गीकरण के बारे में राल्फ लिंटन ने अपने विचार प्रकट किए हैं तथा उसने पदों को दो भागों में बाँटा है जो कि इस प्रकार हैं

  1. प्रदत्त पद (Ascribd Status)
  2. अर्जित पद (Achieved Status)

प्रत्येक समाज में इन दोनों प्रकारों का प्रयोग किया जाता है जिससे समाज सन्तुलित रहता है। प्रदत्त पद वह होते हैं जो व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त हो जाते हैं तथा व्यक्ति को इनको प्राप्त करने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। उदाहरण के लिए किसी अमीर व्यक्ति के घर पैदा हुए बच्चे को जन्म से ही अमीर का पद प्राप्त हो जाता है जिसके लिए उसने कोई परिश्रम नहीं किया होता है।

अर्जित पद वह होता है जो व्यक्ति अपने सख्त परिश्रम से प्राप्त करता है। इसमें व्यक्ति का जन्म नहीं बल्कि इसकी योग्यता तथा परिश्रम प्रमुख होते हैं। अतः समाज में व्यक्ति अपने गुणों के आधार पर स्थिति प्राप्त करता है। उदाहरण के लिए एक I.A.S. अफ़सर जो सख्त परिश्रम करके इस स्थिति तक पहुँचा है। इसे हम अर्जित पद कह सकते हैं।

प्रदत्त पद (Ascribed Status)-व्यक्ति को जो पद बिना किसी निजी परिश्रम के प्राप्त होता है उसे प्रदत्त पद का नाम दिया जाता है। यह पद हमें हमारे समाज की परम्पराओं, प्रथाओं इत्यादि से अपने आप ही प्राप्त हो जाता है। प्राचीन समाज में व्यक्ति प्रदत्त पद तक ही सीमित रहता था। जन्म के बाद ही व्यक्ति को इस पद की प्राप्ति हो जाती थी। सबसे पहले वह उस परिवार से सम्बन्धित हो जाता है जहाँ वह पैदा हुआ है। उसके बाद उस का लिंग उसको पद प्रदान करता है। फिर रिश्तेदारी उससे सम्बन्धित हो जाती है। यह स्थिति व्यक्ति को उस समय प्राप्त होती है जब समाज को उसके गुणों का पता नहीं होता। समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा उसको समाज में पद प्राप्त होते हैं। समाज व्यक्ति को कुछ नियमों के आधार पर बिना उसके परिश्रम किए कुछ पद प्रदान करता है तथा वह आधार निम्नलिखित हैं-

1. लिंग (Sex)-समाज में व्यक्ति को लिंग के आधार पर अलग किया जाता है जिसके लिए लड़का-लड़की, औरत-आदमी जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैविक पक्ष से भी इन दोनों लिंगों में कुछ भिन्नताएं पायी जाती हैं। अगर हम प्राचीन समय को देखें तो पता चलता है कि उन समाजों में कार्यों को लिंग के आधार पर बाँटा जाता था। इसलिए स्त्रियों का कार्य घर की देखभाल करना होता था तथा पुरुषो का कार्य घर से बाहर जाकर शिकार करना, कन्दमूल इकट्ठे करना था। शारीरिक तौर पर इन दोनों लिंगों में भिन्नताएं होती थीं। कुछ कार्य तो जैविक तौर पर ही सीमित रहते थे।

चाहे आजकल के समाजों में स्त्रियों तथा पुरुषों की योग्यताओं में काफ़ी समानता होती है परन्तु लिंग के आधार पर पायी गयी स्थिति अभी भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। इस वजह से कई समाजों में तो आज भी औरत तथा मर्द के पद में काफ़ी भिन्नता पायी जाती है। उसका दर्जा आदमी से काफ़ी निम्न था। भारतीय जाति प्रथा में औरतें शिक्षा नहीं ले सकती थीं। जन्म के बाद वह सीधे ही ब्रह्मचार्य आश्रम की बजाय गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करती थीं। यहां तक कि कई क्षेत्रों में लड़की को पैदा होने के साथ ही मार दिया जाता था। हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार घर में पुत्र होना ज़रूरी है वरना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती।

2. आयु के आधार पर स्थिति (Status on the basis of age) आयु भी अलग-अलग समाजों में पद बताने का महत्त्वपूर्ण आधार रही है। यह एक जैविक आधार है जिसको व्यक्ति बिना परिश्रम के प्राप्त करता है। हैरी एम० जानसन ने भी आयु के आधार पर व्यक्ति की अलग-अलग अवस्थाओं को बताया है-

आयु के आधार पर पायी गई अलग-अलग अवस्थाओं में व्यक्ति के पद क्रम में भी परिवर्तन आ जाता है। इन अवस्थाओं के साथ ही समाज की संस्कृतियां भी जुड़ी होती हैं। प्राचीन समाज में सबसे बड़ी आयु के व्यक्ति द्वारा समाज पर नियन्त्रण होता था। भारत में भी विवाह के लिए उम्र सीमा, वोट देने के लिए भी आयु एक कारक है। आयु के अनुसार व्यक्ति को समाज में स्थिति भी अलग-अलग तरीके से प्राप्त होती है। परिवार की उदाहरण ही ले लो। आयु के मुताबिक ही परिवार में बच्चे को उच्च या निम्न समझा जाता है। छोटी आयु वाले की हरेक बात को मज़ाक में लिया जाता है। जब वह जवान हो जाता है तो पहले उस की आदतों का ध्यान रखा जाता है तथा उससे अच्छे कार्य करने की उम्मीद की जाती है। आमतौर पर यह शब्द प्रयोग किए जाते हैं कि, “अब तू बड़ा हो गया है, तेरी आयु कम नहीं है, ध्यान से बोला कर” इत्यादि। आयु के मुताबिक ही समाज में भी व्यक्ति को सज़ा अलग-अलग तरीकों से दी जाती है। आधुनिक समाज में आयु के आधार पर पाए गए पद क्रम में भी परिवर्तन आ गया है क्योंकि कई बच्चे, जो अपनी उम्र से ज्यादा प्रतिभाशाली होते हैं, उनका समाज में ज्यादा सम्मान होता

3. रिश्तेदारी (Kinship)—प्राचीन समाज में भी रिश्तेदारी इतनी महत्त्वपूर्ण होती थी कि व्यक्ति को उसी आधार पर उच्च या निम्न जाना जाता था। एक राजा का बेटा राजकुमार कहलाता था। उसकी समाज में इज्जत राजा के बराबर ही होती थी। बच्चे की पहचान ही परिवार या रिश्तेदारी के आधार पर होती थी। बच्चे तथा परिवार का विशेष सम्बन्ध होता था। जाति प्रथा में तो बच्चे को जन्म से ही जाति प्राप्त होती थी जिससे सम्बन्धित उसकी रिश्तेदारी थी। इसका अर्थ है कि जाति प्रथा में उसको पारिवारिक स्थिति ही प्राप्त होती थी। परिवार के द्वारा ही समाज में व्यक्ति की पहचान होती थी। राजा अपने बच्चे को शुरू से ही घुड़सवारी, हथियारों का प्रयोग करने की शिक्षा दिलाते थे क्योंकि उनको अपने बच्चों को इस प्रकार की योग्यताएं देनी होती थीं। बड़ा होकर हरेक बच्चे को अपने परिवार का कार्य आगे बढ़ाना होता था। बच्चा, यहां तक कि आज भी, अपनी पारिवारिक योग्यता लेकर आगे बढ़ता है। टाटा, बिड़ला के बच्चों की स्थिति निश्चित तौर पर आम आदमी के बच्चों से उच्च होगी।

4. सामाजिक कारक (Social Factors)-कई समाजों में व्यक्तियों को अलग-अलग समूहों में वर्गीकृत किया होता था तथा इन समूहों के बीच पदक्रम की व्यवस्था होती थी अर्थात् इनको उच्च या निम्न समझा जाता था। इन समूहों का वर्गीकरण अलग-अलग कार्यों के आधार पर या योग्यता इत्यादि के आधार पर किया होता था। जैसे कि अध्यापक, अफसर इत्यादि। इस में अपने समूह से सम्बन्धित लोगों में मेल जोल होता था।

अर्जित पद (Achieved Status)—समाज में बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया के लिए प्रदत्त पद की अपनी ही महत्ता होती है। परन्तु समाज आधुनिक समय में इतने ज्यादा जटिल हो गए हैं कि केवल प्रदत्त पद के आधार पर व्यक्ति के पदक्रम को हम सीमित नहीं कर सकते क्योंकि अगर समाज के व्यक्तियों को खुलकर योग्यता प्रकट करने न दें तो कभी भी समाज प्रगति नहीं कर सकता। हरेक व्यक्ति अलग क्षेत्र में प्रगतिशील होता है क्योंकि कोई भी दो व्यक्तियों की योग्यता एक जैसी नहीं होती है। व्यक्तियों की योग्यताओं की पहचान के लिए हम उनको आगे बढ़ने का मौका देते हैं तथा इसके आधार पर उसको समाज में स्थिति प्रदान करते हैं।

प्राचीन समाजों में सिर्फ प्रदत्त पद ही महत्त्वपूर्ण होता था क्योंकि वह समाज साधारण होते थे तथा श्रेणी रहित होते थे। उनका कार्य सिर्फ जीवित रहने तक ही सीमित होता था। परन्तु जैसे-जैसे समाज जटिल होते गए उसी तरह व्यक्ति की योग्यता पर ज्यादा जोर दिया जाने लग गया। अर्जित पद के आधार पर व्यक्ति को समाज में स्थान प्राप्त हुआ। आधुनिक समाज ने तो व्यक्ति को पूर्ण मौके भी प्रदान किए हुए हैं ताकि उसकी योग्यता उसको परिणाम भी दे।

अर्जित पद में व्यक्ति की योग्यताओं की परख सामाजिक कीमतों के आधार पर होती है। आधुनिक समाज में जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन आ रहे हैं उसी तरह अर्जित पद में भी परिवर्तन आ रहे हैं। समाज की ज़रूरतों के मुताबिक इन को सीमित किया होता है। जैसे किसी देश में राष्ट्रपति के पद के लिए समय निश्चित किया होता है। उस समय के बाद कोई भी व्यक्ति उस पद को प्राप्त कर सकता है। श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण व्यक्ति को स्थिति परिवर्तन के कई मौके प्रदान करते हैं। आधुनिक पूँजीवादी समाज में धन की महत्ता ज्यादा होती है क्योंकि इसके आधार पर व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। औद्योगीकरण के कारण कई पेशे तकनीकी प्रकृति के हैं, जिनको प्रदत्त पद के आधार पर नहीं बाँटा जा सकता।

अर्जित पद व्यक्ति के अपने यत्नों या परिश्रम से प्राप्त होता है जिसको शिक्षा, धन, कुशलता, पेशे इत्यादि के आधार के साथ सम्बन्धित रखा जाता है। इस पद के द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है। इसमें व्यक्तिवादी प्रवृत्ति को पूर्ण प्रोत्साहन मिलता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक संरचना

सामाजिक संरचना PSEB 11th Class Sociology Notes

  • समाजशास्त्र के बहुत से मूल संकल्प हैं तथा सामाजिक संरचना उनमें से एक है। सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग प्रसिद्ध समाजशास्त्री हरबर्ट स्पैंसर ने किया था। उनके बाद बहुत से समाजशास्त्रियों जैसे कि टालक्ट पारसन्ज, रैडक्लिफ ब्राऊन, मैकाइवर इत्यादि ने भी इसके बारे में काफ़ी कुछ लिखा।
  • हमारे समाज के बहुत से अंग होते हैं जो एक-दूसरे के साथ किसी न किसी रूप से जुड़े होते हैं। यह सभी अंग अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। इस सभी भागों के व्यवस्थित रूप को सामाजिक संरचना का नाम दिया जाता है। यह चाहे अमूर्त होते हैं परन्तु हमारे जीवन को निर्देशित करते रहते हैं।
  • सामाजिक संरचना की बहुत सी विशेषताएँ होती हैं जैसे कि यह अमूर्त होती है, इसके बहुत से अत : सम्बन्धित अंग होते हैं, इन सभी अंगों में एक व्यवस्था पाई जाती है, यह सभी व्यवहार को निर्देशित करते हैं, यह सर्वव्यापक होते हैं, यह समाज के बाहरी रूप को दर्शाते हैं।
  • हरबर्ट स्पैंसर ने एक पुस्तक लिखी ‘The Principal of Sociology’ जिसमें उन्होंने सामाजिक संरचना शब्द का जिक्र किया तथा उसकी तुलना जीवित शरीर से की। उसने कहा जैसे शरीर के अलग-अलग अंग शरीर को ठीक ढंग से चलाने के लिए आवश्यक होते हैं, उस प्रकार से सामाजिक संरचना के अलग-अलग अंग भी संरचना को चलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
  • सामाजिक संरचना के बहुत से तत्त्व होते हैं जिनमें प्रस्थिति तथा भूमिका काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। प्रस्थिति का अर्थ वह रूतबा या स्थिति है जो व्यक्ति को समाज में रहते हुए दी जाती है। एक व्यक्ति की बहुत सी प्रस्थितियां होती हैं जैसे कि अफसर, पिता, पुत्र, क्लब का प्रधान इत्यादि।
  • प्रस्थितियां दो प्रकार की होती हैं-प्रदत्त तथा अर्जित। प्रदत्त प्रस्थिति वह होती है जो व्यक्ति को बिना किसी परिश्रम में स्वयं ही प्राप्त हो जाती है। अर्जित प्रस्थिति व्यक्ति को स्वयं ही प्राप्त नहीं होती बल्कि वह अपने परिश्रम से इन्हें प्राप्त करता है।
  • भूमिका उम्मीदों का वह गुच्छा है जिसकी व्यक्ति से पूर्ण करने की आशा की जाती है। प्रत्येक प्रस्थिति के साथ कुछ भूमिकाएं भी लगा दी जाती हैं। भूमिका से ही पता चलता है कि हम किस प्रकार एक प्रस्थिा पर रहते हुए किसी विशेष समय व्यवहार करेंगे।
  • भूमिका की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि भूमिका सीखी जाती है, भूमिका प्रस्थिति का कार्यात्मक पक्ष है, भूमिका के मनोवैज्ञानिक आधार हैं इत्यादि।
  • प्रस्थिति तथा भूमिका के बीच गहरा संबंध है क्योंकि यह दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। अगर किसी व्यक्ति को कोई प्रस्थिति प्राप्त होगी तो उससे सम्बन्धित भूमिकाएं भी स्वयं ही मिल जाएंगी। बिना भूमिका के प्रस्थिति का कोई लाभ नहीं है तथा बिना प्रस्थिति के भूमिका नहीं निभाई जा सकती।
  • सामाजिक संरचना (Social Structure)-अलग-अलग व्यवस्था के क्रमवार रूप को व्यवस्थित करना।
  • भूमिका सैट (Role Set)-जब एक व्यक्ति को बहुत-सी भूमिकाएं प्राप्त हो जाएं।
  • भूमिका संघर्ष (Role Conflict)—जब एक व्यक्ति को बहुत-सी भूमिकाएं प्राप्त हों तथा उन भूमिकाओं में संघर्ष उत्पन्न हो जाए।
  • भूमिका (Role) विशेष परिस्थिति को संभालने वाले व्यक्ति से विशेष प्रकार की आशा करना।
  • प्रस्थिति (Status)—वह स्थिति जो व्यक्ति को मिलती है तथा निभानी पड़ती है।
  • प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed Status)—वह स्थिति किसी व्यक्ति को जन्म या किसी अन्य आधार पर दी जाए।
  • अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status)—वह स्थिति जो व्यक्ति अपने परिश्रम से प्राप्त करता है।

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