Punjab State Board PSEB 12th Class Hindi Book Solutions हिन्दी साहित्य का इतिहास रीतिकाल Questions and Answers, Notes.
PSEB 12th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास रीतिकाल
प्रश्न 1.
रीतिकाल के नामकरण के औचित्य पर युक्ति-युक्त विचार कीजिए।
उत्तर:
रीतिकालीन साहित्य आदिकालीन और भक्तिकालीन साहित्यिक भावभूमि से नितान्त भिन्न साहित्य है। भक्तिकाल में आध्यात्मिकता और प्रभु-प्रेम प्रमुख था और आदिकालीन साहित्य में युद्ध-प्रेम जबकि रीतिकालीन साहित्य पूर्णत: लौकिक एवं भौतिक दृष्टिकोण से रचा गया है। यह साहित्य राजाओं के आश्रय में रचित साहित्य है। इस युग के राज दरबारों में विलासिता का वातावरण प्रधान था, इसीलिए राजाओं की प्रसन्नता के लिए रचा जाने वाला साहित्य शृंगार एवं विलास से पूर्णतः आवेष्ठित है तथापि भक्ति, नीति, धर्म एवं सामान्य रूपों आदि में काव्य की एक क्षीण धारा भी श्रृंगार के साथ-साथ बहती रहती है। इसलिए विद्वान् इस काल के नामकरण पर भिन्न-भिन्न मत रखते हैं।
सामान्यतः संवत् 1700 से 1900 तक के काल को हिन्दी साहित्य में रीतिकाल के नाम से जाना जाता है, परन्तु . साहित्य के इतिहास के काल विभाजन के नामकरण को आधार प्रदान करते हुए अम्बा प्रसाद ‘सुमन’ का कथन है कि “साहित्य के इतिहास का काल विभाजन कृति, कर्ता, पद्धति और विषय की दृष्टि से किया जा सकता है। कभी-कभी नामकरण के किसी दृढ़ आधार के उपलब्ध न होने पर उस काल के किसी अत्यन्त प्रभावशाली साहित्यकार के नाम पर ही उस काल का नामकरण किया जाता है।” इस आधार पर आचार्य शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास से पहले “मिश्रबंधु विनोद” में आदि, मध्य और अन्त तीन वर्गीकरण किए पर आचार्य शुक्ल ने इस वर्गीकरण के साथ-साथ प्रवृत्ति की प्रमुखता के आधार पर विशिष्ट नाम जोड़ दिए। इस आधार पर हम देखते हैं कि आचार्य शुक्ल ने मध्यकाल में जहां भक्ति की प्रधानता देखी उसे भक्तिकाल और मध्यकाल का नाम दिया गया और जहां रीति, श्रृंगार आदि की प्रधानता देखी उसे उत्तर मध्यकाल और रीतिकाल का नाम दिया। अतः कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल का उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल नाम पद्धति विशेष के आधार पर ही हुआ है।
आचार्य शक्ल के अतिरिक्त भी कुछ विद्वानों ने इस काल को भिन्न-भिन्न संज्ञाएं प्रदान की हैं। वे रीतिकाल को अलंकरण काल, कला काल, श्रृंगार काल आदि नामों से अभिव्यक्ति करते हैं अतः विवादास्पदता से बचने के लिए इन नामों की परीक्षा करना उचित प्रतीत होता है।
(i) मिश्र बन्धुओं ने इस काल को अलंकृत काल के नाम से पुकारा है। दूसरी तरफ वे स्वयं रीतिकालीन कवियों के ग्रन्थों को रीतिग्रन्थ और उनके विवेचन को रीति कथन कहते हैं। अपने ग्रन्थ मिश्रबन्धु विनोद में उन्होंने रीति की व्याख्या करते हुए लिखा है, “इस प्रणाली के साथ रीति ग्रन्थों का भी प्रचार बढ़ा और आचार्यता की वृद्धि हुई। आचार्य लोग तो स्वयं कविता करने की रीति सिखलाते थे।” मिश्र बन्धुओं के इस दृष्टिकोण को देखकर आश्चर्य होता है कि रीति की इतनी स्पष्ट व्याख्या करने के उपरान्त भी उन्होंने कैसे इस काल को अलंकृत काल कहा है। अलंकृत काल अतिव्याप्ती या दोष से दूषित है क्योंकि अलंकार प्रधान कविता हर युग में रची जाती रही है।
(ii) डॉ० रामकुमार वर्मा ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का ऐतिहासिक अनुशीलन’ में इस काल को कला काल के नाम से पुकारा है। किन्तु यह नाम भी उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि साहित्य के भावपक्ष और कलापक्ष दोनों एकदूसरे पर टिके हुए हैं, उनका सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। मात्र भाव ही कविता नहीं होता और न ही केवल अकेली कला के सहारे ही कविता रची जा सकती है जबकि रीतिकाल में भाव उत्कर्ष और कला का सौन्दर्य दोनों ही प्राप्त होते हैं। इसलिए डॉ० रामकुमार वर्मा द्वारा प्रस्तावित ‘कला काल’ नाम अव्याप्ति दोष के कारण समीचीन प्रतीत नहीं होता।
(iii) आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल में श्रृंगार रस की प्रमुखता को देखकर इसे श्रृंगार काल के नाम से पुकारा है। यह नाम भी अव्याप्ति दोष से ग्रस्त है क्योंकि सम्पूर्ण रीतिकालीन साहित्य का अनुशीलन करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि वहां श्रृंगार की प्रधानता स्वतन्त्र नहीं बल्कि रीति आश्रित है और न ही केवल श्रृंगार ही तत्कालीन समय का विवेचन विषय रहा है। धर्म, भक्ति, नीति भी इस युग की कविता में वर्णित हुए हैं। दूसरे, विद्वानों ने इस काल के कवियों को रीतिबद्ध, रीति सिद्ध और रीति मुक्त, इन तीन वर्गों में विभाजित किया है। इस वर्गीकरण के आधार पर भी इसे रीतिकाल ही कहा जा सकता है।
आचार्य शुक्ल शृंगार की प्रधानता को स्वीकार करते हुए कहते हैं, “वास्तव में श्रृंगार और वीर इन दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार रस की ही रही। इससे इसे कोई शृंगार काल कहे तो कह सकता है।” शुक्ल जी के इस कथन से स्पष्ट होता है कि वे शृंगार की प्रमुखता को मानते हुए भी रीति के सुदृढ़ आधार को त्यागना नहीं चाहते क्योंकि इस काल की श्रृंगारवेष्टित कविता रीति आश्रित ही थी।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि कला काल, शृंगारकाल और अलंकृत काल आदि नाम इस युग की कविता की आन्तरिक प्रवृत्ति अर्थात् कथ्य को पूर्णतः स्पष्ट करने में सहायक नहीं हो सकते। इसलिए आचार्य शुक्ल द्वारा दिया गया नाम रीतिकाल ही उपयुक्त बैठता है। इस विषय में डॉ० भागीरथ मिश्र कहते हैं, “कला काल कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है, शृंगार काल कहने से वीर रस और राज प्रशंसा की। रीतिकाल कहने से प्रायः कोई भी महत्त्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रवृत्ति सामने आ जाती है। यह युग रीति पद्धति का युग था।” अतः इसे रीतिकाल का नाम दिया जा सकता है।
प्रश्न 2.
रीतिकालीन परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
किसी भी काल की साहित्यिक गतिविधियों को जानने के लिए उस काल की सामान्य परिस्थितियों को जानना बहुत ज़रूरी होता है। रीतिकाल का समय संवत् 1700 से संवत् 1900 तक माना जाता है। इस काल की परिस्थितियों का परिचय इस प्रकार है-
(क) राजनीतिक परिस्थितियाँ-राजनीतिक दृष्टि से यह काल मुग़लों के चरमोत्कर्ष तथा उत्तरोत्तर ह्रास और पतन का युग है। इस काल में मुग़ल सम्राट अकबर से लेकर औरंगज़ेब का शासनकाल रहा। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद विलासिता खुलकर सामने आई। उसके उत्तराधिकारी अयोग्य, असमर्थ और निकम्मे निकले। वे नाच-गानों में ही मस्त रहा करते थे। स्त्री को मनोरंजन की वस्तु माना जाने लगा। रीतिकाल में इसी प्रभाव के कारण अधिकतर शृंगारपरक रचनाएँ लिखी गईं।
सन् 1738 ई० में नादिरशाह और सन् 1761 ई० में अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुग़ल साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी। अनेक प्रदेशों के शासक स्वतन्त्र हो गए। सन् 1803 ई० तक अंग्रेज़ शासन समूचे उत्तर भारत में स्थापित हो चुका था। सन् 1857 की जन क्रान्ति की विफलता के बाद मुगल शासन पूरी तरह समाप्त हो गया।
(ख) सामाजिक परिस्थितियाँ- सामाजिक दृष्टि से भी यह काल अध: पतन का युग ही रहा। राजाओं के साथ प्रजा भी विलासिता के रंग में रंगने लगी। सम्पूर्ण समाज में नारी के सौन्दर्य का सौदा होने लगा। नारी को केवल मनोरंजन की वस्तु माना जाने लगा। किसी भी सुन्दर कन्या का अपहरण किया जाने लगा। डरकर बाल विवाह की कुप्रथा चल पड़ी।
जनसाधारण की शिक्षा, चिकित्सा आदि का कोई प्रबन्ध नहीं था। रिश्वत देना और लेना आम बात थी। राजे-राजवाड़े ग़रीब किसानों का शोषण कर स्वयं ऐश कर रहे थे, अतिवृष्टि, अनावृष्टि और युद्धों से फ़सलों को होने वाली हानि ने किसानों की हालत और बिगाड़ दी थी। ऐसी अव्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था में सुरुचिपूर्ण और गम्भीर साहित्य की रचना सम्भव ही नहीं थी।
(ग) धार्मिक परिस्थितियाँ- धार्मिक दृष्टि से यह युग सभ्यता और संस्कृति के पतन का युग था। इस युग में नैतिक बन्धन इतने ढीले हो गए थे कि धर्म किसी को याद नहीं रहा। धर्म के नाम पर बाह्याडम्बरों और भोग-विलास के साधन जुटाए जाने लगे। इस्लाम धर्मानुयायी भी रूढ़िवादिता का शिकार हुए। वे रोजा और नमाज़ को ही धर्म समझने लगे। जनसाधारण अन्धविश्वासों में जकड़े थे जिसका लाभ पण्डित और मुल्ला उठा रहे थे। धर्म स्थान भ्रष्टाचार के अड्डों में बदलते जा रहे थे। मन्दिरों में भी पायल की झंकार और तबले की थाप की ध्वनियाँ आने लगी थीं।
(घ) आर्थिक परिस्थितियाँ-आर्थिक दृष्टि से इस युग में आम लोगों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। जाति-पाति के बन्धन और भी कठोर हो गए थे। वर्ण व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित होने लगी थी। लोग उत्पादक और उपभोक्ता दो वर्गों में बंट गए थे अथवा समाज अमीर और ग़रीब वर्गों में बट गया था। इस युग में कवियों, संगीतकारों एवं चित्रकारों का तीसरा वर्ग भी पैदा होता जा रहा था जो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए अपनी रचनाओं में कामशास्त्र और शृंगारिकता का सहारा लेकर धन कमा रहा था।
(ङ) साहित्यिक परिस्थितियाँ-साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग पर्याप्त समृद्ध कहा जा सकता है। इस युग के कवि अपने आश्रयदाताओं से प्राप्त धन के बलबूते पर समृद्ध वर्ग में गिने जाने लगे थे। इसी प्रोत्साहन के फलस्वरूप इस युग के कवियों ने गुण और परिमाण दोनों दृष्टियों से हिन्दी-साहित्य का विकास किया। इस युग के कवियों ने एक साथ कवि और आचार्य बनने का प्रयत्न किया। इन कवियों को सौन्दर्य उपकरणों की जानकारी कराने के लिए पर्याप्त ग्रन्थ लिखे। कवियों ने युगानुरूप श्रृंगारपरक रचनाएँ ही रची।
(च) कलात्मक परिस्थितियाँ- रीतिकाल के कला क्षेत्र में प्रदर्शन की प्रवृत्ति की प्रधानता रही। इसमें मौलिकता की कमी है पर सामन्ती युग की वासनात्मकता काफ़ी अधिक है। ‘स्वामिनः सुखाय’ साहित्य में नायिकाओं के परम्परागत बाज़ारू चित्र बनते रहे। चित्रकारों ने राग-रागनियों पर आधारित प्रतीक चित्र बनाये लेकिन कहीं भी इन्होंने अपने मन की अभिव्यक्ति स्वतन्त्र रूप से नहीं की। इन्होंने तो देवी-देवताओं को भी साधारण नायक-नायिका की भान्ति अंकित किया। संगीतकारों और मूर्तिकारों ने आश्रयदाताओं की इच्छा के अनुसार ही कार्य किया, जिसमें चमत्कारप्रियता को बल दिया गया।
कुल मिला कर हिन्दी-साहित्य का रीतिकाल भोग विलास का काल था जिसमें नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ। अन्धविश्वासों और बाह्याडम्बरों का बोलबाला हुआ। राजा और प्रजा की श्रृंगारिकता के प्रति आसक्ति बढ़ी।
प्रश्न 3.
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों/विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रीतिकालीन काव्य दरबारी संस्कृति में पलने वाला साहित्य था। इस काल के कवियों ने ‘स्वान्तः सुखाय’ काव्य की रचना नहीं की अपितु धन-मान प्राप्त करने के लिए ‘स्वामिनः सुखाय’ काव्य रचा। इस युग की कविता में रसिकता और शृंगारिकता की भावना प्रमुख थी। रीतिकालीन कवि की चेतना सुरा, सुराही और सुन्दरी के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटती रही। नारी के सुन्दर शरीर की चमक तो इन्होंने सर्वत्र ढूँढी पर नारी की अन्तरात्मा में छिपी पीड़ा को समझने का प्रयास नहीं किया। प्रेम की पवित्र भावना को भी इन्होंने रसिकता में बदल दिया। रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) श्रृंगारिकता- रीतिकालीन साहित्य में शृंगारिकता की प्रवृत्ति सब से अधिक है। रीतिकाल के वैभव-विलास युक्त उन्मादक वातावरण ने इन्हें श्रृंगारिकता काव्य लिखने के लिए प्रेरित ही नहीं किया बल्कि बढ़ावा भी दिया। रीतिकालीन काव्य में श्रृंगार की दोनों अवस्थाओं-संयोग और वियोग श्रृंगार का सुन्दर चित्रण किया गया है। संयोग श्रृंगार के कुछ चित्र अश्लीलता की सीमा को छू गए हैं। विभिन्न त्योहारों और पर्यों के माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका का मिलन कराने में इनका मन खूब रमा है। नायिका का नुख-शिख वर्णन करने में तथा वियोग वर्णन करने में केवल परम्परा का निर्वाह किया गया है। केवल घनानन्द जैसे रीतिमुक्त कवियों ने शृंगार वर्णन को वासना मुक्त रखा है। उनका श्रृंगार वर्णन काफ़ी स्वस्थ, आकर्षक और मनोरम है।
(ii) अलंकारिकता- रीतिकालीन कवियों की रुचि प्रदर्शन और चमत्कार में अधिक थी। तत्कालीन परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बन गई थीं कि इन्हें अपने काव्य को कृत्रिम भड़कीले रंग में रंगना ही पड़ा। अनेक रीतिबद्ध कवियों ने स्वतन्त्र अलंकार सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे। कहीं-कहीं रीति कवियों ने अलंकारों का इतना अधिक और व्यर्थ प्रयोग किया है कि वे काव्य-सौन्दर्य को बढ़ाने के बजाए सौन्दर्य के घातक बन गए हैं। अति अलंकार प्रियता ने केशव को कठिन कविता का प्रेत बना दिया।
(iii) लक्षण-ग्रन्थों का निर्माण-सभी रीतिबद्ध कवियों ने संस्कृत काव्य शास्त्र पर आधारित लक्षण-ग्रन्थों का निर्माण किया। ऐसा उन्होंने राज दरबार में उचित सम्मान प्राप्त करने के लिए किया, जबकि काव्य-शास्त्र सम्बन्धी इनका ज्ञान पूर्ण नहीं था। यह लक्षण ग्रन्थ भारतीय काव्य-शास्त्र का कोई महत्त्वपूर्ण विकास न कर सके।
(iv) भक्ति और नीति-रीतिकालीन काव्य में पर्याप्त मात्रा में भक्ति और नीति सम्बन्धी सूक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। पर न तो इस काल के कवि भक्त थे और न ही राजनीति विशारद। राधा-कृष्ण के नाम से भक्ति करने का इनका प्रयास तो एक मात्र आश्रयदाता को रिझाना और श्रृंगारिक चित्र खींचना ही था। डॉ० नगेन्द्र के अनुसार, “यह भक्ति भी उनकी शृंगारिकता का अंग थी।” रहीम और वृन्द कवियों ने अवश्य ही नीति परक काव्य की रचना की है।
(v) वीर काव्य- रीतिकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गई थीं कि हिन्दू जनता में मुसलमान शासकों की अत्याचारी नीतियों के प्रति विद्रोह की भावना उमड़ने लगी थी। औरंगजेब की कट्टर नीतियों ने पंजाब में गुरु गोबिन्द सिंह जी, दक्षिण में शिवाजी, राजस्थान में महाराज राज सिंह और दुर्गादास, मध्य प्रदेश में छत्रसाल आदि को मुस्लिम साम्राज्य से टक्कर लेने के लिए तलवार उठाने पर विवश कर दिया। भूषण, सूदन, पद्माकर आदि वीर रस के कवियों ने ओज भरी वाणी में काव्य निर्माण किया। इसमें राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है।
(vi) नारी चित्रण-इस युग में नारी केवल विलास की वस्तु बन कर रह गई थी। दरबारी कवियों ने नारी के केवल विलासिनी प्रेमिका के चित्र ही प्रस्तुत किए। प्रतियोगिता की भावना के कारण इस युग के कवि ने नारी के अश्लील, विलासात्मक, भड़कीले चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया। नारी जीवन की अनेकरूपता को वे नहीं जान पाए।
(vii) ब्रज भाषा की प्रधानता-रीतिकाल की प्रमुख साहित्यिक भाषा ब्रज है। इस काल में भक्तिकाल से भी अधिक ब्रज भाषा का विकास हुआ। मुसलमान कवियों ने भी इसी भाषा का प्रयोग किया। भूषण, देव आदि कवियों ने अपनी इच्छा से इस भाषा के शब्दों को तोड़ा मरोड़ा है। किन्तु रसखान, घनानन्द आदि की भाषा परिनिष्ठित है। बिहारी की भाषा टकसाली कही जाती है।
वस्तुतः रीतिकाव्य कवित्व की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्त्व सर्वमान्य है।
प्रश्न 4.
रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त काव्य में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
- रीतिसिद्ध काव्य काव्यशास्त्रीय है जबकि रीतिमुक्त काव्य में काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण नहीं मिलता। रीतिमुक्त काव्य सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त है। इसी कारण इसे रीतिमुक्त काव्य कहा गया है।
- रीतिसिद्ध काव्य दरबारी कविता है जबकि रीतिमुक्त काव्य अधिकांशतः दरबार से बाहर मुक्त वातावरण में रचा गया।
- रीतिसिद्ध काव्य की रचना मुख्यतः राज्याश्रय में हुई जबकि रीतिमुक्त काव्य हृदय के स्वच्छंद भाव के आधार पर रचा गया।
- रीतिसिद्ध काव्य का उद्देश्य ‘परान्तः सुखाय’ अर्थात् दूसरे को खुश करना है जबकि रीतिमुक्त काव्य की रचना ‘स्वांतः सुखाय’ अर्थात् अपने मन की प्रसन्नता के लिए हुई।
- रीतिसिद्ध काव्य का भाव पक्ष गौण है और अभिव्यक्ति पक्ष प्रधान है जबकि रीतिमुक्त काव्य आंतरिक अनुभूतियों का काव्य है। इसमें भावा वेग का प्रवाह बहता मिलता है।
- रीतिसिद्ध काव्य चमत्कारपूर्ण है जबकि रीतिमुक्त काव्य चमत्कार से रहित और हृदय के सच्चे भावों पर आधारित है।
- रीतिसिद्ध काव्य में श्रृंगार का वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर अर्थात् अतिशयोक्तिपूर्ण है परन्तु रीतिमुक्त काव्य में प्रेम का सहज और भावपूर्ण चित्रण किया गया है।
- रीतिसिद्ध का श्रृंगार अधिकतर भोग मूलक है और यह अपने आश्रयदाताओं की भोग लिप्सा को जगाने वाला है जबकि
- रीतिमुक्त काव्य में व्यथामूलक (त्यागमूलक) श्रृंगार का चित्रण किया गया है। रीतिमुक्त काव्य में वर्णित संयोग में भी पीड़ा की अनुभूति बनी रहती है।
- शायद इसका कारण यह रहा हो कि अधिकांश रीतिमुक्त कवि जीवन में प्रेम से पीड़ित रहे हैं। उनका वर्णन प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। यही कारण है कि रीतिमुक्त कवियों की अभिव्यक्ति अधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ी है।
- रीतिसिद्ध कवियों की भाषा आडम्बरपूर्ण है जबकि रीतिमुक्त कवियों की भाषा प्रवाहपूर्ण तथा स्वाभाविक होने के कारण सहज है।
- रीतिसिद्ध कवि, कवि के अपेक्षा कलाकार अधिक है, जबकि रीतिमुक्त भावुक कवि है।
प्रश्न 5.
रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्य में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
रीतिकालीन साहित्य में रीतिबद्ध कवियों में प्रमुख केशवदास, मतिराम, देंव और चिंतामणि तथा रीतिमुक्त कवियों में प्रमुख घनानंद, बोधा, आलम और ठाकुर हैं। रीतिबद्ध काव्य शास्त्रों पर आधारित है। इसमें कवियों ने संस्कृत के काव्य-शास्त्र के आधार पर काव्यांगों के लक्षण देते हुए उनके उदाहरण दिए हैं। इसके विपरीत रीति मुक्त काव्य में काव्य शास्त्रीय दृष्टिकोण नहीं मिलता। रीतिबद्ध कवियों का प्रेम चित्रण साहित्य शास्त्र द्वारा चर्चित रूढ़ियों, परम्पराओं तथा कवि समयों के अनुसार है, जबकि रीतिमुक्त कवियों की प्रेम सम्बन्धी विचारधारा अत्यन्त व्यापक और उदार है। इन्हें बंधी-बंधाई परिपाटी पर प्रेम चित्रण करना पसन्द नहीं है।
रीतिबद्ध कवियों का काव्य मुख्य रूप से तत्कालीन शासक वर्ग, रईसों तथा रसिक जनों के लिए अधिक रचा गया था। इसके विपरीत रीति मुक्त काव्य का मूल मन्त्र हृदय के स्वच्छंद भावों को मुक्त रूप से व्यक्त करना था। रीतिबद्ध काव्य में आचार्यत्व और कवित्व का अद्भुत सम्मिश्रण प्राप्त होता है, जिसके अन्तर्गत इन्होंने विशुद्ध लक्षण ग्रंथ लिखे तथा उदाहरण भी दिए परन्तु इसमें भी कलापक्ष की प्रधानता के दर्शन होते हैं। रीतिमुक्त काव्य में आन्तरिक अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण प्राप्त होता है, जिनमें भावों का आवेग प्रवाहित होता रहता है। रीतिबद्ध काव्य में चमत्कार की प्रधानता है परन्तु रीति मुक्त काव्य चमत्कार से मुक्त होकर हृदय के सत्यभावों को अभिव्यक्त करता है।
रीतिबद्ध काव्य में श्रृंगार वर्णन आश्रयदाता की मनोभावनाओं को उद्दीप्त करता है। रीतिमुक्त काव्य का श्रृंगार वर्णन भी व्यथामूलक है। रीतिबद्ध कवि मुख्य रूप से ‘परांतः सुखाएं’ काव्य रचना करते रहे जबकि रीतिमुक्त कवियों ने अपनी तथा तत्कालीन जनजीवन की सांस्कृतिक, पारिवारिक, सामाजिक, प्राकृतिक जीवन की झांकियां भी अपने काव्य में प्रस्तुत की हैं।
रीतिबद्ध कवियों की भाषा अलंकारपूर्ण, आडम्बरी तथा बोझिल है। रीतिमुक्त कवियों ने सहज, स्वाभाविक तथा भावपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है। इस दृष्टि से रीतिबद्ध कवि कलाकार अधिक सिद्ध होते हैं, कवि नहीं, जबकि रीति मुक्त कवि एक भावुक कवि है।
प्रमुख कवियों का जीवन एवं साहित्य परिचय
1. केशवदास (सन् 1555-1617 ई०)
प्रश्न 1.
केशवदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
केशव की गणना हिन्दी साहित्य के महान् कवियों में की जाती है। इन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक और प्रथम आचार्य भी माना जाता है। इनके विषय में एक उक्ति प्रसिद्ध है-कविता करता तीन हैं-तुलसी, केशव, सूर। जीवन परिचय-केशवदास का जन्म विद्वान् सम्वत् 1612 (सन् 1555 ई०) के आसपास बेतवा नदी के तट पर स्थित ओरछा नगर में हुआ मानते हैं। इनके पिता पं० काशीराम मिश्र संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे। उनका राजा मधुकर शाह बड़ा सम्मान करते थे। केशव दास को संस्कृत का ज्ञान अपने पूर्वजों से परम्परागत रूप में प्राप्त हुआ. था। ओरछा नरेश महाराज इन्द्रजीत सिंह इन्हें अपना गुरु मानते थे। गुरु धारण करते समय उन्होंने केशव को इक्कीस गाँव भेंट में दिए थे। केशव ने उनकी प्रशस्ति में लिखा है-
भूतल को इन्द्र इन्द्रजीत जीवै जुग-जुग,
‘जाके राज केसौदास राज सो करते हैं।
केशव का सारा जीवन राज्याश्रय में ही व्यतीत हुआ। राज दरबार में रहने के कारण यह बड़े हाज़र जवाब थे और शृंगारिक प्रकृति के थे। उनकी कविताओं में रसिकता और चमत्कार देखने को मिलता है। उनके जीवन की एक घटना बड़ी प्रसिद्ध है। केशव जब बूढ़े हो गए तो एक दिन कुएँ पर पानी भरती हुई लड़कियों ने उन्हें ‘बाबा जी’ कह दिया जब कि केशव उनकी ओर बड़ी रसिकता से देख रहे थे, तब उनके मुँह से निम्न पंक्तियाँ प्रस्फुटित हुईं-
केशव केसनि अस करि, बैरिहू जस न कराहिं,
चन्द्र वदनि मृगलोचनि, बाबा कहि-कहि जाहिं।
केशव साहित्य और संगीत, धर्म-शास्त्र और राजनीति, ज्योतिष और वैधिक सभी विषयों के गम्भीर अध्येता थे। केशवदास की रचना में उनके तीन रूप आचार्य, महाकवि और इतिहासकार दिखाई पड़ते हैं।
केशव की मृत्यु सम्वत् 1674 (सन् 1617 ई०) में हुई मानी जाती है। रचनाएँ-केशव द्वारा रचित उपलब्ध कृतियों में से निम्नलिखित कृतियाँ उल्लेखनीय हैं-
- रसिक प्रिया
- राम चन्द्रिका
- कवि प्रिया
- रतन बावनी
- वीर सिंह देवचरित
- विज्ञान गीता
- जहाँगीर जस चन्द्रिका।
इनके अतिरिक्त उनके, ‘नख-शिख’ और छन्द माला दो अन्य ग्रन्थ भी प्रसिद्ध हैं।
केशव की उपरोक्त कृतियों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि केशव अपनी रचनाओं में वीरगाथा काल, भक्तिकाल और रीतिकाल के काव्यगत आदर्शों का समाहार करना चाहते थे। इन ग्रन्थों में से केशव की ख्याति का आधार प्रथम तीन ग्रन्थ हैं जिनमें ‘रसिक प्रिया’ और ‘कवि प्रिया’ काव्य शास्त्रीय ग्रन्थ हैं तथा ‘राम चन्द्रिका’ रामचरित से सम्बद्ध महाकाव्य है। शेष ग्रन्थ साधारण कोटि के हैं।
प्रश्न 2.
केशवदास के काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
केशवदास के काव्य की विशेषताओं को जानने के लिए केवल एक ही ग्रन्थ ‘रामचन्द्रिका’ काफ़ी है। प्रस्तुत रचना के कथानक का आधार प्रमुखत: वाल्मीकि रामायण है परन्तु प्रासंगिक कथाओं के विकास और रंचना शैली में संस्कृत के ‘प्रसन्न राघव’ और ‘हनुमन्नाटक’ का प्रभाव भी इस रचना पर देखा जा सकता है। राम चन्द्रिका’ के आधार पर केशव के काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. असफल प्रबन्ध काव्य-‘रामचन्द्रिका’ को प्रबन्ध काव्य का रूप देने में कवि को सफलता नहीं मिल सकी क्योंकि प्रस्तुत प्रबन्ध काव्य में न तो कथा का सुसंगत विकास हो पाया है और न ही भावपूर्ण स्थलों का चित्रण सही ढंग से हुआ है। वस्तु विन्यास की दृष्टि से यह ग्रन्थ कई मुक्तकों का संग्रह प्रतीत होता है जिन्हें जोड़कर प्रबन्धात्मक रूप देने की विफल चेष्टा की गई है।
केशव ने कुछ स्थलों पर अनावश्यक विस्तार से काम लिया है तथा भावपूर्ण स्थलों का चयन और चित्रण भी ठीक ढंग से नहीं किया गया है। उनके वर्णन उनकी दरबारी मनोवृत्ति का प्रदर्शन मात्र बन कर रह गए हैं।
2. चरित्र वर्णन-केशव पर यह दोष लगाया जाता है कि उन्होंने श्रीराम का चरित्र सही ढंग से नहीं प्रस्तुत किया है। वास्तव में लोगों के दिलों में तुलसी के ‘मानस’ में वर्णित श्रीराम का चरित्र बसा हुआ था। केशव तो राम की चन्द्रिका (ऐश्वर्य) के विषय को लेकर चले थे। इसलिए उन्होंने कुछ चुने हुए प्रसंगों का वर्णन किया है।
3. वस्तु वर्णन-रामचन्द्रिका में रागोत्प्रेरक वस्तु वर्णन उच्च कोटि का हुआ है, जो रामशयनागार वर्णन, राम के तिलकोत्सव का वर्णन तथा दिग्विजय के लिए जाती हुई श्रीराम की सेना का वर्णन देखा जा सकता है।
4. प्रकृति चित्रण-केशव के प्रकृति चित्रण नीरस और असंगत हैं। प्रकृति चित्रण में नाम परिगणन शैली को अपनाया गया है और साथ ही प्रकृति को उद्दीपन रूप में चित्रित किया गया है।
5. श्रृंगार वर्णन-‘रामचन्द्रिका’ शृंगार प्रधान ग्रन्थ है किन्तु श्रृंगार के प्रति केशव की दृष्टि भौतिकतावादी थी। उनके श्रृंगार वर्णन में रस-मर्मज्ञता तथा सरसता देखने को मिलती है। केशव के काव्य में संयोग एवं वियोग के अनेक मर्यादित, शिष्ट एवं संगत चित्र देखने को मिलते हैं।
2. देव (सन् 1673-1767 ई०)
प्रश्न 1.
देव का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में देव का स्थान अन्यतम है। वे एक साथ कवि और आचार्य दोनों ही थे। ऐसा लगता है कि केशव और बिहारी दोनों मिलकर देव में एकाकार हो उठे हैं।
जीवन परिचय-देव का जन्म सन् 1673 को इटावा नगर में हुआ। इनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। इनकी शिक्षा-दीक्षा के सम्बन्ध में कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। अन्तः साक्ष्य के अनुसार सोलह वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने ‘भावविलास’ जैसे सुन्दर ग्रन्थ की रचना की थी। देव जीवन भर आजीविका के अभाव में दर-दर भटकते रहे। स्वाभिमानी प्रकृति के होने के कारण ये अपने आश्रयदाता बदलते रहे। इनके आश्रयदाताओं में औरंगज़ेब के पुत्र आज़म शाह, दादरीपति राजा सीता राम के भतीजे भवानी दत्त वैश्य, फफूंद के राजा कुशल सिंह, राजा भोगीलाल, राजा मर्दन सिंह तथा महमदी राज्य के अधिपति अकबर अली खां थे। इनमें से केवल राजा भोगीलाल से ही इन्हें उचित आदरसम्मान मिला।
देव किसी समय इटावा छोड़कर मैनपुरी जिले के कुसमरा नामक गाँव में जा बसे थे। यहाँ उन्होंने अपना मकान भी बनवाया। देव के वंशज अभी तक इटावा और कुसमरा दोनों ही स्थानों में पाए जाते हैं। इनकी मृत्यु सन् 1767 ई० में हुई।
देव में काव्य की लोकोत्तर प्रतिभा ही नहीं थी, अध्ययन और अनुभव भी उनका बड़ा व्यापक था। साहित्य और काव्य शास्त्र में उनकी गहरी पैठ थी। वे संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के पण्डित थे। वेदान्त और अन्य दर्शनों का भी उन्हें ज्ञान था। वे ज्योतिष और आयुर्वेद भी जानते थे। आकृति से वे अत्यन्त रूपवान थे। राजसी वेश-भूषा उन्हें प्रिय थी और रसिकता उनके व्यक्तित्व में कूट-कूट कर भरी हुई थी।
रचनाएँ-वर्तमान समय में देवकृत 18 ग्रन्थ ही प्राप्त हैं जिनमें से प्रमुख के नाम निम्नलिखित हैं-
- भाव विलास
- अष्टयाम
- भवानी विलास
- रस विलास
- प्रेम चन्द्रिका
- राग रत्नाकर
- सुखसागर
- प्रेम तरंग
- जाति विलास।
इन ग्रन्थों में भाव विलास’ श्रृंगार रस का प्रतिपादक है। ‘भवानी विलास’ में नायिका भेद का विवेचन है तथा ‘जाति विलास’ नारी के शत-शत भेदों का वर्णन है।
प्रश्न 2.
देव के काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
देव की रचनाओं से विदित होता है कि उनकी काव्य साधना, श्रृंगार आचार्यत्व और भक्ति और दर्शन की त्रिधाराओं में प्रवाहित हुई है। शृंगारिकता और आचार्यत्व तो रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं ही। देव का काव्य इनके अतिरिक्त वैराग्य भावना को भी लेकर चला है। उनकी काव्यगत विशेषताएँ अग्रलिखित हैं-
1. श्रृंगार वर्णन-शृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का पूर्ण और व्यापक विवेचन देव की कविताओं में देखा जा सकता है। देव का श्रृंगार वर्णन अश्लील, वीभत्स और कुरुचिपूर्ण नहीं है क्योंकि इसका आधार दाम्पत्य प्रेम है। गृहस्थी की चार दीवारी के भीतर इस श्रृंगार की रसधारा प्रवाहित हुई है। देव की दृष्टि में स्वकीया का प्रेम ही सच्चा प्रेम है। परकीया प्रेम हेय है। नव दम्पत्ति की रस चेष्टाओं के माध्यम से कवि ने लौकिक प्रेम के बड़े सुन्दर चित्र अंकित किए हैं। कवि ने यहाँ स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि मन के साथ शरीर का ऐसा सहज सम्बन्ध है कि दोनों की चेतना एक साथ उत्पन्न हो जाती है। देव ने श्रृंगार के अन्तर्गत नायक-नायिका के विविध हाव-भावों और चेष्टाओं के सवाक् चित्र खींचे हैं।
2. वियोग वर्णन-देव ने विरह की गम्भीर अवस्था का चित्रण बड़ी सफलता से किया है। विशेषकर खण्डिता और पूर्व राग के प्रसंगों में विरह की यह अभिव्यक्ति अलंकार के चमत्कार पर नहीं, भावना की गम्भीरता और स्वाभाविकता पर आधारित है।
3. भक्ति भावना-शृंगारी कवि होते हुए भी देव का हृदय भक्ति रस से शून्य नहीं था। उनमें भक्तिकालीन कवियों जैसी सरसता पाई जाती है। उनके काव्य में भगवान् श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भावना अधिक मिलती है। देव ने भी सूर इत्यादि कृष्ण भक्त कवियों के समान भगवान् श्री कृष्ण की लीलाओं से प्रभावित होकर उनका यशोगान किया है। देव की यह भक्ति भावना बड़ी उदार और सहज स्वाभाविक है।
4. तत्व दर्शन-भक्त हृदय के साथ-साथ देव में सन्त कवियों का मस्तिष्क भी था। देव ने भी अद्वैतवाद के सिद्धान्तानुसार आत्मा और ब्रह्म की एकता मानते हुए माया जनित द्वैत का वर्णन किया है। माया के कारण ही उस ज्ञान की विस्मृति हो जाती है जो आत्मा की चिरन्तनता का ज्ञान होता है। वास्तव में आत्मा अजर, अमर है और सभी में उसकी सत्ता है।
अद्वैत के इस सिद्धान्त के अतिरिक्त देव के काव्य में ज्ञान मार्ग के अन्य तत्वों का भी समावेश मिलता है। वे ब्रह्म की अनन्तता और व्यापकता को स्वीकार करते हैं तथा उनके मतानुसार एक अणु मात्र में सारा विश्व व्याप्त है। इस प्रकार हम देखते हैं कि तत्व दर्शन देव के काव्य में भक्तिकालीन उच्च कोटि के कवियों के समान ही है।
3. बिहारी (सन् 1595-1663 ई०)
प्रश्न 1.
बिहारी के संक्षिप्त जीवन परिचय और रचनाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन परिचय-रीतिकाल के सब से अधिक जन प्रिय कवि बिहारी लाल का जन्म सन् 1595 ई० को ग्वालियर में हुआ। बिहारी जब आठ वर्ष के थे तो अपने पिता के साथ ओरछा आ गए। वहीं इन्होंने महाकवि केशव के संरक्षण में काव्य ग्रन्थों का अध्ययन आरम्भ किया। पिता के वृन्दावन चले जाने पर इन्हें भी वहीं जाना पड़ा। वृन्दावन में बिहारी ने नरहरिदास से संस्कृत तथा प्राकृत सीखी। इन्हीं दिनों सन् 1618 के आस-पास शाहजहाँ वृन्दावन आए। बिहारी की प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्होंने बिहारी को आगरा आने का निमन्त्रण दिया। आगरा में बिहारी की भेंट प्रसिद्ध कवि रहीम से हुई। आगरा में शाहजहाँ ने अपने पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। इस अवसर पर अनेक राजा-महाराजा उपस्थित थे। बिहारी ने इस अवसर पर बड़ी सुन्दर मनमोहक कविताएँ सुनाईं जिनसे प्रसन्न और प्रभावित होकर वहाँ उपस्थित अनेक राजाओं ने इनकी वार्षिक वृत्ति बाँध दी।
एक बार बिहारी वृत्ति लेने के लिए जयपुर गए। उस समय जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह अपनी षोडषी नव विवाहिता पत्नी के प्रेम जाल में उलझकर राजपाठ के सभी कार्य भुला बैठे थे। बिहारी ने उन्हें अपना कर्त्तव्य और दायित्व याद दिलाने के लिए एक मालिन के हाथों फूल की टोकरी में निम्नलिखित दोहा राजा तक पहुँचाया-
नहीं पराग नहीं मधुर मधु नहीं विकास इहि काल।
अली कलि सों ही बन्ध्यो, आगे कौन हवाल॥
राजा पर उस दोहे ने जादू-सा असर किया। वे तुरन्त अपने रंग महल से बाहर आ गए और पुनः राज कार्यों में लग गए। इस घटना ने बिहारी के सम्मान में वृद्धि की। राजा जय सिंह ने बिहारी को अपना राज कवि बना दिया। यहीं बिहारी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सतसई’ की रचना की। सतसई की पूर्ति के कुछ समय बाद बिहारी की पत्नी की मृत्यु हो गई। बिहारी इस आघात को सहन न कर सके और संसार से विरक्त हो गए। बिहारी तब वृन्दावन आ गए और अपना शेष जीवन भगवत् भजन में व्यतीत करते हुए सन् 1663 ई० के लगभग परमधाम को प्राप्त किया।
रचनाएँ-बिहारी ने जीवन में केवल एक ही ग्रन्थ की रचना की जो बिहारी सतसई के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में 713 दोहे हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी बिहारी सतसई की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं
“श्रृंगार रस के ग्रन्थों में जितनी ख्याति और जितना सम्मान बिहारी सतसई का हुआ है उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में रत्न माना जाता है।”
प्रश्न 2.
बिहारी के काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
बिहारी सतसई में समास पद्धति का प्रयोग किया गया है। दोहे जैसे छोटे छन्द में सुन्दर विचारों और कल्पनाओं का समावेश भली प्रकार हो पाया है। छोटे-छोटे दोहों में गहन भावों को व्यक्त करना ही बिहारी की विशेषता है। बिहारी के काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. शृंगार वर्णन-बिहारी के काव्य का मुख्य विषय शृंगार वर्णन है। बिहारी ने शृंगार की दोनों अवस्थाओंसंयोग और वियोग का वर्णन किया है। किन्तु उनका मन संयोग शृंगार के वर्णन में अधिक रमा है। संयोग पक्ष की सभी स्थितियों पर उनका पूरा ध्यान रहा है। बिहारी ने नायक के स्थान पर नायिका के आकर्षण का वर्णन अधिक किया है। बिहारी ने नायिका के नख-शिख का वर्णन भी खूब किया है। बिहारी का वियोग वर्णन कहीं-कहीं हास्यस्पद हों गया है।
2. भक्ति भावना-बिहारी ने कुछ भक्तिपरक दोहे भी लिखे हैं-बिहारी सतसई का पहला ही दोहा—’मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोईं।’ इसका प्रमाण है, परन्तु बिहारी को भक्त कवि नहीं माना जा सकता। हो सकता है कि बिहारी ने ऐसे दोहे या जीवन की संध्या में शृंगारिकता से उकता कर लिखे हों या फिर ‘भरी बिहारी सतसई, भरी अनेक स्वाद’ की दृष्टि से लिखे हों। बिहारी के भक्तिपरक दोहों में श्रीराम, श्रीकृष्ण और नरसिंह अवतार की वन्दना की गई है। बिहारी के इन दोहों में भी चमत्कार प्रदर्शन देखने को मिलता है।
3. नीति सम्बन्धी दोहे-बिहारी के कुछ दोहे नीतिपरक भी हैं। बिहारी ने इन दोहों को अपनी कला के संयोग से अत्यन्त सरस और मार्मिक बना दिया है। बिहारी के कुछ दोहों को तो सूक्तियों में स्थान दिया जा सकता है।
4. विविध विषयों का समाहार-बिहारी सतसई में अध्यात्मक, पुराण, ज्योतिष गणित आदि अनेक विषयों का समाहार हुआ है जिससे यह सिद्ध होता है कि बिहारी को इन विषयों की यथेष्ट जानकारी थी।
5. छन्द अलंकार-बिहारी ने केवल दोहा जैसे छोटे छन्द में अपनी रचना की है और गागर में सागर भर दिया है। प्रत्येक दोहे में शब्द गहने में कुशलतापूर्वक जड़े हुए नगीनों की तरह प्रतीत होते हैं।
अलंकार बिहारी के काव्य में साध्य नहीं साधन रूप में व्यक्त हुए हैं। अलंकारों ने उनके काव्य के रूप को अधिक निखार दिया है। बिहारी ने अर्थालंकारों-यथा उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक का अधिक सहारा लिया है।
6. भाषा-बिहारी की भाषा कोमल, सरस तथा सँवरी हुई ब्रज भाषा है जिसमें माधुर्य गुण पर्याप्त मात्रा में मिलता है, जिसके कारण नाद सौन्दर्य काफ़ी प्रभावी हो गया है।
4. घनानन्द (सन् 1673-1760)
प्रश्न 1.
घनानन्द का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
घनानन्द हिन्दी साहित्य में प्रेम की पीर के कवि के रूप में जाने जाते हैं। रीतिकालीन कवियों में घनानन्द ऐसे कवि हुए हैं जिन्हें सच्चा प्रेमी हृदय प्राप्त हुआ था।
जीवन परिचय-अन्य मध्यकालीन कवियों की तरह घनानन्द की जीवनी के विषय में अनेक विवाद हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के मतानुसार घनानन्द का जन्म सन् 1673 ई० में हुआ था। बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ इनकी जन्मभूमि बुलन्द शहर मानते हैं। ये कायस्थ वंश में उत्पन्न हुए थे। इनका बचपन कैसे बीता, शिक्षा-दीक्षा कैसे हुई इस सम्बन्ध में सूचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
एक जनश्रुति के अनुसार घनानन्द मुग़ल वंश के विलासी बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला के मीर मुंशी थे। वे बहुत सुन्दर थे और गाते भी बहुत अच्छा थे। राजदरबार की एक नर्तकी सुजान से इन्हें प्रेम हो गया। एक दिन राजदरबार में गाते हुए घनानन्द से एक गुस्ताखी हो गई। गाते समय इनका मुँह सुजान की तरफ था और पीठ बादशाह की तरफ। बादशाह ने इसे अपना अपमान समझा और इन्हें दरबार और शहर छोड़ देने की आज्ञा दी। दरबार छोड़ते समय सुजान को भी अपने साथ चलने को कहा, किन्तु सुजान को तो पता ही नहीं था कि घनानन्द उससे प्रेम करते हैं, इसलिए उसने साथ चलने से इन्कार कर दिया। इस पर घनानन्द विरक्त होकर वृन्दावन चले गये और श्री राधा-कृष्ण की भक्ति में लीन हो गए, पर सुजान को भूल नहीं पाये। अपनी कविता में राधा और श्रीकृष्ण के लिए सुजान शब्द का ही प्रयोग करते रहे।
सन् 1760 में अहमदशाह अब्दाली के मथुरा के आक्रमण के समय अब्दाली के सैनिकों ने इनकी हत्या कर दी।
रचनाएँ-घनानन्द के जीवन की तरह ही इनकी रचनाओं के सम्बन्ध में पूरी जानकारी अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। नागरी प्रचारिणी सभा की सन् 2000 तक की खोज के अनुसार इनके 17 ग्रन्थ हैं जिनमें से प्रमुख के नाम इस प्रकार हैं-
- सुजान हित
- वियोग वेलि
- इश्कलता
- ब्रज विलास
- सुजान सागर
- विरह लीला तथा
- घनानन्द कवित्त
कृष्ण भक्ति सम्बन्धी एक विशाल ग्रन्थ छत्रपुर के राजपुस्तकालय में उपलब्ध है।
इनमें ‘सुजानहित’ ही कवि की अमर कृति है। यह एक उपालम्भ काव्य है जिनमें सुजान के रूप का वर्णन तथा प्रेम सम्बन्धी छन्द हैं।
प्रश्न 2.
घनानन्द के काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हिन्दी में प्रेमी की ओर से प्रेमिका की निष्ठुरता पर बहुत कम काव्य रचना हुई है, जबकि उर्दू कविता ऐसे विषयों से भरी पड़ी है। इस तरह घनानन्द का काव्य इस अभावं की पूर्ति करता है। घनानन्द के काव्य में मुख्यतः ‘प्रेम की पीर’ का चित्रण है, जिसे हम संयोग और वियोग दोनों रूपों में पाते हैं। घनानन्द के काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. प्रेमभाव का चित्रण-घनानन्द के काव्य का मुख्य विषय प्रेमभाव का चित्रण है। उनके प्रेम की मूल प्रेरक सुजान है। उसके रूप सौंदर्य, लज्जा आदि का सरल वर्णन उन्होंने किया है। सुजान की बेवफाई से वे तड़पे भी हैं। उनका यह लौकिक प्रेम बाद में अलौकिक प्रेम में बदल गया। घनानन्द के प्रेम की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) एकनिष्ठ प्रेम-घनानन्द का प्रेम एकनिष्ठ है। वह तो सुजान से प्रेम करते थे, किन्तु सुजान को पता ही नहीं था कि कोई उससे इतना प्रेम करता है। घनानन्द ने उसे पत्र लिखा लेकिन उसने बिना पढ़े ही फाड़ कर फेंक दिया। मानों घनानन्द के दिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। पर घनानन्द ने प्रेमिका की इस निष्ठुरता पर भी उससे प्रेम करना नहीं छोड़ा। आचार्य शुक्ल जी ने ठीक ही लिखा है कि-‘प्रेम की पीर को लेकर ही इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ।’
(ii) निष्काम-निस्वार्थ प्रेम-घनानन्द को इस बात की परवाह नहीं थी कि जिसे वह प्रेम करता है वह भी बदले में उससे प्रेम करे। सच्चे प्रेम में आदान-प्रदान की यह वाणिक-वृत्ति नहीं होती। घनानन्द तो निष्काम और निस्वार्थ प्रेम का अभिलाषी है।
(ii) आसक्ति प्रधान प्रेम-घनानन्द का प्रेम आसक्ति प्रधान है। इससे उसे प्रिय से मिलने पर हर्ष और वियोग में दुःख होता है। सुजान अवश्य ही अति सुन्दर रही होगी जो घनानन्द का दिल उस पर आया। भले उसने विश्वासघात किया, उसका दिल तोड़ा, किन्तु घनानन्द के मुख से उफ तक न निकली।
2. भक्ति भावना-सुजान के प्रति लौकिक प्रेम बाद में श्रीकृष्ण के प्रति अलौकिक प्रेम में बदल गया। किन्तु भक्ति में भी वे सुजान को न भूल पाये। सुजान अब श्रीकृष्ण का वाचक बन गया था। श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होकर घनानन्द ने अनेक पदों की रचना की है।
5. भूषण (सन् 1613-1715)
प्रश्न 1.
कविवर भूषण का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रीतिकालीन राज्याश्रय प्राप्त कवियों में भूषण ही ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने अपने आश्रयदाताओं की वासनापूर्ति के लिए काव्य की स्चना नहीं की बल्कि अपने आश्रयदाताओं की वीरता का ही बखान किया है। उनकी कविता में राष्ट्रीयता के गुण विद्यमान हैं। कुछ आलोचक उन पर साम्प्रदायिकता का दोष लगाते हैं जो हमारी दृष्टि में भूषण के साथ अन्याय करना ही है।
जीवन-परिचय-भूषण का जन्म सन् 1613 में जिला कानपुर के तिकवापुर गाँव में हुआ। वे कश्यप गोत्री कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। भूषण यह उनका वास्तविक नाम नहीं है। यह उनकी एक पदवी है जिसे भूषण के अनुसार उन्हें चित्रकूटपति सोलंकी राजा हृदय राम ने प्रदान की थी। भूषण के तीन भाई बताये जाते हैं-चिन्तामणि, मतिराम और जटाशंकर। इनमें प्रथम दो रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि और आचार्य हुए।
भूषण ने भी रीतिकालीन कवियों की तरह राज्याश्रय ग्रहण किया। इनकी रचनाओं से ज्ञात होता है कि इनका सम्पर्क लगभग चौदह राजाओं के साथ रहा, किन्तु अन्त में अपनी विचारधारा के समर्थक छत्रपति शिवाजी महाराज के यहाँ पहुँचे। पन्ना के महाराज छत्रसाल भी इनका बहुत सम्मान करते थे। भूषण ने छत्रपति शिवाजी महाराज और छत्रसाल की वीरता का गान किया है। उन्होंने शिवाजी के रूप में एक महान् राष्ट्र संरक्षक व्यक्तित्व के दर्शन किए और उनके भीतर श्रीराम और श्रीकृष्ण की अद्वितीय शक्ति को देखा। डॉ० रवेलचन्द आनन्द उनके व्यक्तित्व के बारे में लिखते हैं-‘वीर कवि भूषण स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व और काव्य में स्वाभिमान, ओज, दर्प और निर्भीकता आदि गुण सर्वाधिक मुखरित हैं। उनके मन में देश के प्रति प्रेम था, प्राचीन परम्पराओं एवं भारतीय संस्कृति के प्रति दृढ़ आस्था थी। कवि का काव्य प्रशस्ति मूलक अवश्य है, पर खुशामदी कवियों जैसा नहीं। वे अपने काव्य के प्रति सजग एवं ईमानदार थे।’ रचनाएँ-भूषण के नाम से निम्नलिखित छः रचनाओं का उल्लेख किया जाता है-
- शिवराज भूषण
- शिवाबावनी
- छत्रसालदशक
- भूषण उल्लास
- दूषण उल्लास
- भूषण हजारा।।
डॉ० राजमल बोहरा इनमें शिवराज भूषण को ही प्रमाणिक मानते हैं।
प्रश्न 2.
भूषण के काव्य की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भूषण हिन्दी के सच्चे वीर रस के कवि हैं। उनका सारा काव्य वीर रसात्मक है। केवल कुछ फुटकर छन्द ही शृंगार के हैं, जिन्हें अपवाद मानना चाहिए। उनके काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. चरितनायक की वीरता का वर्णन-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-‘भूषण ने जिन नायकों को अपने वीर काव्यों का विषय बनाया है वे अन्याय दमन में तत्पर, हिन्दू धर्म के रक्षक, दो इतिहास प्रसिद्ध वीर थे। भूषण की कविता शिवाजी के चरित्र को सुशोभित करती है और शिवाजी हमारी राष्ट्रीयता को गौरव प्रदान करते हैं।’ भूषण ने अपने चरितनायकों की वीरता का वर्णन राष्ट्र रक्षक के रूप में किया है। उन्होंने अपने चरितनायकों में श्रीराम और श्रीकृष्ण की शक्ति को देखा था। भूषण शिवाजी को कलियुग का अवतार मानते हैं। भूषण ने अपने चरितनायकों की वीरता, साहस, यश, शौर्य, तेज आदि का ओजपूर्ण वर्णन किया है।
2. सजीव युद्ध वर्णन-भूषण के काव्य में युद्धों का सजीव वर्णन देखने को मिलता है। भूषण की वर्णन शैली इतनी प्रवाहपूर्ण और प्रभावशाली है कि युद्ध का एक चित्र-सा सामने खिंच जाता है।
3. ऐतिहासिकता की रक्षा- भूषण के काव्य में एक विशेषता यह भी देखने को मिलती है कि उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों को ईमानदारी से ग्रहण किया है। उन्होंने शत्रु पक्ष की वीरता और पराक्रम का यथास्थान वर्णन किया है। शिवाजी यदि सिंह है तो औरंगज़ेब भी हाथी है। मुग़ल सेना यदि नाग है तो शिवाजी खगराज गरुड़ हैं।
4. वीर रस के सहयोगी रसों का परिपाक-भूषण के काव्य में वीर रस के सहयोगी रसों-रौद्र, वीभत्स, भयानक आदि का वर्णन भी सुन्दर हुआ है। इनमें भयानक रस का वर्णन विस्तार से किया गया है।
5. राष्ट्रीयता-स्वदेश प्रेम भूषण की नस-नस में भरा है। जब औरंगज़ेब ने मन्दिरों को तोड़कर मस्जिदें बनानी शुरू की तो भूषण का खून खौल उठा और उन्होंने औरंगजेब का विरोध करने वाले शिवाजी का साथ दिया। शिवाजी के रूप में भूषण को एक लोकनायक मिल गया था। भूषण पर साम्प्रदायिकता का दोष लगाने वालों ने शायद भूषण की कविता का वह अंश नहीं पढ़ा है, जिसमें उन्होंने बाबर, हुमायूँ और अकबर की प्रशंसा की हैं।
कुछ आलोचक तो छत्रपति शिवाजी को भी साम्प्रदायिक कहते हैं, किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि शिवाजी ने हिन्दुओं की रक्षा करने का बीड़ा उठाया था न कि मुसलमानों का विरोध करने का। भूषण ने भी बहुभाषी होने पर भी भारत को हिन्दी के माध्यम से एक सूत्रता में बाँधने का प्रयत्न किया।
वस्तुनिष्ठ/अति लघु प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
रीतिकाल का समय कब से कब तक माना जाता है?
उत्तर:
रीतिकाल का समय सन् 1643 ई० (संवत् 1700) से सन् 1843 ई० (संवत् 1900) तक माना जाता है।
प्रश्न 2.
रीतिकाल से पूर्व कौन-सी प्रवृत्तियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया था?
उत्तर:
रीतिकाल से पूर्व निरंकुश राजतन्त्रीय प्रवृत्तियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया था।
प्रश्न 3.
रीतिकाल में किस-किस मुग़ल बादशाह ने शासन किया?
उत्तर:
रीतिकाल में जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब, शाह आलम और मुहम्मद शाह रंगीला आदि राजाओं ने भारत पर शासन किया।
प्रश्न 4.
मुग़ल साम्राज्य की नींव हिलाने में किस-किस का योगदान रहा?
उत्तर:
सन् 1738 ई० में नादिर शाह और सन् 1761 ई० में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुग़ल साम्राज्य की नींव हिलाकर रख दी।
प्रश्न 5.
सन् 1857 की जनक्रान्ति के विफल होने का क्या परिणाम निकला?
उत्तर:
सन् 1857 की जनक्रान्ति के विफल होने के फलस्वरूप मुग़ल शासन पूरी तरह समाप्त हो गया और भारत सन् 1903 ई० तक पूरी तरह अंग्रेज़ी शासन के अधीन हो गया।
प्रश्न 6.
औरंगजेब के उत्तराधिकारी कैसे थे?
उत्तर:
औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी अयोग्य, विलासी निकले, फलस्वरूप अनेक राज्य स्वतन्त्र हो गए।
प्रश्न 7.
सामाजिक दृष्टि से रीतिकाल को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
सामाजिक दृष्टि से रीतिकाल विलास प्रधान युग कहा जा सकता है। मुग़ल बादशाहों का अनुकरण करते हुए सामन्त वर्ग और अमीर वर्ग भी विलासिता में डूबता जा रहा था।
प्रश्न 8.
रीतिकाल की विलासिता का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
रीतिकाल में विलासिता के प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण पौरुष का ह्रास हुआ और मनोबल की कमी के कारण समाज का बौद्धिक स्तर भी गिरा।
प्रश्न 9.
रीतिकालीन समाज में नारी की स्थिति कैसी थी ?
उत्तर:
रीतिकाल में नारी को केवल मनोरंजन और विलास की सामग्री समझा गया।
प्रश्न 10.
रीतिकाल में किस कुप्रथा का प्रचलन हुआ और क्यों?
उत्तर:
रीतिकाल में बाल-विवाह की प्रथा का प्रचलन शुरू हुआ क्योंकि इस काल में किसी भी सुन्दर कन्या का अपहरण किया जाना मामूली बात थी।
प्रश्न 11.
रीतिकालीन समाज में जनसाधारण की दशा कैसी थी?
उत्तर:
रीतिकाल में जनसाधारण की शिक्षा, चिकित्सा आदि का कोई प्रबन्ध नहीं था। जनसाधारण में अन्धविश्वास और रूढ़ियाँ घर कर गई थीं।
प्रश्न 12.
रीतिकालीन समाज में मजदूर, किसान और कलाविदों की हालत कैसी थी?
उत्तर:
रीतिकाल में मजदूर वर्ग अत्याचारों से पीड़ित था तो किसान वर्ग जीविका निर्वाह के साधनों से रहित था। कलाविदों को शासक वर्ग उपेक्षा की दृष्टि से देखता था।
प्रश्न 13.
रीतिकालीन काव्य में तत्कालीन समाज का चित्रण क्यों नहीं मिलता?
उत्तर:
रीतिकालीन कवि अपने आश्रयदाताओं की विलासिता को भड़काने वाली कविता ही लिखा करते थे। इसी कारण जन-जीवन की पीड़ाओं का उनके काव्य में चित्रण नहीं मिलता।
प्रश्न 14.
रीतिकालीन धार्मिक परिस्थितियाँ कैसी थीं?
उत्तर:
धार्मिक दृष्टि से रीतिकाल सभ्यता और संस्कृति के पतन का युग था। धर्म के नाम पर भोग-विलास के साधन जुटाए जाने लगे थे।
प्रश्न 15.
रीतिकालीन आर्थिक परिस्थितियों में सबसे बड़ा बदलाव क्या आया?
उत्तर:
रीतिकाल में वर्ण व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित होने लगी थी। लोग उत्पादक और उपभोक्ता दो वर्गों में बँट गए थे।
प्रश्न 16.
रीतिकाल में प्रचलित विभिन्न काव्यधाराओं के नाम बताएं।
उत्तर:
रीतिकाल में तीन प्रकार की काव्य धाराएँ प्रचलित थीं(1) रीतिबद्ध काव्य (2) रीतिसिद्ध काव्य (3) रीतिमुक्त काव्य।
प्रश्न 17.
किन्हीं चार रीतिबद्ध कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
केशव, देव, मतिराम, चिन्तामणि।
प्रश्न 18.
किन्हीं दो रीतिसिद्ध कवियों और उनकी रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
बिहारी (बिहारी सतसई), वृन्द (पवन पच्चीसी)।।
प्रश्न 19.
किन्हीं चार रीतिमुक्त कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर;
घनानंद, बोधा, आलम, ठाकुर।
प्रश्न 20.
किन्हीं दो रीनिबद्ध काव्यों के नाम उनके रचनाकारों सहित लिखें।
उत्तर:
रसिकप्रिया (केशव), भवानी विलास (देव)।
प्रश्न 21.
रीतिकाल के प्रवर्तक आचार्य कवि किसे माना जाता है?
उत्तर:
केशवदास को।
प्रश्न 22.
किन्हीं दो रीतिमुक्त काव्य कृतियों के नाम उनके रचनाकारों के नाम सहित लिखें।
उत्तर:
सुजान सागर (घनानन्द), विरह बारीश (बोधा)।
प्रश्न 23.
रीतिकाल में वीर काव्य लिखने वाले किन्हीं दो कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
भूषण और पद्माकर।
प्रश्न 24.
रीतिकाल में नीतिपरक काव्य लिखने वाले किन्हीं दो कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
रहीम और वृंद।
प्रश्न 25.
मिश्रबन्धओं ने रीतिकाल को किस नाम से पुकारा है?
उत्तर:
अलंकृत काल।
प्रश्न 26.
रीतिकाल को ‘कलाकाल’ की संज्ञा किस विद्वान् ने दी?
उत्तर:
डॉ० राम कुमार वर्मा ने।
प्रश्न 27.
रीतिबद्ध काव्य से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
रीतिबद्ध काव्य वह है जिसमें काव्यशास्त्र के आधार पर काव्यांगों के लक्षण तथा उदाहरण दिए जाते हैं।
प्रश्न 28.
रीतिमुक्त कवि किसे कहते हैं?
उत्तर:
जिन्होंने कोई लक्षण ग्रन्थ अथवा रीतिबद्ध रचना नहीं लिखी हो।
प्रश्न 29.
रीतिकालीन काव्य की कोई चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
शृंगारिकता, आलंकारिकता, भक्ति और नीति, लक्षण ग्रन्थों का निर्माण।
प्रश्न 30.
केशव की प्रमुख रचनाओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
रामचन्द्रिका, रसिकप्रिया, कविप्रिया, रतन बावनी।
प्रश्न 31.
बिहारी का कोई एक नीतिपरक दोहा लिखें।
उत्तर:
बड़े न हूजै गुनन बिन, विरद बड़ाई पाय। कहत धतूरे सौ कनक, गहनो गढ़यो न जाय।
प्रश्न 32.
रीतिकाल के किस कवि को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा जाता है?
उत्तर:
केशवदास को।
प्रश्न 33.
रीतिकाल में राष्ट्रीय आदर्श लेकर चलने वाले कवि और उसकी दो रचनाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
भूषण-शिवाबावनी, छत्रसालंदशक, शिवराज भूषण, भूषण उल्लास।
प्रश्न 34.
रीतिकाल को श्रृंगार काल नाम किसने दिया?
उत्तर:
डॉ० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने।
प्रश्न 35.
डॉ० नगेंद्र ने रीतिकाल का प्रवर्तक कवि किसे माना है?
उत्तर:
केशवदास को।
प्रश्न 36.
‘हिन्द की चादर’ किसे कहा जाता है?
उत्तर:
गुरु तेग बहादुर जी को हिन्द की चादर कहा जाता है।
प्रश्न 37.
“देह शिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन ते कबहुँ न टरौं।” ये पंक्तियाँ किस रीतिकालीन कवि की
उत्तर:
गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा रचित हैं।
प्रश्न 38.
हिन्दी साहित्य में काल विभाजन की दृष्टि से रीतिकाल दूसरा काल है अथवा तीसरा काल है।
उत्तर:
तीसरा काल है।
प्रश्न 39.
आचार्य राम चद्र शुक्ल ने रीतिकाल का आरंभ किस कवि से माना है?
उत्तर:
चिंतामणि त्रिपाठी से।
प्रश्न 40.
ईस्वी सन् में कितने वर्ष जोड़ने पर विक्रमी संवत् बनता है?
उत्तर:
57 वर्ष।
प्रश्न 41.
रीतिकाल को श्रृंगारकाल नाम किसने दिया? .
उत्तर:
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने।
प्रश्न 42.
रीतिकाल को ‘रीतिकाल’ नाम किस ने दिया था?
उत्तर:
आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
प्रश्न 43.
रीतिकाल के किसी एक मुग़ल शासक का नाम बताएं।
उत्तर;
शाहजहां।
प्रश्न 44.
रीतिकालीन किसी एक विश्व प्रसिद्ध संगीतज्ञ का नाम लिखें।
उत्तर:
तानसेन।
प्रश्न 45.
“बिहारी सतसई’ किस कवि की रचना है?
उत्तर:
बिहारी।
प्रश्न 46.
अकबर के बाद कौन राजा बना?
उत्तर:
जहाँगीर।
प्रश्न 47:
“बिहारी सतसई’ किस कवि की रचना है?
उत्तर:
बिहारी लाल।
प्रश्न 48.
‘भाव विलास’ किस की रचना है?
उत्तर:
महाकवि देव।
बोर्ड परीक्षा में पूछे गए प्रश्न
प्रश्न 1.
रीतिकालीन किसी एक मुग़ल शासक का नाम लिखें।
उत्तर:
शाहजहाँ।
प्रश्न 2.
रीतिकालीन कवि बिहारी की एक मात्र रचना का नाम लिखिए।
उत्तर:
बिहारी सतसई।
प्रश्न 3.
रीतिकाल को ‘रीतिकाल’ नाम किसने दिया?
उत्तर:
आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
प्रश्न 4.
एक रीतिसिद्ध कवि का नाम लिखें।
उत्तर:
बिहारी।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
रीतिकाल का प्रवर्तक कवि किसे माना जाता है?
(क) केशव
(ख) बिहारी
(ग) भूषण
(घ) सेनापति।
उत्तर:
(क) केशव
प्रश्न 2.
रीतिकाल को प्रवृत्ति के आधार पर किन भागों में बांटा जा सकता है?
(क) रीतिबद्ध
(ख) रीतिसिद्ध
(ग) रीतिमुक्त
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 3.
मिश्र बंधुओं ने रीतिकाल को किस नाम से अभिहित किया है?
(क) अलंकृत काल
(ख) श्रृंगार काल
(ग) रीतिकाल
(घ) कला काल।
उत्तर:
(क) अलंकृत काल
प्रश्न 4.
रीतिकाल को कला काल की संज्ञा किसने दी?
(क) रामचन्द्र शुक्ल
(ख) रामकुमार वर्मा
(ग) मिश्रबन्धु
(घ) बिहारी।
उत्तर:
(ख) रामकुमार वर्मा
प्रश्न 5.
रीतिकाल का कवि होते हुए भी किस कवि को भक्तिकाल का माना जाता है?
(क) बिहारी
(ख) भूषण
(ग) चन्द्र
(घ) केशव।
उत्तर:
(क) बिहारी
प्रश्न 6.
रीतिकाल में नीतिपरक काव्य लिखने वाले प्रतिनिधि कवि कौन हैं?
(क) रहीम
(ख) वृन्द
(ग) रहीम और वृन्द
(घ) केशव।
उत्तर:
(ग) रहीम और वृन्द।
प्रमुख कवि
केशव
प्रश्न 1.
केशव का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर:
केशव का जन्म सन् 1555 के आसपास बुंदेलखंड के ओरछा नगर में हुआ।
प्रश्न 2.
केशव कौन-से राजा के दरबारी कवि थे?
उत्तर:
केशव ओरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मन्त्री और गुरु थे।
प्रश्न 3.
केशव की किन्हीं दो प्रसिद्ध रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
रामचन्द्रिका और रसिक प्रिया।
प्रश्न 4.
केशव की रचना रसिक प्रिया का कथ्य क्या है?
उत्तर:
रसिक प्रिया में श्रृंगार को रसराज मानकर अन्य रसों को उसी में अन्तर्भूत करने का प्रयास किया गया है।
प्रश्न 5.
कवि प्रिया कैसा ग्रन्थ है?
उत्तर:
कवि प्रिया में काव्य दोषों और अलंकारों का विवेचन किया गया है।
प्रश्न 6.
रामचन्द्रिका की रामकथा कौन-से संस्कृत ग्रन्थों से प्रभावित है?
उत्तर:
रामचन्द्रिका पर स्पष्ट रूप से संस्कृत ग्रन्थ ‘प्रसन्नराघव’ तथा ‘हनुमन्न नाटक’ का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
प्रश्न 7.
रामचन्द्रिका की सबसे बड़ी विशेषता कौन-सी है?
उत्तर:
रामचन्द्रिका की सबसे बड़ी विशेषता उसकी संवाद योजना है।
देव
प्रश्न 1.
महाकवि देव का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर:
महाकवि देव का जन्म सन् 1673 ई० में उत्तर प्रदेश के इटावा नगर में हुआ।
प्रश्न 2.
महाकवि देव के आश्रयदाताओं में से किन्हीं दो के नाम लिखिए।
उत्तर:
राजा भोगी लाल तथा राजा मर्दन सिंह।
प्रश्न 3.
देव की किन्हीं दो प्रसिद्ध रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
भाव विलास तथा भवानी विलास।
प्रश्न 4.
देव ने अपने आश्रयदाताओं में सबसे अधिक प्रशंसा किसकी की है?
उत्तर:
देव ने अपने आश्रयदाताओं में सबसे अधिक राजा भोगीलाल की प्रशंसा की है।
प्रश्न 5.
देव के काव्य में सर्वाधिक किस रस का विवेचन हुआ है ?
उत्तर:
देव के काव्य में सर्वाधिक श्रृंगार रस का विवेचन हुआ है। किन्तु इस श्रृंगार वर्णन में कहीं भी हल्कापन नहीं है।
प्रश्न 6.
देव ने श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक किस प्रेम में माना है ?
उत्तर:
देव ने दाम्पत्य प्रेम में ही श्रृंगार का पूर्ण परिपाक माना है। उनकी दृष्टि में स्वकीया प्रेम ही सच्चा प्रेम है।
बिहारी
प्रश्न 1.
बिहारी का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर:
बिहारी का जन्म सन् 1595 को ग्वालियर में हुआ था।
प्रश्न 2.
बिहारी की एकमात्र रचना का नाम लिखकर बताइए कि उसमें कितने दोहे हैं ?
उत्तर:
बिहारी की एकमात्र रचना बिहारी सतसई है जिसमें 713 दोहे हैं।
प्रश्न 3.
बिहारी की मृत्यु कब और कहाँ हुई?
उत्तर:
बिहारी की मृत्यु 1663 ई० में वृंदावन में हुई।
प्रश्न 4.
बिहारी सतसई में किन-किन विषयों में दोहे देखने को मिलते हैं?
उत्तर:
बिहारी सतसई में शृंगार के अतिरिक्त अध्यात्मक, पुराण, ज्योतिष, गणित आदि अनेक विषयों का समाहार हुआ हैं।
घनानन्द
प्रश्न 1.
घनानन्द का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर:
घनानन्द का जन्म सन् 1673 ई० में बुलन्द शहर में हुआ माना जाता है।
प्रश्न 2.
घनानन्द किस बादशाह के दरबार में नौकरी करते थे?
उत्तर:
घनानन्द मुग़ल वंश के विलासी बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला के मीर मुंशी थे।
प्रश्न 3.
घनानन्द को बादशाह ने दरबार से किस कारण निकाल दिया?
उत्तर:
एक दिन दरबार में गाना गाते समय घनानन्द की पीठ बादशाह की तरफ हो गई जिसे बादशाह ने बेअदबी समझकर इन्हें शहर से निकाल दिया।
प्रश्न 4.
घनानन्द की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
- सुजान हित
- सुजान सागर।
प्रश्न 5.
घनानन्द को प्रेम की पीर का कवि क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
घनानन्द ने रीतिकालीन कवियों की लीक से हटकर प्रेम की पीर से बिंधे हृदय के अश्रु मोतियों को अपने काव्य के सूत्र में पिरोया है। इसलिए इन्हें प्रेम की पीर का कवि कहा जाता है।
प्रश्न 6.
घनानन्द को रीतिकालीन कौन-सी काव्यधारा का कवि माना जाता है?
उत्तर:
घनानन्द रीतिकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं।
प्रश्न 7.
घनानन्द के काव्य की कोई-सी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) एकनिष्ठ प्रेम तथा (2) निष्काम-नि:स्वार्थ प्रेम।
प्रश्न 8.
घनानन्द का लौकिक प्रेम किस रूप में परिवर्तित हआ?
उत्तर:
घनानन्द का सुजान के प्रति अलौकिक प्रेम बाद में श्रीकृष्ण के प्रति अलौकिक प्रेम में बदल गया। सुजान शब्द तब श्रीकृष्ण का वाचक बन गया था।
प्रश्न 9.
घनानन्द की भक्ति कैसी थी?
उत्तर:
घनानन्द की भक्ति वैष्णों की भक्ति है। कृष्ण भक्त कवियों की तरह इनकी भक्ति भी लीला प्रधान और श्रृंगार व्यंजक है।
प्रश्न 10.
घनानन्द की भक्ति पर किस-किस का प्रभाव देखने को मिलता है?
उत्तर;
घनानन्द की भक्ति पर भारतीय दर्शन और सूफी दर्शन का प्रभाव देखने को मिलता है।
प्रश्न 11.
घनानन्द की भक्ति सम्बन्धी रचनाओं की प्रमुख विशेषता क्या है ?
उत्तर:
घनानन्द की भक्ति सम्बन्धी रचनाओं में भगवत् कृपा का महत्त्व और वृंदावन की महिमा का विशेष रूप से गान किया गया है।
भूषण
प्रश्न 1.
कविवर भूषण का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर:
डॉ० नगेन्द्र के अनुसार भूषण का जन्म सन् 1613 में कानपुर के निकट तिकवापुर नामक स्थान पर हुआ।
प्रश्न 2.
भूषण कवि को ‘भूषण’ की उपाधि किसने दी?
उत्तर:
चित्रकूट के राजा रूद्रशाह सोलंकी ने कवि को ‘भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया।
प्रश्न 3.
भूषण के आश्रयदाताओं में किन्हीं दो के नाम लिखिए।
उत्तर:
छत्रपति शिवा जी महाराज तथा छत्रसाल।
प्रश्न 4.
भूषण की प्रसिद्ध रचनाओं में से किन्हीं दो के नाम लिखिए।
उत्तर:
- शिवराज भूषण
- छत्रसाल दशक।
प्रश्न 5.
भूषण ने अपने काव्य में शिवाजी को किस रूप में चित्रित किया है?
उत्तर:
भूषण ने अपने काव्य में शिवाजी को भारतीय संस्कृति के रक्षक एवं उद्धारक के रूप में चित्रित किया है।
प्रश्न 6.
भूषण के काव्य की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
- सजीव युद्ध वर्णन
- चरितनायक की वीरता का वर्णन।
प्रश्न 7.
भूषण के काव्य में वीररस का पूर्ण परिपाक कौन-से प्रसंगों में मिलता है?
उत्तर:
- युद्ध-वर्णन के प्रसंगों तथा
- चरित नामक अजेय शक्ति का परिचय देते समय।
प्रश्न 8.
शिवा बावनी किसकी रचना है?
उत्तर:
भूषण।
प्रश्न 9.
भूषण की किसी एक रचना का नाम लिखिए।
उत्तर:
शिवराज भूषण।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
कवि प्रिया के लेखक कौन हैं?
(क) केशव
(ख) बिहारी
(ग) सेनापति
(घ) चन्द।
उत्तर:
(क) केशव
प्रश्न 2.
केशव ने किस रचना का लेखन एक रात में कर दिया था?
(क) कविप्रिया
(ख) रामचन्द्रिका
(ग) रामायण
(घ) रामकथा।
उत्तर:
(ख) रामचन्द्रिका
प्रश्न 3.
‘भाव विलास’ किसकी रचना है?
(क) केशव
(ख) बिहारी
(ग) देव
(घ) घनानन्द।
उत्तर:
(ग) देव
प्रश्न 4.
‘बिहारी सतसई’ में कितने दोहे हैं?
(क) 713
(ख) 715
(ग) 717
(घ) 718.
उत्तर:
(क) 713
प्रश्न 5.
घनानंद रीतिकाल की किस धारा के कवि थे?
(क) रीतिबद्ध
(ख) रीतिसिद्ध
(ग) रीतिमुक्त
(घ) रीतिकाल।
उत्तर:
(ग) रीतिमुक्त
प्रश्न 6.
‘शिवाबावनी’ किसकी रचना है?
(क) बिहारी
(ख) भूषण
(ग) केशव
(घ) रहीम।
उत्तर:
(ख) भूषण।