PSEB 8th Class Hindi रचना निबंध लेखन (2nd Language)

Punjab State Board PSEB 8th Class Hindi Book Solutions Hindi Rachana Nibandh Lekhan निबंध लेखन Exercise Questions and Answers, Notes.

PSEB 8th Class Hindi Rachana निबंध लेखन (2nd Language)

श्री गुरु नानक देव जी

सिक्खों के पहले गुरु नानक देव जी का जन्म सन् 1469 ई० में लाहौर के निकट स्थित ‘राय भोए की तलवंडी (वर्तमान में पाकिस्तान स्थित ननकाना साहब)’ में हुआ। इनकी माता का नाम तृप्ता देवी जी तथा पिता का नाम मेहता कालू राय था। बचपन से आप आत्म-चिंतन में लीन रहा करते थे और आपका अधिकतर समय साधु संतों की सेवा में बीतता था। गुरु नानक देव जी का विवाह बटाला निवासी मूलचन्द की सुपुत्री सुलक्खणी जी के साथ हुआ जिनसे इन्हें दो पुत्र-श्रीचन्द और लखमी दास प्राप्त हुए।

जब गुरु नानक देव जी 20 वर्ष के हुए तब वह ज़िला कपूरथला के सुल्तानपुर लोधी नामक स्थान में अपनी बहन नानकी के पास आ गए। वहाँ इनके बहनोई ने इन्हें वहाँ के गवर्नर दौलत खाँ के यहाँ मोदीखाने में नौकरी दिलवा दी। यहीं गुरु नानक देव जी के तोलने में तेरह-तेरह की जगह ‘तेरा-तेरा’ रटने की कथा भी विख्यात है। यहीं उनके बेईं में प्रवेश करने और तीन दिन तक अदृश्य रहने की घटना घटी। वास्तव में उन दिनों गुरु जी ‘सच्चखण्ड’ में पहुँच गए थे। यहीं गुरु जी ने ‘न को हिन्दू न को मुसलमान’ की घोषणा की।

सन् 1500 से 1521 तक गुरु जी ने देश-विदेश की चार.यात्राएँ की जो गुरु जी की चार उदासियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन यात्राओं में गुरु जी ने हिन्दुओं और मुसलमानों के तीर्थ रथानों की यात्रा भी की और वहाँ के पंडितों और मुल्लाओं के आडंबर का खंडन करते हुए उन्हें रागात्मक भक्ति का उपदेश दिया।

जीवन के अन्तिम भाग सन् 1521 से 1539 गुरु जी करतारपुर (पाकिस्तान) में रहे। वहाँ उन्होंने अनेक गोष्ठियों का आयोजन किया। इनमें सिद्ध गोष्ठी विशेष उल्लेखनीय है। सन् 1539 ई० में गुरु गद्दी भाई लहना जी, जो बाद में गुरु अंगद देव जी कहलाए, को सौंप कर ईश्वरीय ज्योति में विलीन हो गए।

गुरु तेग़ बहादुर जी

गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म की रक्षा के लिए जो बलिदान दिया, उसके कारण उन्हें हिन्द की चादर या धर्म की चादर कहा जाता है। गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल सन् 1621 ई० (5 वैसाख सं० 1678) को अमृतसर में छठे गुरु हरगोबिन्द जी के घर हुआ।

आतार में यह पवित्र स्थान ‘गुरु के महल’ के नाम से जाना जाता है। आपका बचपन का नाम त्यागमल था। सन् 1635 ई० में 14 वर्षीय त्यागमल ने सिक्खों और मुग़ल सेना के बीच करतारपुर में हुए युद्ध में तलवार के ऐसे जौहर दिखाए कि प्रसन्न होकर उनका नाम तलवार के धनी अर्थात् तेग़ बहादुर रख दिया।

गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता सैनिक गतिविधियों का संचालन करने के लिए कीरतपुर आ गए परन्तु गुरु तेग बहादुर जी अपने ननिहाल बाबा बकाला में ही रहे और प्रभचिंतन में अपना समय बिताने लगे। सन् 1645 में इनके पिता ने अपने पौत्र हरराय को गुरु गद्दी

निबन्ध-लेखन सौंप दी किन्तु गुरु तेग़ बहादुर जी ने कोई आपत्ति नहीं की। बाबा बकाला में आप कोई बीस वर्ष तक रहे। 30 मार्च, सन् 1664 में गुरु हरकृष्ण जी के ज्योति जोत समाने के बाद उन्हीं के आदेशानुसार गुरु तेग़ बहादुर जी अगस्त, 1664 ई० में गुरु गद्दी पर आसीन हुए। गुरु गद्दी मिलने के बाद आप 1664 में हरमन्दिर साहब दर्शनों के लिए गए किन्तु मसन्दों ने उन्हें दर्शन नहीं करने दिये और गुरु घर को ताले लगा दिये। इस पर बिना रुष्ट हुए आप निकट के गाँव वल्ला में चले गए। ग्रंथियों की क्षमा याचना के बाद भी गुरु जी हरमन्दिर साहब नहीं गए और वापस बाबा बकाला लौट आए।

गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म प्रचार के लिए किसी सुरक्षित स्थान के लिए बिलासपुर के राजा से माखोवाल गाँव से कुछ ज़मीन खरीदी। वहाँ अपनी माता के नाम पर चक्क नानकी’ नामक नगर बसाया, जो बाद में आनन्दपुर साहब के नाम से विख्यात हुआ। इसी दौरान औरंगज़ेब के हिन्दुओं पर आत्याचार बढ़ रहे थे। उन्हीं अत्याचारों से बचने के लिए गुरु जी के पास कुछ कश्मीरी पण्डित आए और गुरु जी से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की।

गुरु जी ने कहा कि ‘स्थिति किसी महापुरुष का बलिदान चाहती है।’ तभी पास बैठे उनके नौ वर्षीय पुत्र गोबिन्द राय बोल पड़े, ‘पिता जी आपसे बढ़कर बलिदान के योग्य महापुरुष और कौन हो सकता है ?’ गुरु जी अपने पुत्र की बात को समझ गए और धर्म की रक्षा के लिए दिल्ली पहुंच गए। उन्हें बन्दी बना लिया गया और इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया। गुरु जी अपने धर्म पर अडिग रहे। 11 नवम्बर, सन् 1675 ई० को गुरु जी ने चाँदनी चौक में शहीदी प्राप्त की। वहीं आजकल गुरुद्वारा शीशगंज स्थित है।

गुरु गोबिन्द सिंह जी

महान योद्धा, कुशल प्रशासक, प्रबुद्ध धर्म गुरु और योग्य राष्ट्र नायक गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसम्बर, सन् 1666 ई० को पटना (बिहार) में सिक्खों के नौवें गुरु तेग़ बहादुर जी के घर हुआ। छ: वर्ष की अवस्था तक गुरु जी पटना में ही रहे फिर आप पिता द्वारा बसाए नगर आनन्दपुर साहब में आ गए।

आनन्दपुर में ही एक दिन कुछ कश्मीरी पण्डितों ने आकर गुरु तेग़ बहादुर जी से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की। गुरु जी ने कहा, ‘स्थिति किसी महापुरुष का बलिदान चाहती है।’ पास बैठे नौ वर्षीय बालक गोबिन्दराय ने कहा, ‘पिता जी आपसे बढ़कर बलिदान योग्य महापुरुष कौन हो सकता है।’ पुत्र की बात समझ कर गुरु जी ने दिल्ली के चाँदनी चौक में 11 नवम्बर, सन् 1675 ई० में शहीदी प्राप्त की।

नवम् गुरु की शहीदी के बाद नौ वर्ष की अवस्था में गोबिन्द राय जी गुरु गद्दी पर बैठे। गद्दी पर बैठते ही गुरु जी ने अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी जिससे अनेक राजाओं और मुगल सरदारों को ईर्ष्या होने लगी। इसी ईर्ष्या के फलस्वरूप गुरु जी को पांवटा से छ: मील दूर भंगाणी नामक स्थान पर कहलूर के राजा भीम चन्द के साथ युद्ध लड़ना पड़ा। उस युद्ध में गुरु जी को पहली जीत प्राप्त हुई। इसके बाद गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं की ओर से लड़ते हुए नादौन में आलिफ खाँ को पराजित किया। इस युद्ध से पहाड़ी राजाओं को गुरु जी की शक्ति का पता चल गया।

सन् 1699 की वैशाखी को गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना की। उन्होंने आनन्दपुर साहिब में पाँच प्यारों को अमृत छकाया और उनसे स्वयं अमृत छका। इस अवसर पर गुरु जी ने अपना नाम गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंह कर लिया और अपने सब शिष्यों को अपने नाम के साथ सिंह लगाने का आदेश दिया।

गुरु जी की शक्ति को बढ़ता देख औरंगजेब ने उसे समाप्त करने का निश्चय कर लिया। अप्रैल 1704 को मुगल सेना ने आनन्दपुर साहब को घेर लिया। यह घेरा दिसम्बर 1704 तक जारी रहा। मुग़ल सेना ने उन्हें भरोसा दिलाया कि आनन्दपुर साहब को छोड़ने पर उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाई जाएगी। किन्तु सरसा नदी को पार करते समय मुग़ल सेना ने विश्वासघात करते हुए गुरु जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। अफरातफरी में गुरु जी की माता और दोनों छोटे साहिबजादे उनसे बिछुड़ गए। गुरु जी किसी तरह चमकौर की गढ़ी पहुँचे। चमकौर के युद्ध में सिक्खों ने मुग़ल सेना का डटकर मुकाबला किया। इस युद्ध में गुरु जी के दोनों बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह शहीद हो गए। उधर गुरु जी के दोनों छोटे साहिबजादों जोरावार सिंह और फतेह सिंह को सरहिन्द के नवाब ने जीवित दीवार में चुनवाकर शहीद कर दिया। अपने चारों साहिबजादों की कुर्बानी से गुरु जी विचलित नहीं हुए।

अपने अन्तिम दिनों में गुरु जी नांदेड़ (महाराष्ट्र) में रहने लगे। वहीं एक दिन गुल खाँ नामक पठान ने उन्हें छुरा घोंप दिया। गुरु जी का घाव कई दिनों बाद भरा। अभी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुए थे कि एक कठोर धनुष पर चिल्ला चढ़ाते हुए उनका घाव खुल गया और 7 अक्तूबर, सन् 1708 को गुरु जी ज्योति जोत समा गए।

महात्मा गाँधी

देश के महान् नेता महात्मा गाँधी का पूरा नाम मोहन दास कर्मचन्द गाँधी था। इनका जन्म 2 अक्तूबर, सन् 1869 को गुजरात के पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ। इनके पिता पोरबन्दर, राजकोट और बीकानेर राज्यों के दीवान पद पर रहे। इनकी माता पुतलीबाई बड़ी धर्मनिष्ठ स्वभाव वाली स्त्री थी। उन्हीं की शिक्षा का बाल मोहनदास पर यथेष्ठ प्रभाव पड़ा। सन् 1887 में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। सन् 1888 में आप इंग्लैण्ड में बैरिस्ट्री पढ़ने के लिए चले गए। इंग्लैण्ड से वापस आकर आप ने पोरबन्दर में वकालत शुरू कर दी। कुछ समय पश्चात् इन्हें एक मुकद्दमे के सिलसिले में दक्षिणी अफ्रीका जाना पड़ा। वहां आप ने भारतीयों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से आहत होकर आपने एक आन्दोलन चलाया जिसके कारण वहाँ भारतीयों के सम्मान की रक्षा होने लगी।

भारत लौटकर गाँधी जी ने देश की राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया। सन् 1914 के प्रथम महा युद्ध में आपने अंग्रेज़ों की इस शर्त पर सहायता की कि युद्ध जीतने की सूरत में अंग्रेज़ भारत को आजाद कर देंगे किन्तु अंग्रेजों ने विश्वासघात करते हुए रोल्ट एक्ट और जलियांवाला बाग के नरसंहार की घटना पुरस्कार रूप में दी।

सन् 1920 में गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया जिसमें हिंसा आ जाने पर सन् 1922 में इन्होंने यह आन्दोलन वापस ले लिया। सन् 1930 में गाँधी जी ने नमक आन्दोलन शुरू किया। सन् 1942 में गाँधी जी ने देश को भारत छोड़ो का नारा दिया। इसी दौरान देश की जनता सरदार भगत सिंह और चन्द्र शेखर जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान से जागरूक हो चुकी थी। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के बढ़ते आक्रमण से डरकर अंग्रेज़ों ने 15 अगस्त, सन् 1947 को भारत को एक स्वाधीन देश घोषित कर दिया किन्तु जाते-जाते अंग्रेज़ देश का बंटवारा कर गए जिसके परिणामस्वरूप देश में हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़क उठे। दंगों को शान्त करने के लिए गाँधी जी ने मरण व्रत रखा।

30 जनवरी, सन् 1948 की शाम 6 बजे नात्थूराम गोडसे नामक युवक ने गाँधी जी की हत्या कर दी। इस तरह देश से एक युग पुरुष उठ गया।

पंजाब केसरी लाला लाजपत राय

पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जी का जन्म 28 जनवरी, सन् 1865 ई० में ज़िला फिरोजपुर के एक गाँव दुडिके में हुआ। सन् 1880 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद आपने मुख्तारी की परीक्षा पास की और हिसार में वकालत शुरू कर दी। सन् 1892 में आप लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने कई वर्षों तक बिना वेतन लिए डी० ए० वी० कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। आपने अपने गाँव दुडिके में अपने पिता के नाम पर राधा कृष्ण हाई स्कूल खोला।

लाला जी का राजनीति में प्रवेश संयोग से हुआ। उस समय सर सैय्यद अहमद खां मुसलमानों को भड़काने वाले और राष्ट्र विरोधी लेख लिख रहे थे। लाला जी पहले व्यक्ति थे जिसने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई। इसी के परिणामस्वरूप सन् 1888 में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में लाला जी का जोरदार स्वागत हुआ। सन् 1893 के कांग्रेस अधिवेशन में भी लाला जी ने ओजपूर्ण भाषण दिए और कांग्रेस को अपनी कार्रवाई अंग्रेज़ी में न कर हिन्दुस्तानी में करने पर विवश कर दिया।

लाला जी सन् 1902, सन् 1908 और सन् 1913 में इंग्लैंड गए और वहाँ के लोगों को अपने भाषणों और लेखों द्वारा भारत की वास्तविक स्थिति से अवगत करवाया। सन् 1914 में प्रथम महायुद्ध छिड़ने पर लाला जी अमेरिका चले गए। वहाँ उन्होंने ‘इंडियन होम लीग’ की स्थापना की और ‘यंग इंडिया’ नामक साप्ताहिक पत्र भी निकाला।

देश में वापस आने पर सन् 1921 में लाला जी को कांग्रेस के विशेष अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने पर इन्हें जेल भी जाना पड़ा।

30 अक्तूबर, सन् 1928 को साइमन कमीशन लाहौर पहुँचा। सरदार भगत सिंह की नौजवान भारत सभा ने इसका विरोध किया। इस विरोध प्रदर्शन की अगुवाई लाला जी ही कर रहे थे। जुलूस पर लाठीचार्ज किया गया। लाहौर के डी० एस० पी० सांडर्स ने लाला जी पर ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाईं। जिसके परिणामस्वरूप 17 नवम्बर, सन् 1928 की सुबह लाला जी का देहान्त हो गया। बाद में सरदार भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या कर लाला जी की मौत का बदला लिया।

शहीदे आज़म सरदार भगत सिंह

देश की स्वतन्त्रता के लिए शहीद होने वालों में सरदार भगत सिंह का नाम प्रमुख है। सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर, सन् 1907 को ज़िला लायलपुर (पाकिस्तान) के गाँव बंगा में हुआ। आपका पैतृक गाँव नवांशहर के निकट खटकड़ कलां है। आपकी आरम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई। फिर आपने लाहौर के डी०ए०वी० स्कूल से मैट्रिक पास की। कॉलेज में दाखिला लेते ही आप क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गए, जिसके परिणामस्वरूप आपने पढ़ाई छोड़ दी। देश भक्ति और क्रान्ति के संस्कार भगत सिंह को विरासत में मिले थे। आपके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह इन्कलाबी गतिविधियों में भाग लेते रहे थे।

सरदार भगत सिंह महात्मा गाँधी की अहिंसावादी नीति को पसन्द नहीं करते थे। क्योंकि उनका विचार था अहिंसात्मक आन्दोलन से देश को आजादी नहीं मिल सकती। इसी उद्देश्य से उन्होंने सन् 1926 में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन किया। उनके जोश और उत्साह को देखकर महात्मा गाँधी को भी मानना पड़ा कि जिस वीरता और साहस का ये नौजवान प्रदर्शन कर रहे थे उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सरदार भगत सिंह और क्रान्तिकारी साथियों का समर्थन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं पं० जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने भी किया।

9 सितम्बर, सन् 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में क्रान्तिकारी युवकों की एक बैठक हुई, जिसमें हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना का गठन किया गया। सरदार भगत सिंह इसके सचिव और चन्द्र शेखर आजाद को कमांडर बनाया गया।

30 अक्तूबर, सन् 1928 को साइमन कमीशन लाहौर पहुँचा। नौजवान भारत सभा ने उसके विरोध में प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में जुलूस की अगुवाई कर रहे लाला लाजपत राय घायल हो गए। 17 नवंबर, सन् 1928 को उनका निधन हो गया। सरदार भगत सिंह ने लाला जी पर लाठियाँ बरसाने वाले डी० एस० पी० सांडर्स की हत्या कर अपने प्रिय नेता की हत्या का बदला ले लिया। गिरफ्तारी से बचने के लिए आप भेस बदलकर रातों-रात लाहौर से निकलकर बंगाल चले गए।

ब्रिटिश सरकार की शोषण नीतियों के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, सन् 1929 को केन्द्रीय विधानसभा में एक धमाके वाला खाली बम फेंका। वे वहाँ से भागे नहीं बल्कि इन्कबाल जिंदाबाद के नारे लगाते रहे। सरदार भगत सिंह जानते थे कि अंग्रेजी सरकार इस जुर्म में उन्हें फाँसी की सज़ा देगी। वे अपनी कुर्बानी से देश में जागृति लाना चाहते थे।

17 अक्तूबर, सन् 1930 को सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा सुना दी गई। सज़ा सुनाए जाने के अवसर पर सरदार भगत सिंह और उनके साथियों ने ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के खूब नारे लगाए। उनकी फांसी की सज़ा के बारे में सुनकर जनता में खूब रोष फैल गया। अंग्रेज़ी सरकार ने जनता के रोष से डरकर 23 मार्च, सन् 1931 को ही लाहौर जेल में फाँसी दे दी और उनके शव सतलुज किनारे हुसैनीवाला नामक स्थान पर जला दिए।

सरदार भगत सिंह ने शहीदी पाकर भारतीय जनता में एक नया जोश भर दिया। आखिर 15 अगस्त, सन् 1947 को हमारा देश आजाद हुआ। भारतवासी सदा उनके ऋणी रहेंगे।

स्वामी विवेकानन्द

कलकत्ता हाईकोर्ट में सफल वकील श्री विश्वनाथ दत्त के घर 12 जनवरी, सन् 1863 को स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम नरेन्द्र दत्त था। इनकी माता भुवनेश्वरी देवी इन्हें स्नेह से केवल रामायण व महाभारत की कहानियाँ सुनाकर साहसी, बहादुर और निडर बनाने की प्रेरणा देती थी। नरेन्द्र उन्हें अपना प्रथम गुरु मानते थे। उन्हीं से नरेन्द्र ने अंग्रेजी और बंगला भाषाएँ सीखीं। परिणामतः नरेन्द्र में प्रारम्भ से ही देश-प्रेम, त्याग, तपस्या और ध्यान के संस्कार फलने फूलने लगे। स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् इनके पिता इनका विवाह कर देना चाहते थे किन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था। नरेन्द्र परमहंस राम कृष्ण के सम्पर्क में आए और उनकी असाधारण आध्यात्मिक व धार्मिक उपलब्धियों से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए और सन् 1883 में उन्होंने संन्यास ले लिया और नरेन्द्र दत्त से स्वामी विवेकानन्द हो गए। 16 अगस्त, सन् 1886 परमहंस राम कृष्ण का देहान्त हो जाने पर उन्होंने अपने साथी संन्यासियों और भक्तजनों ने मिलकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस संस्थान ने देश और विदेश में अनेक प्रशंसनीय और अभूतपूर्ण कार्य किये हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में कलकत्ता में प्लेग का भयंकर रोग फैल गया। स्वामी जी ने अनेक रोगियों को मौत के मुँह से बचाया। उनकी सेवा की और बंगाल से प्लायन करने से रोका। सेवा कार्य में धन की कमी आने पर उन्होंने अपना बैलूर मठ बेचने का निर्णय किया। यह सुनकर बहुत से धनवान् लोगों ने उन्हें धन दिया जिससे सेवा कार्य बिना किसी बाधा के चलता रहा।

11 सितम्बर, सन् 1893 को अमरीका के शिकागो शहर में स्वामी जी ने विश्व धर्म सम्मेलन की धर्म संसद् में जो ओजस्वी, ज्ञानपूर्ण और मौलिक भाषण दिया उससे प्रभावित होकर लाखों अमरीकन उनके भक्त और शिष्य बन गए। उनके प्रवचनों से अमरीका में धूम मच गई। स्वामी जी लगभग ढाई वर्षों तक अमरीका में रहे और वहाँ भारतीय संस्कृति, अध्यात्म व वेदान्त का प्रचार-प्रसार करते रहे।

भारत लौटने पर उनका भव्य स्वागत किया गया। सारे देश ने उन्हें सिर आँखों पर बैठाया। किन्तु 4 जुलाई, सन् 1902 को इस धर्म वीर, कर्म सूर्य और ज्ञान समुद्र का मात्र 39 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया।

स्वामी जी का यह सन्देश हमें सदा प्रेरणा देता रहेगा। “जिस समय तुम भयभीत होते हो, उसी समय तुम दुर्बल होते हो। भय ही जगत में सब अनर्थ का मूल है। सबसे पहले हमारे नवयुवक बलवान होने चाहिए, धर्म बाद में आवेगा मेरे तरुण मित्रो निडर और बलवान बनो।”

सतगुरु राम सिंह जी

नामधारी सिक्ख समुदाय के संस्थापक सतगुरु राम सिंह जी का जन्म 3 फरवरी, सन् 1816 ई० में जिला लुधियाना के एक गाँव राइयाँ में बाबा जस्सा सिंह जी के घर हुआ। छ: वर्ष की छोटी सी आयु में आपका विवाह कर दिया गया। युवावस्था में आप महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र नौनिहाल सिंह की फौज में भर्ती हो गए। कुछ समय बाद नौकरी छोड़कर श्री भैणी साहब में आकर प्रभु सिमरन और समाज सेवा में लग गए। साथ ही देश को आजाद करवाने के लिए यत्न करने लगे।

12 अप्रैल, सन् 1857 ई० को वैशाखी के पावन दिन आपने पाँच शिष्यों को अमृतपान कराकर नामधारी सिक्ख समुदाय की नींव रखी। गुरु जी ने लोगों में आत्म सम्मान जगाने, भक्ति और वीरता पैदा करने तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रचार शुरू किया। गुरु जी ने देश में कई जगह प्रचार केन्द्र स्थापित किए और प्रत्येक केन्द्र को सूबे की संज्ञा दी। गुरु जी के उपदेशों से प्रभावित होकर हज़ारों लोग नामधारी बन गए। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कूकें (हुंकार) मारने के कारण इतिहास में नामधारी सिक्ख कूका नाम से प्रसिद्ध हो गए।

कूका समुदाय के प्रमुख धार्मिक सिद्धान्त-नामधारी ईश्वर को एक मानते हैं। गुरवाणी का पाठ, पाँच ककारों का धारण करना, सफेद रंग के कपड़े पहनना, सफेद रंग की ऊन के 108 मनकों की माला धारण करना इनके मुख्य धार्मिक सिद्धान्त हैं।

सामाजिक बुराइयों का विरोध-सत् गुरु राम सिंह जी ने अनेक सामाजिक बुराइयों का विरोध करते हुए जन साधारण को जागरूक किया। इनमें बाल विवाह, कन्या वध, गौवध, पुरोहितवाद, मूर्ति पूजा, माँस एवं नशीले पदार्थों के सेवन का विरोध प्रमुख थीं। गुरु जी ने दहेज प्रथा का विरोध करते हुए मात्र सवा रुपए में सामूहिक अंतर्जातीय विवाह की प्रथा आरम्भ की।

स्वतन्त्रता संग्राम में नामधारी समुदाय का योगदान-नामधारी समुदाय ने राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत राजनीतिक गतिविधियों में भी सक्रिय भाग लिया। सतगुरु राम सिंह जी ने भारत को आजाद कराने के उद्देश्य से असहयोग व स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ किया। इसी आन्दोलन का महात्मा गाँधी ने सन् 1920 में प्रयोग किया। गुरु जी ने अपनी अलग डाक व्यवस्था के प्रबन्ध कर लिए। उन्होंने अंग्रेज़ी अदालतों और स्कूलों का बहिष्कार कर न्याय और शिक्षा के अपने प्रबन्ध किये। अंग्रेज़ों को लगने लगा कि गुरु जी ने एक समानान्तर सरकार बना ली है। नामधारी सिक्खों ने अंग्रेजों द्वारा स्थापित गौवध के लिए बनाये जाने वाले बूचड़खानों का डटकर विरोध किया। उन्होंने ऐसे बूचड़खानों पर हमला करके अंग्रेजों को बता दिया कि भारतीय अपने धर्म में किसी का हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकते।

अंग्रेज़ों से विरोध करने के कारण सन् 1871 में रायकोट, अमृतसर और लुधियाना में 9 नामधारी सिक्खों को फाँसी दी और सन् 1872 में मालेरकोटला के खुले मैदान में 65 नामधारियों को खड़े करके तोपों से उड़ाकर शहीद कर दिया। नामधारियों के आन्दोलन को सरकार विरुद्ध घोषित करके गुरु जी को गिरफ्तार करने रंगून (तत्कालीन बर्मा) भेज दिया गया जहाँ सन् 1885 में गुरु जी ने इस नश्वर शरीर को त्यागा।

सत् गुरु राम सिंह जी द्वारा चलाया नामधारी समुदाय आज भी भैणी साहब से सादा, पवित्र और आडम्बर रहित जीवन का प्रचार कर रहा है। आजकल गुरु गद्दी पर सत् गुरु जगजीत सिंह जी महाराज विराजमान हैं।

बाबा साहब अम्बेदकर

बाबा साहब अम्बेदकर का जन्म 14 अप्रैल, सन् 1891 को मध्य प्रदेश में इन्दौर के निकट मऊ-छावनी नामक स्थान पर हुआ। आपके पिता श्री राम जी राव ने आपका नाम भीम राव रखा। आपने सोलह वर्ष की अवस्था में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। स्कूल में ही एक अध्यापक ने इनके नाम के साथ अम्बेदकर शब्द जोड़ दिया।

स्कूली जीवन में अम्बेदकर जी को कई कठिनाइयाँ सहनी पड़ीं, किन्तु अम्बेदकर जी ने हिम्मत नहीं हारी और सन् 1912 में बी० ए० की डिग्री प्राप्त कर ली। सन् 1913 में बड़ौदा नरेश से छात्रवृत्ति पाकर आप विदेश चले गए। वहाँ आप सन् 1917 तक रहे और कोलम्बिया विश्वविद्यालय से आपने एम० ए०, पी० एच-डी० एवं एल० एल० बी० की डिग्रियाँ प्राप्त की। स्वदेश लौटकर बड़ौदा राज्य के सैनिक सचिव नियुक्त हुए। कुछ समय पश्चात् आपने आजीविका चलाने के लिए वकालत का पेशा अपना कर निम्न वर्ग को छुआछूत से छुटकारा दिलाने के लिए काम शुरू कर दिया। लोगों में जागृति लाने के लिए आपने ‘बहिष्कृत हितकारिणी’ और ‘बहिष्कृत भारत’ नामक समाचार-पत्र निकाले। सन् 1927 में आप मुम्बई विधानसभा के सदस्य मनोनीत हुए।

इसी बीच महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं के साथ मिलकर निम्न वर्ग के उत्थान के लिए अनेक कार्य किये, अनेक आन्दोलन चलाये। इनमें 20 मार्च, सन् 1927 में चलाया चोबदार-तालाब सत्याग्रह उल्लेखनीय है।

सन् 1947 में देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में आप कानून मन्त्री बने । आपको संविधान सभा का सदस्य बनाया गया। आपके ही प्रयत्नों से भारतीय संविधान को धर्म-निरपेक्ष बनाया। जिसमें प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण का हो, समान अधिकार दिए गए। आप ही के यत्नों से हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान मिला।

किन्हीं अज्ञात कारणों से बाबा साहब अम्बेदकर जी ने नागपुर में बौद्ध धर्म में दीक्षा ले ली।

6 दिसम्बर, सन् 1956 को यह महान विभूति इस दुनिया से चाहे सदा के लिए उठ गयी लेकिन उनके कार्यों और ख्याति को कभी कोई नहीं भुला पाएगा।

मेरी क्यूरी

मेरी क्यूरी का नाम उसकी सेवाओं के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध है। वह पहली महिला थी जिसे नोबेल पुरस्कार (इनाम) दिया गया था। मेरी क्यूरी का जीवन हमारे सामने एक महान् आदर्श पेश करता है।

आपका जन्म 7 नवम्बर, सन् 1867 को हुआ। बचपन का नाम ‘मार्यास्कोटोस्को’ था। उसकी चार बहनें और एक भाई था। पिता स्कूल में अध्यापक होने के साथ-साथ देश-भक्त भी थे। देश को रूसी अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए उसे नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने अपने बच्चों में भी देश-भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी।

बचपन में मार्या की बुद्धि अनोखी थी। उसे विज्ञान (साईंस) में रुचि थी। वह हाई स्कूल की परीक्षा में प्रथम आई। उसे स्वर्ण पदक (सोने का मैडल) मिला। मार्या को नृत्य (नाच)
और संगीत का भी शौक था।

23 वर्ष की आयु में मार्या पढ़ने के लिए बहन ब्रोन्या के पास चली गई। उसने विश्वविद्यालय में अपना नाम ‘मेरी’ लिखवाया। वह विज्ञान विभाग की छात्रा थी। वह एम० एससी० में प्रथम आई। उसके बाद वह पैरिस लौट आई।

सन् 1895 में एक युवक “पियरी क्यूरी” से उसका विवाह सम्पन्न हो गया। वह पेरिस के रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान संस्थान में प्रयोगशाला का अध्यक्ष था। दोनों की विज्ञान में रुचि थी। दोनों इकट्ठे मिल कर अनुसंधान (प्रयोग) करने लगे।

क्यूरी पति-पत्नी हेनरी बेकरेल के प्रयोगों में रुचि लेने लगे। हेनरी बेकरेल पहला वैज्ञानिक था जिसने यह खोज की थी कि यूरेनियम के लवणों में अजीब गुण हैं। उससे विकरित होने वाली किरणें अपारदर्शी पदार्थों को भी बींध सकती हैं। क्यूरी दम्पति ने यह खोज की कि केवल यूरेनियम ही नहीं, बल्कि कई दूसरे तत्वों के परमाणुओं में भी उपरोक्त किरणें विकरित करने (फैलाने) की क्षमता होती है। कुछ समय बाद उन्होंने किरणें विकरित करने वाले एक और अज्ञात तत्व की खोज की। उन्होंने उसका नाम ‘रेडियम’ रखा। इस खोज पर उन्हें सन् 1903 में नोबेल पुरस्कार मिला।

बदकिस्मती से पियरी क्यूरी की दुर्घटना ( हादसे) में मृत्यु हो गई। उसके पति की जगह उसे प्रोफेसर बना दिया गया। उसने पति के काम को आगे बढ़ाया। उसे दूसरा नोबेल पुरस्कार सन् 1911 में मिला।

सन् 1914 में विश्व युद्ध छिड़ा। मेरी क्यूरी ने घायल सैनिकों के लिए कई चिकित्सक दल संगठित किए। एक-दूसरे के माध्यम से डॉक्टरों की सहायता की। घायलों का इलाज किया। सन् 1918 में युद्ध समाप्त हुआ। युद्ध के पश्चात् फिर मेरी क्यूरी पर उपाधियों और पार्टियों की वर्षा हुई।

मेरी क्यूरी का एक ही सन्देश था कि मानव जाति की सेवा में अपने आपको न्योछावर कर दो। उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया कि महिलाएँ हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकती हैं। सन् 1934 में मेरी क्यूरी स्वर्ग सिधार गईं।

महाराजा रणजीत सिंह

शेरे पंजाब कहे जाने वाले महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर, सन् 1780 ई० को गुजरांवाला (पाकिस्तान) में हुआ। आपके पिता का नाम महासिंह था जो सुकरचकिया मिसल के सरदार थे। आपकी माता राजकौर जींद की फुलकिया मिसल के सरदार की बेटी थी। आपका बचपन का नाम बुध सिंह था, किन्तु आपके पिता ने अपनी जम्मू विजय को याद रखने के लिए आपका नाम रणजीत सिंह रख दिया।

महाराजा रणजीत सिंह ने उस समय छोटे-छोटे राज्यों को और मिसलों को एक किया। मुसलमानों और पठानों को हरा कर समय की माँग को देखते हुए रोपड़ (रूपनगर) के स्थान पर अंग्रेजों के साथ समझौता कर एक सुदृढ़ सिक्ख राज्य की स्थापना की।

महाराजा रणजीत सिंह एक महान् योद्धा और कुशल प्रशासक थे। दस वर्ष की आयु में आपने पहली जीत प्राप्त की। विजयी रणजीत सिंह जब लौटे तो उनके पिता की मृत्यु हो चुकी थी, किन्तु उन्होंने अपनी योग्यता और वीरता से अपने अधिकार को स्थिर रखा।

महाराजा रणजीत सिंह ने पन्द्रह वर्ष की आयु में महताब कौर से विवाह किया। किन्तु यह विवाह सफल न हो सका। तब उन्होंने सन् 1798 ई० में दूसरा विवाह किया जो सफल रहा।

सत्रह वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते आपने सारी मिसलों का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। उन्नीस वर्ष की अवस्था में लाहौर पर अधिकार करके उसे अपनी राजधानी बनाया। धीरे-धीरे आपने जम्मू-कश्मीर, अमृतसर, मुल्तान, पेशावर आदि क्षेत्रों को अपने अधीन कर एक विशाल पंजाब राज्य की स्थापना की।

महाराजा रणजीत सिंह की उदारता और छोटे बच्चों से प्रेम की अनेक घटनाएँ प्रचलित हैं। आप एक कुशल प्रशासक और न्यायप्रिय शासक थे। सभी जातियों के लोग आपकी सेना में थे। महाराजा जहाँ वीरों, विद्वानों का आदर कर उन्हें इनाम देते थे, वहाँ अत्याचारी जागीरदारों को दण्ड भी देते थे। वे बिना किसी भेदभाव से सभी उत्सवों और पर्यों में भाग लेते थे। यही कारण है कि जब सन् 1839 में आपकी मृत्य हुई तो सभी धर्मों के लोगों ने आप की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना की।

अमर शहीद मेजर भूपेन्द्र सिंह

मेजर भूपेन्द्र सिंह का नाम उन शहीदों में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा जिन्होंने देशहित में अपने प्राण न्योछावर कर दिए। सन् 1965 के पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में मेजर भूपेन्द्र सिंह ने जो अद्भुत शौर्य दिखाया उसके लिए भारतीय सदा उनके ऋणी रहेंगे।

मेजर भूपेन्द्र सिंह लुधियाना जिले के रहने वाले थे। देश सेवा और देश भक्ति की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने पाकिस्तान के साथ स्यालकोट फ्रंट की लड़ाई में अपने उच्च अधिकारी से टैंकों के संचालन की आज्ञा माँगी। आज्ञा पाकर अगले ही दिन मेजर भूपेन्द्र ने तुरन्त शत्रु पर आक्रमण करने का निश्चय किया। मेजर सिंह के टैंकों ने इतनी भयंकर गोलाबारी की कि शत्रु पक्ष के अनेक टैंक ध्वस्त हो गए। मेजर सिंह के नेतृत्व वाले टैंक दल ने शत्रु के 21 टैंक नष्ट कर दिए, इनमें सात तो अकेले मेजर सिंह ने नष्ट किये थे। कुछ टैंकों को मेजर सिंह ने सही हालत में अपने अधिकार में ले लिया। पाकिस्तानी टैंकों की सहायता उनके विमान भी करने लगे। वे हड़बड़ी में बम फेंक रहे थे। दुर्भाग्य से जिस टैंक में मेजर सिंह बैठे थे उस पर पाकिस्तानी विमान द्वारा फेंकी गई एक मिजाइल आ लगी। उनका टैंक जलने लगा। मेजर सिंह साहस से काम लेते हुए टैंक से बाहर कूद पड़े। अभी वे अपने लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ ही रहे थे कि उनके साथियों की जलते हुए टैंकों से बचाओ-बचाओ की आवाजें सुनाई दी। मेजर सिंह ने अपनी जान की परवाह न करते हुए अपने तीन साथियों को जलते हुए टैंकों से बाहर निकाला। उनके कपड़ों को आग लग चुकी थी जिससे उनका सारा शरीर झुलस चुका था। अपने साथियों की जान बचाने के बाद वे स्वयं बेहोश होकर गिर पड़े। उन्हें तुरन्त सेना अस्पताल पठानकोट पहुँचाया गया। वहाँ से उन्हें दिल्ली लाया गया। उनकी वीरता और साहस की कहानी सुन कर प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री स्वयं अस्पताल आए। उनके आने पर मेजर सिंह ने कहा-‘काश मेरे हाथ इस योग्य होते कि मैं उन्हें सैल्यूट कर सकता’-इस वीर की यह हालत देख शास्त्री जी की भी आँखें भर आईं। मेजर सिंह कुछ दिन मौत से लड़ते रहे फिर एक दिन भारत माँ का यह शूरवीर हम से सदा के लिए विदा हो गया।

भारत सरकार ने इस वीर सपूत को महावीर चक्र (मरणोपरान्त) देकर सम्मानित किया। मेजर भूपेन्द्र सिंह की शहादत युवा पीढ़ी को सदा प्रेरित करती रहेगी।

पंजाब के ग्रामीण मेले और त्योहार

देवी-देवताओं, गुरुओं, पीर-पैगम्बरों, ऋषि-मुनियों एवं महात्माओं की पंजाब की धरती अपने कर्मठ किसानों और वीर सपूतों के कारण देश भर के सभी प्रान्तों में शिरोमणि है। पंजाब को मेले और त्योहारों के लिए भी जाना जाता है। साल के शुरू में ही लोहड़ी का त्योहार और माघी का मेला आता है। लोहड़ी पौष मास के अंतिम दिन मनाया जाता है। कड़ाके की सर्दी की परवाह न करते हुए युवक-युवतियों की टोलियाँ-दे माई लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी या सुंदर मुन्दरिये हो, तेरा कौन विचारा-के गीत गाते हुए उन घरों से विशेषकर लोहड़ी माँगते हैं जिनके घरों में पुत्र का विवाह हुआ हो या पुत्र उत्पन्न हुआ हो। लोहड़ी से अगले दिन मुक्तसर में चालीस मुक्तों की याद में माघी का मेला मनाया जाता है। वैसे माघ महीने की संक्रान्ति को सभी पवित्र सरोवरों और नदियों में स्नान कर लोग पुण्य लाभ कमाते हैं।

माघी के बाद बसंत पंचमी का त्योहार आता है, जो सारे पंजाब में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन लोग पतंग उड़ाते हैं और घरों में पीले चावल या पीला हलवा बनाते हैं और पीले वस्त्र पहनते हैं। प्रकृति भी उस दिन पीली चुनरी (सरसों के फूल खेतों के रूप में) ओढ़ लेती है। पुरानी पटियाला और कपूरथला रियासतों में यह दिन बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता था। इसी दिन बटाला में वीर हकीकत राय की समाधि पर एक बड़ा भारी मेला लगता है।

बसन्त पंचमी के बाद बैसाखी का त्योहार आता है। इस दिन किसान अपनी गेहूँ की फसल को तैयार देखकर झूम उठता है और गा उठता है-‘जट्टा ओ आई बिसाखी, मुक्क गई फसलाँ दी राखी’। गाँव-गाँव शहर-शहर मेले लगते हैं।

इसके बाद सावन महीने में पूर्णिमा को रक्षा बन्धन का त्योहार आता है। यह त्योहार भाईबहन के पवित्र रिश्ते का प्रतीक है। इसी महीने पंजाब का एक ग्रामीण त्योहार भी आता है। इस त्योहार को मायके आई विवाहित लड़कियों का तीज का त्योहार कहा जाता है। मायके आई विवाहित लड़कियाँ सखियों संग झूला झूलती हैं और मन की बातें खुल कर करती हैं। । उपर्युक्त मेलों और त्योहारों के अतिरिक्त पंजाब में कुछ धार्मिक मेले भी होते हैं। इनमें सबसे बड़ा आनन्दपुर साहब में लगने वाला होला-मुहल्ला का मेला है। ग्रामीण मेलों में किला रायपुर का मिनी ओलिम्पिक मेला प्रसिद्ध है। कुछ मेलों में पशुओं की मण्डियाँ भी लगती हैं।

पंजाब के ये मेले और त्योहार आपसी भाई-चारे के प्रतीक हैं। हमें इन्हें पूरी श्रद्धा के साथ मनाना चाहिए।

जीवन में त्योहारों का महत्त्व

कहा जाता है कि जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है और मनुष्य शुरू से संघर्ष के बाद, आराम या मनोरंजन चाहता है। इसलिए मनुष्य ने ऐसे अवसरों की तलाश की जिनमें वह अपने सब दुःख-दर्द भूल कर कुछ क्षणों के लिए खुल कर हँस गा सके। हमारे पर्व या त्योहार यही काम करते हैं। त्योहार वाले दिन, चाहे एक दिन के लिए ही सही हम यह भूलने की कोशिश करते हैं कि हम गरीब हैं, दु:खी हैं। आराम जीवन की जरूरत है, परिवर्तन मानव-स्वभाव की माँग है। हमारे पर्व या त्योहार इस ज़रूरत और माँग को पूरा करते हैं।

त्योहार का नाम सुनते ही सभी के मन में उल्लास एवम् स्फूर्ति भर जाती है। त्योहार के दिन हम आनन्द के साथ-साथ जातीय गौरव का भी अनुभव करते हैं। ये त्योहार आपसी भाईचारे के प्रतीक हैं। इनमें सभी धर्मों, सम्प्रदायों के लोग बिना किसी भेदभाव के भाग लेते हैं। जहाँ ये त्योहार आपसी सम्बन्धों को सुदृढ़ करते हैं, वहाँ राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा देते

हमारे देश में मनाए जाने वाले त्योहार धर्म और राजनीति के उच्चतम आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं। प्रत्येक पर्व या त्योहार किसी-न-किसी आदर्श चरित्र से जुड़ा है। जैसे बसन्तोत्सव हमें भगवान् शंकर के कामदहन और श्रीकृष्ण के पूतनावध की याद दिलाता है। आषाढ़ में काल की दुर्निवार गति की याद में भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा होती है। श्रावणी पूर्णिमा रक्षाबन्धन के त्योहार द्वारा हिन्दू समाज में भ्रातृत्व का स्मरण दिलाया जाता है। दीवाली के दिन हम लक्ष्मी पूजन के साथ नरकासुर वध की घटना को याद करते हैं। रामनवमी के दिन हमें भगवान् राम के जीवन से त्याग, तपस्या और जन सेवा की शिक्षा मिलती है।

हमारे देश में अनेक त्योहार ऋतुओं या फसलों से भी जुड़े हैं जैसे लोहड़ी, होली, बैशाखी, श्रावणी पूर्णिमा आदि। कुछ त्योहारों पर व्रत रखने की भी परम्परा है जैसे महाशिवरात्रि, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी आदि । स्वास्थ्य की दृष्टि से इन व्रतों की बहुत उपयोगिता है। ये व्रत व्यक्ति की पाचन क्रिया को सही रखते हैं। संक्षेप में कहा जाए तो हमारे पर्व या त्योहार आत्म शुद्धि का साधन हैं। त्योहार हमारे जीवन में खुशियाँ लाते हैं। त्योहारों के अवसर पर हम अपने सब राग, द्वेष, मद, मोह को भस्मीभूत करके, ऊँच-नीच का, जाति-पाति का भेद भुला कर, एक होकर आनन्द मनाते हैं। इन्हीं त्योहारों ने हमारी प्राचीन संस्कृति को और सामाजिक मूल्यों को बचाए रखा है।

लोहड़ी

लोहड़ी का त्योहार विक्रमी संवत् के पौष मास के अन्तिम दिन अर्थात् मकर संक्रान्ति (माघी) से एक दिन पहले मनाया जाता है। इसे हम ऋतु सम्बन्धी त्योहार भी कह सकते हैं। अंग्रेज़ी कलैण्डर के अनुसार साल का यह पहला त्योहार होता है। इस दिन सर्दी अपने पूर्ण यौवन पर होती है। लोग अपने-अपने घरों में आग जलाकर उसमें मूंगफली, रेवड़ियों, फूलमखानों की आहुति डालते हैं और लोक गीतों को गाते हुए नाचते हुए आग तापते हैं।

लोहड़ी वाले दिन माता-पिता अपनी विवाहिता बेटियों के घर उपर्युक्त चीजें और वस्त्राभूषण भेजते हैं। जिनके घर लड़के की शादी हुई हो या लड़का पैदा हुआ हो, वे लोग अपने नाते-रिश्तेदारों को बुलाकर धूमधाम से लोहड़ी का त्योहार मनाते हैं। कुछ क्रांतिकारी लोगों ने अब लड़की के जन्म पर भी लोहड़ी मनाना शुरू कर दिया है।

पुराने जमाने में लड़के-लड़कियाँ समूह में घर-घर जाकर लोहड़ी माँगते थे और आग जलाने के लिए उपले और लकड़ियाँ एकत्र करते थे। साथ ही वे ‘दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी’, ‘गीगा जम्यां परात गुड़ वंडिया’ तथा ‘सुन्दर मुन्दरिये हो, तेरा कौन विचारा-दुल्ला भट्ठी वाला’ जैसे लोक गीत भी गाया करते थे। युग और परिस्थितियाँ बदलने के साथ-साथ लोहड़ी माँगने की यह प्रथा लुप्त होती जा रही है। लोग अब अपने घरों में कम होटलों में अधिक लोहड़ी मनाते हैं और आग जलाने के स्थान पर डी०जे० पर फिल्मी गाने गाते हैंलोक गीत तो जैसे लोग भूल ही गए हैं। बस लोहड़ी के अवसर पर पीना-पिलाना और नाचना-गाना ही शेष बचा है।

कुछ लोग लोहड़ी के त्योहार को फसली त्योहार मानते हैं। गन्ने की फसल तैयार हो जाती है और गुड़-शक्कर बनना शुरू हो जाता है। सरसों की फसल भी तैयार हो जाती। मकई की फसल घरों में आ चुकी होती है। शायद इन्हीं कारणों से आज भी गन्ने के रस की खीर, सरसों का साग और मकई की रोटी बनाने का रिवाज है।

समय चाहे कितना बदल गया हो, किन्तु लोहड़ी के त्योहार को आपसी भाईचारे और पंजाबी संस्कृति का त्योहार माना जाता है।

होली

हिंदुओं के त्योहारों में होली का त्योहार एक प्रमुख त्योहार है। रंगों का यह त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। प्राचीन काल में इस दिन को हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद और उसकी बुआ होलिका से जोड़ कर देखा जाता था। होलिका दहन की घटना को याद कर सामूहिक रूप से अग्नि प्रज्वलित की जाती थी और यह कल्पना की जाती थी राक्षसी प्रवृत्ति वाली होलिका जल गई है। आज भी कुछ स्थानों पर होली बसन्त के बाद महीना भर मनाई जाती है। वृन्दावन और बरसाने की होली देखने तो देश-विदेश से कई लोग आते हैं।

होली रंगों का और मेल मिलाप का त्योहार है, किन्तु आज की युवा पीढ़ी ने इसे हुड़दंग बाजी का त्योहार बना दिया है। होली के त्योहार को ही कई लोग गांजा, सुल्फा, भांग या शराब पीना शुभ समझते हैं, किन्तु ऐसा करना कभी भी शुभ नहीं माना जाता। यदि किसी पवित्र त्योहार के दिन हम व्यसनों और कुरीतियों की ओर बढ़ते हैं तो इससे हम त्योहार के वास्तविक महत्त्व से बहुत दूर हट जाते हैं।

होली के अवसर पर पहले लोग अबीर, गुलाल से रंग खेलते थे, किन्तु आज हम सस्ते के चक्कर में सिंथेटिक रंगों से होली खेलते हैं। जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं। इन रंगों के आँखों में पड़ने से आँखों की रोशनी जाने का खतरा बना रहता है। आज आवश्यकता है होली के त्योहार की पवित्रता से युवा पीढ़ी को, बच्चों को परिचित करवाने की। इसके लिए हमारे धार्मिक और सामाजिक नेताओं को आगे आना चाहिए, होली आपसी भाईचारे का, मेल-मिलाप का त्योहार है, हमें यह त्योहार ऊँच-नीच का, छोटे-बड़े का भेद भुला देना सिखाता है। हमें इस दिन लोगों में खुशियाँ बाँटनी चाहिए न कि दुःख या कष्ट पहुँचाना। हमें बड़ों की ही नहीं डॉक्टरों की सलाह पर भी ध्यान देना चाहिए।

वैशाखी

वैशाखी का त्यौहार वैशाख मास की संक्रान्ति को मनाया जाता है। पहले पहल यह त्योहार फसली त्योहार माना जाता था जिसे किसान लोग अपनी गेहूँ की फसल तैयार हो जाने पर मनाते थे। इस दिन गाँव-गाँव मेले लगते हैं। कई स्थानों पर यह मेला दो-दो अथवा तीन-तीन दिनों तक चलता है। नौजवान लोग भाँगड़ा डालते हैं । लोग सजधज कर इन मेलों में शामिल होते हैं । इस त्योहार को शीत ऋतु के प्रस्थान और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का त्योहार भी माना जाता है। लोग पवित्र नदियों व सरोवरों में जाकर स्नान करते हैं और गुरुद्वारों में मत्था टेक कर निहाल होते हैं।

वैशाखी के दिन रबी की फ़सल पक कर तैयार हो जाती है जिससे किसानों के ही नहीं, मज़दूरों और शिल्पकारों और दुकानदारों के चेहरे पर रौनक आ जाती है। वास्तव में सारा व्यापार रबी की अच्छी फसल पर ही निर्भर करता है।

वैसाखी का यह पर्व हमें सन् 1699 का वह दिन भी याद दिलाता है जिस दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसे की साजना की थी। गुरु जी कहा करते थे-जब शान्ति एवं समझौते के सभी तरीके असफल हो जाते हैं तब तलवार उठाने में नहीं झिझकना चाहिए।

वैशाखी का यह पर्व पहले उत्तर भारत में ही विशेषकर गाँवों में मनाया जाता था, किंतु सन् 1919 में इसी दिन जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार को याद करते हुए वैशाखी का यह पर्व सारे भारत में मनाया जाता है और जलियांवाला बाग में शहीदों को याद किया जाता है।

वैशाखी वाले दिन से ही नवीन विक्रमी वर्ष का आरम्भ माना जाता है। कई जगहों पर इसी दिन साहुकार लोग अपने नए बही खाते खोलते हैं और मनौतियाँ मनाते हैं। पंजाब के किसान तो खुशी से झूम कर गा उठते हैं-‘जट्टा ओ आई वैशाखी, मुक्क गई फसलाँ दी राखी’। युवक भाँगड़ा डालते हैं तो युवतियाँ गिद्दा डालती हैं। इसी कारण वैशाखी के त्योहार को पंजाब के ग्रामीण मेलों का सिरताज कहा जाता है।

रक्षाबंधन

रक्षाबंधन का त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसी कारण कई लोग इसे श्रावणी पर्व के नाम से भी याद करते हैं। इसी त्योहार के दिन से कार्तिक शुक्ला एकादशी तक चतुर्मास भी मनाया जाता है। पुराने जमाने में ऋषि-मुनि और ब्राह्मण इन चार महीनों में यात्रा नहीं करते थे, अपने आश्रमों में ही रहते थे। राज्य की ओर से उनके रहने खाने-पीने का प्रबंध किया जाता था। आजकल इस नियम का पालन केवल जैन साधु एवं साधवियाँ ही कर रहे हैं।

रक्षाबंधन का त्योहार भाई-बहन के प्यार से कब से सीमित हो गया इसका इतिहास में कोई प्रमाण नहीं मिलता। केवल चित्तौड़ की महारानी करमवती द्वारा मुग़ल सम्राट् हुमायूँ को भेजी राखी की घटना का ही उल्लेख मिलता है। हुमायूँ ने राखी मिलने पर गुजरात के मुसलमान शासक को हरा कर अपनी मुँह बोली बहन के राज्य की रक्षा की थी, किन्तु शुरूशुरू में रक्षाबंधन केवल ब्राह्मण ही अपने यजमानों के ही बाँधा करते थे। समय के परिवर्तन के साथ राजपूत स्त्रियों ने अपने पतियों की कलाई पर युद्ध में जाते समय रक्षाबंधन बाँधना शुरू कर दिया।

आजकल यह त्योहार केवल भाई-बहनों का त्योहार बन कर ही रह गया है। बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती है और भाई उसकी सुरक्षा की प्रतिज्ञा करता है। किंतु आज बहन स्वयं आत्मनिर्भर हो गई है। अपने परिवार का (माता-पिता, भाई-बहन का) भरण पोषण करती है फिर वह अपनी सुरक्षा की गारंटी क्यों चाहेगी। दूसरे आज यह त्योहार मात्र परंपरा का निर्वाह बन कर रह गया है। आज बहन अबला नहीं सबला नारी हो गई है।

पुराने जमाने में विवाहित स्त्रियाँ अपने मायके चली जाती थीं। वह अपनी सहेलियों संग झूला झुलती, आमोद-प्रमोद में दिन बिताती हैं। शायद इसीलिए बड़े-बुजुर्गों ने श्रावण महीने में सास-बहु के इकट्ठा रहने पर रोक लगा दी थी, किंतु आज बड़ों के इस आदेश या नियम की कोई पालना नहीं करता। … हमें चाहिए कि आज प्रत्येक त्योहार को हम पूर्ण श्रद्धा के साथ मनाएँ और अपनी जाति के गौरव और अपने देश की संस्कृति का ध्यान रखें। समय और परिस्थिति के अनुसार उसमें उचित सुधार कर लें।

दशहरा (विजयदशमी)

दशहरा (विजयदशमी) का त्योहार देश भर में शारदीय नवरात्रों के बाद दशमी तिथि को मनाया जाता है। प्रसिद्ध एवं सर्वज्ञात रूप से विजयदशमी के त्योहार को भगवान् श्रीराम की लंकापति रावण पर विजय के रूप में अथवा धर्म की अधर्म पर और सत्य की असत्य पर विजय के रूप में मनाया जाता है। नवरात्र के नौ दिनों में देश के विभिन्न नगरों और गाँवों में दशहरे का मेला लगता है जिसमें रामलीला का मंचन होता है और श्रीराम के जीवन से जुड़ी अनेक झाँकियाँ निकाली जाती हैं। जिन गाँवों में यह मेला नहीं लगता वहाँ के लोग निकट के नगर में यह मेला देखने जाते हैं। दशमी के दिन रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के बड़े-बड़े पुतले, जो रामलीला मैदान में स्थापित किए होते हैं, जलाए जाते हैं।

विजयदशमी का यह त्योहार बंगाल में दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। प्रान्त भर में माँ दुर्गा की विशाल मूर्तियाँ बनाई जाती हैं और विजयदशमी के दिन गंगा में या निकट की नदियों में विसर्जित की जाती हैं। प्राचीन काल में क्षत्रिय लोग शक्ति के प्रतीक शस्त्रों की पूजा किया करते थे।

महाराष्ट्र में विजयदशमी सीमोल्लंघन के रूप में मनाई जाती है। सायंकाल गाँव के लोग नए वस्त्र पहन गाँव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में ‘सोना’ लूट कर गाँव लौटते हैं और उस सुवर्ण का आदान-प्रदान करते हैं।

प्राचीन इतिहास के अनुसार इसी दिन देवराज इन्द्र ने महादानव वृत्रासुर पर विजय प्राप्त की थी। पाण्डवों ने भी इसी दिन अपना तेरह वर्षों का अज्ञातवास पूरा कर द्रौपदी का वरण किया था।

विजयदशमी धार्मिक दृष्टि से आत्म-शुद्धि का पर्व है। राष्ट्रीय दृष्टि से यह दिन सैन्य संवर्धन का दिन है। शक्ति के उपकरण शस्त्रों की पूजा का दिन है। हम स्वयं को आराधना और तप से उन्नत करें, धर्म की, सत्य की अधर्म और असत्य पर विजय को याद रखें और राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करें, यही विजयदशमी का संदेश है।

दीपावली

दीपावली का त्योहार कार्तिक महीने की अमावस्या को मनाया जाता है। इस त्योहार को भगवान् श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी सहित लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे। इस अवसर पर अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाकर उनका स्वागत किया था। यह त्योहार प्रायः सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है। लोग अपने घरों और दुकानों को साफ़ कर सजाते हैं। बाज़ारों में चहल-पहल बढ़ जाती है। लोग एक-दूसरे को शुभकामनाएँ और उपहार भेंट करते हैं।

दीपावली का यह त्योहार पाँच दिनों तक मनाया जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की त्र्योदशी को धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोग बर्तन या गहने खरीदना शुभ मानते हैं। इससे अगला दिन नरक चौदस अथवा छोटी दीवाली के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं कि इसी दिन भगवान् श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था। अमावस्या की रात को दीवाली का मुख्य पर्व होता है। इस रात धन की देवी लक्ष्मी जी और विघ्ननाशक गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी और गणेश जी की समन्वित पूजा का अर्थ है धन का मंगलमय संचयन और उसका धर्म सम्मत उपयोग। अमावस्या से अगला दिन विश्वकर्मा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन गोवर्धन पूजा का भी विधान है तथा कार्तिक शुक्ला द्वितीया को भाई-बहन का दूसरा बड़ा त्योहार भाई दूज के रूप में मनाया जाता है। इस तरह पाँच दिनों तक चलने वाला दीवाली का त्योहार समाप्त हो जाता है।

दीवाली के अवसर पर जुआ खेलने की कुप्रथा का भी प्रचलन है। इस कुप्रथा को बन्द होना चाहिए। भले ही जुआ खेलना एक कानूनी अपराध है, किन्तु फिर भी लोग जुआ खेलते हैं। दीवाली के अवसर पर पटाखे चलाने और आतिशवाजी भी हमें बंद कर देने चाहिए। हर वर्ष करोड़ों रुपए पटाखे चलाकर ही हम नष्ट कर देते हैं । इन रुपयों से लाखों भूखों को रोटी दी जा सकती है। लाखों गरीब बच्चों को पढ़ाया जा सकता है। चण्डीगढ़ में सन् 2008 में छात्रों ने पटाखे न चलाने का प्रण करते हुए एक जुलूस भी निकाला था, जो एक सराहनीय कदम है। दीवाली के इस त्योहार को हमें बदली परिस्थितियों के अनुसार मनाना चाहिए।

वसंत ऋतु

वसंत ऋतु को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। यह ऋतु अंग्रेज़ी महीने के मार्च-अप्रैल और विक्रमी संवत् के महीनों चैत्र-वैशाख महीनों में आती है, किन्तु लोग वसंत आगमन का त्योहार वसंत पंचमी का त्योहार माघ महीने की पंचमी को ही मना लेते हैं। कहा जाता है आया वसंत तो पाला उड़त अर्थात् इस ऋतु में शीत का अंत हो जाता है। मानव शरीर में नई चेतना एवं स्फूर्ति का अनुभव होने लगता है। इस ऋतु में शरीर में नए रक्त का संचार होता है। प्रकृति भी नए रूप और यौवन के साथ प्रकट होती है। हर तरफ मादकता छायी रहती है। वृक्षों पर नई कोंपलें फूट निकलती हैं और बागों में तरह तरह के फूल खिल उठते हैं। खेतों में फूली सरसों देखकर लगता है जैसे प्रकृति ने पीली चुनरी ओढ़ रखी हो। शायद इसीलिए वसंत को कामदेव का पुत्र माना जाता है। कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाकर प्रकृति नाच उठती है। हर तरफ हरियाली छा जाती है। शीत मंद और सुगंध भरी वायु बहने लगती है। फूलों पर भौरे मँडराने लगते हैं।

वसंतागमन की सूचना हमें कोयल की कूहू कुहू से मिल जाती है और प्रकृति की इस मादकता का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ना शुरू हो जाता है। कहा जाता है कि ज्ञान की देवी सरस्वती का जन्म इसी दिन हुआ था। इसी दिन धर्मवीर हकीकत राय ने धर्म के नाम पर अपना बलिदान दिया था। वसंत पंचमी के दिन बटाला में उनकी समाधि पर बड़ा भारी मेला लगता है। साहित्य जगत् के लोग भी कविवर निराला का जन्म दिन वसंत पंचमी वाले दिन ही मनाते हैं।

वसंत पंचमी के दिन अनेक नगरों में मेले लगते हैं। दिन में कुश्तियाँ होती हैं और शास्त्रीय गायन की सभा सजती है। दिन में लोग पतंग उड़ाते हैं। लखनऊ में पतंगबाजी के मुकाबले सारे देश में प्रसिद्ध हैं। इस दिन लोग पीले कपड़े पहनते हैं। घरों में पीले चावल या पीला हलवा बनाया जाता है।

जब तक ‘मेरा रंग दे वसन्ती चोला नी माए’ गीत गाया जाता रहेगा, वसंत ऋतु हमें सरदार भगत सिंह और वीर हकीकत राय शहीदों की याद दिलाती रहेगी।

मेरे जीवन का उद्देश्य

संसार में मनुष्य के दो ही उद्देश्य होते हैं। पहला आध्यात्मिक और दूसरा भौतिक या सांसारिक। आध्यात्मिक लक्ष्य-ईश्वर प्राप्ति सबका समान होता है किन्तु सांसारिक लक्ष्य मनुष्य अपनी योग्यता और परिस्तिथतियों के अनुसार चुनता है और उसे पूरा करने का यत्न करता है।

मैंने बचपन से ही यह सोच रखा है कि मैं बड़ा होकर एक प्राध्यापक बनूँगा। प्राध्यापक बन कर जहाँ मैं अपनी ज्ञान की भूख मिटा सकूँगा वहाँ समाज, देश की भी सेवा कर सकूँगा। जितने भी डॉक्टर, इंजीनियर बनते हैं उन्हें बनाने वाले प्राध्यापक ही होते हैं। कहते हैं सारा पानी इसी पुल के नीचे से गुज़रता है। बड़ों ने ठीक कहा है कि किसी भी देश या जाति के भविष्य को अगर कोई बनाने वाला है तो वह अध्यापक है। किसी भी देश या जाति के चरित्र को यदि कोई बनाने वाला है तो वह अध्यापक है। शायद इसी कारण कबीर जी गुरु (अध्यापक) को ईश्वर से बड़ा मानते हैं। भले ही आज न तो वैसे शिष्य रहे हैं और न ही अध्यापक किन्तु फिर भी अध्यापक की महत्ता कम नहीं हुई।

आज के माता-पिता के पास अपने बच्चों को पढ़ाने, सिखाने या कुछ बनाने का समय ही नहीं है। केवल अध्यापक ही है जो अपने छात्रों के अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचानता है और उसे सही रूप देता है। इसलिए मैं भी एक अच्छा और आदर्श अध्यापक बनना चाहता हूँ। इसके लिए मुझे पहले एम० ए० करना पड़ेगा फिर बी० एड० या पी एच- डी०।

इसके लिए काफ़ी मेहनत की ज़रूरत है। आजकल प्रतियोगिता का युग है। अतः मुझे सभी परीक्षाएँ अच्छे नम्बरों से पास करनी होंगी। इसके लिए हिम्मत और लग्न चाहिए क्योंकि कहा भी है हिम्मत करे इन्सान तो क्या हो नहीं सकता।

परोपकार या सेवा धर्म

भारतीय सभ्यता और संस्कृति की यह विशेषता रही है कि व्यक्ति अपने हित की बात छोड़कर दूसरों की सेवा करता रहा है। इसी लिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है’परहित सरिस धर्म नहीं भाई।’ सच है परोपकार ही जीवन का सार है, स्वार्थ नहीं निस्वार्थ और परोपकार ही मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाते हैं। पर उपकार से बढ़कर कोई दूसरी सेवा या पुण्य नहीं। ऐसा ही उदाहरण भाई कन्हैया ने सन् 1704 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह जी की सेना और मुग़ल सेना के बीच हो रहे युद्ध में घायलों को बिना किसी भेदभाव के पानी पिलाकर पर सेवा का अद्भुत नमूना प्रस्तुत किया था।

कालान्तर में महात्मा बुद्ध, भगवान् महावीर, महात्मा गाँधी और मदर टेरेसा जैसी महान् विभूतियों ने भी परोपकार को ही अपनाकर नाम कमाया। उन्होंने दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। इन महापुरुषों ने अहिंसा को अपना आदर्श बनाया। क्योंकि स्वार्थ परपीड़ा और हिंसा को जन्म देता है। हिंसा में सभी अधर्मों और पापों का समावेश हो जाता है। परपीड़ा यदि अधर्म की सीमा है तो परहित, दूसरों की निस्वार्थ सेवा करना धर्म की दीन दुखियों की सेवा करना एक अनुपम गुण है। यह गुण जिस व्यक्ति में आ जाए, वह महान् आत्मा है।

परोपकार की शिक्षा मनुष्य ने प्रकृति से ली है। नदियाँ कभी अपना जल नहीं पीती हैं, वे सदा दूसरों की प्यास शान्त करती हैं। वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, वे उनको संसार के प्राणियों के लिए अर्पित कर देते हैं। बादल सदा दूसरों की सेवा के लिए बनते हैं, वे स्वयं नष्ट होकर धरती को हरियाली प्रदान करते हैं। इसी प्रकार सज्जन लोग भी परोपकार के लिए ही धन संचय करते हैं। हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब लोगों ने परोपकार के लिए अपनी धन सम्पत्ति ही नहीं घरबार को त्याग दिया। महर्षि दधीचि का वह त्याग कैसे भुलाया जा सकता है जब उन्होंने देवताओं की सहायता के लिए अपनी हड्डियों तक का दान दे दिया था।

भले ही आज रेडक्रास जैसी संस्था यही कार्य कर रही है किन्तु स्वार्थ भरे इस युग में परोपकार के लिए किसी के पास समय नहीं है आज तो बस इतना ही कहा जाता है-पहले पूत फिर परोहित।

सदाचार

सदाचार का अर्थ है अच्छा आचरण अर्थात् व्यवहार। सदाचार से मनुष्य में अनेक अच्छे गुण आते हैं जैसे वह दूसरों के प्रति विनम्रता, आदर भाव, दया भाव रखता है। सदाचार से ही व्यक्ति में नैतिकता और सत्यनिष्ठा आती है। सदाचार ही मनुष्य को आदर्श नागरिक बनाता है। सदाचारी मनुष्य में साम्प्रदायिक भेद नहीं होता और न ही ईर्ष्या द्वेष होता है। वह मानव मात्र से प्रेम करता है जिससे समाज में व्यवस्था और शान्ति स्थापित होती है।

प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी इसलिए माना जाता है क्योंकि उसके पास बौद्धिक शक्ति होती है। इसी शक्ति के आधार पर व्यक्ति अच्छे बुरे या सत् असत् का निर्णय करता है शास्त्रों में सत् को धर्म तथा सदाचार अर्थात् सत् को जानता और उस पर आचरण करना परम धर्म माना गया है। गुरुओं ने भी सच्चे आचरण को ही महत्त्व दिया है। सदाचार का मुख्य गुण सत् है। हमारी आस्था है कि सदा सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्यवादी हरिश्चन्द्र की कथा सुन कर ही बचपन में महात्मा गाँधी इतने प्रभावित हुए कि जीवन भर उन्होंने सत्य का सहारा लिया और देश को स्वतन्त्र कराया।

बच्चा सामान्य रूप से सत्य ही बोलता है। हम स्वार्थवश ही उसे झूठ बोलना सिखाते हैं। हमें बच्चे को झूठ बोलने का अवसर नहीं देना चाहिए क्योंकि सत्यवादी बालक निर्भय हो जाता है और छल कपट या अपराध से दूर भागता है। ऐसा बालक सबका विश्वास पात्र बन जाता है।

अहिंसा, नम्रता और नैतिकता सदाचार के अन्य गुण हैं इनमें से नैतिकता सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। बच्चों में नैतिकता लाने के लिए उनकी संगति का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। अच्छी संगति से ही बच्चों का चरित्र निर्माण होता है। वह स्वस्थ एवं नीरोग रहता है। माता-पिता की सेवा करता है, उनका कहा मानता है।

इस तरह सदाचार में सत्यवादिता, नम्रता, प्रेम भावना, नैतिकता आदि गुणों का समावेश है। जिसे अपनाने से मनुष्य अपना जीवन सार्थक करता है, मान-सम्मान पाता है, समाज तथा राष्ट्र का हित करता है।

सहयोग

एक-दूसरे का साथ देना सहयोग कहलाता है। हर आदमी को एक-दूसरे की सहायता अथवा रास्ता दिखाने की ज़रूरत पड़ती है। हम उन कमियों को एक-दूसरे का सहयोग प्राप्त कर दूर कर लेते हैं। सहयोग से ही हम कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। सहयोग जीवन का आधार है।

अन्धे और लंगड़े की कहानी भी सहयोग का एक उदाहरण है। किसी गाँव में अन्धा और लंगड़ा रहते थे। गाँव में वर्षा के दिनों पानी भर गया। गाँव के लोग वहाँ से चले गए। अन्धा और लंगड़ा ही केवल वहाँ रह गए। मुसीबत को सामने देख लंगड़े को एक बात सूझी। उसने अन्धे से कहा कि तुम मुझे अपने कन्धे पर बैठा लो। मैं तुम्हें रास्ता बताता जाऊँगा। इस तरह हम बच जाएँगे। अन्धे को उसकी बात पसन्द आई। ऐसा करके अर्थात् एक-दूसरे के सहयोग से दोनों इस संकट को पार कर गए।

जीवन का कोई भी क्षेत्र हो चाहे बचपन हो, चाहे जवानी या बुढ़ापा, सहयोग के बिना हम कहीं भी आगे नहीं बढ़ सकते। बड़ी-से-बड़ी विपत्ति का मुकाबला सहयोग द्वारा किया जा सकता है। जैसे एक छोटा-सा तिनका तो एकदम आप तोड़कर नष्ट कर सकते हैं परन्तु यदि 50-100 तिनके इकट्ठे करके आप उन्हें तोड़कर नष्ट कर देना चाहें तो कठिनाई आएगी। यह उनका आपसी सहयोग ही आपके लिए कठिनाई ला सकता है।

इसी तरह आपने कबूतरों की कहानी सुनी होगी कि जब वे इकटे आकाश में उड़े जा रहे थे तो किसी शिकारी ने उन्हें पकड़ने के लिए जंगल में चावलों के दाने बिखेर कर ऊपर जाल बिछा दिया। कबूतरों की दृष्टि जब जंगल में पड़े दानों पर पड़ी तो उनका मन ललचा गया। सभी उन दानों पर टूट पड़े। नीचे बैठते ही जाल में फँस गए। अब क्या किया जा सकता था ? कबूतरों के राजा को एक युक्ति (ढंग) सूझी। उसने सबसे आपसी सहयोग की प्रार्थना की। ऐसा सुनते ही सभी कबूतरों ने इकट्ठे होकर (सहयोग से) उड़ान भरी और शिकारी का जाल उठाकर उड़ गए। शिकारी मुँह देखता ही रह गया। कबूतर आपसी सहयोग से ही शिकारी के जाल से छुटकारा पा सके।

सहयोग के बिना हम किसी क्षेत्र में भी अकेले सफल नहीं हो सकते। विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थी को अध्यापक, चपड़ासी अथवा अन्य किसी भी कर्मचारी के सहयोग की आवश्यकता बनी रहती है। खेल जगत् में तो सहयोग ही सफलता प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।

हमें आपसी सहयोग को ध्यान में रखते हुए हर हालत में एक-दूसरे की सहायता करनी चाहिए या सहयोग देना चाहिए तभी हम ऊँचे-से-ऊँचे पद प्राप्त कर सकते हैं। बड़े-बड़े कार्य कर सकते हैं और बड़े-से-बड़े दुश्मन को दबा सकते हैं। इसलिए सहयोग शब्द का अनुसरण करना ही हमारे लिए सब सुख देने वाला है।

दाँतों की आत्म-कथा
अथवा
दाँत कुछ कहते हैं

हमारा निवास स्थान मुँह है। हमारी टीम के 32 सदस्य हैं। हमारा मुख्य काम भोजन को चबाना है। भोजन के छोटे-छोटे टुकड़े करना और पीस कर चबाना हमारे परिवार के विभिन्न सदस्यों का काम है।

भोजन को चबाने के अलावा ठीक प्रकार से और सही बोलने के लिए भी हमारा होना बहुत ज़रूरी है। हमारा जन्म शरीर के दूसरे अंगों की तरह न होकर बाद में एक-एक, दोदो करके मसूढ़ों पर होता है।

हम आपकी सेवा तभी कर सकेंगे यदि आप भी हमारा ठीक से ध्यान रखेंगे। नियमित रूप से हमारी सफ़ाई होनी चाहिए। अगर सफ़ाई न हो तो भोजन के छोटे-छोटे टुकड़ें हम में फंसे रह जाते हैं। वे वहाँ पड़े-पड़े सड़ने लगते हैं। इनमें कीटाणु पैदा होकर एक प्रकार का तेज़ाब तैयार कर देते हैं। इस तेज़ाब के प्रभाव से एनेमल की ऊपरी तह संक्षारित (नष्ट) हो जाती है। एनेमल की तह हटते ही ये कीटाणु हमारी जड़ों तक पहुँच कर हमें खोखला कर देते हैं। अन्त में हम एक-एक करके आपकी सेवा करना छोड़ देते हैं।

सफ़ाई के अलावा हमें अपने व्यायाम की भी ज़रूरत होती है। सख्त पदार्थ खाने से हमारा व्यायाम होता है। मगर बहुत सख्त चीज़ हम से तुड़वाने की कोशिश न करो। हो सकता है ऐसा करने में हमारा कोई साथी जवाब दे जाए।

यदि आप अपने आपको तन्दरुस्त रखना चाहते हैं तो पहले हमें स्वस्थ रखें। हमें स्वस्थ रखने के लिए कैल्शियम, फॉस्फोरस, विटामिन सी और डी युक्त भोजन खाना चाहिए।

अगर किसी भी कारण से हमारी सेहत कमज़ोर होती दिखाई दे तो तुरन्त ही डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए न कि खुद ही कोई उल्टा-पुल्टा इलाज करने लग जाएँ। क्योंकि नीमहकीम खतरा जान। आप हमारे मालिक हैं और हम आपके सेवक हैं। हम आपके दाँत हैं जिनके महत्त्व के बारे में किसी ने कहा है-दाँत गए तो स्वाद ही गया।

सबको अपने दाँतों का ख्याल रखना चाहिए। बच्चों में दाँतों की देख-रेख के विचार शुरू से ही पैदा करने चाहिएँ। खूबसूरत दाँत सबको अच्छे लगते हैं। बहुत-सी बीमारियां दाँतों की खराबी के कारण पैदा हो जाती हैं। इसलिए हमेशा अपने दाँतों की रक्षा करो।

मोबाइल के लाभ और हानियाँ

एक समय था जब टेलीफ़ोन पर किसी दूसरे से बात करने के लिए देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। किसी दूसरे नगर या देश में रहने वालों से बातचीत टेलीफ़ोन एक्सचेंज के माध्यम से कई-कई घण्टों के इन्तजार के बाद संभव हो पाती थी किन्तु अब मोबाइल के माध्यम से कहीं भी कभी भी सेकेंडों में बात की जा सकती है। सेटेलाइट मोबाइल फ़ोन के लिए यह कार्य और भी अधिक आसानी से सम्भव हो जाता है। तुरन्त बात करने और सन्देश पहुँचाने को इससे सुगम उपाय सामान्य लोगों के पास अब तक और कोई नहीं है। विज्ञान के इस अद्भुत करिश्मे की पहुंच इतनी सरल, सस्ती और विश्वसनीय है कि आज यह छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े सभी के पास दिखाई देता है।

मोबाइल फ़ोन दुनिया को वैज्ञानिकों की ऐसी अद्भुत देन है जिसने समय की बचत कर दी है, धन को बचाया है और दूरियाँ कम कर दी हैं। व्यक्ति हर अवस्था में अपनों से जुड़ा-सा रहता है। कोई भी पल-पल की जानकारी दे सकता है, ले सकता है और इसी कारण यह हर व्यक्ति के लिए उसकी सम्पत्ति-सा बन गया है, जिसे वह सोते-जागते अपने पास ही रखना चाहता है। कार में, रेलगाड़ी में, पैदल चलते हुए, रसोई में, शौचालय में, बाज़ार में मोबाइल फ़ोन का साथ तो अनिवार्य-सा हो गया है। व्यापारियों और शेयर मार्किट से सम्बन्धित लोगों के लिए तो प्राण वायु ही बन चुका है। दफ्तरों, संस्थाओं और सभी प्रतिष्ठिानों में इसकी रिंग टोन सुनाई देती रहती है।

मोबाइल फ़ोन की उपयोगिता पर तो प्रश्न ही नहीं किया जा सकता। देश-विदेश में किसी से भी बात करने के अतिरिक्त यह लिखित संदेश, शुभकामना संदेश, निमंत्रण आदि मिनटों में पहुँचा देता है। एस. एम. एस. के द्वारा रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ संदेश पहुँचाए जा सकते हैं। अब तो मोबाइल फ़ोन चलते-फिरते कम्प्यूटर ही बन चुके हैं, जिनके माध्यम से आप अपने टी०वी० के चैनल भी देख-सुन सकते हैं। यह संचार का अच्छा माध्यम तो है ही, साथ ही साथ वीडियो गेम्स का भंडार भी है। यह टॉर्च, घड़ी, संगणक, संस्मारक, रेडियो आदि की विशेषताओं से युक्त है। इससे उच्च कोटि की फोटोग्राफ़ी की जा सकती है। वीडियोग्राफ़ी का काम भी इससे लिया जा सकता है। इससे आवाज़ रिकॉर्ड की जा सकती है और उसे कहीं भी, कभी भी सुनाया जा सकता है। एक तरह से यह छोटा-सा उपकरण अलादीन का चिराग ही तो है।

मोबाइल फ़ोन के केवल लाभ ही नहीं हैं बल्कि इसकी कई हानियाँ भी हैं। बारबार बजने वाली इसकी घंटी परेशानी का बड़ा कारण बनती है। जब व्यक्ति गहरी नींद में डूबा हो तो इसकी घंटी कर्कश प्रतीत होती है। मन में खीझ-सी उत्पन्न होती है। अनचाही गुमनाम कॉल आने से असुविधा का होना स्वाभाविक ही है। मोबाइल फ़ोन से जहाँ रिश्तों में प्रगाढ़ता बढ़ी है वहाँ इससे छात्र-छात्राओं की दिशा में भटकाव भी आया है। फ़ोन-मित्रों की संख्या बढ़ी है जिससे उनका वह समय जो पढ़ने-लिखने में लगना चाहिए था वह गप्पें लगाने में बीत जाता है। इससे धन भी व्यर्थ खर्च होता है। अधिकांश युवा वाहन चलाते समय भी मोबाइल फ़ोन से चिपके ही रहते हैं और ध्यान बँट जाने के कारण बहुत बार दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। मोबाइल फ़ोन अपराधी तत्वों के लिए सहायक बनकर बड़े-बड़े अपराधों के संचालन में सहायक बना हुआ है। जेल में बंद अपराधी भी चोरी-छिपे इसके माध्यम से अपने साथियों को दिशा-निर्देश देकर अपराध, फिरौती और अपहरण का कारण बनते हैं।

मोबाइल फ़ोन अदश्य तरंगों से ध्वनि संकेतों का प्रेषण करते हैं जो मानव-समाज के लिए ही नहीं अपितु अन्य जीव-जन्तुओं के लिए भी हानिकारक होती हैं। ये मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। कानों पर बुरा प्रभाव डालती हैं और दृश्य के तारतम्य को बिगाड़ती है। यही कारण है कि चिकित्सकों द्वारा पेसमेकर प्रयोग करने वाले रोगियों को मोबाइल फ़ोन प्रयोग न करने का परामर्श दिया जाता है।

वैज्ञानिकों ने प्रमाणित कर दिया है कि भविष्य में नगरों में रहने वाली चिड़ियों की अनेक प्रजातियाँ अदृश्य तरंगों के प्रभाव से वहाँ नहीं रह पाएँगी। वे वहाँ से कहीं दूर चली जाएँगी या मर जाएँगी, जिससे खाद्य श्रृंखला भी प्रभावित होगी।

प्रत्येक सुख के साथ दुःख किसी-न-किसी प्रकार से जुड़ा ही रहता है। मोबाइल फ़ोन के द्वारा दिए गए सुखों और सुविधाओं के साथ कष्ट भी जुड़े हुए हैं।

मेरा पंजाब

पंजाब को पाँच पानियों की धरती कहा जाता है किन्तु विभाजन के बाद यह प्रदेश तीन पानियों (नदियों) की धरती ही रह गया है। 1 नवम्बर, सन् 1966 से पंजाब में से हरियाणा और हिमाचल प्रदेश अलग कर दिए गए, जिससे वर्तमान पंजाब और छोटा हो गया है। वर्तमान पंजाब का क्षेत्रफल 50,362 वर्ग किलोमीटर है तथा सन् 2011 को जनसंख्या के आँकड़ों के अनुसार इसकी जनसंख्या 2.77 करोड़ है।

गुरुओं, पीरों पैगम्बरों, ऋषिमुनियों की पंजाब की इस धरती ने भारत पर होने वाले प्रत्येक आक्रमण का सामना किया। यूनान के सिकन्दर महान् के आक्रमण को तो पंजाबियों ने खदेड़ दिया था किन्तु मुहम्मद गौरी के आक्रमण का आपसी फूट के कारण मुकाबला न कर सके। राष्ट्रीयता की कमी के कारण यहाँ मुसलमानी शासन स्थापित हो गया। किन्तु शूरवीरता, देशभक्ति पंजाबियों की रग-रग में भरी रही। इसका प्रमाण पंजाबियों ने पहले तथा दूसरे विश्व युद्ध में तथा सन् 1948, 1965 और 1971 के पाकिस्तान के हुए युद्धों तथा मई, सन् 1999 में हुए कारगिल युद्ध में दिया।

पंजाबी लोग दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं वहाँ उन्होंने अपने परिश्रमी स्वरूप की धाक जमा दी है। पंजाब के किसान देश के अन्य भण्डार में सबसे अधिक अनाज देते हैं इसका कारण यहाँ की उपजाऊ भूमि, आधुनिक कृषि तकनीक तथा सिंचाई सुविधाओं का विस्तार है। यहाँ की मुख्य उपज गेहूँ, कपास, गन्ना, मक्की और मूंगफली आदि है। सब्जियों में आलू, मटर की पैदावार के लिए पंजाब जाना जाता है।

पंजाब में औद्योगिक क्षेत्र में भी काफ़ी उन्नति की है। लुधियाना हौजरी के सामान के लिए, जालन्धर खेलों के सामान के लिए, अमृतसर सूती व ऊनी कपड़े के उत्पादन के लिए जाने जाते हैं। मण्डी गोबिन्दगढ़ इस्पात उद्योग तथा नंगल व बठिण्डा खाद बनाने के कारखानों के लिए जाने जाते हैं।

शिक्षा के प्रसार के लिए पंजाब देशभर में दूसरे नम्बर पर है। पंजाब में छः विश्वविद्यालय, सैंकड़ों कॉलेज और हज़ारों स्कूल हैं।

पंजाब की इस प्रगति के कारण इस प्रदेश में प्रति व्यक्ति की औसत आय 20 से 30 हज़ार वार्षिक है। गुरुओं, पीरों, महात्माओं और वीरों की यह धरती उन्नति के शिखरों को छू रही है।

चण्डीगढ़

चण्डीगढ़ देश का पहला आयोजित (Planned) शहर है। इस शहर की नींव 7 अक्तूबर, सन् 1953 को देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा रखी गयी थी। इस सुन्दर और आदर्श शहर की योजना फ्रांस के एक इंजीनियर एस० डी० कारबूजियर द्वारा तैयार की गई है। पूरा शहर आयतकार सैक्टरों में बँटा हुआ है। प्रत्येक सैक्टर को स्वावलम्बी बनाने के लिए स्कूल, डाकखाना, डिस्पैंसरी, धार्मिक स्थान, मार्कीट, पार्क आदि की व्यवस्था की गई है। सैक्टर 17 को केवल क्रय-विक्रय, होटलों, कार्यालयों आदि के लिए ही रखा गया है। अधिकांश उद्योग राम दरबार में स्थापित हैं।

पयर्टकों के लिए भी यहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं, जिनमें रॉक-गार्डन, सुखना लेक, रोज़ गार्डन आदि प्रमुख हैं। जहाँ की चौड़ी-चौड़ी सड़कें और सड़कों के दोनों ओर लगे छायादार वृक्ष इस शहर की शोभा को चार चाँद लगाते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में भी चण्डीगढ़ किसी से पीछे नहीं है। पूरा सैक्टर 14 पंजाब विश्वविद्यालय के लिए रखा गया है। सैक्टर 12 में इन्जीनियरिंग कॉलेज, सैक्टर 32 में मैडिकल कॉलेज तथा कोई दर्जन भर लड़के-लड़कियों के कॉलेज हैं।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी चण्डीगढ़ पंजाब और हरियाणा की सेवा कर रहा है। सैक्टर 12 में पी० जी० आई०, सैक्टर 16 और सैक्टर 32 में सरकारी अस्पताल हैं।

सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधियों के लिए सैक्टर 15 में गुरु गोबिन्द सिंह भवन, लाला लाजपतराय भवन विद्यमान है तो सैक्टर 18 में टैगोर थियेटर बना है। चण्डीगढ़ के विषय में एक विशेष बात यह है कि इसमें कोई 13 नम्बर का सैक्टर नहीं है।

चण्डीगढ़ में सचिवालय, विधानसभा तथा उच्च न्यायालय के भवन आधुनिक वास्तुकला का सुन्दर नमूना है। चण्डीगढ़ को बाबूओं का शहर भी कहा जाता है क्योंकि बहुत-से सरकारी कर्मचारी अवकाश प्राप्त करने के बाद यहीं बस गए हैं। चण्डीगढ़ में अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने कार्यालय खोलकर इस शहर की रौनक को और भी बढ़ा दिया है। केन्द्रीय आँकड़ा संस्थान सन् 2005-06 की जो रिपोर्ट भारतीय संसद् में 5-12-2007 को प्रस्तुत की गई थी उसके अनुसार चण्डीगढ़ देश भर में प्रतिव्यक्ति की वार्षिक औसत आय के हिसाब से सबसे आगे है। रिपोर्ट के अनुसार यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति की औसत वार्षिक आय 67910 रुपए है।

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार चण्डीगढ़ की जनसंख्या 10.5 लाख के करीब है। जो निश्चय ही अगामी जनगणना में 20 लाख के करीब हो जाएगी।

प्रातःकाल की सैर

अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि Early to bed and early to rise, makes a man. healthy, wealthy and wise अर्थात् शीघ्र सोने और शीघ्र उठने से व्यक्ति स्वस्थ, सम्पन्न और बुद्धिमान बनता है। आजकल कोई भी छात्र इस नियम का पालन नहीं करता। इस का बड़ा कारण तो यह है कि छात्र देर रात तक टेलीविज़न से चिपके रहते हैं और फिर सुबह सवेरे स्कूल जाने की तैयारी करनी होती है। छात्रों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि उनके लिए जितनी पढ़ाई ज़रूरी है उतना ही अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना भी ज़रूरी है और स्वस्थ रहने के लिए छात्रों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रात:काल में सैर अवश्य करनी चाहिए।

प्रात:काल का समय अत्यन्त सुहावना होता है। व्यक्ति को शुद्ध प्रदूषण रहित वायु मिलती है। प्रातःकालीन सैर के अनेक लाभ हैं। यह ईश्वर द्वारा दी गई ऐसी औषधि है जो प्रत्येक अमीर-गरीब को समान रूप से निःशुल्क मिलती है। प्रात:काल की सैर मनुष्य को नीरोग रखने में सहायक होती है। व्यक्ति का शरीर बलिष्ठ और सुन्दर बनता है। मस्तिष्क को शक्ति और शान्ति मिलती है जिससे व्यक्ति की स्मरण शक्ति का विकास होता है, जिसकी विद्यार्थियों को बहुत ज़रूरत है।

हमारे शास्त्रों में लिखा है कि प्रात:काल में, सूर्योदय से पहले, पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े होकर 21 बार गायत्री मन्त्र का जाप करना चाहिए। आज के वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि पीपल का वृक्ष यों तो 24 घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है किन्तु ब्रह्म मुहूर्त में वह दुगुनी ऑक्सीजन छोड़ता है और गायत्री मन्त्र ऐसा मन्त्र है जिसके उच्चारण से शरीर के प्रत्येक अंग में ऑक्सीजन पहुँचती है। अतः इस तथ्य को प्रात: सैर करते हुए ध्यान में रखना चाहिए।

प्रात:काल की सैर करते समय हमें अपनी चाल न बहुत तेज़ और न बहुत धीमी रखनी चाहिए। दूसरे प्रात:काल की सैर नियमित रूप से की जानी चाहिए तभी उसका लाभ होगा। हमें याद रखना चाहिए कि प्रात:कालीन सैर शारीरिक दृष्टि से ही नहीं मानसिक दृष्टि से भी अत्यन्त गुणकारी है।

स्वतंत्रता दिवस-15 अगस्त

15 अगस्त भारत के राष्ट्रीय त्योहारों में से एक है। इस दिन भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। लगभग डेढ़ सौ वर्षों की अंग्रेजों की गुलामी से भारत मुक्त हुआ था। राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक युवाओं ने बलिदान दिए थे। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का लाल किले पर तिरंगा फहराने का सपना इसी दिन सच हुआ था।

देश में स्वतंत्रता दिवस सभी भारतवासी बिना किसी प्रकार के भेदभाव के अपने-अपने ढंग से प्रायः हर नगर, गाँव में तो मनाते ही हैं, विदेशों में रहने वाले भारतवासी भी इस दिन को बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता दिवस का मुख्य कार्यक्रम दिल्ली के लाल किले पर होता है। लाल किले के सामने का मैदान और सड़कें दर्शकों से खचाखच भरी होती हैं। 15 अगस्त की सुबह देश के प्रधानमंत्री पहले राजघाट पर जाकर महात्मा गाँधी की समाधि पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं फिर लाल किले के सामने पहुँच सेना के तीनों अंगों तथा अन्य बलों की परेड का निरीक्षण करते हैं। उन्हें सलामी दी जाती है और फिर प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर जाकर तिरंगा फहराते हैं, राष्ट्रगान गाया जाता है और राष्ट्र ध्वज को 31 तोपों से सलामी दी जाती है। ध्वजारोहण के पश्चात् प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करते हुए एक भाषण देते हैं। अपने इस भाषण में प्रधानमंत्री देश के कष्टों, कठिनाइयों, विपदाओं की चर्चा कर उनसे राष्ट्र को मुक्त करवाने का संकल्प करते हैं। देश की भावी योजनाओं पर प्रकाश डालते हैं। अपने भाषण के अंत में प्रधानमंत्री तीन बार जयहिंद का घोष करते हैं। तीन बार जयहिंद का घोष करने की प्रथा भारत के पहले प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू ने शुरू की थी, जिसका उनके बाद आने वाले सारे प्रधानमंत्री अनुसरण करते हैं। प्रधानमंत्री के साथ एकत्रित जनसमूह जयहिंद का नारा लगाते हैं। अन्त में राष्ट्रीय गीत के साथ प्रात:कालीन समारोह समाप्त हो जाता है।

सायंकाल में सरकारी भवनों पर विशेषकर लाल किले में रोशनी की जाती है। प्रधानमंत्री दिल्ली के प्रमुख नागरिकों, सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, विभिन्न धर्मों के आचार्यों और विदेशी राजदूतों एवं कूटनीतिज्ञों को सरकारी भोज पर आमंत्रित करते हैं।

हमारे शास्त्रों में लिखा है कि प्रात:काल में, सूर्योदय से पहले, पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े होकर 21 बार गायत्री मन्त्र का जाप करना चाहिए। आज के वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि पीपल का वृक्ष यों तो 24 घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है किन्तु ब्रह्म मुहूर्त में वह दुगुनी ऑक्सीजन छोड़ता है और गायत्री मन्त्र ऐसा मन्त्र है जिसके उच्चारण से शरीर के प्रत्येक अंग में ऑक्सीजन पहुँचती है। अतः इस तथ्य को प्रात: सैर करते हुए ध्यान में रखना चाहिए।

प्रात:काल की सैर करते समय हमें अपनी चाल न बहुत तेज़ और न बहुत धीमी रखनी चाहिए। दूसरे प्रात:काल की सैर नियमित रूप से की जानी चाहिए तभी उसका लाभ होगा। हमें याद रखना चाहिए कि प्रात:कालीन सैर शारीरिक दृष्टि से ही नहीं मानसिक दृष्टि से भी अत्यन्त गुणकारी है।

15 अगस्त राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले वीरों को याद करने का दिन भी है। इस दिन शहीदों की समाधियों पर माल्यार्पण किया जाता है।

15 अगस्त अन्य कारणों से भी महत्त्वपूर्ण है। इस दिन पाण्डिचेरी के सन्त महर्षि अरविन्द का जन्मदिन है तथा स्वामी विवेकानन्द के गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की पुण्यतिथि है। इस दिन हमें अपने राष्ट्र ध्वज को नमस्कार कर यह संकल्प दोहराना चाहिए कि हम अपने तन, मन, धन से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे।

गणतंत्र दिवस-26 जनवरी

भारत के राष्ट्रीय पर्यों में 26 जनवरी को मनाया जाने वाला गणतंत्र दिवस विशेष महत्त्व रखता है। हमारा देश 15 अगस्त, सन् 1947 को अनेक बलिदान देने के बाद, अनेक कष्ट सहने के बाद स्वतंत्र हुआ था। किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् भी हमारे देश में ब्रिटिश संविधान ही लागू था। अतः हमारे नेताओं ने देश को गणतंत्र बनाने के लिए अपना संविधान बनाने का निर्णय किया। देश का अपना संविधान 26 जनवरी, सन् 1950 के दिन लागू किया गया। संविधान लागू करने की तिथि 26 जनवरी ही क्यों रखी गई इसकी भी एक पृष्ठभूमि है। 26 जनवरी, सन् 1930 को पं० जवाहर लाल नेहरू ने अपनी दृढ़ता एवं ओजस्विता का परिचय देते हुए पूर्ण स्वतन्त्रता के समर्थन में जुलूस निकाले, सभाएँ कीं। अतः संविधान लागू करने की तिथि भी 26 जनवरी ही रखी गई।

26 जनवरी को प्रातः 10 बजकर 11 मिनट पर मांगलिक शंख ध्वनि से भारत के गणराज्य बनने की घोषण की गई। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को सर्वसम्मति से देश का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया। राष्ट्रपति भवन जाने से पूर्व डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की। उस दिन संसार भर के देशों से भारत को गणराज्य बनने पर शुभकामनाओं के सन्देश प्राप्त हुए।

गणतंत्र दिवस का मुख्य समारोह देश की राजधानी दिल्ली में मनाया जाता है। सबसे पहले देश के प्रधानमंत्री इण्डिया गेट पर प्रज्ज्वलित अमर ज्योति जाकर राष्ट्र की ओर से शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मुख्य समारोह विजय चौक पर मनाया जाता है। यहाँ सड़क के दोनों ओर अपार जन समूह गणतंत्र के कार्यक्रमों को देखने के लिए एकत्रित होते हैं। शुरू-शुरू में राष्ट्रपति भवन से राष्ट्रपति की सवारी छ: घोड़ों की बग्गी पर चला करती थी। किन्तु सुरक्षात्मक कारणों से सन् 1999 से राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस समारोह में बग्घी में नहीं कार में पधारते हैं। परंपरानुसार किसी अन्य राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्रपति अतिथि रूप में उनके साथ होते हैं। तीनों सेनाध्यक्ष राष्ट्रपति का स्वागत करते हैं। तत्पश्चात् राष्ट्रपति प्रधानमंत्री का अभिवादन स्वीकार कर आसन ग्रहण करते हैं।

इसके बाद शुरू होती है गणतंत्र दिवस की परेड। सबसे पहले सैनिकों की टुकड़ियाँ होती हैं, उसके बाद घोड़ों, ऊँटों पर सवार सैन्य दस्तों की टुकड़ियाँ होती हैं। सैनिक परेड के पश्चात् युद्ध में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन होता है। इस प्रदर्शन से दर्शकों में सुरक्षा और आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है। सैन्य प्रदर्शन के पश्चात् विविधता में एकता दर्शाने वाली विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक झांकियाँ एवं लोक नृतक मण्डलियाँ इस परेड में शामिल होती हैं।

सायंकाल को सरकारी भवनों पर रोशनी की जाती है तथा रंग-बिरंगी आतिशबाजी छोड़ी जाती है। इस प्रकार सभी तरह के आयोजन भारतीय गणतंत्र की गरिमा और गौरव के अनुरूप ही होते हैं। जिन्हें देखकर प्रत्येक भारतीय यह प्रार्थना करता है कि अमर रहे गणतंत्र हमारा।

राष्ट्र भाषा हिंदी

भारत 15 अगस्त, सन् 1947 को स्वतन्त्र हुआ और 26 जनवरी, सन् 1950 से अपना संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान के सत्रहवें अध्याय की धारा 343 (1) के अनुसार ‘देवनागरी लिपि में हिंदी’ को भारतीय संघ की राजभाषा और देश की राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई थी सन् 1965 से देश के सभी कार्यालयों, बैंकों, आदि में सारा कामकाज हिंदी में होगा। किन्तु खेद का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के साठ वर्ष बाद भी सारा काम काज अंग्रेज़ी में ही हो रहा है। देश का प्रत्येक व्यक्ति यह बात जानता है कि अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है और हिंदी हमारी अपनी भाषा है।

महात्मा गाँधी जैसे नेताओं ने भी हिंदी भाषा को ही अपनाया था हालांकि उनकी अपनी मातृ भाषा गुजराती थी। उन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए ही ‘दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार सभा’ प्रारम्भ की थी। उन्हीं के प्रयास का यह परिणाम है कि आज तमिलनाडु में हिंदी भाषा पढ़ाई जाती है, लिखी और बोली जाती है। वास्तव में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा इसलिए दिया गया क्योंकि यह भाषा देश के अधिकांश भाग में लिखी-पढ़ी और बोली जाती है। इसकी लिपि और वर्णमाला वैज्ञानिक और सरल है। आज हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान की राजभाषा हिंदी घोषित हो चुकी है।

हिंदी भाषा का विकास उस युग में भी होता रहा जब भारत की राजभाषा हिंदी नहीं थी। मुगलकाल में राजभाषा फ़ारसी थी, तब भी सूर, तुलसी, आदि कवियों ने श्रेष्ठ हिन्दी साहित्य की रचना की। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज़ी शासन के दौरान अंग्रेज़ी राजभाषा रही तब भी भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद जी आदि कवियों ने उच्च कोटि का साहित्य रचा। इसका एक कारण यह भी था कि हिंदी सर्वांगीण रूप से हमारे धर्म, संस्कृति और सभ्यता और नीति की परिचायक है। भारतेन्दु हरिशचन्द्र जी ने आज से 150 साल पहले ठीक ही कहा था –

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।

लेकिन खेद का विषय है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के 68 वर्ष बाद भी हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। अपने विभिन्न राजनीतिक स्वार्थों के कारण विभिन्न राजनेता इसके वांछित और स्वाभाविक विकास में रोड़े अटका रहे हैं। अंग्रेजों की विभाजन करो और राज करो की नीति पर आज हमारी सरकार भी चल रही है जो देश की विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों और वर्गों के साथ-साथ भाषाओं में जनता को बाँट रही है ऐसा वह अपने वोट बैंक को ध्यान में रख कर कर रही है। यह मानसिकता हानिकारक है और इसे दूर किया जाना चाहिए। हमें अंग्रेज़ी की दासता से मुक्त होना चाहिए।

राष्ट्रीय एकता

भारत एक अरब से ऊपर जनसंख्या वाला देश है जिसमें विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों के लोग रहते हैं। उनकी भाषाएं भी अलग-अलग हैं, उनकी वेश-भूषा, रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं किन्तु फिर भी सब एक हैं जैसे एक माला में रंग-बिरंगे फूल होते हैं। भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है। हमारी राष्ट्रभाषा एक है। देश के सभी लोगों को समान अधिकार प्राप्त हैं।

नवम्बर, 2008 में मुम्बई में पाकिस्तानी आतंकवादियों के आक्रमण के समय भारतवासियों ने जिस प्रकार एक जुटता दिखाई उसका उदाहरण मिलना कठिन है। इससे पूर्व भी पाकिस्तानी आक्रमणों के समय अथवा प्राकृतिक आपदाओं के समय ऐसी ही एक जुटता दिखाई थी। इस से यह स्पष्ट होता है कि भारतवासियों में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी है। वे चाहे किसी धर्म को मानते हों, किसी जाति के हों, यही कहते हैं-गर्व से कहो कि हम भारतीय हैं।

पाकिस्तान और उसके भारत में मौजूद कुछ पिठू पाण्डवों की इस उक्ति को भूल जाते हैं कि उन्होंने कहा था पाण्डव पाँच हैं और कौरव 100 किसी बाहरी शत्रु के लिए हम एक सौ पाँच हैं। वास्तव में पाकिस्तान हमारी उन्नति और विकास को देखकर ईर्ष्या से जलभुन रहा है। पिछले साठ वर्षों में भी वहाँ लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली चालू नहीं हो सकी। इसलिए अपनी कमियों को छिपाने के लिए अपने लोगों का ध्यान बँटाने के लिए कभी कश्मीर का मुद्दा और कभी कोई दूसरा मुद्दा उठाता रहा है।

पड़ोसी देश ही नहीं कुछ भारतीय भी हमारी राष्ट्रीयता को खंडित करने पर तुले हैं। ऐसे लोग अपने स्वार्थ, अपने वोट बैंक और सत्ता हथियाने के चक्र में जो प्रांतवाद का नारा लगाते हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र में प्रांतवाद के नाम पर जो हिंसा और गुंडागर्दी हुई वह हमारी राष्ट्रीयता को खंडित करने वाला ही कदम है।

हमारा ऐसा मानना है कि सरकार ने भी भाषा के नाम पर देश का बंटवारा कर राष्ट्रीयता को ठेस पहुँचाई है। रही-सही कसर वोट बैंक की राजनीति कर रही है। यदि ईमानदारी से इन बातों को दूर करने का प्रयत्न किया जाए तो राष्ट्रीय एकता के बलबूते भारत विकसित देशों में शामिल हो सकता है।

सांप्रदायिक सद्भाव

सांप्रदायिक एकता के प्रथम दर्शन हमें सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान देखने को मिले। उस समय हिन्दू-मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से टक्कर ली थी। अंग्रेज़ बड़ी चालाक कौम थी। उस की चालाकी से मुहम्मद अली जिन्ना ने सन् 1940 में पाकिस्तान की माँग की और अंग्रेज़ों ने देश छोड़ने से पहले सांप्रदायिक आधार पर देश के दो टुकड़े कर दिये। विश्व में पहली बार आबादी का इतना बड़ा आदान-प्रदान हुआ। हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए जिसमें लाखों मारे गए। . सन् 1950 में देश का संविधान बना और भारत को एक धर्म-निरपेक्ष गणतंत्र घोषित किया गया। प्रत्येक जाति, धर्म, संप्रदाय को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई और सब धर्मों को समान सम्मान दिया गया। आप जानकर शायद हैरान होंगे कि विश्व में सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या भारत में ही है। बहुत-से देशभक्त मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। लेकिन पाकिस्तान क्योंकि बना ही धर्म पर आधारित देश था अतः वह आज तक हमारे देश के सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट करने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान में स्वतन्त्रता के साठ वर्ष बाद भी जनतांत्रिक प्रणाली लागू नहीं हो सकी और भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतांत्रिक देश बन गया है।

हम यह जानते हैं कि कोई भी धर्म हिंसा, घृणा या विद्वेष नहीं सिखाता। सभी धर्म या संप्रदाय मनुष्य की नैतिकता, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाते हैं। किंतु कुछ कट्टरपन्थी धार्मिक नेता अपने स्वार्थ के लिए लोगों में धार्मिक भावनाएँ भड़का कर देश में अशान्ति और अराजकता फैलाने का यत्न करते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि –

मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना,
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

संप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने पर ही हम विकासशील देशों की सूची से निकल कर विकसित देशों में शामिल हो सकते हैं।

हमारी सरकार भले ही धर्म-निरपेक्ष होने का दावा करती है किन्तु वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर वह एक ही धर्म की तुष्टिकरण के लिए जो कुछ कर रही है उसके कारण धर्मों और जातियों में दूरी कम होने की बजाए और भी बढ़ रही है। धर्मनिरपेक्षता को यदि सही अर्थों में लागू किया जाए तो कोई कारण नहीं कि धार्मिक एवं सांप्रदायिक सद्भाव न बन सके। जनता को भी चाहिए कि वह सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाले नेताओं से चाहे वे धार्मिक हों या राजनीतिक, बचकर रहे, उनकी बातों में न आएँ।

टेलीविज़न के लाभ-हानियाँ

मानव आदिकाल से ही काम के बाद मनोरंजन के साधनों की खोज में रहा है। प्राचीन काल में नाटक, रासलीला, रामलीला या त्योहार मनुष्य के मनोरंजन का साधन हुआ करते थे। फिर रेडियो, सिनेमा या ग्रामोफोन द्वारा लोगों के मनोरंजन के साधन बने। आज सबसे प्रभावी मनोरंजन का साधन टेलीविज़न है।

टेलीविज़न का आविष्कार स्काटलैण्ड के इंजीनियर जॉन एलन बेयर्ड ने सन् 1926 ई० में किया था। इस का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटिश इण्डिया कार्पोरेशन ने किया था। भारत में इसका प्रसारण सन् 1964 से ही सम्भव हो सका और इसे रंगीन बनाने में लगभग बीस वर्ष लग गए। पंजाब में पहला टेलीविजन केन्द्र अमृतसर में स्थापित हुआ जो बाद में दूरदर्शन केन्द्र जालन्धर में स्थानांतरित कर दिया गया। पहल पहले लोग कार्यक्रम दूरदर्शन पर ही देखा करते थे किन्तु सैटेलाइट नैटबर्क के आगमन से टेलीविजन की दुनिया में क्रान्तिकारी मोड़ ला दिया। आज देश भर में कोई सवा-सौ चैनल अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिसमें समाचार, खेलकूद, धार्मिक, नाटक, संगीत, सामान्य जानकारी के अलग से चैनल हैं। आज अनेक चैनल क्षेत्रीय भाषाओं में अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। आज टेलीविज़न नैटवर्क (केबल) दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर रहे हैं। इन चैनलों द्वारा शिक्षा एवं धर्म का प्रचार भी किया जा रहा है। टेलीविजन के कारण हम घर बैठे अपने मन पसंद सीरियल, गीत, फिल्में आदि देख सकते हैं।

कहते हैं जहाँ फूल होते हैं वहाँ काँटे भी होते हैं। टेलीविज़न के जहाँ अनेक लाभ हैं वहाँ कई हानियाँ भी हैं। सब से बड़ी हानि यह है कि लोगों का आपस में मिलना-जुलना कम हो गया है। लोग मिलने-जुलने की अपेक्षा अपना मनपसन्द सीरियल या फिल्म देखना पसन्द करते हैं। विद्यार्थियों की खेलकूद और अतिरिक्त पढ़ाई में रुचि कम हो गई है। युवावर्ग टेलीविज़न पर अश्लील गाने देखकर बिगड़ रहा है। लगातार कई घण्टे टेलीविज़न से चिपके रहने के कारण बच्चों की आँखों पर नज़र की ऐनकें लग गई हैं।

हमें चाहिए कि टेलीविज़न के लाभ को ध्यान में रखकर ही इसका उपयोग करना चाहिए। हमें वही कार्यक्रम देखने चाहिए जो ज्ञानवर्धक हों। टेलीविज़न एक वरदान है इसे शाप न बनने देना चाहिए।

समाचार-पत्रों के लाभ-हानियाँ

आज भले ही टेलीविज़न पर अनेक चैनल केवल समाचार ही प्रसारित कर रहे हैं फिर भी समाचार-पत्रों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। आज के युग में समाचार-पत्र हमारे जीवन का एक आवश्यक अंग बन गए हैं। जिस दिन घर में समाचार-पत्र नहीं आता या देर से आता है तो हम उतावले हो उठते हैं। जिज्ञासा मानव स्वभाव की एक प्रवृत्ति रही है और समाचार-पत्र हमारी इस जिज्ञासा को शान्त करते हैं। समाचार-पत्र हमें घर बैठे ही देशविदेश में हुई घटनाओं, समाचारों की सूचना दे देते हैं। समाचार-पत्रों के अनेक लाभ हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख हम यहां पर कर रहे हैं।

समाचार-पत्र प्रचार का एक बहुत बड़ा साधन है। चुनाव के समय विभिन्न राजनीतिक दल समाचार-पत्रों में विज्ञापन देकर अपनी-अपनी पार्टी के पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। विभिन्न व्यापारिक संस्थान भी अपने उत्पाद का विज्ञापन समाचार-पत्र में देकर अपने उत्पाद की बिक्री में वृद्धि करते हैं।

समाचार-पत्रों के माध्यम से ही आजकल हम नौकरी, विवाह, प्रवेश सूचना आदि सूचनाएँ प्राप्त करते हैं। समाचार-पत्रों में वर्गीकृत विज्ञापन का स्तम्भ हमें अनेक प्रकार की सूचनाएँ प्रदान करते हैं। समाचार-पत्रों के मैगज़ीन अनुभाग हमें धर्म, स्वास्थ्य, समाजशास्त्र, ज्योतिष, वास्तु शास्त्र, आयकर सम्बन्धी सूचनाएँ प्रदान करते हैं। समाचार-पत्रों के माध्यम से ही हमें रेडियो, टेलीविज़न के कार्यक्रमों की समय सारणी भी प्राप्त हो जाती है। समाचार-पत्रों के माध्यम से ही हमें पुस्तकों, फिल्मों की समीक्षा भी पढ़ने को मिल जाती समाचार-पत्र पाठकों को भ्रष्टाचार, समाज की कुरीतियों जैसे भ्रूण हत्या आदि से जागरूक करते हैं और समाज में सुधार या नव-निर्माण का कार्य करते हैं।

समाचार-पत्रों की कुछ हानियाँ भी हैं। कुछ समाचार-पत्र अपने पत्र की बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी तथा सनसनी भरे समाचार छाप कर जनमानस को दूषित करते हैं। ऐसा ही कार्य वे समाचार-पत्र भी करते हैं जो पक्षपात पूर्ण समाचार और टिप्पणियाँ छापते हैं। समाचार-पत्रों में बड़ी शक्ति है। इस का सही प्रयोग होना चाहिए।

दहेज प्रथा एक अभिशाप

कोई भी प्रथा जब शुरू होती है तो अच्छे उद्देश्य से शुरू होती है किन्तु धीरे-धीरे वही प्रथा कुप्रथा बन जाती है। कुछ ऐसा ही हाल दहेज प्रथा का भी है। दहेज प्रथा कितनी प्राचीन है यह तो नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना अवश्य है कि यह प्रथा जब शुरू हुई होगी तब लड़की को अपने पिता की सम्पत्ति में भागीदार नहीं माना जाता था और मातापिता उसके विवाह अवसर पर अपनी सम्पत्ति में से कुछ भाग लड़की को उपहार के रूप में भेंट करते थे। इसी उपहार को कालान्तर में दहेज का नाम दे दिया गया। किन्तु आज जब लड़की अपने पिता की सम्पत्ति में बराबर की हिस्सेदार है, लड़की अब स्वयं कमाने लगी है और पुरुष की आर्थिक दृष्टि से गुलाम नहीं रही है, दहेज देने का तर्क नज़र नहीं आता। किन्तु हम लकीर के फकीर अभी तक इस प्रथा को चलाए जा रहे हैं।

समय के परिवर्तन के साथ-साथ दहेज प्रथा एक कुप्रथा बन गई है और इसे नारी जाति के लिए ही नहीं समाज के लिए भी एक अभिशाप बन कर रह गई है। कुछ अमीर लोगों ने लड़की की शादी पर दिखावे के लिए ज़रूरत से ज्यादा खर्च करना शुरू कर दिया। देखादेखी मध्यमवर्ग में भी यह रोग फैलता गया। यह समझा जाने लगा कि लड़के के मातापिता लड़की को नहीं लड़के को या उसके माता-पिता को उपहार दे रहे हैं। देखा-देखी लड़कों वालों की भूख बढ़ती गई और खुल कर दहेज की माँग की जाने लगी। मनवांछित दहेज न मिल पाने पर लड़की को ससुराल में तंग किया जाने लगा। दहेज के लालच में लक्ष्मी मानी जाने वाली बहू को जला कर मार दिया जाने लगा। दहेज की बलि पर न जाने आज तक कितनी ही भोली-भाली लड़कियाँ चढ़ चुकी हैं।

भले ही सरकार ने दहेज विरोधी कई कानून बनाए हैं लेकिन इन कानूनों की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने जनवरी, सन् 2007 में शादी विवाह में बारातियों की संख्या सम्बन्धी एक आदेश जारी किया था किन्तु इस आदेश की न तो कोई पालना कर रहा है और न ही कोई अधिकारी पालना करवा रहा है।

हमारे विचार से दहेज के इस अभिशाप से युवा वर्ग ही समाज को मुक्ति दिलवा सकता है। बिना दहेज के विवाह करके।

कंप्यूटर का जीवन में महत्त्व

आज के युग को कंप्यूटर का युग कहा जाता है। यह आधुनिक युग का एक ऐसा आविष्कार है जिसने मनुष्य की अनेक समस्याओं का समाधान कर दिया है। कंप्यूटर ने मनुष्य का समय और श्रम बचा दिया है। साथ ही दी है पूर्णता और शुद्धता अर्थात् एक्युरेसी। कंप्यूटर का प्रयोग आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लाभकारी सिद्ध हो रहा है। इसी बात को देखते हुए पंजाब सरकार ने स्कूलों में कंप्यूटर शिक्षा को अनिवार्य बना दिया है। इस आदेश से कंप्यूटर का प्रवेश आज आम घरों में भी हो गया है।

कम्प्यूटर का सबसे बड़ा लाभ शिक्षा विभाग को हुआ है। कंप्यूटर की सहायता से परीक्षा परिणाम कुछ ही दिनों में घोषित होने लगे हैं। चुनाव प्रक्रिया में भी इसका प्रयोग चुनाव नतीजों को कुछ ही घंटों में घोषित किया जाने लगा है। बैंकों, रेलवे स्टेशनों, सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों में कंप्यूटर के प्रयोग से काम को बड़ा सरल बना दिया है। यहाँ तक कि अब तो कई दुकानदार भी अपने बही खाते रखने या बिल बनाने के लिए कंप्यूटर का प्रयोग करने लगे हैं। आज प्रत्येक समाचार-पत्र कंप्यूटर पर ही तैयार होने लगा है। कंप्यूटर की एक अन्य चमत्कारी सुविधा इंटरनैट के उपयोग की है। इंटरनेट पर हमें विविध विषयों की जानकारी तो प्राप्त होती ही है, साथ ही हमें अपने मित्रों, रिश्तेदारों को ई-मेल द्वारा संदेश भेजने की सुविधा भी प्राप्त होती है। कंप्यूटर के साथ एक विशेष उपकरण (कैमरा इत्यादि) लगा कर हम दूर बैठे अपने मित्रों, रिश्तेदारों से सीधे बातचीत भी कर सकते हैं।

प्रकृति का यह नियम है कि जो वस्तु हमारे लिए लाभकारी होती है उसकी कई हानियाँ भी होती हैं। बच्चे कंप्यूटर वीडियो गेम्स खेलने में व्यस्त रहते हैं और अपना कीमती समय नष्ट करते हैं। युवा वर्ग अश्लील वैवसाइट देख कर, इंटरनैट पर अश्लील चित्र एवं चित्र भेज कर बिगड़ रहे हैं। कंप्यूटर पर अधिक देर तक बैठने पर नेत्रों की ज्योति पर तो प्रभाव पड़ता ही है शरीर में अनेक रोग भी पैदा होते हैं। अतः हमें चाहिए कि इस मशीनी मस्तिष्क के गुणों को ध्यान में रखकर ही इसका प्रयोग करना चाहिए।

बढ़ते प्रदूषण की समस्या

मानव और प्रकृति के बीच जब संतुलन बिगड़ जाता है तो हमारा वातावरण दूषित हो जाता है। आज हमारे देश में प्रदूषण की समस्या बड़ी गम्भीर बनी हुई है। प्रदूषण के कारण ही हमारे जीवन की सुरक्षा को भी खतरा बना हुआ है। हमारे देश में प्रदूषण चार प्रकार का है-जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा भूमि प्रदूषण। इन्हीं प्रदूषणों के कारण हमें शुद्ध पीने का पानी, शुद्ध वायु, शांत वातावरण और भूमि की उर्वरा शक्ति नहीं मिल पा रही है।

देश में तेजी से हो रहा औद्योगीकरण प्रदूषण फैलाने का बड़ा कारण बन रहा है। कल कारखानों से उठने वाला धुआँ हमारी वायु को तो प्रदूषित करता है। इन कल कारखानों से छोड़ा जा रहा रसायन युक्त जल हमारे जल और भूमि को भी प्रदूषित कर रहा है। औद्योगीकरण के साथ-साथ शहरीकरण ने भी जल और वायु को दूषित कर दिया है। बड़ेबड़े नगरों में सीवरेज और कल कारखानों का दूषित जल पास की नदियों में डाला जाता है, शहरों में चलने वाले वाहनों का धुआँ वायु को दूषित कर रहा है और कूड़े कर्कट के ढेर वातावरण को दूषित कर रहे हैं शहरीकरण के कारण अनेक वृक्षों की कटाई हो रही है। हम यह नहीं समझते कि वृक्ष ही हमें शुद्ध वायु प्रदान करते हैं। पीपल जैसा वृक्ष तो हमें 24 घंटे शुद्ध ऑक्सीजन प्रदान करता है किन्तु हम धड़ाधड़ वृक्षकाट रहे हैं।

शहरों में ही नहीं गाँवों में भी प्रदूषण फैलाने के अनेक कार्य होते हैं। किसान लोग अधिक पैदावार की होड़ में कीटनाशक दवाओं और कृत्रिम खादों का प्रयोग करके भूमि की उर्वरा शक्ति को घटा रहे हैं। चावल की पराली को खेतों में ही जलाकर वायु प्रदूषण फैला रहे हैं। आज हम जो फल सब्जियाँ खाते हैं वे सब कीटनाशक दवाइयों से ग्रसित होती हैं। ये सब प्रदूषण फैलाने के साथ-साथ जन-साधारण के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती हैं।

यदि इस बढ़ते प्रदूषण को रोकने का कोई उपाय न किया गया तो आने वाला समय हमारे लिए अत्यन्त भयानक और घातक सिद्ध होगा। प्रदूषण रोकने के लिए हमें बड़े-बड़े उद्योगों के स्थान पर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। वृक्ष लगाने के अभियान को और तेज़ करना होगा। वाहनों में धुआँ रहित पेट्रोल-डीज़ल के प्रयोग को अनिवार्य बनाना होगा। कल कारखानों में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने अनिवार्य करने होंगे। प्रदूषण का जन्म ही न हो, ऐसा हमारा प्रयास होना चाहिए।

बढ़ती जनसंख्या की समस्या

किसी भी देश की उन्नति और आर्थिक विकास बहुत कुछ उस देश की जनसंख्या पर निर्भर होता है। भारत को जिन समस्याओं से जूझना पड़ रहा है उनमें तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या प्रमुख है। देश के विभाजन के समय सन् 1947 में देश की जनसंख्या 33 करोड़ थी जो अब बढ़कर 125 करोड़ से ऊपर हो गई है। आज जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व में चीन के बाद दूसरे नम्बर पर है। जिस गति से हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है उसे देखकर लगता है कि यह शीघ्र ही चीन को पीछे छोड़ जाएगा।

देश की बढ़ती जनसंख्या अनेक समस्याओं को जन्म दे रही है। जैसे खाद्य सामग्री की कमी, आवास की कमी, रोज़गार के साधनों की कमी आदि। देश की धरती तो उतनी ही है उस पर देश के औद्योगीकरण और बिजली परियोजनाओं के लिए बहुत-सी उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है। इस तरह खेती योग्य भूमि भी दिनों दिन घटती जा रही है। माना कि नई तकनीक से उपज में काफ़ी वृद्धि हुई है। अनाज के क्षेत्र में देश आत्मनिर्भर हो गया है किन्तु यह स्थिति कब तक रहेगी कहा नहीं जा सकता।

जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए सरकार परिवार नियोजन जैसी कई योजनाओं पर काम कर रही है किन्तु इस योजना का लाभ अशिक्षित और गरीब लोग नहीं उठा रहे। कहा जा सकता है कि जनसंख्या वृद्धि के कारण गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता है।

जनसंख्या वृद्धि में एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत में औसत आयु गत पैंसठ सालों में 21 से बढ़कर 65 तक जा पहुँची है। साथ ही स्वास्थ्य सुविधाओं के बढ़ने से शिशु मृत्यु दर में भी काफी कमी आई है। बालविवाह अभी भी रुके नहीं।

यदि सरकार और जनता ने मिलजुल कर जनसंख्या की वृद्धि पर रोक लगाने का कोई उपाय न किया तो देश को एक दिन खाने के लाले पड़ जाएँगे। हरित क्रान्ति, सफेद क्रान्ति जैसी कोई भी क्रान्ति कारगर सिद्ध न हो सकेगी अतः इस समस्या का समाधान ढूँढ़ना अत्यावश्यक है।

बढ़ती महँगाई की समस्या

आज आम लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या महंगाई की बनी हुई है। बड़ों के मुँह से हम खाद्य पदार्थों के जो भाव सुनते हैं तो हमें या तो झूठ लगता है या सपना। आज महँगाई इतनी बढ़ गई है कि आम आदमी को दो जून की रोटी जुटाना भी कठिन हो रहा है। पंजाबी कवि सूबा सिंह ने ठीक ही कहा है-‘घयो लभदा नहीं धुन्नी नूँ लान जोगा, कित्थों खानियाँ रांझे ने चूरियाँ’-सचमुच आज देसी घी दो सौ रुपए किलो से ऊपर बिक रहा है जो कभी तीन-चार रुपए किलो मिला करता था। तेल, घी, दालें तो अमीर आदमी की पहँच वाली बन कर रह गई हैं। गरीब तो बस यही कहकर संतोष कर लेते हैं कि ‘रूखी सूखी खायकर, ठंडा पानी पी।’.

पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस की बढ़ती कीमतों ने तो जलती पर तेल छिडकने का काम किया है। पेट्रोल, डीज़ल की कीमतें बढ़ने से बसों की यात्रा तो महँगी हुई ही है ट्रकों का माल भाड़ा भी बढ़ गया है, जिसके कारण फलों, सब्जियों, दालों इत्यादि खाद्य पदार्थों के दाम भी बढ़ गए हैं। सरकार अपने कर्मचारियों का प्रत्येक वर्ष दो बार महँगाई भत्ता बढ़ाती है, इससे कर्मचारियों को तो राहत मिलती नहीं उलटे चीज़ों की कीमतें अवश्य बढ़ जाती हैं।

महँगाई बढ़ने के साथ ही कालाबाजारी, तस्करी और काला धन, जमाखोरी जैसी समस्या बढ़ने लगती है। वर्ष 2008 के अन्त में विश्वव्यापी जो मंदी का दौर आया उसने महँगाई को और भी बढ़ा दिया। उस पर सोने पर सुहागे का काम किया सरकार की दुलमुल नीतियों ने। सरकार अपने मन्त्रियों के वेतन तो हर साल बढ़ा देती है किन्तु सरकारी कर्मचारी पे कमीशनों का कई वर्षों तक मुँह ताकते रहते हैं। मन्त्री अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए सत्ता में बने रहने के लिए बड़े-बड़े उद्योगों को जो सहूलतें दे रहे हैं उससे महँगाई बढ़ रही है।

महँगाई कैसे रुके या कैसे रोकी जाए यह हमारी समझ से तो बाहर है। हाँ यदि सरकार चाहे और दृढ़ संकल्प हो महँगाई पर कुछ हद तक रोक लग सकती है।

नशा बंदी

भारत में नशीली वस्तुओं का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। विशेषकर हमारी युवा पीढ़ी इस लत की अधिक शिकार हो रही है। यह चिन्ता का कारण है। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी ने कहा था कि जिस देश में करोड़ों लोग भूखे मरते हों वहाँ शराब पीना, गरीबों के रक्त पीने के बराबर है। किन्तु शराब ही नहीं अन्य नशीले पदार्थों के सेवन का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। कोई भी खुशी का मौका हो शराब पीने पिलाने के बिना वह अवसर सफल नहीं माना जाता। होटलों, क्लबों में खुले आम शराब पी-पिलाई जाती है। पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए। शराब को दारू अर्थात् दवाई भी कहा जाता है किन्तु कौन ऐसा है जो इसे दवाई की तरह पीता है। यहाँ तो बोतलों की बोतलें चढ़ाई जाती हैं। शराब महँगी होने के कारण नकली शराब का धंधा भी फल-फूल रहा है। इस नकली शराब के कारण कितने लोगों को जान गंवानी पड़ी है, यह हर कोई जानता है। कितने ही राज्यों की सरकारों ने सम्पूर्ण नशाबंदी लागू करने का प्रयास किया। किन्तु वे असफल रहीं। ताज़ा उदाहरण हरियाणा का लिया जा सकता है। कितने ही होटल बन्द हो गए और नकली शराब बनाने वालों की चाँदी हो गई। विवश होकर सरकार को नशाबंदी समाप्त करनी पड़ी।

पंजाब में भी सन् 1964 में टेकचन्द कमेटी ने नशाबंदी लागू करने का बारह सूत्री कार्यक्रम दिया था। किंतु जो सरकार शराब की बिक्री से करोड़ों रुपए कमाती हो, वह इसे कैसे लागू कर सकती है। आप शायद हैरान होंगे कि पंजाब में शराब की खपत देश भर में सब से अधिक है, किसी ने ठीक ही कहा है बुरी कोई भी आदत हो वह आसानी से नहीं जाती। किंतु सरकार यदि दृढ़ निश्चय कर ले तो क्या नहीं हो सकता।

सरकार को ही नहीं जनता को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि नशा अनेक झगड़ों को ही जन्म नहीं देता बल्कि वह नशा करने वाले के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। ज़रूरत है जनता में जागरूकता पैदा करने की। नशाबंदी राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है। शराब की बोतलों पर चेतावनी लिखने से काम न चलेगा, कुछ ठोस कदम उठाने होंगे।

यह देखने में आया है कि देश का युवा वर्ग ही नहीं, किशोर वर्ग नशों की लपेट में आ रहा है। हमारे नेता यह कहते नहीं थकते कि देश में मादक द्रव्यों का प्रसार विदेशी शत्रुओं के कारण हो रहा है किन्तु अपने युवाओं को, बच्चों को समझाया तो जा सकता है।

नशीले पदार्थों से इस पीढ़ी को बचाने का भरसक प्रयास किया जाना चाहिए नहीं तो देश कमज़ोर हो जाएगा और साँप निकल जाने के बाद लकीर पीटने का कोई लाभ न होगा।

खेलों का जीवन में महत्त्व

खेल-कूद हमारे जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। ये हमारे मनोरंजन का प्रमुख साधन भी हैं। पुराने जमाने में जो लोग व्यायाम नहीं कर सकते थे अथवा खेल-कूद में भाग नहीं ले सकते थे वे शतरंज, ताश जैसे खेलों से अपना मनोरंजन कर लिया करते थे। दौड़ना भागना, कूदना इत्यादि भी खेलों का ही एक अंग है। ऐसी खेलों में भाग लेकर हमारे शरीर की मांसपेशियाँ तथा शरीर के दूसरे अंग स्वस्थ हो जाया करते हैं। खेल-कूद में भाग लेकर व्यक्ति की मासिक थकावट दूर हो जाती है।

अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध कहावत है कि All work and no play makes jack a dull boy. इस कहावत का अर्थ यह है कि कोई सारा दिन काम में जुटा रहेगा, खेल-कूद या मनोरंजन के लिए समय नहीं निकालेगा तो वह कुंठित हो जाएगा उसका शरीर रोगी बन जाएगा तथा वह निराशा का शिकार हो जाएगा। अतः स्वस्थ जीवन के लिए खेलों में भाग लेना अत्यावश्यक है। इस तरह व्यक्ति का मन भी स्वस्थ होता है। उसकी पाचन शक्ति भी ठीक रहती है, भूख खुलकर लगती है, नींद डटकर आती है, परिणामस्वरूप कोई भी बीमारी ऐसे व्यक्ति के पास आते डरती है।

खेलों से अनुशासन और आत्म-नियन्त्रण भी पैदा होता है और अनुशासन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। बिना अनुशासन के व्यक्ति जीवन में उन्नति और विकास नहीं कर सकता। खेल हमें अनुशासन का प्रशिक्षण देते हैं। किसी भी खेल में रैफ्री या अंपायर नियमों का उल्लंघन करने वाले खिलाड़ी को दण्डित भी करता है। इसलिए हर खिलाड़ी खेल के नियमों का पालन कड़ाई से करता है। खेल के मैदान में सीखा गया यह अनुशासन व्यक्ति को आगे चलकर जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी काम आता है। देखा गया है कि खिलाड़ी सामान्य लोगों से अधिक अनुशासित होते हैं।

खेलों से सहयोग व सहकार की भावना भी उत्पन्न होती है। इसे Team Spirit या Sportsmanship भी कहा जाता है। केवल खेल ही ऐसी क्रिया है जिसमें सीखे गए उपयुक्त गुण व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन में बहुत काम आते हैं। आने वाले जीवन में व्यक्ति सब प्रकार की स्थितियों, परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ काम करने में सक्षम हो जाता है। Team spirit से काम करने वाला व्यक्ति दूसरों से अधिक सामाजिक होता है। वह दूसरों में जल्दी घुल-मिल जाता है। उसमें सहन शक्ति और त्याग भावना दूसरों से अधिक मात्रा में पाई जाती है।

खेल-कूद में भाग लेना व्यक्ति के चारित्रिक गुणों का भी विकास करता है। खिलाड़ी चाहे किसी भी खेल का हो अनुशासनप्रिय होता है। क्रोध, ईर्ष्या, घृणा आदि हानिकारक भावनाओं का वह शिकार नहीं होता। खेलों में ही उसे देश प्रेम और एकता की शिक्षा मिलती है। एक टीम में अलग-अलग धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग आदि के खिलाड़ी होते हैं। वे सब मिलकर अपने देश के लिए खेलते हैं।

इससे स्पष्ट है कि खेल जीवन की वह चेतन शक्ति है जो दिव्य ज्योति से साक्षात्कार करवाती है। अतः उम्र और शारीरिक शक्ति के अनुसार कोई न कोई खेल अवश्य खेलना चाहिए। खेल ही हमारे जीवन में एक नई आशा, महत्त्वाकांक्षा और ऊर्जा का संचार करते हैं। खेलों के द्वारा ही जीवन में नए-नए रंग भरे जा सकते हैं, इन्द्रधनुषी सुन्दर या मनोरम बनाया जा सकता है।

व्यायाम का महत्त्व

महार्षि चरक के अनुसार शरीर की जो चेष्टा देह को स्थिर करने एवं उसका बल बढ़ाने वाली हो, उसे व्यायाम कहते हैं। शरीर को स्वस्थ रखना व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम की नितांत आवश्यकता है।

व्यायाम से हमारा अभिप्राय: वह नहीं है जो आज से कुछ वर्ष पहले समझा जाता था। अर्थात् दंड पेलना, बैठक लगाना आदि किन्तु आज के संदर्भ में व्यायाम का अर्थ किसी ऐसे काम करने से है जिससे हमारा शरीर स्वस्थ रहे। पुराने जमाने में स्त्रियाँ दूध दोहती थीं, बिलोती थीं, घर में झाड़ देती थीं, कपड़े धोती थीं और बाहर से कुएँ से खींचकर पीने के लिए पानी लाया करती थीं। ये सब क्रियाएँ व्यायाम का ही एक भाग हुआ करती थीं। किन्तु आजकल की स्त्रियों के पास इन सब व्यायामों के लिए समय ही नहीं है। जिसका परिणाम यह है कि आज की स्त्री अनेक रोगों का शिकार हो रही है।

पुराने जमाने में पुरुष भी सुबह सवेरे सैर को निकल जाया करते थे। बाहर ही स्नान इत्यादि करते थे। इस तरह उनका व्यायाम हो जाता था। हमारे बड़े बुर्जुगों ने हमारी दिनचर्या कुछ ऐसी निश्चित कर दी जिससे हमारा व्यायाम भी होता रहे और हमें पता भी न चले। जैसे सूर्य उदय होने से पहले उठना, बाहर सैर को जाना, दातुन कुल्ला करना आदि व्यायाम के ही अंग थे। समय बदलने के साथ-साथ हम व्यायाम के उस परिणाम को भूलते जा रहे हैं कि व्यायाम करने से व्यक्ति निरोग रहता है। उसके शरीर में चुस्ती-फुर्ती आती है। पाचन शक्ति ठीक रहती है और शरीर सुडौल बना रहता है।

जो लोग व्यायाम नहीं करते, वे आलसी और निकम्मे बन जाते हैं। सदा किसी-नकिसी रोग का शिकार बने रहते हैं। आज का न ही पुरुष न ही स्त्री, घर का छोटा-मोटा काम भी अपने हाथ से नहीं करना चाहता। सारा दिन कुर्सी पर बैठ कर काम करने वाला कर्मचारी यदि कोई व्यायाम नहीं करेगा तो वह स्वयं बीमारी को बुलावा देने का ही काम करेगा। भला हो स्वामी रामदेव का जिन्होंने लोगों को योग और प्राणायाम की ओर मोड़कर थोड़ा-बहुत व्यायाम करने की प्रेरणा दी है। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति और शारीरिक आवश्यकता के अनुसार व्यायाम अवश्य करना चाहिए।

एक विद्यार्थी के लिए व्यायाम का अधिक महत्त्व है क्योंकि अपनी इस चढ़ती उम्र में जितना सुन्दर और अच्छा शरीर वह बना सकता है, जितनी भी शक्ति का संचय वह कर सकता है, उसे कर लेना चाहिए। यदि इस उम्र में उसने अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान न दिया तो सारी उम्र वह पछताता ही रहेगा। अतः हमारी विद्यार्थी वर्ग को सलाह है कि वह अपने इस जीवन में खेल-कूद में अवश्य भाग लें, योगासन और प्राणायाम, जो शरीर के लिए श्रेष्ठ व्यायाम है अवश्य करें। प्रातः और सायं भ्रमण के लिए अवश्य घर से बाहर निकलें क्योंकि आने वाला जीवन कोई सरलता लिए हुए नहीं आएगा। तब संघर्ष की मात्रा अधिक बढ़ जाएगी और व्यायाम के लिए समय निकालना कठिन हो जाएगा। अत: जो कुछ करना है इसी विद्यार्थी जीवन में ही कर लेना चाहिए।

समय का सदुपयोग

कहा जाता है कि आज का काम कल पर मत छोड़ो। जिस किसी ने भी यह बात कही है उसने समय के महत्त्व को ध्यान में रखकर ही कही है। समय सबसे मूल्यवान् वस्तु है। खोया हुआ धन फिर प्राप्त हो सकता है किन्तु खोया हुआ समय फिर लौट कर नहीं आता। इसीलिए कहा गया है ‘The Time is Gold’ क्योंकि समय बीत जाने पर सिवाय पछतावे के कुछ हाथ नहीं आता फिर तो वही बात होती है कि ‘औसर चूकि डोमनी गावे तालबेताल।’ कछुआ और खरगोश की कहानी में भी कछुआ दौड़ इसलिए जीत गया था कि उसने समय के मूल्य को समझ लिया था। इसीलिए वह दौड़ जीत पाया। विद्यार्थी जीवन में भी समय के महत्त्व को एवं उसके सदुपयोग को जो नहीं समझता और विद्यार्थी जीवन आवारागर्दी और ऐशो आराम से जीवन व्यतीत कर देता है वह जीवन भर पछताता रहता है।

इतिहास साक्षी है कि संसार में जिन लोगों ने भी समय के महत्त्व को समझा वे जीवन में सफल रहे। पृथ्वी राज चौहान समय के मूल्य को न समझने के कारण ही गौरी से पराजित हुआ। नेपोलियन भी वाटरलू के युद्ध में पाँच मिनटों के महत्त्व को न समझ पाने के कारण पराजित हुआ। इसके विपरीत जर्मनी के महान दार्शनिक कांट ने जो अपना जीवन समय के बंधन में बाँधकर कुछ इस तरह बिताते थे कि लोग उन्हें दफ्तर जाते देख अपनी घड़ियाँ मिलाया करते थे।

आधुनिक जीवन में तो समय का महत्त्व और भी ज्यादा बढ़ गया है। आज जीवन में भागम भाग और जटिलता इतनी अधिक बढ़ गई है कि यदि हम समय के साथ-साथ कदम मिलाकर न चलें तो जीवन की दौड़ में पिछड़ जाएँगे। आज समय का सदुपयोग करते हुए सही समय पर सही काम करना हमारे जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

विद्यार्थी जीवन में समय का सदुपयोग करना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि विद्यार्थी जीवन बहुत छोटा होता है। इस जीवन में प्राप्त होने वाले समय का जो विद्यार्थी सही सदुपयोग कर लेते हैं वे ही भविष्य में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। और जो समय को नष्ट करते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाते हैं।

इसलिए हमारे दार्शनिकों, संतों आदि ने अपने काम को तुरन्त मनोयोग से करने की सलाह दी है। उन्होंने कहा है कि ‘काल करे सो आज कर आज करे सो अब।’ कल किसने देखा है अतः दृष्टि वर्तमान पर रखो और उसका भरपूर प्रयोग करो। कर्मयोगी की यही पहचान है। जीवन दुर्लभ ही नहीं क्षणभंगुर भी है अतः जब तक साँस है तब तक समय का सदुपयोग करके हमें अपना जीवन सुखी बनाना चाहिए।

आँखों देखा हॉकी मैच
अथवा
मेरा प्रिय खेल

भले ही आज लोग क्रिकेट के दीवाने बने हुए हैं। परन्तु हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी ही है। लगातार कई वर्षों तक भारतं हॉकी के खेल में विश्वभर में सब से आगे रहा किन्तु खेलों में भी राजनीतिज्ञों के दखल के कारण हॉकी के खेल में हमारा स्तर दिनों दिन गिर रहा है। 70 मिनट की अवधि वाला यह खेल अत्यन्त रोचक, रोमांचक और उत्साहवर्धक होता है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसा ही एक हॉकी मैच देखने को मिला।

यह मैच नामधारी एकादश और रोपड़ हॉक्स की टीमों के बीच रोपड़ के खेल परिसर में खेला गया। दोनों टीमें अपने-अपने खेल के लिए पंजाब भर में जानी जाती हैं। दोनों ही टीमों में राष्ट्रीय स्तर के कुछ खिलाड़ी भाग ले रहे थे। रोपड़ हॉक्स की टीम क्योंकि अपने घरेलू मैदान पर खेल रही थी इसलिए उसने नामधारी एकादश को मैच के आरम्भिक दस मिनटों में दबाए रखा। उसके फारवर्ड खिलाडियों ने दो-तीन बार विरोधी गोल पर आक्रमण किये। परन्तु नामधारी एकादश का गोलकीपर बहुत चुस्त और होशियार था। उसने अपने विरोधियों के सभी आक्रमणों को विफल बना दिया। तब नामधारी एकादश ने तेज़ी पकड़ी और देखते ही देखते रोपड़ हॉक्स के विरुद्ध एक गोल दाग दिया। गोल होने पर रोपड़ हॉक्स की टीम ने भी एक जुट होकर दो-तीन बार नामधारी एकादश पर कड़े आक्रमण किये परन्तु उनका प्रत्येक आक्रमण विफल रहा। इसी बीच रोपड़ हॉक्स को दो पेनल्टी कार्नर भी मिले पर वे इसका लाभ न उठा सके। नामधारी एकादश ने कई अच्छे मूव बनाये उनका कप्तान बलजीत सिंह तो जैसे बलबीर सिंह ओलंपियन की याद दिला रहा था। इसी बीच नामधारी एकादश को भी एक पेनल्टी कार्नर मिला जिसे उन्होंने बड़ी खूबसूरती से गोल में बदल दिया। इससे रोपड़ हॉक्स के खिलाड़ी हताश हो गये। रोपड़ के दर्शक भी उनके खेल को देख कर कुछ निराश हुए। मध्यान्तर के समय नामधारी एकादश दो शून्य से आगे थी। मध्यान्तर के बाद खेल बड़ी तेजी से शुरू हुआ। रोपड़ हॉक्स के खिलाड़ी बड़ी तालमेल से आगे बढ़े और कप्तान हरजीत सिंह ने दायें कोण से एक बढ़िया हिट लगाकर नामधारी एकादश पर एक गोल कर दिया। इस गोल से रोपड़ हॉक्स के जोश में जबरदस्त वृद्धि हो गयी। उन्होंने अगले पाँच मिनटों में दूसरा गोल करके मैच बराबरी पर ला दिया। दर्शक खुशी के मारे नाच उठे। मैच समाप्ति की सीटी के बजते ही दर्शकों ने अपने खिलाड़ियों को मैदान में जाकर शाबाशी दी। मैच का स्तर इतना अच्छा था कि मैच देख कर आनन्द आ गया।

आँखों देखा फुटबाल मैच

विश्वभर में फुटबाल का खेल सर्वाधिक लोकप्रिय है। केवल यही एक ऐसा खेल है जिसे देखने के लिए लाखों की संख्या में दर्शक जुटते हैं। फुटबाल के खिलाड़ी भी विश्व भर में सबसे अधिक सम्मान एवं धन प्राप्त करते हैं। 90 मिनट का यह खेल अत्यन्त रोचक, जिज्ञासा भरा होता है। संयोग से पिछले महीने मुझे पंजाब पुलिस और जे० सी० टी० फगवाड़ा की टीमों के बीच हुए मैच को देखने का अवसर मिला। जे० सी० टी० की टीम पिछले वर्ष संतोष ट्राफी की विजेता टीम रही थी। मैच शुरू होते ही पंजाब पुलिस ने विरोधी टीम पर काफी दबाव बनाये रखा परन्तु जे० सी० टी० की टीम भी कोई कम नहीं थी। उसके खिलाड़ियों को थोड़ा अवसर भी मिलता तो वे पंजाब पुलिस के क्षेत्र में जा पहुँचते। पंजाब पुलिस ने अपना आक्रमण और भी तेज़ कर दिया। उनके खिलाड़ियों में आपसी तालमेल और पासिंग तो देखते ही बनता था। उनकी हर मूव को देखकर दर्शक वाह! वाह। कर उठते थे। इस मैच को देखने के लिए पंजाब पुलिस के कई वरिष्ठ अधिकारी भी मैदान में मौजूद थे। सैंकड़ों की संख्या में सिपाही भी अपने खिलाड़ियों को , उत्साहित करने के लिए बक-अप कर रहे थे। पहले मध्यान्तर के 26वें मिनट में पंजाब पुलिस के खिलाड़ियों ने इतना बढ़िया मूव बनाया कि जे० सी० टी० के खिलाड़ी देखते ही रह गये और पंजाब पुलिस ने एक गोल दाग दिया। दर्शक दीर्घा में बैठे लोग खुशी से नाच उठे। इस गोल के बाद जे० सी० टी० के खिलाड़ी रक्षा पर उतर आए। जब भी बाल लेकर आगे बढ़ते पंजाब पुलिस के खिलाड़ी उन से बाल छीन लेते। इसी बीच जे० सी० टी० की टीम ने एक ज़ोरदार आक्रमण किया किन्तु पंजाब पुलिस के गोल कीपर की दाद देनी होगी कि उसने गोल को फुर्ती से बचा लिया। उधर पंजाब पुलिस ने अपना दबाव फिर बढ़ाना शुरू किया। मध्यान्तर के समय पंजाब पुलिस की टीम एक शून्य से आगे थी। दूसरे मध्यान्ह के 45 मिनट में खेल में काफ़ी तेज़ी आई परन्तु पंजाब पुलिस के गोल कीपर ने कई निश्चित गोल बचा कर अपनी टीम को जीत दिलाई। मैच समाप्त होते ही पंजाब पुलिस के कर्मचारियों ने अपनी टीम के खिलाड़ियों को कंधों पर उठा लिया। आज उन्होंने देश की एक प्रसिद्ध टीम को हराया था। कोई दो घण्टे तक मैंने इस मैच का जैसा आनन्द उठाया वह मुझे वर्षों याद रहेगा।

विद्यार्थी और अनुशासन

अनुशासन दो शब्दों से मिलकर बना है-अनु और शासन। अनु का अर्थ है पीछे और शासन का अर्थ है आज्ञा। अतः अनुशासन का अर्थ है-आज्ञा के आगे-पीछे चलना। समाज और राष्ट्र की व्यवस्था और उन्नति के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनका पालन करना ही अनुशासन है। अतः हम जो भी कार्य अनुशासनबद्ध होकर करेंगे तो सफलता निश्चित ही प्राप्त होगी। अनुशासन के अन्तर्गत उठना-बैठना, खाना-पीना, बोलना-चलना, सीखानासिखाना, आदर-सत्कार करना आदि सभी कार्य सम्मिलित हैं। इन सभी कार्यों में अनुशासन का महत्त्व है।

अनुशासन की शिक्षा स्कूल की परिधि में ही सम्भव नहीं है। घर से लेकर स्कूल, खेल के मैदान, समाज के परकोटों तक में अनुशासन की शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। अनुशासनप्रियता विद्यार्थी के जीवन को जगमगा देती है। विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि उन्हें पढ़ने के समय पढ़ना और खेलने के समय खेलना चाहिए। एकाग्रचित होकर अध्ययन करना, बड़ों का आदर करना, छोटों से स्नेह करना ये सभी गुण अनुशासित छात्र के हैं। जो छात्र माता-पिता तथा गुरु की आज्ञा मानते हैं वे परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करते हैं तथा उनका जीवन अच्छा बनता है। वे आत्मविश्वासी, स्वावलम्बी तथा संयमी बनते हैं और जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं।

अनुशासन में रहने वाले छात्र को अपने जीवन में कदम-कदम पर यश तथा सफलता मिलती है। उनका भविष्य उज्ज्वल हो जाता है। ऐसे ही छात्र राष्ट्र नेता बनते हैं और देश का संचालन करते हैं। विद्यार्थी का जीवन सुखी तथा सम्पन्न अनुशासनप्रियता से ही बनता है। अनुशासन भी दो प्रकार का होता है-

  • आन्तरिक,
  • बाह्य।

दूसरे प्रकार का अनुशासन परिवार तथा विद्यालयों में देखने को मिलता है। यह भय पर आधारित होता है। जब तक विद्यार्थी में भय बना रहता है तब तक वह नियमों का पालन करता है। भय समाप्त होते ही वह उद्दण्ड हो जाता है। भय से प्राप्त अनुशासन से बालक डरपोक हो जाता है।

आन्तरिक अनुशासन ही सच्चा अनुशासन है। जो कुछ सत्य है, कल्याणकारी है, उसे स्वेच्छा से मानना ही आन्तरिक अनुशासन कहा जाता है। आत्मानुशासित व्यक्ति अपने शरीर, बुद्धि, मन पर पूरा-पूरा नियन्त्रण स्थापित कर लेते हैं। जो अपने पर नियन्त्रण कर लेता है वह दुनिया पर नियन्त्रण कर लेता है।

बड़े दुर्भाग्य की बात है कि छात्र-वर्ग अनुशासन के महत्त्व को भली-भांति नहीं समझ पाता है जिसका परिणाम यह होता है कि यह नित्य-प्रति स्कूल तथा कालेजों में तोड़-फोड़, परीक्षा में नकल करना, अध्यापकों को पीटना आदि कार्य करता है। तोड़-फोड़, लूट-पाट, आगज़नी, पथराव आदि तो नित्य देखने को मिलते हैं। ऐसे छात्र न विद्या ग्रहण कर पाते हैं और न अपने संस्कारों को ही ठीक कर पाते हैं। वे समाज के लिए कलंक बन जाते हैं और समाज को सदैव दुःख ही देते हैं। ऐसे छात्रों से न माता-पिता को सुख मिलता है और न गुरुजनों को। वे देश के लिए भार बन जाते हैं।

अनुशासन से जीवन सुखमय तथा सुन्दर बनता है। अनुशासनप्रिय व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य को सुगमता से प्राप्त कर लेते हैं। हमें चाहिए कि अनुशासन में रहकर अपने जीवन को सुखी, सम्पन्न एवं सुन्दर बनाएँ।

किसी धार्मिक स्थान की यात्रा
अथवा
किसी पर्वतीय यात्रा का वर्णन
अथवा
वैष्णो देवी की यात्रा

आश्विन के नवरात्रे शुरू होते ही हमने मित्रों सहित माता वैष्णो देवी के दर्शन का निश्चय किया। प्रातः आठ बजे हम चण्डीगढ़ के बस स्टैण्ड पर पहुँचे। वहाँ से हमने पठानकोट के लिए बस ली। वहाँ से हमने जम्मू के लिए बस ली। जम्मू हम सायँ कोई सात बजे पहुँच गए। रात हमने जम्मू की एक धर्मशाला में गुजारी। रात में ही हमने जम्मू के ऐतिहासिक रघुनाथ जी तथा शिव मन्दिर के दर्शन किये। अगले दिन प्रात:काल में ही कटरा जाने वाली बस में सवार हुए। रास्ते भर सभी यात्री माता की भेंटें गाते हुए जय माँ शेराँ वाली के नारे लगा रहे थे। कटरा जम्मू से कोई पचास किलोमीटर दूर है। कटरा पहुँचकर हमने अपना नाम दर्ज करवाया और पर्ची ली। रात हमने कटरा में बिताई। दूसरे दिन सुबह ही हम माता की जय पुकारते हुए माँ के दरवार की और पैदल चल दिए। कटरा से भक्तों को पैदल ही चलना पड़ता है। कटरा से माँ के दरबार को जाने के लिए दो रास्ते हैं। एक सीढ़ियों वाला मार्ग है और दूसरा साधारण। हमने साधारण रास्ता ही चुना। सभी भक्त जन माँ की जय पुकारते हुए बड़े उत्साह से आगे बढ़ रहे थे। पाँच किलोमीटर चलकर हम चरण पादुका मंदिर पहुंचे।

चरण पादुका मन्दिर से चलकर हम आदकुमारी मंदिर पहुंचे। यह मन्दिर कटरा और माता के भवन के मध्य में स्थित है। यहाँ श्रद्धालुओं के रहने और भोजन की अच्छी व्यवस्था है। आदकुमारी मन्दिर से हम गर्भवास गुफा की ओर चल पड़े। हमने भी इस गुफा को पार किया और माँ से जन्म मरण से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की।

आगे का मार्ग बड़ा दुर्गम था। शायद इसी कारण इसे हाथी-मत्था की चढ़ाई कहते हैं। इस चढ़ाई को पार करके हम बाण गंगा और भैरों घाटी को पार कर माता के मन्दिर के निकट पहुँच गए। वहाँ हमने अपना नाम दर्ज करवाया बारी आने पर हमने माँ वैष्णो देवी के दर्शन किये। मन्दिर की गुफा में तीन पिण्डियां हैं, जो महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से विख्यात हैं। हमने माँ के चरणों में माथा टेका, प्रसाद लिया और पीछे के रास्ते से बाहर आ गए। बाहर आकर हमने कन्या पूजन किया और कन्याओं को दक्षिणा देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। वापसी पर हम भैरव मन्दिर के दर्शन करते हुए कटरा आ गए। कटरा से जम्मू और पठानकोट होते हुए चण्डीगढ़ वापस आ गए।

सत्संगति

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे दूसरे के साथ किसी-न-किसी रूप में संपर्क स्थापित करना पड़ता है। अच्छे लोगों की संगति जीवन को उत्थान की ओर ले जाती है तो बुरी संगति पतन का द्वार खोल देती है।

संगति के प्रभाव से कोई नहीं बच सकता। हम जैसी संगति करते हैं, वैसा ही हमारा आचरण बन जाता है। रहीम ने कहा –

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन।
जैसे संगति बैठिए, तैसोई गुण दीन॥

सत्संगति का महत्त्व-सत्संगति जीवन के लिए वरदान की तरह है। सत्संगति के द्वारा मनुष्य अनेक प्रकार की अच्छी बातें सीखता है। जिसको अच्छी संगति प्राप्त हो जाए उसका जीवन सफल बन जाता है। अच्छी संगति में रहने पर अच्छे संस्कार पैदा होते हैं। बुरी संगति बुरे विचारों को जन्म देती है। मनुष्य की पहचान उसकी संगति से होती है। अच्छे परिवार में जन्म लेने वाला बालक बुरी संगति में पड़ कर बुरा बन जाता है। इसी प्रकार बुरे परिवार में जन्म लेने वाले बालक को यदि अच्छी संगति प्राप्त हो जाती है तो वह अच्छा एवं सदाचारी बन जाता है।

बिनु सत्संगु विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सत्संगति मनुष्य के जीवन को सफल बनाती है तो कुसंगति जीवन को नष्ट करती है। कहा भी है, “दुर्जन यदि विद्वान् भी हो तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। मणि धारण करने वाला सांप क्या भयंकर नहीं होता।” बुरी आदतें मनुष्य बुरी संगति से सीखता है। बुरी पुस्तकें, अश्लील चल-चित्र आदि भी मनुष्य को विनाश की ओर ले जाते हैं। बुरे लोगों से बचने की प्रेरणा देते हुए सूरदास जी ने कहा है –

छाडि मन हरि बिमुखन को संग।
चाके संग कुबुद्धि उपजत हैं परत भजन में भंग॥

स्वच्छता अभियान

स्वच्छता अभियान को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ या ‘स्वच्छ भारत मिशन’ भी कहा जाता है। यह अभियान भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी के स्वप्न स्वच्छ भारत को पूर्ण करने हेतू शुरू किया गया। यह एक राष्ट्रीय स्तर का अभियान है। इस अभियान को अधिकारिक तौर पर राजघाट, नई दिल्ली में 2 अक्तूबर, 2014 को महात्मा गाँधी जी की 145वीं जयन्ती पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किया गया।

स्वच्छता अभियान में प्रत्येक भारतवासी से आग्रह किया था कि वे इस अभियान से जुड़े और अपने आसपास के क्षेत्रों की साफ-सफाई करें। इस अभियान को सफल बनाने के लिए उन्होंने देश के 11 महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावी लोगों को इसका प्रचार करने के लिए चुना जिनमें कुछ ऐसे फिल्मकार, क्रिकेटर तथा महान लोग हैं जिनको लोग सुनना पसंद करते हैं। इस अभियान के अंतर्गत कई शहरी तथा ग्रामीण योजनाएं बनाई गई जिसमें शहरों तथा गांवों में सार्वजनिक शौचालय बनाने की योजनाएं हैं। सरकारी कार्यालयों तथा सार्वजनिक स्थलों पर पान, गुटखा, धूम्रपान जैसे गंदगी फैलाने वाले उत्पादों पर रोक लगा दी गई। इस अभियान को सफल बनाने के लिए स्वयं मोदी जी ने सड़कों पर साफसफाई की थी जिसे देखकर लोगों में भी साफ-सफाई के प्रति उत्साह पैदा हो गया।

स्वच्छता अभियान के लिए बहुत सारे नारों का भी प्रयोग किया गया है ; जैसे –

  • एक कदम स्वच्छा की ओर।
  • स्वच्छता अपनाना है, समाज में खुशियां लाना है।
  • गाँधी जी के सपनों का भारत बनाएंगे, चारों तरफ स्वच्छता फैलाएंगे।

स्वच्छता अभियान को अपनाने से कोई हानि नहीं अपितु लाभ ही लाभ होंगे। इससे हमारे आस-पास की हर जगह साफ-सुथरी होगी। साफ-शुद्ध वातावरण में हम और हमारा परिवार बीमार कम पड़ेगा। देश में हर तरफ खुशहाली आएगी और आर्थिक विकास होगा।

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