PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS).

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से सामाजिक आन्दोलन की कौन-सी विशेषता नहीं है ?
(क) सामूहिक चेतना
(ख) निश्चित विचारधारा
(ग) सामूहिक गतिशीलता
(घ) केवल स्वभाव में हिंसक प्रवृत्ति ।
उत्तर-
(घ) केवल स्वभाव में हिंसक प्रवृत्ति ।

प्रश्न 2.
सत्यशोधक आन्दोलन का किसने प्रतिनिधित्व किया ?
(क) ज्योतिराँव फूले
(ख) डॉ० अम्बेदकर
(ग) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर
(घ) नारायण गुरु।
उत्तर-
(क) ज्योतिराव फूले।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा जाति आधारित आन्दोलन नहीं है ?
(क) माहर आन्दोलन
(ख) SNDP आन्दोलन
(ग) सत्यशोधक आन्दोलन
(घ) नील आन्दोलन।
उत्तर-
(घ) नील आन्दोलन।

प्रश्न 4.
आत्म सम्मान आन्दोलन किसने आरम्भ किया ?
(क) पेरियार ई० वी० रामास्वामी
(ख) डॉ० अम्बेदकर
(ग) श्री नारायण गुरु
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) पेरियार ई० वी० रामास्वामी।

प्रश्न 5.
जब लोग वर्तमान सामाजिक व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं होते व सारी सामाजिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की वकालत करते हो तो इस प्रकार के आन्दोलन को कहते हैं-
(क) पुनः रुत्थानवादी आन्दोलन
(ख) सुधार आन्दोलन
(ग) क्रान्तिकारी आन्दोलन
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) क्रान्तिकारी आन्दोलन।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. SEWA से अभिप्राय ……….. है।
2. वर्ग आन्दोलन में ………. एवं ………. आन्दोलन शामिल हैं।
3. ……… ने मानवता के लिए एक धर्म व एक ईश्वर का नारा दिया।
4. ………. ने सती प्रथा की रोकथाम के लिए महत्त्वपूर्ण प्रयास किए।
5. किसानों को ………….. कृषि करने को विवश किया गया जिसके परिणामस्वरूप नील आन्दोलन हुआ।
उत्तर-

  1. Self Employed Women’s Association
  2. कामगार, स्त्री
  3. श्री नारायण गुरु
  4. राजा राम
  5. मोहन राय
  6. नील की।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. सामाजिक आन्दोलन में लगातार सामूहिक गतिशीलता, औपचारिक अथवा अनौपचारिक संगठन द्वारा होती है।
2. सामाजिक आन्दोलन हमेशा स्वभाव में शान्तिपूर्वक होते हैं।
3. मेहर आन्दोलन का आधार है-हिन्दू जाति के धर्म को पूरी तरह से अस्वीकारना।
4. SNDP आन्दोलन ज्योतिरॉव फूले द्वारा संस्थापित हुआ।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. गलत।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
आत्म सम्मान आन्दोलन — चण्डी प्रसाद भट्ट
मेहर आन्दोलन — मेधा पाटेकर
चिपको आन्दोलन — पैरियार० ई० वी० रामास्वामी
ब्रह्म समाज — राजा राम मोहन राय
नर्मदा बचाओ आन्दोलन — डॉ० अम्बेदकर।
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ –कॉलम ‘बी’
आत्म सम्मान आन्दोलन –पैरियार० ई० वी० रामास्वामी
मेहर आन्दोलन –डॉ० अम्बेदकर।
चिपको आन्दोलन — चण्डी प्रसाद भट्ट
ब्रह्म समाज –राजा राम मोहन राय
नर्मदा बचाओ आन्दोलन — मेधा पाटेकर

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. श्री नारायण धर्म परिपालन आन्दोलन की नींव किसने रखी ?
उत्तर- श्री नारायण गुरु ने।

प्रश्न 2. मज़दूर महाजन संघ की नींव किसने रखी ?
उत्तर-महात्मा गांधी ने।

प्रश्न 3. ब्रह्म समाज की नींव किसने रखी ?
उत्तर-राजा राम मोहन राय ने।

प्रश्न 4. चिपको आन्दोलन का जनक कौन है ?
उत्तर-चण्डी प्रसाद भट्ट।

प्रश्न 5. चिपको आन्दोलन के किस महापुरुष को उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए ‘पदम् श्री’ विभूषण से नवाज़ा गया ?
उत्तर-सुन्दर लाल बहुगुणा को।

प्रश्न 6. चिपको आन्दोलन के नेता कौन थे ?
उत्तर-चण्डी प्रसाद भट्ट तथा सुन्दर लाल बहुगुणा।

प्रश्न 7. किन्हीं दो जाति आधारित आन्दोलनों के नाम दें।
उत्तर-सत्यशोधक आन्दोलन तथा श्री नारायण धर्म परिपालना जाति आन्दोलन।

प्रश्न 8. किसान किन्हें कहा जाता है ?
उत्तर-वह व्यक्ति जो अपनी भूमि पर कृषि करके फसल का उत्पादन करता है, उसे किसान कहा जाता है।

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प्रश्न 9. SEWA का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-SEWA शब्द को Self Employed Women’s Association के लिए प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 10. ब्रह्म समाज की नींव किसने रखी ?
उत्तर-राजा राम मोहन राय ने।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन को चिपको क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
सरकार ने गढ़वाल क्षेत्र के जंगलों को ठेकेदारों को दे दिया ताकि वे पेड़ काट सकें। चण्डी प्रसाद भट्ट, गौरा देवी तथा सुन्दर लाल बहुगुणा ने इस आन्दोलन को चलाया था। जब ठेकेदार पेड़ काटने आते तो स्त्रियां पेड़ों को चिपक कर उनसे आलिंगन कर लेती थीं। इस कारण इसे चिपको आन्दोलन कहते हैं।

प्रश्न 2.
जाति आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जाति आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य निम्न जातियों के संघर्ष को सामने लाना था। यह आन्दोलन इस कारण चलाए गए थे ताकि न केवल आर्थिक शोषण से छुटकारा मिल सके बल्कि अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं तथा इससे सम्बन्धित विचारधारा को समाज में से खत्म किया जा सके।

प्रश्न 3.
वर्णन करें: (a) किसान आन्दोलन (b) नारी आन्दोलन।
उत्तर-
(a) किसान आन्दोलन-किसान आन्दोलन मुख्य रूप से पंजाब के क्षेत्र में चलाए गए थे। इनका मुख्य उद्देश्य किसानों के कर्जे तथा करों को कम करना था। यह आन्दोलन उस समय तक चलते रहे जब तक कि इससे संबंधित कानून नहीं पास हो गए।
(b) नारी आन्दोलन-सदियों से स्त्रियों को दबाया जा रहा था। समाज में उनकी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में कई आन्दोलन चले। राजा राम मोहन राय, ईश्वर-चन्द्र विद्यासागर, जी० के० कार्वे इत्यादि इन आन्दोलनों के प्रमुख नेता थे।

प्रश्न 4.
वर्ग आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है ? किन्हीं वर्ग आन्दोलन के नाम दें।
उत्तर-
वर्ग आन्दोलन में श्रमिकों के आन्दोलन तथा किसानों के आन्दोलन आ जाते हैं। श्रमिकों तथा किसानों की मुख्य माँग थी कि उन्हें आर्थिक शोषण से छुटकारा दिलाया जा सके। श्रमिक संघ आन्दोलन वर्ग आन्दोलन का ही एक प्रकार हैं।

प्रश्न 5.
वर्ग आन्दोलन के उद्भव के लिए उत्तरदायी घटकों की संक्षेप में चर्चा करें।
उत्तर-
वर्ग आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य श्रमिकों को आर्थिक शोषण से छुटकारा दिलाना था। कम आय, अधिक कार्य करने के घण्टे, कार्य करने के गंदे हालात, देशी तथा विदेशी पूँजीपतियों के हाथों होता शोषण इन आन्दोलनों को शुरू करने का मुख्य कारण था।

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IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आप पर्यावरण आन्दोलन से क्या समझते हैं ? इस प्रकार के आन्दोलन के आरम्भ होने का कारण स्पष्ट करें।
उत्तर-
पर्यावरण आन्दोलन कई सामाजिक समूहों के इकट्ठे होकर संघर्ष करने का एक बहुत बढ़िया उदाहरण है। यह आंदोलन वातावरण को बचाने के लिए चलाए गए थे। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य स्रोतों पर नियंत्रण, स्थानीय लोगों का अपनी संस्कृति को बचाने का अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा तथा पर्यावरण के संतुलन को बना कर रखने के लिए चलाए गए थे। वास्तव में आधुनिक समय में विकास पर काफ़ी ज़ोर दिया जाता है तथा यह विकास प्राकृतिक स्रोतों के शोषण से ही हो सकता है। परन्तु इस विकास का प्रकृति पर काफ़ी बुरा प्रभाव पड़ता है। इस बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए पर्यावरण आन्दोलन चलाए गए थे ताकि पर्यावरण की सुरक्षा की जा सके तथा इसके सन्तुलन को बना कर रखा जा सके।

प्रश्न 2.
किन्हीं दो जाति आन्दोलनों की चर्चा करें।
उत्तर-

  • सत्यशोधक आन्दोलन-यह आन्दोलन सत्य शोधक समाज ने चलाया था जिसे ज्योतिराव फूले ने शुरू किया था। उन्होंने मुख्य रूप से कहा था कि महाराष्ट्र में मुख्य विभाजन एक तरफ ब्राह्मण हैं तथा दूसरी तरफ निम्न जातियां हैं। इस प्रकार इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणों के प्रत्येक प्रकार के विशेषाधिकार खत्म करना था ताकि निम्न जातियों को भी समाज में उच्च स्थान मिल सके।
  • श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन-यह आन्दोलन 1895 में श्री नारायण गुरु ने केरल में चलाया था। वह स्वयं इज़ावा जाति से संबंध रखते थे जिन्हें अस्पृश्य समझा जाता था। इस जाति को मूर्ति पूजा या जानवरों की बलि नहीं देने दी जाती थी। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इज़ावा लोगों का उत्थान तथा अस्पृश्यता की प्रथा को खत्म करना था। साथ ही ऐसे मन्दिरों का निर्माण करना था जो सभी जातियों के लिए खुले हों।

प्रश्न 3.
पंजाब में किसान आन्दोलन के तत्त्वों की चर्चा करें।
उत्तर-
पंजाब में किसान आन्दोलन मुख्य रूप से जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर, लायलपुर तथा शेखुपुरा जिलों में ही सीमित थे। इन जिलों में केवल वे सिख किसान रहते थे जो स्वयं कृषि करते थे। पंजाब के राजघरानों ने किसानों के गुस्से का सामना किया। पटियाला में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण आन्दोलन चला जिसका मुख्य उद्देश्य उस भूमि को वापिस लेना था जिसे ज़मींदारों तथा सरकारी अफसरों के गठजोड़ ने हड़प ली थी। ज़मीदारों की भूमि पर कार्य करने वाले किसानों ने ज़मींदारों को फसल का हिस्सा देने से मना कर दिया। इस आन्दोलन के प्रमुख नेता भगवान् सिंह लौंगोवालिया, जागीर सिंह जग्गो तथा बाद में तेजा सिंह स्वतन्त्र थे। यह आन्दोलन उस समय तक चलता रहा जब तक कानून पास नहीं हो गए तथा भूमि पर काश्त करने वाले काश्तकारों को ही भूमि का मालिक नहीं बना दिया।

प्रश्न 4.
नारी आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? कोई एक ऐसे आन्दोलन का नाम बताएं।
अथवा
नारी आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? कोई दो आन्दोलनों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
वैदिक काल के दौरान स्त्रियों की स्थिति बहुत बढ़िया थी तथा उन्हें प्रत्येक प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। परन्तु समय के साथ-साथ उन से सभी अधिकार छीन लिए गए। समाज की अधिकतर बुराइयां उनसे ही संबंधित थीं। इस कारण उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए 19वीं शताब्दी के शुरू से ही आन्दोलन चलना शुरू हो गए थे जिन्हें नारी आन्दोलन कहा जाता है। सबसे पहले आन्दोलन ब्रह्मो समाज ने शुरू किया जिसे राजा राम मोहन राय ने चलाया था। उन्होंने उस समय चल रही सती प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया था। उनके प्रयासों के कारण ही 1829 में लार्ड विलियम बैंटिंक ने सती प्रथा निषेध अधिनियम, 1829 पास किया तथा सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया। इस प्रकार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने भी विधवा विवाह के लिए आन्दोलन किया तथा 1856 में विधवा विवाह कानून पास करवाया।

प्रश्न 5.
स्वतंत्रता पूर्व एवं स्वतंत्रता पश्चात् नारियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है ?
उत्तर-
1947 में भारत को अंग्रेजों से स्वतन्त्रता मिल गई तथा अगर इससे पहले तथा बाद की स्थिति की तुलना करें तो हमें पता चलता है कि दोनों समय में नारियों की स्थिति में काफ़ी अन्तर आया है। 1947 से पहले उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे, वे पढ़-लिख नहीं सकती थीं। चाहे उनके लिए स्कूल भी खोले गए परन्तु उन्हें सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था तथा उन्हें पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता था। परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् जब संविधान बना तथा स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार दिए गए। उन्हें अपने पिता तथा पति की सम्पत्ति में अधिकार दिया गया। वे पढ़ने-लिखने लग गईं तथा नौकरियां करने लग गईं। 2011 में उनकी साक्षरता दर 65% थी। अब वह प्रत्येक क्षेत्र में भाग ले रही हैं तथा अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा कर रही हैं।

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक आन्दोलन तथा इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा
सामाजिक आन्दोलन तथा इसकी विशेषताओं पर नोट लिखो।
उत्तर–
किसी भी समाज में सामाजिक आन्दोलन तब जन्म लेता है जब वहाँ के व्यक्ति समाज में पाई जाने वाली सामाजिक परिस्थितियों से असंतुष्ट होते हैं तथा उसमें परिवर्तन लाना चाहते हैं। किसी भी तरह का सामाजिक आंदोलन बिना किसी विचारधारा (Ideology) के विकसित नहीं होता है। कभी-कभी सामाजिक आंदोलन किसी परिवर्तन के विरोध के लिए भी विकसित होता है। प्रारंभिक समाज-शास्त्री सामाजिक आंदोलन को परिवर्तन लाने का एक प्रयास मानते थे, परंतु आधुनिक समाज शास्त्री, आंदोलनों को समाज में परिवर्तन करने या फिर उसे परिवर्तन को रोकने के रूप में लेते हैं। विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से सामाजिक आंदोलन को निम्नलिखित रूप से समझाने का प्रयास किया है-

  • मैरिल एवं एल्ड्रिज (Meril and Eldridge) के अनुसार “सामाजिक आंदोलन रूढ़ियों में परिवर्तन के लिए अधिक या कम मात्रा में चेतन रूप से किए गए प्रयास हैं।”
  • हर्टन व हंट (Hurton and Hunt) के शब्दों में “सामाजिक आंदोलन समाज अर्थात् उसके सदस्यों में परिवर्तन लाने या उसका विरोध करने का सामूहिक प्रयास है।”
  • रॉस (Rose) के शब्दानुसार, “सामाजिक आंदोलन सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लोगों की एक बड़ी संख्या के एक औपचारिक संगठन को कहते हैं, जो अनेक व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास से प्रभुत्ता संपन्न, संस्कृत स्कूलों संस्थाओं या एक समाज के विशिष्ट वर्गों को संशोधित अथवा स्थानांतरित करता है।”

हरबर्ट ब्लूमर (Herbert Blumer) के अनुसार, “सामाजिक आंदोलन जीवन की एक नयी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए सामूहिक प्रयास कहा जा सकता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक आंदोलन समाज में व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक व्यवहार है, जिसका उद्देश्य प्रचलित संस्कृति एवं सामाजिक संरचना में परिवर्तन करना होता है या फिर हो रहे परिवर्तन को रोकना होता है। अतः सामाजिक आंदोलन को सामूहिक प्रयास और सामाजिक क्रिया के प्रयास के रूप में समझा जा सकता है।

विशेषताएं-सामाजिक आंदोलनों की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है

  • सामूहिक चेतना-किसी भी सामाजिक आन्दोलन की पहली विशेषता उसमें सामूहिक चेतना का होना है। एक-दूसरे के साथ होने की चेतना एकता को बढ़ाती है। इस कारण अधिक से अधिक लोग इसमें भाग लेते हैं।।
  • सामूहिक प्रयास-सामूहिक आन्दोलन केवल एक या दो व्यक्ति शुरू नहीं कर सकते इसके लिए बहुत से व्यक्तियों का इकट्ठे होना तथा उनके सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। अगर सामूहिक प्रयास नहीं होंगे तो आन्दोलन भी शुरू नहीं होगा।
  • पक्की विचारधारा-सामाजिक आन्दोलन शुरू करने के लिए आवश्यक है कि इसकी एक विचारधारा हो जिसमें सभी सदस्य विश्वास करते हों। अगर विचारधारा ही नहीं होगी तो आन्दोलन कहाँ से शुरू होगा। साथ ही यह विचारधारा लगातार चलती रहनी चाहिए ताकि आन्दोलन अपने उद्देश्य से न भटक जाए।
  • परिवर्तन को प्रोत्साहित करना-सामाजिक आन्दोलन दो कारणों की वजह से होता है। पहला यह समाज की मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहता है तथा दूसरा यह परिवर्तन का विरोध भी कर सकता है। दोनों ही स्थितियों में परिवर्तन तो आता ही है। इस प्रकार सामाजिक आन्दोलनों से किसी-न-किसी प्रकार का परिवर्तन तो आता ही है।
  • नई व्यवस्था सामने लाना-सामाजिक आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना होता है। इस परिवर्तन से प्राचीन व्यवस्था का स्थान लेने के लिए एक नई व्यवस्था सामने आती है जोकि अपने आप में ही एक परिवर्तन का प्रतीक है।
  • हिंसक अथवा अहिंसक-यह आवश्यक नहीं है कि सामाजिक आन्दोलन केवल अहिंसक हो। यह हिंसक भी हो सकता है। कभी-कभी जनता मौजूदा व्यवस्था के इतने विरुद्ध हो जाती है कि वह उसे परिवर्तित करने के लिए हिंसक रास्ता भी अपना लेती है।

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प्रश्न 2.
सामाजिक आन्दोलन से आपका क्या अभिप्राय है ? इसके विभिन्न प्रकारों की चर्चा करें।
उत्तर-
सामाजिक आन्दोलन का अर्थ-देखें पिछला प्रश्न। सामाजिक आन्दोलन के प्रकार–सामाजिक आन्दोलन के निम्नलिखित प्रकार हैं
(i) सुधारवादी आन्दोलन-सुधारवादी आन्दोलन वे होते हैं जो समाज की मौजूदा व्यवस्था से या तो संतुष्ट होते हैं परन्तु वे पूर्ण समाज में नहीं बल्कि समाज के कुछ हिस्सों में परिवर्तन लाना चाहते हैं। प्रैस तथा चर्च जैसी संस्थाओं को सामाजिक आन्दोलन लाने के लिए प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए भारत में चले समाज सुधार आन्दोलन जिनमें ब्रह्मो समाज प्रमुख आन्दोलन थे। इसने देश में से कई सामाजिक बुराइयों को खत्म करने का प्रयास किया जैसे कि सती प्रथा, अन्तर्जातीय विवाह का न होना, विवाह संबंधी कई प्रकार के प्रतिबन्ध इत्यादि।

(ii) क्रान्तिकारी आन्दोलन-क्रान्तिकारी आन्दोलन मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं होते। ऐसे आन्दोलन समाज में अचानक परिवर्तन लाने के लिए चलाए जाते हैं। क्योंकि वे मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नहीं होते इसलिए वे पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। उदाहरण के लिए 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति तथा 1917 की रूसी क्रान्ति जिन्होंने मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ कर नई सामाजिक व्यवस्था को स्थापित किया।

(iii) पुनरुत्थानवादी आन्दोलन-इन आन्दोलनों को Reactionary आन्दोलन भी कहा जाता है। इस प्रकार के आन्दोलन का मुख्य तत्त्व भी असंतुष्टता में छुपा हुआ है। इनके सदस्यों को कई परिवर्तन ठीक नहीं लगते तथा ये प्राचीन मूल्यों को दोबारा स्थापित करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए गाँधी जी की तरफ से चलाया गया खादी ग्रामोद्योग का आन्दोलन।

प्रश्न 3.
वर्ग व जाति आन्दोलन का अन्तर स्पष्ट करते हुए उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
जाति आन्दोलन-जाति आन्दोलन निम्न जातियों तथा पिछड़े वर्गों में संघर्ष को सामने लाने के लिए चलाए गए थे। यह आंदोलन न केवल आर्थिक शोषण को खत्म करने के लिए चलाए गए थे बल्कि अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराई तथा उससे संबंधित परम्परागत विचारधारा को खत्म करने के लिए चलाए गए थे। निम्न जातियों को सदियों से दबाया जा रहा था, उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे, उन्हें केवल सफाई का कार्य दिया जाता था जिससे काफ़ी कम आय होती थी। इस कारण वह काफ़ी निर्धन थे। उनका प्रत्येक प्रकार से शोषण होता था।

इसलिए समय-समय पर कई प्रकार के आन्दोलन चले ताकि उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाया जा सके। सबसे पहले ज्योतिराव फूले ने महाराष्ट्र में सत्यशोधक आन्दोलन चलाया था ताकि प्रत्येक प्रकार की उच्च जातियों की सत्ता को दूर किया जा सके तथा निम्न जातियों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त हो सके। इसके पश्चात् 1895 में श्री नारायण गुरु ने केरल में श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन चलाया ताकि इज़ावा समुदाय को समाज में अधिकार प्राप्त हो सकें। वह चाहते थे कि समाज में से अस्पृश्यता जैसी बुराइयां खत्म हो सकें तथा ऐसे मंदिर बनाए जाएं जो सभी जातियों के लिए खुले हों। उन्होंने सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए ‘एक धर्म व एक भगवान्’ का भी नारा दिया। उनके पश्चात् 1925 में पैरियार रामास्वामी ने तमिलनाडु में आत्मसम्मान आंदोलन चलाया जिसका मुख्य उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना था यहां पिछड़ी जातियों को समान अधिकार प्राप्त हो सकें। डॉ० बी० आर० अंबेदकर ने भी महार जाति की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए कई आन्दोलन चलाए।

वर्ग आधारित आन्दोलन-वर्ग आधारित आन्दोलन में हम श्रमिक आन्दोलन तथा किसानों के आन्दोलन ले सकते हैं। श्रमिकों तथा किसानों की यह माँग थी कि उनके आर्थिक शोषण का खात्मा हो। देश में कई श्रमिक सभाएं बनी जिनसे हमें पता चलता है कि उद्योगों में कार्य करने वाले श्रमिकों की क्या मांगें थीं। अंग्रेजों के समय के दौरान ही देश में जूट उद्योग, कपास उद्योग, चाय उद्योग के कारखाने लगने शुरू हो गए तथा निर्धन लोगों को इनमें काम मिलना शुरू हो गया। उन्हें अधिक समय कार्य करना पड़ता था, कम वेतन मिलता था, कार्य करने के हालात अच्छे नहीं थे तथा पूँजीपति उनका शोषण करते थे। अलग-अलग समय में वर्करों के लिए कई प्रकार के कानून पास किए गए परन्तु उनकी स्थिति में कोई सुधार न हुआ। इस कारण श्रमिक संघ बनाए गए ताकि उनकी स्थिति में सुधार किया जा सके। इस प्रकार किसानों का भी शोषण होता था।

जमींदार अपनी भूमि किसानों को किराए पर देते थे तथा बिना कोई परिश्रम किए किसानों से उनके उत्पादन का बड़ा हिस्सा ले जाते थे। वास्तविक परिश्रम करने वाले किसान भूखे रह जाते थे तथा बिना परिश्रम करने वाले जमींदार ऐश करते थे। इस कारण पंजाब व कई अन्य क्षेत्रों में इससे संबंधित कई आंदोलन चले जिस कारण देश की स्वतंत्रता के पश्चात् कई कानून बनाए गए तथा जमींदारी व्यवस्था को खत्म कर दिया गया। वास्तविक कृषि करने वाले किसानों को ही भूमि का मालिक बना दिया गया।

प्रश्न 4.
किसान आंदोलन से आपका क्या अभिप्राय है ? इसके निर्धारक घटकों का वर्णन करते हए किसी किसान आन्दोलन की चर्चा करें।
उत्तर-
कृषक या किसान आंदोलनों का संबंध किसानों तथा कृषि कार्यों के बीच पाए जाने वाले संबंधों से है। जब कृषि कार्यों को करने वालों तथा भूमि के मालिकों के बीच तालमेल ठीक नहीं बैठता तो कृषि करने वाले आंदोलनों का रास्ता अपना लेते हैं तथा यहीं से किसान आंदोलन की शुरुआत होती है। असल में यह आंदोलन किसानों के शोषण के कारण होते हैं।

इनका मूल आधार वर्ग संघर्ष है तथा यह श्रमिक आंदोलन से अलग हैं। डॉ० तरुण मजूमदार ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है कि, “कृषि कार्यों से संबंधित हरेक वर्ग के उत्थान तथा शोषण मुक्ति के लिए किए गए साहसी प्रयत्नों को कृषक आंदोलन की श्रेणी में रखा गया है।” – इन आन्दोलनों का महत्त्वपूर्ण आधार कृषि व्यवस्था होती है। भूमि व्यवस्था की विविधता तथा कृषि संबंधों ने खेतीहर वर्गों के बीच एक विस्तृत संरचना का विकास किया है। यह संरचना अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रही है। भारत में खेतीहर वर्ग को तीन भागों में बांट सकते हैं-(i) मालिक (Owner), (ii) किसान (Farmer), (iii) मज़दूर (Labourer)।

मालिक को भूमि का मालिक या भूपति भी कहते हैं। संपूर्ण भूमि का मालिक यही वर्ग होता है जिस पर खेती का कार्य होता है। किसान का स्थान भूपति के बाद आता है। किसान वर्ग में छोटे-छोटे भूमि के टुकड़ों के मालिक तथा काश्तकार होते हैं। यह अपनी भूमि पर स्वयं ही खेती करते हैं। तीसरा वर्ग मज़दूर का है जो खेतों में काम करके जीविका कमाता है। इस वर्ग में भूमिहीन, कृषक, ग़रीब काश्तकार तथा बटईदार आते हैं।

किसान आंदोलन अनेकों कारणों की वजह से अलग-अलग समय पर शुरू हुए। औद्योगीकरण के कारण जब खेतीहर मजदूरों की जीविका पर असर पड़ता है तो आंदोलनों की मदद से खेतीहर मज़दूर विरोध करते हैं। इसके साथ ही खेती से संबंधित चीज़ों के दाम बढ़ने, मालिकों द्वारा ज्यादा लाभ प्राप्त करने के लिए विशेष प्रकार की खेती करवाना, अधिकारियों की नीतियां तथा शोषण की आदत का पाया जाना, खेतीहर मजदूरों को बंधुआ मज़दूर रख कर उनसे अपनी मर्जी का कार्य करवाना आदि ऐसे कारण रहे हैं जिनकी वजह से कृषक आंदोलन शुरू हुए।

पंजाब में किसान आन्दोलन-पंजाब किसान गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था। 1930 में किसान सभा सामने आई। इनकी मुख्य माँग कर्जे तथा भूमि कर में कमी से संबंधित थी। इसके अतिरिक्त एक अन्य मुद्रा जिसने सभी का ध्यान खींचा वह था अमृतसर तथा लाहौर जिलों में भूमि कर की Resettlement करना था। जिले के मुख्यालय में जत्थे भेजे गए तथा प्रदर्शन किए गए। इस आंदोलन की चरम सीमा 1939 में लाहौर किसान मोर्चे के सामने आने से हुई। राज्य के कई जिलों से सैंकड़ों किसानों को गिरफ्तार किया गया।

पंजाब में किसान आन्दोलन मुख्य रूप से जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर, लायलपुर तथा शेखुपुरा ज़िलों तक ही सीमित था। इन जिलों में केवल वह सिक्ख किसान ही रहते थे जो अपनी कृषि करते थे। पंजाब के राज घरानों ने भी किसानों के गुस्से का सामना किया। पटियाला में भी एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन चला जिसका मुख्य उद्देश्य उस भूमि को वापस लेना था जिसके ऊपर जमींदारों तथा सरकारी अफसरों के गठजोड़ ने कब्जा कर लिया था। ज़मींदारों की ज़मीनों पर कृषि करने वाले किसानों ने भी ज़मींदारों को फसल का हिस्सा देने से मना कर दिया। इस आंदोलन के प्रमुख नेता भगवान् सिंह लौंगोवालिया, जगीर सिंह जग्गो तथा बाद में तेजा सिंह स्वतंत्र थे। यह आंदोलन उस समय तक चलते रहे जब तक कानून पास नहीं हो गए तथा ज़मीनों पर काश्त करने वाले काश्तकारों को भूमि का मालिक नहीं बना दिया गया।

PSEB 12th Class Sociology Solutions PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 9 सामाजिक आन्दोलन

प्रश्न 5.
भारत में नारी जाति की स्थिति का वर्णन करें। नारी आन्दोलनों ने किस प्रकार नारी जाति की स्थिति में सुधार लाने का कार्य किया है ?
उत्तर-
दुनिया तथा भारत में लगभग आधी जनसंख्या स्त्रियों की है पर अलग-अलग देशों में स्त्रियों की स्थिति समान नहीं है। हिंदू शास्त्रों में स्त्री को अर्धांगिनी माना गया है तथा हिन्दू समाज में इनका वर्णन लक्ष्मी, दुर्गा, काली, सरस्वती इत्यादि के रूप में किया गया है। स्त्री को भारत में भारत माता कह कर भी बुलाते हैं तथा उसके प्रति अपना आभार तथा श्रद्धा प्रकट करते हैं। यहां तक कि कई धार्मिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड स्त्री के बगैर अधूरे माने जाते हैं। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी थी पर मध्य युग आते-आते स्त्रियों की स्थिति काफ़ी दयनीय हालत में पहंच गई। 19वीं शताब्दी में बहुत-से समाज सुधारकों ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने का प्रयास किया। 20वीं सदी में स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गईं तथा उन्होंने आज़ादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इसी के साथ उनके दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया तथा इनकी राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में काफ़ी भागीदारी बढ़ गई।

फिर भी इन परिवर्तनों, जोकि हम आज देख रहे हैं, के बावजूद समाज में स्त्रियों की स्थिति अलग-अलग कालों में अलग-अलग रही है जिनका वर्णन निम्नलिखित है

1. वैदिक काल (Vedic Age) वैदिक काल को भारतीय समाज का स्वर्ण काल भी कहा जाता है। इस युग में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी थी। उस समय का साहित्य जो हमारे पास उपलब्ध है उसे पढ़ने से पता चलता है कि इस काल में स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने, विवाह तथा सम्पत्ति रखने के अधिकार पुरुषों के समान थे। परिवार में स्त्री का स्थान काफ़ी अच्छा होता था तथा स्त्री को धार्मिक तथा सामाजिक कार्य पूरा करने के लिए बहुत ज़रूरी माना जाता था। इस समय में लड़कियों की उच्च शिक्षा पर काफ़ी ध्यान दिया जाता था। उस समय पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियां नहीं थीं, चाहे बह-पत्नी विवाह अवश्य प्रचलित थे पर स्त्रियों को काफ़ी सम्मान से घर में रखा जाता था। विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध नहीं था। सती प्रथा का कोई विशेष प्रचलन नहीं था इसलिए विधवा औरत सती हो भी सकती थी तथा नहीं भी। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान ही थी। इस युग में स्त्री का अपमान करना पाप समझा जाता था तथा स्त्री की रक्षा करना वीरता का काम समझा जाता था। भारत में स्त्री की स्थिति काफ़ी उच्च थी तथा पश्चिमी देशों में वह दासी से ज़्यादा कुछ नहीं थी। यह काल 4500 वर्ष पहले था।

2. उत्तर वैदिक काल (Post Vedic Period)-यह काल ईसा से 600 वर्ष पहले (600 B.C.) शुरू हुआ तथा ईसा के 3 शताब्दी (300 A.D.) बाद तक माना गया। इस समय में स्त्रियों को वह आदर-सत्कार, मान-सम्मान न मिल पाया जो उनको वैदिक काल में मिलता था। इस समय बाल-विवाह प्रथा शुरू हुई जिस वजह से स्त्रियों को शिक्षा प्राप्ति में कठिनाई होने लगी। शिक्षा न मिल पाने की वजह से उनका वेदों का ज्ञान खत्म हो गया या न मिल पाया जिस वजह से उनके धार्मिक संस्कारों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस काल में स्त्रियों के लिए पति की आज्ञा मानना अनिवार्य हो गया तथा विवाह करना भी ज़रूरी हो गया। इस काल में बहु-पत्नी प्रथा बहुत ज्यादा प्रचलित हो गई थी तथा स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न हो गई थी। इस काल में विधवा विवाह पर नियन्त्रण लगना शुरू हो गया तथा स्त्रियों ‘का काम सिर्फ घर के उत्तरदायित्व पूर्ण करना रह गया था। इस युग में आखिरी स्तर पर आते-आते स्त्रियों की स्वतंत्रता तथा अधिकार काफ़ी कम हो गए थे तथा उनकी स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण लगने शुरू हो गए थे।

3. स्मृति काल (Smriti Period)-इस काल में मनु स्मृति में दिए गए सिद्धान्तों के अनुरूप व्यवहार करने पर ज्यादा ज़ोर देना शुरू हो गया था। इस काल में बहुत-सी संहिताओं जैसे मनु संहिता, पराशर संहिता तथा याज्ञवल्क्य संहिता रचनाओं की रचना की गई। इसलिए इस काल को धर्म शास्त्र काल के नाम से भी पुकारा जाता है। इस काल में स्त्रियों की स्थिति पहले से भी ज्यादा निम्न हो गई। स्त्री का सम्मान सिर्फ माता के रूप में रह गया था। विवाह करने की उम्र और भी कम हो गई तथा समाज में स्त्री को काफ़ी हीन दृष्टि से देखा जाता था। मनुस्मृति में तो यहां तक लिखा है कि स्त्री को हमेशा कड़ी निगरानी में रखना चाहिए, छोटी उम्र में पिता की निगरानी में, युवावस्था में पति की निगरानी में तथा बुढ़ापे में पुत्रों की निगरानी में रखना चाहिए। इस काल में विधवा विवाह पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा सती प्रथा को ज्यादा महत्त्व दिया जाने लगा। स्त्रियों का मुख्य धर्म पति की सेवा माना गया। विवाह 10-12 साल की उम्र में ही होने लगे। स्त्री का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। स्त्रियों के सभी अधिकार पति या पुत्र को दे दिए गए। पति को देवता कहा गया तथा पति की सेवा ही उसका धर्म रह गया था।

4. मध्य काल (Middle Period) मध्यकाल में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना के बाद तो स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म की रक्षा, स्त्रियों की इज्जत तथा रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए स्त्रियों के लिए काफ़ी कठोर नियमों का निर्माण कर दिया था। स्त्री शिक्षा काफ़ी हद तक खत्म हो गई तथा पर्दा प्रथा काफ़ी ज्यादा चलने लगी। लड़कियों के विवाह की उम्र भी घटकर 8-9 वर्ष ही रह गई। इस वजह से बचपन में ही उन पर गृहस्थी का बोझ लाद दिया जाता था। सती प्रथा काफ़ी ज्यादा प्रचलित हो गई थी तथा विधवा विवाह पूरी तरह बन्द हो गए थे। स्त्रियों को जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुष के अधीन कर दिया गया तथा उनके सारे अधिकार छीन लिए गए। मध्य काल का समय स्त्रियों के लिए काला युग था। परिवार में उसकी स्थिति शून्य के समान थी तथा उसे पैर की जूती समझा जाता था। स्त्रियों को ज़रा-सी ग़लती पर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। उनका सम्पत्ति का अधिकार भी वापस ले लिया गया था।

5. आधुनिक काल (Modern Age)-अंग्रेजों के आने के बाद आधुनिक काल शुरू हुआ। इस समय औरतों के उद्धार के लिए आवाज़ उठनी शुरू हुई तथा सबसे पहले आवाज़ उठाई राजा राममोहन राय ने जिनके यत्नों की वजह से सती प्रथा बन्द हुई तथा विधवा विवाह को कानूनी मंजूरी मिल गई। फिर और समाज सुधारक जैसे कि दयानन्द सरस्वती, गोविन्द रानाडे, रामाबाई रानाडे, विवेकानंद इत्यादि ने भी स्त्री शिक्षा तथा उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। इनके यत्नों की वजह से स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार होने लगा। स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त होने लगी तथा वे घर की चार-दीवारी से बाहर निकल कर देश के स्वतन्त्रता संग्राम में हिस्सा लेने लगीं। शिक्षा की वजह से वे नौकरी करने लगी तथा राजनीतिक क्षेत्र में भी हिस्सा लेने लगीं जिस वजह से वे आर्थिक तौर पर आत्म निर्भर होने लगीं। आजकल स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी है क्योंकि शिक्षा तथा आत्म निर्भरता की वजह से स्त्री को अपने अधिकारों का पता चल गया है। आज से संपत्ति रखने, पिता की जायदाद से हिस्सा लेने तथा हर तरह के वह अधिकार प्राप्त हैं जो पुरुषों को प्राप्त हैं।

स्त्रियों की स्थिति ऊपर उठाने के प्रयास (Efforts to uplift the Status of Women)-देश की आधी जनसंख्या स्त्रियों की है। इसलिए देश के विकास के लिए यह भी ज़रूरी है कि उनकी स्थिति में सुधार लाया जाए। उनसे संबंधित कुप्रथाओं तथा अन्धविश्वासों को समाप्त किए गए। स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान में कई ऐसे प्रावधान किये गये जिनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार हो। उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर बनाने के लिए अलग-अलग कानून बनाए गए। आजादी के बाद देश की महिलाओं के उत्थान, कल्याण तथा स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं-

1. संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions)-महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान हैं

(a) अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के सामने सभी समान हैं।
(b) अनुच्छेद 15 (1) द्वारा धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भारतीय से भेदभाव की मनाही
(c) अनुच्छेद 15 (3) के अनुसार राज्य महिलाओं तथा बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करें।
(d) अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य रोज़गार तथा नियुक्ति के मामलों में सभी भारतीयों को समान अवसर प्रदान करें।
(e) अनुच्छेद 39 (A) के अनुसार राज्य पुरुषों तथा महिलाओं को आजीविका के समान अवसर उपलब्ध करवाए।
(f) अनुच्छेद 39 (D) के अनुसार पुरुषों तथा महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए।
(g) अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य कार्य की न्यायपूर्ण स्थिति उत्पन्न करें तथा अधिक-से-अधिक प्रसूति सहायता प्रदान करें।
(h) अनुच्छेद 51 (A) (E) के अनुसार स्त्रियों के गौरव का अपमान करने वाली प्रथाओं का त्याग किया जाए।
(i) अनुच्छेद 243 के अनुसार स्थानीय निकायों-पंचायतों तथा नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थानों को महिलाओं
के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है।

2. कानून (Legislations)-महिलाओं के हितों की सुरक्षा तथा उनकी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए कई कानूनों का निर्माण किया गया जिनका वर्णन निम्नलिखित है

(a) सती प्रथा निवारण अधिनियम, 1829, 1987 (The Sati Prohibition Act)
(b) हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 (The Hindu Widow Remarriage Act)
(c) बाल विवाह अवरोध अधिनियम (The Child Marriage Restraint Act)
(d) हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति पर अधिकार (The Hindu Women’s Right to Property Act) 1937.
(e) विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act) 1954.
(f) हिन्दू विवाह तथा विवाह विच्छेद अधिनियम (The Hindu Marriage and Divorce Act) 1955 & 1967.
(g) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (The Hindu Succession Act) 1956.
(h) दहेज प्रतिबन्ध अधिनियम (Dowry Prohibition Act) 1961, 1984, 1986.
(i) मातृत्व हित लाभ अधिनियम (Maternity Relief Act) 1961. 1976.
(j) मुस्लिम महिला तलाक के अधिकारों का संरक्षण अधिनियम (Muslim Women Protection of Rights of Divorce) 1986.

ऊपर लिखे कानूनों में से चाहे कुछ आज़ादी से पहले बनाए गए थे पर उनमें आजादी के बाद संशोधन कर लिए गए हैं। इन सभी विधानों से महिलाओं की सभी प्रकार की समस्याओं जैसे दहेज, बाल विवाह, सती प्रथा, सम्पत्ति का उत्तराधिकार इत्यादि का समाधान हो गया है तथा इनसे महिलाओं की स्थिति सुधारने में मदद मिली है।

3. महिला कल्याण कार्यक्रम (Women Welfare Programmes)-स्त्रियों के उत्थान के लिए आज़ादी के बाद कई कार्यक्रम चलाए गए जिनका वर्णन निम्नलिखित है

(a) 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया तथा उनके कल्याण के कई कार्यक्रम चलाए गए।
(b) 1982-83 में ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक तौर पर मज़बूत करने के लिए डवाकरा कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
(c) 1986-87 में महिला विकास निगम की स्थापना की गई ताकि अधिक-से-अधिक महिलाओं को रोज़गार के अवसर प्राप्त हों।
(d) 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का पुनर्गठन किया गया ताकि महिलाओं के ऊपर बढ़ रहे अत्याचारों को रोका जा सके।

4. देश में महिला मंडलों की स्थापना की गई। यह महिलाओं के वे संगठन हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के कल्याण के लिए कार्यक्रम चलाते हैं। इन कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च का 75% पैसा केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड देता है।

5. शहरों में कामकाजी महिलाओं को समस्या न आए इसीलिए सही दर पर रहने की व्यवस्था की गई है। केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने होस्टल स्थापित किए हैं ताकि कामकाजी महिलाएं उनमें रह सकें।

6. केन्द्रीय समाज कल्याण मण्डल ने सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम देश में 1958 के बाद से चलाने शुरू किए ताकि ज़रूरतमंद, अनाथ तथा विकलांग महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवाया जा सके। इसमें डेयरी कार्यक्रम भी शामिल हैं।

इस तरह आज़ादी के पश्चात् बहुत सारे कार्यक्रम चलाए गए हैं ताकि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाया जा सके। अब महिला सशक्तिकरण में चल रहे प्रयासों की वजह से भारतीय महिलाओं का बेहतर भविष्य दृष्टिगोचर होता है।

प्रश्न 6.
आप पर्यावरण आन्दोलन से क्या समझते हैं ? किन्हीं दो पर्यावरण आन्दोलन की विस्तार से चर्चा करें।
अथवा
पर्यावरणीय आन्दोलन से सम्बन्धित चिपको आन्दोलन तथा नर्मदा बचाओ आन्दोलन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
आधुनिक समय में विकास पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। विकास की बढ़ती माँग के कारण प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण एवं अनियंत्रित उपयोग के कारणों के फलस्वरूप विकास के ऐसे प्रतिमान पर चिंता प्रकट की जा रही है। वर्तमान समय में यह माना जाता रहा है कि विकास से सभी वर्गों के लोगों को लाभ पहुंचेगा परंतु वास्तव में बड़े-बड़े उद्योग, धंधे कृषकों को उनकी आजीविका तथा घरों दोनों से दूर कर रहे हैं। उद्योगों के उत्तरोत्तर विकास के बढ़ने के कारण औद्योगिक प्रदूषण जैसी भयंकर समस्या सामने आ रही है। औद्योगिक प्रदूषण के प्रभाव को देखते हुए इससे बचाव कैसे किया जा सकता है। इसके लिए अनेक पारिस्थितिकीय आंदोलन शुरू हुए।

पर्यावरण आंदोलन को हम कई सामाजिक समूहों के इकट्ठे होकर कोई कठोर कदम उठाने की क्रिया के रूप में देख सकते हैं। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य साधनों पर नियन्त्रण, वातावरण की सुरक्षा तथा पर्यावरण संतुलन बनाकर रखना था। 1970 तथा 1980 के दशकों में देश को पर्यावरण प्रदूषण से बचाने के लिए कई संघर्ष शुरू हुए ताकि बड़े बाँधों को बनने से रोका जा सके तथा जिन्हें उनकी भूमि से उजाड़ा गया है उन्हें कहीं और बसाया जा सके।

(i) चिपको आन्दोलन-चिपको आंदोलन 1970 के दशक में उत्तराखंड (उस समय उत्तर प्रदेश) के पहाड़ी इलाकों में शुरू हुआ। यहाँ के जंगल वहाँ पर रहने वाले गाँववासियों की रोजी-रोटी का साधन थे। लोग जंगलों से चीजें इकट्ठी करके अपना जीवनयापन करते थे। सरकार ने इन जंगलों को राजस्व प्राप्त करने के लिए ठेके पर दे दिया। जब लोग जंगलों से चीजें, लकड़ी इकट्ठी करने गए तो ठेकेदारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया क्योंकि ठेकेदार स्वयं जंगलों को काटकर पैसा कमाना चाहते थे। कई गाँवों के लोग इसके विरुद्ध हो गए तथा उन्होंने मिलकर संघर्ष करना शुरू कर दिया। जब ठेकेदार जंगलों के वृक्ष काटने आते तो लोग पेड़ों के इर्द-गिर्द लिपट जाते या चिपक जाते थे ताकि वह पेड़ों को न काट सकें। महिलाओं तथा बच्चों ने भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। प्रमुख पर्यावरणवादी सुंदर लाल बहुगुणा भी इस आंदोलन से जुड़ गए। लोगों के पेड़ों से चिपकने के कारण ही इस आंदोलन को चिपको आंदोलन कहा गया। अंत में आंदोलन को सफलता प्राप्त हुई तथा सरकार ने हिमालयी क्षेत्र के पेड़ों की कटाई पर 15 वर्ष की रोक लगा दी।

(ii) नर्मदा बचाओ आंदोलन-नर्मदा बचाओ आंदोलन को मेधा पाटेकर तथा बाबा आम्टे ने कई अन्य लोगों के साथ मिलकर शुरू किया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन एक बहुत ही शक्तिशाली आंदोलन था जिसे 1985 में शुरू किया गया था। यह आंदोलन गुजरात की नर्मदा नदी के ऊपर बन रहे सरदार सरोवर डैम के विरुद्ध शुरू हुआ था। 1978 में नर्मदा Water Dispute Tribunal ने नर्मदा वैली प्रोजैक्ट को मान्यता दे दी। सबसे अधिक विवाद वाला डैम सरदार सरोवर प्रोजैक्ट था। इस डैम के बनने से लगभग 40 लाख लोगों को उनके घरों, भूमि से हटाया जाना था।

मेधा पाटेकर इस आंदोलन की प्रमुख नेता थी तथा उन्होंने भारत की सुप्रीम कोर्ट में एक केस किया ताकि सरदार सरोवर डैम को बनने से रोका जा सके। शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन के हक में निर्णय दिया तथा बाँध का कार्य बंद हो गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित राज्यों से कहा कि पहले उजाड़े गए लोगों को दोबारा किसी अन्य स्थान पर बसाया जाए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ बाँध का कार्य को शुरू करने की आज्ञा दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था की कि लोगों को बसाने के कार्य का निरीक्षण किया जाए। चाहे नर्मदा बचाओ आन्दोलन बाँध के बनने से रोकने के कार्य को पूर्णतया रोकने में सफल नहीं हो पाया परन्तु इसने लोगों को वातावरण के प्रति तथा उजाड़े गए लोगों को दोबारा बसाने के प्रति काफ़ी जागरूक किया।

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तानष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज की बुराइयों को दूर करने के लिए कौन-सा आन्दोलन शुरू होता है ?
(क) सुधारवादी आन्दोलन
(ख) रुत्थानवादी आन्दोलन
(ग) क्रान्तिकारी आन्दोलन
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) सुधारवादी आन्दोलन।

प्रश्न 2.
चिपको आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका किसने निभाई थी ?
(क) चण्डी प्रसाद भट्ट
(ख) लाल बहादुर शास्त्री
(ग) मेधा पाटेकर
(घ) अरुन्धति राय।
उत्तर-
(क) चण्डी प्रसाद भट्ट।

प्रश्न 3.
किसे चिपको आन्दोलन में योगदान के लिए पद्म विभूषण का सम्मान मिला था ?
(क) मेधा पाटेकर
(ख) सुन्दर लाल बहुगुणा
(ग) चण्डी प्रसाद भट्ट
(घ) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर।
उत्तर-
(ख) सुन्दर लाल बहुगुणा।।

प्रश्न 4.
सत्यशोधक आन्दोलन किसने चलाया था ?
(क) राजा राम मोहन राय
(ख) सुन्दर लाल बहुगुणा
(ग) ज्योतिराव फूले
(घ) दयानंद सरस्वती।
उत्तर-
(ग) ज्योतिराव फूले।

प्रश्न 5.
महार आन्दोलन किसने चलाया था ?
(क) ज्योतिराव फूले
(ख) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर
(ग) राजा राम मोहन राय
(घ) डॉ० बी० आर० अम्बेदकर।
उत्तर-
(घ) डॉ० बी० आर० अम्बेदकर।

प्रश्न 6.
सती प्रथा को गैर-कानूनी किसने घोषित करवाया था ?
(क) राजा राम मोहन राय
(ख) डॉ० अम्बेदकर
(ग) ज्योतिराव फूले
(घ) ईश्वर चन्द्र विद्यासागर।
उत्तर-
(क) राजा राम मोहन राय।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. डॉ० अंबेदकर ………… जाति से सम्बन्ध रखते थे।
2. सत्य शोधक समाज ………… ई० में स्थापित किया गया था।
3. आत्म सम्मान आन्दोलन ………. ने शुरू किया था।
4. श्री नारायण गुरु ……….. जाति से सम्बन्ध रखते थे। ।
5. मज़दूर महाजन सभा ………… ने शुरू की थी।
उत्तर-

  1. महार,
  2. 1873,
  3. पैरियार रामास्वामी,
  4. इज़ावा,
  5. महात्मा गाँधी।

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C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. डॉ० अम्बेदकर ने जैन धर्म अपना लिया था।
2. पैरियार रामास्वामी ने केरल में आत्मसम्मान आन्दोलन चलाया था।
3. सत्यशोधक समाज महाराष्ट्र में चलाया गया था।
4. आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस 1920 में शुरू हुई थी।
5. ब्रह्मो समाज राजा राम मोहन राय ने चलाया था।
6. सामाजिक आन्दोलन की प्रकृति हमेशा शांतिपूर्वक होती है।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. गलत,
  3. सही,
  4. सही,
  5. सही,
  6. गलत।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. किसे आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है ?
उत्तर-राजा राम मोहन राय को आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है।

प्रश्न 2. सबसे पहले शब्द सामाजिक आन्दोलन किसने तथा कहाँ प्रयोग किया था ?
उत्तर-जर्मन विद्वान् Lorenz Van Stein ने अपनी पुस्तक ‘History of the French Social Movement : From 1789 to the present’ में सन् 1850 में।

प्रश्न 3. फ्रांसीसी क्रान्ति कब हुई थी ?
उत्तर-फ्रांसीसी क्रान्ति 1789 में हुई थी।

प्रश्न 4. सामाजिक आंदोलन का एक आवश्यक तत्त्व बताएं।
उत्तर-सामूहिक चेतना सामाजिक आंदोलन का एक आवश्यक तत्त्व है।

प्रश्न 5. सामाजिक आंदोलन का मुख्य उद्देश्य क्या होता है ?
उत्तर-प्राचीन व्यवस्था को बदल कर नई व्यवस्था स्थापित करना।

प्रश्न 6. कौन से आंदोलन में तेजी से परिवर्तन आता है ?
उत्तर-क्रान्तिकारी आंदोलन में तेजी से परिवर्तन आता है।

प्रश्न 7. सत्यशोधक समाज किसने तथा कब शुरू किया था ?
उत्तर-सत्यशोधक समाज ज्योतिराव फूले ने 1873 में शुरू किया था।

प्रश्न 8. सत्यशोधक समाज का मुख्य मुद्दा क्या था ?
उत्तर-सत्यशोधक समाज का मुख्य मुद्दा प्रत्येक प्रकार से ब्राह्मणों की सत्ता का खात्मा करना था।

प्रश्न 9. श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन कब, कहाँ तथा किसने शुरू किया था ?
उत्तर-श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन श्री नारायण गुरु ने 1895 में केरल में शुरू किया था।

प्रश्न 10. श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन क्यों शुरू किया गया था
उत्तर-इज़ावा जाति की सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने के लिए तथा अस्पृश्यता जैसी बुराई को दूर करने के लिए।

प्रश्न 11. आत्म-सम्मान आन्दोलन किसने, कब तथा कहाँ शुरू किया था ?
उत्तर-आत्म-सम्मान आन्दोलन पैरियार ई० वी० रामास्वामी ने 1925 में तमिलनाडु में शुरू किया था।

प्रश्न 12. आत्म-सम्मान आन्दोलन का मुख्य मुद्दा क्या था ?
उत्तर- इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा जाति आधारित समाज में पिछड़ी जातियों में आत्म सम्मान की भावना को जगाना था।

प्रश्न 13. डॉ० अंबेदकर ने कब तथा कौन-सा धर्म अपना लिया था ?
उत्तर-डॉ० अंबेदकर ने 1956 ई० में बौद्ध धर्म अपना लिया था।

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प्रश्न 14. वर्ग आधारित आन्दोलन में क्या कुछ शामिल होता है ?
उत्तर-वर्ग आधारित आन्दोलन में श्रमिकों के आन्दोलन तथा किसानों के आन्दोलन शामिल होते हैं।

प्रश्न 15. मज़दूर महाजन संघ की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर- मज़दूर महाजन संघ की स्थापना महात्मा गांधी ने की थी।

प्रश्न 16. अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना कब तथा कहाँ हुई थी ? ।
उत्तर-इसकी स्थापना 1920 में बंबई में हुई थी तथा लाला लाजपत राय इसके प्रथम प्रधान थे।

प्रश्न 17. 1866-68 में नील विद्रोह कहाँ हुआ था ?
उत्तर-1866-68 में नील विद्रोह दरभंगा तथा चंपारन में हुआ था।

प्रश्न 18. किसान आन्दोलन मुख्य रूप से कहाँ शुरू हुए थे ?
उत्तर-किसान आन्दोलन मुख्य रूप से पंजाब में शुरू हुआ था।

प्रश्न 19. सती प्रथा को किसने खत्म करवाया था ?
उत्तर-सती प्रथा को राजा राम मोहन राय ने लार्ड विलियम बैंटिंक की सहायता से शुरू करवाया था।

प्रश्न 20. SEWA बैंक कब शुरू हुआ था ?
उत्तर-SEWA बैंक 1974 में शुरू हुआ था।

प्रश्न 21. चिपको आन्दोलन कब तथा कहाँ शुरू हुआ था ?
उत्तर-चिपको आन्दोलन गढ़वाल क्षेत्र में मार्च 1973 में शुरू हुआ था।

प्रश्न 22. चिपको आन्दोलन के प्रमुख नेता कौन थे ?
उत्तर-चण्डी प्रसाद भट्ट, गौरा देवी व सुन्दर लाल बहुगुणा इसके प्रमुख नेता थे।

प्रश्न 23. एपीको आन्दोलन कब तथा कहाँ शुरू हुआ था ?
उत्तर-एपीको आन्दोलन कर्नाटक में सितंबर 1983 में शुरू हुआ था।

प्रश्न 24. नर्मदा बचाओ आन्दोलन कहाँ तथा क्यों शुरू हुआ था ?
उत्तर- यह गुजरात में पर्यावरण को बचाने के लिए तथा लोगों को बसाने के लिए शुरू हुआ था।

III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक आन्दोलन क्या होते हैं ?
अथवा
सामाजिक आन्दोलन।
उत्तर-
समाज के कुछ अनावश्यक हालात होते हैं जो सदियों से चले आ रहे होते हैं। इन स्थितियों में कुछ लोग इकट्ठे होकर सामाजिक व्यवस्था को बदलने का सामूहिक प्रयास करते हैं। इन सामूहिक प्रयासों को ही सामाजिक आन्दोलन कहते हैं। आन्दोलन के सदस्य अलग-अलग ढंगों से संबंधित मुद्दे सामने लाने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक आन्दोलन की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  • सामूहिक चेतना सामाजिक आन्दोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है। लोगों के बीच चेतना जागती है तो ही आन्दोलन जन्म लेता है।
  • सामाजिक आन्दोलन एक विचारधारा के साथ चलता है। बिना निश्चित विचारधारा के आन्दोलन नहीं चल सकता।

प्रश्न 3.
सत्यशोधक आन्दोलन।
उत्तर-
यह एक गैर-ब्राह्मण आन्दोलन था जिसे ज्योतिबा फूले ने सत्यशोधक समाज के माध्यम से चलाया था। उनका कहना था कि ब्राह्मणों ने परंपरा के आधार पर अपनी सत्ता स्थापित की हुई है। इसलिए इनकी प्रत्येक प्रकार की सत्ता खत्म होनी चाहिए तथा निम्न जातियों को ऊपर उठाया जाना चाहिए।

प्रश्न 4.
श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन।
उत्तर-
इस आन्दोलन को श्री नारायण गुरु ने केरल में चलाया था। वह स्वयं इज़ावा समुदाय से संबंध रखते थे जिसे निम्न जाति समझा जाता था। वह अस्पृश्यता को खत्म करना चाहते थे तथा ऐसे मन्दिरों का निर्माण करना चाहते थे जो सभी समुदायों के लिए खुले हों।

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प्रश्न 5.
आत्म सम्मान आन्दोलन।
उत्तर-
इस आन्दोलन को 1925 में पैरीयार स्वामी ने तमिलनाडु में चलाया था। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य जाति आधारित समाज में पिछड़ी जातियों को ऊँचा उठाना तथा उनके लिए आत्म-सम्मान उत्पन्न करना था। उन्होंने कर्म व धर्म जैसे सामाजिक सिद्धान्त के विरुद्ध आन्दोलन चलाया था।

प्रश्न 6.
महार जाति।
उत्तर-
महार जाति महाराष्ट्र की एक निम्न जाति थी। बौद्ध धर्म को अपनाने से पहले यह वहां की जनसंख्या का बहुत बड़ा समूह था। महार लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थिति काफ़ी निम्न थी। वह महाराष्ट्र में ही अलग रहते थे तथा यह माना जाता था कि उनके स्पर्श करने से अन्य लोग अपवित्र हो जाएंगे। वह निम्न स्तर के कार्य करते थे।

प्रश्न 7.
नील आन्दोलन।
उत्तर-
मुख्य रूप से नील आन्दोलन बिहार के दरभंगा तथा चंपारन जिलों में चला था क्योंकि अंग्रेज़ नील उगाने वाले किसानों का काफ़ी शोषण करते थे। उनसे जबरदस्ती नील उगवाया जाता था तथा नील सस्ते दामों पर खरीदा जाता था। इस शोषण से दुखी होकर वहां के किसानों ने आंदोलन चलाए थे।

प्रश्न 8.
ब्रह्मो समाज।
उत्तर-
ब्रह्मो समाज को राजा राम मोहन राय ने 1828 में कलकता में शुरू किया था। वह आधुनिक पश्चिमी विचारों से काफी प्रभावित थे। ब्रह्मो समाज सती प्रथा के विरुद्ध था जिस कारण इनके प्रयासों की वजह से अंग्रेज़ी सरकार ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इसने स्त्रियों की शिक्षा तथा सम्पत्ति अधिकार पर भी बल दिया।

प्रश्न 9.
पर्यावरण आन्दोलन।
उत्तर-
हमारे देश में पर्यावरण को खराब होने से बचाने के लिए समय-समय पर कई आन्दोलन चले। इस आन्दोलन में बहुत से लोगों ने इकट्ठे भाग लिया तथा पर्यावरण को दूषित होने से बचाया। चिपको आन्दोलन, एपिको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन इसकी प्रमुख उदाहरणें हैं जिनसे पर्यावरण को खराब होने से बचाया गया।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
समाज सुधार आंदोलनों की मदद से हम क्या परिवर्तन ला सकते हैं ?
उत्तर-
भारत एक कल्याणकारी राज्य है जिसमें हर किसी को समान अवसर उपलब्ध होते हैं। पर कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य जनता के जीवन को सुखमय बनाना है, पर यह तभी संभव है अगर समाज में फैली हुई कुरीतियों तथा अंध-विश्वासों को दूर कर दिया जाए। इनको दूर सिर्फ समाज सुधारक आंदोलन ही कर सकते हैं। सिर्फ कानून बनाकरकुछ हासिल नहीं हो सकता। इसके लिए समाज में सुधार ज़रूरी हैं। कानून बना देने से सिर्फ कुछ नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बच्चों से काम न करवाना इन सभी के लिए कानून हैं पर ये सब चीजें आम हैं। हमारे समाज के विकास में ये चीजें सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। अगर हमें समाज का विकास करना है तो हमें समाज सुधार आंदोलनों की जरूरत है। इसलिए हम समाज सुधार आंदोलनों के महत्त्व को भूल नहीं सकते।

प्रश्न 2.
सामाजिक आंदोलन की कोई चार विशेषताएं बताओ।
अथवा सामाजिक आंदोलन के दो लक्षण बताएँ।
उत्तर-

  • सामाजिक आंदोलन हमेशा समाज विरोधी होते हैं।
  • सामाजिक आंदोलन हमेशा नियोजित तथा जानबूझ कर किया गया प्रयत्न है।
  • इसका उद्देश्य समाज में सुधार करना होता है।
  • इसमें सामूहिक प्रयत्नों की ज़रूरत होती है क्योंकि एक व्यक्ति समाज में परिवर्तन नहीं ला सकता।

प्रश्न 3.
सामाजिक आंदोलन की किस प्रकार की प्रकृति होती है ?
उत्तर-

  • सामाजिक आंदोलन संस्थाएं नहीं होते हैं क्योंकि संस्थाएं स्थिर तथा रूढ़िवादी होती हैं तथा संस्कृति का ज़रूरी पक्ष मानी जाती हैं। यह आंदोलन अपना उद्देश्य पूरा होने के बाद खत्म हो जाते हैं।
  • सामाजिक आंदोलन समितियां भी नहीं हैं क्योंकि समितियों का एक विधान होता है। यह आंदोलन तो अनौपचारिक, असंगठित तथा परंपरा के विरुद्ध होता है।
  • सामाजिक आंदोलन दबाव या स्वार्थ समूह भी नहीं होते बल्कि यह आंदोलन सामाजिक प्रतिमानों में बदलाव की मांग करते हैं।

प्रश्न 4.
सामाजिक आंदोलन के स्तरों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • सामाजिक आंदोलन के पहले स्तर पर जनता में असन्तोष होता है। बिना असन्तोष के आन्दोलन नहीं चल सकता। इसे अशांति का स्तर भी कहा जा सकता है।
  • इस स्तर को popular stage भी कह सकते हैं क्योंकि लोगों का असन्तोष उन्हें इकट्ठा कर देता है। लोगों का नेता उनकी समस्याएं दूर करने का वायदा करता है।
  • तीसरा स्तर रस्मीकरण की प्रक्रिया है। संगठन अपनी विचारधारा बताता है तथा अगर इसे मान लिया जाता है तो सामूहिक प्रयास किया जाता है। इसे आन्दोलन की शुरुआत भी कह सकते हैं।
  • चौथा स्तर संस्थाकरण का होता है तथा आन्दोलन के बीच बस जाता है। आन्दोलन के उद्देश्य को समाज द्वारा मान लिया जाता है।
  • पाँचवां स्तर आन्दोलन का खात्मा है। कई बार उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् आन्दोलन खत्म हो जाता है या कई बार आन्दोलन अपने आप ही खत्म हो जाता है।

प्रश्न 5.
सत्यशोधक आन्दोलन।
उत्तर-
सत्यशोधक आन्दोलन एक गैर-ब्राह्मण आन्दोलन था। इसका प्रतिनिधित्व सत्यशोधक समाज ने किया जिसे 1873 में ज्योतिराव फूले ने शुरू किया था। वह माली जाति से संबंध रखते थे। इस जाति के अधिकतर सदस्य माली थे जो फूल, फल तथा सब्जियाँ उगाते थे। फूले तथा उनके साथियों का कहना था कि महाराष्ट्र के लोगों का विभाजन दो ढंग से होता था। एक तरफ ब्राह्मण थे तथा दूसरी तरफ पिछड़ी जातियों के लोग थे। ब्राह्मण लोग अपनी परंपरागत सत्ता तथा ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान प्राप्त नई सत्ता के आधार पर समाज का विभाजन कर देते थे। इस आन्दोलन की विचारधारा इस विचार पर टिकी थी कि ब्राह्मणों की प्रत्येक प्रकार की सत्ता को खत्म कर दिया जाए। निम्न जातियों के उत्थान की यह सबसे पहली तथा आवश्यक शर्त थी।

प्रश्न 6.
श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन।
उत्तर-
श्री नारायण धर्म परिपालना आन्दोलन को श्री नारायण गुरु ने 1893 में केरल में शुरू किया था। श्री नारायण गुरु स्वयं इज़ावा समुदाय से संबंध रखते थे। इज़ावा जाति को अशुद्ध जाति समझा जाता था। इज़ावा लोगों को मूर्ति पूजा तथा जानवरों की बलि देने की आज्ञा नहीं थी। इस आंदोलन में दो मुख्य बिंदुओं पर ध्यान दिया गया। पहला बिन्दु था अस्पृश्यता का खात्मा तथा दूसरा था ऐसे मंदिरों का निर्माण करना जो सभी जातियों के लिए खुले हों। उन्होंने विवाह, धार्मिक पूजा पाठ तथा अंतिम संस्कार से संबंधित नियम बनाने का भी प्रयास किया। उन्होंने एक नया नारा भी दिया, “सम्पूर्ण मानवता के लिए एक धर्म तथा एक भगवान्।”

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प्रश्न 7.
आत्म-सम्मान आन्दोलन।
उत्तर-
1925 में पैरियार ई० वी० रामास्वामी ने तमिलनाडु में आत्म-सम्मान आन्दोलन की शुरुआत की। इस आन्दोलन का उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना था जिसमें पिछड़ी जातियों के लोगों के पास भी समान अधिकार हो। इस आन्दोलन का एक अन्य उद्देश्य पिछड़ी जातियों के लिए जाति आधारित समाज में आत्म सम्मान की स्थापना करना था। तमिलनाडु में यह आन्दोलन काफ़ी प्रभावशाली रहा। इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा आर्थिक व सामाजिक समानता स्थापित करना था। इस आन्दोलन ने धर्म तथा कर्म के नाम पर चल रही सामाजिक बुराइयों को खत्म करने की तरफ भी ध्यान केन्द्रित किया। पैरियार ने यह भी कहा कि इस आन्दोलन का संस्थाकरण किया जाना चाहिए ताकि अपने उद्देश्य प्राप्त किए जा सकें।

प्रश्न 8.
नील आन्दोलन।
उत्तर-
हमारे देश में किसान विद्रोह अंग्रेजों के समय से चले आ रहे हैं। नील विद्रोह 1859-60 में बंगाल में शुरू हुआ था। नील की कृषि पर यूरोप के लोगों का आधिपत्य था। यूरोप में नील की काफ़ी माँग थी जिस कारण इसकी कृषि में काफ़ी लाभ था। किसानों को गेहूँ, चावल के स्थान पर नील उगाने के लिए बाध्य किया जाता था तथा उनका कई ढंग से शोषण किया जाता था। 1859 में किसानों ने हथियारबंद विद्रोह कर दिया क्योंकि अब वह शारीरिक अत्याचार नहीं सहन कर सकते थे। बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग ने उनका लड़ाई में साथ दिया। सरकार ने एक कमीशन भी बनाया ताकि व्यवस्था में से उनका शोषण कम किया जा सके। परन्तु किसानों का विरोध जारी रहा। 1866-68 में दरभंगा तथा चंपारन के नील किसानों ने बड़े स्तर पर विद्रोह भी किया।

प्रश्न 9.
ब्रह्मो समाज।
उत्तर-
राजा राम मोहन राय को आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है तथा उन्होंने 1828 ई० में ब्रह्मो समाज का गठन किया था। वह काफ़ी पढ़े-लिखे तथा समझदार व्यक्ति थे तथा उन्हें एक दर्जन से अधिक भाषाएं आती थी। ब्रह्मो समाज आधुनिक पश्चिमी विचारों से काफी प्रभावित थे। उन दिनों में सती प्रथा काफ़ी चल रही थी। उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा कहा कि इस प्रथा का जिक्र धार्मिक ग्रन्थों में है ही नहीं। इसलिए उन्होंने उस समय के गवर्नर-जनरल को इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करने के लिए प्रेरित किया जिस कारण 1829 में ‘सती प्रथा निषेध अधिनियम पास किया गया। इस समाज ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए उनकी शिक्षा पर काफ़ी बल दिया। इस समाज ने उन विधवा स्त्रियों की स्थिति सुधारने की तरफ बल दिया जो काफ़ी बुरे हालातों में जी रही थी। इस समाज ने स्त्रियों के लिए उत्तराधिकार तथा उनके लिए सम्पत्ति की भी माँग की।’

प्रश्न 10.
एपीको आन्दोलन क्या है ?
उत्तर-
उत्तराखण्ड के इलाकों में चिपको आन्दोलन चला था जिससे प्रभावित होकर कर्नाटक के एक जिले के किसानों ने वृक्षों को बचाने के लिए उस प्रकार का आन्दोलन चलाया। दक्षिण भारत में इस प्रकार के आन्दोलन को एपीको आन्दोलन का नाम दिया गया। कर्नाटक की स्थानीय भाषा में इसे आलिंगन या एपीको कहा जाता है। सितंबर 1983 में सलकानी क्षेत्र के लोगों ने पाण्डुरंग हेगड़े की अगुवाई में कालस जंगल के पेड़ों के आलिंगन किया। यह आन्दोलन दक्षिण भारत में फैल गया। इस आंदोलन में लोगों को जागृत करने के लिए कई तरीकों को अपनाया गया जैसे कि लोक-नाच, नुक्कड़ नाटक इत्यादि। इस आन्दोलन को काफी हद तक सफलता भी मिल गई तथा राज्य सरकार ने बहुत से जंगलों में हरे वृक्षों की कटाई पर प्रतिबन्ध लगा दिया। केवल सूखे वृक्षों को स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही काटा जा सकता था।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में चले स्त्री आन्दोलन की व्याख्या करें।
उत्तर-
भारतीय समाज में समय-समय पर अनेक ऐसे आंदोलन शुरू हुए हैं जिनका मुख्य उद्देश्य स्त्रियों की दशा में सुधार करना रहा है। भारतीय समाज एक पुरुष-प्रधान समाज है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं ने अपने शोषण, उत्पीड़न इत्यादि के लिए अपनी स्थिति में सुधार के लिए आवाज़ उठाई है। पारंपरिक समय से ही महिलाएं बाल-विवाह, सती-प्रथा, विधवा विवाह पर रोक, पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का शिकार होती आई हैं। महिलाओं को इन सब शोषणात्मक कुप्रथाओं से छुटकारा दिलवाने के लिए देश के समाज सुधारकों ने समय-समय पर आंदोलन चलाए हैं।

इन आंदोलनों में समाज सुधारक तथा उनके द्वारा किए गए प्रयास सराहनीय रहे हैं। इन आंदोलनों की शुरुआत 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही हो गई ती। राजा राजमोहन राय, दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ऐनी बेसेंट इत्यादि का नाम इन समाज सुधारकों में अग्रगण्य है। सन् 1828 में राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना तथा 1829 में सती प्रथा अधिनियम का बनाया जाना उन्हीं का प्रयास रहा है। स्त्रियों के शोषण के रूप में पाए जाने वाले बाल-विवाह पर रोक तथा विधवा पुनर्विवाह को प्रचलित कराने का जनमत भी उन्हीं का अथक प्रयास रहा है। इसी तरह महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी ने भी कई ऐसे ही प्रयास किए जिनका प्रभाव महिलाओं के जीवन पर सकारात्मक रूप से पड़ा है। महर्षि कर्वे स्त्री-शिक्षा एवं विधवा पुनर्विवाह के समर्थक रहे। इसी प्रकार केशवचंद्र सेन एवं ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों के अंतर्गत ही 1872 में ‘विशेष विवाह अधिनियम’ तथा 1856 में विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम बना। इन अधिनियमों के आधार पर ही विधवा पुनर्विवाह एवं अंतर्जातीय विवाह को मान्यता दी गई। इनके साथ ही कई महिला संगठनों ने भी महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए कई आंदोलन शुरू किए।

महिला आंदोलनकारियों ही कई महिला संगठनों ने भी महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए कई आंदोलन शुरू किए। महिला आंदोलनकारियों में ऐनी बेसेंट, मैडम कामा, रामाबाई रानाडे, मारग्रेड नोबल आदि की भूमिका प्रमुख रही है। भारतीय समाज में महिलाओं को संगठित करने तथा उनमें अधिकारों के प्रति साहस दिखा सकने का कार्य अहिल्याबाई व लक्ष्मीबाई ने प्रारंभ किया था। भारत में कर्नाटक में पंडिता रामाबाई ने 1878 में स्वतंत्रता से पूर्व पहला आंदोलन शुरू किया था तथा सरोज नलिनी की भी अहम् भूमिका रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व प्रचलित इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप ही अनेक ऐसे अधिनियम पास किए गए जिनका महिलाओं की स्थिति सुधार में योगदान रहा है। इसी प्रयास के आधार पर स्वतंत्रता पश्चात् अनेक अधिनियम बनाए गए जिनमें 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 का हिंदू उत्तराधिकार का अधिनियम एवं 1961 का दहेज निरोधक अधिनियम प्रमुख रहे हैं। इन्हीं अधिनियमों के तहत स्त्री-पुरुष को विवाह के संबंध में समान अधिकार दिए गए तथा स्त्रियों को पृथक्करण, विवाह-विच्छेद एवं विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति प्रदान की गई है। इसी प्रकार संपूर्ण भारतीय समाज में समय-समय पर और भी ऐसे कई आंदोलन चलाए गए हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य स्त्रियों को शोषण का शिकार होने से बचाना रहा है।

वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष के समाज स्थान व अधिकार पाने के लिए कई आंदोलनों के माध्यम से एक लंबा रास्ता तय करके ही पहुँच पाई है। समय-समय पर राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा महिला संगठनों के प्रयासों के आधार पर ही वर्तमान महिला जागृत हो पाई है। इन सब प्रथाओं के परिणामस्वरूप ही 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया गया। इसके साथ ही विभिन्न राज्यों में महिला विकास निगम (Women Development Council (WDC) का निर्माण किया गया है जिसका उद्देश्य महिलाओं को तकनीकी सलाह देना तथा बैंक या अन्य संस्थाओं से ऋण इत्यादि दिलवाना है। वर्तमान समय में अनेक महिलाएं सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्रों में कार्यरत हैं। आज स्त्री सभी वह कार्य कर रही है जो कि एक पुरुष करता है। महिलाओं के अध्ययन के आधार पर भी वह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान समय में महिला की परिस्थिति, परिवार में भूमिका, शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, राजनीतिक एवं कानूनी भागीदारी में काफ़ी परिवर्तन आया है।

आज महिला स्वतंत्र रूप से किसी भी आंदोलन, संस्था एवं संगठन से अपने आप को जोड़ सकती है। महिलाओं की विचारधारा में इस प्रकार के परिवर्तन अनेक महिला स्थिति सुधारक आंदोलनों के परिणामस्वरूप ही संभव हो पाए हैं। आज महिला पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती हैं तथा इसके साथ ही महिला सभाओं एवं गोष्ठियों का भी संचालन किया जा रहा है जिसका प्रभाव महिला की स्थिति पर पूर्ण रूप से सकारात्मक पड़ रहा है।
विभिन्न महिला आंदोलनों ने न केवल महिलाओं की स्थिति सुधार में ही भूमिका निभाई है, बल्कि इन आंदोलनों के आधार पर समाज में अनेक परिवर्तन भी आए हैं, अतः महिला आंदोलन परिवर्तन का भी एक उपागम रहा है।

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प्रश्न 2.
कामगारों के आंदोलन का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
कामगारों का आंदोलनों तथा कृषक आंदोलन वर्ग पर आधारित दो महत्त्वपूर्ण आंदोलन रहे हैं। भारतवर्ष में कारखानों के आधार पर उत्पादन सन् 1860 से प्रारंभ हुआ था। औपनिवेशिक शासन काल में यह व्यापार का एक सामान्य तरीका था जिसमें कच्चे माल का उत्पादन भारतवर्ष में किया जाता था। कच्चे माल से वस्तुएं निर्मित की जाती थीं तथा उन्हें उपनिवेश में बेचा जाता था। प्रारंभिक काल में इन कारखानों को बंदरहगाह वाले शहरों जैसे बंबई एवं कलकत्ता में स्थापित किया गया तथा उसके पश्चात् धीरे-धीरे यह कारखाने मद्रास इत्यादि बड़े शहरों में भी स्थापित कर दिए गए।

औपनिवेशक काल के प्रारंभ में सरकार ने मजदूरों के कार्यों एवं वेतन को लेकर किसी भी प्रकार की कोई योजना नहीं बनाई थी जिसके फलस्वरूप उस काल में मज़दूरी बहुत सस्ती थी। लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ कामगारों ने अपने शोषण को देखते हुए सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया था अर्थात् मज़दूर संघ भी विकसित हुए लेकिन विरोध पहले से ही प्रारंभ हो चुका था। देश में कुछ एक राष्ट्रवादी नेताओं ने उपनिवेश विरोधी आंदोलनों में मजदूरों को भी शामिल करना प्रारंभ कर दिया था। देश में युद्ध के समय उद्योगों का बड़े स्तर पर विकास तो हुआ लेकिन इसके साथ ही साथ वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो गई जिससे लोगों को खाने की भी कमी हो गई। परिणामस्वरूप हड़तालें होने लगीं तथा बड़े-बड़े उद्योग एवं मिलें बंद हो गईं जैसे बंबई की कपड़ा मिल, कलकत्ता में पटसन कामगारों ने भी अपना काम बंद कर दिया। इसी तरह अहमदाबाद की कपड़ा मिल के कामगारों ने भी 50% वेतन वृद्धि की माँग को लेकर अपना काम बंद कर दिया।

कामगारों के इस विरोध को देखते हुए अनेक मज़दूर संघ स्थापित हुए। देश में पहला मज़दूर संघ सन् 1918 में बी० पी० वाडिया के प्रयास से स्थापित हुआ। उसी वर्ष महात्मा गांधी ने भी टेक्साइल लेबर एसोसिएशन (टी० एल० ए०) की भी स्थापना की। इसी तर्ज पर सन् 1920 में बंबई में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (All India Trade Union Congress), (ए० आई० ई० टी० सी०, एटक) की स्थापना भी की गई । एटक संगटन के साथ विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग संबंधित हुए जिसमें साम्यवादी विचारधारा मुख्य थी और इन विचारधारओं के समर्थक राष्ट्रवादी नेता जैसे लाला लाजपत राय तथा पं० जवाहर लाल नेहरू जैसे लोग भी शामिल थे।

एटक एक ऐसा संगठन उभर कर सामने आया जिसने औपनिवेशिक सरकार को मज़दूरों के प्रति व्यवहार को लेकर जागरूक कर दिया तथा फलस्वरूप कुछ रियासतों के आधार पर मजदूरों ने पनपे असंतोष को कम करने का प्रयास किया। इसके साथ ही सरकार ने सन् 1922 में चौथा कारखाना अधिनियम पारित किया जिसके अंतर्गत मज़दूरों की कार्य अवधि को घटाकर दस घंटे तक निर्धारित कर दिया। सन् 1926 में मज़दूर संघ अधिनियम के तहत मज़दूर संघों के पंजीकरण का भी प्रावधान किया गया। ब्रिटिश शासन काल के अंत तक कई संघों की स्थापना हो चुकी थी तथा साम्यवादियों ने एटक पर काफ़ी नियंत्रण भी पा लिया था।

राष्ट्रीय स्तर पर कामगार वर्ग के आंदोलन के फलस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् क्षेत्रीय दलों ने भी अपने स्वयं के कई संघों का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया। सन् 1966-67 जो कि अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर था, में उत्पादन एवं रोज़गार दोनों में कमी आई जिसके परिणामस्वरूप सभी ओर असंतोष ही असंतोष था। इसके कई उदाहरण सामने थे जैसे 1974 में रेल कर्मचारियों की बहुत बड़ी हड़ताल, 1975-77 में आपात्काल के दौरान सरकार ने मज़दूर संघों की गतिविधियों पर रोक लगा दी। धीरे-धीरे भूमंडलीकरण के प्रभाव के परिणामस्वरूप कामगारों को स्थिति में काफ़ी परिवर्तन हो रहे हैं जोकि कामगारों की स्थिति में सुधारात्मक परिवर्तन हैं। इन सुधारात्मक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ही देश की अर्थव्यवस्था को एक मज़बूत आधार मिल सकता है।

सामाजिक आन्दोलन PSEB 12th Class Sociology Notes

  • अगर हम सभी समाजों को ध्यान से देखें तो हमें बहुत सी समस्याएं मिल जाएंगी। इन सामाजिक समस्याओं को सामने लाने तथा खत्म करने में सामाजिक आंदोलन काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • समाज में बहुत सी अनावश्यक स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जिनसे समाज के हालात खराब हो जाते हैं। इन
    अनावश्यक स्थितियों को दूर करने के लिए कुछ संगठित यत्नों की आवश्यकता होती है जिन्हें सामाजिक आंदोलन कहा जाता है।
  • सामाजिक आंदोलन की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि इसमें सामूहिक चेतना होती है, इसमें संगठित प्रयास होते हैं, इनमें एक पक्की विचाराधारा होती है, ये परिवर्तन लाने के पक्ष में होते हैं, इनसे नई सामाजिक व्यवस्था सामने आती है, यह हिंसात्मक व अहिंसात्मक हो सकते हैं इत्यादि।
  • सामाजिक आंदोलनों के कई प्रकार होते हैं जैसे कि सुधारवादी, क्रान्तिकारी, रुत्थानवादी आंदोलन। सुधारवादी
    आंदोलन पूर्ण समाज को बदले बिना कुछ परिवर्तन लाना चाहते हैं। क्रान्तिकारी आंदोलन सम्पूर्ण समाज को परिवर्तित करने के लिए चलाए जाते हैं। रुत्थानवादी आंदोलन प्राचीन मूल्यों को दोबारा स्थापित करने के लिए चलाए जाते हैं।
  • हमारे समाज में समय-समय पर कई आंदोलन चले। जाति आधारित आंदोलन उन आंदोलनों में से एक था।
    जाति आधारित आंदोलन निम्न जातियों के संघर्ष को सामने लाने की कहानी है। ज्योतिबा फूले, श्री नारायण गुरु, पैरियार रामास्वामी, डॉ० बी० आर० अम्बेडकर ने निम्न जातियों के उत्थान के लिए देश के अलग-अलग भागों में कई आंदोलन चलाए थे।
  • वर्ग आंदोलन में कार्य करने वाले श्रमिकों व किसानों को शामिल किया जाता है। श्रमिक तथा किसान दोनों ही शोषण से छुटकारा चाहते थे जिस कारण इनके लिए आंदोलन चले थे। समय-समय पर श्रमिक संघ आंदोलन भी चले जिनका मुख्य उद्देश्य उद्योगों में कार्य करते श्रमिकों के लिए अच्छे हालातों तथा अच्छे वेतन की मांग करना था।
  • स्त्रियों को भी सदियों से दबाया जा रहा था। उनकी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए समय-समय पर कई आंदोलन चलाए गए। उन्नीसवीं शताब्दी में राजा राम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, डी० के० कार्वे इत्यादि ने कई स्त्री आंदोलन चलाए जिनसे उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार होने लगा।
  • देश में कई पर्यावरण आंदोलन भी चले जिनका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण को बचाना था। चिपको आंदोलन, ऐपिको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन पर्यावरण आंदोलन के ही प्रकार हैं।
  • सुधारवादी आन्दोलन (Reformist Movements)—वे आन्दोलन जो परम्परागत मान्यताओं में सुधार लाने के लिए चलाए गए थे।
  • क्रान्तिकारी आन्दोलन (Revolutionary Movements)—वह आन्दोलन जो समाज में अचानक परिवर्तन लाए जिससे समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाए।
  • विचारधारा (Ideology)-विचारधारा एक समूह की तरफ से रखे गए विचारों का एकत्र है।
  • औपचारिक संगठन (Formal Organisations)—वे संगठित समूह जिनके नियम, उद्देश्य औपचारिक रूप से बनाए जाते हैं तथा उनके सदस्यों को निश्चित भूमिकाएं दी जाती हैं।
  • पुनरुत्थानवादी आन्दोलन (Revivalist Movements)—वे आन्दोलन जो प्राचीन मूल्यों को दोबारा स्थापित करने के लिए चलाए जाते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 7 पश्चिमीकरण एवं संस्कृतिकरण

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 7 पश्चिमीकरण एवं संस्कृतिकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 7 पश्चिमीकरण एवं संस्कृतिकरण

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विश्वास में परिवर्तन कहलाता है:
(क) संरचनात्मक परिवर्तन
(ख) सांस्कृतिक परिवर्तन
(ग) दोनों
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(क) संरचनात्मक परिवर्तन।

प्रश्न 2.
परिवर्तन की सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ हैं:
अथवा
इनमें से कौन-सा सांस्कृतिक परिवर्तन का संसाधक है ?
अथवा
इनमें से कौन-सी परिवर्तन की सांस्कृतिक प्रक्रियाएं हैं ?
(क) पश्चिमीकरण
(ख) संस्कृतिकरण
(ग) दोनों
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(ग) दोनों।

प्रश्न 3.
वह कौन-सी प्रक्रिया है जिसके द्वारा जातीय पदक्रमानुसार व्यवस्था में परम्परागत रूप से निम्न पद प्राप्त जाति उच्च पद प्राप्त करने का प्रयास करती है:
(क) पश्चिमीकरण
(ख) सांस्कृतिकरण
(ग) आधुनिकीकरण
(घ) वैश्वीकरण।
उत्तर-
(ख) सांस्कृतिकरण।

प्रश्न 4.
यह कथन किसने दिया है “पश्चिमीकरण ब्रिटिश शासन के 150 वर्षों से अधिक राज्य के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में धीरे-धीरे आए परिवर्तन हैं और ये वे परिणाम हैं जो विभिन्न क्षेत्रों, तकनीक, संस्थाओं, विचारधाराओं व मूल्यों में हुए हैं।”
(क) योगेन्द्र सिंह
(ख) एम० एन० श्रीनिवास
(ग) के० एल० शर्मा
(घ) उपर्युक्त में कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) एम० एन० श्रीनिवास।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. ब्रिटिश व भारतीय को ……………….. के वाहक माना जाता है।
2. ………… का अर्थ जाति, धर्म, आर्थिक स्तर, आयु व लिंग का भेदभाव किए बिना सबका कल्याण करना है।
3. जाति के प्रबल होने के लिए इसमें ………………….. और ……………….. शामिल हैं।
4. केवल ………………… अनुकरणीय का विषय नहीं है।
उत्तर-

  1. पश्चिमीकरण
  2. सुधार आंदोलन
  3. अधिक भूमि, अधिक संख्या, उच्च स्थिति
  4. ब्राह्मण।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. भारत में पश्चिमीकरण का रूप व स्थान एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र व जनसंख्या के एक भाग से दूसरे भाग तक एक जैसा है।
2. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं।
3. संस्कृतिकरण ऐसी प्रक्रिया है जहाँ ऊर्ध्वगामी गतिशीलता होती है जिसमें व्यक्ति निम्न स्तर की ओर जाता है।
4. एक जाति को प्रबल होने के लिए इसके पास स्थानीय स्तर पर हल चलने योग्य उचित आकार की कमी है।
उत्तर-

  1. गलत
  2. सही
  3. गलत
  4. गलत।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ —कॉलम ‘बी’
पदक्रमानुसार — संदर्भ समूह
उच्च जाति — पद परिवर्तन
संस्कृतिकरण — दर्जों की श्रेणी बद्धता
पश्चिमीकरण — सर्वकल्याण
मानवतावाद — मूल्यों की प्राथमिकता।
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ —कॉलम ‘बी’
पदक्रमानुसार — दर्जों की श्रेणी बद्धता
उच्च जाति — संदर्भ समूह
संस्कृतिकरण — पद परिवर्तन
पश्चिमीकरण — मूल्यों की प्राथमिकता।
मानवतावाद — सर्वकल्याण

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. किसी जाति द्वारा पदानुसार व्यवस्था में उच्च पद प्राप्त करने की प्रक्रिया क्या कहलाती है ?
उत्तर-इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते हैं।

प्रश्न 2. किसी एक ऐसी प्रक्रिया का नाम लिखें, जिसके द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन होते हैं।
उत्तर-पश्चिमीकरण।

प्रश्न 3. किस काल को पश्चिमीकरण के आरम्भ का सूचक माना जा सकता है ?
उत्तर-ब्रिटिश काल को।

प्रश्न 4. अनुसरण की प्रक्रिया द्वारा किस प्रकार की उर्धगामी गतिशीलता संभव होती है ?
उत्तर-संस्कृतिकरण।

प्रश्न 5. कौन-सी सांस्कृतिक प्रक्रिया जाति संरचना के बाहर कार्य करती है ?
उत्तर-ब्राह्मणीकरण।

प्रश्न 6. किस समय से पश्चिमीकरण के उद्भव का पता लगाया गया ?
उत्तर-मुग़लों के बाद ब्रिटिश काल से पश्चिमीकरण के उद्भव का पता लगाया गया।

प्रश्न 7. पश्चिमीकरण प्रक्रिया के वाहक किसे कहा गया है ?
उत्तर-सिपाही तथा वह लोग जो उच्च पदों पर बैठे थे, व्यापारी, बागों के मालिक, ईसाई मिशनरी इत्यादि।

प्रश्न 8. ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग किसने किया ?
उत्तर-ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग एम० एन० श्रीनिवास ने किया था।

प्रश्न 9. ब्रिटिश काल के कोई दो समूहों के नाम लिखें जो पश्चिमीकरण के प्रसार के कार्य में सहायक हुए ?
उत्तर-पढ़े-लिखे भारतीय, समाज सुधारक, ईसाई मिशनरी इत्यादि।

प्रश्न 10. एम० एन० श्रीनिवास द्वारा प्रबल जाति की पहचान का कोई एक मापदण्ड लिखें।
उत्तर-अधिक जनसंख्या, कृषि योग्य अधिक भूमि की मल्कीयत इत्यादि।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
पश्चिमीकरण से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
पश्चिमीकरण।
उत्तर-
एम० एन० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण शब्द का प्रयोग ब्रिटिश राज्य के दौरान भारतीय समाज व संस्कृति में आए परिवर्तनों के लिए किया। उनके अनुसार पश्चिमी देशों की संस्कृति, रहने-सहने के ढंग, खाने-पीने तथा पहरावे इत्यादि के प्रभाव से भारतीय लोगों में बहुत से परिवर्तन आए।

प्रश्न 2.
क्या पश्चिमीकरण सामाजिक सुधार की ओर अग्रसर है ?
उत्तर-
जी हाँ, पश्चिमीकरण सामाजिक सुधार की ओर अग्रसर है क्योंकि यह प्राचीन परम्पराओं को छोड़ कर नई परम्पराओं, मूल्यों इत्यादि को अपनाने को प्रेरित करता है। साथ में यह समाज में व्याप्त कुरीतियों को छोड़ कर नए समाज के निर्माण के भी प्रयास करता है।

प्रश्न 3.
‘संस्कृतिकरण’ से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
संस्कृतिकरण।
उत्तर-
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसके साथ सामूहिक रूप से निम्न जाति उच्च पद प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से उच्च जाति के रीति-रिवाजों, परम्पराओं तथा जीवन के ढंगों को अपना लेती है। इससे एक दो पीढ़ियों के बाद उनकी स्थिति स्वयं ही ऊपर उठ जाती है।

प्रश्न 4.
मानवतावाद से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मानवतावाद का अर्थ है सबका कल्याण चाहे वे किसी भी जाति, आयु, लिंग, धर्म, आर्थिक स्थिति इत्यादि से सम्बन्ध रखते हों। 19वीं शताब्दी के प्रथम उत्तरार्ध में मानवतावाद अंग्रेजों द्वारा लाए गए बहुत से सुधारों का आधार बन गया।

प्रश्न 5.
पश्चिमीकरण के कारण होने वाले परिवर्तनों के विभिन्न स्तरों को दर्शाइए।
उत्तर-
पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के साथ कई प्रकार के परिवर्तन आए जैसे कि जातिगत अंतर कम हो गए, लोग पढ़ने-लिखने लग गए, लोगों के खाने-पीने तथा रहने-सहने के ढंगों में परिवर्तन आ गया, स्त्रियों की स्थिति ऊँची हो गई, सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन आ गए इत्यादि।

IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के लिए विभिन्न पूर्व अपेक्षित धारणाएँ कौन-सी हैं ?
उत्तर-

  • संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में स्थिति परिवर्तन तो होता है परन्तु संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता। समाज की संरचना उस प्रकार बनी रहती है।
  • संस्कृतिकरण में अनुकरण एक आवश्यक तत्त्व है। इसका अर्थ है कि लोग जिस प्रकार अपनी आदर्श जाति को करते हुए देखते हैं, उस प्रकार स्वयं भी करना शुरू कर देते हैं।
  • संस्कृतिकरण ऊर्ध्वगामी गतिशीलता है क्योंकि जब लोग उच्च जाति की जीवन शैली अपना लेते हैं तो एक दो पीढ़ियों के पश्चात् उनकी स्थिति में परिवर्तन आ जाता है।
  • संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन तो आ जाता है परन्तु उसकी जाति में नहीं। उसकी जाति वह ही रहती है।

प्रश्न 2.
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया की व्याख्या करें।
उत्तर-
भारतीय समाजशास्त्री एम० एन० श्रीनिवास ने परम्परागत सामाजिक संरचना में सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए संस्कृतिकरण संकल्प का प्रयोग किया। यह वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामूहिक रूप से निम्न जाति उच्च पद प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से उच्च जाति के रीति-रिवाजों, परम्पराओं, रिवाजों इत्यादि को अपना लेती है। इस प्रक्रिया के द्वारा निम्न जाति के व्यक्ति अपनी स्वयं की परम्पराओं, रिवाजों इत्यादि का भी त्याग कर देते हैं।

प्रश्न 3.
ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा संस्कृतिकरण को प्राथमिकता क्यों दी जाती है ?
उत्तर-
संस्कृतिकरण को ब्राह्मणीकरण पर प्राथमिकता देने का एक कारण था। वास्तव में ब्राह्मणीकरण में निम्न जाति के लोग ब्राह्मण जाति के लोगों के रहने-सहने के तरीकों, खाने-पीने के तरीकों इत्यादि को अपना लेते थे। परन्तु संस्कृतिकरण में ऐसा नहीं है। संस्कृतिकरण में निम्न जाति के लोग अपने क्षेत्र में रहने वाली उच्च जाति के लोगों के रहने-सहने तथा खाने-पीने के तरीकों को अपना लेते हैं तथा यह उच्च जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों में से कोई भी जाति हो सकती थी। इस प्रकार संदर्भ समूह प्रथम तीन जातियों में से कोई भी हो सकती थी। इस तरह संस्कृतिकरण एक खुला तथा बड़ा संकल्प है जबकि ब्राह्मणीकरण एक तंग घेरे वाला संकल्प है।

प्रश्न 4.
पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के वाहकों/साधनों की विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर-
अंग्रेजों के साथ-साथ भारतीयों को भी पश्चिमीकरण के वाहक के रूप में माना जाता है। अंग्रेज़ों के तीन समूह थे जिन्होंने पश्चिमीकरण के विस्तार में सहायता की तथा वे थे-

  • सिपाही तथा वह अफ़सर जो उच्च पदों पर तैनात थे।
  • व्यापारी तथा बागों के मालिक।
  • ईसाई मिशनरी/इनके अतिरिक्त दूसरी तरफ भारतीय भी थे जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के सम्पर्क में थे। वह थे
    • वे भारतीय जो अंग्रेज़ों के रहने-सहने के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आए। इन्होंने या तो अंग्रेज़ों के घरों में कार्य किया या फिर हिंदू धर्म छोड़ कर ईसाई धर्म अपना लिया।
    • वह भारतीय जो अंग्रेजों के साथ अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित हो गए। यह वह थे जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण की, व्यापार करने लग गए या फिर सरकारी नौकरियां करने लगे।

प्रश्न 5.
संस्कृतिकरण व्यवस्था में मात्र परिवर्तन लाती है एवं कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं करती। चर्चा करें।
उत्तर-
यह सत्य है कि इस प्रक्रिया से व्यक्ति की स्थिति में परिवर्तन होता है परन्तु संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तो परिवर्तित हो जाती है परन्तु जाति नहीं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य जाति के रहने-सहने, खाने-पीने के ढंगों को तो अपना लेता है परन्तु अपनी जाति को छोड़ कर दूसरी जाति में शामिल नहीं हो सकता। व्यक्ति को तमाम आयु उस जाति में रहना पड़ता है जिसमें उसने जन्म लिया है। चाहे किसी जनजाति का व्यक्ति किसी जाति के व्यक्ति के जीवन जीने के ढंगों को तो अपना लेता है परन्तु वह जाति का सदस्य नहीं बन सकता।

प्रश्न 6.
पश्चिमीकरण व संस्कृतिकरण में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-

  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का दृष्टिकोण धर्म निष्पक्ष होता है जबकि संस्कृतिकरण में पवित्र अपवित्र का दृष्टिकोण प्रधान होता है।
  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में विकास होता है तथा ऊपर की तरफ गतिशीलता होती है जबकि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अनुकरण (नकल) की वजह से ऊपर की तरफ गतिशीलता होती है।
  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया जाति की संरचना से बाहर अपना कार्य करती है जबकि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया जाति की संरचना के अंदर कार्य करती है।
  • पश्चिमीकरण से सम्पूर्ण समाज की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। जबकि संस्कृतिकरण से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है।

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
पश्चिमीकरण एवं इसकी विशेषताओं पर विस्तारपूर्वक निबन्ध लिखें।
अथवा
पश्चिमीकरण पर नोट लिखो।
अथवा
पश्चिमीकरण की विशेषताओं को विस्तृत रूप में लिखो।
उत्तर-
अंग्रेजों के भारत आने से पहले यहां राजाओं-महाराजाओं का राज्य था। अंग्रेजों ने भारत को राजनीतिक तौर पर एक सूत्र में बांध दिया जिससे भारतीय समाज तथा भारतीय संस्कृति में बहुत से परिवर्तन आए। अंग्रेज़ों ने अपनी सहूलियत के लिए भारतीय सामाजिक संस्थाओं तथा संस्कृति में बहुत से परिवर्तन किए जिससे हमारा सामाजिक जीवन काफ़ी प्रभावित हुआ। चाहे अंग्रेजों से पहले भी बहुत से हमलावर, जैसे कि तुर्क, मुग़ल, मंगोल, इत्यादि भारत में आए
और यहीं पर रह गए। उन्होंने भी भारतीय संस्कृति में अपने अनुसार परिवर्तन किए जैसे कि मुसलमानों की संस्कृति ने भारतीय समाज की संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित किया। परन्तु ब्रिटिश सरकार के प्रयत्नों से भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आए। अंग्रेजों ने यहां पर पश्चिमी संस्कृति के अनुसार परिवर्तन किए। इस तरह पश्चिमीकरण का अर्थ है पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्दर आने से है।

जब पूर्व के देशों जैसे भारत, वर्मा, श्रीलंका इत्यादि, पर पश्चिमी देशों जैसे कि ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस इत्यादि का प्रभाव पड़ता है तो उस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं। पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्तर्गत पूर्वी देशों के रहने-सहने के ढंगों, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में परिवर्तन आ जाता है। पूर्वी देशों के लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता को छोड़ कर पश्चिमी देशों की संस्कृति को अपनाने लग जाते हैं। इस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)-

1. श्रीनिवास (Srinivas) के अनुसार, “मैंने पश्चिमीकरण शब्द को अंग्रेजी राज्य के 150 साल के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में तथा संस्कृति में हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग किया है तथा इस शब्द के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों जैसे तकनीक, संस्थाओं, विचारधाराओं तथा कीमतों इत्यादि में होने वाले परिवर्तन शामिल हैं।”

2. लिंच (Lynch) के अनुसार, “पश्चिमीकरण में पश्चिमी पोशाक” खाने-पीने के तौर तरीके, शैक्षिक विधियां तथा खेलों, कद्रों-कीमतों इत्यादि को शामिल किया जाता है।”

श्रीनिवास का कहना था कि पश्चिमीकरण की प्रक्रिया वह प्रक्रिया होती है जिसमें अंग्रेज़ी शासकों ने भारतीय लोगों के सामाजिक जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने अनुसार परिवर्तन किए। इस प्रक्रिया के कारण भारतीय समाज में मिलने वाली सभी प्रकार की संस्थाओं में परिवर्तन आ गए। अगर हम किसी भी क्षेत्र को देखें जैसे कि शिक्षा तो प्राचीन समय में शिक्षा धर्म पर आधारित होती थी परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव के अन्तर्गत अब यह विज्ञान तथा तर्क पर आधारित है।

इस तरह इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पश्चिमीकरण की धारणा में भारत में होने वाले सभी सामाजिक परिवर्तनों तथा संस्थाओं में नवीनता आ जाती है। यह परिवर्तन पश्चिमी देशों के साथ राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण आए हैं। पश्चिमीकरण के कई आदर्श हो सकते हैं जैसे कि ब्रिटेन, अमेरिका या कोई और यूरोपियन देश। यूरोपियन देशों तथा अमेरिका, कैनेडा इत्यादि देशों में भी पश्चिमीकरण जैसे तत्त्व पाए जाते हैं परन्तु इन देशों की संस्कृतियों की अपनी ही खास विशेषता होती है।

पश्चिमीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Westernization) –

1. पश्चिमीकरण एक जटिल प्रक्रिया है (Westernization is a Complex Process)—पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय संस्कृति के हरेक पक्ष को गहरे रूप से प्रभावित किया है जिससे हमारी जाति व्यवस्था, धर्म, संस्कृति, आदर्शों इत्यादि में काफ़ी परिवर्तन आया है। उदाहरण के लिए पहले लोग ज़मीन पर बैठ कर खाना खाया करते थे परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव में लोग Dinning table पर बैठ कर चम्मच से खाना खाने लग गए हैं। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि किसी भी संस्कृति के आदर्श, विचार इत्यादि आसानी से अपनाए नहीं जा सकते। उनको अपनाने के लिए बहुत-सा समय तथा अपनी ही संस्कृति का विरोध भी जरूरी होता है। इस कारण यह एक जटिल प्रक्रिया है।

2. पश्चिमीकरण की प्रक्रिया अंग्रेजों द्वारा लाई गई संस्कृति है (The process of westernization is the Culture brought by Britishers)-पश्चिमी देशों की प्रक्रिया के प्रभाव से पश्चिमीकरण की प्रक्रिया हमारे देश में आई। अंग्रेज़ों ने अपनी सहूलियत के लिए अपनी संस्कृति को भारत में फैलाना शुरू कर दिया। भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी संस्कृति का बहुत ही प्रभाव पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने लगभग 200 साल तक भारत पर राज किया था। प्राचीन समय में भारत में धार्मिक शिक्षा दी जाती थी परन्तु अंग्रेजों ने उसे बदल कर विज्ञान पर आधारित कर दिया। उन्होंने स्कूलों में समानता की शैक्षिक नीति को अपनाया। उन्होंने शिक्षा में लिंग के आधार पर भेदभाव ख़त्म करने की कोशिश की। उनकी नीतियों के कारण ही उच्च तथा निम्न जातियों ने इकट्ठे मिलकर शिक्षा लेनी शुरू कर दी।

3. यह एक चेतन तथा अचेतन प्रक्रिया है (It is a conscious and unconscious process)-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया चेतन होने के साथ-साथ अचेतन प्रक्रिया भी है। यह अचेतन प्रक्रिया इस तरह है कि व्यक्ति न चाहते हुए भी पश्चिमी प्रभाव के अन्दर आ जाता है क्योकि हम बहुत सी चीज़ों की तरफ अचेतन रूप से आकर्षित हो जाते हैं। पश्चिमी देशों की संस्कृति में बहुत से ऐसे तत्त्व है जिनकी तरफ हम न चाहते हुए भी खिंचे चले जाते हैं। इसी तरह यह एक चेतन प्रक्रिया है क्योंकि बहुत बारी व्यक्ति अपनी इच्छा से ही पश्चिमी संस्कृति को अपनाना शुरू कर देता है क्योंकि व्यक्ति कुछ चीज़ों की तरफ आकर्षित हो जाता है। उदाहरण के लिए हमें विदेशी कपड़े डालना अच्छा लगता है तथा हम अपनी इच्छा से ही उन पोशाकों को डालते हैं।

4. पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण में अन्तर होता है (There is some difference between westernization and modernization)—चाहे बहुत से लोग इन दोनों प्रक्रियाओं का अर्थ एक सा ही लेते हैं परन्तु असल में यह दोनों प्रक्रियाएं अलग-अलग है। इनमें बहुत से अन्तर हैं जैसे कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन आए हैं उन्हें ठीक माना जाता है अर्थात् इस प्रक्रिया को किसी कीमत के साथ जोड़ा जाता है। परन्तु पश्चिमीकरण की प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन आए हैं उनके बारे में हम यह नहीं कह सकते कि वह ठीक है या ग़लत अर्थात् यह एक कीमत रहित प्रक्रिया है।

5. पश्चिमीकरण एक जटिल तथा बहुस्तरीय धारणा है (Westernization is a complex and many layered concept)-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में एक तरफ पश्चिमी तकनीक से लेकर तथा दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक विधि तथा आधुनिक इतिहास लिखने तक काफ़ी बड़ा क्षेत्र शामिल है। पश्चिमीकरण का प्रभाव जीवन के हरेक क्षेत्र पर पड़ा है। इसके कारण जाति संरचना के सभी स्तरों पर परिवर्तन आए हैं। यहां तक कि आदर्श, विचार, धर्म, कला, कद्रों-कीमतें भी इसके प्रभाव के अन्तर्गत आ कर बदल गए हैं। श्रीनिवास के अनुसार यहां तक कि भोजन करने के ढंगों में भी परिवर्तन आ गए हैं। पहले भारत में लोग भूमि पर बैठकर खाना खाते थे तथा भोजन के सम्बन्ध में कई विचार तथा परम्पराएं प्रचलित थी। परन्तु अब लोग कुर्सी, मेज़ पर बैठ कर स्टील के बर्तनों में चम्मच, छुरी, कांटे से खाना खाते हैं। इस तरह जीवन के हरेक पक्ष में परिवर्तन आ गया है।

प्रश्न 2.
‘प्रबल जाति’ पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
प्रबल जाति का संकल्प एम० एन० श्रीनिवास ने दिया था। यह शब्द उन्होंने पहली बार लिखे Essay on the Social System of a Mysore Village में प्रयोग किया था। श्रीनिवास ने इस संकल्प को उस समय बताया जब वह कर्नाटक के मैसूर शहर के नज़दीक रामपुर गाँव का अध्ययन कर रहे थे। प्रबल जाति का अर्थ है गाँव की वह जाति जिसके पास-

  • काफ़ी अधिक कृषि योग्य भूमि स्थानीय स्तर पर मौजूद हो।
  • जनसंख्या काफ़ी अधिक हो तथा।
  • स्थानीय संस्तरण में उच्च स्थान हो। इनके अतिरिक्त कुछ नए कारण भी सामने आ रहे हैं, जैसे कि
  • पश्चिमी शिक्षा।
  • प्रशासन में नौकरियां।
  • नगरीय आय के स्रोत। .

श्रीनिवास का कहना था कि प्रबल जाति केवल रामपुर गाँव तक ही सीमित नहीं थी। यह देश के अन्य गाँवों में भी मौजूद है। परम्परागत रूप से वह जातियां जिनकी जनसंख्या कम होती है, जिनके पास पैसा, अधिक भूमि तथा राजनीतिक सत्ता होती है, गाँव की प्रबल जाति बन जाती है। उनके अनुसार परम्परागत रूप से उच्च जातियों का प्रभाव भी होता है क्योंकि उन्हें तो पश्चिमी शिक्षा तथा उनसे मिलने वाली सुविधाएं भी मिल जाती हैं। पहले जातियों की जनसंख्या का महत्त्व नहीं था परन्तु वयस्क मताधिकार के आने से कई जातियां प्रबल जातियां बन जाती हैं।

श्रीनिवास का कहना था कि चाहे प्रबल जाति के होने के लिए आधार सामने आ रहे हैं परन्तु परम्परागत आधार अभी पूर्णतया खत्म नहीं हुए हैं तथा न ही अधिक जनसंख्या वाली जातियां प्रबल जातियां बन जाती हैं परन्तु मुख्य रूप से प्रबल जाति होने के लिए ऊपर दिए गए आधार ही काफ़ी होते हैं।

प्रश्न 3.
आप सांस्कृतिक परिवर्तन से क्या समझते हैं ? परिवर्तन की दो सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख करें।
उत्तर-
संस्कृति का अर्थ उस सब से है जो व्यक्ति अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के मानसिक तथा बौद्धिक क्षेत्र में से प्राप्त करता है। इस तरह संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है। सबसे पहले हम सांस्कृतिक पिछड़ेपन के बारे में जानेंगे कि यह क्या होता है।

सांस्कृतिक पिछड़ापन शब्द का प्रयोग कई विद्वानों जैसे कि समनर, आगबर्न, लेयर इत्यादि ने अपनी पुस्तकों में किया है। असल में शब्द सांस्कृतिक पिछड़ेपन का प्रयोग आगबर्न ने अपनी किताब Social Change में किया है। आगबर्न के अनुसार, संस्कृति के दो हिस्से हैं— भौतिक तथा अभौतिक। आजकल के समय में संस्कृति में परिवर्तन की गति प्रत्येक जगह अलग-अलग पाई जाती है। जहां कहीं भी भौतिक संस्कृति का बोलबाला है वहां पर परिवर्तन भी बहुत तेज़ गति से होता है। उदाहरणतः मशीनों, बर्तनों, औज़ारों इत्यादि से भौतिक संस्कृति का पता चलता है तथा धर्म, परिवार, शिक्षा इत्यादि अभौतिक संस्कृति से जुड़े हुए हैं। समाज में नए आविष्कारों के कारण भौतिक संस्कृति में तेजी से परिवर्तन आता है परन्तु अभौतिक संस्कृति इस परिवर्तन की दौड़ में पीछे रह जाती है। इस प्रकार दोनों संस्कृतियों में जब एक में तेज़ी से परिवर्तन आ जाता है तथा दूसरी संस्कृति पहले वाली से पीछे रह जाती है। इस पीछे रह जाने की प्रक्रिया को सांस्कृतिक पिछड़ापन कहते हैं। यह सांस्कृतिक पिछड़ापन हमें आजकल कई जगह पर नज़र आता है। पिछड़ने का मुख्य कारण परिवर्तन की अलग-अलग गति का होना है।

भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन की गति का कम या तेज़ होने का एक कारण यह है कि हमारी अभौतिक संस्कृति का समाज में ज़्यादा सम्मान होता है। जब भी आविष्कारों के द्वारा समाज के भौतिक हिस्से में तेजी से परिवर्तन आता है तो अभौतिक संस्कृति का हिस्सा अपने आप को इन परिवर्तनों की तेज़ गति में शामिल नहीं कर सकता तथा पीछे रह जाता है। इस तरह सांस्कृतिक पिछड़ेपन का अर्थ संस्कृति के एक हिस्से का दूसरे हिस्से से आगे निकल जाना होता है। आगबर्न के अनुसार, “जबकि विश्लेषण के लिए भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में अन्तर करना ज़रूरी होता है परन्तु यह ध्यान देना भी ज़रूरी होता है कि वह विस्तृत इकाई सामाजिक संस्थाओं के अन्तर्सम्बन्धित भाग होते हैं।”

आगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़ेपन की परिभाषा अपने शब्दों में दी है तथा कहा है कि, “आधुनिक संस्कृति के अलगअलग भागों में परिवर्तन समान गति से नहीं होता। एक भाग में दूसरे भाग से परिवर्तन ज़्यादा तेज़ गति से होता है। परन्तु संस्कृति एक व्यवस्था है जो अलग-अलग अंगों से मिलकर बनती है तथा इन अलग-अलग अंगों में आपसी निर्भरता तथा सम्बन्धता होती है। संस्कृति की यह व्यवस्था तभी बनी रह सकती है जब इसके सभी हिस्सों में समान गति से परिवर्तन आए। वास्तव में होता यह है कि जब संस्कृति का एक हिस्सा किसी आविष्कार के प्रभाव से बदल जाता है तो उससे सम्बन्धित या उस पर निर्भर भागों में भी परिवर्तन होता है परन्तु दूसरे भाग में परिवर्तन होने में काफ़ी समय लग जाता है। दूसरे भाग में परिवर्तन होने में कितना समय लगेगा यह उस दूसरे भाग की प्रकृति पर निर्भर करता है। यह पिछड़ापन कई साल तक चल सकता है। संस्कृति के दो सम्बन्धित या अन्तर्निर्भर भागों के परिवर्तन में पिछड़ापन ही सांस्कृतिक पिछड़ापन होता है।

इस तरह दिए गए विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि आगबन के अनुसार भौतिक संस्कृति में परिवर्तन आसानी से इसलिए आता है क्योंकि भौतिक संस्कृति के तत्त्वों की कुछ निश्चित उपयोगिता होती है। जब भी व्यक्ति ने भौतिक संस्कृति के तत्त्वों को अपनाना हो उसे अपने विश्वासों, कीमतों, भावनाओं इत्यादि को छोड़ना नहीं पड़ता। इसके विपरीत व्यक्ति साधारणतः प्राचीन परम्पराओं को छोड़ने को तैयार नहीं होता। इस कारण भौतिक संस्कृति में परिवर्तन तेज़ गति से आता है तथा अभौतिक संस्कृति पीछे रह जाती है। इसको ही सांस्कृतिक पिछड़ापन कहते हैं। हमारे भारतीय समाज में भी भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति के परिवर्तनों की गति अलग-अलग होती है। आधुनिक समय में व्यक्ति ने नई तकनीक को तो अपना लिया है परन्तु वह अपने रीति-रिवाजों या परम्पराओं से पीछे नहीं हटा है। इस तरह संस्कृति के अलग-अलग हिस्सों में परिवर्तन अलग-अलग गति से आता है। परिवर्तन की दो सांस्कृतिक प्रक्रियाएं-संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण-

अंग्रेजों के भारत आने से पहले यहां राजाओं-महाराजाओं का राज्य था। अंग्रेजों ने भारत को राजनीतिक तौर पर एक सूत्र में बांध दिया जिससे भारतीय समाज तथा भारतीय संस्कृति में बहुत से परिवर्तन आए। अंग्रेज़ों ने अपनी सहूलियत के लिए भारतीय सामाजिक संस्थाओं तथा संस्कृति में बहुत से परिवर्तन किए जिससे हमारा सामाजिक जीवन काफ़ी प्रभावित हुआ। चाहे अंग्रेजों से पहले भी बहुत से हमलावर, जैसे कि तुर्क, मुग़ल, मंगोल, इत्यादि भारत में आए
और यहीं पर रह गए। उन्होंने भी भारतीय संस्कृति में अपने अनुसार परिवर्तन किए जैसे कि मुसलमानों की संस्कृति ने भारतीय समाज की संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित किया। परन्तु ब्रिटिश सरकार के प्रयत्नों से भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आए। अंग्रेजों ने यहां पर पश्चिमी संस्कृति के अनुसार परिवर्तन किए। इस तरह पश्चिमीकरण का अर्थ है पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्दर आने से है।

जब पूर्व के देशों जैसे भारत, वर्मा, श्रीलंका इत्यादि, पर पश्चिमी देशों जैसे कि ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस इत्यादि का प्रभाव पड़ता है तो उस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं। पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्तर्गत पूर्वी देशों के रहने-सहने के ढंगों, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में परिवर्तन आ जाता है। पूर्वी देशों के लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता को छोड़ कर पश्चिमी देशों की संस्कृति को अपनाने लग जाते हैं। इस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)-

1. श्रीनिवास (Srinivas) के अनुसार, “मैंने पश्चिमीकरण शब्द को अंग्रेजी राज्य के 150 साल के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में तथा संस्कृति में हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग किया है तथा इस शब्द के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों जैसे तकनीक, संस्थाओं, विचारधाराओं तथा कीमतों इत्यादि में होने वाले परिवर्तन शामिल हैं।”

2. लिंच (Lynch) के अनुसार, “पश्चिमीकरण में पश्चिमी पोशाक” खाने-पीने के तौर तरीके, शैक्षिक विधियां तथा खेलों, कद्रों-कीमतों इत्यादि को शामिल किया जाता है।”

श्रीनिवास का कहना था कि पश्चिमीकरण की प्रक्रिया वह प्रक्रिया होती है जिसमें अंग्रेज़ी शासकों ने भारतीय लोगों के सामाजिक जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने अनुसार परिवर्तन किए। इस प्रक्रिया के कारण भारतीय समाज में मिलने वाली सभी प्रकार की संस्थाओं में परिवर्तन आ गए। अगर हम किसी भी क्षेत्र को देखें जैसे कि शिक्षा तो प्राचीन समय में शिक्षा धर्म पर आधारित होती थी परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव के अन्तर्गत अब यह विज्ञान तथा तर्क पर आधारित है।

इस तरह इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पश्चिमीकरण की धारणा में भारत में होने वाले सभी सामाजिक परिवर्तनों तथा संस्थाओं में नवीनता आ जाती है। यह परिवर्तन पश्चिमी देशों के साथ राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण आए हैं। पश्चिमीकरण के कई आदर्श हो सकते हैं जैसे कि ब्रिटेन, अमेरिका या कोई और यूरोपियन देश। यूरोपियन देशों तथा अमेरिका, कैनेडा इत्यादि देशों में भी पश्चिमीकरण जैसे तत्त्व पाए जाते हैं परन्तु इन देशों की संस्कृतियों की अपनी ही खास विशेषता होती है।

पश्चिमीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Westernization) –

1. पश्चिमीकरण एक जटिल प्रक्रिया है (Westernization is a Complex Process)—पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय संस्कृति के हरेक पक्ष को गहरे रूप से प्रभावित किया है जिससे हमारी जाति व्यवस्था, धर्म, संस्कृति, आदर्शों इत्यादि में काफ़ी परिवर्तन आया है। उदाहरण के लिए पहले लोग ज़मीन पर बैठ कर खाना खाया करते थे परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव में लोग Dinning table पर बैठ कर चम्मच से खाना खाने लग गए हैं। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि किसी भी संस्कृति के आदर्श, विचार इत्यादि आसानी से अपनाए नहीं जा सकते। उनको अपनाने के लिए बहुत-सा समय तथा अपनी ही संस्कृति का विरोध भी जरूरी होता है। इस कारण यह एक जटिल प्रक्रिया है।

2. पश्चिमीकरण की प्रक्रिया अंग्रेजों द्वारा लाई गई संस्कृति है (The process of westernization is the Culture brought by Britishers)-पश्चिमी देशों की प्रक्रिया के प्रभाव से पश्चिमीकरण की प्रक्रिया हमारे देश में आई। अंग्रेज़ों ने अपनी सहूलियत के लिए अपनी संस्कृति को भारत में फैलाना शुरू कर दिया। भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी संस्कृति का बहुत ही प्रभाव पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने लगभग 200 साल तक भारत पर राज किया था। प्राचीन समय में भारत में धार्मिक शिक्षा दी जाती थी परन्तु अंग्रेजों ने उसे बदल कर विज्ञान पर आधारित कर दिया। उन्होंने स्कूलों में समानता की शैक्षिक नीति को अपनाया। उन्होंने शिक्षा में लिंग के आधार पर भेदभाव ख़त्म करने की कोशिश की। उनकी नीतियों के कारण ही उच्च तथा निम्न जातियों ने इकट्ठे मिलकर शिक्षा लेनी शुरू कर दी।

3. यह एक चेतन तथा अचेतन प्रक्रिया है (It is a conscious and unconscious process)-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया चेतन होने के साथ-साथ अचेतन प्रक्रिया भी है। यह अचेतन प्रक्रिया इस तरह है कि व्यक्ति न चाहते हुए भी पश्चिमी प्रभाव के अन्दर आ जाता है क्योकि हम बहुत सी चीज़ों की तरफ अचेतन रूप से आकर्षित हो जाते हैं। पश्चिमी देशों की संस्कृति में बहुत से ऐसे तत्त्व है जिनकी तरफ हम न चाहते हुए भी खिंचे चले जाते हैं। इसी तरह यह एक चेतन प्रक्रिया है क्योंकि बहुत बारी व्यक्ति अपनी इच्छा से ही पश्चिमी संस्कृति को अपनाना शुरू कर देता है क्योंकि व्यक्ति कुछ चीज़ों की तरफ आकर्षित हो जाता है। उदाहरण के लिए हमें विदेशी कपड़े डालना अच्छा लगता है तथा हम अपनी इच्छा से ही उन पोशाकों को डालते हैं।

4. पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण में अन्तर होता है (There is some difference between westernization and modernization)—चाहे बहुत से लोग इन दोनों प्रक्रियाओं का अर्थ एक सा ही लेते हैं परन्तु असल में यह दोनों प्रक्रियाएं अलग-अलग है। इनमें बहुत से अन्तर हैं जैसे कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन आए हैं उन्हें ठीक माना जाता है अर्थात् इस प्रक्रिया को किसी कीमत के साथ जोड़ा जाता है। परन्तु पश्चिमीकरण की प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन आए हैं उनके बारे में हम यह नहीं कह सकते कि वह ठीक है या ग़लत अर्थात् यह एक कीमत रहित प्रक्रिया है।

5. पश्चिमीकरण एक जटिल तथा बहुस्तरीय धारणा है (Westernization is a complex and many layered concept)-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में एक तरफ पश्चिमी तकनीक से लेकर तथा दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक विधि तथा आधुनिक इतिहास लिखने तक काफ़ी बड़ा क्षेत्र शामिल है। पश्चिमीकरण का प्रभाव जीवन के हरेक क्षेत्र पर पड़ा है। इसके कारण जाति संरचना के सभी स्तरों पर परिवर्तन आए हैं। यहां तक कि आदर्श, विचार, धर्म, कला, कद्रों-कीमतें भी इसके प्रभाव के अन्तर्गत आ कर बदल गए हैं। श्रीनिवास के अनुसार यहां तक कि भोजन करने के ढंगों में भी परिवर्तन आ गए हैं। पहले भारत में लोग भूमि पर बैठकर खाना खाते थे तथा भोजन के सम्बन्ध में कई विचार तथा परम्पराएं प्रचलित थी। परन्तु अब लोग कुर्सी, मेज़ पर बैठ कर स्टील के बर्तनों में चम्मच, छुरी, कांटे से खाना खाते हैं। इस तरह जीवन के हरेक पक्ष में परिवर्तन आ गया है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं के बारे में प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) ने अपनी पुस्तक Social Change in Modern India में विस्तार से वर्णन किया है। सबसे पहले उन्होंने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का वर्णन किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि इस प्रक्रिया के साथ जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग इस संस्तरण में ऊँचा उठने का प्रयास करते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने निम्न जातियों के लोगों में आए परिवर्तनों के बारे में भी बताया है। वास्तव में श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की धारणा का प्रयोग परंपरागत भारतीय सामाजिक संरचना में गतिशीलता की प्रक्रिया को बताने के लिए किया है। उनका कहना था कि केवल संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कारण ही जाति व्यवस्था में गतिशीलता आनी शुरू हुई है। उनके अनुसार जाति व्यवस्था में गतिशीलता हमेशा ही मुमकिन थी तथा वह भी निम्न तथा मध्य जातियों के बीच । जाति व्यवस्था में इतनी कठोरता नहीं थी कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाए। इसे बदला भी जा सकता था।

संस्कृतिकरण का अर्थ (Meaning of Sanskritization) सबसे पहले संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक में किया था जिसका नाम Society Among the Coorgs था। उन्होंने मैसूर के कुर्ग लोगों का अध्ययन किया तथा यह पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन जीने के ढंगों को अपनाने लग गए हैं ताकि वह अपनी स्थिति को ऊँचा उठा सके। इस प्रक्रिया की व्याख्या के लिए पहले श्रीनिवास ने ब्राह्मणीकरण शब्द का प्रयोग किया, परन्तु बाद में उन्होंने इस शब्द के स्थान पर संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग किया। श्रीनिवास का कहना था कि जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियां उच्च जातियों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं जिससे एक-दो पीढ़ियों के बाद उनके बच्चों की स्थिति स्वयं ही ऊँची हो जाती है। इस प्रकार जब निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं तो उसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहते हैं। इसमें वह सबसे पहले अपनी जाति की प्रथाएं, कीमतें, परम्पराएं इत्यादि को छोड़ देते हैं तथा आदर्श जाति की प्रथाओं, परम्पराओं को अपनाना शुरू कर देते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)

1. एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) के अनुसार, “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया होती है जिसके साथ एक निम्न हिन्दू जाति तथा कोई कबाइली अथवा कोई अन्य समूह अपने रीति-रिवाजों, संस्कारों, विचारधारा तथा जीवन जीने के ढंगों को एक उच्च अधिकतर द्विज की दिशा में बदलता है।”

2. एक अन्य स्थान पर एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) दोबारा लिखते हैं कि, “संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नई आदतों तथा प्रथाओं को ग्रहण करना ही नहीं बल्कि पवित्र तथा रोज़ाना जीवन से संबंधित विचारों तथा कीमतों को दर्शाना होता है जिनका प्रक्टन संस्कृति के साहित्य में देखने को मिलता है। कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मुक्ति संस्कृति के कुछ साधारण आध्यात्मिक विचार हैं तथा जब व्यक्ति का संस्कृतिकरण हो जाता है तो वह इन शब्दों का अक्सर प्रयोग होता है।”

3. डॉ० योगेन्द्र सिंह (Dr. Yogendra Singh) के अनुसार, “हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के सापेक्ष रूप से बंद होने के समय के दौरान सांस्कृतिक तथा सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया सांस्कृतिकरण है। इस सामाजिक परिवर्तन का स्रोत जाति के अन्दर होता है। मनोवैज्ञानिक पक्ष से संस्कृतिकरण सर्वव्यापक प्रेरणा का सांस्कृतिक तौर पर एक विशेष उदाहरण है जो उच्च समूह की संस्कृति को इस आशा में कि भविष्य में उसे इसकी स्थिति प्राप्त होगी, के पूर्व आभासी समाजीकरण की तरफ क्रियाशील है। संस्कृतिकरण का विशेष अर्थ हिन्दू परम्परा पर आधारित इसके अर्थ की ऐतिहासिकता में मौजूद है। इस पक्ष से संस्कृतिकरण समूहों की लम्बकार गतिशीलता में साधन के तौर पर समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रक्टन है।”

4. एफ० सी० बैली (F.C. Bealy) के अनुसार, “संस्कृतिकरण एक सामूहिक गतिविधि है तथा जातीय पदक्रम के ऊपर हमला है। इस प्रकार यह एक प्रक्रिया है जो संस्कृति की आम समानता की तरफ उन्मुख होती है।” ।
इस प्रकार श्रीनिवास का कहना था कि यह ठीक है कि जातीय पदक्रम में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के जीवन जीने के ढंगों तथा रहने-सहने के ढंगों को अपना लेते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह जातियों का संस्तरण भी बदल देते हैं। चाहे वह उच्च जातियों के उपनाम रख लेते हैं तथा उनके जीवन ढंगों को अपना लेते हैं, परन्तु वह आदर्श जातियां नहीं बन सकते। श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल हिन्दुओं की जातियों में ही मौजूद नहीं थी बल्कि यह तो कबीलों में भी मौजूद थी। कई कबीलों ने इस प्रक्रिया को अपनाने के प्रयास किए थे।
इस प्रक्रिया से जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाते हैं तथा उच्च स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार इस प्रक्रिया की सहायता से कुछ जातियों के लोगों ने ऊँचा उठने का प्रयास किया है।

प्रश्न 4.
आप पश्चिमीकरण से क्या समझते हैं ? इसके भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभावों की विस्तृत व्याख्या करें।
अथवा पश्चिमीकरण के प्रभावों पर प्रकाश डालो।
उत्तर-
पश्चिमीकरण का अर्थ-

अंग्रेजों के भारत आने से पहले यहां राजाओं-महाराजाओं का राज्य था। अंग्रेजों ने भारत को राजनीतिक तौर पर एक सूत्र में बांध दिया जिससे भारतीय समाज तथा भारतीय संस्कृति में बहुत से परिवर्तन आए। अंग्रेज़ों ने अपनी सहूलियत के लिए भारतीय सामाजिक संस्थाओं तथा संस्कृति में बहुत से परिवर्तन किए जिससे हमारा सामाजिक जीवन काफ़ी प्रभावित हुआ। चाहे अंग्रेजों से पहले भी बहुत से हमलावर, जैसे कि तुर्क, मुग़ल, मंगोल, इत्यादि भारत में आए
और यहीं पर रह गए। उन्होंने भी भारतीय संस्कृति में अपने अनुसार परिवर्तन किए जैसे कि मुसलमानों की संस्कृति ने भारतीय समाज की संस्कृति को गहरे रूप से प्रभावित किया। परन्तु ब्रिटिश सरकार के प्रयत्नों से भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आए। अंग्रेजों ने यहां पर पश्चिमी संस्कृति के अनुसार परिवर्तन किए। इस तरह पश्चिमीकरण का अर्थ है पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्दर आने से है।

जब पूर्व के देशों जैसे भारत, वर्मा, श्रीलंका इत्यादि, पर पश्चिमी देशों जैसे कि ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस इत्यादि का प्रभाव पड़ता है तो उस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं। पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्तर्गत पूर्वी देशों के रहने-सहने के ढंगों, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में परिवर्तन आ जाता है। पूर्वी देशों के लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता को छोड़ कर पश्चिमी देशों की संस्कृति को अपनाने लग जाते हैं। इस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)-

1. श्रीनिवास (Srinivas) के अनुसार, “मैंने पश्चिमीकरण शब्द को अंग्रेजी राज्य के 150 साल के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में तथा संस्कृति में हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग किया है तथा इस शब्द के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों जैसे तकनीक, संस्थाओं, विचारधाराओं तथा कीमतों इत्यादि में होने वाले परिवर्तन शामिल हैं।”

2. लिंच (Lynch) के अनुसार, “पश्चिमीकरण में पश्चिमी पोशाक” खाने-पीने के तौर तरीके, शैक्षिक विधियां तथा खेलों, कद्रों-कीमतों इत्यादि को शामिल किया जाता है।”

श्रीनिवास का कहना था कि पश्चिमीकरण की प्रक्रिया वह प्रक्रिया होती है जिसमें अंग्रेज़ी शासकों ने भारतीय लोगों के सामाजिक जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने अनुसार परिवर्तन किए। इस प्रक्रिया के कारण भारतीय समाज में मिलने वाली सभी प्रकार की संस्थाओं में परिवर्तन आ गए। अगर हम किसी भी क्षेत्र को देखें जैसे कि शिक्षा तो प्राचीन समय में शिक्षा धर्म पर आधारित होती थी परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव के अन्तर्गत अब यह विज्ञान तथा तर्क पर आधारित है।

इस तरह इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पश्चिमीकरण की धारणा में भारत में होने वाले सभी सामाजिक परिवर्तनों तथा संस्थाओं में नवीनता आ जाती है। यह परिवर्तन पश्चिमी देशों के साथ राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण आए हैं। पश्चिमीकरण के कई आदर्श हो सकते हैं जैसे कि ब्रिटेन, अमेरिका या कोई और यूरोपियन देश। यूरोपियन देशों तथा अमेरिका, कैनेडा इत्यादि देशों में भी पश्चिमीकरण जैसे तत्त्व पाए जाते हैं परन्तु इन देशों की संस्कृतियों की अपनी ही खास विशेषता होती है।

पश्चिमीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Westernization) –

1. पश्चिमीकरण एक जटिल प्रक्रिया है (Westernization is a Complex Process)—पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय संस्कृति के हरेक पक्ष को गहरे रूप से प्रभावित किया है जिससे हमारी जाति व्यवस्था, धर्म, संस्कृति, आदर्शों इत्यादि में काफ़ी परिवर्तन आया है। उदाहरण के लिए पहले लोग ज़मीन पर बैठ कर खाना खाया करते थे परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव में लोग Dinning table पर बैठ कर चम्मच से खाना खाने लग गए हैं। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि किसी भी संस्कृति के आदर्श, विचार इत्यादि आसानी से अपनाए नहीं जा सकते। उनको अपनाने के लिए बहुत-सा समय तथा अपनी ही संस्कृति का विरोध भी जरूरी होता है। इस कारण यह एक जटिल प्रक्रिया है।

2. पश्चिमीकरण की प्रक्रिया अंग्रेजों द्वारा लाई गई संस्कृति है (The process of westernization is the Culture brought by Britishers)-पश्चिमी देशों की प्रक्रिया के प्रभाव से पश्चिमीकरण की प्रक्रिया हमारे देश में आई। अंग्रेज़ों ने अपनी सहूलियत के लिए अपनी संस्कृति को भारत में फैलाना शुरू कर दिया। भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी संस्कृति का बहुत ही प्रभाव पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने लगभग 200 साल तक भारत पर राज किया था। प्राचीन समय में भारत में धार्मिक शिक्षा दी जाती थी परन्तु अंग्रेजों ने उसे बदल कर विज्ञान पर आधारित कर दिया। उन्होंने स्कूलों में समानता की शैक्षिक नीति को अपनाया। उन्होंने शिक्षा में लिंग के आधार पर भेदभाव ख़त्म करने की कोशिश की। उनकी नीतियों के कारण ही उच्च तथा निम्न जातियों ने इकट्ठे मिलकर शिक्षा लेनी शुरू कर दी।

3. यह एक चेतन तथा अचेतन प्रक्रिया है (It is a conscious and unconscious process)-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया चेतन होने के साथ-साथ अचेतन प्रक्रिया भी है। यह अचेतन प्रक्रिया इस तरह है कि व्यक्ति न चाहते हुए भी पश्चिमी प्रभाव के अन्दर आ जाता है क्योकि हम बहुत सी चीज़ों की तरफ अचेतन रूप से आकर्षित हो जाते हैं। पश्चिमी देशों की संस्कृति में बहुत से ऐसे तत्त्व है जिनकी तरफ हम न चाहते हुए भी खिंचे चले जाते हैं। इसी तरह यह एक चेतन प्रक्रिया है क्योंकि बहुत बारी व्यक्ति अपनी इच्छा से ही पश्चिमी संस्कृति को अपनाना शुरू कर देता है क्योंकि व्यक्ति कुछ चीज़ों की तरफ आकर्षित हो जाता है। उदाहरण के लिए हमें विदेशी कपड़े डालना अच्छा लगता है तथा हम अपनी इच्छा से ही उन पोशाकों को डालते हैं।

4. पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण में अन्तर होता है (There is some difference between westernization and modernization)—चाहे बहुत से लोग इन दोनों प्रक्रियाओं का अर्थ एक सा ही लेते हैं परन्तु असल में यह दोनों प्रक्रियाएं अलग-अलग है। इनमें बहुत से अन्तर हैं जैसे कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन आए हैं उन्हें ठीक माना जाता है अर्थात् इस प्रक्रिया को किसी कीमत के साथ जोड़ा जाता है। परन्तु पश्चिमीकरण की प्रक्रिया से जो भी परिवर्तन आए हैं उनके बारे में हम यह नहीं कह सकते कि वह ठीक है या ग़लत अर्थात् यह एक कीमत रहित प्रक्रिया है।

5. पश्चिमीकरण एक जटिल तथा बहुस्तरीय धारणा है (Westernization is a complex and many layered concept)-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में एक तरफ पश्चिमी तकनीक से लेकर तथा दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक विधि तथा आधुनिक इतिहास लिखने तक काफ़ी बड़ा क्षेत्र शामिल है। पश्चिमीकरण का प्रभाव जीवन के हरेक क्षेत्र पर पड़ा है। इसके कारण जाति संरचना के सभी स्तरों पर परिवर्तन आए हैं। यहां तक कि आदर्श, विचार, धर्म, कला, कद्रों-कीमतें भी इसके प्रभाव के अन्तर्गत आ कर बदल गए हैं। श्रीनिवास के अनुसार यहां तक कि भोजन करने के ढंगों में भी परिवर्तन आ गए हैं। पहले भारत में लोग भूमि पर बैठकर खाना खाते थे तथा भोजन के सम्बन्ध में कई विचार तथा परम्पराएं प्रचलित थी। परन्तु अब लोग कुर्सी, मेज़ पर बैठ कर स्टील के बर्तनों में चम्मच, छुरी, कांटे से खाना खाते हैं। इस तरह जीवन के हरेक पक्ष में परिवर्तन आ गया है।

पश्चिमीकरण का प्रभाव-पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने हमारे भारतीय समाज को गहरे रूप से प्रभावित किया तथा इस प्रक्रिया से हमारे समाज में बहुत से परिवर्तन आए। इस तरह पश्चिमीकरण की प्रक्रिया की मदद से आए परिवर्तनों का वर्णन इस प्रकार है-

1. जाति प्रथा में परिवर्तन (Changes in Caste System)-भारतीय सामाजिक व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण आधार रहा है जाति व्यवस्था। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने जाति प्रथा पर गहरा प्रभाव डाला। इस प्रक्रिया की मदद से लोगों में भौतिकवाद, व्यक्तिवाद इत्यादि जैसी भावनाओं का विकास हुआ। पहले उत्पादन घरों में होता था जिस कारण लोग घरों से बाहर नहीं निकलते थे। पश्चिमीकरण के प्रभाव से लोग पेशे की तलाश में घरों से बाहर निकल आए जिस कारण परम्परागत पेशे का महत्त्व कम हो गया। लोगों के घरों से बाहर निकलने से जाति प्रथा के बंधन अपने आप ही टूटने लग गए। लोगों के लिए पैसे का महत्त्व बढ़ना शुरू हो गया। अब व्यक्ति वह ही कार्य करता है जिसमें उसे अधिक लाभ प्राप्त होता है। धनवान व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। अब व्यक्ति को पैसे के आधार पर स्थिति प्राप्त होती है।

इस प्रक्रिया ने तो जाति प्रथा को बिल्कुल ही कमज़ोर कर दिया है। जाति प्रथा के हरेक प्रकार के बंधन खत्म हो गए। अब व्यक्ति अपनी ही मर्जी से किसी भी जाति में विवाह करवा लेता है। इस तरह पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने जाति प्रथा के बन्धनों को तोड़ कर इसे बिल्कुल ही कमज़ोर कर दिया है।

2. शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन (Changes in the field of education)—प्राचीन समय में लोगों को शिक्षा धर्म के आधार पर दी जाती थी तथा शिक्षा देने का कार्य ब्राह्मण लोग करते थे। जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार सिर्फ उच्च जाति के लोग ही शिक्षा ले सकते थे। निम्न जाति का कोई भी व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता था। सिर्फ धार्मिक शिक्षा ही दी जाती थी। अगर निम्न जाति का व्यक्ति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करता था तो वह सिर्फ अपने परिवार से ही प्राप्त करता था। अंग्रेजों ने भारत आने के बाद शिक्षा तन्त्र में दोष देखे तथा अपने तरीके से शिक्षण संस्थाओं का विकास किया। उनके सामने सभी भारतीय समान थे जिस कारण उन्होंने हरेक जाति के व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने के समान मौके प्रदान किए। उन्होंने विज्ञान तथा तर्क पर आधारित शिक्षा देनी शुरू की। शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी रख दिया गया। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय खोले गए। स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए उनके लिए अलग स्कूल, कॉलेज खोले गए। इन शिक्षण संस्थाओं में हरेक जाति का व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर सकता था। – इस तरह अंग्रेज़ी सरकार ने शिक्षा का स्वरूप ही बदल दिया। अब शिक्षा धर्म की जगह आधुनिक लीकों पर विकसित हो गई। इस शिक्षा से लोगों का ज्ञान भी बढ़ा तथा समाज में मिलने वाले बहुत से वहम-भ्रम भी ख़त्म हो गए। लोगों में चेतनता विकसित हो गई।

अंग्रेजों ने सभी जातियों के लोगों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान किए। उन्होंने स्त्रियों को शिक्षा देकर उनकी सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाने के बहुत से प्रयत्न किए। उनके ही प्रयासों से स्त्रियां घरों की चारदिवारी से बाहर निकल आई तथा उन्होंने नौकरियां करनी शुरू कर दी। बहुत से स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, पेशेवर कॉलेज खोले गए। इस तरह शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से परिवर्तन आए। इस कारण लोगों में चेतनता का विकास हुआ तथा उन्होंने इकट्ठे होकर आज़ादी के आन्दोलन में अंग्रेजों के विरुद्ध बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। यहां तक कि स्त्रियां भी पीछे न रही।

3. विवाह की संस्था में परिवर्तन (Changes in the institution of marriage)—पश्चिमीकरण की प्रक्रिया से विवाह की संस्था में भी बहुत से परिवर्तन आए। अंग्रेज़ों ने पश्चिमी संस्कृति की कद्रों कीमतों को भारत में फैलाना शुरू कर दिया जिससे शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गए। औरतों के लिए शिक्षा के अलग से संस्थान खुल गए जिस कारण स्त्रियों को घर की चारदिवारी से स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने विचार प्रकट करने शुरू कर दिए। उन्होंने जाति प्रथा के अन्तर्विवाह के बन्धन को नकार दिया। अब वह अपनी मर्जी से विवाह करवाती है। बाल विवाह की प्रथा खत्म हो गई। विधवा पुनर्विवाह शुरू हो गए। अन्तर्जातीय विवाह शुरू हो गए तथा उन्हें कानूनी मान्यता प्राप्त हो गई। इस तरह पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने विवाह की संस्था को पूरी तरह परिवर्तित कर दिया।

4. परिवार में परिवर्तन (Changes in the family) अगर हम ध्यान से देखें तो हमारी सभी गतिविधियां परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती है। प्राचीन समय में तो परिवार सामाजिक नियन्त्रण का बहुत बड़ा साधन होता था। परिवार अपने सदस्यों के लिए कुछ नियम बनाता था तथा सभी व्यक्ति इन नियमों के अनुसार ही जीवन जीते थे। प्राचीन समय में तो व्यक्ति को परिवार के पेशे को ही अपनाना पड़ता था। परन्तु पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के हमारे देश में आने के बाद इसने सभी महत्त्वपूर्ण संस्थाओं को प्रभावित करना शुरू कर दिया जिसमें परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। पश्चिमीकरण के कारण बड़े-बड़े उद्योग शुरू हो गए जिस कारण लोगों को अपने घरों से बाहर निकलना पड़ा। पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण स्त्रियों ने शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की। इससे उनकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। स्त्रियों ने पढ़ लिखकर नौकरी करना शुरू कर दिया जिस कारण उन्हें अपने घरों से बाहर निकलना पड़ा। इस कारण संयुक्त परिवार टूटने शुरू हो गए। केन्द्रीय परिवार आगे आ गए। स्त्रियां नौकरी करने लग गई जिस कारण उनकी स्थिति मर्दो के समान हो गई। उनके सम्बन्ध उच्च निम्न के नहीं बल्कि समानता से भरपूर हो गए। पारिवारिक नियन्त्रण कम हो गया। प्रेम विवाह, अन्तर्जातीय विवाह भी बढ़ गए।

प्राचीन समय में लोग अपने परम्परागत पेशे अपनाते थे तथा यह पेशा तो व्यक्ति के जन्म के साथ ही निश्चित हो जाता था। परन्तु पश्चिमीकरण के कारण परिवार का यह कार्य भी खत्म हो गया। अब लोग अपने परिवार का परम्परागत पेशा नहीं अपनाते परन्तु अब लोग अपनी योग्यता के अनुसार पेशा अपनाते हैं। समाज में असंख्य पेशे उपलब्ध हैं तथा व्यक्ति अपनी योग्यता तथा शिक्षा के अनुसार ही पेशा अपनाता है।

पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण संयुक्त परिवार की तानाशाही की कीमतों का खात्मा हो गया है तथा लोकतान्त्रिक कीमतें जैसे कि स्वतन्त्रता, समानता तथा भाईचारा सामने आ गए हैं। पश्चिमीकरण के कारण लोगों में व्यक्तिवादी भावनाएं विकसित हुई जिस कारण लोग व्यक्तिवादी हो गए। उन्होंने परिवार की जगह अपने हितों की तरफ देखना शुरू कर दिया। संयुक्त परिवार तो बिल्कुल ही विघटित हो गए। संयुक्त परिवारों की जगह केन्द्रीय परिवार सामने आ गए। पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करने के कारण पुरानी तथा नई पीढ़ी के विचारों में टकराव होना शुरू हो गया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पश्चिमीकरण के कारण परिवार नाम की संस्था गहरे रूप से प्रभावित हुई।

5. राजनीतिक प्रभाव (Political Effect) जब अंग्रेज़ भारत में आए तो उस समय भारत सैंकड़ों छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था। उन्होंने भारत के इन छोटे-बड़े राज्यों को तेज़ी से जीता तथा भारत का राजनीतिक एकीकरण किया। उस समय शासन व्यवस्था प्राचीन ढंग से चलती थी। उन्होंने इसमें परिवर्तन किए तथा यहां पर पाई जाने वाली अलग-अलग शासन व्यवस्थाओं को ख़त्म कर दिया। उन्होंने देश में एक ही शासन व्यवस्था शुरू की जोकि पश्चिमी संस्कृति पर आधारित थी। इसमें उन्होंने धर्म अथवा जाति की जगह योग्यता को महत्त्व दिया। उन्होंने भारत में यातायात तथा संचार के साधन विकसित करने शुरू कर दिए। इससे भारत के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आना शुरू हो गए।

अंग्रेज़ों ने भारत में पश्चिमी ढंगों के अनुसार कई प्रकार की लोकतान्त्रिक संस्थाएं विकसित की जिससे राजनीतिक रूप से देश प्रगति करने लगा। इस कारण देश में उन्होंने बहुत से स्कूल कॉलेज खोले, स्वास्थ्य सुविधाओं को विकसित किया। पढ़ने-लिखने के कारण भारत के लोगों में राष्ट्रवाद की भावना विकसित हुई तथा लोग देश की आज़ादी की लड़ाई में जुट गए।

6. संस्कृति पर प्रभाव (Effect on Culture)-जब अंग्रेज़ हमारे देश में आए तो वह अकेले नहीं आए बल्कि अपने साथ अपनी संस्कृति भी साथ लाए। जब भारतीय लोग अंग्रेजों की संस्कृति के सम्पर्क में आए तो उन्होने भी धीरेधीरे इसे अपनाना शुरू कर दिया। उन्होंने देखा कि पश्चिम की संस्कृति उनकी संस्कृति से बिल्कुल ही अलग है। उन्होंने इस अलग संस्कृति को अपनी संस्कृति में मिश्रित करना शुरू कर दिया। प्राचीन समय में हमारे देश में बहुत से अन्धविश्वास वहम-भ्रम इत्यादि प्रचलित थे। परन्तु पश्चिमीकरण तथा पश्चिमी संस्कृति के कारण उन्होंने इन वहमों, अन्धविश्वासों को छोड़ना शुरू कर दिया तथा अब वह हरेक बात को तर्क की कसौटी पर तोलने लगे। उन्होंने अपने जीवन जीने के ढंगों को छोड़कर पश्चिमी संस्कृति के जीवन जीने के ढंगों को अपनाना शुरू कर दिया। पश्चिमीकरण के कारण भारतीय लोगों की परम्पराएं, रीति-रिवाज, मूल्य इत्यादि पूर्णतया बदल गए। पहले लोग नीचे बैठ कर खाना खाते थे अब वह मेज़ कुर्सी पर बैठकर खाने लग गए। उनके कपड़े पहनने, घर बनाने तथा उसकी सजावट करने के ढंग भी बदल गए। इस प्रकार पश्चिमीकरण के कारण हमारी संस्कृति पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक संस्थाओं पर प्रभाव (Effect on Economic Institutions)-प्राचीन समय में हमारे देश में जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था (subsistence economy) चलती थी। इसका अर्थ है कि लोग केवल अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए ही उत्पादन करते थे तथा उन्हें मण्डी व्यवस्था के बारे में कुछ भी पता नहीं होता था परन्तु पश्चिमी संस्कृति के आने से उन्हें मण्डी आर्थिकता का पता चलना शुरू हो गया। लोगों ने अब मण्डी के लिए उत्पादन करना शुरू कर दिया। श्रम विभाजन में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया। प्राचीन समय में श्रम-विभाजन जाति व्यवस्था पर आधारित था परन्तु पश्चिमीकरण के कारण अब यह योग्यता पर आधारित हो गया। लोग अपनी आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करने लग गए ताकि अधिक उत्पादन को मण्डी में बेचकर पैसा कमाया जा सके। उस पैसे से वह अपने जीवन स्तर को सधारने लग गए।

अंग्रेजों ने भारतीय कृषि का व्यापारीकरण करना शुरू कर दिया। कृषि के उत्पाद को मण्डी से खरीद कर यातायात के माध्यमों से दूर क्षेत्रों में भेजा जाने लग गया तथा इससे किसानों तथा सरकार को अधिक लाभ होने लग गया। गेहूं, चावल इत्यादि के अतिरिक्त किसान और चीजें भी उगाने लग गए जैसे कि गन्ना, कपास, फल, फूल इत्यादि। यह सब पश्चिमी तकनीक के हमारे देश में आने के कारण ही हुआ था।
अंग्रेजों ने भूमि सुधारों पर भी विशेष ध्यान दिया। उन्होंने ज़मींदारी, महलवाड़ी प्रथाओं की जगह सीधा किसानों से सम्पर्क करना शुरू कर दिया ताकि बिचौलियों को खत्म किया जा सके। इस प्रकार पश्चिमीकरण के प्रभाव से हमारे देश की अर्थव्यवस्था तथा आर्थिक संस्थाओं में बहुत से परिवर्तन आ गए।

8. धर्म पर प्रभाव (Effect on Religion)-प्राचीन समय से ही भारतीय लोगों के जीवन पर धर्म का बहुत प्रभाव रहा है। जीवन का हरेक क्षेत्र धर्म से प्रभावित था तथा लोग सभी कार्य धर्म के अनुसार ही किया करते थे। धर्म के बिना तो लोग जीवन जीने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। धर्म तो सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रमुख साधन था।

परन्तु पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण धर्म-निष्पक्षता हमारे देश में आनी शुरू हो गई। लोगों के जीवन में से धर्म का प्रभाव कम होना शुरू हो गया। अन्धविश्वास, वहम इत्यादि खत्म होने लग गए तथा लोग हरेक बात को तर्क की कसौटी पर तोलने लग गए। पश्चिमी शिक्षा के कारण लोगों ने और पेशे अपनाने शुरू कर दिए तथा उनके पास धर्म के लिए समय कम होना शुरू हो गया। धार्मिक कर्म काण्ड छोटे होने शुरू हो गए। लोग अपनी सुविधा के अनुसार धर्म को मानने लग गए। धार्मिक कट्टड़वाद ख़त्म हो गया तथा धार्मिक सहनशीलता बढ़नी शुरू हो गई। अलग-अलग धर्मों, जातियों के लोग इकट्ठे रहना शुरू हो गए। लोगों ने धर्म की जगह मनोरंजन को समय देना शुरू कर दिया।

प्राचीन समय में शिक्षा धर्म पर आधारित होती थी तथा धार्मिक ग्रन्थों की शिक्षा दी जाती थी। परन्तु पश्चिमी शिक्षा के कारण धार्मिक शिक्षा खत्म हो गई तथा लोगों की धार्मिक मनोवृत्ति धर्म निष्पक्ष होनी शुरू हो गई। धर्म की जगह पैसे का महत्त्व भी बढ़ गया।

9. स्त्रियों की स्थिति पर प्रभाव (Impact on the status of women)-पश्चिमीकरण ने भारतीय स्त्रियों की स्थिति में काफी सुधार किया है। प्राचीन समय में स्त्रियों को मर्दो की दासी समझा जाता था। परन्तु अब पश्चिमीकरण के कारण शिक्षा लेकर स्त्रियां मर्दो की दासी नहीं बल्कि उनकी मित्र तथा जीवन साथी बन गई हैं। अब वह घर की स्वामिनी बन गई है। स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हो रहा है जिस कारण उन्हें अपने महत्त्व का पता लग गया है। 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के समाज सुधारकों के प्रयासों से तथा औद्योगिकीकरण और नगरीकरण के कारण स्त्रियों ने बहुत अधिक प्रगति की है। अपनी दुर्दशा जैसी स्थिति से ऊपर उठ कर वह अब शिक्षा प्राप्त करती रही है। वह दफ्तरों में नौकरियां कर रही हैं तथा बड़े-बड़े व्यापारिक संगठन चला रही है। वह मर्दो के कन्धे से कन्धे मिलाकर कार्य कर रही है। अगर हम शिक्षा के परिणामों की तरफ देखें तो पता चलेगा कि लड़कियां लड़कों से अधिक पढ़-लिख रही हैं तथा अधिक अंक प्राप्त कर रही हैं। इस प्रकार यह सब कुछ केवल पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण ही हो रहा है।

10. यातायात तथा संचार के साधनों का विकास (Development of means of transport and communication)-पश्चिमीकरण के परिणामस्वरूप हमारे देश में बड़े-बड़े उद्योग लगे हुए हैं। उद्योगों के कारण व्यापार बढ़ा है तथा विकास हुआ है। व्यापार के बढ़ने से सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की आवश्यकता पड़ी। इसलिए ट्रकों, मोटरों, जहाज़ों, रेलगाड़ियों, डाक तार का जाल भारत में बिछ गया। टेलीफोन, मोबाइल इत्यादि का विकास हुआ। आजकल कोई भी मोबाइल फोन रख सकता है। इस प्रकार पश्चिमीकरण के कारण यातायात तथा संचार के साधनों का काफ़ी विकास हुआ है।

प्रश्न 5.
संस्कृतिकरण पर निबन्ध लिखें।
अथवा
संस्कृतिकरण क्या है ?
अथवा
संस्कृतिकरण से आपका क्या भाव है ? ।
उत्तर-
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं के बारे में प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) ने अपनी पुस्तक Social Change in Modern India में विस्तार से वर्णन किया है। सबसे पहले उन्होंने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का वर्णन किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि इस प्रक्रिया के साथ जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग इस संस्तरण में ऊँचा उठने का प्रयास करते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने निम्न जातियों के लोगों में आए परिवर्तनों के बारे में भी बताया है। वास्तव में श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की धारणा का प्रयोग परंपरागत भारतीय सामाजिक संरचना में गतिशीलता की प्रक्रिया को बताने के लिए किया है। उनका कहना था कि केवल संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कारण ही जाति व्यवस्था में गतिशीलता आनी शुरू हुई है। उनके अनुसार जाति व्यवस्था में गतिशीलता हमेशा ही मुमकिन थी तथा वह भी निम्न तथा मध्य जातियों के बीच । जाति व्यवस्था में इतनी कठोरता नहीं थी कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाए। इसे बदला भी जा सकता था।

संस्कृतिकरण का अर्थ (Meaning of Sanskritization) सबसे पहले संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक में किया था जिसका नाम Society Among the Coorgs था। उन्होंने मैसूर के कुर्ग लोगों का अध्ययन किया तथा यह पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन जीने के ढंगों को अपनाने लग गए हैं ताकि वह अपनी स्थिति को ऊँचा उठा सके। इस प्रक्रिया की व्याख्या के लिए पहले श्रीनिवास ने ब्राह्मणीकरण शब्द का प्रयोग किया, परन्तु बाद में उन्होंने इस शब्द के स्थान पर संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग किया। श्रीनिवास का कहना था कि जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियां उच्च जातियों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं जिससे एक-दो पीढ़ियों के बाद उनके बच्चों की स्थिति स्वयं ही ऊँची हो जाती है। इस प्रकार जब निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं तो उसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहते हैं। इसमें वह सबसे पहले अपनी जाति की प्रथाएं, कीमतें, परम्पराएं इत्यादि को छोड़ देते हैं तथा आदर्श जाति की प्रथाओं, परम्पराओं को अपनाना शुरू कर देते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)

1. एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) के अनुसार, “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया होती है जिसके साथ एक निम्न हिन्दू जाति तथा कोई कबाइली अथवा कोई अन्य समूह अपने रीति-रिवाजों, संस्कारों, विचारधारा तथा जीवन जीने के ढंगों को एक उच्च अधिकतर द्विज की दिशा में बदलता है।”

2. एक अन्य स्थान पर एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) दोबारा लिखते हैं कि, “संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नई आदतों तथा प्रथाओं को ग्रहण करना ही नहीं बल्कि पवित्र तथा रोज़ाना जीवन से संबंधित विचारों तथा कीमतों को दर्शाना होता है जिनका प्रक्टन संस्कृति के साहित्य में देखने को मिलता है। कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मुक्ति संस्कृति के कुछ साधारण आध्यात्मिक विचार हैं तथा जब व्यक्ति का संस्कृतिकरण हो जाता है तो वह इन शब्दों का अक्सर प्रयोग होता है।”

3. डॉ० योगेन्द्र सिंह (Dr. Yogendra Singh) के अनुसार, “हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के सापेक्ष रूप से बंद होने के समय के दौरान सांस्कृतिक तथा सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया सांस्कृतिकरण है। इस सामाजिक परिवर्तन का स्रोत जाति के अन्दर होता है। मनोवैज्ञानिक पक्ष से संस्कृतिकरण सर्वव्यापक प्रेरणा का सांस्कृतिक तौर पर एक विशेष उदाहरण है जो उच्च समूह की संस्कृति को इस आशा में कि भविष्य में उसे इसकी स्थिति प्राप्त होगी, के पूर्व आभासी समाजीकरण की तरफ क्रियाशील है। संस्कृतिकरण का विशेष अर्थ हिन्दू परम्परा पर आधारित इसके अर्थ की ऐतिहासिकता में मौजूद है। इस पक्ष से संस्कृतिकरण समूहों की लम्बकार गतिशीलता में साधन के तौर पर समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रक्टन है।”

4. एफ० सी० बैली (F.C. Bealy) के अनुसार, “संस्कृतिकरण एक सामूहिक गतिविधि है तथा जातीय पदक्रम के ऊपर हमला है। इस प्रकार यह एक प्रक्रिया है जो संस्कृति की आम समानता की तरफ उन्मुख होती है।” ।
इस प्रकार श्रीनिवास का कहना था कि यह ठीक है कि जातीय पदक्रम में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के जीवन जीने के ढंगों तथा रहने-सहने के ढंगों को अपना लेते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह जातियों का संस्तरण भी बदल देते हैं। चाहे वह उच्च जातियों के उपनाम रख लेते हैं तथा उनके जीवन ढंगों को अपना लेते हैं, परन्तु वह आदर्श जातियां नहीं बन सकते। श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल हिन्दुओं की जातियों में ही मौजूद नहीं थी बल्कि यह तो कबीलों में भी मौजूद थी। कई कबीलों ने इस प्रक्रिया को अपनाने के प्रयास किए थे।
इस प्रक्रिया से जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाते हैं तथा उच्च स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार इस प्रक्रिया की सहायता से कुछ जातियों के लोगों ने ऊँचा उठने का प्रयास किया है।

प्रश्न 6.
आपका संस्कृतिकरण से क्या अभिप्राय है ? इसके प्रभावों की विस्तारपूर्वक व्याख्या करें।
अथवा
समाज पर संस्कृतिकरण के प्रभावों को बताइए।
अथवा
संस्कृतिकरण के प्रभावों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
संस्कृतिकरण का अर्थ-
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं के बारे में प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) ने अपनी पुस्तक Social Change in Modern India में विस्तार से वर्णन किया है। सबसे पहले उन्होंने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का वर्णन किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि इस प्रक्रिया के साथ जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग इस संस्तरण में ऊँचा उठने का प्रयास करते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने निम्न जातियों के लोगों में आए परिवर्तनों के बारे में भी बताया है। वास्तव में श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की धारणा का प्रयोग परंपरागत भारतीय सामाजिक संरचना में गतिशीलता की प्रक्रिया को बताने के लिए किया है। उनका कहना था कि केवल संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कारण ही जाति व्यवस्था में गतिशीलता आनी शुरू हुई है। उनके अनुसार जाति व्यवस्था में गतिशीलता हमेशा ही मुमकिन थी तथा वह भी निम्न तथा मध्य जातियों के बीच । जाति व्यवस्था में इतनी कठोरता नहीं थी कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाए। इसे बदला भी जा सकता था।

संस्कृतिकरण का अर्थ (Meaning of Sanskritization) सबसे पहले संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक में किया था जिसका नाम Society Among the Coorgs था। उन्होंने मैसूर के कुर्ग लोगों का अध्ययन किया तथा यह पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन जीने के ढंगों को अपनाने लग गए हैं ताकि वह अपनी स्थिति को ऊँचा उठा सके। इस प्रक्रिया की व्याख्या के लिए पहले श्रीनिवास ने ब्राह्मणीकरण शब्द का प्रयोग किया, परन्तु बाद में उन्होंने इस शब्द के स्थान पर संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग किया। श्रीनिवास का कहना था कि जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियां उच्च जातियों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं जिससे एक-दो पीढ़ियों के बाद उनके बच्चों की स्थिति स्वयं ही ऊँची हो जाती है। इस प्रकार जब निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं तो उसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहते हैं। इसमें वह सबसे पहले अपनी जाति की प्रथाएं, कीमतें, परम्पराएं इत्यादि को छोड़ देते हैं तथा आदर्श जाति की प्रथाओं, परम्पराओं को अपनाना शुरू कर देते हैं।

परिभाषाएं (Definitions)

1. एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) के अनुसार, “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया होती है जिसके साथ एक निम्न हिन्दू जाति तथा कोई कबाइली अथवा कोई अन्य समूह अपने रीति-रिवाजों, संस्कारों, विचारधारा तथा जीवन जीने के ढंगों को एक उच्च अधिकतर द्विज की दिशा में बदलता है।”

2. एक अन्य स्थान पर एम० एन० श्रीनिवास (M.N. Srinivas) दोबारा लिखते हैं कि, “संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नई आदतों तथा प्रथाओं को ग्रहण करना ही नहीं बल्कि पवित्र तथा रोज़ाना जीवन से संबंधित विचारों तथा कीमतों को दर्शाना होता है जिनका प्रक्टन संस्कृति के साहित्य में देखने को मिलता है। कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मुक्ति संस्कृति के कुछ साधारण आध्यात्मिक विचार हैं तथा जब व्यक्ति का संस्कृतिकरण हो जाता है तो वह इन शब्दों का अक्सर प्रयोग होता है।”

3. डॉ० योगेन्द्र सिंह (Dr. Yogendra Singh) के अनुसार, “हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के सापेक्ष रूप से बंद होने के समय के दौरान सांस्कृतिक तथा सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया सांस्कृतिकरण है। इस सामाजिक परिवर्तन का स्रोत जाति के अन्दर होता है। मनोवैज्ञानिक पक्ष से संस्कृतिकरण सर्वव्यापक प्रेरणा का सांस्कृतिक तौर पर एक विशेष उदाहरण है जो उच्च समूह की संस्कृति को इस आशा में कि भविष्य में उसे इसकी स्थिति प्राप्त होगी, के पूर्व आभासी समाजीकरण की तरफ क्रियाशील है। संस्कृतिकरण का विशेष अर्थ हिन्दू परम्परा पर आधारित इसके अर्थ की ऐतिहासिकता में मौजूद है। इस पक्ष से संस्कृतिकरण समूहों की लम्बकार गतिशीलता में साधन के तौर पर समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रक्टन है।”

4. एफ० सी० बैली (F.C. Bealy) के अनुसार, “संस्कृतिकरण एक सामूहिक गतिविधि है तथा जातीय पदक्रम के ऊपर हमला है। इस प्रकार यह एक प्रक्रिया है जो संस्कृति की आम समानता की तरफ उन्मुख होती है।” ।
इस प्रकार श्रीनिवास का कहना था कि यह ठीक है कि जातीय पदक्रम में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के जीवन जीने के ढंगों तथा रहने-सहने के ढंगों को अपना लेते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह जातियों का संस्तरण भी बदल देते हैं। चाहे वह उच्च जातियों के उपनाम रख लेते हैं तथा उनके जीवन ढंगों को अपना लेते हैं, परन्तु वह आदर्श जातियां नहीं बन सकते। श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल हिन्दुओं की जातियों में ही मौजूद नहीं थी बल्कि यह तो कबीलों में भी मौजूद थी। कई कबीलों ने इस प्रक्रिया को अपनाने के प्रयास किए थे।

इस प्रक्रिया से जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाते हैं तथा उच्च स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार इस प्रक्रिया की सहायता से कुछ जातियों के लोगों ने ऊँचा उठने का प्रयास किया है।

संस्कृतिकरण के प्रभाव-संस्कृतिकरण सामाजिक परिवर्तन लाने में काफ़ी सहायक होता है जिसका वर्णन निम्नलिखित है-

  • संस्कृतिकरण से जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियां ऊपर वाले स्थानों पर मौजूद जातियों की नकल करके अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करती हैं। इससे सम्पूर्ण समाज का जीवन स्तर ऊँचा हो जाता है।
  • संस्कृतिकरण के कारण सामाजिक गतिशीलता उत्पन्न होती है जोकि समाज के विकास के लिए आवश्यक है। जितनी अधिक गतिशीलता समाज में होगी, उतना अधिक समाज ऊपर उठेगा।
  • इस प्रक्रिया में शोषित जातियों के व्यक्तियों को अपने आपको ऊँचा उठाने के मौके मिल जाते हैं जिस कारण वह निराशा का शिकार नहीं होते तथा कई प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं।
  • इससे व्यक्ति की अन्दरूनी निराशाएं तथा विवाद खत्म हो जाते हैं तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। व्यक्ति अपने आप को ऊँचा उठाकर निराशाओं से बच सकता है।
  • संस्कृतिकरण के कारण व्यक्ति को समाज में उसकी वर्तमान स्थिति से उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति इस प्रयास में लगा होता है कि किस प्रकार उसे ऊँचा दर्जा प्राप्त हो।
  • संस्कृतिकरण के कारण समाज में कई प्रकार के परिवर्तन आ जाते हैं जोकि आज के नियमित रूप से चलने के लिए बहुत आवश्यक है।
  • संस्कृतिकरण के कारण व्यक्ति के जीवन स्तर तथा रहने-सहने के स्तर में काफ़ी अन्तर आ जाता है क्योंकि वह अपने आप को ऊँचा साबित करने के प्रयास में लगा होता है। इस कारण वह अपने जीवन स्तर को भी ऊँचा उठाने के प्रयास करता है तथा साधारणतया वह सफल भी हो जाता है।
  • इस संस्कृतिकरण के कारण सामाजिक दर्जेबन्दी में भी कई तरह के परिवर्तन आ जाते हैं तथा विशेष जातियां अथवा आदर्श जातियों में भी परिवर्तन आ जाते हैं। जातियों के बीच ही कई उपजातियां बन जाती हैं तथा उपजातियां में भी संस्तरण उत्पन्न हो जाता है।
  • इस प्रक्रिया में शोषित जातियां आदर्श जातियों में ही मिल जाती हैं जिस कारण उन्हें अन्य जातियों की तरफ से सम्मान मिलना शुरू हो जाता है। इससे बराबरी तथा समानता वाली भावनाएं आनी शुरू हो जाती हैं।
  • क्योंकि अलग-अलग जातियां आपस में मिल जाती हैं इसलिए उन सभी में एकता आ जाती है जो देश के लिए काफ़ी लाभदायक सिद्ध होती है।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उस प्रक्रिया को क्या कहते हैं जिसमें निम्न जतियों के लोग उच्च जातियों का अनुकरण करना शुरू कर
देते हैं ?
(क) पश्चिमीकरण
(ख) संस्कृतिकरण
(ग) धर्म निष्पक्षता
(घ) आधुनिकीकरण।
उत्तर-
(ख) संस्कृतिकरण।

प्रश्न 2.
जब किसी देश के समाज या संस्कृति में परिवर्तन होना शुरू हो जाए तो उसे क्या कहते हैं ?
(क) सामाजिक परिवर्तन
(ख) धार्मिक परिवर्तन
(ग) सांस्कृतिक परिवर्तन
(घ) उद्विकासीय परिवर्तन।
उत्तर-
(ग) सांस्कृतिक परिवर्तन।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन-सी पुस्तक एम० एन० श्रीनिवास ने लिखी थी ?
(क) Cultural Change in India
(ख) Social Change in Modern India
(ग) Geographical Change in Modern India
(घ) Regional Change in Modern India.
उत्तर-
(ख) Social Change in Modern India.

प्रश्न 4.
पश्चिमीकरण का सिद्धान्त किसने दिया था ?
(क) श्रीनिवास
(ख) मजूमदार
(ग) घूर्ये
(घ) मुखर्जी।
उत्तर-
(क) श्रीनिवास।

प्रश्न 5.
पश्चिमीकरण का हमारे देश पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(क) जाति प्रथा कमजोर हो गई
(ख) तलाक बढ़ गए
(ग) केंद्रीय परिवार सामने आए
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 6.
प्रबल जाति के लिए क्या आवश्यक है ?
(क) अधिक जनसंख्या
(ख) कृषि योग्य अधिक भूमि
(ग) जातीय संस्तरण में ऊँचा स्थान
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. पश्चिमीकरण का सिद्धान्त ……… …. ने दिया था।
2. पश्चिमीकरण में …………………… को मॉडल माना जाता है।
3. …………………… तथा ……………… ने भारतीय समाज में बहुत से परिवर्तन ला दिए।
4. प्रथम तीन जातियों को …………………… संस्कार से गुजरना पड़ता था।
5. श्रीनिवास ने …………………… के स्थान पर संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग किया।
6. श्रीनिवास ने …………………… लोगों का अध्ययन किया था।
उत्तर-

  1. श्रीनिवास,
  2. ब्रिटिश,
  3. राजा राम मोहन राए, रविन्द्र नाथ टैगोर,
  4. उपनयन,
  5. ब्राह्मणीकरण,
  6. कुर्ग।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. श्रीनिवास घूर्ये के विद्यार्थी थे।
2. पढ़े-लिखे भारतीय पश्चिमीकरण के वाहक थे।
3. पश्चिमीकरण ने भारतीय समाज में बहुत परिवर्तन लाए।
4. संस्कृतिकरण में उच्च जाति के रहन-सहन के ढंग अपनाए जाते हैं।
5. प्रबल जाति के लिए अधिक भूमि का होना आवश्यक है।
6. श्रीनिवास ने दक्षिण भारत के कुर्ग लोगों का अध्ययन किया।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. सही
  4. सही
  5. सही
  6. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर ।

प्रश्न 1. संस्कृतिकरण की धारणा किसने दी थी ?
उत्तर-एम० एन० श्रीनिवास ने।

प्रश्न 2. पश्चिमीकरण की धारणा किसने दी थी ?
उत्तर-एम० एन० श्रीनिवास ने।

प्रश्न 3. संस्कृतिकरण के दो सहायक कारक बताएं।
उत्तर-औद्योगीकरण तथा नगरीकरण।

प्रश्न 4. श्रीनिवास ने किस पुस्तक में संस्कृतिकरण की व्याख्या की है ?
उत्तर-Social Change in Modern India.

प्रश्न 5. सांस्कृतिक परिवर्तन क्या होता है ?
उत्तर-जब किसी समाज या देश की संस्कृति में परिवर्तन होने लग जाए तो उसे सांस्कृतिक परिवर्तन कहते हैं।

प्रश्न 6. पश्चिमीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-जब हमारे देश में पश्चिमी देशों के विचारों, तौर-तरीकों को अपनाया जाता है तो उसे पश्चिमीकरण कहते हैं।

प्रश्न 7. संस्कृतिकरण क्या होता है ?
उत्तर-जब निम्न जाति के लोग उच्च जाति की नकल करके उनके तौर-तरीकों को अपना कर अपनी स्थिति को ऊँचा कर लें तो उसे संस्कृतिकरण कहते हैं ?

प्रश्न 8. पश्चिमीकरण में किस देश को मॉडल माना जाता है ?
उत्तर-पश्चिमीकरण में ब्रिटेन को मॉडल माना जाता है।

प्रश्न 9. कौन-से समाज सुधारक भारतीय समाज में कई सुधार लाए ?
उत्तर- राजा राम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फूले, विवेकानंद इत्यादि।

प्रश्न 10. गुरुकुल क्या होता है ?
उत्तर-पुराने समय में बच्चों को गुरूकुल में शिक्षा दी जाती थी।

प्रश्न 11. किन जातियों को द्विज कहा जाता है ?
उत्तर-ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य।

प्रश्न 12. कुर्ग लोग कहां रहते हैं ?
उत्तर-कुर्ग लोग मैसूर (कर्नाटक) के नज़दीक रहते हैं।

प्रश्न 13. मैसूर की निम्न जातियों ने किसके जीवन जीने के ढंगों को अपनाया था ?
उत्तर- उन्होंने लिंगायत लोगों के ढंगों को अपनाया था।

प्रश्न 14. श्रीनिवास ने किस गाँव के अध्ययन के समय प्रबल जाति शब्द का जिक्र किया था ?
उत्तर-रामपुरा गाँव जोकि मैसूर (कर्नाटक) के पास स्थित है।

III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृतिकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों का अनुकरण करना शुरू कर दें अर्थात् उनके जीवन जीने, रहने-सहने के ढंगों को अपनाना शुरू कर दें ताकि वह अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा कर सकें तो इसे संस्कृतिकरण कहते हैं।

प्रश्न 2.
संस्कृतिकरण की कोई दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  1. संस्कृतिकरण में निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन जीने के ढंगों को अपना लेते हैं। इस प्रकार इसमें अनुकरण एक आवश्यक तत्त्व है।
  2. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है।

प्रश्न 3.
पश्चिमीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
श्रीनिवास के अनुसार, “पश्चिमीकरण शब्द को अंग्रेजों के 150 वर्ष के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में उत्पन्न हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग किया है तथा यह शब्द कई स्तरों-तकनीक, संस्थाओं, विचारधाराओं तथा मूल्यों इत्यादि में परिवर्तनों से संबंधित है।”

प्रश्न 4.
पश्चिमीकरण के हमारे समाज पर क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-

  1. पश्चिमीकरण ने जाति प्रथा के बंधनों को तोड़ दिया जिस कारण वह कमज़ोर हो गई।
  2. पश्चिमीकरण के कारण स्त्रियों ने पढ़ना-लिखना शुरू कर दिया तथा वे घरों से बाहर निकल कर नौकरी करने लग गईं।

प्रश्न 5.
प्रबल जाति क्या होती है ?
उत्तर-
श्रीनिवास के अनुसार गांवों में प्रबल जाति मौजूद होती हैं तथा यह वह जाति होती है जिसके पास गाँव के स्तर पर कृषि करने योग्य काफ़ी भूमि होती है, जनसंख्या अधिक होती है तथा स्थानीय संस्तरण में उनकी स्थिति ऊंची होती है।

प्रश्न 6.
उपनयन संस्कार क्या होता है ?
उत्तर-
प्रथम तीन जातियों के बच्चों को जनेऊ धारण करना पड़ता था जिसे उपनयन संस्कार कहा जाता था। यह संस्कार पूर्ण होने के पश्चात् इनके बच्चे गुरुकुल में पढ़ने के लिए जा सकते थे। यह हिंदू धर्म का प्रमुख संस्कार था जिसे निम्न जातियां नहीं कर सकती थीं।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृतिकरण।
उत्तर-
शब्द संस्कृतिकरण का प्रयोग सबसे पहले श्रीनिवास ने किया था तथा इस शब्द का प्रयोग उन्होंने निम्न जातियों के लोगों द्वारा उच्च जातियों के लोगों के जीवन जीने के ढंग अपनाने के लिए किया था। इस प्रकार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का अर्थ है जब निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों के जीवन जीने के ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं तो उसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहते हैं। इस प्रक्रिया से उनकी स्थिति ऊँची हो जाती है। इसमें सबसे पहले वह अपनी जाति की प्रथाओं, मूल्यों, परम्पराओं को त्याग देते हैं तथा उच्च जातियों की प्रथाओं, परम्पराओं को अपनाना शुरू कर देते हैं।

प्रश्न 2.
संस्कृतिकरण की विशेषताएं।
उत्तर-

  • संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है क्योंकि यह केवल एक ही जाति से सम्बन्धित नहीं थी बल्कि इस का प्रभाव तो सम्पूर्ण भारतीय समाज पर था।
  • संस्कृतिकरण में स्थिति परिवर्तन तो होता है परन्तु संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता अर्थात् जाति का पदक्रम उसी प्रकार बना रहता है।
  • संस्कृतिकरण में नकल अथवा अनुकरण आवश्यक तत्त्व है क्योंकि इस प्रक्रिया में निम्न जातियों के लोग शुरू से ही उच्च जातियों के लोगों की जीवन शैली का अनुकरण करने लग जाते हैं।
  • इस प्रक्रिया में सामूहिक गतिशीलता होती है क्योंकि यह एक व्यक्ति अथवा समाज को प्रभावित नहीं करती बल्कि सम्पूर्ण समूह को प्रभावित करती है।

प्रश्न 3.
संस्कृतिकरण के स्रोत।
उत्तर-

  • संचार तथा यातायात के साधनों के विकसित होने से लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आना शुरू हो गए तथा यह प्रक्रिया बढ़ने लग गई।
  • नगरीकरण के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोगों नगरों में इकट्ठे रहने लगे तथा एक-दूसरे के रीतिरिवाजों, परम्पराओं इत्यादि को अपनाने लग गए।
  • पश्चिमी शिक्षा के बढ़ने से सभी जातियों के लोग इकट्ठे मिल कर शिक्षा ग्रहण करने लग गए तथा इससे भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया प्रभावित हुई।

प्रश्न 4.
सामाजिक कानून तथा संस्कृतिकरण।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के बाद नई कानून व्यवस्था शुरू हुई तथा नया संविधान बना जिससे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बल मिला। सरकार ने निम्न जातियों को आरक्षण दिया तथा बहुत से कानून बनाए जिससे जाति व्यवस्था प्रभावित हुई। 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम बना जिससे अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया। 1954 में विशेष विवाह अधिनियम पास हुआ तथा अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्राप्त हुई। संविधान ने किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग, धर्म, जाति के आधार पर भेदभाव करने से मनाही कर दी। निम्न जातियों को बहुत-सी सुविधाएं दी। इस प्रकार सामाजिक कानूनों से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया प्रभावित हुई।

प्रश्न 5.
अनुकरण-संस्कृतिकरण का आवश्यक तत्त्व।
उत्तर-
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के लोगों को जिस प्रकार जीवन जीता हुआ देखते हैं उसी प्रकार स्वयं भी करना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार नकल अथवा अनुकरण संस्कृतिकरण का आवश्यक तत्त्व है। इसका अर्थ है कि निम्न जाति के लोग उच्च जाति के लोगों के रहने-सहने, जीवन जीने के ढंगों को अपनाना शुरू कर देते हैं। यह प्रक्रिया तो शुरू ही नकल से होती है जिसमें निम्न जातियों के लोग उच्च जाति के लोगों की जीवन शैली की नकल करना शुरू कर देते हैं। इस कारण धीरे-धीरे निम्न जातियों के लोगों की स्थिति ऊँची होनी शुरू हो जाती है।

प्रश्न 6.
नए पेशों का प्रभाव तथा संस्कृतिकरण।
उत्तर-
अंग्रेजों के भारत आने के बाद देश के बड़े-बड़े उद्योग शुरू हो गए। उत्पादन घरों से निकलकर कारखानों में चला गया जिससे बहुत से नए देशों का जन्म हुआ। कारखानों में श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण को महत्त्व प्राप्त हुआ। लोग अपनी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार शिक्षा प्राप्त करके पेशा अपनाने लगे जिससे समाज में बहुत से पेशे सामने आए। इस प्रकार बहुत से पेशों के आगे आने से जाति प्रथा का पेशे का बन्धन कमज़ोर पड़ गया जिससे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिला।

प्रश्न 7.
यातायात के साधन तथा संस्कृतिकरण।
उत्तर-
औद्योगिकीकरण के विकास के साथ-साथ यातायात के साधनों का भी विकास होने लगा। इस प्रकार नए पैमाने के उद्योग स्थापित होने लग गए। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना आसान हो गया था। इस प्रकार यातायात तथा संचार के साधनों के विकास ने अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच सम्पर्क स्थापित किया। वह एक-दूसरे से मिलकर बसों, रेलगाड़ियों में सफर करने लग गए। उच्च तथा निम्न जातियों के लोगों में संस्कृति का आदान-प्रदान होने लग गया। पवित्रता तथा अपवित्रता के संकल्प में कमी आ गई। रेल गाड़ियों तथा बसों में मिलकर सफर करना पड़ता था जिस कारण अस्पृश्यता के भेदभाव को कायम रखना असम्भव हो गया। इस प्रकार संस्कृतिकरण के बढ़ने में यातायात के साधनों का काफ़ी बड़ा हाथ था।

प्रश्न 8.
धार्मिक और सामाजिक आंदोलन तथा संस्कृतिकरण।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज में पाई जाने वाली जाति प्रथा से बहुत से लोग तंग थे। कोई भी जाति के बंधनों को तोड़ता नहीं था। नियमों को तोड़ने वाले को जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। निम्न जाति के लोगों के साथ बहुत बुरा व्यवहार होता था तथा वह तरक्की नहीं कर सकते थे। इस जाति प्रथा का विरोध करने के लिए कई समाज सुधारक उठ खड़े हुए। राजा राम मोहन राए, स्वामी दयानन्द जैसे सुधारकों ने कई आंदोलन शुरू कर दिए। इन आन्दोलनों का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा के प्रभाव को कमज़ोर करना था। उन्होंने स्त्रियों की दशा को सुधारने के प्रयत्न किए। महात्मा गांधी ने भी इस भेदभाव को खत्म करने के प्रयास किए। आर्य समाज तथा ब्रह्म समाज के आन्दोलनों ने जाति प्रथा के भेदभाव का सख्त विरोध किया। उन्होंने स्थान-स्थान पर जाकर लोगों को उपदेश दिए तथा लोगों में जागृति उत्पन्न की। अन्तर्जातीय विवाह का नियम भी आंदोलन के प्रभाव के कारण ही पड़ा है। इस कारण इन आन्दोलनों के प्रभाव के कारण निम्न जातियों के लोगों ने उच्च जातियों के लोगों की आदतें अपना ली तथा संस्कृतिकरण को आगे बढ़ाया।

प्रश्न 9.
पश्चिमीकरण।
उत्तर-
जब पूर्व के देशों जैसे कि भारत, बर्मा, श्रीलंका इत्यादि पर पश्चिमी देशों जैसे कि ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस इत्यादि का प्रभाव पड़ता है तो उस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं। पश्चिमी देशों के प्रभाव के अन्तर्गत पूर्वी देशों के रहनेसहने के ढंगों, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में परिवर्तन आ जाता है। पूर्वी देशों के लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता को छोड़ कर पश्चिमी देशों की संस्कृति को अपनाने लग जाते हैं। इस प्रक्रिया को पश्चिमीकरण कहते हैं।

प्रश्न 10.
पश्चिमीकरण की दो परिभाषाएं।
उत्तर-

  • श्रीनिवास (Srinivas) के अनुसार, “मैं पश्चिमीकरण शब्द को अंग्रेज़ी राज्य के 150 साल के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में तथा संस्कृति में हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग करता हैं तथा इस शब्द के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों जैसे तकनीक, संस्थाएं, विचारधाराएं तथा कीमतों इत्यादि में होने वाले परिवर्तन शामिल हैं।”
  • लिंच (Lynch) के अनुसार, “पश्चिमीकरण में पश्चिमी पोशाक, खाने-पीने के ढंग, शिक्षा विधियां तथा खेल, कदरों-कीमतों इत्यादि को शामिल किया जाता है।”

प्रश्न 11.
पश्चिमीकरण की विशेषताएं।
उत्तर-

  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया अंग्रेजों द्वारा लायी गयी संस्कृति है तथा पश्चिमी देशों की प्रक्रिया के प्रभाव से पश्चिमीकरण की प्रक्रिया हमारे देश में आयी।
  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया एक चेतन तथा अचेतन प्रक्रिया है। व्यक्ति कई बार न चाहते हुए भी बहुत-सी चीज़ों को अपना लेता है तथा कई बार अपने-आप ही बहुत-सी चीजें अपना लेता है।
  • पश्चिमीकरण एक जटिल तथा बहु-स्तरीय धारणा है। इस प्रक्रिया में एक तरफ पश्चिमी तकनीक से लेकर तथा दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक विधि तथा आधुनिक इतिहास लिखने तक काफ़ी बड़ा क्षेत्र शामिल है।

प्रश्न 12.
पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण में अन्तर।
उत्तर-
पश्चिमीकरण वह प्रक्रिया थी जिसे अंग्रेज़ अपने साथ भारत लाए तथा जिसने भारतीय लोगों को सामाजिक जीवन के अलग-अलग पक्षों पर काफ़ी गहरा प्रभाव डाला था। परन्तु, आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पश्चिमी देशों के लोगों से सम्पर्क से शुरू हुई तथा इस में केवल मौलिक दिशा के परिवर्तनों को स्वीकार किया गया। आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण के बिना भी हो सकता है तथा इसके परिणाम हमेशा ही अच्छे होते हैं।

प्रश्न 13.
पश्चिमीकरण के परिणाम।
उत्तर-

  • पश्चिमीकरण के कारण जाति प्रथा, परिवार, विवाह की संस्था में बहुत से परिवर्तन आए।
  • पश्चिमीकरण के आने से आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ तथा स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय इत्यादि खोले गए।
  • पश्चिमीकरण के कारण विवाह की संस्था में परिवर्तन आए। पहले विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता था परन्तु पश्चिमीकरण के कारण अब उसे समझौता समझा जाता है।
  • पश्चिमीकरण के कारण देश की शासन व्यवस्था में भी परिवर्तन आया तथा देश में एक ही शासन व्यवस्था लागू की गई।

प्रश्न 14.
जाति प्रथा तथा पश्चिमीकरण।
उत्तर-
पश्चिमीकरण के कारण उत्पादन घरों से निकलकर उद्योगों में चला गया तथा लोगों को पैसे कमाने के लिए अपने घरों से बाहर निकलना पड़ा। इसलिए परम्परागत पेशे का महत्त्व कम हो गया। लोगों के घरों से बाहर निकलने के कारण जाति प्रथा के बंधन टूटने लगे तथा पैसे का महत्त्व बढ़ना शुरू हो गया। पश्चिमीकरण ने जाति प्रथा को बिल्कुल ही कमज़ोर कर दिया तथा इसके हरेक प्रकार के बंधन खत्म हो गए। अब व्यक्ति अपनी मर्जी से किसी भी जाति में विवाह कर सकता है।

प्रश्न 15.
आर्थिक संस्थाओं पर पश्चिमीकरण का प्रभाव।
उत्तर-

  • प्राचीन समय में हमारे देश में जीवन निर्वाह अर्थव्यवस्था (subsistence economy) चलती थी परन्तु पश्चिमीकरण के कारण लोगों ने केवल अपनी जगह मण्डी के लिए उत्पादन करना शुरू कर दिया।
  • पश्चिमीकरण के कारण भारतीय कृषि का व्यापारीकरण होना शुरू हो गया तथा कृषि के उत्पाद दूर-दूर स्थानों पर भेजे जाने लग गई। इससे किसानों को अधिक लाभ होने लग गया।
  • पश्चिमीकरण के कारण भूमि सुधारों पर विशेष ध्यान दिया गया तथा उन्होंने जमींदारी, महलवारी इत्यादि प्रथाओं को खत्म करके किसानों से सीधा सम्पर्क करना शुरू कर दिया।

प्रश्न 16.
पश्चिमीकरण एक चेतन तथा अचेतन प्रक्रिया है।
उत्तर-
पश्चिमीकरण की प्रक्रिया चेतन भी है तथा अचेतन भी। यह चेतन प्रक्रिया इस प्रकार होती है कि व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार पश्चिमी संस्कृति को अपनाना शुरू कर देते हैं क्योंकि कुछ चीजें उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। जैसे वह अंग्रेज़ी कपड़ों का प्रयोग अपनी इच्छा से करते हैं। पश्चिमीकरण की प्रक्रिया अचेतन इस प्रकार होती है कि व्यक्ति अपनी इच्छा के बिना भी पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में आ जाता है। इसका कारण यह है कि कुछ चीजों को हम देखते रहते हैं तो अचानक ही हम उनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं। इस प्रकार पश्चिमीकरण की संस्कृति में भी ऐसा आकर्षण है कि हम स्वयं उसकी तरफ खींचे चले जाते हैं।

प्रश्न 17.
पश्चिमीकरण एक जटिल तथा बह-स्तरीय धारणा है।
उत्तर-
पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में एक तरफ तो पश्चिमी तकनीक से लेकर तथा दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान की प्रयोगात्मक विधि तथा आधुनिक इतिहास लेखक तक का काफ़ी बड़ा क्षेत्र शामिल है। पश्चिमीकरण का प्रभाव जीवन के हरेक क्षेत्र पर पाया गया है। इस कारण जाति संरचना के सभी स्तरों पर परिवर्तन आए हैं। यहां तकनीक आदर्श, विचार, धर्म, कला, कदरें-कीमतें भी इसके प्रभाव में आकर परिवर्तित हो गए हैं। श्रीनिवास के अनुसार यहां तक कि भोजन करने के ढंग भी बदल गए हैं। पहले भारत में लोग भूमि पर बैठ कर पत्तलों में भोजन किया करते थे तथा भोजन सम्बन्धी कई विचार प्रचलित थे। परन्तु अब यह सभी रिवाज़ बदल गए हैं। अब लोग मेज़ कुर्सी पर बैठ कर स्टील के बर्तनों में खाना खाते हैं। इस प्रकार जीवन के हरेक पक्ष में परिवर्तन आ गया है।

प्रश्न 18.
पश्चिमीकरण तथा शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज में शैक्षिक संस्थाओं पर ब्राह्मणों का प्रभुत्व था, क्योंकि जाति प्रथा के नियमों के अनुसार शिक्षा केवल उच्च जातियों के व्यक्तियों तक ही सीमित थी। केवल धार्मिक शिक्षा ही प्रदान की जाती थी। निम्न जाति के व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। अंग्रेजों के आने से शिक्षा का पश्चिमीकरण हो गया। अंग्रेजी सरकार ने शैक्षिक संस्थाओं का लोकतान्त्रिकरण कर दिया। हरेक जाति के व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने के मौके दिए गए। वह धर्म निष्पक्ष शिक्षा प्रदान करते थे। अंग्रेज़ों ने शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेज़ी कर दिया। बड़े-बड़े शहरों में विश्वविद्यालय खोले गए। स्त्रियों के स्तर को ऊँचा उठाने तथा उन्हें शिक्षित करने के पूर्ण प्रयत्न किए गए। उच्च तथा निम्न जातियों के लोग मिलकर शिक्षा प्राप्त करने लगे। इस प्रकार पश्चिमीकरण के कारण भारतीय शिक्षा का स्वरूप बदल गया तथा आधुनिक और पश्चिमी शिक्षा का विकास हुआ।

प्रश्न 19.
पश्चिमीकरण तथा विवाह की संस्था में परिवर्तन।
उत्तर-
पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने अपनी पश्चिमी सामाजिक कदरों-कीमतों को फैलाना शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने परम्परागत शिक्षा में परिवर्तन किया। लड़के तथा लड़कियों के लिए शिक्षा के केन्द्र खोले गए जिससे स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। वह विवाह के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करने लग गई। बाल-विवाह की प्रथा के कारण विधवा पुनर्विवाह शुरू किया गया। अन्तर्विवाह के नियम के अनुसार व्यक्ति केवल अपनी ही उपजाति में विवाह कर सकता था। परन्तु पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन ला दिया तथा अन्तर्विवाह के नियम में परिवर्तन आ गया। अन्तर्जातीय विवाह को अधिक महत्त्व प्राप्त होने लग गया। इस प्रकार पश्चिमी कद्रों-कीमतों ने विवाह की संस्था में परिवर्तन ला दिया।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न –

प्रश्न 1.
संस्कृतिकरण की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सर्वव्यापक प्रक्रिया है (The process of Sanskritization is a universal process)-संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल एक ही जाति अथवा जाति प्रथा से ही सम्बन्धित नहीं थी बल्कि इस प्रक्रिया का प्रभाव तो सम्पूर्ण भारतीय समाज पर भी था। यह प्रक्रिया तो अन्य धर्मों में भी पाई जाती थी। यह प्रक्रिया सम्पूर्ण देश के प्रत्येक हिस्से में पाई जाती थी तथा भारतीय इतिहास की एक प्रमुख प्रक्रिया है। यह ठीक है कि यह प्रक्रिया किसी युग में अधिक प्रबल रही हो तथा किसी में कम तथा लोगों का संस्कृतिकरण भी हुआ हो, परन्तु बिना किसी शक के हम कह सकते हैं कि यह प्रक्रिया सर्वव्यापक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया तो कबीलों तथा अर्धकबीलों में भी पाई जाती है। साधारणतया जनजातियां मुख्य धारा तथा हिन्दू समाजों से अलग रहती थीं तथा इन्हें जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों से भी निम्न स्थान दिया जाता था। परन्तु कबाइली लोग स्वयं को हिन्दू समाज से ऊँचा समझते थे। कई जनजातियों ने तो अपने नज़दीक की हिन्दू जाति के रहने-सहने, खाने-पीने इत्यादि के तौर तरीके तथा जीवन शैलियाँ अपना ली थीं। इस प्रकार न केवल मध्य तथा निम्न जातियों के लोग बल्कि जनजातियों के लोग भी इस प्रक्रिया को अपना रहे हैं।

2. इसमें स्थिति परिवर्तन होता है परन्तु संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता (Positional change does happen in it but not the structural change)-संस्कृतिकरण में कुछ जातियों के लोग उच्च जातियों के जीवन जीने के ढंगों को अपना लेते हैं तथा उनकी स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। इससे उनकी स्थिति अपनी जाति के लोगों से तो ऊँची हो जाती है, परन्तु इससे जाति व्यवस्था अथवा इसकी संरचना में कोई परिवर्तन नहीं आता है। जातियों का पदक्रम नहीं बदलता बल्कि इसी प्रकार बना रहता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि लोग अपनी आदर्श जाति की जीवन-शैली, रीति-रिवाजों को तो ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु वह आदर्श जाति के सदस्य नहीं बन सकते। इसका कारण यह है कि जाति तो जन्म पर आधारित होती है तथा व्यक्ति इसे परिवर्तित नहीं कर सकता।

3. संस्कृतिकरण में नकल अथवा अनुकरण आवश्यक तत्व है (Imitation is a necessary element of Sanskritization)—संस्कृतिकरण में लोग जिस तरह अपनी आदर्श जाति को करता हुआ देखते हैं स्वयं भी वैसा ही करना शुरू कर देते हैं। इसका अर्थ यह है कि जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियां अपनी आदर्श जाति के लोगों की जीवन शैली की नकल करना शुरू कर देते हैं। इसके कारण धीरे-धीरे उनकी स्थिति ऊँची होनी शुरू हो जाती है। दूसरे शब्दों में, जाति के आधार पर परिवर्तन आता है तथा जाति में गतिशीलता सम्भव होती है।

4. संस्कृतिकरण सापेक्ष परिवर्तन की प्रक्रिया है (Sanskritization is a process of relative change)संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में तो यह भी देखा गया है कि उच्च जातियों के लोग कबीलों के लोगों की नकल करते हैं। वास्तव में समाज में मौजूद अलग-अलग सामाजिक समूहों की संस्कृतियों में काफ़ी अन्तर होता है। इसलिए अगर एक समूह को दूसरे समूह की संस्कृति में से कुछ भी पसंद आता है तो वह उसे अपना लेता है। इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि आदर्श समूह किस जाति से सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक सापेक्ष प्रक्रिया है।

5. ब्राह्मणों की स्थिति में परिवर्तन (Change in the status of Brahmins)-संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में न केवल जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों की स्थिति बल्कि ब्राह्मणों की स्थिति में भी परिवर्तन आता है। ब्राह्मणों ने भी अपने आपको पश्चिमी सभ्यता के अनुसार बदलना शुरू कर दिया। प्राचीन समय में उच्च जातियों के लोगों पर भी कई प्रकार के प्रतिबंध थे जैसे कि मदिरा तथा माँस का प्रयोग न करना, ब्लेड का प्रयोग न करना, तड़कभड़क वाले कपड़े न पहनना इत्यादि। परन्तु जब उन्होंने अपने आप को पश्चिमी शिक्षा तथा सभ्यता के अनुसार बदलना शुरू कर दिया तो उनकी स्थिति में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया।

6. ऊपर की तरफ गतिशीलता (Upward Mobility)-संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में कुछ जातियों के लोग अपनी आदर्श जातियों के लोगों की जीवन शैली को अपनाना शुरू कर देते हैं तथा उनकी स्थिति उच्च होनी शुरू हो जाती है तथा यह ही संस्कृतिकरण की मुख्य विशेषता है। इस प्रक्रिया में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों अथवा कबीलों के लोग अपनी आदर्श जाति के लोगों के ढंगों के अनुसार अपने आप को बदलते हैं। परन्तु फिर भी उनकी स्थिति आदर्श जाति के बराबर नहीं होती। इस प्रकार यह ऊपर की तरफ गतिशीलता होती है।

7. सामाजिक स्थिति में परिवर्तन परन्तु जाति में नहीं (Change in social status but not in caste)संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तो बदल जाती है, परन्तु जाति नहीं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य जाति के ढंगों को तो अपना लेता है, परन्तु वह अपनी जाति को छोड़कर दूसरी जाति में शामिल नहीं हो सकता। व्यक्ति को उस जाति में तमाम आयु रहना पड़ता है जिसमें उसने जन्म लिया है। चाहे किसी कबीले का व्यक्ति किसी जाति के व्यक्ति के जीवन जीने के ढंगों को अपना ले, परन्तु वह उस जाति का सदस्य नहीं बन सकता।

8. संस्कृतिकरण सामहिक गतिशीलता है (Sanskritization is a group mobility)-संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक व्यक्ति अथवा परिवार से सम्बन्धित नहीं होती बल्कि एक समूह अथवा जाति से सम्बन्धित होती है। इस प्रक्रिया की सहायता से सामूहिक तौर पर कोई जाति, जनजाति अथवा समूह जातीय संस्तरण के पदक्रम में अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठ कर ऊँची स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार यह एक व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं बल्कि सामूहिक प्रक्रिया है।

9. संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता से सम्बन्धित होती है (Sanskritization is related with social mobility)-संस्कृतिकरण का सम्बन्ध सामाजिक गतिशीलता से होता है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया गतिशीलता को जन्म देती है। गतिशीलता प्रत्येक प्रकार के समाजों, बंद समाजों जैसे कि भारत तथा खुले समाजों जैसे कि अमेरिका, में भी मिलती है। इसके परिणामस्वरूप कई बार व्यक्ति समाज में अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर की स्थिति की तरफ अधिकार जताने लग जाता है। वह होते तो किसी जाति के हैं तथा लिखते किसी अन्य जाति के हैं।

प्रश्न 2.
संस्कृतिकरण के स्रोतों का वर्णन करें।।
उत्तर-
श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कई स्रोत हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. संचार तथा यातायात के साधनों का विकास (Development of means of communication and transport)-भारतीय समाज में औद्योगीकरण के बढ़ने से यातायात तथा संचार के साधन भी विकसित होने शुरू हो गए जिस कारण देश के अलग-अलग भागों में उद्योगों का विकास होना शुरू हो गया। उद्योगों के विकास से यातायात के साधन विकसित होने शुरू हो गए जिससे लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से जाना शुरू हो गए। इससे अलग-अलग जातियों में सम्पर्क शुरू हो गए तथा वह इकट्ठे मिल कर रेलगाड़ियों, बसों में सफर करने लग गए। इस प्रकार अलग-अलग जातियों की संस्कृतियों के बीच विचारों, ढंगों का लेनदेन शुरू हुआ जिससे जातियों के सात्मीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई। क्योंकि लोग इकट्ठे सफर करने लग गए इसलिए जाति प्रथा की पवित्रता अपवित्रता के संकल्प को कायम रखना मुश्किल हो गया।

इस प्रकार यातायात तथा संचार के साधनों के विकास ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ सम्पूर्ण देश में इस प्रक्रिया को प्रभावित किया। इन साधनों की सहायता से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सम्पूर्ण देश में फैल गई। अब हम कोई भी चीज़ खरीदने से पहले दुकानदार से यह नहीं पूछते कि वह किस जाति का है। इन साधनों की सहायता से लोग अपने घरों से बाहर निकल आए तथा दूर-दूर के लोगों से सम्पर्क रखने लग गए। इस प्रकार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को फैलाने में इन साधनों की काफ़ी बड़ी भूमिका रही है।

2. शहरीकरण का बढ़ना (Increasing Urbanization)-1947 के बाद भारत में उद्योगों का विकास तेज़ी से हुआ जिस कारण कई शहर अस्तित्व में आए। शहरों में बहुत-सी जातियों, धर्मों के लोग रहते हैं तथा वहां की जनसंख्या भी काफ़ी अधिक होती है। शहरों में रहने वाले लोगों को यह तक पता नहीं होता कि उनका पड़ौसी कौन है तथा वह किस जाति का है। इन स्थितियों का फायदा उन्होंने उठाया जो जातीय संस्तरण में निम्न स्थानों पर थे। वह जब शहरों की तरफ गए तो उन्होंने अपने आप को आदर्श जाति का सदस्य बताना शुरू कर दिया। उन्होंने आदर्श जाति के लोगों के जीवन ढंगों को अपनाना शुरू कर दिया। शहरों में वर्ग व्यवस्था का अधिक महत्त्व होता है तथा लोग व्यक्ति की जाति नहीं बल्कि उसकी सामाजिक स्थिति को देखकर उसका सम्मान करते हैं। इस प्रकार शहरीकरण की प्रक्रिया के बढ़ने से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया काफ़ी प्रभावित हुई है।

3. धार्मिक तथा सामाजिक सुधार आन्दोलन (Socio-religious reform movements)—जाति प्रथा ने भारतीय समाज को हजारों वर्षों से जकड़ा हुआ था। इसके बंधन इतने मज़बूत थे कि कोई भी इस व्यवस्था के विरुद्ध नहीं जा सकता था। अगर कोई इसके विरुद्ध जाता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। वह जातियां तो बहुत ही तंग थीं जिनका सदियों से शोषण होता आया था। जाति व्यवस्था के प्रतिबंधों के कारण ही यह लोग सामाजिक व्यवस्था में भी ऊपर नहीं उठ सकते थे। इसलिए जाति प्रथा के विरुद्ध कई सामाजिक तथा धार्मिक आन्दोलन शुरू हुए तथा बहुत से समाज सुधारकों ने इनका विरोध किया। राजा राम मोहन राए, स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फूले इत्यादि ने भी कई सामाजिक आन्दोलन शुरू किए। यह सभी सामाजिक आन्दोलन जाति प्रथा को कमजोर करना चाहते थे।
उन्होंने शोषित जातियों तथा स्त्रियों की स्थिति को ऊपर उठाने के बहुत प्रयास किए। महात्मा गांधी तथा डॉ० बी० आर० अंबेदकर ने भी इस कार्य में काफ़ी योगदान दिया। महात्मा गांधी ने शोषित जातियों को ‘हरिजन’ का नया नाम दिया। आर्य समाज तथा ब्रह्मों समाज ने जाति प्रथा तथा भेदभाव का काफ़ी विरोध किया। उन्होंने उच्च जातियों की सर्वोच्चता खत्म करने के प्रयास किए। इन समाज सुधारकों ने लोगों को जागृत करने के प्रयास किए। अन्तर्जातीय विवाह भी इन आन्दोलनों के कारण शुरू हुए। इस प्रकार जाति प्रथा के बंधनों में कमी आई तथा संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को उत्साह प्राप्त हुआ।

4. पश्चिमी शिक्षा (Western Education) अंग्रेजों के भारत आने से पहले शिक्षा धर्म पर आधारित होती थी। परन्तु अंग्रेजों ने भारत आने के बाद सबसे पहले भारत में अपनी संस्कृति को लागू करने का प्रयास किया। उन्होंने सभी जातियों के लोगों के साथ समानता का व्यवहार करना शुरू किया। उन्होंने स्कूल, कॉलेज खोले तथा प्रत्येक जाति के व्यक्तियों के लिए शिक्षा का प्रबन्ध किया। अंग्रेज़ों से पहले भारत में धार्मिक शिक्षा दी जाती थी, परन्तु उन्होंने पश्चिमी शिक्षा देनी शुरू की जो कि विज्ञान तथा तर्क के ऊपर आधारित थी। उन्होंने बहुत-सी शैक्षिक संस्थाएं शुरू की जहां प्रत्येक जाति का व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर सकता था। उनसे पहले स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था, परन्तु अंग्रेज़ों ने लड़कियों के लिए स्कूल, कॉलेज शुरू किए। बहुत से स्कूलों, कालेजों में लड़के, लड़कियाँ इकट्ठे शिक्षा प्राप्त करते थे। इस प्रकार पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था ने जाति प्रथा के भेदभाव तथा उच्चता निम्नता की भावना को खत्म किया। इससे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को उत्साह प्राप्त हुआ तथा प्राचीन भारतीय सामाजिक कीमतों में परिवर्तन आया।

5. अलग-अलग पेशे (Different Occupations)-जाति व्यवस्था की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता थी कि इसमें व्यक्ति को अपनी जाति का ही पेशा अपनाना पड़ता था। उसका पेशा उसकी इच्छा पर नहीं बल्कि उसकी जाति पर निर्भर करता था। वह तमाम आयु उस पेशे को बदल नहीं सकता था। परन्तु अंग्रेज़ों के आने के पश्चात् भारत में बड़े-बड़े उद्योग शुरू हुए। उत्पादन घरों से निकल कर कारखानों में चला गया। इससे समाज में पूंजीवादी व्यवस्था शुरू हुई तथा बहुत से पेशे अस्तित्व में आ गए। उद्योगों में श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण को महत्त्व हुआ। अब प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता तथा इच्छा के अनुसार पेशे को अपना सकता है। व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार शिक्षा लेकर तथा उसके अनुसार पेशे को अपना सकता है। समाज में बहुत से पेशे सामने आए। इस प्रकार बहुत से पेशों के आगे आने के कारण जाति प्रथा में बंधन कमज़ोर पड़ गए जिससे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बल मिला।

6. नयी आर्थिक व्यवस्था (New Economic System)-भारतीय समाज को बदलने में अंग्रेज़ी सरकार की बहुत बड़ी भूमिका रही है। अंग्रेजों से पहले व्यक्ति को अपनी जाति का पेशा अपनाना पड़ता था। व्यक्ति ने जिस जाति में जन्म लिया है, उसे उस जाति का ही पेशा अपनाना पड़ता था। परन्तु अंग्रेजों के भारत आने के पश्चात् यहां बहुत से उद्योग स्थापित हुए। उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। उद्योगों के कारण घरेलू उत्पादन खत्म हो गया जिस कारण उन्हें घरों से बाहर निकलकर अन्य पेशों को अपनाना पड़ गया।

इससे समाज में पैसे का महत्त्व बढ़ गया। व्यक्ति अब पैसा कमाने के लिए कोई भी कार्य कर लेता है। व्यक्ति को अब पैसे के आधार पर सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार व्यक्ति की स्थिति पैसे से जुड़ गई है। जिस व्यक्ति के पास अधिक पैसा होता है उसकी स्थिति तथा सम्मान समाज में अधिक होता है। व्यक्ति को पैसा कमाने के बहुत से मौके प्राप्त हुए। इससे लोगों के रहने-सहने के स्तर में काफ़ी अन्तर आ गया। इस नई आर्थिक व्यवस्था से अस्पृश्यता जैसी समस्या तो बिल्कुल ही खत्म हो गई। अलग-अलग जातियों के बीच में से अन्तर भी खत्म हो गया। नई आर्थिक व्यवस्था ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बल दिया तथा इसका प्रभाव बढ़ गया।

7. नई कानून व्यवस्था (New Legal System)-भारत में आने के पश्चात् अंग्रेजों ने नई कानून व्यवस्था शुरू की तथा प्रत्येक जाति के लोगों से समानता का व्यवहार करना शुरू किया। प्राचीन भारतीय समाज में एक ही अपराध के लिए अलग-अलग जातियों के लोगों को अलग-अलग सज़ा मिलती थी। अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को खत्म कर दिया। 1947 के बाद तो इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से खत्म कर दिया। भारत का नया संविधान बनाया गया जिससे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बल मिला। सरकार ने शोषित वर्गों को ऊँचा उठाने के बहुत प्रयास किए। उनके लिए सरकारी नौकरियों तथा शैक्षिक संस्थाओं में स्थान आरक्षित रखे गए तथा उन्हें नौकरियां भी दी गईं।

बहुत से कानून बनाए गए जिससे जाति व्यवस्था प्रभावित हुई। 1955 में Untouchability Offence Act पास हुआ जिसके अनुसार अस्पृश्यता को कानूनी तौर पर अपराध घोषित कर दिया गया। 1954 में Special Marriage Act के पास होने से अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्राप्त हुई तथा अन्तर्विवाह के नियम को खत्म करने का प्रयास किया गया। 1937 में Arya Marriage Validation Act पास हुआ जिसके अनुसार दो आर्य समाजियों को आपस में विवाह करवाने की मंजूरी मिल गई। संविधान ने किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग, धर्म, जाति के आधार पर भेदभाव करने की पाबंदी लगा दी। शोषित जातियों के लोगों को बहुत-सी सुविधाएं दी गईं। इस प्रकार नई कानून व्यवस्था ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को प्रभावित किया।

8. राजनीतिक प्रभाव (Political Effect) स्वतन्त्रता के बाद भारत में नई लोकतान्त्रिक कद्रों-कीमतों का विकास हआ। संविधान ने देश के प्रत्येक नागरिक को कई प्रकार के राजनीतिक अधिकार दिए। पिछड़ी जातियों के लोगों को आगे बढ़ने के बहुत से मौके प्राप्त हुए। जाति प्रथा के भेदभावों को खत्म करने के लिए राजनीतिक जागति को लाया गया। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए कई राजनीतिक दल बनाए गए जिनमें सभी जातियों के लोगों ने मिलजुल कर भाग लिया। लोग इकट्ठे मिल कर जेलों में गए तथा इकट्ठे ही रहे। इस स्थिति में जाति व्यवस्था के भेदभावों का खात्मा होना शुरू हो गया। अब पिछड़े वर्ग की राजनीतिक तौर पर बहुत महत्ता है। इतनी संख्या काफी अधिक है जिस कारण इन्हें काफ़ी महत्त्व दिया जाता है। इनके लिए संसद् तथा राज्य विधान सभाओं में स्थान आरक्षित रखे गए हैं। यही कारण था कि पिछड़े तथा शोषित वर्गों के लिए अपने आदर्श वर्गों के जीवन ढंगों को अपनाना आसान हो गया तथा संस्कृतिकरण की प्रक्रिया काफ़ी बढ़ गई।

9. आधुनिक शिक्षा (Modern Education)-प्राचीन समय में शिक्षा धर्म के आधार पर दी जाती थी। अंग्रेज़ों ने भारत आने के पश्चात् पश्चिमी शिक्षा के ऊपर काफ़ी बल दिया तथा बहुत से स्कूल, कॉलेज शुरू किए। स्वतन्त्रता के बाद संविधान में भी कहा गया कि शिक्षा धर्म के आधार पर नहीं बल्कि सैकुलर आधार पर दी जाएगी। इस कारण अब शिक्षा सैकुलर आधार पर दी जाती है। नई शिक्षा का सबसे पहला मूल मन्त्र यह है कि सभी व्यक्ति समान हैं। शिक्षा से ही व्यक्ति जाति प्रथा के बन्धनों को तोड़ कर बाहर निकलता है। शिक्षा से व्यक्ति उच्च पद प्राप्त कर लेता है तथा अपनी स्थिति भी बदल लेता है। शिक्षा लेकर व्यक्ति धीरे-धीरे समाज में अपनी स्थिति तथा जाति को सुधार लेता है। इस प्रकार आधुनिक शिक्षा भी संस्कृतिकरण का स्रोत है।

पश्चिमीकरण एवं संस्कृतिकरण PSEB 12th Class Sociology Notes

  • संस्कृति स्वयं उत्पन्न नहीं होती बल्कि यह सीखा हुआ व्यवहार है। पश्चिमीकरण तथा संस्कृतिकरण ऐसी दो सांस्कृतिक प्रक्रियाएं हैं जिन्होंने भारतीय समाज को काफ़ी अधिक प्रभावित किया है।
  • पश्चिमीकरण का सिद्धांत एम० एन० श्रीनिवास (M. N. Srinivas) ने दिया था। उनके अनुसार पश्चिमीकरण वह प्रक्रिया है जिसने पिछले 150 वर्षों के दौरान अंग्रेज़ी शासन के समय भारतीय समाज के अलग-अलग क्षेत्रों जैसे कि तकनीक, संस्थाएं, विचारधारा, मूल्यों इत्यादि में परिवर्तन ला दिया था।
  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया जनसंख्या के किसी विशेष समूह तक ही सीमित नहीं थी। जिन लोगों ने पश्चिमी शिक्षा प्राप्त की तथा जिन्होंने सरकारी नौकरियां करनी शुरू कर दी, वह इस प्रक्रिया से काफ़ी अधिक प्रभावित हुए।
  • पश्चिमीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में बहुत-से समाज-सुधारकों ने काफ़ी बड़ी भूमिका अदा की। उन्होंने कई समाज सुधार आंदोलन चलाए तथा समाज में बहुत से परिवर्तन आए।
  • पश्चिमीकरण का भारतीय समाज पर काफ़ी प्रभाव पड़ा जैसे कि जातिगत अंतरों की कमी, शिक्षा का बढ़ना, रहने-सहने तथा खाने-पीने में परिवर्तन, यातायात व संचार के साधनों का विकास, स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन इत्यादि।
  • संस्कृतिकरण की प्रक्रिया जाति व्यवस्था से जुड़ी हुई है तथा यह संकल्प भी एम० एन० श्रीनिवास ने दिया था। उनके अनुसार जब निम्न जातियों के लोग उच्च जातियों के रहने सहने, खाने-पीने के ढंगों को अपनाकर अपनी जाति परिवर्तन करने का प्रयास करती है तो इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते हैं।
  • श्रीनिवास ने ब्राह्मणीकरण के स्थान पर संस्कृतिकरण शब्द का प्रयोग किया क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जिस जाति की नकल की जा रही है, वह ब्राह्मण ही हो। वह क्षत्रिय या वैश्य भी हो सकते हैं।
  • भारतीय ग्रामीण समाज में एक अन्य संकल्प सामने आता है जिसे प्रबल जाति कहते हैं। श्रीनिवास के अनुसार
    प्रबल जाति वह है जिसके पास गाँव की सबसे अधिक भूमि होती है, जिसकी जनसंख्या अधिक होती है तथा जो स्थानीय संस्तरण में ऊँचा स्थान रखती है।
  • संदर्भ समूह (Reference Group)—वह समूह जिसके अनुसार व्यक्ति अपने व्यवहार के तौर-तरीकों, खाने-पीने के ढंग, रहने के ढंग इत्यादि के अनुसार ढालता है।
  • द्विज (Twice Born)-हिंदू समाज की प्रथम तीन जातियों को द्विज कहा जाता है। उन्हें जनेऊ संस्कार पूर्ण करना पड़ता था।
  • ऊर्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता (Vertical Social Mobility) ऊर्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता का अर्थ है व्यक्तियों अथवा समूहों का एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाना। इसमें वर्ग, व्यवसाय तथा स्थिति में परिवर्तन शामिल है।
  • पदक्रम (Hierarchy)—समूह में स्थितियों की वह व्यवस्था जिससे व्यक्तियों की स्थिति निश्चित होती थी।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
परिवर्तन की संरचनात्मक प्रक्रिया है :
(क) केवल आधुनिकीकरण
(ख) केवल वैश्वीकरण
(ग) आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में किसका विचार था कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया वैयक्तिक बंधनों से अवैयक्तिक सम्बन्धों की ओर जाती है :
(क) दुर्थीम
(ख) वैबर
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) वैबर।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से किसका विचार था कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया यांत्रिक एकता से जैविक एकता की ओर परिवर्तन है :
(क) दुर्थीम
(ख) वैबर
(ग) कार्ल मार्क्स
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) दुर्थीम।

प्रश्न 4.
वस्तुओं व सेवाओं के सीमा पार लेन-देन की मात्रा व प्रकार में वृद्धि तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रसार के द्वारा विश्व के देशों में बढ़ रही अन्तर्निर्भरता को कहते हैं :
(क) पश्चिमीकरण
(ख) आधुनिकीकरण
(ग) आधुनिकीकरण
(घ) वैश्वीकरण।
उत्तर-
(घ) वैश्वीकरण। .

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण का अर्थ है :
(क) व्यापार बाधाओं में कटौती
(ख) तकनीकी का स्वतन्त्र प्रवाह
(घ) कोई नहीं।
(ग) दोनों
उत्तर-
(ग) दोनों।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. एक करिश्माई नेता वह है जो अपने व्यक्तित्व द्वारा लोगों को प्रभावित करने का ………….. रखता है।
2. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में,…………………. स्तर व्यक्ति के दृष्टिकोण व व्यक्तित्व के विशिष्ट लक्षणों में परिवर्तन दिखाता है।
3. एल० पी० जी० का अभिप्राय लिब्राइजेशन, ……….. तथा ………. है।
4. सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में स्वामित्व के हस्तान्तरण में परिवर्तन ……………………… कहलाता है।
5. …………………. विश्वभर के देशों में बढ़ रही आर्थिक अन्तर्निर्भरता है।
उत्तर-

  1. सामर्थ्य,
  2. सामाजिक,
  3. प्राइवेटाइज़ेशन, ग्लोब्लाइज़ेशन,
  4. निजीकरण,
  5. वैश्वीकरण।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाए-

1. आधुनिकीकरण की गति एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न होती है।
2. ब्रिटिश नीति का लघु स्तर पर कम-से-कम हस्तक्षेप होने के कारण समाज में औद्योगीकरण, नगरीकरण व न्याय व्यवस्था में न्यूनतम अथवा बिल्कुल ही परिवर्तन नहीं आया।
3. आधुनिकीकरण एक क्रमगत प्रक्रिया है जिससे एक क्षेत्र में परिवर्तन से दूसरे क्षेत्र में परिवर्तन होता है।।।
4. वैश्वीकरण की प्रक्रिया विश्व के विभिन्न देशों में भिन्न होती है।
5. वैश्वीकरण अन्तर्निर्भरता पर जोर नहीं देता है।
उत्तर-

  1. सही,
  2. गलत,
  3. सही,
  4. सही,
  5. गलत।

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D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
आधुनिकीकरण — अवैयक्तिक बंधन
वैश्वीकरण — यांत्रिक एकता
दुर्थीम– वैश्विक गाँव
वैबर — तकनीकी परिवर्तन
मार्शल मैक्ल्यूहन — अन्तर्निर्भरता
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
आधुनिकीकरण — तकनीकी परिवर्तन
वैश्वीकरण — अन्तर्निर्भरता
दुर्थीम — एकता
वैबर — अवैयक्तिक बंधन
मार्शल मैक्ल्यूहन — वैश्विक गाँव

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. वैश्विक गाँव की अवधारणा किसने दी है ?
उत्तर-मार्शल मैक्ल्यूहन ने।

प्रश्न 2. यांत्रिक तथा जैविक एकता की अवधारणा किसने दी है ?
उत्तर-इमाईल दुर्शीम ने।

प्रश्न 3. सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में स्वामित्व के हस्तांतरण का नियंत्रण क्या कहलाता है ?
उत्तर-निजीकरण।

प्रश्न 4. एक प्रक्रिया बाजार सिद्धान्तों की दिशा में अर्थव्यवस्था नवीकरण की प्रक्रिया क्या कहलाती है ?
उत्तर-उदारीकरण।

प्रश्न 5. करिश्माई नेता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-वह नेता जो अपने व्यक्तित्व से जनता को प्रभावित करता है उसे करिश्माई नेता कहते हैं।

प्रश्न 6. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में चार क्षेत्रों के नाम लिखें।
उत्तर-तकनीक, कृषि, उद्योग तथा वातावरण आधुनिकता के चार क्षेत्र हैं।

प्रश्न 7. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के तीन कारण लिखें।
उत्तर-नगरीकरण, औद्योगीकरण, आधुनिक शिक्षा, आधुनिकीकरण के सामने आने के कारण हैं।

प्रश्न 8. आधुनिकीकरण की दो विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर-

  1. यह लगातार तथा लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है।
  2. इससे समाज के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन आता है।

प्रश्न 9. वैश्वीकरण की दो विशेषताओं का उल्लेख करें।
अथवा
वैश्वीकरण की विशेषताओं के दो नाम लिखो।
उत्तर-

  1. इस प्रक्रिया से अलग-अलग देशों में अन्तर्निर्भरता बढ़ती है।
  2. इससे लोगों का, तकनीक व विचारों का मुक्त प्रवाह होता है।

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प्रश्न 10. करिश्माई नेता से आप क्या समझते है ?
उत्तर-वह नेता जो अपने व्यक्तित्व से जनता को प्रभावित करता है उसे करिश्माई नेता कहते हैं।

प्रश्न 11. एल० पी० जी० (LPG) का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-L- Liberalisation (उदारीकरण), P-Privatisation (निजीकरण) तथा G-Globalisation (वैश्वीकरण)।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिकीकरण से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आधुनिकीकरण का अर्थ जीवन जीने के आधुनिक तथा नए ढंगों व नए मूल्यों को अपना लेना। पहले इसका अर्थ काफ़ी तंग घेरे में लिया जाता था, परन्तु अब इसमें कृषि आर्थिकता तथा औद्योगिक आर्थिकता में परिवर्तन को भी शामिल किया जाता है।

प्रश्न 2.
आधुनिकीकरण की किन्हीं दो विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख करें।
उत्तर-

  1. यह एक क्रान्तिकारी प्रक्रिया है जिस में समाज परंपरागत से आधुनिक हो जाता है। इसमें लोगों के जीवन जीने के ढंगों में पूर्ण परिवर्तन आ जाता है।
  2. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें परंपरागत रूप से आधुनिक रूप में परिवर्तित होने में कई पीढ़ियां लग जाती हैं।

प्रश्न 3.
आधुनिकीकरण के दो कारणों का संक्षेप में उल्लेख करें।
अथवा
आधुनिकीकरण के तीन कारणों के नाम लिखिए।
उत्तर-

  • पश्चिमी शिक्षा के आने से लोगों ने पढ़ना लिखना शुरू किया जिससे उन्होंने पश्चिमी देशों के आधुनिक विचारों को अपनाना शुरू कर दिया।
  • औद्योगीकरण के कारण इस क्षेत्र में नए आविष्कार हुए जिस कारण मनुष्यों का कार्य मशीनों ने ले लिया। इससे आधुनिकीकरण आ गया।
  • अंग्रेजों ने भारत में अपनी संस्कृति को फैलाना शुरू किया जिस कारण यहां पर आधुनिकीकरण आना शुरू हुआ।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
वैश्वीकरण।
उत्तर-
वैश्वीकरण का साधारण शब्दों में अर्थ है अलग-अलग देशों के बीच वस्तुओं, सेवाओं, विचारों, सूचना, लोगों तथा पूँजी का बेरोक-टोक प्रवाह। इससे उन देशों की आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक सीमाओं के बंधन टूट जाते हैं। यह सब कुछ संचार के विकसित साधनों के कारण मुमकिन हुआ है।

प्रश्न 5.
निजीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
सरकार ने कई निगमों का निर्माण किया है जिन्हें वह कई बार व्यक्तिगत हाथों में बेच देते हैं। इस प्रकार जनतक क्षेत्र की या सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में बेचने की प्रक्रिया को निजीकरण कहते हैं। उदाहरण के लिए नाल्को (NALCO), वी० एस० एन० एल० (V.S.N.L.) इत्यादि।

प्रश्न 6.
उदारीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
नियंत्रित अर्थव्यवस्था से अनावश्यक प्रतिबन्धों को हटाना उदारीकरण है। उद्योगों तथा व्यापार से अनावश्यक प्रतिबन्धों को हटाना ताकि अर्थव्यवस्था अधिक प्रगतिशील, मुक्त तथा Competitive बन सके, उदारीकरण कहलाता है। यह आर्थिक प्रक्रिया व समाज में आर्थिक परिवर्तनों की प्रक्रिया है।

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IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
पारम्परिक व आधुनिक समाज में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-

  • परंपरागत समाजों में गुज़ारे पर आधारित आर्थिकता होती है अर्थात् उत्पादन केवल आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए किया जाता है जबकि आधुनिक समाजों में बाजार को देख कर किया जाता है।
  • परंपरागत समाजों में काफी साधारण रूप का श्रम विभाजन पाया जाता है जोकि लिंग पर आधारित होता है जबकि आधुनिक समाजों में श्रम विभाजन विशेषीकरण पर आधारित होती है जिसमें कई आधार होते हैं।
  • परंपरागत समाजों के लोग स्थानीय रूप से अन्तर्निर्भर होते हैं। जबकि आधुनिक समाजों में सम्पूर्ण विश्व के लोग वैश्विक रूप से अन्तर्निर्भर होते हैं।
  • परंपरागत समाजों में तकनीक बिल्कुल साधारण स्तर की होती है जबकि आधुनिक समाजों में तकनीक काफ़ी अधिक विकसित होती है।

प्रश्न 2.
यांत्रिक व जैविक एकता में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर-

  • यांत्रिक एकता व्यक्ति को समाज के साथ बिना किसी बिचौलिए के जोड़ देती है। आंगिक एकता में व्यक्ति समाज पर इस कारण निर्भर हो जाता है क्योंकि वह अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होता है।
  • यांत्रिक एकता समानताओं पर आधारित होती है जबकि जैविक एकता का आधार श्रम विभाजन है।
  • यांत्रिक एकता की शक्ति सामूहिक चेतना की शक्ति में होती है। जैविक एकता की उत्पत्ति कार्यात्मक भिन्नता पर आधारित होती है।
  • यांत्रिक एकता व्यक्तित्व के विकास के विरुद्ध है जबकि जैविक एकता व्यक्तित्व के विकास का पूर्ण मौका प्रदान करती है।
  • यांत्रिक एकता आदिम तथा प्राचीन समाजों में मिलती है जबकि जैविक एकता आधुनिक समाजों की विशेषता है जिनका प्रमुख लक्षण श्रम विभाजन है।

प्रश्न 3.
आधुनिकीकरण क्या है ? इसके दोनों स्तरों का उल्लेख करें।
उत्तर-
आधुनिकीकरण का अर्थ है जीवन जीने के आधुनिक तथा नए ढंगों तथा नए मूल्यों को अपना लेना। पहले इसका अर्थ काफी तंग घेरे में लिया जाता था परन्तु अब इसमें कृषि आर्थिकता से औद्योगिक आर्थिकता में परिवर्तन को भी शामिल किया जाता है। इसने परंपरागत लोगों तथा पुराने बंधनों में बंधे हुए लोगों को वर्तमान स्थितियों के अनुसार बदल दिया है। इससे लोगों की विचारधारा, पसंद, जीवन जीने के ढंगों में बहुत से परिवर्तन आए। दूसरे शब्दों में वैज्ञानिक तथा तकनीकी आविष्कारों ने सामाजिक संबंधों की सम्पूर्ण व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन ला दिए तथा परंपरागत विचारधारा के स्थान पर नई विचारधारा सामने आ गई। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया प्रत्येक समाज की आवश्यकताओं तथा स्थितियों के अनुसार अलग-अलग होती है।

प्रश्न 4.
वैश्वीकरण से क्या अभिप्राय है ? दो प्रकार के वैश्वीकरण की व्याख्या करें।
उत्तर-
वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें देश की अर्थव्यवस्था का संबंध अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ा जाता है। साधारण शब्दों में एक देश के अन्य देशों के साथ वस्तुओं, सेवाओं, व्यक्तियों के बीच बेरोक-टोक आदान-प्रदान को वैश्वीकरण कहा जाता है। इस प्रक्रिया की सहायता से अलग-अलग देशों की अर्थव्यवस्थाएं एकदूसरे के सम्पर्क में आती हैं। देशों में व्यापार का मुक्त आदान-प्रदान होता है। इस प्रकार विश्व की अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहा जाता है। वैश्वीकरण के कई प्रकार होते हैं जैसे कि आर्थिक वैश्वीकरण जिसमें विश्व की अलग-अलग अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे से जुड़ जाती हैं तथा तकनीकी वैश्वीकरण जिसमें एक देश में आविष्कार हुई तकनीक अन्य देशों में पहुँच जाती है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण की अवधारणा को उदाहरण सहित स्पष्ट करें।
उत्तर-
वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें देश की अर्थव्यवस्था का संबंध अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ा जाता है। साधारण शब्दों में एक देश के अन्य देशों के साथ वस्तुओं, सेवाओं, व्यक्तियों के बीच बेरोक-टोक आदान-प्रदान को वैश्वीकरण कहा जाता है। इस प्रक्रिया की सहायता से अलग-अलग देशों की अर्थव्यवस्थाएं एकदूसरे के सम्पर्क में आती हैं। देशों में व्यापार का मुक्त आदान-प्रदान होता है। इस प्रकार विश्व की अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहा जाता है। वैश्वीकरण के कई प्रकार होते हैं जैसे कि आर्थिक वैश्वीकरण जिसमें विश्व की अलग-अलग अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे से जुड़ जाती हैं तथा तकनीकी वैश्वीकरण जिसमें एक देश में आविष्कार हुई तकनीक अन्य देशों में पहुँच जाती है।

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिकीकरण से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं का विस्तार सहित वर्णन करें।
अथवा
आधुनिकीकरण पर एक नोट लिखो।
अथवा
आधुनिकीकरण की विशेषताओं की विस्तृत रूप में व्याख्या करो।
उत्तर-
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आधुनिक समाजों के विकसित होने पर ही पाई जाती है। भारतीय समाज के ऊपर आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ अंग्रेज़ों के भारत पर राज्य करने के पश्चात् हुआ जब लोग पश्चिमीकरण (पश्चिमी संस्कृति) के सम्पर्क में आए तो उनमें कई प्रकार के परिवर्तन आ गए। आधुनिकीकरण आधुनिक समाज की एक विशेषता है। एम० एन० श्रीनिवास के अनुसार,” आधुनिकीकरण एवं पश्चिमीकरण इन दोनों में अन्तर पाया जाता है। उनके अनुसार पश्चिमीकरण का संकल्प आधुनिकीकरण के संकल्प से अधिक नैतिक दृष्टिकोण से निरपेक्षता संकल्प है। इससे किसी भी संस्कृति के अच्छे व बुरे होने का ज्ञान नहीं होता है जबकि आधुनिकीकरण एक कीमत रहित संकल्प नहीं है क्योंकि आधुनिकीकरण को सदैव उचित, ठीक एवं अच्छा ही माना जाता है। इस कारण ही श्रीनिवास ने आधुनिकीकरण के स्थान पर पश्चिमीकरण के प्रयोग को ही महत्त्व दिया। इन दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं बतलाया। परन्तु श्रीनिवास जी ने पश्चिमीकरण को ही सदैव महत्त्व दिया है। इस प्रकार उनके विचारों से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया प्रगतिवादी होती है। इस प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिए अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने विचार प्रकट किए हैं-

1. मैरियन जे० लैवी (Marrion J. Levy) के अनुसार, “आधुनिकीकरण की मेरी परिभाषा शक्ति के बेजान साधनों एवं हथियारों का प्रयोग जो गतिविधियों के परिणामों को बढ़ाते हैं के ऊपर आधारित है। मैं इन दोनों तत्त्वों के बीच प्रत्येक को अटूट क्रम का आधार समझता हूं। एक समाज का कम या अधिक आधुनिक होना तब तक समझा जाता है जब तक इसके सदस्य शक्ति के बेजान साधनों का प्रयोग अपनी गतिविधियों के परिणामों को बढ़ाने के लिए करते हैं। इन दोनों में से कोई भी तत्त्व समाज विशेष में न तो पूरक एवं गायब है, न ही विशेष तौर पर उपस्थित होता है।”

2. वीनर (Veiner) के अनुसार, आधुनिकीकरण के कई पक्ष हैं-

  • राजनीतिक आधुनिकीकरण (Political Modernization)—इसमें महत्त्वपूर्ण संस्थाएं, राजनीतिक दलों, सांसदों, वोट अधिकार तथा गुप्त वोटों जो सहभागी निर्णय को मिलने में समर्थ हों, का विकास शामिल है।
  • सांस्कृतिक आधुनिकीकरण (Cultural Modernization)-प्रतिपूरक रूप से धर्म-निष्पक्षता तथा विचारधाराओं से लगाव पैदा करना है।
  • आर्थिक आधुनिकीकरण (Economic Modernization)—यह औद्योगीकरण से भिन्न होता है।

3. डॉ. योगेन्द्र सिंह (Dr. Yogender Singh) के अनुसार, “साधारणत: आधुनिक होने का तात्पर्य ‘फैशनेबल’ से लिया गया है। आधुनिकीकरण एक सांस्कृतिक धारणा है जिसमें तार्किक, सर्वव्यापक दृष्टिकोण, हमदर्दी, वैज्ञानिक विश्व दृष्टि, मानवता, तकनीकी प्रगति आदि शामिल हैं।”

4. आईनस्टैड (Eienstadt) के अनुसार, “ऐतिहासिक तौर पर आधुनिकीकरण एक परिवर्तन की प्रक्रिया है। उस किस्म की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की तरफ उन्मुख है, जो 17वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक पश्चिमी यूरोपीय देशों एवं अमेरिका में विकसित हुआ और धीरे-धीरे सम्पूर्ण यूरोपीय देशों में फैल गया। 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में जिनका प्रसार दक्षिण अमेरिका, एशिया एवं अफ्रीका के महाद्वीप में हुआ।” ।

इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया वह प्रक्रिया है, जिसमें पुरानी व्यवस्था में परिवर्तन आ जाता है। उसके स्थान पर नई एवं अच्छी व्यवस्था स्थान ले लेती है। यह प्रक्रिया किसी भी समाज में पाई जाती है और इसकी मात्रा अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होती है।

आधुनिकीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Modernization)-

1. इस प्रक्रिया के साथ शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण का विकास होता है (It leads to the development of Urbanization & Industrialization)-शहरों के साथ औद्योगिकीकरण भी पाया जाता है। जहां-जहां पर भी उद्योगों की स्थापना हुई, वहीं-वहीं पर शहरों का भी विकास होने लग गया। गांवों की भी अधिक-से-अधिक जनसंख्या शहरों की तरफ जाने लगी। शहरों में प्रत्येक प्रकार की सुविधाएं प्राप्त होती हैं। व्यवसायों की भी अधिकता पाई जाती है। संचार एवं यातायात के साधनों के विकसित होने के कारण शहरी समाज में काफ़ी परिवर्तन आया है। इस कारण शहरों के परिवारों, जाति इत्यादि संस्थाओं में भी काफ़ी परिवर्तन आया। इस कारण ही शहरीकरण एवं संस्कृतिकरण में हम भेद समझते हैं। जहां भी शहरों का विकास हुआ, वहां आधुनिकता पाई जाने लगी। इसी कारण शहर गांवों से अधिक विकसित हुए।

2. इस प्रक्रिया के साथ शिक्षा का प्रसार होता है (This process develops the education)-शिक्षा के क्षेत्र में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ तेजी से विकास हुआ। तकनीकी शिक्षा में काफ़ी प्रगति हुई। प्राचीन काल में केवल ऊंची जाति के ही लोगों को शिक्षा दी जाती थी परन्तु समाज में जैसे प्रगति हुई, उसी प्रकार तकनीकी संस्थाओं की भी आवश्यकता पड़ने लगी। इसी कारण कई तकनीकी केन्द्र भी स्थापित हुए। इसके अतिरिक्त व्यावसायिक शिक्षा का महत्त्व भी बढ़ा। जो व्यक्ति जिस कार्य को करने की शिक्षा प्राप्त करता था, उसको वही काम ही मिल जाया करता था। इस कारण आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी परिवर्तन लाया।

3. इस प्रक्रिया से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भी बढ़ते हैं (It Increases the International relations)आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा विभिन्न देशों में सहयोगिता आरम्भ हुई। यू० एन० ओ० (U.N.O.) के अस्तित्व में आने के पश्चात् प्रत्येक देश की सुरक्षा का भी प्रबन्ध किया जाने लग पड़ा है। संसार में आपसी सम्बन्ध व शांति का वातावरण पैदा करना काफ़ी आवश्यक था। यू० एन० ओ० द्वारा मानवीय अधिकारों को सुरक्षित रखने का यत्न किया गया। इस संस्था द्वारा किसी भी देश की निजी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी यत्न किए गए। शांति को बरकरार रखना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है। जब भी दो देशों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा होती है तो U.N.O. की कोशिश के साथ दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधारे जाते हैं। इस प्रकार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ सहयोगिता का वातावरण बना दिया गया है।

4. इस प्रक्रिया के कारण सामाजिक विभेदीकरण का विकास होता है (This process develops & increases the process of Social differentiation)-आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ जैसे-जैसे हमारा समाज जटिल होता गया, तो समाज में विभेदीकरण की प्रक्रिया और भी तेज़ होती गई। समाज में भौतिक क्रान्ति के साथ-साथ सामाजिक विभेदीकरण में भी वृद्धि हो गई। इस प्रक्रिया के द्वारा हमें उस स्थिति का ज्ञान हो जाता है, जिस कारण समाज विभिन्न भागों में बंटा होता है। यह प्रक्रिया मानव एवं मानव के बीच और समूह एवं समूह के बीच वैर भाव की भावनाओं को विकसित ही नहीं होने देती है। इस प्रकार जब भी समाज साधारण अवस्था से कठिन अवस्था की तरफ बढ़ता है तो विभेदीकरण अवश्य पाया जाता है। कई प्रकार की सामाजिक आवश्यकताएं होती हैं। इस प्रक्रिया के बिना हम समाज में श्रम-विभाजन नहीं कर सकते। इस प्रकार आधुनिकीकरण में जैसे-जैसे विकास होता है तो समाज के प्रत्येक क्षेत्र जैसे कि धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक इत्यादि में उन्नति होने लग जाती है। इस कारण विभेदीकरण की प्रक्रिया भी तेज़ हो जाती है।

5. इससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है (It increases Social Mobility)—सामाजिक गतिशीलता आधुनिक समाजों की मुख्य विशेषता होती है। शहरी समाज में श्रम विभाजन, विशेषीकरण, देशों की भिन्नता, उद्योग, व्यापार, यातायात के साधन तथा संचार के साधनों इत्यादि ने सामाजिक गतिशीलता को बढ़ा दिया है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता, बुद्धि इत्यादि के साथ ग़रीब से अमीर बन सकता है। व्यक्ति जिस पेशे में लाभ देखता है उसी को अपनाना शुरू कर देता है। पेशे के सम्बन्ध में वह स्थान परिवर्तन भी कर लेता है। इस प्रकार सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया के द्वारा परम्परागत कीमतों की जगह नई कद्रों-कीमतों का भी विकास हुआ है।

6. इससे समाज सुधारक लहरें आगे आई हैं (Social reform movements came into being due to this) आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा समाज सुधारक लहरों का विकास होना शुरू हो गया। समाज में जब भी परिवर्तन आता है तो उसका समाज पर प्रभाव अच्छा तथा गलत भी होता है। जब हम इस प्रभाव के अच्छे गुणों की तरफ देखते हैं तो हमें समाज में प्रगति होती नज़र आती है। जब हम इसकी बुराइयों की तरफ देखते हैं तो हमें समाज के विघटन के बारे में पता चलना शुरू हो जाता है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा कई समाज सुधारक लहरें पैदा हुईं जिनका मुख्य उद्देश्य समाज में पाई जाने वाली बुराइयों को समाप्त करना होता है ताकि समाज में सन्तुलन बना रहे। इससे समाज में और प्रगति होती है। समाज सुधारक लहरों तथा आन्दोलनों की मदद से समाज में मिलने वाली उन कीमतों को खत्म किया जाता है जो समाज को गिरावट की तरफ ले जाती है। इस तरह इस प्रक्रिया के द्वारा समाज में परिवर्तन आ जाता है।

7. इसके साथ व्यक्ति की स्थिति में परिवर्तन हो जाता है (It changes the status of Individual)आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा स्थिति परिवर्तन भी पाया गया है। सर्वप्रथम हम यह देखते हैं कि प्राचीन समय में जाति विशेष व्यवसाय को अपनाना आवश्यक था। परन्तु आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा एक तरफ के व्यवसायों की अधिकता पाई गई। दूसरी तरफ विशेषीकरण की स्थिति पैदा हो गई। इस प्रकार व्यक्ति की परिस्थितियों में तत्काल परिवर्तन आ गए। जाति प्रथा अलोप हो गई और उसके स्थान पर वर्ग व्यवस्था पैदा होने लग पड़ी। व्यक्ति को स्थिति उसकी योग्यतानुसार प्राप्त होने लगी। इस प्रकार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा सामाजिक संगठन और विभिन्न समूहों की स्थितियों में परिवर्तन आने लग गया।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

प्रश्न 2.
आधुनिकीकरण पर निबन्ध लिखें।
उत्तर-
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आधुनिक समाजों के विकसित होने पर ही पाई जाती है। भारतीय समाज के ऊपर आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ अंग्रेज़ों के भारत पर राज्य करने के पश्चात् हुआ जब लोग पश्चिमीकरण (पश्चिमी संस्कृति) के सम्पर्क में आए तो उनमें कई प्रकार के परिवर्तन आ गए। आधुनिकीकरण आधुनिक समाज की एक विशेषता है। एम० एन० श्रीनिवास के अनुसार,” आधुनिकीकरण एवं पश्चिमीकरण इन दोनों में अन्तर पाया जाता है। उनके अनुसार पश्चिमीकरण का संकल्प आधुनिकीकरण के संकल्प से अधिक नैतिक दृष्टिकोण से निरपेक्षता संकल्प है। इससे किसी भी संस्कृति के अच्छे व बुरे होने का ज्ञान नहीं होता है जबकि आधुनिकीकरण एक कीमत रहित संकल्प नहीं है क्योंकि आधुनिकीकरण को सदैव उचित, ठीक एवं अच्छा ही माना जाता है। इस कारण ही श्रीनिवास ने आधुनिकीकरण के स्थान पर पश्चिमीकरण के प्रयोग को ही महत्त्व दिया। इन दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं बतलाया। परन्तु श्रीनिवास जी ने पश्चिमीकरण को ही सदैव महत्त्व दिया है। इस प्रकार उनके विचारों से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया प्रगतिवादी होती है। इस प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिए अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने विचार प्रकट किए हैं-

1. मैरियन जे० लैवी (Marrion J. Levy) के अनुसार, “आधुनिकीकरण की मेरी परिभाषा शक्ति के बेजान साधनों एवं हथियारों का प्रयोग जो गतिविधियों के परिणामों को बढ़ाते हैं के ऊपर आधारित है। मैं इन दोनों तत्त्वों के बीच प्रत्येक को अटूट क्रम का आधार समझता हूं। एक समाज का कम या अधिक आधुनिक होना तब तक समझा जाता है जब तक इसके सदस्य शक्ति के बेजान साधनों का प्रयोग अपनी गतिविधियों के परिणामों को बढ़ाने के लिए करते हैं। इन दोनों में से कोई भी तत्त्व समाज विशेष में न तो पूरक एवं गायब है, न ही विशेष तौर पर उपस्थित होता है।”

2. वीनर (Veiner) के अनुसार, आधुनिकीकरण के कई पक्ष हैं-

  • राजनीतिक आधुनिकीकरण (Political Modernization)—इसमें महत्त्वपूर्ण संस्थाएं, राजनीतिक दलों, सांसदों, वोट अधिकार तथा गुप्त वोटों जो सहभागी निर्णय को मिलने में समर्थ हों, का विकास शामिल है।
  • सांस्कृतिक आधुनिकीकरण (Cultural Modernization)-प्रतिपूरक रूप से धर्म-निष्पक्षता तथा विचारधाराओं से लगाव पैदा करना है।
  • आर्थिक आधुनिकीकरण (Economic Modernization)—यह औद्योगीकरण से भिन्न होता है।

3. डॉ. योगेन्द्र सिंह (Dr. Yogender Singh) के अनुसार, “साधारणत: आधुनिक होने का तात्पर्य ‘फैशनेबल’ से लिया गया है। आधुनिकीकरण एक सांस्कृतिक धारणा है जिसमें तार्किक, सर्वव्यापक दृष्टिकोण, हमदर्दी, वैज्ञानिक विश्व दृष्टि, मानवता, तकनीकी प्रगति आदि शामिल हैं।”
4. आईनस्टैड (Eienstadt) के अनुसार, “ऐतिहासिक तौर पर आधुनिकीकरण एक परिवर्तन की प्रक्रिया है। उस किस्म की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की तरफ उन्मुख है, जो 17वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक पश्चिमी यूरोपीय देशों एवं अमेरिका में विकसित हुआ और धीरे-धीरे सम्पूर्ण यूरोपीय देशों में फैल गया। 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में जिनका प्रसार दक्षिण अमेरिका, एशिया एवं अफ्रीका के महाद्वीप में हुआ।” ।

इस तरह इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया वह प्रक्रिया है, जिसमें पुरानी व्यवस्था में परिवर्तन आ जाता है। उसके स्थान पर नई एवं अच्छी व्यवस्था स्थान ले लेती है। यह प्रक्रिया किसी भी समाज में पाई जाती है और इसकी मात्रा अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होती है।

आधुनिकीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Modernization)-

1. इस प्रक्रिया के साथ शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण का विकास होता है (It leads to the development of Urbanization & Industrialization)-शहरों के साथ औद्योगिकीकरण भी पाया जाता है। जहां-जहां पर भी उद्योगों की स्थापना हुई, वहीं-वहीं पर शहरों का भी विकास होने लग गया। गांवों की भी अधिक-से-अधिक जनसंख्या शहरों की तरफ जाने लगी। शहरों में प्रत्येक प्रकार की सुविधाएं प्राप्त होती हैं। व्यवसायों की भी अधिकता पाई जाती है। संचार एवं यातायात के साधनों के विकसित होने के कारण शहरी समाज में काफ़ी परिवर्तन आया है। इस कारण शहरों के परिवारों, जाति इत्यादि संस्थाओं में भी काफ़ी परिवर्तन आया। इस कारण ही शहरीकरण एवं संस्कृतिकरण में हम भेद समझते हैं। जहां भी शहरों का विकास हुआ, वहां आधुनिकता पाई जाने लगी। इसी कारण शहर गांवों से अधिक विकसित हुए।

2. इस प्रक्रिया के साथ शिक्षा का प्रसार होता है (This process develops the education)-शिक्षा के क्षेत्र में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ तेजी से विकास हुआ। तकनीकी शिक्षा में काफ़ी प्रगति हुई। प्राचीन काल में केवल ऊंची जाति के ही लोगों को शिक्षा दी जाती थी परन्तु समाज में जैसे प्रगति हुई, उसी प्रकार तकनीकी संस्थाओं की भी आवश्यकता पड़ने लगी। इसी कारण कई तकनीकी केन्द्र भी स्थापित हुए। इसके अतिरिक्त व्यावसायिक शिक्षा का महत्त्व भी बढ़ा। जो व्यक्ति जिस कार्य को करने की शिक्षा प्राप्त करता था, उसको वही काम ही मिल जाया करता था। इस कारण आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने शिक्षा के क्षेत्र में काफ़ी परिवर्तन लाया।

3. इस प्रक्रिया से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भी बढ़ते हैं (It Increases the International relations)आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा विभिन्न देशों में सहयोगिता आरम्भ हुई। यू० एन० ओ० (U.N.O.) के अस्तित्व में आने के पश्चात् प्रत्येक देश की सुरक्षा का भी प्रबन्ध किया जाने लग पड़ा है। संसार में आपसी सम्बन्ध व शांति का वातावरण पैदा करना काफ़ी आवश्यक था। यू० एन० ओ० द्वारा मानवीय अधिकारों को सुरक्षित रखने का यत्न किया गया। इस संस्था द्वारा किसी भी देश की निजी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी यत्न किए गए। शांति को बरकरार रखना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है। जब भी दो देशों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा होती है तो U.N.O. की कोशिश के साथ दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधारे जाते हैं। इस प्रकार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ सहयोगिता का वातावरण बना दिया गया है।

4. इस प्रक्रिया के कारण सामाजिक विभेदीकरण का विकास होता है (This process develops & increases the process of Social differentiation)-आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ जैसे-जैसे हमारा समाज जटिल होता गया, तो समाज में विभेदीकरण की प्रक्रिया और भी तेज़ होती गई। समाज में भौतिक क्रान्ति के साथ-साथ सामाजिक विभेदीकरण में भी वृद्धि हो गई। इस प्रक्रिया के द्वारा हमें उस स्थिति का ज्ञान हो जाता है, जिस कारण समाज विभिन्न भागों में बंटा होता है। यह प्रक्रिया मानव एवं मानव के बीच और समूह एवं समूह के बीच वैर भाव की भावनाओं को विकसित ही नहीं होने देती है। इस प्रकार जब भी समाज साधारण अवस्था से कठिन अवस्था की तरफ बढ़ता है तो विभेदीकरण अवश्य पाया जाता है। कई प्रकार की सामाजिक आवश्यकताएं होती हैं। इस प्रक्रिया के बिना हम समाज में श्रम-विभाजन नहीं कर सकते। इस प्रकार आधुनिकीकरण में जैसे-जैसे विकास होता है तो समाज के प्रत्येक क्षेत्र जैसे कि धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक इत्यादि में उन्नति होने लग जाती है। इस कारण विभेदीकरण की प्रक्रिया भी तेज़ हो जाती है।

5. इससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है (It increases Social Mobility)—सामाजिक गतिशीलता आधुनिक समाजों की मुख्य विशेषता होती है। शहरी समाज में श्रम विभाजन, विशेषीकरण, देशों की भिन्नता, उद्योग, व्यापार, यातायात के साधन तथा संचार के साधनों इत्यादि ने सामाजिक गतिशीलता को बढ़ा दिया है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता, बुद्धि इत्यादि के साथ ग़रीब से अमीर बन सकता है। व्यक्ति जिस पेशे में लाभ देखता है उसी को अपनाना शुरू कर देता है। पेशे के सम्बन्ध में वह स्थान परिवर्तन भी कर लेता है। इस प्रकार सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया के द्वारा परम्परागत कीमतों की जगह नई कद्रों-कीमतों का भी विकास हुआ है।

6. इससे समाज सुधारक लहरें आगे आई हैं (Social reform movements came into being due to this) आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा समाज सुधारक लहरों का विकास होना शुरू हो गया। समाज में जब भी परिवर्तन आता है तो उसका समाज पर प्रभाव अच्छा तथा गलत भी होता है। जब हम इस प्रभाव के अच्छे गुणों की तरफ देखते हैं तो हमें समाज में प्रगति होती नज़र आती है। जब हम इसकी बुराइयों की तरफ देखते हैं तो हमें समाज के विघटन के बारे में पता चलना शुरू हो जाता है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा कई समाज सुधारक लहरें पैदा हुईं जिनका मुख्य उद्देश्य समाज में पाई जाने वाली बुराइयों को समाप्त करना होता है ताकि समाज में सन्तुलन बना रहे। इससे समाज में और प्रगति होती है। समाज सुधारक लहरों तथा आन्दोलनों की मदद से समाज में मिलने वाली उन कीमतों को खत्म किया जाता है जो समाज को गिरावट की तरफ ले जाती है। इस तरह इस प्रक्रिया के द्वारा समाज में परिवर्तन आ जाता है।

7. इसके साथ व्यक्ति की स्थिति में परिवर्तन हो जाता है (It changes the status of Individual)आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा स्थिति परिवर्तन भी पाया गया है। सर्वप्रथम हम यह देखते हैं कि प्राचीन समय में जाति विशेष व्यवसाय को अपनाना आवश्यक था। परन्तु आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा एक तरफ के व्यवसायों की अधिकता पाई गई। दूसरी तरफ विशेषीकरण की स्थिति पैदा हो गई। इस प्रकार व्यक्ति की परिस्थितियों में तत्काल परिवर्तन आ गए। जाति प्रथा अलोप हो गई और उसके स्थान पर वर्ग व्यवस्था पैदा होने लग पड़ी। व्यक्ति को स्थिति उसकी योग्यतानुसार प्राप्त होने लगी। इस प्रकार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा सामाजिक संगठन और विभिन्न समूहों की स्थितियों में परिवर्तन आने लग गया।

प्रश्न 3.
आधुनिकीकरण के विभिन्न कारणों का विस्तार सहित वर्णन करें।
अथवा
आधुनिकीकरण के चार कारण लिखो।
अथवा
आधुनिकीकरण के लिए नगरीकरण ओर औद्योगिकीकरण उत्तरदायी कारण हैं, चर्चा कीजिए।
उत्तर-
वैसे तो आधुनिकीकरण के बहुत से कारण हो सकते हैं, परन्तु उनमें से प्रमुख कारणों का वर्णन इस प्रकार है-

1. नगरीकरण (Urbanisation)-अंग्रेज़ों के भारत आने से भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया का विकास शुरू हुआ। उन्होंने कई बड़े नगर बसाए जैसे कि कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई। स्वतन्त्रता के बाद तो नगरीकरण की प्रक्रिया का विकास तेज़ गति से हुआ। यह कहा जाता है कि नगरीय क्षेत्रों में गाँवों की तुलना में काफ़ी अधिक Infrastructure होता है। व्यक्ति नगरों में अच्छा जीवन व्यतीत कर सकता है। यह कारण है कि पिछले कुछ दशकों में काफ़ी बड़ी संख्या में ग्रामीण लोग नगरों में जाकर रहने लग गए ताकि वहां पर मौजूद अधिक रोज़गार के मौकों, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं, शैक्षिक संस्थाओं, मनोरंजन के साधनों का लाभ उठाया जा सके। इस प्रकार नगरीकरण की प्रक्रिया ने नगरों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने में सहायता की।

2. औद्योगीकरण (Industrialisation)-औद्योगीकरण की प्रक्रिया का अर्थ है उद्योगों के विकास की प्रक्रिया। औद्योगिक क्रान्ति के कारण बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हुए तथा समय के साथ-साथ उद्योगों में प्रयोग होने वाली मशीनों में बहुत से परिवर्तन आए। नई तथा आधुनिक मशीनों ने उत्पादन की प्रक्रिया को काफ़ी तेज़ कर दिया। यह सब मशीनें तथा तकनीक सभी देशों में फैल गई। उत्पादन मानवीय हाथों से निकलकर मशीनों के पास चला गया जिसने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने में काफ़ी बड़ी भूमिका अदा की।

3. शिक्षा (Education) शिक्षा व्यक्ति के अंदर छिपी हुई योग्यता को बाहर निकाल देती है तथा उनमें ज्ञान का भंडार भर देती है। शिक्षा के कारण ही लोग तकनीकी आविष्कार करते हैं। इसे विकास की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण सूचक माना जाता है। क्योंकि शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् लोग नए आविष्कार करते हैं, इस कारण इसे आधुनिकीकरण लाने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

4. करिश्माई नेता (Charismatic Leader)—करिश्माई नेता वह नेता होता है जो लोगों को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करता है। उसमें लोगों को प्रभावित करने का सामर्थ्य होता है जिस कारण वे उसके अनुयायी बन जाते हैं। ऐसे नेता अपने करिश्माई व्यक्तित्व से अपने अनुयायियों को आधुनिक विचारों व मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे समाज में आधुनिकीकरण आता है।

5. जनसम्पर्क के साधन (Means of Mass Media)-जनसम्पर्क के साधनों में हम समाचार-पत्र, मैगज़ीन, पुस्तकें, टी० वी०, रेडियो, फिल्में, इंटरनैट इत्यादि को लेते हैं। इन जनसम्पर्क के साधनों ने समाज में आम जनता के लिए नए विचारों, व्यवहारों तथा सूचनाओं को खोलकर रख दिया है। नई सूचना लाने में जनसम्पर्क के साधन एक महत्त्वपूर्ण साधन बनकर सामने आए हैं जिससे आधुनिकीकरण को आगे बढ़ाने में काफ़ी सहायता मिली है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

प्रश्न 4.
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर नोट लिखें।
उत्तर-
आधुनिकीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है। इसमें समय के साथ-साथ नई व्यवस्था का विस्तार भी शामिल होता है जिसने सामाजिक संरचना तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों को भी परिवर्तित कर दिया है। क्योंकि समाज अधिक उत्पादक तथा प्रगतिशील बन जाता है इसलिए यह सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्ष से और भी जटिल बन जाता है। इस बारे मैक्स वैबर ने ठीक कहा है कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में परिवर्तन आने से व्यक्तिगत रिश्ते अवैयक्तिक संबंधों में परिवर्तित हो जाते हैं। यहां इमाईल दुर्शीम भी कहते हैं कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में परिवर्तन आने से समाज की यान्त्रिक एकता जैविक एकता में परिवर्तित हो जाती है।

औद्योगीकरण के आने से समाज के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन आ गया तथा समाज परंपरागत से आधुनिक में बदल गया। यह सब कुछ मुमकिन हुआ है जब कम विकसित क्षेत्रों के लोग विकसित क्षेत्रों में जाने लग गए। इससे पहले कि कोई समाज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ करे, उसे कुछ बातों को मानना आवश्यक है जैसे कि नई शैक्षिक व्यवस्था को अपनाना, नई तकनीक को अपनाने की इच्छा इत्यादि। समाजशास्त्रियों ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में चार अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं के बारे में बताया है तथा वे हैं

  • तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन की प्रक्रिया साधारण से वैज्ञानिक तकनीक की तरफ सामने आती है। उदाहरण के लिए हैण्डलूम से पावरलूम का परिवर्तन।
  • कृषि के क्षेत्र में भी यह परिवर्तन निर्वाह आर्थिकता के बाजार आर्थिकता में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण के लिए अब बड़े किसान मज़दूरों की सहायता से नकद फसलों को बाज़ार में बेचने के लिए ही पैदा करते हैं।
  • औद्योगिक क्षेत्र में यह मानवीय श्रम से मशीनी श्रम में परिवर्तित हो गया है। उदाहरण के लिए पहले हल बैल से कृषि होती थी, अब यह ट्रैक्टर से होती है।
  • वातावरण के क्षेत्र में भी लोग गाँवों से नगरों की तरफ जा रहे हैं। उदाहरण के लिए उद्योगों के नज़दीक के गाँवों में रहने वाले लोग उद्योगों में कार्य करने के लिए नगरों की तरफ जाते हैं।

आधुनिकीकरण को दो स्तरों पर देखकर समझा जा सकता है। व्यक्तिगत स्तर पर व्यक्ति के व्यवहार तथा उसके विशेष व्यक्तिगत गुणों में परिवर्तन आ जाता है। नए विचारों को मानना, तर्कसंगत दृष्टिकोण तथा अपने विचार प्रकट करने की इच्छा में भी परिवर्तन आ जाता है। आधुनिक व्यक्ति योजना बनाने, संगठन बनाने पर बल देता है। व्यक्ति का विज्ञान तथा तकनीक में विश्वास होता है। आजकल आधुनिकता पर बल देना सम्पूर्ण विश्व में फैल रहा है।

प्रश्न 5.
वैश्वीकरण की विस्तार सहित चर्चा करें।
उत्तर-
वैश्वीकरण की प्रक्रिया एक व्यापक आर्थिक प्रक्रिया है जोकि सभी समाजों एवं देशों में फैली हुई होती है। इसमें भिन्न-भिन्न देशों में आपस में मुक्त व्यापार एवं आर्थिक सम्बन्ध होते हैं। वास्तव में कोई भी देश अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं होता। उसको अपनी एवं अपने लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार उस देश के ऊपर भी अन्य देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भर रहते हैं। इस प्रकार आपस में निर्भरता के कारण अलग-अलग देशों में आपसी सम्बन्ध स्थापित हुए और एक विचार आया कि क्यों न एक-दूसरे देशों के बीच मुक्त व्यापार सम्बन्ध स्थापित किए जाएं। इन बढ़ते हुए आर्थिक सम्बन्धों एवं मुक्त व्यापार के विचार को ही वैश्वीकरण का नाम दे दिया गया है। वैश्वीकरण की धारणा में उदारीकरण (Liberalisation) की धारणा है जिसमें विभिन्न देश, अपने देश में व्यापार करने के लिए अन्य देशों के लिए रास्ते खोल देते हैं। यह वैश्वीकरण की धारणा कोई बहुत पुरानी धारणा नहीं है बल्कि यह तो 10-15 वर्ष पुरानी धारणा है, जिसने सम्पूर्ण दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। आज इसी कारण ही दुनिया सिमट रही है या छोटी हो रही है। हम अपने देश में ही या अपने ही शहर में दूसरे देशों में बनी वस्तुएं खरीद सकते हैं। उदाहरणतः कोई भी क्षेत्र देख लें, हमारे देश में विदेशी कारें, Merceedes, General Motors, Rolls Royce, Ferrari, Honda, Mitsubishi, Hyundai, Skoda etc.

आ गई हैं। जबकि आज से 25 वर्ष पहले ये सभी कारें हमारे देश में दिखाई नहीं पड़ती थीं। यह केवल वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कारण ही सम्भव हुआ है, जिस कारण हमारे देश का बाज़ार विदेशी कम्पनियों के लिए खुल गया है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में देसी एवं विदेशी वस्तुओं की भरमार हो गई है। यह भी वैश्वीकरण होता है, जिसमें भिन्नभिन्न देश अन्य देशों में कम्पनियों के लिए अपने रास्ते खोल देते हैं और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देते हैं। आज दुनिया सिमट कर छोटा-सा गांव या फिर शहर बनकर रह गई है। सरकार प्रत्येक वर्ग में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment) बढ़ा रही है। यह ही वैश्वीकरण होता है।

20वीं शताब्दी खत्म होते-होते एक नई प्रक्रिया सामने आई जिसने अन्तर्निर्भरता तथा आपसी लेन-देन के आधार पर सम्पूर्ण संसार को प्रभावित किया। इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहते हैं। वैश्वीकरण एक बहुपक्षीय प्रक्रिया है। आजकल विश्व एक वैश्विक गाँव बन गया है। अब हमें कुछ पलों में ही पता चल जाता है कि सम्पूर्ण विश्व में क्या हो रहा है। आजकल संसार एक समाज में परिवर्तित हो रहा है। वैश्वीकरण के कारण लोग एक देश को छोड़कर अन्य देशों में जा रहे हैं। आजकल संचार के साधनों की सहायता से हम विश्व के किसी भी कोने में बैठकर आसानी से बातचीत कर सकते हैं। यह वैश्वीकरण तथा इंटरनैट के कारण ही मुमकिन हो पाया है।

प्रश्न 6.
वैश्वीकरण क्या है ? इसके प्रकारों की विस्तार सहित चर्चा करें।
अथवा तकनीकी वैश्वीकरण को वैश्वीकरण के प्रकार के रूप में लिखें।
उत्तर-
वैश्वीकरण की प्रक्रिया एक व्यापक आर्थिक प्रक्रिया है जोकि सभी समाजों एवं देशों में फैली हुई होती है। इसमें भिन्न-भिन्न देशों में आपस में मुक्त व्यापार एवं आर्थिक सम्बन्ध होते हैं। वास्तव में कोई भी देश अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं होता। उसको अपनी एवं अपने लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार उस देश के ऊपर भी अन्य देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भर रहते हैं। इस प्रकार आपस में निर्भरता के कारण अलग-अलग देशों में आपसी सम्बन्ध स्थापित हुए और एक विचार आया कि क्यों न एक-दूसरे देशों के बीच मुक्त व्यापार सम्बन्ध स्थापित किए जाएं। इन बढ़ते हुए आर्थिक सम्बन्धों एवं मुक्त व्यापार के विचार को ही वैश्वीकरण का नाम दे दिया गया है। वैश्वीकरण की धारणा में उदारीकरण (Liberalisation) की धारणा है जिसमें विभिन्न देश, अपने देश में व्यापार करने के लिए अन्य देशों के लिए रास्ते खोल देते हैं। यह वैश्वीकरण की धारणा कोई बहुत पुरानी धारणा नहीं है बल्कि यह तो 10-15 वर्ष पुरानी धारणा है, जिसने सम्पूर्ण दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। आज इसी कारण ही दुनिया सिमट रही है या छोटी हो रही है। हम अपने देश में ही या अपने ही शहर में दूसरे देशों में बनी वस्तुएं खरीद सकते हैं। उदाहरणतः कोई भी क्षेत्र देख लें, हमारे देश में विदेशी कारें, Merceedes, General Motors, Rolls Royce, Ferrari, Honda, Mitsubishi, Hyundai, Skoda etc.

आ गई हैं। जबकि आज से 25 वर्ष पहले ये सभी कारें हमारे देश में दिखाई नहीं पड़ती थीं। यह केवल वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कारण ही सम्भव हुआ है, जिस कारण हमारे देश का बाज़ार विदेशी कम्पनियों के लिए खुल गया है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में देसी एवं विदेशी वस्तुओं की भरमार हो गई है। यह भी वैश्वीकरण होता है, जिसमें भिन्नभिन्न देश अन्य देशों में कम्पनियों के लिए अपने रास्ते खोल देते हैं और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देते हैं। आज दुनिया सिमट कर छोटा-सा गांव या फिर शहर बनकर रह गई है। सरकार प्रत्येक वर्ग में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment) बढ़ा रही है। यह ही वैश्वीकरण होता है।

20वीं शताब्दी खत्म होते-होते एक नई प्रक्रिया सामने आई जिसने अन्तर्निर्भरता तथा आपसी लेन-देन के आधार पर सम्पूर्ण संसार को प्रभावित किया। इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहते हैं। वैश्वीकरण एक बहुपक्षीय प्रक्रिया है। आजकल विश्व एक वैश्विक गाँव बन गया है। अब हमें कुछ पलों में ही पता चल जाता है कि सम्पूर्ण विश्व में क्या हो रहा है। आजकल संसार एक समाज में परिवर्तित हो रहा है। वैश्वीकरण के कारण लोग एक देश को छोड़कर अन्य देशों में जा रहे हैं। आजकल संचार के साधनों की सहायता से हम विश्व के किसी भी कोने में बैठकर आसानी से बातचीत कर सकते हैं। यह वैश्वीकरण तथा इंटरनैट के कारण ही मुमकिन हो पाया है।

वैश्वीकरण के प्रकार-वैश्वीकरण के कई प्रकार होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. पर्यावरणीय वैश्वीकरण (Ecological Globalisation)-वैश्वीकरण के इस प्रकार में हम वातावरण प्रदूषण को ले सकते हैं जिससे ओजोन परत प्रभावित हो रही है। इससे विश्व-तापीकरण भी बढ़ रहा है। सांसारिक स्तर पर इस समस्या से निपटने के प्रयास किए जा रहे हैं। अलग-अलग देशों में समझौतें हो रहे हैं ताकि वातावरण प्रदूषण को रोका जा सके। ओजोन परत को बचाने के लिए Montreal Protocol भी बनाया गया ताकि वातावरण में छोडी जाने वाली कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा को कम किया जा सके।

2. सांस्कृतिक वैश्वीकरण (Cultural Globalisation)-सांस्कृतिक वैश्वीकरण का अर्थ है संसार के एक हिस्से में मौजूद नियमों, विचारों, मूल्यों इत्यादि का दूसरे हिस्से में हस्तांतरण। यह हस्तांतरण इंटरनैट, मीडिया, घूमने इत्यादि के कारण मुमकिन हो पाया है। इससे अलग-अलग संस्कृतियों के लोगों के बीच अन्तक्रिया बढ़ गई तथा सांस्कृतिक प्रथाओं का आदान-प्रदान शुरू हो गया।

3. आर्थिक वैश्वीकरण (Economic Globalisation) आर्थिक, वैश्वीकरण का अर्थ है सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं, सेवाओं तथा पूँजी के आदान-प्रदान के कारण उत्पन्न हुई अन्तर्निर्भरता। इस अन्तर्निर्भरता के कारण एक देश की आर्थिकता का गलत प्रभाव विश्व स्तर पर देखने को मिल जाता है। उदाहरण के लिए 2009 में एक वैश्विक संकट आया जिसने विश्वभर में देशों को प्रभावित किया।

4. तकनीकी वैश्वीकरण (Technological Globalisation)-तकनीकी वैश्वीकरण का अर्थ है संचार के साधनों में आए क्रान्तिकारी परिवर्तन जिनसे संसार का एक हिस्सा बाकी हिस्सों से आसानी से जुड़ गया। आधुनिक यातायात के साधनों ने भौगोलिक अन्तरों को कम कर दिया है तथा कई प्रकार के लेन-देन शुरू हो गए। उदाहरण के लिए मोबाइल, इंटरनैट इत्यादि।

5. राजनीतिक वैश्वीकरण (Political Globalisation) राजनीतिक वैश्वीकरण में एक समान नीतियों को चारों तरफ अपनाया जाता है। अपनी-अपनी समस्याओं के कारण अलग-अलग देश एक-दूसरे से सन्धियां करते हैं। इस कारण ही कई अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी अस्तित्व में आए हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण की विशेषताओं का विस्तार सहित उल्लेख करें।
अथवा
वैश्वीकरण की विशेषताओं की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
वैश्वीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Globalisation) विश्वव्यापीकरण वास्तव में भिन्न-भिन्न देशों की आपस में निर्भरता होने पर अस्तित्व में आया है। वास्तव में विभिन्न देश अपनी-अपनी आवश्यकताओं के कारण विभिन्न देशों पर निर्भर होते हैं। इसी कारण वह एक-दूसरे के साथ आयात-निर्यात करते हैं। इस कारण वैश्वीकरण का सिद्धान्त अस्तित्व में आया।

1. विश्व व्यापार (World Trade)—वैश्वीकरण की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक विशेषता है विश्व व्यापार। यह दुनिया के व्यापार का सबसे मज़बूत आधार है। यह भिन्न क्षेत्रों एवं देशों में रहने वालों को आपस में जोड़ता है और उनको आपस में व्यापार करवाता है। जैसे–भारतवर्ष में चाय का उत्पादन सबसे अधिक होता है, इसी कारण विभिन्न देश भारत से चाय का व्यापार करते हैं और अरब देशों में तेल के भण्डार अधिक होने पर विभिन्न देश वहां से तेल के ऊपर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार विभिन्न देश, विभिन्न वस्तुओं के लेन-देन के कारण आपस में निर्भर रहते हैं। भारत के लोग अरब के लोगों और अरब के लोग भारत के लोगों पर निर्भर करते हैं। इससे विश्व व्यापार बढ़ा एवं वैश्वीकरण भी बढ़ा।

2. आर्थिक वैश्वीकरण (Economic Globalisation)-वैश्वीकरण ने संसार में नई आर्थिकता पैदा की है। अब एक देश की आर्थिकता दूसरे देश की आर्थिकता पर निर्भर करती है। इस कारण विश्व आर्थिकता (World Economy) का सिद्धान्त हमारे सामने आया। विभिन्न देश आर्थिकता के कारण आपस में जुड़ गए हैं। उनमें इसी कारण सांस्कृतिक तत्त्वों का आदान-प्रदान भी आरम्भ हो गया। निवेश, लेन-देन, श्रम-विभाजन, विशेषीकरण, उत्पादन, खपत आदि का इस व्यापार में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भाग है। आर्थिक वैश्वीकरण ने पूंजीवाद को काफ़ी आगे बढ़ाया है। अब अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिकता की संरचना के बारे में लोग सोच रहे हैं।

3. बाज़ार का वैश्वीकरण (Globalisation of Market)—वैश्वीकरण ने बाज़ार को भी बढ़ा दिया है। प्रत्येक बाज़ार का उत्पादन के तौर पर ही नहीं, बल्कि खपत के आधार पर भी वैश्वीकरण हो गया है। अब कई देशों की कम्पनियां दूसरे देशों के बाजारों को ध्यान में रख कर वस्तुओं का उत्पादन करने लग गई हैं। इस प्रकार उत्पादन एवं खपत विदेशी बाजार की आवश्यकताओं पर निर्भर रहने लग पड़े हैं। इसके कारण देश का अन्य देशों के साथ व्यापार बढ़ता है और विदेशी मुद्रा (Foreign Exchange) देश में आती है। इस प्रकार बाज़ार भी विदेशों के ऊपर निर्भर रहने लग पड़े हैं। बाजार में विदेशी वस्तुओं की अधिकता हो गई है। यहां तक कि खाने-पीने की डिब्बा बंद वस्तुएं भी विदेशों से आने लग गई हैं। इस प्रकार वैश्वीकरण ने बाज़ार को भी व्यापक बना दिया है।

4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-वैश्वीकरण ने श्रम विभाजन को भी काफ़ी बढ़ाया है। अब लोग कोई कोर्स सीख कर ही विदेशों में जाते हैं। उदाहरणतः लोग विदेशों में जाने से पूर्व कम्प्यूटर के कई-कई प्रकार के कोर्स (Course) करते हैं ताकि वह विदेशों में जाकर पैसे कमा सकें। अखबारों में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकताओं के बारे में भी लिखा हुआ पाया जाता है जोकि किसी भी क्षेत्र में निपुण हो। श्रम विभाजन इस कारण बढ़ गया है और विभिन्न क्षेत्रों में निपुण व्यक्तियों की आवश्यकता भी बढ़ गई है। यह केवल वैश्वीकरण की ही देन है कि इसने श्रम विभाजन को बढ़ाया है।

5. श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश में जाना (Migration of labourers to other countries)वैश्वीकरण की एक और विशेषता है कि श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश की ओर कार्य के लिए जाना। साधारणतः दक्षिण एशिया के भिन्न-भिन्न व्यवसायों में निपुण लोग पश्चिम देशों में कार्य हेतु जाते हैं क्योंकि एशिया के लोगों को पश्चिमी देशों की कमाई अधिक लगती है। दुनिया भर के श्रमिक विभिन्न देशों में जाकर पैसे कमाते हैं और कार्य करते हैं। इसलिए वैश्वीकरण के कारण ही श्रमिक विदेशों में जाकर कार्य करके धन प्राप्त करते हैं।

6. विश्व-आर्थिकता (World Economy)-वैश्वीकरण की एक अन्य विशेषता आर्थिकता का बढ़ना है। अब एक देश की आर्थिकता केवल एक देश तक सीमित होकर नहीं रह गई है क्योंकि उस देश की आर्थिकता के ऊपर अन्य देशों की आर्थिकता का प्रभाव पड़ता है। भिन्न-भिन्न देशों में व्यापार बढ़ने पर आर्थिकता की एक-दूसरे के ऊपर निर्भरता बढ़ी है। इस तरह अन्तर्निर्भरता के कारण विश्व आर्थिकता एवं विश्व व्यापार में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 8.
वैश्वीकरण की प्रक्रिया पर विस्तृत नोट लिखें।
उत्तर-
वैश्वीकरण की प्रक्रिया एक व्यापक आर्थिक प्रक्रिया है जोकि सभी समाजों एवं देशों में फैली हुई होती है। इसमें भिन्न-भिन्न देशों में आपस में मुक्त व्यापार एवं आर्थिक सम्बन्ध होते हैं। वास्तव में कोई भी देश अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं होता। उसको अपनी एवं अपने लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार उस देश के ऊपर भी अन्य देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भर रहते हैं। इस प्रकार आपस में निर्भरता के कारण अलग-अलग देशों में आपसी सम्बन्ध स्थापित हुए और एक विचार आया कि क्यों न एक-दूसरे देशों के बीच मुक्त व्यापार सम्बन्ध स्थापित किए जाएं। इन बढ़ते हुए आर्थिक सम्बन्धों एवं मुक्त व्यापार के विचार को ही वैश्वीकरण का नाम दे दिया गया है। वैश्वीकरण की धारणा में उदारीकरण (Liberalisation) की धारणा है जिसमें विभिन्न देश, अपने देश में व्यापार करने के लिए अन्य देशों के लिए रास्ते खोल देते हैं। यह वैश्वीकरण की धारणा कोई बहुत पुरानी धारणा नहीं है बल्कि यह तो 10-15 वर्ष पुरानी धारणा है, जिसने सम्पूर्ण दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। आज इसी कारण ही दुनिया सिमट रही है या छोटी हो रही है। हम अपने देश में ही या अपने ही शहर में दूसरे देशों में बनी वस्तुएं खरीद सकते हैं। उदाहरणतः कोई भी क्षेत्र देख लें, हमारे देश में विदेशी कारें, Merceedes, General Motors, Rolls Royce, Ferrari, Honda, Mitsubishi, Hyundai, Skoda etc.

आ गई हैं। जबकि आज से 25 वर्ष पहले ये सभी कारें हमारे देश में दिखाई नहीं पड़ती थीं। यह केवल वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कारण ही सम्भव हुआ है, जिस कारण हमारे देश का बाज़ार विदेशी कम्पनियों के लिए खुल गया है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में देसी एवं विदेशी वस्तुओं की भरमार हो गई है। यह भी वैश्वीकरण होता है, जिसमें भिन्नभिन्न देश अन्य देशों में कम्पनियों के लिए अपने रास्ते खोल देते हैं और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देते हैं। आज दुनिया सिमट कर छोटा-सा गांव या फिर शहर बनकर रह गई है। सरकार प्रत्येक वर्ग में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment) बढ़ा रही है। यह ही वैश्वीकरण होता है।

20वीं शताब्दी खत्म होते-होते एक नई प्रक्रिया सामने आई जिसने अन्तर्निर्भरता तथा आपसी लेन-देन के आधार पर सम्पूर्ण संसार को प्रभावित किया। इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहते हैं। वैश्वीकरण एक बहुपक्षीय प्रक्रिया है। आजकल विश्व एक वैश्विक गाँव बन गया है। अब हमें कुछ पलों में ही पता चल जाता है कि सम्पूर्ण विश्व में क्या हो रहा है। आजकल संसार एक समाज में परिवर्तित हो रहा है। वैश्वीकरण के कारण लोग एक देश को छोड़कर अन्य देशों में जा रहे हैं। आजकल संचार के साधनों की सहायता से हम विश्व के किसी भी कोने में बैठकर आसानी से बातचीत कर सकते हैं। यह वैश्वीकरण तथा इंटरनैट के कारण ही मुमकिन हो पाया है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया एक व्यापक आर्थिक प्रक्रिया है जोकि सभी समाजों एवं देशों में फैली हुई होती है। इसमें भिन्न-भिन्न देशों में आपस में मुक्त व्यापार एवं आर्थिक सम्बन्ध होते हैं। वास्तव में कोई भी देश अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं होता। उसको अपनी एवं अपने लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार उस देश के ऊपर भी अन्य देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भर रहते हैं। इस प्रकार आपस में निर्भरता के कारण अलग-अलग देशों में आपसी सम्बन्ध स्थापित हुए और एक विचार आया कि क्यों न एक-दूसरे देशों के बीच मुक्त व्यापार सम्बन्ध स्थापित किए जाएं। इन बढ़ते हुए आर्थिक सम्बन्धों एवं मुक्त व्यापार के विचार को ही वैश्वीकरण का नाम दे दिया गया है। वैश्वीकरण की धारणा में उदारीकरण (Liberalisation) की धारणा है जिसमें विभिन्न देश, अपने देश में व्यापार करने के लिए अन्य देशों के लिए रास्ते खोल देते हैं। यह वैश्वीकरण की धारणा कोई बहुत पुरानी धारणा नहीं है बल्कि यह तो 10-15 वर्ष पुरानी धारणा है, जिसने सम्पूर्ण दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। आज इसी कारण ही दुनिया सिमट रही है या छोटी हो रही है। हम अपने देश में ही या अपने ही शहर में दूसरे देशों में बनी वस्तुएं खरीद सकते हैं। उदाहरणतः कोई भी क्षेत्र देख लें, हमारे देश में विदेशी कारें, Merceedes, General Motors, Rolls Royce, Ferrari, Honda, Mitsubishi, Hyundai, Skoda etc.

आ गई हैं। जबकि आज से 25 वर्ष पहले ये सभी कारें हमारे देश में दिखाई नहीं पड़ती थीं। यह केवल वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कारण ही सम्भव हुआ है, जिस कारण हमारे देश का बाज़ार विदेशी कम्पनियों के लिए खुल गया है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में देसी एवं विदेशी वस्तुओं की भरमार हो गई है। यह भी वैश्वीकरण होता है, जिसमें भिन्नभिन्न देश अन्य देशों में कम्पनियों के लिए अपने रास्ते खोल देते हैं और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देते हैं। आज दुनिया सिमट कर छोटा-सा गांव या फिर शहर बनकर रह गई है। सरकार प्रत्येक वर्ग में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment) बढ़ा रही है। यह ही वैश्वीकरण होता है।

20वीं शताब्दी खत्म होते-होते एक नई प्रक्रिया सामने आई जिसने अन्तर्निर्भरता तथा आपसी लेन-देन के आधार पर सम्पूर्ण संसार को प्रभावित किया। इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहते हैं। वैश्वीकरण एक बहुपक्षीय प्रक्रिया है। आजकल विश्व एक वैश्विक गाँव बन गया है। अब हमें कुछ पलों में ही पता चल जाता है कि सम्पूर्ण विश्व में क्या हो रहा है। आजकल संसार एक समाज में परिवर्तित हो रहा है। वैश्वीकरण के कारण लोग एक देश को छोड़कर अन्य देशों में जा रहे हैं। आजकल संचार के साधनों की सहायता से हम विश्व के किसी भी कोने में बैठकर आसानी से बातचीत कर सकते हैं। यह वैश्वीकरण तथा इंटरनैट के कारण ही मुमकिन हो पाया है।

वैश्वीकरण के प्रकार-वैश्वीकरण के कई प्रकार होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. पर्यावरणीय वैश्वीकरण (Ecological Globalisation)-वैश्वीकरण के इस प्रकार में हम वातावरण प्रदूषण को ले सकते हैं जिससे ओजोन परत प्रभावित हो रही है। इससे विश्व-तापीकरण भी बढ़ रहा है। सांसारिक स्तर पर इस समस्या से निपटने के प्रयास किए जा रहे हैं। अलग-अलग देशों में समझौतें हो रहे हैं ताकि वातावरण प्रदूषण को रोका जा सके। ओजोन परत को बचाने के लिए Montreal Protocol भी बनाया गया ताकि वातावरण में छोडी जाने वाली कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा को कम किया जा सके।

2. सांस्कृतिक वैश्वीकरण (Cultural Globalisation)-सांस्कृतिक वैश्वीकरण का अर्थ है संसार के एक हिस्से में मौजूद नियमों, विचारों, मूल्यों इत्यादि का दूसरे हिस्से में हस्तांतरण। यह हस्तांतरण इंटरनैट, मीडिया, घूमने इत्यादि के कारण मुमकिन हो पाया है। इससे अलग-अलग संस्कृतियों के लोगों के बीच अन्तक्रिया बढ़ गई तथा सांस्कृतिक प्रथाओं का आदान-प्रदान शुरू हो गया।

3. आर्थिक वैश्वीकरण (Economic Globalisation) आर्थिक, वैश्वीकरण का अर्थ है सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं, सेवाओं तथा पूँजी के आदान-प्रदान के कारण उत्पन्न हुई अन्तर्निर्भरता। इस अन्तर्निर्भरता के कारण एक देश की आर्थिकता का गलत प्रभाव विश्व स्तर पर देखने को मिल जाता है। उदाहरण के लिए 2009 में एक वैश्विक संकट आया जिसने विश्वभर में देशों को प्रभावित किया।

4. तकनीकी वैश्वीकरण (Technological Globalisation)-तकनीकी वैश्वीकरण का अर्थ है संचार के साधनों में आए क्रान्तिकारी परिवर्तन जिनसे संसार का एक हिस्सा बाकी हिस्सों से आसानी से जुड़ गया। आधुनिक यातायात के साधनों ने भौगोलिक अन्तरों को कम कर दिया है तथा कई प्रकार के लेन-देन शुरू हो गए। उदाहरण के लिए मोबाइल, इंटरनैट इत्यादि।

5. राजनीतिक वैश्वीकरण (Political Globalisation) राजनीतिक वैश्वीकरण में एक समान नीतियों को चारों तरफ अपनाया जाता है। अपनी-अपनी समस्याओं के कारण अलग-अलग देश एक-दूसरे से सन्धियां करते हैं। इस कारण ही कई अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी अस्तित्व में आए हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र।

वैश्वीकरण की विशेषताएं (Characteristics of Globalisation) विश्वव्यापीकरण वास्तव में भिन्न-भिन्न देशों की आपस में निर्भरता होने पर अस्तित्व में आया है। वास्तव में विभिन्न देश अपनी-अपनी आवश्यकताओं के कारण विभिन्न देशों पर निर्भर होते हैं। इसी कारण वह एक-दूसरे के साथ आयात-निर्यात करते हैं। इस कारण वैश्वीकरण का सिद्धान्त अस्तित्व में आया।

1. विश्व व्यापार (World Trade)—वैश्वीकरण की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक विशेषता है विश्व व्यापार। यह दुनिया के व्यापार का सबसे मज़बूत आधार है। यह भिन्न क्षेत्रों एवं देशों में रहने वालों को आपस में जोड़ता है और उनको आपस में व्यापार करवाता है। जैसे–भारतवर्ष में चाय का उत्पादन सबसे अधिक होता है, इसी कारण विभिन्न देश भारत से चाय का व्यापार करते हैं और अरब देशों में तेल के भण्डार अधिक होने पर विभिन्न देश वहां से तेल के ऊपर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार विभिन्न देश, विभिन्न वस्तुओं के लेन-देन के कारण आपस में निर्भर रहते हैं। भारत के लोग अरब के लोगों और अरब के लोग भारत के लोगों पर निर्भर करते हैं। इससे विश्व व्यापार बढ़ा एवं वैश्वीकरण भी बढ़ा।

2. आर्थिक वैश्वीकरण (Economic Globalisation)-वैश्वीकरण ने संसार में नई आर्थिकता पैदा की है। अब एक देश की आर्थिकता दूसरे देश की आर्थिकता पर निर्भर करती है। इस कारण विश्व आर्थिकता (World Economy) का सिद्धान्त हमारे सामने आया। विभिन्न देश आर्थिकता के कारण आपस में जुड़ गए हैं। उनमें इसी कारण सांस्कृतिक तत्त्वों का आदान-प्रदान भी आरम्भ हो गया। निवेश, लेन-देन, श्रम-विभाजन, विशेषीकरण, उत्पादन, खपत आदि का इस व्यापार में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भाग है। आर्थिक वैश्वीकरण ने पूंजीवाद को काफ़ी आगे बढ़ाया है। अब अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिकता की संरचना के बारे में लोग सोच रहे हैं।

3. बाज़ार का वैश्वीकरण (Globalisation of Market)—वैश्वीकरण ने बाज़ार को भी बढ़ा दिया है। प्रत्येक बाज़ार का उत्पादन के तौर पर ही नहीं, बल्कि खपत के आधार पर भी वैश्वीकरण हो गया है। अब कई देशों की कम्पनियां दूसरे देशों के बाजारों को ध्यान में रख कर वस्तुओं का उत्पादन करने लग गई हैं। इस प्रकार उत्पादन एवं खपत विदेशी बाजार की आवश्यकताओं पर निर्भर रहने लग पड़े हैं। इसके कारण देश का अन्य देशों के साथ व्यापार बढ़ता है और विदेशी मुद्रा (Foreign Exchange) देश में आती है। इस प्रकार बाज़ार भी विदेशों के ऊपर निर्भर रहने लग पड़े हैं। बाजार में विदेशी वस्तुओं की अधिकता हो गई है। यहां तक कि खाने-पीने की डिब्बा बंद वस्तुएं भी विदेशों से आने लग गई हैं। इस प्रकार वैश्वीकरण ने बाज़ार को भी व्यापक बना दिया है।

4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-वैश्वीकरण ने श्रम विभाजन को भी काफ़ी बढ़ाया है। अब लोग कोई कोर्स सीख कर ही विदेशों में जाते हैं। उदाहरणतः लोग विदेशों में जाने से पूर्व कम्प्यूटर के कई-कई प्रकार के कोर्स (Course) करते हैं ताकि वह विदेशों में जाकर पैसे कमा सकें। अखबारों में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकताओं के बारे में भी लिखा हुआ पाया जाता है जोकि किसी भी क्षेत्र में निपुण हो। श्रम विभाजन इस कारण बढ़ गया है और विभिन्न क्षेत्रों में निपुण व्यक्तियों की आवश्यकता भी बढ़ गई है। यह केवल वैश्वीकरण की ही देन है कि इसने श्रम विभाजन को बढ़ाया है।

5. श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश में जाना (Migration of labourers to other countries)वैश्वीकरण की एक और विशेषता है कि श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश की ओर कार्य के लिए जाना। साधारणतः दक्षिण एशिया के भिन्न-भिन्न व्यवसायों में निपुण लोग पश्चिम देशों में कार्य हेतु जाते हैं क्योंकि एशिया के लोगों को पश्चिमी देशों की कमाई अधिक लगती है। दुनिया भर के श्रमिक विभिन्न देशों में जाकर पैसे कमाते हैं और कार्य करते हैं। इसलिए वैश्वीकरण के कारण ही श्रमिक विदेशों में जाकर कार्य करके धन प्राप्त करते हैं।

6. विश्व-आर्थिकता (World Economy)-वैश्वीकरण की एक अन्य विशेषता आर्थिकता का बढ़ना है। अब एक देश की आर्थिकता केवल एक देश तक सीमित होकर नहीं रह गई है क्योंकि उस देश की आर्थिकता के ऊपर अन्य देशों की आर्थिकता का प्रभाव पड़ता है। भिन्न-भिन्न देशों में व्यापार बढ़ने पर आर्थिकता की एक-दूसरे के ऊपर निर्भरता बढ़ी है। इस तरह अन्तर्निर्भरता के कारण विश्व आर्थिकता एवं विश्व व्यापार में वृद्धि हुई है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उस प्रक्रिया को क्या कहते हैं जो परिवर्तन पर आधारित है तथा जो किसी वस्तु के अच्छे या बुरे होने के बारे में बताती है ?
(क) संस्कृतिकरण
(ख) औद्योगीकरण
(ग) नगरीकरण
(घ) आधुनिकीकरण।
उत्तर-
(घ) आधुनिकीकरण।

प्रश्न 2.
आधुनिकीकरण के लिए क्या आवश्यक है ?
(क) शिक्षा का उच्च स्तर
(ख) यातायात तथा संचार के साधनों का विकास
(ग) उद्योगों को प्राथमिकता देना।
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 3.
भारत में आधुनिकीकरण लाने के लिए कौन उत्तरदायी है ?
(क) मुग़ल शासक
(ख) भारत सरकार
(ग) अंग्रेजी सरकार
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) मुग़ल शासक।

प्रश्न 4.
उस प्रक्रिया को क्या कहते हैं जिसमें अलग-अलग देशों के बीच मुक्त व्यापार, सेवाएं, पूंजी निवेश तथा लोगों का आदान-प्रदान होता है ?
(क) निजीकरण
(ख) वैश्वीकरण
(ग) आधुनिकीकरण
(घ) उदारीकरण।
उत्तर-
(ख) वैश्वीकरण।

प्रश्न 5.
सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में बेचने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
(क) निजीकरण
(ख) वैश्वीकरण
(ग) उदारीकरण
(घ) आधुनिकीकरण।
उत्तर-
(क) निजीकरण।

प्रश्न 6.
नियंत्रित अर्थव्यवस्था से अनावश्यक प्रतिबन्धों को हटाने को क्या कहते हैं?
(क) निजीकरण
(ख) वैश्वीकरण
(ग) उदारीकरण
(घ) आधुनिकीकरण।
उत्तर-
(ग) उदारीकरण।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. सांस्कृतिक पिछड़ेपन का सिद्धान्त …………….. ने दिया था।
2. जापानी लोग वैश्वीकरण को ….. कहते हैं।
3. …….. ने वैश्वीकरण के चार आधार दिए हैं।
4. नियंत्रित अर्थव्यवस्था से अनावश्यक प्रतिबन्ध हटाने को ……………… कहते हैं।
5. सार्वजनिक कंपनियों को व्यक्तिगत हाथों में देने की प्रक्रिया को …………….. कहते हैं।
उत्तर-

  1. विलियम आगबर्न,
  2. Gurobaruka,
  3. Giddens,
  4. उदारीकरण,
  5. निजीकरण।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. वैश्वीकरण में पूँजी तथा सेवाओं का आदान-प्रदान नहीं होता।
2. वैश्वीकरण में संसार एक वैश्विक गाँव बनकर रह गया है।
3. वैबर के अनुसार आधुनिकीकरण से व्यक्तिगत संबंध अवैयक्तिक बन जाते हैं।
4. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में कम पूँजी निवेश से आधुनिकता आ जाती है।
5. आधुनिकीकरण से तकनीक साधारण से वैज्ञानिक हो जाती है।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. आधुनिकीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-आधुनिक जीवन जीने के तरीकों तथा मूल्यों को अपनाने की प्रक्रिया को आधुनिकीकरण कहते हैं।

प्रश्न 2. आधुनिकीकरण ने कौन-से प्रमुख क्षेत्रों का विकास किया है ?
उत्तर-उद्योगों, यातायात व संचार के साधन, स्वास्थ्य व शैक्षिक सुविधाएं इत्यादि।

प्रश्न 3. आधुनिक समाजों की प्रमुख विशेषता क्या होती है ?
उत्तर-आधुनिक समाज एक-दूसरे पर अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर होते हैं।

प्रश्न 4. सबसे पहले किसने शब्द आधुनिकीकरण का प्रयोग किया था ?
उत्तर- डेनियल लर्नर ने।

प्रश्न 5. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया लंबी क्यों है ?
उत्तर-क्योंकि समाज के आधुनिक होने में कई पीढ़ियां लग जाती हैं।

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प्रश्न 6. सांस्कृतिक पिछड़ापन का सिद्धांत किसने दिया था ?
उत्तर-सांस्कृतिक पिछड़ापन का सिद्धांत विलियम एफ० आगबन ने दिया था।

प्रश्न 7. दुर्थीम ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के बारे में क्या कहा था ?
उत्तर-दुर्थीम के अनुसार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में यान्त्रिक एकता जैविक एकता में बदल जाती है।

प्रश्न 8. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में एक रुकावट बताएं।
उत्तर-कम विकसित देशों में औपनिवेशिक शासन।

प्रश्न 9. आधुनिकीकरण का एक कारण बताएं।
उत्तर-नगरीकरण का बढ़ना, उद्योगों का विकसित होना, शिक्षा का प्रसार।

प्रश्न 10. वैश्विक ग्राम का संकल्प किसने दिया था ?
उत्तर- वैश्विक ग्राम का संकल्प मार्शल मैक्ल्यूहन ने दिया था।

प्रश्न 11. वैश्वीकरण को इंडोनेशिया में क्या कहते हैं ?
उत्तर-वैश्वीकरण को इंडोनेशिया में globalisari कहते हैं।

प्रश्न 12. वैश्वीकरण की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-वैश्वीकरण में स्थानीय कार्य विश्व के स्तर पर फैल जाते हैं।

प्रश्न 13. LPG का क्या अर्थ है ?
उत्तर-Liberalisation, Privatisation तथा Globalisation.

प्रश्न 14. वैश्वीकरण का एक कारण बताएं।
उत्तर-वैश्वीकरण यातायात व संचार के साधनों के कारण मुमकिन हो सका है।

प्रश्न 15. वैश्वीकरण का एक परिणाम बताएं।
उत्तर-इससे देश में विदेशी पूँजी निवेश बढ़ता है।

प्रश्न 16. FDI का क्या अर्थ है ?
उत्तर-FDI का अर्थ है Foreign Direct Investment (विदेशी पूँजी निवेश)।

III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिकीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
आधुनिकीकरण का अर्थ है जीवन जीने के आधुनिक व नए तरीकों तथा मूल्यों को अपना लेना। समाज तथा व्यक्ति को आधुनिक होने के लिए कई पीढ़ियां लग जाती हैं क्योंकि वह आधुनिक वस्तुओं को तो आसानी से अपना लेता है परन्तु अपने विचारों को आसानी से नहीं बदलता।

प्रश्न 2.
आधुनिकीकरण के तीन नकारात्मक प्रभाव बताएं।।
उत्तर-

  • आधुनिकीकरण के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं तथा केंद्रीय परिवार सामने आ रहे हैं।
  • ऐश करने की वस्तुएं बढ़ रही हैं जिसका नई पीढ़ी पर गलत प्रभाव पड़ रहा है।
  • इस कारण अनैतिकता बढ़ रही है तथा समाज में अनैतिक कार्य बढ़ रहे हैं।

प्रश्न 3.
आधुनिकीकरण के लिए क्या आवश्यक है ?
उत्तर-

  • इसके लिए शिक्षा का स्तर अच्छा होना चाहिए।
  • यातायात तथा संचार के साधनों का अच्छा विकास होना चाहिए।
  • देश में कृषि के स्थान पर उद्योगों का अधिक विकास होना चाहिए।

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प्रश्न 4.
वैश्वीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे एक देश की अर्थव्यवस्था का संबंध अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ जोड़ा जाता है। इसका अर्थ है कि एक देश का अन्य देशों के साथ वस्तुओं, पूँजी तथा श्रम का बेरोक-टोक आदान-प्रदान होता है। व्यापार का देशों में मुक्त आदान-प्रदान होता है।

प्रश्न 5.
उदारीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
नियंत्रित अर्थव्यवस्था के अनावश्यक प्रतिबंधों को हटाना उदारीकरण है। उद्योगों व व्यापार से अनावश्यक प्रतिबंधों को हटाना ताकि अर्थव्यवस्था अधिक प्रतिस्पर्धी, प्रगतिशील तथा मुक्त बन सके। इसे ही उदारीकरण कहते हैं । यह एक आर्थिक प्रक्रिया है तथा समाज में आर्थिक परिवर्तनों की प्रक्रिया है।

प्रश्न 6.
निजीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
लोकतांत्रिक देशों में मिश्रित प्रकार की अर्थव्यवस्था होती है। इस अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक कंपनियां होती हैं जो सरकार के नियंत्रण में होती हैं। इन सार्वजनिक कंपनियों को निजी हाथों में देना ताकि वे अधिक लाभ कमा सकें, निजीकरण होता है।

प्रश्न 7.
वैश्वीकरण के कौन-से तीन मुख्य पक्ष हैं ?
उत्तर-

  • सकारात्मक पक्ष जिसमें वैश्वीकरण के बहुत से लाभ होते हैं।
  • निष्पक्षता जिसके अनुसार वैश्वीकरण विकास की एक आवश्यक प्रक्रिया है।
  • नकारात्मक पक्ष जो आर्थिक मुश्किलें व आय में असमानता लाता है।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
आधुनिकीकरण।
उत्तर-
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का अर्थ वह परिवर्तन है जो पश्चिमीकरण के प्रभाव अधीन होता है परन्तु यह सिर्फ मौलिक दिशा में पाया जाता है। इस प्रक्रिया के द्वारा विभिन्न प्रकार की भारतीय संस्थाओं ने नया रूप धारण किया तथा आधुनिक समय में परिवर्तन आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही पाया जाता है तथा इस प्रक्रिया के परिणाम हमेशा प्रगतिशील पाए गए हैं।

प्रश्न 2.
आधुनिकीकरण की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  • सामाजिक भिन्नता-आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के कारण समाज के विभिन्न क्षेत्र काफ़ी Complex हो गए तथा व्यक्तिगत प्रगति भी पाई गई। इस वजह से विभेदीकरण की प्रक्रिया भी तेज़ हो गई।
  • सामाजिक गतिशीलता-आधुनिकीकरण के द्वारा प्राचीन सामाजिक, आर्थिक तत्त्वों का रूपान्तरण हो जाता है; मनुष्यों के आदर्शों की नई कीमतें स्थापित हो जाती हैं तथा गतिशीलता बढ़ जाती है।

प्रश्न 3.
आधुनिकीकरण द्वारा लाए गए दो परिवर्तन।
उत्तर-

  • धर्म-निरपेक्षता- भारतीय समाज में धर्म-निरपेक्षता का आदर्श स्थापित हुआ। किसी भी धार्मिक समूह का सदस्य देश के ऊंचे से ऊंचे पद को प्राप्त कर सकता है। प्यार, हमदर्दी, सहनशीलता इत्यादि जैसे गुणों का विकास समाज में समानता पैदा करता है। यह सब आधुनिकीकरण की वजह से है।
  • औद्योगीकरण-औद्योगीकरण की तेजी के द्वारा भारत की बढ़ती जनसंख्या की ज़रूरतें पूरी करनी काफ़ी आसान हो गईं। एक तरफ बड़े पैमाने के उद्योग शुरू हुए तथा दूसरी तरफ घरेलू उद्योग तथा संयुक्त परिवारों का खात्मा हुआ।

प्रश्न 4.
आधुनिकीकरण तथा सामाजिक गतिशीलता।
उत्तर-
सामाजिक गतिशीलता आधुनिक समाजों की मुख्य विशेषता है। शहरी समाज में कार्य की बांट, विशेषीकरण, कार्यों की भिन्नता, उद्योग, व्यापार, यातायात के साधन तथा संचार के साधनों इत्यादि ने सामाजिक गतिशीलता को काफ़ी तेज़ कर दिया। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता, बुद्धि के साथ गरीब से अमीर बन जाता है। जिस कार्य से उसे लाभ प्राप्त होता है वह उस कार्य को करना शुरू कर देता है। कार्य के लिए वह स्थान भी परिवर्तित कर लेता है। इस तरह सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया के द्वारा परम्परावादी कीमतों की जगह नई कीमतों का विकास हुआ। इस तरह निश्चित रूप में कहा जा सकता है कि आधुनिकीकरण से सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है।

प्रश्न 5.
आधुनिकीकरण से नए वर्गों की स्थापना होती है।
उत्तर-
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति को प्रगति करने के कई मौके प्रदान करती है। इस वजह से कई नए वर्गों की स्थापना होती है। समाज में यदि सिर्फ एक ही वर्ग होगा तो वह वर्गहीन समाज कहलाएगा। इसलिए आधुनिक समाज में कई नए वर्ग अस्तित्व में आए हैं। आधुनिक समाज में सबसे ज्यादा महत्त्व पैसे का होता है। इसलिए लोग जाति के आधार पर नहीं बल्कि राजनीति तथा आर्थिक आधारों पर बंटे हुए होते हैं। वर्गों के आगे आने का कारण यह है कि अलग-अलग व्यक्तियों की योग्यताएं समान नहीं होतीं। मजदूर संघ अपने हितों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का रास्ता भी अपना लेते हैं। अलग-अलग कार्यों के लोगों ने तो अलग-अलग अपने संघ बना लिए हैं।

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प्रश्न 6.
आधुनिकीकरण/ मशीनीकरण।
उत्तर-
भारत में मशीनीकरण के द्वारा कृषि से सम्बन्धित कार्यों में काफ़ी परिवर्तन पाया गया। शुरू में हमारा देश काफ़ी लम्बे समय तक खाद, अनाज इत्यादि के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहता था। मशीनीकरण तथा आधुनिकीकरण की वजह से हमारा देश आत्म-निर्भरता की स्थिति में पहुँच चुका है तथा बाकी हिस्सों में भी काफ़ी परिवर्तन पाया गया

प्रश्न 7.
आधुनिकीकरण / सामाजिक परिवर्तन।
उत्तर-
आधुनिकीकरण ने सामाजिक परिवर्तन की काफ़ी तेज़ गति से हमारे समाज में कई प्रकार के परिवर्तन ला दिए। औरतों की शिक्षा पर तो काफ़ी प्रभाव डाला है। इसके अलावा विधवा विवाह, दहेज प्रथा तथा औरतों की स्थिति इत्यादि में भी काफ़ी परिवर्तन ला दिया। इसके सम्बन्ध में अनेक कानून पास हुए। इस प्रकार सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए यह प्रक्रिया काफ़ी प्रभावशाली सिद्ध हुई है।

प्रश्न 8.
औद्योगीकरण।
उत्तर–
प्रत्येक समाज को अपने लोगों की ज़रूरतें पूर्ण करने के लिए औद्योगीकृत बनना पड़ता है। प्रत्येक क्षेत्र में उद्योगों का विकास होना ही औद्योगीकरण कहलाता है। इसका मुख्य उद्देश्य बड़े पैमाने पर उत्पादन करना है। औद्योगीकरण केन्द्रों में आबादी इस कारण भी अधिक होती है। पूँजीवाद भी औद्योगीकरण के आने से ही आरम्भ हुआ था।

प्रश्न 9.
शहरीकरण।
उत्तर-
शहरीकरण भी औद्योगीकरण के साथ ही बढ़ा है। शहरीकरण के द्वारा समाज में कई तरह के परिवर्तन पाए गए। जनसंख्या का बढ़ना, सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक संस्थाओं के स्वरूपों में परिवर्तन, मनोरंजन के साधनों का बढ़ना इत्यादि भी शहरीकरण के कारण ही पाए गए। गांवों पर भी शहरीकरण का प्रभाव पड़ा तथा गांवों के लोग शहरों में आकर रहने लगे। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन शहरीकरण के परिणामस्वरूप पाया गया।

प्रश्न 10.
वैश्वीकरण।
उत्तर-
वैश्वीकरण की प्रक्रिया एक व्यापक आर्थिक प्रक्रिया है जो सभी समाजों में फैली होती है। इसमें अलगअलग देशों के बीच मुक्त व्यापार तथा आर्थिक सम्बन्ध होते हैं। सभी देश अपनी ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं जिस वजह से अलग-अलग देशों में मुक्त व्यापार पर आधारित आर्थिक सम्बन्धों का विचार हमारे सामने आया। इस विचार को वैश्वीकरण कहते हैं।

प्रश्न 11.
वैश्वीकरण की विशेषताएं।
उत्तर-

  • इस प्रक्रिया में पूरी दुनिया में व्यापार चलता है।
  • इससे दुनिया में नई आर्थिकता कायम हुई है।
  • इसमें बाज़ार बढ़ कर पूरी दुनिया में हो गया है।
  • इससे श्रम विभाजन बढ़ा है।
  • इससे विशेषज्ञ एक देश से दूसरे देश में जाने लग गए हैं।

प्रश्न 12.
वैश्वीकरण का भारत पर प्रभाव।
उत्तर-

  • भारत के विश्व निर्यात में बढ़ौतरी हुई।
  • भारत में विदेशी निवेश बढ़ा है।
  • भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ा है।
  • भारत का सफ़ल घरेलू उत्पाद बढ़ा है।
  • तकनीकी तथा शैक्षिक सुधार हुए हैं।
  • औद्योगिक कार्यों का विकास हुआ है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
आधुनिकीकरण के भारतीय समाज पर प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर-
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अंग्रेज़ी सरकार के भारत आने के बाद शुरू हुई। अंग्रेज़ों ने वास्तव में अपनी संस्कृति को भारत में लागू करने के लिए कई परिवर्तन किए। एक तरफ उन्होंने भारतीय समाज के अन्दरूनी राज्यों से सम्पर्क स्थापित करने के लिए यातायात के साधनों का विकास किया तथा दूसरी तरफ संचार के साधनों द्वारा दूर-दूर के लोगों से सम्पर्क स्थापित किया। प्रैस को भी सम्पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। भारत के दूसरे देशों से भी सम्पर्क स्थापित हो गए। इसके अलावा अंग्रेजों ने परम्परागत विचारों को ख़त्म करके नए विचारों का समाज में संचार करना शुरू कर दिया। इस प्रकार भारतीय समाज में आधुनिकता आनी शुरू हो गई। भारतीय समाज की परम्परागत सामाजिक संस्थाओं; जैसे कि जाति व्यवस्था, परिवार व्यवस्था, विवाह व्यवस्था इत्यादि में परिवर्तन आने शुरू हो गए। इस प्रक्रिया द्वारा समाज में बहुत-से परिवर्तन आए जिनका वर्णन निम्नलिखित है

1. धर्म-निष्पक्षता (Secularization)-धर्म-निष्पक्षता की प्रक्रिया को आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा लोगों तक पहुंचाया गया। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में सभी धर्मों के लोगों को बराबर समझा गया। प्रत्येक व्यक्ति समाज के बीच किसी भी स्थिति को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक धर्म के व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों के साथ प्यार एवं सहनशीलता वाले सम्बन्ध स्थापित करने के बारे में चेतन किया जाने लगा। विभिन्न धर्मों की धार्मिक क्रियाओं, आदर्शों आदि का आदर किया जाने लगा। इस प्रकार लोगों में एकता की भावना पैदा होने लग गई। धर्म-निष्पक्षता का सिद्धान्त प्रत्येक क्षेत्र में लागू किया जाने लगा।

2. पश्चिमीकरण (Westernization)—पश्चिमीकरण से ही सम्बन्धित आधुनिकीकरण की प्रक्रिया है। पश्चिमीकरण का प्रभाव भारतीय समाज के ऊपर अंग्रेज़ी सरकार के आने के उपरान्त ही आरम्भ हुआ और पश्चिमीकरण की प्रक्रिया धीरे-धीरे आधुनिकीकरण में परिवर्तित होने लग पड़ी। श्री निवास के अनुसार, “भारतीय लोगों ने अन्धाधुन्ध या सोचेसमझे बिना पूर्ण पश्चिमी संस्कृति को ही नहीं अपनाया, बल्कि कुछ एक ने इसे ग्रहण किया, कुछ एक ने इसका त्याग कर दिया। पश्चिमी संस्कृति के वह तत्त्व जिन्हें भारतीय लोगों ने ग्रहण किया उनका भी भारतीय रूपान्तर (Transformation) भी हुआ। जहां अंग्रेज़ी संस्कृति और जीवन शैली के कुछ तत्त्वों ने भारतीयों को अपनी तरफ आकर्षित किया वहां अंग्रेज़ी संस्कृति के विभिन्न पक्ष, भारतीय जनसंख्या के विभिन्न भागों को आकर्षित करने लग गए। इस प्रकार भारतीय लोगों का आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ परिवर्तित होने का मुख्य कारण पश्चिमीकरण की गतिशीलता के साथ भी सम्बन्धित है।

3. औद्योगीकरण (Industrialization)-औद्योगीकरण आधुनिक समाज की मुख्य विशेषता है। भारत में औद्योगीकरण का पाया जाना पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण है। भारत में कई बड़े उद्योग, विदेशों की सहायता के साथ ही स्थापित किए गए हैं। जैसे कि हम देख रहे हैं कि भारत की जनसंख्या में वृद्धि Geometrically होती है अर्थात् 7×7 = 49 है और उत्पादन में वृद्धि Arithmetically होता है अर्थात् 7+7 = 14। इस तरह जिस प्रकार जनसंख्या की तेजी के साथ वृद्धि हुई है, उसी प्रकार औद्योगिक विकास का होना भी आवश्यक हो गया है। वास्तव में औद्योगीकरण का सम्बन्ध बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से होता है। औद्योगीकरण के विकास के साथ ही समाज में पूंजीवाद का विकास सम्भव हुआ। प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा होती है कि वह इस प्रकार का कार्य करे, कि उसे अधिक-से-अधिक लाभ की प्राप्ति हो। समाज में औद्योगिक क्रान्ति ने नए तकनीकी व्यवसायों को जन्म दिया। औद्योगीकृत समाजों में व्यक्ति को समाज में उसकी जाति के आधार पर नहीं बल्कि उसकी योग्यता पर आधारित कार्य मिलने लगा गया। इस कारण पैतृक व्यवसाय को अपनाने वाली परम्परागत प्रथा का भी खात्मा हुआ। औद्योगिक शहरों में रहने से लोगों के जीवन जीने के ढंगों में बिल्कुल ही परिवर्तन आ गया। गांवों में पाए जाने वाले घरेलू उद्योग तो औद्योगीकरण के विकास से बिल्कुल ही ठप्प हो गए। इस कारण गांवों में प्राचीन समय से चली आ रही संयुक्त परिवार की व्यवस्था तो बिल्कुल ही ख़त्म हो गई। भारत की आर्थिक व्यवस्था भी बदल गई। प्रत्येक क्षेत्र में उद्योगों का विकास होने लग गया। ब्रिटेन, जापान, अमेरिका इत्यादि जैसे कई देशों ने भारत में अपने उद्योग स्थापित किए। इस तरह आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा हमारे समाज में औद्योगीकरण की प्रगति हुई।

4. शहरीकरण (Urbanization)-औद्योगीकरण के विकास से ही शहरीकरण की प्रक्रिया भी सामने आई। जहां भी उद्योग विकसित हुए, उन स्थानों पर शहरों का विकास होना शुरू हो गया। गांवों के लोग रोज़गार की तलाश में शहरों में आकर रहने लगे। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत ही शहरों के विकास द्वारा हुई। शहरों में घनी आबादी तथा ज्यादा सामाजिक गतिशीलता पाई गई। यातायात तथा संचार के साधनों के विकास से गांवों तथा शहरों में सम्पर्क स्थापित हो गया। इस प्रकार शहरीकरण के द्वारा विभिन्न सामाजिक संस्थाओं का तो नक्शा ही बदल गया। औरतों की स्थिति में बहुत तेजी से परिवर्तन आए। वह प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी करने लग गई। शहरों में संयुक्त परिवार की जगह केन्द्रीय परिवारों को ज़्यादा मान्यता प्राप्त हुई। केन्द्रीय परिवारों में स्त्रियों तथा मर्दो को समान स्थिति प्राप्त हुई। यदि हम आधुनिक समय में शिक्षा के क्षेत्र की तरफ देखें तो स्त्रियां मर्दो से ज़्यादा पढ़ी-लिखी हैं। औरतें प्रत्येक क्षेत्र में तरक्की कर रही हैं। अब वह अपने आपको आदमी के ऊपर निर्भर नहीं समझती बल्कि वह अब स्वयं ही पैसे कमा रही है तथा आत्म-निर्भर हो गई है।

शहरों में लोगों के रहने-सहने का स्तर भी काफ़ी ऊँचा है। लोग ज़्यादा सुविधाएं प्राप्त करने की तरफ आकर्षित रहते हैं। इस कारण उनका दृष्टिकोण भी व्यक्तिवादी हो गया है। देश के सम्बन्ध में बहुत ज्यादा गतिशीलता पाई गई है क्योंकि जाति प्रथा का पेशे से सम्बन्ध ख़त्म ही हो गया है। शहरीकरण के कारण वर्ग व्यवस्था अस्तित्व में आई। व्यक्ति को समाज में स्थिति उसकी योग्यता के अनुसार प्राप्त होने लगी। पैसे की महत्ता दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी।
इस प्रकार शहरों में पैसे, स्थिति तथा शिक्षा का महत्त्व ज़्यादा पाया जाने लगा। शहरों में विज्ञान का प्रभुत्व होने के कारण धर्म का प्रभाव भी बहुत कम हो गया। शहरों में द्वितीयक समूहों का बढ़ता महत्त्व, जनसंख्या का बढ़ना, आधुनिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सुविधाओं इत्यादि को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति प्रयत्न करता है। इस कारण व्यक्तियों के आपसी सम्बन्ध रस्मी तथा अस्थिर होते हैं।
शहरी लोग ज्यादा पढ़े-लिखे होते हैं जिस कारण वह नई परिस्थितियों को समझ कर उनको जल्दी अपना लेते हैं। कुछ समस्याएं भी शहरीकरण से पाई जाती हैं जैसे बेरोज़गारी, गन्दी बस्तियां, ज़्यादा तलाक दर, आत्महत्या इत्यादि। परन्तु कई सामाजिक बुराइयों का खात्मा भी हुआ जैसे कि जाति प्रथा, बाल-विवाह, सती प्रथा इत्यादि।

5. नई श्रेणियों की स्थापना (Establishment of New Classes) आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने व्यक्तियों को प्रगति करने के कई अवसर प्रदान किए। इस कारण कई नए वर्गों की स्थापना हुई। समाज में यदि एक वर्ग होगा तो वह वर्गहीन समाज कहलाएगा। इस कारण आधुनिक समाज के बीच कई वर्ग अस्तित्व में आए। नए वर्गों के अस्तित्व में आने का एक कारण यह भी होता है कि विभिन्न व्यक्तियों की योग्यताएं एक जैसी नहीं होती हैं। इस कारण वह धन, शिक्षा, व्यवसाय आदि के दृष्टिकोण से अलग होते हैं। इस कारण ही नए वर्ग अस्तित्व में आते हैं।

आधुनिक समाज में सबसे ज्यादा महत्त्व पैसे का होता है। इस कारण लोग जाति के आधार पर नहीं बल्कि राजनीति तथा आर्थिक आधार पर विभिन्न वर्गों में बंटे हुए हैं। औद्योगिक क्षेत्र में पूंजीपतियों का मुकाबला करने के लिए मज़दूर संघ स्थापित हो गए हैं। यह मजदूर संघ अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का रास्ता भी अपना लेते हैं। आधुनिक समय में तो अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए अलग-अलग पेशों से सम्बन्धित लोगों ने संघ बना लिए हैं।

6. कृषि के क्षेत्र में विकास (Development in Agricultural Area)-भारत के गांवों की अधिकतर जनसंख्या कृषि के व्यवसाय को अपनाती है। कृषि करने के लिए प्राचीन भारतीय समाज में तो शारीरिक मेहनत का ही प्रयोग होता है, परन्तु आधुनिक काल में तो कृषि करने के लिए नई-नई मशीनों एवं तकनीकों का आविष्कार हो गया है। बड़े-बड़े खेतों में ट्रैक्टरों के साथ खेतीबाड़ी की जाने लग पड़ी है। नई-नई रासायनिक खादों का प्रयोग होने लग पड़ा है जिस कारण उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। फसल को काटने हेतु कम्बाइनों का प्रयोग किया जाने लग पड़ा है। इन सब कारणों के कारण कृषि में कम परिश्रम के होने पर भी उत्पादन में वृद्धि हो गई है। इस कारण ही कई लोग बेरोज़गार हो गए और कारखानों में जाकर कार्य करने लग पड़े। __ कृषि के क्षेत्र में आधुनिकीकरण के साथ-साथ मशीनीकरण भी हुआ है। सर्वप्रथम भारत उर्वरक के क्षेत्र में दूसरे देशों पर निर्भर करता था। परन्तु हरित क्रान्ति (Green Revolution) के साथ-साथ वह आत्मनिर्भर हो गया। इससे ग्रामीण लोगों की आर्थिक स्थिति एवं जीवन शैली में भी काफ़ी परिवर्तन हुआ है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण

7. कल्याणकारी राज्यों की स्थापना (Establishment of Welfare States)—स्वतन्त्रता के बाद भारतीय संविधान के अनुसार हमारे देश में कल्याणकारी राज्यों की धारणाओं को अपनाया गया जिस कारण राज्यों के कार्य काफ़ी बढ़ गए। इस कारण ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया दिनों-दिन तेज़ होती जा रही है। भारत की केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकार इस बात की कोशिश कर रही है कि व्यापारियों की, उपभोक्ताओं की, पूंजीपतियों की, उद्यमियों की, बड़े एवं कुटीर उद्योगों सभी की साझे तौर पर रक्षा की जाए। देश के धन का समान विभाजन किया जाए एवं यह सुरक्षित किया जाए कि उत्पादन केवल सीमित हाथों में न रह जाए। इसके लिए आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ही ज़िम्मेदार है।

8. लोकतंत्रीकरण (Democratization)-राजनीति में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया आधुनिकीकरण के कारण ही आई। भारत को संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्रीकरण देश कहा गया है, क्योंकि भारत में उन सभी को वोट देने का अधिकार है, जिनकी आयु 18 वर्ष से अधिक है। कानून के दृष्टिकोण से सभी एक समान हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, जिनको कोई नहीं छीन सकता। देश में आर्थिक असमानताएं दूर की जा रही हैं। संविधान के बीच राज्यों की नीतियों के कुछ निर्देशित सिद्धान्त दिए गए हैं, ताकि राज्य इन सिद्धान्तों के अनुसार ही नियम बनाए। लोगों को इस बात का अधिकार है कि यदि उन्हें सरकार का कार्य पसन्द नहीं है तो वह सरकार को बदल सकते हैं। इस प्रकार भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली काफ़ी मज़बूत है और यह सब कुछ आधुनिकीकरण की ही देन है।

9. कई अन्य परिवर्तन (Many Other Changes)-आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के द्वारा सरकार ने भी अपनी नीतियों में परिवर्तन किया है। समाज की प्रगति हेतु पूर्व निश्चित योजनाएं बना ली जाती हैं। इन योजनाओं के अधीन ऐसे योजनाबद्ध परिवर्तन किए जाते हैं, जिसके द्वारा परिवर्तन की प्रक्रिया को स्वाभाविक रूप से क्रियात्मक रहने की स्वतन्त्रता नहीं दी जाती है बल्कि उसके स्थान पर प्राप्त साधनों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन लाने की योजना बनाई जाती है।

प्रश्न 2.
वैश्वीकरण के परिणामों का वर्णन करें।
अथवा समाज पर वैश्वीकरण के प्रभावों की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
वैश्वीकरण के परिणाम (Consequences of Globalisation)-भारत में 1991 में आर्थिक सुधार आरम्भ हुए और भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तेज़ हो गई। वैश्वीकरण के भारतीय अर्थव्यवस्था पर भिन्न-भिन्न भागों के ऊपर प्रभाव एवं परिणाम निम्नलिखित हैं

1. भारत के विश्व निर्यात के हिस्से में वृद्धि (Increase of Indian Share in World Export)वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण भारत के विश्व निर्यात में वृद्धि हुई। 20वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में भारत की वस्तुओं और सेवाओं में 125% वृद्धि हुई। 1990 में भारत का विश्व की वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात में हिस्सा 0.55% था जोकि 1999 में बढ़कर 0.75% हो गया था।

2. भारत में विदेशी निवेश (Foreign Investment in India) विदेशी निवेश में वृद्धि भी वैश्वीकरण का एक लाभ है क्योंकि विदेशी निवेश के साथ अर्थव्यवस्था के साथ उत्पादन की क्षमता बढ़ती है। 1995-96 से 2016 में इससे काफ़ी अधिक बढोत्तरी हुई। इस समय के दौरान वार्षिक औसत के साथ लगभग 1140 मिलियन डालर का विदेशी लाभ हुआ।

3. विदेशी मुद्रा भण्डार (Foreign Exchange Kesernes) आयात के लिए विदेशी मुद्रा आवश्यक है। जून, 1991 में विदेशी मुद्रा भण्डार 1 Billion डॉलर था जिसके साथ केवल 2 सप्ताह की आयात आवश्यकताएं पूरी की जा सकती थीं। इसके पश्चात् भारत में नई आर्थिक नीतियों को अपनाया गया। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की नीतियों को बढ़ावा दिया गया, जिस कारण देश के विदेशी मुद्रा भण्डार लगभग 390 Billion Dollars के आसपास हैं।

4., सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर (Growth of Gross Domestic Product)—वैश्वीकरण के कारण देश के सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि हुई। 1980 में 5.63% जो 2005 के बाद 8-9% हो गई। आजकल यह 7% के करीब है।

5. बेरोज़गारी में वृद्धि (Increase in Unemployment)-भूमण्डलीकरण के साथ बेरोज़गारी में वृद्धि होती है। 20वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में मैक्सिको, दक्षिण कोरिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर, इण्डोनेशिया, मलेशिया के बीच
वैश्वीकरण के कारण आर्थिक संकट आया है। इस कारण लगभग 1 करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए और वह ग़रीबी की रेखा के नीचे आ गए। 1990 के दशक के आरम्भ में बेरोजगारी की दर 6% थी जोकि 2000 तक 7% हो गई।

6. कृषि के ऊपर प्रभाव (Impact on Agriculture) देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती एवं इससे सम्बन्धित कार्यों का हिस्सा 20% है जबकि अमेरिका में 2% है फ्रांस एवं जापान के बीच 5% है। यदि श्रम शक्ति को देखो तो भारत की 69% श्रम शक्ति को खेती के विकास से सम्बन्धित कार्यों से रोज़गार प्राप्त है जबकि अमेरिका एवं इंग्लैण्ड में ऐसे कार्यों में 2.6% श्रम शक्ति है। विश्वव्यापार के नियमों के अनुसार दुनिया को इस संगठन के सभी सदस्य देश को खेती क्षेत्र के निवेश के लिए दुनिया के प्रत्येक देश के लिए योजना है। इस प्रकार आने वाला समय भारत की खेती एवं अर्थव्यवस्था के लिए चुनौतीपूर्ण रहने की सम्भावना है।

7. तकनीकी एवं शिक्षात्मक सुधार (Educational & Technical Development)-वैश्वीकरण एवं उदारीकरण का शिक्षा के ऊपर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा। लेकिन तकनीकी क्षेत्र में तो काफ़ी चमत्कार भी हुआ। संचार एवं यातायात के साधनों के कारण दुनिया की दूरी काफ़ी कम हो गई है। Internet and Computers ने तो इस क्षेत्र में क्रान्तिकारी विकास कार्य किए हैं।

आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण PSEB 12th Class Sociology Notes

  • साधारण शब्दों में आधुनिकीकरण का अर्थ है जीवन जीने के आधुनिक तथा नए तरीकों व नए मूल्यों को अपना लेना। पहले इसका अर्थ काफ़ी तंग घेरे में लिया जाता था, परन्तु अब इसमें कृषि आर्थिकता व औद्योगिक आर्थिकता में परिवर्तन को भी शामिल किया जाता है।
  • सबसे पहले आधुनिकीकरण शब्द का प्रयोग Daniel Lerner ने मध्य-पूर्वीय समाजों का अध्ययन करते हुए किया। उनके अनुसार आधुनिकीकरण परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो गैर पश्चिमी देशों में पश्चिमी देशों के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबधों के कारण आती है।
  • आधुनिकीकरण की कई विशेषताएं हैं जैसे कि यह एक क्रान्तिकारी तथा जटिल प्रक्रिया है, यह काफ़ी लंबा समय चलने वाली प्रक्रिया है, इसे वापस नहीं किया जा सकता, इससे समाज में प्रगति आती है, इत्यादि।
  • आधुनिकीकरण के आने के कई कारण हैं जैसे कि नगरों का बढ़ना, बड़े-बड़े उद्योगों का सामने आना, शिक्षा के स्तर का बढ़ना, संचार के साधनों का विकास, किसी करिश्माई नेता द्वारा समाज में परिवर्तन लाना इत्यादि।
  • आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का हमारे समाज के प्रत्येक हिस्से पर प्रभाव पड़ा जैसे कि जाति प्रथा के बंधन ___ कमज़ोर पड़ गए, परिवारों का स्वरूप बदल गया, पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव बढ़ गया, नई कानून व्यवस्था सामने आई, समाज में बहुत से सुधार हुए इत्यादि।
  • आज के संसार को एक वैश्विक ग्राम के नाम से जाना जाता है क्योंकि वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने सभी देशों को एक-दूसरे के नज़दीक ला दिया है। आजकल हमें घर बैठे ही पता चल जाता है कि सम्पूर्ण विश्व में क्या हो रहा है ?
  • वैश्वीकरण का साधारण शब्दों में अर्थ है अलग-अलग देशों के बीच वस्तुओं, सेवाओं, विचारों, सूचना, लोगों तथा पूँजी का बेरोक-टोक प्रवाह। इससे उन देशों की आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक सीमाओं के बंधन टूट जाते हैं। यह सब कुछ संचार के विकसित साधनों के कारण मुमकिन हुआ है।
  • वैश्वीकरण की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि स्थानीय कार्यों का वैश्विक स्तर पर आना, प्रत्येक कार्य में तेजी का होना, सम्पूर्ण संसार में एक स्तर पर वस्तुओं की मौजूदगी, देशों के अन्तर्सम्बन्धों का बढ़ना, आदान-प्रदान का बढ़ना इत्यादि।
  • वैश्वीकरण के लिए दो प्रक्रियाओं का होना काफ़ी आवश्यक है वह है उदारीकरण व निजीकरण। उदारीकरण का अर्थ है बाज़ार के नियमों के अनुसार अपनी आर्थिकता को चलाना तथा निजीकरण का अर्थ है सरकारी कंपनियों को निजी क्षेत्र को बेच देना।
  • वैश्वीकरण के कई कारण होते हैं; जैसे कि यातायात तथा संचार में साधनों का विकास, सरकारों की तरफ से आर्थिक सीमाओं को खोल देना, बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सामने आना इत्यादि।
  • वैश्वीकरण का हमारे देश पर काफ़ी प्रभाव पड़ा जैसे कि व्यापारिक उदारीकरण का सामने आना, विदेशी पूँजी का निवेश, विदेशों से पैसे का देश में आना, तकनीक का आदान-प्रदान, आर्थिक मार्किट का सामने आना, वस्तुओं का अलग-अलग देशों में बनना इत्यादि।
  • बाहरी स्रोत (Outsourcing)—किसी अन्य कम्पनी को कार्य करने के लिए देने को बाहरी स्रोत कहते हैं।
  • विनिवेश (Disinvestment)-सरकारी अथवा जनतक क्षेत्र की कंपनियों का निजीकरण विनिवेश कहलाता है।
  • करिश्माई नेता (Charismatic Leader)—वह नेता जिसके व्यक्तित्व में कई करिश्माई गुण होते हैं तथा जो अपने व्यक्तित्व से लोगों को प्रभावित करता है।
  • धर्मनिष्पक्षता (Secularization)—वह विश्वास जिसमें राज्य, नैतिकता, शिक्षा इत्यादि धर्म के प्रभाव से काफ़ी दूर होते हैं।
  • उदारीकरण (Liberalisation)-बाज़ार पर सरकारी नियन्त्रण को कम कर देना तथा आर्थिक सीमाओं को खोल देना।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 3 राजनीतिक संस्कृति

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 3 राजनीतिक संस्कृति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 3 राजनीतिक संस्कृति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा कीजिए। राजनीतिक संस्कृति की विशेषताओं और तत्त्वों का वर्णन करें।
(Define Political Culture. Discuss the characteristics and components of Political Culture.)
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति आधुनिक राजनीति विज्ञान का एक नवीन महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण है। राजनीतिक संस्कृति का दृष्टिकोण मनोविज्ञान और समाज शास्त्र को एकीकृत करने का प्रयास है ताकि आधुनिक मनोविज्ञान की क्रान्तिकारी खोजों तथा समाजशास्त्रों में आधुनिक प्रगति दोनों को गतिशील राजनीतिक विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया जा सके जिससे जन-समाजों के दृष्टिकोण को अपनाने में समग्रता हो। वास्तव में, राजनीतिक संस्कृति एक आधुनिक शब्दावली है जो इन अवधारणाओं और राष्ट्रीय राजनीति मनोविज्ञान तथा लोगों के आधारभूत मूल्यों से सम्बन्धित ज्ञान को अधिक व्यवस्थित रूप में रखने का प्रयास करती है। किसी समाज की राजनीतिक संस्कृति को परिभाषित करने में लोगों के सभी राजनीतिक भावों को लिया जाना आवश्यक नहीं है। राजनीतिक संस्कृति में केवल समीक्षात्मक किन्तु व्यापक रूप से प्रचलित विश्वासों और भावों को ही लिया जाता है जो अनुस्थापन के उन विशिष्ट रूपों का निर्माण कर सकें जो कि राजनीतिक प्रक्रिया को व्यवस्था और स्वरूप प्रदान करते हैं।

वास्तव में राजनीतिक संस्कृति समकालीन राजनीतिक विश्लेषण में एक महत्त्वपूर्ण विकास की द्योतक है क्योंकि यह उन प्रयत्नों को प्रस्तुत करती है जिनके द्वारा हम व्यक्तिगत मनोविज्ञान के लोगों को खोए बिना सम्पूर्ण राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा सामाजिक और आर्थिक कारकों तथा राजनीतिक कार्यकलापों के बीच की कड़ियों की जांच करने का एक उपयुक्त आधार प्रस्तुत करती है। आलमण्ड और पावेल (Almond and Powell) ने राजनीतिक पद्धतियों की विविधतापूर्ण तुलना के लिए समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के क्षेत्रों से ली गई धारणाओं को अनुकूल बनाया है। अतीत में राजनीतिक पद्धतियों की तुलना के लिए किए गए प्रयत्न कानूनी संस्थागत पहलुओं तक ही सीमित थे जिसको उसने तुलना के लिए लाभदायक नहीं माना। इसलिए आलमण्ड (Almond) राजनीतिक पद्धतियों का वर्गीकरण उनकी संरचनाओं और संस्कृति के आधार पर करता है।

राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) शब्द का सबसे पहले प्रयोग गेबरील आलमण्ड (Gabriel Almond) ने 1956 में अपने एक लेख-Comparative Political System में किया था। यह लेख ‘जनरल ऑफ पोलिटिकल साईंस’ में छपा था। इस लेख में आलमण्ड ने लिखा-प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक क्रियाओं की एक विशिष्ट शैली अन्तर्निहित है। मैंने इसे ‘राजनीतिक संस्कृति’ नाम देना ही उपयुक्त समझा। आलमण्ड के पश्चात् पाई (Pye), सैम्युल बीयर (Samuel Beer), सिडनी वर्बा (Sidney Verba), डैनिश कावनाग (Dennis Kavanagh) इत्यादि अन्य अमेरिकन विद्वानों ने भी इस धारणा की विस्तृत व्याख्या की है।

राजनीतिक संस्कृति का अर्थ (Meaning of Political Culture)-राजनीतिक संस्कृति का अर्थ जानने से पहले संस्कृति’ शब्द का अर्थ जानना अति आवश्यक है। किसी देश के साहित्य और संगीत की, परम्पराओं और आस्थाओं की, कला और कौशल की मिली-जुली निरन्तर बहने वाली धारा को उस देश की संस्कृति कहते हैं। टेलर (Tayler) के अनुसार, “संस्कृति में, समाज के एक सदस्य होने के नाते, मनुष्य द्वारा अर्जित ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथाएं तथा दूसरी क्षमताएं शामिल होती हैं।” ग्राहम वालास (Graham Wallas) के मतानुसार, ‘संस्कृति विचारों, मूल्यों और उद्देश्यों का समूह है। यह सामाजिक उत्तराधिकार है जो प्रशिक्षण द्वारा हमें पिछली पीढ़ियों से प्राप्त हुआ है। यह जीव सम्बन्धी उत्तराधिकार से पृथक् है जो कीटाणुओं द्वारा स्वयं हमारे पास आया है।”

जिस प्रकार प्रत्येक देश की एक संस्कृति होती है, उसी प्रकार प्रत्येक देश की एक राजनीतिक संस्कृति भी होती है। किसी देश के राजनीतिक चरित्र और आदतों की, राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यवहार की, राजनीतिक संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति की मिली-जुली धारा को उस समाज की राजनीतिक संस्कृति कहते हैं। राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा के जन्मदाता गैब्रील आलमण्ड ने राजनीतिक संस्कृति की व्याख्या इस प्रकार की है-“राजनीतिक संस्कृति का विचार इस ओर संकेत करता है कि किसी भी समाज की परम्पराएं, सार्वजनिक संस्थाओं की भावनाएं, नागरिकों के सामूहिक तर्क शक्ति और भावावेश तथा उसके नेताओं की कार्य शैली केवल ऐतिहासिक अनुभव की बेतरतीव उपज मात्र नहीं है बल्कि वे सब आपस में एक बड़ी सार्थक इकाई के रूप में सुगठित की जा सकती हैं और उनके द्वारा सम्बन्धों का ताना बना बुना जा सकता है जो सार्थक रूप से समझा जा सके। राजनीतिक संस्कृति व्यक्ति को उसके राजनीतिक आचरण का नियन्त्रणकारी आदेश देती है तथा उसकी सामूहिकता को इस प्रकार के मूल्यों एवं तर्कों की एक ऐसी व्यवस्थित संरचना प्रदान करती है जो संस्थाओं और संगठनों के कार्य निष्पादन में तालमेल स्थापित करती है।”

राजनीतिक संस्कृति की परिभाषाएं (Definitions of Political Culture)-राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा की परिभाषा कई लेखकों के द्वारा दी गई
1. एलन आर० बाल (Allan R. Bal) के शब्दों में, “राजनीतिक संस्कृति उन अभिवृत्तियों और विश्वासों और भावनाओं और समाज के मूल्यों से मिलकर बनती है जिनका सम्बन्ध राजनीतिक पद्धति और राजनीतिक प्रश्नों से होता है।” (“A Political Culture is composed of attitudes, beliefs, emotions and values of society and that relates to political system and to political issues.”)

2. आलमण्ड और पावेल (Almond and Powell) ने अपनी पुस्तक “Comparative Politics : A Development Approach” में राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा करते हुए लिखा है, “राजनीतिक संस्कृति किसी भी राजनीतिक प्रणाली के सदस्यों में राजनीति के प्रति पाए जाने वाले अभिमुखन और अभिवृत्तियों का स्वरूप है।” (“Political Culture is a pattern of individual attitudes and orientations towards politics among members of a political system.”)

3. राय मैक्रीडिस (Roy Mcridis) का विचार है कि, “सामान्य लक्ष्य तथा सामान्य स्वीकृत नियम ही राजनीतिक संस्कृति का अर्थ है।” (“Political Culture means commonly shared goals and commonly accepted rules.”)

4. फाइनर (Finer) का कथन है, “राष्ट्र की राजनीतिक संस्कृति मुख्यतः शासकों, राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं की वैधता से सम्बन्धित है।” (“Nation’s Political Culture seems to concentrate largely on the legitimacy of rules and political institution and procedures.”).

5. ऐरिक रो (Eric Rowe) के शब्दों में, “राजनीतिक संस्कृति व्यक्तिगत मूल्यों, विश्वासों तथा भावनात्मक व्यवहारों की आकृति है।” (“A Political Culture is a pattern of individual values, beliefs and emotional attitudes.”)

6. टालकॉब पारसन (Talcob Parsons) के अनुसार, “राजनीतिक संस्कृति का सम्बन्ध राजनीतिक उद्देश्यों के प्रति अनुकूलन है।” (“Political Culture is connected with orientations towards political object.”)

लूसियन पाई ने भी राजनीतिक संस्कृति की व्याख्या और परिभाषा अपनी पुस्तक, “Political Culture and Political Development” में प्रस्तुत की है। उसने लिखा है कि यह हाल ही में उत्पन्न हुआ शब्द है जो इन पुरानी धारणाओं, राजनीतिक विचारधाराओं, राष्ट्रीय नैतिकता और भावना, राष्ट्रीय राजनीति मनोविज्ञान और किसी जन-समूह के आधारभूत मूल्य से सम्बन्धित समझदारी को अधिक स्पष्ट और क्रमबद्ध बनाने का प्रयत्न करता है। इसका अर्थ यह है कि राजनीतिक संस्कृति व्यक्ति के लिए प्रभावशाली राजनीतिक व्यवहार की ओर मार्ग-निर्देशन करती है और समाज के लिए उन मूल्यों तथा विवेकपूर्ण विचारों की व्यवस्था करती है जोकि संस्थाओं और संगठनों के कार्यकलापों में तालमेल पैदा करता है।

इन सभी परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक संस्कृति लोगों, राजनीतिक विश्वासों, वृत्तियों मनोवृत्तियों, परम्पराओं आदि का समूह है जो उनकी राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित करती है। राजनीतिक संस्कृति से किसी देश की राजनीतिक व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है।

राजनीतिक संस्कृति की विशेषताएं
(CHARACTERISTICS OF POLITICAL CULTURE)
अथवा
राजनीतिक संस्कृति की प्रकृति (NATURE OF POLITICAL CULTURE)
अथवा
राजनीतिक संस्कृति के महत्त्वपूर्ण पहलू (SOME IMPORTANT ASPECTS OF POLITICAL CULTURE)

1. राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है (The Political Culture is comprehensive Concept)राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है जो लोगों की राजनीतिक प्रणाली के प्रति अभिवृत्तियों, विश्वासों, मूल्यों, मनोभावनाओं आदि से बनती है। जिस प्रकार किसी देश के साहित्य और संगीत की परम्पराओं और आस्थाओं की, कला और कौशल की मिली-जुली निरन्तर बहने वाली धारा उस देश की संस्कृति है, उसी तरह, किसी देश के राजनीतिक चरित्र और आदतों की, राजनीतिक सूझबूझ और व्यवहार की, राजनीतिक संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति की मिलीजुली धारा को उस समाज की राजनीतिक संस्कृति कहते हैं।

2. राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति का भाग है (Political Culture is a part of General Culture)प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति मूल रूप से उस समाज की संस्कृति से ही प्रभावित होती है। प्रत्येक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति अपने मुख्य तत्त्व, अपने आदर्श, अपने मूल्य उस व्यवस्था की सामान्य संस्कृति से ही ग्रहण करती है। डेनिश कावनाग के अनुसार राजनीतिक संस्कृति समाज की विशाल संस्कृति का ही एक भाग है। डॉ० हरिश्चन्द्र शर्मा के शब्दों में, “राजनीतिक संस्कृति अधिक सामान्य संस्कृति का एक अभिन्न पहलू है। एक संस्कृति के आधारभूत विश्वास, मूल्य और आदर्श सामान्यतया राजनीतिक संस्कृति के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। एक व्यक्ति के राजनीतिक विश्वास उसके अन्य विश्वासों का ही एक अंग है। सामान्य संस्कृति के मूल्यों और विश्वासों से राजनीतिक संस्कृति अप्रभावित नहीं रह सकती।”

3. विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की विभिन्न राजनीतिक संस्कृति (Different Political System have different Political Cultures)–राजनीतिक संस्कृति के विद्वानों का यह मत है कि विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की राजनीतिक संस्कृति भी विभिन्न होती है। एंग्लो-अमेरिका राजनीतिक प्रणालियों (इंग्लैण्ड और अमेरिका) की राजनीतिक संस्कृति एक जैसी है। महाद्वीपीय यूरोपीय राजनीतिक प्रणालियों (फ्रांस, इटली, नार्वे आदि) की राजनीतिक संस्कृति दूसरी प्रकार की है और औद्योगीकरण से पूर्व की या आंशिक रूप से औद्योगीकृत राजनीतिक प्रणालियां (पाकिस्तान, सीरिया, म्यांमार आदि) की तीसरी प्रकार की हैं जबकि सर्वाधिकारवादी राजनीतिक प्रणालियां (उत्तरी कोरिया, चीन आदि) की चौथी प्रकार की हैं। राजनीतिक संस्कृतियों के अलग-अलग होने के कारण ही एक ही प्रकार की राजनीतिक प्रणाली विभिन्न राज्यों में विभिन्न प्रकार से कार्य करती है। संसदीय शासन प्रणाली इंग्लैण्ड में बहुत सफल है जबकि तीसरी दुनिया (Third World) के देशों में सफल नहीं रही। भारत में लोकतन्त्र प्रणाली सफल है जबकि पाकिस्तान में बिल्कुल असफल रही है।

4. राजनीतिक संस्कृति का आधार (Basis of Political Culture)–लुसियन पाई का मत है कि राजनीतिक संस्कृति दो बातों पर आधारित होती है-

  • राजनीतिक व्यवस्था के सामूहिक इतिहास की उपज।
  • उन व्यक्तियों के जीवन इतिहासों की उपज जोकि उस व्यवस्था को जन्म देते हैं। इस प्रकार राजनीतिक संस्कृति की जड़ें सामाजिक जीवन की घटनाओं और व्यक्तिगत अनुभवों में समान रूप से निहित होती हैं।

5. राजनीतिक संस्कृति एक अमूर्त नैतिक धारणा (Political Culture is an abstract moral Concept)राजनीतिक संस्कृति निराकार अथवा अमूर्त है। इसका कोई रूप नहीं है। राजनीतिक संस्कृति को केवल अनुभव किया व समझा जा सकता है पर देखा नहीं जा सकता। राजनीतिक संस्कृति का मूल आधार व्यक्ति और समाज के राजनीतिक मूल्य, विश्वास व मनोवृत्तियां होती हैं। ये मूल्य और विश्वास सामान्य नैतिक धारणाओं के अंग होते हैं। अतः राजनीतिक संस्कृति एक अमूर्त नैतिक धारणा है।

6. राजनीतिक संस्कृति में गतिशीलता (Dynamics in Political Culture)-राजनीतिक संस्कृति स्थिर न होकर गतिशील होती है। यदि राजनीतिक संस्कृति ऐतिहासिक विरासत तथा भौगोलिक परिस्थितियों से प्रभावित होती है तो दूसरी ओर सामाजिक व आर्थिक तत्त्वों से भी प्रभावित होती है। सामाजिक व आर्थिक तत्त्व बदलते रहते हैं, जिस कारण राजनीतिक संस्कृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तन धीरे-धीरे और तीव्र भी हो सकते हैं।

7. राजनीतिक विकास और राजनीतिक संस्कृति की परस्पर घनिष्ठता (Close Relation between Political Development and Political Culture) राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक विकास की प्रक्रिया को अत्यधिक प्रभावित करती है। राजनीतिक संस्कृति के अध्ययन के उन तत्त्वों और शक्तियों को समझने में सहायता मिलती है जो विकास और आधुनिकीकरण को प्रेरित एवं बाधित करते हैं।

8. राजनीतिक संस्कृतियों की संरचना और रूप-रेखा (Structure and Configurations of Political Culture) लूसियन पाई का विचार है कि किसी भी समाज में एक-सी राजनीतिक संस्कृति नहीं पाई जाती। इनकी संरचना और रूप-रेखा भिन्न होती है-

  • सभी राजतन्त्रों में शासकों अथवा सत्ताधारियों की संस्कृति और आम जनता की संस्कृति में एक मूल अन्तर पाया जाता है। जिन लोगों के हाथ में शक्ति होती है, राजनीति पर उनके दृष्टिकोण उन लोगों के दृष्टिकोण से भिन्न होते हैं जिनके हाथों में सत्ता नहीं होती।
  • राजनीतिक विकास की प्रक्रिया के आधार पर राजनीतिक संस्कृतियों का एक और विभाजन आधुनिक रूप और परम्परागत रूप के बीच किया जाता है। यह विभाजन आधुनिक तकनीकों के प्रति अभिरूप रखने वाले लोगों को परम्परागत आदर्शों में विश्वास रखने वाले लोगों से अलग करते हैं। जैसे-जैसे इस क्षेत्र में विकास होता जाता है, वैसेवैसे शहरी और देहाती क्षेत्रों की विचारधारा में अन्तर बढ़ जाता है।

9. राजनीतिक संस्कृति में परम्पराओं की भूमिका (Role of traditions in Political Culture) राजनीतिक संस्कृति चाहे विकसित हो, चाहे अविकसित राजनीतिक परम्पराओं, आदतों तथा प्रथाओं से अवश्य प्रभावित होती है। वास्तव में, परम्पराएं ही राजनीतिक संस्कृतियों को विशिष्टता और सार्थकता प्रदान करती हैं। रिचार्ड रोज़ (Richard Rose) ने इंग्लैंड का उदाहरण देते हुए कहा है कि परम्परा और आधुनिकता के मिश्रण से इंग्लैण्ड के विकास को सन्तुलन एवं स्थायित्व प्राप्त हुआ।

10. राजनीतिक संस्कृति के निर्माणकारी तत्त्व (Foundations of Political Culture)-राजनीतिक संस्कृति के निर्माणकारी तत्त्व और चिह्न अनेक हैं। इसके निर्माणकारी तत्त्वों में ऐतिहासिक विकास, देश का भूगोल, सामाजिक तथा आर्थिक संरचना महत्त्वपूर्ण है और इसके चिह्नों में राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान महत्त्वपूर्ण है। कुछ राज्यों में धार्मिक चिह्नों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। कुछ राज्यों में ये राष्ट्रीय एकता के प्रतीक माने जाते हैं और कुछ राज्यों की राजनीतिक संस्कृति में पौराणिक अथवा काल्पनिक कथाओं का महत्त्व भी होता है। राजनीतिक संस्कृति स्थिर नहीं होती। उसका विकास होता रहता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 3 राजनीतिक संस्कृति

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक सभ्याचार से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
राजनीतिक संस्कृति का अर्थ लिखिए।
उत्तर-
किसी देश के राजनीतिक चरित्र और आदतों की, राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यवहार की, राजनीतिक संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति की मिली-जुली धारा को उस समाज की राजनीतिक संस्कृति (सभ्याचार) कहते हैं। राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा के जन्मदाता गैब्रील आल्मण्ड ने राजनीतिक संस्कृति की व्याख्या इस प्रकार की है”राजनीतिक संस्कृति का विचार इस ओर संकेत करता है कि किसी भी समाज की परम्पराएं, सार्वजनिक संस्थाओं की भावनाएं, नागरिकों के सामूहिक तर्क शक्ति और भावावेश तथा उसके नेताओं की कार्य शैली केवल ऐतिहासिक अनुभव की बेतरतीब उपज मात्र नहीं है बल्कि वे सब आपस में एक बड़ी सार्थक इकाई के रूप में संगठित की जा सकती हैं और उनके द्वारा सम्बन्धों का तानाबाना बुना जा सकता है जो सार्थक रूप में समझा जा सके। राजनीतिक संस्कृति व्यक्ति को उसके राजनीतिक आचरण का नियन्त्रणकारी आदेश देती है तथा उसकी सामूहिकता को इस प्रकार के मूल्यों एवं तर्कों की एक ऐसी व्यवस्थित संरचना प्रदान करती है जो संस्थाओं और संगठनों के कार्य निष्पादन में तालमेल स्थापित करती है।”

प्रश्न 2.
राजनीतिक संस्कृति को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-

  • ऐलन आर० बाल के शब्दों में, “राजनीतिक संस्कृति उन अभिवृत्तियों और विश्वासों तथा भावनाओं और समाज के मूल्यों से मिलकर बनती है जिनका सम्बन्ध राजनीतिक पद्धति और राजनीतिक प्रश्नों से होता है।”
  • आल्मण्ड और पॉवेल के अनुसार, “संस्कृति किसी भी राजनीतिक प्रणाली के सदस्यों में राजनीति के प्रति पाए जाने वाले अभिमुखन और अभिवृत्तियों का स्वरूप है।”
  • सैम्यूल बीयर का कहना है, “लोगों के मूल्य, विश्वास व भावात्मक वृत्तियों की सरकार को किस प्रकास के संचालित होना चाहिए और उसे क्या करना चाहिए, ही राजनीतिक संस्कृति के तत्त्व हैं।” ।
  • राय मैक्रीडिस के अनुसार, “सामान्य लक्ष्य तथा सामान्य स्वीकृत नियम ही राजनीतिक संस्कृति का अर्थ है।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 3 राजनीतिक संस्कृति

प्रश्न 3.
राजनीतिक संस्कृति सभ्याचार की चार विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा
राजनीतिक संस्कृति-सभ्याचार की कोई चार विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  • राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है-राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है जो लोगों की राजनीतिक प्रणाली के प्रति अभिवृत्तियों, विश्वासों, मूल्यों, मनोभावनाओं आदि से बनती है। किसी देश के राजनीतिक चरित्र और आदतों की राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यवहार की राजनीतिक संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति की मिलीजुली धारा को उस समाज की राजनीतिक संस्कृति कहते हैं।
  • राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति का भाग है-प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति मूल रूप से उस समाज की संस्कृति से ही प्रभावित होती है। प्रत्येक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति अपने मुख्य तत्त्व, अपने आदर्श, अपने मूल्य उस व्यवस्था की सामान्य संस्कृति से ही ग्रहण करते हैं।
  • विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की विभिन्न राजनीतिक संस्कृति-राजनीतिक संस्कृति के विद्वानों का यह मत है कि विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की राजनीतिक संस्कृति भी विभिन्न होती है। ऐंग्लो-अमेरिकन राजनीतिक प्रणालियों (इंग्लैण्ड और अमेरिका) की राजनीतिक संस्कृति एक-जैसी है। महाद्वीपीय यूरोपीय राजनीतिक प्रणालियों (फ्रांस, इटली, नार्वे आदि) की राजनीतिक संस्कृति दूसरी प्रकार की है।
  • गतिशीलता-राजनीतिक संस्कृति स्थिर न होकर गतिशील होती है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक संस्कृति के धर्म-निरपेक्षीकरण से आपका क्या अभिप्राय है ?
अथवा
निरपेक्ष राजनीतिक सभ्याचार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। किसी देश की राजनीतिक संस्कृति स्थायी नहीं होती। राजनीतिक संस्कृति में जब परिवर्तन के फलस्वरूप लोग अपने राजनीतिक दृष्टिकोण में विवेकपूर्ण (Rational), विश्लेषणात्मक (Analytical) और व्यावहारिक बनते चले जाते हैं तो इसको राजनीतिक संस्कृति का धर्म-निरपेक्षीकरण कहा जाता है। राजनीतिक संस्कृति के धर्म-निरपेक्षीकरण में लोगों के राजनीतिक विश्वास, दृष्टिकोण तथा विचार संकुचित न होकर अत्यधिक व्यापक होते हैं। लोगों को राजनीतिक सहभागी (Political Participation) तथा राजनीतिक भर्ती (Political Recruitment) के बारे में काफ़ी जानकारी प्राप्त होती है और वे राजनीतिक प्रणाली की वैधता (Legitimacy) के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण निर्णय करने की स्थिति में होते हैं। धर्मनिरपेक्षीकरण राजनीतिक संस्कृति में लोगों में जागृति और राजनीतिक बुद्धिमत्ता बहुत अधिक होती है। लोगों में राजनीतिक प्रणाली को समझने की शक्ति होती है और वे किसी भी राजनीतिक समस्या पर निष्पक्ष होकर अपनी राय देने की स्थिति में होते हैं।

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प्रश्न 5.
राजनैतिक सभ्याचार को प्रभावित करने वाले कोई चार तत्त्व लिखिए।
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति के निर्धारक तत्त्व इस प्रकार हैं

  • ऐतिहासिक आधार- इतिहास और इतिहास की घटनाएं राजनीतिक संस्कृति को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। कोई भी राजनीतिक व्यवस्था इतिहास के अनुभवों और शिक्षाओं को भुला नहीं सकती।
  •  भौगोलिक आधार- भूगोल एक स्थायी तत्त्व है, इसलिए राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करने वाला यह दूसरा प्रमुख आधार है।
  • सामाजिक बहुलता-राजनीतिक संस्कृति के निर्माणकारी तत्त्वों में सामाजिक बहुलता का भी अपना विशेष महत्त्व है। सामाजिक बहुलता तथा विविधता वाले समाज में अनेक उप-संस्कृतियों का निर्माण होता है।
  • शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार भी राजनीतिक संस्कृति का एक निर्धारित तथ्य है।

प्रश्न 6.
राजनीतिक संस्कृति में टेलीविज़न की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति में टेलीविज़न की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान समय में टेलीविज़न प्रचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। इसमें समय-समय पर सामाजिक विषयों पर चर्चा प्रसारित की जाती है तथा विभिन्न देशों की अलग-अलग संस्कृतियों के विषय में बताया जाता है। टेलीविज़न में विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों एवं घटनाओं से सम्बन्धित समाचार प्रसारित किए जाते हैं। इन सब का दर्शकों के दिमाग पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है, क्योंकि दर्शक जिस प्रकार के कार्यक्रम टेलीविज़न में देखते हैं, उसी प्रकार से उनके विचार और मूल्य बनते हैं।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक संस्कृति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर–
किसी देश के राजनीतिक चरित्र और आदतों की, राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यवहार की, राजनीतिक संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति की मिली-जुली धारा को उस समाज की राजनीतिक संस्कृति कहते हैं।

प्रश्न 2.
राजनीतिक संस्कृति की परिभाषाएं बताएं।
उत्तर-

  • ऐलन आर० बाल के शब्दों में, “राजनीतिक संस्कृति उन अभिवृत्तियों और विश्वासों तथा भावनाओं और समाज के मूल्यों से मिलकर बनती है जिनका सम्बन्ध राजनीतिक पद्धति और राजनीतिक प्रश्नों से होता है।”
  • आल्मण्ड और पॉवेल के अनुसार, “संस्कृति किसी भी राजनीतिक प्रणाली के सदस्यों में राजनीति के प्रति पाए जाने वाले अभिमुखन और अभिवृत्तियों का स्वरूप है।”

प्रश्न 3.
राजनीतिक संस्कृति के तीन अंगों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. (1) ज्ञानात्मक दिशामान (Congnitive Orientation)
  2. प्रभावात्मक दिशामान (Affective Orientation)
  3. मूल्यांकिक दिशामान (Evaluation Orientation)।

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प्रश्न 4.
राजनीतिक संस्कृति की कोई दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (P.B. 2017)
उत्तर-

  • राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है-राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है जो लोगों की राजनीतिक प्रणाली के प्रति अभिवृत्तियों, विश्वासों, मूल्यों, मनोभावनाओं आदि से बनती है। किसी देश के राजनीतिक चरित्र और आदतों की राजनीतिक सूझ-बूझ और व्यवहार की राजनीतिक संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति की मिली-जुली धारा को उस समाज की राजनीतिक संस्कृति कहते हैं।
  • राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति का भाग है-प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति मूल रूप से उस समाज की संस्कृति से ही प्रभावित होती है। प्रत्येक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति अपने मुख्य तत्त्व, अपने आदर्श, अपने मूल्य उस व्यवस्था की सामान्य संस्कृति से ही ग्रहण करते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1.
राजनीतिक संस्कृति का कोई एक अंग या भाग लिखें।
उत्तर-
ज्ञानात्मक आचरण।

प्रश्न 2.
राजनीतिक संस्कृति के ज्ञानात्मक आचरण का अर्थ लिखें।
उत्तर-
ज्ञानात्मक आचरण का मूल अभिप्राय यह होता है कि किसी देश के व्यक्तियों का अपनी राजनीतिक प्रणाली के विषय में कितना ज्ञान है।

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प्रश्न 3.
राजनीतिक संस्कृति के मूल्यांकनकारी आचरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
मूल्यांकनकारी आचरण से अभिप्राय यह है कि किसी देश के लोग अपनी राजनीतिक प्रणाली की कार्यविधि का कितना निष्पक्ष मूल्यांकन करते हैं।

प्रश्न 4.
राजनीतिक संस्कृति का कोई एक तथ्य लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक मूल्य (Political Values)

प्रश्न 5.
किस प्रकार के तथ्य राजनीतिक संस्कृति के मूल आधार माने जाते हैं ?
उत्तर-
ऐतिहासिक तथ्य, भौगोलिक तथ्य तथा सामाजिक-आर्थिक तथ्य राजनीतिक संस्कृति के मूल आधार माने जाते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 3 राजनीतिक संस्कृति

प्रश्न 6.
आलमण्ड के अनुसार राजनीतिक संस्कृति का कोई एक रूप लिखें।
उत्तर-
संकीर्ण या सीमित संस्कृति (Parochial Political Culture)।

प्रश्न 7.
राजनीतिक संस्कृति किसका भाग है ?
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति का भाग है।

प्रश्न 8.
किस विद्वान् ने राजनीतिक संस्कृति की विस्तृत व्याख्या की है ?
उत्तर-
लुसियन पाई ने राजनीतिक संस्कृति की विस्तृत व्याख्या की है।

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प्रश्न 9.
राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग किस विद्वान ने किया ?
उत्तर-
राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग आल्मण्ड ने किया था।

प्रश्न 10.
राजनीतिक संस्कृति के दो तत्त्व लिखो।
अथवा
राजनीतिक संस्कृति के दो मुख्य अंग लिखिए।
उत्तर-
(1) राजनीतिक संस्कृति एक व्यापक धारणा है।
(2) राजनीतिक संस्कृति सामान्य संस्कृति का भाग है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राजनीति संस्कृति शब्द का सबसे पहले प्रयोग ………… ने किया।
2. राजनीति संस्कृति का सबसे पहले प्रयोग सन् ……….. में किया गया।
3. आल्मण्ड ने राजनीति संस्कृति का प्रयोग अपने एक लेख ……….. में किया।
4. आल्मण्ड द्वारा लिखा गया लेख ……….. में छपा।
5. ……… के अनुसार सामान्य लक्ष्य तथा सामान्य स्वीकृत नियम ही राजनीति संस्कृति का अर्थ है।
उत्तर-

  1. गेबरील आल्मण्ड
  2. 1956
  3. Comparative Political System
  4. जनरल ऑफ पोलिटिकल साईंस
  5. राय मैक्रीडिस।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राजनीतिक संस्कृति एक परम्परागत धारणा है।
2. राजनीतिक संस्कृति का प्रयोग सर्वप्रथम प्लेटो ने किया।
3. राजनीति संस्कृति की धारणा का मुख्य समर्थक आल्मण्ड है।
4. फाइनर के अनुसार राष्ट्र की राजनीति मुख्यत: शासकों, राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं की वैधता से सम्बन्धित है।
5. राजनीतिक संस्कृति एक संकुचित धारणा है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीतिक संस्कृति में क्या सम्मिलित नहीं है ?
(क) राजनीतिक मूल्य
(ख) राजनीतिक विश्वास
(ग) राजनीतिक दृष्टिकोण
(घ) हित समूह।
उत्तर-
(घ) हित समूह।

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प्रश्न 2.
‘Political Culture and Political Development’ का लेखक कौन है ?
(क) सिडनी वर्बा
(ख) लूसियन पाई
(ग) रोज और डोगन
(घ) एलन आर० बाल।
उत्तर-
(ख) लूसियन पाई

प्रश्न 3.
आल्मण्ड के अनुसार राजनीतिक संस्कृति के घटक हैं
(क) प्रभावात्मक अनुकूलन
(ख) ज्ञानात्मक अनुकूलन
(ग) मूल्यांकन अनुकूलन
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4.
राजनीतिक संस्कृति के महत्त्व है –
(क) राजनीतिक शिक्षा
(ख) कानून एवं व्यवस्था
(ग) राजनीतिक स्थिरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 5.
राजनीतिक संस्कृति की धारणा का प्रयोग सर्वप्रथम किस वर्ष किया गया ?
(क) 1856
(ख) 1956
(ग) 1789
(घ) 1950.
उत्तर-
(ख) 1956

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

गरु अंगद देव जी का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Guru Angad Dev Ji)

प्रश्न 1.
गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षिप्त वर्णन करें। (What do you know about the early career of Guru Angad Dev Ji ? Explain briefly.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी अथवा भाई लहणा जी सिखों के दूसरे गुरु थे। उनका गुरु काल 1539 ई० से 1552 ई० तक रहा। गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अंगद देव जी का पहला नाम भाई लहणा जी था। उनका जन्म 31 मार्च, 1504 ई० को मत्ते की सराय नामक गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम फेरूमल था तथा वह क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। लहणा जी की माता जी का नाम सभराई देवी था। वह बहुत धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। भाई लहणा जी पर उनके धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई लहणा जी जब युवा हुए तो वह अपने पिता जी के कार्य में हाथ बंटाने लगें। 15 वर्ष के होने पर उनका विवाह उसी गाँव के निवासी श्री देवी चंद की सुपुत्री बीबी खीवी जी के साथ कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों दातू और दासू तथा दो पुत्रियों बीबी अमरो और बीबी अनोखी ने जन्म लिया। 1526 ई० में बाबर के पंजाब आक्रमण के समय फेरूमल जी अपने परिवार को लेकर खडूर साहिब नामक गाँव में आ गए। शीघ्र ही फेरूमल जी का देहांत हो गया, जिस कारण परिवार का समूचा उत्तरदायित्व भाई लहणा जी के कंधों पर आ पड़ा।

3. लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बने (Lehna Ji becomes the disciple of Guru Nanak Dev Ji)-भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी से भेंट करने से पूर्व दुर्गा माता के भक्त थे। वह प्रतिवर्ष ज्वालामुखी (जिला काँगड़ा) देवी के दर्शन के लिए जाते थे। एक दिन खडूर साहिब में भाई जोधा जी के मुख से ‘आसा दी वार’ का पाठ सुना। यह पाठ सुनकर भाई लहणा जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गुरु नानक देव जी के दर्शन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। आगामी वर्ष जब भाई लहणा जी ज्वालामुखी की यात्रा के लिए निकले तो वह मार्ग में करतारपुर में गुरु नानक देव जी के दर्शनों के लिए रुके। वह गुरु साहिब के महान् व्यक्तित्व और मधुर वाणी को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए, इसलिए भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बन गए और गुरु-चरणों में ही अपना जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-भाई लहणा जी ने पूर्ण श्रद्धा के साथ गुरु नानक साहिब की अथक सेवा की। भाई लहणा की सच्ची भक्ति और अपार प्रेम को देखकर गुरु नानक देव जी ने गुरुगद्दी उनके सुपुर्द करने का निर्णय किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। भाई लहणा को अंगद का नाम दिया गया। यह घटना 7 सितंबर, 1539 ई० की है। गुरु नानक साहिब द्वारा गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना सिख-इतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यदि गुरु नानक साहिब अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व ऐसा न करते तो निस्संदेह सिख धर्म का अस्तित्व लुप्त हो जाना था। इसका कारण यह था कि सिख धर्म अभी अच्छी प्रकार से संगठित नहीं था। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से जो लोग प्रभावित हुए थे उनकी संख्या दूसरे लोगों की अपेक्षा नगण्य थी। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति से सिख धर्म को एक निश्चित दिशा प्राप्त हुई तथा इसका आधार मज़बूत हुआ। जी० सी० नारंग का यह कहना पूर्णत: सही है,

“यदि गुरु नानक जी उत्तराधिकारी की नियुक्ति के बिना ही ज्योति जोत समा जाते तो आज सिख धर्म नहीं होना था।”1

गुरु अंगद देव जी के अधीन सिरव धर्म का विकास (Development of Sikhism Under Guru Angad Dev Ji)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 2.
सिख-धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी का क्या योगदान है ? वर्णन कीजिए ।
(What is the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism ? Explain.)
अथवा
सिख धर्म के आरंभिक विकास में गुरु अंगद देव जी का क्या योगदान था ?
(What was the contribution of Guru Angad Dev Ji to the early development of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi)-गुरुं अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”2.

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद देव जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में भाई पैड़ा मौखा जी से एक जन्म साखी लिखवाई। इस साखी को भाई बाला जी की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद देव जी ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी बीबी खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णतः सही है, “सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”3

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना। संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक देव जी उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से.सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद देव जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)-गुरु अंगद देव जी यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

7. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)-गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

8. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

10. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,

“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”4
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”5

1. “Had Nanak died without a successor, there would have been no Sikhism today.” G.C. Narang, Transformation of Sikhism (New Delhi : 1989) p. 29.
2. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
3. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
4. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 71.
5. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी के जीवन तथा सिख पंथ के विकास में उनके योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the life and contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के जीवन एवं सफलता का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe in brief, the life and achievements of Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi)-गुरुं अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”2.

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद देव जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में भाई पैड़ा मौखा जी से एक जन्म साखी लिखवाई। इस साखी को भाई बाला जी की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद देव जी ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी बीबी खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णतः सही है, “सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”3

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना। संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक देव जी उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से.सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद देव जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)-गुरु अंगद देव जी यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

7. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)-गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

8. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

10. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,

“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”4
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”5

1. “Had Nanak died without a successor, there would have been no Sikhism today.” G.C. Narang, Transformation of Sikhism (New Delhi : 1989) p. 29.
2. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
3. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
4. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 71.
5. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयाँ (Early Career and Difficulties of Guru Amar Das Ji)

प्रश्न 4.
गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the early career and difficulties of Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को जिला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी के नाम के संबंध में इतिहासकारों को कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियों-बीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद देव जी का सिख बनना (To become Guru Angad Dev Ji Disciple)-एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्टे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित्त के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया।

एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के, दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)—अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद देव जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

गुरु अमरदास जी की प्रारंभिक कठिनाइयाँ
(Guru Amar Das Ji’s Early Difficulties)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी, गुरु अंगद साहिब जी के आदेश पर खडूर साहिब से गोइंदवाल आ गए। यहाँ गुरु जी को आरंभ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—

1. दासू और दातू का विरोध (Opposition of Dasu and Datu)—गुरु अमरदास जी को अपने गुरुकाल के आरंभ में, गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को असली उत्तराधिकारी घोषित किया। उनका कहना था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है। एक दिन दातू ने क्रोधित होकर गोइंदवाल साहिब जाकर भरे दरबार में गुरु जी को ठोकर मारी जिसके कारण वह गद्दी से नीचे गिर पड़े। इस पर भी गुरु साहिब ने बहुत ही नम्रता से दातू से क्षमा माँगी। इसके पश्चात् गुरु जी गोइंदवाल साहिब को छोड़कर अपने गाँव बासरके चले गए। सिख संगतों ने दातू को अपना गुरु मानने से इंकार कर दिया। अंततः निराश होकर वह खडूर साहिब लौट गया। बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिख संगतों के कहने पर गुरु अमरदास जी पुनः गोइंदवाल साहिब आ गए।

2. बाबा श्रीचंद का विरोध (Opposition of Baba Sri Chand)-बाबा श्रीचंद जी गुरु नानक जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने गुरु अंगद देव जी का विरोध इसलिए न किया क्योंकि उन्हें गुरुगद्दी गुरु नानक साहिब ने स्वयं सौंपी थी। परंतु गुरु अंगद देव जी के पश्चात् उन्होंने अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। बाबा श्रीचंद जी के अनेक समर्थक थे। गुरु अमरदास जी ने ऐसे समय में दृढ़ता से काम लेते हुए सिखों को स्पष्ट किया कि उदासी संप्रदाय के सिद्धांत गुरु नानक देव जी के उपदेशों के विपरीत हैं। उनके तर्कों से प्रभावित होकर सिखों ने बाबा श्रीचंद जी का साथ छोड़ दिया। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिखों को उदासी संप्रदाय से सदैव के लिए पृथक् कर दिया।

3. गोइंदवाल साहिब के मुसलमानों का विरोध (Opposition by the Muslims of Goindwal Sahib)–गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देखकर वहाँ के मुसलमानों ने सिखों को तंग करना आरंभ कर दिया। वे सिखों का सामान चोरी कर लेते। वे सतलुज नदी से जल भर कर लाने वाले सिखों के घड़े पत्थर मार कर तोड़ देते थे। सिख इस संबंध में गुरु जी से शिकायत करते। अमरदास जी ने सिखों को शांत रहने का उपदेश दिया। एक बार गाँव में कुछ सशस्त्र व्यक्ति आ गए। इन मुसलमानों का उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। उन्होंने बहुत से मुसलमानों को यमलोक पहुँचा दिया। लोग सोचने लगे कि मुसलमानों को परमात्मा की ओर से यह दंड मिला है। इस प्रकार उनका सिख धर्म में विश्वास और दृढ़ हो गया।

4. हिंदुओं द्वारा विरोध (Opposition by the Hindus)-इसका कारण यह था कि गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों से प्रभावित होकर बहुत से लोग सिख धर्म में शामिल होते जा रहे थे। सिख धर्म में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता था। लंगर में सब एक साथ भोजन करते थे। इसके अतिरिक्त बाऊली का निर्माण होने से सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान भी मिल गया था। गोइंदवाल साहिब के उच्च जातियों के हिंदू यह बात सहन न कर सके। उन्होंने अपने बादशाह अकबर के पास यह झूठी शिकायत की कि गुरु जी हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। इस आरोप की जाँच के लिए अकबर ने गुरु साहिब को अपने दरबार में बुलाया। गुरु अमरदास जी ने अपने श्रद्धालु भाई जेठा जी को भेजा। भाई जेठा जी से मिलने के पश्चात् अकबर ने गुरु जी को निर्दोष घोषित किया। इससे सिख लहर को और उत्साह मिला।

गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयाँ
(Early Career and Difficulties of Guru Amar Das Ji)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 4.
गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the early career and difficulties of Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को जिला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी के नाम के संबंध में इतिहासकारों को कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियों-बीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद देव जी का सिख बनना (To become Guru Angad Dev Ji Disciple)-एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है २ अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित्त के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया।

एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के, दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद देव जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

गुरु अमरदास जी की प्रारंभिक कठिनाइयाँ (Guru Amar Das Ji’s Early Difficulties)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी, गुरु अंगद साहिब जी के आदेश पर खडूर साहिब से गोइंदवाल आ गए। यहाँ गुरु जी को आरंभ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—

1. दासू और दातू का विरोध (Opposition of Dasu and Datu)-गुरु अमरदास जी को अपने गुरुकाल के आरंभ में, गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को असली उत्तराधिकारी घोषित किया। उनका कहना था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है। एक दिन दातू ने क्रोधित होकर गोइंदवाल साहिब जाकर भरे दरबार में गुरु जी को ठोकर मारी जिसके कारण वह गद्दी से नीचे गिर पड़े। इस पर भी गुरु साहिब ने बहुत ही नम्रता से दातू से क्षमा माँगी। इसके पश्चात् गुरु जी गोइंदवाल साहिब को छोड़कर अपने गाँव बासरके चले गए। सिख संगतों ने दातू को अपना गुरु मानने से इंकार कर दिया। अंततः निराश होकर वह खडूर साहिब लौट गया। बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिख संगतों के कहने पर गुरु अमरदास जी पुनः गोइंदवाल साहिब आ गए।

2. बाबा श्रीचंद का विरोध (Opposition of Baba Sri Chand)-बाबा श्रीचंद जी गुरु नानक जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने गुरु अंगद देव जी का विरोध इसलिए न किया क्योंकि उन्हें गुरुगद्दी गुरु नानक साहिब ने स्वयं सौंपी थी। परंतु गुरु अंगद देव जी के पश्चात् उन्होंने अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। बाबा श्रीचंद जी के अनेक समर्थक थे। गुरु अमरदास जी ने ऐसे समय में दृढ़ता से काम लेते हुए सिखों को स्पष्ट किया कि उदासी संप्रदाय के सिद्धांत गुरु नानक देव जी के उपदेशों के विपरीत हैं। उनके तर्कों से प्रभावित होकर सिखों ने बाबा श्रीचंद जी का साथ छोड़ दिया। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिखों को उदासी संप्रदाय से सदैव के लिए पृथक् कर दिया।

3. गोइंदवाल साहिब के मुसलमानों का विरोध (Opposition by the Muslims of Goindwal Sahib)-गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देखकर वहाँ के मुसलमानों ने सिखों को तंग करना आरंभ कर दिया। वे सिखों का सामान चोरी कर लेते। वे सतलुज नदी से जल भर कर लाने वाले सिखों के घड़े पत्थर मार कर तोड़ देते थे। सिख इस संबंध में गुरु जी से शिकायत करते। अमरदास जी ने सिखों को शांत रहने का उपदेश दिया। एक बार गाँव में कुछ सशस्त्र व्यक्ति आ गए। इन मुसलमानों का उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। उन्होंने बहुत से मुसलमानों को यमलोक पहुँचा दिया। लोग सोचने लगे कि मुसलमानों को परमात्मा की ओर से यह दंड मिला है। इस प्रकार उनका सिख धर्म में विश्वास और दृढ़ हो गया।

4. हिंदुओं द्वारा विरोध (Opposition by the Hindus)—इसका कारण यह था कि गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों से प्रभावित होकर बहुत से लोग सिख धर्म में शामिल होते जा रहे थे। सिख धर्म में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता था। लंगर में सब एक साथ भोजन करते थे। इसके अतिरिक्त बाऊली का निर्माण होने से सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान भी मिल गया था। गोइंदवाल साहिब के उच्च जातियों के हिंदू यह बात सहन न कर सके। उन्होंने अपने बादशाह अकबर के पास यह झूठी शिकायत की कि गुरु जी हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। इस आरोप की जाँच के लिए अकबर ने गुरु साहिब को अपने दरबार में बुलाया। गुरु अमरदास जी ने अपने श्रद्धालु भाई जेठा जी को भेजा। भाई जेठा जी से मिलने के पश्चात् अकबर ने गुरु जी को निर्दोष घोषित किया। इससे सिख लहर को और उत्साह मिला।

गुरु अमरदास जी के समय सिख धर्म का विकास (Development of Sikhism Under Guru Amar Das Ji)

प्रश्न 5.
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का वर्णन करें।
(Describe the contribution of Guru Amar Das Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी ने क्या योगदान दिया? (What were the contribution of Guru Amar Das Ji in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अमरदास जी की सिख धर्म के विकास में की गई सेवाओं का वर्णन करो।
(Describe the services rendered by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh Religion.) .
अथवा
गुरु अमरदास जी के सिख पंथ के संगठन तथा प्रसार के लिए किए गए कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe in brief the organisational development and spread of Sikhism by Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के संगठन एवं विकास के लिए गुरु अमरदास जी ने क्या-क्या कार्य किए ? .
(What were the measures taken by Guru Amar Das Ji for the consolidation and expansion of Sikhism ?)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णतः संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।—

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में, “गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”6
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BAOLI SAHIB : GOINDWAL SAHIB

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)—गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिनां उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत’ का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”7

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)—गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”8

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए। गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 ई० को गोइंदवाल साहिब में ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,

“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”9
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”10

6. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
7. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala : 1982) p. 25.
8. “The establishment of Manji System gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
9. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29. 10. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

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गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधार (Social Reforms of Guru Amar Das Ji)

प्रश्न 6.
गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों का मूल्यांकन करें। (Examine the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
“गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे।” बताएँ।
(“Guru Amar Das Ji was a great social reformer.” Discuss.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का नाम सिख इतिहास में एक महान् समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध है। वह सिखों की सामाजिक संरचना को एक नया रूप देना चाहते थे। वह सिखों को तात्कालीन समाज के जटिल नियमों से मुक्त करना चाहते थे ताकि उनमें आपसी भ्रातृत्व स्थापित हो। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधार का संक्षिप्त वर्णन निम्न अनुसार है—

1. जातीय भेद-भाव तथा छुआ-छूत का खंडन (Denunciation of Caste Distinctions and Untouchability)—गुरु अमरदास जी ने जातीय एवं छुआ-छूत की प्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जाति पर अभिमान करने वाले मूर्ख तथा गंवार हैं। उन्होंने संगतों को यह हुक्म दिया कि जो कोई उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कुछ कुएँ खुदवाए। इन कुओं से प्रत्येक जाति के लोगों को पानी लेने का अधिकार था। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया।

2. लड़कियों की हत्या का खंडन (Denunciation of Female Infanticide)-उस समय लड़कियों के जन्म को अशुभ माना जाता था। समाज में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने इस कुप्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जो व्यक्ति ऐसा करता है वह घोर पाप का सहभागी बनता है । उन्होंने सिखों को इस अपराध से दूर रहने का उपदेश दिया।

3. बाल विवाह का खंडन (Denunciation of Child Marriage)-उस समय समाज में प्रचलित परंपराओं के अनुसार लड़कियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता था। इस कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई थी। गुरु अमरदास जी ने बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार किया।

4. सती प्रथा का खंडन (Denunciation of Sati System) उस समय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं में से सबसे घृणा योग्य कुप्रथा सती प्रथा की थी। इस अमानवीय प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे जबरन पति की चिता के साथ जीवित जला दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने शताब्दियों से चली आ रही इस कुप्रथा के विरुद्ध एक ज़ोरदार अभियान चलाया। गुरु साहिब का कथन था
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोटि मरनि॥
भाव उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती तो वह है जो अपने पति के वियोग की पीड़ा में प्राण त्याग दे।

5. पर्दा प्रथा का खंडन (Denunciation of Purdah System)-उसं समय समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन भी काफ़ी बढ़ गया था। यह प्रथा स्त्रियों के शारीरिक तथा मानसिक विकास में एक बड़ी बाधा थी। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने यह आदेश दिया कि संगत अथवा लंगर में सेवा करते समय कोई भी स्त्री पर्दा न करे।

6. नशीली वस्तुओं का विरोध (Prohibition of Intoxicants)-उस समय समाज में शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों का प्रयोग बहुत बढ़ गया था। इस कारण समाज का दिन-प्रतिदिन नैतिक पतन होता जा रहा था। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इन नशों के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उनका कथन था कि जो मनुष्य शराब पीता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह अपने-पराए का भेद भूल जाता है। मनुष्य को ऐसी झूठी शराब नहीं पीनी चाहिए, जिस कारण वह परमात्मा को भूल जाए।

7. विधवा विवाह के पक्ष में (Favoured Widow Marriage)—जो स्त्रियाँ सती होने से बच जाती थीं, उन्हें सदैव विधवा का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। समाज की ओर से विधवा विवाह पर प्रतिबंध लगा हुआ थां। विधवा का जीवन नरक के समान था। गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा को खेदजनक बताया। उनका कथन था कि हमें विधवा का पूरा सम्मान करना चाहिए। गुरु जी ने बाल विधवा के पुनर्विवाह के पक्ष में प्रचार किया।

8. जन्म, विवाह तथा मृत्यु के समय के नवीन नियम (New Ceremonies related to Birth, Marriage and Death)-उस समय समाज में जन्म, विवाह तथा मृत्यु से संबंधित जो रीति-रिवाज प्रचलित थे, वे बहुत जटिल थे। गुरु साहिब ने सिखों के लिए इन अवसरों पर विशेष नियम बनाए। ये नियम पूर्णतः सरल थे। गुरु साहिब ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर गाने के लिए अनंदु साहिब की रचना की। इसमें 40 पौड़ियाँ हैं। इसके अतिरिक्त विवाह समय लावाँ की नई प्रथा आरंभ की गई।।

9. त्योहार मनाने का नवीन ढंग (New Mode of Celebrating Festivals)—गुरु अमरदास जी ने सिखों को वैसाखी, माघी तथा दीवाली के त्योहारों को नवीन ढंग से मनाने के लिए कहा। इन तीनों त्योहारों के अवसरों पर बड़ी संख्या में सिख गोइंदवाल साहिब पहुँचते थे। गुरु साहिब का यह पग सिख पंथ के प्रचार में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर बी० एस० निझर के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी द्वारा आरंभ किए गए इन सामाजिक सुधारों को सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाले समझे जाने चाहिएँ।”11

प्रश्न 7.
गुरु अमरदास जी के जीवन एवं सफलताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the life and achievements of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को गुरुगद्दी पर विराजमान होते समय किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा ? सिख मत के संगठन और विस्तार के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदमों की चर्चा कीजिए ।
(What were the difficulties faced by Guru Amar Das Ji at the time of his accession ? Discuss the steps taken by him to consolidate and expand Sikhism.)
उत्तर-
इस प्रश्न के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न 5 एवं 6 का उत्तर संयुक्त रूप से लिखें।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 8.
1539 ई० से 1574 ई० तक सिख पंथ के विकास की चर्चा करें। (Examine the development of Sikhism from 1539 to 1574 A.D.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी तथा गुरु अमरदास जी के योगदान का वर्णन करें।
(Describe the contribution of Guru Angad Dev Ji and Guru Amar Das Ji in the development of Sikhism.)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णतः संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।—

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में, “गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”6
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2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)—गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिनां उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत’ का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”7

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)—गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”8

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए। गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 ई० को गोइंदवाल साहिब में ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,

“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”9
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”10

6. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
7. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala : 1982) p. 25.
8. “The establishment of Manji System gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
9. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29. 10. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.
11. “These social reforms introduced by Guru Amar Das must be regarded as a turning point in the history of Sikhism.” Dr. B.S. Nijjar, op. cit., p. 83.

“गुरु रामदास जी का जीवन तथा सफलताएँ । (Life and Achievements of Guru Ram Das JI)

प्रश्न 9.
चौथे गुरु रामदास जी के जीवन तथा उनके सिख धर्म तथा सिख पंथ के संगठन में दिए गए योगदान पर एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write an informative note on the life history of the fourth Guru Ram Das Ji and his contribution to the Sikh faith and the organisation of the Sikh Panth.)
अथवा
गुरु रामदास जी के अधीन सिख पंथ के विकास का वर्णन करें। (Write a detailed note on the development of Sikhism under Guru Ram Das Ji.)
अथवा
गुरु रामदास जी के जीवन व सफलताओं का वर्णन करो। (Describe the life and achievements of Guru Ram Das Ji.)
अथवा
सिख पंथ में गुरु रामदास जी का क्या योगदान है ?
(Describe the contribution of Guru Ram Das Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
सिख इतिहास में गुरु रामदास जी का क्या योगदान है ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to the development of Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से लेकर 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनके गुरुकाल में सिख पंथं के संगठन और विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई । गुरु रामदास जी के आरंभिक जीवन और उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

I. गुरु रामदास जी का प्रारंभिक जीवन
(Early Career of Guru Ram Das Ji)

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु रामदास जी का जन्म 24 सितंबर, 1534 ई० को चूना मंडी, लाहौर में हुआ था। आपको पहले भाई जेठा जी के नाम से जाना जाता था। आपके पिता जी का नाम हरिदास तथा माता जी का नाम दया कौर था। वे सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। जेठा जी के माता-पिता बहुत निर्धन थे।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)—भाई जेठा जी बचपन से ही धार्मिक विचारों वाले थे। एक बार आपके माता जी ने आपको उबले हुए चने बेच कर कुछ कमाने को कहा। बाहर जाते समय उन्हें कुछ भूखे साधु मिल गए। आपने सारे चने इन भूखे साधुओं को खिला दिए और स्वयं खाली हाथ लौट आए। आप लोगों की सेवा करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। एक बार आपको एक सिख जत्थे के साथ गोइंदवाल साहिब जाने का अवसर मिला। आप वहाँ पर गुरु अमरदास जी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बन गए। गुरु अमरदास जी भाई जेठा जी की भक्ति और गुणों को देखकर बहुत प्रभावित हुए। इसलिए गुरु साहिब ने 1553 ई० में अपनी छोटी लड़की बीबी भानी जी का विवाह उनके साथ कर दिया। भाई जेठा जी के घर तीन लड़कों का जन्म हुआ। उनके नाम पृथी चंद (पृथिया), महादेव और अर्जन थे।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)—विवाह के पश्चात् भी भाई जेठा जी गोइंदवाल साहिब में ही रहे तथा पहले की तरह गुरु जी की सेवा करते रहे। भाई जेठा जी की निष्काम सेवा, नम्रता और मधुर स्वभाव ने गुरु अमरदास जी का मन मोह लिया था। इसलिए 1 सितंबर, 1574 ई० में गुरु अमरदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय से भाई जेठा जी को रामदास जी कहा जाने लगा। इस प्रकार गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु बने।

II. गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।—

1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाजार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)—गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”12

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) करना था। उन्होंने चार लावों द्वारा विवाह प्रथा को प्रोत्साहित किया। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसे-जाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। अर्जन साहिब प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)-गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, पंगत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”13

12. “Masand System played a big role in consolidating Sikhism.” S. S. Gandhi, History of the Sikhs (Delhi : 1978) p. 209.
13. “During the short period of his guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 10.
1539 ई० से 1581 ई० तक सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly the development of Sikhism from 1539 to 1581 A.D.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi)-गुरुं अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”2.

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद देव जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में भाई पैड़ा मौखा जी से एक जन्म साखी लिखवाई। इस साखी को भाई बाला जी की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद देव जी ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी बीबी खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णतः सही है, “सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”3

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना। संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक देव जी उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से.सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद देव जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)-गुरु अंगद देव जी यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

7. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)-गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

8. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

10. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,

“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”4
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”5

1. “Had Nanak died without a successor, there would have been no Sikhism today.” G.C. Narang, Transformation of Sikhism (New Delhi : 1989) p. 29.
2. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
3. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
4. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 71.
5. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी ने क्या-क्या कार्य किए ?
(What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी की किन्हीं तीन ऐसी सफलताओं का वर्णन करें जिनके कारण सिख धर्म का विकास हुआ।
(Write any three achievemnents of Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देवो के कोई तीन कार्य बताएँ।
(Mention any three achievements of Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया।
  2. उन्होंने गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया।
  3. गुरु अंगद देव जी ने संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया।
  4. उन्होंने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया।
  5. उन्होंने सिख पंथ को उदासी मत से पृथक् करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  6. उन्होंने गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
गुरमुखी लिपि को प्रचलित करने के लिए गुरु अंगद देव जी ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to popularise Gurmukhi script ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को संशोधित कर नया रूप प्रदान किया। परिणामस्वरूप, इस लिपि को समझना लोगों के लिए सरल हो गया। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। इस लिपि के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि विद्या के प्रसार में भी सहायक सिद्ध हुई।

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का खंडन किस प्रकार किया ? (How did Guru Angad Dev Ji denounce the Udasi sect ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का सिख मत के विकास की ओर एक अन्य प्रशंसनीय कार्य उदासी मत का खंडन करना था। इस मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संयास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था, जबकि गुरु नानक देव जी गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सिद्धांत गुरु नानक देव जी के सिद्धांतों से मिलते थे। इस कारण बहुत-से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता।

प्रश्न 4.
गुरु अंगद देव जी तथा हुमायूँ में हुई भेंट की संक्षेप जानकारी दें।
(Give a brief account of the meeting between Guru Angad Dev Ji and Humayun.)
उत्तर-
1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ को शेरशाह सूरी के हाथों कन्नौज के स्थान पर कड़ी पराजय हुई थी। पराजय के पश्चात् हुमायूँ खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में इतने लीन थे कि उन्होंने आँखें खोलकर नं देखा। हुमायूँ ने क्रोधित होकर अपनी तलवार म्यान से निकाल ली। उसी समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँग ली।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 5.
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Sangat ?)
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होते थी। गुरु अंगद देव जी ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

प्रश्न 6.
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
लंगर प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Langar system ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-
पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 7.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a short note on importance of Sangat and Pangat.)
अथवा
संगत तथा पंगत से आपका क्या अभिप्राय है ?
(What do you mean by Sangat and Pangat ?)
उत्तर-
1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ को शेरशाह सूरी के हाथों कन्नौज के स्थान पर कड़ी पराजय हुई थी। पराजय के पश्चात् हुमायूँ खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में इतने लीन थे कि उन्होंने आँखें खोलकर नं देखा। हुमायूँ ने क्रोधित होकर अपनी तलवार म्यान से निकाल ली। उसी समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँग ली।

पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

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प्रश्न 8.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिंन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das Ji face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-

  1. गुरुगद्दी पर विराजमान होने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को सबसे पहले गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु पुत्र होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार जताया।
  2. गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद भी गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने भी गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया।
  3.  गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देख कर गोइंदवाल साहिब के मुसलमान सिखों से ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सिखों के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दी।

प्रश्न 9.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ।
(Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी द्वारा की गई तीन मुख्य सेवाओं का वर्णन करो।
(Write down the three services done by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (From an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के तीन कार्य बताएँ। (Write any three works of Guru Amar Das Ji for the spread of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का अध्ययन करें। (Study the contribution of Guru Amar Das Ji to the growth of Sikhism.)
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।
  2. उन्होंने लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया।
  3. उन्होंने सिख पंथ के प्रचार के लिए मंजी प्रथा की स्थापना की।
  4. गुरु साहिब ने सिख मत को उदासी मत से अलग रखकर लुप्त होने से बचा लिया।
  5. गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया।

प्रश्न 10.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is importante of the construction of the Baoli of Goindwal Sahib in Sikh History ?)
अथवा
गोइंदवाल साहिब को सिख धर्म का केंद्र क्यों कहा जाता है ? (Why is Goindwal Sahib called the centre of Sikhism-?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला कदम गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करवाना था। इस पवित्र बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, सिखों को हिंदुओं से अलग तीर्थ स्थान देना चाहते थे। दूसरा, वह वहाँ के लोगों की पानी की कठिनाई को दूर करना चाहते थे। बाऊली के निर्माण से सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया।

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प्रश्न 11.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कोई तीन सामाजिक सुधारों का वर्णन करें।
(Describe any three social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ?
(Why is.Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक किन कारणों के लिए कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das Ji called a social reformer ?)
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का डटकर विरोध किया।
  2. गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया।
  3. उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा की बड़े जोरदार शब्दों में आलोचना की।
  4. गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे।
  5. उन्होंने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में बनाईं।

प्रश्न 12.
गुरु अमरदास जी ने स्त्री जाति के कल्याण के लिए कौन-से सुधार किए ?
(What reforms were made by Guru Amar Das Ji for the welfare of women ?)
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने नवजन्मी कन्याओं को मारने का विरोध किया।
  2. गुरु जी ने बाल विवाह का जोरदार शब्दों में खंडन किया।
  3. उन्होंने पर्दा प्रथा की भी निंदा की।

प्रश्न 13.
मंजी प्रथा क्या थी ? सिख धर्म के विकास में इसने क्या योगदान दिया ?
(What was Manji system ? How did it contribute to the development of Sikhism ?)
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji system ?) .
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें। (Write a note on Manji system.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का एक और महान् कार्य मंजी प्रथा की स्थापना था। उनके समय में सिखों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि गुरु जी के लिए प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचना असंभव था। अतः गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के प्रदेशों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। इसके अतिरिक्त वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे।

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प्रश्न 14.
मंजीदार के प्रमुख कार्य क्या थे ? (What were the main functions of the Manjidar ?)
उत्तर-

  1. वे सिख धर्म के प्रचार के लिए अथक प्रयास करते थे ?
  2. वे गुरु साहिब के आदेशों को सिख संगतों तक पहुँचाते थे।
  3. वे लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे तथा गुरमुखी भाषा का अध्ययन करवाते थे।

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी के मुग़लों के साथ कैसे संबंध थे ? (What type of relations did Guru Amar Das Ji have with the Mughals ?)
अथवा
मुगल बादशाह अकबर तथा गुरु अमरदास जी के मध्य संबंधों का उल्लेख कीजिए।
(Describe the relations between Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
अथवा
मुगल सम्राट अकबर तथा गुरु अमरदास जी के बीच संबंधों का उल्लेख करें। (Explain the relations between the Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.).
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के मुग़लों के साथ संबंध मैत्रीपूर्ण थे। 1568 ई० में अकबर गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु साहिब के दर्शन करने से पूर्व मर्यादानुसार लंगर खाया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व और लंगर प्रबंध से बहुत प्रभावित हुआ। उसने लंगर प्रबंध को चलाने के लिए कुछ गाँवों की जागीर गुरु जी की सुपुत्री बीबी भानी जी के नाम लगा दी। अकबर की इस यात्रा के कारण गुरु अमरदास जी की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक फैल गई। इससे सिख धर्म का प्रसार और प्रचार बढ़ा।

प्रश्न 16.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ?
(What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?)
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो।
(Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरु काल 1574 ई० से 1581 ई० तक रहा। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य भी आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म के प्रचार तथा उसके विकास के लिए धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों को समाप्त किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा।

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प्रश्न 17.
रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
[What is the importance of foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-
गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 18.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi system ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.) .
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत त्याग और वैराग्य पर बल देता था। यह मत योग तथा प्रकृति उपासना में भी विश्वास रखता था। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद जी के जीवन से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। इसलिए गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी ने जोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता था। गुरु अमरदास जी के काल में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
सिखों के दूसरे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी।

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प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कब हुआ?
उत्तर-
1504 ई०।

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कहाँ हुआ?
उत्तर-
मत्ते की सराए (श्री मुक्तसर साहिब)।

प्रश्न 4.
गुरु अंगद देव जी की माता जी का नाम क्या था?
उत्तर-
सभराई देवी जी।।

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प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
फेरूमल जी।

प्रश्न 6.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था?
उत्तर-
भाई लहणा जी।

प्रश्न 7.
गुरु अंगद देव जी ने गुरुगद्दी कब प्राप्त की?
उत्तर-
1539 ई०।

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प्रश्न 8.
भाई लहणा जी को गुरु अंगद देव जी का नाम किसने दिया?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी।

प्रश्न 9.
गुरु अंगद देव जी का विवाह किससे हुआ?
उत्तर-
बीबी खीवी जी।

प्रश्न 10.
गुरु अंगद देव जी के पुत्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
दातू और दास।

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प्रश्न 11.
गुरु अंगद देव जी की पुत्रियों के नाम लिखो।
उत्तर-
बीबी अमरो तथा बीबी अनोखी।

प्रश्न 12.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था?
उत्तर-
खडूर साहिब।

प्रश्न 13.
गुरुमुखी लिपि को किस गुरु साहिब ने लोकप्रिय बनाया?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी।

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प्रश्न 14.
गोइंदवाल साहिब की नींव किस गुरु साहिब ने रखी?
अथवा
गोइंदवाल साहिब की स्थापना किस गुरु जी ने की थी?
अथवा
दूसरे गुरु साहिब ने किस नगर की स्थापना की थी?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी।

प्रश्न 15.
गोइंदवाल साहिब की नींव कब रखी गई थी?
उत्तर-
1546 ई०।

प्रश्न 16.
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण योगदान बताएँ।
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने सिख धर्म के प्रसार के लिए क्या किया?
उत्तर-
उन्होंने गुरुमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया।

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प्रश्न 17.
उदासी मत का संस्थापक कौन था?
उत्तर-
बाबा श्रीचंद जी।

प्रश्न 18.
उदासी मत से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
इस मत में संन्यासी जीवन पर बल दिया जाता था।

प्रश्न 19.
कौन-से मुग़ल बादशाह ने गुरु अंगद साहिब जी से खडूर साहिब में मुलाकात की?
अथवा
किस मुगल बादशाह ने गुरु अंगद देव जी के साथ मुलाकात की?
उत्तर-
हुमायूँ।

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प्रश्न 20.
मुगल बादशाह हुमायूँ ने किस गुरु साहिब जी से आशीर्वाद लिया था ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी।

प्रश्न 21.
सिखों के तीसरे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 22.
गुरु अमरदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1479 ई० में।

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प्रश्न 23.
गुरु अमरदास जी का जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर-
बासरके गाँव में।

प्रश्न 24.
गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बताएँ।
उत्तर-
सुलक्खनी जी।

प्रश्न 25.
गुरु अमरदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
तेजभान जी।

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प्रश्न 26.
गुरु अमरदास जी किस जाति से संबंधित थे ?
उत्तर-
भल्ला

प्रश्न 27.
बीबी भानी कौन थी ?
अथवा
बीबी दानी कौन थी ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी की सुपुत्री।

प्रश्न 28.
बाबा मोहरी जी किस गुरु साहिब के सुपुत्र थे ?
उत्तर-
बाबा मोहरी जी गुरु अमरदास जी के सुपुत्र थे।

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प्रश्न 29.
गुरु अमरदास जी जिस समय गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु क्या थी ?
उत्तर-
73 वर्ष।

प्रश्न 30.
गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
उत्तर-
1552 ई० में।

प्रश्न 31.
गुरु अमरदास जी का गुरुकाल बताएँ ।
उत्तर-
1552 ई० से 1574 ई०।

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प्रश्न 32.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 33.
गोइंदवाल साहिब में पवित्र बाऊली का निर्माण कब किया गया ?
उत्तर-
1552 ई० में।

प्रश्न 34.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी सीढ़ियाँ बनाई गई थीं ?
उत्तर-
84.

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प्रश्न 35.
गुरु अमरदास जी की कोई एक सफलता लिखें।
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण।

प्रश्न 36.
मंजी प्रथा की स्थापना किस गुरु साहिब ने की ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 37.
गुरु अमरदास जी ने कितनी मंजियों की स्थापना की ?
उत्तर-
22 मंजियों की।

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प्रश्न 38.
मंजी प्रथा का उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
सिख मत का प्रचार करना।

प्रश्न 39.
मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
मंजी प्रथा ने सिख धर्म को लोकप्रिय बनाया।

प्रश्न 40.
गुरु अमरदास जी ने कितने शब्दों की रचना की ?
उत्तर-
907 शब्दों की।

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प्रश्न 41.
आनंदु साहिब वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 42.
गुरु अमरदास जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का खंडन किया।

प्रश्न 43.
गुरु अमरदास जी से भेंट करने कौन-सा मुग़ल बादशाह गोइंदवाल साहिब आया था ?
उत्तर-
अकबर।

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प्रश्न 44.
मुग़ल बादशाह अकबर गोइंदवाल साहिब कब आया था ?
उत्तर-
1568 ई०।

प्रश्न 45.
गुरु अमरदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 46.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
1574 ई०।

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प्रश्न 47.
सिखों के चौथे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 48.
गुरु रामदास जी का गुरु काल कौन-सा था ?
उत्तर-
1574 ई० से 1581 ई०

प्रश्न 49.
गुरु रामदास जी का जन्म कब हुआ?
उत्तर-
1534 ई०।

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प्रश्न 50.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था?
अथवा
गुरु रामदास जी का पहला नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई जेठा जी।

प्रश्न 51.
गुरु रामदास जी की माता जी का क्या नाम था?
उत्तर-
दया कौर।

प्रश्न 52.
गुरु रामदास जी के पिता जी का क्या नाम था?
उत्तर-
हरिदास।

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प्रश्न 53.
गुरु रामदास जी का संबंध किस जाति से था ?
उत्तर-
सोढी।

प्रश्न 54.
सोढी सुल्तान किस गुरु साहिब को कहा जाता है ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी को।

प्रश्न 55.
गुरु रामदास जी का विवाह किससे हुआ था ?
अथवा
गुरु रामदास जी की पत्नी का नाम लिखो।
उत्तर-
बीबी भानी जी से।

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प्रश्न 56.
बीबी भानी कौन थी?
उत्तर-
गुरु रामदास जी की पत्नी।

प्रश्न 57.
गुरु रामदास जी के पुत्रों के क्या नाम थे ?
उत्तर-
पृथी चंद, महादेव तथा अर्जन देव जी।

प्रश्न 58.
पृथी चंद कौन था ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र।

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प्रश्न 59.
गुरु रामदास जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
उत्तर-
1574 ई०।

प्रश्न 60.
सिख पंथ के विकास के लिए रामदास जी द्वारा किए गए कोई एक कार्य का वर्णन कीजिए।
अथवा
गुरु रामदास जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता का उल्लेख करें।
उत्तर-
रामदासपुरा शहर की स्थापना।

प्रश्न 61.
रामदासपुरा की स्थापना कब की गई थी ?
उत्तर-
1577 ई०।

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प्रश्न 62.
रामदासपुरा किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 63.
अमृतसर का पहला नाम क्या था ?
उत्तर-
रामदासपुरा।

प्रश्न 64.
अमृतसर नगर की नींव कब रखी गई थी ?
उत्तर-
1577 ई०।

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प्रश्न 65.
अमृसतर की स्थापना किस गुरु साहिब जी ने की ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 66.
सिखों और उदासियों के बीच समझौता किस गुरु के समय में हुआ ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 67.
मसंद प्रथा किसने चलाई थी ?
अथवा
मसंद प्रथा किस गरु ने शुरू की ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

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प्रश्न 68.
मसंद प्रथा का कोई एक उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
सिख धर्म का प्रचार करना।

प्रश्न 69.
‘चार लावां’ का उच्चारण किस गुरु साहिब ने किया ?
अथवा
विवाह के समय लावां की प्रथा किस गुरु साहिब ने आरंभ की थी?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 70.
गुरु रामदास जी ने कितने शब्दों की रचना की ?
उत्तर-
679 शब्दों की।

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प्रश्न 71.
चार लावों की रचना किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 72.
गुरु रामदास जी कब ज्योति-ज्योत समाए थे ?
उत्तर-
1581 ई० में।

प्रश्न 73.
गुरु रामदास जी के उत्तराधिकारी कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

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(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
सिखों के दूसरे गुरु ……………. थे।
उत्तर-
(अंगद देव जी)

प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम ……………… था।
उत्तर-
(भाई लहणा जी)

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी का जन्म ………………. को हुआ।
उत्तर-
(1504 ई०)

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प्रश्न 4.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी का नाम ……… था।
उत्तर-
(फेरूमल)

प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी …………… में गुरुगद्दी पर बैठे थे।
उत्तर-
(1539 ई०)

प्रश्न 6.
गुरमुखी लिपि को ………….. ने लोकप्रिय बनाया।
उत्तर-
(गुरु अंगद देव जी)

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प्रश्न 7.
……………… उदासी मत के संस्थापक थे।
उत्तर-
(बाबा श्री चंद जी)

प्रश्न 8.
गुरु अंगद देव जी ने गोइंदवाल साहिब की स्थापना ……………… में की।
उत्तर-
(1546 ई०)

प्रश्न 9.
गुरु अंगद देव जी …………. में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-
(1552 ई०)

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प्रश्न 10.
सिखों के तीसरे गुरु ……………….. थे।
उत्तर-
(गुरु अमरदास जी)

प्रश्न 11.
गुरु अमरदास जी का जन्म ………………. में हुआ।
उत्तर-
(1479 ई०)

प्रश्न 12.
गुरु अमरदास जी ………… जाति के साथ संबंधित थे।
उत्तर-
(भल्ला )

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प्रश्न 13.
गुरु अमरदास जी …………….. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-
(1552 ई०)

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी …………….. की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।
उत्तर-
(73 वर्ष)

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी ने …………. में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-
(गोइंदवाल साहिब)

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प्रश्न 16.
गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण …………. में आरंभ करवाया।
उत्तर-
(1552 ई०)

प्रश्न 17.
मंजी प्रथा की स्थापना ……………… ने की थी।
उत्तर-
(गुरु अमरदास जी)

प्रश्न 18.
मुग़ल बादशाह ……………. गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी से मिलने आया था।
उत्तर-
(अकबर)

प्रश्न 19.
गुरु अमरदास जी और मुग़ल बादशाह …………. के मध्य मुलाकात हुई।
उत्तर-
(अकबर)

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प्रश्न 20.
गुरु अमरदास जी …………….. में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-
(1574 ई०)

प्रश्न 21.
…………….. सिखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-
(गुरु रामदास जी)

प्रश्न 22.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-
(भाई जेठा जी)

प्रश्न 23.
गुरु रामदास जी …………… जाति से संबंधित थे। ।
उत्तर-
(सोढी)

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प्रश्न 24.
गुरु रामदास जी का विवाह …………….. के साथ हुआ था।
उत्तर-
(बीबी भानी)

प्रश्न 25.
गुरु रामदास जी …………………… में गुरुगद्दी पर बैठे। .
उत्तर-
(1574 ई०)

प्रश्न 26.
गुरु रामदास जी ने …………….. में रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-
(1577 ई०)

प्रश्न 27.
………………. ने मसंद प्रथा की स्थापना की।
उत्तर-
(गुरु रामदास जी)

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(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें-

प्रश्न 1.
गुरु अंगद देव जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम भाई लहणा जी था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी का नाम तेज भान था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
गुरु अंगद देव जी की माता जी का नाम सभराई देवी था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी का विवाह बीबी खीवी के साथ हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
गुरु अंगद देव जी ने फ़ारसी को लोकप्रिय बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
उदासी मत की स्थापना बाबा श्रीचंद जी ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
गुरु अंगद देव जी की मुग़ल बादशाह अकबर के साथ भेंट हुई थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 10.
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में ज्योति-ज्योत समाए थे।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 11.
गुरु अमरदास जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
गुरु अमरदास जी का जन्म 1479 ई० को हुआ था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 13.
गुरु अमरदास जी के पिता जी का नाम तेज़ भान था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 14.
बीबी भानी गुरु अमरदास जी की पुत्री का नाम था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी 1552 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 17.
गुरु रामदास जी ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 18.
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम भाई जेठा जी था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 21.
गुरु रामदास जी सोढी जाति से संबंधित थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
गुरु रामदास जी की पत्नी का नाम बीबी भानी था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 23.
गुरु रामदास जी 1574 ई० को गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में की गई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
गुरु अमरदास जी ने मसंद प्रथा को आरंभ किया था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 26.
गुरु रामदास जी के समय सिखों और उदासियों के मध्य समझौता हो गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27. गुरु रामदास जी ने सिखों में चार लावाँ द्वारा विवाह करने की मर्यादा आरंभ की।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
गुरु रामदास जी 1581 ई० में ज्योति-ज्योत समाए थे।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए

प्रश्न 1.
सिखों के दूसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कब हुआ?
(i) 1469 ई० में
(ii) 1479 ई० में
(iii) 1501 ई० में
(iv) 1504 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) मत्ते की सराय
(ii) कीरतपुर साहिब
(iii) गोइंदवाल साहिब
(iv) हरीके।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई जेठा जी
(ii) भाई लहणा जी
(iii) भाई गुरदित्ता जी
(iv) भाई दासू जी।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी कौन थे ?
(i) त्याग मल जी
(ii) फेरूमल जी
(iii) तेजभान जी
(iv) मेहरबान जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
गुरु अंगद देव जी की माता जी का क्या नाम था ?
(i) लक्ष्मी देवी जी
(ii) सभराई देवी जी
(iii) मनसा देवी जी
(iv) सुभाग देवी जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 7.
गुरु अंगद देव जी की पत्नी कौन थी ?
(i) बीबी खीवी जी
(ii) बीबी नानकी जी
(iii) बीबी अमरो जी
(iv) बीबी भानी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
गुरु अंगद देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1529 ई० में
(ii) 1538 ई० में
(iii) 1539 ई० में ।
(iv) 1552 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 9.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) गोइंदवाल साहिब
(ii) अमृतसर
(iii) खडूर साहिब
(iv) सुल्तानपुर लोधी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
किस गुरु साहिब ने गुरुमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अंगद देव जी ने
(iii) गुरु अमरदास जी ने
(iv). गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 11.
उदासी मत का संस्थापक कौन था ?
(i) बाबा श्री चंद जी
(ii) बाबा लख्मी दास जी
(iii) बाबा मोहन जी
(iv) बाबा मोहरी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
गुरु अंगद साहिब ने किस नगर की स्थापना की थी ?
(i) करतारपुर
(ii) तरनतारन
(iii) कीरतपुर साहिब
(iv) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 13.
कौन-सा मुग़ल बादशाह गुरु अंगद साहिब को मिलने के लिए खडूर साहिब आया था ?
(i) बाबर
(ii) हुमायूँ
(iii) अकबर
(iv) जहाँगीर।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 14.
गुरु अंगद साहिब जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1550 ई० में
(ii) 1551 ई० में
(iii) 1552 ई० में
(iv) 1554 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 15.
सिखों के तीसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 16.
गुरु अमरदास जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1458 ई० में
(ii) 1465 ई० में
(iii) 1469 ई० में
(iv) 1479 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 17.
गुरु अमरदास जी का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) खडूर साहिब
(ii) हरीके
(iii) बासरके
(iv) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 18.
गुरु अमरदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) तेजभान भल्ला
(ii) मेहरबान
(iii) मोहन दास
(iv) फेरूमल।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 19.
बीबी भानी जी कौन थी ?
(i) गुरु अंगद देव जी की पुत्री
(ii) गुरु अमरदास जी की पत्नी
(iii) गुरु अमरदास जी की पुत्री
(iv) गुरु रामदास जी की पुत्री।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 20.
आनंदु साहिब की रचना किस गुरु साहिबान ने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अंगद देव जी ने
(iii) गुरु अमरदास जी ने
(iv) गुरु रामदास जी ने।
उत्तर-
(iii) गुरु अमरदास जी ने

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प्रश्न 21.
किस गुरु साहिबान ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु रामदास जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 22.
मंजी प्रथा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य क्या था ?
(i) सिख धर्म का प्रचार करना
(ii) लंगर के लिए अनाज इकट्ठा करना
(iii) गुरुद्वारे का निर्माण करना ।
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 23.
गुरु अमरदास जी ने कुल कितनी मंजियों की स्थापना की ? (
(i) 20
(ii) 24
(iii) 26
(iv) 22
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 24.
गुरु अमरदास जी ने निम्नलिखित में से किस बुराई का खंडन किया ?
(i) बाल विवाह.
(ii) सती प्रथा
(iii) पर्दा प्रथा
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 25.
गुरु अमरदास जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) अमृतसर
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) लाहौर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 26.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1552 ई० में
(ii) 1564 ई० में
(iii) 1568 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 27.
सिखों के चौथे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 28.
गुरु रामदास जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1479 ई० में
(ii) 1524 ई० में
(iii) 1534 ई० में
(iv) 1539 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 29.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई बाला जी
(ii) भाई जेठा जी
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई मरदाना जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 30.
गुरु रामदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) हरीदास जी
(i) अमरदास जी
(iii) तेजभान जी
(iv) फेरूमल जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 31.
गुरु रामदास जी की माता जी का क्या नाम था ?
(i) दया कौर जी
(ii) रूप कौर जी
(iii) सुलक्खनी जी
(iv) लक्ष्मी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 32.
गुरु रामदास जी कौन-सी जाति से संबंधित थे ?
(i) बेदी
(ii) भल्ला
(iii) सोढी
(iv) सेठी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 33.
गुरु रामदास जी का विवाह किसके साथ हुआ था ?
(i) बीबी दानी जी
(i) बीबी भानी जी
(iii) बीबी अमरो जी
(iv) बीबी अनोखी जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 34.
पृथी चंद कौन था ?
(i) गुरु रामदास का बड़ा भाई
(ii) गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई
(iii) गुरु अर्जन देव जी का पुत्र
(iv) गुरु हरगोबिंद जी का पुत्र।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 35.
गुरु रामदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1534 ई० में
(ii) 1552 ई० में
(iii) 1554 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 36.
रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना किस गुरु साहिबान ने की थी ?
(i) गुरु अमरदास जी ने ।
(ii) गुरु रामदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु हरगोबिंद जी ने।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 37.
गुरु जी ने रामदासपुरा की नींव कब रखी थी ?
(i) 1574 ई० में
(ii) 1575 ई० में
(iii) 1576 ई० में
(iv) 1577 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 38.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 39.
किस गुरु साहिबान के समय उदासियों और सिखों के बीच समझौता हुआ था ? ।
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु रामदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 40.
चार लावां की प्रथा किस गुरु साहिबान ने आरंभ की ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु रामदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु हरगोबिंद जी ने।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 41.
कौन-सा मुगल बादशाह गुरु रामदास जी को मिलने आया था ?
(i) बाबर
(i) हुमायूँ
(iii) अकबर
(iv) औरंगज़ेब।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 42.
गुरु रामदास जी कब ज्योति-जोत समाए.?
(i) 1565 ई० में
(ii) 1571 ई० में
(iii) 1575 ई० में
(iv) 1581 ई० में।
उत्तर-
(iv)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा दिए गए योगदान पर चर्चा करें।
(Give description about Guru Angad Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी की किन्हीं छः ऐसी सफलताओं का वर्णन करें जिनके कारण सिख धर्म का विकास हुआ। (Write six achievements of Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Angad Dev Ji for the spread of Sikhism.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Angad Dev Ji.) .
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। इस समय के दौरान गुरु अंगद देव जी ने सिख धर्म के विकास के लिए निम्नलिखित मुख्य काम किए—
1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना—गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा।

2. लंगर प्रथा का विस्तार-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी।

3. संगत का संगठन-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना। संगत में सभी धर्मों के लोग-स्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

4. उदासी मत का खंडन-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत-से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक देव जी के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अत: गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का कड़ा विरोध करके सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

5. गोइंदवाल साहिब की स्थापना—गुरु अंगद देव जी ने खर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में सबसे महान् कार्य अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। इसलिए उन्होंने अपने श्रद्धालु अमरदास जी का चुनाव किया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी लिपि को हरमन प्यारा बनाने के लिए क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurumukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरुमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurumukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरुमखी लिपि को लोकप्रिय बनाकर सिख पंथ के विकास की ओर प्रथम महत्त्वपूर्ण पग उठाया। गुरुमुखी लिपि का आविष्कार किसने किया इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। डॉक्टर आई० बी० बैनर्जी का कथन है कि गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु नानक देव जी द्वारा रचित राग आसा अंकित है। इसमें 35 अक्षरों पर आधारित एक पट्टी की रचना की गई है जिसमें गुरुमुखी के सभी 35 अक्षरों का प्रयोग किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि गुरुमुखी लिपि का प्रचलन गुरु अंगद देव जी के समय से पूर्व हो चुका था।

यह ठीक है कि गुरुमुखी लिपि गुरु अंगद देव जी से पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे उस समय लंडा लिपि कहा जाता था। इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति बहुत सरलता से भ्रम में पड़ सकता था। इसलिए गुरु अंगद देव जी ने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए भी बहुत सरल हो गया था। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरुमुखी अर्थात् गुरुओं के मुख से निकली हुई होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार होने लगा। इसके अतिरिक्त इस लिपि के प्रचलित होने से ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही. धर्म की भाषा मानते थे। नि:संदेह गुरुमुखी लिपि का प्रचार सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 3.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the importance of Sangat and Pangat.)
अथवा
संगत एवं पंगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Sangat and Pangat ?)
उत्तर-
1. संगत-संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के सम्मिलित हो सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था। संगत में जाने वाले व्यक्ति का काया कल्प हो जाता था। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती थीं। वह भवसागर से पार हो जाता था। निस्संदेह यह संस्था सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई।

2. पंगत-पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। मुगल सम्राट अकबर और हरिपुर के राजा ने भी गुरु अमरदास जी के दर्शन करने से पूर्व लंगर खाया था। लंगर प्रत्येक धर्म और जाति के लोगों के लिए खुला था। सिख धर्म के प्रसार में लंगर संस्था का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। इस संस्था ने समाज में जाति प्रथा और छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने में भी बड़ी सहायता की। इस संस्था के कारण सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ।

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प्रश्न 4.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems had Guru Amar Das Ji to face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन निम्नलिखित है—

1. दासू और दातू का विरोध-गुरु अमरदास जी को अपने गुरुकाल के आरंभ में, गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को असली उत्तराधिकारी घोषित किया। सिखों ने उन्हें अपना गुरु मानने.से इंकार कर दिया। इस समय दातू ने भी माता खीवी जी के कहने पर अपना विरोध छोड़ दिया था।

2. बाबा श्रीचंद जी का विरोध-बाबा श्रीचंद जी गुरु नानक देव जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। बाबा श्रीचंद जी के अनेक समर्थक थे। गुरु अमरदास जी ने ऐसे समय में दृढ़ता से काम लेते हुए सिखों को स्पष्ट किया कि उदासी संप्रदाय के सिद्धांत गुरु नानक देव जी के उपदेशों के विपरीत हैं। उनके तर्कों से प्रभावित होकर सिखों ने बाबा श्रीचंद जी का साथ छोड़ दिया।

3. गोइंदवाल साहिब के मुसलमानों का विरोध-गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देखकर वहाँ के मुसलमानों ने सिखों को परेशान करना आरंभ कर दिया। वे सिखों का सामान चोरी कर लेते। वे सतलुज नदी से जल भर कर लाने वाले सिखों के घड़े पत्थर मार कर तोड़ देते थे। सिख इस संबंध में गुरु जी से शिकायत करते। अमरदास जी ने सिखों को शाँत रहने का उपदेश दिया।

4. हिंदुओं द्वारा विरोध-इसका कारण यह था कि गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों से प्रभावित होकर बहुत-से लोग सिख धर्म में शामिल होते जा रहे थे। सिख धर्म में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता था। बाऊली का निर्माण होने से सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान भी मिल गया था। गोइंदवाल साहिब के उच्च जातियों के हिंदू यह बात सहन न कर सके। उन्होंने मुग़ल बादशाह अकबर के पास यह झूठी शिकायत की कि गुरु जी हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। अकबर ने गुरु जी को निर्दोष घोषित किया।

प्रश्न 5.
गुरु अमरदास जी के समय होने वाले सिख धर्म के विकास का विवरण दीजिए।
(Give an account of the development of Sikhism Under Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी द्वारा किये गये छः महत्त्वपूर्ण कार्यों का वर्णन करें।
(Give six contributions of Guru Amar Das Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्याँकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के कार्यों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the works of Guru Amat Das Ji for the spread of Sikhism ?)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का अध्ययन करें। (Study the contribution of Guru Amar Das Ji to the growth of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। इस समय के दौरान गुरु अमरदास जी ने सिख पंथ के संगठन के लिए निम्नलिखित प्रशंसनीय काम किए—

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण—गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर प्रथम पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया।

2. लंगर संस्था का विस्तार-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा।

3. मंजी प्रथा-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई।

4. उदासी संप्रदाय का खंडन—गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए ख़तरा बना हुआ था। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

5. सामाजिक सुधार-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। उन्होंने जाति प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह तथा पर्दा प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श समाज का निर्माण किया।

6. वाणी का संग्रह-गुरु अमरदास जी का अगला महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। इस से आदि ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए सामग्री एकत्र हो गई।

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प्रश्न 6.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of the construction of the Baoli of Goindwal Sahib in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण-कार्य 1552 ई० में आरंभ किया गया था और यह 1559 ई० में संपूर्ण हुआ था। गोइंदवाल साहिब में बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु अमरदास जी के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान देना चाहते थे ताकि उन्हें हिंदू धर्म से अलग किया जा सके। दूसरे, वह वहाँ के लोगों की पानी के संबंध में कठिनाई को दूर करना चाहते थे। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। बाऊली का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली का निर्माण सिख पंथ के विकास के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य प्रमाणित हुआ। इससे सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। सिखों को हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं थी। दूसरा बाऊली के निर्माण के कारण सिखों की साफ पीने के पानी की समस्या दूर हो गई। इससे पहले लोग ब्यास नदी से पानी लाते थे जोकि बरसात के दिनों में गंदा हो जाता था। बड़ी संख्या में सिखों के गोइंदवाल साहिब में पहुँचने पर गुरु अमरदास जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियों के लोगों के द्वारा बाऊली में स्नान करने से जाति प्रथा को एक गहरा धक्का लगा।

प्रश्न 7.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के छः सामाजिक सुधारों का वर्णन करें।
(Describe six social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-
1. जातीय भेद-भाव तथा छुआ-छूत का खंडन-गुरु अमरदास जी ने जातीय एवं छुआ-छूत की प्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने संगतों को यह हुक्म दिया कि जो कोई उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया।

2. लड़कियों की हत्या का खंडन-उस समय लड़कियों के जन्म को अच्छा नहीं माना जाता था। अतः कुछ लोग लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार देते थे। गुरु अमरदास जी ने इस कुप्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जो व्यक्ति ऐसा करता है वह घोर पाप का सहभागी बनता है । उन्होंने सिखों को इस अपराध से दूर रहने का उपदेश दिया।

3. बाल विवाह का खंडन-उस समय समाज में प्रचलित परंपराओं के अनुसार लड़कियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता था। इस कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई थी। गुरु अमरदास जी ने बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार किया।

4. सती प्रथा का खंडन-उस समय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं में से सबसे घृणा योग्य कुप्रथा सती प्रथा की थी। इस अमानवीय प्रथा के अनुसार यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे जबरन पति की चिता के साथ जीवित जला दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने शताब्दियों से चली आ रही इस कुप्रथा के विरुद्ध एक ज़ोरदार अभियान चलाया।

5. पर्दा प्रथा का खंडन-उस समय समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन भी काफ़ी बढ़ गया था। यह प्रथा स्त्रियों के शारीरिक तथा मानसिक विकास में एक बड़ी बाधा थी। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने यह आदेश दिया कि संगत अथवा लंगर में सेवा करते समय कोई भी स्त्री पर्दा न करे।

6. नशीली वस्तुओं का खंडन-उस समय कुछ लोग नशीली वस्तुओं का प्रयोग करने लग पड़े थे। गुरु अमरदास जी ने इन वस्तुओं के सेवन की जोरदार शब्दों में आलोचना की।

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प्रश्न 8.
मंजी प्रथा क्या थी ? सिख धर्म के विकास में इसने क्या योगदान दिया? (What was the Manji System ? How did it contribute to the development of Sikhism ?)
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Manji System ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें। (Write a note on Manji System.)
उत्तर-
सिख धर्म के विकास में मंजी प्रथा ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई। इस महत्त्वपूर्ण संस्था के संस्थापक गुरु अमरदास जी थे। मंजी प्रथा के आरंभ एवं विकास का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. आवश्यकता-गुरु अमरदास जी के अथक प्रयासों तथा उनके जादुई व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख धर्म में सम्मिलित हो गए थे। क्योंकि सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी तथा वे पंजाब के बाहर के प्रदेशों में फैले हुए थे इसलिए गुरु साहिब के लिए निजी रूप से इन तक पहुँचना कठिन हो गया। दूसरा, इस समय गुरु अमरदास जी बहुत वृद्ध हो चुके थे। अतः गुरु अमरदास जी ने मंजी प्रथा को आरंभ करने की आवश्यकता अनुभव की।

2. मंजी प्रथा से अभिप्राय-गुरु अमरदास जी अपने सिखों को उपदेश देते समय एक विशाल चारपाई पर बैठते थे। इसे मंजा कहा जाता था। अन्य सिख ज़मीन अथवा दरी पर बैठकर उनके उपदेश सुनते थे। गुरु जी ने अपने जीवन काल में 22 मंजियों की स्थापना की थी। इनके मुखी मंजीदार कहलाते थे। ये मंजीदार गुरु जी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए एक छोटी चारपाई का प्रयोग करते थे। इस कारण यह संस्था मंजी प्रथा कहलाने लगी।

3. मंजीदार के कार्य-मंजीदार अपने अधीन प्रदेश में गुरु साहिबान का प्रतिनिधित्व करता था। वह अनेक प्रकार के कार्यों के लिए उत्तरदायी था।

  • वह सिख धर्म के प्रचार के लिए अथक प्रयास करता था।
  • वह गुरु साहिब के हुक्मों को सिख संगत तक पहुँचाता था।
  • वह लोगों को धार्मिक शिक्षा देता था।
  • वह लोगों को गुरुमुखी भाषा पढ़ाता था।
  • वह अपने प्रदेश की संगतों के साथ वर्ष में कम-से-कम एक बार गुरु जी के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आते थे।

4. मंजी प्रथा का महत्त्व-सिख धर्म के विकास एवं संगठन में मंजी प्रथा ने बहुमूल्य योगदान दिया। मंजीदारों के प्रभाव से बड़ी संख्या में लोग सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इसके दूरगामी प्रभाव पड़े। मंजीदार धर्म प्रचार के अतिरिक्त संगत से लंगर एवं अन्य कार्यों के लिए धन भी एकत्र करते थे। गुरु अमरदास जी ने इस धन को सिख धर्म के विकास कार्यों पर खर्च किया। इससे सिख धर्म की लोकप्रियता में काफ़ी वृद्धि हुई।

प्रश्न 9.
गुरु अमरदास जी के मुगलों के साथ कैसे संबंध थे ? (What type of relations did Guru Amar Das Ji have with the Mughals ?)
अथवा
मुगल बादशाह अकबर तथा गुरु अमरदास जी के मध्य संबंधों का उल्लेख कीजिए । (Describe the relations between Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
अथवा
मुगल सम्राट अकबर तथा गुरु अमरदास जी के बीच संबंधों का उल्लेख करें। (Explain the relations between the Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के मुग़लों के साथ संबंध बहुत अच्छे थे। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। गुरु अमरदास जी की ‘अरदास’ के फलस्वरूप अकबर को चित्तौड़ के अभियान में सफलता प्राप्त हुई थी। इसलिए गुरु साहिब का आभार. प्रकट करने के लिए अकबर 1568 ई० में गोइंदवाल साहिब आया था। उसने गुरु साहिब के दर्शन करने से पूर्व मर्यादानुसार अन्य संगत के साथ मिलकर लंगर खाया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व और लंगर प्रबंध से बहुत प्रभावित हुआ। उसने लंगर प्रबंध को चलाने के लिए कुछ गाँवों की जागीर की पेशकश की। गुरु जी ने इस जागीर को स्वीकार करने से इसलिए इंकार कर दिया कि उनके सिख लंगर के लिए बहुत दान देते हैं। अकबर की इस यात्रा के कारण गुरु अमरदास जी की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक फैल गई तथा बहुत-से लोग सिख धर्म में सम्मिलित हो गए।

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प्रश्न 10.
गुरु रामदास जी द्वारा सिख धर्म के विकास के लिए किए गए छः महत्त्वपूर्ण योगदानों की चर्चा करें।
(Give the six important contributions of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.
अथवा
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?)
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism.)
उत्तर-
1. रामदासपुरा की स्थापना-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाय वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ।

3. उदासियों से समझौता-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) करना था। उन्होंने चार लावों द्वारा विवाह प्रथा को प्रोत्साहित किया। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसे-जाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति-गुरु रामदास जी ने 1581 ई० मे गुरु अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस कारण सिख पंथ के विकास का कार्य जारी रहा।

प्रश्न 11.
रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of the foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाजार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। शीघ्र ही यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र बन गया। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। पहले अमृतसर सरोवर की खुदवाई का कार्य आरंभ किया गया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया जो शीघ्र ही उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया। इसे सिखों का मक्का कहा जाने लगा। इस के अतिरिक्त यह सिखों की एकता एवं स्वतंत्रता का प्रतीक भी बन गया।

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प्रश्न 12.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। , (Write a short note on Udasi Sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi System ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
1. बाबा श्रीचंद जी-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था जबकि गुरु नानक देव जी गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सभी सिद्धांत गुरु नानक देव जी के सिद्धांतों से मिलते थे। इस कारण बहुत-से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक देव जी के उपदेशों को भूलकर उदासी मत न अपना लें। इस संबंध में एक ठोस और शीघ्र निर्णय लिए जाने की आवश्यकता थी।

2. गुरु अंगद देव जी-गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता।

3. गुरु अमरदास जी-गुरु अमरदास जी ने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि जहाँ सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा अपनी आजीविका के लिए सच्चा श्रम करने की शिक्षा देता है, वहाँ उदासी मत अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से भाग जाने तथा संसार को त्याग कर मुक्ति की खोज में वनों में मारे-मारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के अथक प्रयत्नों से सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए।’

4. गुरु रामदास जी-गुरु रामदास जी के समय उदासियों एवं सिखों के मध्य समझौता हुआ। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु अमरदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। श्रीचंद जी गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध करना बंद कर दिया। सिखों का उदासियों से यह समझौता सिख पंथ के लिए बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुआ। इससे एक तो सिखों और उदासियों के बीच चला आ रहा परस्पर तनाव दूर हो गया। दूसरा, उदासियों ने सिख मत का प्रचार करने में प्रशंसनीय योगदान दिया।। इससे सिख धर्म की लोकप्रियता में वृद्धि हुई।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी से भेंट करने से पूर्व दुर्गा माता के भक्त थे। वे प्रतिवर्ष अपने साथ भक्तों का एक जत्था लेकर ज्वालामुखी (ज़िला काँगड़ा) देवी के दर्शन के लिए जाते थे, किंतु जिस सत्य की उन्हें तलाश थी, उसकी प्राप्ति न हो सकी। एक दिन खडूर साहिब में भाई जोधा जी जो गुरु नानक देव जी के एक श्रद्धालु सिख थे, के मुख से आसा दी वार’ का पाठ सुना। यह पाठ सुनकर भाई लहणा जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गुरु नानक देव जी के दर्शन करने का दृढ़ निश्चय किया। आगामी वर्ष जब भाई लहणा जी अपने जत्थे को साथ लेकर ज्वालामुखी की यात्रा के लिए निकले तो वे मार्ग में करतारपुर में गुरु नानक देव जी के दर्शन के लिए रुके। वे गुरु साहिब के महान् व्यक्तित्व
और मधुर वाणी को सुनकर इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने अनुभव किया कि जिस मंज़िल की उन्हें वर्षों से तलाश थी, आज वह मंज़िल उनके सामने है।

  1. भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी को मिलने से पहले किस देवी के भक्त थे ?
  2. भाई लहणा जी ने खडूर साहिब में किस के मुख से आसा दी वार’ का पाठ सुना था ?
  3. ‘आसा दी वार’ का पाठ सुनकर भाई लहणा जी ने क्या फैसला किया ?
  4. भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी के शिष्य क्यों बन गए ?
  5. भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी को कहाँ मिले थे ?
    • करतारपुर में
    • ज्वालामुखी में
    • कीरतपुर में
    • अमृतसर में।

उत्तर-

  1. भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी को मिलने से पहले देवी दुर्गा के भक्त थे।
  2. भाई लहणा जी ने खडूर साहिब में भाई जोधा जी के मुख से ‘आसा दी वार’ का पाठ सुना था।
  3. ‘आसा दी वार’ का पाठ सुनकर भाई लहणा जी ने गुरु नानक देव जी के दर्शन करने का फैसला किया।
  4. वह गुरु नानक देव जी के व्यक्तित्व से तथा वाणी से बहुत प्रभावित हुए।
  5. करतारपुर में।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

2
गुरु अंगद साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाकर सिख पंथ के विकास की ओर प्रथम महत्त्वपूर्ण पग उठाया। यह सही है कि यह लिपि गुरु अंगद देव जी से पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी, परंतु इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति बहुत सरलता से भ्रम में पड़ सकता था। इसलिए गुरु अंगद देव जी इसके रूप में एक नया निखार लाए। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए भी बहुत सरल हो गया था। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [अर्थात् गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार होने लगा। इसके अतिरिक्त इस लिपि के प्रचलित होने से ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा समझते थे।

  1. किस गुरु साहिबान ने गुरमुखी लिपि का प्रचलन किया ?
  2. गुरमुखी लिपि से पहले कौन-सी लिपि का प्रचलन था ?
  3. गुरमुखी से क्या भाव है ?
  4. गुरमुखी लिपि का क्या महत्त्व था ?
  5. सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना ……….. लिपि में हुई। ……….

उत्तर-

  1. गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचलन किया था।
  2. गुरमुखी लिपि से पहले लंडे महाजनी लिपि का प्रचलन था।
  3. गुरमुखी लिपि से भाव है गुरुओं के मुख से निकली हुई।
  4. इसके प्रचार के कारण ब्राह्मण वर्ग को करारी चोट पहुँची क्योंकि वे केवल संस्कृत को ही पवित्र भाषा मानते
  5. गुरमुखी।

3
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० में आरंभ किया गया था और यह 1559 ई० में संपूर्ण हुआ था। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान देना चाहते थे ताकि उन्हें हिंदू धर्म से अलग किया जा सके। दूसरा, वह वहाँ के लोगों की पानी के संबंध में कठिनाई को दूर करना चाहते थे। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। बाऊली का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली का निर्माण सिख पंथ के विकास के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य प्रमाणित हुआ।

  1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किस गुरु साहिब ने करवाया था ?
  2. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण कार्य कब आरंभ हुआ ?
    • 1552 ई०
    • 1559 ई०
    • 1562 ई०
    • 1569 ई०
  3. गोइंदवाल साहिब में बाऊली के निर्माण कार्य को कुल कितना समय लगा ?
  4. गोइंदवाल साहिब की बाऊली तक पहुँचने के लिए कुल कितनी सीढ़ियों का निर्माण किया गया ?
  5. बाऊली का निर्माण सिख पंथ के लिए कैसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ ?

उत्तर-

  1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण गुरु अमरदास जी ने करवाया था।
  2. 1552 ई०।
  3. गोइंदवाल साहिब में बाऊली के निर्माण को कुल 7 वर्ष लगे।
  4. गोइंदवाल साहिब की बाऊली तक पहुँचने के लिए कुल 84 सीढ़ियाँ बनवाई गईं।
  5. इस कारण सिख धर्म को एक नया उत्साह मिला।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 5 गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी के अधीन सिख धर्म का विकास

4
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। गुरु अमरदास जी के समय सिखों की संख्या में भारी वृद्धि हुई थी। इसलिए गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। यहाँ यह बात स्मरणीय है कि गुरु जी ने इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं की थी अपितु यह क्रम उनके समस्त गुरुकाल के दौरान चलता रहा। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार का पद केवल बहुत ही पवित्र सिख को दिया जाता था। मंजीदार का प्रचार क्षेत्र किसी विशेष प्रदेश तक सीमित नहीं था। वह अपनी इच्छानुसार अपने प्रचार हेतु किसी भी स्थान पर जा सकते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिखं धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे तथा सिखों से धन एकत्र करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे।

  1. मंजी प्रथा की स्थापना किस गुरु साहिब ने की थी ?
  2. कुल कितनी मंजियों की स्थापना की गई थी ?
  3. मंजी का मुखिया कौन होता था ?
  4. मंजीदार का कोई एक मुख्य कार्य लिखें।
  5. मंजीदार का प्रचार क्षेत्र किसी विशेष ………. तक सीमित नहीं था।

उत्तर-

  1. मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी।
  2. कुल 22 मंजियों की स्थापना की गई थी।
  3. मंजी का मुखिया मंजीदार होता था।
  4. वे सिख धर्म का प्रचार करते थे।
  5. प्रदेश।

5
गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। उन्होंने 1577 ई० में रामदासपुरा की स्थापना की। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। शीघ्र ही यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र बन गया। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। पहले अमृतसर सरोवर की खुदाई का कार्य आरंभ किया गया। इस कार्य की देखभाल के लिए बाबा बुड्डा जी को नियुक्त किया गया। बाद में अमृत सरोवर के नाम पर रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया जो शीघ्र ही उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

  1. रामदासपुरा की स्थापना किस गुरु साहिब ने की थी ?
  2. रामदासपुरा के पश्चात् इसे किस नाम से जाना जाने लगा ?
  3. रामदासपुरा में व्यापारियों के लिए बनाए गए बाज़ार का नाम क्या था ?
  4. रामदासपुरा की स्थापना का क्या महत्त्व था ?
  5. रामदासपुरा की स्थापना कब की गयी थी ?
    • 1571 ई०
    • 1573 ई०
    • 1575 ई०
    • 1577 ई०।

उत्तर-

  1. रामदासपुरा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी।
  2. रामदासपुरा के पश्चात् इसे अमृतसर के नाम से जाना जाने लगा।
  3. रामदासपुरा में व्यापारियों के लिए बनाए गए बाज़ार का नाम ‘गुरु का बाज़ार’ था।
  4. इसके कारण सिखों को उनका सबसे पवित्र तीर्थ स्थान मिला।
  5. 1577 ई०।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
तुलनात्मक राजनीति से आप क्या समझते हैं ? (What do you understand by Comparative Politics ?)
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति आधुनिक राजनीति विज्ञान की महत्त्वपूर्ण देन है। तुलनात्मक राजनीति वर्तमान में विश्वव्यापी स्तर पर राजनीति-शास्त्रियों व विचारकों के अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु बन चुकी है। तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन यद्यपि ऐतिहासिक काल से चला आ रहा है तथापि इसका महत्त्व आधुनिक युग में ही बढ़ा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक विषय के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य है और बिना तुलनात्मक अध्ययन के किसी भी विषय की वैज्ञानिक व्याख्या सम्भव नहीं है। यही बात राजनीति विज्ञान पर लागू होती है।

तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन आधुनिक राजनीति शास्त्र की इस बदलती हुई प्रवृत्ति का परिचायक है। यद्यपि तुलनात्मक राजनीति का सामान्य अर्थ विदेशी सरकारों का संवैधानिक अध्ययन (Constitutional study of foreign government) है किन्तु आधुनिक राजनीति शास्त्र सम्पूर्ण विश्व की राजनीतिक पद्धति की कल्पना करता है।

तुलनात्मक राजनीति का अर्थ तथा परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Comparative Politics)तुलनात्मक राजनीति का अर्थ किन्हीं दो देशों अथवा दो सरकारों की राजनीति की तुलना करना अथवा कुछ देशों के संविधानों की तुलना नहीं है। तुलनात्मक राजनीति से हमारा अभिप्राय राजनीतिक संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन से है। राजनीतिक संस्थाएं सरकार अथवा शासन के विभिन्न अंगों को कहा जाता है। शासन राज्य की एक मुख्य संस्था है जिसके मुख्य तीन अंग होते हैं-कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका। स्तरों की दृष्टि से शासन में केन्द्रीय सरकार, प्रादेशिक सरकार तथा स्थानीय सरकारें होती हैं, शासकीय प्रशासन, वित्तीय प्रशासन, असैनिक सरकार तथा अन्य सामाजिक मूल्य भी शासन के महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। यह सभी अंग तथा अन्य शासकीय अंग राजनीतिक संस्थाएं कहलाती हैं। तुलनात्मक राजनीति का उद्देश्य विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं (Political Systems) अथवा शासन की राजनीतिक संस्थाओं (Political Institutions) का तुलनात्मक अध्ययन करना है। तुलनात्मक राजनीति के विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं, जिनमें मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. एडवर्ड ए० फ्रीमैन (Edward A. Freeman) के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति संस्थाओं तथा सरकारों के विविध प्रकारों का एक तुलनात्मक विवेचन तथा विश्लेषण है।”

2. जीन ब्लोण्डेल (Jean Blondel) के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति वर्तमान विश्व में राष्ट्रीय सरकारों के प्रतिमानों का अध्ययन है।”

3. राल्फ बराइबन्ती (Ralf Braibanti) के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के उन तत्त्वों
की पहचान और व्याख्या है जो राजनीतिक कार्यों तथा उनके संस्थागत प्रकाशन को प्रभावित करते हैं।”

4. आर० सी० मैक्रीडीस (R. C. Macridis) के शब्दों में, “हैरोडोटस तथा अरस्तु के समय से ही राजनीतिक मूल्यों, विश्वासों, संस्थाओं, सरकारों और राजनीतिक व्यवस्थाओं में विविधताएं जीवन्त रही हैं और इन विविधताओं में समान तत्त्वों की छानबीन करने का जो पद्धतीय प्रयास है उसे तुलनात्मक राजनीति का विश्लेषण कहा जाना चाहिए।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि तुलनात्मक राजनीति के अन्तर्गत केवल सरकारों का ही तुलनात्मक अध्ययन नहीं होता बल्कि इससे राजनीतिक व गैर-राजनीतिक, कानूनी व गैर-कानूनी, संवैधानिक व संविधानातिरिक्त, कबीलों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि तथ्यों का भी अध्ययन किया जाता है। इसमें सम्पूर्ण समाज के उन तथ्यों का अध्ययन जो किसी भी रूप में राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित करते हैं तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन संस्थागत अथवा सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक है।

प्रश्न 2.
तुलनात्मक राजनीति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो। (Describe the main characteristics of Comparative Politics.)
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. मूल्य मुक्त धारणा (Value-free theory) तुलनात्मक सरकार के विद्वान् अपना अध्ययन कुछ मूल्यों को ध्यान में रखकर ही करते थे। इसलिए उन्होंने कुछ ही विषयों पर बार-बार लिखा। परन्तु तुलनात्मक राजनीति के विद्वान् मूल्य निरपेक्ष अध्ययन पर बल देते हैं।

2. अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण (Inter-Disciplinary Approach)-तुलनात्मक राजनीति एक अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण अथवा धारणा है। इसके विद्वान् अधिक-से-अधिक उन उपकरणों व शास्त्रीय अवधारणाओं का प्रयोग करते हैं जो वे समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, अर्थशास्त्र, जीव विज्ञान इत्यादि से ग्रहण करते हैं।

3. विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक अध्ययन (Analytical and Explanatory Study)—आधुनिक दृष्टिकोण में परिकल्पनाएं की जाती हैं, परीक्षण किए जाते हैं तथा आंकड़ों को एकत्रित किया जाता है। विश्लेषणात्मक पद्धति से परिकल्पनाओं की जांच की जाती है और जांच के आधार पर उन परिकल्पनाओं का धारण, संशोधन अथवा खण्डन किया जाता है। तुलनात्मक राजनीति में विश्लेषणात्मक पद्धति का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।

4. विकासशील देशों का अध्ययन (Study of Developing Countries) आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में केवल पश्चिमी देशों का ही अध्ययन नहीं किया जाता है वरन एशिया, लैटिन अमेरिका तथा अफ्रीका के विकासशील देशों के अध्ययन की ओर भी ध्यान दिया जाता है।

5. वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित अध्ययन (Scientific and Systematic Study) तुलनात्मक राजनीति में वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित अध्ययन को अपनाया जाता है क्योंकि इसमें कार्य-करण और क्रिया-प्रतिक्रिया का सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की जाती है।

6. व्यवस्थामूलक दृष्टिकोण (Systematic Approach)-तुलनात्मक राजनीति में संविधान के अध्ययन की अपेक्षा राजनीतिक व्यवस्था के अध्ययन को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसी के आधार पर राजनीतिक प्रतिक्रियाओं तथा संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।

7. व्यवहारवादी अध्ययन सम्बन्धी दृष्टिकोण (Behavioural Approach of Study)—तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागम ‘व्यवहारवादी दृष्टिकोण’ पर आधारित हैं, जिसके अन्तर्गत राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन के साथ-साथ मानव स्वभाव, सामाजिक व राजनीतिक पर्यावरण का भी अध्ययन किया जाता है।।

8. संरचनात्मक व कार्यात्मक दृष्टिकोण (Structural and functional Approach)-आधुनिक दृष्टिकोण की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह संरचना तथा कार्य मूलक दृष्टिकोण है। आधुनिक युग में सभी विद्वान् इस बात पर सहमत हैं कि राजनीतिक व्यवस्थाओं तथा संस्थाओं की संरचना और कार्यों में बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित ही नहीं करते, अपितु एक-दूसरे के नियामक भी होते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
तुलनात्मक राजनीति से क्या भाव है ?
अथवा
तुलनात्मक राजनीति का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति का अर्थ किन्हीं दो देशों अथवा दो सरकारों की राजनीति की तुलना करना अथवा कुछ देशों के संविधानों की तुलना करना नहीं है। तुलनात्मक राजनीति से हमारा अभिप्राय राजनीतिक संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन से है। अब यह प्रश्न उठता है कि राजनीतिक संस्थाएं क्या हैं। राजनीतिक संस्थाएं सरकार अथवा शासन के विभिन्न अंगों को कहा जाता है। शासन राज्य की एक मुख्य संस्था है, जिसके मुख्य तीन अंग होते हैं-कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका। स्तरों की दृष्टि से शासन में केन्द्रीय सरकार, प्रादेशिक सरकार तथा स्थानीय सरकारें होती हैं। शासकीय प्रशासन, वित्तीय व्यवस्था, असैनिक सरकार तथा अन्य सामाजिक मूल्य भी शासन के महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। ये सभी अंग तथा अनेक अन्य शासकीय अंग राजनीतिक संस्थाएं कहलाते हैं। तुलनात्मक राजनीति का उद्देश्य विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं (Political System) अथवा शासन की राजनीतिक संस्थाओं (Political Institutions) का तुलनात्मक अध्ययन करना है।

प्रश्न 2.
तुलनात्मक राजनीति की कोई तीन परिभाषाएं लिखें।
अथवा
तुलनात्मक राजनीति की कोई चार परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति की तीन परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  • एडवर्ड ए० फ्रीमैन के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीतिक संस्थाओं तथा सरकारों के विविध प्रकारों का एक तुलनात्मक विवेचन तथा विश्लेषण है।”
  • जीन ब्लोण्डेल के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति वर्तमान विश्व में राष्ट्रीय सरकारों के प्रतिमानों का अध्ययन है।”
  • एम० कर्टिस के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली और राजनीतिक व्यवहार में पाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण नियमितताओं, समानताओं और अन्तरों से सम्बन्धित है।”
  • राल्फ बराइबत्ती के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के उन तत्त्वों की पहचान और व्याख्या है जो राजनीतिक कार्यों तथा उनके संस्थागत प्रकाशन को प्रभावित करती है।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

प्रश्न 3.
तुलनात्मक राजनीति की कोई तीन विशेषताएं लिखें।
अथवा
तुलनात्मक राजनीति की कोई चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  • मूल्य मुक्त धारणा–तुलनात्मक सरकार के विद्वान् अपना अध्ययन कुछ मूल्यों को ध्यान में रखकर ही करते थे। इसलिए उन्होंने कुछ ही विषयों पर बार-बार लिखा। परन्तु तुलनात्मक राजनीति के विद्वान् मूल्य निरपेक्ष अध्ययन पर बल देते हैं।
  • अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण—तुलनात्मक राजनीति एक अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण अथवा धारणा है। इसके विद्वान् अधिक-से-अधिक उन उपकरणों व शास्त्रीय अवधारणाओं का प्रयोग करते हैं जो वे समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, अर्थशास्त्र जीव विज्ञान इत्यादि से ग्रहण करते हैं।
  • विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक अध्ययन–आधुनिक दृष्टिकोण में परिकल्पनाएं की जाती हैं, परीक्षण किए जाते हैं तथा आंकड़ों को एकत्रित किया जाता है। विश्लेषणात्मक पद्धति से परिकल्पनाओं की जांच की जाती है और जांच के आधार पर उन परिकल्पनाओं का धारण, संशोधन अथवा खण्डन किया जाता है। तुलनात्मक राजनीति में विश्लेषणात्मक पद्धति का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
  • वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित अध्ययन-तुलनात्मक राजनीति में वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित अध्ययन अपनाया जाता है।

प्रश्न 4.
तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन की क्या महत्ता है ?
उत्तर-

  • तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से राजनीतिक व्यवहार को समझने में सहायता मिलती है।
  • तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से भिन्न-भिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं की समानताओं तथा असमानताओं को समझा जा सकता है।
  • तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से विकासशील देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समझने में सहायता मिलती है।
  • तुलनात्मक राजनीति का अध्ययन राजनीति को एक वैज्ञानिक अध्ययन बनाता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

प्रश्न 5.
तुलनात्मक राजनीति और तुलनात्मक सरकार में अंतर लिखिए ?
उत्तर-

  • विषय क्षेत्र सम्बन्धी अन्तर-तुलनात्मक सरकार का विषय क्षेत्र तुलनात्क राजनीति के क्षेत्र से सीमित
  • जन्म सम्बन्धी अन्तर-तुलनात्मक सरकार का विषय लगभग उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं राजनीति शास्त्र पुराना है। राजनीति शास्त्र के पितामह अरस्तु ने अपने समय की 158 सरकारों की तुलनात्मक अधययन करके तुलनात्मक विश्लेषण सम्बन्धी अपने विचार दिये थे। परन्तु तुलनात्मक सरकार की अपेक्षा राजनीति एक नया विषय है।
  • उद्देश्य सम्बन्धी अन्तर-तुलनात्मक सरकार व तुलनात्मक राजनीति में मुख्य अन्तर उद्देश्य सम्बन्धी है। प्रत्येक विषय के अध्ययन का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है। तुलनात्मक सरकार के अध्ययन के बावजूद इसका उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता जबकि तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से इसका उद्देश्य सिद्धान्त निर्माण (Theory Building) स्पष्ट हो जाता है।
  • तुलनात्मक शासन सैद्धान्तिक और संस्थागत अध्ययन है, जबकि तुलनात्मक राजनीति व्यावहारिक और वैज्ञानिक अध्ययन है।

प्रश्न 6.
तुलनात्मक राजनीति के रास्ते में आने वाली किन्हीं चार रुकावटों के बारे में लिखिए।
उत्तर-

  • क्षेत्र सम्बन्धी रुकावट-तुलनात्मक राजनीति के रास्ते में पहली रुकावट यह आती है कि इसके क्षेत्र में क्या-क्या शामिल किया जाए ?
  • दृष्टिकोण सम्बन्धी रुकावट-तुलनात्मक राजनीति के रास्ते में दूसरी रुकावट यह है कि इसके अध्ययन के लिए किन-किन दृष्टिकोणों का प्रयोग किया जाए ?
  • विकासशील देशों की परिस्थितियां-तुलनात्मक राजनीति के रास्ते में विकासशील देशों की खराब आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां रुकावट पैदा करती हैं।
  • कठिन शब्दावली-तुलनात्मक राजनीति की शब्दावली कठिन है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
तुलनात्मक राजनीति का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति से हमारा अभिप्राय राजनीतिक संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन से है। अब यह प्रश्न उठता है कि राजनीतिक संस्थाएं क्या हैं। राजनीतिक संस्थाएं सरकार अथवा शासन के विभिन्न अंगों को कहा जाता है। तुलनात्मक राजनीति का उद्देश्य विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं (Political System) अथवा शासन की राजनीतिक संस्थाओं (Political Institutions) का तुलनात्मक अध्ययन करना है।

प्रश्न 2.
तुलनात्मक राजनीति की दो परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-

  • एडवर्ड ए० फ्रीमैन के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीतिक संस्थाओं तथा सरकारों के विविध प्रकारों का एक तुलनात्मक विवेचन तथा विश्लेषण है।”
  • जीन ब्लोण्डेल के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति वर्तमान विश्व में राष्ट्रीय सरकारों के प्रतिमानों का अध्ययन है।”

प्रश्न 3.
तुलनात्मक राजनीति के अधीन कौन-से दो विषयों की तुलना की जा सकती है ?
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति के अधीन शासन एवं राजनीति की तुलना की जाती है अर्थात् इनके अधीन किन्हीं दो देशों के शासन एवं उनकी राजनीति की तुलना की जाती है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

प्रश्न 4.
तुलनात्मक राजनीति की दो विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  • मूल्य मुक्त धारणा–तुलनात्मक राजनीति के विद्वान् मूल्य निरपेक्ष अध्ययन पर बल देते हैं।
  • अन्त: अनुशासनात्मक दृष्टिकोण—तुलनात्मक राजनीति एक अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण अथवा धारणा चारणा है

प्रश्न 5.
तुलनात्मक राजनीति के विषय क्षेत्र के कोई दो मुख्य विषय लिखिए।
उत्तर-

  • तुलनात्मक राजनीति में विभिन्न राज्यों की सरकारी संरचनाओं का व्यापक विवरण मिलता है।
  • तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक दलों के संगठन, कार्यक्रम तथा कार्यों का अध्ययन करता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
राजनीतिक शास्त्र में तुलनात्मक अध्ययन का प्रतिपादक किसे माना जाता है ?
उत्तर-
राजनीतिक शास्त्र में तुलनात्मक अध्ययन का प्रतिपादक अरस्तू को माना जाता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

प्रश्न 2.
अरस्तू ने कितने संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया था ?
उत्तर-
रस्तू ने लगभग 158 संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया था।

प्रश्न 3.
तुलनात्मक राजनीति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
तुलनात्मक राजनीति से हमारा अभिप्राय राजनीति संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन से है।

प्रश्न 4.
तुलनात्मक राजनीति की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर-
एडवर्ड ए० फ्रीमैन के अनुसार, “तुलनात्मक राजनीति संस्थाओं तथा सरकारों के विविध प्रकारों का एक तुलनात्मक विवेचन तथा विश्लेषण है।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 तुलनात्मक राजनीति

प्रश्न 5.
तुलनात्मक राजनीति और तुलनात्मक सरकार में अन्तर बताएं।
उत्तर-
तुलनात्मक सरकार सैद्धान्तिक और संस्थागत अध्ययन है, जबकि तुलनात्मक राजनीति व्यावहारिक और वैज्ञानिक अध्ययन है।

प्रश्न 6.
तुलनात्मक राजनीति के विषय क्षेत्र का कोई एक मुख्य विषय लिखें।
उत्तर-
विभिन्न देशों की सरकारी संरचनाओं का अध्ययन।

प्रश्न 7.
तुलनात्मक राजनीति की कोई दो विशेषताएं लिखें।
अथवा
तुलनात्मक राजनीति की कोई एक विशेषता लिखिए।
उत्तर-
(1) मूल्य मुक्त धारणा।
(2) अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण।

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प्रश्न 8.
तुलनात्मक शासन एवं राजनीति में किस पर अधिक बल दिया गया है ?
उत्तर-
अंत: अनुशासन अध्ययन पर अधिक बल दिया गया है।

प्रश्न 9.
तुलनात्मक राजनीति की कोई एक समस्या लिखिए।
उत्तर-
संयुक्त शब्दावली का अभाव।

प्रश्न 10.
किन विद्वानों ने परम्परावादी दृष्टिकोण का निर्जीव राजनीति विज्ञान कहकर खण्डन किया है?
उत्तर-
आधुनिक विद्वानों ने।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. तुलनात्मक राजनीति से अभिप्राय राजनीतिक संस्थाओं के ………….. अध्ययन से है।
2. शासन राज्य की एक मुख्य संस्था है, जिसके मुख्य तीन अंग होते हैं :- कार्यपालिका, ……………. एवं न्यायपालिका।
3. …………… के अनुसार तुलनात्मक राजनीति संस्थाओं तथा सरकारों के विविध प्रकारों का एक तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण है।
4. ……………. के अनुसार, तुलनात्मक राजनीति वर्तमान विश्व में राष्ट्रीय सरकारों के प्रतिमानों का अध्ययन है।
उत्तर-

  1. तुलनात्मक
  2. विधानपालिका
  3. एडवर्ड ए० फ्रीमैन
  4. जीन ब्लोण्डेल।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. तुलनात्मक राजनीति परम्परागत राजनीति विज्ञान की देन है।
2. तुलनात्मक राजनीति से अभिप्राय राजनीतिक संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन से है।
3. तुलनात्मक राजनीति की एक विशेषता मूल्य मुक्त अध्ययन है।
4. तुलनात्मक राजनीति में अन्तः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण पर बल नहीं दिया जाता।
5. मैक्रीडीस एवं वार्ड के अनुसार तुलनात्मक राजनीति एक ऐसा गाइड है, जो घर बैठे-बिठाए हमें देश-विदेश की सैर करा देता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
“राजनीति में मानव स्वभाव” नामक पुस्तक किसने लिखी?
(क) राबर्ट डहल
(ख) लुसियन पाई
(ग) डेविड एप्टर
(घ) ग्राम वालेस।
उत्तर-
(घ) ग्राम वालेस।

प्रश्न 2.
तुलनात्मक राजनीति का आरम्भ कब से माना जाता है?
(क) 19वीं शताब्दी से
(ख) 20वीं शताब्दी के प्रारंभ से
(ग) 18वीं शताब्दी से
(घ) 17वीं शताब्दी से।
उत्तर-
(ख) 20वीं शताब्दी के प्रारंभ से

प्रश्न 3.
तुलनात्मक सरकार एवं तुलनात्मक राजनीति में –
(क) कोई अन्तर नहीं
(ख) अन्तर है
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) अन्तर है

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प्रश्न 4.
“तुलनात्मक राजनीति का अर्थ समकालीन विश्व में राष्ट्रीय सरकारों के ढांचे का अध्ययन है।” यह कथन किसका है ?
(क) एडवर्ड फ्रीमैन
(ख) अरस्तू
(ग) जीन ब्लोण्डेल
(घ) ज्यूफ्री के० राबर्टस।
उत्तर-
(ग) जीन ब्लोण्डेल

प्रश्न 5.
तुलनात्मक शासन एवं राजनीति में ज़ोर दिया जाता है-
(क) ऐतिहासिक अध्ययन पर
(ख) केवल संवैधानिक ढांचे पर
(ग) अन्तःअनुशासन अध्ययन पर
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) अन्तःअनुशासन अध्ययन पर

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PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक व प्रणाली शब्द का अलग-अलग अर्थ स्पष्ट करते हुए राजनीतिक प्रणाली की कोई र विशेषताएं बताएं।
(Describe the word Political and System separately and also write any three features of Political System.)
अथवा राजनैतिक प्रणाली की परिभाषा लिखो। इसकी मुख्य विशेषताओं का विस्तार सहित वर्णन करो। (Define Political System. Write main characteristics of Political System.)
उत्तर-
आलमण्ड (Almond) तथा पॉवेल (Powell) के अनुसार, तुलनात्मक राजनीति से सम्बन्धित प्रकाशित पुस्तकों में राजनीतिक व्यवस्था (Political System) शब्दावली का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जा रहा है। पुरानी पाठ्य-पुस्तकें आमतौर पर राजनीतिक व्यवस्था के लिए ‘सरकार’, ‘राष्ट्र’ या ‘राज्य’ जैसे शब्दों का प्रयोग करती थीं। यह नवीन शब्दावली उस नए दृष्टिकोण का प्रतिबिम्ब है जो राजनीतिक व्यवस्था को एक नए ढंग से देखते हैं। आलमण्ड तथा पॉवेल आदि लेखकों का विचार है कि प्राचीन युग में प्रयोग होने वाले ये शब्द वैधानिक और संस्थात्मक अर्थों (Legal and Institutional Meanings) द्वारा सीमित है। आलमण्ड तथा पॉवेल का कहना है कि यदि वास्तव में राजनीति विज्ञान को प्रभावशाली बनाना है तो हमें विश्लेषण के अधिक व्यापक ढांचे की आवश्यकता है और वह ढांचा व्यवस्था विश्लेषण (System Analysis) का है। आलमण्ड तथा पॉवेल ने लिखा है, “राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा अधिक लोकप्रिय होती जा रही है क्योंकि यह किसी भी समाज के राजनीतिक क्रियाओं के सम्पूर्ण क्षेत्र की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।”

राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ (Meaning of the Political System)-राजनीतिक व्यवस्था शब्द के दो भाग हैं-राजनीति तथा व्यवस्था। इन दोनों के अर्थ को समझने के बाद ही राजनीतिक व्यवस्था अथवा प्रणाली का अर्थ समझा जा सकता है। – 1. राजनीतिक (Political)-राजनीतिक शब्द सत्ता अथवा शक्ति का सूचक है। किसी भी समुदाय या संघ को राजनीतिक उस समय कहा ज सकता है जबकि उसकी आज्ञा का पालन प्रशासकीय कर्मचारी वर्ग द्वारा शारीरिक बल प्रयोग के भय से करवाया जात है । अरस्तु ने राजनीतिक समुदाय को अत्यधिक प्रभुत्व-समन्न तथा अन्तर्भावी र गठन’ (The most sovereign and inclusive association) परिभाषित किया है।” अरस्तु के मतानुसार, “राजनीतिक समुदाय के पास सर्वोच्च शक्ति होती है जो इसको अन्य समुदायों अथवा संघों से अलग करती है। अरस्तु के बाद अनेक विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि राजनीतिक सम्बन्धों में सत्ता, शासन और शक्ति किसी-न-किसी प्रकार । निहित है।

आलमण्ड तथा पॉवेल (Almond and Powell) ने राजनीतिक समुदाय की इस शक्ति को कानूनी शारीरिक बलात् शक्ति (Legitimate Physical Coercive Powers) का नाम दिया है।
मैक्स वैबर (Max Webber) के अनुसार, “किसी भी समुदाय को उस समय राजनीतक माना जा सकतज उसके आदेशों को एक निश्चित भू-क्षेत्र में लगातार शक्ति के प्रयोग अथवा शक्ति-प्रयोग की धमकी द्वारा मनवाया । सकता हो।”

डेविड ईस्टन (David Easton) ने राजनीतिक जीवन को इस प्रकार परिभाषित किया है- “यह अन्तक्रियाओं का समूह अथवा प्रणाली है जो इस तथ्य से अलंकृत है कि यह एक समाज के लिए सत्तात्मक मूल्य निर्धारण से कम या अधिक सम्बन्धित है।” (“A set or system of interactions defined by the fact that they are more or less directly related to the authoritative allocation of values for a society.”) लॉसवैल तथा कॉप्लान (Lasswell and Kaplan) ने ‘घोर-हानि’ (Severe Deprivation) की बात की है। राबर्ट ए० डाहल (Robert A. Dahl) ने ‘शक्ति , शासन तथा सत्ता’ (Power, Rule and Authority) का वर्णन किया है।

विभिन्न विद्वानों के विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि राजनीति का सम्बन्ध ‘शक्ति’, ‘शासन’ तथा ‘सत्ता’ से होता है और जिस समुदाय के पास ये गुण होते हैं उसे राजनीतिक समुदाय कहा जाता है।

2. व्यवस्था या प्रणाली (System)—व्यवस्था (System) शब्द का प्रयोग अन्तक्रियाओं (Interaction) के समूह ) का संकेत करने के लिए किया जाता है।

ऑक्सफोर्ड शब्दकोष (Concise Oxford Dictionary) के अनुसार, “प्रणाली एक पूर्ण समाप्ति है, सम्बद्ध वस्तुओं अथवा अंशों का समूह है, भौतिक या अभौतिक वस्तुओं का संगठित समूह है।” (A system is a complex whole, a set of connected things or parts, organised body of material or immaterial things.”)

वान बर्टलैंफी (Von Bertalanffy) के अनुसार, “प्रणाली (System) पारस्परिक अन्तक्रिया (Interaction) में बन्धे हुए तत्त्वों का समूह है।” (“System is a set of elements standing in interaction.”)

ए० हाल एवं आर० फैगन (A. Hall and R. Fagen) के अनुसार, “प्रणाली” पात्रों (Objects), पात्रों में पारस्परिक सम्बन्धों तथा पात्रों के लक्षणों के पारस्परिक सम्बन्धों का समूह है।” (“System is a set of objects together with relations between the objects and between their attitudes.”)

कालिन चैरे (Colin Cheray) के अनुसार, “प्रणाली” कई अंशों से मिलकर बनी एक समष्टि (Whole) कई लक्षणों का समूह है।” (“System is a whole which is compounded of many parts-an ensemble of attitudes.”)

आलमण्ड तथा पॉवेल (Almond and Powell) के अनुसार, “एक व्यवस्था से अभिप्राय भागों (Parts) की परस्पर निर्भरता और उसके तथा उसके वातावरण के बीच किसी प्रकार की सीमा से है।” (A system implies interdependence of parts of boundary of some kind between it and its environment.”)

विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं की विवेचना से स्पष्ट है कि व्यवस्था (System) एक पूर्ण इकाई होती है, जिसके कई भाग होते हैं और ये भाग एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। उदाहरणस्वरूप मानव शरीर एक व्यवस्था है। मानव शरीर के अनेक अंग हैं और ये सभी अंग अथवा भाग एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं तथा एक-दूसरे को और सम्पूर्ण मानव शरीर को भी प्रभावित करते हैं। ___ एक व्यवस्था के अन्दर कुछ आधारभूत विशेषताएं होती हैं जैसे कि एकता, नियमितता, सम्पूर्णता, संगठन, सम्बद्धता (Coherence), संयुक्तता (Connection) तथा अंशों अथवा भागों का अन्योन्याश्रय (Interdependence of parts)।

इस प्रकार राजनीतिक व्यवस्था उन अन्योन्याश्रित सम्बन्धों के समूह को कहा जा सकता है जिसके संचालन में सत्ता या शक्ति का भी हाथ है।

व्यवस्था में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं-

  • व्यवस्था भिन्न-भिन्न अंगों या हिस्सों के जोड़ों से बनती है।
  • व्यवस्था के भिन्न-भिन्न अंगों में परस्पर निर्भरता होती है।
  • व्यवस्था के अंगों में एक-दूसरे को प्रभावित करने की समर्थता होती है।
  • व्यवस्था की अपनी सीमाएं होती हैं।
  • व्यवस्था में उप-व्यवस्थाएं (Sub-System) भी पाई जाती हैं।
  • प्रत्येक व्यवस्था में सम्पूर्णता का गुण होता है।
  • प्रत्येक व्यवस्था में एक इकाई के रूप में कार्य करने की योग्यता होती है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

प्रश्न 2.
राजनीतिक प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें। (Describe the main characteristics of Political System.)
अथवा
आलमण्ड के अनुसार राजनीतिक प्रणाली की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the characteristics of Political System according to Almond.)
अथवा
राजनीतिक प्रणाली की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या करें। (Explain main characteristics of Political System.)
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था की विभिन्न परिभाषाओं से राजनीतिक व्यवस्था की विशेषताओं का पता चलता है। आलमण्ड के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं अग्रलिखित हैं-

1. मानवीय सम्बन्ध (Human Relations)–जिस प्रकार राज्य के लिए जनसंख्या का होना अनिवार्य है, उसी प्रकार राजनीतिक व्यवस्था के लिए मनुष्यों के परस्पर स्थायी सम्बन्धों का होना आवश्यक है। बिना मानवीय सम्बन्धों के राजनीतिक व्यवस्था नहीं हो सकती। परन्तु सभी प्रकार के मानवीय सम्बन्धों को राजनीतिक व्यवस्था का अंग नहीं माना जा सकता। केवल उन्हीं मानवीय सम्बन्धों को राजनीतिक व्यवस्था का अंग माना जाता है जो राजनीतिक व्यवस्था की कार्यशीलता को किसी-न-किसी तरह प्रभावित करते हों।

2. औचित्यपूर्ण शक्ति का प्रयोग (Use of Legitimate Force)-राजनीतिक व्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण शारीरिक दण्ड देने की शक्ति के प्रयोग करने के अधिकार के अस्तित्व को स्वीकार किया जाना है। इस गुण के आधार पर ही राजनीतिक व्यवस्था को अन्य व्यवस्थाओं से अलग किया जाता है। जिस प्रकार प्रभुसत्ता राज्य का अनिवार्य तत्त्व है और प्रभुसत्ता के बिना राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह औचित्यपूर्ण शारीरिक दबाव शक्ति (Legitimate Physical Coercive Power) के बिना राजनीतिक व्यवस्था का अस्तित्व सम्भव नहीं है। प्रत्येक समाज में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए तथा अपराधियों को दण्ड देने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है, परन्तु शक्ति का प्रयोग औचित्यपूर्ण होना चाहिए। औचित्यपूर्ण शक्ति के द्वारा ही राजनीतिक व्यवस्था के सभी कार्य चलते हैं।

3. व्यापकता (Comprehensiveness)-आलमण्ड के विचारानुसार, व्यापकता का अर्थ है कि राजनीतिक व्यवस्था में निवेश तथा निर्गत (Inputs and Outputs) की वे सभी प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं जो शक्ति के प्रयोग या शक्ति प्रयोग की धमकी को किसी भी रूप में प्रभावित करती हैं। अन्य शब्दों में आलमण्ड के मतानुसार राजनीतिक व्यवस्था में केवल संवैधानिक अथवा कानूनी ढांचों जैसे कि-विधानमण्डल, न्यायपालिका, नौकरशाही आदि को ही सम्मिलित नहीं किया जाता बल्कि इसमें अनौपचारिक (Informal) संस्थाओं जैसे कि राजनीतिक दल, दबाव समूह, निर्वाचक मण्डल आदि के साथ-साथ सभी प्रकार के राजनीतिक ढांचों के राजनीतिक पहलुओं को भी शामिल किया जाता है।

4. उप-व्यवस्थाओं का अस्तित्व (Existence of Sub-System)-राजनीतिक व्यवस्था में कई उप-व्यवस्थाएं भी पाई जाती हैं, जिनके सामूहिक रूप को राजनीतिक व्यवस्था कहा जाता है। इन उप-व्यवस्थाओं में परस्पर निर्भरता होती है तथा वे एक-दूसरे की कार्यविधि को प्रभावित करती हैं। जैसे-विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक दल, प्रशासनिक विभाग तथा दबाव समूह इत्यादि राजनीतिक व्यवस्था की उप-व्यवस्थाएं हैं। इन उप-व्यवस्थाओं की कार्यशीलता से राजनीतिक व्यवस्था की कार्यशीलता प्रभावित होती है।

5. अन्तक्रिया (Interaction)-राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों अथवा इकाइयों में अन्तक्रिया हमेशा चलती रहती है। राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों में व्यक्तिगत अथवा विभिन्न समूहों के रूप में सम्पर्क बना रहता है तथा वे एक-दूसरे को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इकाइयों में अन्तक्रिया न केवल निरन्तर होती है बल्कि बहुपक्षीय होती है।

6. अन्तर्निर्भरता (Interdependence) अन्तर्निर्भरता राजनीतिक व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण गुण है। आलमण्ड (Almond) के मतानुसार राजनीतिक व्यवस्था में अनेक उप-व्यवस्थाओं (Sub-systems) के राजनीतिक पहलू भी सम्मिलित हैं। उसके विचारानुसार राजनीतिक व्यवस्था की जब एक उप-व्यवस्था में परिवर्तन आता है तो इसका प्रभाव अन्य व्यवस्थाओं पर भी पड़ता है। उदाहरणस्वरूप आधुनिक युग में संचार के साधनों का बहुत विकास हुआ है। संचार के साधनों के विकास के साथ चुनाव विधि, चुनाव व्यवहार, राजनीतिक दलों की विशेषताओं, विधानमण्डल तथा कार्यपालिका की रचना तथा कार्यों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार श्रमिक वर्ग को मताधिकार देने में राजनीतिक दलों, दबाव समूहों, सरकारों के वैधानिक तथा कार्यपालिका अंगों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

7. सीमाओं की विद्यमानता (Existence of Boundaries)-सीमाओं की विद्यमानता राजनीतिक व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण गुण है। सीमाओं की विद्यमानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यवस्था किसी एक स्थान से शुरू होती है और किसी दूसरे स्थान पर समाप्त होती है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की कुछ सीमाएं होती हैं जो उसको अन्य व्यवस्थाओं से अलग करती हैं। राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं राज्य की तरह क्षेत्रीय सीमाएं नहीं होतीं। ये मानवीय सम्बन्धों तथा क्रियाओं की सीमाएं होती हैं। सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं की सीमाएं सदैव एक-जैसी अथवा निश्चित नहीं होतीं। प्राचीन तथा परम्परागत समाज में राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं इतनी स्पष्ट नहीं होती जितनी कि आधुनिक समाज में। जैसे-जैसे किसी व्यवस्था का आधुनिकीकरण तथा विकास होता है वैसे ही कार्यों के विशेषीकरण के कारण ये सीमाएं स्पष्ट होती जाती हैं। राजनीतिक व्यवस्था की सीमाओं में समयानुसार परिवर्तन आते रहते हैं। कई बार राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं किसी घटना के कारण बढ़ भी सकती हैं और कम भी हो सकती हैं।

8. खुली व्यवस्था (Open System)-राजनीतिक व्यवस्था एक खुली व्यवस्था होती है, “जिस कारण समय, वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। यदि राजनीतिक व्यवस्था बन्द व्यवस्था हो तो उस पर परिस्थितियों का प्रभाव ही न पड़े और ऐसी व्यवस्था में राजनीतिक व्यवस्था टूट सकती है।”

9. अनुकूलता (Adaptability)-राजनीतिक व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता अनुकूलता है। राजनीतिक व्यवस्था समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको परिवर्तित करने की विशेषता रखती है। उदाहरणस्वरूप भारत की राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप शान्ति के समय कुछ और होता है और संकटकाल में उसका स्वरूप बदल जाता है और संकटकाल समाप्त होने के बाद फिर परिवर्तित हो जाता है। वही राजनीतिक व्यवस्था स्थायी रह पाती है जो समय और परिस्थितियों के अनुसार बदल जाती है।

10. वातावरण (Environment) किसी भी व्यवस्था पर उसके वातावरण का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक तथा आवश्यक है। वातावरण से तात्पर्य है वे परिस्थितियां जो उसे चारों ओर से घेरे हुए हों। समाज के वातावरण या परिस्थितियों का राजनीतिक प्रणाली पर प्रभाव पड़ता है और उसे हम सामान्य रूप से राजनीतिक प्रणाली का वातावरण भी कह सकते हैं । व्यक्ति अपने समाज की आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रवृत्तियों से बचे रहते हैं और इस प्रकार उनका राजनीतिक प्रणाली पर प्रभाव पड़ता है। समाज में स्थित सभी समुदाय या संस्थाएं कभी-न-कभी, किसी-न-किसी रूप में राजनीतिक प्रणाली के वातावरण में रहती हैं और कभी-कभी यह उसका अंग भी बन जाती हैं। जैसे कि कोई मजदूर संघ वैसे तो राजनीतिक प्रणाली का वातावरण है, परन्तु जब वे सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते हैं या सरकार पर कोई कानून बनाने के लिए जोर देते हैं तो वे राजनीतिक प्रणाली का अंग भी बन जाते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

प्रश्न 3.
राजनीतिक प्रणाली के निकास कार्य लिखें। (Describe the output functions of Political System.)
अथवा
राजनीतिक प्रणाली के निवेश और निकास कार्यों का वर्णन करो।
(Write input and output functions of Political System.)
अथवा
राजनीतिक प्रणाली का अर्थ बताते हुए इसके निवेश कार्यों की व्याख्या करें।
(Describe the meaning of ‘Political System’ and also explain its ‘Input Functions’.)
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली की परिभाषा-इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।
राजनीतिक प्रणाली के कार्य-आलमण्ड ने राजनीतिक व्यवस्था के दो प्रकार के कार्यों का वर्णन किया हैनिवेश कार्य (Input Functions) तथा निर्गत कार्य (Output Functions)।

(क) निवेश कार्य (Input Functions)-निवेश कार्य गैर-सरकारी उप-प्रणालियों, समाज तथा सामान्य वातावरण द्वारा पूरे किए जाते हैं। जैसे-दल, दबाव समूह, समाचार-पत्र आदि।
आलमण्ड ने राजनीतिक व्यवस्था के चार निवेश कार्य बतलाए हैं – (1) राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती, (2) हित स्पष्टीकरण, (3) हित समूहीकरण, (4) राजनीतिक संचारण।

1. राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती (Political Socialisation and Recruitment) आरम्भ में बच्चे राजनीति से अनभिज्ञ होते हैं और उसमें रुचि भी नहीं लेते परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं उनके मन में भी धीरे-धीरे राजनीतिक वृत्तियां बैठती जाती हैं। वे राजनीति में भाग लेना आरम्भ करते हैं और अपनी भूमिका निभानी आरम्भ करते हैं। इसे ही राजनीतिक समाजीकरण कहते हैं।

आलमण्ड व पॉवेल के अनुसार, राजनीतिक समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा राजनीतिक संस्कृतियां (Political Cultures) स्थिर रखी जाती हैं अथवा उनको परिवर्तित किया जाता है। इस प्रकार के सम्पादन के माध्यम से पृथक्-पृथक् व्यक्तियों को राजनीतिक संस्कृति में प्रशिक्षित किया जाता है तथा राजनीतिक उद्देश्य की ओर उनके उन्मुखीकरण (Orientations) निर्धारित किए जाते हैं। राजनीति संस्कृति के ढांचे में परिवर्तन भी राजनीतिक समाजीकरण के माध्यम से आते हैं। अतः राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया का उपयोग, परिवर्तन लाने अथवा यथास्थिति बनाए रखने, दोनों ही के लिए हो सकता है। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। कभी बन्द नहीं होती। राजनीतिक दल, हितसमूह व दबाव-समूह आदि राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा अधिक-से-अधिक लोगों को अपनी मान्यताओं के प्रति जागरूक कर, लोगों को इनकी ओर आकर्षित करते हैं। लोकतन्त्रात्मक व्यवस्थाओं में राजनीतिक समाजीकरण का महत्त्व और भी अधिक होता है क्योंकि राजनीतिक दलों का सफल होना अथवा न होना इसी पर निर्भर करता है।

राजनीतिक व्यवस्था में समाजीकरण के साथ-साथ भर्ती का काम भी चलता रहता है। पुरानी भूमिकाएं बदलती रहती हैं और उनका स्थान नई भूमिकाएं लेती रहती हैं। पदाधिकारी बदल दिए जाते हैं, मर जाते हैं और उनका स्थान स्वाभाविक रूप से नए व्यक्ति ले लेते हैं। आलमण्ड व पॉवेल के अनुसार, “राजनीतिक भर्ती से अभिप्राय उस कार्य से है जिसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था की भूमिकाओं की पूर्ति की जाती है।” (“We use the term political recruitment to refer to the function by means of which the rolls of political system are filled.”) राजनीतिक भर्ती सामान्य आधार पर भी हो सकती है और विशिष्ट आधार पर भी। पदाधिकारियों का चुनाव जब योग्यता के आधार पर किया जाता है तो उसे सामान्य आधार पर ही हुई भर्ती कहा जाता है। जब कोई भर्ती किसी विशेष वर्ग या कबीले या दल से की जाती है तो विशिष्ट आधार पर हुई भर्ती कही जाती है।

2. हित स्पष्टीकरण (Interest Articulation) अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक प्रणाली के सदस्य अपनी प्रणाली की कुछ मांगें पेश किया करते हैं। जिस तरीके से इन मांगों को सही रूप प्रदान किया जाता है तथा जिस प्रकार से ये मांगें प्रणाली के निर्णयकर्ताओं को प्रस्तुत की जाती हैं उसे हित स्पष्टीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है। आलमण्ड व पॉवेल के अनुसार, पृथक्-पृथक् व्यक्तियों तथा समूहों द्वारा राजनीतिक निर्णयकर्ताओं से मांग करने की प्रक्रिया को हम हित स्पष्टीकरण कहते हैं।” (“The process by which individuals and groups make demands upon the political decision makers we call interest articulation.”) राजनीतिक व्यवस्था में जिन अधिकारियों के पास नीति निर्माण व निर्णय लेने का अधिकार होता है, उनके सामने विभिन्न व्यक्ति तथा समूह अपनी मांगें पेश करते हैं अर्थात् अपने हित का स्पष्टीकरण करते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में हित स्पष्टीकरण एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया होती है क्योंकि समाज के अन्तर्गत जब तक समूह या संघ अपने हित को स्पष्ट नहीं कर पाते, तब तक उनके हित की पूर्ति के लिए कानून या नीति निर्माण करना सम्भव नहीं। यदि समूह या संघ को अपने हित का स्पष्टीकरण करने का अवसर नहीं दिया जाता तो उसका परिणाम हिंसात्मक कार्यविधियां होता है। हित स्पष्टीकरण के कई साधन हैं। लिखित आवेदन-पत्रों, सुझावों, वक्तव्यों और कई बार प्रदर्शनियों द्वारा यह कार्य होता है। मजदूर संघ या छात्र संघ आदि हड़ताल भी करते हैं और कई बार हिंसात्मक तरीके भी अपनाते हैं। हित स्पष्टीकरण के समुचित एवं स्वस्थ साधन वर्तमान विशेषतः प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाओं की विशेषता होती है।

3. हित समूहीकरण (Interest Aggregration)-विभिन्न संघों के हितों की पूर्ति के लिए अलग-अलग कानून या नीति का निर्माण नहीं किया जा सकता। विभिन्न संघों या समूहों के हितों को इकट्ठा करके उनकी पूर्ति के लिए एक सामान्य नीति निर्धारित की जाती है। विभिन्न हितों को इकट्ठा करने की क्रिया को ही हित समूहीकरण कहा जाता है। आलमण्ड व पॉवेल के शब्दों में, “मांगों को सामान्य नीति स्थानापन्न (विकल्प) में परिवर्तित करने के प्रकार्य को हित समूहीकरण कहा जाता है।” (“The function of converting demands into general policy alternatives is called interest aggregation.”) यह प्रकार्य दो प्रकार से सम्पादित हो सकता है। प्रथम, विभिन्न हितों को संयुक्त और समायोजित करके तथा द्वितीय, एक देश नीति के प्रतिमान में निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों की राजनीतिक भर्ती द्वारा। यह प्रकार्य राजनीतिक व्यवस्था में नहीं बल्कि सभी कार्यों में पाया जाता है। मानव अपने विभिन्न हितों को इकट्ठा करके एक बात कहता है। हित-समूह अपने विभिन्न उपसमूहों या मांगों का समूहीकरण करके अपनी मांग रखते हैं। राजनीतिक दल विभिन्न समुदायों या संघों की मांगों को ध्यान में रखकर अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। इस प्रकार हित समूहीकरण राजनीतिक व्यवस्था में निरन्तर होता रहता है।

4. राजनीतिक संचार (Political Communication) राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संचार का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इसके द्वारा ही अन्य सभी कार्य सम्पादित होते हैं। सभी व्यक्ति चाहे वे नागरिक हों या अधिकारी वर्ग से सम्बन्धित हों, सूचना पर ही निर्भर रहते हैं और उनके अनुसार ही उनकी गतिविधियों का संचालन होता है। इसलिए प्रजातन्त्र में प्रेस तथा भाषण की स्वतन्त्रता पर जोर दिया जाता है जबकि साम्यवादी राज्यों एवं तानाशाही राज्यों में उन पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की जाती है। संचार के साधन निश्चय ही राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। संचार के बिना हित स्पष्टीकरण का काम हो ही नहीं सकता। आधुनिक प्रगतिशील समाज में संचार-व्यवस्था को जहां तक हो सका है, तटस्थ बनाने की कोशिश की गई है और इसकी स्वतन्त्रता एवं स्वायत्तता को स्वीकार कर लिया गया है।

लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में संचार-व्यवस्था बहुमुखी, शक्तिशाली, समाज एवं शासक वर्ग में तटस्थ, लोचशील और प्रसारात्मक होती है। आलमण्ड एवं पॉवेल (Almond and Powell) के शब्दों में, “विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं का परीक्षण करने के लिए, राजनीतिक संचार के निष्पादन (Performance) का विश्लेषण एवं तुलना अत्यन्त रुचिपूर्ण एवं उपयोगी माध्यम है।” (“The analysis and comparison of the performance of political communication is one of the most interesting and useful means of examining different political systems.”) तुलनात्मक अध्ययनों में राजनीतिक संचार पर चार दृष्टियों से विचार किया जाता है-सूचनाओं में समरसता (Homogeneity), गतिशीलता (Mobility), मात्रा (Volume) तथा दिशा (Direction)

(ख) निर्गत कार्य (Output Functions)–राजनीतिक व्यवस्था के निर्गत कार्य शासकीय क्रिया-कलापों में काफ़ी समानता रखते हैं। यद्यपि आलमण्ड ने स्वयं स्वीकार किया है कि निर्गत कार्य परम्परागत सक्ति पृथक्करण सिद्धान्त में वर्णित सरकारी अंगों के कार्यों से काफ़ी मिलते-जुलते हैं। फिर भी उसने इनको सरकारी कार्य-कलापों के स्थान पर निर्गत कार्य ही कहना अधिक उपयुक्त समझा है। डेविस व लीविस (Davis and Lewis) के शब्दों में, “इसका उद्देश्य संस्थाओं के विवरण पर अधिक बल देने के विचार को परिवर्तित करता है क्योंकि विभिन्न देशों में एक ही प्रकार की संस्थाओं के अलग-अलग प्रकार्य हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसके पीछे इन संस्थाओं द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्य-कलापों की व्याख्या करने के लिए प्रकार्यात्मक अवधारणाओं का एक सैट प्रस्तुत करने की भावना भी उपस्थित है।”

जिस प्रकार सरकार के मुख्य कार्य तीन हैं-कानून-निर्माण, कानूनों को लागू करना और विवादों को निपटाना है, उसी प्रकार निर्गत कार्य तीन हैं
(1) नियम बनाना। (2) नियम लागू करना। (3) नियम निर्णयन कार्य।

1. नियम बनाना (Rule Making)-समाज में व्यक्तियों के रहने के लिए आवश्यक है कि उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करने के लिए नियम होने चाहिएं। राजनीतिक व्यवस्था में नियम बनाने का कार्य मुख्यतः व्यवस्थापिकाओं तथा उप-व्यवस्थापन अभिकरणों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में इस कार्य को किया जाता है। आलमण्ड के विचारानुसार, ‘विधायन’ (Legislation) शब्द के स्थान पर ‘नियम निर्माण’ शब्द का प्रयोग उचित है क्योंकि ‘विधायन’ शब्द से कुछ विशेष संरचना तथा निश्चित प्रक्रिया का बोध होता है जबकि अनेक राजनीतिक व्यवस्थाओं में नियम निर्माण कार्य एक उलझी हुई (Diffuse) प्रक्रिया है जिसे सुलझाना तथा उसका विवरण देना कठिन होता है।

विधायन का काम औपचारिक तौर पर स्थापित संरचनाएं ही किया करती हैं जिन्हें संसद् अथवा कांग्रेस अथवा विधानपालिका कहा जाता है और जो सुनिश्चित एवं औपचारिक प्रक्रियाओं द्वारा ही काम करती हैं। परन्तु कुछ ऐसी राजनीतिक व्यवस्थाएं भी होती हैं जिनमें ऐसी औपचारिक संरचनाएं अथवा ऐसी औपचारिक प्रक्रियाएं होती ही नहीं। इस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था में नियम निर्धारण का कार्य एक अलग ढंग से किया जाता है। आधुनिक लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में नियम निर्धारण का कार्य प्रायः कई जगहों पर कई पात्रों द्वारा किया जाता है। एल० ए० हठ ने नियमों के ऐसे प्रकारों का वर्णन किया है-प्राथमिक तथा अनुपूरक। प्रारम्भिक समाज में कुछ ऐसे प्राथमिक नियम थे जो व्यक्तियों के यौन सम्बन्धों, बल प्रयोग, आज्ञा पालन आदि के कामों को नियमित करते थे। ये नियम अटल थे और इनको बदला नहीं जा सकता था।

ऐसे नियमों को लागू करने के लिए तथा उनके उल्लंघन किए जाने पर दण्ड के नियम बनाए गए जिन्हें अनुपूरक नियम कहते हैं। यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो संविधान भी अनुपूरक नियमों का समूह है, प्राथमिक नियमों का नहीं। आलमण्ड एवं पॉवेल के मतानुसार, संविधानवाद की यह मान्यता है, “नियमों का निर्माण निश्चित प्रकार की सीमाओं के अन्तर्गत विशिष्ट संस्थाओं द्वारा निश्चित विधियों से होना चाहिए।” (“Rule must be made in certain ways and by specific institutions and within certain kinds of limitations.”)

2. नियम लागू करना (Rule Application)-राजनीतिक व्यवस्था का कार्य केवल नियम बनाना ही नहीं है, बल्कि उन नियमों को लागू करना भी है। नियमों को यदि सही ढंग से लागू नहीं किया जाता तो नियम बनाने का लक्ष्य ही समाप्त हो जाता है और उचित परिणामों की उम्मीद नहीं की जा सकती। राजनीतिक व्यवस्था में नियमों को लागू करने की ज़िम्मेदारी पूर्णतः सरकारी कर्मचारियों या नौकरशाही की होती है। यहां तक कि न्यायालयों के निर्णय भी कर्मचारी वर्ग द्वारा लागू किए जाते हैं। कभी-कभी नियम निर्माण करने वाली संरचनाओं द्वारा भी यह कार्य किया जाता है, परन्तु विकसित राजनीतिक व्यवस्थाओं के नियम प्रयुक्त संरचनाएं नियम निर्माण करने वाली संरचनाओं से पृथक् होती हैं।

3. नियम निर्णयन कार्य (Rule Adjudication)—समाज में जब कोई नियम बनाया जाता है, उसके उल्लंघन की भी सम्भावना सदैव बनी रहती है। अत: यह आवश्यक हैं-जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता है उसे दण्ड अवश्य मिलना चाहिए। इसलिए नियमों में ही उसकी अवहेलना करने पर दण्ड देने का प्रावधान रहता है, परन्तु यह निर्णय करना पड़ता है कि नियमों को वास्तव में ही भंग किया गया है अथवा नहीं और अगर नियम भंग हुआ है तो किस सीमा तक तथा उसे कितना दण्ड दिया जाना चाहिए ? इसके अतिरिक्त कई बार नियमों के अर्थ पर विवाद उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में नियमों के अर्थ को भी स्पष्ट करना पड़ता है। प्रायः सभी आधुनिक लोकतन्त्रात्मक राज्यों में यह कार्य न्यायालयों द्वारा किए जाते हैं, परन्तु सर्वसत्तावादी (Totalitarian) प्रणालियों में गुप्त पुलिस केवल लोगों पर निगरानी रखने एवं उन पर दोषारोपण करने का ही काम नहीं करती बल्कि वह तो उन पर चलाया गया मुकद्दमा भी सुनती हैं और उन्हें सज़ा सुना कर स्वयं सजा को लागू भी करती है। व्यवस्था (System) को बनाए रखने के लिए नियम निर्णयन का कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। अतः एक अच्छी राजनीतिक व्यवस्था में न्यायालयों को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र रखा जाता है ताकि न्यायाधीशों का निष्पक्षता को कायम रखा जा सके और नागरिकों का विश्वास बना रहे।

निष्कर्ष (Conclusion) उपर्युक्त कार्य प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को अवश्य करने पड़ते हैं। इन कार्यों के अतिरिक्त प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था को विशेष परिस्थितियों में अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशेष कार्य करने पड़ते हैं। सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के कार्य समान नहीं होते क्योंकि देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने देश की परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार नीतियों का निर्माण करना पड़ता है और उनके अनुसार कार्य करने पड़ते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

प्रश्न 4.
निवेश-निकास प्रक्रिया के रूप में डेविड ईस्टन के राजनीतिक प्रणाली के मॉडल (रूप) की व्याख्या कीजिए।
(Explain David Easton’s model of Political system as input and output Process.)
अथवा
डेविड ईस्टन के विचारानुसार राजनीतिक प्रणाली के कार्यों की व्याख्या करो।
(Discuss the functions of Political System according to David Easton.)
अथवा
डेविड ईस्टन के अनुसार राजनीतिक प्रणाली के कार्यों का वर्णन कीजिए। (Discuss the functions of Political System with reference to the views of David Easton.)
उत्तर-
डेविड ईस्टन ने 1953 में ‘राजनीतिक प्रणाली’ (Political System) नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी। उस पुस्तक में डेविड ईस्टन ने राजनीतिक प्रणाली की धारणा की विवेचना की थी। डेविड ईस्टन ने राजनीतिक प्रणाली को निवेशों (Inputs) को निकासों (Outputs) में बदलने की प्रक्रिया बताया है।

निवेश क्या हैं? (What are Inputs ?)-डेविड ईस्टन ने एक विशेष रूप में विचार अभिव्यक्त किया है। उसके मतानुसार, “निवेश उस कच्चे माल के समान है जो राजनीतिक प्रणाली नामक मशीन में पाये जाते हैं।” जिस तरह किसी मशीन में कच्चे माल के बिना कोई तैयार माल अथवा वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती है, उसी तरह निवेश रूपी कच्चा माल राजनीतिक प्रणाली रूपी मशीन में डालने के बिना राजनीतिक प्रणाली कोई सत्ताधारी निर्णय नहीं ले सकती है। ऐसे सत्ताधारी निर्णयों को डेविड ईस्टन ने निकास (Outputs) का नाम दिया है। निवेशों के दो रूप (Two Types of Inputs)-डेविड ईस्टन के अनुसार, निवेश दो प्रकार के होते हैं

(क) मांगों के रूप में निवेश (Inputs in the form of demands)-जब लोग राजनीतिक प्रणाली से कुछ मांगों की पूर्ति की मांग करते हैं तो मांगों के रूप में निवेश होते हैं। डेविड ईस्टन ने मांगों के रूप में निवेशों को चार प्रकार का माना है

1. वस्तुओं तथा सेवाओं के विभाजन के लिये मांगें (Demands for the allocation of goods and services)-व्यक्ति सरकार से उचित वेतन, कार्य करने के लिये निश्चित समय, शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएं, यातायात के साधन, स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं इत्यादि की मांग करते हैं। इनको डेविड ईस्टन ने वस्तुओं तथा सेवाओं को व्यवस्था की मांगें कहा है।

2. व्यवहार को नियमित करने के लिए मांगें (Demands for regulation of behaviour)—व्यक्ति राजनीतिक प्रणाली से सार्वजनिक सुरक्षा, सामाजिक व्यवहार सम्बन्धी नियमों के निर्माण आदि की मांगें करते हैं। कुशल और नियमित सामाजिक जीवन के लिये ऐसी मांगें प्रायः की जाती हैं।

3. राजीतिक प्रणाली में भाग लेने सम्बन्धी मांगें (Demands regarding participation in the political System)-लोग मांग करते हैं कि उनको मताधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार, राजनीतिक संगठन बनाने का अधिकार इत्यादि दिये जाएं। ये ऐसी मांगें हैं जिनके फलस्वरूप लोग राजनीतिक प्रणाली के कार्यों में भाग ले सकते हैं।

4. संचार तथा सूचना प्राप्त करने सम्बन्धी मांगें (Demands for Communication and Information)लोग राजनीतिक प्रणाली का संचार करने वाले विशिष्ट वर्ग से नीति निर्माण सम्बन्धी सूचनाएं प्राप्त करने, सिद्धान्त अथवा नियम निश्चित करने, संकट अथवा औपचारिक अवसरों पर राजनीतिक प्रणाली द्वारा शक्ति के दिखावे इत्यादि के लिये मांगें करते हैं। इन मांगों को डेविड ईस्टन ने संचार तथा सूचना प्राप्त करने सम्बन्धी मांगों का नाम दिया है।

(ख) समर्थन के रूप में निवेश (Inputs in the form of Support)-उपर्युक्त चार प्रकार के निवेश मांगों के रूप में हैं। ये ऐसे कच्चे माल के समान हैं जो राजनीतिक प्रणाली रूपी मशीन में पाया जाता है। कोई भी मशीन उस समय तक कार्य नहीं कर सकती जब तक उसको विद्युत् अथवा तेल अथवा किसी अन्य साधन द्वारा शक्ति न दी जाए। इसी तरह डेविड ईस्टन ने निवेशों के दूसरे रूप को समर्थन निवेश (Support Inputs) का नाम दिया है। ऐसे समर्थन
निवेशों के बिना राजनीतिक प्रणाली कार्य नहीं कर सकती है क्योंकि ये समर्थन निवेश ही राजनीतिक प्रणाली को ऐसी शक्ति देते हैं जिसके बल से राजनीतिक प्रणाली निवेश मांगों (Demand Inputs) सम्बन्धी योग्य कार्यवाही कर सकती है।

निकास क्या होते हैं? (What are Outputs ?) डेविड ईस्टन ने निकासों (Outputs) का बड़ा सरल अर्थ बताया है। लोगों द्वारा निवेशों के रूप में सरकार के पास कुछ मांगें पेश की जाती हैं। राजनीतिक प्रणाली अपने साधन तथा सामर्थ्य के अनुसार उन मांगों सम्बन्धी निर्णय लेती है। इन निर्णयों को डेविड ईस्टन ने निकास (Outputs) बताया है। निकास अनेक प्रकार के हो सकते हैं। जब सरकार मानवीय व्यवहार को नियमित करने के लिये कोई कानूनी निर्णय लेती है उनको भी निकास कहा जाता है। जब सरकार सार्वजनिक सेवाएं अथवा पदों की व्यवस्था करती है उसके ऐसे निर्णय भी निकास कहलाते हैं। संक्षेप में, राजनीतिक प्रणाली के सत्ताधारी निर्णयों को निकास (Outputs) का नाम दिया जाता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

प्रश्न 5.
राज्य और राजनीतिक प्रणाली में मुख्य अन्तरों का वर्णन करो।
(Write main differences between State and Political System.)
अथवा
राज्य तथा राजनीतिक प्रणाली में अंतर बताओ।
(Make a distinction between State and Political System.)
उत्तर-
प्राचीनकाल में राज्य को राजनीतिशास्त्र का मुख्य विषय माना जाता था। गार्नर की भान्ति ब्लंटशली (Bluntschli), गैटेल (Gettell), गैरिस (Garies), गिलक्राइस्ट (Gilchrist), लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) इत्यादि विद्वानों ने राज्य को ही राजनीतिशास्त्र का केन्द्र-बिन्दु माना। परन्तु आधुनिक विद्वान् इस परम्परागत विचार से सहमत नहीं होते। वे राज्य की अपेक्षा राजनीतिक व्यवस्था को आधुनिक राजनीति अथवा राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय मानते हैं। आधुनिक विद्वानों का विचार है कि राजनीति शास्त्र के क्षेत्र को राज्य तक ही सीमित करना उसकी व्यावहारिकता को बिल्कुल नष्ट करने वाली बात है। इन विद्वानों में आलमण्ड तथा पॉवेल, चार्ल्स मेरियम (Charles Meriam), हैरल्ड लॉसवैल (Harold Lasswell), डेविड ईस्टन (David Easton), स्टीफन एल० वास्बी (Stephen L. Wasbi) इत्यादि के नाम मुख्य हैं। राज्य और राजनीतिक व्यवस्था में अन्तर पाए जाते हैं, परन्तु दोनों में अन्तर करने से पहले राज्य और राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ स्पष्ट करना अति आवश्यक है।

राज्य का अर्थ (Meaning of State)-प्रो० गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में एक सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की प्रभुसत्ता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतन्त्र होती है।” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार तथा प्रभुसत्ता राज्य के चार मूल तत्त्व हैं जिनके बिना राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। यदि इन चार तत्त्वों में से कोई भी तत्त्व विद्यमान नहीं है तो राज्य की स्थापना नहीं हो सकती।

राजनीतिक व्यवस्था का अर्थ (Meaning of Political System)-राजनीतिक व्यवस्था में सरकार की संस्थाओं के अतिरिक्त वे सभी औपचारिक अथवा अनौपचारिक संस्थाएं अथवा समूह अथवां संगठन सम्मिलित हैं जो किसीन-किसी तरह राजनीतिक जीवन को प्रभावित करते हैं। राजनीतिक व्यवस्था का सम्बन्ध केवल कानून बनाने और लागू करने से ही नहीं बल्कि वास्तविक रूप में बल प्रयोग द्वारा उनका पालन करवाने से भी है।

राज्य और राजनीतिक व्यवस्था में अन्तर (Difference between State and Political System)-राज्य और राजनीतिक व्यवस्था में मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं-

1. राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं जबकि राजनीतिक व्यवस्था के अनेक तत्त्व हैं (State has four essential elements whereas political system has many elements)-राज्य तथा राजनीतिक व्यवस्था में मुख्य अन्तर यह है कि राज्य के अनिवार्य तत्त्व चार हैं जबकि राजनीतिक व्यवस्था के तत्त्व अनेक हैं। जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार तथा प्रभुसत्ता-राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं। इनमें से यदि एक तत्त्व भी न हो तो राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परन्तु राजनीतिक व्यवस्था के निश्चित तत्त्व होते हैं जैसे कि इसमें राजनीतिक प्रभावों की खोज, वैधता की प्राप्ति, परिवर्तनशीलता, अन्य विषयों तथा अन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं का प्रभाव तथा प्रतिक्रियाओं का अध्ययन इत्यादि सम्मिलित होता है।

2. राज्य कानूनी तथा संस्थात्मक ढांचे से सम्बन्धित होता है जबकि राजनीतिक व्यवस्था प्रक्रियाओं से सम्बन्धित होती है (State deals with legal and Institutional structure but political system deals with the processes)-राज्य का सम्बन्ध कानूनी तथा संस्थात्मक ढांचे से होता है जबकि राजनीतिक व्यवस्था का सम्बन्ध प्रक्रियाओं (Processes) से होता है। कई लेखकों ने प्रक्रियाओं से सम्बन्धित मॉडल (Models) पेश किए जिनका सम्बन्ध राजनीतिक व्यवस्था से है।

3. राजनीतिक व्यवस्था का क्षेत्र राज्य के क्षेत्र से अधिक व्यापक है (Scope of Political System is broader than the Scope of State)-राजनीतिक व्यवस्था का क्षेत्र राज्य के क्षेत्र से कहीं अधिक विशाल है। राज्य का मुख्य सम्बन्ध औपचारिक संस्थाओं से होता है जबकि राजनीति व्यवस्था में समाज में होने वाली प्रत्येक राजनीतिक प्रक्रिया, औपचारिक और अनौपचारिक भी शामिल की जाती हैं। राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं व्यावहारिक (Practical) तथा नीति (Policy) विज्ञान पर आधारित होने के कारण बड़ी विस्तृत होती हैं।

4. राज्य की मुख्य विशेषता प्रभुसत्ता है जबकि राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य गुण वैध शारीरिक शक्ति है (Sovereignty is the main feature of State while legitimate Physical coercive force is the main feature of Political System)-आन्तरिक तथा बाहरी प्रभुसत्ता राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है अर्थात् राज्य सर्वशक्तिमान् होता है और सभी नागरिकों तथा संस्थाओं को राज्य के आदेशों का पालन करना पड़ता है। परन्तु राजनीतिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता की धारणा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। आधुनिक राजनीतिक विद्वान् इस बात को नहीं मानते कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था आन्तरिक और बाहरी प्रभावों से बिल्कुल स्वतन्त्र होती है। आधुनिक वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक व्यवस्था आन्तरिक-समाज (Intra-Societal) और बाह्य-समाज (Extra-Societal) के वातावरण से अवश्य प्रभावित होती है। इसके साथ ही आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय युग में बाहरी प्रभुसत्ता का महत्त्व बहुत कम रह गया है। प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था पर दूसरे देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता है। आधुनिक राजनीतिक वैज्ञानिक आन्तरिक प्रभुसत्ता की धारणा के स्थान पर वैध शारीरिक दण्ड देने की शक्ति (Legitimate Physical Coercive Force) शब्द का प्रयोग करते हैं अर्थात् उनके कथनानुसार राजनीतिक व्यवस्था के पास वैध शारीरिक दण्ड देने की शक्ति है।

5. राज्य एक परम्परागत धारणा है जबकि राजनीतिक व्यवस्था एक आधुनिक धारणा है (State is a traditional concept while Political System is a modern one)-राज्य एक परम्परागत धारणा है और परम्परागत राजनीति में प्रायः राज्य, राष्ट्र, सरकार, संविधान, कानून, प्रभुसत्ता और धारणाओं का इस्तेमाल होता रहा है। परन्तु आजकल राज्य शब्द तथा इसके साथ सम्बन्धित धारणाओं का प्रयोग बहुत घट गया है। आधुनिक युग में यदि कोई विद्वान् राजनीतिक व्यवस्था के स्थान पर राज्य शब्द का प्रयोग करता है तो उसे परम्परावादी कहा जाता है।

6. राजनीतिक व्यवस्था में आत्म-निर्भर अंगों का अस्तित्व होता है जबकि राज्य की धारणा में ऐसी कोई विशेषता नहीं है (Political system implies the existence of interdependent parts while the concept of State is devoid of such Character)-सरकार की संस्थाएं अर्थात् विधानमण्डल, न्यायपालिका, कार्यपालिका, राजनीतिक दल, हित समूह, संचार के साधन इत्यादि राजनीतिक व्यवस्था के भाग माने जाते हैं। जब किसी एक भाग में किसी कारण से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होता है तो उसका प्रभाव राजनीतिक व्यवस्था के अन्य भागों पर भी पड़ता है तथा सम्पूर्ण व्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ता है। परन्तु राज्य की धारणा में ऐसी कोई विशेषता नहीं पाई जाती।।

7. राज्य की क्षेत्रीय सीमाएं निश्चित होती हैं जबकि राजनीतिक व्यवस्था को क्षेत्रीय सीमाओं में नहीं बांधा GT HOAT (Boundaries of State are fixed whereas it is not possible to restrict the boundaries of Political System)-राज्य की क्षेत्रीय सीमाएं होती है। किसी भी राज्य के बारे में यह पता लगाया जा सकता है कि उसकी सीमाएं कहां से शुरू होती हैं और कहां समाप्त होती हैं। परन्तु राजनीतिक व्यवस्थाओं को क्षेत्रीय सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएं उसकी क्रियाओं की सीमाएं होती हैं। ये सीमाएं बदलती रहती हैं।

8. राज्य एक से होते हैं, राजनीतिक व्यवस्थाओं का स्वरूप विभिन्न प्रकार का होता है (States are the same everywhere, but political systems are Different)-सभी राज्य एक से होते हैं। वे छोटे हों या बड़े, उनमें चार तत्त्वों का होना अनिवार्य है-जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार तथा प्रभुसत्ता। भारत, इंग्लैण्ड, जापान, चीन, श्रीलंका, बर्मा (म्यनमार), रूस आदि सभी राज्यों में ये चार तत्त्व पाए जाते हैं। परन्तु राजनीतिक व्यवस्थाओं का स्वरूप विभिन्न राज्यों में विभिन्न होता है।

9. राज्य स्थायी है, राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तनशील (State is permanent while Political System is Dynamic)-राज्य स्थायी है जबकि राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तनशील है। राज्य का अन्त तब होता है जब उससे प्रभुसत्ता छीन ली जाती है। फिर प्रभुसत्ता मिलने पर दोबारा राज्य की स्थापना हो जाती है, परन्तु राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तनशील होती है। समय तथा परिस्थितियों के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था बदलती रहती है।

10. राजनीतिक व्यवस्था में निवेशों को निर्गतों में परिवर्तित करने की क्रिया का विशिष्ट स्थान है, परन्तु राज्य की धारणा कुछ विशेष कार्यों से सम्बन्धित है (The concept of political system involves the process of conversion of inputs into outputs, while the concept of state deals with some specific functions)—निवेशों (Inputs) को निर्गतों (Output) में परिवर्तन करने की क्रिया राजनीतिक व्यवस्था की एक . महत्त्वपूर्ण विशेषता है। निवेशों और निर्गतों में परिवर्तन की प्रक्रिया राजनीतिक व्यवस्था में निरन्तर चलती रहती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजनीतिक व्यवस्था को नियम बनाने का कार्य (Rule Making Functions), नियम लागू करने (Rule application) तथा नियमों के अनुसार निर्णय करने से सम्बन्धित कार्य (Rule adjudication functions) भी करने पड़ते हैं। परन्तु राज्य को कुछ विशेष प्रकार के कार्य ही करने पड़ते हैं। राजनीतिक विद्वानों ने राज्य के कार्यों को अनिवार्य कार्य (Compulsory functions) और ऐच्छिक कार्यों (Optional functional) में बांटा है। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक क्षेत्र और सामाजिक जीवन के कुछ पक्ष राज्य के अधिकार क्षेत्र से पृथक् माने जाते हैं। परन्तु जीवन के किसी पहलू को राजनीतिक व्यवस्था से अलग नहीं माना जा सकता यदि किसी भी रूप में उसका कोई पक्ष या कार्य राजनीति से सम्बन्धित हो।

11. राजनीतिक व्यवस्था राज्य की अपेक्षा अधिक विश्लेषणात्मक धारणा है (Concept of Political System is more analytical than State)-राज्य के वर्णनात्मक विचार हैं। इसकी व्याख्या की जा सकती है, परन्तु इसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। परन्तु राज्य के विपरीत राजनीतिक व्यवस्था एक विश्लेषणात्मक धारणा है। इसका अस्तित्व व्यक्तियों के मन में होता है। यह वास्तविक जीवन में प्राप्त होने वाली चीज़ नहीं है।

12. राजनीतिक व्यवस्था राज्य की अपेक्षा अधिक एकता तथा सामंजस्य लाने का साधन है (Political system is a better means of bringing integration and adoption than the State)-राज्य और राजनीतिक व्यवस्था में एक अन्य अन्तर यह है कि राजनीतिक व्यवस्था राज्य की अपेक्षा अधिक सामंजस्य उत्पन्न करती है। आलमण्ड तथा पॉवेल (Almond and Powell) के अनुसार, “राजनीतिक व्यवस्था स्वतन्त्र राज्यों में एकीकरण
और सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए एक साधन है।”

13. राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक समाजीकरण तथा राजनीतिक संस्कृति का विशेष महत्त्व है, राज्य के लिए नहीं (Political Socialisation and Political culture have special importance in Political System, not for the State)राजनीतिक व्यवस्था की धारणा में राजनीतिक समाजीकरण और राजनीतिक संस्कृति की धारणाओं को विशेष महत्त्व दिया जाता है क्योंकि राजनीतिक समाजीकरण और राजनीतिक संस्कृति की क्रियाएं राजनीतिक व्यवस्था को निरन्तर प्रभावित करती रहती हैं और इसलिए राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन होते रहते हैं। परन्तु राज्य की धारणा में राजनीतिक समाजीकरण और राजनीतिक संस्कृति को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता।
निष्कर्ष (Conclusion)-अन्त में हम यह कह सकते हैं कि राज्य एक परम्परागत धारणो है जबकि राजनीतिक व्यवस्था आधुनिक धारणा है और राजनीतिक व्यवस्था का क्षेत्र राज्य के क्षेत्र से बहुत अधिक व्यापक है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक तथा प्रणाली शब्दों के अर्थों की व्याख्या करें।
अथवा
राजनीतिक (पोलिटिकल) शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली शब्द के दो भाग हैं-राजनीतिक तथा प्रणाली।
राजनीतिक शब्द का अर्थ-राजनीतिक शब्द सत्ता अथवा शक्ति का सूचक है। किसी भी समुदाय या संघ को राजनीतिक उस समय कहा जा सकता है जबकि उसकी आज्ञा का पालन प्रशासकीय कर्मचारी वर्ग द्वारा शारीरिक बल प्रयोग के भय से करवाया जाता है। अरस्तु ने राजनीतिक समुदाय को ‘अत्यधिक प्रभुत्व-सम्पन्न तथा अन्तर्भावी संगठन’ (The most sovereign and inclusive association) परिभाषित किया है। अरस्तु के मतानुसार राजनीतिक समुदाय के पास सर्वोच्च शक्ति होती है जो इसको अन्य समुदायों से अलग करती है। आल्मण्ड तथा पॉवेल ने राजनीतिक समुदाय की इस शक्ति को कानूनी शारीरिक बलात् शक्ति (Legitimate Physical Coercive Power) का नाम दिया है।

व्यवस्था या प्रणाली-प्रणाली शब्द का प्रयोग अन्तक्रियाओं के समूह का संकेत करने के लिए किया जाता है। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार, “प्रणाली एक पूर्ण समाप्ति है, सम्बद्ध वस्तुओं अथवा अंशों का समूह है, भौतिक या अभौतिक वस्तुओं का संगठित समूह है। आल्मण्ड तथा पॉवेल के अनुसार, “एक ब्यवस्था से अभिप्राय भागों की परस्पर निर्भरता और उसके तथा उसके वातावरण के बीच किसी प्रकार की सीमा से है।” एक प्रणाली के अन्दर कुछ आधारभूत विशेषताएं होती हैं जैसे कि एकता, नियमितता, सम्पूर्णता, संगठन, सम्बद्धता (Coherence), संयुक्तता (Connection) तथा अंशों अथवा भागों की पारस्परिक निर्भरता।

प्रश्न 2.
राजनीतिक प्रणाली का अर्थ लिखिए।
अथवा
राजनीतिक प्रणाली से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली में सरकारी संस्थाओं जैसे विधानमण्डल, न्यायालय, प्रशासकीय एजेन्सियां ही सम्मिलित नहीं होती बल्कि इनके अतिरिक्त सभी पारस्परिक ढांचे जैसे रक्त सम्बन्ध,जातीय समूह, अव्यवस्थित घटनाएं जैसे प्रदर्शन, लड़ाई-झगड़े, हत्याएं, डकैतियां, औपचारिक राजनीतिक संगठन आदि राजनीतिक पहलुओं सहित सभी सम्मिलित हैं। इस प्रकार राजनीतिक प्रणाली का सम्बन्ध उन सब बातों, क्रियाओं, संस्थाओं से है जो किसी-न-किसी प्रकार से राजनीतिक जीवन को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक प्रणाली का सम्बन्ध केवल कानून बनाने और लागू करने से ही नहीं बल्कि वास्तविक रूप से बल प्रयोग द्वारा उनका पालन करवाने से भी है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक व्यवस्था

प्रश्न 3.
राजनीतिक प्रणाली की परिभाषाएं दीजिए।
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषाएं अलग-अलग राजनीति-शास्त्रियों ने अलग-अलग ढंग से दी हैं, फिर भी एक बात पर इन विद्वानों का एक मत है कि राजनीतिक व्यवस्था का सम्बन्ध न्यायसंगत शारीरिक दमन के प्रयोगों के साथ जुड़ा हुआ है। राजनीतिक व्यवस्था की इन सभी परिभाषाओं में न्यायपूर्ण प्रतिबन्धों, दण्ड देने की अधिकारपूर्ण शक्ति लागू करने की शक्ति और बाध्य करने की शक्ति आदि शामिल है।

  • डेविड ईस्टन का कहना है, “राजनीतिक व्यवस्था अन्तक्रियाओं का समूह है जिसे सामाजिक व्यवहार की समग्रता में से निकाला गया है तथा जिसके द्वारा समाज के लिए सत्तात्मक मूल्य निर्धारित किए जाते हैं।”
  • आल्मण्ड तथा पॉवेल का कथन है, “जब हम राजनीतिक व्यवस्था की बात कहते हैं तो हम इसमें उन समस्त अन्तक्रियाओं को शामिल कर लेते हैं, जो वैध बल प्रयोग को प्रभावित करती हैं।”
  • रॉबर्ट डाहल के अनुसार, “राजनीतिक व्यवस्था मानवीय सम्बन्धों का वह दृढ़ मान है जिसमें पर्याप्त मात्रा में शक्ति, शासन या सत्ता सम्मिलित हो।”
  • लॉसवेल और कॉप्लान के अनुसार, “राजनीतिक व्यवस्था गम्भीर वंचना है जो राजनीतिक व्यवस्था को अन्य व्यवस्थाओं से अलग करती है।”

प्रश्न 4.
राजनीतिक प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • मानवीय सम्बन्ध-राजनीतिक व्यवस्था के लिए मनुष्य के परस्पर सम्बन्ध का होना आवश्यक है, परन्तु सभी प्रकार के मानवीय सम्बन्धों को राजनीतिक व्यवस्था का अंग नहीं माना जा सकता। केवल उन्हीं मानवीय सम्बन्धों को राजनीतिक व्यवस्था का अंग माना जाता हैं जो राजनीतिक व्यवस्था की कार्यशीलता को किसी-न-किसी तरह प्रभावित करते हों।
  • औचित्यपूर्ण शक्ति का प्रयोग-औचित्यपूर्ण शारीरिक दबाव शक्ति के बिना राजनीतिक व्यवस्था का अस्तित्व सम्भव नहीं है। औचित्यपूर्ण शक्ति के द्वारा ही राजनीतिक व्यवस्था के सभी कार्य चलते हैं।
  • अन्तक्रिया-राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों अथवा इकाइयों में अन्तक्रिया हमेशा चलती रहती है। राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों में व्यक्तिगत अथवा विभिन्न समूहों के रूप में सम्पर्क बना रहता है तथा वे एक-दूसरे को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। इकाइयों में अन्तक्रिया न केवल निरन्तर होती है, बल्कि बहपक्षीय होती है।
  • सर्व-व्यापकता-सर्व-व्यापकता का भाव यह है कि विश्व में कोई ऐसा समाज नहीं होगा जहां राजनीतिक प्रणाली का अस्तित्व न हो। सांस्कृतिक एवं असांस्कृतिक समाजों में भी राजनीतिक प्रणाली का अस्तित्व अवश्य होता है। यह ठीक है कि हर समाज में राजनीतिक प्रणाली का स्वरूप एक समान नहीं होता, परन्तु राजनीतिक प्रणाली का स्वरूप प्रत्येक समाज में अवश्य होता है।

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प्रश्न 5.
राज्य और राजनीतिक प्रणाली में चार मुख्य अन्तर लिखो। .
अथवा
राज्य व राजनैतिक प्रणाली में कोई चार अंतर बताइए।
उत्तर-
राज्य और राजनीतिक व्यवस्था में मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं-

  • राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं जबकि राजनीतिक व्यवस्था के अनेक तत्त्व हैं। जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार तथा प्रभुसत्ता राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं। इनमें से यदि एक तत्त्व भी न हो, तो राज्य की स्थापना नहीं की जा सकती है, परन्तु राजनीतिक व्यवस्था के निश्चित तत्त्व न होकर अनेक तत्त्व होते हैं।
  • राज्य की मुख्य विशेषता प्रभुसत्ता है जबकि राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य गुण वैध शारीरिक शक्ति है। आन्तरिक तथा बाहरी प्रभुसत्ता राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, परन्तु राजनीतिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता की धारणा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। आधुनिक राजनीतिक विद्वान् आन्तरिक प्रभुसत्ता की धारणा के स्थान पर ‘वैध शारीरिक दण्ड देने की शक्ति’ शब्दों का प्रयोग करते हैं।
  • राज्य स्थायी है जबकि राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तनशील है। राज्य स्थायी है और इसका अन्त तब होता है जब उससे प्रभुसत्ता छीन ली जाती है। प्रभुसत्ता मिलने पर राज्य की स्थापना दुबारा हो जाती है, परन्तु राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तनशील होती है। समय तथा परिस्थितियों के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था बदलती रहती है।
  • राजनीतिक व्यवस्था का क्षेत्र राज्य के क्षेत्र से अधिक व्यापक है-राजनीतिक व्यवस्था का क्षेत्र राज्य के क्षेत्र से कहीं अधिक विशाल है।

प्रश्न 6.
फीडबैक लूप व्यवस्था किसे कहा जाता है ?
अथवा
डेविड ईस्टन की कच्चा माल फिर देने (Feed back loop) की प्रक्रिया का वर्णन करें।
अथवा
फीडबैक लूप (Feedback Loop) व्यवस्था से आपका क्या अभिप्राय है ।
उत्तर-
डेविड ईस्टन के अनुसार, निवेशों और निर्गतों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन दोनों में निरन्तर सम्पर्क रहता है। फीड बैक का अर्थ है-निर्गतों के प्रभावों और परिणामों को पुनः व्यवस्था में निवेश के रूप में ले जाना। ईस्टन के अनुसार निर्गतों के परिणामों को निवेशों के साथ जोड़ने तथा इस प्रकार निवेश तथा निर्गतों के बीच निरन्तर सम्बन्ध बनाने के कार्य को फीड बैक लूप कहते हैं। यदि राजनीतिक व्यवस्था के व्यावहारिक रूप को देखा जाए तो आधुनिक युग में राजनीतिक संस्थाएं और राजनीतिक दल फीड बैक लूप व्यवस्था का कार्य करते हैं। इस प्रकार राजनीतिक व्यवस्था में वह क्रिया तब तक चलती रहती है जब तक एक राजनीतिक व्यवस्था इस पर डाले गए दबावों और मांगों को सहन करती है, परन्तु जब यह खतरनाक सीमा को पार कर जाती है तो राजनीतिक व्यवस्था में दबाव और मांगों को सहन करने की शक्ति नहीं रहती और इससे राजनीतिक व्यवस्था का पतन हो जाता है।

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प्रश्न 7.
राजनीतिक प्रणाली के निकास कार्यों के बारे में लिखिए।
अथवा
राजनैतिक प्रणाली के किन्हीं तीन निकास कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
1. नियम बनाना-समाज में व्यक्तियों के रहने के लिए आवश्यक है कि उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करने के लिए नियम होने चाहिए। राजनीतिक व्यवस्था में नियम बनाना मुख्यतः विधानपालिकाओं तथा उपव्यवस्थापन अभिकरणों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में इस कार्य को किया जाता है।

2. नियम लागू करना-राजनीतिक व्यवस्था का कार्य केवल नियम बनाना ही नहीं है, बल्कि उन्हें लागू करना है। नियमों को यदि सही ढंग से लागू नहीं किया जाता तो नियम बनाने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है और उचित परिणामों की आशा नहीं की जा सकती। राजनीतिक व्यवस्था में नियमों को लागू करने की जिम्मेवारी पूर्णतया सरकारी कर्मचारियों या नौकरशाही की होती है।

3. नियम निर्णयन कार्य-समाज में जब भी कोई नियम बनाया जाता है, उसके उल्लंघन की भी सम्भावना सदैव बनी रहती है। अत: यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता है, उसे दण्ड मिलना चाहिए। प्रायः सभी आधुनिक लोकतन्त्रात्मक अच्छी राजनीतिक व्यवस्था में न्यायालयों को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र रखा जाता है ताकि न्यायाधीशों की निष्पक्षता को कायम रखा जा सके जिससे नागरिकों का विश्वास बना रहे।

प्रश्न 8.
राजनैतिक प्रणाली के निवेश कार्यों का वर्णन करो।
अथवा
राजनैतिक प्रणाली के कोई तीन निवेश कार्य लिखिए।
उत्तर-
निवेश कार्य-निवेश कार्य गैर-सरकारी उप-प्रणालियों, समाज तथा सामान्य वातावरण द्वारा पूरे किए जाते हैं, जैसे-दल, दबाव समूह, समाचार-पत्र आदि। आल्मण्ड ने राजनीतिक व्यवस्था के चार निवेश कार्य बतलाए हैं-

1. राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती-आरम्भ में बच्चे राजनीति से अनभिज्ञ होते हैं और उसमें रुचि भी नहीं लेते, परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं उनके मन में धीरे-धीरे राजनीतिक वृत्तियां बैठती जाती हैं। वे राजनीति में भाग लेना आरम्भ करते हैं और अपनी भूमिका निभानी आरम्भ करते हैं। इसे ही राजनीतिक समाजीकरण कहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में समाजीकरण के साथ-साथ भर्ती का काम भी चलता रहता है। राजनीतिक भर्ती से अभिप्राय उस कार्य से है जिसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था की भूमिकाओं की पूर्ति की जाती है।

2. हित स्पष्टीकरण-अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक प्रणाली के सदस्य अपनी प्रणाली में कुछ मांगें पेश किया करते हैं। जिस तरीके से इन मांगों को सही रूप प्रदान किया जाता है तथा जिस प्रकार से ये मांगें प्रणाली के निर्णयकर्ताओं को प्रस्तुत की जाती हैं, उसे हित स्पष्टीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है।

3. हित समूहीकरण-विभिन्न हितों को इकट्ठा करने की क्रिया को ही हित समूहीकरण कहा जाता है। यह प्रकार्य दो प्रकार से सम्पादित हो सकता है। प्रथम, विभिन्न हितों को संयुक्त और समायोजित करके तथा द्वितीय, एक देशी नीति के प्रतिमान में निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों की राजनीतिक भर्ती द्वारा।

4. राजनीतिक संचार-राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संचार का बहुत महत्त्व है, क्योंकि उसके द्वारा ही अन्य सभी कार्य सम्पादित होते हैं। संचार के साधन निश्चित ही राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। संचार के बिना हित स्पष्टीकरण का काम हो ही नहीं सकता।

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प्रश्न 9.
“राजनीतिक प्रणाली” की सीमाएं क्या हैं ?
उत्तर-
प्रत्येक राज्य का वातावरण अन्य राज्यों से अलग होता है। इसी वातावरण में रहकर किसी राज्य की राजनीतिक व्यवस्था अपनी भूमिका निभाती है। वास्तव में राजनीतिक व्यवस्था निर्बाध रूप से कार्य नहीं कर सकती। उस पर आन्तरिक व बाहरी वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है। यही वातावरण राजनीतिक व्यवस्था की भूमिका या कार्यों को सीमित कर देता है। आल्पण्ड और पॉवेल के अनुसार प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की अपनी सीमाएं होती हैं जो इसको अन्य प्रणालियों से अलग करती हैं। राजनीतिक प्रणाली की सीमाएं क्षेत्रीय नहीं बल्कि कार्यात्मक होती हैं और यह सीमाएं समय-समय पर बदलती रहती हैं। उदाहरणतया युद्ध के समय राजनीतिक प्रणाली की सीमाओं में विस्तार हो जाता है, लेकिन युद्ध समाप्त होते ही ये सीमाएं संकुचित हो जाती हैं।

प्रश्न 10.
कानून की दबावकारी शक्ति क्या होती है ?
अथवा
कानून की दबावकारी शक्ति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक राज्य व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालन के लिए कानूनों का निर्माण किया जाता है। कानूनों के पीछे राज्य की शक्ति होती है। प्रत्येक नागरिक बिना किसी भेदभाव के कानून के अधीन होता है। सभी व्यक्तियों के साथ एक-जैसी परिस्थितियों में समान व्यवहार किया जाता है। देश के प्रत्येक नागरिक के लिए राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करना अनिवार्य होता है। यदि कोई व्यक्ति कानून का उल्लंघन करता है अथवा कानून का पालन नहीं करता तो उसे राज्य शक्ति द्वारा दण्डित किया जा सकता है। कानून नागरिकों को किसी कार्य को करने अथवा न करने पर बाध्य कर सकता है। ऐसा न करने पर दण्ड दिया जा सकता है। इसे कानून की बाध्यकारी शक्ति कहा जाता है।

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प्रश्न 11.
राजनीतिक प्रणाली का हित स्पष्टीकरण कार्य क्या है ?
अथवा
राजनैतिक प्रणाली के हित स्पष्टीकरण के कार्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
हित स्वरूपीकरण या स्पष्टीकरण राजनीतिक प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। समाज में रहते सभी लोगों अथवा सभी वर्गों की मांगें तथा हित एक समान नहीं हो सकते। इसलिए यह अनिवार्य होता है कि विभिन्न वर्गों के लोग अपने हितों अथवा अपनी मांगों का स्पष्टीकरण करें ताकि सरकार उस सम्बन्धी योग्य निर्णय ले सके। जब राजनीतिक दल अथवा अन्य संगठन लोगों की मांगें सरकार तक पहुंचाते हैं तो वह हितों का स्पष्टीकरण कर रहे होते हैं। राजनीतिक दल तथा ऐसे अन्य संगठन राजनीतिक प्रणाली के अंग है। इसलिए उनके द्वारा किए कार्य राजनीतिक प्रणाली के कार्य माने जाते हैं। हित स्पष्टीकरण कार्य व्यापारिक संघों (Trade Unions) तथा अन्य दबाव समूहों (Pressure Groups) द्वारा भी किया जाता है।

प्रश्न 12.
राजनीतिक प्रणाली का राजनीतिक संचार कार्य लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक संचार का भाव है सूचनाओं का आदान-प्रदान करना। राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संचार का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इसके द्वारा ही अन्य सभी कार्य सम्पादित होते हैं। सभी व्यक्ति चाहे वे नागरिक हों या अधिकारी वर्ग से सम्बन्धित हों, सूचना पर ही निर्भर रहते हैं और उनके अनुसार ही उनकी गतिविधियों का संचालन होता है। इसलिए प्रजातन्त्र में प्रेस तथा भाषण की स्वतन्त्रता पर जोर दिया जाता है जबकि साम्यवादी राज्यों एवं तानाशाही राज्यों में उन पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की जाती है। संचार के साधन निश्चय ही राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। संचार के बिना हित स्पष्टीकरण का काम हो ही नहीं सकता। आधुनिक प्रगतिशील समाज में संचारव्यवस्था को जहां तक हो सका है, तटस्थ बनाने की कोशिश की गई है और इसकी स्वतन्त्रता एवं स्वायत्तता को स्वीकार कर लिया गया है।

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प्रश्न 13.
राजनीतिक प्रणाली का हित समूहीकरण कार्य क्या है?
अथवा
हित समूहीकरण से क्या भाव है ? यह कार्य कौन करता है ?
उत्तर-
विभिन्न संघों के हितों की पूर्ति के लिए अलग-अलग कानून या नीति का निर्माण नहीं किया जा सकता। विभिन्न संघों या समूहों के हितों को इकट्ठा करके उनकी पूर्ति के लिए एक सामान्य नीति निर्धारित की जाती है। विभिन्न हितों को इकट्ठा करने की क्रिया को ही हित समूहीकरण कहा जाता है। आलमण्ड व पॉवेल के शब्दों में, “मांगों को सामान्य नीति स्थानापन्न (विकल्प) में परिवर्तित करने के प्रकार्य को हित समूहीकरण कहा जाता है।” (“The function of converting demands into general policy alternatives is called interest aggregation.”) यह प्रकार्य दो प्रकार से सम्पादित हो सकता है। प्रथम, विभिन्न हितों को संयुक्त और समायोजित करके तथा द्वितीय, एक देश नीति के प्रतिमान में निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों की राजनीतिक भर्ती द्वारा । यह प्रकार्य राजनीतिक व्यवस्था में नहीं बल्कि सभी कार्यों में पाया जाता है। मानव अपने विभिन्न हितों को इकट्ठा करके एक बात कहता है। हित-समूह अपने विभिन्न उपसमूहों या मांगों का समूहीकरण करके अपनी मांग रखते हैं। राजनीतिक दल विभिन्न समुदायों या संघों की मांगों को ध्यान में रखकर अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। इस प्रकार हित समूहीकरण राजनीतिक व्यवस्था में निरन्तर होता रहता है।

प्रश्न 14.
निवेशों से आपका क्या भाव है ?
अथवा
निवेश समर्थन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था का अपना राजनीतिक ढांचा होता है। राजनीतिक ढांचा तभी कार्य कर सकता है यदि इसके लिए उसे आवश्यक सामग्री प्राप्त हो। राजनीतिक व्यवस्था निवेशों के बिना नहीं चल सकती। डेविड ईस्टन ने निवेशों को दो भागों में बांटा है

1.निवेश मांगें- प्रत्येक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह अथवा संगठन राजनीतिक प्रणाली से कुछ मांगों की पूर्ति की आशा रखते हैं और इसीलिए वे राजनीतिक व्यवस्था के सामने कुछ मांगें प्रस्तुत करते हैं। डेविड ईस्टन के अनुसार ये मांगें चार प्रकार की हो सकती हैं-(1) राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेने की मांग (2) वस्तुओं और सेवाओं के वितरण की मांग (3) व्यवहार को नियमित करने के सम्बन्ध में मांग (4) संचारण और सूचना प्राप्त करने के सम्बन्ध में मांग।

2. निवेश समर्थन-डेविड ईस्टन के अनुसार समर्थन उन क्रियाओं को कहा जाता है जो राजनीतिक व्यवस्था की मांगों का मुकाबला करने की क्षमता प्रदान करती है। यदि किसी राजनीतिक व्यवस्था के पास किसी मांग के लिए समर्थन प्राप्त नहीं है अर्थात् उसके पास उसे पूरा करने की क्षमता नहीं है तो वह उसे पूरा नहीं कर सकती। समर्थन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-(1) भौतिक समर्थन (2) वैधानिक समर्थन (3) सहभागी समर्थन (4) सम्मान समर्थन।

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प्रश्न 15.
निकासों के अर्थों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
निकासों से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था में मांगों तथा समर्थनों द्वारा आरम्भ की गई गतिविधियों के परिणामों को ही निर्गत या निकास कहा जाता है। यह आवश्यक नहीं है कि मांगों की पूर्ति के ही निकास होते हैं। निकास मांगों के अनुकूल भी हो सकते हैं और उनके विरुद्ध भी। निकास अग्रलिखित प्रकार के हो सकते हैं

  • निकालना-यह लगान, कर, जुर्माना, लूट का माल और व्यक्तिगत सेवाओं के रूप में हो सकती है।
  • व्यवहार का नियमन-व्यवहार का नियम जो मनुष्यों के सम्पूर्ण व्यवहारों तथा सम्बन्धों को प्रभावित करता है।
  • वस्तुओं या सेवाओं का वितरण-निर्गत का एक अन्य रूप वस्तुओं, सेवाओं के अवसर और पदवियों का वितरण आदि है।
  • सांकेतिक निर्गत-इसमें मूल्यों तथा आदर्शों का पुष्टिकरण, राजनीतिक चिह्नों का प्रदर्शन, नीतियों की घोषणा आदि को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 16.
राजनीतिक प्रणाली के छः कार्य लिखें।
उत्तर-
इसके लिए प्रश्न नं० 7 एवं 8 देखें।

1. नियम बनाना-समाज में व्यक्तियों के रहने के लिए आवश्यक है कि उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करने के लिए नियम होने चाहिए। राजनीतिक व्यवस्था में नियम बनाना मुख्यतः विधानपालिकाओं तथा उपव्यवस्थापन अभिकरणों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में इस कार्य को किया जाता है।

2. नियम लागू करना-राजनीतिक व्यवस्था का कार्य केवल नियम बनाना ही नहीं है, बल्कि उन्हें लागू करना है। नियमों को यदि सही ढंग से लागू नहीं किया जाता तो नियम बनाने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है और उचित परिणामों की आशा नहीं की जा सकती। राजनीतिक व्यवस्था में नियमों को लागू करने की जिम्मेवारी पूर्णतया सरकारी कर्मचारियों या नौकरशाही की होती है।

3. नियम निर्णयन कार्य-समाज में जब भी कोई नियम बनाया जाता है, उसके उल्लंघन की भी सम्भावना सदैव बनी रहती है। अत: यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता है, उसे दण्ड मिलना चाहिए। प्रायः सभी आधुनिक लोकतन्त्रात्मक अच्छी राजनीतिक व्यवस्था में न्यायालयों को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र रखा जाता है ताकि न्यायाधीशों की निष्पक्षता को कायम रखा जा सके जिससे नागरिकों का विश्वास बना रहे।

निवेश कार्य-निवेश कार्य गैर-सरकारी उप-प्रणालियों, समाज तथा सामान्य वातावरण द्वारा पूरे किए जाते हैं, जैसे-दल, दबाव समूह, समाचार-पत्र आदि। आल्मण्ड ने राजनीतिक व्यवस्था के चार निवेश कार्य बतलाए हैं-

1. राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती-आरम्भ में बच्चे राजनीति से अनभिज्ञ होते हैं और उसमें रुचि भी नहीं लेते, परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं उनके मन में धीरे-धीरे राजनीतिक वृत्तियां बैठती जाती हैं। वे राजनीति में भाग लेना आरम्भ करते हैं और अपनी भूमिका निभानी आरम्भ करते हैं। इसे ही राजनीतिक समाजीकरण कहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में समाजीकरण के साथ-साथ भर्ती का काम भी चलता रहता है। राजनीतिक भर्ती से अभिप्राय उस कार्य से है जिसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था की भूमिकाओं की पूर्ति की जाती है।

2. हित स्पष्टीकरण-अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक प्रणाली के सदस्य अपनी प्रणाली में कुछ मांगें पेश किया करते हैं। जिस तरीके से इन मांगों को सही रूप प्रदान किया जाता है तथा जिस प्रकार से ये मांगें प्रणाली के निर्णयकर्ताओं को प्रस्तुत की जाती हैं, उसे हित स्पष्टीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है।

3. हित समूहीकरण-विभिन्न हितों को इकट्ठा करने की क्रिया को ही हित समूहीकरण कहा जाता है। यह प्रकार्य दो प्रकार से सम्पादित हो सकता है। प्रथम, विभिन्न हितों को संयुक्त और समायोजित करके तथा द्वितीय, एक देशी नीति के प्रतिमान में निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों की राजनीतिक भर्ती द्वारा।

4. राजनीतिक संचार-राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संचार का बहुत महत्त्व है, क्योंकि उसके द्वारा ही अन्य सभी कार्य सम्पादित होते हैं। संचार के साधन निश्चित ही राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। संचार के बिना हित स्पष्टीकरण का काम हो ही नहीं सकता।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीतिक प्रणाली से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली का सम्बन्ध उन सब बातों, क्रियाओं तथा संस्थाओं से है जो किसी-न-किसी प्रकार से राजनीतिक जीवन को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक व्यवस्था का सम्बन्ध केवल कानून बनाने और लागू करने से ही नहीं बल्कि वास्तविक रूप से बल प्रयोग द्वारा उनका पालन करवाने से भी है।

प्रश्न 2.
राजनीतिक व्यवस्था की दो परिभाषाएं लिखो।
उत्तर-

  • डेविड ईस्टन का कहना है, “राजनीतिक व्यवस्था अन्तक्रियाओं का समूह है जिसे सामाजिक व्यवहार की समग्रता में से निकाला गया है तथा जिसके द्वारा समाज के लिए सत्तात्मक मूल्य निर्धारित किए जाते
  • आल्मण्ड तथा पॉवेल का कथन है, “जब हम राजनीतिक व्यवस्था की बात कहते हैं तो हम इसमें उन समस्त अन्तक्रियाओं को शामिल कर लेते हैं जो वैध बल प्रयोग को प्रभावित करती है।”

प्रश्न 3.
प्रणाली की दो मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-

  1. प्रणाली भिन्न-भिन्न अंगों या हिस्सों के जोड़ों से बनती है।
  2. प्रणाली के भिन्न-भिन्न अंगों में परस्पर निर्भरता होती है।

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प्रश्न 4.
राज्य और राजनीतिक प्रणाली में दो मुख्य अन्तर लिखो।
उत्तर-

  1. राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं जबकि राजनीतिक व्यवस्था के अनेक तत्त्व हैं। जनसंख्या, निश्चित भूमि, सरकार तथा प्रभुसत्ता राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं। परन्तु राजनीतिक व्यवस्था के निश्चित तत्त्व न होकर अनेक तत्त्व होते हैं।
  2. राज्य की मुख्य विशेषता प्रभुसत्ता है जबकि राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य गुण वैध शारीरिक शक्ति है। आन्तरिक तथा बाहरी प्रभुसत्ता राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, परन्तु राजनीतिक व्यवस्था में प्रभुसत्ता की धारणा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। आधुनिक राजनीतिक विद्वान् आन्तरिक प्रभुसत्ता की धारणा के स्थान पर ‘वैध शारीरिक दण्ड देने की शक्ति’ शब्दों का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 5.
राजनीतिक प्रणाली में फीडबैक लूप व्यवस्था किसे कहा जाता है ?
उत्तर-
डेविड ईस्टन के अनुसार, निवेशों और निर्गतों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन दोनों में निरन्तर सम्पर्क रहता है। फीड बैक का अर्थ है-निर्गतों के प्रभावों और परिणामों को पुनः व्यवस्था में निवेश के रूप में ले जाना। ईस्टन के अनुसार निर्गतों के परिणामों को निवेशों के साथ जोड़ने तथा इस प्रकार निवेश तथा निर्गतों के बीच निरन्तर सम्बन्ध बनाने के कार्य को फीड बैक लूप कहते हैं। यदि राजनीतिक व्यवस्था के व्यावहारिक रूप को देखा जाए तो आधुनिक युग में राजनीतिक संस्थाएं और राजनीतिक दल फीड बैक लूप व्यवस्था का कार्य करते हैं।

प्रश्न 6.
‘शासन की प्रक्रिया’ (The Process of Government) नामक पुस्तक किसने व कब लिखी ?
उत्तर-
‘शासन की प्रक्रिया’ नामक पुस्तक आर्थर बेंटले ने लिखी।

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प्रश्न 7.
‘राजनीतिक प्रणाली’ (The Political System) नाम की पुस्तक किसने व कब लिखी ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली (The Political System) नाम की पुस्तक डेविड ईस्टन ने सन् 1953 में लिखी।

प्रश्न 8.
राजनीतिक प्रणाली के दो निकास (Output) कार्यों के बारे में लिखिए।
उत्तर-

  1. नियम बनाना-समाज में व्यक्तियों के रहने के लिए आवश्यक है कि उनके पारस्परिक सम्बन्धों को नियमित करने के लिए नियम होने चाहिएं। राजनीतिक व्यवस्था में नियम बनाना मुख्यतः विधानपालिकाओं तथा उप-व्यवस्थापन अभिकरणों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में इस कार्य को किया जाता है।
  2. नियम लागू करना-राजनीतिक व्यवस्था का कार्य केवल नियम बनाना ही नहीं है, बल्कि उन्हें लागू करना है। राजनीतिक व्यवस्था में नियमों को लागू करने की ज़िम्मेवारी पूर्णतया सरकारी कर्मचारियों या नौकरशाही की होती है।

प्रश्न 9.
राजनीतिक प्रणाली के दो निवेश कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती-जब लोग राजनीति में भाग लेना आरम्भ करते हैं और अपनी भूमिका निभानी आरम्भ करते हैं। इसे ही राजनीतिक समाजीकरण कहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में समाजीकरण के साथ-साथ भर्ती का काम भी चलता रहता है। राजनीतिक भर्ती से अभिप्राय उस कार्य से है जिसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था की भूमिकाओं की पूर्ति की जाती है।
  2. हित स्पष्टीकरण-अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक प्रणाली के सदस्य अपनी प्रणाली में कुछ मांगें पेश किया करते हैं। जिस तरीके से इन मांगों को सही रूप प्रदान किया जाता है तथा जिस प्रकार से ये मांगें प्रणाली के निर्णयकर्ताओं को प्रस्तुत की जाती हैं उसे हित स्पष्टीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है।

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प्रश्न 10.
राजनीतिक संचार से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजनीतिक संचार का भाव है सूचनाओं का आदान-प्रदान करना। राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संचार का बहुत महत्त्व है, क्योंकि इसके द्वारा ही अन्य सभी कार्य सम्पादित होते हैं। सभी व्यक्ति चाहे वे नागरिक हों या अधिकारी वर्ग से सम्बन्धित हों, सूचना पर ही निर्भर रहते हैं और उनके अनुसार ही उनकी गतिविधियों का संचालन होता है। इसलिए प्रजातन्त्र में प्रेस तथा भाषण की स्वतन्त्रता पर जोर दिया जाता है जबकि साम्यवादी राज्यों एवं तानाशाही राज्यों में उन पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की जाती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा का जन्म कब हुआ?
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा का जन्म 20वीं शताब्दी में हुआ।

प्रश्न 2.
राजनीतिक प्रणाली शब्द का प्रयोग सबसे पहले किस राजनीतिक विज्ञानी ने किया ?
उत्तर-
डेविड ईस्टन ने।

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प्रश्न 3.
राजनीतिक प्रणाली के अधीन ‘राजनीतिक’ शब्द का अर्थ बताएं।
उत्तर-
किसी भी समुदाय या संघ को राजनीतिक उसी समय कहा जा सकता है जबकि उसकी आज्ञा का पालन प्रशासकीय कर्मचारी वर्ग द्वारा शारीरिक बल प्रयोग के भय से करवाया जाता है।

प्रश्न 4.
व्यवस्था शब्द का अर्थ लिखिए।
अथवा
प्रणाली शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
व्यवस्था (प्रणाली) शब्द का प्रयोग अन्तक्रियाओं (interactions) के समूह का संकेत करने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 5.
राजनीतिक प्रणाली का अर्थ लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली का अर्थ उन अन्योन्याश्रित सम्बन्धों के समूह से लिया जाता है, जिसके संचालन में सत्ता या शक्ति का हाथ होता है।

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प्रश्न 6.
राजनीतिक प्रणाली की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-
डेविड ईस्टन का कहना है, “राजनीतिक व्यवस्था अन्तक्रियाओं का समूह है जिसे सामाजिक व्यवहार की समग्रता में निकाला गया है तथा जिसके द्वारा समाज के लिए सत्तात्मक मूल्य निर्धारित किए जाते हैं।”

प्रश्न 7.
राजनीतिक प्रणाली की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था प्रत्येक समाज में पाई जाती है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक प्रणाली का एक निवेश कार्य लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक समाजीकरण और प्रवेश या भर्ती।

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प्रश्न 9.
राजनीतिक प्रणाली का एक निकास कार्य लिखें।
उत्तर-
नियम निर्माण कार्य।

प्रश्न 10.
राजनीतिक प्रणाली एवं राज्य में कोई एक अन्तर लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था में आत्मनिर्भर अंगों का अस्तित्व होता है जबकि राज्य की धारणा में ऐसी कोई विशेषता नहीं है।

प्रश्न 11.
फीड बैक लूप व्यवस्था का अर्थ लिखें।
उत्तर-
फीड बैक लूप व्यवस्था का अर्थ है-निर्गतों के प्रभावों के परिणामों को पुन: व्यवस्था में निवेश के रूप में ले जाना।

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प्रश्न 12.
राजनीतिक प्रणाली की धारण को लोकप्रिय बनाने वाले किसी एक आधुनिक लेखक का नाम लिखें।
उत्तर-
डेविड ईस्टन।

प्रश्न 13.
राजनीतिक व्यवस्था का वातावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर-
समाज के वातावरण या परिस्थितियों का राजनीतिक प्रणाली पर जो प्रभाव पड़ता है, उसे हम सामान्य रूप से राजनीतिक प्रणाली का वातावरण कहते हैं।

प्रश्न 14.
‘नियम निर्माण कार्य’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
परम्परावादी दृष्टिकोण के अनुसार विधानमण्डल को सरकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। इस अंग का मुख्य कार्य कानून बनाना है। इसी कार्य को ही आल्मण्ड ने राजनीतिक प्रणाली के नियम निर्माण के कार्य का स्वरूप बताया है।

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प्रश्न 15.
‘नियम निर्णय कार्य’ क्या होता है ?
उत्तर-
समाज में जब भी कोई नियम बनाया जाता है, उसके उल्लंघन की भी सम्भावना सदैव बनी रहती है। अतः यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता है, उसे दण्ड मिलना चाहिए। प्रायः सभी आधुनिक लोकतन्त्रात्मक राज्यों में यह कार्य न्यायालयों द्वारा किए जाते हैं।

प्रश्न 16.
‘नियम लागू करने का कार्य’ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था का कार्य केवल नियम बनाना ही नहीं है, बल्कि उन नियमों को लागू करना भी है। राजनीतिक व्यवस्था में नियमों को लागू करने की ज़िम्मेदारी पूर्णतः सरकारी कर्मचारियों या नौकरशाही की होती है। यहां तक कि न्यायालयों के निर्णय भी कर्मचारी वर्ग द्वारा लागू किए जाते हैं।

प्रश्न 17.
आल्मण्ड के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था की कोई एक विशेषता लिखिए।
उत्तर-
राजनीतिक व्यवस्था की सार्वभौमिकता।

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प्रश्न 18.
राजनीतिक प्रणाली के कौन-से निकास कार्य हैं ?
उत्तर-
(1) नियम बनाना
(2) नियम लागू करना
(3) नियम निर्णयन कार्य।

प्रश्न 19.
राजनीतिक प्रणाली की सीमाएं क्या हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली पर आन्तरिक व बाहरी वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है, जोकि राजनीतिक प्रणाली की भूमिका को सीमित कर देता है। इसकी सीमाएं क्षेत्रीय नहीं, बल्कि कार्यात्मक होती हैं।

प्रश्न 20.
राजनीतिक प्रणाली के किसी एक अनौपचारिक ढांचे का नाम लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक दल।

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प्रश्न 21.
राजनीतिक प्रणाली के किसी एक औपचारिक ढांचे का नाम लिखें। ।
उत्तर-
विधानपालिका।

प्रश्न 22.
राजनीतिक प्रणाली के दो कार्यों के नाम लिखो।
उत्तर-
(1) राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती
(2) हित स्पष्टीकरण।

प्रश्न 23.
डेविड ईस्टन के अनुसार राजनैतिक समुदाय का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जो समूह सामूहिक क्रियाओं और प्रयत्नों द्वारा अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं, उन्हें राजनीतिक समुदाय कहा जाता है।

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प्रश्न 24.
हित स्पष्टीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
आल्मण्ड व पावेल के अनुसार अलग-अलग व्यक्तियों तथा समूहों द्वारा राजनीतिक निर्णयकर्ताओं से मांग करने की प्रक्रिया को हित स्पष्टीकरण कहते हैं।

प्रश्न 25.
राजनीतिक संचार से क्या अभिप्राय है ? .
उत्तर-
राजनीतिक संचार का भाव है, सूचनाओं का आदान-प्रदान करना।

प्रश्न 26.
हित समूहीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
विभिन्न हितों को एकत्र करने की क्रिया को हित समूहीकरण कहते हैं।

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प्रश्न 27.
राजनीतिक भर्ती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक भर्ती से अभिप्राय उस कार्य से है, जिसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था की भूमिकाओं की पूर्ति की जाती है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें –

1. राजनीतिक व्यवस्था के दो भाग-राजनीतिक एवं ………………
2. राजनीतिक शब्द ……………….. का सूचक है।
3. व्यवस्था शब्द का प्रयोग …………….. के समूह का संकेत करने के लिए किया जाता है।
4. राजनीतिक समाजीकरण एक …………….. कार्य है।
5. नियम निर्माण एक ……………….. कार्य है।
उत्तर-

  1. व्यवस्था
  2. सत्ता
  3. अन्तक्रियाओं
  4. निवेश
  5. निर्गत ।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. व्यवस्था भिन्न अंगों या हिस्सों से बनती है।
2. प्रत्येक व्यवस्था में एक इकाई के रूप कार्य करने की योग्यता होती है।
3. आल्मण्ड पावेल ने राजनीतिक समुदाय की शक्ति को कानूनी शारीरिक बलात् शक्ति का नाम दिया है।
4. मूल्यों के सत्तात्मक आबंटन की धारणा आल्मण्ड पावेल से सम्बन्धित है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. सही
  4. ग़लत।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य गुण है –
(क) शक्ति या सत्ता
(ख) संगठन
(ग) मानव व्यवहार
(घ) राबर्ट ई० रिग्स।
उत्तर-
(क) शक्ति या सत्ता

प्रश्न 2.
राजनीतिक व्यवस्था शब्द के दो भाग कौन-कौन से हैं ?
(क) राज्य एवं सरकार
(ख) अधिकार एवं कर्त्तव्य
(ग) राजनीतिक एवं व्यवस्था
(घ) स्वतन्त्रता एवं समानता।
उत्तर-
(ग) राजनीतिक एवं व्यवस्था

प्रश्न 3.
“राजनीतिक व्यवस्था अन्तक्रियाओं का समूह है, जिसे सामाजिक व्यवहार की समग्रता में से निकाला गया है, तथा जिसके द्वारा समाज के लिए सत्तात्मक मूल्य निर्धारित किए जाते हैं।” यह कथन किसका है।
(क) आल्मण्ड पावेल
(ख) डेविड ईस्टन
(घ) राबर्ट डहल।
(ग) लासवैल
उत्तर-
(ख) डेविड ईस्टन

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प्रश्न 4.
राजनीतिक व्यवस्था की विशेषता है
(क) मानवीय सम्बन्ध
(ख) औचित्यपूर्ण शक्ति का प्रयोग
(ग) व्यापकता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 5.
राजनीतिक व्यवस्था का निवेश कार्य है
(क) हित स्पष्टीकरण
(ख) हित समूहीकरण
(ग) राजनीतिक संचारण
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

अब्दाली के आक्रमणों के कारण (Causes of Abdali’s Invasions)

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण बताएँ।
(Explain the causes of the invasions of Ahmad Shah ‘Abdali.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली द्वारा पंजाब पर किए गए हमलों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the invasions of Ahmad Shah Abdali on Punjab ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण बताएँ।
(Explain the causes of the invasions of Ahmad Shah Abdali.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक था। उसने 1747 ई० से 1767 ई० के समय के दौरान पंजाब पर आठ बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. अब्दाली की महत्त्वाकाँक्षा (Ambition of Abdali)-अहमद शाह अब्दाली बहुत महत्त्वाकाँक्षी शासक था। वह अफ़गानिस्तान के साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। अत: वह पंजाब तथा भारत के अन्य प्रदेशों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। अपनी इस साम्राज्यवादी महत्त्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिए अब्दाली ने सर्वप्रथम पंजाब पर आक्रमण करने का निर्णय किया।

2. भारत की अपार धन-दौलत (Enormous Wealth of India)-अहमद शाह अब्दाली के लिए एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना के लिए धन की बहुत आवश्यकता थी। यह धन उसे अपने साम्राज्य अफ़गानिस्तान से प्राप्त नहीं हो सकता था, क्योंकि यह प्रदेश आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था। दूसरी ओर उसे यह धन भारत-जो अपनी अपार धन-दौलत के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध था-से मिल सकता था। 1739 ई० में जब वह नादिरशाह के साथ भारत आया था तो वह भारत की अपार धन-दौलत को देख कर चकित रह गया था। नादिरशाह भारत से लौटते समय अपने साथ असीम हीरे-जवाहरात, सोना-चाँदी इत्यादि ले गया था। अब्दाली पुनः भारत पर आक्रमण कर यहाँ की अपार धन-दौलत को लूटना चाहता था।

3. अफ़गानिस्तान में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना (To consolidate his position in Afghanistan)अहमद शाह अब्दाली एक साधारण परिवार से संबंध रखता था। इसलिए 1747 ई० में नादिरशाह की हत्या के पश्चात् जब वह अफ़गानिस्तान का शासक बना तो वहाँ के अनेक सरदारों ने इस कारण उसका विरोध किया। अतः अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के उद्देश्य से विदेशी युद्ध करना चाहता था। इन युद्धों द्वारा वह अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि कर सकता था तथा अफ़गानों को अपने प्रति वफ़ादार बना सकता था।

4. भारत की अनुकूल राजनीतिक दशा (Favourable Political Condition of India)-1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् महान् मुग़ल साम्राज्य तीव्रता से पतन की ओर अग्रसर हो रहा था। 1719 ई० में मुहम्मद शाह के सिंहासन पर बैठने से स्थिति अधिक शोचनीय हो गयी। वह अपना अधिकतर समय सुरा-सुंदरी के संग व्यतीत करने लगा। अत: वह रंगीला के नाम से विख्यात हुआ। उसके शासन काल (1719-48 ई०) में शासन की वास्तविक बागडोर उसके मंत्रियों के हाथ में थी जो एक-दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहते थे। अतः साम्राज्य में चारों ओर अराजकता फैल गई। पंजाब में सिखों ने मुग़ल सूबेदारों की नाक में दम कर रखा था। इस स्थिति का लाभ उठा कर अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

5. अब्दाली का भारत में पूर्व अनुभव (Past experience of Abdali in India)—अहमद शाह अब्दाली 1739 ई० में नादिरशाह के आक्रमण के समय उसके सेनापति के रूप में भारत आया था। उसने पंजाब तथा दिल्ली की राजनीतिक स्थिति तथा यहाँ की सेना की लड़ने की क्षमता आदि का गहन अध्ययन किया था। उसने यह जान लिया था कि मुग़ल साम्राज्य एक रेत के महल की तरह है जो एक तेज़ आँधी के सामने नहीं ठहर सकता। अतः स्वतंत्र शासक बनने के पश्चात् अब्दाली ने इस स्थिति का लाभ उठाने का निर्णय किया।

6. शाहनवाज़ खाँ द्वारा निमंत्रण (Invitation of Shahnawaz Khan)-1745 ई० में जकरिया खाँ की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र याहिया खाँ लाहौर का नया सूबेदार बना। इस बात को उसका छोटा भाई शाहनवाज़ खाँ सहन न कर सका। वह काफ़ी समय से लाहौर की सूबेदारी प्राप्त करने का स्वप्न ले रहा था। उसने 1746 ई० के अंत में याहिया खाँ के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। दोनों भाइयों में यह युद्ध चार मास तक चलता रहा। इसमें शाहनवाज़ खाँ की जीत हुई। उसने याहिया खाँ को बंदी बना लिया और स्वयं लाहौर का सूबेदार बन बैठा। दिल्ली का वज़ीर कमरुद्दीन जोकि याहिया खाँ का ससुर था, यह सहन न कर सका। उसके उकसाने से मुहम्मद शाह रंगीला ने शाहनवाज़ खाँ को लाहौर का सूबेदार मानने से इंकार कर दिया। ऐसी स्थिति में शाहनवाज़ खाँ ने अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण भेजा। अब्दाली ऐसे ही स्वर्ण अवसर की तलाश में था। अतः उसने भारत पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

अब्दाली के आक्रमण (Abdali’s Invasions)

प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमण का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of Ahmad Shah Abdali’ invasions over Punjab.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक था। उसने 1747 ई० से 1767 ई० के समय के दौरान पंजाब पर आठ आक्रमण किये। इन आक्रमणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. अब्दाली का पहला आक्रमण 1747-48 ई० (First Invasion of Abdali 1747-48 A.D.)—पंजाब के सूबेदार शाहनवाज़ खाँ के आमंत्रण पर अहमद शाह अब्दाली दिसंबर, 1747 ई० में भारत की ओर चल पड़ा। उसके लाहौर पहुँचने से पूर्व ही शाहनवाज खाँ ने दिल्ली के वज़ीर कमरुद्दीन के साथ समझौता कर लिया। इस बात पर अब्दाली को बहुत गुस्सा आया। उसने शाहनवाज को पराजित करके 10 जनवरी, 1748 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद वह दिल्ली की ओर बढ़ा। सरहिंद के निकट हुई लड़ाई में कमरुद्दीन मारा गया। मन्नुपुर में 11 मार्च, 1748 ई० को एक घमासान युद्ध में कमरुद्दीन के लड़के मुईन-उल-मुल्क ने अब्दाली को करारी हार दी। दूसरी ओर पंजाब में सिखों ने अहमद शाह अब्दाली की वापसी के समय उसका काफ़ी सामान लूट लिया।
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BABA DEEP SINGH JI

2. अब्दाली का दूसरा आक्रमण 1748-49 ई० (Second Invasion of Abdali 1748-49 A.D.)अहमद शाह अब्दाली अपने पहले आक्रमण के दौरान हुई अपनी पराजय का बदला लेना चाहता था। इस कारण अहमद शाह अब्दाली ने 1748 ई० के अंत में पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। दिल्ली से कोई सहायता न मिलने के कारण मीर मन्नू ने अब्दाली के साथ संधि कर ली। इस संधि के अनुसार मीर मन्नू ने पंजाब के चार महलों (जिलों) स्यालकोट, पसरूर, गुजरात और औरंगाबाद का 14 लाख रुपए वार्षिक लगान अब्दाली को देना मान लिया।

3. अब्दाली का तीसरा आक्रमण 1751-52 ई० (Third Invasion of Abdali 1751-52 A.D.)—मीर मन्नू द्वारा वार्षिक लगान देने में किए गए विलंब के कारण अब्दाली ने नवंबर, 1751 ई० में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण किया। वह अपनी सेना सहित बड़ी तेजी के साथ लाहौर की ओर बढ़ा। लाहौर पहुँच कर अब्दाली ने 3 महीनों तक भारी लूटमार मचाई। 6 मार्च, 1752 ई० को लाहौर के निकट अहमद शाह अब्दाली और मीर मन्नू की सेनाओं के बीच बड़ी भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में दीवान कौड़ा मल मारा गया और मीर मन्नू बंदी बना लिया गया। मीर मन्नू की वीरता देखकर अब्दाली ने न केवल मीर मन्नू को क्षमा कर दिया बल्कि अपनी तरफ से उसे पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया। इस प्रकार अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

4. अब्दाली का चौथा आक्रमण 1756-57 ई० (Fourth Invasion of Abdali 1756-57 A.D.)1753 ई० में मीर मन्नू की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा मुगलानी बेगम पंजाब की सूबेदारनी बनी। वह चरित्रहीन स्त्री थी। मुग़ल बादशाह आलमगीर द्वितीय के आदेश पर मुगलानी बेगम को जेल में डाल दिया गया। अदीना बेग पंजाब का नया सूबेदार बनाया गया। अब्दाली पंजाब पर किसी मुग़ल सूबेदार की नियुक्ति को कदाचित सहन नहीं कर सका। इसी कारण अब्दाली ने नवंबर, 1756 ई० में पंजाब पर चौथा आक्रमण किया। इस मध्य पंजाब में सिखों की शक्ति काफ़ी बढ़ चुकी थी। अब्दाली ने दिल्ली से वापसी समय सिखों से निपटने का फैसला किया।

अहमद शाह अब्दाली जनवरी, 1757 ई० में दिल्ली पहुँचा और भारी लूटमार की। उसने मथुरा और वृंदावन को भी लूटा। पंजाब पहुंचने पर उसने अपने पुत्र तैमूर शाह को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। अमृतसर के निकट सिखों और अफ़गानों में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में बाबा दीप सिंह जी का शीश कट गया था पर वह अपने शीश को हथेली पर रखकर शत्रुओं का मुकाबला करते रहे। बाबा दीप सिंह जी 11 नवंबर, 1757 ई० को शहीद हुए। बाबा दीप सिंह जी की शहीदी ने सिखों में एक नया जोश भरा। गुरबख्श सिंह के शब्दों में,
“बाबा दीप सिंह एवं उसके साथियों की शहीदी ने समस्त सिख कौम को झकझोर दिया। उन्होंने इसका बदला लेने का प्रण लिया।”1

5. अब्दाली का पाँचवां आक्रमण 1759-61 ई० (Fifth Invasion of Abdali 1759-61 A.D.)1758 ई० में सिखों ने मराठों से मिलकर पंजाब से तैमूर शाह को भगा दिया। इस कारण अहमद शाह अब्दाली ने 1759 ई० में पंजाब पर पाँचवां आक्रमण कर दिया। उसने अंबाला के निकट तरावड़ी में मराठों के एक प्रसिद्ध नेता दत्ता जी को हराया। शीघ्र ही अब्दाली ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। जब मराठों की पराजय का समाचार मराठों के पेशवा बाला जी बाजीराव तक पहुँचा तो उसने सदा शिवराव भाऊ के नेतृत्व में एक विशाल सेना अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला करने हेतु भेजी। 14 जनवरी, 1761 ई० में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठों की सेना में बड़ी तबाही मचाई। परंतु अहमद शाह अब्दाली सिखों का कुछ न बिगाड़ सका। सिख रात्रि के समय जब अब्दाली के सैनिक आराम कर रहे होते थे तो अचानक आक्रमण करके उनके खजाने को लूट लेते थे। जस्सा सिंह आहलूवालिया ने तो अचानक आक्रमण करके अब्दाली की कैद में से बहुत-सी औरतों को छुड़वा लिया। इस प्रकार जस्सा सिंह ने अपनी वीरता का प्रमाण दिया।

6. अब्दाली का छठा आक्रमण 1762 ई० (Sixth Invasion of Abdali 1762 A.D.)-सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए अब्दाली ने 1762 ई० में आक्रमण किया। उसके सैनिकों ने मालेरकोटला के समीप गाँव कुप में अकस्मात् आक्रमण करके 25 से 30 हज़ार सिखों को शहीद तथा 10 हज़ार सिखों को घायल कर दिया। इनमें स्त्रियाँ तथा बच्चे भी थे। यह घटना सिख इतिहास में ‘बड़ा घल्लूघारा’ के नाम से प्रख्यात है। यह घल्लूघारा 5 फरवरी, 1762 ई० को हुआ। बड़ा घल्लूघारा में सिखों की यद्यपि बहुत क्षति हुई परंतु उन्होंने अपना साहस नहीं छोड़ा। सिखों ने सरहिंद पर 14 जनवरी, 1764 ई० को विजय प्राप्त की। इसके फ़ौजदार जैन खाँ की हत्या कर दी गई। सिखों ने लाहौर के सूबेदार काबली मल से व्यापक मुआवज़ा वसूल किया। इससे सिखों की बढ़ती हुई शक्ति की स्पष्ट झलक मिलती है।

7. अब्दाली के अन्य आक्रमण 1764-67 ई० (Other Invasions of Abdali 1764-67 A.D.)अब्दाली ने पंजाब पर 1764-65 ई० तथा 1766-67 ई० में आक्रमण किए। उसके ये आक्रमण अधिक प्रख्यात नहीं हैं। वह सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। सिखों ने इस समय के दौरान 1765 ई० में लाहौर पर अधिकार कर लिया। सिखों ने नये सिक्के चलाकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

1. “The martyrdom of Baba Deep Singh and his associates shocked the whole Sikh nation. They determined to retaliate with vengeance.” Gurbakhsh Singh, The Sikh Faith : A Universal Message (Amritsar : 1997) p. 95.

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पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 ई० (The Third Battle of Panipat 1761 A.D.):

प्रश्न 3.
पानीपात की तीसरी लड़ाई के कारणों, घटनाओं और परिणामों का वर्णन करें।
(Discuss the causes, events and results of the Third Battle of Panipat.)
अथवा
पानीपत की तीसरी लड़ाई के क्या कारण थे ? इस लड़ाई के क्या परिणाम निकले ? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
(What were the causes of the Third Battle of Panipat ? Briefly describe the consequences of this battle.)
अथवा
पानीपत के तीसरे युद्ध के कारणों तथा परिणामों का वर्णन करें। (Describe the causes and consequences of the Third Battle of Panipat.)
अथवा
पानीपत की तीसरी लड़ाई के कारण एवं घटनाओं की चर्चा करें। (Discuss the causes and events of the Third Battle of Panipat.)
उत्तर-
14 जनवरी, 1761 ई० को मराठों एवं अहमद शाह अब्दाली के मध्य पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मराठों को कड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। इस लड़ाई के परिणामस्वरूप पंजाब में सिखों की शक्ति का तीव्र गति से उत्थान होने लगा। इस लड़ाई के कारणों और परिणामों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
(क) कारण (Causes)-पानीपत की तीसरी लड़ाई के लिए निम्नलिखित मुख्य कारण उत्तरदायी थे—
1. मराठों द्वारा रुहेलखंड की लूटमार (Plunder of Ruhelkhand by the Marathas)-रुहेलखंड पर रुहेलों का राज्य था। मराठों ने उन्हें पराजित कर दिया। रुहेले अफ़गान होने के नाते अहमद शाह अब्दाली के सजातीय थे। अतः उन्होंने अब्दाली को इस अपमान का बदला लेने के लिए निमंत्रण दिया।

2. मराठों की हिंदू राज्य स्थापित करने की नीति (Policy of establishing Hindu Kingdom by the Marathas)-मराठे निरंतर अपनी शक्ति में वृद्धि करते चले आ रहे थे। इससे प्रोत्साहित होकर पेशवाओं ने भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित करने की घोषणा की। इससे मुस्लिम राज्यों के लिए एक गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया। अतः इन राज्यों ने अपनी सुरक्षा के लिए अब्दाली को मराठों का दमन करने के लिए प्रेरित किया।

3. हिंदुओं में एकता का अभाव (Lack of Unity among the Hindus)-मराठों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण भारत में जाट एवं राजपूत मराठों से ईर्ष्या करने लगे। इसका प्रमुख कारण यह था कि वे स्वयं भारत में अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे। हिंदुओं की इस आपसी फूट को अब्दाली ने भारत पर आक्रमण करने का एक स्वर्ण अवसर समझा।

4. मराठों का दिल्ली एवं पंजाब पर अधिकार (Occupation of Delhi and Punjab by Marathas)अहमद शाह अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब तथा 1756 ई० में दिल्ली पर आधिपत्य कर लिया था। उसने पंजाब में अपने बेटे तैमूर शाह तथा दिल्ली के रुहेला नेता नजीब-उद-दौला को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। मराठों ने 1757 ई० में दिल्ली तथा 1758 ई० में पंजाब पर अधिकार कर लिया। मराठों की ये दोनों विजयें अहमद शाह अब्दाली की शक्ति को एक चुनौती थीं। इसलिए उसने मराठों तथा सिखों को सबक सिखाने का निर्णय किया।

(ख) घटनाएँ (Events)-1759 ई० के अंत में अहमद शाह अब्दाली ने सर्वप्रथम पंजाब पर आक्रमण किया। इस आक्रमण का समाचार सुन कर पंजाब का मराठा सूबेदार शम्भा जी लाहौर छोड़ कर भाग गया। इसके पश्चात् वह दिल्ली की ओर बढ़ा। रास्ते में उसे मराठों ने रोकने का प्रयत्न किया परंतु उन्हें सफलता प्राप्त न हुई। जब बालाजी बाजीराव को इन घटनाओं संबंधी सूचना मिली तो उसने अब्दाली का सामना करने के लिए एक विशाल सेना उत्तरी भारत की तरफ भेजी। इस सेना की वास्तविक कमान सदाशिव राव भाऊ के हाथों में थी। उसकी सहायता के लिए पेशवा ने अपने पुत्र विश्वास राव को भी भेजा। मराठों द्वारा अपनाई गई अनुचित नीतियों के फलस्वरूप राजपूत तथा पंजाब के सिख पहले से उनसे नाराज़ थे। इसलिए इस संकट के समय में उन्होंने मराठों को अपना सहयोग प्रदान नहीं किया। जाट नेता सूरजमल ने सदाशिव राव भाऊ को अब्दाली के विरुद्ध छापामार ढंग की लड़ाई अपनाने का परामर्श दिया परंतु अहंकार के कारण उसने इस योग्य परामर्श को न माना। इस कारण उसने अपने दस हज़ार सैनिकों सहित मराठों का साथ छोड़ दिया। इस प्रकार मराठों के पास अब शेष 45,000 सैनिक रह गये। दूसरी तरफ अहमद शाह अब्दाली के अधीन 60,000 सैनिक थे। इनमें लगभग आधे सैनिक अवध के नवाब शुजाऊद्दौला तथा रुहेला सरदार नज़ीबउद्दौला द्वारा अब्दाली की सहायतार्थ भेजे गये थे। ये दोनों सेनाएँ पानीपत के क्षेत्र में नवंबर, 1760 ई० में पहँच गईं। लगभग अढाई महीनों तक उनमें से किसी ने भी एक-दूसरे पर आक्रमण करने का साहस न किया।

14 जनवरी, 1761 ई० को मराठों ने अब्दाली की सेना पर आक्रमण कर दिया। यह बहुत घमासान युद्ध था। इस युद्ध के आरंभ में मराठों का पलड़ा भारी रहा। परंतु अनायास जब विश्वास राव की गोली लगने से मृत्यु हो गई तो युद्ध की स्थिति ही पलट गयी। सदाशिव राव भाऊ शोक मनाने के लिए हाथी से नीचे उतरा। जब मराठा सैनिकों ने उसके हाथी की पालकी खाली देखी तो उन्होंने समझा कि वह भी युद्ध में मारा गया है। परिणामस्वरूप मराठा सैनिकों में भगदड़ फैल गई। इस तरह पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली को शानदार विजय प्राप्त हुई।
(ग) परिणाम (Consequences)—पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की निर्णायक लड़ाइयों में से एक थी। इस लड़ाई के दूरगामी परिणामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

1. मराठों का घोर विनाश (Great Tragedy for the Marathas)-पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों के लिए घोर विनाशकारी सिद्ध हुई। इस लड़ाई में 28,000 मराठा सैनिक मारे गए तथा बड़ी संख्या में जख्मी हुए। कहा जाता है कि महाराष्ट्र के प्रत्येक परिवार का कोई-न-कोई सदस्य इस लड़ाई में मरा था।

2. मराठों की शक्ति एवं सम्मान को गहरा धक्का (Severe blow to Maratha Power and Prestige)—इस लड़ाई में पराजय से मराठों की शक्ति एवं सम्मान को गहरा धक्का लगा। परिणामस्वरूप भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित करने का मराठों का स्वप्न धराशायी हो गया।

3. मराठों की एकता का समाप्त होना (End of Maratha Unity)-पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचने से मराठा संघ की एकता समाप्त हो गई। वे आपसी मतभेदों एवं झगड़ों में उलझ गए। परिणामस्वरूप रघोबा जैसे स्वार्थी मराठा नेता को राजनीति में आने का अवसर प्राप्त हुआ।

4. पंजाब में सिखों की शक्ति का उत्थान (Rise of the Sikh Power in Punjab)—पानीपत की तीसरी लड़ाई से पंजाब मराठों के हाथों से सदा के लिए जाता रहा। अब पंजाब में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए केवल दो ही शक्तियाँ-अफ़गान एवं सिख रह गईं। इस प्रकार सिखों के उत्थान का कार्य काफी सुगम हो गया। उन्होंने अफ़गानों को पराजित करके पंजाब में अपना शासन स्थापित कर लिया।

5. भारत में अंग्रेजों की शक्ति का उत्थान (Rise of British Power in India)-भारत में अंग्रेजों को अपने साम्राज्य विस्तार के मार्ग में सबसे अधिक चुनौती मराठों की थी। मराठों की ज़बरदस्त पराजय ने अंग्रेज़ों को अपनी सत्ता स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। प्रसिद्ध इतिहासकारों पी० एन० चोपड़ा, टी० के० रविंद्रन तथा एन० सुब्रहमनीयन का कथन है कि,
“पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों के लिए बहुत विनाशकारी सिद्ध हुई।”2

2. “The third battle of Panipat proved disastrous to the Marathas.” P.N. Chopra, T.K. Ravindran and N. Subrahmanian, History of South India (Delhi : 1979) Vol. 2, p. 170.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

मराठों की असफलता के कारण (Causes of the Maratha’s Defeat)

प्रश्न 4.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the reasons of failure of the Marathas in the Third Battle of Panipat ?)
उत्तर-
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को घोर पराजय का सामना करना पड़ा। इस लड़ाई में मराठों की पराजय के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. अफ़गानों की शक्तिशाली सेना (Powerful army of the Afghans)—पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय का एक मुख्य कारण अफ़गानों की शक्तिशाली सेना थी। यह सेना मराठा सेना की तुलना में कहीं अधिक प्रशिक्षित, अनुशासित एवं संगठित थी। इसके अतिरिक्त उनका तोपखाना भी बहुत शक्तिशाली था। अत: मराठा सेना उनका सामना न कर सकी।

2. अहमदशाह अब्दाली का योग्य नेतृत्व (Able Leadership of Ahmad Shah Abdali)-अहमद शाह अब्दाली एक बहुत ही अनुभवी सेनापति था। उसकी गणना एशिया के प्रसिद्ध सेनापतियों में की जाती थी। दूसरी ओर मराठा सेनापतियों सदाशिव राव भाऊ तथा विश्वास राव को युद्ध संचालन का कोई अनुभव न था। ऐसी सेना की पराजय निश्चित थी।

3. मराठों की लूटमार की नीति (Policy of Plunder of the Marathas)-मराठों की पराजय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि वे विजित किए क्षेत्रों में भयंकर लूटमार करते थे। उनकी इस नीति के कारण राजपूताना, हैदराबाद, अवध, रुहेलखंड तथा मैसूर की रियासतें मराठों के विरुद्ध हो गईं। अतः उन्होंने मराठों को इस संकट के समय कोई सहायता न दी। परिणामस्वरूप मराठों की पराजय को टाला नहीं जा सकता था।

4. छापामार युद्ध प्रणाली का परित्याग (Renounced the Guerilla Method of Warfare)-मराठों का मूल प्रदेश पहाड़ी एवं जंगली था। इस प्रदेश की भौगोलिक स्थिति के कारण मराठे छापामार युद्ध प्रणाली में निपुण थे। इस कारण उन्होंने अनेक आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त की थीं। परंतु पानीपत की तीसरी लड़ाई में उन्होंने छापामार युद्ध प्रणाली को त्याग कर सीधे मैदानी लड़ाई में अब्दाली के साथ मुकाबला करने की भयंकर भूल की। परिणामस्वरूप मराठों की पराजय हुई।

5. मुस्लिम रियासतों द्वारा अब्दाली को सहयोग (Cooperation of Muslim States to Abdali)पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली की विजय का प्रमुख कारण यह था कि उसे भारत की अनेक मुस्लिम रियासतों का सहयोग प्राप्त हुआ। इससे अब्दाली का प्रोत्साहन बढ़ गया। परिणामस्वरूप वह मराठों को पराजित कर सका।

6. मराठों की आर्थिक कठिनाइयाँ (Economic difficulties of the Marathas)-मराठों की पराजय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण उनकी आर्थिक कठिनाइयाँ थीं। धन के अभाव के कारण मराठे न तो अपने सैनिकों के लिए युद्ध सामग्री ही जुटा सके तथा न ही आवश्यक भोजन। ऐसी सेना की पराजय को कौन रोक सकता था ?

7. सदाशिव राव भाऊ की भयंकर भूल (Blunder of Sada Shiv Rao Bhau)-जिस समय पानीपत की तीसरी लड़ाई चल रही थी तो उस समय पेशवा का बेटा विश्वास राव मारा गया था। जब यह सूचना सदाशिव राव भाऊ को मिली तो वह श्रद्धांजलि अर्पित करने के उद्देश्य से अपने हाथी से नीचे उतर गया। उसके हाथी का हौदा खाली देख मराठा सैनिकों ने समझा कि सदाशिव राव भाऊ भी युद्ध क्षेत्र में मारा गया है। अतः उनमें भगदड़ मच गई तथा देखते-ही-देखते मैदान साफ़ हो गया।

प्रश्न 5.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के कारणों, इसके परिणामों तथा इसमें मराठों की हार के कारणों का वर्णन कीजिए।
(Describe the causes, results and causes of failure of Marathas in the Third Battle of Panipat.)
उत्तर–
कारण (Causes)-पानीपत की तीसरी लड़ाई के लिए निम्नलिखित मुख्य कारण उत्तरदायी थे—
1. मराठों द्वारा रुहेलखंड की लूटमार (Plunder of Ruhelkhand by the Marathas)-रुहेलखंड पर रुहेलों का राज्य था। मराठों ने उन्हें पराजित कर दिया। रुहेले अफ़गान होने के नाते अहमद शाह अब्दाली के सजातीय थे। अतः उन्होंने अब्दाली को इस अपमान का बदला लेने के लिए निमंत्रण दिया।

2. मराठों की हिंदू राज्य स्थापित करने की नीति (Policy of establishing Hindu Kingdom by the Marathas)-मराठे निरंतर अपनी शक्ति में वृद्धि करते चले आ रहे थे। इससे प्रोत्साहित होकर पेशवाओं ने भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित करने की घोषणा की। इससे मुस्लिम राज्यों के लिए एक गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया। अतः इन राज्यों ने अपनी सुरक्षा के लिए अब्दाली को मराठों का दमन करने के लिए प्रेरित किया।

3. हिंदुओं में एकता का अभाव (Lack of Unity among the Hindus)-मराठों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण भारत में जाट एवं राजपूत मराठों से ईर्ष्या करने लगे। इसका प्रमुख कारण यह था कि वे स्वयं भारत में अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे। हिंदुओं की इस आपसी फूट को अब्दाली ने भारत पर आक्रमण करने का एक स्वर्ण अवसर समझा।

4. मराठों का दिल्ली एवं पंजाब पर अधिकार (Occupation of Delhi and Punjab by Marathas)अहमद शाह अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब तथा 1756 ई० में दिल्ली पर आधिपत्य कर लिया था। उसने पंजाब में अपने बेटे तैमूर शाह तथा दिल्ली के रुहेला नेता नजीब-उद-दौला को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। मराठों ने 1757 ई० में दिल्ली तथा 1758 ई० में पंजाब पर अधिकार कर लिया। मराठों की ये दोनों विजयें अहमद शाह अब्दाली की शक्ति को एक चुनौती थीं। इसलिए उसने मराठों तथा सिखों को सबक सिखाने का निर्णय किया।

पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को घोर पराजय का सामना करना पड़ा। इस लड़ाई में मराठों की पराजय के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

1. अफ़गानों की शक्तिशाली सेना (Powerful army of the Afghans)—पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय का एक मुख्य कारण अफ़गानों की शक्तिशाली सेना थी। यह सेना मराठा सेना की तुलना में कहीं अधिक प्रशिक्षित, अनुशासित एवं संगठित थी। इसके अतिरिक्त उनका तोपखाना भी बहुत शक्तिशाली था। अत: मराठा सेना उनका सामना न कर सकी।

2. अहमदशाह अब्दाली का योग्य नेतृत्व (Able Leadership of Ahmad Shah Abdali)-अहमद शाह अब्दाली एक बहुत ही अनुभवी सेनापति था। उसकी गणना एशिया के प्रसिद्ध सेनापतियों में की जाती थी। दूसरी ओर मराठा सेनापतियों सदाशिव राव भाऊ तथा विश्वास राव को युद्ध संचालन का कोई अनुभव न था। ऐसी सेना की पराजय निश्चित थी।

3. मराठों की लूटमार की नीति (Policy of Plunder of the Marathas)-मराठों की पराजय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि वे विजित किए क्षेत्रों में भयंकर लूटमार करते थे। उनकी इस नीति के कारण राजपूताना, हैदराबाद, अवध, रुहेलखंड तथा मैसूर की रियासतें मराठों के विरुद्ध हो गईं। अतः उन्होंने मराठों को इस संकट के समय कोई सहायता न दी। परिणामस्वरूप मराठों की पराजय को टाला नहीं जा सकता था।

4. छापामार युद्ध प्रणाली का परित्याग (Renounced the Guerilla Method of Warfare)-मराठों का मूल प्रदेश पहाड़ी एवं जंगली था। इस प्रदेश की भौगोलिक स्थिति के कारण मराठे छापामार युद्ध प्रणाली में निपुण थे। इस कारण उन्होंने अनेक आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त की थीं। परंतु पानीपत की तीसरी लड़ाई में उन्होंने छापामार युद्ध प्रणाली को त्याग कर सीधे मैदानी लड़ाई में अब्दाली के साथ मुकाबला करने की भयंकर भूल की। परिणामस्वरूप मराठों की पराजय हुई।

5. मुस्लिम रियासतों द्वारा अब्दाली को सहयोग (Cooperation of Muslim States to Abdali)पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली की विजय का प्रमुख कारण यह था कि उसे भारत की अनेक मुस्लिम रियासतों का सहयोग प्राप्त हुआ। इससे अब्दाली का प्रोत्साहन बढ़ गया। परिणामस्वरूप वह मराठों को पराजित कर सका।

6. मराठों की आर्थिक कठिनाइयाँ (Economic difficulties of the Marathas)-मराठों की पराजय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण उनकी आर्थिक कठिनाइयाँ थीं। धन के अभाव के कारण मराठे न तो अपने सैनिकों के लिए युद्ध सामग्री ही जुटा सके तथा न ही आवश्यक भोजन। ऐसी सेना की पराजय को कौन रोक सकता था ?

7. सदाशिव राव भाऊ की भयंकर भूल (Blunder of Sada Shiv Rao Bhau)-जिस समय पानीपत की तीसरी लड़ाई चल रही थी तो उस समय पेशवा का बेटा विश्वास राव मारा गया था। जब यह सूचना सदाशिव राव भाऊ को मिली तो वह श्रद्धांजलि अर्पित करने के उद्देश्य से अपने हाथी से नीचे उतर गया। उसके हाथी का हौदा खाली देख मराठा सैनिकों ने समझा कि सदाशिव राव भाऊ भी युद्ध क्षेत्र में मारा गया है। अतः उनमें भगदड़ मच गई तथा देखते-ही-देखते मैदान साफ़ हो गया।

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अहमद शाह अब्दाली की असफलता के कारण (Causes of the Failure of Ahmad Shah Abdali)

प्रश्न 6.
सिखों के विरुद्ध संघर्ष में अहमद शाह अब्दाली की असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of failure of Ahmad Shah Abdali in his struggle against the Sikhs ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the reasons of failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs ?)
अथवा
उन कारणों की ध्यानपूर्वक चर्चा कीजिए जिस कारण अहमद शाह अब्दाली अंतिम रूप में सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।
(Examine carefully the causes of Ahmad Shah Abdali’s ultimate failure to suppress the Sikh power.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध सिखों की सफलता के महत्त्वपूर्ण कारणों की व्याख्या करें।
(Explain the important causes of the success of the Sikhs against Ahmad Shah Abdali.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली एक महान् योद्धा और वीर सेनापति था। उसने बहुत से क्षेत्रों पर अधिकार करके उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। उसने भारत की दो महान् शक्तियों मुग़लों तथा मराठों को कड़ी पराजय दी थी। इसके बावजूद अब्दाली सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा। उसकी असफलता या सिखों की जीत के निम्नलिखित कारण हैं—

1. सिखों का दृढ़ निश्चय (Tenacity of the Sikhs) अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक मुख्य कारण सिखों का दृढ़ निश्चय था। अब्दाली ने उन पर भारी अत्याचार किए, परंतु उनका हौसला बुलंद रहा। वे चट्टान की तरह अडिग रहे। बड़े घल्लूघारे में 25,000 से 30,000 सिख मारे गए परंतु सिखों के हौंसले बुलंद रहे। ऐसी कौम को हराना कोई आसान कार्य न था।

2. गुरिल्ला युद्ध नीति (Guerilla tactics of War)-सिखों द्वारा अपनाई गई गुरिल्ला युद्ध नीति अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक मुख्य कारण बनी। जब भी अब्दाली सिखों के विरुद्ध कूच करता, सिख तुरंत जंगलों व पहाड़ों में जा शरण लेते। वे अवसर देखकर अब्दाली की सेनाओं पर आक्रमण करते और लुटमार करके फिर वापस जंगलों में चले जाते । इन छापामार युद्धों ने अब्दाली की नींद हराम कर दी थी। प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह के अनुसार,
“सिखों के साथ लड़ना इस तरह व्यर्थ था जिस तरह हवा को बाँधने का यत्न करना।”3

3. अब्दाली द्वारा कम सैनिकों की तैनाती (Abdali left insufficient Soldiers)-अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक मुख्य कारण यह था कि वह सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए अधिक सैनिकों की तैनाती न कर सका। परिणामस्वरूप वह सिखों की शक्ति न कुचल सका।

4. अब्दाली के अयोग्य प्रतिनिधि (Incapable representatives of Abdali)-अहमद शाह अब्दाली की हार का महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि पंजाब में उस द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधि अयोग्य थे। उसका पुत्र तैमूरशाह एक बहुत ही निकम्मा शासक सिद्ध हुआ। इसी प्रकार लाहौर का सूबेदार ख्वाजा उबैद खाँ भी अपने पद के लिए अयोग्य था। अतः पंजाब में सिख शक्तिशाली होने लगे।

5. पंजाब के लोगों का असहयोग (Non-Cooperation of the People of the Punjab)-अहमद शाह अब्दाली की पराजय का एक प्रमुख कारण यह था कि उसको पंजाब के नागरिकों का सहयोग प्राप्त न हो सका। उसने अपने बार-बार आक्रमणों के दौरान न केवल लोगों की धन-संपत्ति को ही लूटा, अपितु हज़ारों निर्दोष लोगों का कत्ल भी किया। परिणामस्वरूप पंजाब के लोगों की उसके साथ किसी प्रकार की कोई सहानुभूति नहीं थी। ऐसी स्थिति में अहमद शाह अब्दाली द्वारा पंजाब पर विजय प्राप्त करना एक स्वप्न समान था।

6. ज़मींदारों का सहयोग (Zamindars’ Cooperation)-सिख-अफ़गान संघर्ष में पंजाब के ज़मींदारों ने सिखों को हर प्रकार का सहयोग दिया। वे जानते थे कि अब्दाली ने पुनः अफ़गानिस्तान चले जाना है और सिखों के साथ उनका संबंध सदैव रहना है। वे सिखों के विरुद्ध कोई कार्यवाई करके उन्हें अपना शत्रु नहीं बनाना चाहते थे। ज़मींदारों का सहयोग सिख शक्ति के विकास के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुआ।

7. सिखों का चरित्र (Character of the Sikhs)-सिखों का चरित्र अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक अन्य कारण बना। सिख प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहते थे। वे युद्ध के मैदान में किसी भी निहत्थे पर वार नहीं करते थे। वे स्त्रियों एवं बच्चों का पूर्ण सम्मान करते थे चाहे उनका संबंध शत्रु के साथ क्यों न हो। इन गुणों के परिणामस्वरूप सिख पंजाबियों में अत्यंत लोकप्रिय हो गए थे। इसलिए अब्दाली के विरुद्ध उनका सफल होना कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है।

8. सिखों के योग्य नेता (Capable Leaders of the Sikhs)-अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध सिखों की जीत का एक और महत्त्वपूर्ण कारण उनके योग्य नेता थे। इन नेताओं ने बड़ी योग्यता और समझदारी से सिखों को नेतृत्व प्रदान किया। इन नेताओं में प्रमुख नवाब कपूर सिंह, जस्सा सिंह आहलूवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया तथा आला सिंह थे।

9. अमृतसर का योगदान (Contribution of Amritsar) सिख अमृतसर को अपना मक्का समझते थे। 18वीं सदी में सिख अपने शत्रुओं पर आक्रमण करने से पूर्व हरिमंदिर साहिब में एकत्रित होते और पवित्र सरोवर में स्नान करते। वे अकाल तख्त साहिब में अपने गुरमत्ते पास करते जिसका पालन करना प्रत्येक सिख अपना धार्मिक कर्त्तव्य समझता था। अमृतसर सिखों की एकता और स्वतंत्रता का प्रतीकं बन गया था। अहमद शाह अब्दाली ने हरिमंदिर साहिब पर आक्रमण करके सिखों की शक्ति का अंत करने का प्रयास किया, परंतु उसे सफलता प्राप्त न हुई।

10. अफ़गानिस्तान में विद्रोह (Revolts in Afghanistan)-अहमद शाह अब्दाली का साम्राज्य काफ़ी विशाल था। जब कभी भी अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण किया तो अफ़गानिस्तान में किसी-न-किसी ने विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। इन विद्रोहों के कारण अब्दाली पंजाब की ओर पूरा ध्यान न दे सका। सिखों ने इस स्थिति का पूर्ण लाभ उठाया और वे अब्दाली द्वारा जीते हुए प्रदेशों पर पुनः अपना अधिकार जमा लेते। परिणामस्वरूप अब्दाली सिखों की शक्ति को कुचलने में असफल रहा।

3. “Fighting the Sikhs was like trying to catch the wind in a net.” Khushwant Singh, History of the Sikhs (New Delhi : 1981) p. 276.

अब्दाली के आक्रमणों के पंजाब पर प्रभाव (Effects of Abdali’s Invasions on the Punjab)

प्रश्न 7.
अहमद शाह अब्दाली द्वारा पंजाब पर किए गए हमलों के प्रभाव लिखिए।
(Narrate the effects of the invasions of Ahmad Shah Abdali on the Punjab.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के पंजाब पर राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रभावों का वर्णन करें।
(Study the political, social and economic effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions on the Punjab.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के विभिन्न परिणामों का सर्वेक्षण करें। (Examine the various effects of the invasions of Ahmad Shah Abdali.)
अथवा
पंजाब के इतिहास पर अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के क्या प्रभाव पड़े ?
(What were the effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions on the Punjab History ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के हमलों के पंजाब के ऊपर क्या प्रभाव पड़े ? विस्तार के साथ बताएँ।
(What were the effects of Ahmad Shah Abdali on Punjab ? Discuss in detail.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली ने 1747 ई० से लेकर 1767 ई० तक पंजाब पर आठ बार आक्रमण किए। उसके इन आक्रमणों ने पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित किया। इन प्रभावों का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित प्रकार है—

(क) राजनीतिक प्रभाव
(Political Effects)
1. पंजाब में मुग़ल काल का अंत (End of the Mughal Rule in the Punjab)-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों का पंजाब के इतिहास पर पहला महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा कि पंजाब में मुग़ल शासन का अंत हो गया। मीर मन्नू पंजाब में मुग़लों का अंतिम सूबेदार था। अब्दाली ने मीर मन्नू को ही अपनी तरफ से पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया। मुग़लों ने पुनः पंजाब पर अधिकार करने का प्रयत्न किया पर अब्दाली ने इन प्रयत्नों को सफल न होने दिया। अतः पंजाब में मुग़लों के शासन का अंत हो गया।

2. पंजाब में मराठा शक्ति का अंत (End of Maratha Power in the Punjab)-अदीना बेग के निमंत्रण पर 1758 ई० में मराठों ने तैमूर शाह को हराकर पंजाब पर अपना अधिकार कर लिया। उन्होंने अदीना बेग को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया, परंतु उसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गई। उसके बाद मराठों ने सांभा जी को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दाली ने 14 जनवरी, 1761 ई० को पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को कड़ी पराजय दी। इस पराजय के फलस्वरूप पंजाब से मराठों की शक्ति का सदा के लिए अंत हो गया।

3. सिख शक्ति का उदय (Rise of the Sikh Power)-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के परिणामस्वरूप पंजाब से मुग़ल और मराठा शक्ति का अंत हो गया। पंजाब पर कब्जा करने के लिए अब यह संघर्ष केवल दो शक्तियों अफ़गान और सिखों के मध्य ही रह गया था। सिखों ने अपने छापामार युद्धों के द्वारा अब्दाली की रातों की नींद हराम कर दी। अब्दाली ने 1762 ई० में बड़े घल्लूघारे में कई हज़ारों सिखों को शहीद किया, परंतु उनके हौंसले बुलंद रहे। उन्होंने 1764 ई० में सरहिंद और 1765 ई० में लाहौर पर कब्जा कर लिया था। सिखों ने अपने सिक्के चला कर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

4. पंजाब में अराजकता (Anarchy in the Punjab)-1747 ई० से 1767 ई० के दौरान अहमद शाह अब्दाली के हमलों के परिणामस्वरूप पंजाब में अशांति तथा अराजकता फैल गई। सरकारी कर्मचारियों ने लोगों को लूटना शुरू कर दिया। न्याय नाम की कोई चीज़ नहीं रही थी। ऐसी स्थिति में पंजाब के लोगों के कष्टों में बहत बढ़ौतरी हुई।

(ख) सामाजिक प्रभाव
(Social Effects)
1. सामाजिक बुराइयों में बढ़ौतरी (Increase in the Social Evils)-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब में सामाजिक बुराइयों में बहुत बढ़ौतरी हुई। लोग बहुत स्वार्थी और चरित्रहीन हो गए थे। चोरी, डाके, कत्ल, लूटमार, धोखेबाज़ी और रिश्वतखोरी का समाज में बोलबाला था। इन बुराइयों के कारण लोगों का नैतिक स्तर बहुत गिर गया था।

2. पंजाब के लोगों का बहादुर होना (People of Punjab became Brave)-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाबी लोगों को बहुत बहादुर और निडर बना दिया था। इसका कारण यह था कि अब्दाली के आक्रमणों से रक्षा के लिए यहाँ के लोगों को शस्त्र उठाने पड़े। उन्होंने अफ़गानों के साथ हुए युद्धों में बहादुरी की शानदार मिसालें कायम की। 7. पंजाबियों का खर्चीला स्वभाव (Punjabis became Spendthrift)-अहमद शाह अब्दाली के हमलों के कारण पंजाब के लोगों में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। अब वे अधिक धन व्यय करने लगे। वे खानेपीने तथा मौज उड़ाने में विश्वास करने लगे। उस समय यह कहावत प्रसिद्ध हो गई थी “खादा पीता लाहे दा रहंदा अहमद शाहे दा।”

3. सिखों और मुसलमानों की शत्रुता में वृद्धि (Enmity between the Sikhs and Muslims Increased)-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण सिखों और मुसलमानों में आपसी शत्रुता और बढ़ गई। इसका कारण यह था कि अफ़गानों ने इस्लाम के नाम पर सिखों पर बहुत अत्याचार किए। दूसरा, अब्दाली ने सिखों के सबसे पवित्र धार्मिक स्थान हरिमंदिर साहिब को ध्वस्त करके सिखों को अपना कट्टर शत्रु बना लिया। अतः सिखों और अफ़गानों के बीच शत्रुता दिनों-दिन बढ़ती चली गई।

(ग) आर्थिक तथा साँस्कृतिक प्रभाव .
(Economic and Cultural Effects)
1. पंजाब की आर्थिक हानि (Economic Loss of the Punjab)-अहमद शाह अब्दाली अपने प्रत्येक आक्रमण में पंजाब से भारी मात्रा में लूट का माल साथ ले जाता था। अफ़गानी सेनाएँ कूच करते समय खेतों का विनाश कर देती थीं। पंजाब में नियुक्त भ्रष्ट कर्मचारी भी लोगों को प्रत्येक पक्ष से लूटने में कोई प्रयास शेष न छोड़ते थे। परिणामस्वरूप अराजकता और लूटमार के इस वातावरण में पंजाब के व्यापार को बहुत भारी हानि हुई। इस कारण पंजाब की समृद्धि पंख लगा कर उड़ गई।

2. कला और साहित्य को भारी धक्का (Great Blow to Art and Literature)-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के दौरान बहुत-से सुंदर भवनों, गुरुद्वारों और मंदिरों इत्यादि को ध्वस्त कर दिया गया। कई वर्षों तक पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा। अशांति और अराजकता का यह वातावरण नई कला कृतियों और साहित्य रचनाओं के लिए भी अनुकूल नहीं था। अत: अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब में कला और साहित्य के विकास को गहरा धक्का लगाया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० गाँधी के इन शब्दों से सहमत हैं,
“अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों ने जीवन के प्रत्येक पक्ष पर बहुमुखी प्रभाव डाले।”4

4. “The invasions of Ahmad Shah Abdali exercised manyfold effects, covering almost all aspects of life.” S.S. Gandhi, op. cit., p. 257.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली कौन था ? उसके पंजाब पर आक्रमणों के क्या कारण थे ?
(Who was Ahmad Shah Abdali ? What were the reasons of his Punjab invasions ?)
अथवा
पंजाब पर अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के मुख्य कारण लिखिए। (Write the causes of the attacks of Ahmad Shah Abdali on the Punjab.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के कोई तीन कारण बताएँ। (Write any three causes of the invasions of Ahmad Shah Abdali on Punjab.).
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक था। उसके पंजाब पर आक्रमणों के कई कारण थे। पहला, अहमद शाह अब्दाली अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। दूसरे, वह पंजाब से धन प्राप्त करके अपनी स्थिति सुदृढ़ करना चाहता था। तीसरा, वह पंजाब पर अधिकार कर अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि करना चाहता था। चौथा, उस समय मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला की नीतियों के कारण भारत में अस्थिरता फैली हुई थी। अहमद शाह अब्दाली इस अवसर का लाभ उठाना चाहता था।

प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली के प्रथम आक्रमण के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the first invasion of Ahmad Shah Abdali ?)
अथवा
पंजाब पर अब्दाली के प्रथम आक्रमण पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Abdali’s first invasion on Punjab.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का बादशाह था। उसने पंजाब के सूबेदार शाहनवाज़ खाँ के निमंत्रण पर भारत पर आक्रमण करने का निर्णय किया। उसने शाहनवाज़ खाँ को पराजित करके 10 जनवरी, 1748 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद वह दिल्ली की ओर बढ़ा। मन्नूपुर में 11 मार्च, 1748 ई० को एक घमासान युद्ध में मुइन-उल-मुल्क ने अब्दाली को करारी हार दी। मुइन-उल-मुल्क की इस वीरता से प्रभावित होकर मुहम्मद शाह ने उसे लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। वह मीर मन्नू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार अब्दाली का प्रथम आक्रमण असफल रहा।

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प्रश्न 3.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर दूसरे आक्रमण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(Briefly explain the second invasion of Ahmad Shah Abdali on Punjab.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के दूसरे आक्रमण का संक्षेप में वर्णन करें। (Give a brief account of the second invasion of Ahmad Shah Abdali.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली को अपने पहले आक्रमण के दौरान पराजय का सामना करना पड़ा। वह इसका बदला लेना चाहता था। दूसरा, वह जानता था कि दिल्ली का नया वज़ीर सफदर जंग मीर मन्नू के साथ ईर्ष्या करता है। इस कारण मीर मन्नू की स्थिति डावाँडोल थी। परिणामस्वरूप अहमद शाह अब्दाली ने 1748 ई० के अंत में पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। दिल्ली से कोई सहायता न मिलने के कारण मीर मन्नू ने अब्दाली के साथ संधि कर ली। इस संधि के अनुसार मीर मन्न ने पंजाब के चार महलों (जिलों) स्यालकोट, पसरूर, गुजरात और औरंगाबाद का वार्षिक लगान अब्दाली को देना मान लिया।

प्रश्न 4.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब के तीसरे आक्रमण पर प्रकाश डालें (Throw light on the third invasion of Ahmad Shah Abdali on Punjab.)
उत्तर-
अब्दाली ने नवंबर, 1751 ई० में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण किया। लाहौर पहुँच कर अब्दाली ने 3 महीनों तक भयंकर लूटमार मचाई। 6 मार्च, 1752 ई० को लाहौर के निकट अहमद शाह अब्दाली और मीर मन्नू की सेनाओं के बीच भीषण लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मीर मन्नू पराजित हुआ तथा उसे बंदी बना लिया गया। अब्दाली मीर मन्नू की निर्भीकता एवं साहस से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसे अपनी ओर से पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

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प्रश्न 5.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब के चौथे आक्रमण का वर्णन करें। (Explain the fourth invasion of Ahmad Shah Abdali on Punjab.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली ने नवंबर, 1756 ई० में पंजाब पर चौथी बार आक्रमण किया । इस आक्रमण का समाचार सुन कर पंजाब का सूबेदार अदीना बेग़ बिना मुकाबला किए दिल्ली भाग गया। अब्दाली ने अपने पुत्र तैमूर शाह को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। अमृतसर के निकट सिखों एवं अफ़गानों में हुए एक घमासान युद्ध में बाबा दीप सिंह जी ने 11 नवंबर, 1757 ई० को शहीदी प्राप्त की। सिखों ने इस शहीदी का बदला लेने का निश्चय किया।

प्रश्न 6.
तैमूर शाह कौन था ?
(Who was Timur Shah ?)
उत्तर-
तैमूर शाह अफ़गानिस्तान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली का पुत्र एवं उसका उत्तराधिकारी था। अहमद शाह अब्दाली ने उसे 1757 ई० में पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। अपने पिता की तरह तैमूर शाह सिखों का कट्टर दुश्मन था। उसने सिखों के प्रसिद्ध दुर्ग रामरौणी को नष्ट कर दिया था। इसके अतिरिक्त उसने हरिमंदिर साहिब, अमृतसर के पवित्र सरोवर को भी गंदगी से भरवा दिया था। परिणामस्वरूप 1758 ई० में सिखों ने मराठों एवं अदीना बेग के साथ मिलकर तैमूर शाह को पंजाब से भागने पर बाध्य कर दिया।

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प्रश्न 7.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के तीन कारण बताएँ। (Write the main three causes of the Third Battle of Panipat.)
अथवा
पानीपत की तीसरी लड़ाई के कोई तीन कारण बताएँ।
(Write any three causes of the Third Battle of Panipat.)
उत्तर-

  1. मराठों द्वारा रुहेलखंड में की गई लूटमार के कारण रुहेल मराठों के विरुद्ध हो गए।
  2. मराठे भारत में हिंदू शासन को स्थापित करना चाहते थे। इसलिए मुस्लमान उनके विरुद्ध हो गए।
  3. मराठों ने दिल्ली और पंजाब पर अधिकार कर लिया था। इसे अब्दाली सहन नहीं कर सकता था।
  4. भारत में मराठों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण जाट और राजपूत उनसे ईर्ष्या करने लग गए थे।

प्रश्न 8.
पानीपत की तीसरी लड़ाई पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Third Battle of Panipat.)
उत्तर–
पानीपत की तीसरी लड़ाई का पंजाब तथा भारत के इतिहास में विशेष स्थान है। यह लड़ाई 14 जनवरी, 1761 ई० को मराठों और अहमद शाह अब्दाली के मध्य हुई। पानीपत के मैदान में अब्दाली तथा मराठों के मध्य एक घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिव राव भाऊ कर रहा था। इस लड़ाई में मराठों को ज़बरदस्त पराजय का सामना करना पड़ा। उनके बड़ी संख्या में सैनिक मारे गए। परिणामस्वरूप मराठों की शक्ति को एक गहरा धक्का पहुँचा। पानीपत की तीसरी लड़ाई का वास्तविक लाभ सिखों को मिला तथा उनकी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हो गई।

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प्रश्न 9.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के क्या परिणाम निकले ? (What were the results of the Third Battle of Panipat ?)
अथवा
पानीपत की तीसरी लड़ाई के कोई तीन नतीजे लिखिए।
(Write down any three results of the Third Battle of Panipat.)
उत्तर-
पानीपत की तीसरी लडाई के दूरगामी परिणाम निकले। इस लड़ाई में मराठों की भारी जान और माल की क्षति हुई। पेशवा बालाजी बाजी राव इस अपमानजनक पराजय का शोक सहन न कर सका एवं वह शीघ्र ही इस दुनिया को अलविदा कह गया। इस लड़ाई में उनकी पराजय से मराठों की शक्ति एवं सम्मान को गहरा धक्का लगा। परिणामस्वरूप भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित करने का मराठों का स्वप्न धराशायी हो गया। इस लड़ाई में पराजय के कारण मराठे आपसी झगड़ों में उलझ गए। इस कारण उनकी आपस में एकता समाप्त हो गई।

प्रश्न 10.
बड़ा घल्लूघारा (दूसरा खूनी हत्याकांड) पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
[Write a short note on Wadda Ghallughara (Second Bloody Carnage).]
अथवा
दूसरे बड़े घल्लूघारे पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on Second Big Ghallughara.)
अथवा
बड़ा घल्लूघारा (अहमद शाह अब्दाली का छठा हमला) पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
[Write a brief note on Wadda Ghallughara (Sixth invasion of Ahmad Shah Abdali.)]
अथवा
दूसरे अथवा बड़े घल्लूघारे पर संक्षेप नोट लिखो। .
(Write a short note on Second or Wadda Ghallughara.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली सिखों के इस बढ़ते हुए प्रभाव को कुचलना चाहता था। उसने 5 फरवरी, 1762 ई० को सिखों को मालेरकोटला के निकट गाँव कुप में घेर लिया। इस घेराव में 25 से 30 हज़ार सिखों की हत्या कर दी गई। सिख इतिहास में यह घटना बड़ा घल्लूघारा के नाम से जानी जाती है। इस घल्लूघारे में सिखों की भारी प्राण हानि से अब्दाली को विश्वास था कि इससे सिखों की शक्ति को गहरा आघात लगेगा जो गलत प्रमाणित हुआ।

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प्रश्न 11.
अफ़गानों के विरुद्ध लड़ाई में सिखों ने अपनी शक्ति किस प्रकार संगठित की? (How did the Sikhs organise their power in their struggle against the Afghans ?).
उत्तर-

  1. अफग़ानों के विरुद्ध लड़ाई में सिखों ने अपने आपको जत्थों में संगठित कर लिया।
  2. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की उपस्थिति में सरबत खालसा द्वारा प्रस्ताव पास किए जाते थे। गुरमता का सभी सिख पालन करते थे।
  3. अहमद शाह अब्दाली कई वर्षों तक अफ़गानिस्तान में होने वाले विद्रोहों के कारण सिखों की ओर ध्यान नहीं दे सका था।
  4. पंजाब के लोगों एवं ज़मींदारों ने भी सिख-अफ़गान संघर्ष में सिखों को पूर्ण सहयोग दिया।

प्रश्न 12.
सिखों की शक्ति को कुचलने में अहमद शाह अब्दाली असफल क्यों रहा ?
What were the causes of failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली की सिखों के विरुद्ध असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के सिखों के विरुद्ध असफलता के कारण लिखें। (Write causes of the failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs.)
उत्तर-

  1. सिखों की जीत का सबसे बड़ा कारण उनका दृढ़ निश्चय और आत्म-विश्वास था। उन्होंने अब्दाली के घोर अत्याचारों के बावजूद भी उत्साह न छोड़ा।
  2. सिखों ने छापामार युद्ध नीति अपनाई। परिणामस्वरूप वे अब्दाली को मात देने में सफल रहे।
  3. अफ़गानिस्तान में बार-बार विद्रोह हो जाने के कारण अब्दाली के सैनिक परेशान हो चुके थे।
  4. सिखों के नेता भी बड़े योग्य थे। वे शत्रुओं के विरुद्ध एकजुट होकर लड़े।

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प्रश्न 13.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब पर क्या राजनीतिक प्रभाव डाला ?
(What were the political effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions over Punjab ?)
उत्तर-

  1. अहमद शाह अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब को अफ़गानिस्तान में शामिल कर लिया।
  2. अब्दाली ने 1761 ई० में पानीपत की तीसरी लड़ाई के परिणामस्वरूप पंजाब में मराठों की शक्ति का अंत कर दिया।
  3. अहमद शाह अब्दाली के लगातार आक्रमणों के कारण पंजाब में अराजकता फैल गई।
  4. पंजाब में सिखों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला।

प्रश्न 14.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब पर पड़े महत्त्वपूर्ण प्रभावों का वर्णन करो।
(Describe important effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions over Punjab.)
उत्तर-

  1. पंजाब को 1752 ई० में अफ़गानिस्तान में सम्मिलित कर लिया गया। परिणामस्वरूप पंजाब से सदैव के लिए मुग़ल शक्ति का अंत हो गया।
  2. अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब को भारी आर्थिक हानि का सामना करना पड़ा।
  3. अब्दाली ने आक्रमणों के दौरान अनेक ऐतिहासिक इमारतों और साहित्य को नष्ट कर दिया था।
  4. अब्दाली के इन आक्रमणों के कारण पंजाबियों ने धन को जोड़ने की अपेक्षा उसे खुला खर्च करना आरंभ कर दिया।
  5. इन हमलों के कारण पंजाबी निडर और बहादुर बन गए।

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प्रश्न 15.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के क्या सामाजिक प्रभाव पड़े ?
(What were the social effects of the invasions of Ahmad Shah Abdali ?)
उत्तर-

  1. पंजाबियों के चरित्र में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। अब वे अधिक धन व्यय करने लगे।
  2. अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब में अनाचार को बढ़ावा मिला।
  3. लोग बहुत स्वार्थी हो गए थे। वे कोई पाप करने से नहीं डरते थे।
  4. अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के परिणामस्वरूप पंजाब के लोग बहादुर और निडर बन गए।
  5. अब्दाली के आक्रमणों के दौरान लूटमार के कारण सिखों एवं मुसलमानों में आपसी शत्रुता बढ़ गई।

प्रश्न 16.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के क्या आर्थिक परिणाम निकले ?
(What were the economic consequences of the invasions of Ahmad Shah Abdali ?)
उत्तर-

  1. अहमद शाह अब्दाली अपने प्रत्येक आक्रमण के समय भारी संपत्ति लूट कर अपने साथ ले जाता था। इसने पंजाब को कंगाल बना दिया।
  2. अफ़गान सेनाएँ कूच करते समय रास्ते में आने वाले खेतों को उजाड़ देती थीं। इस कारण कृषि का काफी नुकसान हो जाता था।
  3. पंजाब में नियुक्त भ्रष्ट कर्मचारियों ने भी लोगों को प्रत्येक पक्ष से लूटने के लिए कोई प्रयास शेष न छोड़ा।
  4. अराजकता के वातावरण में पंजाब के व्यापार को गहरा आघात लगा।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली कौन था ?
उत्तर-
अफ़गानिस्तान का शासक।

प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली कहाँ का शासक था?
उत्तर-
अफ़गानिस्तान।

प्रश्न 3.
अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर कितनी बार आक्रमण किए ?
उत्तर-
8.

प्रश्न 4.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमणों का एक कारण बताएँ। .
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के भारत पर बार-बार आक्रमण करने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था।

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प्रश्न 5.
अहमद शाह अब्दाली ने किस समय के दौरान पंजाब पर आक्रमण किए ?
उत्तर-
1747 ई० से 1767 ई० के

प्रश्न 6.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर प्रथम आक्रमण कब किया ?
उत्तर-
1747-48 ई०।

प्रश्न 7.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब के ऊपर दूसरा आक्रमण कब किया ?
उत्तर-
1748-1749 ई०।

प्रश्न 8.
मीर मन्नू लाहौर का सूबेदार कब बना ?
उत्तर-
1748 ई०।

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प्रश्न 9.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कब अधिकार कर लिया था ?
अथवा
पंजाब में मुग़ल राज का अंत कब हुआ ?
उत्तर-
1752 ई०।

प्रश्न 10.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब का पहला सूबेदार किसे नियुक्त किया था ?
उत्तर-
मीर मन्नू को।

प्रश्न 11.
अहमद शाह अब्दाली ने मीर मन्नू को किस उपाधि से सम्मानित किया था ?
उत्तर-
फरजंद खाँ बहादुर रुस्तम-ए-हिंद।

प्रश्न 12.
अहमद शाह अब्दाली ने अपने चौथे आक्रमण के दौरान किसे पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया था ?
उत्तर-
तैमूर शाह।

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प्रश्न 13.
तैमूर शाह कौन था ?
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली का पुत्र।

प्रश्न 14.
बाबा दीप सिंह जी कौन थे ?
उत्तर-
शहीद मिसल के प्रसिद्ध नेता।

प्रश्न 15.
बाबा दीप सिंह ने कब तथा कहाँ लड़ते हुए शहीदी प्राप्त की थी ?
उत्तर-
11 नवंबर, 1757 ई० को अमृतसर में।

प्रश्न 16.
मराठों ने पंजाब पर कब अधिकार कर लिया था ?
उत्तर-
1758 ई०।

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प्रश्न 17.
मराठों ने किसे पंजाब का प्रथम सूबेदार नियुक्त किया था ?
उत्तर-
अदीना बेग़ को।

प्रश्न 18.
पानीपत की तीसरी लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
14 जनवरी, 1761 ई०

प्रश्न 19.
पानीपत की तीसरी लड़ाई किनके मध्य हुई?
उत्तर-
मराठों एवं अहमद शाह अब्दाली।

प्रश्न 20.
‘बड़ा घल्लूघारा’ कब हुआ ?
अथवा
दूसरा बड़ा घल्लूघारा कब हुआ ?
उत्तर-
5 फरवरी, 1762 ई०। ।

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प्रश्न 21.
दूसरा घल्लूघारा अथवा बड़ा घल्लूघारा कहाँ हुआ ?
उत्तर-
कुप में।

प्रश्न 22.
बड़ा घल्लूघारा कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
1762 ई० कुप में।

प्रश्न 23.
बड़े घल्लूघारे के लिए कौन जिम्मेवार था ?
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली।

प्रश्न 24.
सिखों ने सरहिंद पर कब अधिकार किया था ?
उत्तर-
14 जनवरी, 1764 ई०।

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प्रश्न 25.
जैन खाँ कौन था?
उत्तर-
1764 ई० में सरहिंद का सूबेदार।

प्रश्न 26.
सिखों ने लाहौर पर कब कब्जा किया ?
उत्तर-
1765 ई०।

प्रश्न 27.
अब्दाली के विरुद्ध सिखों की सफलता का कोई एक मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
सिखों द्वारा अपनाई गई गुरिल्ला-युद्ध नीति।

प्रश्न 28.
अहमद शाह अब्दाली के हमलों का कोई एक प्रभाव लिखें।
उत्तर-
अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब पर अधिकार कर लिया था।

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प्रश्न 29.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमणों का कोई एक मुख्य आर्थिक प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
पंजाब को भारी आर्थिक विनाश का सामना करना पड़ा।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली…………….का शासक था।
उत्तर-
(अफ़गानिस्तान)

प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली 1747 ई० में………..का शासक बना।
उत्तर-
(अफ़गानिस्तान)

प्रश्न 3.
नादर शाह की हत्या के बाद अफ़गानिस्तान का बादशाह ………… बना।
उत्तर-
(अहमद शाह अब्दाली)

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प्रश्न 4.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब के ऊपर कुल ……………. हमले किये।
उत्तर-
(आठ)

प्रश्न 5.
अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर प्रथम बार…………में आक्रमण किया।
उत्तर-
(1747-48 ई०)

प्रश्न 6.
अहमद शाह अब्दाली ने…………में पंजाब पर कब्जा कर लिया।
उत्तर-
(1752 ई०)

प्रश्न 7.
1752 ई० में अहमद शाह अब्दाली ने………….को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया।
उत्तर-
(मीर मन्नू)

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प्रश्न 8.
अहमद शाह अब्दाली ने 1757 ई० में…………….को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया।
उत्तर-
(तैमूर शाह)

प्रश्न 9.
बाबा दीप सिंह जी ने………………को शहीदी प्राप्त की।
उत्तर-
(11 नवंबर, 1757 ई०)

प्रश्न 10.
पानीपत की तीसरी लड़ाई……………………में हुई।
उत्तर-
(14 जनवरी, 1761 ई०)

प्रश्न 11.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के समय मराठों का पेशवा………………था।
उत्तर-
(बालाजी बाजीराव)

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प्रश्न 12.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के समय मराठा सेना का नेतृत्व…………………ने किया था।
उत्तर-
(सदाशिव राव भाऊ)

प्रश्न 13.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में…………………की हार हुई।।
उत्तर-
(मराठों)

प्रश्न 14.
बड़ा घल्लूघारा या दूसरा घल्लूघारा………………..में हुआ।
उत्तर-
(1762 ई०)

प्रश्न 15.
बड़ा घल्लूघारा………………….में हुआ।
उत्तर-
(कुप)

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प्रश्न 16.
1764 ई० में बाबा आला सिंह ने सरहिंद के सूबेदार…………….को कड़ी पराजय दी।
उत्तर-
(जैन खाँ)

प्रश्न 17.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कुल………………..आक्रमण किए।
उत्तर-
(आठ)

प्रश्न 18.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के परिणामस्वरूप पंजाब में……………… राज का अंत हुआ।
उत्तर-
(मुग़ल)

प्रश्न 19.
अहमद शाह अब्दाली की सिखों के हाथों हुई पराजय का एक मुख्य कारण सिखों की………………युद्ध नीति थी।
उत्तर-
(गुरिल्ला)

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(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली 1747. ई० में अफ़गानिस्तान का शासक बना।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर प्रथम बार 1749 ई० में आक्रमण किया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
अहमद शाह अब्दाली के भारत आक्रमण का प्रमुख उद्देश्य यहाँ से धन प्राप्त करना था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 5.
अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर कुल छः आक्रमण किए।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 6.
मीर मन्नू ने 1748 ई० में मन्नूपुर की लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली को एक कड़ी पराजय दी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
अहमद शाह अब्दाली ने 1751 ई० में पंजाब पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 8.
तैमूर शाह बाबर का पुत्र था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 9.
बाबा दीप सिंह जी ने 10 नवंबर, 1757 ई० को शहीदी प्राप्त की थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 10.
अहमद शाह अब्दाली और मराठों के मध्य पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी, 1761 ई० को हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
बालाजी बाजीराव के पुत्र का नाम विश्वास राव था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
सिखों ने 1761 ई० में लाहौर पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 13.
1761 ई० में लाहौर पर अधिकार करने के कारण जस्सा सिंह आहलूवालिया को सुल्तान-उल-कौम की उपाधि से सम्मानित किया गया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 14.
अहमद शाह अब्दाली के छठे आक्रमण के समय बड़ा घल्लूघारा हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
बड़ा घल्लूघारा 1762 ई० में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
बड़ा घल्लूघारा काहनूवान के स्थान पर हुआ था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 17.
सिखों ने सरहिंद पर 1764 ई० में आक्रमण किया।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 18.
सिखों ने 1765 ई० में लाहौर पर कब्जा करके अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
अहमद शाह अब्दाली की मृत्यु के बाद नादिर शाह अफ़ग़ानिस्तान का शासक बना था।
उत्तर-
गलत

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली कौन था ?
(i) अफ़गानिस्तान का शासक
(ii) ईरान का शासक
(iii) चीन का शासक
(iv) भारत का शासक।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कितने आक्रमण किये ?
(i) सात
(ii) पाँच
(iii) सत्रह
(iv) आठ।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 3.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर प्रथम आक्रमण कब किया ?
(i) 1745 ई० में
(ii) 1746 ई० में
(iii) 1747 ई० में
(iv) 1752 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 4.
अहमद शाह अब्दाली ने अपने कौन-से आक्रमण के बाद पंजाब पर कब्जा कर लिया था ?
(i) पहले
(ii) दूसरे
(iii) तीसरे
(iv) चौथे।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 5.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कब्जा कब किया ?
अथवा
पंजाब पर मुगल साम्राज्य का अंत कब हुआ ?
(i) 1748 ई० में
(ii) 1751 ई० में
(iii) 1752 ई० में
(iv) 1761 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
तैमूर शाह पंजाब का सूबेदार कब बना ?
(i) 1751 ई० में
(ii) 1752 ई० में
(iii) 1757 ई० में
(iv) 1759 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 7.
बाबा दीप सिंह जी ने कब शहीदी प्राप्त की ?
(i) 1752 ई० में
(ii) 1755 ई० में
(iii) 1756 ई० में
(iv) 1757 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 8.
पानीपत की तीसरी लड़ाई कब हुई ?
(i) 1758 ई० में
(ii) 1759 ई० में
(iii) 1760 ई० में
(iv) 1761 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 9.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को किसने पराजित किया था ?
(i) जस्सा सिंह आहलूवालिया ने
(ii) जस्सा सिंह रामगढ़िया ने
(iii) अहमद शाह अब्दाली ने
(iv) मीर मन्नू ने।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
बड़ा घल्लूघारा कब हुआ ?
(i) 1746 ई० में
(ii) 1748 ई० में
(iii) 1761 ई० में
(iv) 1762 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 11.
बड़ा घल्लूघारा कहाँ हुआ ?
(i) काहनूवान में
(ii) कुप में
(iii) करतारपुर में
(iv) जालंधर में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 12.
सिखों ने सरहिंद पर कब अधिकार कर लिया ?
(i) 1761 ई० में
(ii) 1762 ई० में
(iii) 1763 ई० में
(iv) 1764 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 13.
सिखों ने लाहौर पर कब अधिकार किया ?
अथवा
सिखों ने अपना पहला सिक्का कब जारी किया ?
(i) 1761 ई० में
(ii) 1762 ई० में
(iii) 1764 ई० में
(iv) 1765 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
अहमद शाह अब्दाली कौन था ? उसके पंजाब पर आक्रमणों के क्या कारण थे ? (Who was Ahmad Shah Abdali ? What were the reasons of his Punjab invasions ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमणों के क्या कारण थे ? (What were the causes of the attacks of Ahmad Shah Abdali on Punjab ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the causes of Ahmad Shah Abdali’s invasions.)
उत्तर-
1. अहमद शाह अब्दाली कौन था ?-अहमद शाह अब्दाली अफगानिस्तान का शासक था। उसने 1747 ई० से 1772 ई० तक शासन किया।

2. अब्दाली के आक्रमणों के मुख्य कारण-अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमणों के मुख्य कारण निम्नलिखित थे

i) अब्दाली की महत्त्वाकाँक्षा-अहमद शाह अब्दाली बहुत महत्त्वाकाँक्षी शासक था। वह अफ़गानिस्तान के अपने छोटे-से साम्राज्य से संतुष्ट नहीं था। अत: वह पंजाब तथा भारत के अन्य प्रदेशों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था।

ii) भारत की अपार धन-दौलत-अहमद शाह, अब्दाली के लिए एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना के लिए धन की बहुत आवश्यकता थी। यह धन उसे अपने साम्राज्य अफ़गानिस्तान से प्राप्त नहीं हो सकता था, क्योंकि यह प्रदेश आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था। दूसरी ओर उसे यह धन भारत-जो अपनी अपार धन-दौलत के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध था-से मिल सकता था।

iii) अफ़गानिस्तान में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना-अहमद शाह अब्दाली एक साधारण परिवार से संबंध रखता था। इसलिए 1747 ई० में नादिरशाह की हत्या के पश्चात् जब वह अफ़गानिस्तान का शासक बना तो वहाँ के अनेक सरदारों ने इस कारण उसका विरोध किया। अतः अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के उद्देश्य से विदेशी युद्ध करना चाहता था।

iv) भारत की अनुकूल राजनीतिक दशा-1707 ई० में औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात् महान् मुग़ल साम्राज्य तीव्रता से पतन की ओर अग्रसर हो रहा था। औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी अयोग्य निकले। वे अपना अधिकाँश समय सुरा एवं सुंदरी संग व्यतीत करते थे। अतः साम्राज्य में चारों ओर अराजकता फैल गई। इस स्थिति का लाभ उठा कर अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

v) शाहनवाज़ खाँ द्वारा निमंत्रण-1745 ई० में जकरिया खाँ की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र याहिया खाँ लाहौर का नया सूबेदार बना। इस बात को उसका छोटा भाई शाहनवाज़ खाँ सहन न कर सका। वह काफ़ी समय से लाहौर की सूबेदारी प्राप्त करने का स्वप्न ले रहा था। ऐसी स्थिति में शाहनवाज़ खाँ ने अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण भेजा। अब्दाली ऐसे ही स्वर्ण अवसर की तलाश में था। अतः उसने भारत पर आक्रमण करने का निर्णय लिया।

प्रश्न 2.
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कब और कितने आक्रमण किए ? उसके मुख्य आक्रमणों की संक्षिप्त जानकारी दें।
(When and how many times did Ahmad Shah Abdali invade Punjab ? Give a brief account of his main invasions.) .
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर 1747 ई० से 1767 ई० के मध्य 8 बार आक्रमण किए। लाहौर के सूबेदार शाहनवाज़ खाँ के निमंत्रण पर अहमद शाह अब्दाली ने दिसंबर, 1747 ई० में भारत पर पहली बार आक्रमण किया। जब वह पंजाब पहुँचा तो शाहनवाज़ खाँ ने अब्दाली को सहयोग देने से इंकार कर दिया। अब्दाली ने शाहनवाज़ खाँ को हरा दिया और वह दिल्ली की ओर भाग गया। मन्नूपुर में हुई लड़ाई में मुईन-उल-मुल्क (मीर मन्नू) ने अब्दाली को कड़ी पराजय दी। इससे प्रसन्न होकर मुग़ल बादशाह ने मीर मन्नू को लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। अब्दाली ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए 1748 ई० के अंत में पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। इस आक्रमण में दिल्ली से पूरी सहायता न मिलने के कारण मीर मन्नू की पराजय हुई और उसने अब्दाली के साथ संधि कर ली। इस संधि के अनुसार मीर मन्नू अब्दाली को समय पर लगान नहीं भेज़ सका था। इसलिए अब्दाली ने 1751-52 ई० में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान अब्दाली ने पंजाब पर अधिकार कर लिया। अब्दाली ने 1759-61 ई० के मध्य पंजाब पर अपना पाँचवां आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान 14 जनवरी, 1761 ई० को पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को कड़ी पराजय दी। 1761-62 ई० में अब्दाली द्वारा पंजाब पर किया गया छठा आक्रमण सबसे प्रसिद्ध है। इस आक्रमण के दौरान 5 फरवरी, 1762 ई० को अब्दाली ने मालेरकोटला के निकट गाँव कुप में 25,000 से 30,000 सिखों का कत्ल कर दिया था। यह घटना इतिहास में बड़ा घल्लूघारा के नाम से भी जानी जाती है।

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प्रश्न 3.
अहमद शाह अब्दाली के प्रथम आक्रमण के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the first invasion of Ahmad Shah Abdali ?)
अथवा
पंजाब पर अब्दाली के प्रथम आक्रमण पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Abdali’s first invasion over Punjab.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का बादशाह था। उसने पंजाब के सूबेदार शाहनवाज़ खाँ के निमंत्रण पर 1747 ई० में भारत पर आक्रमण करने का निर्णय किया। वह बिना किसी विरोध के जनवरी, 1748 ई० को लाहौर के निकट शाहदरा पहुँच गया। इसी मध्य कमरुद्दीन ने शाहनवाज़ खाँ के साथ समझौता कर लिया। परिणामस्वरूप शाहनवाज़ खाँ ने अब्दाली का साथ देने से इन्कार कर दिया। इस बात पर अब्दाली को बहुत गुस्सा आया। उसने शाहनवाज़ खाँ को पराजित करके 10 जनवरी, 1748 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। शाहनवाज़ खाँ दिल्ली की तरफ भाग गया। लाहौर पर अधिकार करने के बाद अब्दाली ने वहाँ भारी लूटपाट की। इसके बाद वह दिल्ली की ओर बढ़ा। वज़ीर कमरुद्दीन उसका मुकाबला करने के लिए अपनी सेना समेत आगे बढ़ा। सरहिंद के निकट हुई लड़ाई में कमरुद्दीन मारा गया। मन्नूपुर में 11 मार्च, 1748 ई० को एक घमासान युद्ध में कमरुद्दीन के लड़के मुइन-उल-मुल्क ने अब्दाली को करारी हार दी। मुइन-उल-मुल्क की इस वीरता से प्रभावित होकर मुहम्मद शाह ने उसे लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर दिया। वह मीर मन्नू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार अब्दाली का प्रथम आक्रमण असफल रहा।

प्रश्न 4.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर दूसरे आक्रमण का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Briefly explain the second invasion of Ahmad Shah Abdali on Punjab.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के दूसरे आक्रमण का संक्षेप में वर्णन करें। (Give a brief account of the second invasion of Ahmad Shah Abdali.)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली अपने पहले आक्रमण के दौरान हुई अपनी पराजय का बदला लेना चाहता था। दूसरे, वह इस बात को जानता था कि दिल्ली का नया वज़ीर सफदर जंग मीर मन्नू के साथ बड़ी ईर्ष्या करता है। इस कारण मीर मन्नू की स्थिति बड़ी डावाँडोल थी। इन्हीं कारणों से अहमद शाह अब्दाली ने 1748 ई० के अंत में पंजाब पर दूसरी बार आक्रमण किया। मीर मन्नू भी अब्दाली का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। दिल्ली से कोई सहायता न मिलने के कारण मीर मन्नू को अपनी पराजय निश्चित दिखाई दे रही थी। इसलिए उसने अब्दाली के साथ संधि कर ली। इस संधि के अनुसार मीर मन्नू ने पंजाब के चार महलों (जिलों) स्यालकोट, पसरूर, गुजरात और औरंगाबाद का वार्षिक लगान अब्दाली को देना मान लिया। इनका वार्षिक लगान 14 लाख रुपए बनता था। जब मीर मन्नू अहमद शाह अब्दाली के साथ उलझा हुआ था तब सिखों ने जस्सा सिंह आहलूवालिया के नेतृत्व में लाहौर में लूटमार की।

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प्रश्न 5.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब के तीसरे आक्रमण पर प्रकाश डालें। (Throw light on the third invasion of Ahmad Shah Abdali on Punjab.)
उत्तर-
पंजाब में सिखों की लूटमार और मीर मन्नू के विरुद्ध नासिर खाँ के विद्रोह के कारण अराजकता फैल गई थी। परिणामस्वरूप मीर मन्नू अहमद शाह अब्दाली को दिए जाने वाले 14 लाख रुपए न भेज सका। इस कारण अब्दाली ने नवंबर, 1751 ई० में पंजाब पर तीसरी बार आक्रमण किया। वह अपनी सेना सहित बड़ी तेजी के साथ लाहौर की ओर बढ़ रहा था। जब इस आक्रमण का समाचार लाहौर के लोगों को मिला तो उनमें से बहुत अब्दाली की भयंकर लूटमार की आशंका से घबरा कर लाहौर छोड़ कर भाग गए। लाहौर पहुँच कर अब्दाली ने 3 महीनों तक भारी लूटमार मचाई। मीर मन्नू इस मध्य दिल्ली से कोई सहायता मिलने की प्रतीक्षा करता रहा। 6 मार्च, 1752 ई० को लाहौर के निकट अहमद शाह अब्दाली और मीर मन्नू की सेनाओं के बीच भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मीर मन्नू पराजित हुआ तथा उसे बंदी बना लिया गया। अब्दाली मीर मन्नू की निर्भीकता एवं साहस से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसे अपनी ओर से पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

प्रश्न 6.
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब के चौथे आक्रमण का वर्णन करें। (Explain the fourth invasion of Ahmad Shah Abdali on Punjab.)
उत्तर-
1753 ई० में मीर मन्नू की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा मुगलानी बेग़म पंजाब की सूबेदार बनी। वह एक चरित्रहीन स्त्री थी। इस कारण सारे पंजाब में अराजकता फैल गई। नए मुग़ल बादशाह आलमगीर दूसरे के आदेश पर मुगलानी बेग़म को जेल में डाल दिया गया। अदीना बेग़ को पंजाब का नया सूबेदार बनाया गया। जेल से मुगलानी बेग़म ने पत्रों द्वारा बहुत-से महत्त्वपूर्ण रहस्य अहमद शाह अब्दाली को बताए। इसके अतिरिक्त अब्दाली पंजाब पर किसी मुग़ल सूबेदार की नियुक्ति को कदाचित सहन नहीं करता था। इन्हीं कारणों से अब्दाली ने नवंबर, 1756 ई० में पंजाब पर चौथी बार आक्रमण किया। इस आक्रमण का समाचार सुन कर अदीना बेग़ बिना मुकाबला किए दिल्ली भाग गया। अब्दाली ने अपने पुत्र तैमूर शाह को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। अमृतसर के निकट सिखों एवं अफ़गानों में हुए एक घमासान युद्ध में बाबा दीप सिंह जी ने शहीदी प्राप्त की। सिखों ने इस शहीदी का बदला लेने के उद्देश्य से लाहौर में भयंकर लूटमार की।

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प्रश्न 7.
पानीपत की तीसरी लड़ाई पर एक नोट लिखें।
उत्तर–
पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी, 1761 ई० को मराठों एवं अहमदशाह अब्दाली के मध्य हुई। इस लड़ाई का मुख्य कारण यह था कि दोनों शक्तियाँ उत्तरी भारत में अपनी-अपनी शक्ति की स्थापना करना चाहती थीं। 1758 ई० में मराठों ने तैमूर शाह जो कि अहमदशाह अब्दाली का पुत्र तथा पंजाब का सूबेदार था, को पराजित करके पंजाब पर अधिकार कर लिया था। यह अहमदशाह अब्दाली की शक्ति के लिए एक चुनौती थी। अतः उसने 1759 ई० में पंजाब पर आक्रमण करके उस पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उसने दिल्ली की ओर कदम बढ़ाए। पानीपत के मैदान में अब्दाली,तथा मराठों के मध्य एक घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिव राव भाऊ कर रहा था। इस लड़ाई में मराठों को ज़बरदस्त पराजय का सामना करना पड़ा।

पानीपत की तीसरी लड़ाई के दूरगामी परिणाम निकले। इस लड़ाई में मराठों की भारी जान-माल की हानि हुई। पेशवा बालाजी बाजी राव इस विनाशकारी पराजय को सहन न कर सका तथा शीघ्र ही चल बसा। इस लड़ाई से पूर्व मराठों की गणना भारत की प्रमुख शक्तियों में की जाती थी। इस लड़ाई में पराजय के कारण उनकी शक्ति तथा गौरव को गहरी चोट पहुँची। परिणामस्वरूप भारत में हिंदू साम्राज्य को स्थापित करने का मराठों का स्वप्न मिट्टी में मिल गया। इस लड़ाई में पराजय के कारण मराठे परस्पर झगड़ों में उलझ गए। इस कारण उनकी आपसी एकता समाप्त हो गई। इस लड़ाई के पश्चात् पंजाब में सिखों को अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर मिला। इस लड़ाई के पश्चात् भारत में अंग्रेजों को अपनी शक्ति स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

प्रश्न 8.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के क्या परिणाम निकले ? (What were the results of the third battle of Panipat ?)
उत्तर–
पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की निर्णायक लड़ाइयों में से एक थी। इस लड़ाई के दूरगामी परिणामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. मराठों का घोर विनाश-पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों के लिए घोर विनाशकारी सिद्ध हुई। इस लड़ाई में 28,000 मराठा सैनिक मारे गए तथा बड़ी संख्या में जख्मी हुए। कहा जाता है कि महाराष्ट्र के प्रत्येक परिवार का कोई-न-कोई सदस्य इस लड़ाई में मरा था।

2. मराठों की शक्ति एवं सम्मान को गहरा धक्का —इस लड़ाई में पराजय से मराठों की शक्ति एवं सम्मान को गहरा धक्का लगा। परिणामस्वरूप भारत में हिंदू साम्राज्य स्थापित करने का मराठों का स्वप्न धराशायी हो गया।

3. मराठों की एकता का समाप्त होना–पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहँचने से मराठा संघ की एकता समाप्त हो गई। वे आपसी मतभेदों एवं झगड़ों में उलझ गए। परिणामस्वरूप रघोबा जैसे स्वार्थी मराठा नेता को राजनीति में आने का अवसर प्राप्त हुआ।

4. पंजाब में सिखों की शक्ति का उत्थान-पानीपत की तीसरी लड़ाई से पंजाब मराठों के हाथों से सदा के लिए जाता रहा। अब पंजाब में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए केवल दो ही शक्तियाँ —अफ़गान एवं सिख रह गईं। इस प्रकार सिखों के उत्थान का कार्य काफी सुगम हो गया। उन्होंने अफ़गानों को पराजित करके पंजाब में अपना शासन स्थापित कर लिया।

5. भारत में अंग्रेजों की शक्ति का उत्थान भारत में अंग्रेजों को अपने साम्राज्य विस्तार के मार्ग में सबसे अधिक चुनौती मराठों की थी। मराठों की जबरदस्त पराजय ने अंग्रेजों को अपनी सत्ता स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

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प्रश्न 9.
बड़ा घल्लूघारा (दूसरा खूनी हत्याकाँड) पर संक्षिप्त नोट लिखिए। [Write a short note on Wada Ghallughara (Second Bloody Carnage).]
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के छठे हमले का वर्णन कीजिए।
(Explain the sixth invasion of Ahmad Shah Abdali.)
उत्तर-
बड़ा घल्लूघारा सिख इतिहास की एक बहुत दुःखदायी घटना थी। सिखों ने 1761 ई० में पंजाब के अनेक क्षेत्रों को अपनी अधीन कर लिया और उन्होंने बहुत सारे अन्य क्षेत्रों में भारी लूटपाट मचाई। सिखों ने अहमद शाह अब्दाली द्वारा नियुक्त पंजाब के सूबेदार ख्वाजा उबेद खाँ को भी पराजित कर दिया। अहमद शाह अब्दाली सिखों के इस बढ़ते हुए प्रभाव को कभी सहन नहीं कर सकता था। इसलिए अब्दाली ने सन् 1761 ई० के अंत में पंजाब पर छठी बार आक्रमण किया। उसने लाहौर पर बड़ी आसानी से अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् अहमद शाह अब्दाली ने 5 फरवरी, 1762 ई० को अचानक सिखों को मालेरकोटला के निकट गाँव कुप में घेर लिया। इस अचानक आक्रमण के कारण 25 से 30 हजार तक सिख मारे गए। सिख इतिहास में यह घटना बड़ा घल्लूघारा के नाम से जानी जाती है। बड़े घल्लूघारे में सिखों की भारी प्राण हानि से अब्दाली अति प्रसन्न हुआ। उसका विश्वास था कि इससे सिखों की शक्ति को गहरा आघात लगा होगा पर उसका यह अनुमान गलत निकला। सिखों ने इस घटना से नया उत्साह प्राप्त किया। उन्होंने पूर्ण उत्साह से अब्दाली की सेना पर आक्रमण प्रारंभ कर दिए। सिखों ने 1764 ई० में सरहिंद और 1765 ई० में लाहौर पर अधिकार करके अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

प्रश्न 10.
अफ़गानों के विरुद्ध लड़ाई में सिखों ने अपनी शक्ति किस प्रकार संगठित की ? (How did the Sikhs organise their power in their struggle against the Afghans ?)
उत्तर-
अफ़गानों के विरुद्ध लड़ाई में सिखों ने अपने आपको जत्थों में संगठित कर लिया। गुरु ग्रंथ साहिब और सिख पंथ पर विश्वास के कारण उनमें एकता हुई। गुरु ग्रंथ साहिब जी की उपस्थिति में सरबत खालसा द्वारा प्रस्ताव पास किए जाते थे। इस गुरमता का सभी सिख पालन करते थे। गुरमता के द्वारा सारे जत्थों का एक कमांडर नियत किया जाता था और सभी सिख उसके अधीन एकत्रित होकर शत्रु का मुकाबला करते थे। ‘राज करेगा खालसा’ अब प्रत्येक सिख का विश्वास बन चुका था। अहमद शाह अब्दाली कई वर्षों तक अफ़गानिस्तान में होने वाले विद्रोहों के कारण सिखों की ओर ध्यान नहीं दे सका था। उसके द्वारा पंजाब में नियुक्त किए गवर्नर भी सिखों पर नियंत्रण न पा सके। पंजाब के लोगों एवं ज़मींदारों ने भी सिख-अफ़गान संघर्ष में सिखों को पूर्ण सहयोग दिया। सिखों के नेताओं ने भी अफ़गानों के विरुद्ध सिखों को संगठित करने एवं उनमें एक नई स्फूर्ति उत्पन्न करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इस प्रकार सिखों ने अफ़गानों के विरुद्ध अपनी शक्ति को संगठित किया।

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प्रश्न 11.
अहमद शाह अब्दाली सिखों के विरुद्ध असफल क्यों रहा ? कोई छः कारण बताएँ।
(What were the causes of failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs ? Write any six reasons.)
अथवा
सिखों की शक्ति को कुचलने में अहमद शाह अब्दाली असफल क्यों रहा ? (What were the causes of failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs ?)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली की सिखों के विरुद्ध असफलता के छः क्या कारण थे ?
(What were the six causes of failure of Ahmad Shah Abdali against the Sikhs ?)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली की असफलता या सिखों की जीत के निम्नलिखित कारण हैं—
1. सिखों का दृढ़ निश्चय-अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक मुख्य कारण सिखों का दृढ़ निश्चय था। अब्दाली ने उन पर भारी अत्याचार किए, परंतु उनका हौसला बुलंद रहा। वे चट्टान की तरह अडिग रहे। बड़े घल्लूघारे में 25,000 से 30,000 सिख मारे गए परंतु सिखों के हौसले बुलंद रहे। ऐसी कौम को हराना कोई आसान कार्य न था।

2. गुरिल्ला युद्ध नीति-सिखों द्वारा अपनाई गई गुरिल्ला युद्ध नीति अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक मुख्य कारण बनी। जब भी अब्दाली सिखों के विरुद्ध कूच करता, सिख तुरंत जंगलों व पहाड़ों में जा शरण लेते। वे अवसर देखकर अब्दाली की सेनाओं पर आक्रमण करते और लूटमार करके फिर वापस जंगलों में चले जाते। इन छापामार युद्धों ने अब्दाली की नींद हराम कर दी थी।

3. पंजाब के लोगों का असहयोग-अहमद शाह अब्दाली की पराजय का एक प्रमुख कारण यह था कि उसको पंजाब के नागरिकों का सहयोग प्राप्त न हो सका। उसने अपने बार-बार आक्रमणों के दौरान न केवल लोगों की धन-संपत्ति को ही लटा, अपित हज़ारों निर्दोष लोगों का कत्ल भी किया। परिणामस्वरूप पंजाब के लोगों की उसके साथ किसी प्रकार की कोई सहानुभूति नहीं थी। ऐसी स्थिति में अहमद शाह अब्दाली द्वारा पंजाब पर विजय प्राप्त करना एक स्वप्न समान था।

4. सिखों का चरित्र ‘सिखों का चरित्र अहमद शाह अब्दाली की असफलता का एक अन्य कारण बना। सिख प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहते थे। वे युद्ध के मैदान में किसी भी निहत्थे पर वार नहीं करते थे। वे स्त्रियों एवं बच्चों का पूर्ण सम्मान करते थे चाहे उनका संबंध शत्रु के साथ क्यों न हो। इन गुणों के परिणामस्वरूप सिख पंजाबियों में अत्यंत लोकप्रिय हो गए थे।

5. सिखों के योग्य नेता-अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध सिखों की जीत का एक और महत्त्वपूर्ण कारण उनके योग्य नेता थे। इन नेताओं ने बड़ी योग्यता और समझदारी से सिखों को नेतृत्व प्रदान किया। इन नेताओं में प्रमुख नवाब कपूर सिंह, जस्सा सिंह आहलूवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया तथा आला सिंह थे। ‘

6. अब्दाली के अयोग्य प्रतिनिधि-अहमद शाह अब्दाली की असफलता का प्रमुख कारण पंजाब में उसके अयोग्य प्रतिनिधि थे। उनमें प्रशासनिक योग्यता की कमी थी। इस कारण पंजाब के लोग उनके विरुद्ध होते चले गए।

प्रश्न 12.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब पर पड़े किन्हीं छः महत्त्वपूर्ण प्रभावों का वर्णन करो। (Describe any six important effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions over Punjab.)
अथवा
अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमणों के क्या प्रभाव पड़े ? (What were the effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions over Punjab ?)
उत्तर-
अहमदशाह अब्दाली ने 1747 ई० से लेकर 1767 ई० तक पंजाब पर आठ बार आक्रमण किए। उसके इन आक्रमणों ने पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित किया। इन प्रभावों का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित प्रकार है—
1. पंजाब में मुग़ल शासन का अंत-अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों का पंजाब के इतिहास पर पहला महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा कि पंजाब में मुग़ल शासन का अंत हो गया। मीर मन्नू पंजाब में मुग़लों का अंतिम सूबेदार था। अब्दाली ने मीर मन्नू को ही अपनी तरफ से पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया। मुग़लों ने पुनः पंजाब पर अधिकार करने का प्रयत्न कियां पर अब्दाली ने इन प्रयत्नों को सफल न होने दिया।

2. सिख शक्ति का उदय-अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों के परिणामस्वरूप पंजाब से मुग़ल और मराठा शक्ति का अंत हो गया। पंजाब पर कब्जा करने के लिए अब यह संघर्ष केवल दो शक्तियों-अफ़गान और सिखों के मध्य ही रह गया था। अब्दाली ने 1762 ई० में बड़ा घल्लूघारा में कई हज़ारों सिखों को शहीद किया, परंतु उनके हौंसले बुलंद रहे। उन्होंने 1764 ई० में सरहिंद और 1765 ई० में लाहौर पर कब्जा कर लिया था। सिखों ने अपने सिक्के चला कर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

3. पंजाब के लोगों का बहादुर होना-अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाबी लोगों को बहुत बहादुर और निडर बना दिया था। इसका कारण यह था कि अब्दाली के आक्रमणों से रक्षा के लिए यहां के लोगों को शस्त्र उठाने पड़े। उन्होंने अफ़गानों के साथ हुए युद्धों में बहादुरी की शानदार मिसालें कायम की।

4. सिखों और मुसलमानों की शत्रुता में वृद्धि-अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण सिखों और मुसलमानों में आपसी शत्रुता और बढ़ गई। इसका कारण यह था कि अफ़गानों ने इस्लाम के नाम पर सिखों पर बहुत अत्याचार किए। दूसरा, अब्दाली ने सिखों के सबसे पवित्र धार्मिक स्थान हरिमंदिर सहिब को ध्वस्त करके सिखों को अपना कट्टर शत्रु बना लिया। अतः सिखों और अफ़गानों के बीच शत्रुता दिनों-दिन बढ़ती चली गई।

5. पंजाब की आर्थिक हानि-अहमदशाह अब्दाली अपने प्रत्येक आक्रमण में पंजाब से भारी मात्रा में लूट का माल साथ ले जाता था। अफ़गानी सेनाएँ कूच करते समय खेतों का विनाश कर देती थीं। पंजाब में नियुक्तं भ्रष्ट कर्मचारी भी लोगों को प्रत्येक पक्ष से लूटने में कोई प्रयास शेष न छोड़ते थे। परिणामस्वरूप अराजकता और लूटमार के इस वातावरण से पंजाब के व्यापार को बहुत भारी हानि हुई।

6. पंजाबियों का खर्चीला स्वभाव-अहमद शाह अब्दाली के हमलों के परिणामस्वरूप उनके चरित्र में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। क्योंकि अब्दाली अपने आक्रमणों के दौरान लोगों से धन लूटकर अफ़गानिस्तान ले जाता था। इसलिए लोगों ने धन एकत्रित करने की अपेक्षा उसे खाने-पीने तथा मौज उड़ाने पर व्यय करना आरंभ कर दिया था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

प्रश्न 13.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब पर क्या राजनीतिक प्रभाव डाला ? (What were the political effects of Ahmad Shah Abdali’s invasions over Punjab ?)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब पर बड़े गहरे राजनीतिक प्रभाव पड़े। सबसे पहले पंजाब से मुग़ल शासन का अंत हो गया। अब्दाली ने 1752 ई० में पंजाब को अफ़गानिस्तान में शामिल कर लिया। दूसरे, अब्दाली ने 1761 ई० में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को बड़ी करारी पराजय दी जिसके परिणामस्वरूप पंजाब में मराठों की शक्ति का सदैव के लिए अंत हो गया। तीसरे, अहमद शाह अब्दाली के लगातार आक्रमणों के कारण पंजाब में अराजकता फैल गई। लोगों की जान माल सुरक्षित न रहे। सरकारी कर्मचारियों ने लोगों को लूटना शुरू कर दिया था। न्याय नाम की कोई चीज़ नहीं रही। चौथे, पंजाब में मुग़लों और मराठों की शक्ति का अंत होने के कारण सिखों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला। उन्होंने अपने छापामार युद्धों से अब्दाली की सेना को कई स्थानों पर हराया। 1765 ई० में सिखों ने लाहौर पर अधिकार करके अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।

प्रश्न 14.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के क्या सामाजिक प्रभाव पड़े ?
(What were the social effects of the invasions of Ahmad Shah Abdali ?)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के परिणामस्वरूप लोगों के चरित्र में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। अब वे अधिक धन व्यय करने लगे। इसका कारण यह है कि अब्दाली अपने आक्रमणों के दौरान लोगों से धन लूट कर अफ़गानिस्तान ले जाता था। इसलिए लोगों ने धन एकत्रित करने की अपेक्षा उसे खाने-पीने तथा मौज उड़ाने पर व्यय करना आरंभ कर दिया था। अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब में अनेक बुराइयों को उत्साह मिला। लोग बहुत स्वार्थी और आचरणहीन हो गए थे। वे कोई पाप या अपराध करने से नहीं डरते थे। चोरी, डाके, कत्ल, लूटमार, धोखेबाज़ी और रिश्वतखोरी का समाज में बोलबाला था। इन बुराइयों ने पंजाब के समाज को दीमक की तरह खाकर खोखला कर दिया था। अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के परिणामस्वरूप पंजाब के लोग बहादुर और निडर बन गए। इसका कारण यह था कि अब्दाली के आक्रमणों और उसके द्वारा की जा रही लूटमार से रक्षा के लिए यहाँ के लोगों को शस्त्र उठाने पड़े। उन्होंने अफ़गानों के साथ चलने वाले लंबे संघर्ष में बहादुरी की शानदार मिसालें कायम की। इस संघर्ष के अंत में सिख विजेता रहे।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 15 अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण एवं मुग़ल शासन का विखँडन

प्रश्न 15.
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के क्या आर्थिक परिणाम निकले ? (What were the economic consequences of the invasions of Ahmad Shah Abdali ?)
उत्तर-
अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों के विनाशकारी आर्थिक परिणाम निकले। वह अपने प्रत्येक आक्रमण के समय भारी संपत्ति लूट कर अपने साथ ले जाता था। इसने पंजाब को कंगाल बना दिया। दूसरा, अफ़गान सेनाएं कूच करते समय रास्ते में आने वाले खेतों को उजाड़ देती थीं। इस कारण कृषि का काफ़ी नुक्सान हो जाता था। तीसरा, पंजाब में नियुक्त भ्रष्ट कर्मचारियों ने भी लोगों को प्रत्येक पक्ष से लूटने के लिए कोई प्रयास शेष न छोड़ा। चौथा, पंजाब में सिख भी सरकार की नींद हराम करने के उद्देश्य से अक्सर लूटमार करते थे। इन कारणों से पंजाब में अव्यवस्था फैली। ऐसे वातावरण में पंजाब के व्यापार को गहरा आघात लगा। परिणामस्वरूप पंजाब को घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। ऐसा लगता था जैसे पंजाब की समृद्धि ने सदैव के लिए अपना मुख मोड़ लिया हो। निस्संदेह यह अत्यंत दुःखद संकेत था।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक था। उसने 1747 ई० से 1772 ई० तक शासन किया। उसने 1747 ई० से 1767 ई० के मध्य पंजाब पर आठ आक्रमण किए। उसने 1752 ई० में मुग़ल सूबेदार मीर मन्न को हराकर पंजाब को अफ़गानिस्तान साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। अहमद शाह अब्दाली और उसके द्वारा पंजाब में नियुक्त किए गए सूबेदारों ने सिखों पर अनगिनत अत्याचार किए। सन् 1762 ई० में बड़े घल्लूघारे में अब्दाली ने बड़ी संख्या में सिखों को शहीद कर दिया था। इतना सब कुछ होने पर भी सिख चट्टान की भाँति अडिग रहे। उन्होंने अपने छापामार युद्धों से अब्दाली की नींद हराम कर रखी थी। सिखों ने 1765 ई० में लाहौर पर अधिकार करके अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। अब्दाली अपने सारे प्रयासों के बावजूद सिखों की शक्ति को न कुचल सका। वास्तव में उसकी असफलता के कई एक कारण थे। अहमद शाह अब्दाली के इन आक्रमणों से पंजाब के इतिहास पर बड़े गहरे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव पड़े।

  1. अहमद शाह अब्दाली कौन था ?
  2. अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक कब बना था ?
    • 1747 ई०
    • 1748 ई
    • 1752 ई०
    • 1767 ई०
  3. अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कितनी बार आक्रमण किए ?
  4. बड़ा घल्लूघारा कब हुआ ?
  5. अहमद शाह अब्दाली सिखों के विरुद्ध क्यों असफल रहा ? कोई एक कारण लिखें।

उत्तर-

  1. अहमद शाह अब्दाली अफ़गानिस्तान का शासक था।
  2. 1747 ई०।
  3. अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर 8 बार आक्रमण किए।
  4. बड़ा घल्लूघारा 1762 ई० में हुआ।
  5. सिखों के इरादे बहुत मज़बूत थे।

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2
अहमद शाह अब्दाली जनवरी, 1757 ई० में दिल्ली पहुँचा। दिल्ली पहुंचने पर अब्दाली का किसी ने भी विरोध न किया। दिल्ली में अब्दाली ने भारी लूटमार की। इसके पश्चात् उसने मथुरा और वृंदावन को भी लूटा। इसके पश्चात् वह आगरा की ओर बढ़ा पर सेना में हैज़े की बीमारी फैलने के कारण उसने वापस काबुल जाने का निर्णय ले लिया। पंजाब पहुँचने पर उसने अपने पुत्र तैमूर शाह को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दाली ने तैमूर शाह को यह आदेश भी दिया कि सिखों को उनकी कार्यवाइयों के लिए अच्छा सबक सिखाए। तैमूर शाह ने सिखों की शक्ति को कुचलने के लिए जहान खाँ के नेतृत्व में कुछ सेना अमृतसर की ओर भेजी। अमृतसर के निकट सिखों और अफ़गानों में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में सिखों के नेता बाबा दीप सिंह जी का शीश कट गया था पर वह अपने शीश को हथेली पर रखकर शत्रुओं का मुकाबला करते रहे। उन्होंने हरिमंदिर साहिब पहुँच कर अपने प्राणों की आहुति दी। इस प्रकार बाबा दीप सिंह जी 11 नवंबर, 1757 ई० को शहीद हुए। बाबा दीप सिंह जी की इस शहीदी ने सिखों में एक नया जोश भरा।

  1. अहमद शाह अब्दाली ने 1757 ई० में भारत के कौन-से शहरों में लूटमार की ?
  2. अहमद शाह अब्दाली आगरे से वापस क्यों मुड़ गया था ?
  3. तैमूर शाह कौन था ?
  4. बाबा दीप सिंह जी कब तथा कहाँ शहीद हुए ?
  5. बाबा दीप सिंह जी की इस शहीदी ने सिखों में एक नया …………….. भरा।

उत्तर-

  1. अहमद शाह अब्दाली ने 1757 ई० में भारत के दिल्ली, मथुरा, वृंदावन तथा पंजाब के शहरों में लूटमार की।
  2. अहमद शाह अब्दाला आगरे से वापिस इसलिए पीछे मुड़ गया था क्योंकि उस समय वहाँ हैजा फैला हुआ था।
  3. तैमूर शाह अहमद शाह अब्दाली का पुत्र था।
  4. बाबा दीप सिंह जी की शहीदी 1757 ई० में अमृतसर में हुई थी।
  5. जोश।

3
14 जनवरी, 1761 ई० को मराठों ने अब्दाली की सेना पर आक्रमण कर दिया। यह बहुत घमासान युद्ध था। इस युद्ध के आरंभ में मराठों का पलड़ा भारी रहा। परंतु अनायास जब विश्वास राव की गोली लगने से मृत्यु हो गई तो युद्ध की स्थिति ही पलट गयी। सदाशिव राव भाऊ शोक मनाने के लिए हाथी से नीचे उतरा। जब मराठा सैनिकों ने उसके हाथी की पालकी खाली देखी तो उन्होंने समझा कि वह भी युद्ध में मारा गया है। परिणामस्वरूप मराठा सैनिकों में भगदड़ फैल गई। अब्दाली के सैनिकों ने यह स्वर्ण अवसर देख कर उनका पीछा किया और भारी तबाही मचाई। इस युद्ध में लगभग समस्त प्रसिद्ध मराठा नेता और 28,000 मराठा सैनिक मृत्यु को प्राप्त हुए। कई हज़ार मराठा सैनिक युद्ध में जख्मी हो गये और अन्य कई हज़ार को गिरफ्तार कर लिया गया।

  1. पानीपत की तीसरी लड़ाई कब हुई ?
  2. पानीपत की तीसरी लड़ाई किनके मध्य हुई ?
    • सिखों तथा मराठों
    • मराठों तथा अब्दाली
    • सिखों तथा अब्दाली |
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।
  3. विश्वास राव कौन था ?
  4. सदाशिव राव भाऊ कौन था ?
  5. पानीपत की तीसरी लड़ाई का कोई एक परिणाम लिखें।

उत्तर-

  1. पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी, 1761 ई० को हुई।
  2. मराठों तथा अब्दाली।
  3. विश्वास राव पेशवा बालाजी बाजी राव का पुत्र था।
  4. सदाशिव राव भाऊ पानीपत की तीसरी लड़ाई के समय मराठों का सेनापति था।
  5. इस लड़ाई में मराठों का भारी जान-माल का नुकसान हुआ।

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4
अहमद शाह अब्दाली ने बिना किसी रुकावट के लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् वह जंडियाला की ओर बढ़ा। वहाँ पहुँचकर उसे समाचार मिला कि सिख वहाँ से जा चुके हैं और इस समय वे मलेरकोटला के निकट स्थित गाँव कूप में एकत्रित हैं। इसलिए वह बड़ी तेजी से मलेरकोटला की तरफ बढ़ा। उसने सरहिंद के सूबेदार जैन खाँ को अपनी फ़ौजों सहित वहाँ पहुँचने का आदेश दिया। इस संयुक्त फ़ौज ने 5 फरवरी, 1762 ई० को गाँव कूप में अचानक सिखों पर आक्रमण कर दिया। सिख उस समय अपने परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर ले जा रहे थे। उस समय उनके शस्त्र तथा भोजन सामग्री गरमा गाँव जो वहाँ से 6 किलोमीटर दूर था, वहाँ पड़ी हुई थी। सिखों ने अपनी स्त्रियों और बच्चों को चारों ओर से सुरक्षा घेरे में लेकर अब्दाली के सैनिकों से मुकाबला करना शुरू किया, परंतु सिखों के पास शस्त्रों की कमी होने के कारण वे अधिक समय तक उसका मुकाबला न कर सके । इस युद्ध में सिखों की भारी जन हानि हुई। इस युद्ध में 25,000 से 30,000 सिख शहीद हो गए जिसमें स्त्रियाँ, बच्चे और वृद्ध शामिल थे।

  1. बड़ा घल्लूघारा कब तथा कहाँ घटित हुआ ?
  2. बड़े घल्लूघारा के लिए कौन जिम्मेवार था ?
  3. बड़े घल्लूघारा के समय सरहिंद का सूबेदार कौन था ?
  4. बड़े घल्लूघारा में सिखों के अत्यधिक नुकसान का क्या कारण था ?
  5. बड़े घल्लूघारे में सिखों की भारी ……….. हानि हुई।

उत्तर-

  1. बड़ा घल्लूघारा 5 फरवरी, 1762 ई० को कूप गाँव में घटित हुआ।
  2. बड़े घल्लूघारा के लिए अहमद शाह अब्दाली जिम्मेवार था।
  3. बड़े घल्लूघारा के समय सरहिंद का सूबेदार जैन खाँ था।
  4. सिखों के पास शस्त्रों की बहुत कमी थी।
  5. जन।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 22 भारत के अमेरिका एवं रूस से सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 22 भारत के अमेरिका एवं रूस से सम्बन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 22 भारत के अमेरिका एवं रूस से सम्बन्ध

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत और अमेरिका के परस्पर सम्बन्धों की चर्चा करो।
(Discuss the features of Parliamentary Government in India.)
अथवा
संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भारत के सम्बन्धों का विश्लेषण कीजिए। (Analyse India’s relations with U.S.A.)
अथवा
भारत व अमेरिका (U.S.A.) के सम्बन्धों का वर्णन करें। (Discuss the relation between India and America.)
उत्तर-
भारत तथा अमेरिका के सम्बन्ध शुरू से मित्रता वाले नहीं थे। अमेरिका आरम्भ से ही भारत पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहता था। इसलिए अमेरिका ने ‘दबाव तथा सहायता’ की नीति का अनुसरण किया।

यद्यपि भारत और अमेरिका के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण नहीं थे तथापि दोनों देशों में सहयोग का क्षेत्र भी बढ़ा है। अमेरिका ने भारत को अपने पक्ष में करने के लिए दबाव नीति के साथ-साश्च आर्थिक सहायता तथा अनाज की कूटनीति का सहारा लिया। अमेरिका ने भारत को पर्याप्त आर्थिक सहायता दी और मुख्यत: अमेरिकन प्रेरणा से ही विश्व विकास ऋण कोष, तकनीकी सहयोग आदि की संस्थाओं ने भी ऋण तथा उपहार के रूप में भारत को काफ़ी आर्थिक तथा तकनीकी सहायता दी।

1957 में नेहरू ने अमेरिका की यात्रा की जिससे दोनों देशों के सम्बन्धों में सुधार हुआ। दिसम्बर, 1959 में अमेरिकन राष्ट्रपति आइजनहॉवर भारत आए जिससे दोनों देशों में और अच्छे सम्बन्ध स्थापित हुए। अमेरिका के राजनीतिक क्षेत्रों में कहा जाने लगा कि भारत का आर्थिक विकास अमेरिकन विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य है। राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने भारत को विशेष सम्मान देते हुए 4 मई, 1960 को वाशिंगटन में भारत के खाद्य मन्त्री एस० के० पाटिल के साथ स्वयं एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अनुसार अमेरिका ने भारत को आगामी 4 वर्षों में चावल तथा गेहूं से भरे हुए 15000 जलयान भेजने का निश्चय किया। मई, 1960 का यह समझौता पी० एल० 480 के नाम से प्रसिद्ध है। 4 वर्ष की अवधि के समाप्त होने पर इस अवधि को पुनः बढ़ा दिया गया।

अक्तूबर, 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। भारत के अनुरोध पर राष्ट्रपति कैनेडी ने शीघ्र ही भारत को सैनिक सहायता दी। अमेरिका ने सैनिक सहायता देने के लिए कोई शर्त नहीं रखी। विदेश मन्त्री डीन रस्क ने भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति की प्रशंसा की। 7 दिसम्बर, 1963 को भारत और अमेरिका के बीच नई दिल्ली में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार अमेरिका ने भारत को आठ करोड़ डॉलर तारापुर में आण्विक शक्ति संयन्त्र करने के लिए देने का वचन किया।

शास्त्री काल में भारत-अमेरिका सम्बन्ध (1964-1965)-1965 में भारत-पाक युद्ध हुआ और इस युद्ध में भारत तथा अमेरिका के सम्बन्ध पूरी तरह खराब हो गए, क्योंकि अमेरिका की सैनिक सामग्री का पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध प्रयोग किया और अमेरिका ने पाकिस्तान को इसके लिए रोकने का बिल्कुल प्रयास नहीं किया।

इंदिरा काल में भारत-अमेरिका सम्बन्ध (1966 से मार्च, 1977 तक)-28 मार्च, 1966 को श्रीमती गांधी ने अमेरिका की यात्रा की परन्तु इस यात्रा का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला।
1969-70 का वर्ष भारत-अमेरिका के सम्बन्धों में एक प्रकार से शीत-युद्ध का वर्ष था।

1971 का वर्ष भारत और अमेरिका के सम्बन्धों के लिए बंगला देश के मामले पर बहुत ही खराब रहा। 9 अगस्त, 1971 को भारत और रूस में मैत्री सन्धि हुई जिससे अमेरिका की विदेश नीति को बड़ा धक्का लंगा। दिसम्बर, 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान सुरक्षा परिषद् में अमेरिका ने भारत विरोधी प्रस्ताव पेश किया, जिस पर सोवियत संघ ने . वीटो पावर का प्रयोग किया। अमेरिका ने बंगाल की खाड़ी में सातवें बेड़े को भेजा ताकि भारत पर दबाव डाला जा सके, परन्तु रूस के नौ-सैनिक बेड़े ने अमेरिका को सचेत कर दिया कि यदि अमेरिका ने भारत के विरुद्ध नौ-सैनिक कार्यवाही की तो रूस चुपचाप नहीं बैठा रहेगा। बंगला देश के युद्ध में भारत की विजय हुई और पाकिस्तान का विभाजन हो गया। इस विजय के बाद भारत दक्षिणी एशिया में एक बड़ी शक्ति के रूप में माना जाने लगा तो अमेरिका ने भारत की आर्थिक सहायता रोक दी।

जनता सरकार और भारत-अमेरिका सम्बन्ध-मार्च, 1977 में भारत के आम चुनाव हुए जिसमें जनता पार्टी को सफलता मिली और श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी। अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई को बधाई संदेश भेजा और भारत को महान् लोकतान्त्रिक देश बताया। 1 जनवरी, 1978 में अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर भारत आए और भारतीय नेताओं से उन्होंने बातचीत की। जिमी कार्टर की यात्रा को भारत सरकार ने बहुत महत्त्व दिया।

जून, 1978 में प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई तथा विदेश मन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी अमेरिका की यात्रा पर गए और राष्ट्रपति कार्टर से बातचीत करने के बाद राष्ट्रपति कार्टर से यह विश्वास प्राप्त करने में सफल हो गए कि भारत को अमेरिकन Uranium दिया जाएगा।

श्रीमती गांधी की सरकार और भारत-अमेरिका सम्बन्ध (GOVERNMENT OF SMT. GANDHI AND INDO-AMERICA RELATIONS):

जनवरी, 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी के पुनः प्रधानमन्त्री बनने पर अमेरिकन प्रशासन ने इच्छा व्यक्त की कि भारत और अमेरिका में अच्छे सम्बन्ध स्थापित होंगे। अफ़गानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप से गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई। प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के इस कथन का कि किसी भी देश को दूसरे देश में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, अमेरिका ने स्वागत किया। जून, 1981 में अमेरिका ने भारत की भावनाओं की खुली उपेक्षा करते हुए पाकिस्तान को व्यापक स्तर पर अमेरिकी हथियार दिए। जुलाई, 1982 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा पर गईं। भारत और अमेरिका प्रशासन के बीच हुई सहमति के अन्तर्गत तारापुर के समझौते की व्यवस्थाओं के अनुसार स्वयं तो ईंधन की सप्लाई नहीं करेगा, लेकिन उसे भारत द्वारा फ्रांस से आवश्यक ईंधन खरीदने पर कोई आपत्ति नहीं होगी।

जून, 1985 में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी अमेरिका की यात्रा पर गए और उनका राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने ह्वाइट हाऊस में भव्य स्वागत किया। भारत और अमेरिका द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य से अमेरिका ने भारत में आतंकवादी हिंसा के प्रयासों और उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप मिलने के विरुद्ध भारत सरकार को पूरा सहयोग देने का संकल्प व्यक्त किया।

चंद्रशेखर की सरकार और अमेरिका के साथ सम्बन्ध-जनवरी, 1991 में चंद्रशेखर की सरकार ने अमेरिका के साथ सम्बन्ध सुधारने के चक्कर में तटस्थता की नीति से दूर होते हुए अमेरिकी युद्ध विमानों को मुम्बई के सहारा अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से ईंधन भरने की सुविधा प्रदान की। चंद्रशेखर की सरकार की नीति की सभी दलों तथा विपक्ष के नेता राजीव गांधी ने कड़ी आलोचना की।

नरसिम्हा राव की सरकार और अमेरिका के साथ सम्बन्ध-प्रधानमन्त्री श्री नरसिम्हा राव अमेरिका के राष्ट्रपति बुश को 31 जनवरी, 1992 को न्यूयार्क में मिले। दोनों नेताओं ने भारत-अमेरिका के बीच सहयोग के बढ़ते दायरे पर संतोष व्यक्त किया, परन्तु परमाणु अप्रसार सन्धि पर भारत और अमेरिका के बीच मतभेद बने रहे। जनवरी, 1993 में डेमोक्रेटिक पार्टी के बिल क्लिटन अमेरिका के राष्ट्रपति बने। जी०-7 देशों के टोकियो सम्मेलन में अमेरिका ने भारत को क्रायोजेनिक इंजन प्रणाली न बेचने के लिए भारत पर दबाव डाला। मई, 1994 में भारत के प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव अमेरिका की यात्रा पर गए। संयुक्त विज्ञप्ति में यह कहा जाना कि दोनों देश परमाणु आयुधों को संसार से खत्म करने या मिटाने के लिए काम करेंगे, वास्तव में भारतीय दृष्टिकोण है।
भारत के परमाणु परीक्षण तथा भारत-अमेरिका सम्बन्ध-भारत ने 11 मई, 1998 को तीन और 13 मई को दो परमाणु परीक्षण किए। 13 मई, 1998 को अमेरिका ने

भारत के परमाणु परीक्षणों की निंदा की और भारत के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्धों की घोषणा की। अमेरिकन राष्ट्रपति बिल क्लिटन ने भारत की वाजपेयी सरकार को व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी० टी० बी० टी०) पर तुरन्त और बिना शर्त हस्ताक्षर करने को कहा। उन्होंने कहा कि भारत के परमाणु परीक्षण अनुचित हैं और इससे एशिया में हथियारों की खतरनाक होड़ शुरू होने का खतरा है। 13 जून, 1998 को प्रधानमन्त्री वाजपेयी के विशेष दूत जसवंत सिंह ने वाशिंगटन में अमेरिकी विदेश उपमन्त्री स्ट्रोब टालबोट के साथ वार्ता करने के बाद कहा कि परीक्षणों को लेकर अमेरिकी समझ बेहतर हुई है।

भारत-अमेरिका की आतंकवाद विरोधी संयुक्त कार्यकारी समूह (Joint Working Group on Counterterrorism)-19 जनवरी, 1999 को भारतीय विदेश मन्त्री जसवंत सिंह और अमेरिकी विदेश उप-सचिव स्ट्रोब टालबोट की लंदन में मुलाकात हुई। दोनों पदाधिकारियों ने आतंकवादी हिंसा को रोकने के लिए इस बात पर सहमति जताई कि दोनों देशों को आतंकवाद विरोधी कार्यकारी समूह स्थापित करना चाहिए। इन मुलाकातों से निश्चित रूप से भारत और अमेरिकी सम्बन्धों में सहयोग की आशा की जा सकती है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटन की भारत यात्रा-21 मार्च, 2000 को अमेरिकन राष्ट्रपति बिल क्लिटन पांच दिन के लिए भारत की सरकारी यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान अमेरिका एवं भारत ने आर्थिक क्षेत्र पर अनेक समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इसके अतिरिक्त भारत अमेरिकी सम्बन्धों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए विज़न-2000 नामक दस्तावेज़ पर भी हस्ताक्षर किये गए। अमेरिकी राष्ट्रपति की इस यात्रा से भारत-अमेरिकी सम्बन्धों में एक नए युग का सूत्रपात हुआ है।

भारतीय प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की अमेरिका यात्रा-8 सितम्बर, 2000 को भारतीय प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी अमेरिका की यात्रा पर गए। अपने लम्बे व्यस्त कार्यक्रम में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिटन सहित अनेक प्रमुख नेताओं और व्यापारिक संस्थाओं से बातचीत की। इस दौरान आपसी हित के विभिन्न विषयों पर व्यापक बातचीत हुई।

भारत के प्रधानमन्त्री की अमेरिका यात्रा-नवम्बर, 2001 में भारत के प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका की यात्रा की। वाजपेयी ने अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के साथ शिखर वार्ता के दौरान आतंकवाद के खिलाफ लडने, नई रणनीतिक योजना बनाने, परमाणु क्षेत्र में शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए संयुक्त रूप से कार्य करने, सुरक्षा सहयोग को बढ़ाने एवं अफ़गानिस्तान के अच्छे भविष्य के लिए मिलकर काम करने की बात की।

भारतीय प्रधानमन्त्री की अमेरिका यात्रा-सितम्बर, 2004 में संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने के लिए भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह अमेरिकी यात्रा पर गए। यात्रा के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह ने अमेरिकन राष्ट्रपति जार्ज बुश से भेंट करके द्विपक्षीय मुद्दों के अतिरिक्त आतंकवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष, व्यापक जनसंहार के हथियारों के प्रसार पर अंकुश व भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों पर विचार-विमर्श किया।

प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा-भारत के प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह 17 जुलाई, 2005 को अमेरिका की यात्रा पर गए, जो भारत-अमेरिका के सम्बन्धों में मील का पत्थर सिद्ध हुई। भारत और अमेरिका के बीच सबसे महत्त्वपूर्ण समझौता परमाणु शक्ति से सम्बन्धित है। अमेरिका ने यह स्वीकार कर लिया है, कि “भारत अत्याधुनिक परमाणु शक्ति सम्पन्न ज़िम्मेदार देश है।” अमेरिका परमाणु शक्ति के असैनिक उपयोग के क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग करेगा तथा उस पर लगे प्रतिबन्धों को हटा लेगा।

अमेरिकन राष्ट्रपति की भारत यात्रा-मार्च, 2006 में अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत की ऐतिहासिक यात्रा पर आए। इस यात्रा के अवसर पर दोनों देशों के बीच असैनिक परमाणु समझौते के अतिरिक्त कृषि, विज्ञान एवं आर्थिक क्षेत्रों में भी समझौता हुआ। अमेरिकन राष्ट्रपति ने भारत के साथ और अधिक अच्छे सम्बन्धों की वकालत की।

भारतीय प्रधानमन्त्री की अमेरिका यात्रा-सितम्बर, 2008 में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह ने अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश से भी मुलाकात की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के नेताओं ने द्विपक्षीय व्यापार, विश्व आतंकवाद तथा असैन्य परमाणु समझौते पर विचार-विमर्श किया।
भारतीय विदेश मन्त्री की अमेरिका यात्रा-अक्तूबर, 2008 में भारतीय विदेश मन्त्री प्रणव मुखर्जी ने असैन्य परमाणु समझौते (Civil Nuclear Deal) पर बातचीत करने के लिए अमेरिका की यात्रा की।

भारत-अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु समझौता-नई दिल्ली में 11 अक्तूबर, 2008 को प्रणव मुखर्जी एवं अमेरिका की विदेश मन्त्री कोंडालीजा राइस ने असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए।

भारतीय प्रधानमन्त्री की अमेरिका यात्रा-नवम्बर, 2009 में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अमेरिका की यात्रा की तथा अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा से द्विपक्षीय बातचीत की। दोनों देशों ने सांझा बयान जारी करते हुए अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में से आतंकी ठिकानों को समाप्त करने की घोषणा की ।

अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने 6-8 अक्तूबर, 2010 तक भारत की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे का समर्थन किया। इसी यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारतीय और अमेरिकी कम्पनियों के बीच 10 अरब डालर के व्यापारिक करार की घोषणा भी की।

सितम्बर, 2013 में संयुक्त राष्ट्र संघ के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अमेरिका की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ द्विपक्षीय बैठक में भाग लिया, जिसमें दोनों नेताओं ने एच-I वी वीज़ा, नागरिक परमाणु समझौते एवं सामरिक सहयोग पर बाचचीत की।

भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिकी यात्रा-सितम्बर 2014 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करने के साथ ही अमेरिकन राष्ट्रपति ओबामा से भी महत्त्वपूर्ण मुलाकात की। इस मुलाकात के दौरान दोनों ने कहा कि आतंकवाद के महफूज ठिकानों को नष्ट करने के साथ ही दाऊद को भारत लाने की कोशिश की जायेगी।

सितम्बर 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका की यात्रा की। इन दौरान दोनों देशों ने सामारिक सांझेदारी को और बेहतर बनाने का निर्णय किया और सुरक्षा, आतंकवाद एवं कट्टरवाद से निपटने, रक्षा, आर्थिक सांझेदारी तथा जलवायु परिवर्तन पर सहयोग को और गति देने पर सहमति व्यक्त की।

अमेरिकन राष्ट्रपति की भारत यात्रा-जनवरी, 2015 में अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत की तीन दिन की यात्रा पर आए। ओबामा ऐसे पहले राष्ट्रपति थे जो 26 जनवरी की गणतंत्र परेड में मुख्य अतिथि बने। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने नागरिक परमाणु समझौते पर पूर्ण रूप से हस्ताक्षर किये। इसके अतिरिक्त रक्षा, स्वच्छ तथा अक्षय उर्जा एवं चार अर्न्तराष्ट्रीय निर्यात नियन्त्रण व्यवस्थाओं में भारत को सदस्यता दिलाने सम्बन्धी समझौता हुआ। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे का भी समर्थन किया।

जून 2016 तथा 2017 में भारतीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने व्यापार, आतंकवाद, क्षेत्रीय सुरक्षा, स्वच्छ ऊर्जा तथा जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर बातचीत की।

निष्कर्ष-भारत एवं अमेरिका पिछले कुछ वर्षों में बहुत अधिक निकट आए हैं। दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध हैं, आर्थिक क्षेत्र एवं रक्षा क्षेत्र में भी सहयोग बढ़ा है। भारत और अमेरिका के सम्बन्धों में काफ़ी नज़दीकी आई है। भारत के प्रति अमेरिकी सोच में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 22 भारत के अमेरिका एवं रूस से सम्बन्ध

प्रश्न 2.
भारत-रूस सम्बन्धों का विस्तार सहित वर्णन करो। (Describe in detail Indo-Russia Relations.)
अथवा
भारत-रूस सम्बन्ध के स्वरूप की विवेचना कीजिए। (Discuss the nature of relationship between India and Russia.)
उत्तर-
सन् 1991 में भूतपूर्व सोवियत संघ का विघटन हो गया और उसके 15 गणराज्यों ने स्वयं को स्वतन्त्र राज्य घोषित कर दिया। रूस भी इन्हीं में से एक है। फरवरी, 1992 में भारतीय प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव ने रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को विश्वास दिलाया कि भारत के साथ रूस के सम्बन्ध में कोई गिरावट नहीं आएगी और वे पहले की ही तरह मित्रवत् और सहयोग पूर्ण बने रहेंगे। आज भारत और रूस में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन तीन दिन की ऐतिहासिक यात्रा पर 27 जनवरी, 1993 को दिल्ली पहुंचे। राष्ट्रपति येल्तसिन और प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव वार्ता में मुख्यत: आर्थिक एवं व्यापारिक विवादों के समाधान और द्विपक्षीय सहयोग के लिए एजंडे पर विशेष जोर दिया गया। दोनों देशों के बीच 10 समझौते हुए जिनमें रुपया-रूबल विनिमय दर तथा कर्जे की मात्रा व भुगतान सम्बन्धी जटिल समस्याओं पर हुआ समझौता विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दोनों देशों में 20 वर्ष के लिए मैत्री एवं सहयोग की सन्धि हुई। यह सन्धि 1971 की सन्धि से उस रूप से भिन्न है कि इसमें सामरिक सुरक्षा सम्बन्धी उपबन्ध शामिल नहीं हैं। लेकिन 14 उपबन्धों वाली इस नई सन्धि में यह प्रावधान अवश्य रखा गया है कि दोनों देश ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे एक-दूसरे के हितों पर आंच आती है। वाणिज्य तथा आर्थिक सम्बन्धों के संवर्धन के लिए चार समझौते सम्पन्न हुए। इन समझौतों से व्यापार में भारी वृद्धि की आशा की गई है। भारत रूस समझौतों से रूस को निर्यात करने वाले भारतीय व्यापारियों की परेशानी भी दूर हो गई है। भारतीय सेनाओं के लिए रक्षा कलपुर्जी की नियमित सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए रूसी राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत त्रिसूत्रीय फार्मला दोनों देशों ने स्वीकार कर लिया। इस सहमति से भारत को रूस की रक्षा उपकरणों और प्रौद्योगिकी प्राप्त होगी और संयुक्त उद्यमों में भी उसकी भागीदारी होगी। राजनीतिक स्तर पर राष्ट्रपति येल्तसिन तथा प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव की सहमति भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता है। रूसी राष्ट्रपति ने कश्मीर के मामले पर भारत की नीति का पूर्ण समर्थन किया और यह वचन दिया कि रूस पाकिस्तान को किसी भी तरह की तकनीकी तथा सामरिक सहायता नहीं देगा। रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भी कश्मीर के मुद्दे पर भारत को समर्थन प्रदान करेगा। सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्य के लिए भी रूस भारत के दावे का समर्थन करेगा।

भारत के प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-29 जून, 1994 को भारत के प्रधानमन्त्री श्री पी० वी० नरसिम्हा राव रूस की यात्रा पर गए। भारत और रूस के मध्य वहां आपसी सहयोग व सैनिक सहयोग के क्षेत्र में 11 समझौते हुए। प्रधानमन्त्री राव की इस यात्रा से भारत और रूस के मध्य नवीनतम तकनीक के आदान-प्रदान के क्षेत्र पर बल दिया गया।

रूस के प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-दिसम्बर, 1994 में रूस के प्रधानमन्त्री विक्टर चेरनोमिर्दिन भारत की यात्रा पर आए। भारत और रूस के बीच आठ समझौते हुए, इन समझौतों में सैनिक और तकनीकी सहयोग भी शामिल हैं। इन समझौतों का भविष्य की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है।

प्रधानमन्त्री एच० डी० देवगौड़ा की रूस यात्रा-मार्च, 1997 में भारत के प्रधानमन्त्री एच० डी० देवगौड़ा रूस गए। उन्होंने रूस के राष्ट्रपति येल्तसिन और प्रधानमन्त्री चेरनोमिर्दिन से बातचीत कर परम्परागत मित्रता बढ़ाने के लिए कई उपायों पर द्विपक्षीय सहमति हासिल की। रूस ने भारत को परमाणु रिएक्टर देने के पुराने निर्णय को पुष्ट किया।

परमाणु परीक्षण-11 मई, 1998 को भारत ने तीन और 13 मई को दो परमाणु परीक्षण किए। अमेरिका ने भारत के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए जिसकी रूस ने कटु आलोचना की। 21 जून, 1998 को रूस के परमाणु ऊर्जा मन्त्री देवगेनी अदामोव और भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ० आर० चिदम्बरम ने नई दिल्ली में तमिलनाडु के कुरनकुलम में अढ़ाई अरब डालर की लागत में बनने वाले परमाणु ऊर्जा संयन्त्र के सम्बन्ध में समझौता किया।
रूस के प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-दिसम्बर, 1998 में रूस के प्रधानमन्त्री प्रिमाकोव भारत की यात्रा पर आए। 21 दिसम्बर, 1998 को दोनों देशों ने आपसी सहयोग के सात समझौतों पर हस्ताक्षर किए। दोनों देशों के रक्षा सहयोग की अवधि सन् 2000 से 2010 तक बढ़ाने का निर्णय किया।

रूस के राष्ट्रपति की भारत यात्रा-अक्तूबर, 2000 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत की यात्रा पर आए। दोनों देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, विघटनवाद, संगठित मज़हबी अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी के खिलाफ़ सहयोग करने पर भी सहमति जताई। दोनों देशों ने आपसी हित के 17 विभिन्न विषयों पर समझौते किए। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझौता सामरिक भागीदारी का घोषणा-पत्र रहा।

भारत के प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-नवम्बर, 2001 में भारत के प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी रूस यात्रा पर गए। वाजपेयी एवं रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने शिखर वार्ता करके ‘मास्को घोषणा पत्र’ जारी किया जिसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात कही गई। रूस ने सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे का भरपूर समर्थन किया। इसके अतिरिक्त अन्य कई क्षेत्रों में भी दोनों देशों के बीच समझौते हुए।

रूस के उप-प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-फरवरी, 2002 के रूस के उप-प्रधानमन्त्री भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार को नई गति देने के लिए एक प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर किये। इसके साथ ही भारत ने रूस से स्मर्क मल्टी-बैरन रॉकेट लांचर खरीदने और रूस निर्मित 877 ई के० एम० पारस्परिक पनडुबियों को उन्नत बनाने के समझौते किए।

20 जनवरी, 2004 को नई दिल्ली में रूस एवं भारत के रक्षा मन्त्रियों ने बहु-प्रतीक्षित विमान वाहक पोत गोर्खकोव समझौते पर हस्ताक्षर किए।
रूस के राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2004 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आए। व्लादिमीर पुतिन ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में वीटो सहित भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया।

भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की रूस यात्रा- भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह दिसम्बर, 2005 में रूस की यात्रा पर गए। दोनों देशों के बीच तीन महत्त्वपूर्ण समझौते हुए

  1. रक्षा के क्षेत्र में हुए बौद्धिक सम्पदा अधिकार समझौते के तहत संयुक्त रक्षा कार्यों की निगरानी करना।
  2. दूसरा समझौता सौर भौतिकी के क्षेत्र में हुआ है।
  3. तीसरा समझौता ग्लोबल नेविगेशन सिस्टम के सन्दर्भ में तकनीकी सुरक्षा से सम्बन्धित हुआ। ये समझौता अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम के विकल्प के तौर पर काम करेगा।

नवम्बर, 2007 में भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह तीन दिन की रूस यात्रा पर गए। प्रधानमन्त्री ने रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के साथ वार्षिक बैठक में भाग लिया। दोनों देशों ने रक्षा सहयोग को और अधिक बढ़ाने के अतिरिक्त द्विपक्षीय व्यापार को 2010 तक 10 बिलियन डालर तक ले जाने की सहमति प्रकट की।

रूसी प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-फरवरी, 2008 में रूसी प्रधानमन्त्री विक्टर ए० जुबकोव (Victor A. Zubkov) दो दिवसीय भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2008 में रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव भारत यात्रा पर आए। मेदवेदेव ने 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले की कड़ी निन्दा की। इस यात्रा के दौरन दोनों देशों ने महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

भारतीय प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-दिसम्बर, 2009 में भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह रूस यात्रा पर गए तथा रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव के साथ वार्षिक बैठक में भाग लिया । इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने रक्षा, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सहोयग बढ़ाने पर जोर दिया ।

रूसी प्रधामन्त्री की भारत-यात्रा-मार्च, 2010 में रूसी प्रधानमन्त्री श्री ब्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सुरक्षा एवं सहयोग के पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किये।

रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2010 में रूसी राष्ट्रपति श्री दिमित्री मेदवेदेव भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए भारत आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने 30 समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

भारतीय प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-दिसम्बर, 2011 में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए रूस गए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने पारस्परिक सहयोग के चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2012 में रूसी राष्ट्रपति श्री ब्लादिमीर पुतिन भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने भारत आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सहयोग एवं रक्षा के 10 समझौतों पर हस्ताक्षर किये।

भारतीय प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा- अक्तूबर, 2013 में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए रूस की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनो देशों ने रॉकेट, मिसाइल, नौसेना, प्रौद्योगिकी और हथियार प्रणाली के क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की।

रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर 2014 में रूसी राष्ट्रपति श्री बलादिमीर पुतिन भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए भारत आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच सुरक्षा, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण समझौते हुए।
भारतीय प्रधानमंत्री की रूस यात्रा-दिसम्बर, 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने रूस की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने रक्षा एवं सहयोग के 16 समझौतों पर हस्ताक्षर किये। अक्तूबर 2016 में रूस के राष्ट्रपति श्री ब्लादिमीर पुतिन ‘ब्रिक्स’ (BRICS) सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत यात्रा पर आए। इस दौरान दोनों ने 16 समझौतों पर हस्ताक्षर किये।

जून 2017 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी रूस यात्रा पर गए। इस दौरान दोनों देशों ने 5 समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

अक्तूबर, 2018 में रूसी राष्ट्रपति श्री व्लादिमीर पुतिन वार्षिक शिखर वार्ता के लिए भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने आठ महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए।
नि:संदेह भारत और रूस में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं। कुंडकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना इस के सहयोग का ही परिणाम है। असैनिक परमाणु परियोजनाओं में रूस की भागीदारी के वायदे और बहुउद्देशीय परिवहन विमान और पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान के निर्माण में उसकी मदद की घोषणा को जोड़ ले तो भारत और रूस मित्रता की धारणा की ही पुष्टि होती है। रूस पुरानी मित्रता को निरन्तर निभा रहा है और यह निर्विवाद है कि भारत और रूस के बीच विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग बढ़ने से दोनों देशों की ताकत बढ़ेगी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 22 भारत के अमेरिका एवं रूस से सम्बन्ध

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत-अमेरिका सम्बन्धों में आए सकारात्मक मोड़ के लिए जिम्मेवार चार कारण लिखिए।
उत्तर-
भारत-अमेरिका सम्बन्धों में आए सकारात्मक मोड़ के लिए ज़िम्मेदार तीन कारण अग्रलिखित हैं-

  1. शीत युद्ध की समाप्ति-भारत-अमेरिका सम्बन्धों में आए सकारात्मक मोड़ के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण कारण शीत युद्ध की समाप्ति है।
  2. आतंकवाद की समस्या-दोनों ही देश आतंकवाद से ग्रसित है, अतः इस समस्या के समाधान के लिए भी दोनों देश नज़दीक आए हैं।
  3. जार्ज बुश की भारत के प्रति विशेष रुचि-भारत-अमेरिका सम्बन्धों में आए सकारात्मक मोड़ के लिए अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत के प्रति विशेष रुचि रही है। उनके प्रयासों से ही भारत-अमेरिका के बीच असैनिक परमाणु समझौता हो सका।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आए परिवर्तनों के कारण भी भारत-अमेरिका के सम्बन्धों में सकारात्मक परिवर्तन आया है।

प्रश्न 2.
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि पर नोट लिखिए।
अथवा
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि क्या है ?
अथवा
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता क्या है ?
उत्तर-
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि 2005 में हुई। इस सन्धि पर भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने हस्ताक्षर किए। इस सन्धि का मुख्य उद्देश्य भारत द्वारा अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति करना था। इस सन्धि के अन्तर्गत 2020 तक कम-से-कम 20000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। भारत ने इस सन्धि के अन्तर्गत अपने 14 परमाणु रिएक्टर अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी के लिए खोल दिए हैं। 6 सितम्बर, 2008 को इस सन्धि को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (N.S.G.) की भी स्वीकृति मिल जाने के बाद 11 अक्तूबर, 2008 को भारत के विदेश मन्त्री प्रणव मुखर्जी तथा अमेरिका की विदेश मन्त्री कोंडालीजा राइस ने इस पर हस्ताक्षर करके इसे लागू कर दिया। जनवरी, 2015 में अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के समय इस समझौते को पूर्ण रूप से व्यावहारिक रूप दे दिया गया।

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प्रश्न 3.
1971 की भारत सोवियत संघ की सन्धि की मुख्य व्यवस्थाएं क्या थी ?
उत्तर-
1971 की भारत सोवियत संघ की मुख्य व्यवस्थाएं इस प्रकार थीं-

  1. एक-दूसरे की प्रभुसत्ता तथा अखण्डता का सम्मान करना।
  2. पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के बारे में प्रयास करना।
  3. उपनिवेशवाद तथा प्रजातीय भेदभाव की समाप्ति के लिए प्रयास करना।
  4. एक दोनों के विरुद्ध सैनिक सन्धि में शामिल न होना।
  5. यदि दोनों देशों में किसी एक देश के विरुद्ध अन्य देश युद्ध की घोषणा करता है तो दूसरा देश आक्रमणकारी देश की कोई मदद नहीं करेगा। यदि दोनों देशों में से किसी एक पर आक्रमण हो जाता है तो उस आक्रमण को टालने के लिए दोनों देश आपस में विचार-विमर्श करेंगे।

प्रश्न 4.
रूस-भारत मित्रता के लिए जिम्मेवार मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर-
रूस-भारत मित्रता के लिए निम्नलिखित कारण ज़िम्मेदार हैं

  • रूस-भारत मित्रता के लिए दोनों देशों में पाए गए परस्पर रक्षा सम्बन्ध हैं।
  • रूस एवं भारत में मित्रता के लिए आर्थिक एवं व्यापार क्षेत्र में सहयोग प्रमुख कारण है।
  • रूस एवं भारत आतंकवाद के मुद्दे पर एक हैं।
  • अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले परिवर्तन भी रूस-भारत की मित्रता के लिए जिम्मेदार है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत-अमेरिका सम्बन्धों में सुधार के लिए जिम्मेवार दो कारण लिखिए।
उत्तर-

  1. शीत युद्ध की समाप्ति-भारत-अमेरिका सम्बन्धों में आए सकारात्मक मोड़ के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण कारण शीत युद्ध की समाप्ति है।
  2. आतंकवाद की समस्या-दोनों ही देश आतंकवाद से ग्रसित हैं, अतः इस समस्या के समाधान के लिए भी दोनों देश नज़दीक आए हैं।

प्रश्न 2.
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि पर नोट लिखिए।
उत्तर-
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि मार्च, 2006 में हुई। इस सन्धि पर भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने हस्ताक्षर किए। इस सन्धि का मुख्य उद्देश्य भारत द्वारा अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति करना था। 6 सितम्बर, 2008 को इस सन्धि को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (N.S.G.) की भी स्वीकृति मिल जाने के बाद 11 अक्तूबर, 2008 को भारतीय विदेश मन्त्री प्रणव मुखर्जी तथा अमेरिका की विदेश मन्त्री कोंडालीजा राइस ने इस पर हस्ताक्षर किये। अन्ततः जनवरी, 2015 में अमेरिकन राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान इस समझौते में आने वाली बाधाओं को दूर किया गया।

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प्रश्न 3.
1971 की भारत सोवियत संघ समझौते की दो मुख्य व्यवस्थाएं क्या थीं?
उत्तर-

  1. एक-दूसरे की प्रभुसत्ता तथा अखण्डता का सम्मान करना।
  2. पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के बारे में प्रयास करना।।

प्रश्न 4.
रूस-भारत मित्रता के लिए जिम्मेवार मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर-

  1. रूस-भारत मित्रता के लिए दोनों देशों में पाए गए परस्पर रक्षा सम्बन्ध हैं।
  2. रूस एवं भारत में मित्रता के लिए आर्थिक एवं व्यापार क्षेत्र में सहयोग प्रमुख कारण है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
सोवियत संघ के विघटन के समय सोवियत संघ का राष्ट्रपति कौन था ?
उत्तर-
सोवियत संघ के विघटन के समय सोवियत संघ का राष्ट्रपति श्री मिखाइल गोर्बाच्योव थे।

प्रश्न 2.
भारत-अमेरिका के बीच सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत-अमेरिका के बीच सम्बन्ध वर्तमान समय में मित्रतापूर्ण हैं।

प्रश्न 3.
1, 2, 3 परमाणु संधि कौन-से दो देशों की बीच हुई ?
उत्तर-
1, 2, 3 परमाणु संधि भारत एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच हुई।

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प्रश्न 4.
1971 के भारत-पाक युद्ध में अमेरिका का क्या दृष्टिकोण था ?
उत्तर-
1971 के भारत-पाक युद्ध में अमेरिका ने खुल कर पाकिस्तान का साथ दिया था तथा भारत पर हर प्रकार का दबाव डाला था।

प्रश्न 5.
अमेरिका का गुटनिरपेक्षता की नीति के प्रति क्या दृष्टिकोण था ?
उत्तर-
अमेरिका ने गुट निरपेक्षता की नीति को कभी भी पसन्द नहीं किया। अमेरिका चाहता था कि भारत सदैव उसकी नीतियों का समर्थन करे, जोकि भारत को पसन्द नहीं था।

प्रश्न 6.
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका का क्या दृष्टिकोण था ?
उत्तर-
1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से किसी का समर्थन नहीं किया, परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से वह पाकिस्तान के साथ था, क्योंकि पाकिस्तान ने अमेरिका से प्राप्त हथियारों से ही युद्ध लड़ा था।

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प्रश्न 7.
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि कब हुई ?
अथवा
भारत-अमेरिका परमाणु समझौता कब लागू किया गया ?
उत्तर-
भारत-अमेरिका परमाणु सन्धि 11 अक्तूबर, 2008 को हुई।

प्रश्न 8.
भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु समझौते का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु समझौते के कारण दोनों देश परमाणु क्षेत्र में परस्पर सहयोग कर सकते हैं।

प्रश्न 9.
भारत और रूस सम्बन्धों में तनाव का कारण लिखिए।
उत्तर-
भारत और रूस सम्बन्धों में तनाव का महत्त्वपूर्ण कारण भारत और अमेरिका के मजबूत होते सम्बन्ध हैं।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. सोवियत संघ के विघटन के समय ………… राष्ट्रपति थे।
2. भारत को हथियारों की सबसे अधिक आपूर्ति ……….. करता है।
3. भारत एवं ……….. के बीच 28 जून, 2005 को दस वर्षीय समझौता हुआ।
4. 2015 में अमेरिका के राष्ट्रपति श्री ………. भारत यात्रा पर आए।
5. रूस के वर्तमान राष्ट्रपति श्री …………….. हैं।
उत्तर-

  1. मिखाइल गोर्बाचेव
  2. रूस
  3. अमेरिका
  4. बराक हुसैन ओबामा
  5. व्लादिमीर पुतिन।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. भारत के रूस से सदैव ही अच्छे सम्बन्ध रहे हैं।
2. भारत के अमेरिका से हमेशा मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रहे हैं।
3. वर्तमान समय में भारत-अमेरिका सम्बन्ध सुधर रहे हैं।
4. मार्च, 2006 में भारत-अमेरिका के बीच असैनिक परमाणु समझौता हुआ।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के किस प्रधानमन्त्री ने सर्वप्रथम अमेरिका की यात्रा की ?
(क) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ख) श्रीमती इंदिरा गांधी
(ग) श्री लाल बहादुर शास्त्री
(घ) पं० जवाहर लाल नेहरू।
उत्तर-
(घ) पं० जवाहर लाल नेहरू।

प्रश्न 2.
निम्न में किस अमेरिकन राष्ट्रपति ने सर्वप्रथम भारत की यात्रा की
(क) बिल क्लिंटन
(ख) कैनेडी.
(ग) आइजनहावर
(घ) जिमी कार्टर।
उत्तर-
(ग) आइजनहावर

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प्रश्न 3.
अक्तूबर 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तब निम्न में से किस देश ने भारत को सहायता दी
(क) अमेरिका
(ख) पाकिस्तान
(ग) श्रीलंका
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) अमेरिका

प्रश्न 4.
अमेरिकन राष्ट्रपति जिमी कार्टर कब भारत यात्रा पर आए?
(क) 1 जनवरी, 1980
(ख) 15 अगस्त, 1978
(ग) 1 जनवरी, 1978
(घ) 26 जनवरी, 19801
उत्तर-
(ग) 1 जनवरी, 1978

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प्रश्न 5.
भारत-पाक के बीच ताशकंद समझौता करवाने में किसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ?
(क) अमेरिकन राष्ट्रपति कैनेडी
(ख) सोवियत नेता
(ग) फ्रांस के राष्ट्रपति
(घ) ब्रिटिश नेता।
उत्तर-
(ख) सोवियत नेता