PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षण एवं महत्ता का वर्णन कीजिए।
(Describe the salient features and importance of Vedic literature.)
अथवा
चार वेदों के प्रमुख लक्षणों के बारे में भावपूर्ण संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Describe the Pre-eminent features of four Vedas in brief but meaningful.)
अथवा
वैदिक साहित्य से क्या भाव है ? आरम्भिक और उत्तर वैदिक काल के साहित्य का संक्षेप में वर्णन करो।
(What is meant by Vedic literature ? Explain briefly the early and later Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य की संक्षेप जानकारी दो । चार वेदों पर संक्षेप में नोट लिखें।
(Give a brief introduction of Vedic literature. Write short notes on four Vedas as well.)
अथवा
वैदिक साहित्य की मुख्य विशेषताओं और महत्ता का वर्णन करो। (Explain the main features and importance of the Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के बारे बताएँ।
(Give a brief introduction about the Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the salient features of Vedic literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य से भाव उस साहित्य से है जिसकी रचना आर्यों ने की थी। इस साहित्य को अनमोल ज्ञान का भंडार माना जाता है। इस में जीवन की आध्यात्मिक और अन्य समस्याओं के समाधान का वर्णन किया गया है। निस्संदेह वैदिक साहित्य को लिखने का मुख्य उद्देश्य धार्मिक था परन्तु इस से वैदिक और उत्तर वैदिक काल के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन की भी स्पष्ट झलक प्राप्त होती है। इसी कारण इस साहित्य को प्राचीन काल भारतीय इतिहास लिखने के लिए एक बहुत ही विश्वसनीय स्रोत माना जाता है। यह सारा साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। रचना काल के आधार पर वैदिक साहित्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है। आरंभिक वैदिक काल का साहित्य और उत्तर वैदिक काल का साहित्य। इनका संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

(क) आरंभिक वैदिक काल का साहित्य (Early Vedic Literature)-
आरंभिक वैदिक काल के साहित्य में चार वेद, ब्राह्मण, आरण्य और उपनिषद् आदि शामिल हैं। इस साहित्य को स्मति भी कहा जाता है क्योंकि इसकी रचना मनुष्यों के द्वारा नहीं बल्कि परमात्मा के बताये जाने पर ऋषियों द्वारा की गई। इसलिए इस साहित्य को परमात्मा के ज्ञान का भंडार माना जाता है।

1. चार वेद (The Four Vedas)-वेदों को भारत का सब से प्राचीन साहित्य माना जाता है। इन को सारे भारतीय दर्शन का मूल माना जाता है। वेद शब्द “विद” धातु से निकला है जिसका अर्थ है “जानना” या “ज्ञान”। दूसरे शब्दों में वेदों को आर्यों के ज्ञान का भंडार कहा जा सकता है। वेद चार हैं :-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

ऋग्वेद (The Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है। इस की रचना 1500-1000 ई० पू० में हुई। इस में 1028 सूक्त हैं जिनको 10 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की उपासना की गई है। सबसे अधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। इनकी संख्या 250 है। ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। इन की पूजा लड़ाई में विजय के लिए, धन और संतान तथा सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद को आर्य लोगों के जीवन को जानने के लिए बहुमूल्य स्रोत माना जाता है।

सामवेद (The Samaveda)-सामवेद में कुल 1875 मंत्र दिये गये हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी सारे मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञों के समय पुरोहित निश्चित स्वरों में गाते थे। इसी कारण सामवेद को “गायन ग्रंथ” भी कहा जाता है। यदि इस वेद को भारतीय संगीत कला का स्रोत कह दिया जाये तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

यजुर्वेद (The Yajurveda)-यजुर्वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में यज्ञों को किये जाने के ढंग भी बताये गये हैं। वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा गया है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी बताये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के धार्मिक और सामाजिक जीवन के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

अथर्ववेद (The Atharvaveda)—इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। इस वेद को सबसे बाद में वेदों की गिनती में शामिल किया गया है। इस वेद में 731 सूक्त दिये गये हैं। यह वेद जादू-टोनों और भूतों तथा चुडैलों को वश में करने के मंत्रों का संग्रह है। इस में अनेक बीमारियों से बचने के लिए औषधियों का भी वर्णन किया गया है।

2. ब्राह्मण ग्रंथ (The Brahmanas) ब्राह्मण ग्रंथों की रचना वेदों की रचना के बाद हुई। इनमें वेदों की सरल व्याख्या की गई है ताकि साधारण लोग उनके अर्थ समझ सकें। प्रत्येक वेद के अलग-अलग ब्राह्मण हैं। एतरेय ब्राह्मण, तैत्तरीय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण आदि नाम के ब्राह्मण सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यह गद्य में लिखे गये हैं। इनसे यज्ञों और बलियों की विधियों का ज्ञान प्राप्त होता है। इनमें कई प्रसिद्ध राजाओं के बहादुरी से भरपूर कारनामों का भी वर्णन मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर ब्राह्मण ग्रंथों की बड़ी महत्ता है।

3. आरण्यक (The Aranyakas)—ये ग्रंथ ब्राह्मण ग्रंथों का ही हिस्सा हैं। ये ग्रंथ जंगलों में रहने वाले साधुओं के लिये लिखे गये हैं। इनमें आध्यात्मिक विषयों और नैतिक कर्तव्यों पर अधिक जोर दिया गया है। इनमें यज्ञों और बलियों की रस्मों के बारे में भी समझाया गया है। ऐतरेय आरण्यक, कोषतकी आरण्यक, तैत्तरीय आरण्यक और बृहद आरण्यक नामों के ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं।

4. उपनिषद् (The Upanishads)-उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”1

1. “The Upanishadic philosophy is rightly regarded as the source of all Indian Philosophy.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 119.

(ख) उत्तर वैदिक काल का साहित्य
(Later Vedic Literature)
उत्तर वैदिक काल के साहित्य में वेदांग, सूत्र, उपवेद, पुराण, धर्म-शास्त्र और महाकाव्य आदि शामिल हैं। इस काल में रचे साहित्य को स्मृति भी कहा जाता है क्योंकि इस की रचना ऋषियों ने अपने ज्ञान के द्वारा की।

  1. वेदांग (The Vedangas)—वेदांग से अभिप्राय है वेदों के अंग। इनकी गिनती 6 है और ये अलग-अलग विषयों से संबंधित हैं। इनके नाम शिक्षा, छंद, कल्प, व्याकरण, निरुक्त और ज्योतिष हैं। इनमें से कल्प वेदांग सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसमें आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है। वेदों को समझने के लिए और उनका ठीक उच्चारण करने के लिए वेदांगों को विशेष महत्त्व प्राप्त है।
  2. सूत्र (The Sutras)-उत्तर वैदिक काल में साहित्य लिखने की एक नई शैली की शुरुआत हुई। इनको सूत्र कहा जाता है। इनमें कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बातें कहने का यत्न किया गया है। इस का उद्देश्य यह था कि लोग वैदिक साहित्य को आसानी से याद कर सकें। इनको तीन श्रेणियों में बाँटा गया है।
    • स्त्रोत सूत्र-इसमें सोम यज्ञ, बलियाँ और अन्य धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है।
    • ग्रह सूत्र-यह सूत्र सब सूत्रों से महत्त्वपूर्ण है। इस में जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
    • धर्म सूत्र-इसमें उस समय के प्रचलित कानूनों और रिवाजों का वर्णन किया गया है।
  3. उपवेद (The Upavedas)-उपवेद सहायक वेद हैं। इनकी संख्या चार है—
    • आयुर्वेद-इसमें औषधियों का वर्णन किया गया है।
    • धनुर्वेद-इसमें युद्ध-कला का वर्णन किया गया है।
    • गन्धर्ववेद-इसमें संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
    • शिल्प वेद-इसमें कला और भवन निर्माण कला से संबंधित जानकारी दी गई है।
  4. धर्मशास्त्र (The Dharma Shastras)-धर्म शास्त्र हिंदुओं के कानूनी ग्रंथ थे। इन को स्मृति ग्रंथ भी कहा जाता है। इनमें से मनु स्मृति सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति और नारद स्मृति भी बहुत प्रसिद्ध शास्त्र माने जाते हैं। इनमें चार जातियों, आश्रमों, नित्य की रस्मोंरीतियों, शासकों के कर्त्तव्य और न्यायिक व्यवस्था आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर धर्मशास्त्रों की बहुत महत्ता है।
  5. पुराण (The Puranas)—पुराण से अभिप्राय है प्राचीन यह हिंदुओं के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए हमारा एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पुराणों की कुल संख्या 18 है। इनमें से विष्णु, भागवत, मत्स्य और वायु पुराण बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा हुआ है। पहले भाग में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे में विश्व की पुनः उत्पत्ति, तीसरे भाग में देवताओं के वंशों, चतुर्थ में महायुगों और पाँचवें भाग में प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक तौर पर पुराणों का पाँचवां भाग बहुत लाभदायक है।
  6. दर्शन के षट-शास्त्र (Six Shastras of Philosophy)-उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—
    • कपिल का सांख्य शास्त्र,
    • पतंजलि का योग शास्त्र,
    • गौतम का न्याय शास्त्र
    • कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
    • जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
    • व्यास का उत्तर मीमांसा।
      इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

महाकाव्य (The Epics)-रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है। महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में 1,00,000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पांडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। प्रोफेसर एच० वी० श्रीनिवास मूर्ति का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“दोनों महाकाव्य रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के अलग-अलग पक्षों पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने पर्याप्त सीमा तक हमारे लोगों के चरित्र और जीवन को परिवर्तित किया है। इस तरह वे पुराने और नये भारत के मध्य एक मजबूत कड़ी हैं।”2

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वैदिक साहित्य का महत्त्व (Importance of the Vedic Literature)-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है ? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है ? ज्ञान क्या है ? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इस तरह वैदिक साहित्य हिंदू धर्म को जानने के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य आर्यों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए भी हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है। संक्षेप में वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एक दर्पण का कार्य करता है। आधुनिक काल में यह न केवल भारतीय बल्कि विदेशी लेखकों और विद्वानों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। निस्संदेह यह हमारे लिए एक बहुत ही गर्व की बात है। प्रसिद्ध लेखकों वी० पी० शाह तथा के० एस० बहेरा का यह कहना उचित है कि,
“वैदिक साहित्य आर्यों द्वारा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को दी गई सबसे अमूल्य देन है। निःसंदेह, वेद मख्य तौर पर धार्मिक साहित्य है, परंतु इनसे सीधे रूप से उस समय की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दशा के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।”3

2. “The two great epics, the Ramayana and the Mahabharata, throw a flood of light on various aspects of Indian culture. They have to a large extent, moulded the character and life of our people. Thus they form the strongest link between India, old and new.” Prof. H. V. Sreenivasa Murthy, History and Culture of India to 1000 A.D. (New Delhi : 1980) p. 68.
3. “The Vedic literature is a magnificient contribution of the Aryan’s to the Indian culture and civilisation. No doubt the Vedas are predominantly religious literature but the Vedas directly indicate about religious, social, economic and political conditions of the time.” B.P. Saha and K.S. Bahera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p.72.

प्रश्न 2.
निम्नलिखित के बारे पहचान कराएँ—
(1) पुराण,
(2) उपनिषद्
(3) ऋग्वेद,
(4) शास्त्र।
[Explain the following :
(1) Puranas
(2) Upanishads
(3) Rigveda
(4) Shastras.]
उत्तर-
1. पुराण (Purana)—पुराण से अभिप्राय है प्राचीन यह हिंदुओं के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए हमारा एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पुराणों की कुल संख्या 18 है। इनमें से विष्णु, भागवत, मत्स्य और वायु पुराण बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा हुआ है। पहले भाग में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे में विश्व की पुनः उत्पत्ति, तीसरे भाग में देवताओं के वंशों, चतुर्थ में महायुगों और पाँचवें भाग में प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक तौर पर पुराणों का पाँचवां भाग बहुत लाभदायक है।

2. उपनिषद् (Upanishads)—उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”1

3. ऋग्वेद (Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है। इस की रचना 1500-1000 ई० पू० में हुई। इस में 1028 सूक्त हैं जिनको 10 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की उपासना की गई है। सबसे अधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। इनकी संख्या 250 है। ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। इन की पूजा लड़ाई में विजय के लिए, धन और संतान तथा सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद को आर्य लोगों के जीवन को जानने के लिए बहुमूल्य स्रोत माना जाता है।

4. शास्त्र (Shashtras)—धर्म शास्त्र हिंदुओं के कानूनी ग्रंथ थे। इन को स्मृति ग्रंथ भी कहा जाता है। इनमें से मनु स्मृति सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति और नारद स्मृति भी बहुत प्रसिद्ध शास्त्र माने जाते हैं। इनमें चार जातियों, आश्रमों, नित्य की रस्मोंरीतियों, शासकों के कर्त्तव्य और न्यायिक व्यवस्था आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर धर्मशास्त्रों की बहुत महत्ता है।

1. “The Upanishadic philosophy is rightly regarded as the source of all Indian Philosophy.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 119.

प्रश्न 3.
धार्मिक क्षेत्र में चार वेदों तथा उनके महत्त्व के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the four Vedas and their importance in the field of Religion.)
अथवा
वेद कितने माने जाते हैं तथा इनके नाम क्या हैं ? संक्षेप परंतु प्रभावशाली जानकारी दें।
(How many Vedas are there ? Explain with their names in brief but meaningful.)
अथवा
वेदों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
(Describe the main features of the Vedas.)
अथवा
चार वेदों के प्रमुख लक्षणों की जानकारी दीजिए।
(Describe the salient features of the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के नाम लिखें। किन्हीं दो के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Write the names of the four Vedas. Explain in brief any two Vedas.)
अथवा
वेदों की रचना किस प्रकार हुई ? दो वेदों की संक्षिप्त जानकारी दें।
(How Vedas were written ? Discuss any two in brief.)
अथवा
चारों वेदों की महत्ता की संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए। (Describe in brief, but meaningful the importance of the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के बारे में संक्षेप से बताएँ। (Write in brief about the four Vedas.)
अथवा
वेदों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Vedas ?)
अथवा
चार वेदों के नाम बताएँ। ऋग्वेद के बारे में विस्तार से बताएँ।
(Name the four Vedas. Explain Rigveda in detail.)
अथवा
ऋग्वेद के विषय-वस्तु के बारे में जानकारी दें। चार वेदों के नाम बताएँ।
(Discuss the subject-matter of the Rigveda. Name the four Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद की विषय-वस्तु पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the subject-matter of the Rigveda.)
अथवा
कुल वेद कितने हैं ? किन्हीं दो वेदों के बारे में व्याख्या करें।
(What are the total number of Vedas ? Explain any two Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद एवं सामवेद के प्रमुख विषयों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the main contents of Rigveda and Samaveda.)
अथवा
चार वेदों के बारे में संक्षेप में भावपूरित जानकारी दीजिए।
(Describe in brief meaningfully the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के आध्यात्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the spiritual importance of the four Vedas.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य में वेदों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वेद चार हैं। इनके नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद हैं। अथर्ववेदं को वेदों की संख्या में सब से बाद में शामिल किया गया। इस कारण पहले तीन वेदों को “तरई” के नाम से भी जाना जाता है। ये वेद संस्कृत में लिखे गये हैं। ये हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं। वेद शब्द “विद्” धातु से निकला है जिस का अर्थ है ज्ञान या जानना। दूसरे शब्दों में वेदों को आर्यों के ज्ञान का भंडार कहा जा सकता है। यह ज्ञान ऋषियों ने ईश्वर से प्राप्त किया था। इसी कारण वेदों को “श्रुति” भी कहा जाता है। वेदों का रचना काल 1500 ई० पू० से 600 ई० पू० माना जाता है। निस्संदेह वेद आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक इतिहास को जानने के लिए हमारा एक अनमोल स्रोत हैं। वेदों की विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ऋग्वेद (The Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। ऋग “ऋक” शब्द से निकला है जिसका अर्थ है स्तुति में रचे गये मंत्र। इसी कारण ऋग्वेद को देवताओं की स्तुति में रचे गये मंत्रों का समूह कहा जाता है। ऋग्वेद की रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। यह वो समय था जब आर्य पंजाब में रहते थे। ऋग्वेद एक विशाल ग्रंथ है। इस में 1028 सूक्त हैं। एक सूक्त में अनेक मंत्र होते हैं। ऋग्वेद में मंत्रों की कुल संख्या 10,580 है। इन को दस अध्यायों में बाँटा गया है। इनमें कुछ अध्याय बड़े हैं और कुछ छोटे। पहला और दसवाँ अध्याय (मंडल) सब से बड़े हैं। इन दोनों मंडलों में 191-191 सूक्त दिये गये हैं। दूसरे मंडल से लेकर सातवें मंडल में दिये गये सूक्तों को ऋग्वेद का दिल माना जाता है। ये शेष मंडलों से पुराने समझे जाते हैं। ऋग्वेद के नवम अध्याय में केवल सोम देवता से संबंधित मंत्र दिये गये हैं।
ऋग्वेद में सबसे अधिक मंत्र (250) इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। अग्नि की प्रशंसा में 200 मंत्र हैं। बाकी के मंत्र वरुण, सूर्य, रुद्र, सोम, ऊषा, रात्रि और सरस्वती आदि देवी-देवताओं को समर्पित हैं। इन सभी देवीदेवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। ये देवता बहुत शक्तिशाली और महान् थे। वे मनुष्य का रूप धारण करते थे और अपने श्रद्धालुओं की प्रार्थनाओं से खुश हो कर उन पर कई प्रकार की कृपा करते थे। उनकी पूजा युद्ध में विजय के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुखी और लंबे जीवन तथा संतान की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद में अनेक ऋषियों ने मंत्र लिखे हैं। इनमें विश्वामित्र, भारद्वाज, वशिष्ट, वामदेव, अत्री, कण्व तथा ग्रितस्मद बहुत प्रसिद्ध थे। ऋग्वेद में अपाला, घोषा, विश्ववरा, मुदगालिनी तथा लोपामुद्रा आदि स्त्रियों के भी मंत्र दिये गये हैं। ऋग्वेद में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र भी दिया गया है जिसे हिंदू आज भी प्रतिदिन पढ़ते हैं। ऋग्वेद की रचना यद्यपि धार्मिक तौर पर की गई थी परंतु इस की ऐतिहासिक महत्ता भी बहुत है।

2. सामवेद (The Samaveda) साम शब्द से भाव सरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। ये मंत्र दो भागों में बाँटे गये हैं जिन को पूर्वरचिका तथा उत्तररचिका कहते हैं। पूर्वरचिका में 650 मंत्र हैं जबकि उत्तररचिका में 1225 मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। इन मंत्रों को सात स्वरों में गाया जाता था। इन मंत्रों को गाते समय तीन प्रकार के वाद्यों वेणु, दुंदुभि और वीणा का प्रयोग किया जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

3. यजुर्वेद (The Yajurveda)—यर्जु से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इस लिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

4. अथर्ववेद (The Atharvaveda)-अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। इस वेद का नाम अथर्वन ऋषि के नाम से पड़ा। यह ऋषि जादुई शक्तियों का स्वामी था और भूतों-प्रेतों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध था। अथर्ववेद वास्तव में जादू टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता चलता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था। वे अग्नि की सहायता से मनुष्यों को भूतों-प्रेतों से बचा कर उनकी सहायता करते थे। अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र हैं। इन मंत्रों में से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। यह वेद 20 अध्यायों में बाँटा गया है। इस का 20वाँ अध्याय सब से बड़ा है जिसमें 928 मंत्रों का वर्णन है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

प्रश्न 4.
चार वेदों में से यजुर्वेद के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Yajurveda among the four vedas.)
उत्तर-
यर्जु से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इस लिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 5.
वैदिक साहित्य से आप क्या समझते हैं ? वैदिक साहित्य के प्रमुख विषय कौन-कौन से हैं ?
(What is meant by the Vedic literature ? What are the main subjects of the Vedic literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य के मुख्य विषयों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the main contents of the Vedic literature.)
अथवा
वेदों के महत्त्वपूर्ण पक्षों के बारे में बहस करें।
(Examine the important aspects of the Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद में कौन से मुख्य विषय छुए गए हैं ? ऋग्वेद के बीच कुल मंत्रों की संख्या बताओ।
(Which main subjects are touched in the Rigveda ? Mention the total number of hymns given in Rigveda.)
अथवा
ऋग्वेद की विषय-वस्तु के बारे जानकारी दो। पुरुष सूक्त के बारे संक्षेप नोट लिखो ।
(Write about the subject-matter of the Rigveda. Write a brief note on the PurushSukta hymn.)
अथवा
हिंदू धर्म के प्रमुख सिद्धांतों के बारे में जानकारी दें। (Write about the main features of Hinduism.)
अथवा
वेदों के धार्मिक विचारों के बारे में बताएँ। (Give an account of the religious thoughts of the Vedas.)
अथवा
आध्यात्मिक क्षेत्र में वेदों का क्या महत्त्व है ? स्पष्ट करें।
(Explain the spirityal importance of the Vedas.)..
उत्तर-
वैदिक साहित्य में मुख्य तौर पर हिंदू धर्म के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है। इसमें बहुदेववाद, एकेश्वरवाद और सर्वेश्वरवाद का वर्णन किया गया है। इस में परमात्मा को खुश करने के लिए यज्ञों और बलियों का भी वर्णन मिलता है। इसमें यह भी बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? आत्मा क्या हैं और ब्रह्म क्या है ? आत्मा और ब्रह्म में क्या संबंध है कर्म और आवागमन सिद्धांत क्या है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? स्वर्ग-नरक क्या हैं ? इन विषयों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. बहुदेववाद (Polytheism)—ऋग्वेद के वर्णन से पता चलता है कि आरंभ में आर्य प्रकृति की शक्तियों को देवता समझ कर उनकी पूजा करते थे। आर्यों ने प्रकृति की हर चमकने वाली, भयानक अथवा सुंदर नज़र आने वाली हर शक्ति को कोई न कोई देवी अथवा देवता समझ लिया। ऋग्वेद के अनुसार आर्य 33 देवताओं की पूजा करते थे। इनको 3 भागों में बाँटा गया था। ये भाग इस प्रकार थे- आकाश के देवता, पृथ्वी के देवता और पृथ्वी तथा आकाश के मध्य निवास करने वाले देवता। इन सभी देवताओं को शक्तिशाली और महान् समझा गया था। कभी एक देवता की स्तुति की जाती और कभी दूसरे की। इस तरह बहुदेववाद का सिद्धांत प्रचलित हुआ।

2. एकेश्वरवाद (Monotheism) वैदिक काल के बहुदेववाद के पीछे सदैव ही एकेश्वरवाद या एक ईश्वर का विचार रहा है। ऋग्वेद में ऐसी कई उदाहरणें मिलती हैं जैसे इंद्र ब्रह्म है, देवताओं का प्राणदाता एक है, ‘सभी देवता एक ही हैं केवल ऋषियों ने उनका विभिन्न रूपों में वर्णन किया है।’ ईश उपनिषद् में कहा गया है, “वह अग्नि है, वही सूर्य है, वो ही वायु है, वो ही चंद्रमा है, वो ही शुक्र है, वो ही ब्रह्म है, वो ही जल है और वो ही प्रजापति है।” “ज्योतियों की ज्योति एक है।” इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य एक सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास रखते थे।

3. सर्वेश्वरवाद (Henotheism)—यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था। ऋग्वेद के एक सूक्त में कहा गया है, “हे देवताओ आप में से कोई छोटा नहीं है, आप में से कोई छोटा बच्चा नहीं है। आप सभी महान् हैं।” इस तरह आर्यों के लिए उनके सभी देवता बराबर थे।

4. यज्ञ और बलियाँ (Yajnas and Sacrifices)—वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहुत विधिपूर्वक किया जाता था ताकि किसी छोटी-सी गलती के कारण देवता नाराज़ न हो जायें। सबसे पहले यज्ञ के लिए वेदी बनाई जाती थी। फिर इसमें पवित्र अग्नि जलाई जाती थी। इस अग्नि में घी, दूध, चावल और सोमरस डाला जाता था। इन यज्ञों के दौरान कई जानवरों जैसे बकरी, भेड़ और घोड़ों आदि की बलि भी दी जाती थी। छोटे यज्ञ पारिवारिक स्तर के होते थे जबकि बड़े यज्ञ अमीर लोगों के द्वारा करवाये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में यह यज्ञ अधिक जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी। डॉक्टर एस० आर० गोयल के अनुसार,
“वैदिक धर्म को निश्चित तौर पर यज्ञ तथा बलियों का एक धर्म समझा जाता था। पूजा करने वाला प्रार्थनाओं के उच्चारण से कुछ भेंटें देता था और देवता से इसके बदले में किसी वरदान की आशा करता था।”4

5. संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? (How was World Created ?)-संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस से संबंधित हमें ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से जानकारी प्राप्त होती है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति से पहले अकेला ईश्वर ही था। उसके बिना चारों तरफ अंधकार था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने संसार की रचना कर दी । उसने न केवल मनुष्य, पशु, पक्षी आदि बनाये बल्कि सूर्य, चाँद, तारों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों तथा फूलों आदि की भी रचना की । उपनिषदों में भी यह वर्णन बार-बार आता है कि ब्रह्म ने सारे ब्रह्माण्ड की रचना की।

6. आत्मा क्या है (What is Self)-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है। यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक यह कर्मों के बंधन से मुक्त न हो जाये। ऐसा होने पर यह ब्रह्म में लीन हो जाती है । इस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता।

7. ब्रह्म क्या है ? (What is Absolute ?)-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह सत्य मन और आनंद रूप है। वह संपूर्ण
ज्ञान का भंडार है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है। इसी कारण ब्रह्म और आत्मा में कोई मूल भेद नहीं रह जाता।

8. पितरों की पूजा (Worship of Forefathers)-ऋग्वेद में पितरों की पूजा का वर्णन मिलता है। पितर स्वर्गों में निवास करते थे। यह आर्यों के आरंभिक बुजुर्ग थे। उनकी पूजा भी देवताओं के समान की जाती थी। ऋग्वेद में बहुत सारे मंत्र उनकी स्तुति में दिये गये हैं। पितरों की पूजा इस आशा से की जाती थी कि वे अपने वंश की रक्षा करेंगे, उनके दुःख, मुसीबतों को दूर करेंगे, उनको धन, शक्ति, लंबी आयु तथा संतान देंगे। समय के साथसाथ आर्यों की पितर पूजा के प्रति आस्था में वृद्धि होती गई।

9. ऋत और धर्मन (Rita and Dharman)—ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में ऋत और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। ऋत से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करके प्रकाश देती है। इस तरह ऋत एक सच्चाई है। इस का उल्ट अनऋत (झूठ) है। उपनिषदों के समय धर्म शब्द ने ऋत का स्थान ल लिया। ‘धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे। अच्छे मनुष्य अपना जीवन धर्मन अनुसार व्यतीत करते थे।

10. कर्म और आवागमन (Karma and Transmigration)-वैदिक साहित्य में इस बात का बार-बार वर्णन आया है कि मनुष्य अपनी किस्मत का स्वयं ही निर्माता है। जैसे वह कर्म करेगा वैसा ही उसको फल प्राप्त होगा। यदि उसके कर्म अच्छे होंगे तो वह आवागमन के चक्करों से छुटकारा प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यदि उसके कर्म बुरे हैं वह सदा ही दुःखी रहेगा और किसी भी स्थिति में आवागमन से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म मनुष्य का साथ उस तरह नहीं छोड़ते जैसे कि उसकी परछाईं।

11. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। वह एंद्रीय सुख भोग कर और धन प्राप्त करके यह समझता है कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। वह यह भूल जाता है कि सभी सुख क्षण-भंगुर हैं। इन कारणों के लिए वह कभी भवसागर से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी-शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती है।

12. स्वर्ग और नरक में विश्वास (Faith in Heaven and Hell)—वैदिक साहित्य में इस बात का वर्णन मिलता है कि आर्य स्वर्ग और नरक में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार जो व्यक्ति अपना जीवन नैतिक नियमों के अनुसार व्यतीत करता है, दान देता है और कभी किसी को कोई दुःख तकलीफ नहीं देता, वह मौत के बाद स्वर्ग में निवास करता है। यह वो स्थान है जहाँ देवताओं का वास है। यहाँ सदा ही खुशी रहती है। दूसरी ओर पापी और अधर्मी व्यक्ति मौत के बाद नरक में जाते हैं। पुराणों आदि में नरक में मिलने वाले घोर दुःखों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

13. पुरुष सूक्त (Purusha-Sukta)-पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जाँघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। इस से कई इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ऋग्वैदिकं काल में जाति प्रथा प्रचलित हो गई थी। परंतु इस के संबंध में ऋग्वेद में कहीं और कोई वर्णन नहीं मिलता। यह कहा जाता है कि पुरुष सूक्त की रचना भी ऋग्वेद से कई सौ वर्ष बाद की गई थी। इसकी भाषा ऋग्वेद से भिन्न है। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

4. “Vedic religion was essentially a religion of yaznas or sacrifices. The worshipper offered some oblations to god with the chanting of prayers and expected that god would grant him desired boon in return.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 72.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऋग्वेद के प्रमुख लक्षणों का संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Rigveda.)
अथवा
ऋग्वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the importance of Rigveda in the Rigvedic literature.)
उत्तर-
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। इसकी रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। इसमें 1028 सूक्त हैं जिनको 10 मंडलों (अध्यायों) में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कुल 10,552 मंत्र हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की स्तुति की गई है। ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं। इनकी संख्या 250 हैं। भारतीय दर्शन को जानने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है।

प्रश्न 2.
सामवेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Samaveda ?)
उत्तर-
साम शब्द से भात्र सुरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

प्रश्न 3.
यजुर्वेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of the Yajurveda.)
उत्तर-
यजुर से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है।

प्रश्न 4.
अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Atharvaveda.)
अथवा
अथर्ववेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? उल्लेख करें। (What do you know about Atharvaveda ? Explain.)
उत्तर-
अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। अथर्ववेद वास्तव में जादू-टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता लगता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहुत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था।

प्रश्न 5.
दर्शन के षट शास्त्र क्या हैं एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Six Shastras of Philosophy ?)
अथवा
खट दर्शन के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Khat Darshan.)
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—

  1. कपिल का सांख्य शास्त्र,
  2. पतंजलि का योग शास्त्र,
  3. गौतम का न्याय शास्त्र
  4. कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
  5. जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
  6. व्यास का उत्तर मीमांसा।

इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रश्न 6.
महाकाव्य से क्या अभिप्राय है एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What do you mean by Epics and their importance ?)
उत्तर-
रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय श्री रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है। महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में 1.00.000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पाँडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं।

प्रश्न 7.
वैदिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य का क्या महत्त्व है ? (What is importance of the Vedic Literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ बताओ। (Describe the prominent features of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में बताओ। (Describe the salient features of Vedic Literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है? ज्ञान क्या है? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है।

प्रश्न 8.
वैदिक साहित्य के किन्हीं दो विषयों के बारे में संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the two subjects of Vedic Literature.)
उत्तर-

  1. सर्वेश्वरवाद-यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था।
  2. यज्ञ और बलियाँ-वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहत विधिपूर्वक किया जाता था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी।

प्रश्न 9.
वैदिक साहित्य के अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Self and Absolute according to Vedic Literature ?)
उत्तर-

  1. आत्मा क्या है ?-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है।
  2. ब्रह्म क्या है?- ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है।

प्रश्न 10.
ऋत और धर्मन से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Rita and Dharman ?)
उत्तर-
ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में ऋत और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। ऋत से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य, चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करेके प्रकाश देती है। ‘धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे।

प्रश्न 11.
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती

प्रश्न 12.
पुरुष सूक्त के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Purusha-Sukta ?)
उत्तर-
पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जांघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

प्रश्न 13.
ऋग्वेद के प्रमुख लक्षणों का संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Rigveda.)
अथवा
ऋग्वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of Rigveda in the Rigvedic literature.)
उत्तर-
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। इसकी रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। यह वह समय था जब आर्य पंजाब में रहते थे। ऋग्वेद एक विशाल ग्रंथ है। इसमें 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कुल 10,552 मंत्र हैं। इन्हें दस मंडलों (अध्यायों) में विभाजित किया गया है। इनमें कुछ मंडल छोटे हैं तथा कुछ बड़े। ऋग्वेद में सर्वाधिक 250 मंत्र इंद्र देवता की तथा 200 मंत्र अग्नि देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं। शेष मंत्र वरुण, सूर्य, ऊषा, सरस्वती तथा अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। ये सभी देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं। इनकी उपासना युद्ध में विजय के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुखमय तथा लंबे जीवन के लिए तथा संतान प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद में विख्यात गायत्री मंत्र भी दिया गया है जिसे हिंदू आज भी प्रतिदिन पढ़ते हैं। ऋग्वेद की रचना का मुख्य उद्देश्य यद्यपि धार्मिक था किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्त्व है। यह वैदिक काल के लोगों के जीवन को जानने का हमारा एकमात्र तथा बहुमूल्य स्रोत है। भारतीय दर्शन को जानने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

प्रश्न 14.
सामवेद के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Samaveda ?)
उत्तर-
साम शब्द से भाव सुरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। ये मंत्र दो भागों में बाँटे गये हैं जिन को पूर्वरचिका तथा उत्तररचिका कहते हैं। पूर्वरचिका में 650 मंत्र हैं जबकि उत्तररचिका में 1225 मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। इन मंत्रों को सात स्वरों में गाया जाता था। इन मंत्रों को गाते समय तीन प्रकार के वाद्यों वेणु, दुंदुभि और वीणा का प्रयोग किया जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

प्रश्न 15.
यजुर्वेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of the Yajurveda.)
उत्तर-
यजुर से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कुहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथसाथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 16.
अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Atharvaveda.)
अथवा
अथर्ववेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? उल्लेख करें। (What do you know about Atharvaveda ? Explain.)
उत्तर-
अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। इस वेद का नाम अर्थवन ऋषि के नाम से पड़ा। यह ऋषि जादुई शक्तियों का स्वामी था और भूतों-प्रेतों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध था। अथर्ववेद वास्तव में जादू-टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता लगता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहुत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था। वे अग्नि की सहायता में मनुष्यों को भूतों-प्रेतों से बचा कर उनकी सहायता करते थे। अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र हैं। इन मंत्रों में से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। यह वेद 20 अध्यायों में बाँटा गया है। इस का 20वाँ अध्याय सब से बड़ा है जिसमें 928 मंत्रों का वर्णन है।

प्रश्न 17.
दर्शन के षट शास्त्र क्या हैं एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Six Shastras of Philosophy ?)
अथवा
खट दर्शन के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Khat Darshan.)
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—

  1. कपिल का सांख्य शास्त्र,
  2. पतंजलि का योग शास्त्र,
  3. गौतम का न्याय शास्त्र
  4. कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
  5. जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
  6. व्यास का उत्तर मीमांसा।

इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवनमृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रश्न 18.
महाकाव्य से क्या अभिप्राय है एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What do you mean by Epics and their importance ?)”
उत्तर-
रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं । रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय श्री रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है । महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में.1,00,000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पाँडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। इनमें कुछ काल्पनिक घटनाओं का वर्णन किया गया है। इसके बावजूद ऐतिहासिक पक्ष से इन दोनों महाकाव्यों का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 19.
वैदिक साहित्य के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य का क्या महत्त्व है ?
(What is importance of the Vedic Literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ बताओ।
(Describe the prominent features of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में बताओ।
(Describe the salient features of Vedic Literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है ? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है ? ज्ञान क्या है ? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इस तरह वैदिक साहित्य हिंदू धर्म को जानने के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य आर्यों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए भी हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है। संक्षेप में वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एक दर्पण का कार्य करता है। आधुनिक काल में यह न केवल भारतीय बल्कि विदेशी लेखकों और विद्वानों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। निस्संदेह यह हमारे लिए एक बहुत ही गर्व की बात है।

प्रश्न 20.
वेदों की संख्या और इनके रचयिता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the number of Vedas and their author.)
अथवा
वैदिक साहित्य के किसी पाँच प्रमुख विषयों के बारे में वर्णन करो।
(Give a brief account of the main five subjects of the Vedic Literature.)
अथवा
वेदों में क्या दर्शाया गया है ? स्पष्ट करें।
(What has been described in Vedas ? Explain.)
अथवा
वैदिक साहित्य के किसी एक विषय के बारे में संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the one subject of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के विषय-वस्तु के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the subject matter of Vedic Literature.)
उत्तर-

  1. वेदों की संख्या-वेदों की संख्या चार है। इनके नाम हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
  2. विषय-वस्तु-वेदों के मुख्य विषय निम्नलिखित हैं—
    • सर्वेश्वरवाद-यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था।
    • यज्ञ और बलियाँ-वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहुत विधिपूर्वक किया जाता था। छोटे यज्ञ पारिवारिक स्तर के होते थे जबकि बड़े यज्ञ अमीर लोगों के द्वारा करवाये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में यह यज्ञ जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी।
    • संसार की उत्पत्ति कैसे हुई-संसार की उत्पत्ति कैसे हुई? इस से संबंधित हमें ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से जानकारी प्राप्त होती है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति से पहले अकेला ईश्वर ही था। उसके बिना चारों तरफ अंधकार था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने संसार की रचना कर दी।
    • आत्मा क्या है-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है।
    • ब्रह्म क्या है?-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह अमर है।

प्रश्न 21.
वैदिक साहित्य के अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Self and Absolute according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
1. आत्मा क्या है ?-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है। यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक यह कर्मों के बंधन से मुक्त न हो जाये। ऐसा होने पर यह ब्रह्म में लीन हो जाती है। इस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता।

2. ब्रह्म क्या है ?-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है । वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह सत्य मन और आनंद रूप है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है। इसी कारण ब्रह्म और आत्मा में कोई मूल भेद नहीं रह जाता।

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प्रश्न 22.
रित और धर्मन से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Rita and Dharman ?)
उत्तर-
ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में रित और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। रित से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य, चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करके प्रकाश देती है। इस तरह रित एक सच्चाई है। इस का उल्ट अनऋत (झूठ) है। उपनिषदों के समय धर्म शब्द ने रित का स्थान ले लिया। धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे। अच्छे मनुष्य अपना जीवन धर्मन अनुसार व्यतीत करते थे।

प्रश्न 23.
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। वह एंद्रीय सुख भोग कर और धन प्राप्त करके यह समझता है कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। वह यह भूल जाता है कि सभी सुख क्षण-भंगुर हैं। इन कारणों के लिए वह कभी भवसागर से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती है।

प्रश्न 24.
पुरुष सूक्त के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Purusha-Sukta ?)
उत्तर-
पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जांघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। इस से कई इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ऋग्वैदिक काल में जाति प्रथा प्रचलित हो गई थी। परंतु इस के संबंध में ऋग्वेद में कहीं और कोई वर्णन नहीं मिलता। यह कहा जाता है कि पुरुष सूक्त की रचना भी ऋग्वेद से कई सौ वर्ष बाद की गई थी। इसकी भाषा ऋग्वेद से भिन्न है। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. वैदिक साहित्य से क्या भाव है ?
उत्तर- वैदिक साहित्य से भाव उस साहित्य से है जिसकी रचना आर्यों द्वारा की गई थी।

प्रश्न 2. वैदिक साहित्य की रचना किस भाषा में की गई है?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 3. वैदिक साहित्य को कितने भागों में बाँटा गया है?
उत्तर-दो भागों में।

प्रश्न 4. वेदों का रचना काल बताएँ।
उत्तर-1500-600 ई० पू०

प्रश्न 5. वेदों की रचना किसने की ?
अथवा
वेदों का रचियता किसे माना जाता है ?
अथवा
हिंदू धर्म के अनुसार वेदों का रचयिता कौन है ?
उत्तर-वेदों की रचना ईश्वर के कहने पर ऋषियों ने की।

प्रश्न 6. श्रुति से क्या भाव है ?
उत्तर-श्रुति से भाव उस वैदिक साहित्य से है, जिसकी रचना ईश्वर के बताने पर ऋषियों द्वारा की गई।

प्रश्न 7. स्मृति से क्या भाव है ?
उत्तर-स्मृति से भाव उस वैदिक साहित्य से है, जिसकी रचना ईश्वर के बताने ऋषियों ने अपने ज्ञान द्वारा की।

प्रश्न 8. वेद से क्या भाव है ?
उत्तर-वेद से भाव है ज्ञान का भंडार।

प्रश्न 9. वेद शब्द किस भाषा से तथा कैसे बना ?
उत्तर-वेद शब्द संस्कृत भाषा के शब्द विद् से बना है, जिसका भाव है जानना।

प्रश्न 10. कुल कितने वेद हैं ?
उत्तर-कुल चार वेद हैं।

प्रश्न 11. चार वेदों की बाँट किसने की थी ?
उत्तर-चार वेदों की बाँट ऋषि वेद व्यास ने की थी।

प्रश्न 12. चार वेदों के नाम बताएँ।
अथवा
किन्हीं दो वेदों के नाम बताएँ।
उत्तर-चार वेदों के नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद है।

प्रश्न 13. वेदों के नाम व संख्या बताएँ।
उत्तर-वेदों के नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद थे और इनकी संख्या चार है।

प्रश्न 14. भारत का सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण वेद कौन-सा है ?
अथवा
सबसे पुराना वेद कौन-सा माना जाता है ?
उत्तर-ऋग्वेद।

प्रश्न 15. ऋग्वेद का रचना काल क्या है ?
उत्तर-1500-1000 ई० पूर्व।

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प्रश्न 16. ऋग्वेद में कुल कितने सूक्त दिए गए हैं ?
उत्तर-1028 सूकत।

प्रश्न 17. ऋग्वेद को कुल कितने मंडलों में बाँटा गया है ?
उत्तर-10 मंडलों में।

प्रश्न 18. ऋग्वेद में कुल कितने भजन हैं ?
अथवा
ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या बताएँ।
उत्तर-ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या 10,552 हैं।

प्रश्न 19. ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र किस देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं ?
उत्तर-इंद्र देवता की।

प्रश्न 20. ऋग्वेद में इंद्र देवता की प्रशंसा में कुल कितने मंत्र दिये गए हैं ?
उत्तर–250 मंत्र।

प्रश्न 21. ऋग्वेद में जिन ऋषियों के मंत्र दिए गए हैं, उनमें से किन्हीं चार के नाम लिखें।
अथवा
ऋग्वेद में मंत्र लिखने वाले किन्हीं चार ऋषियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. वामदेव
  2. विश्वामित्र
  3. भारद्वाज
  4. अत्री।

प्रश्न 22. ऋग्वेद में जिन स्त्रियों ने मंत्र लिखें हैं उनमें से किन्हीं दो के नाम बताएँ।
अथवा
ऋग्वेद में मंत्र लिखने वाली किन्हीं दो स्त्रियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. अपाला
  2. घोषा।

प्रश्न 23. हिंदुओं के प्रसिद्ध गायत्री मंत्र का वर्णन किस वेद में किया गया है ?
उत्तर-ऋग्वेद में।

प्रश्न 24. किस वेद को भारतीय संगीत कला का स्रोत कहा जाता है ?
उत्तर-सामवेद को।

प्रश्न 25. सामवेद में कुल कितने मंत्र दिए गए हैं ?
उत्तर-875 मंत्र।

प्रश्न 26. वेदों में दिए गए मंत्रों को गाने वाले पुरोहितों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-उद्गात्री।

प्रश्न 27. किस वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं ?
उत्तर-यजुर्वेद में।

प्रश्न 28. यज्ञों के समय बलि देने वाले पुरोहितों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-होतरी।

प्रश्न 29. यजुर्वेद को कौन-से दो भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-

  1. शुक्ल यजुर्वेद
  2. कृष्ण यजुर्वेद ।

प्रश्न 30. किस वेद की रचना सबसे बाद में हुई ?
उत्तर- अथर्ववेद।

प्रश्न 31. अथर्ववेद में कुल कितने सूक्त दिए गए हैं ?
उत्तर-731 सूक्त।

प्रश्न 32. किस वेद में जादू टोनों के मंत्रों का संग्रह है ?
उत्तर-अथर्ववेद।

प्रश्न 33. किन्हीं दो वेदों के नाम बताओ जो त्रिविधिया में शामिल थे ?
उत्तर-

  1. ऋग्वेद
  2. सामवेद।

प्रश्न 34. ब्राह्मण ग्रंथों की रचना क्यों की, गई थी ?
उत्तर-वेदों की सरल व्याख्या के लिए।

प्रश्न 35. किन्हीं दो ब्राह्मण ग्रंथों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. ऐतरीय ब्राह्मण
  2. तैत्तरीय ब्राह्मण।

प्रश्न 36. जंगलों में रहने वाले साधुओं के निर्देशों के लिए कौन-से ग्रंथों की रचना की गई थी ?
उत्तर- अरणायक ग्रंथों की।

प्रश्न 37. वेदांग से क्या भाव है ?
उत्तर-वेदों का अंग।

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प्रश्न 38. किन्हीं दो वेदांगों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. शिक्षा
  2. कल्प।

प्रश्न 39. आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किस वेदांग में दिया गया है ?
उत्तर-कल्प वेदांग में।

प्रश्न 40. किन्हीं दो तरह के सूत्रों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. स्रोत सूत्र
  2. ग्रह सूत्र।

प्रश्न 41. उपवेद कितने हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 42. किन्हीं दो उपवेदों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. आयुर्वेद
  2. धनुर्वेद।

प्रश्न 43. किस वेद में औषधियों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-आयुर्वेद।

प्रश्न 44. उस वेद का नाम बताओ जिस में युद्ध-कला का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-धनुर्वेद।

प्रश्न 45. गंधर्ववेद में किन विषयों पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर-संगीत कला के।

प्रश्न 46. योग शास्त्र की रचना किसने की थी ?
उत्तर-पतंजलि।

प्रश्न 47. किन्हीं दो शास्त्रों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. योग शास्त्र
  2. न्याय शास्त्र।

प्रश्न 48. भारत के दो प्रसिद्ध महाकाव्य कौन-से है ?
उत्तर-

  1. रामायण
  2. महाभारत।

प्रश्न 49. भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य कौन-सा है ?
उत्तर-महाभारत।

प्रश्न 50. महाभारत की रचना किसने की थी ?
उत्तर-महर्षि वेद व्यास जी ने।

प्रश्न 51. महाभारत में कितने श्लोक दिए हैं ?
उत्तर-महाभारत में एक लाख से ज्यादा श्लोक दिए गए हैं।

प्रश्न 52. रामायण की रचना किसने की थी ?
उत्तर-महर्षि वाल्मीकि जी ने।

प्रश्न 53. रामायण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-24,000 श्लोक।

प्रश्न 54. वैदिक साहित्य के कोई दो मुख्य विषय बताओ।
उत्तर-

  1. आत्मा क्या है
  2. ऋत और धर्मन।

प्रश्न 55. ऋग्वेद के अनुसार आर्यों के देवताओं की कुल गिनती कितनी है ?
उत्तर-33.

प्रश्न 56. ऋग्वेद के किस सूक्त से संसार की उत्पत्ति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है ?
उत्तर-ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से संसार की उत्पत्ति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 57. वैदिक साहित के अनुसार मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-मोक्ष प्राप्त करना।

प्रश्न 58. ऋग्वेद के किस सूक्त में चार जातियों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-पुरुष सूक्त में।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. वेदों की कुल संख्या ………. है।
उत्तर-चार

प्रश्न 2. ……….. आर्यों का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है।
उत्तर-ऋग्वेद

प्रश्न 3. ऋग्वेद में ………… सूक्त हैं।
उत्तर-1028

प्रश्न 4. सामवेद को ………… ग्रंथ भी कहा जाता है।
उत्तर-गायन

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प्रश्न 5. …………. में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं।
उत्तर-यजुर्वेद

प्रश्न 6. …….. में अनेक बीमारियों से बचने के लिए औषधियों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-अथर्ववेद

प्रश्न 7. उपनिषदों की कुल संख्या ……….. है।
उत्तर-108

प्रश्न 8. वेदांग से भाव है ……….. के अंग।
उत्तर-वेदों

प्रश्न 9. वेदांगों की कुल संख्या ………… है।
उत्तर-6

प्रश्न 10. ……….. में युद्ध कला का वर्णन किया गया है।
उत्तर-धनुर्वेद

प्रश्न 11. …………. में संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
उत्तर-गधर्व वेद

प्रश्न 12. योग शास्त्र का लेखक ……… था।
उत्तर-पतंजलि

प्रश्न 13. न्याय शास्त्र के लेखक का नाम ……….. था।
उत्तर-गौतम

प्रश्न 14. रामायण की रचना ……….. ने की थी।
उत्तर-महर्षि वाल्मीकि जी

प्रश्न 15. महाभारत की रचना ………… ने की थी।
उत्तर- महर्षि वेद व्यास जी

प्रश्न 16. यज्ञों के समय आहूति देने वाले पुजारियों को …….. कहा जाता है।
उत्तर-होत्री

प्रश्न 17. वैदिक साहित्य ………. भाषा में लिखा गया है।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 18. पुरुष-सूक्त का वर्णन ……… में किया गया है।
उत्तर–ऋग्वेद

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. ऋग्वैदिक साहित्य को स्मृति भी कहा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. वेदों की कुल संख्या आठ है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. ऋग्वेद आर्यों का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. वेदों को पालि भाषा में लिखा गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. महर्षि वेद व्यास जी ने वेदों का विभाजन किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. ऋग्वेद को 10 मंडलों में बांटा गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र अग्नि देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. उदगात्री वह पुरोहित थे जो सुर-ताल में मंत्रों का उच्चारण करते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. यर्जुवेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. अर्थववेद को ब्रह्मदेव के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. ब्राह्मण ग्रंथ उपनिषदों का अंग है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 12. उपनिषदों की कुल गिनती 108 है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. वेदांगों में कलप वेदांग को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. धर्म सूत्र में मौर्य काल में प्रचलित कानूनों और रिवाज़ों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. उपवेदों की कुल गिनती चार है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. आर्युवेद में युद्ध कला का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 17. कपिल ने सांख्य शास्त्र की रचना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकी जी ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 19. महाभारत में दिए गए श्लोकों की संख्या 24,000 है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 20. वैदिक साहित्य के अनुसार मानवीय जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य को किस भाषा में लिखा गया है ?
(i) पालि में
(ii) प्राकृति में
(iii) हिंदी में
(iv) संस्कृत में।
उत्तर-
(iv) संस्कृत में।

प्रश्न 2.
वेदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 4
(ii) 5
(iii) 6
(iv) 18
उत्तर-
(i) 4

प्रश्न 3.
वेदों का विभाजन किस ऋषि ने किया था ?
(i) वेद व्यास
(ii) विशिष्ठ
(iii) विश्वामित्र
(iv) गौतम।
उत्तर-
(i) वेद व्यास

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण है ?
(i) ऋग्वेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(i) ऋग्वेद

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद नहीं है ?
(i) गंधर्ववेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(i) गंधर्ववेद

प्रश्न 6.
ऋग्वेद में कितने सूक्त दिए गए हैं ?
(i) 1028
(ii) 1873
(iii) 731
(iv) 10,552
उत्तर-
(i) 1028

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद त्रिविधा में शामिल नहीं है ?
(i) अथर्ववेद
(ii) यर्जुवेद
(iii) ऋग्वेद
(iv) सामवेद।
उत्तर-
(i) अथर्ववेद

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से किस वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं ?
(i) ऋग्वेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(iii) यर्जुवेद

प्रश्न 9.
आरण्यक ग्रंथ किन ग्रंथों का भाग है ?
(i) उपनिषद
(ii) ब्राह्मण
(iii) धर्मशास्त्र
(iv) महाभारत।
उत्तर-
(ii) ब्राह्मण

प्रश्न 10.
उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 18
(ii) 108
(iii) 48
(iv) 128
उत्तर-
(ii) 108

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किस उपवेद में दवाइयों का वर्णन किया गया है
(i) आयुर्वेद
(ii) धर्नुवेद
(iii) गंधर्ववेद
(iv) शिल्पवेद।
उत्तर-
(i) आयुर्वेद

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किसने योग शास्त्र की रचना की थी ?
(i) कपिल
(ii) पंतजलि
(iii) गौतम
(iv) व्यास।
उत्तर-
(ii) पंतजलि

प्रश्न 13.
रामायण की रचना, किसने की थी ?
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने
(iii) महर्षि विश्वामित्र जी ने
(iv) महर्षि गौतम जी ने।
उत्तर-
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने

प्रश्न 14.
रामायण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
(i) 14,000
(ii) 20,000
(iii) 24,000
(iv) 26,000।
उत्तर-
(iii) 24,000

प्रश्न 15.
महाभारत की रचना किसने की थी ?
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने
(iii) महर्षि गौतम जी ने
(iv) महर्षि विशिष्ठ जी ने।
उत्तर-
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई० Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the life of the founder of the Sikh faith Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
सिख धर्म कैसे आरंभ हुआ ?
(How Sikhism came into being ?)
अथवा
सिख धर्म के प्रारंभ के विषय में जानकारी दीजिए।
(Explain the origin of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के बारे में भावपूर्वक संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief but meaning the origin of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म का आरंभ कैसे और किसने किया ? चर्चा कीजिए। (How did Sikhism was originated and by whom ? Discuss.) .
अथवा
सिख धर्म का आरंभ क्यों और कैसे हुआ ? चर्चा कीजिए।
(Why and how the Sikhism was originated ? Elucidate.)
अथवा
सिख धर्म के संस्थापक के जीवन पर प्रकाश डालें। (Throw light on the life of the founder of the Sikh faith.)
अथवा
सिख धर्म के संस्थापक के जीवन पर एक नोट लिखें। (Write a note on the life of the founder of the Sikh faith.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the life of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
“सिख धर्म को गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया। प्रकाश डालिए।” (“Sikhism was orginated by Guru Nanak Dev Ji.” Elucidate.)
उत्तर-
सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी की गणना विश्व के महापुरुषों में की जाती है। गुरु नानक साहिब ने अज्ञानता के अंधकार में भटक रही मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। उन्होंने लोगों को सत्यनाम और भ्रातृत्व का संदेश दिया। गुरु नानक साहिब जी के महान् जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अगदार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 16 ई० को पूर्णिमा के दिन राय भोय की तलवंडी में हुआ। यह स्थान अब पाकिस्तान के शेखूपुरा जिला में इस पवित्र स्थान को आजकल ननकाणा साहिब कहा जाता है। गुरु नानक साहिब के पिता जी का नाम महा कालू जी और माता जी का नाम तृप्ता देवी जी था। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु साहिब के जन्म के समय अनेक चमत्कार हुए। भाई गुरदास जी लिखते हैं—
सतगुरु नानक प्रगटिया मिटी धुंध जग चानण होया॥ जिओ कर सरज निकलिया तारे छपे अंधेर पलोया॥

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

2. बचपन और शिक्षा (Childhood and Education)-गुरु नानक देव जी बचपन से ही बहुत गंभीर और विचारशील स्वभाव के थे। उनका झुकाव खेलों की ओर कम और प्रभु-भक्ति की ओर अधिक था। गुरु साहिब जब सात वर्ष के हुए तो उन्हें पंडित गोपाल की पाठशाला में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा गया। इसके पश्चात् गुरु साहिब ने पंडित बृजनाथ से संस्कृत तथा मुल्ला कुतुबुद्दीन से फ़ारसी और अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। जब गुरु नानक देव जी 9 वर्ष के हुए तो पुरोहित हरिदयाल को उन्हें जनेऊ पहनाने के लिए बुलाया गया। परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि वे केवल दया, संतोष, जत और सत से निर्मित जनेऊ पहनेंगे जो न टूटे, न जले और न ही मलिन हो पाये।

3. भिन्न-भिन्न व्यवसायों में (In Various Occupations)-गुरु नानक देव जी को अपने विचारों में मगन देखकर उनके पिता जी ने उन्हें किसी कार्य में लगाने का यत्न किया। सर्वप्रथम गुरु नानक देव जी को भैंसें चराने का कार्य सौंपा गया परंतु गुरु नानक देव जी ने कोई रुचि न दिखाई। फलस्वरूप अब गुरु साहिब को व्यापार में लगाने का निर्णय किया गया। गुरु जी को 20 रुपये दिए गए और मंडी भेजा गया। मार्ग में गुरु साहिब को भूखे साधुओं की टोली मिली। गुरु नानक देव जी ने अपने सारे रुपये इन साधुओं को भोजन खिलाने में व्यय कर दिए और खाली हाथ लौट आए। यह घटना इतिहास में ‘सच्चा सौदा’ के नाम से जानी जाती है।

4. विवाह (Marriage)-गुरु नानक देव जी की सांसारिक कार्यों में रुचि उत्पन्न करने के लिए मेहता कालू जी ने आपका विवाह बटाला निवासी मूल चंद की सुपुत्री सुलक्खनी देवी जी से कर दिया। उस समय आपकी आयु 14 वर्ष थी। समय के साथ आपके घर दो पुत्रों श्री चंद और लखमी दास ने जन्म लिया।

5. सुल्तानपुर में नौकरी (Service at Sultanpur)-जब गुरु नानक देव जी 20 वर्ष के हुए तो मेहता कालू जी ने आपको सुल्तानपुर में अपने जंवाई जयराम के पास भेज दिया। उनकी सिफ़ारिश पर नानक जी को मोदीखाना अन्न भंडार में नौकरी मिल गई। गुरु साहिब ने यह कार्य बड़ी योग्यता से किया।

6. ज्ञान प्राप्ति (Enlightenment)-गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर में रहते हुए प्रतिदिन सुबह बेईं नदी में स्नान करने के लिए जाते थे। एक दिन वे स्नान करने गए और तीन दिनों तक लुप्त रहे। इस समय उन्हें सत्य ज्ञान की प्राप्ति हुई । उस समय गुरु नानक साहिब की आयु 30 वर्ष थी। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् गुरु साहिब ने सर्वप्रथम “न को हिंदू, न को मुसलमान” शब्द कहे।

7. उदासियाँ (Travels)-गुरु नानक देव जी ने 1499 ई० में ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं को उदासियाँ भी कहा जाता है। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता एवं अंधविश्वास को दूर करना था तथा परस्पर भ्रातृभाव व एक ईश्वर का प्रचार करना था। भारत में गुरु नानक साहिब जी ने दर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक तथा पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में आसाम तक की यात्रा की। गुरु साहिब भारत से बाहर मक्का, मदीना, बगदाद तथा लंका भी गए। गुरु साहिब की यात्राओं के बारे में हमें उनकी बाणी से महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। गुरु नानक साहिब जी ने अपने जीवन के लगभग 21 वर्ष इन यात्राओं में बिताए। इन यात्राओं के दौरान गुरु नानक देव जी लोगों में फैले अंध-विश्वास को काफी सीमा तक दूर करने में सफल हुए तथा उन्होंने नाम के चक को चारों दिशाओं में फैलाया।

8. करतारपुर में निवास (Settled at Kartarpur)-गुरु नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर 1521 ई० में करतारपुर नामक नगर की स्थापना की। यहाँ गुरु साहिब जी ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की। गुरु साहिब का यह कार्य सिख पंथ के विकास के लिए एक मील पत्थर सिद्ध हुआ। गुरु नानक साहिब की प्रमुख वाणियों के नाम जपुजी साहिब, वार माझ, आसा दी वार, सिद्ध गोष्टि, वार मल्हार, बारह माह और पट्टी इत्यादि हैं।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)–गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई लहणा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार भाई लहणा जी गुरु अंगद देव जी बने। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने एक ऐसा पौधा लगाया जो गुरु गोबिंद सिंह जी के समय एक घने वृक्ष का रूप धारण कर गया। डॉक्टर हरी राम गुप्ता के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति एक बहुत ही दूरदर्शिता वाला कार्य था।”1

10. ज्योति-जोत समाना (Immersed in Eternal Light)—गुरु नानक देव जी 22 सितंबर, 1539 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

1. The apperiance of Angod was a step of far-reaching significance.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Guru New Delhi : 1973 p.81.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (1)
GURU NANAK DEV JI

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का वर्णन करें इनका क्या उद्देश्य था ? (Write a note on the Udasis of Guru Nanak Dev Ji. What was the aim of these Udasis ?)
अथवा
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (What is meant by Udasis ? Give a brief account of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
संक्षेप में गुरु नानक देव जी की उदासियों का वर्णन करें। उनका क्या उद्देश्य था ? (Briefly discuss the travels (Udasis) of Guru Nanak Dev Ji. What was their aim ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। इन उदासियों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ? (Describe briefly the Udasis of Guru Nanak Dev Ji. What was their impact on society ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की चार उदासियों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the four Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
1439 ई० में ज्ञान – प्राप्ति के पश्चात् गुरु नानक देव ही देश और विदेशों की लंबी यात्रा के लिए निकल पूरे गुर मानष्य 21 वर्ष इन यात्राओं में व्यतीत किए। गुरु नानक साहिब की इन यात्राओं को उदासियाँ भी कहा जाता है क्योंकि गुरु साहिब जी इस समय के दौरान घर-द्वार त्याग कर एक उदासी की भाँति भ्रमण करते रहे। गुरु नानक साहिब जी ने कुल कितनी उदासियाँ कीं, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। आधुनिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि गुरु नानक देव जी की उदासियों की संख्या तीन थी।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (2)
GURDWARA NANKANA SAHIB: PAKISTAN

उदासियों का उद्देश्य (Objects of the Udasis)
गुरु नानक देव जी की उदासियों का प्रमुख उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता और अंध-विश्वासों को दूर करना था। उस समय हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्म के मार्ग से भटक चुके थे। हिंदू ब्राह्मण और योगी जिनका प्रमुख कार्य भटके हुए लोगों को सही मार्ग दिखाना था, वे स्वयं ही भ्रष्ट और आचरणहीन हो चुके थे। लोगों ने असंख्य देवी-देवताओं, कब्रों, वृक्षों, सर्पो और पत्थरों इत्यादि की आराधना आरंभ कर दी थी। मुसलमानों के धार्मिक नेता भी चरित्रहीन हो चुके थे। उस समय अधिकाँश मुसलमान भोग-विलास का जीवन व्यतीत करते थे। समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। समाज में स्त्रियों की दशा बहुत ही दयनीय थी। गुरु नानक साहिब जी ने अज्ञानता में भटक रहे इन लोगों को प्रकाश का एक नया मार्ग बताने के लिए यात्राएँ कीं।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० एस० एस० कोहली के अनुसार,
“इस महापुरुष ने अपने मिशन को इस देश तक सीमित नहीं रखा। उसने सारी मानवता की जागति के लिए दूर-दूर के देशों की यात्राएँ कीं।”2

प्रथम उदासी (First Udasi)
गुरु नानक देव जी ने 1499 ई० के अंत में अपनी पहली यात्रा आरंभ की। इन यात्राओं के समय भाई मरदाना जी उनके साथ रहे। इस यात्रा को गुरु नानक देव जी ने 12 वर्ष में संपूर्ण किया और वह पूर्व से दक्षिण की ओर गए। इस यात्रा के दौरान गुरु जी ने निम्नलिखित प्रमुख स्थानों की यात्रा की—

1. सैदपुर (Saidpur)-गुरु नानक देव जी अपनी प्रथम उदासी के दौरान सर्वप्रथम सैदपुर पहुँचे। यहाँ पहुँचने पर मलिक भागो ने गुरु साहिब को एक ब्रह्मभोज पर निमंत्रण दिया, परंतु गुरु साहिब एक निर्धन बढ़ई भाई लालो के घर ठहरे। जब इस संबंध में मलिक भागो ने गुरु नानक साहिब से पूछा तो उन्होंने एक हाथ में मलिक भागो के भोज और दूसरे हाथ में भाई लालो की सूखी रोटी लेकर ज़ोर से दबाया। मलिक भागो के भोज से खून और भाई लालो की रोटी में से दूध निकला। इस प्रकार गुरु साहिब ने उसे बताया कि हमें श्रम तथा ईमानदारी की कमाई करनी चाहिए।

2. तालुंबा (Talumba)-तालुंबा में गुरु नानक देव जी की भेंट सज्जन ठग से हुई। उसने यात्रियों के लिए अपनी हवेली में एक मंदिर और मस्जिद बनाई हुई थी। वह दिन के समय तो यात्रियों की खूब सेवा करता किंतु रात के समय उन्हें लूटकर कुएँ में फैंक देता था। वह गुरु नानक देव जी और मरदाना के साथ भी कुछ ऐसा ही करने की योजनाएँ बना रहा था। रात्रि के समय जब गुरु नानक साहिब ने वाणी पढ़ी तो सज्जन ठग गुरु साहिब के चरणों में गिर पड़ा। गुरु नानक देव जी ने उसे क्षमा कर दिया। इस घटना के पश्चात् सज्जन ने अपना शेष जीवन सिख धर्म का प्रचार करने में व्यतीत किया। के० एस० दुग्गल के अनुसार,
“सज्जन की सराय जो कि एक वधस्थल था, एक धर्मशाला में परिवर्तित हो गया।”3

3. कुरुक्षेत्र (Kurukshetra)—गुरु नानक देव जी सूर्य ग्रहण के अवसर.पर कुरुक्षेत्र पहुँचे। इस अवसर पर हज़ारों ब्राह्मण और साधु एकत्रित हुए थे। कहा जाता है कि एक श्रद्धालु ने उन्हें हिरण का माँस भेट किया। गुरु जी ने उस श्रद्धालु को वहाँ ही वह माँस पकाने की आज्ञा दे दी। ब्राह्मण यह सहन करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने गुरु जी को भला-बुरा कहना आरंभ कर दिया। गुरु साहिब शाँत बने रहे। उन्होंने ब्राह्मणों को समझाया कि हमें व्यर्थ की बातों पर झगड़ने की अपेक्षा अपनी आत्मा को पवित्र रखने की ओर ध्यान देना चाहिए। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए। अधिकाँश इतिहासकार इस घटना से सहमत नहीं हैं।

4. दिल्ली (Delhi)-दिल्ली में गुरु नानक देव जी मजनूं का टिल्ला में रुके। कहा जाता है कि गुरु नानक साहिब ने दिल्ली में इब्राहीम लोधी के एक मुर्दा हाथी को जीवित कर दिया था। सिख परंपरा के अनुसार इस घटना को ठीक नहीं माना जाता।

5. हरिद्वार (Haridwar)—गुरु नानक देव जी जब हरिद्वार पहुँचे तो वहाँ बड़ी संख्या में हिंदू स्नान करते हुए पूर्व की ओर मुँह करके सूर्य और पितरों को पानी दे रहे थे। ऐसा देखकर गुरु साहिब ने पश्चिम की ओर मुँह करके पानी देना आरंभ कर दिया। यह देखकर लोग गुरु जी से पूछने लगे कि वे क्या कर रहे हैं। गुरु जी ने कहा कि वे करतारपुर में अपने खेतों को पानी दे रहे हैं। यह उत्तर सुनकर लोग हंस पड़े और कहने लगे कि यह पानी यहाँ से 300 मील दूर उनके खेतों में कैसे पहुँच सकता है ? गुरु जी ने उत्तर दिया कि यदि तुम्हारा पानी लाखों मील दूर स्थित सूर्य तक पहुँच सकता है तो मेरा पानी इतने निकट स्थित खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता ? गुरु जी के इस उत्तर से लोग बहुत प्रभावित हुए तथा उनके अनुयायी बन गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

6. गोरखमता (Gorakhmata)-हरिद्वार के पश्चात् गुरु नानक देव जी गोरखमता पहुँचे। गुरु नानक साहिब ने यहाँ के सिद्ध योगियों को बताया कि कानों में कुंडल पहनने, शरीर पर विभूति रमाने, गैंख बजाने से अथवा सिर मुँडवा देने से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। मुक्ति तो आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है। ये योगी गुरु साहिब के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित हुए। उस समय से ही गोरखमता का नाम नानकमता पड़ गया।

7. बनारस (Banaras)-बनारस भी हिंदुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु नानक देव जी का पंडित चतर दास से मूर्ति-पूजा के संबंध में एक दीर्घ वार्तालाप हुआ। गुरु जी के उपदेशों से प्रभावित होकर चतर दास गुरु जी का सिख बन गया।

8. कामरूप (Kamrup)-धुबरी से गुरु नानक देव जी कामरूप (असम) पहुँचे। यहाँ की प्रसिद्ध जादूगरनी नूरशाही ने अपनी सुंदरता के बल पर गुरु जी को भटकाने का असफल प्रयास किया। गुरु जी ने उसे जीवन का सही मनोरथ बताया।

9. जगन्नाथ पुरी (Jagannath Puri)-असम की यात्रा के पश्चात् गुरु नानक देव जी उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी पहुँचे! पंडितों ने गुरु साहिब को जगन्नाथ देवता की आरती करने के लिए कहा। गुरु नानक साहिब ने उन्हें बताया कि उस परम पिता परमात्मा की आरती प्रकृति सदैव करती रहती है।

10. लंका (Ceylon)-गुरु नानक जी दक्षिण भारत के प्रदेशों से होते हुए लंका पहुँचे। गुरु साहिब के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होकर लंका का राजा शिवनाथ गुरु जी का अनुयायी बन गया।

11. पाकपटन (Pakpattan)—लंका से पंजाब वापसी के समय गुरु नानक देव जी पाकपटन में ठहरे। यहाँ वे शेख फरीद जी की गद्दी पर बैठे शेख़ ब्रह्म को मिले। यह मुलाकात दोनों के लिए एक प्रसन्नता का स्रोत सिद्ध हुई।

2. “The Great Master did not confine his mission to this country; he travelled far and wide to far off lands and countries in order to enlighten humanity as a whole.” S.S. Kohli, Travels of Guru Nanak (Chandigarh : 1978) p. IX.
3. “Sajjan’s den of an assassin was transformed into a dharmsala.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 16.

द्वितीय उदासी
(Second Udasi)
गुरु नानक देव जी ने 1513-14 ई० में अपनी द्वितीय उदासी उत्तर की ओर आरंभ की। इस उदासी में उन्हें चार वर्ष लगे। इस उदासी के दौरान गुरु नानक साहिब निम्नलिखित प्रमुख स्थानों पर गए—

  1. पहाड़ी रियासतें (Hilly States)—गुरु नानक देव जी ने मंडी, रवालसर, ज्वालामुखी, काँगड़ा, बैजनाथ और कुल्लू इत्यादि पहाड़ी रियासतों की यात्रा की। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से प्रभावित होकर इन पहाड़ी रियासतों के बहुत-से लोग उनके अनुयायी बन गए।
  2. कैलाश पर्वत (Kailash Parvat) गुरु नानक देव जी तिब्बत से होते हुए कैलाश पर्वत पहुँचे। गुरु साहिब के यहाँ पहुँचने पर सिद्ध बहुत हैरान हुए। गुरु नानक देव जी ने उन्हें बताया कि संसार में से सत्य लुप्त हो गया है और चारों ओर भ्रष्टाचार और झूठ का बोलबाला है। इसलिए गुरु साहिब ने उन्हें मानवता का पथ-प्रदर्शन करने का संदेश दिया।
  3. लद्दाख (Ladakh)-कैलाश पर्वत के पश्चात् गुरु नानक देव जी लद्दाख पहुँचे। यहाँ के बहुत-से लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए।
  4. कश्मीर (Kashmir)-कश्मीर में स्थित मटन में गुरु नानक देव जी का पंडित ब्रह्मदास से काफ़ी लंबा धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ। गुरु नानक साहिब ने उसे समझाया कि मुक्ति केवल वेदों और रामायण इत्यादि को पढ़ने से नहीं अपितु उनमें दी गई बातों पर अमल करके प्राप्त की जा सकती है।
  5. हसन अब्दाल (Hasan Abdal)-गुरु नानक देव जी पंजाब की वापसी यात्रा के समय हसन अब्दाल ठहरे। यहाँ एक अहँकारी फकीर वली कंधारी ने गुरु नानक साहिब को कुचलने के उद्देश्य से एक बहुत बड़ा पत्थर पहाड़ी से नीचे की ओर लुढ़का दिया। गुरु साहिब ने इसे अपने पंजे से रोक दिया। इस स्थान को आजकल पंजा साहिब कहा जाता है।
  6. स्यालकोट (Sialkot) स्यालकोट में गुरु नानक देव जी की मुलाकात एक मुसलमान संत हमजा गौस से हुई। उसने किसी बात पर नाराज़ होकर अपनी शक्ति द्वारा सारे शहर को नष्ट करने का निर्णय कर लिया था। परंतु जब वह गुरु साहिब से मिला तो वह उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपना निर्णय बदल दिया। इस घटना का लोगों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

तृतीय उदासी
(Third Udasi) गुरु नानक देव जी ने 1517 ई० में अपनी तृतीय उदासी आरंभ की। इस उदासी के दौरान गुरु साहिब पश्चिमी एशिया के देशों की ओर गए। इस उदासी के दौरान गुरु नानक साहिब ने निम्नलिखित प्रमुख स्थानों की यात्रा की—

  1. मुलतान (Multan)-मुलतान में बहुत-से सूफ़ी संत निवास करते थे। मुलतान में गुरु साहिब की भेंट प्रसिद्ध सूफी संत शेख बहाउद्दीन से हुई। शेख बहाउद्दीन उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए।
  2. मक्का (Mecca)मक्का हज़रत मुहम्मद साहिब का जन्म स्थान है । सिख परम्परा के अनुसार गुरु नानक . देव जी जब मक्का पहुँचे तो काअबे की ओर पाँव करके सो गए। जब काज़ी रुकनुद्दीन ने यह देखा तो वह क्रोधित
    हो गया। कहा जाता है कि जब काजी ने गुरु साहिब के पाँव पकड़कर दूसरी ओर घुमाने आरंभ किए तो मेहराब भी उसी ओर घूमने लग पड़ा। यह देखकर मुसलमान बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब ने उन्हें समझाया कि अल्लाह सर्वव्यापक है।
  3. मदीना (Madina)-मक्का के पश्चात् गुरु नानक देव जी मदीना पहुँचे। गुरु साहिब ने अपने उपदेशों का प्रचार किया। यहाँ गुरु साहिब का इमाम आज़िम के साथ शास्त्रार्थ भी हुआ।
  4. बगदाद (Baghdad)-बगदाद में गुरु नानक देव जी की भेंट शेख बहलोल से हुई। वह गुरु साहिब की वाणी से प्रभावित होकर उनका श्रद्धालु बन गया।
  5. कंधार और काबुल (Qandhar and Kabul)-बगदाद की यात्रा के पश्चात् गुरु नानक देव जी पहले कंधार और फिर काबुल पहुँचे। गुरु नानक देव जी ने यहाँ अपने उपदेशों का प्रचार किया। काबुल के बहुत-से लोग गुरु साहिब के श्रद्धालु बन गए। वे आज भी गुरु नानक साहिब का बहुत सम्मान करते हैं।
  6. पेशावर (Peshawar)-पेशावर में गुरु नानक साहिब का योगियों से काफी दोघं वार्तालाप हआ। गुरु साहिब ने उन्हें धर्म का वास्तविक मार्ग बताया।

सैदपुर (Saidpur)-गुरु नानक देव जी जब 1520-21 ई० में सैदपुर पहुँचे तो उस समय बाबर ने पंजाब पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से वहाँ पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के समय मुग़ल सेनाओं ने बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। सैदपुर में भारी लूटपाट की गई और घरों में आग लगा दी गई। स्त्रियों को अपमानित किया गया। हज़ारों की संख्या में पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया। इन बंदी बनाए गए लोगों में गुरु नानक साहिब जी भी थे। जब बाद में बाबर को यह ज्ञात हुआ कि गुरु साहिब एक महान् संत हैं तो वह गुरु जी के दर्शनों के लिए स्वयं आया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने न केवल गुरु नानक साहिब को बल्कि बहुत से अन्य बंदियों को भी रिहा कर दिया। बाबर के अत्याचारों के संबंध में गुरु नानक साहिब बाबर वाणी में लिखते हैं,

“जैसी मैं आवे खसम की वाणी तैसड़ा करी ज्ञान वे लालो।
पाप की जंज लै काबलह धाया जोरि मंमे दान वे लालो।
शर्म धर्म दोए छप खलोए कूड़ फिरे प्रधान वे लालो।
काजियां ब्राह्मणां की गल थक्की अगद पढ़े शैतान वे लालो”

इसके पश्चात् गुरु नानक देव जी तलवंडी आ गए। इस प्रकार गुरु नानक साहिब की इन यात्राओं की श्रृंखला 1521 ई० में समाप्त हुई।

उदासियों का प्रभाव (Impact of the Udasis)-
गुरु नानक देव जी की यात्राओं के बहुत महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। वे लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करने और उनमें एक नई जागृति लाने में काफी सीमा तक सफल हुए। उन्होंने अपनी मधुर वाणी द्वारा बड़े-बड़े विद्वानों, योगियों, सिद्धों, ब्राह्मणों, चोरों, ठगों और अपराधियों का दिल जीत लिया। गुरु साहिब से मिलने के पश्चात् इन व्यक्तियों की जीवन-धारा ही परिवर्तित हो गई। गुरु साहिब के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों की संख्या में लोग उनके श्रद्धालु बन गए। अंत में हम डॉक्टर एस० एस० कोहली के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वे (गुरु नानक साहिब) एक पवित्र उद्देश्य को पूर्ण करना चाहते थे और इसमें उन्हें चमत्कारी सफलता प्राप्त हुई”4

4. “He had a.holy mission to perform and his performance was no less than a miracle.” Dr.S.S. Kohli, Travels of Guru Nanak (Chandigarh : 1978) p. XV.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief the basic teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the main teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ लिखें।
(Write down the teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म की प्रमुख सदाचारक शिक्षाओं पर नोट लिखें।
(Write a note on the major ethical teachings of Sikhism.)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने मानव समाज के विकास के लिए क्या उपदेश दिए ? चर्चा करें।
(Discuss the teachings of Guru Nanak Dev Ji for the development of Human society.)
अथवा
रु नानक देव जी की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त, परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Describe in brief, but meaningful the basic teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की मूल नैतिक शिक्षाओं पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the basic ethical teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म की मुख्य शिक्षाओं पर नोट लिखें।
(Write a short note on the main teachings of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म की शिक्षाओं के बारे में बताएँ।
(Explain the teachings of Sikhism.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में चर्चा करें। (Discuss the main teachings of the Guru Granth Sahib.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ बड़ी सरल किंतु प्रभावशाली थीं। गुरु जी की शिक्षाओं ने लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव डाला। उनकी शिक्षाएँ किसी एक वर्ग, जाति अथवा प्राँत के लिए नहीं थीं। इनका. संबंध तो सारी मानव जाति से था। गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ईश्वर एक है (The Unity of God)-गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। सिख परंपरा के अनुसार मूलमंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘१’ है, वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक साहिब के अनुसार ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और उसका विनाश करता है। ऐसी शक्तियाँ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवताओं में नहीं हैं। इस कारण प्रभु के सम्मुख इन देवी-देवताओं का कोई महत्त्व नहीं है। ईश्वर के सम्मुख वे उसी प्रकार हैं जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों और हज़ारों हैं, परंतु ईश्वर एक है। उस परमपिता ईश्वर को कई नामों से जाना जाता है। जैसे-हरि, गोपाल, वाहेगुरु, साहिब, अल्लाह, खुदा और राम इत्यादि। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

“दूजा काहे सिमरिए जन्मे ते मर जाए।
ऐको सिमरो नानका, जो जल थल रिहा समाए।’

2. निर्गुण और सगुण (Nirguna and Sarguna)—ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। सर्वप्रथम ईश्वर ने भूमि और आकाश की रचना की थी और वह अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर ईश्वर ने इस संसार की रचना की। इस रचना द्वारा ईश्वर ने अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था।

3. रचयिता, पालनकर्ता और नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)-ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और इसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना करने से पूर्व कोई पृथ्वी, आकाश नहीं थे और चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का आदेश ही चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके आदेश के साथ ही चारों ओर मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियाँ, पर्वत और वन इत्यादि अस्तित्व में आ गए। ईश्वर ही इस संसार का पालनकर्ता है। वही सभी को रोज़ी-रोटी देता है। ईश्वर की जब इच्छा हो, वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है।

4. सर्वशक्तिमान् (Sovereign)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह जो चाहता है, वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि ईश्वर चाहे तो वह भिखारी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं—

कुदरत कवण कहा वीचारु॥
वारिआ न जावा एक वार॥ जो
तुधु भावै साई भली कार॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥

5. सदैव रहने वाला (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान् है। यह अस्थिर है। ईश्वर सदैव रहने वाला है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों, लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान हैं, किंतु ईश्वर नहीं।

6. निराकार और सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर कार है। उसका कोई आकार अथवा रंग-रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है किंतु ईश्वर सर्वव्यापक भी है। गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर की लीला निराली है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। इसलिए ईश्वर को अपने से दूर न समझो। वह तुम्हारे निकट ही है। गुरु नानक साहिब जी का कथन है,
“सभी में एक प्रकाश है और यह उसी का प्रकाश है जो सभी में विद्यमान है”

7. ईश्वर की महानता (Greatness of God)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सबसे महान् है। उसकी महानता का वर्णन करना असंभव है। हज़ारों और लाखों भक्तों और संतों ने ईश्वर की महानता का गुणगान किया है फिर भी यह उसकी महिमा भंडार का छोटा-सा भाग ही है। उसकी महिमा मनुष्य की कल्पना से दूर है। उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसके ज्ञान, उसकी देन, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महिमा का ज्ञाता स्वयं ही है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

पताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इक धात॥ लेखा होई त लिखीए लेखै होई विणासु॥
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु॥

8. माया (Maya)-गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र इत्यादि क चक्र में फंसा रहता है। इसी को माया कहते हैं। मनमुख व्यक्ति रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ पाता। माया, जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

9. हऊमै (Haumai)—मनमुख व्यक्ति में हऊमै (अहं) की भावना बड़ी प्रबल होती है। अहं के कारण वह मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान पाता। वह ईश्वर के आदेश की अपेक्षा अपनी मनमानी करता है। अहं के कारण वह संसार की बुराइयों में फंसा रहता है और ईश्वर से दूर रहता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा आवागमन के चक्र में और फंस जाता है। डॉक्टर तारन सिंह के अनुसार,
“हऊमै मन की वह अवस्था है जो मनुष्य को वास्तविकता से तथा उसके जीवन के उद्देश्य से दूर रखती है तथा इस प्रकार उसका मुक्ति तथा परमात्मा से मिलन नहीं होने देती।”5

10. इंद्रियजन्य भूख (Evil Impulses)-मनमुख व्यक्ति सदैव इंद्रियजन्य भूख से घिरा रहता है। काम. क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मनुष्य के पाँच शत्रु हैं। इनके कारण मनुष्य पाप करता है तथा लोगों को धोखा देता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने के स्थान पर आवागमन की जंजीरों में और भी दृढ़ता से जकड़ा जाता है और उसे यमदूतों की मार पड़ती है।

11. पुरोहित वर्ग का खंडन (Condemnation of the Priestly Class)-गुरु नानक देव जी ने पंडित और मुल्ला इत्यादि पुरोहित वर्ग का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेद शास्त्र और कुरान तो पढ़ते थे किंतु उनका अंतःकरण शुद्ध नहीं था। वे लोगों को धोखा देते थे और उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर उन्हें लूटते थे।
इस कारण गुरु नानक साहिब ने लोगों को उनके पीछे न चलने का परामर्श दिया। गुरु नानक साहिब का कथन था कि पुरोहित वर्ग जो कि लोगों का सही नेतृत्व करने की अपेक्षा स्वयं कुमार्ग पर चल रहा है, को उस ईश्वर के दरबार में कठोर दंड मिलेगा और वे आवागमन के चक्र में फंसे रहेंगे।

12. जाति प्रथा का खंडन (Condemnation of the Caste System)-उस समय का हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जाति से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया।

13. मूर्ति पूजा का खंडन (Condemnation of Idol Worship)-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कहना था कि पत्थर की मूर्तियाँ निर्जीव हैं। यदि उन्हें पानी में फैंक दिया जाए तो वे डूब जाएँगी। जो मूर्तियाँ स्वयं की रक्षा नहीं कर पातीं, वे मनुष्य को कैसे इस भवसागर से पार उतार सकती हैं ? इसलिए मूर्तियों की पूजा करना व्यर्थ है। हमें केवल एक ईश्वर की ही पूजा करनी चाहिए।

14. स्त्रियों का उद्धार (Uplift of Women)-गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्थान पुरुषों की जूती के समान था। उनमें असंख्य कुरीतियाँ प्रचलित थीं। उस समय स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा जाता था तथा उनका पशुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। गुरु नानक साहिब ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने स्त्रियों का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए और उनके समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,
“सो क्यों मंदा आखिए जित जन्मे राजान।”

15. नाम और शब्द (Nam and Shabad)-गुरु नानक देव जी नाम जपने और शब्द की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। इन पर चलकर मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर उसे नरक से नहीं बचा सकता। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए।

16. गुरु का महत्त्व (Importance of Guru)-गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु के बिना मनुष्य को सभी ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर लाता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेषोल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानव-गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

17. आत्म-समर्पण (Self Surrender)-गुरु नानक देव जी के अनुसार कोई भी मनुष्य तब तक उस परम पिता परमात्मा को नहीं पा सकता जब तक कि वह स्वयं को पूरी तरह उसको समर्पण न कर दे। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपने अस्तित्व को मिटाना आवश्यक है। नदी तथा उस पर उठा बुलबुला एक ही है। यदि बुलबुला अपने अस्तित्व को नदी के जल से भिन्न समझने लगे तो यह उसकी भूल है। वह नदी से उत्पन्न हुआ है और उसे नदी में ही मिल जाना है।

18. हुक्म (Hukam)-गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म (आदेश) अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुष्य को परमात्मा का हुक्म मानना चाहिए। जो मनुष्य ऐसा करता है, परमात्मा उस पर अपनी कृपा करता है और उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य परमात्मा के आदेश को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरें खाता है। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोई॥
नानक हुकमै जे बुझे त हउमै कहे न कोई॥

19. उचित आचार (Right Conduct)-गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। दूसरों की सेवा करना ठीक आचार की आधारशिला है। दूसरों की सेवा के योग्य होने के लिए श्रम करना आवश्यक है,। दूसरों की कमाई पर जीने को गुरु जी निम्न आचरण का चिन्ह मानते थे। मुक्ति के लिए गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन का त्याग करने के पक्ष में नहीं थे।

20. सच्च-खंड (Sach Khand)-गुरु नानक देव जी के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सच्चखंड को प्राप्त करना है। सच्च-खंड तक पहुँचने के लिए मनुष्य को धर्म-खंड, ज्ञान-खंड, शर्म-खंड तथा कर्मखंड में से गुजरना होता है। सच्च-खंड आखिरी अवस्था है। सच्च-खंड में आत्मा पूर्णतया परमात्मा में लीन हो जाती है तथा मानव के कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वह परमानंद अवस्था में पहुँच जाता है।

5. “Haumai is that condition of mind which keeps man ignorant of the true reality, the true purpose of life, and thus keeps him away from salvation and union with God.” Dr. Taran Singh, Teachings of Guru Nanak Dev (Patiala : 1990) p. 36.

शिक्षाओं का महत्त्व (Importance of Teachings)
गुरु नानक देव जी के उपदेशों ने न केवल धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों अपितु राजनीतिक क्षेत्र को भी. प्रभावित किया। गुरु साहिब के उपदेशों ने समाज में छाए अंधविश्वासों के काले बादलों पर सूर्य की किरणें फैलाने का कार्य किया। परिणामस्वरूप लोगों में एक नई जागृति का संचार होने लगा। वे व्यर्थ के रस्म-रिवाज छोड़कर एक परमात्मा की पूजा करने लगे। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा का खंडन करके, परस्पर भ्रातृ-भाव का प्रचार करके, स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा देकर, संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की स्थापना करके एक नए समाज की आधारशिला रखी। गुरु जी ने अपने उपदेशों द्वारा उस समय के शासकों को भी झकझोर डाला। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एच० आर० गुप्ता के अनुसार,
“इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने समूची मानवता के लिए एक ऐसी देन दी जो अभी तक प्रभावशाली है तथा भविष्य में भी यह संपूर्ण विश्व के सिखों को प्रेरित तथा उनका मार्ग दर्शन करती रहेगी।”6

6. “Thus Nanak left for all mankind a legacy which is still going strong and will continue to surprise and serve the Sikhs all over the world and for all times to come.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi :1973) p.56.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा उनकी कुछ मूल शिक्षाएँ बताएँ। (Explain Guru Nanak’s life and his basic teachings.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा शिक्षाओं के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करें।
(Discuss in detail the life and teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा उपदेशों के बारे में लिखें। (Write the life and teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ बड़ी सरल किंतु प्रभावशाली थीं। गुरु जी की शिक्षाओं ने लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव डाला। उनकी शिक्षाएँ किसी एक वर्ग, जाति अथवा प्राँत के लिए नहीं थीं। इनका. संबंध तो सारी मानव जाति से था। गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ईश्वर एक है (The Unity of God)-गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। सिख परंपरा के अनुसार मूलमंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘१’ है, वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक साहिब के अनुसार ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और उसका विनाश करता है। ऐसी शक्तियाँ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवताओं में नहीं हैं। इस कारण प्रभु के सम्मुख इन देवी-देवताओं का कोई महत्त्व नहीं है। ईश्वर के सम्मुख वे उसी प्रकार हैं जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों और हज़ारों हैं, परंतु ईश्वर एक है। उस परमपिता ईश्वर को कई नामों से जाना जाता है। जैसे-हरि, गोपाल, वाहेगुरु, साहिब, अल्लाह, खुदा और राम इत्यादि। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

“दूजा काहे सिमरिए जन्मे ते मर जाए।
ऐको सिमरो नानका, जो जल थल रिहा समाए।’

2. निर्गुण और सगुण (Nirguna and Sarguna)—ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। सर्वप्रथम ईश्वर ने भूमि और आकाश की रचना की थी और वह अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर ईश्वर ने इस संसार की रचना की। इस रचना द्वारा ईश्वर ने अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था।

3. रचयिता, पालनकर्ता और नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)-ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और इसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना करने से पूर्व कोई पृथ्वी, आकाश नहीं थे और चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का आदेश ही चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके आदेश के साथ ही चारों ओर मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियाँ, पर्वत और वन इत्यादि अस्तित्व में आ गए। ईश्वर ही इस संसार का पालनकर्ता है। वही सभी को रोज़ी-रोटी देता है। ईश्वर की जब इच्छा हो, वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है।

4. सर्वशक्तिमान् (Sovereign)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह जो चाहता है, वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि ईश्वर चाहे तो वह भिखारी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं—

कुदरत कवण कहा वीचारु॥
वारिआ न जावा एक वार॥ जो
तुधु भावै साई भली कार॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥

5. सदैव रहने वाला (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान् है। यह अस्थिर है। ईश्वर सदैव रहने वाला है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों, लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान हैं, किंतु ईश्वर नहीं।

6. निराकार और सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर कार है। उसका कोई आकार अथवा रंग-रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है किंतु ईश्वर सर्वव्यापक भी है। गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर की लीला निराली है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। इसलिए ईश्वर को अपने से दूर न समझो। वह तुम्हारे निकट ही है। गुरु नानक साहिब जी का कथन है,
“सभी में एक प्रकाश है और यह उसी का प्रकाश है जो सभी में विद्यमान है”

7. ईश्वर की महानता (Greatness of God)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सबसे महान् है। उसकी महानता का वर्णन करना असंभव है। हज़ारों और लाखों भक्तों और संतों ने ईश्वर की महानता का गुणगान किया है फिर भी यह उसकी महिमा भंडार का छोटा-सा भाग ही है। उसकी महिमा मनुष्य की कल्पना से दूर है। उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसके ज्ञान, उसकी देन, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महिमा का ज्ञाता स्वयं ही है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

पताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इक धात॥ लेखा होई त लिखीए लेखै होई विणासु॥
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु॥

8. माया (Maya)-गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र इत्यादि क चक्र में फंसा रहता है। इसी को माया कहते हैं। मनमुख व्यक्ति रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ पाता। माया, जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

9. हऊमै (Haumai)—मनमुख व्यक्ति में हऊमै (अहं) की भावना बड़ी प्रबल होती है। अहं के कारण वह मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान पाता। वह ईश्वर के आदेश की अपेक्षा अपनी मनमानी करता है। अहं के कारण वह संसार की बुराइयों में फंसा रहता है और ईश्वर से दूर रहता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा आवागमन के चक्र में और फंस जाता है। डॉक्टर तारन सिंह के अनुसार,
“हऊमै मन की वह अवस्था है जो मनुष्य को वास्तविकता से तथा उसके जीवन के उद्देश्य से दूर रखती है तथा इस प्रकार उसका मुक्ति तथा परमात्मा से मिलन नहीं होने देती।”5

10. इंद्रियजन्य भूख (Evil Impulses)-मनमुख व्यक्ति सदैव इंद्रियजन्य भूख से घिरा रहता है। काम. क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मनुष्य के पाँच शत्रु हैं। इनके कारण मनुष्य पाप करता है तथा लोगों को धोखा देता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने के स्थान पर आवागमन की जंजीरों में और भी दृढ़ता से जकड़ा जाता है और उसे यमदूतों की मार पड़ती है।

11. पुरोहित वर्ग का खंडन (Condemnation of the Priestly Class)-गुरु नानक देव जी ने पंडित और मुल्ला इत्यादि पुरोहित वर्ग का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेद शास्त्र और कुरान तो पढ़ते थे किंतु उनका अंतःकरण शुद्ध नहीं था। वे लोगों को धोखा देते थे और उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर उन्हें लूटते थे।
इस कारण गुरु नानक साहिब ने लोगों को उनके पीछे न चलने का परामर्श दिया। गुरु नानक साहिब का कथन था कि पुरोहित वर्ग जो कि लोगों का सही नेतृत्व करने की अपेक्षा स्वयं कुमार्ग पर चल रहा है, को उस ईश्वर के दरबार में कठोर दंड मिलेगा और वे आवागमन के चक्र में फंसे रहेंगे।

12. जाति प्रथा का खंडन (Condemnation of the Caste System)-उस समय का हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जाति से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया।

13. मूर्ति पूजा का खंडन (Condemnation of Idol Worship)-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कहना था कि पत्थर की मूर्तियाँ निर्जीव हैं। यदि उन्हें पानी में फैंक दिया जाए तो वे डूब जाएँगी। जो मूर्तियाँ स्वयं की रक्षा नहीं कर पातीं, वे मनुष्य को कैसे इस भवसागर से पार उतार सकती हैं ? इसलिए मूर्तियों की पूजा करना व्यर्थ है। हमें केवल एक ईश्वर की ही पूजा करनी चाहिए।

14. स्त्रियों का उद्धार (Uplift of Women)-गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्थान पुरुषों की जूती के समान था। उनमें असंख्य कुरीतियाँ प्रचलित थीं। उस समय स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा जाता था तथा उनका पशुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। गुरु नानक साहिब ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने स्त्रियों का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए और उनके समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,
“सो क्यों मंदा आखिए जित जन्मे राजान।”

15. नाम और शब्द (Nam and Shabad)-गुरु नानक देव जी नाम जपने और शब्द की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। इन पर चलकर मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर उसे नरक से नहीं बचा सकता। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए।

16. गुरु का महत्त्व (Importance of Guru)-गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु के बिना मनुष्य को सभी ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर लाता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेषोल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानव-गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

17. आत्म-समर्पण (Self Surrender)-गुरु नानक देव जी के अनुसार कोई भी मनुष्य तब तक उस परम पिता परमात्मा को नहीं पा सकता जब तक कि वह स्वयं को पूरी तरह उसको समर्पण न कर दे। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपने अस्तित्व को मिटाना आवश्यक है। नदी तथा उस पर उठा बुलबुला एक ही है। यदि बुलबुला अपने अस्तित्व को नदी के जल से भिन्न समझने लगे तो यह उसकी भूल है। वह नदी से उत्पन्न हुआ है और उसे नदी में ही मिल जाना है।

18. हुक्म (Hukam)-गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म (आदेश) अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुष्य को परमात्मा का हुक्म मानना चाहिए। जो मनुष्य ऐसा करता है, परमात्मा उस पर अपनी कृपा करता है और उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य परमात्मा के आदेश को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरें खाता है। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोई॥
नानक हुकमै जे बुझे त हउमै कहे न कोई॥

19. उचित आचार (Right Conduct)-गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। दूसरों की सेवा करना ठीक आचार की आधारशिला है। दूसरों की सेवा के योग्य होने के लिए श्रम करना आवश्यक है,। दूसरों की कमाई पर जीने को गुरु जी निम्न आचरण का चिन्ह मानते थे। मुक्ति के लिए गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन का त्याग करने के पक्ष में नहीं थे।

20. सच्च-खंड (Sach Khand)-गुरु नानक देव जी के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सच्चखंड को प्राप्त करना है। सच्च-खंड तक पहुँचने के लिए मनुष्य को धर्म-खंड, ज्ञान-खंड, शर्म-खंड तथा कर्मखंड में से गुजरना होता है। सच्च-खंड आखिरी अवस्था है। सच्च-खंड में आत्मा पूर्णतया परमात्मा में लीन हो जाती है तथा मानव के कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वह परमानंद अवस्था में पहुँच जाता है।

5. “Haumai is that condition of mind which keeps man ignorant of the true reality, the true purpose of life, and thus keeps him away from salvation and union with God.” Dr. Taran Singh, Teachings of Guru Nanak Dev (Patiala : 1990) p. 36.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षिप्त वर्णन करें। (What do you know about the early career of Guru Angad Dev Ji ? Explain briefly.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी अथवा भाई लहणा जी सिखों के दूसरे गुरु थे। उनका गुरु काल 1539 ई० से 1552 ई० तक रहा। गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अंगद देव जी का पहला नाम भाई लहणा जी था। उनका जन्म 31 मार्च, 1504 ई०को मत्ते की सराय नामक गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम फेरूमल था तथा वह क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। भाई लहणा जी की माता जी का नाम सभराई देवी जी था। वह बहुत धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। भाई लहणा जी पर उनके धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई लहणा जी का बचपन हरीके एवं खडूर साहिब में व्यतीत हुआ। आरंभ में भाई लहणा जी दुर्गा माता के भक्त थे। 15 वर्ष के होने पर उनका विवाह मत्ते की सराए के निवासी श्री देवी चंद की सुपुत्री बीबी खीवी जी के साथ कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों दातू और दासू तथा दो पुत्रियों बीबी अमरो और बीबी अनोखी ने जन्म लिया।

3. लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बने (Lehna Ji becomes the disciple of Guru Nanak Dev Ji)-भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी से भेंट करने से पूर्व दुर्गा माता के भक्त थे। वह प्रतिवर्ष ज्वालामुखी (ज़िला काँगड़ा) देवी के दर्शन के लिए जाते थे। एक दिन खडूर साहिब में भाई जोधा जी के मुख से ‘आसा दी वार’ का पाठ सुना। यह पाठ सुनकर भाई लहणा जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गुरु नानक देव जी के दर्शन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। आगामी वर्ष जब भाई लहणा जी ज्वालामुखी की यात्रा के लिए निकले तो वह मार्ग में करतारपुर में गुरु नानक देव जी के दर्शनों के लिए रुके। वह गुरु साहिब के महान् व्यक्तित्व और मधुर वाणी को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए, इसलिए भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बन गए और गुरु-चरणों में ही अपना जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-भाई लहणा जी ने पूर्ण श्रद्धा के साथ गुरु नानक साहिब की अथक सेवा की। भाई लहणा जी की सच्ची भक्ति और अपार प्रेम को देखकर गुरु नानक देव जी ने गुरुगद्दी उनके सुपुर्द करने का निर्णय किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। भाई लहणा को अंगद का नाम दिया गया। यह घटना 7 सितंबर, 1539 ई० की है। गुरु नानक साहिब द्वारा गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना सिखइतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यदि गुरु नानक साहिब अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व ऐसा न करते तो निस्संदेह सिख धर्म का अस्तित्व लुप्त हो जाना था। इसका कारण यह था कि सिख धर्म अभी अच्छी प्रकार से संगठित नहीं था। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से जो लोग प्रभावित हुए थे उनकी संख्या दूसरे लोगों की अपेक्षा नगण्य थी। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति से सिख धर्म को एक निश्चित दिशा प्राप्त हुई तथा इसका आधार मज़बूत हुआ। जी० सी० नारंग का यह कहना पूर्णतः सही है,
“यदि गुरु नानक जी उत्तराधिकारी की नियुक्ति के बिना ही ज्योति जोत समा जाते तो आज सिख धर्म नहीं होना था।”7

7. “Had Nanak died without a successor, there would have been no Sikhism today.” G.C. Narang, Transformation of Sikhism (New Delhi : 1989) p. 29.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (3)
GURU ANGAD DEV JI

प्रश्न 6.
सिख-धर्म के आरंभिक विकास में गुरु अंगद देव जी का क्या योगदान है ? वर्णन कीजिए ।
(What is the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के सिख पंथ के विकास में योगदान का संक्षेप वर्णन करें।
(Give a brief account of the contribution made by Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला बड़ा संकट हिंदू धर्म से था। सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi) गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”8

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद साहिब जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में एक जन्म साखी लिखवाई। इस जन्म साखी को भाई पैड़ा मौखा जी ने लिखा था। इस साखी को भाई बाला की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने कुल 62 शब्दों की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णत: सही है,
“सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना । संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. सिख मत में अनुशासन (Discipline in Sikhism)-गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। उनके दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड ने, अपनी मधुर आवाज़ के कारण अहंकार में आकर गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप, उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही रागियों को अपनी ग़लती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन की मर्यादा को बनाए रखा।

7. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)—गुरु अंगद साहिब यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

8. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)—गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

9. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद साहिब जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोलीं और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

10. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

11. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)—इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गुरु घर में अनुशासन स्थापित करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,
“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”10
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”11

8. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaeodic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
9. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of The Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
10. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 69.
11. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

प्रश्न 7.
गुरु अंगद देव जी के जीवन तथा सिख पंथ के विकास में उनके योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the life and contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के जीवन एवं सफलता का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe in brief, the life and achievements of Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला बड़ा संकट हिंदू धर्म से था। सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi) गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”8

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद साहिब जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में एक जन्म साखी लिखवाई। इस जन्म साखी को भाई पैड़ा मौखा जी ने लिखा था। इस साखी को भाई बाला की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने कुल 62 शब्दों की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णत: सही है,
“सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना । संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. सिख मत में अनुशासन (Discipline in Sikhism)-गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। उनके दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड ने, अपनी मधुर आवाज़ के कारण अहंकार में आकर गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप, उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही रागियों को अपनी ग़लती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन की मर्यादा को बनाए रखा।

7. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)—गुरु अंगद साहिब यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

8. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)—गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

9. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद साहिब जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोलीं और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

10. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

11. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)—इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गुरु घर में अनुशासन स्थापित करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,
“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”10
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”11

8. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaeodic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
9. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of The Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
10. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 69.
11. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 8.
गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the early career and difficulties of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गरु अमरदास जी के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (4)
GURU AMAR DAS JI

I. गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन
(Early Life of Guru Amardas Ji)

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को ज़िला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बख्त कौर था।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी जी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियोंबीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद साहिब जी का सिख बनना (To become the Disciple of Guru Angad SahibJi)एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया। एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद साहिब जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

II. गुरु अमरदास जी की प्रारंभिक कठिनाइयाँ (Guru Amar Das Ji’s Early Difficulties)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी, गुरु अंगद साहिब जी के आदेश पर खडूर साहिब से गोइंदवाल साहिब आ गए। यहाँ गुरु जी को आरंभ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—

  1. दासू और दातू का विरोध (Opposition of Dasu and Dattu)—गुरु अमरदास जी को अपने गुरुकाल के आरंभ में, गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को असली उत्तराधिकारी घोषित किया। उनका कहना था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है। एक दिन दातू ने क्रोधित होकर गोइंदवाल साहिब जाकर भरे दरबार में गुरु जी को ठोकर मारी जिसके कारण वह गद्दी से नीचे गिर पड़े। इस पर भी गुरु साहिब ने बहुत ही नम्रता से दातू से क्षमा माँगी। इसके पश्चात् गुरु जी गोइंदवाल साहिब को छोड़कर अपने गाँव बासरके
  2. चले गए। सिख संगतों ने दातू को अपना गुरु मानने से इंकार कर दिया। अंतत: निराश होकर वह खडूर साहिब लौट गया। बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिख संगतों के कहने पर गुरु अमरदास जी पुनः गोइंदवाल साहिब आ गए।

2. बाबा श्रीचंद का विरोध (Opposition of Baba Sri Chand)-बाबा श्रीचंद जी गुरु नानक जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने गुरु अंगद देव जी का विरोध इसलिए न किया क्योंकि उन्हें गुरुगद्दी गुरु नानक साहिब ने स्वयं सौंपी थी। परंतु गुरु अंगद देव जी के पश्चात् उन्होंने अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। बाबा श्रीचंद जी के अनेक समर्थक थे। गुरु अमरदास जी ने ऐसे समय में दृढ़ता से काम लेते हुए सिखों को स्पष्ट किया कि उदासी संप्रदाय के सिद्धांत गुरु नानक देव जी के उपदेशों के विपरीत हैं। उनके तर्कों से प्रभावित होकर सिखों ने बाबा श्रीचंद जी का साथ छोड़ दिया। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिखों को उदासी संप्रदाय से सदैव के लिए पृथक् कर दिया।

3. गोइंदवाल साहिब के मुसलमानों का विरोध (Opposition by the Muslims of Goindwal Sahib)-गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देखकर वहाँ के मुसलमानों ने सिखों को परेशान करना आरंभ कर दिया। वे सिखों का सामान चोरी कर लेते। वे सतलुज नदी से जल भर कर लाने वाले सिखों के घड़े पत्थर मार कर तोड़ देते थे। सिख इस संबंध में गुरु जी से शिकायत करते। अमरदास जी ने सिखों को शाँत रहने का उपदेश दिया। एक बार गाँव में कुछ सशस्त्र व्यक्ति आ गए। इन मुसलमानों का उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। उन्होंने बहुत से मुसलमानों को यमलोक पहुँचा दिया। लोग सोचने लगे कि मुसलमानों को परमात्मा की ओर से यह दंड मिला है। इस प्रकार उनका सिख धर्म में विश्वास और दृढ़ हो गया।

4. हिंदुओं द्वारा विरोध (Opposition by the Hindus)-गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों से प्रभावित होकर बहुत से लोग सिख धर्म में शामिल होते जा रहे थे। सिख धर्म में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता था। लंगर में सब एक साथ भोजन करते थे। इसके अतिरिक्त बाऊली का निर्माण होने से सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान भी मिल गया था। गोइंदवाल साहिब के उच्च जातियों के हिंदू यह बात सहन न कर सके। उन्होंने मुग़ल बादशाह अकबर के पास यह झूठी शिकायत की कि गुरु जी हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। इस आरोप की जाँच के लिए अकबर ने गुरु साहिब को अपने दरबार में बुलाया। गुरु अमरदास जी ने अपने श्रद्धालु भाई जेठा जी को भेजा। भाई जेठा जी से मिलने के पश्चात् अकबर ने गुरु जी को निर्दोष घोषित किया। इससे सिख लहर को और उत्साह मिला।

प्रश्न 9.
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अमरदास जी की भूमिका पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the role of Guru Amardas Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
श्री गुरु अमरदास जी द्वारा बसाये गए नये नगर गोइंदवाल साहिब में किए गए कार्य बताओ।
(Describe the tasks done by Guru Amardas Ji at new place Goindwal Sahib.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का वर्णन करें।
(Describe the contribution of Guru Amar Das Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अमरदास जी की सिख धर्म के विकास में की गई सेवाओं का वर्णन करो।
(Describe the services rendered by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के सिख पंथ के संगठन तथा प्रसार के लिए किए गए कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe in brief the organisational development and spread of Sikhism by Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के संगठन र विकास के लिए गुरु अमरदास जी ने क्या-क्या कार्य किए ?
(What were the measures taken by Guru Amar Das Ji for the consolidation and expansion of Sikhism ?)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णत: संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में,
“गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”12

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव – जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत” का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”13

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि-ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (5)
BAOLI SAHIB : GOINDWAL SAHIB

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”14

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था.। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए।
गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। इस पर अकबर ने यह जागीर बीबी भानी जी को दे दी। इस जागीर पर बाद में गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की स्थापना की। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 को ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”15
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”16

12. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
13. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala: 1982) p 25.
14. “The establishment of Manji system gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
15. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29.
16. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.”Dr.D.S. Dhillon Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 10.
गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों का मूल्यांकन करें। (Examine the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
“गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे।” बताएँ। (“Guru Amar Das Ji was a great social reformer.” Discuss.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का नाम सिख इतिहास में एक महान् समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध है। वह सिखों की सामाजिक संरचना को एक नया रूप देना चाहते थे। वह सिखों को तात्कालीन समाज के जटिल नियमों से मुक्त करना चाहते थे ताकि उनमें आपसी भ्रातृत्व स्थापित हो। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधार का संक्षिप्त वर्णन निम्न अनुसार है—

जातीय भेद-भाव तथा छुआ-छूत का खंडन (Denunciation of Caste Distinctions and Untouchability)-गुरु अमरदास जी ने जातीय एवं छुआ-छूत की प्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जाति पर अभिमान करने वाले मूर्ख तथा गंवार हैं। उन्होंने संगतों को यह हुक्म दिया कि जो कोई उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कुछ सामान्य कुएँ खुदवाए। इन कुओं से प्रत्येक जाति के लोगों को पानी लेने का अधिकार था। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया।

2. लड़कियों की हत्या का खंडन (Denunciation of Female Infanticide)-उस समय लड़कियों के जन्म को अशुभ माना जाता था। समाज में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने इस कुप्रथा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जो व्यक्ति ऐसा करता है वह घोर पाप का सहभागी बनता है । उन्होंने सिखों को इस अपराध से दूर रहने का उपदेश दिया।

3. बाल विवाह का खंडन (Denunciation of Child Marriage)-उस समय समाज में प्रचलित परंपराओं के अनुसार लड़कियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता था। इस कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई थी। गुरु अमरदास जी ने बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार किया।

4. सती प्रथा का खंडन (Denunciation of Sati System)-उस समय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं में से सबसे घृणा योग्य कुप्रथा सती प्रथा की थी। इस अमानवीय प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे जबरन पति की चिता के साथ जीवित जला दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने शताब्दियों से चली आ रही इस कुप्रथा के विरुद्ध एक ज़ोरदार अभियान चलाया। गुरु साहिब का कथन था
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोटि मरनि॥
भाव उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती तो वह है जो अपने पति के वियोग की पीड़ा में प्राण त्याग दे।

5. पर्दा प्रथा का खंडन (Denunciation of Purdah System)-उस समय समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन भी काफ़ी बढ़ गया था। यह प्रथा स्त्रियों के शारीरिक तथा मानसिक विकास में एक बड़ी बाधा थी। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने यह आदेश दिया कि संगत अथवा लंगर में सेवा करते समय कोई भी स्त्री पर्दा न करे।

6. नशीली वस्तुओं का विरोध (Prohibition of Intoxicants)-उस समय समाज में शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों का प्रयोग बहुत बढ़ गया था। इस कारण समाज का दिन-प्रतिदिन नैतिक पतन होता जा रहा था। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इन नशों के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उनका कथन था कि जो मनुष्य शराब पीता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह अपने-पराए का भेद भूल जाता है। मनुष्य को ऐसी झूठी शराब नहीं पीनी चाहिए, जिस कारण वह परमात्मा को भूल जाए।

7. विधवा विवाह के पक्ष में (Favoured Widow Marriage)-जो स्त्रियाँ सती होने से बच जाती थीं, उन्हें सदैव विधवा का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। समाज की ओर से विधवा विवाह पर प्रतिबंध लगा हुआ था। विधवा का जीवन नरक के समान था। गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा को खेदजनक बताया। उनका कथन था कि हमें विधवा का पूरा सम्मान करना चाहिए। गुरु जी ने बाल विधवा के पुनर्विवाह के पक्ष में प्रचार किया।

8. जन्म, विवाह तथा मृत्यु के.समय के नवीन नियम (New Ceremonies related to Birth, Marriage and Death)-उस समय समाज में जन्म, विवाह तथा मृत्यु से संबंधित जो रीति-रिवाज प्रचलित थे, वे बहुत जटिल थे। गुरु साहिब ने सिखों के लिए इन अवसरों पर विशेष नियम बनाए। ये नियम पूर्णतः सरल थे। गुरु साहिब ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर गाने के लिए अनंदु साहिब की रचना की। इसमें 40 पौड़ियाँ हैं। इसके अतिरिक्त विवाह के समय लावाँ की नई प्रथा आरंभ की गई।

9. त्योहार मनाने का नवीन ढंग (New Mode of Celebrating Festivals)-गुरु अमरदास जी ने सिखों को वैसाखी, माघी तथा दीवाली के त्योहारों को नवीन ढंग से मनाने के लिए कहा। इन तीनों त्योहारों के अवसरों पर बड़ी संख्या में सिख गोइंदवाल साहिब पहुँचते थे। गुरु साहिब का यह पग सिख पंथ के प्रचार में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर बी० एस० निझर के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी द्वारा आरंभ किए गए इन सामाजिक सुधारों को सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाले समझे जाने चाहिएँ।”17

17. “These social reforms introduced by Guru Amar Das must be regarded as a turning point in the history of Sikhism.” Dr. B.S. Nijjar, op. cit., p. 83.

प्रश्न 11.
गुरु अमरदास जी के जीवन एवं सफलताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the life and achievements of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को गुरुगद्दी पर बिराजमान होते समय किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा ? सिख मत के संगठन और विस्तार के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदमों की चर्चा कीजिए ।
(What were the difficulties faced by Guru Amar Das Ji at the time of his accession ? Discuss the steps taken by him to consolidate and expand Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन (Early Life of Guru Amardas Ji)-

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को ज़िला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बख्त कौर था।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी जी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियोंबीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद साहिब जी का सिख बनना (To become the Disciple of Guru Angad SahibJi)-एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया। एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद साहिब जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णत: संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)-गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में,
“गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”12

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव – जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत” का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”13

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि-ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (6)
BAOLI SAHIB : GOINDWAL SAHIB

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”14

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था.। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए।

गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। इस पर अकबर ने यह जागीर बीबी भानी जी को दे दी। इस जागीर पर बाद में गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की स्थापना की। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 को ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”15
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”16

12. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
13. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala: 1982) p 25.
14. “The establishment of Manji system gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
15. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29.
16. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.”Dr.D.S. Dhillon Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 12.
गुरु रामदास जी के जीवन और सफलताओं का वर्णन करें।
(Describe the life and the achievements of Guru Ram Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी के योगदान के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the contribution of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से लेकर 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनके गुरुकाल में सिख पंथ के संगठन और विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। गुरु रामदास जी के आरंभिक जीवन और उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
I. गुरु रामदास जी का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Guru Ram Das.Ji)

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु रामदास जी का जन्म 24 सितंबर, 1534 ई० को चूना मंडी लाहौर में हुआ था। आपको पहले भाई जेठा जी के नाम से जाना जाता था। आपके पिता जी का नाम हरिदास जी तथा माता जी का नाम दया कौर जी था। वे सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। जेठा जी के माता-पिता बहुत निर्धन थे।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई जेठा जी बचपन से ही धार्मिक विचारों वाले थे। एक बार आपके माता जी ने आपको उबले हुए चने बेच कर कुछ कमाने को कहा। बाहर जाते समय उन्हें कुछ भूखे साधु मिल गए। आपने सारे चने इन भूखे साधुओं को खिला दिए-और स्वयं खाली हाथ लौट आए। आप लोगों की सेवा करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। एक बार आपको एक सिख जत्थे के साथ गोइंदवाल साहिब जाने का अवसर मिला। आप वहाँ पर गुरु अमरदास जी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बन गए। गुरु अमरदास जी भाई जेठा जी की भक्ति और गुणों को देखकर बहुत प्रभावित हुए। इसलिए गुरु साहिब ने 1553 ई० में अपनी छोटी लड़की बीबी भानी जी का विवाह उनके साथ कर दिया। भाई जेठा जी के घर तीन लड़कों का जन्म हुआ। उनके नाम पृथी चंद (पृथिया), महादेव और अर्जन देव थे।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship) विवाह के पश्चात् भी भाई जेठा जी गोइंदवाल साहिब में ही रहे तथा पहले की तरह गुरु जी की सेवा करते रहे। भाई जेठा जी की निष्काम सेवा, नम्रता और मधुर स्वभाव ने गुरु अमरदास जी का मन मोह लिया था। इसलिए 1 सितंबर, 1574 ई० में गुरु अमरदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय से भाई जेठा जी को रामदास जी कहा जाने लगा। इस प्रकार गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु बने।

II. गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (7)
GURU RAM DAS JI

  1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”18

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With the Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। गुरु रामदास जी को देखकर उन्होंने यह प्रश्न किया, “सुनाइए दाढ़ा इतना लंबा क्यों बढ़ाया है ?” गुरु साहिब ने उत्तर दिया, “आप जैसे महापुरुषों के चरण साफ़ करने के लिए।” यह कहकर गुरु साहिब अपनी दाढ़ी से श्रीचंद के चरण साफ करने लगे। श्रीचंद ने अपने पाँव फौरन पीछे खींच लिए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) तथा लावाँ द्वारा विवाह करने की प्रथा का आरंभ था। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसेजाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब को 500 बीघा भूमि दान में दी। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। गुरु अर्जन देव जी प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)—गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, “गत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”19

18. “Masand System played a big role in consolidating Sikhism.” S. S. Gandhi, History of the Sikh Gurus (Delhi : 1978) p. 209.
19. “During the short period of his Guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

प्रश्न 13.
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी के योगदान के बारे में जानकारी दो। (Describe the cntribution of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।

1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”18

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With the Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। गुरु रामदास जी को देखकर उन्होंने यह प्रश्न किया, “सुनाइए दाढ़ा इतना लंबा क्यों बढ़ाया है ?” गुरु साहिब ने उत्तर दिया, “आप जैसे महापुरुषों के चरण साफ़ करने के लिए।” यह कहकर गुरु साहिब अपनी दाढ़ी से श्रीचंद के चरण साफ करने लगे। श्रीचंद ने अपने पाँव फौरन पीछे खींच लिए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) तथा लावाँ द्वारा विवाह करने की प्रथा का आरंभ था। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसेजाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब को 500 बीघा भूमि दान में दी। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। गुरु अर्जन देव जी प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)—गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, “गत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”19

19. “During the short period of his Guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 14.
गुरु अर्जन देव जी के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन करें। गुरुगद्दी पर बैठते समय उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(Describe briefly the early life of Guru Arjan Dev Ji. What difficulties he had to face at the time of his accession to Guruship ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे। उनका गुरु काल 1581 से 1606 ई० तक था। गुरु अर्जन देव जी के गुरु काल में जहाँ सिख पंथ का अद्वितीय विकास हुआ, वहीं उनके बलिदान से सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु जी के आरंभिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

गुरु अर्जन देव जी का आरंभिक जीवन (Early Career of Guru Arjan Dev Ji)

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। आप गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे तथा सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। आपके माता जी का नाम बीबी भानी जी था। बीबी भानी जी बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। इसलिए अर्जन देव जी के मन पर इसका गहन प्रभाव पड़ा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अर्जन देव जी बचपन से ही संबके विशेषकर अपने नाना गुरु अमरदास जी के बड़े लाडले थे। गुरु अमरदास जी ने एक बार भविष्यवाणी की, “यह मेरा दोहता वाणी का बोहथा होगा” अर्थात् यह एक ऐसी नाव बनेगा जो मानवता को संसार-सागर से पार उतारेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। गुरु अर्जन देव जी आरंभ से ही बड़े धार्मिक विचारों के थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी तथा गुरुवाणी के संबंध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आपका विवाह मऊ गाँव (फिल्लौर) के निवासी कृष्ण चंद की सुपुत्री गंगा देवी जी से हुआ। 1595 ई० में आपके घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र पृथी चंद बड़ा स्वार्थी तथा बेईमान था। दूसरा पुत्र महादेव वैरागी स्वभाव का था। उसकी सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। तीसरे तथा सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी थे। उनमें गुरुभक्ति, सेवा भाव तथा नम्रता आदि गुण प्रमुख थे। इसी कारण गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जन देव जी को 1581 ई० में अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु बने।
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GURU ARJAN DEV JI

II. गुरु अर्जन देव जी की कठिनाइयाँ
(Difficulties of Guru Arjan Dev Ji)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अर्जन साहिब को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. पृथी चंद का विरोध (Opposition of Prithi Chand)-पृथी चंद गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बड़ा होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना हक समझता था परंतु गुरु अमरदास जी ने उसके कपटी तथा स्वार्थी स्वभाव को देखते हुए अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस पर उसने अपने पिता जी को दुर्वचन कहे। उसने गुरु रामदास जी के ज्योति-जोत समाने के समय यह अफवाह फैला दी कि गुरु अर्जन देव जी ने उन्हें विष देकर मरवा दिया है। गुरु अर्जन देव जी की दस्तारबंदी के समय पृथी चंद ने गुरु साहिब से दस्तार (पगड़ी) छीन कर अपने सिर पर रख ली। उसने गुरु अर्जन साहिब से संपत्ति भी ले ली। उसने लंगर के लिए आई माया भी हड़पनी आरंभ कर दी। जब 1595 ई० में गुरु साहिब के घर हरगोबिंद साहिब जी का जन्म हुआ तो उसने इस बालक की हत्या के कई प्रयत्न किए। उसने लाहौर के मुग़ल कर्मचारी सुलही खाँ से मिलकर बादशाह अकबर को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया। इस प्रकार पृथिया ने गुरु अर्जन साहिब को परेशान करने में कोई यत्न खाली न छोड़ा।

2. कट्टर मुसलमानों का विरोध (Opposition of Orthodox Muslims)-गुरु अर्जन साहिब को कट्टर मुसलमानों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। ये मुसलमान सिखों के बढ़ते प्रभाव के कारण उनके दुश्मन बन गए। कट्टरपंथी मुसलमानों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए सरहिंद में ‘नक्शबंदी’ लहर का गठन किया। इस लहर का नेता शेख अहमद सरहिंदी था। 1605 ई० में जहाँगीर मुग़लों का नया बादशाह बना। वह बहुत कट्टर विचारों का था। नक्शबंदियों ने जहाँगीर को सिखों के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध उपयुक्त कार्यवाही करने का मन बना लिया।

3. ब्राह्मणों का विरोध (Opposition of Brahmans)-गुरु अर्जन देव जी को पंजाब के हिंदुओं के प्रमुख वर्ग अर्थात् ब्राह्मणों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। इसका कारण यह था कि सिख धर्म के प्रचार के कारण समाज में ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत कम होता जा रहा था। सिखों ने ब्राह्मणों के बिना अपने रीति-रिवाज मनाने शुरू कर दिए थे। गुरु अर्जन देव जी ने जब आदि-ग्रंथ साहिब का संकलन किया तो ब्राह्मणों ने मुग़ल सम्राट अकबर से यह शिकायत की कि इसमें हिंदुओं तथा मुसलमानों के विरुद्ध बहुत कुछ लिखा है। जाँच करने पर अकबर का कहना था कि यह ग्रंथ तो पूजनीय है।

4. चंदू शाह का विरोध (Opposition of Chandhu Shah)-चंदू शाह जो कि लाहौर का दीवान था __ अपनी पुत्री के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंदू शाह के आदमियों ने चंदू शाह.को गुरु अर्जन साहिब के सुपुत्र हरगोबिंद से रिश्ता करने का सुझाव दिया। इस पर उसने गुरु जी को अपशब्द कहे। बाद में अपनी पत्नी के विवश करने पर चंदू शाह यह रिश्ता करने के लिए सहमत हो गया। क्योंकि उस समय तक सिखों को चंदू शाह द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल गया था इसलिए उन्होंने गुरु जी को यह रिश्ता स्वीकार न करने के लिए प्रार्थना की। परिणामस्वरूप गुरु साहिब ने यह रिश्ता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अब चंदू शाह एक लाख रुपया लेकर गुरु जी के पास पहुँचा और गुरु जी को दहेज का लालच देने लगा। गुरु जी ने चंदू शाह से कहा, “मेरे शब्द पत्थर पर लकीर हैं। यदि तू समस्त संसार को भी दहेज में दे दे तो भी मेरा पुत्र तेरी पुत्री से विवाह नहीं करेगा।” इस पर चंदू शाह गुरु जी का घोर शत्रु बन गया।

प्रश्न 15.
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अर्जन देव जी द्वारा अपनाई गई विधि के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the measures adopted by Guru Arjan Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के समय सिख धर्म के हुए विकास के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful the development of Sikhism during Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की विशेष देन की चर्चा करें।
(Discuss the special contribution of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अर्जन देव जी के योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the contribution of Guru Arjan Dev Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म एवं परंपरा के विकास में गुरु अर्जन देव जी के योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the role of Guru Arjan Dev Ji in the development of Sikh faith and tradition.)
अथवा
सिख पंथ के संगठन एवं विकास में गुरु अर्जन साहिब के योगदान बारे जानकारी दें।
(Discuss Guru Arjan Sahib’s contribution to the organisation and development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की विभिन्न सफलताओं का वर्णन करें। (Give an account of the various achievements of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का गुरु काल 1581 ई० से 1606 ई० तक था। उनके गुरुगद्दी पर बैठने से सिख इतिहास में एक नए युग का आगमन हुआ। गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों का विवरण निम्नलिखित है—

1. हरिमंदिर साहिब का निर्माण (Construction of Harmandir Sahib)–गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सर्वप्रथम महान् कार्य हरिमंदिर साहिब का निर्माण था। सर्वप्रथम गुरु अर्जन देव जी ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू कराए गए अमृतसर सरोवर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसके पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृत सरोवर में हरिमंदिर (ईश्वर का मंदिर) साहिब का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। इसकी नींव 13 जनवरी, 1588 ई० में प्रसिद्ध सूफी संत मीयाँ मीर जी ने रखी थी। सिखों ने गुरु जी को हरिमंदिर साहिब को आस-पास की इमारतों से ऊँचा बनवाने के लिए कहा परंतु गुरु साहिब का कहना था कि जो नीचा होगा, वही ऊँचा कहलाने के योग्य होगा। इसलिए इसका भवन अन्य भवनों से नीचा रखा गया। हरिमंदिर साहिब की एक अन्य विशेषता इसकी चारों दिशाओं में बनाए गए एक-एक द्वार हैं। इसका अर्थ यह था कि संसार की चारों दिशाओं से लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ आ सकते हैं। 1601 ई० में हरिमंदिर साहिब का निर्माण-कार्य संपूर्ण हुआ।
इस समय गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि इस मंदिर की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। सिख वहाँ बड़ी संख्या में आने लगे। फलस्वरूप जल्दी ही हरिमंदिर साहिब
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SRI HARMANDIR SAHIB : AMRITSAR
सिखों का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। प्रसिद्ध लेखक जी० एस० तालिब के अनुसार,
“इस मंदिर एवं सरोवर का सिखों के लिए वही स्थान है जो मक्का का मुसलमानों के लिए, जेरूस्लेम का यहूदियों तथा ईसाइयों के लिए तथा बौद्ध गया का बौद्धों के लिए।”20

2. तरन तारन की स्थापना (Foundation of Tarn Taran)-1590 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने माझा क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के लिए अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर भी खुदवाया गया। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव-सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन्होंने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

3. करतारपुर एवं हरिगोबिंदपुर की स्थापना (Foundation of Kartarpur and Hargobindpur)गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर जिला में करतारपुर नगर की स्थापना की। करतारपुर से अभिप्राय था ‘ईश्वर का शहर’। यह शहर ब्यास और सतलुज नदियों के मध्य स्थित है। करतारपुर में गुरु साहिब ने गंगसर नामक एक सरोवर भी बनवाया। इस प्रकार करतारपुर जालंधर दोआब में एक प्रसिद्ध प्रचार केंद्र बन गया। 1595 ई० में गुरु साहिब ने अपने पुत्र हरगोबिंद जी के जन्म की प्रसन्नता में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की।

4. लाहौर में बाऊली का निर्माण (Construction of Baoli at Lahore)-गुरु अर्जन देव जी एक बार सिख संगतों के आग्रह पर लाहौर गए। यहाँ उन्होंने डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इस प्रकार उस क्षेत्र के सिखों को भी एक तीर्थ स्थान मिल गया।

5. मसंद प्रथा का विकास (Development of Masand System)-मसंद प्रथा का विकास निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ऊँचा स्थान’। गुरु साहिब के प्रतिनिधि संगत में ऊँचे स्थान पर बैठते थे, इसलिए उन्हें मसंद कहा जाने लगा। सिखों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण गुरु साहिब को लंगर तथा अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांश (दशम् भाग) गुरु साहिब को भेंट करे। इस पैसे को एकत्रित करने के लिए गुरु साहिब ने मसंद नियुक्त किए। ये मसंद अपने क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ धन भी एकत्रित करते थे तथा इस धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आकर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा के कारण सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर के क्षेत्रों में संभव हो सका। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग सिख धर्म में सम्मिलित हुए। दूसरा, इस प्रथा के कारण गुरु घर की आय निश्चित हो गई। इस कारण सिख धर्म एवं गुरु साहिब की लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)—गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य सिख पंथ के विकास के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका प्रमुख उद्देश्य पूर्व सिख गुरुओं की वाणी को वास्तविक रूप में अंकित करना तथा सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य रामसर नामक सरोवर के किनारे आरंभ किया गया। भाई गुरदास जी ने वाणी को लिखने का कार्य किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी की और अपनी वाणी शामिल की। इनके अतिरिक्त इनमें कई भक्तों, सूफी संतों और भट्टों इत्यादि की वाणी भी दर्ज की गई। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी शामिल कर ली गई तथा आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिखों को एक पावन धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। इसने सिखों में एक नई जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।”21

7. घोड़ों का व्यापार (Trade of Horses)-गुरु अर्जन देव जी सिखों की आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिखों को अरब देशों के साथ घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। इसके तीन लाभ हुए। प्रथम, सिख अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जिस कारण उनकी आर्थिक दशा सुधर गई। दसरा, वे अच्छे घुड़सवार बन गए। तीसरा, इसने समाज में प्रचलित इस भ्रम पर गहरा आघात किया कि समुद्र पार जाने से ही किसी व्यक्ति का धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

8. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar) गुरु अर्जन देव जी तथा मुग़ल सम्राट अकबर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। गुरु अर्जन देव जी के विरोधियों पृथिया, चंदू शाह, ब्राह्मणों एवं कट्टरपंथी मुसलमानों ने अकबर को गुरु साहिब जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया परंतु उनकी चालें बेकार गईं। कई मुसलमानों ने अकबर को यह कहकर भड़काने का प्रयास किया कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं, परंतु अकबर इस ग्रंथ को पूजनीय मानता था। गुरु अर्जन देव के अनुरोध करने पर अकबर ने कृषकों के लगान में 10% की कमी कर दी। इसके कारण जहाँ गुरु साहिब की ख्याति में वृद्धि हुई, वहीं सिख पंथ के विकास में भी काफ़ी सहायता मिली।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देने से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु साहिब ने उसे पूर्ण रूप से सशस्त्र होकर गुरुगद्दी पर बैठने और सेना रख्नने का भी आदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने न केवल गुरुगद्दी की परंपरा __ को ही बनाए रखा, बल्कि इसके स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया।

10. गरु अर्जन देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Arjan Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने सिख्ख पंथ के विकास में अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हरिमंदिर साहिब, तरनतारन, हरगोबिंदपुर, करतारपुर और लाहौर में बाऊली की स्थापना, मसंद प्रथा के विकास तथा आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिख धर्म को नई दिशा मिली। फलस्वरूप यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभर कर सामने आया। प्रोफ़ेसर हरबंस सिंह के शब्दों में,
“पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी के अधीन सिख धर्म अच्छी प्रकार दृढ़ हो गया था।”22
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० मनसुखानी के अनुसार,
“गुरु अर्जन जी के गुरु काल में सिख धर्म का तीव्र विकास हुआ है।”23

20. “This temple and the pool became Sikhism what Mecca is to Islam, Jerusalem to Judaism and Christianity and Bodh Gaya to Buddhism.” G.S. Talib, An Introduction to Sri Guru Granth Sahib (Patiala : 1991) p. 10.
21. “The compilation of the Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1973) p. 97
22. “Under Cuu Arjan, the Fifth Garu, Sikhism became more firmly established.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi: 1004), p. 37.
23. During the period of Guru Arjan, Sikhism took a significant stride.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhisra (New Delhi : 1982) p. 144.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 16.
गुरु अर्जन देव जी के आरंभिक जीवन का वर्णन करें। उनकी सिख धर्म को क्या देन है ? (Briefly describe the early life of Guru Arjan Dev Ji. What is his contribution to Sikhism ?)
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे। उनका गुरु काल 1581 से 1606 ई० तक था। गुरु अर्जन देव जी के गुरु काल में जहाँ सिख पंथ का अद्वितीय विकास हुआ, वहीं उनके बलिदान से सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु जी के आरंभिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I गुरु अर्जन देव जी का आरंभिक जीवन
(Early Career of Guru Arjan Dev Ji)

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। आप गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे तथा सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। आपके माता जी का नाम बीबी भानी जी था। बीबी भानी जी बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। इसलिए अर्जन देव जी के मन पर इसका गहन प्रभाव पड़ा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अर्जन देव जी बचपन से ही संबके विशेषकर अपने नाना गुरु अमरदास जी के बड़े लाडले थे। गुरु अमरदास जी ने एक बार भविष्यवाणी की, “यह मेरा दोहता वाणी का बोहथा होगा” अर्थात् यह एक ऐसी नाव बनेगा जो मानवता को संसार-सागर से पार उतारेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। गुरु अर्जन देव जी आरंभ से ही बड़े धार्मिक विचारों के थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी तथा गुरुवाणी के संबंध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आपका विवाह मऊ गाँव (फिल्लौर) के निवासी कृष्ण चंद की सुपुत्री गंगा देवी जी से हुआ। 1595 ई० में आपके घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र पृथी चंद बड़ा स्वार्थी तथा बेईमान था। दूसरा पुत्र महादेव वैरागी स्वभाव का था। उसकी सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। तीसरे तथा सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी थे। उनमें गुरुभक्ति, सेवा भाव तथा नम्रता आदि गुण प्रमुख थे। इसी कारण गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जन देव जी को 1581 ई० में अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु बने।

गुरु अर्जन देव जी का गुरु काल 1581 ई० से 1606 ई० तक था। उनके गुरुगद्दी पर बैठने से सिख इतिहास में एक नए युग का आगमन हुआ। गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों का विवरण निम्नलिखित है—

1. हरिमंदिर साहिब का निर्माण (Construction of Harmandir Sahib)–गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सर्वप्रथम महान् कार्य हरिमंदिर साहिब का निर्माण था। सर्वप्रथम गुरु अर्जन देव जी ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू कराए गए अमृतसर सरोवर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसके पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृत सरोवर में हरिमंदिर (ईश्वर का मंदिर) साहिब का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। इसकी नींव 13 जनवरी, 1588 ई० में प्रसिद्ध सूफी संत मीयाँ मीर जी ने रखी थी। सिखों ने गुरु जी को हरिमंदिर साहिब को आस-पास की इमारतों से ऊँचा बनवाने के लिए कहा परंतु गुरु साहिब का कहना था कि जो नीचा होगा, वही ऊँचा कहलाने के योग्य होगा। इसलिए इसका भवन अन्य भवनों से नीचा रखा गया। हरिमंदिर साहिब की एक अन्य विशेषता इसकी चारों दिशाओं में बनाए गए एक-एक द्वार हैं। इसका अर्थ यह था कि संसार की चारों दिशाओं से लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ आ सकते हैं। 1601 ई० में हरिमंदिर साहिब का निर्माण-कार्य संपूर्ण हुआ।
इस समय गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि इस मंदिर की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। सिख वहाँ बड़ी संख्या में आने लगे। फलस्वरूप जल्दी ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। प्रसिद्ध लेखक जी० एस० तालिब के अनुसार, “इस मंदिर एवं सरोवर का सिखों के लिए वही स्थान है जो मक्का का मुसलमानों के लिए, जेरूस्लेम का यहूदियों तथा ईसाइयों के लिए तथा बौद्ध गया का बौद्धों के लिए।”20

2. तरन तारन की स्थापना (Foundation of Tarn Taran)-1590 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने माझा क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के लिए अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर भी खुदवाया गया। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव-सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन्होंने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

3. करतारपुर एवं हरिगोबिंदपुर की स्थापना (Foundation of Kartarpur and Hargobindpur)गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर जिला में करतारपुर नगर की स्थापना की। करतारपुर से अभिप्राय था ‘ईश्वर का शहर’। यह शहर ब्यास और सतलुज नदियों के मध्य स्थित है। करतारपुर में गुरु साहिब ने गंगसर नामक एक सरोवर भी बनवाया। इस प्रकार करतारपुर जालंधर दोआब में एक प्रसिद्ध प्रचार केंद्र बन गया। 1595 ई० में गुरु साहिब ने अपने पुत्र हरगोबिंद जी के जन्म की प्रसन्नता में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की।

4. लाहौर में बाऊली का निर्माण (Construction of Baoli at Lahore)-गुरु अर्जन देव जी एक बार सिख संगतों के आग्रह पर लाहौर गए। यहाँ उन्होंने डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इस प्रकार उस क्षेत्र के सिखों को भी एक तीर्थ स्थान मिल गया।

5. मसंद प्रथा का विकास (Development of Masand System)-मसंद प्रथा का विकास निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ऊँचा स्थान’। गुरु साहिब के प्रतिनिधि संगत में ऊँचे स्थान पर बैठते थे, इसलिए उन्हें मसंद कहा जाने लगा। सिखों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण गुरु साहिब को लंगर तथा अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांश (दशम् भाग) गुरु साहिब को भेंट करे। इस पैसे को एकत्रित करने के लिए गुरु साहिब ने मसंद नियुक्त किए। ये मसंद अपने क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ धन भी एकत्रित करते थे तथा इस धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आकर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा के कारण सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर के क्षेत्रों में संभव हो सका। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग सिख धर्म में सम्मिलित हुए। दूसरा, इस प्रथा के कारण गुरु घर की आय निश्चित हो गई। इस कारण सिख धर्म एवं गुरु साहिब की लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)—गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य सिख पंथ के विकास के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका प्रमुख उद्देश्य पूर्व सिख गुरुओं की वाणी को वास्तविक रूप में अंकित करना तथा सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य रामसर नामक सरोवर के किनारे आरंभ किया गया। भाई गुरदास जी ने वाणी को लिखने का कार्य किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी की और अपनी वाणी शामिल की। इनके अतिरिक्त इनमें कई भक्तों, सूफी संतों और भट्टों इत्यादि की वाणी भी दर्ज की गई। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी शामिल कर ली गई तथा आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिखों को एक पावन धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। इसने सिखों में एक नई जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।”21

7. घोड़ों का व्यापार (Trade of Horses)-गुरु अर्जन देव जी सिखों की आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिखों को अरब देशों के साथ घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। इसके तीन लाभ हुए। प्रथम, सिख अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जिस कारण उनकी आर्थिक दशा सुधर गई। दसरा, वे अच्छे घुड़सवार बन गए। तीसरा, इसने समाज में प्रचलित इस भ्रम पर गहरा आघात किया कि समुद्र पार जाने से ही किसी व्यक्ति का धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

8. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar) गुरु अर्जन देव जी तथा मुग़ल सम्राट अकबर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। गुरु अर्जन देव जी के विरोधियों पृथिया, चंदू शाह, ब्राह्मणों एवं कट्टरपंथी मुसलमानों ने अकबर को गुरु साहिब जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया परंतु उनकी चालें बेकार गईं। कई मुसलमानों ने अकबर को यह कहकर भड़काने का प्रयास किया कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं, परंतु अकबर इस ग्रंथ को पूजनीय मानता था। गुरु अर्जन देव के अनुरोध करने पर अकबर ने कृषकों के लगान में 10% की कमी कर दी। इसके कारण जहाँ गुरु साहिब की ख्याति में वृद्धि हुई, वहीं सिख पंथ के विकास में भी काफ़ी सहायता मिली।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देने से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु साहिब ने उसे पूर्ण रूप से सशस्त्र होकर गुरुगद्दी पर बैठने और सेना रख्नने का भी आदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने न केवल गुरुगद्दी की परंपरा को ही बनाए रखा, बल्कि इसके स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया।

10. गरु अर्जन देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Arjan Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने सिख्ख पंथ के विकास में अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हरिमंदिर साहिब, तरनतारन, हरगोबिंदपुर, करतारपुर और लाहौर में बाऊली की स्थापना, मसंद प्रथा के विकास तथा आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिख धर्म को नई दिशा मिली। फलस्वरूप यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभर कर सामने आया। प्रोफ़ेसर हरबंस सिंह के शब्दों में,
“पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी के अधीन सिख धर्म अच्छी प्रकार दृढ़ हो गया था।”22
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० मनसुखानी के अनुसार,
“गुरु अर्जन जी के गुरु काल में सिख धर्म का तीव्र विकास हुआ है।”23

20. “This temple and the pool became Sikhism what Mecca is to Islam, Jerusalem to Judaism and Christianity and Bodh Gaya to Buddhism.” G.S. Talib, An Introduction to Sri Guru Granth Sahib (Patiala : 1991) p. 10.
21. “The compilation of the Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1973) p. 97
22. “Under Cuu Arjan, the Fifth Garu, Sikhism became more firmly established.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi: 1004), p. 37.
23. During the period of Guru Arjan, Sikhism took a significant stride.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhisra (New Delhi : 1982) p. 144.

प्रश्न 17.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए जिम्मेवार हालातों का वर्णन करें। (Explain the circumstances responsible for the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के विषय में विस्तार सहित वर्णन करें। इसकी क्या महत्ता थी ? (Write in detail about the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji and its significance.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए जिम्मेदार कारणों का वर्णन करें। शहीदी का वास्तविक कारण क्या था ?
(Explain the causes which led to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the real cause of his martyrdom ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारणों की व्याख्या कीजिए। उनकी शहीदी का क्या महत्त्व था ?
(Examine the circumstances leading to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the significance of his martyrdom ?)
अथवा
उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए जो गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी थीं। उनके बलिदान का क्या महत्त्व था ?
(Describe the circumstances that led to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the significance of his martyrdom ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारण एवं महत्त्व बताएँ।
(Discuss the causes and importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास की अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना से सिख पंथ में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारणों और महत्त्व का वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)

1. जहाँगीर की धार्मिक कट्टरता (Fanaticism of the Jahangir)-जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उसकी यह कट्टरता गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। वह इस्लाम धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को कभी सहन नहीं कर सकता था। वह पंजाब में सिखों के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करने के किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। इस संबंध में उसने अपनी आत्मकथा तुज़कए-जहाँगीरी में स्पष्ट लिखा है।

2. सिख पंथ का विकास (Development of Sikh Panth)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में सिख पंथ की बढ़ती लोकप्रियता का भी योगदान है। हरिमंदिर साहिब के निर्माण, तरनतारन, करतारपुर और हरगोबिंदपुर के नगरों तथा मसंद प्रथा की स्थापना के कारण सिख पंथ दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होता चला गया। गुरु ग्रंथ साहिब की रचना के कारण सिख धर्म के प्रचार में बहुत सहायता मिली। यह बात मुग़लों के लिए असहनीय थी। इसलिए उन्होंने सिखों की शक्ति का दमन करने का निर्णय किया।।

3. पृथी चंद की शत्रुता (Enmity of Prithi Chand)-पृथी चंद गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। वह बड़ा लोभी और स्वार्थी था। उसे गुरुगद्दी नहीं मिली इसलिए वह गुरु साहिब से रुष्ट था। उसने इस बात की घोषणा की कि वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक उसे गुरुगद्दी प्राप्त नहीं हो जाती। उसने मसंदों द्वारा गुरुघर के लंगर के लिए लाया धन हड़प करना आरंभ कर दिया। उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर प्रचलित करना आरंभ कर दिया। उसने मुग़ल अधिकारियों के साथ मिलकर गुरु जी के विरुद्ध षड्यंत्र रचे। इन षड्यंत्रों ने मुगलों में गुरु जी के विरुद्ध और शत्रुता उत्पन्न कर दी।

4. चंदू शाह की शत्रुता (Enmity of Chandu Shah)-चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंदू शाह को गुरु साहिब के पुत्र हरगोबिंद का नाम सुझाया गया। इस पर उसने गुरु जी की शान में बहुत-से अपमानजनक शब्द कहे। परंतु पत्नी द्वारा विवश करने पर वह यह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। गुरु साहिब को चंदू शाह द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल चुका था, इसलिए उन्होंने इस शगुन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इस पर चंदू शाह ने अपने प्रतिशोध का बदला लेने के लिए जहाँगीर के कान भरने आरंभ कर दिए। जहाँगीर पर इसका प्रभाव पड़ा और उसने गुरु जी के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का मन बना लिया।

5. नक्शबंदियों का विरोध (Opposition of Naqshbandis)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का भी बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों का संप्रदाय था। यह संप्रदाय इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता देख कभी सहन नहीं कर सकता था। शेख अहमद सरहिंदी जो कि नक्शबंदियों का नेता था का मुग़ल दरबार में काफी प्रभाव था। उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। इसलिए जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब के विरुद्ध कार्यवाई करने का निर्णय किया।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)-आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन भी गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बना। गुरु साहिब के विरोधियों ने जहाँगीर को कहा कि इस ग्रंथ में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं। गुरु जी का कहना था कि इस ग्रंथ में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी गई जो किसी भी धर्म के विरुद्ध हो। जहाँगीर ने ग्रंथ साहिब जी में हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में भी लिखने के लिए कहा। गुरु साहिब का कहना था कि वे ईश्वर के आदेश के बिना ऐसा नहीं कर सकते। निस्संदेह, जहाँगीर के लिए यह बात असहनीय थी।

7. खुसरो की सहायता (Help to Khusrau)-गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहज़ादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तात्कालिक कारण बना। शहज़ादा खुसरो अपने पिता के विरुद्ध असफल विद्रोह के बाद भाग कर पंजाब आ गया। पंजाब पहुँचकर खुसरो गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तरन तारन पहुँचा। गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया और उसे काबुल जाने के लिए कुछ वांछित सहायता प्रदान की। जब जहाँगीर को इस बात का पता चला तो उसने लाहौर के गवर्नर मुर्तज़ा खान को आदेश दिया कि गुरु साहिब को गिरफ्तार कर लिया जाए।

II. बलिदान कैसे हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जन देव जी को 24 मई, 1606 ई० को बंदी बनाकर लाहौर लाया गया। जहाँगीर ने गुरु जी को मृत्यु के बदले 2 लाख रुपए जुर्माना देने के लिए कहा। गुरु जी ने यह जुर्माना देने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप मुग़ल अत्याचारियों ने गुरु साहिब को लोहे के तपते तवे पर बिठाया और शरीर पर गर्म रेत डाली गई। गुरु साहिब ने इन अत्याचारों को ईश्वर की इच्छा समझकर, यह कहते हुए अपना बलिदान दे दिया

तेरा किया मीठा लागे।
हरि नाम पदार्थ नानक माँगे।।

इस प्रकार 30 मई, 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी लाहौर में शहीद हो गए।
III. गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व (Importance of the Martyrdom of Guru Arjan Dev Ji)
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुआ। इस बलिदान के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले—

1. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का गुरु हरगोबिंद जी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने सिखों को सशस्त्र करने का निश्चय किया। उन्होंने अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। यहाँ सिखों को शस्त्रों का प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार सिख एक संत-सिपाही बनकर उभरने लगे। प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल के अनुसार,
“गुरु अर्जन देव जी के बलिदान ने समस्या को प्रबल बनाया। इसने पंजाब तथा सिख राजनीति को नई दिशा दी।”24

2. सिखों में एकता (Unity among the Sikhs)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से सिख यह अनुभव करने लगे कि मुग़लों के अत्याचार के विरुद्ध उनमें एकता का होना अति आवश्यक है। अतः सिख तीव्रता से एकता के सूत्र में बंधने लगे।

3. सिखों और मुग़लों के संबंधों में परिवर्तन (Change in the relationship between Mughals and the Sikhs)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से पूर्व मुग़लों और सिखों के मध्य संबंध सुखद थे किंतु अब स्थिति पूर्णतया परिवर्तित हो चुकी थी। सिखों के दिलों में मुग़लों से प्रतिशोध लेने की भावना भड़क उठी थी। मुग़लों को भी सिखों का गुरु हरगोबिंद जी के अधीन सशस्त्र होना प्रसंद नहीं था। इस प्रकार सिखों तथा मुग़लों के बीच खाई और बढ़ गई।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

4. सिखों पर अत्याचार (Persecution of the Sikhs)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के साथ ही मुग़लों के सिखों पर अत्याचार आरंभ हो गए। जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद जी को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। शाहजहाँ के समय गुरु जी को मुग़लों के साथ लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। 1675 ई० में औरंगजेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को दिल्ली में शहीद कर दिया था। उसके शासनकाल में सिखों पर घोर अत्याचार किए गए। सिखों ने गुरु गोबिंद सिंह जी, बंदा सिंह बहादुर तथा अन्य सिख नेताओं के अधीन मुग़ल अत्याचारों का डटकर सामना किया तथा हँसते-हँसते शहीदियाँ दीं।

5. सिख धर्म की लोकप्रियता (Popularity of Sikhism)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिख धर्म पहले की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हो गया। इस घटना से न केवल हिंदू अपितु बहुत-से मुसलमान भी प्रभावित हुए। वे बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होना आरंभ हो गए। इस प्रकार गुरु अर्जन देव जी के बलिदान ने सिख इतिहास में एक नए युग का आरंभ किया।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख धर्म के विकास में एक नया मोड़ था।”25

24. “Guru Arjan’s martyrdom precipitated the issues. It gave a new complexion to the shape of things in the Punjab and the Sikh polity.” K.S. Duggal, Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 123.
25. “The martyrdom of Guru Arjan marks a turning point in the development of Sikh religion.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhism (New Delhi : 1982) p. 146.

प्रश्न 18.
गुरु हरगोबिंद जी के जीवन के बारे में विस्तृत नोट लिखो। (Write a detailed note on the life of Guru Hargobind Ji.)
अथवा
गरु हरगोबिंद जी के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु थे। वे 1606 ई० से लेकर 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस काल का सिख पंथ के इतिहास में विशेष महत्त्व है। गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपना कर न केवल सिख लहर के स्वरूप को ही बदला अपितु सिखों में स्वाभिमान की भावना भी उत्पन्न की। परिणामस्वरूप उनके समय में सिख पंथ का न केवल रूपांतरण ही हुआ अपितु इसका अद्वितीय विकास भी हुआ। उनके जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

  1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 14 जून, 1595 ई० को जिला अमृतसर के गाँव वडाली में हुआ था। वह गुरु अर्जन देव जी के एक मात्र पुत्र थे। आप की माता जी का नाम गंगा देवी जी था।
  2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु हरगोबिंद जी बाल्यकाल से ही बहुत होनहार थे। आप ने पंजाबी, संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन किया था। बाबा बुड्डा जी ने आपको न केवल धार्मिक शिक्षाएँ ही दीं अपितु घुड़सवारी तथा शस्त्र-विद्या में भी प्रवीण कर दिया। विवाह के कुछ समय के पश्चात् आप के घर पाँच पुत्रों-गुरदित्ता जी, अणि राय जी, सूरज मल जी, अटल राय जी तथा तेग बहादुर जी और एक पुत्री बीबी वीरो जी ने जन्म लिया।
  3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने लाहौर जाने से पूर्व, जहाँ उन्होंने अपना बलिदान दिया था, हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय हरगोबिंद जी की आयु केवल 17 वर्ष थी। इस प्रकार हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु बने। वह 1606 ई० से लेकर 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।
  4. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-नोट-इस भाग के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न नं० 19 का उत्तर देखें।
  5. गुरु हरगोबिंद जी के मुगलों के साथ संबंध (Relations of Guru Hargobind Ji with the Mughals)-नोट-इस भाग के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न नं० 20 का उत्तर देखें।

प्रश्न 19.
सिख धर्म में गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई ‘मीरी-पीरी’ की युक्ति के बारे में आलोचनात्मक : घर्चा कीजिए।
(Examine critically the new method ‘Miri-Piri’ adopted by Guru Hargobind Ji.)
अथवा
गुरु हरगोविंद जी की नई नीति से क्या भाव है ? इस नीति की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करते हुए इसका महत्व भी बताएँ।
(What is meant by the New Policy of Guru Hargobind Ji ? Describe its main features and importance.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए श्री गुरु हरगोबिंद जी की ओर से चलाए गए ‘मीरी और पीरी’ के ढंग की चर्चा कीजिए।
(Discuss the new method ‘Miri and Piri’ adopted by Sri Guru Hargobind Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी का सिख लहर को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Hargobind Ji to Sikh Movement ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी से सिख लहर में पीरी के साथ मीरी का अंश भी आ गया। स्पष्ट करें।
[Guru Hargobind introduced militant (Miri) element alongwith spirituality (Piri) in the Sikh Movement. Explain.]
अथवा
मीरी तथा पीरी क्या है ? व्याख्या करें।
(What is Miri and Piri ? Explain.)
अथवा
सिख धर्म में ‘मीरी-पीरी के सिद्धांत की व्याख्या करो।
(Discuss the method ‘Miri-Piri’ in Sikhism.)
अथवा
मीरी एवं पीरी के सिद्धांत के बारे में जानकारी दीजिए। (Discuss the concept of Miri and Piri.)
अथवा
मीरी एवं पीरी के संकल्प के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the concept of Miri and Piri.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों को संत सिपाही के रूप में कैसे बदला ? (How Guru Hargobind Ji changed the Sikhs into Sant Sipahis ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा 1606 ई० में गुरुगद्दी पर बैठने के साथ ही सिख पंथ में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। ऐसी स्थिति में गुरु हरगोबिंद जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए सिखों को शस्त्र उठाने होंगे। अतः गुरु साहिब ने सिखों को संत सिपाही बनाने की नवीन नीति धारण की। इस नीति को अपनाने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (10)
GURU HARGOBIND JI

1. मुग़लों की धार्मिक नीति में परिवर्तन (Change in the Religious Policy of the Mughals)जहाँगीर से पूर्व के शासकों के साथ सिखों के संबंध मधुर थे। बाबर ने गुरु नानक देव जी के प्रति सम्मान प्रकट किया था। हुमायूँ ने राज-गद्दी की पुनः प्राप्ति के लिए गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद प्राप्त किया। मुग़ल बादशाह अकबर ने गुरु अमरदास जी के समय स्वयं गोइंदवाल साहिब में आकर लंगर छका था। उसने गुरु रामदास जी को 500 बीघे भूमि दान में दी तथा पंजाब के किसानों का एक वर्ष का लगान माफ कर दिया था। परंतु 1605 ई० में बादशाह बना जहाँगीर बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के सिवाय किसी अन्य धर्म को विकसित होते नहीं देख सकता था। अतः इन बदली हुई परिस्थितियों में गुरु साहिब को भी नई नीति अपनानी पड़ी।

2. गुरु अर्जन देव जी का बलिदान (Martyrdom of Guru Arjan Dev Ji)-जहाँगीर के लिए सिखों की बढ़ती लोकप्रियता असहनीय थी। इस लहर के दमन के लिए उसने 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया। गुरु अर्जन देव के बलिदान ने सिखों को स्पष्ट कर दिया था यदि वे जीवित रहना चाहते हैं तो उन्हें शस्त्रधारी बनकर मुगलों से टक्कर लेनी होगी। इस प्रकार गुरु अर्जन देव जी का बलिदान गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति धारण करने के लिए काफ़ी सीमा तक उत्तरदायी था।

3. गुरु अर्जन देव जी का अंतिम संदेश (Last Message of Guru Arjan Dev Ji)-गुरु अर्जन देव जी ने अपने बलिदान से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को यह संदेश भेजा कि, “उसे पूरी तरह शस्त्रों से सुसज्जित होकर गद्दी पर बैठना चाहिए। अपनी पूर्ण योग्यता के अनुसार सेना रखनी चाहिए।” अतः गुरु साहिब के इन शब्दों को व्यावहारिक रूप देने का गुरु हरगोबिंद जी ने निश्चय किया।

4. जाटों का स्वभाव (Character of the Jats)-सिख पंथ में सम्मिलित होने वाले लोगों में जाटों की संख्या सबसे अधिक थी। ये जाट साहसी, वीर तथा स्वाभिमानी थे। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से उनका खून खौल उठा। उन्होंने गुरु हरगोबिंद जी को शस्त्रधारी होने के लिए प्रेरित किया तथा स्वयं भी इस कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति धारण करने में जाटों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

नई नीति की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of the New Policy)

1. मीरी तथा पीरी तलवारें धारण करना (Wearing of Miri and Piri Swords)—गुरु हरगोबिंद जी ने गुरुगद्दी पर विराजमान होते समय मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण कीं। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी और पीरी तलवार धार्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी। गुरु हरगोबिंद साहिब ने एक ओर सिखों को सतनाम का जाप करने तथा दूसरी ओर शस्त्र धारण करने का संदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई इस मीरी तथा पीरी नीति का सिख इतिहास पर बहुत गहन प्रभाव पड़ा।

2. सेना का संगठन (Organisation of Army)-गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सिख पंथ की रक्षा के लिए सेना का संगठन करने का भी निर्णय किया गया। उन्होंने सिखों को यह आदेश दिया कि वे गुरु साहिब की सेना में भर्ती हों। फलस्वरूप 500 योद्धा आपकी सेना में भर्ती हुए। इन सैनिकों को सौ-सौ के पाँच जत्थों में विभाजित किया गया। प्रत्येक जत्था पाँच जत्थेदारों के अधीन रखा गया। इनके अतिरिक्त गुरु साहिब ने 52 अंगरक्षक भी भर्ती किए। धीरे-धीरे गुरु साहिब की सेना की संख्या बढ़कर 2500 हो गई। गुरु जी की सेना में पठानों की एक अलग रैजमैंट बनाई गई। इसका सेनापति पँदा खाँ को नियुक्त किया गया।

3. शस्त्र तथा घोड़े एकत्र करना (Collection of Arms and Horses)-गुरु हरगोबिंद जी ने मसंदों को यह आदेश दिया कि वे सिखों से धन की अपेक्षा शस्त्र एवं घोड़े एकत्रित करें। सिखों से भी कहा कि वे मसंदों को शस्त्र एवं घोड़े भेंट करें। गुरु जी के इस आदेश का मसंदों और सिखों ने बड़े उत्साह से स्वागत किया। फलस्वरूप गुरु जी की सैन्य-शक्ति अधिक दृढ़ हो गई।

4. अकाल तख्त साहिब का निर्माण (Construction of Akal Takhat Sahib)—गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अकाल तख्त साहिब का निर्माण उनकी नई नीति का ही महत्त्वपूर्ण भाग था। अकाल तख्त साहिब का निर्माण गुरु हरगोबिंद जी ने हरिमंदिर साहिब के सामने करवाया था। इसके भीतर एक 12 फीट ऊँचे चबूतरे का निर्माण किया जो एक तख्त के समान था। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद जी सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देते, उनके सैनिक कारनामे देखते, मसंदों से घोड़े और शस्त्र स्वीकार करते, ढाडी वीर-रस की वारें सुनाते तथा सिखों के परस्पर झगड़ों का भी निपटारा करते थे। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“अकाल तख्त सिखों की सबसे पवित्र संस्था है। इसने सिख समुदाय के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।”26

5. राजनीतिक प्रतीकों को अपनाना (Adoptation of Royal Symbols)-गुरु हरगोबिंद जी अपनी नई नीति के अंतर्गत राजसी ठाठ-बाठ से रहने लगे। उन्होंने अब सेली (ऊन की माला) के स्थान पर कमर में दो तलवारें धारण कीं। एक शानदार दरबार की स्थापना की गई। उन्होंने अब राजाओं की भाँति दस्तार के ऊपर कल्गी सुशोभित करनी आरंभ कर दी। उन्होंने ‘सच्चा पातशाह’ की उपाधि धारण की। गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने अब बहुमूल्य वस्त्र धारण करते और अपने अंगरक्षकों के साथ चलते थे।

6. अमृतसर की किलाबंदी (Fortification of Amritsar)-अमृतसर न केवल सिखों का सर्वाधिक पावन धार्मिक स्थान ही था, अपितु यह उनका विख्यात सैनिक प्रशिक्षण केंद्र भी था। इसलिए गुरु जी ने इस
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (11)
AKAL TAKHT SAHIB : AMRITSAR
महत्त्वपूर्ण स्थान की सुरक्षा के लिए अमृतसर शहर के चारों ओर एक दीवार बनवा दी। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया गया जिसका नाम लोहगढ़ रखा गया।

7. गुरु जी के प्रतिदिन के जीवन में परिवर्तन (Changes in the daily life of the Guru)-अपनी नवीन नीति के कारण गुरु हरगोबिंद जी के प्रतिदिन के जीवन में भी कई परिवर्तन आ गए थे। उन्होंने अब शिकार खेलना आरंभ कर दिया था। उन्होंने अपने दरबार में अब्दुला तथा नत्था मल को वीर-रस से परिपूर्ण वारें गाने के लिए भर्ती किया। एक विशेष संगीत मंडली की स्थापना की गई जो रात्रि को ऊँची आवाज़ में जोशीले शब्द गाती हुई हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा करती थी। गुरु साहिब ने अपने जीवन में ये परिवर्तन केवल सिखों में वीरता की भावना उत्पन्न करने के लिए किए थे।

26. “Sri Akal Takhat is one of the most sacred institutions of Sikhism. It has played historic role in the sociopolitical transformation of the Sikh community.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 140.

नई नीति का आलोचनात्मक मूल्याँकन (Critical Estimate of the New Policy)
जब गुरु हरगोबिंद साहिब जी की नई नीति ने कई संदेह उत्पन्न कर दिए। डॉक्टर ट्रंप का कहना है कि गुरु जी ने अपने पूर्व गुरुओं के आदर्शों को त्याग दिया था। वास्तव में गुरु हरगोबिंद साहिब की नई नीति का गलत आँकलन किया गया है। गुरु साहिब ने पुरानी सिख परंपरा का त्याग नहीं किया था। वे प्रतिदिन सुबह हरिमंदिर साहिब ‘आसा दी वार’ का पाठ सुनते थे तथा उन्होंने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न स्थानों में अपने प्रचारक भेजे। यदि गुरु साहिब ने अपने प्रतिदिन के जीवन में कुछ परिवर्तन किए तो उसका उद्देश्य केवल सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करना था। समय के साथ-साथ गुरु साहिब की सिखों की नई नीति के संबंध में उत्पन्न हुई शंकाएँ दूर होनी आरंभ हो गई थीं। वास्तव में गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु नानक देव जी के उपदेशों को ही वास्तविक रूप दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बक्शी के शब्दों
“यद्यपि बाहरी रूप में ऐसा लगता था कि गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु नानक जी के उद्देश्यों को परिपूर्ण करने में भिन्न मार्ग अपनाया, किंतु यह मुख्य तौर पर गुरु नानक जी के आदर्शों पर ही आधारित था।”27

नई नीति का महत्त्व (Importance of the New Policy)
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। सिख अब संत सिपाही बन गए। वे ईश्वर की भक्ति के साथ-साथ शस्त्रों का भी प्रयोग करने लग पड़े। इस नीति के अभाव में सिखों का पावन भ्रातृत्व समाप्त हो गया होता अथवा फिर वे फकीरों और संतों की एक श्रेणी बनकर रह जाते । गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के परिणामस्वरूप पंजाब के जाट अधिक संख्या में सिख पंथ में सम्मिलित हुए। इस नई नीति के कारण सिखों एवं मुग़लों के संबंधों में आपसी तनाव और बढ़ गया। शाहजहाँ के समय गुरु साहिब को मुग़लों के साथ चार युद्ध लड़ने पड़े। इन युद्धों में सिखों की विजय से मुग़ल साम्राज्य के गौरव को धक्का लगा। अंत में हम के० एस० दुग्गल के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु हरगोबिंद जी का सबसे महान् योगदान सिखों के जीवन मार्ग को एक नई दिशा देना था। उसने संतों को सिपाही बना दिया किंतु फिर भी परमात्मा के भक्त रहे”28

27. “Though outwardly, it may appear that Guru Hargobind persued a slightly different course for fulfilling the mission of Guru Nanak, yet, basically, it was Curu Nanak’s ideals that he preached.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, op. cit., Vol. 1, p. 24.
28. “Guru Hargobind’s greatest contribution is that he gave a new turn to the Sikh way of life. He turned saints into soldiers and yet remained a man of God.” K.S. Duggal, Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 164.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 20.
गुरु हरगोबिंद जी के जहाँगीर तथा शाहजहाँ के साथ संबंधों का संक्षिप्त विवरण दें।
(Describe briefly the relationship of Guru Hargobind Ji with Jahangir and Shah Jahan.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी एवं मुग़लों के संबंधों पर एक विस्तृत लेख लिखो। (Write a detailed note on relations between Guru Hargobind Ji and the Mughals.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़लों के साथ संबंधों की चर्चा करें। (Explain the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughals.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। उनके गुरुगद्दी के काल के दौरान उनके मुग़लों के साथ संबंधों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—
प्रथम काल 1606-27 ई० (First Period 1606-27 A.D.)

1. गरु हरगोबिंद जी ग्वालियर में बंदी (Imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior)गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। गुरु जी द्वारा उसकी पुत्री के साथ विवाह करने से पुन: इंकार करने पर उसने जहाँगीर को गुरु साहिब के विरुद्ध भडक़ाया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने उन्हें बंदी बना लिया। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण बंदी बनाया। इस नीति से उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो गई थीं तथा गुरु जी के विरोधियों ने भी जहाँगीर के कान भरे कि गुरु जी विद्रोह करने की तैयारियाँ कर रहे हैं।

2. कारावास की अवधि (Period of Imprisonment) इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं कि गुरु हरगोबिंद साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे। दाबिस्तान-ए-मज़ाहिब के लेखक के अनुसार गुरु साहिब 12 वर्ष कारागृह में रहे। डॉक्टर इंदू भूषण बैनर्जी यह समय पाँच वर्ष, तेजा सिंह एवं गंडा सिंह दो वर्ष और सिख साखीकार यह समय चालीस दिन बताते हैं। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु हरगोबिंद साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

3. गुरु साहिब की रिहाई (Release of the Guru Sahib)—गुरु हरगोबिंद जी की रिहाई के संबंध में भी इतिहासकारों ने कई मत प्रकट किए हैं। सिख साखीकारों का कहना है कि गुरु जी को बंदी बनाने के बाद जहाँगीर बहुत बेचैन रहने लग पड़ा था। भाई जेठा जी ने जहाँगीर को पूर्णत: ठीक कर दिया। उनके ही निवेदन पर जहाँगीर ने गुरु साहिब को रिहा कर दिया। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि जहाँगीर ने यह निर्णय सूफी संत मीयाँ मीर जी के निवेदन पर लिया था। कुछ अन्य इतिहासकारों के विचारानुसार जहाँगीर गुरु साहिब के बंदी काल के दौरान सिखों की गुरु जी के प्रति श्रद्धा देखकर बहुत प्रभावित हुआ। फलस्वरूप जहाँगीर ने गुरु साहिब की रिहाई का आदेश दिया। गुरु जी की जिद्द पर ग्वालियर के दुर्ग में ही बंदी 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करना पड़ा। इसके कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी छोड़ बाबा’ भी कहा जाने लगा।

4. जहाँगीर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Jahangir) शीघ्र ही जहाँगीर को यह विश्वास हो गया था कि गुरु साहिब निर्दोष थे और गुरु साहिब के कष्टों के पीछे चंदू शाह का बड़ा हाथ था। इसलिए जहाँगीर ने चंदू शाह को दंड देने के लिए सिखों के सुपुर्द कर दिया। यहाँ तक कि जहाँगीर ने अकाल तख्त साहिब के निर्माण कार्य के लिए सारा खर्चा देने की पेशकश की, परंतु गुरु जी ने इंकार कर दिया। इस प्रकार गुरु जी की ग्वालियर की रिहाई के पश्चात् तथा जहाँगीर की मृत्यु तक जहाँगीर एवं गुरु जी के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहे।

द्वितीय काल 1628-35 ई० । (Second Period 1628-35 A.D.)
1628 ई० में शाहजहाँ मुग़लों का नया बादशाह बना। उसके शासनकाल में एक बार फिर सिखों और मुग़लों में निम्नलिखित कारणों से संबंध बिगड़ गए—

  1. शाहजहाँ की धार्मिक कट्टरता (Shah Jahan’s Fanaticism)—शाहजहाँ बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने हिंदुओं के कई मंदिरों को नष्ट करवा दिया। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली के स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण करवा दिया था। फलस्वरूप सिखों में उसके प्रति अत्यधिक रोष उत्पन्न हो गया था।
  2. नक्शबंदियों का विरोध (Opposition of Nagashbandis) नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। गुरु अर्जन देव जी को शहीद करवाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। शाहजहाँ के सिंहासन पर बैठने के पश्चात् एक बार फिर नक्शबंदियों ने शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ गुरु साहिब के विरुद्ध हो गया।
  3. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति भी सिखों तथा मुग़लों के मध्य संबंधों को बिगाड़ने का एक प्रमुख कारण बनी। इस नीति के कारण गुरु साहिब ने सैन्य शक्ति का संगठन कर लिया था। सिख श्रद्धालुओं ने उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कहकर संबोधित करना आरंभ कर दिया था। शाहजहाँ इस नीति को मुग़ल साम्राज्य के लिए गंभीर खतरा समझता था। इसलिए उसने गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया।
  4. कौलाँ का मामला (Kaulan’s Affair)-कौलाँ के मामले के कारण गुरु साहिब और शाहजहाँ के बीच तनाव में और वृद्धि हुई। कौलाँ लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की पुत्री थी। वह ‘गुरु अर्जन देव जी की वाणी को बहुत चाव से पढ़ती थी। काजी भला यह कैसे सहन कर सकता था। फलस्वरूप उसने अपनी बेटी पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए। कौलाँ तंग आकर गुरु साहिब की शरण में चली गई। जब काज़ी को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने गुरु साहिब के विरुद्ध शाहजहाँ के खूब कान भरे।।

सिखों और मुग़लों की लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and Mughals)
मुग़लों और सिखों के बीच 1634-35 ई० में हुई चार लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. अमृतसर की लड़ाई 1634 ई० (Battle of Amritsar 1634 A.D.)-1634 ई० में अमृतसर में मुग़लों और सिखों के बीच प्रथम लड़ाई हुई। शाहजहाँ अपने सैनिकों सहित अमृतसर के निकट शिकार खेल रहा था। शिकार खेलते समय शाहजहाँ का एक विशेष बाज़ उड़ गया। सिखों ने इस बाज़ को पकड़ लिया। मुग़ल सैनिकों ने बाज़ वापस करने की माँग की। सिखों के इंकार करने पर दोनों पक्षों में लड़ाई हो गई। इसमें कुछ मुग़ल सैनिक मारे गए। क्रोधित होकर शाहजहाँ ने लाहौर से मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7,000 सैनिकों की एक टुकड़ी अमृतसर भेजी। इस लड़ाई में गुरु साहिब के अतिरिक्त पैंदा खाँ ने अपनी वीरता प्रदर्शित की। मुखलिस खाँ गुरु साहिब से लड़ता हुआ मारा गया। परिणामस्वरूप मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस लड़ाई में विजय के कारण सिख सेनाओं का साहस बहुत बढ़ गया। इस लड़ाई के संबंध में लिखते हुए प्रो० हरबंस सिंह का कहना है,
“अमृतसर की लड़ाई यद्यपि एक छोटी घटना थी किंतु इसके दूरगामी परिणाम निकले।”29

2. लहरा की लड़ाई 1634 ई० (Battle of Lahira 1634 A.D.)-शीघ्र ही मुग़लों तथा सिखों के मध्य लहरा (भटिंडा के निकट) नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई के कारण दो घोड़े थे जिनके नाम दिलबाग तथा गुलबाग थे। इन दोनों घोड़ों को बखत मल और तारा चंद नामक दो मसंद काबुल से गुरु साहिब को भेंट करने के लिए ला रहे थे। मार्ग में ये दोनों घोड़े मुग़लों ने छीन लिए। गुरु साहिब का एक सिख भाई बिधी चंद भेष बदलकर दोनों घोड़े शाही घुड़साल से निकाल लाया। शाहजहाँ ने क्रोधित होकर तुरंत लल्ला बेग तथा कमर बेग के नेतृत्व में एक भारी सेना सिखों के दमन के लिए भेजी। लहरा नामक स्थान पर भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़लों के दोनों सेनापति लल्ला बेग तथा कमर बेग मारे गए। इस लड़ाई में भाई जेठा जी भी शहीद हो गए। अंत में सिख विजयी रहे।

3. करतारपुर की लड़ाई 1635 ई० (Battle of Kartarpur 1635 A.D.)-मुग़लों तथा सिखों के मध्य तीसरी लड़ाई 1635 ई० में करतारपुर में हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। वह हरगोबिंद जी की सेना में पठान टुकड़ी का सेनापति था। उसने गुरु साहिब का एक बाज़ चोरी करके अपने दामाद को दे दिया। गुरु साहिब के पूछने पर उसने इस बात से इंकार कर दिया। जब गुरु जी को पैंदा खाँ के झूठ का पता चला तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। पैंदा खाँ मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की शरण में चला गया। पैंदा खाँ के उकसाने पर शाहजहाँ ने पैंदा खाँ और काले खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना सिखों के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में तेग़ बहादुर जी ने अपने शौर्य का खूब प्रदर्शन किया। इस लड़ाई में गुरु साहिब से लड़ते हुए काले खाँ, पैंदा खाँ और उसका पुत्र कुतब खाँ मारे गए। इस प्रकार गुरु जी को एक शानदार विजय प्राप्त हुई।

4. फगवाड़ा की लड़ाई 1635 ई० (Battle of Phagwara 1635 A.D.)—करतारपुर की लड़ाई के __पश्चात् गुरु हरगोबिंद जी कुछ समय के लिए फगवाड़ा आ गए। यहाँ अहमद खाँ के नेतृत्व में कुछ मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। चूंकि मुग़ल सैनिकों की संख्या बहुत कम थी इसलिए फगवाड़ा में दोनों सेनाओं में मामूली झड़प हुई। फगवाड़ा की लड़ाई गुरु हरगोबिंद जी के समय में मुग़लों तथा सिखों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई थी।

लड़ाइयों का महत्त्व
(Importance of the Battles)
गुरु हरगोबिंद जी के काल में मुग़लों तथा सिखों के मध्य लड़ी गई विभिन्न लड़ाइयों का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है। इन लडाइयों में सिख विजयी रहे थे। इन लड़ाइयों में विजय के कारण सिखों का साहस बहुत बढ़ गया था। सिखों ने अपने सीमित साधनों के बलबूते पर इन लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। अत: गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। बहुत-से लोग सिख धर्म में सम्मिलित हो गए। परिणामस्वरूप सिख पंथ का बड़ी तीव्रता से विकास होने लगा। प्रसिद्ध इतिहासकार पतवंत सिंह के अनुसार__ “इन लड़ाइयों का ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में नहीं था कि ये कितनी बड़ी थीं अपितु इस बात में था कि इन्होंने आक्रमणकारियों के वेग को रोका तथा उनकी शक्ति को चुनौती दी। इसने मुगलों के विरुद्ध चेतना का संचार किया तथा दूसरों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत की।”30

29. “This Amritsar action was a small incident, but its implications were far-reaching.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Dehi : 1994) p. 49.
30. “The historical importance of these battles did not lie in their scale, but in the fact that the aggressor’s writ was rejected and his power scorned. A mood of defiance was generated against the Mughals and an example set for others.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 42.

गुरु हरराय जी (GURU HAR RAI JI)

प्रश्न 21.
गुरु हरराय जी के जीवन और उपलब्धियों के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Guru Har Rai Ji’s early career and achievements ?)
उत्तर-
गुरु हरराय जी सिखों के सातवें गुरु थे। उनके गुरुकाल (1645 से 1661 ई०) को सिख पंथ का शाँतिकाल कहा जा सकता है। गुरु हरराय जी के आरंभिक जीवन तथा उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु हरराय जी का जन्म 30 जनवरी, 1630 ई० को कीरतपुर साहिब नामक स्थान पर हुआ। उनके माता जी का नाम बीबी निहाल कौर जी था। आप गुरु हरगोबिंद जी के पौत्र तथा बाबा गुरदित्ता जी के पुत्र थे।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)—आप बाल्यकाल से ही शाँत प्रकृति, मृदुभाषी तथा दयालु स्वभाव के थे। कहते हैं कि एक बार हरराय जी बाग में सैर कर रहे थे। उनके चोले से लग जाने से कुछ फूल झड़ गए। यह देखकर आपकी आँखों में आँसू आ गए। आप किसी का भी दुःख सहन नहीं कर सकते थे। आपका विवाह अनूप शहर (यू० पी०) के दया राम जी की सुपुत्री सुलक्खनी जी से हुआ। आपके घर दो पुत्रों रामराय तथा हरकृष्ण ने जन्म लिया।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु हरगोबिंद जी के पाँच पुत्र थे। बाबा गुरदित्ता, अणि राय तथा अटल राय अपने पिता के जीवन काल में स्वर्गवास को चुके थे। शेष दो में से सूरजमल का सांसारिक मामलों की ओर आवश्यकता से अधिक झुकाव था तथा तेग़ बहादुर जी का बिल्कुल नहीं। इसलिए गुरु हरगोबिंद जी ने बाबा गुरदित्ता के छोटे पुत्र हरराय जी को अपना उत्तराधिकारी बनाया। आप 8 मार्च, 1645 ई० को गुरुगद्दी पर विराजमान हुए। इस प्रकार आप सिखों के सातवें गुरु बने।

4. गुरु हरराय जी के समय में सिख धर्म का विकास (Development of Sikhism under Guru Har Rai Ji)- गुरु हरराय जी 1645 ई० से 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। आपने सिख धर्म के प्रचार के लिए तीन मुख्य केंद्र स्थापित किए जिन्हें ‘बख्शीशें’ कहा जाता था। पहली बख्शीश एक संन्यासी गिरि की थी जिसकी भक्ति से प्रसन्न होकर गुरु साहिब ने उसका नाम भक्त भगवान रख दिया। उसने पूर्वी भारत में सिख धर्म के बहुत-से केंद्र स्थापित किए। इनमें पटना, बरेली तथा राजगिरी के केंद्र प्रसिद्ध हैं। दूसरी बख्शीश सुथरा शाह की थी। उसे सिख धर्म के प्रचार के लिए दिल्ली भेजा गया। तीसरी बख्शीश भाई फेरु की थी। उनको राजस्थान भेजा गया था। इसी प्रकार भाई नत्था जी को ढाका, भाई जोधा जी को मुलतान भेजा गया तथा आप स्वयं पंजाब के कई स्थानों जैसे जालंधर, करतारपुर, हकीमपुर, गुरदासपुर, अमृतसर, पटियाला, अंबाला तथा हिसार आदि गए।

5. फूल को आशीर्वाद (Phool Blessed)—एक दिन काला नामक श्रद्धालु अपने भतीजों संदली तथा फूल को गुरु हरराय जी के दर्शन हेतु ले आया। उनकी शोचनीय हालत को देखते हुए गुरु साहिब ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि एक दिन वे बहुत धनी बनेंगे। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। फूल की संतान ने फूलकिया मिसल की स्थापना की।

6. दारा की सहायता (Help to Prince Dara)-गुरु हरराय जी के समय दारा शिकोह पंजाब का गवर्नर था। वह औरंगज़ेब का बड़ा भाई था। सत्ता प्राप्त करने के प्रयास में औरंगजेब ने उसे विष दे दिया। इस कारण वह बहुत बीमार हो गया। उसने गुरु साहिब से आशीर्वाद माँगा। गुरु साहिब ने अमूल्य जड़ी-बूटियाँ देकर दारा की चिकित्सा की। इस कारण वह गुरु साहिब का आभारी हो गया। वह प्रायः उनके दर्शन के लिए आया करता।
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GURU HAR RAI JI

7. गुरु हरराय साहिब को दिल्ली बुलाया गया (Guru Har Rai was summoned to Delhi)औरंगज़ेब को संदेह था कि गुरु ग्रंथ साहिब में कुछ श्लोक इस्लाम धर्म के विरुद्ध हैं। इस बात की पुष्टि के लिए उसने आपको अपने दरबार में उपस्थित होने के लिए कहा। गुरु साहिब ने अपने पुत्र रामराय को औरंगज़ेब के पास भेजा। औरंगज़ेब ने ‘आसा दी वार’ में से एक पंक्ति की ओर संकेत करते हुए उससे पूछा कि इसमें मुसलमानों का विरोध क्यों किया गया है। यह पंक्ति थी,
मिटी मुसलमान की पेडै पई कुम्हिआर॥
घड़ भांडे इटा कीआ जलदी करे पुकार॥
इसका अर्थ था मुसलमान की मिट्टी कुम्हार के घमट्टे में चली जाएगी जो इससे बर्तन तथा ईंटें बनाएगा। जैसेजैसे वह जलेगी तैसे-तैसे मिट्टी चिल्लाएगी। औरंगजेब के क्रोध से बचने के लिए रामराय ने कहा कि इस पंक्ति में भूल से बेईमान शब्द की अपेक्षा मुसलमान शब्द लिखा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी के इस अपमान के कारण आपने रामराय को गुरुगद्दी से वंचित कर दिया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु हरराय जी ने ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरुगद्दी अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण को सौंप दी। गुरु हरराय जी 6 अक्तूबर, 1661 ई० को ज्योति जोत समा गए।

9. गुरु हरराय जी के कार्यों का मूल्याँकन (Estimate of the works of Guru Har Rai Ji)-गुरु हरराय जी ने सिख पंथ के विकास में अमूल्य योगदान दिया। आप जी ने माझा, दोआबा और मालवा में सिख धर्म का प्रचार किया। आपने संगत और पंगत की मर्यादा को पूरी तेजी के साथ जारी रखा। आपके दवाखाने से बिना किसी भेद-भाव के नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा प्रदान की जाती थी। इस प्रकार आपने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

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प्रश्न 22.
गुरु हरकृष्ण जी के समय सिख पंथ के हुए विकास का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of development of Sikhism during the pontificate of Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर –
गुरु हरकृष्ण जी सिख इतिहास में बाल गुरु के नाम से जाने जाते हैं। वे 1661 ई० से लेकर 1664 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। उनके अधीन सिख पंथ में हुए विकास का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parents)-गुरु हरकृष्ण जी का जन्म 7 जुलाई, 1656 ई० में कीरतपुर साहिब में हुआ। आप गुरु हरराय साहिब जी के छोटे पुत्र थे। आप जी की माता का नाम सुलक्खनी
जी था। रामराय आपके बड़े भाई थे।

2. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)—गुरु हरराय साहिब जी ने अपने बड़े पुत्र रामराय को उसकी अयोग्यता के कारण गुरुगद्दी से वंचित कर दिया था । 6 अक्तूबर, 1661 ई० को गुरु हरराय साहिब जी ने हरकृष्ण जी को गुरुगद्दी सौंप दी। उस समय हरकृष्ण साहिब जी की आयु मात्र 5 वर्ष थी। इस कारण इतिहास में आपको बाल गुरु के नाम से याद किया जाता है। यद्यपि आप उम्र में बहुत छोटे थे पर फिर भी आप बहुत उच्च प्रतिभा के स्वामी थे। आप में अद्वितीय सेवा भावना, बड़ों के प्रति मान-सम्मान, मीठा बोलना, दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा अटूट भक्ति-भावना इत्यादि के गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। इन गुणों के कारण ही गुरु हरराय जी ने आपको गुरुगद्दी सौंपी। इस प्रकार आप सिखों के आठवें गुरु बने। आप 1664 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

3. रामराय का विरोध (Opposition of Ram Rai)-रामराय गुरु हरराय जी का बड़ा पुत्र होने के कारण गुरु साहिब के पश्चात् गुरुगद्दी का अधिकारी स्वयं को समझता था, परंतु गुरु हरराय जी उसे पहले ही गुरुगद्दी से वंचित कर चुके थे। जब उसे ज्ञात हुआ कि गुरुगद्दी हरकृष्ण साहिब को सौंपी गई है तो वह यह बात सहन न कर
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (12)
GURU HAR KRISHAN JI
सका। उसने गद्दी हथियाने के लिए षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए। उसने बहुत-से बेईमान और स्वार्थी मसंदों को अपने साथ मिला लिया। इन मसंदों द्वारा उसने यह घोषणा करवाई कि वास्तविक गुरु रामराय हैं और सभी सिख उसी को अपना गुरु मानें परंतु वह उसमें सफल न हो पाया। फिर उसने औरंगजेब से सहायता लेने का प्रयास किया। औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाया ताकि दोनों गुटों की बात सुनकर वह अपना निर्णय दे सके।

4. गुरु साहिब का दिल्ली जाना (Guru Sahib’s Visit to Delhi)-गुरु हरकृष्ण जी को दिल्ली लाने का कार्य औरंगज़ेब ने राजा जय सिंह को सौंपा। राजा जय सिंह ने अपने दीवान परस राम को गुरु जी के पास भेजा। गुरु हरकृष्ण जी ने औरंगज़ेब से मिलने और दिल्ली जाने से इंकार कर दिया, परंतु परस राम के यह कहने पर कि दिल्ली की संगतें गुरु हरकृष्ण साहिब जी के दर्शनों के लिए बेताब हैं, गुरु हरकृष्ण जी ने दिल्ली जाना तो स्वीकार कर लिया, परंतु औरंगज़ेब से भेंट करने से इंकार कर दिया। आप 1664 ई० में दिल्ली चले गए और राजा जय सिंह के घर निवास करने के लिए मान गए। गुरु हरकृष्ण जी की औरंगज़ेब से भेंट हुई अथवा नहीं, इस संबंध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद पाए जाते हैं।

5. ज्योति-जोत समाना (Immersed in Eternal Light)-उन दिनों दिल्ली में चेचक और हैजा फैला हुआ था। गुरु हरकृष्ण जी ने यहाँ बीमारों, निर्धनों और लावारिसों की तन, मन और धन से अथक सेवा की। चेचक और हैजे के सैंकड़ों रोगियों को ठीक किया, परंतु इस भयंकर बीमारी का आप स्वयं भी शिकार हो गए। यह बीमारी उनके लिए घातक सिद्ध हुई। उन्हें बहुत गंभीर अवस्था में देखते हुए श्रद्धालुओं ने प्रश्न किया कि आपके पश्चात् उनका नेतृत्व कौन करेगा तो आप ने एक नारियल मंगवाया। नारियल और पाँच पैसे रखकर माथा टेका और “बाबा बकाला” का उच्चारण करते हुए 30 मार्च, 1664 ई० को दिल्ली में ज्योति-जोत समा गए। आपकी याद में यहाँ गुरुद्वारा बाला साहिब का निर्माण किया गया है।

गुरु हरकृष्ण जी ने कोई अढ़ाई वर्ष के लगभग गुरुगद्दी संभाली और गुरु के रूप में आपने सभी कर्त्तव्य बड़ी सूझ-बूझ से निभाए। आप इतनी कम आयु में भी तीक्ष्ण बुद्धि, उच्च विचार और अलौकिक ज्ञान के स्वामी थे।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of the early life of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नवम् गुरु थे। उनका गुरुकाल 1664 ई० से 1675 ई० तक रहा। गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए अनेक प्रदेशों की यात्राएँ कीं। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु जी के प्रारंभिक जीवन और यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ। आप गुरु हरगोबिंद जी के पाँचवें तथा सबसे छोटे पुत्र थे। आपके माता जी का नाम नानकी जी था। आपके पिता जी ने आपके जन्म पर भविष्यवाणी की कि यह बालक सत्य तथा धर्म के मार्ग पर चलेगा तथा अत्याचार का डट कर मुकाबला करेगा। गुरु जी का यह कथन सत्य सिद्ध हुआ।

2. बाल्यकाल तथा शिक्षा (Childhood and Education)-बचपन में आपका नाम त्यागमल था। जब आप पाँच वर्ष के हुए तो आपने बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी से शिक्षा प्राप्त करनी आरंभ की। आपने पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, इतिहास, दर्शन, गणित, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त की। आपको घुड़सवारी तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा भी दी गई। करतारपुर की लड़ाई में आपकी वीरता देखकर आपके पिता गुरु हरगोबिंद जी ने आपका नाम त्यागमल से बदल कर तेग बहादुर रख दिया।
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GURU TEGH BAHADUR JI

3. विवाह (Marriage)-तेग़ बहादुर जी का विवाह करतारपुर वासी लाल चंद जी की सुपुत्री गुजरी जी से हुआ। आपके घर 1666 ई० में एक पुत्र ने जन्म लिया। इस बालक का नाम गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास रखा गया।

4. बकाला में निवास (Settlement at Bakala)-गुरु हरगोबिंद जी ने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने पौत्र हरराय जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने तेग बहादुर जी को अपनी पत्नी गुजरी जी तथा माता नानकी जी को लेकर बकाला चले जाने का आदेश दिया। यहाँ तेग बहादुर जी 20 वर्ष तक रहे।

5. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु हरकृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व यह संकेत दिया था कि सिखों का अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बकाला पहुँचा तो 22 सोढियों ने अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूँढा । वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका समुद्री जहाज डूब रहा था तो उसने शुद्ध मन से गुरु साहिब के आगे अरदास की कि यदि उसका जहाज़ डूबने से बच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। उसका जहाज़ किनारे लग गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेंट करने के लिए बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देखकर चकित रह गया। वास्तविक गुरु को ढूँढने के लिए उसने बारी-बारी प्रत्येक गुरु को दो-दो मोहरें भेंट की। नकली गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में श्री तेग़ बहादुर जी को दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेंट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० से 1675 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

6. धीरमल का विरोध (Opposition of Dhir Mal)-धीरमल गुरु हरराय जी का बड़ा भाई था। बकाला में स्थापित 22 मंजियों से एक धीरमल की भी थी। जब धीरमल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसने कुछ गुंडों के साथ गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। इस घटना से सिख रोष से भर उठे। वे धीरमल को पकड़कर गुरु जी के पास लाए। धीरमल द्वारा क्षमा याचना पर गुरु साहिब ने उसे क्षमा कर दिया।

प्रश्न 24.
गुरु तेग बहादुर जी की धर्म यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the religious tours of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
1664 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब तथा पंजाब से बाहर की यात्राएँ आरंभ कर दीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों को सत्य तथा प्रेम का संदेश देना था। गुरु साहिब की यात्राओं के उद्देश्य के संबंध में लिखते हुए विख्यात इतिहासकार एस० एस० जौहर का कहना है,
“गुरु तेग़ बहादुर ने लोगों को नया जीवन देने तथा उनके भीतर नई भावना उत्पन्न करना आवश्यक समझा।”31

31. “Guru Tegh Bahadur thought it necessary to infuse a new life and rekindle a new spirit among the people.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 104.

पंजाब की यात्राएँ (Travels of Punjab)

  1. अमृतसर (Amritsar)-गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1664 ई० में अमृतसर से किया। उस समय हरिमंदिर साहिब में पृथी चंद का पौत्र हरजी मीणा कुछ भ्रष्टाचारी मसंदों के साथ मिलकर स्वयं गुरु बना बैठा था। गुरु साहिब के आने की सूचना मिलते ही उसने हरिमंदिर साहिब के सभी द्वार बंद करवा दिए। जब गुरु साहिब वहाँ पहुँचे तो द्वार बंद देखकर उन्हें दुःख हुआ। अतः वह अकाल तख्त के निकट एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। यहाँ पर अब एक छोटा-सा गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे ‘थम्म साहिब’ कहते हैं।
  2. वल्ला तथा घुक्केवाली (Walla and Ghukewali)-अमृतसर से गुरु तेग़ बहादुर जी वल्ला नामक गाँव गए। यहाँ लंगर में महिलाओं की अथक सेवा से प्रसन्न होकर गुरु जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा कहा “माईयाँ रब्ब रजाईयाँ”। वल्ला के पश्चात् गुरु जी घुक्केवाली गाँव गए। इस गाँव में अनगिनत वृक्षों के कारण गुरु जी ने इसका नाम ‘गुरु का बाग’ रख दिया।
  3. खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन, खेमकरन आदि (Khadur Sahib, Goindwal Sahib, Tarn Taran, Khem Karan etc.)-गुरु तेग बहादुर साहिब की यात्रा के अगले पड़ाव खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब तथा तरन तारन थे। यहाँ पर गुरु जी ने लोगों को प्रेम तथा भाईचारे का संदेश दिया। तत्पश्चात् गुरु साहिब खेमकरन गए। यहाँ के एक श्रद्धालु चौधरी रघुपति राय ने गुरु साहिब को एक घोड़ी भेंट की।
  4. कीरतपुर साहिब और बिलासपुर (Kiratpur Sahib and Bilaspur)-माझा प्रदेश की यात्रा पूर्ण करने के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी कीरतपुर साहिब पहुँचे। वे रानी चंपा के निमंत्रण पर बिलासपुर पहुँचे। गुरु साहिब यहाँ तीन दिन ठहरे। गुरु साहिब ने रानी को 500 रुपए देकर माखोवाल में कुछ भूमि खरीदी तथा एक नए नगर की स्थापना की जिसका नाम उनकी माता जी के नाम पर “चक्क नानकी” रखा गया। बाद में यह स्थान श्री आनंदपुर साहिब के नाम से विख्यात हुआ।

पूर्वी भारत की यात्राएँ (Travels of Eastern India)
पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी ने पूर्वी भारत की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन निनलिखित अनुसार है—

1. सैफाबाद और धमधान (Saifabad and Dhamdhan)-अपनी पूर्वी भारत की यात्रा के दौरान सर्वप्रथम गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने सैफाबाद तथा धमधान की यात्रा की। यहाँ गुरु साहिब के दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आए। सिख धर्म के इस बढ़ते हुए प्रचार को देखकर औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को बंदी बना लिया।

2. मथुरा और वृंदावन (Mathura and Brindaban)-अंबर के राजा राम सिंह के कहने पर औरंगज़ेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को छोड़ दिया। छूटने के बाद गुरु साहिब दिल्ली से मथुरा तथा वृंदावन पहुँचे। इन दोनों स्थानों पर गुरु साहिब ने धर्म प्रचार किया और संगतों को उपदेश दिए।

3. आगरा और प्रयाग (Agra and Paryag)—गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की यात्रा का अगला पड़ाव आगरा था। यहाँ पर वह एक बुजुर्ग श्रद्धालु माई जस्सी के घर ठहरे। तत्पश्चात् गुरु साहिब प्रयाग पहुँचे। यहाँ गुरु साहिब ने संन्यासियों, साधुओं और योगियों को उपदेश देते हुए फरमाया “साधो मन का मान त्यागो।”
8. बनारस (Banaras)-प्रयाग की यात्रा के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी बनारस पहुँचे। यहाँ सिख संगतें प्रतिदिन बड़ी संख्या में गुरु साहिब के दर्शन और उनके उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होतीं। यहाँ के लोगों का विश्वास था कि कर्मनाशा नदी में स्नान करने वाले व्यक्ति के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। गुरु साहिब ने स्वयं इस नदी में स्नान किया और कहा कि नदी में स्नान करने से कुछ नहीं होता मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है।

4. ससराम और गया (Sasram and Gaya) बनारस के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी सासराम पहुँचे। यहाँ पर एक श्रद्धालु सिख ‘मसंद फग्गू शाह’ ने गुरु साहिब की बहुत सेवा की। तत्पश्चात् गुरु साहिब गया पहँचे। यह बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु साहिब ने लोगों को सत्य तथा परस्पर भ्रातृभाव का संदेश दिया।

5. पटना (Patna)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी 1666 ई० में पटना पहुँचे। यहाँ पर सिख संगतों (श्रद्धालुओं) ने गुरु साहिब का भव्य स्वागत किया। गुरु साहिब ने सिख सिद्धांतों पर प्रकाश डाला तथा पटना को ‘गुरु का घर’ कहकर सम्मानित किया। गुरु साहिब ने अपनी पत्नी और माता जी को यहाँ छोड़कर स्वयं मुंगेर के लिए प्रस्थान किया।

6.ढाका (Dhaka) ढाका पूर्वी भारत में सिख धर्म का एक प्रमुख प्रचार केंद्र था। गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के आगमन के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख-धर्म में शामिल हुए। गुरु साहिब ने यहाँ संगतों को जातिपाति के बंधनों से ऊपर उठने और नाम स्मरण से जुड़ने का संदेश दिया।

7. असम (Assam)–ढाका की यात्रा के बाद गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी अंबर के राजा राम सिंह के निवेदन पर असम गए। असमी लोग जादू-टोनों में बहुत कुशल थे। गुरु जी की उपस्थिति में जादू-टोने वाले प्रभावहीन होने लगे और उन्हें गुरु जी का लोहा मानना पड़ा। वे गुरु जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके दर्शनों के लिए आने लगे और उन्होंने अपनी भूल के लिए क्षमा याचना की। तत्पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी अपने परिवार सहित पंजाब लौट आए और चक्क नानकी में रहने लगे।

मालवा और बांगर प्रदेश की यात्राएँ (Tours of Malwa and Bangar Region)
1673 ई० के मध्य में गुरु तेग़ बहादुर जी ने पंजाब के मालवा और बांगर प्रदेश की दूसरी बार यात्रा आरंभ की। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफ़ाबाद, मलोवाल, ढिल्लवां, भोपाली, खीवा, ख्यालां, तलवंडी, भठिंडा और धमधान आदि प्रदेशों में गए। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब ने स्थान-स्थान पर धर्म प्रचार के केंद्र खोले और गुरु नानक जी का संदेश घर-घर पहुँचाया। गुरु साहिब के सर्वपक्षीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार हरबंस सिंह के इन शब्दों से सहमत हैं, “गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं ने देश में एक तूफान-सा ला दिया। यह न तो पहले जैसा देश रहा और न ही वे लोग। उनमें नई जागृति आ चुकी थी।”32

32. “Guru Tegh Bahadur’s tours left the country in ferment. It was not the same country again, nor the same people. A new awakening had spread.” Harbans Singh, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1982) p. 92.

प्रश्न 25.
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की शहीदी के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the martyrdom of Sri Guru Tegh Bahadur Sahib Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों और परिणामों का वर्णन करें। (Discuss the causes and results of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों तथा महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त विवरण दें। उनके बलिदान का देश एवं समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Give a brief account of the circumstances leading to the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji. Also explain the effects of his execution on the country and the society.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी किन कारणों से हुई ? इन्हें कब, कहाँ और कैसे शहीद किया गया ?
(What were the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ? When, where and how was he executed ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारण और महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान इतिहास की एक अति महत्त्वपूर्ण घटना है। धर्म तथा मानवता के लिए अपना बलिदान देकर गुरु साहिब ने अपना नाम चिरकाल के लिए अमर कर लिया। गुरु जी के बलिदान से जुड़े तथ्यों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—0

1. मुग़लों और सिखों में शत्रुता (Enmity between the Mughals and the Sikhs)-1605 ई० तक सिखों और मुग़लों में मैत्रीपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, परंतु जब 1606 ई० में मुग़ल सम्राट जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया तो ये संबंध शत्रुता में बदल गए। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण उन्हें जहाँगीर द्वारा दो वर्ष के लिए ग्वालियर के दुर्ग में नज़रबंद कर दिया गया। शाहजहाँ के काल में गुरु हरगोबिंद जी को चार लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। औरंगजेब के शासनकाल में सिखों और मुग़लों के बीच शत्रुता में और वृद्धि हो गई। यही शत्रुता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी।

2. औरंगजेब की कट्टरता (Fanaticism of Aurangzeb)-औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता भी गुरु साहिब के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में चारों ओर इस्लाम धर्म का बोलबाला देखना चाहता था। इसलिए उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं तथा उनके त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए। 1679 ई० में हिंदुओं पर पुनः जजिया कर लगा दिया गया। तलवार के बल पर लोगों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाने लगा। औरंगज़ेब ने यह भी आदेश दिया कि सिखों के सभी गुरुद्वारों को गिरा दिया जाए और मसंदों को देश निकाला दे दिया जाए। डॉक्टर आई० बी० बैनर्जी के अनुसार,
“निस्संदेह औरंगजेब के सिंहासन पर बैठने के साथ ही साम्राज्य की सारी नीति को उलट दिया गया और एक नए युग का सूत्रपात हुआ।”33

3. नक्शबंदियों का औरंगज़ेब पर प्रभाव (Impact of Naqashbandis on Aurangzeb)-कट्टर सुन्नी मुसलमानों के नक्शबंदी संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती न बन जाए। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध औरंगजेब को भड़काना आरंभ कर दिया।

4. सिख धर्म का प्रचार (Spread of Sikhism)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब की सिख धर्म के प्रचार के लिए की गई यात्राओं से प्रभावित होकर हज़ारों लोग सिख मत में सम्मिलित हो गए थे। गुरु साहिब जी ने सिख मत के प्रचार में तीव्रता और योग्यता लाने के लिए सिख प्रचारक नियुक्त किए तथा उन्हें संगठित किया। सिख धर्म का हो रहा विकास तथा उसका संगठन औरंगज़ेब की सहन शक्ति से बाहर था।

5. रामराय की शत्रुता (Enmity of Ram Rai)-रामराय गुरु हरकृष्ण जी का बड़ा भाई था। गुरु हरकृष्ण जी के पश्चात् जब गुरुगद्दी तेग़ बहादुर जी को मिल गई तो वह यह सहन न कर पाया। उसने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए कई हथकंडे अपनाने आरंभ किए। जब उसके सभी प्रयास असफल रहे तो उसने गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के विरुद्ध औरंगज़ेब के कान भरने आरंभ कर दिए।

6. कश्मीरी पंडितों की पुकार (Call of Kashmiri Pandits)-कश्मीरी ब्राह्मण अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति के संबंधों में बहुत दृढ़ थे तथा समस्त भारत में उनका आदर होता था। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने इस्लाम धर्म कबूल करवाने के लिए ब्राह्मणों पर घोर अत्याचार किए। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका 16 सदस्यों का एक दल 25 मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुँचा। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को यह बता दें कि यदि वे गुरु तेग़ बहादुर जी को मुसलमान बना लें तो वे बिना किसी विरोध के इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे।

33. “Necessarily, on the accession of Aurangzeb the entire policy of the Empire was reversed and a new era commenced.” Dr. I.B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol 2, p. 68.

II. बलिदान किस प्रकार हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
औरंगज़ेब ने गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी को दिल्ली बुलाने का निश्चय किया। गुरु तेग़ बहादुर जी अपने तीन साथियों-भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को लेकर 11 जुलाई, 1675 ई० को श्री आनंदपुर साहिब से दिल्ली के लिए रवाना हुए। मुग़ल अधिकारियों ने उन्हें रोपड़ के निकट गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 4 महीने तक सरहिंद के कारावास में रखा गया तथा औरंगजेब के आदेश पर 6 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली दरबार में पेश किया गया। औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम धर्म अथवा मृत्यु में से एक स्वीकार करने को कहा। गुरु साहिब तथा उनके तीनों साथियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। मुग़लों ने गुरु जी को हतोत्साहित करने के लिए उनके तीनों साथियों भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को उनके सम्मुख शहीद कर दिया। इसके पश्चात् गुरु जी को कोई चमत्कार दिखाने के लिए कहा गया, परंतु गुरु साहिब ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप 11 नवंबर,1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरु जी का शीश धड़ से अलग कर दिया गया। हरबंस सिंह तथा एल० एम० जोशी का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“यह भारतीय इतिहास की सर्वाधिक दिल दहला देने वाली एवं कंपाने वाली घटना थी।”34

जिस स्थान पर गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद किया गया उस स्थान पर गुरुद्वारा शीश गंज का निर्माण किया गया। भाई लक्खी शाह गुरु जी के धड़ को अपनी बैलगाड़ी में छुपा कर अपने घर ले आया। यहाँ उसने गुरु जी के धड़ का अंतिम संस्कार करने के लिए अपने घर को आग लगा दी। इस स्थान पर आजकल गुरुद्वारा रकाब गंज बना हुआ है।

34. “This was a most moving and earthshaking event in the history of India.” Harbans Singh and L.M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1973) p. 248.

III. बलिदान का महत्त्व (Significance of the Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान की घटना न केवल सिख इतिहास अपितु समूचे विश्व इतिहास की एक अतुलनीय घटना है। इस बलिदान से न केवल पंजाब, अपितु भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के साथ ही महान् मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। डॉक्टर त्रिलोचन सिंह के शब्दों में,
“गुरु तेग़ बहादुर जी के महान् बलिदान के सिखों पर प्रभावशाली एवं दूरगामी प्रभाव पड़े।”35

1. इतिहास की एक अद्वितीय घटना (A Unique Event of History)-संसार का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। ये बलिदान अधिकतर अपने धर्म की रक्षा अथवा देश के लिए दिए गए। परंतु गुरु तेग़ बहादुर जी ने मानवता तथा सत्य के लिए अपना शीश दिया। निस्संदेह संसार के इतिहास में यह एक अतुलनीय उदाहरण थी। इसी कारण गुरु तेग़ बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा जाता है।

2. सिखों में प्रतिशोध की भावना (Feeling of revenge among the Sikhs)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के फलस्वरूप समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। अतः सिखों ने मुग़लों के अत्याचारी शासन का अंत करने का निर्णय किया।

3. हिंदू धर्म की रक्षा (Protection of Hinduism)-औरंगज़ेब के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचारों से तंग आकर बहुत-से हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार करना आरंभ कर दिया था। हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो चुका था। ऐसे समय में गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया। इस बलिदान ने हिंदू कौम में एक नई जागृति उत्पन्न की। अतः वे औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए तैयार हो गए। ,

4. खालसा का सृजन (Creation of the Khalsa)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब धर्म की रक्षा के लिए उनका संगठित होना अत्यावश्यक है। इस उद्देश्य से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया। खालसा पंथ के सृजन ने ऐसी बहादुर जाति को जन्म दिया जिसने मुग़लों और अफ़गानों का पंजाब से नामो-निशान मिटा दिया।

5. बलिदानों की परंपरा का आरंभ होना (Beginning of the tradition of Sacrifice)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ कर दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस मार्ग का अनुसरण करते हुए अनेक कष्ट सहन किए। आपके छोटे साहिबजादों को जीवित नींवों
में चिनवा दिया गया। बड़े साहिबजादे युद्धों में शहीद हो गए। गुरु साहिब के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर तथा उनके साथ सैंकड़ों सिखों ने बलिदान दिए। सिखों ने मुग़ल अत्याचारों के आगे हँस-हँस कर बलिदान दिए। इस प्रकार गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ।

6. सिखों और मुग़लों में लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and the Mughals)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों एवं मुग़लों के बीच लड़ाइयों का एक लंबा दौर आरंभ हुआ। इन लड़ाइयों के दौरान सिख चट्टान की तरह अडिग रहे। अपने सीमित साधनों के बावजूद सिखों ने अपनी वीरता के कारण महान् मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के इन शब्दों
से सहमत हैं,
“गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके बहुत गहरे परिणाम निकले।”36

35. “The impact of the great sacrifice of Guru Tegh Bahadur was extremely powerful and far-reaching in its consequences on the Sikh people.” Dr. Trilochan Singh, Guru Tegh Bahadur : Prophet and Martyr (New Delhi : 1978) p. 179.
36. “The Martyrdom of Guru Tegh Bahadur was an event of great significance in the history of India. It had farreaching consequences.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 231.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 26.
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the life of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी लिखें।
(Write about the life of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी न केवल पंजाब बल्कि संसार के महान् व्यक्तियों में से एक थे। सिख पंथ का जिस योग्यता एवं बुद्धिमता से गुरु गोबिंद सिंह जी ने नेतृत्व किया, उसकी इतिहास में कोई अन्य उदाहरण मिलनी बहुत ही मुश्किल है। खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही उन्होंने सिख पंथ में नए युग का सूत्रपात किया। गुरु गोबिंद सिंह जी के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage) मात्र 9 वर्ष की आयु में अपने पिता जी को धर्म की रक्षा हेतु बलिदान देने की प्रेरणा देने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर, 1666 ई० को पटना साहिब में हुआ था। आप गुरु तेग़ बहादुर जी के इकलौते पुत्र थे। आपकी माता जी का नाम गुजरी जी था। आपका आरंभिक नाम गोबिंद दास अथवा गोबिंद राय रखा गया। 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् आपका नाम गोबिंद सिंह पड़ गया था। गोबिंद दास के जन्म के समय एक मुस्लिम फकीर भीखण शाह ने यह भविष्यवाणी की थी, कि यह बालक बड़ा होकर महापुरुष बनेगा और यह भविष्यवाणी सत्य निकली।

2. बचपन (Childhood)-गोबिंद दास ने अपने बचपन के पहले 6 वर्ष पटना साहिब में ही व्यतीत किए। बचपन से ही गोबिंद दास में एक महान् योद्धा के सभी गुण विद्यमान् थे। वह तीरकमान तथा अन्य शस्त्रों से खेलते, अपने साथियों को दो गुटों में विभाजित करके उनमें कृत्रिम युद्ध करवाते। वह कई बार अपना दरबार लगाते तथा साथी बच्चों के झगड़ों के फैसले भी करते। उनके बचपन की अनेक घटनाओं से उनकी वीरता तथा बुद्धिमता की उदाहरण मिलती है। गुरु गोबिंद सिंह जी के नाबालिग काल में उनकी सरपरस्ती उनके मामा श्री कृपाल चंद जी ने की।

3. शिक्षा (Education)-1672 ई० में आप परिवार सहित आनंदपुर साहिब आ गए। यहाँ पर आप की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध किया गया। आपने भाई साहिब चंद से गुरमुखी, पंडित हरिजस से संस्कृत और काज़ी पीर मुहम्मद से फ़ारसी और अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। आपने घुड़सवारी और शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण बजर सिंह नामी एक राजपूत से प्राप्त किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-औरंगज़ेब के अत्याचारों से तंग आकर कश्मीरी पंडितों का एक जत्था अपनी दःखभरी याचना लेकर गुरु तेग़ बहादुर जी के पास मई, 1675 ई० में आनंदपुर साहिब पहुँचा। कश्मीरी पंडितों की गुहार तथा पुत्र की प्रेरणा पर धर्म की रक्षा हेतु गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देने का निश्चय किया। गुरु साहिब ने दिल्ली में अपनी शहीदी देने से पूर्व गोबिंद दास को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किए जाने की घोषणा की। इस प्रकार गोबिंद दास को सिख परंपरा के अनुसार 11 नवंबर, 1675 ई० को गुरुगद्दी पर बैठाया गया। इस तरह आप 9 वर्ष की आयु में सिखों के दशम गुरु बने। आप 1708 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

5. विवाह (Marriage)–कहा जाता है कि गोबिंद दास जी ने बीबी जीतो जी, बीबी सुंदरी जी और बीबी साहिब देवाँ जी नामक तीन स्त्रियों से विवाह किया था। गुरु साहिब को चार पुत्र-रत्नों की प्राप्ति हुई। इनके नाम साहिबज़ादा अजीत सिंह जी, साहिबजादा जुझार सिंह जी, साहिबजादा जोरावर सिंह जी और साहिबजादा फतह सिंह जी थे।

6. सेना का संगठन (Army Organisation)-गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह घोषणा की कि जिस सिख के चार पुत्र हों, वह दो पुत्र गुरु साहिब की सेना में भर्ती करवाए। इसके
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (14)
GURU GOBIND SINGH JI
साथ ही गुरु साहिब ने यह आदेश भी दिया कि सिख धन के स्थान पर घोड़े और शस्त्र भेंट करें। शीघ्र ही गुरु साहिब की सेना में बहुत-से सिख भर्ती हो गए और उनके पास बहुत-से शस्त्र और घोड़े भी एकत्रित हो गए। इन सब के पीछे गुरु साहिब का उद्देश्य मुग़ल साम्राज्य को टक्कर देना था।

7. शाही प्रतीक धारण करना (Adoptation of Royal Symbols)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दादा गुरु हरगोबिंद साहिब जी की भाँति शाही प्रतीकों को धारण करना आरंभ कर दिया। वह अपनी दस्तार में कलगी सजाने लग पड़े। उन्होंने सिंहासन और छत्र का प्रयोग करना आरंभ कर दिया। इनके अतिरिक्त गुरु साहिब ने एक विशेष नगाड़ा भी बनवाया, जिसका नाम रणजीत नगाड़ा रखा गया।

8. नाहन से निमंत्रण (Invitation from Nahan) गुरु गोबिंद सिंह जी की सैनिक गतिविधियों के कारण कहलूर का शासक, भीम चंद गुरु साहिब से ईर्ष्या करने लग पड़ा था। गुरु साहिब अभी किसी भी प्रकार के सैनिक द्वंद्व में पड़ना नहीं चाहते थे। इसी समय नाहन के राजा, मेदनी प्रकाश ने उन्हें नाहन आने का निमंत्रण दिया। गुरु साहिब ने यह निमंत्रण तुरंत स्वीकार कर लिया और वह माखोवाल से अपने परिवार सहित नाहन चले गए। यहाँ पर गुरु साहिब ने एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम पाऊँटा साहिब रखा गया।

9. पाऊँटा साहिब में गतिविधियाँ (Activities at Paonta Sahib)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने पाऊँटा साहिब में सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देना आरंभ कर किया। उन्हें घुड़सवारी, तीर कमान और शस्त्रों का प्रयोग करने में निपुण बनाया गया। गुरु साहिब ने साढौरा के पीर बुद्ध शाह की सिफ़ारिश पर 500 पठानों को भी अपनी सेना में भर्ती कर लिया। पाऊँटा साहिब में ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने बड़े उच्च कोटि के साहित्य की भी रचना की। गुरु साहिब ने अपने दरबार में 52 प्रसिद्ध कवियों को संरक्षण दिया हुआ था। इनमें सैनापत, नंद लाल, हंस राम एवं अनी राय प्रमुख थे। आपकी साहित्यिक रचना का उद्देश्य परमात्मा की प्रसँसा करना और सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करना था। गुरु साहिब की साहित्यिक क्षेत्र में देन अद्वितीय थी।

प्रश्न 27.
गुरु गोबिंद सिंह जी की पूर्व खालसा काल तथा उत्तर खालसा काल में लड़ी गई लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन दो।
(Give a brief account of Pre-Khalsa and Post-Khalsa battles of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के पूर्व खालसा काल तथा उत्तर खालसा काल की लड़ाइयों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the Pre-Khalsa and Post-Khalsa battles of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की प्रसिद्ध लड़ाइयों का वर्णन करें। (Describe the important battles of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर विराजमान होते ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी सैनिक गतिविधियाँ आरंभ कर दीं। गुरु जी की सैनिक गतिविधियों ने पहाड़ी राजाओं तथा मुग़लों को उनके विरुद्ध कर दिया। परिणामस्वरूप नौबत युद्ध तक आ गई। गुरु गोबिंद सिंह जी की पूर्व-खालसा तथा उत्तर-खालसा काल की लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. भंगाणी की लड़ाई 1688 ई० (Battle of Bhangani 1688 A.D.)—गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं के बीच प्रथम लड़ाई भंगाणी में हुई। इस लड़ाई के कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा पाऊँटा साहिब में सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देने से पहाड़ी राजाओं में घबराहट उत्पन्न हो गई। दूसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी मूर्ति-पूजा और जाति-प्रथा के विरुद्ध प्रचार करते थे। इसे पहाड़ी राजा अपने धर्म में हस्तक्षेप समझते थे। तीसरा, पहाड़ी राजाओं ने सिख संगतों द्वारा लाए जा रहे उपहारों को मार्ग में ही लूटना आरंभ कर दिया था। गुरु साहिब यह बात पसंद नहीं करते थे। चौथा, गुरु जी द्वारा भीम चंद को सफेद हाथी देने से इंकार करना था। पाँचवां, मुग़ल सरकार ने इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए भड़काया। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद और श्रीनगर के शासक फतह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं के गठबंधन ने गुरु साहिब पर भंगाणी नामक स्थान पर 22 सितंबर, 1688 ई० को आक्रमण कर दिया।

इस लडाई के आरंभ होने से पूर्व ही गुरु साहिब की सेना के पठान सैनिक गरु साहिब को धोखा दे गए। ऐसे समय साढौरा का पीर बुद्ध शाह गुरु साहिब की सहायता के लिए अपने चार पुत्रों और 700 सैनिकों सहित रणभूमि में पहुँच गया । इस लड़ाई में गुरु हरगोबिंद साहिब की सुपुत्री बीबी वीरो के पाँच पुत्रों ने बहुत वीरता दिखाई। इस लड़ाई में पहाड़ी राजाओं के बहुत-से सैनिक और प्रसिद्ध नेता मारे गए। भीम चंद और फतह शाह युद्ध-भूमि से भाग गए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह ने इस लड़ाई में शानदार विजय प्राप्त की। इस विजय से गुरु साहिब की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।

2. नादौन की लड़ाई 1690 ई० (Battle of Nadaun 1690 A.D.)-भंगाणी की लड़ाई के पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी पुनः श्री आनंदपुर साहिब आ गए। इसी समय पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों को दिया जाने वाला वार्षिक खिराज (कर) देना बंद कर दिया। जब औरंगजेब को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसके आदेश पर जम्मू के सूबेदार मीयाँ खाँ ने तुरंत अपने एक जरनैल, आलिफ खाँ के अंतर्गत मुगलों की एक भारी सेना इन पहाड़ी राजाओं ने विरुद्ध भेजी। ऐसे समय में भीम चंद ने गुरु साहिब को सहायता के लिए निवेदन किया। गुरु साहिब ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया। 20 मार्च, 1690 ई० को काँगड़ा के पास नादौन में भीम चंद और आलिफ खाँ की सेनाओं में लड़ाई आरंभ हुई। इस लड़ाई में गुरु साहिब और सिखों की वीरता के कारण आलिफ खाँ को पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार गुरु साहिब के सहयोग से भीम चंद और उसके साथी पहाड़ी राजाओं को विजय प्राप्त हुई।

3. खानजादा का अभियान 1694 ई० (Expedition of Khanzada 1694 A.D.)-गुरु गोबिंद सिंह जी की बढ़ती हुई लोकप्रियता औरंगजेब के लिए चिंता का विषय बन गई। उसके आदेश पर लाहौर के सूबेदार, दिलावर खाँ ने अपने पुत्र खानजादा रुस्तम खाँ के अंतर्गत गुरु जी के विरुद्ध सेना भेजी। उसने रात्रि के अंधकार में आक्रमण करने की योजना बनाई। रुस्तम खाँ के आगमन का रात्रि को पहरा दे रहे सिख को पता चल गया। उसने फ़ौरन इसकी सूचना सिखों को दी। सिखों ने जैकारे की आवाज़ गुंजाई और गोलियाँ चलानी आरंभ की। परिणामस्वरूप, मुग़ल सैनिक बिना मुकाबला किए ही युद्ध के मैदान से भाग निकले।

4. कुछ सैनिक अभियान 1695-96 ई० (Some Military Expeditions 1695-96 A.D.)-1695-96 ई० .. में मुगलों ने गुरु जी की शक्ति को कुचलने के लिए हुसैन खाँ, जुझार सिंह तथा शहजादा मुअज्जम के अधीन कुछ सैनिक अभियान भेजे । ये सभी अभियान किसी न किसी कारण असफल रहे तथा गुरु जी की शक्ति कायम
रही।

5. श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई 1701 ई० (First Battle of Sri Anandpur Sahib 1701 A.D.)-खालसा पंथ की स्थापना के बाद गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति के कारण पहाड़ी राजाओं में घबराहट पैदा हो गई। कहलूर के राजा भीम चंद, जिसकी रियासत में श्री आनंदपुर साहिब स्थित था, ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। इस पर भीम चंद ने कुछ पहाड़ी राजाओं से मिलकर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले में सिखों की संख्या बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं का खूब डटकर सामना किया। जब पहाड़ी राजाओं ने देखा कि सफलता मिलने की कोई आशा नहीं है तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली।

6. श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1704 ई० (Second Battle of Sri Anandpur Sahib 1704 A.D.)-पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह जी से प्रतिशोध लेने की खातिर मुग़ल सेनाओं से मिलकर मई, 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब को दूसरी बार घेर लिया! घेरे की अवधि बहुत लंबी हो गई, जिस कारण दुर्ग __ के भीतर खाद्य-सामग्री कम होनी आरंभ हो गई। इसलिए मुगलों का मुकाबला करना कठिन हो गया। गुरु साहिब ने सिखों को कुछ और दिन संघर्ष जारी रखने को कहा। परंतु 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़ कर चले गए। दूसरी ओर शाही सेना भी बहुत परेशान थी। उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया, कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन कस्मों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

7. सिरसा की लड़ाई 1704 ई० (Battle of the Sirsa 1704 A.D.)– श्री आनंदपुर साहिब छोड़ते ही मुग़ल सैनिकों ने गुरु गोबिंद सिंह जी पर फिर आक्रमण कर दिया। शाही सेना तथा सिखों में सिरसा में लड़ाई हुई। इस समय सिरसा नदी में बाढ़ कारण सिखों में भगदड़ मच गई। इसी भगदड़ में गुरु साहिब के छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी तथा फतह सिंह जी और माता गुजरी जी उनसे बिछुड़ गए। गंगू जो गुरु साहिब का पुराना सेवक था, ने लालच में आकर उन्हें सरहिंद के नवाब वज़ीर खाँ को सौंप दिया। नवाब वज़ीर खाँ ने इन दोनों छोटे साहिबजादों को 27 दिसंबर, 1704 ई० को दीवार में जीवित चिनवा दिया।

8. चमकौर साहिब की लड़ाई 1704 ई० (Battle of Chamkaur 1704 A.D.)-इसके उपरांत गुरु गोबिंद सिंह जी अपने 40 सिखों के साथ चमकौर साहिब पहुँचे। गुरु जी तथा उनके साथियों ने एक गढ़ी में शरण ली। मुग़ल सेना ने गढ़ी पर 22 दिसंबर, 1704 ई० को आक्रमण कर दिया। यह बड़ी जबरदस्त लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह जी तथा जुझार सिंह जी ने अत्यंत वीरता का प्रदर्शन किया और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। जब पाँच सिख शेष रह गए तो उन्होंने खालसा पंथ के लिए गुरु साहिब से गढ़ी छोड़ देने की प्रार्थना की। गुरु जी ने इस प्रार्थना को सिख पंथ का आदेश समझकर अपने साथ तीन सिखों को लेकर गढ़ी छोड़ दी।

9. गुरु जी माछीवाड़ा में (Guru Ji in Machhiwara)-गुरु गोबिंद सिंह जी चमकौर की लड़ाई के पश्चात् माछीवाड़ा के वनों में पहुंचे। यहाँ दो मुसलमान भाइयों नबी खाँ तथा गनी खाँ ने गुरु जी को एक पालकी में बिठा कर मुग़ल सैनिकों से उनकी रक्षा की। दीना कांगड़ नामक स्थान पर पहुँचने पर गुरु जी ने ज़फ़रनामा नामक फ़ारसी में एक चिट्ठी औरंगजेब को लिखी। इस चिट्ठी में गुरु जी ने बहुत निर्भीकता से औरंगजेब के अत्याचारों की आलोचना की।

10. खिदराना की लड़ाई 1705 ई० (Battle of Khidrana 1705 A.D.)-गुरु गोबिंद सिंह जी तथा मुग़ल सेना में लड़ी जाने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाई खिदराना में हुई। 29 दिसंबर, 1705 ई० को सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिखों ने बड़ी वीरता दिखाई और बड़ी शानदार विजय प्राप्त हुई। इसी लड़ाई में वे 40 सिख भी शहीद हो गए, जो श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उनके अद्वितीय बलिदान से प्रभावित होकर गुरुं साहिब ने उन्हें मुक्ति का वरदान दिया। इसी कारण खिरदाना का नाम श्री मुक्तसर साहिब पड़ गया। प्रसिद्ध लेखक करतार सिंह के अनुसार,
“यह सच है कि वह (गुरु गोबिंद सिंह जी) मुग़ल साम्राज्य अथवा शक्ति को नष्ट न कर सके परंतु इसे जड़ से हिलाकर रख दिया था।”37

37. “It is true that he did not actually uproot the Mughal empire or power, but he shook it violently to its very foundations.” Kartar Singh, Life of Guru Gobind Singh (Ludhiana : 1976) p. 222.

प्रश्न 28.
खालसा पंथ के सृजन का वर्णन करें। (Describe about the creation of Khalsa Panth.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन क्यों किया ? इसके मुख्य सिद्धांतों एवं महत्त्व का भी वर्णन करें।
(Why was Khalsa created by Guru Gobind Singh Ji ? Explain its main principles and importance.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के द्वारा ‘खालसा सृजना’ के क्या कारण थे ? चर्चा कीजिए।
(What were the reasons of ‘Khalsa Sirjana’ by Guru Gobind Singh Ji ? Discuss.)
अथवा
खालसा पंथ के सृजन के बारे में आप क्या जानते हैं ? पाँच प्यारों के नाम बताएँ।
[What do you know about the creation of Khalsa Panth ? Name the Panj Piaras (Five Beloved ones).]
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा कैसे प्रकट किया ?
(How did Gobind Singh create Khalsa ?)
अथवा
खालसा पंथ का सृजन किस प्रकार हुआ ? संक्षेप उत्तर लिखें। (How Khalsa Panth was created ? Answer briefly.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की रचना करके सिख लहर को संपन्न किया। स्पष्ट करें।
(Guru Gobind Singh completed the Sikh Movement with the creation of the Khalsa. Explain.)
अथवा
खालसा निर्माण प्रभाव के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the effects of creation of Khalsa.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का सबसे महान् कार्य 1699 ई० में वैसाखी वाले दिन खालसा पंथ का सृजन करना था। खालसा पंथ के सृजन को सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात माना जाता है। खालसा पंथ की स्थापना के कारण, उसकी स्थापना तथा उसके महत्त्व का विवरण निम्नलिखित अनुसार है। प्रसिद्ध लेखक हरबंस सिंह के अनुसार,
“यह इतिहास का एक महान्, रचनात्मक कार्य था जिसने लोगों के दिलों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए।”38
I. खालसा पंथ का सृजन क्यों किया गया ? (Why was Khalsa Panth Created ?)

1. मुगलों का अत्याचारी शासन (Tyrannical Rule of the Mughals)-जहाँगीर के काल से ही मुग़ल सिख संबंधों में तनाव उत्पन्न हो गया था। यह तनाव औरंगज़ेब के काल में सभी सीमाएँ पार कर चुका था। औरंगज़ेब ने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा दिया था। उसने हिंदुओं की धार्मिक रस्मों पर प्रतिबंध लगा दिए तथा जजिया कर को पुनः लागू कर दिया। उसने सिखों के गुरुद्वारों को गिराए जाने के भी आदेश दिए। उसने
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CREATION OF THE KHALSA
बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले गैर-मुसलमानों की हत्या करवा दी। सबसे बढ़कर उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद करवा दिया। अत: मुग़लों के इन बढ़ रहे अत्याचारों का अंत करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करने का निर्णय किया।

2. पहाड़ी राजाओं का विश्वासघात (Treachery of the Hill Chiefs)—गुरु गोबिंद सिंह जी मुग़लों के विरुद्ध संघर्ष के लिए पहाड़ी राजाओं को साथ लेना चाहते थे। परंतु गुरु जी इस बात से परिचित थे कि पहाड़ी राजाओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने ऐसे सैनिकों को तैयार करने का निर्णय किया जो मुग़लों की शक्ति का सामना कर पाएँ। फलस्वरूप खालसा पंथ की स्थापना की गई।

3. जातीय बंधन (Shackles of the Caste System) भारतीय समाज में जाति-प्रथा शताब्दियों से चली आ रही थी। फलस्वरूप समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों के साथ बुरा व्यवहार करते थे। इस जाति-प्रथा ने भारतीय समाज को एक घुण की भाँति भीतर ही भीतर से खोखला बना दिया था। पूर्व हुए सभी गुरु साहिबान ने संगत और पंगत की संस्थाओं द्वारा जाति प्रथा को कड़ा आघात पहुँचाया था, किंतु यह अभी भी समाप्त नहीं हुई थी। अतः गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें जाति-पाति का कोई स्थान न हो।

4. दोषपूर्ण मसंद प्रथा (Defective Masand System)-दोषपूर्ण मसंद प्रथा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना का महत्त्वपूर्ण कारण बनी। समय के साथ-साथ मसंद अपने प्रारंभिक आदर्शों को भूल गए और बड़े भ्रष्टाचारी और अहंकारी बन गए। उन्होंने सिखों को लूटना आरंभ कर दिया। उनका कहना था कि वे गुरुओं को बनाने वाले हैं। बहुत से प्रभावशाली मसंदों ने अपनी अलग गुरुगद्दी स्थापित कर ली थी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इन मसंदों से छुटकारा पाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना करने का निर्णय किया।

5. गुरुगद्दी का पैतृक होना (Hereditary Nature of Guruship)-गुरु अमरदास जी द्वारा गुरुगद्दी को पैतृक बना दिए जाने से भी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। जिसको भी गुरुगद्दी न मिली, उसने गुरु घर का विरोध करना आरंभ कर दिया। पृथी चंद, धीर मल्ल और रामराय ने तो गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए मुग़लों के साथ मिलकर कई षड्यंत्र भी रचे । इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें धीर मल्लों और राम रायों जैसों के लिए कोई स्थान न हो।

6. जाटों का स्वभाव (Nature of Jats)—गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय से ही बड़ी संख्या में जाट सिख धर्म में सम्मिलित हो गए थे। जाट स्वभाव से ही निडर, स्वाभिमानी और वीर थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे याद्धाओं का सहयोग प्राप्त करना चाहते थे ताकि अत्याचारियों का अंत किया जा सके। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

7. गुरु गोबिंद सिंह जी का उद्देश्य (Mission of Guru Gobind Singh Ji)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘बचित्र नाटक’ में लिखा है, कि उनके जीवन का उद्देश्य संसार में धर्म-प्रचार का कार्य करना और अत्याचारियों का विनाश करना है। अत्याचारियों के विनाश के लिए तलवार उठाना अत्यावश्यक है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया। गुरु गोबिंद सिंह जी का कथन था,

हम यह काज जगत में आए। धर्म हेतु गुरुदेव पठाए।।
जहाँ तहाँ तुम धर्म बिथारो।। दुष्ट देखियन पकड़ पछारो।।

38. “It was a grand creative deed of history which wrought revolutionary change in men’s minds.” Harbans Singh, Guru Gobind Singh (New Delhi : 1979)p.50. :

II. खालसा पंथ का सृजन कैसे किया गया ?
(How Khalsa was Created ?)
खालसा पंथ की स्थापना के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने * 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन विद्यार्थी यह बात विशेष तौर पर नोट करें कि खालसा की स्थापना के समय बैसाखी का दिवस 30 मार्च था। 1752 ई० में अंग्रेजों ने भारत में ग्रेगोरियन कैलेंडर को प्रचलित किया। अत: भारत में पूर्व प्रचलित विक्रमी कैलेंडर में 12 दिनों की बढ़ौतरी की गई। इस कारण आजकल बैसाखी सामान्य तौर पर 13 अप्रैल को मनाई जाती है।

श्री आनंदपुर साहिब में केसगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। इस दीवान में 80,000 सिखों ने भाग लिया। जब लोगों ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया तो गुरु जी मंच पर आए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाल कर एकत्रित सिखों से कहा कि, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है जो धर्म के लिए अपना शीश भेंट करे ?” जब गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया तो भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए आगे आए। गुरु जी उसे पास हो एक तंबू में ले गए। कुछ समय के पश्चात् गुरु जी खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आ गए। उन्होंने एक और सिख से बलिदान की माँग की। अब भाई धर्मदास जी आगे आए। इस क्रम को तीन बार और दोहराया गया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। गुरु जी उन्हें बारी-बारी से तंबू में ले जाते थे तथा खून से भरी तलवार लेकर लौटते थे। कुछ समय के पश्चात् गुरु जी ने इन पाँचों को केसरी रंग के कपड़े पहना कर स्टेज पर लाए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया। गुरु साहिब ने इन पाँच प्यारों को पहले खंडे का पाहुल छकाया और बाद में स्वयं इन प्यारों से अमृत छका। इसी कारण गुरु गोबिंद सिंह जी को ‘आपे गुरु चेला’ कहा जाता है। इस प्रकार खालसा पंथ का सृजन हुआ। ” गोबिंद सिंह जी का कथन था,

खालसा मेरो रूप है खास॥
खालसा में हौं करु निवास।।

III. खालसा पंथ के सिद्धांत
(Principles of the Khalsa Panth) गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की पालना के लिए कुछ विशेष नियम भी बनाए कुछ प्रमुख नियमों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को ‘खंडे का पाहुल’ छकना होगा।
  2. खालसा ‘पाँच कक्कार’ अर्थात् केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण धारण करेगा।
  3. खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करेगा।
  4. खालसा पुरुष अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  5. खालसा जाति-प्रथा और ऊँच-नीच में विश्वास नहीं रखेगा।
  6. खालसा शस्त्र धारण करेगा और धर्म-‘युद्ध के लिए सदैव तैयार रहेगा।
  7. खालसा श्रम द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करेगा और अपनी आय का दशांश धर्म के लिए दान करेगा।
  8. खालसा प्रातः काल जागकर स्नान करने के पश्चात् गुरवाणी का पाठ करेगा।
  9. खालसा परस्पर भेंट के समय ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जो की फ़तह’ कहेंगे।
  10. खालसा नशीले पदार्थों का सेवन, पर स्त्री गमन इत्यादि बुराइयों से कोसों दूर रहेगा।
  11. खालसा देश, धर्म की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए सदैव तैयार रहेगा।

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IV. खालसा की सृजना का महत्त्व (Importance of the Creation of Khalsa)
1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन न केवल पंजाब के इतिहास, बल्कि भारत के इतिहास में एक युग परिवर्तक घटना मानी जाती है। निस्संदेह, खालसा पंथ की स्थापना के बड़े दूरगामी परिणाम निकले।

  1. सिखों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग इसमें शामिल होने लग पड़े। गुरु साहिब ने स्वयं हज़ारों सिखों को पाहुल छकाकर खालसा बनाया। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने खालसा पंथ के किसी भी पाँच सिखों को अमृत छकाने का अधिकार देकर खालसा पंथ में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि की।
  2. आदर्श समाज का निर्माण (Creation of an Ideal Society)-खालसा पंथ की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। खालसा पंथ में ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें निम्न और पिछड़ी श्रेणियों को समानता का दर्जा दिया गया। खालसा समाज में अंध-विश्वासों तथा नशीले पदार्थों के सेवन करने के लिए कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार गुरु जी ने खालसा पंथ को रच कर स्वस्थ समाज की रचना की। डॉक्टर इंद्रपाल सिंह के अनुसार,
    “खालसा की महानता इस बात में है कि यह जाति एवं नस्ल की अपेक्षा मानव भाईचारे की बात करता है।”39
  3. मसंद प्रथा एवं पंथ विरोधी संप्रदायों का अंत (End of Masand System and Sects which were against Panth)—मसंद प्रथा में आई कुरीतियाँ खालसा पंथ के निर्माण का एक प्रमुख कारण बनी थीं। इसलिए जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, तो उसमें मसंदों को कोई स्थान नहीं दिया गया। गुरु जी ने सिखों को आदेश दिया, कि वे इनसे किसी प्रकार का कोई संबंध न रखें।
  4. सिखों में नया जोश (New spirit among the Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण __ परिणाम सिखों में एक नया जोश तथा शक्ति पैदा हुई। वे अपने आप को शेर के समान बहादुर समझने लग पड़े। उन्होंने अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब शस्त्र उठा लिए। उन्होंने मुग़लों और अफ़गानों से होने वाली लड़ाइयों में अद्वितीय वीरता और बलिदान के प्रमाण दिए।
  5. निम्न जातियों के लोगों का उद्धार (Upliftment of the Downtrodden People)—खालसा पंथ की स्थापना निम्न जातियों के उद्धार का संदेश थी। इससे पूर्व शूद्रों और अन्य निम्न जातियों के लोगों से बहुत दुर्व्यवहार किया जाता था। गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों को खालसा पंथ में शामिल करके उन्हें उच्च जातियों के बराबर
    स्थान दिया। गुरु जी ने यह महान् पग उठाकर निम्न जाति के लोगों में एक नया जोश भरा। गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में वे महान् योद्धा सिद्ध हुए।
  6. खालसा पंथ में लोकतंत्र (Democracy in Khalsa Panth)-1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं पाँच प्यारों को उन्हें अमृतपान करवाने का निवेदन किया। ऐसा करना एक महान् क्रांतिकारी कदम था। गुरु साहिब ने यह घोषणा की थी कि कहीं भी पाँच खालसा एकत्रित होकर अन्य सिखों को अमृत छका सकते हैं। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों में लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित किया।
  7. सिखों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान (Rise of Political Power of the Sikhs)-खालसा पंथ ‘ की स्थापना के साथ ही सिखों की राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ। असंख्य बलिदान के बाद वे पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। तत्पश्चात् 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख-साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार अंत में खालसों का स्वप्न साकार हुआ। अंत में हम डॉक्टर जी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
    “खालसा पंथ के सृजन को मानव इतिहास का एक आश्चर्यजनक कारनामा माना जा सकता है।’40

39. “The grandeur of Khalsa is that it is above all notion of caste and creed and speaks only of universal brotherhood.” Dr. Inderpal Singh, The Grandeur of Khalsa (Amritsar : 1999) p. 3.
40. “Creation of the Khalsa was a unique phenomenon in the annals of mankind.” Dr. G. S. Dhillon, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 1999) p.22.

प्रश्न 29.
सिख धर्म में खालसा के सृजन के महत्त्व के बारे में चर्चा करें। (Discuss the importance of creation of Khalsa in Sikhism.)
उत्तर-
खालसा की सृजना का महत्त्व (Importance of the Creation of Khalsa)
1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन न केवल पंजाब के इतिहास, बल्कि भारत के इतिहास में एक युग परिवर्तक घटना मानी जाती है। निस्संदेह, खालसा पंथ की स्थापना के बड़े दूरगामी परिणाम निकले।

1. सिखों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग इसमें शामिल होने लग पड़े। गुरु साहिब ने स्वयं हज़ारों सिखों को पाहुल छकाकर खालसा बनाया। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने खालसा पंथ के किसी भी पाँच सिखों को अमृत छकाने का अधिकार देकर खालसा पंथ में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि की।

2. आदर्श समाज का निर्माण (Creation of an Ideal Society)-खालसा पंथ की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। खालसा पंथ में ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें निम्न और पिछड़ी श्रेणियों को समानता का दर्जा दिया गया। खालसा समाज में अंध-विश्वासों तथा नशीले पदार्थों के सेवन करने के लिए कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार गुरु जी ने खालसा पंथ को रच कर स्वस्थ समाज की रचना की। डॉक्टर इंद्रपाल सिंह के अनुसार,
“खालसा की महानता इस बात में है कि यह जाति एवं नस्ल की अपेक्षा मानव भाईचारे की बात करता है।”39

3. मसंद प्रथा एवं पंथ विरोधी संप्रदायों का अंत (End of Masand System and Sects which were against Panth)—मसंद प्रथा में आई कुरीतियाँ खालसा पंथ के निर्माण का एक प्रमुख कारण बनी थीं। इसलिए जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, तो उसमें मसंदों को कोई स्थान नहीं दिया गया। गुरु जी ने सिखों को आदेश दिया, कि वे इनसे किसी प्रकार का कोई संबंध न रखें।

4. सिखों में नया जोश (New spirit among the Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण __ परिणाम सिखों में एक नया जोश तथा शक्ति पैदा हुई। वे अपने आप को शेर के समान बहादुर समझने लग पड़े। उन्होंने अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब शस्त्र उठा लिए। उन्होंने मुग़लों और अफ़गानों से होने वाली लड़ाइयों में अद्वितीय वीरता और बलिदान के प्रमाण दिए।

5. निम्न जातियों के लोगों का उद्धार (Upliftment of the Downtrodden People)—खालसा पंथ की स्थापना निम्न जातियों के उद्धार का संदेश थी। इससे पूर्व शूद्रों और अन्य निम्न जातियों के लोगों से बहुत दुर्व्यवहार किया जाता था। गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों को खालसा पंथ में शामिल करके उन्हें उच्च जातियों के बराबर
स्थान दिया। गुरु जी ने यह महान् पग उठाकर निम्न जाति के लोगों में एक नया जोश भरा। गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में वे महान् योद्धा सिद्ध हुए।

6. खालसा पंथ में लोकतंत्र (Democracy in Khalsa Panth)-1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं पाँच प्यारों को उन्हें अमृतपान करवाने का निवेदन किया। ऐसा करना एक महान् क्रांतिकारी कदम था। गुरु साहिब ने यह घोषणा की थी कि कहीं भी पाँच खालसा एकत्रित होकर अन्य सिखों को अमृत छका सकते हैं। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों में लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित किया।

7. सिखों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान (Rise of Political Power of the Sikhs)-खालसा पंथ ‘ की स्थापना के साथ ही सिखों की राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ। असंख्य बलिदान के बाद वे पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। तत्पश्चात् 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख-साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार अंत में खालसों का स्वप्न साकार हुआ। अंत में हम डॉक्टर जी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“खालसा पंथ के सृजन को मानव इतिहास का एक आश्चर्यजनक कारनामा माना जा सकता है।’40

39. “The grandeur of Khalsa is that it is above all notion of caste and creed and speaks only of universal brotherhood.” Dr. Inderpal Singh, The Grandeur of Khalsa (Amritsar : 1999) p. 3.
40. “Creation of the Khalsa was a unique phenomenon in the annals of mankind.” Dr. G. S. Dhillon, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 1999) p.22.

प्रश्न 30.
गुरु गोबिंद सिंह जी के चरित्र एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।
(Discuss the character and achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करें। (Make an evaluation of the personality of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के बहुपक्षीय व्यक्तित्व की ऐतिहासिक उदाहरणों सहित व्याख्या करें। (Illustrate historically the multi-dimensional personality of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के एक मनुष्य, एक सैनिक और एक धार्मिक नेता के बारे में विस्तार से लिखो।
(Write in detail about Guru Gobind Singh Ji as a Man, as a Soldier and as a Religious Leader.)
अथवा
आप गुरु गोबिंद सिंह जी के एक मनुष्य, एक सैनिक, एक विद्वान् तथा एक धार्मिक नेता बारे क्या जानते हैं ?
(What do you know about Guru Gobind Singh Ji as a Man, as a Soldier, as a Scholar and as a Saint ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा उपलब्धियों का विवरण दें। . (Give an account of the career and achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी विश्व के महान् व्यक्तियों में से एक थे। उनके व्यक्तित्व में अनेक गुण- थे। वह संपूर्ण मनुष्य, महान् योद्धा, अत्याचारियों के शत्रु, उच्चकोटि के कवि, समाज सुधारक, उत्तम संगठनकर्ता तथा महान् पैगंबर थे।
मनुष्य के रूप में (As a Man)

  1. शक्ल सूरत (Physical Appearance)-गुरु गोबिंद सिंह जी का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। उनका कद लंबा, रंग गोरा तथा शरीर गठित था। उनका मुख मंडल भव्य था। वह बहुत मृदुभाषी थे। उनका पहरावा बहुत सुंदर होता था तथा वह सदैव शस्त्रों से सुसज्जित रहते थे। उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके जादुई व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होता था।
  2. गृहस्थ जीवन (House Holder) गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े आज्ञाकारी पुत्र, विचारवान् पिता और आदर्श पति थे। उन्होंने अपनी माता जी की आज्ञा मानते हुए श्री आनंदपुर साहिब का किला खाली कर दिया था। इसके पश्चात् चाहे उन्हें भारी कष्टों का सामना करना पड़ा परंतु उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की। गुरु जी ने अपने पुत्रों को भी अत्याचारों का वीरता से सामना करने का सबक सिखाया।
  3. उच्च चरित्र (High Character)–गुरु गोबिंद सिंह जी महान् चरित्र के स्वामी थे। झूठ, छल, कपट तो उन्हें छू भी न पाया था। युद्ध हो अथवा शाँति, उन्होंने कभी भी धैर्य नहीं छोड़ा था। वह स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे। वह प्रत्येक प्रकार के नशे के विरुद्ध थे। उन्होंने अपने सिखों को भी उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया।
  4. कुर्बानी की प्रतिमा (Embodiment of Sacrifices)-गुरु गोबिंद सिंह जी कुर्बानी के पुंज थे। 9 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता गुरु तेग़ बहादुर जी को बलिदान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन के सभी सुख त्याग दिए। अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए गुरु जी के चारों साहिबजादों, माता तथा अनेक सिखों ने बलिदान दिए। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं मिलता।

एक विद्वान् के रूप में (As a Scholar)
गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। उन्हें अनेक भाषाओं जैसे अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, हिंदी तथा संस्कृत आदि का ज्ञान था। ‘जापु साहिब’, ‘बचित्तर नाटक’, ‘ज़फ़रनामा’, ‘चंडी दी वार’ तथा ‘अकाल उस्तति’ आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ संपूर्ण मानवता को स्वतंत्रता, भाईचारे, सामाजिक असमानता को दूर करने तथा अत्याचारों का मुकाबला करने की प्रेरणा देती हैं। इसके अतिरिक्त ये रचनाएँ आत्मा को शाँति भी प्रदान करती हैं। निस्संदेह ये रचनाएँ भक्ति एवं शक्ति के सुमेल का सुंदर उदाहरण हैं । आपने अपने दरबार में उच्चकोटि के 52 कवियों को आश्रय दिया हुआ था। इनमें से सैनापत, नंद लाल, गोपाल तथा उदै राय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। विख्यात इतिहासकार दविंद्र कुमार का यह कथन बिल्कुल ठीक है। “वह (गुरु गोबिंद सिंह जी) एक महान् कवि थे।41

41. “He was a poet par excellence.” Devindra Kumar, Guru Gobind Singh’s Contribution to the Indian · Literature, cited in, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 2000) p. 127.

योद्धा तथा सेनापति के रूप में (As a Warrior and General)-
गुरु गोबिंद सिंह जी अपने समय के महान् योद्धा तथा सेनापति थे। वह घुड़सवारी, तीर चलाने तथा शस्त्र चलाने में बहुत प्रवीण थे। वह प्रत्येक युद्ध में अपने सैनिकों का नेतृत्व करते थे। गुरु जी ने लड़ाई में भी नैतिक सिद्धांतों का सदैव पालन किया। उन्होंने कभी भी रणभूमि से भाग रहे सिपाहियों तथा निहत्थों पर आक्रमण न किया। उनके तथा शत्रुओं के साधनों में आकाश-पाताल का अंतर था, फिर भी गुरु जी ने उनके विरुद्ध बड़ी शानदार सफलता प्राप्त की। उदाहरणस्वरूप गुरु जी ने भंगाणी की लड़ाई में, आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में, चमकौर साहिब की लड़ाई में तथा खिदराना की लड़ाई में कम सैनिकों तथा सीमित साधनों के होते हुए भी पहाड़ी राजाओं तथा मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे। गुरु जी के सैनिक सदैव अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे।

धार्मिक नेता के रूप में (As a Religious Leader)-
निस्संदेह गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् धार्मिक नेता थे। गुरु जी ने अपने जीवन का अधिकाँश समय लड़ाइयों में व्यतीत किया परंतु इन लड़ाइयों का उद्देश्य धर्म की रक्षा करना ही था। गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना धार्मिक उद्देश्यों के लिए ही की थी। उन्होंने प्रत्येक सिख को यह आदेश दिया था कि वह सुबह उठकर स्नान के पश्चात् गुरुवाणी का पाठ करे। वह एक ईश्वर की ही पूजा करे तथा पवित्र जीवन व्यतीत करे। उनकी धार्मिक महानता का प्रमाण इस बात से मिलता है कि जब उन्हें साहिबजादों के बलिदान की सूचना दी गई तो झट खड़े होकर उन्होंने ईश्वर का धन्यवाद किया कि उनके पुत्रों के प्राण धर्म के लिए गए। डॉ० आई० बी० बैनर्जी के अनुसार, “गुरु गोबिंद सिंह जी और चाहे जो कुछ भी थे परंतु सब से पहले वह एक धार्मिक नेता थे।”42

समाज सुधारक के रूप में (As a Social Reformer)-
गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् समाज सुधारक भी थे। उन्होंने खालसा पंथ में निम्न जातियों के लोगों को भी उच्च जातियों के समान स्थान दिया। ऐसा करके गुरु जी ने शताब्दियों पुराने जाति-पाति के बंधनों को तोड़कर रख दिया। गुरु जी का कहना था, “मानस की जात सभै एकै पहिचानबो।” गुरु जी ने अपने सिखों को मादक पदार्थों से दूर रहने को कहा। उन्होंने सती तथा पर्दा प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इस प्रकार गुरु साहिब ने एक आदर्श समाज को जन्म दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

संगठनकर्ता के रूप में (As an Organiser)-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। उस समय औरंगज़ेब का शासन था। वह गैर-मुसलमानों के अस्तित्व को कभी सहन करने के लिए तैयार नहीं था। उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद कर दिया था। सिखों में मसंद प्रथा बहुत भ्रष्ट हो गई थी। हिंदुओं में बहादुरी एवं आत्म-विश्वास की भावनाएँ खत्म हो चुकी थीं एवं वे मुग़लों के अत्याचार सहने के अभ्यस्त हो चुके थे। पहाड़ी राजा अपने स्वार्थों के कारण मुग़ल सरकार से मिले हुए थे। ऐसे विरोधी तत्त्वों के रहते गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। सचमुच यह एक महान् कार्य था। इसने लोगों में एक ऐसा जोश भरा जिसके आगे मुग़ल साम्राज्य को भी घुटने टेकने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर मदनजीत कौर के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु गोबिंद सिंह जी के योगदान ने भारतीय इतिहास एवं विश्व संभ्यता के चित्रपट पर दूरगामी प्रभाव छोड़े।”43

42. “Whatever else he might have been, Guru Gobind Singh was first and foremost a great religious leader.”Dr. I. B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol. 2, p. 157.
43. “Guru Gobind Singh’s contributions had left imprints of deep impact on the canvas of Indian history and world civilisation.” Prof. Madanjit Kaur, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 2000) p.1.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की सिख पंथ को देन के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the contribution of Guru Nanak Dev Ji to Sikhism.)
उत्तर-
15वीं शताब्दी में, जब गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ तो उस समय लोग अज्ञानता के अँधकार में भटक रहे थे। समाज में महिलाओं की दशा बहुत खराब थी। गुरु नानक देव जी ने लोगों में नई जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। गुरु जी ने संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की नींव डाली। गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुई।

प्रश्न 2.
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों के क्या उद्देश्य थे ?
(What do you mean by Udasis ? What were the aims of Guru Nanak Dev Ji’s Udasis ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य तथा महत्त्व था ?
(What were the aims and importance of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी द्वारा विभिन्न दिशाओं में की गई यात्राओं को उनकी उदासियाँ कहा जाता है। इन उदासियों का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता तथा अंधविश्वास को दूर करना था। वह एक ईश्वर की पूजा तथा भाईचारे का संदेश जन-साधारण तक पहुंचाना चाहते थे। गुरु नानक साहब ? लोगों को अपने विचारों से अवगत करवाया। उन्होंने समाज में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों, कर्मकांडों तथा कुप्रथाओं का खंडन किया।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी की किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of any two important Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी सैदपुर से शुरू की। मलिक भागों द्वारा पूछने पर गुरु जी ने बताया कि हमें मेहनत की कमाई से गुजारा करना चाहिए न कि बेईमानी के पैसों से।
  2. हरिद्वार में गुरु नानक साहिब ने लोगों को यह बात समझाई कि गंगा स्नान करने से या पितरों को पानी देने से कुछ प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार लिखिए। (Write an essence of the teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है। वह निराकार तथा सर्वव्यापक है।
  2. गुरु जी माया को मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे।
  3. गुरु जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मनुष्य के पाँच शत्रु बताते हैं। इनके कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।
  4. गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का खंडन किया।

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nank Dev Ji’s concept of God ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about God ?)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया।
  2. केवल ईश्वर ही संसार को रचने वाला, पालने वाला तथा नाश करने वाला है।
  3. ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी।
  4. ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता।

प्रश्न 6.
गुरु नानक साहिब ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खंडन क्यों किया ? (Why did Guru Nanak Sahib condemn the Brahmans and Mullas ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ब्राह्मणों में श्रद्धा भक्ति का अभाव था। वे सारा दिन वेद-शास्त्र पढ़ते थे, परंतु उन पर अमल नहीं करते थे। वे लोगों को धोखा देते थे तथा उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर लूटते थे। कुछ ऐसी ही स्थिति मुसलमानों में मुल्लाओं की थी। वे भी व्यर्थ के रीति-रिवाजों पर बल देते थे। वे अन्य धर्मों के लोगों को बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते थे। इन कारणों से गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खंडन किया।

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा प्रथाओं का खंडन किया ?
(Which prevalent religious beliefs and conventions were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने कौन-से प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खंडन किया ? (What type of religious beliefs and rituals were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित समस्त अंधविश्वासों तथा व्यवहारों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने वेद, शास्त्र, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, तथा जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अवसरों से संबंधित संस्कारों का विरोध किया। ब्राह्मण इन रस्मों के मुख्य समर्थक थे। उन्होंने जोगियों की पद्धति को भी दो कारणों से स्वीकार न किया। प्रथम, जोगियों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव था। दूसरा, वे अपने सामाजिक दायित्व से दूर भागते थे। गुरु नानक देव जी अवतारवाद में भी विश्वास नहीं रखते थे।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ? संक्षेप में उत्तर दें। (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of Maya ? Explain in brief)
अथवा
गुरु नानक देव जी के माया के संकल्प का वर्णन करें। (Describe Guru Nank Dev Ji’s concept of Maya.)”
उत्तर-
गुरु नानक देव जी मानते थे कि माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, सुंदर नारी, पुत्र आदि के चक्रों में फंसा रहता है। इसे ही माया कहते हैं। माया जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसका मौत के बाद साथ नहीं देती। माया के कारण वह आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of “Guru’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के गुरु संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of. ‘Guru’ ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को एक वास्तविक सीढ़ी मानते थे। वह ही मनुष्य को मोह और अहं से दूर करता है। वही नाम और शब्द की आराधना करने का ढंग बताता है। गुरु के बिना भक्ति भाव और ज्ञान असंभव है। गुरु के बिना मनुष्य को चारों और अँधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अँधकार से प्रकाश की ओर लाता है। सच्चा गुरु ईश्वर स्वयं है, जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में ‘नाम’ का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of ‘Nam’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी नाम की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। नाम आराधना के कारण मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। नाम की आराधना करने वाले मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं तथा उसके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। उसकी आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह खिली रहती है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में हुक्म का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Hukam’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। सारा संसार उस परमात्मा के हुक्म के अनुसार चलता है। उसके हुक्म के अनुसार ही जीव इस संसार में जन्म लेता है या उसकी मृत्यु होती है। उसे प्रशंसा प्राप्त होती है अथवा वह नीच बन जाता है। हुक्म के कारण ही उसे सुखदुःख प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के हुक्म को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरे खाता है।

प्रश्न 12.
गुरु नानक देव जी के स्त्री जाति संबंधी क्या विचार थे ? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about women ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों की जूती के समान था। उन्हें जानवरों की भाँति खरीदा अथवा बेचा जाता था। गुरु नानक देव जी बाल-विवाह, बहु-विवाह तथा सती प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का समर्थन किया। इस संबंध में उन्होंने स्त्रियों को संगत एवं पंगत में सम्मिलित होने की आज्ञा दी।

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी के संदेश का सामाजिक अर्थ क्या था ? (What was the social meaning of Guru Nanak Dev Ji’s message ?) Solis
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के संदेश के सामाजिक अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनका संदेश प्रत्येक के लिए था। कोई भी स्त्री-पुरुष गुरु जी द्वारा दर्शाए गए मार्ग को अपना सकता था। गुरु जी ने सामाजिक समानता का प्रचार किया। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। सामाजिक समानता के संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु जी ने संगत तथा पंगत (लंगर) नामक दो संस्थाएँ चलाईं। लंगर तैयार करते समय जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था।

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से किस प्रकार भिन्न थीं ?
(How far were the teachings of Guru Nanak Dev Ji different from the Bhakti reformers ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा निराकार है। वह कभी भी मानवीय रूप को धारण नहीं करता। भक्ति प्रचारकों ने कृष्ण तथा राम को परमात्मा का अवतार माना। गुरु नानक देव जी मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे। जबकि भक्ति प्रचारकों का इसमें पूर्ण विश्वास था। गुरु नानक देव जी गृहस्थ जीवन में विश्वास रखते थे। क्ति प्रचारक गृहस्थ जीवन को मुक्ति की राह में आने वाली एक बड़ी रुकावट मानते थे। गुरु नानक देव जी ने गत तथा पंगत नामक दो संस्थाएँ स्थापित की। भक्ति प्रचारकों ने ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं की।

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी एक क्रांतिकारी थे। अपने उत्तर की पुष्टि में कोई चार तर्क दीजिए।
(Guru Nanak Dev Ji was a revolutionary. Give any four arguments in support of your answer.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने अवतारवाद का जोरदार शब्दों में खंडन किया।
  2. गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा के विरोध में भी ज़ोरदार आवाज़ उठाई।
  3. गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया।
  4. गुरु नानक देव जी ने हिंदू रीति-रिवाजों का खंडन किया।

प्रश्न 16.
गुरु नानक देव जी एक सुधारक थे। इस पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए। (Guru Nanak Dev Ji was a reformer. Give any four arguments in its favour.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने कभी भी किसी देवी-देवता को बुरा नहीं कहा था।
  2. गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा का खंडन नहीं किया अपितु जाति प्रथा से उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या का विरोध किया था।
  3. गुरु नानक देव जी ने उस समय हिंदुओं में प्रचलित रस्मों जैसे उपवास, तीर्थ यात्रा, सूर्य को पानी देने तथा गंगा स्नान इत्यादि का पूर्ण रूप से खंडन नहीं किया था।
  4. गुरु नानक देव जी ने हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों में दिए गए ज्ञान को कभी भी बुरा नहीं कहा।

प्रश्न 17.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 कहाँ तथा कैसे व्यतीत किए ? (How and where did Guru Nanak Dev Ji spend last 18 years of his life ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने करतारपुर ( अर्थात् ईश्वर का नगर) नामक नगर की स्थापना की। इसी स्थान पर गुरु जी ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु जी ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की ‘संगत’ से अभिप्राय उस सभा से था जो प्रतिदिन गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए होती थी। ‘पंगत’ से अभिप्राय था–पंक्ति में बैठकर लंगर छकना। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
उत्तर-

  1. गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया।
  2. उन्होंने गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया।
  3. गुरु अंगद देव जी ने संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया।
  4. उन्होंने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया।

प्रश्न 19.
गुरु अंगद साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ? (What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurmukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को संशोधित कर नया रूप प्रदान किया। परिणामस्वरूप, इस लिपि को समझना लोगों के लिए सरल हो गया। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हई। इस लिपि के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि विद्या के प्रसार में भी सहायक सिद्ध हुई।

प्रश्न 20.
गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का खंडन किस प्रकार किया ? (How did Guru Angad Dev Ji denounce the Udasi sect ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का सिख मत के विकास की ओर एक अन्य प्रशंसनीय कार्य उदासी मत का खंडन करना था। इस मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सपत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संयास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था, जबकि गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सिद्धांत गुरु नानक देव जी के सिद्धांतों से मिलते थे। इस कारण बहुत-से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता।

प्रश्न 21.
“गुरु अंगद साहिब बहुत अनुशासन प्रिय थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? (“Guru Angad Dev Ji was a great disciplinarian.’ Do you agree to it ?)
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। गुरु जी के दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड, अपनी मधुर आवाज़ के कारण बहुत गर्व करने लग पड़े थे। अपने अहंकार में आकर उन्होंने मुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। कुछ समय के पश्चात् उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया।

प्रश्न 22.
गुरु अंगद साहिब तथा हुमायूँ में हुई भेंट की संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the meeting between Guru Angad Sahib and Humayun.)
उत्तर-
1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ को शेरशाह सूरी के हाथों कन्नौज के स्थान पर कड़ी पराजय हुई थी। पराजय के पश्चात् हुमायूँ खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में इतने लीन थे कि उन्होंने आँखें खोलकर न देखा। हुमायूँ ने क्रोधित होकर अपनी तलवार म्यान से निकाल ली। उसी समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँग ली।

प्रश्न 23.
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? : (What do you know about Sangat ?).
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होती थी। गुरु अंगद साहिब ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के बिना कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

प्रश्न 24.
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
लंगर प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Langar system ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें। (Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-
पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 25.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on importance of Sangat and Pangat.)
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होती थी। गुरु अंगद साहिब ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के बिना कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 26.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das Ji face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-

  1. गुरुगद्दी पर विराजमान होने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को सबसे पहले गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु पुत्र होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार जताया।
  2. गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद भी गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने भी गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया।

प्रश्न 27.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ। (Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (From an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.) .
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।
  2. उन्होंने लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया।
  3. उन्होंने सिख पंथ के प्रचार के लिए मंजी प्रथा की स्थापना की।
  4. गुरु साहिब ने सिख धर्म को उदासी मत से अलग रखकर इसे लुप्त होने से बचा लिया।

प्रश्न 28.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is importance of the construction of the Baoli of Goindwal Sahib in Sikh History ?)
अथवा
गोइंदवाल साहिब को सिख धर्म का केंद्र क्यों कहा जाता है ? (Why is Goindwal Sahib called the centre of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला कदम गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करवाना था। इस पवित्र बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को हिंदुओं से अलग तीर्थ स्थान देना चाहते थे। दूसरा, वह वहाँ के लोगों की पानी की कठिनाई को दूर करना चाहते थे। बाऊली के निर्माण से सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 29.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का डटकर विरोध किया।
  2. गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया।
  3. उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा की बड़े ज़ोरदार शब्दों में निंदा की।
  4. गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे।

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प्रश्न 30.
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji system ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें। (Write a note on Manji system.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का एक और महान कार्य था मंजी प्रथा की स्थापना करना। उनके समय में सिखों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि गुरु जी के लिए प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचना असंभव था। अतः गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के प्रदेशों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। इसके अतिरिक्त वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे।

प्रश्न 31.
गुरु अमरदास जी के मुगलों के साथ कैसे संबंध थे ? (What type of relations did Guru Amar Das Ji have with the Mughals ?)
अथवा
मुगल बादशाह अकबर तथा गुरु अमरदास जी के मध्य संबंधों का उल्लेख कीजिए। (Describe the relations between Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
अथवा
मुगल सम्राट अकबर तथा गुरु अमरदास जी के बीच संबंधों का उल्लेख करें। (Explain the relations between the Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के मुग़लों के साथ संबंध मैत्रीपूर्ण थे। 1568 ई० में अकबर गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु साहिब के दर्शन करने से पूर्व मर्यादानुसार लंगर खाया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व और लंगर प्रबंध से बहुत प्रभावित हुआ। उसने लंगर प्रबंध को चलाने के लिए कुछ गाँवों की जागीर गुरु जी की सुपुत्री बीबी भानी जी के नाम लगा दी। अकबर की इस यात्रा के कारण गुरु अमरदास जी की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक फैल गई। इससे सिख धर्म का प्रसार और प्रचार बढ़ा।

प्रश्न 32.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?)
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरु काल 1574 ई० से 1581 ई० तक रहा। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य भी आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म के प्रचार तथा उसके विकास के लिए धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों को समाप्त किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा।

प्रश्न 33.
रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? [What is the importance of foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 34.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi system ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत त्याग और वैराग्य पर बल देता था। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद जी के जीवन से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। इसलिए गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी ने जोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता था। गुरु अमरदास जी के काल में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया।

प्रश्न 35.
गुरुगद्दी पर बैठने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji after he ascended the Gurgaddi.)
अथवा
गुरु बनने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji immediately after his accession to Gurgaddi. Explain briefly.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के पश्चात् गुरु अर्जन साहिब को सर्वप्रथम अपने बड़े भाई पृथी चंद के विरोध का सामना करना पड़ा। वह बड़ा होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझता था। उसने मुग़ल बादशाह जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काने का हर संभव प्रयत्न किया। पंजाब के कट्टर मुसलमान पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव से घबरा रहे थे। उन्होंने गुरु जी के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरे। कट्टर मुसलमान होने के कारण जहाँगीर पर इनका बहुत प्रभाव पड़ा। चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के सुपुत्र हरगोबिंद जी के साथ करना चाहता था। गुरु जी के इंकार करने के कारण वह उनका घोर शत्रु बन गया।

प्रश्न 36.
गुरु अर्जन देव जी ने सिख पंथ के विकास में क्या योगदान दिया ? (What was Guru Arjan Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अर्जन साहिब जी के संगठनात्मक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the organisational works of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण करके सिखों को एक पावन तीर्थ स्थान प्रदान किया।
  2. गुरु साहिब ने कई पवित्र नगरों जैसे तरनतारन, हरिगोबिंदपुर और करतारपुर की स्थापना की।
  3. उन्होंने लाहौर में एक बाऊली का निर्माण करवाया।
  4. मसंद प्रथा का विकास गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों में से एक था। इस प्रथा से सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर तक हुआ।

प्रश्न 37.
गुरु अर्जन देव जी द्वारा हरिमंदिर साहिब की स्थापना और इसकी महत्ता के बारे में बताइए।
(Describe briefly the’importance of the foundation of Harmandir Sahib by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a brief note on Harmandir Sahib.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब की स्थापना एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the foundation and importance of Harmandir Sahib.)
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब का सिख इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी स्थापना सिखों के पाँचवें गुरु अर्जन देव जी ने की थी। गुरु अर्जन साहिब ने इसकी नींव 1588 ई० में विख्यात सूफी संत मियाँ मीर जी द्वारा रखवाई थी। हरिमंदिर से अभिप्राय था-ईश्वर का मंदिर। गुरु साहिब ने हरिमंदिर साहिब का भवन इर्द-गिर्द के सभी भवनों से निम्न रखाया क्योंकि गुरु साहिब का मानना था कि जो निम्न होगा, वही उच्च कहलाने के योग्य होगा। शीघ्र ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे पवित्र तीर्थ-स्थान बन गया।

प्रश्न 38.
मसंद व्यवस्था तथा इसके महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand system and its importance.)
अथवा
मसंद प्रथा के विकास तथा संगठन का वर्णन कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand system.)
अथवा
मसंद प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about Masand system ? Explain.)
अथवा
मसंद प्रथा किसने शुरू की ? इसके उद्देश्य बताएँ। (Who started Masand system ? What were its aims ?)
अथवा
मसंद प्रथा के संगठन तथा विकास की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand system.)
अथवा
मसंद प्रथा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand system.)
उत्तर-
मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से बना है जिसका अर्थ है ‘उच्च स्थान’। इस प्रथा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। इसका वास्तविक विकास गुरु अर्जन साहिब जी के समय में हुआ। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दसवाँ भाग गुरु साहिब को भेंट करें। मसंदों का मुख्य कार्य इसी धन को इकट्ठा करना था। ये मसंद धन एकत्रित करने के साथ-साथ सिख धर्म का प्रचार भी करते थे। मसंद प्रथा सिख पंथ के विकास में एक मील पत्थर सिद्ध हुई।

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प्रश्न 39.
तरन तारन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Write a short note on Tarn Taran and its importance.)
उत्तर-
गुरु अर्जन साहिब ने 1590 ई० में तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर की खुदवाई भी आरंभ करवाई। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भवसागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत-से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन जाटों ने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

प्रश्न 40.
पृथी चंद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Prithi Chand.)
अथवा
पृथी चंद कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Prithi Chand ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
पृथी चंद गुरु अर्जन साहिब का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बहुत स्वार्थी स्वभाव का था। यही कारण है कि गुरु रामदास जी ने गुरुगद्दी गुरु अर्जन साहिब को सौंपी। इससे पृथी चंद क्रोधित हो उठा। पृथी चंद ने गुरुगद्दी के लिए गुरु अर्जन देव का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया। वह यह आशा लगाए बैठा था कि गुरु अर्जन साहिब के पश्चात् गुरुगद्दी उसके पुत्र मेहरबान को अवश्य मिलेगी परंतु जब हरगोबिंद जी का जन्म हुआ तो उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया। इसलिए वह गुरु अर्जन साहिब के प्राणों का शत्रु बन गया।

प्रश्न 41.
चंद्र शाह कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Chandu Shah ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
अथवा
चंदू शाह गुरु अर्जन देव जी का विरोधी क्यों बन गया था ? (Why Chandu Shah opposed Guru Arjan Dev Ji ?)’
अथवा
चंदू शाह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Chandu Shah.)
उत्तर-
चंद्र शाह लाहौर प्रांत का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। उसके परामर्शदाताओं ने उसे अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब जी के लड़के हरगोबिंद से करने का परामर्श दिया। इस पर चंदू शाह ने कहा कि वह कभी भी नाली की गंदी ईंट को उपने चौबारे की शान नहीं बनने देगा। बाद में वह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। उसने गुरु अर्जन साहिब को शगुन भेजा। गुरु अर्जन साहिब ने इस शगुन को लेने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप चंदू शाह ने मुग़ल बादशाह अकबर तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध बहुत भड़काया।

प्रश्न 42.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly explain the causes responsible for the martyrdom of the Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-

  1. मुग़ल बादशाह जहाँगीर एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह पंजाब में सिखों के तीव्रता से बढ़ रहे प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।
  2. लाहौर का दीवान चंदू शाह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के लडके हरगोबिंद से करना चाहता था। गुरु साहिब द्वारा इंकार करने पर वह गुरु साहिब का घोर शत्रु बन गया।
  3. पृथी चंद इस बात को सहन करने को कभी तैयार नहीं था कि गुरुगद्दी उसे न मिलकर किसी ओर को मिले।
  4. गुरु अर्जन देव जी द्वारा जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो को दी गई सहायता भी उनके बलिदान का तत्कालिक कारण बनी।

प्रश्न 43.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of Naqshbandis in the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आरंभ किया गया एक आंदोलन था। शेख अहमद सरहिंदी जो कि उस समय नक्शबंदियों का नेता था बहुत कट्टर विचारों का था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को.तैयार नहीं था। उसका मुग़ल दरबार में काफ़ी प्रभाव था। इसलिए उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन साहिब जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने का निश्चय किया।

प्रश्न 44.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdrom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहजादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तात्कालिक कारण बनी। शहज़ादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता के विरुद्ध राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वह तरन तारन पहुँचा। सिख गुरुओं के साथ मुगलों के बहुत घनिष्ठ संबंध थे, यह स्वाभाविक था कि गुरु अर्जन देव जी उससे सहानुभूति रखते। कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया। जब जहाँगीर को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसे गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का स्वर्ण अवसर मिल गया।

प्रश्न 45.
क्या गुरु अर्जन देव जी को राजनीतिक कारणों से शहीद किया गया अथवा धार्मिक कारणों से ? संक्षिप्त जानकारी दें।।
(Was Guru Arjan Dev Ji martyred for political or religious causes ? Write briefly.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० में लाहौर में शहीद किया गया था। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए धार्मिक कारण उत्तरदायी थे। जहाँगीर की आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँगीर धार्मिक कारणों से गुरु साहिब को शहीद करना चाहता था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह भारत में केवल इस्लाम धर्म को प्रफुल्लित देखना चाहता था।

प्रश्न 46.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व लिखें। (Write the importance of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom in the Sikh History ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly describe the importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। इस बलिदान के कारण शाँति से रह रहे सिख भड़क उठे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि अब शस्त्र उठाने बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपनाई। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की। इस प्रकार सिख एक संत सिपाही बन गए। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों एवं मुग़लों में मित्रतापूर्वक संबंधों का अंत हो गया। इसके पश्चात् सिखों और मुग़लों के मध्य एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। दूसरी ओर इस शहीदी ने सिखों को संगठित करने में सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 47.
सिख पंथ के रूपांतरण में गरु हरगोबिंद साहिब ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Hargobind Sahib in transformation of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी के गुरु काल की सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Briefly describe the achievements of Guru Hargobind’s pontificate.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उन्होंने मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण कीं। गुरु जी ने मुग़ल अत्याचारियों का सामना करने के लिए एक सेना का गठन किया। उन्होंने अमृतसर की रक्षा के लिए लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों का सांसारिक मामलों में निर्देशन करने के लिए गुरु हरगोबिंद जी ने हरिमंदिर साहिब के सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण आरंभ करवाया। गुरु हरगोबिंद साहिब ने शाहजहाँ के समय में मुग़लों के साथ चार लड़ाइयाँ लड़ीं जिनमें गुरु साहिब को विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 48.
गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी नीति को क्यों धारण किया ?
(What were the main causes of the adoption of New Policy or Miri and Piri by Guru Hargobind Ji ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद द्वारा नई नीति क्यों अपनाई गई ? (Why did Guru Hargobind Sahib adopt the ‘New Policy’ ?)
उत्तर-

  1. मुग़ल बादशाह जहाँगीर बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को नहीं देख सकता था। इस बदली हुई स्थिति में गुरु साहिब को नई नीति अपनानी पड़ी।
  2. 1606 ई० में जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब को लाहौर में शहीद कर दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के उद्देश्य से सिखों को हथियार-बंद करने का फैसला किया।

प्रश्न 49.
गुरु हरगोबिंद साहिब की नई नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of Guru Hargobind Sahib’s New Policy ?)
अथवा
गरु हरगोबिंद जी की नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the New Policy or Miri and Piri of Guru Hargobind Ji ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की ‘नई नीति’ क्या थी ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें। (What were the ‘New Policy’ of Guru Hargobind Ji ? What were its main features ?)
उत्तर-

  1. गुरु हरगोबिंद साहिब बहुत शान-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की।
  2. सिख पंथ की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने एक सेना का गठन किया।
  3. गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि सिख उन्हें धन के स्थान पर शस्त्र और घोड़ें भेंट करें।
  4. सिखों के राजनीतिक एवं अन्य सांसारिक मामलों के समाधान के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के निकट अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया।

प्रश्न 50.
मीरी और पीरी के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? इसकी ऐतिहासिक महत्ता बताएँ। (What is Miri and Piri ? Describe its historical importance.)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? (What is meant by Miri and Piri ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Briefly describe the importance of the New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने गुरुगद्दी पर विराजमान होने के समय मीरी एवं पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी जबकि पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। इसके कारण प्रथम, सिखों में जोशीली भावना का संचार हुआ। दूसरा, अब उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का निर्णय किया। तीसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस नीति का अनुसरण करते हुए खालसा पंथ का सृजन किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 51.
गुरु हरगोबिंद जी के ग्वालियर में बंदी बनाए जाने पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior.)
अथवा
जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी क्यों बनाया ? (Why did Jahangir arrest Guru Hargobind Sahib ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नीति के कारण बंदी बनाया। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

प्रश्न 52.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on relations between Guru Hargobind Sahib and Mughal emperor Jahangir.)
उत्तर-
1605 ई० में मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही मुग़ल-सिख संबंधों में एक नया मोड़ आया। जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब को शहीद करवा दिया था। मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के उद्देश्य के साथ गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति धारण की। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बना कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। बाद में जहाँगीर ने गुरु जी को रिहा करने का आदेश दिया। इसके बाद गुरु हरगोबिंद साहिब तथा जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए।

प्रश्न 53.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों के बीच लड़ाइयों के क्या कारण थे ? (What were the causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब और मुग़लों के बीच लड़ाइयों के कोई चार कारण लिखो। (Write any four causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals.)
उत्तर-

  1. मुग़ल सम्राट शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था।
  2. शाहजहाँ के समय नक्शबंदियों के नेता शेख मासूम ने सम्राट को सिखों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करने के लिए भड़काया।
  3. गुरु हरगोबिंद जी ने अपनी सेना में बहुत-से मुग़ल सेना के भगौड़ों को भर्ती कर लिया था।
  4. सिख श्रद्धालु गुरु जी को ‘सच्चा पातशाह’ कहने लगे थे।

प्रश्न 54.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य हुई अमृतसर की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
Give a brief account of the battle of Amritsar fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी और मुग़लों के मध्य अमृतसर में प्रथम लड़ाई 1634 ई० में हुई। इस लड़ाई का मुख्य कारण एक बाज़ था। उस समय मुग़ल बादशाह शाहजहाँ एक विशेष बाज़ उड़ गया। सिखों ने उसको पकड़ लिया। फलस्वरूप शाहजहाँ ने सिखों को सबक सिखाने के लिए मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7000 सैनिक भेजे। सिखों ने मुग़ल सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। इस लड़ाई में मुखलिस खाँ मारा गया। परिणामस्वरूप मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार मुग़लों और सिखों के मध्य हुई इस प्रथम लड़ाई में सिख विजयी रहे।

प्रश्न 55.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुगलों के बीच हुई करतारपुर की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते
(What do you know about the battle of Kartarpur fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
1635 ई० में मुग़लों तथा सिखों के मध्य करतारपुर में लड़ाई हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। गुरु हरगोबिंद जी ने उसके अहंकारी होने के कारण उसे अपनी फ़ौज में से निकाल दिया था। पैंदा खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए खूब भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ ने एक सेना गुरु हरगोबिंद जी के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़ल सेना को अंत में पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 56.
गुरु हरगोबिंद जी की मुग़लों के साथ हुई लड़ाइयों का वर्णन करें तथा उनका ऐतिहासिक महत्त्व भी बताएँ।
(Write briefly Guru Hargobind Ji’s battles with the Mughals. What is their significance in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी की मुग़लों (शाहजहाँ के समय) के साथ 1634-35 ई० में चार लड़ाइयाँ हुईं। प्रथम लड़ाई 1634 ई० में अमृतसर में हुई। इसी वर्ष मुग़लों एवं सिखों में लहरा नामक लड़ाई हुई। 1635 ई० में गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य तीसरी लड़ाई करतारपुर में हुई। इस लड़ाई में गुरु साहिब के दो पुत्रों गुरुदित्ता जी तथा तेग़ बहादुर जी ने वीरता के जौहर दिखाए। इसी वर्ष फगवाड़ा में मुग़लों तथा गुरु हरगोबिंद जी के मध्य अंतिम लड़ाई हुई। इन लड़ाइयों में सिख अपने सीमित साधनों के बावजूद सफल रहे।

प्रश्न 57.
गुरु हरगोबिंद जी को बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Hargobind Ji known as ‘Bandi Chhor Baba’ ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बनाकर उन्हें ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। उस समय इस दुर्ग में 52 अन्य राजा भी बंदी बनाए हुए थे। ये सभी राजा गुरु जी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब की मौजूदगी में वे अपने कष्ट भूल गए। जब जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को रिहा करने का निर्देश दिया तो गुरु जी ने कहा कि वे तब तक रिहा नहीं होंगे जब तक 52 राजाओं को नहीं छोड़ा जाता। अंततः मजबूर होकर जहाँगीर ने इन राजाओं को भी रिहा कर दिया। इसी कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड बाबा’ कहा जाने लगा।

प्रश्न 58.
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें। (Write a note on Akal Takht Sahib.)
अथवा
अकाल तख्त साहिब के निर्माण का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of building of Sri Akal Takht Sahib in Sikh History ?)
उत्तर-
अकाल तख्त साहिब का निर्माण गुरु हरगोबिंद साहिब का महान् कार्य था। सिखों के राजनीतिक तथा सांसारिक पथ-प्रदर्शन के लिए उन्होंने अकाल तख्त साहिब की नींव रखी। अकाल तख्त साहिब का निर्माण कार्य गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ई० में आरंभ करवाया था। यह कार्य 1609 ई० में संपूर्ण हुआ। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के राजनीतिक एवं सैनिक मामलों का नेतृत्व करते. थे। यहाँ वह सैनिकों को प्रशिक्षण भी देते थे।

प्रश्न 59.
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughal Emperor Shah Jahan.)
उत्तर-
शाहजहाँ बहुत कट्टर सुन्नी बादशाह था। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था। दूसरा, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सैना तैयार किए जाने तथा उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कह कर संबोधन करना शाहजहाँ को एक आँख नहीं भाता था। 1634-35 ई० के समय के दौरान सिखों तथा मुसलमानों के मध्य अमृतसर, लहरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा नामक लड़ाइयाँ हुईं। इन लड़ाइयों में सिख विजयी रहे तथा मुग़लों को पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 60.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़ल सम्राटों के संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Write a brief note on the relations between Guru Hargobind Ji and the Mughal Emperors.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के दो समकालीन मुग़ल बादशाह जहाँगीर तथा शाहजहाँ थे। ये दोनों बादशाह बहुत कट्टर विचारों के थे। इस कारण गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए मीरी तथा पीरी की नीति धारण की। कुछ समय के लिए जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। बाद में जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद जी से मित्रता स्थापित कर ली। 1634-35 ई० के समय में शाहजहाँ के शासन काल में मुग़लों तथा सिखों के मध्य चार लड़ाइयाँ-अमृतसर, लहरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा लड़ी गईं। इनमें गुरु हरगोबिंद साहिब विजयी रहे।

प्रश्न 61.
सिख पंथ के विकास में गुरु हर राय जी का गुरुकाल क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
(Why is pontificate of Guru Har Rai Ji considered important in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हर राय जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Har Rai Ji.)
अथवा
सिख धर्म में गुरु हर राय जी का क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Har Rai Ji for the development of Sikh religion ?)
उत्तर-
सिखों के सातवें गुरु, गुरु हर राय जी 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। उनका गुरुकाल सिख धर्म के शांतिपूर्वक विकास का काल था। गुरु हर राय साहिब ने सिख धर्म का प्रचार करने के लिए पंजाब के कई स्थानों का भ्रमण किया। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब से बाहर अपने प्रचारक भेजे। परिणामस्वरूप सिख धर्म का काफ़ी प्रसार हुआ। गुरवाणी का गलत अर्थ बताने के कारण गुरु हर राय साहिब ने अपने बड़े पुत्र राम राय को गुरुगद्दी से बेदखल कर दिया। गुरु जी ने अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 62.
धीरमल संबंधी एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note about Dhirmal.) .
उत्तर-
धीरमल गुरु हर राय जी का बड़ा भाई था। वह चिरकाल से गुरुगद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था। जब धीर मल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसके क्रोध की कोई सीमा न रही। उसने शींह नामक एक मसंद के साथ मिल कर गुरु जी की हत्या का षड्यंत्र रचा। शीह के साथियों ने गुरु साहिब के घर का बहुत-सा सामान लूट लिया। बाद में धीरमल तथा शींह द्वारा क्षमा याचना करने पर गुरु साहिब ने उन्हें क्षमा कर दिया।

प्रश्न 63.
गुरु हरकृष्ण जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। उनको बाल गुरु क्यों कहा जाता है ? (Write a brief note on Guru Harkrishsn Ji. Why is he called Bal Guru ?)
अथवा
सिख धर्म में गुरु हरकृष्ण जी का क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Harkrishan Ji in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हरकृष्ण जी पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर-
सिखों के आठवें गुरु, गुरु हरकृष्ण जी गुरु हर राय जी के छोटे पुत्र थे। वह 1661 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए। उस समय उनकी आयु केवल पाँच वर्ष थी। इस कारण उनको ‘बाल गुरु’ के नाम से याद किया जाता है। गुरु हरकृष्ण जी के बड़े भाई रामराय के उकसाने पर औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली आने का आदेश दिया। गुरु साहिब 1664 ई० में दिल्ली गए। उन दिनों दिल्ली में भयानक चेचक एवं हैजा फैला हुआ था। गुरु जी ने वहाँ पर बीमारों की अथक सेवा की। वह 30 मार्च, 1664 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 64.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने अपनी गुरुगद्दी के दौरान (1664-1675 ई०) पंजाब और बाहर के प्रदेशों की अनेक यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख सिद्धांतों का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने पंजाब तथा पंजाब के बाहर अनेक स्थानों की यात्राएं कीं। गुरु साहिब की इन यात्राओं ने सिख पंथ के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इससे गुरु साहिब की ख्याति चारों ओर फैल गई।

प्रश्न 65.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की तलाश किसने की ओर क्यों ? (Who found Guru Tegh Bahadur Ji and why ?)
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। इसलिए 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा ने इसका हल ढूँढ़ा। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में डूबने लगा था तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। गुरु कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह बकाला पहुँचा। जब मक्खन शाह ने तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” अर्थात् गुरु मिल गया है।

प्रश्न 66.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के उत्तरदायी कारणों का वर्णन करें। (Highlight the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में सबसे प्रमुख योगदान औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता का था।
  2. औरंगजेब सिख धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।
  3. राम राय ने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए औरंगज़ेब को गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध भड़काया।
  4. कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी।

प्रश्न 67.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Discuss the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र सरहिंद था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति और सिख मत का बढ़ रहा प्रचार असहनीय था। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए औरंगजेब के कान भरने आरंभ कर दिए। उनकी कार्यवाई ने जलती पर तेल डालने का काम किया। अत: औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया।

प्रश्न 68.
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmans ?)
उत्तर-
औरंगजेब चाहता था कि कश्मीर के ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के पास पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया।,

प्रश्न 69.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनका बलिदान राजनीतिक कारणों से हुआ अथवा धार्मिक कारणों से ? व्याख्या करें।
(When and where was Guru Tegh Bahadur Ji martyred ? Did his martyrdom take place due to political or religious causes ? Discuss.)
अथवा
क्या गुरु तेग बहादुर जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was Guru Tegh Bahadur Ji a political offender ? Give arguments in support of your answer.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी पंजाब के इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। गुरु साहिब को 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद किया गया था। गुरु साहिब को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया था। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह औरंगजेब का शासन था। वह भारत में इस्लाम के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म को सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया था। हिंदुओं को पुनः जजिया कर देने के लिए विवश किया गया। औरंगज़ेब सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था।

प्रश्न 70.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की ऐतिहासिक महत्ता का वर्णन करो। (Explain the historical importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की महत्ता बताओ। (Explain the importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारण समूचा पंजाब क्रोध और रोष की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य रहेगा, तब तक अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। तत्पश्चात् सिखों और मुग़लों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया।

प्रश्न 71.
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(What difficulties were faced by Guru Gobind Singh Ji when he attained the Gurgaddi ?)
उत्तर-

  1. गुरु गोबिंद सिंह जी स्वयं बाल्यावस्था में थे। उनकी आयु केवल 9 वर्ष थी।
  2. मुग़ल सम्राट औरंगजेब बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं था।
  3. औरंगजेब के बढ़ते हुए अत्याचारों पर अंकुश लगाना आवश्यक था।
  4. धीरमल तथा रामराय गुरुगद्दी न मिलने के कारण गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे।

प्रश्न 72.
भंगाणी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhangani.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के भंगाणी युद्ध का वर्णन करें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Describe Guru Gobind Singh’s battle of Bhangani and also explain its importance.)
उत्तर-
भंगाणी के युद्ध के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु गोबिंद सिंह जी की सैनिक तैयारियों से पहाड़ी राजाओं को अपनी स्वतंत्रता खतरे में अनुभव होने लगी। पहाड़ी राजा सिख संगतों को बहुत परेशान करते थे। मुग़ल सरकार भी इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध भड़का रही थी। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद तथा श्रीनगर के शासक फ़तह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं ने 22 सितंबर, 1688 ई० को भंगाणी के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में सिखों की शानदार विजय हुई।

प्रश्न 73.
नादौण की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle on Nadaun.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई में पराजय के बाद पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह जी से मित्रता स्थापित कर ली थी। उन्होंने मुग़लों को वार्षिक खिराज (कर) भेजना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप आलिफ खाँ के अधीन एक सेना पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध भेजी गई। उसने 20 मार्च, 1690 ई० को पहाड़ी राजाओं के नेता भीम चंद की सेना पर नादौण में आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी ने भीम चंद का साथ दिया। इस संयुक्त सेना ने मुग़ल सेना को परास्त कर दिया।

प्रश्न 74.
खालसा की स्थापना के कारणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Give in brief the causes of the creation of Khalsa.)
अथवा
गरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सजन क्यों किया? (Why did Guru Gobind Singh Ji create the Khalsa ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के लिए उत्तरदायी मुख्य कारणों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए। (Give a brief description of the circumstances responsible for the creation of Khalsa.)
अथवा
1699 ई० में खालसा की स्थापना के लिए उत्तरदायी कोई चार कारण लिखें। (Write any four causes that led to the creation of Khalsa in 1699 A.D.)
अथवा
खालसा पंथ की स्थापना के क्या कारण थे ? (What were the causes of the foundation of the Khalsa Panth ?)
उत्तर-

  1. मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। उन्होंने गैर-मुसलमानों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया था।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी खालसा की स्थापना करके मसंद प्रथा का अंत करना चाहते थे।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी जाटों का सहयोग प्राप्त करने के लिए खालसा की स्थापना करना चाहते थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 75.
खालसा पंथ की स्थापना कब, कहाँ और कैसे हुई ? (When, where and how was the Khalsa founded ?)
अथवा
खालसा की स्थापना पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की स्थापना किस प्रकार की ? (How Khalsa was created by Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
खालसा पंथ की सजना कैसे की गई ? (How was Khalsa sect created ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन श्री आनंदपुर साहिब में केशगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। गुरु जी ने म्यान से तलवार निकाली और एकत्रित सिखों को संबोधित किया, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है, जो धर्म के लिए अपना शीश भेंट करे ?” इस पर भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए आगे आया। गुरु जी के आदेश पर भाई धर्म दास जी, भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया और खालसा पंथ की स्थापना की।

प्रश्न 76.
खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन करो। (Explain the main principles of the Khalsa.)
उत्तर-

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक को ‘खंडे का पाहुल’ छकना पड़ेगा।
  2. प्रत्येक खालसा पुरुष अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  3. प्रत्येक खालसा एक ईश्वर की पूजा करेगा।
  4. प्रत्येक खालसा पाँच कक्कार-केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण अवश्य धारण करेगा।

प्रश्न 77.
खालसा पंथ की स्थापना के महत्त्व पर एक नोट लिखो। (Write a note on the importance of the Khalsa.)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था? (What was the importance of the foundation of Khalsa ?)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था? (Study the importance of the creation of Khalsa.)
उत्तर-

  1. खालसा की स्थापना के पश्चात् लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे।
  2. खालसा की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ।
  3. खालसा की स्थापना करके गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में नव प्राण फूंके।
  4. खालसा की स्थापना के कारण मसंद प्रथा का अंत हुआ।

प्रश्न 78.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the first battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की बढ़ रही शक्ति के कारण पहाड़ी राजाओं के मन की शांति भंग हो गई। कहलूर के राजा भीम चंद ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने यह माँग मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि, गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह भूमि उचित मूल्य देकर खरीदी थी। इस पर भीम चंद ने पहाड़ी राजाओं से मिल कर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले का घेरा कई दिनों तक जारी रहा। जब पहाड़ी राजाओं को कोई सफलता न मिली तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली।

प्रश्न 79.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the second battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर–
पहाड़ी राजाओं और मुग़ल सेना ने 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। घेरे के लंबे हो जाने के कारण 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़कर चले गए। दूसरी ओर शाही सेना ने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन झूठी कसमों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ अन्य सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने 20 दिसंबर, 1704 ई० को श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

प्रश्न 80.
चमकौर साहिब की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the battle of Chámkaur Sahib.) .
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ने के पश्चात् मुग़ल सेना ने उनका पीछा जारी रखा। गुरु साहिब ने चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में 40 सिखों सहित शरण ली। शीघ्र ही मुग़ल सैनिकों ने इस गढ़ी को घेर लिया। 22 दिसंबर, 1704 ई० में हुई चमकौर साहिब की यह लड़ाई बहुत घमासान लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादों-साहिबज़ादा अजीत सिंह जी तथा साहिबजादा जुझार सिंह जी ने वीरता प्रदर्शित की और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

प्रश्न 81.
खिदराना (श्री मुक्तसर साहिब) की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। [Write a brief note on the battle of Khidrana (Sri Mukatsar Sahib.)]
उत्तर-
सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने 29 दिसंबर, 1705 ई० को एक विशाल सेना के साथ गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में गुरु जी को शानदार विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में वे 40 सिख भी लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, जो श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उन 40 सिखों को गुरु जी ने मुक्ति का वरदान दिया। उस समय से खिदराना श्री मुक्तसर साहिब के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 82.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख पंथ में सांप्रदायिक बँटवारे तथा बाह्य खतरों की समस्या को किस प्रकार हल किया ?
(How did Guru Gobind Singh Ji settle the sectarian divisions and external dangers to Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख पंथ में सांप्रदायिक बँटवारे तथा बाह्य खतरों से निपटने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु जी ने इस बात की घोषणा की कि सारे सिख उनके ‘खालसा’ है और प्रत्यक्ष रूप से उनसे जुड़े हुए हैं । इस प्रकार मसंदों की मध्यस्थता समाप्त हो गई। मीणों, धीरमलियों, रामरइयों तथा हिंदालियों को सिख पंथ से निकाल दिया गया । बाझ खतरों से निपटने के लिए गुरु जी ने सारे सिखों को शस्त्रधारी रहने का आदेश दिया।

प्रश्न 83.
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the literary activities of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में बताइए। (Describe the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक गतिविधियों पर रोशनी डालिए।
(Evaluate the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वह उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। गुरु साहिब ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, हिंदी, फारसी, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं का प्रयोग किया। जापु साहिब, बचित्तर नाटक, ज़फ़रनामा, चंडी दी वार आपकी महान् रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं आपकी रचनाओं से हमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दरबार में 52 उच्चकोटि के कवियों को संरक्षण दिया था।

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प्रश्न 84.
ज़फ़रनामा क्या है ? (What is Zafarnama ?)
अथवा
ज़फ़रनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें । (Write a short note on Zafarnama.)
उत्तर-
जफ़रनामा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को फ़ारसी में लिखे गए एक पत्र का नाम है। इसे गुरु जी ने दीना कांगड़ नामक स्थान से लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगज़ेब तथा पहाड़ी राजाओं की ओर से कुरान की झूठी शपथ लेकर धोखा करने का वर्णन निर्भीकता से किया है। गुरु जी के इस पत्र को भाई दया सिंह जी ने औरंगज़ेब तक पहुँचाया था। इस पत्र का औरंगजेब पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 85.
गुरु गोबिंद सिंह जी के सामाजिक सुधारों का इतिहास में क्या महत्व है ? (What is the importance of social reforms of Guru Gobind Singh Ji in History ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके समाज में एक क्रांति ला दी। इसमें सम्मिलित होने वाले निम्न जातियों के लोगों को भी उच्च जातियों के बराबर स्थान दिया गया। गुरु जी ने अपने अनुयायियों को शराब, भांग तथा अन्य मादक पदार्थों से दूर रहने के लिए कहा। गुरु जी ने सिखों को महिलाओं का पूर्ण सम्मान करने के लिए कहा। मसंद प्रथा का अंत कर गुरु जी ने सिखों को उनके शोषण से बचाया।

प्रश्न 86.
“गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् संगठनकर्ता थे ।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं ?
(“Guru Gobind Singh Ji was a builder par-excellence”. Do you agree to this statement ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। सचमुच यह एक महान् कार्य था । इसने लोगों में नया जोश उत्पन्न किया। वे महान योद्धा बन गए और धर्म के नाम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गए । उन्होंने तब तक सुख की साँस न ली जब तक पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों के शासन का अंत न कर लिया गया तथा पंजाब में एक स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना न कर ली गई।

प्रश्न 87.
गुरु गोबिंद सिंह जी के व्यक्तित्व की कोई चार विशेषताएँ बताएँ । (Mention any four characteristics of Guru Gobind Singh Ji’s personality.)
उत्तर-

  1. गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े उच्च चरित्र के स्वामी थे।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्च कोटि के कवि तथा साहित्यकार थे।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् समाज सुधारक थे।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी में एक महान् योद्धा तथा सेनापति के गुण विद्यमान थे।

प्रश्न 88.
गुरु नानक देव जी की सिख पंथ को देन के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the contribution of Guru Nanak Dev Ji to Sikhism.)
उत्तर-
15वीं शताब्दी में, जब गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ तो उस समय भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा बहुत शोचनीय थी। मुसलमान शासक वर्ग से संबंधित थे। वे हिंदुओं से बहुत घृणा करते थे और उन पर भारी अत्याचार करते थे। धर्म केवल एक दिखावा बन कर रह गया था। लोग अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे थे। समाज में महिलाओं की दशा बहुत खराब थी। गुरु नानक देव जी ने लोगों में प्रचलित अंध-विश्वासों को दूर करने के लिए तथा उनमें नई जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं के दौरान गुरु जी ने लोगों से एक ईश्वर की पूजा करने, आपसी भ्रातृत्व, महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने, शुद्ध व पवित्र जीवन व्यतीत करने तथा अंध-विश्वासों को त्यागने का प्रचार किया। गुरु जी जहाँ भी गए उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा लोगों पर गहरा प्रभाव डाला। गुरु जी ने शासक वर्ग तथा उसके कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उन्होंने संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की नींव डाली। गुरु जी के जीवन काल में ही एक नया भाईचारा अस्तित्व में आ चुका था। गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुई।

प्रश्न 89.
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों के क्या उद्देश्य थे ? (What do you mean by Udasis ? What were the aims of Guru Nanak Dev Ji’s Udasis ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य तथा महत्त्व था ? (What were the aims and importance of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की उदासियों से अभिप्राय उनकी यात्राओं से था। गुरु नानक साहिब की उदासियों का मुख्य उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता तथा अंध-विश्वासों को दूर करना था। वह एक ईश्वर की पूजा तथा आपसी भ्रातृत्व का संदेश जन-साधारण तक पहुँचाना चाहते थे। उस समय हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही धर्म के वास्तविक सिद्धांतों को भूल कर अपने मार्ग से भटक चुके थे। हिंदू ब्राह्मण तथा जोगी, जिनका मुख्य कार्य भटके हुए लोगों का उचित दिशा निर्देशन करना था, वह स्वयं ही भ्रष्ट तथा चरित्रहीन हो चुके थे। जब धर्म के ठेकेदार स्वयं ही अंधकार में भटक रहे हों तो जन-साधारण की दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लोगों ने अनगिनत देवीदेवताओं, कब्रों, वृक्षों, साँपों तथा पत्थरों आदि की पूजा आरंभ कर दी थी। इस प्रकार धर्म की सच्ची भावना समाप्त हो चुकी थी। समाज जातियों तथा उपजातियों में विभाजित था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। समाज में महिलाओं की दशा दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती के समान समझा जाता था। गुरु नानक देव जी ने अज्ञानता के अंधेरे में भटक रहे इन लोगों को प्रकाश का एक नया मार्ग दिखाने के लिए यात्राएँ कीं।

प्रश्न 90.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की किन्हीं पाँच महत्त्वपूर्ण उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of any five important Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपनी उदासियों का आरंभ सैदपुर से किया। यहाँ उन्हें मलिक भागो नाम के ज़मींदार ने ब्रह्म भोज पर आमंत्रित किया परंतु गुरु साहिब एक निर्धन बढ़ई भाई लालो के घर ठहरे। मलिक भागो द्वारा पूछने पर गुरु जी ने बताया कि हमें कभी भी हराम की कमाई नहीं खानी चाहिए तथा ईमानदारी का जीवन व्यतीत करना चाहिए। तालुंबा के स्थान पर गुरु साहिब की भेंट सज्जन ठग से हुई। वह यात्रियों को अपनी सराय में ठहराता और रात्रि में उन्हें लूट कर उनकी हत्या कर देता था। वह गुरु नानक देव जी की वाणी से प्रभावित होकर उनका अनुयायी बन गया। उसने अपना शेष जीवन सिख धर्म के प्रचार में लगाया। गोरखमत्ता में गुरु नानक देव जी ने सिद्ध योगियों को बताया कि कानों में कुंडल डालने, शरीर पर भस्म मलने, शंख बजाने आदि से मुक्ति नहीं मिलती अपितु मुक्ति तो आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है। जगन्नाथ पुरी में गुरु नानक देव जी ने लोगों को समझाया कि वह औपचारिक आरती को कोई महत्त्व न दें। उस परम पिता परमात्मा की आरती प्रकृति सदैव करती रहती है। मक्का में गुरु नानक देव जी ने काज़ी रुकनुद्दीन को यह समझाया कि अल्लाह सर्वव्यापक है।

प्रश्न 91.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में बताइए।
(Describe the prime teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की कोई पाँच शिक्षाओं का वर्णन कीजिए। (Describe any five teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है। वह निराकार तथा सर्वव्यापक है। वह अजर-अमर है। वह सर्व-शक्तिमान तथा दयालु है। वह निर्गुण भी है तथा सगुण भी। वह इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता तथा नाशवानकर्ता है। अतः हमें उस ईश्वर को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा नहीं करनी चाहिए। गुरु जी माया को मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे। मनमुख व्यक्ति सदैव माया के चक्र में फंसा रहता है । माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है। गुरु जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मनुष्य के पाँच शत्रु बताते हैं । इन के कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों तथा धर्म के बाह्य आडंबरों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु जी उस व्यक्ति के धर्म को सत्य मानते थे जिसका हृदय सच्चा हो। गुरु जी के अनुसार गुरु के बिना मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं है। वह परमात्मा को सच्चा गुरु मानते हैं जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है। गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्त करना असंभव है। वह अंजन में निरंजन रहने के समर्थक थे।

प्रश्न 92.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nanak’s concept of God ?)
अथवा
मूल-मंत्र के आधार पर गुरु नानक देव जी द्वारा परमात्मा के बताए स्वरूप की व्याख्या करें। (Describe the nature of God according to Mul Mantra of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक साहिब जी के अनुसार परमात्मा एक है। चर्चा कीजिए। (As per Guru Nanak Sahib Ji God is One. Discuss.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। अन्य देवी-देवता ईश्वर के सम्मुख उसी प्रकार हैं जैसे तेजमय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों-हज़ारों हैं परंतु ईश्वर एक है। केवल ईश्वर ही संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं नाशवानकर्ता है। ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। पहले ईश्वर अपने आप में रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। बाद में उसने संसार की रचना की तथा इस रचना द्वारा अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहता है वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। वह अमर है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। वह निराकार भी है और सर्वव्यापक भी। उसका कोई आकार नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। वह सबसे महान् है। उसकी महानता अवर्णनीय है। वास्तव में वह अपनी महानता का ज्ञाता स्वयं है।

प्रश्न 93.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा प्रथाओं का खंडन किया ?
(Which prevalent religious beliefs and conventions were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने कौन-से प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खंडन किया ? (What type of religious beliefs and rituals were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित समस्त अंध-विश्वासों का खंडन किया। उन्होंने वेद, शास्त्र, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा तथा जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अवसरों से संबंधित संस्कारों का विरोध किया। इन रस्मों के मुख्य समर्थक ब्राह्मण थे। उन्होंने जोगियों की पद्धति को भी स्वीकार न किया। इसके दो कारण थे—

  1. जोगियों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव था।
  2. वे अपने सामाजिक दायित्व से दूर भागते थे।

गुरु नानक देव जी अवतारवाद में विश्वास नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने वैष्णव भक्ति को भी रद्द कर दिया। उन्होंने इस्लाम धर्म के नेताओं, जिन्हें मल्ला कहा जाता था, के धार्मिक विश्वासों का खंडन किया। भगवे वस्त्र धारण करना, कानों में कुंडल डालना, शरीर पर लगाना, माथे पर तिलक लगाना, शंख बजाना, कब्रों तथा मस्जिदों आदि की पूजा को गुरु जी धर्म नहीं मानते थे। गुरु नानक देव जी ने उस व्यक्ति के धर्म को सत्य माना जिसका हृदय सत्य है।

प्रश्न 94.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of Maya ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र आदि के चक्रों में फंसा रहता है। इसे ही माया कहते हैं। मनमुख रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ सकता। गुरु नानक देव जी ने माया को सर्पगी माया ममता मोहणी, माया मोह, त्रिकुटी तथा सूहा रंग इत्यादि के नामों से पुकारा है। माया जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। गुरु जी कहते हैं कि मनुष्य सोना-चाँदी आदि एकत्रित करके सोचता है कि वह संसार का बहुत बड़ा व्यक्ति बन गया है परंतु वास्तव में वह व्यक्ति अपने जीवन के लिए विष एकत्रित कर रहा होता है। इसी प्रकार वह दुविधा में फंस कर अपने जीवन का नाश कर लेता है। संक्षेप में माया मनुष्य की खुशियों का स्रोत नहीं अपितु उसके दु:खों का भंडार है। जो व्यक्ति माया का शिकार होता है उसे ईश्वर के दरबार में कोई स्थान नहीं मिलता।

प्रश्न 95.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of ‘Guru’ in Guru Nanak Dev’s teachings ?)
अथवा
गरु नानक देव जी के गुरु संबंधी विचार क्या थे ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of ‘Guru’ ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु का बहुत महत्त्व मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली एक वास्तविक सीढ़ी है। गुरु ही मनुष्य को मोह और अहं के रोग से दूर करता है। वही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग का अनुसरण करने का ढंग बताता है। गुरु के बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु के बिना मनुष्य को चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश की ओर ले जाता है। वह प्रत्येक असंभव कार्य को संभव बना सकता है। अत: उसके साथ मिलने से ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। वह सदा निरवैर रहता है। दोस्त तथा दुश्मन उसके लिए एक हैं। यदि कोई दुश्मन भी उसकी शरण में आ जाए तो वह उसे माफ कर देता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। परमात्मा की दया के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेष उल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानवीय गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है, जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

प्रश्न 96.
गुरु नानक देव जी के स्त्री जाति संबंधी क्या विचार थे? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about women ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों की जूती के समान था तथा उन्हें केवल भोग-विलास की एक वस्तु समझा जाता था तथा उन्हें जानवरों की भाँति खरीदा अथवा बेचा जा सकता था। उनमें अनेक कुरीतियाँ जैसे बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा तथा तलाक
प्रथा इत्यादि प्रचलित थीं। इन्हीं कारणों से लड़की के जन्म को अशुभ माना जाता था। गुरु नानक देव जी ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने समाज में स्त्रियों का सम्मान बढ़ाने हेतु एक जोरदार अभियान चलाया। वह बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा इत्यादि कुरीतियों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का समर्थन किया। इस संबंध में उन्होंने स्त्रियों को संगत एवं पंगत में सम्मिलित होने की आज्ञा दी। गुरु जी का विचार था कि हमें स्त्रियों से जो कि महान् सम्राटों को जन्म देती हैं, के साथ कभी भी बुरा बर्ताव नहीं करना चाहिए। वह स्त्रियों को शिक्षा दिए जाने के पक्ष में थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 97.
गुरु नानक देव जी के संदेश का सामाजिक अर्थ क्या था ? (What was the social meaning and significance of Guru Nanak Dev Ji’s message ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ? (What was the impact of teachings of Guru Nanak Dev Ji on Punjab ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के संदेश के सामाजिक अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनका संदेश प्रत्येक के लिए था। कोई भी स्त्री-पुरुष गुरु जी द्वारा दर्शाए गए मार्ग को अपना सकता था । मुक्ति का मार्ग सबके लिए खुला था। गुरु जी ने सामाजिक समानता का प्रचार किया। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। सामाजिक समानता के संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु जी ने संगत तथा पंगत (लंगर) नामक दो संस्थाएँ चलाईं। लंगर तैयार करते समय जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। गुरु नानक देव जी ने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय की नीति और व्याप्त भ्रष्टाचार की जोरदार शब्दों में निंदा की। शासक वर्ग के साथ-साथ गुरु जी ने अत्याचारी सरकारी कर्मचारियों की भी आलोचना की। इस प्रकार गुरु नानक देव जी ने पंजाब के समाज को एक नया स्वरूप देने का उपाय किया।

प्रश्न 98.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से किस प्रकार भिन्न थीं ? (How far were the teachings of Guru Nanak different from the Bhakti reformers ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से कई पक्षों से भिन्न थीं। गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा निराकार है। वह कभी भी मानवीय रूप को धारण नहीं करता। भक्ति प्रचारकों ने कृष्ण तथा राम को परमात्मा का अवतार माना। गुरु नानक देव जी मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे जबकि भक्ति प्रचारकों का इसमें पूर्ण विश्वास था। गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म का प्रसार करने के लिए गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके गुरुगद्दी को जारी रखा। दूसरी ओर बहुत कम भक्ति प्रचारकों ने गुरुगद्दी की परंपरा को जारी रखा। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उनका अस्तित्व खत्म हो गया। गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन में विश्वास रखते थे। भक्ति प्रचारक गृहस्थ जीवन को मुक्ति की राह में आने वाली एक बड़ी रुकावट मानते थे। गुरु नानक साहिब ने संगत तथा पंगत नामक दो संस्थाएँ स्थापित की। इनमें प्रत्येक स्त्री, पुरुष अथवा बच्चे बिना किसी भेद-भाव के सम्मिलित हो सकते थे। भक्ति प्रचारकों ने ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं की। गुरु नानक देव जी संस्कृत को पवित्र भाषा नहीं मानते थे। उन्होंने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की आम भाषा पंजाबी में किया। अधिकतर भक्ति प्रचारक संस्कृत को पवित्र भाषा समझते थे।

प्रश्न 99.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष कहाँ तथा कैसे व्यतीत किए ? (How and where did Guru Nanak Dev Ji spend last 18 years of his life ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर 1521 ई० में करतारपुर (अर्थात् ईश्वर का नगर) नामक नगर की स्थापना की। इसी स्थान पर गुरु साहिब ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की। संगत’ से अभिप्राय उस सभा से था जो प्रतिदिन गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए होती थी। इस संगत में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को शामिल होने का अधिकार था। इसमें केवल एक परमात्मा के नाम का जाप होता था। ‘पंगत’ से अभिप्राय था-एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकना। लंगर में जाति अथवा धर्म इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। ये दोनों संस्थाएँ गुरु साहिब के उपदेशों का प्रसार करने में सहायक सिद्ध हुईं। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की। गुरु साहिब का यह कार्य सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। गुरु साहिब की प्रमुख वाणियों के नाम जपुजी साहिब, वार माझ, आसा दी वार, सिद्ध गोष्टि, वार मल्हार, बारह माह और पट्टी इत्यादि हैं।

प्रश्न 100.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी की किन्हीं पाँच ऐसी सफलताओं का वर्णन करें जिनके कारण सिख धर्म का विकास हुआ ? (Write any five achievements of Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी के कार्यों का मूल्याँकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Angad Dev Ji for the spread of Sikhism)
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने सिख धर्म के विकास के लिए क्या योगदान दिया ? जानकारी दीजिए।
(What contribution has been given by Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism ? Describe.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० से लेकर 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस समय के दौरान गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए कई महत्त्वपूर्ण पग उठाए। उन्होंने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया। गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया ताकि लोग उसे सरलतापूर्वक समझ सकें। गुरु अंगद साहिब ने गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित किया। गुरु जी ने स्वयं ‘नानक’ के नाम के अंतर्गत वाणी की रचना की। यह गुरु अर्जन देव जी द्वारा संकलित ग्रंथ साहिब की तैयारी का प्रथम चरण सिद्ध हुआ। संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया गया। इन संस्थाओं ने जाति प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। गुरु अंगद देव जी ने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया। उन्होंने सिख पंथ को उदासी मत से पृथक् करके बहुत प्रशंसनीय कार्य किया। सिख पंथ के विकास के लिए गोइंदवाल साहिब नामक एक नए ‘नगर की स्थापना की गई। यहाँ पर एक बाऊली का निर्माण आरंभ किया गया। सिख पंथ के विकास कार्यों को जारी रखने के लिए गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 101.
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ? (What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurmukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरमुखी लिपि यद्यपि गुरु अंगद देव जी से पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे उस समय लंडे-महाजनी लिपि कहा जाता था। इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति भ्रम में पड़ सकता था इसलिए गुरु अंगद देव जी ने इस लिपि में वांछित सुधार करके इसे एक नया रूप प्रदान किया। फलस्वरूप इस लिपि को समझना सामान्य जन के लिए सरल हो गया। यह लिपि सिखों को उनके गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य का स्मरण करवाती थी। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। इस लिपि के प्रचलित होने के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। यह लिपि सिखों को उनके गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य का स्मरण करवाती थी। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि सिखों में विद्या के प्रसार के लिए भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। इनके अतिरिक्त इस लिपि के कारण सिखों का हिंदुओं से अलग अस्तित्व स्थापित किया जा सका। निस्संदेह गुरमुखी लिपि का प्रचार सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 102.
“गुरु अंगद देव जी बहुत अनुशासन प्रिय थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? (Guru Angad Dev Ji was a great disciplinarian.’ Do you agree to it ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। एक बार गुरु जी के दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों जिनके नाम सत्ता और बलवंड थे, अपनी मधुर आवाज़ के कारण बहुत गर्व करने लग पड़े थे। उनका ख्याल था कि उनके मधुर कीर्तन के कारण ही गुरु जी की संगत में वृद्धि होनी आरंभ हुई है। अपने अहंकार में आकर उन्होंने गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी की विनतियों के बावजूद वे अपनी जिद्द पर कायम रहे। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही उन्हें अपनी गलती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन बनाए रखने की मर्यादा को बनाए रखा।

प्रश्न 103.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the importance of Sangat and Pangat.)
अथवा
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Sangat ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें। (Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-

1. संगत-संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के सम्मिलित हो सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था। संगत में जाने वाले व्यक्ति का काया कल्प हो जाता था। उसके सभी पाप धुल जाते थे तथा उसमें ज्ञान का नया प्रकाश हो जाता था। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती थीं। वह भवसागर से पार हो जाता था। इस संस्था ने समाज से सामाजिक असमानता को दूर करने में और सिखों को संगठित करने में बहुत सहायता प्रदान की। निस्संदेह यह संस्था सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई।

पंगत-पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। गुरु अमरदास जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर खाए बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। पहले पंगत और पीछे संगत का नारा दिया गया। मुग़ल सम्राट अकबर और हरिपुर के राजा ने भी गुरु अमरदास जी के दर्शन करने से पूर्व लंगर खाया था। यह देर रात्रि तक चलता रहता था। शेष लंगर पक्षियों और जानवरों को खिला दिया जाता था। लंगर प्रत्येक धर्म और जाति के लोगों के लिए खुला था। सिख धर्म के प्रसार में लंगर संस्था का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। इस संस्था ने समाज में जाति प्रथा और छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने में भी बड़ी सहायता की। इस संस्था के कारण सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ।

प्रश्न 104.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के शीघ्र पश्चात् गुरु अमरदास जी को सर्वप्रथम गुरु अंगद देव जी के दोनों पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उनका कहना था कि गुरु पुत्र होने के कारण वे गुरुगद्दी के वास्तविक अधिकारी हैं। उन्होंने गुरु अमरदास जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया। उनका कथन था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है? बाबा श्रीचंद जी जो कि गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र थे, गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। इसलिए गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए उन्होंने गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया। गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देख कर गोइंदवाल साहिब के मुसलमान सिखों से ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सिखों के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। पर गुरु अमरदास जी ने सिखों को शाँत बने रहने के लिए कहा। उनका कथन था कि संतों के लिए प्रतिशोध लेना ठीक नहीं। व्यक्ति जो बीजेगा उसे वही काटना पड़ेगा। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों के कारण उच्च जाति के हिंदू भी गुरु साहिब का विरोध करने लग पड़े क्योंकि वे इन सुधारों को अपने धर्म में एक हस्तक्षेप मानते थे।

प्रश्न 105.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ। (Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी द्वारा की गई पाँच मुख्य सेवाओं का वर्णन करो।
(Write down the five services done by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के कार्यों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the works of Guru Amar Das Ji for the spread of Sikhism 🙂
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का अध्ययन करें। (Study the contribution of Guru Amar Das Ji to the growth of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अमरदास जी की भूमिका के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the role of Guru Amar Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस समय के दौरान गुरु अमरदास जी ने सिख पंथ के विकास के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए। उन्होंने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में आरंभ की गई बाऊली के निर्माण को पूर्ण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया गया। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री उनसे भेंट करने से पर्व लंगर अवश्य खाए। मंजी प्रथा की स्थापना सिख धर्म के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई। गरु साहिब ने सिख मत को उदासी मल से अलग रखकर सिख धर्म को हिंदू धर्म में लुप्त होने से बचा लिया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जसे… सती प्रथा, पर्दा प्रथा, विधवा विवाह की मनाही, जाति प्रथा और नशीले पदार्थों के सेवन इत्यादि का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु जी ने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में तेयार की। उन्होंने नानक नाम के अंतर्गत वाणी की रचना की। गुरु अमरदास जी ने भाई जेठा जी । गुरु रामदास जी) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

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प्रश्न 106.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of the construction of the Baoli oi Goindwal Sanih in sviles History ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोडं बाल साहिब में एक बाऊला का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण-कार्य 1552 ई० में आरंभ किया गया था और यह 1559 ई० में संपण हुआ था। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को क म तीर्थ न देना चाहते थे ताकि उन्हें हिंदू धर्म से अलग किया जा सके। दूसरा, वह वहाँ के लंगों की पानी के संबंध में कठिनाई को दूर करना चाहते थे। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। बाऊली का निमा काम पूर्ण होने पर गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली का निर्माण सिख पंथ के विकास के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य प्रमाणित हुआ। इससे सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब सिरमों को हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं थी। इस कारण सिख धर्म अधिक लोकप्रिय होने लगा। गोहंदगन साहिब सिख गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया।

प्रश्न 107.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कोई पाँच सामाजिक सुधारों का वर्णन करें। (Describe any five social reforms of Guru Amar Das Ji.) i
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। उन्होंने समाज में शताब्दियों से चली आ रही सती प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इस प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी लो उस स्त्री को बलपूर्वक उसके पति की चिता के साथ ही जीवित जला दिया जाना था। गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया। इन कुरीतियों के कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई। गुरु साहिब विधवा विवाह के पक्ष में थे। उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा और छुआछूत की बड़े जोरदार शब्दों में निंदा की। इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए गुरु साहिब ने उनके दर्शन के लिए आने वाले सभी यात्रियों के लिए लंगर छकना (भोजन करना) आवश्यक कर दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने परस्पर भ्रातृभाव का प्रचार किया। गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे। उन्होंने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में बनाईं। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने एक नए समाज का सूत्रपात किया।

प्रश्न 108.
मंजी प्रथा क्या थी ? सिख धर्म के विकास में इसने क्या योगदान दिया?
(What was the Manji System ? How did it contribute to the development of Sikhism ?)
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji System ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Manji System.)
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी का एक महान् कार्य था। उनके समय सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए उनका व्यक्तिगत रूप में प्रत्येक सिख के पास पहुँचना संभव नहीं था। इस कारण गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के क्षेत्रों में निवास करने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार का पद केवल बहुत ही श्रद्धालु सिखों को दिया जाता था। उनका पद पैतृक नहीं होता था। मंजीदार का प्रचार क्षेत्र किसी विशेष क्षेत्र तक सीमित नहीं था। वे प्रचार के संबंध में अपनी इच्छानुसार किसी भी क्षेत्र में जा सकते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। वे गुरु साहिब के हुकमों को सिख संगत तक पहुँचाते थे। वे लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे । वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी पर बैठकर धार्मिक उपदेश देते थे इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास एवं संगठन में बहुमूल्य योगदान दिया।

प्रश्न 109.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?) .
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी ने मुख्य भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
(Guru Ram Das Ji played a vital role for the development of Sikhism. Discuss.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। यहाँ पर गुरु साहिब ने अलग-अलग व्यवसायों से संबंधित 52 व्यापारियों को बसाया। यह बाज़ार ‘गुरु का बाज़ार’ के नाम से विख्यात हुआ। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म का प्रचार करने के लिए और सिखों से विकास कार्यों के लिए वांछित धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य चले आ रहे दीर्घकालीन मतभेदों को समाप्त करके एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा और वाणी की रचना की । उन्होंने समाज में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। 1581 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु रामदास जी ने सिख पंथ को बहुमूल्य देन प्रदान की।

प्रश्न 110.
रामदासपुरा ( अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? [What is the importance of the foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-
गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।शीघ्र ही यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र बन गया। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। पहले अमृतसर सरोवर की खुदवाई का कार्य आरंभ किया गया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया जो शीघ्र ही उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया। इसे सिखों का मक्का कहा जाने लगा। इस के अतिरिक्त यह सिखों की एकता एवं स्वतंत्रता का प्रतीक भी बन गया।

प्रश्न 111.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi Sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi System ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद की त्याग वृत्ति से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था जबकि गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सभी सिद्धांत गुरु नानक साहिब के सिद्धांतों से मिलते थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भुलाकर उदासी मत को ही न अपना लें। इसलिए गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी ने ज़ोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता। गुरु रामदास जी के समय में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया। इससे एक नए युग का सूत्रपात हुआ। अब उदासियों ने सिख मत का प्रचार करने में कोई कसर बाकी न रखी। फलस्वरूप सिख मत बहुत तीव्र गति से विकसित होने लगा।

प्रश्न 112.
गुरुगद्दी पर बैठने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? . (What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji after he ascended the Gurgaddi.)
अथवा
गुरु बनने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Write a brief note on the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji immediately after his accession to Gurgaddi.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी को सर्वप्रथम अपने बड़े भाई पृथी चंद के विरोध का सामना करना पड़ा। बड़ा भाई होने के नाते वह गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझता था। उसने यह घोषणा की कि जब तक वह गुरुगद्दी प्राप्त नहीं कर लेता वह कभी भी गुरु अर्जन देव जी को सुख की साँस नहीं लेने देगा। उसने मुग़ल बादशाह को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काने का हर संभव प्रयत्न किया। पंजाब के कट्टर मुसलमान पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को कभी सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने पहले अकबर तथा फिर जहाँगीर के कान भरे। अकबर पर तो इन बातों का कोई प्रभाव न पड़ा पर कट्टर मुसलमान होने के कारण जहाँगीर पर इनका बहुत प्रभाव पड़ा। चंदू शाह लाहौर का दीवान था। उसके दूतों ने उसे अपनी लड़की का रिश्ता गुरु अर्जन देव जी के सुपुत्र हरगोबिंद जी से करने का सुझाव दिया। यह सुनकर चंदू शाह तिलमिला उठा। उसने गुरु जी के संबंध में कई अपमानजनक शब्द कहे। तत्पश्चात् चंदू शाह की पत्नी के विवश करने पर वह रिश्ता करने के लिए सहमत हो गया। परंतु गुरु जी ने अब यह रिश्ता मानने से इंकार कर दिया। इस कारण चंदू शाह गुरु जी का घोर शत्रु बन गया तथा वह गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा।

प्रश्न 113.
गुरु अर्जन देव जी ने सिख पंथ के विकास में क्या योगदान दिया ? (What was Guru Arjan Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अर्जन देव जी के द्वारा दिए गए योगदान के बारे में बताओ।
(Describe the contribution of Guru Arjan Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की तीन महत्त्वपूर्ण सफलताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालें। (Throw a brief light on three important achievements of Guru Arjan Devji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के संगठनात्मक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the organisational works of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में गुरु अर्जन देव जी का योगदान बड़ा महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने अपनी गुरुगद्दी के समय (1581-1606 ई०) सिख पंथ के विकास के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए। अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण करके गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को उनका सबसे पावन तीर्थं स्थान प्रदान किया। गुरु साहिब ने बारी दोआब और जालंधर दोआब में तरन तारन, हरगोबिंदपुर और करतारपुर नामक नए नगरों की स्थापना की। लाहौर में एक बाऊली का निर्माण करवाया। मसंद प्रथा का विकास गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ सिखों से दशांस भी एकत्रित करते थे। 1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के लिए सबसे महान् कार्य माना जाता है। सिख इसे अपना सर्वाधिक पावन धार्मिक ग्रंथ मानते हैं। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को आर्थिक पक्ष से समृद्ध बनाने के लिए अरब देशों के साथ घोड़ों के व्यापार को प्रोत्साहित किया। 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देकर सिख पंथ में नव प्राण फूंके।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 114.
गुरु अर्जन देव जी द्वारा हरिमंदिर साहिब की स्थापना और इसकी महत्ता के बारे में बताइए।
(Describe briefly the importance of the foundation of Harmandir Sahib by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a brief note on Harmandir Sahib.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब की स्थापना एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the foundation and importance of Harmandir Sahib.)
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब जी की स्थापना गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक थी। इसका निर्माण अमृत सरोवर के मध्य आरंभ किया गया। गुरु अर्जन देव जी ने इसकी नींव 1588 ई० में विख्यात सूफी संत मीयाँ मीर द्वारा रखवाई थी। हरिमंदिर साहिब से अभिप्राय था-ईश्वर का मंदिर। गुरु साहिब ने हरिमंदिर साहिब का भवन इर्द-गिर्द के सभी भवनों से निम्न रखवाया क्योंकि गुरु साहिब का कथन था कि जो निम्न होगा, वही उच्च कहलाने के योग्य होगा। हरिमंदिर साहिब के चारों ओर द्वार बनवाए गए जिससे अभिप्राय था कि इस मंदिर में विश्व की चारों दिशाओं के लोग बिना किसी भेद-भाव के आ सकते हैं। हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य 1601 ई० में संपूर्ण हुआ। गुरु अर्जन देव जी ने यह घोषणा की कि हरिमंदिर साहिब की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। यदि कोई यात्री सच्ची श्रद्धा से अमृत सरोवर में स्नान करेगा तो उसे इस भव सागर से मुक्ति प्राप्त होगी। इसका लोगों के दिलों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचने लगे। शीघ्र ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे विख्यात तीर्थ-स्थान बन गया।

प्रश्न 115.
मसंद व्यवस्था तथा इसके महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand System and its importance.)
अथवा
मसंद प्रथा के विकास तथा संगठन का वर्णन कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand System.)
अथवा
मसंद प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about Masand System ? Explain.)
अथवा
मसंद प्रथा किसने शुरू की ? इसके उद्देश्य क्या थे ?
(Who started Masand System ? What were its aims ?)
अथवा
मसंद प्रथा को किसने शुरू किया था ?
(Who started Masand System ?)
अथवा
मसंद प्रथा के संगठन तथा विकास की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand System.)
अथवा
मसंद प्रथा संबंधी संक्षिप्त ब्योरा दें। (Give a brief description of Masand System.)
उत्तर-
मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से बना है जिससे अभिप्राय है ‘उच्च स्थान’ । इस प्रथा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। परंतु इसका वास्तविक विकास गुरु अर्जन देव जी के समय में हुआ। उस समय तक सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए गुरु अर्जन देव जी को लंगर और सिख पंथ के अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांस (दशम भाग) गुरु साहिब को भेंट करे । इस धन को एकत्रित करने के लिए उन्होंने मसंदों को नियुक्त किया। ये मसंद धन एकत्रित करने के साथ-साथ सिख धर्म का प्रचार भी करते थे। मसंद सिखों से एकत्रित किए धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आ कर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा आरंभ में बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुई। इससे एक तो सिख धर्म का प्रचार दूर-दूर के क्षेत्रों में किया जा सका और दूसरे, गुरु घर की आय भी निश्चित हो गई। बाद में मसंद भ्रष्टाचारी हो गए और उन्होंने गुरु साहिब के लिए कई मुश्किलें उत्पन्न करनी आरंभ कर दीं। फलस्वरूप गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।

प्रश्न 116.
तरन तारन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Write a short note on Tarn Taran and its importance.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने माझा के क्षेत्र में सिख धर्म का प्रचार करने के लिए 1590 ई० में अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर की खुदवाई भी आरंभ करवाई। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म का अपना लिया। इन जाटों ने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की। इन जाटों ने अपने स्वभाव तथा आदतों के कारण सिख धर्म को एक सैनिक धर्म में परिवर्तित किया। इन सैनिकों ने बाद में पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों का अंत किया तथा स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की।

प्रश्न 117.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन और महत्त्व के संबंध में बताएँ। [Write a note on the compilation and importance of Adi Granth (Guru Granth Sahib Ji.)]
अथवा
गुरु अर्जन देव जी ने कौन-से पवित्र ग्रंथ का संपादन किया ?
(Which sacred Granth was edited by Guru Arjan Dev Ji ? Describe.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी पर संक्षेप में नोट लिखें। (Write a note on Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था और सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का कार्य रामसर में आरंभ किया। इसमें गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन देव जी की वाणी सम्मिलित की गई। गुरु अर्जन साहिब जी के सर्वाधिक 2,216 शब्द सम्मिलित किए गए। इनके अतिरिक्त गुरु अर्जन देव ने कुछ अन्य संतों और भक्तों की वाणी को सम्मिलित किया। आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। यह महान कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। बाद में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी इसमें सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन सिख इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इससे सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में भिन्न-भिन्न धर्म और जाति के लोगों की रचनाएँ सम्मिलित करके एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 15वीं तथा 17वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति जानने के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी हमारा मुख्य स्रोत है। इनके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य तथा भाषाओं का एक अमूल्य खजाना है।

प्रश्न 118.
पृथी चंद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Prithi Chand.)
अथवा
पृथी चंद कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Prithi Chand ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
पृथी चंद अथवा पृथिया गुरु रामदास जी का सबसे बड़ा पुत्र और गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बहुत स्वार्थी एवं लोभी स्वभाव का था। इसके कारण गुरु रामदास जी ने उसे गुरुगद्दी सौंपने की अपेक्षा गुरु अर्जन देव जी को सौंपी। पृथी चंद यह जानकर क्रोधित हो उठा। वह तो गुरुगद्दी पर बैठने के लिए काफी समय से स्वप्न देख रहा था। परिणामस्वरूप गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए उसने गुरु अर्जन देव का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया। उसने घोषणा की कि वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक उसे गुरुगद्दी प्राप्त नहीं हो जाती। उसका यह विचार था कि गुरु अर्जन देव जी के पश्चात् गुरुगद्दी उसके पुत्र मेहरबान को अवश्य मिलेगी, परंतु जब गुरु साहिब के घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ तो उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया। इसलिए वह गुरु अर्जन देव जी के प्राणों का शत्रु बन गया। उसने मुग़ल अधिकारियों के साथ मिलकर गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए। उसके ये षड्यंत्र गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक कारण बने।

प्रश्न 119.
चंदू शाह कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Chandu Shah ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
अथवा
चंदू शाह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Chandu Shah.)
उत्तर-
चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंद्र शाह के परामर्शदाताओं ने उसे अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन देव जी के लड़के हरगोबिंद से करने का परामर्श दिया। इससे चंदू तिलमिला उठा। उसने गुरु अर्जन देव जी की शान में बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बाद में चंदू शाह की पत्नी द्वारा विवश करने पर वह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। उसने इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए गुरु अर्जन साहिब को शगुन भेजा, क्योंकि अब तक गुरु साहिब को चंदू शाह द्वारा उनके संबंध में कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल चुका था। इसलिए उन्होंने इस शगुन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। जब चंदू शाह को यह ज्ञात हुआ तो उसने गुरु साहिब से अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेने का निर्णय किया। उसने पहले मुग़ल बादशाह अकबर तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। इसका जहाँगीर पर वांछित प्रभाव पड़ा और उसने गुरु जी के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का निर्णय किया। अत: चंदू शाह का विरोध गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 120.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कोई पाँच मुख्य कारण बताएँ। (Mention five main causes for the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कोई तीन मुख्य कारण बताएं। (Examine three major causes of martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहादत के कारणों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss about the causes of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के क्या कारण थे? (What were the causes of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर की धर्मांधता गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इसलिए वह इस्लाम धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित नहीं देखना चाहता था। पंजाब में सिखों का दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा प्रभाव उसे अच्छा नहीं लग रहा था। इसे समाप्त करने के लिए वह किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। इस संबंध में हमें उसकी आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी से स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है । गुरु अर्जन देव जी द्वारा आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन भी उनके बलिदान का एक कारण बना। गुरु साहिब के विरोधियों ने जहाँगीर के यह कहकर कान भरने आरंभ कर दिए कि इस ग्रंथ में बहुत-सी बातें इस्लाम धर्म के विरुद्ध लिखी गई हैं। जहाँगीर ने गुरु साहिब को आदेश दिया कि वे गुरु ग्रंथ साहिब जी से कुछ शब्दों को निकाल दें परंतु गुरु साहिब ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। लाहौर का दीवान चंदू शाह अपनी लड़की के लिए किसी अच्छे वर की खोज में था। उसके परामर्शदाताओं ने उसे यह परामर्श दिया कि वह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के लड़के हरगोबिंद से कर दे। इस पर चंदू शाह ने गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। इस कारण गुरु साहिब ने यह रिश्ता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप चंदू शाह गुरु साहिब का घोर शत्रु बन गया। गुरु अर्जुन देव जी द्वारा जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो को दी गई सहायता भी उनके बलिदान का कारण बनी। यह कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो को अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह करने में सहायता दी थी।

प्रश्न 121.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of Naqashbandis in the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आरंभ किया गया एक आंदोलन था। इस आंदोलन का मुख्य केंद्र सरहिंद में था। यह आंदोलन पंजाब में सिखों के तीव्रता से बढ़ रहे प्रभाव को देखकर बौखला उठा था। इसका कारण यह था कि यह आंदोलन इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता देख कभी सहन नहीं कर सकता था।शेख अहमद सरहिंदी जो कि उस समय नक्शबंदियों का नेता था बहुत कट्टर विचारों का था। उसका मुग़ल दरबार में काफी प्रभाव था। इसलिए उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन साहिब जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उसका कथन था कि यदि समय रहते सिखों का दमन न किया गया तो इसका इस्लाम पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव के विरुद्ध कार्यवाही करने का निश्चय किया।

प्रश्न 122.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहज़ादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तुरंत कारण बना। शहज़ादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता के विरुद्ध राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। जब शाही सेनाओं ने खुसरो को पकड़ने का यत्न किया तो वह भाग कर पंजाब आ गया। पंजाब पहुँच कर खुसरो गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तरन तारन पहुँचा। अकबर का पौत्र होने के कारण, जिसके सिख गुरुओं के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध थे, यह स्वाभाविक था कि गुरु अर्जन देव जी उससे सहानुभूति रखते। साथ ही गुरुघर में आकर कोई भी व्यक्ति गुरु साहिब को आशीर्वाद देने की याचना कर सकता था। कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया और उसे काबुल जाने के लिए कुछ वांछित सहायता भी प्रदान की। जब जहाँगीर को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसे गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का स्वर्ण अवसर मिल गया। उसने लाहौर के गवर्नर मुर्तज़ा खाँ को आदेश दिया कि गुरु साहिब को गिरफ्तार कर लिया जाए। उन्हें घोर यातनाएँ देकर मौत के घाट उतार दिया जाए तथा उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाए।

प्रश्न 123.
गुरु अर्जन देव जी को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनके बलिदान का मुख्य कारण धार्मिक था। अपने पक्ष में तर्क दें।
(When and where was Guru Arjan Dev Ji martyred ? The main reason of his martyrdom was religious. Give arguments in its favour.)
अथवा
क्या गुरु अर्जन देव जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Was Guru Arjan Dev Ji a political offender ? Briefly explain.)
अथवा
क्या गुरु अर्जन देव जी को राजनीतिक कारणों से शहीद किया गया अथवा धार्मिक कारणों से ? संक्षिप्त जानकारी दें।
(Was Guru Arjan Dev Ji martyred for political or religious causes ? Write briefly.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० में लाहौर में शहीद किया गया था। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए धार्मिक कारण उत्तरदायी थे। गुरु साहिब ने खुसरो की कोई सहायता नहीं की थी। गुरु साहिब द्वारा खुसरो के माथे पर तिलक लगाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता क्योंकि ऐसा करना सिख परंपरा के विपरीत था। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं किया कि गुरु अर्जन साहिब ने शहज़ादा खुसरो की कोई सहायता की थी। गुरु साहिब शहज़ादा खुसरो को उन्हें दंड दिए जाने से लगभग एक माह पूर्व मिले थे। यदि गुरु साहिब ने कोई अपराध किया होता तो उन्हें शीघ्र दंड दिया जाना था। तुज़क-एजहाँगीरी को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँगीर धार्मिक कारणों से गुरु साहिब को शहीद करना चाहता था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह भारत में केवल इस्लाम धर्म को प्रफुल्लित देखना चाहता था। वह गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने गुरु अर्जन देव जी पर शहज़ादा खुसरो की सहायता का आरोप लगाकर उन्हें शहीद कर दिया।

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प्रश्न 124.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व लिखें। (Write the importance of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly describe the importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ। इस बलिदान के कारण सिख धर्म का स्वरूप ही बदल गया। इससे शांतिपूर्वक रह रहे सिख भड़क उठे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि अब धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपनाई। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। इस प्रकार गुरु जी ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों एवं मुग़लों में मित्रतापूर्ण संबंधों का अंत हो गया। इसके पश्चात् सिखों और मुग़लों के मध्य एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। यह संघर्ष मग़लों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। दूसरी ओर इसने सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन के अतिरिक्त गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारण सिख धर्म पहले से अधिक लोकप्रिय हो गया। निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिख इतिहास में एक मील पत्थर सिद्ध हुई।

प्रश्न 125.
सिख पंथ के रूपांतरण में गुरु हरगोबिंद साहिब ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Hargobind Sahib in transformation of Sikhism ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब के योगदान के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the contribution of Guru Hargobind Sahib for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। सिख पंथ के रूपांतरण में गुरु हरगोबिंद साहिब का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह बहुत शानो-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने सच्चा पातशाह की उपाधि तथा मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण की : मोरी तलवार सांसारिक सत्ता की और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। गुरु जी ने मुग़ल अत्याचारियों का सामना करने के लिए एक सेना का गठन करने का निर्णय किया। उन्होंने सिखों को घोड़े और शस्त्र भेट करने के लिए कहा। अमृतसर की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों का सांसारिक मामलों में निर्देशन करने के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। गुरु साहिब के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर जहाँगीर ने उन्हें कुछ समय के लिए ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बना लिया था। शाहजहाँ के समय में गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़लों के साथ चार लड़ाइयाँ लड़ीं जिनमें गुरु साहिब को विजय प्राप्त हुई। गुरु जी ने कीरतपुर साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गुरु हरगोबिंद साहिब ने सिख धर्म का खूब प्रचार किया।

प्रश्न 126.
गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी नीति को क्यों धारण किया ?
(What were the main causes of the adoption of New Policy or Miri and Piri by Guru Hargobind Ji ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी ने आगे दिये कारणों से नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी की नीति धारण की—

  1. जहाँगीर से पूर्व मुग़लों तथा सिखों के मध्य संबंध मैत्रीपूर्ण चले आ रहे थे। 1605 ई० में जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक नए युग का आरंभ हुआ। वह बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के बिना किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता नहीं देख सकता था। इस बदली हुई स्थिति ने गुरु साहिब को नई नीति अपनाने के लिए बाध्य कर दिया।
  2. 1606 ई० में जहाँगीर ने सिखों की बढ़ती हुई शक्ति का अंत करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन देव जी को लाहौर में शहीद कर दिया। इस शहीदी का गुरु हरगोबिंद साहिब पर गहरा प्रभाव पड़ा। अतः उन्होंने मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के उद्देश्य से सिखों को हथियारों से लैस करने का निर्णय किया।
  3. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद को यह संदेश भेजा कि वह हथियारों से सुसज्जित होकर गुरुगद्दी पर बैठे तथा अपनी योग्यता के अनुसार सेना भी रखे। अपने पिता के इस अंतिम संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति को अपनाया।
  4. पंजाब के जाट बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित थे। वे अत्याचारी के समक्ष झुकना नहीं जानते थे। उन्होंने गुरु हरगोबिंद साहिब को नई नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया।

प्रश्न 127.
गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई नई नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of Guru Hargobind’s New Policy ?)
अथवा
मीरी एवं पीरी के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी-पीरी के सिद्धांत के बारे में जानकारी दीजिए।
(Discuss the concept of Miri-Piri.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कौन-सी नई नीति अपनाई ? प्रकाश डालें। (Which New Policy was adopted by Guru Hargobind Sahib Ji’? Elucidate ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। ( Mention any five features of New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए नई नीति अपनाने का निर्णय किया। वे बहुत शान-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने सम्राट् की भाँति चमकीले वस्त्र पहनने आरंभ किए और सच्चा पातशाह की उपाधि धारण की। उन्होंने मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। सिख पंथ की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने एक सेना का गठन करने का निर्णय किया। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि सिख उन्हें धन के स्थान पर शस्त्र और घोड़े भेट करें। अमृतसर शहर को पूर्णतः सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से गुरु साहिब ने लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों के राजनीतिक एवं अन्य सांसारिक मामलों के समाधान के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के निकट अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद साहिब ने अपने सिखों को संत सिपाही बना दिया। इस नई नीति के फलस्वरूप सिखों एवं मुगलों के परस्पर संबंध बिगड़ने आरंभ हो गए। यदि गुरु हरगोबिंद साहिब ने नई नीति न अपनाई होती तो सिखों का पावन भ्रातृत्व या तो समाप्त हो गया होता अथवा फिर वे फ़कीरों और संतों की एक श्रेणी बन कर रह जाता।

प्रश्न 128.
मीरी और पीरी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? इसकी ऐतिहासिक महत्ता बताएँ। (What is Miri and Piri ? Describe its historical importance.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Briefly describe the importance of the New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने गुरुगद्दी पर बैठने के समय बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए मीरी एवं पीरी नामक दो तलवारें धारण करने का निर्णय किया। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी जबकि पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। गुरु साहिब द्वारा ये दोनों तलवारें धारण करने से अभिप्राय यह था कि आगे से वे अपने अनुयायियों का धार्मिक नेतृत्व करने के अतिरिक्त सांसारिक मामलों में भी नेतृत्व करेंगे। गुरु हरगोबिंद साहिब ने एक ओर सिखों को सतनाम का जाप करने और दूसरी ओर अपनी रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का आदेश दिया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई इस मीरी और पीरी की नीति का सिख इतिहास पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसके कारण सर्वप्रथम सिखों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ। दूसरा, अब उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का निर्णय किया। तीसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस नीति का अनुसरण करते हुए खालसा पंथ का सृजन किया। चौथा, इस नीति के कारण सिखों और मुग़लों और अफ़गानों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ जिसमें अंतत: सिख विजयी रहे।

प्रश्न 129.
गुरु हरगोबिंद जी के ग्वालियर में बंदी बनाए जाने पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। गुरु जी द्वारा उसकी पुत्री के साथ विवाह करने से पुनः इंकार करने पर उसने जहाँगीर को गुरु साहिब के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने उन्हें बंदी बना लिया। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण बंदी बनाया। इस नीति से उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो गई थीं तथा गुरु साहिब के विरोधियों ने भी जहाँगीर के कान भरे कि गुरु जी विद्रोह करने की तैयारियाँ कर रहे हैं। इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है कि गुरु हरगोबिंद साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

प्रश्न 130.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on relations between Guru Hargobind Sahib and Mughal Emperor Jahangir.)
उत्तर-
1605 ई० में मुग़ल सम्राट जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही मुग़ल-सिख संबंधों में एक नया मोड़ आया। जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। सिंहासन पर बैठने के तुरंत पश्चात् उसने गुरु अर्जन देव जी को शहीद करवा दिया था। इस कारण मुग़ल-सिख संबंधों में तनाव पैदा हो गया। मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के उद्देश्य के साथ गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति धारण की। उन्होंने अपनी योग्यता के अनुसार कुछ सेना भी रखी। जहाँगीर यह सहन करने के लिए तैयार न था। चंद्र शाह ने भी गुरु हरगोबिंद साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए जहाँगीर को भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बना कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। गुरु साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। भाई जेठा जी तथा सूफी संत मीयाँ मीर जी के कहने पर जहाँगीर ने गुरु जी को रिहा करने का आदेश दिया। गुरु जी के कहने पर जहाँगीर ने ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बनाए 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करने का आदेश दिया। इस कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड़ बाबा’ कहा जाने लगा। इसके बाद गुरु हरगोबिंद साहिब तथा जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए।

प्रश्न 131.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों के बीच लड़ाइयों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों (शाहजहाँ) के मध्य लड़ाइयों के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—

  1. मुग़ल सम्राट शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था। सिख इस अपमान को किसी हालत में सहन करने को तैयार नहीं थे।
  2. शाहजहाँ के समय नक्शबंदियों के नेता शेख मासूम ने सम्राट को सिखों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करने के लिए भड़काया।
  3. गुरु जी ने अपनी सेना में बहुत से मुग़ल सेना के भगौड़ों को भर्ती कर लिया था। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कई राजसी चिह्नों को धारण कर लिया था। सिख श्रद्धालु गुरु जी को ‘सच्चा पातशाह’ कहने लगे थे। निस्संदेह शाहजहाँ भला यह कैसे सहन करता।
  4. कौलां लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की बेटी थी। वह गुरु अर्जन साहिब की वाणी से प्रभावित होकर गुरु जी की शरण में चली गई थी। इस काजी द्वारा भड़काने पर शाहजहाँ ने गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया।

प्रश्न 132.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य हुई अमृतसर की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(Give a brief account of the battle of Amritsar fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय में मुग़लों और सिखों के मध्य अमृतसर में 1634 ई० में प्रथम लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई का मुख्य कारण एक बाज़ था। कहा जाता है कि उस समय मुग़ल बादशाह शाहजहाँ अपने कुछ सैनिकों सहित अमृतसर के निकट एक वन में शिकार खेल रहा था। दूसरी ओर गुरु हरगोबिंद साहिब और उनके कुछ सिख भी उसी वन में शिकार खेल रहे थे। शिकार खेलते समय शाहजहाँ का एक विशेष बाज़ जो उसे ईरान के सम्राट ने भेट किया था, उड़ गया। सिखों ने इस को पकड़ लिया। उन्होंने यह बाँज़ मुग़लों को लौटाने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप शाहजहाँ ने सिखों को सबक सिखाने के उद्देश्य से मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7000 सैनिक भेजे। सिख सैनिकों ने मुग़ल सैनिकों का डटकर सामना किया। इस लड़ाई में मुखलिस खाँ मारा गया। इस कारण मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार मुग़लों और सिखों के मध्य हुई इस प्रथम लड़ाई में सिख विजयी रहे। इस विजय के कारण सिखों के हौसले बुलंद हो गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 133.
गुरु हरगोबिंद जी के समय हुई लहिरा की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Lahira fought in the times of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
अमृतसर की लड़ाई के शीघ्र पश्चात् मुग़लों तथा सिखों के मध्य लहिरा (भटिंडा के निकट) नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई का कारण दो घोड़े थे जिनके नाम दिलबाग तथा गुलबाग थे। इन दोनों घोड़ों को, जो कि बहुत बढ़िया नस्ल के थे बखत मल और तारा चंद नामक दो मसंद काबुल से गुरु साहिब को भेट करने के लिए ला रहे थे। मार्ग में ये दोनों घोड़े मुग़लों ने छीन लिए और उन्हें शाही घुड़साल में पहुँचा दिया। यह बात गुरु साहिब का एक सिख भाई बिधी चंद सहन न कर सका। वह भेष बदल कर दोनों घोड़े शाही घुड़साल से निकाल लाया और गुरु साहिब के पास पहुँचा दिया। जब शाहजहाँ को यह सूचना मिली तो वह क्रोधित हो उठा। उसने तुरंत लल्ला बेग तथा कमर बेग के नेतृत्व में एक भारी सेना सिखों के दमन के लिए भेजी। लहिरा नामक स्थान पर मुग़लों तथा सिखों के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़लों की भारी प्राण हानि हुई और उनके दोनों सेनापति लल्ला बेग तथा कमर बेग भी मारे गए। इस लड़ाई में भाई जेठा जी भी शहीद हो गए। इस लड़ाई में सिख विजयी रहे।

प्रश्न 134.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के बीच हुई करतारपुर की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Kartarpur fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
1635 ई० में मुग़लों तथा सिखों के मध्य करतारपुर में तीसरी लड़ाई हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। वह गुरु हरगोबिंद जी की सेना में पठान टुकड़ी का सेनापति था। अमृतसर की लड़ाई में उसने वीरता का प्रमाण दिया, परंतु अब वह बहुत अहंकारी हो गया था। उसने गुरु साहिब का एक बाज़ चोरी करके अपने दामाद को दे दिया। गुरु साहिब के पूछने पर उसने इस बात से इंकार कर दिया कि उसे बाज़ के संबंध में कुछ पता है। तत्पश्चात् जब गुरु जी को पैंदा खाँ के झूठ का पता चला तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। पैंदा खाँ ने इस अपमान का बदला लेने का निर्णय किया। वह मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की शरण में चला गया। उसने शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए खूब भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ ने पैंदा खाँ और काले खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना गुरु हरगोबिंद जी के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में गुरु जी के दो पुत्रों भाई गुरदित्ता जी तथा तेग़ बहादुर जी ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। इस लड़ाई में गुरु साहिब से लड़ते हुए काले खाँ, पैंदा खाँ और उसका पुत्र कुतब खाँ मारे गए। मुग़ल सेना को भारी जन हानि हुई। इस प्रकार गुरु जी को एक और शानदार विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 135.
गुरु हरगोबिंद जी को ‘बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Hargobind Ji known as ‘Bandi Chhor Baba’ ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बना कर भेज दिया था। उस समय इस दुर्ग में 52 राजा राजनीतिक कारणों से बंदी बनाए हुए थे। ये सभी राजा गुरु जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब की मौजूदगी में वे अपने सभी कष्ट भूल गए थे। पर जब जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को रिहा करने का निर्देश दिया तो दुर्ग में बंदी दूसरे राजाओं को बहुत निराशा हुई। क्योंकि गुरु साहिब को इन राजाओं से काफी हमदर्दी हो गई थी इसलिए गुरु साहिब ने जहाँगीर को यह संदेश भेजा कि वह तब तक रिहा नहीं होंगे जब तक उनके साथ बंदी 52 राजाओं को भी रिहा नहीं कर दिया जाता। अंततः मजबूर होकर जहाँगीर ने इन राजाओं की रिहाई का निर्देश जारी कर दिया। इसी कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी छोड़ बाबा’ कहा जाने लगा।

प्रश्न 136.
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें। (Write a note on Akal Takht.)
अथवा
अकाल तख्त साहिब के निर्माण का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of building Sri Akal Takht in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई नई नीति के विकास में अकाल तख्त साहिब का निर्माण बहुत सहायक सिद्ध हुआ।वास्तव में यह गुरु साहिब का एक महान् कार्य था।अकाल तख्त (ईश्वर की गद्दी) साहिब का निर्माण कार्य गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ई० में आरंभ करवाया था। यह कार्य 1609 ई० में संपूर्ण हुआ। इसके भीतर एक 12 फीट ऊँचे चबूतरे का निर्माण किया गया जो एक तख्त के समान था। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के राजनीतिक एवं सांसारिक मामलों का नेतृत्व करते थे। यहाँ वे सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देते थे तथा उनके मल्ल युद्ध तथा अन्य सैनिक कारनामे देखते थे। यहीं पर वे मसंदों से घोड़े और शस्त्र स्वीकार करते थे। सिखों में जोश उत्पन्न करने के लिए यहाँ ढाडी वीर-रस की वारें सुनाते थे। यहाँ पर बैठकर ही गुरु हरगोबिंद जी सिखों के परस्पर झगड़ों का भी निपटारा करते थे। वास्तव में अकाल तख्त सिखों की राजनीतिक गतिविधियों का एक प्रमुख स्थल बन गया।

प्रश्न 137.
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ संबंध कैसे थे ? संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughal Emperor Shah Jahan.)
उत्तर-
जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् 1628 ई० में शाहजहाँ मुग़लों का नया बादशाह बना। उसके शासनकाल में कई कारणों से मुग़ल-सिख संबंधों में तनाव पैदा हो गया। प्रथम, शाहजहाँ बहुत कट्टर सुन्नी बादशाह था। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनाई गई बावली को गंदगी से भरवा दिया था तथा लंगर के लिए बनाए गए भवन को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था। दूसरा, नक्शबंदियों ने सिखों के विरुद्ध शाहजहाँ को भड़काने में कोई प्रयास न छोड़ा। तीसरा, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सेना तैयार किए जाने तथा उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कह कर संबोधन करना एक आँख नहीं भाता था। चौथा, लाहौर के एक काजी की लड़की जिसका नाम कौलां था, गुरु जी की शिष्या बन गई थी। इस कारण उस काजी ने शाहजहाँ को सिखों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने के लिए उत्तेजित किया। 1634-35 ई० के समय के दौरान सिखों तथा मुगलों के मध्य अमृतसर, लहिरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा नामक लड़ाइयाँ हुईं। इन लड़ाइयों में सिख विजयी रहे तथा मुग़लों को पराजय का सामना करना पड़ा। परिणामस्वरूप गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।

प्रश्न 138.
सिख पंथ के विकास में गुरु हर राय जी का समय क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
(Why is pontificate of Guru Har Rai Ji considered important in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हर राय जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Har Rai Ji.)
अथवा
गुरु हर राय जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Guru Har Rai Ji ?)
उत्तर-
गुरु हर राय जी 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनकी गुरुगद्दी का समय सिख इतिहास में शांति का काल कहा जा सकता है। गुरु हर राय साहिब जी सिख धर्म का प्रचार करने के लिए पंजाब के कई स्थानों पर जैसे जालंधर, अमृतसर, करतारपुर, गुरदासपुर, फिरोज़पुर, पटियाला, अंबाला, करनाल और हिसार इत्यादि स्थानों पर गए। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब से बाहर अपने प्रचारक भेजे । अपने प्रचार दौरे के दौरान गुरु साहिब ने अपने एक श्रद्धालु फूल को यह आशीर्वाद दिया कि उसकी संतान शासन करेगी। गुरु साहिब की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। शाहजहाँ का बड़ा पुत्र दारा गुरु घर का बहुत प्रेमी था। 1658 ई० में राज्य सिंहासन की प्राप्ति के लिए उत्तराधिकार युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में दारा की पराजय हुई और वह गुरु हर राय के पास आशीर्वाद लेने के लिए आया। गुरु साहिब ने उसके साहस को बढ़ावा दिया। बादशाह बनने के पश्चात् औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाया। गुरु साहिब ने अपने बड़े पुत्र राम राय को दिल्ली भेजा। गुरुवाणी का गलत अर्थ बताने के कारण गुरु हर राय साहिब ने उसे गुरुगद्दी से बेदखल कर दिया और अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण साहिब को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 139.
गुरु हरकृष्ण जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। उनको बाल गुरु क्यों कहा जाता है ? (Write a brief note on Guru Harkrishan Ji. Why is he called Bal Guru ?)
अथवा
गुरु हरकृष्ण जी पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी गुरु हर राय जी के छोटे पुत्र थे। वह 1661 ई० में गुरुगद्दी पर बैठे। वह सिखों के आठवें गुरु थे। जिस समय वह गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु केवल पाँच वर्ष थी। इस कारण उनको ‘बाल गुरु’ के नाम से स्मरण किया जाता है। गुरु हरकृष्ण जी के बड़े भाई राम राय ने आप जी को गुरुगद्दी दिए जाने का कट्टर विरोध किया, क्योंकि वह अपने आपको गुरुगद्दी का वास्तविक अधिकारी मानता था। जब वह अपनी कुटिल चालों में सफल न हो सका तो उसने औरंगजेब से सहायता माँगी। इस संबंध में औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली आने का आदेश दिया। गुरु साहिब 1664 ई० में दिल्ली गए। वहाँ वह राजा जय सिंह के यहाँ ठहरे। उन दिनों दिल्ली में भयानक चेचक एवं हैजा फैला हुआ था। गुरु जी ने इन बीमारों, गरीबों एवं अनाथों की भरसक सेवा की। वह स्वयं भी चेचक के कारण बीमार पड़ गए। वह 30 मार्च, 1664 ई० को ज्योति-जोत समा गए। ज्योति-जोत समाने से पूर्व आपके मुख . से ‘बाबा बकाला’ नामक शब्द निकले, जिससे भाव था कि सिखों का अगला उत्तराधिकारी बाबा बकाला में है।

प्रश्न 140.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी गुरुगद्दी के समय (1664-75 ई०) के दौरान पंजाब और पंजाब से बाहर के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख धर्म का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने वल्ला, घुक्केवाली, खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन, खेमकरन, कीरतपुर साहिब और बिलासपुर इत्यादि पंजाब के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी पूर्वी भारत की यात्राओं पर निकल पड़े। अपनी इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफाबाद, धमधान, दिल्ली, मथुरा, वृंदावन, आगरा, कानपुर, प्रयाग, बनारस, गया, पटना, ढाका और असम इत्यादि स्थानों पर गए। इन यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी अपने परिवार सहित पंजाब आ गए। यहाँ पर आकर गुरु साहिब ने एक बार फिर पंजाब के विख्यात स्थानों की यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की ये यात्राएँ सिखपंथ के विकास के लिए बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुईं। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग सिख मत में सम्मिलित हुए।

प्रश्न 141.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
उत्तर-
1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हरकृष्ण जी ने सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बाबा बकाला पहुँचा कि गुरु साहिब आगामी गुरु का नाम बताए बिना ज्योति-जोत समा गए हैं तो 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूँढा। वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में घिर कर डूबने लगा तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेट करेगा। गुरु साहिब की कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेट करने के लिए सपरिवार बाबा बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देख कर चकित रह गया। उसने वास्तविक गुरु को ढूंढने की एक योजना बनाई। वह बारी-बारी प्रत्येक गुरु के पास गया तथा उन्हें दो-दो मोहरें भेट करता गया। झूठे गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेट करने का वचन दिया था, परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह बहुत प्रसन्न हुआ और वह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 142.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के बलिदान के कारणों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the reasons for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कोई पाँच कारण लिखें। (Write any five causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
औरंगज़ेब की कट्टरता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बना। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में इस्लाम धर्म को छोड़कर अन्य किसी धर्म के अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवाकर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं। हिंदुओं के त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। उसने सिखों के कई विख्यात गुरुद्वारों को गिरवा देने का आदेश जारी किया। ऐसे समय में नक्शबंदियों ने जो कि कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था, ने भी सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ कर दिया था। नक्शबंदी पंजाब और पंजाब से बाहर सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन नहीं कर सकते थे। राम राय ने गुरुगद्दी को प्राप्त करने के लिए गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। इन षड्यंत्रों का औरंगजेब पर वांछित प्रभाव पड़ा। कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी। उस समय औरंगज़ेब कश्मीर के सभी पंडितों को मुसलमान बनाने पर तुला हुआ था। इंकार करने वालों की हत्या कर दी जाती। कोई मार्ग दिखाई न देता देखकर उन्होंने गुरु तेग़ बहादुर जी से सहायता के लिए निवेदन किया जो गुरु साहिब ने स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 143.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Evaluate the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh . Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति, सिख मत का बढ़ रहा प्रचार और मुसलमानों की गुरु घर के प्रति बढ़ रही प्रवृत्ति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं लोगों में आ रही जागृति और सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती ही न बन जाए। ऐसा होने की दशा में भारत में मुस्लिम समाज की जड़ें हिल सकती थीं। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ किया। उनकी इस कार्यवाही ने जलती पर तेल डालने का कार्य किया। उस समय शेख़ मासूम नक्शबंदियों का नेता था। वह अपने पिता शेख़ अहमद सरहिंदी से भी अधिक कट्टर था। उसका विचार था कि यदि पंजाब में सिखों का शीघ्र दमन नहीं किया गया तो भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डगमगा सकती है। परिणामस्वरूप औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया। निस्संदेह हम कह सकते हैं कि गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

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प्रश्न 144.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmins ?)
उत्तर-
कश्मीर में रहने वाले ब्राह्मणों का सारे भारत के हिंदू बहुत आदर करते थे। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के पास अपनी करण याचना लेकर पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो वह सोच में पड़ गए। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय, जो उस समय 9 वर्ष के थे, ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुन कर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया। गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को बता दें कि यदि वे मुरु तेग़ बहादुर को मुसलमान बना लें तो वे इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। जब औरंगज़ेब को इस बात का पता चला तो उसने गुरु जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनाने का निश्चय किया।

प्रश्न 145.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनका बलिदान राजनीतिक कारणों से हुआ अथवा धार्मिक कारणों से ?
(When and where was Guru Tegh Bahadur Ji martyred ? Did his martyrdom took place due to political or religious causes ? Discuss.)
अथवा
क्या गुरु तेग़ बहादुर जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was Guru Tegh Bahadur Ji a political offender ? Give arguments in support of your answer.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० में दिल्ली में शहीद किया गया था। गुरु साहिब को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का शासन था। वह बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह भारत में इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म का अस्तित्व सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया था और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। हिंदुओं को राज्य की नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें पुनः जजिया कर देने के लिए विवश किया गया। उनके धार्मिक रीतिरिवाजों को मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। औरंगज़ेब सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। नक्शबंदी जो कि कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था, को पंजाब में तीव्रता के साथ सिखों के बढ़ रहे प्रभाव के कारण इस्लाम धर्म के लिए खतरा अनुभव हुआ। इसलिए उसने औरंगजेब को भड़काया। उस समय कश्मीर में औरंगजेब के सूबेदार शेर अफ़गान ने कश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म में सम्मिलित करने के लिए अत्याचारों का एक दौर आरंभ किया हुआ था। प्रतिदिन बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म को स्वीकार न करने वाले पंडितों को मौत के घाट उतारा जाने लगा। इन पंडितों की पुकार पर गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देने का निर्णय किया।

प्रश्न 146.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के कारणों के बारे में जानकारी दें। (Describe the reasons for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले । संसार के इतिहास में गुरु साहिब जी का बलिदान एकमात्र ऐसा बलिदान था जो किसी अन्य धर्म की रक्षा के लिए दिया गया था। इस बलिदान के कारण समूचा पंजाब क्रोध और प्रतिशोध की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब के इस बलिदान ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थापित रहेगा, तब तक उनके अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उन्होंने 1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन किया। तत्पश्चात् सिखों और मुगलों के बीच एक लंबे संघर्ष की शुरुआत हुई। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया था। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों में धर्म के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ हो गई। अंत में महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत सिख पंजाब में एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इसके अतिरिक्त हिंदू धर्म के अस्तित्व को पूर्ण रूप से खत्म होने से बचा लिया गया।

प्रश्न 147.
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? (What difficulties were faced by Guru Gobind Singh Ji when he attained the Gurugaddi ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को आंतरिक तथा बाह्य अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी की आयु केवल 9 वर्ष थी परंतु उनके सामने पहाड़ जैसी चुनौतियाँ थीं। प्रथम, उस समय मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का शासन था। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं था। इसी कारण उसनें गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद कर दिया। औरंगज़ेब के बढ़ते हुए अत्याचारों को नुकेल डालना आवश्यक था। द्वितीय, पहाड़ी राजा अपने निहित स्वार्थों के कारण गुरु गोबिंद सिंह जी के विरुद्ध थे। तीसरा, धीरमलिए तथा रामसइए गुरुगद्दी न मिलने के कारण गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे। चौथा, उस समय मसंद प्रणाली में अनेकों दोष आ गए थे। मसंद अब बहुत भ्रष्ट हो गए थे। वे सिखों को लूटने में प्रसन्नता अनुभव करते थे। पाँचवां, उस समय हिंदू भी सदियों की गुलामी के कारण उत्साहहीन थे। परिणामस्वरूप सिखों को फिर से संगठित करने की आवश्यकता थी।

प्रश्न 148.
भंगाणी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhangani.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के भंगाणी युद्ध का वर्णन करें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Describe Guru Gobind Singh’s battle of Bhangani and also explain its importance.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई गुरु गोबिंद सिंह जी तथा पहाड़ी राजाओं के बीच हुई प्रथम लड़ाई थी। यह लड़ाई 22 सितंबर, 1688 ई० में हुई थी। इस लड़ाई के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, गुरु गोबिंद सिंह जी की चल रही सैनिक तैयारियों को देखकर पहाड़ी राजाओं में घबराहट फैल गई थी। उन्हें अपनी स्वतंत्रता ख़तरे में अनुभव होने लगी। दूसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी के समाज-सुधार के कार्यों को पहाडी राजा अपने धर्म में हस्तक्षेप समझते थे। तीसरा, ये पहाड़ी राजा सिख संगतों को बहुत तंग करते थे। चौथा, मुग़ल सरकार भी इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भड़का रही थी। पाँचवां, कहलूर का राजा भीम चंद गुरु साहिब से बहुत ईर्ष्या करता था। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद तथा श्रीनगर के शासक फ़तह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं के एक गठबंधन ने 22 सितंबर, 1688 ई० में भंगाणी के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सढौरा के पीर बुद्ध शाह ने गुरु साहिब को सहायता दी। सिखों ने पहाड़ी राजाओं का डटकर सामना किया। इस लड़ाई में अंततः सिखों की विजय हुई। इस विजय के कारण सिखों का उत्साह बहुत बढ़ गया तथा गुरु साहिब की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। पहाड़ी राजाओं ने गुरु साहिब का विरोध छोड़कर उनसे मित्रता करने में ही अपनी भलाई समझी।

प्रश्न 149.
नादौन की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Nadaun.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई के पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी पाऊँटा साहिब छोड़कर पुनः आनंदपुर साहिब आ गए। इस समय औरंगज़ेब दक्षिण के युद्धों में उलझा हुआ था। यह स्वर्ण अवसर देखकर पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों को दिया जाने वाला वार्षिक खिराज (कर) देना बंद कर दिया। जब औरंगज़ेब को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने जम्मू के सूबेदार मीयाँ खाँ को इन पहाड़ी राजाओं को पाठ पढ़ाने का आदेश दिया। मीयाँ खाँ ने तुरंत आलिफ खाँ के अंतर्गत मुग़लों की एक भारी सेना इन पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भेजी। ऐसे गंभीर समय में भीम चंद ने गुरु साहिब को सहायता के लिए निवेदन किया। गुरु साहिब ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया और वे स्वयं अपने सिखों को साथ लेकर सहायता के लिए पहुँचे। 20 मई, 1690 ई० को काँगड़ा से लगभग 30 किलोमीटर दूर नादौन में भीम चंद और आलिफ खाँ की सेनाओं में लड़ाई आरंभ हुई। इस लड़ाई में काँगड़ा के राजा कृपाल चंद ने आलिफ खाँ का साथ दिया। इस लड़ाई में गुरु साहिब और उनके सिखों ने अपनी वीरता के ऐसे जौहर दिखाए कि आलिफ खाँ और उसके सैनिकों को रणभूमि से भागने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार गुरु साहिब के सहयोग से भीम चंद और उसके साथी पहाडी राजाओं को विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 150.
खालसा की स्थापना के कारणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Give in brief the causes of the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन क्यों किया ? । (Why did Guru Gobind Singh create the Khalsa ?) .
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के लिए उत्तरदायी मुख्य कारणों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of the circumstances responsible for the creation of Khalsa.)
अथवा
1699 ई० में खालसा की स्थापना के लिए उत्तरदायी कोई पाँच कारण लिखें। (Write any five causes that led to the creation of Khalsa in 1699 A.D.)
उत्तर-
जहाँगीर के समय से मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। औरंगज़ेब तो सारी सीमाएँ ही लांघ गया। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया और उनके रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गैर-मुसलमानों को तलवार के बल पर इस्लाम धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया। 1675 ई० में उसने गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया। पहाड़ी राजा बहुत स्वार्थी और विश्वासघाती थे। गुरु गोबिंद सिंह जी को ऐसे सैनिकों की आवश्यकता पड़ी जो मुग़लों का डटकर सामना कर सकें। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो। वे मसंद प्रथा को समाप्त करने के लिए सिखों को एक नए रूप में संगठित करना चाहते थे। अब तक सिख-धर्म में सम्मिलित होने वाले लोगों में बहुसंख्या जाटों की थी। वे स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे योद्धाओं का सहयोग प्राप्त करना चाहते थे। बचित्तर नाटक में गुरु गोबिंद सिंह जी लिखते हैं कि उनके जीवन का उद्देश्य संसार में धर्म-प्रचार का कार्य करना एवं अत्याचारियों का नाश करना है। अपने इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

प्रश्न 151.
खालसा पंथ की स्थापना कब, कहाँ और कैसे हुई ?
(When, where and how was the Khalsa founded ?)
अथवा
खालसा की स्थापना पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ख़ालसा की स्थापना किस प्रकार की? (How Khalsa was created by Guru Gobind Singh Ji ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में केसगढ़ नामक स्थान पर एक भारी दीवान सजाया। इस दीवान में 80,000 सिखों ने भाग लिया। जब सभी लोग बैठ गए तो गुरु जी मंच पर आए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाली और एकत्रित सिखों को संबोधित किया, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है जो धर्म के लिए अपना शीश भेट करे ?” ये शब्द सुनकर दीवान में सन्नाटा छा गया। जब गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया तो भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए उपस्थित हुआ। गुरु जी उसे पास ही एक तंबू में ले गए जहाँ उन्होंने दया राम को बिठाया और खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आ गए। गुरु जी ने एक और सिख से बलिदान की माँग की। अब भाई धर्मदास जी उपस्थित हुआ। इस क्रम को तीन बार और दोहराया गया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया। गुरु साहिब ने इन पाँच प्यारों को पहले खंडे का पाहुल पिलाया और बाद में स्वयं इन प्यारों से पाहुल पिया। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

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प्रश्न 152.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन कब किया और इसके मुख्य सिद्धांत क्या हैं ?
(When was the Khalsa created by Guru Gobind Singh Ji and what are its main principles ?)
अथवा
खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन करो। (Explain the main principles of the Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा स्थापित किए गए ‘खालसा पंथ’ के मुख्य सिद्धाँत लिखो। (Write the main principles of the ‘Khalsa Panth’ founded by Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० में बैसाखी के दिन किया। खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांत ये थे—

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए ‘खंडे का पाहुल’ छकना आवश्यक है।
  2. प्रत्येक खालसा अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  3. प्रत्येक खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा नहीं करेगा।
  4. प्रत्येक खालसा पाँच कक्कार–केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण अवश्य धारण करेगा।
  5. प्रत्येक खालसा भोर होते ही जागकर स्नान करने के पश्चात् गुरवाणी का पाठ करेगा।
  6. प्रत्येक खालसा श्रम द्वारा अपनी आजीविका कमाएगा और अपनी आय का दशांस धर्म के लिए दान देगा।
  7. प्रत्येक खालसा शस्त्र धारण करेगा और धर्म युद्ध के लिए सदैव तैयार रहेगा।
  8. प्रत्येक खालसा सिगरेट, नशीले पदार्थों के सेवन, पर-स्त्री गमन इत्यादि बुराइयों से कोसों दूर रहेगा।
  9. प्रत्येक खालसा परस्पर मिलते समय ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह’ कहेगा।

प्रश्न 153.
खालसा पंथ की स्थापना के महत्त्व पर एक नोट लिखो। (Write a note on the importance of the Khalsa.)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the foundation of Khalsa ?)
अथवा
खालसा की स्थापना के महत्त्व का अध्ययन कीजिए। (Study the importance of the creation of Khalsa.)
उत्तर-
खालसा पंथ की स्थापना सिख इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसके दूरगामी परिणाम निकले। खालसा की स्थापना के पश्चात् लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। खालसा की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। इसमें ऊँच-नीच का कोई स्थान नहीं था। समस्त जातियों को समान समझा जाने लगा। इस प्रकार निम्न और पिछड़े वर्गों को एक नया सम्मान प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त इस समाज में अंध-विश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं था। खालसा की स्थापना करके गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में नव प्राण फूंके। अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब उन्होंने शस्त्र उठा लिए। दुर्बल से दुर्बल सिख भी अब स्वयं को शेर की भाँति वीर समझने लगा। उन्होंने वीरता की नई उदाहरणें स्थापित की। अंत में वे पंजाब से मुग़लों तथा अफ़गानों के अत्याचारी शासन का उन्मूलन करके और महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफल हुए।

प्रश्न 154.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the first battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग खालसा पंथ में सम्मिलित होने लगे थे। गुरु जी की दिन-प्रतिदिन बढ़ रही इस शक्ति के कारण पहाड़ी राजाओं के मन की शांति भंग हो गई थी। कहलूर के राजा भीम चंद, जिसकी रियासत में श्री आनंदपुर साहिब स्थित था, ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने यह माँग मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह भूमि उचित मूल्य देकर क्रय की थी। इस पर भीम चंद ने कुछ अन्य पहाड़ी राजाओं से मिल कर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले का घेरा कई दिनों तक जारी रहा। किले के भीतर यद्यपि सिखों की संख्या बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं का खूब डट कर सामना किया। जब पहाड़ी राजाओं को सफलता मिलने की कोई आशा न रही तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली। यह संधि पहाड़ी राजाओं की एक चाल थी तथा वह अवसर देखकर गुरु गोबिंद सिंह जी पर एक ज़ोरदार आक्रमण करना चाहते थे।

प्रश्न 155.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the second battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
पहाड़ी राजा गुरु गोबिंद सिंह जी से अपनी हुई निरंतर पराजयों के अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने मुग़ल सेनाओं से मिलकर मई, 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। इस संयुक्त सेना ने दुर्ग के भीतर जाने के अनेक प्रयास किए, परंतु सिख योद्धाओं ने इन सभी प्रयासों को असफल बना दिया। घेरे के लंबे हो जाने के कारण दुर्ग के भीतर खाद्य-सामग्री कम होनी आरंभ हो गई। इसलिए सिखों के लिए अधिक समय तक लड़ाई को जारी रखना संभव नहीं था। अतः कुछ सिखों ने गुरु साहिब को श्री आनंदपुर साहिब का दुर्ग छोड़ने का निवेदन किया। गुरु साहिब ने सिखों को कुछ दिन और संघर्ष जारी रखने का परामर्श दिया। इस परामर्श को न मानते हुए 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़कर चले गए। दूसरी ओर इतने लंबे समय से घेरे के कारण शाही सेना भी बहुत परेशान थी। इसलिए उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन झूठी कसमों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ अन्य सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने 20 दिसंबर, 1704 ई० को श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

प्रश्न 156.
चमकौर साहिब की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the battle of Chamkaur Sahib.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा श्री आनंदपुर साहिब का दुर्ग छोड़ने के पश्चात् मुग़ल सेनाएँ बहुत तीव्रता से उनका पीछा कर रही थीं। गुरु साहिब ने चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में 40 सिखों सहित शरण ली। 22 दिसंबर, 1704 ई० को हजारों की संख्या में मुग़ल सैनिकों ने इस गढ़ी को घेरे में ले लिया। चमकौर साहिब की यह लड़ाई बहुत घमासान लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह तथा जुझार सिंह ने र ह वीरता प्रदर्शित की कि मुग़लों को दिन में तारे दिखाई देने लगे। उन्होंने असंख्य मुसलमानों को मृत्यु की गोद में सुलाया और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। चमकौर साहिब की उस लड़ाई में जो वीरता सिखों ने दिखाई उसकी कोई अन्य उदाहरण मिलना बहुत कठिन है । पाँच सिखों के अनुरोध पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने चमकौर साहिब की गढ़ी को छोड़ दिया। गढ़ी छोड़ते समय गुरु जी ने मुगल सेना को ललकारा, परंतु वह गुरु साहिब का कुछ न बिगाड़ सकी।

प्रश्न 157.
खिदराना (मुक्तसर ) की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। [Write a brief note on the battle of Khidrana (Mukatsar).]
उत्तर-
खिदराना की लड़ाई गुरु जी तथा मुग़ल सेना में लड़ी जाने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी माछीवाड़ा के जंगलों में अनेक कठिनाइयाँ झेलते हुए खिदराना पहुँचे थे। जब मुग़लों को इस बात का पता चला तो सरहिंद के नवाब वज़ीर खाँ ने खिदराना में गुरु साहिब पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उसने 29 दिसंबर, 1705 ई० को एक विशाल सेना के साथ गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिखों ने बड़ी वीरता दिखाई। उन्होंने मुग़ल सेना के ऐसे छक्के छुड़ाए कि वे युद्ध स्थल छोड़ कर भाग गए। इस प्रकार गुरु जी को अपनी इस अंतिम लड़ाई में बड़ी शानदार विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में वह 40 सिख भी लड़ते-लड़ते शहीद हो गए थे जो आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उनकी कुर्बानी से प्रभावित होकर और उनके नेता महा सिंह, जो जीवन की अंतिम साँसें ले रहा था, की विनती को स्वीकार करके गुरु साहिब ने उनके द्वारा लिखे गए बेदावे को फाड़ दिया और उन्हें मुक्ति का वर दिया। इस कारण खिदराना का नाम श्री मुक्तसर साहिब पड़ गया।

प्रश्न 158.
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the literary activities of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में बताइए। (Describe the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक उपलब्धियों का मूल्यांकन करें। (Evaluate the literary achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
साहित्य के क्षेत्र में गुरु गोबिंद सिंह जी का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह स्वयं उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। उनके द्वारा रचित अधिकाँश साहित्य सिरसा नदी में बह गया था। फिर भी जो साहित्य हम तक पहुँचा है, उससे आपके महान् विद्वान् होने का पर्याप्त प्रमाण मिलता है। गुरु साहिब ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, हिंदी, फ़ारसी, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं का प्रयोग किया। जापु साहिब, बचित्तर नाटक, ज़फ़रनामा, चंडी दी वार आप की महान् रचनाएँ हैं। इनमें आपने विभिन्न विषयों पर भरपूर प्रकाश डाला है। ये रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं। इनसे हमें ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी भी प्राप्त होती है। आपकी ये रचनाएँ इतनी जोश से भरी हैं कि इन्हें पढ़ कर मुर्दा दिलों में भी जान आ जाती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दरबार में 52 उच्चकोटि के कवियों को संरक्षण दिया था। इन में से नंद लाल, सैनापत, गोपाल तथा उदै राय के नाम उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 159.
ज़फ़रनामा क्या है ? (What is Zafarnama ?)
अथवा
ज़फ़रनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Zafarnama.)
उत्तर-
ज़फ़रनामा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए एक पत्र का नाम है। यह पत्र फ़ारसी में लिखा गया था। इसे गुरु जी ने दीना काँगड़ (फरीदकोट) नामक स्थान से लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब का तथा पहाड़ी राजाओं तथा मुग़ल सेनापतियों की ओर से कुरान की झूठी शपथ लेकर भी गुरु जी से धोखा करने का उल्लेख बड़े साहस से किया है। गुरु गोबिंद सिंह जी लिखते हैं—
“ऐ औरंगजेब तू झूठा दीनदार बना घूमता है, तुझ में तनिक भी सत्य नहीं, तुझे खुदा तथा मुहम्मद में कोई विश्वास नहीं। यह भी कोई वीरता नहीं कि हमारे 40 भूखे सिंहों पर तेरी लाखों की सेना आक्रमण करे। तू तथा तेरे सैन्य अधिकारी सभी मक्कार तथा कायर हैं। तुम झूठे तथा धोखेबाज़ हो। निस्संदेह तुम राजाओं के राजा तथा विख्यात सेनापति हो, परंतु तुम सच्चे धर्म से कोसों दूर हो। तुम्हारे मुँह में कुछ और है तो दिल में कुछ और।”
गुरु जी के इस पत्र का औरंगजेब के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने गुरु जी से भेंट का संदेश भेजा, परंतु गुरु जी अभी मार्ग में ही थे कि औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई।

प्रश्न 160.
“गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् संगठनकर्ता थे।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं ? (“Guru Gobind Singh Ji was a builder par-excellence.” Do you agree to this statement ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। उस समय औरंगज़ेब के अधीन मुग़ल सरकार किसी भी लहर, विशेष रूप से सिख लहर को सहन करने के लिए तैयार नहीं थी। उसने गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया था। सिखों में मसंद प्रथा बहुत भ्रष्ट हो गई थी। हिंदू बहुत समय से निरुत्साहित थे। पहाड़ी राजा अपने स्वार्थी हितों के कारण मुग़ल सरकार से मिले हुए थे। ऐसे विरोधी तत्त्वों के बावजूद गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। संचमुच यह एक महान् कार्य था। इसने लोगों में नया जोश उत्पन्न किया। वे महान योद्धा बन गए और धर्म के नाम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गए। उन्होंने तब तक सुख की साँस न ली जब तक पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों के शासन का अंत न कर लिया गया तथा पंजाब में एक स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना न कर ली गई।

प्रश्न 161.
गुरु गोबिंद सिंह जी के व्यक्तित्व की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। (Mention any five characteristics of Guru Gobind Singh Ji’s personality.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी अपने समय के महान् योद्धा तथा सेनानी थे। वह घुड़सवारी, तीरअंदाज़ी तथा शस्त्र चलाने में बहुत कुशल थे। वह प्रत्येक लड़ाई में अपने सैनिकों का नेतृत्व करते थे। वह लड़ाई के मैदान में भारी कठिनाइयों के बावजूद चट्टान की भाँति अडिग रहते थे। अपने सीमित साधनों के बावजूद गुरु साहिब ने पहाडी राजाओं तथा मुग़लों के विरुद्ध शानदार सफलता प्राप्त की। गुरु गोबिंद सिंह जी सिंह की भाँति वीर तथा निडर थे। यद्यपि गुरु जी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने कभी भी अत्याचारियों से समझौता न किया। गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखा गया ज़फ़रनामा (पत्र) उनकी निडरता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् नेता थे। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने मुग़लों के साथ युद्ध किए तथा अपना सर्वस्व न्योछावर किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को एक ईश्वर की पूजा और गुरु वाणी का पाठ करने के लिए प्रेरित किया। गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। जाप साहिब, बचित्तर नाटक तथा ज़फ़रनामा आपकी महान् रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में गुरु साहिब ने पंजाबी, हिंदी, संस्कृत, अरबी तथा फ़ारसी आदि भाषाओं का प्रयोग किया है। निस्संदेह गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक धरोहर अमूल्य है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सिख धर्म में कितने गुरु हुए हैं ?
उत्तर-
सिख धर्म में दस गुरु हुए हैं।

प्रश्न 2.
सिख धर्म के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी थे।

प्रश्न 3.
सिख धर्म का आरंभ किसने और कब किया?
उत्तर-
सिख धर्म का आरंभ गुरु नानक देव जी ने 1469 ई० में किया।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवंडी (पाकिस्तान) में हुआ था।

प्रश्न 5.
‘सतिगुरु नानक प्रगटिआ मिटी धुंध जगि चानणु होआ’ किसकी रचना है ?
उत्तर-
यह रचना भाई गुरदास जी की है।

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी के जन्म स्थान को आजकल क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
ननकाणा साहिब ।।

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
मेहता कालू।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी के पिता जी किस जाति से संबंधित थे ?
उत्तर-
वे बेदी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे।

प्रश्न 9.
मेहता कालू जी कौन थे ?
उत्तर-
मेहता कालू जी गुरु नानक देव जी के पिता थे।

प्रश्न 10.
तृप्ता देवी जी कौन थी ?
उत्तर-
तृप्ता देवी जी गुरु नानक देव जी की माता जी थीं।

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी का नाम नानक क्यों रखा गया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का नाम नानक इसलिए रखा गया क्योंकि उनका जन्म अपने ननिहाल में हुआ था।

प्रश्न 12.
गुरु नानक देव जी की बहन का क्या नाम था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की बहन का नाम नानकी जी था।

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प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी के किन्हीं दो अध्यापकों के नाम बताओ जिनसे उन्होंने बचपन में शिक्षा प्राप्त की थी।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने बचपन में पंडित गोपाल तथा मौलवी कुतुबुद्दीन से शिक्षा प्राप्त की थी।

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर-
बीबी सुलक्खनी जी

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी के दोनों सुपुत्रों के नाम बताएँ।
उत्तर-
श्रीचंद तथा लखमी दास।

प्रश्न 16.
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी क्यों भेजा गया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को नौकरी करने के लिए भेजा गया।

प्रश्न 17.
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी किसके पास भेजा गया था?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी अपनी बहन बीबी नानकी के पास भेजा गया था।

प्रश्न 18.
गुरु नानक देव जी को ज्ञान की प्राप्ति कब और कहाँ हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को ज्ञान की प्राप्ति 1499 ई० में बेईं नदी (सुल्तानपुर) में हुई।

प्रश्न 19.
गुरु नानक देव जी ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम कौन-से शब्द कहे ?
उत्तर-
“न को हिंदू न को मुसलमान”

प्रश्न 20.
गुरु नानक देव जी की उदासियों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की उदासियों से अभिप्राय उनकी यात्राओं से है।

प्रश्न 21.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और नाम का प्रचार करना।

प्रश्न 22.
गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी कब और कहाँ से आरंभ की ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी 1499 ई० में सैदपुर (ऐमनाबाद) से आरंभ की।

प्रश्न 23.
गुरु नानक देव जी ने लगभग कितने वर्ष उदासियों में व्यतीत किए ?
उत्तर-
21 वर्ष।

प्रश्न 24.
कौन-सा व्यक्ति गुरु नानक साहिब के साथ सदैव रहता था?
उत्तर-
भाई मरदाना जी।

प्रश्न 25.
कौन-सा व्यक्ति गुरु नानक देव जी का प्रथम शिष्य बना ?
उत्तर-
भाई लालो जी।।

प्रश्न 26.
गुरु नानक देव जी सैदपुर (ऐमनाबाद) में मलिक भागो का भोजन खाने से क्यों इंकार कर दिया था ?
उत्तर-
उसकी कमाई ईमानदारी की नहीं थी।

प्रश्न 27.
गुरु नानक देव जी सज्जन ठग को कहाँ मिले ?
उत्तर-
तालुंबा में।

प्रश्न 28.
गुरु नानक देव जी ने कुरुक्षेत्र में लोगों को क्या शिक्षा दी ?
उत्तर-
उन्हें बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा अपनी आत्मा को पवित्र रखने की ओर ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 29.
हरिद्वार में गुरु नानक देव जी ने किस प्रकार से लोगों के अंधविश्वासों का खंडन किया ?
उत्तर-
उनके द्वारा दिया जाने वाला पानी दूसरे लोक में नहीं पहुँच सकता।

प्रश्न 30.
गुरु नानक देव जी ने किस स्थान पर सूर्य को पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की ओर पानी दिया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने हरिद्वार में सूर्य को पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की ओर पानी दिया।

प्रश्न 31.
गुरु नानक देव जी ने गोरखमता में जोगियों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर-
मुक्ति बाह्याडंबरों से नहीं बल्कि आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है।

प्रश्न 32.
नूरशाही कौन थी ?
उत्तर-
कामरूप की प्रसिद्ध जादूगरनी।

प्रश्न 33.
बनारस में गुरु नानक देव जी का किस पंडित से वाद-विवाद हुआ ?
उत्तर-
पंडित चतरदास।।

प्रश्न 34.
उड़ीसा के किस मंदिर में गुरु साहिब ने लोगों को आरती का सही अर्थ बताया ?
उत्तर-
जगन्नाथ पुरी के मंदिर में।

प्रश्न 35.
गुरु नानक साहिब ने कैलाश पर्वत के सिद्धों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर-
वह मानवता की सेवा करें।

प्रश्न 36.
गुरु नानक देव जी लंका में कौन-से शासक को मिले थे ?
उत्तर-
शिवनाथ को।

प्रश्न 37.
मक्का में गुरु नानक साहिब के साथ क्या घटना हुई ?
उत्तर-
यहाँ काज़ी रुकुनुद्दीन ने गुरु जी के पाँव पकड़ कर दूसरी ओर किए तो काबा भी उसी ओर घूम गया।

प्रश्न 38.
हसन अब्दाल अब.किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-
पंजा साहिब के नाम से।

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प्रश्न 39.
गुरु नानक देव जी को किस मुग़ल बादशाह ने कब और कहाँ कुछ समय के लिए बंदी बना लिया था ?
उत्तर-
बाबर ने 1520 ई० में सैदपुर (ऐमनाबाद) में।

प्रश्न 40.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर के संबंध में क्या विचार थे ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है।

प्रश्न 41.
गुरु नानक देव जी की कोई एक मुख्य शिक्षा बताएँ।
उत्तर-
ईश्वर एक है और वह सर्वशक्तिमान् है।

प्रश्न 42.
गुरु नानक साहिब के श्रम के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
हमें परिश्रम करके अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिए।

प्रश्न 43.
गुरु नानक देव जी के अनुसार मनुष्य के कितने शत्रु हैं?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 44.
गुरु नानक देव जी की शिक्षा में गुरु का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है।

प्रश्न 45.
गुरु नानक देव जी के अनुसार नाम जपने का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है।

प्रश्न 46.
मनमुख व्यक्ति की कोई एक विशेषता बताएँ।
उत्तर-
मनमुख व्यक्ति इंद्रिय-जन्य भूख से घिरा रहता है।

प्रश्न 47.
आत्म-समर्पण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आत्म-समर्पण से अभिप्राय अहं का त्याग है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

प्रश्न 48.
नदरि से क्या भाव है ?
उत्तर-
नदरि से अभिप्राय ईश्वर की दया से है।

प्रश्न 49.
आदेश से क्या भाव है ?
उत्तर-
आदेश से अभिप्राय ईश्वर की इच्छा से है।

प्रश्न 50.
‘किरत’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किरत से अभिप्राय मेहनत तथा ईमानदारी के श्रम से है।

प्रश्न 51.
‘अंजन माहि निरंजन’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
‘अंजन माहि निरंजन’ से अभिप्राय संसार की बुराइयों में रहते हुए सत्य जीवन व्यतीत करने से है।

प्रश्न 52.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के सारांश का तीन शब्दों में उल्लेख करें।
उत्तर-
श्रम करो, नाम जपो तथा बाँट कर खाओ।

प्रश्न 53.
कीर्तन की प्रथा किस गुरु ने आरंभ की ?
उत्तर-
कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की।

प्रश्न 54.
गुरु नानक देव जी एक समाज सुधारक थे। अपने पक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-
उन्होंने स्त्रियों में प्रचलित कुप्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया।

प्रश्न 55.
गुरु नानक देव जी ने कब और किस नगर की स्थापना की ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने 1521 ई० में करतारपुर की स्थापना की।

प्रश्न 56.
रावी किनारे किस गुरु ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
रावी किनारे गुरु नानक देव जी ने करतारपुर नामक नगर बसाया।

प्रश्न 57.
करतारपुर से क्या भाव है ?
उत्तर-
परमात्मा का शहर।

प्रश्न 58.
करतारपुर में गुरु नानक साहिब ने कौन-सी दो संस्थाएँ स्थापित की ?
उत्तर-
‘संगत और पंगत’।

प्रश्न 59.
संगत एवं पंगत की स्थापना कौन-से गुरु ने कहाँ की ?
अथवा
संगत की स्थापना किसने की थी ?
अथवा
पंगत की स्थापना किसने की थी?
उत्तर-
संगत एवं पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में की थी।

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प्रश्न 60.
संगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संगत से अभिप्राय उस समूह से है जो एकत्रित होकर गुरु जी के उपदेश सुनते हैं।

प्रश्न 61.
पंगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पंगत से अभिप्राय पंक्तियों में बैठकर लंगर खाने से है।

प्रश्न 62.
लंगर प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 63.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन का अंतिम समय कहाँ व्यतीत किया ?
उत्तर-
करतारपुर (पाकिस्तान) में।

प्रश्न 64.
गुरु नानक देव जी की किसी दो मुख्य वाणियों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. जपुजी साहिब
  2. बारह माह।

प्रश्न 65.
बाबर वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की ?
उत्तर-
बाबर वाणी की रचना गुरु नानक साहिब ने की थी।

प्रश्न 66.
गुरु नानक देव जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
उत्तर-
1539 ई० में।

प्रश्न 67.
गुरु नानक देव जी ने किसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी को।

प्रश्न 68.
भाई लहणा जी को अंगद का नाम किसने दिया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 69.
गुरु नानक देव जी द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
इससे सिख धर्म में गुरुगद्दी की परंपरा चल पड़ी।

प्रश्न 70.
सिख धर्म के दूसरे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
सिखों के दूसरे गुरु, गुरु अंगद साहिब जी थे।

प्रश्न 71.
गुरु अंगद देव जी ने कब-से-कब तक गुरुगद्दी का संचालन किया ?
उत्तर-
1539 ई० से लेकर 1552 ई०

प्रश्न 72.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कब और कहाँ हआ ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब का जन्म 1504 ई० में मत्ते दी सराय (मुक्तसर) नामक गाँव में हुआ।

प्रश्न 73.
गुरु अंगद देव जी के माता का नाम बताएँ।
उत्तर-
सभराई देवी जी।

प्रश्न 74.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
फेरुमल जी।

प्रश्न 75.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई लहणा जी।

प्रश्न 76.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का प्रसिद्ध केंद्र कौन-सा था ?
उत्तर-
खडूर साहिब।

प्रश्न 77.
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का सुधार किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का खडूर साहिब में सुधार किया

प्रश्न 78.
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का और कहाँ सुधार किया ?
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का संशोधन किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का खडूर साहिब में सुधार किया।

प्रश्न 79.
दूसरे गुरु ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
दूसरे गुरु ने गोइंदवाल पहिब का नगर बसाया।

प्रश्न 80.
गोइंदवाल साहिब की नींव किसने तथा कब रखी ?
अथवा
गोइंदवाल साहिब की स्थापना किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी ने गोइंदवाल साहिब की नींव 1546 ई० में रखी थी।

प्रश्न 81.
गुरु अंगद साहिब जी ने किन दो संस्थाओं का विकास किया ?
उत्तर-
संगत और पंगत।

प्रश्न 82.
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण योगदान बताएँ।
उत्तर-
उन्होंने गुरुमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया।

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प्रश्न 83.
गुरु अंगद साहिब जी के समय में खडूर साहिब में लंगर का प्रबंध कौन करता था ?
उत्तर–
बीबी खीवी जी।

प्रश्न 84.
लंगर संस्था की मुखी किस गुरु की पत्नी व कौन थी ?
उत्तर-
लंगर संस्था की मुखी गुरु अंगद देव जी की सुपत्नी बीबी खीवी जी थी।

प्रश्न 85.
लंगर संस्था का सिखों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
लंगर संस्था के कारण हिंदुओं की जाति प्रथा को गहरा आघात पहुँचा।

प्रश्न 86.
उदासी मत का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
बाबा श्रीचंद जी।

प्रश्न 87.
उदासी मत से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उदासी मत में संन्यासी जीवन पर बल दिया जाता था।

प्रश्न 88.
गुरु अंगद साहिब के काल के कौन-से मुख्य रागी थे जिन्होंने संगत का अनुशासन भंग किया ?
अथवा
सिख धर्म में अनुशासन लाने के लिए गुरु अंगद देव जी ने कौन-से दो गायकों को सज़ा दी ?
उत्तर-
सत्ता तथा बलवंड।

प्रश्न 89.
कौन-सा मुग़ल बादशाह गुरु अंगद देव जी से मिलने आया था ?
उत्तर-
हुमायूँ।

प्रश्न 90.
गुरु अंगद साहिब जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी को।

प्रश्न 91.
सिखों के तीसरे गरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 92.
गुरु अमरदास जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
1552 ई० से 1574 ई० तक।

प्रश्न 93.
गुरु अमरदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1479 ई० में।

प्रश्न 94.
गुरु अमरदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
तेज भान भल्ला।

प्रश्न 95.
गुरु अमरदास जी जिस समय गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु क्या थी ?
उत्तर-
73 वर्ष।

प्रश्न 96.
गुरु अमरदास जी के पुत्रों के नाम बताएँ।
अथवा
मोहन और मोहरी कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के पुत्रों का नाम बाबा मोहन तथा बाबा मोहरी थे।

प्रश्न 97.
गुरु अमरदास जी की पुत्रियों के नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी की पुत्रियों के नाम बीबी भानी तथा बीबी दानी थे।

प्रश्न 98.
बीबी भानी कौन थी ?
उत्तर–
बीबी भानी गुरु अमरदास जी की सपत्री थी।।

प्रश्न 99.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 100.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली के निर्माण का उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
सिखों को एक नया तीर्थ स्थल देना।

प्रश्न 101.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी सीढ़ियाँ बनाई गई थीं ?
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब में 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं।

प्रश्न 102.
सिख धर्म के प्रसार के लिए गुरु अमरदास जी द्वारा किया गया कोई एक कार्य बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया।

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प्रश्न 103.
मंजी प्रथा की स्थापना किस गुरु साहिब ने तथा क्यों आरंभ की थी ?
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए की थी।

प्रश्न 104.
मंजी संस्था किस गुरु ने प्रारंभ की तथा कुल मंजियाँ कितनी थीं ?
उत्तर-
मंजी संस्था गुरु अमरदास जी ने प्रारंभ की तथा कुल 22 मंजियाँ थीं।

प्रश्न 105.
मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
मंजी प्रथा ने सिख धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 106.
गुरु अमरदास जी की सर्वाधिक प्रसिद्ध वाणी कौन-सी है ?
उत्तर-
अनंदु साहिब।

प्रश्न 107.
अमंदु साहिब वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की ?
अथवा
अनंदु साहिब किस की रचना है ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 108.
गुरु अमरदास जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने के पक्ष में प्रचार किया।

प्रश्न 109.
स्त्री जाति के सुधार के लिए गुरु अमरदास जी ने कौन-सा एक कार्य किया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का खंडन किया।

प्रश्न 110.
गुरु अमरदास जी से भेंट करने कौन-सा मुग़ल बादशाह गोइंदवाल साहिब आया था ?
उत्तर-
अकबर।

प्रश्न 111.
किस मुग़ल बादशाह ने गोइंदवाल साहिब पंगत में बैठकर लंगर छका ?
उत्तर-
मुग़ल बादशाह अकबर ने गोइंदवाल साहिब में पंगत में बैठकर लंगर छका।

प्रश्न 112.
गुरुगद्दी को वंशानुगत किस गुरु ने बनाया था ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 113.
गुरु अमरदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी को।

प्रश्न 114.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
1574 ई० में।

प्रश्न 115.
सिखों के चौथे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 116.
गुरु रामदास जी का गुरुकाल कौन-सा था ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था।

प्रश्न 117.
गुरु रामदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1534 ई० में ।

प्रश्न 118.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई जेठा जी।

प्रश्न 119.
गुरु रामदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
हरीदास सोढी।

प्रश्न 120.
गुरु रामदास जी की पत्नी का नाम लिखें।
उत्तर-
बीबी भानी जी।

प्रश्न 121.
पृथी चंद कौन था ?
उत्तर-
पृथी चंद गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था।

प्रश्न 122.
गुरु रामदास जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
उत्तर-
1574 ई० में।

प्रश्न 123.
गुरु रामदास जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता का उल्लेख करें।
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने रामदासपुरा शहर की स्थापना की।

प्रश्न 124.
चौथे गुरु रामदास जी ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
रामदासपुरा।

प्रश्न 125.
रामदासपुरा की स्थापना का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
रामदासपुरा की स्थापना से सिखों को उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 126.
अमृतसर नगर की नींव कब और किस गुरु ने रखी थी?
अथवा
अमृतसर की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
अमृतसर नगर की नींव 1577 ई० में गुरु रामदास जी ने रखी थी।

प्रश्न 127.
सिखों और उदासियों के बीच समझौता किस गुरु के समय में हुआ ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी के समय।

प्रश्न 128.
गुरु रामदास जी तथा उदासियों के मध्य समझौता सिख पंथ के लिए किस प्रकार लाभदायक सिद्ध हुआ?
उत्तर-
इस समझौते के कारण सिखों तथा उदासियों के मध्य चली आ रही शत्रुता समाप्त हो गई।

प्रश्न 129.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
अथवा
सिख धर्म में मसंद प्रथा किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

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प्रश्न 130.
मसंद प्रथा का एक उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
सिख धर्म का प्रचार करना।

प्रश्न 131.
कौन-सा मुगल बादशाह गुरु रामदास जी के पास आया था ?
उत्तर-
अकबर।

प्रश्न 132.
विवाह के समय लावाँ प्रथा का आरंभ किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 133.
गुरु रामदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे बनाया ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को।

प्रश्न 134.
सिखों के पाँचवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 135.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कब हुआ?
उत्तर-
15 अप्रैल, 1563 ई में।

प्रश्न 136.
गुरु अर्जन देव जी के माता-पिता का नाम बताओ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की माता जी का नाम बीबी भानी तथा पिता जी का नाम गुरु रामदास जी था।

प्रश्न 137.
गुरु अर्जन देव जी कब से लेकर कब तक गुरुगद्दी पर बने रहे ?
उत्तर-
1581 ई० से लेकर 1606 ई० तक।

प्रश्न 138.
पृथिया कौन था ?
उत्तर-
पृथिया गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरु अर्जन देव जी का ज्येष्ठ भाई था।

प्रश्न 139.
पृथी चंद ने किस संप्रदाय की नींव रखी ?
उत्तर-
मीणा संप्रदाय की।

प्रश्न 140.
पृथिया ने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ?
उत्तर-
क्योंकि पृथिया स्वंय को गुरुगदी का वास्तविक अधिकारी मानता था ।

प्रश्न 141.
मेहरबान किसका पुत्र था ?
उत्तर-
मेहरबान पृथी चंद का पुत्र था।

प्रश्न 142.
गुरु अर्जन देव जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता बताएँ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर में हरिमंदिर साहिब की स्थापना की।

प्रश्न 143.
हरिमंदिर साहिब से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब से अभिप्राय है हरि (परमात्मा) का मंदिर (घर)।

प्रश्न 144.
हरिमंदिर साहिब का निर्माण किस गुरु ने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने।

प्रश्न 145.
हरिमंदिर साहिब की आधारशिला किसने और कब रखी ?
उत्तर-
सूफ़ी संत मीयाँ मीर ने 1588 ई० में।

प्रश्न 146.
श्री दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-
बाबा बुड्डा जी।

प्रश्न 147.
हरिमंदिर साहिब की चारों दिशाओं में चार द्वार क्यों बनाए गए हैं ?
अथवा
हरिमंदिर साहिब के चार दरवाजे किस उपदेश का संकेत करते हैं ?
उत्तर-
यह मंदिर चार जातियों और चार दिशाओं से आने वाले लोगों के लिए खुला है।

प्रश्न 148.
करतारपुर शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
करतारपुर शब्द से अभिप्राय है ईश्वर का नगर।

प्रश्न 149.
‘तरन तारन’ का भावार्थ क्या है ?
उत्तर-
तरन तारन का अर्थ यह है कि इस सरोवर में स्नान करने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाएगा।

प्रश्न 150.
तरन तारन नगर का निर्माण किसने किया ?
उत्तर-
तरन तारन नगर का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने किया ।

प्रश्न 151.
मसंद प्रथा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधियों को मसंद कहते थे।

प्रश्न 152.
मसंद प्रथा के आरंभ किए जाने का एक मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
सिख धर्म का प्रसार करने के लिए।

प्रश्न 153.
मसंद प्रथा का महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
इससे सिख धर्म लोकप्रिय हुआ।

प्रश्न 154.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
उत्तर-
सिखों के नेतृत्व के लिए एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी।

प्रश्न 155.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में रामसर में किया गया था।

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प्रश्न 156.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और किसने किया था, ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब तथा किस गुरु ने किया ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन साहिब जी ने किया था।

प्रश्न 157.
आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने के लिए गुरु अर्जन देव जी ने किसकी सहायता ली ?
उत्तर-
भाई गुरदास जी की।

प्रश्न 158.
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब में।

प्रश्न 159.
हरिमंदिर साहिब जी में आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कब किया गया था ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का हरिमंदिर साहिब में प्रथम प्रकाश 16 अगस्त, 1604 ई० को किया गया था।

प्रश्न 160.
हरिमंदिर साहिब के पहले मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-
बाबा बुड्डा जी।

प्रश्न 161.
आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शब्द किसके हैं ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के।

प्रश्न 162.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों की वाणी शामिल की गई है ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 भक्तों की वाणी शामिल की गई है।

प्रश्न 163.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भट्टों की बाणी संकलित है ?
उत्तर-
11 भट्टों की।

प्रश्न 164.
उन दो भक्तों के नाम लिखो जिनकी वाणी को गुरु ग्रंथ साहिब जी में शामिल किया गया।
उत्तर-

  1. कबीर जी,
  2. फरीद जी।

प्रश्न 165.
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी है।

प्रश्न 166.
बाबा बुड्डा जी कौन थे ?
उत्तर-
वह दरबार साहिब अमृतसर के प्रथम मुख्य ग्रंथी थे।

प्रश्न 167.
सिखों के केंद्रीय धार्मिक गुरुद्वारे का नाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों के केंद्रीय धार्मिक गुरुद्वारे का नाम श्री हरिमंदिर साहिब (अमृतसर) है।

प्रश्न 168.
चंदू शाह कौन था ?
उत्तर-
चंदू शाह लाहौर का दीवान था।

प्रश्न 169.
शेख अहमद सरहिंदी कौन था ?
उत्तर-
शेख अहमद सरहिंदी नक्शबंदी संप्रदाय का नेता था। वह बहुत कट्टर विचारों का था।

प्रश्न 170.
खुसरो कौन था ?
उत्तर-
खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 171.
शहीदी प्राप्त करने वाले सिखों के प्रथम गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 172.
गुरु अर्जन देव जी की शहादत किस मुगल बादशाह के समय में हुई ?
उत्तर-
जहाँगीर के समय।

प्रश्न 173.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
जहाँगीर की धार्मिक कट्टरता।

प्रश्न 174.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी कब हुई ?
उत्तर-
30 मई, 1606 ई० को।

प्रश्न 175.
गुरु अर्जन देव जी को कब तथा कहाँ शहीद किया गया था ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० को लाहौर में शहीद किया गया था।

प्रश्न 176.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का एक प्रभाव बताओ।
उत्तर-
इस शहीदी के कारण सिखों की भावनाएँ भड़क उठीं।

प्रश्न 177.
सिखों के छठे गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी।

प्रश्न 178.
छठे गुरु जी ने कौन-सी नई रीति रचाई ?
उत्तर-
उन्होंने मीरी तथा पीरी नाम की नई नीति अपनाई।

प्रश्न 179.
गुरु हरगोबिंद जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
उनका गुरुकाल 1606 ई० से 1645 ई० तक था।

प्रश्न 180.
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 1595 ई० में अमृतसर जिले में वडाली गाँव में हुआ।

प्रश्न 181.
गुरु हरगोबिंद जी के पिता का नाम क्या था ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

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प्रश्न 182.
बीबी वीरो कौन थी ?
उत्तर-
वह गुरु हरगोबिंद जी की सुपुत्री थी।

प्रश्न 183.
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति अपनाने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी।

प्रश्न 184.
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति की कोई एक विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
मीरी और पीरी की तलवारें धारण करना।

प्रश्न 185.
‘मीरी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘मीरी’ तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी। प

प्रश्न 186.
‘पीरी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘पीरी’ तलवार आध्यात्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी।

प्रश्न 187.
अकाल तख्त साहिब का निर्माण किस गुरु साहिब ने तथा कहाँ किया था ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने अमृतसर में दरबार साहिब के सामने।

प्रश्न 188.
अकाल तख्त साहिब से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
अकाल तख्त साहिब से अभिप्राय है-ईश्वर की गद्दी।

प्रश्न 189.
अकाल तख्त साहिब पर बैठ कर गुरु हरगोबिंद साहिब कौन-सा मुख्य कार्य करते थे?
उत्तर-
वह राजनीतिक तथा सांसारिक मामलों पर विचार करते थे।

प्रश्न 190.
छठे गुरु हरगोबिंद साहिब को किस बादशाह ने कहाँ कैद किया ?
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने ग्वालियर के दुर्ग में।

प्रश्न 191.
मुग़ल सम्राट् जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में क्यों नज़रबंद किया था? कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
जहाँगीर एक कट्टर सुन्नी बादशाह था।

प्रश्न 192.
गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता था?
अथवा
बंदी छोड़ बाबा किसको और क्यों कहा जाता है ?
अथवा
सिखों के किस गुरु को ‘बंदी छोड़’ कहा जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि अपनी रिहाई के समय उन्होंने वहाँ 52 अन्य बंदी राजाओं को रिहा करवाया था।

प्रश्न 193.
कौलां कौन थी?
उत्तर-
कौलां लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की लड़की तथा गुरु हरगोबिंद साहिब की अनुयायी थी।

प्रश्न 194.
शाहजहाँ तथा सिखों में संबंध बिगड़ने का कोई एक कारण बताएँ।
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य लड़ाइयों का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
शाहजहाँ का धार्मिक कट्टरपन।

प्रश्न 195.
गुरु हरगोबिंद साहिब एवं मुग़लों के मध्य प्रथम लड़ाई कब तथा कहाँ हुई ?
उत्तर-
1634 ई० में अमृतसर में।

प्रश्न 196.
अमृतसर की लड़ाई में विजय किसकी हुई ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी की।

प्रश्न 197.
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने किस नए नगर की स्थापना की?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कीरतपुर साहिब नामक नए नगर की स्थापना की।

प्रश्न 198.
‘कीरतपुर’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
‘कीरतपुर’ शब्द का अर्थ है-जहाँ ईश्वर की कीर्ति होती हो।

प्रश्न 199.
गुरु हरगोबिंद साहिब कब तथा कहाँ ज्योति-जोत समाए थे?
उत्तर-
1645 ई० में कीरतपुर साहिब में।

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प्रश्न 200.
गुरु हरगोबिंद जी का उत्तराधिकारी कौन था?
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब ने किसको अपना उत्तराधिकारी बनाया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के उत्तराधिकारी का नाम गुरु हर राय जी था।

प्रश्न 201.
गुरु हर राय जी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी का जन्म 30 जनवरी, 1630 ई० को कीरतपुर साहिब में हुआ।

प्रश्न 202.
सिखों के सातवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
सिखों के सातवें गुरु, गुरु हर राय जी थे।

प्रश्न 203.
सातवें गुरु हर राय जी का गुरुकाल लिखें।
उत्तर-
वह गुरुगद्दी पर 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक आसीन रहे।

प्रश्न 204.
गुरु हर राय जी कब ज्योति-जोत समाये ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी 1661 ई० में ज्योति-जोत समाये।

प्रश्न 205.
गुरु हर राय जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
हरकृष्ण जी को।

प्रश्न 206.
सिखों के आठवें गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी थे।

प्रश्न 207.
गुरु हरकृष्ण जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?
उत्तर-
उनका जन्म 7 जुलाई, 1656 ई० को कीरतपुर साहिब में।

प्रश्न 208.
सिखों के बाल गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण साहिब जी थे।

प्रश्न 209.
गुरु हरकृष्ण जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
1661 ई० से 1664 ई० तक।

प्रश्न 210.
गुरु हरकष्ण जी कब और कहाँ ज्योति-जोत समा गए थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी 1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाए थे।

प्रश्न 211.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर साहिब का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ था।

प्रश्न 212.
गुरु तेग बहादुर साहिब के माता-पिता का नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की माता जी का नाम नानकी तथा पिता जी का नाम गुरु हरगोबिंद साहिब था।

प्रश्न 213.
गुरु तेग बहादुर जी का बचपन का क्या नाम था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी का प्रथम नाम क्या था ?
उत्तर-
त्याग मल।

प्रश्न 214.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम क्या था ?
उत्तर-
गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास।

प्रश्न 215.
“गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” नामक शब्द किसने तथा किसके बारे में कहे थे ?
उत्तर-
ये शब्द मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी के संबंध में कहे थे।

प्रश्न 216.
गुरु तेग़ बहादुर जी का गुरुगद्दी पर बने रहने का समय बताएँ।
उत्तर-
1664 ई० से 1675 ई० तक।

प्रश्न 217.
धीर मल कौन था?
उत्तर-
धीर मल बाबा गुरदित्ता जी का बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 218.
रामराय कौन था ?
उत्तर-
रामराय गुरु हर राय जी का बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 219.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य क्या था?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य सिख धर्म का प्रचार करना और लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करना था।

प्रश्न 220.
पंजाब से बाहर किन्हीं दो स्थानों के नाम बताएँ जहाँ गुरु तेग़ बहादुर जी ने यात्राएँ कीं।
उत्तर-
दिल्ली तथा आसाम।

प्रश्न 221.
पंजाब के किन्हीं दो प्रसिद्ध स्थानों के नाम बताएँ जिनकी यात्रा गुरु तेग़ बहादुर जी ने की थी।
उत्तर-
अमृतसर तथा गोइंदवाल साहिब।

प्रश्न 222.
श्री आनंदपुर साहिब का पहला (प्रारंभिक) नाम क्या था?
उत्तर-
श्री आनंदपुर साहिब का पहला नाम माखोवाल अथवा चक नानकी था।

प्रश्न 223.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का कोई एक मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
औरंगज़ेब सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।

प्रश्न 224.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब की शहीदी का मुख्य कारण क्या था?
उत्तर-
कश्मीरी पंडितों की पुकार।

प्रश्न 225.
गुरु तेग़ बहादुर जी के समय में कश्मीर का गवर्नर कौन था?
उत्तर-
शेर अफ़गान।

प्रश्न 226.
नवम् गुरु. तेग़ बहादुर जी की शहादत के समय किस बादशाह की हुकूमत थी ?
उत्तर-
नवम् गुरु तेग़ बहादुर जी की शहादत के समय मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की हुकूमत थी।

प्रश्न 227.
गुरु तेग बहादुर जी को कौन-से मुग़ल बादशाह ने कब शहीद करवाया था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी कब, कहाँ तथा किस मुग़ल बादशाह के समय में हुई ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद करवाया था।

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प्रश्न 228.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी कब और कहाँ हुई ?
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० में दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद किया गया था।

प्रश्न 229.
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु साहिब के बलिदान के पश्चात् सिखों और मुग़लों में संघर्ष का एक लंबा अध्याय आरंभ हुआ।

प्रश्न 230.
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द किस गुरु के लिए प्रयोग किए जाते हैं ?
उत्तर-
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द गुरु तेग़ बहादुर जी के लिए प्रयोग किए जाते हैं।

प्रश्न 231.
सिखों के दशम तथा अंतिम गुरु कौन थे?
उत्तर-
सिखों के दशम और अंतिम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी थे।

प्रश्न 232.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश 26 दिसंबर, 1666 ई० को पटना में हुआ था।

प्रश्न 233.
गुरु गोबिंद सिंह जी के माता-पिता का नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम माता गुजरी जी था और पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर जी था।

प्रश्न 234.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम क्या था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम गोबिंद दास अथवा गोबिंद राय था।

प्रश्न 235.
गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन कहाँ व्यतीत हुआ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन पटना साहिब में व्यतीत हुआ।

प्रश्न 236.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब से लेकर कब तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी 1675 ई० से लेकर 1708 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे।

प्रश्न 237.
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादों (सुपुत्रों) के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. साहिबज़ादा अजीत सिंह,
  2. साहिबजादा जुझार सिंह,
  3. साहिबज़ादा जोरावर सिंह तथा
  4. साहिबजादा फ़तह सिंह थे।

प्रश्न 238.
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में कहलूर (बिलासपुर) का शासक कौन था?
उत्तर-
भीम चंद।

प्रश्न 239.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा बनाए गए नगारे का क्या नाम था ?
उत्तर-
रणजीत नगारा।

प्रश्न 240.
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं में कब और कहाँ प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी?
अथवा
भंगाणी की लड़ाई कब तथा किनके मध्य लड़ी गई?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं में प्रथम लड़ाई 1688 ई० में भंगाणी में हुई थी।

प्रश्न 241.
नादौन की लड़ाई कब और किसके मध्य हुई थी?
उत्तर-
नादौन की लड़ाई 1690 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी तथा मुग़लों के मध्य हुई थी।

प्रश्न 242.
श्री आनंदपुर साहिब का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
माखोवाल।

प्रश्न 243.
श्री आनंदपुर साहिब का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
यहाँ गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की थी।

प्रश्न 244.
किस गुरु साहिब ने तथा कब मसंद प्रथा का अंत कर दिया था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने मसंद प्रथा का अंत 1699 ई० में खालसा पंथ के सृजन के समय किया था।

प्रश्न 245.
खालसा सजना किस गुरु साहिब ने कहाँ और कब की ?
उत्तर-
खालसा सृजना गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में 1699 ई० में की।

प्रश्न 246.
खालसा पंथ का सृजन कब और किस गुरु ने किया था ?
उत्तर-
खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने किया था।

प्रश्न 247.
खालसा पंथ का सृजन कब और कहाँ हुआ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन कब और कहाँ किया था ?
उत्तर-
खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० को आनंदपुर साहिब में किया गया था।

प्रश्न 248.
खालसा की स्थापना का कोई एक मुख्य कारण लिखें।
उत्तर-
मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के लिए।

प्रश्न 249.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की सजना के समय कितने प्यारे सजाए थे ?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 250.
पाँच प्यारों की साजना कौन-से गुरु ने कब और कहाँ की ?
उत्तर-
पाँच प्यारों की साजना गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में की।

प्रश्न 251.
खालसा का कोई एक सिद्धांत बताएँ।
उत्तर-
प्रत्येक खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा नहीं करेगा।

प्रश्न 252.
खालसा सदस्य एक-दूसरे से मिलते समय कैसे संबोधित करते थे.?
उत्तर-
‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह।

प्रश्न 253.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने प्रत्येक खालसा को कितने कक्कार धारण करने के लिए कहा ?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 254.
प्रत्येक सिख के लिए कौन से पाँच कक्कार धारण करने अनिवार्य हैं ?
उत्तर-
केश, कड़ा, कंघा, कच्छहरा एवं कृपाण।

प्रश्न 255.
खालसा की स्थापना का महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
इसकी स्थापना से सिखों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ।

प्रश्न 256.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
1701 ई० में।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 257.
सरहिंद के उस फ़ौजदार का नाम बताएँ जिसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को जीवित ही दीवार में चिनवाने का आदेश दिया।
उत्तर-
वज़ीर खाँ।

प्रश्न 258.
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय सरहिंद का फ़ौजदार कौन था ?
उत्तर-
वज़ीर खाँ।

प्रश्न 259.
चमकौर साहिब की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
चमकौर साहिब की लड़ाई 22 दिसंबर, 1704 ई० को हुई।

प्रश्न 260.
गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादे किस लड़ाई में शहीद हुए थे ?
उत्तर-
चमकौर साहिब की लड़ाई में।

प्रश्न 261.
दशम गुरु जी के चारों साहिबजादे कहाँ-कहाँ शहीद हुए ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादे कहां-कहां शहीद हुए ?
उत्तर-
दशम गुरु जी के दो बड़े साहिबज़ादे चमकौर साहिब में और दो छोटे साहिबज़ादे सरहिंद में शहीद हुए।

प्रश्न 262.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब को कौन-सी चिट्ठी लिखी थी ?
उत्तर-
ज़फ़रनामा (विजय पत्र)।

प्रश्न 263.
ज़फ़रनामा की रचना किसने और किस स्थान पर की ?
उत्तर-
ज़फ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना काँगड़ के स्थान पर की।

प्रश्न 264.
भाई दया सिंह कौन थे ?
उत्तर-
भाई दया सिंह जी ने गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखी ज़फ़रनामा नामक चिट्ठी औरंगजेब को पहुँचाई थी।

प्रश्न 265.
गुरु गोबिंद सिंह जी और मुगलों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
खिदराना की।

प्रश्न 266.
‘चाली मुक्ते’ कौन-सी लड़ाई से संबंध रखते हैं ?
उत्तर-
खिदराना की।

प्रश्न 267.
भाई महां सिंह ने कहाँ तथा कब शहीदी प्राप्त की ?
उत्तर-
भाई महां सिंह ने खिदराना के स्थान पर दिसंबर, 1705 ई० में शहीदी प्राप्त की।

प्रश्न 268.
खिदराना की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
1705 ई० में।

प्रश्न 269.
तलवंडी साबो को ‘गुरु की काशी’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि यहाँ गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने बहुत से साहित्य की रचना की।

प्रश्न 270.
बचित्तर नाटक तथा जफ़रनामा की रचना किसने की ?
उत्तर-
बचित्तर नाटक तथा ज़फ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने की।

प्रश्न 271.
गुरु गोबिंद सिंह जी की अधूरी स्वैजीवनी उनकी किस रचना में मिलती है ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की स्वैजीवनी उनकी रचना बचित्तर नाटक में मिलती है।

प्रश्न 272.
आदि ग्रंथ साहिब जी को कब, कहाँ तथा किस गुरु ने गुरु ग्रंथ साहिब का दर्जा दिया ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह ने गुरुतागही किसको और कब दी ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी को 6 अक्तूबर, 1708 ई० में नदेड़ के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब का दर्जा दिया।

प्रश्न 273.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब तथा कहाँ ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ के स्थान पर 7 अक्तूबर, 1708 ई० को ज्योति-जोत समाए।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. ……………. में गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ।
उत्तर-1469 ई०

प्रश्न 2. गुरु नानक देव जी के पिता जी का नाम ……………. था। ‘
उत्तर-मेहता कालू

प्रश्न 3. गुरु नानक देव जी की माता जी का नाम ………………. था।
उत्तर-तृप्ता देवी

प्रश्न 4. गुरु नानक देव जी की बहन का नाम ……………….. था।
उत्तर-नानकी

प्रश्न 5. गुरु नानक देव जी ने सच्चा सौदा ……………. रुपयों से किया।
उत्तर-20

प्रश्न 6. गुरु नानक देव जी ने ……………… के मोदीखाने में नौकरी की।
उत्तर-सुल्तानपुर लोधी

प्रश्न 7. गुरु नानक देव जी के ज्ञान-प्राप्ति के समय उनकी आयु ………… थी।
उत्तर-30 वर्ष

प्रश्न 8. गुरु नानक देव जी ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम …………….. शब्द कहे।
उत्तर-न को हिंदू, न को मुसलमान

प्रश्न 9. गुरु नानक देव जी की उदासियों से भाव है
उत्तर-यात्राएँ

प्रश्न 10. गुरु नानक देव जी की उदासियों का मुख्य उद्देश्य ……………. था।
उत्तर-लोगों की अज्ञानता को दूर करना

प्रश्न 11. गुरु नानक देव जी की यात्राओं के समय ……….. सदैव उनके साथ रहता था।
उत्तर- भाई मरदाना

प्रश्न 12. गुरु नानक देव जी की सज्जन ठग के साथ मुलाकात …………….. में हुई।
उत्तर-तालुंबा

प्रश्न 13. गुरु नानक देव जी ने ……… और …….. नामक दो संस्थाओं की स्थापना की।
उत्तर-संगत, पंगत

प्रश्न 14. गुरु नानक देव जी ……………….. में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-1539 ई०

प्रश्न 15. गुरु नानक देव जी ने ……………. को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
उत्तर- भाई लहणा जी

प्रश्न 16. सिखों के दूसरे गुरु …………….. थे।
उत्तर-गुरु अंगद देव जी

प्रश्न 17.गुरु अगद देव जी का आराभक नाम ……………… था।
उत्तर-भाई लहणा जी

प्रश्न 18. गुरु अंगद देव जी …………….. में गुरुगद्दी पर बैठे थे।
उत्तर-1539 ई०

प्रश्न 19. गुरु अंगद देव जी ने ……………. लिपि को लोकप्रिय बनाया।
उत्तर-गुरमुखी

प्रश्न 20. ………. उदासी मत के संस्थापक थे।
उत्तर-बाबा श्रीचंद जी

प्रश्न 21. सिखों के तीसरे गुरु ………………. थे।
उत्तर-गुरु अमरदास जी

प्रश्न 22. गुरु अमरदास जी ……………….. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1552 ई०

प्रश्न 23. गुरु अमरदास जी ने ……………. में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-गोइंदवाल साहिब

प्रश्न 24. मंजी प्रथा की स्थापना ………………… ने की थी।
उत्तर-गुरु अमरदास जी

प्रश्न 25. ……………… सिखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-गुरु रामदास जी

प्रश्न 26. गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-भाई जेठा जी

प्रश्न 27. गुरु रामदास जी …………………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1574 ई०

प्रश्न 28. गुरु रामदास जी ने ………………. में रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-1577 ई०

प्रश्न 29. ……………… ने मसंद प्रथा की स्थापना की।
उत्तर-गुरु रामदास जी

प्रश्न 30. गुरु अर्जन देव जी सिखों के …………….. गुरु थे।
उत्तर-पाँचवें

प्रश्न 31. गुरु अर्जन देव जी ………………. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1581 ई०

प्रश्न 32. पृथी चंद ने ……………… संप्रदाय की स्थापना की।
उत्तर-मीणा

प्रश्न 33. चंदू शाह …………….. का दीवान था।
उत्तर-लाहौर

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प्रश्न 34. हरिमंदिर साहिब का निर्माण …………… ने करवाया।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 35. हरिमंदिर साहिब की नींव पत्थर ……………….. ने रखा।
उत्तर-मीयाँ मीर

प्रश्न 36. ……………. ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किया।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 37. आदि ग्रंथ साहिब जी के लेखन का महान् कार्य ………….. में संपूर्ण हुआ।
उत्तर-1604 ई०

प्रश्न 38. हरिमंदिर साहिब में पहला मुख्य ग्रंथी ……………… को नियुक्त किया गया।
उत्तर–बाबा बुड्डा जी

प्रश्न 39. गुरु अर्जन देव जी को …………….. में शहीद किया गया।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 40. गुरु हरगोबिंद साहिब का. जन्म ……………. में हुआ।
उत्तर-1595 ई०

प्रश्न 41. गुरु हरगोबिंद साहिब जी के पिता जी का नाम ………….. था।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 42. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ……………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 43. ………….. ने मीरी और पीरी नीति को अपनाया।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 44. अकाल तख्त साहिब का निर्माण …………… ने करवाया था।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 45. ……….. में अकाल तख्त साहिब का निर्माण आरंभ किया गया था।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 46. ……………..को बंदी छोड़ बाबा कहा जाता है।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 47. अमृतसर की लड़ाई …………… में हुई।
उत्तर-1634 ई०

प्रश्न 48. लहरा की लड़ाई का मुख्य कारण ………..और ……… नामक दो घोड़े थे।
उत्तर-दिलबाग, गुलबाग

प्रश्न 49. गुरु हरगोबिंद साहिब ने ……………. नामक नगर की स्थापना की।
उत्तर-कीरतपुर साहिब

प्रश्न 50. गुरु हरगोबिंद साहिब ने …………… को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
उत्तर-गुरु हर सय जी

प्रश्न 51. ………………. सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-गुरु हर राय जी

प्रश्न 52. गुरु हर राय जी का जन्म …………… में हुआ।
उत्तर-1630 ई०

प्रश्न 53. गुरु हर राय जी ……………. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1645 ई०

प्रश्न 54. ………………….. सिखों के आठवें गुरु थे।
उत्तर-गुरु हरकृष्ण जी

प्रश्न 55. गुरु हरकृष्ण जी ……………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1661 ई०

प्रश्न 56. …………… को बाल गुरु के नाम से याद किया जाता है।
उत्तर-गुरु हरकृष्ण जी

प्रश्न 57. …………………. सिखों के नवम् गुरु थे।
उत्तर-गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 58. गुरु तेग बहादुर जी का जन्म ……………. में हुआ था।
उत्तर-अमृतसर

प्रश्न 59. गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम ……………. था।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 60. गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का नाम ……………..था।
उत्तर-नानकी

प्रश्न 61. गुरु तेग बहादुर जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-त्याग मल

प्रश्न 62. गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम …………. था।
उत्तर-गोबिंद राय

प्रश्न 63. गुरु तेग बहादुर जी की.खोज ……………. ने की थी।
उत्तर-मक्खन शाह लुबाणा

प्रश्न 64. गुरु तेग़ बहादुर जी ………….. में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-1664 ई०

प्रश्न 65. गुरु तेग़ बहादुर जी को…….. के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-औरंगजेब

प्रश्न 66. गुरु तेग़ बहादुर जी को ……..में शहीद किया गया।
उत्तर-11 नवंबर, 1675 ई०

प्रश्न 67. गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के……..गुरु थे।
उत्तर-दशम

प्रश्न 68. गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म……..को हुआ।
उत्तर-26 दिसंबर, 1666 ई०

प्रश्न 69. गुरु गोबिंद सिंह का जन्म……..में हुआ।
उत्तर-पटना साहिब

प्रश्न 70. गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का नाम……..था।
उत्तर-गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 71. गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम…….. था।
उत्तर-गुजरी

प्रश्न 72. गुरु गोबिंद सिंह जी……….में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-1675 ई०

प्रश्न 73. गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं के मध्य पहली लड़ाई……में हुई।
उत्तर-भंगाणी

प्रश्न 74. भंगाणी की लड़ाई………में हुई।
उत्तर-1688 ई०

प्रश्न 75. नादौन की लड़ाई……में हुई।
उत्तर-1690 ई०

प्रश्न 76. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन……….को किया।
उत्तर-30 मार्च, 1699 ई०

प्रश्न 77. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन……..में किया।
उत्तर-श्री आनंदपुर साहिब

प्रश्न 78. गुरु गोबिंद सिंह जी के पहले प्यारे ……..थे।
उत्तर-भाई दया राम जी

प्रश्न 79. ………में श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई हुई।
उत्तर-1701 ई०

प्रश्न 80. …….. में श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई हुई।
उत्तर-1704 ई०

प्रश्न 81. गुरु गोबिंद सिंह जी और मुग़लों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई …….की लड़ाई थी।
उत्तर-खिदराना

प्रश्न 82. गुरु गोबिंद सिंह जी………में ज्योति ज्योत समा गए।
उत्तर-1708 ई०

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नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1. गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. गुरु नानक देव जी के जन्म स्थान को आजकल पंजा साहिब कहा जाता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. गुरु नानक देव जी के पिता जी का नाम मेहता कालू था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. गुरु नानक देव जी की माता जी का नाम सभराई देवी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. गुरु नानक देव जी की बहन का नाम नानकी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. गुरु नानक देव जी बेदी जाति के साथ संबंधित थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. गुरु नानक देव जी ने 40 रुपयों से सच्चा सौदा किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी सैदपुर से आरंभ की।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. गुरु नानक देव जी ने संगत और पंगत नामक दो संस्थाओं की स्थापना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. गुरु नानक देव जी एक परमात्मा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. गुरु नानक देव जी जाति प्रथा और मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 12. गुरु नानक देव जी स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने के पक्ष में थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. गुरु नानक देव जी 1539 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. गुरु अंगद देव जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम भाई लहणा जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 17. उदासी मत की स्थापना बाबा श्रीचंद जी ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. गुरु अंगद देव जी की मुग़ल बादशाह अकबर के साथ भेंट हुई थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 19. गुरु अमरदास जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 20. गुरु अमरदास जी 1552 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 21. गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल गहिब में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 22. गुरु रामदास जी ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 23. गुरु रामदास जी सिंखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 24. गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम भाई जेठा जी था। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 25. गुरु रामदास जी ने 1578 ई० को रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 26. गुरु अमरदास जी ने मसंद प्रथा को आरंभ किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 27. गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 28. मीणा संप्रदाय की स्थापना पृथी चंद ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 29. चंदू शाह मुलतान का दीवान था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 30. हरिमंदिर साहिब का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने करवाया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 31. हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य 1688 ई० में आरंभ किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 32. हरिमंदिर साहिब की नींव सूफी संत मीयाँ मीर ने रखी थी।
उत्तर-ठीक

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प्रश्न 33. मसंद प्रथा के विकास में गुरु अर्जन देव जी ने सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 34. बाबा बुड्डा जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को लिखने का कार्य किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 35. गुरु अर्जन देव जी को 1606 ई० में शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 36. गुरु अर्जन देव जी को औरंगजेब के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 37. गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 38. गुरु हरगोबिंद साहिब का जन्म 1595 ई० में हुआ था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 39. गुरु हरगोबिंद साहिब जी के पिता जी का नाम गुरु अर्जन देव जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 40. गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1606 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 41. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने मीरी और पीरी नीति का प्रचलन किया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 42. गुरु अर्जन देव जी ने अकाल तख्त साहिब के निर्माण का कार्य किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 43. गुरु हरगोबिंद साहिब जी को बंदी छोड़ बाबा कहा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 44. सिखों और मुग़लों के मध्य पहली लड़ाई अमृतसर में हुई।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 45. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कीरतपुर साहिब नामक एक नगर की स्थापना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 46. गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1635 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 47. गुरु हर राय जी सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 48. गुरु हर राय जी का जन्म 1630 ई० में हुआ था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 49. गुरु हर राय जी के पिता जी का नाम बाबा बुड्डा जी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 50. गुरु हर राय जी की माता जी का नाम बीबी निहाल कौर था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 51. गुरु हर राय जी 1661 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 52. गुरु हरकृष्ण जी सिखों के आठवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 53. गुरु हरकृष्ण जी को बाल गुरु के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 54. गुरु हरकृष्ण जी 1664 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 55. गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 56. गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म अमृतसर में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 57. गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1621 ई० में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 58. गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम गुरु हरकृष्ण जी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 59. गुरु तेग बहादुर जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 60. गुरु तेग़ बहादुर जी का आरंभिक नाम त्याग मल था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 61. गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 62. मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी की खोज की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 63. गुरु तेग बहादुर जी 1664 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 64. गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1666 ई० में किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 65. गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्राओं के दौरान सर्वप्रथम अमृतसर पहुँचे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 66. औरंगजेब ने 1664 ई० में हिंदुओं पर पुनः जज़िया कर लगाया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 67. गुरु तेग़ बहादुर जी के समय शेर अफ़गान कश्मीर का गवर्नर था। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 68. औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली में शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 69. गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० को शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 70. गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 71. गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर, 1666 ई० को हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 72. गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 73. गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 74. गुरु गोबिंद सिंह जी का आरंभिक नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 75. भंगाणी की लड़ाई 1688 ई० में लड़ी गई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 76. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सृजना 1699 ई० में की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 77. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सजना के समय पाँच प्यारों का चुनाव किया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 78. श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई 1701 ई० में हुई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 79. श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1706 ई० में हुई थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 80. चमकौर साहिब की लड़ाई 1704 ई० में हुई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 81. गुरु गोबिंद सिंह जी ने ज़फ़रनामा को फ़ारसी भाषा में लिखा था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 82. खिदराना की लड़ाई 1705 ई० में लड़ी गई।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 83. गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्म-कथा का नाम बचित्तर नाटक है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 84. गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ में ज्योति-ज्योत समाए थे।
उत्तर-ठीक

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नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
सिख धर्म के संस्थापक कौन थे ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1459 ई० में
(ii) 1469 ई० में
(iii) 1479 ई० में
(iv) 1489 ई० में।
उत्तर-(ii)

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) मेहता कालू
(ii) जैराम
(iii) श्री चंद
(iv) फेरुमलं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन गुरु नानक देव जी की बहन थी ?
(i) नानकी जी
(ii) भानी जी
(iii) दानी जी
(iv) खीवी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी ने सच्चा सौदा कितने रुपयों के साथ किया था ?
(i) 10
(ii) 20
(iii) 30
(iv) 50
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का उद्देश्य क्या था ?
(i) लोगों में फैले अंधविश्वास को दूर करना
(ii) नाम का प्रचार करना
(iii) आपसी भाईचारे का प्रचार करना
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी कहाँ से आरंभ की ?
(i) गोरखमता
(ii) हरिद्वार
(iii) सैदपुर
(iv) कुरुक्षेत्र।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी की मुलाकात सजन ठग से कहाँ हुई थी ?
(i) तालुंबा में
(ii) सैदपुर में।
(iii) दिल्ली में
(iv) धुबरी में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
मक्का में कौन-से काजी ने गुरु नानक साहिब को काबे की तरफ पाँव करके सोने से रोका था ?
(i) बहाउदीन
(ii) कुतुबुदीन
(iii) रुकनुदीन
(iv) शमसुदीन।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में कब निवास किया ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1520 ई० में
(iii) 1521 ई० में
(iv) 1522 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा का क्या स्वरूप है ? ।
(i) वह सर्वशक्तिमान है
(ii) वह सदैव रहने वाला है
(iii) वह निर्गुण और सगुण है
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 12.
कीर्तन की प्रथा किस गुरु ने आरंभ की ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
(i) भाई जेठा जी को
(ii) भाई दुर्गा जी को
(iii) भाई लहणा जी को
(iv) श्री चंद जी को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1529 ई० में
(iii) 1539 ई० में,
(iv) 1549 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 15.
सिखों के दूसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अंगद देव जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 16.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई जेठा जी
(ii) भाई लंहणा जी
(iii) भाई गुरदित्ता जी
(iv) भाई दासू जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 17.
गुरु अंगद देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1529 ई० में
(ii) 1538 ई० में
(iii) 1539 ई० में
(iii) 1552 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) गोइंदवाल साहिब
(ii) अमृतसर
(iii) खडूर साहिब
(iv) सुल्तानपुर लोधी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 19.
किस गुरु साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 20.
उदासी मत का संस्थापक कौन था
(i) बाबा श्री चंद जी
(ii) बाबा लख्मी दास जी
(iii) बाबा मोहन जी
(iv) बाबा मोहरी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 21.
सिखों के तीसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 22.
गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1539 ई० में
(ii) 1550 ई० में
(iii) 1551 ई० में
(iv) 1552 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 23.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने ।
(iii) गुरु रामदास जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 24.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी पौड़ियाँ बनाई गई थीं ?
(i) 62
(ii) 72
(iii) 73
(iv) 84
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 25.
किस गुरु साहिबान ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु रामदास जी ने ।
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 26.
गुरु अमरदास जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) अमृतसर
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) लाहौर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 27.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1552 ई० में
(ii) 1564 ई० में
(iii) 1568 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 28.
सिखों के चौथे गुरु,कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 29.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई बाला जी
(ii) भाई जेठा जी
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई मेरदाना जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 30.
गुरु रामदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1534 ई० में
(ii) 1552 ई० में
(iii) 1554 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 31.
रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना किस गुरु साहिबान ने की थी ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु रामदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु हरगोबिंद जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 32.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
(i) गुरु रामदास जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु अमरदास जी ने
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 33.
किस गुरु साहिबान के समय उदासियों और सिखों के बीच समझौता हुआ था ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु रामदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 34.
सिखों के पाँचवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 35.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1539 ई० में
(ii) 1560 ई० में
(iii) 1563 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 36.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कहाँ हुआ था ?
(i) अमृतसर
(ii) खडूर साहिब
(iii) गोइंदवाल साहिब
(iv) तरन तारन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 37.
पृथिया ने किस संप्रदाय की स्थापना की थी ?
(i) मीणा
(ii) उदासी
(iii) हरजस
(iv) निरंजनिया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 38.
गुरु अर्जन देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1580 ई० में
(ii) 1581 ई० में
(iii) 1585 ई० में
(iv) 1586 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 39.
चंदू शाह कौन था ?
(i) लाहौर का दीवान
(ii) जालंधर का फ़ौजदार
(iii) पंजाब का सूबेदार
(iv) मुलतान का दीवान।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 40.
गुरु अर्जन देव जी ने हरिमंदिर साहिब की नींव कब रखी थी ?
(i) 1581 ई० में
(ii) 1585 ई० में
(iii) 1587 ई० में
(iv) 1588 ई० में।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 41.
हरिमंदिर साहिब की नींव किसने रखी थी ?
(i) गुरु अर्जन साहिब जी ने
(ii) बाबा फ़रीद जी ने
(iii) संत मीयाँ मीर जी ने
(iv) बाबा बुड्डा जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 42.
गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य किसको दिया ?
(i) बाबा बुड्डा जी को
(ii) भाई गुरदास जी को
(iii) भाई मोहकम चंद जी को
(iv) भाई मनी सिंह जी को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 43.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब पूर्ण हुआ ?
(i) 1600 ई० में
(ii) 1601 ई० में ।
(iii) 1602 ई० में
(iv) 1604 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 44.
हरिमंदिर साहिब जी के पहले मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
(i) भाई गुरदास जी
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) बाबा बुड्डा जी
(iv) बाबा दीप सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 45.
जहाँगीर की आत्मकथा का क्या नाम था ?
(i) तुजक-ए-बाबरी
(ii) तुज़क-ए-जहाँगीरी
(iii) जहाँगीरनामा
(iv) आलमगीरनामा।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 46.
शहीदी देने वाले प्रथम गुरु कौन थे ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 47.
गुरु अर्जन देव जी को कहाँ शहीद किया गया था ?
(i) दिल्ली
(ii) अमृतसर
(iii) लाहौर
(iv) मुलतान।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 48.
गुरु अर्जन देव जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1604 ई० में
(ii) 1605 ई० में
(iii) 1606 ई० में
(iv) 1609 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 49.
सिखों के छठे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अर्जन देव जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु हर राय जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 50.
गुरु हरगोबिंद जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1506 ई० में
(ii) 1556 ई० में
(iii) 1605 ई० में
(iv) 1606 ई० में।

प्रश्न 51.
मीरी और पीरी की प्रथा किस गुरु साहिब ने आरंभ की ?
(i) गुरु अर्जन देव जी ने
(ii) गुरु हरगोबिंद जी ने
(iii) गुरु तेग बहादुर जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 52.
अकाल तख्त साहिब का निर्माण किस गुरु साहिब ने करवाया था ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने
(iv) गुरु तेग बहादुर जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 53.
‘बंदी छोड़ बाबा’ किसको कहा जाता है ?
(i) बंदा सिंह बहादुर को
(ii) भाई मनी सिंह जी को
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी को
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 54.
गुरु हरगोबिंद साहिब और मुग़लों में लड़ी गई अमृतसर की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 1606 ई० में
(ii) 1624 ई० में
(iii) 1630 ई० में
(iv) 1634 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 55.
गुरु हरगोबिंद साहिब जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1628 ई० में
(ii) 1635 ई० में
(iii) 1638 ई० में
(iv) 1645 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 56.
सिखों के सातवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरगोबिंद साहिब जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 57.
गुरु हर राय जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1635 ई० में
(ii) 1637 ई० में
(iii) 1645 ई० में
(iv) 1655 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 58.
सिखों के आठवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरकृष्ण जी
(ii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iii) गुरु हर राय जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 59.
सिख इतिहास में ‘बाल गुरु’ के नाम से किसको जाना जाता है ?
(i) गुरु रामदास जी को
(ii) गुरु हर राय जी को
(ii) गुरु हरकृष्ण जी को
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी को।
उत्तर-
(ii)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 60.
गुरु हरकृष्ण जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1645 ई० में
(ii) 1656 ई० में
(iii) 1661 ई० में
(iv) 1664 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 61.
गुरु हरकृष्ण जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1662 ई० में
(iii) 1663 ई० में
(iv) 1664 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 62.
सिखों के नवम् गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 63.
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1621 ई० में
(iii) 1631 ई० में
(iv) 1656 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 64.
गुरु तेग़ बहादुर जी के बचपन का क्या नाम था ?
(i) हरी मल
(ii) त्याग मल
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई जेठा जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 65.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) बाबा गुरदित्ता जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 66.
उस व्यक्ति का नाम .बताएँ जिसने यह प्रमाणित किया कि गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के वास्तविक गुरु हैं ?
(i) मक्खन शाह मसतूआना
(ii) मक्खन शाह लुबाणा
(iii) बाबा बुड्डा जी ,
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 67.
गुरु तेग बहादुर जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1666 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 68.
किस मुग़ल बादशाह के आदेशानुसार गुरु तेग बहादुर जी को शहीद किया गया ?
(i) जहाँगीर
(ii) शाहजहाँ
(iii) औरंगजेब
(iv) बहादुरशाह प्रथम।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 69.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कहाँ शहीद किया गया ?
(i) लाहौर में
(ii) दिल्ली में
(iii) अमृतसर में
(iv) पटना में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 70.
गुरु तेग बहादुर जी को कब शहीद किया गया ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 71.
सिखों के दशम् तथा अंतिम गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु गोबिंद सिंह जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 72.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1646 ई० में
(ii) 1656 ई० में
(iii) 1666 ई० में
(iv) 1676 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 73.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) पटना साहिब
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) श्री आनंदपुर साहिब।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 74.
गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 75.
गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का क्या नाम था ?
(i) गुजरी जी
(ii) नानकी जी
(iii) सुलक्खनी जी
(iv) खीवी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 76.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम क्या था ?
(i) गोबिंद नाथ
(ii) गोबिंद दास
(iii) भाई जेठा जी
(iv) भाई लहणा जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 77.
गुरु गोबिंद सिंह जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1666 ई० में
(ii) 1670 ई० में
(iii) 1672 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 78.
भंगाणी की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 1686 ई० में
(ii) 1687 ई० में
(iii) 1688 ई० में
(iv) 1690 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 79.
नादौन की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1688 ई० में
(ii) 1690 ई० में
(iii) 1694 ई० में
(iv) 1695 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 80.
खालसा पंथ की स्थापना किस गुरु ने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 81.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कब की थी ?
(i) 1688 ई० में
(ii) 1690 ई० में
(iii) 1695 ई० में
(iv) 1699 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 82.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कहाँ की थी ?
(i) अमृतसर
(ii) श्री आनंदपुर साहिब
(iii) कीरतपुर साहिब
(iv) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(i)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 83.
खालसा की सृजना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने प्रत्येक खालसा को कितने कक्कार धारण करना ज़रूरी बताया ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 84.
श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई कब हुई ?
(i) 1699 ई० में
(ii) 1701 ई० में
(iii) 1703 ई० में
(iv) 1704 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 85.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई कब हुई
(i) 1707 ई० में
(ii) 1702 ई० में
(iii) 1704 ई० में
(iv) 1705 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 86.
चमकौर साहिब की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1702 ई० में
(ii) 1703 ई० में
(iii) 1704 ई० में
(iv) 1706 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 87.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ज़फ़रनामा को किस भाषा में लिखा था ?
(i) हिंदी में
(ii) संस्कृत में
(iii) पंजाबी में
(iv) फ़ारसी में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 88.
चाली मुक्ते कौन-सी लड़ाई के साथ संबंधित हैं ?
(i) चमकौर साहिब की लड़ाई के साथ
(ii) खिदराना की लड़ाई के साथ
(iii) आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई के साथ
(iv) आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई के साथ।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 89.
बचित्तर नाटक की रचना किसने की ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 90.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1705 ई० में
(ii) 1706 ई० में
(iii) 1707 ई० में
(iv) 1708 ई० में।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
जन-सहभागिता का अर्थ बताएं। भारत में कम तथा नीचे दर्जे की जन-सहभागिता के चार कारणों का वर्णन करें।
(What is the meaning of people’s participation ? Explain four reasons of low and poor people’s participation in India.)
अथवा
जन सहभागिता का क्या अर्थ है ? भारत में कम जन सहभागिता के कारणों का वर्णन करो।
(What is meant by People’s Participation ? What are the reasons of Peoples low participation in India ?)
उत्तर-
जन-सहभागिता का अर्थ-जन-सहभागिता लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली का महत्त्वपूर्ण आधार है। जनसहभागिता का अर्थ है राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा भाग लेना। जन-सहभागिता का स्तर सभी शासन प्रणालियों और सभी देशों में एक समान नहीं होता। अधिनायकवाद और निरंकुशतन्त्र में जन-सहभागिता का स्तर बहुत कम होता है जबकि लोकतन्त्र में जन-सहभागिता का स्तर बहुत ऊंचा होता है। लोकतन्त्र में जन-सहभागिता के द्वारा ही लोग शासन में भाग लेते हैं। हरबर्ट मैक्कलॉस्की के अनुसार, “सहभागिता वह मुख्य साधन है जिसके द्वारा लोकतन्त्र में सहमति प्रदान की जाती है और वापस ली जाती है तथा शासकों को शासितों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है।”

भारत में जनसहभागिता की धारणा-भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। किसी लोकतान्त्रिक देश की जनसंख्या इतनी नहीं है जितनी कि भारत में मतदाताओं की संख्या है। 1991 में दसवीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर मतदाताओं की संख्या 52 करोड़ से अधिक है जबकि 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर मतदाताओं की संख्या 58 करोड़ से अधिक थी। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में मतदाताओं की संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी। आम चुनावों के समय जितने लोग राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं, उतने अन्य किसी राष्ट्रीय उत्सव या पर्व में नहीं लेते हैं। चुनाव एक माध्यम है जिसके द्वारा मतदाता अपनी प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हैं।

चुनाव के द्वारा ही मतदाताओं और राजनीतिक नेताओं में सीधा सम्पर्क स्थापित होता है। यद्यपि भारत के अधिकांश मतदाता अनपढ़ हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनमें राजनीतिक जागरूकता बढ़ती जा रही है। 1952 के मतदाता और अब के मतदाता में बहुत अन्तर है। पहले मतदाता न तो राजनीतिक प्रश्नों पर विचार करते थे और न ही राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों पर। वे पं० जवाहरलाल नेहरू और कुछ अन्य नेताओं के नाम पर मतदान करते थे या फिर जाति, धर्म एवं बिरादरी के उम्मीदवार को वोट डालते थे। इसलिए प्रायः सभी राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चयन करते समय जाति एवं धर्म का ध्यान रखते रहे हैं और जिस चुनाव क्षेत्र में जिस जाति के मतदाताओं की संख्या अधिक होती है, उस क्षेत्र में प्रायः उस जाति का उम्मीदवार खड़ा किया जाता रहा है। परन्तु पिछले कुछ सालों के चुनावों में मतदाताओं ने जाति से ऊपर उठकर मतदान किया।

इन चुनावों के परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय मतदाता राष्ट्रीय समस्याओं पर सोचने-विचारने लगे हैं और उनमें राजनीतिक सूझ-बूझ है, चाहे वे अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं हैं। मतदाता दल की पिछली सफलताओं में रुचि न लेकर समकालीन घटनाओं तथा समस्याओं में अधिक रुचि रखते हैं। 1977 में मतदाताओं ने कांग्रेस के विरुद्ध मतदान किया क्योंकि मतदाता कांग्रेस सरकार के आपात्काल के अत्याचारों से बहुत भयभीत हो गए थे। यहां तक कि श्रीमती इन्दिरा गांधी स्वयं भी चुनाव हार गईं। 1980 में मतदाताओं ने जनता पार्टी के विरुद्ध मतदान किया क्योंकि जनता पार्टी के नेता सत्ता में आने के बाद परस्पर लड़ते रहे और अधिक समय तक सत्ता में न रह सके। मतदाताओं ने श्रीमती गांधी को पुनः सत्ता सौंप दी क्योंकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने शासन में स्थायित्व और कीमतों को कम करने का आश्वासन दिया था।

भारतीय महिलाएं चुनाव में पुरुषों के समान ही हिस्सा लेती हैं। लोकसभा के लिए हुए विभिन्न चुनावों में कई क्षेत्रों में महिला मतदाताओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया। महिलाओं की राजनीति में रुचि बढ़ती जा रही है जो कि प्रजातन्त्र के लिए अच्छी बात है, परन्तु महिलाओं का प्रतिनिधित्व संसद् में कम होता जा रहा है। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में केवल 61 महिलाएं लोकसभा के लिए निर्वाचित हुईं।

सहभागिता का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि अधिकतर भारतीय मतदाता राजनीति में रुचि नहीं रखते या राजनीति के प्रति उदासीन हैं, विशेषकर शिक्षित मतदाता बहुत कम वोट डालने जाते हैं। आम चुनावों से स्पष्ट हो जाता है कि लगभग 60 प्रतिशत मतदाता ही मतदान करने जाते हैं। यह उदासीनता लोकतन्त्र के लिए अच्छी नहीं है। फरवरी, 1992 में पंजाब विधानसभा का चुनाव हुआ. जिसका अकाली दल (मान), अकाली दल (बादल) तथा अन्य अकाली दलों ने बहिष्कार किया, मतदान केवल 28 प्रतिशत रहा।

भारतीय नागरिकों की न केवल चुनाव में सहभागिता कम है बल्कि अन्य राजनीतिक गतिविधियों में भी कम लोग भाग लेते हैं। अधिकांश नागरिक राजनीतिक दलों के सदस्य बनना पसन्द नहीं करते और राजनीतिक दल भी निरन्तर सक्रिय नहीं रहते। केवल चुनाव के समय ही राजनीतिक दल सक्रिय होते हैं और चुनावों के समाप्त होने के साथ ही सो जाते हैं। आम जनता सार्वजनिक मामलों और राजनीतिक गतिविधियों में रुचि नहीं लेती। बहुत कम नागरिक चुनाव के पश्चात् अपने प्रतिनिधियों से मिलते रहते हैं और उन्हें अपनी समस्याओं से अवगत कराते हैं। इस प्रकार भारत में जन-सहभागिता का स्तर निम्न है।

भारत में निम्न स्तर की जन-सहभागिता के कारण (CAUSES OF LOW LEVEL OF PEOPLE’S PARTICIPATION IN INDIA)

भारत में निम्न स्तर की जन-सहभागिता के निम्नलिखित कारण हैं-
1. अनपढ़ता (mliteracy)—स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत में बहुत अनपढ़ता पाई जाती है। अशिक्षित व्यक्तियों में आत्म-विश्वास की कमी होती है और वे देश की समस्याओं को समझने की स्थिति में भी नहीं होते। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। अशिक्षित व्यक्ति का मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता और न ही अधिकांश अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार का प्रयोग करना आता है। चुनाव के समय लाखों मत-पत्र का अवैध घोषित किया जाना इस बात का प्रमाण है कि लोगों को मत का प्रयोग करना नहीं आता।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब नागरिक को पेट भर कर भोजन न मिल सकने के कारण उनका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहता है और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। ग़रीब व्यक्ति मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता और अपनी वोट को बेचने के लिए तैयार हो जाता है।

3. बेकारी (Unemployment)-भारत में जन-सहभागिता के निम्न स्तर के होने का एक कारण बेकारी है। भारत में करोड़ों लोग बेकार हैं। भारत में बेकारी अशिक्षित तथा शिक्षित दोनों प्रकार के लोगों में पाई जाती है। बेकार व्यक्ति में हीन भावना आ जाती है और वह अपने आपको समाज पर बोझ समझने लगता है। बेकार व्यक्ति अपनी समस्याओं में ही उलझा रहता है और उसे समाज एवं देश की समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता। बेकारी के कारण नागरिकों का प्रशासनिक स्वरूप तथा राजनीतिक दलों की क्षमता में विश्वास कम होता जा रहा है। बेकार व्यक्ति मताधिकार को कोई महत्त्व नहीं देता और अपना वोट बेचने के लिए तैयार रहता है।

4. शिक्षित लोगों में राजनीतिक उदासीनता (Political apathy among educated people)-भारत में शिक्षित लोगों में राजनीतिक उदासीनता पाई जाती है। पढ़े-लिखे लोग राजनीति में रुचि नहीं रखते और राजनीतिक दलों का सदस्य बनना पसन्द नहीं करते। चुनाव में अधिकांश शिक्षित लोग वोट डालने नहीं जाते क्योंकि वे यह समझते हैं कि उनके मतों से चुनाव के परिणाम पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है क्योंकि अधिकांश जनता अनपढ़ है और उनके मतदान से ही परिणाम निर्धारित होते हैं।

5. भ्रष्टाचार (Corruption)-भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भ्रष्टाचार राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर दोनों पर पाया जाता है। राजनीति में सत्य, नैतिकता और ईमानदारी का कोई स्थान नहीं है। चुनाव के लिए सभी तरह के भ्रष्ट तरीके अपनाए जाते हैं। अतः ईमानदार और नैतिक व्यक्ति राजनीतिक से दूर रहना पसन्द करता है क्योंकि भारत में यह आम धारणा है कि राजनीति भ्रष्ट लोगों का खेल है। इसलिए ईमानदार व्यक्ति न तो चुनाव में खड़े होते हैं और न ही राजनीतिक कार्यों में दिलचस्पी लेते हैं।

6. राजनीतिक दलों में विश्वास की कमी (Lack of faith in Political Parties)-भारत की अधिकांश जनता को राजनीतिक दलों पर विश्वास नहीं है। आम धारणा यह है कि राजनीतिक दलों का उद्देश्य जनता की सेवा करना नहीं है बल्कि ये दल अपने हितों की रक्षा के लिए सत्ता करना चाहते हैं। दल-बदल ने जनता का राजनीतिक दलों से विश्वास बिल्कुल उठा दिया है। लोगों का विचार है कि राजनीतिक नेता अपनी कुर्सी के चक्कर में रहते हैं और उन्हें जनता के हितों की कोई परवाह नहीं होती। इसलिए आम जनता की चुनावों और अन्य राजनीतिक गतिविधियों में सहभागिता कम होती जा रही है।

7. अज्ञानता (Ignorance)-भारत में निम्न स्तर की जन-सहभागिता का एक कारण लोगों की अज्ञानता है। भारत में प्राय: शिक्षित लोग भी कई प्रकार की राजनीतिक समस्याओं से अनभिज्ञ रहते हैं। वे राजनीति में होने वाली महत्त्वपूर्ण गतिविधियों को समझ नहीं पाते तथा राजनीति में कम रुचि लेते हैं।

8. राजनीति व्यवसाय के रूप में (Politics As a Profession)-भारत में निम्न स्तर की जन-सहभागिता का एक प्रमुख कारण यह है, कि राजनीति एक पारिवारिक व्यवसाय बन चुकी है। यदि एक व्यक्ति किसी निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ता है, तो वह यह कोशिश करता है कि आगे समय में उसके परिवार के ही किसी सदस्य को टिकट मिले। इस कारण राजनीति केवल कुछ लोगों के मध्य सीमित होकर रह गई हैं। जिससे आम नागरिक राजनीति में रुचि नहीं लेता।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

प्रश्न 2.
मतदान व्यवहार से क्या भाव है ? मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तथ्यों का वर्णन करें।
(What is meant by Voting Behaviour ? Write main determinants of Voting Behaviour in India.)
अथवा
मतदान व्यवहार से क्या भाव है ? भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तथ्यों का वर्णन करो।
(What is meant by Voting Behaviour ? Write the factors which determine the Voting Behaviour in India.)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुसार प्रत्येक नागरिक को जो एक निश्चित तिथि को 18 वर्ष की आयु को प्राप्त कर चुका हो मताधिकार दिया गया है। नागरिक मताधिकार का प्रयोग करते समय अनेक कारकों से प्रेरित होता है। जिन कारणों अथवा स्थितियों से प्रभावित होकर मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट डालने का निर्णय करता है, उन तथ्यों तथा स्थितियों के अध्ययन को ही मतदान व्यवहार का अध्ययन कहा जाता है। जे० सी० प्लेनो और रिगस (J. C. Plano and Riggs) के अनुसार, “मतदान व्यवहार अध्ययन के उस क्षेत्र को कहा जाता है जो उन विधियों से सम्बन्धित है जिन विधियों द्वारा लोग सार्वजनिक चुनाव में अपने मत का प्रयोग करते हैं। मतदान व्यवहार उन कारणों से सम्बन्धित है जो कारण मतदाताओं को किसी विशेष रूप से मताधिकार का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।”

(“Voting behaviour is a field study of concerned with the ways in which people tend to vote in public elections and the reasons why they vote or they do.”) साधारण शब्दों में मतदान व्यवहार का अर्थ है कि मतदाता अपने मत का प्रयोग क्यों करते हैं और किस प्रकार करते हैं। निष्पक्ष चुनाव के लिए यह आवश्यक है कि मतदाता अपने इस अधिकार का प्रयोग ईमानदारी और समझदारी से करें। विख्यात विचारक काका कालेलकर का कहना है कि मतदाताओं को यह चाहिए कि “प्रतिनिधि को उसी दृष्टि से चुने जिस दृष्टि से हम मरीज़ के लिए डॉक्टर को चुनते हैं। देश का मामला बिगड़ गया है। उनको सुलझा सकें, उसी दल को अपना वोट दो और उस दल का बहुमत बनाने के लिए उसके छांटे हुए उम्मीदवारों को वोट दो। वोट देने वाले को दो बातें देखनी चाहिएं-एक यह कि किन नेताओं के द्वारा देश-हित हो सकता है, दूसरा यह कि ऐसे नेताओं के पृष्ठ-पोषण करने वाले प्रतिनिधि सार्वजनिक चरित्र के बारे में शुद्ध हैं या नहीं। जो नेता स्वयं उच्च चरित्र के हों, वे अपने पक्ष में हीन चरित्र के लोगों को लेकर बहुमत लाना चाहें, उन्हें पसन्द न करना जनता का कर्तव्य हो जाता है।”

परन्तु अफसोस यह है कि भारतीय मतदाता ईमानदारी और समझदारी से वोट न डालकर धार्मिक, जात-पात, क्षेत्रीय तथा अन्य सामाजिक भावनाओं के ओत-प्रोत होकर मतदान करता है। भारतीय मतदान व्यवहार को अनेक तत्त्व प्रभावित करते हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं

1. जाति का मतदान व्यवहार पर प्रभाव (Influence of Caste on the Voting behaviour) जाति सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जिसका आरम्भ से ही मतदान व्यवहार पर बड़ा प्रभाव रहा है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी जब अभी वयस्क मताधिकार प्रचलित नहीं हुआ था, जाति का मतदान पर बहुत प्रभाव था। स्वतन्त्रता के पश्चात् यह प्रभाव कम होता दिखाई नहीं देता, इसके बावजूद भी कि शिक्षकों और सामाजिक नेताओं ने जाति की बुराइयों के विरुद्ध स्वतन्त्रता के पश्चात् काफ़ी प्रचार किया है। प्रो० श्रीनिवास (Shrinivas) ने ठीक ही कहा है कि, “शिक्षित भारतीयों में यह साधारण विश्वास है कि जाति अब अपनी आखिरी मंजिल पर है और शहर के शिक्षित तथा पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित उच्च वर्ग के लोग अब इस बुराई के चंगुल से बाहर निकल चुके हैं।

परन्तु उनका ऐसा सोचना ग़लत है। ये लोग चाहे जाति के बन्धनों को कम मानते हैं और जाति के बाहर भी शादी कर लेते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जाति का प्रभाव बिल्कुल समाप्त हो गया है।” प्रो० रूडाल्फ (Prof. Rudolph) के विचारानुसार, “इसके अतिरिक्त भी कि भारतीय समाज लोकतान्त्रिक नीति के मूल्यों और विधियों को अपना रहा है, जाति भारतीय समाज की धुरी है। वास्तव में जाति एक मुख्य साधन है जिसके द्वारा भारतीय जनता लोकतन्त्रात्मक राजनीति से बंधी हुई है।” प्रो० मौरिस जॉन्स के मतानुसार, “राजनीति जाति से अधिक महत्त्वपूर्ण है और जाति पहले से राजनीति से अधिक महत्त्वपूर्ण है।”

इन सब विद्वानों ने ठीक ही विचार दिए हैं कि भारतीय राजनीति में जाति का बहुत महत्त्व है और भारतीय जनता अधिकतर जाति के प्रभाव में ही आकर मतदान करती है। कुछ राज्यों में तो यह तत्त्व वह बहत निर्णायक है क्योंकि मतदाता अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देना अपना कर्त्तव्य मानते हैं। उदाहरण के लिए, हरियाणा में अनुसूचित जातियों में हरिजनों की संख्या सबसे अधिक है और राजनीति तथा मतदान के क्षेत्र में उनकी दूसरी जातियों की अपेक्षा अधिक चलती है। गुड़गांव, महेन्द्रगढ़ में अहीर जाति के जाट केवल अहीर उम्मीदवार को ही वोट देते हैं। चुनाव के दिनों में यह नारा बहुत लोकप्रिय होता है, “जाट की बेटी जाट को, जाट का वोट जाट को।” मियू (Meo) जाति के मुसलमान भी जाति के आधार पर वोट डालते हैं। बिहार, गुजरात, पंजाब तथा केरल आदि राज्यों में भी मतदाता जाति के आधार पर ही अधिकतर वोट डालते हैं। अनेक दल तो जातियों के आधार पर ही बने हुए हैं और उन्हें विशेष जातियों का समर्थन प्राप्त है-जैसे लोकदल जाट जाति पर नाज करता है, अकाली दल कट्टर सिक्खों के सहारे जिन्दा है, परन्तु पिछले कुछ वर्षों के लोकसभा के चुनावों में जाति ने पहले की अपेक्षा बहुत कम प्रभावित किया है।

2. धर्म का प्रभाव (Influence of Religion)-भारतीय मतदाता धर्म के प्रभाव में आकर भी वोट डालते हैं। टिकट बांटते समय निर्वाचित क्षेत्र की रचना को ध्यान में रखा जाता है और प्रायः उसी धर्म के व्यक्ति को टिकट दी जाती है जिस धर्म के लोगों की वोटें उस निर्वाचन क्षेत्र में अधिकतम होती हैं। अधिकतर भारतीय अनपढ़ हैं और वे धर्म के नाम पर सब कुछ करने के लिए तैयार हो जाते हैं। मई-जून, 1991 के लोकसभा के चुनाव में राम जन्मभूमिबाबरी मस्जिद विवाद ने मतदाताओं को काफी प्रभावित किया। भारतीय जनता पार्टी को श्री राम मन्दिर बनाने के लिए राम भक्तों ने मत डाले।

3. क्षेत्रीयवाद अथवा स्थानीयवाद (Regionalism or Localism) भारत में मतदाता स्थानीयवाद तथा क्षेत्रीयवाद की भावनाओं से ओत-प्रोत होकर भी मतदान करते हैं। साधारणत: मतदाता उसी उम्मीदवार को वोट डालते हैं जो उनके क्षेत्र का रहने वाला है। यदि कोई उम्मीदवार किसी दूसरे राज्य से आ कर चुनाव लड़ता है तो उसका चुनाव जीतना यदि असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य होता है।

4. धन (Money)-भारतीय जनता अधिकतर गरीब तथा अनपढ़ है, लाखों क्या करोड़ों मतदाता ऐसे हैं, जिन्हें दिन-रात रोटी की चिन्ता लगी रहती है। ऐसे मतदाता पैसे लेकर अपने वोट बेचने को सदैव तैयार रहते हैं। इसलिए ग्रायः वही उम्मीदवार चुनाव जीतता है जो अधिक धन खर्च करता है।

5. दलों की विचारधारा (Ideology of the Parties)-राजनीतिक दलों की विचारधारा भी विशेषकर शिक्षित मतदाताओं को काफ़ी प्रभावित करती है। हमें ऐसे मतदाता भी मिलते हैं जो धर्म, जाति, क्षेत्रीयवाद आदि बन्धनों से मुक्त होकर राजनीतिक दलों के प्रोग्राम को वोट डालते हैं।

6. उम्मीदवार का व्यक्तित्व (Personality of the Candidate)-उम्मीदवारों के अपने विचार तथा व्यक्तित्व भी मतदाता को काफ़ी प्रभावित करते हैं। वे राष्ट्रीय दलों की अपेक्षा उम्मीदवार को महत्ता देते हैं। मतदाता राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में मतदान करते समय दल के बाद उम्मीदवार को महत्ता देता है जबकि क्षेत्रीय चुनाव दलों की अपेक्षा उम्मीदवार को महत्ता दी जाती है। भारत के मतदाता उम्मीदवार में प्रायः दो बातें देखता है, एक तो ईमानदारी और दूसरा जनता के कल्याण से उसका सम्बन्ध। ऐसे मतदाताओं की कमी है जो उम्मीदवार को देखकर मतदान करते हैं।

7. वैचारिक प्रतिबद्धता (Ideological Committment)—वैचारिक प्रतिबद्धता भी मतदान व्यवहार को प्रभावित करती है। कई मतदाता किसी-न-किसी विचारधारा में विश्वास रखते हैं। ऐसे मतदाता उस विचारधारा के समर्थक उम्मीदवार को न केवल अपना वोट डालते हैं बल्कि अन्य मतदाताओं को भी उसी उम्मीदवार को वोट डालने के लिए प्रेरित करते हैं। भारत के पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा आदि राज्यों में काफ़ी मतदाता साम्यवादी विचारधारा में विश्वास रखते हैं और ये मतदाता मार्क्सवादी साम्यवादी दल को वोट डालते हैं। इसलिए 35 वर्षों तक पश्चिम बंगाल में मार्क्ससाम्यवादी दल की सरकार थी।

8. वर्ग-चेतना (Class Consciousness) वर्ग चेतना भी मतदान व्यवहार को प्रभावित करती है। यह प्रायः देखने में आया है कि भूमिहीन किसान और श्रमिक वामपंथी दलों को वोट डालते हैं जबकि पूंजीपति, उद्योगपति, ज़मींदार तथा व्यापारी प्रायः दक्षिण पंथी दलों को मत देते हैं। गरीब, मजदूर और भूमिहीन किसान साम्यवादी दलों के मुख्य समर्थक हैं।

9. आयु (Age) आयु का भी मतदान व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। नवयुवकों में अधिक जोश और उत्साह होता है और वे नेताओं के जोशीले भाषणों से प्रभावित होकर मतदान करते हैं। प्रौढ़ आयु के व्यक्ति नेताओं के जोशीले भाषणों से प्रभावित नहीं होते बल्कि सोच-विचार कर वोट डालते हैं।

10. लिंग (Sex)-प्रायः भारतीय स्त्रियां अपनी इच्छा से मतदान न करके पति की इच्छानुसार मतदान करती हैं। अविवाहित स्त्रियां अपनी पिता या भाई की इच्छानुसार मतदान करती हैं।

11. विशेषाधिकार (Privileges)-भारत में कुछ जातियां जैसे कि अनुसूचित जातियां तथा पिछड़े वर्ग के लोग हैं जिन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं। इन जातियों के लोग अधिकतर कांग्रेस को ही वोट डालते हैं क्योंकि उनको यह विशेषाधिकार कांग्रेस ने ही दिए हैं और उन्हें यह डर भी है कि यदि कोई अन्य पार्टी सत्ता में आ गई तो उनके विशेषाधिकार समाप्त कर दिए जाएंगे। लेकिन 1977 में जनता पार्टी सरकार ने भी इनको विशेषाधिकार से वंचित नहीं किया।

12. राजनीतिक स्थिरता की अभिलाषा-राजनीतिक स्थिरता की अभिलाषा भी मतदाता के व्यवहार को प्रभावित करती है। 1967 के आम चुनाव के पश्चात् राजनीतिक अस्थिरता बहुत बढ़ गई थी क्योंकि इस चुनाव के पश्चात् कांग्रेस को आठ राज्यों में बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था। अतः जब 1971 में चुनाव हुए तो लोगों ने राजनीतिक स्थिरता की अभिलाषा से प्रभावित होकर कांग्रेस को मत डाले जिस कारण कांग्रेस को लोकसभा में भारी बहुमत प्राप्त हुआ। जनवरी, 1980 के लोकसभा के चुनाव में राजनीतिक स्थिरता की लालसा ने ही लोगों को कांग्रेस (इ) को मत डालने के लिए विवश किया। राजनीति स्थिरता की अभिलाषा के कारण ही भारतीय मतदाताओं ने 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत प्रदान किया था।

13. देश की आर्थिक स्थिति-मतदान व्यवहार को देश की आर्थिक स्थिति भी प्रभावित करती है। 1977 के चुनावों में मतदाताओं ने कांग्रेस के विरुद्ध मतदान किया क्योंकि देश की आर्थिक दशा बहुत खराब हो गई थी। परन्तु जब श्रीमती इन्दिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाया तो 1980 में जनता ने कांग्रेस को भारी बहुमत में मत डाले।

14. नेतृत्व-मतदान व्यवहार को नेतृत्व के तत्त्व भी प्रभावित करते हैं। श्री जवाहरलाल नेहरू का महान् व्यक्तित्व एवं नेतृत्व मतदान व्यवहार को बहुत प्रभावित करता था। 1977 के चुनाव में श्री जय प्रकाश नारायण ने मतदाताओं को बहुत प्रभावित किया जिससे जनता पार्टी सत्ता में आई। 1980 के चुनाव में कांग्रेस (इ) को श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व के कारण ही महान् सफलता मिली। दिसम्बर, 1984 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) की महान् सफलता का कारण यह था कि मतदाता युवा प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के व्यक्तित्व तथा नेतृत्व से बहुत प्रभावित हुए थे। –

15. चुनाव प्रचार-चुनाव प्रचार भी मतदाता व्यवहार को प्रभावित करता है परन्तु यह उन मतदाताओं को अधिक प्रभावित कर पाता है जो किसी राजनीतिक दल से सम्बन्धित नहीं होते हैं।

16. सामन्तशाही व्यवस्था-सामन्तशाही व्यवस्था ने भी मतदाता व्यवहार को प्रभावित किया है। यह प्रभाव नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों प्रकार का रहा है। सन् 1971 के पांचवें लोकसभा के चुनाव से पूर्व सामन्तशाही व्यवस्था ने मतदान व्यवस्था को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया, परन्तु 1971 के चुनाव में नकारात्मक रूप से प्रभावित किया।

17. भाषायी विवाद (Language Controversies)-भारत में समय-समय पर भाषायी विवाद और भाषायी आन्दोलन होते रहते हैं और इनका भी मतदान व्यवहार पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है। तमिलनाडु में डी० एम० के० पार्टी ने 1967 और 1971 के चुनावों में हिन्दी विरोधी प्रचार द्वारा मतदाताओं के मत प्राप्त किए। अब भी तमिलनाडु में अन्ना डी० एम० के० और डी० एम० के० हिन्दी विरोधी प्रचार द्वारा मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करते रहते

18. तत्कालीन मामले (Immediate Issues)-चुनाव के अवसर पर जो महत्त्वपूर्ण मामले होते हैं, उनका मतदान पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए 1977 के चुनाव के समय आपात्कालीन घोषणा एक महत्त्वपूर्ण मामला था और इसका मतदान पर बड़ा प्रभाव पड़ा। दिसम्बर, 1984 में लोकसभा के चुनावों के समय श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या का मतदान पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा और मतदाताओं ने राजीव गांधी को वोट दिए। 1989 के लोकसभा के चुनावों में बोफोर्स के मामले ने मतदाताओं को प्रभावित किया और कांग्रेस (इ) की पराजय हुई। अप्रैलमई, 1996 के आम चुनावों को हवाला मामले और इस काल में हुए अन्य घोटालों ने प्रभावित किया है। इसी प्रकार अप्रैल-मई 2014 में हुए चुनावों में कालेधन, स्थिरता एवं भ्रष्टाचार के मुद्दों ने मतदान को प्रभावित किया।

19. लोकवादी नारे (Populist Slogans) राजनीतिक दलों और नेताओं द्वारा दिए गए लोकवादी नारे भी मतदान को प्रभावित करते हैं। 1971 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाकर लोगों का भारी समर्थन प्राप्त किया। 1977 में जनता पार्टी ने लोकसभा के चुनाव के अवसर पर ‘लोकतन्त्र बनाम तानाशाही’ का नारा लगाया जिसका जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा और जनता पार्टी सत्ता में आई। 1980 के चुनाव में कांग्रेस (इ) ने ‘सरकार जो काम करती है’ का नारा दिया और कांग्रेस (इ) सत्ता में आई।

1967 के आम चुनाव में धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्रीयवाद आदि तत्त्वों ने मतदान को काफ़ी प्रभावित किया, परन्तु 1980 में जब लोकसभा के लिए चुनाव हुए तब इन तत्त्वों का प्रभाव काफ़ी कम था क्योंकि मतदाताओं में केन्द्र में स्थायी सरकार बनाने की लालसा थी। अतः मतदाताओं ने स्थायी सरकार को स्थापित करने की लालसा को पूरा करने के लिए इन्दिरा कांग्रेस को वोट डाले। इसी प्रकार पंजाब और हरियाणा में जब मध्यवर्ती चुनाव हुए तब लोगों ने धर्म और जाति के बन्धनों से मुक्त होकर कांग्रेस को वोट दिए। परन्तु इसका अर्थ यह न लिया जाए कि ये तत्त्व अब बिल्कुल प्रभावहीन हो गए हैं। अब भी इन तत्त्वों का मतदान व्यवहार पर बहुत प्रभाव है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

प्रश्न 3.
चुनाव आयोग का संगठन बताते हुए, राष्ट्रीय चुनाव आयोग के चार कार्यों का वर्णन करें।
(Explain the composition of the Election Commission and explain four functions of National Election Commission in India.)
अथवा
भारत में चुनाव आयोग के गठन और कार्यों का वर्णन कीजिए। (Discuss the compositions and functions of Election Commission in India.)
अथवा
भारतीय चुनाव आयोग के कोई छः कार्यों का वर्णन कीजिए। (Discuss any six functions of Election Commission of India.)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुसार भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्रीय राज्य है। प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष है, बिना किसी भेदभाव के मताधिकार दिया गया है। नागरिक मताधिकार का प्रयोग चुनाव के माध्यम से करते हैं। भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि संसद् के दोनों सदनों, राज्य विधानसभाओं व अन्य संस्थाओं का स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव हो।

भारतीय संविधान के निर्माता स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव के महत्त्व को अच्छी तरह समझते थे अतः स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने का उत्तरदायित्व भारत में एक स्वतन्त्र चुनाव आयोग को सौंपा गया है जो अपने कार्य में स्वतन्त्र है और जो एक मुख्य चुनाव आयुक्त के अधीन कार्य करता है।

संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत एक चुनाव आयोग की व्यवस्था की गई है कि जो संसद् तथा राज्य विधानमण्डलों के चुनाव सम्बन्धी सभी मामलों पर नियन्त्रण और निर्देशन के अधिकार रखता है। यह आयोग विभिन्न चुनावों का प्रबन्ध करता है और यह देखना इसका कर्तव्य है कि सभी व्यक्ति स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मतों का प्रयोग करें तथा चुनावों में किसी प्रकार की गड़बड़ न हो।

चुनाव आयोग की रचना (Composition of Election Commission)-चुनाव आयोग की रचना का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 324 में किया गया है। अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner) तथा कुछ चुनाव आयुक्त (Election Commissioners) होंगे। चुनाव आयुक्तों की संख्या समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाएगी। चुनाव आयोग को सहायता देने के लिए लोकसभा व राज्य विधानमण्डलों के चुनाव से पूर्व राष्ट्रपति को क्षेत्रीय चुनाव आयुक्त (Regional Election Commissioners) नियुक्त करने का अधिकार है। चुनाव आयुक्तों और क्षेत्रीय आयुक्तों के कार्यकाल तथा सेवाकाल सम्बन्धी शर्तों और कार्यविधि संसद् द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा निश्चित की जाती है।

1989 से पूर्व चुनाव आयोग में केवल एक मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner) ही होता था। अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति नहीं की गई थी। यदि अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाती तो मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य करता। 1989 में कांग्रेस सरकार ने पहली बार मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो अन्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए परन्तु राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने दो अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को रद्द कर दिया। 1 अक्तूबर, 1993 को केन्द्र सरकार ने दो नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कर चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाने का महत्त्वपूर्ण कदम उठाया। राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी करके कृषि सचिव एम० एस० गिल और . विधि आयोग के सदस्य जी० वी० जी० कृष्णामूर्ति को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया। चुनाव आयोग को बहु-सदस्यीय बनाने सम्बन्धी विधेयक को संसद् ने 20 दिसम्बर, 1993 को पास कर दिया। 14 जुलाई, 1995 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए तीनों चुनाव आयुक्तों को एक समान दर्जा देने की व्यवस्था की। वर्तमान समय में चुनाव आयोग तीन सदस्यीय है।

नियुक्ति (Appointment)-अनुच्छेद 324 (2) के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त, अन्य चुनाव आयुक्त तथा क्षेत्रीय आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति संसद् द्वारा निर्मित कानून की धाराओं के अनुसार करेगा। यदि संसद् ने इस सम्बन्ध में कोई कानून न बनाया हो तब नियुक्ति की विधि, सेवा की शर्ते आदि राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाएंगी। व्यवहार में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है।

योग्यताएं (Qualifications)-संविधान में मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों की योग्यताओं का वर्णन नहीं किया गया है और न ही संसद् ने इस सम्बन्ध में कोई कानून बनाया है। इसीलिए आज तक जितने भी मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए हैं वे सभी भारत सरकार के उच्च अधिकारी रहे हैं।

कार्यकाल (Tenure)-संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार आयुक्तों का कार्यकाल संसद् द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा निश्चित किया जाएगा। 1972 से पूर्व मुख्य चुनाव आयोग के कार्यकाल और सेवा सम्बन्धी शर्तों के बारे में कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए पहले दो मुख्य चुनाव आयुक्त आठ वर्ष तक इस पद पर रहे। 20 दिसम्बर, 1993 को पास किए गए एक कानून के अन्तर्गत मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल 6 वर्ष तथा 65 वर्ष की आयु पूरी करने तक (जो भी इनमें से पहले पूरा हो जाए) निश्चित किया गया है। मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्त 6 वर्ष की अवधि से पूर्व त्याग-पत्र भी दे सकता है और राष्ट्रपति भी 6 से पूर्व वर्ष निश्चित विधि के अनुसार उन्हें हटा सकता है।

पद से हटाने की विधि (Method of Removal)-संविधान के अनुच्छेद 324 (5) के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त को उसी प्रकार हटाया जा सकता है जिस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को। मुख्य चुनाव आयुक्त को राष्ट्रपति तभी हटा सकता है जब उसके विरुद्ध दुराचार (Misbehaviour) तथा अक्षमता (Incapacity) का आरोप सिद्ध हो जाए और संसद् के दोनों सदनों ने इस सम्बन्ध में अलग-अलग अपने सदन के सदस्यों के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास किया हो। अभी तक किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त को समय से पहले नहीं हटाया गया है।

सेवा शर्ते (Conditions of Service)-संविधान के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त, अन्य चुनाव आयुक्तों तथा क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों का वेतन तथा अन्य सेवा सम्बन्धी शर्ते राष्ट्रपति द्वारा संसद् द्वारा इस सम्बन्ध में बनाए गए कानून के अनुसार निश्चित की जाती हैं। परन्तु संविधान में यह व्यवस्था भी की गई है कि मुख्य चुनाव आयुक्त, अन्य चुनाव आयुक्तों तथा क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों के वेतन तथा सेवा शर्तों में उनकी नियुक्ति के पश्चात् कोई ऐसा परिवर्तन नहीं किया जा सकता जिससे उनको कोई हानि होती है।

चुनाव आयोग के कर्मचारी (Staff of Election Commission)-संविधान में चुनाव आयोग के कर्मचारियों
की भी व्यवस्था की गई है ताकि चुनाव आयोग अपने कार्यों को अच्छी तरह कर सके। संविधान के अनुच्छेद 324 (6) के अनुसार चुनाव आयुक्त अपने कार्यों को पूरा करने के लिए राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपालों से आवश्यक कर्मचारियों की मांग कर सकता है और उन कर्मचारियों की व्यवस्था करना राष्ट्रपति तथा राज्यपालों का काम है। चुनावों इत्यादि का प्रबन्ध करने के लिए आवश्यक कर्मचारियों की व्यवस्था सामान्यतः राज्य सरकारों द्वारा की जाती है, परन्तु ये कर्मचारी चुनाव आयोग के निर्देशों पर कार्य करते हैं।

चुनाव आयोग के कार्य (FUNCTIONS OF ELECTION COMMISSION)-

चुनाव आयोग के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

1. चुनावों का निरीक्षण, निर्देशन तथा नियन्त्रण (Superintendence, Direction and Control)-चुनाव आयोग को चुनाव सम्बन्धी सभी मामलों पर निरीक्षण, निर्देशन तथा नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त है। चुनाव आयोग चुनाव सम्बन्धी सभी समस्याओं को हल करता है। स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव करवाना चुनाव आयोग का कर्तव्य है।

2. मतदाता सूचियों को तैयार करना (Preparation of Electoral Roll)-चुनाव आयोग का एक महत्त्वपूर्ण कार्य संसद् तथा राज्य विधानमण्डलों के चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करवाना है। प्रत्येक जनगणना के पश्चात् और आम चुनाव से पहले मतदाताओं की सूची में संशोधन किए जाते हैं। इन सूचियों में नए मतदाताओं के नाम लिखे जाते हैं और जो नागरिक मर चुके होते हैं उनके नाम मतदाता सूची से निकाले जाते हैं। यदि किसी नागरिक का नाम मतदाता सूची में नहीं लिखा जाता तो वह व्यक्ति एक निश्चित तिथि तक आवेदन-पत्र देकर मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करवा सकता है। मतदाता सूची के तैयार होने पर चुनाव आयोग द्वारा निश्चित तिथि तक आपत्तियां मांगी जाती हैं और कोई भी आपत्ति कर सकता है। नागरिकों द्वारा एवं राजनीतिक दलों द्वारा उठाई गई आपत्तियों को चुनाव आयोग के कर्मचारियों द्वारा दूर किया जाता है।

3. चुनाव के लिए तिथि निश्चित करना (To decide Date of Election)-चुनाव आयोग विभिन्न क्षेत्रों में चुनाव करवाने की तिथि निश्चित करता है। चुनाव आयोग नामांकन पत्रों के दाखले (Submission of Nomination Papers) की अन्तिम तिथि निश्चित करता है। चुनाव आयोग उम्मीदवारों के नाम वापस लेने की तिथि घोषित करता है। यदि किसी उम्मीदवार के नामांकन-पत्र में कोई त्रुटि पाई जाती है तो उस नामांकन-पत्र को अस्वीकार कर दिया जाता

4. राज्य विधानमण्डलों के लिए चुनाव कराना (Conduct of Elections of State Legislatures)-चुनाव
आयोग सभी राज्यों के विधानमण्डलों के चुनाव की व्यवस्था करता है। भारत में आजकल 29 राज्य और 7 संघीय क्षेत्र हैं। चुनाव आयोग विधानसभाओं एवं विधानपरिषदों के चुनाव तथा उप-चुनावों की व्यवस्था करता है। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के साथ ही चुनाव आयोग ने आन्ध्र-प्रदेश, सिक्किम और उड़ीसा की विधानसभा के भी चुनाव करवाए थे।

5. संसद् के चुनाव कराना (To Conduct Elections of Parliament)-चुनाव आयोग संसद् के दोनों सदनों-लोकसभा तथा राज्यसभा के चुनावों की व्यवस्था करता है। लोकसभा का सामान्य स्थिति में कार्यकाल 5 वर्ष है। अतएव लोकसभा के साधारणतः पांच 5 वर्ष के बाद चुनाव कराए जाते हैं। यदि लोकसभा को पांच वर्ष से पहले भंग कर दिया जाए जैसा कि सन् 1979, 1991, 1998 तथा 1999 में किया गया था तब चुनाव आयोग लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कराता है। सन् 1996 में चुनाव आयोग ने लोकसभा के चुनाव कराए। राज्यसभा के सदस्यों की अवधि 6 वर्ष है और एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष के पश्चात् रिटायर होते हैं। इसलिए राज्य सभा के एक-तिहाई सदस्यों का चुनाव आयोग द्वारा प्रत्येक दो वर्ष के पश्चात् करवाया जाता है। संसद् के दोनों सदनों के रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए चुनाव आयोग उप-चुनाव करवाता है। अब तक चुनाव आयोग ने लोकसभा के 16 बार चुनाव करवाए हैं।

6. राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के लिए चुनाव कराना (To conduct Elections of President and VicePresident)-चुनाव आयोग राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के चुनाव कराता है। राष्ट्रपति के चुनाव में संसद् तथा राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं जबकि उप-राष्ट्रपति के चुनाव में संसद् के दोनों सदनों के सदस्य भाग लेते हैं। चुनाव आयोग राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति का चुनाव कराने के लिए मतदाता सूची तैयार करवाता है, चुनाव के लिए अधिसूचना जारी करता है, नामांकन-पत्र भरने, नामांकन-पत्रों की जांच करने तथा नाम वापस लेने की तिथि निश्चित करता है। चुनाव आयोग चुनाव कराने के लिए एक निर्वाचन अधिकारी दिल्ली के लिए और सहायक निर्वाचन अधिकारी विभिन्न राज्यों की राजधानी के लिए नियुक्त करता है। मतदान के पश्चात् निर्वाचन अधिकारी सफल उम्मीदवारों के नामों की घोषणा करता है। अब तक चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के लिए 15 बार चुनाव करवाए हैं।

7. राजनीतिक दलों को मान्यता देना है (To give recognition to Political Parties)-भारत में अनेक राजनीतिक दल पाए जाते हैं-कुछ राष्ट्रीय स्तर के और कुछ प्रादेशिक दल। पर कौन-सा दल राष्ट्रीय स्तर का है और कौन-सा दल प्रादेशिक दल है, इसका निर्णय चुनाव आयोग द्वारा किया जाता है। चुनाव आयोग ही राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल अथवा प्रादेशिक दल के रूप में मान्यता देता है। उस राजनीतिक दल को राष्ट्रीय स्तर के दल के रूप में मान्यता दी जाती है, जिसने लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में चार अथवा इससे अधिक राज्यों में कम से कम 6 प्रतिशत वैध मत हासिल करने के साथ-साथ लोकसभा की कम से कम 4 सीटें जीती हों अथवा कम से कम 3 राज्यों से लोकसभा में प्रतिनिधित्व कुल सीटों का दो प्रतिशत (वर्तमान 543 सीटों में से कम से कम 11 सीटें) प्राप्त किया हो। इसी तरह इस राजनीतिक दल को राज्य स्तरीय दल के रूप में मान्यता दी जाती है, जिसने लोकसभा अथवा राज्य विधानसभा चुनाव में कुल पड़े वैध मतों का कम से कम 6 प्रतिशत प्राप्त किया हो और विधानसभा चुनाव में कम से कम दो सीटें जीती हों, अथवा राज्य विधानसभा में कुल सीटों की कम से कम 3 प्रतिशत सीटें या कम से कम तीन सीटें (इनमें से जो भी अधिक हो) प्राप्त की हों। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर एवं 58 राजनीतिक दलों को राज्य स्तरीय दल के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

8. चुनाव चिह्न देना (To Allot Election Symbols) विभिन्न राजनीतिक दलों को चुनाव चिह्न चुनाव आयोग द्वारा दिए जाते हैं। जो उम्मीदवार स्वतन्त्र रूप से चुनाव में खड़े होते हैं उनको भी चुनाव आयोग चिह्न प्रदान करता है। राष्ट्रीय स्तर और प्रादेशिक स्तर के मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्न सुरक्षित और स्थायी होते हैं। सभी चुनावों में राष्ट्रीय स्तर और प्रादेशिक स्तर के दल अपने-अपने चुनाव चिह्नों का प्रयोग करते हैं। जब किसी दल का विभाजन हो जाता है। तब चुनाव आयोग यह निश्चित करता है कि उस राजनीतिक दल का चुनाव चिह्न किस विभाजित गुट को मिलना चाहिए। चुनाव चिह्नों से सम्बन्धित सभी तरह के विवादों का हल चुनाव आयोग द्वारा किया जाता है।

9. चुनाव कर्मचारियों पर नियन्त्रण (Control over Election Staffs)-संविधान के अनुसार चुनाव आयोग चुनाव करवाने के लिए राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों से कर्मचारी मांग सकता है। केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा चुनाव कार्य के लिए दिए गए कर्मचारियों पर चुनाव आयोग का नियन्त्रण होता है। ये कर्मचारी चुनाव आयोग के आदेशों के अनुसार कार्य करते हैं।

10. चुनाव सम्बन्धी व्यवहार संहिता निर्धारित करना (Determination of Code of Conduct for Election)—चुनाव आयोग स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए चुनाव व्यवहार संहिता निर्धारित करता है। चुनाव व्यवहार संहिता का राजनीतिक दलों, स्वतन्त्र उम्मीदवारों और सरकार द्वारा पालन किए जाने के लिए चुनाव आयोग आवश्यक निर्देश जारी करता है। यदि कोई राजनीतिक दल, स्वतन्त्र उम्मीदवार या सरकार चुनाव कानून या चुनाव व्यवहार संहिता का उल्लंघन करता है तो उल्लंघन के आरोपों की जांच चुनाव आयोग करता है। उदाहरण के लिए नवम्बर, 1984 में लोकसभा के चुनाव की घोषणा होने के बाद जब मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों पर कुछ वर्गों को रियायतें देने का आरोप लगाया गया तब चुनाव आयोग ने इसकी जांच के लिए शीघ्र कदम उठाया था। फरवरी, 1995 में छः विधानसभाओं के चुनाव करवाए जाने की घोषणा के बाद जब बिहार की सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के तबादले किए तब मुख्य चुनाव आयुक्त ने बिहार सरकार को तबादले से दूर रहने का निर्देश दिया।

11. मतदान केन्द्र स्थापित करना (To Establish Polling Station)-चुनाव के समय कितने मतदान केन्द्रों की स्थापना की आवश्यकता है, इसका निर्णय चुनाव आयोग ही करता है। चुनाव आयोग द्वारा मतदान केन्द्रों की स्थापना करते समय इस बात को अवश्य ध्यान में रखा जाता है कि नागरिकों को बहुत दूर मतदान करने के लिए नहीं जाना पड़े।

12. सदस्यों की अयोग्यता सम्बन्धी विवादों के सम्बन्ध में सलाह देना (To give advice on the disqualifications of members)-भारतीय संविधान में संसद् तथा राज्य विधानमण्डल के सदस्यों सम्बन्धी कुछ अयोग्यताएं निश्चित की गई हैं। जब संसद् के लिए निर्वाचित किसी सदस्य की योग्यता के सम्बन्ध में कोई विवाद उत्पन्न हो जाए तो उस विवाद का निर्णय राष्ट्रपति चुनाव आयोग की सलाह से करता है। इसी तरह यदि राज्य विधानमण्डल के लिए चुने गए किसी सदस्य की योग्यता के सम्बन्ध में विवाद उत्पन्न हो जाए तो उसका फैसला राज्यपाल चुनाव आयोग की सलाह से करता है। अतः चुनाव आयोग संसद् और राज्य विधानमण्डलों के सदस्यों की अयोग्यता सम्बन्धी विवादों के सम्बन्ध में राष्ट्रपति और राज्यपाल को परामर्श देता है।

13. चुनाव क्षेत्र में पुनः मतदान (Order of Re-Polling)—यदि किसी चुनाव क्षेत्र में या किसी विशेष मतदान केन्द्र पर भ्रष्ट तरीकों द्वारा कोई गड़बड़ी होती है, तब चुनाव आयोग उस चुनाव क्षेत्र या विशेष मतदान केन्द्र पर पुनः मतदान के आदेश दे सकता है। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में चुनाव आयोग ने कई मतदान केन्द्रों पर पुनः मतदान के आदेश दिए थे।

14. पर्यवेक्षकों की नियुक्ति-चुनाव आयोग निष्पक्ष और स्वतन्त्र मतदान करवाने के लिए पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करता है। फरवरी, 1995 में छः विधानसभाओं के चुनाव के अवसर पर चुनाव आयोग ने 100 से अधिक पर्यवेक्षक नियुक्त किए। अप्रैल-मई, 1996 के लोकसभा के चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव के अवसर पर चुनाव आयोग ने 600 पर्यवेक्षक नियुक्त किए।

15. चुनाव सुधारों के सुझाव (Recommendations of Election Reforms)—चुनाव आयोग समय-समय पर चुनाव सुधारों की सिफ़ारिशें करता रहता है। मार्च, 1988 में चुनाव आयोग ने सरकार से कहा कि वह इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीन, मतदाता आयु 18 वर्ष करने और चुनाव क्षेत्रों का पुनर्गठन करने, मतदाताओं को पहचान पत्र, चुनावी खर्चे में वृद्धि, जैसे चुनाव सुधारों को जितनी जल्दी सम्भव हो लागू करे। चुनाव आयोग ने बहु-उद्देशीय पहचान-पत्र और चुनाव याचिकाओं को शीघ्र निपटाने के लिए तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति की भी सिफ़ारिश की है। चुनाव आयोग का विचार है कि बहु-उद्देशीय परिचय-पत्र लागू करने से न केवल फर्जी मतदान रुक जाएगा बल्कि आर्थिक और सामाजिक योजना की दिशा में भी यह महत्त्वपूर्ण कदम होगा।

चुनाव आयोग का महत्त्व-भारत का चुनाव भारत की जनता के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्था है। यह संसद् और विधानमण्डलों के चुनावों का प्रबन्ध करती है। भारत जैसे बड़े देश में चुनावों का प्रबन्ध करना कोई मामूली बात नहीं है। चुनाव आयोग ने अब तक 16 आम चुनाव करवाए हैं और इनके लिए वही प्रशंसा का पात्र है। भारत में लोकतन्त्र की सफलता स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों पर बहुत कुछ आधारित है और इसके लिए चुनाव आयोग ही बधाई का पात्र कहा जा सकता है। चुनाव आयोग की देखभाल में अब तक निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव होते आए हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

प्रश्न 4.
भारत में चुनाव प्रक्रिया के प्रमुख चरणों की व्याख्या कीजिए। (Explain the main stages of Electoral Process in India.)
अथवा
चुनावी प्रक्रिया क्या होती है ? भारतीय चुनाव प्रक्रिया के सारे महत्त्वपूर्ण पड़ावों के नाम लिखो। (What is Election Process ? Name all the important stages of Indian Election Process.)
उत्तर-
भारत में प्रजातन्त्र की व्यवस्था की गई है। प्रजातन्त्र में शासन जनता द्वारा चलाया जाता है, परन्तु भारत जैसे बड़े देश में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र को अपनाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव भी है। अतः संविधान निर्माताओं ने अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की व्यवस्था की है। शासन जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है जो निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं। अतः निश्चित अवधि के बाद चुनाव कराए जाते हैं। इस सारी चुनाव प्रणाली को चुनाव प्रक्रिया कहा जाता है। संसद् ने चुनाव से सम्बन्धित दो महत्त्वपूर्ण एक्ट पास किए हैं- जन प्रतिनिधित्व एक्ट, 1950 तथा जन प्रतिनिधित्व एक्ट, 1951 । पहले एक्ट में मतदाताओं की योग्यताओं और मतदाताओं की सूची बनाने के सम्बन्ध में और दूसरे एक्ट चुनाव प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन दोनों एक्टों के आधार पर केन्द्रीय सरकार ने चुनाव सम्बन्धी अनेक कानून पास किए हैं। भारत में चुनाव प्रक्रिया की निम्नलिखित अवस्थाएं हैं-

1. चुनाव क्षेत्र निश्चित करना (To fix Constituencies)—चुनाव प्रबन्ध में सर्वप्रथम कार्य चुनाव-क्षेत्र को निश्चित करना है। लोकसभा में जितने सदस्य चुने जाते हों, लगभग समान जनसंख्या वाले उतने ही क्षेत्रों में सारे भारत को बांट दिया जाता है। इसी प्रकार विधान सभाओं के चुनाव में राज्य को समान जनसंख्या वाले चनाव क्षेत्र में बांट दिया जाता है और प्रत्येक चुनाव-क्षेत्र से एक सदस्य चुना जाता है। प्रत्येक जनगणना के पश्चात् चुनाव क्षेत्रों की सीमाएं पुनः निर्धारित की जाती हैं। सीमा निर्धारक का यह कार्य एक आयोग करता है जिसे परिसीमन आयोग (Delimilation Commission) कहा जाता है।

2. मतदाताओं की सूची (List of Voters)-मतदाता सूचियां तैयार करना चुनाव प्रक्रिया की दूसरी अवस्था है। संविधान के अनुच्छेद 325 के अनुसार प्रत्येक चुनाव क्षेत्र के लिए एक साधारण मतदाता सूची तैयार की जाएंगी। धर्म, जाति, वंश, भाषा, लिंग आदि के आधार पर किसी को मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। सबसे पहले मतदाताओं की अस्थायी (Temporary) सूची तैयार की जाती है। इन सूचियों को कुछेक विशेष स्थानों पर जनता के देखने के लिए रख दिया जाता है। यदि उस सूची में किसी का नाम लिखने से रह गया हो अथवा किसी का नाम भूल से ग़लत लिख दिया हो तो उसको एक निश्चित तिथि तक संशोधन करवाने के लिए प्रार्थना-पत्र देना होता है। फिर संशोधित सूचियां तैयार की जाती हैं।

3. चुनाव तिथि की घोषणा (Announcement of Election Date)-चुनाव आयोग चुनाव की तिथि की घोषणा करता है। पर चुनाव की तिथि निश्चित करने से पहले चुनाव आयोग केन्द्रीय सरकार और सम्बन्धित राज्य सरकारों से विचार-विमर्श करता है। चुनाव आयोग नामांकन-पत्र भरने की तिथि, नाम वापस लेने की तिथि, नामांकनपत्रों की जांच-पड़ताल की तिथि तथा मतदान की तिथि निश्चित करता है।

4. चुनाव अधिकारियों की नियुक्ति (Appointment of Electoral Staff)—चुनाव करवाने के लिए प्रत्येक राज्य में मुख्य चुनाव अधिकारी (Chief Electoral Officer) और प्रत्येक चुनाव क्षेत्र के लिए चुनाव अधिकारी (Returning Officer) व अन्य कई कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं।

5. मतदान केन्द्र स्थापित करना (To establish Polling Stations)—चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की सुविधा के लिए अनेक मतदान केन्द्र स्थापित किए जाते हैं। मतदान केन्द्र इस ढंग से स्थापित किए जाते हैं कि नागरिकों को वोट डालने के लिए बहुत दूर न जाना पड़े। प्रत्येक मतदान केन्द्र में निश्चित संख्या तक मतदाता रखे जाते हैं और उस मतदान केन्द्र में आने वाले नागरिक उसी मतदान केन्द्र पर मत डालते हैं।

6. नामांकन दाखिल करना (Filling of the Nomination Papers)-इसके बाद मैम्बर बनने के इच्छुक व्यक्ति के नाम का प्रस्ताव एक निश्चित तिथि के अन्दर छपे फ़ार्म पर, जिसका नाम नामांकन पत्र (Nomination Paper) है, किसी एक मतदाता द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। दूसरा मतदाता उसका अनुमोदन करता है। इच्छुक व्यक्ति (उम्मीदवार) भी उस पर अपनी स्वीकृति देता है। प्रार्थना-पत्र के साथ जमानत की निश्चित राशि जमा करवानी पड़ती है।

7. नाम की वापसी (Withdrawal of Nomination)-यदि उम्मीदवार किसी कारण से अपना नाम वापस लेना चाहे तो एक निश्चित तिथि तक उनको ऐसा करने का अधिकार होता है। वह अपना नाम वापस ले सकता है। जमानत की राशि भी उसे वापस मिल जाती है।

8. जांच और आक्षेप (Scrutiny and Objections)-एक निश्चित तिथि को प्रार्थना-पत्रों की जांच की जाती है। यदि किसी में कोई अशुद्धि रह गई हो तो उसे अस्वीकार कर दिया जाता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति उसके प्रार्थनापत्र के सम्बन्ध में आक्षेप करना चाहे तो उसे ऐसा करने का अधिकार दिया जाता है। यदि आपेक्ष उचित सिद्ध हो जाए तो वह प्रार्थना-पत्र अस्वीकार कर दिया जाता है।

9. चुनाव अभियान (Election Compaign)-वैसे तो चुनाव की तिथि की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दल चुनाव प्रचार शुरू कर देते हैं पर चुनाव प्रचार सही ढंग से तब शुरू होता है जब नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल के बाद उम्मीदवारों की अन्तिम सूची.घोषित की जाती है। 19 जनवरी, 1992 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी कर लोकसभा व विधानसभा चुनावों में नामांकन वापस लेने की अन्तिम तारीख के बाद मतदान कराने की न्यूनतम समय सीमा को 20 दिन से घटा कर 14 दिन कर दिया है। राजनीतिक दल मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए अपनेअपने चुनाव घोषणा-पत्र (Election Manifesto) घोषित करते हैं, जिसमें दल की नीतियां एवं कार्यक्रम घोषित किया जाता है। राजनीतिक दल पोस्टरों द्वारा, जलसों द्वारा रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा अपने कार्यक्रम का प्रचार करते हैं। उम्मीदवारों के समर्थक घर-घर जाकर अपने उम्मीदवारों का प्रचार करते हैं और उम्मीदवार भी जहां तक हो सके सभी घरों में वोट मांगने जाते हैं। गलियों और सड़कों के चौराहों पर छोटी-छोटी सार्वजनिक सभाएं की जाती हैं।

10. मतदान (Voting) सदस्यता के प्रत्येक स्थान के लिए जितने भी उम्मीदवारों के प्रार्थना-पत्र स्वीकार होते हैं, उनके लिए निश्चित तिथि को निश्चित स्थान पर मतदाताओं की वोट ली जाती है। प्रत्येक मतदाता को एक पर्ची (Ballot Paper) दे दी जाती है जिस पर वह अपनी मर्जी से जिसे वोट देना चाहता है, मोहर लगाकर बॉक्स में डाल देता है।

11. मतगणना (Counting of Votes)—प्रत्येक निर्वाचन-बॉक्स उस क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों या उनके प्रतिनिधियों के सामने खोलकर प्रत्येक उम्मीदवार के पक्ष में डाली गई पर्चियों को गिन लिया जाता है। जिसके पक्ष में अधिक मत पड़े हैं उसका नाम सरकारी गज़ट में सफल प्रतिनिधियों की सूची में प्रकाशित कर दिया जाता है। यदि कोई उम्मीदवार कुल मतों का 1/6 भाग लेने में असमर्थ होता है, तो उस उम्मीदवार की जमानत की राशि जब्त हो जाती है।

12. चुनाव खर्च का ब्योरा (Election Expenses)—प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव समाप्त होने के 90 दिन के अन्दर-अन्दर चुनाव में खर्च किए जाने वाले धन का ब्योरा चुनाव आयोग को भेजना पड़ता है। चुनाव में खर्च किए जाने के लिए धन-राशि निश्चित है ताकि धनी व्यक्ति पैसे को पानी की तरह बहाकर ग़रीब व्यक्तियों के लिए चुनाव लड़ना कठिन न बना दे।

13. निर्वाचन के विरुद्ध प्रार्थना (Election Petition) यदि कोई उम्मीदवार निर्वाचन की निष्पक्षता या किसी और कारण से सन्तुष्ट न हो तो वह निर्वाचन के विरुद्ध उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकते है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अन्तिम होता है।

14. उप-चुनाव (By-election)-यदि किसी प्रतिनिधि का चुनाव रद्द घोषित कर दिया जाए या वह स्वयं त्यागपत्र दे दे, या किसी प्रतिनिधि की मृत्यु के कारण स्थान खाली हो जाए तो अगले चुनाव तक उस स्थान को खाली नहीं रखा जाता बल्कि शीघ्र ही उस चुनाव क्षेत्र में चुनाव की व्यवस्था की जाती है, इसे उप-चुनाव कहते हैं। उप-चुनाव में चुना गरिलिधि पांच वर्ष के लिए नहीं चुना जाता बरि, अगले चुनाव तक ही अपने पद पर रहता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

प्रश्न 5.
सरकार द्वारा किए गए चुनाव सुधारों की व्याख्या करो। (Explain briefly reforms made by the Government.)
उत्तर-
पिछले कुछ वर्षों से चुनाव व्यवस्था में सुधार करने की मांग ज़ोर पकड़ती रही है। विपक्षी दलों ने चुनाव व्यवस्था में सुधार करने के लिए कई बार संसद् से भी मांग की। चुनाव आयोग ने भी चुनाव व्यवस्था में सुधार करने के लिए अनेक सुझाव दिए। राजीव गांधी की सरकार ने चुनाव व्यवस्था में सुधार करने के लिए 13 दिसम्बर, 1988 को लोकसभा में दो बिल पेश किए। इन बिलों में एक बिल 62वां संविधान संशोधन बिल था जो संसद् द्वारा पास होने और आधे राज्यों की विधानसभाओं की स्वीकृति मिलने के बाद 61वां संशोधन एक्ट बना है। दूसरे बिल द्वारा जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन किया गया है। इन दोनों द्वारा चुनाव व्यवस्था में निम्नलिखित सुधार किए गए हैं

1. मताधिकार की आयु 18 वर्ष-बहुत समय से राजनीतिक दलों और युवा वर्ग की यह मांग थी कि मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष की जाए। 61वें संविधान संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष कर दी गई है। यह संशोधन संसद् ने सर्वसम्मति से पास किया था। श्री राजीव गांधी ने कहा कि मतदान की आयु 21 वर्ष से 18 वर्ष करने से पांच करोड़ नए मतदाता चुनाव प्रक्रिया से जुड़ेंगे।

2. चुनाव मशीनरी को चुनाव आयोग के अधीन करना-अब प्रतिनिधि कानून 1951 में संशोधन करके सारी चुनाव मशीनरी को चुनाव आयोग के अधीन कर दिया गया है। चुनाव के दौरान चुनाव का काम करने वाले राज्य सरकारों के अधिकारियों की सेवाओं को चुनाव आयोग के अधीन किया गया है ताकि अधिकारी चुनाव की ज़िम्मेवारी निष्पक्ष और अनुशासनबद्ध तरीके से निभा सकें।

3. इलेक्ट्रॉनिक मशीन-जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करके चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीनों के इस्तेमाल की भी व्यवस्था की गई है।

4. मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने पर कड़ी सज़ा-जन प्रतिनिधि कानून 1951 में संशोधन करके मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने पर पहले से ज्यादा कड़ी सज़ा देने की व्यवस्था की गई हैं। मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने वाले को कम-से-कम 6 महीने और अधिक-से-अधिक दो वर्ष की कैद की सजा व जुर्माने से दंडित करने का प्रावधान है। यदि मतदान केन्द्र पर कब्जा करने में सरकारी अधिकारी या कर्मचारी सहायता देते पकड़े जाते हैं तो उन्हें अधिक सज़ा देने का प्रावधान किया गया है। ऐसे मामलों में न्यूनतम एक वर्ष और अधिकतम तीन वर्ष की सजा व जुर्माना करने का प्रावधान किया गया है।

5. चुनाव बैठकों में बाधा डालने की सज़ा-जन प्रतिनिधि कानून 1951 में संशोधन करके चुनाव बैठकों में बाधा डालने वाले को एक हज़ार रुपए के जुर्माने और तीन महीने की सजा देने की व्यवस्था की गई है जबकि पहले ऐसा करने पर सिर्फ 250 रुपए जुर्माने की सजा का प्रावधान था। यह संशोधन चुनाव में गुण्डागर्दी रोकने के लिए किया गया है।

6. अपराधियों को चुनाव में खड़ा होने से रोकने का आधार विस्तृत किया-जन प्रतिनिधि कानून 1951 में संशोधन करके अपराधी व्यक्तियों के चुनाव में भाग लेने पर रोक के आधार को विस्तृत किया गया है। उन लोगों को चुनाव लड़ने के लिए 6 वर्ष तक अयोग्य घोषित करने की व्यवस्था की गई है जो मुनाफाखोरी व जमाखोरी करने, खाद्य वस्तुओं व दवाओं में मिलावट करने, दहेज विरोधी कानून, सती कानून, आतंकवाद या नशीली दवाओं के कानून का उल्लंघन करते पकड़े गए हों और उन्होंने इन अपराधों के लिए कम-से-कम 6 महीने की सज़ा भुगती हो।

7. उम्मीदवारों को कम करने के लिए व्यवस्था-31 जुलाई, 1996 को चुनाव में उम्मीदवारों की भीड़ कम करने के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी नामजदगी की दस फीसदी मतदाताओं या दस प्रस्तावकों जो भी कम हो, से पुष्टि करवाने की व्यवस्था की गई है।

8. राजनीतिक दलों का पंजीकरण-जन प्रतिनिधि कानून 1951 में संशोधन करके दलों के पंजीकरण और पंजीकरण के नियमों की भी व्यवस्था की गई है। राजनीतिक दलों के पंजीकरण के लिए अनिवार्य शर्तों में धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद के प्रति आस्था व्यक्त करने की व्यवस्था की गई है। चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन का अधिकार दिया गया है।

9. स्वतन्त्र उम्मीदवारों की मृत्यु होने पर चुनाव रद्द नहीं-मार्च, 1992 में संसद् ने लोक प्रतिनिधि (संशोधन) विधेयक पास किया। विधेयक में किसी निर्दलीय उम्मीदवार के निधन की स्थिति में चुनाव रद्द न करने का प्रावधान है।

10. चुनाव प्रचार अभियान के समय में कमी-राष्ट्रपति ने जनवरी, 1992 में एक अध्यादेश जारी कर लोकसभा व विधानसभा चुनावों में नामांकन वापस लेने की अन्तिम तारीख के बाद मतदान कराने की न्यूनतम समय सीमा को 20 दिन से घटा कर 14 दिन कर दिया है।

11. पहचान पत्र अनिवार्य-15 दिसम्बर, 1993 को चुनाव आयोग ने आदेश जारी किया कि 30 नवम्बर, 1994 तक जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश के सभी संसदीय चुनाव क्षेत्रों में चुनाव पहचान पत्र जारी कर दिए जाएंगे। 18 अप्रैल, 2000 को चुनाव आयोग ने सभी राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि आगामी सभी चुनावों तथा उपचुनावों में उन सभी मतदाताओं के लिए फोटो पहचान पत्र दिखाये जाने पर जोर देगा, जिनके फोटो परिचय पत्र बन चुके हैं।

12. मन्त्रियों के कार काफ़िले पर रोक-चुनाव आयोग ने 12 फरवरी, 1994 को आदेश जारी करके चुनाव प्रचार के दिनों में राज्यों या केन्द्र के मन्त्री के साथ तीन से अधिक कारों के काफिले पर रोक लगा दी है। आदेश में चेतावनी दी गई है कि यदि इस आदेश का सख्ती से पालन न किया गया तो मतदान या चुनाव भी रद्द किया जा सकता है।

13. चुनावी खर्चे में वृद्धि-चुनाव में काले धन के महत्त्व को कम करने के लिए 2014 में सरकार ने लोकसभा की सीट के लिए अधिकतम चुनावी खर्चा बढ़ाकर 70 लाख कर दिया और विधानसभा सीट के लिए अधिकतम चुनावी खर्चा बढ़ाकर 28 लाख कर दिया। इससे अधिक कोई भी उम्मीदवार खर्च नहीं कर सकता है।

14. साम्प्रदायिकता को नियन्त्रित करना-चुनाव आयोग ने दिसम्बर, 1994 में एक अधिसूचना जारी करके चुनावों के दौरान धर्म व जाति का प्रयोग न करने के आदेश जारी किए। इन आदेशों की पालना के लिए चुनाव आयोग ने धर्म-निरपेक्ष पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की है।

15. चुनाव आयोग को बहु-सदस्यीय बनाना-अक्तूबर, 1993 में राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी करके चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया, जिसके अन्तर्गत चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं। दिसम्बर, 1993 में इस अध्यादेश पर संसद् की स्वीकृति मिल गई।

16. जमानत राशि में वृद्धि-1998 में सरकार ने जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके लोकसभा तथा राज्य विधानमण्डलों के चुनाव लड़ने के लिए जमानत की राशि को बढ़ा दिया जिसके अन्तर्गत सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के लिए दस हज़ार तथा अनुसूचित जाति एवं जन-जाति के उम्मीदवारों के लिए जमानत राशि पांच हजार रुपये कर दी गई। 2010 में जमानत राशि में पुनः वृद्धि की गई। लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों के लिए 25 हजार रुपये तथा विधानसभा चुनाव के उम्मीदवारों के लिए 10 हज़ार रुपये जमानत राशि के रूप में निर्धारित किये गए। अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उम्मीदवारों के लिए में यह राशि आधी होगी।

यद्यपि सरकार द्वारा किए गए चुनाव सुधार काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं। फिर भी चुनाव-सुधार एक तरफा तथा अधूरे हैं। चुनाव सुधार में चुनाव में धन की बढ़ती भूमिका पर अंकुश की कोई व्यवस्था नहीं की गई है, न सरकारी प्रचार तन्त्र और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग पर ही रोक लगाने की व्यवस्था की गई है। सरकार ने चुनाव आयोग द्वारा दी गई चुनाव सुधार की 90 प्रतिशत सिफ़ारिशों को मान लिया है। 29 अप्रैल, 2000 को चुनाव प्रणाली की समीक्षा तथा चुनाव सुधार के लिए एक सर्वदलीय बैठक हुई, परन्तु इस बैठक में आम सहमति न होने के कारण कोई निर्णय नहीं हो सका। सभी दल चुनाव प्रणाली में सुधार करने के पक्ष में हैं ताकि धन और भुज-बल के प्रयोग को रोका जा सके। आवश्यकता इस बात की है कि चुनाव व्यवस्था में व्यापक सुधार किए जाएं ताकि चुनाव निष्पक्ष और स्वतन्त्रता के वातावरण में हो।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
चुनाव आयोग के सदस्यों का कार्यकाल लिखें।
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार आयुक्तों का कार्यकाल संसद् द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा निश्चित किया जाएगा। 1972 से पूर्व मुख्य चुनाव आयोग के कार्यकाल और सेवा सम्बन्धी शर्तों के बारे में कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए पहले दो मुख्य चुनाव आयुक्त आठ वर्ष तक इस पद पर रहे। 20 दिसम्बर, 1993 को पास किए गए कानून के अन्तर्गत मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल 6 वर्ष तथा 65 वर्ष की आयु पूरी करने तक (जो भी इनमें से पहले पूरा हो जाए) निश्चित किया गया है। मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्त 6 वर्ष की अवधि से पूर्व त्याग-पत्र भी दे सकता है और राष्ट्रपति भी 6 वर्ष से पूर्व निश्चित विधि के अनुसार उन्हें हटा सकता है।

प्रश्न 2.
मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से अलग करने की विधि लिखो।
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 324 (5) के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त को उसी प्रकार हटाया जा सकता है जिस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को। मुख्य चुनाव आयुक्त को राष्ट्रपति तभी हटा सकता है जब उसके विरुद्ध दुराचार (Misbehaviour) तथा अक्षमता (Incapacity) का आरोप सिद्ध हो जाए और संसद् के दोनों सदनों ने इस सम्बन्ध में अलग-अलग अपने सदन के सदस्यों के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास किया हो। अभी तक किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त को समय से पहले नहीं हटाया गया है।

प्रश्न 3.
भारत में जन-सहभागिता की क्या स्थिति है ? .
उत्तर-
भारत में जन-सहभागिता की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अधिकतर भारतीय मतदाता राजनीति में रुचि नहीं रखते या राजनीति के प्रति उदासीन हैं। आम चुनावों से स्पष्ट हो जाता है कि लगभग 60 प्रतिशत मतदाता ही मतदान करने जाते हैं। भारतीय नागरिकों की न केवल चुनाव में सहभागिता कम है बल्कि अन्य राजनीतिक गतिविधियों में भी कम लोग भाग लेते हैं। आम जनता सार्वजनिक मामलों और राजनीतिक गतिविधियों में रुचि नहीं लेती। बहुत कम नागरिक चुनाव के पश्चात् अपने प्रतिनिधियों से मिलते हैं और उन्हें अपनी समस्याओं से अवगत कराते हैं। इसी कारण भारत में जन-सहभागिता का स्तर कम है।

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प्रश्न 4.
भारत में निम्न स्तर की जन-सहभागिता के लिए कोई चार कारण लिखो।
अथवा
भारत में जन-सहभागिता का स्तर इतना नीचे क्यों है ?
अथवा
भारत के चुनावों में लोगों की कम सहभागिता के लिए उत्तरदायी कोई चार तथ्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • अनपढ़ता–भारत की अधिकांश जनता अनपढ़ है। अशिक्षित व्यक्ति मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता और न ही अधिकांश अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार का प्रयोग करना आता है। चुनाव के समय लाखों मत पत्रों को अवैध घोषित किया जाना इस बात का प्रमाण है कि लोगों को मत का प्रयोग करना नहीं आता।
  • ग़रीबी-ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात वह ऐसा सोच भी नहीं सकता। ग़रीब व्यक्ति मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता और अपनी वोट को बेचने के लिए तैयार हो जाता है।
  • बेकारी-भारत में जन-सहभागिता के निम्न स्तर के होने का एक कारण बेकारी है। भारत में करोड़ों लोग बेकार हैं। बेकारी के कारण नागरिकों का प्रशासनिक स्वरूप तथा राजनीतिक दलों की क्षमता में विश्वास कम होता चला जा रहा है। बेकार व्यक्ति मताधिकार को कोई महत्त्व नहीं देता और अपना वोट बेचने के लिए तैयार रहता है।
  • राजनीतिक उदासीनता- भारत में अधिकांश लोग राजनीति के प्रति उदासीन रहते हैं और वे वोट डालने नहीं जाते।

प्रश्न 5.
मतदान व्यवहार से क्या भाव है ?
उत्तर-
भारत में प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष हो मताधिकार प्राप्त है, परन्तु भारतीय मतदाता ईमानदारी से वोट न डालकर, धर्म, जाति तथा अन्य सामाजिक भावनाओं से प्रेरित होकर मतदान करता है। प्रो० जे० सी० प्लेनो और रिग्स के अनुसार, “मतदान व्यवहार अध्ययन के उस क्षेत्र को कहा जाता है जो उन विधियों से सम्बन्धित है जिन विधियों द्वारा लोग सार्वजनिक चुनाव में अपने मत का प्रयोग करते हैं। मतदान व्यवहार उन कारणों से सम्बन्धित है जो कारण मतदाताओं को किसी विशेष रूप से मताधिकार का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।”

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प्रश्न 6.
भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्त्व लिखिए।
अथवा
भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले कोई चार तत्व लिखो।
उत्तर-
भारतीय मतदान व्यवहार को अनेक तत्त्व प्रभावित करते हैं जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं

  • जाति का मतदान व्यवहार पर प्रभाव-भारतीय राजनीति में जाति का बहुत महत्त्व है और भारतीय जनता अधिकतर जाति के प्रभाव में ही आकर मतदान करती है।
  • धर्म का प्रभाव-भारतीय मतदाता धर्म के प्रभाव में आकर भी वोट डालते हैं। टिकट बांटते समय निर्वाचित क्षेत्र की रचना को ध्यान में रखा जाता है और प्रायः उसी धर्म के व्यक्ति को टिकट दी जाती है जिस धर्म के लोगों की वोटें उस निर्वाचन क्षेत्र में अधिकतम होती हैं।
  • क्षेत्रीयवाद और स्थानीयवाद- भारत में मतदाता स्थानीयवाद तथा क्षेत्रीयवाद की भावनाओं से ओत-प्रोत होकर मतदान करते हैं।
  • वैचारिक प्रतिबद्धता-वैचारिक प्रतिबद्धता भी मतदान व्यवहार को प्रभावित करती है।

प्रश्न 7.
चुनाव आयोग के चार कार्यों का वर्णन करें।
अथवा
चुनाव आयोग के कोई चार कार्य लिखो।
उत्तर-
चुनाव आयोग के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • चुनाव आयोग का मुख्य कार्य संसद् तथा विधानमण्डलों के चुनावों के लिए मतदाता सूची तैयार करवाना है।
  • चुनाव आयोग को चुनाव सम्बन्धी सभी मामलों पर निरीक्षण, निर्देश तथा नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त है।
  • यह आयोग विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में चुनाव करवाने की तिथि निश्चित करता है।
  • राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के पदों पर चुनाव करवाने का काम भी चुनाव आयोग को सौंपा गया है।

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प्रश्न 8.
भारतीय चुनाव प्रणाली में किए जाने वाले सुधारों से सम्बन्धित कोई चार सुझाव दें।
उत्तर-
चुनाव प्रणाली के दोषों को निम्नलिखित ढंगों से दूर किया जा सकता है

  • निष्पक्षता-चुनाव निष्पक्ष ढंग से होने चाहिए। सत्तारूढ़ दल को चुनाव में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और न ही अपने दल के हित में सरकारी मशीनरी का प्रयोग करना चाहिए।
  • धन के प्रभाव को कम करना-इसके लिए पब्लिक फण्ड बनाना चाहिए और उम्मीदवारों की धन से सहायता करनी चाहिए। चुनाव का खर्च शासन को ही करना चाहिए।
  • आनुपातिक चुनाव प्रणाली-प्रायः सभी विपक्षी दल वर्तमान में एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र की प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं हैं। कांग्रेस को अल्पसंख्या में मत मिलते हैं पर संसद् में सीटें बहुत अधिक मिलती हैं। आम तौर पर सभी विरोधी दल आनुपातिक चुनाव प्रणाली के पक्ष में हैं।
  • भारत में फर्जी मतदान को रोकना चाहिए।

प्रश्न 9.
भारतीय चुनाव प्रणाली की चार विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
भारतीय चुनाव प्रणाली की निम्नलिखित विशेषताएं हैं

  • वयस्क मताधिकार-भारतीय चुनाव प्रणाली की प्रथम विशेषता वयस्क मताधिकार है। वयस्क मताधिकार की व्यवस्था देते हुए संविधान में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जो भारत का नागरिक है और जो कानून के अन्तर्गत किसी निश्चित तिथि पर 18 वर्ष का है तथा संविधान अथवा कानून के अन्तर्गत चुनाव के लिए किसी भी दृष्टि से अयोग्य नहीं है तो उसे चुनावों में मतदाता के रूप में भाग लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।
  • संयुक्त चुनाव पद्धति-भारतीय चुनाव प्रणाली की दूसरी मुख्य विशेषता संयुक्त चुनाव पद्धति है।
  • अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित स्थान-संयुक्त चुनाव प्रणाली के बावजूद भी हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित तथा पिछड़े लोगों के लिए स्थान सुरक्षित कर दिए हैं।
  • भारतीय चुनाव प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि मतदान गुप्त होता है।

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प्रश्न 10.
भारत में चुनाव प्रक्रिया के किन्हीं चार पड़ावों के बारे में लिखो।
अथवा
भारत में चुनाव विधि के कोई चार पड़ावों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत में चुनाव प्रक्रिया की निम्नलिखित अवस्थाएं हैं
1. चुनाव क्षेत्र निश्चित करना-चुनाव प्रबन्ध में सर्वप्रथम कार्य चुनाव क्षेत्र को निश्चित करना है। लोकसभा में जितने सदस्य चुने जाते हैं, लगभग समान जनसंख्या वाले उतने ही क्षेत्रों में सारे भारत को बांट दिया जाता है। इसी प्रकार विधानसभाओं के चुनाव में राज्य को समान जनसंख्या वाले चुनाव क्षेत्र में बांट दिया जाता है और प्रत्येक क्षेत्र से एक सदस्य चुना जाता है।

2. मतदाताओं की सूची-मतदाता सूचियां तैयार करना चुनाव प्रक्रिया की दूसरी अवस्था है। सबसे पहले मतदाताओं की अस्थायी सूची तैयार की जाती है। इन सूचियों को कुछ एक विशेष स्थानों पर जनता को देखने के लिए रख दिया जाता है। यदि उस सूची में किसी का नाम लिखने से रह गया हो या किसी का नाम ग़लत लिख दिया गया हो तो उसको एक निश्चित तिथि तक संशोधन करवाने के लिए प्रार्थना-पत्र देना होता है। फिर संशोधित सूचियां तैयार की जाती हैं।

3. चुनाव तिथि की घोषणा-चुनाव आयोग चुनाव की तिथि की घोषणा करता है। चुनाव आयोग नामांकन-पत्र भरने की तिथि, नाम वापस लेने की तिथि, नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल की तिथि निश्चित करता है।

4. उम्मीदवारों का नामांकन-चुनाव कमिशन द्वारा की गई चुनाव घोषणा के पश्चात् विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र दाखिल करते हैं। राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के अतिरिक्त स्वतन्त्र उम्मीदवार भी अपने नामांकन-पत्र प्रस्तुत करते हैं।

प्रश्न 11.
चुनाव आयोग की रचना लिखो।
अथवा
भारत में चुनाव आयोग की रचना की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त होंगे। चुनाव आयुक्तों की संख्या राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाएगी। संविधान के लागू होने से लेकर 1988 तक चुनाव आयोग में केवल मुख्य चुनाव आयुक्त ही था और अन्य सदस्यों की नियुक्ति नहीं की गई थी। 1989 में कांग्रेस सरकार ने पहली बार मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो अन्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए, परन्तु राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने दो अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को रद्द कर दिया। 1 अक्तूबर, 1993 को केन्द्र सरकार ने दो नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कर चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाने का महत्त्वपूर्ण कदम उठाया। दिसम्बर, 1993 में संसद् ने विधेयक पास करके चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया। अतः आजकल चुनाव आयोम में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य सदस्य हैं। चुनाव आयोग के तीनों सदस्यों को समानाधिकार प्राप्त हैं।

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प्रश्न 12.
भारतीय चुनाव प्रणाली के चार दोष लिखें।
उत्तर-
भारत में चुनाव प्रणाली तथा चुनावों में कई दोष हैं जो मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं

  • एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र-भारत में एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र है और एक स्थान के लिए बहुत-से उम्मीदवार खड़े हो जाते हैं। कई बार थोड़े से मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार भी चुना जाता है।
  • जाति और धर्म के नाम पर वोट-भारत में साम्प्रदायिकता का बड़ा प्रभाव है और इसने हमारी प्रगति में सदैव बाधा उत्पन्न की है। जाति और धर्म के आधार पर खुले रूप से मत मांगे और डाले जाते हैं। राजनीतिक दल भी अपने उम्मीदवार खड़े करते समय इस बात का ध्यान रखते हैं और उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा करने का प्रयत्न करते हैं जिस जाति का उस क्षेत्र में बहुमत हो।
  • धन का अधिक खर्च- भारत में चुनाव में धन का अधिक खर्च होता है, जिसे देखकर साधारण व्यक्ति तो चुनाव लड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता।
  • भारत में फर्जी मतदान एक बहुत बड़ी समस्या है।

प्रश्न 13.
भारत सरकार द्वारा चुनाव व्यवस्था में किए गए कोई चार सुधार लिखें।
उत्तर-
भारत सरकार द्वारा चुनाव व्यवस्था में निम्नलिखित सुधार किए गए हैं-

  • मताधिकार की आयु 18 वर्ष-बहुत समय से राजनीतिक दलों और युवा वर्गों की मांग यह थी कि मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की जाए। 61वें संविधान संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  • चुनाव मशीनरी को चुनाव आयोग के अधीन करना-जन प्रतिनिधि कानून 1951 में संशोधन करके सारी चुनाव मशीनरी को चुनाव आयोग के अधीन कर दिया गया है।
  • इलेक्ट्रॉनिक मशीन-जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन करके चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक मतदान मशीनों के इस्तेमाल की भी व्यवस्था की गई है।
  • मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने पर कड़ी सजा की व्यवस्था की गई है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 16 चुनाव व्यवस्था

प्रश्न 14.
जन-सहभागिता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जन-सहभागिता लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली का महत्त्वपूर्ण आधार है। जन-सहभागिता का अर्थ है राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा भाग लेना। जन-सहभागिता का स्तर सभी शासन प्रणालियों और सभी देशों में एक समान नहीं होता। अधिनायकवाद और निरंकुशतन्त्र में जन-सहभागिता का स्तर बहुत कम होता है जबकि लोकतन्त्र में जन-सहभागिता का स्तर बहुत ऊंचा होता है। लोकतन्त्र में जन-सहभागिता के द्वारा ही लोग शासन में भाग लेते हैं। हरबर्ट मैक्कलॉस्की के अनुसार, “सहभागिता वह मुख्य साधन है, जिसके द्वारा लोकतन्त्र में सहमति प्रदान की जाती है और वापस ली जाती है तथा शासकों को शासितों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है।

प्रश्न 15.
भारत में सूचियों को कौन बनाता है ?
अथवा
भारत में मतदाता सूचियां कौन तैयार करता है ?
उत्तर-
भारत में मतदाता सूचियां तैयार करने का काम चुनाव आयोग करता है। प्रत्येक जनगणना के पश्चात् और आम चुनाव से पहले मतदाताओं की सूची में संशोधन किए जाते हैं। इन सूचियों में नए मतदाताओं के नाम लिखे जाते हैं जो नागरिक मर चुके होते हैं उनके नाम मतदाता सूची में से निकाले जाते हैं। यदि किसी नागरिक का नाम मतदाता सूची में नहीं लिखा जाता तो वह व्यक्ति एक निश्चित तिथि तक आवेदन-पत्र देकर मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज करवा सकता है। मतदाता सूची के तैयार होने पर चुनाव आयोग द्वारा निश्चित तिथि तक आपत्तियां मांगी जाती हैं और कोई भी आपत्ति कर सकता है। नागरिकों द्वारा एवं राजनीतिक दलों द्वारा उठाई गई आपत्तियों को चुनाव आयोग के कर्मचारियों द्वारा दूर किया जाता है।

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प्रश्न 16.
चुनाव मुहिम से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
चुनाव की तिथि की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दल चुनाव प्रचार शुरू कर देते हैं पर चुनाव प्रचार सही ढंग से तब शुरू होता है जब नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल के बाद उम्मीदवारों की अन्तिम सूची घोषित की जाती है। राजनीतिक दल मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए अपने-अपने चुनाव घोषणा-पत्र (Election Manifesto) घोषित करते हैं, जिसमें दल की नीतियां एवं कार्यक्रम घोषित किया जाता है। राजनीतिक दल, पोस्टरों द्वारा, जलसों द्वारा, रेडियो तथा दूरदर्शन द्वारा अपने कार्यक्रम का प्रचार करते हैं। उम्मीदवारों के समर्थक घर-घर जाकर अपने उम्मीदवारों का प्रचार करते हैं और उम्मीदवार भी जहां तक हो सके सभी घरों में वोट मांगने जाते हैं। गलियों और सड़कों के चौराहों पर छोटी-छोटी सार्वजनिक सभाएं की जाती हैं।

प्रश्न 17.
भारत में जातिवाद मतदान व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर-
जाति सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जिसका आरम्भ से ही मतदान व्यवहार पर बड़ा प्रभाव रहा है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी जब अभी वयस्क मताधिकार प्रचलित नहीं हुआ था, जाति का मतदान पर बहुत प्रभाव था। स्वतन्त्रता के पश्चात् यह प्रभाव कम होता दिखाई नहीं देता। भारतीय जनता अधिकतर जाति के प्रभाव में ही आकर मतदान करती है। कुछ राज्यों में तो यह तत्त्व बहुत निर्णायक है क्योंकि मतदाता अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देना अपना कर्त्तव्य मानते हैं। उदाहरण के लिए हरियाणा में अनुसूचित जातियों में हरिजनों की संख्या सबसे अधिक है और राजनीति तथा मतदान के क्षेत्र में उनकी दूसरी जातियों की अपेक्षा अधिक चलती है। अनेक दल तो जातियों के आधार पर ही बने हुए हैं और उन्हें विशेष जातियों का समर्थन प्राप्त है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में जन-सहभागिता का स्तर इतना कम क्यों हैं ?
उत्तर-

  • अनपढ़ता- भारत की अधिकांश जनता अनपढ़ है। अशिक्षित व्यक्ति मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता और न ही अधिकांश अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार का प्रयोग करना आता है।
  • ग़रीबी-गरीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात वह ऐसा सोच भी नहीं सकता। ग़रीब व्यक्ति मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता और अपनी वोट को बेचने के लिए तैयार हो जाता है।

प्रश्न 2.
मतदान व्यवहार से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष हो मताधिकार प्राप्त है, परन्तु भारतीय मतदाता ईमानदारी से वोट न डालकर, धर्म, जाति तथा अन्य सामाजिक भावनाओं से प्रेरित होकर मतदान करता है। प्रो० जे० सी० प्लेनो और रिग्स के अनुसार, “मतदान व्यवहार अध्ययन के उस क्षेत्र को कहा जाता है जो उन विधियों से सम्बन्धित है जिन विधियों द्वारा लोग सार्वजनिक चुनाव में अपने मत का प्रयोग करते हैं। मतदान व्यवहार उन कारणों से सम्बन्धित है जो कारण मतदाताओं को किसी विशेष रूप से मताधिकार का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करते हैं।”

प्रश्न 3.
भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले दो तत्त्व लिखो।
उत्तर-

  • जाति का मतदान व्यवहार पर प्रभाव-भारतीय राजनीति में जाति का बहुत महत्त्व है और भारतीय जनता अधिकतर जाति के प्रभाव में ही आकर मतदान करती है। .
  • धर्म का प्रभाव-भारतीय मतदाता धर्म के प्रभाव में आकर भी वोट डालते हैं।

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प्रश्न 4.
चुनाव आयोग के कोई दो कार्य लिखो।
उत्तर-

  • मतदाता सूचियों को तैयार करना-चुनाव आयोग का एक महत्त्वपूर्ण कार्य संसद् तथा राज्य विधानमण्डलों के चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करना होता है।
  • चुनाव के लिए तिथि निश्चित करना-चुनाव आयोग विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में चुनाव करवाने की तिथि निश्चित करता है।

प्रश्न 5.
चुनाव आयोग की रचना लिखो।
उत्तर-
अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त होंगे। चुनाव आयुक्तों की संख्या राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाएगी। दिसम्बर, 1993 में संसद् ने विधेयक पास करके चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया। अत: आजकल चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य सदस्य हैं। चुनाव आयोग के तीनों सदस्यों को समानाधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 6.
जन-सहभागिता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जन-सहभागिता लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली का महत्त्वपूर्ण आधार है। जन-सहभागिता का अर्थ है राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा भाग लेना। जन सहभागिता का स्तर सभी शासन प्रणालियों और सभी देशों में एक समान नहीं होता। अधिनायकवाद और निरंकुशतन्त्र में जन-सहभागिता का स्तर बहत कम होता है जबकि लोकतन्त्र में जन-सहभागिता का स्तर बहुत ऊंचा होता है। लोकतन्त्र में जन-सहभागिता के द्वारा ही लोग शासन में भाग लेते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
भारत में मतदाता कौन हो सकता है ?
उत्तर-
भारत में 18 वर्ष के व्यक्ति को मताधिकार प्राप्त है।

प्रश्न 2.
भारत में किस प्रकार की चुनाव प्रणाली अपनाई गई है ?
उत्तर-
भारत में वयस्क मताधिकार पर आधारित संयुक्त चुनाव प्रणाली अपनाई गई है।

प्रश्न 3.
चुनाव आयोग के कितने सदस्य हैं ?
उत्तर-
चुनाव आयोग के तीन सदस्य हैं।

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प्रश्न 4.
भारतीय चुनाव आयोग की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं। आजकल चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त व दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं।

प्रश्न 5.
चुनाव आयोग की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-
चुनाव आयोग की नियुक्ति संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है।

प्रश्न 6.
मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-
मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

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प्रश्न 7.
चुनाव आयोग के सदस्यों का कार्यकाल बताइए।
उत्तर-
चुनाव आयोग के सदस्यों का कार्यकाल राष्ट्रपति नियम बना कर निश्चित करता है। प्रायः यह अवधि 6 वर्ष होती है।

प्रश्न 8.
भारतीय चुनाव आयोग का एक कार्य लिखो।
उत्तर-
चुनाव आयोग का मुख्य कार्य संसद् तथा राज्य विधान सभाओं के चुनाव करवाना तथा उनकी मतदाता सूची तैयार करवाना है।

प्रश्न 9.
भारत में मताधिकार सम्बन्धी कौन-सा सिद्धान्त अपनाया गया है ?
उत्तर-
भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को अपनाया गया है।

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प्रश्न 10.
संयुक्त निर्वाचन प्रणाली से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 325 के अनुसार संयुक्त निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की गई है, जिसके अन्तर्गत एक निर्वाचन क्षेत्र के सभी मतदाता, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय से सम्बन्धित हो, उनके नाम एक ही मतदाता सूची में शामिल किये जाते हैं तथा वे मिलकर अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं।

प्रश्न 11.
भारत में चुनाव प्रक्रिया की दो अवस्थाओं के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. चुनाव क्षेत्र निश्चित करना
  2. मतदाता सूची बनाना।।

प्रश्न 12.
चुनाव आयोग का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर-
चुनाव आयोग का अध्यक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त होता है।

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प्रश्न 13.
भारत में कौन-कौन से दो चुनाव अप्रत्यक्ष ढंग से करवाए जाते हैं ? ।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपति का चुनाव
  2. उप-राष्ट्रपति का चुनाव।

प्रश्न 14.
भारत में मतदान व्यवहार का आधार क्या है ? वोट कौन डाल सकता है ?
उत्तर-
भारत में सार्वभौमिक मताधिकार के सिद्धान्त को अपनाया गया है। भारत का प्रत्येक 18 वर्ष का नागरिक बिना किसी भेदभाव के मतदान कर सकता है।

प्रश्न 15.
भारत में कौन-से दो चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव ढंग द्वारा करवाए जाते हैं ?
उत्तर-

  • लोकसभा का चुनाव
  • विधान सभा का चुनाव।

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प्रश्न 16.
जन सहभागिता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जन सहभागिता का अर्थ है, राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा भाग लेना।

प्रश्न 17.
जन सहभागिता की क्या महत्ता है ?
उत्तर-
जन सहभागिता शासन को वैधता प्रदान करती है, उसे उत्तरदायी बनाती है तथा स्थिरता प्रदान करती है।

प्रश्न 18.
चुनाव आयोग के सदस्यों को किस प्रकार पद से हटाया जा सकता है ?
उत्तर-
चुनाव आयोग के सदस्यों को संसद् द्वारा महाभियोग प्रस्ताव द्वारा हटाया जा सकता है।

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प्रश्न 19.
मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले कोई दो तत्त्व लिखिए।
अथवा
भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाला कोई एक तत्त्व लिखें।
उत्तर-

  • जाति
  • धर्म।

प्रश्न 20.
चुनाव अभियान से आपका क्या अभिप्राय है ? .
उत्तर-
चुनावों के समय राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों तथा उनके समर्थकों द्वारा किया गया चुनाव प्रचार, चुनाव अभियान कहलाता है।

प्रश्न 21.
निर्वाचन मंडल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कुल जनसंख्या का वह भाग जो प्रतिनिधियों के चुनाव में भाग लेता है, सामूहिक रूप से निर्वाचन मंडल कहलाता है।

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प्रश्न 22.
निर्वाचन क्षेत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर-
निर्वाचन क्षेत्र उस निश्चित क्षेत्र या इलाके को कहा जाता है, जहां से मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनते हैं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत में प्रत्येक ……………… के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।
2. भारत में अब तक ……………. लोक सभा के चुनाव करवाए जा चुके हैं।
3. भारत में ………….. मताधिकार को अपनाया गया है।
4. भारत में पहला आम चुनाव …………. में हुआ।
5. लोकसभा के चुनाव के लिए एक प्रत्याशी का अधिकतम चुनाव खर्च ………… रु० निर्धारित किया गया है।
उत्तर-

  1. 18
  2. 16
  3. सार्वभौमिक वयस्क
  4. 1952
  5. 70 लाख।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें

1. भारत विश्व का सबसे बड़ा तानाशाही राज्य है। यहां पर अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है।
2. 61वें संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
3. भारत में प्रथम आम चुनाव 1950 में हुए, जबकि 16वीं लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई, 2004 में हुए।
4. भारत में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त है।
5. भारतीय चुनाव प्रणाली के महत्त्वपूर्ण दोष वयस्क मताधिकार, संयुक्त निर्वाचन तथा गुप्त मतदान है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के किस अध्याय में चुनाव प्रणाली का वर्णन किया गया है ?
(क) अध्याय-3
(ख) अध्याय-4
(ग) अध्याय-15
(घ) अध्याय-18.
उत्तर-
(ग) अध्याय-15

प्रश्न 2.
भारत में मताधिकार प्राप्त है
(क) जिस नागरिक की आयु 21 वर्ष से अधिक हो
(ख) जिस नागरिक की आयु 25 वर्ष से अधिक हो
(ग) जिस नागरिक की आयु 20 वर्ष से अधिक हो
(घ) जिस नागरिक की आयु 18 वर्ष हो।
उत्तर-
(घ) जिस नागरिक की आयु 18 वर्ष हो।

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प्रश्न 3.
चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य-
(क) तीन सदस्य होते हैं
(ख) दो सदस्य होते हैं
(ग) पांच सदस्य होते हैं
(घ) चार सदस्य होते हैं।
उत्तर-
(ख) दो सदस्य होते हैं

प्रश्न 4.
मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य सदस्यों की अवधि है-
(क) पांच वर्ष
(ख) चार वर्ष
(ग) आठ वर्ष
(घ) छ: वर्ष।
उत्तर-
(घ) छ: वर्ष।

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प्रश्न 5.
भारत में पहला आम चुनाव किस वर्ष में हुआ?
(क) सन् 1950 में
(ख) सन् 1952 में
(ग) सन् 1960 में
(घ) सन् 1962 में।
उत्तर-
(ख) सन् 1952 में

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

Punjab State Board PSEB 12th Class Geography Book Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Geography Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) Textbook Questions and Answers

प्रश्न I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में दें:

प्रश्न 1.
भारत के कुल घरेलू उत्पादन में कृषि उत्पादन का कितना हिस्सा है ?
उत्तर-
भारत के कुल घरेलू उत्पादन में कृषि का 17% हिस्सा है।

प्रश्न 2.
गेहूँ और चावल की उपज के लिए कौन-सी मिट्टी सही है ?
उत्तर-
गेहूँ की उपज के लिए उपजाऊ जलोढ़ी दोमट मिट्टी और दक्षिणी पठार की काली मिट्टी और चावल की उपज के लिए चिकनी दोमट मिट्टी सही है।

प्रश्न 3.
काली मिट्टी में उगाई जाने वाली कोई दो फ़सलों के नाम लिखो।
उत्तर-
कपास और गन्ना।

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प्रश्न 4.
खानाबदोश ज़िन्दगी जीने वाले लोगों का मुख्य धंधा क्या रहा है ?
उत्तर-
खानाबदोश ज़िन्दगी जीने वाले लोगों का मुख्य धंधा पशु-पालन रहा है।

प्रश्न 5.
धनगर चरागाहें कौन-से राज्यों में मिलती हैं ?
उत्तर-
धनगर चरागाहें मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में मिलती हैं।

प्रश्न 6.
कोई दो मोटे अनाजों का नाम लिखो।
उत्तर-
ज्वार, बाजरा।

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प्रश्न 7.
जोड़े बनाओ—
(i) बाग़वानी फ़सल — (क) चने
(ii) खुराकी अनाज — (ख) गन्ना
(iii) रोपण फ़सल — (ग) नींबू
(iv) नकद फ़सल — (घ) अदरक।
उत्तर-

  1. (ग),
  2. (क),
  3. (घ),
  4. (ख)।

प्रश्न 8.
कौन-से तीन राज्य भारत का अन्न भंडार कहलाते हैं ?
उत्तर-
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा।

प्रश्न 9.
हिमाचल प्रदेश की कौन-सी घाटी चाय उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, जोगिंदर नगर, मंडी इत्यादि स्थानों से चाय का उत्पादन होता है।

प्रश्न 10.
SOWT विश्लेषण में कितने किस्म की विशिष्टता शामिल है ?
उत्तर-
SOWT विश्लेषण में पंजाब की कृषि की ताकत, कमजोरी, अवसर इत्यादि खतरों का विश्लेषण किया जाता है।

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प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चार पंक्तियों में दें :

प्रश्न 1.
कोई दो भारतीय पशु-पालक भाईचारों और उनके राज्यों के नाम लिखो।
उत्तर-
गोला (गाय), करोमा (भेड़) पशु-पालक भाईचारा आंध्र प्रदेश में मिलते हैं और टोडा (भैंस) पशु-पालक भाईचारा मध्य प्रदेश में मिलते हैं।

प्रश्न 2.
ऋतु प्रवास क्या होता है ? स्पष्ट करो।
उत्तर-
जब पशु पालक चरवाहे अपने पशुओं के साथ मौसम बदलने के कारण दूसरे क्षेत्र में चले जाते हैं उसे ऋतु रवास कहते हैं। हिमालय के पहाड़ों में पशु-पालन ऋतु प्रवास के चक्र अनुसार होता है। सर्दी में चरवाहे, बर्फ से पहले ही पशुओं को लेकर मैदानी इलाकों में चले जाते हैं।

प्रश्न 3.
भारत में कृषि के मौसमों से पहचान करवाओ।
उत्तर-
भारतीय कृषि को मुख्य रूप में चार मौसमों में विभाजित किया जाता है—

  1. खरीफ-ज्वार, बाजरा, चावल, कपास, मूंगफली इत्यादि।
  2. जैद खरीफ-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास इत्यादि।
  3. रबी-गेहूँ, जौं, चने, अलसी के बीज, मटर, मसर इत्यादि।
  4. जैद रबी-तरबूज, तोरी, खीरा इत्यादि।

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प्रश्न 4.
निर्वाह कृषि क्या होती है ? नोट लिखो।
उत्तर-
इस कृषि प्रणाली द्वारा स्थानीय जरूरतों की पूर्ति करनी होती है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए ताकि जनसंख्या का पालन-पोषण किया जा सके। इसको निर्वाह कृषि कहते हैं। घूमंतु कृषि, स्थानाबंध कृषि और घनी कृषि निर्वाह कृषि कहलाती हैं। इस कृषि द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग को पूरा किया जाता है।

प्रश्न 5.
कोई चार नकद फ़सलों के नाम लिखो।
उत्तर-
चार नकद फसलों के नाम नीचे लिखे अनुसार हैं—

  1. कपास,
  2. पटसन,
  3. गन्ना,
  4. तम्बाकू।

प्रश्न 6.
हिमाचल प्रदेश में अधिकतर कौन-कौन से फलों के बाग मिलते हैं ?
उत्तर-
हिमाचल प्रदेश में अधिकतर सेब, चैरी, नाशपाती, आड़, बादाम, खुरमानी और अखरोट के बाग मिलते हैं।

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प्रश्न 7.
चाय पत्ती की किस्मों के नाम लिखो।
उत्तर-
चाय पत्ती की चार किस्मों के नाम नीचे दिए अनुसार हैं—

  1. सफेद चाय-मुरझाई हुई पत्ती।
  2. पीली चाय-ताजी पत्ती वाली चाय।
  3. हरी चाय-ताजी पत्ती।
  4. काली चाय-पीसी हुई छोटी पत्ती।

प्रश्न 8.
बाबा बूढ़न पहाड़ी कारोबार के इतिहास से परिचय करवाओ।
उत्तर-
काहवा का उत्पादन मुख्य रूप में 1600 ई० में शुरू हुआ था। जब एक सूफी संत बाबा बूढ़न ने यमन के ‘मोचा’ शहर से मक्का की तरफ यात्रा शुरू की तो मोचा शहर में काहवा की फलियों से बना काहवा पीकर देखा तो खुद को तरोताजा महसूस किया। वह काहवा के बीज वहाँ से अपने साथ लाए और कर्नाटक के चिंकमंगलूर शहर में बीज दिए। आज इस कारोबार को बाबा बूढ़न के पहाड़ कहा जाता है।

प्रश्न 9.
भारत में गन्ना उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्रों के बारे में बताएं।
उत्तर-
भारत में गन्ना उत्पादन महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, गुरदासपुर इत्यादि क्षेत्रों में अधिक होता है। दक्षिणी भारत में उगाया जाने वाला गन्ना बेहतर जलवायु के कारण अधिक मिठास और रसभरा होता है।

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प्रश्न 10.
सुनहरी रेशा क्या है ? यह कहाँ-कहाँ उपयोग किया जाता है ?
उत्तर-
पटसन एक सुनहरी चमकदार प्राकृतिक रेशेदार फ़सल है, इसलिए पटसन को सुनहरी रेशा कहते हैं। इसको नीचे दिए कारणों के लिए उपयोग किया जाता है—

  1. कृषि उत्पादों की संभाल के लिए, बोरी और रस्सी बनाने के लिए।
  2. टाट बनाने के लिए।
  3. कपड़े इत्यादि पटसन से ही बनते हैं।

प्रश्न III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 10-12 पंक्तियों में दें:

प्रश्न 1.
तापमान, वर्षा और मिट्टी के पक्ष से नीचे लिखे का मुकाबला करो।
1. गेहूँ और चावल
2. चाय और काहवा।
उत्तर-

गेहूँ चाय
1. गेहूँ की बिजाई के समय 10 से 15 डिग्री सैंटीग्रेड तापमान और कटाई के समय 21 से 26 डिग्री सैंटीग्रेड तापमान ठीक रहता है। 1. चाय के पौधे के लिए 20 से 30° सैंटीग्रेड तापमान ज़रूरी होता है।
2. गेहूँ के लिए 75 से 100 सैंटीमीटर वर्षा ठीक रहती है। 2. चाय की पैदावार के लिए 150 से 300 सैंटीमीटर वर्षा सालाना चाहिए।
3. उपजाऊ जलोढ़ी दोमट मिट्टी और दक्षिण के पठार की काली मिट्टी गेहूँ की फसल के लिए अच्छी मानी जाती है। 3. चाय की पैदावार के लिए अच्छी दोमट मिट्टी और जंगली मिट्टी सहायक होती है।

 

चावल काहवा
1. 24 डिग्री सैंटीग्रेड से 30 डिग्री सैंटीग्रेड तापमान चावलों की बिजाई और कटाई के लिये बिल्कुल ठीक माना जाता है। 1. काहवा के पौधे के बढ़ने के लिए 20° से 27° सैंटीग्रेड तापमान ठीक होता है। काहवा को काटने के समय तापमान गर्म होना चाहिए।
2. चावल की बेहतर फसल के लिए 50 से 200 सैंमी० सालाना वर्षा ज़रूरी है। 2. काहवा के लिये कम से कम 100 से 200 सैं०मी० सालाना वर्षा जरूरी है।
3. चिकनी, दोमट मिट्टी चावलों की फसल के लिए अच्छी मानी जाती है। 3. काहवा की पैदावार के लिए दोमट मिट्टी का उपयोग किया जाता है।

 

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प्रश्न 2.
पटसन की फसल के लिए जरूरी भौगोलिक हालातों और भारत के उत्पादन पर नोट लिखो।
उत्तर-
कपास के बाद पटसन दूसरी महत्त्वपूर्ण रेशेदार फ़सल है, इसको सुनहरी रेशे वाली फ़सल भी कहते हैं। पटसन की फसल के लिए ज़रूरी भौगोलिक हालत निम्नलिखित हैं—

  1. पटसन के उत्पादन के लिए गर्म और नमी वाले मौसम की ज़रूरत होती है। इसमें 24° से 35° सैंटीग्रेड तापमान की ज़रूरत होती है।
  2. पटसन के उत्पादन के लिए कम-से-कम नमी 80 से 90 प्रतिशत रहनी चाहिए।
  3. पटसन के उत्पादन के लिए 120 से 150 सैं०मी० तक वर्षा होनी चाहिए। पटसन की फसल काटने के बाद भी इसके रेशे बनाने की क्रिया के लिए अधिक पानी चाहिए।

उत्पादन-1947 में भारत-पाकिस्तान क्षेत्र विभाजन के साथ ही पटसन उद्योग को काफी नुकसान हुआ। पटसन का उत्पादन करने वाला 75% क्षेत्र बंगलादेश में रह गया।

विभाजन के कारण पटसन के अधिकतर कारखाने पश्चिमी बंगाल में रह गए। इसलिए बाद में भारत के पटसन के अधीन क्षेत्र में काफी बढ़ावा हुआ और साल 2015-16 में पटसन की 8842 गांठों का उत्पादन हुआ। भारत में पटसन का उत्पादन मांग से कम होता है। इसलिए हमें पटसन बंगलादेश से आयात करनी पड़ती है। 2016 में पटसन की आयात की मात्रा में 69% से 130% तक की कीमत का बढ़ाव दर्ज किया गया।

प्रश्न 3.
घनी निर्वाह कृषि पर नोट लिखो।
उत्तर-
घनी निर्वाह कृषि को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है :
1. चावल प्रधान घनी निर्वाह कृषि—इस तरह की कृषि में चावल एक प्रमुख फ़सल है। इस तरह की कृषि अधिकतर मानसूनी एशिया में की जाती है। इस तरह की कृषि में भूमि का आकार छोटा होता है। किसान और उसका पूरा परिवार सख्त मेहनत करके अपने निर्वाह योग्य अनाज पैदा करता है। बढ़ती जनसंख्या के कारण भूमि का आकार और छोटा हो जाता है। उदाहरण के तौर पर केरल और बंगाल।

2. घनी निर्वाह कृषि (चावल रहित)-भारत के कई भागों में धरातल, मिट्टी, जलवायु, तापमान, नमी इत्यादि और सामाजिक-आर्थिक कारणों के कारण चावल के अलावा और फसलें भी उगाई जाती है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घनी निर्वाह कृषि की जाती है।

प्रश्न 4.
भारत में उगाई जाने वाली फसलों के वितरण पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत में उगाई जाने वाली फसलों को हम नीचे लिखे अनुसार विभाजित कर सकते हैं:

  1. खाद्यान्न (Food Crops)-गेहूँ, मक्की, चावल, मोटे अनाज, ज्वार, बाजरा, दालें, अरहर इत्यादि।
  2. नकद फसलें (Cash Crops)-कपास, पटसन, गन्ना, तम्बाकू, तेलों के बीज, मूंगफली, अलसी, तिल, अरंडी का तेल, सफेद सरसों और काली सरसों इत्यादि।
  3. रोपण फसलें (Plantation Crops) चाय, काहवा, इलायची, मिर्च, अदरक, हल्दी, नारियल, सुपारी और रबड़ इत्यादि।
  4. बागवानी फसलें (Horticulture)-फल जैसे-सेब, आडू, नाशपाती, अखरोट, बादाम, स्ट्राबेरी, खुरमानियां, आम, केला, संतरा, किन्नू और सब्जियां इत्यादि।

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प्रश्न 5.
परती भूमि क्या होती है ? इसकी किस्में भी लिखो।
उत्तर-
परती भूमि-यह वह भूमि होती है, जो किसी कारण खाली छोड़ दी जाती है। इसमें भविष्य में उपयोग में लाने के लिए खाली छोड़ी भूमि, स्थाई चरागाहों और पेड़ों के नीचे भूमि आ जाती है। परती भूमि को मुख्य रूप में दो किस्मों में विभाजित किया जाता है—

  1. वर्तमान परती भूमि-ऐसी भूमि जो उत्पादन के योग्य है मगर किसान द्वारा वह एक साल के लिए या इससे कम समय के लिए खाली छोड़ दी जाती है, ताकि उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ जाए और वर्तमान में ऐसी भूमि परती भूमि कहलाती है।
  2. पुरानी परती भूमि-ऐसी ज़मीन जो कृषि योग्य है और उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने के लिए उसको 1 साल या इससे अधिक समय के लिए खाली छोड़ दी जाए, पुरानी परती भूमि कहलाती है।

प्रश्न 6.
हिमालय में पशु पालन पर नोट लिखें।
उत्तर-
हिमालय के पहाड़ों में पशु पालन ऋतु प्रवास के चक्र के अनुसार किया जाता है। सर्दी में बर्फ पड़ने से पहले ही चरवाहे अपने पशुओं को लेकर मैदानी क्षेत्रों में चले जाते हैं, ताकि उनके पशुओं के लिए चारे का भी अच्छा प्रबंध किया जा सके। गर्मी शुरू होते ही ये चरवाहे वापिस पहाड़ों की ओर चले आते हैं। पश्चिम और पूर्वी हिमालय श्रेणी में प्रवासी चरवाहे पशु पालते हैं। मुख्य तौर पर जम्मू कश्मीर में बकरवाल, भैसों को पालने वाले चरवाहे, ‘गुज़र, कानेत कौली, किन्नौरी, भेड़-पालन वाले भेटिया, शोरपा खुबू इत्यादि चरवाहे कबीले मिलते हैं।

प्रश्न 7.
पंजाब की कृषि की दरपेश खतरों (Threats) से परिचित करवाएं।
उत्तर-
पंजाब की कृषि को नीचे लिखे खतरों का सामना करना पड़ता है—

  1. खुदकुशी-कृषि में लगाए धन पर कम मुनाफे के कारण वापिस न मिलना और किसानों का कर्ज के घेरे में फंस जाना, इसी कारण पंजाब में किसानों द्वारा खुदकुशी की जा रही है। 1995 से 2015 तक 21 सालों में भारत में 3,18,528 किसान खुदकुशी कर चुके हैं।
  2. मौसम की अनिश्चितता-पंजाब में वर्षा, तापमान इत्यादि की अनिश्चितता के कारण प्राकृतिक स्रोतों का नुकसान हो रहा है।
  3. कीटों के हमले के कारण फसलों का नुकसान-फसलों पर जहरीली रासायनिक कीटनाशकों का प्रभाव कम हो गया और कीटों के लगातार हमले बढ़ रहे हैं।
  4. कर्जे की मार-बढ़ती लागत में महंगी हो रही मशीनरी, बीज और कम होती कृषि उत्पादन की कीमतों के कारण किसान और कर्जा लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं जिसके कारण वह कर्जदार हो जाते हैं।
  5. कृषिबाड़ी-कृषिबाड़ी में नई पीढ़ी का रुझान कम हो गया है।
  6. महंगी हो रही कृषि की लागत-किसानों की कृषि के साथ जुड़ी हर ज़रूरत की चीज़ महंगी होती जा रही

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प्रश्न IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 20 पंक्तियों में दो :

प्रश्न 1.
भारत में गेहूँ की कृषि के अलग-अलग पहलू के बारे में लिखो।
उत्तर-
गेहूँ रबी के मौसम की फसल है। यह फसल वास्तविकता में रोम सागर के पूर्व भाग, लेवांत (Levant) क्षेत्र से शुरू हुई मानी जाती है। पर अब यह फसल पूरे संसार में बीजी जाती है और मनुष्य के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। इसमें 13% प्रोटीन के तत्त्व मौजूद हैं जोकि बाकी अन्न फसलों के मुकाबले अधिक है। भारत दुनिया का चौथा बड़ा गेहूँ उत्पादक देश है यह दुनिया की 87% गेहूँ का उत्पादन करता है।

गेहूँ की पैदावार के लिए ज़रूरी हालात-गेहूँ उगाने के लिए बिजाई और कटाई का समय अलग-अलग जलवायु खंडों में विभाजित किया जाता है। भारत में गेहूँ की बिजाई आमतौर पर अक्तूबर/नवम्बर में की जाती है और इसकी कटाई अप्रैल महीने में की जाती है। गेहूँ मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों की मुख्य फ़सल है। इसके लिए ठंडी जलवायु और मध्यम वर्षा उपयोगी सिद्ध होती है। इसकी बिजाई समय तापमान 10 से 15 सैंटीग्रेड और कटाई के समय तापमान 21 से 26 डिग्री सैंटीग्रेड चाहिए। कटाई के समय भारी वर्षा और अधिक तापमान गेहूँ की फसल के लिए नुकसानदायक होता है। गेहूँ के लिए तकरीबन 75 से 100 सैंटीमीटर वर्षा चाहिए। इसके लिए जलोढ़ दामोदर और दक्षिणी पठार की काली मिट्टी बहुत उपयोगी है।

2014-15 में 31.0 लाख हैक्टेयर ज़मीन पर गेहूँ की फसल उगाई गई। गेहूँ का कुल उत्पादन 88.9 लाख टन था। 1971 में गेहूँ की पैदावार 1307 किलो प्रति हैक्टेयर से बढ़कर साल 2014-15 में 2872 किलो प्रति हैक्टेयर तक हो गया पर आज के समय में भी हमारे देश की पैदावार संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, रूस इत्यादि के मुकाबले काफी कम है।
संसार में उत्पादन-गेहूँ मध्य अक्षांश के शीत उष्ण खास के मैदानों की पैदावार है। संसार में गेहूँ की कृषि का क्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है।

देश उत्पादन (लाख टन) देश उत्पादन (लाख टन)
रूस 441 ऑस्ट्रेलिया 185
यू०एस०ए० 687 तुर्की 180
चीन 1226 अर्जेंटाइना 143
भारत 690
कनाडा 242
फ्रांस 339

उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा गेहूँ के प्रमुख उत्पादक हैं। इन राज्यों को भारत का अन्न भंडार भी कहते हैं। पंजाब गेहूँ का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश राज्य है और क्षेत्रफल के तौर पर यह पंजाब से छ: गुणा अधिक है।
PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) 1
व्यापार-गेहूँ के कुल उत्पादन का एक तिहाई (1/3) हिस्सा व्यापार में आ जाता है। भारत के मुख्य निर्यात राज्य पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश हैं जो अपनी गेहूँ को महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल इत्यादि जगह पर बेचते हैं।

भारत ने 1970-71 में 29.33 लाख टन गेहूँ की पैदावार की जो कि 1975-76 में 70.94 लाख टन तक पहुँच गई और 2015-16 में 618020.01 लाख टन गेहूँ का निर्यात होने लगा। मुख्य खरीददार बांगलादेश, अरब, ताइवान, नेपाल इत्यादि हैं।

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प्रश्न 2.
पंजाब का कृषि की SWOT पक्षों के बारे में बताते हुए प्रत्येक दो-दो विशेषताओं के बारे में लिखो।
उत्तर-
पंजाब की कृषि SWOT का अर्थ-Strengths (ताकत) Weaknesses (कमज़ोरी) Opportunities (अवसर), Threats (खतरे) इत्यादि पक्षों के बारे बताया।
पंजाब एक कृषि प्रधान प्रदेश है। यहाँ के निवासियों का मुख्य कार्य कृषि है। हरित क्रांति (1960) के बाद पंजाब की परंपरागत कृषि तो खत्म हो गई और पंजाब ने गेहूँ और चावल का रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन किया। 1990 के बाद कृषि के बाद जुड़ी हुई मशीनरी और बीजों की बढ़ रही कीमतों और गेहूँ-चावल के फसली चक्र ने पंजाब के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण इत्यादि के माहौल के खराब कर दिया। इस सबकी रिपोर्ट इस तरह है—
1. (S) पंजाब की कृषि की ताकतें-पंजाब की कृषि का उत्पादन आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार काफी अधिक हो गया, क्योंकि—

  1. प्राकृतिक वातावरण अनुकूल-प्रकृति ने पंजाब को उपजाऊ मिट्टी, शुद्ध पानी के साथ नवाजा है। यहाँ की जलवायु कृषि के लिए बहुत ही अनुकूल है।
  2. हरित क्रांति का प्रभाव-1960 में आई हरित क्रांति के कारण लोगों ने बढ़िया बीजों, रासायनिक खादों का उपयोग, सिंचाई में सुधार के कारण और उपजाऊ जमीन के कारण फसलों का उत्पादन बहुत बढ़ा लिया।

इसके अतिरिक्त तकनीक की निपुणता इत्यादि के कारण कृषि का उत्पादन पहले से काफी बढ़ा लिया।
2. कृषि की कमजोरियां (W)—कृषि की विशेषता के साथ-साथ कई कमजोरियां भी हैं, जैसे कि—

  1. उत्पादन में स्थिरता/कमी-अधिक से अधिक भूमि के उपयोग के कारण भूमि की उपजाऊ शक्ति में कमी आ गई। जिस कारण 1970-80 के दशक के बाद पंजाब में कृषि के उत्पादन में कमी आई।
  2. मूल स्त्रोतों की बर्बादी-लोगों ने उत्पादन के लालच में प्राकृतिक स्रोतों का अधिक से अधिक उपयोग शुरू कर दिया क्योंकि तकनीक के बढ़ाव के कारण कृषि अधीन क्षेत्र भी काफी बढ़ गया जिस कारण प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग बढ़ गया और 1990 के बाद लगातार प्राकृतिक स्रोतों की बर्बादी हुई जिस कारण पानी का स्तर कम होता चला गया।

इसके बिना कटी फसल का भी काफी नुकसान हुआ और आधुनिक तकनीक तक कम पहुँच भी कृषि की एक कमजोरी है।
3. पंजाब की कृषि में अवसर (O)—पंजाब की कृषि ने लोगों को रोजगार के कई अवसर भी दिए हैं। जैसे कि—

  1. कृषि में बहुरूपता-फसली चक्र के कारण लोगों ने चावल और गेहूँ दो तरह की फसलों की पैदावार शुरू की जिसने पंजाब के प्राकृतिक स्रोतों को काफी नुकसान पहुँचाया जिस कारण फसली चक्र अब बदलता जा रहा है। पंजाब में किसानों को फल, सब्जियां इत्यादि पैदा करने के लिए अब प्रेरित किया जा रहा है। इस प्रकार कृषि में बहुरूपता आ रही है।
  2. जैविक कृषि को उत्साहित करना-रासायनिक कृषि को कम करने की और प्राकृतिक स्रोतों से बचाने के लिए जैविक कृषि की तरफ लोगों को प्रेरित करने की जरूरत है। दाल, सब्जी इत्यादि की पैदावार के साथ मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सकता है।

4. पंजाब की कृषि को खतरा (T)—पंजाब की कृषि की पैदावार के साथ-साथ कई खतरों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि—

  1. मौसम की अनिश्चितता-पंजाब में वर्षा, मौसम इत्यादि निश्चित नहीं है जिस कारण पानी का उपयोग अधिक हो रही है। क्योंकि वर्षा अनिश्चित हो रही है और कुदरती स्रोतों का नुकसान हो रहा है।
  2. कीटों के हमले कारण फसलों का नुकसान-फसली कीड़ों का प्रभाव बढ़ने के कारण फसलों का नुकसान हो रहा है। अब कीटनाशक दवाइयां, नदीननाशक तक बेअसर होते जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ साल पहले मालवा में कपास पट्टी सफेद मक्खी ने तबाह कर दिया था।
    इसके अतिरिक्त किसानों द्वारा खुदकुशियाँ कर्जे की मार, कृषि में नई पीढ़ी का कम रुझान, महंगी हो रही कृषि लागत इत्यादि कुछ खतरे पंजाब की कृषि को सहने पड़ रहे हैं।
    पंजाब को भारत का अन्न-भंडार कहा जाता है। पंजाब की कृषि ने एक नया इतिहास रचा है जिसने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। इसलिए पंजाब की कृषि SWOT विश्लेषण विद्यार्थियों के लिए किया गया।

प्रश्न 3.
गन्ने की फसल के लिए जरूरी भौगोलिक हालात और इसके उत्पादन और वितरण से परिचय करवाओ।
उत्तर-
सारे संसार में खांड (चीनी) लोगों के भोजन का एक जरूरी अंग है। गन्ना और चुकन्दर खांड के दो मुख्य साधन हैं। संसार की 65% चीनी गन्ने और बाकी चुकन्दर से प्राप्त होती है। गन्ना एक व्यापारिक और औद्योगिक फसल है। गन्ने से कई पदार्थ जैसे, गुड़, शक्कर, सीरा, कागज, खाद, मोम इत्यादि तैयार किए जाते हैं। भारत को गन्ने का जन्मस्थान माना जाता है। यहाँ के गन्ने का विस्तार पश्चिमी देशों में हुआ है।
भौगोलिक हालात-गन्ने की फसल के लिए जरूरी भौगोलिक हालात नीचे लिखे अनुसार हैं—

1. तापमान-गन्ने की फसल को पूरी तरह तैयार होने के लिए तकरीबन 15 या कई बार 18 महीने लग जाते हैं। गन्ने को नमी वाली और गर्म जलवायु की जरूरत होती है। गन्ने की फसल के लिए 21° से लेकर 27° सैंटीग्रेड तक तापमान की जरूरत होती है। फसल को पकने के लिए 20 सैंटीग्रेड तक तापमान की जरूरत होती है जो फसल में मिठास को बढ़ा देता है।

2. वर्षा-गन्ना उगाने के समय 75 से लेकर 100 सैंटीमीटर तक वर्षा की जरूरत होती है। अगर वर्षा की मात्रा इससे अधिक हो जाए या भारी हो जाए तब गन्ने की मिठास कम हो जाती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा 100 सैं० मी० से कम होती है वहाँ सिंचाई की सहायता से कृषि की जाती है। गन्ने की फसल के लिए पकने के समय खुश्क और ठंडा मौसम अनुकूल रहता है। कोहरा गन्ने के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं होता। कोहरा पड़ने से पहले ही फसल को इसलिए काट लिया जाता है।

3. मिट्टी-गन्ने की पैदावार के लिए दोमट, चिकनी दोमट और काली मिट्टी उपयोगी है। दक्षिणी भारत की भूरी और लाल मिट्टी, लेटराइट मिट्टी काफी उपयोगी है। मिट्टी में चूना तथा फॉस्फोरस का अंश अधिक होना चाहिए। नदी घाटियों की कांप की मिट्टी गन्ने की फसल के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है।

4. सस्ते मज़दूर-गन्ने की कृषि में अधिकतर काम हाथ से किए जाते हैं। इसलिए सस्ते मजदूरों की जरूरत होती

5. धरातल-गन्ने की कृषि के लिए समतल मैदानी धरातल होना चाहिए। मैदानी भागों में जल-सिंचाई और यातायात के साधन आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। मैदानी भागों में मशीनों को कृषि के लिए प्रयोग किया जाता है।

6. तटीय प्रदेश-अधिकतर गन्ने की पैदावार समुद्री तटीय भागों में की जाती है। यहाँ समुद्री हवा गन्ने में रस की मात्रा बढ़ा देती है।

उत्पादन-भारत ब्राजील के बाद संसार का दूसरा बड़ा गन्ना उत्पादक देश है। भारत में सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। यहाँ का उत्पादन देश के कुल उत्पादन का 38.61% होता है। दूसरे और तीसरे स्थान पर क्रमवार महाराष्ट्र और कर्नाटक हैं। इसके अतिरिक्त भारत में गन्ने का उत्पादन बिहार, हरियाणा, असम, गुजरात, आंध्रा प्रदेश और तमिलनाडु में होता है। पंजाब में गन्ने का उत्पादन गुरदासपुर, होशियारपुर, नवांशहर, रूपनगर इत्यादि जिलों में होता है।

2014-15 में पंजाब में गन्ने का उत्पादन 705 लाख क्विंटल था और 2015-16 में भारत में गन्ने का उत्पादन 26 मिलियन टन था जो कि पिछले साल से कम है। इसका कारण था कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में सूखा पड़ गया था।

भारत में गन्ने की कृषि के लिए आदर्श दशाएं दक्षिणी भारत में मिलती हैं। यहाँ उच्च तापक्रम और काफी वर्षा होती है जिसके कारण गन्ना लम्बे समय तक पीड़ा जा सकता है। उत्तर भारत में लम्बी, खुश्क ऋतु और ठंड के कारण अनुकूल दशाएं नहीं हैं। फिर भी उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई के कारण भारत का 80% गन्ना उत्तरी मैदान में होता है।
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वितरण—गन्ना उत्पादन के लिए निम्नलिखित तीन क्षेत्र प्रसिद्ध हैं—

  1. सतलुज गंगा के मैदान पंजाब से लेकर बिहार तक के प्रदेश इसमें शामिल है। इसमें 51% गन्ने के अतिरिक्त क्षेत्र आता है और उत्पादन 60% होता है।
  2. महाराष्ट्र और तमिलनाडु की पूर्व ढलान से लेकर पश्चिमी घाट वाली काली मिट्टी का क्षेत्र।
  3. आंध्र प्रदेश से कृष्णा घाटी का तटीय क्षेत्र।

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प्रश्न 4.
भारत में प्रमुख फसलों के वितरण पर विस्तार से नोट लिखें।
उत्तर-
भारत के लोगों का मुख्य रोज़गार कृषि है और लगभग आधी भारतीय जनसंख्या अपना जीवन निर्वाह कृषि और इसके साथ जुड़े सहायक रोजगारों से कर रही है। 2011-12 के राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे दफ्तर के अनुसार कुल जनसंख्या का 48.9% हिस्सा कृषि के अतिरिक्त आता है। पर कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा सिर्फ 17.4 प्रतिशत तक ही पहुँच सका है। भारत में धरातल, जलवायु, मिट्टी, तापमान इत्यादि की भिन्नता मिलती है और इस भिन्नता के कारण हम अलग-अलग फसलें बीजने में असमर्थ हैं। यही कारण है कि उष्ण, उप उष्ण और शीत-उष्ण जलवायु में पैदा होने वाली फसलें हम उगाते हैं। भारत में उगाई जाने वाली फसलों का विस्तृत विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

1. खाद्यान्न- कृषिबाड़ी हमारे देश के लोगों की रीढ़ की हड्डी है और खाद्यान्न फसलें हमारे देश की कृषि की रीढ़ की हड्डी हैं। हमारे देश के लगभग तीन-चौथाई भाग में खाद्यान्न फसलें उगाई जाती हैं। देश के तकरीबन हर कोने में खाद्यान्न फसलें उगाई जाती हैं। गेहूँ, मक्की, चावल, मोटे अनाज, ज्वार, बाजरा, रागी, दालें, अरहर इत्यादि मुख्य खाद्यान्न फसलें हैं।

2. नकद फसलें-नकद फसलें कृषि सम्बन्धी फसलें हैं जो कि बेचने और लाभ या मुनाफे के लिए पैदा की जाती हैं। यह अधिकतर रूप में पर उनके द्वारा खरीदी जाती है जोकि एक खेत का हिस्सा नहीं होते। कपास, पटसन, गन्ना, तम्बाकू, तेलों के बीज, मूंगफली, अलसी, तिल, सफेद सरसों, काली सरसों इत्यादि मुख्य नकदी फसलें हैं।

3. रोपण फसलें-चाय, कॉफी, मसाले, इलायची, मिर्च, अदरक, हल्दी, नारियल, सुपारी और रबड़ इत्यादि मुख्य रोपण फसलें हैं। ये एक विशेष तरह की व्यापारिक फसलें हैं। इसमें किसी एक फसल की बड़े स्तर पर कृषि की जाती है। यह कृषि बड़े-बड़े आकार के फार्मों में की जाती है और केवल एक फसल की बिक्री के ऊपर ज़ोर दिया जाता है।

4. बागवानी फसलें-बागवानी व्यापारिक कृषि का ही एक घना रूप है। इसमें आमतौर पर फल जैसे-आड, सेब, नाशपाति, अखरोट, बादाम, स्ट्रॉबेरी, खुरमानी, आम, केला, नींबू, संतरा और सब्जियों इत्यादि का उत्पादन किया जाता है। इस कृषि का विकास संसार के औद्योगिक और शहरी क्षेत्रों के पास होता है। यह कृषि छोटे स्तर पर की जाती थी पर इसमें एक उच्च स्तर का विशेषीकरण होता है। भूमि पर घनी कृषि की जाती है। सिंचाई और खाद का प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक ढंग, उत्तम बीज और कीटनाशक दवाइयां इत्यादि का उपयोग किया जाता है। उत्पादों को जल्दी बिक्री करने के लिए यातायात की अच्छी सुविधा होती है। इस प्रकार प्रति व्यक्ति आमदन अधिक होती है।

प्रश्न 5.
भारत में कृषि के मौसमों की सूची बनाकर मुख्य पक्षों से पहचान करवाओ।
उत्तर-
भारत में कृषि के मुख्य मौसम दो हैं-खरीफ और रबी। इनको आगे दो उप मुख्य मौसमों में विभाजित किया जाता है। जैद खरीफ और रबी जैद। इन मौसमों और उप-मौसमों के आधार पर भारत की कृषि के मुख्य मौसमों की क्रमवार सूची और उनके पक्ष नीचे लिखे अनुसार हैं—

1. खरीफ-खरीफ की फसल की बिजाई का मुख्य काम मई में शुरू हो जाता है और इस फसल की कटाई का काम अक्तूबर में किया जाता है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के शुरू होते ही इस फसल की बुआई का काम शुरू कर दिया जाता है। मुख्य फसलें-ज्वार, बाजरा, चावल, मक्की, कपास, पटसन, मूंगफली, तम्बाकू इत्यादि प्रमुख खरीफ की फसलें हैं।

2. जैद खरीफ-इसकी बुआई का काम अगस्त में शुरू होता है और कटाई का काम जनवरी में होता है। मुख्य फसलें-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास, तिलहन के बीज इत्यादि जैद खरीफ की फसलें हैं।

3. रबी-इन फसलों की बुआई का काम अक्तूबर में शुरू हो जाता है और कटाई का काम मध्य अप्रैल में ही शुरू हो जाता है। लौट रही मानसून के समय तक इसकी बुआई चलती है। मुख्य फसलें-गेहूँ, जौ, चने, अलसी की बीज, सरसों, मसर, और मटर इत्यादि इस मौसम की मुख्य फसलें

4. जैद रबी-इसकी बुआई का काम फरवरी और मार्च तक होता है और कटाई का काम अप्रैल के मध्य से मई तक होता है। कई फसलों की कटाई जून तक भी पहुँच जाती है। मुख्य फसलें-तरबूज/खरबूजा, तोरिया, खीरा, अंधवा और सब्जियां इस मौसम की मुख्य फसलें हैं।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

Geography Guide for Class 12 PSEB आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) Important Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर (Objective Type Question Answers)

A. बहु-विकल्पी प्रश्न

प्रश्न 1.
“आर्थिक भूगोल पृथ्वी के तल पर आर्थिक क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन है।” यह किस भूगोलवेत्ता का कथन है ?
(A) जॉन अलैग्जेण्डर
(B) डॉर्कन बाल्ड
(C) मैक्फ्रालैन
(D) हंटिगटन।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 2.
नीचे दिए गए में से सहायक व्यवसाय कौन-सा है ?
(A) लकड़ी काटना
(B) कृषि
(C) खनिज निकालना
(D) निर्माण उद्योग।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सी बागानी फ़सल नहीं है ?
(A) काहवा
(B) गन्ना
(C) गेहूँ
(D) रबड़।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 4.
कौन-सा कबीला पशु चराने का कार्य करता है ?
(A) पिगमी
(B) बकरवाल
(C) रैड इण्डियन
(D) मिसाई।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 5.
गहन निर्वाह कृषि की मुख्य फसल है :
(A) चावल
(B) गेहूँ
(C) मक्का
(D) कपास।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 6.
डेनमार्क किस कृषि के लिए प्रसिद्ध है ?
(A) मिश्रित कृषि
(B) पशु-पालन
(C) डेयरी फार्मिंग
(D) अनाज कृषि।
उत्तर-
(C)

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प्रश्न 7.
राईरा (रेबेरी) (ऊंट, भेड़, बकरी) चरागाह भाईचारा किस राज्य में मिलता है ?
(A) कर्नाटक
(B) केरल
(C) राजस्थान
(D) तमिलनाडु।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 8.
खरीफ की काल अवधि क्या है ?
(A) मई से अक्तूबर
(B) अगस्त से जनवरी
(C) अक्तूबर से जनवरी
(D) मई से जून।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 9.
चाय की कृषि के लिए किस प्रकार की मिट्टी उपयोग की जाती है ?
(A) गहरी मिट्टी
(B) काली मिट्टी
(C) चिकनी मिट्टी
(D) रेगर मिट्टी।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन-सी काहवे की किस्म नहीं है ?
(A) अरेबिका
(B) रोबसटा
(C) लाईवेरिका
(D) लगून।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से कौन-सी कपास की किस्म नहीं है ?
(A) लम्बे रेशे वाली
(B) साधारण रेशे वाली
(C) छोटे रेशे वाली
(D) मोटे रेशे वाली।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 12.
किस फसल को सुनहरी रेशा कहा जाता है ?
(A) पटसन
(B) काहवा
(C) गेहूँ
(D) चावल।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 13.
संसार का सबसे अधिक गन्ना कहाँ पर होता है ?
(A) ब्राज़ील
(B) कैनेडा
(C) कर्नाटक।
(D) यू०एस०ए०।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 14.
सफेद क्रांति किससे सम्बन्धित है ?
(A) दूध से
(B) कृषि से
(C) कोयले से
(D) चमड़े के उत्पादन से।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 15.
मनुष्य का सबसे पुराना धन्धा कौन-सा है ?
(A) मछली पालन
(B) कृषि
(C) औद्योगीकरण
(D) संग्रहण।
उत्तर-
(D)

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प्रश्न 16.
संग्रहण कहाँ की जाती है ?
(A) अमाजोन बेसिन
(B) गंगा बेसिन
(C) नील बेसिन
(D) हवांग हो।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 17.
कौन-सी फसल के उत्पादन में भारत का संसार में पहला स्थान है ?
(A) पटसन
(B) काहवा
(C) चाय
(D) चावल।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 18.
कौन-सा राज्य सबसे अधिक गेहूँ की पैदावार करता है ?
(A) उत्तर प्रदेश
(B) पंजाब
(C) हरियाणा
(D) राजस्थान।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 19.
हरित क्रांति किसकी पैदावार से सम्बन्धित है ?
(A) पटसन की
(B) चमड़े की
(C) फसलों की पैदावार की
(D) मछली की।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 20.
निम्नलिखित में से कौन सा खतरा पंजाब की कृषि को नहीं है ?
(A) मौसम की भिन्नता
(B) कर्ज की मार
(C) खुदकुशियाँ
(D) रोज़गार के साधन।
उत्तर-
(D)

B. खाली स्थान भरें :

  1. गुलाबी क्रांति …………….. के साथ सम्बन्धित है।
  2. पंजाब की ………………. कृषि सिंचाई अधीन है।
  3. ब्राज़ील के बाद ………………… संसार का दूसरा गन्ना उत्पादक देश है।
  4. भारत में ………………… का उत्पादन मांग से कम है।
  5. …………….. सुनहरी, चमकदार, कुदरती रेशेदार फसल है।
  6. लम्बे रेशे वाली कपास में रेशे की लम्बाई ……………….. कि०मी० तक होती है।

उत्तर-

  1. मीट उत्पादन,
  2. 80%,
  3. भारत,
  4. पटसन,
  5. पटसन,
  6. 24 से 25.

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C. निम्नलिखित कथन सही (✓) है या गलत (✗):

  1. कपास की कृषि के लिए 200 सैंटीमीटर वर्षा की जरूरत होती है।
  2. भारत के कपास के क्षेत्र के हिसाब से पहला और उत्पादन के हिसाब से चीन का पहला स्थान है।
  3. भारत 45 से अधिक देशों को काहवा निर्यात करता है।
  4. चाय की 10 प्रचलित किस्में हैं।
  5. भारत दुनिया का बड़ा चावल उत्पादक देश है।
  6. गेहूँ मुख्य रूप में उत्तर-पश्चिमी भारत पैदा की जाती है।

उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. सही,
  6. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्नोत्तर (One Word/Line Question Answers) :

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल का अर्थ समझने के लिए क्या ज़रूरी है ?
उत्तर-
आर्थिक भूगोल का अर्थ समझने के लिए उसकी शाखाओं का अध्ययन आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
टरशरी क्षेत्र कौन से होते हैं ?
उत्तर-
आर्थिकता का टरशरी क्षेत्र सेवाओं का उद्योग होता है।

प्रश्न 3.
भारत में कृषि के मौसम कौन-से हैं ?
उत्तर-
खरीफ, रबी और जैद।

प्रश्न 4.
एल नीनो का फसलों के उत्पादन पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
एल नीनो के कारण वर्षा कम होती है और फसलों का उत्पादन कम होता है।

प्रश्न 5.
पश्चिम बंगाल में चावल की तीन फसलें बताओ।
उत्तर-
अमन, ओस, बोगे।

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प्रश्न 6.
चावल की कृषि के लिए तापमान और वर्षा कितनी आवश्यक है ?
उत्तर-
तापमान-21°C, वर्षा 150 cm.

प्रश्न 7.
संसार में सबसे अधिक चावल पैदा करने वाला देश कौन सा है ?
उत्तर-
चीन।

प्रश्न 8.
चावल का कटोरा किस प्रदेश को कहते हैं ?
उत्तर-
हिन्द-चीन।

प्रश्न 9.
गेहूँ की दो किस्में कौन-सी हैं ?
उत्तर-
शीतकालीन गेहूँ, बसन्तकालीन गेहूँ।

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प्रश्न 10.
भारत में गेहूँ उत्पन्न करने वाले तीन राज्य बताओ।
उत्तर-
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा।

प्रश्न 11.
एक रेशेदार फसल का नाम लिखो।
उत्तर-
कपास।

प्रश्न 12.
संयुक्त राज्य में कपास पेटी के तीन राज्य बताओ।
उत्तर-
टैक्सास, अलाबामा, टेनेसी।

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प्रश्न 13.
मिश्र देश में लम्बे रेशे वाली कपास का क्षेत्र बताओ।
उत्तर-
नील डेल्टा।

प्रश्न 14.
चाय की कृषि के लिए आवश्यक वर्षा तथा तापमान बताओ।
उत्तर-
वर्षा 200 सैं०मी०, तापमान 25°CI

प्रश्न 15.
दार्जिलिंग की चाय अपने स्वाद के लिए क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
अधिक ऊँचाई तथा पर्वतीय ढलानों के कारण धीरे-धीरे उपज बढ़ती है।

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प्रश्न 16.
गन्ने के उपज के लिए दो देश बताओ।
उत्तर-
क्यूबा तथा जावा।

प्रश्न 17.
फैजेन्डा किसे कहते हैं ?
उत्तर-
ब्राज़ील में काहवे के बड़े-बड़े बाग़ान का।

प्रश्न 18.
कृषि से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
धरती से उपज प्राप्त करने की कला।

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प्रश्न 19.
Slash and burn कृषि किस वर्ग की कृषि है ?
उत्तर-
स्थानान्तरी कृषि।

प्रश्न 20.
भारत के तीन राज्य बताओ, जहाँ स्थानांतरी कृषि होती है ?
उत्तर-
मेघालय, नागालैंड, मणिपुर।

प्रश्न 21.
बागाती कृषि क्या है ?
उत्तर-
बड़े-बड़े खेतों पर एक व्यापारिक फसल की कृषि।

प्रश्न 22.
घनी कृषि करने वाले कोई दो देश बताओ।
उत्तर-
भारत और चीन।।

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प्रश्न 23.
काहवा की किस्में बताओ।
उत्तर-
अरेबिका और रोबस्टा।

प्रश्न 24.
पंजाब के कृषि की कोई दो ताकतों के बारे में बताओ।
उत्तर-
अनुकूल पर्यावरण और हरित क्रांति के प्रभाव।

प्रश्न 25.
पंजाब की कृषि को होने वाले कोई दो खतरे बताओ।
उत्तर-
कर्जे की मार, महंगी हो रही कृषि लागत।

प्रश्न 26.
परती भूमि को कौन-से दो भागों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
वर्तमान परती भूमि और पुरानी परती भूमि।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल की परिभाषा बताओ।
उत्तर-
भूगोल धरती को मनुष्य का निवास स्थान मानकर अध्ययन करता है और इसका वर्णन करता है। भूगोल किसी क्षेत्र में मनुष्य, पर्यावरण और मनुष्य की क्रियाओं का अध्ययन करता है।

प्रश्न 2.
एल नीनो और लानीना का कृषि की पैदावार पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
संसार में एल नीनो और लानीना का कृषि की पैदावार पर बड़ा असर पड़ता है। एल नीनो के समय पर कम वर्षा होती है जिसके साथ फसलों का उत्पादन कुछ हद तक कम हो जाता है और लानीना के कारण वर्षा अच्छी हो जाती है और फसलों की पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3.
खानाबदोश पशु-पालक भारत में किन स्थानों पर मिलते हैं और यह कौन-से पशु पालते हैं ?
उत्तर-
भारत में खानाबदोश पशु-पालक पश्चिमी भारत में थार के रेगिस्तान, दक्षिण के पठार, हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में मिलते हैं। यह मुख्य रूप में भैंस, गाय, भेड़, बकरी, ऊँट, खच्चर, गधे इत्यादि पालते हैं।

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प्रश्न 4.
मोनपा चरवाहों के बारे में बताओ।
उत्तर-
मोनपा चरवाहे अरुणाचल प्रदेश के तवांग इत्यादि स्थानों पर रहते हैं और इनकी नस्ली पहचान बोधी/ तिब्बती है। यह कामेरा, तबांग से नीचे वाले क्षेत्रों में ऋतु प्रवास के समय चले जाते हैं।

प्रश्न 5.
मनुष्य धंधों के नाम बताओ और इनके वर्ग भी बताओ।
उत्तर-
कृषि, पशु-पालन, खनिज निकालना, मछली पकड़ना। यह धंधे तीन वर्गों में विभाजित किये जाते हैं।

  1. आरम्भिक धंधे
  2. सहायक धंधे
  3. टरशरी धंधे।।

प्रश्न 6.
कृषि से आपका क्या अर्थ है ? कृषि का विकास किन कारणों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-
पृथ्वी से उपज प्राप्त करने की कला को कृषि (कृषि) कहते हैं। यह मनुष्य की मुख्य क्रिया है। कृषि का विकास धरातल, मिट्टी, जलवायु, सिंचाई, खाद इत्यादि यंत्रों के प्रयोग पर निर्भर करता है। अब कृषि सिर्फ किसी प्रक्रिया पर निर्भर नहीं है। कृषि का विकास तकनीकी ज्ञान और सामाजिक पर्यावरण की देन है।

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प्रश्न 7.
फिरतू (स्थानान्तरी) कृषि किसे कहते हैं ? इसके दोष कौन से हैं ?
उत्तर-
वनों को काट कर तथा झाड़ियों को जला कर भूमि को साफ कर लिया जाता है और फिर कृषि के लिए प्रयोग किया जाता है इसे स्थानान्तरी कृषि कहते हैं। इससे वनों का नाश होता है। इससे पर्यावरण को हानि होती है। इससे मिट्टी की उपजाऊ शक्ति कम होती है और मिट्टी अपरदन बढ़ जाता है।

प्रश्न 8.
भारत में कौन-से प्रदेशों में घूमंतु कृषि की जाती है ?
उत्तर-
भारत के कई प्रदेशों में इत्यादिवासी जातियों के लोग घूमंतु कृषि करते हैं। उत्तरी पूर्वी भारत के वनों में से त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, मिज़ोरम प्रदेशों में अनेक जन-जातियों द्वारा यह कृषि की जाती है। मध्य प्रदेश में भी यह कृषि प्रचलित है।

प्रश्न 9.
रोपण (बाग़ानी) कृषि किसे कहते हैं ? रोपण कृषि से किन फसलों की कृषि की जाती है ?
उत्तर-
उष्ण कटिबन्ध में जनसंख्या कम होती है जबकि यह कृषि बड़े-बड़े आकार के खेतों या बाग़ान पर की जाती है। रोपण कृषि की मुख्य फसलें हैं रबड़, चाय, काहवा, कॉफी, गन्ना, नारियल, केला इत्यादि।

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प्रश्न 10.
रोपण कृषि में क्या समस्याएं हैं ?
उत्तर-
रोपण कृषि वाले क्षेत्र कम आजादी वाले क्षेत्र हैं। यहाँ पर मजदूरों की कमी होती है। यहाँ उष्ण नमी वाले प्रदेशों में मिट्टी अपरदन और घातक कीड़ों और बीमारियों की समस्या है।

प्रश्न 11.
सामूहिक कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर-
यह एक ऐसी कृषि प्रणाली है जिसका प्रबंध इत्यादि सहकारिता के आधार पर किया जाता है। इस तरह की कृषि में सारे प्रतियोगी अपनी इच्छानुसार अपनी भूमि एक-दूसरे के साथ इकट्ठा करते हैं। कृषि का प्रबंध सहकारी संघ के द्वारा किया जाता है। डैनमार्क को सहकारिता का देश कहते हैं।

प्रश्न 12.
बुश फैलो (Bush Fallow) कृषि से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बुश फैलो कृषि स्थानान्तरी कृषि का ही एक उदाहरण है। वनों को काटना और झाड़ियों को जला कर भूमि को कृषि के लिए तैयार किया जाता है। इसको काटना और जलाना कृषि भी कहते हैं।

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प्रश्न 13.
झूमिंग (Jhumming) से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
यह कृषि भी स्थानान्तरी कृषि की एक उदाहरण है। भारत के उत्तर पूर्वी भाग में आदिम जातियों के लोग पेड़ों को काटकर या जलाकर भूमि को साफ़ कर लेते हैं। इन खेतों की उपजाऊ शक्ति कम होने पर नये खेतों को साफ़ किया जाता है।

प्रश्न 14.
चाय की कृषि पहाड़ी ढलानों वाली भूमि पर की जाती है। क्यों ?
उत्तर-
चाय के बाग़ पहाड़ी ढलानों पर होते हैं, इसके लिए अधिक वर्षा की आवश्यकता होती है। इसलिए भूमि का ढलानदार होना ज़रूरी होता है, ताकि पौधों की जड़ों में पानी इकट्ठा न हो।

प्रश्न 15.
काहवा के पौधों को पेड़ों की छाँव में क्यों लगाया जाता है ?
उत्तर-
सूर्य की सीधी और तेज़ किरणे काहवे की फसल के लिए हानिकारक होती हैं। पाला तथा तेज़ हवाएं काहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए कहवे की कृषि सुरक्षित ढलानों पर की जाती है ताकि काहवे के पौधे तेज़ सूर्य की रोशनी और पाले से सुरक्षित रहें।

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प्रश्न 16.
कपास की फसल के पकते समय वर्षा क्यों नहीं होनी चाहिए ?
उत्तर-
कपास खुश्क क्षेत्रों की फसल है। फसल को पकते समय खुश्क मौसम की जरूरत होती है। आसमान साफ हों और चमकदार धूप होनी चाहिए। इसके साथ कपास का फूल अच्छी तरह खिल जाता है और चुनाई आसानी से हो जाती है।

प्रश्न 17.
संसार की अधिकतर गेहूँ 25° से 45° अक्षांशों में क्यों होती है ?
उत्तर-
गेहूँ शीत उष्ण प्रदेश का पौधा है। उष्ण कटिबन्ध अधिक तापमान के कारण शीत कटिबन्ध कम तापमान के कारण गेहूँ की कृषि के लिए अनुकूल नहीं है। 25° से 45° अक्षांशों के बीच के प्रदेशों में शीत काल में कम सर्दी और कम वर्षा हो जाती हैं, जैसे रोम सागर खंड में।

प्रश्न 18.
दार्जिलिंग की चाय क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर-
पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग क्षेत्र की चाय अपने विशेष स्वाद के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहाँ अधिक ऊंचाई के कारण तापमान कम रहता है। सारा साल सापेक्ष नमी रहती है। कम तापमान व नमी के कारण चाय धीरेधीरे बढ़ती है। इससे चाय का स्वाद अच्छा होता है।

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प्रश्न 19.
संसार का अधिक चावल दक्षिणी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में क्यों मिलता है ?
उत्तर-
यह प्रदेश उष्ण कटिबन्ध में है। यहाँ पर तापमान सारा साल उच्च मिलता है। मानसून के कारण वर्षा अधिक होती है। नदियों से उपजाऊ मैदान और डेल्टा चावल की कृषि के लिए अनुकूल है। घनी जनसंख्या के कारण मजदूर अधिक मात्रा में मिल जाते हैं। इस प्रकार अनुकूल भौगोलिक हालतों के कारण दक्षिण-पूर्वी एशिया में सबसे अधिक चावल पैदा किए जाते हैं।

प्रश्न 20.
चाय की विभिन्न किस्मों का वर्णन करो।
उत्तर-
चाय निम्नलिखित किस्मों की होती है—

  1. सफेद चाय-इसकी पत्तियाँ मुरझाई हुई होती हैं।
  2. पीली चाय-इसकी पत्तियां ताजी होती हैं।
  3. हरी चाय-उत्तम प्रकार की चाय है।
  4. अलौंग चाय-सबसे उत्तम प्रकार की चाय है।
  5. काली चाय-जो कि साधारण प्रकार की चाय है।
  6. खमीरा करने के बाद बनाई पत्ती। इसका रंग हरा होता है।

प्रश्न 21.
ट्रक कृषि (Truck Farming) किसे कहते हैं ? उदाहरण दो।
उत्तर-
व्यापार के उद्देश्य से सब्जियों की कृषि को ट्रक कृषि कहते हैं। नगरों के इधर-उधर के क्षेत्रों में यह कृषि प्रसिद्ध है। इन चीजों को ट्रक के द्वारा नगर के बाज़ार तक भेजा जाता यह कृषि न्यूयार्क में लांग द्वीप (Long Island) में और भारत के श्रीनगर में डल झील में की जाती है।

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प्रश्न 22.
गन्ने की कृषि के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र कौन-से हैं ?
उत्तर-
गन्ने के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र हैं—

  1. सतलुज गंगा के मैदान से बिहार तक।
  2. महाराष्ट्र से तमिलनाडु के पूर्वी ढलानों से पश्चिमी घाट
  3. आन्ध्र प्रदेश में कृष्ण घाटी का तटीय क्षेत्र।

प्रश्न 23.
काहवा के प्रकार बताओ।
उत्तर-
काहवे के भारत में अधिकतर रूप में दो प्रकार से मिलते हैं—

  1. अरेबिका
  2. रोबस्टा।

हालांकि काहवा का लाईबेरिका और कई और प्रकार भी संसार में उगाये जाते हैं। प्रमुख रूप में अरेबिका और रोबस्टा प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 24.
भारत में उगाई जाने वाली फसलों को किस प्रकार की फसलों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
भारत में फसलों को इस प्रकार विभाजित किया जाता है :

  1. खाद्यान्न
  2. नकद फसलें
  3. रोपण फसलें
  4. बागवानी फसलें।

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प्रश्न 25.
जीविका कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर-
इस कृषि प्रणाली द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन से अधिक से अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सके। इसे निर्वाहक कृषि भी कहते हैं। स्थानान्तरी कृषि, स्थानबद्ध कृषि तथा गहन कृषि, जीविका कहलाती हैं। इस कृषि द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग को पूरा किया जाता है।

प्रश्न 26.
किसी देश की आर्थिकता को कुछ क्षेत्रों में क्यों विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
किसी देश की आर्थिकता को अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है, क्योंकि किसी क्षेत्र के कार्य में व्यस्त जनसंख्या का अनुपात ही उस देश की आर्थिक क्रिया के लिए उस क्षेत्र का महत्त्व तय करती है। इस तरह वर्गीकरण यह भी निश्चित करता है कि क्रियाओं का प्राकृतिक साधनों के साथ क्या और कितना सम्बन्ध है, क्योंकि मौलिक आर्थिक क्रियाओं का सम्बन्ध सीधे तौर पर धरती पर मिलते कच्चे साधनों के उपयोग से होता है। जो कृषि और खनिजों के रूप में मिलते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल क्या है ? इसका क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भूगोल पृथ्वी को मनुष्य का निवास स्थान मान कर अध्ययन करता है और इसका वर्णन करता है। भूगोल किसी क्षेत्र में मनुष्य, पर्यावरण और मानवीय क्रिया का अध्ययन करता है। आर्थिक भूगोल, मानवीय भूगोल की ही एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। आर्थिक भूगोल का विस्तृत अर्थ समझने के लिए इसकी शाखाओं का अध्ययन बहुत आवश्यक है।
आर्थिक भूगोल का हमारे देश भारत जोकि विकासशील देश के लिए बहुत महत्त्व रखता है, क्योंकि इसके अध्ययन द्वारा देश का विकास करने के ढंग-तरीकों का अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 2.
किसी देश की आर्थिकता को कौन से मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है ? अध्ययन करो।
उत्तर-
किसी देश की आर्थिकता को मुख्य रूप में पाँच क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है जैसे कि—

  1. प्राकृतिक साधनों पर आधारित क्षेत्र-जो सीधे रूप में कृषि और प्राकृतिक साधनों पर आधारित हैं।
  2. सहायक क्षेत्र या दूसरे स्तर के क्षेत्र-इस क्षेत्र में कच्चे माल को इस्तेमाल करके काम में आने वाली चीजें बनाई जाती हैं। इसमें निर्माण उद्योग और नवीन उद्योग की तकनीकों को शामिल किया जाता है।
  3. टरशरी क्षेत्र या तीसरे स्तर के क्षेत्र-आर्थिकता का यह स्तर उद्योग के साथ सम्बन्धित है जैसे कि परिवहन, व्यापार, संचार साधन, यातायात का विभाजन, मंडी इत्यादि।
  4. चतुर्धातुक क्षेत्र या चौथे स्तर के क्षेत्र-इस क्षेत्र की क्रिया बौद्धिक विकास की क्रिया होती है, जैसे कि तकनीक और खोज कार्य इत्यादि।
  5. पांचवें स्तर के क्षेत्र-इसमें सर्वोत्तम और नीतिगत फैसले लेने वाली क्रिया को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 3.
काहवे के इतिहास पर नोट लिखो।
या
काहवे के पेशे को बाबा बूदन पहाड़ क्यों कहते हैं ?
उत्तर-
काहवे के उत्पादन की मुख्य रूप में शुरुआत 1600 ई० में शुरू हुई। इसका इतिहास यह है कि एक सूफी फकीर बाबा बूदन ने यमन के मोचा शहर से मक्का तक की एक यात्रा शुरू की। तब मोचा शहर में काहवा की फलियों से बनाये काहवे को पिया और काहवा पीने के बाद उसकी सारी थकान दूर हो गई और उसने अपने आपको तरो ताज़ा महसूस किया। उसने काहवा का बीज वहाँ से लाकर कर्नाटक के स्थान चिकमंगलूर शहर में बीज दिया और आज इस पेशे को इस कारण बाबा बूदन पहाड़ भी कहते हैं।

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प्रश्न 4.
जीविका कृषि की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
जीविका कृषि की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं—

  1. खेत छोटे आकार के होते हैं।
  2. साधारण यन्त्र प्रयोग करके मानव श्रम पर अधिक जोर दिया जाता है।
  3. खेतों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने तथा मिट्टी का उपजाऊपन कायम रखने के लिए हर प्रकार की खाद, रासायनिक उर्वरक का प्रयोग किया जाता है।
  4. भूमि का पूरा उपयोग करने के लिए साल में दो-तीन या चार-चार फसलें भी प्राप्त की जाती हैं। शुष्क ऋतु में अन्य खाद्य फसलों की भी कृषि की जाती है।
  5. भूमि के चप्पे-चप्पे पर कृषि की जाती है। पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत बनाए जाते हैं। अधिकतर कार्य मानव श्रम द्वारा किए जाते हैं। 6. चरागाहों के लिए भूमि प्राप्त न होने के कारण पशु पालन कम होता है।

प्रश्न 5.
उद्यान कृषि (Horticulture) की मुख्य किस्मों पर नोट लिखो।
उत्तर-
उद्यान कृषि की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं—

  1. बाज़ार के लिए सब्जी कृषि-बड़े-बड़े नगरों की सीमाओं पर सब्जियों की कृषि की जाती है। प्रत्येक मौसम के अनुसार ताजा सब्जियां बाज़ार में भेजी जाती हैं। भारत में मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता तथा श्रीनगर सब्जियों की कृषि के लिए प्रसिद्ध हैं।
  2. ट्रक कृषि-नगरों से दूर, अनुकूल जलवायु तथा मिट्टी के कारण कई प्रदेश में सब्जियों या फलों की कृषि की जाती है। इन फलों तथा सब्जियों का ऊँचा मूल्य प्राप्त करने के लिए नगरीय बाजारों में भेज दिया जाता है। इन वस्तुओं को प्रतिदिन नगरीय बाजारों में लाने के लिए ट्रकों का प्रयोग किया जाता है।
  3. पुष्प कृषि-इस कृषि द्वारा विकसित प्रदेशों में फूलों की माँग को पूरा किया जाता है।
  4. फल उद्यान-उपयुक्त जलवायु के कारण कई क्षेत्रों में विशेष प्रकार के फलों की कृषि की जाती है।

प्रश्न 6.
संसार में कृषि के बदलते स्वरूप पर नोट लिखो।
उत्तर-
जनसंख्या की वृद्धि के कारण और कृषि में नये बीजों के कारण तथा कृषि के मशीनीकरण के कारण कृषि का स्वरूप बड़ी तेजी से बदल रहा है। अब कृषि को करने का ढंग पिछले तरीकों से बिल्कुल अलग है। अब कृषि में अच्छे बीजों और कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है। किसानों के लिए कृषि अब एक प्रभावशाली पेशा बनता जा रहा है। कृषि का उत्पादन दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। भारत के कुल घरेलू उत्पादन में कृषि का हिस्सा 17% है और चीन का 10 प्रतिशत, जब कि संयुक्त राज्य अमेरिका का सिर्फ 1.5 प्रतिशत है। उष्ण खंडी घाट के मैदानों में दालें और अनाज की कृषि की जाती है और डेल्टाई क्षेत्रों में चावल की, शीतोउष्ण घास के मैदानों में अनाज के साथ फल, सब्ज़ियाँ और दूध का उत्पादन किया जाता है। इस तरह कृषि का स्वरूप बदलता जा रहा है। पहले लोग फसली चक्र से अनजान थे, पर अब अलग-अलग प्रकार की फसलें उगाई जा रही हैं।

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प्रश्न 7.
पशु-पालन से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
प्रारम्भिक मनुष्य जंगलों में रहता था, जानवरों का शिकार करता था और कच्चा मांस खाता था। धीरे-धीरे उसने माँस पका के खाना शुरू कर दिया और फिर मांस पकाने और शिकार करने के अतिरिक्त जानवरों को पालना भी शुरू कर दिया। विश्व में धरातल के साथ-साथ जलवायु में भी काफी भिन्नता मिलती है। जिसके कारण देश की अलग अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के जानवर पाले जाते हैं। यह पशु-पालन परंपरागत तौर पर घास के मैदानों या चरागाहों में किया जाता है। इसलिए इसको Pastoralism भी कहते हैं। मौजूदा समय में तकनीकी विकास के कारण पशुपालन का पेशा और भी अधिक विकसित हो गया है और व्यापारिक स्तर पर भी इस पेशे को अपना लिया गया है।

प्रश्न 8.
भूमि के उपयोग के सारे पक्षों को विस्तृत रूप में लिखो।
उत्तर-
भूमि के सही उपयोग के लिए इसके सभी पक्षों की जानकारी अति आवश्यक है। इसके पक्षों की जानकारी इस प्रकार है—

  1. जंगल अतिरिक्त क्षेत्र-वह क्षेत्र जो जंगल के अधीन आता है। जंगलों अतिरिक्त क्षेत्र कहलाता है। जंगल अधीन बड़े क्षेत्र का अर्थ यह नहीं कि जंगल वहाँ पहले ही हों, बल्कि यह भी हो सकता है जंगल लगाने के लिए जगह भी वहाँ खाली करवाई जाए।
  2. बंजर और कृषि योग्य भूमि-इस भूमि के अधीन वह भूमि आती है जिसमें सड़कें, रेलगाड़ी और ट्रक या बंजर ज़मीन आती है।
  3. परती भूमि-यह कृषि योग्य भूमि, जो किसान द्वारा एक साल या उससे कम समय के लिए खाली छोड़ दी जाए, जिससे उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ जाए। परती भूमि कहलाती है।
  4. कल बिजाई अधीन क्षेत्र-वह भूमि जिस पर फसलें बीजी गई हों।
  5. कृषि अधीन कुल क्षेत्र-वह भूमि जिसमें फसलें बीजी गई हों।

प्रश्न 9.
जीविका कृषि पर नोट लिखो।
उत्तर-
इस कृषि द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन से अधिक से अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सके। इसे निर्वाहक कृषि भी कहते हैं। इसको दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है—

1. इत्यादिकालीन या पुरानी निर्वाहक कृषि-इस तरह की कृषि किसान सिर्फ अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए करता है। इस कृषि में कोई मशीन या रासायनिक पदार्थ नहीं प्रयोग किया जाता है। अधिकतर कृषि स्थानान्तरी कृषि होती है। जिस कारण भूमि पहले से ही उपजाऊ होती है।

2. घनी निर्वाह कृषि-घनी निर्वाह कृषि को आगे दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक जगह पर चावल अधिक उगाये जाते हैं उसे घनी चावल प्रधान निर्वाह कृषि कहते हैं। एक स्थान पर चावलों की जगह और फसलों की बिजाई की जाती है तो उसे चावल रहित निर्वाह कृषि कहते हैं।

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प्रश्न 10.
कृषि के मौसमों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत की कृषि को मुख्य रूप में चार मौसमों में विभाजित किया जाता है—

  1. खरीफ-ये फसलें मई से अक्तूबर तक की अवधि की होती हैं। इस मौसम की मुख्य फसलें हैं-ज्वार, बाजरा, चावल, मक्की, कपास, मूंगफली, पटसन इत्यादि।
  2. जैद खरीफ-इसकी समय अवधि अगस्त से जनवरी तक की है। इसकी मुख्य फसलें-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास, तेलों के बीज इत्यादि हैं।
  3. रबी-इसकी समय अवधि अक्तूबर से दिसम्बर तक की होती है। इसकी मुख्य फसलें हैं-गेहूँ, छोले, अलसी के बीज, सरसों, मसर और मटर इत्यादि।
  4. जैद रबी-इसका समय फरवरी से मार्च तक का होता है। इस मौसम की मुख्य फसलें है तरबूज, तोरिया, खीरा और सब्जियां इत्यादि।

प्रश्न 11.
गेहूँ की मुख्य किस्में बताओ।
उत्तर-
गेहूँ की किस्में-ऋतु के आधार पर गेहूँ को दो भागों में विभाजित किया गया है—

  1. सर्द ऋतु की गेहूँ-इस तरह गेहूँ गर्म जलवायु वाले प्रदेशों में नवम्बर से दिसम्बर तक के महीने में बीजी जाती हैं और गर्म ऋतु के शुरू में ही काट ली जाती हैं। विश्व में गेहूँ के कुल क्षेत्रफल 67% भाग में सर्द ऋतु के गेहूँ की फसल बोई जाती है।
  2. बसंत ऋतु का गेहूँ-बहुत ठंडे क्षेत्रों में बर्फ पिघल जाने के बाद बसंत ऋतु में इस तरह की फसल बोई जाती है।

प्रश्न 12.
चावल की मुख्य किस्में और बिजाई की पद्धतियों के बारे में बताओ।
उत्तर-
चावल की मुख्य रूप में दो किस्में होती हैं—

  1. पहाड़ी चावल-इन चावलों की पर्वतीय ढलानों सीढ़ीदार खेत बना के बिजाई की जाती हैं।
  2. ‘मैदानी चावल-इस किस्म में चावल की नदी घाटियों या डेल्टा में समतल धरती पर बिजाई की जाती है।

चावल बीजने की पद्धतियाँ-चावल बीजने में अधिक प्रसिद्ध तीन तरीके मिलते है।

  1. छटा दे के
  2. पनीरी लगा कर
  3. खोद कर।

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प्रश्न 13.
काहवा की कृषि के मुख्य क्षेत्र कौन से हैं ? काहवा की मुख्य किस्में बताओ।
उत्तर-
काहवा भी चाय की तरह एक पेय पदार्थ है। इसको बागाती कृषि कहते हैं। यह काहवा पेड़ों के फलों के बीजों का चूर्ण होता है। इसमें कैफ़ीन नामक पदार्थ होता है, जिसके कारण काहवा नशा देता है। काहवा का अधिक प्रयोग U.S.A. में होता, जबकि चाय का अधिक प्रयोग पश्चिमी यूरोप में होता है। इसका जन्म स्थान अफ्रीका के इथोपिया देश के कैफ़ा प्रदेश से माना जाता है।
काहवा की मुख्य किस्में—

  1. अरेबिका
  2. रोबस्टा
  3. लाईबेरिका।

प्रश्न 14.
कपास की विभिन्न किस्मों का वर्णन करें।
उत्तर-
रेशे की लम्बाई के अनुसार कपास को मुख्य रूप से तीन किस्मों में विभाजित किया जाता है—
1. लम्बे रेशे वाली कपास-इस प्रकार की कपास का रेशा 24 से 27 मिलीमीटर तक होता है और देखने में इस तरह की कपास काफी चमकदार होती है। भारत में इस किस्म की कपास कुल कपास के उत्पादन में 50% योगदान डालती है।

2. मध्य रेशे वाली कपास-इस प्रकार की कपास के रेशे की लम्बाई 20 से 24 मिलीमीटर तक की होती है। इसका कुल उत्पादन भारत में 44 प्रतिशत तक होता है।

3. छोटे रेशे वाली कपास-इस प्रकार की कपास का रेशा 20 मिलीमीटर तक लम्बाई वाला होता है। इस प्रकार के रेशे वाली कपास घटिया किस्म की कपास मानी जाती है।

प्रश्न 15.
पटसन की फसल को सुनहरी फसल क्यों कहते हैं ? पटसन की कृषि के लिए ज़रूरी हालातों पर नोट लिखें।
उत्तर-
पटसन एक सुनहरी और चमकदार प्राकृतिक रेशेदार फसल है; जिस कारण इसको सुनहरी रेशे वाली फसल कहते हैं। यह कपास के बाद मुख्य रेशेदार फसल है। पटसन से मुख्य रूप में कृषि के उत्पादन को संभालने के लिए बोरी, रस्सियां, टाट, कपड़े इत्यादि तैयार किये जाते हैं। इसकी माँग दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।

पटसन की कृषि की मुख्य हालात-पटसन की कृषि के लिए गर्म और नमी वाला मौसम चाहिए। इसको 24 सैंटीग्रेड से 35 सैंटीग्रेड तापमान की ज़रूरत होती है। इसकी कृषि के लिए 80 से 90 प्रतिशत तक की नमी की ज़रूरत होती हैं। इसके लिए 120 से 150 सैंटीमीटर वर्षा की ज़रूरत होती है। पटसन की फसल काटने के बाद भी इसको रेशे बनाने की क्रिया के लिए काफी अधिक पानी चाहिए।

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प्रश्न 16.
पंजाब की कृषि के लिए मुख्य ताकतें क्या हैं ?
उत्तर-
पंजाब की कृषि की मुख्य विशेषताएं और ताकतें निम्नलिखित अनुसार हैं—

  1. अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण-प्रकृति ने पंजाब को उपजाऊ मिट्टी, धरातल और शुद्ध पानी के साथ नवाजा है, जिस कारण अधिकतर लोग पंजाब में कृषि के पेशे से जुड़े हुए हैं।
  2. तकनीक का विकास-तकनीक के विकास के कारण नई-नई मशीनों का जन्म हुआ जिसके साथ कृषि का उत्पादन बढ़ गया है।
  3. हरित क्रान्ति का प्रभाव-1960 में हरित क्रान्ति के बाद अच्छे बीज और रासायनिक पदार्थों के प्रयोग के कारण उत्पादन में काफी वृद्धि हुई।

प्रश्न 17.
पंजाब की कृषि की कमजोरियों पर नोट लिखो।
उत्तर-
पंजाब की कृषि में विशेषताओं के साथ-साथ कुछ कमजोरियाँ भी हैं—
1. उत्पादन में कमी-1960 की हरित क्रान्ति के बाद किसानों ने अधिक-से-अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक पदार्थों का उपयोग करना शुरू किया, जिसके साथ भूमि का उपजाऊपन कम हो गया और 1970 के बाद उत्पादन में भारी गिरावट आने लगी।

2. मूल स्रोतों की बर्बादी-कृषि में अधिकतर उत्पादन के कारण प्राकृतिक स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। कृषि के अधिक विकास के कारण पानी भी अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाता है, जिसके कारण पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है।

3. कटी फसल का नुकसान-फसल को काटने की परम्परा के अनुसार, काटने के बाद बहुत सारी फसल का नुकसान हो जाता है।

4. आधुनिक तकनीक तक कम पहुँच-पंजाब के बहुत सारे किसानों के पास अभी भी आधुनिक तकनीकों की कमी है क्योंकि गरीबी के कारण बहुत सारे किसान मूल्यवान मशीनें और रासायनिक पदार्थों को हासिल नहीं कर सकते।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक भूगोल क्या है ? आर्थिक भूगोल में आर्थिकता को कौन-से मुख्य क्षेत्रों में विभाजित किया गया है और आर्थिक भूगोल का महत्त्व भी बताओ।
उत्तर-
आर्थिक भूगोल भी मानव भूगोल की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। इसमें मनुष्य और पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। इसका उद्देश्य मनुष्य की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए गए उत्पादन प्रयत्नों का अध्ययन करना है। प्रत्येक क्षेत्र के पर्यावरण के अनुसार आर्थिक व्यवसायों का विकास होता है। जैसे घास के मैदानों में पशु-पालन, शीतोष्ण कटिबन्ध में लकड़ी काटना तथा मानसून खण्ड में कृषि मुख्य धन्धे हैं। इन धंधों के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र का विस्तार स्तर विभिन्न है। इस प्रकार हम ज्ञात कर सकते हैं कि पृथ्वी पर प्राकृतिक साधनों का कहां, क्यों, कैसे और कब उपयोग किया जाता है। इस प्रकार आर्थिक भूगोल मानवीय क्रियाओं पर पर्यावरण के प्रभाव का विश्लेषण करता है। आर्थिक क्रियाओं के आर्थिक सम्बन्धों से आर्थिक भू-दृश्य का जन्म होता है जिसकी व्याख्या की जाती है। इस प्रकार आर्थिक भूगोल पृथ्वी पर मानव की आर्थिक क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नताओं, स्थानीय वितरण, स्थिति तथा उनके सम्बन्धों व प्रतिरूपों का अध्ययन है।

मेकफरलेन के अनुसार, “आर्थिक भूगोल उन भौगोलिक दशाओं का वर्णन है जो वस्तुओं के उत्पादन, परिवहन तथा व्यापार पर प्रभाव डालती हैं।”
किसी भी देश की आर्थिकता को आगे कई क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है, क्योंकि हर एक क्षेत्र में लगी जनसंख्या देश की आर्थिक क्रिया पर अलग असर डालती है। आर्थिक भूगोल में आर्थिकता को मुख्य रूप में अग्रलिखित क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है—

1. प्रारम्भिक क्षेत्र या पहले स्तर का क्षेत्र (Primary Sector)—प्रारम्भिक क्षेत्र में आमतौर पर कृषि या प्रारम्भिक क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इसमें हर प्रकार की मानवीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कच्चे माल का उत्पादन किया जाता है। इस क्षेत्र में स्रोत कच्चे माल और खनिज पदार्थों के रूप में मिलते हैं।
Primary Level. Resources needed to make a pencitwood, Graphite (lead), Rubber, Metal comes from Primary sector.
PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) 3

2. सहायक क्षेत्र या दूसरे स्तर का क्षेत्र (Secondary Sector)-इस क्षेत्र के बीच औद्योगिक विकास शामिल है। इस क्षेत्र में कच्चे माल से कोई प्रयोग योग्य सामान तैयार किया जाता है। इस क्षेत्र की मुख्य क्रियाएं हैं जैसे कि स्वचालित कार, कृषि के पदार्थ जैसे कि कपास से कपड़ा बनाना इत्यादि।

3. टरशरी क्षेत्र (Tertiary Sector)-इस क्षेत्र में उद्योग और क्षेत्रीय सेवाएं शामिल होती हैं। इस क्षेत्र में मुख्य रूप में सेवाएँ आती हैं। प्रारम्भिक क्षेत्र और सहायक क्षेत्र में पैदा किए और बनाए सामान को बाजारों में और इस क्षेत्र में बेचा जाता है।

4. चतुर्धातुक क्षेत्र (Quaternary Sector)-इस क्षेत्र में मुख्य रूप में क्रियाओं को शामिल किया जाता है। कई जटिल स्रोतों के संसाधन के लिए यहाँ ज्ञान इत्यादि का उपयोग किया जाता है।

5. पाँच का क्षेत्र (Quinary Sector)—इस क्षेत्र में आर्थिक विकास का स्तर अधिक होता है और लोगों के सामाजिक फैसले योग्य संस्थानों द्वारा लिए जाते हैं।

आर्थिक भूगोल का महत्त्व (Importance of Economic Geography)-आज के समय में आर्थिक भूगोल का अध्ययन बहुत उपयोगी है। पिछले कुछ सालों से भूगोल की इस शाखा का बहुत विकास हुआ है। आर्थिक भूगोल एक प्रगतिशील ज्ञान है। इसका अध्ययन क्षेत्र बहुत वृद्धि आई है। इसके अध्ययन के साथ यह आसानी से पता लगता है कि देश के किसी क्षेत्र में विकास की संभावना है और क्यों ? सफल कृषि, उद्योग और व्यापार आर्थिक भूगोल के ज्ञान पर निर्भर हैं। इसका अध्ययन किसानों के लिए, उद्योगपतियों के लिए, व्यापारियों के लिए, योजनाकारों के लिए, राजनीतिवानों के लिए और साधारण व्यक्तियों के लिए बहुत उपयोगी है।

प्रश्न 2.
कृषि की किस्मों पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
कृषि को अलग-अलग किस्मों में विभाजित किया जाता है, जो कि निम्नलिखितानुसार हैं.
1. स्थानान्तरी कृषि (Shifting Cultivation)—यह कृषि का बहुत प्राचीन ढंग है जो अफ्रीका तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के उष्ण आर्द्र वन प्रदेशों में रहने वाले इत्यादिवासियों का मुख्य धन्धा है। वनों को काट कर तथा झाड़ियों को जला कर भूमि को साफ कर लिया जाता है। वर्षा काल के पश्चात् उसमें फसलें बोई जाती हैं। जब दो-तीन फसलों के पश्चात् उस भूमि का उपजाऊपन नष्ट हो जाता है, तो उस क्षेत्र को छोड़ कर नए स्थान पर वनों को साफ करके नए खेत बनाए जाते हैं। इसे स्थानान्तरी कृषि कहते हैं। यह कृषि वन प्रदेशों के पर्यावरण की दशाओं के अनुकूल होती है। इसमें खेत बिखरे-बिखरे मिलते हैं। इस कृषि में फसलों के हेर-फेर के स्थान पर खेतों का हेर-फेर होता है। खेतों का आकार छोटा होता है। यह , आकार 0.5 से 0.7 हैक्टेयर तक होता है। इस कृषि में मोटे अनाज चावल, मक्की, शकरकन्द, कसावा इत्यादि कई फसलें एक साथ बोई जाती हैं।

2. स्थानबद्ध कृषि (Sedentary Agriculture)-यह कृषि स्थानान्तरी कृषि से कुछ अधिक उन्नत प्रकार की होती है। इसमें किसान स्थायी रूप से एक ही प्रदेश में कृषि करते हैं। जिन प्रदेशों में कृषि योग्य भूमि की कमी होती है, नई-नई कृषि भूमियां उपलब्ध नहीं होती, वहां लोग एक ही स्थान पर बस जाते हैं तथा स्थानबद्ध कृषि अपनाई जाती है। आजकल संसार में अधिकतर कृषि स्थानबद्ध कृषि के रूप में अपनाई जाती है। इस कृषि ने ही मानव को स्थायी जीवन प्रदान किया है। इस कृषि में अनुकूल भौतिक दशाओं के कारण आवश्यकताओं से कुछ अधिक उत्पादन हो जाता है। इसमें कृषि के उत्तम ढंग प्रयोग किए जाते हैं। इसमें फसलों का हेर-फेर किया जाता है। भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद का भी प्रयोग होता है। मुख्य रूप से अनाजों की कृषि की जाती है।

3. जीविका कृषि (Subsistance Agriculture)—इस कृषि प्रणाली द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होता है। इस कृषि का मुख्य उद्देश्य भूमि के उत्पादन से अधिक से अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सके। इसे निर्वाहक कृषि भी कहते हैं। इस द्वारा बढ़ती हुई जनसंख्या की मांग को पूरा किया जाता है। खेत छोटे आकार के होते हैं। साधारण यन्त्र प्रयोग करके मानव श्रम पर अधिक जोर दिया जाता है। खेतों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने तथा मिट्टी का उपजाऊपन कायम रखने के लिए हर प्रकार की खाद, रासायनिक उर्वरक का प्रयोग किया जाता है। भूमि का पूरा उपयोग करने के लिए साल में दो, तीन या चार फसलें भी प्राप्त की जाती हैं। शुष्क ऋतु में अन्य खाद्य फसलों की भी कृषि की जाती है।

4. व्यापारिक कृषि (Commercial Agriculture)-इस कृषि में व्यापार के उद्देश्य से फसलों की कृषि की जाती है। यह जीविका कृषि से इस प्रकार भिन्न है कि इस कृषि द्वारा संसार के दूसरे देशों को कृषि पदार्थ निर्यात किए जाते हैं। अनुकूल भौगोलिक दशाओं में एक ही मुख्य फ़सल के उत्पादन पर जोर दिया जाता है ताकि व्यापार के लिए अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त हो सके। यह आधुनिक कृषि का एक प्रकार है। इसमें उत्पादन मुख्यतः बिक्री के लिए किया जाता है। यह कृषि केवल उन्नत देशों में ही होती है। यह बड़े पैमाने पर की जाती है। इसमें रासायनिक खाद, उत्तम बीज, मशीनों तथा जल-सिंचाई साधनों का प्रयोग किया जाता है।

5. गहन कृषि (Intensive Agriculture)-थोड़ी भूमि से अधिक उपज प्राप्त करने के ढंग को गहन कृषि कहते हैं। इस उद्देश्य के लिए प्रति इकाई भूमि पर अधिक मात्रा में श्रम और पूंजी लगाई जाती है। अधिक जनसंख्या के कारण प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि कम होती है। इस सीमित भूमि से अधिक से अधिक उपज प्राप्त करके स्थानीय खपत की पूर्ति की जाती है। यह प्राचीन देशों की कृषि प्रणाली है। खेतों का आकार बहुत छोटा होता है। खाद, उत्तम बीज, कीटनाशक दवाइयां, सिंचाई के साधन तथा फसलों का हेर-फेर का प्रयोग किया जाता है।

6. विस्तृत कृषि (Extensive Agriculture)-कम जनसंख्या वाले प्रदेशों में कृषि योग्य भूमि अधिक होने के कारण बड़े-बड़े फार्मों पर होने वाली कृषि को विस्तृत कृषि कहते हैं। कृषि यन्त्रों के अधिक प्रयोग के कारण इसे यान्त्रिक कृषि भी कहते हैं। इस कृषि में एक ही फ़सल के उत्पादन पर जोर दिया जाता है ताकि उपज को निर्यात किया जा सके। इसलिए इसका दूसरा नाम व्यापारिक कृषि भी है। यह कृषि मुख्यतः नए देशों में की जाती है। इसमें अधिक से अधिक क्षेत्र में कृषि करके अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। यह एक आधुनिक कृषि प्रणाली है जिसका विकास औद्योगिक क्षेत्रों में खाद्यान्नों की मांग बढ़ने के कारण हुआ है। यह कृषि समतल भूमि वाले क्षेत्रों पर की जाती है जहाँ कृषि का आकार बहुत बड़ा होता है। कृषि यन्त्रों का अधिक प्रयोग किया जाता है। जैसे ट्रैक्टर, हारवैस्टर, कम्बाइन, थ्रेशर इत्यादि।

7. मिश्रित कृषि (Mixed Agriculture)-जब फ़सलों की कृषि के साथ-साथ पशु पालन इत्यादि सहायक धन्धे भी अपनाए जाते हैं तो उसे मिश्रित कृषि कहते हैं। इस कृषि में फसलों तथा पशुओं से प्राप्त पदार्थों में एक पूर्ण समन्वय स्थापित किया जाता है। इस कृषि में दो प्रकार की फसलें उत्पादित की जाती हैं-खाद्यान्न ‘ तथा चारे की फ़सलें। पशुओं को शीत ऋतु में चारे की फ़सलें खिलाई जाती हैं। ग्रीष्म ऋतु में चरागाहों पर चराया जाता है तथा खाद्यान्नों का एक भाग जानवरों को खिलाया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में मक्का पट्टी में मांस प्राप्त करने के लिए पशुओं को मक्का खिलाया जाता है। इसके साथ एक ही खेत पर एक साथ कई फसलों की कृषि की जाती है। इस प्रकार मुद्रा-फसलों की कृषि भी की जाती है। इस प्रकार की कृषि के लिए वैज्ञानिक ढंग प्रयोग किए जाते हैं। यह कृषि का एक अंग है।

8. उद्यान कृषि (Horticulture)-उद्यान कृषि व्यापारिक कृषि का एक सघन रूप है। इसमें मुख्यतः सब्जियों, फल और फूलों का उत्पादन होता है। इस कृषि का विकास संसार के औद्योगिक तथा नगरीय क्षेत्रों के पास होता है। यह कृषि छोटे पैमाने पर की जाती है परन्तु इसमें उच्च स्तर का विशेषीकरण होता है। भूमि पर सघन कृषि होती है। सिंचाई तथा खाद का प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक ढंग, उत्तम बीज तथा कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग किया जाता है। उत्पादों को बाज़ार में तुरन्त बिक्री करने के लिए यातायात की अच्छी सुविधाएं होती हैं। इस प्रकार प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक होती है।

9. रोपण कृषि (Plantation Agriculture)-यह एक विशेष प्रकार की व्यापारिक कृषि है। इसमें किसी एक नकदी की फसल की बड़े पैमाने पर कृषि की जाती है। यह कृषि बड़े-बड़े आकार के खेतों या बागान पर की जाती है इसलिए इसे बागानी कृषि भी कहते हैं। रोपण कृषि की मुख्य फसलें रबड़, चाय, काहवा, कोको, गन्ना, नारियल, केला इत्यादि हैं। इसमें केवल एक फसल की बिक्री के लिए कृषि पर जोर दिया जाता है। इसका अधिकतर भाग निर्यात कर दिया जाता है। इस कृषि में वैज्ञानिक विधियों, मशीनों, उर्वरक, अधिक पूंजी का प्रयोग होता है ताकि प्रति हैक्टेयर उपज को बढ़ाया जा सके, उत्तम कोटि का अधिक मात्रा में उत्पादन हो।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

प्रश्न 3.
कृषि से आपका क्या अर्थ है ? कृषि के वर्गीकरण और कृषिबाड़ी के मौसमों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भूमि से उपज प्राप्त करने की कला को कृषि (कृषि) कहते हैं। यह मनुष्य की प्राथमिक आर्थिक क्रिया है। कृषि का विकास धरातल, मिट्टी, जलवायु, सिंचाई, खाद और यंत्रों के प्रयोग पर निर्भर करता है। अब कृषि सिर्फ प्रकृति पर निर्भर नहीं है। कृषि का विकास तकनीकी ज्ञान और सामाजिक पर्यावरण की देन है।
संसार में कृषि का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। कृषि हमारे देश के लोगों की आर्थिकता का मुख्य साधन है। डॉ० एम०एस० रंधावा (1959) ने कृषि का वर्गीकरण किया। डॉ० महेन्द्र सिंह रंधावा का जन्म जीरा (फिरोजपुर) में हुआ। वह एक जीव विज्ञानी थे और इसके अतिरिक्त वह एक प्रशासनिक अधिकारी थे। उन्होंने भारतीय कृषि को अलगअलग क्षेत्रों में विभाजित किया है। जिसका ज्ञान हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह क्षेत्र इस प्रकार हैं—

1. शीत उष्ण हिमालय क्षेत्र (The Temperate Himalayan Region)—इन क्षेत्रों के अधीन मुख्य रूप में हिमालय के पास वाले पश्चिम में जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्व में अरुणाचल प्रदेश और असम के राज्य शामिल हैं। इसको आगे दो मंडलों में विभाजित किया जाता है।

  • पहले उपमंडल में वे राज्य शामिल हैं यहां वर्षा अधिक होती है जैसे कि पूर्व भाग में सिक्किम, नागालैंड, त्रिपुरा असम इत्यादि। इन राज्यों में घने जंगल मिलते हैं। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप में चावल और चाय की कृषि की जाती है।
  • दूसरे उपमंडल में वे राज्य शामिल हैं यहाँ मुख्य रूप में उद्यान इत्यादि की फसलें उगाई जाती हैं। इसमें पश्चिमी क्षेत्र जैसे कि जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांखड इत्यादि शामिल हैं। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से फल और सब्जियों इत्यादि की कृषि की जाती है पर मक्की, चावल, गेहूं और आलू की कृषि भी इन क्षेत्रों में प्रचलित है।

2. उत्तरी खुश्क क्षेत्र [The Northan Dry (Wheat) Region] —इन क्षेत्रों के अधीन पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरी पश्चिमी मध्य प्रदेश इत्यादि आते हैं, क्योंकि अब सिंचाई की सुविधा की काफी उपलब्ध है इसलिए राजस्थान को इस क्षेत्र में शामिल कर लिया गया है। पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों में ट्यूबवैल इत्यादि की मदद से कृषि की सिंचाई सुविधा दी जाती है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसलें हैं-गेहूं, मक्की, कपास, सरसों, चने, चावल, गन्ना और मोटे अनाज।

3. पूर्वी नमी वाले क्षेत्र (The Eastern wet Region)-इन क्षेत्रों में भारत के पूर्वी भाग असम, मेघालय, मिजोरम, पश्चिमी बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश इत्यादि शामिल हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा 150 सैंटीमीटर तक हो जाती है जो कि चावलों की कृषि के लिए लाभदायक सिद्ध होती है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसलें हैं चावल, पटसन, दालें, तिलहन, चाय और गन्ना इत्यादि।

4. पश्चिमी नमी वाले क्षेत्र (The Western wet Region)-इन क्षेत्रों के अधीन महाराष्ट्र और केरल तक का तटीय क्षेत्र शामिल होता है। यहाँ वर्षा 200 सैंटीमीटर होती है और कई बार 200 सैंटीमीटर से भी अधिक हो जाती है। इन क्षेत्रों की मुख्य फसलें नारियल, रबड़, काहवा, काजू और मसाले इत्यादि।

5. दक्षिणी क्षेत्र (South Region)-इस क्षेत्र के अधीन गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक इत्यादि क्षेत्र आते हैं। जहाँ वर्षा 50 से 100 सैंटीमीटर तक होती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें हैं-कपास, बाजरा, मूंगफली, तिलहन और दालें इत्यादि।

कृषि के मौसम (Agricultural Season)—भारत में कृषि को मुख्य रूप में चार मौसमों में विभाजित किया जाता हैं, जो हैं—

  1. खरीफ-इसकी बिजाई मई में होती है और कटाई अक्तूबर में की जाती है। इस कृषि अधीन आती मुख्य फसलें हैं-बाजरा, चावल, मक्की, कपास, मूंगफली, पटसन, तम्बाकू इत्यादि।
  2. जैद खरीफ-इस मौसम में बिजाई का समय अगस्त महीने में है और कटाई जनवरी में की जाती है। इस मौसम की फसलें हैं-चावल, ज्वार, सफेद सरसों, कपास, तेलों के बीज इत्यादि।
  3. रबी-इन फसलों की बिजाई अक्तूबर और कटाई अप्रैल के मध्य में शुरू हो जाती है। इसके अधीन आती फसलें हैं-गेहूं, जौ, अलसी के बीज, सरसों, मसूर और मटर इत्यादि।
  4. जैद रबी-इस मौसम में बिजाई का काम फरवरी में होता है और कटाई अप्रैल के मध्य तक होती है। इस मौसम की मुख्य फसलें हैं-तरबूज, तोरी, खीरा इत्यादि सब्जियां।।

प्रश्न 4.
गेहूं की कृषि के लिए अनुकूल भौतिक दशाओं की व्याख्या करो तथा भारत के प्रमुख गेहूं उत्पादन क्षेत्रों का वर्णन करो।
उत्तर-
गेहूं संसार का सबसे प्रमुख अनाज है। इसमें पौष्टिक तत्वों की काफी मात्रा शामिल होती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चलता है कि सिंधु घाटी में गेहूं की कृषि आज से लगभग पांच हजार साल पहले से की जा रही है-रूम सागरी प्रदेशों को गेहूं का जन्म स्थान माना जाता है। गेहूं शब्द उर्दू भाषा के शब्द गंधुम से बना है जिसका हिंदी भाषा में अर्थ है गेहूं। यह एक मौसम की फसल है।
गेहूं की किस्में (Types of Wheat)-ऋतु के आधार पर गेहूं दो तरह की होती है—

  1. सर्द ऋतु की गेहूं (Winter Wheat)—इस तरह की गेहूं गर्म जलवायु के प्रदेशों में नवंबर-दिसंबर के महीने में बीजी जाती है और गर्म ऋतु के शुरू में ही काट ली जाती है। संसार में गेहूं कुल क्षेत्रफल के 67% भाग में सर्द ऋतु की गेहूं की बिजाई की जाती है।
  2. बसंत ऋतु की गेहूं (Spring Wheat)-बहुत ठंडे प्रदेशों में बर्फ पिघल जाने के तुरन्त बाद बसंत ऋतु में इस तरह की गेहूं की कृषि की जाती है। संसार में कुल गेहूं उगाने वाले क्षेत्रफल का 33% हिस्सा बसंत ऋतु की गेहूं अधीन आता है। जैसे-कैनेडा, चीन और रूस के उत्तरी भाग में।

उपज और भौगोलिक स्थिति (Geographical Conditions of Growth) गेहूं शीत-उष्ण कटिबन्ध का पौधा है, परन्तु यह अनेक प्रकार की जलवायु में उत्पन्न होता है। वर्ष में कोई समय ऐसा नहीं जबकि संसार में गेहूं की फसल बोई या काटी न जाए। गेहूं की उपज, क्षेत्रों का विस्तार 22° से 60° उत्तर तथा 20° से 45° दक्षिण अक्षांशों के बीच हैं। संसार में बहुत कम देश हैं जो गेहूं की कृषि नहीं करते। विश्व में अलग-अलग प्रदेशों में व्यापारिक ठंड उद्देश्य के लिए गेहूं की कृषि मध्य विस्तार हैं।

1. तापमान (Temperature) गेहूं की कृषि को बोते समय कम तापमान 10° C से 15° C और पकते समय ऊचे तापमान 20°C से 27° C आवश्यक है। गेहूं की फसल के लिए कम-से-कम 100 दिन पाला रहित मौसम चाहिए। गेहूं अति निम्न तापमान सह नहीं सकता।

2. वर्षा (Rainfall)-गेहूं की कृषि के लिए साधारण वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर तक होनी चाहिए। बोते समय ठंडे मौसम और साधारण वर्षा तथा पकते समय गर्म व खुश्क मौसम ज़रूरी है। इसलिए रूम सागरीय जलवायु गेहूं के लिए आदर्श जलवायु है। इसके अतिरिक्त चीन तुल, मानसून ब्रिटिश तुल और अर्ध मरुस्थल जलवायु के क्षेत्रों में भी गेहूं की कृषि की जाती है।

3. जल सिंचाई (Irrigation)-कम वर्षा वाले क्षेत्रों में गेहूं के लिए जल सिंचाई आवश्यक है जैसे कि सिन्ध …. घाटी और पंजाब के खुश्क भागों में खुश्क कृषि के ढंग अपनाये जाते हैं।

4. मिट्टी (Soil)—गेहूं के लिए दोमट तथा चिकनी मिट्टी उत्तम है। अमेरिका के प्रेयरीज तथा रूस के स्टेप प्रदेश की गहरी काली भूरी मिट्टी सबसे उत्तम है। इसमें वनस्पति के अंश तथा नाइट्रोजन में वृद्धि होती है।

5. धरातल (Topography)-गेहूं के लिए समतल मैदानी भूमि चाहिए ताकि उस पर कृषि यन्त्र और जल सिंचाई का प्रयोग किया जा सके। साधारण, ऊंची-नीची यां लहरदार धरातल और जल निकास का अच्छा विकास होता है।

6. आर्थिक तत्व (Economical Abstract)—गेहूं की फसल कृषि के लिए ट्रैक्टरों, कम्बाइन इत्यादि मशीनों का प्रयोग आवश्यक है। उत्तम बीज व खाद के प्रयोग से प्रति एकड़ उपज में वृद्धि होती है। गेहूं को रखने के लिए गोदामों की सुविधा आवश्यक है। गेहूं की कटाई के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है। गेहूं के लिए रासायनिक खादों की आवश्यकता है। जिस कारण यूरोप के देशों में गेहूं की प्रति हैक्टेयर उपज आज बहुत अधिक है।

भारत के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र-भारत का संसार में गेहूं के उत्पादन में चौथा स्थान है। भारत में गेहूं रबी की फसल हैं। जहां कुल उत्पादन 664 लाख मीट्रिक टन है। देश में हरित क्रान्ति के कारण भारत गेहूं के उत्पादन में आत्म निर्भर हैं। अधिक उपज देने वाली किस्मों का उपयोग करने से उपज में भारी वृद्धि हुई है। भारत में अधिकतर वर्षा वाले क्षेत्र
और मरुस्थलों को छोड़कर उत्तरी भारत के सारे राज्यों में गेहूं की कृषि होती है। भारत के पर्वतीय ठंडे प्रदेशों में बसंत ऋतु की गेहूं की कृषि होती है। हिमाचल प्रदेश में किन्नौर, लाहौर, जम्मू कश्मीर में लद्दाख, सिक्किम और हिमालय के पर्वतीय भागों में इस किस्म के गेहूं की बिजाई की जाती है। गेहूं प्रमुख रूप में उत्तर-पश्चिमी भारत में बीजी जाती है।

1. उत्तर प्रदेश-यह राज्य भारत में सबसे अधिक (200 लाख टन) गेहूं उत्पन्न करता है। इस राज्य में गंगा यमुना, दोआब, तराई प्रदेश, गंगा-घाघरा दोआब प्रमुख क्षेत्र हैं। इस प्रदेश में नहरों द्वारा जल-सिंचाई तथा शीत काल की वर्षा की सुविधा है।

2. पंजाब-यह राज्य 110 लाख टन गेहूं का उत्पादन करता है। इसे भारत का अन्न भण्डार कहते हैं। यहाँ उपजाऊ मिट्टी, शीत काल की वर्षा, जल सिंचाई व खाद की सुविधाएँ प्राप्त हैं। इस राज्य में मालवा का मैदान तथा दोआब प्रमुख क्षेत्र हैं।

3. हरियाणा-हरियाणा में रोहतक से करनाल तक के क्षेत्र में गेहूं की पैदावार की जाती है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में भोपाल जबलपुर क्षेत्र, राजस्थान में गंगानगर क्षेत्र, बिहार में तराई क्षेत्र, में गेहूं की पैदावार होती है। भारत ने साल 1970-71 में 29.23 लाख टन गेहूं की आयात की थी जो कि इन क्षेत्रों के अतिरिक्त भारत और मध्य प्रदेश के भोपाल जबलपुर के क्षेत्र राजस्थान के गंगानगर क्षेत्र और बिहार के तराई क्षेत्र गेहूं के उत्पादन के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। भारत के गेहूं के मुख्य खरीददार देश हैं बंगलादेश, नेपाल, अरब अमीरात, ताईवान और फिलपाइन्ज।
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PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

प्रश्न 5.
चावल की कृषि के लिए भौगोलिक दशाएं, उत्पादन और उत्तर भारत में मुख्य उत्पादक क्षेत्रों का वर्णन करो।
उत्तर-
संसार में चावल की कृषि पुराने समय से की जा रही है। चीन में चावल की कृषि ईसा से 3000 साल पहले ही की जाती थी। भारत तथा चीन को चावल की जन्मभूमि माना जाता है। इन देशों से ही यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका के देशों में चावल की कृषि का विस्तार हुआ है। मानसून प्रदेशीय एशिया के लोगों का मुख्य भोजन चावल है। संसार की लगभग 40% जनसंख्या का मुख्य भोजन चावल है। इसे Gift of Asia भी कहते हैं। चावल पैदा करने वाले देशों में जनसंख्या घनी होती है।
चावल की किस्में (Types of Rice)—चावलों की मुख्य रूप में दो किस्में होती हैं—

  1. पहाड़ी चावल (Upland Rice)—यहाँ चावलों की पर्वतीय ढलानों और सीढ़ीदार खेत बनाकर बिजाई की जाती है।
  2. मैदानी चावल (Lowland Rice)-इस किस्म के चावल की नदी घाटियों या डेल्टाई क्षेत्रों में समतल भूमि पर बिजाई की जाती है।

चावल की बिजाई के तरीके (Methods of Cultivation)-चावल की बिजाई के प्रसिद्ध तीन तरीके हैं1. छटा दे कर 2. पनीरी लगा कर 3. खोद कर।
उपज की भौगोलिक दशाएं (Conditions of Growth) चावल उष्ण और उपोष्ण कटिबन्ध का पौधा है। चावल की कृषि 40° उत्तर से 40° दक्षिण अक्षांशों के बीच होती है। मुख्यतः चावल की कृषि मानसून एशिया में सीमित हैं। यहाँ चावल की गहन जीविका कृषि की जाती है।

1. तापमान (Temperature)-चावल को बोते समय 20° C तथा पकते समय 24°C तापमान की आवश्यकता होती है। ऐसे तापमान के कारण ही पश्चिमी बंगाल में वर्ष में तीन फसलें होती हैं। चावल की फसल 120 200 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है।

2. वर्षा (Rainfall)-चावल की कृषि के लिए 100 से 150 सें.मी. तक वर्षा अनुकूल होती है। चावल का पौधा 15 सें०मी० पानी में 75 दिनों तक डूबा रहना चाहिए। गर्मी की ऋतु में वर्षा बहुत सहायक होती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल सिंचाई की सहायता से चावल की कृषि की जाती है, जैसे पंजाब में।

3. धरातल (Topography)-चावल के पौधे को हमेशा पानी में रखने के लिए समतल भूमि की आवश्यकता होती है ताकि वर्षा व जल सिंचाई से प्राप्त जल खेतों में खड़े रह सके। चीन और जापान की पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीनुमा कृषि की जाती है। अधिकतर भागों में 1000 मीटर की ऊंचाई तक चावल की कृषि होती है।

4. मिट्टी (Soil)-चावल की कृषि के लिए चिकनी या भारी दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। यह मिट्टी अधिक-से-अधिक पानी की बचत कर सकती है। इसी कारण चावल नदी घाटियों, डेल्टाओं तथा तटीय मैदानों में अधिक होता है। बाढ़ के मैदानी में मिट्टी, चावल की कृषि के लिए उत्तम है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस इत्यादि खादों की जरूरत होती है।

5. सस्ते मजदूर (Cheap Labour)-चावल की कृषि के सभी कार्य हाथ से करने पड़ते हैं। इसे “खुरपे की कृषि’ भी कहते हैं। इसीलिए घनी जनसंख्या वाले प्रदेशों में सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है। इस कृषि, के लिए सारे काम हाथ से किए जाते हैं। इसलिए चावल की कृषि कार्य प्रधान कृषि है। इटली, U.S.A., और फिलीपाइंस में मशीनों के द्वारा चावल की कृषि होती है। चावल में ज़्यादा तापमान, अधिक वर्षा, अधिक धूप अधिक भारी मिट्टी और मजदूरों की जरूरत होती है।

उत्पादन (Production)—साल 2014-15 के समय में भारत में चावल का कुल उत्पादन 104.8 लाख टन था और प्रति हैक्टेयर उपज 2390 किलो थी। संसार का 90% चावल मानसून एशिया में ही पैदा होता है। इस चावल की खपत भी एशिया में ही हो जाती थी। चावल की कृषि मानसून एशिया तक सीमित नहीं लगभग हर देश में चावल की कृषि होती है। यह क्षेत्र एक चावल की त्रिकोण बनाते हैं, जो कि जापान, भारत और जावा को मिलाने से बनती है।

भारत का विश्व में चावल के उत्पादन में दूसरा स्थान है। देश की 23 % कृषि योग्य भूमि पर चावल की कृषि की जाती है। 400 लाख हैक्टेयर भूमि में 835 लाख मीट्रिक टन चावल उत्पन्न होता है। देश में चावल का प्रति हैक्टेयर उपज कम है। परन्तु अब जापानी तरीकों से और उत्तम बीजों से अधिक उपयोग कारण उपज में वृद्धि हो रही है।

भारत में राजस्थान और दक्षिणी पठार के शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर सारे भारत में चावल की कृषि होती है। भारत में चावल की कृषि के लिए आदर्श जलवायु है। 200 सैंटीमीटर से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में चावल एक मुख्य फसल है।
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  1. पश्चिमी बंगाल-यह राज्य भारत में सबसे अधिक (95 लाख टन) चावल का उत्पादन करता है। इस राज्य की 80% भूमि पर चावल की कृषि होती है। सारा साल ऊंचे तापमान व अधिक वर्षा के कारण वर्ष में तीन फसलें अमन, ओस तथा बोरो होती हैं। शीतकाल में अमन की फसल मुख्य फसल है, जिसका कुल उत्पादन का 86% भाग प्राप्त होता है।
  2. तमिलनाडु-इस राज्य में वर्ष में दो फसलें होती हैं। यह राज्य चावल उत्पन्न करने में दूसरा स्थान रखता है। यहाँ पर 58 लाख टन चावल उत्पन्न होता है।
  3. आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा-पूर्वी तटीय मैदान तथा नदी डेल्टाओं में चावल की कृषि होती है।
  4. बिहार, उत्तर प्रदेश-भारत के उत्तरी मैदान में उपजाऊ क्षेत्रों में जल सिंचाई की सहायता से चावल का उत्पादन होता है।
  5. पंजाब, हरियाणा-इन राज्यों में प्रति हैक्टेयर उपज सबसे अधिक है। ये राज्य भारत में कमी वाले भागों को चावल भेजते हैं। इन्हें भारत का चावल का कटोरा कहते हैं। चीन, जापान, भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, बांग्लादेश चावल आयात करने वाले प्रमुख देश हैं।

प्रश्न 6.
कपास की कृषि के लिए अनुकूल भौगोलिक दशाओं का वर्णन करो। भारत में कपास के वितरण, उत्पादन और व्यापार बताओ।
उत्तर-
कपास विश्व की सर्वप्रमुख रेशेदार फसल है। अरब और ईरान को कपास की जन्म भूमि माना जाता है। हैरोडोटस के लेखों से पता चलता है कि ईसा से 3000 हजार वर्ष पहले भारत में कपास की कृषि होती थी। आज के युग में कई प्रकार के बनावटी रेशे का उत्पादन होता है। सूती कपड़ा उद्योग कपास की उपज पर आधारित है।
कपास की किस्में (Types of Cotton) रेशे की लम्बाई के अनुसार कपास चार प्रकार की होती है।

  1. अधिक लम्बे रेशे वाली कपास (Very Long Staple)-इस कपास का रेशा 32 से 56 मिलीमीटर लम्बा होता है। ये अधिकतर मित्र तथा पीरू में होती हैं। इसको समुद्र द्वीपीय कपास यां मिस्री कपास भी कहते हैं।
  2. लम्बे रेशे वाली कपास (Long Staple) इस कपास का रेशा 31 मिलीमीटर से कुछ अधिक लम्बा होता है। यह सूडान तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में उत्पन्न की जाती है।
  3. मध्य रेशे वाली कपास (Medium Staple) 25 से 32 मिलीमीटर लम्बे रेशे वाली इस कपास का अधिक उत्पादन रूस तथा ब्राजील में होता है।
  4. छोटे रेशे वाली कपास (Short Staple) इस कपास का रेशा 25 मिलीमीटर से कम लम्बा होता है। इस कपास की अधिक उपज भारत में होती है। इसलिए इसे भारतीय कपास भी कहते हैं।

उपज की दशाएं (Conditions of Growth) कपास उष्ण तथा उपोष्ण प्रदेशों की उपज है इसकी कृषि 40° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के मध्य है।

  1. तापमान (Temperature) कपास के लिए, तेज चमकदार धूप तथा उच्च तापमान (22°C से 32°C) की आवश्यकता है। पाला इसके लिए हानिकारक है। अतः इसे 200 दिन पाला रहित मौसम चाहिए। समुद्री वायु के प्रभाव में उगने वाली कपास का रेशा लम्बा और चमकदार होता है।
  2. वर्षा (Rainfall) कपास के लिए 50 से से 100 सेंमी० वर्षा चाहिए। चुनते समय शुष्क पाला रहित मौसम होना चाहिए। फसल पकते समय वर्षा न हो। साफ आकाश तथा चमकदार धूप हो। अधिक वर्षा हानिकारक
  3. जल सिंचाई (Irrigation)-कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं जैसे पंजाब में इससे प्रति हैक्टेयर उपज भी अधिक होती है।
  4. मिट्टी (Soil)-कपास के लिए लावा की काली मिट्टी सबसे उचित है। मिट्टी में लोहे व चूने का अंश अधिक हो। लाल मिट्टी तथा नदियों की कांप की मिट्टी (दोमट मिट्टी) में भी कपास की कृषि होती है। खाद का प्रयोग अधिक हो ताकि मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बनी रहे।
  5. सस्ता श्रम (Cheap Labour)-कपास के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता है। कंपास चुनने के लिए स्त्रियों को लगाया जाता है।
  6. धरातल (Topography)-कपास की कृषि के लिए समतल मैदानी भाग अनुकूल होते हैं। साधारण ढाल वाले क्षेत्रों में पानी इकट्ठा नहीं होता।
  7. कीड़ों तथा बीमारियों की रोकथाम (Prevention of Insects and diseases)-अधिक ठण्डे प्रदेशों में बाल-वीविल (Boll Weevil) नामक कीड़ा कपास की फसल को नष्ट कर देता है। इन कीड़ों तथा कई बीमारियों की रोकथाम के लिए नाशक दवाइयां छिड़ ना आवश्यक है।

भारत में कपास का उत्पादन-कपास भारत की एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक फसल है। भारत का सूती कपड़ा उद्योग कपास पर निर्भर है। भारत विश्व की 10% कपास पैदा करके चौथे स्थान पर आता है। भारत की धरती पर संसार की सबसे अधिक कपास की कृषि होती है, परन्तु प्रति हैक्टेयर उपज कम है। भारत में 77 लाख हैक्टेयर धरती पर 12 लाख टन कपास पैदा की जाती है। भारत में अधिकतर छोटे रेशे वाली कपास उत्पन्न की जाती है। सूती कपड़ा उद्योग के लिए लम्बे रेशे वाले कपास मिस्र, सूडान और पाकिस्तान से मंगवाई जाती है।
उपज के क्षेत्र (Areas of Cultivation)-भारत में जलवायु तथा मिट्टी में विभिन्नता के कारण कपास के क्षेत्र बिखरे हुए हैं। उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में अधिक कपास होती है।

  1. काली मिट्टी का कपास क्षेत्र-काली मिट्टी का कपास क्षेत्र सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश राज्यों के भाग शामिल हैं। गुजरात राज्य भारत में सबसे अधिक कपास उत्पन्न करता है। इसे राज्य के खानदेश व बरार क्षेत्रों में देशी कपास की कृषि होती है।
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  2. लाल मिट्टी का क्षेत्र-तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों में लाल मिट्टी क्षेत्र में लम्बे रेशे वाली कपास (कम्बोडियन) उत्पन्न होती है।
  3. दरियाई मिट्टी का क्षेत्र-उत्तरी भारत में दरियाई मिट्टी के क्षेत्रों में लम्बे रेशे वाली अमेरिकन कपास की कृषि होती है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान राज्य प्रमुख क्षेत्र हैं। पंजाब में जल सिंचाई के कारण देश में सबसे अधिक प्रति हैक्टेयर उत्पादन है। संसार में कपास के कुल उत्पादन का 1/3 भाग निर्यात होता है। लगभग 20 देश कपास का निर्यात करते हैं। लम्बे रेशे वाली कपास का अधिक निर्यात होता है। यूरोप के सती कपड़ा उद्या में उन्नत देश कपास का अधिक आयात करते हैं। संसार में सबसे अधिक कपास यू०एस०ए निर्यात करता है। रूस, मित्र, सूडान, पाकिस्तान तथा ब्राजील भी कपास का निर्यात करते हैं। जापान, चीन, भारत, इंग्लैंड तथा यूरोप के अन्य देश आयात करते हैं।

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प्रश्न 7.
चाय की कृषि के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं का वर्णन करो। भारत में चाय के उत्पादन, वितरण तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के बारे में बताओ।
उत्तर-
चाय संसार में प्रमुख पेय पदार्थ है। असम, शान पठार तथा यूनान पठार को चाय की जन्मभूमि माना जाता है। यहां से ही एशिया के दूसरे भागों में चाय की कृषि का विस्तार हुआ। यूरोपियन लोगों के यत्नों से कई प्रदेशों में चाय की बागानी कृषि का विकास हुआ। चाय एक सदाबहार झाड़ीनुमा पौधा होता है। इसमें थीन (Theine) नामक तत्व होता है जिसके कारण पीने में नशा होता है।
चाय की किस्में (Types of Tea)

  1. सफेद चाय-मुरझाई हुई पत्ती
  2. पीली चाय-ताजी पत्ती वाली चाय
  3. हरी चाय-ताजी पत्ती
  4. लौंग चाय-ताजी पत्ती
  5. काली चाय-पीसी हुई पत्ती
  6. खमीरा करने के बाद बनाई पत्ती-हरी चाय।

उपज की दशाएं (Conditions of Growth)-चाय गर्म, आर्द्र प्रदेशों का पौधा है। उष्ण तथा उप-उष्ण प्रदेशों में 55° तक चाय की कृषि होती है।

  1. तापमान (Temperature)-चाय के लिए सारा साल समान रूप में ऊँचे तापमान 22° C से 29° C की आवश्यकता होती है। ऊँचे तापमान के कारण वर्ष भर पत्तियों की चुनाई होती है जैसे अमन में। पाला चाय के लिए हानिकारक होता है।
  2. वर्षा (Rainfall)—चाय के लिए अधिक वर्षा 200 से 250 सेंमी० तक होनी चाहिए। चाय के पौधों के लिए वृक्षों की छाया अच्छी होती है। 3. मिट्टी (Soil)-चाय के उत्तम स्वाद के लिए गहरी मिट्टी चाहिए जिसमें पोटाश, लोहा तथा फॉस्फोरस का अधिक अंश हो। चाय के स्वाद को अच्छा बनाने के लिए रासायनिक खाद का प्रयोग होता है।
  3. धरातल (Topography) चाय की कृषि पहाड़ी ढलानों पर की जाती है ताकि पौधों की जड़ों में पानी इकट्ठा न हो। प्राय: 300 मीटर की ऊंचाई वाले प्रदेश उत्तम माने जाते हैं। मिट्टी के बहाव को रोकने के लिए सीढ़ीदार खेत बनाये जाते हैं।
  4. श्रम (Labour)–चाय की पत्तियों को चुनने, सुखाने तथा डिब्बों में बन्द करने के लिए सस्ते मज़दूर चाहिए। प्राय: स्त्रियों को इन कार्यों में लगाया जाता है।
  5. प्रबन्ध (Administration)–बागान के अधिक विस्तार के कारण उचित प्रबन्ध पूंजी की आवश्यकता होती
  6. मौसम (Weather)-उच्च आर्द्रता, गहरी ओस तथा कुहरा पत्तियों के विकास में सहायक होता है।

भारत में उत्पादन-भारत में चाय एक व्यापारिक फसल है जिसकी बागाती कृषि होती है। भारत संसार में 30% चाय उत्पन्न करता है और पहला स्थान रखता है। भारत संसार में चाय निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है। देश में लगभग 700 चाय की कम्पनियां हैं। देश में लगभग 12,000 चाय के बाग हैं जिनमें मजदूर काम करते हैं। सर राबर्ट थरूस ने सन् 1823 में असम में चाय का पहला बाग लगाया। देश में 365 हजार हैक्टेयर भूमि में 70 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है। देश में हरी चाय और काली चाय दोनों ही पैदा की जाती हैं।
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उपज के क्षेत्र (Areas of Cultivation) भारतीय चाय का उत्पादन दक्षिणी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में कहीं अधिक है। देश में चाय के क्षेत्र एक दूसरे से दूर-दूर हैं।

1. असम-यह राज्य भारत में सबसे अधिक चाय उत्पन्न करता है। इस राज्य में ब्रह्मपुत्र घाटी तथा दुआर का प्रदेश चाय के प्रमुख क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र को कई सुविधाएं प्राप्त हैं।

  • मानसून जलवायु,
  • अधिक वर्षा तथा ऊंचे तापमान,
  • पहाड़ी ढलाने,
  • उपजाऊ मिट्टी
  • योग्य प्रबन्ध।

2. पश्चिमी बंगाल-इस राज्य में दार्जिलिंग क्षेत्र की चाय अपने विशेष स्वाद के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहां अधिक ऊंचाई, अधिक नमी व कम तापमान के कारण चाय धीरे-धीरे बढ़ती है। जलपाइगुड़ी भी प्रसिद्ध क्षेत्र है।

  • तमिलनाडु में कोयम्बटूर तथा नीलगिरी क्षेत्र।
  • केरल में मालाबार तट।
  • कर्नाटक में कुर्ग क्षेत्र।
  • महाराष्ट्र में रत्नागिरी क्षेत्र ।

इसके अतिरिक्त झारखंड में रांची का पठार, हिमाचल प्रदेश में पालमपुर का क्षेत्र, उत्तरांचल में देहरादून का क्षेत्र, त्रिपुरा क्षेत्र में मेघालय प्रदेश। भारत संसार में सबसे अधिक 21% चाय निर्यात करता है। देश के उत्पादन का लगभग \(\frac{1}{4}\) भाग विदेशों को निर्यात किया जाता हैं। इससे लगभग ₹ 1250 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात मुख्य रूप में इंग्लैंड, रूस, ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा इत्यादि 80 देशों का होता है। भारत में हर साल 30 करोड़ किलोग्राम चाय की खपत होती है।

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प्रश्न 8.
काहवा की कृषि के लिए भौगोलिक दशाओं, उत्पादन तथा भारत में वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
काहवा भी चाय की तरह एक पेय पदार्थ हैं। इसकी बागाती कृषि की जाती है। यह काहवा पेड़ों के फलों के बीजों का चूर्ण होता है। इसमें कैफीन नामक पदार्थ होता है जिसके कारण काहवा उत्तेजना प्रदान करता है। काहवा की अधिक प्रयोग U.S.A में होता है, जबकि चाय का अधिक प्रयोग पश्चिमी यूरोप में होता है। इसका जन्म स्थान अफ्रीका के इथोपिया देश के कैफ़ा प्रदेश को माना जाता है।
कहवा की किस्में (Types of coffee) काहवा की कई किस्में हैं, पर इनमें तीन प्रमुख किस्में हैं—

  1. अरेबिका-लातीनी अमरीका में।
  2. रोबस्टा-एशिया में।
  3. लिबिरिया-अफ्रीका में।

उपज की दशाएं (Conditions of Growth)-काहवा उष्ण कटिबन्ध के उष्ण आर्द्र प्रदेशों का पौधा है। अधिक काहवा अधिकांश 25° उत्तरी तथा 25° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उच्च प्रदेशों में बोया जाता है। यह एक प्रकार के सदाबहार पौधे के फलों के बीजों को सूखा के पीस कर चूर्ण तैयार कर लिया जाता है।

1. तापमान (Temperature)-काहवे के उत्पादन के लिए सारा साल ऊंचा तापमान औसत 22° C होना चाहिए। पाला तथा तेज़ हवाएं काहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए काहवे की कृषि सुरक्षित ढलानों पर की जाती है।

2. वर्षा (Rainfall) काहवे के लिए 100 से 200 सें०मी०, वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। वर्षा का वितरण वर्ष भर समान रूप से हो। शुष्क-ऋतु में जल सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं। फल पकते समय ठण्डे शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है।

3. छायादार वृक्ष (Shady trees)—सूर्य की सीधी व तेज़ किरणे काहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए काहवे के बागों में केले तथा दूसरे छायादार फल उगाए जाते हैं। यमन देश में प्रात:काल की धुंध सूर्य की तेज़ किरणों से सुरक्षा प्रदान करती है।

4. मिट्टी (Soil) काहवे की कृषि के लिए गहरी उपजाऊ मिट्टी होनी चाहिए जिसमें लोहा, चूना तथा वनस्पति के अंश अधिक हों। लावा की मिट्टी तथा दोमट्ट मिट्टी काहवे के लिए अनुकूल होती है।

5. धरातल (land)-काहवे के बाग पठारों तथा ढलानों पर लगाए जाते हैं ताकि पानी का अच्छा निकास हो। काहवा की कृषि 1000 मीटर तक ऊंचे देशों में की जाती है।

6. सस्ते श्रमिक (Cheap Labour)-काहवे की कृषि के लिए सस्ते मजदूरों की आवश्यकता होती है। पेड़ों को छांटने, बीज तोड़ने तथा काहवा तैयार करने में सब काम हाथों से किये जाते हैं।

7. बीमारियों की रोकथाम (Absence of Diseases) काहवे के बाग़ बीटल नामक कीड़े तथा कई बीमारियों के कारण भारत, श्रीलंका तथा इण्डोनेशिया में नष्ट हो गए हैं। इन बीमारियों की रोकथाम आवश्यक है।

भारत में उत्पादन और वितरण-भारत में कहवा की कृषि एक मुस्लिम फकीर बाबा बूदन द्वारा लाए गए बीजों द्वारा आरम्भ की गई। भारत में काहवे का पहला बाग सन् 1830 में कर्नाटक राज्य के चिकमंगलूर क्षेत्र में लगाया गया। धीरे-धीरे काहवे की कृषि में विकास होता गया। अब भारत में लगभग दो लाख हैक्टेयर भूमि पर दो लाख टन कहवे का उत्पादन होता है। देश में काहवे की खपत कम है। देश में कुल उत्पादन का 60न भाग विदेशों को निर्यात कर दिया
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जाता है। इस निर्यात से लगभग 330 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात कोजीकोड़े, मद्रास तथा बंगलौर की बन्दरगाहों से किया जाता है।
उपज के क्षेत्र-भारत के काहवे के बाग दक्षिणी पठार की पर्वतीय ढलानों पर ही मिलते हैं। उत्तरी भारत में ठण्डी जलवायु के कारण काहवे की कृषि नहीं होती।

  1. कर्नाटक राज्य-यह राज्य भारत में सबसे अधिक काहवा उत्पन्न करता है। यहां पश्चिमी घाट तथा नीलगिरी की पहाड़ियों पर काहवे के बाग मिलते हैं। इस राज्य में शिमोगा, काटूर, हसन तथा कुर्ग क्षेत्र काहवे के लिए प्रसिद्ध हैं।
  2. तमिलनाडु-इस राज्य में उत्तरी अर्काट से लेकर त्रिनेवली तक के क्षेत्र में काहवे के बाग मिलते हैं। यहां नीलगिरी तथा पलनी की पहाड़ियों की मिट्टी या जलवायु काहवे की कृषि के अनुकूल है।
  3. केरल-केरल राज्य में इलायची की पहाड़ियों का क्षेत्र।
  4. महाराष्ट्र में सतारा ज़िला।
  5. इसके अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश, असम, पश्चिमी बंगाल तथा अण्डेमान द्वीप में काहवा के लिए यत्न किए जा रहे है।

प्रश्न 8.
पटसन की कृषि के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं और भारत में इसके उत्पादन तथा वितरण का वर्णन करो।
उत्तर-
कपास के बाद पटसन एक महत्त्वपूर्ण रेशेदार फसल है। प्रयोग और उत्पादन के तौर पर पटसन की कृषि बहुत अच्छी है। यह सुनहरी रंग की एक प्राकृतिक रेशेदार फसल है। इसका रेशा सुनहरी रंग का होता है। इसलिए इसे सोने का रेशा भी कहते हैं। इससे टाट, बोरे, पर्दे, गलीचे तथा दरियां इत्यादि बनाई जाती हैं। व्यापार में महत्त्व के कारण इसे थोक व्यापारी का खाकी कागज़ भी कहते हैं। भारत का पटसन उद्योग पटसन की कृषि पर निर्भर करता है
उपज की दशाएं (Conditions of the production of Jute)-पटसन एक खरीफ के मौसम की फसल है। इसकी बिजाई मार्च-अप्रैल में की जाती है और पटसन की कृषि के लिए आवश्यक दशाएं हैं।

1. तापमान (Temperature)-पटसन के उत्पादन के लिए गर्म और नमी वाला तापमान चाहिए। इसके लिए 26° सैंटीग्रेड अनुकूल तापमान की आवश्यकता है। तापमान मुख्य रूप से 24° से 37° C तक बढ़ और कम हो सकता है। मुख्य रूप में नमी 80% से 90% आवश्यक होती है।

2. वर्षा (Rainfall)-पटसन एक प्यासा पौधा है। इसको अपने काश्त के दौरान पर्याप्त वर्षा की आवश्यकता होती है। पटसन के लिए अधिक वर्षा 150 सें०मी० की आवश्यकता पड़ती है। पटसन की कृषि के लिए पकने के बाद कटाई के समय भी रेशा बनाने के लिए अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है।

3. मिट्टी (Soil)—पटसन के लिए गहरी उपजाऊ मिट्टी उपयोगी है। नदियों में बाढ़ क्षेत्र, डेल्टा प्रदेश, पटसन के – लिए आदर्श क्षेत्र होते हैं यहां नदियों द्वारा हर वर्ष मिट्टी की नई परत बिछ जाती है। खाद का भी अधिक प्रयोग किया जाता है।

4. सस्ता श्रम (Cheap Labour)—पटसन को काटने, धोने और छीलने के लिए, सस्ते तथा कुशल मज़दूरों की आवश्यकता होती है।

5. HYV–पटसन के रेशे के उत्पादन की वृद्धि के लिए अच्छी किस्म के HYV बीजों की आवश्यकता होती है जैसे कि JRC-212, JRC-7447, JRO-632, JRO-7835 इसके लिए बहुत उपयोगी हैं।

6. स्वच्छ जल-पटसन को काटकर धोने के लिए नदियों के साफ पानी की आवश्यकता होती है।

भारत में उत्पादन और वितरण-भारत में पटसन का उत्पादन मांग से कम ही है। इसलिए हमें पटसन बंगलादेश से खरीदनी पड़ती है। भारत में मुख्य पटसन उत्पादन प्रदेश हैं—

1. पश्चिमी बंगाल-यह राज्य भारत में सबसे अधिक पटसन उत्पन्न करता है। यहां पर अनुकूल भौगोलिक दशाएं माजूद हैं। सस्ते मजदूरों माजूद हैं और जिस कारण पटसन की कृषि अच्छी होती है। यहां पर नदी घाटियां तथा गंगा डेल्टाई प्रदेश, अधिक वर्षा, ऊंचा तापमान इस कृषि के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है। नाड़िया कूच, बिहार, जलपाईगुड़, हुगली, पश्चिम दिनाजपुर, वर्धमान मालदा और मेदनीपुर प्रांत पटसन की काश्त के लिए प्रसिद्ध हैं। सारी पटसन उद्योगों में चली जाती है। साल 2015-16 में पश्चिमी बंगाल में 8075 गाँठ पटसन पैदा की गई।

2. बिहार-भारत में पटसन उत्पादन के अतिरिक्त बिहार का दूसरा स्थान है। पूर्णिया, कटिहार, सहरसा इत्यादि प्रांतों में पटसन का उत्पादन अधिक होता है।

3. असम-यह तीसरा मुख्य पटसन उत्पादन राज्य है। बाकी मुख्य राज्यों का क्रम इस प्रकार है।
Top tute producing states of India 2012-13
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PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 4 आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं)

आर्थिक भूगोल : कृषि तथा कृषि का संक्षिप्त विवरण (मौलिक क्षेत्र की क्रियाएं) PSEB 12th Class Geography Notes

  • आर्थिक भूगोल, मानव भूगोल की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। आर्थिक साधनों और उनके वितरण एवं भौगोलिक वितरण का अध्ययन ही आर्थिक भूगोल है।
  • मौलिक आर्थिक क्रियाओं का संबंध सीधे रूप में धरती में मिल रहे कच्चे साधनों के उपयोग के साथ होता ।
  • संसार में कृषि का स्वरूप दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है। फ़सलों और कृषि करने के तरीकों में दिन प्रतिदिन सुधार आ रहा है। अब कृषि लोगों के लिए सिर्फ एक रोज़गार नहीं, बल्कि एक उपयोगी रोज़गार बन गया है। कुल घरेलू उत्पादन में इसका हिस्सा भारत में 17%, चीन में 10%, यू०ए०एस० में 1.5% | रह गया है।
  • भारत में कृषि करने के मौसम हैं-रबी, खरीफ और जैद।
  • संसार में एल नीनो और ला नीना कृषि की पैदावार पर बड़ा असर डालती हैं।
  • पशु पालन खानाबदोशी लोगों का सबसे प्राचीन रोज़गार है। वह अपने जानवरों को चरागाहों और पानी की खोज के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक लेकर जाते हैं।
  • भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 328.73 मिलियन है पर उपयोग के लिए 30 करोड़ हैक्टेयर ही उपलब्ध है।
  • भूमि के उपयोग संबंधी रिकॉर्ड तैयार किया गया जिसमें जंगलों के अधीन क्षेत्र, बंजर और कृषि योग्य भूमि, परती भूमि, बिजाई अधीन क्षेत्र, कृषि अतिरिक्त क्षेत्र का रिकॉर्ड तैयार किया गया।
  • कृषि को मुख्य रूप में दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है। प्राचीन निर्वाह कृषि और घनी निर्वाह कृषि। ।
  • मुख्य फ़सलें-खाद्यान्न-गेहूँ, चावल, मोटे अनाज, बाजरा, रागी, दालें, छोले, अरहर इत्यादि।
  • नकद फ़सलें-कपास, पटसन, गन्ना, तम्बाकू, तेल के बीज, मूंगफली, अलसी, तिल, अरंडी के बीज इत्यादि। |
  • रोपण कृषि-चाय, काहवा, मसाले, इलायची इत्यादि। |
  • बागवानी फ़सलें-फल, सब्ज़ियाँ, अखरोट, बादाम, स्ट्राबेरी, खुरमानी इत्यादि।
  • आर्थिक भूगोल-आर्थिक साधनों और उनके उपयोग के भौगोलिक वितरण का अध्ययन आर्थिक भूगोल है।
  • ऋतु प्रवास-पशु-पालक चरवाहे अपने पशुओं के साथ सर्दी शुरू होते ही मैदानी क्षेत्र में आ जाते हैं और गर्मी में वापिस अपने पहाड़ी क्षेत्रों में चले जाते हैं। इसको ऋतु प्रवास कहते हैं।
  • ग्रामीण काव्य (Pastoralism)-पशु-पालन के रोज़गार में जो खास कर परंपरागत तौर पर घास के मैदानों या चरागाहों में किया जाता है को अंग्रेज़ी में पैसट्रोलियम कहते हैं।
  • भारत में उगाई जाने वाली फ़सलों को मुख्य रूप में चार वर्गों में विभाजित किया जाता है—
    • खाद्यान्न
    • नकद फ़सलें
    • रोपण फ़सलें
    • बागवानी फ़सलें।
  • चाय की प्रचलित किस्में-सफेद चाय, पीली चाय, हरी चाय, लौंग चाय, काली चाय और खमीरीकरण के बाद बनाई चाय।
  • कपास की किस्में—
    • लम्बे रेशे वाली कपास-रेशे की लंबाई 24 से 27 मिलीमीटर।
    • मध्य रेशे वाली कपास-रेशे की लंबाई 20 से 24 मिलीमीटर।
    • छोटे रेशे वाली कपास-रेशे की लंबाई 20 मिलीमीटर से कम।
  • सुनहरी क्रांति-पटसन उत्पादन की तेज गति पकड़ने को सुनहरी क्रांति का नाम दिया गया है।
  • सफेद क्रांति-दूध और दूध से बनी वस्तुओं के उत्पादन के बढ़ावे को सफेद क्रांति कहते हैं।
  • बागवानी-बागवानी व्यापारिक कृषि का एक घना रूप है। इसमें मुख्य तौर से फल और फूलों का उत्पादन होता है। इस कृषि का विकास संसार के औद्योगिक और शहरी क्षेत्रों के पास होता है।
  • मिश्रित कृषि-जब फ़सलों की कृषि के साथ-साथ पशु-पालन इत्यादि के सहायक धंधे भी अपनाए जाते हैं तब उसे मिश्रित कृषि कहते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय दल प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो। (Explain the main features of the Indian Party System.)
अथवा
भारतीय दल-प्रणाली की छः विशेषताओं का विस्तार से वर्णन करें।। (Explain in detail six features of Indian Party System.)
अथवा
भारतीय दल प्रणाली की कोई छः विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (Describe any six features of Indian Party System.)
उत्तर-
वर्तमान युग लोकतन्त्र का युग है। लोकतन्त्र के लिए दल अनिवार्य हैं। दोनों एक-दूसरे का अभिन्न अंग हैं। राजनीतिक दलों के बिना लोकतन्त्रात्मक सरकार नहीं चल सकती और लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक दलों का विकास नहीं हो सकता। प्रो० मुनरो के मतानुसार, “स्वतन्त्र राजनीतिक दल ही लोकतन्त्रीय सरकार का दूसरा नाम है।” भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक देश है।

अत: भारत में राजनीतिक दलों का होना स्वाभाविक है। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दलों के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।
अन्य देशों के राजनीतिक दलों की तरह भारतीय दलीय व्यवस्था की अपनी विशेषताएं हैं जिसमें मुख्य निम्नलिखित हैं

1. राजनीतिक दलों का पंजीकरण (Registration of Political Parties)-जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 (People’s Representative Act) और उसके संशोधित कानून 1988 के अनुसार सभी राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग के पास पंजीकृत करवाना अनिवार्य है। जो दल पंजीकृत नहीं होगा उसे राजनीतिक दल के रूप में मान्यता नहीं मिलेगी। पंजीकरण करवाते समय प्रत्येक राजनीतिक दल को अपने संविधान में प्रावधान शामिल करना होगा- “दल भारत के संविधान में तथा समाजवाद, धर्म-निरपेक्षतावाद, लोकतन्त्र के सिद्धान्तों में पूर्ण आस्था व भक्ति रखेगा और भारत की प्रभुसत्ता एकता व अखण्डता का समर्थन करेगा।”

2. चुनाव आयोग द्वारा दलों को मान्यता (Recognition of Political Parties By Election Commission)-चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को मान्यता तथा चुनाव चिह्न प्रदान करता है। चुनाव आयोग के नियमों के तहत किसी दल को राज्य स्तरीय दल का दर्जा तब प्रदान किया जाता है जब उसे लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में कुल वैध मतों के कम-से-कम छः प्रतिशत मत मिले हों और विधानसभा में कम-से-कम दो सीटें मिली हों अथवा राज्य विधानसभा में कुल सीटों की कम-से-कम तीन प्रतिशत सीटें अथवा कम-से-कम तीन सीटें (इनमें से जो भी अधिक हो) मिली हों अथवा उस दल ने लोकसभा के किसी आम चुनाव में लोकसभा की प्रत्येक 25 सीटों पर एक जीत या इसके किसी अन्य आबंटित हिस्से में इसी अनुपात में जीत हासिल की हो। इसके विकल्प के तौर पर सम्बन्धित राज्य में पार्टी द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों को सभी संसदीय क्षेत्रों में मतदान का कम-से-कम 6% मत प्राप्त होना चाहिए। इसके अलावा इसी आम चुनाव में पार्टी को राज्य में कम-से-कम एक लोकसभा सीट पर जीत हासिल होनी चाहिए। राष्ट्रीय स्तर का दर्जा प्राप्त करने के लिए पार्टी को लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में चार अथवा इससे अधिक राज्यों में कम-से-कम छ: प्रतिशत वैध मत प्राप्त करने के साथ ही लोकसभा की कम-से-कम 4 सीटें जीतना आवश्यक है। अथवा कम-से-कम 3 राज्यों में लोकसभा में प्रतिनिधित्व कुल सीटों का दो प्रतिशत (वर्तमान 543 सीटों में से कम-से-कम 11 सीटें) प्राप्त करना आवश्यक है। अथवा उस दल को कम-से-कम चार राज्यों में क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त हो। चुनाव आयोग ने 7 दलों को राष्ट्रीय दलों के रूप में एवं 58 दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

3. बहु-दलीय पद्धति (Multiple Party System)-भारत में स्विट्ज़रलैण्ड की तरह बहु-दलीय प्रणाली है। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में और 58 राजनीतिक दलों को राज्य स्तर पर आरक्षित चुनाव चिन्ह के साथ मान्यता दी हुई है। राष्ट्रीय स्तर के दल हैं-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय मार्क्सवादी दल, तृणमूल कांग्रेस पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी।।

4. एक दल की प्रधानता का अन्त (End of Dominance of Single Party)-इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारत में अनेक दल चुनाव में भाग लेते हैं, परन्तु 1967 से पूर्व केन्द्र तथा राज्य में कांग्रेस की प्रधानता ही रही है। 1967 के चुनाव में कांग्रेस को राज्यों में इतनी अधिक सफलता न मिली जिसके फलस्वरूप कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों का निर्माण हुआ। परन्तु गैर-कांग्रेसी नेता इतने मूर्ख निकले कि उन्होंने इस सुनहरी अवसर का पूरा लाभ उठाने की बजाय अपनी हानि ही की। उन्होंने जनता की भलाई न करके अपने स्वार्थ की ही पूर्ति की। अतः गैर-कांग्रेसी सरकार अधिक समय तक न चल सकी। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1971 में मध्यावधि चुनाव करवाए जिसमें इन्दिरा कांग्रेस को इतनी सफलता मिली कि कांग्रेस पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली हो गई है।

जनता पार्टी की स्थापना से कांग्रेस का एकाधिकार समाप्त हो गया। मार्च, 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 153 सीटें मिली जबकि जनता पार्टी को 272 तथा कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी को 28 सीटें मिलीं। इस प्रकार पहली बार केन्द्र में गैर-कांग्रेस पार्टी (जनता पार्टी) की सरकार बनी। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा क्योंकि इसे केवल 44 सीटें ही मिलीं, जबकि भाजपा को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत (282 सीटें) प्राप्त हुआ। अब कांग्रेस की पहले जैसी प्रधानता नहीं रही।

5. प्रभावशाली विरोधी दल का उदय (Rise of Effective Opposition)-भारतीय दल प्रणाली की एक यह भी विशेषता रही है कि यहां पर इंग्लैण्ड की भान्ति संगठित विरोधी दल का अभाव रहा है। 1977 से पहले लोकसभा में कोई मान्यता प्राप्त विरोधी दल नहीं था।

मार्च, 1977 के चुनाव में जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और कांग्रेस को केवल 153 सीटें मिलीं और इस प्रकार कांग्रेस की हार से संगठित विरोधी दल का उदय हुआ। जनता सरकार ने विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री की मान्यता दी। चुनाव के पश्चात् लोकसभा में विरोधी दल के नेता श्री यशवन्त राव चह्वान थे।

पिछले कुछ वर्षों से भारत में प्रभावशाली विरोधी दल पाया जाने लगा है। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी को विरोधी दल के रूप में मान्यता दी गई, और इस दल के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी को विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्री मती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

6. साम्प्रदायिक दलों का होना (Existence of Communal Parties) भारतीय दलीय प्रणाली की एक विशेषता साम्प्रदायिक दलों का होना है। यद्यपि धर्म-निरपेक्ष राज्य में साम्प्रदायिक दलों का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। तथापि साम्प्रदायिक दलों के प्रचार तथा गतिविधियों से देश का राजनीतिक वातावरण दूषित हो जाता है।

7. प्रादेशिक दलों का होना (Existence of Regional Parties)-साम्प्रदायिक दलों के साथ-साथ भारतीय दलीय प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषता प्रादेशिक दलों का होना है। चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त प्रादेशिक दलों की संख्या 58 है जिसमें मुख्य हैं शिरोमणि अकाली दल, नैशनल कांफ्रैस, बंगला कांग्रेस, इण्डियन नैशनल लोकदल, झारखण्ड पार्टी, अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (A.D.M.K.), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (D.M.K.), तेलुगू देशम् (Telgu Desam) तथा राष्ट्रीय जनता दल आदि। चुनाव आयोग ने 58 दलों को राज्य स्तर पर आरक्षित चुनाव चिन्हों के साथ मान्यता दी हुई है। 1996 में संयुक्त मोर्चे में कई क्षेत्रीय दल शामिल थे। सन् 1984 में लोकसभा के चुनाव में क्षेत्रीय दल तेलगू देशम् को सभी विपक्षी दलों से अधिक सीटें मिलीं। प्रादेशिक दल राष्ट्रीय हित के लिए बहुत हानिकारक हैं क्योंकि यह दल राष्ट्र हित में न सोचकर अपने दल और क्षेत्रीय हित को अधिक महत्त्व देते हैं। डी० एम० के० (D.M.K.) के नेताओं ने अपने निजी स्वार्थों के लिए देश के दक्षिणी व उत्तरी भाग में मतभेद उत्पन्न करने की कोशिश की है जोकि देश के हित में नहीं हैं। केन्द्र और राज्यों में तनाव के लिए काफ़ी हद तक क्षेत्रीय दल ज़िम्मेवार हैं क्योंकि क्षेत्रीय दल राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने की मांग करते हैं, जोकि केन्द्र ,को स्वीकार नहीं है।

8. स्वतन्त्र सदस्य (Independent Members)-भारत में अनेक दलों के होते हुए भी संसद् तथा राज्य विधानसभाओं में स्वतन्त्र सदस्यों की संख्या बहुत पाई जाती है। 1952 के आम चुनाव में 20 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने स्वतन्त्र सदस्यों को वोट डाले। __ परन्तु मार्च, 1977 के लोकसभा चुनाव में और जून, 1977 में राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में स्वतन्त्र उम्मीदवारों को कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि स्वतन्त्र उम्मीदवारों को कोई विशेष सफलता नहीं मिलनी चाहिए। 1989 से लेकर 2014 तक के लोकसभा के चुनावों में स्वतन्त्र उम्मीदवारों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

9. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contact with the Masses)-भारतीय दल प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि दल जनता के साथ सदा सम्पर्क बनाकर नहीं रखते। भारत में कई दल तो बरसाती मेंढकों की तरह चुनाव के समय ही अस्तित्व में आते हैं और चुनाव के साथ प्राय: लुप्त हो जाते हैं। जो दल स्थायी हैं वे भी चुनाव के समय ही अपने दल को संगठित करते हैं तथा जनता के साथ सम्पर्क बनाने का प्रयत्न करते हैं। यहां तक कांग्रेस दल भी चुनाव के पश्चात् जनता के साथ सम्पर्क बनाना अपनी मानहानि समझता है।

10. विक्षुब्ध गुट (Dissidents) भारतीय राजनीतिक दलीय प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता विक्षुब्ध गुटों का पाया जाना है। प्रायः प्रत्येक राज्य में कांग्रेस या जनता पार्टी के अन्दर दो गुट पाए जाते हैं-सत्तारूढ़ (Ministerliasts) तथा विक्षुब्ध (Dissidents) गुट। सत्ता हथियाने के लिए नेताओं में परस्पर इतनी होड़ रहती है कि गुटबन्दी अत्यधिक ज़ोरों पर काम करती है। 1977 तथा 1979 में जनता पार्टी में केन्द्र में भी विक्षुब्ध गुट पाया जाता था जिसका नेतृत्व चौधरी चरण सिंह और राज नारायण कर रहे थे। प्रत्येक राज्य में जनता पार्टी में विक्षुब्ध गुट पाया जाता था। असन्तुष्ट गुटों के कारण ही प्रधानमन्त्री राजीव गांधी को महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि कांग्रेस सत्तारूढ़ राज्यों में कई बार मुख्यमन्त्री बदलने पड़े ताकि असन्तुष्टों को सन्तुष्ट किया जा सके। 1990 में जनता दल में सत्तारूढ़ और विक्षुब्ध गुट में मतभेद कारण नवम्बर, 1990 में जनता दल का विभाजन हुआ और प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह को त्याग-पत्र देना पड़ा। विक्षुब्ध गुट के कारण ही 19 मई, 1995 को कांग्रेस पार्टी में फूट पड़ गई और कांग्रेस (इ) दो गुटों में बंट गई।

11. दल-बदल (Defection)-भारतीय दलीय प्रणाली की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता तथा दोष दल-बदल’ है। दल-बदल के अनेक उदाहरण हैं। ‘दल-बदल’ ने राज्यों की राजनीति तथा शासन में अस्थिरता ला दी है जिससे भारत में संसदीय लोकतन्त्र को खतरा पैदा हो गया है। जुलाई, 1979 में प्रधानमन्त्री श्री मोरार जी देसाई को भी त्यागपत्र देना पड़ा क्योंकि बहुत-से सदस्यों ने जनता पार्टी को छोड़ दिया था। केन्द्रीय सरकार के इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी प्रधानमन्त्री को अपनी पार्टी के सदस्यों के कारण त्याग-पत्र देना पड़ा। जनवरी, 1980 के लोकसभा के चुनाव से पूर्व और बाद में दल-बदल भारी संख्या में हुआ और यह दल-बदल कांग्रेस (इ) के पक्ष में हुआ। जनवरी, 1985 में संविधान में 52वां तथा दिसम्बर, 2003 में 91वां संशोधन किया गया ताकि दल-बदल की बुराई को समाप्त किया जा सके। इस संशोधन के अन्तर्गत दल-बदल गैर-कानूनी है और इससे संसद् या राज्य विधानमण्डल की सदस्यता समाप्त हो जाती है। इस संशोधन के बावजूद भी दल-बदल की बुराई समाप्त नहीं हुई है।

12. कार्यक्रमों की अपेक्षा नेतृत्व की प्रमुखता (More Emphasis on Leadership than on Programme)-भारत में अनेक राजनीतिक दलों में कार्यक्रम की अपेक्षा नेतृत्व को प्रमुखता दी जाती है और अब भी दी जा रही है। पहले आम चुनावों में कांग्रेस ने पं. जवाहर लाल नेहरू के नाम पर भारी सफलता प्राप्त की। कांग्रेस ने अपने कार्यक्रम का कभी भी प्रचार नहीं किया। 1980 में कांग्रेस (इ) की विजय वास्तव में श्रीमती गांधी की विजय थी। जनता ने इन्दिरा गांधी के नाम पर वोट डाले न कि कांग्रेस (इ) के कार्यक्रम को देखकर। इसी प्रकार दिसम्बर, 1984 में लोकसभा के चुनाव में जनता ने श्री राजीव गांधी के नाम पर वोट डाले न कि कांग्रेस (इ) की कार्यक्रम को देखकर। कांग्रेस (इ) को राजीव गांधी के नेतृत्व में इतनी महान् सफलता मिली जो पहले कभी भी कांग्रेस पार्टी को नहीं मिली। 1989, 1991 और 1996 के लोकसभा के चुनाव में दलों ने कार्यक्रमों की अपेक्षा नेताओं को महत्त्व दिया, फरवरी-मार्च, 1998 एवं सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव कांग्रेस ने श्रीमती सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी एवं भारतीय जनता पार्टी ने श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़े। परन्तु उचित दल प्रणाली के लिए यह आवश्यक है कि दल के कार्यक्रम पर जोर दिया जाए न कि नेता को प्रमुखता दी जाए।

13. अनुशासन का अभाव (Lack of Discipline)-अधिकांश दलों में अनुशासन का अभाव है और अनुशासन को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। दलों के सदस्य अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दल के अनुशासन की परवाह नहीं करते। यदि किसी सदस्य को चुनाव लड़ने के लिए दल का टिकट नहीं मिलता तो वह सदस्य पार्टी छोड़ देता है और इसके पश्चात् वह या तो अपनी अलग पार्टी बना लेता है या किसी और दल के टिकट पर चुनाव लड़ता है या स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ता है। मई, 1982 में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव में अनेक कांग्रेस (इ) के सदस्यों ने पार्टी के उम्मीदवार के विरुद्ध स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। कांग्रेस (इ) हाई कमाण्ड ने विद्रोही कांग्रेसियों को 6 वर्ष के लिए पार्टी से निकाल दिया परन्तु जो विद्रोही कांग्रेस (इ) स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए उन्हें बड़े सम्मान के साथ दोबारा पार्टी में सम्मिलित कर लिया गया और कुछ को मन्त्री भी बनाया गया। ऐसी परिस्थिति में सदस्यों से अनुशासन की उम्मीद करना बेकार है। अनुशासन ही कमी के कारण ही दल-बदल की बुराई पाई जाती है।

14. राजनीतिक दलों में लोकतन्त्र का अभाव (Lack of Democracy in Political Parties)-जिन राजनीतिक दलों पर लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा बनाए रखने का भार है वे स्वयं अपने दलों में लोकतन्त्र की स्थापना नहीं कर सके हैं। राजनीतिक दलों के अपने संगठनात्मक चुनाव 10-10 वर्षों तक नहीं होते हैं। जनता पार्टी की 1977 की स्थापना के बाद कभी भी संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए। कांग्रेस (इ) की 1978 की स्थापना के बाद 1991 के अन्त में संगठनात्मक चुनाव हुए हैं। दलों का काम-काज पूर्णतः नामजद व अस्थायी नेतृत्व के द्वारा चलाया जा रहा है। इस स्थिति ने सभी राजनीतिक दलों में दलीय तानाशाही की प्रवृत्ति को उजागर किया है।

15. राजनीतिक दलों के सिद्धान्तहीन समझौते (Non-Principle Aliance of Political Parties)—भारतीय दलीय व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता और दोष यह है कि राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति के लिए सिद्धान्तहीन समझौते करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। जनवरी, 1980 के लोकसभा के चुनाव में सभी दलों ने सिद्धान्तहीन समझौते किए। उदाहरण के लिए अन्ना द्रमुक केन्द्रीय स्तर पर लोकदल सरकार में शामिल था और लोकदल के चौधरी चरण सिंह के साथ सहयोग करने के लिए प्रतिबद्ध था, लेकिन दूसरी ओर इस दल ने तमिलनाडु में जनता पार्टी के साथ चुनाव गठबन्धन किया। विचित्र बात यह थी कि यह गठबन्धन उसकी केन्द्रीय सरकार को गिराने के लिए किया गया जिसमें वह शामिल थी। अकाली दल के अध्यक्ष तलवंडी ने लोकदल के साथ गठबन्धन किया जबकि अधिकांश विधायक और मुख्यमन्त्री प्रकाश सिंह बादल जनता पार्टी के साथ गठबन्धन की बातें करते रहे। कांग्रेस (इ) जो अन्य दलों के समझौतों को सिद्धान्तहीन कहती रही, स्वयं तमिलनाडु में द्रमुक (D.M.K.) के साथ चुनाव गठबन्धन कर बैठी। आपात्काल में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने द्रमुक की करुणानिधि की सरकार को बर्खास्त कर दिया था। मार्च, 1987 में कांग्रेस (इ) जम्मू-कश्मीर में नैशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर और केरल में कांग्रेस (आई) ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा के चुनाव के समय सभी राजनीतिक दलों ने सिद्धान्तहीन समझौते किए।

निष्कर्ष (Conclusion)-भारतीय दलीय प्रणाली की विशेषताओं से स्पष्ट है कि इसमें महत्त्वपूर्ण गुणों की कमी है जो दलीय सरकार की सफलता के लिए अनिवार्य है। बहु-दलीय, सुसंगठित विरोधी दल का न होना, एक दल की प्रधानता, साम्प्रदायिक तथा क्षेत्रीय दलों का होना और दल-बदल भारतीय प्रणाली की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो संसदीय शासन प्रणाली की सफलता के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है कि सामान्य विचारधारा वाले दल मिलकर एक सुसंगठित तथा शक्तिशाली विरोधी दल की स्थापना करें। महान् गठबन्धनों (Grand Alliances) की आवश्यकता नहीं है क्योंकि देश की समस्याओं को हल करने के स्थान पर देश के राजनीतिक वातावरण को दूषित कर देते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली

प्रश्न 2.
कांग्रेस (आई०) पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए। [Explain the policies and programmes of Congress (I) Party.]
अथवा
कांग्रेस दल की नीतियों और कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए। (Describe the Policies and Programmes of Congress Party.)
उत्तर-
यदि जनवरी, 1977 को जनता पार्टी की स्थापना के लिए भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में सदैव याद रखा जाएगा तो जनवरी, 1978 को कांग्रेस के विभाजन के लिए सदैव स्मरण किया जाएगा। वर्ष का पहला दिन, पहली जनवरी कांग्रेस के एक और विभाजन से प्रारम्भ हुआ जिसका कांग्रेस के प्रायः सभी वरिष्ठ नेताओं को दुःख हुआ। मार्च, 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को करारी पराजय का सामना करना पड़ा और श्रीमती इन्दिरा गांधी तथा उनके पुत्र संजय गांधी भी चुनाव हार गए। मई, 1977 में जब कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई तो श्रीमती इन्दिरा गांधी की रज़ामन्दी से ब्रह्मानन्द रेड्डी अध्यक्ष चुने गए। परन्तु शीघ्र ही इन्दिरा गांधी का यह भ्रम दूर हो गया कि ब्रह्मानन्द रेड्डी उसी गुलाम की भान्ति आचरण करेंगे, जिसका परिचय उन्होंने आपात्काल में दिया था। शीघ्र ही रेड्डी, चह्वान के समर्थकों और इन्दिरा गांधी के समर्थकों में मतभेद पैदा हो गए।

कर्नाटक की समस्या ने स्थिति को इतना तनावपूर्ण बना दिया कि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1977 को कांग्रेस कार्य समिति से इस्तीफा दे दिया।

इन्दिरा गांधी के समर्थकों ने पहली और 2 जनवरी, 1978 को कांग्रेस-जनों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजन करने का निश्चय किया। रेड्डी और चह्वान ने इस सम्मेलन को पार्टी विरोधी बताते हुए कांग्रेस-जनों को निर्देश दिया कि वे इन्दिरा गांधी द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग न लें।

राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन श्री मीर कासिम ने किया और पहले दिन अध्यक्षता श्रीमती गांधी ने की। दो जनवरी को साढ़े ग्यारह बजे कमलापति त्रिपाठी ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें कहा गया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने वाला यह सम्मेलन जिसमें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिकांश सदस्य उपस्थित हैं, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का असली प्रतिनिधि सम्मेलन है। यह सम्मेलन कांग्रेस और राष्ट्र को चुनौतियों का सामना करने के लिए तथा प्रभावशाली नेतृत्व देने के लिए सर्वसम्मति से श्रीमती इन्दिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित करता है। इस प्रस्ताव का अनुमोदन भूतपूर्व केन्द्रीय राज्यमन्त्री अनन्त प्रसाद शर्मा ने किया। इसके पश्चात् विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया। इस प्रकार श्रीमती गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का विभाजन विट्ठल भाई पटेल भवन के प्रांगण में उसी स्थान पर हुआ जहां 1969 में पार्टी के दो टुकड़े हुए थे।

कांग्रेस कार्यसमिति ने 3 जनवरी को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके श्रीमती गांधी और उनके समर्थकों को दल से निष्कासित कर दिया और इस प्रकार रिक्त स्थानों को भरने का अधिकार कांग्रेस अध्यक्ष ब्रह्मानन्द रेड्डी और जिला प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों को सौंप दिया।

2 फरवरी, 1978 को चुनाव आयोग ने कांग्रेस (इ) को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दे दी और इस दल को चुनाव लड़ने के लिए ‘हाथ’ चुनाव चिन्ह दिया। 23 जून, 1980 को श्रीमती इन्दिरा गांधी के सुपुत्र संजय गांधी का एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया। जिससे कांग्रेस (इ) को भारी क्षति पहुंची। मई, 1981 में श्रीमती इन्दिरा गांधी के बड़े सुपुत्र राजीव गांधी ने राजनीति में प्रवेश किया था।

23 जुलाई, 1981 को मुख्य चुनाव आयुक्त ने कांग्रेस (इ) को असली कांग्रेस के रूप में मान्यता दे दी। कांग्रेस (इ) का चुनाव निशान ‘हाथ’ (Hand) है। श्रीमती इन्दिरा गांधी जीवन के अंत तक कांग्रेस (इ) की अध्यक्षा रहीं और उनकी मृत्यु के पश्चात् श्री राजीव गांधी अध्यक्ष बने। वर्तमान अध्यक्ष श्री राहुल गांधी हैं।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कार्यक्रम (PROGRAMME OF INDIAN NATIONAL CONGRESS)-

अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के अवसर पर भारतीय, राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी का चुनाव घोषणा-पत्र जारी किया था। इसमें देश भर के सभी वरिष्ठ नेताओं के सुझावों को ध्यान में रखा है। कांग्रेस ने स्थिरता, विकास, राष्ट्रीय एकता, धर्म-निरपेक्षता, भ्रष्टाचार उन्मूलन, स्वच्छ तथा जवाबदेह शासन का वायदा किया है। पार्टी ने गैर-कांग्रेसी राज्यों में ठप्प हो गए विकास कार्यक्रमों को नई गति देकर शुरू करने और देश में धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्र की रक्षा के लिए सजग रहने की प्रतिबद्धता दोहराई है। 2014 के लोकसभा के चुनाव के अवसर पर घोषित चुनाव घोषणा-पत्र के आधार पर कांग्रेस का मुख्य कार्यक्रम एवं नीतियां इस प्रकार हैं

1. राजनीतिक कार्यक्रम (POLITICAL PROGRAMMES)

  • कांग्रेस का लोकतन्त्र में अटूट विश्वास है।
  • कांग्रेस लोकतन्त्र के अनिवार्य और अपरिहार्य अंग के रूप में प्रेस की आज़ादी के प्रति वचनबद्ध है।
  • पार्टी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की रक्षा के लिए वचनबद्ध है।
  • कांग्रेस ने देश में स्वच्छ प्रशासन प्रदान करने और सार्वजनिक क्षेत्रों से भ्रष्टाचार को दूर करने का वचन दिया है। भ्रष्टाचार को जन्म देने वाले सभी नियन्त्रण समाप्त कर दिए जाएंगे और भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वाली सी० बी० आई० जैसी एजेन्सियों को पूर्ण स्वायत्तता दी जाएगी।
  • संविधान में कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 लागू रहेगी।
  • देश की सुरक्षा के सभी पहलुओं पर गौर करने की दृष्टि से राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् को पुनर्जीवित करने का आश्वासन दिया है। सेनाओं का आधुनिकीकरण किया जाएगा।

2. आर्थिक तथा सामाजिक कार्यक्रम
(ECONOMIC AND SOCIAL PROGRAMME)

1. आत्मनिर्भरता-कांग्रेस का लक्ष्य है भारत को आत्मनिर्भर बनाना। भारत जैसे ग़रीब देश को सम्पन्नता की ओर ले जाना है।
2. ग़रीबी दूर करना-कांग्रेस ग़रीबी को दूर करने के लिए वचनबद्ध है।

3. रोज़गार-कांग्रेस रोजगार के अवसर बढ़ाने पर विशेश ध्यान देगी। कांग्रेस कृषि विकास की दर में वृद्धि करके, निर्यात को प्रोत्साहन देकर तथा आवास और निर्माण के क्षेत्र में विशाल परियोजना चला कर रोज़गार के नए अवसर पैदा करेगी। कांग्रेस शिक्षित बेरोजगारों पर विशेष रूप से ध्यान देगी। बेरोज़गारी को दूर करने के लिए प्रत्येक वर्ष एक करोड़ नए रोजगार उपलब्ध कराए जाएंगे।

4. आर्थिक सुधार–आर्थिक सुधारों की गति बनाए रखी जाएगी ताकि सकल घरेलू उत्पाद की वार्षिक दर 8 से 9 प्रतिशत प्राप्त की जा सके। पार्टी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में राष्ट्रीय सुधारों के अनुरूप बुनियादी परिवर्तन लाने का वायदा किया है ताकि परिवहन, संचार और जीवन की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं के मामले में शहर और गांवों का अन्तर कम किया जा सके।

5. कृषि सुधार-घोषणा-पत्र में कृषि पैदावार और किसानों की आर्थिक हालत में सुधार के लिए राज्य सहायता, प्रोत्साहन मूल्य तथा अन्य सम्बन्ध नीतियां जारी रखने और इनमें मज़बूती लाने का वायदा किया गया है। कृषि ऋण प्रणाली मज़बूत बनाई जाएगी तथा समूह ऋण योजना को बढ़ावा दिया जाएगा। सभी सार्वजनिक नलकूपों की हालत सुधारने और उन्हें चालू करने का समयबद्ध कार्यक्रम शुरू किया जाएगा। कांग्रेस काश्तकारों के लिए पट्टेदारी की व्यवस्था, ज़मीन की चकबन्दी और फालतू जमीन के वितरण की व्यवस्था और भूमि रिकार्ड रखने की बेहतर और सही व्यवस्था पर जोर देती रहेगी। कृषि को पूरी तरह से उद्योग का दर्जा दिया जाएगा। किसानों को उचित मज़दूरी दिलाई जाएगी।

6. उद्योग-औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि दर तीव्र की जाएगी। कृषि पर आधारित उद्योगों के विकास पर विशेष बल दिया जाएगा। लघु उद्योगों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जाएगा। कांग्रेस ने उद्योग और व्यापार के उदारीकरण की जो प्रक्रिया 1991 में की उसे वह जारी रखेगी। कांग्रेस सामरिक और सुरक्षा से सम्बद्ध क्षेत्रों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों में गैर-लाइसैंसीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करेगी। कांग्रेस निर्यात को प्रोत्साहन देने को सर्वोच्च प्राथमिकता देगी।

7. आवास-कांग्रेस आवास और निर्माण कार्यों में तेजी लाने के मार्ग में आ रही सभी कानूनी बाधाओं और अप्रभावी कानूनों को दूर करेगी। झुग्गियों और कच्ची बस्तियों को रहने लायक स्थानों परिवर्तित किया जाएगा। सभी बेघरों को घर दिए जाएंगे।

8. सार्वजनिक वितरण प्रणाली-सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार किया जाएगा कांग्रेस ये सुनिश्चित करेगी कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ सिर्फ ग़रीब और जरूरतमंद लोगों को मिले।
9. दोपहर का भोजन-प्राइमरी स्कूलों के सभी बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाएगा।
10. सभी बच्चों के लिए बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी।
11. देश में आपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना लागू की जाएगी।
12. धर्म-निरपेक्षता-कांग्रेस का धर्म-निरपेक्षता में अटल विश्वास है।

13. अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां-अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जन-जातियों के कल्याणकारी कार्यक्रम को और तेज़ किया जाएगा। कांग्रेस ये सुनिश्चित करेगी कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरी और शिक्षा में आरक्षण की वर्तमान नीति को पूरी तरह लागू किया जाए। आरक्षण को वैधानिक रूप देकर उन्हें संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा। अनुसूचित जाति तथा जनजाति के विद्यार्थियों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रमों का और अधिक विस्तार किया जाएगा। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की समुदायों की लड़कियों को प्रत्येक स्तर पर निःशुल्क शिक्षा दी जाएगी। देश के सभी आदिवासी क्षेत्रों में विशेष न्यायालयों को स्थापित किया जाएगा।

14. महिलाएं-कांग्रेस पार्टी महिलाओं के कल्याण और पुरुषों के समान अधिकार देने के लिए वचनबद्ध है। पार्टी महिलाओं के पूर्ण कानूनी, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष जारी रखेगी। शिक्षा और रोज़गार में लिंग भेद समाप्त कर दिया जाएगा। महिला मृत्यु दर कम करने की दृष्टि से विशेष योजनाएं शुरू की जाएंगी। सती प्रथा, दहेज प्रथा, महिला भ्रूण हत्या और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के विरुद्ध समाज सुधार आन्दोलन में कांग्रेस सदैव आगे रहेगी। समूह बचतों और ग्रामीण महिलाओं की गतिविधियों में महिला समृद्धि योजना का विस्तार करके उनके पक्ष में ही खाते खोलने तथा ब्याज के भुगतान की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।

15. अल्पसंख्यक-कांग्रेस अल्पसंख्यकों के आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिए वचनबद्ध है। कांग्रेस अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अपने 15 सूत्री कार्यक्रम की समय-समय पर समीक्षा करेगी और उसमें सुधार करेगी। पार्टी ने अल्पसंख्यकों के व्यक्तिगत कानून के मामले में किसी तरह का हस्तक्षेप न करने का वायदा किया है। कांग्रेस अल्पसंख्यकों और मानवाधिकारों के लिए एक नया मन्त्रालय गठित करेगी, ताकि इन दोनों के बीच बेहतर समन्वय सुनिश्चित किया जा सके। कांग्रेस उर्दू को उसका उचित स्थान दिलाएगी।

16. विकलांगों का कल्याण-अपंगता से ग्रस्त व्यक्तियों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने तथा उन्हें राष्ट्रीय जीवनधारा में बराबरी का अवसर देने के लिए अलग से पूरा कानून शीघ्र ही बनाने का वायदा किया है।

17. युवा वर्ग-कांग्रेस सभी स्कूलों में एन० सी० सी० को अनिवार्य करेगी। साक्षरता, वनीकरण योजना, परिवार नियोजन कार्यक्रम, समाज सुधार आन्दोलन, कानूनी अधिकारों की जानकारी जैसे आन्दोलन चलाने के लिए शिक्षित युवा जन को संगठित किया जाएगा और इन कार्यों में काम करने के लिए उन्हें उचित पारिश्रमिक दिया जाएगा।

18. बाल मज़दूर-बाल मजदूरी को कम करने के लिए हर सम्भव उपाय किए जाएंगे तथा खतरनाक उद्योगों में बाल मजदूरी को पूरी तरह समाप्त किया जाएगा।

19. बिजली-बिजली का उत्पादन अधिक किया जाएगा।
20. दूर-संचार तथा डाक-कांग्रेस दूर-संचार में एक क्रान्ति लाएगी। सभी गांवों और ग्राम पंचायतों को राष्ट्रीय दूर-संचार जाल तन्त्र से जोड़ दिया जाएगा। डाक प्रणाली को और अधिक कुशल बनाया जाएगा।

21. रेल लाइनें-देशभर में बड़ी रेल लाइनों का जाल बिछाया जाएगा।
22. सभी गांवों को रेल और सड़क मार्गों से जोड़ा जाएगा।
23. कांग्रेस ने असंगठित क्षेत्रों में कर्मचारियों के लिए नई सामाजिक बीमा योजना शुरू करने का वायदा किया है।

24. शिक्षा-कांग्रेस 14 वर्ष तक की अवस्था के बच्चों के लिए नि:शुल्क बुनियादी शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए संविधान में संशोधन करेगी। कांग्रेस प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के पक्ष में है। किसी भी विश्व विद्यालय में भर्ती होने वाले अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों को ट्यूशन फ़ीस और गुजारा भत्ता देने की छ: वर्ष की गारंटी दी जाएगी।

25. विदेश नीति-कांग्रेस की गुट-निरपेक्षता की नीति पर पूरा विश्वास है और पार्टी सभी देशों के साथ विशेषकर पड़ोसी देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के पक्ष में है। कांग्रेस नेपाल और बंगलादेश के साथ हिमालय क्षेत्र की नदियों के लिए एक नया एकीकृत विकास कार्यक्रम आरम्भ करेगी। कांग्रेस देश में पाकिस्तान के समर्थन से चलाए जा रहे आतंकवाद का मुकाबला करेगी। साथ ही वह पाकिस्तान के साथ आर्थिक, व्यापार, संस्कृति, शिक्षा और राजनीति के क्षेत्र में नज़दीकी सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करेगी। भारत रूस के साथ व्यापार और रक्षा के क्षेत्रों में और निकट सम्बन्ध बनाने के प्रयास जारी रखेगा। कांग्रेस अमेरिका के साथ आपसी हित और चिन्ता के सभी मुद्दों पर रचनात्मक बातचीत जारी रखेगी। कांग्रेस पूर्ण निशस्त्रीकरण के पक्ष में है और कांग्रेस सरकार परमाणु हथियारों के निशस्त्रीकरण के लिए अपनी कोशिश जारी रखेगी। हमारी परमाणु नीति हमेशा शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के प्रति समर्पित होगी। यदि पाकिस्तान ने परमाणु हथियारों को बनाना जारी रखा तो भारत को भी मजबूर होकर अपनी नीति बदलनी होगी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अपनी रणनीति में बदलाव की आवश्यकता-निःसन्देह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीय प्रजातन्त्र पर अमिट छाप छोड़ी है। लम्बे अर्से तक भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर छाई रहने वाली कांग्रेस पार्टी ने अन्य राजनीतिक दलों को कभी भी पनपने का अवसर नहीं दिया। दीर्घ काल तक भारतीय प्रजातन्त्र और समूचे राष्ट्र की बागडोर कांग्रेस पार्टी द्वारा संचालित होती रही। लेकिन पिछले एक दशक से कांग्रेस का प्रभुत्व, गरिमा, रणनीति और विश्वास विलुप्त होता जा रहा है। यही कारण है कि 1989 से लेकर 2014 तक के सभी आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं मिल सका है जिससे कि वह अपनी सरकार बना सके। पिछले एक दशक से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जनाधार अन्य क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय दलों की ओर चला गया है। विशेषतः दलितों और मुस्लिम मतदाताओं का कांग्रेस पार्टी से मोह भंग हुआ है। दूसरे कांग्रेस पार्टी की कार्यशीलता भी उसकी असफलता के लिए उत्तरदायी रही है। अतः ऐसी परिस्थिति में केन्द्र में सत्ता प्राप्त करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपनी रणनीति में बदलाव लाना होगा। कांग्रेस को अन्य प्रतिद्वन्द्वी दलों के मुकाबले अपने दाव-पेचों में कुशलता लानी होगी। निःसन्देह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बदलते हुए राजनीतिक वातावरण की आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी रणनीति में बदलाव करेगी।

चुनाव सफलता (Election Successes)-1980 के लोकसभा में जिन 525 स्थानों के लिए मतदान हुआ उनमें 351 स्थान कांग्रेस (आई) को मिले। इस प्रकार कांग्रेस (आई) को दो-तिहाई बहुमत प्राप्त हुआ।

मई, 1980 में हुए 9 राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में कांग्रेस (इ) को तमिलनाडु को छोड़कर शेष अन्य आठ राज्यों-बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत प्राप्त हुआ और इसकी सरकारें बनीं। 1984 के लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस (इ) को स्वर्गीय श्री राजीव गांधी के नेतृत्व में ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई थी, जो पहले कभी भी कांग्रेस को प्राप्त नहीं हुई थी। कांग्रेस (इ) को 508 सीटों (जिनके लिए चुनाव हुआ) में से 401 सीटें मिलीं। मार्च, 1985 में 11 राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में कांग्रेस (इ) को 8 राज्यों (बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) में भारी सफलता मिली और कांग्रेस (इ) की सरकारें बनीं। नवम्बर, 1989 की लोकसभा में कांग्रेस (इ) को केवल 193 सीटें मिलीं। कांग्रेस (इ) पार्टी के नेता राजीव गांधी को लोकसभा के विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता मिली थी। फरवरी, 1990 में 8 राज्य विधान सभाओं के चुनाव में कांग्रेस (इ) को महाराष्ट्र तथा अरुणाचल प्रदेश के अतिरिक्त अन्य राज्यों में कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 1991 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को 225 सीटें प्राप्त हुईं और फिर भी इसकी सरकार बनी।

नवम्बर, 1993 में पांच राज्यों-हिमाचल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा मिज़ोरम में सरकार बनाई। दिल्ली विधानसभा में कांग्रेस को केवल 14 सीटें मिलीं। दिसम्बर, 1993 में जनता दल (अ) के कांग्रेस (इ) में विलय के परिणामस्वरूप कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत प्राप्त हुआ। अप्रैल-मई, 1996 में लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को 144 सीटें मिलीं। इन चुनावों के साथ पांच राज्य विधान सभाओं के भी चुनाव हुए थे। इनमें भी कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। सितम्बर-अक्तूबर, 1996 को जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में भी पार्टी को कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। फरवरी, 1997 में पंजाब राज्य विधानसभा के चुनावों में पार्टी की भारी पराजय हुई। 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को केवल 142 सीटें प्राप्त हुईं और कांग्रेस को विरोधी दल के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। जबकि 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को केवल 114 सीटें ही प्राप्त हुईं। यह कांग्रेस पार्टी की अब तक की सबसे बुरी पराजय है।

मई, 2001 में चार राज्यों और एक संघीय क्षेत्र (पाण्डिचेरी) की विधानसभाओं के चुनाव के बाद कांग्रेस ने असम और केरल में सरकार का निर्माण किया। फरवरी, 2002 में चार राज्यों-पंजाब, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और उत्तराखंड की विधानसभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को पंजाब में 62, उत्तर प्रदेश में 25, मणिपुर में 12 और उत्तराखंड में 36 सीटें प्राप्त की। कांग्रेस ने इन चुनावों के बाद पंजाब, मणिपुर और उत्तराखंड में सरकार बनाई। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस गठबन्धन को 217 सीटें मिलीं। इनमें से कांग्रेस को 145 सीटों पर सफलता प्राप्त हुई। कांग्रेस ने डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में “संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन” की सरकार बनाई। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस गठबन्धन को 261 सीटें मिलीं। इनमें से कांग्रेस को 206 सीटों पर सफलता प्राप्त हुई। अतः कांग्रेस ने पुनः डॉ० मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार बनाई। परंतु 2014 में हुए 16वीं लोक सभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को केवल 44 सीटें ही मिल पाई थी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली

प्रश्न 3.
भारतीय जनता पार्टी की नीतियों तथा कार्यक्रमों का वर्णन कीजिए। (Explain the policies and programmes of Bhartiya Janata Party.)
उत्तर-
यद्यपि जुलाई, 1979 में जनता पार्टी का विभाजन दोहरी सदस्यता के प्रश्न पर हुआ था, परन्तु विभाजन के बाद भी दोहरी सदस्यता का विवाद समाप्त नहीं हुआ। 19 मार्च, 1980 को जनता पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड ने बहुमत से यह फैसला किया कि जनता पार्टी का कोई भी अधिकारी, विधायक और संसद् सदस्य राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की रोजमर्रा की गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सकता। बोर्ड की बैठक में श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लाल कृष्ण अडवाणी और श्री नाना जी देशमुख ने बोर्ड के इस निर्णय का विरोध किया और इस सम्बन्ध में तैयार किए गए प्रस्ताव में अपना भी मत दर्ज कराया। 4 अप्रैल को जनता पार्टी का एक और विभाजन प्रायः निश्चित हो गया, जब पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने अपने संसदीय बोर्ड के प्रस्ताव का अनुमोदन कर पार्टी के विधायकों और पदाधिकारियों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यों में भाग लेने पर रोक लगा दी। अनुमोदन प्रस्ताव के पक्ष में 17 सदस्यों ने और विरोध में 14 सदस्यों ने मत दिए। श्री अडवाणी के शब्दों में, “जनता पार्टी की कार्य समिति में पहली बार मतदान हुआ और यह भी किसी एक गुट को पार्टी से निकालने के लिए।”

5 अप्रैल, 1980 को भूतपूर्व जनसंघ के सदस्यों ने नई दिल्ली में दो दिन का सम्मेलन किया और एक नई पार्टी बनाने का निश्चय किया। सम्मेलन की अध्यक्षता श्रीमती विजयराजे सिंधिया ने की। 6 अप्रैल को भूतपूर्व विदेश मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में लगभग चार हजार प्रतिनिधि शामिल हुए और दो दिन का यह समारोह एक राजनीतिक दल के वार्षिक अधिवेशन की तरह ही संचालित किया गया। ”
भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा (Ideology of Bhartiya Janata Party)–भारतीय जनता पार्टी ने स्वर्गीय लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रान्ति के सपनों को साकार करने और राजनीति को सत्ता का खेल न बनाने का संकल्प किया है। 6 अप्रैल शाम को रामलीला मैदान में नई पार्टी के मठन की घोषणा सार्वजनिक रूप से करते हुए श्री वाजपेयी ने कहा कि हमारी पार्टी राष्ट्रीयता, लोकतन्त्र, गांधीवाद, समाजवाद और धर्म-निरपेक्षता में विश्वास करती है और इन सिद्धान्तों पर चल कर रचनात्मक और आन्दोलनात्मक कार्यक्रम अपनाएगी और देश में जन-जागृति का अभियान करेगी।

भारतीय जनता पार्टी की नीतियां एवं कार्यक्रम (Policies and Programme of BhartiyaJanata Party)अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के एक प्रमुख घटक के रूप में लड़े। भारतीय जनता पार्टी की महत्त्वपूर्ण नीतियों एवं कार्यक्रमों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है

(क) राजनीतिक कार्यक्रम (Political Programmes)-

1. राज्य की सत्ता की पुनःस्थापना-घोषणा-पत्र में कहा गया है कि पार्टी का सबसे प्रमुख कार्य राज्य और शासन की ‘इज्जत’ और ‘इकबाल’ को पुनः स्थापित करना है।
2. राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता-चुनाव घोषणा-पत्र में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी देश की एकता और अखण्डता की रक्षा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। यह कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत को एक देश मानती है तथा सब भारतीयों को, चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों, जाति या धर्म में विश्वास रखते हों, एक जन समझती है।

संवैधानिक सुधार-

  • पार्टी संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाएगी।
  • भाजपा विदर्भ की अलग राज्यों के रूप में स्थापना करेगी। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा।
  • विधानमण्डलों सहित सभी निर्वाचित निकायों की निर्धारित अवधि 5 वर्ष सुनिश्चित करने के लिए उपाय किए जाएंगे।

3. सकारात्मक धर्म-निरपेक्षता-भारतीय जनता पार्टी सकारात्मक धर्म-निरपेक्षता में विश्वास रखती है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्महीन राज्य नहीं है। पार्टी सभी धर्मों को समान मानने में विश्वास रखती है। पार्टी देश की संस्कृति में विश्वास रखती है। धर्म-निरपेक्षता को कभी एक सम्प्रदाय को खुश रखने का बहाना अथवा सामूहिक रूप से वोट इकट्ठे करने की घृणित राजनीतिक चाल नहीं बनने देनी चाहिए।

4. केन्द्र और राज्य में सम्बन्ध-घोषणा-पत्र में कहा गया है कि पार्टी देश की एकता और अखण्डता को मज़बूत करने तथा सभी क्षेत्रों का संतुलित विकास सुनिश्चित करने के लिए एक मज़बूत केन्द्र के साथ ही सशक्त स्वायत्तशासी राज्यों का भी पक्षधर है। घोषणा-पत्र में लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी केन्द्र और राज्यों के बीच उस सन्तुलन को पुनः स्थापित करेगी जिसकी हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी और इस उद्देश्य से निम्नलिखित कार्य किए जाएंगे-

  • भारतीय जनता पार्टी सरकारिया आयोग की प्रमुख सिफ़ारिशों को लागू करेगी।
  • पार्टी राज्य सरकारों को बर्खास्त करने और राज्य विधानमण्डलों को भंग करने के लिए अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को समाप्त करेगी।
  • राज्य सरकारों का समर्थन किया जाएगा और उन्हें शक्तिशाली बनाया जाएगा, उनमें अस्थिरता नहीं लायी जाएगी और न ही उनका तख्ता पलटा जाएगा।
  • राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति राज्य सरकारों की सलाह से की जाएगी।

5. निष्पक्ष चुनाव-चुनाव उद्घोषणा-पत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि भारतीय जनता पार्टी चुनावों की श्रेष्ठता को मानती है। इसका विश्वास है कि चुनाव नियमित रूप से तथा बहुत ही निष्पक्षता से कराए जाने चाहिएं और इसलिए चुनाव सम्बन्धी सुधार को उच्च प्राथमिकता देगी।

6. भ्रष्टाचार-घोषणा-पत्र में कहा गया है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ राजनीतिक तथा चुनाव सम्बन्धी भ्रष्टाचार में निहित है जबकि चुनावों को साफ़-सुथरा बनाने के आयोग का पहले वर्णन किया है तो भी राजनीतिक भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में सामान्य रूप से निम्नलिखित कदम उठाए जाएंगे-

  • विदेशों से किए गए समझौतों में भ्रष्टाचार के मामलों पर रक्षा सौदों में कमीशन लेने वालों की जांच की जाएगी और दोषियों को दण्डित किया जाएगा।
  • यह ओम्बुड्समैन-लोकपाल तथा लोकायुक्त तथा नियुक्त करने के लिए कानून बनाएगी और प्रधानमन्त्री तथा मुख्य मन्त्रियों को इनके अन्तर्गत लाया जाएगा।
  • सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में क्रय एवं ठेके आदि देने सम्बन्धी प्रक्रिया तथा नियमों को सुचारु बना दिया जाएगा और राजनीतिक अधिकारियों के स्व-विवेक की शक्तियों को विनियमित कर दिया जाएगा।
  • क्रय तथा ठेके आदि देने का काम करने वाले सरकारी विभागों तथा सार्वजनिक क्षेत्रों के निगमों के दैनिक कार्य में राजनीतिक हस्तक्षेप तथा दखल-अन्दाजी को समाप्त कर दिया जाएगा।
  • बचत के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन तथा ईमानदार कर दाता को परेशानी से बचाने के लिए और काले धन को बढ़ने से रोकने के लिए व्यवस्था करके ढांचे को वैज्ञानिक और सुचारु रूप दिया जाएगा।
  • सब मन्त्रियों को प्रति वर्ष अपनी सम्पत्ति के बारे में घोषणा करनी होगी।
  • सरकारी विभागों के खर्चे में कमी की जाएगी।

7. उत्तर-पूर्व क्षेत्र (North-East Region)-उत्तर-पूर्व क्षेत्र की समस्याओं को हल करने के लिए पार्टी विशेष ध्यान देगी। भारत-बंगला देश की सीमा पर कांटेदार तार लगाई जाएगी। बाहर से आए लोगों का पता लगाकर उनका नाम मतदाता सूची से काटा जाएगा। सीमावर्ती राज्यों में सभी नागरिकों को पहचान-पत्र दिए जाएंगे। सीमा पार से प्रशिक्षण शिविरों से आतंकवादियों तथा विदेशी हथियारों को अन्दर आने से रोका जाएगा। सुरक्षा तन्त्र तथा खुफिया नेटवर्क को सुदृढ़ किया जाएगा।

8. जम्मू-कश्मीर-जम्मू-कश्मीर से सभी विदेशियों को निकाला जाएगा। आतंकवाद के खतरे और पाकिस्तान से आ रहे आतंकवादियों से निपटने के लिए सुरक्षा बलों को पूरी स्वतन्त्रता दी जाएगी। डोडा को अशान्त क्षेत्र घोषित किया जाएगा। जम्मू-कश्मीर के सभी आतंकग्रस्त क्षेत्रों के विस्थापितों का पुनर्वास किया जाएगा। राज्य में स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव कराए जाएंगे।

9. हिमालय क्षेत्र- भारतीय जनता पार्टी हिमालय क्षेत्र के लिए एक सुरक्षा नीति तैयार करेगी ताकि भारत के राष्ट्रीय हितों की पूरी रक्षा की जा सके।

10. न्यायिक सुधार-भारतीय जनता पार्टी शीघ्र, निष्पक्ष और कम खर्चीले न्याय की व्यवस्था के लिए उचित कदम उठाएगी। न्यायाधीशों के खाली पदों पर तुरन्त नियुक्ति की जाएगी और ऐसा कानून बनाएगी कि मुकद्दमों का निपटारा एक वर्ष में किया जा सके।

11. पुलिस और जनता-पुलिस राज्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। पिछले कई वर्षों से पुलिस और जनता के बीच की खाई निरन्तर चौड़ी होती जा रही है। जनता पुलिस के जुल्म की शिकायत करती है और पुलिस राजनीतिक हस्तक्षेप तथा रहन-सहन और काम की खराब हालत की शिकायत करती है। पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाएगा।

12. प्रशासनिक सुधार-प्रशासन को जनता का हितैषी, निष्पक्ष और जवाबदेह बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी प्रशासन में महत्त्वपूर्ण सुधार करेगी। हिंसा फैलने के लिए जिला प्रशासन को जिम्मेवार ठहराया जाएगा। नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों का सेवाकाल बढ़ाने का समर्थन नहीं किया जाएगा। केन्द्र और राज्यों में प्रशासनिक सुधार विभाग को सुदृढ़ किया जाएगा।

13. मानव अधिकार आयोग- भारतीय जनता पार्टी वर्तमान प्रभावहीन अल्पसंख्यक आयोग के क्षेत्राधिकार को बढ़ाकर इसे एक मानव अधिकार आयोग के रूप में परिवर्तित कर देगी जिससे वह सभी व्यक्तियों, वर्गों तथा सम्प्रदायों के उचित अधिकारों की देखभाल कर सके।

14. शक्तियों का विकेन्द्रीकरण और पंचायती राज-भारतीय जनता पार्टी शक्तियों के विकेन्द्रीकरण और पंचायती राज संस्थाओं में विश्वास रखती है। पंचायती राज को सुदृढ़ बनाने के लिए 73वें और 74वें संशोधन में उचित परिवर्तन करेगी। पंचायतें को आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर बनाया जाएगा।

(ख) राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था (National Economy)-भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणा-पत्र में यह वायदा किया गया है कि देश में मानव हितकारी अर्थव्यवस्था की स्थापना की जाएगी। पार्टी पूर्ण रोजगार प्राप्त करने, अधिकतम उत्पादन करने, मूल्यों को स्थिर रखने और अधिकाधिक लोगों को ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाने के लिए सब आवश्यक कदम उठाएगी, जब तक कि देश से ग़रीबी न समाप्त हो जाए। भारतीय जनता पार्टी स्वदेशी पर जोर देगी। भारतीय जनता पार्टी के आर्थिक कार्यक्रम एवं नीतियां इस प्रकार हैं

1. कृषि और ग्रामीण विकास-घोषणा-पत्र में कहा गया है कि भूमि सम्बन्धी कानूनों को लागू किया जाएगा, चालू बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को जल्दी से पूरा किया जाएगा, हज़ारों छोटे-छोटे सिंचाई के कामों को शुरू किया जाएगा, खेती के काम आने वाली चीज़ों को सस्ते दामों में उपलब्ध कराया जाएगा, किसानों को फसल के लाभप्रद मूल्य दिए जाएंगे, कृषिजन्य पदार्थों तथा औद्योगिक वस्तुओं के मूल्यों में समानता स्थापित की जाएगी। पार्टी किसानों, कृषि श्रमिकों और ग्रामीण कारीगरों के कर्जे माफ़ करेगी। पार्टी कृषि-श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी दिलवाएगी। योजना राशि का 60 प्रतिशत कृषि और ग्रामीण विकास के लिए निर्धारित किया जाएगा। प्रत्येक गांव में सड़कों, सिंचाई, पीने के पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। गांव में बेघर लोगों को घर दिए जाएंगे।

2. गौ-रक्षा-पार्टी गायों और गौवंशों के वध पर प्रतिबन्ध लगाएगी, जिसमें बैल और बछड़े भी शामिल होंगे और गौ-मांस के निर्यात सहित इनके व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाएगी।

3. उद्योग-चुनाव घोषणा-पत्र में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी उद्योग का चहुंमुखी विकास करेगी और उन्हें प्रोत्साहन देगी। लघु तथा कुटीर उद्योगों के क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जाएगा। बहु-राष्ट्रीय निगमों, अन्य विदेशी कम्पनियों बड़े उद्योगों, लघु उद्योगों तथा कुटीर उद्योगों का क्षेत्र निर्धारित किया जाएगा। औद्योगिक कारखानों का आधुनिकीकरण किया जाएगा।

4. कर नीति- पार्टी ने कर ढांचे को युक्तिसंगत बनाने तथा चुंगी एवं बिक्री कर को समाप्त करने का पूरा आश्वासन दिया है। पार्टी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों के दायित्व को स्वेच्छा से पालन करने के लिए एक पद्धति तैयार करेगी। घोषणापत्र में कहा गया है कि कर वंचकों तथा तस्करों से सख्ती के साथ निपटने के लिए नियमों से समुचित प्रावधान करेगी।

5. कीमतों में स्थिरता-घोषणा-पत्र के अनुसार भ्रष्टाचार को समाप्त करके एवं वितरण को सुचारु बनाकर मूल्यों में स्थिरता बनाए रखी जाएगी। यदि मूल्यों में वृद्धि हुई तो महंगाई भत्तों में तुरन्त वृद्धि करके उसके प्रभाव को समाप्त कर दिया जाएगा।

6. उपभोक्ता संरक्षण–पार्टी उपभोक्ता संरक्षण कानून में सुधार करेगी और उसको अच्छे ढंग से लागू करेगी। उपभोक्ता आन्दोलन को बढ़ावा दिया जाएगा।

7. काला धन-पार्टी काले धन के निर्माण को रोकने के कड़े उपाय करेगी।

(ग) सामाजिक कार्यक्रम (Social Programmes)-

1. अनुसूचित जाति एवं जनजाति-पार्टी अस्पृश्यता विरोधक कानूनों को सख्ती से लागू करेगी तथा खेतिहर मजदूरों को भूमि बांटने तथा बेघर लोगों को मकान बनाने के लिए भूमिखण्ड देने के सम्बन्ध में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी, आदिवासियों के लिए नई वन-नीति बनाएगी। पार्टी आरक्षण सहित सभी विशेष सुविधाओं और वरीयता प्राप्त अवसरों सम्बन्धी प्रावधानों को इस ढंग से लागू करेगी जिससे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से जुड़े अधिकसे-अधिक वर्गों और अधिक लोगों को हर तरह से और हर स्तर पर लाभ पहुंचे।

2. पिछड़े वर्ग-भाजपा पिछड़े वर्गों के सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण नीति जारी रहेगी।

3. अल्पसंख्यक-भाजपा अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी खुशहाली के लिए समान अवसर प्रदान करेगी तथा उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी।

4. महिलाएं-भारतीय जनता पार्टी लिंग के आधार पर असमानता को समाप्त करेगी और शादी की रजिस्ट्रेशन अनिवार्य करेगी। पार्टी महिलाओं के लिए छात्रावास बनाएगी, बाल-विवाह को रोकेगी, पत्नी को पति की सम्पत्ति तथा आय में बराबर का भागीदार बनाएगी और दहेज के कारण हुई मृत्यु को हत्या माना जाएगा। सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए तीस प्रतिशत आरक्षण करेगी। राज्य विधानसभाओं या संसद् में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाएंगी। तलाक सम्बन्धी कानूनों में भेदभाव पूर्ण धाराओं को हटाया जाएगा और बहु-विवाह को समाप्त किया जाएगा। समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धान्त को लागू किया जाएगा। लड़कियों को शिक्षा देने के लिए विशेष सुविधाएं दी जाएंगी।

5. बच्चे-पार्टी बच्चों के विकास के लिए अच्छे विद्यालय खोलेगी, खेल के मैदानों की व्यवस्था करेगी तथा पीने के लिए अच्छे दूध का प्रबन्ध करेगी। प्रत्येक बच्चे की वार्षिक शारीरिक जांच करवाई जाएगी।

6. युवाजन-भारतीय जनता पार्टी युवाजनों को ग़रीबी दूर करने तथा सामाजिक बुराइयों को दूर करने में लगाएगी।

7. घर और शहर विकास-पार्टी प्रत्येक परिवार को घर के लिए सस्ते भाव पर ज़मीन देगी और शहर के विकास के लिए उचित कदम उठाएगी।

8. शिक्षा- भारतीय जनता पार्टी 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देगी और प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम लागू करेगी। पार्टी नैतिक शिक्षा को अनिवार्य करेगी और अध्यापकों के वेतन तथा स्तर में वृद्धि करेगी।

9. भाषा-पार्टी तीन-सूत्रीय भाषा फार्मूला लागू करेगी और सरकारी भाषा पर संसदीय समिति की सिफ़ारिशों को लागू करेगी। पार्टी हिन्दी और संस्कृत का विकास करेगी।

(घ) राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security)—पार्टी राष्ट्रीय सुरक्षा को जिम्मेवारी से निभाने के लिए बड़ी जिम्मेवारी से काम लेगी। पार्टी सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील सीमावर्ती राज्यों जैसे-जम्मू और कश्मीर, पंजाब, पूर्वोत्तर प्रदेश तथा असम की सामाजिक तथा राजनीतिक गड़बड़ियों को दूर करने की कोशिश करेगी।

(ङ) विदेश नीति (Foreign Policy)—पार्टी ने स्पष्ट किया है कि वह स्वतन्त्र विदेश नीति अपनाएगी तथा विश्व शान्ति, नि:शस्त्रीकरण तथा नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था पर जोर देगी। भाजपा परमाणु अस्त्र नीति का पुनर्मूल्यांकन करेगी और परमाणु अस्त्र बनाने का विकल्प इस्तेमाल करेगी। पार्टी ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को मजबूत करने, महाशक्तियों के प्रभुत्त्व को कम करने तथा पड़ोसी देशों के साथ शान्ति और मित्रता की नीति अपनाने का भी वचन दिया है। पार्टी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य का स्थान दिलाने के लिए प्रयास करेगी। विदेशों में गए भारतीयों के लिए दोहरी नागरिकता के प्रश्न पर नए सिरे से विचार किया जाएगा। भाजपा सभी देशों के बीच शान्ति स्थापित करने, विश्व के सभी लोगों की समृद्धि और इस महान् तथा प्राचीन सभ्यता वाले देश के गौरव के अनुरूप विश्व के मामलों में भारत की भूमिका के विस्तार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराती है।

केन्द्र में सत्ता प्राप्ति के सन्दर्भ में भाजपा की क्षमता-भारत में दीर्घ काल तक एक ही राजनीतिक दल का प्रभुत्व बना रहा। अन्य दलों को उभरने का अधिक अवसर नहीं मिला, इसी कारण उनकी केन्द्र में सत्ता प्राप्ति की दावेदारी अल्पकालिक ही रही। इसी दौड़ में भारतीय जनता पार्टी का भी नाम आता है। भारतीय जनता पार्टी पर आरोप लगाया जाता है कि यह हिन्दुवादी और संकीर्ण विचारों वाली पार्टी है। इसे यदि केन्द्र में सत्ता में लाया गया तो भारतीय विविधतापूर्ण समाज को भारी क्षति होगी। आलोचकों का मत है भाजपा की उग्र विचारधारा भारतीय समुदाय के एक बड़े वर्ग को निराश कर देगी जिससे राष्ट्रीय एकता की नींव हिल जाएगी। परन्तु आलोचकों का ऐसा मानना उचित नहीं कहा जा सकता। भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा पुरातन भारतीय संस्कृति का स्पष्टीकरण है। इसकी नीतियां बड़ी सुदृढ़ और कार्यक्रम बहुत व्यापक है।

इसका संगठनात्मक आधार अत्यन्त सुदृढ़ है। इसके नेताओं के पास प्रशासनिक कार्यों का दीर्घकालीन अनुभव है। विशेषतया भूतपूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व क्षमता पर किसी को सन्देह नहीं था। इतना ही नहीं इस पार्टी के अनेक नेताओं ने अपनी राजनीतिक क्षमता के कारण ही विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। इस पार्टी ने समाज के हर वर्ग अथवा समुदाय को साथ लेकर चलने तथा आम सहमति से शासन संचालन पर बल दिया। आर्थिक रूप से भी भाजपा की नीतियां राष्ट्र हित को सर्वोपरि मानती हैं। भाजपा द्वारा अपनी नीतियों और कार्यक्रमों मे किए जाने वाले समयानुकूल बदलाव तथा इसकी प्रशासनिक क्षमता को ध्यान में रख कर ही भारतीय मतदाताओं ने 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में इस पार्टी को 282 सीटें जिता दी थी, परिणामस्वरूप इस पार्टी ने श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार का निर्माण किया।

चुनाव सफलताएं (Election Successes) भारतीय जनता पार्टी को चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दी और इसको चुनाव लड़ने के लिए ‘कमल का फूल’ चुनाव चिह्न दिया। दिसम्बर, 1984 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को केवल दो सीटें मिलीं और पार्टी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनाव हार गए। मार्च, 1985 में राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में भी इसको विशेष सफलता नहीं मिली। परन्तु नवम्बर, 1989 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 88 सीटें मिलीं और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन के कारण ही राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बन सकी। फरवरी, 1990 में हुए 8 राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में बहुत अधिक सफलता मिली। मध्य प्रदेश और गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने जनता दल के साथ मिलकर सरकार बनाई। 1991 में दसवीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी को 119 सीटें मिली और इसे विरोधी दल के रूप में मान्यता दी गई।

जून, 1991 में उत्तर प्रदेश में पहली बार भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। नवम्बर, 1993 में हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मिज़ोरम, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभाओं के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को दिल्ली में सबसे अधिक सफलता मिली और इसकी दिल्ली तथा राजस्थान में सरकार बनी। उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में इसे उम्मीद से कम सीटें मिली जबकि हिमाचल प्रदेश में इसकी बुरी तरह पराजय हुई। नवम्बर-दिसम्बर, 1994 व फरवरी-मार्च 1995 में दस राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में इस दल को अच्छी सफलता प्राप्त हुई। इस दल ने गुजरात में अकेले व महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ मिलकर अपनी सरकारें बनाईं। भारतीय जनता पार्टी ने दक्षिणी राज्यों में भी अपने पांव पसारे हैं। 1996 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 161 सीटें प्राप्त हुईं।

भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। राष्ट्रपति ने पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। लोकसभा में बहुमत सिद्ध न होने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी को 28 मई, 1996 को प्रधानमन्त्री पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। जून, 1996 में भारतीय जनता पार्टी को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा दिया गया और अटल बिहारी वाजपेयी मान्यता प्राप्त विरोधी नेता बने। फरवरी-मार्च, 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें प्राप्त हुईं। भारतीय जनता पार्टी ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई। भारतीय जनता पार्टी ने सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोकसभा का चुनाव राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में लड़ा। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें प्राप्त हुईं और इसने राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई। मई, 2001 में चार राज्यों (असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल) और एक संघीय क्षेत्र (पाण्डिचेरी) की विधानसभाओं के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को केवल 12 सीटें प्राप्त हुईं।

फरवरी, 2002 में हुए उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और पंजाब विधानसभाओं के चुनावों में भाजपा को क्रमश: 107, 19, 4 तथा 3 सीटें प्राप्त हुईं। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले ‘राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन’ को केवल 186 सीटें ही मिल पाईं। इसमें से भारतीय जनता पार्टी को केवल 138 सीटें ही मिलीं, जिस कारण इस पार्टी को सत्ता से हटना पड़ा। अप्रैल-मई, 2009 में हए 15वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को केवल 159 सीटें ही मिल पाईं। इसमें से भारतीय जनता पार्टी को केवल 116 सीटें ही मिलीं। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा चुनावों में भाजपा को 282 सीटें (राजग को 334 सीटें) मिलीं। अतः इसने श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार का निर्माण किया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली

प्रश्न 4.
भारतीय साम्यवादी दल के संगठन तथा कार्यक्रमों का वर्णन करो। (Discuss the organisation and programmes of the Communist Party of India.)
अथवा
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a brief note on the Communist Party of India.)
उत्तर-
भारतीय साम्यवादी दल राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दल है। इसकी स्थापना 1924 में की गई। इसकी स्थापना में मानवेन्द्र नाथ राय (M.N. Roy) का बड़ा हाथ था।
स्वतन्त्रता के पश्चात् इस दल ने बड़ी तेजी से प्रगति की। 1957 में केरल राज्य में इसे सरकार बनाने का अवसर मिला। यह भारत के किसी राज्य में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी। 1959 में इस दल में फूट पड़ गई और उसके दो गुट बन गए। 1962 में जब भारत का चीन के साथ विवाद उठा तो एक गुट ने भारत सरकार को ठीक बताया तथा उसका समर्थन किया परन्तु दूसरे ने चीन को ठीक बताया तथा सरकार पर जोर दिया कि वह चीन के साथ शान्ति वार्ता आरम्भ करे। अप्रैल, 1964 में दल की राष्ट्रीय परिषद् की बैठक में 96 से 32 सदस्य बाहर चले गए। 8 सितम्बर, 1964 को लोकसभा के 32 में से 11 साम्यवादी सदस्यों ने गोपालन के नेतृत्व में अपना एक अलग दल मार्क्सिस्ट (C.P.M.) नाम से संगठित कर लिया और 15 सितम्बर, 1964 को उसे चुनाव आयोग ने भी मान्यता दे दी। आजकल श्री एस. सुधाकर रेड्डी इसके महासचिव हैं।

भारतीय साम्यवादी दल का कार्यक्रम (Programme of the C.P.L.)-अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर चुनावी घोषणा-पत्र जारी करते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन तथा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की आलोचना की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में राजनीतिक अस्थिरता, निर्धनता, बेरोज़गारी, महंगाई व बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को दोषी ठहराया। पार्टी ने कहा कि कांग्रेस ही केन्द्र में एकमात्र विकल्प नहीं है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कहना है कि आज की विषम परिस्थितियों में राजनीतिक स्थिरता, एकता, सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास को केवल वामपंथी दल ही सुनिश्चित कर सकते हैं। घोषणा-पत्र में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मतदाताओं से अपील की कि वे कांग्रेस तथा साम्प्रदायिक शक्तियों को हराएं तथा वामपंथी दलों को सरकार बनाने का अवसर दें।

(क) राजनीतिक कार्यक्रम (Political Programme of the C.P.I.)-पार्टी का राजनीतिक कार्यक्रम एवं नीतियां निम्नलिखित हैं

  • पार्टी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए वचनबद्ध है।
  • पार्टी साम्प्रदायिक सद्भावना और धर्म-निरपेक्ष लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के पक्ष में हैं। पार्टी धार्मिक स्थानों का साम्प्रदायिक तथा देश विरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करने के विरुद्ध है। घोषणा-पत्र में कहा गया है कि धर्म-निरपेक्ष ताकतों की मजबूती के लिए ज़रूरी है कि विध्वंसकारी तत्त्वों पर काबू पाया जाए।
  • पार्टी केन्द्र राज्य सम्बन्धों का पुनर्गठन कर के राज्यों को आर्थिक शक्तियां देने के पक्ष में है।
  • पार्टी अन्तर्राज्य परिषद् को पुनर्गठित करके उसे क्रियाशील बनाएगी।
  • जम्मू कश्मीर के सम्बन्ध में संविधान की धारा 370 की रक्षा की जाएगी।
  • भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए फौरन लोकपाल विधेयक व्यवस्था बनाई जाएगी जिसके अधिकार क्षेत्र में प्रधानमन्त्री को भी लाया जाएगा। भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए कारगर कदम उठाए जाएं।

(ख) आर्थिक कार्यक्रम (Economic Programme)-नौकरशाही नियन्त्रण को समाप्त करने और लाल फीताशाही खत्म करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक सुधार की आवश्यकता पर बल देते हुए भारतीय साम्यवादी दल ने अपना निम्न कार्यक्रम प्रस्तुत किया-

  • सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण रोका जाए। दूरसंचार, बिजली आदि नीतियों को बदला जाए। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को चुस्त-दुरुस्त किया जाए।
  • मौजूदा औद्योगिक नीति को बदला जाए। अंधाधुंध उदारीकरण की नीतियों को बदला जाए जोकि देश की सम्प्रभुता को कमजोर कर रही है।
  • बजट का 50 प्रतिशत कृषि, बागवानी, मत्स्यपालन, पशु-पालन आदि के विकास के लिए आबंटित किया जाएगा और सिंचाई की सुनिश्चित व्यवस्था की जाएगी।
  • किसानों को निर्धारित कीमतों पर कृषि सामानों की आपूर्ति की जाएगी। खासकर छोटे और सीमांत किसानों को सहायता प्राप्त कृषि सामान, कर्ज़, आदि दिया जाएगा।

(ग) सामाजिक कार्यक्रम (Social Programme)-

  • बाल-मज़दूरी और बन्धुआ मज़दूरी जैसी बुराइयों का उन्मूलन किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय बाल मज़दूर एवं बन्धुआ मज़दूर आयोग का गठन हो।
  • सभी लोगों को अवश्य ही संतुलित आहार, स्वच्छ पेयजल के लिए संतुलित सुनिश्चित आर्थिक सुविधा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • बाल शोषण, खासकर लड़कियों के शारीरिक शोषण के लिए अवश्य ही कठोर सज़ा दी जानी चाहिए।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अवश्य ही मज़बूत किया जाना चाहिए।
  • काम के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में शामिल करना और बेकारी भत्ता देना चाहिए।
  • सभी गांवों तथा शहरी इलाकों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था करना।
  • शिक्षा तथा जन साक्षरता का प्रसार किया जाए। शिक्षा के निजीकरण को रोका जाए।
  • महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लैंगिक समानता सम्बन्धी विश्व महिला सम्मेलन द्वारा स्वीकृत बीजिंग घोषणा 1995 को लागू किया जाए। संविधान के अन्तर्गत दी गई संवैधानिक तथा कानूनी गारंटियों को लागू किया जाए। सभी समुदायों की महिलाओं के लिए समान कानूनी अधिकार प्रदान किए जाएं।
  • श्रमजीवी महिलाओं के लिए होस्टल एवं शिशु-शालाओं की स्थापना की जानी चाहिए।
  • आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों को रोका जाए।

(घ) विदेश नीति (Foreign Policy)—विश्व के बदलते हुए परिवेश में अमेरिका द्वारा विश्व पर अपनी नई विश्व व्यवस्था थोपने और थानेदारी जमाने का दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध किया जाएगा। पार्टी विकासशील देशों के आपसी सहयोग पर बल देगी। भारत की परमाणु अप्रसार सन्धि की नीति के प्रति पार्टी को दृढ़ विश्वास है। वर्तमान विश्वसन्दर्भ में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को और अधिक सशक्त बनाया जाएगा।

चुनाव सफलताएं (Election Successes)-जनवरी, 1980 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को केवल 11 सीटें मिलीं। मई, 1980 में हुए 9 राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में इसको 54 सीटें मिलीं। दिसम्बर, 1984 के लोकसभा के चुनाव में इसे केवल 8 सीटें मिलीं। 1989 के लोकसभा के चुनाव में पार्टी को केवल 12 सीटें मिलीं। फरवरी, 1990 में हुए 8 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में पार्टी को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। मई, 1991 में भारतीय साम्यवादी दल ने जनता दल तथा अन्य वामपंथी दलों से मिल-कर चुनाव लड़ा। परन्तु इसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इसको केवल 13 सीटें प्राप्त हुईं। नवम्बर, 1993 में हुए पांच राज्यों तथा दिल्ली की विधानसभाओं के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी को विशेष सफलता नहीं मिली।

नवम्बर-दिसम्बर 1994 में हुए और फरवरी-मार्च 1995 में हुए दस राज्य विधानसभा के चुनावों में इसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली। आन्ध्र में इसने तेलुगू देशम् के सहयोगी दल के रूप में चुनाव लड़ा। 1996 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को केवल 12 सीटें मिलीं। अन्य दलों के साथ मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी पहली बार केन्द्र में मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित हुई। पार्टी संयुक्त मोर्चा सरकार में घटक रही है। फरवरी, मार्च 1998 में 12वीं लोकसभा चुनावों में पार्टी को 9 सीटें जबकि 1999 में 13वीं लोकसभा में केवल 4 सीटें प्राप्त हुईं। मई, 2001 में चार राज्यों (असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल) और एक संघीय क्षेत्र (पाण्डिचेरी) की विधानसभाओं के चुनाव में भारतीय साम्यवादी पार्टी को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय साम्यवादी पार्टी ने 10 सीटें जीती। इस पार्टी ने कांग्रेस के नेतृत्व में बनी “संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन” की सरकार को बाहर से समर्थन दिया। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनाव में भारतीय साम्यवादी पार्टी ने केवल 4 सीटें जीतीं। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में इस दल को केवल एक सीट ही मिल पाई थी।

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प्रश्न 5.
मार्क्सवादी साम्यवादी दल की नीतियां तथा उसके कार्यक्रमों का वर्णन करो। .
[Describe the policies and programme of C.P.I. (M]
उत्तर-
1959 में चीन के साथ सम्बन्धों के बारे में भारतीय साम्यवादी दल में दो गुट बन गए और 1962 के चीन के आक्रमण ने इस मतभेद को और अधिक बढ़ा दिया। एक गुट ने चीन के आक्रमण को आक्रमण कहा और इसका मुकाबला करने के लिए भारत सरकार को पूरी सहायता देने का वचन दिया, परन्तु दूसरे गुट ने जो चीन के प्रभाव में था, इसे सीमा सम्बन्धी विवाद कह कर पुकारा। परिणामस्वरूप 1964 में वामपंथी सदस्य जिनकी संख्या लगभग एकतिहाई थी, भारतीय साम्यवादी दल से अलग हो गए और मार्क्सवादी साम्यवादी दल (C.P.M.) की स्थापना की। आजकल श्री सीता राम यचुरी पार्टी के महासचिव हैं।

मार्क्सवादी पार्टी का कार्यक्रम (PROGRAMME OF MARXIST PARTY)-

अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा चुनावों के अवसर पर मार्क्सवादी पार्टी ने चुनाव घोषणा-पत्र जारी किया। मार्क्सवादी पार्टी का कार्यक्रम एवं नीतियां निम्नलिखित हैं

(I) राजनीतिक कार्यक्रम (Political Programmes)-

  • राज्यों को और अधिक शक्तियां देकर केन्द्र राज्य सम्बन्धों का पुनर्गठन किया जाए।
  • राज्यों के पक्ष में और वित्तीय साधनों का वितरण और केन्द्र के हाथों में इन साधनों का अति-केन्द्रीयकरण समाप्त हो।
  • धर्म को राजनीति से अलग रखने सम्बन्धी कानून का निर्माण।
  • अल्पसंख्यकों के जायज अधिकारों की रक्षा की जाए।
  • सभी धार्मिक स्थलों की 15 अगस्त, 1947 को जो स्थिति थी उसे ज्यों का त्यों बनाए रखने की व्यवस्था का कड़ाई से पालन किया जाए। अयोध्या विवाद का जल्दी निपटारा करने के लिए उसे सर्वोच्च न्यायालय को सौंपने का वायदा किया।
  • कश्मीर समस्या के समाधान के लिए सभी राजनीतिक उपायों की घोषणा की जाए। इसके साथ ही धारा-370 की रक्षा की जाए।

(II) आर्थिक कार्यक्रम (Economic Programmes)

  • देश की आर्थिक सम्प्रभुता की रक्षा की जाए और उसकी आत्मनिर्भरता को मजबूत बनाया जाए। अंधाधुंध उदारीकरण की नीतियों को बदला जाए जोकि देश की सम्प्रभुता को कमजोर कर रही है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण रोका जाए। दूरसंचार, बिजली आदि नीतियों को बदला जाए। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को चुस्त दुरस्त किया जाए।
  • मौजूदा औद्योगिक नीति को बदला जाए। नई नीति ऐसी हो जोकि घरेलु उद्योगों को मज़बूती प्रदान करे। विदेशी पूंजी के प्रवेश में इजाज़त देने का फैसला, राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और औद्योगिक सम्बन्धी ज़रूरतों के आधार पर हो।
  • 1970 के भारतीय पेटेंट कानून में ऐसा कोई भी संशोधन न हो जो भारत की सम्प्रभुत्ता को कमजोर करता हो।
  • मज़दूरों को भयानक शोषण से बचाया जाए व पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए।
  • गुप्त मतदान के जरिए ट्रेड यूनियनों को मान्यता दी जाए।
  • सैनिकों के लिए एक रैंक एक पेन्शन की व्यवस्था लागू की जाए।
  • काम के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी जाए।

(III) कृषि क्षेत्र (Agriculture Area)

  • भूमि सुधारों को ज़ोरों से लागू किया जाए। जोतने वालों में भूमि का वितरण किया जाए।
  • ग़रीब किसानों का कर्ज माफ किया जाए। किसानों को पैदावार के लाभकारी दाम दिए जाएं और उन्हें सस्ते ऋण तथा अनुदान देकर खेती में लगने वाली चीजें उपलब्ध कराई जाएं।
  • सिंचाई के प्रसार के लिए कहीं ज्यादा योजना आबंटन हो, फ़सल बीमा की समुचित योजनाएं हों।
  • समुचित जल संसाधन नीति बनाई जाए ताकि साल दर साल आने वाले सूखे और बाढ़ की आपदा से छुटकारा मिल सके।

(IV) सामाजिक कार्यक्रम (Social Programmes)

  • अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार रोके जाएं। जातिवादी भेदभाव का खात्मा हो, समानता की गारंटी करने वाले कानूनों का कड़ाई से पालन किया जाए।
  • आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों को रोका जाए।
  • अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किए जाएं। अनुसूचित जातियों में दलित ईसाइयों को भी आरक्षण प्रदान किया जाए।
  • आवास को प्राथमिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया जाए।
  • प्राथमिक स्वास्थ्य तथा सफाई की व्यवस्था के प्रबन्ध किए जाएं। स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं की निजीकरण से रक्षा होनी चाहिए।

विदेश नीति-गुट-निरपेक्षता की नीति को मज़बूत किया जाए और विश्व शान्ति का जोरदार समर्थन तथा नाभिकीय युद्ध के खतरे के विरुद्ध संघर्ष किया जाए। विश्व शान्ति व सुरक्षा को प्रोत्साहन दिया जाए। बदलते हुए परिवेश में अमेरिका द्वारा विश्व पर नई विश्व व्यवस्था थोपने का दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध किया जाए। विकासशील देशों के आपसी सहयोग पर बल दिया जाए।

चुनाव सफलताएं-दिसम्बर, 1984 के लोकसभा के चुनाव में पार्टी को केवल 20 सीटें मिलीं। मार्च, 1985 में हुए 11 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में इसको कोई विशेष सफलता नहीं मिली। मार्च, 1987 में पश्चिमी बंगाल और केरल की विधानसभा के चुनावों में मार्क्सवादी दल को महान् सफलता मिली। नवम्बर, 1989 के लोकसभा के चुनाव में पार्टी को 32 सीटें मिलीं। फरवरी, 1990 में हुए 8 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में पार्टी को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 1991 के लोकसभा के चुनाव में मार्क्सवादी पार्टी को 35 सीटें प्राप्त हुईं। पश्चिमी बंगाल में मार्क्सवादी पार्टी 25 वर्ष से सत्ता में है। नवम्बर, 1993 में हुए पांच राज्यों तथा दिल्ली की विधानसभाओं के चुनाव में और नवम्बर-दिसम्बर, 1994 में और फरवरी-मार्च, 1995 में हुए दस राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में मार्क्सवादी पार्टी को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

1996 के लोकसभा के चुनाव में मार्क्सवादी पार्टी को 32 सीटें प्राप्त हुईं। मार्क्सवादी पार्टी ने अन्य दलों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा की स्थापना की, परन्तु मार्क्सवादी संयुक्त मोर्चा की सरकार में सम्मिलित नहीं हुआ। मार्क्सवादी पार्टी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव में मार्क्सवादी पार्टी को 32 सीटें प्राप्त हुईं। 1999 में लोकसभा के चुनावों में मार्क्सवादी पार्टी को 33 सीटें प्राप्त हुईं। मई, 2001 में चार राज्यों (असम, केरल, तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल) और एक संघीय क्षेत्र (पाण्डिचेरी) की विधानसभाओं के चुनाव में मार्क्सवादी पार्टी को पश्चिम बंगाल की विधानसभा में लगातार छठी बार सफलता प्राप्त हुई और मार्क्सवादी नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में वामपंथी मोर्चा की सरकार बनी।

अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में मार्क्सवादी साम्यवादी दल ने 43 सीटें जीतीं। इस दल ने कांग्रेस के नेतृत्व में “संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन” की सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों में इस पार्टी को केवल 16 सीटें ही मिलीं। अप्रैल-मई, 2011 में हुए पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मार्क्सवादी दल के नेतृत्व में वाममोर्चा को कुल 294 सीटों में से केवल 62 सीटें ही मिलीं। इस प्रकार पिछले 34 सालों से सत्ता में रहे वाममोर्चा को करारी हार का सामना करना पड़ा। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में इस दल को केवल 9 सीटें ही मिल पाई थीं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 15 भारत में दलीय प्रणाली

प्रश्न 6.
भारत में राजनीतिक दलों की मुख्य समस्याओं की व्याख्या कीजिए। (Discuss the main problems of the Political Parties in India.)
अथवा भारत की दल प्रणाली की समस्याओं का वर्णन करें।
(Discuss the problems facing the Party System of India.)
उत्तर-
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की व्यवस्था की गई है। संसदीय शासन-प्रणाली राजनीतिक दलों के बिना नहीं चल सकती। निःसन्देह भारत में संसदीय शासन प्रणाली के सफलतापूर्वक संचालन का श्रेय यहां के राजनीतिक दलों को दिया जाता है। परन्तु भारत में प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था इतनी अधिक सफल नहीं हो पाई है जितनी कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड आदि में। इसका प्रमुख कारण राजनीतिक दलों के समक्ष आने वाली समस्याएं हैं। भारत में राजनीतिक दलों को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है-

1. संगठनात्मक समस्याएं (Organisational Problems)-प्रायः सभी राजनीतिक दलों में संगठनात्मक समस्याएं पाई जाती हैं। 1969 के विभाजन से पूर्व कांग्रेस एक संगठित तथा व्यापक आधारित संगठन था, परन्तु 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ जिससे दल की संगठनात्मक समस्याएं उभर कर आईं। सत्तारूढ़ कांग्रेस अपने संगठन के बल पर ही 1971 से 1977 तक सत्ता में रही जबकि कांग्रेस (संगठन), संगठन के अभाव में बिखर गई। 1977 में कांग्रेस की पराजय के बाद कांग्रेस में गुटबन्दी ने दल को दोबारा विभाजित कर दिया तथा इस प्रकार दल कमज़ोर हो गया। यद्यपि कांग्रेस (इ) 1980 से नवम्बर, 1989 तक सत्ता में रही और जून, 1991 से मई, 1996 तक सत्ता रही तथापि इस पार्टी का संगठन बहुत संगठित नहीं है। दोनों साम्यवादी दल संगठन पर आधारित दल हैं परन्तु इन दलों का संगठन राष्ट्रव्यापी नहीं है क्योंकि इन दलों का प्रभाव पश्चिमी बंगाल और केरल में ही है। भूतपूर्व जनसंघ और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी के पास संगठन है। इसके पास कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है, लेकिन इसका प्रभाव उत्तर भारत में अधिक एवं दक्षिण भारत में कम है।

2. गुटबन्दी (Groupism)-प्रायः सभी राजनीतिक दलों में गुटबन्दी पाई जाती है जो दलों के प्रभावशाली संगठन के मार्ग में एक मुख्य बाधा है। गुटबन्दी के कारण ही कांग्रेस का 1969, 1978 तथा 1979 में विभाजन हुआ। भारतीय साम्यवादी दल में गुटबन्दी होने के कारण ही तीन दल बने-भारतीय साम्यवादी दल, मार्क्सवादी दल तथा मार्क्सवादी लेनिनवादी दल। डी० एम० के० का गुटबन्दी के कारण विभाजन हुआ और अन्ना डी० एम० के० का जन्म हुआ। जनता पार्टी जनता (एस) तथा लोकदल। जनता दल में भी गुटबन्दी पाई जाती रही है और इसी गुटबन्दी के कारण ही जनता दल का 1990, फरवरी 1992, जुलाई 1993 और जून 1994, जुलाई 1997, दिसम्बर 1997 और सातवीं बार जुलाई 1999 में विभाजन हुआ। आपसी गुटबन्दी के कारण ही 115 वर्षों से भी अधिक पुरानी कांग्रेस पार्टी में 19 मई, 1995 को तीसरी बार विभाजन हुआ और यह दो गुटों में बंट गई। राजनीतिक दलों में गुटबन्दी सैद्धान्तिक आधारों पर न होकर व्यक्तिगत मतभेदों के कारण है।

3. दल-बदल (Defections)—प्रायः सभी राजनीतिक दलों को दल-बदल की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। अन्तर केवल इतना है कि कभी किसी दल को दल-बदल से लाभ होता है तो कभी किसी को और जिस दल-बदल से लाभ हो रहा होता है वह उस समय दल-बदल को रोकने की मांग नहीं करता जबकि अन्य दल ऐसी मांग करते हैं। संविधान में 52वां तथा 91वां संशोधन करके दल-बदल की बुराई को समाप्त करने का प्रयास किया गया है परन्तु दल-बदल की बुराई आज भी पाई जाती है।

4. नेतृत्व का संकट (A Crisis of Leadership)-प्रायः सभी दलों के नेताओं को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि देश में नीतिवान और युवा नेताओं की बहुत कमी है। राजनीतिक दलों का नेतृत्व प्रायः उन लोगों के हाथों में है जिनकी आयु 60 से 70 वर्ष से ऊपर है ऐसा प्रतीत होता है कि देश के प्रतिभाशाली नौजवान राजनीति में आना पसन्द नहीं करते। श्री राजीव गांधी ने राजनीति में आकर अच्छी शुरुआत की थी।

5. धन सम्बन्धी समस्या (Financial Problems)–संसद् और विधान सभाओं के चुनाव के लिए करोड़ों रुपये की आवश्यकता होती है। राजनीतिक दल अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने का प्रयास करते हैं ताकि चुनाव में पैसा पानी की तरह बहा सकें। राजनीतिक दलों की आय का मुख्य स्रोत सदस्यता शुल्क, दान तथा कोष-संचालन है। प्रायः सभी दल पूंजीपतियों तथा उद्योगपतियों से धन लेते हैं। जो लोग धन देते हैं, वे बदले में अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं इसलिए कहा जाता है कि कोई भी दल सत्ता में क्यों न आए पूंजीपतियों के हित की अवहेलना नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दल सदस्यता शुल्क तथा कोष-संचालन के साधनों से प्राप्त धन का ब्योरा भी नहीं प्रकाशित करते। काले धन का भारतीय राजनीति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है।

6. जाति एवं धर्म का महत्त्व (Importance of Caste and Religion)-यद्यपि भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है और सभी मुख्य राष्ट्रीय राजनीतिक दल जातिवाद के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, लेकिन व्यवहार में योग्य उम्मीदवारों के बजाय इन लोगों को चुनाव में टिकटें दी जाती हैं जिनकी जाति वालों का उस चुनाव क्षेत्र में बाहुल्य हो। चुनाव प्रसार में प्राय: सभी राजनीतिक दल जातीय और साम्प्रदायिक भावनाओं का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। कई राजनीतिक दल धर्म पर आधारित हैं। जाति की राजनीति भारत के भविष्य के लिए बहुत खतरनाक है।

7. राजनीतिक दलों के सिद्धान्तहीन समझौते (Non-principled Alliance of Political Parties) भारतीय दलीय व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण समस्या यह है कि राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति के लिए सिद्धान्तहीन समझौते करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। जनवरी, 1980 के लोकसभा चुनावों में सभी दलों ने सिद्धान्तहीन समझौते किए। उदाहरण के लिए अन्ना डी० एम० के० केन्द्रीय स्तर पर लोकदल सरकार में शामिल था और जनता पार्टी के विरुद्ध चौधरी चरण सिंह के साथ सहयोग करने के लिए प्रतिबद्ध था, लेकिन दूसरी ओर इस दल ने तमिलनाडु में जनता पार्टी के साथ चुनाव गठबन्धन किया। कांग्रेस (इ) जो अन्य दलों के समझौतों को सिद्धान्तहीन कहती रही, स्वयं तमिलनाडु में डी० एम० के० के साथ चुनाव गठबन्धन कर बैठी। आपात्काल में श्रीमती गांधी ने डी० एम० के० के करुणानिधि की सरकार को भ्रष्टाचार के आरोप के कारण बर्खास्त कर दिया था। मार्च, 1987 में कांग्रेस (आई) ने जम्मू-कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और केरल में कांग्रेस (आई) ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। 1999, 2004, 2009 तथा 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव के अवसर पर सभी राजनीतिक दलों ने सिद्धान्तहीन समझौते किए।

8. जन-आधार सम्बन्धी समस्या (Problems relating to Masses)-जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए राजनीतिक नेताओं तथा प्रतिनिधियों का आम जनता के साथ सम्पर्क होना अत्यावश्यक है अर्थात् राजनीतिक दलों का जनआधार होना चाहिए। कांग्रेस ही एक ऐसा दल रहा है और आज भी कांग्रेस (इ) है जिसका जन-आधार है और जिसको समाज के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त है। अन्य राजनीतिक दलों का आधार संकुचित है। भारतीय जनता पार्टी का जन-आधार मुख्यतः शहरों में है और वह भी उत्तरी भारत में है। दक्षिण भारत और गांवों में भारतीय जनता पार्टी को बहुत कम समर्थन प्राप्त है। साम्यवादी दल खेतिहर किसानों, कृषक-मजदूरों और शहरी मज़दूरों का नेतृत्व करते हैं।

9. स्पष्ट विचारधारा का अभाव (Absence of well defined Ideology)-भारत में पाए जाने वाले राजनीतिक दलों में विचारधारा एवं सिद्धान्तों का अभाव पाया जाता है। वामपंथी दलों के अतिरिक्त अन्य सभी दलों के प्रायः सभी कार्यक्रम एवं नीतियां एक जैसी हैं। भारत के राजनीतिक दलों में वचनबद्धता का भी अभाव पाया जाता है। राजनीतिक दलों में अस्पष्ट विचारधारा के कारण वे स्वार्थी तथा सिद्धान्तहीन व अवसरवादी प्रतीत होते हैं।

10. राजनीतिक दलों का ग़लत आधार (Wrong Basis of Political Parties)-भारत में राजनीतिक दलों से सम्बन्धित एक अन्य समस्या यह है कि इनका निर्माण ग़लत आधारों पर होता है। किसी भी राजनीतिक दल को भारतीय चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त करने के लिए संविधान के प्रति वफ़ादार बने रहने की तथा धर्म-निरपेक्षता, प्रभुसत्ता तथा देश की एकता एवं अखण्डता में प्रति वचनबद्धता प्रकट करनी पड़ती है। परन्तु भारत में जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र इत्यादि के आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण होता है।

11. दल की अपेक्षा व्यक्तियों को महत्त्व (Importance to Individual rather than Party)—भारत में राजनीतिक दलों की एक समस्या है कि यहां पर राजनीतिक दलों की अपेक्षा व्यक्तियों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। कांग्रेस में सोनिया गांधी, भारतीय जनता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल में प्रकाश सिंह बादल, बहुजन समाज पार्टी में मायावती तथा डी० एम० के० में करुणानिधि को पार्टी की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया जाता है।

12. राजनीतिक दलों में अविश्वास (Lack of Faith in National Parties)-भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों की एक अन्य महत्त्वपूर्ण समस्या यह है, कि भारत में राष्ट्रीय दलों को भी देश के सभी क्षेत्रों में लोगों का विश्वास प्राप्त नहीं है। मार्क्सवादी पार्टी, भारतीय साम्यवादी दल, बहुजन समाज पार्टी तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का प्रभाव पूरे देश में न होकर कहीं-कहीं पर ही है।

13. अनुशासन का अभाव (Lack of discipline)-अनुशासन का अभाव भी राजनीतिक दलों की एक प्रमुख समस्या है। एक ही दल के नेता व्यक्तिगत हितों के लिए एक-दूसरे से विरोधी भावनाएं रखते हैं तथा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं। यदि उन्हें दल का टिकट न मिले तो वे दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं, या स्वतन्त्र चुनाव लड़ते हैं या अलग दल का निर्माण कर लेते हैं। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के समय सभी दलों के अधिकांश सदस्यों ने, जिनको दल का टिकट नहीं मिला, अपने ही दल के उम्मीदवार के विरुद्ध चुनाव लड़ा जो कि अनुशासनहीनता का उदाहरण है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
तीन अखिल भारतीय राजनीतिक दलों के नाम लिखिए। किसी राजनीतिक दल को अखिल भारतीय स्तर का घोषित करने का आधार क्या है ? वर्णन करें।
उत्तर-
चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान की हुई है। इनमें मुख्य अखिल भारतीय दल इस प्रकार हैं__(1) इण्डियन नैशनल कांग्रेस (2) भारतीय जनता पार्टी, (3) बहुजन समाज पार्टी। किसी भी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय स्तर का तभी घोषित किया जाता है यदि उस दल ने पिछले लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में चार अथवा इससे अधिक राज्यों में कम-से-कम छः प्रतिशत वैध मत हासिल करने के साथ ही लोकसभा की कम-से-कम 4 सीटें जीती हों अथवा कम-से-कम 3 राज्यों से लोकसभा में प्रतिनिधित्व कुल सीटों का दो प्रतिशत (वर्तमान 543 सीटों में से कमसे-कम 11 सीटें) प्राप्त किया हो अथवा कम से कम चार राज्यों में उस दल को क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त
हो।

प्रश्न 2.
भारत में किस प्रकार की दल प्रणाली है ?
उत्तर-
भारत में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर और 58 राजनीतिक दलों को राज्य स्तर पर आरक्षित चुनाव चिह्न के साथ मान्यता दी हुई है। राष्ट्रीय स्तर के दल हैं-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय मार्क्सवादी दल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी। क्षेत्रीय दलों की संख्या 58 है।

प्रश्न 3.
भारत के सात राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नाम लिखें।
उत्तर-
चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दलों की मान्यता दी है। ये दल हैं-(1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (2) भारतीय जनता पार्टी (3) भारतीय साम्यवादी दल (4) भारतीय मार्क्सवादी दल (5) राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (6) बहुजन समाज पार्टी (7) तृणमूल कांग्रेस पार्टी।

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प्रश्न 4.
भारतीय साम्यवादी दल की चार महत्त्वपूर्ण नीतियों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का राजनीतिक कार्यक्रम इस प्रकार है-

  • पार्टी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए वचनबद्ध है।
  • पार्टी साम्प्रदायिक सद्भावना और धर्म-निरपेक्ष लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बनाए रखने की पक्षधर है।
  • पार्टी केन्द्र-राज्य सम्बन्धों का पुनर्गठन करके राज्यों को अधिक शक्तियां देने के पक्ष में है।
  • पार्टी धारा 370 को बनाए रखने के पक्ष में है।

प्रश्न 5.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की आर्थिक नीति के बारे में लिखिए।
उत्तर-

  • भूमि सुधारों को ज़ोरों से लागू किया जाए, जोतने वालों में ज़मीन बांटी जाए, भूमि का केन्द्रीयकरण समाप्त किया जाए और किसानों को सस्ते ऋण तथा अनुदान देकर खेती में लगने वाली चीजें उपलब्ध कराई जाएं।
  • राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को विदेशी प्रभाव से पूरी तरह स्वतन्त्र रखकर मुक्त विकास को ध्यान में रखते हुए नियोजन की प्राथमिकताओं और नीतियों को बदला जाए।
  • पार्टी ने आवास तथा काम करने के अधिकार को संवैधानिक अधिकार बनाने का वायदा किया है। (4) घरेलू उद्योगों को मज़बूती प्रदान की जायेगी।

प्रश्न 6.
भारतीय जनता पार्टी की हिन्दुत्व धारणा की व्याख्या करो।
अथवा
भारतीय जनता पार्टी द्वारा हिन्दुत्व की, की गई चर्चा की व्याख्या करो।
उत्तर-
भारतीय जनता पार्टी 1951 में डॉ० श्यामा मुखर्जी द्वारा गठित भारतीय जनसंघ का रूपान्तरण है। नौवीं लोकसभा के चुनावों में हिन्दू जनाधार को अपने पक्ष में करने के लिए इसने राम जन्म भूमि पर राम मन्दिर के निर्माण का कार्यक्रम प्रस्तुत किया और इससे हिन्दू जनाधार का समर्थन भी मिला। उसे लोकसभा की 88 सीटें प्राप्त हुईं और इसी के सहयोग से राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी। राम मन्दिर निर्माण के मुद्दे को लेकर अक्तूबर, 1990 को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से इसने राम जन्मभूमि पर मन्दिर बनाने के लिए अक्तूबर-नवम्बर, 1990 में दो असफल प्रयास किए। 1991 के चुनावों के समय जारी घोषणा-पत्र में ‘राम राज्य की ओर’ का नारा दिया गया। 6 दिसम्बर, 1992 को हिन्दू कार्यकर्ताओं व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा दिया। जिस कारण भारतीय जनता पार्टी की तीखी आलोचना हुई।

यद्यपि आज यह राष्ट्रीय दल है परन्तु यह दल अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीति का विरोधी है जिस कारण संकुचित दृष्टि से सोचने वालों का समर्थन इसे प्राप्त नहीं है। वे इसे हिन्दू पार्टी के नाम से पुकारते हैं क्योंकि इसके 90 प्रतिशत सदस्य हिन्दू ही हैं।

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प्रश्न 7.
राजनीतिक दलों में व्यक्तित्व पूजा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
राजनीतिक दलों में व्यक्तित्व पूजा से अभिप्राय है, कि राजनीतिक दल अपने कार्यक्रमों एवं नीतियों की अपेक्षा अपने नेता को अधिक महत्त्व देते हैं। भारत के लगभग सभी राजनीतिक दल किसी-न-किसी नेता के ईर्द-गिर्द ही घूमते हैं। उदाहरण के लिए कांग्रेस पार्टी पहले पं० नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी तथा श्री राजीव के इर्द-गिर्द घूमती थी, जबकि आजकल श्रीमती सोनिया गांधी एवं श्री राहुल गांधी के आस-पास घूमती है। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी वर्तमान समय में श्री नरेन्द्र मोदी के आस-पास घूमती है।

प्रश्न 8.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म कब हुआ था ?
उत्तर-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म सन् 1885 में हुआ था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में एक अंग्रेज़ अधिकारी ए० ओ० ह्यम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रारम्भिक उद्देश्य भारतीयों तथा ब्रिटिश सरकार में अच्छे सम्बन्ध स्थापित करना था। परन्तु धीरे-धीरे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य बदलकर ‘पूर्ण स्वराज्य की मांग’ हो गया।

प्रश्न 9.
कांग्रेस की विदेश नीति के बारे में लिखिए।
अथवा
कांग्रेस पार्टी की विदेश नीति लिखो।
उत्तर-

  • कांग्रेस ने शान्ति, नि:शस्त्रीकरण और पर्यावरण का ध्यान रखते हुए विकास करने के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए गुट-निरपेक्षता की नीति के प्रति अपनी वचनबद्धता को पुनः दोहराया है।
  • कांग्रेस विदेश नीति को देश की आर्थिक प्राथमिकताओं और चिन्ताओं से जोड़ेगी।
  • कांग्रेस दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र (सफ्टा) बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।
  • कांग्रेस पार्टी गुट निरपेक्षता की नीति में विश्वास रखती है।

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प्रश्न 10.
कांग्रेस (आई) की आर्थिक नीतियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आर्थिक नीतियां एवं कार्यक्रम इस प्रकार हैं

  • ग़रीबी दूर करना-ग़रीबी दूर करना कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य है और ग़रीबी को जड़ से मिटाने के प्रति कांग्रेस वचनबद्ध है।
  • कृषि किसान तथा खेत मज़दूर-कांग्रेस ने कृषि को उद्योग का दर्जा देने तथा कृषि ऋण प्रणाली को मजबूत बनाने का वायदा किया है। कांग्रेस ने कृषि उत्पादन बढ़ाने और किसान तथा खेत मजदूरों के हितों की रक्षा करने का वायदा किया है।
  • श्रमिक-कांग्रेस बीमार कम्पनियों की हालत सुधारने के लिए कर्मचारियों के संगठनों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहन और समर्थन देगी। असंगठित क्षेत्रों में श्रमिकों, विशेष रूप से महिलाओं के लिए सामाजिक सुरक्षा और बीमा योजनाओं को सुदृढ़ किया जाएगा एवं उसका विस्तार किया जाएगा। कांग्रेस प्रबन्ध में श्रमिकों के लिए साझेदारी बढ़ाने को वचनबद्ध है।
  • पार्टी औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि दर को तेज़ करेगी।

प्रश्न 11.
भारतीय दलीय प्रणाली की चार विशेषताएं लिखें।
अथवा
भारतीय राजनीतिक दल प्रणाली की कोई चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-
भारतीय दलीय प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1. बहु-दलीय प्रणाली-भारत में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है। चुनाव आयोग ने 7 राष्ट्रीय स्तर के दलों को मान्यता दी हुई है। ये दल इस प्रकार हैं-कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। राष्ट्रीय दलों के अतिरिक्त अनेक राज्य स्तर के और क्षेत्रीय दल पाए जाते हैं।

2. साम्प्रदायिकता-भारतीय दलीय प्रणाली की प्रमुख विशेषता साम्प्रदायिक दलों का होना है। 3. भारत में क्षेत्रीय दल भी पाए जाते हैं। 4. भारत में कार्यक्रम की अपेक्षा नेतृत्व को प्रमुखता दी जाती है।

प्रश्न 12.
भारत में विरोधी दल द्वारा किए जाने वाले मुख्य चार कार्य लिखें।
उत्तर-
भारत में विरोधी दल निम्नलिखित कार्य करते हैं-

  • आलोचना-भारत में विरोधी दल का मुख्य कार्य सरकार की नीतियों की आलोचना करना है। विरोधी दल संसद् के अन्दर और संसद् के बाहर सरकार की आलोचना करते हैं।
  • वैकल्पिक सरकार-भारत में संसदीय प्रणाली होने के कारण विरोधी दल वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए तैयार रहता है।
  • अस्थिर मतदाता को अपील करना-विरोधी दल सत्तारूढ़ दल को आम चुनाव में हराने का प्रयत्न करता है। इसके लिए विरोधी दल सत्तारूढ़ दल की आलोचना करके मतदाताओं के सामने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है कि यदि उसे अवसर दिया जाए तो वह देश का शासन सत्तारूढ़ दल की अपेक्षा अच्छा चला सकता है।
  • विरोधी दल लोकतन्त्र की सुरक्षा करता है।

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प्रश्न 13.
भारत में साम्यवादी दल की आर्थिक नीति लिखिए।
अथवा
भारतीय साम्यवादी दल की कोई चार नीतियों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय साम्यवादी दल का आर्थिक कार्यक्रम इस प्रकार है-

  • पार्टी का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र का पुनर्गठन किया जाए और इसे अधिक मज़बूत बनाने का प्रयास किया जाए।
  • आवास तथा काम के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों के अध्याय में अंकित किया जाए।
  • मज़दूरों के सम्बन्ध में कोई भी कानून बनाते समय उनकी सलाह ली जाए।
  • देशभर में फसल तथा पशु बीमा का विस्तार किया जायेगा।

प्रश्न 14.
भारतीय दल प्रणाली की कोई चार कमियों (कमजोरियों) को लिखें।
अथवा
भारतीय राजनीतिक दलों की कोई चार कमियां लिखिए।
उत्तर-

  • राजनीतिक दलों का ग़लत आधार-भारत में अनेक राजनीतिक दल धर्म, जाति, क्षेत्र आदि पर आधारित हैं। ऐसे राजनीतिक दल जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकतावाद आदि को बढ़ावा देते हैं।
  • गुटबन्दी–प्रायः सभी राजनीतिक दलों में गुटबन्दी पाई जाती है जो दलों के प्रभावशाली संगठन के मार्ग में बाधा
  • दल-बदल-भारतीय दलीय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण दोष दल-बदल है।
  • सिद्धान्तहीन समझौते-भारतीय राजनीतिक दल प्रायः सिद्धान्तहीन समझौते करते रहते हैं।

प्रश्न 15.
बहुजन समाज पार्टी के बारे में आप क्या जानते हैं ?
अथवा
भारत में किसने, कब और क्यों बहुजन समाज पार्टी का निर्माण किया था?
उत्तर-
बहुजन समाज पार्टी को प्रायः बसपा के नाम से जाना जाता है। यह पार्टी दलित लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। बसपा की स्थापना 14 अप्रैल, 1984 को कांशी राम ने की थी। इस पार्टी का पहला नाम डी० एस० 4 (D.S. 4) था। जिसका आधार है-दलित, शोषित समाज संघर्ष समिति (Dalit, Shoshit Samaj Sangharsh Samiti) । कांशीराम के अनुसार अनुसूचित जातियों, अनुसूचित, जन-जातियों, शैक्षणिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक, कारीगर और वे सभी दलित जिनका पूंजीपतियों ने शोषण किया है बहुजन समाज है। इस पार्टी की स्थापना इसलिए की गई थी ताकि दलित वर्ग के लोगों को राजनीति व प्रशासन में समुचित भागीदारी मिल सके। इस पार्टी का उद्देश्य बहुजन समाज का कल्याण करना है।

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प्रश्न 16.
भारतीय जनता पार्टी की चार महत्त्वपूर्ण नीतियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • उपभोक्ता संरक्षण-पार्टी उपभोक्ता कानून में सुधार करेगी और उसको अच्छे ढंग से लागू करेगी। उपभोक्ता आन्दोलन को बढ़ावा दिया जाएगा।
  • काला धन-पार्टी काले धन के निर्माण को रोकने के कड़े उपाय करेगी।
  • श्रम-घोषणा-पत्र के अनुसार भारतीय जनता पार्टी औद्योगिक क्षेत्र में श्रमिक भागीदारी शुरू करेगी।
  • पूर्ण रोज़गार-पार्टी बेरोज़गारी को दूर करने के लिए हर संभव प्रयास करेगी।

प्रश्न 17.
राजनीतिक दलों का पंजीकरण क्यों ज़रूरी है ?
उत्तर-
दिसम्बर, 1988 में संसद् ने चुनाव व्यवस्था में सुधार करने के लिए जन प्रतिनिधि कानून 1950 और 1951 में संशोधन किया। इस संशोधन के अनुसार कोई भी गुट, समूह, संघ अथवा संस्था तब तक राजनीतिक दल नहीं बन सकता जब तक कि वह चुनाव आयोग के पास पंजीकृत नहीं होगा। इसके लिए उसे चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करना होगा। राजनीतिक दलों के लिए पंजीकरण (Registration) को इसलिए अनिवार्य माना गया है ताकि चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों के सदस्य जन प्रतिनिधि बनने के बाद संविधान के प्रति आस्था रखें। वे प्रजातान्त्रिक मूल्यों को बढ़ावा दें। देश की सुरक्षा, हितों व शान्ति के विरुद्ध कार्य न करें। राजनीतिक दलों का पंजीकरण इसलिए भी ज़रूरी है ताकि कोई संस्था, गुट अथवा समूह असंगठित व अनियन्त्रित लोगों का समूह मात्र बनकर सामाजिक उन्माद न फैला सके। राजनीतिक दल के पंजीकरण द्वारा सरकार को उस दल के पदाधिकारियों, संगठन व आय के स्रोतों का पता चल जाता है। इस प्रकार राजनीतिक दलों को कानून के दायरे में रखने के लिए उनका पंजीकरण अनिवार्य किया जाता है।

प्रश्न 18.
भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए भारतीय जनता पार्टी की क्या नीति है ?
उत्तर-
भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में कहा है कि भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जायेंगे

  • विदेशों से किए गए समझौतों में भ्रष्टाचार के मामलों पर रक्षा सौदों में कमीशन लेने वालों की जांच की जाएगी और दोषियों को दण्डित किया जाएगा।
  • यह ओम्बुड्समैन-लोकपाल तथा लोकायुक्त नियुक्त करने के लिए कानून बनाएगी और प्रधानमन्त्री तथा मुख्य मन्त्रियों को इनके अन्तर्गत लाया जाएगा।
  • क्रय तथा ठेके आदि देने का काम करने वाले सरकारी विभागों तथा सार्वजनिक क्षेत्रों के निगमों के दैनिक कार्य में राजनीतिक हस्तक्षेप तथा दखल-अन्दाजी को समाप्त कर दिया जाएगा।
  • सरकारी विभागों के खर्चों में कमी की जायेगी।

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प्रश्न 19.
भारत में राजनीतिक दलों के लिए लीडरशिप (नेतृत्व) का क्या संकट है ?
अथवा
भारत में राजनीतिक दलों की नेतत्व की क्या समस्याएं हैं? ।
उत्तर-
भारत में प्राय: सभी राजनीतिक दलों में ऐसे नेताओं की कमी है, जो दल एवं देश का कुशलतापूर्वक मार्गदर्शन कर सकें। प्रायः सभी दलों के नेताओं को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि देश में नीतिवान और युवा नेताओं की बहुत कमी है। राजनीतिक दलों का नेतृत्व प्रायः उन लोगों के हाथों में है जिनकी आयु 60 से 70 वर्ष से ऊपर है। ऐसा प्रतीत होता है कि देश के प्रतिभाशाली नौजवान राजनीति में आना पसन्द नहीं करते। श्री राजीव गांधी ने राजनीति में आकर अच्छी शुरुआत की।

प्रश्न 20.
राष्ट्रीय राजनीतिक दल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार किसी भी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय स्तर का दल तभी घोषित किया जाता है यदि उस दल ने लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में चार अथवा इससे अधिक राज्यों में 6 प्रतिशत वैध मत हासिल करने के साथ-साथ लोकसभा की कम-से-कम 4 सीटें जीती हों अथवा कम-से-कम तीन राज्यों से लोकसभा में प्रतिनिधित्व कुल सीटों का दो प्रतिशत (वर्तमान 543 सीटों में से कम-से-कम 11 सीटें) प्राप्त किया हो अथवा कमसे-कम चार राज्यों में उस दल को क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त हो। इसी आधार पर चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्रदान की।

प्रश्न 21.
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों और उनके अध्यक्षों के नाम लिखिए।
उत्तर –
दलों के नाम — अध्यक्षों के नाम
(1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस — श्री राहुल गांधी
(2) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी — श्री एस० सुधाकर रेड्डी
(3) मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी — श्री सीता राम यचुरी
(4) भारतीय जनता पार्टी — श्री अमित शाह
(5) बहुजन समाज पार्टी — सुश्री मायावती
(6) राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी — श्री शरद पवार
(7) तृणमूल कांग्रेस पार्टी — सुश्री ममता बनर्जी

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प्रश्न 22.
राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के चुनाव निशान लिखें।
अथवा
भारत में पाए जाने वाले चार राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नाम व चुनाव चिन्ह बताएं।
उत्तर-
दलों का नाम — चुनाव निशान
(1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस — हाथ
(2) भारतीय जनता पार्टी — कमल का फूल
(3) भारतीय साम्यवादी पार्टी — दराती और गेहूं की बाली
(4) भारतीय मार्क्सवादी पार्टी — दराती, हथौड़ा और तारा
(5) बहुजन समाज पार्टी — हाथी
(6) राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी — घड़ी
(7) तृणमूल कांग्रेस पार्टी — पुष्प एवं घास

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय राजनीतिक दल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
किसी भी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय स्तर का दल तभी घोषित किया जाता है यदि उस दल ने पिछले लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में चार अथवा इससे अधिक राज्यों में कम-से-कम 6% वैध मत हासिल करने के साथ लोकसभा की कम-से-कम 4 सीटें जीती हों, अथवा कम-से-कम 3 राज्यों से लोकसभा में प्रतिनिधित्व कुल सीटों का 2% (वर्तमान 543 सीटों में से कम-से-कम 11 सीटें) प्राप्त किया हो। अथवा कम से कम चार राज्यों में क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त हो।।

प्रश्न 2.
भारत में किस प्रकार की राजनीतिक दल प्रणाली है?
उत्तर-
भारत में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर और 58 राजनीतिक दलों को राज्य स्तर पर आरक्षित चुनाव चिन्ह के साथ मान्यता दी हुई है। राष्ट्रीय स्तर के दल हैं-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी।

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प्रश्न 3.
भारतीय दलीय प्रणाली की दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • बहु-दलीय प्रणाली-भारत में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है।
  • साम्प्रदायिकता-भारतीय दलीय प्रणाली की प्रमुख विशेषता साम्प्रदायिकता दलों का होना है।

प्रश्न 4.
भारतीय साम्यवादी दल का आर्थिक कार्यक्रम लिखें।
उत्तर-

  • पार्टी का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र का पुनर्गठन किया जाए और इसे अधिक मज़बूत बनाने का प्रयास किया जाए।
  • आवास तथा काम के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों के अध्याय में अंकित किया जाए।

प्रश्न 5.
भारतीय राजनैतिक दलों की कोई दो कमियां लिखिए।
उत्तर-

  1. राजनीतिक दलों का ग़लत आधार-भारत में अनेक राजनीतिक दल धर्म, जाति, क्षेत्र आदि पर आधारित हैं।
  2. गुटबन्दी–प्रायः सभी राजनीतिक दलों में गुटबन्दी पाई जाती है जो दलों के प्रभावशाली संगठन के मार्ग में बाधा है।

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प्रश्न 6.
बहुजन समाज पार्टी के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
बहुजन समाज पार्टी को प्रायः बसपा के नाम से जाना जाता है। यह पार्टी दलित लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। बसपा की स्थापना 14 अप्रैल, 1984 को कांशी राम ने की थी। इस पार्टी का पहला नाम डी० एस० 4 (D.S. 4) तथा जिसका अर्थ है-दलित, शोषित, समाज संघर्ष समिति (Dalit, Shoshit, Samaj Sangharsh Samiti)। इस पार्टी की स्थापना इसलिए की गई थी ताकि दलित वर्ग के लोगों को राजनीति व प्रशासन में समुचित भागीदारी मिल सके। इस पार्टी का उद्देश्य बहुजन समाज का कल्याण करना है।

प्रश्न 7.
भारत में कुल कितने क्षेत्रीय दल हैं ?
उत्तर-
भारत में अनेक क्षेत्रीय दल पाए जाते हैं। चुनाव आयोग ने 58 राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दलों के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है। इनमें से तीन क्षेत्रीय दलों के नाम हैं-

  1. शिरोमणि अकाली दल
  2. नैशनल कान्फ्रैंस
  3. डी० एम० के०।

प्रश्न 8.
भारत के दो राष्ट्रीय और दो क्षेत्रीय दलों के नाम लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रीय दल- 1. भारतीय जनता पार्टी, 2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस।
क्षेत्रीय दल-1. शिरोमणि अकाली दल, 2. इण्डियन नेशनल लोकदल।

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प्रश्न 9.
भारत में जाति के आधार पर बने दो राजनीतिक दलों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. डी० एम० के० (D.M.K.)
  2. ए० आई० ए० डी० एम० के० (AIADMK)।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय दलीय प्रणाली की मुख्य विशेषता क्या है ?
उत्तर-
भारतीय दलीय प्रणाली बहु-दलीय है।

प्रश्न 2.
वर्तमान समय में भारत में कितने मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं ?
उत्तर-
भारत में 7 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं।

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प्रश्न 3.
चुनाव आयोग ने कितने राज्य स्तरीय दलों को मान्यता प्रदान की हुई है?
उत्तर-
चुनाव आयोग ने 58 राजनीतिक दलों को राज्य स्तर के रूप में मान्यता दी हुई है।

प्रश्न 4.
भारत में दो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नाम लिखो।
अथवा
भारत में पाए जाने वाले दो मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
  2. भारतीय जनता पार्टी।

प्रश्न 5.
भारत में कोई दो क्षेत्रीय दलों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. इण्डियन नेशनल लोकदल
  2. शिरोमणि अकाली दल।

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प्रश्न 6.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कब की गई थी?
उत्तर-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना सन् 1924 में की गई।

प्रश्न 7.
कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है ?
उत्तर-
कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न ‘हाथ’ है।

प्रश्न 8.
बहुजन समाज पार्टी के कार्यक्रम की एक महत्त्वपूर्ण बात लिखें।
उत्तर-
छुआछूत को समाप्त करना और छुआछूत का पालन करने वालों के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्यवाही करना।

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प्रश्न 9.
बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है ?
उत्तर-
बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न ‘हाथी’ है।

प्रश्न 10.
कांग्रेस पार्टी की वर्तमान अध्यक्ष कौन है ?
उत्तर-
कांग्रेस पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष श्री राहुल गांधी हैं।

प्रश्न 11.
भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष कौन हैं ?
उत्तर-
भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष श्री अमित शाह हैं।

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प्रश्न 12.
भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है ?
उत्तर-
‘कमल का फूल’ भाजपा का चुनाव चिह्न है।

प्रश्न 13.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव चिह्न क्या है ?
उत्तर-
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव चिह्न ‘हथौड़ा, दरांती एवं तारा’ है।

प्रश्न 14.
बहुजन समाज पार्टी की स्थापना कब की गई थी?
उत्तर-
सन् 1984 में।

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प्रश्न 15.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की स्थापना कब की गई थी?
उत्तर-
सन् 1964 में।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें

1. भारत में …………. प्रणाली पाई जाती है।
2. भारत में ………….. राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं।
3. कांग्रेस पार्टी की स्थापना सन् ……………….. में हुई।
4. कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष श्री. ………………. हैं।
5. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ………………. हैं।
उत्तर-

  1. बहुदलीय
  2. 7
  3. 1885
  4. राहुल गांधी
  5. श्री अमित शाह।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी हैं।
2. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी हैं।
3. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पूंजीवादी विचारधारा का समर्थन करती है ?
4. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव श्री सीता राम येचुरी हैं।
5. बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती हैं।
6. भारत में एक दलीय प्रणाली है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. सही
  6. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में कौन-सी दल प्रणाली है ?
(क) एक दलीय
(ख) द्वि-दलीय
(ग) बहु दलीय
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) बहु दलीय

प्रश्न 2.
कौन-सा राजनीतिक दल अनुच्छेद 370 को संविधान में से निलम्बित करना चाहता है ?
(क) भारतीय साम्यवादी दल
(ख) जनता दल
(ग) कांग्रेस
(घ) भारतीय जनता पार्टी।
उत्तर-
(घ) भारतीय जनता पार्टी।

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प्रश्न 3.
भारतीय साम्यवादी दल का दो भागों में विभाजन हुआ।
(क) 1957 में
(ख) 1960 में
(ग) 1952 में
(घ) 1964 में।
उत्तर-
(घ) 1964 में।

प्रश्न 4.
भारत में कितने मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं ?
(क) 38
(ख) 40
(ग) 58
(घ) 55.
उत्तर-
(ग) 58

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

बिंदा सिंह बहादुर का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Banda Singh Bahadur)

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर के प्रारंभिक जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षिप्त वर्णन करें। (What do you know about the early career of Banda Singh Bahadur ? Explain briefly.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर जो सिख इतिहास में बंदा बहादुर के नाम से अधिक विख्यात हैं को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने अपनी योग्यता के बल पर पंजाब में एक के बाद एक महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। बंदा सिंह बहादुर के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—
1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-बंदा सिंह बहादुर का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 ई० में कश्मीर के जिला पुंछ के राजौरी नामक गाँव में हुआ। उसके बचपन का नाम लक्ष्मण देव था। उसके पिता जी का नाम राम देव था। वह डोगरा राजपूत जाति से संबंधित थे।

2. बचपन (Childhood)-लक्ष्मण देव एक बहुत ही निर्धन परिवार से संबंधित था। अतः जब लक्ष्मण देव कुछ बड़ा हुआ तो वह कृषि के कार्य में पिता जी का हाथ बँटाने लग पड़ा। लक्ष्मण देव अपने खाली समय में तीरकमान लेकर वनों में शिकार खेलने चला जाता।

3. बैरागी के रूप में (As a Bairagi)-जब लक्ष्मण देव की आयु लगभग 15 वर्ष की थी तो एक दिन शिकार खेलते हुए उसने एक गर्भवती हिरणी को तीर मारा। वह हिरणी और उसके बच्चे लक्ष्मण देव के सामने तड़प-तड़पकर मर गए। इस करुणामय दृश्य का लक्ष्मण के दिल पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उसने संसार को त्याग दिया और बैरागी बन गया। उसने अपना नाम बदल कर माधो दास रख लिया। घूमते-घूमते माधोदास की मुलाकात तंत्रविद्या में निपुण औघड़ नाथ से हो गई और वह उसका शिष्य बन गया। औघड़ नाथ की मृत्यु के बाद माधोदास नंदेड आ गया और शीघ्र ही अपनी तंत्र विद्या के कारण लोगों में विख्यात हो गया।
PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर 1
BANDA SINGH BAHADUR

4 गुरु गोबिंद सिंह जी से भेंट (Meeting with Guru Gobind Singh Ji)-1708 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड आए तो वह माधोदास के आश्रम में उससे भेंट करने के लिए गए। गुरु साहिब और माधोदास के मध्य कुछ प्रश्न- उत्तर हुए। माधोदास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि वह गुरु साहिब जी का अनुयायी बन गया। गुरु साहिब ने भी उसे अमृत छकाकर सिख बनाया और उसका नाम परिवर्तित करके बंदा सिंह बहादुर रख दिया।

5. बंदा सिंह बहादुर का पंजाब की ओर प्रस्थान (Banda Singh Bahadur Proceeds towards Punjab)-जब बंदा सिंह बहादुर ने गुरु साहिब से पंजाब में सिखों पर मुगलों द्वारा किए गए अत्याचारों और गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदानों के संबंध में सुना तो उसका राजपूती खून खौलने लगा। उसने इन अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए गुरु साहिब जी से पंजाब जाने के लिए आज्ञा माँगी। गुरु साहिब जी ने इस निवेदन को स्वीकार कर लिया। गुरु साहिब जी ने बंदा सिंह बहादुर को पाँच तीर दिए और उसकी सहायता के लिए 25 अन्य सिखों को भी साथ भेजा। गुरु साहिब ने पंजाब के सिखों के नाम कुछ हुक्मनामे भी दिए। इन हुक्मनामों में पंजाब के सिखों को यह आदेश दिया गया था कि बंदा सिंह बहादुर को अपना नेता मानें तथा मुग़लों के विरुद्ध धर्म युद्धों में उसका पूरा साथ दें। गुरु साहिब ने बंदा सिंह बहादुर को भी कुछ आदेश दिए। पहला, ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करना। दूसरा, सच्चाई के मार्ग पर चलना। तीसरा, नया धर्म अथवा संप्रदाय नहीं चलाना। चौथा, अपनी विजयों पर अहंकार नहीं . करना। पाँचवां, स्वयं को खालसा का सेवक समझना। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त करके 1708 ई० में पंजाब की ओर रुख किया।

बंदा सिंह बहादुर के सैनिक कारनामे (Military Exploits of Banda Singh Bahadur)

प्रश्न 2.
बंदा सिंह बहादुर के सैनिक कारनामों की चर्चा करें और पंजाब के इतिहास में उसके महत्त्व का मूल्यांकन करें।
(Discuss the military exploits of Banda Singh Bahadur and estimate their significance in the History of the Punjab.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के सैनिक कारनामों का विवरण दें।
(Give briefly the account of the battle fought by Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की मुग़लों के साथ लड़ाइयों का विस्तारपूर्वक वर्णन करें। (Write in detail the battles fought between Banda Singh Bahadur and the Mughals.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के सैनिक कारनामों अथवा सफलताओं का संक्षेप में वर्णन करें।
(Explain briefly the military exploits or achievements of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी तथा अन्य सिखों पर हुए अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए बंदा सिंह बहादुर गुरु जी की आज्ञा से पंजाब की ओर चल पड़ा। यहाँ पहुँचते ही उसने गुरु जी के हुक्मनामे जारी किये। परिणामस्वरूप हज़ारों की संख्या में सिख उसके ध्वज तले एकत्र हो गए। तद्उपरांत बंदा सिंह बहादुर ने अपनी सैनिक गतिविधियाँ आरंभ कर दीं
इसमें बंदा सिंह बहादुर काफ़ी सीमा तक सफल रहा। उसके महत्त्वपूर्ण सैनिक कारनामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. सोनीपत पर आक्रमण (Attack on Sonepat)—बंदा सिंह बहादुर ने अपनी विजयों का आरंभ सोनीपत से किया। उसने 1709 ई० में सोनीपत पर आक्रमण कर दिया। सोनीपत का फ़ौजदार बिना मुकाबला किए ही दिल्ली की ओर भाग गया। इस प्रकार सिखों का सरलता से सोनीपत पर अधिकार हो गया।

2. समाना की विजय (Conquest of Samana)-समाना में गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद करने वाला और गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों को दीवार में जिंदा चिनवा देने वाले जल्लाद रहते थे। इसलिए बंदा सिंह बहादुर ने नवंबर, 1709 ई० में समाना पर बड़ा जोरदार आक्रमण किया। समाना सिखों ने खंडहर के ढेर में परिवर्तित कर दिया। यह बंदा सिंह बहादुर की पहली महत्त्वपूर्ण विजय थी।

3. घुड़ाम तथा मुस्तफाबाद पर अधिकार (Conquest of Ghuram and Mustafabad)-समाना की विजय के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर ने घुड़ाम एवं मुस्तफाबाद पर आक्रमण किया तथा सुगमता से अधिकार कर लिया।

4. कपूरी की विजय (Conquest of Kapuri)-कपूरी का शासक कदमुद्दीन हिंदुओं के साथ बहुत दुर्व्यवहार करता था। फलस्वरूप बंदा बहादुर ने कपूरी पर आक्रमण करके कदमुद्दीन को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार कपूरी पर विजय प्राप्त की गई।

5. सढौरा की विजय (Conquest of Sadhaura) सढौरा का शासक उस्मान खाँ अपने अत्याचारों के लिए कुख्यात था। उसने पीर बुद्ध शाह की इसलिए हत्या करवा दी थी, क्योंकि उसने भंगाणी की लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी की सहायता की थी। अतः बंदा सिंह बहादुर ने इसका बदला लेने के लिए सढौरा पर आक्रमण कर दिया। यहाँ पर मुसलमानों को इतनी भारी संख्या में मारा गया, कि सढौरा का नाम कत्लगढ़ी पड़ गया।

6. सरहिंद की विजय (Conquest of Sirhind)-सरहिंद पर विजय प्राप्त करना बंदा सिंह बहादुर के लिए अति महत्त्वपूर्ण था। सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को दीवार में जिंदा चिनवा दिया था। उसकी सेनाओं के हाथों ही गुरु जी के दोनों बड़े साहिबज़ादे चमकौर साहिब की लड़ाई में शहीद हो गए थे। वज़ीर खाँ के ही भेजे गए दो पठानों में से एक पठान ने गुरु साहिब को नंदेड़ के स्थान पर छुरा मार दिया। इस कारण वह ज्योति-जोत समा गए। अतः सिखों में सरहिंद प्रति अत्यधिक घृणा थी। 12 मई, 1710 ई० को दोनों सेनाओं के बीच सरहिंद से लगभग 16 किलोमीटर दूर चप्पड़चिड़ी नामक स्थान पर भयंकर लड़ाई हुई। फ़तह सिंह के हाथों वज़ीर खाँ के मरते ही मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई। सिखों ने वज़ीर खाँ के शव को एक वृक्ष पर लटका दिया तथा समूचे सरहिंद में भारी लूटपाट की। यह बंदा सिंह बहादुर की अति महत्त्वपूर्ण विजय थी।

7. यमुना-गंगा दोआब की विजय (Conquest of Jamuna-Ganga Doab)-सरहिंद की विजय के बाद बंदा सिंह बहादुर ने यमुना-गंगा दोआब के प्रदेशों पर आक्रमण किया। शीघ्र ही बंदा सिंह बहादुर ने सहारनपुर, बेहात, ननौता और अंबेटा को अपने अधिकार में ले लिया।

8. जालंधर दोआब की विजय (Conquest of Jalandhar Doab)-जालंधर दोआब का फ़ौजदार शमस खाँ बड़ा अत्याचारी था। उसके अत्याचारों से तंग आकर सिखों ने बंदा सिंह बहादुर से सहायता माँगी। अतः 12 अक्तूबर, 1710 ई० में राहों के स्थान पर बंदा सिंह बहादुर ने शमस खाँ को करारी पराजय दी। फलस्वरूप समूचे जालंधर दोआब पर उसका अधिकार हो गया। इसके उपरांत बंदा सिंह बहादुर ने अमृतसर, बटाला, कलानौर और पठानकोट के प्रदेशों पर भी बड़ी आसानी से अधिकार कर लिया।

9. मुग़लों का लोहगढ़ पर आक्रमण (Attack of Mughals on Lohgarh)—बंदा सिंह बहादुर की बढ़ती हुई शक्ति को देखते हुए मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ने उसकी शक्ति का दमन करने का निर्णय किया। उसने जरनैल मुनीम खाँ के नेतृत्व में 60,000 सैनिकों की एक विशाल सेना पंजाब भेजी। इस सेना ने 10 दिसंबर, 1710 ई० को बंदा सिंह बहादुर की राजधानी लोहगढ़ पर अचानक आक्रमण कर दिया। सिख दुर्ग के भीतर से ही मुग़लों का डटकर सामना करते रहे। खाद्य-पदार्थों की कमी के कारण सिखों का पक्ष कमज़ोर पड़ने लगा। अतः बंदा सिंह बहादुर वेश बदल कर नाहन की पहाड़ियों की ओर चला गया।

10. गुरदास-नंगल की लड़ाई (Battle of Gurdas-Nangal)-बंदा सिंह बहादुर ने शीघ्र ही अपनी स्थिति को फिर से दृढ़ बना लिया। उसने बड़ी सरलता से बहरामपुर, रायपुर, कलानौर और बटाला के प्रदेशों पर फिर से अधिकार कर लिया। अतः नए मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर के आदेश पर लाहौर के सूबेदार अब्दुस समद खाँ ने बंदा सिंह बहादुर को गुरदास-नंगल के स्थान पर अचानक घेरे में ले लिया। बंदा सिंह बहादुर ने दुनी चंद की हवेली से मुग़ल सेना का सामना जारी रखा। यह घेरा 8 मास तक चला। धीरे-धीरे खाद्य-सामग्री की कमी के कारण सिखों की स्थिति गंभीर हो गई। ऐसे समय में बाबा बिनोद सिंह अपने साथियों सहित गढ़ी छोड़ कर चला गया। इस कारण बंदा सिंह बहादुर की स्थिति और बिगड़ गई। अंततः 7 दिसंबर, 1715 ई० को बंदा सिंह बहादुर तथा 740 सिखों को बंदी बना लिया गया।

11. बंदा सिंह बहादुर का बलिदान (Martyrdom of the Banda Singh Bahadur)-बंदा सिंह बहादुर और उसके साथियों को फरवरी 1716 ई० में दिल्ली भेजा गया। दिल्ली पहुँचने पर उनका जलूस निकाला गया। बंदा सिंह बहादुर को एक पिंजरे में बंद किया गया था। मार्ग में उसका एवं अन्य सिखों का भारी अपमान किया गया। सिख इस दौरान प्रसन्नचित्त गुरवाणी का जाप करते रहे। फिर उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया। परंतु सिखों ने भी इस्लाम को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इसके उपरांत प्रतिदिन 100 सिखों को शहीद किया जाने लगा। अंत में 9 जून, 1716 ई० को बंदा सिंह बहादुर को शहीद करने से पहले जल्लाद ने उसके चार वर्ष के पुत्र अजय सिंह की उसकी आँखों के सामने निर्ममता से हत्या की। तत्पश्चात् बंदा सिंह बहादुर का अंग-अंग काट कर उन्हें शहीद कर दिया गया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बंदा सिंह बहादुर को 19 जून, 1716 ई० को शहीद किया गया था। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार पतवंत सिंह के इन शब्दों से सहमत हैं,

“इस प्रकार उस व्यक्ति के जीवन का अंत हुआ जिसने 7 वर्ष के अल्पकाल में ही अपनी विजयों द्वारा महान् मुग़ल साम्राज्य को ऐसी चुनौती प्रस्तुत की कि वह दुबारा उस प्रदेश (पंजाब) पर पुनः आत्मविश्वास से शासन न कर सका।”1

1. “So ended the life of a man who in seven short years had so mocked the might of the Mughals with his victories that they could never again reassert their authority over the land they had once ruled with such a plomb.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 81 .

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर के जीवन तथा सफलताओं का वर्णन करें। (Describe the career and achievements of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर जो सिख इतिहास में बंदा बहादुर के नाम से अधिक विख्यात हैं को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने अपनी योग्यता के बल पर पंजाब में एक के बाद एक महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। बंदा सिंह बहादुर के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—
1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-बंदा सिंह बहादुर का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 ई० में कश्मीर के जिला पुंछ के राजौरी नामक गाँव में हुआ। उसके बचपन का नाम लक्ष्मण देव था। उसके पिता जी का नाम राम देव था। वह डोगरा राजपूत जाति से संबंधित थे।

2. बचपन (Childhood)-लक्ष्मण देव एक बहुत ही निर्धन परिवार से संबंधित था। अतः जब लक्ष्मण देव कुछ बड़ा हुआ तो वह कृषि के कार्य में पिता जी का हाथ बँटाने लग पड़ा। लक्ष्मण देव अपने खाली समय में तीरकमान लेकर वनों में शिकार खेलने चला जाता।

3. बैरागी के रूप में (As a Bairagi)-जब लक्ष्मण देव की आयु लगभग 15 वर्ष की थी तो एक दिन शिकार खेलते हुए उसने एक गर्भवती हिरणी को तीर मारा। वह हिरणी और उसके बच्चे लक्ष्मण देव के सामने तड़प-तड़पकर मर गए। इस करुणामय दृश्य का लक्ष्मण के दिल पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उसने संसार को त्याग दिया और बैरागी बन गया। उसने अपना नाम बदल कर माधो दास रख लिया। घूमते-घूमते माधोदास की मुलाकात तंत्रविद्या में निपुण औघड़ नाथ से हो गई और वह उसका शिष्य बन गया। औघड़ नाथ की मृत्यु के बाद माधोदास नंदेड आ गया और शीघ्र ही अपनी तंत्र विद्या के कारण लोगों में विख्यात हो गया।
PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर 1
BANDA SINGH BAHADUR

4. गुरु गोबिंद सिंह जी से भेंट (Meeting with Guru Gobind Singh Ji)-1708 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड आए तो वह माधोदास के आश्रम में उससे भेंट करने के लिए गए। गुरु साहिब और माधोदास के मध्य कुछ प्रश्न- उत्तर हुए। माधोदास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि वह गुरु साहिब जी का अनुयायी बन गया। गुरु साहिब ने भी उसे अमृत छकाकर सिख बनाया और उसका नाम परिवर्तित करके बंदा सिंह बहादुर रख दिया।

5. बंदा सिंह बहादुर का पंजाब की ओर प्रस्थान (Banda Singh Bahadur Proceeds towards Punjab)-जब बंदा सिंह बहादुर ने गुरु साहिब से पंजाब में सिखों पर मुगलों द्वारा किए गए अत्याचारों और गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदानों के संबंध में सुना तो उसका राजपूती खून खौलने लगा। उसने इन अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए गुरु साहिब जी से पंजाब जाने के लिए आज्ञा माँगी। गुरु साहिब जी ने इस निवेदन को स्वीकार कर लिया। गुरु साहिब जी ने बंदा सिंह बहादुर को पाँच तीर दिए और उसकी सहायता के लिए 25 अन्य सिखों को भी साथ भेजा। गुरु साहिब ने पंजाब के सिखों के नाम कुछ हुक्मनामे भी दिए। इन हुक्मनामों में पंजाब के सिखों को यह आदेश दिया गया था कि बंदा सिंह बहादुर को अपना नेता मानें तथा मुग़लों के विरुद्ध धर्म युद्धों में उसका पूरा साथ दें। गुरु साहिब ने बंदा सिंह बहादुर को भी कुछ आदेश दिए। पहला, ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करना। दूसरा, सच्चाई के मार्ग पर चलना। तीसरा, नया धर्म अथवा संप्रदाय नहीं चलाना। चौथा, अपनी विजयों पर अहंकार नहीं . करना। पाँचवां, स्वयं को खालसा का सेवक समझना। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त करके 1708 ई० में पंजाब की ओर रुख किया।

बंदा सिंह बहादुर की सफलता एवं असफलता के कारण (Causes of Banda Singh Bahadur’s Success and Failure)

प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलताओं और अंतिम असफलताओं के क्या कारण थे ?
(What were the causes of initial success and ultimate failure of Banda Singh Bahadur ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादर की आरंभिक सफलता तथा अंत में असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of early success and ultimate failure of Banda Singh Bahadur ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की आरंभ में सफलताओं और बाद में असफलताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of initial success and ultimate failure of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
I. बंदा सिंह बहादुर की सफलता के कारण (Causes of Banda Singh Bahadur’s Success)
बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब के सिखों का जिस योग्यता, लगन और वीरता से नेतृत्व किया उसका इतिहास में कोई और उदाहरण मिलना मुश्किल है। उसने बड़ी तीव्रता से पंजाब के विस्तृत भू-भाग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। बंदा सिंह बहादुर की इस आरंभिक सफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. मुगलों के घोर अत्याचार (Great Atrocities of the Mughals)-पंजाब के मुग़ल शासक सिखों के कट्टर शत्रु थे। सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के विरुद्ध अनेक सैनिक अभियान भेजे। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों (जोरावर सिंह जी तथा फतह सिंह जी) को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया था। गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों बड़े साहिबजादे (अजीत सिंह जी और जुझार सिंह जी) चमकौर साहिब की लड़ाई में उसके सैनिकों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। अतः सिखों का खून खौल रहा था। परिणामस्वरूप, वे बंदा सिंह बहादुर के झंडे अधीन एकत्र हो गए और बंदा सिंह बहादुर के लिए विजय अभियान आसान हो गया।

2. गुरु गोबिंद सिंह जी के हुक्मनामे (Hukamnamas of Guru Gobind Singh Ji)—गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर के हाथ सिख संगत के नाम कुछ हुक्मनामे’ भेजे थे। इन हुक्मनामों में गुरु साहिब ने सिख संगत को मुग़लों के विरुद्ध होने वाले धर्म युद्धों में बंदा सिंह बहादुर को पूरा सहयोग देने को कहा। सिख संगत के सहयोग के कारण बंदा सिंह बहादुर एवं उसके साथियों का उत्साह बढ़ गया।

3. औरंगजेब के कमजोर उत्तराधिकारी (Weak Successors of Aurangzeb)-1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् हुआ मुग़ल शासक बहादुर शाह उत्तराधिकारिता के युद्ध में ही उलझा रहा। अतः वह साम्राज्य में व्याप्त अराजकता को नियंत्रण में रखने में असफल रहा जबकि उसके बाद बनने वाला मुग़ल बादशाह जहाँदार शाह बहुत ही अयोग्य शासक प्रमाणित हुआ। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया तथा अनेक सफलताएँ प्राप्त की।

4. बंदा सिंह बहादुर का योग्य नेतृत्व (Able leadership of Banda Singh Bahadur)-बंदा सिंह बहादुर एक निर्भीक योद्धा एवं योग्य सेनापति था। उसने सभी लड़ाइयों में सेना का स्वयं नेतृत्व किया तथा वह अपने अधीन सैनिकों को युद्ध के समय में अत्यधिक प्रोत्साहित करता था। परिणामस्वरूप, बंदा सिंह बहादुर ने अपने आरंभिक वर्षों में प्रशंसनीय सफलताएँ प्राप्त की।

5. बंदा सिंह बहादुर के प्रारंभिक आक्रमण छोटे-छोटे मुग़ल अधिकारियों के विरुद्ध थे (Banda Singh Bahadur’s early exploits were against petty local Mughal Officials)-बंदा सिंह बहादुर के प्रारंभिक आक्रमण सरहिंद को छोड़कर छोटे-छोटे मुग़ल अधिकारियों के विरुद्ध थे। ये अधिकारी अपने अत्याचारों के कारण प्रजा में बहुत बदनाम थे। फलस्वरूप, जब बंदा सिंह बहादुर ने इन प्रदेशों पर आक्रमण किये तो स्थानीय लोगों ने बंदा सिंह बहादुर को अपना समर्थन दिया। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर एक के बाद दूसरी सफलता प्राप्त करता गया।

6. बंदा सिंह बहादुर का अच्छा शासन प्रबंध (Good Administration of Banda Singh Bahadur)बंदा सिंह बहादुर ने अपने अधीन प्रदेशों में बहुत अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की थी। उसने बहुत ही योग्य एवं ईमानदार अधिकारी नियुक्त किए। उसने ज़मींदारी प्रथा को खत्म करके किसानों को न केवल ज़मींदारों के अत्याचारों से बचाया बल्कि उन्हें भूमि का स्वामी भी बना दिया। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के लोगों से पूरा समर्थन मिला और इसी कारण उसे आरंभिक काल में अनेक सफलताएँ प्राप्त हुईं।

II. बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता के कारण (Causes of Banda Singh Bahadur’s Ultimate Failure)
पंजाब आने के बाद बंदा सिंह बहादर ने अपने प्रारंभिक वर्षों में अनेक महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त की। परंतु शीघ्र ही उसे असफलता का मुँह देखना पड़ा। बंदा सिंह बहादुर की इस अंतिम असफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. मुगल साम्राज्य की शक्ति (Strength of the Mughal Empire)-मुग़ल साम्राज्य के पास विशाल तथा असीमित साधन थे। दूसरी ओर बंदा सिंह बहादुर के साधन बहुत सीमित थे। मुग़लों की तुलना में उसके सैनिकों की संख्या बहुत कम थी। बंदा सिंह बहादुर की आय का मुख्य साधन लूटमार ही था। ऐसी स्थिति में मुग़लों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना बंदा सिंह बहादुर के लिए बिल्कुल असंभव था।

2. सिखों में संगठन का अभाव (Lack of Organisation among the Sikhs)-बंदा सिंह बहादुर के अधीन सिख सैनिकों में संगठन और अनुशासन का अभाव था। वे किसी योजनानुसार लड़ाई नहीं करते थे। अतः संगठन और अनुशासन के अभाव में ऐसे सिखों का असफल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

3. बंदा सिंह बहादुर द्वारा आदेशों का उल्लंघन (Violation of Instructions by Banda Singh Bahadur)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को कुछ आवश्यक आदेश दिए थे। कालांतर में उसने इनका उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। उसने गुरु साहिब के आदेशों के विरुद्ध चंबा की राजकुमारी से विवाह करवा लिया था और शाही ठाठ से रहने लग पड़ा था। उसने ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह’ के स्थान पर ‘फ़तह धर्म और फ़तह दर्शन’ के शब्दों को प्रचलित करके सिख मत में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। फलस्वरूप, गुरु गोबिंद सिंह जी के अनेक श्रद्धालु सिख बंदा सिंह बहादुर के विरुद्ध हो गए।

4. फ़र्रुखसियर की सिखों के विरुद्ध कार्यवाहियाँ (Measures of Farukhsiyar against the Sikhs)1713 ई० में फ़र्रुखसियर मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह सिखों को कुचलने के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध था। उसने सिखों का दमन करने के लिए अब्दुस समद खाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दुस समद खाँ ने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए कोई कसर न उठा रखी। परिणामस्वरूप, बंदा सिंह बहादुर और उसके साथियों को आत्म-समर्पण करना ही पड़ा।

5. गुरदास-नंगल में सिखों पर अचानक आक्रमण (Surprise attack on the Sikhs at Gurdas Nangal)-अप्रैल, 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर पर हुआ अचानक आक्रमण भी उनके पतन का एक प्रमुख कारण बना। बंदा सिंह बहादुर तथा उसके साथी सिख अचानक आक्रमण के कारण दुनी चंद की हवेली में घिर गए। इस हवेली में से अधिक समय तक मुग़लों का सामना नहीं किया जा सकता था। इसके बावजूद बंदा सिंह बहादुर ने 8 माह तक लड़ाई जारी रखी पर अंत में उसे पराजय स्वीकार करनी पड़ी।

6. बंदा सिंह बहादुर और बिनोद सिंह में मतभेद (Differences between Banda Singh Bahadur and Binod Singh)-गुरदास नंगल की लड़ाई के समय बंदा सिंह बहादुर और उसके साथी बिनोद सिंह में मतभेद उत्पन्न हो गए। बिनोद सिंह हवेली छोड़कर भाग निकलने के पक्ष में था। दूसरी ओर बंदा सिंह बहादुर चाहता था कि कुछ समय और लड़ाई को जारी रखा जाए। परिणामस्वरूप, बिनोद सिंह अपने साथियों सहित हवेली छोड़कर निकल गया। अतः बंदा सिंह बहादुर को पराजय का मुख देखना पड़ा।

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प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the initial success of Banda Singh Bahadur ?)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की सफलता के कारण (Causes of Banda Singh Bahadur’s Success)
बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब के सिखों का जिस योग्यता, लगन और वीरता से नेतृत्व किया उसका इतिहास में कोई और उदाहरण मिलना मुश्किल है। उसने बड़ी तीव्रता से पंजाब के विस्तृत भू-भाग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। बंदा सिंह बहादुर की इस आरंभिक सफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. मुगलों के घोर अत्याचार (Great Atrocities of the Mughals)-पंजाब के मुग़ल शासक सिखों के कट्टर शत्रु थे। सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के विरुद्ध अनेक सैनिक अभियान भेजे। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों (जोरावर सिंह जी तथा फतह सिंह जी) को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया था। गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों बड़े साहिबजादे (अजीत सिंह जी और जुझार सिंह जी) चमकौर साहिब की लड़ाई में उसके सैनिकों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। अतः सिखों का खून खौल रहा था। परिणामस्वरूप, वे बंदा सिंह बहादुर के झंडे अधीन एकत्र हो गए और बंदा सिंह बहादुर के लिए विजय अभियान आसान हो गया।

2. गुरु गोबिंद सिंह जी के हुक्मनामे (Hukamnamas of Guru Gobind Singh Ji)—गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर के हाथ सिख संगत के नाम कुछ हुक्मनामे’ भेजे थे। इन हुक्मनामों में गुरु साहिब ने सिख संगत को मुग़लों के विरुद्ध होने वाले धर्म युद्धों में बंदा सिंह बहादुर को पूरा सहयोग देने को कहा। सिख संगत के सहयोग के कारण बंदा सिंह बहादुर एवं उसके साथियों का उत्साह बढ़ गया।

3. औरंगजेब के कमजोर उत्तराधिकारी (Weak Successors of Aurangzeb)-1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् हुआ मुग़ल शासक बहादुर शाह उत्तराधिकारिता के युद्ध में ही उलझा रहा। अतः वह साम्राज्य में व्याप्त अराजकता को नियंत्रण में रखने में असफल रहा जबकि उसके बाद बनने वाला मुग़ल बादशाह जहाँदार शाह बहुत ही अयोग्य शासक प्रमाणित हुआ। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया तथा अनेक सफलताएँ प्राप्त की।

4. बंदा सिंह बहादुर का योग्य नेतृत्व (Able leadership of Banda Singh Bahadur)-बंदा सिंह बहादुर एक निर्भीक योद्धा एवं योग्य सेनापति था। उसने सभी लड़ाइयों में सेना का स्वयं नेतृत्व किया तथा वह अपने अधीन सैनिकों को युद्ध के समय में अत्यधिक प्रोत्साहित करता था। परिणामस्वरूप, बंदा सिंह बहादुर ने अपने आरंभिक वर्षों में प्रशंसनीय सफलताएँ प्राप्त की।

5. बंदा सिंह बहादुर के प्रारंभिक आक्रमण छोटे-छोटे मुग़ल अधिकारियों के विरुद्ध थे (Banda Singh Bahadur’s early exploits were against petty local Mughal Officials)-बंदा सिंह बहादुर के प्रारंभिक आक्रमण सरहिंद को छोड़कर छोटे-छोटे मुग़ल अधिकारियों के विरुद्ध थे। ये अधिकारी अपने अत्याचारों के कारण प्रजा में बहुत बदनाम थे। फलस्वरूप, जब बंदा सिंह बहादुर ने इन प्रदेशों पर आक्रमण किये तो स्थानीय लोगों ने बंदा सिंह बहादुर को अपना समर्थन दिया। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर एक के बाद दूसरी सफलता प्राप्त करता गया।

6. बंदा सिंह बहादुर का अच्छा शासन प्रबंध (Good Administration of Banda Singh Bahadur)बंदा सिंह बहादुर ने अपने अधीन प्रदेशों में बहुत अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की थी। उसने बहुत ही योग्य एवं ईमानदार अधिकारी नियुक्त किए। उसने ज़मींदारी प्रथा को खत्म करके किसानों को न केवल ज़मींदारों के अत्याचारों से बचाया बल्कि उन्हें भूमि का स्वामी भी बना दिया। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के लोगों से पूरा समर्थन मिला और इसी कारण उसे आरंभिक काल में अनेक सफलताएँ प्राप्त हुईं।

प्रश्न 6.
बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of ultimate failure of Banda Singh Bahadur ?)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता के कारण (Causes of Banda Singh Bahadur’s Ultimate Failure)
पंजाब आने के बाद बंदा सिंह बहादर ने अपने प्रारंभिक वर्षों में अनेक महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त की। परंतु शीघ्र ही उसे असफलता का मुँह देखना पड़ा। बंदा सिंह बहादुर की इस अंतिम असफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. मुगल साम्राज्य की शक्ति (Strength of the Mughal Empire)-मुग़ल साम्राज्य के पास विशाल तथा असीमित साधन थे। दूसरी ओर बंदा सिंह बहादुर के साधन बहुत सीमित थे। मुग़लों की तुलना में उसके सैनिकों की संख्या बहुत कम थी। बंदा सिंह बहादुर की आय का मुख्य साधन लूटमार ही था। ऐसी स्थिति में मुग़लों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना बंदा सिंह बहादुर के लिए बिल्कुल असंभव था।

2. सिखों में संगठन का अभाव (Lack of Organisation among the Sikhs)-बंदा सिंह बहादुर के अधीन सिख सैनिकों में संगठन और अनुशासन का अभाव था। वे किसी योजनानुसार लड़ाई नहीं करते थे। अतः संगठन और अनुशासन के अभाव में ऐसे सिखों का असफल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

3. बंदा सिंह बहादुर द्वारा आदेशों का उल्लंघन (Violation of Instructions by Banda Singh Bahadur)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को कुछ आवश्यक आदेश दिए थे। कालांतर में उसने इनका उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। उसने गुरु साहिब के आदेशों के विरुद्ध चंबा की राजकुमारी से विवाह करवा लिया था और शाही ठाठ से रहने लग पड़ा था। उसने ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह’ के स्थान पर ‘फ़तह धर्म और फ़तह दर्शन’ के शब्दों को प्रचलित करके सिख मत में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। फलस्वरूप, गुरु गोबिंद सिंह जी के अनेक श्रद्धालु सिख बंदा सिंह बहादुर के विरुद्ध हो गए।

4. फ़र्रुखसियर की सिखों के विरुद्ध कार्यवाहियाँ (Measures of Farukhsiyar against the Sikhs)1713 ई० में फ़र्रुखसियर मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह सिखों को कुचलने के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध था। उसने सिखों का दमन करने के लिए अब्दुस समद खाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दुस समद खाँ ने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए कोई कसर न उठा रखी। परिणामस्वरूप, बंदा सिंह बहादुर और उसके साथियों को आत्म-समर्पण करना ही पड़ा।

5. गुरदास-नंगल में सिखों पर अचानक आक्रमण (Surprise attack on the Sikhs at Gurdas Nangal)-अप्रैल, 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर पर हुआ अचानक आक्रमण भी उनके पतन का एक प्रमुख कारण बना। बंदा सिंह बहादुर तथा उसके साथी सिख अचानक आक्रमण के कारण दुनी चंद की हवेली में घिर गए। इस हवेली में से अधिक समय तक मुग़लों का सामना नहीं किया जा सकता था। इसके बावजूद बंदा सिंह बहादुर ने 8 माह तक लड़ाई जारी रखी पर अंत में उसे पराजय स्वीकार करनी पड़ी।

6. बंदा सिंह बहादुर और बिनोद सिंह में मतभेद (Differences between Banda Singh Bahadur and Binod Singh)-गुरदास नंगल की लड़ाई के समय बंदा सिंह बहादुर और उसके साथी बिनोद सिंह में मतभेद उत्पन्न हो गए। बिनोद सिंह हवेली छोड़कर भाग निकलने के पक्ष में था। दूसरी ओर बंदा सिंह बहादुर चाहता था कि कुछ समय और लड़ाई को जारी रखा जाए। परिणामस्वरूप, बिनोद सिंह अपने साथियों सहित हवेली छोड़कर निकल गया। अतः बंदा सिंह बहादुर को पराजय का मुख देखना पड़ा।

बंदा सिंह बहादुर के चरित्र तथा सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Banda Singh Bahadur’s Character and Achievements)

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प्रश्न 7.
बंदा सिंह बहादुर की सफलताओं पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालें। (P.S.E.B. July 2006) (Describe in detail about the achievements of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के चरित्र एवं उपलब्धियों का विवेचन करें। क्या वह रक्त-पिपासु मनुष्य था ?
(Assess the character and achievements. of Banda Singh Bahadur Was he a ruthless blood-sucker ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के चरित्र तथा सफलताओं का मूल्यांकन करें।
(Form an estimate of the character and achievements of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर एक बहुमुखी प्रतिभा का स्वामी था। वह एक वीर योद्धा, कुशल सेनापति, योग्य शासन प्रबंधक, सिख धर्म का सच्चा अनुयायी तथा पावन जीवन व्यतीत करने वाला मनुष्य था। बंदा सिंह बहादुर के चरित्र और सफलताओं का मूल्याँकन निम्नलिखित अनुसार है—
मनुष्य के रूप में (As a Man)
1. शक्ल-सूरत (Physical Appearance)—बंदा सिंह बहादुर की शक्ल-सूरत गुरु गोबिंद सिंह जी से काफी हद तक मिलती-जुलती थी। उसका शरीर पतला, कद मध्यम और रंग गेहुँआ था। वस्तुतः उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावपूर्ण था कि उसके शत्रु भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे।

2. वीर और साहसी (Brave and Bold)—बंदा सिंह बहादुर को इतिहास में उसकी वीरता और साहस के कारण ही प्रसिद्धि प्राप्त है। बड़े-से-बड़े संकट में भी वह घबराता नहीं था। लोहगढ़ के दुर्ग में जब वह घिर गया था तथा गुरदास-नंगल की लड़ाई में उसने अपने अद्वितीय साहस का प्रमाण दिया। उसका संपूर्ण जीवन ही उसकी बहादुरी के कारनामों से भरा पड़ा है।

3. सिख धर्म का सच्चा अनुयायी (A true follower of Sikhism)-बंदा सिंह बहादुर का सिख धर्म में बहुत दृढ़ विश्वास था। वह सिख धर्म का सच्चा अनुयायी था। शासन संभालने पर उसने गुरु नानक साहिब एवं गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम पर सिक्के जारी किये। इस प्रकार उसने सिख धर्म का प्रचार किया।

4. सहिष्णु (Tolerant)-चारित्रिक रूप में बंदा सिंह बहादुर की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुपन था। उसने अपने धर्म के प्रचार के लिए कोई अत्याचार नहीं किया। उसकी मुग़लों के साथ लड़ाई भी अत्याचार के विरुद्ध थी। उसकी अपनी सेना में अनेक मुसलमान भर्ती थे और उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर धार्मिक रूप से पूर्ण सहिष्णु था।

5. उच्च आचरण (High Character)-बंदा सिंह बहादुर का आचरण बहुत उज्ज्वल था। वह बड़ा सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करता था। वह शराब, माँस और अन्य मादक द्रव्यों का प्रयोग नहीं करता था। वह महिलाओं का बहुत सम्मान करता था। उसने सिखों को यह आदेश दिया था, कि वे लड़ाई के समय भी महिलाओं से किसी प्रकार की अभद्रता न करें।

योद्धा तथा सेनापति के रूप में (As a Warrior and General)
बंदा सिंह बहादुर अपने समय का एक महान् योद्धा तथा उच्च कोटि का सेनापति था। उसने अपने सीमित साधनों के बावजूद महान् मुग़ल साम्राज्य के साथ करारी टक्कर ली । उसने मुग़लों के साथ हुई लड़ाइयों में शानदार सफलताएँ प्राप्त की। वह युद्ध-चालों में बहुत प्रवीण था तथा आवश्यकता पड़ने पर पीछे हटने में अपना अपमान नहीं समझता था। वह शत्रु के कमज़ोर पक्ष पर अचानक आक्रमण करके अपनी विजय सुनिश्चित कर लेता था। वह युद्ध के मैदान को अपनी सुविधा के अनुसार चुनता और इस प्रकार अपनी स्थिति को दृढ़ कर लेता था। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने अपनी प्रत्येक लड़ाई में विजय प्राप्त की। प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० गाँधी का कहना बिल्कुल ठीक है, “वह (बंदा सिंह बहादुर) उच्च कोटि का योद्धा तथा सेनापति था।”2

प्रशासक के रूप में (As an Administrator)
बंदा सिंह बहादुर एक उच्चकोटि का प्रशासक भी था। उसने अपने जीते हुए प्रदेशों में उचित प्रशासनिक व्यवस्था की। उसने खालसा के नाम पर शासन किया। उसने अपने राज्य में मुसलमान कर्मचारियों को हटा दिया क्योंकि वे भ्रष्ट हो चुके थे और उनकी जगह योग्य हिंदुओं तथा सिखों को नियुक्त किया। निम्न वर्गों के लोगों को भी उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। बंदा सिंह बहादुर ने अपने राज्य में ज़मींदारी प्रथा का भी अंत कर दिया। इससे किसान भूमि के स्वामी बन गए। बंदा सिंह बहादुर अपने निष्पक्ष न्याय के कारण भी बहुत विख्यात था। न्याय करते समय वह किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करता था। प्रसिद्ध लेखक हरबंस सिंह का कहना बिल्कुल सही
“बंदा सिंह बहादुर का शासन यद्यपि अल्पकालिक रहा, परंतु इसका पंजाब के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा।”3

2. “He was a warrior and a general of the highest order.” S. S. Gandhi, Struggle of the Sikhs for Sovereignty (Delhi : 1980) p. 33.
3. Banda Singh’s rule, though short-lived, had a far reaching impact on the history of the Punjab.” Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (New Delhi : 1983) p. 118.

संगठनकर्ता के रूप में
(As an Organiser)
जब बंदा सिंह बहादुर नांदेड़ से पंजाब आया था तो उसके साथ केवल 25 सिख थे। शीघ्र ही उसने अपने ध्वज के नीचे हज़ारों सिखों को एकत्र कर लिया। उसने नई भावना उत्पन्न करके उन्हें शक्तिशाली मुग़ल साम्राज्य से टक्कर लेने के लिए तैयार किया। बंदा सिंह बहादुर ने अल्पकाल में ही मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिला कर रख दिया। शीघ्र ही बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब में एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बंदा सिंह बहादुर में महान् संगठनकर्ता के सभी गुण विद्यमान् थे।

बंदा सिंह बहादुर का इतिहास में स्थान (Banda Singh Bahadur’s Place in History)
बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने अल्पकाल में ही मुग़लों के शक्तिशाली साम्राज्य की नींव को हिला कर रख दिया। उसने मुग़लों के अजय होने के भ्रम को भंग कर दिया। उसने सिखों में स्वतंत्रता की नई भावना उत्पन्न की। बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब से ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करके एक क्रांतिकारी पग उठाया। उसने निम्न जातियों को शासन प्रबंध के उच्च पद देकर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। इस प्रकार अपनी महान् उपलब्धियों के कारण बंदा सिंह बहादुर का इतिहास में एक प्रमुख स्थान है।
डॉक्टर राजपाल सिंह के शब्दों में,
“निस्संदेह बंदा सिंह बहादुर 18वीं शताब्दी के महान् नेताओं में से एक था। वास्तव में उसका नाम स्वतंत्रता, निष्ठा एवं शहीदी का प्रतीक बन गया।”4
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर जी० एस० दियोल के अनुसार,
“18वीं शताब्दी के पंजाब के इतिहास में बंदा बहादुर को विशेष स्थान प्राप्त है।”5

4. ‘No doubt, Banda Bahadur emerges as one of the most outstanding leaders that produced in the eighteenth century……… In fact, his name has come to symbolize freedom, dedication and sacrifice.” Dr. Raj Pal Singh, Banda Bahadur and His Times (New Delhi : 1998) p. XIII.
5. “Banda Bahadur occupies a significant place in the history of the Punjab of the 18th century.” Dr. G. S. Deol, Banda Bahadur (Jalandhar : 1972) p. 7.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर के बचपन का नाम क्या था ? वह बैरागी क्यों बना ? (What was Banda Singh Bahadur’s childhood name ? Why did he become a Bairagi ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly the early life of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर के बचपन का नाम लक्ष्मण देव था। उसे बचपन से ही शिकार खेलने का शौक था। एक दिन वह जंगल में शिकार खेलने के लिए गया। उसने वहाँ पर एक ऐसी हिरणी को तीर मारा जो गर्भवती थी। जब लक्ष्मण देव ने उस हिरणी का पेट चीरा तो उसके पेट से दो बच्चे निकले। वे भी उसकी आँखों के सामने तड़पतड़प कर मर गए। इस दर्दनाक दृश्य का लक्ष्मण देव के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह जानकी प्रसाद नाम के एक साधु से प्रभावित होकर बैरागी बन गया।

प्रश्न 2.
बंदा बैरागी कौन था ? वह सिख कैसे बना ?
(Who was Banda Bairagi ? How did he become a Sikh ?)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर जिसका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था, कश्मीर के जिला पुंछ के राजौरी गाँव का रहने वाला था। एक दिन गर्भवती हिरणी को मारने के कारण उसके दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप वह बैरागी बन गया। उसने अपना नाम बदल कर माधो दास रख लिया। उसने 1708 ई० में नंदेड़ में उसकी भेंट गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ हुई। माधो दास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुआ और वह सिख बन गया।

प्रश्न 3.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब भेजते समय क्या कार्यवाही की तथा उसे क्या आदेश दिए ?
(What action and orders were given to Banda Singh Bahadur by Guru Gobind Singh Ji before sending him to Punjab ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब भेजने से पूर्व अपने पाँच तीर दिए और उसकी सहायता के लिए पाँच प्यारे तथा 20 अन्य बहादुर सिखों को साथ भेजा। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब के सिखों के नाम कुछ हक्मनामे भी दिए। गुरु साहिब ने बंदा सिंह बहादुर को ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करना, सदा सत्य बोलना, नया धर्म नहीं चलाना, अपनी विजयों पर अहंकार नहीं करना, स्वयं को खालसा का सेवक समझना और उनकी इच्छाओं के अनुसार आचरण करने का आदेश दिया।

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प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर ने सिखों का राज्य किस तरह स्थापित किया ?
(How did Banda Singh Bahadur set up the Sikh empire ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर ने सिख राज्य की स्थापना कैसे की ?
(How did Banda Singh Bahadur establish the Sikh State ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब में मुग़लों के विरुद्ध सिखों का नेतृत्व करने का आदेश दिया। जब बंदा सिंह बहादुर नांदेड़ से पंजाब पहुँचा तो सिखों ने उसे बढ़-चढ़ कर सहयोग दिया। रास्ते में बंदा सिंह बहादुर ने कैथल, समाना, कपूरी और सढौरा को लूटा और बहुत-से मुसलमानों की हत्या कर दी। 12 मई, 1710 ई० में चप्पड़चिड़ी की भयंकर लड़ाई में सरहिंद का फ़ौजदार वज़ीर खाँ मारा गया। सरहिंद की विजय बंदा सिंह बहादुर की एक बहुत बड़ी सफलता थी। उसने लोहगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। उसने नए सिक्के चलाकर स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना की।

प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर के सैनिक कारनामों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए । (Give a brief account of the military exploits of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की किन्हीं तीन सैनिक विजयों की चर्चा करें। (Describe any three military conquests of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की तीन मुख्य सैनिक सफलताओं का वर्णन करो । (Describe the three major military achievements of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-

  1. बंदा सिंह बहादुर ने अपनी विजयों का आरंभ 1709 ई० में सोनीपत से किया। बंदा सिंह बहादुर ने इसे सुगमता से जीत लिया था।
  2. बंदा सिंह बहादुर ने नवंबर, 1709 ई० में समाना पर आक्रमण करके दस हज़ार मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया ।
  3. बंदा सिंह बहादुर ने कपूरी पर आक्रमण करके वहाँ के अत्याचारी शासक कदमऊद्दीन को मौत के घाट उतार दिया।
  4. सढौरा का शासक उसमान खाँ भी अपने अत्याचारों के कारण बहुत बदनाम था। बंदा सिंह बहादुर ने उसे एक अच्छा सबक सिखाया
  5. बंदा सिंह बहादुर ने 12 मई, 1710 ई० को चप्पड़चिड़ी नामक स्थान पर वज़ीर खाँ को पराजित कर सरहिंद पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 6.
बंदा सिंह बहादुर की सढौरा विजय पर एक संक्षिप्त नोट लिखें । (Write a short note on the conquest of Sadhaura by Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
सढौरा का शासक उस्मान खाँ अपने अत्याचारों के लिए कुख्यात था। उस क्षेत्र में कोई भी हिंदू स्त्री ऐसी नहीं जिसे उसने अपमानित न किया हो। वह हिंदुओं को धार्मिक उत्सव मनाने नहीं देता था। उसने पीर बुद्ध शाह की हत्या करवा दी। बंदा सिंह बहादुर ने इन अपमानों का प्रतिशोध लेने के लिए सढौरा पर आक्रमण कर दिया। यहाँ पर मुसलमानों को इतनी बड़ी संख्या में मौत के घाट उतारा गया कि सढौरा का नाम कत्लगढ़ी पड़ गया।

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प्रश्न 7.
बंदा सिंह बहादुर की सरहिंद की विजय पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the conquest of Sirhind by Banda Singh Bahadur.).
अथवा
चप्पड़चिड़ी की लड़ाई का संक्षेप में वर्णन करें।
(Give a brief accoúnt of battle of Chapparchiri.)
उत्तर-
सिखों में सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ के विरुद्ध भारी रोष था। उस ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों-साहिबजादा जोरावर सिंह जी और साहिबज़ादा फ़तह सिंह जी को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया था। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने 12 मई, 1710 ई० को चप्पड़चिड़ी नामक स्थान पर वज़ीर खाँ पर आक्रमण कर दिया। यह लड़ाई बड़ी भयानक थी। वज़ीर खाँ के मरते ही उसकी सेना में भगदड़ मच गई। इस लड़ाई में सिख विजयी रहे। इस महत्त्वपूर्ण विजय के कारण सिखों के उत्साह में बहुत वृद्धि हुई।

प्रश्न 8.
बंदा सिंह बहादुर की लोहगढ़ लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the battle of Lohgarh by Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की बढ़ती हुई शक्ति मुग़लों के लिए एक चुनौती थी। इसलिए मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ने बंदा सिंह बहादुर की शक्ति का दमन करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उसने अपने एक सेनापति मुनीम खाँ के अधीन 60,000 सैनिकों की एक विशाल सेना पंजाब भेजी। इस सेना ने 10 दिसंबर, 1710 ई० को लोहगढ़ पर अचानक आक्रमण कर दिया। लोहगढ़ बंदा सिंह बहादुर की राजधानी थी। खाद्य-पदार्थों की कमी के कारण सिखों के लिए इस लड़ाई को अधिक समय तक जारी रखना असंभव था। बंदा सिंह बहादुर वेश बदलकर दुर्ग से बच निकलने में सफल हो गया।

प्रश्न 9.
गुरदास नंगल की लड़ाई पर एक संक्षेप नोट लिखें।
(Write a short note on the battle of Gurdas Nangal.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर एवं मुग़लों के मध्य हुई गुरदास नंगल की लड़ाई का संक्षिप्त वर्णन कीजिए ।
(Give a brief account of the battle of Gurdas Nangal fought between Banda Singh Bahadur and the Mughals.)
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ ने अप्रैल, 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर को गुरदास नंगल के स्थान पर घेर लिया। धीरे-धीरे खान-पान की सामग्री समाप्त होने पर सिखों की स्थिति दयनीय हो गई । ऐसे समय में बाबा विनोद सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को दूनी चंद की हवेली से भाग निकलने का परामर्श दिया। परंतु बंदा सिंह बहादुर ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप, विनोद सिंह अपने साथियों को लेकर गढ़ी छोड़कर भाग निकला। विवश होकर बंदा सिंह बहादुर को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी।

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प्रश्न 10.
बंदा सिंह बहादुर को कब, कहाँ तथा कैसे शहीद किया गया ?
(When, where and how was Banda Singh Bahadur martyred ?)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर और कुछ अन्य सिखों को बंदी बनाने के बाद अब्दुस समद खाँ ने इन सिखों को फरवरी, 1716 ई० में दिल्ली भेजा। दिल्ली में इनका जुलूस निकाला गया। मार्ग में उनका भारी अपमान किया गया। उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया, परंतु सिखों ने इंकार कर दिया। अतः प्रतिदिन 100 सिखों को शहीद किया जाने लगा। अंत में 9 जून, 1716 ई० को बंदा सिंह बहादुर की बारी आई। उसे शहीद करने से पूर्व जल्लाद ने उसके चार वर्ष के पुत्र अजय सिंह की उसकी आँखों के सामने निर्ममता से हत्या कर दी। अंत में बंदा सिंह बहादुर का अंग-अंग काटकर उन्हें शहीद किया गया।

प्रश्न 11.
बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलताओं के कारणों का उल्लेख करो। (Mention the causes of early success of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलता के क्या कारण थे ? (What were the main causes of early success of Banda Singh Bahadur ?)
उत्तर-

  1. पंजाब के मुग़ल शासकों द्वारा सिखों पर किए गए घोर अत्याचारों के कारण पंजाब के लोगों ने बंदा सिंह बहादुर को हर प्रकार का सहयोग दिया।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी की अपील पर सिखों ने बंदा सिंह बहादुर को पूर्ण सहयोग दिया।
  3. औरंगज़ेब के उत्तराधिकारी बहुत अयोग्य थे । परिणामस्वरुप वे बंदा सिंह बहादुर की बढ़ती हुई शक्ति की ओर ध्यान न दे सके।
  4. बंदा सिंह बहादुर ने एक उच्च कोटिं के शासन प्रबंध की स्थापना की थी।
  5. पंजाब के पहाड़ भी बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलताओं में सहायक सिद्ध हुए।

प्रश्न 12.
अंत में बंदा सिंह बहादुर की असफलता के क्या कारण थे ? (What were the causes of final failure of Banda Singh Bahadur ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की असफलता के कारणों का वर्णन करें।
(Mention the causes of ultimate failure of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की असफलता का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Describe in brief the failure of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की असफलता के कोई तीन कारण बताएँ। (Give any three causes of the failure of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता के क्या कारण थे ?
(What were the causes of final failure of Banda Singh Bahdur.)
उत्तर-

  1. मुग़ल साम्राज्य का अत्यंत शक्तिशाली होना बंदा सिंह बहादुर की असफलता का एक मुख्य कारण बना।
  2. बंदा सिंह बहादुर ने गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा दिए गए निर्देशों का उल्लंघन आरंभ कर दिया था।
  3. पंजाब के हिंदू राजाओं तथा ज़मींदारों ने बंदा सिंह बहादुर के विरुद्ध सरकार को अपना सहयोग दिया।
  4. पंजाब के सूबेदार अब्दुस समद खाँ ने बंदा सिंह बहादुर की शक्ति कुचलने में कोई प्रयास नहीं छोड़ा।

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प्रश्न 13.
बंदा सिंह बहादुर के व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताएँ । (Describe traits of Banda Singh Bahadur’s personality.)
उत्तर-

  1. बंदा सिंह बहादुर बड़ा ही निडर और साहसी था । बड़ी से बड़ी मुसीबत आने पर भी घबराता नहीं था ।
  2. वह सिख धर्म का सच्चा सेवक था । उसने अपनी सफलताओं को गुरु साहिब का वरदान माना।
  3. बंदा सिंह बहादुर एक महान् सेनापति था। अपने सीमित साधनों के बावजूद उसने मुग़ल शासकों को नानी याद करवा दी थी।
  4. बंदा सिंह बहादुर एक योग्य शासक भी था। उसने अपने जीते हुए प्रदेशों में बहुत अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की थी ।

प्रश्न 14.
एक योद्धा और सेनापति के रूप में बंदा सिंह बहादुर की सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन करो। (Describe briefly the achievements of Banda Singh Bahadur as a warrior and general.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर का एक वीर योद्धा तथा सेनापति के रूप में मूल्यांकन करें।
(Explain the main contribution of Banda Singh Bahadur as a brave warrior and great military general.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर एक महान् योद्धा और उच्चकोटि का सेनापति था। बंदा सिंह बहादुर के साधन मुग़लों के मुकाबले नाममात्र थे, परंतु उसने अपनी योग्यता के बल पर 7-8 वर्ष मुग़ल सेना के नाक में दम कर रखा था। उसने जितनी भी लड़ाइयाँ लड़ीं, लगभग सभी में उसने बड़ी शानदार सफलताएँ प्राप्त की। युद्ध के मैदान में वह बड़ी तीव्रता से स्थिति का अनुमान लगा लेता था और अवसर अनुसार अपना निर्णय तुरंत कर लेता था। वह युद्ध की चालों में बड़ा निपुण था। वह युद्ध तभी शुरू करता था जब उसे विजय की पूर्ण आशा होती थी।

प्रश्न 15.
एक प्रशासक के रूप में बंदा सिंह बहादुर की सफलताओं की संक्षिप्त जानकारी दें।
(Write briefly about Banda Singh Bahadur’s achievements as an administrator.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर ने अपने विजित प्रदेशों में अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की। उसने खालसा के नाम से शासन किया और अपने राज्य में गुरु साहिब द्वारा दर्शाए गए नियमों को लागू करने का यत्न किया। उसने अपने राज्य में भ्रष्ट कर्मचारियों को हटाकर बड़े योग्य और ईमानदार व्यक्तियों को नियुक्त किया। निर्धनों और निम्न जाति के लोगों को उच्च पदों पर लगाकर उनको एक नया सम्मान दिया। बंदा सिंह बहादुर ने ज़मींदारी प्रथा का अंत करके एक अत्यंत सराहनीय कार्य किया।

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प्रश्न 16.
बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के इतिहास में आप क्या स्थान देते हैं ?
(What place would you assign to Banda Singh Bahadur in the History the Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास में बंदा सिंह बहादुर को क्या स्थान प्राप्त है ? (What is the place of Banda Singh Bahadur in the History of the Punjab ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की सिखों को मुख्य देन क्या है ?
(What is the main contribution of Banda Singh Bahadur to Sikhs ?) .
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। वह एक महान् योद्धा, वीर सेनापति, योग्य प्रशासक तथा उच्च कोटि का नेता था। वह पहला व्यक्ति था जिसने सिखों को अत्याचारियों का मुकाबला करने तथा स्वतंत्रता के लिए मर मिटने का पाठ पढ़ाया। उसने मुग़लों के अजेय होने के जादू को तोड़ा। बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब से ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करके एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी पग उठाया। उसने निर्धनों और निम्न वर्ग के लोगों को शासन प्रबंध में ऊँचे पद देकर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न A (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म कब हुआ था ?
उत्तर-
27 अक्तूबर, 1676 ई०।।

प्रश्न 2.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर-
राजौरी।

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प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर का आरंभिक नाम क्या था ?
अथवा
बंदा सिंह बहादुर का बचपन का क्या नाम था ?
उत्तर-
लक्ष्मण देव।

प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर के पिता का क्या नाम था ?
उत्तर-
रामदेव।

प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर का वैराग्य धारण करने के पश्चात् क्या नाम पड़ा ?
अथवा
बैरागी बनने के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर ने अपना नाम क्या रखा ?
उत्तर-
माधो दास।

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प्रश्न 6.
बंदा सिंह बहादुर बैरागी क्यों बना ?
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के आरंभिक जीवन की कौन-सी घटना थी जिसने उसे वैरागी बना दिया ?
अथवा
किस घटना ने बंदा सिंह बहादुर के जीवन को परिवर्तित किया ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर ने एक ऐसी हिरणी को मार दिया था जो गर्भवती थी।

प्रश्न 7.
गुरु गोबिंद सिंह जी को बंदा सिंह बहादुर कहाँ मिला था ?
उत्तर-
नांदेड़ में।

प्रश्न 8.
बंदा सिंह बहादुर का यह नाम क्यों पड़ा ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर को यह नाम गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा दिया गया था।

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प्रश्न 9.
बंदा सिंह बहादुर ने अपने सैनिक कारनामों का आरंभ कब किया ?
उत्तर-
1709 ई०।

प्रश्न 10.
बंदा सिंह बहादुर ने अपने सैनिक कारनामों का आरंभ कहाँ से किया था ?
उत्तर-
सोनीपत।

प्रश्न 11.
बंदा सिंह बहादुर की पहली महत्त्वपूर्ण विजय कौन-सी थी ?
उत्तर-
समाना।

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प्रश्न 12.
बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा पर आक्रमण क्यों किया ?
उत्तर-
क्योंकि यहाँ का शासक उस्मान खाँ अपने अत्याचारों के लिए बहुत कुख्यात था।

प्रश्न 13.
बंदा सिंह बहादुर ने क्या नारा दिया ?
उत्तर-
फ़तेह धर्म, फ़तेह दर्शन।

प्रश्न 14.
बंदा सिंह बहादुर की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय कौन-सी थी ?
उत्तर-
सरहिंद।

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प्रश्न 15.
बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद कब विजय किया ?
अथवा
चप्पड़चिड़ी की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
12 मई, 1710 ई०

प्रश्न 16.
बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद पर आक्रमण क्यों किया?’
उत्तर-
क्योंकि यहाँ का फ़ौजदार वज़ीर खाँ सिखों का घोर शत्रु था।

प्रश्न 17.
वज़ीर खाँ कौन था ?
उत्तर-
सरहिंद का फ़ौजदार।

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प्रश्न 18.
सरहिंद की लड़ाई में बंदा सिंह बहादुर ने किसे पराजित किया था ?
उत्तर-
वज़ीर खाँ को।

प्रश्न 19.
बंदा सिंह बहादुर ने अपनी राजधानी का क्या नाम रखा ?
उत्तर-
लोहगढ़।

प्रश्न 20.
बंदा सिंह बहादुर ने किस राज्य की राजकुमारी के साथ विवाह किया ?
उत्तर-
चंबा।

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प्रश्न 21.
बंदा सिंह बहादुर के पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
अजय सिंह।

प्रश्न 22.
बंदा सिंह बहादुर और मुग़लों के बीच हुई अंतिम लड़ाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
गुरदास नंगल।

प्रश्न 23.
बंदा सिंह बहादुर की मुग़लों से अंतिम लड़ाई में मुग़ल सेना का नेतृत्व किसने किया ?
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ।

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प्रश्न 24.
गुरदास नंगल का युद्ध कब हुआ ?
उत्तर-
1715 ई०।

प्रश्न 25.
बंदा सिंह बहादुर को किसने शहीद करवाया था?
उत्तर-
अब्दुस समद खाँ।

प्रश्न 26.
बंदा सिंह बहादुर को कब शहीद किया गया था ?
उत्तर-
9 जून, 1716 ई०।

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प्रश्न 27.
बंदा सिंह बहादुर को कहाँ शहीद किया गया था ?
उत्तर-
दिल्ली।

प्रश्न 28.
बंदा सिंह बहादुर की शहीदी के समय किस मुगल बादशाह का शासन था ?
उत्तर-
फर्रुखसियर

प्रश्न 29.
बंदा सिंह बहादुर ने किस प्रथा को समाप्त किया ?
उत्तर-
ज़मींदारी प्रथा।

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प्रश्न 30.
बंदा सिंह बहादुर की प्रारंभिक सफलता का कोई एक कारण बताओ।
उत्तर-
मुग़लों के घोर अत्याचारों के कारण पंजाब के लोग बंदा सिंह बहादुर के झंडे तले इकट्ठे हुए।

प्रश्न 31.
बंदा सिंह बहादुर की असफलता का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर के साधन मुग़लों की तुलना में बहुत सीमित थे

प्रश्न 32.
बंदा सिंह बहादुर ने किस नाम के सिक्के जारी किए ?
उत्तर-
नानकशाही तथा गोबिंदशाही।

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प्रश्न 33.
बंदा सिंह बहादुर की सिखों को मुख्य देन क्या थी ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर ने सिखों को राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रथम सबक सिखाया।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म …… में हुआ।
उत्तर-
(1670 ई०)

प्रश्न 2.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म ……… गाँव में हुआ था।
उत्तर-
(राजौरी)

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प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर के पिता का नाम …….. था।
उत्तर-
(रामदेव)

प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर का आरंभिक नाम …… था।
उत्तर-
(लक्ष्मण देव)

प्रश्न 5.
…….. के शिकार ने बंदा सिंह बहादुर के जीवन को एक नई दिशा प्रदान की।
उत्तर-
(एक हिरनी)

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प्रश्न 6.
जानकी प्रसाद नामक एक वैरागी ने लक्ष्मण देव का नाम बदल कर …… रख दिया।
उत्तर-
(माधो दास)

प्रश्न 7.
1708 ई० में बंदा सिंह बहादुर की गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ ……. में मुलाकात हुई।
उत्तर-
(नंदेड़)

प्रश्न 8.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने माधो दास को …… का नाम दिया।
उत्तर-
(बंदा सिंह बहादुर)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

प्रश्न 9.
बंदा सिंह बहादुर ने अपनी विजयों का आरंभ ………. से किया।
उत्तर-
(सोनीपत)

प्रश्न 10.
बंदा सिंह बहादुर ने ………. में सोनीपत को विजय किया।
उत्तर-
(1709 ई०)

प्रश्न 11.
बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा के शासक …….. को एक कड़ी पराजय दी।
उत्तर-
(उस्मान खाँ)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

प्रश्न 12.
बंदा सिंह बहादुर के समय सरहिंद का फ़ौजदार …… था।
उत्तर-
(वजीर खाँ)

प्रश्न 13.
बंदा सिंह बहादुर ने ……… को सरहिंद का शासक नियुक्त किया।
उत्तर-
(बाज़ सिंह)

प्रश्न 14.
बंदा सिंह बहादुर की राजधानी का नाम …….. था।
उत्तर-
(लोहगढ़)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

प्रश्न 15.
बंदा सिंह बहादुर ने …….. को अपनी राजधानी बनाया।
उत्तर-
(लोहगढ़)

प्रश्न 15.
गुरदास नंगल की लड़ाई …….. में हुई।
उत्तर-
(1715 ई०)

प्रश्न 16.
बंदा सिंह बहादुर को …….. में शहीद किया गया।
उत्तर-
(दिल्ली)

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प्रश्न 17.
बंदा सिंह बहादुर को……..में शहीद किया गया।
उत्तर-
(1716 ई०)

प्रश्न 18.
………ने सिख कौम के पहले सिक्के जारी किए।
उत्तर-
(बंदा सिंह बहादुर)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 ई० को हुआ था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 2.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म राजौरी में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर के पिता जी का नाम लक्ष्मण देव था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर के बचपन का नाम रामदेव था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 5.
जानकी प्रसाद नामक एक बैरागी ने लक्ष्मण देव का नाम बदल कर माधो दास रख दिया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
गुरु गोबिंद सिंह जी बंदा सिंह बहादुर को दिल्ली में मिले थे।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 7.
बंदा सिंह बहादुर ने अपनी विजयों का आरंभ 1709 ई० में सोनीपत से किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 8.
बंदा सिंह बहादुर ने कंपूरी में कदमुद्दीन को हराया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा के शासक उस्मान खाँ को करारी हार दी थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
बंदा सिंह बहादुर की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय रोपड़ की थी।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 11.
बंदा सिंह बहादुर ने 1710 ई० में सरहिंद पर विजय प्राप्त की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
बंदा सिंह बहादुर के समय सरहिंद का फ़ौजदार वजीर खाँ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
बंदा सिंह बहादुर ने लोहगढ़ को अपने राज्य की राजधानी बनाया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 14.
गुरदास नंगल की लड़ाई 1715 ई० में लड़ी गई थी। ”
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
बंदा सिंह बहादुर को 1716 ई० में शहीद किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
बंदा सिंह बहादुर को लाहौर में शहीद किया गया था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 17.
बंदा सिंह बहादुर पंजाब का पहला ऐसा शासक था जिसने सिख सिक्के जारी किए।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म कब हुआ ?
(i) 1625 ई० में
(ii) 1660 ई० में
(iii) 1670 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 2.
बंदा सिंह बहादुर का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) राजगढ़ में
(ii) राजौरी में
(iii) सढौरा में
(iv) नांदेड़ में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) लक्ष्मण देव
(ii) राम देव
(iii) माधो दास
(iv) ग़रीब दास।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 4.
बंदा सिंह बहादुर के पिता का क्या नाम था ?
(i) नाम देव
(ii) राम देव
(iii) सहदेव
(iv) लक्ष्मण देव।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर बैरागी क्यों बना ?
(i) एक गर्भवती हिरणी को मारने के कारण
(ii) एक गर्भवती शेरनी को मारने के कारण
(iii) एक गर्भवती हथनी को मारने के कारण
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 6.
बैरागी बनने के बाद बंदा सिंह बहादुर ने अपना क्या नाम रखा ?
(i) लक्ष्मण देव
(ii) माधो दास
(ii) जानकी प्रसाद
(iv) औघड़ नाथ।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 7.
बंदा सिंह बहादुर की गुरु गोबिंद सिंह जी से भेंट कहाँ हुई थी ?
(i) श्री आनंदपुर साहिब
(ii) अमृतसर
(iii) गोइंदवाल साहिब
(iv) नांदेड़।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 8.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब क्यों भेजा ?
(i) सिख राज की स्थापना के लिए
(ii) मुग़लों के अत्याचारों का बदला लेने के लिए
(iii) अफ़गानों के अत्याचारों का बदला लेने के लिए
(iv) उपरोक्त सी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 9.
बंदा सिंह बहादुर ने अपने सैनिक कारनामों का आरंभ कब किया ?
(i) 1708 ई० में
(ii) 1709 ई० में
(iii) 1710 ई० में
(iv) °1715 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 10.
बंदा सिंह बहादुर ने अपने सैनिक कारनामों का आरंभ कहाँ किया ?
(i) पानीपत से
(ii) सोनीपत से
(iii) समाना से
(iv) कपूरी से।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 11.
बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा के किस शासक को पराजित किया था ?
(i) रहमत खाँ
(ii) जकरिया खाँ
(iii) उस्मान खाँ
(iv) वज़ीर खाँ।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 12.
बंदा सिंह बहादुर की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय कौन-सी थी ?
(i) सढौरा की
(ii) लोहगढ़ की
(iii) रोपड़ की
(iv) सरहिंद की।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 13.
वज़ीर खाँ कहाँ का मुग़ल सूबेदार था ?
(i) समाना
(ii) सोनीपत
(iii) सरहिंद
(iv) गुरदास नंगल।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 14.
बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद पर कब विजय प्राप्त की थी ?
(i) 1708 ई० में
(ii) 1709 ई० में
(iii) 1710 ई० में
(iv) 1712 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 15.
बंदा सिंह बहादुर की राजधानी का क्या नाम था ?
(i) लोहगढ़
(ii) गुरदास नंगल
(iii) अमृतसर
(iv) कलानौर।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 16.
बंदा सिंह बहादुर ने किस राज्य की राजकुमारी के साथ विवाह किया ?
(i) बिलासपुर
(ii) चंबा
(iii) मंडी
(iv) कुल्लू।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 17.
बंदा सिंह बहादुर के पुत्र का क्या नाम था ?
(i) अजय सिंह
(ii) अभय सिंह
(iii) दया सिंह
(iv) बिनोद सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
गुरदास नंगल की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1709 ई० में
(ii) 1710 ई० में
(iii) 1712 ई० में
(iv) 1715 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 19.
बंदा सिंह बहादुर को कहाँ शहीद किया गया था ?
(i) दिल्ली में
(ii) लाहौर में
(iii) मुलतान में
(iv) अमृतसर में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 20.
बंदा सिंह बहादुर को कब शहीद किया गया ?
(i) 1714 ई० में
(ii) 1715 ई० में
(iii) 1716 ई० में
(iv) 1718 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 21.
बंदा सिंह बहादुर को किस मुग़ल बादशाह के आदेश पर शहीद किया गया था ?
(i) औरंगजेब
(ii) बहादुर शाह प्रथम
(iii) जहाँदार शाह
(iv) फर्रुखसियर।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 22.
बंदा सिंह बहादुर की प्रारंभिक सफलता का क्या कारण था ?
(i) बंदा सिंह बहादुर का अच्छा शासन प्रबंध
(ii) औरंगजेब के कमज़ोर उत्तराधिकारी ।
(iii) गुरु गोबिंद सिंह जी के हक्मनामे
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 23.
बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता का मुख्य कारण क्या था ?
(i) मुग़ल साम्राज्य का शक्तिशाली होना
(ii) गुरदास नंगल पर अचानक आक्रमण
(iii) बंदा सिंह बहादुर और विनोद सिंह में मतभेद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
बंदा सिंह बहादुर के बचपन का नाम क्या था ? वह बैरागी क्यों बना ? (What was Banda Singh Bahadur’s childhood name ? Why did he become a Bairagi ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe briefly the early life of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर जो सिख इतिहास में बंदा बहादुर के नाम से अधिक विख्यात हैं, को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। बंदा सिंह बहादुर के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. जन्म और माता-पिता-बंदा सिंह बहादुर का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 ई० में कश्मीर के जिला पुंछ के राजौरी नामक गाँव में हुआ। उसके बचपन का नाम लक्ष्मण देव था। उनके पिता जी का नाम राम देव था। वह डोगरा राजपूत जाति से संबंधित थे।

2. बचपन-लक्ष्मण देव एक बहुत ही निर्धन परिवार से संबंधित था। अत: लक्ष्मण देव कुछ बड़ा हुआ तो वह कृषि के कार्य में पिता जी का हाथ बंटाने लग पड़ा। लक्ष्मण देव अपने खाली समय में तीर-कमान लेकर वनों में शिकार खेलने चला जाता था।

3. जीवन में नया मोड़-जब लक्ष्मण देव की आयु लगभग 15 वर्ष की थी तो एक दिन शिकार खेलते हुए उसने एक गर्भवती हिरणी को तीर मारा। वह हिरणी और उसके बच्चे लक्ष्मण देव के सामने तड़प-तड़प कर मर गए। इस करुणामय दृश्य का लक्ष्मण के दिल पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने संसार को त्याग दिया।

4. बैरागी के रूप में-लक्ष्मण देव शीघ्र ही जानकी प्रसाद नामक बैरागी के संपर्क में आया। जानकी प्रसाद ने उसका नाम बदल कर माधो दास रख दिया। शीघ्र ही माधोदास की मुलाकात तंत्र विद्या में निपुण औघड़ नाथ से हो गई और वह उसका शिष्य बन गया। औघड़ नाथ की मृत्यु के बाद माधोदास नंदेड़ आ गया और शीघ्र ही अपनी तंत्र विद्या के कारण लोगों में विख्यात हो गया।

5. गुरु गोबिंद सिंह जी से भेंट-1708 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ आए तो वह माधोदास के आश्रम में उससे भेंट करने के लिए गए। गुरु साहिब और माधोदास के मध्य कुछ प्रश्न-उत्तर हुए। माधोदास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि वह गुरु जी का अनुयायी बन गया। गुरु जी ने भी उसे अमृत छकाकर सिख बनाया और उसका नाम परिवर्तित करके बंदा सिंह बहादुर रख दिया।

6. बंदा सिंह बहादुर का पंजाब की ओर प्रस्थान-जब बंदा सिंह बहादुर ने गुरु गोबिंद सिंह जी से पंजाब में सिखों पर मुग़लों द्वारा किए गए अत्याचारों और गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदानों के संबंध में सुना तो उसका राजपूती खून खौलने लगा। उसने इन अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए गुरु जी से पंजाब जाने की आज्ञा माँगी। गुरु जी ने इस निवेदन को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त करके 1708 ई० में पंजाब की ओर रुख किया।

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प्रश्न 2.
बंदा बैरागी कौन था ? वह सिख कैसे बना ? (Who was Banda Bairagi ? How did he become a Sikh ?)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर जिसका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था, कश्मीर के जिला पंछ के राजौरी गाँव का रहने वाला था। उसके पिता एक साधारण कृषक थे। एक गर्भवती हिरणी को मारने के कारण उसके दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप वह बैरागी बन गया। लक्ष्मण. देव का नाम बदल कर माधो दास रख दिया गया। उसने पंचवटी के एक साधु औघड़नाथ से तंत्र विद्या की जानकारी प्राप्त की। कुछ समय वहाँ रहने के बाद माधो दास नांदेड़ नामक स्थान पर आ गया। नांदेड़ में ही 1708 ई० में उसकी भेंट गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ हुई। इस भेंट के दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी और माधो दास के मध्य कुछ प्रश्न-उत्तर हुए। माधो दास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि वह गुरु साहिब का बंदा (दास) बन गया। गुरु गोबिंद सिंह जी ने उसे अमृत छका कर सिख बना दिया और उसको बंदा सिंह बहादुर का नाम दिया। इस तरह बंदा बैरागी सिख बना।

प्रश्न 3.
बंदा सिंह बहादुर की गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ हुई मुलाकात का वर्णन करें। (Discuss Banda Singh Bahadur’s meeting with Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
1708 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ आए तो वे माधो दास के आश्रम में उससे भेंट करने के लिए गए। जब गुरु जी उसके आश्रम में पहुँचे तो उसने उन्हें चारपाई पर बिठाया और अपनी तंत्र विद्या से उनकी चारपाई उलटानी चाही। परंतु गुरु साहिब चारपाई पर शाँत बैठे रहे। उन पर माधो दास की तंत्र विद्या का तनिक भी प्रभाव न हुआ। यह देखकर माधो दास आश्चर्यचकित रह गया और उसने गुरु साहिब से कुछ प्रश्न पूछने आरंभ कर दिए जिनका उत्तर गुरु जी ने इस प्रकार दिया—
माधो दास-तुम कौन हो ?
गुरु गोबिंद सिंह जी-मैं वही हूँ जिसे तुम जानते हो।
माधो दास-मैं कैसे जानता हूँ।
गुरु गोबिंद सिंह जी-अपने मन में सोचो।
माधो दास-तो क्या आप गुरु गोबिंद सिंह जी हैं ?
गुरु गोबिंद सिंह जी-हाँ !
माधो दास-तो आप यहाँ किस लिए आये हैं ?
गुरु गोबिंद सिंह जी-तुम्हें अपना शिष्य बनाने के लिए।
माधो दास-मुझे स्वीकार है, साहिब ! मैं आप ही का बंदा (दास) हूँ।
माधो दास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि वह गुरु साहिब का अनुयायी बन गिया। गुरु साहिब ने भी उसे अमृत छकाकर सिख बनाया और उसका नाम परिवर्तन करके बंदा सिंह बहादुर रख दिया।

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प्रश्न 4.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब भेजते समय क्या कार्यवाही की तथा उसे क्या आदेश दिए ? ‘
(What action and orders were given to Banda Singh Bahadur by Guru Gobind Singh Ji before sending him to Punjab ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब भेजने से पूर्व अपने पाँच तीर दिए और उसकी सहायता के लिए पाँच प्यारे बिनोद सिंह, काहन सिंह, बाज सिंह, दया सिंह, रण सिंह तथा 20 अन्य बहादुर सिखों को साथ भेजा। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब के सिखों के नाम कुछ हुक्मनामे भी दिए। इन हुक्मनामों में पंजाब के सिखों को यह आदेश दिया गया था कि वे बंदा सिंह बहादुर को अपना नेता स्वीकार करें तथा मुग़लों के विरुद्ध धर्म युद्धों में अपना पूरा समर्थन दें। गुरु साहिब ने बंदा सिंह बहादुर को आगे दिए आदेशों का पालन करने के लिए कहा-पहला, ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करना। दूसरा, सदा सत्य बोलना और सच्चाई के मार्ग पर चलना। तीसरा, नया धर्म अथवा संप्रदाय नहीं चलाना। चौथा, अपनी विजयों पर अहंकार नहीं करना। पाँचवां, स्वयं को खालसा का सेवक समझना और उनकी इच्छाओं के अनुसार आचरण करना। बंदा सिंह बहादुर ने गुरु साहिब से आदर सहित तीर लिए और उनकी आज्ञा का पालन करने का प्रण किया। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने अक्तूबर, 1708 ई० में गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त करके पंजाब के लिए प्रस्थान किया।

प्रश्न 5.
बंदा सिंह बहादुर ने सिखों का राज्य किस तरह स्थापित किया ? (How did Banda Singh Bahadur set up the Sikh empire ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब में मुग़लों के विरुद्ध सिखों का नेतृत्व करने का आदेश दिया। जब बंदा सिंह बहादुर नांदेड़ से पंजाब पहुँचा तो सिखों ने उसे बढ़-चढ़ कर सहयोग दिया। उसका पहला काम सरहिंद के फौजदार वज़ीर खाँ से गुरु जी के दो छोटे साहिबजादों (साहिबजादा जोरावर सिंह जी तथा साहिबजादा फ़तह सिंह जी.) की शहीदी का बदला लेना था। इस उद्देश्य से वह बहुत से सिखों को साथ लेकर सरहिंद की ओर चल पड़ा। रास्ते में बंदा सिंह बहादुर ने कैथल, समाना, कपूरी और सढौरा को लूटा और बहुत से मुसलमानों की हत्या कर दी। 12 मई, 1710 ई० में चप्पड़चिड़ी की भयंकर लड़ाई में वज़ीर खाँ मारा गया। बड़ी संख्या में मुसलमानों को मौत के घाट उतारा गया। सरहिंद की विजय बंदा सिंह बहादुर की एक बहुत बड़ी सफलता थी। उसने गंगा दोआब, जालंधर दोआब और गुरदासपुर के बहुत सारे क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया था। उसने लोहगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। उसने नए सिक्के चलाकर स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना की।

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प्रश्न 6.
बंदा सिंह बहादुर की कोई छः मुख्य सैनिक सफलताओं के बारे में लिखें। (Describe six major military achievements of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की छः महत्त्वपूर्ण विजयों की संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the six important conquests of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की मुख्य सैनिक सफलताओं का वर्णन करो। (Describe major military achievements of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों का विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. सोनीपत पर आक्रमण-बंदा सिंह बहादुर ने सर्वप्रथम नवंबर 1709 ई० में 500 सिखों सहित सोनीपत पर आक्रमण किया। सोनीपत का फ़ौजदार बिना सामना किए दिल्ली की ओर भाग गया। इस सरल विजय से सिखों का साहस बहुत बढ़ गया।

2. समाना की विजय-समाना में गुरु तेग़ बहादुर जी को तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को शहीद करने वाले जल्लाद रहते थे। बंदा सिंह बहादुर ने समाना पर आक्रमण करके दस हज़ार मुसलमानों का वध कर दिया। यह बंदा सिंह बहादुर की प्रथम महत्त्वपूर्ण विजय थी।

3. कपूरी की विजय-कपूरी का शासक कदमुद्दीन हिंदुओं के साथ बहुत दुर्व्यवहार करता था। फलस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने कपूरी पर आक्रमण करके कदमुद्दीन को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने कपूरी पर सुगमता से विजय प्राप्त की।

4. सढौरा की विजय-सढौरा का शासक उसमान खाँ बड़ा अत्याचारी था। उसने पीर बुद्ध शाह की इसलिए निर्मम हत्या करवा दी थी क्योंकि उसने भंगाणी की लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी की सहायता की थी। अत: बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा पर आक्रमण कर दिया तथा बहुसंख्या में मुसलमानों की हत्या कर दी। इस कारण इस स्थान
का नाम कत्लगढ़ी पड़ गया।

5. सरहिंद की विजय-सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों साहिबजादा जोरावर सिंह जी तथा साहिबजादा फ़तह सिंह जी को दीवार में जिंदा चिनवा दिया था। इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए 12 मई, 1710 ई० को बंदा सिंह बहादुर ने चप्पड़चिड़ी के स्थान पर वज़ीर खाँ की सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में सिखों ने मुसलमानों का भयंकर रक्त-पात किया। वजीर खाँ की हत्या करके उसके शव को वृक्ष पर लटका दिया गया। इस विजय के कारण सिखों का साहस बहुत बढ़ गया।

6. अमृतसर, बटाला, कलानौर और पठानकोट की विजयें-बंदा सिंह बहादुर की विजयों से प्रोत्साहित होकर अमृतसर, बटाला, कलानौर और पठानकोट के सिखों ने भी वहाँ के अत्याचारी मुग़ल शासकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। बंदा सिंह बहादुर के सहयोग से सिखों ने इन प्रदेशों पर बड़ी आसानी से अधिकार कर लिया।

प्रश्न 7.
बंदा सिंह बहादुर की सरहिंद की विजय पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the conquest of Sirhind by Banda Singh Bahadur.)
अथवा
सरहिंद की लड़ाई का संक्षेप में वर्णन करो।
(Write briefly about the Battle of Sirhind.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ से गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी का बदला कैसे लिया ?
(How did Banda Singh Bahadur take revenge on Wazir Khan, the Faujdar of Sirhind for the martyrdom of younger sons of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की सरहिंद विजय का वर्णन करें। यह लड़ाई सिखों के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण थी ?
(Describe Banda Singh Bahadur’s conquest of Sirhind. Why was this battle significant for the Sikhs ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की मुख्य सैनिक सफलताओं का वर्णन करो। (Describe major military achievements of Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों का विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. सोनीपत पर आक्रमण-बंदा सिंह बहादुर ने सर्वप्रथम नवंबर 1709 ई० में 500 सिखों सहित सोनीपत पर आक्रमण किया। सोनीपत का फ़ौजदार बिना सामना किए दिल्ली की ओर भाग गया। इस सरल विजय से सिखों का साहस बहुत बढ़ गया।

2. समाना की विजय-समाना में गुरु तेग़ बहादुर जी को तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को शहीद करने वाले जल्लाद रहते थे। बंदा सिंह बहादुर ने समाना पर आक्रमण करके दस हज़ार मुसलमानों का वध कर दिया। यह बंदा सिंह बहादुर की प्रथम महत्त्वपूर्ण विजय थी।

3. कपूरी की विजय-कपूरी का शासक कदमुद्दीन हिंदुओं के साथ बहुत दुर्व्यवहार करता था। फलस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने कपूरी पर आक्रमण करके कदमुद्दीन को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने कपूरी पर सुगमता से विजय प्राप्त की।।

4. सढौरा की विजय-सढौरा का शासक उसमान खाँ बड़ा अत्याचारी था। उसने पीर बुद्ध शाह की इसलिए निर्मम हत्या करवा दी थी क्योंकि उसने भंगाणी की लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी की सहायता की थी। अत: बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा पर आक्रमण कर दिया तथा बहुसंख्या में मुसलमानों की हत्या कर दी। इस कारण इस स्थान का नाम कत्लगढ़ी पड़ गया।

5. सरहिंद की विजय-सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों साहिबजादा जोरावर सिंह जी तथा साहिबजादा फ़तह सिंह जी को दीवार में जिंदा चिनवा दिया था। इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए 12 मई, 1710 ई० को बंदा सिंह बहादुर ने. चप्पड़चिड़ी के स्थान पर वज़ीर खाँ की सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में सिखों ने मुसलमानों का भयंकर रक्त-पात किया। वज़ीर खाँ की हत्या करके उसके शव को वृक्ष पर लटका दिया गया। इस विजय के कारण सिखों का साहस बहुत बढ़ गया।

6. अमृतसर, बटाला, कलानौर और पठानकोट की विजयें-बंदा सिंह बहादुर की विजयों से प्रोत्साहित होकर अमृतसर, बटाला, कलानौर और पठानकोट के सिखों ने भी वहाँ के अत्याचारी-मुग़ल शासकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। बंदा सिंह बहादुर के सहयोग से सिखों ने इन प्रदेशों पर बड़ी आसानी से अधिकार कर लिया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 11 बंदा सिंह बहादुर

प्रश्न 7.
बंदा सिंह बहादुर की सरहिंद की विजय पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the conquest of Sirhind by Banda Singh Bahadur.)
अथवा
सरहिंद की लड़ाई का संक्षेप में वर्णन करो।
(Write briefly about the Battle of Sirhind.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ से गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी का बदला कैसे लिया ?
(How did Banda Singh Bahadur take revenge on Wazir Khan, the Faujdar of Sirhind for the martyrdom of younger sons of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की सरहिंद विजय का वर्णन करें। यह लड़ाई सिखों के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण थी ?
(Describe Banda Singh Bahadur’s conquest of Sirhind. Why was this battle significant for the Sikhs ?).
अथवा
चप्पड़चिड़ी की लड़ाई का संक्षेप में वर्णन करें। (Give a brief account of the battle of Chapparchiri.)
उत्तर-
सरहिंद की विजय बंदा सिंह बहादुर की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विजयों में से एक थी। सरहिंद का फ़ौज़दार वज़ीर खाँ सिखों का घोर शत्रु था। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों (साहिबजादा जोरावर सिंह जी एवं साहिबज़ादा फ़तह सिंह जी) को दीवार में जिंदा चिनवा दिया था। उसकी सेनाओं के हाथों ही गुरु जी के दोनों बड़े साहिबज़ादे (साहिबज़ादा अजीत सिंह जी एवं साहिबज़ादा जुझार सिंह जी) चमकौर साहिब की लड़ाई में शहीद हो गए थे। वज़ीर खाँ द्वारा भेजे गए पठान ने गुरु साहिब को नांदेड़ के स्थान पर छुरा मार दिया था जिसके कारण वे ज्योति-जोत समा गए थे। इन कारणों से बंदा सिंह बहादुर वज़ीर खाँ को एक ऐसा पाठ पढ़ाना चाहता था जोकि मुसलमानों को दीर्घकाल तक याद रहे। 12 मई, 1710 ई० को दोनों सेनाओं के बीच सरहिंद से लगभग 16 किलोमीटर दूर चप्पड़चिड़ी में बहुत भयंकर लड़ाई आरंभ हुई। आरंभ में वज़ीर खाँ के तोपखाने के कारण सिखों को बहुत क्षति पहुँची किंतु उन्होंने धैर्य का त्याग नहीं किया। बंदा सिंह बहादुर ने सत् श्री अकाल की जय-जयकार गुंजाते हुए मुसलमानों पर बड़ा जोरदार आक्रमण किया। मुसलमानों के लिए इस आक्रमण को रोकना बड़ा मुश्किल हो गया। फ़तह सिंह ने वज़ीर खाँ को यमलोक पहुँचा दिया। उसकी मृत्यु के साथ ही मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई। सिखों ने इन भागे जा रहे सैनिकों का पीछा करके उनकी बड़ी संख्या में हत्या कर दी। वज़ीर खाँ के शव को एक वृक्ष पर उल्टा लटका दिया। 14 मई को सिख सेनाएँ सरहिंद पहुँची। उन्होंने मुसलमानों के ऐसे छक्के छुड़ाए कि उनकी आत्मा भी काँप उठी। इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद की ईंट से ईंट बजा दी।

प्रश्न 8.
बंदा सिंह बहादुर की लोहगढ़ लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Lohgarh by Banda Singh Bahadur.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की बढ़ती हुई शक्ति मुगलों के लिए एक चुनौती थी। इसलिए मुग़ल बादशाह बहादुर । शाह ने बंदा सिंह बहादुर की शक्ति का दमन करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उसने अपने एक जरनैल मुनीम खाँ के अंतर्गत 60,000 सैनिकों की एक विशाल सेना पंजाब भेजी। इस सेना ने 10 दिसंबर, 1710 ई० को लोहगढ़ पर अचानक आक्रमण कर दिया। लोहगढ़ बंदा सिंह बहादुर की राजधानी का नाम था। इसे उसने मुखलिसपुर के स्थान पर बनाया था। सिख दुर्ग के भीतर से मुग़लों का डटकर सामना करते थे। खाद्य-पदार्थों की कमी के कारण सिखों के लिए इस लड़ाई को अधिक समय तक जारी रखना संभव नहीं था। बंदा सिंह बहादुर इतनी. सरलता से मुग़लों के हाथ आने वाला नहीं था। वह वेश बदलकर दर्ग से बच निकलने में सफल हो गया और नाहन की पहाड़ियों की ओर चला गया। अगले दिन जब मुगलों ने दुर्ग पर अधिकार किया तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि हाथ आया बाज़ उड़ गया है।

प्रश्न 9.
गुरदास नंगल की लड़ाई पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Gurdas Nangal.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर एवं मुग़लों के मध्य हुई गुरदास नंगल की लड़ाई का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the battle of Gurdas-Nangal fought between Banda Singh Bahadur and the Mughals.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर के अधीन पंजाब में बढ़ रही सिखों की शक्ति को रोकने के लिए मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने अब्दुस समद खाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। उसको सिखों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने के निर्देश दिए गए। उसने अप्रैल, 1715 ई० में एक विशाल सेना के साथ बंदा सिंह बहादुर को गुरदास नंगल के स्थान पर घेर लिया। बंदा सिंह बहादुर तथा उसके साथी सिखों ने दुनी चंद की हवेली से इस मुग़ल सेना से मुकाबला जारी रखा। यह घेरा आठ महीने तक चलता रहा। धीरे-धीरे खान-पान की सामग्री समाप्त होने पर सिखों की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई। ऐसे समय में बाबा बिनोद सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को हवेली से भाग निकलने का परामर्श दिया पर बंदा सिंह बहादुर ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप बिनोद सिंह अपने साथियों को साथ लेकर गढ़ी छोड़कर भाग निकला। इससे बंदा सिंह बहादुर की स्थिति और बिगड़ गई। अंत में विवश होकर बंदा सिंह बहादुर को अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार 7 दिसंबर, 1715 ई० को बंदा सिंह बहादुर और उसके दो सौ साथियों को बंदी बना लिया गया।

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प्रश्न 10.
बंदा सिंह बहादुर को कब, कहाँ तथा कैसे शहीद किया गया ? (When, where and how was Banda Singh Bahadur martyred ?)
उत्तर-
गुरदास नंगल से अब्दुस समद खाँ ने 200 सिखों को बंदी बनाया था, परंतु बाद में लाहौर की ओर आते मार्ग में उसने 540 अन्य सिखों को बंदी बना लिया। बंदा सिंह बहादुर और इन 740 सिखों को फरवरी, 1716 ई० में दिल्ली भेजा गया। दिल्ली पहुँचने पर उनका जुलूस निकाला गया। बंदा सिंह बहादुर को एक पिंजरे में बंद किया गया था। मार्ग में उनका भारी अपमान किया गया। बाद में उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा। ऐसा करने पर उन्हें प्राण दान दिए जा सकते थे, परंतु इन स्वाभिमानी सिखों में से किसी ने भी इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अत: प्रतिदिन 100 सिखों को शहीद किया जाने लगा। अंत में 9 जून, 1716 ई० को बंदा सिंह बहादुर की बारी आई। उसे शहीद करने से पूर्व जल्लाद ने उसके चार वर्ष के पुत्र अजय सिंह की उसकी आँखों के सामने निर्ममता से हत्या की और उसके तड़पते हुए दिल को निकाल कर बंदा सिंह बहादुर के मुँह में लूंस दिया। तत्पश्चात् बंदा सिंह बहादुर का अंग-अंग काटकर उसे शहीद किया गया। बंदा सिंह बहादुर के सैनिक कारनामे एवं शहीदी आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन गई।

प्रश्न 11.
बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलताओं के कारणों का उल्लेख करो। (Mention the causes of early success of Banda Singh Bahadur.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलताओं के कारण बतायें।
(What were the causes of early success of Banda Singh Bahadur ?) .
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की सफलता के छः प्रमुख कारण कौन से थे ? (P.S.E.B. Model Test Paper) (What were the six causes of success of Banda Singh Bahadur ?)
उत्तर-
1. मुगलों के घोर अत्याचार-पंजाब के मुग़ल शासक सिखों के कट्टर शत्रु थे। सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों (साहिबजादा जोरावर सिंह जी तथा साहिबजादा फतह सिंह जी) को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया था। गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों बड़े साहिबज़ादे (साहिबजादा अजीत सिंह जी और साहिबजादा जुझार सिंह जी) चमकौर साहिब की लड़ाई में उसके सैनिकों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। अतः सिखों का खून खौल रहा था। परिणामस्वरूप वे बंदा सिंह बहादुर के झंडे अधीन एकत्र हो गए।

2. गुरु गोबिंद सिंह जी के हुक्मनामे-गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर के हाथ सिख संगत के नाम कुछ हुक्मनामे भेजे. थे। इन हुक्मनामों में गुरु साहिब ने सिख संगत को मुगलों के विरुद्ध होने वाले धर्म युद्धों में बंदा सिंह बहादुर को पूरा सहयोग देने को कहा। सिख संगत के सहयोग के कारण बंदा सिंह बहादुर एवं उसके साथियों का उत्साह बढ़ गया।

3. औरंगजेब के कमज़ोर उत्तराधिकारी-1707 ई० में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद हुआ मुग़ल शासक बहादुर शाह उत्तराधिकारिता के युद्ध में ही उलझा रहा। अतः वह साम्राज्य में व्याप्त अराजकता को नियंत्रण में रखने में असफल रहा जबकि उसके बाद मुग़ल बादशाह बनने वाला जहाँदार शाह एक वेश्या लाल कंवर के चक्करों में फंसा रहा। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने इस स्वर्ण अवसर का उचित लाभ उठाया तथा अनेक सफलताएँ प्राप्त की।

4. बंदा सिंह बहादुर का योग्य नेतृत्व बंदा सिंह बहादुर एक निर्भीक योद्धा एवं योग्य सेनापति था। उसने सभी लड़ाइयों में सेना का स्वयं नेतृत्व किया तथा वह अपने अधीन सैनिकों को युद्ध के समय में अत्यधिक प्रोत्साहित करता था। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर ने अपने आरंभिक वर्षों में प्रशंसनीय सफलताएँ प्राप्त की।

5. बंदा सिंह बहादुर का अच्छा शासन प्रबंध-बंदा सिंह बहादुर ने अपने अधीन प्रदेशों में बहुत अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की थी। उसने बहुत ही योग्य एवं ईमानदार अधिकारी नियुक्त किए। उसने ज़मींदारी प्रथा को खत्म करके किसानों को न केवल ज़मींदारों के अत्याचारों से बचाया बल्कि उन्हें भूमि का स्वामी भी बना दिया। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के लोगों से पूरा समर्थन मिला।

6. पंजाब के पहाड़ तथा जंगल-पंजाब के पहाड़ तथा जंगल बंदा सिंह बहादुर की आरंभिक सफलताओं में सहायक सिद्ध हुए। बंदा सिंह बहादुर ने संकट के समय इन पहाड़ों तथा जंगलों में जाकर आश्रय लिया। यहाँ वे पुनः संगठित होकर मुग़ल प्रदेशों पर आक्रमण कर देता था।

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प्रश्न 12.
बंदा सिंह बहादुर जी असफलता के छः मुख्य कारणों का वर्णन करें।
(What were the six causes of failure of Banda Singh Bahadur ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता के क्या कारण थे ? (What were the causes of final failure of Banda Singh Bahadur ?)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर की मुग़लों के विरुद्ध अंतिम असफलता के कारण लिखें। (Write down the causes of ultimate failure of Banda Singh Bahadur aganist Mughals.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर पंजाब,में एक स्थाई सिख शासन की स्थापना में क्यों विफल रहा? (Why did Banda Singh Bahadur fail in setting up a permanent Sikh rule in Punjab ?)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर की अंतिम असफलता के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे—
1. मुग़ल साम्राज्य की शक्ति-मुग़ल साम्राज्य के पास विशाल तथा असीमित साधन थे। दूसरी ओर बंदा सिंह बहादुर के साधन बहुत सीमित थे। मुग़लों की तुलना में उसके सैनिकों की संख्या बहत कम थी। ऐसी स्थिति में मुग़लों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना बंदा सिंह बहादुर के लिए बिल्कुल असंभव था।

2. सिखों में संगठन का अभाव-बंदा सिंह बहादुर के अधीन सिख सैनिकों में संगठन और अनुशासन का अभाव था। वे किसी योजनानुसार लड़ाई नहीं करते थे। अतः संगठन और अनुशासन के अभाव में ऐसे सिखों का असफल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

3. बंदा सिंह बहादुर द्वारा आदेशों का उल्लंघन-बंदा सिंह बहादुर ने गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा दिए आदेशों का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया था। फलस्वरूप गुरु गोबिंद सिंह जी के अनेक श्रद्धालु सिख बंदा सिंह बहादुर के विरुद्ध हो गए।

4. फ़र्रुखसियर की सिखों के विरुद्ध कार्यवाहियाँ-1713 ई० में फ़र्रुखसियर मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह सिखों को कुचलने के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध था। उसने सिखों का दमन करने के लिए अब्दुस समद खाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दुस समद खाँ ने सिखों की शक्ति का दमन करने के लिए कोई कसर न उठा रखी। परिणामस्वरूप बंदा सिंह बहादुर और उसके साथियों को आत्म-समर्पण करना ही पड़ा।

5. गुरदास नंगल में सिखों पर अचानक आक्रमण-अप्रैल, 1715 ई० में बंदा सिंह बहादुर पर हुआ अचानक आक्रमण भी उनके पतन का एक प्रमुख कारण बना। बंदा सिंह बहादुर तथा उसके साथी सिख अचानक आक्रमण के कारण दुनी चंद की हवेली में घिर गए। इस हवेली में से अधिक समय तक मुग़लों का सामना नहीं किया जा सकता था। इसके बावजूद बंदा सिंह बहादुर ने 8 माह तक लड़ाई जारी रखी पर अंत में उसे पराजय स्वीकार करनी पड़ी।

6. बंदा सिंह बहादुर और बिनोद सिंह में मतभेद-गुरदास नंगल की लड़ाई के समय बंदा सिंह बहादुर और उसके साथी बिनोद सिंह में मतभेद उत्पन्न हो गए। बिनोद सिंह हवेली छोड़कर भाग निकलने के पक्ष में था। दूसरी ओर बंदा सिंह बहादुर चाहता था कि कुछ समय और लड़ाई को जारी रखा जाए। परिणामस्वरूप बिनोद सिंह अपने साथियों सहित हवेली छोड़कर निकल गया। अत: बंदा सिंह बहादुर को पराजय का मुख देखना पड़ा।

प्रश्न 13.
बंदा सिंह बहादुर के व्यक्तित्व की मख्य विशेषताएँ बताएँ। (Describe the main traits of Banda Singh Bahadur’s personality.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर बड़ा ही निडर और साहसी था। बड़ी से बड़ी मुसीबत आने पर भी वह घबराता नहीं था। मुग़लों के साथ हुई लड़ाइयों में उसने अपनी अद्वितीय वीरता का परिचय दिया। वह इतना निडर था कि जब मुग़ल बादशाह ने उसको पूछा कि वह किस प्रकार की मृत्यु पसंद करेगा तो उसने बिना झिझक उत्तर दिया कि जैसी मृत्यु बादशाह अपने लिए पसंद करेगा। वह सिख धर्म का सच्चा सेवक था। उसने अपनी सफलताओं को गुरु साहिब का वरदान माना। उसने गुरु नानक देव जी और गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम पर अपने सिक्के जारी किए। उसने सिख धर्म का प्रचार अत्यंत उत्साह के साथ किया। बंदा सिंह बहादुर एक महान् सेनापति था। अपने सीमित साधनों के बावजूद उसने मुग़ल शासकों की रातों की नींद हराम कर दी थी। वह युद्ध की चालों में बड़ा दक्ष था और युद्ध के मैदान में वह स्थिति के अनुसार अपनी कार्यवाही बड़ी तीव्रता के साथ करता था। बंदा सिंह बहादुर एक योग्य शासक भी था। उसने अपने जीते हुए प्रदेशों में बहुत अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की थी। उसने पहली बार निर्धनों को ऊंचे पदों पर नियुक्त किया था। वह अपनी प्रजा को निष्पक्ष न्याय देता था। उसने अपने राज्य में से ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करके किसानों को उनके अत्याचारों से बचाया।

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प्रश्न 14.
एक योद्धा और सेनापति के रूप में बंदा सिंह बहादुर की सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन करो।
(Describe briefly the achievements of Banda Singh Bahadur as a Warrior and General.)
अथवा
बंदा सिंह बहादुर का एक वीर योद्धा तथा सेनापति के रूप में मूल्यांकन करें।
(Explain the main contributions of Banda Singh Bahadur as a brave warrior and great military organiser.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर एक महान् योद्धा और उच्चकोटि का सेनापति था। बंदा सिंह बहादुर के साधन मुग़लों के मुकाबले नाममात्र थे, परंतु उसने अपनी योग्यता के बल पर 7-8 वर्ष मुग़ल सेना के नाक में दम कर रखा था। उसने जितनी भी लड़ाइयां लड़ीं, लगभग सभी में उसने बड़ी शानदार सफलताएँ प्राप्त की। युद्ध के मैदान में वह बड़ी तीव्रता से स्थिति का अनुमान लगा लेता था और अवसर अनुसार अपना निर्णय तुरंत कर लेता था। वह युद्ध की चालों में बड़ा निपुण था। यदि किसी स्थान पर वह यह समझता था कि शत्रुओं की सेनाएँ उसके मुकाबले में बहुत अधिक हैं तो वह पीछे हटने में अपना अपमान नहीं समझता था। वह युद्ध तभी शुरू करता था जब उसे विजय की पूर्ण आशा होती थी। वह आवश्यकतानुसार खुले मैदानों, पहाड़ों या किलों में से लड़ता था। वास्तव में इन जंगी चालों ने उसको एक उच्चकोटि का सेनापति बना दिया था।

प्रश्न 15.
एक प्रशासक के रूप में बंदा सिंह बहादुर की सफलताओं की संक्षिप्त जानकारी दें। (Write briefly about Banda Singh Bahadur’s achievements as an administrator.)
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर एक योग्य शासन प्रबंधक था। उसने अपने विजित प्रदेशों में अच्छे शासन प्रबंध की व्यवस्था की। उसने खालसा के नाम से शासन किया और अपने राज्य में गुरु साहिब द्वारा दर्शाए गए नियमों को लागू करने का यत्न किया। उसने अपने राज्य में भ्रष्टाचारी कर्मचारियों को हटाकर बड़े योग्य और ईमानदार व्यक्तियों को नियुक्त किया। निर्धनों और निम्न जाति के लोगों को उच्च पदों पर लगाकर उनको एक नया सम्मान दिया। बंदा बहादुर ने ज़मींदारी प्रथा का अंत करके एक अत्यंत सराहनीय कार्य किया। इससे एक तो वे ज़मींदारों द्वारा किए गए अत्याचारों से बच गए और दूसरे वे भूमि के मालिक बन गए। बंदा सिंह बहादुर अपने निष्पक्ष न्याय के कारण भी बहुत प्रसिद्ध था। न्याय करते समय वह ऊँच-नीच में कोई भेद नहीं करता था। निस्संदेह बंदा सिंह बहादुर का शासन प्रबंध खालसा शासन के अनुसार था।

प्रश्न 16.
बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के इतिहास में आप क्या स्थान देते हैं ? (What place would you assign to Banda Singh Bahadur in the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास में बंदा सिंह बहादुर को क्या स्थान प्राप्त है ? (What is the place of Banda Singh Bahadur in the History of the Punjab ?)
उत्तर-
निस्संदेह बंदा सिंह बहादुर को पंजाब के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वह पहला व्यक्ति था जिसने सिखों की स्वतंत्रता की नींव डाली। उसने पंजाबियों को अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए मर मिटने का पाठ पढ़ाया। उसने 7-8 वर्षों के थोड़े से समय में मुग़लों के शक्तिशाली साम्राज्य की नींव हिला कर एक आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाया। उसने मुग़लों के अजेय होने के जादू को तोड़ा तथा उन्हें अनेक लड़ाइयों में पराजित किया। उसने सिखों में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए नव प्राण फूंके। उसके द्वारा सुलगाई गई स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए यह चिंगारी अंदर ही अंदर सुलगती रही जो बाद में भयंकर आग का रूप धारण कर गई तथा जिसमें मुग़ल साम्राज्य जलकर भस्म हो गया। बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब से ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करके एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी पग उठाया। उसने निर्धनों और सदियों से शोषित निम्न वर्ग के लोगों को शासन प्रबंध में ऊँचे पद देकर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। परिणामस्वरूप ये लोग बंदा सिंह बहादुर के एक इशारे पर अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए। वास्तव में बंदा सिंह बहादुर के प्रशंसनीय योगदान के कारण उसके नाम को सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
बंदा सिंह बहादुर जिसका बचपन का नाम लक्ष्मण देव था, कश्मीर के जिला पुंछ के राजौरी गाँव का रहने वाला था। उसके पिता एक साधारण कृषक थे। एक गर्भवती हिरणी को मारने के कारण उसके दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप वह बैरागी बन गया। लक्ष्मण देव का नाम बदल कर माधो दास रख दिया गया। उसने पंचवटी के एक साधु औघड़नाथ से तंत्र विद्या की जानकारी प्राप्त की। कुछ समय वहाँ रहने के बाद माधो दास नांदेड़ नामक स्थान पर आ गया। नांदेड़ में ही 1708 ई० में उसकी भेंट गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ हुई। इस भेंट के दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी और माधो दास के मध्य कुछ प्रश्न-उत्तर हुए। माधो दास गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि वह गुरु साहिब का बंदा (दास) बन गया। गुरु गोबिंद सिंह जी ने उसे अमृत छका कर सिख बना दिया और उसको बंदा बहादुर का नाम दिया। इस तरह बंदा बैरागी सिख बना।

  1. बंदा सिंह बहादुर के बचपन का क्या नाम था ?
  2. बंदा सिंह बहादुर के दिल में किस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा ?
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी तथा बंदा सिंह बहादुर के मध्य मुलाकात कहाँ हुई थी ?
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी तथा बंदा सिंह बहादुर के मध्य भेंट कब हुई थी ?
    • 1705 ई०
    • 1706 ई०
    • 1707 ई०
    • 1708 ई०
  5. बंदा सिंह बैरागी सिख कैसे बना था ?

उत्तर-

  1. बंदा सिंह बहादुर के बचपन का नाम लक्ष्मण देव था।
  2. बंदा सिंह बहादुर द्वारा एक गर्भवती हिरणी का शिकार करने के कारण उसके दिल पर गहरा प्रभाव पड़ा।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी तथा बंदा सिंह बहादुर के मध्य मुलाकात नांदेड़ में हुई।
  4. 1708 ई०।
  5. गुरु गोबिंद सिंह जी ने माधो दास को अमृत छकाया। इस प्रकार बंदा बैरागी सिख बन गया।

2
सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खाँ ने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों जोरावर सिंह तथा फ़तह सिंह को दीवार में जिंदा चिनवा दिया था। इसलिए बंदा सिंह बहादुर उसे एक ऐसा पाठ पढ़ाना चाहता था जो मुसलमानों को दीर्घकाल तक स्मरण रहे। 12 मई, 1710 ई० को बंदा सिंह बहादुर ने चप्पड़चिड़ी के स्थान पर वज़ीर खाँ की सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में सिखों ने मुसलमानों का ऐसा रक्त-पात किया कि उनकी आत्मा भी काँप उठी। वज़ीर खाँ की हत्या करके उसके शव को वृक्ष पर उल्टा लटका दिया गया। 14 मई, 1710 ई० को सारे सरहिंद में भारी रक्तपात और लूटपात की गई। इस भव्य विजय के कारण सिखों का साहस बहुत बढ़ गया।

  1. वज़ीर.खाँ कौन था ?
  2. बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद पर आक्रमण क्यों किया ?
  3. वज़ीर खाँ किस स्थान पर सिखों के साथ मुकाबला करते हुए मारा गया था ?
  4. चप्पड़चिड़ी की लड़ाई कब हुई थी ?
    • 1706 ई०
    • 1708 ई०
    • 1709 ई०
    • 1710 ई०
  5. चप्पड़चिड़ी की लड़ाई में कौन विजयी रहा ?

उत्तर-

  1. वज़ीर खाँ सरहिंद का नवाब था।
  2. बंदा सिंह बहादुर वज़ीर खाँ द्वारा गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को दीवार में जिंदा चिनवा दिए जाने का बदला लेना चाहता थे।
  3. वजीर खाँ चप्पड़चिड़ी में सिखों के साथ मुकाबला करते हुए मारा गया था।
  4. 1710 ई०।
  5. चप्पड़चिड़ी की लड़ाई में सिख विजयी रहे।

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3
बंदा सिंह बहादुर के अधीन पंजाब में बढ़ रही सिखों की शक्ति को रोकने के लिए मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर ने अब्दुस समद ख़ाँ को लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। उसको सिखों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने के निर्देश दिए गए। उसने अप्रैल, 1715 ई० में एक विशाल सेना के साथ बंदा सिंह बहादुर को गुरदास नंगल के स्थान पर घेर लिया। बंदा सिंह बहादुर तथा उसके साथी सिखों ने दुनी चंद की हवेली में इस मुग़ल सेना से मुकाबला जारी रखा। यह घेरा आठ महीने तक चलता रहा। धीरे-धीरे खान-पान की सामग्री समाप्त होने पर सिखों की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई। ऐसे समय में बाबा बिनोद सिंह ने बंदा बहादुर को हवेली से भाग निकलने का परामर्श दिया पर बंदा सिंह बहादुर ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप बिनोद सिंह अपने साथियों को साथ लेकर गढ़ी छोड़कर भाग निकला। अंत में विवश होकर 7 दिसंबर, 1715 ई० को बंदा सिंह बहादुर को अपनी पराजय को स्वीकार करना पड़ा।

  1. अब्दुस समद खाँ कौन था ?
  2. गुरदास नंगल में बंदा सिंह बहादुर ने किस हवेली से मुग़ल सेना का मुकाबला किया ?
  3. गुरदास नंगल की लड़ाई कितनी देर तक चली ?
  4. गुरदास नंगल की लड़ाई में उसका कौन-सा साथी उसका साथ छोड़ गया था ?
  5. बंदा बहादर को कब गिरफ्तार किया गया था ?
    • 1705 ई०
    • 1710 ई०
    • 1711 ई०
    • 1715 ई०।

उत्तर-

  1. अब्दुस समद खाँ लाहौर का सूबेदार था।
  2. गुरदास नंगल में बंदा सिंह बहादुर ने दुनी चंद की हवेली से मुग़ल सेना का मुकाबला किया।
  3. गुरदास नंगल की लड़ाई 8 महीनों तक चली।
  4. गुरदास नंगल की लड़ाई में बंदा सिंह बहादुर का साथी बाबा बिनोद सिंह उसका साथ छोड़ गया था।
  5. 1715 ई०।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में पंचायती राज व्यवस्था के संगठन का विवरण दीजिए। (Describe Structure of Panchayati Raj System in India.)
उत्तर-
पंचायती राज स्वतन्त्र भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण खोज है। 4 दिसम्बर, 1960 को भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय पं० जवाहर लाल नेहरू ने राजपुरा (पटियाला, पंजाब) में भाषण देते हए कहा था कि पंजाब तथा समस्त देश में तीन क्रान्तियां चल रही हैं

  1. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)
  2. कृषि के नये औज़ार तथा तरीकों का प्रयोग (Use of New Tools and Methods of Agriculture)
  3. पंचायती राज की स्थापना (Establishment of Panchayati Raj)।

पंचायती राज के बारे में उन्होंने कहा कि इसकी स्थापना गांवों में की जा रही है तथा उसके द्वारा लोगों को अपने मामलों का प्रशासन तथा अपने क्षेत्र का विकास स्वयं करने की शक्ति दी जा रही है। इसके द्वारा लोग अपने गांवों को उन्नत तथा आत्म-निर्भर बना सकेंगे।

पंचायती राज की स्थापना सबसे पहले 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में हुई। आन्ध्र प्रदेश ने 1 नवम्बर, 1959 को पंचायती राज को अपनाया। असम, कर्नाटक एवं उड़ीसा ने 1959 में, बिहार, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश ने 1961 में, मध्य प्रदेश ने 1962 में, पश्चिमी बंगाल ने 1963 में तथा हिमाचल प्रदेश ने 1968 में पंचायती राज विधान लागू किया। इस समय भारत के लगभग सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था लागू है। 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया है। पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंजाब में पंचायती राज की चार संस्थाएं (i) ग्राम सभा, (ii) ग्राम पंचायत, (iii) पंचायत समिति तथा (iv) जिला परिषद् स्थापित की गईं।

पंचायती राज क्या है-पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिनके द्वारा गांव के लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार करने का अधिकार दिया गया है। गांव के लोग अपने इस अधिकार का प्रयोग पंचायतों द्वारा करते हैं। इसलिए इसे पंचायती राज कहा जाता है। पं० जवाहर लाल नेहरू ने कहा था “पंचायती राज ऐसा नया तरीका है जिसमें बिना बाहरी सहायता की बाट जोहे हम अपने प्रयत्नों से ही गांव के जीवन को सुखी बना सकते हैं।” पंचायती राज एक तीन-स्तरीय (Three tiered) ढांचा है जिसका निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत का है और उच्चतम स्तर जिला परिषद् का और बीच वाला स्तर पंचायत समिति का। कुछ राज्यों में दो-स्तरीय और कुछ राज्यों में तीन स्तरीय प्रणाली अपनाई गई है। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब राजस्थान, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में तीन स्तरीय प्रणाली है। परन्तु असम, मणिपुर, गोवा, मिज़ोरम इत्यादि राज्यों में दो स्तरीय प्रणाली है। ग्राम पंचायत गांव में होती है, पंचायत समिति विकास खण्ड या ब्लॉक में और जिला परिषद् ज़िले में। 73वें संशोधन द्वारा जो राज्य बहुत छोटे हैं और जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम है उनको पंचायत समिति के मध्य स्तर से मुक्त रखा गया है। इस ढांचे का कार्य क्षेत्र ज़िले के ग्रामीण भागों तक सीमित होता है और यह ग्रामीण जीवन के हर पक्ष से सम्बन्धित होता है। इस ढांचे में निर्वाचित सदस्य होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन और अन्य विकास कार्यों के लिए उत्तरदायी हैं।

1. पंचायत (Panchayats)-गांवों में पंचायतें स्थापित की गई हैं। एक गांव या गांवों के समूहों की जिनकी संख्या 200 से कम न हो, एक ग्राम सभा बनती है और गांवों का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य होता है। यह ग्राम सभा एक कार्यकारी परिषद् चुनती है जिसे ग्राम पंचायत कहते हैं। ग्राम पंचायत का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 तक विभिन्न राज्यों में अलग-अलग निर्धारित किया गया है। पंजाब के पंचायती राज एक्ट 1994 के अनुसार पंजाब में एक गांव जिसकी जनसंख्या 200 से लेकर 1000 तक होती है उस गांव की ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अतिरिक्त पांच पंच होते हैं और जिस गांव की जनसंख्या दस हजार से अधिक होगी उसके लिए सरपंच के अतिरिक्त 13 पंच होंगे। यह ग्राम पंचायत गांव का प्रशासन करती है और गांव के विकास तथा लोगों के जीवन को उन्नत करने का प्रयत्न करती है। ग्राम सभा की वर्ष में दो बैठकें होती हैं तथा ग्राम पंचायत इसके सामने अपने कार्यों की रिपोर्ट रखती है और आगे के प्रोग्राम पर ग्राम सभा की स्वीकृति लेती है। ग्राम पंचायत अपने कार्यों के लिए ग्राम सभा के प्रति उत्तरदायी है।

2. पंचायत समिति (Panchayat Samiti)-पंचायती राज के अन्तर्गत प्रत्येक ब्लॉक में पंचायत समिति की स्थापना की गई है। पंचायत समिति के क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के सदस्यों द्वारा अपने में से कुछ सदस्य चुने जाते हैं। पंजाब में सदस्यों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि तथा प्रत्यक्ष तौर पर चुने गये सदस्यों का अनुपात 60 : 40 था। परन्तु जून, 2002 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस व्यवस्था को गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया। अतः अब पंचायत समितियों के सभी सदस्यों का चुनाव लोगों द्वारा किया जाता है। पंजाब विधान सभा के सदस्य, जिनके चुनाव क्षेत्रों का बड़ा हिस्सा जिस पंचायत समिति में आता है, उसके पदेन सदस्य होते हैं। पंचायत समिति के सभी सदस्यों को पंचायत समिति की बैठकों में भाग लेने तथा मतदान का अधिकार प्राप्त है। प्रत्येक पंचायत समिति में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी श्रेणियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। प्रत्येक पंचायत समिति में प्रत्यक्ष तौर पर चुने गए सदस्यों का एक तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित रखा गया है। खण्ड विकास अधिकारी पंचायत समिति का कार्यकारी (Executive Officer) होता है तथा यह उसकी आज्ञाओं और निर्णयों को लागू करता है। पंचायती राज के ढांचे में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान पंचायत समिति का है। ग्रामीण इलाकों में कृषि, पशु-पालन, ग्रामीण उद्योग, सिंचाई आदि की जितनी विकास योजनाएं हैं, सबकी सब इसी संस्था के अधीन होती हैं। यह कहना बिल्कुल ठीक है कि पंचायती राज की सफलता पंचायत समिति पर ही निर्भर है।

3. ज़िला परिषद् (Zila Parishad)-प्रत्येक जिले में एक ज़िला परिषद् स्थापित की गई है। जिला परिषद् के कुछ सदस्य प्रत्यक्ष तौर पर क्षेत्रीय चुनाव क्षेत्रों से चुने जाते हैं। पंजाब के पंचायती राज अधिनियम 1994 के अनुसार जिला परिषद् के सदस्यों की संख्या 10 से लेकर 25 तक हो सकती है जिनका चुनाव प्रत्यक्ष रूप में लोगों द्वारा किया जाएगा। पंजाब में जिला परिषद् के क्षेत्र में आने वाली पंचायत समितियों के सभी अध्यक्ष जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। प्रत्येक जिला परिषद् से अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी श्रेणियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। महिलाओं के लिए प्रत्यक्ष तौर पर चुनी गई सीटों का एक तिहाई भाग आरक्षित रखा गया है। जिले के चुने गए विधानसभा तथा संसद् के सदस्य इसके सहायक होते हैं। जिलाधीश इसका पदेन सदस्य होता है। जिला परिषद् पंचायत समितियों के कार्यों की देखभाल करती है और उनमें तालमेल पैदा करने का प्रयत्न करती है।

पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद् एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं। ब्लॉक या क्षेत्र की पंचायतों के पंच
और सरपंच पंचायत समिति के 16 सदस्यों का चुनाव करते हैं और जिले की पंचायत समितियों के सदस्य अपने सदस्यों में से जिला परिषद् के कुछ सदस्य चुनते हैं। इस प्रकार पंचायतों के कुछ सदस्य पंचायत समिति के सदस्य होते हैं और पंचायत समितियों के कुछ सदस्य ज़िला परिषद् के सदस्य होते हैं। अतः पंचायत, पंचायत समिति तथा ज़िला परिषद् मूल रूप से सम्बन्धित हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 2.
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वें संवैधानिक संशोधन का वर्णन करें। (Explain 73rd Amendment relating to Panchayati Raj.)
अथवा
नई पंचायती राज व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या करें। (Describe the main characteristics of New Panchayati Raj System.)
अथवा
73वीं संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज प्रणाली में क्या परिवर्तन किए गए हैं ?
(What changes have been made in Panchayati Raj System under 73rd constitutional amendment ?)
उत्तर-
सितम्बर, 1991 को लोकसभा में 72वां संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया गया था। इस विधेयक का सम्बन्ध भारतीय पंचायती राज व्यवस्था में सुधार करना था। पंचायती राज व्यवस्था में सुधार के लिए एक 30 सदस्य समिति गठित की गई जिसमें 20 सदस्य लोकसभा के और 10 सदस्य राज्य सभा के थे। लोकसभा के वरिष्ठ नेता नाथू राम मिर्धा को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दिसम्बर, 1992 में संसद् के सामने पेश की। इस समिति की सिफ़ारिशों को जो कि पंचायती राज व्यवस्था से सम्बन्धित थीं, 22 दिसम्बर को लोकसभा ने और 23 दिसम्बर को राज्य सभा ने स्वीकृति दे दी। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने पर इस संवैधानिक संशोधन का नम्बर 73वां हो गया क्योंकि इससे पूर्व 72 संशोधन हो चुके थे। इस संशोधन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. स्थानीय स्तर की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (Constitutional Sanction to democratic institutions of Grass-Root level)–73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा स्थानीय स्तर की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसके लिए संविधान में भाग 9 (Part IX) और 11वीं अनुसूची शामिल करके निम्न स्तर पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।

2. ग्राम सभा और ग्राम पंचायत की परिभाषा (Definition of Gram Sabha and Gram Panchayat)73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा ग्राम सभा और ग्राम पंचायत की परिभाषा की गई है। ग्राम सभा में एक पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आने वाले गांव या गांवों के मतदाता ही ग्राम सभा के सदस्य हो सकते हैं और यही सारे मतदाता मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करेंगे। इसका निर्माण राज्य विधानमण्डल के कानून के द्वारा ही होगा और इन्हें राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित काम ही करने पड़ेंगे। ग्राम पंचायत एक स्व-शासन संस्था है जिसका निर्माण सरकार ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए करती है।

3. तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (Three tier Panchayati Raj System)-73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई है। निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत और उच्च स्तर पर ज़िला परिषद् व मध्य में पंचायत समिति या ब्लॉक समिति की व्यवस्था है। जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से कम है वहां द्वि-स्तरीय व्यवस्था की गई है। वहां मध्य स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को कायम करने या न करने की छूट दी गई है।

4. पंचायतों की रचना (Composition of Panchayats)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक राज्य का विधान मण्डल, प्रत्येक स्तर की पंचायत की रचना सम्बन्धी व्यवस्था स्वयं करेगा।

5. सदस्यों का चुनाव (Election of the Members)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक पंचायत के क्षेत्र को चुनाव क्षेत्रों में बांटा जायेगा और चुनाव क्षेत्रों से ही पंचायतों के सदस्यों का प्रत्यक्ष रूप से लोगों के द्वारा चुनाव होगा।

6. पंचायती चुनाव राज्य चुनाव आयोग की निगरानी में (Panchayat’s elections under the Supervision of State Election Commission)-प्रत्येक राज्य में होने वाले पंचायती चुनाव राज्य चुनाव आयोग की निगरानी, निर्देशन व नियन्त्रण में होंगे। चुनाव आयोग पंचायती राज के चुनावों से सम्बन्धित अधिसूचना जारी होने के बाद चुनावों की तिथि तय करता है, नामांकन-पत्रों की जांच-पड़ताल करता है, चुनाव चिह्न जारी करता है और निष्पक्ष व स्वतन्त्र, चुनाव करवाने की व्यवस्था करता है। इसके लिए राज्यों में स्वतन्त्र चुनाव आयोग की स्थापना की व्यवस्था की गई है। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। चुनाव आयुक्त की सेवा शर्ते और कार्यकाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए कानूनों के अनुसार राज्यपाल निश्चित करता है। चुनाव आयुक्तों को हटाने के लिए वह प्रक्रिया अपनाई गई है जिस तरह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाता है।

7. संसद् और विधानमण्डल के सदस्यों की प्रतिनिधिता (Representation of the Members of State Legislature and Parliament)-73वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल को यह शक्ति दी गई है कि वह विभिन्न स्तरों की पंचायतों में निम्नलिखित सदस्यों की प्रतिनिधित्वता की व्यवस्था करें
(i) पंचायत समिति और जिला परिषद् के चुनाव क्षेत्र में आने वाले लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों को इसमें प्रतिनिधित्वता दी जा सकती है।
(ii) राज्य सभा और विधान परिषद् के सदस्य जिनका नाम पंचायत समिति और जिला परिषद् के चुनाव क्षेत्र की मतदाता सूचियों में शामिल हो।
इन सदस्यों को पंचायत समिति और जिला परिषद् की बैठकों में वोट देने का अधिकार दिया गया है।

8. पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव व उसको पद से हटाने की विधि (Election and removal of the Chairman of Panchayats) ग्राम पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा किए जाने की व्यवस्था है। अध्यक्ष को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले पद से हटाने की व्यवस्था की गई है। इसके लिए यह ज़रूरी है कि पंचायत अपने कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित वोट देने वाले सदस्यों के बहुमत के साथ अध्यक्ष को हटाने सम्बन्धी प्रस्ताव पास करे। जब पंचायत का ऐसा प्रस्ताव ग्राम सभा को प्राप्त होगा तो ग्राम सभा उस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए अपनी एक विशेष बैठक बुलाएगी जिसमें ग्राम सभा के 50% सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक है। इस बैठक में अगर पंचायत के अध्यक्ष को पद से हटाने का प्रस्ताव उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों की सर्वसहमति से पास कर दिया जाए तो प्रधान को पद से अलग कर दिया जाता है।

9. ग्राम पंचायतों और पंचायत समिति के अध्यक्ष को उच्च संस्थाओं में प्रतिनिधित्वता (Representation to the Chairperson of village level Panchayats and Intermediate level Panchayats in the other Panchayats Institution)-73वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल को यह शक्ति दी गई है कि वह ग्रामीण स्तरीय पंचायत के अध्यक्षों में से पंचायत समिति में और पंचायत समिति के प्रधानों में से जिला परिषद् में प्रतिनिधित्वता दिए जाने की व्यवस्था कर सकती है।

10. पंचायत समिति और जिला परिषद् के प्रधानों का चुनाव और उन्हें पद से हटाने की विधि (Election and removal of the Chairmens of Panchayat Samiti and Zila Parishad) -73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि मध्य स्तरीय और जिला परिषद् के अध्यक्षों का चुनाव सम्बन्धित चुनाव क्षेत्र में से निर्वाचित सदस्यों में से ही किया जाएगा। अध्यक्ष को निश्चित कार्यकाल की समाप्ति से पहले पद से हटाने के लिए यह ज़रूरी है कि सम्बन्धित पंचायत के चुने हुए सदस्य उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत के साथ जो कि कुल सदस्यों का बहुमत भी होना चाहिए, के द्वारा प्रस्ताव पास करके अपने अध्यक्ष को पद से हटा सकते हैं।

11. सीटों में आरक्षण (Reservation of Seats)-73वें संशोधन द्वारा निम्नलिखित वर्गों के लिए सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है

  • पंचायती चुनावों के लिए प्रत्येक स्तर में अनुसूचित जाति और अनुसूचित कबीलों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार सीटों में आरक्षण की व्यवस्था होगी।
  • आरक्षित स्थानों में समय-समय पर परिवर्तन होगा।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में 1/3 सीटें अनुसूचित जाति की स्त्रियों के लिए आरक्षित रखी जाएंगी।
  • कुल निर्वाचित सीटों का 1/3 भाग स्त्रियों के लिए आरक्षित होगा। यह आरक्षण अनुसूचित जाति की स्त्रियों के अतिरिक्त होगा।
  • विभिन्न स्तरों के चुनाव क्षेत्रों के अध्यक्षों की कुल संख्या का 1/3 भाग स्त्रियों के लिए आरक्षित होगा।
  • सभी पंचायती राज की संस्थाओं के अध्यक्ष पदों में से भी कुछ स्थान अनुसूचित जाति और जन जाति के लोगों के लिए आरक्षित रखे जाएंगे।

12. पंचायतों की अवधि (Tenure of a Panchayats)—प्रत्येक पंचायती चुनाव पांच साल में एक बार होना अनिवार्य है। यह चुनाव पांच साल की अवधि पूरी होने से पहले होना आवश्यक है। अगर किसी स्थान की पंचायतों को पहले भंग कर दिया गया है तो वहां छ: मास के भीतर चुनाव करवाना अनिवार्य है। इसी संशोधन द्वारा भारत की सभी पंचायतों की अवधि पांच वर्ष निश्चित की गई है।

13. सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications for Members)-प्रत्येक स्तर की पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए वही योग्यताएं निर्धारित हैं जो योग्यताएं राज्य विधानमण्डल का सदस्य बनने के लिए अनिवार्य हैं। जो व्यक्ति राज्य विधानमण्डल की सदस्यता के अयोग्य है वह पंचायत के चुनाव के लिए भी अयोग्य है। परन्तु इसके लिए निर्वाचन की आयु 21 वर्ष है।

14. पंचायतों की शक्तियां और कार्य (Powers and functions of Panchayats)-73वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल पंचायतों को ऐसी शक्तियां व काम सौंप सकता है जो कि स्व-शासन संस्थाओं के लिए अनिवार्य हैं। ये उत्तरदायित्व हैं-(i) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करनी और उन्हें लागू करना। (ii) 11वीं अनुसूची में शामिल विषय-सूची-इस विषय सूची में 29 विषय शामिल हैं जिनमें खेतीबाड़ी, भूमि सुधार, सिंचाई, पशु-पालन, मछली पालन, वन उत्पादन, लघु उद्योग, खादी, घरेलू उद्योग, ग्रामीण आवास, पीने का पानी, सड़कें, पुलों का निर्माण, शिक्षा, सेहत और सफाई, सांस्कृतिक गतिविधियां, मण्डियां और मेले आदि मुख्य हैं।

15. कर लगाने की शक्ति (Power to impose Taxes)-राज्य का विधानमण्डल कानून द्वारा पंचायतों को कुछ कर लगाने और उन्हें एकत्रित करने की शक्ति सौंप सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य की संचित निधि में से भी पंचायतों को सहायता राशि देने की व्यवस्था की गई है।

16. वित्त आयोग का निर्माण (Composition of Finance Commission)-73वें संशोधन द्वारा पंचायतों के लिए एक वित्त आयोग की व्यवस्था की गई है जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा। इसमें कितने सदस्य होंगे, उनकी योग्यताएं, उनका निर्वाचन, शक्तियां आदि प्रश्नों से सम्बन्धित व्यवस्था राज्य विधानमण्डल द्वारा होगी। इसके कार्य इस प्रकार हैं
(i) पंचायतों की वित्त स्थिति सम्बन्धी विचार करना। (ii) राज्य सरकार द्वारा निर्धारित करों को राज्य सरकार और पंचायतों में बांटने सम्बन्धी सिद्धान्तों को निश्चित करना। (iii) पंचायतों को सौंपे जाने वाले करों से सम्बन्धित सिद्धान्तों को निश्चित करना (iv) राज्यपाल द्वारा सौंपे गए किसी अन्य विषय पर विचार करना।

17. वर्तमान पंचायतों का जारी रहना (Continuance of Existing Panchayats)-73वें संशोधन के लागू होने से पहले सभी पंचायतें अपने कार्यकाल की समाप्ति तक काम करती थीं। परन्तु अब राज्य विधानमण्डल द्वारा प्रस्ताव पास होने पर ही पंचायतों को अपनी अवधि से पहले भंग किया जा सकता है, न कि मुख्यमन्त्री की स्वेच्छाचारी शक्ति के प्रयोग से।

18. वर्तमान कानूनों का जारी रहना (Continuance of Existing Law)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अगर प्रचलित कानून की कोई व्यवस्था इस संशोधन की व्यवस्थाओं से मेल नहीं रखती तो वह संशोधन के लागू होने के एक वर्ष के समय तक जारी रह सकती है।

19. पंचायतों के चुनाव झगड़े अदालतों के हस्तक्षेप से बाहर (Election Conflicts of Panchayats are outside the Jurisdiction of Courts)-73वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि पंचायती चुनावों के क्षेत्र निश्चित करने वाले किसी भी कानून को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। पंचायत के लिए चुने गए किसी सदस्य को केवल उस संस्था में ही चुनौती दी जा सकती है जिसकी व्यवस्था राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून में की गई हो। ऐसे कानून को अदालती अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है।

निष्कर्ष (Conclusion)-नई पंचायती राज व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य निम्न स्तर पर लोगों को अपने विकास के मामलों में हिस्सेदारी को स्वस्थ बनाना, शक्तियों के बंटवारों को विश्वास योग्य बनाना, अपने गांवों के विकास के लिए योजनाएं स्वयं तैयार करना और उन्हें लागू करना है। पंचायती राज संस्थाओं में हिस्सेदारी को संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की गई है। यह नई पंचायती राज व्यवस्था कितनी सफल होगी उसका फैसला नई पंचायती राज व्यवस्था के असली प्रयोग पर निर्भर करता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 3.
पंचायती राज से आपका क्या अभिप्राय है ? ग्राम पंचायत की बनावट और कार्यों की व्याख्या कीजिए।
(What do you mean by the Panchayati Raj ? Discuss the composition and functions of Gram Panchayat.)
अथवा
ग्राम पंचायत की शक्तियों और कार्यों को लिखें। (Write down the powers and functions of Gram Panchayat.)
उत्तर-
पंचायती राज का अर्थ- इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।
ग्राम पंचायत की बनावट एवं कार्य-गांवों में स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाई ग्राम पंचायत है। इस समय देश में 2,50,000 हज़ार से अधिक पंचायतें हैं। एक ग्राम पंचायत एक ग्राम या ग्राम समूह के लिए बनाई जाती है।

रचना (Composition)-पंजाब में 200 की आबादी वाले और हरियाणा में 500 की आबादी वाले हर गांव में पंचायत की स्थापना की गई है। यदि किसी गांव की जनसंख्या इससे कम है तो दो या अधिक गांवों की संयुक्त पंचायत स्थापित कर दी जाती है। पंजाब में पंचायतों की संख्या लगभग 11,960 और हरियाणा में लगभग 6155 है। ग्राम पंचायत का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 सदस्य तक अलग-अलग होता है। हरियाणा में पंचायत में 6 से 20 तक सदस्य होते हैं और पंजाब में 5 से 13 तक, जबकि उत्तर प्रदेश में 16 से 31 सदस्य होते हैं। इनकी संख्या गांव की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। उदाहरणस्वरूप पंजाब को पंचायती राज एक्ट 1994 के अनुसार पंजाब के एक गांव जिसकी जनसंख्या 200 से लेकर 1000 तक है, उस गांव की ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अतिरिक्त पांच पंच होते हैं और जिस गांव की जनसंख्या 1000 से 2000 तक हो वहां पर 7 पंच होते हैं तथा जिस गांव की आबादी 10,000 से ज्यादा हो तो उसके लिए सरपंच के इलावा 13 पंच होंगे। इस तरह पंजाब की एक ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अतिरिक्त कम-से-कम 5 और ज्यादा-से-ज्यादा 13 सदस्य हो सकते हैं। अनुसूचित जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई हैं। महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं।

चुनाव-पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है। प्रत्येक वयस्क नागरिक जो गांव का रहने वाला है, पंचायत के चुनाव में वोट डाल सकता है। पंजाब में 18 वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।

सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications for Members)-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • गांव की मतदाताओं की सूची में उसका नाम हो।
  • दिवालिया, पागल और दण्डित न हो।
  • सरकारी कर्मचारी न हो।
  • वह राज्य विधानमण्डल या संसद् का सदस्य न हो।

आरक्षित स्थान-प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों तथा जन-जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई हैं। पिछड़ी श्रेणी के लिए एक सीट आरक्षित-जिस ग्राम सभा क्षेत्र में पिछड़ी श्रेणी की जनसंख्या गांव की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत से अधिक है उस गांव की पंचायत में एक सीट पिछड़ी श्रेणी के लिए आरक्षित रखी गई है।
स्त्री सदस्य (Women Members)-पंजाब में सन् 2017 से यह प्रावधान है कि ग्राम पंचायतों में 50% स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे ।

अवधि (Terms)-73वें संवैधानिक संशोधन से पूर्व पंचायतों की अवधि सभी राज्यों में एक समान नहीं थी। कुछ राज्यों में यह अवधि 3 वर्ष तो कुछ राज्यों में 5 वर्ष थी। लेकिन 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा अब पंचायतों की अवधि 5 वर्ष सुनिश्चित कर दी गई है। राज्य सरकार कुछ परिस्थितियों में पांच वर्ष से पूर्व भी पंचायत को भंग कर सकती है, लेकिन इसके लिए 6 मास के भीतर नई पंचायत के चुनाव हो जाने चाहिएं। उल्लेखनीय है कि भंग की गई पंचायत के स्थान पर नव-गठित पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं अपितु शेष समय तक रहता है।

सरपंच (Chairman)-पंचायत का एक अध्यक्ष होता है जिसे सरपंच कहा जाता है। पंजाब में सरपंच का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। सरपंच को भी अन्य सदस्यों की तरह अवधि पूरी होने से पहले हटाया जा सकता है। सरपंच को निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त होता है।

बैठकें (Meetings)-पंचायत की बैठकें महीने में एक बार अवश्य होती हैं। पंचायत की बैठकें सरपंच बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है।

निर्णय (Decisions)-पंचायत के निर्णय साधारण बहुमत से होते हैं। परन्तु यदि किसी विषय के पक्ष और विपक्ष में बराबर मत हों तो सरपंच को निर्णायक मत देने का अधिकार है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियां (POWERS AND FUNCTIONS OF THE GRAM PANCHAYATS)

पंचायत कई प्रकार के कार्य करती है। इन कार्यों को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है –

  1. (1) प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)
  2. (2) सार्वजनिक कार्य (Functions of Public Welfare)
  3. विकास सम्बन्धी कार्य(Development Functions)
  4. न्याय सम्बन्धी कार्य (Judicial Functions)

1. प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)—पंचायत को अपने क्षेत्र में कई प्रकार के प्रशासनिक कार्य करने पड़ते हैं

  • गांव में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना पंचायत का उत्तरदायित्व है।
  • पंचायत अपने क्षेत्र में अपराधियों को पकड़ने और अपराधों की रोकथाम करने के लिए पुलिस की सहायता करती है।
  • पंचायत 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके अपने क्षेत्र में शराब बेचने को निषेध कर सकती है।
  • गांव के सरकारी कर्मचारियों के कामों पर देख-रेख रखना पंचायत का काम है। यदि पटवारी, नम्बरदार, चौकीदार या कोई अधिकारी अपने कर्तव्य का ठीक प्रकार से पालन न करे तो पंचायत उसकी शिकायत जिलाधीश से कर सकती है। जिलाधीश के लिए अनिवार्य है कि वह ऐसी शिकायत पर कार्यवाही करे और उसका परिणाम पंचायत को बताए।
  • गांव में सड़कों, पुलों, गलियों और नालियों को बनाना और उनकी मुरम्मत करना पंचायत का काम है।

2. सार्वजनिक कल्याण सम्बन्धी कार्य (Functions of Public Welfare)-पंचायत ऐसे बहुत-से कार्य करती है जिससे जनता की भलाई हो जैसे

  • अपने क्षेत्र में सफ़ाई आदि का प्रबन्ध पंचायत करती है।
  • पंचायत लोगों के स्वास्थ्य को अच्छा बनाने का प्रयत्न करती है। इसके लिए वह अस्पताल, दवाखाने खोलती है तथा प्रसूति गृह, बालहित केन्द्र स्थापित करती है। लोगों को चेचक, हैज़ा आदि के टीके लगाए जाते हैं।
  • गांव में पीने के लिए शुद्ध पानी की व्यवस्था की जाती है और कुओं तथा तालाबों में दवाई आदि डाले जाने का प्रबन्ध किया जाता है।
  • सड़कों, गलियों और बाजारों में रोशनी का प्रबन्ध किया जाता है।
  • पंचायत अपने इलाके में प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध भी करती है। पंजाब और हरियाणा में यह काम सरकार ने अपने हाथ में लिया हुआ है।
  • यह लोगों के मानसिक विकास करने के लिए गांव में पुस्तकालय तथा वाचनालय स्थापित करती है।
  • गांव के सार्वजनिक स्थानों की देखभाल तथा सफ़ाई का प्रबन्ध पंचायत करती है।
  • वह शमशान भूमि का प्रबन्ध तथा उसकी देखभाल करती है।
  • गांव में नए वृक्ष लगाना तथा उनकी देखभाल करना भी उसका काम है।
  • पंचायत अपने इलाके में पशुओं की नस्ल को सुधारने का प्रयत्न करती है।
  • कृषि को उन्नत करना, किसानों के लिए अच्छे बीजों का प्रबन्ध करना और उन्हें कृषि के वैज्ञानिक तरीकों से परिचित करना भी पंचायत का कर्तव्य है।
  • पंचायत घरेलू उद्योग-धन्धों को विकसित करने का प्रयत्न करती है ताकि लोगों को अधिक-से-अधिक रोजगार मिल सके।
  • पंचायत लोगों के सामाजिक जीवन को सुधारने के प्रयत्न करती है और समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न करती है।
  • बाढ़, अकाल तथा दूसरे प्रकार के संकटों के समय पंचायतें अपने इलाके के लोगों की आर्थिक सहायता भी करती है।
  • पंचायत लोगों के मनोरंजन के लिए मेले, मण्डियां, प्रदर्शनी और दंगल आदि का प्रबन्ध करती है।

3. विकास सम्बन्धी कार्य (Development Functions)-पंचायतें ग्रामीण क्षेत्र में सामुदायिक विकास योजनाएं लागू करती हैं। पंचायतें अपने क्षेत्र के बहुमुखी विकास के लिए छोटी-छोटी योजनाएं बनाती हैं तथा उन्हें लागू करती हैं। कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए किसानों को बढ़िया बीज तथा खाद बांटने का प्रबन्ध करती है। पंचायतें ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए भी प्रयास करती हैं।

4. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)-कुछ राज्यों में पंचायतें अपने क्षेत्रों के छोटे-मोटे दीवानी, भूमि सम्बन्धी तथा फौजदारी मुकद्दमे का निर्णय भी करती है। कई राज्यों में अलग न्याय पंचायतों अथवा ‘अदालती पंचायतों’ की व्यवस्था की गई है। अदालती पंचायतों का संगठन सीमावर्ती कुछ पंचायतों को मिलाकर किया जाता है। पंजाब और हरियाणा में अदालती पंचायतों की स्थापना नहीं की गई है। पंचायतों को प्राय: निम्नलिखित न्यायिक शक्तियां प्राप्त हैं-

(1) दीवानी मुकद्दमे-साधारण पंचायत 200 रुपए तक के और विशेष अधिकारों वाली पंचायत को 500 रुपए के दीवानी मुकद्दमे सुनने और फैसले देने का अधिकार प्राप्त है। परन्तु पंचायतें वसीयत सम्बन्धी मुकद्दमे, नाबालिग तथा पागलों के विरुद्ध मुकद्दमे, सरकारी कर्मचारियों और दिवालियों के विरुद्ध मुकद्दमे नहीं सुन सकती।
(2) फौजदारी मुकद्दमे-गाली-गलोच, मारपीट, अश्लील गाने गाना, पशुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार करना, सार्वजनिक भवनों को खराब करना, रास्ता रोकना आदि के फौजदारी मुकद्दमे पंचायतें सुनती हैं। पंचायतें 200 रुपए तक का जुर्माना कर सकती हैं। पंचायतें अपना आदेश पालन न करने वाली पर 25 रुपए तक जुर्माना कर सकती है। पंचायतों के सामने वकील उपस्थित नहीं हो सकते। दोनों ओर के व्यक्तियों को स्वयं उपस्थित होकर अपनी बात करनी पड़ती है। पंचायत के निर्णयों के विरुद्ध न्यायालयों में अपील की जा सकती है।

पंचायतों के आय के साधन (SOURCES OF INCOME OF PANCHAYAT)-

पंचायतों को अपना काम चलाने को लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। यह धन उन्हें निम्नलिखित साधनों से प्राप्त होता है

  1. गांव में से इकट्ठे होने वाले लगान का 10 प्रतिशत भाग पंचायत को मिलता है।
  2. पंचायत गांव में मकानों पर गृह कर (House Tax) लगाती है।
  3. गांव की साझी भूमि जिसे शामलात (Shamlat) कहते हैं, से भी आय प्राप्त होती है।
  4. पंचायत अपराधी पर जो जुर्माना करती है, उस धन को वह अपने पास रखती है।
  5. खाद की बिक्री आदि से भी पंचायत को आय होती है।
  6. किसी विशेष आवश्यकता पूर्ति के लिए पंचायत गांव के लोगों से विशेष कर इकट्ठा कर सकती है। यह कर धन के रूप में या मुफ्त परिश्रम (Free manual labour) के रूप में दिया जा सकता है।
  7. यह गांव में होने वाले मेलों, मण्डियों और प्रदर्शनी आदि पर भी लगा सकती है।
  8. पंचायत को राज्य सरकार के प्रति वर्ष धन की सहायता मिलती है ताकि वे अपना काम ठीक प्रकार से कर सकें।
  9. पंचायतें कई प्रकार के लाइसैंस भी देती हैं और उसके लिए वह फीस लेती है।
  10. मरे हुए पशुओं की खाल को बेचने से भी पंचायत को आय होती है।

पंचायतों पर सरकारी नियन्त्रण (GOVERNMENT CONTROL OVER PANCHAYATS)-

ग्राम पंचायतें अपने कार्यों एवं क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हैं। ग्राम पंचायतों पर राज्य सरकार का नियन्त्रण होता है। राज्य सरकार निम्नलिखित ढंगों से पंचायतों पर नियन्त्रण रखती है-

  • ग्राम पंचायतों की स्थापना राज्य सरकार के एक्ट के अधीन की जाती है। राज्य सरकारें ही ग्राम पंचायतों के संगठन, शक्तियों एवं कार्यों को निश्चित करती हैं।
  • राज्य सरकार या उनका कोई अधिकारी ग्राम पंचायतों को आवश्यक आदेश दे सकता है।
  • ग्राम पंचायत के मुख्य अधिकारियों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है।
  • सरकार डिप्टी कमिश्नर द्वारा पंचायतों के बजट पर नियन्त्रण रखती है।
  • पंचायतें सरकार से अनुदान प्राप्त करती हैं। अतः सरकार पर पंचायतों पर नियन्त्रण होना स्वाभाविक है। सरकार पंचायतों के हिसाब-किताब की जांच-पड़ताल करती है।
  • सरकार या उसका अधिकारी पंचायत के कार्यों की जांच-पड़ताल कर सकता है।
  • विशेष परिस्थितियों में सरकार पंचायतों को भंग कर सकती है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 4.
ब्लॉक समिति की बनावट और कार्यों का वर्णन कीजिए।
(Explain the composition and functions of Block Samiti.)
अथवा
पंचायत समिति के कार्यों और शक्तियों का वर्णन कीजिए।
(Give the functions and powers of Panchayat Samiti.)
उत्तर-
पंचायती राज जोकि लगभग सारे भारत में उपस्थित है, एक तीन स्तरीय संगठन है। इसके बीच वाले स्तर को पंचायत समिति कहा जाता है। पंचायत समिति पंचायती ढांचे की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण इकाई है। इतनी शक्तियां, ज़िम्मेदारियां और किसी अन्य इकाई के पास नहीं हैं। इस इकाई को पंचायती राज की धुरी कहना गलत नहीं होगा। इस समय सारे देश में लगभग 6000 पंचायत समितियां हैं।

पंचायत समिति की रचना (Composition of Panchayat Samiti)-प्रत्येक विकास खण्ड (Development of Block) की एक पंचायत समिति होती है। उत्तर प्रदेश में उसे “क्षेत्र समिति” कहते हैं, मध्य प्रदेश में इसे ‘जन परिषद्’ तथा गुजरात में ‘तालुका पंचायत’ कहते हैं।
पंजाब में पंचायत समिति के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा किया जाता है। अतः अब पंचायत समितियों के सभी सदस्यों का चुनाव लोगों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक पंचायत समिति के सदस्यों की संख्या समिति के क्षेत्र की जनसंख्या के अनुसार निश्चित की जाती है, परन्तु किसी भी पंचायत समिति के सदस्यों की संख्या 10 से कम नहीं हो सकती।
विधान सभा के सदस्य-पंजाब विधानसभा के सदस्य जिनके निर्वाचन क्षेत्र का बहुत भाग पंचायत समिति के क्षेत्र में आता है।
विधान परिषद् के सदस्य-अगर राज्य में विधान परिषद् है तो उनके सदस्य भी, जिनका नाम पंचायत समिति के क्षेत्र की मतदाता सूची में रजिस्टर हो।
आरक्षित स्थान-73वें संशोधन के अनुसार अनुसूचित जातियों व जन-जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षित स्थान देने की व्यवस्था की गई है।
महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान-पंजाब में प्रत्येक पंचायत समिति में प्रत्यक्ष तौर पर कुल चुनी गई सीटों में से 50% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित रखी गई हैं।

सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of Members)—पंचायत समिति का सदस्य चुने जाने या संयोजित (Co-opt.) किये जाने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
  • वह किसी सरकारी लाभदायक पद पर न हो
  • वह पागल या दिवालिया न हो
  • वह किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।

अवधि (Tenure)-73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायत समितियों की अवधि 5 वर्ष निश्चित की गई है। राज्य सरकार कुछ परिस्थितियों में पांच वर्ष से पूर्व भी पंचायत समिति को भंग कर सकती है, लेकिन इसके लिए 6 माह के भीतर नई पंचायत समिति के चुनाव करवाना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि भंग की गई पंचायत समिति के स्थान पर नवगठित पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं, अपितु शेष समय तक रहता है।

अध्यक्ष (Chairman)-पंचायत समिति के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष को चुनते हैं। अध्यक्ष पंचायत समिति की बैठकों में सभापतित्व करता है। इसकी अवधि भी पांच वर्ष होती है, परन्तु उसे इससे पहले दो तिहाई सदस्यों द्वारा भी हटाए जाने की व्यवस्था है।

कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer) खण्ड विकास तथा पंचायत अधिकारी (B.D.O.) पंचायत समिति का कार्यकारी अधिकारी होता है। पंचायत समिति का दैनिक शासन उसी के द्वारा चलाया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई कर्मचारी होते हैं जिनमें तकनीकी विशेषज्ञ भी शामिल होते हैं।

बैठकें (Meetings)—पंचायत समिति की साधारण बैठकें एक वर्ष में कम-से-कम 6 बार बुलाई जाती हैं। पंचायत समिति के एक-तिहाई सदस्य यदि लिखकर दें तो पंचायत समिति की विशेष बैठकें बुलाई जा सकती हैं। साधारण बैठक दो महीने में एक बार अवश्य बुलाई जाती है।

गणपूर्ति (Quorum)—साधारण बैठकों के लिए कुछ सदस्यों का एक तिहाई और विशेष बैठकों के लिए आधे सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक है।

पंचायत समिति के कार्य तथा शक्तियां
(POWERS AND FUNCTIONS OF THE PANCHAYAT SAMITI)-

पंचायत समिति निम्नलिखित कार्य करती है-

1. पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण-पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्य पर देख-रेख करती है। पंचायत समिति पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण रखती है। उड़ीसा, राजस्थान, असम और महाराष्ट्र में पंचायत समिति अपने क्षेत्र के बजट को स्वीकार करती है।
2. कृषि का विकास-पंचायत समिति अपने क्षेत्र में कृषि को बढ़ावा देने का प्रयत्न करती है और किसानों में अच्छे बीज, खाद तथा वैज्ञानिक औज़ारों को बांटती है। पंचायत समिति चूहों, टिड्डी दल तथा कीड़ों आदि से फसलों को बचाने का प्रयत्न करती है।
3. सिंचाई-पंचायत समिति कृषि के विकास के लिए सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करती है।
4. लघु और कुटीर उद्योगों का विकास-पंचायत समिति अपने इलाके में घरेलू उद्योग-धन्धों को बढ़ावा देने का प्रयत्न करती है। वह इस सम्बन्ध में योजनाएं बनाने और लागू करने का अधिकार रखती है।
5. पशु-पालन और मछली पालन-पंचायत समिति पशु-नस्ल को अच्छा बनाने के कदम उठाती है। वह दूध को डेयरियां खोलने में लोगों की सहायता करती है। पंचायत समिति अपने क्षेत्र में मछली उद्योग को प्रोत्साहन देती है।
6. सफ़ाई और स्वास्थ्य-अपने क्षेत्र की सफ़ाई और स्वास्थ्य का उचित प्रबन्ध करना इसका कार्य है। इसके लिए वह अस्पताल खोलती है और प्रसूति गृह तथा बालहित केन्द्र स्थापित करती है। वह बीमारियों को रोकने के लिए टीके लगवाने तथा दूसरे कदम उठाने का प्रबन्ध करती है।
7. पीने के पानी की व्यवस्था-पंचायत समिति अपने क्षेत्र में पीने के पानी की व्यवस्था करती है। जल प्रदूषण को रोकती है।
8. वनों और वृक्षों का विकास-पंचायत समिति वनों के विकास के लिए वृक्ष लगाती है और उनकी देखभाल करती है।
9. सार्वजनिक निर्माण कार्य-पंचायत समिति अपने इलाके की सड़कों और पुलों के निर्माण और मुरम्मत का प्रबन्ध करती है। वह इलाके में सार्वजनिक नौका घाटों का प्रबन्ध करती है।
10. सहकारी समितियां-पंचायत समिति अपने इलाके में सहकारी समितियों को प्रोत्साहन देती है। कृषि,
औद्योगिक और सिंचाई के क्षेत्र में सहकारी समितियों की स्थापना की जाती है।
11. शिक्षा-पंचायत समिति अपने क्षेत्र में शिक्षा के विकास की ओर भी ध्यान देती है तथा इसमें एक पुस्तकालय
और वाचनालय आदि खोलने का प्रबन्ध करती है। ___ 12. सामुदायिक विकास-पंचायत समिति अपने क्षेत्र की सामुदायिक विकास परियोजनाओं (Community Development Projects) को लागू करती है और क्षेत्र के विकास का प्रयत्न करती है।
13. सहायता के कार्य-पंचायत समिति अपने क्षेत्र के लोगों की अकाल, बाढ़ तथा दूसरे संकट के समय आर्थिक सहायता का प्रयत्न करती है। ___ 14. सहकारी सम्पत्ति-पंचायत समिति सहकारी सम्पत्ति का प्रबन्ध तथा उनकी देखभाल करती है। पंचायत समिति सार्वजनिक हितों के लिए सम्पत्ति का अधिग्रहण भी कर सकती है। .
15. मनोरंजन सम्बन्धी कार्य-पंचायत समिति अपने क्षेत्र के लोगों के लिए सांस्कृतिक कार्यों की भी व्यवस्था करती है, वह खेल-कूद (Tournaments) का प्रबन्ध करती है, मनोरंजन केन्द्र स्थापित करती है, युवक केन्द्रों की व्यवस्था करती है और दंगल आदि का प्रबन्ध करके लोगों के मनोरंजन और सांस्कृतिक विकास के लिए प्रयत्न करती है। पंचायत समिति गांव वालों के लिए मेलों, प्रदर्शनियों तथा मण्डियों का प्रबन्ध करती है।
16. जन्म और मृत्यु का पंजीकरण- वह जन्म और मृत्यु का रजिस्टर भी रखती है जिसमें क्षेत्र में होने वाली जन्म-मरण सम्बन्धी सूचना लिखी जाती है।
17. विश्राम गृहों का प्रबन्ध-पंचायत समिति सरायों और विश्राम-गृहों का प्रबन्ध करती है। 18. सार्वजनिक वितरण प्रणाली-पंचायत समिति सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू करती है।
19. पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जाति एवं जनजाति का कल्याण-पंचायत समिति कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के लोगों को अन्याय तथा शोषण से बचाती है और उनकी भलाई के लिए उचित कदम उठाती है।
20. उपनियमों का निर्माण-पंचायत समिति आवश्यकता पड़ने पर अनेक विषयों पर उप-नियम बना सकती है।
21. भूमि की सुरक्षा-पंचायत समिति राज्य सरकार के भूमि संरक्षण कार्यक्रम में सरकार की सहायता करती है। .
22. गरीबी निवारण-पंचायत समिति गरीबी दूर करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यक्रम एवं योजनाएं बनाती है तथा उन्हें लागू करती है।
23. यातायात के साधनों का विकास-पंचायत समिति सड़कों की देखभाल करती है और यातायात के साधनों का विकास करती है।
24. अनौपचारिक ऊर्जा साधनों का विकास-पंचायत समिति का एक कार्य यह भी है कि वह अनौपचारिक ऊर्जा साधनों का विकास करे।
25. महिलाओं एवं बच्चों का विकास-पंचायत समिति महिलाओं एवं बच्चों के विकास के लिए भी कार्य करती
26. बिजली का प्रबन्ध-पंचायत समिति ग्रामीण क्षेत्र में बिजली का प्रबन्ध करती है।

आय के साधन (SOURCES OF INCOME)-

पंचायत समिति को निम्नलिखित साधनों से आय प्राप्त होती है-

  • पंचायत क्षेत्र में लगाए स्थानीय कर (Local Taxes) का कुछ भाग पंचायत समिति को मिलता है।
  • इसे मेलों तथा मण्डियों से भी आय प्राप्त होती है। पशुओं के मेलों में भाग लेने वाले पशुओं के मालिकों से यह फीस लेती है।
  • यह कई प्रकार के लाइसेंस भी देती है।
  • इसे राज्य सरकार से भी सहायता के रूप में धन मिलता है।
  • समिति को अपनी सम्पत्ति से भी आय होती है।
  • समिति जिला परिषद् की अनुमति से और भी कर लगा सकती है और अपनी आय को बढ़ा सकती है।
  • उसके क्षेत्र में इकट्ठे होने वाले लगान से भी कुछ भाग पंचायत समिति को मिलता है।

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प्रश्न 5.
जिला परिषद् का संगठन किस प्रकार किया जाता है, इसके कार्यों का वर्णन करो। (How is the Zila Parishad organised ? Discuss its functions.)
अथवा
जिला परिषद् के गठन और कार्यों का वर्णन कीजिए। (Describe the organisation and functions of the Zila Parishad.)
उत्तर-
पहले प्रत्येक जिले में जिला बोर्ड होते थे जो ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय मामलों का प्रशासन करते थे। पंचायती राज की स्थापना के कारण ज़िला बोर्ड को तोड़ दिया गया है। अब प्रत्येक जिले में एक जिला परिषद् होती है। जिला परिषद् पंचायती राज की सर्वोच्च इकाई है। इस समय सारे देश में लगभग 500 जिला परिषदें हैं।

रचना (Composition)—पंचायत समिति की तरह जिला परिषद् में भी कई प्रकार के सदस्य होते हैं। पंजाब की प्रत्येक जिला परिषद् में निम्नलिखित सदस्य होते हैं

1. (क) जनता द्वारा निर्वाचित सदस्य-क्षेत्रीय चुनाव क्षेत्र में से जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुने गए सदस्य, जिनकी सदस्य संख्या 10 से लेकर 25 तक होती है।
(ख) पंचायत समितियों के सभी अध्यक्ष।
(ग) लोकसभा व राज्य विधानसभा के सदस्य-जिले का लोकसभा में व राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा व राज्य विधानसभा के सदस्य।
(घ) राज्यसभा व राज्य विधान परिषद् के सदस्य-परिषद् के निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में अंकित राज्यसभा व राज्य विधान परिषद के सदस्य।

2. जिला परिषद् के वह सदस्य जो जिला परिषद् के क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने गए हों या नहीं, को भी जिला परिषद् की बैठकों में अपने मत का प्रयोग करने का अधिकार है।
ज़िला परिषद् का प्रत्येक सदस्य 50 हजार की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। जिस जिला परिषद् की जनसंख्या पांच लाख या इससे कम है तो उसमें 10 सदस्य होते हैं और जिस जिला परिषद् की जनसंख्या 12 लाख या इससे ज्यादा है तो उस जिला परिषद् के सदस्यों की संख्या 25 से ज्यादा नहीं हो सकती है।

आरक्षित स्थान-जिला परिषद् में अनुसूचित जातियों, जन-जातियों तथा पिछड़ी श्रेणियों के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए गए हैं। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में अनुसूचित जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की गई हैं। पंजाब में 50% स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रखे गए हैं। जिला परिषद् में एक सीट पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षित रखी जाती है यदि उस जिले में पिछड़ी श्रेणियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत से कम न हो।

सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of Members)-ज़िला-परिषद् का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं

  • वह भारत का नागरिक हो
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
  • वह सरकार या समिति परिषद् के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो
  • वह पागल या दिवालिया न हो और किसी न्यायालय द्वारा अयोग्य भी घोषित न किया गया हो।

अवधि (Tenure)-73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार जिला परिषद् का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया है। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राज्य सरकार जिला परिषद् को समय से पूर्व भी भंग कर सकती है, परन्तु 6 महीने के अन्दर जिला परिषद् के चुनाव करवाना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि नवगठित जिला परिषद् का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं, अपितु शेष समय तक रहता है। पंजाब और हरियाणा में जिला-परिषद् का कार्यकाल 5 वर्ष है। सरकार इसे अवधि से पूर्व भी भंग कर सकती है। परन्तु 6 महीने के अन्दर चुनाव करवाना अनिवार्य है।

अध्यक्ष (Chairman)-ज़िला परिषद् का एक अध्यक्ष होता है जो जिला परिषद् के सदस्यों के द्वारा चुना जाता है। सदस्य उपाध्यक्ष (Vice-Chairman) भी चुनते हैं। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को अवधि पूरी होने से पहले दो तिहाई सदस्यों द्वारा हटाए जाने की व्यवस्था है। कई राज्यों में अध्यक्ष को वेतन मिलता हैं, परन्तु पंजाब और हरियाणा में अध्यक्ष को कोई वेतन नहीं मिलता है। जिला परिषद् के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष की सीटें अनुसूचित जातियों के लिए उनकी राज्य की कुल जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से आरक्षित की गई हैं।

सलाहकार (Advisors)-जिला स्तर पर लगे हुए किसी भी सरकारी अधिकारी को जिला परिषद् सलाह देने के लिए अपनी मीटिंग में उपस्थित होने के लिए कह सकती है। जिला परिषद् का ऐसा निमन्त्रण बाध्यकारी होता है।

सचिव (Secretary)-ज़िला परिषद् का एक सचिव होता है जो इसके दैनिक प्रशासन को चलाता है। सचिव को मासिक वेतन मिलता है। इसकी नियुक्ति जिला परिषद् की सिफ़ारिश पर सरकार द्वारा होती है।

बैठकें (Meetings)-जिला परिषद् की बैठक वर्ष में चार बार अवश्य होती है। जिला परिषद् की तीन महीने में एक बार बैठक होना अनिवार्य है। एक तिहाई सदस्यों की मांग से विशेष बैठक भी हो सकती है। सदस्यों की कुल संख्या का एक-तिहाई (1/3) भाग गणपूर्ति के लिए निश्चित किया गया है।

निर्णय (Decisions)-ज़िला परिषद् के निर्णय उपस्थित सदस्यों के बहुमत से किए जाते हैं। परन्तु यदि किसी विषय पर पक्ष और विपक्ष में मत बराबर हों तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार है।

समितियां (Committees)-ज़िला परिषद् अपने कार्यों को कुशलता से करने के लिए कई प्रकार की समितियों की स्थापना करती है।

जिला परिषद् के कार्य (FUNCTIONS OF THE ZILA PARISHAD)

जिला-परिषद् के कार्य सभी राज्यों में एक समान नहीं हैं। यह अलग-अलग राज्यो में अलग-अलग हैं। जिलापरिषद् को केवल समन्वय लाने वाली और निरीक्षण करने वाली संस्था (Co-ordinating and Supervisory Body) के रूप में ही स्थापित किया गया है। इसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

(1) यह अपने क्षेत्र में पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय (Co-ordination) स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
(2) पंचायत समितियां अपना वार्षिक बजट पास करके ज़िला-परिषद् के पास भेजती है। जिला परिषद् उस पर सोच-विचार कर अपनी स्वीकृति देती है। वह चाहे तो उसमें परिवर्तन के सुझाव भी दे सकती है।
(3) जिला परिषद् अपने क्षेत्र की पंचायत समितियों के कार्यों पर देख-रेख रखती है।
(4) यदि कोई पंचायत समिति अपना काम ठीक प्रकार से न कर रही हो तो जिला परिषद् उसे कर्त्तव्य-पालन के सम्बन्ध में आदेश दे सकती है।
(5) जिला परिषद् जिले के ग्रामीण जीवन का विकास करने और लोगों के जीवन को ऊंचा उठाने के प्रयत्न करती है। (6) यह सरकार को जिले के ग्रामीण विकास के बारे में सुझाव भेज सकती है।
(7) यदि कोई विकास योजना से दो या दो से अधिक पंचायत समितियों का सामूहिक विकास हो तो ज़िला-परिषद् उनमें एकता लाने तथा उस योजना को सफल बनाने का प्रयत्न करती है।
(8) सरकार किसी भी विकास योजना को लागू करने का उत्तरदायित्व जिला परिषद् पर डाल सकती है। (9) जिला परिषद् के जिम्मे विशेष कार्य भी सौंपे गए हैं। जैसे कि पशु-पालन, मछली-पालन, सड़क आदि।
(10) ज़िला परिषद् सरकार को पंचायत समितियों के कार्यों में विभाजन तथा ताल-मेल के सम्बन्ध में परामर्श दे सकती है।
(11) जिला परिषद् खेती-बाड़ी के लिए बीज, फार्म तथा व्यापारिक कार्य खोलती है, गोदामों की स्थापना तथा देखभाल करती है और खेतीबाडी और मेलों का प्रबन्ध करती है।
(12) जिला परिषद् सिंचाई के साधनों का विकास करती है तथा सिंचाई योजनाओं के अधीन पानी का उचित बंटवारा करती है।
(13) जिला परिषद् सामूहिक पम्प सेट्स तथा वाटर वर्क्स लगवाती है।
(14) जिला परिषद् पार्कों का निर्माण, उनकी देखभाल करती है तथा बाग़ लगवाती है।
(15) जिला परिषद् सभी तरह के आंकड़ों को प्रकाशित करती है।
(16) जिला परिषद् जंगलों का विकास करती है तथा वृक्ष लगाती है।
(17) ज़िला परिषद् पशु-पालन तथा पशुओं की डेयरी के विकास के लिए अनेक कार्य करती है।
(18) जिला परिषद् अपने क्षेत्र में ज़रूरी वस्तुओं के वितरण का प्रबन्ध करती है।
(19) जिला परिषद् घरेलू तथा लघु उद्योगों के विकास के लिए अनेक कार्य करती है।
(20) ज़िला परिषद् अपने क्षेत्र में शिक्षा के विस्तार के लिए स्कूलों की स्थापना करती है। अनपढ़ता दूर करने के लिए तथा आम शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य करती है।
(21) ज़िला परिषद् गरीबी को दूर करने से सम्बन्धित कार्यक्रमों को लागू करती है।

जिला परिषद् की आय के साधन (SOURCES OF INCOME OF ZILA PARISHAD)

जिला परिषद् की आय के निम्नलिखित साधन हैं-

  • स्थानीय करों (Local Taxes) का कुछ भाग जिला परिषद् को मिलता है।
  • जिला परिषद् सरकार की आज्ञा से कुछ धन पंचायतों से ले सकती है।
  • राज्य सरकार जिला परिषद् की सहायता के रूप में प्रति वर्ष कुछ धन देती है।
  • जिला परिषद् को अपनी सम्पत्ति से बहुत-सी आय होती है।
  • जिला परिषद् सरकार की अनुमति से ब्याज पर उधार भी ले सकती है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 6.
भारत में पंचायती राज व्यवस्था की उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
(Explain the achievements of Panchayati Raj System in India.)
अथवा
भारत में पंचायती राज प्रणाली की उपलब्धियों/प्राप्तियों का वर्णन करें। (Discuss the achievements of Panchati Raj System in India.)
उत्तर-
पंचायती राज का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसे भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय पं० जवाहर लाल नेहरू ने क्रान्ति का नाम दिया, एक ऐसी क्रान्ति जो नवभारत का निर्माण करेगी। 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में पंचायती राज का उद्घाटन करते हुए पं० नेहरू ने कहा था, “हम भारत के लोकतन्त्र की आधारशिला रख रहे हैं।” दिसम्बर, 1992 में संसद् ने 73वां संविधान संशोधन सर्वसम्मति से पास करके पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी है। इस प्रकार निम्न स्तर पर भी लोकतन्त्र को मान्यता मिल गई है। निम्नलिखित बातों से पंचायती राज के महत्त्व का पता चलता है-

1. जनता का राज (People’s Participation)-पंचायती राज का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि यह जनता का राज है। विदेशी शासन का राज चाहे कितना भी कुशल क्यों न हो फिर भी उससे लोगों के नैतिक जीवन का स्तर ऊंचा नहीं हो सकता। एक प्रसिद्ध कथन है, “अच्छी सरकार से स्वशासन का स्थानापन्न नहीं हो सकता।” (“Good government is not substitution for self-government.) गांव में लोगों का अपना शासन स्थापित हो चुका है। अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता। गांव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है। ग्राम पंचायत ग्राम के प्रशासन सम्बन्धी, समाज कल्याण सम्बन्धी, विकास सम्बन्धी तथा न्याय सम्बन्धी सब कार्य करती है। इस प्रकार गांव का व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं निर्माता बना हुआ है। भारत का नागरिक अब किसी के अधीन नहीं है और वह वास्तविक रूप में अपने ऊपर स्वयं शासन करता है।

2. प्रत्यक्ष लोकतन्त्र (Direct Democracy)-पंचायती राज गांवों में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से कम नहीं है। गांव के सब लोग ग्रामसभा के सदस्य के रूप में, जिनकी बैठक वर्ष में दो बार बुलाई जाती है, गांव की समस्याओं पर विचार करते हैं और उनका निर्णय करते हैं। ग्रामसभा गांव की संसद् ( Parliament) की तरह है और गांव के सभी नागरिक इस संसद् के सदस्य हैं। पंचायती राज के वे सब लाभ हैं जो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से प्राप्त होते हैं। पंचायती राज की महत्ता को समझते हुए महात्मा गांधी ने स्वराज्य की मांग की थी जिसका अर्थ सम्पूर्ण गणतन्त्र था।

3. आत्म-निर्भरता (Self-sufficiency)-पंचायती राज का एक उद्देश्य यह है कि प्रत्येक गांव अपने विकास कार्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति, प्रशासन सम्बन्धी बातों तथा न्याय के सम्बन्ध में आत्म-निर्भर हो जाए। पंचायत तथा पंचायत समितियां जनता की संस्थाएं हैं और वे स्वयं टैक्स आदि लगाकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं, अपने विकास की योजनाएं भी संस्थाएं स्वयं बनाती हैं। पंचायती राज से पहले गांव के विकास की योजनाएं सरकारी कर्मचारी बनाते थे और वे अपनी इच्छा से उन्हें लाग करते थे अर्थात् गांव की विकास योजना तथा आवश्यकता पूर्ति सरकार की इच्छा पर निर्भर थी, परन्तु अब यह लोगों की अपनी इच्छा पर निर्भर है। विकास और पंचायत अधिकार (B.D.0.) अब पंचायत समिति द्वारा निश्चित योजना को लागू करता है।

4. आत्म-विश्वास (Self-confidence)-पंचायती राज से जनता में आत्म-विश्वास की भावना पैदा होती है जो कि किसी भी राष्ट्र को जीवित रखने तथा उसका विकास करने के लिए आवश्यक है। अभी तक प्रशासन के सब कार्यों में सरकार द्वारा ही पहल की जाती थी और सरकार द्वारा निश्चित योजना को ही लागू किया जाता था। लोगों को जो शक्ति मिलती थी उसका प्रयोग भी वे उसी तरीके के अनुसार करते थे जो तरीका सरकार निश्चित कर देती थी, परन्तु अब विकास योजनाओं को गांव वाले स्वयं बनाते हैं, स्वयं ही उन्हें लागू करते हैं। न्यायिक कार्यों में पंचायतों को स्वतन्त्रता दी गई है। पंचायत के सामने वकील नहीं आ सकते। प्रत्येक व्यक्ति पंचायत के सामने अपनी बात स्पष्ट रूप से कहता है। पंचायत के लिए न्याय का कोई विशेष और जटिल तरीका नहीं है। प्रत्येक पंचायत अपनी इच्छानुसार निर्णय करती है। अपने छोटे-छोटे झगड़ों के लिए अब गांव वालों को तहसील तथा जिले में जाने की आवश्यकता नहीं है। गांव वालों के सब काम गांव में बैठे-बैठे ही स्वयं उनके द्वारा हो जाते हैं। इस कारण उनमें आत्म-विश्वास पैदा होना स्वाभाविक है कि वे भी प्रशासन तथा विकास कार्य कर सकते हैं।

5. बाहरी हस्तक्षेप कम (Less outside Interference)–पंचायती राज की स्थापना से ग्रामीण प्रशासन तथा विकास कार्यों में बाहरी हस्तक्षेप बहुत कम हो गया है। सरकारी कर्मचारी अब ग्राम पंचायत समितियों तथा जिला परिषदों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। गांव के लोग अपनी इच्छानुसार ही सब बातों का निर्णय करते हैं। उन पर टैक्स भी उनकी अपनी इच्छा से लगते हैं, इन करों का प्रयोग जनता अपनी इच्छानुसार ही विकास तथा प्रशासन कार्यों पर करती है। बाहरी हस्तक्षेप के कम होने से लोगों में स्वतन्त्रता की भावना पैदा होती है। केवल लोकतन्त्र स्थापित करने से स्वतन्त्रता की भावना नहीं आ जाया करती। यह भावना लोगों में उस समय उत्पन्न होती है जब उन्हें अपने दैनिक कार्यों में पूर्ण स्वतन्त्रता हो। पंचायती राज ने लोगों को यह स्वतन्त्रता प्रदान की है।

6. लोगों को प्रशासन की शिक्षा (Training in Administration to the People)-भारत में लोकतन्त्र सरकार है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की ज़िम्मेदारी सम्भालने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। पंचायती राज लोगों को प्रशासन की शिक्षा देने का सर्वोत्तम साधन है। शहरों की स्थानीय संस्था नियम बनाने की प्रशिक्षण जो लोगों को देती हैं, परन्तु न्याय करने की प्रशिक्षण उन संस्थाओं के सदस्यों को नहीं मिलता। पंचायती राज गांव के लोगों को नियम बनाने, उन्हें लागू करने, विकास योजनाएं बनाने तथा लागू करने और न्याय करने का भी अवसर देता है। एक गांव में से सब कार्य करके व्यक्ति राज्य सरकार या संघ सरकार के लिए अच्छी प्रकार से योग्य बन जाता है।

7. गांवों की समस्याओं का हल (Solution of Village Problems)-गांवों तथा कस्बों की समस्याओं को हल करने के लिए पंचायती राज अति आवश्यक है। गांवों और कस्बों की विकास सम्बन्धी समस्याएं इतनी विविध और बड़ी हो गई हैं कि कोई भी प्रशासन भरपूर साधन होने पर भी उनका समाधान नहीं कर सकता। उन समस्याओं का हल स्थानीय लोग ही पंचायत के जरिए आम सहमति से कर सकते हैं। यह बात पिछले दो दशकों से स्पष्ट हो गई है।

8. ग्रामीण जीवन की शीघ्र उन्नति (Rapid Development of Rural Life)-पंचायती राज से ग्रामीण जीवन की उन्नति तेज़ी से होने लगी है और वह दिन दूर नहीं जब ग्रामीण एक पूर्ण और विकसित व्यक्ति होगा और उसकी ग़रीबी, अज्ञानता तथा बीमारी बीते दिनों की कहानी बनकर रह जाएगी। पंचायती राज से ग्रामीण सरकारी कर्मचारियों की इच्छा पर निर्भर नहीं रहते अपितु अब वे अपनी आवश्यकताओं को स्वयं अनुभव करते हुए इस बात का निर्णय स्वयं करते हैं कि उनको किन उपायों से प्राप्त किया जाए और उन उपायों को स्वयं तथा सरकारी कर्मचारियों की सहायता से पूरा करते हैं। अब गांव को अपने जीवन को स्वस्थ, सुखी और विकसित बनाने का अधिकार व्यक्ति को ही है और ऐसा करने में उसका रुचि लेना स्वाभाविक ही है। यह आशा है कि भविष्य में व्यक्ति का अपने प्रयत्नों से जीवन शीघ्र ही विकसित होगा।

9. स्वतन्त्रता की भावना का विकास-केवल लोकतन्त्र की स्थापना से ही स्वतन्त्रता की भावना का विकास नहीं होता बल्कि पंचायती राज की स्थापना से ही लोकतन्त्र की जड़ें मज़बूत होती हैं और स्वतन्त्रता की भावना विकसित होती है। ___पंचायती राज के महत्त्व का वर्णन करते हुए श्रीमती इन्दिरा जी ने कहा था कि, “हमारे देश के लोकतन्त्र की बनियाद मज़बूत होने में पंचायती राज संस्थाओं का प्रमुख स्थान रहा है। इन पर जो बड़ी आशाएं रखी गई हैं, वे पूरी हो सकती हैं, जबकि देहातों में रहने वाले कमजोर वर्ग के लोग, ग्रामीण स्वायत्त शासन में सक्रिय रूप से हिस्सा लें।”

10. न्यायिक कार्यों का महत्त्व-न्यायिक कार्यों में भी पंचायतों को स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। पंचायतों के समक्ष वकील उपस्थित नहीं हो सकते। प्रत्येक व्यक्ति पंचायत के सम्मुख अपनी बात स्पष्ट रूप से कह सकता है। पंचायत के लिए न्याय का कोई विशेष तथा जटिल ढंग नहीं है। प्रत्येक पंचायत अपनी इच्छा अनुसार फैसला करती है। अपने छोटे-छोटे झगड़ों के लिए अब गांव वालों को तहसील तथा जिले में जाने की आवश्यकता नहीं है।

11. धन का सही प्रयोग-पंचायती राज से सम्बन्धित संस्थाएं अपने-अपने क्षेत्र में धन एकत्रित करके उस धन को विकास योजनाओं में लगाती है। इससे धन का सही प्रयोग होता है।

12. केन्द्रीय और राज्य सरकारों के कार्यों को कम करती हैं -पंचायती संस्थाओं का एक महत्त्व यह है कि वह केन्द्रीय एवं राज्यों की सरकारों के कार्यों को कम करती हैं। केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों को अलग-अलग तरह के कार्य करने पड़ते हैं, जिससे वह ग्रामीण संस्थाओं के कार्य ठीक ढंग से नहीं कर पाती है। पंचायती संस्थाएं इनके कार्यों को कम करती हैं।

13. सामन्तवादी मूल्यों में कमी-पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना से सामन्तवादी मूल्यों में कमी आयी है, क्योंकि पंचायतों, पंचायत समितियों एवं जिला परिषदों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लोग तथा कथित उच्च जाति एवं सामान्त प्रवृत्ति के लोगों के बराबर बैठ कर निर्णय लेते हैं तथा नीतियां बनाते हैं।

पिछले कुछ समय से देश में पंचायती राज की उपयोगिता और महत्त्व पर बहुत अधिक बल दिया जा रहा है और पंचायती राज के प्रति यह नई जागरूकता भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने उत्पन्न की है। श्री राजीव गांधी ने कई बार कहा था कि बिना पंचायती राज संस्थाओं को मज़बूत बनाए गांवों की समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता। देश में पंचायती राज पद्धति को पुनर्जीवित और सुदृढ़ करने से ही सही रूप से शासन जनता का सच्चा प्रतिनिधि तथा उसके प्रति उत्तरदायी बन सकता हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 7.
पंचायती राज प्रणाली के क्या अवगुण हैं ? इसके अवगुणों को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
(What are the defects of Panchayati Raj System ? Give suggestions to remove its defects.)
अथवा
पंचायती राज की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
(Describe the problems of Panchayati Raj.)
उत्तर-
सन् 1952 में ग्राम पंचायत स्थापित की गई तथा पंचायतों को अधिक अधिकार दिए गए। बाद में गांवों में पंचायती राज स्थापित किया गया परन्तु इतने वर्ष बीतने के बाद भी पंचायती राज को वह सफलता नहीं मिली जिसकी आशा की गई थी। इनमें कई दोष पाए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. अशिक्षा (Imiteracy)-गांव के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इससे पंचायत के अधिकतर सदस्य भी अशिक्षित होते हैं। बहुत-सी पंचायतें तो ऐसी हैं जिनके सरपंच भी अशिक्षित हैं और अपने हस्ताक्षर नहीं कर सकते। जनता भी इनके कार्यों में अधिक दिलचस्पी नहीं लेती। परिणाम यह निकलता है कि पंचायतों के सदस्य अयोग्य तथा चालाक व्यक्ति चुने जाते हैं। जब तक चुनने वाले तथा चुने जाने वाले व्यक्ति शिक्षित नहीं होंगे तब तक कोई भी स्थानीय संस्था सफलता से काम नहीं कर सकती।

2. अज्ञानता (Ignorance)—चूंकि गांव के अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें पंचायती राज के उद्देश्यों का भी पता नहीं है। उदाहरण के लिए पंचायती राज के प्रमुख उद्देश्यों में से ग्रामीण जन-समुदाय को अधिक आत्मनिर्भर बनाना है, परन्तु केवल संस्थाएं चलाने वालों में से 1/5 ही इस उद्देश्य को जानते हैं तथा दुर्भाग्यवश ग्रामीण नेतृत्व में से 1/8 ही यह जानते हैं कि पंचायती राज के उद्देश्यों में एक बहत सारे कमजोर वर्गों को सुधारना भी है।

3. साम्प्रदायिकता (Communalism)—गांव के लोगों में जाति-भेद की भावना प्रबल है। पंचायतों के चुनाव जाति-भेद के आधार पर लड़े जाते हैं और चुने जाने के बाद भी उनके भेदभाव समाप्त नहीं होते बल्कि और भी बढ़ जाते हैं। पंच भी जाति-पाति के आधार पर आपस में लड़ते रहते हैं और पंचायत का काम ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। हमारे सामाजिक जीवन का यह बहुत बड़ा अभिशाप है, गन्दा दाग है। जब तक ठीक प्रकार की शिक्षा नहीं दी जाती, तब तक विचारों और दृष्टिकोण में अदला-बदली नहीं आएगी। ऐसी अदला-बदली करने में चाहे कितने ही कानून क्यों न बनाए जाएं, कुछ नहीं बन सकता। अदला-बदली विचारों में आनी चाहिए।

4. गुटबन्दी (Groupism)-पंचायतों तथा दूसरी संस्थाओं के चुनाव में लोग प्रायः अपने छोटे-छोटे ग्रुप या दल बना लेते हैं। पंचायतों के चुनाव दलों के आधार पर नहीं लड़े जाते। कम-से-कम चुनाव में दलों को भाग लेने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। जाति, धर्म और भाषा के आधार पर भी लोगों में गुटबन्दी चलती है। इसका परिणाम यह निकलता है कि पंचायत तथा नगरपालिका के काम ठीक प्रकार से नहीं चल पाते।

5. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेप (Undue Interference by Political Parties)—यह बात लगभग सर्वमान्य है कि स्थानीय स्वशासन में राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं है। कानून के अनुसार राजनीतिक दल पंचायतों के चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं कर सकते। कोई भी उम्मीदवार राजनीतिक दलों के चुनाव-निशान प्रयोग नहीं कर सकता। इतना होते हुए भी राजनीतिक दल इन संस्थाओं के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना नहीं रह सकते। यह दल गुटबन्दी को अधिक तीव्र कर देते हैं। इन दलों के समक्ष लोगों के कल्याण की बजाय इनका अपना ही कल्याण होता है।

6. सरकार का अत्यधिक नियन्त्रण (Excessive Control of the Government)—पंचायती राज की संस्थाओं पर सरकार का नियन्त्रण बहुत अधिक है और वह जब चाहे इनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है। इसका परिणाम यह निकलता है कि इन संस्थाओं में काम करने का उत्साह पैदा नहीं होता। सरकार इनके प्रस्तावों को रद्द कर सकती है और इनके बजट पर नियन्त्रण रखती है। इन संस्थाओं में सरकारी हस्तक्षेप के कारण ज़िम्मेदारी की भावना भी उत्पन्न नहीं हो पाती।

7. धन का अभाव (Lack of Funds)—पंचायती राज की संस्थाओं को कार्य तो राष्ट्र-निर्माण वाले सौंपे गए हैं, परन्तु इनके पास धन की इतनी व्यवस्था नहीं की गई कि ये अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकें। उनकी अपनी स्वतन्त्र आय भी इतनी नहीं होती कि वे अपनी आवश्यकताओं को अच्छी तरह पूरा कर सकें। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें सरकार से धन की सहायता लेनी पड़ती है। यदि स्थानीय संस्था कोई नई योजना बनाकर लागू करना चाहे तो नहीं कर सकती क्योंकि धन देना या न देना सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है।

8. ग़रीबी (Poverty)-भारत के अधिकांश लोग ग़रीब हैं। गांवों में तो ग़रीबी और भी अधिक है। ग़रीबी के कारण अधिक लोग टैक्स नहीं दे सकते और पंचायतें भी नए टैक्स लगा कर अपनी आय को बढ़ा नहीं सकतीं। ग़रीब व्यक्ति सारा दिन अपना पेट भरने की चिन्ता में ही लगे रहते हैं और गांव, नगर तथा देश की दशा के बारे में विचार करने का समय नहीं मिलता। इस कारण भी लोग अपने स्थानीय मामलों पर स्थानीय संस्था के कार्यों में रुचि नहीं ले पाते।

9. पंचायती राज के ढांचे का प्रश्न विवादास्पद है (Structure of Panchayati Rajis Controversial)शुरू से ही इस बात पर विवाद रहा है कि पंचायती राज का ढांचा क्या हो। बलवन्त राय मेहता ने त्रि-स्तरीय ढांचे की सिफ़ारिश की थी। परन्तु केरल और जम्मू-कश्मीर में यह ढांचा एक स्तरीय है जबकि उड़ीसा में द्वि-स्तरीय ढांचा कायम किया गया। पंजाब में 1978 में अकाली-जनता सरकार ने पंचायत समिति को समाप्त कर दिया था। अशोक मेहता समिति ने पंचायती राज को दो चरणों वाली बनाने की सिफारिश की परन्तु मई 1979 में मुख्यमन्त्रियों के सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि पंचायती राज त्रि-स्तरीय होना चाहिए। जनवरी, 1989 में पंचायती राज सम्मेलन में समापन भाषण देते हुए प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने स्पष्ट कहा कि जनसंख्या और क्षेत्रफल को देखते हुए पूरे देश में तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली कायम नहीं की जा सकती। इसे कुछ राज्यों में तीन स्तरीय और कुछ में दो स्तरीय ही रखना होगा।

10. अयोग्य और लापरवाह कर्मचारी (Inefficient and Careless Staff) स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं अपने दैनिक प्रशासकीय कार्यों के लिए अपने कर्मचारियों पर निर्भर हैं, परन्तु ये कर्मचारी प्रायः अयोग्य, लापरवाह और भ्रष्ट होते हैं।

11. ग्राम सभा का प्रभावहीन होना (Ineffective Role of Gram Sabha) ग्राम सभा पंचायती राज की प्रारम्भिक इकाई है तथा पंचायती राज की सफलता बहुत हद तक किसी संस्था के सक्रिय (Active) रहने पर निर्भर करती है। परन्तु बड़े अफसोस की बात है कि संस्था नाममात्र की संस्था बनकर रह गई है। इसकी बैठकें न तो नियमित रूप से होती हैं और न ही आने वाले नागरिक इसकी बैठकों में रुचि लेते हैं।

12. चुनाव का नियमित रूप से न होना (No Regular Election)—पंचायती राज का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि पंचायती संस्थाओं के चुनाव निश्चित अवधि के पश्चात् नहीं होते हैं।

पंचायती राज के दोषों को दूर करने के उपाय (METHODS TO REMOVE THE DEFECTS OF PANCHAYATI RAJ SYSTEM)-

1. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education) स्थानीय संस्थाओं को सफल बनाने के लिए प्रथम आवश्यकता शिक्षा के प्रसार की है। जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे और अपने कर्त्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति सजग नहीं होंगे, ये संस्थाएं सफलता के काम नहीं कर सकतीं।

2. सदस्यों का प्रशिक्षण (Training for the Members)-आज स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का काम पहले की तरह सरल नहीं है। पंचायती राज की संस्थाओं के काम तो बहुत ही अधिक पेचीदा और जटिल हैं। इन संस्थाओं के सदस्य प्रशिक्षण के बिना अपने कार्यों को ठीक तरह से नहीं निभा सकते और न ही उचित फैसले कर सकते हैं। अज्ञानता के कारण वह कर्मचारियों और सरकार के अफसरों की कठपुतली बन जाते हैं जो कि अवांछनीय है। इस कारण इन सदस्यों की प्रशिक्षण की पूरी-पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।

3. योग्य और ईमानदार कर्मचारी (Competent and Honest Staff)-किसी भी सरकारी संस्था या संगठन को ठीक ढंग से चलाने में कर्मचारियों का बहुत योगदान होता है। स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए। उनके वेतन आदि अन्य सरकारी कर्मचारियों के बराबर होने चाहिएं ताकि योग्य व्यक्ति इन संस्थाओं में नौकरी प्राप्त करने के लिए आकर्षित हों। इन कर्मचारियों के प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।

4. सरकारी हस्तक्षेप में कमी (Less Government Interference)-स्थानीय संस्थाओं को अपने कार्यों में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, तभी ये संस्थाएं सफल हो सकती हैं। सरकारी हस्तक्षेप या नियन्त्रण की बजाए इन संस्थाओं को उचित परामर्श (Proper Guidance) की अधिक आवश्यकता है।

5. धन की अधिक सहायता (More Financial Aid)-धन का अभाव भी एक बहुत बड़ा दोष है। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं की धन से पूरी-पूरी सहायता करे। लोगों के जीवन का सुधार करने के लिए जो नई योजनाएं ये संस्थाएं बनाएं सरकार को चाहिए कि उसके लिए उचित मात्रा में धन दे। इसके अतिरिक्त कुछ और टैक्स लगाये जाने का अधिकार इन संस्थाओं को मिलना चाहिए ताकि इनकी स्वतन्त्र आय हो और उन्हें सरकार से धन मांगने की कम आवश्यकता पड़े।

6. नियमित चुनाव (Regular Election)-पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव निश्चित अवधि के पश्चात् नियमित रूप से होने चाहिए। फरवरी, 1989 में राष्ट्रपति वेंकटरमण ने यह सुझाव दिया कि पंचायत के चुनाव को राज्यों की विधानसभाओं तथा लोकसभा के चुनावों की तरह अनिवार्य बना दिया जाए और इसके लिए संविधान में संशोधन कर दिया जाए। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव, चुनाव आयोग की देख-रेख में होने चाहिए। 73वें संविधान संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज संस्थाओं में पांच वर्ष में चुनाव कराए जाना और भंग किए जाने की स्थिति में छ: महीने के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य किया गया है।

7. राजनीतिक दलों पर रोक (Check on Political Parties)-स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। वैसे तो कानून द्वारा इन दलों पर कुछ एक प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में ये प्रतिबन्ध निष्प्रभावी हैं। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से यह दल नगरपालिकाओं और पंचायती राज में आ ही घुसते हैं। इस कुप्रथा को रोकने के लिए कानून पर अधिक निर्भर रहना ठीक नहीं है बल्कि लोगों . की सावधानी और दलों की सद्भावना और शुभ नीति ही अधिक उपयोगी हो सकते हैं।

8. ग्राम सभा को सक्रिय किया जाना चाहिए (Gram Sabha should be made Active)-पंचायती राज को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि ग्राम सभा को एक प्रभावशाली संस्था बनाया जाए। इसकी बैठकें नियमित रूप से होनी चाहिएं और गांव के नागरिकों को इसकी कार्यवाहियों में रुचि नहीं लेनी चाहिए। जब तक गांव के नागरिक स्वयं अपनी समस्याओं तथा अपने क्षेत्र के प्रति उत्साह नहीं दिखाएंगे तब तक पंचायती राज का सफल होना नामुमकिन है। इसलिए 73वें संविधान संशोधन के अनुसार ग्राम सभा को पंचायती राज व्यवस्था का मूलाधार बनाया गया है। इस संशोधन के अनुसार ग्राम सभा ऐसे सारे काम करेगी जो राज्य विधानमण्डल उसे सौंपेगा।।

9. पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक शक्तियां देनी चाहिए (More Powers should be given to the Panchayati Raj Institutions)-पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक दायित्व व शक्तियां देनी चाहिए। ग्राम पंचायतों को गांव का सुधार करने का पूरा अधिकार होना चाहिए। ग्राम पंचायतों को गांवों के सभी निर्माण कार्यों के बारे में निर्णय करने तथा उन कार्यों को कराने का भार सौंप दिया जाए। इस तरह ब्लॉक क्षेत्र के निर्माण कार्यों का ब्लॉक पंचायतों को और जिले के निर्माण कार्यों का उत्तरदायित्व जिला परिषदों को सौंपा जाए।

10. अधिवेशन और चुनाव (Session and Election)-ग्राम सभा के अधिवेशनों को समयानुसार बुलाना चाहिए। स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी नियमित रूप से होने चाहिए।

11. एकरूपता (Uniformity)—अलग-अलग राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के नाम और महत्त्व को एकजैसा कर देना चाहिए ताकि साधारण बुद्धि रखने वाले व्यक्ति भी सुगमता से समझ सकें।

12. स्वशासन के यूनिट-श्री जय प्रकाश नारायण इन संस्थाओं को इनसे सम्बन्धित स्तरों पर “स्व-शासन के यूनिट” समझने हैं तथा वह यह सुझाव देते थे कि राज्य सरकारों से इनका इस प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए जैसे की राज्य सरकारों का केन्द्रीय सरकार से होता है।
निष्कर्ष (Conclusion)-पंचायती राज में अनेक कमियों के बावजूद भी इसके महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। पंचायत राज व्यवस्था ने देश के राजनीतिकरण (Politilisation) और आधुनिकीकरण (Modernization) में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। पंचायतों के चुनावों ने ग्रामीणों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न की है और पंचायती राज व्यवस्था के कारण उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी (Political Participation) में वृद्धि हुई है। 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी गई है। इस संशोधन द्वारा पंचायती संस्थाओं के चुनाव नियमित और निश्चित समय पर होंगे। आवश्यकता इस बात की है कि साम्प्रदायिकता, हिंसा, भ्रष्टाचार इत्यादि बुराइयों को दूर किया जाए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 8.
शहरी स्थानीय संस्थाओं सम्बन्धी 74वें संवैधानिक संशोधन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (Explain the main features of 74th Amendment relating to Urban Local Self-Government.)
अथवा
शहरी स्थानीय संस्थाओं की नई प्रणाली की मुख्य विशेषताएं लिखिए। (Write down the main characteristics of the New System of Urban Local Bodies.)
उत्तर-
सितम्बर, 1991 को लोकसभा में 73वां संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया गया। इस विधेयक का सम्बन्ध शहरी स्थानीय संस्थाओं में सुधार करना था। दोनों सदनों की स्वीकृति मिलने पर शहरी स्वशासन में सुधार के लिए एक 30 सदस्यों की समिति गठित की गई, जिसमें 20 सदस्य लोकसभा के और 10 सदस्य राज्यसभा के शामिल किए गए। इस समिति के अध्यक्ष के० पी० सिंह देव (K. P. Singh Dev) थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट जुलाई, 1992 को संसद् के सामने पेश की। इस समिति की सिफ़ारिशों को जो कि शहरी स्वशासन में सुधार से सम्बन्धित थीं, 22 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा ने और 23 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद इसका नम्बर 74 हो गया क्योंकि इससे पूर्व 73 संवैधानिक संशोधनों को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी थी। इस संशोधन की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. शहरी स्थानीय स्व-शासन की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (Constitutional Sanction to Urban Local Bodies)-74वें संशोधन द्वारा संविधान में भाग 9A (Part IX A) में शामिल किया गया। इसके साथ ही 12वीं अनुसूची (12th Schedule) को भी इसमें शामिल किया गया है। भाग 9A में कुल 18 धाराएं हैं और 12वीं अनुसूची में ऐसे 18 विषय शामिल हैं, जिनके सम्बन्ध में योजनाओं को लागू करने का उत्तरदायित्व राज्य विधानमण्डल नगरपालिकाओं को सौंप सकता है।

2. तीन स्तरीय स्थानीय व्यवस्था (Three tier Urban Local Bodies)-74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रत्येक राज्य में तीन स्तरीय शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई है। निम्न स्तर पर नगरपालिका, उच्च स्तर पर नगर-निगम और मध्य में नगर परिषद् की व्यवस्था की गई है।

3. नगरपालिका की रचना (Composition of Municipalities)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक राज्य का विधानमण्डल तीनों स्तर की नगरपालिकाओं की रचना सम्बन्धी व्यवस्था स्वयं करेगा। प्रत्येक नगरपालिका का क्षेत्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा। नगरपालिका के निर्वाचन क्षेत्र को वार्ड कहा जाएगा। इन वार्डों के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नगरपालिका के लिए अपने-अपने वार्ड का एक-एक प्रतिनिधि निर्वाचित करना होगा। चुनाव सम्बन्धी झगड़ों का निपटारा राज्य विधानमण्डल के कानून के अनुसार होगा।

4. (Provision to representation to persons of different Categories)-74वें संशोधन द्वारा राज्य विधानमण्डल को यह शक्ति दी गई है कि वह विभिन्न स्तरों पर नगरपालिकाओं में निम्नलिखित वर्गों के व्यक्ति को प्रतिनिधित्वता प्रदान करें

  • जिन व्यक्तियों को नगरपालिकाओं के प्रशासन सम्बन्धी विशेष ज्ञान या अनुभव है। इन्हें किसी प्रस्ताव पर मतदान का अधिकार नहीं है।
  • नगरपालिका के क्षेत्र में रहने वाले लोकसभा और राज्य विधानसभा के सदस्य।
  • नगरपालिका के क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में दर्ज राज्यसभा और विधान परिषद् के सदस्य।
  • वार्ड समितियों के सभापति।

5. नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव (Election of Chairman of the Municipalities)-74वें संशोधन द्वारा नगरपालिका अध्यक्ष का चुनाव, नगरपालिका के चुनाव क्षेत्रों में से प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों में से ही किया जाएगा।

6. वार्ड समिति (Ward Committee)-74वें संशोधन द्वारा तीन लाख से ज्यादा जनसंख्या वाली नगरपालिका में वार्ड समितियों की स्थापना की व्यवस्था की गई है। वार्ड समितियों की रचना व अधिकार क्षेत्र को निश्चित करने का काम राज्य विधानमण्डल को सौंपा गया है। राज्य विधानमण्डल अपने इस काम को कानून द्वारा पूरा करेगा। एक वार्ड समिति के क्षेत्र में आने वाले वार्डों से निर्वाचित नगरपालिका के सदस्य भी उस वार्ड समिति के सदस्य होंगे।

7. वार्ड समिति का अध्यक्ष (Chairman of Ward Committee)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अगर वार्ड समिति के क्षेत्र में केवल एक ही सदस्य है तो नगरपालिका के लिए निर्वाचित उस वार्ड का सदस्य ही वार्ड समिति का अध्यक्ष होगा। अगर वार्ड समिति में दो या दो से अधिक सदस्य हों तो निर्वाचित सदस्यों में से एक सदस्य को वार्ड समिति के सदस्यों द्वारा समिति का अध्यक्ष निर्वाचित किया जाएगा।

8. वार्ड समिति के काम और शक्तियां (Powers and Functions of Ward Committee) वार्ड समितियों की शक्तियां और काम राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित किए जाएंगे। राज्य विधानमण्डल वार्ड समितियों को संविधान की 12वीं अनुसूची में शामिल विषयों से सम्बन्धित शक्तियां सौंप सकता है।

9. सीटों में आरक्षण की व्यवस्था (Provision of the Reservation of seats)-74वें संशोधन द्वारा निम्नलिखित वर्गों के लिए सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है-

  • प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार सीटें आरक्षित रखी गई हैं।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन-जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में से 1/3 सीटें अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए आरक्षित रखी गई हैं।
  • कुल निर्वाचित पदों का 1/3 भाग स्त्रियों (अनुसूचित जाति एवं जन-जाति की स्त्रियों समेत) के लिए आरक्षित
    होगा।
  • विभिन्न नगरपालिकाओं के अध्यक्ष पद के लिए 1/3 स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित होंगे।
  • राज्य विधानमण्डल कानून बना कर नागरिकों की किसी भी पिछड़ी श्रेणी के लिए स्थान आरक्षित रखने की व्यवस्था कर सकता है। .

10. निश्चित अवधि (Fixed Tenure)—प्रत्येक शहरी स्थानीय संस्थाओं का कार्यकाल पांच वर्ष निर्धारित किया गया है और उनका कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व नये चुनाव होना अनिवार्य है। निर्धारित समय से पहले भंग किए जाने सम्बन्धी मामले में चुनाव छ: महीने के भीतर होना अनिवार्य है। 74वें संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि यदि किसी नगरपालिका को भंग या स्थगित किया जाता है तो उससे पूर्व उसे अपना पक्ष स्पष्ट करने का उचित मौका दिया जाना ज़रूरी है।

11. सदस्यों की योग्यताएं. (Qualifications of Members)-प्रत्येक स्तर की नगरपालिकाओं का चुनाव लड़ने के लिए वही योग्यताएं अनिवार्य हैं जो योग्यताएं विधानमण्डल के सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं । जो व्यक्ति विधानमण्डल का सदस्य बनने के अयोग्य है वह नगरपालिका का सदस्य बनने के भी अयोग्य है।

12. नगरपालिकाओं की शक्तियां और कार्य (Powers and functions of Municipalities)-74वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत नगरपालिकाओं की शक्तियां और ज़िम्मेदारियां निश्चित करने का काम राज्य विधानमण्डल को सौंपा गया है। संविधान की 12वीं अनुसूची में शामिल विषयों सम्बन्धी काम भी नगरपालिकाओं को सौंपे गए हैं। इसके अतिरिक्त राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा नगरपालिकाओं को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए योजनाएं तैयार करवाने का उत्तरदायित्व भी सौंप सकता है। 12वीं अनुसूची में कुल 18 विषय हैं और उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

शहरी योजनाबन्दी, जिसमें नगर योजनाबन्दी भी शामिल हैं, भवनों का निर्माण, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए योजनाबन्दी, सड़कें व पुल, घरेलू उद्योग और व्यापारिक महत्त्व का प्रोत्साहन, पानी की सप्लाई, स्वास्थ्य, अग्नि सेवाओं का प्रबन्ध, वातावरण की सुरक्षा, गन्दी बस्तियों का सुधार, शिक्षा और कला सम्बन्धी विकास, गलियों की रोशनी का प्रबन्ध आदि की व्यवस्था करना।

13. कर लगाना (Power to impose Taxes)—राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा नगरपालिकाओं को कुछ कर लगाने और एकत्रित करने का अधिकार सौंप सकती है। इसके अलावा राज्य विधानमण्डल द्वारा लगाने जाने वाले विभिन्न करों में से कुछ कर नगरपालिकाओं को सौंप सकता है। राज्य अपनी संचित निधि में से भी नगरपालिकाओं की सहायता के लिए कुछ धन-राशि दे सकता है।

14. वित्त आयोग का गठन व कार्य (Composition and Functions of Finance Commission)-74वें संशोधन द्वारा नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति पर नियन्त्रण करने के लिए वित्त आयोग की व्यवस्था की गई है जिसके सदस्यों की संख्या, जिनकी योग्यताएं, चुनाव, शक्तियां राज्य विधानमण्डल द्वारा निश्चित की जाएंगी। वित्त आयोग की नियुक्ति 73वां व 74वां संवैधानिक संशोधन लागू होने के एक वर्ष के भीतर राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाएगी। पांच वर्ष की अवधि पूरी होने पर पुनः अगले वित्त आयोग की नियुक्ति की जाएगी। इसके काम इस प्रकार हैं-

  • नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति सम्बन्धी विचार करना
  • राज्य सरकार द्वारा लगाए जाने वाले विभिन्न करों की धन-राशि सरकार और नगरपालिकाओं में बांटना
  • नगरपालिकाओं द्वारा सौंपे जाने वाले करों सम्बन्धी सिद्धान्तों का निर्माण करना
  • नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए राज्यपाल को सिफ़ारिश करना
  • राज्यपाल द्वारा नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति के हित में सौंपे गए किसी भी अन्य मामले पर विचार।

15. जिला योजनाबन्दी के लिए समिति (Committee for District Planning)-74वें संशोधन द्वारा प्रत्येक जिले में जिला स्तरीय योजनाबन्दी की व्यवस्था की गई है। राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा (1) जिला योजनाबन्दी समिति की रचना, (2) वह विधि जिस द्वारा समिति में स्थान भरे जाएंगे, जिसमें जिला योजनाबन्दी समिति के कुल सदस्यों का 4/5 भाग, जिला स्तरीय पंचायतों और जिले की नगरपालिकाओं से चुने गए सदस्यों द्वारा अपने में से चना जाना अनिवार्य होगा, (3) जिला योजनाबन्दी से सम्बन्धित ऐसे कार्य जो कि योजनाबन्दी समिति को सौंपे जाने हैं, (4) जिला योजनाबन्दी समितियों के अध्यक्षों की निर्वाचन विधि आदि से सम्बन्धी व्यवस्था कर सकता है।

16. जिला योजनाबन्दी के कार्य (Functions of the District Planning Committee)—इसका मुख्य काम ज़िला परिषदों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को इकट्ठा करना और पूरे जिले के विकास के लिए ढांचा तैयार करना है। इसका प्रधान समिति द्वारा तैयार की गई विकास योजना को राज्य सरकार के सम्मुख पेश करता है।

17. बड़े शहरों की योजनाबन्दी (Committee for Metropolitan Planning)-74वें संशोधन द्वारा प्रत्येक शहर के लिए एक महानगर योजनाबन्दी समिति की व्यवस्था की गई है। इस समिति के द्वारा महानगर के विकास की योजनाएं बनाई जाती हैं। इसकी स्थापना उस नगर में की जाती है जिसकी जनसंख्या लगभग 20 लाख या इससे अधिक हो। ऐसे क्षेत्र में एक ज़िला या एक से अधिक जिले शामिल किए जा सकते हैं। राज्य की सरकार जनमत आदेश द्वारा ऐसे क्षेत्र को महानगर घोषित कर सकती है। राज्य सरकार की घोषणा के बिना किसी भी क्षेत्र को महानगर नहीं स्वीकार किया जा सकता।

18. महानगर योजनाबन्दी समिति की रचना और कार्य (Composition and functions of Metropolitan Planning Committee)–74वें संशोधन द्वारा इसकी रचना सम्बन्धी व्यवस्था राज्य सरकार के कानून द्वारा की जाएगी। महानगर योजनाबन्दी समिति के कुल सदस्यों का 2/3 भाग महानगर क्षेत्र की नगरपालिकाओं के चुने हुए सदस्यों और जिला परिषदों के अध्यक्षों में से निर्वाचित होना अनिवार्य है। इसकी योजनाबन्दी समिति में भारत सरकार, राज्य सरकार और दूसरी संस्थाओं को आवश्यकतानुसार प्रतिनिधित्व दिए जाने की व्यवस्था की गई है। राज्य सरकार के कानून द्वारा ही समिति के प्रधान का निर्वाचन निश्चित किया जाता है।

योजना समिति के कार्य (Functions of the Planning Committee)-इसका मुख्य काम महानगर के विकास के लिए योजनाएं तैयार करना है। अपने क्षेत्र के विकास के लिए योजनाएं तैयार करते समय इसे अपने क्षेत्र में आने वाली नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को ध्यान में रखना पड़ता है। इसके बाद महानगर के विकास के लिए योजना का निर्माण भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा घोषित उद्देश्यों को सम्मुख रखकर किया जाएगा। महानगर समिति द्वारा तैयार की गई योजना समिति के अध्यक्ष द्वारा राज्य सरकार को पेश की जाएगी।

19. नगरपालिकाओं का जारी रहना (Continuance of existing Municipalities)-74वें संशोधन से पहले नगरपालिकाएं अपने निर्धारित समय तक जारी रहती थीं और मुख्यमन्त्री ही इन्हें समय से पूर्व भंग कर सकता था। परन्तु 74वें संशोधन के बाद राज्य विधानमण्डल की सिफ़ारिश पर ही मुख्यमन्त्री नगरपालिकाओं को भंग कर सकता है। इसके लिए विधानमण्डल द्वारा एक प्रस्ताव पास किया जाना अनिवार्य है।

20. वर्तमान कानूनों का जारी रहना (Continuance of the existing laws)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि अगर वर्तमान कानून इस संशोधन द्वारा की गई व्यवस्थाओं से मेल नहीं खाते तो यह व्यवस्था इस संशोधन के लागू होने के एक वर्ष बाद तक जारी रह सकती है। इससे पहले भी पहली व्यवस्था में राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून बनाकर परिवर्तन किया जा सकता है।

21. नगरपालिकाओं के चुनाव, चुनाव आयोग की निगरानी में (Election of Municipalities are under supervision of Election Commission)-शहरी क्षेत्रों में कायम स्थानीय संस्थाओं के चुनावों की निगरानी, निर्देशन, नियन्त्रण, मतदाता सूचियों की तैयारी आदि कार्य संविधान के 73वें संशोधन द्वारा स्थापित स्वतन्त्र चुनाव आयोग द्वारा सम्पन्न करवाए जाएंगे। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सम्बन्धी निर्णय राज्य के राज्यपाल द्वारा होगा। चुनाव आयुक्त की सेवा शर्ते और कार्यकाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए कानूनों के अनुसार राज्यपाल निश्चित करेगा। चुनाव आयुक्तों को हटाने के लिए वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी जिसके द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाता है।

22. नगरपालिका के चुनाव विवाद अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर (Election matters of Municipalities are outside the Judicial Jurisdiction)-74वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि नगरपालिका के चुनाव क्षेत्र निश्चित करने और उनके मध्य सीटों का बंटवारा करने वाला कानून को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। नगरपालिका के किसी भी सदस्य के चुनाव को केवल राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित संस्था में ही चुनौती दी जा सकती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-74वें संशोधन द्वारा पहली बार शहरी स्थानीय स्व-शासन से सम्बन्धित संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी गई है, नगरपालिका के लगातार चुनाव, उनके कार्यों और शक्तियों में व्यापक वृद्धि, इनकी वित्तीय स्थिति को मजबूत करने के लिए इनको कुछ कर लगाने की शक्ति प्रदान करना और सारे देश के लिए इन्हें एकरूपता प्रधान की गई है। यह स्थानीय प्रबन्ध को बढ़िया बनाने की दिशा में उठाया गया एक अच्छा और ठोस कदम है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

प्रश्न 9.
नगर-निगम के संगठन और कार्यों का विवेचन कीजिए।
(Describe the organisation and functions of Municipal Corporation.)
अथवा
नगर-निगम के संगठन और कार्यों की चर्चा कीजिए।(Describe the organisation and functions of Municipal Corporation.)
उत्तर-
नगर-निगम शहरी स्थानीय स्वशासन की सर्वोच्च संस्था है। नगर-निगम की स्थापना बड़े-बड़े शहरों में की जाती है। नगर-निगम की स्थापना संसद् अथवा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्मित कानून के अनुसार की जाती है। सब से पहले 1888 में एक अधिनियम के अन्तर्गत मुम्बई में नगर-निगम की स्थापना की गई थी। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, यागरा, अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, कानपुर, हैदराबाद, लखनऊ, कलकत्ता (कोलकाता), पूना, बंगलौर, पटना, ग्वालियर, बनारस, शिमला, जबलपुर, भोपाल, इन्दौर, अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत, फरीदाबाद, पंचकूला, अम्बाला शहर, यमुनानगर, करनाल, हिसार, रोहतक, पानीपत आदि नगरों में स्थानीय शासन नगर-निगमों द्वारा चलाया जाता है।

नगर-निगम का संगठन (Organisation of Municipal Corporation)-भारत के विभिन्न नगर-निगमों का गठन प्राय: एक जैसा है। नगर-निगम के सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है। निगम की सदस्य संख्या विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है। क्योंकि यह मुख्यतः शहर की जनसंख्या से सम्बन्धित होती है। पंजाब में नगर-निगम की सदस्य संख्या कम-से-कम 40 और अधिक-से-अधिक 50 होती है। अमृतसर, जालन्धर तथा लुधियाना निगम की संख्या 50 निश्चित की गई है। नगर-निगमों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जन-जाति के लिए स्थानों से आरक्षण का भी प्रावधान है। पंजाब में महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में प्रत्येक नगर-निगम में दो सीटें पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षित की गई हैं।

कार्यकाल (Tenure)-73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार नगर-निगम का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया है। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राज्य सरकार नगर-निगम को समय से पूर्व भी भंग कर सकती है, परन्तु 6 महीने के अन्दर नगर-निगम के चुनाव करवाना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि नवगठित नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष नहीं, अपितु शेष समय तक रहता है।
नगर-निगम के अधिकारी (Officers of the Municipal Corporation)-नगर-निगम के प्रमुख अधिकारी अग्रलिखित होते हैं :-

1. महापौर (Mayor)–महापौर नगर-निगम का राजनीतिक प्रशासक होता है। निगम की पहली बैठक में निगम के सभी सदस्य महापौर (Mayor) और उप महापौर (Deputy Mayor) का पांच वर्ष के लिए चुनाव करते हैं। महापौर नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा विचार-विमर्श का मार्ग-दर्शन करता है।

2. मुख्य प्रशासन अधिकारी (Chief Administrative Officer)-निगम का प्रशासन चलाने का उत्तरदायित्व मुख्य प्रशासन अधिकारी का होता है जिसे निगम कमिश्नर कहा जाता है। कमिश्नर की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है। दिल्ली के निगम कमिश्नर की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार करती है। निगम के सारे प्रशासनिक कार्य कमिश्नर के नियन्त्रण में होते हैं तथा यह आवश्यक मार्ग-दर्शन तथा नियन्त्रण करता है।

निगम के कार्य (FUNCTIONS OF CORPORATION)-

निगम के कार्यों को दो भागों में बांटा गया है-अनिवार्य तथा ऐच्छिक कार्य। अनिवार्य कार्यों में वे कार्य आते हैं जो नगर निगम को अवश्य करने होते हैं। ऐच्छिक कार्य वे होते हैं जो आवश्यक नहीं, परन्तु वित्तीय स्रोतों के आधार पर इन्हें किया जा सकता है।

अनिवार्य कार्य-

(1) अपने समस्त क्षेत्र की सफ़ाई का ध्यान रखना। (2) जल सप्लाई का प्रबन्ध करना। (3) नालियां बनवाना ताकि गन्दा पानी नगर से बाहर चला जाए। (4) बिजली का प्रबन्ध करना। (5) गन्दी बस्तियों (Slum Areas) का सुधार करना। (6) श्मशान भूमि बनाना। (7) प्रसूति सहायता केन्द्र तथा बच्चों के कल्याण केन्द्र खोलना। (8) यातायात सेवाओं का प्रबन्ध करना। (9) प्राइमरी या मिडल तक की शिक्षा का प्रबन्ध करना। (10) भवन-निर्माण के लिए नियम बनाना और नक्शे मन्जूर करना। (11) जन्म तथा मृत्यु के आंकड़े रखना। (12) तांगे, ठेले, साइकिल-रिक्शा, मोटररिक्शा, रेहड़ी आदि के लाइसेंस देना और उनके बारे नियम निश्चित करना। (13) गलियों, सड़कों, बाज़ारों और पुलों की मुरम्मत करना। (14) खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट को रोकना और अपराधियों को दण्ड देना। (15) गिरने वाले मकानों की मुरम्मत के लिए मकान मालिक को नोटिस देना। (46) निगम के क्षेत्र में व्यापार तथा कारखाना चलाने के इच्छुक लोगों को लाइसेंस देना। (17) छुआछूत के रोगों को फैलने से रोकने के लिए टीके लगाना। (18) आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड (Fire Brigade) का प्रबन्ध करना। (19) भांग, अफीम आदि नशीली वस्तुओं की बिक्री पर नियन्त्रण करना तथा उसकी बिक्री के विषय में नियम बनाना। (20) कर लगाना तथा बजट पास करना। (21) जनता की शिकायत पर विचार करना।

ऐच्छिक कार्य –

  • लोगों के मनोरंजन के लिए पॉर्क, चिड़िया घर और अजायब घर बनवाना।
  • पुस्तकालयों, थियेटरों, अखाड़ों तथा स्टेडियमों का निर्माण करना।
  • सार्वजनिक गृह-निर्माण।
  • नि:सहाय तथा अपंग लोगों की सहायता करना।
  • बीमारी से मुफ्त इलाज के लिए औषधालय खोलना।
  • बाज़ारों की स्थापना और प्रबन्ध करना।
  • शादियों का पंजीकरण करना।
  • मेलों नुमाइशों का संगठन तथा प्रबन्ध करना।
  • लोगों के लिए संगीत का प्रबन्ध करना।
  • महत्त्वपूर्ण अतिथियों का नागरिक अभिनन्दन करना।
  • आवारा कुत्तों, सुअरों तथा उपद्रवी जानवरों को पकड़ना या समाप्त करना।
  • सड़क के किनारे वृक्ष लगाना और उनकी देखभाल करना।
  • शहरी योजनाबंदी, जिसमें नगर योजनाबन्दी भी शामिल है।
  • अग्नि सेवाओं की व्यवस्था करना।
  • शहरी वनं पालन, वातावरण की सुरक्षा एवं सन्तुलन।
  • जन्म-मृत्यु का पंजीकरण।

आय के स्रोत (SOURCES OF INCOME)-

नगर-निगम की आय के साधन निम्नलिखित हैं :

(1) जल कर। (2) सफ़ाई कर। (3) बिजली की खपत पर कर। (4) थियेटर कर। (5) गाड़ी तथा पशु कर। (6) शहरी और देहाती क्षेत्र में जायदाद पर कर । (7) अखबारों में प्रकाशित विज्ञापनों के अतिरिक्त अन्य विज्ञापनों पर कर। (8) भवनों के नक्शे पास करने से प्राप्त फीस। (9) चुंगी। (10) स्थानीय कारपोरेशन में कुछ पैसा भूमि कर के साथ ही इकट्ठा किया जाता है। (11) जायदादों के तबादलों पर कर। (12) नगर-निगम सरकार से अनुदान प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 10. नगरपालिका के कार्य और आय के साधनों का वर्णन कीजिए। (Write down the functions and sources of Income of Municipal Council / Committee.)
अथवा
नगर-परिषद् की संरचना और इसके कार्यों का वर्णन करो। (Explain the composition and functions of Municipal Council.)
उत्तर-नगरों में स्थानीय स्वशासन की महत्त्वपूर्ण संस्था नगरपालिका है। यू० पी० में इन्हें ‘नगर बोर्ड’ कहा जाता है। सारे भारत में लगभग सोलह सौ नगरपालिकाएं हैं।
स्थापना (Establishment)-स्थानीय स्वशासन राज्य-सूची का विषय है और प्रत्येक राज्य अपने भू-क्षेत्र में इस संस्था की स्थापना आदि का निर्णय स्वयं करता है। नगरपालिका किस नगर में स्थापित की जाएगी, इसका निश्चय राज्य सरकार ही करता है। सरकार किसी भी स्थान या क्षेत्र को नगरपालिका क्षेत्र (Municipality) घोषित कर सकती है। प्रायः उस नगर की जितनी जनसंख्या 20,000 से अधिक हो, नगरपालिका स्थापित कर दी जाती है।

रचना (Composition)-नगरपालिका के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। प्रत्येक उस वयस्क नागरिक को जो नगरपालिका के क्षेत्र में रहते हैं मतदान का अधिकार है। चुनाव संयुक्त-चुनाव प्रणाली तथा गुप्त मतदान के आधार पर होता है। चुनाव का आधार पर इसको वार्डों (Wards) में बांटा जाता है। प्रत्येक वार्ड का एक सदस्य चुना जाता है।

74वें संविधान संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति, जन-जाति और महिला प्रतिनिधियों के प्रति स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है। राज्य विधानसभा का हर सदस्य M.L.A. उन सब नगरपालिका का सहायक सदस्य (Associate Member) होता है जोकि चुनाव क्षेत्र (Constituency) में शामिल हैं। इस प्रकार के सदस्यों को नगरपालिका की बैठकों में भाषण आदि देने का अधिकार तो होता है, परन्तु मतदान में भाग लेने का नहीं।

योग्यताएं (Qualifications)-नगरपालिका के चुनाव में वही व्यक्ति खड़ा हो सकता है, जिसके पास निम्नलिखित योग्यताएं हों :-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • किसी सरकार तथा नगरपालिका के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  • वह उस नगर का रहने वाला हो और मतदाताओं की सूची में उसका नाम हो।
  • वह पागल तथा दिवालिया न हो। नगरपालिका के चुनाव में मताधिकार या चुनाव के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

अवधि (Tenure)-74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा नगर परिषद् एवं नगरपालिका का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में नगर परिषद् एवं नगरपालिका की अवधि पांच वर्ष है।
सरकार इससे पहले जब चाहे नगरपालिका को स्थगित या भंग कर सकती है और इसका कार्य किसी प्रशासक (Administrator) को सौंप सकती है। परन्तु नगरपालिका भंग होने की स्थिति में 6 महीने के अन्दर-अन्दर चुनाव करवाना अनिवार्य है। नगरपालिका के सदस्य को Municipal Commissioner या City Father कहा जाता है। इनको कोई वेतन नहीं मिलता है।

सभापति (President) नगरपालिका के सदस्य अपने में से एक सभापति और एक या दो उप-सभापति चुनते हैं। जहां उप-सभापतियों की संख्या दो होती है वहां एक को वरिष्ठ (Senior) और दूसरे को कनिष्ठ (Junior) उप-सभापति कहते हैं। नगरपालिका के सदस्य दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके सभापति या उप-सभापति को पद से हटा सकते हैं। कुछ विशेष दोषों के आरोप में सरकार भी इनकी अवधि पूरा होने से पहले इन्हें पदच्युत कर सकती है।

सचिव, कार्यकारी अधिकारी (Secretary, Executive Officers)-नगरपालिका का एक सचिव होता है, जिसे नियमित रूप से वेतन मिलता है। वही नगरपालिका के दैनिक कार्य चलाता है। उसकी नियुक्ति नगरपालिका द्वारा होती है। कई बड़ी नगरपालिकाओं में सचिव के अतिरिक्त कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer) होता है। जहां कार्यकारी अधिकारी हों वहां इसका स्थान सचिव से ऊंचा होता है। सचिव इस कार्यकारी अधिकारी के अधीन अपना कार्य करता है। कार्यकारी अधिकारी अपनी नगरपालिका का कार्यकारी मुखिया (Executive Chief) होता है और इसे बहुत विशाल शक्तियां प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त नगरपालिका के कई दूसरे स्थायी कर्मचारी भी होते हैं। जैसे-इंजीनियर, स्वास्थ्य अधिकारी, सफ़ाई इन्स्पैक्टर (Sanitary Inspector) तथा चुंगी इन्स्पैक्टर (Octroi Inspector) आदि।

नगरपालिका के कार्य (FUNCTIONS OF THE MUNICIPAL COMMITTEE)
1. सफ़ाई (Sanitation)–नगरपालिका का मुख्य कार्य है कि वह अपने नगर की सफ़ाई का प्रबन्ध करे। इसके लिए नगरपालिका कई प्रकार के कार्य करती है। प्रतिदिन सड़कों, बाज़ारों, गलियों की सफाई करवाई जाती है। गलियों और बाजारों में गन्दे पानी के लिए नालियां बनाई जाती हैं और प्रतिदिन इन नालियों की सफाई करवाई जाती है। नगर का कूड़ा-कर्कट इकट्ठा किया जाता है तथा उसे शहर से बाहर फेंके जाने की व्यवस्था की जाती है। यदि वह नगर की सफ़ाई का प्रबन्ध न करे तो गन्दगी फैल जाए और बीमारियां फैलने लगें। इस कार्य के लिए नगरपालिका में एक सफ़ाई इन्स्पैक्टर होता है तथा उसके अधीन दारोगा और ज़मींदार (सफ़ाई कर्मचारी) होते हैं।

2. सार्वजनिक स्वास्थ्य (Public Health)-नगर के लोगों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना भी नगरपालिका का बड़ा महत्त्वपूर्ण काम है। इसके लिए नगरपालिका चेचक, हैज़ा आदि के टीके लगाने का प्रबन्ध करती है। खाने-पीने की वस्तुओं की जांच की जाती है और गन्दी, गली-सड़ी तथा बीमारी फैलने वाली वस्तुओं के बेचे जाने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। यह मेले आदि के दिनों में सफ़ाई आदि का विशेष प्रबन्ध तथा टीके लगाए जाने की व्यवस्था करती है। नगरपालिका रोगी व्यक्तियों के लिए अस्पताल तथा दवाखाने स्थापित करती है जहां रोगियों को मुफ्त दवा मिलती है। इसके अतिरिक्त नगरपालिका प्रसूति गृह, बालहित केन्द्र तथा परिवार नियोजन केन्द्र खोलती है। नगरपालिका खाद्य वस्तुओं तथा दूसरी वस्तुओं में मिलावट की रोकथाम का प्रबन्ध भी करती है। वर्षा के दिनों में कुंओं तथा तालाबों में कीटाणुओं को मारने की दवाई डाली जाती है और मच्छरों को मारने की दवाई छिड़कर कर मलेरिया फैलने से रोका जाता है। यदि नगरपालिका को पता चल जाए कि कोई संक्रामक रोग (Infectious Disease) का रोगी रहता है तो वह उसे वहां से अस्पताल जाने के लिए बाध्य कर सकती है। नगरपालिका लोगों के लिए सार्वजनिक पाखाने (Public Lavatories) भी बनाती है। बड़े-बड़े शहरों में तो उनकी विशेष आवश्यकता होती है।

3. सड़कें तथा पुल (Roads and Bridges)-नगरपालिका अपने इलाके में पक्की सड़कें तथा पुल बनाने का प्रबन्ध करती है। गलियों और बाजारों में भी पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। पक्की सड़कों तथा पुलों की मुरम्मत भी नगरपालिका करवाती रहती है। इससे नगर के लोगों को आने-जाने में सुविधा मिलती है।

4. शिक्षा (Education)-अपने नगर के लोगों को शिक्षित करना भी नगरपालिका का काम है। इसके लिए नगरपालिका प्राइमरी तथा मिडिल स्कूल खोलती है। बड़े नगरों में हाई स्कूल तथा कॉलिज भी नगरपालिका द्वारा खोले जाते हैं। प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए शिक्षा केन्द्र (Adult Education Centre) भी खोले जाते हैं। लोगों के बौद्धिक विकास के लिए पुस्तकालय तथा वाचनालय भी स्थापित किए जाते हैं। नगरपालिका समाचार-पत्रों तथा ज्ञानवर्धक फिल्मों के दिखाये जाने का प्रबन्ध भी करती है। पंजाब तथा हरियाणा में कोई भी नगरपालिका किसी प्रकार की शिक्षा संस्था का संचालन नहीं करती बल्कि शिक्षा प्रसार के लिए काफ़ी मात्रा में खर्च करती है, जैसे कि छात्रवृत्तियां देकर, नगर में स्थित स्कूलों व कॉलिजों को आर्थिक सहायता (Grants) देकर। पंजाब के नगर मण्डी गोबिन्दगढ़ की नगरपालिका ने लड़कियों के लिए एक कॉलेज खोला हुआ है।

5. पानी और बिजली (Water and Electricity)-नगर के लोगों के पीने के लिए.शुद्ध पानी की व्यवस्था करना भी नगरपालिका का काम है। इसके लिए पहले कुओं की व्यवस्था की गई थी और उनमें दवाई आदि बलने का काम किया जाता था, परन्तु आजकल अधिकतर नगरों में नगरपालिका नलकूप लगाकर, पानी के बड़े-बड़े टैंक (Tanks) बनाकर, घरों, बाज़ारों तथा गलियों में नलके लगवाकर, लोगों के लिए पीने के पानी का प्रबन्ध करती है। इसके अतिरिक्त सड़कों तथा गलियों में रोशनी का प्रबन्ध भी नगरपालिका करती है।

6. परिवहन (Transport) बड़े-बड़े नगरों के लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने में काफ़ी समय लगता है और असुविधा होती है। इसको दूर करने के लिए वहां की नगरपालिकाएं बसों आदि का प्रबन्ध करती हैं। स्थानीय परिवहन के दूसरे साधन भी होते हैं जैसा तांगा, रिक्शा आदि। नगरपालिका तांगों तथा रिक्शाओं आदि के लाइसेंस देती हैं।

7. सुरक्षा सम्बन्धी कार्य (Security Functions) नगरपालिका शहरी सुरक्षा का प्रबन्ध करती है। वह आग बुझाने का प्रबन्ध करती है और इसके लिए आग बुझाने के इंजन रखे जाते हैं। वह पागल कुत्तों तथा जंगली जानवरों को मारने का प्रबन्ध करती है। वह पुराने तथा खतरनाक मकानों को गिराने का प्रबन्ध करती है।

8. मनोरंजन सम्बन्धी कार्य (Recreation Functions)-नगरपालिका शहर में रहने वाले लोगों के मनोरंजन के लिए कई कार्य करती है। नगरपालिका खेल के मैदान, पॉर्क और व्यायाम-शालाओं की व्यवस्था करती है। नगरपालिका थियेटर, कला केन्द्र, ड्रामा क्लब, मेलों, प्रदर्शनियों तथा मेलों और खेलों का प्रबन्ध करती है।

9. गरीबी दूर करना-नगरपालिका शहर में पाई जाने वाली गरीबी को दूर करने के लिए कई प्रकार की नीतियां एवं कार्यक्रम बनाती है।

10. पिछड़े एवं कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा-नगरपालिका शहर में रहने वाले कमज़ोर एवं पिछड़े वर्गों की भलाई के लिए कई प्रकार की नीतियां बनाती है।

11. अन्य कार्य (Other Functions)—

  • नगरपालिका श्मशान भूमि का प्रबन्ध और उसकी देखभाल करती
  • मकानों के नक्शे पास करती है और पुराने तथा खतरनाक मकानों को गिराने का प्रबन्ध करती है।
  • बड़े-बड़े नगरों में नगरपालिका द्वारा लोगों के लिए शुद्ध दूध, मक्खन, घी तथा दूसरी आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध किया जाता है।
  • जन्म और मृत्यु का रजिस्ट्रेशन भी नगरपालिका का महत्त्वपूर्ण काम होता है।
  • नगर की गलियों के नाम रखना और नम्बर लगाना तथा मकानों के नम्बर लगाना भी इसका काम होता है।
  • नगरपालिका बारात घर, सराय, विश्रामगृह आदि का निर्माण करती है।
  • नगरपालिका सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगाती है।
  • नगरपालिका नगर के विकास के लिए योजनाएं बनाती है।
  • नगरपालिका आवश्यकतानुसार भूमि प्राप्त करती और बेचती है।
  • नगरपालिका कर्मचारियों की भर्ती करती है और उन्हें आवश्यकता पड़ने पर नियमों के अन्तर्गत हटा भी सकती है।

नगरपालिका के आय के साधन (Sources of Income)-नगरपालिका को भी अपना कार्य चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। यह धन उसे निम्नलिखित साधनों से प्राप्त होता है :

  • चुंगीकर (Octroi)-नगरपालिका की आय का मुख्य साधन चुंगीकर है। वह कर नगर से शहर में आने वाली वस्तुओं पर लगाया जाता है।
  • मकानों पर कर (House Tax)-नगरपालिका अपने इलाके में मकानों पर कर लगाती है।
  • लाइसेंस फीस (Licence Fees)–नगरपालिका कई वस्तुओं के रखने पर टैक्स लगाती है जैसे तांगों, रेड़ों, ठेले, साइकिल, रिक्शा आदि के रखने पर लाइसेंस दिए जाते हैं।
  • टोल टैक्स (Toul Tax)-कई नगरों मे किसी विशेष स्थान पर जाने या किसी पुल अथवा नदी का प्रयोग करने पर नगरपालिका टैक्स लगा देती है। ऐसा टैक्स उत्तर प्रदेश में अधिक लगा हुआ है।
  • पानी तथा बिजली कर (Water and Electricity Tax)–नगरपालिका गलियों और बाजारों में बिजली तथा पानी का प्रबन्ध करती है, इसके लिए वह मकान के मालिकों पर पानी तथा बिजली कर लगाती है।
  • व्यापार तथा व्यवसायों पर कर (Professional Tax)-नगरपालिका अपने इलाके के व्यवसायों तथा व्यापार पर कर लगाती है।
  • मनोरंजन कर (Entertainment Tax)-नगरपालिका सिनेमा, थिएटर, दंगल आदि पर टैक्स लगा सकती है। 8. पशुओं पर टैक्स (Tax on Animals)-नगरपालिका पशुओं के रखने पर भी टैक्स लगा सकती है।
  • अपनी सम्पत्ति से आय (Income from its Property)–नगरपालिका की अपनी सम्पत्ति भी होती है, जिसे किराये पर दे दिया जाता है। इससे किराये की आय होती है।
  • ठेके (Contracts) नगरपालिका अपने क्षेत्र में कई प्रकार के ठेके देती है जैसे कि मुख्य स्थानों पर साइकिल स्टैण्ड आदि का ठेका, कुड़ा-कर्कट, खाद आदि का ठेका।
  • जुर्माने (Fines)–नगरपालिका को जुर्माने आदि से भी आय होती है। जो लोग इसके नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन पर जुर्माना किया जाता है।
  • राज्य सरकार की सहायता-प्रति वर्ष राज्य सरकार नगरपालिकाओं को सहायता के रूप में अनुदान देती है।
  • ऋण (Loan)-नगरपालिकाएं अपने कई बड़े-बड़े खर्चों को पूरा करने के लिए सरकार या बैंक से भी उधार लेती हैं।

नगरपालिका पर सरकार का नियन्त्रण (GOVERNMENT CONTROL OVER THE MUNICIPAL COMMITTEE)
नगरपालिका को स्थानीय मामलों का प्रशासन चलाने में कुछ स्वायत्तता तो प्राप्त होती, परन्तु वह बिल्कुल स्वतन्त्र नहीं होती। राज्य सरकार इसके कामों पर कई तरह का नियन्त्रण रखती है। सरकार निम्नलिखित तरीके से नगरपालिका पर नियन्त्रण रखती है :

  • ज़िले का ज़िलाधीश नगरपालिका के कार्यों पर देख-रेख रखता है।
  • यदि नगरपालिका अपना काम ठीक से न करे या अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान न दे तो जिलाधीश उसको सावधान कर सकता है। यदि नगरपालिका फिर भी अपना काम ठीक से न करे तो जिलाधीश सरकार से उसे भंग करने की सिफ़ारिश करके उसे भंग या स्थगित करवा सकता है।
  • नगरपालिका के हिसाब-किताब की जांच-पड़ताल (Audit) सरकार द्वारा की जाती है। सरकार कभी भी उसका निरीक्षण कर सकती है।
  • नगरपालिका जो भी उपनियम (Bye-Laws) बनाती है, उन्हें लागू करने से पहले सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती है।
  • सरकार किसी भी नगरपालिका को भंग करके वहां प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर सकती है।
  • सरकार द्वारा नगरपालिका के सदस्यों की संख्या निश्चित की जाती है।
  • सरकार कई दोषों के कारण नगरपालिका के सदस्य या सभापति की अवधि पूरी होने से पहले उसे पदच्युत भी कर सकती है।
  • नगरपालिका के प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति सरकार की स्वीकृति से भी हो सकती है। सरकार किसी कर्मचारी को पदच्युत करने के लिए नगरपालिका को आदेश दे सकती है।
  • सरकार कभी भी नगरपालिका के रिकार्ड का निरीक्षण कर सकती है।
  • नगरपालिका को अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट सरकार को भेजनी पड़ती है।
  • नगरपालिका अपना बजट पास करके मन्जूरी के लिए सरकार के पास भेजती है। वह उसमें परिवर्तन करवा सकती है।
  • सरकार प्रति वर्ष नगरपालिका को धन की सहायता देती है। धन की सहायता देते समय सरकार उसे कोई भी कार्य करने के लिए कह सकती है।
    निष्कर्ष (Conclusion)-नगरपालिका का राष्ट्रीय जीवन में बहुत महत्त्व है। लोग अपनी प्रारम्भिक आवश्यकताओं जैसे कि गली-मुहल्ले की सफ़ाई, रात को रोशनी, पीने के लिए पानी, शिक्षा के लिए स्कूल, जन्म-मरण का हिसाबकिताब, बच्चों के लिए टीके, भयानक रोगों से बचाव और अन्य श्मशान भूमि के लिए नगरपालिका पर निर्भर है

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 14 स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में पंचायती राज्य की रचना (संगठन) लिखिए।
अथवा
पंचायती राज का तीन-स्तरीय ढांचा क्या है?
उत्तर-
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके द्वारा गांव के लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार करने का अधिकार दिया गया है। गांव के लोग इस अधिकार का प्रयोग पंचायतों द्वारा करते हैं। इसलिए इसे पंचायती राज कहा जाता है। पंचायती राज एक तीन स्तरीय (Three tiered) ढांचा है जिसका निम्नतम स्तर ग्राम पंचायत का है और उच्चतम स्तर जिला परिषद् का और बीच वाला स्तर पंचायत समिति का। 73वें संशोधन द्वारा जो राज्य बहुत छोटे होते हैं और जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम है उनको पंचायत समिति के मध्य स्तर से मुक्त रखा गया है। इस ढांचे का कार्यक्षेत्र जिले के ग्रामीण भागों तक सीमित होता है और ग्रामीण जीवन के हर क्षेत्र से सम्बन्धित होता है। इस ढांचे के निर्वाचित सदस्य होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय विकास के कार्यों के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 2.
पंचायती राज के क्या उद्देश्य हैं ?
अथवा
पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य लिखिए।
उत्तर-

  • पंचायती राज का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • पंचायती राज का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने स्थानीय मामलों को स्वयं नियोजित करने और शासन प्रबन्ध चलाने का अवसर देना है।
  • गांवों के लोगों में सामुदायिक भावना और आत्म-निर्भरता की भावना पैदा करना। (4) पंचायती राज का एक उद्देश्य स्थानीय स्तर पर जन सहभागिता को बढ़ाना है।

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प्रश्न 3.
मेयर कौन होता है ? एक कॉर्पोरेशन में मेयर की क्या भूमिका है ?
अथवा
मेयर कौन होता है ? नगर निगम के मेयर को कैसे चुना जाता है ?
अथवा
मेयर किसे कहते हैं ? किसी निगम के मेयर की भूमिका लिखें।
उत्तर-
नगर निगम की राजनीतिक कार्यपालिका भी होती है जिसे प्रायः ‘मेयर’ (Mayor) अथवा महापौर (Mahapour) कहा जाता है। नगर निगम में मेयर का पद बहुत सम्मानपूर्ण तथा गौरवशाली होता है। मेयर का चुनाव निगम के सदस्यों में से किया जाता है। मेयर को शहर का प्रथम नागरिक समझा जाता है। मेयर ही निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा बैठकों की कार्यवाही उसके द्वारा ही नियन्त्रित की जाती है। राज्य सरकार तथा निगम में सामंजस्य व सम्पर्क बनाने का कार्य मेयर के द्वारा ही किया जाता है क्योंकि मेयर का चुनाव लोगों के द्वारा नहीं किया जाता इसलिए उसे लोगों की आवाज़ का प्रतिरूप नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर भी निगम अपने सभी प्रशासनिक, विधायी व अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य मेयर द्वारा ही करती है। महानगर का विकास भी काफ़ी हद तक मेयर की सक्रिय भूमिका पर ही निर्भर करता है।

प्रश्न 4.
नगर निगम की आय के कोई चार महत्त्वपूर्ण साधन लिखो।
अथवा
नगर निगम की आय के कोई चार साधन लिखो।
उत्तर-

  1. नगर निगम की आय का मुख्य स्रोत कर है। नगर निगम को सम्पत्ति कर, विज्ञापन कर, मनोरंजन कर आदि लगाने का अधिकार है।
  2. नगर निगम को मकानों, दुकानों इत्यादि के नक्शे पास करने पर फीस प्राप्त होती है।
  3. नगर निगम को पानी और बिजली से आय होती है।
  4. नगर-निगम सरकार से अनुदान प्राप्त करते हैं।

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प्रश्न 5.
ग्राम सभा क्या है ?
उत्तर-
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। हरियाणा में 500 तथा पंजाब में 200 की आबादी पर ग्राम सभा की स्थापना की जाती है। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है। ग्राम सभा अपने अध्यक्ष और कार्यकारी समिति का चुनाव करती है। ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता सरपंच करता है। ग्राम सभा पंचायत द्वारा बनाए गए बजट पर सोच-विचार करती है। और अपने क्षेत्र के लिए विकास योजना तैयार करती है। ग्राम सभा गांव से सम्बन्धित विकास योजनाओं को लागू करने में सहायता करती है। व्यवहार में ग्राम सभा कोई विशेष कार्य नहीं करती क्योंकि इसकी बैठकें बहुत कम होती हैं।

प्रश्न 6.
ग्राम पंचायत के कोई चार सार्वजनिक कार्य लिखो।
उत्तर-

  • गांव में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना पंचायत का उत्तरदायित्व है।
  • अपने क्षेत्र में सफाई आदि का प्रबन्ध पंचायत करती है।
  • पंचायत पशुओं की नस्ल को सुधारने का प्रयास करती है।
  • पंचायत लोगों के मनोरंजन का प्रबन्ध करती है।

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प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत की आमदनी के स्त्रोतों को लिखिए।
उत्तर-
पंचायतों की आय के साधन निम्नलिखित हैं-

  • कर-पंचायतों की आय का प्रथम साधन कर है। पंचायत राज्य सरकार द्वारा या पंचायती राज अधिनियम द्वारा स्वीकृत किए कर लगा सकती है जैसे सम्पत्ति कर, पशु कर, मार्ग कर, चुंगी कर इत्यादि।
  • फीस और जुर्माना-पंचायत की आय का दूसरा साधन इसके द्वारा किए गए जुर्माने तथा अन्य प्रकार के शुल्क हैं जैसे पंचायती विश्राम घर के प्रयोग के लिए फीस, गली तथा बाजारों में रोशनी करने का कर, पानी कर आदि। इन करों का प्रयोग केवल उन्हीं पंचायतों द्वारा किया जाता है जो ये सुविधाएं प्रदान करती हैं।
  • पंचायत की आय का मुख्य साधन सरकारी अनुदान है। सरकार पंचायतों को विकास सम्बन्धी योजनाओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न प्रकार के अनुदान देती है।
  • खाद की बिक्री आदि से भी पंचायत को आय होती है।

प्रश्न 8.
नई पंचायती राज प्रणाली की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
नई पंचायती राज प्रणाली की व्यवस्था 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई है। उसकी मुख्य विशेषताएं अग्रलिखित हैं

  • 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संविधान के भाग 9 (Part IX) व 11वीं अनुसूची में शामिल करके निम्न स्तर पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं के रूप में संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है।
  • 73वें संशोधन द्वारा तीन स्तरीय निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्य में पंचायत समिति और उच्च स्तर पर ज़िला परिषद् के स्तर की पंचायती राज व्यवस्था की गई है।
  • 73वें संशोधन के द्वारा प्रत्येक स्तर के पंचायती चुनाव प्रत्यक्ष रूप में होंगे। (4) प्रत्येक पंचायती चुनाव पांच साल में होना आवश्यक है।

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प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत की रचना का वर्णन कीजिए।
अथवा
ग्राम पंचायत की संरचना लिखो।
उत्तर-
पंजाब में 200 की आबादी वाले, हरियाणा में 500 की आबादी वाले हर गांव में पंचायत की स्थापना की गई है। यदि किसी गांव की जनसंख्या इससे कम है तो दो या अधिक गांवों की संयुक्त पंचायत स्थापित कर दी जाती है। ग्राम पंचायतों का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 सदस्य तक अलग-अलग होता है। हरियाणा में 6 से 20 तक सदस्य होते हैं और पंजाब में 5 से 13 तक। उत्तर प्रदेश में 16 से 31 तक सदस्य होते हैं। इसकी सदस्य संख्या गांवों की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की जाती है। उदाहरणस्वरूप पंजाब के एक गांव में जिसकी जनसंख्या 200 से लेकर 1000 तक है, उस गांव की ग्राम पंचायत में एक सरपंच के अलावा पांच पंच होते हैं और जिस गांव जनसंख्या की 10,000 से अधिक है तो उसमें सरपंच के अतिरिक्त 13 पंच होते हैं। पंचायतों में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 10.
ब्लाक समिति के चार महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-
पंचायत समिति निम्नलिखित कार्य करती है-

  • पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण-पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्यों की देख-रेख करती है। पंचायत समिति पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण रखती है। उड़ीसा, राजस्थान, असम तथा महाराष्ट्र में पंचायत समिति अपने क्षेत्र में पंचायतों के बजट को स्वीकार करती है।
  • सफ़ाई और स्वास्थ्य-अपने क्षेत्र की सफाई और स्वास्थ्य का उचित प्रबन्ध करना इसका कार्य है। इसके लिए वह अस्पताल खोलती है और प्रसूति-गृह तथा बाल हित केन्द्र स्थापित करती है। वह बीमारियों को रोकने के लिए टीके लगवाने तथा दूसरे कदम उठाने का प्रबन्ध करती है।
  • लघु और कुटीर उद्योगों का विकास-पंचायत समिति अपने इलाके में घरेलु उद्योग-धन्धों को बढावा देने का प्रयत्न करती है। वह इस सम्बन्ध में योजनाएं बनाने और लागू करने का अधिकार रखती है।
  • यह विश्राम ग्रहों की व्यवस्था करती है।

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प्रश्न 11.
जिला परिषद् क्या होती है? ।
अथवा
जिला परिषद् की रचना लिखिए।
उत्तर-
जिला परिषद त्रि-स्तरीय पंचायती राज ढांचे की सर्वोच्च संस्था है। पंचायती राज की अन्य संस्थाएं जिला परिषद् के निरीक्षण में कार्य करती हैं। जिला परिषद् में निम्नलिखित सदस्य आते हैं-

  • क्षेत्रीय चुनाव में से जनता द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर चुने हुए सदस्य, जिनकी गिनती 10 से 25 तक होगी।
  • पंचायत समितियों के सभी सदस्य।
  • जिले का लोकसभा व राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर रहे लोकसभा व राज्य विधानसभा के सदस्य।
  • राज्यसभा के सदस्य और राज्य विधान परिषद् के सदस्य, अगर कोई है और वे राज्य के जिस जिले में मतदाता के रूप में रजिस्टर्ड हों।

जिला परिषद् का प्रत्येक सदस्य 50 हजार की जनसंख्या का प्रतिनिधि होगा। जिस ज़िला परिषद् की जनसंख्या पांच लाख या इससे कम है तो उस में 10 सदस्य होंगे। जिस जिला परिषद् की जनसंख्या 12 लाख से कम या इससे अधिक है तो उसमें सदस्यों की संख्या 25 से अधिक नहीं होगी। प्रत्येक जिला परिषद् में नियमानुसार अनुसूचित जातियों व पिछड़ी जातियों के लिए कुल सीटों के अनुपात में से एक तिहाई सीटें उनके लिए आरक्षित की गई हैं। पंजाब में महिलाओं के लिए जिला परिषद में 50% स्थान आरक्षित किये गए हैं।

प्रश्न 12.
नगरपालिका की रचना लिखें।
उत्तर-
नगरपालिका के सदस्यों की संख्या सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की जाती है। विभिन्न राज्यों में कम-से-कम 5 तथा अधिक-से-अधिक 50 सदस्य होते हैं। हरियाणा में नगरपालिका/नगरपरिषद् के कम-से-कम 11 और अधिक-से-अधिक 31 सदस्य हो सकते हैं। 74वें संविधान संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और महिला प्रतिनिधियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से 50% स्थान देने की व्यवस्था की गई है। राज्य विधानसभा का प्रत्येक सदस्य (M.L.A.) उन सब नगरपालिकाओं का सहायक सदस्य होता है जोकि उनके चुनाव क्षेत्र में शामिल हैं। सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। प्रत्येक उस वयस्क व्यक्ति को जोकि नगरपालिका के क्षेत्र में रहता है मताधिकार प्राप्त होता है। अनुसूचित जातियों के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए जा सकते हैं। चुनाव के लिए नगर को वार्डों में बांटा जाता है और प्रत्येक वार्ड से एक सदस्य चुना जाता है।

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प्रश्न 13.
नगरपालिका के चार महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य-नगर के लोगों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना भी नगरपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए नगरपालिका चेचक और हेज़ा आदि के टीके लगाने का प्रबन्ध करती है।
  • सड़कें तथा पुल-नगरपालिका अपने इलाके में पक्की सड़कें तथा पुल बनवाने का प्रबन्ध करती है। गलियों व बाजारों में भी पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। पक्की सड़कों व पुलों की मुरम्मत भी नगरपालिका करवाती है। इससे नगर के लोगों को आने-जाने की सुविधा होती है।
  • नगरपालिका अपने क्षेत्र में परिवहन की व्यवस्था करती है।

प्रश्न 14.
जिला परिषद् के कोई चार कार्य लिखो।
उत्तर-
ज़िला परिषद् के कार्य सभी राज्यों में एक समान नहीं हैं। ये अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं। जिला परिषद् को केवल समन्वय लाने वाली और निरीक्षण करने वाली संस्था के रूप में ही स्थापित किया गया है। इसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं

  • यह अपने क्षेत्र में पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
  • जिला परिषद् जिले के ग्रामीण जीवन का विकास करने और लोगों के जीवन को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करती है।
  • यह सरकार को जिले के ग्रामीण विकास के बारे में सुझाव भेज सकती है।
  • यह सभी तरह के आंकड़ों को प्रकाशित करती है।

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प्रश्न 15.
पंजाब में नगर निगम की बनावट का वर्णन कीजिए।
अथवा
नगर-निगम किसे कहते हैं ?
उत्तर-
नगर-निगम शहरी स्थानीय स्वशासन की सर्वोच्च संस्था है। नगर-निगम की स्थापना बड़े-बड़े शहरों में की जाती है। नगर निगम की स्थापना संसद् अथवा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्मित कानून के अनुसार की जाती है। नगरनिगम के सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है। ये निर्वाचित सदस्य कुछ अन्य सदस्यों का निर्वाचन करते हैं। पंजाब नगर-निगम कानून के अनुसार यह संख्या कम-सेकम 40 और अधिक-से-अधिक 50 हो सकती है। भारत के विभिन्न नगर-निगमों का गठन प्रायः एक जैसा है। सबसे पहले 1888 के अधिनियम के अन्तर्गत मुम्बई में नगर-निगम की स्थापना की गई। नगर-निगम के अध्यक्ष को महापौर (Mayor) कहा जाता है। 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा नगर निगम में अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए एक तिहाई स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं के लिए नगर-निगमों में 50% स्थान आरक्षित किये गए हैं।

पंजाब में नगर-निगम चार बड़े शहरों अमृतसर, जालन्धर, पटियाला और लुधियाना में स्थापित हैं। पंजाब सरकार ने जुलाई 2011 में मोगा, फगवाड़ा, मोहाली तथा पठानकोट में भी नगर निगम बनाने का निर्णय लिया था।

प्रश्न 16.
पंचायत समिति की संरचना लिखो।
उत्तर-
1994 में पंजाब पंचायती राज अधिनियम अधीन यह व्यवस्था की गई है कि एक पंचायत समिति में कमसे-कम 6 और अधिक-से-अधिक 10 सदस्य लोगों द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर चुने जाएंगे। इनके अतिरिक्त प्रत्येक पंचायत समिति में उस क्षेत्र की ग्राम पंचायतों के लिए सरपंचों के प्रतिनिधि भी सम्मिलित किए जाएंगे। प्रत्येक पंचायत समिति में अनुसूचित जातियों और स्त्रियों के लिए स्थान आरक्षित रखे जाते हैं। प्रत्येक पंचायत समिति में एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होता है जिनका चुनाव पंचायत समिति के सदस्यों में से ही सदस्यों द्वारा किया जाता है। उस क्षेत्र में से निर्वाचित किए गए विधानसभा, विधान परिषद्, लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्य भी पंचायत समिति के सहयोगी सदस्य होते हैं। पंचायतों की भान्ति ब्लॉक समितियों में भी अनुसूचित श्रेणियों तथा स्त्रियों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। पंजाब में महिलाओं के लिए पंचायत समिति में 50% स्थान आरक्षित किये गए हैं।

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प्रश्न 17.
नगर-निगम के चार कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • अपने समस्त क्षेत्र की सफ़ाई का ध्यान रखना।
  • जल सप्लाई का प्रबन्ध करना।
  • नालियां बनवाना ताकि गन्दा पानी शहर के बाहर चला जाए।
  • नगर-निगम बाज़ारों की स्थापना और प्रबन्ध करता है।

प्रश्न 18.
भारत में पंचायती राज्य प्रणाली की कोई चार कमजोरियां लिखिए।
उत्तर-
पंचायती राज की मुख्य समस्याएं अथवा दोष निम्नलिखित हैं-

  • अशिक्षा-गांव के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इससे पंचायत के अधिकतर लोग भी अशिक्षित होते हैं। बहुत-सी पंचायतें तो ऐसी हैं जिनके सरपंच भी अशिक्षित हैं और हस्ताक्षर नहीं कर सकते।
  • अज्ञानता-चूंकि गांव के अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें पंचायती राज के उद्देश्यों का भी पता नहीं है।
  • साम्प्रदायिकता-गांव के लोगों में जाति भेद की भावना प्रबल है। पंचायतों के चुनाव जाति भेद के आधार पर लड़े जाते हैं और चुने जाने के बाद भी उनके भेदभाव समाप्त नहीं होते बल्कि और भी बढ़ जाते हैं। पंच भी जाति आदि के आधार पर आपस में लड़ते हैं जिससे पंचायत का काम ठीक प्रकार से नहीं हो पाता।
  • पंचायत के कार्यों में राजनीति दलों का अनुचित हस्तक्षेप होता है।

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प्रश्न 19.
नगरपालिका का चुनाव कौन लड़ सकता है ?
उत्तर-
नगरपालिका के चुनाव में वही व्यक्ति खड़ा हो सकता है, जिसके पास निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • किसी सरकार तथा नगरपालिका के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  • वह उस नगर का रहने वाला हो और मतदाताओं की सूची में उसका नाम हो।
  • वह पागल तथा दिवालिया न हो। नगरपालिका के चुनाव में मताधिकार या चुनाव के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रश्न 20.
भारतीय पंचायती राज की महत्ता का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पंचायती राज भारतीय लोकतन्त्र की आधारशिला है। निम्नलिखित बातों से पंचायती राज का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है-

  • जनता का राज-पंचायती राज का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि यह जनता का राज है। गांव में लोगों का अपना शासन स्थापित हो चुका है। अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता। गांव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है।
  • प्रत्यक्ष लोकतन्त्र-पंचायती राज गांवों में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से कम नहीं है। ग्राम सभा गांव की संसद् की तरह है और गांव के सभी नागरिक इस संसद् के सदस्य हैं। पंचायती राज के वे सभी लाभ हैं जो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से प्रभावित होते हैं।
  • आत्म-निर्भरता-पंचायती राज का एक उद्देश्य यह है कि प्रत्येक गांव अपने विकास कार्य की आवश्यकताओं की पूर्ति, प्रशासन सम्बन्धी बातों तथा न्याय के सम्बन्ध में आत्म-निर्भर हो जाए।
  • लोगों में स्वतन्त्रता की भावना का विकास होता है।

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प्रश्न 21.
पंचायती राज के दोषों को दूर करने के लिए चार उपाय लिखें।
उत्तर-
पंचायती राज के दोषों को दूर करने के महत्त्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं-

  • शिक्षा का प्रसार-स्थानीय संस्थाओं को सफल बनाने के लिए प्रथम आवश्यकता शिक्षा के प्रसार की है। शिक्षित व्यक्ति अपने मत का सोच-समझ कर प्रयोग कर सकते हैं और जाति-भेद के चक्कर में नहीं पड़ेंगे।
  • सदस्यों का प्रशिक्षण-इन संस्थाओं के सदस्य प्रशिक्षण के बिना अपने कार्यों को ठीक तरह से नहीं निभा सकते और न ही उचित फैसलें कर सकते हैं। अत: पंचायती राज के कर्मचारियों और सरकार के अफसरों के प्रशिक्षण की पूरी-पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।
  • योग्य और ईमानदार कर्मचारी-किसी भी सरकारी संस्था या संगठन को ठीक ढंग से चलाने में कर्मचारियों का बहुत योगदान होता है। स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए।
  • पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक शक्तियां देनी चाहिएं।

प्रश्न 22.
नगर सुधार ट्रस्ट क्या होता है ? इसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन करो।
अथवा
नगर सुधार ट्रस्ट से आपका क्या अभिप्राय है, और यह क्या काम करता है ?
उत्तर-
नगर सुधार ट्रस्ट बड़े-बड़े नगरों में स्थापित किया जाता है। पंजाब एवं हरियाणा के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण नगर में इसकी स्थापना की गई है। नगर सुधार ट्रस्ट के कुछ सदस्य नगरपालिका द्वारा चुने जाते हैं और शेष सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं। इसका एक अध्यक्ष होता है जो सरकार द्वारा मनोनीत होता है। अध्यक्ष को वेतन आदि मिलता है। अध्यक्ष के अतिरिक्त और भी महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते हैं। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, इसका काम नगर का सुधार या विकास करना एवं उसे सुन्दर बनाना है। गन्दी बस्ती को गिराकर नई बस्ती बनाना, सड़कों को चौड़ा करना, बगीचे लगवाना, पार्क बनवाना इसके मुख्य कार्य हैं। नगर के आस-पास जो नई बस्तियां बनती हैं, उनमें सड़कों, नालियों, पानी, रोशनी, मकानों के निर्माण आदि के कार्य पहले नगर सुधार ट्रस्ट करता है और जब वह बस्ती पूरी तरह सुधर जाए तो उसे नगरपालिका को सौंप दिया जाता है।

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प्रश्न 23.
1994 के पंजाब पंचायती राज एक्ट के अधीन स्थापित तीन परता (थ्री टायर) पंचायती राज प्रणाली का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
21 अप्रैल, 1994 को पंजाब पंचायती राज अधिनियम (Punjab Panchayati Raj Act, 1994) लागू हुआ था। इस अधिनियम द्वारा पंजाब में पंचायती राज की व्यवस्था नए रूप में की गई है। इस अधिनियम के अधीन पंजाब में ग्राम सभा के अतिरिक्त निम्नलिखित तीन संस्थाओं की व्यवस्था मिलती है

  • ग्राम पंचायत
  • पंचायत समिति
  • जिला परिषद्।

ये संस्थाएं पंजाब में ग्रामीण क्षेत्र के स्वशासन की संस्थाएं हैं और इन संस्थाओं को ही पंचायती राज का तीन स्तरीय ढांचा माना जाता है। पंजाब में इन संस्थाओं का गठन चुनावों द्वारा पांच साल के लिए किया जाता है।।

प्रश्न 24.
पंचायत समिति की आमदन के चार साधन लिखो।
उत्तर-

  • पंचायत समिति द्वारा लगाए गए कर-पंचायत समिति एवं जिला परिषद् एक्ट की धाराओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के कर लगा सकती है; जैसे व्यवसाय कर, टोकन कर, मार्ग कर, आय कर आदि से होने वाली आय।
  • सम्पत्ति से आय-पंचायत समिति के अधिकार में रखी गई सम्पत्ति से आय।
  • शुल्क-पंचायत समिति के द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के शुल्क से आय। 4. पंचायत समिति को सरकार से भी सहायता के रूप में धन मिलता है।

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प्रश्न 25.
सरपंच का चुनाव कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
मार्च 2012 में पंजाब विधानसभा द्वारा पास किए गए पंजाब पंचायती राज (संशोधन) कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है, कि सरपंच का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जायेगा।

प्रश्न 26.
नगरपालिका से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नगरपालिका शहरी स्थानीय शासन की महत्त्वपूर्ण संस्था है। नगरपालिका का आकार सम्बन्धित नगर की जनसंख्या पर निर्भर करता है। विभिन्न राज्यों में नगरपालिका के कम-से-कम 5 तथा अधिक-से–अधिक 50 सदस्य होते हैं। नगरपालिका में कुलं निर्वाचित स्थानों का एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित होता है। नगरपालिका की अवधि 5 वर्ष होती है। इसके सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। नगरपालिका नगर की सफ़ाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, जलापूर्ति, रोशनी, लघु-उद्योग, इत्यादि अनेक स्थानीय महत्त्व के कार्य करती है। नगरपालिका विभिन्न कार्यों को करने के लिए अनेक प्रकार के कर लगाती हैं तथा राज्य सरकार से भी वित्तीय सहायता प्राप्त करती है।

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प्रश्न 27.
ग्राम पंचायत का सभापति कौन होता है ? उसके तीन कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
ग्राम पंचायत का सभापति सरपंच होता है। इसके तीन कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. सरपंच ग्राम पंचायतों की बैठकें बुलाता है और उनका सभापतित्व करता है।
  2. सरपंच ग्राम पंचायतों की कार्यवाहियों का रिकॉर्ड रखता है।
  3. सरपंच अपने गांव की पंचायतों के वित्तीय और कार्यकारी प्रशासन के लिए ज़िम्मेदार होता है।

प्रश्न 28.
छावनी बोर्ड क्या होता है?
अथवा
छावनी बोर्ड क्या होता है और यह क्या काम करता है ?
उत्तर-
छावनी बोर्ड की स्थापना सैनिक क्षेत्र में की जाती है। इसका उद्देश्य सैनिकों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रबन्ध करना होता है। छावनी बोर्ड, छावनी के सेवा कमांड के जनरल अधिकारी के निरीक्षण में कार्य करता है, जोकि रक्षा मन्त्रालय के अधीन होता है। छावनी बोर्ड के आधे सदस्यों का चुनाव शहर के लोगों द्वारा किया जाता है, जबकि आधे सदस्य मनोनीत किये जाते हैं। छावनी बोर्ड सैनिक क्षेत्र के लोगों को पानी, शिक्षा, सफ़ाई, स्वास्थ्य तथा बिजली आदि की सुविधाएँ उपलब्ध कराती है।

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प्रश्न 29.
पोर्ट ट्रस्ट क्या है ?
उत्तर-
पोर्ट ट्रस्ट बंदरगाह के क्षेत्र में स्थापित की जाती है। पोर्टट्रस्ट के कुछ सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं, तथा कुछ सदस्य व्यापारियों द्वारा चुने जाते हैं, पोर्ट ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य बंदरगाह पर उतरने वाले माल के लिए व्यापारिक सुविधाओं की व्यवस्था करना तथा बंदरगाह की साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मेयर किसे कहते हैं ? किसी निगम के मेयर की भूमिका लिखें।
उत्तर-
नगर-निगम की राजनीतिक कार्यपालिका भी होती है जिसको प्राय: ‘मेयर’ (Mayor) अथवा महापौर (Mahapour) कहा जाता है। नगर-निगम में मेयर का पद बहुत सम्मानपूर्ण तथा गौरवशाली होता है। मेयर का चुनाव निगम के सदस्यों में से किया जाता है। मेयर को शहर का प्रथम नागरिक समझा जाता है। मेयर ही निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा बैठकों की कार्यवाही उसके द्वारा ही नियन्त्रित की जाती है।

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प्रश्न 2.
नगर-निगम की आय के कोई दो महत्त्वपूर्ण साधन लिखो।
उत्तर-

  1. नगर-निगम की आय का मुख्य स्रोत कर है। नगर-निगम को सम्पत्ति कर, विज्ञापन कर, मनोरंजन कर आदि लगाने का अधिकार है।
  2. नगर-निगम को मकानों, दुकानों इत्यादि के नक्शे पास करने पर फीस प्राप्त होती है।

प्रश्न 3.
पंचायत समिति का गठन कैसे होता है ?
उत्तर-
प्रत्येक विकास खण्ड की एक पंचायत समिति होती है। पंजाब के पंचायती राज एक्ट 1994 के अनुसार पंचायत समिति में निम्नलिखित सदस्य होंगे

  1. पंचायत समिति के क्षेत्र की जनता द्वारा सीधे या प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्य, जिनकी संख्या 6 से 10 तक होगी।
  2. पंचायत समिति में आने वाली ग्राम पंचायतों के सरपंचों द्वारा चुने गए अपने प्रतिनिधि।

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प्रश्न 4.
ग्रामीण स्थानीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में कौन-सा भाग और अनुसूची अंकित की गई है ?
उत्तर-
ग्रामीण स्थानीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में भाग १ (Part-IX) और 11वीं अनुसूची अंकित की गई है।

प्रश्न 5.
शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में कौन-सा भाग तथा अनुसूची अंकित की गई है ?
उत्तर-
शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना के लिए भारतीय संविधान में भाग 9A तथा 12वीं अनुसूची अंकित की गई है।

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प्रश्न 6.
ग्राम सभा की संरचना लिखो।
उत्तर-
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है। ग्राम सभा अपने अध्यक्ष और कार्यकारी समिति का चुनाव करती है। ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता सरपंच करता है।

प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर-

  1. गांव में शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना पंचायत का उत्तरदायित्व है।
  2. पंचायत अपने क्षेत्र में अपराधियों को पकड़ने और अपराधों की रोकथाम करने के लिए पुलिस की सहायता करती है।

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प्रश्न 8.
ग्राम पंचायत की बनावट लिखें।
उत्तर-
पंजाब में 200 की आबादी वाले, हरियाणा में 500 की आबादी वाले हर गांव में पंचायत की स्थापना की गई है। ग्राम पंचायतों का आकार सदस्यता के अनुसार 5 से 31 सदस्य तक अलग-अलग होता है। पंचायतों में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई है। 73वें संशोधन के द्वारा महिलाओं को कुल प्रतिनिधियों के स्थानों में से एक तिहाई स्थान देने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 9.
पंचायत समिति के कोई दो मुख्य कार्य बताएं।
उत्तर-

  1. पंचायतों पर निगरानी और नियन्त्रण-पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्यों की देखरेख करती है।
  2. सफ़ाई और स्वास्थ्य-अपने क्षेत्र की सफ़ाई और स्वास्थ्य का उचित प्रबन्ध करना इसका कार्य है।

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प्रश्न 10.
नगरपालिका की रचना लिखें।
उत्तर-
नगरपालिका के सदस्यों की संख्या सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की जाती है। विभिन्न राज्यों में कम-से-कम 5 तथा अधिक-से-अधिक 50 सदस्य होते हैं। 74वें संविधान संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और महिला प्रतिनिधियों के स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक उस वयस्क व्यक्ति को जोकि नगरपालिका के क्षेत्र में रहता है मताधिकार प्राप्त होता है।

प्रश्न 11.
नगरपालिका का चुनाव कौन लड़ सकता है?
उत्तर-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो।

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प्रश्न 12.
नगरपालिका के कोई दो महत्त्वपूर्ण कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. सफ़ाई-नगरपालिका का मुख्य कार्य अपने नगर की सफ़ाई का प्रबन्ध करना है।
  2. सार्वजनिक स्वास्थ्य-नगर के लोगों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना भी नगरपालिका का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

प्रश्न 13.
ज़िला परिषद् के दो कार्य लिखें।
उत्तर-

  1. यह अपने क्षेत्र में पंचायत समीतियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
  2. ज़िला परिषद् जिले के ग्रामीण जीवन का विकास करने और लोगों के जीवन को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करती

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प्रश्न 14.
नगर-निगम किसे कहते हैं ?
उत्तर-
नगर-निगम की स्थापना संसद् अथवा राज्य विधानमण्डल के द्वारा निर्मित कानून के अनुसार की जाती है। नगर-निगम के सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र की जनता प्रत्यक्ष रूप से करती है। ये निर्वाचित सदस्य कुछ अन्य सदस्यों का निर्वाचन करते हैं।

प्रश्न 15.
शहरी क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं के नाम लिखो।
उत्तर-
74वें संशोधन द्वारा शहरी शासन के लिए तीन स्तरीय स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था की गई जिसका वर्णन इस प्रकार है

  1. नगर पंचायत (Nagar Panchayat)
  2. नगर परिषद् (Municipal Council)
  3. नगर निगम (Municipal Corporation)।

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प्रश्न 16.
भारत में पंचायती राज के कोई दो दोष लिखें।
उत्तर-

  1. अशिक्षा-गांव के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं और इससे पंचायत के अधिकतर लोग भी अशिक्षित होते हैं। जब तक चुनने वाले तथा चुने जाने वाले व्यक्ति शिक्षित नहीं होंगे तब तक कोई भी स्थानीय संस्था सफलता से काम नहीं कर सकती।
  2. अज्ञानता-चूंकि गांव के अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, इसलिए उन्हें पंचायती राज़ के उद्देश्यों का भी पता नहीं है।

प्रश्न 17.
नगर सुधार ट्रस्ट क्या होता है?
उत्तर-
नगर सुधार ट्रस्ट बड़े-बड़े नगरों में स्थापित किया जाता है। पंजाब एवं हरियाणा के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण नगर में इसकी स्थापना की गई है। नगर सुधार ट्रस्ट के कुछ सदस्य नगरपालिका द्वारा चुने जाते हैं और शेष सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं। इसका एक अध्यक्ष होता है जो सरकार द्वारा मनोनीत होता है। अध्यक्ष को वेतन आदि मिलता है। अध्यक्ष के अतिरिक्त और भी महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते हैं। इसका मुख्य काम नगर सुधार या विकास करना एवं उसे सुन्दर बनाना है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
पंचायती राज क्या है ?
उत्तर-
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं, जिसके द्वारा गांव के लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छा तथा आवश्यकतानुसार करने का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 2.
ग्राम पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए कम-से-कम आयु कितनी निर्धारित की गई है ?
उत्तर-
21 वर्ष की आयु निर्धारित की गई है।

प्रश्न 3.
पंचायती राज प्रणाली का ढांचा किस समिति की सिफ़ारिशों पर आधारित है ?
उत्तर-
बलवंत राय मेहता की सिफारिशों के आधार पर।

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प्रश्न 4.
बलवंत राय मेहता समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर कितने स्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई थी ?
उत्तर-
त्रि-स्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 5.
किस संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है ?
उत्तर-
73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है।

प्रश्न 6.
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वां संवैधानिक संशोधन कब लागू हुआ था ?
उत्तर-
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वां संवैधानिक संशोधन 1993 में लागू हुआ था।

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प्रश्न 7.
किस राज्य ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को पहले लागू किया ?
उत्तर-
राजस्थान ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को पहले लागू किया।

प्रश्न 8.
पंचायत समिति का कार्यकारी अधिकारी कौन होता है ?
उत्तर-
खण्ड विकास तथा पंचायत अधिकारी (B.D.O.) पंचायत समिति का कार्यकारी अधिकारी होता है।

प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव कौन करता है ?
उत्तर-
ग्राम पंचायत के सरपंच का चुनाव ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित पंचों द्वारा किया जाता है।

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प्रश्न 10.
नगर-निगम का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर-
नगर-निगम का अध्यक्ष मेयर होता है।

प्रश्न 11.
शहरी स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को किस संवैधानिक संशोधन द्वारा संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया?
उत्तर-
74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न 12.
पंजाब में किन शहरों में नगर-निगम स्थापित किये गये हैं ?
उत्तर-
अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, पटियाला तथा बठिण्डा में। पंजाब सरकार ने जुलाई 2011 में मोगा, फगवाड़ा, मोहाली तथा पठानकोट में भी नगर-निगम बनाने का निर्णय लिया था।

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प्रश्न 13.
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है। प्रत्येक वयस्क नागरिक जो गांव का रहने वाला है, पंचायत के चुनाव में वोट डाल सकता है। पंजाब में 18 वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।

प्रश्न 14.
नगर-निगम का अध्यक्ष कौन होता है ?
उत्तर-
नगर-निगम का अध्यक्ष मेयर (महापौर) होता है।

प्रश्न 15.
नगरपालिका का चुनाव कितनी अवधि के लिए होता है ?
अथवा
नगर परिषद् का कार्यकाल क्या है ?
उत्तर-
नगरपालिका का चुनाव पाँच वर्षों के लिए होता है।

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प्रश्न 16.
पंचायती राज के अधीन पंजाब पंचायती राज की सबसे ऊपरी व नीचे की संस्था का नाम लिखें।
उत्तर-
पंजाब पंचायती राज की सबसे ऊपरी संस्था ज़िला परिषद् तथा सबसे निचली संस्था ग्राम सभा है।

प्रश्न 17.
पंजाब में स्थानीय स्तर की संस्थाओं में महिलाओं के लिए कितनी सीटें आरक्षित की गईं ?
उत्तर-
पंजाब में स्थानीय स्तर की संस्थाओं में महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित की गई हैं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. आधुनिक राज्य का स्वरूप ……….. है।
2. …………….. ने पंचायती राज के त्रिस्तरीय ढांचे की सिफ़ारिश की।
3. शहरी स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को ………….. संवैधानिक संशोधन द्वारा संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
4. ……… संवैधानिक संशोधन द्वारा ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
5. स्थानीय स्वशासन …………….. का विषय है।
6. नगरपालिका की अवधि ………………. है।
उत्तर-

  1. कल्याणकारी
  2. बलवंत राय मेहता समिति
  3. 74वें
  4. 73वें
  5. राज्य सूची
  6. पांच वर्ष ।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. शासन की कुशलता एवं जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शक्तियों का केन्द्रीयकरण होना आवश्यक
2. स्थानीय शासन से अभिप्राय उस व्यवस्था से है, जिसके अंतर्गत स्थानीय जनता, स्थानीय साधनों द्वारा स्थानीय
मामलों का प्रबंध स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से नहीं करती है।
3. स्थानीय शासन को संवैधानिक दर्जा देने के लिए 73वां तथा 74वां संवैधानिक संशोधन किया गया।
4. 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा ग्राम सभा और ग्राम पंचायत को परिभाषित किया गया है।
5. 73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पांच स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वर्तमान त्रिस्तरीय पंचायती राज का सुझाव किसने दिया था ?
(क) अशोक मेहता
(ख) बलवन्त राय मेहता
(ग) रजनी कोठारी
(घ) ए० डी० गोरवाला।
उत्तर-
(ख) बलवन्त राय मेहता

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प्रश्न 2.
किस राज्य ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को पहले लागू किया ?
(क) तमिलनाडु
(ख) राजस्थान
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) पंजाब।
उत्तर-
(ख) राजस्थान

प्रश्न 3.
पंचायती राज इकाइयां उत्पत्ति हैं-
(क) पार्लियामेंट की
(ख) क्षेत्रीय कौंसिल की
(ग) राज्य विधानपालिका की
(घ) ऊपर में से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) राज्य विधानपालिका की

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प्रश्न 4.
किस संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है ?
(क) 64वें
(ख) 74वें
(ग) 73वें
(घ) 76वें।
उत्तर-
(ग) 73वें

प्रश्न 5.
73वीं संवैधानिक संशोधन के द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में किनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं ?
(क) केवल स्त्रियों के लिए
(ख) अनुसूचित जाति के लिए
(ग) केवल बच्चों के लिए
(घ) स्त्रियों तथा अनुसूचित जाति के लिए।
उत्तर-
(घ) स्त्रियों तथा अनुसूचित जाति के लिए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1. सिख जीवन जाच क्या है ?
(What is Sikh Way of Life ?)
अथवा
सिख जीवन जाच सिख धर्म का आधार है। चर्चा कीजिए।
(Sikh way of life is the base of Sikhism. Discuss.)
अथवा
सिख रहित मर्यादा के प्रमुख लक्षणों के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the salient features of Sikh-Rahit Maryada.)
अथवा
धार्मिक सिख जीवन जाँच के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the religious Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवनचर्या की आलोचनात्मक दृष्टि से परख कीजिए। (Examine critically the Sikh Way of Life.)
अथवा
रहित मर्यादा से क्या अभिप्राय है ? सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(What is Code of Conduct ? Explain in briefthe Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिखी रहित मर्यादा लिखें।
(Write about the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार सिख जीवन के बारे में लिखें।
(Write about the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन मुक्ति में व्यक्तिगत रहनी के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the personal life in Sikh Code of Conduct.)
अथवा
गुरमत रहनी क्या है ? चर्चा कीजिए।
(What is Gurmat Life ? Discuss.)
अथवा
सिख जीवन युक्ति के मुख्य लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the salient features of Sikh Way of Life.)
अथवा
गुरसिख के जीवन के बारे में लिखें।
(Write about the Gursikh Way of Life.)
अथवा
सिग्न जीवन पद्धति के विषय में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Give a brief account of the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन जाच का स्रोत सिख रहित मर्यादा है। चर्चा कीजिए। (Sikh Rahit Maryada is the source of Sikh Way of Life. Discuss.)
अथवा
(Elucidate the salient features of Sikh Way of Life.)
उत्तर-
प्रत्येक जीवन पद्धति किसी न किसी दर्शन पर आधारित होती है। जैसे एक सच्चा हिंद गीता के उपदेशों के अनुसार, एक सच्चा मुसलमान कुरान के उपदेशों के अनुसार एवं एक सच्चा ईसाई बाइबल के उपदेशों को आधार मान कर अपना जीवन व्यतीत करने का प्रयास करता है। गुरु ग्रंथ साहिब जी में अनेक स्थानों पर सिख जीवन पद्धति का वर्णन किया गया है। 1699 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ का सृजन किया तो उन्होंने कुछ नियमों की घोषणा की जिनका पालन करना प्रत्येक खालसा के लिए अनिवार्य था। ये नियम आज भी रहितनामों के रूप में हमारे पास मौजूद हैं। रहितनामे कोई नई विचारधारा प्रस्तुत नहीं करते। ये गुरबाणी में वर्णित जीवन पद्धति की संक्षेप रूप में तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। सिख रहित मर्यादा जो शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा जारी की गई है तथा जिसे प्रमाणिक माना जाता है का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है :—

(क) सिख कौन है ? (Who is a Sikh ?)
कोई भी स्त्री अथवा पुरुष जो एक परमात्मा, दस गुरु साहिबान (गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक), श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी एवं शिक्षा तथा दशमेश (गुरु गोबिंद सिंह जी) के अमृत में विश्वास रखता है वह सिख है।

(ख) नाम वाणी का अभ्यास
(Practice of Nam)

  1. सिख अमृत समय जाग कर स्नान करे तथा एक अकाल पुरुख (परमात्मा) का ध्यान करता हुआ ‘वाहिगुरु’ का नाम जपे।
  2. नितनेम का पाठ करे। नितनेम की वाणियाँ ये हैं-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपई एवं 10 सवैये। ये वाणिएँ अमृत समय पढ़ी जाती हैं। रहरासि साहिब-यह वाणी संध्या काल समय पढ़ी जाती है। सोहिला-यह वाणी रात को सोने से पूर्व पढ़ी जाती है। अमृत समय तथा नितनेम के पश्चात् अरदास करनी आवश्यक है।
  3. गुरवाणी का प्रभाव साध-संगत में अधिक होता है। अत: सिख के लिए उचित है कि वह गुरुद्वारों के दर्शन करे तथा साध-संगत में बैठ कर गुरवाणी का लाभ उठाए।
  4. गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश प्रतिदिन होना चाहिए। साधारणतयः रहरासि साहिब के पाठ के पश्चात् सुख आसन किया जाना चाहिए।
  5. गुरु ग्रंथ साहिब जी को सम्मान के साथ प्रकाश, पढ़ना एवं संतोखना चाहिए। प्रकाश के लिए आवश्यक है कि स्थान पूर्णतः साफ़ हो तथा ऊपर चांदनी लगी हो। प्रकाश मंजी साहिब पर साफ़ वस्त्र बिछा कर किया जाना चाहिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी के लिए गदेले आदि का प्रयोग किया जाए तथा ऊपर रुमाला दिया जाए। जिस समय पाठ न हो रहा हो तो ऊपर रुमाला पड़ा रहना चाहिए। प्रकाश के समय चंवर किया जाना चाहिए।
  6. गुरुद्वारे में कोई मूर्ति पूजा अथवा गुरमत्त के विरुद्ध कोई रीति-संस्कार न हो।
  7. एक से दूसरे स्थान तक गुरु ग्रंथ साहिब को ले जाते समय अरदास की जानी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सिर के ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब उठाया हो वह नंगे पाँव होना चाहिए।
  8. गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश अरदास करके किया जाए। प्रकाश करते समय गुरु ग्रंथ साहिब में से एक शबद का वाक लिया जाए।
  9. जिस समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की सवारी आए तो प्रत्येक सिख को उसके सम्मान के लिए खड़ा हो जाना चाहिए।
  10. गुरुद्वारे में प्रवेश करते समय अपने जूते अथवा चप्पल आदि बाहर उतार कर तथा हाथ-पाँव धो कर जाना चाहिए।
  11. गुरुद्वारे में दर्शन के लिए किसी देश, धर्म, जाति आदि पर कोई प्रतिबंध नहीं, पर उनके पास सिख धर्म में प्रतिबंधित वस्तुएँ तंबाकू आदि कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए।
  12. संगत में बैठते समय सिख, गैर-सिख, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  13. किसी भी व्यक्ति द्वारा गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय अथवा संगत में गदेला, आसन, कुर्सी, चौकी अथवा मंजी आदि पर बैठना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  14. संगत में किसी सिख को नंगे सिर नहीं बैठना चाहिए। संगत में सिख स्त्रियों के लिए पर्दा करना अथवा चूंघट निकालने पर प्रतिबंध है।
  15. प्रत्येक गुरुद्वारे में निशान साहिब किसी ऊँचे स्थान पर लगा होना चाहिए।
  16. गुरुद्वारे में नगारा होना चाहिए तथा इसे समय अनुसार बजाया जाना चाहिए।
  17. संगत में कीर्तन केवल सिख कर सकता है।
  18. कीर्तन गुरवाणी को रागों में उच्चारण करना चाहिए।
  19. दीवान समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की ताबिया में केवल सिख (पुरुष अथवा स्त्री) को बैठने का अधिकार
  20. दीवान की समाप्ति के समय ‘हक्म’ लिया जाना चाहिए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

(ग) गुरुसिख की जीवन पद्धति
(Code of Conduct of Gursikh)
सिखों की जीवन पद्धति गुरमत्त के अनुसार होनी चाहिए। गुरमत्त यह है :—

  1. एक अकाल पुरुख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दा केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्त्तव्य है।
  7. सिख भांग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहांत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।
  16. लड़के के नाम के पीछे ‘सिंह’ तथा लड़की के नाम के पीछे ‘कौर’ शब्द लगाया जाए।
  17. सिखों का विवाह बिना किसी जाति-पाति अथवा गौत्र के विचार से होना चाहिए।
  18. सिख का विवाह ‘अनंदु’ रीति से करना चाहिए।
  19. बालक एवं बालिका का विवाह बचपन में करना प्रतिबंधित है। विवाह का दिन निश्चित करते समय अच्छे-बुरे दिन की खोज करना अथवा पत्री बनाना गुरमत्त के विरुद्ध है। इस संबंधी कोई भी दिन निश्चित किया जा सकता है।
  20. सेहरा, घड़ौली भरनी, रूठ जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेश्या का नाच करवाना, शराब पीना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  21. विवाह के समय गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में दीवान हो। संगत अथवा रागी कीर्तन करें। फिर सम्बंधित वर एवं वधु को गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में बैठाया जाए। संगत की अनुमति लेकर ‘अनंदु’ के आरंभ की अरदास की जाए।
  22. साधारणतयः सिख को एक स्त्री के होते हुए दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
  23. प्राणी के देहांत के समय यदि वह चारपाई पर हो तो उसे नीचे नहीं उतारना चाहिए अथवा अन्य कोई गुरमत्त के विरुद्ध संस्कार नहीं करना चाहिए। केवल गुरवाणी का पाठ अथवा ‘वाहिगुरु’, ‘वाहिगुरु’ करना चाहिए।
  24. प्राणी के देहांत पर रोना एवं सियापा नहीं करना चाहिए।
  25. प्राणी चाहे छोटा हो अथवा बड़ा उसका संस्कार किया जाना चाहिए।
  26. संस्कार के लिए दिन अथवा रात का भ्रम नहीं करना चाहिए।
  27. दीवा, सियापा, पिंड क्रिया, श्राद्ध, बुड्डे का मरना आदि करना गुरमत्त के विरुद्ध हैं।
  28. सिखों को प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमी के अवसर पर जैसे नए गृह में प्रवेश करना, नई दुकान को खोलना, बालक को शिक्षा के लिए भेजना आदि के समय वाहिगुरु की सहायता के लिए अरदास की जानी चाहिए।
  29. सेवा सिख धर्म का एक विशेष अंग है। सेवा केवल पंखा करना तथा लंगर आदि से ही समाप्त नहीं हो जाती। सिख का संपूर्ण जीवन ही दूसरों की सेवा में व्यतीत होना चाहिए।
  30. प्रत्येक सिख को पाँच कक्कार केश, कंघा, कच्छा, कड़ा एवं कृपाण धारण करनी चाहिए।
  31. ये चार कुरीतियां नहीं करनी चाहिएँ—
    • केशों की बेअदबी।
    • कुट्ठा खाना
    • पर स्त्री-पुरुष का गमन
    • तंबाकू का प्रयोग।
      यदि इनमें से कोई आज्ञा भंग हो जाए तो उसे पुनः अमृत छकना पड़ेगा।।
  32. जिस सिख से रहित संबंधी कोई भूल हो जाए तो वह निकट के गुरुद्वारे में जाकर संगत के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करे।
  33. गुरुमत्ता केवल उन प्रश्नों पर ही हो सकता है जो सिख धर्म के प्रारंभिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हों। यह गुरमत्ता केवल गुरु पंथ द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा अथवा संगत द्वारा पास किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
“नैतिकता सिख जीवन पद्धति का आधार है।” प्रकाश डालिए। (“Morality is the base of the Sikh Way of Life.” Elucidate.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार नैतिक जीवन ही जीवन की कुंजी है। चर्चा करें। (According to Sikhism, Moral Life is Key of Life.)
अथवा
सिख धर्म में नैतिकता की विलक्षणता पर नोट लिखें।
(Write a note on the special features of Sikh Morality.)
अथवा
नैतिक जीवन ही सिख जीवन की कुंजी है। चर्चा करें। (Moral Life is the Key to Sikh Life. Discuss.)
अथवा
“सिख धर्म में नैतिकता सिख जीवनचर्या की कंजी है।” चर्चा कीजिए। (“Morality is the Key in Sikhism as per Sikh Way of Life.” Discuss.)
उत्तर-
गुरुसिख की जीवन पद्धति (Code of Conduct of Gursikh)-
सिखों की जीवन पद्धति गुरमत्त के अनुसार होनी चाहिए। गुरमत्त यह है :—

  1. एक अकाल पुरुख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दा केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्त्तव्य है।
  7. सिख भांग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहांत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।
  16. लड़के के नाम के पीछे ‘सिंह’ तथा लड़की के नाम के पीछे ‘कौर’ शब्द लगाया जाए।
  17. सिखों का विवाह बिना किसी जाति-पाति अथवा गौत्र के विचार से होना चाहिए।
  18. सिख का विवाह ‘अनंदु’ रीति से करना चाहिए।
  19. बालक एवं बालिका का विवाह बचपन में करना प्रतिबंधित है। विवाह का दिन निश्चित करते समय अच्छे-बुरे दिन की खोज करना अथवा पत्री बनाना गुरमत्त के विरुद्ध है। इस संबंधी कोई भी दिन निश्चित किया जा सकता है।
  20. सेहरा, घड़ौली भरनी, रूठ जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेश्या का नाच करवाना, शराब पीना गुरमत्त के विरुद्ध है।
  21. विवाह के समय गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में दीवान हो। संगत अथवा रागी कीर्तन करें। फिर सम्बंधित वर एवं वधु को गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में बैठाया जाए। संगत की अनुमति लेकर ‘अनंदु’ के आरंभ की अरदास की जाए।
  22. साधारणतयः सिख को एक स्त्री के होते हुए दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए।
  23. प्राणी के देहांत के समय यदि वह चारपाई पर हो तो उसे नीचे नहीं उतारना चाहिए अथवा अन्य कोई गुरमत्त के विरुद्ध संस्कार नहीं करना चाहिए। केवल गुरवाणी का पाठ अथवा ‘वाहिगुरु’, ‘वाहिगुरु’ करना चाहिए।
  24. प्राणी के देहांत पर रोना एवं सियापा नहीं करना चाहिए।
  25. प्राणी चाहे छोटा हो अथवा बड़ा उसका संस्कार किया जाना चाहिए।
  26. संस्कार के लिए दिन अथवा रात का भ्रम नहीं करना चाहिए।
  27. दीवा, सियापा, पिंड क्रिया, श्राद्ध, बुड्डे का मरना आदि करना गुरमत्त के विरुद्ध हैं।
  28. सिखों को प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमी के अवसर पर जैसे नए गृह में प्रवेश करना, नई दुकान को खोलना, बालक को शिक्षा के लिए भेजना आदि के समय वाहिगुरु की सहायता के लिए अरदास की जानी चाहिए।
  29. सेवा सिख धर्म का एक विशेष अंग है। सेवा केवल पंखा करना तथा लंगर आदि से ही समाप्त नहीं हो जाती। सिख का संपूर्ण जीवन ही दूसरों की सेवा में व्यतीत होना चाहिए।
  30. प्रत्येक सिख को पाँच कक्कार केश, कंघा, कच्छा, कड़ा एवं कृपाण धारण करनी चाहिए।
  31. ये चार कुरीतियां नहीं करनी चाहिएँ—
    • केशों की बेअदबी।
    • कुट्ठा खाना
    • पर स्त्री-पुरुष का गमन
    • तंबाकू का प्रयोग।
      यदि इनमें से कोई आज्ञा भंग हो जाए तो उसे पुनः अमृत छकना पड़ेगा।।
  32. जिस सिख से रहित संबंधी कोई भूल हो जाए तो वह निकट के गुरुद्वारे में जाकर संगत के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करे।
  33. गुरुमत्ता केवल उन प्रश्नों पर ही हो सकता है जो सिख धर्म के प्रारंभिक सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हों। यह गुरमत्ता केवल गुरु पंथ द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा अथवा संगत द्वारा पास किया जा सकता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 3.
मूल मंत्र की व्याख्या करें। मूल मंत्र गुरु-ग्रंथ साहिब में किस स्थान पर अंकित है ?
(Explain the Mul Mantra. Where is the Mul Mantra placed in the Guru Granth Sahib ?)
अथवा
मूल मंत्र की व्याख्या करते हुए सिख धर्म में परम सत्ता की एकता के सिद्धांत को स्पष्ट करें।
(Explain the Sikh doctrine of unity of God while discussing Mul Mantra.)
अथवा
सिख धर्म में एकेश्वरवाद से क्या भाव है ? मूल मंत्र का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(What is meant by Monotheism in Sikhism ? Give a brief account of Mul Mantra.)
अथवा
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the concept of Akal Purkh (God) in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म में ‘मूल मंत्र’ क्या है ? व्याख्या करें। .
(What is the ‘Mul Mantra’ in Sikhism ? Explain.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं : १ ओंकार सतनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि ॥ जपु॥ आदि सच्चु जुगादि सच्चु है भी सच्चु नानक होसी भी सच्चु ॥ इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरुख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह है-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह अपनी सृष्टि में मौजूद है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी पर ही निर्भर करता है, वह डर एवं ईर्ष्या से मुक्त है। उस पर काल का प्रभाव नहीं होता। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसका प्रकाश अपने आपसे है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। अकाल पुरुख के स्वरूप का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है :—

1. ईश्वर एक है (God is One)-गुरुवाणी में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है यद्यपि उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। सिख परंपरा के अनुसार मूल मंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘एक ओ अंकार’ है वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। वह ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन पोषण करता है तथा उसका विनाश कर सकता है। इसी कारण कोई भी पीर, पैगंबर, अवतार, औलिया, ऋषि तथा मुनि इत्यादि उसका मुकाबला नहीं कर सकते। ये सभी उस ईश्वर के दरबार में एक भिखारी की तरह हैं। ईश्वर के सामने उनका दर्जा उसी प्रकार है जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम तथा कृष्ण इत्यादि हज़ारों तथा लाखों हैं, किंतु ईश्वर एक है। अतः गुरवाणी में एक ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य देवीदेवता की पूजा को वर्जित किया गया है। गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

सदा सदा सो सैविए जो सभ महि रिहा समाए॥
अवर दूजा किउं सैविए जन्मे ते मर जाए॥

2. निर्गुण तथा सर्गुण (Nirguna and Sarguna)-ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है तथा सर्गुण भी। सर्वप्रथम संसार में चारों ओर अंधकार था। उस समय कोई धरती अथवा आकाश जीव-जंतु इत्यादि नहीं थे। ईश्वर अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसके एक हुकम के साथ ही यह धरती, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, पर्वत, दरिया, जंगल, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा फूल इत्यादि अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार ईश्वर ने अपना रूपमान (प्रकट) किया। इन सब में उसकी रोशनी देखी जा सकती है। यह ईश्वर का सर्गुण स्वरूप है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बाजीगर जैसे बाजी पाई॥ नाना रूप भेख दिखलाई॥
सागु उतार थामिउ पसारा॥ तब ऐको एक ओ अंकारा॥

3. रचयिता, पालनकर्ता तथा नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)—ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और उसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना से पूर्व कोई धरती, आकाश नहीं थे तथा चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था। केवल ईश्वर का हुक्म (आदेश) चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके हुक्म के अनुसार ही संपूर्ण विश्व चलता है। ईश्वर ही सभी जीव-जंतुओं को रोजी-रोटी देता है तथा उनका पालनकर्ता है। ईश्वर की जब इच्छा हो तो वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

आपीन्है आपु साजिओ आपीन्है रचिओ नाउ॥
दुयी कुदरित साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ॥
दाता करता आपि तूं तुसि देवहि करहि पसाउ॥
तूं जाणोई सभसै दे ले सहि जिंदु कवाउ॥
करि आसणु डिठो चाउ॥

4. सर्वशक्तिमान (Sovereign)—ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहता है वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। वह अपनी शक्तियों के लिए किसी पर भी आश्रित नहीं है। उसे किसी भी सहायता की आवश्यकता नहीं। वह स्वयं सभी का सहारा है। उसकी सर्वशक्तिमानता के संबंध में गुरवाणी में अनेक स्थानों पर उदाहरण मिलते हैं। वह जब चाहे भिखारी को सिंहासन पर बिठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। धरती-आकाश तथा सभी जीव-जंतु उसके हुक्म का पालन करते हैं। संक्षेप में कोई भी ऐसा कार्य नहीं जिसे वह ईश्वर करने के योग्य न हो।

5. निराकार तथा सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)ईश्वर निराकार है। उसका कोई आकार अथवा रंग रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है। इसके बावजूद वह सर्वव्यापक है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान् है। उसे दिव्य दृष्टि से देखा जा सकता है। उसकी रोशनी सभी में मौजूद है। इसलिए वह सबके निकट है। उसे अपने से दूर न समझो। वह प्रत्येक स्थान पर मौजूद है। गुरु गोबिंद सिंह जी फरमाते हैं,

जलस तूही॥ थलस तूही॥ नदिस तूही॥ नदसु तूही॥
ब्रिछस तूही॥ पतस तूही॥ छितस तूही। उधरसु तूही॥

6. अमर (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान है। यह अस्थिर है। पर ईश्वर अमर है। वह आवागमन, जन्म-मृत्यु तथा समय आदि के चक्रों से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों-लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान् हैं किंतु ईश्वर नहीं।

7. महानता (Greatness)-गुरुवाणी में अनेक स्थानों पर ईश्वर की महानता का वर्णन मिलता है। संसार में उससे बड़ा दानी कोई और नहीं है। उसका धन भंडार इतना है कि बाँटने से भी खाली नहीं होता। वह मनुष्यों को अतुल्य ख़जाने से मालामाल कर सकता है। वह शरण आए महापापियों को क्षमा कर सकता है। उस ईश्वर की महानता के बारे में हज़ारों तथा लाखों भक्तों तथा संतों ने गुणगान किया है। फिर भी यह उसके गुणों के भंडार का एक छोटा-सा भाग ही है। वास्तव में उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसका ज्ञान, उसके उपहार, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महानता का ज्ञाता स्वयं है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

वडी वडिआई जा वडा नाउ॥
वडी वडिआई जा सचु निआउ॥
वडी वडिआई जा निहचल थाउ॥
वडी वडिआई जाणै आलाउ॥
वडी वडिआई बुझै सभि भाउ॥

8. न्यायशील (Just)—ईश्वर न्यायशील भी है। उसके दरबार में सभी को बिना किसी मतभेद के निष्पक्ष न्याय मिलता है। संसार के न्यायालयों में भ्रष्ट ढंग से अथवा उच्च पदों के अधिकारों का प्रयोग कर मनुष्य अपने पापों की सज़ा से बच सकता है, किंतु उस ईश्वर के न्यायालय में नहीं। वह मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों को भली-भांति जानता है। इसलिए उसे किसी पड़ताल की आवश्यकता नहीं। वहाँ केवल सच्चाई से निपटारा होता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 4.
नाम जपना, किरत करनी तथा बाँटकर छकना सिख धर्म के बुनियादी नियम हैं। व्याख्या करें।
(Remembering Divine Name, Honest Labour and Sharing With the Needy are the basis of the Sikh Way of Life. Discuss.)
अथवा
किरत करो, नाम जपो तथा बाँटकर छक्को के महत्त्व पर प्रकाश डालें। (Throw light on the importance of Kirat Karo, Nam Japo and Wand Chhako.)
अथवा
सिख धर्म में जीवन जाँच के निम्नलिखित आवश्यक अंश हैं—
(क) नाम जपना
(ख) किरत करना
(ग) बाँट कर छकना।
[Following are the necessary elements of life in Sikhism,
(a) Remembering Divine Name
(b) Honest Labour
(c) Sharing with the Others.]
अथवा
नाम जपना, किरत करना तथा बाँटकर छकना पर नोट लिखो।
(Write notes on the following : Nam Japna, Kirat-Karna, Wand Chhakna.)
उत्तर-
नाम जपना, किरत करनी तथा बाँटकर छकना सिख धर्म के तीन बुनियादी सिद्धांत हैं। इन्हें यदि सिख धर्म की संपूर्ण शिक्षा का सार कह दिया जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सिख धर्म में प्रत्येक सिख को अपना जीवन इन तीन सिद्धांतों के अनुसार व्यतीत करने की प्रेरणा दी गई है। इन सिद्धांतों से क्या भाव है तथा उनका क्या महत्त्व है इसका संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है :—

1. नाम जपना (Remembering Divine Name) सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

माउ तेरा निरंकारु है नाइं लइए नरकि न जाईए॥
गुरु तेग़ बहादुर जी फरमाते हैं,
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीन॥
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास॥

2. किरत करनी (Honest Labour)-किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीवजंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता। ऐसा व्यक्ति वास्तव में उस परमात्मा के विरुद्ध गुनाह करता है। गुरु नानक देव जी स्वयं कृषि का कार्य करके अपनी किरत करते थे। उन्होंने सैदपुर में मलिक भागो का ब्रह्म भोज छकने की अपेक्षा भाई लालो की सूखी रोटी को खुशीखुशी स्वीकार किया। इसका कारण यह था कि भाई लालो एक सच्चा किरती था। सिखों के लिए कोई भी व्यवसाय करने पर प्रतिबंध नहीं। वह कृषि, व्यापार, दस्तकार, सेवा, नौकरी इत्यादि किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। किंतु उसके लिए चोरी, ठगी, डाका, धोखा, रिश्वत तथा पाप की कमाई करना सख्त मना है।

3. बाँट छकना (Sharing with the Needy)-सिख धर्म में बाँट छकने के सिद्धांत को काफी महत्त्व दिया गया है। बाँट छकने से भाव आवश्यक लोगों के साथ बाँटो। सिख धर्म खा कर पीछे बाँटने की नहीं अपितु पहले बाँटकर बाद में खाने की शिक्षा देता है। इसमें दूसरों को भी अपना भाई-बहन समझने तथा उन्हें पहले बाँटने की प्रेरणा दी गई है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

घालि खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राह पछाणे सेइ॥

दान देने अथवा बाँट के खाने के लिए केवल वही व्यक्ति सफल है जो श्रम की कमाई करके दान देता है। सिख धर्म में दसवंध देने का हुक्म है। इससे भाव यह है कि आप अपनी कमाई (आय) का दसवाँ हिस्सा लोक कल्याण कार्यों के लिए खर्च करें। गुरु अर्जुन देव जी ने कहा है,

ददा दाता एक है, सभ को देवनहारु॥
देदे तोटि न आवइ, अगनत भरे भंडार॥

प्रश्न 5.
सिख धर्म में संगत का महत्त्व दर्शाएँ।
(Explain the importance of Sangat in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के अनुसार ‘संगत’ के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the Concept of Sangat in Sikhism.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

प्रश्न 6.
सिख धर्म में पंगत का महत्त्व दर्शाएँ।
(Explain the importance of Pangat in Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म में पंगत के संकल्प का वर्णन करें। (Describe the Concept of Pangat in Sikhism.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।

गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

प्रश्न 7.
सिख जीवनयापन की पद्धति में ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ के महत्त्व के विषय में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of ‘Sangat’ and ‘Pangat’ in the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म में ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ (पंक्ति) से क्या अभिप्राय है ? चर्चा कीजिए।
(What is meant by the Concept of ‘Sangat and Pangat’ in Sikhism ? Discuss.)
अथवा
सिख जीवन जाँच में संगत और पंगत के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the importance of Sangat and Pangat in Sikh Way of Life.) 14
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।
गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 8.
सिख धर्म में हवम संकल्प का वर्णन करें।
(Describe the Concept of Hukam in Sikhism.)
उत्तर-
हुक्म सिख दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प है। हुक्म अरबी भाषा का शब्द है जिसके अर्थ है आज्ञा, फरमान अथवा आदेश। गुरुवाणी में अनेक स्थानों पर उस परमात्मा के हुक्म को मीठा करके मानने को कहा गया है। हुक्म से भाव उस परम विधान से है जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व एक विशेष विधि के अनुसार कार्य कर रहा है।
गुरु नानक देव जी ‘जपुजी’ में लिखते हैं कि संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति परमात्मा के हुक्म के अनुसार हुई है। हुक्म के कारण ही जीव को प्रशंसा अथवा बदनामी मिलती है। हुक्म के कारण ही वह अच्छे-बुरे बनते हैं तथा दुःखसुख प्राप्त करते हैं। हुक्म के कारण वे पापों से मुक्त हो सकते हैं अथवा वे आवागमन के चक्र में भटकते रहते हैं। उसके हुक्म के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता। वास्तव में सृष्टि की सभी गतिविधियों दिन-रात, जल-धरती, वायु-अग्नि, चंद्रमा-सूर्य, लोक-परलोक पर उसका हुक्म चलता है। गुरु नानक देव जी फरमाते है,

हुकमै आवे हुकमै जाए॥
आगे पाछे हुकम समाए॥

संसार में उस मनुष्य का आना सफल है जिसने उस परमात्मा के हुक्म की पहचान की है। हुक्म को केवल वह मनुष्य पहचान सकता है जिसने हउमै का त्याग कर दिया हो तथा जि में उस परमात्मा के नाम का बसेरा हो। वह मनुष्य जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक प्रसन्नता अथवा गमगीन घटना को उस परमात्मा का हुक्म समझकर सहर्ष स्वीकार करता है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

जिउ जिउ तेरा हुकम तिवें तिउ हौवणा॥
जह जह रखै आप तह जाए खड़ोवणा॥

हुक्म की पहचान करने वाले मनुष्य पर उस परमात्मा की नदरि होती है। उसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं होती क्योंकि वह जानता है कि जो कुछ घटित हो रहा है वह उस परमात्मा के अटल हुक्म के अनुसार ही हो रहा है। मनुष्य के अपने हाथों में कुछ भी नहीं है। ऐसे मनुष्य का मन सदैव शाँत रहता है तथा उसकी प्रत्येक प्रकार की तृष्णा समाप्त हो जाती है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

हुकमि मंनिए होवै परवाणु ता खसमै का महलु पाइसी॥
खसमै भावे सो करे मनहु चिंदिआ सो फलु पाइसी॥
ता दरगाह पैंधा जाइसी॥

जो व्यक्ति उस परमात्मा के हुक्म को नहीं मानते वे न केवल इस जन्म में घोर दुःखों का सामना करते हैं, अपितु आवागमन के चक्र में फंसे रहते हैं। उसके हुक्म की अवज्ञा करने वालों को यमदूतों से घोर मार (पिटाई) पड़ती है। ऐसे व्यक्तियों को कभी सुख नहीं मिलता तथा उनका इस संसार में आमा व्यर्थ जाता है। गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

मनमुख अंध करे चतुराई॥
भाणा न मने बहुत दुःख पाई॥
भरमे भूला आवै जावै॥

अत: गुरुवाणी में अपने हउमै का त्याग कर मनुष्य को उस परमात्मा के हुक्म की पालना करने का आदेश दिया गया है, क्योंकि उस परमात्मा का हुक्म अटल है इसलिए उसका पालन करने वाला व्यक्ति ही इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 9.
“अहं दीर्घ रोग है।” कैसे ? इसको दूर करने के क्या उपाय हैं ? (“‘Ego is a deep rooted disease.” How ? What are the means to remove it ?)
अथवा
सिख धर्म में ‘हउमै’ की अवधारणा का वर्णन करो।
(Describe the Concept of Ego in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। इस प्रकार उसका संसार बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों, बहनों-बहनोइयों, मातापिता, सास-ससुर, जवाई, पति-पत्नी आदि के साथ संबंधित पास अथवा दूर की रिश्तेदारियों तक ही सीमित रहता है। यदि थोड़ी सी अपनत्व की डोर लंबी कर ली जाए तो इस निजी संसार में सज्जन-मित्र भी शामिल कर लिए जाते हैं। परंतु आखिर में इस संसार की सीमा निजी जान पहचान तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। इस निजी संसार की रचना के कारण मनुष्य में हउमै की भावना उत्पन्न होती है और वह अपने आपको इस आडंबर का मालिक समझने लगता है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता। हउमै के प्रभाव में जीव क्या-क्या करता है ? इसका उत्तर गुरु नानक देव जी देते हैं कि जीव के सारे कार्य हऊमै के बंधन में बंधे होते हैं। वह हउमै में जन्म लेता है, मरता है, देता है, लेता है, कमाता है, गंवाता है, कभी सच बोलता है और कभी झूठ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का हिसाब करता है, समझदारी और मूर्खता भी हउमै के तराजू में तौलता है। हउमै के कारण ही वह मुक्ति के सार को नहीं जान पाता। यदि वह हऊमै को जान ले तो उसे परमात्मा के दरबार के दर्शन हो सकते हैं। अज्ञानता के कारण मनुष्य झगड़ता है। कर्म के अनुसार ही लेख लिखे जाते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ॥
हउ विचि जंमिआ हउ विचि मुआ॥
हउ विचि दिता हउ विचि लइआ॥
हउ विचि खोटआ हउ विचि गइआ॥
हउ विचि सचिआरु. कूड़िआरु ॥
हउ विचि पाप पुनं वीचारु ॥
हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु॥
हउ विचि हसे हउ विचि रोवै॥
हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै॥
हउ विचि जाती जिनसी खोवै॥
हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा॥
मोख मुकति की सार न जाणा॥
हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ॥
हउमै करि करि जंत उपाइया।
ह उमै बूझै ता दरु सूझै ॥
गिआन विहणा कथि कथि लूझै॥
नानक हुक मी लिखीए लेखु॥
जेहा वेखहि तेहा वेखु॥

हउमै के कारण मनुष्य के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप उसकी आत्मा दुःखी होती है। इसका मनुष्य को तब पता चलता है जब वह वृद्ध हो जाता है। उस समय मनुष्य की सभी इंद्रियां जवाब दे चुकी होती हैं। जिन्हें अपना मानकर उसने कई पाप किये होते हैं तथा जिन पर उसके कई अहसान होते हैं वे ही उससे मुख । मोड़ लेते हैं। परिणामस्वरूप उसे भारी आघात पहुँचता है तथा वह अपने किए पर पछताता है। परन्तु अब वह कुछ . करने योग्य नहीं रह जाता और उसे चारों तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आने लगता है।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-इलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले इसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्म मंथन करना, वैराग्य अपनाना, सेवा, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार, आदि ऐसे साधन हैं जिन पर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि॥
किरपा करे जे आपणी ता गुरु का सबदु कमाहि॥
नानकु कहै सुणहु जनहु इतु संजमि दुख जाहि॥

जब तक मनुष्य के अंदर हउमै है वह ‘नाम’ के महत्त्व को पहचान नहीं सकता और वह भक्त नहीं बन सकता। ये दोनों एक ही स्थान पर इकट्ठा नहीं रह सकते। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥
ह उमै सेव न होवई ता मन विरथा जाहि॥
हर चेत मन मेरे तु गुर का शब्द कमाहि ॥
हुकमि मनहि ता हरि मिले ता विचहु हउमै जाहि॥ रहाउ॥

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 10.
सिख धर्म में सिमरन का महत्त्व बयान करें। (Describe the importance of Simran in Sikhism.)
अथवा
सिमरन से क्या भाव है ? इसके क्या लाभ हैं ?
(What is meant by Simran ? What are its benefits ?)
अथवा
सिख धर्म के नाम के संकल्प पर नोट लिखें।
(Write a note on the Concept of Nam in Sikhism.)
उत्तर-
सिमरन अथवा नाम सिख दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है। गुरु ग्रंथ साहिब में नाम के गुणगान का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। उस ‘परमात्मा’ की प्राप्ति के लिए नाम ही सबसे बढ़िया साधन है। नाम की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती क्योंकि यह बेअंत, अगम, अथाह तथा अमोलक है।
मनुष्य के पाँच शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक रुचियों को जन्म देते हैं। ये मनुष्य को उसके वास्तविक उद्देश्य से भटका कर उसे ऐश्वर्य, स्वाद तथा आनंद में मग्न रखते हैं। समय के साथ इन रुचियों के प्रति उत्साह कम हो जाता है। अतः इन्हें झूठ का प्रसार कहा जाता है। किंतु ये पाँच शत्रु मनुष्य के अंदर एक ऐसी अग्नि उत्पन्न करते हैं जिसमें अंततः वह भस्म हो जाता है। इस प्रकार संसार में उसका आना निष्फल हो जाता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

कूड़ि कूड़े नेह लगा विसरिआ करतारु॥
किसु नालि काचै दोसती सभु जगु चलणहारु ॥
कूड़ि मिठा कूड़ि माखिउ कूड़ि डोबे पुरु॥
नानकु वखाणे बेनती तुधु बाझ कूड़ो कुड़ि॥

नाम की आराधना के साथ जहां मन के दुर्भाव दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल भी हो जाता है। अतः मनुष्य के शारीरिक कष्ट भी दूर हो जाते हैं। वास्तव में नाम के जाप द्वारा व्यक्ति उस ऊँची अवस्था में पहुँच जाता है जहाँ उसे शारीरिक भूख तथा संसार के साथ लगाव नहीं रहता। नाम सिमरनि के साथ कई जन्मों की मन को लगी मैल उतर जाती है। मनुष्य के सभी दुःखों का नाश हो जाता है। उसके सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। आत्मा पर पड़ा माया का पर्दा हट जाता है तथा वह अपने वास्तविक रूप में प्रगट हो जाती है। अत: गुरुवाणी में मनुष्य को प्रत्येक प्रकार की चतुराई को त्याग कर उस परमात्मा के नाम का सहारा लेने पर बल दिया गया है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै।
प्रभ कै सिमरनि दुख जम् नसै॥
प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै॥
प्रभ कै सिमरनि दुश्मनु टरै ॥
प्रभ सिमरनि कछु विघन न लगै॥
प्रभ के सिमरनि अनदिन जागै॥
प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै॥
प्रभ के सिमरनि दुखु न संतापै।।
प्रभ कै सिमरनि साध के संगि॥
सरब निधान नानक हरि रंगि॥

उस परमात्मा के नाम का जाप करने वाला मनुष्य कभी भी किसी पर बोझ नहीं बनता। उसके सभी कार्य स्वयं होते चले जाते हैं क्योंकि परमात्मा स्वयं उसके कार्यों में सहायक होता है। नाम का जाप करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कंवल के फूल की भांति रहती है। वह जीव इस भवसागर से तर जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। परमात्मा के दरबार में ऐसे मनुष्य उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु॥
सणिणे अठसठि का इसनानु॥
सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु॥
सुणिए लागै सहजि धिआनु॥
नानक भगता सदा विगासु॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु॥

उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि (कृपा) हो। नाम के जाप के लिए मन को नियंत्रण में रखना, हउमै को दूर करना, नम्रता तथा सेवा आदि गुणों को धारण करना आवश्यक है। अतः नाम के जाप को गुरुवाणी में एक जीवन जाँच कहा गया है।
नाम के जाप के बिना मानव जीवन धिक्कार है। ऐसा मानव एक गधे की भांति मों जैसी बातें करता है। वह घोर कष्ट सहन करता है। वे यमलोक में जाते हैं। उन्हें यमदूतों की मार से कोई नहीं बचा सकता। उनके मुख भयावह लगते हैं। ऐसे निम्न मनुष्य का संसार में आना व्यर्थ है। फरीद जी फरमाते हैं,

फरीदा तिना मुख डरावणै जिना विसारिउ नाउ॥
ऐथे दुःख घणेरिआ अगै ठउर न ठाऊ ॥

गुरु तेग बहादुर जी फरमाते हैं कि आवागमन के चक्र में घूमते अनेक युगों के पश्चात् मानव का जीवन प्राप्त हुआ है। इस जन्म में अब परमात्मा से मिलाप की बारी है तो हे मानव तुम उस परमात्मा का नाम क्यों नहीं जपते ?

फिरत-फिरत बहुते युग हारिओ मानस देह लही॥
नानक कहत मिलन की बरिआ सिमरत कहा नहीं॥

प्रश्न 11.
सिख धर्म में ‘गुरु’ का क्या महत्त्व है ? वर्णन करें। (What is the importance of ‘Guru’ in Sikhism ? Explain.)
उत्तर-
सिख धर्म में गुरु को विशेष महत्त्व प्राप्त है। सच्चे गुरु की शक्ति अपार है। वह लंगड़ों को पर्वत पर चढ़ने की शक्ति प्रदान कर सकता है। वह अन्धों को त्रिलोक के दर्शन करवा सकता है। वह कीड़ी को हाथी जैसा बल दे सकता है। वह घोर अहंकारी को नम्रता का पुजारी बना सकता है। वह कंगाल को लखपति तथा लखपति को कंगाल बना सकता है। वह मुर्दे को जीवित कर सकता है। वह डूबते हुए पत्थरों को तैरा सकता है भाव वह हर असम्भव कार्य को सम्भव बना सकता है। गुरु बेसहारों का सहारा, अनाथों का नाथ तथा सदैव साथ रहने वाला है। वह मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले कर आता है। उसके बिना विश्व में फैले अज्ञानता के अंधकार को सहस्रों चंद्रमा तथा हज़ारों सूर्यों का प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता। गुरु अंगद देव जी फरमाते हैं,

जे सउ चंदा उगवहि सूरज चडहि हजार॥
एते चानण होदिआं गुरु बिन घोर अंधार॥

गुरु की पारस छोह मनुष्य को दैवी गुणों से भरपूर कर सकती है। गुरु का नाम लेने से विष अमृत बन जाता है। वह मनुष्य के मन में उत्पन्न कई जन्मों की मैल को पलक झपकते ही दूर कर सकता है। उसके मिलाप के साथ जीवन में प्रसन्नता आ जाती है तथा मन पर स्वयं नियंत्रण हो जाता है। मनुष्य के सभी कार्य अपने आप सफल हो जाते हैं। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

लख खुशीयां पातशाहीयां जे सतगुरु नदरि करे॥
निमख एक हर नामि दे मेरा मन तन सीतल होय॥

सिख धर्म में देहधारी गुरु पर विश्वास नहीं किया जाता क्योंकि वह सर्व कला संपूर्ण नहीं हो सकता। सच्चा गुरु परमात्मा स्वयं है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

आपे करता पुरुख विधाता॥ जिन आपे आप उपाए पछाता॥
आपे सतिगुरु आपे सेवक आपे सृष्टि उपाई है ॥

सच्चा गुरु एक ऐसा पुरुष है जिसके सामने चुगली एवं प्रशंसा एक जैसे होते हैं। उसका हृदय ब्रह्म ज्ञान का भंडार होता है। वास्तव में वह उस परमात्मा की सभी शक्तियों का स्वामी होता है। वह आत्मिक रूप से इतना ऊँचा होता है कि उसका अंत नहीं पाया जा सकता। वास्तव में सच्चे गुरु के अंदर परमात्मा के सभी गुण मौजूद होते हैं। इसी कारण सच्चे गुरु से मिलन मनुष्य के जीवन की काया पलट सकता है।
सच्चे गुरु का एक लक्षण यह भी है कि वह अपनी पूजा कभी नहीं करवाता क्योंकि उसे किसी प्रकार का कोई लालच नहीं होता। वह सदैव निरवैर रहता है। दोस्त तथा दुश्मन उसके लिए एक हैं। अगर कोई आलोचक भी उसकी शरण में आ जाए तो वह उसे भी माफ कर देता है। इसके अतिरिक्त वह कभी भी किसी का बुरा नहीं चाहता। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

सतिगुरु मेरा सदा सदा न आवे न जाए॥
उह अविनासी पुरुख है सब महि रिहा समाए॥

अज्ञानी गुरु के मिलाप से कभी भी जीवन के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह स्वयं अज्ञानता के अंधकार में भटक रहा होता है। सच्चे गुरु के साथ मिलाप तभी संभव है अगर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो। उसे शब्द के द्वारा जाना जा सकता है।

प्रश्न 12.
सिख धर्म में ‘कीर्तन’ संकल्प का वर्णन करें। (Discuss the Concept of ‘Kirtan’ in Sikhism.)
उत्तर-
सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है।
सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। उन्होंने अपनी यात्राओं के समय भाई मर्दाना जी को साथ रखा जो कीर्तन के समय रबाब बजाता था। गुरु नानक देव जी कीर्तन करते हुए अपने श्रद्धालुओं के मनों पर जादुई प्रभाव डालते थे। परिणामस्वरूप न केवल सामान्यजन अपितु सज्जन ठग, कोड्डा राक्षस, नूरशाही जादूगरनी, हमजा गौस तथा वली कंधारी जैसे कठोर स्वभाव के व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना न रह सके एवं आपके शिष्य बन गए। कीर्तन की इस प्रथा को शेष 9 गुरुओं ने भी जारी रखा। गुरु हरगोबिंद साहिब ने कीर्तन में वीर रस उत्पन्न करने के उद्देश्य से ढाडी प्रथा को प्रचलित किया।

प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है। इससे मनुष्य का सोया हुआ मन जाग उठता है, उसके दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं एवं कई जन्मों की मैल दूर हो जाती है। वह हरि नाम में लीन हो जाता है। मानव का मन निर्मल हो जाता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठती है तथा उसका लोकपरलोक सफल हो जाता है। इस कारण कीर्तन को निरमोलक (अमूल्य) हीरा कहा जाता है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुरु दुआरे हरि कीर्तन सुणिए॥
सतिगुरु भेटि हरि जसु मुख भणिए।
कलि क्लेश मिटाए सतगुरु ॥
हरि दरगाह देवे माना है ॥

कीर्तन का गायन करने से अथवा इसके सुनने का सम्मान केवल उन मनुष्यों को प्राप्त होता है जिस पर उस परमात्मा की मिहर हो। उसकी मिहर के बिना न तो मानव को सांसारिक कार्यों से समय मिलता है तथा यद्यपि वह कभी कीर्तन में सम्मिलित भी होता है तो उसका मन नहीं लगता। कीर्तन से मनुष्य के सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

हरि दिन रैन कीर्तन गाइए॥
बहु र न जौनी पाइए॥

प्रश्न 13.
सिख जीवनचर्या में सेवा की भूमिका के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the role of Seva in the Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख धर्म में ‘सेवा’ के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
(Discuss the importance of ‘Seva’ in Sikhism.)
अथवा
सिख जीवन जाच में सेवा का महत्त्व दर्शाइए।
(Describe the importance of Sewa (Service) in Sikh way of life.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, पानी पिलाना, लंगर आदि ही संमिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को अपनी हउमै का त्याग कर परमात्मा को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। सेवा संबंधी गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

तेरी सेवा सो करहे जिस न लैहि तू लाई॥
बिनु सेवा किन्हें न पाइआ दूजे भरम खुआई॥

सिख इतिहास में अनेकों ऐसी उदाहरणें हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जिसने सेवा की वह गुरु घर का स्वामी बन गया, किंतु जिसमें हउमै आ गई उसे कुछ प्राप्त न हुआ। भाई लहणा जी द्वारा की गई गुरु नानक देव जी की अथक सेवा के कारण ही उन्हें गुरु अंगद का सम्मान प्राप्त हुआ! अमरदास जी यद्यपि आयु में बहुत बड़े थे किंतु फिर भी उन्होंने गुरु अंगद देव जी की इतनी सेवा की कि उन्हें न केवल गुरुगद्दी ही सौंपी गई अपितु उन्हें “निथावियाँ दी थां” (भाव जिसका कोई आश्रय नहीं है उनका सहारा) कह कर सम्मानित किया गया। दूसरी ओर श्रीचंद, दातू एवं दासू, पृथी चंद इत्यादि गुरु साहिबान के पुत्र होने के बावजूद सेवा के बिना गुरुगद्दी से वंचित रहे। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मन बेचे सतिगुरु के पास ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निह कामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

मानव सेवा को ही उस परमात्मा की सेवा का सर्वोत्तम रूप समझा गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के समय लड़ी गई आनंदपुर की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों की बिना किसी भेदभाव के जल सेवा की तथा उनके जख्मों पर मरहम-पट्टी की। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते हैं। भाई कन्हैया जी द्वारा यह सच्ची भावना से की गई सेवा आज भी सिखों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य कर रही है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

आप गवाहि सेवा करे ता किछ पाए मानु॥
नानक जिस नो लगा तिस मिलै लगा सो परवानु॥

गुरमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरंतर भाग है। यह एक दिन अथवा दो दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अंदर झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 14.
सिख जीवन जाच के अनुसार सेवा और सिमरन का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें।
(As per Sikh Way of Life what is the importance of Seva and Simarn? Elucidate.)
अथवा
सिख जीवन जाच में सेवा व सिमरन का महत्त्व दर्शाएं।
(Describe the importance of Seva and Simran in Sikhism.).
उत्तर-
उत्तर-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, पानी पिलाना, लंगर आदि ही संमिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को अपनी हउमै का त्याग कर परमात्मा को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। सेवा संबंधी गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

तेरी सेवा सो करहे जिस न लैहि तू लाई॥
बिनु सेवा किन्हें न पाइआ दूजे भरम खुआई॥

सिख इतिहास में अनेकों ऐसी उदाहरणें हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जिसने सेवा की वह गुरु घर का स्वामी बन गया, किंतु जिसमें हउमै आ गई उसे कुछ प्राप्त न हुआ। भाई लहणा जी द्वारा की गई गुरु नानक देव जी की अथक सेवा के कारण ही उन्हें गुरु अंगद का सम्मान प्राप्त हुआ! अमरदास जी यद्यपि आयु में बहुत बड़े थे किंतु फिर भी उन्होंने गुरु अंगद देव जी की इतनी सेवा की कि उन्हें न केवल गुरुगद्दी ही सौंपी गई अपितु उन्हें “निथावियाँ दी थां” (भाव जिसका कोई आश्रय नहीं है उनका सहारा) कह कर सम्मानित किया गया। दूसरी ओर श्रीचंद, दातू एवं दासू, पृथी चंद इत्यादि गुरु साहिबान के पुत्र होने के बावजूद सेवा के बिना गुरुगद्दी से वंचित रहे। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥
गुर की आगिआ मन महि सहै ॥
आपस कउ करि कछु न जनावै ॥
हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥
मन बेचे सतिगुरु के पास ॥
तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निह कामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

मानव सेवा को ही उस परमात्मा की सेवा का सर्वोत्तम रूप समझा गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के समय लड़ी गई आनंदपुर की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों की बिना किसी भेदभाव के जल सेवा की तथा उनके जख्मों पर मरहम-पट्टी की। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते हैं। भाई कन्हैया जी द्वारा यह सच्ची भावना से की गई सेवा आज भी सिखों के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य कर रही है। गुरु अंगद साहिब जी फरमाते हैं,

आप गवाहि सेवा करे ता किछ पाए मानु॥
नानक जिस नो लगा तिस मिलै लगा सो परवानु॥

गुरमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरंतर भाग है। यह एक दिन अथवा दो दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अंदर झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित सिख जीवन के सिद्धांतों के ऊपर नोट लिखो :
(क) हउमै
(ख) सेवा
(ग) जात-पात।
[Write brief notes on the following Principles of Sikh Way of Life :
(a) Humai (Ego)
(b) Seva (Service)
(c) Jat-Pat (Caste)]
उत्तर-
(क) हउमै (Haumai)-सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

(ख) सेवा (Seva)-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

(ग) जात-पात (Caste)-गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रश्न 16.
सिख धर्म में भाईचारा की अवधारणा’ के विषय में चर्चा कीजिए। (Discuss the Concept of ‘Brotherhood’ in Sikhism.)
उत्तर-
उत्तर-संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है। गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

जिउ छूह पारस मनूर भये कंचन॥
तिउ पतित जन मिल संगति॥

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेद-भाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। गुरु अर्जन देव जी फरमाते हैं,

बिसरि गयी सब तातु परायी॥
जब ते साध संगत मोहि पायी ॥रहाउ॥
न को बैरी नाही बिगाना॥
सगल संग हम को बन आयी।

संगत के मिलने से मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। यमदूत निकट आने का साहस नहीं करते। मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं। उसका हउमै जैसा दीर्घ रोग भी ठीक हो जाता है। संगत में बैठने से मन को उसी प्रकार शांति प्राप्त होती है जैसे ग्रीष्म ऋतु में एक घना वृक्ष शरीर को ठंडक पहुँचाता है। संगत में केवल वे मनुष्य ही जाते हैं जिन पर उस परमात्मा की नदरि (कृपा) हो । संगत का लाभ केवल उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनका मन निर्मल हो। जो मनुष्य अहंकार के साथ संगत में जाते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता। इस संबंध में भक्त कबीर जी चंदन तथा बाँस की उदाहरण देते हैं। आपका कथन है कि जहाँ संपूर्ण वनस्पति चंदन से खुशबू प्राप्त करती है वहीं पास खड़ा हुआ बाँस अपनी ऊँचाई तथा अंदर से खोखला होने के कारण चंदन की खुशबू प्राप्त नहीं कर सकता।
जो मनुष्य संगत में नहीं जाता उसका इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। उसे अनेक कष्ट सहन करने पड़ते हैं। वे कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते तथा अनेक योनियों में भटकते रहते हैं। गुरु रामदास जी फरमाते हैं,

बिन भागां सति संग न लभे॥
बिन संगत मैल भरीजै जिउ॥

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें वान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथों देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है।।

गुरु रामदास जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में पंगत संस्था को पूर्ण उत्साह के साथ जारी रखा। उन्होंने गुरु के लंगर तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए सिखों से धन एकत्र करने के उद्देश्य से मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को दसवंद देने के लिए कहा। उनके समय उनकी पत्नी माता गंगा जी लंगर प्रबंध की देखभाल करती थीं। उनके समय मंडी, कुल्लू, सुकेत, हरीपुर तथा चंबा रियासतों के शासकों तथा मुग़ल बादशाह अकबर को लंगर छकने का सम्मान प्राप्त हुआ।
गुरु हरगोबिंद जी ने पंगत प्रथा को जारी रखा। उन्होंने सेना में भी गुरु का लंगर बाँटने की प्रथा आरंभ की। गुरु हरराय जी ने यह घोषणा की कि लंगर की मर्यादा तब ही सफल मानी जा सकती है यदि कोई यात्री देर से भी पहुँचे तो उसे तुरंत लंगर तैयार करके छकाया जाए। इसके अतिरिक्त आप जी ने यह भी कहा कि लंगर के आरंभ होने से पूर्व नगारा ज़रूर बजाया जाए ताकि लंगर के लिए न्यौते की सूचना सभी को मिल जाए। गुरु हरकृष्ण जी के समय, गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तथा गुरु गोबिंद सिंह जी के समय पंगत प्रथा जारी रही। यह प्रथा उस समय की तरह आज भी न केवल भारत, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भी सिख गुरुद्वारा है उसी श्रद्धा तथा उत्साह के साथ जारी है।

जात-पात (Caste)-गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 17.
निम्नलिखित पर नोट लिखो :
(1) हउमै
(2) गुरु
(3) जप
(4) सेवा।
[Write note on the following :
(1) Egoity
(2) Guru
(3) Jap
(4) Seva.]
उत्तर-
हउमै (Haumai)-सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

2. गुरु (Guru)-सिख दर्शन में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। सिख गुरु साहिबान परमात्मा तक पहुंचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वह ही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

बिनु सतिगुरु किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ॥
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ॥
उतमु एह बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥
जग जीवनु दाता पाइआ॥

3. नाम जपना (Remembering Divine Name) सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

माउ तेरा निरंकारु है नाइं लइए नरकि न जाईए॥
गुरु तेग़ बहादुर जी फरमाते हैं,
गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीन॥
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास॥

4. सेवा (Seva)-सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

प्रश्न 18.
सिख धर्म के निम्न संकल्पों के बारे में जानकारी दें।
(क) हउमै
(ख) सेवा
(ग) गुरु
[Write about the following concepts.
(a) Haumai
(b) Sava (Service)
(c) Guru.]
उत्तर-
(क) हउमै (Haumai)—सिख दर्शन में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्वव्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। यदि हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनो-विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परमपिता परमात्मा से दूर हो जाता है और जन्म-मरन के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।
निस्संदेह हउमै एक दीर्घ रोग है पर उसे ला-ईलाज नहीं कहा जा सकता। हउमै से छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले उसे समझना अति आवश्यक है। साध-संगत में जाना, जाप करना, आत्ममंथन करना, वैराग्य धारण करना, सेवाभाव, ईर्ष्या का त्याग तथा सत्य से प्यार आदि साधन हैं जिनपर चलकर हउमै से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। हउमै संबंधी गुरु अमरदास जी फरमाते हैं,

हउमै नावे नाल विरोध है दुइ न वसहि इक ठाहि॥

(ख) सेवा (Seva)—सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेवा की प्रत्येक धर्म में प्रशंसा की गई है परंतु जो स्थान इसे सिख धर्म में प्राप्त है वैसा किसी अन्य धर्म में प्राप्त नहीं है। सेवा वास्तव में एक अंयंत उच्च दर्जे की साधना है। यह तभी सफल होती है जब इसे निष्काम भाव से किया जाता है। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को समाप्त नहीं करता तब तक उसे सेवा सम्मान प्राप्त नहीं होता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इस की प्राप्ति के लिए अत्यन्त ही उच्च आचरण की आवश्यकता होती है। इसके लिए मनुष्य को स्वयं को भूलना पड़ता है। अर्थात् हउमै का त्याग करके अपने आपको उस परमपिता परमात्मा को समर्पित करना पड़ता है। सिख इतिहास में अनेक ऐसी उदाहरणे प्राप्त होती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जिन्होंने सेवा की वह गुरु घर के मालिक बन गए। परंतु जो हउमै से ग्रसित हो गया वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका।

मनुष्य की सेवा को ही उस परमपिता परमात्मा की सर्वोत्तम सेवा माना गया है। इस संबंध में भाई कन्हैया जी की उदाहरण दी जा सकती है। उसने गुरु गोबिंद सिंह जी के काल में हुई आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में अपने तथा दुश्मनों के जख्मी सिपाहियों को बिना किसी भेदभाव के जल पिलाया और मरहम-पट्टी की। पूछने पर उसने उत्तर दिया कि उसे प्रत्येक जीव में गुरु गोबिंद सिंह जी के दर्शन होते थे। भाई कन्हैया द्वारा की गई सच्ची सेवा आज भी सिखों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है।
सिख धर्म के अनुसार सेवा सिख के जीवन का अभिन्न अंग है। यह एक दिन, दो दिन या कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसकी अंतिम श्वासों तक चलती रहती है। सेवा वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद होता है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

सेवा करत होई निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥

(ग) गुरु (Guru)—सिख दर्शन में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। सिख गुरु साहिबान परमात्मा तक पहुंचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण साधन मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वह ही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

बिनु सतिगुरु किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ॥
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ॥
उतमु एह बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥
जग जीवनु दाता पाइआ॥

प्रश्न 19.
अमृत संस्कार के बारे में विस्तृत जानकारी दीजिए। (Give a detail account of Amrit Ceremony.)
उत्तर-
सिख पंथ में अमृत को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अमृत छकाने की रस्म शुरू गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। इस प्रथा को चरनअमृत कहा जाता था। यह प्रथा गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तक जारी रही।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस प्रथा को बदल दिया तथा खंडे की पाहुल (अमृत) नामक प्रथा का प्रचलन किया। अमृतपान करना प्रत्येक सिख के लिए आवश्यक है। जो सिख अमृतपान नहीं करता वह सिख कहलाने के योग्य नहीं है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर ने अमृत छकने के लिए निम्नलिखित विधि निर्धारत की है।

(क) अमृत संचार करने के लिए एक खास स्थान पर प्रबंध हो। वहां पर आम रास्ता न हो।
(ख) वहां पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश हो। कम-से-कम छ: तैयार-बर-तैयार सिंह हाज़िर हों जिनमें से एक ताबिया (गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी) और बाकी पाँच अमृतपान करवाने के लिए हों! इनमें सिंहणियाँ भी हो सकती हैं। इन सब ने केश-स्नान किया हो।
(ग) इन पाँच प्यारों में कोई अंगहीन (अँधा, काना, लँगड़ा-लूला) या दीर्घ रोग वाला न हो। कोई तनखाहिया (दंडनीय) न हो। सारे तैयार-बर-तैयार दर्शनी सिंह हों।
(घ) हर देश, हर मज़हब व जाति के हर एक स्त्री-पुरुष को अमृतपान करने का अधिकार है, जो सिख धर्म ग्रहण करे व उसके असलों पर चलने का प्रण करे।
बहुत छोटी अवस्था न हो, होश सभाली हो, अमृतपान करते समय हर एक प्राणी ने केश स्नान किया हो और हर एक पाँच ककार (केश, कृपाण (गातरे वाली) कछैहिरा, कंघा, कड़ा) का धारणकर्ता हो। पराधर्म का कोई चिन्ह न हो। सिर नंगा या टोपी न हो। छेदक गहने कोई न हों। अदब से हाथ जोड़कर श्री गुरु जी के हजूर खड़े हों।
(ङ) यदि किसी ने कुरहित करने के कारण पुनः अमृतपान करना हो तो उसको अलग करके संगत में पाँच प्यारे तनखाह (दंड) लगा लें।
(च) अमृतपान करवाने वाले पाँच प्यारों में से कोई एक सज्जन अमृतपान के अभिलाषियों को सिख धर्म के असूल समझाए।
सिख धर्म में कृतम की पूजा त्याग कर एक करतार की प्रेमाभक्ति व उपासना बताई गई है। इसकी पूर्णता के लिए गुरबाणी का अभ्यास, साध-संगत तथा पंथ की सेवा, उपकार, नाम का प्रेम और अमृतपान करके रहित-बहित रखना मुख्य साधन हैं, आदि। क्या आप इस धर्म को खुशी से स्वीकार करते हो ?
(छ) ‘हाँ’ का उत्तर आने पर प्यारों में से एक सज्जन अमृत की तैयारी का अरदासा करके ‘हुक्म’ ले। पाँच प्यारे अमृत तैयार करने के लिए बाटे के पास आ बैठे।
(ज) बाटा सर्वलौह का हो और चौकी, सुनहिरे आदि किसी स्वच्छ वस्त्र पर रखे हों।
(झ) बाटे में स्वच्छ जल व पतासे डाले जायें और पाँच प्यारे बाटे के इर्द-गिर्द बीर आसन लगा कर बैठ जायें।
(ट) और इन बाणियों का पाठ करें : जपुजी साहिब, जापु साहिब, १० सवैये (स्त्रावग सुध वाले) बेनती चौपई (‘हमरी करो हाथ दै रछा’ से ले कर ‘दुष्ट दोख ते लेहु बचाई’ तक), अनंदु साहिब।
(ठ) हर एक बाणी पढ़ने वाला बाँया हाथ बाटे के किनारे पर रखें और दायें हाथ से खंडा जल में फेरते जाये। सुरति एकाग्र हो। अन्य के दोनों हाथ बाटे के किनारे पर और ध्यान अमृत की ओर टिके।
(ड) पाठ होने के बाद प्यारों में से कोई एक अरदास करे।
(ढ) जिस अभिलाषी में अमृत की तैयारी के समय सारे संस्कारों में हिस्सा लिया है, वही अमृतपान करने में शामिल हो सकता है। बीच में आने वाला शामिल नहीं हो सकता।
(ण) अब श्री कलगीधर दशमेश पिता का ध्यान कर के हर एक अमृतपान करने वाले को बीर आसन करवा कर उसके बाँयें हाथ पर दायाँ हाथ रख कर,

1. बीर आसन : दायाँ घुटना ज़मीन पर रख कर दाईं टाँग का भार पैर पर रख कर बैठना और बायाँ घुटना ऊँचा करके रखना।
पाँच चुल्ले अमृत के छकाये (सेवन) जायें और हर चुल्ले के साथ यह कहा जाये—

‘बोल वाहिगुरु जी का खालसा’ वाहिगुरू जी की फतेह।’

अमृत छकने वाला अमृत छक कर कहे ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’, फिर पाँच छींटे अमृत के नेत्रों पर किए जायें, फिर पाँच छींटे केशों में डाले जायें। हर एक छीटें के साथ छकने वाला छकाने वाले के पीछे ‘वाहिगुरु जी का खालसा वाहिगुरु जी की फतेह’ गजाता जाये। जो अमृत बाकी रहे, उसको सारे अमृत छकने वाले (सिख तथा सिखनियाँ) मिल कर छकें।
(प) उपरांत पाँचों प्यारे मिल कर, एक आवाज़ से अमृत पान करने वालों को ‘वाहिगुरु’ गुरमंत्र बताकर, मूल मंत्र सुनायें और उनसे इसका रटन करवायें।

१ओंकार सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु,
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि॥

(फ) फिर पाँच प्यारों में से कोई रहित बतावे-आज से आपने सतिगुर के जनमे गवनु मिटाइआ है और खालसा पंथ में शामिल हुए हो। तुम्हारा धार्मिक पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी तथा धार्मिक माता साहिब कौर जी हैं। जन्म आपका केसगढ़ साहिब का है तथा वासी आनंदपुर साहिब की है। तुम एक पिता के पुत्र होने के नाते आपस में और अन्य सारे अमृतधारियों के धार्मिक भ्राता हो। तुम पिछली कुल, कर्म, धर्म का त्याग करके अर्थात् पिछली जात-पात, जन्म, देश, मज़हब का विचार तक छोड़कर, निरोल खालसा बन गये हो। एक अकालपुरुख के अतिरिक्त किसी देवी-देवता, अवतार, पैगंबर की उपासना नहीं करनी। दस गुरु साहिबान को तथा उनकी बाणी के बिना और किसी को अपना मुक्तिदाता नहीं मानना। आप गुरमुखी जानते हो (यदि नहीं जानते तो सीख लो) और हर रोज़ कम से कम इन नितनेम की बाणियों का पाठ करना या सुनना जपुजी साहिब, जापु साहिब, 10 सवैये (स्रावग सुद्य वाले) सोदर रहरासि तथा सोहिला श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का पाठ करना या सुनना, पाँच ककारों-केश, कृपाण, कछैहरा, कंघा, कड़ा को हर समय अंग संग रखना।
ये चार कुरहितें (विवर्जन) नहीं करने :

  1. शों का अपमान
  2. कुट्ठा खाना।
  3. परस्त्री या परपुरुष का गमन (भोगना)।
  4. तम्बाकू का प्रयोग।

इनमें से कोई कुरहित हो जाये तो फिर अमृतपान करना होगा। अपनी इच्छा के विरुद्ध अभूल हुई कोई कुरहित हो जाये तो कोई दंड नहीं। सिरगम नडी मार (जो सिख होकर यह काम करें) का संग नहीं करना। पंथ सेवा और गुरुद्वारों की टहल सेवा में तत्पर रहना, अपनी कमाई में से गुरु का दसवां (दशांश) देना आदि सारे काम गुरमति अनुसार करने
हैं।
खालसा धर्म के नियमानुसार जत्थेबंदी में एकसूत्र पिरोये रहना, रहित में कोई भूल हो जाये तो खालसे के दीवान में हाज़र हो कर विनती करके तन्ह (दंड) माफ़ करवाना, भविष्य के लिए सावधान रहना।
तनखाहिये (दंड के भागी) ये हैं :

  1. मीणे मसंद, धीरमलिये, रामराइये आदि पंथ विरोधियों या नड़ीमार, कुड़ीमार, सिरगुंम के संग मेल-मिलाप करने वाला तनखाहिया (दंड का भागी) हो जाता है।
  2. गैर-अमृतिये या पतित का जूठा खाने वाला।
  3. दाहड़ा रंगने वाला।
  4. पुत्र या पुत्री का रिश्ता मोल लेकर/देकर करने वाला।
  5. कोई नशा (भाँग, अफ़ीम, शराब, पोस्त, कुकीन आदि) का प्रयोग करने वाला।
  6. गुरमति के विरुद्ध कोई संस्कार करने करवाने वाला।
  7. रहित में कोई भूल करने वाला।

यह शिक्षा देने के उपरांत पाँच प्यारों में सो कोई सज्जन अरदासा करे। फिर गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी बैठा सिंह “हुक्म” ले। जिन्होंने अमृतपान किया है, उनमें से यदि किसी का नाम पहले श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी से नहीं था रखा हुआ, उसका नाम अब बदल कर रखा जाये।
अंत में कड़ाह प्रसाद बाँटा जाये। जहाज़ चढ़े सारे सिंह व सिंहणियां एक ही बाटे में से कड़ाह प्रसाद मिलकर सेवन करें।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 20.
सिख धर्म में अरदास का महत्त्व बयान करें।
[Explain the significance of the Ardaas (Prayer) in Sikhism.]
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है।
सिख धर्म में अरदास की परम्परा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। गुरु अर्जन देव जी के समय अरदास आदि ग्रंथ साहिब के सम्मुख करने की प्रथा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी ने संगत के रूप में की जाती अरदास का प्रारंभ किया। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है। सिख इतिहास में इस संबंधी अनेकों उदाहरणें मिलती हैं। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

जो मांगे ठाकुर अपने ते सोई सोई देवे॥
नानक दास मुख ते जो बोले इहा उहा सच होवे॥

अरदास करते समय यदि गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश हो तो संपूर्ण संगत का मुख उस ओर होना चाहिए। यदि प्रकाश न हो तो किसी भी दिशा की ओर मुख करके अरदास की जा सकती है। अरदास करते समय मन की एकाग्रता का होना अति आवश्यक है। यदि हमारा ध्यान अरदास में नहीं तो चाहे हम हाथ जोड़ के खड़े हों उसका कोई लाभ नहीं। इसलिए अरदास में सम्मिलित होने वाली संगत को सावधान करने के लिए अरदास करने वाले भाई जी बार-बार यह कहते हैं “ध्यान करके बोलो जी वाहिगुरु'” संपूर्ण संगत उच्चे स्वर में “वाहिगुरु” का उच्चारण करती है। कीर्तन अथवा दीवान की समाप्ति के समय संपूर्ण संगत खड़ी होती है। यदि अरदास किसी विशेष उद्देश्य जैसे नामकरण, मंगनी एवं विवाह इत्यादि के लिए हो तो सम्पूर्ण संगत बैठी रहती है तथा संबंधित प्राणी ही खड़े होते हैं।

सिख धर्म में अरदास का आश्रय प्रत्येक सिख अवश्य लेता है। अरदास के मुख्य विषय यह हैं (1) उस परमात्मा के शुक्राने के तौर पर अरदास (2) नाम के लिए अरदास (3) वाणी की प्राप्ति के लिए अरदास (4) पापों का नाश करने के लिए अरदास (5) अपने पापों को बख्शाने के लिए अरदास (6) बच्चे के जन्म के शुक्राने के तौर पर की गई अरदास (7) बच्चे के नाम संस्कार के समय अरदास (8) बच्चे की शिक्षा आरंभ करते समय अरदास (9) मंगनी अथवा विवाह की अरदास (10) बच्चे की प्राप्ति के लिए अरदास (11) कुशल स्वास्थ्य के लिए अरदास (12) भाणा (हुक्म) मानने के लिए अरदास (13) यात्रा आरंभ करने के लिए अरदास (14) नया व्यवसाय आरंभ करते समय अरदास (15) नये घर में प्रवेश करते समय अरदास (16) नितनेम के पश्चात् अरदास (17) कीर्तन अथवा दीवान समाप्ति के पश्चात् अरदास (18) अमृतपान करवाते समय की गई अरदास (19) धर्म युद्ध आरंभ करते समय अरदास (20) परमात्मा से मिलन के लिए अरदास । गुरु रामदास जी फरमाते हैं।

कीता लोडीए कम सो हर पहि आखिए॥
कारज देहि सवारि सतगुरु सच साखिए॥

संक्षेप में जीवन के प्रत्येक मोड़ पर अरदास का आश्रय लिया जाता है। विद्यार्थियों की जानकारी के लिए यहां शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा मान्यता प्राप्त अरदास का स्वरूप दिया जा रहा है :—
अरदास

१ओंकार वाहिगुरु जी की फतहि ॥
श्री भगौती जी सहाइ॥
वार श्री भगौती जी की पातशाही १०॥

प्रिथम भगौती सिमरि कै गुरु नानक लई धिआइ।
फिर अंगद गुर ते अमरदासु रामदासै होईं सहाइ।
अरजन हरगोबिंद नो सिमरौ श्री हरिराय।
श्री हरिक्रिशन धिआईऐ जिस डिठे सभि दुखि जाइ।
तेग़ बहादर सिमरिऐ घर नउ निधि आवै धाइ।
सभ थाईं होई सहाइ।
दसवें पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी !
सब थाईं होई सहाइ। ,
दसां पातशाहीयां की ज्योति स्वरूप श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के
पाठ दीदार का ध्यान धर कर बोलो जी वाहिगुरु!
पाँच प्यारों, चार साहिबजादों, चालीस मुक्तों,
हठियों, जपियों, तपियों जिन्होंने नाम जपा,
बांट खाया, देग चलाई, तेग वाही, देख कर अनडिठ किया,
तिनां प्यारियां सचिआरियां दी कमाई दा ध्यान धर कर
खालसा जी! बोलो जी वाहिगुरु !
जिन सिंह सिंहनियों ने धर्म हेतु सीस दिये,
अंग अंग कटवाए, खोपड़िआँ उतरवाईं, चर्खियों पर चढ़ाए गये,
आरों से तन चिरवाए,
गुरुद्वारों के सुधार और पवित्रता के निमित्त शहीद हुए, धर्म नहीं छोड़ा, सिख धर्म का केशों तथा
प्राणों सहित पालन किया,
उनकी कमाई का
ध्यान धर कर खालसा जी ! बोलो वाहिगुरु !
पाँचों तखतों, समूह गुरद्वारों का
ध्यान धर कर बोलो जी वाहिगुरु!
प्रथमे सरबत खालसा जी की अरदास है जी
सरबत खालसा जी को वाहिगुरु, वाहिगुरु,
वाहिगुरु चित आवे, चित आवन से
सर्व सुख हो, जहाँ जहाँ खालसा जी साहिब,
तहाँ तहाँ रक्षा रिआइत, देग तेग फतहि,
बिरद की लाज, पंथ की जीत, श्री साहिब जी सहाय,
खालसा जी का बोल बाले, बोलो जी वाहिगुरु!!!
सिखों को सिखी दान, केश दान, रहित दान,
विवेक दान, विसाह दान, भरोसा दान, दानों के सिर दान,
नाम दान, श्री अमृतसर जी के स्नान,
चोंकियाँ, झंडे, बुंगे जुगो जुग अट्टल, धर्म का जयकार
बोलो जी वाहिगुरु !!!
सिखों का मन नीवां, मति ऊची, मति का राखा आप
वाहिगुरु, हे अकाल पुरख! अपने पंथ
के सदा सहाई दातार जी! श्री ननकाणा साहिब तथा
और गुरुद्वारों, गुरधामों के, जिन से पंथ
को विछोड़ा गया है, खले दर्शन दीदार और
सेवा संभाल का दान खालसा जी को बख्शो।
हे नि:मानो के मान, निःताणो के ताण,
निःओटों की ओट, निरासरयों के आश्रय, सच्चे पिता वाहिगुरु !
आप की सेवा में …………… * की अरदास है।
अक्षर मात्रादि भूल चूक क्षमा करना,
सब दे कारज रास करने,
सेई प्यारे मेल, जिनां मिलियां,
तेरा नाम चित आवे।
नानक नाम चढ़दी कला॥
तेरे भाणे सरबत दा भला॥

अरदास का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। इसे पढ़ कर व्यक्ति की आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अरदास यद्यपि छोटी है पर इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वास्तव में यह गागर में सागर भरने वाली बात है। इससे हमें उस परमात्मा की भक्ति, सेवा, कुर्बानी तथा मानवता की भलाई के लिए कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। इससे मन शुद्ध होता है। मनुष्य की हउमै दूर होती है। उसके सभी दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं। मन पर पड़ी अनेक जन्मों की मैल दूर हो जाती है। मनुष्य इस भवसागर से पार हो जाता है। इस प्रकार अरदास उस परमात्मा से मिलन का एक संपूर्ण साधन है। गुरु अर्जन साहिब जी फरमाते हैं,

जा के वस खान सुलतान ॥
जा के वस हे सगल जहान ॥
जा का किया सब किछ होए ॥
तिस ते बाहर नाही कोए ॥
कहो बेनती अपने सतगुरु पास ॥
काज तुमारे देहि निभाए ॥ रहाउ॥

*यहां उस बाणी का नाम लें, जो पढ़ी है, अथवा जिस कार्य के लिए इकट्ठ या संगत एकत्र हुई हो, उसका उल्लेख उचित शब्दों में कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain in brief the Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिख जीवन जाच में दर्शाए गए संस्कारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief Sanskaras as depicted in Sikh Way of-Life.)
उत्तर-

  1. एक अकाल पुरख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दाता केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना चाहिए।
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।

प्रश्न 2.
मूलमंत्र की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain the brief the Mul Mantra.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं-एक ओ अंकार सतिनामु करता पुरुखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि॥ जापु॥ इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह हैं-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) की कोई चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [Describe any four features of Akal Purkh (God) in Sikhism.]
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया।
  2. ईश्वर ही संसार को रचने वाला, पालने वाला तथा नाश करने वाला है।
  3. ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी।
  4. ईश्वर आवागमन के चक्र से मुक्त है।

प्रश्न 4.
सिख धर्म में नाम जपने का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Remembering Divine Name in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है।

प्रश्न 5.
किरत करने से क्या अभिप्राय है ? (What is the meaning of Honest Labour ?)
उत्तर-
किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीव-जंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 6.
सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Sangat in Sikhism ?)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संग्रत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं।

प्रश्न 7.
सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ? चर्चा कीजिए। (What is the importance of Pangat in Sikh Way of life ?)
अथवा
पंगत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Pangat.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली।

प्रश्न 8.
सिख धर्म में संगत व पंगत का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें। (What is the importance of Sangat and Pangat in Sikhism ? Elucidate.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संग्रत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं।

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली।

प्रश्न 9.
सिख धर्म में हुक्म का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Hukam in Sikhism ?)
उत्तर-
हुक्म सिख दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण संकल्प है। ‘हुक्म’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ हैआज्ञा, फरमान तथा आदेश। गुरवाणी में अनेक स्थानों पर परमात्मा के हुक्म को मीठा करके मानने को कहा गया है। गुरु नानक देव जी ‘जपुजी’ में लिखते हैं कि सारे संसार की रचना उस परमात्मा के हुक्म से हुई है। हुक्म से ही जीव को प्रशंसा मिलती है तथा हुक्म से ही जीव दुःख-सुख प्राप्त करते हैं। हुक्म से ही वे पापों से मुक्त होते हैं अथवा वे आवागमन के चक्र में भटकते रहते हैं।

प्रश्न 10.
सिख धर्म में हउमै से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Haumai in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं’ से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। अगर हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

प्रश्न 11.
“हउमै एक दीर्घ रोग है।” कैसे ? (“Ego is deep rooted disease.” How ?)
उत्तर-
हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता।

प्रश्न 12.
गुरु नानक साहिब की शिक्षाओं में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Guru in the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के गुरु सम्बन्धी क्या विचार थे ? (What was the concept of ‘Guru’ of Guru Nanak Dev Ji ?) i
उत्तर-
गुरु नानक साहिब परमात्मा तक पहुँचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ़ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के रोग को दूर करते हैं। वे ही नाम और शबद की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है।

प्रश्न 13.
सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Kirtan in Sikhism ?)
अथवा
सिख जीवन जाच में कीर्तन का बहुत महत्त्व है। चर्चा कीजिए। (Kirtan is very important in Sikh Way of life. Explain.)
उत्तर-
सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है। सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है।

प्रश्न 14.
सिख धर्म में सेवा के महत्त्व का वर्णन कीजिए। (Explain the importance of Seva in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है। सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, जल पिलाना, लंगर में सेवा आदि ही सम्मिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।

प्रश्न 15.
सिख गुरुओं के जाति बारे क्या विचार थे ? (What were the views of Sikh Gurus regarding caste ?)
अथवा
जाति प्रथा के बारे में गुरु नानक साहिब जी के विचार प्रकट करें। (Describe the views of Guru Nanak Sahib ji regarding caste system.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-जाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया।

प्रश्न 16.
सिख धर्म में अरदास के महत्त्व का वर्णन कीजिए। [Explain the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism.]
अथवा
सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है ? [What is the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism ?]:
अथवा
सिख जीवन जाच में अरदास के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Ardas in Sikh way of life.)
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है। सिख धर्म में अरदास की परंपरा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है।

प्रश्न 17.
सिखों की धार्मिक जीवन पद्धति पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए। (Discuss in brief the Religious Sikh Way of Life.)
अथवा
सिख जीवन जाच की विलक्षणता दर्शाइए।
(Describe the distinction of Sikh Way of Life.)
उत्तर-

  1. सिख अमृत समय जाग कर स्नान करे तथा एक अकाल पुरख (परमात्मा) का ध्यान करता हुआ ‘वाहिगुरु’ का नाम जपे।
  2. नितनेम का पाठ करे। नितनेम की वाणियाँ ये हैं-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपई साहिब एवं 10 सवैये। ये वाणियाँ अमृत समय पढी जाती हैं।
    रहरासि साहिब-यह वाणी संध्या काल समय पढ़ी जाती है।
    सोहिला-यह वाणी रात को सोने से पूर्व पढी जाती है।
    अमृत समय तथा नितनेम के पश्चात् अरदास करनी आवश्यक है।
  3. गुरवाणी का प्रभाव साध-संगत में अधिक होता है। अतः सिख के लिए उचित है कि वह गुरुद्वारे के दर्शन करे तथा साध-संगत में बैठ कर गुरवाणी का लाभ उठाए।
  4. गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश प्रतिदिन होना चाहिए। साधारणतया रहरासि साहिब के पाठ के पश्चात् सुख आसन किया जाना चाहिए।
  5. गुरु ग्रंथ साहिब जी को सम्मान के साथ प्रकाश, पढ़ना एवं संतोखना चाहिए। प्रकाश के लिए आवश्यक है कि स्थान पूर्णतः साफ़ हो तथा ऊपर चांदनी लगी हो। प्रकाश मंजी साहिब पर साफ़ वस्त्र बिछा कर किया जाना चाहिए। गुरु ग्रंथ साहिब जी के लिए गदेले आदि का प्रयोग किया जाए तथा ऊपर रुमाला दिया जाए। जिस समय पाठ न हो रहा हो तो ऊपर रुमाला पड़ा रहना चाहिए। प्रकाश समय चंवर किया जाना चाहिए।
  6. गुरुद्वारे में कोई मूर्ति पूजा अथवा गुरमत के विरुद्ध कोई रीति-संस्कार न हो।
  7. एक से दूसरे स्थान तक गुरु ग्रंथ साहिब जी को ले जाते समय अरदास की जानी चाहिए। जिस व्यक्ति ने सिर के ऊपर गुरु ग्रंथ साहिब उठाया हो, वह नंगे पाँव होना चाहिए।
  8. गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश अरदास करके किया जाए। प्रकाश करते समय गुरु ग्रंथ साहिब जी में से एक शबद का वाक लिया जाए।
  9. जिस समय गुरु ग्रंथ साहिब जी की सवारी आए तो प्रत्येक सिख को उसके सम्मान के लिए खड़ा हो जाना चाहिए।

प्रश्न 18.
सिख रहित मर्यादा की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(Explain in brief the Sikh Code of Conduct.)
अथवा
सिख जीवन जाच में दर्शाए गए संस्कारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief Sanskaras as depicted in Sikh Way of Life.)
उत्तर-

  1. एक अकाल पुरख (परमात्मा) के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
  2. अपनी मुक्ति का दाता केवल दस गुरु साहिबान, गुरु ग्रंथ साहिब जी तथा उसमें अंकित वाणी को मानना
  3. जाति-पाति, छुआछूत, मंत्र, श्राद्ध, दीवा, एकादशी, पूरनमाशी आदि के व्रत, तिलक, मूर्ति पूजा इत्यादि में विश्वास नहीं रखना।
  4. गुरु घर के बिना किसी अन्य धर्म के तीर्थ अथवा धाम को नहीं मानना।
  5. प्रत्येक कार्य करने से पूर्व वाहिगुरु के आगे अरदास करना।
  6. संतान को गुरसिखी की शिक्षा देना प्रत्येक सिख का कर्तव्य है।
  7. सिख भाँग, अफीम, शराब, तंबाकू इत्यादि नशे का प्रयोग न करे।
  8. गुरु का सिख कन्या हत्या न करे। जो ऐसा करे उनके साथ संबंध न रखें।
  9. गुरु का सिख ईमानदारी की कमाई से अपना निर्वाह करे।
  10. चोरी, डाका एवं जुए आदि से दूर रहे।
  11. पराई बेटी को अपनी बेटी समझे, पराई स्त्री को अपनी माँ समझे।
  12. गुरु का सिख जन्म से लेकर देहाँत तक गुरु मर्यादा में रहे।
  13. सिख, सिख को मिलते समय ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह’ कहे।
  14. सिख स्त्रियों के लिए पर्दा अथवा चूंघट निकालना उचित नहीं।
  15. सिख के घर बालक के जन्म के पश्चात् परिवार व अन्य संबंधी गुरुद्वारे जा कर अकालपुरख का शुक्राना करें।

प्रश्न 19.
मूलमंत्र की संक्षिप्त व्याख्या करें। (Explain the brief the Mul Mantra.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की वाणी जपुजी साहिब की प्रारंभिक पंक्तियों को मूल मंत्र कहा जाता है। यह पंक्तियाँ हैं-एक ओ अंकार सतिनामु करता पुरुखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनि सैभं गुर प्रसादि॥ जापु॥ आदि सचु जुगादि सचु है भी सचु नानक होसी भी सचु। इन्हें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार कहा जा सकता है। इसमें अकाल पुरख (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मूल मंत्र के अर्थ यह हैं-अकाल पुरुख केवल एक है। उसका नाम सच्चा है। वह सभी वस्तुओं का सृजनकर्ता है। वह अपनी सृष्टि में मौजूद है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी पर निर्भर करता है, वह डर एवं ईर्ष्या से मुक्त है। उस पर काल का प्रभाव नहीं होता। वह सदैव रहने वाला है। वह जन्म एवं मृत्यु से मुक्त है। उसका प्रकाश अपने आपसे है। उसे केवल गुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 20.
सिख धर्म में अकाल पुरुख (परमात्मा) की कोई पाँच विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
[Describe any five features of Akal Purkh (God) in Sikhism.]
अथवा
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें।
(Write a note on the Akal Takhat.)
उत्तर-
गुरवाणी में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है यद्यपि उसे अनेक नामों से स्मरण किया जाता है। सिख परंपरा के अनुसार मूल मंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘एक ओ अंकार’ है वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। वह ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है तथा उसका विनाश कर सकता है। इसी कारण कोई भी पीर, पैगंबर, अवतार, औलिया, ऋषि तथा मुनि इत्यादि उसका मुकाबला नहीं कर सकते। ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है तथा सर्गुण भी। सर्वप्रथम संसार में चारों ओर अंधकार था। उस समय कोई धरती अथवा आकाश जीव-जंतु इत्यादि नहीं थे। ईश्वर अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसके एक हुकम के साथ ही यह धरती, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, पर्वत, दरिया, जंगल, मनुष्य, पशु-पक्षी तथा फूल इत्यादि अस्तित्व में आ गए। इस प्रकार ईश्वर ने अपना आप रूपमान (प्रकट) किया। इन सब में उसकी रोशनी देखी जा सकती है। यह ईश्वर का सर्गुण स्वरूप है। ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और उसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना से पूर्व कोई धरती, आकाश नहीं थे तथा चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का हुक्म (आदेश) चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके हुक्म के अनुसार ही संपूर्ण विश्व चलता है।

प्रश्न 21.
सिख धर्म में नाम जपने का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of Remembering Divine Name in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में नाम की आराधना अथवा सिमरन को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा गया है। गुरु नानक देव जी का कथन था कि नाम की आराधना से जहाँ मन के पाप दूर हो जाते हैं वहीं वह निर्मल हो जाता है। इस कारण मनुष्य के सभी कष्ट खत्म हो जाते हैं। उसकी सभी शंकाएँ दूर हो जाती हैं। नाम की आराधना से मनुष्य के सभी कार्य सहजता से होते चले जाते हैं क्योंकि ईश्वर स्वयं उसके सभी कार्यों में सहायता करता है। नाम की आराधना करने वाले जीव की आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह होती है। नाम की आराधना करने वाला जीव इस भवसागर से पार हो जाता है तथा उसका आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है। नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। ऐसा मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए। उस परमात्मा के नाम का जाप केवल वह मनुष्य ही कर सकता है जिस पर उसकी नदरि हो। ऐसे मनुष्य परमात्मा के दरबार में उज्ज्वल मुख के साथ जाते हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 22.
किरत करने से क्या अभिप्राय है ?
(What is the meaning of Honest Labour ?) ।
उत्तर-
किरत से भाव है मेहनत एवं ईमानदारी की कमाई करना। किरत करना अत्यंत आवश्यक है। यह परमात्मा का हुक्म (आदेश) है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि विश्व का प्रत्येक जीव-जंतु किरत करके अपना पेट पाल रहा है। इसलिए मानव के लिए किरत करने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्योंकि वह सभी जीवों का सरदार है। शरीर जिसमें उस परमात्मा का निवास है को स्वास्थ्यपूर्ण रखने के लिए किरत करनी आवश्यक है। जो व्यक्ति किरत नहीं करता वह अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट नहीं रख सकता। ऐसा व्यक्ति वास्तव में उस परमात्मा के विरुद्ध गुनाह करता है। गुरु नानक देव जी स्वयं कृषि का कार्य करके अपनी किरत करते थे। उन्होंने सैदपुर में मलिंक भागो का ब्रह्म भोज छकने की अपेक्षा भाई लालो की सूखी रोटी को खुशी-खुशी स्वीकार किया। इसका कारण यह था कि भाई लालो एक सच्चा किरती था। सिखों के लिए कोई भी व्यवसाय करने पर प्रतिबंध नहीं। वह कृषि, व्यापार, दस्तकारी, सेवा, नौकरी इत्यादि किसी भी व्यवसाय को अपना सकता है। किंतु उसके लिए चोरी, ठगी, डाका, धोखा, रिश्वत तथा पाप की कमाई करना सख्त मना है।

प्रश्न 23.
सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of Sangat in Sikhism ?)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है।
संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेदभाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 24.
सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ? चर्चा कीजिए।
(What is the importance of Pangat in Sikh Way of life ?)
अथवा
पंगत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the Pangat.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं, को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें दान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथीं देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 25.
सिख धर्म में संगत व पंगत का क्या महत्त्व है ? प्रकाश डालें। (What is the importance of Sangat and Pangat in Sikhism ? Elucidate.)
उत्तर-
संगत अथवा साध संगत को सिखी जीवन का थम्म माना जाता है। इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में रखी। उन्होंने जहाँ-जहाँ भी चरण डाले वहाँ-वहाँ संगत की स्थापना होती चली गई। संगत से भाव है “गुरमुख प्यारों का वह इकट्ठ (एकत्रता) जहाँ उस परमात्मा की प्रशंसा की जाती हो।” संगत में प्रत्येक स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति, नस्ल, रंग, धर्म, अमीर, ग़रीब इत्यादि के मतभेद के सम्मिलित हो सकते हैं। संगत के लक्षण बताते हुए गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

सति संगत कैसी जाणिए। जिथै ऐकौ नाम वखाणिए॥
एकौ नाम हुक्म है नानक सतिगुरु दीया बुझाए जीउ॥

सिख धर्म में यह भावना काम करती है कि संगत में वह परमात्मा स्वयं उसमें निवास करता है। इस कारण संगत में जाने वाले मनुष्य की काया कल्प हो जाती है। उसके मन की सभी दुष्ट भावनाएँ दूर हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार का नाश हो जाता है तथा सति, संतोष, दया, धर्म तथा सच्च इत्यादि दैवी गुणों का मनुष्य के मन में प्रवेश होता है। हउमै दूर हो जाती है तथा ज्ञान का प्रकाश होता है। संगत में जाकर बड़े से बड़े पापी के भी पाप धुल जाते हैं। गुरु रामदास जी का कथन है कि जैसे पारस की छोह के साथ मनूर सोना बन जाता है ठीक उसी प्रकार पापी व्यक्ति भी संगत में जाने से पवित्र हो जाता है।

संगत में ऐसी शक्ति है कि लंगड़े भी पहाड़ चढ़ सकने के योग्य हो जाते हैं। मूर्ख सूझवान बातें करने लगते हैं। अंधों को तीनों लोकों का ज्ञान हो जाता है। मनुष्य के मन की सारी मैल उतर जाती है। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा पूर्ण परमानंद की प्राप्ति होती है। उसे प्रत्येक जीव में उस ईश्वर की झलक दिखाई देती है। उसके लिए अपने-पराए का कोई भेदभाव नहीं रहता तथा सबके साथ साँझ पैदा हो जाती है। यह संस्था आज भी जारी है।

सिख पंथ के विकास में पंगत प्रथा का बहुत प्रशंसनीय योगदान है। पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठ कर लंगर छकना। गुरु नानक देव जी ने इस महत्त्वपूर्ण संस्था की नींव करतारपुर में रखी थी। पंगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष किसी जाति, धर्म, नस्ल, ऊँच-नीच इत्यादि के मतभेद के बिना सम्मिलित हो सकता था। इसमें प्रत्येक को सेवा करने का बराबर अधिकार है।

पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी का एक क्रांतिकारी पग था। ऐसा करके उन्होंने ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथों भोजन करवा दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में प्रचलित उस जाति प्रथा का अंत करना था जिसने इसे घुण की तरह खा कर भीतर से खोखला बना दिया था। ऐसा करके गुरु नानक देव जी ने समानता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप दिया। इस कारण सिखों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ। इसने पिछड़ी हुई श्रेणियों को जो शताब्दियों से उच्च जाति के लोगों द्वारा शोषित की जा रही थीं, को एक सम्मान दिया। लंगर के लिए सारा धन गुरु के सिख देते थे। इसलिए उन्हें दान देने की आदत पड़ी। पंगत प्रथा के कारण सिख धर्म की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैली। पंगत के महत्त्व के संबंध में गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

घाल खाए कुछ हथीं देइ॥
नानक राहु पछाणे सेइ॥

गुरु अंगद देव जी ने पंगत प्रथा का विकास किया। उनकी पत्नी बीबी खीवी जी खडूर साहिब में लंगर के संपूर्ण प्रबंध की देखभाल स्वयं करती थीं। गुरु अमरदास जी ने लंगर संस्था का विस्तार किया। उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई भी उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। ऐसा इसलिए किया गया कि सिखों में व्याप्त छुआछूत की भावना का सदैव के लिए अंत कर दिया जाए। मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरीपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठ कर लंगर छका था। गुरु अमरदास जी का कथन था कि भूखे को अन्न तथा नंगे को वस्त्र देना हज़ारों हवनों तथा यज्ञों से बेहतर है। यह संस्था आज भी जारी है।

प्रश्न 26.
सिख धर्म में हउमै से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Haumai in Sikhism ?)
उत्तर-
सिख धर्म में हउमै (अहं) की व्याख्या बार-बार आती है। हउमै से तात्पर्य ‘अहंकार’ अथवा ‘मैं से है। यह एक ऐसी चारदीवारी है जो जीव आत्मा को उस सर्व-व्यापक परमात्मा से पृथक् करती है। अगर हम हउमै को आदमी की मैं का एक मज़बूत किला कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हउमै के कारण मनुष्य अपने विचारों द्वारा अपने एक अलग संसार की रचना कर लेता है। इसमें उसका अपनत्व और मैं बहुत ही प्रबल होती है। इस प्रकार उसका संसार बेटे, बेटियों, भाइयों, भतीजों, बहनों-बहनोइयों, माता-पिता, सास-ससुर, जवाई, पति-पत्नी आदि के साथ संबंधित पास अथवा दूर की रिश्तेदारियों तक ही सीमित रहता है। अगर थोड़ी-सी अपनत्व की डोर लंबी कर ली जाए तो इस निजी संसार में सज्जन-मित्र भी शामिल कर लिए जाते हैं। परंतु आखिर में इस संसार की सीमा निजी जान-पहचान तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। इस निजी संसार की रचना के कारण मनुष्य में हउमै की भावना उत्पन्न होती है और वह अपने आपको इस आडंबर का मालिक समझने लगता है। परिणामस्वरूप वह अपने असली अस्तित्व को भूल जाता है।

प्रश्न 27.
“हउमै एक दीर्घ रोग है।” कैसे ? (“Ego is deep rooted disease.” How ?)
उत्तर-
हउमै एक दीर्घ रोग है, जो कैंसर की तरह जब एक बार जड़ पकड़ लेता है तो उसका अंत करना मुश्किल होता है। यह पाँच मनोविकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का जन्मदाता है। ऐसा मनुष्य कई प्रकार के झूठ बोलता है, पाखंड करता है और कई प्रकार के छलावे का सहारा लेता है। परिणामस्वरूप शैतानियत का जन्म होता है। यह इतना भयानक रूप ले लेती है कि जीवन नरक बन जाता है। हउमै से भरा जीव उस परम पिता परमात्मा से दूर हो जाता है और वह जीवन-मरण के चक्र से कभी छुटकारा नहीं पाता। हउमै के प्रभाव में जीव क्या-क्या करता है ? इसका उत्तर गुरु नानक देव जी देते हैं कि जीव के सारे कार्य हऊमै के बंधन में बंधे होते हैं। वह हउमै में जन्म लेता है, मरता है, देता है,लेता है, कमाता है, गंवाता है, कभी सच बोलता है और कभी झूठ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का हिसाब करता है, समझदारी और मूर्खता भी हउमै के तराजू में तौलता है। हउमै के कारण ही वह मुक्ति के सार को नहीं जान पाता। अगर वह हऊमै को जान ले तो उसे परमात्मा के दरबार के दर्शन हो सकते हैं। अज्ञानता के कारण मनुष्य झगड़ता है। कर्म के अनुसार ही लेख लिखे जाते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है।

प्रश्न 28.
गुरु नानक साहिब की शिक्षाओं में गुरु का क्या महत्त्व है ?’ (What is the importance of Guru in the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक साहिब परमात्मा तक पहुँचने के लिए गुरु को अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु बिना मनुष्य को हर तरफ़ अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। गुरु ही मनुष्य को अंधेरे (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की तरफ़ ले जाते हैं। गुरु ही माया के मोह तथा हउमै के ‘ रोग को दूर करते हैं। वे ही नाम और शबद की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग पर चलने का ढंग बताते हैं। गुरु बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु हर असंभव कार्य को संभव कर सकता है। इसलिए उसके मिलने के साथ ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। सच्चे गुरु का मिलना कोई आसान काम नहीं होता। परमात्मा की कृपा के बगैर सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ पर वर्णन योग्य है कि गुरु नानक देव जी जब गुरु की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य किसी मनुष्य रूपी गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो परमात्मा स्वयं है जो शब्द के माध्यम से शिक्षा देता है।

प्रश्न 29.
सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Kirtan in Sikhism ?)
अथवा
सिख जीवन जाच में कीर्तन का बहुत महत्त्व है। चर्चा कीजिए।
(Kirtan is very important in Sikh Way of life. Explain.)
उत्तर-सिख धर्म में कीर्तन को प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग का सर्वोच्च साधन माना जाता है। सिखों के लगभग सभी संस्कारों में कीर्तन किया जाता है। कीर्तन से भाव उस गायन से है जिसमें उस अकाल पुरुख भाव परमात्मा की प्रशंसा की जाए। गुरुवाणी को रागों में गायन को कीर्तन कहा जाता है।
सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी। उन्होंने अपनी यात्राओं के समय भाई मर्दाना जी को साथ रखा जो कीर्तन के समय रबाब बजाता था। गुरु नानक देव जी कीर्तन करते हुए अपने श्रद्धालुओं के मनों पर जादई प्रभाव डालते थे। परिणामस्वरूप न केवल सामान्यजन अपितु सज्जन ठग, कोड्डा राक्षस, नूरशाही जादूगरनी, हमजा गौंस तथा वली कंधारी जैसे कठोर स्वभाव के व्यक्ति भी प्रभावित हुए बिना न रह सके एवं आपके शिष्य बन गए। कीर्तन की इस प्रथा को शेष 9 गुरुओं ने भी जारी रखा। गुरु हरगोबिंद साहिब ने कीर्तन में वीर रस उत्पन्न करने के उद्देश्य से ढाडी प्रथा को प्रचलित किया।

प्रेम भक्ति की भावना से किया गया कीर्तन मनुष्य की आत्मा की गहराई तक प्रभाव डालता है। इससे मनुष्य का सोया हुआ मन जाग उठता है, उसके दुःख एवं कष्ट दूर हो जाते हैं एवं कई जन्मों की मैल दूर हो जाती है। वह हरि नाम में लीन हो जाता है। मानव का मन निर्मल हो जाता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो उठती है तथा उसका लोक-परलोक सफल हो जाता है। इस कारण कीर्तन को निरमोलक (अमूल्य) हीरा कहा जाता है।

प्रश्न 30.
सिख धर्म में सेवा के महत्त्व का वर्णन कीजिए। (Explain the importance of Seva in Sikhism.)
उत्तर-
सिख दर्शन में सेवा को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक धर्म में सेवा का गुणगान किया गया है किंतु जो महत्त्व इसे सिख धर्म में प्राप्त है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है।

सेवा से भाव केवल गुरुद्वारे जाकर जूते साफ़ करना, झाड़ देना, संगत पर पंखा करना, जल पिलाना, लंगर आदि ही सम्मिलित नहीं। इस प्रकार की सेवा में हउमै की भावना उत्पन्न होती है। सेवा से भाव प्रत्येक उस कार्य से है जिसमें मानवता की किसी प्रकार भलाई होती हो।
सेवा वास्तव में बहुत उच्च साधना है। यह केवल उसी समय सफल हो सकती है जब यह निष्काम हो। जब तक मनुष्य हउमै की भावना को खत्म नहीं करता तब तक उसे सेवा का सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। सेवा करने की रुचि प्रत्येक व्यक्ति के मन में उत्पन्न नहीं हो सकती। इसकी प्राप्ति के लिए उच्च आचरण की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य को गुरुमत्त के अनुसार सेवा सिख जीवन का एक निरन्तर भाग है। यह एक दिन अथवा कुछ समय के लिए नहीं अपितु उसके अंतिम सांस तक जारी रहनी चाहिए। सेवा, वे ही मनुष्य कर सकते हैं जिन पर उस परमात्मा की मिहर हो तथा जिनके अंदर सच्चे नाम का वास हो। जिनके अन्दर -झूठ, कपट अथवा पाप हो वह सेवा नहीं कर सकते। सच्ची सेवा को सभी सुखों का स्रोत कहा जाता है। ऐसी सेवा करने वाला मनुष्य न केवल इस लोक अपितु परलोक में भी प्रशंसा प्राप्त करता है।

प्रश्न 31.
सिख गुरुओं के जाति बारे क्या विचार थे ? (What were the views of Sikh Gurus regarding caste ?)
अथवा
जाति प्रथा के बारे में गुरु नानक साहिब जी के विचार प्रकट करें। (Describe the views of Guru Nanak Sahib ji regarding caste system.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जातियों से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति-जाति और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कथन था कि ईश्वर के दरबार में किसी ने जाति नहीं पूछनी, केवल कर्मों से निपटारा होगा। गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ संस्थाएँ चलाकर जाति प्रथा पर एक कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया। गुरु नानक साहिब के बाद हुए समस्त गुरु साहिबान ने भी जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु अर्जन साहिब द्वारा आदि ग्रंथ साहिब में निम्न जातियों के लोगों द्वारा रचित वाणी को सम्मिलित करके और गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करके जाति प्रथा को समाप्त करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 32.
सिख धर्म में अरदास के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
[Explain the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism.]
अथवा
सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है ?
[What is the significance of Ardas (Prayer) in Sikhism ?]
उत्तर-
अरदास यद्यपि सभी धर्मों का अंग है किंतु सिख धर्म में इसे विशेष सम्मान प्राप्त है। अरदास फ़ारसी के शब्द अरज़ दाश्त से बना है जिसका भाव है किसी के समक्ष विनती करना। सिख धर्म में अरदास वह कुंजी है जिसके साथ उस परमात्मा के निवास का द्वार खुलता है।
सिख धर्म में अरदास की परंपरा, गुरु नानक देव जी के समय आरंभ हुई। गुरु अर्जन देव जी के समय अरदास आदि ग्रंथ साहिब के सम्मुख करने की प्रथा आरंभ हुई। गुरु गोबिंद सिंह जी ने संगत के रूप में की जाती अरदास का प्रारंभ किया। अरदास के लिए कोई समय निश्चित नहीं किया गया। यह हर समय हर कोई कर सकता है। सच्चे दिल से की गई अरदास ज़रूर सफल होती है। सिख इतिहास में इस संबंधी अनेक उदाहरणे मिलती हैं।
सिख धर्म में अरदास का आश्रय प्रत्येक सिख अवश्य लेता है। अरदास के मुख्य विषय यह हैं—

  1. उस परमात्मा के शुक्राने के तौर पर अरदास
  2. नाम के लिए अरदास
  3. वाणी की प्राप्ति के लिए अरदास
  4. पापों का नाश करने के लिए अरदास
  5. अपने पापों को बख्शाने के लिए अरदास
  6. बच्चे के जन्म के शुक्राने के तौर पर की गई अरदास
  7. बच्चे के नाम संस्कार के समय अरदास
  8. बच्चे की शिक्षा आरंभ करते समय अरदास
  9. मंगनी अथवा विवाह की अरदास
  10. बच्चे की प्राप्ति के लिए अरदास
  11. कुशल स्वास्थ्य के लिए अरदास
  12. भाणा (हुक्म) मानने के लिए अरदास
  13. यात्रा आरंभ करने के लिए अरदास
  14. नया व्यवसाय आरंभ करते समय अरदास
  15. नये घर में प्रवेश करते समय अरदास
  16. नितनेम के पश्चात् अरदास।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. सिख कौन है ?
उत्तर-एक परमात्मा, दस गुरु साहिबान तथा गुरु ग्रंथ साहिब जी में विश्वास रखने वाला।

प्रश्न 2. प्रत्येक सिख को अपना जीवन किसके अनुसार व्यतीत करना चाहिए ?
उत्तर-गुरमति के अनुसार।

प्रश्न 3. सिख जीवन में नितनेम की कितनी वाणियां सम्मिलित हैं ?
अथवा
नितनेम की वाणियों के नाम लिखें।
उत्तर-जपुजी साहिब, जापु साहिब, अनंदु साहिब, चौपाई साहिब, 10 सवैया, रहरासि साहिब और सोहिला।

प्रश्न 4. नितनेम में सम्मिलित किन्हीं दो वाणियों के नाम लिखें।
अथवा
प्रातःकाल में पढ़ी जाने वाली कोई दो वाणियाँ बताएँ।
अथवा
अमृत समय पढ़ी जाने वाली वाणियों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. जपुजी साहिब
  2. जापु साहिब।

प्रश्न 5. किस वाणी को सायंकाल में पढ़ना चाहिए ?
उत्तर-रहरासि साहिब।

प्रश्न 6. सिख जीवन में रात को सोते समय कौन-सी वाणी पढ़ी जाती है ?
अथवा
सिख धर्म के अनुसार रात को सोते समय कौन-सी वाणी पढ़ी जाती है ?
उत्तर-सिख जीवन में रात को सोते समय सोहिला नामक वाणी पढी जाती है।

प्रश्न 7. गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय किस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए ?
उत्तर-गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश के समय ऊपर चाँदनी होनी चाहिए।

प्रश्न 8. गुरुद्वारे के अंदर प्रत्येक सिख के लिए कौन सी बातें वर्जित की गई हैं ? कोई एक बताएँ।
उत्तर-वह अपने जूते बाहर उतार कर आए।

प्रश्न 9. गुरुद्वारे में निशान साहिब कहाँ लगा होना चाहिए ?
उत्तर-किसी ऊँचे स्थान पर।।

प्रश्न 10. गुरमति जीवन का कोई एक सिद्धाँत बताएँ।
उत्तर- प्रत्येक सिख प्रतिदिन अपना कार्य आरंभ करने से पूर्व अरदास करेगा।

प्रश्न 11. प्रत्येक सिख के लिए कौन-से पाँच कक्कार धारण करने अनिवार्य हैं ?
अथवा
सिख जीवन जाच अनुसार सिखों के पांच ककार लिखें।
उत्तर-केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा तथा कृपाण।

प्रश्न 12. किन्हीं दो कुरीतियों के नाम लिखें जिन पर प्रत्येक सिख के लिए प्रतिबंध लगाया गया है ?
उत्तर-

  1. केशों को काटना
  2. तंबाकू का प्रयोग करना।

प्रश्न 13. गुश्मत्ता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-गुरमत्ता गुरु ग्रंथ साहिब जी की उपस्थिति में सरबत खालसा द्वारा जो निर्णय स्वीकार किए जाते हैं, उन्हें गुरमत्ता कहा जाता है।

प्रश्न 14. गुरमत्ता किन प्रश्नों पर हो सकता है ?
उत्तर-गुरमत्ता केवल सिख धर्म के मूल सिद्धांतों की पुष्टि के लिए हो सकता है।

प्रश्न 15. सिख दर्शन में किसे सर्वोच्च माना गया है ?
उत्तर-अकाल पुरुख को।

प्रश्न 16. अकाल पुरुख का कोई एक लक्षण बताएँ।
उत्तर-वह सर्वशक्तिमान है।

प्रश्न 17. गुरवाणी के अनुसार व्यक्ति और परमात्मा के मिलाप सीढ़ी का कार्य कौन करता है ?
उत्तर-गुरु स्वयं।

प्रश्न 18. सिख धर्म में गुरु से क्या भाव है ?
उत्तर-सिख धर्म में सच्चा गुरु परमात्मा स्वयं है।

प्रश्न 19. सिख धर्म में गुरु का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-वह मुक्ति तक ले जाए वाली वास्तविक सीढ़ी है।

प्रश्न 20. संगत एवं पंगत की स्थापना कौन-से गुरु ने कहाँ की ?
अथवा
संगत व पंगत संस्था किस गुरु ने स्थापित की ?
उत्तर-संगत एवं पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में की।

प्रश्न 21. संगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-संगत से भाव है गुरमुख प्यारों की वह एकत्रता जहाँ परमात्मा की प्रशंसा की जाती है।

प्रश्न 22. संगत की स्थापना किसने की ?
उत्तर-संगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की।

प्रश्न 23. सिख धर्म में संगत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-संगत में जाने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाता है।

प्रश्न 24. पंगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-पंगत से अभिप्राय है एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकना।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 25. पंगत की स्थापना किसने की ?
उत्तर-गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 26. पंगत क्या होती है और यह किस गुरु साहिब के समय आरंभ हुई ?
उत्तर-

  1. पंगत से भाव है पंगत में बैठकर लंगर खाना।
  2. यह गुरु नानक साहिब के समय से आरंभ हुई।

प्रश्न 27. सिख धर्म में पंगत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-इससे सिख धर्म के प्रचार को प्रोत्साहन मिला।

प्रश्न 28. सिख धर्म में हुक्म से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-हुक्म से अभिप्राय है आज्ञा अथवा आदेश।

प्रश्न 29. सिख धर्म में हुक्म का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-हुक्म मानने वाला व्यक्ति पर परमात्मा मेहरबान होता है।

प्रश्न 30. हुक्म न मानने वाले व्यक्ति के साथ क्या होता है ?
उत्तर-हुक्म न मानने वाला व्यक्ति आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

प्रश्न 31. हउमै से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-अभिमान करना।

प्रश्न 32. हउमै किस प्रकार का रोग है ?
अथवा
सिख जीवन जाच में हउमै किस प्रकार का रोग है ?
उत्तर-हउमै एक दीर्घ रोग है।

प्रश्न 33. हउमै को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ?
उत्तर-नाम जप कर।

प्रश्न 34. मनुष्य के कितने मनोविकार हैं ?
उत्तर-पाँच।

प्रश्न 35. मनुष्य के कोई दो मनोविकार बताएँ।
उत्तर-

  1. काम
  2. क्रोध।

प्रश्न 36. सिख को कौन-से विकारों से सावधान रहने के लिए कहा गया है ?
अथवा
सिख के जीवन में पांच मनो विकार कौन-से माने जाते हैं ?
उत्तर-सिख को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से सावधान रहने को कहा गया है।

प्रश्न 37. सेवा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-सेवा से अभिप्राय उस कार्य से है जिससे मानवता की भलाई हो।

प्रश्न 38. सिख धर्म में कौन-मा मनुष्य सेवा कर सकता है ?
उत्तर-सिख धर्म में वह मनुष्य सेवा कर सकता है जिस पर परमात्मा मेहरबान हो।

प्रश्न 39. सिख धर्म में परमात्मा को प्राप्त करने का सबसे बढ़िया साधन कौन-सा है ?
उत्तर-सिमरनि।

प्रश्न 40. सिख धर्म में सिमरनि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-सिमरनि करने वाले व्यक्ति के मनोविकार दूर हो जाते हैं।

प्रश्न 41. सिख धर्म में किन तीन सिद्धांतों की पालना करना प्रत्येक सिख के लिए अनिवार्य है ?
उत्तर-किरत करना, नाम जपना तथा बाँट कर छकना।

प्रश्न 42. नाम जपना, किरत करना और बांट कर छकना किस धर्म के नियम हैं ?
उत्तर-सिख धर्म के।

प्रश्न 43. किरत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-किरत से अभिप्राय है मेहनत तथा ईमानदारी की कमाई करना।

प्रश्न 44. कीर्तन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-कीर्तन से अभिप्राय उस गायन से है जो परमात्मा की प्रशंसा में गाया जाता है।

प्रश्न 45. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा को किसने आरंभ किया ?
उत्तर-सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा को गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया।

प्रश्न 46. सिख धर्म में कीर्तन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-कीर्तन करने एवं सुनने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाता है।

प्रश्न 47. अरदास से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- अरदास से अभिप्राय परमात्मा के सम्मुख प्रार्थना अथवा विनती करने से है।।

प्रश्न 48. क्या सिख धर्म में अरदास के लिए कोई समय निश्चित किया गया है ?
उत्तर- नहीं।

प्रश्न 49. सिख धर्म में अरदास का क्या महत्त्व है, ?
उत्तर-अरदास करने वाले व्यक्ति की हउमै दूर हो जाती है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. जपुजी साहिब की बाणी ………… समय पढ़ी जाती है।
उत्तर-अमृत

प्रश्न 2. ………… की बाणी शाम सूरज अस्त के पश्चात् पढ़ी जाती है। .
उत्तर-रहरासि साहिब

प्रश्न 3. मूल मंत्र ………. के आरंभ में दिया गया है।
उत्तर-जपुजी साहिब

प्रश्न 4. सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरख ………… है।
उत्तर-एक

प्रश्न 5. सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरख के ……….. रूप हैं।
उत्तर-दो

प्रश्न 6. सिख धर्म के अनुसार …………. सर्वशक्तिमान है।
उत्तर-अकाल पुरख

प्रश्न 7. सिख धर्म के बुनियादी सिद्धांत ………. हैं।
उत्तर-तीन

प्रश्न 8. सिख धर्म में पहला बुनियादी सिद्धांत ……….. है।
उत्तर-नाम जपना

प्रश्न 9. सिख धर्म के अनुसार किरत से भाव है……… की कमाई करना।
उत्तर-ईमानदारी

प्रश्न 10. संगत प्रथा की स्थापना ………… ने की थी।
उत्तर-गुरु नानक देव जी

प्रश्न 11. कतार में बैठकर लंगर छकने को ………. कहा जाता है।
उत्तर-पंगत

प्रश्न 12. हुक्म से भाव है ………. का आदेश।
उत्तर-परमात्मा

प्रश्न 13. हउमै ……….. रोग है।
उत्तर-दीर्घ

प्रश्न 14. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा ……… ने चलाई।
उत्तर-गुरु नानक देव जी

प्रश्न 15. सिख धर्म में ………. को विशेष महत्त्व दिया गया है।
उत्तर-सेवा

प्रश्न 16. सिख धर्म ………… का संदेश देता है।
उत्तर-सांझीवालता

प्रश्न 17. सिख धर्म में अमृत ग्रहण करवाने के लिए ………… प्यारों का होना अनिवार्य है।
उत्तर–पाँच

प्रश्न 18. सिख धर्म में परमात्मा के सम्मुख की जाने वाली प्रार्थना को ……… कहा जाता है।
उत्तर-अरदास

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. जपुजी साहिब का आरंभ मूलमंत्र से होता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. जापु साहिब को प्रातःकाल में पढ़ा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. सिख धर्म में नशों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. गुरुबाणी के अनुसार जगत की रचना नाशवान् नहीं है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. गुरुबाणी के अनुसार अकाल पुरुष एक है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. सिख धर्म में नाम सिमरन को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 7. सिख धर्म में संगत और पंगत की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. सिख धर्म के अनुसार हुक्म से भाव परमात्मा के आदेश से है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. सिख धर्म के अनुसार हऊमै दीर्घ रोग है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. सिख धर्म में कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. सिख धर्म में अमृत पान के लिए पाँच प्यारों का होना अनिवार्य है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. सिख धर्म में अरदास किसी भी समय की जा सकती है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किस बाणी को अमृत समय नहीं पढ़ा जाता है ?
(i) जापुजी साहिब
(ii) जापु साहिब
(iii) रहरासि साहिब
(iv) अनंदु साहिब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से किस बाणी को रात को सोते समय पढ़ा जाता है ?
(i) चौपाई साहिब
(ii) अनंदु साहिब
(iii) रहरासि साहिब
(iv) सोहिला)
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है
(i) गुरसिख देवी-देवताओं की उपासना कर सकते हैं ।
(ii) प्रत्येक गुरसिख के लिए अनिवार्य है कि वह अपना कोई भी कार्य आरंभ करने से पहले वाहिगुरु के सम्मुख अरदास करे।
(iii) प्रत्येक गुरसिख के लिए नशों के सेवन के लिए पाबंदी है।
(iv) वाहेगुरु जी का खालसा श्री वाहेगुरु जी की फ़तेह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से किस बाणी में मूल मंत्र का वर्णन किया गया है ?
(i) जापु साहिब
(ii) जापुजी साहिब
(iii) अनंदु साहिब
(iv) रहरासि साहिब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 5.
सिख धर्म के अनुसार अकाल पुरुष संबंधी निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है ?
(i) अकाल पुरुष अनेक हैं
(ii) वह निर्गुणहार है
(iii) वह सर्वव्यापक है
(iv) वह सबसे महान् है।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 6.
सिख धर्म के आरंभिक नियम कितने हैं ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5.
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 7.
सिख धर्म का प्रथम नियम क्या है ?
(i) नाम जपना
(ii) किरत करनी
(iii) बाँट छकना
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
संगत और पंगत संस्थाओं की स्थापना किसने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु राम दास जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
लंगर प्रथा की नींव किसने रखी ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु नानक देव जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 10.
सिख धर्म में कीर्तन का आरंभ किसने किया था ?
(i) गुरु हर राय जी ने
(ii) गुरु हरकृष्ण जी ने
(iii) गुरु नानक देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
अमृत ग्रहण के लिए कम-से-कम कितने प्यारों का उपस्थित होना अनिवार्य है ?
(i) 2
(ii) 3
(iii) 4
(iv) 5
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 9 सिख जीवन पद्धति

प्रश्न 12.
सिख धर्म में अरदास कब की जा सकती है ?
(i) केवल अमृत समय
(ii) सायं समय
(iii) रात को सोने से पूर्व
(iv) किसी भी समय।
उत्तर-
(iv)

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म की चार उत्तम सच्चाइयों की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए।
(Examine critically the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार सच्चाइयों बारे बताएँ।
(Explain the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार सामाजिक सदगुणों की व्याख्या करो।
(Explain the Four Social Virtues of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार महान सत्य कौन से हैं ? व्याख्या करो।
(What are the Four Noble Truths of Buddhism ? Explain.)
अथवा
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य (महान् सच्चाइयाँ) के बारे जानकारी दो।
(Describe the Four Noble Truths of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार आर्य सच्चाइयों के बारे नोट लिखो।
(Write about the Four Noble Truths of Buddhism.)
उत्तर-
चार पवित्र सच्चाइयाँ बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इन सच्चाइयों को महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया था। ये चार पवित्र सच्चाइयाँ अपने आप में एक दर्शन हैं। इनको चार आर्य सत्य भी कहा जाता है। क्योंकि यह चिरंजीवी है और सच्चाई पर आधारित है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि इन पर अमल करने से मनुष्य अपने दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इन पर अमल करने के लिए मनुष्य को न तो किसी पुजारी और न ही अन्य कर्म कांडों की ज़रूरत है। पवित्र जीवन व्यतीत करना ही इसका मूल आधार है। चार पवित्र सच्चाइयाँ ये हैं—
1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
2. दुःखों का कारण है।
3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।

1. जीवन दुःखों से भरपूर है (Life is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है, इससे कोई व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता कि जीवन में दुःख ही दुःख हैं। जो भी व्यक्ति इस संसार में जन्म लेगा उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होना ज़रूरी है। यह महान् दुःख है। इन के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों दुःख हैं जिनको मनुष्य भोगता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य जो चाहता है जब उसे प्राप्त नहीं होता तो वह दु:खी है। कोई मनुष्य ग़रीबी कारण दुःखी है और कोई अमीर होने पर भी दु:खी रहता है क्योंकि वह अधिक धन की लालसा करता है। कोई व्यक्ति बे-औलाद होने के कारण दुःखी रहता है और किसी की अधिक औलाद दुःख का कारण बनती है। यदि कोई भूखा है तो भी दुःखी है और कोई अधिक खा लेने के कारण दुःखी होता है। कोई अपने किसी रिश्तेदार के बिछड़ जाने के कारण दुःखी होता है और कोई अपने दुश्मन का मुँह देख लेने पर दुःखी होता है। जिनको मनुष्य सुख समझता है वह ही दु:ख का कारण बनते हैं क्योंकि सुख पल भर ही रहता है। वास्तव में दुःख मनुष्य के जीवन का एक ज़रूरी अंग है। यह मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक साथ रहता है। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मृत्यु से दु:खों का अंत नहीं होता क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह केवल एक कहानी का अंत है, नये जीवन में पुराने संस्कार जुड़े होते हैं। संक्षेप में जीवन दुःखों की एक लंबी यात्रा है।

2. दुःखों का कारण है (There is a Cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध की दूसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का कारण है। प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यह नहीं हो सकता कि घटना का कोई कारण ही न हो। प्रत्येक घटना का संबंध किसी ऐसी पूर्ववर्ती घटना अथवा परिस्थितियों से होता है जिनके होने से यह होती है और जिनके न होने से यह नहीं होती। बिना कारण के परिणाम संभव नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के दु:खों का क्या कारण है। महात्मा बुद्ध के अनुसार तृष्णा और अविद्या दुःखों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण हम बार-बार जन्म लेते हैं और दुःख पाते हैं। तृष्णा दुःख का कारण है क्योंकि जहाँ तृष्णा है वहाँ मनुष्य असंतुष्ट है। यदि वह संतुष्ट हो तो तृष्णा पैदा ही नहीं होती। तृष्णा जीवन भर बनी रहती है। यह मरने पर भी नहीं मरती और नया जन्म होने से दुगुनी शक्ति से खुद को पूरा करती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है—

  • ऐश करने की तृष्णा,
  • जीते रहने की तृण्णा,
  • अनहोने की तृष्णा। अविद्या से भाव अज्ञानता से है।

इसी कारण ही मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है जिसका परिणाम दुःख है। जब तक मनुष्य इस आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं हो सकता। अविद्या के कारण ही मनुष्य अपने जीवन, संसार, सम्पत्ति और परिवार को स्थिर समझ लेता है जबकि वास्तव में यह सब नाशवान् है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है।

3. दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)-महात्मा बुद्ध की तीसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का दुःख तथ्यों पर आधारित एक ठोस सच्चाई है। परंतु इससे यह भाव नहीं कि बुद्ध दर्शन निराशावादी है। वास्तव में यह दुःखी मनुष्य के लिए एक दीये का काम करता है। इसका कहना है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। जैसे कि ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यदि इन कारणों से छुटकारा पा लिया जाये तो दुःखों से छुटकारा पा लिया जा सकता है। दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा के पूर्ण तौर पर मिट जाने से दुःख दूर हो जाता है। इस तृष्णा की समाप्ति का अर्थ अपनी सारी वासनाओं और भूखों पर रोक लगाना है। ऐसा करके मनुष्य अपने सारे दुःखों से छुटकारा और निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध की चौथी पवित्र सच्चाई यह है कि दु:खों का अंत करने का एक मार्ग है। इस मार्ग को वह मध्य मार्ग बताते हैं ! उनके अनुसार प्रवृत्ति (भोग का मार्ग) और निवृत्ति (तपस्या का मार्ग) दोनों ही गलत हैं क्योंकि यह अति पर आधारित हैं। प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए, उनको मारना नहीं चाहिए। बुद्ध के अनुसार इच्छाओं को पूरा करने पर इच्छाएँ पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति जलती पर घी डालने का काम करती है । इच्छाओं से केवल नाशवान् सुख की प्राप्ति होती है जिसका अन्त दुःख होता है। दूसरी ओर निवृत्ति के मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार इच्छाओं के दमन से यह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। ये अंदर ही अंदर दबी हुई आग की तरह सुलगती रहती हैं और अवसर मिलने पर भड़क उठती हैं। इसके अतिरिक्त इच्छाओं के दमन से कई मानसिक और शारीरिक कष्ट आदि उत्पन्न होते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने इन दोनों अतिवादी मार्गों को गलत कहा। उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने के पक्ष में प्रचार किया। मध्य मार्ग पर चलने के कारण इच्छाएँ धीरे-धीरे संयम के अधीन हो जाती हैं और परम शांति की प्राप्ति होती है। बुद्ध का यह मार्ग आठ सद्गुणों पर निर्भर करता है जिस कारण इसको अष्ट मार्ग भी कहते हैं। ये आठ सद्गुण हैं—

    • सच्चा विचार
    • सच्ची नीयत
    • सच्चा बोल
    • सच्चा व्यवहार
    • सच्ची रोज़ी
    • सच्चा यत्न
    • सच्चा मनोयोग
    • सच्चा ध्यान

संक्षेप में मध्य मार्ग पर चलकर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। हरबंस सिंह और एल० एम० जोशी का यह कहना बिल्कुल ठीक है
“ये चार पवित्र सच्चाइयाँ यह बताती हैं कि दुःख हैं और दुःखों से मुक्त होने का एक मार्ग है।”1

1. “The four holy truths thus teach that there is suffering and that there is a way leading beyond suffering.” Harbans Singh and L. M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1996) p.134.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग स्पष्ट करो। (Describe the Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग की आलोचनात्मक दृष्टि पर जांच कीजिए। (Examine critically the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
“बौद्ध धर्म की बुनियादी शिक्षाएँ अष्टांग मार्ग में संकलित हैं।” प्रकाश डालिए। (“Basic teachings of Buddhism are incorporated in Ashtang Marga.” Elucidate.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के ‘अष्ट मार्ग’ के विषय में संक्षिप्त, परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful Ashta Marga of Lord Buddha.)
अथवा
‘अष्ट मार्ग’ बुद्ध धर्म की कुंजी है। प्रकाश डालें।
(“Ashta Marga is the key to Buddhism.’ Elucidate.)
अथवा
अष्ट मार्ग बौद्ध धर्म का आधार है। चर्चा कीजिए।
(Ashta Marga is the base of Buddhism. Discuss.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग पर चर्चा करो। (Discuss the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म में जीवन की कुंजी मध्य मार्ग है जिसकी प्राप्ति के लिए अष्टांग मार्ग बताया गया है। इसकी व्याख्या करो।
(In Buddhism the key to way of life is Middle Way which is realized through Ashtang Marga. Explain.)
अथवा
अष्टांग मार्ग की विस्तृत चर्चा करो।
(Discuss in detail the Ashtang Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग के बारे जानकारी दो।
(Write about the Ashtang Marga in Buddhism.)
अथवा
महात्मा बद्ध ने दःखों से मुक्त होने के लिए कौन-सा मार्ग बताया है ? उसकी विशेषतायें और महत्त्व बताओ।
(Which way has been told by Lord Buddha to stop sufferings ? Explain its features and importance.)
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्य मार्ग बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Madhya Marga in Buddhism ?)
अथवा
अष्ट मार्ग बौद्ध धर्म की नैतिकता का मूल आधार है।
(Ashta Marga is the basis of Buddhist ethics.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग पर नोट लिखें। (Write a note on Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग पर एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write a detailed note on the Ashta Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के दर्शाए अष्टांग मार्ग के बारे जानकारी दो।
(Write about the Ashtang Marga of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्य मार्ग की व्याख्या करें।
(Describe the Middle Path of Buddhism.)
अथवा
अष्ट मार्ग किसे कहते हैं ? संक्षिप्त उत्तर दें।
(What is the meaning of Ashta Marga ? Answer in brief.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग का वर्णन करें।
(Describe the way of Nirvana according to Buddhism.)
अथवा
अष्ट मार्ग की संक्षिप्त व्याख्या करें।
Explain briefly about Ashta Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म का अष्टांग मार्ग क्या है ? चर्चा कीजिए।
(What is the Ashtang Marga of Buddhism ? Discuss.)
अथवा
मध्य मार्ग बौद्ध धर्म की कुंजी है। प्रकाश डालें।
(Madhya-Marga is the key of Buddhism. Elucidate.)
उत्तर- महात्मा बुद्ध ने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शांति, सूझ, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने के लिए लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार भोग का मार्ग और तपस्या का मार्ग दोनों ही गलत हैं क्योंकि ये अति पर आधारित हैं। वह जीवन जो ऐश-ओ-आराम में व्यतीत होता है और वह जीवन जो कठोर संन्यास में व्यतीत होता है बहुत ही दुःखदायक और व्यर्थ होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अंदर सांसारिक भोग और कठोर तप के दोनों मार्ग देखे थे। उनका कहना था इन मार्गों पर चल कर इच्छाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता। इच्छाओं को संयम से जीतना चाहिए। इसलिए महात्मा बुद्ध ने अष्ट मार्ग की खोज की। क्योंकि ये दोनों अति के मार्गों का मध्यम रास्ता है इसलिए इस को मध्य मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग मनुष्य को यह बताता है कि वह अपना नैतिक और धार्मिक जीवन किस तरह व्यतीत करे। इसके निम्नलिखित आठ भाग हैं—

  1. सच्चा विचार (समयक दृष्टि)
  2. सच्ची नीयत (समयक संकल्प )
  3. सच्चा बोल (समयक वाक्य)
  4. सच्चा व्यवहार (समयक कर्म)
  5. सच्ची रोज़ी (समयक आजीविका)
  6. सच्चा यत्न (समयक व्यायाम)
  7. सच्चा मनोयोग (समयक स्मृति)
  8. सच्चा ध्यान (समयक समाधि)

1. सच्चा विचार (Right View)-सच्चा विचार नैतिक जीवन की आधारशिला है। इसको सच्चा ज्ञान भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य का विचार गलत हो तो उसका जीवन दुःखों में घिरा रहता है। वह निर्वाण प्राप्ति नहीं कर सकता और आवागमन के चक्रों में भटकता रहता है। अविद्या (अज्ञानता) के कारण वह ऐसा करता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार चार पवित्र सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है क्योंकि इससे दुःख दूर करने का मार्ग खुलता है।

2. सच्ची नीयत (Right Intention)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत सच्ची होनी चाहिए। शुभ कर्म करने का निश्चय ही सच्ची नीयत कहलाता है। मनुष्य को सांसारिक भोग विलास से हमेशा कोसों दूर रहना चाहिए। उसको संसार में उस तरह अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसे कीचड़ में कमल का फूल रहता है। मनुष्य को दूसरों के प्रति दया और अहिंसा की भावना रखनी चाहिए।

3. सच्चा बोल (Right Speech)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निन्दा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

4. सच्चा व्यवहार (Right Action)-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पडता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला है।

5. सच्ची रोज़ी (Right Livelihood)-महात्मा बुद्ध ने सच्ची रोज़ी कमाने पर बहुत ज़ोर दिया है। उनका कहना था कि रोज़ी ईमानदारी से कमानी चाहिए। हमें ऐसी रोज़ी नहीं कमानी चाहिए जिसमें धोखे, हिंसा, चोरी और भ्रष्टाचार आदि से काम लेना पड़े। हथियारों, नशीली वस्तुओं, माँस और मनुष्यों आदि का व्यापार करना सच्ची रोजी के साधन नहीं हैं क्योंकि ये मनुष्य के दुःखों का कारण बनते हैं।

6. सच्चा यत्न (Right Effort)-सच्चा यत्न मन में बुराइयों को पैदा होने से रोकता है। इसका मनोरथ यह है कि मनुष्य के मन में जन्मे हुए बुरे विचारों का अंत किया जाये और मन को अच्छे मार्ग की ओर ले जावे। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपने मन की कारवाई और विचारों के प्रति सदा चौकसी रखनी चाहिए। एक पल की ढील होने पर कोई बुरा विचार हमारे मन के अंदर आ सकता है जो कि मनुष्य को गिरावट के खड्डे में गिरा सकता है। इसलिए हमें विकारों का विश्लेषण करना चाहिए और अच्छे विचारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

7. सच्चा मनोयोग (Right Mindfulness)-सच्चा मनोयोग बुद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है। इसका अर्थ है मनुष्य का शरीर और मन के कार्यों के प्रति चेतन होना। यदि मनोयोग शुद्ध हो तो सद्विचार और सद्व्यवहार अपने आप उपजते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को सदा चार पवित्र सच्चाइयों पर ध्यान रखना चाहिए। उसको शारीरिक अपवित्रता और मानसिक बुराइयों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

8. सच्चा ध्यान (Right Concentration)-महात्मा बुद्ध के अनुसार योग साधना के रास्ते से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सच्चे ध्यान (समाधि) पर अधिक जोर दिया। सच्चे ध्यान के लिए चार अवस्थाओं से गुजरना ज़रूरी है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध रख कर ध्यान में मग्न रहता है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में मनुष्य के सारे संदेह दूर हो जाते हैं और उसको आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त होता है। तीसरी अवस्था में आनंद समाप्त हो जाता है और मन सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है। इसको निर्विकार ध्यान कहते हैं। चौथी अवस्था में कुछ नहीं रहता और जीव शृंय (निर्वाण) को प्राप्त होता है। यह ध्यान की अंतिम मंजिल है। डॉक्टर एस० बी० शास्त्री का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध की शिक्षाओं की वास्तविक कुंजी है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।”2

2. “This noble Eightfold Path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S.B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ कौन-सी हैं ? अष्ट मार्ग का वर्णन करो।
(Which are the Four Noble Truths of Buddhism ? Describe Ashta Marga.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग एवं चार उत्तम सच्चाइयों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the Ashtang Marga and Four Noble Truths of Buddhism.)
उत्तर-
(क) चार महान् सच्चाइयां (Four Noble Truths)–बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ ये हैं:—

  1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
  2. दुःखों का कारण है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।

(ख) महात्मा बुद्ध ने दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शांति, सूझ, ज्ञान और निर्वाण प्राप्त करने के लिए लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार भोग का मार्ग और तपस्या का मार्ग दोनों ही गलत हैं क्योंकि ये अति पर आधारित हैं। वह जीवन जो ऐश-ओ-आराम में व्यतीत होता है और वह जीवन जो कठोर संन्यास में व्यतीत होता है बहुत ही दुःखदायक और व्यर्थ होता है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अंदर सांसारिक भोग और कठोर तप के दोनों मार्ग देखे थे। उनका कहना था इन मार्गों पर चल कर इच्छाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता। इच्छाओं को संयम से जीतना चाहिए। इसलिए महात्मा बुद्ध ने अष्ट मार्ग की खोज की। क्योंकि ये दोनों अति के मार्गों का मध्यम रास्ता है इसलिए इस को मध्य मार्ग भी कहा जाता है। यह मार्ग मनुष्य को यह बताता है कि वह अपना नैतिक और धार्मिक जीवन किस तरह व्यतीत करे। इसके निम्नलिखित आठ भाग हैं—

  1. सच्चा विचार (समयक दृष्टि)
  2. सच्ची नीयत (समयक संकल्प )
  3. सच्चा बोल (समयक वाक्य)
  4. सच्चा व्यवहार (समयक कर्म)
  5. सच्ची रोज़ी (समयक आजीविका)
  6. सच्चा यत्न (समयक व्यायाम)
  7. सच्चा मनोयोग (समयक स्मृति)
  8. सच्चा ध्यान (समयक समाधि)

1. सच्चा विचार (Right View)-सच्चा विचार नैतिक जीवन की आधारशिला है। इसको सच्चा ज्ञान भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य का विचार गलत हो तो उसका जीवन दुःखों में घिरा रहता है। वह निर्वाण प्राप्ति नहीं कर सकता और आवागमन के चक्रों में भटकता रहता है। अविद्या (अज्ञानता) के कारण वह ऐसा करता है। महात्मा बुद्ध के अनुसार चार पवित्र सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है क्योंकि इससे दुःख दूर करने का मार्ग खुलता है।

2. सच्ची नीयत (Right Intention)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत सच्ची होनी चाहिए। शुभ कर्म करने का निश्चय ही सच्ची नीयत कहलाता है। मनुष्य को सांसारिक भोग विलास से हमेशा कोसों दूर रहना चाहिए। उसको संसार में उस तरह अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसे कीचड़ में कमल का फूल रहता है। मनुष्य को दूसरों के प्रति दया और अहिंसा की भावना रखनी चाहिए।

3. सच्चा बोल (Right Speech)-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निन्दा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

4. सच्चा व्यवहार (Right Action)-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पडता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला है।

5. सच्ची रोज़ी (Right Livelihood)-महात्मा बुद्ध ने सच्ची रोज़ी कमाने पर बहुत ज़ोर दिया है। उनका कहना था कि रोज़ी ईमानदारी से कमानी चाहिए। हमें ऐसी रोज़ी नहीं कमानी चाहिए जिसमें धोखे, हिंसा, चोरी और भ्रष्टाचार आदि से काम लेना पड़े। हथियारों, नशीली वस्तुओं, माँस और मनुष्यों आदि का व्यापार करना सच्ची रोजी के साधन नहीं हैं क्योंकि ये मनुष्य के दुःखों का कारण बनते हैं।

6. सच्चा यत्न (Right Effort)-सच्चा यत्न मन में बुराइयों को पैदा होने से रोकता है। इसका मनोरथ यह है कि मनुष्य के मन में जन्मे हुए बुरे विचारों का अंत किया जाये और मन को अच्छे मार्ग की ओर ले जावे। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपने मन की कारवाई और विचारों के प्रति सदा चौकसी रखनी चाहिए। एक पल की ढील होने पर कोई बुरा विचार हमारे मन के अंदर आ सकता है जो कि मनुष्य को गिरावट के खड्डे में गिरा सकता है। इसलिए हमें विकारों का विश्लेषण करना चाहिए और अच्छे विचारों के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

7. सच्चा मनोयोग (Right Mindfulness)-सच्चा मनोयोग बुद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है। इसका अर्थ है मनुष्य का शरीर और मन के कार्यों के प्रति चेतन होना। यदि मनोयोग शुद्ध हो तो सद्विचार और सद्व्यवहार अपने आप उपजते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को सदा चार पवित्र सच्चाइयों पर ध्यान रखना चाहिए। उसको शारीरिक अपवित्रता और मानसिक बुराइयों के प्रति सचेत रहना चाहिए।

8. सच्चा ध्यान (Right Concentration)-महात्मा बुद्ध के अनुसार योग साधना के रास्ते से मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सच्चे ध्यान (समाधि) पर अधिक जोर दिया। सच्चे ध्यान के लिए चार अवस्थाओं से गुजरना ज़रूरी है। पहली अवस्था में मनुष्य अपने मन को शुद्ध रख कर ध्यान में मग्न रहता है और उसे सुख की प्राप्ति होती है। दूसरी अवस्था में मनुष्य के सारे संदेह दूर हो जाते हैं और उसको आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त होता है। तीसरी अवस्था में आनंद समाप्त हो जाता है और मन सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है। इसको निर्विकार ध्यान कहते हैं। चौथी अवस्था में कुछ नहीं रहता और जीव शृंय (निर्वाण) को प्राप्त होता है। यह ध्यान की अंतिम मंजिल है। डॉक्टर एस० बी० शास्त्री का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध की शिक्षाओं की वास्तविक कुंजी है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।”2

2. “This noble Eightfold Path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S.B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म की चार पवित्र सच्चाइयाँ क्या हैं ? (What are the Four Noble Truths of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म की चार महान् सच्चाइयाँ। (Four Noble Truth of Buddhism.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार यह चार पवित्र सच्चाइयाँ हैं—

  1. जीवन दु:खों से भरपूर है। जन्म, रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु दुःख का कारण है।
  2. दुःखों का कारण तृष्णा है। इस तृष्णा के कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फँसा रहता है।
  3. तृष्णा का त्याग करने से दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. अष्ट मार्ग पर चल कर इन दुःखों का अंत किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
मध्य मार्ग अथवा अष्ट मार्ग से क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Middle Path or Eightfold Path ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता था क्योंकि यह कठोर तपस्या और भोग-विलास के बीच का मार्ग है। अष्ट मार्ग के सिद्धांत ये थे—

  1. सच्चा विचार
  2. सच्ची नीयत
  3. सच्चा बोल
  4. सच्चा व्यवहार
  5. सच्ची आजीविका
  6. सच्चा यत्न
  7. सच्चा मनोयोग
  8. सच्चा ध्यान।

यह पवित्र अष्ट मार्ग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार है जिसको अपनाकर मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म की चार पवित्र सच्चाइयाँ क्या हैं ?
(What are the Four Noble Truths of Buddhism ?)
उत्तर-
चार पवित्र सच्चाइयाँ बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इन सच्चाइयों को महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के अनुभव द्वारा प्राप्त किया था। ये पवित्र सच्चाइयाँ अपने आप में एक दर्शन हैं। इनको चार आर्य सत्य भी कहा जाता है। क्योंकि यह चिरंजीवी है और सच्चाई पर आधारित है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि इन पर अमल करने के मनुष्य अपने दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इन पर अमल करने के लिए मनुष्य को न तो किसी पुजारी और न ही अन्य कर्म कांडों की ज़रूरत है। पवित्र जीवन व्यतीत करना ही इसका मूल आधार है। चार पवित्र सच्चाइयाँ ये हैं—

  1. जीवन दुःखों से भरपूर है।
  2. दुःखों का कारण है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  4. दु:खों का अंत करने का एक मार्ग है।

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या जीवन दुःखों से भरपूर है ? (According to Lord Buddha is life full of sufferings ?) .
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है। इससे कोई व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता कि जीवन में दुःख ही दुःख हैं। जो भी व्यक्ति इस संसार में जन्म लेगा उसको रोग, बुढ़ापा और मृत्यु को प्राप्त होना ज़रूरी है। यह महान् दुःख है। इन के अतिरिक्त अन्य भी अनेकों दुःख हैं जिनको मनुष्य भोगता है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य जो चाहता है जब उसे प्राप्त नहीं होता तो वह दुःखी है। कोई मनुष्य ग़रीबी कारण दुःखी है और कोई अमीर होने पर भी दुःखी रहता है क्योंकि वह अधिक धन की लालसा करता है। कोई व्यक्ति बे-औलाद होने के कारण दुःखी रहता है और किसी की अधिक औलाद दुःख का कारण बनती है। यदि कोई भूखा है तो भी दु:खी है और कोई अधिक खा लेने के कारण दुःखी होता है। कोई अपने किसी रिश्तेदार के बिछड़ जाने के कारण दुःखी होता है और कोई अपने दुश्मन का मुँह देख लेने पर दु:खी होता है। जिनको मनुष्य सुख समझता है वह ही दुःख का कारण बनते हैं क्योंकि सुख पल भर ही रहता है। वास्तव में दुःख मनुष्य के जीवन का एक ज़रूरी अंग है। यह मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक साथ रहता है। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मृत्यु से दुःखों का अंत नहीं होता क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। यह केवल एक कहानी का अंत है, नये जीवन में पुराने संस्कार जुड़े होते हैं। संक्षेप में जीवन दु:खों की एक लंबी यात्रा है।

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःखों का क्या कारण है ?
(According to Lord Buddha is there a cause of sufferings ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की दूसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का कारण है। प्रत्येक घटना का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यह नहीं हो सकता कि घटना का कोई कारण ही न हो। प्रत्येक घटना का संबंध किसी ऐसी पूर्ववर्ता घटना अथवा परिस्थितियों से होता है जिनके होने से यह होती है और जिनके न होने से यह नहीं होती। बिना कारण के परिणाम संभव नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य के दुःखों का क्या कारण है। महात्मा बुद्ध के अनुसार तृष्णा और अजानता दु:खों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण हम बार बार जन्म लेते हैं और दुःख पाते हैं। तृष्णा दुःख का कारण है क्योंकि जहाँ तृष्णा है वहाँ मनुष्य असंतुष्ट है। यदि वह संतुष्ट हो तो तृष्णा पैदा ही नहीं होती। तृष्णा जीवन भर बनी रहती है। यह मरने पर भी नहीं मरती और नया जन्म होने से दुगुनी शक्ति से खुद को पूरा करती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की होती है—

  1. ऐश करने की तृष्णा,
  2. जीते रहने की तृष्णा,
  3. अनहोने की तृष्णा।

अविद्या से भाव अज्ञानता से है। इसी कारण ही मनुष्य आवागमन के चक्रों में फंसा रहता है, जिसका परिणाम दुःख है। जब तक मनुष्य इस आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं हो सकता। अज्ञानता के कारण ही मनुष्य अपने जीवन, संसार, सम्पत्ति और परिवार को स्थिर समझ लेता है जबकि वास्तव में यह सब नाशवान् है। जो जन्म लेता है वह मरता भी है।

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या दुःखों का अंत किया जा सकता है ? (According to Lord Buddha can sufferings be stopped ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की तीसरी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का दुःख तथ्यों पर आधारित एक ठोस सच्चाई है। परंतु इससे यह भाव नहीं कि बुद्ध दर्शन निराशावादी है। वास्तव में यह दुःखी मनुष्य के लिए एक दीये का काम करता है। इसका कहना है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। जैसे कि ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। यदि इन कारणों से छुटकारा पा लिया जाए तो दुःखों से छुटकारा पा लिया जा सकता है। दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। तृष्णा के पूर्ण तौर पर मिट जाने से दुःख दूर हो जाता है। इस तृष्णा की समाप्ति का अर्थ अपनी सारी वासनाओं और भूखों पर रोक लगाना है। ऐसा करके मनुष्य अपने सारे दु:खों से छुटकारा और निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है।

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध के अनुसार क्या दुःखों का अंत करने के लिए एक मार्ग है ? (According to Lord Buddha is there a way to stop sufferings ?) .
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की चौथी पवित्र सच्चाई यह है कि दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है। इस मार्ग को वह मध्य मार्ग बताते हैं। उनके अनुसार प्रवृत्ति (भोग का मार्ग) और निवृत्ति (तपस्या का मार्ग) दोनों गलत हैं क्योंकि यह अति पर आधारित हैं। प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए, उनको मारना नहीं चाहिए। बुद्ध के अनुसार इच्छाओं को पूरा करने पर इच्छाएँ पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं। प्रत्येक इच्छा की पूर्ति जलती पर घी डालने का काम करती है। इच्च्छाओं से केवल नाशवान् सुख की प्राप्ति होती है जिसका अंत दुःख होता है। दूसरी ओर निवृत्ति के मार्ग के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। महात्मा बुद्ध के अनुसार इच्छाओं के दमन से यह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं। यह अंदर ही अंदर दबी हुई आग की तरह सुलगती रहती हैं और अवसर मिलने पर भड़क उठती हैं। इसके अतिरिक्त इच्छाओं के दमन से कई मानसिक और शारीरिक कष्ट आदि उत्पन्न होते हैं। इसलिए महात्मा बुद्ध ने इन दोनों अतिवादी मार्गों को गलत कहा। उन्होंने मध्य मार्ग अपनाने के पक्ष में प्रचार किया। मध्य मार्ग पर चलने के कारण इच्छाएँ धीरे-धीरे संयम के अधीन हो जाती हैं और परम शाँति की प्राप्ति होती है। बुद्ध का यह मार्ग आठ सद्गुणों पर निर्भर करता है जिस कारण इसको अष्ट मार्ग भी कहते हैं। ये आठ सद्गुण हैं—

  1. सच्चा विचार
  2. सच्ची नीयत
  3. सच्चा बोल
  4. सच्चा व्यवहार
  5. सच्ची रोज़ी
  6. सच्चा यत्न
  7. सच्चा मनोयोग
  8. सच्चा ध्यान।

संक्षेप में मध्य मार्ग पर चलकर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध के मध्य मार्ग अथवा अष्ट मार्ग से क्या अभिप्राय है ?
(What do you understand by Middle Path or Eightfold Path of Lord Buddha ?)
अथवा
बुद्ध धर्म का अष्ट मार्ग क्या है ? जानकारी दीजिए।
(What is the Astha Marga of Buddhism ? Elucidate.)
अथवा
बौद्ध धर्म के अष्ट मार्ग का अध्यात्मिक महत्त्व दर्शाइए।
(Describe the religious importance of Ashta Marga in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म का अष्टांग मार्ग क्या है ?
(What is Ashtang Marga of Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता था क्योंकि यह कठोर तपस्या और भोग-विलास के बीच का मार्ग है। अष्ट मार्ग के सिद्धाँत ये थे—

  1. व्यक्ति के कर्म शुद्ध होने चाहिएं और उसको चोरी, नशों एवं भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
  2. उसको यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का अंत करके ही दुःखों का अंत किया जा सकता है।
  3. उस विचार शुद्ध होने चाहिएं और उसको सांसारिक बुराइयों से दूर रहना चाहिए।
  4. व्यक्ति के वचन पवित्र होने चाहिएँ और उसको किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए।
  5. व्यक्ति को स्वच्छ जीवन व्यतीत करना चाहिए और उसको किसी के साथ कोई बुराई नहीं करनी चाहिए।
  6. व्यक्ति को बुरे कार्यों के दमन और दूसरों के कल्याण के लिए प्रयास करने चाहिए।
  7. व्यक्ति को अपना मन शुद्ध समाधि में लगाना चाहिए।
  8. व्यक्ति को अपना ध्यान पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।

प्रश्न 9.
बुद्ध धर्म के किन्हीं दो मार्गों का वर्णन करें।
(Explain any two Margas of Buddhism.) ।
उत्तर-
1. सच्चा बोल-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की वाणी सदा सच्ची और मीठी होनी चाहिए। बोल ऐसे होने चाहिएँ जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न लगे। यहाँ तक कि किसी अपराधी को सजा देते समय भी हमें उसके प्रति आदर की भावना रखनी चाहिए। हमें हर प्रकार के झूठों, निंदा, अपमान और झूठी गवाही आदि से दूर रहना चाहिए। मीठे बोलों के द्वारा जहाँ मन को शांति मिलती है वहाँ मनुष्यों का आपसी प्यार भी बढ़ता है।

2. सच्चा व्यवहार-सच्चे व्यवहार से भाव है अच्छे कर्म करना। महात्मा बुद्ध के अनुसार कर्म दो तरह के हैं-(क) अपवित्र कर्म (ख) पवित्र कर्म। जिन कर्मों को करके मनुष्य को दुबारा जन्म लेना पड़ता है वे अपवित्र कर्म कहलाते हैं। जिन कर्मों के द्वारा मनुष्य इस भवसागर से छुटकारा प्राप्त करता है वे पवित्र कर्म कहलाते हैं। पवित्र कर्म करने के लिए महात्मा बुद्ध ने अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और व्यभिचार से बचने के लिए ज़ोर देता है। चार पवित्र सच्चाइयों का चिंतन करना ही पवित्र कर्म की आधारशिला

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. बौद्ध धर्म के महान् सत्य कितने हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 2. चार महान् सच्चाइयों का संबंध किस मत के साथ है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के साथ।

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म का कोई एक महान् सत्य बताएँ।
उत्तर-संसार दुखों का घर है।

प्रश्न 4. अष्ट मार्ग का आरंभ किसने किया था ?
उत्तर-अष्ट मार्ग का आरंभ महात्मा बुद्ध ने किया था।

प्रश्न 5. अष्ट मार्ग से क्या भाव है ?
अथवा
अष्ट मार्ग क्या है ?
उत्तर-अष्ट मार्ग से भाव आठ मार्ग हैं जिन पर चलकर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता था।

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म में दुखों के अंत के लिए किस मार्ग पर चलना आवश्यक बताया गया है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म में दुखों के अंत के लिए अष्ट मार्ग पर चलना आवश्यक बताया गया है।

प्रश्न 7. अष्ट मार्ग के कितने भाग हैं ? इसका दूसरा नाम क्या है ?
अथवा
अष्ट मार्ग के कुल कितने भाग हैं ?
उत्तर-

  1. अष्ट मार्ग के आठ भाग हैं।
  2. इसका दूसरा नाम मध्य मार्ग है।

प्रश्न 8. अष्ट मार्ग को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 9. बौद्ध धर्म का मध्य मार्ग क्या है ?
उत्तर-सांसारिक भोगों तथा कठोर तप के बीच के मार्ग को मध्य मार्ग कहा जाता है।

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के अनुसार नैतिक जीवन की आधारशिला क्या है ?
उत्तर-सच्चा विचार।

प्रश्न 11. अष्टांग मार्ग का ‘सच्चा विचार’ क्या है ?
उत्तर-चार पावन सच्चाइयों में विश्वास ही सच्चा विचार है।

प्रश्न 12. बौद्ध धर्म के अनुसार रोजी-रोटी कैसे कमानी चाहिए ?
उत्तर-ईमानदारी से।

प्रश्न 13. बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति के लिए किस मार्ग का पालन अनिवार्य बताया गया है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए अष्ट मार्ग का पालन अनिवार्य बताया गया है।

प्रश्न 14. अष्ट मार्ग का संबंध किस धर्म के साथ है ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के साथ।

प्रश्न 15. बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर-बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 16. बौद्ध धर्म के अनुसार दो प्रकार के कर्म कौन से हैं ?
उत्तर-

  1. पवित्र कर्म
  2. अपवित्र कर्म।

प्रश्न 17. बौद्ध धर्म में योग और ध्यान की नींव किसे माना जाता है ?
उत्तर-सच्चे मनोयोग को।

प्रश्न 18. बौद्ध धर्म में शून्य से क्या भाव है ?
उत्तर-निर्वाण प्राप्त करना।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. बौद्ध धर्म के महान् सच्च ………… हैं।
उत्तर-चार

प्रश्न 2. चार पावन सच्चाइयों को चार ………… के नाम से भी जाना जाता हैं।
उत्तर-आर्य सच

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन ………. से भरपूर है।
उत्तर-दुखों

प्रश्न 4. बौद्ध धर्म के अनुसार वृष्णा ………. प्रकार की होती है।
उत्तर-तीन

प्रश्न 5. अविद्या से भाव है ……. ।।
उत्तर-अज्ञानता

प्रश्न 6. अष्ट मार्ग का संबंध ………. से है।
उत्तर-बौद्ध मत

प्रश्न 7. अष्ट मार्ग को ……… के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-मध्य मार्ग

प्रश्न 8. ………. नैतिक जीवन की आधार शिला है।।
उत्तर-सच्चा विचार

प्रश्न 9. महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य की नीयत ……… होनी चाहिए। ..
उत्तर-सच्ची

प्रश्न 10. बौद्ध धर्म के अनुसार कर्म ………. प्रकार के हैं।
उत्तर-दो

प्रश्न 11. सच्चा ………. बौद्ध धर्म के योग और ध्यान की नींव है।
उत्तर-मनोयोग

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. चार महान् सच्चाइयां बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःख जीवन की पहली और निश्चित सच्चाई है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. बौद्ध धर्म के अनुसार तृष्णा पाँच प्रकार की होती है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 4. बौद्ध धर्म के अनुसार दुःखों का अंत कभी नहीं किया जा सकता।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. अष्ट मार्ग जैन धर्म के साथ संबंधित है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 6. बौद्ध धर्म के अनुसार कृर्म दो प्रकार के हैं।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 7. बौद्ध धर्म के अनुसार सच्चा प्रयत्न मन में बुराइयों के उत्पन्न होने को रोकता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 8. महात्मा बुद्ध के अनुसार दुःखों से मुक्ति पाने के लिए अष्ट मार्ग पर चलना अनिवार्य है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म कितनी पवित्र सच्चाइयों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 8
उत्तर-
(ii) 4

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म की पहली पावन सच्चाई कौन-सी है ?
(i) दुःखों का कारण है
(ii) जीवन दुःखों से भरपूर है
(iii) दुःखों का अंत किया जा सकता है
(iv) दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है।
उत्तर-
(ii) जीवन दुःखों से भरपूर है

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म कितने मार्गों में विश्वास रखता है ?
(i) 5
(ii) 6
(iii) 7
(iv) 8
उत्तर-
(iv) 8

प्रश्न 4.
अष्ट मार्ग किस धर्म के साथ संबंधित है ?
(i) जैन धर्म ,
(ii) बौद्ध धर्म
(iii) हिंदू धर्म
(iv) इस्लाम धर्म।
उत्तर-
(ii) बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
अष्ट मार्ग को अन्य किस मार्ग के नाम से जाना जाता है ?
(i) शाँति मार्ग
(ii) मध्य मार्ग
(iii) प्रवृत्ति मार्ग
(iv) निवृत्ति मार्ग।
उत्तर-
(ii) मध्य मार्ग

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 7 बौद्ध धर्म का अष्ट मार्ग

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से किस मार्ग को बौद्ध के योग और ध्यान की नींव माना जाता है ?
(i) सच्चा प्रयत्न
(ii) सच्चा विचार
(iii) सच्ची नियत
(iv) सच्चा मनोयोग।
उत्तर-
(iv) सच्चा मनोयोग।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

पंजाब के इतिहास संबंधी समस्याएँ । (Difficulties Regarding the History of the Punjab)

प्रश्न 1.
पंजाब के इतिहास की रचना में इतिहासकारों को किन मुख्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ? बताइए।
(What difficulties were faced by the historians while constructing the History of Punjab ? Explain.)
अथवा
पंजाब के इतिहास की रचना करते समय इतिहासकारों को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(Which difficulties are being faced by historians while composing the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब का इतिहास लिखते समय इतिहासकारों को कौन-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
(Explain the difficulties faced by the historians while writing the History of Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना करना इतिहासकारों के लिए सदैव एक गंभीर समस्या रही है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसकी रचना करते समय उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला (Sikhs did not find time to write their own History) औरंगजेब की मृत्यु के बाद पंजाब में एक ऐसा दौर आया जो पूरी तरह से अशाँति तथा अराजकता से भरा हुआ था। सिखों तथा मुग़लों के मध्य शत्रुता चरम सीमा पर थी। इस पर नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने पंजाब की दशा और खराब कर दी। अतः ऐसे वातावरण में इतिहास लेखन का कार्य कैसे संभव था। इस क्षेत्र में जो थोड़े बहुत प्रयास हुए भी चे आक्रमणकारियों की भेंट चढ़ गए। परिणामस्वरूप आज के इतिहासकार महत्त्वपूर्ण ग्रंथों से वंचित हो गए।

2. मुस्लिम इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण विचार (Biased Views of Muslim Historians)—पंजाब के इतिहास को लिखने में सबसे अधिक जिन स्रोतों की सहायता ली गई है वे हैं फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ। इन ग्रंथों को मुसलमान लेखकों ने लिखा है जो सिखों के कट्टर दुश्मन थे। इन ग्रंथों को बड़ी जाँच-पड़ताल से पढ़ना पड़ता है क्योंकि इन इतिहासकारों ने अधिकतर तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। अतः इन ग्रंथों को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त औरंगजेब ने सरकारी तौर पर किसी भी राजनीतिक घटना को लिखने की मनाही कर दी थी। परिणामस्वरूप उस काल की पंजाब से संबंधित महत्त्वपूर्ण घटनाओं का सही विवरण उपलब्ध नहीं है।

3. ऐतिहासिक स्रोतों का नष्ट होना (Destruction of Historical Sources)-18वीं शताब्दी के लगभग 7वें दशक तक पंजाब में अशांति एवं अराजकता का वातावरण रहा। पहले मुग़लों तथा बाद में अफ़गानों ने पंजाब में सिखों की शक्ति को कुचलने में कोई प्रयास शेष न छोड़ा। 1739 ई० में नादिर शाह तथा 1747 से 1767 ई० तक अहमद शाह अब्दाली के 8 आक्रमणों के कारण पंजाब की स्थिति अधिक शोचनीय हो गई थी। ऐसे समय जब सिखों को अपने बीवी-बच्चों की सुरक्षा करना कठिन था तो वे अपने धार्मिक ग्रंथों को किस प्रकार सुरक्षित रख पाते। परिणामस्वरूप उनके अनेक धार्मिक ग्रंथ नष्ट हो गए। इस कारण सिखों को अपने अनेक अमूल्य ग्रंथों से वंचित होना पड़ा।

4. पंजाब मुगल साम्राज्य का एक भाग (Punjaba part of Mughal Empire)-पंजाब 1752 ई० तक मुग़ल साम्राज्य का भाग रहा था। इस कारण इसका कोई अलग से इतिहास न लिखा गया। आधुनिक इतिहासकारों को मुग़ल काल में लिखे गए साहित्य से पंजाब की बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है। अत: पर्याप्त विवरण के अभाव में पंजाब के इतिहास की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की जा सकती।

5. पंजाब का बँटवारा (Partition of Punjab)-1947 ई० में पंजाब की पड़ी बँटवारे की मार ने भी पंजाब के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों को नष्ट कर दिया। परिणामस्वरूप इतिहासकार पंजाब की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री से वंचित रह गए।

पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोत (Main Sources of the History of the Punjab)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 2.
पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly the important sources of the History of the Punjab.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों का वर्णन करें।
(Discuss the main sources of the Punjab History.) .
अथवा
1469 ई० से 1849 ई० तक के पंजाब के इतिहास के मुख्य स्रोतों की चर्चा करें। (Examine the sources of History of the Punjab from 1469 to 1849 A.D.)
उत्तर-
पंजाब के 1469 ई० से 1849 ई० तक के इतिहास के लिए अनेक प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं। इन स्रोतों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है—
(क) साहित्यिक स्रोत (Literary sources)
(ख) पुरातात्विक स्रोत (Archaeological sources)।

  1. साहित्यिक स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं—
    • सिखों के धार्मिक साहित्य।
    • ऐतिहासिक और अर्द्ध ऐतिहासिक सिख साहित्य।
    • फ़ारसी की ऐतिहासिक पुस्तकें।
    • भट्ट वहियाँ।
    • खालसा दरबार रिकॉर्ड।
    • विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेज़ों की रचनाएँ।
  2. पुरातात्विक स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं—
    • भवन तथा स्मारक।
    • सिक्के तथा चित्र।

(क) साहित्यिक स्रोत
(Literary Sources)

सिखों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)-सिखों के धार्मिक साहित्य की पंजाब के इतिहास के निर्माण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इनमें सबसे प्रमुख स्थान आदि ग्रंथ साहिब जी का आता है। इसे आजकल गुरु ग्रंथ साहिब जी कहा जाता है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इससे हमें उस काल की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। इसके बाद भाई मनी सिंह जी द्वारा 1721 ई० में संकलित ‘दशम ग्रंथ साहिब’ का स्थान है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इसमें कुल 18 ग्रंथ हैं। इनमें ऐतिहासिक रूप से ‘बचित्तर नाटक’ तथा ‘ज़फ़रनामा’ का नाम प्रमुख है। इन ग्रंथों में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा मुग़लों तथा सिखों के संबंधों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसके बाद भाई गुरदास जी द्वारा लिखी गई 39 वारों का स्थान आता है। इनमें सिख गुरुओं के जीवन का बहुमूल्य विवरण दिया गया है। इनके अतिरिक्त गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित ‘जन्म साखियाँ’ तथा सिख गुरुओं के हुक्मनामे भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

2. ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिख साहित्य (Historical and Semi-Historical Sikh Literature)-पंजाब के इतिहास के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है सेनापत द्वारा रचित गुरसोभा। इसमें 1699 ई० से 1708 ई० तक आँखों देखी घटनाओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त भाई मनी सिंह जी द्वारा रचित सिखाँ दी भगतमाला, केसर सिंह छिब्बड़ द्वारा रचित बंसावली नामा, बावा कृपाल सिंह द्वारा रचित महिमा प्रकाश वारतक तथा प्राचीन पंथ प्रकाश जिसके लेखक रतन सिंह भंगू हैं, भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. फ़ारसी के ऐतिहासिक ग्रंथ (Historical works in Persian)—फ़ारसी की अधिकतर रचनाएँ मुसलमानों द्वारा रचित हैं। उनकी रचनाएँ पंजाब या सिखों के इतिहास का वर्णन तो नहीं है, परंतु फिर भी हमें इतिहास लिखने में इनसे पर्याप्त सहायता मिलती है। इनमें बाबर द्वारा रचित बाबरनामा, अबुल फ़ज़ल द्वारा रचित आइन-एअकबरी और अकबरनामा, जहाँगीर द्वारा लिखी गई तुजक-ए-जहाँगीरी, सोहन लाल सूरी की उमदत-उततवारीख, बूटे शाह की तवारीख-ए-पंजाब, दीवान अमरनाथ की ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह तथा अलाउद्दीन मुफ्ती की इबरतनामा प्रमुख हैं।

4. भट्ट वहियाँ (Bhat Vahis)-भट्ट लोग अपनी वहियों में महत्त्वपूर्ण घटनाओं को तिथियों सहित दर्ज कर लेते थे। पंजाब के इतिहास निर्माण में इन वहियों का विशेष स्थान है। इनमें गुरु हरिगोबिंद सिंह जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी के गुरु-काल की अनेकों महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दर्ज है।

5. खालसा दरबार रिकॉर्ड (Khalsa Durbar Records)-महाराजा रणजीत सिंह के काल के सरकारी रिकॉर्ड तत्कालीन पंजाब पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। ये फ़ारसी भाषा में हैं तथा इनकी संख्या 1 लाख से भी ऊपर है। इनकी सूची सीता राम कोहली ने तैयार की थी।

6. विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेजों की रचनाएँ (Writings of Foreign Travellers and the Europeans)-पंजाब आने वाले विदेशी यात्रियों तथा अंग्रेज़ी लेखकों ने भी पंजाब के इतिहास पर अपनी रचनाओं में पर्याप्त प्रकाश डाला है। इनमें जॉर्ज फोरस्टर द्वारा रचित “ए जर्नी फ्राम बंगाल टू इंग्लैंड’, मैल्कोम द्वारा रचित ‘स्केच ऑफ द सिखस्’, एच० टी० प्रिंसेप द्वारा रचित ‘ओरिज़न ऑफ़ सिख पॉवर इन द पंजाब’, कैप्टन विलियम उसबोर्न द्वारा रचित ‘द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह’, मरे द्वारा रचित हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब शामिल हैं। जे० डी० कनिंघम द्वारा लिखित ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्’ सबसे अधिक विश्वसनीय तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसमें 1699 ई० से लेकर 1846 ई० तक की घटनाओं का विवरण दर्ज है।

(ख) पुरातात्विक स्रोत
(Archaeological Sources)
पंजाब के ऐतिहासिक भवन, स्मारक, सिक्के तथा चित्र भी पंजाब के इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते हैं। सिख गुरुओं द्वारा बसाए गए खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, अमृतसर, तरनतारन, करतारपुर, आनंदपुर साहिब आदि धार्मिक नगर पंजाब के इतिहास की मुँह बोलती तस्वीर हैं। इसके अतिरिक्त 18वीं शताब्दी के अनेक सिख सरदारों द्वारा बनाए गए महल तथा दुर्ग भी पंजाब के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। हमें सिख गुरुओं तथा उनके वंशजों से संबंधित अनेक चित्र भी प्राप्त हुए हैं। इन चित्रों के माध्यम से हमें उस काल में पंजाब की सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। पंजाब के विभिन्न मुग़ल शासकों, बंदा सिंह बहादुर, महाराजा रणजीत सिंह, मुग़ल तथा सिख सरदारों द्वारा जारी किए गए सिक्कों से हमें उस काल की ऐतिहासिक तिथियों, धार्मिक विश्वासों तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार ये सिक्के इतिहास निर्माण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सिरवों का धार्मिक साहित्य (Religious Literature of the Sikhs)

प्रश्न 3.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में सिख धार्मिक साहित्य का मूल्यांकन करें।
(Evaluate the Sikh religious literature as a source of the Punjab History.)
अथवा
पंजाब के इतिहास जानने में गुरुमुखी साहित्य का क्या योगदान है ? (What is the contribution of Sikh Gurmukhi Literature in the History of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में आदि ग्रंथ साहिब तथा जन्म साखियों का महत्त्व बताओ।
(Describe the significance of the Adi Granth Sahib and Janam Sakhis as source of the Punjab History.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। इसमें दी गई जानकारी उस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक गतिविधियों पर प्रकाश डालती है। सिखों के धार्मिक साहित्यों का क्रमानुसार वर्णन इस प्रकार है—
1. आदि ग्रंथ साहिब जी (The Adi Granth Sahib Ji)—आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब जी तथा हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी सम्मिलित है। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई थी तथा इसे गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। इस प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब जी में अब 6-गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है। आदि ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। क्योंकि यह जानकारी बहुत ही प्रमाणित है, इसलिए आदि ग्रंथ साहिब जी पंजाब के इतिहास के लिए एक अमूल्य स्रोत माना जाता है। डॉक्टर इंदू भूषण बैनर्जी के शब्दों में,
“इसे (आदि ग्रंथ साहिब जी को) सिखों की बाइबल कहा जाना चाहिए। विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सिख धर्म पर यह सबसे विश्वसनीय स्रोत है।”1

2. दशम ग्रंथ साहिब जी (Dasam Granth Sahib Ji) दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है। यह गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान और गुरु गोबिंद सिंह जी की पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाइयों को जानने के संबंध में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। ‘ज़फ़रनामा’ एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में दीना काँगड़ से औरंगज़ेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सेनापतियों द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी के साथ धोखा करने का उल्लेख किया है। दशम ग्रंथ वास्तव में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन और कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत है।
1. “It may be called the Bible of Sikhism and is admitted to be the greatest authority on Sikhism.” Dr. Indu Bhushan Banerjee, Evolution of Khalsa (Calcutta : 1972) pp. 281-82.

3. भाई गुरदास जी की वारें (Vars of Bhai Gurdas Ji)—भाई गुरदास जी एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

4. जन्म पाखियाँ (Janam Sakhis)-गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को ‘जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की पंजाबी में रचना हुई। परंतु इन जन्म साखियों में अनेक दोष व्याप्त हैं। इनमें घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया है। इन जन्म साखियों में घटनाओं का विवरण तथा तिथि क्रम में विरोधाभास मिलता है। इन दोषों के बावजूद ये जन्म साखियाँ गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में पर्याप्त प्रकाश डालती हैं। इन जन्म साखियों में महत्त्वपूर्ण हैं—

i) पुरातन जन्म साखी (Puratan Janam Sakhi)—इस जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था। यह जन्म साखी सबसे प्राचीन है। इसे अन्य जन्म साखियों की तुलना में सर्वाधिक विश्वसनीय माना जाता है।

ii) मेहरबान वाली जन्म साखी (Janam Sakhi of Meharban)-मेहरबान गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथी चंद के पुत्र थे। वे बड़े विद्वान् थे। उन्होंने गुरु नानक साहिब की उदासियों और करतारपुर में गुरु जी के निवास के संबंध में बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया। यह जन्म साखी काफ़ी विश्वसनीय मानी जाती है।

iii) भाई बाला जी की जन्म साखी (Janam Sakhi of Bhai Bala Ji)-भाई बाला जी गुरु नानक देव जी का बचपन का साथी था। वह गुरु नानक देव जी की उदासियों के समय उनके साथ था। इस जन्म साखी को कब तथा किसने लिखा इस संबंधी इतिहासकारों में मतभेद हैं। इस जन्म साखी में बहुत-सी बातें मनघढ़त हैं। इसलिए इस जन्म साखी को सबसे कम विश्वसनीय माना जाता है।

iv) भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी (Janam Sakhi of Bhai Mani Singh Ji)-इस जन्म साखी को ‘ज्ञान रत्नावली’ भी कहा जाता है। यह जन्म साखी गुरु गोबिंद सिंह जी के एक श्रद्धालु भाई मनी सिंह जी ने लिखी थी। इसकी रचना 1675 ई० से 1708 ई० के बीच की गई थी। यह जन्म साखी बहुत विश्वसनीय है।

v) हुक्मनामे (Hukamnamas)-हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश के सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। पंजाब के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने अपने अथक परिश्रम से 89 हुक्मनामों का संकलन किया। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी के तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। इन हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान तथा समकालीन समाज से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिरव साहित्य (Historical and Semi-Historical Sikh Literature)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 4.
पंजाब के इतिहास के विषय में जानकारी देने वाला ऐतिहासिक और अर्द्ध ऐतिहासिक सिख साहित्य कहाँ तक सहायक है ? वर्णन करो।
(How far is Sikh Historical and Semi-Historical Literature helpful in giving information about Punjab History ?)
उत्तर-
18वीं और 19वीं शताब्दी में बहुत-से ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक सिख साहित्य की रचना की गई थी। यह साहित्य पंजाब के इतिहास पर बहुत महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। प्रमुख साहित्यिक ग्रंथों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

श्री गुरसोभा (Sri Gursobha)-श्री गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में 1699 ई० से लेकर 1708 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया गया है। वास्तव में यह गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा कार्यों को जानने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों में से एक है।

2. सिखों की भगतमाला (Sikhan Di Bhagatmala)-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रंथ को भगत रत्नावली भी कहा जाता है। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम तथा जातियों के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

3. बंसावलीनामा (Bansavalinama)—बंसावलीनामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बड़ ने की थी। इसमें गुरु साहिबान से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक का इतिहास वर्णित किया गया है। यह ग्रंथ गुरु काल के बाद के इतिहास के लिए अधिक विश्वसनीय है। इसमें बहुत-सी ऐसी घटनाओं का वर्णन है जोकि लेखक की आँखों-देखी हैं।

i) महिमा प्रकाश (Mehma Prakash)-महिमा प्रकाश की दो रचनाएँ हैं। प्रथम का नाम महिमा प्रकाश वारतक और द्वितीय का नाम महिमा प्रकाश कविता है।

  • महिमा प्रकाश वारतक-इस पुस्तक की रचना 1741 ई० में बावा कृपाल सिंह ने की थी। इसमें गुरु साहिबान के जीवन का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है।
  • महिमा प्रकाश कविता-इस पुस्तक की रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

ii) गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (Gurpartap Suraj Granth)-यह एक विशाल ग्रंथ है। इसकी रचना भाई संतोख सिंह ने की थी। इस ग्रंथ के दो भाग हैं- .

  • नानक प्रकाश (Nanak Prakash)-इसकी रचना 1823 ई० में की गई थी। इसमें केवल गुरु नानक साहिब के जीवन का वर्णन है।
  • सूरज प्रकाश (Suraj Prakash)-इसकी रचना 1843 ई० में हुई थी। इसमें गरु अंगद साहिब से लेकर बंदा सिंह बहादुर तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। यद्यपि इसमें अनेक दोष हैं किंतु इसे सिख गुरुओं के जीवन से संबंधित ज्ञान का प्रमुख स्रोत माना जाता है।

4. प्राचीन पंथ प्रकाश (Prachin Panth Prakash)-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रतन सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह पहली ऐतिहासिक पुस्तक थी जो किसी सिख ने लिखी थी। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कथन पूर्णत: ठीक है,
“यह कार्य किसी सिख द्वारा सिख इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है और यह बहुत महत्त्व रखता है।”2

5. पंथ प्रकाश तथा तवारीख गुरु खालसा (Panth Prakash and Tawarikh Guru Khalsa)ये दोनों रचनाएँ ज्ञानी ज्ञान सिंह जी द्वारा रचित हैं। पंथ प्रकाश कविता के रूप में लिखी गई है जबकि तवारीख गुरु खालसा वारतक रूप में है। इन दोनों ग्रंथों में 1469 ई० से लेकर 1849 ई० तक की घटनाओं का विवरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त इनमें उस समय के प्रसिद्ध संप्रदायों और गुरुद्वारों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से पंथ प्रकाश की तुलना में तवारीख गुरु खालसा अधिक लाभदायक है।

2. “This work is the first attempt made by a Sikh to compile a Sikh history and is of supreme importance.”. Dr. Hari Ram Gupta, History of the Sikhs (Delhi : 1987) Vol. 2, p. 371.

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
ऐतिहासिक स्रोत हमारे लिए क्यों आवश्यक हैं ? पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत के संबंध में हमें कौन-सी मुख्य कठिनाइयाँ पेश आती हैं ?
(Why are historical sources important for us ? What difficulties do we face regarding the sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास का संकलन करने के लिए विद्यार्थियों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What problems are faced by the students in composing the History of the Punjab ? )
अथवा
पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए विद्यार्थियों के सामने आने वाली किन्हीं तीन समस्याओं का वर्णन कीजिए।
(Describe any three important problems being faced by the students in composing the History of the Punjab.)
उत्तर-

  1. गुरु साहिबान के काल से संबंधित प्राप्त ऐतिहासिक स्रोत काफ़ी अधूरे हैं। परिणामस्वरूप सही ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त करना कठिन है।
  2. मुसलमान लेखकों ने जान-बूझ कर सिख इतिहास को उचित रूप में प्रस्तुत नहीं किया।
  3. उस समय पंजाब में युद्धों के कारण चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। इस वातावरण में सिखों को अपना इतिहास लिखने का अवसर नहीं मिला।
  4. पंजाब के बहुत सारे स्रोत अखोजित रह गए।

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प्रश्न 2.
हुक्मनामों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Hukamnamas.)
उत्तर-
सिख गुरुओं अथवा गुरु परिवारों की ओर से समय-समय पर जारी किए गए आदेशों को ‘हुक्मनामा’ कहा जाता था। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। अब तक प्राप्त हुए हुक्मनामों की संख्या 89 है। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। सिख इन हुक्मनामों को परमात्मा का आदेश समझ कर उनकी पालना करते थे।

प्रश्न 3.
सिखों के धार्मिक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन करें।
(Give a brief account of the important historical sources related to religious literature of the Sikhs.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के लिए धार्मिक साहित्य पर आधारित तीन महत्त्वपूर्ण स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of three important sources based on religious literature of the Punjab History.)
उत्तर-

  1. 1604 ई० आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने किया था। आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दशा की भी जानकारी प्राप्त होती है।
  2. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। यह गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन को जानने के लिए एक अमूल्य स्रोत है।
  3. भाई मनी सिंह जी द्वारा लिखित ‘ज्ञान-रत्नावली’ जन्म साखी भी बहुत-ही विश्वसनीय है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों को क्रम में दिया गया है।
  4. भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की। इन वारों से पहले 6 गुरु साहिबानों से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  5. हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान और समकालीन समाज के इतिहास के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

प्रश्न 4.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं तीन जन्म साखियों का वर्णन करें।
(What is meant by Janam Sakhis ? Explain any three main Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में एक नोट लिखें। (Write a note on the historical importance of Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियाँ क्या हैं ? भिन्न-भिन्न जन्म साखियों का महत्त्व बताएँ।
(What do you understand by Janam Sakhis ? What is the importance of different Janam Sakhis ?)
अथवा
किन्हीं तीन जन्म साखियों के बारे में चर्चा करें।
(Throw light on any three Janam Sakhis.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म, साखियाँ कहा जाता है।

  1. पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था जो सबसे प्राचीन और विश्वसनीय है।
  2. मेहरबान वाली जन्म साखी की रचना पृथी चंद के सुपुत्र मेहरबान ने की थी। उसने गुरु नानक साहिब जी की उदासियों का विस्तृत वर्णन किया है।
  3. भाई बाला की जन्म साखी की रचना कब और किसने की, इस संबंधी इतिहासकारों में काफ़ी मतभेद है। इस जन्म साखी में बहुत-सी मनघढंत बातों को सम्मिलित किया गया है।
  4. भाई मनी सिंह जी की जन्मसाखी-इसे ज्ञान रतनावली भी कहा जाता है। इसे भाई मनी सिंह जी ने लिखा था। यह बहुत विश्वसनीय है।

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प्रश्न 5.
मेहरबान वाली जन्म साखी पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Janam Sakhi of Meharban.)
उत्तर-
मेहरबान गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथी चंद के पुत्र थे। वह बड़े विद्वान् थे। उन्होंने गुरु नानक देव जी की उदासियों और करतारपुर में गुरु जी के निवास के संबंध में बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह जन्म साखी काफ़ी विश्वसनीय है। इसमें घटनाओं का वर्णन क्रमानुसार दिया गया है। इसमें दिए गए व्यक्तियों तथा स्थानों के नाम आमतौर पर विश्वसनीय हैं। इसमें मनघडंत कहानियों का बहुत कम वर्णन किया गया है।

प्रश्न 6.
भाई गुरदास जी की वारों के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Vars of Bhai Gurdas Ji ?)
अथवा
भाई गरदास जी भल्ला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Bhai Gurdas Ji Bhalla.)
उत्तर-भाई गुरदास जी भल्ला, गुरु अमर दास जी के भाई दातार चंद भल्ला जी के पुत्र थे। वह तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठे गुरुओं के समकालीन थे। वह एक उच्चकोटि के कवि एवं लेखक थे। उन द्वारा रचित वारों की संख्या 39 है। ये वारें पंजाबी भाषा में लिखी गई हैं। गुरु ग्रंथ साहिब जी के शब्दों के भावों को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इन वारों का अध्ययन करना आवश्यक है। ऐतिहासिक पक्ष से 1 तथा 11वीं वार बहुत महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 7.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में ‘आदि ग्रंथ साहिब जी’ का क्या महत्त्व है ? (Describe the importance of Adi Granth Sahib Ji as a source of the History of Punjab.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की विशेषताओं पर एक नोट लिखें।
(Write a note on the special features of Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी और इसके ऐतिहासिक महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of Adi Granth Sahib Ji and its historical importance.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करों। (Briefly explain the significance of Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ का सम्मान प्राप्त है। इसका संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब और नवम गुरु, गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी सम्मिलित है। इसमें भक्तों, मुस्लिम संतों, सूफी संतों और भटों इत्यादि की वाणी को भी सम्मिलित किया गया है। हमें आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से उस काल के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

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प्रश्न 8.
दशम ग्रंथ साहिब जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Dasam Granth Sahib Ji ?)
अथवा
दशम ग्रंथ साहिब जी पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Dasam Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
दशम ग्रंथ साहिब जी गुरु गोबिंद सिंह जी तथा उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी द्वारा किया गया था। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सिखों में जोश उत्पन्न करना था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें से ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तति’, ‘चंडी की वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शबद हज़ारे’, ‘शस्त्रनामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। बचित्तर नाटक और ज़फ़रनामा ऐतिहासिक पक्ष से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 9.
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन में ‘बचित्तर नाटक’ का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Bachittar Natak in the life of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
‘बचित्तर नाटक’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Bachittar Natak.)
उत्तर-
बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की एक अद्वितीय रचना है। इसका संबंध गुरु गोबिंद सिंह के जीवन वृत्तांत के साथ है। इसमें परमात्मा की स्तुति की गई है। संसार की रचना कैसे हुई, बेदी वंश तथा सोढी वंश के बारे विस्तृत जानकारी दी गई है। इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के बारे में भी प्रकाश डाला गया है। इसमें गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन के उद्देश्य का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 10.
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण दें। (Give a brief account of historical sources written in 18th century in Punjabi.)
उत्तर-

  1. गुरसोभा-गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में उसने 1699 ई० से लेकर 1708 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया है।
  2. सिखाँ दी भगतमाला-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम, जातियों तथा उनके निवास स्थान के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है।
  3. प्राचीन पंथ प्रकाश-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रत्न सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक साहिब जी से लेकर 18वीं शताब्दी के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  4. बंसावलीनामा-बंसावलीनामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बड़ ने की थी। उसमें 18वीं सदी के मध्य तक के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  5. महिमा प्रकाश कविता-इसकी रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के इतिहास का वर्णन किया गया है।

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प्रश्न 11.
गुरसोभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Gursobha.)
उत्तर-
गुरसोभा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने 1741 ई० में की थी। इस ग्रंथ में लेखक ने 1699 ई० में जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, से लेकर 1708 ई० तक जब वह ज्योति-जोत समाए थे, की आँखों देखी घटनाओं का वर्णन किया था। इसकी गणना गुरु गोबिंद सिंह जी के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में की जाती है।

प्रश्न 12.
सिखाँ दी भगतमाला के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Sikhan Di Bhagatmala ?)
उत्तर-
इस ग्रंथ की रचना 18वीं शताब्दी के एक महान् सिख भाई मनी सिंह जी ने की थी। इसमें प्रथम 6 सिख गुरुओं, उनके समय के प्रसिद्ध सिखों, उनकी. जातियों एवं निवास स्थानों के बारे में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त इसमें उस समय की सामाजिक दशा के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।

प्रश्न 13.
बंसावलीनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Bansavalinama.)
उत्तर-
इस ग्रंथ की रचना केसर सिंह छिब्बड़ ने 1780 ई० में की थी। इसमें 14 अध्याय हैं। प्रथम 10 अध्याय 10 सिख गुरुओं से संबंधित हैं। शेष 4 अध्याय चार साहिबजादों की शहीदी, बंदा सिंह बहादुर, माता सुंदरी जी तथा खालसा पंथ से संबंधित हैं। लेखक गुरु गोबिंद सिंह जी का समकालीन था। इसलिए उसने अनेक आँखों देखी घटनाओं का वर्णन किया है। यह 18वीं शताब्दी के सिख इतिहास के लिए हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है।

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प्रश्न 14.
प्राचीन पंथ प्रकाश का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of Prachin Panth Prakash.) .
उत्तर-
प्राचीन पंथ प्रकाश एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक रचना है। इस ग्रंथ की रचना 1841 ई० में रत्न सिंह भंगू ने की थी। इसमें लेखक ने गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। इसमें मुग़ल-सिख संबंधों, मराठा-सिख संबंधों तथा अफ़गान-सिख संबंधों के बारे में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक जानकारी प्रदान की गई है। यह प्रथम ऐतिहासिक पुस्तक थी जिसको किसी सिख ने लिखा।

प्रश्न 15.
पंजाब के इतिहास से संबंधित फ़ारसी के स्रोतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account important Persian sources of the History of Punjab.)
अथवा
फ़ारसी के तीन मुख्य ऐतिहासिक स्रोतों का संक्षेप में वर्णन करें जो कि पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
(Give a brief mention of three important Persian sources which are essential for composing the History of Punjab.).
अथवा
पंजाब के इतिहास के तीन प्रसिद्ध फ़ारसी के स्रोतों का विवरण दों। (Give an account of three important Persian sources of the History of Punjab.)
उत्तर-

  1. आइन-ए-अकबरी-अकबरी के सिख गुरुओं के साथ संबंधों की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारा मुख्य स्रोत है। इसकी रचना अबुल फजल ने की थी।
  2. जंगनामा की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी। इस पुस्तक में उसने अब्दाली के आक्रमण का आँखों देखा हाल और सिखों की युद्ध विधि और चरित्र के संबंध में वर्णन किया है।
  3. उमदत-उत-तवारीख का लेखक महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी सोहन लाल सूरी था। यह ग्रंथ महाराजा के काल की ऐतिहासिक जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  4. तवारीख-ए-सिखाँ का लेखक खुशवक्त राय था। यह गुरु नानक साहिबं से लेकर 1811 ई० तक के इतिहास को जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  5. चार बाग़-ए-पंजाब का लेखक गणेश दास वडेहरा था। यह महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल का एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 16.
चार बाग़-ए-पंजाब पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Char Bagh-i-Punjab. )
उत्तर-
इस पुस्तक की रचना 1855 ई० में गणेश दास वडेहरा ने की थी। वह महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत कानूनगो के पद पर कार्यरत था। इस पुस्तक में लेखक ने महाराजा रणजीत सिंह से लेकर 1849 ई० तक पंजाब की घटनाओं का वर्णन किया है। इस पुस्तक में लेखक ने महाराजा रणजीत सिंह के काल से संबंधित आँखो-देखी घटनाओं का क्रमानुसार वर्णन किया है। इसमें पंजाब की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक दशा पर भी प्रकाश डाला गया है।

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प्रश्न 17.
पंजाब के इतिहास की जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण अंग्रेज़ी स्रोतों पर प्रकाश डालें। (Mention important English sources which throw light on the History of Punjab.)
अथवा
अंग्रेज़ी में लिखे पंजाब के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाले तीन महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on three important sources of information on Punjab History written in English.)
उत्तर-

  1. द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह-इस पुस्तक में कैप्टन विलियम उसबोर्न ने महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की भव्यता के संबंध में तथा सेना के संबंध में बहुत अधिक प्रकाश डाला है।
  2. हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब-इस पुस्तक में डॉक्टर मरे ने महाराजा रणजीत सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों से संबंधित बहुमूल्य स्रोत है।
  3. हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्- इस पुस्तक में डॉक्टर मैकग्रेगर ने महाराजा रणजीत सिंह तथा सिखों की अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।
  4. स्कैच आफ़ द सिखस-इस पुस्तक में मैल्कोम ने सिख इतिहास की संक्षेप जानकारी दी है।
  5. द पंजाब-इस पुस्तक में स्टाइनबख ने महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है।

प्रश्न 18.
भारतीय अंग्रेज सरकार के रिकॉर्ड के ऐतिहासिक महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the historical importance of Records of British Indian Government.)
उत्तर-
भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के आरंभ से लेकर सिख राज्य के पतन तक (1799-1849 ई०) के इतिहास को जानने के लिए हमारा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसमें से अधिकतर रिकॉर्ड भारत के राष्ट्रीय पुरालेख विभाग, दिल्ली में पड़े हुए हैं। इन रिकॉर्डों से हमें अंग्रेज़-सिख संबंधों, रणजीत सिंह के राज्य के बारे, अंग्रेज़ों के सिंध तथा अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बहुत विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 19.
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों के महत्त्व की चर्चा करें। (Examine the importance of coins in the construction of the History of the Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों का विशेष महत्त्व है। पंजाब के हमें मुग़लों, बंदा सिंह बहादुर, जस्सा सिंह आहलूवालिया, अहमद शाह अब्दाली तथा महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के मिलते हैं। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से बने हुए हैं। इनमें से अधिकाँश सिक्के लाहौर, पटियाला एवं चंडीगढ़ के अजायबघरों में पड़े हैं। ये सिक्के तिथियों तथा शासकों संबंधी विवरण पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। अतः ये सिक्के पंजाब के इतिहास की कई समस्याओं को सुलझाने में हमारी सहायता करते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
पंजाब का इतिहास लिखने के संबंध में इतिहासकारों के समक्ष आने वाली किसी एक कठिनाई का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पंजाबियों को इतिहास लिखने में रुचि नहीं थी।

प्रश्न 2.
पंजाब के इतिहास से संबंधित सिखों का कोई एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बताएँ।
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी की रचना कब की गई थी?
उत्तर-
1604 ई०।

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प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 5.
सिखों का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ कौन-सा है?
अथवा
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक (ग्रंथ साहिब) का नाम क्या है?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 6.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था?
उत्तर-
1721 ई० में।

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प्रश्न 7.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 8.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संबंध किस गुरु से है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी।

प्रश्न 9.
दशम ग्रंथ साहिब जी में शामिलं गुरु गोबिंद सिंह जी की किसी एक रचना का नाम बताएँ।
उत्तर-
बचित्तर नाटक।

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प्रश्न 10.
बचित्तर नाटक की रचना किसने की?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने।

प्रश्न 11.
बचित्तर नाटक क्या है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा।

प्रश्न 12.
जफ़रनामा क्या है?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को फ़ारसी में लिखा गया एक पत्र।

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प्रश्न 13.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को ज़फ़रनामा किस स्थान से लिखा गया ?
उत्तर-
दीना काँगड़।

प्रश्न 14.
जफ़रनामा को किस भाषा में लिखा गया ?
उत्तर-
फ़ारसी में।

प्रश्न 15.
भाई गुरदास जी कौन थे ?
उत्तर-
दातार चंद भल्ला के पुत्र।

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प्रश्न 16.
भाई गुरदास जी ने कुल कितनी वारों की रचना की?
उत्तर-
39.

प्रश्न 17.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
ये वे कथाएँ हैं जो कि गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित हैं।

प्रश्न 18.
किसी एक जन्म साखी का नाम लिखें।
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी।

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प्रश्न 19.
सर्वाधिक विश्वसनीय जन्म साखी कौन-सी है?
उत्तर-
पुरातन जन्म साखी।

प्रश्न 20.
ज्ञान रत्नावली का श्यथिता कौन था?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 21.
भाई बाला जी कौन थे?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के बचपन के साथी।

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प्रश्न 22.
हुक्मनामे क्या हैं ?
उत्तर-
‘हुक्मनामे’ का अर्थ है-आज्ञा पत्र।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी के कितने हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर-
23.

प्रश्न 24.
सर्वाधिक हुक्मनामे किस गुरु साहिबान के प्राप्त होते हैं?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी।

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प्रश्न 25.
गुरु गोबिंद सिंह जी के कितने हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर-
34.

प्रश्न 26.
अब तक प्राप्त हुक्मनामों की कुल संख्या बताएँ।
उत्तर-
89.

प्रश्न 27.
सेनापत कौन था ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार का एक प्रसिद्ध कवि।

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प्रश्न 28.
सिखाँ दी भमतमाला पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
भाई मनी सिंह जी ।

प्रश्न 29.
रत्न सिंह भंगू ने प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना कब की थी ?
उत्तर-
1841 ई० ।

प्रश्न 30.
प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना किसने की ?
उत्तर-
रत्न सिंह भंगू।

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प्रश्न 31.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना किसने की ?
उत्तर-
भाई संतोख सिंह जी।

प्रश्न 32.
‘बंसावलीनामा’ की रचना किसने की थी ?
उत्तर-
केसर सिंह छिब्बड़।

प्रश्न 33.
तुजक-ए-बाबरी का लेखक कौन था ?
उत्तर-
बाबर।

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प्रश्न 34.
अकबर के दरबार का सबसे प्रसिद्ध विद्वान् कौन था ?
उत्तर-
अबुल फज़ल.

प्रश्न 35.
आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा की रचना किसने की ?
उत्तर-
अबुल फज़ल।

प्रश्न 35.
जहाँगीर की आत्म-कथा का नाम लिखो
उत्तर-
तुज़क-ए-जहाँगीरी।

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प्रश्न 37.
श्री गुरुसोभा का लेखक कौन था ?
उत्तर-
सेनापत।

प्रश्न 38.
खाफ़ी खाँ द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
मुंतखिब-उल-लुबाब।

प्रश्न 39.
जंगनामा का लेखक कौन था?
अथवा
‘जंगनामा’ पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
काज़ी नूर मुहम्मद।

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प्रश्न 40.
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल से संबंधित जानकारी देने वाले फ़ारसी के किसी एक प्रसिद्ध स्रोत के नाम बताएँ ।
उत्तर-
उमदत-उत-तवारीख।

प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी इतिहासकार कौन था?
अथवा
उमदत-उत-तवारीख का लेखक कौन था ?
उत्तर-
सोहन लाल सूरी।

प्रश्न 42.
सोहन लाल सूरी द्वारा रचित प्रसिद्ध रचना का नाम लिखें।
उत्तर-
उमदत-उत तवारीख।

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प्रश्न 43.
जफ़रनामा-ए-रणजीत सिंह का लेखक कौन था ?
उत्तर-
दीवान अमरनाथ।

प्रश्न 44.
तवारीख-ए-सिखाँ की रचना किसने की ?
उत्तर-
खुशवक्त राय ने।

प्रश्न 45.
तवारीख-ए-पंजाब का लेखक कौन था ?
उत्तर-
बूटे शाह।

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प्रश्न 46.
चार-बाग़-ए-पंजाब पुस्तक की रचना किसने की ?
उत्तर-
गणेश दास वडेहरा।

प्रश्न 47.
भट्ट वहियें क्या थी ?
उत्तर-
भट्टों द्वारा संकलित ब्यौरा।

प्रश्न 48.
भट्ट वहियों की खोज किसने की ?
उत्तर-
ज्ञानी गरजा सिंह ने।

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प्रश्न 49.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड का संकलन किसने किया था ?
उत्तर-
सीता राम कोहली।

प्रश्न 50.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड से हमें किस काल के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह।

प्रश्न 51.
खालसा दरबार के रिकॉर्ड किस भाषा में हैं ?
उत्तर-
फ़ारसी।

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प्रश्न 52.
जे० डी० कनिंघम की प्रसिद्ध रचना का नाम बताएँ।
उत्तर-
हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस्।

प्रश्न 53.
स्कैच ऑफ द सिखस् का लेखक कौन था ?
उत्तर-
मैल्कोम।

प्रश्न 54.
द कोर्ट ऑफ कैंप ऑफ रणजीत सिंह का लेखक कौन था ?
उत्तर-
विलियम उसबोर्न।

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प्रश्न 55.
डाक्टर मरे ने किस पुस्तक की रचना की ?
उत्तर-
हिस्ट्री ऑफ द पंजाब।

प्रश्न 56.
सिख गुरुओं द्वारा निर्मित किसी एक प्रसिद्ध नगर का नाम बताएँ।
उत्तर-
अमृतसर।

प्रश्न 57.
सिखों के सर्वप्रथम सिक्के किसने जारी किए थे ?
उत्तर-
बंदा सिंह बहादुर ने।

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प्रश्न 58.
बंदा सिंह बहादुर ने किन गुरुओं के नाम पर सिक्के चलाए ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिंद सिंह जी।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
सिख गुरु साहिबान के इतिहास से संबंधित हमारा मुख्य स्रोत…….है।
उत्तर-
(जन्म साखियाँ)

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन……..में हुआ।
उत्तर-
(1604 ई०)

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प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन……ने किया था।
उत्तर-
(गुरु अर्जन साहिब जी)

प्रश्न 4.
………ने दशम ग्रंथ साहिब का संकलन किया।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

प्रश्न 5.
दशम ग्रंथ का संबंध……..से है।
उत्तर-
(गुरु गोबिंद सिंह जी)

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प्रश्न 6.
गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा का नाम……है।
उत्तर-
(बचित्तर नाटक)

प्रश्न 7.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र का नाम……..है।
उत्तर-
(ज़फ़रनामा)

प्रश्न 8.
भाई गुरदास जी ने कुल…….वारों की रचना की।
उत्तर-
(39)

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प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को……कहा जाता है।
उत्तर-
(जन्म साखियाँ)

प्रश्न 10.
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी को………भी कहा जाता है।
उत्तर-
(ज्ञान रत्नावली)

प्रश्न 11.
हुक्मनामों से भाव………है।
उत्तर-
(आज्ञा-पत्र)

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प्रश्न 12.
……..ने श्री गुरसोभा की रचना की।
उत्तर-
(सेनापत)

प्रश्न 13.
भाई मनी सिंह जी ने……..की रचना की।
उत्तर-
(सिखाँ दी भगत माला)

प्रश्न 14.
प्राचीन पंथ प्रकाश का लेखक………था।
उत्तर-
(रतन सिंह भंगू)

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प्रश्न 15.
तवारीख गुरु खालसा का लेखक……….था।
उत्तर-
(ज्ञानी ज्ञान सिंह)

प्रश्न 16.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना……….ने की।
उत्तर-
(भाई संतोख सिंह)

प्रश्न 17.
ज्ञान रत्नावली का लेखक……….था।
उत्तर-
(भाई मनी सिंह जी)

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प्रश्न 18.
बाबर की आत्मकथा को……..कहा जाता है।
उत्तर-
(तुज़क-ए-बाबरी)

प्रश्न 19.
……….ने आइन-ए-अकबरी और अकबर नामा की रचना की।
उत्तर-
(अबुल फज़ल)

प्रश्न 20.
तुज़क-ए-जहाँगीरी…….की आत्मकथा है।
उत्तर-
(जहाँगीर)

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प्रश्न 21.
……….ने मुतंखिब-उल-लुबाब की रचना की।
उत्तर-
(खाफी खाँ)

प्रश्न 22.
……की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी।
उत्तर-
(जंगनामा)

प्रश्न 23.
……..महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी इतिहासकार था।
उत्तर-
(सोहन लाल सूरी)

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प्रश्न 24.
सोहन लाल सूरी ने…….की रचना की।
उत्तर-
(उमदत-उत-तवारीख)

प्रश्न 25.
बूटे शाह ने…….की रचना की।
उत्तर-
(तवारीख-ए-पंजाब)

प्रश्न 26.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह की रचना…..ने की थी।
उत्तर-
(दीवान अमरनाथ)

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प्रश्न 27.
गणेश दास वडेहरा ने……..की रचना की।
उत्तर-
(चार बाग़-ए-पंजाब)

प्रश्न 28.
द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह का लेखक……..था।
उत्तर-
(विलियम उसबोर्न)

प्रश्न 29.
जे० डी० कनिंघम ने…….की रचना की।
उत्तर-
(हिस्ट्री ऑफ द सिखस्)

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प्रश्न 30.
…………ने सिख राज के प्रथम सिक्के जारी किए।
उत्तर-
(बंदा सिंह बहादुर)

(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी को सिखों का सर्वोच्च और पवित्र ग्रंथ माना जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 3.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
गुरु गोबिंद सिंह द्वारा लिखी गई आत्मकथा का नाम ज़फ़रनामा है।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 5.
भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन के साथ संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी को ज्ञान रत्नावली भी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 9.
हुक्मनामे वह आज्ञा पत्र थे जो सिख गुरुओं या गुरु घरानों के साथ संबंधित सदस्यों ने सिख संगतों के नाम पर जारी किए।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
श्री गुरसोभा की रचना सेनापत ने 1741 ई० में की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
सिखाँ दी भगतमाला की रचना भाई मनी सिंह ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
गुरप्रताप सूरज ग्रंथ की रचना भाई संतोख सिंह ने की।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
प्राचीन पंथ प्रकाश का लेखक ज्ञानी ज्ञान सिंह था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
बाबर की आत्मकथा को तुज़क-ए-बाबरी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 15.
माइन-ए-अकबरी और अकबरनामा का लेखक अबुल फज़ल था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
तुज़क-ए-जहाँगीरी की रचना शाहजहाँ ने की थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 17.
खुलासत-उत-तवारीख की रचना सुजान राय भंडारी ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 18.
जंगनामा का लेखक काजी नूर मुहम्मद था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
उमदत-उत-तवारीख का लेखक सोहन लाल सूरी था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह की रचना दीवन अमरनाथ ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 21.
चार बाग-ए-पंजाब की रचना गणेश दास वडेहरा ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
खालसा दरबार रिकॉर्ड गुरमुखी भाषा में लिखा गया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
‘स्केच ऑफ द सिखस्’ की रचना मैल्कोम ने की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 24.
‘द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह’ की रचना विलियम उसबोर्न ने की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
‘हिस्ट्री ऑफ द सिखस्’ का लेखक जे० डी० कनिंघम था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1602 ई० में
(iii) 1604 ई० में
(iv) 1605 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 3.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था ?
(i) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा दीप सिंह जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 4.
दशम ग्रंथ साहिब जी का संबंध किस गुरु के साथ है ?
(i) पहले गुरु के साथ
(ii) तीसरे गुरु के साथ
(iii) पाँचवें गुरु के साथ
(iv) दशम गुरु के साथ।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 5.
ज़फ़रनामा किस गुरु साहिब ने लिखा था ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने ।
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
बचित्तर नाटक क्या है ?
(i) गुरु नानक देव जी की आत्म-कथा
(ii) गुरु हरगोबिंद जी की आत्म-कथा
(iii) गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्म-कथा
(iv) बंदा सिंह बहादर की आत्म-कथा।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 7.
भाई गुरदास जी ने कुल कितनी वारों की रचना की ?
(i) 15
(ii) 20
(iii) 29
(iv) 39
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 8.
पुरातन जन्म साखी का संपादन किसने किया ?
(i) भाई काहन सिंह नाभा ने
(ii) भाई वीर सिंह ने
(iii) भाई मनी सिंह जी ने
(iv) मेहरबान ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
ज्ञान रत्नावली का रचयिता कौन था ?
(i) केसर सिंह छिब्बर
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) भाई बाला जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
मेहरबान वाली जन्म साखी का लेखक कौन था ?
(i) मनोहर दास
(ii) अकिल दास
(iii) भाई बाला जी
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 11.
हुक्मनामे क्या हैं ?
(i) सिख गुरुओं के आज्ञा-पत्र
(ii) सबसे प्रसिद्ध जन्म साखी
(iii) मुग़ल बादशाहों के आदेश
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
श्री गुरसोभा का रचयिता कौन था ?
(i) भाई मनी सिंह जी
(ii) रत्न सिंह भंगू
(iii) सेनापत
(iv) ज्ञानी ज्ञान सिंह।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 13.
बंसावली नामा की रचना किसने की थी ?
(i) केसर सिंह छिब्बड़ ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) भाई गुरदास जी ने
(iv) रतन सिंह भंगू ने।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 14.
सिखाँ दी भगतमाला की रचना किसने की ?
(i) भाई मनी सिंह जी ने
(ii) भाई दया सिंह ने
(iii) भाई संतोख सिंह ने
(iv) रत्न सिंह भंगू ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
गुरु प्रताप सूरज ग्रंथ की रचना किसने की ?
(i) सरूप दास भल्ला
(ii) भाई संतोख सिंह
(iii) रत्न सिंह भंगू
(iv) ज्ञानी ज्ञान सिंह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 16.
रल सिंह भंगू ने प्राचीन पंथ प्रकाश की रचना कब की थी ?
(i) 1641 ई० में
(ii) 1741 ई० में
(ii) 1841 ई० में ।
(iv) 1849 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 17.
तवारीख गुरु खालसा का लेखक कौन था ?
(i) ज्ञानी ज्ञान सिंह
(ii) भाई संतोख सिंह
(iii) रत्न सिंह भंगू
(iv) भाई मनी सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
तुजक-ए-बाबरी का संबंध किस बादशाह से है ?
(i) हुमायूँ से
(ii) बाबर से
(iii) जहाँगीर से
(iv) अकबर से।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 19.
बाबर ने तुजक-ए-बाबरी की रचना किस भाषा में की थी ?
(i) फ़ारसी भाषा
(ii) तुर्की भाषा
(ii) उर्दू भाषा
(iv) अरबी भाषा।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 20.
आइन-ए-अकबरी तथा अकबरनामा की रचना किसने की ?
(i) अबुल फज़ल
(ii) सुजान राय भंडारी
(iii) सोहन लाल सूरी
(iv) काजी नूर मुहम्मद।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 21.
तुज़क-ए-जहाँगीरी की रचना किसने की ?
(i) बाबर
(ii) जहाँगीर
(iii) शाहजहाँ
(iv) औरंगजेब।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 22.
खुलासत-उत-तवारीख की रचना किसने की ?
(i) सुजान राय भंडारी
(ii) काजी नूर मुहम्मद
(iii) खाफ़ी खाँ
(iv) सोहन लाल सूरी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 23.
खाफी खाँ ने किस प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की थी ?
(i) दबिस्तान-ए-मज़ाहिब
(ii) जंगनामा
(iii) खुलासत-उत-तवारीख
(iv) मुंतखिब-उल-लुबाब।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 24.
जंगनामा की रचना किसने की ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) काजी नूर मुहम्मद
(iii) खाफ़ी खाँ
(iv) अबुल फज़ल।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 25.
महारा जा रणजीत सिंह के दरबारी इतिहासकार सोहन लाल सूरी ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
(i) उमदत-उत-तवारीख
(ii) तवारीख-ए-सिखाँ
(iii) तवारीख-ए-पंजाब
(iv) इबरतनामा।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 26.
खुशवक्त राय ने तवारीख-ए-सिखाँ की रचना कब की थी ?
(i) 1764 ई० में
(ii) 1784 ई० में
(iii) 1811 ई० में
(iv) 1821 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 27.
तवारीख-ए-सिखाँ की रचना किसने की ?
(i) दीवान अमरनाथ
(ii) खुशवक्त राय
(iii) सोहन लाल सूरी
(iv) बूटे शाह।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 28.
ज़फ़रनामा-ए-रणजीत सिंह के रचयिता कौन थे ?
(i) सोहन लाल सूरी
(ii) दीवान अमरनाथ
(iii) अलाउदीन मुफ़ती
(iv) काजी नूर मुहम्मद।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 29.
गणेश दास वडेहरा की प्रसिद्ध पुस्तक का क्या नाम था ?
(i) तवारीख-ए-पंजाब
(ii) तवारीख-ए-सिखाँ
(iii) चार बाग़-ए-पंजाब
(iv) इबरतनामा।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 30.
खालसा दरबार रिकॉर्ड किस भाषा में है ?
(i) अंग्रेज़ी
(ii) फ़ारसी
(iii) उर्दू
(iv) पंजाबी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 31.
मैल्कोम ने स्केच ऑफ द सिखस् की रचना कब की थी ?
(i) 1802 ई० में
(ii) 1812 ई० में
(iii) 1822 ई० में
(iv) 1832 ई० में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 32.
द कोर्ट एंड कैंप ऑफ रणजीत सिंह नाम की प्रसिद्ध पुस्तक का लेखक कौन था ?
(i) एच० टी० प्रिंसेप
(ii) विलियम उसबोर्न
(iii) डॉक्टर मैकग्रेगर
(iv) जे० डी० कनिंघम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 33.
निम्नलिखित में से हिस्ट्री ऑफ़ द सिखस् का लेखक कौन था ?
(i) जे० डी० कनिंघम
(ii) अलैग्जेंडर बर्नज
(iii) डॉक्टर मरे
(iv) मैलकोम।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 34.
सिखों के सर्वप्रथम सिक्के किसने जारी किए थे ?
(i) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(ii) बंदा सिंह बहादुर ने
(iii) जस्सा सिंह आहलूवालिया
(iv) महाराजा रणजीत सिंह ने।
उत्तर-
(ii)

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Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों की रचना करते समय पेश आने वाली मुश्किलों के बारे में बताएं।
(Explain the problems being faced for constructing the history of Punjab.)
अथवा
पंजाब के इतिहास को समझने में इतिहासकारों को किन छः मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(Which six problems are faced by the historians in understanding the history of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें कौन-सी मुख्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What are the main problems regarding the historical sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें कौन-सी छः मुश्किलों का सामना करना पड़ता है ?
(What six difficulties do we face regarding the historical sources of Punjab ?)
अथवा
पंजाब के इतिहास का संकलन करने के लिए विद्यार्थियों को कौन-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
(What problems are faced by the students in composing the history of the Punjab ?)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना करने में इतिहासकारों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. सिखों को अपना इतिहास लिखने का समय नहीं मिला-औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद पंजाब में एक ऐसा दौर आया जो पूरी तरह से अशाँति तथा अराजकता से भरा हुआ था। सिखों को अपनी रक्षा के लिए पहाड़ों एवं वनों में जाकर शरण लेनी पड़ती थी। अतः ऐसे वातावरण में इतिहास लेखन का कार्य कैसे संभव था।

2. मुस्लिम इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण विचार-पंजाब के इतिहास को लिखने में सबसे अधिक जिन स्रोतों की सहायता ली गई है वे हैं फ़ारसी में लिखे गए ग्रंथ। इन ग्रंथों को मुसलमान लेखकों ने लिखा है जो सिखों के कट्टर दुश्मन थे। इन ग्रंथों को बड़ी जाँच-पड़ताल से पढ़ना पड़ता है क्योंकि इन इतिहासकारों ने अधिकतर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। अतः इन ग्रंथों को पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।

3. ऐतिहासिक स्रोतों का नष्ट होना-18वीं शताब्दी के लगभग 7वें दशक तक पंजाब में अशांति एवं अराजकता का वातावरण रहा। 1739 ई० में नादिर शाह तथा 1747 से 1767 ई० तक अहमद शाह अब्दाली के 8 आक्रमणों के कारण पंजाब की स्थिति अधिक शोचनीय हो गई थी। ऐसे समय जब सिखों के अनेक धार्मिक ग्रंथ नष्ट हो गए। इस कारण सिखों को अपने अनेक अमूल्य ग्रंथों से वंचित होना पड़ा।

4. अखोजित ऐतिहासिक स्रोत–अनेक सिख परिवारों तथा जागीरदारों के पास सिख मिसलों तथा महाराजा रणजीत सिंह के समय के पट्टे, निजी चिट्टियाँ, भट्ट वहियाँ तथा शास्त्र इत्यादि संदूकों में बंद पड़े हैं। ये लोग इनकी ऐतिहासिक महत्ता से वाकिफ नहीं हैं। इस कारण ये स्रोत अभी तक बिना खोज के ही पड़े हैं।

5. पंजाब मुग़ल साम्राज्य का एक भाग-पंजाब 1752 ई० तक मुग़ल साम्राज्य का भाग रहा था। इस कारण इसका कोई अलग से इतिहास न लिखा गया। आधुनिक इतिहासकारों को मुग़ल काल में लिखे गए साहित्य से पंजाब की बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है। अतः पर्याप्त विवरण के अभाव में पंजाब के इतिहास की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं की जा सकती।

6. पंजाब का बँटवारा-1947 ई० में भारत के बँटवारे के साथ-साथ पंजाब को भी दो भागों में विभाजित किया गया। इस बँटवारे के कारण अनेक ऐतिहासिक भवन एवं बहुमूल्य ग्रंथ पाकिस्तान में ही रह गए। इन के अतिरिक्त विभाजन के समय हुई भयंकर लूटमार के कारण बहुत-से ऐतिहासिक स्रोत नष्ट हो गए।

प्रश्न 2.
हुक्मनामों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Hukamnamas.)
उत्तर-
हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। अब तक 89 हुक्मनामे प्राप्त हुए हैं। इनमें से 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी तथा 23 गुरु तेग़ बहादुर जी के हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी के हुक्मनामों में तिथियों का वर्णन किया गया है। ये तिथियाँ ऐतिहासिक पक्ष से महत्त्वपूर्ण हैं। एक हुक्मनामे में गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख संगतों को निर्देश दिया है कि वो गुरु घर को भेजी जाने वाली रसद अथवा धन को मसंदों द्वारा भेजने की अपेक्षा स्वयं आकर जमा करवाएँ। उन्होंने अपने अंतिम हुक्मनामे में पंजाब के सिखों को यह आदेश दिया था कि वह बंदा सिंह बहादुर को अपना सैनिक नेता स्वीकार करें तथा उसे यथा संभव सहयोग दें। इनके अतिरिक्त अन्य हुक्मनामे गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिंद जी, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, माता गुजरी जी, माता सुंदरी जी, माता साहिब देवां जी, बाबा गुरदित्ता जी तथा बंदा सिंह बहादुर से संबंधित थे। ये हुक्मनामे गुरु साहिबान के समय के राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक और आर्थिक दशा पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। सिख इन हुक्मनामों को परमात्मा का आदेश समझ कर उनकी पालना करते थे। इनकी पालना के लिए वे अपना जीवन कुर्बान करने में गर्व महसूस करते थे। इन हुक्मनामों को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा छपवाया गया है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 3.
सिखों के धार्मिक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन करें। ‘
(Give a brief account of the important historical sources related to religious literature of the Sikhs.)
अथवा
पंजाब के इतिहास के लिए धार्मिक साहित्य पर आधारित महत्त्वपूर्ण स्रोतों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of important sources based on religious literature of Punjab History.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। इस का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. आदि ग्रंथ साहिब जी-आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिबान्, हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी सम्मिलित है। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित कर ली गई। आदि ग्रंथ साहिब जी के गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

2. दशम ग्रंथ साहिब जी दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है।

3. भाई गुरदास जी की वारें-भाई गुरदास जी एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

4. जन्म साखियाँ-गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में बहत-सी जन्म साखियों की पंजाबी में रचना हुई। इन जन्म साखियों में पुरातन जन्म साखी, भाई मेहरबान वाली जन्म साखी, भाई बाला जी की जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी महत्त्वपूर्ण

5. हुक्मनामे–हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश के सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की मांग की गई थी।

प्रश्न 4.
जन्म साखियों से क्या अभिप्राय है ? चार मुख्य जन्म साखियों का वर्णन करें। (What is meant by Janam Sakhis ? Explain briefly the four Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे एक नोट लिखें। . (Write a note on the historical importance of Janam Sakhis.)
अथवा
जन्म साखियाँ क्या हैं ? भिन्न-भिन्न जन्म साखियों का महत्त्व बताएँ।
(What do you understand by Janam Sakhis ? What is the importance of different Janam Sakhis ?).
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को जन्म साखियाँ कहा जाता है।—

  1. पुरातन जन्म साखी का संपादन 1926 ई० में भाई वीर सिंह जी ने किया था। यह जन्म साखी सबसे प्राचीन है और काफ़ी विश्वसनीय भी।
  2. मेहरबान वाली जन्म साखी की रचना पृथी चंद के सपत्र मेहरबान ने की थी। गुरु घर से संबंधित होने के कारण मेहरबान गुरु नानक देव जी के जीवन से भली-भाँति परिचित था। उसने गुरु नानक देव जी की उदासियों का विस्तृत वर्णन किया है। यह जन्म साखी भी काफ़ी विश्वसनीय मानी जाती है।
  3. भाई बाला की जन्म साखी की रचना गुरु नानक देव जी के साथी बाला जी ने की थी। इस जन्म साखी में बहुत-सी मनगढंत बातों को सम्मिलित किया गया है लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। इसलिए यह जन्म साखी अधिक लाभप्रद नहीं है।
  4. ज्ञान रत्नावली नामक जन्म साखी की रचना भाई मनी सिंह जी ने की थी। ऐतिहासिक पक्ष से यह साखी बहुत विश्वसनीय है। इसमें ऐतिहासिक तथ्यों को सही रूप में प्रस्तुत किया गया है।

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प्रश्न 5.
भाई गुरदास जी की वारों के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Vars of Bhai Gurdas Ji ?)
अथवा
भाई गुरदास जी भल्ला पर एक नोट लिखें। (Write a note on Bhai Gurdas Ji Bhalla.)
उत्तर-
भाई गुरदास भल्ला (1581-1635 ई०) गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला जी के पुत्र थे। वह तीसरे, चौथे, पाँचवें तथा छठे गुरुओं के समकालीन थे। वह एक उच्चकोटि के कवि एवं लेखक थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। ये वारें पंजाबी भाषा में लिखी गई हैं। गुरु ग्रंथ साहिब के शब्दों के भावों को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इन वारों का अध्ययन करना आवश्यक है। इसी कारण इन वारों को ‘गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी’ कहा जाता है। इन वारों से हम सिखों के प्रथम 6 गुरुओं के जीवन, सिख धर्म की शिक्षाओं, महत्त्वपूर्ण सिखों तथा नगरों के नाम, भक्तों तथा संतों के जीवन से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त करते हैं । ऐतिहासिक पक्ष से प्रथम तथा ग्यारहवीं वार बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जन्म से पूर्व संसार की दशा का वर्णन करते हुए गुरु नानक देव जी के आगमन की आवश्यकता, उनके जीवन से संबंधित प्रमुख घटनाओं की विस्तृत जानकारी दी है। इसके पश्चात् गुरु अंगद देव जी से लेकर गुरु हरगोबिंद जी तक का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है। ग्यारहवीं वार में गुरु साहिबान से संबंधित प्रमुख सिखों के बारे में, उनके नामों के बारे में, उनके व्यवसायों के बारे में, जातियों तथा स्थानों आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।

प्रश्न 6.
पंजाब के इतिहास के स्रोत के रूप में ‘आदि ग्रंथ साहिब’ जी का क्या महत्त्व है ?
(Describe the importance of ‘Adi Granth Sahib Ji’ as a source of the History of Punjab.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के ऊपर नोट लिखें।
(Write a note on Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी और इसके ऐतिहासिक महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief description of Adi Granth Sahib Ji and its historical importance.)
उत्तर-
1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य था।

1. संकलन की आवश्यकता-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, सिखों के नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथिया ने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की बाणी कहकर प्रचलित करनी आरंभ कर दी थी। गुरु अर्जन देव जी गुरु साहिबान की बाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे। तीसरा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची बाणी पढ़ने के लिए कहा था।

2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य अमृतसर के रामसर नामक एक स्थान पर किया गया। गुरु अर्जन देव जी वाणी लिखवाते गए और भाई गुरदास जी इसे लिखते गए। यह महान् कार्य अगस्त, 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश हरिमंदिर साहिब जी में किया गया। बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।

3. आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वाले-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों का वर्णन निम्नलिखित है

i) सिख गुरु-आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शब्द अंकित हैं। बाद में गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शब्द एवं श्लोक सम्मिलित किए गए।

ii) भक्त एवं संत-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की बाणी अंकित की गई है। प्रमख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, भक्त फ़रीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानंद जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शब्द हैं।

iii) भट्ट-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भट्टों के 123 सवैये भी अंकित किए गए हैं। कुछ प्रमुख भट्टों के नाम ये हैं-कलसहार जी, नल जी, बल जी, भिखा जी और हरबंस जी।

4. आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी में मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए हैं। इसकी बाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातृत्व का संदेश देती है। आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें 16वीं एवं 17वीं शताब्दियों के पंजाब के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दशा की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 2 पंजाब के ऐतिहासिक स्रोत

प्रश्न 7.
दशम ग्रंथ साहिब जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Dasam Granth Sahib ?)
अथवा
दशम ग्रंथ साहिब पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Dasam Granth Sahib.)
उत्तर-
दशम ग्रंथ साहिब सिखों का एक अन्य पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी तथा उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। इसका उद्देश्य मुख्य रूप से राजनीतिक तथा धार्मिक अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सिखों में जोश उत्पन्न करना था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें से ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तत’, ‘चंडी दी वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शबद हज़ारे’, ‘शस्त्रनामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘जफ़रनामा’ इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक पक्ष से बचित्तर नाटक और ज़फ़रनामा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखित आत्मकथा है। यह बेदी और सोढी जातियों के प्राचीन इतिहास, गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान और गरु गोबिंद सिंह जी की पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाइयों को जानने के संबंध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जफ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना काँगड़ नामक स्थान पर की थी। यह एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में औरंगज़ेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सैनापतियों के द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी से धोखा करने का उल्लेख बहुत साहूस और निर्भीकता से किया है। दशम ग्रंथ साहिब वास्तव में गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन एवं कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत

प्रश्न 8.
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई छः ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण दें। (Give a brief account of six historical sources written in 18th century in Punjabi.)
उत्तर-
18वीं सदी में पंजाबी में लिखी गई ऐतिहासिक रचनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

श्री गुरसोभा-श्री गुरसोभा की रचना 1741 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी के एक प्रसिद्ध दरबारी कवि सेनापत ने की थी। इस ग्रंथ में उसने 1699 ई० में, जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, से लेकर 1708 ई० तक जब गुरु गोबिंद सिंह जी ज्योति-जोत समाए थे, की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया

2. सिखाँ दी भगतमाला-इस ग्रंथ की रचना भाई मनी सिंह जी ने 18वीं शताब्दी में की थी। इस ग्रंथ को भगत रत्नावली भी कहा जाता है। इसमें सिख गुरुओं के जीवन, प्रमुख सिखों के नाम, जातियों तथा उनके निवास स्थान और उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

3. बंसावली नामा-बंसावली नामा की रचना 1780 ई० में केसर सिंह छिब्बर ने की थी। इसमें गुरु साहिबान से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक का इतिहास वर्णित किया गया है। सिख गुरुओं की तुलना में यह ग्रंथ बाद के इतिहास के लिए अधिक विश्वसनीय है।

4. महिमा प्रकाश-महिमा प्रकाश की दो रचनाएँ हैं। प्रथम का नाम महिमा प्रकाश वारतक और द्वितीय का नाम महिमा प्रकाश कविता है।

  • महिमा प्रकाश वारतक-इस पुस्तक की रचना 1741 ई० में कृपाल चंद ने की थी। इसमें गुरु साहिबान के जीवन का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है।
  • महिमा प्रकाश कविता-इस पुस्तक की रचना 1776 ई० में सरूप दास भल्ला ने की थी। इसमें सिख गुरुओं के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

5. प्राचीन ग्रंथ प्रकाश-इस पुस्तक की रचना 1841 ई० में रतन सिंह भंगू ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 18वीं शताब्दी तक के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस पुस्तक में तथ्यों का वर्णन क्रमानुसार और प्रमाणिक किया गया है।

6. तवारीख गुरु खालसा-इस ग्रंथ की रचना ज्ञानी ज्ञान सिंह ने की थी। इस ग्रंथ में गुरु नानक देव जी से लेकर 1849 ई० तक सिख राज्य के अंत तक की घटनाओं का वृत्तांत दिया गया है।

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प्रश्न 9.
पंजाब के इतिहास से संबंधित फ़ारसी के किन्हीं छः स्रोतों की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of six important Persian sources of the History of Punjab.)
अथवा
फ़ारसी के मुख्य ऐतिहासिक स्रोतों का संक्षेप में वर्णन करें जो कि पंजाब के इतिहास के संकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
(Give a brief mention of the important Persian sources which are essential for composing the History of Punjab.)
उत्तर-
1. आइन-ए-अकबरी की रचना अकबर के विख्यात दरबारी इतिहासकार अबुल फज़ल ने की थी। यह अकबर के सिख गुरुओं के साथ संबंधों को जानने के लिए हमारा मुख्य स्रोत है। इसके अतिरिक्त इससे हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दशा के संबंध में भी कुछ जानकारी प्राप्त होती है।

2. तुजक-ए-जहाँगीरी मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा लिखित आत्मकथा है। इससे हमें गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। इसे पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु अर्जन देव जी को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया था।

3. जंगनामा की रचना काजी नूर मुहम्मद ने की थी। वह 1764 ई० में अहमद शाह अब्दाली के पंजाब पर आक्रमण के समय उसके साथ आया था। इस पुस्तक में उसने अब्दाली के साथ आक्रमण का आँखों देखा हाल और सिखों की युद्ध करने की विधि और उनके चरित्र के संबंध में वर्णन किया है।

4. उमदत-उत-तवारीख का लेखक महाराजा रणजीत सिंह का दरबारी सोहन लाल सूरी था। इस ग्रंथ में उसने 1469 ई० से लेकर 1849 ई० तक के पंजाब के इतिहास का वर्णन किया है। यह महाराजा रणजीत सिंह के काल के लिए हमारा एक बहुत ही विश्वसनीय स्रोत है।

5. ज़फरनामा-ए-रणजीत सिंह-यह महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल से संबंधित एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसकी रचना दीवान अमरनाथ ने की थी। इस पुस्तक में महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल की 1837 ई० तक की आँखों-देखी घटनाओं का वर्णन किया गया है। कई इतिहासकार इस पुस्तक को उमदतउत्त-तवारीख से भी अधिक विश्वसनीय मानते हैं।

6. चार बाग़-ए-पंजाब-इस पुस्तक की रचना 1855 ई० में गणेश दास वडेहरा ने की थी। इस पुस्तक में लेखक ने प्राचीन कालीन पंजाब से लेकर 1849 ई० तक पंजाब की घटनाओं का वर्णन किया है।

प्रश्न 10.
पंजाब के इतिहास की जानकारी देने वाले छः महत्त्वपूर्ण अंग्रेजी स्रोतों पर प्रकाश डालें। (Mention six important English sources which throw light on the History of Punjab.)
अथवा
अंग्रेज़ी में लिखे पंजाब के इतिहास के बारे में जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण स्रोतों पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the important sources of information on Punjab History written in English.)
उत्तर-
1. द कोर्ट एंड कैंप ऑफ़ रणजीत सिंह-इस पुस्तक की रचना 1840 ई० में कैप्टन विलियम उसबोर्न ने की थी। उसने अपनी पुस्तक में महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की भव्यता के संबंध में तथा सेना के संबंध में बहुत अधिक प्रकाश डाला है। ऐतिहासिक पक्ष से एक बहुत ही लाभप्रद स्रोत है।

2. हिस्ट्री ऑफ़ द पंजाब-इस पुस्तक की रचना 1842 ई० में मरे ने की थी। इसके दो भाग हैं। इनमें सिखों के इतिहास का बहुत विस्तृत रूप में वर्णन किया गया है। यह महाराजा रणजीत सिंह तथा उसके उत्तराधिकारियों से संबंधित बहुमूल्य स्रोत है।

3. हिस्ट्री ऑफ़ दि सिखस्-इसकी रचना डॉक्टर मैकग्रेगर ने की थी। यह 1846 ई० में लिखी गई थी तथा यह दो भागों में है। इसमें महाराजा रणजीत सिंह तथा सिखों की अंग्रेजों के साथ लड़ाइयों से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।

4. द पंजाब-इसकी रचना 1846 ई० में स्टाईनबख ने की थी। वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में उच्च पद पर नियुक्त था। इसलिए उसने अपनी रचना में महाराजा रणजीत सिंह की सेना से संबंधित बहुत महत्त्वपूर्ण विवरण दिए हैं।

5. स्कैच ऑफ सिखस्- इसकी रचना 1812 ई० में मैल्कोम ने की थी। वह ब्रिटिश सेना में कर्नल था। वह 1805 ई० में होल्कर का पीछा करता हुआ पंजाब आया था। इसमें उसने सिखों का इतिहास से उनकी संस्थाओं से संबंधित जानकारी दी है।

6. हिस्ट्री ऑफ द सिखस्-इसकी रचना 1849 ई० में जे०डी० कनिंघम ने की थी। इसमें सिख इतिहास की बहुमूल्य जानकारी दी गई है।

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प्रश्न 11.
भारतीय अंग्रेज सरकार के रिकॉर्ड के ऐतिहासिक महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the historical importance of Records of British Indian Government.)
उत्तर-
भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के आरंभ से लेकर सिख राज्य के पतन तक (1799-1849 ई०) के इतिहास को जानने के लिए हमारा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लुधियाना एजेंसी तथा दिल्ली रेजीडेंसी के रिकॉर्ड पंजाब से संबंधित अमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। इनमें से अधिकतर रिकॉर्ड मर्रे, ऑकटरलोनी, रिचमोंड, मैकग्रेगर, निक्लसन, कनिंघम, प्रिंसेप तथा ब्रॉडफुट इत्यादि अंग्रेज़ अफसरों द्वारा लिखा गया है। इसमें से अधिकतर रिकॉर्ड भारत के राष्ट्रीय पुरालेख विभाग, दिल्ली में पड़ा हुआ है। इन रिकॉर्डों से हमें अंग्रेज़-सिख संबंधों, रणजीत सिंह के राज्य के बारे में, अंग्रेजों के सिंध तथा अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बहुत विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है। इनके अतिरिक्त भारत के अंग्रेज़ी गवर्नर-जनरलों की ओर से इंग्लैंड की सरकार, कंपनी के उच्च अधिकारियों तथा अपने मित्रों आदि को लिखे निजी पत्रों से भी पंजाब की घटनाओं के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय अंग्रेज़ सरकार के रिकॉर्ड अंग्रेजों के पक्ष से लिखे गये थे, परंतु फिर भी ये हमारे लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

प्रश्न 12.
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों के महत्त्व की चर्चा करें। (Examine the importance of coins in the construction of the History of the Punjab.)
उत्तर-
पंजाब के इतिहास के निर्माण में सिक्कों का विशेष महत्त्व है। पंजाब से हमें मुग़लों, बंदा सिंह बहादुर, जस्सा सिंह आहलूवालिया, अहमद शाह अब्दाली तथा महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के मिले हैं। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से बने हुए हैं। इनमें से अधिकाँश सिक्के लाहौर, पटियाला एवं चंडीगढ़ के अजायबघरों में पड़े हैं। ये सिक्के तिथियों तथा शासकों संबंधी विवरण पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। बंदा सिंह बहादुर के सिक्के यह सिद्ध करते हैं कि वह गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोबिंद सिंह जी का बहुत आदर करता.था। जस्सा सिंह आहलूवालिया के सिक्के यह बताते हैं कि उसने अहमद शाह अब्दाली के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया था। महाराजा रणजीत सिंह के सिक्के इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि उसमें बहुत नम्रता थी तथा वह स्वयं को खालसा पंथ का सेवक मानता था। इन सिक्कों में दी गई जानकारी के आधार पर साहित्यिक स्रोतों में दी गई जानकारी की पुष्टि होती है। अतः ये सिक्के पंजाब के इतिहास की कई समस्याओं को सुलझाने में हमारी सहायता करते हैं।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
किसी भी देश के इतिहास को भली-भाँति समझने के लिए उसके ऐतिहासिक स्रोतों की जानकारी होना अत्यावश्यक है। स्रोत इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों के संबंध में हमें बहुत-सी मुश्किलें पेश आती हैं। फलस्वरूप सही जानकारी प्राप्त करना बहुत कठिन है। 18वीं शताब्दी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा। अशांति और अराजकता के इस वातावरण में जब सिखों ने अपने अस्तित्व के लिए जीवन और मृत्यु का दाँव लगाया था अपना इतिहास लिखने का समय न निकाल पाए। पंजाब के अधिकतर स्रोत 19वीं शताब्दी से संबंधित हैं जब पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना की।

  1. इतिहास के विद्यार्थियों के लिए स्रोत आवश्यक क्यों हैं ?
  2. पंजाब के ऐतिहासिक स्रोतों संबंधी हमें कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
  3. कौन-सी सदी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा ?
  4. पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने कौन-सी सदी में स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की ?
  5. पंजाब के इतिहास के अधिकतर स्रोत ………. शताब्दी से संबंधित हैं।

उत्तर-

  1. किसी भी देश के इतिहास को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इतिहास के विद्यार्थियों के लिए स्रोत आवश्यक
  2. ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ मिथिहास की मिलावट की गई है।
  3. 18वीं सदी में पंजाब युद्धों का अखाड़ा बना रहा।
  4. पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने 19वीं सदी में स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की।
  5. 19वीं।

2
पंजाब के इतिहास की रचना में सर्वाधिक योगदान सिखों के धार्मिक साहित्य का है। आदि ग्रंथ साहिब जी को सिख धर्म का सर्वोच्च प्रमाणित और पावन ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिब जी की वाणी सम्मिलित थी। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई तथा इसे गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। इसके अतिरिक्त इसमें बहुत-से हिंदू भक्तों, मुस्लिम सूफ़ियों और भट्टों इत्यादि की वाणी को भी सम्मिलित किया गया है। आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब को चाहे ऐतिहासिक उद्देश्य से नहीं लिखा गया था, परंतु इसके गहन अध्ययन से हमें उस समय के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

  1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब तथा किसने किया ?
  2. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा किस गुरु साहिब ने दिया ?
  3. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है ?
  4. आदि ग्रंथ साहिब जी का कोई एक महत्त्व बताएँ।
  5. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. ने किया।

उत्तर-

  1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
  2. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा गुरु गोबिंद सिंह जी ने दिया था।
  3. गुरु ग्रंथ साहिब जी में 6 गुरु साहिबानों की बाणी दर्ज है।
  4. यह सर्व सांझीवाद का संदेश देता है।
  5. गुरु अर्जन देव जी।

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3
दशम ग्रंथ साहिब जी सिखों का एक और पावन धार्मिक ग्रंथ है। यह गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके दरबारी कवियों की रचनाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ साहिब का संकलन 1721 ई० में भाई मनी सिंह जी ने किया था। यह कुल 18 ग्रंथों का संग्रह है। इनमें ‘जापु साहिब’, ‘अकाल उस्तति’, ‘चंडी दी वार’, ‘चौबीस अवतार’, ‘शब्द हज़ारे’, ‘शस्त्र नामा’, ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ इत्यादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक पक्ष से ‘बचित्तर नाटक’ और ‘ज़फ़रनामा’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ‘बचित्तर नाटक’ गुरु गोबिंद सिंह जी की लिखी हुई आत्मकथा है। ज़फ़रनामा’ की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना नामक स्थान पर की थी। यह एक पत्र है जो गुरु गोबिंद सिंह जी ने फ़ारसी में औरंगजेब को लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब के अत्याचारों, मुग़ल सेनापतियों द्वारा कुरान की झूठी शपथ लेकर गुरु जी के साथ धोखा करने का उल्लेख बहुत साहस और निडरता से किया है। दशम ग्रंथ साहिब जी वास्तव में गुरु गोबिंद . सिंह जी के जीवन और कार्यों को जानने के लिए हमारा एक अमूल्य स्रोत है।

  1. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया था ?
  2. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था ?
    • 1604 ई०
    • 1701 ई०
    • 1711 ई०
    • 721 ई०।.
  3. बचित्तर नाटक क्या है ?
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र का नाम क्या है ?
  5. गुरु गोबिंद सिंह जी ने जफ़रनामा में क्या लिखा था ?

उत्तर-

  1. दशम ग्रंथ साहिब जी का संकलन भाई मनी सिंह जी ने किया था।
  2. 1721 ई०।
  3. बचित्तर नाटक गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्मकथा का नाम है।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगज़ेब को लिखे गए पत्र का नाम जफ़रनामा है।
  5. इसमें औरंगजेब के अत्याचारों का वर्णन किया गया है।

4
भाई गुरदास जी गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला के पुत्र थे। वे गुरु अर्जन देव जी और गुरु हरगोबिंद जी के समकालीन थे। वह एक उच्च कोटि के कवि थे। उन्होंने 39 वारों की रचना की। इन वारों को गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी कहा जाता है। ऐतिहासिक पक्ष से 1 वार तथा 11वीं वार को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रथम वार में गुरु नानक देव जी के जीवन से संबंधित विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस वार में गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी, गुरु अर्जन देव जी तथा गुरु हरगोबिंद जी के जीवन का ब्योरा दिया गया है। 11वीं वार में प्रथम 6 गुरु साहिबान से संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

  1. भाई गुरदास जी कौन थे ?
  2. भाई गुरदास जी ने कितनी वारों की रचना की ?
  3. भाई गुरदास जी की ………. वार में गुरु नानक देव जी के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  4. गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी किसे कहा जाता है ?
  5. भाई गुरदास जी की वारों का क्या महत्त्व है ?

उत्तर-

  1. भाई गुरदास जी गुरु अमरदास जी के भाई दातार चंद भल्ला के पुत्र थे।
  2. भाई गुरदास जी ने 39 वारों की रचना की।
  3. प्रथम।
  4. भाई गुरदास जी की वारों को गुरु ग्रंथ साहिब जी की कुंजी कहा जाता है।
  5. इनमें पहले 6 गुरु साहिबानों तथा उनसे संबंधित कुछ प्रसिद्ध सिखों के नामों तथा स्थानों का वर्णन किया गया है।

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5
गुरु नानक देव जी के जन्म और जीवन से संबंधित कथाओं को ‘जन्म साखियाँ’ कहा जाता है। 17वीं और 18वीं शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की रचना हुई। ये जन्म साखियाँ पंजाबी भाषा में लिखी गईं। ये जन्म साखियाँ इतिहास के विद्यार्थियों के लिए नहीं अपितु सिख धर्म में विश्वास रखने वालों के लिए रचित की गईं। इन जन्म साखियों में अनेक दोष व्याप्त हैं। प्रथम, इनमें घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। दूसरा, इन जन्म साखियों में घटनाओं के विवरण तथा तिथि क्रम में विरोधाभास मिलता है। तीसरा, ये जन्म साखियाँ गुरु नानक देव जी के ज्योतिजोत समाने के काफ़ी समय पश्चात् लिखी गईं। चौथा, इनमें तथ्यों एवं कल्पना का मिश्रण किया गया है। इन दोषों के बावजूद ये जन्म साखियाँ गुरु नानक देव जी के जीवन के संबंध में पर्याप्त.प्रकाश डालती हैं।

  1. जन्म साखियों से क्या भाव है ?
  2. जन्म साखियों की रचना किस भाषा में की गई है ?
  3. किन्हीं दो जन्म साखियों के नाम बताएँ।
  4. जन्म साखियों का कोई एक दोष लिखें।
  5. ………. और ……….. शताब्दी में बहुत-सी जन्म साखियों की रचना हुई।

उत्तर-

  1. जन्म साखियों से भाव है गुरु नानक देव जी के जन्म तथा जीवन से संबंधित कथाएँ।
  2. जन्म साखियों की रचना पंजाबी भाषा में की गई है।
  3. पुरातन जन्म साखी तथा भाई मनी सिंह जी की जन्म साखी।
  4. इनमें घटनाओं का वर्णन क्रमानुसार नहीं किया गया है।
  5. 17वीं, 18वीं।

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हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु वंश से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों अथवा व्यक्तियों के नाम जारी किए। इनमें से अधिकाँश में गुरु के लंगर के लिए खाद्यान्न, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए धन, लड़ाइयों के लिए घोड़े और शस्त्र इत्यादि लाने की माँग की गई थी। 18वीं शताब्दी में पंजाब में व्याप्त अव्यवस्था के दौरान अनेक हुक्मनामे नष्ट हो गए। पंजाब के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गंडा सिंह ने अपने अथक परिश्रम से 89 हुक्मनामों का संकलन किया। इनमें से 23 गुरु तेग बहादुर जी के तथा 34 हुक्मनामे गुरु गोबिंद सिंह जी के हैं। इनके अतिरिक्त, अन्य हुक्मनामे गुरु अर्जन साहिब, गुरु हरगोबिंद साहिब, गुरु हर राय जी, गुरु हरकृष्ण जी, माता गुजरी, माता सुंदरी, माता साहिब देवां, बाबा गुरदित्ता जी तथा बंदा सिंह बहादुर से संबंधित थे। इन हुक्मनामों से हमें गुरु साहिबान तथा समकालीन समाज से संबंधित बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है।

  1. हुक्मनामों से क्या भाव है ?
  2. हुक्मनामे क्यों जारी किए जाते हैं ?
  3. पंजाब के किस प्रसिद्ध इतिहासकार ने हुक्मनामों का संकलन किया ?
  4. हुक्मनामों का कोई एक महत्त्व बताएँ।
  5. अब तक कितने हुक्मनामे उपलब्ध हैं ?
    • 23
    • 24
    • 79
    • 89.

उत्तर-

  1. हुक्मनामे वे आज्ञा-पत्र थे जो सिख गुरुओं अथवा गुरु घरानों से संबंधित सदस्यों ने समय-समय पर सिख संगतों तथा व्यक्तियों के नाम पर जारी किए।
  2. हुक्मनामे गुरु घर के लंगर के लिए राशन, धार्मिक स्थानों के निर्माण के लिए माया, लड़ाइयों के लिए घोड़े तथा शस्त्र आदि मंगवाने के लिए जारी किए जाते थे।
  3. गंडा सिंह ने।
  4. इनसे हमें गुरु साहिबानों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
  5. 89.