PSEB 10th Class SST Solutions Economics उद्धरण संबंधी प्रश्न

Punjab State Board PSEB 10th Class Social Science Book Solutions Economics उद्धरण संबंधी प्रश्न.

PSEB 10th Class Social Science Solutions Economics उद्धरण संबंधी प्रश्न

नीचे दिए गए उद्धरणों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए

(1)

राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाते समय वस्तुओं तथा सेवाओं को उनकी कीमतों से गुणा किया जाता है। यदि राष्ट्रीय उत्पाद की मात्रा को चालू कीमतों से गुणा किया जाता है तो उसे चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय या मौद्रिक आय कहा जाता है। इसके विपरीत यदि राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा को किसी अन्य वर्ष (जिसे आधार वर्ष भी कहते हैं) की कीमतों से गुणा किया जाए तो जो परिणाम प्राप्त होगा उसे स्थिर कीमतों पर राष्ट्रीय आय या वास्तविक राष्ट्रीय आय कहा जाता है। कीमतों में प्राय: परिवर्तन होता रहता है। इसके फलस्वरूप वस्तुओं तथा सेवाओं की मात्रा में बिना कोई परिवर्तन हुए राष्ट्रीय आय कम या अधिक हो सकती है। एक देश की वास्तविक आर्थिक प्रगति का अनुमान लगाने के लिए विभिन्न वर्षों की राष्ट्रीय आय एक विशेष वर्ष के कीमत स्तर पर मापी जानी चाहिए। कीमतें स्थिर रहने पर वास्तविक आय में होने वाले परिवर्तन केवल वस्तुओं तथा सेवाओं में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप उत्पन्न होंगे।
(a) राष्ट्रीय आय से क्या अभिप्राय है?
(b) सकल राष्ट्रीय आय तथा शुद्ध राष्ट्रीय आय में क्या अंतर है?
उत्तर –
(a) राष्ट्रीय आय एक देश के सामान्य निवासियों की एक वर्ष में मजदूरी, ब्याज, लगान तथा लाभ के रूप में साधन आय है। यह घरेलू साधन आय और विदेशों से अर्जित शुद्ध साधन आय का योग है।
(b) एक देश की राष्ट्रीय आय में यदि घिसावट व्यय शामिल रहता है तो उसे सकल राष्ट्रीय आय कहा जाता है। जबकि इसके विपरीत यदि राष्ट्रीय आय में घिसावट व्यय को घटा दिया जाता है तो उसे शुद्ध राष्ट्रीय आय कहा जाता हैं। अर्थात,
राष्ट्रीय आय + घिसावट व्यय = सकल राष्ट्रीय आय
राष्ट्रीय आय – घिसावट व्यय = शुद्ध राष्ट्रीय आय
‘सकल’ शब्द का प्रयोग शुद्ध शब्द की तुलना में विस्तृत अर्थों में किया जाता है।

(2)

उपभोग शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है; एक तो क्रिया के रूप में तथा दूसरे व्यय के रूप में। क्रिया के रूप में उपभोग वह क्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष संतुष्टि होती है जैसे प्यास बुझाने के लिए पानी का प्रयोग करना या भूख की संतुष्टि के लिए रोटी का प्रयोग करना। अतएव उपभोग वह क्रिया है जिसके द्वारा कोई मनुष्य अपनी आवश्यकता की संतुष्टि के लिए किसी वस्तु की उपयोगिता का प्रयोग करता है। व्यय के रूप में उपभोग से अभिप्राय उस कुल खर्चे से है जो उपभोग वस्तुओं पर किया जाता है।
राष्ट्रीय आय में से लोग अपनी आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने के लिए मुद्रा की जो राशि खर्च करते हैं उसे उपभोग या कुल उपभोग व्यय कहते हैं।
(a) उपभोग किसे कहते हैं? इसे प्रभावित करने वाले तत्त्व कौन-से हैं?
(b) उपभोग प्रवृत्ति क्या है? यह कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-
(a) उपभोग से अभिप्राय किसी अर्थव्यवस्था में एक वर्ष की अवधि में उपभोग पर किए जाने वाले कुल व्यय से लिया जाता है।
उपभोग पर कई तत्त्वों जैसे वस्तु की कीमत, आय, फैशन आदि का प्रभाव पड़ता है। परन्तु उपभोग पर सबसे अधिक प्रभाव आय का पड़ता है। साधारणतया आय के बढ़ने से उपभोग बढ़ता है। परन्तु उपभोग में होने वाली वृद्धि आय में होने वाली वृद्धि की तुलना में कम होती है।
(b) आय के विभिन्न स्तरों पर उपभोग की विभिन्न मात्राओं को प्रकट करने वाली अनुसूची को उपयोग प्रवृत्ति कहा जाता है।
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  1. औसत उपभोग प्रवृत्ति (Average Propensity to Consume) — कुल व्यय तथा कुल आय के अनुपात को औसत उपभोग प्रवृत्ति कहा जाता है। इससे मालूम होता है कि लोग अपनी कुल आय का कितना भाग उपभोग पर खर्च करेंगे तथा कितना भाग बचाएंगे। इसे ज्ञात करने के लिए उपभोग को आय से भाग कर दिया जाता है अर्थात
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  2. सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति (Marginal Propensity to Consume) — आय में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उपभोग में होने वाले परिवर्तन के अनुपात को सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति कहते हैं।
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(3)

सार्वजनिक वित्त दो शब्दों से मिलकर बना है: सार्वजनिक + वित्त। सार्वजनिक शब्द का अर्थ है जनता का समूह जिसका प्रतिनिधित्व सरकार करती है और वित्त का अर्थ है मौद्रिक साधन। अतएव सार्वजनिक वित्त से अभिप्राय किसी देश की सरकार के वित्तीय साधनों अर्थात् आय और व्यय से है। अर्थशास्त्र के जिस भाग में सरकार की आय तथा व्यय संबंधी समस्याओं का अध्ययन किया जाता है उसे सार्वजनिक वित्त कहा जाता है। अतएव सार्वजनिक वित्त राजकीय संस्थानों जैसे केन्द्रीय, राज्य या स्थानीय सरकारों के मामलों का अध्ययन है। सार्वजनिक वित्त में सरकार की आय अर्थात् कर, ब्याज, लाभ आदि शामिल होते हैं। सार्वजनिक व्यय जैसे सुरक्षा, प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योगों, कृषि आदि पर किया गया व्यय तथा सार्वजनिक ऋण का अध्ययन किया जाता है। समय के साथ-साथ प्रत्येक देश की सरकार के द्वारा की जाने वाली आर्थिक क्रियाओं में बहुत अधिक वृद्धि हो गई है। इसके साथ-साथ सार्वजनिक वित्त का क्षेत्र भी बहुत अधिक विस्तृत हो गया है। इसके अन्तर्गत केवल राज्य की आय और व्यय का अध्ययन ही नहीं किया जाता बल्कि विशेष आर्थिक उद्देश्यों जैसे पूर्ण रोजगार, आर्थिक विकास, आय तथा धन का समान वितरण, कीमत स्थिरता आदि से संबंधित सरकार की आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन भी किया जाता है।
(a) सरकार की आय के मुख्य साधन क्या हैं?
(b) सार्वजनिक वित्त के मुख्य उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
(a) सरकार की आय का मुख्य साधन कर (Tax) है। कर दो प्रकार का होता है।

  1. प्रत्यक्ष कर (Direct Taxes) — प्रत्यक्ष कर वह कर होता है जो उसी व्यक्ति द्वारा पूर्ण रूप से दिया जाता है जिस पर कर लगाया जाता है। उदाहरण के लिए आय कर, उपहार कर, निगम कर, सम्पत्ति कर आदि प्रत्यक्ष कर हैं।
  2. अप्रत्यक्ष कर (Indirect Taxes) — अप्रत्यक्ष कर वह कर होता है जिन्हें सरकार को एक व्यक्ति देता है तथा इनका भार दूसरे व्यक्ति को उठाना पड़ता है। अप्रत्यक्ष कर की परिभाषा उन करों के रूप में की जाती है जो वस्तुओं तथा सेवाओं पर लगाए जाते हैं, अतः लोगों पर यह अप्रत्यक्ष रूप से लगाए जाते हैं। बिक्री कर, उत्पादन कर, मनोरंजन कर, आयात-निर्यात कर अप्रत्यक्ष कर के उदाहरण हैं।

(b) सार्वजनिक वित्त के मुख्य उद्देश्य निम्न हैं:

  1. आय तथा सम्पत्ति का पुनः वितरण (Redistribution of Income and Wealth) — सार्वजनिक वित्त से सरकार कराधान तथा आर्थिक सहायता से आय और सम्पत्ति के बंटवारे में सुधार लाने हेतु प्रयासरत रहती है। संपत्ति और आय का समान वितरण सामाजिक न्याय का प्रतीक है जो कि भारत जैसे किसी भी कल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य होता है।
  2. साधनों का पुनः आबंटन (Reallocation of Resources) — निजी उद्यमी सदैव यही आशा करते हैं कि साधनों का आबंटन उत्पाद के उन क्षेत्रों में किया जाए जहां ऊंचे लाभ प्राप्त होने की आशा हो। किन्तु यह भी संभव है कि उत्पादन के कुछ क्षेत्रों (जैसे शराब का उत्पादन) द्वारा सामाजिक कल्याण में कोई वृद्धि न हो। अपनी बजट संबंधी नीति द्वारा देश की सरकार साधनों का आबंटन इस प्रकार करती है जिससे अधिकतम लाभ तथा सामाजिक कल्याण के बीच संतुलन स्थापित किया जा सकें। उन वस्तुओं (जैसे शराब, सिगरेट) के उत्पादन पर भारी कर लगाकर उनके उत्पादन को निरुत्साहित किया जा सकता है। इसके विपरीत ‘सामाजिक उपयोगिता वाली वस्तुओं’ (जैसे ‘खादी’) के उत्पादन को आर्थिक सहायता देकर प्रोत्साहित किया जाता है।
  3. आर्थिक स्थिरता (Economic Stability) — बाज़ार शक्तियों (मांग तथा पूर्ति की शक्तियों) की स्वतन्त्र क्रियाशीलता के फलस्वरूप व्यापार चक्रों का समय-समय पर आना अनिवार्य होता है। अर्थव्यवस्था में तेजी और मंदी के चक्र चलते हैं। सरकार अर्थव्यवस्था को इन व्यापार चक्रों से मुक्त रखने के लिए सदैव वचनबद्ध होती है। बजट सरकार के हाथ में एक महत्त्वपूर्ण नीति अस्त्र है जिसके प्रयोग द्वारा वह अवस्फीति तथा मुद्रा स्फीति की स्थितियों का मुकाबला करती है।

(4)

प्रत्येक अल्पविकसित देश में उद्योगों, कृषि आदि अन्य क्षेत्रों का विकास तभी संभव हो सकता है, जब आधारिक संरचना पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों। आधारिक संरचना के अभाव में उद्योगों, कृषि आदि क्षेत्रों के विकास में रुकावटें उत्पन्न हो जाती हैं तथा उनकी वृद्धि दर कम हो जाती है। उदाहरण के लिए हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं कि भारत में बिजली की कमी के कारण उद्योगों तथा कृषि को कितनी हानि उठानी पड़ती है। इसी प्रकार यदि यातायाद के साधन अपर्याप्त हों तो उद्योगों को समय पर कच्चा माल नहीं मिल सकेगा तथा उनका तैयार माल बाजार में नहीं पहुंच सकेगा। अतएव आधारिक संरचना की कमी उद्योगों तथा कृषि आदि उत्पादक क्षेत्रों के विकास की दर को कम कर देती है। इसके विपरीत आधारिक संरचना की उचित उपलब्धता इनके विकास की दर को तेजी से बढ़ाने में सहायक हो सकती है।
(a) आधारिक संरचना से क्या अभिप्राय है?
(b) आर्थिक आधारिक संरचना का अर्थ बताएं। महत्त्वपूर्ण आर्थिक संरचनाएं कौन-सी हैं?
उत्तर-
(a) किसी अर्थव्यवस्था के पूंजी स्टॉक के उस भाग को जो विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करने की दृष्टि से आवश्यक होता है, आधारिक संरचना कहा जाता है।
(b) आर्थिक आधारिक संरचना से अभिप्राय उस पूंजी स्टॉक से है जो उत्पादन प्रणाली को प्रत्यक्ष सेवाएं प्रदान करता है। उदाहरणादि-देश की यातायात प्रणाली रेलवे, वायु सेवाएं, उत्पादन तथा वितरण प्रणाली के एक हिस्से के रूप में ही सेवाएं प्रदान करतें हैं। इसी प्रकार बैंकिंग प्रणाली, मुद्रा तथा पूंजी बाज़ार दूसरे हिस्से के रूप में उद्योगों तथा कृषि को वित्त प्रदान करती है। महत्त्वपूर्ण आर्थिक संरचनाएं निम्नलिखित हैं

  1. परिवहन तथा संचार
  2. विद्युत् शक्ति
  3. सिंचाई
  4. बैंकिंग तथा अन्य वित्तीय संस्थाएं।

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(5)

आधुनिक युग उपभोक्तावाद का युग है। उपभोक्ताओं के उपयोग एवं सुविधा के लिए प्रतिदिन नए उपभोक्ता पदार्थों की पूर्ति की जा रही है। नए प्रकार के खाद्य पदार्थों, नए फैशन के कपड़ों, सजावट के समान, गृहस्थी के उपयोग के लिए नए उपकरणों, परिवहन के नए साधनों, मनोरंजन के नए यन्त्रों जैसे-रंगीन टी०वी० विडियो आदि का निरन्तर आविष्कार तथा उत्पादन किया जा रहा है। इन वस्तुओं को उपभोक्ताओं तक पहुंचाने के लिए विज्ञापन तथा प्रचार का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जा रहा है। आज का उपभोक्ता आकर्षक विज्ञापनों तथा अनेक उत्पादकों के प्रचार के आधार पर अपने उपभोग की सामग्री का चुनाव करता है। इस संबंध में उसका कई प्रकार से शोषण किया जाता है। उपभोक्ता को इस शोषण से संरक्षण देने के लिए उपभोक्ता संरक्षण की विधि प्रारम्भ की गई है।
(a) उपभोक्ता संरक्षण से क्या अभिप्राय है?
(b) उपभोक्ता के शिक्षण का अर्थ बताएं।
उत्तर-
(a) उपभोक्ता संरक्षण से अभिप्राय है कि उपभोक्ता वस्तुओं के उपभोक्ताओं की उत्पादकों के अनुचित व्यापार व्यवहारों के फलस्वरूप होने वाले शोषण से रक्षा करना।
(b) उपभोक्ता के हितों का संरक्षण करने के लिए उन्हें शिक्षित किया जाना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए प्रतिवर्ष देश भर में 15 से 21 मार्च तक उपभोक्ता सप्ताह (Consumer’s Week) मनाया जाता है। इसमें उपभोक्ताओं में उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता जगाने पर विशेष जोर दिया जाता है। इस अवसर पर प्रदर्शनियों, गोष्ठियों तथा नुक्कड़ सभाओं का आयोजन किया जाता है। उनमें उपभोक्ताओं को बताया जाता है कि उन्हें मिलावट, कम तोलने जैसे अनुचित व्यापारिक गतिविधियों के बारे में क्या करना चाहिए तथा इस संबंध में उन्हें कौन-सी कानूनी सुविधाएं प्राप्त हैं।

(6)

भारत एक कृषि प्रधान देश माना जाता है क्योंकि भारत में आज भी 68 प्रतिशत जनसंख्या कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त कर रही है। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतवासियों ने अंग्रेजों से पिछड़ी हुई कृषि अर्थव्यवस्था ही विरासत में पाई थी। महात्मा गाँधी भी कृषि को “भारत की आत्मा” मानते थे। नेहरू जी ने भी इसलिए कहा था, “कृषि को सर्वाधिक प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।” डॉ० वी०के०वी० राव ने कृषि के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था, “यदि पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत विकास के विशाल पहाड़ को लांघना है तो कृषि के लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करना आवश्यक है।” प्रसिद्ध अर्थशास्त्री विद्वान् दांते वाला के अनुसार, “भारतीय अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास में कृषि क्षेत्र की सफलता देश को आर्थिक प्रगति के मार्ग की तरफ अग्रसर करती है।”
(a) कृषि से क्या अभिप्राय है?
(b) भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
(a) अंग्रेजी भाषा का एग्रीकल्चर शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों एग्री (Agri), खेत (Field) तथा कल्चर (Culture) (खेती) (Cultivation) से लिया गया है। दूसरे शब्दों में, एक खेत में पशुओं तथा फसलों के उत्पादन सम्बन्धी कला व विज्ञान को कृषि कहते हैं। अर्थशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग खेती की क्रिया में सम्बन्धित प्रत्येक विषय में किया जाता है। कृषि का मुख्य उद्देश्य मज़दूरी पदार्थों जैसे अनाज, दूध, सब्जियाँ, दालों तथा उद्योगों के लिए कच्चे माल का उत्पादन करना है।
(b) भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व निम्नलिखित है.

  1. राष्ट्रीय आय (National Income) — भारत की राष्ट्रीय आय का लगभग एक चौथाई भाग कृषि, वन आदि प्राथमिक क्रियाओं से प्राप्त होता है। योजनाकाल में राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का योगदान विभिन्न वर्षों में 14.2 प्रतिशत से 51 प्रतिशत तक रहा है। .
  2. कृषि तथा रोज़गार (Agriculture and Employments) — भारत में कृषि रोज़गार का मुख्य स्रोत है। भारत में 70 प्रतिशत से भी ज्यादा कार्यशील जनसंख्या कृषि क्षेत्र में लगी हुई है। भारत में लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि क्षेत्र पर निर्भर रहती है।
  3. कृषि तथा उद्योग (Agriculture and Industry) — कृषि क्षेत्र के द्वारा कई उद्योगों को कच्चा माल जैसेकपास, जूट, गन्ना तिलहन आदि प्राप्त होते हैं। कृषि के विकास के कारण लोगों की आय में वृद्धि होती है इसलिए वे उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं की अधिक मांग करते हैं। इसके फलस्वरूप उद्योगों के बाजार का विस्तार होता है।
  4. यातायात (Transport) — यातायात के साधनों जैसे रेलों, मोटरों, बैलगाड़ियों की आय का एक मुख्य साधन अनाज तथा अन्य कृषि पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाना ले जाना है।
  5. सरकार की आय (Government Income) — राज्य सरकारें अपनी आय का काफी भाग मालगुजारी से प्राप्त करती है। मालगुजारी राज्य सरकारों की आय का परम्परागत साधन है।

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(7)

हरित क्रान्ति दो शब्दों से मिलकर बना है-हरित + क्रान्ति। हरित शब्द का अर्थ है हरियाली तथा क्रान्ति शब्द का अर्थ है इतनी तेजी से होने वाला परिवर्तन कि सभी उसकी ओर आश्चर्य से देखते रह जाएं। इस शब्द का प्रयोग कृषि के उत्पादन के लिए किया गया है। भारत में पहली तीन योजनाओं की अवधि में अपनाए गए कृषि सुधारों के कारण 1967-68 में अनाज के उत्पादन में पिछले वर्ष (1966-67) की तुलना में लगभग 25% की वृद्धि हुई। किसी एक वर्ष में अनाज के उत्पादन में इतनी अधिक वृद्धि होना एक क्रान्ति के समान था। इस कारण अर्थशास्त्रियों ने अमाज के उत्पादन में होने वाली इस वृद्धि को हरित क्रान्ति का नाम दिया है।
(a) हरित क्रान्ति के प्रभाव बताएं।
(b) हरित क्रान्ति क्या है? इसकी विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
(a) हरित क्रान्ति के प्रभाव निम्नलिखित रहे हैं-

  1. उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production) — हरित क्रान्ति के फलस्वरूप 1967-68 और उसके बाद के वर्षों में फसलों के उत्पादन में बड़ी तीव्र गति से वृद्धि हुई है। 1967-68 के वर्ष जिसे हरित क्रान्ति का वर्ष कहा जाता है, में अनाज का उत्पादन बढ़कर 950 लाख टन हो गया।
  2. पूंजीवादी खेती (Capitalistic Farming) — हरित क्रान्ति का लाभ उठाने के लिए धन की बहुत अधिक आवश्यकता है। इतना धन केवल वे ही किसान खर्च कर सकते हैं जिनके पास कम-से-कम 10 हेक्टेयर से अधिक भूमि हो। अतएव हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश में पूंजीवादी खेती को प्रोत्साहन मिला है।
  3. किसानों की समृद्धि (Prosperity of the Farmers) — हरित क्रान्ति के फलस्वरूप किसानों की अवस्था में काफी सुधार हुआ है। उनका जीवन स्तर पहले से बहुत ऊँचा हो गया है। कृषि का व्यवसाय एक लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा है। कई व्यवसायी इस ओर आकर्षित होने लगे हैं। देश में उपभोक्ता, वस्तुओं की मांग में वृद्धि हुई है। आवश्यकता की उच्चकोटि की वस्तुओं तथा विलासिता के पदार्थों की मांग बढ़ गई है। इसका औद्योगिक विकास पर भी उचित प्रभाव पड़ा है।
  4. खाद्यान्न के आयातों में कमी (Reduction in Imports of Food Grains) — हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत में खाद्यान्न के आयात पहले की अपेक्षा कम होने लगे हैं।

(b) हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषि उत्पादन विशेष रूप से गेहूँ तथा चावल के उत्पादन में होने वाली उस भारी वृद्धि से है जो कृषि में अधिक उपज वाले बीजों के प्रयोग की नई तकनीक अपनाने के कारण सम्भव हुई।
विशेषताएं-

  1. भारत में 1968 का वर्ष हरित क्रान्ति का वर्ष था।
  2. इसमें “पंत” कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर ने कई किस्मों के बीजों के माध्यम से एक सराहनीय सहयोग दिया।
  3. हरित क्रान्ति लाने में भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली का भी सहयोग सराहनीय है।
  4. भारत में इस क्रान्ति को लाने का श्रेय डॉ० नोरमान वरलोग तथा एम०एन० स्वामीनाथन को जाता है।

(8)

भारत जैसे अल्पविकसित देशों की आर्थिक प्रगति के लिए औद्योगीकरण एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उद्योगों के विकास द्वारा ही आय, उत्पादन तथा रोजगार की मात्रा को बढ़ाकर भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर में वृद्धि की जा सकती है। स्वतन्त्रता से पहले भारत में उद्योगों का बहुत ही कम विकास हुआ था, परन्तु आजादी के बाद सरकार ने देश के औद्योगिक विकास को बहुत अधिक महत्त्व दिया। इसके फलस्वरूप देश में कई उद्योग स्थापित किए गए तथा पुराने उद्योगों की उत्पादन क्षमता तथा कुशलता में भी वृद्धि की गई। भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं में भी उद्योगों के विकास को काफी महत्त्व दिया गया है।
(a) औद्योगिक विकास का महत्त्व स्पष्ट करें।
(b) उद्योग किस प्रकार सन्तुलित अर्थव्यवस्था के निर्माण में सहायक है?
उत्तर-
(a)

  1. रोज़गार (Employment) — औद्योगीकरण के फलस्वरूप नए-नए उद्योगों का निर्माण होता है। देश के लाखों बेरोजगारों को इन उद्योगों में काम मिलने लगता है। इससे बेरोज़गारी कम होती है।
  2. आत्म निर्भरता (Self Sufficiency) — उद्योगों के विकास से देश की आवश्यक वस्तुएं देश में ही उत्पन्न होने लगेंगी। उनके लिए विदेशों पर निर्भरता कम हो जाएगी। इस प्रकार भारत कई वस्तुओं व सामान में आत्म निर्भर हो जाएगा। .
  3. राष्ट्रीय आय में वृद्धि (Increase in National Income) — भारत में औद्योगीकरण से प्राकृतिक साधनों का उचित प्रयोग हो सकेगा। इससे उत्पादन तथा व्यापार बढ़ेगा, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी तथा लोगों की प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ेगी।
  4. राष्ट्रीय प्रतिरक्षा के लिए जरूरी (Essential for National Defence) — औद्योगीकरण से देश में लोहा, इस्पात, रसायन, हवाई जहाज़, सुरक्षा आदि कई उद्योगों की स्थापना हो जाएगी। इन उद्योगों का देश की प्रतिरक्षा के लिए बहुत महत्त्व है, क्योंकि इन उद्योगों से युद्ध के लिए बहुत सामान तैयार किया जाता है।
  5. भूमि पर जनसंख्या के दबाव में कमी (Less pressure of population on Land) — भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर निर्भर करती है। इसके फलस्वरूप खेती काफी पिछड़ी हुई है। उद्योगों के विकास के कारण कृषि पर जनसंख्या का दबाव कम हो जाएगा। इससे कृषि जोतों का आकार बढ़ेगा व खेती की अधिक उन्नति हो सकेगी।

(b) भारत की अर्थव्यवस्था असन्तुलित है, क्योंकि देश की अधिकतर जनसंख्या व पूंजी कृषि में लगी हुई है। कृषि में अनिश्चितता है। औद्योगीकरण से अर्थव्यवस्था सन्तुलित होगी तथा कृषि की अनिश्चितता कम हो जाएगी।

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(9)

“कुटीर उद्योग वह उद्योग हैं जो पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से परिवार के सदस्यों की सहायता से एक पूर्णकालीन या अंशकालीन व्यवसाय के रूप में चलाया जा सकता है।” इस प्रकार के उद्योग, अधिकतर कारीगर अपने घरों में ही चलाते हैं। मशीनों का प्रयोग बहुत कम किया जाता है। ये उद्योग प्रायः स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। इन उद्योगों को परिवारों के सदस्य ही चलाते हैं। मज़दूरी पर लगाए गए श्रमिकों का प्रयोग बहुत कम होता है। इनमें पूंजी बहुत कम लगती है। इन उद्योगों के अधिकतर गाँवों में स्थित होने से उन्हें ग्रामीण उद्योग भी कहा जाता है।
(a) कुटीर व लघु उद्योगों में क्या अन्तर है?
(b) कुटीर उद्योगों की समस्याएं क्या होती हैं?
उत्तर-
(a)

  1. कुटीर उद्योग प्रायः गाँवों में होते हैं जबकि लघु उद्योग अधिकतर शहरों में होते हैं।
  2. कुटीर उद्योग सामान्यत: स्थानीय माँग की पूर्ति करते हैं जबकि लघु उद्योग शहरी एवं अर्द्ध शहरी क्षेत्रों के लिए माल पैदा करते हैं। अत: उत्पादन का बाजार विस्तृत होता है।
  3. कुटीर उद्योग में परिवार के व्यक्ति ही काम करते हैं जबकि लघु उद्योग में भाड़े के श्रमिकों से काम लिया जाता है।
  4. कुटीर उद्योगों में सामान्य औज़ारों से उत्पादन होता है तथा पूंजी बहुत कम खर्च होती है जबकि लघु उद्योग शक्ति से चलते हैं तथा नियोजित पूंजी भी अधिक खर्च होती है।
  5. कुटीर उद्योग में परम्परागत वस्तुओं का उत्पादन जैसे चटाई, जूते आदि बनाए जाते हैं जबकि लघु उद्योग में आधुनिक वस्तुओं जैसे-रेडियो, टेलीविज़न और इलैक्ट्रॉनिक सामान आदि का उत्पादन किया जाता है।

(b)

  1. कच्चे माल तथा शक्ति की समस्या (Problem of Raw Material and Power) — इन उद्योग धन्धों को कच्चा माल उचित मात्रा में नहीं मिल पाता तथा जो माल मिलता है उसकी किस्म बहुत घटिया होती है और उसका मूल्य भी बहुत अधिक देना पड़ता है। इससे उत्पादन लागत बढ़ जाती है। इन उद्योगों को बिजली तथा कोयले की कमी रहती है।
  2. वित्त की समस्या (Problem of Finance) — भारत में इन उद्योगों को ऋण उचित मात्रा में नहीं मिल पाता है। उन्हें वित्त के लिए साहूकारों पर निर्भर रहना पड़ता है जो ब्याज की ऊँची दर लेते हैं।
  3. बिक्री सम्बन्धी कठिनाई (Problems of Marketing) — इन उद्योगों को अपनामाल उचित मूल्य एवं मात्रा में बेचने के लिए काफी कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं। जैसे इन उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की बाहरी दिखावट अच्छी नहीं होती है।
  4. उत्पादन के पुराने तरीके (Old Methods of Production) — इन उद्योगों में अधिकतर उत्पादन के पुराने ढंग भी अपनाए जाते हैं। पुराने औज़ार जैसे-तेल निकालने की हानियाँ अथवा कपड़ा बुनने के लिए हथकरघा ही प्रयोग में लाया जाता है। इसके फलस्वरूप उत्पादन की मात्रा में कमी होती है तथा वस्तु घटिया किस्म की तैयार होती है। इन वस्तुओं की बाजार में मांग कम हो जाती है।

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(10)

भारत के आर्थिक विकास में बड़े पैमाने के उद्योगों का बहुत महत्त्व है। उद्योगों में निवेश की गई स्थायी पूँजी का अधिकतर भाग बड़े उद्योगों में ही निवेश किया गया है। देश के औद्योगिक उत्पादन का बड़ा भाग इन्हीं उद्योगों से प्राप्त होता है।
(a) बड़े उद्योगों का वर्गीकरण कीजिए।
(b) बड़े उद्योगों का देश के औद्योगिकीकरण में महत्त्व बताएं।
उत्तर-
(a)

  1. आधारभूत उद्योग (Basic Industries) — आधारभूत उद्योग वे उद्योग हैं, जो कृषि तथा उद्योगों को आवश्यक इन्पुट्स प्रदान करते हैं। इनके उदाहरण हैं-स्टील, लोहा, कोयला, उर्वरक तथा बिजली।।
  2. पूंजीगत वस्तु उद्योग (Capital Goods Industries) — पूंजीगत उद्योग वे उद्योग हैं जो कृषि तथा उद्योग के लिए मशीनरी और यन्त्रों का उत्पादन करते हैं। इनमें मशीनें, मशीनी औजार, ट्रैक्टर, ट्रक आदि शामिल किए जाते हैं।
  3. मध्यवर्ती वस्तु उद्योग (Intermediate Goods Industries) — मध्यवर्ती वस्तु उद्योग वे उद्योग हैं जो उन वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जिनका दूसरी वस्तु के उत्पादन के लिए प्रयोग किया जाता है। इनके उदाहरण हैं टायर्स, मोबिल ऑयल आदि।
  4. उपभोक्ता वस्तु उद्योग (Consumer Goods Industries) — उपभोक्ता वस्तु उद्योग वे उद्योग हैं जो उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन, करते हैं। इनमें शामिल हैं चीनी, कपड़ा, कागज़ उद्योग आदि।

(b)

  1. पूंजीगत तथा आधारभूत वस्तुओं का उत्पादन (Production of Capitalistic and Basic Goods) — देश के औद्योगिकीकरण के लिए पूंजीगत वस्तुओं जैसे मशीनों, यन्त्रों तथा आधारभूत वस्तुओं जैसे इस्पात, लोहे, रासायनिक पदार्थों आदि का बहुत अधिक महत्त्व है। इन पूंजीगत तथा आधारभूत वस्तुओं का उत्पादन बड़े उद्योगों द्वारा ही सम्भव है।
  2. आर्थिक आधारित संरचना (Economic Infrastructure) — औद्योगिकीकरण के लिए आर्थिक संरचना अर्थात् यातायात के साधन, बिजली, संचार व्यवस्था आदि की बहुत अधिक आवश्यकता होती है। यातायात के साधनों जैसे रेलवे के इन्जनों तथा डिब्बों, ट्रकों, मोटरों, जहाजों आदि का उत्पादन बड़े पैमाने के उद्योगों द्वारा ही किया जा सकता है।
  3. अनुसन्धान तथा उच्च तकनीक (Research and High Techniques) — किसी देश के औद्योगिकीकरण के लिए अनुसन्धान तथा उच्च तकनीक का बहुत महत्त्व है। इनके लिए बहुत अधिक मात्रा में धन तथा योग्य अनुसन्धानकर्ताओं की आवश्यकता होती है। बड़े पैमाने के उद्योग ही अनुसन्धान तथा योग्य अनुसन्धानकर्ताओं के लिए आवश्यक धन का प्रबन्ध कर सकते हैं।
  4. उत्पादकता में वृद्धि (Increase in Productivity) — बड़े पैमाने के उद्योगों में निवेश बहुत मात्रा में होने के कारण प्रति इकाई पूंजी बहुत अधिक होती है। इससे प्रति इकाई उत्पादकता में भारी वृद्धि होती है।

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