Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 7 राजपूत और उनका काल Textbook Exercise Questions and Answers.
PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 7 राजपूत और उनका काल
अध्याय का विस्तृत अध्ययन
(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)
प्रश्न 1.
कन्नौज के लिए संघर्ष तथा दक्षिण में राजनीतिक परिवर्तनों से सम्बन्धित घटनाओं की रूपरेखा बताएं।
उत्तर-
आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। यह नगर हर्षवर्धन की राजधानी था। उत्तरी भारत में इस नगर की स्थिति बहुत अच्छी थी। क्योंकि इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा के मैदान पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे। इन राजवंशों ने बारी-बारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैन्य शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर तीनों राज्यों का पतन हो गया। राष्ट्रकूटों पर उत्तरकालीन चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। प्रतिहार राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया और पाल वंश की शक्ति को चोलों ने समाप्त कर दिया।
दक्षिण में राजनीतिक परिवर्तन-
दक्षिण में 10वीं , 11वीं तथा 12वीं शताब्दी के दो महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तरकालीन चालुक्य तथा चोल थे। इन दोनों राजवंशों के आपसी सम्बन्ध बड़े ही संघर्षमय थे। इन राज्यों का अलग-अलग अध्ययन करने से इनके आपसी सम्बन्ध स्पष्ट हो जायेंगे। उत्तरकालीन चालुक्यों की दो शाखाएं थीं-कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य तथा मैगी के पूर्वी चालुक्य । कल्याणी के चालुक्य की शाखा की स्थापना तैलप द्वितीय ने की थी। उसने चोलों, गुर्जर, जाटों आदि के विरुद्ध अनेक विजयें प्राप्त की। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र सत्याश्रय ने उत्तरी कोंकण के राजा तथा गुर्जर को पराजित किया, परन्तु उस समय राजेन्द्र चोल ने चालुक्य शक्ति को काफी हानि पहंचाई। बैंगी के पूर्वी चालुक्यों की शाखा का संस्थापक पुलकेशिन द्वितीय का भाई विष्णुवर्धन द्वितीय था।
पुलकेशिन ने उसे 621 ई० में चालुक्य राज्य का गवर्नर नियुक्त किया था । परन्तु कुछ ही समय पश्चात् उसने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। उसके द्वारा स्थापित राजवंश ने लगभग 500 वर्ष तक राज्य किया। जयसिंह प्रथम, इन्द्रवर्मन और विष्णुवर्मन तृतीय, विजयादित्य प्रथम द्वितीय, भीम प्रथम, कुल्लोतुंग प्रथम विजयादित्य इस वंश के प्रतापी राजा थे। इन राजाओं ने पल्लवों तथा राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष किया। अन्त में कुल्लोतुंग प्रथम ने चोल तथा चालुक्य राज्यों को एक संगठित राज्य घोषित कर दिया। उसने अपने चाचा विजयादित्य सप्तम को बैंगी का गर्वनर नियुक्त किया।
चोल दक्षिण भारत की प्रसिद्ध जाति थी। प्राचीन काल में वे दक्षिण भारत की सभ्य जातियों में गिने जाते थे। अशोक के राज्यादेशों तथा मैगस्थनीज़ के लेखों में उनका उल्लेख आता है। चीनी लेखकों, अरब यात्रियों तथा मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उनका वर्णन किया है। काफी समय तक आन्ध्र और पल्लव जातियां उन पर शासन करती रहीं। परन्तु नौवीं शताब्दी में वे अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इस वंश के शासकों ने लगभग चार शताब्दियों तक दक्षिणी भारत में राज्य किया। उनके राज्य में आधुनिक तमिलनाडु, आधुनिक कर्नाटक तथा कोरोमण्डल के प्रदेश सम्मिलित थे। चोल राज्य का संस्थापक कारीकल था। परन्तु इस वंश का पहला प्रसिद्ध राजा विजयालय था। उसने पल्लवों को पराजित किया था। इस वंश के अन्य प्रसिद्ध राजा आदित्य प्रथम प्रान्तक (907-957 ई०), राजराजा महान् (985-1014 ई०), राजेन्द्र चोल (10141044 ई०), कुल्लोतुंग इत्यादि थे। इनमें से राजराजा महान् तथा राजेन्द्र चोल ने शक्ति को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया। उन्होंने कला और साहित्य के विकास में भी योगदान दिया।
चोल वंश का पतन और दक्षिण में नई शक्तियों का उदय-राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों को बैंगी के चालक्यों तथा कल्याणी के विरुद्ध एक लम्बा संघर्ष करना पड़ा। चोल राजा कुल्लोतुंग के शासन काल (1070-1118 ई०) में वैंगी के चालुक्यों का राज्य चोलों के अधिकार में आ गया। परन्तु कल्याणी के चालुक्यों के साथ उनका संघर्ष कुछ धीमा हो गया। इसका कारण यह था कि कुल्लोतुंग की मां एक चालुक्य राजकुमारी थी। 12वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में चोल शक्ति का पतन होने लगा जो मुख्यतः उनके चालुक्यों के साथ संघर्ष का ही परिणाम था। इस संघर्ष के कारण चोल शक्ति काफी क्षीण हो गई और उनके सामन्त शक्तिशाली हो गए। अन्ततः उनके होयसाल सामन्तों ने उनकी सत्ता का अन्त कर दिया। इस प्रकार 13वीं शताब्दी के आरम्भ में दक्षिण में चालुक्य तथा चोल, राज्यों के स्थान पर कुछ नवीन शक्तियों का उदय हुआ। इन शक्तियों में देवगिरी के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल तथा मदुराई के पाण्डेय प्रमुख थे।
प्रश्न 2.
राजपूत काल में धर्म, कला तथा साहित्य के क्षेत्र में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की चर्चा करें।
उत्तर-
राजपूत काल 7वीं तथा 13वीं शताब्दी का मध्यकाल है। इस काल में धार्मिक परिवर्तन हुए तथा कला एवं साहित्य के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ। इन सबका वर्णन इस प्रकार है-
I. धर्म-
(1) 7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक धर्म का आधार वही देवी-देवता व रीति-रिवाज ही रहे, जो काफी समय से चले आ रहे थे। परन्तु धार्मिक परम्पराओं को अब नया रूप दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म का पतन बहुत तेजी से होने लगा। जैन धर्म को कुछ राजपूत शासकों ने समर्थन अवश्य प्रदान किया परन्तु यह धर्म अधिक लोकप्रिय न हो सका। केवल हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म था जिसमें कुछ परिवर्तन आये। अब अवतारवाद को अधिक शक्ति मिली तथा विशेष रूप से कृष्णवासुदेव का अवतार रूप में पूजन होने लगा। देवी-माता की भी कात्यायनी, भवानी, चंडिका, अम्बिका आदि भिन्न-भिन्न रूपों में पूजा प्रचलित थी। इस काल के सभी मतों के अनुयायियों ने अपने-अपने इष्ट देव के लिए मन्दिर बनवाए जो इस काल के धर्मों की बहुत बड़ी विशेषता है।
(2) हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दो विचारधाराएं ही अधिक प्रचलित हुईं-वैष्णव मत तथा शैवमत। शैवमत के कई रूप थे तथा यह दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था। कुछ शैव सम्प्रदाय सामाजिक दृष्टि से परस्पर विरोधी भी थे। जैसे कि कपालिक, कालमुख तथा पशुपति। लोगों का जादू-टोनों में विश्वास पहले से अधिक बढ़ने लगा। 12वीं शताब्दी में वासवराज ने शैवमत की एक नवीन लहर चलाई । इसके अनुयायी लिंगायत या वीर शैव कहलाए। वे लोग शिव की लिंग रूप में पूजा करते थे तथा पूर्ण विश्वास के साथ प्रभु-भक्ति में आस्था रखते थे। इन लोगों ने बाल-विवाह का विरोध करके और विधवाविवाह का सर्मथन करके बाह्मण रूढ़िवाद पर गम्भीर चोट की। दक्षिणी भारत में शिव की लिंग रूप के साथ-साथ नटराज के रूप में भी पूजा काफी प्रचलित थी। उन्होंने शिव के नटराज रूप को धातु की सुन्दर मूर्तियों के रूप में ढाला । इन मूर्तियों में चोल शासकों के काल में बनी कांसे की नटराज की मूर्ति प्रमुख है।
(3) राजपूत काल के धर्म की एक अन्य विशेषता वैष्णव मत में भक्ति तथा श्रद्धा का सम्मिश्रण था। इस विचारधारा के मुख्य प्रवर्तक रामानुज थे। उसका जन्म तिरुपति में हुआ था। 12वीं शताब्दी में उसने श्रीरंगम में कई वर्षों तक लोगों को धर्म की शिक्षा दी। उनके विचार प्रसिद्ध हिन्दू प्रचारक शंकराचार्य से बिल्कुल भिन्न थे। वह अद्धैतवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखता था। वह विष्णु को सर्वोच्च इष्ट मानता था। उसका कहना था कि विष्णु एक मानवीय देवता है। उसने मुक्ति के तीन मार्ग-ज्ञान, धर्म तथा भक्ति में से भक्ति पर अधिक बल दिया। इसी कारण उसे सामान्यतः भक्ति लहर का प्रवर्तक माना जाता है। परन्तु उसने भक्ति की प्रचलित लहर को वैष्णव धर्मशास्त्र के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया।
(4) राजपूतकालीन धर्म में लहर की स्थिति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थी। रामानुज का भक्ति मार्ग जनता में काफी लोकप्रिय हुआ। शैव सम्प्रदाय में भी भक्ति को काफी महत्त्व दिया जाता था। लोगों में यह विश्वास बढ़ गया कि मुक्ति का एकमात्र मार्ग सच्चे मन से की गई प्रभु भक्ति ही है। वे अपना सब कुछ प्रभु के भरोसे छोड़कर उसकी भक्ति के पक्ष में थे।
II. कला-
राजपूत काल में भवन निर्माण का बड़ा विकास हुआ। उन्होंने भव्य महलों तथा दुर्गों का निर्माण किया। जयपुर तथा उदयपुर केराजमहल, चितौड़ तथा ग्वालियर के दुर्ग राजपूती भवन निर्माण कला के शानदार नमूने हैं। इसके अतिरिक्त पर्वत की चोटी पर बने जोधपुर के दुर्ग की अपनी ही सुन्दरता है। कहा जाता है कि उसकी सुन्दरता देखकर बाबर भी आश्चर्य में पड़ गया था।
राजपूत काल मन्दिरों के निर्माण का सर्वोत्कृष्ट समय था। इस वास्तुकला के प्रभावशाली नमूने आज भी देश के कई भागों में सुरक्षित हैं। मन्दिरों का निर्माण केवल शैवमत या वैष्णव मत तक ही सीमित नहीं था। माऊंट आबू में जैन मन्दिर भी मिलते हैं। ये मन्दिर सफेद संगमरमर तथा अन्य पत्थरों के बने हुए हैं। ये मन्दिर उत्कृष्ट मूर्तियों से सजे हुए हैं। अतः ये वास्तुकला और मूर्तिकला के मेल के बहुत सुन्दर नमूने हैं।
राजपूत काल में बने सूर्य मन्दिर बहुत प्रसिद्ध हैं। परन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध उड़ीसा में कोणार्क का सूर्य मन्दिर है। आधुनिक मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के इलाके में स्थित खजुराहो के अधिकतर मन्दिर शिव को समर्पित हैं।
इस समय शिव को समर्पित बड़े-बड़े शानदार मन्दिरों के अतिरिक्त शिव के नटराज रूप को भी धातु की अनेकों मूर्तियों में ढाला गया। इन मूर्तियों के कई छोटे और बड़े नमूने देखे जा सकते हैं। इनमें चोल शासकों के समय का बना सुप्रसिद्ध कांसे का नटराज एक महान् कला कृति है।
III. साहित्य तथा शिक्षा-
राजपूत काल में साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ। पृथ्वीराज चौहान तथा राजा भोज स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे। राजपूत राजाओं ने अपने दरबार में साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया हुआ था। कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ नामक ग्रन्थ की रचना की। चन्दर बरदाई पृथ्वीराज का राजकवि था। उसने ‘पृथ्वी रासो’ नामक ग्रन्थ की रचना की। जयदेव बंगाल का राजकवि था। उसने ‘गीत गोबिन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की। राजशेखर भी इसी काल का एक माना हुआ विद्वान् था। राजपूतों ने शिक्षा के प्रसार को ओर काफी ध्यान दिया। आरम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध मन्दिरों तथा पाठशालाओं में किया जाता था। उच्च शिक्षा के लिए नालन्दा, काशी, तक्षशिला, उज्जैन, विक्रमशिला आदि अनेक विश्वविद्यालय थे।
सच तो यह है कि राजपूत काल में धर्म के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए और कला तथा साहित्य के क्षेत्र में बड़ा विकास हुआ। इस काल की कृतियों तथा साहित्यिक रचनाओं पर आज भी देश को गर्व है।
महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न
I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक-
प्रश्न 1.
कन्नौज की त्रिपक्षीय लड़ाई के समय बंगाल-बिहार का राजा कौन था ?
उत्तर-
धर्मपाल।
प्रश्न 2.
हर्षवर्धन के बाद कन्नौज का राजा कौन बना ?
उत्तर-
यशोवर्मन।
प्रश्न 3.
पृथ्वीराज चौहान की जानकारी हमें किस स्त्रोत से मिलती है तथा
(ii) उसका लेखक कौन है ?
उत्तर-
(i) पृथ्वीराज रासो नामक ग्रन्थ से
(ii) चन्दरबरदाई।
प्रश्न 4.
महमूद गज़नवी ने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया?
उत्तर-
महमूद गज़नवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किये।
प्रश्न 5.
(i) महमूद गज़नवी के साथ कौन-सा इतिहासकार भारत आया तथा
(ii) उसने कौन-सी पुस्तक की रचना की ?
उत्तर-
(i) अल्बरूनी
(ii) ‘किताब-उल-हिन्द’।
प्रश्न 6.
(i) तन्जौर के शिव मन्दिर का निर्माण किसने करवाया तथा
(ii) इस मन्दिर का क्या नाम था ?
उत्तर-
(i) तन्जौर के शिव मन्दिर का निर्माण चोल शासक राजराजा प्रथम ने करवाया।
(ii) इस मन्दिर का नाम राजराजेश्वर मन्दिर था।
प्रश्न 7.
चोल शासन प्रबन्ध में प्रांतों को किस नाम से पुकारा जाता था ?
उत्तर-
‘मंडलम’।
2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-
(i) राजपूतों का प्रमुख देवता ……………. था।
(ii) ………… पृथ्वीराज चौहान का दरबारी कवि था।
(iii) ‘कर्पूरमंजरी’ का लेखक ……………. था।
(iv) परमार वंश की राजधानी ……………… थी।
(v) चंदेल वंश का प्रथम प्रतापी राजा ………….. था।
उत्तर-
(i) शिव
(ii) चन्द्रबरदाई
(iii) राजशेखर
(iv) धारा नगरी
(v) यशोवर्मन।
3. सही/ग़लत कथन-
(i) अरबों ने 712 ई० में सिंध पर आक्रमण किया। — (√)
(ii) तराइन की पहली लड़ाई (1191) में मुहम्मद गौरी की विजय हुई। — (×)
(iii) तराइन की दूसरी लड़ाई महमूद ग़जनवी तथा मुहम्मद गौरी के बीच हुई। — (×)
(iv) परमार वंश का प्रथम महान् शासक मुंज था। — (√)
(v) जयचंद राठौर की राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता थी। — (√)
4. बहु-विकल्पीय प्रश्न
प्रश्न (i)
मुहम्मद गौरी ने किसे हरा कर दिल्ली पर अधिकार किया ?
(A) जयचंद राठौर
(B) पृथ्वीराज चौहान
(C) अनंगपाल
(D) जयपाल।
उत्तर-
(B) पृथ्वीराज चौहान
प्रश्न (ii)
राजपूत काल का सबसे सुंदर दुर्ग है-
(A) जयपुर का
(B) बीकानेर का
(C) जोधपुर का
(D) दिल्ली का।
उत्तर-
(C) जोधपुर का
प्रश्न (iii)
‘जौहर’ की प्रथा प्रचलित थी-
(A) राजपूतों में
(B) सिक्खों में
(C) मुसलमानों में
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(A) राजपूतों में
प्रश्न (iv)
मुहम्मद गौरी ने अपने भारतीय प्रदेश का वायसराय किसे नियुक्त किया ?
(A) जलालुद्दीन खलजी
(B) महमूद ग़जनवी
(C) नासिरुद्दीन कुबाचा
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक।
उत्तर-
(D) कुतुबुद्दीन ऐबक।
प्रश्न (v)
धारानगरी में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की ?
(A) धर्मपाल
(B) राजा भोज
(C) हर्षवर्धन
(D) गोपाल।
उत्तर-
(B) राजा भोज
II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न-
प्रश्न 1.
राजपूत काल में पंजाब की पहाड़ियों में किन नये राज्यों का उदय हुआ ?
उत्तर-
राजपूत काल में पंजाब की पहाड़ियों में जम्मू, चम्बा, कुल्लू तथा कांगड़ा नामक राज्यों का उदय हुआ।
प्रश्न 2.
राजपूत काल में कामरूप किन तीन देशों के बीच व्यापार की कड़ी था ?
उत्तर-
इस काल में कामरूप पूर्वी भारत, तिब्बत तथा चीन के मध्य व्यापार की कड़ी था।
प्रश्न 3.
सिन्ध पर अरबों के आक्रमण का तात्कालिक कारण क्या था ?
उत्तर-
सिन्ध पर अरबों के आक्रमण का तात्कालिक कारण सिन्ध में स्थित कराची के निकट देवल की बंदरगाह पर खलीफा के लिए उपहार ले जाते हुए जहाज़ का लूटा जाना था।
प्रश्न 4.
अरबों के आक्रमण के समय सिन्ध के शासक का नाम क्या था और यह आक्रमण कब हुआ ?
उत्तर-
अरबों ने सिन्ध पर 711 ई० में आक्रमण किया। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर का राज्य था।
प्रश्न 5.
अरबों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र कौन-से दो राज्यों में बंट गया ?
उत्तर-
अरबों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र मंसूरा तथा मुलतान नामक दो राज्यों में बंट गया।
प्रश्न 6.
हिन्दूशाही वंश के चार शासकों के नाम बताएं।
उत्तर-
हिन्दूशाही वंश के चार शासक थे-कल्लार, भीमदेव, जयपाल, आनन्दपाल ।
प्रश्न 7.
गज़नी के राज्य के तीन शासकों के नाम बतायें।
उत्तर-
गज़नी राज्य के तीन शासक थे- अल्पतगीन, सुबुक्तगीन तथा महमूद गज़नवी।
प्रश्न 8.
गज़नी और हिन्दूशाही वंश के शासकों में संघर्ष का आरम्भ किस वर्ष में हुआ और यह कब तक चला ?
उत्तर-
गज़नी और हिन्दूशाही वंश के शासकों में आपसी संघर्ष 960 ई० से 1021 ई० तक चला।
प्रश्न 9.
1008-09 में महमूद गजनवी के विरुद्ध सैनिक गठजोड़ में भाग लेने वाले उत्तर भारत के किन्हीं चार राज्यों के नाम बताएं ।
उत्तर-
महमूद गज़नवी के विरुद्ध सैनिक गठजोड़ (1008-09) में उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर तथा कन्नौज राज्य शामिल थे।
प्रश्न 10.
शाही राजाओं के विरुद्ध गज़नी के शासकों की विजय का मुख्य कारण क्या था?
उत्तर-
शाही राजाओं के विरुद्ध गज़नी के शासकों की विजय का मुख्य कारण उनका विशिष्ट सेनापतित्व था।
प्रश्न 11.
महमूद गजनवी ने धन प्राप्त करने के लिए उत्तर भारत के किन चार नगरों पर आक्रमण किये ?
उत्तर-
महमूद गजनवी ने धन प्राप्त करने के लिए उत्तरी भारत के नगरकोट, थानेश्वर, मथुरा तथा कन्नौज के नगरों पर आक्रमण किये।
प्रश्न 12.
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य अब क्या समझा जाता है?
उत्तर-
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य अब यह समझा जाता है कि उसे अपने मध्य एशिया साम्राज्य का विस्तार करना और इसके लिए धन प्राप्त करना था।
प्रश्न 13.
महमूद गजनवी के साथ भारत आये विद्वान् तथा उसकी पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
महमूद गज़नवी के साथ भारत में जो विद्वान् आया, उसका नाम अलबेरूनी था। उसके द्वारा लिखी पुस्तक का नाम ‘किताब-उल-हिन्द’ था ।
प्रश्न 14.
महमूद गज़नवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य परिणाम क्या हुआ?
उत्तर-
महमूद गजनवी के भारतीय आक्रमणों का मुख्य परिणाम यह हुआ कि पंजाब को गजनी साम्राज्य में मिला लिया।
प्रश्न 15.
कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम बताएं।
उत्तर-
कन्नौज के लिए संघर्ष करने वाले तीन प्रमुख राजवंशों के नाम थे-पालवंश, प्रतिहार वंश तथा राष्ट्रकूट वंश।
प्रश्न 16.
प्रतिहार वंश के राजाओं को गुर्जर-प्रतिहार क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
प्रतिहार पश्चिमी राजस्थान के गुर्जरों में से थे। इसीलिए उन्हें गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है।
प्रश्न 17.
प्रतिहार वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था तथा उसका राज्यकाल क्या था ?
उत्तर-
प्रतिहार वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक राजा भोज था। उसका राज्यकाल 836 ई० से 885 ई० तक था।
प्रश्न 18.
प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध चार शासक कौन थे ?
उत्तर-
नागभट्ट, वत्सराज, मिहिरभोज तथा महेन्द्रपाल प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध चार शासक थे।
प्रश्न 19.
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक कौन था और राष्ट्रकूट राज्य का साम्राज्य में परिवर्तन किस शासक के समय में हुआ?
उत्तर-
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक दन्तीदुर्ग था। राष्ट्रकूट राज्य का साम्राज्य में परिवर्तन ध्रुव के समय में हुआ।
प्रश्न 20.
राष्ट्रकूट राज्य की राजधानी कौन-सी थी और इस वंश के दो सबसे शक्तिशाली शासक कौन थे ?
उत्तर-
राष्ट्रकूट राज्य की राजधानी मालखेद या मान्यखेत थी। इन्द्र तृतीय तथा कृष्णा तृतीय इस वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे।
प्रश्न 21.
पाल वंश का सबसे शक्तिशाली राजा कौन था और बंगाल में पाल राजाओं का स्थान किस वंश ने लिया ?
उत्तर-
धर्मपाल पाल वंश का सब से शक्तिशाली शासक था। बंगाल में पाल राजाओं का स्थान सेन वंश ने लिया।
प्रश्न 22.
अग्निकुल राजपूतों से क्या भाव है एवं इनके चार कुलों के नाम बताएं।
उत्तर-
अग्निकुल राजपूतों से भाव उन चार वंशों से है जिनकी उत्त्पति आबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से हुई । ये वंश थे-परिहार, परमार, चौहान तथा चालुक्य।
प्रश्न 23.
राजपूत काल में गुजरात में कौन-से वंश का राज्य था तथा इनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
राजपूत काल में गुजरात में सोलंकी वंश का राज्य था। इनकी राजधानी अनहिलवाड़ा में थी ।
प्रश्न 24.
मालवा में किस वंश का राज्य था ?
उत्तर-
मालवा में परमार वंश का राज्य था।
प्रश्न 25.
परिहार राजा आरम्भ में किन के सामन्त थे तथा ये किस प्रदेश में शासन कर रहे थे ?
उत्तर-
परिहार राजा आरम्भ में प्रतिहारों के सामान्त थे। वे मालवा में शासन करते थे।
प्रश्न 26.
अग्निकुल राजपूतों में सबसे प्रसिद्ध वंश कौन-सा था और इनका राज्य किन दो प्रदेशों पर था ?
उत्तर-
अग्निकुल राजपूतों में सब से प्रसिद्ध वंश चौहान वंश था। इनका राज्य गुजरात और राजस्थान में था ।
प्रश्न 27.
तराइन की लड़ाइयाँ कौन-से वर्षों में हुईं और इनमें लड़ने वाला राजपूत शासक कौन था ?
उत्तर-
तराइन की लड़ाइयाँ 1191 ई० तथा 1192 ई० में हुईं । इनमें लड़ने वाला राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान था।
प्रश्न 28.
कन्नौज में प्रतिहारों के बाद किस वंश का राज्य स्थापित हुआ तथा इसका अन्तिम शासक कौन था ?
उत्तर-
कन्नौज में प्रतिहारों के बाद राठौर वंश का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश का अन्तिम शासक जयचन्द था।
प्रश्न 29.
दिल्ली का आरम्भिक नाम क्या था और इसकी नींव कब रखी गई ?
उत्तर-
दिल्ली का आरम्भिक नाम ढिल्लीका था। इसकी नींव 736 ई० में रखी गई थी ।
प्रश्न 30.
राजपूतों का सबसे पुराना कुल कौन-सा था तथा इसकी राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर-
राजपूतों का सबसे पुराना कुल गुहिला था। इसकी राजधानी चित्तौड़ थी।
प्रश्न 31.
कछवाहा तथा कलचुरी राजवंशों की राजधानियों के नाम बताएं ।
उत्तर-
कछवाहा तथा कलचुरी राजवंशों की राजधानियों के नाम थे-गोपगिरी तथा त्रिपुरी।
प्रश्न 32.
चंदेलों ने किस प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
चंदेलों ने जैजाक भुक्ति में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। खजुराहो उनकी राजधानी थी।
प्रश्न 33.
बंगाल में सेन वंश की स्थापना किसने की तथा इस वंश का अन्तिम राजा कौन था ?
उत्तर-
बंगाल में सेन वंश की स्थापना विद्यासेन ने की थी। इस वंश का अन्तिम राजा लक्ष्मण सेन था।
प्रश्न 34.
उड़ीसा में पूर्वी गंग राजवंश का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा कौन था तथा इसने कौन-सा प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था?
उत्तर-
गंग राजवंश का सबसे महत्त्वपूर्ण राजा अनन्तवर्मन था। उसने जगन्नाथपुरी का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया था।
प्रश्न 35.
दक्कन में परवर्ती चालुक्यों के राज्य का संस्थापक कौन था तथा इनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
दक्कन में परवर्ती चालुक्यों के राज्य का संस्थापक तैल था। इनकी राजधानी कल्याणी थी।
प्रश्न 36.
11वीं सदी में परवर्ती चालक्यों की किन चार पड़ोसी राज्यों के साथ लड़ाई रही ?
उत्तर-
11वीं सदी में परवर्ती चालुक्यों की सोलंकी, चोल, परमार, कलचुरी राज्यों के साथ लड़ाई रही।
प्रश्न 37.
परवर्ती चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कौन था ? उसके बारे में किस लेखक की कौन-सी रचना से पता चलता है।
उत्तर-
परवर्ती चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य छठा था। उसके बारे में हमें बिल्हण की रचना – ‘विक्रमंकदेवचरित्’, से पता चलता है ।
प्रश्न 38.
परवर्ती चालुक्यों की सबसे भयंकर टक्कर किस राजवंश से हुई और इस झगड़े का कारण कौन- सा । प्रदेश था?
उत्तर-
परवर्ती चालुक्य की सब से भयंकर टक्कर चोल राजवंश से हुई। उनके झगड़े का कारण गी प्रदेश था ।
प्रश्न 39.
चोल वंश के सबसे प्रसिद्ध दो शासकों के नाम तथा उनका राज्यकाल बताएं ।
उत्तर-
चोलवंश के दो प्रसिद्ध शासक राजराजा और राजेन्द्र थे। राजराजा ने 985 ई० से 1014 ई० तक तथा राजेन्द्र ने 1014 ई० से 1044 ई० तक राज्य किया ।
प्रश्न 40.
किस चोल शासक का समय चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ व्यापार की वृद्धि के लिए प्रसिद्ध है? उस शासक का राज्यकाल भी बताएं ।
उत्तर-
कुलोतुंग का राज्यकाल चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के साथ व्यापार की वृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। उसने 1070 ई० से 1118 ई० तक राज्य किया ।
प्रश्न 41.
चोल राज्य के पतन के बाद दक्षिण में किन चार स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ ?
उत्तर-
चोल राज्य के पतन का पश्चात् दक्षिण में देवगिरी के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल और मुदराई के पाण्डेय नामक स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ ।
प्रश्न 42.
अधीन राजाओं के लिए सामन्त शब्द का प्रयोग किस काल में आरम्भ हुआ और किस काल में यह प्रवृत्ति अपने शिखर पर पहुँची?
उत्तर-
‘सामान्त’ शब्द का प्रयोग कनिष्क के काल में अधीन राजाओं के लिए किया जाता था। यह प्रवृत्ति राजपूतों के काल में अपनी चरम-सीमा पर पहुंची।
प्रश्न 43.
राजपूत काल में पारस्परिक झगड़े किस आदर्श से प्रेरित थे और यह कब से चला आ रहा था ?
उत्तर-
राजपूत काल में पारस्परिक झगड़े चक्रवर्तिन के आदर्श से प्रेरित थे। यह झगड़ा सातवीं शताब्दी के आरम्भ से चला आ रहा था।
प्रश्न 44.
धार्मिक अनुदान लेने वालों को क्या अधिकार प्राप्त था ?
उत्तर-
धार्मिक अनुदान लेने वालों को केवल लगान इकट्ठा करने का ही नहीं बल्कि कई अन्य कर तथा जुर्माने वसूल करने का भी अधिकार प्राप्त था ।
प्रश्न 45.
राजपूत काल में गांव में बिरादरी का स्थान किस संस्था ने लिया तथा इसका क्या कार्य था ?
उत्तर-
राजपूत काल में गाँव में बिरादरी का स्थान गाँव के प्रतिनिधियों की एक छोटी संस्था ने ले लिया ।
प्रश्न 46.
प्रादेशिक अभिव्यक्ति के उदाहरण में दो ऐतिहासिक रचनाओं तथा उनके लेखकों के नाम बताएँ ।
उत्तर-
प्रादेशिक अभिव्यक्ति के उदाहरण में दो ऐतिहासिक रचनाओं तथा उनके लेखकों के नाम हैं-बिल्हण की रचना विक्रमंकदेवचरित् तथा चन्दरबरदाई की रचना पृथ्वीराजरासो ।
प्रश्न 47.
राजपूत काल में उत्तर भारत में कौन से चार प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य रचना आरम्भ हो गई थी ?
उत्तर-
राजपूत काल में उत्तर भारत में गुजरात, बंगाल, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य रचना आरम्भ हो गई थी।
प्रश्न 48.
राजपूत काल में नई भाषाओं के लिए कौन-से शब्द का प्रयोग किया जाता था और इसका क्या अर्थ था ?
उत्तर-
राजपूत काल में नई भाषाओं के लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग किया जाता था । इस का अर्थ ‘भ्रष्ट होना’ हैं ।
प्रश्न 49.
राजस्थान में किन चार देवताओं के समर्पित मन्दिर मिलते हैं ?
उत्तर-
राजस्थान में ब्रह्मा, सूर्य, हरिहर और त्रिपुरुष देवताओं के समर्पित मन्दिर मिलते हैं।
प्रश्न 50.
मातृदेवी की पूजा से सम्बन्धित चार देवियों के नाम बताएं ।
उत्तर-
भवानी, चण्डिका, अम्बिका और कौशिकी।
प्रश्न 51.
शैवमत से सम्बन्धित चार सम्प्रदायों के नाम बताएं ।
उत्तर-
कापालिका, कालमुख, पशुपति तथा लिंगायत नामक शैवमत से सम्बन्धित चार सम्प्रदाय थे।
प्रश्न 52.
रामानुज किस प्रदेश के रहने वाले थे और इनका जन्म किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
रामानुज तनिलनाडु के रहने वाले थे। इनका जन्म तिरुपति में हुआ था ।
प्रश्न 53.
राजपूत काल में प्रचलित विश्वास के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के कौन-से तीन मुख्य साधन थे ?
उत्तर-
राजपूत काल में प्रचलित विश्वास के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने के तीन साधन ज्ञान, कर्म और भक्ति थे।
प्रश्न 54.
शंकराचार्य के विपरीत रामानुज ने सबसे अधिक महत्त्व किसको दिया और इनका इष्ट कौन था ?
उत्तर-
शंकराचार्य के विपरीत रामानुज ने सब से अधिक महत्त्व भक्ति को दिया। उन का इष्ट विष्णु था ।
प्रश्न 55.
किन चार प्रकार के लोग तंजौर के मन्दिर से सम्बन्धित थे ?
उत्तर-
तंजौर के मन्दिर से ब्राह्मण पुजारी, देव दासियाँ, संगीतकार तथा सेवक सम्बन्धित थे।
प्रश्न 56.
राजस्थान में सबसे सुन्दर जैन मन्दिर किस स्थान पर मिलते हैं तथा इनमें से किसी एक मन्दिर का नाम बताएँ।
उत्तर-
राजस्थान में सब से सुन्दर जैन मन्दिर माऊंट आबू में मिलते हैं । इन में से एक मन्दिर का नाम सूर्य मन्दिर है।
प्रश्न 57.
कोणार्क का मन्दिर वर्तमान भारत के किस राज्य में है तथा यह किस देवता को समर्पित है ?
उत्तर-
कोणार्क का मन्दिर उड़ीसा राज्य में है । यह सूर्य देवता को समर्पित है।
प्रश्न 58.
खजुराहो के अधिकांश मन्दिर किस देवता को समर्पित हैं तथा इनमें से प्रसिद्ध एक मन्दिर का नाम बताएं।
उत्तर-
खजुराहो के अधिकांश मन्दिर शिव को समर्पित हैं। इन में नटराज मन्दिर सब से प्रसिद्ध है।
प्रश्न 59.
भुवनेश्वर वर्तमान भारत के किस राज्य में है तथा इसके सबसे प्रसिद्ध मन्दिर का नाम बताएं ।
उत्तर-
भुवनेश्वर वर्तमान भारत के उड़ीसा राज्य में है। इसका सबसे अधिक प्रसिद्ध मन्दिर नटराज मन्दिर है ।
प्रश्न 60.
शिव के नटराज रूप की मूर्तियां किस राजवंश के समय में बनाई जाती थीं और ये किस धातु में हैं ?
उत्तर-
शिव के नटराज रूप की मूर्तियां चोल राजवंश के समय में बनाई जाती थीं। ये कांसे से बनी हुई हैं।
III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न
प्रश्न 1.
सिन्ध और मुल्तान में अरब शासन के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
अरबों ने 711-12 ई० में सिन्ध पर आक्रमण किया। मुहमद-बिन-कासिम 712 ई० में देवल पहुँचा। सिन्ध के शासक दाहिर के भतीजे ने उसका सामना किया, परन्तु वह पराजित हुआ। इसके पश्चात् कासिम ने निसन और सहवान पर विजय प्राप्त की। अब वह सिन्ध के सबसे बड़े दुर्ग ब्रह्मणाबाद की विजय के लिए चल पड़ा। रावर के स्थान पर राजा दाहिर ने उससे ज़ोरदार टक्कर ली, परन्तु कासिम विजयी रहा। कुछ ही समय पश्चात् कासिम ब्रह्मणाबाद जा पहुंचा। यहां दाहिर के पुत्र जयसिंह ने उसका सामना किया। एक भयंकर युद्ध के पश्चात् कासिम को विजय प्राप्त हुई। उसने राजा दाहिर की दो सुन्दर कन्याओं को पकड़ लिया और उन्हें भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। इस विजय के पश्चात् कासिम ने एलौर पर भी अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार 712 ई० तक लगभग सारा सिन्ध अरबों के अधिकार में आ गया।
प्रश्न 2.
भारत के उत्तर-पश्चिमी में 8वीं से 12वीं शताब्दी तक कौन-कौन से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए ?
उत्तर-
8वीं से 12वीं शताब्दी तक उत्तर-पश्चिमी भारत में हुए कुछ मुख्य परिवर्तन ये थे :
(1) उत्तर-पश्चिमी भारत में अनेक छोटे-बड़े राजपूत राज्य स्थापित हो गए। इनमें केन्द्रीय सत्ता का अभाव था।
(2) 8वीं शताब्दी के आरम्भ में ही अरबों ने सिन्ध और मुल्तान पर आक्रमण किया। उन्होंने वहां के राजा दाहिर को पराजित करके इन प्रदेशों में अरब शासन की स्थापना की।
(3) 9वीं शताब्दी के आरम्भ में कल्लार नामक एक ब्राह्मण ने गान्धार में साही वंश की नींव रखी। यह राज्य धीरे-धीरे पंजाब के बहुत बड़े भाग पर फैल गया। इस राज्य के अन्तिम शासकों को पहले सुबुक्तगीन और फिर महमूद गज़नवी के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। फलस्वरूप पंजाब गज़नी साम्राज्य का अंग बन गया।
(4) बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी ने राजपूतों को पराजित करके भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना की।
प्रश्न 3.
आठवीं और नौवीं शताब्दियों में उत्तरी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने लिए जिन तीन राज्यों के बीच संघर्ष हुआ, उसका वर्णन कीजिए।
उत्तर-
आठवीं और नौवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में होने वाला संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह संघर्ष राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों तथा पालों के बीच कन्नौज को प्राप्त करने के लिए ही हुआ। कन्नौज उत्तरी भारत का प्रसिद्ध नगर था। इस नगर पर अधिकार करने वाला शासक गंगा पर अधिकार कर सकता था, इसलिए इस पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल नामक तीन प्रमुख राजवंश भाग ले रहे थे । इन राजवशों ने बारीबारी कन्नौज पर अधिकार किया। राष्ट्रकूट, प्रतिहार तथा पाल तीनों राज्यों के लिए इस संघर्ष के घातक परिणाम निकले। वे काफ़ी समय तक युद्धों में उलझे रहे। धीरे-धीरे उनकी सैनिक शक्ति कम हो गई और राजनीतिक ढांचा अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप सौ वर्षों के अन्दर इन तीन राज्यों का पतन हो गया।
प्रश्न 4.
राष्ट्रकूट शासकों की सफलताओं का संक्षेप में वर्णन करो।
उत्तर-
राष्ट्रकूट वंश की मुख्य शाखा को मानरवेट के नाम से जाना जाता है। इस शाखा का पहला शासक इन्द्र प्रथम था। उसने इस वंश की सत्ता को काफ़ी दृढ़ बनाया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र दंती दुर्ग सिंहासन पर बैठा। दंती दुर्ग की मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा कृष्ण प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसने 758 ई० में कीर्तिवर्मन को परास्त करके चालुक्य राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। कृष्ण प्रथम बड़ा कला प्रेमी था। 773 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। कृष्ण प्रथम के पश्चात् क्रमशः गोविन्द द्वितीय और ध्रुव सिंहासन पर बैठे। ध्रुव ने गंगवती के शासक को परास्त करके गंगवती को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने उज्जैन पर भी आक्रमण किया। 793 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। ध्रुव के बाद गोविन्द तृतीय सिंहासन पर बैठा। उसने उत्तरी भारत में कई शासकों को अपने अधीन कर लिया। गोविन्द तृतीय के पश्चात् उसका पुत्र अमोघवर्ष गद्दी पर बैठा। 973 ई० में राष्ट्रकूट वंश का अन्त हो गया।
प्रश्न 5.
प्रतिहार शासकों की प्रमुख सफलताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रतिहार वंश की नींव नौवीं शताब्दी में नागभट्ट प्रथम ने रखी थी। इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक मिहिर भोज था। उसने 836 ई० से 885 ई० तक राज्य किया। उसने अनेक विजयें प्राप्त की। पंजाब, आगरा, ग्वालियर, अवध, अयोध्या, कन्नौज, मालवा तथा राजपूताना का अधिकांश भाग उसके राज्य में सम्मिलित था। मिहिर भोज के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल राजगद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता द्वारा स्थापित सदृढ़ साम्राज्य को स्थिर रखा। उसने लगभग 20 वर्षों तक राज्य किया। महेन्द्रपाल के पश्चात् इस वंश के कर्णधार महिपाल, देवपाल, विजयपाल तथा राज्यपाल बने। इन शासकों की अयोग्यता तथा दुर्बलता के कारण प्रतिहार वंश पतनोन्मुख हुआ। राज्यपाल ने महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे क्रोधित होकर बाद में आस-पास के राजाओं ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला। इस तरह प्रतिहार वंश का अन्त हो गया।
प्रश्न 6.
परमार शासकों की उपलब्धियों का विवेचन करो।
अथवा
परमार वंश के राजा भोज की प्रमुख उपलब्धियां बताइये।
उत्तर-
परमारों ने मालवा में 10वीं शताब्दी में अपनी सत्ता स्थापित की। इस वंश का संस्थापक कृष्णराज था। धारा नगरी इस राज्य की राजधानी थी। परमार वंश का प्रथम महान् शासक मुंज था। उसने 974 ई० से 995 ई० तक राज्य किया। वह वास्तुकला का बड़ा प्रेमी था। धनंजय तथा धनिक नामक दो विद्वान् उसके दरबार की महान् विभूतियां थीं। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज था। वह संस्कृत का महान पण्डित था। उसने धारा नगरी में एक संस्कृत विश्वविद्यालय की नींव रखी। उसके शासन काल में अनेक सुन्दर मन्दिरों का निर्माण हुआ। भोपाल के समीप भोजपुर’ नामक झील का निर्माण भी उसी ने करवाया था। उसने शिक्षा और साहित्य को भी संरक्षण प्रदान किया। 1018 ई० से 1060 ई० तक मालवा राज्य की बागडोर उसी के हाथ में रही। उसकी मृत्यु के पश्चात् कुछ ही वर्षों में परमार वंश का पतन हो गया।
प्रश्न 7.
राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में क्या कमियां थीं ?
उत्तर-
राजपूतों के शासन काल में भारतीय समाज में ये कमियां थी-
- राजपूतों में आपसी ईष्या और द्वेष बहुत अधिक था। इसी कारण वे सदा आपस में लड़ते रहे। विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करते हुए उन्होंने कभी एकता का प्रदर्शन नहीं किया।
- राजपूतों को सुरा, सुन्दरी तथा संगीत का बड़ा चाव था। किसी भी युद्ध के पश्चात् राजपूत रास-रंग में डूब जाते थे।
- राजपूत समय में संकीर्णता का बोल-बाला था। उनमें सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा प्रचलित थी। वे तन्त्रवाद में विश्वास रखते थे जिनके कारण वे अन्ध-विश्वासी हो गये थे।
- राजपूत समाज एक सामन्ती समाज था। सामन्त लोग अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। अतः लोग अपने सामन्त या सरदार के लिए लड़ते थे; देश के लिए नहीं।
प्रश्न 8.
चौहान वंश के उत्थान-पतन की कहानी का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
चौहान वंश की नींव गुवक्त ने रखी। 11वीं शताब्दी में इस वंश के शासक अजयदेव ने अजमेर और फिर 12वीं शताब्दी में बीसलदेव ने दिल्ली को जीत लिया। इस प्रकार दिल्ली तथा अजमेर चौहान वंश के अधीन हो गए। चौहान वंश का राजा बीसलदेव बड़ा ही साहित्य-प्रेमी था। परन्तु इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा पृथ्वीराज चौहान था। उसकी कन्नौज के राजा जयचन्द से भारी शत्रुता थी। इसका कारण यह था कि उसने बलपूर्वक जयचन्द की पुत्री संयोगिता से विवाह कर लिया था। पृथ्वीराज बड़ा ही वीर तथा पराक्रमी शासक था। 1191 ई० में उसने मुहम्मद गौरी को तराइन के प्रथम युद्ध में हराया। 1192 ई० में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज पर फिर आक्रमण किया। इस बार पृथ्वीराज पराजित हुआ। इस प्रकार चौहान राज्य का अन्त हो गया।
प्रश्न 9.
चन्देल शासकों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
चन्देलों ने 9वीं शताब्दी में गंगा तथा नर्मदा के बीच के प्रदेश पर अपना शासन स्थापित किया। इसका संस्थापक सम्भवत: नानक चन्देल था। इस वंश का प्रथम प्रतापी राजा यशोवर्मन था। उसने चेदियों को पराजित करके कालिंजर के किले पर विजय प्राप्त की। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उसने प्रतिहार वंश के शासक देवपाल को भी परास्त किया। यशोवर्मन के पश्चात् इस राज्य के कर्णदार धंग, गंड तथा कीर्तिवर्मन बने। धंग नामक शासक ने खजुराहो में एक मन्दिर बनवाया। गंड ने कन्नौज के शासक राज्यपाल का वध किया। उसने महमूद गज़नवी के साथ भी युद्ध किया। ‘कीरत सागर’ नामक तालाब बनवाने का श्रेय इसी वंश के राजा कीर्तिवर्मन को प्राप्त है। इस वंश का अन्तिम शासक परमाल था। उसे कुतुबद्दीन ऐबक से युद्ध करना पड़ा। युद्ध में परमाल पराजित हुआ। इस प्रकार बुन्देलखण्ड मुस्लिम साम्राज्य का अंग बन गया।
प्रश्न 10.
सामन्तवाद के अधीन किस प्रकार की राज्य व्यवस्था थी ?
उत्तर-
सामन्तवादी व्यवस्था का प्रारम्भ राजपूत शासकों ने किया था। उन्होंने कुछ भूमि का प्रबन्ध सीधे, अपने हाथों में रख कर शेष भूमि सामन्तों में बांट दी। ये सामन्त शासकों को अपना स्वामी मानते थे तथा युद्ध के समय उन्हें सैनिक सहायता देते थे। सामन्त अपने-अपने प्रदेशों में लगभग राजाओं के समान ही रहते थे। कछ सामन्त अपने-आप को महासामन्त अथवा महाराजा भी कहते थे। वे अपने कर्मचारियों को सेवाओं के बदले उसी प्रकार कर-मुक्त भूमि देते थे जिस प्रकार शासक अपने सामन्तों को देते थे। नकद वेतन देने की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई थी। इसलिए शायद ही किसी राजपूत राजवंश ने सिक्के (मुद्रा) जारी किए हों। ये तथ्य सामन्तवाद की मुख्य विशेषताएं थीं।
प्रश्न 11.
महमूद गज़नवी के आक्रमणों के क्या कारण थे ?
उत्तर-
महमूद गज़नवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया और बार-बार विजय प्राप्त की। उसके भारत पर आक्रमण के मुख्य कारण ये थे-
- उन दिनों भारत एक धनी देश था। महमूद भारत का धन लूटना चाहता था।
- कुछ विद्वानों के अनुसार महमूद भारत में इस्लाम धर्म फैलाना चाहता था।
- कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि महमूद एक महान् योद्धा था और उसे युद्ध में वीरता दिखाने में आनन्द आता था। उसने अपनी युद्ध-पिपासा को बुझाने के लिए ही भारत पर आक्रमण किया। परन्तु यदि इन उद्देश्यों का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाए तो हमें पता चलेगा कि उसने केवल धन लूटने के उद्देश्य से ही भारत पर आक्रमण किये और अपने इस उद्देश्य में वह पूरी तरह सफल रहा।
प्रश्न 12.
भारत पर महमूद गज़नवी के आक्रमणों के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
1. महमूद के आक्रमणों से संसार को पता चल गया कि भारतीय राजाओं में आपसी फूट है। अतः भारत को विजय करना कठिन नहीं है। इसी बात से प्रेरित होकर बाद में मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किए और यहां मुस्लिम राज्य की स्थापना की।
2. महमूद के आक्रमणों के कारण पंजाब गज़नी साम्राज्य का अंग बन गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने पंजाब को 150 वर्षों तक अपने अधीन रखा।
3. महमूद के आक्रमणों के कारण भारत को जनधन की भारी हानि उठानी पड़ी। वह भारत का काफ़ी सारा धन लूटकर गज़नी ले गया। इसके अतिरिक्त उसके आक्रमणों में अनेक लोगों की जानें गईं।
4. महमूद के आक्रमण के समय उसके साथ अनेक सूफी सन्त भारत आए। उनके उच्च चरित्र से अनेक भारतीय प्रभावित हुए। इससे इस्लाम के प्रसार को काफ़ी प्रोत्साहन मिला।
प्रश्न 13.
हिन्दूशाही शासकों के साथ महमूद गज़नवी के संघर्ष में उसकी विजय के क्या कारण थे ?
उत्तर-
हिन्दूशाही शासकों के विरुद्ध संघर्ष में महमूद गज़नवी की विजय के मुख्य कारण ये थे-
- मुसलमान सैनिकों में धार्मिक जोश था। परन्तु राजपूतों में ऐसे उत्साह का अभाव था।
- हिन्दूशाही शासकों को अकेले ही महमूद का सामना करना पड़ा। आपसी फूट के कारण अन्य राजपूत शासकों ने उनका साथ न दिया।
- महमूद गज़नवी में हिन्दूशाही राजपूतों की अपेक्षा कहीं अधिक सैनिक गुण थे।
- हिन्दूशाही शासक युद्ध में हाथियों पर अधिक निर्भर रहते थे। भयभीत हो जाने पर हाथी कभी-कभी अपने ही सैनिकों को कुचल डालते थे।
- राजपूत बड़े आदर्शवादी थे। वे घायल अथवा पीछे मुड़ते हुए शत्रु पर वार नहीं करते थे। इसके विपरीत महमूद का उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना था, भले ही अनुचित ढंग से ही क्यों न हो।
प्रश्न 14.
राजराजा की मुख्य उपलब्धियां क्या थी ?
उत्तर-
राजराजा ने 985 ई० से 1014 ई० तक शासन किया। अपने शासन काल में उसने अनेक सफलताएं प्राप्त की। उसने केरल नरेश तथा पाण्डेय नरेश को पराजित किया। उसने लंका के उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त की और यह प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया। उसने लंका के प्रसिद्ध नगर अनुराधापुर को भी लूटा। उसने पश्चिमी चालुक्यों और गी के पूर्वी चालुक्यों का सफलतापूर्वक विरोध किया। राजराजा ने मालदीव पर भी विजय प्राप्त की। राजराजा एक कला प्रेमी सम्राट् था। उसे मन्दिर बनवाने का बड़ा चाव था। तंजौर का प्रसिद्ध राजेश्वर मन्दिर उसने ही बनवाया था। यह मन्दिर भवन-निर्माण कला का उत्तम नमूना है।
प्रश्न 15.
राजेन्द्र चोल की सफलताओं की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
राजेन्द्र चोल एक शक्तिशाली राजा था। उसने 1014 ई० से 1044 ई० तक राज्य किया। वह अपने पिता के साथ अनेक युद्धों में गया था, इसलिए वह युद्ध कला में विशेष रूप से निपुण था। वह भी एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने मैसूर के गंग लोगों को और पाण्डयों को परास्त किया। उसने अपनी विजय पताका गोंडवाना राज्य की दीवारों पर फहरा दी! उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के शासकों के विरुद्ध भी संघर्ष किए और सफलता प्राप्त की। उसकी अति महत्त्वपूर्ण विजयें अण्डमान निकोबार तथा मलाया की विजयें थीं। महान् विजेता होने के साथ-साथ वह कुशल शासन प्रबन्धक भी था। उसने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उसने गंगइकोंड चोलपुरम् में अपनी नई राजधानी की स्थापना की। इस नगर को उसने अनेक भवनों तथा मन्दिरों से सुसज्जित करवाया। शिक्षा के प्रचार के लिए उसने एक वैदिक कॉलेज की स्थापना की। उसकी इन महान् सफलताओं के कारण उसके शासन को चोल वंश का स्वर्ण युग माना जाता है।
प्रश्न 16.
राजपूत काल में शैव मत किन रूपों में लोकप्रिय था ?
उत्तर-
राजपूत काल में हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दो विचारधाराएं ही अधिक प्रचलित हुईं-वैष्णव मत तथा शैवमत। शैवमत के कई रूप थे तथा यह दक्षिणी भारत में अधिक प्रचलित था। कुछ शैव सम्प्रदाय सामाजिक दृष्टि से परस्पर विरोधी भी थे, जैसे कि कपालिक, कालमुख तथा पशुपति। 12वीं शताब्दी में वासवराज ने शैवमत की एक नवीन लहर चलाई। इसके अनुयायी लिंगायत या वीर शैव कहलाए। ये लोग शिव की लिंग रूप में पूजा करते थे तथा पूर्ण विश्वास के साथ प्रभु-भक्ति में आस्था रखते थे। इन लोगों ने बाल-विवाह का विरोध करके और विधवा-विवाह का समर्थन करके ब्राह्मण रूढ़िवाद पर गम्भीर चोट की। दक्षिणी भारत में शिव के लिंग रूप के साथ-साथ नटराज के रूप में भी पूजा काफ़ी प्रचलित थी। वहां के लोगों ने शिव के नटराज रूप को धातु की सुन्दर मूर्तियों में ढाला।
प्रश्न 17.
राजपूत काल में मन्दिरों का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
राजपूत काल में मन्दिरों का महत्त्व बढ़ गया था। दक्षिणी भारत में इनका महत्त्व उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक था। वह उस समय के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के मुख्य केन्द्र थे। राजाओं से लेकर व्यापारियों तक सभी ने मन्दिरों के निर्माण में रुचि ली। राजाओं ने अनेक विशाल मन्दिर बनवाए। ऐसे मन्दिरों की देख-रेख का कार्य भी बड़े स्तर पर होता था। उदाहरणार्थ तंजौर के मन्दिर में 400 देवदासियां, 57 संगीतकार, 212 सेवादार तथा सैंकड़ों ब्राह्मण पुजारी थे। राजा तथा अधीनस्थ लोग मन्दिरों को दिल खोल कर दान देते थे, जिनकी समस्त आय मन्दिरों में जाती थी। इस प्रकार लगभग सभी मन्दिर बहुत धनी थे। तंजौर के मन्दिर में सैंकड़ों मन सोना, चांदी तथा बहुमूल्य पत्थर जड़े हुए थे।
प्रश्न 18.
क्या राजपूत काल को अन्धकाल कहना उचित होगा ?
उत्तर-
कुछ इतिहासकार राजपूत काल को ‘अन्धकाल’ कहते हैं। वास्तव में इस काल में कुछ ऐसे तथ्य विद्यमान थे जो ‘अन्धकाल’ के सूचक हैं। उदारहण के लिए यह राजनीतिक विघटन का युग था। देश में राजनीतिक एकता बिल्कुल समाप्त हो गई थी। देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हआ था। यहां के सरदार स्वतन्त्र शासक थे। इसके अतिरिक्त राजपूत काल में विज्ञान तथा व्यापार को भी क्षति पहुंची। इन सभी बातों के आधार पर ही इतिहासकार राजपूत काल को ‘अन्धकाल’ कहते हैं। परन्तु राजपूत काल की उपलब्धियों की अवहेलना भी नहीं की जा सकती। इस काल में देश में अनेक सुन्दर मन्दिर बने, जिन्हें आकर्षक मूर्तियों से सजाया गया। इसके अतिरिक्त देश के भिन्न-भिन्न राज्यों में भारतीय संस्कृति पुनः फैलने लगी। सबसे बड़ी बात यह थी कि राजपूत बड़े वीर तथा साहसी थे। इस प्रकार राजपूत युग की उपलब्धियां इस काल में कमजोर पक्ष से अधिक महान् थों। इसलिए इस युग को ‘अन्धकाल’ कहना उचित नहीं है।
IV. निबन्धात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
राजपूत कौन थे ? उनकी उत्पत्ति के विषय में अपने विचार लिखिए।
उत्तर-
राजपूत लोग कौन थे ? इस विषय में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। वे उनकी उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। इनमें से कुछ मुख्य सिद्धान्त ये हैं-
1. विदेशियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त को कर्नल टॉड ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार राजपूत हूण, शक तथा कुषाण आदि विदेशी जातियों के वंशज हैं। इन विदेशी जातियों के लोगों ने भारतीयों के साथ विवाह-सम्बन्ध जोड़े और स्वयं भारत में बस गए। इन्हीं लोगों की सन्तान राजपूत कहलाई। कर्नल टॉड का कहना है कि प्राचीन इतिहास में ‘राजपूत’ नाम के शब्द का प्रयोग कही नहीं मिलता। अत: वे अवश्य ही विदेशियों के वंशज हैं।
2. क्षत्रियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त वेद व्यास ने प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि राजपूत क्षत्रियों के वंशज हैं और ‘राजपूत’ शब्द ‘राजपुत्र’ (क्षत्रिय) का बिगड़ा हुआ रूप है। इसके अतिरिक्त राजपूतों के रीति-रिवाज वैदिक क्षत्रियों से मेल खाते हैं।
3. मूल निवासियों से उत्पत्ति का सिद्धान्त-कुछ इतिहासकारों का मत है कि राजपूत विदेशी न होकर भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं। इस सिद्धान्त के पक्ष में कहा जाता है कि चन्देल राजपूतों का सम्बन्ध भारत की गौंड जाति से है। परन्तु अधिकतर इतिहासकार इस सिद्धान्त को सत्य नहीं मानते।
4. अग्निकुण्ड का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का वर्णन चन्दबरदाई ने अपनी पुस्तक ‘पृथ्वी-राजरासो’ में किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार राजपूत यज्ञ की अग्नि से जन्मे थे। कहा जाता है कि परशुराम ने सभी क्षत्रियों का नाश कर दिया था जिसके कारण क्षत्रियों की रक्षा करने वाला कोई वीर धरती पर न रहा था। अत: उन्होंने मिल कर आबू पर्वत पर यज्ञ किया। यज्ञ की अग्नि से चार वीर पुरुष निकले, जिन्होंने चार महान् राजपूत वंशों-परिहार, परमार, चौहान तथा चालुक्य की नींव रखी। परन्तु अधिकतर इतिहासकार इस सिद्धान्त को कल्पना मात्र मानते हैं।
5. मिश्रित उत्पत्ति का सिद्धान्त-यह सिद्धान्त डॉ० वी० ए० स्मिथ (Dr. V.A. Smith) ने प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि राजपूत न तो पूर्णतया विदेशियों की सन्तान हैं और न ही भारतीयों की। राजपूत वास्तव में एक मिली-जुली जाति है। उनके अनुसार कुछ राजपूतों की उत्पत्ति शक, हूण, कुषाण आदि विदेशी जातियों से हुई थी और कुछ राजपूत भारत के मूल निवासियों तथा प्राचीन क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे।
6. उनका विचार है कि आबू पर्वत पर किया गया यज्ञ राजपूतों की शुद्धि के लिए किया गया था न कि वहां से राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी। इन सभी सिद्धान्तों में हमें डॉ० स्मिथ का ‘मिश्रित उत्पत्ति’ का सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक ठीक जान पड़ता है। उनके इस सिद्धान्त को अन्य अनेक विद्वानों ने भी स्वीकार कर लिया है।
प्रश्न 2.
राजपूतों (उत्तर भारत) के सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का विवरण दीजिए।
अथवा
राजपूतों के अधीन उत्तर भारत के राजनीतिक जीवन की मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
647 ई० से लेकर 1192 ई० तक उत्तरी भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। इन राज्यों के शासक ‘राजपूत’ थे। इसलिए भारतीय इतिहास में यह युग ‘राजपूत काल’ के नाम से जाना जाता है। इस समय में उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन का वर्णन इस प्रकार है
1. राजनीतिक जीवन-राजपूतों में राजनीतिक एकता का अभाव था। सभी राजपूत राजा अलग-अलग राज्यों पर शासन करते थे। वे अपने-अपने प्रदेश के शासक थे। उन्होंने किसी प्रकार की केन्द्रीय व्यवस्था नहीं की हुई थी। राजपूत राज्य का मुखिया राजा होता था। राज्य की सभी शक्तियाँ उसी के हाथ में थीं। वह मुख्य सेनापति था। न्याय का मुख्य स्रोत भी वह स्वयं था। कुछ राजपूत राज्यों में युवराज और पटरानियाँ भी शासन कार्यों में राजा की सहायता करती थीं। राजा की सहायता के लिए मन्त्री होते थे। इनकी नियुक्ति राजा द्वारा होती थी। इन मन्त्रियों का मुखिया महामन्त्री अथवा महामात्यं कहलाता था। सेनापति को दण्डनायक कहते थे। राजपूतों की राजनीतिक प्रणाली की आधारशिला सामन्त प्रथा थी। राजा बड़ी-बड़ी जागीरें सामन्तों में बाँट देता था। इसके बदले में सामन्त राजा को सैनिक सेवाएँ प्रदान करता था। राज्य की आय के मुख्य साधन भूमिकर, चुंगी-कर, युद्ध-कर, उपहार तथा जुर्माने आदि थे। राजा स्वयं न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। वह स्मृति के नियमों के अनुसार न्याय करता था। दण्ड कठोर थे। राजपूतों का सैनिक संगठन अच्छा था। उनकी सेना में पैदल, घुड़सवार तथा हाथी होते थे। युद्ध में भालों, तलवारों आदि का प्रयोग होता था। किलों की विशेष व्यवस्था की जाती थी।
2. सामाजिक जीवन-राजपूतों में जाति बन्धन बड़े कठोर थे। उनके यहाँ ऊंचे गोत्र वाले नीचे गोत्र में विवाह नहीं करते थे। राजपूत समाज में स्त्री का मान था। स्त्रियां युद्ध में भाग लेती थीं। उनमें पर्दे की प्रथा नहीं थी। वे शिक्षित थीं। उच्च कुल की कन्याएँ स्वयंवर द्वारा अपना वर चुनती थीं। राजपूत बड़े वीर तथा साहसी थे। वे कायरों से घृणा करते थे। परन्तु उनमें कुछ अवगुण थी थे। वे भाँग, शराब तथा अफीम का सेवन करते थे। वे नाच-गाने का भी बड़ा चाव रखते थे।
3. धार्मिक जीवन-राजपूत हिन्दू देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे। वे राम तथा कृष्ण को अवतार मानकर उनकी पूजा करते थे। उनमें शिव की पूजा सबसे अधिक प्रचलित थी। राजपूतों में मूर्ति पूजा भी प्रचलित थी। उन्होंने अपने देवताओं के मन्दिर बनवाए हुए थे। इनमें अनेक देवी-देवताओं की मूतियाँ स्थापित की जाती थीं। वेद, रामायण तथा महाभारत उनके प्रिय ग्रन्थ थे। वे प्रतिदिन इनका पाठ करते थे। राजपूत बड़े अन्धविश्वासी थे। वे जादू-टोनों में बड़ा विश्वास रखते थे।
4. सांस्कृतिक जीवन-राजपूतों ने विशाल दुर्ग तथा सुन्दर महल बनवाये। चित्तौड़ का किला राजपूत भवन-निर्माण कला का एक सुन्दर उदाहरण है। जयपुर और उदयपुर के राजमहल भी कला की दृष्टि से उत्तम माने जाते हैं। उनके द्वारा बनवाये गए भुवनेश्वर तथा खजुराहो के मन्दिर उनकी भवन-निर्माण कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
राजपूत युग में साहित्य ने भी बड़ी उन्नति की। मुंज, भोज तथा पृथ्वीराज आदि राजपूत राजा बहुत विद्वान् थे। उन्होंने साहित्य के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ तथा जयदेव की ‘गीत गोविन्द’ इस काल की महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ हैं।
प्रश्न 3.
महमूद गज़नवी के प्रमुख आक्रमणों का वर्णन करो।
उत्तर-
महमूद गज़नवी गज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। 997 ई० में उसके पिता की मृत्यु हो गई और वह गज़नी का शासक बना। वह एक वीर योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। उसने 1000 ई० से लेकर 1027 ई० तक भारत पर 17 आक्रमण किए और प्रत्येक आक्रमण में विजय प्राप्त की।
महमूद गज़नवी के प्रमुख आक्रमण-महमूद गज़नवी के कुछ प्रमुख आक्रमणों का वर्णन इस प्रकार हैं-
1. जयपाल से युद्ध-महमूद गज़नवी ने 1001 ई० में पंजाब के शासक जयपाल से युद्ध किया। यह युद्ध पेशावर के निकट हुआ। इसमें जयपाल की हार हुई और और उसने महमूद को 25 हज़ार सोने की मोहरें देकर अपनी जान बचाई। परन्तु जयपाल की प्रजा ने इसे अपना अपमान समझा और उसे अपना राजा मानने से इन्कार कर दिया। अत: जयपाल जीवित जल मरा।।
2. आनन्दपाल से युद्ध-आनन्दपाल जयपाल का पुत्र था। महमूद गजनवी ने 1008 ई० में उसके साथ युद्ध किया। यह युद्ध भी पेशावर के निकट हुआ। इस युद्ध में अनेक राजपूतों ने आनन्दपाल की सहायता की। उसकी सेना ने बड़ी वीरता से महमूद का सामना किया। परन्तु अचानक बारूद फट जाने से आनन्दपाल का हाथी युद्ध क्षेत्र से भाग निकला और उसकी जीत हार में बदल गई। इस प्रकार पंजाब पर महमूद गज़नवी का अधिकार हो गया।
3. नगरकोट पर आक्रमण-1009 ई० में महमूद गजनवी ने नगरकोट (कांगड़ा) पर आक्रमण किया। यहां के विशाल मन्दिरों में अपार धन-सम्पदा थी। महमूद ने यहां के धन को खूब लूटा। फरिश्ता के अनुसार, यहां से 7 लाख स्वर्ण दीनार, 700 मन सोने-चांदी के बर्तन तथा 20 मन हीरे-जवाहरात महमूद के हाथ लगे। इसके कुछ समय पश्चात् महमूद ने थानेश्वर और मथुरा के मन्दिरों का भी बहुत सारा धन लूट लिया और मन्दिरों को तोड़फोड़ डाला।
4. कालिंजर के चन्देलों से युद्ध-राजपूत शासक राज्यपाल ने 1019 ई० में महमूद गज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली थी। यह बात अन्य राजपूत शासकों को अच्छी न लगी। अतः कालिंजर के चन्देल शासक ने राज्यपाल पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला। महमूद गज़नवी ने राज्यपाल की हार को अपनी हार समझा और इसका बदला लेने के लिए 1021 ई० में उसने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। चन्देल शासक डर के मारे भाग निकला। इस विजय से भी महमूद के हाथ काफी सारा धन लगा।
5. सोमनाथ पर आक्रमण-सोमनाथ का मन्दिर भारत का एक विशाल मन्दिर था। इस मन्दिर में अपार धन भरा पड़ा था। इस मन्दिर की छत जिन स्तम्भों के सहारे खड़ी थी, उनमें 56 रत्न जड़े हुए थे। इस मन्दिर की सबसे बड़ी विशेषता सोमनाथ की मूर्ति थी। यहाँ का धन लूटने के लिए महमूद गजनवी ने 1025 में सोमनाथ पर आक्रमण कर दिया। कुछ ही समय में वह इस मन्दिर की सारी सम्पत्ति लूट कर चलता बना।
सोमनाथ के आक्रमण के पांच वर्ष पश्चात् 1030 ई० में महमूद की मृत्यु हो गई।
प्रश्न 4.
महमूद गज़नवी के आक्रमणों के उद्देश्यों और प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
महमूद गज़नवी एक महान् योद्धा था। उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया। उसने अनेक राज्यों में भयंकर लूटमार की। मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। संक्षेप में उसके आक्रमणों के उद्देश्यों और प्रभावों का वर्णन इस प्रकार है
उद्देश्य-
1. धन सम्पत्ति को लूटना-महमूद के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य भारत का धन लूटना था। भारत के मन्दिरों में अपार धन राशि थी। महमूद की आँखें इस धन पर लगी हुई थीं। यही कारण था कि उसने केवल उन्हीं स्थानों पर आक्रमण किया जहां से उसे अधिक-से-अधिक धन प्राप्त हो सकता था।
2. इस्लाम धर्म का प्रचार-कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महमूद भारत में इस्लाम धर्म का प्रसार करना चाहता था। भारत के हिन्दू मन्दिरों और उनकी मूर्तियों को तोड़ना महमूद की धार्मिक कट्टरता का प्रमाण है। उसने इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले अनेक लोगों की हत्या कर दी।
3. युद्ध लिप्सा-महमूद एक महान् सैनिक योद्धा था। उसे युद्ध करके अपना शौर्य दिखाने में आनन्द आता था। अतः कुछ विद्वानों का कहना है कि उसने अपनी युद्ध लिप्सा के कारण ही भारत पर आक्रमण किये।
प्रभाव-
1. भारत की राजनीतिक दुर्बलता का भेद खुलना-भारतीय राजाओं को महमूद ने बुरी तरह परास्त किया। इससे भारत की राजनीतिक दुर्बलता का पर्दा उठ गया। महमूद के बाद आक्रमणकारियों ने भारतीय राजाओं की फूट का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने भारत पर अनेक आक्रमण किए। उन्हें इन आक्रमणों में भारी सफलता मिली।
2. मुस्लिम राज्य की स्थापना में सुगमता-महमूद के आक्रमणों के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों का रास्ता साफ हो गया। उन्हें भारतीय राजाओं को हराकर भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित करने में किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ा।
3. जन-धन की अपार हानि-महमूद ने भारत में खूब रक्तपात किया। उसने मन्दिरों को लूटा और बहुत-सा सोना-चांदी तथा हीरे-जवाहरात ऊंटों पर लाद कर अपने साथ ले गया। इस तरह भारत को जन-धन की भारी हानि उठानी पड़ी।
4. इस्लाम धर्म का प्रसार-महमूद ने इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वालों की हत्या कर दी। इससे भयभीत होकर भारत के हज़ारों लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।
5. भारतीय संस्कृति को आघात-महमूद ने अनेक भारतीय मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस तरह भारतीय कला की अनेक सुन्दर इमारतें नष्ट हो गईं। परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति को काफी आघात पहुंचा।
6. पंजाब को गज़नवी साम्राज्य में मिलना-महमूद ने भारत पर कई आक्रमण किये परन्तु उसने केवल पंजाब को ही गज़नी राज्य में मिलाया। वह इसी प्रदेश को आधार बनाकर भारत में अन्य प्रदेशों पर आक्रमण करना चाहता था और वहां के धन को लूटना चाहता था। सच तो यह है कि महमूद के आक्रमणों के कारण इस देश में धन-जन की हानि हुई, इस्लाम धर्म फैला तथा हमारी संस्कृति को हानि पहुंची। किसी ने सच ही कहा है, “महमूद एक अमानवीय अत्याचारी था जिसने हमारे धार्मिक स्थानों को ध्वस्त किया।
प्रश्न 5.
राजूपतों की सामन्त व्यवस्था के मुख्य पहलुओं पर प्रकाश डालिए। विशेष रूप से इसके सामाजिक तथा आर्थिक परिणामों की चर्चा कीजिए।
अथवा
राजूपतों की सामंतवादी प्रथा का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
सामन्तवादी व्यवस्था वह व्यवस्था थी जिसका प्रारम्भ राजपूत शासकों ने किया था। उन्होंने कुछ भूमि का प्रबन्ध सीधे अपने हाथों में रख कर शेष भूमि सामन्तों में बांट दी। ये सामन्त शासकों को अपना स्वामी मानते थे तथा युद्ध के समय उसे सैनिक सहायता देते थे। सामन्त अपने-अपने प्रदेशों में लगभग राजाओं के समान ही रहते थे। कुछ सामन्त अपने-आप को महासामन्त अथवा महाराजा भी कहते थे। वे अपने कर्मचारियों को सेवाओं के बदले उसी प्रकार कर-मुक्त भूमि देते थे, जिस प्रकार शासक अपने सामन्तों को देते थे। नकद वेतन देने की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई थी। इसलिए शायद ही किसी राजपूत राजवंश ने सिक्के (मुद्रा) जारी किए हों।
सामाजिक तथा आर्थिक परिणाम-सामन्तवादी व्यवस्था के कुछ महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक परिणाम निकले-
1. राज्य का किसानों से कोई सीधा सम्पर्क नहीं था। उनके मध्य दावेदारों की संख्या काफ़ी बढ़ गई थी।
2. किसानों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई। उन्हें भूमि से किसी भी समय बेदखल किया जा सकता था। उनसे बेगार ली जाती थी।
3. इस व्यवस्था के कारण स्थानीय आत्म-निर्भरता पर आधारित अर्थव्यवस्था आरम्भ हुई। इसका अर्थ यह था कि प्रत्येक राज्य केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही वस्तुओं का उत्पादन करता था। परिणामस्वरूप व्यापार को बहुत चोट पहुंची।
4. इस व्यवस्था के कारण भूमि के निजी स्वामित्व की प्रथा आरम्भ हई। इससे सामन्तों तथा राजाओं को काफ़ी लाभ पहुंचा क्योंकि समस्त भूमि के मालिक वे स्वयं थे।
5. भूमि का स्वामित्व मिलने पर राजाओं ने सरकारी कर्मचारियों तथा पूरोहितों को बड़ी-बड़ी जागीरें दान में देनी शुरू कर दीं।
6. भूमि के विभाजन से राज्यों की शक्ति घटने लगी जब कि जागीरदार दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होते गए। ये बात राजा के हितों के विरुद्ध थी।
सामन्तवाद का महत्त्व-सामन्तवाद प्रथा का बड़ा महत्त्व है जिसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
1. भूमि के स्वामित्व से सामाजिक सद्भाव को ठेस पहुंची। इससे ग्राम सभा की स्थिति महत्त्वपूर्ण हो गई तथा उसका स्थान पंचायत ने ले लिया। इसमें सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति होते थे तथा वे गांव के विवादों में सरकारी कर्मचारियों की सहायता करते थे।
2. युद्ध को आवश्यक समझा जाने लगा। इसके फलस्वरूप लोगों में सैन्य गुणों का विकास हुआ और वीर सैनिकों का महत्त्व बढ़ने लगा। महिलाएं भी वीरांगनाओं के रूप में उभरने लगीं। जौहर की प्रथा उनकी वीरता का बहुत बड़ा प्रमाण है।
3. सामन्तवादी व्यवस्था के कारण कृषि का विकास हुआ। भूमि अनुदान देने वाले लोगों ने अपने अधीनस्थ किसानों की सहायता से बहुत-सी वीरान भूमि को कृषि योग्य बना लिया।
4. कई नए कबीलों को भी कृषि-कार्य सिखाया गया। इन नए किसानों ने धीरे-धीरे ब्राह्मण संस्कृति को अपना लिया प्रससे हिन्दुओं की संख्या में वृद्धि हुई।
5. सामन्तवादी व्यवस्था की एक अन्य उपलब्धि यह थी कि इससे लोगों में प्रादेशिक रुचि बढ़ी। फलस्वरूप प्रादेशिक
तथा प्रादेशिक भाषाओं का विकास हुआ। बिल्हण ने ‘विक्रमंकदेवचरित्’ की रचना की। इस पुस्तक में चालुक्य राजा “दत्य चतुर्थ का जीवन वृत्तान्त है। चन्दरबरदाई ने ‘पृथ्वीराजरासो’ में पृथ्वीराज चौहान की सफलताओं का वर्णन किया हण ने ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर का इतिहास लिखा।
6. इसी प्रकार कुछ नई भाषाओं का भी उदय हुआ। इन भाषाओं का विकास मुख्यत: गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्र तथा संस्कृति में ” श में हुआ। कन्नड़ तथा तमिल भाषाओं का विकास पहले ही हो गया था। इन भाषाओं के आधार पर बाद में प्रादेशिक का विकास हुआ। जो यह है कि सामन्तवाद जहां राजाओं के हितों के विरुद्ध था, वहां समाज तथा संस्कृति के लिए एक अदृश्य वरदान सिद्ध हुआ |
प्रश्न 6.
राजपूतों के विरुद्ध तुर्की सफलता के कारणों का विवेचन कीजिए। कोई पांच कारण लिखिए।
उत्तर-
राजपूतों की हार का कोई एक कारण नहीं था। उनकी असफलता का कारण उनके अपने अवगुण तथा मुसलमानों के गुण थे। तुर्क (मुस्लिम आक्रमणकारी) धार्मिक जोश से लड़े। उनमें धार्मिक एकता थी। राजपूतों में बहुत मतभेद थे। राजपूतों के लड़ने का ढंग मुसलमानों के मुकाबले में बहुत अच्छा नहीं था। इस तरह की अनेक बातों के कारण राजपूतों को असफलता का मुंह देखना पड़ा और मुस्लिम आक्रमणकारी सफल हुए। इन कारणों का वर्णन इस प्रकार है-
1. राजनीतिक एकता का अभाव-ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। इन राज्यों के शासक प्रायः आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे। मुहम्मद गौरी ने जब पृथ्वीराज पर आक्रमण किया तो जयचन्द ने पृथ्वीराज की कोई सहायता नहीं की। यही दशा शेष राजाओं की थी। ऐसी स्थिति में राजपूतों का पराजित होना निश्चित ही था। सी० बी० वैद्य के शब्दों में, “चौहान, चन्देल, राठौर तथा चालुक्य वंश के राजा राजनीतिक एकता के आदर्श को भूल कर पृथक्-पृथक् लड़े और मुसलमानों के हाथों मार खा गए।”
2. राजपूत शासकों में दूरदर्शिता की कमी-राजपूत शासक वीर और साहसी तो थे, परन्तु उनमें दूरदर्शिता की कमी थी। उन्होंने भारतीय सीमाओं को सुदृढ़ करने का कभी प्रयास न किया और न ही शत्रु को सीमा पर रोकने के लिए कोई उचित पग उठाया। अतः राजपूतों में दूरदर्शिता की कमी उनकी पराजय का एक प्रमुख कारण बनी।
3. स्थायी सेना का अभाव-राजपूत शासकों के पास कोई स्थायी सेना नहीं थी। वे आक्रमण के समय अपने जागीरदारों (सामन्तों) से सैनिक सहायता लिया करते थे। इसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि भिन्न-भिन्न जागीरदारों द्वारा भेजे गए सैनिकों का लड़ने का ढंग भी भिन्न होता था। ऐसी दशा में सैनिकों में अनुशासन नहीं रह सकता था। अनुशासनहीन सेना की पराजय . निश्चित थी।
4. युद्ध-प्रणाली में अन्तर-राजपूतों की युद्ध-प्रणाली पुरानी तथा घटिया किस्म की थी। उन्हें अपने हाथियों पर बड़ा विश्वास था, परन्तु मुस्लिम घुड़सवारों के सामने उनके हाथी टिक न सके। घोड़े युद्ध में हाथियों की अपेक्षा काफ़ी तेज़ गति से दौड़ते थे।
5. मुसलमानों का कुशल सैनिक संगठन-राजपूत राजा युद्ध करते समय अपनी सेना को तीन भागों में बांटते थे जबकि मुसलमानों की सेना पांच भागों में बंटी होती थी। इनमें से ‘अंगरक्षक’ तथा ‘पृथक् रक्षित’ सैनिक बहुत महत्त्वपूर्ण थे। ये टुकड़ियां पहले तो युद्ध से अलग रहती थीं, परन्तु जब शत्रु सैनिक थक जाते थे तो ये अचानक ही उन पर टूट पड़ती थीं। इस प्रकार थकी हुई राजपूत सेना के लिए उनका सामना करना कठिन हो जाता था।
6. राजपूतों के घातक आदर्श-राजपूत युद्ध में निहत्थे शत्रु पर वार करना कायरता समझते थे। वे युद्ध में छल-कपट में विश्वास नहीं करते थे। उनके ये घातक आदर्श उनकी पराजय का कारण बने।
7. हिन्दुओं में जाति-पाति का भेदभाव-हिन्दू समाज अनेक जातियों में विभक्त था। सभी जातियों को अपना पैतृक धन्धा ही अपनाना पड़ता था। रक्षा का भार केवल क्षत्रियों के कन्धों पर था। अन्य जातियों के लोग विदेशी आक्रमणों के समय भी अपने-अपने कार्यों में लगे रहते थे। दूसरी ओर मुसलमानों की सेना में सभी जातियों के लोग शामिल होते थे। इन परिस्थितियों में राजपूतों का पराजित होना निश्चित था।
8. मुसलमानों में धार्मिक जोश-मुसलमान सैनिकों में धार्मिक जोश था। वे हिन्दुओं से लड़ना अपना परम कर्तव्य मानते थे। हिन्दुओं के विरुद्ध वे अपने युद्धों को धर्म-युद्ध अथवा ‘जिहाद’ का नाम देते थे। जीतना या मर मिटना उनका एकमात्र उद्देश्य था। ऐसी दशा में हिन्दुओं का पराजित होना निश्चित ही था। .. सच तो यह है कि मुसलमान अनेक बातों में राजपूतों से आगे थे। उनके कुशल सैनिक संगठन तथा उनकी ‘ भावनाओं का सामना करना राजपूतों के लिए बड़ा कठिन था। यहां तक कि राजपूतों को उनकी अपनी जनता का सहर न मिला। एक इतिहासकार के शब्दों में, “जनता ने अपने सरदारों तथा सैनिकों को सहयोग न दिया जिसके परिणाम राजपूत पराजित हुए।