PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 18 समय नहीं मिला

Punjab State Board PSEB 12th Class Hindi Book Solutions Chapter 18 समय नहीं मिला Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Hindi Chapter 18 समय नहीं मिला

Hindi Guide for Class 12 PSEB समय नहीं मिला Textbook Questions and Answers

(क) लगभग 60 शब्दों में उत्तर दें:

प्रश्न 1.
लेखक के अनुसार कौन-से लोग बड़े हैं ?
उत्तर:
ऐसे बहुत से लोग हैं जो शीघ्र पत्रोत्तर न देने का बहाना यह कहकर देते हैं कि समय नहीं मिला। इस प्रकार लिखने का कुछ फैशन ही हो गया है। लोग भूल जाते हैं कि बड़े आदमी तो पत्रोत्तर देने में देरी कर सकते हैं, काम की अधिकता के कारण, किन्तु दूसरे लोग भी जो पत्रोत्तर देरी से देते हैं अपने आपको बड़ा समझने लगते हैं।

प्रश्न 2.
भारत और विदेश में समय की पाबंदी के सन्दर्भ में लेखक ने क्या विचार व्यक्त किये हैं ?
उत्तर:
लेखक लिखते हैं कि भारत में कोई सम्मेलन हो, कोई सभा हो, कोई मीटिंग हो, कभी सभा समय पर शुरू नहीं होती। कहीं भी समय की पाबन्दी का ध्यान नहीं रखा जाता। मीटिंग में दिए गए समय से घण्टा दो घण्टा बाद ही सभासद या सदस्य पहुँचते हैं, जबकि इंग्लैंड और यूरोप के दूसरे देशों में सभाएँ समय पर होती हैं।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 18 श्रीमन्नारायण

प्रश्न 3.
विदेशों में लोग समय को किस प्रकार बर्बाद करते हैं ?
उत्तर:
विदेशों में लोग सिनेमा और थियेटर के टिकट लेने के लिए दो-दो, तीन-तीन घण्टे लगातार कतारों में खड़े रहकर समय बर्बाद करते हैं। यही हाल टेनिस या फुटबाल मैच देखने के टिकट घरों के सामने लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े व्यक्तियों का है। इन कतारों में जवान-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी दिखाई देते हैं।

प्रश्न 4.
इस निबन्ध से आपको क्या शिक्षा मिलती है ?
उत्तर:
प्रस्तुत निबन्ध से हमें पहली शिक्षा तो यह मिलती है कि किसी मित्र या रिश्तेदार का पत्र प्राप्त होने पर उसका तुरन्त उत्तर देना चाहिए, यह बहाना कभी न बनाना चाहिए कि समय नहीं मिला। दूसरी शिक्षा यह मिलती है कि सदा समय को धन समझते हुए उसकी उपयोगिता और महत्त्व को समझना चाहिए।

प्रश्न 5.
लेखक ने समय के सदुपयोग के लिए क्या सुझाव दिया है ?
उत्तर:
लेखक का सुझाव है कि हमें अपने जीवन पर गहरी और तीखी नज़र डालकर यह देखना चाहिए कि हमने कितना समय नष्ट किया है और उसका क्या सदुपयोग हो सकता है। यदि केवल सुबह जल्दी उठना शुरू कर दें तो हम काफ़ी समय बचा सकेंगे और दिन भर स्फूर्ति भी महसूस करेंगे।

(ख) लगभग 150 शब्दों में उत्तर दें:

प्रश्न 6.
‘समय नहीं मिला’ निबन्ध का सार अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
देखिए पाठ के आरम्भ में दिया गया निबन्ध का सार।

प्रश्न 7.
समय धन से भी कहीं ज्यादा अहम चीज़ है-लेखक के इस कथन से आप कहां तक सहमत हैं ?
उत्तर:
लेखक के इस कथन से कि समय ही धन है, हम पूरी तरह सहमत हैं। क्योंकि धन को तो हाथों का मैल माना जाता है और हमारे हाथ काफ़ी मैले रहते ही हैं। इसका अर्थ यह है कि धन तो कभी भी कमाया जा सकता है और धन तो घटता-बढ़ता रहता है। इसीलिए शायद लक्ष्मी को चंचला कहा गया है कि यह एक स्थान पर टिक कर नहीं बैठती। किन्तु समय के महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता। दिन में समय 24 घण्टों का ही रहेगा इसे न कम किया जा सकता है न बढ़ाया जा सकता है। गया हुआ धन तो लौट कर फिर आ सकता है किन्तु गया हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता। जब चिड़ियाँ खेत चुग जाती हैं तो पछताने के सिवा कोई चारा नहीं रहता।

कहते हैं वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन इसीलिए हार गया था क्योंकि उसने पाँच मिनट समय को नहीं समझा। कहा तो यह भी जाता है कि आषाढ़ का चूका किसान और डाल से चूका बन्दर कहीं का नहीं रहता। ऐसा इसलिए है कि समय का निज़ाम सबके लिए एक जैसा है। किसी चित्रकार ने समय का चित्र बनाते समय उसके माथे पर बालों का गुच्छा बनाया था और पीछे से उसका सिर गंजा दिखाया था। इस चित्र का आशय यही है कि समय को सामने से आते हुए पकड़ो नहीं तो उसके गुजर जाने पर हाथ उसके गंजे सिर पर ही पड़ेगा। समय को जिसने धन मान लिया, समझ लिया वही जीवन में सफल है। भौतिक धन तो आज है कल नहीं भी हो सकता। अतः समय को ही धन समझना चाहिए।

(ग) सप्रसंग व्याख्या करें:

1. मेरा तो यह भी अनुभव है कि जो लोग सचमुच बड़े हैं और बहुत व्यस्त रहते हैं उनका पत्र व्यवहार भी बहुत व्यवस्थित रहता है।
उत्तर:
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ श्रीमन्नारायण द्वारा लिखित निबन्ध ‘समय नहीं मिला’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत निबन्ध में लेखक ने समय के सदुपयोग के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या:
लेखक बड़े आदमियों की व्यस्तता के कारण उनके पत्रोत्तर में देरी को उचित मानते हुए कहते हैं कि उसका यह अनुभव है जो लोग सचमुच बड़े हैं और व्यस्त रहते हैं उनका पत्र व्यवहार अर्थात् पत्रोत्तर देने का स्वभाव अत्यन्त ठीक हालत में रहता है।

विशेष:

  1. लेखक कहना चाहते हैं कि बड़े लोगों का जीवन क्योंकि नियमित रहता है इसलिए उनका पत्रोत्तर भी निहायत व्यवस्थित रहता है। इसी कारण वे बड़े लोग कहलाते हैं।
  2. भाषा तत्सम प्रधान तथा शैली आत्मकथात्मक है।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 18 श्रीमन्नारायण

2. धन की दुनिया में अमीर-गरीब, बादशाह-कंगाल का फर्क है। पर खुशकिस्मती से समय के साम्राज्य में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं है। वक्त के निज़ाम में सब बराबर हैं, उसमें आदर्श लोकतंत्र है।
उत्तर:
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ श्रीमन्नारायण द्वारा लिखित निबन्ध ‘समय नहीं मिला’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक धन और समय की तुलना करता हुआ समय को आदर्श लोकतन्त्र के समान बता रहा है।

व्याख्या:
लेखक समय ही धन की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि धन तो घटता-बढ़ता रहता है किन्तु समय को घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता। दूसरे धन की दुनिया में किसी के पास अधिक धन है तो वह अमीर है, बादशाह है और किसी के पास धन कम है तो वह ग़रीब या कंगाल है किन्तु खुशकिस्मती से समय के साम्राज्य में ऊँच-नीच का छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है। समय के सम्मुख सभी बराबर हैं। उसमें आदर्श लोकतन्त्र है जिसमें सबको बराबर के अधिकार हैं। समय सबके लिए एक जैसा होता है, कोई उसकी उपयोगिता को समझ लेता है तो कोई नहीं।

विशेष:

  1. समय सब के लिए बराबर अवसर प्रदान करता है। वह भेदभाव नहीं करता।
  2. भाषा भावपूर्ण तथा शैली उद्बोधनात्मक है।

PSEB 12th Class Hindi Guide समय नहीं मिला Additional Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘समय नहीं मिला’ किस के द्वारा रचित निबंध है?
उत्तर:
श्री मन्नारायण।

प्रश्न 2.
श्री मन्नारायण का जन्म कहाँ और कब हुआ था?
उत्तर:
इटावा में सन् 1912 ई० में।

प्रश्न 3.
श्री मन्नारायण ने किन-किन पत्रिकाओं का संपादन कार्य किया था?
उत्तर:

  1. सबकी बोली
  2. राष्ट्र भाषा प्रचार।

प्रश्न 4.
श्री मन्नारायण किसकी विचारधारा से प्रभावित थे?
उत्तर:
गांधी जी की विचारधारा से।

प्रश्न 5.
श्री मन्नारायण जी के द्वारा रचित तीन रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
रोटी का राग, मानव, सेवांग।

प्रश्न 6.
‘समय नहीं मिला’ निबंध का मूलभाव क्या है ?
उत्तर:
समय का सदुपयोग।

प्रश्न 7.
लेखक की शैली में किस तत्व की प्रधानता है?
उत्तर:
व्यंग्यात्मकता।

प्रश्न 8.
किस ने कहा था कि यदि भोजन करने का समय हो सकता है तो धार्मिक पुस्तकें पढ़ने का भी समय मिल सकता है?
उत्तर:
अंग्रेजी साहित्यकार डॉ० जॉनसन ने।

प्रश्न 9.
लेखक ने किस कहावत की व्याख्या की थी?
उत्तर:
‘समय ही धन’।

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प्रश्न 10.
लेखक ने अपने निबंध में किसे बधाई दी है ?
उत्तर:
उन लोगों को जो समय को बर्बाद नहीं करते और समय का पूरा लाभ उठाते हैं।

प्रश्न 11.
लेखक ने कभी भी न कहने के लिए क्या कहा था?
उत्तर:
‘समय नहीं मिलता।

प्रश्न 12.
किन देशों में सभाएँ सदा समय पर ही होती हैं ?
उत्तर:
इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में।

प्रश्न 13.
विदेशों में लोग समय कैसे बर्बाद करते हैं ?
उत्तर:
सिनेमा, थियेटर और मैच देखकर।

प्रश्न 14.
लेखक ने ‘समय नहीं मिलता’ में क्या संदेश दिया है?
उत्तर:
सदा समय का महत्त्व समझो और कभी झूठे बहाने न बनाओ।

प्रश्न 15.
‘समय बचाने’ के लिए लेखक ने क्या सुझाव दिया है ?
उत्तर:
सुबह जल्दी उठने से काफी समय बचाया जा सकता है।

वाक्य पूरे कीजिए

प्रश्न 16.
……अमीर ग़रीब, बादशाह-कंगाल का फर्क है।
उत्तर:
धन की दुनिया में।

प्रश्न 17.
………………में सब बराबर है।
उत्तर:
वक्त के निज़ाम।

हाँ-नहीं में उत्तर दीजिए

प्रश्न 18.
लेखक का मानना है कि अधिक व्यस्त लोगों का पत्र व्यवहार अधिक व्यवस्थित होता है?
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 19.
समय के साम्राज्य में ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं है।
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 20.
समय ही धन है।
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 21.
विदेशों में लोगों के द्वारा समय अधिक खराब किया जाता है।
उत्तर:
नहीं।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 18 श्रीमन्नारायण

प्रश्न 22.
लेखक ने निबंध में व्यंग्य का सहारा नहीं लिया है।
उत्तर:
नहीं।

प्रश्न 23.
समय ही धन है।
उत्तर:
हाँ।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

1. सब की बोली तथा राष्ट्र भाषा प्रचार पत्रिकाओं के संपादक कौन थे ?
(क) श्री मन्नारायण
(ख) श्रीमान नारंग
(ग) श्री प्रफुल्ल पटेल
(घ) श्री हंस।
उत्तर:
उत्तर:

2. ‘समय नहीं मिला’ रचना की विद्या क्या है ?
(क) कहानी
(ख) उपन्यास
(ग) निबंध
(घ) संस्मरण।
उत्तर:
(ग) निबंध

3. ‘समय नहीं मिला’ कैसी रचना है ?
(क) व्यंग्यात्मक
(ख) विचारात्मक
(ग) विवेचनात्मक
(घ) आत्म कथात्मक।
उत्तर:
(क) व्यंग्यात्मक

4. लेखक के अनुसार सबसे बड़ा धन क्या है ?
(क) पैसा
(ख) समय
(ग) धन
(घ) सोना
उत्तर:
(ख) समय

5. समय नहीं मिला निबंध का मूलभाव है
(क) समय का सदुपयोग
(ख) समय की मांग
(ग) धन का उपयोग
(घ) धन की मांग
उत्तर:
(क) समय का सदुपयोग

कठिन शब्दों के अर्थ

मशगूल = व्यस्त। यथा समय = निश्चित समय पर। बेशुमार = अनगिनत। व्यवस्थित = ठीक हालत में। अस्त-व्यस्त = बिखरा हुआ। ख्याल = विचार। अक्सर = प्रायः । दिलासा = तसल्ली। इन्तजाम = प्रबन्ध। अहम = महत्त्वपूर्ण । कुदरत = प्रकृति । ज्वारभाटा = समुद्री तूफान । निज़ाम = बन्दोबस्त, प्रबन्ध। शरीक = शामिल। लालसा = इच्छा। तितर-बितर हो जाना = इधर-उधर बिखर जाना। हताश = निराश। बदकिस्मती = दुर्भाग्य। इक्के-दुक्के = कोई-कोई, कम संख्या में। अपवाद = नियमों के उल्लंघन करने का उदाहरण। मुकर्रर = निश्चित किया हुआ। जाहिर करना = प्रकट करना। संयोजक = सभा या मीटिंग का आयोजन करने वाला। अमुक = फलां, कोई खास । लतीफ़ा = चुटकला, हंसी की बात। हमदर्दी = सहानुभूति। मुमकिन = सम्भव, जो हो सके। प्रतिनिधि = नुमाइंदा। मुबारकबाद = बधाई। स्फूर्ति = ताज़गी। खुश मिजाज = हंसमुख।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 18 श्रीमन्नारायण

समय नहीं मिला Summary

समय नहीं मिला जीवन परिचय

श्रीमन्नारायण जी का जीवन-परिचय लिखिए।

श्रीमन्नारायण का जन्म सन् 1912 में इटावा में हुआ था। एम०ए० करने के बाद आप ‘सबकी बोली’ तथा ‘राष्ट्र भाषा प्रचार’ पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। बाद में आप राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के महामन्त्री भी रहे। आप . गाँधीवादी विचारधारा से विशेष रूप से प्रभावित रहे। कांग्रेस के आन्दोलनों में आप शुरू से ही सक्रिय भाग लेते रहे। इनकी प्रमुख रचनाएँ-रोटी का राग, मानव, सेवांग का सन्त हैं। दैनिक जीवन से जुड़ी अनेक घटनाओं पर आप ने बहुत से छोटे-छोटे शिक्षाप्रद निबन्ध भी लिखे हैं।

समय नहीं मिला निबन्ध का सार

‘समय नहीं मिला’ निबन्ध का सार लगभग 150 शब्दों में लिखो।

प्रस्तुत निबन्ध में लेखक ने समय के सदुपयोग के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। लेखक ने बड़े ही व्यंग्यात्मक ढंग से उन लोगों पर प्रहार किया है जो समय नहीं मिला का बहाना बनाते हैं कि ‘मुझे आपका काम तो याद है पर क्या करूँ बिल्कुल समय ही नहीं मिला’ कुछ इसी तरह का बहाना लोग पत्रोत्तर देने में करते हैं। लेखक ने उदाहरण देते हुए बताया कि एक व्यक्ति ने प्रसिद्ध अंग्रेजी के साहित्यकार डॉ० जानसन से जाकर कहा कि उसे धार्मिक पुस्तकें पढने का समय नहीं मिलता। साहित्यकार ने समझाया कि यदि भोजन करने का समय हो सकता है तो धार्मिक पुस्तकें पढ़ने का भी समय मिल सकता है।

लेखक ने ‘समय ही धन’ कहावत की व्याख्या करते हुए बताया है कि हम पैसा तो जितनी मेहनत करें कमा सकते हैं किन्तु समय को घटा या बढ़ा नहीं सकते। समय का प्रबंध सबके लिए बराबर है किन्तु फिर भी हम उसके महत्त्व को नहीं समझते। हम काम के घण्टे कम करने का शोर मचाते हैं पर यह नहीं सोचते कि खाली समय में लोग करेंगे क्या। क्या वे अपना समय सिनेमा का टिकट पाने के लिए बर्बाद न करेंगे।

लेखक उन लोगों को बधाई देता है जो समय का पूरा लाभ उठाकर एक मिनट भी बर्बाद नहीं करते। लेखक की सलाह है खुशमिजाज रहकर अपने समय का जितना अच्छा उपयोग कर सकें, उतनी ही आपकी प्रशंसा है। किन्तु आज से यह किसी से न कहें कि समय नहीं मिला।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 क्या निराश हुआ जाए?

Punjab State Board PSEB 12th Class Hindi Book Solutions Chapter 16 क्या निराश हुआ जाए? Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Hindi Chapter 16 क्या निराश हुआ जाए?

Hindi Guide for Class 12 PSEB क्या निराश हुआ जाए? Textbook Questions and Answers

(क) लगभग 60 शब्दों में उत्तर दें:

प्रश्न 1.
आजकल चिन्ता का क्या कारण है ?
उत्तर:
आज देश में आरोप-प्रत्यारोप का ऐसा वातावरण बन गया है कि लगता है कि कोई ईमानदार आदमी रहा ही नहीं। जो व्यक्ति जितने ऊँचे पद पर है, उसमें उतने ही अधिक दोष दिखाए जाते हैं। जो व्यक्ति कुछ करेगा उसके कार्य में कोई न कोई दोष तो होगा ही किन्तु उसके गुणों को भुलाकर दोषों को ही देखना निश्चय ही चिन्ता का विषय है।

प्रश्न 2.
जीवन के महान् मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था क्यों हिलने लगी है ?
उत्तर:
आज देश में कुछ ऐसा वातावरण बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके रोटी रोज़ी कमाने वाले भोले-भाले मज़दर पिस रहे हैं और झठ और फरेब का धन्धा करने वाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी मूर्खता समझी जाने लगी है और सच्चाई केवल कायर और बेबस लोगों के पास रह गयी है। ऐसी हालत में लोगों की जीवन के महान् मूल्यों के बारे में आस्था हिलने लगी है।

प्रश्न 3.
वे कौन-से विकार हैं जो मनुष्य में स्वाभाविक रूप में विद्यमान रहते हैं ?
उत्तर:
लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते पर इन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना बहुत बुरा नीच आचरण है। हमारे यहाँ इन विकारों को संयम के बन्धन में बाँधकर रखने का प्रयत्न किया जाता है।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न 4.
धर्म और कानून में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता जबकि कानून को दिया जा सकता है। भारत वर्ष में अब भी यह अनुभव किया जाता है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। कानून की त्रुटियों से लाभ उठाया जा सकता है जबकि धर्म में आस्था रखने वाला ऐसा नहीं करता। .

प्रश्न 5.
किसी ऐसी घटना का वर्णन करो जिससे लोक चित्त में अच्छाई की भावना जागृत हो।
उत्तर:
कुछ महीने पहले की बात है कि मैं अपने मम्मी पापा के साथ टेक्सी में कही जा रहा था। टैक्सी से उतरते समय मेरी मम्मी टैक्सी में अपना पर्स भूल गईं। उसमें तीन हजार रुपए और मम्मी के कुछ गहने और मोबाइल था। हम सभी हैरान थे कि अब क्या किया जाए हमने तो टैक्सी का नम्बर और टैक्सी ड्राइवर का नाम भी नहीं पूछा था। थोड़ी देर बाद हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वही टैक्सी ड्राइवर हमारे पास मम्मी का पर्स लौटने आ पहुँचा। मम्मी और पापा ने उसे सौ रुपया पुरस्कार देना चाहा तो उसने इन्कार करते हुए कहा-यह तो मेरा फर्ज़ था।

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 150 शब्दों में लिखो।

प्रश्न 1.
‘क्या निराश हुआ जाए ?’ निबन्ध का सार लिखो।
उत्तर:
देखिए पाठ के आरम्भ में दिया गया निबन्ध का सार ।

प्रश्न 2. इस निबन्ध में द्विवेदी जी ने कुछ घटनाएँ दी हैं जो सच्चाई और ईमानदारी को उजागर करती हैं। उनमें से किसी एक घटना का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर:
द्विवेदी जी एक बार सपरिवार बस में यात्रा कर रहे थे। उनकी बस गंतव्य से पाँच मील पहले एक सूनी निर्जन जगह पर खराब हो गई। उस समय रात के दस बजे थे सभी यात्री घबरा गए। कंडक्टर बस के ऊपर से साइकल उठाकर चला गया। उसके जाने पर यात्रियों को संदेह हुआ कि उन्हें धोखा दिया जा रहा है। एक यात्री ने चिन्ता जताते हुए कहा कि यहाँ डकैती होती है, दो दिन पहले ही एक बस को लूटने की घटना हुई है। द्विवेदी जी परिवार सहित अकेले यात्री थे। बच्चे पानी के लिए चिल्ला रहे थे और पानी का कहीं ठिकाना न था।

इसी बीच कुछ नवयुवक यात्रियों ने ड्राइवर को पीटने का मन बनाया। जब लोगों ने उसे पकड़ा तो वह घबराकर । द्विवेदी जी से उसे लोगों से बचाने की प्रार्थना करने लगा। ड्राइवर ने कहा कि हम लोग बस का कोई उपाय कर रहे
हैं।

द्विवेदी जी लोगों को समझा-बुझा कर उसे पिटने से तो बचा लेते हैं किन्तु लोगों ने ड्राइवर को बस से उतार कर घेर लिया और कोई घटना होने पर पहले उसे मारना ही उचित समझा। इतने में यात्रियों ने देखा कि कंडक्टर एक खाली बस लिए चला आ रहा है। आते ही उसने बताया कि अड्डे से नयी बस लाया हूँ। फिर वह कंडक्टर द्विवेदी जी के पास आकर लोटे में पानी और थोडा दुध दिया। उसने कहा कि बच्चे का रोना उससे देखा न गया। सब यात्रियों ने उसे धन्यवाद दिया और ड्राइवर से क्षमा माँगी। रात बारह बजे से पहले ही वे बस अड्डे पहुंच गए।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न 3.
मानवीय मूल्य से सम्बन्धित यदि कोई ऐसी ही घटना आपके साथ घटित हुई हो, तो उसका वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर:
पिछले महीने की बात है कि मैं साइकिल पर जा रहा था कि एक ट्रक पीछे से आया और मुझे टक्कर मारकर चला गया। मैं सड़क पर जख्मी हालत में पड़ा था। मेरे पास से कई स्कूटर, कई कारें गुजरे किन्तु किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। मैं घायल अवस्था में सड़क के किनारे कोई एक घण्टा तक पड़ा रहा। मेरे शरीर से खून बह रहा था। चोट अधिकतर टांगों और बाहों पर लगी थी। मैंने सहायता के लिए कई लोगों को पुकारा भी किन्तु किसी को भी मेरी हालत पर दया नहीं आई। लगता था कि लोग पुलिस के डर से मेरी सहायता नहीं कर रहे थे। क्योंकि आजकल पुलिस वाले उलटे सहायता करने वाले पर ही केस बना देती है। कहती है एक्सीडेंट तुम्हीं ने किया है। मैं निराश होकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा।

तभी अचानक मेरे पास आकर एक कार रुकी। कार में दो व्यक्ति सवार थे। वे दोनों कार से उतरे। दोनों ने मिलकर मुझे अपनी कार में डाला और तुरन्त निकट के अस्पताल में ले गए। मेरी साइकिल जो बुरी तरह टूट चुकी थी, उन्होंने वही छोड़ दी। अस्पताल के डॉक्टर ने बताया कि इस रोमी को कम से कम एक बोतल खून की ज़रूरत है। उन दोनों व्यक्तियों ने बिना हिचक के अपना खून देने की रजामंदी प्रकट की। प्रभु कृपा से उन दोनों का खून मेरे खून के ग्रुप से मिल गया। तुरन्त उनमें से छोटी आयु के व्यक्ति ने अपना खून दिया। मेरे घावों की मरहम पट्टी कर दी गई थी। दो दिन के इलाज के बाद मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गई। मुझे डॉक्टरों से पता चला कि वे सज्जन मेरे इलाज का सारा खर्चा अदा कर गए हैं। मैं उन दोनों व्यक्तियों को भगवान् समझता हूँ किन्तु खेद है कि मैं उनका नाम तक नहीं जानता।

(ग) सप्रसंग व्याख्या करें

1. “जीवन के महान् मूल्यों के बारे में आस्था ही हिलने लगी है।”
उत्तर:
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ में से ली गई

व्याख्या:
लेखक कहते हैं कि आज देश में ऐसा वातावरण बना है कि ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है। सच्चाई केवल डरपोक और बेबस लोगों के पास रह गयी ऐसी स्थिति में लोगों की जीवन के महान् मूल्यों के प्रति आस्था डाँवाडोल होने लगी है।

2. “धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है।”
उत्तर:
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ में से ली गई

व्याख्या:
लेखक कहते हैं भारत वर्ष में सदा कानून को धर्म माना जाता रहा है किन्तु आज कानून और धर्म में अन्तर आ गया है। लोग यह जानते हैं कि धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता जब कानून को दिया जा सकता है। इसी कारण . धर्म से डरने वाले लोग भी कानून की कमियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।

3. ‘अच्छाई को उजागर करना चाहिए, बुराई में रस नहीं लेना चाहिए।’
उत्तर:
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ में से ली गई

व्याख्या:
लेखक कहते हैं कि दोषों से पर्दा उठाना बुरी बात नहीं है। लेकिन किसी की बुराई करते समय जब उसमें रस लिया जाता और उसे कर्त्तव्य मान लिया जाता है तो यह बुरी बात है और इससे भी बुरी बात वह जब अच्छाई को उतना ही रस लेकर प्रकट न करना।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

4. सामाजिक कायदें-कानून कभी युग-युग से परीक्षत आदर्शों से टकराते हैं, इससे ऊपरी सतह आलोड़ित भी होती है, पहले भी हुआ है, आगे भी होगा। उसे देखकर हताश हो जाना ठीक नहीं है।
उत्तर:
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ में से लिया गया है।

व्याख्या:
लेखक कहते हैं कि सामाजिक नियम और कानून समाज के हित को ध्यान में रखकर मनुष्य द्वारा ही बनाये जाते हैं। उनकी ठीक सिद्ध न होने पर उन्हें बदल दिया जाता है। ये नियम-कानून सबके लिए होते हैं परन्तु कोईकोई नियम सबके लिए सुखकर नहीं होता। जब सामाजिक नियम-कानून युगों से परीक्षित आदर्शों से टकराते हैं तो जो हलचल होती है वह ऊपरी सतह पर ही होती है। वह हलचल भीतरी सतह में नहीं होती अतः इस हलचल को देखकर निराश हो जाना ठीक नहीं है।

PSEB 12th Class Hindi Guide क्या निराश हुआ जाए? Additional Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘क्या निराश हुआ जाए?’ किसके द्वारा रचित है?
उत्तर:
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी।

प्रश्न 2.
आचार्य द्विवेदी का जन्म कब और कहाँ हुआ था? ।
उत्तर:
सन् 1907 ई० में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में ‘आरत दुबे का छपर गाँव में’।

प्रश्न 3.
आचार्य द्विवेदी को भारत सरकार ने किस अलंकार से सम्मानित किया था ?
उत्तर:
पद्म भूषण से।

प्रश्न 4.
आचार्य द्विवेदी किन-किन विश्वविद्यालयों के हिंदी-विभागाध्यक्ष बने थे?
उत्तर:
हिंदू विश्वविद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न 5.
द्विवेदी जी के द्वारा रचित उपन्यासों में से किन्हीं दो का नाम लिखिए।
उत्तर:
अनामदास का पोथा, बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्र लेख।

प्रश्न 6.
‘क्या निराश हुआ जाए ?’ किस प्रकार का निबंध है?
उत्तर:
विचारात्मक निबंध।

प्रश्न 7.
इस निबंध में किस प्रकार की बुराइयों पर प्रकाश डाला गया है?
उत्तर:
सामाजिक बुराइयों पर।

प्रश्न 8.
जो आदमी कुछ नहीं करता वह अधिक सुखी क्यों होता है?
उत्तर:
उसके काम में कोई दोष ही नहीं निकल पाता।

प्रश्न 9.
वर्तमान में कौन पिस रहा है और कौन फल-फूल रहा है ?
उत्तर:
वर्तमान में मज़दूर पिस रहे हैं और धोखेबाज फल-फूल रहे हैं।

प्रश्न 10.
भारतवासियों ने आत्मा को क्या महत्त्व दिया था?
उत्तर:
भारतवासियों ने आत्मा को चरण और परम माना था।

प्रश्न 11
द्विवेदी जी ने लोभ-मोह को क्या कहा है ?
उत्तर-:
उन्हें विकार कहा है।

प्रश्न 12.
कानून को भारत में क्या महत्त्व दिया गया है?
उत्तर:
कानून को धर्म का दर्जा दिया गया है।

प्रश्न 13.
लोग किसी दुर्घटना में वाहन के चालक को ही ज़िम्मेदार क्यों मानते हैं ?
उत्तर:
लोगों को लगता है कि वाहन के कल-पुर्जा, चालन, देख-रेख आदि सभी की ज़िम्मेदारी वाहन के चालकी होती है, जो कि पूरी तरह से ठीक नहीं है।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न 14.
वर्तमान में ईमानदारी को क्या समझा जाता है?
उत्तर:
वर्तमान में ईमानदारी को मूर्खता का पर्यायवाची समझा जाता है। वाक्य पूरे कीजिए

प्रश्न 15.
ईमानदारी को…. .पर्याय समझा जाने लगा है।
उत्तर:
मूर्खता।

प्रश्न 16.
भारतवर्ष ने कभी भी………………के संग्रह क. अधिक महत्त्व नहीं दिया।
उत्तर:
भौतिक वस्तुओं।

प्रश्न 17.
बुराई में……………लेना बुरी बात है।
उत्तर:
रस।

हाँ-नहीं में उत्तर दीजिए

प्रश्न 18.
दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है।
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 19.
जीवन के महान् मूल्यों के बारे में आस्था ही हिलने लगी है।
उत्तर:
हाँ।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

1. द्विवेदी जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार किस कृति पर मिला ?
(क) आलोक पर्व
(ख) आलोकित
(ग) आलोक
(घ) पर्व।
उत्तर:
(क) आलोक पर्व

2. ‘अशोक के फूल’ किस विधा की रचना है ?
(क) निबंध
(ख) कहानी
(ग) रेखाचित्र
(घ) संस्मरण।
उत्तर:
(क) निबंध

3. द्विवेदी जी का साहित्य किसका संगम है ?
(क) मानवतावाद का
(ख) भारतीय संस्कृति का
(ग) मानवतावाद एवं भारतीय संस्कृति का
(घ) कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) मानवतावाद एवं भारतीय संस्कृति का

4. ‘क्या निराश हुआ जाए’ कैसा निबंध है ?
(क) सकारात्मक
(ख) विचारात्मक
(ग) विवेचनात्मक
(घ) प्रेरणात्मक
उत्तर:
(ख) विचारात्मक

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

क्या निराश हुआ जाए? गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. क्या यही भारतवर्ष है, जिसका सपना तिलक और गाँधी ने देखा था ? रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का महान् संस्कृति-सभ्य भारतवर्ष किस अतीत के गह्वर में डूब गया ? आर्य और द्रविड़, हिन्दू और मुसलमान, यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलन-भूमि ‘मानव महासमुद्र’ क्या सूख गया ? मेरा मन कहता है ऐसा हो नहीं सकता। हमारे महान् मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित’ “क्या निराश हुआ जाए ?” शीर्षक निबंध में से लिया गया है। इस गद्यांश में लेखक अपने इस विश्वास को प्रकट करता है कि अनेक विकृतियों के आ जाने के बावजूद भी भारतवर्ष से प्राचीन मानवीय आदर्श विलुप्त नहीं हुए हैं।

व्याख्या:
द्विवेदी जी कहते हैं कि आज चारों ओर भ्रष्टाचार, अनैतिकता, शोषण, बेईमानी आदि का बोलबाला है। वह प्रश्न करते हैं कि क्या यह वही भारतवर्ष है जिसका सपना हमारे महापुरुषों ने देखा था ? क्या इसी भारतवर्ष का स्वप्न कर्मयोगी लोकमान्य तिलक ने देखा था अथवा क्या यह राष्ट्रपति महात्मा गांधी के सपनों का भारत है ? संस्कृति से सभ्य यह रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का देश है। यहां की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है और अध्यात्म प्रधान है। इस सुसंस्कृत और सुसभ्य देश को न जाने क्या हुआ है ? लगता है कि यह किसी अतीत की गुफा में लुप्त हो गया। भाव यह है कि वर्तमान भारत में उसका सुसंस्कृत और सभ्य रूप नहीं मिलता।

रवींद्रनाथ ठाकुर इस भारतवर्ष को ‘मानव महासमुद्र’ कहते थे। इसमें अनेकानेक जातियों के मनुष्य रहते हैं और वे नदियों की भांति इस महासमुद्र में लीन हैं। आर्य और द्रविड़, संस्कृति, हिंदू और मुस्लिम संस्कृति, भारतीय और यूरोपीय संस्कृति के आदर्शों और सिद्धान्तों का यह संगम स्थल है। क्या यह ‘महासमुद्र’ सूख गया है ? लेखक की मान्यता है कि ऐसा संभव नहीं है। आज भी यह महान् विचारकों, ऋषियों एवं दार्शनिकों के स्वप्नों और कल्पनाओं का देश है और भविष्य में भी इसी रूप में रहेगा।

विशेष:

  1. लेखक ने भारत के सुसंस्कृत भविष्य के प्रति आशा व्यक्त की है।
  2. भाषा-शैली सरल, सहज और स्वाभाविक है।

2. यह सही है कि इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले निरीह और भोले-भाले श्रमजीवी पिस रहे हैं और झूठ तथा फरेब का रोज़गार करने वाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है, सच्चाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है। ऐसी स्थिति में जीवन के महान् मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था ही हिलने लगी है।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इन पंक्तियों में लेखक ने आज के भारत के दोषपूर्ण वातावरण का यथार्थ चित्रण किया है।

व्याख्या:
लेखक कहता है कि आज इस देश के वातावरण में भ्रष्टाचार और अनैतिकता का बोलबाला है। आज ऐसा माहौल बन चुका है कि ईमानदारी और सच्चाई की कद्र नहीं है। ईमानदारी से मेहनत करके अपने जीवन का निर्वाह करने वाले भोले-भाले और सीधे-साधे लोगों का शोषण हो रहा है। उनकी मेहनत-मज़दूरी के बदले में उन्हें इतना कम पैसा मिलता है कि वह पेट भर भोजन भी नहीं पा सकते। इसके विपरीत असत्य तथा छल-कपट का व्यवहार करने वाले लोग समुन्नत और समृद्ध हो रहे हैं। इस प्रकार ईमानदारी पूर्ण श्रम पर झूठ और कपट हावी हो रहे हैं।

आज ईमानदारी और मूर्खता समानार्थक हो गए हैं। भाव यह है कि ईमानदारी को मूर्ख समझा जाने लगा है। इसी प्रकार जो व्यक्ति सच्चाई से काम लेते हैं उन्हें धर्मभीरु तथा लाचार कहा जाता है। इस प्रकार आज ऐसा माहौल हो गया है कि जीवन के उच्च मूल्यों, मानवीय एवं सांस्कृतिक आदर्शों के बारे में लोगों का विश्वास डगमगाने लगा है।

विशेष:

  1. आज के भ्रष्टाचारी वातावरण में साधारण लोगों की जीवन के आदर्शों से आस्था टूट रही है।
  2. भाषा-शैली सरल, सहज और प्रवाहमयी है।।

3. सदा मनुष्य-बुद्धि नयी परिस्थितियों का सामना करने के लिए नये सामाजिक विधि-निषेधों को बनाती है, उनके ठीक साबित न होने पर उन्हें बदलती है। नियम कानून सबके लिए बनाए जाते हैं, पर सबके लिए कभीकभी एक ही नियम सुखकर नहीं होते। सामाजिक कायदे-कानून कभी युग-युग से परीक्षित आदर्शों से टकराते हैं इससे ऊपरी सतह आलोड़ित भी होती है, पहले भी हुआ है, आगे भी होगा। उसे देखकर हताश हो जाना ठीक नहीं है।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ में सें अवतरित किया गया है। इसमें लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि युग-परिवर्तन के साथ जब नये नियम बनाए जाते हैं, तब उनका पुराने परखै नियमों के साथ टकराव भी होता है, जिससे समाज में उथल-पुथल होती है, परन्तु इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं है।

व्याख्या:
लेखक का कथन है कि मनुष्य हमेशा ही नई परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपनी बुद्धि द्वारा कार्यालय सम्बन्धी नियम बनाता है। यह प्रत्येक युग के अनुकूल करने योग्य एवं न करने योग्य’ सामाजिक नियमों की प्रतिष्ठा करता है। इन सामाजिक विधि-निषेधों के उचित होने पर वे समाज द्वारा अपना लिए जाते हैं और ठीक न सिद्ध होने पर उन्हें छोड़ दिया जाता है। मनुष्य की बुद्धि उन्हें बदलती है ये विधि-निषेध के नियम कायदे सामान्य होते हैं। सबके लिए होते हैं, परन्तु एक ही नियम कई बार सबके लिए उपयोगी और सुखदायक नहीं होता।

ये सामाजिक विधिनिषेध के कायदे-कानून पुराने परखे नियमों से टकराते भी हैं और वर्तमान नये नियमों और पुराने परीक्षित मूल्यों में संघर्ष होता है। इससे समाज की बाहरी सतह पर हलचल भी होती है, परंतु यह नई बात नहीं है। यह पहले भी होता आया है और आगे भी होता रहेगा। अतः वर्तमान माहौल को देखकर निराश होना उचित नहीं है क्योंकि यह स्वाभाविक है फिर यह नयी बात नहीं है।

विशेष:

  1. पुराने सामाजिक कायदे-कानून तथा नये कायदे-कानून में संघर्ष होता ही रहता है। इससे निराश नहीं होना चाहिए।
  2. भाषा-शैली सरल, सहज तथा प्रभावशाली है।

4. भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है, उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान् आन्तरिक तत्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ-मोह, काम क्रोध आदि विकास मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना बहुत निकृष्ट आचरण है।

प्रसंग:
यह गद्यावतरण डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ से अवतरित है। इसमें बताया गया है कि भारत में भौतिक चीजें इकट्ठी करने को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया।

व्याख्या:
लेखक कहता है कि भारतवर्ष में किसी भी युग में दुनियावी चीजें एवं इंद्रिय सुख के भौतिक पदार्थों को इकट्ठा करने को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया गया है। यहां सुख-साधन जुटाना बहुत ही सीमित रहा है। भारतीय मनीषियों ने आंतरिक तत्व को अधिक महत्त्व दिया है। उनकी दृष्टि शरीर की अपेक्षा आत्म तत्व पर अधिक रही है जो स्थिर एवं नित्य है। उसे ही यहां श्रेष्ठतम माना गया है। वे हमारे देश की संस्कृति भौतिक मूल्यों के स्थान पर आत्मिक, मानवीय एवं नैतिक मूल्यों को महत्त्व देती रही है। भौतिक पदार्थ नश्वर हैं तथा आंतरिक मानवीय मूल्य परम सत्य है।

इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों का अस्तित्व स्वाभाविक है, परन्तु इन्हें प्रधान शक्ति मान लेना उचित नहीं है। इन्हें मन और बुद्धि पर हावी होने देना अथवा इन्हें मनमानी करने देना क्षुद्र आचरण कहा जायेगा। यह सदाचरण अथवा उच्चारण नहीं हो सकता।

विशेष:

  1. भारतीय विचारधारा में भौतिक वस्तुओं के संग्रह की अपेक्षा मनुष्य के भीतर के परम तत्व को जानने पर बल दिया गया है।
  2. भाषा-शैली तत्सम प्रधान होते हुए भी सुबोध है।

PSEB 12th Class Hindi Solutions Chapter 16 हजारी प्रसाद द्विवेदी

5. दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है। बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोद्धाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है। बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ में से उद्धृत किया गया है। इसमें लेखक ने बताया है कि किसी के दोषों को सबके समक्ष लाने में कोई बुराई नहीं, बुराई इस बात में है कि साथ-साथ गुणों को उजागर नहीं किया जाता।

व्याख्या:
लेखक कहता है कि किसी व्यक्ति के दोषों को उजागर करने में कोई विशेष बुराई नहीं। बुराई तो इस बात में है कि किसी व्यक्ति की बुराइयों को उजागर करने में ही रस लिया जाता है तथा दोषों को उजागर करने वाला यह समझने लगता है कि उसका कर्तव्य तो अमुक व्यक्ति की बुराइयों को उद्घाटित करना मात्र है। मनुष्य किसी के गुणों को उजागर करने में कतई रस नहीं लेता। आज यह उसका स्वभाव ही बन गया है। बुराई में रस लेना बुरी बात है, मगर किसी की अच्छाई को उतना ही रस लेकर लोगों के सामने प्रकट न करना उससे भी बुरी बात है।

विशेष:

  1. लेखक के अनुसार केवल दोषों को ही नहीं गुणों को भी उजागर किया जाना चाहिए। बुराई में रस लेना बुरी बात है।
  2. भाषा-शैली सरल और प्रवाहपूर्ण है।

6. मैं भी बहुत भयभीत था, पर ड्राइवर को किसी तरह मार-पीट से बचाया। डेढ़-दो घंटे बीत गए। मेरे बच्चे भोजन और पानी के लिए व्याकुल थे। मेरी और पत्नी की हालत बुरी थी। लोगों ने ड्राइवर को मारा तो नहीं, पर उसे बस से उतारकर एक जगह घेरकर रखा। कोई भी दुर्घटना होती है तो पहले ड्राइवर को समाप्त कर देना उन्हें उचित जान पड़ा। मेरे गिड़गिड़ाने का कोई विशेष असर नहीं पड़ा। इसी समय क्या देखता हूँ कि एक खाली बस चली आ रही है और उस पर हमारा बस कंडक्टर भी बैठा हुआ है।।

प्रसंग:
प्रस्तुत गद्यांश डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ‘क्या निराश हुआ जाए ?’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इन पंक्तियों में लेखक ने आज के भारत में प्रत्येक मानव पर संदेह करने की प्रवृत्ति को दर्शाया है।

व्याख्या:
यहां लेखक का कहना है कि बस के अचानक सुनसान जगह पर रुक जाने के कारण वह बहुत डरा हुआ था, किन्तु बस के ड्राइवर को बड़ी ही कठिनाई से पिटने से बचा लिया। बस को रुके लगभग डेढ़ से दो घंटे बीत चुके थे। बच्चे भूख से बेहाल और पानी के लिए तड़प रहे थे। स्वयं मेरी और मेरी धर्मपत्नी की दशा अत्यन्त विकट हो रही थी। यात्रियों ने ड्राइवर को मारने की बजाय, उसे नीचे उतारकर एक स्थान पर चारों ओर से उसे घेर लिया ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि यदि कोई अप्रिय बात होती तो वे सबसे पहले ड्राइवर को ही मृत्युदंड देते। लेखक पुनः कहता है कि उसकी प्रार्थना और विनय का कोई विशेष प्रभाव यात्रियों पर नहीं पड़ा। सहसा लेखक देखता है कि एक खाली बस हमारी ओर चली आ रही है और उस पर कंडक्टर भी बैठा हुआ है।

विशेष:

  1. लेखक ने मनुष्य को संदेह करने की प्रवृत्ति को दर्शाया है।
  2. शब्द एवं वाक्य योजना सटीक है। भाषा सरल सहज एवं भावों के अनुरूप है।

कठिन शब्दों के अर्थ

मन बैठ जाना = उदास हो जाना, निराश हो जाना। तस्करी = स्मग्लिंग–किसी प्रतिबन्धित वस्तु का दूसरे से देश में अवैध तरीके से चोरी छिपे लाना। भ्रष्टाचार = बुरा आचरण, बेईमानी। आरोप-प्रत्यारोप = एक-दूसरे पर दोष लगाना। अतीत = बीता हुआ समय। निरीह = बेचारा, निर्दोष। गह्वर = गुफा, खोह। मनीषियों = विद्वानों। माहौल = वातावरण। श्रमजीवी = मज़दूर। फरेब = धोखा। पर्याय = बदल। भीरू = डरपोक। आस्था = श्रद्धा, विश्वास। मनुष्य-निर्मित = मनुष्य द्वारा बनाई गई। त्रुटियों = गलतियों, कमियों। विधि-निषेध = कानून द्वारा निषिद्ध, यह करो वह न करो। साबित = प्रमाणित । कायदे = नियम। आलोड़ित = मथा हुआ। हताश = निराश। निकृष्ट = नीच। गुमराह = भटका हुआ। दरिद्रजनों = ग़रीबों। कोटि-कोटि = करोड़ों। सुविधा = आराम। पैमाना = स्तर। विधान = कानून। विकार = दोष। विस्तृत = बढ़ना, फैलना। दकियानूसी = पुराने विचारों का। धर्मभीरू = धार्मिक दृष्टि से डरपोक। संकोच = झिझक। पर्याप्त = काफी। आक्रोश = क्रोध। साबित करना = प्रमाणित करना। प्रतिष्ठा = सम्मान । पर्दाफाश करना == भेद खोलना। उद्घाटित करना = खोलकर सामने रखना। दोषोद्घाटन = दोषों को प्रकट करना। उजागर करना = प्रकट करना। गंतव्य = जहां पहुंचना/जाना हो। हिसाब बनाना = मन बनाना। कातर = व्याकुल, भयभीत।

क्या निराश हुआ जाए? Summary

क्या निराश हुआ जाए? जीवन परिचय

हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय लिखें।

हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म गाँव आरतदुबे का छपरा, जिला बलिया (उत्तर प्रदेश) में सन् 1907 में हुआ। संस्कृत विश्वविद्यालय काशी से शास्त्री की परीक्षा तथा हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर काशी विश्वविद्यालय तथा पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभागाध्यक्ष रहे। इन्हें ‘आलोकपर्व’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण अलंकार से सम्मानित किया गया था। इनका साहित्य मानवतावाद एवं भारतीय संस्कृति से युक्त है। सन् 1979 में दिल्ली में उनका निधन हो गया।
अशोक के फूल, विचार और वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोक पर्व इनके निबन्ध संग्रह हैं। चारूचन्द्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। सूर-साहित्य, हिन्दी-साहित्य की भूमिका इनके आलोचनात्मक ग्रन्थ हैं।

क्या निराश हुआ जाए? निबन्ध का सार

‘क्या निराश हुआ जाए ?’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारात्मक निबन्ध है, जिसमें लेखक ने देश की सामाजिक बुराइयों पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया है कि समाचार पत्रों को बुराइयों के साथ-साथ अच्छाइयों को भी उजागर करना चाहिए। लेखक का मन समाचार-पत्रों में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार पढ़कर कभी-कभी बैठ जाता है। इन्हें पढ़कर लगता है कि देश में ईमानदार आदमी रह ही नहीं गया है। लेखक को एक बड़े आदमी ने एक बार कहा था कि जो आदमी कुछ नहीं करता वह अधिक सुखी है क्योंकि उसके किए काम में कोई दोष नहीं निकालता। लेखक को भारत की ऐसी हालत देखकर दुःख होता है किन्तु लेखक को विश्वास है कि हमारे महान् मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा। यह सच है कि इन दिनों कुछ ऐसा वातावरण बन रहा है कि ईमानदारी करके कमाने वाले मज़दूर पिस रहे हैं और धोखे का धन्धा करने वाले फल फूल रहे हैं।

लेखक का विचार है जो ऊपर से दिखाई देता है वह मनुष्य द्वारा ही बनाया गया है। मनुष्य सामाजिक नियमों को परिस्थिति अनुसार बदलता भी रहता है। इस बदलाव को देखकर निराश होना ठीक नहीं है। भारत वर्ष ने कभी भी सांसारिक वस्तुओं के संग्रह को महत्त्व नहीं दिया बल्कि उसने आत्मा को चरम और परम माना। लोभ-मोह आदि विकारों के वश में होना उसने कभी उचित नहीं माना। इन विचारों को संयम के बँधन से बाँधने का प्रयत्न किया। परन्तु भूख की, बीमार के लिए दवा की और भटके हुए को रास्ते पर लाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

लेखक कहते हैं कि व्यक्ति का चित्त हर समय आदर्शों पर नहीं चलता। मनुष्य ने जितने भी उन्नति के कानून बनाए उतने ही लोभ-मोह आदि विकार बढ़ते गए। आदर्शों का मजाक उड़ाया गया और संयम को दकियानूसी कहा गया। परन्तु इससे भारतीय आदर्श अधिक स्पष्ट और महान् दिखाई देने लगे।

भारतवर्ष में कानून को धर्म का दर्जा दिया गया किन्तु कानून और धर्म में अन्तर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता कानून को दिया जा सकता है। इसी कारण से धर्मभीरू कानून की कमियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। भारतवर्ष में अब भी यह अनुभव किया जाता है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। भ्रष्टाचार आदि के प्रति लोगों का क्रोध यह सिद्ध करता है कि लोग इसे गलत समझते हैं। सैंकड़ों घटनाएँ आज भी घटती हैं जो लोक-चित्त में अच्छाई की भावना को जगाती हैं। लेखक ने ऐसी दो घटनाओं का उल्लेख किया जिनमें पहली रेलवे के एक टिकट बाबू की ईमानदारी और दूसरी एक बस कंडक्टर की मानवीयता को उजागर करने वाली घटना शामिल है। इन घटनाओं का उल्लेख करते हुए लेखक कहते हैं कि निराश होने की ज़रूरत नहीं है। भारत में अब भी सच्चाई और ईमानदारी मौजूद है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 34 टूटते परिवेश

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions Chapter 34 टूटते परिवेश Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Hindi Chapter 34 टूटते परिवेश

Hindi Guide for Class 11 PSEB टूटते परिवेश Textbook Questions and Answers

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें –

प्रश्न 1.
‘टूटते परिवेश’ एकांकी में एक मध्यवर्गीय परिवार को टूटते हुए दिखाकर प्राचीन और नवीन पीढ़ी के सम्बन्ध को व्यक्त किया है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
वैसे तो आदिकाल से ही प्राचीन और नवीन पीढ़ी में संघर्ष चला आ रहा है किन्तु बीसवीं शताब्दी तक आते-आते इस संघर्ष ने इतना भीषण रूप धारण कर लिया कि सदियों से चले आ रहे संयुक्त परिवार टूटने लगे। विशेषकर मध्यवर्गीय परिवारों पर इस टूटन की गाज सबसे अधिक गिरी। ‘टूटते परिवेश’ एकांकी में विष्णु प्रभाकर जी ने इसी समस्या को उठाया है। एकांकी में विश्वजीत और उसकी पत्नी करुणा पुरानी पीढ़ी तथा एकांकी के शेष सभी पात्र नई पीढ़ी के। एकांकी के आरम्भ में ही विश्वजीत की मंझली बेटी मनीषा के प्रस्तुत संवाद इसी संघर्ष को दर्शाता है-‘मैं पूछती हूँ कि मैं क्या आपको इतनी नादान दिखाई देती हूँ कि अपना भला-बुरा न सोच सकूँ ? जी नहीं, मैं अपना मार्ग आपको चुनने का अधिकार नहीं दे सकती, कभी नहीं दे सकती। मैं जा रही हूँ, वहाँ जहाँ मैं चाहती हूँ।’

अपने अधिकारों की आड़ में नई पीढ़ी धर्म, सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, सच्चरित्रता सभी का मज़ाक उड़ाती है। विवेक कहता है-पूजा में देर कितनी लगती है। बस पाँच मिनट …. और दीप्ति का यह कहना-‘गायत्री मंत्र ही पढ़ना है तो वह यहाँ भी पढ़ा जा सकता है। फिर पूजा की ज़रूरत ही क्या है।’ नई पीढ़ी की यह बातें धर्म का मज़ाक उड़ाने के बराबर है।

पुरानी पीढ़ी के विश्वजीत चाहते हैं कि दीवाली के अवसर पर तो सारा परिवार मिल बैठ कर लक्ष्मी पूजन कर ले, किन्तु नई पीढ़ी के पास तो इस बात के लिए समय ही कहाँ हैं। वह क्लब में, होटल में दीवाली नाइट मनाने जा सकते। पिता के होटल में जाने से मना करने पर विवेक उसे गुलाम बनाना चाहता है। पुरानी पीढ़ी कहती है कि युग बीत जाता है, नैतिकता हमेशा जीवित रहती है।’ जबकि नई पीढ़ी करती है-‘जीवन भर नैतिकता की दुहाई देने के सिवा आपने किया ही क्या है।’ चरित्र के विषय में नई पीढ़ी का विचार है कि जिसने सचरित्रता का रास्ता छोड़ा उसी ने सफलता प्राप्त की। नई पीढ़ी नेता और पिता को एक छद्म के दो मुखौटे कहती है। नई पीढ़ी मुक्त यौनाचार में विश्वास रखती है। तो पुरानी पीढ़ी सचरित्रता को ही सब से बड़ा मानती है। पुरानी पीढ़ी सब कुछ हो जाने पर भी सन्तान का हित, उसका मोह नहीं त्यागती, किन्तु नई पीढ़ी स्वार्थ में अन्धी होकर अपने पिता, अपने परिवार तक की परवाह नहीं करती।

इस प्रकार एकांकीकार ने संयुक्त परिवार टूटने का सबसे बड़ा कारण नई पीढ़ी के स्वार्थान्ध हो जाने को बताया है। प्रस्तुत एकांकी में लेखक ने इसी संघर्ष का सजीव चित्रण किया है।

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प्रश्न 2.
‘टूटते परिवेश’ एकांकी का सार लिखें।
उत्तर:
टूटते परिवेश’ एकांकी के लेखक विष्णु प्रभाकर हैं। इसमें उन्होंने देश में नवयुवकों की बदल रही सोच को दिखाया है। ज्ञान-विज्ञान और नागरीकरण का जो प्रभाव हमारे धार्मिक, सामाजिक या नैतिक जीवन पर पड़ा है, उसे एक परिवार की जीवन स्थितियों के माध्यम से दिखाया गया है। इसमें पुरानी पीढ़ी नैतिकता, सिद्धान्त, त्याग, मानवीयता धर्म और चरित्र के परिवेश में रहना चाहती है और नई पीढ़ी उच्छंखल, अनैतिक, अव्यवहारिक तथा स्वच्छंद वातावरण में रहना चाहती है। इसी से परिवार में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है और परिवार टूटकर बिखर जाता है। प्रस्तुत एकांकी तीन अंकों में बँटा हुआ है। किन्तु घटनास्थल एक ही है।

एकांकी की कथावस्तु एक मध्यवर्गीय परिवार की नई पुरानी दो पीढ़ियों के संघर्ष और परिवार टूटने की कहानी है। नाटक के आरम्भ में परिवार के मुखिया विश्वजीत और उसकी पत्नी करुणा तथा बेटियों मनीषा और दीप्ति का परिचय दिया गया है। दीवाली का शुभ दिन है और विश्वजीत चाहते हैं कि सारा परिवार मिल बैठकर पूजा करे किन्तु नई पीढ़ी तो पूजा अर्चना को एक ढोंग समझती है। यही नहीं नई पीढ़ी भारतीय सभ्यता का मज़ाक भी उड़ाती है। परिवार का कोई भी सदस्य पूजा करने घर नहीं पहुँचता। सब को अपनी-अपनी पड़ी है। सभी दीवाली घर पर नहीं होटलों और क्लबों में मनाने चले जाते हैं। . एकांकी के दूसरे अंक में नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष उग्र रूप धारण कर लेता है। मनीषा किसी विधर्मी से विवाह कर लेती है। दीप्ति हिप्पी बनी आवारा घूमती है और सिगरेट भी पीने लगी है। विवेक, जो सिवाए अर्जियाँ लिखने के कोई दूसरा काम नहीं जानता, विद्रोह करने पर उतारू हो जाता है और उनका साथ देने की बात कहता है।

विश्वजीत परिवार के सदस्यों (नई पीढ़ी) के व्यवहार से दुःखी होकर आत्महत्या करने घर से निकल जाते हैं घर पर सारा परिवार एकत्र होता है किन्तु किसी के पास अपने परिवार के मुखिया को ढूँढ़ने का समय नहीं है। हर कोई न कोई बहाने बनाता है। किन्तु विश्वजीत स्वयं ही लौट आते हैं कि यह सोचकर कि आत्महत्या का अर्थ है मौत और मौत का एक दिन निश्चित है। तब आत्महत्या क्यों की जाए।
विश्वजीत के लौट आने पर उसका बड़ा बेटा शरद् तो उनसे हाल-चाल भी नहीं पूछता है और अपने काम की जल्दी बता कर चला जाता है। परिवार के दूसरे सदस्य भी चले जाते हैं और पुरानी पीढ़ी के लोग विश्वजीत और उसकी पत्नी अकेले रह जाते हैं इस आशा में कि उनके बच्चे एक-न-एक दिन लौट आएँगे।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित की चारित्रिक विशेषताएँ लिखें-
(क) विश्वजीत
(ख) विवेक
(ग) दीप्ति उत्तर

(क) विश्वजीत :

परिचय-विश्वजीत पुराने विचारों का व्यक्ति है, परिवार का मुखिया है। उसके तीन बेटे-दीपक, शरद् और विवेक हैं तथा तीन बेटियाँ-इन्दू, मनीषा और दीप्ति। उसकी आयु 60-70 वर्ष की है।

निराश पिता :
दीवाली का दिन है और विश्वजीत चाहता है कि परिवार के सभी सदस्य मिलकर पूजा करें। तीन घंटे की प्रतीक्षा के पश्चात् भी कोई भी पूजा करने नहीं आता। जब उसकी पत्नी यह कहती है कि कोई नहीं आएगा तो विश्वजीत कहता है “कोई कैसे नहीं आएगा। घर के लोग ही न हों तो पूजा का क्या मतलब। यही तो मौके हैं, जब सब मिल बैठ पाते हैं।” मनीषा बिना बताए, बिना पूछे अपने किसी मित्र के साथ दीवाली मनाने जा चुकी होती है। इन्दू अपने पति के साथ दीवाली नाइट देखने जा रही है। दीपक दीवाली की शुभकामनाएँ देने मुख्यमन्त्री के घर गया है। रह गए दीप्ति और विवेक। उन्हें भी घर में होने वाली लक्ष्मी पूजा में कोई रुचि नहीं है। विश्वजीत के चेहरे की निराशा और उभर आती है, वह कहता है-“क्या हो गया है दुनिया को ? सब अकेले-अकेले अपने लिए ही जीना चाहते हैं। दूसरे की किसी को चिन्ता ही नहीं रह गई है। एक हमारा ज़माना था कि बड़ों की इजाजत के बिना कुछ कर ही न सकते थे।”

संतान से दुःखी :
विश्वजीत एक दुःखी पिता है, जिसकी सन्तान उसके कहने में नहीं है। विवेक के बेकार होने का उसे दुःख है। वह कहता है-“कुछ काम करता तो मेरी सहायता भी होती।” बेटों के व्यवहार से विश्वजीत को जो कष्ट होता है उसे वह निम्न शब्दों में व्यक्त करता है-“कैसा वक्त आ गया है ? एक हमारा ज़माना था, कितना प्यार, कितना मेल, एक कमाता दस खाते । हरेक एक-दूसरे से जुड़ने की कोशिश करता था और अब सब कुछ फट रहा है। सब एक-दूसरे से भागते हैं।”

उसकी पत्नी भी इस सम्बन्ध में व्यंग्य करती है “…… अपनी औलाद तो सम्भाले सम्भलती नहीं, बात करते हो भारत माता की।”

मानसिक असंतुलन :
विश्वजीत अपनी सन्तान के व्यवहार से दुःखी होकर जड़ हो जाता है। उसे जीवन में कोई रस नहीं दिखाई देता। गुस्से में आकर वह अपने आपको गालियाँ निकालने लगता है। हीन भावना और घोर निराशा का शिकार होकर वह आत्महत्या करने के लिए घर से बाहर चला जाता है, किन्तु यह सोचकर लौट आता है कि जब मौत का एक दिन निश्चित है तो आत्महत्या करके जान क्यों दी जाए। अन्तिम क्षण तक उसे बचा रखना चाहिए।

पिता का विश्वास :
जब विश्वजीत की पत्नी कहती है कि जब बच्चे उसे छोड़ कर चले गए तो वह भी बच्चों को छोड़ दे। तब विश्वजीत कहता है कि वह अपनी मजबूरियों का क्या करें। स्वभाव की, बच्चों को प्यार करने की. इनका बाप होने की तथा उनको खो देने पर यह आशा रखने की मजबूरी की एक दिन वे लौट आएंगे।

(ख) विवेक :

टूटते परिवेश एकांकी में विवेक पश्चिमी सभ्यता में रंगी नई युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। उसमें पुरानी पीढ़ी के प्रति घृणा है, बुजुर्गों के बनाए हुए नियमों का उल्लंघन करने में अपनी बहादुरी समझता है, उसके सामने न तो देश का हित है न ही अपने परिवार का। वह अपने माता-पिता की इज्जत भी नहीं करता। उसे अपनी सभ्यता, संस्कृति के प्रति कोई रुचि नहीं है। बस बात-बात में बड़ों से बहस करनी जानता है। नई पीढ़ी के बिगड़े हुए युवकों के सभी अवगुण उसमें मौजूद हैं।

परिचय :
विवेक, विश्वजीत का सब से छोटा बेटा है। उसकी आयु चौबीस वर्ष के लगभग हो गई है, किन्तु अभी तक बेकार है। बस अर्जियाँ लिखता रहता है। दूसरों को सफ़ाई की शिक्षा देने वाला विवेक अपनी अर्जियाँ तक भी सम्भाल कर नहीं रख सकता। वह घर में उन्हें इधर-उधर बिखेर देता है।

अव्यावहारिक :
विवेक एक ऐसा युवक है, जिसने किसी का आदर करना सीखा ही नहीं। उसे पुराने लोगों से चिढ़ है। चाहे वह उसका अपना बाप ही क्यों न हो। वह अपने बाप से कहता है-”पापा आप का ज़माना कभी का बीत गया। अब बीते जीवन की धड़कनें सुनने से अच्छा है कि वर्तमान की साँसों की रक्षा की जाए।” विवेक के पिता जब उसे दीवाली मनाने होटल पैनोरमा जाने से रोकते हैं तो वह उन्हें कहता है–“आप हमारे पिता हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन इसलिए ही आप हमें रोक नहीं रहे हैं। आप हमें इसलिए रोक रहे हैं कि आप हमें पैसे देते हैं। पिता तो आप शरद्, इन्दू, मनीषा सभी के हैं। उन्हें रोक सके आप ? मैं आप पर आश्रित हूँ लेकिन गुलाम नहीं।”

सभ्यता संस्कृति से दूर :
विवेक एक ऐसा युवक है, जिसे अपनी सभ्यता-संस्कृति का कोई लिहाज़ नहीं, जो बड़ों का मज़ाक उड़ा सकता है वह भला धर्म और देवी-देवताओं का आदर कैसे कर सकता है। दीवाली के दिन होने वाली लक्ष्मी पूजा का मजाक उड़ाता हुआ वह कहता है-“पूजा में देर कितनी लगती है-पाँच मिनट। पंडित जी तो आए नहीं बस आप तीन बार गायत्री मंत्र पढ़ लीजिए।”

चरित्रहीन तथा कायर :
विवेक की दृष्टि में चरित्र का कोई महत्त्व नहीं। चरित्र हीनता ने उसे कायर भी बना दिया है। उसकी छोटी बहन हिप्पी बनी अनेक युवकों के साथ आवारागर्दी करती है; सिगरेट पीती है। उसकी मर्दानगी नहीं
जागती। उसकी बड़ी बहन एक विधर्मी से, बिना सूचना दिए, बिना आज्ञा विवाह कर लेती है, उसे जोश नहीं आता। उल्टे वह अपनी बड़ी बहन के कृत्य को उचित ठहराता है।

संयुक्त परिवार में विश्वास :
विवेक संयुक्त परिवार की प्रणाली में विश्वास नहीं रखता। जब उसके पिता कहते हैं कि देश और समाज के प्रति तुम्हारे भी कुछ कर्त्तव्य हैं तो विवेक कहता है-“कर्त्तव्य की दुहाई दे देकर आप लोगों ने सदा अपना स्वार्थ साधा है। संयुक्त परिवार में बाँधे रखा है। अब भी आप चाहते हैं कि हम आपकी वैसाखी बने रहें। नहीं पापा! वैसाखियों का युग अब बीत गया।”

घुटन का अनुभव :
विवेक को अपने घर में अपने देश में घुटन महसूस होती है। इस घुटन से छुटकारा पाने का साधन वह विदेश जाकर प्राप्त करना चाहता है।

इस प्रकार लेखक ने विवेक के चरित्र द्वारा आज की युवा पीढ़ी के उन युवकों का चरित्र प्रस्तुत किया है, जिन्हें आता-जाता कुछ नहीं, डींगें बड़ी-बड़ी हांकते हैं। हर बात में दोष निकालते हैं करते-धरते कुछ नहीं। जैसे थोथा चना बाजे घना।

(ग) दीप्ति :

परिचय :
दीप्ति नई पीढ़ी की उस युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो मध्यवर्गीय परिवारों की होती हुई भी अमीर लोगों की नकल करना अपना धर्म समझती है। आधुनिक बनने के चक्कर में वह चरित्र भी गँवा बैठती है।

नारी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग :
दीप्ति विश्वजीत की सब से छोटी लड़की है। मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेकर भी वह हिप्पी बनी घूमती है, ‘सिगरेट पीती है’, आवारागर्दी करती है। लड़कों से दोस्ती करती है और वयस्क होने से पूर्व ही नितिन नाम के लड़के से विवाह करने का निश्चय कर लेती है। अपने ईश्क की बात वह निधड़क होकर अपनी माँ से कहती है।

परम्पराओं से दूर :
दीप्ति अपने भाई की तरह त्योहार, धर्म, पूजा आदि में कोई रुचि नहीं रखती उसकी रुचि घर पर दीवाली की पूजा करने से अधिक क्लब या होटल में दीवाली नाइट मनाने की है। धर्म और पूजा का मज़ाक उड़ाना वह अपना अधिकार समझती है। वह कहती है-‘गायत्री मंत्र पढ़ना है तो यहाँ भी पढ़ा जा सकता है। फिर पूजा की ज़रूरत ही क्या है।’ पूजा करने को वह लकीर पीटना कहती है। वह कहती है-‘चलो भैया लकीर पीटनी है, पीट लो जब तक पीटी जा सके।

अपनी बड़ी बहन मनीषा द्वारा किसी विधर्मी से विवाह करने को वह बुरा नहीं समझती बल्कि वह अपनी बहन को बधाई देने को तैयार हो जाती है।

आधुनिक विचारधारा का दुरुपयोग :
दीप्ति आवारागर्दी करने का भी अपना अधिकार समझती है। वह अपने भाई से कहती है-मैं कहाँ जाती हूँ ? कहाँ नहीं जाती ? तुम्हें इससे मतलब ? दीप्ति आधुनिकता की झोंक में अपनी माँ तक का भी निरादर कर देती है। अपनी माँ के चूल्हा चौंका करना, दूसरों का इन्तज़ार करना कर्त्तव्य नहीं आदत लगती है।

इस तरह हम देखते हैं कि दीप्ति आधुनिकता की झोंक में एक बिगड़ी हुई लड़की के रूप में हमारे सामने आती है जो न बड़ों की इज्जत करती है, न धर्म, सभ्यता, संस्कृति की कोई परवाह करती है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 34 टूटते परिवेश

प्रश्न 4.
‘आज की नारी स्वतन्त्रता की सीमा लाँध रही है’ एकांकी के आधार पर उत्तर दें।
उत्तर:
टूटते परिवेश एकांकी में आधुनिकता की आड़ में नारी स्वतन्त्रता की सीमा लाँघती दिखाई गई है। एकांकी के आरम्भ में ही मनीषा का दर्शकों को सम्बोधन करके कहा गया निम्न कथन इसका एक उदाहरण है ………. मैं पछती हूँ कि मैं आपको इतनी नादान दिखाई देती हूँ कि अपना भला-बुरा न सोच सकूँ ? जी नहीं, मैं अपना मार्ग आपको चुनने का अधिकार नहीं दे सकती, नहीं दे सकती, कभी नहीं दे सकती। मैं जा रही हूँ, वहीं मैं जाना चाहती हूँ।” वही मनीषा अपने प्रेमी से विवाह रचा लेती है तो घरवालों को केवल फ़ोन पर सूचना भर देती है। वही मनीषा जब उसके पापा घर से गायब हो जाते हैं तो वह क्षण भर भी वहाँ ठहर नहीं सकती। नारी स्वातंत्र्य का वह अनुचित लाभ उठाती है।

इसी तरह का एकांकी का दूसरा पात्र दीप्ति का है जो अभी वयस्क नहीं हुई कि हिप्पी बनी घूमती है, आवारागर्दी करती है; सिगरेट पीती है। वह यह नहीं समझती कि वैश्या और देवी में कोई अन्तर होता है। दीप्ति को धार्मिक त्योहारों, धर्म में, पूजा इत्यादि में कोई रुचि नहीं है। दीवाली के दिन उसका ध्यान लक्ष्मी पूजा में न होकर क्लब या होटल में मनाई जा रही दीवाली नाइट की तरफ अधिक है। वह आधुनिकता की आँधी में बहती हुई राजनीतिक सिद्धान्तों से, धन का परिश्रम से, आनन्द का आत्मा से, ज्ञान का चरित्र से, व्यापार का नैतिकता से, विज्ञान का मानवीयता से और पूजा का त्याग से कोई सम्बन्ध नहीं मानती। दीवाली पूजा को वह लकीर पीटना कहती है। वह अभी वयस्क भी नहीं हुई कि अपने किसी प्रेमी से विवाह करने की बात अपनी माँ के मुँह पर ही कह देती है। इस पर अकड़ यह है कि अपनी माँ से कहती है………. फिर भी आप नाराज़ हैं तो मुझे इसकी चिन्ता नहीं। दीप्ति होस्टल में भी इसी उद्देश्य से भर्ती होती है कि उसे वहाँ हर तरह की आज़ादी मिल सके और कोई उसे रोकने-टोकने वाला न रहे।

इस प्रकार एकांकीकार ने नारी स्वातंत्र्य की आड़ में नारी को अपनी सीमाएँ लाँघते हुए दिखाया है।

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-

प्रश्न 1.
विवेक और दीप्ति अपने पिता विश्वजीत से किस प्रकार व्यवहार करते हैं ?
उत्तर:
विवेक और दीप्ति अपने पिता से अच्छा व्यवहार नहीं करते। दीवाली की पूजा वे पिता के कहने पर घर पर करने को तैयार नहीं। पिता की बातें उन्हें बुजुर्गाई भाषा लगती है। वे पिता से बात-बात में बहस करते हैं। विवेक अपने पिता का गुलाम नहीं बनना चाहता। उसे सचरित्रता से कोई सरोकार नहीं और दीप्ति हिप्पी बनना, सिगरेट पीना, आवारागर्दी करना अपना अधिकार समझती है। उसने नितिन से विवाह करने का निश्चय करके एक तरह से विश्वजीत के मुँह पर तमाचा मारा है।

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प्रश्न 2.
विवेक विदेश क्यों जाना चाहता है ?
उत्तर:
विवेक अपने पिता को विदेश जाने का कारण बताते हुए कहता है कि वह विदेश में जाकर लोगों से यह जानने का प्रयास करेगा कि नैतिकता क्या है ? कर्त्तव्य और अधिकार की परिभाषा क्या है ? फिर एक पुस्तक लिखेगा और ईश्वर ने चाहा तो कुछ कर भी सकेगा। किन्तु वास्तविकता यह थी कि संयुक्त परिवार में रहकर उसका दम घुटता है। उस घर से उसे बदबू आती है। वह इस यंत्रण से छटपटाना नहीं चाहता, उससे मुक्ति चाहता है। वह अपने मातापिता के प्रति कर्त्तव्य की वैसाखी नहीं बनना चाहता इसीलिए वह मुक्ति के नाम पर भागना चाहता है।

प्रश्न 3.
देश के भीतर एक और देश बनाए बैठे हैं हम। भीतर के देश का नाम है स्वार्थ, जो प्रान्त, प्रदेश, धर्म और जाति-इन रूपों में प्रकट होता है।’ दीप्ति के इस कथन से किस समस्या की ओर संकेत किया गया है ?
उत्तर:
प्रस्तुत पंक्तियों में देश में फैले भ्रष्टाचार की समस्या को उठाया गया है। दलबदलु विधानसभा के सदस्य अपने स्वार्थ के कारण दल बदलते हैं और नाम लेते हैं देश भक्ति का कि उन्होंने यह कार्य देश हित में किया है। स्वार्थ समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त है चाहे वह धर्म हो या जाति । सत्ता में भी बना रहना राजनीतिज्ञों का स्वार्थ हो गया है।

प्रश्न 4.
‘स्वभाव की मजबूरी, बच्चों को प्यार करने की मजबूरी इन का बाप होने की मजबूरी, इनको खो देने पर यह आशा रखने की मजबूरी कि एक दिन लौट आएंगे।’ इन पंक्तियों में विश्वजीत का अन्तर्द्वन्द्व स्पष्ट उभर कर आया है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
विश्वजीत पुरानी पीढ़ी का है नयी पीढ़ी की उसकी सन्तान उसे छोड़कर चली गई है। परिवार टूट गया है अत: वह निराश होकर अपने को जीवित नहीं मानता है और अपनी गिनती मूर्यों में नहीं करता। उसकी पत्नी ने कहा भी था कि बच्चों के जाने के बाद वे स्वतन्त्र हो गए हैं, बच्चों के दायित्व से स्वतन्त्र हो गए हैं किन्तु विश्वजीत एक ऐसा बाप है, जिसे अपने बच्चों से मोह है, बच्चे उसे पुरानी पीढ़ी का मानते हैं जो उनके आधुनिक जीवन में फिट नहीं बैठता। परन्तु विश्वजीत पुरानी मान्यताओं के कारण मजबूर है कि एक दिन बच्चे उसे समझेंगे और उसे विश्वास है एक-न-दिन उसके बच्चे अवश्य लौट आएंगे। प्रस्तुत पंक्तियों में विश्वजीत के इस मानसिक द्वन्द्व की ओर संकेत किया गया है।

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प्रश्न 5.
इस एकांकी के माध्यम से लेखक ने नई पीढ़ी को क्या सन्देश दिया है ?
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी के माध्यम से लेखक ने यह सन्देश दिया है कि बड़े बुजुर्ग नई पीढ़ी को जो कहते हैं वह उनके भले के लिए कहते हैं। घर के बुजुर्गों के पास जीवन का बहुत बड़ा अनुभव होता है इसीलिए आधुनिक विचारधारा को अपनाते समय पुरानी परम्पराओं को नहीं भूलना चाहिए। परम्पराएं हमारे अस्तित्व की जड़े हैं इसीलिए बड़ों का कहना मानना ही उनका धर्म होना चाहिए। हर काम में मन मर्जी नहीं करनी चाहिए और सबसे बड़ा सन्देश यह है कि नई पीढ़ी को कभी भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए।

प्रश्न 6.
इस एकांकी का शीर्षक कहाँ तक सार्थक है ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
‘टूटते परिवेश’ एकांकी का शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त, सार्थक और सटीक बन पड़ा है। एकांकी में नई और पुरानी पीढ़ी के बीच हो रहे संघर्ष को परिवारों के टूटने का कारण बताया।

पुरानी पीढ़ी के आदमी अपने स्वभाव को नई पीढ़ी के स्वभाव के साथ बदल नहीं पाते। इसीलिए दोनों में टकराहट होती है। विश्वजीत पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। वह नैतिकता, सिद्धान्त, त्याग, मानवीयता, धर्म तथा चरित्र निर्माण के परिवेश में रहना चाहता है जबकि उसकी संतान इस परिवेश से मुक्ति चाहती है। फलस्वरूप जीवन मूल्य ही बदल गए हैं। एकांकी के आरम्भ में ही मनीषा के कथन से इस तथ्य की ओर संकेत किया गया है। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी का आदर नहीं करती है और उन्हें अपनी सभ्यता संस्कृति का सही ज्ञान नहीं है। ऐसे परिवेश टूटने से कैसे बच सकते हैं।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 34 टूटते परिवेश

PSEB 11th Class Hindi Guide टूटते परिवेश Important Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘टूटते परिवेश’ किसकी रचना है ?
उत्तर:
टते परिवेश विष्णु प्रभाकर की रचना है।

प्रश्न 2.
‘टूटते परिवेश’ में लेखक ने क्या दर्शाया है ?
उत्तर:
टते परिवेश में लेखक ने देश में नवयुवकों की बदल रही सोच को दिखाया है।

प्रश्न 3.
विश्वजीत क्यों दुःखी था ?
उत्तर:
विश्वजीत परिवार के सदस्यों के व्यवहार से दुःखी था।

प्रश्न 4.
विश्वजीत के बड़े बेटे का क्या नाम है ?
उत्तर:
विश्वजीत के बड़े बेटे का नाम शरद है।

प्रश्न 5.
‘टूटते परिवेश’ किस प्रकार की विधा है ?
उत्तर:
एकांकी।

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प्रश्न 6.
‘टूटते परिवेश’ में किस सोच को दिखाया गया है ?
उत्तर:
नवयुवकों की बदल रही सोच को।

प्रश्न 7.
पुरानी पीढ़ी ……….. में रहना चाहती है।
उत्तर:
नैतिकता एवं मानवीयता के धर्म।

प्रश्न 8.
‘टूटते परिवेश’ एकांकी कितने अंकों में बंटी है ?
उत्तर:
तीन अंकों में।

प्रश्न 9.
नयी पीढ़ी भारतीय सभ्यता का ………. उड़ाती है।
उत्तर:
मज़ाक।

प्रश्न 10.
नयी पीढ़ी के लोग दीपावली मनाने कहाँ जाते हैं ?
उत्तर:
होटलों एवं क्लबों में।

प्रश्न 11.
एकांकी के दूसरे अंक में पुरानी पीढ़ी का संघर्ष कैसा रूप धारण कर लेता है ?
उत्तर:
उग्र रूप।

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प्रश्न 12.
दीप्ति क्या बनकर घूमती है ?
उत्तर:
हिप्पी।

प्रश्न 13.
मनीषा किसी ……….. से विवाह कर लेती है।
उत्तर:
विधर्मी।

‘प्रश्न 14.
दीप्ति ने क्या पीना शुरू कर दिया था ?
उत्तर:
सिगरेट।

प्रश्न 15.
विवेक क्या लिखता रहता था ?
उत्तर:
अर्जियाँ।

प्रश्न 16.
विश्वजीत क्या करने के लिए घर से निकल जाता है ?
उत्तर:
आत्महत्या करने के लिए।

प्रश्न 17.
पुरानी पीढ़ी किसे बड़ा मानती है ?
उत्तर:
सचरित्रता को।

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प्रश्न 18.
पुरानी पीढ़ी सब कुछ हो जाने पर भी क्या नहीं त्यागती है ?
उत्तर:
संतान का मोह।

प्रश्न 19.
संयुक्त परिवार के टूटने का सबसे बड़ा कारण क्या है ?
उत्तर:
स्वार्थ में अंधा होना।

प्रश्न 20.
विश्वजीत की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर:
करुणा।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘टूटते परिवेश’ एकांकी के लेखक कौन हैं ?
(क) प्रेमचन्द
(ख) विष्णु प्रभाकर
(ग) देव प्रभाकर
(घ) मनु भंडारी।
उत्तर:
(ख) विष्णु प्रभाकर

प्रश्न 2.
इस एकांकी में लेखक ने किसकी बदलती सोच का चित्रण किया है ?
(क) लोगों की
(ख) नवयुवकों की
(ग) नेताओं की
(घ) लेखकों की।
उत्तर:
(ख) नवयुवकों की

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प्रश्न 3.
पुरानी पीढ़ी किसके परिवेश में रहना चाहती है ?
(क) नैतिकता के
(ख) त्याग के
(ग) मानवता के
(घ) इन सभी के।
उत्तर:
(घ) इन सभी के

प्रश्न 4.
नई पीढ़ी किसके परिवेश में रहना चाहती है ?
(क) अनैतिकता
(ख) उच्छृखलता
(ग) स्वच्छंदता
(घ) इन सभी के।
उत्तर:
(घ) इन सभी के।

कठिन शब्दों के अर्थ :

आलोकित करना-दिखाना। अर्जी-प्रार्थना-पत्र। बदइन्तजामी-ठीक से प्रबन्ध न होना। बुर्जुआई भाषा-सीधी और साफ़ बात कहना। इश्तहार-विज्ञापन। लकीर पीटना-बनी-बनाई परम्पराओं पर चलना। विध्वंस करना-नष्ट करना। सीलन-चिपचिपापन, गीला और सूखे के बीच की स्थिति। यन्त्रणाकष्ट, दुःख। निरर्थक-जिसका काई अर्थ न हो।

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टूटते परिवेश Summary

टूटते परिवेश एकांकी का सार

टूटते परिवेश’ एकांकी के लेखक विष्णु प्रभाकर हैं। इसमें उन्होंने देश में नवयुवकों की बदल रही सोच को दिखाया है। ज्ञान-विज्ञान और नागरीकरण का जो प्रभाव हमारे धार्मिक, सामाजिक या नैतिक जीवन पर पड़ा है, उसे एक परिवार की जीवन स्थितियों के माध्यम से दिखाया गया है। इसमें पुरानी पीढ़ी नैतिकता, सिद्धान्त, त्याग, मानवीयता धर्म और चरित्र के परिवेश में रहना चाहती है और नई पीढ़ी उच्छंखल, अनैतिक, अव्यवहारिक तथा स्वच्छंद वातावरण में रहना चाहती है। इसी से परिवार में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है और परिवार टूटकर बिखर जाता है। प्रस्तुत एकांकी तीन अंकों में बँटा हुआ है। किन्तु घटनास्थल एक ही है।

एकांकी की कथावस्तु एक मध्यवर्गीय परिवार की नई पुरानी दो पीढ़ियों के संघर्ष और परिवार टूटने की कहानी है। नाटक के आरम्भ में परिवार के मुखिया विश्वजीत और उसकी पत्नी करुणा तथा बेटियों मनीषा और दीप्ति का परिचय दिया गया है। दीवाली का शुभ दिन है और विश्वजीत चाहते हैं कि सारा परिवार मिल बैठकर पूजा करे किन्तु नई पीढ़ी तो पूजा अर्चना को एक ढोंग समझती है। यही नहीं नई पीढ़ी भारतीय सभ्यता का मज़ाक भी उड़ाती है। परिवार का कोई भी सदस्य पूजा करने घर नहीं पहुँचता। सब को अपनी-अपनी पड़ी है। सभी दीवाली घर पर नहीं होटलों और क्लबों में मनाने चले जाते हैं। . एकांकी के दूसरे अंक में नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष उग्र रूप धारण कर लेता है। मनीषा किसी विधर्मी से विवाह कर लेती है। दीप्ति हिप्पी बनी आवारा घूमती है और सिगरेट भी पीने लगी है। विवेक, जो सिवाए अर्जियाँ लिखने के कोई दूसरा काम नहीं जानता, विद्रोह करने पर उतारू हो जाता है और उनका साथ देने की बात कहता है।

विश्वजीत परिवार के सदस्यों (नई पीढ़ी) के व्यवहार से दुःखी होकर आत्महत्या करने घर से निकल जाते हैं घर पर सारा परिवार एकत्र होता है किन्तु किसी के पास अपने परिवार के मुखिया को ढूँढ़ने का समय नहीं है। हर कोई न कोई बहाने बनाता है। किन्तु विश्वजीत स्वयं ही लौट आते हैं कि यह सोचकर कि आत्महत्या का अर्थ है मौत और मौत का एक दिन निश्चित है। तब आत्महत्या क्यों की जाए।
विश्वजीत के लौट आने पर उसका बड़ा बेटा शरद् तो उनसे हाल-चाल भी नहीं पूछता है और अपने काम की जल्दी बता कर चला जाता है। परिवार के दूसरे सदस्य भी चले जाते हैं और पुरानी पीढ़ी के लोग विश्वजीत और उसकी पत्नी अकेले रह जाते हैं इस आशा में कि उनके बच्चे एक-न-एक दिन लौट आएँगे।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 33 अधिकार का रक्षक

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions Chapter 33 अधिकार का रक्षक Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Hindi Chapter 33 अधिकार का रक्षक

Hindi Guide for Class 11 PSEB अधिकार का रक्षक Textbook Questions and Answers

(क) लिम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-

प्रश्न 1.
अधिकार का रक्षक’ एकांकी का सार लिखें।
उत्तर:

प्रस्तुत एकांकी एक सशक्त व्यंग्य है। लेखक ने आज के राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। सेठ घनश्याम एक समाचार-पत्र के मालिक हैं। वे विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। वोट प्राप्त करने के लिए वे हरिजनों-विद्यार्थियों, घरेलू नौकरों, बच्चों, स्त्रियों और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करने का आश्वासन देते हैं किन्तु उनकी करनी उनकी कथनी के बिलकुल विपरीत है। वह अपने बच्चे को पीटते हैं। नौकर को गाली-गलौच करते हैं।

अपने नौकर भगवती और सफाई सेवादार को कई-कई महीने का वेतन नहीं देते। भगवती के द्वारा अपना वेतन माँगने पर उस का झूठा मुकदमा या चोरी का दोष लगाने की धमकी भी देते हैं। चुनाव भाषणों में वह मजदूरों के कार्य समय घटाने का आश्वासन देते हैं जबकि अपने समाचार-पत्र में अधिक समय तक काम करने के लिए कहते हैं। वेतन बढ़ाने की माँग करने पर वह उसे नौकरी छोड़ देने तक की धमकी भी देते हैं। वह विद्यार्थियों के वोट प्राप्त करने के लिए उन्हें तरह-तरह के आश्वासन देते हैं किन्तु उनके ब्यान को अपने समाचार-पत्र में छापने के लिए तैयार नहीं होते। स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करने का आश्वासन देने वाले वह घर पर अपनी पत्नी को डाँट फटकार करते हैं। तंग आकर उसकी पत्नी घर छोड़कर अपने मायके चली जाती है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 33 अधिकार का रक्षक

प्रश्न 2.
‘अधिकार का रक्षक’ जन प्रतिनिधियों की कथनी और करनी में व्याप्त अन्तर स्पष्ट करता है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
वोट प्राप्त करने के लिए जन प्रतिनिधि तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। वे जनता के हर वर्ग को आश्वासन देते हैं कि उनके अधिकारों की रक्षा करेंगे। किन्तु उनकी कथनी और करनी में भारी अन्तर होता है। एकांकी में सेठ घनश्याम जो विधान सभा का चुनाव लड़ रहे हैं, वह हरिजनों के कल्याण का वायदा करता है किन्तु अपनी सफाई सेवादार को कई-कई महीने वेतन नहीं देता। वह चुनाव सभाओं में घरेलू नौकरों के अधिकारों की रक्षा करने का वायदा करता है किन्तु अपने घरेलू नौकर को वेतन तक नहीं देता।

मांगने पर उसे झूठे मुकदमे में फंसाने की धमकी देता है। मजदूरों से अधिकारों की रक्षा करने का वायदा करने वाला अपने ही समाचार-पत्र के मैनेजर को अधिक समय तक काम करने की बात कहता है। वह विद्यार्थियों के अधिकारों की रक्षा करने की बात कहता है किन्तु उनके बयान को अपने समाचार-पत्र में छापने को तैयार नहीं है। वह बच्चों और स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करने का वायदा करता है किन्तु अपने ही पुत्र और पत्नी को पीटता एवं डॉटता है। इस तरह प्रस्तुत एकांकी में जन-प्रतिनिधियों की कथनी और करनी में अन्तर को स्पष्ट किया गया। वोट प्राप्त करने के लिए वे खोखले आश्वासन ही देते हैं जबकि यथार्थ जीवन में उनकी करनी कथनी के बिल्कुल विपरीत होती है।

प्रश्न 3.
‘अधिकार का रक्षक’ एकांकी में अधिकार का रक्षक कौन है ? क्या वह वास्तव में अधिकारों का रक्षक है?
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी में सेठ घनश्याम को अधिकार का रक्षक चित्रित किया गया है। वह वास्तव में अधिकारों का रक्षक नहीं है। वह केवल आश्वासन ही देता है। बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने का वायदा करने वाला, अपने ही बच्चे को मेले में जाने के लिए पैसे मांगने पर पीटता है, डाँटता है। कथनी में वह बच्चों को शारीरिक दण्ड दिए जाने के विरुद्ध है। पर करनी में इसके बिलकुल विपरीत। वह हरिजनों के अधिकारों की रक्षा करने का आश्वासन देता है किन्तु अपनी ही सफ़ाई सेवादार को कई-कई महीने वेतन नहीं देता।

चुनाव में घरेलू नौकरों के अधिकारों की रक्षा करने का वायदा करता है। परन्तु अपने घरेलू नौकर को एक तो कई महीने वेतन नहीं देता ऊपर से उसे धमकाता भी है। वह स्त्रियों और बच्चों, विद्यार्थियों और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करने का आश्वासन देता है। किन्तु यथार्थ में उसके बिल्कुल विपरीत व्यवहार करता है। वास्तव में घनश्याम अधिकारों का रक्षक नहीं है। वह तो मात्र चुनाव जीतने के लिए भोले-भाले लोगों को झूठे आश्वासन देकर उनके वोट प्राप्त करना चाहता है जो आज का प्रत्येक नेता करता है। चुनाव जीत जाने के बाद नेता जी सारे वायदे सारे आश्वासन भूल जाते हैं।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 33 अधिकार का रक्षक

प्रश्न 4.
‘अधिकार का रक्षक’ एक सफल रंगमंचीय एकांकी है-सिद्ध करें।
उत्तर:
एकांकी को रंगमंच के अनुरूप बनाने के लिए संवादों का प्रभावोत्पादक होना तो जरूरी है ही साथ ही उचित रंग निर्देश होना भी जरूरी है जिससे एकांकी को सफलतापूर्वक अभिनीत किया जा सके। अश्क जी ने प्रस्तुत एकांकी में पात्रों के हाव-भाव प्रकट करने के लिए यथेष्ठ रंग संकेत दिये हैं जैसे विद्यार्थियों से बात करते हुए कुछ प्रोत्साहित होकर, गिरी हुई आवाज़ में, अन्यमनस्कता से आदि। इसी प्रकार क्रोध से अखबार को तख्तपोश पर पटककर क्रोध से पागल होकर पत्नी को ढकेलते हुए आदि।

एकांकी में संकलन अथवा स्थान, कार्य और समय की एकता का भी ध्यान रखा गया है। एकांकी की घटनाएं सेठ घनश्याम के ड्राइंग रूप में ही घटती हैं। मंच सज्जा भी जटिल नहीं है। इसी कारण आजकल यह एकांकी अनेक बार स्कूलों और कॉलेजों के रंगमंच पर सफलतापूर्वक अभिनीत किया गया है।

प्रश्न 5.
(i) अधिकार का रक्षक’ के आधार पर मि० सेठ का चरित्र-चित्रण करें।
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी में सेठ घनश्याम मुख्य पात्र है, अन्य पात्र बहुत थोड़ी देर के लिए रंगमंच पर आते हैं। सेठ घनश्याम अमीर आदमी है, एक दैनिक समाचार-पत्र का मालिक है। अमीर होने के कारण वह विधान सभा का चुनाव लड़ रहा है। किन्तु वह कंजूस भी है। अपने नौकर भगवती को तथा सफ़ाई सेवादार को कई महीनों का वेतन नहीं देता हालांकि चुनाव पर लाखों खर्च करने की क्षमता रखता है। बेटे को मेला देखने जाने पर पैसे माँगने पर भड़क उठता है। उसे मारतापीटता और डाँटता है। अपने सम्पादक का वेतन पाँच रुपए तक बढ़ाने को तैयार नहीं।

सेठ घनश्याम की करनी और कथनी में अन्तर है। वह समाज के हर वर्ग को झूठे आश्वासन देता है किन्तु यथार्थ जीवन में इसके विपरीत व्यवहार करता है। सेठ घनश्याम आज के नेता वर्ग का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है। चुनाव आने पर जनता से झूठे वायदे करना और चुनाव जीत जाने के बाद जनता को मुँह तक न दिखाना।

प्रश्न 5
(ii) भगवती तथा राम-लखन के चरित्र की विशेषताएँ लिखो।
उत्तर :
भगवती :
भगवती सेठ घनश्याम का रसोइया है। भगवती ईमानदार नौकर है जी-जान से अपने मालिक की सेवा करता है। परन्तु जब उसे महीनों वेतन नहीं मिलता तो वह मुँहफट हो जाता है। अपना पूरा वेतन पाने के लिए सेठ से ज़िद्द करता है और जब सेठ उसे चोरी के अपराध में कैद कराने की धमकी देता है तो भगवती कहता है-गरीब लाख ईमानदार हो तो भी चोर है, डाकू है और वह सेठ को चन्दे के नाम पर हज़ारों डकार जाने की खरी-खरी भी सुना देता है।

रामलखन :
रामलखन सेठ घनश्याम का नौकर है। वह स्वामी भक्त है, बच्चों से स्नेह करने वाला है। सेठ द्वारा अपने बेटे को पीटे जाने पर वह उसे छुड़ाता है। रामलखन से गरीबों का दुःख नहीं देखा जाता। इसी कारण वह सफ़ाई सेवादार को मज़दूरी माँगने सेठ के कमरे में जाने देता है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 33 अधिकार का रक्षक

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें-

प्रश्न 1.
अधिकार का रक्षक’ एकांकी का नामकरण कहाँ तक सार्थक है-स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी एक व्यंग्य एकांकी है। इसमें राजनीतिज्ञों या जन प्रतिनिधि कहलाने वाले व्यक्तियों की कथनी और करनी को स्पष्ट करते हुए उनके द्वारा भोली-भाली जनता को झूठे आश्वासन देकर वोट प्राप्त करने की कला पर व्यंग्य किया गया है। जो व्यक्ति चुनाव सभाओं में दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने की बड़ी-बड़ी डींगें हाँकता है, वही अपने यथार्थ जीवन में उनकी अवहेलना करता है अतः अधिकार का रक्षक न केवल सार्थक नामकरण है बल्कि एकांकी के कथ्य को भी स्पष्ट करने वाला है।

प्रश्न 2.
‘अधिकार का रक्षक’ श्री उपेन्द्रनाथ अश्क’ का सफल सामाजिक व्यंग्य है, सिद्ध करें।
उत्तर:
प्रस्तुत एकांकी अश्क जी ने सन् 1938 में लिखा था किन्तु इस एकांकी को पढ़कर हमें ऐसा लगता है कि मानो यह आज के राजनीतिज्ञों पर पूरा उतरता है। प्रस्तुत एकांकी में अश्क जी ने सेठ घनश्याम के माध्यम से नेताओं की पोल खोली है। नेता लोग चुनाव आने पर ही जनता को मुँह दिखाते हैं। उन्हें हाथ जोड़ते हैं। उन्हें झूठे आश्वासन देते हैं। चाहे ग़रीबी हटाओ का नारा हो चाहे सामाजिक अन्याय को दूर करने की बात हो। ये सब चुनाव तक ही सीमित रहते हैं। सेठ घनश्याम भी बच्चों, स्त्रियों, हरिजनों, घरेलू नौकरों, विद्यार्थियों और मज़दूरों से उनके अधिकारों की रक्षा करने की बात करते हैं जब अपने ही घर में यथार्थ जीवन में वे इन अधिकारों का हनन करते हैं। एकांकी में यही व्यंग्य छिपा है जिसे अश्क जी ने पूरी तरह चित्रित किया है।

प्रश्न 3.
‘अधिकार का रक्षक’ व्यंग्य के माध्यम से मानवीय नैतिक मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया गया है, सिद्ध करें।
उत्तर:
‘अधिकार का रक्षक’ में व्यंग्य के माध्यम से जनता के प्रतिनिधियों के कच्चे चिट्टे को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया है। चुनाव आने पर जिस तरह राजनीतिज्ञ जनता से झूठे वायदे करते हैं उसकी पोल खोली गयी है। चुनाव के दिनों में हर नेता जनता के प्रत्येक वर्ग से अपना भाई-चारा जताता हुआ हाथ जोड़ता है। इसका यथार्थ रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया गया है। इस व्यंग्य के माध्यम से लेखक कहना चाहता है कि जनता को पहचानना चाहिए कि उनके अधिकारों का रक्षक वास्तव में कौन है। ग़रीबी हटाओ या सामाजिक अन्याय दूर करने के नारे क्या वोट हथियाने के हत्थकंडे तो नहीं हैं। आज के युग में राजनीति का जो अपराधीकरण हो रहा है उसकी रोकथाम केवल वोटर ही कर सकता है।

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PSEB 11th Class Hindi Guide अधिकार का रक्षक Important Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सेठ घनश्याम कौन थे ?
उत्तर:
सेठ घनश्याम एक समाचार-पत्र के मालिक थे।

प्रश्न 2.
सेठ घनश्याम किस चीज़ का चुनाव लड़ रहे थे ?
उत्तर:
सेठ घनश्याम विधानसभा का चुनाव लड़ रहे थे।

प्रश्न 3.
वोट प्राप्त करने के लिए सेठ ने क्या किया ?
उत्तर:
सेठ ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाए।

प्रश्न 4.
‘अधिकार का रक्षक’ किस प्रकार की विधा है ?
उत्तर:
एकांकी।

प्रश्न 5.
‘अधिकार का रक्षक’ एकांकी मुख्य रूप से क्या है ?
उत्तर:
सशक्त व्यंग्य है।

प्रश्न 6.
‘अधिकार का रक्षक’ एकांकी में लेखक ने क्या उजागर किया है?
उत्तर:
आज के राजनीतिज्ञों की कथनी-करनी में अंतर को स्पष्ट किया है।

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प्रश्न 7.
सेठ घनश्याम किन लोगों के अधिकारों की रक्षा का आश्वासन देते हैं ?
उत्तर:
हरिजनों, विद्यार्थियों, बच्चों, स्त्रियों, मजदूरों आदि।

प्रश्न 8.
सेठ घनश्याम अपने बच्चे को ……. थे।
उत्तर:
पीटते।

प्रश्न 9.
सेठ घनश्याम के नौकर का क्या नाम था ?
उत्तर:
भगवती।

प्रश्न 10.
सेठ घनश्याम ने भगवती को क्या धमकी दी ?
उत्तर:
झूठा मुकद्दमा तथा चोरी का दोष लगाने की।

प्रश्न 11.
सेठ घनश्याम अपनी पत्नी को ……….. थे।
उत्तर:
डाँटते फटकारते।

प्रश्न 12.
सफाई सेवादार को कई-कई महीनों का ……. नहीं देते थे।
उत्तर:
वेतन।

प्रश्न 13.
सेठ घनश्याम चुनाव सभाओं में ………… करता है।
उत्तर:
घरेलू नौकरों की रक्षा करने का वादा।

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प्रश्न 14.
चुनाव आने पर अधिकतर राजनीतिज्ञ ………….. करते हैं।
उत्तर:
जनता से झूठे वादे।

प्रश्न 15.
सेठ घनश्याम की कथनी और करनी में ……….. है।
उत्तर:
अंतर।

प्रश्न 16.
सेठ घनश्याम आज के नेता वर्ग का ……….. करता है।
उत्तर:
सच्चा प्रतिनिधित्व।

प्रश्न 17.
सेठ घनश्याम ने मजदूर की किस मांग का समर्थन किया ?
उत्तर:
काम समय की कमी।

प्रश्न 18.
सेठ घनश्याम ने मजदूरों की माँग का किससे समर्थन किया ?
उत्तर:
होजरी यूनियन के मन्त्री से एसेम्बली में।

प्रश्न 19.
मजदूरों से कितने घंटे काम लिया जाता था ?
उत्तर:
तेरह-तेरह घंटे।

प्रश्न 20.
व्यक्ति भले ही बूढ़ा हो किंतु उसके विचार…… नहीं होने चाहिए।
उत्तर:
बूढ़े।

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बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘अधिकार का रक्षक’ रचना की विधा है।
(क) कथा
(ख) लघुकथा
(ग) कहानी
(घ) एकांकी।
उत्तर:
(घ) एकांकी

प्रश्न 2.
‘अधिकार का रक्षक’ कैसी रचना है ?
(क) व्यंग्य प्रधान
(ख) भाव प्रधान
(ग) प्रेम प्रधान
(घ) रस प्रधान।
उत्तर:
(क) व्यंग्य प्रधान

प्रश्न 3.
इस एकांकी में लेखक ने राजनीतिज्ञों के किस अंत का चित्रण किया है ?
(क) कथनी-करनी
(ख) करनी-भरनी
(ग) जैसा-तैसा
(घ) धन-धान्य।
उत्तर:
(क) कथनी-करनी।

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कठिन शब्दों के अर्थ :

सुगमता = आसानी से। शोचनीय = खराब। पद्धति = नियमावली, परम्परा। दकियानूसी = पुराने विचार । निरीह = बेचारे । हिमायत करना = पक्ष लेना, सिफ़ारिश करना। प्रोपेगेंडा = किसी के पक्ष में प्रचार करना। वक्तव्य = भाषण। श्रमजीवियों = मज़दूरी करने वाले। सोलह आने = एक रुपया (पहले एक रुपए में सोलह आने होते थे, एकदम सही। प्रवाहिका = बहाने वाली। वैधानिक = कानूनी। जूं न रेंगना = सुनकर अनसुना कर देना। आफत आना = मुसीबत आना। सलीका = ढंग। मृदुलता = नम्रता। माधुर्य = मिठास।

प्रमुख अवतरणों की सप्रसंग व्याख्या

(1) वास्तव में मैंने अपना समस्त जीवन पीड़ितों, पद दलितों और गिरे हुओं को ऊपर उठाने में लगा दिया है।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम ने टेलीफोन पर मंत्री हरिजन सभा से बात करते हुए कही हैं।

व्याख्या :
जब मंत्री हरिजन सभा सेठ घनश्याम को यह बताता है कि उनके भाषण से सारे हरिजन उनके पक्ष में हो गए हैं तो वह अपनी प्रशंसा करता हुआ कहता है कि असल में मैंने अपना सारा जीवन पीड़ितों, पद दलितों और गिरे हुओं को ऊपर उठाने में लगा दिया है।

विशेष :
यह कह कर सेठ हरिजनों की वोट पक्की करना चाहता है।

(2) सच है बाबू जी ग़रीब लाख ईमानदार हो तो भी चोर है, डाकू है और अमीर यदि आँखों में धूल झोंक कर हज़ारों पर हाथ साफ कर जाए, चन्दे के नाम पर सहस्त्रों।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम के रसोइए भगवती ने सेठ से उस समय कही हैं जब अपना पिछला वेतन माँगने पर सेठ उस पर चोरी का दोष लगा कर जेल भिजवाने की धमकी देता है।

व्याख्या :
सेठ की धमकी सुनकर भगवती ने कहा कि बाबू जी यह सच है कि ग़रीब लाख ईमानदार हो तब भी वह चोर-डाकू कहलाता है जबकि अमीर व्यक्ति दूसरों की आँखों में धूल झोंक कर हज़ारों रुपयों पर हाथ साफ कर जाता है। वह चन्दे के नाम पर हजारों रुपए खा जाए तो भी चोर नहीं ईमानदार बना रहता है। गरीब व्यक्ति की कोई नहीं सुनता।

विशेष :
भगवती के उत्साह और मुँहफट होने का प्रमाण मिलता है। उनकी कथनी और करनी एक है।

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(3) इस ओर से आप बिल्कुल निश्चिन्त रहें। मैं उन आदमियों में से नहीं, जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। मैं जो कहता हूँ वही करता हूँ और जो करता हूँ वही कहता हूँ।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम ने टेलीफोन पर होजरी यूनियन के मन्त्री से कही हैं।

व्याख्या :
सेठ घनश्याम मजदूरों की दशा सुधारने सम्बन्धी अपने आश्वासन के विषय में होजरी यूनियन के मन्त्री से कहते हैं कि आप निश्चिन्त रहें क्योंकि मैं चुनाव जीतकर मजदूरों के लिए अवश्य काम करूँगा। मैं उन आदमियों में से नहीं जो कहते कुछ हैं और करते कुछ। मैं जो कहता हूँ वही करता हूँ और जो करता हूँ वही कहता हूँ। उनकी कथनी और करनी एक है।

विशेष :
सेठ के चरित्र की विशेषता की ओर संकेत किया गया है जो चुनाव आने पर हर वर्ग को झूठे आश्वासन देता है।

(4) सप्ताह में 42 घंटे काम की माँग कोई अनुचित नहीं। आखिर मनुष्य और पशु में कुछ तो अन्तर होना चाहिए। तेरहतेरह घंटे की ड्यूटी। भला काम की कुछ हद भी है।

प्रसंग :
यह अवतरण श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से अवतरित है। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम ने होजरी यूनियन के मन्त्री से मजदूरों के काम के समय कम करवाने सम्बन्धी आश्वासन देते हुए कही हैं।

व्याख्या :
सेठ घनश्याम ने होजरी यूनियन के मन्त्री से एसेम्बली में मजदूरों के काम समय में कमी की माँग का समर्थन करने का आश्वासन देते हुए कहा कि सप्ताह में 42 घंटे काम की माँग कोई अनुचित माँग नहीं है। आखिर मनुष्य और पशु में कोई तो अन्तर होना चाहिए। मनुष्यों की तुलना पशुओं से नहीं की जानी चाहिए। विशेषकर काम समय को लेकर। मज़दूरों से जो तेरह-तेरह घण्टे काम लिया जाता है यह अनुचित है। इसलिए काम की भी कोई सीमा होनी चाहिए।

विशेष :
सेठ घनश्याम के चरित्र की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है जो वोट प्राप्त करने के लिए मज़दूर वर्ग को भी समर्थन देने का आश्वासन देते हैं।

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(5) जिन लोगों का मन बूढ़ा हो चुका है वे नवयुवकों का प्रतिनिधित्व क्या खाक करेंगे ? युवकों को तो उस नेता की आवश्यकता है जो शरीर से चाहे बूढ़ा हो चुका हो, पर जिसके विचार बूढ़े न हों, जो रिफोर्म से खौफ न खाये, सुधारों से कभी न कतराये।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम ने छात्र प्रतिनिधियों से कही हैं जो उनका वक्तव्य पढ़कर उन्हें अपना समर्थन देने आए थे।

व्याख्या :
सेठ घनश्याम छात्रों से कहते हैं कि उन्होंने अपने वक्तव्य में ठीक ही लिखा था कि जिन लोगों का मन बूढा हो चुका है वे नवयुवकों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। व्यक्ति भले ही शरीर से बूढ़ा हो किन्तु उसके विचार बूढ़े नहीं होने चाहिएँ तथा वह सुधारों से डरे नहीं और न ही उन से कभी कतराये।

विशेष :
सेठ घनश्याम के चरित्र की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है जो वोट पाने के लिए हर किसी की चिरौरी करना चाहता है।

(6) आप के पास हमारी बात सुनने के लिए कभी वक्त होता भी है ? मारने और पीटने के लिए जाने कहाँ से समय निकल आता है।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ से सेठ घनश्याम की पत्नी ने सेठ से उसके द्वारा बच्चे को पीटने पर कही हैं।

व्याख्या :
सेठ घनश्याम ने अपनी पत्नी को जब कहा कि उसके पास समय नहीं है, वह वहाँ से चली जाए तो उसने बच्चे के लाल हुए कान दिखाते हुए कहा कि आप के पास हमारी बात सुनने का कभी समय नहीं होता किन्तु बच्चे को मारनेपीटने के लिए न जाने कहाँ से समय मिल जाता है। वह अपने परिवार के प्रति क्रूर है।।

विशेष :
बच्चों को शारीरिक दण्ड दिए जाने का विरोध करने वाले सेठ घनश्याम अपने ही बच्चे को पीटते हैं। इससे उनकी कथनी और करनी में अन्तर स्पष्ट होता है।

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(7) ये बाप नहीं दुश्मन हैं। लोगों के बच्चों से प्रेम करेंगे, उनके सिर पर प्यार का हाथ फेरेंगे, उनके स्वास्थ्य के लिए बिल पास करायेंगे, उनकी उन्नति के लिए भाषण झाड़ते फिरेंगे और अपने बच्चों के लिए भूलकर भी प्यार का एक शब्द जबान पर न लाएँगे।

प्रस्तुत :
पंक्तियाँ श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी ‘अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम की पत्नी ने सेठ से उस समय कही हैं जब वह बच्चे को पीटने की शिकायत लेकर आती है और सेठ उसे वहाँ से चले जाने को कहते हैं तो वह सिर चढ़ कर बच्चे को थप्पड़ लगाती हुई कहती है।

व्याख्या :
सेठ घनश्याम की पत्नी अपने बच्चे को पति के सिर चढ़कर पीटती हुई कहती है कि तू उस कमरे में न आया कर वे बाप नहीं दुश्मन हैं। ये दूसरें के बच्चों से तो प्यार करेंगे, उनके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरेंगे, उनकी सेहत के लिए विधानसभा में बिल पास करायेंगे, उनको उन्नति के लिए भाषण देते फिरेंगे। किन्तु अपने बच्चों के लिए भूलकर भी इनकी जुबान पर एक शब्द न आएगा।

विशेष :
सेठ घनश्याम की कथनी और करनी में अन्तर को स्पष्ट किया गया है।

(8) आप निश्चिय रखें। मैं जी जान से स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करूँगा। महिलाओं के अधिकारों का मुझ से बेहतर रक्षक आप को वर्तमान उम्मीदवारों में कहीं नज़र नहीं आएगा।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी द्वारा लिखित एकांकी अधिकार का रक्षक’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियाँ सेठ घनश्याम ने महिला समाज की प्रधान से टेलीफोन पर बात करते हुए उस समय कहीं हैं जब उनकी अपनी पत्नी उनसे दुखी होकर मायके जाने की तैयारी करती है।

व्याख्या :
सेठ घनश्याम महिला समाज की प्रधान से आश्वासन देते हुए कहते हैं कि आप निश्चय रखें। मैं जी जान से स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करूँगा। वर्तमान उम्मीदवारों में मुझ से बेहतर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने वाला दूसरा न मिलेगा। अतः वोट मुझे ही दें।

विशेष :
सेठ घनश्याम की कथनी और करनी में अन्तर को स्पष्ट किया गया है जो जन प्रतिनिधियों का विशेष गुण माना जाता है। एकांकी के कथ्य की ओर भी संकेत किया गया है।

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अधिकार का रक्षक Summary

अधिकार का रक्षक एकांकी का सार

प्रस्तुत एकांकी एक सशक्त व्यंग्य है। लेखक ने आज के राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी के अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। सेठ घनश्याम एक समाचार-पत्र के मालिक हैं। वे विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। वोट प्राप्त करने के लिए वे हरिजनों-विद्यार्थियों, घरेलू नौकरों, बच्चों, स्त्रियों और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करने का आश्वासन देते हैं किन्तु उनकी करनी उनकी कथनी के बिलकुल विपरीत है। वह अपने बच्चे को पीटते हैं। नौकर को गाली-गलौच करते हैं।

अपने नौकर भगवती और सफाई सेवादार को कई-कई महीने का वेतन नहीं देते। भगवती के द्वारा अपना वेतन माँगने पर उस का झूठा मुकदमा या चोरी का दोष लगाने की धमकी भी देते हैं। चुनाव भाषणों में वह मजदूरों के कार्य समय घटाने का आश्वासन देते हैं जबकि अपने समाचार-पत्र में अधिक समय तक काम करने के लिए कहते हैं। वेतन बढ़ाने की माँग करने पर वह उसे नौकरी छोड़ देने तक की धमकी भी देते हैं। वह विद्यार्थियों के वोट प्राप्त करने के लिए उन्हें तरह-तरह के आश्वासन देते हैं किन्तु उनके ब्यान को अपने समाचार-पत्र में छापने के लिए तैयार नहीं होते। स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करने का आश्वासन देने वाले वह घर पर अपनी पत्नी को डाँट फटकार करते हैं। तंग आकर उसकी पत्नी घर छोड़कर अपने मायके चली जाती है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 32 नई नौकरी

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions Chapter 32 नई नौकरी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Hindi Chapter 32 नई नौकरी

Hindi Guide for Class 11 PSEB नई नौकरी Textbook Questions and Answers

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें।

प्रश्न 1.
यशोदा अपने बेटे का घर क्यों छोड़ आई थी ?
उत्तर:
यशोदा अपने पति की मृत्यु के बाद अपने बेटे सुबोध के पास रहने लगी थी। परन्तु सुबोध की पत्नी ने यशोदा को अपने पास ज्यादा देर रहने नहीं दिया। दोनों में प्रतिदिन झगड़े होने लगे थे। एक दिन जब झगड़ा सीमा से बाहर हो गया तो यशोदा बेटे सुबोध का घर छोड़कर वापिस आ गई थी।

प्रश्न 2.
सुबोध यशोदा को लेने क्यों आया था ?
उत्तर:
सुबोध यशोदा, अपनी माँ, को लेने स्वार्थवश आया था। उसकी पत्नी को नौकरी मिल गई थी और घर तथा छोटे बेटे की सँभाल की समस्या उसके सामने खड़ी हो गयी थी। उसने घर के खर्चे में कमी करने के लिए नौकरानी को भी हटा दिया था। सुबोध यशोदा को ममतावश नहीं, स्वार्थवश अपने साथ शहर ले जाने के लिए आया था।

प्रश्न 3.
नई नौकरी लघु कथा आज के टूटते परिवारों व भौतिकवादी परिवेश की कहानी है, 60 शब्दों में स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रस्तुत लघु कथा आधुनिक जीवन के स्वार्थमय परिवेश की कहानी है। इसी स्वार्थ ने संयुक्त परिवार परम्परा को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। बेटा सुबोध अपनी माँ यशोदा को अपने स्वार्थ के कारण लेने आया है। उसकी पत्नी ने पहले उसकी माँ को नहीं रखा था परन्तु जब उसकी नौकरी लग गई और बच्चे और घर सम्भालने की बात आई तो उसने माँ को अपने पास बुलवाने के लिए सुबोध को माँ के पास भेज दिया। इससे परिवारों में आए स्वार्थ और भौतिकवादी परिवेश का पता चलता है। आज रिश्तों की बुनियाद केवल स्वार्थ पर आधारित होकर रह गई है। माँ बेटे का प्यार हो या भाई-भाई का प्यार सभी स्वार्थ की बलि चढ़ गए हैं।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 32 नई नौकरी

PSEB 11th Class Hindi Guide नई नौकरी Important Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यशोदा अपना गुज़ारा कैसे करती थी ?
उत्तर:
लोगों के घर में बर्तन साफ करके।

प्रश्न 2.
यशोदा के बेटे का क्या नाम था ?
उत्तर:
सुबोध।

प्रश्न 3.
सुबोध को यशोदा को लाने के लिए किसने भेजा था ?
उत्तर:
सुबोध को उसकी पत्नी ने भेजा था ।

प्रश्न 4.
‘नई नौकरी’ किस प्रकार की विधा है ?
उत्तर:
लघु कथा।

प्रश्न 5.
‘नई नौकरी’ लघुकथा किसके द्वारा रचित है ?
उत्तर:
विनोद शर्मा द्वारा।

प्रश्न 6.
‘नई नौकरी’ लघुकथा में लेखक ने किस बात का उल्लेख किया है ?
उत्तर:
आधुनिक जीवन के स्वार्थमय परिवेश का।

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प्रश्न 7.
आज के जीवन में रिश्तों की अहमियत किस बात पर टिकी है ?
उत्तर:
स्वार्थ के आधार पर।

प्रश्न 8.
सुबोध यशोदा को लेने क्यों आया था ?
उत्तर:
स्वार्थ के कारण।

प्रश्न 9.
सुबोध की पत्नी को ……… मिल गई थी।
उत्तर:
नौकरी।

प्रश्न 10.
सुबोध की पत्नी के समक्ष कौन-सी समस्या थी ?
उत्तर:
घर-परिवार तथा बच्चे को संभालने की।

प्रश्न 11.
घर के खर्चे में कमी के लिए सुबोध की पत्नी ने क्या किया ?
उत्तर:
घर की नौकरानी को हटा दिया।

प्रश्न 12.
सुबोध यशोदा को कहाँ ले जाना चाहता था ?
उत्तर:
अपने साथ शहर में।

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प्रश्न 13.
स्वार्थ के कारण आजकल …….. टूट रहे हैं।
उत्तर:
संयुक्त परिवार।

प्रश्न 14.
आज रिश्तों की नींव किस पर आधारित है ?
उत्तर:
स्वार्थ पर।

प्रश्न 15.
आज सभी रिश्ते ……….. की बलि चढ़ गए हैं।
उत्तर:
स्वार्थ की।

प्रश्न 16.
यशोदा किस बात को सुनकर सन्न रह जाती है ?
उत्तर:
नौकरानी को हटाने की बात को सुनकर।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘नई नौकरी’ किस विधा की रचना है ?
(क) लघु कथा
(ख) कथा
(ग) कहानी
(घ) उपन्यास।
उत्तर:
(क) लघु कथा

प्रश्न 2.
‘नई नौकरी’ लघुकथा में कैसे परिवेश का चित्रण है ?
(क) प्रेमपूर्ण
(ख) स्वार्थपूर्ण
(ग) धनी
(घ) निर्धन।
उत्तर:
(ख) स्वार्थपूर्ण

प्रश्न 3.
‘नई नौकरी’ लघुकथा में किस काल का वर्णन है ?
(क) आदिकाल
(ख) आधुनिक काल
(ग) भक्ति काल
(घ) पुरातन काल।
उत्तर:
(ख) आधुनिक काल।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 32 नई नौकरी

कठिन शब्दों के अर्थ :

डूब मरना-अपमान अनुभव करना। कहा-सुनी-वाद-विवाद। खुशी से पागल होना-बहुत अधिक खुश होना। चौका बर्तन-रसोई घर का काम। सन होना-सोचने समझने की शक्ति समाप्त होना। लुप्त होना-समाप्त होना।

नई नौकरी Summary

नई नौकरी कथा सार

‘नई नौकरी’ लघुकथा विनोद शर्मा द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने आधुनिक जीवन के स्वार्थमय परिवेश का वर्णन किया है। आज के जीवन में रिश्तों की अहमियत स्वार्थ के आधार पर टिक-सी गई है। यशोदा लोगों के घरों में बर्तन साफ़ करके अपना गुजारा कर रही है। एक दिन उसका बेटा सुबोध उसे लेने आता है यशोदा खुश हो जाती है। अचानक उसे सुबोध की पत्नी की याद आती है कि वह उसे पसंद नहीं करती। वह बेटे से कहती है कि उसकी पत्नी उसे पसंद नहीं करती है तब सुबोध उसे बताता है कि उसकी पत्नी ने ही उसे माँ को लाने भेजा है। उसकी नौकरी लग गई है हार और बच्चे की ज़िम्मेदारी सम्भालने के लिए वह उसे लेने आया है। उन्होंने अपनी नौकरानी को भी हटा दिया है। यह सुनकर यशोदा सन्न रह जाती है। उसे लगता है कि अब उसे नई नौकरी मिल गई है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 31 रिश्ते

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions Chapter 31 रिश्ते Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Hindi Chapter 31 रिश्ते

Hindi Guide for Class 11 PSEB रिश्ते Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
ड्राइवर बस धीमी गति से क्यों चला रहा था ?
उत्तर:
ड्राइवर की नौकरी का वह अन्तिम दिन था। इस सफर के समाप्त होते ही उसे रिटायर हो जाना था। रास्ते से एक रिश्ता स्थापित हो जाने के कारण वह अधिक-से-अधिक समय उस रास्ते पर बिताना चाहता था। इसी कारण वह बस धीमी गति से चला रहा था।

प्रश्न 2.
सवारियों की झल्लाहट का क्या कारण था ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
ड्राइवर द्वारा बस धीमी गति से चलाने पर सवारियाँ झल्ला उठी थीं। उनका कहना था कि उन्हें आगे भी जाना है। बीस-तीस किलोमीटर प्रति घंटा की गति के कारण सवारियाँ परेशान हो उठती हैं।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 31 रिश्ते

प्रश्न 3.
रिश्ते लघुकथा मानवीय संवेदना की कहानी है, स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रस्तुत लघु कथा मानवीय सम्बन्धों की भावमयता पर आधारित है। मनुष्य मनुष्यों से ही नहीं पेड़-पौधों एवं रास्तों से भी रिश्ता स्थापित कर लेता है। कथानायक ड्राइवर सरूप सिंह भी रोज़ जिस रास्ते बस चला कर जाता है उससे रिश्ता स्थापित कर लेता है। रास्ते से अधिक देर तक सम्बन्ध बनाए रखने के लिए वह बस धीरे-धीरे चलाता है क्योंकि उसकी नौकरी का यह अन्तिम दिन था । बरसों से जुड़े उस रास्ते से आज का रिश्ता टूट-सा जाने वाला था। आज के बाद उसे रिटायर हो जाना है। फिर कभी वह इस रास्ते पर बस लेकर नहीं आएगा।

प्रश्न 4.
सरूप सिंह का चरित्र-चित्रण लगभग साठ शब्दों में करें।
उत्तर:
सरूप सिंह एक बस ड्राइवर है। वह प्रतिदिन जिस रास्ते से जाता था, उस रास्ते से उसने एक रिश्ता स्थापित कर लिया था। नौकरी के अन्तिम दिन उस रास्ते से अधिक से अधिक निकटता बनाए रखने के लिए वह बस धीमी गति से चलाता है। सवारियाँ परेशान थीं पर सरूप सिंह बड़ी मिठास से सब से बातें करता था। उसने सवारियों को यह भी बताया कि आज तक उसकी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ। इस बात से उसकी कार्यकुशलता का भी पता चलता है। भावुक होने के कारण ही वह रिटायर होने वाले दिन रास्ते पर अधिक देर तक बना रहना चाहता है।

प्रश्न 5.
सप्रसंग व्याख्या करें बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यहाँ आखिरी बार बस चला रहा हूँ। बस के मुकाम पर पहुँचते ही मैं रिटायर हो जाऊँगा। इसलिए ……..
उत्तर:
प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री अशोक भाटिया द्वारा लिखित लघु कथा ‘रिश्ते’ में से ली गई हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में ड्राइवर सरूप सिंह बस धीमी गति से चलाने का कारण बता रहा है।

व्याख्या :
सरूप सिंह द्वारा बस धीमी गति से चलाने पर सवारियाँ उत्तेजित हो उठती हैं। उन को शान्त करते हुए अपने आँसुओं से छलकते चेहरे को घुमाकर वह सवारियों से कहता है कि इस रास्ते से पिछले तीस वर्षों से मेरा रिश्ता है, अर्थात् मैं पिछले तीस सालों से इस रास्ते पर बस चला रहा हूँ, किन्तु आज मैं आखिरी बार इस रास्ते पर बस चला रहा हूँ, क्योंकि बस के मुकाम पर पहुँचते ही मैं रिटायर हो जाऊँगा। इसी कारण सरूप सिंह भावुक होने के कारण, इस से आगे कुछ न कह सका। वह कहना चाहता था कि इस रास्ते से रिश्ता स्थापित होने के कारण ही वह बस धीमी गति से चला रहा था।

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PSEB 11th Class Hindi Guide रिश्ते Important Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘रिश्ते’ लघुकथा किसकी रचना है ?
उत्तर:
अशोक भाटिया।

प्रश्न 2.
ड्राइवर का क्या नाम था ?
उत्तर:
ड्राइवर का नाम सरूप सिंह था।

प्रश्न 3.
सरूप सिंह का सड़क से कितना पुराना संबंध था ?
उत्तर:
तीस साल पुराना संबंध था।

प्रश्न 4.
रिटायर होने वाले दिन सरूप सिंह ……… पर अधिक देर तक बना रहता है।
उत्तर:
रास्ते।

प्रश्न 5.
रास्ते से सरूप सिंह ने क्या बना लिया था ?
उत्तर:
एक रिश्ता।

प्रश्न 6.
मंजिल पर पहुँचने पर सरूप सिंह का रास्ते से ………. छूट जाना था।
उत्तर:
संबंध।

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प्रश्न 7.
‘रिश्ते’ लघुकथा किस बात पर आधारित है ?
उत्तर:
मानवीय संबंधों की भावमयता पर।

प्रश्न 8.
मानव मानव के अतिरिक्त किस-से रिश्ता रखता है ?
उत्तर:
समस्त प्रकृति से।

प्रश्न 9.
सरूप सिंह पेशे से क्या था ?
उत्तर:
बस ड्राइवर।

प्रश्न 10.
सरूप सिंह कितने वर्षों की सेवा के बाद रिटायर हो रहा था ?
उत्तर:
तीस वर्षों की सेवा के बाद।

प्रश्न 11.
सरूप सिंह बस धीरे-धीरे क्यों चला रहा था ?
उत्तर:
क्योंकि वह आज रिटायर होने वाला था।

प्रश्न 12.
बस की सवारियाँ क्यों नाराज थीं ?
उत्तर:
बस की धीमी रफ्तार से।

प्रश्न 13.
सरूप सिंह क्यों रोने लगता है ?
उत्तर:
अपनी मजबूरी बताते हुए भावुक होने के कारण।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 31 रिश्ते

प्रश्न 14.
सरूप सिंह किस प्रकार सवारियों से बातें कर रहा था ?
उत्तर:
बड़ी मिठास से।

प्रश्न 15.
लघुकथा में ‘मुकाम’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
अंतिम मंजिल।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
रिश्ते लघु कथा किन संबंधों पर आधारित है ?
(क) मानवीय
(ख) अमानवीय
(ग) प्रेम
(घ) विरह।
उत्तर:
(क) मानवीय

प्रश्न 2.
ड्राइवर का सड़क से कितने साल पुराना रिश्ता था ?
(क) 20
(ख) 30
(ग) 40
(घ) 50.
उत्तर:
(ख) 30

प्रश्न 3.
मानव का मानव के साथ-साथ किससे रिश्ता होता है ?
(क) प्रकृति से
(ख) जल से
(ग) थल से
(घ) गगन से।
उत्तर:
(क) प्रकृति से।

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कठिन शब्दों के अर्थ :

ढीचम-ढीचम-धीरे-धीरे। छलकता चेहरा-आँसुओं से भरा चेहरा । मुकाम-मंज़िल।

रिश्ते Summary

रिश्ते कथा सार

“रिश्ते’ लघुकथा अशोक भाटिया द्वारा लिखित है। यह मानवीय सम्बन्धों की भावमयता पर आधारित है। मानव हाँड-माँस के जीवित व्यक्तियों से ही नहीं अपितु पेड़, पौधों, रास्तों से भी रिश्ता रखता है। ड्राइवर सरूप सिंह आज रिटायर होने वाला था। उसका सड़क से तीस साल पुराना सम्बन्ध था। इसलिए आज वह उस रास्ते पर आखिरी बार बस चला रहा था। इसलिए वह धीरे-धीरे बस चला रहा था। बस की सवारियाँ बस की रफ्तार से नाराज हो गई थीं उन्हें मंजिल पर पहुंचना था। परन्तु मंजिल पर पहुंच कर सरूप सिंह का उस रास्ते से संबंध छूट जाना था। इसलिए वह धीरे-धीरे सभी रास्तों, पेड़-पौधों से विदा लेता जा रहा था। वह सवारियों को अपनी मज़बूरी बताता है और रोने लगता है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 30 जन्मदिन

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions Chapter 30 जन्मदिन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Hindi Chapter 30 जन्मदिन

Hindi Guide for Class 11 PSEB जन्मदिन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
मन्नू का जन्मदिन क्यों नहीं मनाया जाता ? अपने शब्दों में उत्तर दें।
उत्तर:
मन्नू का जन्मदिन इसलिए नहीं मनाया जाता क्योंकि वह लड़की थी। हमारे समाज में ऐसा माना जाता था कि लड़कियाँ लड़कों के बराबर नहीं होती। लड़के के जन्म-दिन को धूम-धाम से मनाते हैं और लड़की के जन्मदिन की अवहेलना की जाती है। लड़का पैदा होने पर सभी लड्डू बांटते हैं जबकि लड़की पैदा होने पर ऐसा नहीं होता। पंजाब में लोहड़ी लड़कों की मनायी जाती है, लड़कियों की नहीं।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 30 जन्मदिन

प्रश्न 2.
मन्नू की बातें सुन कर लेखक की पत्नी की आँखों में आँसू क्यों आ गए ?
उत्तर:
मन्नू ने जब बताया कि उसके माता-पिता उसके भाई का जन्मदिन तो बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, किन्तु लड़की होने के कारण उसका जन्मदिन कभी नहीं मनाया जाता। मन्नू जिस आग्रह से लेखक की पत्नी से अपना जन्मदिन मनाने के लिए कहती है, उसे सुन कर लेखक की पत्नी की आँखों में आँसू आ गए। उसे लड़का-लड़की में भेद किया जाना बहुत खला था।

प्रश्न 3.
सप्रसंग व्याख्या करेंबेटी तू हर साल आया कर, हम तेरा जन्मदिन मनाया करेंगे।
उत्तर:
प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री कमलेश भारतीय द्वारा लिखित लघु कथा ‘जन्मदिन’ में से ली गई हैं। मन्नू लड़की है इसलिए उसके घर में उसका जन्मदिन नहीं मनाया जाता, तब उसकी बड़ी माँ ने उसे अपना घर पर जन्मदिन मनाने के लिए बुलाती है।

व्याख्या ;
मन्नू द्वारा यह बताए जाने पर कि लड़की होने के कारण उसके माता-पिता उसका जन्मदिन नहीं मनाते जबकि उसके भाई का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । मन्नू की बड़ी माँ कहती है कि बेटी तू हर साल हमारे पास आया कर, हम तुम्हारा जन्मदिन उसी तरह मनाया करेंगे जैसे तुम्हारे भाई का मनाया जाता है।

प्रश्न 4.
‘जन्मदिन’ कथा भारतीय समाज में व्याप्त एक कुरीति की ओर संकेत करती है-क्या भारतीय समाज में लड़की के जन्म के सम्बन्ध में कुछ और भी कुरीतियाँ हैं-स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रस्तुत लघु कथा में भारतीय समाज में लड़के और लड़की में भेद किये जाने की कुरीति की ओर संकेत किया गया है। हम लड़कों का जन्मदिन तो बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, लड़कियों का नहीं। इस कुरीति के अतिरिक्त कुछ अन्य कुरीतियाँ भी हमारे समाज में प्रचलित थीं जैसे लड़कियों को कम खाना देना लड़कियों के पैदा होने पर शोक मनाना, उन्हें बोझ समझना, उनकी पढ़ाई-लिखाई में भेद-भाव करना। लड़कियों को लड़कों की तुलना में निम्न स्तर का मानना आदि। यहाँ प्रेमचंद के उपन्यास ‘निर्मला’ से निम्न पंक्तियाँ उद्धत कर रहे हैं-‘लड़के हल के बैल हैं, भूसे खली पर पहला हक उनका है, उनके खाने से जो बचे वह गायों का।’ शायद पंजाब में लड़कियों को निमानी गाएँ इसी कारण कहा जाता है।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 30 जन्मदिन

PSEB 11th Class Hindi Guide जन्मदिन Important Questions and Answers

अति लघत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘जन्मदिन’ नामक लघुकथा में क्या दर्शाया गया है ?
उत्तर:
भारतीय समाज में व्याप्त लड़के और लड़कियों के भेदभाव को दर्शाया गया है।

प्रश्न 2.
मन्नू का जन्मदिन क्यों नहीं मनाया जाता था ?
उत्तर:
क्योंकि वह एक लड़की थी।

प्रश्न 3.
मन्नू की बातें सुनकर किसकी आँखों में आँसू आ गए ?
उत्तर:
मन्नू की बातें सुनकर लेखक की पत्नी की आँखों में आँसू आ गए।

प्रश्न 4.
‘जन्मदिन’ किस प्रकार की विधा है ?
उत्तर:
लघुकथा।

प्रश्न 5.
मन्नू किसके समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त करती है ?
उत्तर:
अपनी बड़ी माँ के समक्ष।

प्रश्न 6.
मन्नू की इच्छा क्या थी ?
उत्तर:
उसका जन्मदिन मनाया जाए।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 30 जन्मदिन

प्रश्न 7.
मन्नू के भाई का जन्मदिन किस प्रकार मनाया जाता था ?
उत्तर:
बड़ी धूमधाम से।

प्रश्न 8.
मन्नू जन्मदिन मनाने के लिए किसे वस्तुएँ लाने को कहती है ?
उत्तर:
बड़ी माँ को।

प्रश्न 9.
मन्नू बड़ी माँ से क्या लाने को कहती है ?
उत्तर:
केक, मोमबत्ती तथा गिफ्ट।

प्रश्न 10.
मन्नू जन्मदिन पर किसे बुलाने के लिए कहती है ?
उत्तर:
मेहमानों को।

प्रश्न 11.
मन्नू की बड़ी माँ उससे क्या वादा करती है ?
उत्तर:
प्रत्येक वर्ष मन्नू का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाएगा।

प्रश्न 12.
मन्नू किस बात को सुनकर खुश हुई ?
उत्तर:
अपने जन्मदिन को मनाने की बात सुनकर।

प्रश्न 13.
हमारे समाज में लड़की के जन्मदिन की ……. होती है।
उत्तर:
अवहेलना।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 30 जन्मदिन

प्रश्न 14.
‘जन्मदिन’ लघुकथा के रचयिता कौन हैं ?
उत्तर:
कमलेश भारतीय।

प्रश्न 15.
पंजाब में लोहड़ी ….. की मनाई जाती है।
उत्तर:
लड़कों की।

प्रश्न 16.
हमारे समाज में लड़के-लड़कियों में ………….. किया जाता है।
उत्तर:
भेदभाव।

प्रश्न 17.
लड़कियों को लड़कों की तुलना में ……. माना जाता है।
उत्तर:
निम्न स्तर का।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जन्मदिन लघु कथा के कथाकार कौन हैं ?
(क) कमलेश भारतीय
(ख) सुभाष भारती
(ग) दिव्यम भारती
(घ) सुदेश भारती।
उत्तर:
(क) कमलेश भारतीय

प्रश्न 2.
मन्नू का जन्मदिन मनाने का वादा किसने किया ?
(क) माँ ने
(ख) बड़ी माँ ने
(ग) पिता ने
(घ) दादा जी ने।
उत्तर:
(ख) बड़ी माँ ने

प्रश्न 3.
हमारे समाज में किसकी उपेक्षा की जाती है ?
(क) लड़की की
(ख) लड़के की
(ग) दोनों की
(घ) किसी की नहीं।
उत्तर:
(क) लड़की की।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 30 जन्मदिन

कठिन शब्दों के अर्थ :

विनती-प्रार्थना। आंखों में इन्द्रधनुषी रंग-बहुत खुश होना।

जन्मदिन Summary

जन्मदिन कथा सार

‘जन्मदिन’ नामक लघुकथा कमलेश भारतीय द्वारा लिखित है। इसमें भारतीय समाज में व्याप्त लड़के और लड़कियों के भेदभाव को दर्शाया गया। मन्नू अपनी बड़ी माँ के पास आती है तो वह अपनी इच्छा व्यक्त करती है कि उसका जन्मदिन मनाया जाए। उसके घर में उसका जन्मदिन नहीं मनाया जाता है। उसके भाई का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है। वह अपनी बड़ी माँ से जन्मदिन पर केक, मोमबत्ती और गिफ्ट लाने तथा मेहमान बुलाने के लिए कहती है। बड़ी माँ उसे वायदा करती है कि अब से हर साल उसका जन्मदिन धूम-धाम से मनाया जाएगा यह सुनकर मन्नू खुश हो जाती है।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल Questions and Answers, Notes.

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

प्रश्न 1.
भक्तिकाल की परिस्थितियों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
किसी भी युग का साहित्य एवं साहित्यकार तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का मानना है कि-‘प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है। जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के रूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों के अनुसार होती है।’ इसी बात को ध्यान में रखकर हम यहां भक्तिकालीन परिस्थितियों की चर्चा कर रहे हैं

1. राजनीतिक परिस्थितियाँ:
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से भक्तिकाल को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। पहले भाग में तुगलक और लोधी वंश का शासन दिल्ली पर रहा (सं० 1375 से सं० 1583 तक) और दूसरे भाग में मुग़ल वंश के बाबर, हुमायूँ, अकबर जहांगीर और शाहजहां का शासन रहा (सं० 1583 से सं० 1700 तक) इस दृष्टि से यह काल विक्षुब्ध, अशान्त तथा संघर्षमय काल कहा जा सकता है। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के पश्चात् भारत में कोई भी दृढ़ हिन्दू राज्य नहीं रह गया था। परिणामतः मुहम्मद गौरी ने यहाँ शासन करने की ठानी, जबकि इससे पूर्व सभी मुसलमान आक्रमणकारी लूट मार कर के लौट जाते थे। कुतुबुद्दीन ऐबक ने यहाँ गुलामवंश की नींव रखी फिर खिलजी वंश के अलाउद्दीन ने केन्द्रीय शासन को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया। किन्तु उसके आँख मूंदते ही बहुत-से हिन्दू राजा उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने-अपने राज्यों की स्थापना की और 15वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते राजपूताना एक प्रमुख शक्ति बन गया। सन् 1526 में पानीपत के मैदान में बाबर ने इब्राहीम लोधी को पराजित करके मुग़ल शासन की नींव डाली जिसके अकबर, जहांगीर और शाहजहां बड़े पराक्रमी शासक हुए।

इस काल के आरम्भ में कट्टर तथा साम्प्रदायिक मुसलमान शासकों द्वारा हिन्दू जनता पर अकथनीय अत्याचार ढाए गए और हिन्दू आपस में बंटे हुए होने के कारण पिसते रहे । किन्तु बाद में जब हिन्दुओं में कुछ संगठन हुआ तो अकबर सरीखे बादशाहों ने उनकी महत्ता को समझ हिन्दुओं को मन्त्री पदों पर भी आसीन किया तथा संस्कृत तथा देशी भाषाओं के साहित्य संगीत और कला को प्रोत्साहन दिया। इन परिस्थितियों से साहित्य भी प्रभावित हुआ। उस समय राजाओं के अत्याचार का मुकाबला संतों की वाणी ने किया और गुरु नानक सरीखे कवि ने ‘राजे सिंह मुकदम कुत्ते’ तक शब्द कह डाले।

सामाजिक परिस्थितियाँ:
मुसलमानों का शासन स्थापित हो जाने के कारण यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आदान-प्रदान हुआ वहां हिन्दुओं में आत्मलघुता के कारण जात-पात और शादी-ब्याह के नियम और कड़े हो गए। मुसलमानों ने हिन्दू लड़कियों से शादियों करनी शुरू की। परिणामस्वरूप एक ही परिवार के कुछ लोग मुसलमान और कुछ हिन्दू रह गए। जाति-पाति के जो बन्धन कठोर हो रहे थे उनके विरुद्ध आवाज़ भी उठनी शुरू हो गयी थी। कबीर, गुरु नानक इत्यादि संत कवियों ने इसका खुलकर विरोध किया ‘हरि को भजे सो हरि का होई’ का नारा उन्होंने लगाया। शेरशाह ने ज़मींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था किन्तु मुग़लों ने इसे फिर आरंभ कर दिया जिससे उस वर्ग में भोग-विलास तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन बिताने की आदत सी पड़ गई। इसी विलासिता से बचने के लिए हिन्दुओं में पर्दे और बाल-विवाह का प्रचलन हुआ।

हिन्दुओं के पास धन संचित करने के कोई साधन नहीं रह गए थे और उनमें से अधिकांश को निर्धनता, अभावों एवं आजीविका के लिए निरन्तर संघर्ष में जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर बहुत निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्त थे। धार्मिक परिस्थितियाँ-उस समय के भारत में तीन प्रकार की धार्मिक परिस्थितियाँ थीं। पहली बौद्ध-धर्म की विकृत अवस्था, दूसरी वैष्णव धर्म की परम्परागत अवस्था तथा तीसरी विदेशी धार्मिक अवस्था जिसने सूफी धर्म को जन्म दिया।

महात्मा बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म दो गुटों में बँट गया। हीनयान और महायान। हीनयान में दार्शनिक पक्ष की दार्शनिक जटिलता थी अतः कम लोगों की आस्था उस पर टिक सकी। महायान में सिद्धान्त के स्थान पर व्यवहार पक्ष की प्रधानता थी। उसमें सभी वर्गों के लोगों को शामिल होने की आज्ञा थी। पहला अधिक कट्टरता के कारण संकुचित होता गया तो दूसरा अधिक उदारता के कारण विकृत। शंकराचार्य और कुमारिल भट्ट ने बौद्ध-धर्म पर प्रखर प्रहार किया और वैदिक-धर्म का पुनरुद्धार किया। सुसंस्कृत जनता शंकर धर्म के उपदेशों से प्रभावित हुई। महायान सम्प्रदाय ने जनता के असंस्कृत वर्ग को जन्त्र-मन्त्र, अभिचार और चमत्कार से वशीभूत किए रखा। यही सम्प्रदाय आगे चलकर मन्त्रयान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी से चौरासी सिद्ध दीक्षित हुए। सिद्धों ने जन्त्र-मन्त्र को अपनाते हुए भी इसमें बहुत-से सुधार किए। इन्हीं सिद्धों का विकसित रूप नाथ सम्प्रदाय हुआ। इन्हीं सिद्धों और नाथों की मुख्य-मुख्य रूढ़ियाँ सन्त मत की धार्मिक पृष्ठ-भूमि बनीं।

भक्ति की लहर दक्षिण से आई। शंकराचार्य ने बौद्ध-धर्म के विरोध में अद्वैतवाद का प्रचार किया। इसकी प्रतिक्रिया में अनेक दार्शनिक सम्प्रदाय चल निकले, जिनमें नारायण की भक्ति पर अधिक बल दिया गया। विष्णु के अवतार राम और कृष्ण की कल्पना की गई। रामानन्द ने भक्ति का मार्ग सबके लिए खोला और जन-भाषा में अपने सिद्धान्तों पर प्रचार किया।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

प्रश्न 2.
भक्तिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भक्ति-काल के आरम्भ होने से पूर्व ही प्रान्तीय भाषाएँ अपने-अपने अपभ्रंशों का अनुसरण करते हुए हिन्दी के समान्तर साहित्य रचना में प्रवृत्त थीं। इनमें वर्ण्य विषयों, काव्य रूपों तथा रचना शैलियों की विविध परम्पराएँ प्रचलित थीं जो कुछ अटपटी और अनगढ़-सी प्रतीत होती थीं। धीरे-धीरे इनमें निखार आने लगा। भक्ति-काल के आते-आते इनमें और अधिक निखार आया तथा नवीन संस्कारों का प्रवेश हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि सिद्धों, नाथों और सूफियों की परम्पराओं का विकास होने लगा और साहित्य निर्माण की नवीन पद्धतियों और प्रवृत्तियों के रूप उभरने लगे। इस क्षेत्र में हिन्दी भाषा सब से आगे रही।

सूफी कवियों ने जैन कवियों की शील-वैराग्य परंपरा को विकसित किया। ज्ञानमार्गी सन्तों ने प्राकृत साहित्य में प्रचलित सूक्तियों के अनुकरण में ‘दूहा’ छन्द अपनाया जिसे बाद में ‘साखियों के लिए अपना लिया गया। बौद्ध सिद्धों द्वारा अपनायी शैली जिसमें संवाद शैली और लोक प्रचलित गीतों की परम्परा प्रमुख थी-का विकास निर्गुण सन्तों के काव्य में देखने को मिलता है-यथा बारहमासा आदि के रूप में साहित्य रचना।
निर्गुण भक्ति-काव्य ने नाथ साहित्य से अधिक प्रभाव ग्रहण किया। सन्त कवियों की वाणी में नाथ पंथ के योग साधना और निवृत्ति मार्ग का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। दूसरी ओर सूफी कवियों में पौराणिक आख्यानों का प्रयोग न करते हुए प्रेमाख्यानों का अपने मत के प्रचार के लिए उपयोग किया।

अमीर खुसरो और फैज़ी ने फ़ारसी साहित्य में भारतीय विषयों का समावेश कर परवर्ती फ़ारसी कवियों को प्रेरणा दी। भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद फ़ारसी भाषा में होने लगे। फ़ारसी साहित्य के अनुकरण पर सूफी मार्गी सन्तों ने मसनवी शैली को हिन्दी साहित्य रचना में अपनाया। उपर्युक्त साहित्यिक प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि में भक्ति-काव्य की रचना प्रारम्भ हुई जिसकी सामान्य प्रवृत्तियाँ अग्रलिखित हैं

1. सदाचार तथा नैतिक भावना पर बल:
निर्गुण साहित्य की प्रेरणा प्राचीन काल से ही विद्यमान रही है जिसे बौद्ध धर्म की श्रमण संस्कृति से बल और बढ़ावा मिला। इसका उद्देश्य व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए आध्यात्मिक दृष्टि का सहारा लेना था। कालान्तर में महायानियों द्वारा उसे ‘बहुजन हिताय’ का नया मोड़ दिया जिसमें वैदिक आदर्श सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की ध्वनि प्रतिध्वनित थी। भक्ति-काल में इसी सिद्धान्त की पूर्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक भावना पर बल दिया गया। कबीर की साखियाँ उस संदर्भ में विशेष महत्त्व रखती हैं।

2. व्यक्तिगत साधना की अपेक्षा सामूहिक पूजन अर्चन पर बल:
विदेशी एवं विजातीय मुसलमानों के आक्रमणों और शासन के फलस्वरूप हिन्दुओं ने आत्म रक्षार्थ उपाय खोजने शुरू किये। हिन्दू जनता मुसलमानों से भयभीत होने की अपेक्षा अधिक सजग और सचेत हो गई। हिन्दुओं के काशी और मथुरा जैसे स्थानों पर बड़े-बड़े मन्दिर गिरा दिये जाने के फलस्वरूप छोटे-छोटे मन्दिरों की बाढ़-सी आ गई। घर-घर देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हो गयीं। यह अपने ढंग की एक सामूहिक जागृति थी जिसके फलस्वरूप व्यक्तिगत साधना की अपेक्षा सामूहिक पूजन-अर्चन, भजन-कीर्तन की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ने लगी। सगुण भक्त कवियों ने अपने काव्य द्वारा इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। राम भक्त कवियों ने टकराव की स्थिति को दूर कर वैष्णव, शैव और शाक्तों को एक करने का प्रयास कर आपसी भेदभाव दूर किये। उन परिस्थितियों में जातीय एकता अत्यावश्यक थी।

3. लोक भाषाओं का महत्त्व:
भक्ति कालीन कवियों ने आम आदमी तक अपने विचार पहुँचाने के उद्देश्य से लोक भाषाओं को अति उत्तम साधन माना। उन्होंने मौखिक परम्परा की स्तरीय रचनाओं को भी लिपिबद्ध कर उन्हें सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। लोक भाषाओं को महत्त्व दिये जाने का ही यह फल है कि भक्ति-काल में जहाँ महाकाव्यों के माध्यम से शास्त्रीय शैली में राजपुरुषों तथा दिव्य नायकों को महत्त्व मिलने लगा, वहाँ जन जीवन की उपेक्षित अनुभूतियों को भी अभिव्यक्ति मिलने लगी। साथ ही इस काल में लोक गीतों, लोक कथाओं आदि को भी यथेष्ठ सम्मान मिलने लगा। ये सभी रचनाएँ लोक रुचि के अनुरूप थीं। अतः ये जनसाधारण में अत्यधिक लोकप्रिय हुईं। ज्ञान मार्गी सन्त कवियों ने आम बोलचाल की भाषा को अपनाया तो प्रेम मार्गी सूफी सन्त कवियों में अवधी भाषा को और कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज भाषा और राम भक्त कवियों में अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं में अपना साहित्य रचा। यही कारण है कि इस युग का साहित्य सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ क्योंकि यह मूल रूप में जनसाधारण के लिए उन्हीं की भाषा में लिखा गया था।

4. समन्वयात्मक दृष्टि को बढ़ावा:
लोगों में आत्म विश्वास बढ़ने का यह परिणाम हुआ कि पारस्परिक सहयोग के लिए समन्वयात्मक दृष्टि से काम लिया जाने लगा। सूफी सन्तों की समन्वयात्मक प्रवृत्ति ज्ञान मार्गी सन्तों ने भी अपनाई। तुलसी का तो समूचा काव्य ही समन्वय की जीती जागती तस्वीर है। समन्वय की इस भावना से जो साहित्य रचा गया उससे धार्मिक साम्प्रदायिकता का स्वर क्षीण हो गया। सन्त कवियों-कबीर और गुरु नानक को तथा सूफी सन्त कवियों को हिन्दू और मुसलमान समान रूप से आदर की दृष्टि से देखते हैं। नानक पन्थी और कबीर पन्थी हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी।

5. नाम की महत्ता:
जप कीर्तन आदि निर्गुणधारा के एवं सगुण धारा के कवियों में समान रूप से मान्य है। कबीर ‘नाम’ को सभी रसायनों से उत्तम समझते हैं – “सभी रसायन हम करौ, नहीं नाम सम कोय” सूफी कवि और कृष्ण भक्त कवि कीर्तन की महत्ता को स्वीकार करते हैं। सूर कहते हैं – “भरोसौ नाम को भारी” तुलसी ने तो नाम को राम से भी बड़ा माना है।

संक्षेप में, कहें तो ‘नाम’ में निर्गुण और सगुण दोनों का समन्वय हो गया है। एक उदाहरण प्रस्तुत है

‘अगुन सगुन दुई ब्रह्म स्वरूपा। अकथ अगाध अनादि अनुपा॥
मोरे मत बढ़ नाम दुहुँ ते। किये जेहि जुग निज बस निज बूते॥

कबीर ने भी कहा-‘निर्गुण की सेवा करो सगुण का धरि ध्यान।’

6. गुरु की महिमा:
गुरु के महत्त्व को निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं के कवियों ने स्वीकार किया है। कबीर कहते हैं- “गरु हैं बड़े गोबिन्द से मन में देख विचारि।’ जायसी ने भी पद्मावत में गुरु के महत्त्व को दर्शाने वाला पात्र ‘सुआ’ का निर्माण किया-‘गुरु सुआ जेहि पन्थ दिखावा’ ! सूरदास ने लिखा-‘बल्लभ नख चन्द्र छटा बिन सब जग माहिं अँधेरा’ और तुलसी ने ‘मानस’ के आरम्भ में गुरु वन्दना करते हुए लिखा-‘बन्दउँ गुरु पद पद्म परागा’। भक्ति-कालीन कवियों ने गुरु को ईश्वर से मिलाने वाला या ईश्वर से मिलने का मार्ग बताने वाला तथा जीवन पथ में सही राह दिखाने वाला माना है।

7. भक्ति-भावना की प्रधानता-भक्ति-काल की निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं में भक्ति-भावना पर अधिक बल दिया गया। कबीर ने कहा-‘हरि भक्ति जाने बिना बुडि मुआ संसार’। सूफी सन्तों का प्रेम भी भक्ति का ही रूप है और सगुण भक्त तो भक्त हैं ही। सगुण भक्त-कवियों ने ज्ञान का नहीं भक्ति-विरोधी ज्ञान का विरोध किया। सूरदास और नन्ददास ने भ्रमर गीत के माध्यम से यही बात कहनी चाही है। तुलसी तो थे ही समन्वयवादी। उन्होंने ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं किया। वे कहते हैं-‘ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरिह भव सम्भव खेदा।’ तुलसी दास ने ज्ञान और भक्ति का समन्वय करते हुए भक्ति को प्रधानता दी है। उन्होंने भक्ति को चिन्तमणि कहा है और ज्ञान को दीपक, जो माया की हवा में बुझ जाता है।

8. शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा निजी अनुभव पर विशेष बल-भक्ति-कालीन कवियों ने शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा निजी अनुभव को अधिक महत्त्व दिया। कबीर जी ‘ढाई अक्षर प्रेम के’ का महत्त्व देते हुए शास्त्र ज्ञान को निरर्थक बताते हुए कहते हैं-‘पोथी पढ़ि जग मुआ, पण्डित हुआ न कोय।’ तुलसी जी ने भी केवल वाक्य ज्ञान को अपर्याप्त मानते हुए कहा है – ‘वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावे कोई।’ सूर और नन्ददास की गोपियाँ तो अपने प्रेम के निजी अनुभव के आधार पर उद्धव जैसे ज्ञानी को भी यह कहने पर विवश कर देती हैं-

जे ऐसे मरजाद मेटि मोहन को ध्यावें।
काहे न परमानन्द प्रेम पदवी सबु पावें ॥
ज्ञान जोग सब कर्म ते प्रेम परे हैं साँच।
हौं या पटतर देत हौं हीरा आगे काँच॥

उपर्युक्त समान प्रवृत्तियों के होते हुए भी निर्गुण और सगुण भक्ति धारा के कवियों के दृष्टिकोण में थोड़ा बहुत अन्तर था किन्तु लक्ष्य दोनों का एक ही था-जीवन को ऊँचा उठाना, भक्ति द्वारा ईश्वर की प्राप्ति। साधन अथवा मार्ग भले ही अलग-अलग थे, पर लक्ष्य एक ही था।

भक्तिकाल के प्रमुख कवि

1. कबीर प्रश्न

1. कबीर जी का संक्षिप्त जीवन परिचय देकर उनकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन परिचय-हिन्दी-साहित्य में भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा का कबीर जी को प्रवर्तक माना जाता है। कबीर जी भक्तिकाल के उन जन कवियों में से हैं जिन्होंने जन-भाषा में भक्ति का प्रकाश फैलाकर लोक मानस को पवित्र किया। उनकी प्रेममयी वाणी जहाँ मानव मन को मानवीय गरिमा से भर देती है, वहाँ उनकी ओजस्वी वाणी मानसिक और दिमागी संकीर्णताओं के बन्धन से मुक्त करती है। किन्तु खेद का विषय है कबीर जी के वास्तविक नाम, जन्म, मृत्यु, निवास स्थान एवं पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में निर्विवाद रूप में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कबीर पन्थी साहित्य में ‘कबीर चरित्र बोध’ में कबीर जी का जन्म वि० सम्वत् 1455 में ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा दिन सोमवार को हुआ लिखा गया है। इसके प्रमाण में निम्नलिखित दोहा दिया गया है
चौदह सौ पचपन साल गये, चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए।

अनेक विद्वानों ने इसी तिथि को कबीर जी का जन्म होना स्वीकार किया है।
अनन्त दास की परचई के अनुसार कबीर जी की मृत्यु सं० 1575 में हुई। इस तरह उन्होंने 120 वर्ष की दीर्घ आयु पाई। प्रमाणस्वरूप अग्रलिखित दोहा प्रस्तुत किया जाता है

संवत् पन्द्रह सौ पचहत्तर कियौ मगहर को गौन।
अगहन सुदी एकादसी रलौ पौन में पौन॥

रचनाएँ:
इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि कबीर जी ने पुस्तकीय शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। उन्होंने स्वयं कहा है ‘मसि कागद छुओ नहिं कलम गहि नहि हाथ।’ उन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को महत्त्व दिया। उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने कबीर जी की समस्त वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से किया। इसके तीन भाग हैं
1. साखी 2. सबद 3. रमैणी।

डॉ० श्याम सुन्दर दास जी ने कबीर जी की सभी रचनाओं को ‘कबीर ग्रंथावली’ के रूप में प्रकाशित किया है। काव्यगत विशेषताएँ-कबीर वाणी का अध्ययन करने पर हम उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ पाते हैं
1. निर्गुण उपासना–कबीर जी ने ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना पर बल दिया। उनका मानना था कि ईश्वर एक है और वह निर्गुण निराकार है। वह पंच भौतिक तत्वों से परे अनाम और अजन्मा है। कबीर जी कहते हैं

जाके मुँह माथा नहीं, नाही रूप कुरूप।
पहुंप वास ते पातरा, ऐसा तत अनूप॥

निराकार निर्गुण ब्रह्म ही इस सारी सृष्टि का कर्ता है, परन्तु वह अजन्मा है, अनित्य है

जन्म मरन से रहित है, मेरा साहिब सोय।
बलिहारी वह पीव की, जिन सिरजा सब कोय॥

कबीर वाणी में अनेक स्थानों पर ‘राम’ शब्द आया है। इससे कबीर जी का आशय दशरथ पुत्र श्रीराम से न होकर ‘पूर्ण ब्रह्म’ ही है।

2. एकेश्वरवाद-कबीर जी ऐसे पहले भारतीय थे जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उनके बाद सभी सन्त कवियों ने उनका अनुसरण किया। मुसलमान भी एकेश्वर तथा उसके निराकार रूप में विश्वास रखते थे और हिन्दुओं में भी बहुत-से लोग बहुदेववाद में विश्वास नहीं रखते थे बल्कि सभी देवी-देवताओं को एक ही ईश्वर का रूप मानते थे – ‘एकं सत्यं विद्या बहुधा वदन्ति’ हिन्दुओं का निर्गुणवाद खुदावाद के बहुत निकट आ जाता था। इसलिए कबीर जी ने एकेश्वरवाद का प्रचार कर–‘राम और रहीम’, ‘कृष्ण और करीम’ को एक ही ईश्वर का रूप बताया। उन्होंने कहा जिस प्रकार काली गाय और गोरी गाय के दूध में कोई अन्तर नहीं, उसी तरह अल्लाह और ईश्वर में भी कोई अन्तर नहीं है। दोनों एक ही रूप हैं। वे कहते हैं–

खालिक खलक खलक में खालिक सब घट रहयौ समाई॥

3. भक्ति-भावना-कबीर जी ने ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रेम-भक्ति को मूलाधार माना है। कबीर के अनुसार, ‘ढाई अक्षर’ प्रेम के पढ़ने वाला पण्डित हो जाता है किन्तु यह प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन है। इसमें जो आत्म-त्याग करता है वही प्रभु को पाता है। कबीर जी कहते हैं

यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाही नाहिं।
सीस उतारै भुईं धरै, तब पहुँचो घर माहिं॥

यह प्रेम न तो खेतों में उगता है और न हाट पर बिकता है। इसका मोल तो सिर है जो दे वह ले जाए

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देइ लै जाय॥

कबीर की भक्ति निर्गुण राम की भक्ति है। कबीर जी कहते हैं कि संसार में जन्म लेकर जिसने ईश्वर की भक्ति नहीं की, जिसने प्रेम का स्वाद नहीं लिया उस मनुष्य का जीवन व्यर्थ है

कबीर प्रेम न चाखिया, चषि न लीया साव।
सूने घर का पाहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव॥

कबीर की यह भक्ति ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से, बिना किसी शर्त आत्म-समर्पण की भावना है। वे कहते हैं

फाड़ि पुटोला धज करौ, कामलड़ी पहिराउं।
जिहि जिहि भेषां हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराऊं॥

कबीर जी कहते हैं कि आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण भावना और एकान्तनिष्ठा कुत्ते जैसी होनी चाहिए.

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
ज्यूं हरि राखे त्यू रहौं, जो देवे सो खाऊँ॥

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

4. गुरु महिमा-सभी भक्तिकालीन कवियों ने गुरु की महिमा का गुण-गान किया है। कबीर जी की मान्यता है कि गुरु कृपा बिना ईश्वर की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिए वे गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हुए कहते हैं

गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागू पायं।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोबिन्द दियो बताय॥

कबीर एक स्थान पर गुरु और गोबिन्द को एक मानते हुए कहते हैं कि सतगुरु से मिलन या साक्षात्कार उसी अवस्था में हो सकता है जब शिष्य अपने आपे (अहंभाव) को त्याग दे।

गुरु गोबिन्द तो एक हैं, दूजा यहु आकार।
आपा मेट जीवत मरौ, तो पावे करतार॥

कबीर के अनुसार, ‘सतगुरमिलिआ मारगु दिखाइआ’ तथा गुरु की कृपा से ही हरि रूपी धन को पाया है-‘गुर प्रसादि हरि धन पायो।’

5. नाम-स्मरण पर बल-कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर के नाम-स्मरण में बड़ी शक्ति है। नाम- स्मरण से ही व्यक्ति की मुक्ति सम्भव हो सकती है। कबीर जी कहते हैं

मेरा मन सुमिरै राम कुँ मेरा मन रामहि आहि।
अब मन रामहि द्वै रह्या सीस नवावौ काहि॥

कबीर शरीर रहते नाम भजन करने की सलाह देते हुए कहते हैं

लूटि सकै तौ लूटियौ, राम नाम है लूटि।
पीछे ही पछताहुगे, यहु मन जैहे छूटि॥

नाम जपने से ही त्रिगुणात्मक माया के बन्धन कट जाते हैं। कबीर जी कहते हैं

गुण गायें गुण नाम कटैं, रटै न राम वियोग।
अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्यूं पावे दुर्लभ योग॥

कबीर जी कहते हैं कि नाम-स्मरण से भक्ति और मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है

चरण कंवल चित्त लाइये, राम नाम गुन गाइ रे।
कहै कबीर संसा नहीं, भक्ति, मुक्ति गति पाइ रे॥

6. माया का विरोध-ज्ञानमार्गी सन्त कवियों ने माया को ईश्वर भक्ति और प्राप्ति में बाधक मानते हुए उसे महाठगनि कहा और इससे बचकर रहने का उपदेश दिया। कबीर जी कहते हैं कि माया ही सारे संसार के दुःखों का कारण है

माया तरवर त्रिविध का, साखा दुःख संताप।
सीतला सपनै नहीं, फल फीको तनि ताप॥

कबीर जी इस माया से बचने का एक ही उपाय, सतगुरु की कृपा बताते हुए कहते हैं

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खाँड।
सत गुरु की कृपा भई, नहीं तो करती भाँड॥

7. रहस्यवाद-कबीर जी की भक्ति-साधना प्रेम मूलक है। प्रेम ही भक्ति का समुद्र है। कबीर की प्रेम भावना ने राम के निर्गुण रूप को मधुर और सहज ग्राह्य बना दिया है। निर्गुण ब्रह्मवाद की यह वैयक्तिक साधना कबीर के काव्य में रहस्यवाद का रूप लेकर जगमगाई है। उनके रहस्यवाद में आत्मा के भावात्मक तादाम्य की साधना का प्रकाशन है। प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्य प्रेम में देखी जाती है। अत: रहस्यवाद की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और विरहिणी के आश्रय में होती है। इसीलिए कबीर ने आत्मा को परमात्मा की पत्नी माना है जो पिया मिलन की आस में दिन-रात तड़पती रहती है। जब आत्मा का परमात्मा से तादात्मय हो जाता है, दोनों मिलकर एक हो जाते हैं तभी रहस्यवाद का आदर्श पूर्णता को प्राप्त होता है। कबीर जी कहते हैं

लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥

कबीर जी कहते हैं-‘राम मेरे पीव मैं तो राम की बहुरिया’ किन्तु उस ‘प्रियतम’ से मिलन कब होगा ? उसके विरह में तो जिया नहीं जाता

विरह भुवंगम तन बसै, मन्त्र न लागै कोई।
राम वियोगी न जिवै, जिवै तो बौरा होई॥

उसकी राह देखते-देखते तो आँखों में झांइयां भी पड़ गई हैं

अंखड़ियाँ झईं पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़िया छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि॥

आखिर वह दिन कब आयेगा जब प्रियतम से मिलन होगा

वे दिन कब आवेंगे भाई।
का कारनि हम देह धरि है मिलिवा अंग लगाई।

8. पाखण्ड एवं आडम्बर का विरोध-कबीर प्रगतिशील समाज सुधारक थे। उनके युग में हिन्दुओं और मुसलमानों में धार्मिक पाखण्ड एवं आडम्बर अपनी चरम सीमा पर थे। कबीर ने समाज सुधार की भावना से इन सब का विरोध किया। उन्होंने हिन्दुओं को कहा

पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
ताते वह चाकी भलि, पीस खाय संसार॥

और मुसलमानों से कहा

मसजिद भीतर मुला पुकारे, क्या साहब तेरा बहरा है।
चिउंटी ने पर तेवर बाजे, तो भी साहब सुनता है।

जातिपाति का खण्डन करते हुए उन्होंने कहा

एक जोति से सबै उत्पन्ना, का बामन का सूदा।

इस प्रकार कबीर ने कपटी साधुओं, ढोंगी पण्डितों की निन्दा भी की और तीर्थ, व्रत, नियम आदि आडम्बरों की भी

2. मलिक मुहम्मद जायसी

प्रश्न 2.
मलिक मुहम्मद जायसी का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उसके काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
मलिक मुहम्मद जायसी का हिन्दी-साहित्य में स्थान निर्धारित कीजिए।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल की प्रेम मार्गी शाखा अथवा सूफ़ी सन्त परम्परा में अपना विशेष स्थान रखते हैं। जायसी जी के जन्म के बारे में आज तक विद्वानों में मतभेद बना हुआ है। सभी विद्वानों के मतों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि इनका जन्म वि० सं० 1550 के लगभग और मृत्यु वि० सं० 1600 के करीब हुई थी। जायसी का वास्तविक नाम मुहम्मद था। मलिक शब्द एक उपाधि का परिचायक है जो सम्भवतः उन्हें वंश-परम्परा से प्राप्त हुई थी। परम्परा के अनुसार आप अरब से आए मुसलमान थे, भारतीय नहीं किन्तु जायस-ज़िला रायबरेली (उत्तर प्रदेश) में आकर बस गए थे। अतः उनको जायसी कहा जाने लगा। जायसी ने स्वयं लिखा है

जायस नगर मोर अस्थानू। नगर क नाम आदि उदयानू॥

जायसी अपने बाल्यकाल में ही अपने माता-पिता से विमुक्त हो गये। उनका विवाह भी हुआ था। उनके पुत्रों की एक दुर्घटना में मकान की दीवार के नीचे दबकर मर जाने की दन्तकथा प्रसिद्ध है। तब विरक्त होकर जायसी अपना अधिकांश समय साधु-सन्तों की संगति में बिताने लगे। कहा जाता है कि उस समय के प्रसिद्ध सूफ़ी सन्त मुबारक शाह बोदले ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया। आगे चलकर एक-दूसरे सन्त शेख मुहीउद्दीन भी जायसी के गुरु के नाम से जाने जाते हैं।

अंत: साक्ष्य सामग्री के अनुसार जायसी एक आँख से काने थे, मुंह पर चेचक के दाग थे, बायीं टांग, बायां हाथ और भुजा भी काम नहीं करते थे। कहते हैं कि एक बार शेरशाह सूरी इनकी कुरूपता को देखकर हँस पड़े थे। तब जायसी ने तुरन्त कहा-“मोहि को हंसाति कि कुम्हारहि” अर्थात् मुझ पर नहीं उस कुम्हार (खुदा) पर हँसो जिसने मुझे बनाया है। यह सुन शेरशाह सूरी शर्मिन्दा भी हुए और जायसी से क्षमा याचना भी की।
जायसी अपने जीवन के अधिकांश भाग में अमेठी के राजा के आश्रय में रहे। वहीं उनकी मृत्यु सन् 1542 ई० सम्वत् 1600 के आसपास हुई। आज भी उनकी कब्र वहीं विद्यमान है।

रचनाएं:
कुछ विद्वान् जायसी की रचनाओं की संख्या 20-21 के करीब मानते हैं परन्तु केवल 6 रचनाओं को ही प्रमाणिक माना जाता है जो निम्नलिखित हैं.

  1. अखरावट,
  2. आखिरी कलाम,
  3. मसलनामा,
  4. कहरनामा,
  5. चित्रलेखा तथा
  6. पद्मावत

इनमें ‘पद्मावत’ हिन्दी साहित्य का प्रथम प्रमाणिक महाकाव्य माना जाता है। यह ग्रन्थ दोहा चौपाई शैली में लिखा गया है, जिसे आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में अपनाया।
पद्मावत निश्चय ही हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय हुआ कि इसका अनुवाद बंगला, उर्दू, फारसी, फ्रैंच और अंग्रेज़ी भाषाओं में भी हो चुका है।

काव्यगत विशेषताएँ:
जायसी के काव्य में हम निम्नलिखित विशेषताएँ देखते हैं

1. हिन्दू-मुस्लिम एकता:
मुसलमानों का शासन स्थायी हो जाने के फलस्वरूप हिन्दू और मुसलमानों में आपसी वैमनस्य को भंग करने का प्रयास सन्त कवियों ने आरम्भ किया। उसे सूफ़ी मुसलमान फकीरों ने पूरा किया। इन मुसलमान फकीरों (सन्तों) ने अहिंसा और प्रेम का मार्ग अपनाया। जायसी जैसे अनेक सूफ़ी सन्त प्रेम की पीर की कहानियाँ लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे। ये कहानियाँ हिन्दुओं के घरों की थी जिसे उन्होंने मुस्लिम शैली के अनुसार आम लोगों के सामने रखा। ‘पदमावत’ में जायसी ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों जातियों के तत्वों का सहारा लिया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ इन जातियों के आपसी वैमनस्य को दूर कर उन्हें एक-दूसरे के निकट करने में समर्थ हुआ। जायसी स्वयं कहते हैं

बिरछि एक लगी दुइ डारा, एकहिं ते नामा परकारा।
मातु कै रकत पिता के बिन्दु, उपजै दुवै तुरक और हिन्दू॥

सन्त कवियों की शुष्क साधना (ज्ञान मार्ग) से जो बात सम्भव न हो सकी, जायसी के प्रेम मार्ग ने उसे सरलता से पूरा कर दिया।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

2. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना-जायसी ने पद्मावत में राजा रत्नसेन और रानी पद्मावती की प्रेम कहानी को आधार बनाकर सूफ़ी मत की पारमार्थिक साधना का प्रचार किया। सूफ़ी मत के अनुसार ईश्वर एक है और सर्वव्यापक है। आत्मा पति है तो ईश्वर पत्नी (सन्त कवि आत्मा को परमात्मा की पत्नी मानते थे।) जिस प्रकार लौकिक संसार में पति अपनी पत्नी को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पति परमात्मा रूपी पत्नी को प्राप्त करने के लिए साधना करता है। मिलन के मार्ग में शैतान अनेक बाधाएँ खड़ी करता है। गुरु की सहायता से आत्मा रूपी पति इन बाधाओं को पार करने में सफल होता है। सूफ़ी सिद्धान्तों के अनुसार भी ‘इश्क हकीकी’ को प्राप्त करने के हिन्दी साहित्य का इतिहास लिए ‘इश्क मजाज़ी’ की सीढ़ी को पार करना पड़ता है। भाव यह है कि जो व्यक्ति ईश्वर के बनाये बन्दों से प्यार नहीं करता, वह ईश्वर से प्यार करने का अधिकारी नहीं है। जायसी ने पद्मावत के अन्त में ‘तन चित उर मन राजा कीन्हा’ आदि कह कर लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना की है।

3. श्रृंगार वर्णन-रति भाव से परिपुष्ट श्रृंगार रस ही ‘पद्मावत’ का अंगी रस है, जिसके दोनों पक्षों संयोग और वियोग का मनोहारी और रमणीय वर्णन कवि ने किया है।

(i) संयोग वर्णन-जायसी के संयोग में हमें श्रृंगार के अनुभावों और संचारी भावों की योजना तो देखने को न मिलेगी परन्तु श्रृंगार के आधारभूत आलम्बन (नायिका) का चित्रण, प्रेमाश्रय (नायक) का वर्णन और संयोग की नाना अनुभूतियों की नितान्त भाव प्रवण, सजीव और रसात्मक व्यंजना अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई है। निम्नलिखित पंक्तियाँ जायसी के आलम्बन चित्रण-कौशल का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, जिसमें कवि ने यौवन के भार से झुकी किशोरी पद्मावती के अंग-प्रत्यंग का ललित, रमणीय, सजीव और मनमोहक वर्णन प्रस्तुत किया है

जग बेधा तेहि अंग सुवासा। भंवर आइ लुब्धै चहु पासा॥
बेनी नाग मलैगिरि पैठी।ससि माथे दइज होई बैठी॥
भौं धनुष साधे सर फेरे। नयन कुरंग भूलि जनु है॥
नासिक कीर कँवल मुख सोहा। पदमिनि रूप देखि जग मोहा॥
मानिक अधर दसन जनु हीरा। हियहुलसैं कुच कनक गंभीरा॥

जायसी द्वारा रचित पद्मावत के ‘लक्ष्मी समुद्र-खण्ड’ तथा ‘पद्मावती-रत्न सेन भेंट खण्ड’ में संयोग वर्णन उत्कृष्ट कोटि का हुआ है। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि पद्मावत में संयोग के जो चित्र दिये गये हैं उनमें सामान्य रूप से मानसिक और भावात्मक पक्ष की प्रधानता है।

(i) वियोग वर्णन-जायसी ने वियोग पक्ष की अत्यन्त मार्मिक अनुभूति ‘पद्मावत’ में प्रस्तुत की है। यों तो कवि ने नागमती और पद्मावती दोनों का वियोग वर्णन प्रस्तुत किया है, किन्तु नागमति का वियोग वर्णन तो बेजोड़ है जो हिन्दी साहित्य में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। ‘. जायसी ने नागमती की जिस परिस्थिति का चित्रण किया है उसकी एक दारुण पृष्ठभूमि भी उन्होंने दी है। नागमती का पति राजा रत्न सेन तोते के मुख से दूसरी स्त्री के सौन्दर्य की बात सुनकर सात समुद्र पार सिंहल द्वीप में उसे प्राप्त करने के लिए राज-पाट, घर-बार सब कुछ छोड़कर योगी बन कर चला गया लेकिन नागमती की गोद सूनी है। नागमती की इस दारुण स्थिति का चित्र कवि निम्नलिखित पंक्तियों में प्रस्तुत करता है

सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिऊ नहिं जात, जात वर जीऊ॥
थमए नरायन बावन करा। राज करत राजा बलि छरा॥

जायसी ने नागमती के विरह में सामान्य हृदय तत्व की सृष्टिव्यापिनी भावना की व्यंजना की है। इस भावना में कवि ने मनुष्य और पशु-पक्षी को एक सूत्र में पिरोकर देखा है। रानी नागमती पक्षियों से अपनी विरह-व्यथा कहती फिरती है, वृक्षों के नीचे रात-रात भर रोती रहती है। इस तरह जायसी ने मनुष्य के हृदय में पशु-पक्षियों से सहानुभूति प्राप्त करने की सम्भावना के साथ-साथ पक्षियों के हृदय में भी सहानुभूति का संचार किया है। जैसे निम्नलिखित पंक्तियों में

फिरि फिर रोव, कोई नहीं डोला। आदि राति विहंगम बोला॥
तू फिरि फिर दाहै सब पांखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखि॥

जायसी ने विरह वर्णन के अन्तर्गत विरहजन्य कृशता का भी स्वाभाविक चित्रण किया है। उनकी अत्युक्तियों में भी गम्भीरता नज़र आती है। उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं

दहि कोयला भइ कंत सनेहा। तोला मांसु रही नहिं देहा॥
रकत न रहा विरह तन जरा। रती रती होइ नैन्ह ढरा॥
अथवा
हाड़ भए सब किंगरी, नसैं भई सब तांति।
रोव रोंव ते धुनि उठे, कहौ विथा केही भांति।

जायसी ने एक स्थान पर पद्मावती की कृशता का भी करुण चित्र प्रस्तुत किया है

कंवल सूख पंखुरी बेहरानी। गलि गलि कै मिलि छार हिरानी।

नागमती के विरह वर्णन का सर्वाधिक मर्मस्पर्शी प्रसंग वह बारहमासा है जिसमें जायसी ने क्रम से बारह महीनों में नागमती की वियोग व्यथा का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम नि:संकोच कह सकते हैं कि जायसी ने विरह वर्णन में अपनी प्रतिभा और रसप्रवणता का पूर्ण परिचय दिया है।

4. रहस्यवाद-जायसी सूफ़ी सम्प्रदाय से थे जिसमें ईश्वर की कल्पना प्रेम के रूप में की जाती है। प्रेम के द्वारा साधक परम सत्ता तक पहुँचने का प्रयास करता है और अन्त में उसी में लीन होकर परमानन्द को प्राप्त करता है। जायसी के काव्य में वर्णित इसी भावना को रहस्यवाद कहा जाता है।

किन्तु भारतीय परिवेश अपनाने के कारण उनके रहस्यवाद पर भारतीय अद्वैतवाद का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। ‘पद्मावत’ में इस परमानन्द की अनुभूति के अनेक चित्र देखने को मिलते हैं, यथा
हीरामन तोते के मुँह से पद्मावती का नख-शिख वर्णन सुनकर राजा रत्न सेन मूर्छित हो जाता है। इस मूर्छित अवस्था में उसे मिलन की आनन्दमयी अनुभूति होती है। मूर्छा भंग होने पर राजा रोने लगता है, जैसे आत्मा पुनः मृत्यु लोक में आने पर रोने लगती है

जब भा चेत उठा वैरागा। बउर जनौं सोई उठि जागा॥
आवत जग बालक जस रोआ। उठा रोइ हा ज्ञान सो खोआ॥
हौं तौं अहा अमरपुर जहाँ। इहां मरनपुर आएहुँ कहाँ।

जायसी ने प्रकृति के बीच ईश्वरीय सत्ता के रहस्यमय-आभास का बड़ा मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किया है

रवि ससि नखत दिपहिं आहि जोति। रतन पदारथ मानक मोती।
जहँ-जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥
नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर समीर॥
हँसत जो देखा हँ सभा, दसन जोति नग हीर॥

5. इतिहास और कल्पना का मिश्रण-जायसी ने पद्मावत में इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय किया है। इतिहास में हमें अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई और रानी पद्मिनी की आकृति दर्पण में देखने आदि की घटनाएँ ही मिलती हैं। इसके अतिरिक्त जायसी ने राजस्थान और पंजाब की लोक कथाओं को आधार बनाकर तथा अनेक काल्पनिक घटनाओं का समावेश कर पद्मावत की रचना की। इसके लिए जायसी ने अनेक कथानक रूढ़ियों का भी प्रयोग किया है।

6. भाषा, छन्द और अलंकार-जायसी की भाषा ठेठ अवधी है। यद्यपि उनकी भाषा तुलसीदास की भाषा के समान साहित्यिक एवं पाण्डित्यपूर्ण नहीं है, फिर भी अपनी स्वाभाविकता, सरलता तथा प्रसाद एवं माधुर्य गुणों से ओत-प्रोत है। जायसी ने दोहा-चौपाई छन्द का प्रयोग किया और लगभग सभी सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने इस शैली को अपनाया। जायसी को हम लोकभाषा और लोक जीवन के कवि कह सकते हैं।

पद्मावत में कवि ने मसनवी शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में सारी कथा एक ही छन्द में कही जाती है। जायसी से पूर्व भारतीय साहित्य में यह परम्परा नहीं मिलती। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि जायसी भक्तिकालीन प्रेममार्गी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। उनके काव्य में प्रेम अभिव्यंजना, प्रबन्ध कुशलता, रहस्य भावना, विरह वर्णन तथा अभिव्यंजना कौशल आदि गुण होने के कारण इन्हें हिन्दी साहित्य के उच्च कोटि के कवि माना जाता है।

3. सूरदास

प्रश्न 3.
सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
सूरदास का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन कृष्ण भक्ति-शाखा के प्रमुख कवि के जन्म एवं जीवन वृत्त के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। विद्वानों में इनके जन्म समय में काफ़ी मतभेद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म सम्वत् 1535 मानते हैं तो कुछ 1540 स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार इनकी मृत्यु भी सं० 1620 और सं० 1640 मानी जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि इनका जन्म सं० 1535-40 के बीच तथा मृत्यु सं० 1620-40 के बीच हुई होगी।

सूरदास के जन्म स्थान के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् मथुरा के पास ‘रुनकता’ नामक गाँव को तथा कुछ विद्वान् दिल्ली के निकट ‘सीही’ गाँव को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनका अन्धे होना भी विवाद का विषय है। यह तो निश्चित है कि ये अन्धे थे, पर क्या जन्म से ? इस प्रश्न का दो टूक उत्तर नहीं मिलता। इनकी कविता में प्रकृति की शोभा और रूप वर्णन को देखते हुए इस धारणा की पुष्टि होती है कि इन्होंने जीवन और जगत् को अपनी आँखों से देखा था। जनश्रुति के आधार पर यह स्वीकार किया जाता है कि ये यौवन काल में अन्धे हुए।

सूरदास जी के माता-पिता के सम्बन्ध में भी कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा इन्हें ब्रह्म भाट मानते हैं तो डॉ० दीनदयाल गुप्त इन्हें सारस्वत ब्राह्मण मानते हैं। जो बात प्रमाणित है वह यह है कि आप दिल्ली-मथुरा के बीच गऊघाट पर रहते थे। यहीं इनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य जी से हुई। सूरदास जी वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होकर वहीं श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने लगे। मन्दिर के समीप ही ‘पसौली’ नामक स्थान पर आप निवास करते थे। श्रीनाथ जी के मन्दिर में भजन-कीर्तन आप अन्तिम समय तक करते रहे। कहते हैं कि मृत्यु के समय भी आप ‘खंजन नयन रूप रस माते’ पद गा रहे थे।

रचनाएँ:
काशी नागरी प्रचारिकी सभा की खोज रिपोर्ट के अनुसार आपकी 25 के करीब रचनाएँ बतायी गई हैं। किन्तु इनमें से तीन रचनाएँ (1) सूरसागर, (2) सूर सारावली तथा (3) साहित्य लहरी ही प्रमाणित मानी जाती हैं। इनमें सूरसागर सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह रचना ‘ श्रीमद्भागवत्’ की काव्यमयी छाया है, अनुवाद नहीं। इसमें लगभग 5000 पद संग्रहीत हैं।

काव्यगत विशेषताएँ:
सूरदास जी भक्ति-कालीन सगुण भक्ति-धारा की कृष्ण भक्ति-शाखा के प्रमुख कवि हैं। इनके उच्च कोटि के भक्त होने का यह प्रमाण है कि गोसाईं विट्ठलनाथ ने इन्हें ‘अष्टछाप’ भक्तों में मूर्धन्य स्थान पर रखा था। इनके काव्य का अध्ययन करने पर हमें निम्नलिखित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं

1. भक्ति-भावना-सूरदास सगुण के उपासक थे। विशेषकर भगवान् विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को अपना इष्ट मानते थे। ऐसा वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने का प्रभाव था। वल्लभ सम्प्रदाय में कृष्ण भक्ति की व्यवस्था है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित कृष्ण भक्ति के अनुरूप ही सूरदास जी ने लीला गान किया है। आचार्य शुक्ल ने सूर की इस प्रवृत्ति को ‘लोक रंजन’ कहा है। सूरदास सगुण भक्त थे तथा निर्गुण के प्रति उदासी वे कहते हैं

रूप रेख गुण जाति जुगाति बिनु निरालम्ब कित धावै।
सब विधि अगम विचारहिं ताते ‘सूर’ सगुण पद गावै॥

सूरदास अपनी दीनता प्रभु के आगे विनीत भाव से प्रकट करते हुए कहते हैं

प्रभु हौं सब पतितनि को टीको।
मोहि छांड़ि तुम और उधारे, मिटे सूल क्यों जी को।
कोऊ न समरथ अध करिवे को, खेंचि कहत हौं लीकौ॥

आत्म-निवेदन करते हुए सूर प्रभु से कहते हैं कि हे प्रभु! आप जैसे रखोगे वैसे ही रहूँगा। आप तो सबके हृदय की बात जानते हैं । अतः मुख से क्या कहूँ

जैसेहिं राखहु तैसेहि रहि हौं।
जानत हों दुख-सुख सब जन को मुख करि कहा कहौ॥
………………………………………..
कमलनयन घनस्याम मनोहर अनुचर भयौ रहौं।
‘सूरदास’ प्रभु भगत कृपानिधि तुम्हरे चरण गहौं।

सूरदास ने भी सन्त कवियों की तरह नाम जपने अथवा नाम स्मरण के महत्त्व को स्वीकार किया है। वे कहते हैं

सोई रसना जो हरि गुन गावै।
………………………………………..
कर तेई जे स्याम सेवै, चरननि चलि वृन्दावन जावै।
‘सूरदास’ जैहै बलि बाकी जो, हरिजू सों प्रीति बढ़ावे॥

2. सख्य भाव-सूरदास जी ने प्रमुख रूप से सख्य, वात्सल्य और मधुरा-भक्ति को प्रकट करने वाले पद लिखे हैं। सूरदास आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध पति-पत्नी का सम्बन्ध नहीं बल्कि सखि-सखा का सम्बन्ध मानते हैं। दो मित्रों में जैसा खुलापन होता है, ऐसा सूरदास अपने प्रभु में खुलापन रखते हैं। इसीलिए भगवान् को गोपियों के मुख से खरी-खोटी कहलाने में नहीं चूके। प्रेमाधिक्य में खरा-खोटा कहना स्वाभाविक ही है। सूरदास का ‘भ्रमरगीत’ तो है ही उपालम्भ साहित्य का एक रूप। गोपियाँ उपालम्भ देती हुई कहती हैं

हरि काहे के अन्तर्जामी ?
जो हरि मिलत नहीं यही औसर, अवधी बतावत लामी।
तथा
ऊधो जाके माथे भाग।
कुब्जा को पटरानी कीन्हीं, हमहिं देत वैराग।

ऐसे उपालम्भ व्यक्ति उसी को दे सकता है जिसके प्रति उसे अथाह प्रेम हो।

डॉ० हरिवंश लाल शर्मा कहते हैं- “सूरदास के सखा भाव में विशेषता यह है कि उसमें एक ओर तो मनोवैज्ञानिक रूप से मानवीय सम्बन्धों का निर्वाह किया गया है और दूसरी ओर उसमें भक्ति-भाव की पूर्ण तल्लीनता और भावात्मकता की अनुभूति है।”

3. वात्सल्य वर्णन-सूर के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है-वात्सल्य वर्णन जो बेजोड़ तो है ही अत्यन्त स्वाभाविक भी है। इस रस का कोई भी रूप, भाव इनकी लेखनी से अछूता नहीं रह पाया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ठीक ही कहते हैं कि, ‘सूरदास वात्सल्य रस का कोना-कोना झांक आये हैं।’ डॉ० हरिवंश लाल शर्मा लिखते हैं- “यदि कहा जाए कि सूर ने पुरुष होते हुए भी माता का हृदय पाया तो असंगत नहीं होगा।” सूरदास ने वात्सल्य भाव की भक्ति का जो हिन्दी साहित्य का इतिहास निष्काम और इन्द्रिय सुख की कामना से रहित होती है-माता यशोदा के माध्यम से ऐसा सरल, स्वाभाविक और हृदयग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है। श्री कृष्ण की बाल लीलाओं और गोचारण लीलाओं के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं

(i) कर पग गहि अंगूठा मुख मेलत।
प्रभु पौढ़े पालने अकेले हरषि-हरषि अपने रंग खेलत॥

(ii) जसोदा हरि पालने झुलावै।
हल्रावै दुलराई मल्हावै, जोई-सोई कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निदरिया, काहे न आनि सुवावै॥

(iii) चंद खिलौना लैहों मैया मेरी, चंद खिलौना लैहौँ।
धौरी को पयपान न करिहौँ बेनी सिर न गुंथैहौं।

इसी प्रकार ‘मैया मैं नहीं माखन खायो’, ‘मैया कबहि बढ़ौगी चोटी’ तथा ‘मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ’ आदि पदों में माता और पुत्र के स्नेह का चित्रण किया गया है। हमारा विश्वास है कि संसार की किसी भी भाषा के साहित्य में ऐसी बाल लीलाओं का वर्णन नहीं मिलेगा। श्री कृष्ण की बाल चेष्टाओं के चित्रण में सूरदास ने कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है।

4. श्रृंगार वर्णन-सूर के काव्य में शृंगार रस का चित्रण भी खूब बेजोड़ है। शृंगार भावना को भक्ति-भावना से अनुरंजित कर वास्तव में सूर ने उसे भक्ति का उज्ज्वल रस ही बना दिया है। सूरदास ने शृंगार रस का चित्रण राधा तथा गोपियों के प्रेम के रूप में किया है। बचपन में साथ-साथ खेलने वाले सखा-सखियां यौवन में प्रिय-प्रिया बन गये। गोपियों का प्रेम ‘लरिकाई का प्रेम है’ सो कैसे छूट सकता है। उन्हें तो श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ अच्छा ही नहीं लगता

‘सूर स्याम बिनु और न भावै, कोऊ कितनौ समुझावै।’

राधा और श्रीकृष्ण की लीला वास्तव में गोपिकाओं रूपी भक्त-जनों के लिए प्रेम के चरम आदर्श का प्रतीक है। इसलिए कवि ने राधा और श्रीकृष्ण की प्रेम लीला का व्यापक चित्रण अपनी कवित्व शक्ति के समस्त उपकरणों द्वारा किया है। राधा श्रीकृष्ण से प्रेम करने पर श्रीकृष्णमय हो गई है। उसकी सखियां कहती हैं

सुनि राधा यह कहा विचार।
वै तैरे तू उनकै रंग, अपनो मुख क्यों न निहारे॥

और श्रीकृष्ण भी तो राधा के बस में हो गये हैं

स्याम भये राधा बस ऐसे।
चातक स्वाति, चकोर चंद ज्यौं, चक्रवाक रवि जैसे॥

सूर के श्रृंगार रस में संयोग की अपेक्षा वियोग वर्णन में अधिक प्रखरता है। सूर सागर’ में लीला वर्णन के बाद ‘भ्रमर गीत’ की रचना वास्तव में वियोग वर्णन के लिए ही की गई है। श्रीकृष्ण के मथुरा गमन के बाद गोपियों को कालिन्दी ‘अति कारी’ दिखाई देती हैं तथा रात ‘काली नागिन’ जैसी प्रतीत होती है, रात जागते जागते कटती है

आजु रैनि नहिं नींद परी।
जागत गिनत गगन के तारे, रसना रटत गोबिन्द हरी॥

विरह की पीड़ा ही ऐसी होती है

मिलि विछुरन की वेदन न्यारी।
जाहि लगै सोई पे जाने, विरह-पीर अति भारी॥
जब यह रचना रची विधाता, तब ही क्यों न संभारी।
सूरदास प्रभु काहे जिवाई, जनमत ही किन मारी॥

उद्धव जी मथुरा लौटकर राधा की वियोगावस्था का जिस प्रकार वर्णन करते हैं उससे पत्थर भी पिघल जाता है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं सूर का काव्य अपने लोक रंजक रूप के कारण, अपनी भक्ति-भावना के कारण, वात्सल्य और श्रृंगार के कारण इतना श्रेष्ठ है कि किसी कवि को यह कहना पड़ा था-सूर सूर तुलसी ससि।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

4. तुलसीदास

प्रश्न 4.
गोस्वामी तुलसीदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
तुलसीदास का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने गोस्वामी तुलसीदास जी को भगवान् तथागत बुद्ध के बाद भारत का पहला लोकनायक कहा है। तुलसी का जन्म समय और जीवन आज तक विवाद का विषय बने हुए हैं। अधिकतर विद्वान् तुलसीदास जी का जन्म सं0 1589 मानते हैं तथा मृत्यु सं0 1680 में होना स्वीकार करते हैं। इनके जन्म स्थान के विषय में भी मतभेद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म राजापुर तो कुछ विद्वान् सूकर खेत (वर्तमान सोरों) को स्वीकार करते हैं किन्तु इतना निश्चित और निर्विवाद है कि आप इन दोनों स्थानों पर रहे।

प्रचलित धारणा के अनुसार तुलसी के पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी था। गंडमूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें बचपन में ही त्याग दिया था। जन्म से अभागे तुलसी को न माता-पिता का दुलार मिला, न कुटुम्ब का सुख । जीविका के लिए इन्हें द्वार-द्वार भटकना पड़ता था। संयोग से इनकी बाबा नरहरिदास से भेंट हो गई। बाबा राम भक्त थे। उन्होंने ही तुलसी को वेद-वेदान्त और शास्त्रों का ज्ञान दिया और संस्कृत भाषा की शिक्षा दी।

तुलसी जी का जवान होने पर विवाह दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हो गया। परन्तु भाग्य ने यहाँ भी इनका साथ नहीं दिया। चारों ओर से प्रेम-प्यार से वंचित भावुक युवक तुलसी पत्नी के प्रति आवश्यकता से अधिक आसक्त रहने लगे। एक बार उसके मायके चले जाने पर उसके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गये। वहाँ पत्नी की फटकार सुनकर तुलसी ने घर-बार के माया बन्धनों को तोड़ दिया। वे श्री राम के अनन्य भक्त बन गये। गृहस्थ त्याग और वैराग्य धारण कर तुलसी जी ने भारत के सभी तीर्थों की यात्रा की। तत्पश्चात् काशी के महान् पण्डित शेष सनातन से अन्यान्य शास्त्रों का अध्ययन किया। खपकर दो जून भोजन जुटाने वाले तुलसी को रूढ़ि जर्जर सामन्ती समाज ने अभाव और विपन्नता का जो विष दिया उसने तुलसी को विषपायी नीलकण्ठ बना दिया।

इसी नीलकंठ ने ‘रामचरितमानस ‘ के रूप में मानो लोक मंगल की गंगा बहा दी। उन्होंने श्रीराम के पावन-चरित्र में शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वय करके उन्हें नारायण से नर बता कर और नर में नारायण का रूप दिखा कर अपनी जीवन साधना से एक ऐसी प्राणवान् लोक क्रान्ति का सृजन और पोषण किया जिससे निराशा और निस्पन्द हिन्दू जाति की शिथिल धमनियों में उत्साह और आशा का संचार कर जीने का नया सहारा दिया।

रचनाएँ:
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘तुलसी ग्रन्थावली’ के अनुसार इनकी निम्नलिखित 12 रचनाएँ ही प्रमाणिक हैं। तुलसी ग्रन्थावली के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है

  1. रामचरितमानस,
  2. रामलला नहछू,
  3. वैराग्य संदीपनी,
  4. बरवै रामायण,
  5. पार्वती मंगल,
  6. जानकी मंगल,
  7. रामाज्ञा प्रश्न,
  8. कवितावली,
  9. गीतावली,
  10. कृष्ण गीतावली,
  11. विनय पत्रिका,
  12. दोहावली।

काव्यगत विशेषताएँ-तुलसी जैसा व्यक्ति युगों में एक पैदा होता है। तुलसीदास जी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त थे और सारे संसार को ‘सियाराममय’ देखते थे। भक्त होने के साथ-साथ तुलसी दार्शनिक, पण्डित, कवि, नीतिज्ञ, समाज सुधारक और विचारक के रूप में बहुमुखी प्रतिभा रखने वाले थे। तुलसीदास जी भक्तिकाल के पहले ऐसे कवि थे जिन्होंने भारतीय समाज, भारतीय जनता की समस्याओं को भली प्रकार समझा और सही ढंग से उनका समाधान प्रस्तुत किया।

गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य का अध्ययन करने पर हमें निम्नलिखित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं

1. भक्ति-भावना:
तुलसीदास जी श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान् विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किया। तुलसी के श्रीराम विश्व की समस्त चेतना के मूल स्रोत हैं, विश्व के सब प्राणी हिन्दी साहित्य का इतिहास मात्र में वे जीव होकर व्याप्त हैं। श्री राम परमब्रह्म और परमात्मा हैं। तुलसी के अनुसार निर्गुण और सगुण ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। भक्त के प्रेम के कारण ही निर्गुण ब्रह्म सगुण का रूप धारण करता है

सगुनहि आगुनहिं नहीं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा॥
अगुण अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुण सो होई॥

तुलसीदास ने भक्ति और प्रेम पिपासा में चातक को आदर्श माना है। मर्यादा के अनुकूल अन्य देवी-देवताओं से प्रार्थना करते हुए उन्होंने उनसे राम भक्ति की याचना कर अपनी अनन्यता की रक्षा की है। उनकी भक्ति सेवक सेव्य भाव की थी। इसके बिना वे मुक्ति को असम्भव मानते हैं

सेवक सेव्य भाव बिन, भवन तरिये उरगारि।

तुलसी श्रीराम की भक्ति के मार्ग को अत्यन्त सीधा, सरल और सहज मानते हैं। जो भी इस पर निष्कपट भाव से चलता है वह ही मुक्ति को प्राप्त करता है।

सूधे मन सूधे वचन सुधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल विधि, रघुवर प्रेम-प्रसूति॥

तुलसी पूर्ण रूप से श्रीराम के प्रति समर्पित हैं। उनके लिए तो श्रीराम के चरणों का अनुराग ही सब कुछ है

तुलसी चाहत जन्म भरि, राम चरण अनुराग।

तुलसीदास की भक्ति की एक विशेषता उनका दैन्य भाव है। ‘विनय पत्रिका’ और ‘कवितावली’ में अपनी दीनता को उन्होंने अनेक स्थानों पर प्रकट किया है। वे कहते हैं

राम सो बड़ो है कौन, मो सो कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मो सो कौन खोटो॥

तुलसीदास जी ने ईश्वर प्राप्ति के मार्गों, ज्ञान और भक्ति को भिन्न नहीं माना

ज्ञानहि भक्ति हि नहिं कछु भेदा। उभय हरिहिं भव सम्भव खेदा॥

ऐसा लिखते हुए भी उन्होंने भक्ति को प्रधानता दी है। भक्ति को प्रधानता देने का काव्यमय कारण भी दिया है। वह यह कि भक्ति माया से मोहित नहीं हो सकती

मोहि न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि यह नीति अनूपा॥

ज्ञान में प्रत्यूह भी अधिक हैं। इसलिए ज्ञान मार्ग की अपेक्षा भक्ति ही सुलभ हैं। तुलसी ने ज्ञान को दीपक माना है जो संसार की हवा से बुझ सकता है और भक्ति को चिन्तामणि माना है, जिस पर हवा का असर नहीं पड़ता। भक्ति साधना ही नहीं साध्य भी है। इसी भक्ति-भावना के कारण उन्होंने सगुणोपासना को प्रधानता दी और वे ब्रह्म के सगुण अवतार श्रीराम’ के वर्णन में सफल हुए।

2. जनभाषा का प्रयोग:
तुलसी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने अपना काव्य जन भाषा में रचा, संस्कृत में नहीं, क्योंकि तुलसी जानते थे कि जनता की बात जनता तक उसी की भाषा में जितनी शीघ्रता से पहुँचती है, समझी जाती है उतनी शीघ्रता से किसी दूसरी भाषा में कही बात नहीं। उन्होंने उस समय की दोनों जन भाषाओं-अवधी और ब्रज में अपने काव्य की रचना की। ‘बरवै रामायण’, ‘राम लला नहछू’ आदि में पूर्वी अवधी, ‘रामचरितमानस’ में पश्चिमी अवधी तथा ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘विनय पत्रिका’ आदि की रचना ब्रज भाषा में की। संस्कृत कठिन भाषा होने के कारण तुलसी को लगा कि वे अपनी बात जन साधारण तक इस भाषा में न पहुँचा पायेंगे, हालांकि पंडित समाज में इसका विरोध भी हुआ किन्तु उनका मानना था

का भाषा का संस्कृत, भाव चाहिए साँच।
काम जो आवे कामरी, का लै करै कमाँच॥

3. हिन्दू धर्म और जाति के रक्षक-तुलसी के काव्य ने हिन्दू धर्म और जाति की रक्षा करने का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया उसे कोई भी हिन्दू भुला नहीं सकता। उन्होंने ‘रामचरितमानस’ के द्वारा भक्ति के साथ शील, आचार, मर्यादा और लोक संग्रह का सन्देश सुनाकर हिन्दू जाति में एक अपूर्व दृढ़ता उत्पन्न कर दी। सर्वप्रथम तुलसीदास ने हिन्दुओं में प्रचलित वैष्णव, शैव और शाक्त गुटों को एक करने का प्रयास किया। तुलसी से पूर्व इन तीनों गुटों या सम्प्रदायों में लड़ाई-झगड़े ही नहीं, मार-काट तक की नौबत आ जाया करती थी। तुलसीदास जी ने ‘मानस’ की कथा शंकर भगवान् द्वारा पार्वती जी को सुनाई है। शंकर भगवान् प्रभु श्रीराम को अपना इष्ट कहते हैं। इससे कहीं वैष्णवों को अधिमान न हो जाए इसलिए तुलसी श्रीराम के मुख से कहलाते हैं कि शंकर भगवान् मेरे इष्ट हैं, पूज्य हैं। सेतुबन्ध से पूर्व श्रीराम विधिवत् शंकर भगवान् की पूजा अर्चना करते हैं। साथ ही तुलसीदास जी ने श्रीराम के मुख से कहलवाया

शिवद्रोही मम दास कहावा।
सो नर सपनेहुं मोहि नहिं भावा॥
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहहूँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावै मोरि॥

‘रामचरितमानस’ के बालकाण्ड में दशरथ, मुनि वशिष्ठ, कौशल्या आदि सभी पात्र शंकर भगवान् की सौगन्ध खाते हैं-मानो वे उनके इष्ट हों। अब रह गयी शाक्तों की बात। ‘मानस’ की कथा में शिव पत्नी सती जी श्रीराम की परीक्षा लेने सीता जी के वेश में जाती है। इसी बात पर शंकर भगवान् अपनी पत्नी का त्याग कर देते हैं । ‘एति तन सतिहिं भेंट मोहि नाहि’ क्योंकि उन्होंने प्रभु पत्नी जगत् माता सीता जी का रूप धारण किया था। इसी तरह श्रीराम भी शंकर पत्नी को माता कहते हैं। सती दूसरे जन्म में पार्वती जी बनी जो आज भी हिन्दुओं में शक्ति का रूप मानी जाती है। मानस’ के प्रभाव के कारण ही आज हर हिन्दू घर में समान रूप से भगवान् विष्णु, भगवान् शंकर और शक्ति-दुर्गा माता की पूजा होती है। तुलसी यदि ‘मानस’ की रचना न करते तो शायद हिन्दू जाति का आज नामोनिशान भी न होता।

तुलसीदास जी ने श्रीराम का चरित्र शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वित रूप में चित्रित किया है। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं और भगवान् भी। वह एक आदर्श पुत्र, भाई, पति, मित्र, स्वामी, पिता एवं शत्रु हैं। तुलसी ने उनके चरित्र द्वारा समाज में व्यक्ति के सुधार की ओर ध्यान दिया जबकि उससे पूर्व सभी भक्त एवं सन्त कवियों ने समाज सुधार की ओर ही ध्यान दिया था-‘मानस’ के सभी पात्र आदर्श हैं।

तुलसी ने वर्ण व्यवस्था का पक्ष लेकर, राम राज्य जैसे आदर्श समाज की कल्पना हिन्दू जाति को एक कवच समान प्रदान की जिससे इस्लाम धर्म के प्रचार को रोका जा सका। अकेले ‘मानस’ ने ही हिन्दू जाति को मुस्लिम बनने से रोक लिया। तुलसी के काव्य की यह सबसे बड़ी विशेषता है। उन्होंने जो लिखा वह कोरी कल्पना न था बल्कि ‘नाना पुराण निगमागम’ का निचोड़ था, ज्ञान और भक्ति का समन्वित रूप था। हम भी तुलसी के साथ यह कहने में कोई संकोच नहीं करते सियाराममय सब जग जानी। करो प्रणाम जोरि जुग पाणी॥

4. समन्वयवादिता:
तुलसी के काव्य में समन्वयवादिता का गुण सर्वत्र विद्यमान है। उनके काव्य में लोक और शास्त्र ही नहीं, वैराग्य और गार्हस्थ्य का, ज्ञान, भक्ति और कर्म का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पंडित और अपण्डित का, आदर्श और व्यवहार का समन्वय देखने को मिलता है। सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक सभी क्षेत्रों में उनका समन्वय रूप उजागर हुआ है।

5. मुक्तक काव्य:
तुलसीदास की दोहावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका आदि कृतियाँ मुक्तक काव्य की कोटि में आती हैं। हिन्दी-साहित्य के मुक्तक साहित्य की ये उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में कवि की आत्मानुभूतियों का चित्रण हुआ है। किन्तु तुलसीदास ने राम कथा को जिस रूप में ग्रहण किया है उसमें भावुकता के लिए स्थान बहुत कम है, जहाँ वह है भी वह मर्यादित है। उनके कृष्ण काव्य में सूर जैसी भावुकता उत्पन्न नहीं हो सकी। हाँ, उनकी ‘विनय पत्रिका’ आत्म-निवेदन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है।

6. प्रबन्ध कौशल:
तुलसी प्रमुखतः प्रबन्ध काव्यकार हैं। ‘रामचरितमानस’ प्रबन्ध कौशल की दृष्टि से हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। ‘मानस’ की कथा का आधार आध्यात्मक रामायण’ और ‘वाल्मीकि रामायण’ है, किन्तु उस कथा हिन्दी साहित्य का इतिहास के निर्वाह में अनेक मौलिक एवं नवीन प्रसंगों की उद्भावना कर, तुलसी ने अपनी मौलिकता एवं कलात्मकता का परिचय दिया है। यथा श्रीराम सीता जी के प्रथम मिलन का फुलवारी दृश्य, धनुष भंग के समय परशुराम जी का तुरन्त जनक सभा में प्रकट होना आदि के दृश्य। मानस की कथा चार-चार वक्ताओं और श्रोताओं के माध्यम से कही गई है किन्तु कहीं भी रोचकता में बाधा नहीं पड़ती। ‘मानस’ में महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान हैं। श्रीराम धीरोदात्त नायक हैं, शृंगार, वीर आदि सभी रसों से ‘मानस’ अनुप्राणित है और सबसे बड़ी बात ‘मानस’ का चरित्र-चित्रण इतना स्वाभाविक एवं सशक्त बन पड़ा है कि लगता है तुलसी मनोविज्ञान के भी कुशल ज्ञाता थे। मानस के सभी पात्र अलौकिक होते हुए भी लौकिक प्रतीत होते हैं-मानवीय संवेदना से युक्त एवं सुख-दुःख को अनुभव करने वाले।

वस्तुत:
तुलसी के काव्य की आत्मा बड़ी विराट है। उनके भावना लोक की परिधि बड़ी व्यापक और विशाल है और इसे भावभूमि में जितना व्यापक संचरण तुलसी के कवि हृदय ने किया है, उतना और किसी ने नहीं।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल

लघु प्रश्नोत्तर

भक्ति काल

प्रश्न 1.
भक्ति काल का समय कब से कब तक का माना जाता है।
उत्तर:
भक्ति काल का समय संवत् 1375 से संवत् 1700 तक माना जाता है।

प्रश्न 2.
भक्ति काल में कौन-सी दो प्रमुख धाराएँ प्रचलित हुई?
उत्तर:
निर्गुण भक्ति धारा तथा सगुण भक्ति धारा।

प्रश्न 3.
निर्गुण भक्ति धारा की कितनी शाखाएँ थीं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
निर्गुण भक्ति धारा की दो शाखाएं थीं-ज्ञान मार्गी भक्ति शाखा तथा प्रेम मार्गी भक्ति शाखा।

प्रश्न 4.
सगुण भक्ति धारा की कितनी शाखाएँ थीं ? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
सगुण भक्ति धारा की दो शाखाएँ थीं-कृष्णा भक्ति शाखा तथा राम भक्ति शाखा।

प्रश्न 5.
ज्ञान मार्गी शाखा के किन्हीं चार कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कबीर दास, गुरु नानक देव, रैदास तथा मलूक दास।

प्रश्न 6.
प्रेम मार्गी काव्य के प्रमुख दो कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी तथा कुतुबन।

प्रश्न 7.
कृष्ण भक्ति शाखा के दो प्रमुख कवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सूरदास, नन्द दास।

प्रश्न 8.
भक्ति काल की प्रत्येक शाखा तथा उसके प्रतिनिधि कवि का नाम लिखें।
उत्तर:
ज्ञान मार्गी शाखा-कबीर प्रेम मार्गी शाखा-जायसी कृष्ण मार्गी शाखा-सूरदास राम मार्गी शाखा–तुलसीदास

प्रश्न 9.
अष्टछाप के कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास यह चारों कवि महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। नन्ददास, चतुर्भुज दास, छीत स्वामी तथा गोविन्द स्वामी यह चारों महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलदास के शिष्य थे।

प्रश्न 10.
दो कृष्ण भक्त कवियों के नाम लिखें जो किसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित नहीं थे?
उत्तर:

  1. रसखान
  2. मीराबाई

प्रश्न 11.
अवधी भाषा के दो ग्रन्थों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. पद्मावत
  2. रामचरितमानस।

प्रश्न 12.
कवित्त और सवैये लिखने वाले प्रसिद्ध कवि का नाम लिखिए।
उत्तर:
रसखान।

प्रश्न 13.
भ्रमर गीत रचने वाले दो कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
सूरदास, नन्ददास।

प्रश्न 14.
भ्रमर गीत का प्रमुख प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर:
भ्रमर गीत का प्रमुख प्रतिपाद्य निर्गुण का खण्डन और सगुण का मण्डन है।

प्रश्न 15.
ब्रज भाषा के दो ग्रन्थों के नाम लिखें।
उत्तर:
विनय पत्रिका, सूरसागर।

प्रश्न 16.
रामचरितमानस में प्रयुक्त छन्दों के नाम लिखें।
उत्तर:
दोहा, सोरठा, चौपाई।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित रचनाओं के कवियों के नाम लिखें। रामचरितमानस, बीजक, सूरसागर, पद्मावत
उत्तर:
तुलसी, कबीर, सूरदास, जायसी।

प्रश्न 18.
भक्ति काल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग क्यों है? केवल दो कारण बताएं।
उत्तर:
(क) समन्वय की व्यापक भावना।
(ख) शील और सदाचार का महत्त्व।

प्रश्न 19.
भक्ति काल की दो सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख करें?
उत्तर:
(क) नाम की महत्ता
(ख) भक्ति-भावना की प्रधानता।

प्रश्न 20.
सन्त काव्य की चार प्रवृत्तियों के नाम लिखें?
उत्तर:

  1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर जोर देना।
  2. रूढ़ियों एवं आडम्बरों का विरोध करना।
  3. जाति-पाति के भेदभाव का खण्डन।

प्रश्न 21.
प्रेममार्गी सूफ़ी काव्य धारा के प्रमुख कवियों तथा उनकी रचनाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
कुतुबन-मृगावती। मंझन-मधुमालती। जायसी-पद्मावत। उसमान-चित्रावली। कासिमशाह-हंसजवाहिर। नूरमुहम्मद–इन्द्रावती।

प्रश्न 22.
सूफ़ी काव्य की दो प्रमुख प्रवृत्नियों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  1. मसनवी पद्धति।
  2. हिन्दू संस्कृति का चित्रण।

प्रश्न 23.
निम्नलिखित ग्रन्थों की भाषा लिखिएपद्मावत, गीतावली, बीजक, अखरावट
उत्तर:
पद्मावत-अवधी गीतावली-ब्रजभाषा बीजक-सधुक्कड़ी अखरावट-अवधी।

प्रश्न 24.
हिन्दी साहित्य का इतिहास सर्वप्रथम किसने लिखा?
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।

प्रश्न 25.
तुलसीदास किस मुग़ल सम्राट् के समकालीन थे?
उत्तर:
सम्राट अकबर।

प्रश्न 26.
संत काव्य परम्परा में आने वाले उत्तर प्रदेश के दो कवियों के नाम लिखें।
उत्तर:
कबीरदास, रैदास।

प्रश्न 27.
कबीर वाणी का संग्रह किस ग्रन्थ में हुआ है ? इसके कितने भाग हैं ?
उत्तर:
कबीर वाणी का संग्रह बीजक नामक ग्रन्थ में हुआ है। इसके साखी, सबद तथा रमैणी तीन भाग हैं।

प्रश्न 28.
भ्रमर गीत में गोपियों ने ईश्वर के किस रूप को श्रेष्ठ कहा है?
उत्तर:
सगुण रूप।

प्रश्न 29.
जायसी भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं?
उत्तर:
जायसी भक्तिकाल निर्गुण भक्ति धारा की प्रेममार्गी शाखा के कवि हैं।

प्रश्न 30.
मीरा की भक्ति किस प्रकार की है?
उत्तर:
माधुर्य भाव की।

प्रश्न 31.
जायसी का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
मलिक मुहम्मद जायसी।

प्रश्न 32.
सूरदास की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
सूरसागर एवं सूरसारावली।

प्रश्न 33.
तुलसीकृत ब्रज भाषा के किन्हीं दो ग्रन्थों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कृष्ण गीतावली, दोहावली।

प्रश्न 34.
सूरदास को किस रस का सम्राट माना जाता है?

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल
उत्तर:
वात्सल्य रस।।

प्रश्न 35.
पद्मावत की रचना किस शैली में हुई है?
उत्तर:
पद्मावत की रचना दोहा-चौपाई शैली में हुई है।

प्रश्न 36.
कबीर दास के गुरु का नाम लिखें।
उत्तर:
श्री रामानन्द जी कबीर दास के गुरु थे।

भक्तिकालीन प्रमुख कवि

1. कबीर

प्रश्न 1.
कबीर किस काल के और किस धारा के कवि हैं ?
उत्तर:
कबीर भक्तिकालीन निर्गुण भक्ति धारा के कवि हैं।

प्रश्न 2.
कबीर ने ईश्वर की उपासना किस रूप में की?
उत्तर:
कबीर ने ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की।

प्रश्न 3.
कबीर आत्मा और परमात्मा को किस रूप में मानते हैं ?
उत्तर:
कबीर आत्मा को पत्नी और परमात्मा को पति रूप में मानते हैं।

प्रश्न 4.
कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उनकी भाषा में अनेक भाषाओं के शब्दों का मिश्रण है, इसलिए उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहते हैं। वैसे भी कबीर साधुओं की तरह कई जगह घूमे जिस कारण उनकी भाषा पर अनेक भाषाओं का प्रभाव है।

प्रश्न 5.
कबीर ने गुरु को गोबिन्द से बड़ा क्यों माना है?
उत्तर:
गुरु की कृपा से ही गोबिन्द के दर्शन होते हैं।

2. जायसी

प्रश्न 1.
जायसी का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर:
जायसी का पूरा नाम मलिक मुहम्मद जायसी है।

प्रश्न 2.
जायसी भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं?
उत्तर:
जायसी भक्तिकालीन निर्गुण भक्ति धारा की प्रेम मार्गी शाखा के कवि हैं।

प्रश्न 3.
जायसी की रचनाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
पद्मावत्, अखरावट, चित्रलेखा, आखिरी कलाम

प्रश्न 4.
हिन्दी का प्रथम प्रमाणिक महाकाव्य किसे माना जाता है ?
उत्तर:
जायसी कृत पद्मावत।

प्रश्न 5.
पद्मावत की कोई-सी दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(क) विरहवर्णन
(ख) लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति।

प्रश्न 6.
जायसी आत्मा और परमात्मा को किस रूप में मानते हैं?
उत्तर:
जायसी आत्मा को पति तथा परमात्मा को पत्नी मानते हैं।

प्रश्न 7.
जायसी के काव्य की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
खण्डात्मक प्रवृत्ति से परहेज़ तथा रहस्यवाद।

3. सूरदास

प्रश्न 1.
सूरदास भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं ?
उत्तर:
सूरदास भक्तिकालीन सगुण भक्तिधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।

प्रश्न 2.
सूरदास की रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
सूरसागर, साहित्य लहरी तथा सूरसारावली।

प्रश्न 3.
सूरदास की रचनाओं की भाषा कौन-सी है?
उत्तर:
सूरदास की रचनाओं की भाषा ब्रज है।

प्रश्न 4.
सूरदास किस रस के सम्राट माने जाते हैं ?
उत्तर:
सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट् माने जाते हैं।

प्रश्न 5.
सूरदास आत्मा और परमात्मा को किस रूप में मानते हैं ?
उत्तर:
सूरदास आत्मा और परमात्मा को सखा मानते हैं।

प्रश्न 6.
सूरदास के काव्य की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
वात्सल्य वर्णन और श्रृंगार वर्णन।।

प्रश्न 7.
भ्रमरगीत का प्रमुख प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर:
भ्रमरगीत में गोपियों के विरह का वर्णन कर कवि ने निर्गुण पर सगुण की विजय दिखाई है।

4. तुलसीदास

प्रश्न 1.
तुलसीदास भक्तिकाल की कौन-सी धारा एवं शाखा के कवि हैं?
उत्तर:
तुलसीदास भक्तिकालीन सगुण भक्ति धारा की राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।

प्रश्न 2.
तुलसीदास द्वारा रचित किन्हीं चार रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
रामचरित मानस, कवितावली, विनय पत्रिका, पार्वती मंगल।

प्रश्न 3.
तुलसीदास द्वारा रचित काव्य मुख्यतः किस भाषा में हैं ?
उत्तर:
अवधी।

प्रश्न 4.
तुलसीदास द्वारा रचित किन्हीं दो ब्रज भाषा की रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
गीतावली तथा दोहावली।

प्रश्न 5.
तुलसी काव्य की कोई-सी दो विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
जनभाषा का प्रयोग तथा समन्वयवादिता।

प्रश्न 6.
तुलसी द्वारा लिखित प्रबन्ध काव्य का नाम लिखिए।
उत्तर:
रामचरितमानस।

प्रश्न 7.
तुलसी द्वारा लिखित मुक्तक काव्य का नाम लिखिए।
उत्तर:
विनयपत्रिका।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भक्तिकाल का समय माना जाता है ?
(क) सं० 1350 से 1700 ई०
(ख) संवत 1350 से 1600
(ग) सं० 1700 से 1900 ई०
(घ) सं० 1900 से आज तक
उत्तर:
(क) सं० 1350 से 1700 ई०

प्रश्न 2.
निर्गुण भक्ति काव्य के प्रतिनिधि माने जाते हैं ?
(क) संत कबीरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) सूरदास
(घ) विद्यापति
उत्तर:
(क) संत कबीरदास

प्रश्न 3.
रामभक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि हैं ?
(क) कबीरदास
(ख) सूरदास
(ग) तुलसीदास
(घ) केशव
उत्तर:
(ग) तुलसीदास

प्रश्न 4.
कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं ।
(क) सूरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) कबीरदास
(घ) केशवदास
उत्तर:
(क) सूरदास

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म किन भागों में बंट गया ?
(क) हीनयान
(ख) महायान
(ग) हीनयान और महायान
(घ) कौई नहीं
उत्तर:
(ग) हीनयान और महायान

प्रश्न 6.
पद्मावत काव्य के रचयिता कौन हैं ?
(क) कबीरदास
(ख) तुलसीदास
(ग) सूरदास
(घ) जायसी
उत्तर:
(घ) जायसी

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल Questions and Answers, Notes.

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

प्रश्न 1.
हिन्दी-साहित्य के आदिकाल के नामकरण सम्बन्धी विभिन्न विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुए अपना मत व्यक्त कीजिए।
अथवा
हिन्दी-साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल कहना कहाँ तक उचित है ? अपना मत व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी-साहित्य के प्रारम्भिक काल की साहित्य-सामग्री की प्रामाणिकता का कोई ठोस आधार अभी तक भी नहीं मिल सका है जिसके कारण इस काल के नामकरण की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है। साधारणतया इतिहासकारों ने दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक के साहित्य रचनाकाल को हिन्दी साहित्य का आरम्भिक काल’ कहा है। विभिन्न विद्वानों ने इस काल का नामकरण अपने-अपने तौर पर किया है। कुछ प्रसिद्ध इतिहासकारों के मत यहाँ प्रस्तुत हैं

1. मिश्र बन्धुओं का नामकरण :
आदिकाल : मिश्र बन्धुओं ने ‘मिश्रबन्धु विनोद’ में हिन्दी-साहित्य के इस आरम्भिक युग को ‘आदिकाल’ की संज्ञा दी है। उन्होंने अपने नामकरण के सम्बन्ध में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं दिया, चूंकि यह युग हिन्दी-साहित्य का आदि युग था। अत: उन्होंने इसे आदिकाल की संज्ञा से विभूषित किया। इस नामकरण में वैज्ञानिक पद्धति का सर्वथा अभाव था।

2. आचार्य शुक्ल का नामकरण :
वीरगाथा काल : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी-साहित्य का प्रथम इतिहास ग्रन्थ लिखा। उसमें उन्होंने हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल को ‘वीरगाथा काल’ की संज्ञा दी। अपने मत के पक्ष में उन्होंने रासो ग्रन्थों को आधार बनाया, किन्तु इनमें से अधिकांश ग्रन्थ या तो इस काल के बाद की रचनाएँ सिद्ध हुए या फिर उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध थी तथा कुछ रचनाएँ केवल नोटिस मात्र थीं। शुक्ल जी ने विद्यापति पदावली और खुसरो की पहेलियों को छोड़ अन्य सभी ग्रन्थों को वीरगाथात्मक मानते हुए ही इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया।

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी और श्री मेनारिया जी ने अधिकांश आधार ग्रन्थों की प्रामाणिकता को संदिग्ध मानते हुए शुक्ल जी के नामकरण से असहमति प्रकट की। मेनारिया जी ‘खुमान रासो’ को आदिकालीन रचना नहीं मानते। श्री नाहटा जी ने तो इसका रचना काल संवत् 1730 और संवत् 1760 के बीच दिया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान रूप में पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता भी सिद्ध नहीं हो सकी।

शुक्ल जी ने ‘विजयपाल रासो’ को वीरगाथात्मक रचना माना है जबकि यह एक श्रृंगार परक काव्य है। सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रेम प्रसंगों से भरा है। साथ ही खुमान रासो, हम्मीर रासो, जयचन्द्र प्रकाश, जय-मयंक-जस-चन्द्रिका, पृथ्वीराज रासो तथा परमाल रासो आदि ग्रन्थ एकदम अनैतिहासिक हैं। अत: हम कह सकते हैं कि जिन रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ किया वह निम्नलिखित कारणों से अनुपयुक्त है

(i) इस नामकरण में इस युग के धार्मिक साहित्य की पूर्णतः अपेक्षा की गई है, जो इसकी एक व्यापक प्रवृत्ति का परिचायक है।
(ii) इस युग का नामकरण जिन रचनाओं को आधार मान कर किया गया, इनमें अधिकांश अप्रामाणिक हैं, कुछ नोटिस मात्र हैं तथा कुछ का रचना काल बाद का सिद्ध हो चुका है।
अत: शुक्ल जी के नामकरण ‘वीर गाथाकाल’ को हम उपयुक्त नहीं मान सकते।

3. डॉ० श्याम सुन्दर दास जी ने भी आचार्य शुक्ल के मत का समर्थन किया है।

4. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का नामकरण :
बीजवपन काल : आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल को ‘बीजवपन काल’ की संज्ञा दी है। उनके हिन्दी साहित्य का इतिहास नामकरण का आधार यह था कि इस युग में क्योंकि अनेकानेक प्रवृत्तियों का उद्भव हुआ। अत : इसे ‘बीजवपन काल’ कहना चाहिए। सूक्षमता से विचार करने पर हम पाते हैं कि इस युग के हिन्दी साहित्य में किसी भी नई साहित्यिक प्रवृत्ति ने जन्म नहीं लिया बल्कि इस युग की सारी ही प्रवृत्तियाँ अपभ्रंश आदि के पूर्ववर्ती साहित्य की परम्परा का विकास थीं। अत: द्विवेदी जी का नामकरण भी उपयुक्त नहीं माना जा सकता।

5. डॉ० रामकुमार वर्मा का नामकरण : संधिकाल तथा चारण काल :
डॉ० वर्मा का मत था कि इस युग में क्योंकि अपभ्रंश की समाप्ति और प्राचीन हिन्दी का उद्भव हुआ अत: इस काल को ‘संधिकाल’ कहना चाहिए। आपने सं० 750-1000 तक की रचनाओं को संधिकाल में रखा है। सं० 1000 से 1375 तक के काल को आपने ‘चारण काल’ की संज्ञा दी, क्योंकि इस काल में चारणों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के प्रशस्ति गान की प्रवृत्ति अधिक होने की बात, वे मानते हैं।

हमारे मत में किसी भी युग को दो नाम देना उचित नहीं है और न ही इस युग की शैलियों और व्यक्तियों को बांटना युक्ति संगत है। दूसरे यह नामकरण भाषा के आधार पर किया गया है। ऐसा करने से हिन्दी साहित्य का विकास और परिवर्तन क्रम का अध्ययन असम्भव हो जाएगा। तीसरे इस युग के जैन साहित्य को कहीं भी स्थान न मिल पायेगा। अतः डॉ० रामकुमार वर्मा का नामकरण भी उपयुक्त नहीं।

6. श्री राहुल सांकृत्यायन का नामकरण : सिद्ध-सामन्त काल :
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल को ‘सिद्ध सामन्त काल’ की संज्ञा दी है। इस नामकरण के मूल में उन्होंने शुक्ल जी की भान्ति ही प्रवृत्ति विशेष को आधार बनाया है। उनके विचारानुसार यह नाम अधिक सार्थक है, क्योंकि इस युग में एक ओर सिद्धों की वाणी गूंज रही थी तो दूसरी ओर सामन्तों की स्तुति हो रही थी। राहुल जी का यह नामकरण भी सार्थक नहीं है, क्योंकि एक तो सिद्ध साहित्य अपभ्रंश में है और सामन्त साहित्य हिन्दी में, दूसरे भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह नाम अनुपयुक्त है। राहुल जी ने अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी को एक भाषा माना है, जो सही नहीं है।

7. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का नामकरण : आदिकाल :
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल के नामकरण में निर्णयात्मक योगदान दिया है। उनके मतानुसार यह काल-खण्ड विविध विकासोन्मुख प्रवृत्तियों का युग है। जिस साहित्य को शुक्ल जी ने धार्मिक और साम्प्रदायिक कह कर उपेक्षा कर दी है उसमें भी सहज और उदात्त मानवीय भावनाओं के दर्शन होते हैं तथा धर्म, अध्यात्म या सम्प्रदाय विशेष का नाम साहित्य की सहज प्रेरणा में बाधक नहीं हो सकता। यदि हम ऐसा मान लें तो भक्तिकाल का समूचा साहित्य हमें एक तरफ रख देना होगा। इसके अतिरिक्त श्रृंगार, लोक रुचियों में विविधता भी इस युग में देखी जा सकती है। अत: डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी इस काल को वीरगाथा काल न कह कर ‘आदिकाल’ कहना अधिक संगत मानते हैं। यद्यपि वे स्वयं इस नामकरण से सन्तुष्ट नहीं हैं, क्योंकि यह नामकरण भ्रामक धारणा की सृष्टि करने वाला है। किन्तु उन्होंने कहा है कि यह नाम बुरा नहीं है।

द्विवेदी जी ने इस काल को बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल माना है जो उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। अत: द्विवेदी जी का नामकरण ‘आदिकाल’ ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। इसी नाम को अधिकांश इतिहासकारों, विद्वानों ने मान्यता दी है। हिन्दी साहित्य में आज तक जो प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं उन सबका आदिम बीज हमें इस युग ‘आदिकाल’ के साहित्य में खोज सकते हैं। इस युग की आध्यात्मिक, शृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का विकास हम परवर्ती ‘युगों के साहित्य’ में देखते हैं। द्विवेदी जी के मत से सहमत होते हुए हम हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल को ‘आदिकाल’ नामकरण अधिक संगत मानते हैं।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

प्रश्न 2.
आदिकालीन परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसलिए किसी भी काल के साहित्य को समझने के लिए उन परिस्थितियों का ठीक-ठीक अवलोकन करना ज़रूरी होता है, जो उस युग के साहित्य को जन्म देती हैं। इसलिए आदिकाल के साहित्य के इतिहास को जानने के लिए उस युग की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का जानना ज़रूरी है।

1. राजनीतिक परिस्थितियाँ:
आदिकाल की सीमा आचार्य शुक्ल जी ने सम्वत् 1050 से सम्वत् 1375 तक मानी है, जिसे अधिकांश इतिहासकारों ने मान्यता दी है। इस काल की राजनीतिक परिस्थितियां भारत के अन्तिम शक्ति सम्पन्न हिन्दू शासक हर्ष वर्धन की मृत्यु से आरम्भ होती हैं। हर्ष वर्धन जितनी देर जीवित रहे, उन्होंने मुसलमानों को भारत पर आक्रमण करने से रोके रखा किन्तु उनके उत्तराधिकारी इसमें सफल न हो पाए क्योंकि उनकी मृत्यु के साथ ही भारत की संगठित राजसत्ता टुकड़े-टुकड़े हो गई थी। परिणामस्वरूप अव्यवस्था, विश्रृंखलता, गृहकलह सिर उठाने लगी थी। आपस में लड़लड़ कर यहाँ के राजा इतने कमज़ोर हो गए थे कि बाहरी आक्रमण का मिल कर मुकाबला न कर सके। फलस्वरूप यहाँ मुसलमानों का शासन स्थापित हो गया। इस प्रकार के वातावरण में किसी विशेष प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति पनप एवं विकसित नहीं हो सकी।

मुसलमानों के आक्रमण उन स्थानों पर अधिक हो रहे थे, जहाँ हिन्दी विकसित हो रही थी। इसलिए उन क्षेत्रों के साहित्य में युद्ध के बादलों की छाया स्पष्ट देखने को मिलती है। इस काल में एक ओर तो मुसलमानों के आक्रमण हो रहे थे तो दूसरी ओर यहाँ के राजा भी जनता के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे थे। जनता पर उनके अत्याचार दिनों-दिन बढ़ते ही जा रहे थे। ऐसे वातावरण में कवियों का एक वर्ग लड़ मरकर जीना चाहता था तो दूसरा आध्यात्मिक पक्ष के बारे में सोचता था। इस युग के राजाओं के आश्रय में पल रहे कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का बहुत बढ़ा-चढ़ा कर यशोगान किया। स्वतन्त्र रूप से रचना करने वाले कवियों के लिए उस युग का वातावरण उपयुक्त नहीं था।

2. सामाजिक परिस्थितियाँ:
इस युग की राजनीतिक परिस्थितियों ने सामाजिक परिस्थितियों को भी प्रभावित किया। जनता धर्म और राज्य दोनों ओर से पीड़ित थी। दोनों ही उसका शोषण कर रहे थे। जाति-पाति के बन्धन कड़े होते जा रहे थे। नारी का सम्मान कम हो गया था। उसे मात्र भोग की वस्तु समझा जाने लगा था, स्त्रियों का खरीदना बेचना, उनका अपहरण कर लेना साधारण सी बात थी। सती प्रथा अपना विकराल रूप धारण कर चुकी थी। साधारण गृहस्थियों पर योगियों का आतंक छाया रहता था। जन्त्र-तन्त्र, जादू टोना भी अकाल और महामारी को दूर करने में असमर्थ हो रहे थे। लोगों को अपनी रोटी रोज़ी के लिए नाना प्रकार की मुसीबतें उठानी पड़ती थीं।

ऐसी विकट सामाजिक परिस्थितियों में हिन्दी कवियों को अपनी रचनाओं के लिए सामग्री जुटानी पड़ी।

3. धार्मिक परिस्थितियाँ:
आदिकाल के आरम्भ होने से पूर्व भारत का धार्मिक वातावरण शान्त था। अनेक उपासना पद्धतियाँ एक साथ चल रही थीं, किन्तु सातवीं शताब्दी के आरम्भ से जैन और शैव मत आपस में टकराने लगे। 12वीं शती तक वैष्णव धर्म भी शक्तिशाली हो गया था। बौद्ध धर्म भी जन्त्र-मन्त्र, जादू टोने की भूल-भुल्लैयों में खो गया था। जनता में आत्मविश्वास की कमी आने लगी थी। धार्मिक स्थलों की दुर्दशा हो चली थी। क्या हिन्दू मन्दिर और क्या बौद्ध विहार सभी व्यभिचार, आडम्बर, धन लोलुपता आदि दोषों से ग्रस्त हो चुके थे। पुजारी और महन्त धर्म के वास्तविक रूप को भूल कर धन के मोह में फँस चुके थे।

इसी युग में देश में इस्लाम धर्म का भी प्रवेश हुआ। शासक बन जाने पर इस्लाम ने हिन्दू धर्म के लिए एक बहुत बड़ा खतरा खड़ा कर दिया किन्तु धार्मिक नेता अपने स्वार्थ को त्याग कर जनता को सही दिशा न दिखा सके। शूद्र कही जाने वाली जाति को उन्होंने गले नहीं लगाया जिसके फलस्वरूप उनमें से बहुत लोगों ने इस्लाम धर्म को अपना लिया। धार्मिक परिस्थितियाँ अत्यन्त विषम और असन्तुलित होने के कारण जनसाधारण में गहरा असन्तोष, क्षोभ और भ्रम छाया हुआ था। इस युग के कवियों ने भी इसी मानसिक स्थिति के अनुरूप खण्डन मण्डन, हठयोग, वीरता एवं श्रृंगार का साहित्य लिखा।

4. आर्थिक परिस्थितियाँ:
सम्राट हर्षवर्धन के बाद कोई दृढ़ हिन्दू राज्य स्थापित न हो सकने के कारण हर राजा अपनी सत्ता को बढ़ाने के लिए ललायित हो उठा। नित्य लड़ाइयाँ लड़ी जाने लगी, जिससे राजाओं की आर्थिक दशा क्षीण हिन्दी साहित्य का इतिहास हुई। राजाओं ने अपने खजाने भरने के लिए जनता से धन प्राप्त करने के लिए अत्याचार शुरू किए और धीरे-धीरे आम आदमी की हालत इतनी खस्ता हो गई कि उसने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी सन्तान तक को बेचना शुरू कर दिया। मुसलमानों के आक्रमण शुरू हुए। उन्होंने जो लूटमार की इससे देश की जनता और ग़रीब हो गई।

5. सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:
भारतीय संस्कृति में चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला और वास्तुकला का बड़ा गौरवमय स्थान था किन्तु मुसलमानों ने आकर इस परम्परा को छिन्न-भिन्न कर के रख दिया। उन्होंने हर कला में हस्तक्षेप शुरू किया। यहां तक कि भारतीय उत्सवों, मेलों, परिधानों और विवाह आदि सभी पर मुस्लिम रंग छाने लगा। इस प्रकार हम इस युग को भारतीय कलाओं के ह्रास का युग भी कह सकते हैं।

प्रश्न 3.
आदिकालीन राज्याश्रित काव्यधारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए इसकी काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
आदिकालीन चारण काव्य की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
आदिकालीन वीर गाथा काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हिन्दी-साहित्य के आदिकाल में राजपूत राजाओं के आश्रित चारण कवियों द्वारा निर्मित काव्य ‘चारण काव्य’ कहलाता है। इसका प्रधान विषय वीर गाथाओं से सम्बद्ध है। अतः इसे वीरगाथा काव्य भी कहते हैं। राज्याश्रित कवियों द्वारा लिखे साहित्य को ही राज्याश्रित काव्यधारा कहा जाता है। . इसी युग में भारत पर मुसलमानों के आक्रमणों में तेजी आई। अत: इसके प्रतिरोध के लिए एवं राजाओं की शक्ति प्रदर्शन में निहित वैयक्तिक प्रतिष्ठा की भावना की पूर्ति हेतु वीर रस प्रधान काव्य रचनाओं का होना नितान्त स्वाभाविक था। चूंकि राजनीतिक प्रशासन की दृष्टि से यह युग राजे महाराजाओं और सामन्तों का युग था। इस कारण उनके आश्रय में रहने वाले कवियों, चारणों ने ही अधिकांश रूप में वीर रस प्रधान काव्य की रचना की।

इस युग के वीरगाथा काव्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता को लेकर काफ़ी वाद-विवाद हुआ और हो रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आदिकाल का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए जिन बारह पुस्तकों का सहारा लिया उनमें से केवल चार ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं-खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो और परमाल रासो। इनमें से खुमानरासो और पृथ्वीराज रासो प्रबन्ध काव्य हैं तथा अन्य दोनों वीर गीतिकाव्य । इन ग्रन्थों की प्रामाणिकता के साथ-साथ इनकी ऐतिहासिकता भी संदिग्ध है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि ये सभी ग्रन्थ अपने मूल रूप में आज प्राप्त नहीं हैं। इनकी भाषा शैली तथा विषय सामग्री को देखते हुए लगता है कि लगातार शताब्दियों तक इनमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होता रहा। यथा परमाल रासो किसी भी सूरत में मूल प्राचीन ‘आल्हाखण्ड’ नहीं हो सकता। खुमान रासो में 16वीं शती तक की घटनाओं का संकलन है। पृथ्वीराज रासो की भी यही स्थिति है। केवल बीसलदेव रासो में कम हेर-फेर हुआ है परन्तु इसकी कथा में भी असम्बद्ध घटनाओं की भरमार है।

इन रचनाओं की ऐतिहासिकता संदिग्ध होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि चारण कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति गान में अपनी कल्पना और अतिशयोक्ति का प्रयोग किया। इस तरह उन्होंने अपने चरित नायकों को सर्वविजेता और उनके चरित्र को उदात्त और उत्कृष्ट सिद्ध करने का प्रयास किया है। पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज को उन राजाओं पर भी विजय प्राप्त करते बताया गया है जो उसके कई शताब्दी पूर्व या बाद में विद्यमान् थे तथा जिन समकालीन राजाओं का इस ग्रन्थ में उल्लेख हुआ है उनके अस्तित्व से ही इतिहास इन्कार करता है। यदि चारण काव्य अथवा वीर गाथा काव्य की ऐतिहासिकता, प्रामाणिकता और प्रक्षिप्तता को नजर अन्दाज कर दिया जाए तो साहित्यिक दृष्टि से इस काव्यधारा का साहित्य अति सुन्दर है। इसमें वीर रस का प्रौढ़ परिपाक हुआ है। युद्ध वीररस की काव्यशास्त्रीय सम्पूर्ण सामग्री का ऐसा एकत्र अभिनव समन्वय भारतीय आधुनिक भाषाओं के किसी भी काव्य में शायद ही उपलब्ध हो सके।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

काव्यगत विशेषताएँ:
राज्याश्रित काव्यधारा के वीरगाथा काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

1. वीर और श्रृंगार रस का समन्वय:
आदिकाल में अनेक ‘रासो’ ग्रन्थों की रचना हुई। रासो शब्द वीरता का परिचायक है। इन ग्रन्थों में वीर रस की प्रधानता है। अपने आश्रयदाताओं की वीरता को उभारना और प्रशंसा कर पारितोषिक प्राप्त करना कवियों का मुख्य लक्ष्य था। किसी भी दृष्टि से क्यों न हो वीर रस का पूर्ण और प्रभावशाली वर्णन इस युग के साहित्य में हुआ है। उस युग का वातावरण पूर्णतया युद्ध एवं शस्त्रों की झंकार का था। अतः वीर रस का परिपाक स्वाभाविक ही है। इस युग के साहित्य में वीर रस के सहायक माने जाने वाले रौद्र, भयानक आदि रसों का भी उचित वर्णन हुआ है। आदिकाल में वीरता का ताण्डव नृत्य शृंगार के प्रांगण में हुआ। यह इस युग के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है। इस युग में अधिकांश युद्ध किसी-न-किसी नारी के लिए होते थे अथवा कवियों ने किसी सुन्दर नारी की कल्पना कर ली।

फलस्वरूप इस युग के काव्य में कंगना की झंकार और तलवार की खनखनाहट एक साथ सुनाई देती है। कहीं-कहीं तो श्रृंगार और वीर रस का समन्वय इतना अधिक मुखरित हो गया है कि वीरता की मूल भावनाएँ प्रायः दब-सी गई हैं। इन वीरगाथाओं में श्रृंगार कभी-कभी वीरता का सहकारी और कभी-कभी उसका उत्पादक बनकर आया है। वीरगाथा काव्य में श्रृंगार का वर्णन वासना के आंगन से बाहर नहीं झांक पाया। वह उत्तेजित तो कर सकता है पर प्रेम भंगार की सहज भावना को मिटा नहीं सकता। यह स्वीकार करना होगा कि वीर और श्रृंगार रसों का समन्वय इस युग के कलाकारों की जागरूकता और कुशाग्रता का परिचायक है। उन्होंने श्रृंगार और वीर रस के अन्तर्गत परम्पराओं का पूर्ण रूप से निर्वाह किया है।

2. युद्धों का सजीव वर्णन:
वीरगाथा काव्य या चारण काव्य में युद्धों और युद्धों के काम आने वाली सामग्री का संजीव वर्णन हुआ है। वीरता और युद्धों की प्रमुख प्रवृत्ति के कारण इस सजीवता का रहस्य स्पष्ट है। इस युग का कवि राज्याश्रित था। राजदरबारों में नित्य युद्ध की चर्चा होती रहती थी। दूसरे कवि लोग एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में तलवार रखते थे। प्रायः युद्धों में भाग भी लिया करते थे। अतः उनके युद्ध वर्णन में सजीवता आना स्वाभाविक था। इस युग के कवियों ने चूंकि स्वयं युद्धों में भाग लिया था, अतः युद्ध के साथ-साथ प्रयुक्त सामग्रियों के सजीव वर्णनों में भी सजीवता स्वाभाविक रूप से आ गई। हिन्दी साहित्य में ऐसा सजीव वर्णन अन्य कोई कवि न कर सका। केवल रीतिकालीन कवि भूषण की कविता में ऐसी झलक अवश्य देखने को मिलती है। चतुरंगिनी सेना की साज सज्जा, दोनों एक समान प्रबल दलों की गुत्थम-गुत्थी तथा दर्पपूर्ण शब्दावली, सेना प्रस्थान असि-प्रहार एवं शस्त्रों की झंकार और ‘शत्रुपक्ष’ के पलायन का प्रभावपूर्ण चित्रण इस युग के काव्य की प्रमुख विशिष्टता है। सजीव शब्द गुम्फ वीर रस तथा तदनुकूल ओज गुण और गौड़ी वृत्ति का पोषक है।

3. सामन्ती जीवन और सभ्यता संस्कृति का सजीव चित्रण:
चारण काव्य अथवा वीरगाथा काव्य में सामन्ती जीवन और सभ्यता संस्कृति का भी सजीव चित्रण हुआ है। इसकी प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया का सजीव वर्णन उनके काव्य में देखने को मिलता है। इस युग के कवि क्योंकि राजदरबारों तक ही सीमित थे। अत: उन्होंने सामन्ती जीवन को बहुत निकट से देखा था। पृथ्वीराज रासो ऐसे चित्रों से भरा पड़ा है।

4. सामान्य जन-जीवन के चित्रण का अभाव:
सामन्ती राजतन्त्रवादी परम्पराओं वाले इस युग में आम आदमी का राजाओं, सामन्तों की आज्ञाओं का आँख मूंद कर पालन करने के सिवा अन्य कोई मान और मूल्य नहीं था। ऐसी दशा में राज्याश्रित कविजन जनसाधारण की ओर ध्यान देते तो कैसे देते? फलस्वरूप जन-जीवन इस काल के काव्यों में कहीं भी उभर नहीं पाया, बस उसकी एक झलक मात्र ही उसमें देखने को मिलती है। जीवन-समाज के प्रति दायित्व निर्वाह में इस युग के कवि पूर्णतः असफल रहे।

5. आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्ति:
चारण कवियों को अपने आश्रयदाताओं से अनेक प्रकार की जागीरें और उपाधियाँ आदि प्राप्त होती थीं। इस कारण अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से इन कवियों ने अपनी कल्पना और अतिशयोक्ति के बल पर अपने आश्रयदाताओं के चरित्र को अधिक उदात्त और उत्कृष्ट चित्रित किया। उन्हें अपनी आजीविका के लिए यह सब करना पड़ा। इसी उद्देश्य से उन्होंने अनेक युद्धों के लिए उत्तरदायी किसी-न हिन्दी साहित्य का इतिहास किसी सुन्दर नारी की कल्पना की, क्योंकि वीरों को युद्ध के उपरान्त विश्रामकाल में मन बहलाने के लिए प्रेम की आवश्यकता होती है इसलिए चारण कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के अनेक विवाह करने की गाथा भी कही है। तब हर विवाह युद्ध में विजय प्राप्त करने पर ही होता था। पृथ्वीराज रासो में चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज के 12 विवाह होने का वर्णन किया है।

6. संकुचित राष्ट्रीयता:
वीरगाथा काव्य या चारण काव्य के अध्ययन के उपरान्त ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग में राष्ट्रीयता का अर्थ संकुचित था। ‘राष्ट्र’ शब्द समूचे देश का सूचक न होकर अपने-अपने प्रदेश एवं छोटे-छोटे राज्यों का सूचक था। अजमेर और दिल्ली के राजकवि को कन्नौज, कालिंजर अथवा किसी अन्य राज्य के समृद्ध होने अथवा नष्ट होने का कोई सुख अथवा दुःख नहीं था। एक राजा का आश्रय छोड़ देने पर सम्भवतः वे उस राज्य को पराया समझने लग जाते होंगे। मिथ्याभिमान तथा प्रतिशोध भावना से पूर्ण उस युग के राजाओं से परिपालित कवियों की इस संकुचित प्रवृत्ति पर न आश्चर्य होता है और न उनके प्रति घृणा के भाव जागृत होते हैं। हाँ, दुर्भाग्य पर अवश्य दया आती है।

डॉ० श्याम सुन्दर दास ने ठीक ही कहा है कि, ‘हिन्दी के आदि युग में अधिकांश ऐसे ही कवि हुए जिन्हें समाज को संगठित तथा सुव्यवस्थित कर उसे विदेशी आक्रमणों से रक्षा करने में समर्थ बनाने की उतनी चिन्ता नहीं थी जितनी अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा द्वारा स्वार्थ साधन करने की थी।’ उस युग के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की सेना में तो वीरता के भाव भरे किन्तु उनकी वाणी राष्ट्र के कोटि-कोटि जनों में वीरता की भावना न भर सकी। कारण इस युग का कवि जन-जीवन से कटा हुआ था। वे राष्ट्र भक्त नहीं राज भक्त थे।

7. कल्पना प्राचुर्य एवं ऐतिहासिकता का अभाव-इस युग के चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा और पारितोषिक पाने के लोभ में उनके चरित काव्य को अतिशयोक्तिपूर्ण कल्पना का सहारा लेकर लिखा। इन कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का शौर्य प्रदर्शित करने के लिए ऐसे ऐतिहासिक पुरुषों से उनका युद्ध करवाया जो उस युग के नहीं थे। ऐसे में ऐतिहासिकता की रक्षा कैसे हो सकती थी ? डॉ० श्याम सुन्दर दास के अनुसार कुछ रचनाओं में तो इतिहास की तिथियों तथा घटनाओं का इतना अधिक विरोध मिलता है कि उन्हें समसामयिक रचना मानने में बहुत ही असमंजस होता है………….। इन पुस्तकों की भाषा भी इतनी बेठिकाने की और अनियमित है कि तथ्य निरूपण में उसकी सहायता नहीं ली जा सकी।

8. प्रकृति चित्रण:
वीरगाथा काव्य की एक विशेषता यह है कि इस युग के कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रकृति का चित्रण उसके आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में किया है। वस्तु वर्णन भी पर्याप्त उपयुक्त है। हाँ, प्रकृति के स्वतन्त्र चित्रण की ओर कवियों ने प्रायः नहीं या बहुत कम ध्यान दिया है। कहीं-कहीं तो प्रकृति चित्रण नीरसता का ही संचार करता है। कहीं-कहीं प्रकृति चित्रण वस्तु गणना मात्र बनकर रह गया है। हाँ, प्रकृति का उद्दीपन रूप अधिक है और पर्याप्त सजीव भी बन पड़ा है।

9. डिंगल भाषा का प्रयोग:
वीरगाथा काव्य की एक उल्लेखनीय विशेषता है-उसकी भाषा। विद्वानों ने इसे ‘डिंगल भाषा’ का नाम दिया है। साहित्यिक राजस्थानी मिश्रित पुरानी हिन्दी को ‘डिंगल’ कहते हैं। वीर विषय की दृष्टि से, यह भाषा अत्यधिक उपयुक्त मानी गई है। ब्रज भाषा का भी ‘पिंगल’ नाम से प्रयोग इस युग में हुआ। इस्लामी प्रभाव के फलस्वरूप अरबी, फ़ारसी और तुर्की भाषाओं के भी कुछ शब्द इस काल के काव्य में देखने को मिलते हैं। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का भी खूब प्रयोग हुआ है। वास्तव में हम कह सकते हैं कि भले ही ऐतिहासिकता की कसौटी पर इस युग का काव्य खरा न उतरा हो लेकिन साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

आदिकाल के प्रमुख कवि

1. विद्यापति

जीवन परिचय-विद्यापति का जन्म बिहार प्रान्त के दरभंगा जिले के अन्तर्गत विसपी गाँव में हआ। इस गाँव को गढ़ विपसी भी कहा जाता है। कहते हैं यह गाँव राजा शिव सिंह ने सिंहासन रूढ़ होने पर इन्हें उपहारस्वरूप भेंट किया था। विद्यापति के जन्म काल के विषय में विद्वानों में काफ़ी मतभेद है किन्तु हम रामवृक्ष बेनीपुरी जी द्वारा बताए इनके जन्म काल सन् 1350 ई० को सही मानते हैं, क्योंकि विद्यापति को विसपी गाँव दान दिये जाने का जो ताम्रपत्र उपलब्ध है उसमें दान देने की तिथि 293 लक्ष्मणाब्द लिखा है, जो सन् 1402 से 1403 बैठता है। विद्यापति उस समय 52 वर्ष के थे।

विद्यापति मैथिल ब्राह्मण थे और ठाकुर इनका आस्पद था, इनके पिता गणपति ठाकुर राजमन्त्री थे। वे एक अच्छे कवि भी थे। उन्होंने ‘गंगा भक्ति तरंगिनी’ नामक पुस्तक की रचना भी की थी। विद्यापति अपने पिता के साथ राजा गणेश्वर के दरबार में जाया करते थे। राजा गणेश्वर के बाद कीर्ति सिंह गद्दी पर बैठे। विद्यापति ने अपनी प्रथम कृति ‘कीर्तिलता’ का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया। कीर्ति सिंह के बाद देव सिंह राजा हुए। उनके बाद राजा शिव सिंह ने शासन भार सम्भाला। विद्यापति और राजा शिव सिंह का साथ अन्त तक बना रहा। विद्यापति ने राजा शिव सिंह और उनकी पत्नी लखिमादई के प्रेम को अपनी पदावली में स्थान देकर उन्हें अमर कर दिया। विद्यापति की मृत्यु के सम्बन्ध में निम्नलिखित पद प्रचलित है

विद्यापति क आयु अक्सान।
कार्तिक धवल त्रयोदसि जान॥

इस पद के अनुसार विद्यापति की मृत्यु कार्तिक शुक्ला पक्ष त्रयोदशी को हुई। इनकी मृत्यु सन् 1440 में हुई मानी जाती है। इसकी चिता पर एक शिव मन्दिर की स्थापना की गई जो आज भी वहाँ मौजूद है।

रचनाएँ:
विद्यापति ने संस्कृत, अपभ्रंश और प्रारम्भिक मैथिली में रचनाएँ की हैं। उनको सर्वाधिक ख्याति पदावली के कारण प्राप्त हुई इनकी अन्य उपलब्ध रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं

  1. कीर्तिलता
  2. कीर्ति पताका
  3. भू-परिक्रमा
  4. पुरुष परीक्षा
  5. लिखनावली
  6. शैव सर्वस्व सार
  7. गंगावाक्यावली
  8. विभागसार
  9. दान वाक्यावली
  10. दुर्गा भक्ति तरंगिनी

ये सभी रचनाएँ कवि ने किसी-न-किसी राजा की प्रशस्ति में लिखी हैं। साहित्यिक परिचय-विद्यापति को हिन्दी का आदि गीतकार कहा जाता है। ये मैथिल कोकिल के नाम से भी प्रसिद्ध है। मधुर गीतों के रचयिता होने के कारण उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ भी कहा जाता है। चूंकि इन्होंने मैथिली लोकभाषा में पद रचना की अतः उन्हें मैथिल कवि भी कहा जाता है। विद्यापति की कीर्ति का आधार उनकी अपभ्रंश में लिखी कीर्तिलता तथा कीर्ति पताका नामक रचनाएँ तथा पदावली हैं।

कीर्तिलता-कीर्ति पताका-इन रचनाओं में कवि ने राजा कीर्ति सिंह की वीरता, उदारता, गुण-ग्राहकता आदि का वर्णन किया है। बीच-बीच में कुछ देशी भाषा के पद्य रखे हुए हैं। अपभ्रंश के दोहा, चौपाई, छप्पय, धन्द, गाथा आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है।

पदावली-मैथिली में लिखी ‘पदावली’ विद्यापति की अत्यन्त लोक प्रिय रचना है। इसकी पहुँच झोंपड़ी से लेकर राजाओं के महल तक है। कहते हैं प्रसिद्ध कृष्ण भक्त चैतन्य महाप्रभु तो पदावली के पदों का कीर्तन करते-करते मूर्छित हो जाया करते थे। बंगाल वासियों में इनके अनेक पदों को बंगला रूप प्रदान कर दिया है। बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में नववधु की सखियाँ पदावली के पद गाकर शिक्षा देती हैं। डॉ० ग्रियसन विद्यापति पदावली के सम्बन्ध में “The songs of Vidyapati’ नामक पुस्तक में लिखते हैं-जिस प्रकार ईसाई पादरी सालमन के गान गाते हैं इसी प्रकार हिन्दू भक्त विद्यापति के अनूठे पदों का गान करते हैं।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

पदावली में विद्यापति ने राधा-कृष्ण की प्रणय लीलाओं का बड़ा ही हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। इसमें भक्ति कम शृंगारिक भावनाएँ अधिक हैं। इनके वयःसन्धि आदि के वर्णन तो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण बन पड़े हैं। जैसे-

सैसव यौवन दुहु मिलि गेल।
स्रवन क पथ दुहु लोचन लेल॥
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मुकुर लई अब करई सिंगार।
सखि पूछई कइसे सुरत-बिहार॥

विद्यापति को इसी कारण कुछ विद्वान् शृंगारी कवि मानते हैं भक्त नहीं। यह ठीक है कि पदावली के अनेक पद भक्ति की मर्यादा से बाहर हो गए हैं किन्तु ऐसा तो कहीं-कहीं सूरदास ने भी किया है फिर भी सूरदास की गणना भक्त कवियों में ही होती है।

आचार्य रामचन्द्रशुक्ल भी विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानते हुए कहते हैं-“विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं । इन पदों की रचना जयदेव के गीत गोबिन्द के अनुकरण पर ही शायद की गई हो। इनका माधुर्य अद्भुत है। विद्यापति शैव थे। उन्होंने इन पदों की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परंपरा में न समझना चाहिए।”

विद्यापति के पदों में आध्यात्मिकता का रंग देखने वालों पर व्यंग्य करते हुए शुक्ल जी आगे कहते हैं–आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं उन्हें चढ़ा कर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोबिन्द’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्ण भक्तों के श्रृंगारी पदों को भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या कहते हैं। पता नहीं बाल लीला के पदों को वे क्या कहेंगे कुछ भी हो विद्यापति ने पदावली में शृंगार के दोनों रूपों-संयोग और वियोग का यथोचित रूप में चित्रण किया है। इनमें से संयोग श्रृंगार को चित्रण करने में उनकी तूलिका तन्मय हो गई है। भाषा का माधुर्य और भावों की सुकुमारिता-इन दोनों का अलौकिक संगम पदावली में देखने को मिलता है। रूप वर्णन का एक चित्र देखिए-

सहजहि आनन सुन्दर रे, भँउह सुरेखल आँखि।
पंकज मधुपिवि मधुकर, उड़ए पसारय पाँखि।

वयः सन्धि का एक सुन्दर पद देखिए-नायिका के शरीर में आने वाले परिवर्तन के बारे में कवि कहते हैं

कटि का गौरव पाओल नितम्ब, एक क खीन अओक अबलम्ब।
प्रगट हास अब गोपाल भेल, उरज प्रकट अब तन्हिक लेल॥

सद्यःस्नाता का एक नयनाभिराम चित्र देखिए –

कामिनी करए सनाने, हेरितहि हृदय हनए पँचवाने।
चिकुर गरए जलधारा, जानि मुख ससि उर रोए अँधारा॥

विद्यापति ने कृष्ण की भक्ति के भी कुछ अच्छे पद लिखे हैं । एक पद यहाँ प्रस्तुत है –

तातल सैकत वारि बिन्दु सम, सुत मित रमनि समाजे।
तोहे बिसारि मद ताहे समरपितु अब मुझु होवे कोन काजे॥

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि विद्यापति में भक्ति भावना थी किन्तु उस पर शृंगार भावना ने विजय पा ली थी। श्रीकृष्ण के रूप वर्णन, उनकी वंशी माधुरी के ठन्हों पर अनेक सुन्दर पद लिखे हैं। वस्तुतः विद्यापति संक्रमण काल के कवि थे। एक ओर वे आदिकाल का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो दूसरी ओर हिन्दी में वे भक्ति और शृंगार परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं। वे ‘शैव सर्वस्वसार’ रचनाओं में भक्तिभाव में झूमते हुए दिखाई देते हैं और ‘पदावली’ में वे शृंगार और प्रणय के रस में आकण्ठ मग्न हैं। इस प्रकार विद्यापति को आप वीर कवि, भक्ति कवि या शृंगारी कवि जिस भी रूप से देखें वे उसी में परिपूर्ण दिखाई देते हैं। एक ओर उनकी कीर्ति लता’, ‘कीर्ति पताका’ चारण काव्य की वीर गाथाओं की याद दिलाती है तो दूसरी ओर उनकी ‘पदावली’ कृष्ण भक्त कवियों तथा रीतिकालीन कवियों की श्रृंगारपरक सुकोमल भाव सामग्री की मूल प्रेरक सिद्ध हो जाती है।

2. अमीर खुसरो

‘अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अबुलहसन था। खुसरो इनका उपनाम था और अनेक बादशाहों से इनाम पाने के कारण अमीर कहलाते थे। इनका उपनाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि असली नाम लुप्तप्राय हो गया। इनका जन्म ऐटा जिले के पटियाली गाँव में सन् 1253 ई० को हुआ । इनका अधिकांश जीवन शासकीय सेवा में बीता। इन्होंने अपनी आँखों से गुलाम वंश का पतन, खिलजी वंश का उत्थान-पतन तथा तुग़लक वंश का आरम्भ देखा। इनके जीवन में दिल्ली के सिंहासन पर ग्यारह सुल्तान बैठे जिनमें से सात की इन्होंने सेवा की।

अमीर खुसरो बड़े प्रसन्नचित्त, मिलनसार और उदार थे। सुल्तानों और सरदारों से इन्हें जो कुछ धन मिलता था वे उसे बाँट देते थे। प्रशासन के अमीर होने पर और कवि सम्राट् होने पर भी ये अमीर ग़रीब सभी से बराबर मिलते थे। आप दूसरे, मुसलमानों की तरह धार्मिक कट्टरपन से कोसों दूर थे। इनकी रचनाओं से पता चलता है कि इनके एक पुत्री और तीन पुत्र थे।

रचनाएँ:
अमीर खुसरो अरबी, फारसी, तुर्की और हिन्दी भाषाओं के पूरे विद्वान् थे। थोड़ा बहुत संस्कृत भाषा भी जानते थे। कहा जाता है कि खुसरो ने 99 पुस्तकें लिखी थीं जिनमें कई लाख अशआर’ (काव्य पंक्तियाँ) थे परन्तु आज इनके केवल 20-22 ग्रन्थ ही प्राप्त हैं। इन ग्रन्थों में ‘खालिक बारी’ और ‘किस्सा चहार दरवेश’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनकी लिखी पहेलियाँ, दोसुखने और मुकरियाँ आज भी बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं।

साहित्यिक परिचय:
जिस युग में कविगण या चारण केवल वीर प्रशस्तियाँ गा कर ही अपने कर्त्तव्य से मुक्त होने की बात सोचते थे और समाज के चित्तरंजन के लिए कुछ भी लिखने का प्रयत्न नहीं करते थे, उस युग में हमें केवल खुसरो ही एक ऐसा कवि दिखाई देता है जिसने केवल ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में लोक हृदय को आकृष्ट करने वाली सरल, सरस रचनाएँ लिखीं। खुसरो को खड़ी बोली का प्रथम कवि होने का गौरव प्राप्त है।

खालिकबारी:
यह ग्रंथ तुरकी, अरबी, फ़ारसी और हिन्दी का पर्याय-कोश है। यह कोश लिखकर खुसरो ने हिन्दी से अरबी-फारसी और अरबी-फ़ारसी से हिन्दी सीखने वालों का मार्ग अत्यन्त प्रशस्त कर दिया। इनकी यह रचना फ़ारसी के आरम्भिक छात्रों में अत्यन्त लोकप्रिय है। इस विदेशी, विधर्मी लेखक की हिन्दी भाषा की पवित्रता और श्रेष्ठता पर अगाध श्रद्धा देखकर हमें आज के ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा के उपासकों पर दया-सी आती है। वे लोग हिन्दी के स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के पक्ष में प्रचार करते हैं । महात्मा गाँधी जैसे महान् नेता भी एक बार तो उनके झांसे में आकर हिन्दुस्तानी की वकालत कर बैठे थे। यह मुस्लिम कवि या लेखक हिन्दी की इसलिए महत्ता या श्रेष्ठता स्वीकार करता है कि उस पर विदेशी प्रभाव नहीं है। वह सर्वथा स्वतन्त्र शुद्ध और सुसंस्कृत भाषा है। खालिकबारी का एक उदाहरण देखिए-

खलिकबारी सिरजनहार।
बाहिद एक विदा कर्तार ॥
मुश्क काफूर अस्त कस्तूरी कपूर ।
हिंदवी आनंद शादी और सरूर ॥
मूश चुहा गुर्वः बिल्ली मार नाग ।
सोजनो रिश्तः बहिंदी सुई ताग ॥
गंदुम गेहूँ नखूद चना शाली है धान ।
ज़रत जोन्हरी असद मसूर बर्ग है पान ॥

क्या हिन्दुस्तानी के समर्थक इस शुद्ध हिन्दी को विदेशी तत्वों से लाद कर इसे ‘वर्णन संकर’ बना देने के लिए कमर नहीं कसे बैठे हैं। हमें उन पर दया भी आती है और रोष भी।

खुसरो की पहेलियाँ:
खुसरो अपनी पहेलियों के भी काफ़ी लोकप्रिय हुए । शायद ही कोई ऐसा हिन्दी भाषा-भाषी व्यक्ति हो जिसके मुख पर खुसरो की कोई-न-कोई पहेली न विराजती हो। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हिन्दी साहित्य का इतिहास खुसरो के नाम पर प्रचलित कुछ पहेलियाँ बाद में उनके नाम से जोड़ दी गई हैं तथा उनकी स्व-रचित पहेलियों की भाषा में कुछ हद तक बदल गई हैं। कुछ पहेलियाँ बानगी रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं-

तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया।
बाप का उसके नाम जो पूछा आधा नाम बताया।
आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेली मेरी।
अमीर खुसरो यो कहें अपने नाम न बोली ॥
उत्तर:
‘निबोली’ (नीम का फल)।

(ii) फारसी बोले आईना, तुरकी सोचे पाईना।
हिन्दी बोलते आरसी आए, मुँह देखे जो इसे बताए ।।
उत्तर:
‘आईना’ (दर्पण)।

(ii) आदि कटे तो सब को पार, मध्य कटे तो सब को मारे।
अन्त कटे तो सबको मीठा, सो खुसरो मैं आँखो दीहा ॥
उत्तर:
‘काजल’।

(iv) बीसों का सिर काट लिया, न मारा न खून किया ॥
उत्तर:
‘नाखून’।

(v) खेत में उपजे सब कोई खाय, घर में उपजे घर को खाय॥
उत्तर:
‘फूट’ (खरबूजे जैसा एक फल जो फीका होता है, ज़रा बड़ा होने पर फट जाता है। इसलिए पंजाबी में उसे फुट कहते हैं)

(vi) एक नार दो को लै बैठी, टेढ़ी हो के बिल में बैठी।
जिस के बैठे उसे सुहाय, खुसरो उसके बल जाय।
उत्तर:
‘पायजामा’।

(vii) एक नार ने अचरज कीन्हा, साँप पकड़ ताल में दीन्हा।
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खाए, ताल सूख साँप मर जाए।
उत्तर:
‘दिया बाती’।
दोसुखने-खुसरो के दोसुखने भी जन-जन में आज तक प्रचलित हैंकुछ दोसुखने यहाँ प्रस्तुत हैं
जूता क्यों न पहना – समोसा क्यों न खाया ? – तला न था।
अनार क्यों न चखा – वजीर क्यों न रखा ? – दाना न था।
(दाना का अर्थ अक्लमंद होता है)
पण्डित क्यों पियासा- गदहा क्यों उदासा ? – लोटा न था।
पण्डित क्यों न नहाया – धोबिन क्यों मारी गई ? – धोती न थी।
पान सड़ा क्यों — घोड़ा अड़ा क्यों ? – फेरा न था।

मुकरनियाँ : खुसरो की मुकरनियाँ तो गाँवों में बहुत ही प्रचलित हैं। कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

(1) सिगरी रैन मोहि संग जागा, भोर भई तब बिछुड़ न लागा।
उसके बिछुड़े फाटत हिया, क्यों सखि, साजन ? ना सखि, ‘दिया’ ।

(2) सरब सलोना सब गुन नीका।
वा बिन सब दिन लागे फीका।
वाके सर पर होवै कौन।
ए सखि,साजन ? ना सखि, ‘लौन’ ।।

(3) वह आवे तब शादी होय।
उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे बाके बोल।
क्यों सखि, साजन ? ना सखि, ‘ढोल’॥

लोकगीत : अमीर खुसरो ने ऐसे बहुत-से गीत लिखे हैं जो ग्रामीण स्त्रियों में लोक गीतों के रूप में आज भी प्रचलित हैं। कुछ गीतों की पंक्तियाँ यहाँ दी जा रही हैं-

(1) अम्मा, मेरे बाबा को भेजो जी, कि सावन आया।
बेटी, तेरा बाबा तो बुड्ढा री, कि सावन आया।
(2) चूक भई कुछ वासो ऐसी, देश छोड़ भयो पर देशी।
(3) मेरा जोवना नवेलरा भयो है गुलाल।
कैसे दर दीनी बकस मोरी लाल ॥
नुस्खे:
खुसरो ने आयुर्वेद और यूनानी उपचार पद्धति के अनुसार अनेक नुस्खे भी लिखे हैं जिनका प्रयोग गाँवों में बड़ी बूढ़ियाँ आज भी करती हैं। आँखों का एक नुस्खा यहाँ प्रस्तुत है

लोध फिटकरी मुर्दासंग । हल्दी, जीरा एक एक टंग॥
अफीम चना भर मिर्च चार । उरद बराबर थोथा डार ।।
पोस्त के पानी पोटली करे। तुरत पीर नैनों की हरे॥

कव्वाली और सितार के आविष्कारक-अमीर खुसरो प्रसिद्ध गवैये भी थे। ध्रुपद के स्थान पर कव्वाली बनाकर उन्होंने बहुत से नए राग निकाले थे, जो आज तक प्रचलित हैं। कहा जाता है कि उन्होंने बीन में कुछ परिवर्तन करके ‘सितार’ बनाया था। सन् 1324 ई० में खुसरो के गुरु निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु हो गयी। खुसरो उस समय बंगाल में बादशाह गियासुद्दीन तुग़लक के साथ दौरे पर थे। समाचार सुनते ही तुरन्त वहाँ से चल दिये। उनकी कब्र के पास पहुँचकर उन्होंने यह दोहा पढ़ा-

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केश।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥

कहते हैं कि गुरु की मृत्यु के बाद खुसरो ने अपना सब कुछ ग़रीबों में बाँट दिया और स्वयं उनकी मजार पर जा बैठे। उसी वर्ष अर्थात् सन् 1324 ई० में उनकी मृत्यु हो गयी। उनको भी इनके गुरु की कब्र के करीब दफनाया गया। सन् 1605 ई० में ताहिर बेरा नामक अमीर ने वहाँ पर मकबरा बनवा दिया। संक्षेप में, हम इतना ही कहना चाहेंगे कि खुसरो हिन्दी खड़ी बोली के पहले कवि हुए हैं जिन्होंने बोल-चाल की भाषा का प्रयोग कर हिन्दी कविता को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

3. चन्दबरदाई

आदिकाल के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि चन्दबरदाई का जन्म लाहौर में हुआ था। इसके पिता का नाम रावमल्ह था। ये जगाति गोत्र के ब्रह्मभट्ट थे। पृथ्वीराज चौहान के जन्म से पूर्व इनके पिता इन्हें लेकर महाराज सोमेश्वर के दरबार में आ गए थे। चन्द से महाराज बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपने दरबार में रख लिया। धीरे-धीरे वे महाराज के विश्वासपात्र बन गए। इस घटना से यह सिद्ध होता है कि चन्द पृथ्वीराज चौहान से बड़े थे। पृथ्वीराज का जन्म सम्वत् 1205 माना जाता है। मिश्र बन्धुओं ने पृथ्वीराज और चन्दबरदाई की आयु में 23 वर्ष का अन्तर बताया है। इस आधार पर चन्द का जन्म सं० 1183 के लगभग बैठता है किन्तु चन्द की प्रसिद्ध रचना पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्दों के अनुसार पृथ्वीराज, संयोगिता और चन्द का जन्म एक ही साथ हुआ था। इस कारण चन्द की जन्म तिथि के सम्बन्ध में अभी तक कोई निश्चय नहीं हो पाया।

किन्तु इतना तो सर्वमान्य है कि चन्द और पृथ्वीराज जीवनपर्यन्त साथ रहे। आखेट में, मंत्रणा में, राज्यसभा में, सर्वत्र पृथ्वीराज के लिए चन्द की उपस्थिति अपेक्षित थी।

‘रासो’ के अनुसार पृथ्वीराज और चन्द की मृत्यु भी एक ही दिन हुई थी। जब शहाबुद्दीन गौरी के हाथों पराजित पृथ्वीराज बन्दी के रूप में गज़नी ले जाए गए थे तो चन्द भी योगी का भेष धारण कर गज़नी पहुँच गया। किसी-न-किसी तरह चन्द ने गौरी के कानों तक यह बात पहुँचा दी कि पृथ्वीराज शब्दबेधी बाण चलाने की कला जानता है। गौरी ने पृथ्वीराज की आँखें फोड़ दी थीं, इसलिए उसके लिए यह एक तमाशे से बढ़कर कुछ न था। उसने इस तमाशे को सबको दिखाने का प्रबन्ध किया। भरी सभा में चन्द ने पृथ्वीराज को यह समझा दिया कि गौरी कहाँ है।

चार बांस चौबीस गज़ अष्ट अंगुल प्रमान।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूकियो चौहान॥

इस संकेत को पाकर महाराज पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण चलाया और वह गौरी के तालू को बेधता हुआ निकल गया। इधर गौरी के सैनिकों से अपमानित होने की अपेक्षा चन्द ने पहले पृथ्वीराज को छुरा घोंप दिया और फिर स्वयं भी उसी छुरे से आत्महत्या कर ली। इस प्रकार सं० 1249 में इस महान् कवि का प्राणान्त हुआ।

रचनाएँ:
चन्दबरदाई द्वारा केवल एक ही ग्रंथ लिखा गया माना जाता है। जिसका नाम है ‘पृथ्वीराज रासो’- इस ग्रन्थ की आज तक चार प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं। इन चारों में अनेक घटनाओं, नामों और तिथियों का अन्तर होने के कारण इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता अभी तक विद्वानों में वाद-विवाद का विषय बनी हुई है।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासवेत्ता ‘गार्सा दि तासी’ के अनुसार चन्दबरदाई ने ‘जै चन्द्र प्रकाश या जयचन्द्र का इतिहास’ नामक एक और ग्रन्थ लिखा है। जिसका उल्लेख वार्ड महोदय ने भी किया है परन्तु सर एच० इलियट का अनुमान है कि चन्द्रकृत जयचन्द्र प्रकाश कोई भिन्न ग्रन्थ नहीं वरण पृथ्वीराज रासो का कन्नौज खण्ड भाग है जिसका अनुवाद कर्नल टाड ने ‘संगोप्तानेम’ के नाम से एशियाटिक जर्नल में प्रकाशित किया था।

रासो का काव्य सौन्दर्य:
अपनी कृति के साहित्यिक सौन्दर्य पर प्रकाश डालता हुआ कवि स्वयं आदि पर्व में कहता है-

अति ढक्यौ न उधार सलिल जिमि जानि सिवालह।
वरन वरन सुवृत हार चतुरंग विसालह॥
……. ………….. …………….
…………. . …………. ………………
जुत अजुत अग्गि विचार बहुवचन छन्द छुटयौ न कहि।
घटि बढ़ि कोई मच्यह पढ़े चन्द दोस दिज्जोन चहि।

अर्थात्:
“इस रासो का अर्थ न तो अत्यन्त ढका हुआ है और न ही सवर्था स्पष्ट तथा बोधगम्य है, किन्तु जल के मध्य में सिवार के समान है। तात्पर्य यह है कि अर्थ अनुगंधान करने पर प्रतीत होता है। प्रत्येक वर्ण से युक्त अर्थ लाल, पीले, सफ़ेद आदि अनेक प्रकार के पुष्पों से, चारों ओर से गूंथे हुए विशाल हार की तरह शोभायमान है। रासो में विमल-अमल वाणी का विलास है, अर्थात् छन्दोंभंग आदि दोषों से रहित है, सुन्दर वचनों से युक्त उत्कृष्ट वर्णन है। मन को आनन्दित करने वाले मनोहर शब्द हैं, अर्थात् वीर रस में ओजस्वी शब्द हैं।”

अपनी कृति के सम्बन्ध में चन्दबरदाई का यह कथन सत्य प्रतीत होता है। रासो’ का काव्य सौन्दर्य और साहित्यिक सौष्ठव बेजोड़ है। रासो में उत्कृष्ट भाव व्यंजना और सुन्दर अलंकारों की छटा, रसभरी कल्पनाओं का विलास, मन को मोहने वाली उक्तियां, उसे हिन्दी के उत्कृष्ट काव्य ग्रन्थों की श्रेणी में ला खड़ा करती हैं। ‘रासो’ एक सफल महाकाव्य है। इसमें, प्रधानतः दो रस हैं-श्रृंगार और वीर। पृथ्वीराज जितना रणबांकुरा है, उतना सजीला-कटीला, बांका जवान भी है। कवि ने उसके इन दोनों रूपों को बड़ी सुघड़ता से निभाया है। रासो में ऋतु, नखशिख, नगर, आखेट, वन, सेना युद्धादि के वर्णन बड़े मोहक और मुंह बोलते रूपचित्र जैसे लगते हैं। रूप और सौन्दर्य के चित्रण में तो कवि ने कमाल ही कर दिया है। पृथ्वीराज की रानियों ने नखशिख, रूप सौन्दर्य और शृंगार के चित्रण में तो कवि ने अपना हृदय खोल कर रख दिया है।

युद्ध के प्रसंगों से रासो भरा पड़ा है। कवि ने अपने ग्रन्थ में पृथ्वीराज के शौर्य का प्रदर्शन करने के अनेक कल्पना प्रसूत युद्ध प्रसंगों को स्थान दिया है। रासो’ के सभी युद्ध वर्णन बड़े सजीव और अद्वितीय हैं। भाव पक्ष के अतिरिक्त रासो का कला पक्ष भी चमत्कारपूर्ण है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, उदाहरण, अतिश्योक्ति इत्यादि अलंकारों को सर्वाधिक स्थान मिला है। रासो में लगभग 72 छन्द देखने में आते हैं जिनमें 32 मात्रिक और 30 वार्णिक हैं। रासो की भाषा अभी तक विवाद का विषय बनी हुई है। कुछ विद्वान् इसे राजस्थानी या डिंगल कहते हैं तो कुछ अपभ्रंश। किन्तु हिमाचल के प्रसिद्ध कहानीकार श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी इसे पुरानी हिन्दी मानते हैं। हमें उनका तर्क ही संगत प्रतीत होता है।

लघु प्रश्नोत्तर

आदिकाल

प्रश्न 1.
आदिकाल का समय कब से कब तक माना जाता है?
उत्तर:
आदिकाल का समय संवत् 1050 से संवत् 1375 तक माना जाता है।

प्रश्न 2.
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने आदिकाल को कौन-सा नाम दिया है ?
उत्तर:
आचार्य शुक्ल जी ने आदिकाल को वीरगाथा काल कहा है।

प्रश्न 3.
आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल नामकरण किस आधार पर किया है?
उत्तर:
आचार्य शुक्ल जी ने वीरगाथा काल नामकरण का आधार रासो ग्रन्थों को बनाया है।

प्रश्न 4.
कन्हीं दो रासो ग्रन्थों के नाम उनके रचनाकारों के नाम सहित लिखें।
उत्तर:

  1. पृथ्वी राज रासो-चन्दबरदाई
  2. परमाल रासो-जगनिक

प्रश्न 5.
आचार्य महावीर-प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को कौन-सा नाम दिया है ?
उत्तर:
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने आदिकाल को बीजवपन काल की संज्ञा दी है।

प्रश्न 6.
डॉ० रामकुमार वर्मा ने आदिकाल को कौन-सी संज्ञा दी है ?
उत्तर:
डॉ० राजकुमार वर्मा ने आदिकाल को संधिकाल तथा चारणकाल कहा है।

प्रश्न 7.
श्री राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी के आदिकाल को कौन-सा नाम दिया है?
उत्तर:
राहुल जी ने आदिकाल को सिद्ध सामन्त काल की संज्ञा दी।

PSEB 11th Class हिन्दी साहित्य का इतिहास आदिकाल

प्रश्न 8.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल को यह नामकरण किस विद्वान् ने दिया है?
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के आदिकाल को आदिकाल की संज्ञा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने दी है।

प्रश्न 9.
सन्, ई० और विक्रमी संवत् में कितने वर्षों का अन्तर है?
उत्तर:
सन्, ई० और संवत् में 57 वर्षों का अन्तर है।

प्रश्न 10.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल की किन्हीं चार प्रवृत्तियों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  1. वीर रस की प्रधानता
  2. चरित काव्यों की प्रधानता
  3. आश्रयदाताओं का गुणगान
  4. इतिहास की अपेक्षा कल्पना की प्रचुरता

प्रश्न 11.
आदिकाल का आरम्भ किस शक्ति सम्पन्न हिन्दू शासक की मृत्यु के बाद हुआ?
उत्तर:
आदिकाल का आरम्भ सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद हुआ।

प्रश्न 12.
आदिकाल में मुसलमानी शासन किस कारण से आरम्भ हुआ?
उत्तर:
सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद मुसलमानी आक्रमण और तेज़ हो गए। भारतीय राजाओं की आपसी फूट और अव्यवस्था के कारण भारत में मुसलमानों का शासन स्थापित हो गया।

प्रश्न 13.
आदिकाल में स्त्री की दशा कैसी थी? ।
उत्तर:
आदिकाल में स्त्री की दशा बड़ी शोचनीय थी। उसे मात्र भोग की वस्तु समझा जाता था। स्त्री का बेचना, खरीदना या अपहरण करना साधारण बात थी।

प्रश्न 14.
आदिकाल में कौन-कौन से नए धर्म प्रचलित हए?
उत्तर:
आदिकाल में बौद्ध और जैन धर्म प्रचलित हुए।

प्रश्न 15.
पृथ्वीराजरासो के रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर:
पृथ्वीराजरासो के रचनाकार कवि चन्दबरदाई हैं।

प्रश्न 16.
आदिकालीन किन्हीं दो प्रमुख कवियों के नाम उनकी कृतियों सहित लिखें।
उत्तर:
आदिकाल में नरपतिनाल्ह द्वारा लिखित बीसल देव रासो तथा अब्दुल रहमान द्वारा लिखित संदेश रासक।

प्रश्न 17.
रासो ग्रन्थों की प्रमुख विशेषता क्या है ?
उत्तर:
रासो ग्रन्थों में वीर और शृंगार रस का समन्वय देखने को मिलता है।

प्रश्न 18.
आदिकालीन साहित्य में किस बात की कमी दिखाई पड़ती है?
उत्तर:
आदिकालीन साहित्य में राष्ट्रीयता की कमी दिखाई पड़ती है। उस युग में राष्ट्र शब्द समूचे देश का सूचक न होकर अपने-अपने प्रदेश या राज्य का सूचक था।

प्रश्न 19.
आदिकालीन लोकाश्रित काव्य धारा की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
खुसरो की पहेलियां, विद्यापति पदावली, ढोलामारूश दूहा तथा आलाहखण्ड।

प्रश्न 20.
विद्यापति की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
कीर्तिलता, कीर्ति पताका।

प्रश्न 21.
अमीर खुसरो की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखो।
उत्तर:
खालिक बारी और किस्सा चार दरवेश।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘भू-परिक्रमा’ रचना के रचनाकार कौन हैं ?
(क) विद्यापति
(ख) केशव
(ग) अज्ञेय
(घ) चंदवरदाई
उत्तर:
(क) विद्यापति

प्रश्न 2.
आदिकाल को वीरगाथा काल की संज्ञा किसने दी ?
(क) विद्यापति
(ख) रामचन्द्र शुक्ल
(ग) केशव
(घ) मिश्रबंधु
उत्तर:
(ख) रामचन्द्र शुक्ल

प्रश्न 3.
आरंभिक युग को आदिकाल की संज्ञा किसने दी ?
(क) रामचंद्र शुक्ल
(ख) मिश्रबंधु
(ग) विद्यापति
(घ) अज्ञेय।
उत्तर:
(ख) मिश्रबंधु

प्रश्न 4.
संधि काल और चारण काल की संज्ञा किसने दी ?
(क) रामचंद्र शुक्ल
(ख) रामकुमार वर्मा
(ग) विद्यापति
(घ) अज्ञेय
उत्तर:
(ख) रामकुमार वर्मा

प्रश्न 5.
विजयपाल रासो रचना को वीर गाथात्मक माना है?
(क) शुक्ल ने
(ख) अज्ञेय ने
(ग) मिश्रबंधु ने
(घ) विद्यापति ने
उत्तर:
(क) शुक्ल ने

प्रश्न 6.
‘पदावली’ रचना के लेखक कौन हैं ?
(क) विद्यापति
(ख) केशव
(ग) शुक्ल
(घ) घनानंद
उत्तर:
(क) विद्यापति

प्रश्न 7.
मुकरियां और पहेलियां के सर्वप्रसिद्ध रचनाकार हैं ।
(क) अज्ञेय
(ख) अमीर खुसरो
(ग) सिसरो
(घ) घनानंद
उत्तर:
(ख) अमीर खुसरो

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 29 हरियाली

Punjab State Board PSEB 11th Class Hindi Book Solutions Chapter 29 हरियाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Hindi Chapter 29 हरियाली

Hindi Guide for Class 11 PSEB हरियाली Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
‘हरियाली’ लघु कथा का विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है-आपका इस के बारे में क्या विचार है ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रस्तुत कहानी में हरियाली को राष्ट्रीय समृद्धि से जोड़ा गया है। विदेशों में बनी वस्तुएँ भले ही हमें थोड़ी देर के लिए आकर्षक और सुन्दर लगें, किन्तु जब हमें यह पता चलता है कि विदेशी वस्तुओं के खरीदने से देश आर्थिक दृष्टि से कितना कमज़ोर हो रहा है, देश का धन विदेशों में जाने की बात समझ में आने पर हमारी आँखें खुलती हैं। अतः भारतीय बनो और भारतीय खरीदो का सन्देश देने वाली इस कहानी का विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है। इसी उद्देश्य से स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना हुई है।

प्रश्न 2.
नरेन्द्र की चिन्ता का क्या विषय है ? लेखक के घर में विदेशी ब्लेडों के प्रयोग को लेकर वह क्या कहता
उत्तर:
नरेन्द्र की चिन्ता का विषय है उसका मित्र लेखक विदेशी ब्लेडों का प्रयोग करता है। विदेशों में बना सामान खरीदने से देश का धन विदेशों में चला जाता है और देश की आर्थिक दशा कमज़ोर होती है। नरेन्द्र का कहना है कि विदेशों में बना माल भले ही हमें थोड़ी देर आकर्षक लगता है, किन्तु हमारा ध्यान इससे होने वाली हानि की ओर नहीं जाता।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 29 हरियाली

प्रश्न 3.
लेखक के अनुसार अमीर आदमी के पड़ोसी होने का क्या फायदा है ? आपका अपना इस विषय पर क्या विचार है ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
लेखक के अनुसार अमीर आदमी के पड़ोसी होने का यह फायदा है कि फलदार वृक्ष चाहे पड़ोसी ने उगाए वृक्ष झुके तो हमारे कोठे की तरफ हैं। हमारा मत लेखक से भिन्न है। बेगानी छाछ पर कोई मूंछे नहीं मुंडवा देता, जैसे लेखक के पडोसी के सुन्दर पेड-पौधे उसके घर की नींव को खोखला कर देते हैं। तब उसे फलदार वृक्ष अच्छे नहीं लगते हैं। वह सोचने लगता है कि पड़ोसी से कहकर पेड़ कटवा देने चाहिए। मनुष्य पर जब स्वयं पर संकट आता है तब वह अपने विषय के साथ-साथ देश के विषय में सोचने लगता है और अपना विरोध प्रकट करने के लिए उपाय सोचने लगता है। व्यक्ति को अपनी ही चादर का ध्यान रखना चाहिए। कहा भी है देख बेगानी चोपड़ी न तरसाइए जी।

प्रश्न 4.
“देखो तो इन पौधों की जड़ें तुम्हारे मकान की नींव को खाए जा रही हैं।” नरेन्द्र के इन शब्दों का गहन अर्थ क्या है ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
नरेन्द्र के प्रस्तुत शब्दों का गहन अर्थ यह है कि विदेशों में बनी वस्तुएँ भले ही हमें आकर्षक और सुन्दर लगती हैं किन्तु इससे होने वाली हानि का हमें बाद में पता चलता है। जैसे भारतेन्दु जी ने भी कहा है-“पै धन विदेश चलि जाव इहै अतिवारी” अर्थात् विदेशी माल खरीदने पर हमारे देश का धन विदेशों में चला जाएगा और हमारे ही पैसे से विदेशी हाथ मज़बूत होंगे। जैसे लेखक के अमीर पड़ोसी के सुन्दर पेड़-पौधों की जड़ें लेखक के मकान की जड़ें खोखली कर रही हैं, वैसे ही हमारे देश की आर्थिक स्थिति कमज़ोर हो रही है।

प्रश्न 5.
सप्रसंग व्याख्या करें
(i) आपकी बात सही है। नींव ही खोखली हो गई तो दीवारें ढहते कितनी देर लगती है।
उत्तर:
प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सुरेन्द्र मंथन द्वारा लिखित लघु कथा हरियाली में से ली गई हैं। इन पंक्तियों में लेखक के मित्र ने उनका ध्यान घर की नींव खोखली हो रही है इस ओर दिलाया।

व्याख्या :
लेखक ने अपने मित्र नरेन्द्र से कहा कि तुम्हारी बात सही है कि पड़ोसी के सुन्दर दिखने वाले पेड़-पौधे मेरे मकान की नींव को खोखला कर रहे हैं। नींव खोखली हो गई तो दीवारों को गिरने में देर नहीं लगेगी।

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(ii) यही तो फायदा है अमीर आदमी के पड़ोसी होने का। फल चाहे पड़ोसी ने उगाए हैं-झुके तो हमारे कोठे की तरफ हैं।
उत्तर:
प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियां श्री सुरेश मंथन द्वारा लिखित लघु कथा हरियाली में से ली गई हैं। इन पंक्तियों में लेखक अपने मित्र को अमीर आदमी के पड़ोसी होने का लाभ बता रहे हैं।

व्याख्या :
लेखक के मित्र ने जब उसके पड़ोसी के सुन्दर पेड़-पौधों का उल्लेख किया तो लेखक ने कहा कि अमीर आदमी के पड़ोस में रहने का यही तो फायदा है। फलदार वृक्ष भले ही पड़ोसी ने लगाए हैं किन्तु ये झुके तो हमारे कोठे (आंगन) की ओर ही हैं।

(iii) तुम्हें नहीं लगता, हमारे ही पैसे से विदेशी हाथ मज़बूत होंगे ? अपना आर्थिक ढाँचा चरमरा जाएगा।
उत्तर:
प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सुरेन्द्र मंथन द्वारा लिखित लघु कथा ‘हरियाली’ में से लो गई हैं। इन पंक्तियों में लेखक मित्र विदेशी चीजों की खरीदारी से दूर रहने को कहता है।

व्याख्या :
लेखक को विदेशी ब्लेड प्रयोग करते देख और लेखक द्वारा उनकी प्रशंसा करने पर लेखक का मित्र नरेन्द्र कहता है कि विदेशों में बना माल खरीदने पर तुम्हें यह नहीं लगता कि हमारे देश का धन विदेशों में जा रहा है। हमारे ही धन से विदेशी हाथ मज़बूत हो रहे हैं जिससे हमारा आर्थिक ढाँचा चरमरा रहा है।

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PSEB 11th Class Hindi Guide हरियाली Important Questions and Answers

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘हरियाली’ लघुकथा किस भावना पर आधारित है ?
उत्तर:
स्वदेशी भावना पर आधारित है।

प्रश्न 2.
देश की आर्थिकता की नींव को कौन खोखला कर रहा है ?
उत्तर:
विदेशी समान की चकाचौंध।

प्रश्न 3.
नरेन्द्र क्यों खुश होता है ?
उत्तर:
नरेन्द्र पड़ोसी के घर उगे पेड़-पौधों को देखकर खुश हो जाता है।

प्रश्न 4.
लेखक किस ब्लेड से शेव बनाता था ?
उत्तर:
विदेशी ब्लेड से।

प्रश्न 5.
लेखक के मित्र का क्या नाम था ?
उत्तर:
नरेन्द्र।

प्रश्न 6.
विदेशी सामान के बारे में लेखक का मित्र उसे क्या कहता है ?
उत्तर:
विदेशी सामान खरीदकर हम अपने देश की आर्थिक स्थिति कमज़ोर कर रहे हैं।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 29 हरियाली

प्रश्न 7.
………… के पौधे लेखक को फल और छाया देते थे।
उत्तर:
पड़ोसी।

प्रश्न 8.
नरेन्द्र ने लेखक का ध्यान किस ओर खींचा ?
उत्तर:
पेड़ की जड़ों की ओर।

प्रश्न 9.
पेड़ की जड़ें कहाँ सीलन पैदा कर रही थीं ?
उत्तर:
लेखक के घर की दीवारों पर।

प्रश्न 10.
सीलन के कारण घर की नींव ………. हो रही थी।
उत्तर:
खोखली।

प्रश्न 11.
लेखक का पड़ोसी कैसा था ?
उत्तर:
अमीर और दबदबे वाला।

प्रश्न 12.
घर की दीवारें कब गिरने लगती हैं ?
उत्तर:
नींव के कमजोर होने पर।

प्रश्न 13.
लेखक अपना विरोध प्रकट करने के लिए क्या करता है ?
उत्तर:
विदेशी ब्लेड का पैकट पडोसी के घर फेंक देता है।

प्रश्न 14.
लेखक ने पाठ में हरियाली को किससे जोड़ा है ?
उत्तर:
राष्ट्रीय समृद्धि से।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 29 हरियाली

प्रश्न 15.
‘हरियाली’ लघुकथा भारतीय बनो और ……. खरीदों का संदेश देती हैं।
उत्तर:
भारतीय।

प्रश्न 16.
‘हरियाली’ लघुकथा का मूल विषय क्या है ?
उत्तर:
राष्ट्रीय महत्त्व।

बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘हरियाली’ रचना की विधा क्या है ?
(क) लघु कथा
(ख) कथा
(ग) कहानी
(घ) संस्मरण।
उत्तर:
(क) लघु कथा

प्रश्न 2.
हरियाली लघु कथा किस भावना पर आधारित है ?
(क) प्रेम
(ख) विरह
(ग) स्वदेशी
(घ) विदेशी।
उत्तर:
(ग) स्वदेशी

प्रश्न 3.
विदेशी सामान किस नींव को खोखला कर रहा है ?
(क) आर्थिक
(ख) धार्मिक
(ग) राजनैतिक
(घ) सामाजिक।
उत्तर:
(क) आर्थिक।

PSEB 11th Class Hindi Solutions Chapter 29 हरियाली

कठिन शब्दों के अर्थ :

पैंफ्लेट-विज्ञापन-पत्र। चरमराना-गिरना। आत्म विभोर होना-प्रसन्न होना।

हरियाली Summary

हरियाली कथा सार

‘हरियाली’ लघु कथा सुरेन्द्र मंथन द्वारा लिखित है। यह स्वदेशी भावना पर आधारित है। विदेशी सामान की चकाचौंध देश की आर्थिकता की नींव को खोखला किए जा रही है। लेखक विदेशी ब्लेड से शेव बनाता है उसका मित्र नरेन्द्र उसे कहता है कि विदेशी सामान खरीदकर हम अपने देश की आर्थिक स्थिति को कमज़ोर कर रहे हैं। नरेन्द्र लेखक के पड़ोसी के घर में उगे पेड़-पौधे देखकर खुश होता है। लेखक कहता है कि दूसरों के पौधे उसे फल और छाया देते हैं। परन्तु नरेन्द्र उसका ध्यान पेड़ की जड़ों की ओर खींचता है। पेड़ की जड़ें, लेखक के घर की दीवारों पर सीलन पैदा कर रही थीं तथा घर की नींव को खोखला कर रही थीं। लेखक का पड़ोसी अमीर और दबदबे वाला व्यक्ति है, परन्तु जब अपने घर की नींव के खोखले होने की बात आती है तो वह सोचने पर मजबूर हो जाता है। घर हो या देश जब नींव ही कमजोर हो जाएगी तो दीवारें तो गिर ही जाएंगी। वह अपना विरोध प्रकट करने के लिए विदेशी ब्लेड का पैकेट पड़ोसी के घर फेंक देता है।