PSEB 11th Class History Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
जैन धर्म और बौद्ध धर्म का उदय किन राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक परिस्थितियों में हुआ ?
उत्तर-
जैन धर्म और बौद्ध धर्म का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ। इस समय तक देश के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में नए विचार उभर रहे थे। देश में कुछ बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो चुके थे। इनमें शासक नवीन विचारों के पनपने का कोई विरोध नहीं कर रहे थे। इसी प्रकार सामाजिक एवं धार्मिक वातावरण भी नवीन धार्मिक आन्दोलनों के उदय के अनुकूल था। वैदिक धर्म में अनेक कुरीतियां आ गई थीं। व्यर्थ के रीति-रिवाजों, महंगे यज्ञों और ब्राह्मणों के झूठे प्रचार के कारण यह धर्म अपनी लोकप्रियता खो चुका था। इन सब कुरीतियों का अन्त करने के लिए देश में लगभग 63 नये धार्मिक आन्दोलन चले जिनका नेतृत्व विद्वान् हिन्दू कर रहे थे। परन्तु ये सभी धर्म लोकप्रिय न हो सके। केवल दो धर्मों को छोड़कर शेष सभी समाप्त हो गये। ये दो धर्म थे-जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म । संक्षेप में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उदय निम्नलिखित राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों में हुआ:

I. राजनीतिक परिस्थितियां

1. राजतंत्रों तथा गणतंत्रों की स्थापना-छठी शताब्दी ई० पू० देश में कुछ बड़े-बड़े राजतन्त्र तथा गणराज्य स्थापित हो चुके थे। इनके शासक अपनी सत्ता के विस्तार के लिए आपसी संघर्ष में उलझे हुए थे। इसी वातावरण में नए विचारों का उद्भव हुआ। अतः किसी भी शासक ने इन विचारों का विरोध न किया। यही नवीन विचार अन्ततः जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उदय में सहायक हुए।

2. धनी व्यापारियों की आकांक्षा-इस काल में व्यापार का महत्त्व बहुत बढ़ गया। फलस्वरूप अनेक धनी व्यापारी सामने आए। ये लोंग समाज में उचित स्थान पाना चाहते थे। परन्तु वर्ण-व्यवस्था के कारण उन्हें वैश्यों से उच्च नहीं समझा जाता था। फलस्वरूप वे किसी नवीन सामाजिक एवं धार्मिक संगठन की आकांक्षा करने लगे।

II. सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियां

1. वैदिक धर्म में जटिलता – प्रारम्भा में वैदिक धर्म काफी सरल था | परन्तु छठी शताब्दी ई० पूo तक यह बहुत जटिल हो गया था। शास्त्रों के गहन विचार आम लोग नहीं समझ सकते थे। मोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्म-मार्ग, तप-मार्ग तथा ज्ञानमार्ग का प्रचार किया जा रहा था। कुछ लोग कहते थे कि यज्ञ करने चाहिएं और वेद मन्त्र पढ़ने चाहिएं। कुछ शरीर को कष्ट देने तथा संन्यास पर जोर देते थे। कुछ का विचार था कि अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इसलिए आम लोग इस उलझन में थे कि उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए। यह बड़ी जटिल समस्या थी। इसी का हल ढूंढ़ने के कारण नवीन धर्मों का उदय हुआ।

2. ब्राह्मणों का नैतिक पतन-आरम्भ में केवल पढ़े-लिखे तथा विद्वान् पुरुषों को ही ब्राह्मण माना जाता था। बाद में ब्राह्मणों की सन्तान भी अपने आप को ब्राह्मण कहलवाने लगी। अनेक ब्राह्मणों की सन्तान को न तो धार्मिक ग्रन्थों का वास्तविक ज्ञान था और न ही वे अपने पूर्वजों की भान्ति चरित्रवान् थे। वे सीधे-सादे लोगों से धन बटोरने में लगे हुए थे और उन्हें धर्म की गलत परिभाषा बताकर उल्लू बना रहे थे। वैसे भी कुछ ब्राह्मण स्वार्थी तथा कपटी बन चुके थे। उच्च परिवारों के विद्वान् क्षत्रिय इस भ्रष्टाचार को सहन न कर सके और उन्होंने इसे दूर करने के लिए धार्मिक आन्दोलन चलाएं।

3. जाति-प्रथा तथा छूत-छात-छठी शताब्दी ई० पू० तक जाति-बन्धन बहुत कठोर हो चुके थे। इसका सबसे बुरा प्रभाव शूद्र जाति के लोगों पर पड़ा। उन्हें न तो शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था और न ही लोग उनसे सामाजिक मेलजोल रखते थे। लोग शूद्रों को अपने कुओं से पानी भी नहीं भरने देते थे। इसके साथ-साथ ब्राह्मणों ने यह धारणा भी पैदा कर दी कि शूद्रों को अच्छे से अच्छे कर्म करने पर भी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। इसके विपरीत नीच से नीच कार्य करने वाले ब्राह्मण अपने आप को सर्वोच्च मानते थे। शूद्रों के प्रति यह घोर अन्याय था। इस अन्याय को समाप्त करने के लिए मुख्य रूप से महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध ने समाज को नई राह दिखाई।

4. महंगा वैदिक धर्म-वैदिक धर्म में यज्ञों का बड़ा महत्त्व था। आरम्भ में यज्ञ करना इतना सरल था कि इसे कोई भी व्यक्ति आसानी से कर सकता था। यज्ञ करने के लिए न तो पुरोहितों की आवश्यकता होती थी और न ही धन की। परन्तु छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक यह धर्म काफ़ी महंगा हो गया। यज्ञ करना आवश्यक समझा जाने लगा और इसकी विधि काफ़ी जटिल हो गई। अब व्यक्ति स्वयं यज्ञ नहीं कर सकता था। इसके लिए अनेक पुरोहितों को बुलाना पड़ता था और सभी को भोज देना पड़ता था। यज्ञों में आहुति के लिए घी, दूध, फल तथा अन्य कई प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती थी। विशेष अवसरों पर पशु-बलि भी दी जाने लगी थी। कई यज्ञ तो 12 वर्ष तक चलते रहते थे जिन पर अधिक व्यय होता था। इस प्रकार यज्ञ इतने महंगे हो गए कि साधारण जनता उनके बारे में सोच विचार भी नहीं कर सकती थी। अन्य धार्मिक रीति-रिवाजों को पूरा करने के लिए भी ब्राह्मण बुलाने पड़ते थे जो दक्षिणा के रूप में धन बटोरते थे। आखिर कुछ महापुरुषों ने इन खर्चीले रीतिरिवाजों का खण्डन किया और नये धर्मों को जन्म दिया।

5. कठिन संस्कृत भाषा-वैदिक धर्म के सिद्धान्तों में जहां जटिलता आ गई थी, वहां इस धर्म के सभी ग्रंथ वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि, कठिन संस्कृत भाषा में लिखे हुए थे। इस भाषा को आम लोग नहीं समझ सकते थे। इसलिए लोग अपने धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप वे कोई ऐसा धर्म चाहते थे जिसके ग्रंथ सरल भाषा में लिखे हों और उन्हें ब्राह्मणों की सहायता के बिना पढ़ा जा सके।

6. महापुरुषों का जन्म-सौभाग्य से छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। ये सभी अपने-अपने ढंग से दुःखी तथा दलित जनता का उद्धार करते रहे। उन्होंने लोगों को जीवन का सरल तथा सच्चा मार्ग दिखाया। इन महापुरुषों में महावीर स्वामी तथा महात्मा बुद्ध अधिक लोकप्रिय हुए। इन्हीं सिद्धान्तों ने धीरे-धीरे जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का रूप ले लिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की उत्पत्ति मुख्यतः वैदिक धर्म में आई गिरावट के कारण हुई। धर्म की जटिलता, ब्राह्मणों का नैतिक पतन, छुआछूत, महंगे यज्ञ, कठिन भाषा तथा महापुरुषों का जन्म-ये सभी ऐसी बातें थीं जिन्होंने नए धर्मों के उभरने के लिए वातावरण तैयार किया। इस विषय में डॉ० एन० एन० घोष ठीक ही कहते हैं, “महावीर तथा गौतम बुद्ध ने हिन्दू धर्म में आए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाई।” उनकी यही आवाज़ धीरे-धीरे नए धर्मों में बदल गई जिन्हें बदले हुए राजनीतिक वातावरण ने संरक्षण प्रदान किया।

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प्रश्न 2.
समाज के लिए महत्त्व तथा देन के संदर्भ में जैन धर्म की शिक्षाओं तथा साम्प्रदायिक विकास की चर्चा करें।
उत्तर-
जैन धर्म का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ। इसके संस्थापक महावीर स्वामी थे। उन्होंने लोगों को अहिंसा तथा सदाचार का पाठ पढ़ाया। भले ही यह धर्म अत्यधिक लोकप्रिय न हो सका, तो भी भारतीय समाज, साहित्य तथा कला पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। आगे चलकर यह धर्म श्वेताम्बर तथा दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बंट गया। परन्तु इसमें मूल रूप में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन न आया। यह पहले की तरह की समाज में भाई-चारे, आपसी प्रेम तथा संयमित जीवन का प्रचार करता रहा। जैन धर्म की शिक्षाओं, उसके सामाजिक महत्त्व तथा इस धर्म के साम्प्रदायिक विकास का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है

जैन धर्म की शिक्षाएं-

1. त्रिरत्न-जैन धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है। निर्वाण प्राप्ति के लिए मनुष्य को ‘त्रिरत्न’ (तीन सिद्धान्तों) पर चलना चाहिए। प्रथम सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को धर्म में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।। दूसरे, उसे व्यर्थ के आडम्बरों में समय नष्ट करने की बजाय सच्चा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। तीसरे, मनुष्य को सत्य, अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
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2. अहिंसा-जैन धर्म में अहिंसा पर बड़ा बल दिया गया है। इसके अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु में आत्मा (जीव) है। पशु, पक्षी, वृक्ष, वायु तथा अग्नि सभी में जीव है। अतः वे किसी भी जीव को कष्ट देना पाप समझते हैं। जीव-हत्या के डर से जैनी लोग आज भी पानी छान कर पीते हैं, नंगे पांव चलते हैं, मुंह पर पट्टी बांधते हैं और रात को भोजन नहीं करते। वे नहीं चाहते कि कोई कीड़ा-मकौड़ा उनके पांवों के नीचे आ जाए या कोई कीटाणु उसके शरीर में चला जाए। संक्षेप में, हम यही कहेंगे कि जैन धर्म में अहिंसा पर बहुत बल दिया गया है।

3. घोर तपस्या-‘घोर तपस्या करना भी जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है। महावीर स्वामी अपने शरीर को अधिक से अधिक कष्ट देने में विश्वास रखते थे। उनका मत है कि उपवास करके प्राण त्यागने से ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है। स्वयं महावीर जी ने अपने शरीर को कष्ट पहुंचा कर ही निर्वाण प्राप्त किया था। अतः उन्होंने अपने अनुयायियों को संसार त्याग देने तथा घोर तपस्या करने का उपदेश दिया।

4. ईश्वर में अविश्वास-महावीर स्वामी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। वे हिन्दू धर्म के इस सिद्धान्त को नहीं मानते थे कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है।

5. आत्मा में विश्वास–जैन धर्म में आत्मा में अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार आत्मा अमर है। यह शक्तिशाली है, परन्तु हमारे बुरे कर्म इसको निर्बल कर देते हैं। आत्मा में ज्ञान अमर है और यह सुख-दुःख का अनुभव करता है। एक जैन मुनि ने ठीक ही कहा है–आत्मा शरीर में रहकर भी शरीर से भिन्न होती है।’

6. यज्ञ, बलि आदि में अविश्वास-जैन धर्म में यज्ञ, बलि आदि व्यर्थ के रीति-रिवाजों का कोई स्थान नहीं है। महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को पशु-बलि की मनाही कर दी। उनके अनुसार पशु-बलि पाप है। मोक्ष प्राप्ति के लिए यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है।

7. वेदों तथा संस्कृत की पवित्रता में अविश्वास-जैन लोग वेदों को ईश्वरीय ज्ञान नहीं मानते। संस्कृत को भी वे पवित्र भाषा स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार वेद मन्त्रों का गायन आवश्यक नहीं है। अत: महावीर स्वामी ने स्वयं अपने सिद्धान्तों का प्रचार जन-साधारण की भाषा में किया।

8. जाति-पाति में अविश्वास-जैन धर्म के अनुयायी जाति-पाति में विश्वास नहीं रखते। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। जाति के आधार पर कोई व्यक्ति छोटा-बड़ा नहीं है।

9. कर्म सिद्धान्त में विश्वास-जैन धर्म के अनुयायी कर्म सिद्धान्त में बड़ा विश्वास रखते हैं। उनका मत है कि मनुष्य अपने पिछले जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार जन्म लेता है और उसका अगला जन्म इस जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार होगा। “कोई भी मनुष्य कर्मों के फल से नहीं बच सकता।”
(“There is no escape from the effect of one’s actions.”) अतः हमें अच्छे कर्म करने चाहिएं।

10. मोक्ष प्राप्ति-जैन धर्म के अनुसार आत्मा को कर्मों के बन्धन से छुटकारा दिलाने का नाम मोक्ष है। कर्म चक्र समाप्त होते ही जीव (आत्मा) को मुक्ति मिल जाती है। उसे पुनः किसी भी जन्म के चक्कर में नहीं फंसना पड़ता।

11. सदाचार पर बल-महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने उपदेश दिया कि वे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, चोरी, निन्दा आदि अनैतिक कार्यों से बचें।

जैन धर्म की क्रियाओं का समाज के लिए महत्त्व एवं देन-

(1) जैन धर्म ने भारतीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया। इसने जाति-प्रथा का घोर विरोध किया। इससे भारतीय समाज में लोगों का आपसी मेल-जोल बढ़ने लगा और समाज प्यार तथा भाईचारे की भावनाओं से ओत-प्रोत हो गया। जैन धर्म ने हमें समाज सेवा का उपदेश दिया। लोगों की भलाई के लिए जैनियों ने अनेक संस्थाएं स्थापित की।

(2) जैन धर्म के प्रचार के कारण हिन्दू धर्म में काफी सुधार हुए। जैन धर्म वालों ने हिन्दू धर्म में प्रचलित कुरीतियों तथा कर्म-काण्डों की घोर निन्दा की। इधर जैन धर्म के अपने सिद्धान्त बड़े साधारण थे जो लोगों को बड़े प्रिय लगे। जैन धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर ब्राह्मणों ने भी पशु-बलि, कर्म-काण्ड तथा अन्य कुरीतियों का त्याग करना शुरू कर दिया। इस प्रकार वैदिक धर्म काफ़ी सरल बन गया।

(3) जैन ऋषियों ने ही अहिंसा के महत्त्व को समझा तथा इसका प्रचार किया। अहिंसा के सिद्धान्त को अपनाकर लोग मांसाहारी से शाकाहारी बन गए।

(4) जैनियों ने अपने तीर्थंकरों की याद में विशाल मंदिर तथा मठ बनवाए। ये मंदिर अपने प्रवेश द्वारों तथा सुन्दर मूर्तियों के कारण प्रसिद्ध थे। दिलवाड़ा का जैन मन्दिर ताजमहल को लजाता है। कहते हैं कि मैसूर में बनी जैन धर्म की सुन्दर मूर्तियां दर्शकों को आश्चर्य में डाल देती हैं। इसी प्रकार आबू पर्वत का जैन-मन्दिर, एलोरा की गुफाएं तथा खुजराहो के जैन मन्दिर कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। जैन धर्म में इस महान् योगदान की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जैन धर्म के अनुयायियों ने लोक भाषाओं के प्रचार किया। उनका अधिकांश साहित्य संस्कृत की बजाय स्थानीय भाषाओं में लिखा गया। यही कारण है कि कन्नड़ साहित्य आज भी अपने उत्कृष्ट साहित्य के लिए जैन धर्म का अभारी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्य में खूब योगदान दिया।

साम्प्रदायिक विकास

जैन धर्म में साम्प्रदायिक विकास मौर्य काल में आरम्भ हुआ। उन दिनों देश में भीषण अकाल पड़ा। कुछ जैन भिक्षु भद्रबाहु की अध्यक्षता में दक्षिण चले गए। वहां उन्होंने नग्न रह कर महावीर स्वामी की भांति जीवन व्यतीत किया। समय बीतने के साथ-साथ जैन भिक्षुओं ने उत्तरी भारत में श्वेत वस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिये। दक्षिण में रहने वाले भिक्षु दिगम्बर कहलाये तथा उत्तरी भारत के भिक्षु श्वेताम्बर कहलाए। दिगम्बर का अर्थ है ‘नग्न’ तथा श्वेताम्बर का अर्थ है ‘श्वेत वस्त्र’। समय बीतने के साथ-साथ दिगम्बर भिक्षुओं ने भी वस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए। परन्तु दोनों पक्षों में ऊपरी भेद आज भी बना हुआ है। यह भेद केवल मठों के आचार्यों तक ही सीमित है। मौर्य काल में हुई पाटलिपुत्र की एक सभा में जैन धर्म के सिद्धान्तों को 12 अंगों में विभाजित किया गया, परन्तु इन्हें दक्षिण के भिक्षुओं ने मानने से इन्कार कर दिया। अतः दोनों ने अपनी अलगअलग भाषा तथा टीकाएं लिखीं। ये ग्रन्थ प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में लिखे गए। दोनों मतों में मूल रूप से कोई मतभेद नहीं

जैन धर्म की शिक्षाओं तथा उनके सामाजिक महत्त्व के अध्ययन से स्पष्ट है कि यह धर्म विश्व के महानतम धर्मों में से एक है। समाज में अहिंसा, प्रेम, कर्म तथा सेवा के भाव इस धर्म की मुख्य देन हैं। इस धर्म के कारण नवीन कला-कृतियां भी अस्तित्व में आईं जो आज भी भारतीय संस्कृति की समृद्धि का प्रतीक बनी हुई हैं।

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प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं एवं संघ-व्यवस्था के संदर्भ से बौद्ध धर्म के विश्वास की चर्चा करें।
उत्तर-
महात्मा बुद्ध छठी शताब्दी ई० पू० के एक महान् धर्म प्रवर्तक थे। जैन धर्म की भान्ति उन्होंने भी नवीन धार्मिक आदर्श प्रस्तुत किए। उन्होंने भी अहिंसा पर बल दिया और यज्ञ, बलि, जाति-पाति आदि बातों का घोर खण्डन किया। उन्होंने लोगों को मध्य-मार्ग पर चल कर जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। अपने धर्म को व्यवस्थित रूप देने के लिए उन्होंने मठ वासी जीवन अर्थात् संघ-व्यवस्था को बड़ा महत्त्व दिया। इन विशेषताओं के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ। कुछ ही समय में यह धर्म एक विश्वव्यापी धर्म बन गया। इस धर्म की शिक्षाओं, संघ-व्यवस्था एवं विकास का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-

बौद्ध धर्म की शिक्षाएं अथवा भगवान् बुद्ध के उपदेश —

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं बड़ी सरल थीं। इन शिक्षाओं को साधारण जनता आसानी से अपना सकती थी, फलस्वरूप हज़ारों की संख्या में लोग उनके शिष्य बनने लगे। थोड़े ही समय में बौद्ध धर्म विश्व का एक महान् धर्म बन गया। बौद्ध धर्म की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. चार महान् सत्य-महात्मा बुद्ध ने चार महान् सत्यों पर बल दिया। ये थे-

  • संसार दुःखों का घर है।
  • इन दुःखों का कारण मनुष्य की तृष्णा अथवा लालसा है।
  • अपनी लालसाओं का दमन करने पर ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है और निर्वाण प्राप्त कर सकता है।
  • मनुष्य अपनी लालसाओं का दमन अष्ट-मार्ग पर चलकर ही कर सकता है।

2. अष्ट-मार्ग-महात्मा बुद्ध ने अष्ट-मार्ग में निम्नलिखित आठ बातें सम्मिलित हैं

  • शुद्ध दृष्टि
  • शुद्ध संकल्प
  • शुद्ध वचन
  • शुद्ध कर्म
  • शुद्ध कमाई
  • शुद्ध प्रयत्न
  • शुद्ध स्मृति
  • शुद्ध समाधि।

ये सभी सिद्धान्त एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए शुद्ध कमाई केवल शुद्ध कर्म से ही हो सकती है। शुद्ध कर्म के लिए शुद्ध संकल्प तथा शुद्ध दृष्टि आवश्यक है। इस प्रकार अष्ट-मार्ग मनुष्य को पूर्ण रूप से सदाचारी बनाता है और उसे दुःखों से छुटकारा दिलाता है। इसे मध्य-मार्ग भी कहा जाता है।

3. अहिंसा-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को मन, वचन तथा कर्म से किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। यही अहिंसा है। इसके अनुसार जीव-हत्या तथा पशु-बलि पाप है। इसके विपरीत उन्होंने इस बात का प्रचार किया कि मनुष्य को सभी जीवों के साथ दया तथा प्रेम का व्यवहार करना चाहिए।

4. कर्म सिद्धान्त-बौद्ध धर्म में कर्म सिद्धान्त को पूर्ण रूप से स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार मनुष्य को इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में अवश्य भोगना पड़ता है। अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है। यज्ञ आदि करने से पापों से मुक्ति नहीं मिल सकती। अतः मनुष्यों को अपना भविष्य सुधारने के लिए अच्छे कर्म करने चाहिएं।

5. उच्च चरित्र तथा नैतिकता पर बल-महात्मा बुद्ध ने उच्च नैतिक तथा पवित्र जीवन पर बड़ा बल दिया। उनका कहना था कि केवल सदाचारी व्यक्ति सांसारिक दुःखों से छुटकारा पा सकता है। चरित्रवान् तथा सदाचारी बनने के लिए मनुष्य को इन नियमों का पालन करना चाहिए-(i) सदा सच बोलो। (ii) चोरी न करो। (iii) मादक पदार्थों का सेवन न करो। (iv) पराई स्त्रियों से दूर रहो। (v) ऐश्वर्य के जीवन से दूर रहो। (vi) नाच रंग में रुचि न रखो। (vii) धन से दूर रहो। (viii) सुगन्धित वस्तुओं का प्रयोग न करो। (ix) झूठ न बोलो। (x) किसी को कष्ट न दो।

6. निर्वाण-महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। हिन्दू धर्म की भान्ति वह मृत्यु के पश्चात् नरक-स्वर्ग के झगड़े में नहीं पड़ना चाहते थे। वे चाहते थे कि मनुष्य संसार में रहकर अपने इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त करे। निर्वाण से उनका अभिप्राय सच्चे ज्ञान से था। उनका कहना था कि जो व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें जीवन-मरण के चक्कर से छुटकारा मिल जाता है।

7. ईश्वर के विषय में मौन-महात्मा बुद्ध परमात्मा तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। वह ईश्वर की सत्ता के विषय में सदा मौन रहे। फिर भी वे समझते थे कि कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जो संसार को चला रही है। इस शक्ति को वे ईश्वर की बजाए धर्म मानते थे।

8. यज्ञ बलि का निषेध-महात्मा बुद्ध यज्ञ बलि को व्यर्थ के रीति-रिवाज समझते थे। वे हिन्दू धर्म के इस सिद्धान्त को नहीं मानते थे कि यज्ञ आदि करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। वे तो ऊंचे स्वर में मन्त्रों का उच्चारण करना भी व्यर्थ समझते थे। वे उस धर्म को सच्चा धर्म मानते थे जिसमें आडम्बर और व्यर्थ के रीति-रिवाज शामिल न हों।

9. वेदों तथा संस्कृत सम्बन्धी विचार-महात्मा बुद्ध के वेदों तथा संस्कृत के सम्बन्ध में विचार हिन्दू-धर्म से बिल्कुल भिन्न थे। हिन्दू धर्म के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान का भण्डार हैं। यह ज्ञान ऋषि-मुनियों को ईश्वर की ओर से प्राप्त हुआ था। हिन्दू धर्म वाले तो इस बात में भी विश्वास रखते थे कि वेदों का ज्ञान उन्हें संस्कृत भाषा पढ़ने से ही हो सकता है परन्तु महात्मा बुद्ध हिन्दू धर्म के इस सिद्धान्त से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार सच्चा ज्ञान किसी भी भाषा में दिया जा सकता है। उन्होंने यह मानने से इन्कार कर दिया कि संस्कृत अन्य भाषाओं से अधिक पवित्र है। उन्होंने वेदों को भी अधिक महत्त्व नहीं दिया।

10. जाति-प्रथा में अविश्वास-महात्मा बुद्ध जाति-प्रथा के भेदभाव को नहीं मानते थे। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं और जाति के आधार पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है। इसलिए उन्होंने सभी जातियों के लोगों को अपना शिष्य बनाया। उनका यह भी कहना था कि ज्ञान-प्राप्ति का मार्ग सभी जातियों के लिए समान रूप से खुला है। .

11. तपस्या का विरोध-महात्मा बुद्ध घोर तपस्या के पक्ष में नहीं थे। उनके अनुसार भूखा प्यासा रहकर शरीर को कष्ट देने से कुछ प्राप्त नहीं होता। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया, परन्तु उन्हें कुछ प्राप्त न हुआ। वे समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

II. संघ-व्यवस्था

बौद्ध संघ बौद्ध भिक्षुओं के संगठन का नाम था। इन भिक्षुओं ने संसार का परित्याग कर दिया और बौद्ध धर्म का प्रसार करने में अपना जीवन लगा दिया। बौद्ध धर्म में दो प्रकार के अनुयायी थे-उपासक तथा भिक्षु । उपासक गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे तथा महात्मा बुद्ध द्वारा बताए गए साधारण नियमों का पालन करते थे। ये संघ के सदस्य नहीं होते थे। इसके विपरीत भिक्षु पूर्ण रूप से बौद्ध धर्म के सदस्य होते थे। उन्हें संघ के कठोर अनुशासन का पालन करना पड़ता था। संघ समस्त देश के लिए साझा नहीं होता था। प्रत्येक स्थान की अपनी अलग संस्था होती थी, जिसे संघ कहते थे। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवनकाल में ही संघ प्रणाली का श्रीगणेश किया था। उन्होंने विस्तारपूर्वक संघ के नियम निश्चित कर दिए। इन नियमों की संख्या 227 से 360 तक मानी जाती है। इन नियमों का संग्रह ‘विनय पिटक’ में किया गया। सभी संघ इन नियमों का पालन करते हुए बौद्ध धर्म का प्रसार करते रहे।

सदस्यता-

  • 15 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्ति ही संघ का सदस्य बन सकता था।
  • सदस्य बनने के लिए जातपात का ध्यान नहीं रखा जाता था।
  • सदस्य बनने के लिए गृह त्याग करना पड़ता था। इसके लिए घर वालों की आज्ञा लेना आवश्यक था।
  • सिपाही, दास, ऋणी, अपराधी, रोगी आदि व्यक्ति संघ के सदस्य नहीं बन सकते थे।
  • स्त्री सदस्यों को भिक्षुणी कहा जाता था। उन्हें न तो मत देने का अधिकार था और न ही उन्हें कोरम में गिना जाता था।
  • भिक्षु बनने के लिए एक व्यक्ति को पूरी दीक्षा दी जाती थी-उसे बाल मुंडवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे। उसे दस वर्ष तक किसी भिक्षु से शिक्षा लेनी पड़ती थी। उसे सदाचारी जीवन व्यतीत करने का प्रशिक्षण दिया जाता था। यदि वह नियमों पर पूरा उतरता था तथा अपना चरित्र ऊंचा रखता था तो उसे भिक्षु संघ में सम्मिलित कर लिया जाता था।

बौद्ध संघ में प्रवेश के समय उसे शपथ लेनी पड़ती थी। उसे ये शब्द दोहराने पड़ते थे : “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।”

दस आदेश-संघ के सदस्यों को अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। महात्मा बुद्ध ने उनके लिए दस आदेशों का पालन करना अनिवार्य बताया-

  • कभी झूठ न बोलो
  • दूसरों की सम्पत्ति पर आंख न रखो
  • जीव हत्या न करो
  • नशीली वस्तुओं का सेवन न करो
  • स्त्रियों के साथ मिलकर न रहो
  • वर्जित समय पर भोजन न करो
  • धन पास न रखो
  • फूलों, आभूषणों तथा सुगन्धित वस्तुओं का प्रयोग न करो
  • नाच-गाने में भाग न लो
  • नर्म गद्दे पर विश्राम न करो। संघ के सभी सदस्यों को इन नियमों का पालन करना पड़ता था।

संघ की बैठकें-संघ की सभाएं पन्द्रह दिन के पश्चात् होती थीं। संघ के सभी सदस्य इसमें भाग ले सकते थे। बैठक की कार्यवाही शुरू करने से पहले एक सभापति चुना जाता था। प्रायः वह कोई बौद्ध भिक्षु ही होता था। उसकी आज्ञा से कार्यवाही आरम्भ होती थी। प्रस्ताव पेश किए जाते थे और उन पर निर्णय लिए जाते थे। निर्णयों के लिए मतदान होता था।

इस प्रकार बौद्ध भिक्षु प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार अपने मतभेदों को दूर करने और धर्म के प्रचार में लीन रहते थे। कुछ भी हो, बौद्ध धर्म संघ एक आदर्श संस्था थी। डॉ० आर० सी० मजूमदार के शब्दों में, “यह संघ विश्व में बने सभी

महान् संगठनों में से एक बन गया।” (“The Sangha became one of the greatest religious corporations, the world has ever seen.”) बौद्ध संघ के आदर्शों तथा बौद्ध की सरल शिक्षाओं ने इस धर्म के विकास की गति को काफ़ी तीव्र कर दिया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

प्रश्न 4.
बौद्ध धर्म के साम्प्रदायिक विकास एवं पतन के कारणों की चर्चा करें।
उत्तर-
बौद्ध धर्म का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ था। अपनी सरल शिक्षाओं, महान् आदर्श तथा राजकीय संरक्षण के कारण यह धर्म शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया। यहां तक कि अनेक विदेशी राजाओं ने भी इसे अपना लिया। परन्तु समय के साथ इसमें ऐसी अनेक त्रुटियां आ गईं जिनके कारण इसकी लोकप्रियता कम होने लगी। कनिष्क के काल में यह धर्म दो सम्प्रदायों में बंट गया। इन दो विरोधी धाराओं के कारण इसकी लोकप्रियता और भी कम होने लगी और अन्ततः इस धर्म का पतन हो गया। संक्षेप में बौद्ध धर्म के साम्प्रदायिक विकास एवं पतन के कारणों का वर्णन इस प्रकार है

I. साम्प्रदायिक विकास

बौद्ध धर्म के साम्प्रदायिक भेदभाव का आरम्भ महात्मा बुद्ध के देहान्त से लगभग 100 वर्ष बाद हुआ। सर्वप्रथम बौद्धों के आपसी मतभेद वैशाली की बौद्ध सभा में सामने आए। इस सभा में एक ओर रूढ़िवादी थे। वे चाहते थे कि संघ का प्रबन्ध पहले की भान्ति केवल वृद्ध भिक्षुओं के हाथ में ही रहे। दूसरी ओर युवा भिक्षु थे जो यह चाहते थे कि संघ के प्रबन्ध में सभी भिक्षु समान रूप से भाग लें। ये मतभेद वास्तव में साधारण थे। परन्तु इस सभा में रूढ़िवादियों का पक्ष भारी होने के कारण युवा भिक्षु अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए और अधिक प्रयत्न करने लगे। महाराजा अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में एक और बौद्ध सभा हुई। इसी सभा में भी यही समस्या उठाई गई। परन्तु अशोक के समर्थन के कारण इस बार भी रूढ़िवादियों की ही विजय हुई। अनेक बौद्ध भिक्षुओं को मठों से भी निकाल दिया गया। इस पर भी युवा भिक्षुओं ने अपने विचार न छोड़े और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे।

कनिष्क के शासनकाल में कश्मीर में बौद्ध धर्म की एक महासभा बुलाई गई। इस सभा में ‘महाविभाष’ नामक एक ग्रन्थ का संकलन किया गया। इस ग्रन्थ में जिन सिद्धान्तों का संकलन किया गया, वे परम्परा-विरोधी थे। इन सिद्धान्तों पर आधारित सम्प्रदाय को ‘सर्वास्तिवादिन’ का नाम दिया गया। यह नया सम्प्रदाय पहली तथा दूसरी शताब्दी में कश्मीर के साथ-साथ मथुरा में भी विकसित हुआ। इस समय तक बौद्ध धर्म में कई अन्य भी ऐसे परम्परा विरोधी सम्प्रदायों का उदय हो चुका था। धीरेधीरे इन सभी परम्परा विरोधी सम्प्रदायों ने अपने आपको रूढ़िवादियों के विरुद्ध संगठित कर लिया। इसी नये संगठित सम्प्रदाय को ही ‘महायान’ का नाम दिया गया। महायान के भिक्षुओं ने रूढ़िवादियों को नीचा दिखाने के लिए उनके सम्प्रदाय को ही “हीनयान’ के नाम से पुकारना आरम्भ कर दिया।

II. बौद्ध धर्म के पतन के कारण

1. हिन्दू धर्म में सुधार-लोगों ने हिन्दू धर्म के व्यर्थ के रीति-रिवाजों से तंग आकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। उनका … हिन्द धर्म के मुख्य सिद्धान्तों में कोई विरोध न था। समय अनुसार हिन्दू धर्म में अनेक सुधार किए गए। धर्म में आडम्बरों का महत्त्व समाप्त कर दिया गया। परिणामस्वरूप लोग पुनः हिन्दू धर्म को अपनाने लगे। इस प्रकार हिन्दू धर्म की लोकप्रियता बौद्ध धर्म के ह्रास का कारण बनी।

2. गुप्त राजाओं का हिन्दू धर्म में विश्वास-अशोक आदि राजाओं का सहयोग पाकर बौद्ध धर्म का विकास हुआ था। इसी प्रकार गुप्त राजाओं का संरक्षण पाकर हिन्दू धर्म पुनः बल पकड़ गया। गुप्त राजाओं का किसी धर्म के प्रति विरोध नहीं था, परन्तु वे व्यक्तिगत रूप से हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। उनके शासन काल में हिन्दू देवी-देवताओं के मन्दिरों की स्थापना हुई। कृष्ण, विष्णु, शिव की उपासना आरम्भ हुई। संस्कृत भाषा को भी काफ़ी बल मिला। इस तरह हिन्दू धर्म में नवीन जागृति आई। लोग काफ़ी संख्या में हिन्दू धर्म में लौट आए। इससे बौद्ध धर्म को बहुत आघात पहुंचा। बौद्ध धर्म के लिए यह बहुत बड़ी चोट थी।

3. बौद्ध भिक्षुओं की चरित्रहीनता-बौद्ध भिक्षुओं के उच्च चरित्र तथा सदाचारी जीवन ने लोगों को बड़ा प्रभावित किया था, परन्तु समय की करवट ने बौद्ध संघ के अनुशासन को शिथिल कर दिया। स्त्रियों को भी संघ में शामिल कर लिया गया। बौद्ध भिक्षु महात्मा बुद्ध के दस आदेशों को भूल गए। वे विलासी जीवन व्यतीत करने लगे। ऐसे लोगों को जनता भला कबी क्षमा करने वाली थी। अतः भिक्षुओं का दूषित आचरण भारत में बौद्ध धर्म को ले डूबा।

4. राजकीय सहायता की समाप्ति-हर्ष की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म राजकीय आश्रय खो बैठा। उसके बाद फिर किसी राजा ने बौद्ध धर्म की धन से सहायता नहीं की। इससे इस धर्म की प्रतिष्ठा को काफ़ी धक्का लगा। जिन लोगों ने शायद अपने राजा को प्रसन्न करने के लिए बौद्ध धर्म स्वीकार किया था, अब बौद्ध धर्म छोड़ दिया।

5. बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा-प्रथम शताब्दी के पश्चात् बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अनुयायी बुद्ध को देवता मानने लगे। वे उसकी मूर्ति बनाकर पूजा करने लगे। मूर्ति पूजा के कारण ये लोग हिन्दू धर्म के अधिक निकट आ गए। आखिर महायान शाखा के बहुत से अनुयायी हिन्दू धर्म में आ गए।

6. बौद्ध धर्म में फूट-बौद्ध धर्म के अनुयायी कई शताब्दियों तक एकता के सूत्र में बन्धे रहे। वे मिलकर आपसी मतभेद दूर करते रहे और उन्होंने अपनी एकता को बनाए रखा। आखिर पहली शताब्दी तक ये भेदभाव विकट रूप से धारण कर गए। चौथी बौद्ध परिषद् के पश्चात् यह धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो शाखाओं में बंट गया। इन दोनों शाखाओं में आपसी भेदभाव बढ़ते चले गए। इन भेदभावों का बौद्ध धर्म की लोकप्रियता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

7. अहिंसा का सिद्धान्त-बौद्ध धर्म में अहिंसा को परम धर्म माना जाता था। इसके प्रभाव में आकर अशोक ने युद्ध करना बन्द कर दिया था। देखने में तो यह एक महान् बात थी, परन्तु इसके कारण भारत में सैनिक दुर्बलता आ गई। अतः हम विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों पिट गए। लोगों ने पराजय का मुख्य कारण बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त को माना। अत: भारत में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का कम होना स्वाभाविक ही था।

8. हूणों के आक्रमण-हूणों के आक्रमणों के कारण भी बौद्ध धर्म को बड़ा आघात पहुंचा। वे बड़े निर्दयी तथा अत्याचारी लोग थे। उन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्त में अपना राज्य स्थापित कर लिया। मिहिरगुल उनका प्रसिद्ध राजा था जिसने बौद्ध धर्म के स्तूपों तथा मठों को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया। कहते हैं कि उसने अनेक बौद्धों को मरवा डाला। शेष बौद्ध लोग वहां से बच निकले। इस प्रकार भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में बौद्ध धर्म का पूर्णतया ह्रास हो गया।

9. हिन्दू प्रचारक-आठवीं तथा नौवीं शताब्दी में हिन्दू धर्म को दो महान् विभूतियों ने भारत में हिन्दू धर्म की जड़ें फिर से मजबूत करने में महान् योगदान दिया। ये थे-शंकराचार्य तथा कुमारिल भट्ट। उन्होंने हिन्दू धर्म के प्रचार के साथ-साथ बौद्ध मत का खण्डन भी किया। उन्होंने हिमालय से कन्याकुमारी तक भ्रमण किया तथा हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों को पुनः स्थापित किया।

10. राजपूतों का विरोध-आठवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक समस्त उत्तरी भारत राजूपतों के प्रभुत्व में आ गया था। राजपूत वीर योद्धा थे जो अहिंसा की बजाए रक्तपात में विश्वास रखते थे। अतः राजपूत राजाओं की छत्रछाया में बौद्ध भिक्षुओं के लिए धर्म प्रचार कठिन हो गया। अनेक बौद्ध विद्वान् भारत छोड़कर विदेशों में चले गए। उचित प्रचार कार्यों के अभाव के कारण बौद्ध धर्म का लोप होने लगा।

11. मुसलमान आक्रमणकारी-11वीं तथा 12 शताब्दी में भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हो गए। उन्होने भारत पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। यह बात बौद्ध धर्म के लिए बड़ी हानिकारक सिद्ध हुई। मुसलमान शासकों ने बौद्ध भिक्षुओं पर बड़े अत्याचार किए तथा उनके मठ तथा मन्दिर भी नष्ट करवा दिए। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म का पतन हो गया।

12. महान् व्यक्तित्व का अभाव-महात्मा बुद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म ने कोई महान् व्यक्ति पैदा नहीं किया। यदि 8वीं शताब्दी के पश्चात् बौद्ध धर्म का नेतृत्व किसी महान् व्यक्ति के हाथ में होता तो शायद वह धर्म सुधार करके उसे सफल बना देता। वह शायद अहिंसा की परिभाषा ही बदल देता। एक उचित पग-प्रदर्शक के अभाव के कारण बौद्ध धर्म का अन्त हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
भारत तथा विदेशों में बौद्ध धर्म के शीघ्र प्रसार के क्या कारण थे ?
उत्तर-
बुद्ध धर्म का विकास इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है। महात्मा बुद्ध की आज्ञा पाकर बौद्ध भिक्षु धर्म प्रचार के लिए भारत की चारों दिशाओं में फैल गए। आरम्भ में प्रचार की गति बड़ी धीमी रही। परन्तु महात्मा बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म जहां भारत में तीव्र गति से फैला, वहां उसने भारत की सीमाएं पार करके विदेशियों को भी अपनी ओर आकर्षित किया। इतिहास इस बात का साक्षी है कि चीन, जापान, लंका, मयनमार (बर्मा) आदि देशों के निवासियों ने प्रसन्नतापूर्वक इस धर्म को अपनाया और इसे अपने जीवन का अंग बना लिया। राजा तथा प्रजा दोनों ही बौद्ध धर्म के रंग में रंग गए। बौद्ध धर्म की इस अत्यधिक लोकप्रियता के अनेक कारण थे जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. महात्मा बुद्ध का महान् व्यक्तित्व-महात्मा बुद्ध का व्यक्तित्व महान् था। उन्होंने राजघराने में जन्म लेकर भी संन्यास 1 के दुःख झेले। वे सिंहासन ग्रहण कर सकते थे, परन्तु उन्होंने आसन ग्रहण किया। उन्होंने सत्य की खोज में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। त्याग, सच्चाई तथा परोपकार की तो वे साक्षात मूर्ति थे। उनका हृदय शुद्ध तथा पवित्र था। वे केवल उन्हीं बातों का प्रचार करते थे जिनको उन्होंने स्वयं अपना लिया था। वे जो कुछ चाहते थे स्वयं भी करते थे। अनेक लोग उनके महान् व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए और वे बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए। विलियम (William) ने बौद्ध धर्म के प्रसार में बुद्ध के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए ठीक कहा है, “The influence of the personal character of Buddha combined with extraordinary persuasiveness of his teachings was irreistible.”

2. अनुकूल परिस्थितियां-बौद्ध धर्म का उदय ऐसे वातावरण में हुआ जब लोगों को इस धर्म की बहुत आवश्यकता थी। लोग हिन्दू धर्म के व्यर्थ के कर्म-काण्डों, खर्चीले यज्ञों तथा अन्य रीति-रिवाजों से तंग आ चुके थे। उन्हें एक ऐसे सरल धर्म की आवश्यकता थी जो उन्हें इन व्यर्थ के आडम्बरों से छुटकारा दिला सकता। ऐसे समय में बौद्ध धर्म जैसे सरल धर्म ने लोगों को बहुत आकर्षित किया।

3. सरल शिक्षाएं-बौद्ध धर्म की शिक्षाएं बड़ी सरल थीं। उनमें गूढ-दर्शन की बातें न थीं जिन्हें जन-साधारण समझ न पाते। इसके अनुसार मनुष्य को नरक-स्वर्ग अथवा आत्मा-परमात्मा के वाद-विवाद में पढ़ने की आवश्यकता न थी। उसे सदाचारी जीवन व्यतीत करना चाहिए। अष्ट-मार्ग के सिद्धान्त, घोर तपस्या से कहीं अच्छे थे। ये सभी शिक्षाएं दुःखी मानवता के लिए मरहम थीं। अत: लोगों ने दिल खोलकर बौद्ध धर्म का स्वागत किया।

4. लोक भाषा में प्रचार-हिन्दू धर्म के सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में थे। जन-साधारण के लिए इस कठिन भाषा को समझना आसान न था। उन्हें ब्राह्मणों द्वारा बताई हुई व्याख्या पर विश्वास करना पड़ता था। इसके विपरीत महात्मा बुद्ध तथा अन्य भिक्षुओं ने धर्म प्रचार पाली अथवा प्राकृत जैसी बोल-चाल की भाषा में किया। इस प्रकार लोग बिना कठिनाई के बौद्ध धर्म की शिक्षा को समझने लगे।

5. जाति-प्रथा में अविश्वास-बौद्ध धर्म में जाति प्रथा का कोई स्थान नहीं था। सभी जातियों के लोग बौद्ध धर्म में शामिल हो सकते थे। किसी भी जाति का व्यक्ति बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को अपना सकता है। बौद्ध धर्म के इस सिद्धान्त ने चमत्कारी प्रभाव दिखाया। निम्न वर्गों के लोगों को चाण्डाल समझा जाता था। भला ऐसे लोग बौद्ध धर्म का स्वागत क्यों नहीं करते ?

6. बौद्ध संघ-बौद्ध संघ ने बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह संघ भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों को बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रशिक्षण देता था। पूरी तरह दीक्षा लेने के पश्चात् भिक्षु प्रचार कार्य में लग जाते। ये लोग वर्ष में 8 मास प्रचार कार्य में लगे रहते। वर्षा के 4 मास वे मठों में व्यतीत करते। उस समय भी वे भविष्य में प्रचार का कार्यक्रम बनाते। भिक्षु लोगों के इस निरन्तर प्रचार के कारण बौद्ध धर्म का काफ़ी प्रसार हुआ। इस विषय में डॉ० वी० ए० स्मिथ ने सत्य ही कहा है, “भिक्षु तथा भिक्षुणियों का सुव्यवस्थित संघ इस धर्म के प्रसार में अत्यन्त प्रभावशाली बात सिद्ध हुई।”

7. बौद्ध भिक्षुओं का उच्च नैतिक चरित्र-बौद्ध भिक्षु चरित्रवान होते थे। वे झूठ नहीं बोलते थे। नशीली वस्तुओं तथा सुगन्धित पदार्थों का सेवन नहीं करते थे। वे धन, स्त्री, संगीत तथा अन्य ऐश्वर्य की वस्तुओं से दूर रहते थे। वे संसार को त्याग कर पीले वस्त्र धारण करते थे। इन उचित चरित्र वाले लोगों से साधारण जनता बड़ी प्रभावित हुई। अत: बौद्ध धर्म का उत्थान स्वाभाविक ही था।

8. राजकीय सहायता-बौद्ध धर्म एक अन्य दृष्टिकोण से भी भाग्यशाली था। उसे अशोक, कनिष्क तथा हर्ष जैसे प्रतापी राजाओं का सहयोग प्राप्त हुआ। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अशोक ने इस धर्म के प्रचार के लिए स्वयं को, अपनी सन्तान को, सरकारी मशीनरी तथा खज़ाने को लगा दिया। संसार में किस धर्म को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ ? कनिष्क तथा हर्ष ने भी धन तथा व्यक्तिगत सेवाओं से बौद्ध धर्म को उन्नत किया। कनिष्क के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही बौद्ध धर्म चीन, जापान तथा तिब्बत जैसे देशों में फैल गया। सच तो यह है कि राजकीय सहायता पाकर बौद्ध धर्म भारत में ही नहीं, अपितु उसकी सीमाओं के बाहर भी फैल गया।

9. बौद्ध धर्म में लचीलापन-आरम्भ में बौद्ध धर्म मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता था। परन्तु पहली शताब्दी के पश्चात् बौद्ध धर्म की महायान शाखा ने बुद्ध को देवता के रूप में पूजना आरम्भ कर दिया। बद्ध की मूर्तियां बनाकर बौद्ध मन्दिरों में स्थापित की गईं। इस प्रकार बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने समय-समय पर धर्म में परिवर्तन करके इसकी लोकप्रियता को बनाये रखा। भले ही आज बौद्ध धर्म भारत में लोकप्रिय नहीं है, परन्तु सुधारों के कारण यह आज भी विश्व के महान् धर्मों में गिना जाता है।

10. विश्वविद्यालयों का योगदान-बौद्ध धर्म को फैलाने में तक्षशिला, नालन्दा आदि विश्व-विद्यालयों का बड़ा योगदान रहा। यहां देश-विदेश से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आया करते थे। उन्हें बौद्ध धर्म के मुख्य सिद्धान्तों तथा विचारधारा से अवगत कराया जाता था। ये विद्यार्थी जहां जाते बौद्ध धर्म का प्रचार करते। चीन, तिब्बत, जापान, लंका, स्याम आदि देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार इन्हीं विद्यार्थियों द्वारा किया गया।

11. प्रचारक धर्मों का अभाव-उन दिनों कोई धर्म ऐसा नहीं था जो अपने प्रचार में लगा हुआ हो। इस्लाम तथा ईसाई … धर्म तो बाद में आए। बौद्ध धर्म का मुकाबला केवल हिन्दू धर्म ही कर सकता था। परन्तु हिन्दू धर्म एक प्रचारक धर्म नहीं था। उसके प्रचार के लिए साधुओं या संन्यासियों का गिरोह नहीं घूमता था। अत: बौद्ध धर्म के प्रचारक निर्विरोध अपना कार्य करते गए और इन्होंने इसे विश्वव्यापी धर्म बना दिया।

12. बौद्ध धर्म के सम्मेलन-समय-समय पर बौद्ध धर्म से सम्बन्धित भेदभावों को दूर करने के लिए परिषदें बुलाई गईं। ऐसी कुल चार परिषदें बुलाई गईं। इन परिषदों में बौद्ध भिक्षु आपसी भेदभाव को दूर करके बौद्ध धर्म को ठोस रूप प्रदान करते रहे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध का महान् व्यक्तित्व, पाली भाषा, बौद्ध संघ, भिक्षुओं के चरित्र, विश्वविद्यालयों, जाति-प्रथा में अविश्वास आदि अनेक बातों ने बौद्ध धर्म के प्रसार में काफ़ी योगदान दिया। इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य, प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था तथा विदेशियों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता ने भी इस धर्म के उत्थान में बड़ा योगदान दिया। शीघ्र ही यह धर्म विश्व धर्म बन गया। आज भी इसकी गणना संसार के प्रमुख धर्मों में की जाती है।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक-

प्रश्न 1.
अजातशत्रु की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर-
अजातशत्रु की मृत्यु 461 ई० पू० में हुई।

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प्रश्न 2.
प्राकृत भाषा किस भाषा का परिवर्तित रूप थी ?
उत्तर-
प्राकत भाषा संस्कृत भाषा का परिवर्तित रूप थी।

प्रश्न 3.
छठी शताब्दी ई० पू० में जन्म लेने वाले दो प्रमुख धर्मों के नाम बताओ।
उत्तर-
छठी शताब्दी ई० पू० में जन्म लेने वाले दो प्रमुख धर्म थे-जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म।

प्रश्न 4.
जैन धर्म के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
जैन धर्म के संस्थापक वर्द्धमान महावीर थे।

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प्रश्न 5.
महावीर स्वामी का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर-
महावीर स्वामी का जन्म वैशाली में हुआ था।

प्रश्न 6.
महावीर स्वामी का देहान्त कितने वर्ष की आयु में हुआ ?
उत्तर-
महावीर स्वामी का देहान्त 72 वर्ष की आयु में हुआ।

प्रश्न 7.
महावीर स्वामी का देहान्त कहाँ हुआ था ?
उत्तर-
महावीर स्वामी का देहान्त पावाग्राम में हुआ था।

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प्रश्न 8.
महावीर स्वामी के पिता का नाम क्या था ?
उत्तर-
महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ था।

प्रश्न 9.
महावीर स्वामी की पत्नी का नाम क्या था ?
उत्तर-
महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोधरा था।

प्रश्न 10.
बौद्ध धर्म के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे।

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प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति गया नामक स्थान पर हुई।

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश कहाँ दिया था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ नामक स्थान पर दिया था।

प्रश्न 13.
महात्मा बुद्ध के पिता का क्या नाम था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था।

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प्रश्न 14.
जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर कौन थे ?
उत्तर-
जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे।

प्रश्न 15.
जैन धर्म के 24वें और सबसे महत्वपूर्ण तीर्थंकर का नाम बताओ।
उत्तर-
जैन धर्म के 24वें और सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थंकर का नाम वर्धमान महावीर था।

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म के दो सम्प्रदायों के नाम लिखो।
उत्तर-
हीनयान और महायान।

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2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) …………… सबसे शक्तिशाली महाजनपद था।
(ii) छठी शताब्दी ई० पू० में व्यापारियों के संगठन को …………. कहा जाता था।
(iii) जैनियों के ………….. तीर्थंकर थे।
(iv) वर्द्धमान स्वामी का जन्म ………… ई० पू० में हुआ था।
(v) जैन धर्म के अनुसार …………… मुक्ति का मार्ग है।
उत्तर-
(i) मगध
(ii) श्रेणी
(iii) 24
(iv) 599
(v) त्रिरत्न।

3. सही/ग़लत कथन-

(i) गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। — (√)
(ii) महात्मा बुद्ध को कुशीनारा (कुशीनगर) में सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। — (×)
(iii) अष्टमार्ग बौद्ध धर्म का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। — (√)
(iv) बिम्बिसार का वध उसके पुत्र बृहद्रथ ने किया था। — (×)
(v) अजातशत्रु मगध के राजा बिम्बिसार का पुत्र था। — (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न (i)
महाजनपद संख्या में कितने थे ?
(A) 8
(B) 12
(C) 16
(D) 20
उत्तर-
(C) 16

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प्रश्न (ii)
महावीर जैन की माता का नाम था-
(A) महामाया
(B) त्रिशला
(C) वैशाली
(D) गौतमी।
उत्तर-
(B) त्रिशला

प्रश्न (iii)
जैनधर्म के पहले तीर्थंकर थे
(A) ऋषभदेव
(B) महावीर स्वामी
(C) सिद्धार्थ
(D) शंकरदेव।
उत्तर-
(A) ऋषभदेव

प्रश्न (iv)
छठी शताब्दी ई० पू० में निम्न भाषा महत्त्वपूर्ण बनी-
(A) अवधी
(B) संस्कृत
(C) ब्रज
(D) प्राकृत।
उत्तर-
(D) प्राकृत।

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प्रश्न (v)
तीर्थंकर शब्द का अर्थ है
(A) मुक्ति दिलाने वाला
(B) धन में वृद्धि करने वाला
(C) तीर्थ यात्रा का फल देने वाला
(D) वंश वृद्धि करने वाला ।
उत्तर-
(A) मुक्ति दिलाने वाला

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
छठी सदी ई० पू० के चार मुख्य राजतन्त्र कौन-से थे ?
उत्तर-
छठी सदी ई० पू० के चार मुख्य राजतंत्र ये थे-कौशल, काशी, मगध और अंग।

प्रश्न 2.
अजातशत्रु किसका पुत्र था उसकी राजधानी का क्या नाम था ?
उत्तर-
अजातशत्रु बिम्बिसार का पुत्र था और उसकी राजधानी का नाम ‘राजगृह’ था।

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प्रश्न 3.
छठी शताब्दी ई० पू० में प्रयोग में आने वाली नई भाषा का क्या नाम था और यह किन लोगों की भाषा थी ?
उत्तर-
इस काल में प्रयोग में आने वाली नई भाषा का नाम ‘प्राकृत’ था। ‘प्राकृत’ जन-साधारण की भाषा थी। ।

प्रश्न 4.
गोशाल मस्करि पुत्र से सम्बन्धित आन्दोलन का क्या नाम था और इसे किस शासन का संरक्षण प्राप्त था ?
उत्तर-
गोशाल मस्करि पुत्र से सम्बन्धित आन्दोलन का नाम ‘आजीविक आन्दोलन’ था। इसे राजा अशोक का संरक्षण प्राप्त था।

प्रश्न 5.
महावीर का आरम्भिक नाम क्या था और इसका सम्बन्ध कौन-से कबीले से था ?
उत्तर-
महावीर का आरम्भिक नाम वर्धमान था। उसका सम्बन्ध ‘लिच्छवी’ कबीले से था।

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प्रश्न 6.
दक्षिणी तथा पश्चिमी भारत में जैन धर्म के बारे में लिखने वाले दो जैन विद्वानों के नाम क्या हैं ?
उत्तर-
भद्रभाहु और हेम-चन्द्र।

प्रश्न 7.
महावीर की संन्यास-पद्धति को आरम्भ में क्या नाम दिया गया तथा उसका शाब्दिक अर्थ क्या
उत्तर-
महावीर की संन्यास-पद्धति को आरम्भ में ‘निर्ग्रन्थी’ का नाम दिया गया। निर्ग्रन्थी का अर्थ है, ‘बन्धनों से रहित’।

प्रश्न 8.
जैन धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
उत्तर-
जैन धर्म में निर्वाण से भाव है-जन्म-मरण से मुक्त होना।

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प्रश्न 9.
पूर्वी भारत में जैन धर्म के सबसे बड़े संरक्षक शासक का क्या नाम था और यह वर्तमान के किस राज्य के इलाके का शासक था ?
उत्तर-
पूर्वी भारत में जैन धर्म के सबसे बड़े संरक्षक शासक का नाम ‘खारवेल’ था। वह उड़ीसा का शासक था।

प्रश्न 10.
गुजरात के कौन-से वंश के राजा ने 12वीं सदी में जैन मत को संरक्षण दिया ?
उत्तर-
गुजरात के सोलंकी वंश के राजा ने 12वीं सदी में जैन मत को संरक्षण दिया।

प्रश्न 11.
वर्तमान भारत के कौन-से तीन राज्यों में जैन धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में हैं ?
उत्तर-
जैन धर्मावलम्बी गुजरात, राजस्थान तथा कर्नाटक में बड़ी संख्या में विद्यमान हैं।

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प्रश्न 12.
सबसे अधिक प्रभावशाली जैन मन्दिर कौन-से दो स्थानों पर हैं ?
उत्तर-
सबसे अधिक प्रभावशाली जैन मन्दिर राजस्थान में आबू पर्वत पर तथा मैसूर में श्रावणवेलगोला में हैं।

प्रश्न 13.
त्रिपिटिकों के क्या नाम हैं ?
उत्तर-
त्रिपिटिकों के नाम हैं-विनय-पिटक, सुत्त-पिटक तथा अभीधम्मपिटक।

प्रश्न 14.
लंका में बौद्ध धर्म पर लिखी गई दो पुस्तकों के क्या नाम हैं ?
उत्तर-
लंका में बौद्ध धर्म पर लिखी गई दो पुस्तकों के नाम दीपवंश तथा महावंश हैं।

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प्रश्न 15.
महात्मा बुद्ध का आरम्भिक नाम क्या था और वे कौन-से गणराज्य के राजकुमार थे ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का आरम्भिक नाम सिद्धार्थ था। वह शाक्य गणराज्य के राजकुमार थे।

प्रश्न 16.
बुद्ध की पत्नी तथा पुत्र का नाम क्या था ?
उत्तर-
बुद्ध की पत्नी का नाम ‘यशोधरा’ था। उनके पुत्र का नाम ‘राहुल’ था।

प्रश्न 17.
‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ से क्या भाव है और यह किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
धर्मचक्र-प्रवर्तन से भाव बुद्ध के पहले प्रवचन से है। यह सारनाथ के स्थान पर हुआ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

प्रश्न 18.
‘महापरिनिर्वाण’ से क्या भाव है और यह किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
महापरिनिर्वाण से हमारा भाव बुद्ध के देहान्त की घटना से है। यह घटना कुशीनगर नामक स्थान पर घटित हुई।

प्रश्न 19.
महात्मा बुद्ध के जन्म और मृत्यु से सम्बन्धित स्थानों के नाम बताएं।
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी वाटिका में हुआ। उनकी मृत्यु कुशीनगर के स्थान पर हुई।

प्रश्न 20.
बुद्ध की काल्पनिक जीवनियों का वृत्तान्त कौन-सी कथाओं से मिलता है और यह कौन-सी भाषा में है ?
उत्तर-
बुद्ध की काल्पनिक जीवनियों का वृत्तान्त ‘जातक’ कथाओं में मिलता है। ये कथाएं ‘प्राकृत’ भाषा में हैं।

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प्रश्न 21.
बुद्ध को सत्य की प्राप्ति कौन-से स्थान पर हुई तथा उन्होंने अपना पहला प्रवचन कहां पर दिया ?
उत्तर-
बुद्ध को सत्य की प्राप्ति ‘गया’ के स्थान पर हुई। उन्होंने अपना पहला प्रवचन सारनाथ की मृग वाटिका में दिया।

प्रश्न 22.
स्तूप किस घटना का प्रतीक था तथा इसमें क्या रखा जाता था ?
उत्तर-
स्तूप बुद्ध के परिनिर्वाण का प्रतीक था और उसमें बुद्ध के स्मृति-चिह्न रखे जाते थे।

प्रश्न 23.
अमरावती, भारहुत तथा सांची के स्तूप आज के भारत के कौन-से दो राज्यों में हैं ?
उत्तर-
अमरावती, भारहुत तथा सांची के स्तूप मध्य प्रदेश तथा तमिलनाडु में हैं।

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प्रश्न 24.
बुद्ध धर्म में परम्परा के समर्थक सम्प्रदाय का आरम्भिक तथा बाद का नाम क्या था ?
उत्तर-
बुद्ध धर्म में परम्परा के समर्थक सम्प्रदाय का आरम्भिक नाम थेरावाद अथवा हीनयान तथा बाद का नाम महायान था।

प्रश्न 25.
कनिष्क के काल में हुई बौद्ध धर्म की सभा में किस सम्प्रदाय से सम्बन्धित कौन-सा ग्रन्थ संकलित किया गया ?
उत्तर-
कनिष्क के काल में हुई बौद्ध धर्म की सभा में ‘महाविभाष’ नामक ग्रन्थ को संकलित किया गया। इस ग्रन्थ में जिस सम्प्रदाय के सिद्धान्त थे, उसका नाम ‘सर्वास्तिवादिन’ था।

प्रश्न 26.
कनिष्क से पहले बौद्ध धर्म की दो सभाएं कहां बुलाई गई थीं और अशोक इनमें से किसके साथ सम्बन्धित था ?
उत्तर-
कनिष्क से पहले बौद्ध धर्म की दो सभाएं वैशाली तथा पाटलिपुत्र में बुलाई गई थीं। अशोक का सम्बन्ध पाटलिपुत्र की सभा के साथ था।

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प्रश्न 27.
‘यान’ का शब्दिक अर्थ क्या था और बौद्ध धर्म में बोधिसत्व के विचार के साथ जुड़े हुए सम्प्रदाय का क्या नाम था ?
उत्तर-
‘यान’ का शाब्दिक अर्थ था–मुक्ति प्राप्त करने का एक तरीका। बौद्ध धर्म में बोधिसत्व के विचार के साथ जुड़े हुए सम्प्रदाय का नाम ‘महायान’ था।

प्रश्न 28.
जादू-टोने तथा मन्त्रों के साथ जुड़े हुए बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय का क्या नाम था ? इसके अन्तर्गत उपासना-पद्धति को क्या कहा जाता था तथा इसका महत्त्वपूर्ण विहार कहां था ?
उत्तर-
जादू-टोने तथा मन्त्रों के साथ जुड़े हुए बौद्ध धर्म सम्प्रदाय का नाम ‘वज्रयान’ था तथा इस सम्प्रदाय की उपासना पद्धति को ‘तान्त्रिक’ कहा जाता था। वज्रयान सम्प्रदाय का महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला के स्थान पर था।

प्रश्न 29.
नागार्जुन अथवा नागसेन का सम्बन्ध कौन-से बौद्ध सम्प्रदाय से था और उसका किस यूनानी शासक के साथ बौद्ध धर्म पर संवाद हुआ था ?
उत्तर-
नागार्जुन अथवा नागसेन का सम्बन्ध ‘महायान’ सम्प्रदाय से था। इसका संवाद यूनानी शासक मिनांडर से हुआ था।

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प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म भारत से बाहर किन चार देशों में फैला ?
उत्तर-
भारत से बाहर जिन देशों में बौद्ध धर्म फैला, उनके नाम हैं-चीन, जापान, श्री लंका तथा म्यनमार (बर्मा)।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अजातशत्रु के समय मगध राज्य की शक्ति के क्या कारण थे ?
उत्तर-
अजातशत्रु के समय मगध राज्य काफ़ी शक्तिशाली बना। इसके कई कारण थे-

  • अजातशत्रु एक साहसी तथा शक्तिशाली शासक था। उसने अपने राज्य का खूब विस्तार किया।
  • कच्चा लोहा पास ही उपलब्ध होने के कारण मगध राज्य अपने विरोधियों की अपेक्षा अच्छे शस्त्र बनाने में सफल हुआ।
  • मगध की राजधानी की स्थिति ऐसी थी कि उसे जीतना बच्चों का खेल नहीं था।
  • मगध एक अत्यधिक उपजाऊ प्रदेश था और जहां अच्छी वर्षा होती थी। अतः यहां की कृषि बड़ी उन्नत थी।
  • मगध राज्य अपने पड़ोसी राज्यों के विरुद्ध हाथियों का प्रयोग कर सकता था। इस सैनिक सुविधा के कारण मगध राज्य के विकास में विशेष सहायता मिली।
  • मगध राज्य का व्यापार भी काफ़ी उन्नत था। व्यापार से होने वाली आय से राजा स्थायी सेना रख सकता था।

प्रश्न 2.
महावीर स्वामी अथवा जैन धर्म की शिक्षाओं का वर्णन करो।
उत्तर-
महावीर स्वामी ने लोगों को जीवन का सरल मार्ग दिखाया। उनके अनुसार मनुष्य को त्रिरत्न अथवा शुद्ध ज्ञान, शुद्ध चरित्र तथा शुद्ध दर्शन का पालन करना चाहिए। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए लोगों को प्रेरित किया और इसके लिए घोर तपस्या का मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग स्वीकार किया। वह समझते थे कि पशु, पक्षी, वायु, अग्नि, वृक्ष आदि सभी वस्तुओं में आत्मा है और उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। उनका वेदों, जाति-पाति, यज्ञ तथा बलि में कोई विश्वास नहीं था। उनका विचार था कि मनुष्य अपने अच्छे या बुरे कर्मों के कारण जन्म लेता है और आत्मा को पवित्र रखकर ही वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। . उन्होंने अपने अनुयायियों को बताया कि वे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, चोरी, निन्दा आदि अनैतिक कामों से दूर रहें और सदाचारी बनें।

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प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध अथवा बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने लोगों को जीवन का सरल मार्ग सिखाया। उन्होंने लोगों को बताया कि संसार दुःखों का घर है। दुःखों का कारण तृष्णा है। निर्वाण प्राप्त करके ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छूट सकता है। निर्वाण-प्राप्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को अहिंसा, नेक काम तथा सदाचार पर चलने के लिए कहा। सच तो यह है कि बौद्ध धर्म ने व्यर्थ के रीति-रिवाजों यज्ञों तथा कर्मकाण्डों को त्यागने पर बल दिया।

प्रश्न 4.
महावीर की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन के लिए क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
महावीर की शिक्षाओं का साधारण मनुष्य के जीवन में बड़ा महत्त्व था :

  • उन्होंने जाति-प्रथा का घोर विरोध किया। इससे भारतीय समाज में लोगों का आपसी मेल-जोल बढ़ने लगा। भेदभाव का स्थान सहकारिता ने ले लिया। ऊंच-नीच की भावना समाप्त होने लगी और समाज प्यार और भाईचारे की भावनाओं से ओत-प्रोत हो गया।
  • महावीर ने लोगों को समाज-सेवा का उपदेश दिया। अतः लोगों की भलाई के लिए जैनियों ने अनेक संस्थाएं स्थापित की। इससे न केवल जनता का ही भला हुआ बल्कि दूसरे धर्मों के अनुयायियों को भी समाज सेवा के कार्य करने का प्रोत्साहन मिला।
  • जैन धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर ब्राह्मणों ने भी पशु-बलि, कर्म-काण्ड तथा अन्य कुरीतियों का त्याग करना शुरू कर दिया। इस प्रकार वैदिक धर्म भी काफ़ी सरल बन गया।
  • इसके अतिरिक्त महावीर ने अहिंसा पर बल दिया। अहिंसा के सिद्धान्त को अपना कर लोग मांसाहारी से शाकाहारी बन गए। उनका जीवन सरल तथा संयमी बना।

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प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के मध्य मार्ग से क्या भाव है ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के उपदेशों के मूल सिद्धान्त चार महान् सत्य थे-

  • संसार दुःखों का घर है।
  • इन दुःखों का कारण तृष्णा अथवा लालसा है।
  • अपनी लालसाओं का दमन करने पर ही दुःखों से छुटकारा मिलता है और मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है।
  • तृष्णा के दमन के लिए मनुष्य को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग पर चलना चाहिए।

महात्मा बुद्ध के अष्ट मार्ग में ये आठ बातें शामिल हैं-

  • शुद्ध दृष्टि
  • शुद्ध संकल्प
  • शुद्ध वचन
  • शुद्ध कर्म
  • शुद्ध कमाई
  • शुद्ध प्रयत्न
  • शुद्ध स्मृति
  • शुद्ध समाधि।

ये सभी सिद्धान्त एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए शुद्ध कमाई केवल शुद्ध कर्म द्वारा ही सम्भव हो सकती है। शुद्ध कर्म के लिए शुद्ध संकल्प तथा शुद्ध दृष्टि आवश्यक है। अतः अष्ट मार्ग मनुष्य को पूर्ण रूप से सदाचारी बनाता है और उसे दुःखों से छुटकारा दिलाता है। इसे मध्य मार्ग इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह घोर तपस्या तथा ऐश्वर्यमय जीवन के बीच का रास्ता है।

प्रश्न 6.
बुद्ध द्वारा चलाई गई संघ व्यवस्था की क्या विशेषताएं थीं ?
उत्तर-
बुद्ध द्वारा चलाई गई संघ व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं ये थीं-
1. प्रत्येक स्त्री-पुरुष संघ का सदस्य बन सकता था। संघ में प्रवेश करने की रस्म बड़ी साधारण थी। इसमें तीन पीले वस्त्र धारण करना, मुण्डन संस्कार एवं तीन ‘रत्नों’ का उच्चारण शामिल था। ये तीन रत्नं थे : ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि, ‘धर्मं शरणम् गच्छामि’, ‘संघ शरणम् गच्छामि।

2. नये भिक्षुओं को दस शील विरतियों के पालन का प्रण करना पड़ता था। मुख्य शील विरतियां थीं : जीवों को कष्ट न देना, किसी वस्तु को उसकी इच्छा के बिना न लेना, आवेग में दुर्व्यवहार न करना, झूठा न बोलना, नशे का सेवन न करना आदि।

3. भिक्षु के दैनिक जीवन की भी बहुत-सी क्रियाएं थीं। वह भिक्षा मांग कर दिन में केवल एक समय भोजन करता था। वह संघीय उपासना में भाग लेने के अतिरिक्त अपना समय अध्ययन एवं अष्टमार्ग के अनुसार धार्मिक अभ्यास में लगाता था। मठ को साफ़-सुथरा रखने के लिए श्रमदान भी करना पड़ता था।

4. मठीय जीवन का संचालन या विभिन्न मठवासियों की गतिविधियों को संयोजित करने के लिए केन्द्रीय संस्था नहीं थी। मठ का संचालन मुख्य भिक्षु के नेतृत्व में सभी वयोवृद्ध भिक्षु मिलकर करते थे।

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प्रश्न 7.
कला के दृष्टिकोण से स्तूप का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
स्तूप महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण का प्रतीक थे। यह एक विशाल अर्द्ध गोलाकार गुम्बज होता था जिसके बीचोंबीच स्थित एक छोटे कमरे में बुद्ध के स्मृति-चिन्ह एक संदूकचे में रखे जाते थे। स्तूप पर लकड़ी या पत्थर का छत्र बना होता था। कला की दृष्टि से सर्वोत्तम स्तूपों के नमूने कृष्णा नदी की घाटी के निचले भाग में अमरावती में एवं मध्य प्रदेश में भरहुत और सांची में मिलते हैं। स्तूपों पर की गई नक्काशी की कला भी कम प्रभावशाली नहीं थी। लकड़ी पर नक्काशी के नमूने तो बहुत देर तक सुरक्षित न रह सके। परन्तु अमरावरती एवं सांची के स्तूपों के तोरणों (प्रवेश द्वार) पर पत्थर पर हुई सुन्दर नक्काशी आज भी देखी जा सकती है। इन पर चित्रित दृश्य मुख्यतः बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित हैं। इनमें अधिकांश का सम्बन्ध बुद्ध के जन्म, गृह त्याग, ज्ञान-प्राप्ति, धर्मचक्र प्रवर्तन एवं उनके महा-परिनिर्वाण से है।

प्रश्न 8.
बौद्ध धर्म के पतन के क्या कारण थे ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म के पतन के मुख्य कारण थे :

  • समय के अनुसार वैदिक धर्म में अनेक सुधार किये गये। अतः वे सभी लोग जो हिन्दू से बौद्ध बने थे, फिर वैदिक धर्म में शामिल हो गए।
  • बौद्ध धर्म धीरे-धीरे काफ़ी जटिल हो गया। इसमें अनेक कुरीतियां और व्यर्थ के रीति-रिवाज शामिल हो गए।
  • बौद्ध भिक्षु बड़ा विलासी जीवन व्यतीत करने लगे। इस बात का लोगों पर बुरा प्रभाव पड़ा।
  • हर्ष की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म को राजकीय सहायता न मिल सकी। फलस्वरूप बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी।
  • बौद्ध धर्म के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जाने लगे। लोग इस कठिन भाषा से पहले ही तंग थे।
  • महात्मा बुद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म में कोई भी उन जैसा महान् व्यक्ति पैदा न हुआ जो इस धर्म को लोकप्रिय बना सकता।

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प्रश्न 9.
छठी शताब्दी ई० पू० में कौन-सी नई भाषा महत्त्वपूर्ण बनी और क्यों ?
उत्तर-
छठी शताब्दी ई० पू० में ‘प्राकृत’ भाषा महत्त्वपूर्ण बनी। प्राकृत भाषा का महत्त्व बढ़ने से पहले वैदिक संस्कृत भाषा को अधिक महत्त्व दिया जाता था। उस समय हिन्दुओं के सभी ग्रन्थ इसी भाषा में लिखे हुए थे और ब्राह्मण तथा कुलीन वर्ग के अन्य लोग इसी भाषा का प्रयोग करते थे। परन्तु यह भाषा बहुत ही कठिन थी और साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। परिणामस्वरूप साधारण लोग न तो वैदिक ग्रन्थों को पढ़ सकते थे और न ही उनका अर्थ समझ पाते थे। इसी समय कुछ नये विचारकों का जन्म हुआ। वे अपने विचार प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाना चाहते थे। यह तभी सम्भव था जब वे अपने प्रचार कार्य आम जनता की बोलचाल की भाषा में करते। अतः उन्होंने ‘प्राकृत’ भाषा को अपनाया जिसके कारण यह भाषा काफ़ी महत्त्वपूर्ण बन गई।

प्रश्न 10.
भारतीय जीवन पर जैन धर्म के क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
भारतीय जीवन पर जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। जैन धर्म ने जाति-प्रथा का खण्डन किया। फलस्वरूप देश में जाति-प्रथा के बन्धन शिथिल पड़ गए। इस मत के सरल सिद्धान्तों की लोकप्रियता को देखकर ब्राह्मणों ने पशु-बलि, कर्मकाण्ड तथा अन्य कुरीतियों का त्याग कर दिया। फलस्वरूप वैदिक धर्म एक बार फिर सरल रूप धारण करने लगा। जैन धर्म में अहिंसा पर बड़ा बल दिया गया। इस सिद्धान्त को अपना कर लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया और वे शाकाहारी बन गए। जैनियों ने अपने तीर्थंकरों की स्मृति में विशाल मन्दिर तथा मठ बनवाए। दिलवाड़ा का जैन मन्दिर, आबू पर्वत के जैन मन्दिर, एलोरा की गुफाएं तथा खजुराहो के जैन मन्दिर कला के सर्वोत्तम नमूने हैं। इस धर्म के कारण कन्नड़, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्य ने भी बड़ी उन्नति की।

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प्रश्न 11.
जैन मत लोकप्रिय क्यों न हो सका ?
उत्तर-
जैन मत भारत में अनेक कारणों से अधिक लोकप्रिय न हो सका :

  • इसमें घोर तपस्या पर बल दिया गया था जिसके अनुसार मनुष्य को कई दिन तक भूखा-प्यासा रहना पड़ता था। साधारण लोग इतना कठोर जीवन व्यतीत नहीं कर सकते थे।
  • जैन मत के अनुयायियों ने इस धर्म के प्रचार पर अधिक बल न दिया।
  • इस धर्म में अहिंसा के सिद्धान्त को अत्यन्त कठोर रूप में अपनाया गया था।
  • इसे बौद्ध धर्म की भान्ति अधिक राजकीय सहायता न मिल सकी।
  • बौद्ध धर्म के सिद्धान्त जैन मत की अपेक्षा अधिक सरल थे। अतः अधिक से अधिक लोग बौद्ध धर्म को अपनाने लगे और जैन धर्म अपनी लोकप्रियता खो बैठा।

प्रश्न 12.
जैन धर्म के दो सम्प्रदायों अर्थात् दिगम्बर तथा श्वेताम्बर के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं-दिगम्बर तथा श्वेताम्बर। दोनों सम्प्रदायों में मूल रूप से कोई अन्तर नहीं। दोनों महावीर की शिक्षाओं में विश्वास रखते हैं और उनके दर्शन को स्वीकार करते हैं। इन दोनों सम्प्रदायों में भिन्नता मौर्य काल में आरम्भ हुई। उन दिनों देश में भीषण अकाल पड़ा। कुछ जैन भिक्षु भद्रबाहु की अध्यक्षता में दक्षिण चले गए। वहां उन्होंने नग्न रह कर महावीर स्वामी की भान्ति जीवन व्यतीत किया। समय बीतने के साथ-साथ जैन भिक्षुओं ने उत्तरी भारत में श्वेत वस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिये। दक्षिण में रहने वाले भिक्षु दिगम्बर कहलाए तथा उत्तरी भारत में भिक्षु श्वेताम्बर कहलाए। दिगम्बर का अर्थ है ‘नग्न’ तथा श्वेताम्बर का अर्थ है ‘श्वेत-वस्त्र धारण करने वाले।’ समय बीतने के साथ-साथ दिगम्बर भिक्षुओं ने भी वस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए। परन्तु दोनों पक्षों में ऊपरी भेद आज भी बना हुआ है।

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प्रश्न 13.
बौद्ध मत लोकप्रिय क्यों हुआ ?
उत्तर-
भारत में बौद्ध मत की लोकप्रियता के मुख्य कारण थे :

  • यह एक सरल धर्म था। लोग इसके नियमों को आसानी से समझ सकते थे और उन्हें अपना सकते थे।
  • महात्मा बुद्ध ने अपना उपदेश भी साधारण बोल-चाल की भाषा में दिया। परिणामस्वरूप इस धर्म ने जन-साधारण को बड़ा प्रभावित किया।
  • महात्मा बुद्ध ने जाति-प्रथा का भी घोर खण्डन किया और भाईचारे की भावना पर बल दिया। परिणामस्वरूप निम्न जातियों के अनेक लोग समाज में आदर पाने के लिए धर्म के अनुयायी बन गए।
  • बौद्ध धर्म की उन्नति का एक अन्य बड़ा कारण हिन्दू धर्म की कुरीतियां थीं। अतः अनेक लोग हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए।
  • अशोक, कनिष्क, हर्ष आदि अनेक राजाओं ने भी बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इन सभी राजाओं के प्रयत्नों में यह धर्म केवल भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो गया।

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म की क्या देन है ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म की देन वास्तुकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला के सुन्दर नमूनों में देखी जा सकती है। भारतीय धर्मों एवं दर्शनों पर तो बौद्ध धर्म का प्रभाव अत्यन्त गहरा है। पन्द्रह सौ वर्षों तक बौद्ध धर्म ने भारत में करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित किया। यही नहीं, चीन, जापान, लंका, म्यनमार (बर्मा) एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में और तिब्बत में वहां की कला एवं वास्तुकला बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाती है। इन देशों का अपना बौद्ध धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य भी इनकी अत्यन्त मूल्यवान सांस्कृतिक पूंजी है। एशिया के करोड़ों लोग भारत को आज तक भी बुद्ध की धरती के रूप में जानते हैं।

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IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का जन्म छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ। इन धर्मों का जन्म ऐसे समय पर हुआ जब समाज पर ब्राह्मणों का प्रभुत्व छाया हुआ था। यज्ञ बड़े महंगे और आवश्यक थे। धर्म अपना सरल रूप खो चुका था। ठीक इसी समय महावीर स्वामी तथा महात्मा बुद्ध ने मानवता को धर्म की सही राह दिखाई। संक्षेप में, जैन तथा बौद्ध धर्म का जन्म निम्नलिखित कारणों से हुआ

1. हिन्दू धर्म में जटिलता-ऋग्वैदिक काल में आर्यों का धर्म बड़ा सरल था और इसके सिद्धान्तों को आसानी से अपनाया जा सकता था, परन्तु धीरे-धीरे वैदिक (आर्य) धर्म जटिल होता चला गया। व्यर्थ के कर्म-काण्ड धर्म का अंग बन गए। लोगों के लिए इस धर्म के सिद्धान्तों को अपनाना मुश्किल हो गया। परिणामस्वरूप वे किसी सरल धर्म की इच्छा करने लगे।

2. जाति-प्रथा तथा छुआछूत-छठी शताब्दी ई० पू० तक जाति बन्धन बहुत कठोर हो चुके थे। लोगों में छुआछूत की भावना इतनी बढ़ गई कि वे शूद्रों को छूना भी पाप समझने लगे। अतः शूद्र लोग किसी ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसमें उन्हें उचित स्थान मिल सके।

3. ब्राह्मणों की स्वार्थ भावना-धर्म का कार्य ब्राह्मणों को सौंपा गया था। आरम्भ में वे बिना किसी लोभ लालच के अपना कार्य करते थे, परन्तु धीरे-धीरे वे स्वार्थी बन गए। वे धर्म की व्याख्या अपने ही ढंग से करने लगे। परिणामस्वरूप साधारण जनता ब्राह्मणों से बचने का कोई उपाय सोचने लगी।

4. कठिन भाषा-उस समय वैदिक धर्म के सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गए थे। कठिन होने के कारण साधारण लोग इस भाषा को नहीं समझ सकते थे। इसलिए वे किसी ऐसे धर्म की खोज में रहने लगे जिस धर्म के ग्रन्थ लोगों की बोलचाल की भाषा में लिखे गए हों।

5. महंगे यज्ञ-ऋग्वैदिक काल तक आर्य बड़े ही सरल ढंग से यज्ञ किया करते थे, परन्तु धीरे-धीरे यज्ञ काफ़ी महंगे होते चले गए। यज्ञ में अनेक ब्राह्मणों को भोज देना पड़ता था। साधारण जनता के लिए ऐसे यज्ञ करना असम्भव हो गया। अत: लोग किसी सरल धर्म की इच्छा करने लगे।

6. तन्त्र-मन्त्र में विश्वास-छठी शताब्दी में लोग अन्धविश्वासी हो चुके थे। वे वेद मन्त्रों की बजाए तन्त्र-मन्त्र में . विश्वास रखने लगे। यहां तक कि रोगों का इलाज भी जादू-टोनों के द्वारा किया जाने लगा। इस अन्धविश्वास को समाप्त करने के लिए किसी नए धर्म की आवश्यकता थी।

7. महापुरुषों का जन्म-छठी शताब्दी ई० पू० में भारत में दो महापुरुषों ने जन्म लिया जिनके नाम थे-महावीर स्वामी तथा महात्मा बुद्ध । उन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार करके उसे नए रूप में प्रस्तुत किया, परन्तु उनके उपदेशों ने क्रमशः दो नए धर्मों का रूप धारण कर लिया। ये नवीन धर्म जैन मत और बौद्ध मत के नाम से प्रसिद्ध हुए।

सच तो यह है कि बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का उदय वैदिक धर्म में गिरावट के कारण हुआ। धर्म में जटिलता, ब्राह्मणों का नैतिक पतन, छुआछूत, महंगे यज्ञ, कठिन भाषा-यें सभी बातें थीं जिनके कारण बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का उदय हुआ। इस विषय में डॉ० राधाकृष्णन ठीक ही लिखते हैं, “महावीर अथवा गौतम ने किसी नए तथा स्वतन्त्र धर्म का आरम्भ नहीं किया। उन्होंने तो अपने प्राचीन वैदिक धर्म पर आधारित एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।”

प्रश्न 2.
जैन धर्म के मुख्य उपदेश (सिद्धान्त) क्या-क्या हैं ?
अथवा
‘त्रिरत्न’ तथा ‘अहिंसा’ का विशेष रूप से वर्णन करते जैन धर्म के किन्हीं पांच सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
जैन धर्म अथवा महावीर स्वामी की शिक्षाएं (उपदेश) बड़ी सरल थीं। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. त्रिरत्न-जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के जीवन का उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए तीन साधन बताए गए हैं–शुद्ध ज्ञान, शुद्ध चरित्र तथा शुद्ध दर्शन। जैन धर्म को मानने वाले इन तीन सिद्धान्तों को ‘त्रिरत्न’ कहते हैं।

2. घोर तपस्या में विश्वास-जैन धर्म के अनुयायी घोर तपस्या करने तथा अपने शरीर को अधिक-से-अधिक कष्ट देने में विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार शरीर को कष्ट देने से जल्दी मोक्ष प्राप्त होता है।

3. अहिंसा-जैन धर्म में अहिंसा पर बहुत बल दिया गया है। इस धर्म के अनुयायियों का विश्वास है कि संसार की सभी वस्तुओं में जीव (आत्मा) है। इसलिए वे किसी भी जीव को कष्ट देना पाप समझते हैं।

4. ईश्वर में विश्वास-जैन धर्म को मानने वाले ईश्वर को नहीं मानते। वे ईश्वर के स्थान पर अपने तीर्थंकरों की पूजा करते हैं।

5. वेदों में अविश्वास-जैन धर्म को मानने वाले वेदों को ईश्वरीय ज्ञान नहीं मानते। वे वेदों से मुक्ति के लिए बताए गए मुक्ति के साधनों-यज्ञ, हवन, आदि को व्यर्थ समझते हैं।

6. आत्मा में विश्वास-जैन धर्म को मानने वाले आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आत्मा अमर है। यह शरीर में रह कर भी शरीर से भिन्न होती है।

7. जाति-पाति में अविश्वास-जैन धर्म के अनुयायी जाति-पाति में विश्वास नहीं रखते। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। जाति के आधार पर कोई व्यक्ति छोटा-बड़ा नहीं है।

8. कर्म सिद्धान्त में विश्वास-जैन धर्म के अनुसार मनुष्य अपने पिछले जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार जन्म लेता है और उसका अगला जन्म इस जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार होगा। अतः हमें अच्छे कर्म करने चाहिएं।

9. मोक्ष-प्राप्ति-जैन धर्म के अनुसार आत्मा को कर्मों के बन्धन से छुटकारा दिलाने का नाम मोक्ष है। कर्म-चक्र समाप्त होते ही जीव (आत्मा) को मुक्ति मिल जाती है।

10. सदाचार पर बल-महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने आदेश दिया कि वे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, चोरी, निन्दा आदि अनैतिक कार्यों से बचें।

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प्रश्न 3.
(क) बौद्ध धर्म के मुख्य उपदेशों का वर्णन करें।
(ख) भारतीय समाज पर बौद्ध धर्म का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
(क) बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाएं-

  • बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही सबसे अच्छा मार्ग है। निर्वाण न तो भोग-विलास से मिल सकता है और न ही कठोर तपस्या से।
  • संसार दुःखों का घर है। तृष्णा इन दुःखों का कारण है। इसी तृष्णा के कारण मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर में फंसा रहता है। तृष्णा और वासना का त्याग ही इन दुःखों से छुटकारा दिला सकता है।
  • महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अष्ट मार्ग पर चल कर ही दुःखों से मुक्ति मिल सकती है। अष्ट मार्ग में ये आठ बातें सम्मिलित हैं- (i) सम्यक् दृष्टि (ii) सम्यक् संकल्प, (iii) सम्यक् वचन, (iv) सम्यक् ध्यान, (v) सम्यक् प्रयत्न, (vi) सम्यक् विचार, (vii) सम्यक् आजीविका।
  • महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते हैं। उनका कहना था कि मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। यज्ञ और घोर तपस्या आदि द्वारा यह कर्मों के फल से नहीं बच सकता।
  • बौद्ध धर्म वेदों की प्रमाणिकता में विश्वास नहीं रखता। इसके अनुसार हवन, यज्ञ, बलि आदि भी व्यर्थ हैं।
  • महात्मा बुद्ध ने ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। इस विषय में सदा मौन रहे।
  • बौद्ध धर्म में जाति-पाति के भेद-भाव को व्यर्थ समझा जाता है।
  • बौद्ध धर्म में अहिंसा पर बड़ा बल दिया गया है। इसके अनुसार किसी भी जीव को कष्ट देना पाप है।
  • बौद्ध धर्म में शुद्ध आचरण को बहुत महत्त्व दिया गया है। इसमें चोरी करना, झूठ बोलना आदि बातों को पाप माना गया है।
  • बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण से ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से बच सकता है।

(ख) भारतीय समाज पर बौद्ध धर्म का प्रभाव-

  • बौद्ध धर्म के कारण लोग सदाचारी बने। उन्होंने झूठ बोलना, चोरी करना, किसी की निन्दा करना आदि सभी बुरे कर्म छोड़ दिए।
  • बौद्ध धर्म के कारण लोगों के खान-पान में आश्चर्यजनक परिवर्तन आया। अहिंसा का सिद्धान्त अपनाकर लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया और वे शाकाहारी बन गए।
  • बौद्ध धर्म के कारण भारत में अनेक स्तूप, मठ और विहार बने। ये सभी कला के उत्तम नमूने हैं।
  • महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं तथा उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे गए। परिणामस्वरूप भारतीय साहित्य का विकास हआ।
  • बौद्ध धर्म ने अनेक राजाओं की राज्य-नीति को भी प्रभावित किया। उदाहरण के लिए अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रभाव में आकर जन-कल्याण को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसी प्रकार कनिष्क और हर्ष ने भी प्रजा-हित के लिए अनेक कार्य किए।

प्रश्न 4.
बौद्ध धर्म की शीघ्र उन्नति के कारण बताओ।
अथवा
बौद्ध धर्म बड़ी शीघ्रता से फैला। इसके लिए उत्तरदायी कोई पांच कारण बताएं।
उत्तर-
भारत में बौद्ध धर्म बड़ी शीघ्रता से फैला। यहां तक कि अनेक राजा भी इस धर्म के अनुयायी बन गए और उन्होंने इसको विश्व धर्म बना दिया। इस धर्म की शीघ्र उन्नति के कारण निम्नलिखित थे-

1. सरल धर्म-बौद्ध धर्म एक सरल धर्म था। लोग इसके नियमों को आसानी से समझ सकते थे और इन्हें अपना सकते थे। इसलिए यह धर्म शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया।

2. बोलचाल की भाषा-महात्मा बुद्ध ने अपना उपदेश साधारण बोलचाल की भाषा में दिया। परिणामस्वरूप इस धर्म ने जन-साधारण को बड़ा प्रभावित किया।

3. अनुकूल वातावरण-बौद्ध धर्म के उदय के समय भारत में कोई ऐसा धर्म नहीं था जो इस धर्म का सामना कर सकता। हिन्दू धर्म में अनेक दोष आ चुके थे। जैन धर्म भी अपने जटिल नियमों के कारण अधिक लोकप्रिय न हो सका। ऐसे वातावरण में बौद्ध धर्म की उन्नति स्वाभाविक ही थी।

4. जाति-प्रथा का विरोध-महात्मा बुद्ध ने जाति-प्रथा का घोर खण्डन किया और भाई-चारे की भावना पर बल दिया। परिणामस्वरूप निम्न जातियों के अनेक लोग समाज में आदर पाने के लिए बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए।

5. हिन्दू धर्म की कुरीतियां-बौद्ध धर्म की उन्नति का सबसे बड़ा कारण हिन्दू धर्म की कुरीतियां थीं। हिन्दू धर्म में यज्ञों और पशु बलि पर अधिक बल दिया जाने लगा था। यज्ञ इतने महंगे थे कि साधारण लोगों के लिए यज्ञ कराना असम्भव था। अतः अनेक लोग हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए।

6. महात्मा बुद्ध का महान् व्यक्तित्व-महात्मा बुद्ध का अपना जीवन बड़ा आकर्षक तथा प्रभावशाली था। वह जिन नियमों का लोगों को उपदेश देते थे, स्वयं भी उनका पालन करते थे। उनकी वाणी भी बड़ी मधुर थी। उनके इस महान् व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए।

7. बौद्ध भिक्षुओं का उच्च चरित्र-बौद्ध भिक्षुओं का चरित्र बड़ा ऊंचा था। उनके चरित्र से अनेक लोग प्रभावित हुए और वे बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए।

8. राजकीय सहायता-अशोक, कनिष्क, हर्ष आदि अनेक राजाओं ने भी बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इन सभी राजाओं ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अनेक प्रयत्न किए। उनके प्रयत्नों से यह धर्म केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो गया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
भारत में बौद्ध धर्म का तो पतन हो गया पर जैन धर्म कुछ भागों में जमा रहा। इसके कारणों की समीक्षा करें।
उत्तर-
भारत में बौद्ध धर्म जितनी तीव्रता से फैला, उसी तीव्रता से इस धर्म का पतन भी हो गया। परन्तु जैन धर्म का देश के कुछ भागों में अस्तित्व बना रहा। इसके कुछ विशेष कारण थे जिनका वर्णन इस प्रकार है :
बौद्ध धर्म के पतन के कारण-

1.धर्म में जटिलता-बौद्ध धर्म धीरे-धीरे काफ़ी जटिल हो गया। अनेक व्यर्थ के रीति-रिवाज इस धर्म का अंग बन गये। परिणामस्वरूप लोगों का इस धर्म में विश्वास उठने लगा।

2. संस्कृत भाषा-बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने बुद्ध के उपदेशों को संस्कृत में लिपिबद्ध करना आरम्भ कर दिया। यह भाषा साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम हो गयी।

3. भिक्षुओं का दूषित चरित्र-बौद्ध भिक्षुओं का चरित्र आरम्भ से बड़ा ऊंचा था, परन्तु धीरे-धीरे उनके चरित्र में अनेक दोष आ गये। अत: लोगों को उनसे घृणा होने लगी। इस बात का बौद्ध धर्म पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

4. हिन्दू धर्म में सधार-हिन्दू धर्म में समय के अनुसार अनेक आवश्यक सुधार किये गये। परिणामस्वरूप अनेक लोग, जिन्होंने हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था, फिर से हिन्दू धर्म में शामिल हो गये।

5. राजकीय सहायता का अभाव-राजा कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध धर्म को राजकीय सहायता न मिल सकी। यह बात भी बौद्ध धर्म की उन्नति के मार्ग में बाधा बनी। .

6. बौद्ध धर्म का विभाजन-कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म महायान और हीनयान नामक दो शाखाओं में बंट गया। महायान और हिन्दू धर्म के नियमों में विशेष अन्तर नहीं था। परिणामस्वरूप महायान के अनेक अनुयायी हिन्दू धर्म में शामिल हो गये।

7. राजाओं का अत्याचार-मौर्य वंश के पश्चात् पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों पर अनेक अत्याचार किये। उसने अनेक बौद्धों की हत्या करवा दी। उसके अत्याचार से डरकर अनेक लोगों ने बौद्ध धर्म छोड़ दिया।

8. विदेशी आक्रमण-विदेशी आक्रमणकारियों ने बौद्धो के अनेक मठ और विहार तोड़ डाले। उन्होंने इन मठों और विहारों में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं का भी वध कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे भारत में बौद्ध धर्म पूरी तरह लुप्त हो गया।

जैन धर्म के जमे रहने के कारण-

9. भारत में जैन धर्म को उतना राजाश्रय नहीं मिला था जितना कि बौद्ध धर्म को। इसलिए राजाश्रय समाप्त होने पर भी इस धर्म को अधिक क्षति न पहुंची।

10.जैन धर्म का प्रसार मुख्यत: व्यवहार और वाणिज्य में लगे लोगों में हुआ था। इन लोगों पर बदलती हुई परिस्थितियों का अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। इसलिए भारत में जैन धर्म आज भी किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाये हुए है।

प्रश्न 6.
बौद्ध धर्म का भारतीय समाज और संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ा ?
अथवा
भारतीय समाज के निम्नलिखित पक्षों पर बौद्ध धर्म के प्रभाव की व्याख्या कीजिए :
(क) सामाजिक जीवन तथा धार्मिक जीवन
(ख) राजनीतिक जीवन तथा कला एवं साहित्य।
उत्तर-
प्रत्येक धार्मिक आन्दोलन का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बौद्ध धर्म ने भी पूर्ण रूप से भारतीय जीवन को प्रभावित किया। हमारे सामाजिक जीवन, कलाओं, साहित्य तथा अन्य क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए जिनका वर्णन इस प्रकार है

सामाजिक जीवन पर प्रभाव-

  • बौद्ध धर्म में अहिंसा के सिद्धान्त पर बड़ा बल दिया गया था। इस सिद्धान्त के कारण लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया और वे शाकाहारी बन गए।
  • बौद्ध धर्म के कारण समाज में जाति-प्रथा की कठोरता कम हो गई। सभी जातियों के लोग अब मिल-जुल कर रहने लगे।
  • महात्मा बुद्ध ने लोगों में ऐसे सिद्धान्तों का प्रचार किया था जिससे कि लोगों का चरित्र ऊंचा हो सके। इन नियमों का पालन करके लोग सदाचारी बन गए।
  • बौद्ध धर्म के कारण समाज-सेवा की भावना को बड़ा बल मिला।
  • इस धर्म के कारण देश में तर्क की प्रधानता बढ़ी और अन्धविश्वास कम हो गए। परिणामस्वरूप भारतीय समाज एक आदर्श समाज बन गया।
  • बौद्ध धर्म के कारण भारत में भीख मांगने की कुप्रथा आरम्भ हो गई। बौद्ध भिक्षुओं को लोग दिल खोलकर भिक्षा देते थे, परन्तु धीरे-धीरे कुछ कामचोर लोगों ने भीख मांगना अपना व्यवसाय बना लिया।

धार्मिक जीवन पर प्रभाव-

  • बौद्ध धर्म की लोकप्रियता को देखकर हिन्दू धर्म के शुभचिन्तकों ने भी अपने धर्म को फिर से सरल बनाने का प्रयास किया। फलस्वरूप हिन्दू धर्म में अनेक आवश्यक सुधार किए गए।
  • इस धर्म के कारण देश में मूर्ति-पूजा आरम्भ हुई। महात्मा बुद्ध की अनेक मूर्तियां बनाई गईं। उनकी देखा-देखी हिन्दुओं ने भी अपने देवी-देवाताओं की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करनी आरम्भ कर दी।
  • बौद्ध धर्म के परिणामस्वरूप भारत में मन्दिरों की स्थापना हुई।
  • बौद्ध धर्म की लोकप्रियता को देखते हुए धर्म में प्रचारकों का महत्त्व बढ़ गया।

राजनीतिक जीवन पर प्रभाव-

  • बौद्ध धर्म लगभग सारे भारत में लोकप्रिय हुआ। एक ही धर्म के अनुयायी होने के कारण भारतीयों में मेल-जोल बढ़ा। परिणामस्वरूप देश में राजनीतिक एकता को बल मिला।
  • बौद्ध धर्म ने लोगों को मानव-प्रेम का सन्देश दिया। जिन राजाओं ने भी इसे अपनाया, उन्होंने मानव-कल्याण के लिए अनेक कार्य किए। अशोक, कनिष्क तथा हर्ष इस बात का बहुत बड़ा प्रमाण हैं।
  • बौद्ध धर्म के कारण भारत में सैनिक दुर्बलता आ गई। उदाहरण के लिए अहिंसा के सिद्धान्त को अपनाकर अशोक ने युद्ध करने बन्द कर दिए। परिणाम यह हुआ कि भारतीय सैनिक दुर्बल और विलासी बन गए।

कला एवं साहित्य पर प्रभाव-

  • बौद्ध धर्म के कारण देश में अनेक स्तूप, मठ तथा विहार बने। ये सभी भवन-निर्माण कला की दृष्टि से बड़ा महत्त्व रखते
  • बौद्ध धर्म के कारण भारत में मूर्ति-कला में विशेष निखार आया। अनेक नई कला शैलियों का भी जन्म हुआ। गान्धार कला-शैली में महात्मा बुद्ध की अनेक सुन्दर मूर्तियां बनाई गईं।
  • बौद्ध धर्म के कारण भारतीय साहित्य का काफ़ी विकास हुआ। महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने बुद्ध के जीवन और उनकी शिक्षाओं से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे।

संक्षेप में, इतना कहना ही काफ़ी है कि बौद्ध धर्म ने भारतीय जीवन के हर पहलू पर गहरा प्रभाव डाला। भारत पर इसके प्रभावों का वर्णन करते हुए श्री ई० वी० हैवेल ने ठीक ही कहा है, “बौद्ध धर्म ने भारत को एक राष्ट्र बनाने में उसी प्रकार सहायता की जिस प्रकार ईसाई धर्म ने ऐंग्लो-सैक्सन काल में इंग्लैण्ड में की थी।”

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 3 जैन धर्म और बौद्ध धर्म

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की तुलना कीजिए।
अथवा
(क) जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में क्या समानताएं थीं ?
(ख) जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के बीच असमानताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व की देन है। दोनों धर्मों का जन्म समान परिस्थितियों में हुआ। इसलिए दोनों में कुछ समानताएं होना स्वाभाविक है। समानताओं के साथ-साथ इनमें कुछ असमानताएं भी पाई जाती हैं। आओ, इन दोनों धर्मों की तुलनात्मक समीक्षा करें।

(क) समानताएं-

  • दोनों धर्मों के संस्थापक क्षत्रिय राजकुमार थे। इन दोनों ने ही घोर तपस्या के पश्चात् सच्चा ज्ञान प्राप्त किया।
  • दोनों धर्मों का जन्म हिन्दू धर्म की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।
  • दोनों धर्मों के सिद्धान्त आरम्भ में बड़े सरल थे। अहिंसा तथा मोक्ष दोनों धर्मों के मूल सिद्धान्त हैं।
  • दोनों धर्म कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है।
  • दोनों धर्मों ने ही जाति प्रथा का घोर विरोध किया।
  • दोनों धर्मों ने ही ब्राह्मणों के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया।
  • दोनों धर्मों ने ही यज्ञों तथा पशु-बलि का विरोध किया।
  • दोनों धर्मों ने सदाचार और पवित्रता का सन्देश दिया।

(ख) असमानताएं-

  • दोनों धर्मों में अहिंसा को अपनाने का मार्ग भिन्न है। बौद्ध धर्म के अनुसार किसी भी प्राणी को मन, वचन तथा कर्म में कष्ट नहीं देना चाहिए। यही अंहिसा है। इसके विपरीत जैन धर्म वाले प्रत्येक वस्तु में आत्मा मानते हैं। उनके अनुसार किसी जीव या निर्जीव को कष्ट पहुंचाना अहिंसा के सिद्धान्त के विरुद्ध है।
  • दोनों धर्म मोक्ष-प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य मानते हैं, परन्तु दोनों धर्मों के मोक्ष प्राप्ति के साधन भिन्न-भिन्न हैं।
    बौद्ध धर्म में मोक्ष-प्राप्ति के लिए “अष्ट-मार्ग” बताया गया है, जबकि जैन धर्म के अनुयायी ‘त्रिरत्न’ का पालन करके मोक्ष प्राप्त करने में विश्वास रखते हैं।
  • दोनों धर्मों ने ही धर्म प्रचार संघ स्थापित किए, परन्तु बौद्ध संघ के भिक्षु जहां स्थान-स्थान पर घूम कर अपने धर्म का प्रचार करते थे, वहां जैन संघ के संन्यासी घोर तपस्या में लीन रहते थे।
  • जैन धर्म की दिगम्बर शाखा के अनुयायी बिल्कुल नंगे रहते हैं, परन्तु बौद्ध धर्म की किसी शाखा में यह बात नहीं पाई जाती।
  • दोनों धर्मों के पूजनीय व्यक्ति भिन्न हैं। जैन धर्म वाले तीर्थंकरों की पूजा करते हैं, जबकि बौद्ध धर्म वाले बौधिसत्वों की पूजा करते हैं।
  • दोनों धर्मों के धार्मिक ग्रन्थ अलग-अलग हैं। बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘जातक’ और ‘त्रिपिटक’ हैं। दूसरी ओर जैन धर्म के प्रमुख ग्रन्थ “अंग” और “उपांग” हैं।
  • बौद्ध धर्म विदेशों में भी खूब लोकप्रिय हुआ। इसके विपरीत जैन धर्म केवल भारत तक ही सीमित रहा।
  • बौद्ध धर्म का आज भारत में पूरी तरह पतन हो चुका है। इसके विपरीत जैन धर्म के आज भी भारत में अनेक अनुयायी मिलते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ बताइये।
उत्तर-
मैकाइवर के अनुसार, “समाज सामाजिक संबंधों का जाल है।”

प्रश्न 2.
समाज और समुदाय किन शब्दों से लिये गए हैं ?
उत्तर-
समाज (Society) शब्द लातीनी भाषा के शब्द ‘Socius’ से निकला है जिसका अर्थ है साथ अथवा मित्रता। समुदाय (Community) भी लातीनी भाषा के शब्द ‘Communitas’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘सबका सांझा’।

प्रश्न 3.
किसने कहा, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ?”
उत्तर-
ये शब्द अरस्तु (Aristotle) के हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 4.
सरल युग्म समाज, युग्म समाज, द्वि-युग्म समाज तथा त्रि-युग्म समाज का वर्गीकरण किसने दिया ?
उत्तर-
यह वर्गीकरण हरबर्ट स्पैंसर (Herbert Spencer) ने दिया था।

प्रश्न 5.
समिति किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करके संगठन का निर्माण करते है तो इस संगठित संगठन को समिति कहते हैं।

प्रश्न 6.
खुला समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जिस समाज में अलग-अलग वर्गों में आने-जाने की पाबंदी नहीं होती उसे खुला समाज कहते हैं।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
समाज की तीन विशेषताएं बताइये।
उत्तर-

  1. समाज लोगों का समूह होता है जिनमें आपसी संबंध होते हैं।
  2. समाज हमेशा समानताओं तथा अंतरों पर निर्भर करता है।
  3. समाज सहयोग तथा संघर्ष पर आधारित होता है।
  4. प्रत्येक समाज में स्तरीकरण पाया जाता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 2.
समाज के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
सम्पूर्ण संसार में बहुत-से समाज मिल जाते हैं जैसे कि जनजातीय समाज, ग्रामीण समाज, औद्योगिक समाज, उत्तर औद्योगिक समाज इत्यादि। परन्तु अलग-अलग विद्वानों ने समाजों के अलग-अलग आधारों पर प्रकार दिए हैं जैसे कि काम्ते (बौद्धिक विकास), स्पैंसर (संरचनात्मक जटिलता), मार्गन (सामाजिक विकास), टोनीज़ (सामाजिक संबंधों के प्रकार), दुर्थीम (एकता के प्रकार) इत्यादि।

प्रश्न 3.
समुदाय किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष क्षेत्र में संगठित रूप से रहते हैं तथा वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही वहां पर व्यतीत करते हैं तो उसे हम समुदाय कहते हैं। यह एक मूर्त संकल्प है जिसके सदस्यों के बीच हम भावना होती है।

प्रश्न 4.
समाज किस प्रकार समुदाय से भिन्न है ? दो अन्तर बताइये।
उत्तर-

  • समाज का कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं होता परन्तु समुदाय का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है।
  • समाज में सहयोग तथा संघर्ष दोनों होते हैं परन्तु समुदाय में केवल सहयोग ही होता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 5.
समिति को परिभाषित कीजिए तथा इसकी विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
बोगार्डस के अनुसार, “सभा साधारणतया कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों का मिल कर कार्य करना है।” इसकी कुछ विशेषताएं होती हैं जैसे कि इसकी विचारपूर्वक स्थापना होती है, इसका निश्चित उद्देश्य होता है, इसका जन्म तथा विनाश होता रहता है, इसकी सदस्यता इच्छा पर आधारित होती है इत्यादि।

प्रश्न 6.
समुदाय तथा समिति के मध्य दो अन्तर बताइये।
उत्तर-

  1. समुदाय किसी निश्चित उद्देश्य के लिए नहीं बनाया जाता परन्तु सभा एक निश्चित उद्देश्य के लिए निर्मित होती है।
  2. समुदाय की सदस्यता ऐच्छिक नहीं होती परन्तु सभा की सदस्यता ऐच्छिक होती है।
  3. समुदाय का निश्चित संगठन नहीं होता परन्तु सभा का एक निश्चित संगठन होता है।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
मानव समाज पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
इस पृथ्वी पर मनुष्य तथा मानवीय समाज प्रकृति द्वारा बनाई गई एक अनुपम रचना है। मानवीय समाज की कुछ ऐसी विशेषताएं होती हैं जो इसे पृथ्वी के अन्य जीवों से अलग करती हैं। इन विशेषताओं के कारण ही मानवीय समाज ने प्रगति की है तथा इसकी अपनी संस्कृति तथा सभ्यता विकसित हो सकी है। मानवीय समाज ने अपनी संस्कृति विकसित कर ली है जो काफ़ी आधुनिक स्तर पर पहुंच चुकी है चाहे प्रत्येक समाज के लिए यह अलग-अलग होती है। मानवीय समाज की इकाइयां अर्थात् मनुष्य अलग-अलग स्थितियों, उत्तरदायित्वों, अधिकारों, संबंधों के प्रति भी जागरूक होते हैं। मानवीय समाज हमेशा परिवर्तनशील होता है तथा इसमें समय के साथ-साथ परिवर्तन आते रहते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 2.
अगस्ते कोंत द्वारा प्रस्तुत मानव समाज के तीन चरणों के नाम बताइये।
उत्तर-
अगस्ते कोंत ने मानवीय समाज के उद्विकास के तीन स्तर दिए हैं तथा वे हैं-

  1. आध्यात्मिक पड़ाव (Theological Stage)
  2. अधिभौतिक पड़ाव (Metaphysical Stage)
  3. सकारात्मक पड़ाव (Positive Stage)।

प्रश्न 3.
समुदाय के प्रमुख आधार कौन-से हैं ?
उत्तर-

  • समुदाय का जन्म स्वयं ही हो जाता है।
  • प्रत्येक समुदाय का एक विशेष नाम होता है।
  • समुदाय का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसमें व्यक्ति रहता है।
  • आजकल के समुदाय का एक विशेष आधार होता है कि यह स्वयं में आत्मनिर्भर होता है।
  • प्रत्येक समुदाय में हम-भावना मिल जाती है।
  • समुदाय में हमेशा स्थिरता रहती है अर्थात् यह टूटते नहीं हैं।

प्रश्न 4.
समिति के तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर-

  1. राजनीतिक दल (Political Parties)
  2. लेबर यूनियन (Labour Union)
  3. धार्मिक संगठन (Religious Organisations)
  4. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (International Associations)।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 5.
टोनीज़ द्वारा प्रस्तुत समाज के प्रकार कौन से हैं ?
उत्तर-
1. जैमिन शाफ़ट (Gemein Schaft)-टोनीज़ के अनुसार, “जैमिनशाफ़ट एक समुदाय है जिसके सदस्य एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए रहते हैं तथा अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इस समुदाय के जीवन में स्थायी रूप तथा प्राथमिक संबंध पाए जाते हैं।” उदाहरण के लिए ग्रामीण समुदाय।।

2. गैसिल शाफ़ट (Gesell Schaft)-टोनीज़ के अनुसार गैसिल शाफ़ट एक नया सामाजिक प्रकरण है जो औपचारिक तथा कम समय वाला होता है। यह और कुछ नहीं बल्कि समाज के लोगों का जीवन है। इसके सदस्यों के बीच द्वितीय संबंध पाए जाते हैं।

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
समाज शब्द से आप क्या समझते हैं ? एक विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
साधारण भाषा में समाज का अर्थ ‘व्यक्तियों के समूह’ से लिया जाता है। बहुत से विद्वान् इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हैं। इस प्रकार समाज का अर्थ किसी समूह के व्यक्तियों द्वारा लिया जा सकता है अपितु उनके मध्य के रिश्तों से नहीं। कभी-कभी समाज के अर्थ को किसी संस्था के नाम से भी लिया जाता है जैसेआर्य समाज, ब्रह्म समाज इत्यादि। इस प्रकार साधारण व्यक्ति की भाषा में समाज का अर्थ इन्हीं अर्थों में लिया जाता है, परन्तु समाजशास्त्र में इस शब्द का अर्थ कुछ और ही अर्थों में लिया जाता है।

समाजशास्त्र में ‘समाज’ शब्द का अर्थ लोगों के समूह से नहीं लिया जाता अपितु उनके बीच में पैदा हुए रिश्तों के फलस्वरूप जो सम्बन्ध पैदा हुए हैं उनसे लिया जाता है। सामाजिक रिश्तों में लोगों का बहुत महत्त्व होता है। वे समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं यह एक प्रक्रिया है न कि वस्तु। समाज में एक आवश्यक वस्तु लोगों के बीच के रिश्ते एवं अन्तर्सम्बन्धों के बीच के नियम हैं जिसके साथ समाज के सदस्य एक-दूसरे के साथ रहते हैं। जब समाजशास्त्री समाज शब्द का अर्थ साधारण रूप में करते हैं तो उनका अर्थ समाज में होने वाले सामाजिक सम्बन्धों के जाल से है और जब वह समाज शब्द को विशेष रूप में प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ होता है कि समाज उन व्यक्तियों का समूह है जिनमें विशेष प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं।

समाज (Society)—जब समाजशास्त्री ‘समाज’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ सिर्फ लोगों के समूह मात्र से नहीं होता बल्कि उनका अर्थ होता है समाज के लोगों में पाए जाने वाले सम्बन्धों के जाल से जिसके साथ लोग एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। सिर्फ कुछ लोगों को इकट्ठा करने से ही समाज नहीं बन जाता। समाज उस समय ही बनता है जब समाज के उन लोगों में अर्थपूर्ण संबंध स्थापित हो जाएं। यह सम्बन्ध अस्थिर होते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते और न ही इनका कोई ठोस रूप होता है। हम केवल इन्हें महसूस कर सकते हैं। यह जीवन के प्रत्येक रूप में मौजूद होते हैं। इन सम्बन्धों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यह तो आपस में इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि इनको अलग-अलग करना बहुत मुश्किल है। यह सभी सम्बन्ध जो व्यक्तियों के बीच होते हैं, इनके जाल को ही समाज कहते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते इसीलिए यह अमूर्त होते हैं।

कुछ लेखक यह विचार करते हैं कि समाज तभी बनता है जब इसके सदस्य एक-दूसरे को जानते हों और उनके कुछ आपसी हित हों। उदाहरण के लिए यदि कोई दो व्यक्ति बस में सफर कर रहे हों और एक-दूसरे को जानते न हों, तो वह समाज नहीं बना सकते। परन्तु यदि वही दो व्यक्ति आपस में बातचीत करनी शुरू कर देते हैं, एक-दूसरे के बारे में जानना शुरू कर देते हैं तो समाज का अस्तित्व कायम होना शुरू हो जाता है। उन दोनों के बीच में एक-दूसरे की तरफ व्यवहार ज़रूरी है।

वास्तव में समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। व्यक्ति जो एक स्थान पर रहते हैं उनके बीच आपसी सम्बन्ध होते हैं और एक-दूसरे के साथ लाभ जुड़े होते हैं। वह एक-दूसरे के ऊपर निर्भर होते हैं और इस प्रकार समाज का निर्माण करते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 2.
व्यक्ति तथा समाज अन्तःसम्बन्धित हैं। तर्क दीजिए।
उत्तर-
ग्रीक (यूनानी) फ़िलॉस्फर अरस्तु (Aristotle) ने कहा था कि “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” इस का अर्थ यह है कि मनुष्य समाज में रहता है। समाज के बिना मनुष्य की कीमत कुछ भी नहीं है। वह मनुष्य जो और मनुष्यों के साथ मिलकर साझे जीवन को नहीं निभाता, वह मनुष्यता के नीचे स्तर से है। मनुष्य को लंबा जीवन जीने के लिए बहुत सारी ज़रूरतों के लिए अन्य मनुष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। उसे अपनी सुरक्षा, भोजन, शिक्षा, सामान, कई प्रकार की सेवाओं के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। मनुष्य को हम सामाजिक प्राणी तीन अलग-अलग आधारों पर कह सकते हैं

1. मनुष्य प्रकृति से सामाजिक है (Man is social by nature)-सबसे पहले मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है। मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। कोई भी समाज से अलग रह कर आम तरीके से विकास नहीं कर सकता। बहुत-से समाजशास्त्रियों ने अनुभव किए हैं कि जो बच्चे समाज से अलग रह कर के बड़े हुए हैं वह सही तरह विकास नहीं कर सके हैं। यहाँ तक कि एक बच्चा 17 साल की उम्र का होकर भी सही तरह से चल नहीं सकता है। उसको शिक्षा देने के बाद भी वह साधारण मनुष्यों की भांति नहीं रह सका।

इसके साथ का एक केस हमारे सामने आया। 1920 में दो हिन्दू बच्चे एक भेड़िए की गुफ़ा में मिले थे। उनमें से एक बच्चा तो मिलने से कुछ समय बाद ही मर गया था पर दूसरे बच्चे ने अजीब तरह से व्यवहार किया। वह मनुष्यों की भाँति चल नहीं सकता था। वह उनकी तरह खा भी नहीं सकता था और बोल भी नहीं सकता था। वह जानवरों की तरह चार हाथों पैरों के भार चलता था, उस के पास कोई भाषा नहीं थी और वह भेड़िए की तरह चीखता था। वह बच्चा मनुष्यों से डरता था। उसके बाद उस बच्चे के साथ हमदर्दी और प्यार भरा व्यवहार अपनाया गया जिसके कारण वह कुछ सामाजिक आदतें और व्यवहार सीख सका।

एक और केस अमेरिका में एक बच्चे के साथ प्रयोग किया गया। उस बच्चे के माता-पिता का पता नहीं था। उसको 6 महीने की उम्र से ही एक कमरे में एकांत में रखा गया। 5 साल बाद देखा गया कि वह बच्चा न तो चल सकता है और न ही बोल सकता है तथा वह और मनुष्यों से भी डरता था।

यह सभी उदाहरण यह साबित करते हैं कि मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है। मनुष्य उस स्थिति में ही ठीक तरह से विकास कर सकते हैं जब वह समाज में रहते हों और अपने जीवन को दूसरे मनुष्यों के साथ बाँटते हों। उपरोक्त उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि उन बच्चों में मनुष्यों जैसा सामर्थ्य तो था पर सामाजिक समझौतों की कमी में वह सामाजिक तौर पर विकास करने में असमर्थ रहे। समाज में ऐसी चीज़ है जो मनुष्य की प्रकृति की आवश्यक चीज़ों को पूरा करती है। यह कोई भगवान् द्वारा थोपी गई चीज़ नहीं है बल्कि मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है।

2. आवश्यकता इन्सान को सामाजिक बनाती है (Necessity makes a man social)—मनुष्य समाज में इसलिए रहता है क्योंकि उसको समाज से बहुत कुछ चाहिए होता है। यदि वह समाज के दूसरे सदस्यों के साथ सहयोग नहीं करेगा तो उसकी बहुत-सी ज़रूरतें पूरी नहीं होंगी। हर बच्चा आदमी और औरत के आपसी सम्बन्धों का परिणाम होता है, बच्चा अपने माँ-बाप की देख-रेख में बड़ा होता है और अपने माँ-बाप के साथ रहते हुए वह बहुत कुछ सीखता है। बच्चा अपने अस्तित्व के लिए लिए पूरी तरह समाज पर निर्भर करता है। यदि एक नए जन्मे बच्चे को समाज की सुरक्षा न मिले तो शायद वह नया जन्मा बच्चा एक दिन भी जिंदा न रह सके। मनुष्य का बच्चा इतना असहाय होता है कि उसको समाज की सहायता की आवश्यकता पड़ती ही है। हम उसके खाने, कपड़े और रहने की ज़रूरतें पूरी करते हैं क्योंकि हम सब समाज में रहते हैं और सिर्फ समाज में रह कर ही ये आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं। ऊपर दी गई उदाहरणों ने यह साबित किया है कि जो बच्चे जानवरों द्वारा बड़े किए जाते हैं वह आदतों से जानवर ही रहते हैं। बच्चे के शारीरिक विकास और मानसिक विकास के लिए समाज का होना आवश्यक है। कोई भी तब तक मनुष्य नहीं कहलाता जब तक वह मनुष्य के समाज में अन्य मनुष्यों के साथ न रहे। खाने की भूख हमें अन्य लोगों के साथ सम्बन्ध बनाने को बाध्य करती है इसलिए हमें कुछ काम करने पड़ते हैं तथा यह काम औरों के साथ सम्बन्ध बनाते हैं। इस तरह सिर्फ मनुष्य की प्रकृति के कारण ही नहीं बल्कि अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए समाज में रहता है।

3. समाज व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाता है (Society makes personality)- मनुष्य समाज में अपने शारीरिक एवं मानसिक पक्ष को विकसित करने के लिए रहता है। समाज अपनी संस्कृति और विरासत को संभाल कर रखता है ताकि इसको अपनी अगली पीढ़ी को सौंपा जा सके। यह हमें स्वतन्त्रता भी देता है ताकि हम अपने गुणों को निखार सकें और अपने व्यवहार, इच्छाओं, विश्वास, रीतियों इत्यादि को परिवर्तित कर सकें। समाज के बिना व्यक्ति का मन एक बच्चे के मन की भाँति होता है। हमारी संस्कृति और हमारी विरासत हमारे व्यक्तित्व को बनाती हैं क्योंकि हमारे व्यक्तित्व पर सबसे ज्यादा प्रभाव हमारी संस्कृति का होता है। समाज सिर्फ हमारी शारीरिक आवश्यकताएं ही नहीं बल्कि मानसिक आवश्यकताओं को भी पूरी करता है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि मनुष्य प्रकृति से ही सामाजिक है। यदि मनुष्य मनुष्यों की तरह रहना चाहता है तो उसको समाज की ज़रूरत है। उसको सिर्फ एक दो या कुछ आवश्यकताओं के लिए ही नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व को बनाने के लिए भी समाज की आवश्यकता पड़ती है।

व्यक्तियों के बिना समाज भी अस्तित्व में नहीं आ सकता। समाज कुछ नहीं है बल्कि सम्बन्धों का एक जाल है और सम्बन्ध सिर्फ व्यक्तियों में ही हो सकते हैं। इसीलिए यह एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों के बीच सम्बन्ध एक तरफ़ा नहीं है। यह दोनों एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए ज़रूरी हैं। व्यक्तियों को सिर्फ जीव नहीं कहा जा सकता और समाज सिर्फ मनुष्य की ज़रूरतों को पूरा करने का साधन नहीं है। समाज वह है जिसके बिना व्यक्ति नहीं रह सकते तथा व्यक्ति वह है जिनके बिना समाज अस्तित्व में नहीं आ सकता। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या समाज से ज्यादा मनुष्य ज़रूरी है या मनुष्यों से ज्यादा समाज ज़रूरी है। यह प्रश्न उस प्रश्न के समान है कि दुनिया में पहले मुर्गी आई या अंडा। वास्तविकता यह है कि सभी मनुष्य समाज में पैदा हुए हैं और पैदा होते ही समाज में डाल दिए जाते हैं। कोई भी पूर्ण रूप में व्यक्तिगत नहीं हो सकता और न ही कोई पूर्ण रूप में सामाजिक हो सकता है।

वास्तव में ये दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों में से यदि एक भी न हो तो दूसरे का होना मुश्किल है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज ही व्यक्ति में स्वैः (Self) का विकास करता है। समाज में रहकर ही व्यक्ति सामाजिक आदतों को ग्रहण करता है और सामाजिक बनता है। इसके साथ समाज व्यक्तियों के बिना नहीं बन सकता। समाज बनाने के लिए कम-से-कम दो व्यक्तियों की ज़रूरत पड़ती है। उनके बीच सम्बन्ध होना भी ज़रूरी है। इस तरह समाज व्यक्तियों के बीच में पैदा हुए सम्बन्धों का जाल है। इस तरह एक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर करता है। एक की अनुपस्थिति से दूसरे का अस्तित्व मुमकिन नहीं है।

प्रश्न 3.
समुदाय से आप क्या समझते हैं ? समुदाय की विशेषताओं की विस्तृत चर्चा कीजिए।
उत्तर–
प्रत्येक समाज में अलग-अलग प्रकार के समूह पाए जाते हैं। इन अलग-अलग प्रकार के समूहों को अलग-अलग प्रकार के नाम दिए गए हैं और समुदाय इन नामों में से एक है। समुदाय अपने आप में एक समाज है और यह एक निश्चित क्षेत्र में होता है जैसे-कोई गाँव अथवा शहर। जब से मनुष्य ने एक जगह पर रहना शुरू किया है तब से ही वह समुदाय में रहता आया है। सबसे पहले जब मनुष्य ने कृषि करनी शुरू की उस समय से ही व्यक्ति ने समुदाय में रहना शुरू कर दिया है क्योंकि व्यक्ति एक ही स्थान पर रहना शुरू हो गया और इसके साथ लेन-देन शुरू हो गया।

समाजशास्त्र में समुदाय का अर्थ- समाजशास्त्र में इस शब्द समुदाय के व्यापक अर्थ हैं। साधारण शब्दों में जब कुछ व्यक्ति एक समूह में, एक विशेष इलाके में संगठित रूप से रहते हैं और वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही उधर बिताते हैं तब उसको हम समुदाय कहते हैं। यह एक मूर्त संकल्प है। समुदाय की स्थापना जान-बूझ कर नहीं की जाती। इसका जन्म भी नहीं होता इसका तो विकास होता है और अपने आप ही हो जाता है। जब लोग इलाके में रहते हैं और सामाजिक प्रक्रियाएँ करते हैं तो यह अपने आप ही विकास कर जाता है। समुदाय का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जहाँ सदस्य अपनी ज़रूरतें खुद ही पूरी कर लेते हैं क्योंकि सदस्यों में आपस में लेन-देन होता है। समुदाय के सदस्य अपनी हर प्रकार की ज़रूरत को खुद ही पूरा कर लेते हैं। जब व्यक्ति ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं तो उनमें साझ पैदा हो जाती है जिसके कारण हम भावना उत्पन्न हो जाती है। जब लोग आपस में मिलकर रहते हैं तो उनमें कुछ नियम भी उत्पन्न हो जाते हैं।

समुदाय की विशेषताएं या तत्त्व (Characteristics or Elements of Community) –

1. हम भावना (We feeling)—समुदाय की यह विशेषता होती है कि इसमें हम भावना होती है। हम भावना के कारण ही समुदाय का हर सदस्य अपने आपको एक-दूसरे से अलग नहीं समझता बल्कि उन पर विश्वास करते हैं कि वह सब एक हैं। वह औरों जैसा और औरों में से एक है।

2. भूमिका की भावना (Role feeling) समुदाय की दूसरी विशेषता यह है कि इसके सदस्यों में भूमिका की भावना होती है। समुदाय में हर किसी को कोई-न-कोई पद और भूमिका प्राप्त होती है और उन को पता होता है कि उन्होंने कौन-से काम करने हैं और कौन-से कर्तव्यों का पालन करना है ।

3. निर्भरता (Dependence)-समुदाय की एक और विशेषता यह होती है कि समुदाय के सदस्य अपनी ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और अकेले एक व्यक्ति के लिए समुदाय से अलग रहना सम्भव नहीं है। व्यक्ति सभी कार्य अकेले नहीं कर सकता। इसीलिए उसको अपने बहुत सारे कार्यों के लिए औरों पर निर्भर रहना पड़ता है।

4. स्थिरता (Permanence)—समुदाय में स्थिरता होती है। इसके सदस्य अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी होते हैं। यदि कोई व्यक्ति कुछ समय के लिए समुदाय छोड़कर चला जाता है तो कोई बात नहीं फिर भी वह अपने समुदाय से जुड़ा रहता है। यदि कोई अपना समुदाय छोड़कर विदेश चला जाता है तो समुदाय का दायरा बढ़ने लग जाता है क्योंकि बाहरी देश में जाने के बाद भी व्यक्ति अपने समुदाय को भूलता नहीं है। आज-कल कोई व्यक्ति सिर्फ एक समुदाय का सदस्य नहीं है। अलग-अलग समय में व्यक्ति अलग-अलग समुदाय का सदस्य होता है। इसलिए व्यक्ति चाहे जिस भी समुदाय का सदस्य हो उसमें भी स्थिरता रहती है।

5. आम जीवन (Common life)-समुदाय का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। उसका सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है कि सारे अपना जीवन आराम से बिता सकें और मनुष्य अपना जीवन समुदाय में रहते हुए ही बिता देता है।

6. भौगोलिक क्षेत्र (Geographical Area) हर समुदाय का अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसमें वह रहता है। बिना किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के समुदाय नहीं बन सकता।

7. अपने आप जन्म (Spontaneous Birth) समुदाय अपने आप ही पैदा हो जाता है। समुदाय का कोई विशेष इरादा नहीं होता। इसकी स्थापना जान-बूझ कर नहीं की जाती। जिस जगह पर व्यक्ति अधिक समय के लिए रहना शुरू कर देते हैं उधर समुदाय अपने आप पैदा हो जाता है। समुदाय उसको वे सभी सहूलतें देते हैं जिसके साथ मनुष्य अपनी ज़रूरतें आराम से पूरी कर सकता है।

8. विशेष नाम (Particular Name)-प्रत्येक समुदाय को एक विशेष नाम दिया जाता है जोकि समुदाय के बनने के लिए आवश्यक है।

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प्रश्न 4.
समुदाय को परिभाषित कीजिए। समुदाय किस अर्थ में समाज से भिन्न है ? चर्चा कीजिए।
उत्तर-
नोट- समुदाय की परिभाषा-इसके लिए प्रश्न देखें 3.
समुदाय तथा समाज में अंतर (Difference between Community and Society)

  1. समाज व्यक्तियों का समूह है जो स्वयं ही विकसित हो जाता है परन्तु समुदाय चाहे स्वयं ही विकसित होता है परन्तु यह होता किसी विशेष क्षेत्र में है।
  2. समाज का कोई विशेष भौगोलिक क्षेत्र नहीं होता परन्तु समुदाय का एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र होता है।
  3. समाज का कोई विशेष नाम नहीं होता परन्तु समुदाय का एक विशेष नाम होता है।
  4. समाज सामाजिक संबंधों पर आधारित होता है जिस कारण यह अमूर्त होता है परन्तु समुदाय एक मूर्त संकल्प है।
  5. प्रत्येक समाज अपने आप में आत्मनिर्भर नहीं होता परन्तु प्रत्येक समुदाय अपने आप में आत्मनिर्भर होता है जिस कारण यह अपने सदस्यों की सभी आवश्यकताएं पूर्ण कर सकता है।
  6. समाज के सदस्यों के बीच हम भावना नहीं होती परन्तु समुदाय के सदस्यों के बीच हम भावना होती है।

प्रश्न 5.
समुदाय तथा समिति के मध्य अन्तर कीजिए।
उत्तर-
समुदाय तथा समिति में अन्तर-

  1. समुदाय अपने आप में विकसित होता है, इसको बनाया नहीं जाता जबकि समिति का निर्माण जानबूझ कर किया जाता है।
  2. समुदाय का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। यह सभी के हितों की पूर्ति करता है जबकि समितियों का एक निश्चित उद्देश्य होता है।
  3. एक व्यक्ति एक समय में सिर्फ एक समुदाय का सदस्य होता है जबकि व्यक्ति एक ही समय में कई समितियों का सदस्य हो सकता है।
  4. समुदाय की सदस्यता व्यक्ति की ज़रूरत होती है जबकि समिति की सदस्यता ऐच्छिक होती है।
  5. समुदाय के लिए एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र का होना ज़रूरी है जबकि समिति के लिए यह जरूरी नहीं है।
  6. समुदाय अपने आप में एक उद्देश्य होता है जबकि समिति किसी उद्देश्य को पूरा करने का साधन होती है।
  7. समुदाय स्थायी होता है पर समिति अस्थायी होती है।
  8. व्यक्ति समुदाय में पैदा होता है और इसमें ही मर जाता है पर व्यक्ति समिति में इसीलिए हिस्सा लेता है क्योंकि उसको किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करनी होती है।
  9. समुदाय का कोई वैधानिक दर्जा नहीं होता पर समिति का वैधानिक दर्जा होता है।

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प्रश्न 6.
समाज तथा सभा के मध्य अन्तर की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
1. सभा व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए निर्मित की जाती है परन्तु समाज व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि स्वयं ही विकसित हो जाता है।

2. सभा की सदस्यता व्यक्ति के लिए ऐच्छिक होती है तथा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात् इनकी सदस्यता छोड़ भी सकता है परन्तु समाज की सदस्यता ऐच्छिक नहीं होती बल्कि आवश्यक होती है तथा व्यक्ति को तमाम आयु समाज का सदस्य बन कर रहना पड़ता है। .

3. सभा एक मूर्त व्यवस्था है क्योंकि यह लोगों की आवश्यकताओं पर आधारित होती है परन्तु समाज अमूर्त व्यवस्था है क्योंकि यह सामाजिक संबंधों पर आधारित होता है जोकि अमूर्त होते हैं।

4. सभा चेतन रूप से लोगों के प्रयासों से विकसित होती है परन्तु समाज स्वयं ही विकसित हो जाते हैं तथा इसमें चेतन प्रयासों की आवश्यकता नहीं होती।

5. सभा का एक औपचारिक ढांचा होता है जिसमें प्रधान, सैक्रेटरी, कैशियर, सदस्य इत्यादि होते हैं तथा इनका चुनाव निश्चित समय के लिए होता है परन्तु समाज का कोई औपचारिक ढांचा नहीं होता तथा सभी व्यक्ति ही इसके सदस्य होते हैं। यह तमाम आयु इसकी सदस्यता नहीं छोड़ सकते।

6. सभा की उत्पत्ति केवल उन व्यक्तियों के प्रयासों का परिणाम होती है जिनके इसके साथ उद्देश्य जुड़े हुए होते हैं परन्तु समाज की उत्पत्ति सभी लोगों की सहमति से होती है तथा इसके साथ किसी व्यक्ति विशेष का स्वार्थ नहीं जुड़ा होता।

7. व्यक्ति अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के पश्चात् सभा को अचानक ही खत्म कर देते हैं परन्तु कोई भी व्यक्ति को तोड़ नहीं सकता तथा इसका अस्तित्व खत्म नहीं हो सकता।

8. सभा की उत्पत्ति विचार से नहीं बल्कि उद्देश्य से संबंधित होती है परन्तु समाज की उत्पत्ति सामाजिक संबंधों पर निर्भर करती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions) :

प्रश्न 1.
यह शब्द किसके हैं-“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।”
(A) मैकाइवर
(B) वैबर
(C) अरस्तु
(D) प्लेटो।
उत्तर-
(D) प्लेटो।

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प्रश्न 2.
समाज के निर्माण के लिए समानता तथा अन्तरों की क्या आवश्यकता है ?
(A) सम्बन्ध बनाने के लिए
(B) सामाजिक प्रगति के लिए
(C) समाज को जनसंख्यात्मक रूप में आगे बढ़ाने के लिए
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
मार्क्स के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे पहला समाज कौन-सा था ?
(A) आदिम साम्यवादी
(B) सामन्तवादी
(C) दास मूलक
(D) पूंजीवादी।
उत्तर-
(A) आदिम साम्यवादी।

प्रश्न 4.
व्यक्ति और व्यक्तियों के साथ सामाजिक सम्बन्ध क्यों बनाता है ?
(A) अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
(B) स्वयं निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए
(C) अपने आपको स्वार्थी व्यक्तियों के उत्पीड़न से बचने के लिए
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 5.
व्यक्ति एवं समाज एक-दूसरे के …….. माने जाते हैं।
(A) विरुद्ध
(B) पूरक
(C) समान
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(B) पूरक।

प्रश्न 6.
इनमें से समाज में क्या पाया जाता है ?
(A) समानता
(B) सहयोग
(C) संघर्ष
(D) संघर्ष तथा सहयोग।
उत्तर-
(D) संघर्ष तथा सहयोग।

प्रश्न 7.
व्यक्तियों का एक संगठन जो किन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया गया है, उसे क्या कहते है ?
(A) एक समाज
(B) समाज
(C) समूह
(D) एक संगठन।
उत्तर-
(A) एक समाज।

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प्रश्न 8.
इनमें से कौन समुदाय के बीच नहीं आता ?
(A) केरल के लोग दिल्ली में
(B) अमेरिका में जन्मे लोग
(C) ट्रेड यूनियन आन्दोलन
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(D) कोई नहीं।

प्रश्न 9.
समाज किसका जाल है ?
(A) सामाजिक परिमापों का
(B) एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों का
(C) व्यक्तिगत रिश्तों का
(D) कोई नहीं।
उत्तर-
(B) एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों का।

प्रश्न 10.
व्यक्ति तथा समाज में क्या सम्बन्ध है ?
(A) मनुष्य प्रकृति से सामाजिक है तथा वह अकेला नहीं रह सकता
(B) मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के लिए समाज में रहता है
(C) समाज व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाता है
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज ……………. पर आधारित होता है।
2. समुदाय लोगों की ……………. से स्वयं ही विकसित हो जाता है।
3. …………. की स्थापना विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच समझ कर की जाती है।
4. ………….. की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होती है।
5. समाज ……… होता है।
6. ……….. समाज में टोटम का महत्त्व होता है।
7. ………. की सदस्यता औपचारिक होती है।
उत्तर-

  1. सामाजिक संबंधों,
  2. अन्तक्रियाओं,
  3. समिति,
  4. समिति,
  5. अमूर्त,
  6. आदिवासी,
  7. समिति।

III. सही गलत (True/False) :

1. समाज की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करती है।
2. समाज सामाजिक संबंधों के कारण बनता है।
3. समुदाय स्वयं विकसित होता है।
4. समिति का निर्माण जानबूझ कर दिया जाता है।
5. समिति की सदस्यता अनौपचारिक होती है।
6. मानवीय समाज में भाषा का बहुत महत्त्व होता है।
7. संस्था किसी कार्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिमापों की व्यवस्था है।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही,
  5. गलत,
  6. सही,
  7. सहीं।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
व्यक्तियों के समूह को कौन समाज कहता है ?
उत्तर-
एक साधारण व्यक्ति, व्यक्तियों के समूह को समाज कहता है।

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प्रश्न 2.
अगर समाज के सदस्यों के बीच सहयोग खत्म हो जाए तो क्या होगा ?
उत्तर-
अगर समाज के सदस्यों के बीच सहयोग खत्म हो जाए तो समाज खत्म हो जाएगा।

प्रश्न 3.
समाज………..पर आधारित है।
उत्तर-
समाज सम्बन्धों पर आधारित है।

प्रश्न 4.
किसने कहा था कि, “समाज समानताओं एवं असमानताओं के बिना चल नहीं सकता।”
उत्तर-
यह शब्द वैस्टमार्क के हैं।

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प्रश्न 5.
किताब SOCIETY का लेखक………….है।
उत्तर-
किताब SOCIETY के लेखक मैकाइवर तथा पेज हैं।

प्रश्न 6.
समाज अमूर्त क्यों होता है ?
उत्तर-
क्योंकि समाज सम्बन्धों का जाल है तथा सम्बन्ध अमूर्त होते हैं और हम सम्बन्धों को देख नहीं सकते।

प्रश्न 7.
समाज की एक विशेषता बताएं।
उत्तर-
समाज सम्बन्धों पर आधारित होता है तथा भिन्नताओं और समानताओं पर आधारित होता है।

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प्रश्न 8.
समाज क्या होता है ?
उत्तर-
साधारण शब्दों में, व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं, परन्तु समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समाज कहते हैं।

प्रश्न 9.
समाज का प्रमुख आधार क्या होता है ?
उत्तर-
समाज की इकाइयों अर्थात् व्यक्तियों में पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्ध समाज के प्रमुख आधार हैं।

प्रश्न 10.
समुदाय क्या है ?
उत्तर-
समुदाय मनुष्यों का एक भौगोलिक समूह है जहाँ व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है।

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प्रश्न 11.
क्या मनुष्यों में सभी समूह समुदाय होते हैं ?
उत्तर-
जी नहीं, वे संस्थाएं अथवा कई अन्य प्रकार के समूह भी हो सकते हैं।

प्रश्न 12.
समुदाय का शाब्दिक अर्थ बताएं।
उत्तर-
समुदाय शब्द अंग्रेज़ी के Community शब्द का हिन्दी रूपांतर है जिसका अर्थ है इकट्ठे मिलकर बनाना।

प्रश्न 13.
शब्द Community किन दो लातीनी शब्दों को मिलाकर बना है ?
उत्तर-
शब्द Community लातीनी भाषा के शब्दों Com तथा Munus से मिलकर बना है।

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प्रश्न 14.
समुदाय कैसे विकसित होता है ?
उत्तर-
समुदाय लोगों की अंतक्रियाओं से स्वयं ही विकसित हो जाता है।

प्रश्न 15.
समुदाय का जन्म किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
समुदाय का जन्म अपने आप ही हो जाता है।

प्रश्न 16.
क्या समुदाय में सामुदायिक भावना होती है ?
उत्तर-
जी हाँ, समुदाय में सामुदायिक भावना होती है।

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प्रश्न 17.
सभा क्या है ?
उत्तर-
जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं तथा संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं।

प्रश्न 18.
सभा की स्थापना कैसे होती है ?
उत्तर-
सभा की स्थापना विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच-समझ कर की जाती है।

प्रश्न 19.
सभा की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-
सभा की सदस्यता का आधार व्यक्ति की इच्छा है अर्थात् वह अपनी इच्छा से सभा का सदस्य बनता है।

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प्रश्न 20.
सभा की सदस्यता किस प्रकार की होती है ?
उत्तर-
सभा की सदस्यता औपचारिक होती है।

प्रश्न 21.
सभा तथा समुदाय में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-
समुदाय अपने आप विकसित होता है। इसे बनाया नहीं जाता परन्तु किसी संभा का निर्माण चेतन प्रयासों से किया जाता है।

अति लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज।
उत्तर-
समाज का अर्थ केवल लोगों के इकट्ठे होने से नहीं है बल्कि समाज के लोगों में पाए जाने वाले संबंधों के जाल से है जिससे लोग एक-दूसरे से जुड़े होते थे। तब लोगों के बीच संबंध बनते हैं तो समाज का निर्माण होता है।

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प्रश्न 2.
समाज की परिभाषा।
उत्तर-
पारसन्ज़ के अनुसार, “समाज को उन संबंधों की पूर्ण जटिलता के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जो कार्यों के करने से उत्पन्न हुए हों तथा यह कार्य व उद्देश्य के रूप में किए गए हों चाहे वह आंतरिक हों या सांकेतिक।”

प्रश्न 3.
समाज की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  1. समाज संबंधों पर आधारित होता है, लोगों के बीच बिना संबंधों के समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
  2. समाज समानताओं तथा भिन्नताओं पर आधारित होता है। दोनों के बिना समाज कायम नहीं हो सकता।

प्रश्न 4.
अमूर्तता।
उत्तर-
समाज अमूर्त होता है क्योंकि यह संबंधों का जाल है। इन संबंधों को हम देख नहीं सकते तथा न ही स्पर्श कर सकते हैं। इन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है क्योंकि हम इन्हें स्पर्श नहीं कर सकते इसलिए यह अमूर्त होता है।

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प्रश्न 5.
समाज में भाषा का महत्त्व।
उत्तर-
मानवीय समाज में भाषा का बहुत महत्त्व होता है क्योंकि भाषा ही अपने विचार व्यक्त करने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है। बिना भाषा के संबंध स्थापित नहीं हो सकते तथा समाज स्थापित नहीं हो सकता ।

प्रश्न 6.
मानवीय समाज तथा पशुओं के समाज में एक अन्तर।
उत्तर-
मानवीय समाज में केवल मनुष्य ही है जो बोल सकते हैं तथा अपने विचारों को स्पष्ट रूप दे सकते हैं। अन्य कोई पशु या प्राणी बोल नहीं सकता। वह केवल तरह-तरह की आवाजें निकाल सकते हैं।

प्रश्न 7.
समुदाय।
उत्तर-
जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष इलाके में संगठित रूप में रहते हैं तथा वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही वहीं व्यतीत करते हैं तो उसे हम समुदाय कहते हैं।

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प्रश्न 8.
समुदाय का शाब्दिक अर्थ।।
उत्तर-
समुदाय अंग्रेज़ी के Community का हिंदी रूपांतर है। यह लातीनी भाषा के दो शब्दों Com जिसका अर्थ है इकट्ठे मिलकर रहना तथा Munus जिसका अर्थ है बनाना, से मिल कर बना है तथा इकट्ठे होकर इसका अर्थ है इकट्ठे मिल कर बनाना।

प्रश्न 9.
सभा का अर्थ।
उत्तर-
सभा सहयोग के ऊपर आधारित होती है। जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं तथा संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं।

प्रश्न 10.
सभा की परिभाषा।
उत्तर-
गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “सभा व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए परस्पर संबंधित होते हैं तथा स्वीकृत कार्य प्रणालियों तथा व्यवहारों द्वारा संगठित रहते हैं।”

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प्रश्न 11.
संस्था का अर्थ।
उत्तर-
संस्था किसी कार्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिमापों की व्यवस्था है। संस्था तो किसी विशेष महत्त्वपूर्ण मानवीय क्रिया के द्वारा केंद्रित रूढ़ियों तथा लोकरीतियों का गुच्छा है। संस्थाएं तो संरचित प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने कार्य करता है।

प्रश्न 12.
संस्था का एक आवश्यक तत्त्व।
उत्तर-
विचार संस्था का आवश्यक तत्त्व है। किसी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए एक विचार की शुरुआत होती है जिसे समूह अपने लिए आवश्यक समझता है। इस कारण इसकी रक्षा के लिए संस्था विकसित होती है।

प्रश्न 13.
संस्था के प्रकार।
उत्तर-
वैसे तो संस्थाएं कई प्रकार की होती हैं परन्तु यह मुख्य रूप से चार प्रकार की होती हैं तथा वह हैं-

  1. सामाजिक संस्थाएं
  2. धार्मिक संस्थाएं
  3. राजनीतिक संस्थाएं
  4. तथा आर्थिक संस्थाएं।

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लघु उतरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ।
उत्तर-
जब समाजशास्त्री समाज शब्द का उपयोग करते हैं तो उनका अभिप्राय केवल लोगों के योग मात्र से नहीं बल्कि उनका अर्थ होता है। समाज के लोगों में पाए गए सम्बन्धों के जाल से जिससे लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। केवल कुछ लोग इकट्ठे करने से समाज नहीं बन जाता। समाज केवल तब ही बनता है जब समाज के उन लोगों में अर्थ पूर्ण सम्बन्ध बन जाते हैं। यह सम्बन्ध अमूर्त होते हैं हम इन्हें देख नहीं सकते हैं। यह जीवन के हर रूप में मौजूद होते हैं इन सम्बन्धों को एक-दूसरे से भिन्न नहीं किया जा सकता। यह तो आपस में इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि इनको अलग करना कठिन है। यह सभी सम्बन्ध जो व्यक्तियों में होते हैं, इनके जाल को ही समाज कहते हैं। इन्हें हम देख नहीं सकते इसलिए यह अमूर्त होते हैं।

प्रश्न 2.
समाज की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. समाज सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित होता है।
  2. समाज भिन्नताओं व समानताओं पर आधारित होता है।
  3. समाज के व्यक्ति एक-दूसरे पर अन्तर्निर्भर होते हैं।
  4. समाज अमूर्त होता है, क्योंकि यह सम्बन्धों का जाल है।
  5. समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त उसकी जनसंख्या होती है।
  6. समाज में सहयोग व संघर्ष ज़रूरी होता है।

प्रश्न 3.
समुदाय।
उत्तर-
आम शब्दों में, जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष क्षेत्र में संगठित रूप से रहते हैं व वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना जीवन ही वहां बिताते हैं तो उसको हम समुदाय कहते हैं। यह एक मूर्त संकल्प है। समुदाय की स्थापना जान-बूझ कर नहीं की जाती। इसका तो विकास अपने आप ही हो जाता है।

समुदाय का अपना एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जहां सदस्य आप अपनी ज़रूरतों को पूरा कर लेते हैं। जब वह आपस में अपनी ज़रूरतें पूरी करते हैं तो उनमें ‘हम’ की भावना पैदा हो जाती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

प्रश्न 4.
समुदाय की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. प्रत्येक समुदाय में ‘हम’ की भावना होती है।
  2. समुदाय के सदस्यों में एकता की भावना होती है।
  3. समुदाय के सदस्य अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।
  4. समुदाय में स्थिरता होती है व इसके सदस्य अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी होते हैं।
  5. समुदाय के लोग समुदाय में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं।
  6. प्रत्येक समुदाय का अपना भौगोलिक क्षेत्र होता है जिस में वह रहता है।
  7. समुदाय का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। यह तो अपने आप ही पैदा हो जाता है।

प्रश्न 5.
सभा।
उत्तर-
सभा सहयोग पर आधारित होती है। जब कुछ लोग विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं व संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं। आम शब्दों में, किसी विशेष उद्देश्य के लिए बनाए गए संगठन को सभा कहते हैं। सभा का एक निश्चित उद्देश्य होता है जिसकी पूर्ति के बाद इसको छोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 6.
सभा की विशेषताएं।
उत्तर-

  1. सभा व्यक्तियों का समूह होती है।
  2. सभा की स्थापना किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच-विचार कर की जाती है।
  3. सभा के निश्चित उद्देश्य होते हैं।
  4. सभा का जन्म व विनाश होता रहता है।
  5. सभा की सदस्यता व्यक्ति की इच्छा पर आधारित होती है।
  6. सभा की सदस्यता पारम्परिक होती है।
  7. प्रत्येक सभा अपने कुछ अधिकारियों का चनाव करती है।
  8. प्रत्येक सभा के कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न :

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ, परिभाषाओं तथा विशेषताओं के साथ बताएं।
उत्तर-
समाज का अर्थ-
साधारण भाषा में समाज का अर्थ ‘व्यक्तियों के समूह’ से लिया जाता है। बहुत से विद्वान् इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में करते हैं। इस प्रकार समाज का अर्थ किसी समूह के व्यक्तियों द्वारा लिया जा सकता है अपितु उनके मध्य के रिश्तों से नहीं। कभी-कभी समाज के अर्थ को किसी संस्था के नाम से भी लिया जाता है जैसेआर्य समाज, ब्रह्म समाज इत्यादि। इस प्रकार साधारण व्यक्ति की भाषा में समाज का अर्थ इन्हीं अर्थों में लिया जाता है, परन्तु समाजशास्त्र में इस शब्द का अर्थ कुछ और ही अर्थों में लिया जाता है।

समाजशास्त्र में ‘समाज’ शब्द का अर्थ लोगों के समूह से नहीं लिया जाता अपितु उनके बीच में पैदा हुए रिश्तों के फलस्वरूप जो सम्बन्ध पैदा हुए हैं उनसे लिया जाता है। सामाजिक रिश्तों में लोगों का बहुत महत्त्व होता है। वे समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं यह एक प्रक्रिया है न कि वस्तु। समाज में एक आवश्यक वस्तु लोगों के बीच के रिश्ते एवं अन्तर्सम्बन्धों के बीच के नियम हैं जिसके साथ समाज के सदस्य एक-दूसरे के साथ रहते हैं। जब समाजशास्त्री समाज शब्द का अर्थ साधारण रूप में करते हैं तो उनका अर्थ समाज में होने वाले सामाजिक सम्बन्धों के जाल से है और जब वह समाज शब्द को विशेष रूप में प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ होता है कि समाज उन व्यक्तियों का समूह है जिनमें विशेष प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं।

समाज (Society)—जब समाजशास्त्री ‘समाज’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ सिर्फ लोगों के समूह मात्र से नहीं होता बल्कि उनका अर्थ होता है समाज के लोगों में पाए जाने वाले सम्बन्धों के जाल से जिसके साथ लोग एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। सिर्फ कुछ लोगों को इकट्ठा करने से ही समाज नहीं बन जाता। समाज उस समय ही बनता है जब समाज के उन लोगों में अर्थपूर्ण संबंध स्थापित हो जाएं। यह सम्बन्ध अस्थिर होते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते और न ही इनका कोई ठोस रूप होता है। हम केवल इन्हें महसूस कर सकते हैं। यह जीवन के प्रत्येक रूप में मौजूद होते हैं। इन सम्बन्धों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यह तो आपस में इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि इनको अलग-अलग करना बहुत मुश्किल है। यह सभी सम्बन्ध जो व्यक्तियों के बीच होते हैं, इनके जाल को ही समाज कहते हैं। हम इन्हें देख नहीं सकते इसीलिए यह अमूर्त होते हैं।

कुछ लेखक यह विचार करते हैं कि समाज तभी बनता है जब इसके सदस्य एक-दूसरे को जानते हों और उनके कुछ आपसी हित हों। उदाहरण के लिए यदि कोई दो व्यक्ति बस में सफर कर रहे हों और एक-दूसरे को जानते न हों, तो वह समाज नहीं बना सकते। परन्तु यदि वही दो व्यक्ति आपस में बातचीत करनी शुरू कर देते हैं, एक-दूसरे के बारे में जानना शुरू कर देते हैं तो समाज का अस्तित्व कायम होना शुरू हो जाता है। उन दोनों के बीच में एक-दूसरे की तरफ व्यवहार ज़रूरी है।

वास्तव में समाज, सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। व्यक्ति जो एक स्थान पर रहते हैं उनके बीच आपसी सम्बन्ध होते हैं और एक-दूसरे के साथ लाभ जुड़े होते हैं। वह एक-दूसरे के ऊपर निर्भर होते हैं और इस प्रकार समाज का निर्माण करते हैं।

परिभाषाएँ (Definitions)-
1. मैकाइवर और पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाज व्यवहारों एवं प्रक्रियाओं की, अधिकार एवं परस्पर सहयोग की, अनेक समूहों एवं विभागों की, मानव व्यवहार के नियन्त्रण एवं स्वाधीनता की व्यवस्था है। इस निरन्तर परिर्वतनशील व्यवस्था को हम ‘समाज’ कहते हैं। यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।”

2. गिडिंग्ज़ (Giddings) के अनुसार, “समाज एक संगठन है, यह पारस्परिक औपचारिक सम्बन्धों का ऐसा मेल है जिसके कारण उसके अन्तर्गत सभी व्यक्ति एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं।”

3. टालक्ट पारसन्ज (Talcot Parsons) के अनुसार, “समाज को उन सम्बन्धों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो कार्यों के कारण से पैदा हुए हों और कार्य एवं उद्देश्य के रूप में किए गए हों चाहे वह आन्तरिक हों या सांकेतिक।”

4. कूले (Cooley) के अनुसार, “समाज स्वरूपों या प्रक्रियाओं का एक जाल है जिसमें हर कोई एक-दूसरे के साथ क्रिया करके जीता और आगे बढ़ता है और सभी एक-दूसरे के साथ इस प्रकार जुड़े होते हैं कि एक के प्रभावित होने के साथ बाकी सभी भी प्रभावित होते हैं।”

इस प्रकार समाज की ऊपर लिखी परिभाषाओं को देख कर हम यह कह सकते हैं कि यह परिभाषाएँ दो प्रकार की हैं। पहली प्रकार की हैं कार्यात्मक (Functional) परिभाषाएँ और दूसरी प्रकार की हैं संगठनात्मक (Structural) परिभाषाएँ। कार्यात्मक पक्ष से हम समाज को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं कि यह समूहों का जाल है जिसमें अनुपूरक प्रकार के रिश्ते हों जो एक-दूसरे के साथ और जिन व्यक्तियों को अपने जीवन के काम करने में मदद करें और व्यक्ति को और व्यक्तियों के साथ रहते हुए उस की इच्छाएं पूरी करने में मदद करें।

संगठनात्मक पक्ष से समाज तो हमारे रीति-रिवाजों, आदतों, संस्थाओं, इच्छाओं आदि की एक सामाजिक विरासत है। इस प्रकार समाज कार्यात्मक एवं संगठनात्मक रूप, दोनों के साथ परिभाषित किया गया है कि यह व्यक्तियों के आपसी रिश्तों के साथ बना है और साथ ही साथ यह एक व्यवस्था है, एक जाल है न कि लोगों का एकत्र। हम समाज को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि समाज मनुष्य के सम्बन्धों का वह संगठन है जिसको मनुष्यों द्वारा निर्मित, संचालित और परिवर्तित किया जाता है। सरल शब्दों में समाज एक अमूर्त धारणा है, समाज लोगों का सिर्फ समूह नहीं है। यह समाज सामाजिक सम्बन्धों का संगठन या व्यवस्था है।

समाज की विशेषताएँ (Characteristics of Society) –

1. समाज सम्बन्धों पर आधारित होता है (Society is based on relationships)-मैकाइवर और पेज के अनुसार, “समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।” इसका अर्थ यह हुआ कि समाज सम्बन्धों पर आधारित होता है। यहाँ ‘जाल’ शब्द का प्रयोग क्यों हुआ ? क्योंकि समाज में हजारों प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते हैं। सिर्फ एक परिवार में 15 से ज्यादा तरह के सम्बन्ध पाए जा सकते हैं। इस से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि समाज में कितने प्रकार के सम्बन्ध मौजूद होंगे। समाज केवल मनुष्यों का समूह मात्र नहीं है।

2. समाज अन्तरों और समानताओं पर आधारित होता है (Society depends upon likeness and differences)—समाज अन्तरों एवं समानताओं, दोनों पर आधारित होता है। दोनों के बिना समाज कायम नहीं रह सकता। यह चाहे एक-दूसरे के विरोध में रहती हैं परन्तु यह एक-दूसरे के बिना भी नहीं रह सकतीं। समाज में कभी समानता आती है और कभी अंतर आते है और इसलिए यह एक-दूसरे के पूरक होते हैं। सामाजिक सम्बन्ध तब ही स्थापित हो सकते हैं यदि किसी प्रकार की समानता हो क्योंकि इसके बिना एक-दूसरे के प्रति खिंचाव नहीं उत्पन्न हो सकता और समाज उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त अन्तरों का होना भी आवश्यक है।

3. अन्तर्निर्भरता (Inter-dependence)- समाज के बने रहने के लिए अन्तर्निर्भरता एक आवश्यक तत्त्व है। मनुष्य को अपनी ज़रूरतों को पूरा करने हेतु अन्य व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध रखने पड़ते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की इतनी समर्था नहीं होती कि वह सभी कार्य अपने आप कर सके । उसको अन्य व्यक्तियों पर निर्भर रहना ही पड़ता है। व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे दूसरों पर निर्भर होता जाता है क्योंकि उसकी आवश्यकताएं बढ़ती जाती हैं। इस प्रकार अन्तर्निर्भरता समाज का एक ज़रूरी तत्त्व है।

4. समाज अमूर्त होता है (Society is abstract)-समाज अमूर्त होता है क्योंकि यह सम्बन्धों का जाल है इन सम्बन्धों को हम देख नहीं सकते और न ही स्पर्श सकते हैं। इनको तो हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं। क्योंकि हम सम्बन्धों को स्पर्श नहीं सकते इसीलिए इनका कोई ठोस रूप नहीं होता। इसीलिए यह अमूर्त होते हैं। क्योंकि सम्बन्ध अमूर्त होते हैं इसीलिए सम्बन्धों द्वारा बना समाज भी अमूर्त होता है।

5. जनसंख्या (Population)-समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व मनुष्य है। मनुष्यों के बिना कोई समाज नहीं बन सकता। यदि मनुष्य ही नहीं होंगे तो सम्बन्ध कौन स्थापित करेगा और समाज कैसे बनेगा। व्यक्तियों के अस्तित्व के बिना समाज का अस्तित्व होना नामुमकिन है। इसीलिए ज़रूरी है कि जनसंख्या हो। जनसंख्या के होने के लिए भी कई चीजें ज़रूरी हैं जैसे-जनसंख्या को काफ़ी मात्रा में भोजन उपलब्ध हो, जनसंख्या की हर मुसीबत से सुरक्षा हो, समाज का और जनसंख्या का आगे बढ़ना ज़रूरी है क्योंकि यदि जनसंख्या न बढ़ी तो एक दिन सभी लोग खत्म हो जाएंगे। इस प्रकार जनसंख्या के बिना समाज का बनना नामुमकिन है।

6. समाज में सहयोग और संघर्ष ज़रूरी होता है (Co-operation and conflict are must for society)-जैसे समानताएं और अंतर समाज के अस्तित्व के लिए ज़रूरी हैं उसी प्रकार सहयोग एवं संघर्ष भी समाज के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। सहयोग समाज के निर्माण का एक ज़रूरी तत्त्व है। समाज में मनुष्य रहते हैं और वह एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। यह अन्तर्निर्भरता तब ही होती है यदि उनके बीच सहयोग होगा। एक बच्चे को बड़ा करने में कई हाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और यह सिर्फ सहयोग पर आधारित है। परिवार भी तब ही आगे बढ़ता है यदि पति-पत्नी आपस में सहयोग करें। इस तरह समाज के हर पक्ष में सहयोग की आवश्यकता है। इसी तरह संघर्ष भी ज़रूरी है। जीवन जीने के लिए व्यक्ति को कई प्रकार की शक्तियों से लड़ना पड़ता है। जीने के लिए व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है।

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प्रश्न 3.
सभा की परिभाषा दें। सभा की विशेषताओं पर विस्तार से लिखें।
अथवा
सभा के अर्थ तथा लक्षणों की व्याख्या करें ।
उत्तर-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते उसकी कुछ आवश्यकताएं भी होती हैं। अपनी इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति कई प्रकार की कोशिशें करता है। वह तीन प्रकार की कोशिशें करता है-

  • पहली कोशिश यह होती है कि वह अपनी आवश्यकताएं बिना किसी सहायता के पूर्ण करें, पर आज कल के आधुनिक समाज में अकेले रह पाना और अकेले ही अपनी ज़रूरतें पूरी कर पाना सम्भव नहीं है।
  • दूसरा तरीका यह होता है वह अपनी आवश्यकता की चीजें दुनिया से छीनकर पूरी कर सके। पर दूसरों से छीनकर अपनी आवश्यकताएं पूरी करना मुमकिन नहीं है क्योंकि यह तरीका गैर-सामाजिक है और मनुष्य समाज में रहते हुए इस तरह के तरीके नहीं अपना सकता।
  • तीसरा आखिरी और सबसे बढ़िया तरीका यह है कि मनुष्य समाज में रहते हुए दूसरों के साथ सहयोग करते हुए अपनी ज़रूरतें पूरी करे क्योंकि यह ही जीवन का आधार है।

सभा भी इसी सहयोग पर आधारित है। जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य के लिए आपस में सहयोग करते हैं और संगठन बनाते हैं तो इस संगठित हुए संगठन को सभा कहते हैं। आम शब्दों में, किसी विशेष मकसद के लिए बनाए गए संगठन को सभा कहते हैं। सभा का एक निश्चित उद्देश्य होता है जिसकी पूर्ति के बाद इसको छोड़ भी जा सकता है।

मनुष्य का स्वभाव और ज़रूरतें उसको समाज में रहने के लिए मजबूर करती हैं। जानवरों की तरह मनुष्यों की सिर्फ शारीरिक ज़रूरतें ही नहीं होतीं बल्कि इनसे ज्यादा ज़रूरी सामाजिक आवश्यकताएं भी होती हैं जिनको पूरा करना उसके लिए आवश्यक होता है। इस तरह जब समाज के अलग-अलग व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं तो इसके साथ सभा या समिति का जन्म होता है। यहां एक बात ध्यान रखने वाली है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं पूर्ण होने के बाद इसको छोड़ भी सकता है।

परिभाषाएं (Definitions)-

  • बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार, “सभा आम तौर पर कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों का मिल कर काम करना है।”
  • जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “सभा परस्पर सम्बन्धित उन सामाजिक प्राणियों का एक समूह है जो एक निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आम संगठन बना लेते हैं।”
  • गिलिन और गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “सभा व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो किसी निश्चित उद्देश्य या उद्देश्यों के लिए परस्पर सम्बन्धित होते हैं और स्वीकृत कार्य प्रणालियों और व्यवहारों द्वारा संगठित. रहते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सभा के तीन मुख्य आधार हैं-

  • सब कुछ व्यक्तियों का समूह है।
  • यह संगठन सहयोग पर आधारित है।
  • इसके द्वारा कुछ उद्देश्यों की पूर्ति होती है।

इस तरह सभा हमारी सभी ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकती। संक्षेप में जब कोई व्यक्ति संगठित रूप में सोचविचार करके कुछ विशेष कामों की पूर्ति के लिए आपस में सहयोग करते हैं उस संगठन या समूह को सभा कहते

सभा की विशेषताएं (Characteristics of Association) –
1. सभा व्यक्तियों का समूह है (Group of people)-सभा की स्थापना कुछ व्यक्तियों के द्वारा की जाती है जिसके कारण इसको समूह कहा जाता है। इस तरह सभा मूर्त है क्योंकि व्यक्ति मूर्त होते हैं।

2. विचारपूर्वक स्थापना (Thoughtful establishment)—सभा समुदाय की तरह अपने आप ही पैदा नहीं हो जाती। इसका निर्माण तो किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सोच-समझ कर और विचार करने से स्थापित किया जाता है।

3. निश्चित उद्देश्य (Definite aim)- सभा के निश्चित उद्देश्य होते हैं। सभा हमारे सामाजिक जीवन की सारी ज़रूरतें नहीं बल्कि कुछ ज़रूरतें पूरी करती है और साथ ही साथ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती है।

4. सभाओं का जन्म और विनाश होता रहता है (Association takes birth and comes to an end)- सभा का स्वभाव अस्थायी होता है क्योंकि इसकी स्थापना कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है और उन सारे उद्देश्यों की पूर्ति के बाद सभा की ज़रूरत भी खत्म हो जाती है।

5. सदस्यता इच्छा पर आधारित होती है (Membership is based on wish)—सभा व्यक्तियों का इच्छुक संगठन होता है। व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार इसका सदस्य बन सकता है और जब चाहे इसको छोड़ सकता है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति को जब लगता है कि सभा उसके लिए लाभदायक है तो वह उसको अपना लेता है और जब उसका फायदा पूरा हो जाता है तो उसे छोड़ देता है।

6. सभा की सदस्यता औपचारिक होती है (Formal membership)-इसकी सदस्यता औपचारिक होती है। वह जब चाहे इसको अपना सकता है और जब चाहे इसको छोड़ सकता है पर इसके लिए उसको त्याग-पत्र या प्रार्थना-पत्र देना पड़ता है और सदस्यता फीस भी देनी पड़ती है।

7. हर सभा कुछ अधिकारियों को चुनती है (Selection of officers) हर सभा अपने कामों के लिए कुछ अधिकारियों को चुनती है जैसे प्रधान, उप-प्रधान, सैक्रेटरी कैशियर इत्यादि। इन सबका चुनाव भी निश्चित समय पर होता है।

8. हर सभा के कुछ निश्चित नियम होते हैं (Definite rules)-हर सभा अपने कामों की पूर्ति के लिए नियम भी बनाती है और हर सदस्य को इन नियमों के अन्तर्गत रहकर काम करना पड़ता है।

9. सहयोग की भावना (Feeling of co-operation)—सभा का जन्म सहयोग की भावना पर आधारित होता है। किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सहयोग की भावना ही व्यक्ति को सभा का निर्माण करने के लिए प्रेरित करती है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 3 समाज, समुदाय तथा समिति

समाज, समुदाय तथा समिति PSEB 11th Class Sociology Notes

  • अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता। व्यक्ति समाज से बाहर न तो रह सकता है तथा न ही इसके बारे में सोच सकता है। उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  • व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य लोगों से संबंध बनाने पड़ते हैं तथा सामाजिक संबंधों के जाल को समाज कहते हैं। जब दो अथवा दो से अधिक लोगों के बीच संबंध बनते हैं तो हम कह सकते हैं कि समाज का निर्माण हो रहा है।
  • सम्पूर्ण संसार में बहुत-से समाज मिल जाते हैं जैसे कि जनजातीय समाज, ग्रामीण समाज, औद्योगिक समाज, उत्तर-औद्योगिक समाज इत्यादि। अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने समाजों को अलग-अलग आधारों पर विभाजित किया है। उदाहरण के लिए काम्ते (बौद्धिक विकास), स्पैंसर (संरचनात्मक जटिलता),
    मार्गन (सामाजिक विकास), टोनीज़ (सामाजिक संबंधों के प्रकार), दुर्थीम (एकता के प्रकार) इत्यादि।
  • समाज की बहुत-सी विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह अमूर्त होता है, यह समानताओं तथा अंतरों पर आधारित होता है, इसमें सहयोग तथा संघर्ष दोनों होते हैं, इसमें स्तरीकरण की व्यवस्था होती है इत्यादि।
  • व्यक्ति का समाज से काफ़ी गहरा संबंध होता है क्योंकि व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता। उसे जीवन जीने के लिए अन्य व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। दुर्थीम के अनुसार समाज हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष से संबंधित है तथा उसमें मौजूद है। समाज के लिए भी व्यक्ति सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि व्यक्ति के बिना समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
  • जब कुछ व्यक्ति एक समूह में एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में संगठित रूप से रहते हैं तथा वह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि अपना सम्पूर्ण जीवन ही वहां पर व्यतीत करते हैं तो उसे समुदाय कहते हैं। समुदाय में ‘हम’ भावना आवश्यक रूप में पाई जाती है।
  • समुदाय के कुछ आवश्यक तत्त्व होते हैं जैसे कि लोगों का समूह, निश्चित क्षेत्र, सामुदायिक भावना, समान संस्कृति इत्यादि। समाज तथा समुदाय में काफ़ी अंतर होता है।
  • सभा सहयोग पर आधारित होती है। जब कुछ लोग किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए आपस में सहयोग करते हैं तथा संगठन बनाते हैं तो इस संगठित संगठन को सभा कहते हैं।
  • एकत्रता (Aggregate)-किसी स्थान पर इक्ट्ठे हुए लोगों का समूह जिनमें आपस में कोई संबंध नहीं होता।
  • सहयोग (Co-operation)-जब कुछ लोग किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे की सहायता करते हैं तो उसे सहयोग कहते हैं।
  • संस्था (Institution) समुदाय के बीच व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करने वाला सामाजिक व्यवस्था का एक साधन।
  • कानून (Law)-लिखे हुए नियम जिन्हें किसी सरकारी संस्था द्वारा लागू किया जाता है।
  • पहचान (Identity)—एक व्यक्ति अथवा समूह के चरित्र की विशेषताएं जो यह बताती हैं कि वे कौन हैं तथा उनके लिए अर्थपूर्ण हैं।
  • उत्पादन के साधन (Means of Production)—वह साधन जिनसे समाज में भौतिक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, जिनमें न केवल तकनीक बल्कि उत्पादकों के आपसी संबंध भी शामिल हैं।
  • हम भावना (We-feeling)-वह शक्तिशाली भावना जिससे एक समूह के सदस्य स्वयं को पहचानते हैं तथा अन्य लोगों से अलग करते हैं। इससे उनमें शक्तिशाली एकता भी दिखती है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 7 पवनें Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 7 पवनें

PSEB 11th Class Geography Guide पवनें Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो शब्दों में दो :

प्रश्न (क)
ITCZ का पूरा नाम क्या है ?
उत्तर-
Inter Tropical Convergence Zone.

प्रश्न (ख)
नक्षत्रीय पवनों को अंग्रेजी में क्या कहते हैं ?
उत्तर-
Planetary winds.

प्रश्न (ग)
मानसून कौन-सी भाषा का शब्द है ?
उत्तर-
अरबी भाषा।

प्रश्न (घ)
साइबेरिया की कौन-सी झील मानसून सिद्धांत से संबंधित है ?
उत्तर-
बैकाल झील।

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प्रश्न (ङ)
मानसून फटने की क्रिया कब घटित होती है ?
उत्तर-
28 से 30 मई के मध्य केरल के तट पर।

प्रश्न (च)
पंजाब के दक्षिणी भागों में गर्मियों में बहती हवाओं को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
लू (loo)।

प्रश्न (छ)
ऑस्ट्रेलिया में चक्रवातों को किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-
विल्ली-विल्ली।।

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प्रश्न (ज)
Tornado का पंजाबी में क्या नाम है ?
उत्तर-
वावरोला।

प्रश्न (झ)
विपरीत चक्रवात का सिद्धांत किसने दिया ?
उत्तर-
फ्रांसिस गैलटन ने।

प्रश्न (ब)
यूरोप में फोहेन (Fohen) नाम से जानी जाने वाली पवनों को उत्तरी अमेरिका में कौन-सा नाम दिया जाता है ?
उत्तर-
चिनूक पवनें।

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2. प्रश्नों के उत्तर दो-चार वाक्यों में दो :

प्रश्न (क)
पश्चिमी पवनों को मलाहां की ओर से 40′, 50° और 60° अक्षांश पर क्या-क्या नाम दिए जाते हैं ?
उत्तर-
40° अक्षांश . – गर्जते चालीस
50° अक्षांश – गुस्सैल पचास
60° अक्षांश – कूकते (चीखते) साठ।

प्रश्न (ख)
स्थायी पवनों के उदाहरणों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. व्यापारिक पवनें
  2. पश्चिमी पवनें
  3. ध्रुवीय पवनें।

प्रश्न (ग)
फैरल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में क्या प्रभाव पड़ते हैं ?
उत्तर-
उत्तरी गोलार्द्ध में पवनें अपने दायीं ओर मुड़ जाती हैं।

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प्रश्न (घ)
एलनीनो का पता किसने लगाया था ?
उत्तर-
लगभग 100 साल पहले मौसम विभाग के डायरैक्टर जनरल गिलबर्ट वाल्कर (Gilbert Walker) ने एलनीनो का पता लगाया था।

प्रश्न (ङ)
सांता एना क्या है ?
उत्तर-
कैलीफोर्निया राज्य के दक्षिणी भागों में पहाड़ी क्षेत्रों से नीचे उतरती पवनों को सांता एना कहते हैं।

प्रश्न (च)
बलिजार्ड (Balizard) क्या है ?
उत्तर-
ध्रुवीय क्षेत्रों में चलने वाली ठंडी, शुष्क और बर्फीली पवनों को बलिजार्ड कहते हैं।

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प्रश्न (छ)
हरीकेन और बाईगुइस में क्या अंतर है ?
उत्तर-
खाड़ी मैक्सिको में चलने वाले चक्रवातों को हरीकेन कहते हैं जबकि फिलीपाइन के निकट चलने वाले चक्रवातों को बाईगुइस कहते हैं।

प्रश्न (ज)
हुद-हुद, नीलोफर और नानुक का आपस में क्या संबंध है ?
उत्तर-
सन् 2014 में, भारत के तट पर चलने वाले चक्रवातों को हुद-हुद, नीलोफर और नानुक नाम दिए गए थे।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 60 और 80 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
विपरीत चक्रवातों के रहते गर्मियों और सर्दियों के मौसम कैसे होते हैं ?
उत्तर-
विपरीत चक्रवातों का अर्थ है-उच्च हवा के दबाव के क्षेत्र। गर्मियों में विपरीत चक्रवातों के समय मौसम साफ-साफ, नीला आसमान, बादल रहित और शुष्क होता है। सर्दियों के मौसम में कोहरा और धुंध हो सकती है।

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प्रश्न (ख)
एल-नीनो क्या है ? व्याख्या करें।
उत्तर-
एल-नीनो गर्म जल की धारा है, जो दक्षिणी प्रशांत महासागर में पेरु-चिल्ली के तट के साथ-साथ छह से सात वर्षों के अंतराल से बहती है। हम्बोलाट की ठंडी धारा के विपरीत गर्म जल की धारा एल-नीनो बहती है, इसलिए मानसून की वर्षा कम हो जाती है।

प्रश्न (ग)
तिब्बत के पठार का मानसून पवनों संबंधी क्या योगदान है ?
उत्तर-
तिब्बत का पठार एक विशाल पठार है, जिसका क्षेत्रफल 2000-600000 वर्ग किलोमीटर है। यह पवनों के लिए प्राकृतिक रोक लगाता है और यहाँ गर्मियों के मौसम में तापमान बहुत अधिक हो जाता है, इसलिए पश्चिमी जेट धारा तिब्बत के उत्तर की ओर खिसक जाती है।

प्रश्न (घ)
‘आमों की बौछार’ स्पष्ट करें।
उत्तर-
जून के महीने में मानसून पवनें केरल के तट से शुरू होती हैं। इन्हें मानसून का फटना कहते हैं। यह वर्षा केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में आमों की उपज के लिए बहुत लाभदायक होती है। इसलिए इसे ‘आम्रवृष्टि’ (Mango Showers) भी कहा जाता है।

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प्रश्न (ङ)
पवन-पेटियों के फिसलने की क्रिया स्पष्ट करें।
उत्तर-
धरती की परिक्रमा के कारण, धरती के ऊपर सूर्य की स्थिति सारा साल लगातार बदलती रहती है। सूर्य की किरणें कभी भूमध्य रेखा पर, कभी कर्क रेखा पर और कभी मकर रेखा पर लंब रूप में पड़ती हैं। जब सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंब रूप में पड़ती हैं, तो पवन-पेटियाँ उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। इसके विपरीत जब सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लंब रूप में पड़ती हैं, तो पवन-पेटियाँ दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

प्रश्न (च)
कोरिओलिस (Coriolis) प्रभाव क्या है ? पृथ्वी पर इसका क्या प्रभाव है ? संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
कोरिओलिस प्रभाव (Coriolis effect)-धरातल पर पवनें कभी भी उत्तर से दक्षिण की ओर सीधी नहीं बहतीं। सभी पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाएँ ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाएँ ओर मुड़ जाती हैं। इसे फैरल का नियम कहते हैं। (“All moving bodies are deflected to the right in the Northern Hemisphere and to the left in the Southern Hemisphere.”)

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें 1

हवा की दिशा में परिवर्तन का कारण धरती की दैनिक गति है। जब हवाएँ कम चाल वाले भागों से अधिक चाल वाले भागों की ओर आती हैं, तो पीछे रह जाती हैं। जैसे-उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवनें अपने दाएँ ओर मुड़ जाती हैं तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बाएँ ओर मुड़ जाती हैं। इसे कोरिओलिस प्रभाव कहते हैं।

प्रश्न (छ)
शृंकां से क्या भाव है ? इस पर एक स्पष्ट नोट लिखें।
उत्तर-
उत्तरी अमेरिका में बसंत ऋतु में पर्वतों के नीचे उत्तर के मैदानों की ओर बहती गर्म शुष्क पवनों को चिनूक पवनें कहते हैं। कनाडा में पंजाबी में इसे ‘शंकां’ भी कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें

4. प्रश्नों के उत्तर 150 से 250 शब्दों में लिखो-

प्रश्न (क)
स्थानीय पवनों के तापमान के आधार पर विभाजन और व्याख्या करें।
उत्तर-
स्थानीय पवनें (Local winds)-कुछ पवनें भू-तल के किसी छोटे-से सीमित भाग में चलती हैं, जिन्हें स्थानीय पवनें कहते हैं।

1. थल और जल समीर (Land and Sea Breezes)–थल पर स्थायी पवनों का एक सिलसिला है, पर जल और थल के तापमान की भिन्नता के कारण कुछ स्थानीय पवनें पैदा होती हैं। जल समीर और थल समीर अस्थायी पवनें हैं, जो समुद्र तल के निकट के क्षेत्रों में महसूस की जाती हैं। ये जल और थल की बहुत कम गर्मी के कारण पैदा होती हैं, इसलिए इन्हें छोटे पैमाने की मानसून पवनें (Monsoon on a Small Scale) भी कहते हैं।

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(i) जल समीर (Sea Breeze)—ये वे पवनें हैं, जो दिन के समय समुद्र से थल की ओर चलती हैं। उत्पत्ति का कारण (Origin)—दिन के समय सूर्य की तीखी गर्मी के कारण थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी गर्म हो जाता है। थल पर हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और वायु दबाव कम हो जाता है, परंतु समुद्र पर थल की तुलना में अधिक वायु दबाव रहता है। इस प्रकार थल पर कम दबाव का स्थान लेने के लिए समुद्र की ओर से ठंडी हवाएं चलती हैं। थल की गर्म हवा ऊपर उठकर समुद्र की ओर चली जाती है। इस प्रकार हवा के बहने का एक चक्र बन जाता है।

प्रभाव (Effects)-

  • जल समीर ठंडी और सुहावनी (Cool and fresh) होती है।
  • यह गर्मियों में तटीय क्षेत्रों में तापमान को कम करती है, परंतु सर्दियों में तटीय तापमान को ऊँचा करती है। इस प्रकार मौसम सुहावना और समान हो जाता है।
  • इसके प्रभाव समुद्र तट से 20 मील की दूरी तक सीमित रहते हैं।

(ii) थल समीर (Land Breeze)-ये वे पवनें हैं, जो रात के समय थल से समुद्र की ओर चलती हैं।
उत्पत्ति के कारण (Origin)—रात के समय स्थिति दिन से विपरीत होती है। थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी ठंडे हो जाते हैं। समुद्र पर वायु दबाव कम हो जाता है, परंतु थल पर वायु दबाव अधिक होता है। इस प्रकार थल की ओर से समुद्र की ओर पवनें चलती हैं। समुद्र की गर्म हवा ऊपर उठकर थल पर उतरती है, जिससे हवा चलने का चक्र बन जाता है।

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प्रभाव (Effects)–

  • इसका थल भागों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  • इन पवनों का फायदा उठाकर मछुआरे प्रातः थल समीर (Land Breeze) की सहायता से समुद्र की ओर बढ़ जाते हैं और शाम को जल समीर (Sea Breeze) के साथ-साथ तट की ओर वापस आ जाते हैं।
  • इसका प्रभाव तभी अनुभव होता है, जबकि आकाश साफ हो, दैनिक तापमान अधिक हो और तेज़ पवनें न बहती हों।

2. पर्वतीय और घाटी की पवनें (Mountain and Valley Winds)—यह आमतौर पर दैनिक पवनें होती हैं, जो दैनिक तापांतर के फलस्वरूप वायु-दबाव की भिन्नता के कारण चलती हैं।

(i) पर्वतीय पवनें (Mountain Winds)—पर्वतीय प्रदेशों में रात के समय पर्वत के शिखर से घाटी की ओर ठंडी और भारी हवाएँ चलती हैं, जिन्हें पर्वतीय पवनें (Mountain winds) कहा जाता है।।

उत्पत्ति (Origin)-रात के समय तेज विकिरण (Rapid Radiation) के कारण हवा ठंडी और भारी हो जाती है। यह हवा गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity) के कारण ढलानों से होकर नीचे उतरती है। इसे वायु प्रवाह (Air Drainage) भी कहते हैं।

प्रभाव (Effects)-इन पवनों के कारण घाटियाँ (Valleys) ठंडी हवा से भर जाती हैं, जिससे घाटी के निचले भागों पर पाला पड़ता है, इसीलिए कैलीफोर्निया (California) में फलों के बाग और ब्राजील में कॉफी (कहवा) के बाग ढलानों पर लगाए जाते हैं।

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(ii) घाटी की पवनें (Valley Winds)-दिन के समय घाटी की गर्म हवा ढलान के ऊपर से होकर चोटी की ओर ऊपर चढ़ती है। इसे घाटी की पवनें कहा जाता है।

उत्पत्ति (Origin)-दिन के समय पर्वत के शिखर पर तेज़ गर्मी और विकिरण के कारण हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और कम वायु दबाव हो जाता है। उसका स्थान लेने के लिए घाटी से हवाएँ ऊपर चढ़ती हैं। जैसे-जैसे ये पवनें ऊपर चढ़ती हैं, वे ठंडी होती जाती हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • ऊपर चढ़ने के कारण ये पवनें ठंडी होकर भारी वर्षा करती हैं।
  • ये ठंडी पवनें गहरी घाटियों में गर्मी की तेज़ी को कम करती हैं।

3. चिनक और फौहन पवनें (Chinook and Foehn Winds)-

(i) चिनूक पवनें (Chinnok Winds)-अमेरिका में रॉकी (Rocky) पर्वतों को पार करके प्रेरीज़ के मैदान में चलने वाली पवनों को चिनूक (Chinook) पवनें कहते हैं। चिनूक का अर्थ है-बर्फ खाने वाला। चूँकि ये पवनें अधिक तापमान के कारण बर्फ को पिघला देती हैं और कई बार 24 घंटों के समय में 50° F (10° C) तापमान बढ़ जाता है।

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(ii) फोहन पवनें (Foehn Winds)-यूरोप में अल्पस पर्वतों को पार करके स्विट्ज़रलैंड में उतरने वाली पवनों को फोहन (Foehn) पवनें कहते हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • ये पवनें तापमान बढ़ा देती हैं और बर्फ पिघल जाती है, जिससे फसलों को पकने में सहायता मिलती है।
  • ये पवनों की कठोरता को कम करती हैं।
  • बर्फ के पिघल जाने से पहाड़ी चरागाह वर्ष-भर खुले रहते हैं और पशु-पालन में आसानी रहती है।

4. बोरा और मिस्ट्रल (Bora and Mistral)—ये दोनों एक ही प्रकार की शीतल और शुष्क पवनें हैं, जिन्हें यूगोस्लाविया के एडरिआटिक सागर (Adriatic Sea) और इटली के तट पर बोरा तथा फ्रांस की रोम घाटी (Rome Valley) में मिस्ट्रल कहते हैं। शीतकाल में मध्य यूरोप अत्यंत ठंड के कारण उच्च वायु दाब के अंतर्गत होता है। इसकी तुलना में भूमध्य सागर में निम्न वायु दाब होता है। परिणामस्वरूप मध्य यूरोप में भूमध्य सागर की ओर से ठंडी और शुष्क पवनें चलने लगती हैं। आम तौर पर ये शक्तिशाली पवनें होती हैं, जिनकी गति तेज़ होती है। रोहन नदी की तंग घाटी में ये पवनें बड़ा भयानक रूप धारण कर लेती हैं और कई बार इनकी तेज़ गति के कारण मकानों की छतें भी उड़ जाती हैं।

5. बवंडर (Tornado)—संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्यवर्ती मैदानों में, गर्मी की ऋतु आरंभ होने के साथ ही तेज़ अंधेरियाँ चलनी शुरू हो जाती हैं, जिन्हें ‘बवंडर’ के नाम से पुकारा जाता है। इन मैदानों में, गर्मी की ऋतु आरंभ होते ही गर्मी में तेजी से वृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। फलस्वरूप वहाँ निम्न वायु दाब उत्पन्न हो जाता है। निकटवर्ती बर्फ से ढके रॉकी पर्वतों के उच्च वायु दाब से अत्यंत ठंडी शुष्क पवनें तेज़ गति से यहाँ पहुँचती हैं और मैक्सिको की खाड़ी से आती हुई गर्म और नम पवनों के साथ संबंध स्थापित कर लेती हैं। शीतल और शुष्क तथा उष्ण और नम पवनों के मेल से प्रचंड बवंडर की उत्पत्ति होती है। ये बवंडर बहुत विनाशकारी होते हैं।

6. लू (Loo)-भारत के उत्तरी विशाल मैदानों और पाकिस्तान के सिंध और इसकी सहायक नदियों के मैदानों में मई-जून के महीनों में बहुत गर्म पवनें चलती हैं। ये अक्सर शुष्क होती हैं, जो पश्चिमी दिशा की ओर बहती हैं। इन्हें ‘लू’ कहते हैं। इनका तापमान 45°-50° सैल्सियस के बीच होता है। ये बहुत असहनीय होती हैं।

7. हर्मटन (Harmattan)—पश्चिमी अफ्रीका में सहारा मरुस्थल से शुष्क, गर्म और धूल भरी पवनें चलती हैं। पश्चिमी अफ्रीका के पश्चिमी तटों के गर्म व शुष्क वातावरण की नमी शरीर के पसीने को सुखा देती है। इस प्रकार ये पवनें स्वास्थ्य के लिए ठीक समझी जाती हैं। परिणामस्वरूप इन्हें डॉक्टर (Doctor) कह कर पुकारा जाता है।

8. सिरोको (Sirroco)—सहारा मरुस्थल से ही गर्म, शुष्क और धूल भरी पवनें भूमध्य सागर की ओर चलती हैं। इटली में इन्हें सिरोको और सहारा में ‘सिमूम’ कहा जाता है। भूमध्य सागर को पार करते समय ये नमी ग्रहण कर लेती हैं। इटली में ये मौसम को अत्यंत गर्म और चिपचिपा कर देती हैं। इस प्रकार ये दुखदायी होती हैं।

9. बलिजार्ड (Blizard) बर्फ से ढके ध्रुवीय क्षेत्रों में चलने वाली ठंडी, शुष्क और बर्फीली पवनों को बलिजार्ड कहते हैं। इनकी गति 70 से 100 किलोमीटर घंटा होती है। इनमें मुसाफिर मार्ग में भटक जाते हैं, इसे बर्फ का अंधापन (Snow blindness) कहा जाता है।

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प्रश्न (ख)
स्थायी पवनें क्या हैं ? प्रकार सहित इनकी व्याख्या करें।
उत्तर-
पवनें (Winds)-वायु हमेशा उच्च दबाव वाले क्षेत्रों से निम्न दबाव वाले क्षेत्रों की ओर चलती है। इस चलती हुई वायु को पवन (Wind) कहते हैं। वायु-दबाव में अंतर आ जाने के कारण ही भू-तल पर चलने वाली पवनें उत्पन्न होती हैं। पवनों की दिशा (Direction of the wind) वह होती है, जिस दिशा से वे आती हैं।

1. भू-मंडलीय या स्थायी पवनें (Planetary or Permanent Winds)-
धरातल पर उच्च वायु दाब और निम्न वायु दाब की अलग-अलग पेटियाँ (Belts) होती हैं। उच्च वायु दाब और निम्न वायु दाब की ओर से लगातार पवनें चलती हैं। इन्हें स्थायी पवनें कहते हैं। ये सदा एक ही दिशा की ओर चलती हैं। स्थायी पवनें तीन प्रकार की होती हैं-

  1. व्यापारिक पवनें (Trade winds)
  2. पश्चिमी पवनें (Westerlies)
  3. ध्रुवीय पवनें (Polar winds)

1. व्यापारिक पवनें (Trade Winds) विस्तार (Extent) व्यापारिक पवनें वे स्थायी पवनें हैं, जो गर्म कटिबंध (Tropics) के मध्य भूमध्य रेखा की ओर चलती हैं। ये पवनें घोड़ा अक्षांशों (Horse Latitudes) या उपोष्ण कटिबंध के उच्च दबाव (Sub Tropical High Pressure) के क्षेत्र से डोलड्रमज़ (Dol Drums) या भूमध्य रेखा की निम्न वायु दबाव वाली पेटी की ओर चलती हैं। इनका विस्तार आम तौर पर 5°-35° उत्तर और दक्षिण तक चला जाता है।

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दिशा (Direction)-ये दोनों गोलार्डों में पूर्व से आती दिखाई देती हैं, इसलिए इन्हें पूर्वी पवनें (Easterlies) भी कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्वी (North-East) और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूर्वी (South-East) होती है। नाम का कारण (Why so Called ?)—इन पवनों को व्यापारिक पवनें (Trade winds) कहने के दो कारण हैं-

1. प्राचीन काल में यूरोप और अमेरिका के बीच समुद्री जहाजों को इन पवनों से बहुत सहायता मिलती थी। ये पवनें Backing winds के रूप में जहाज़ों की गति बढ़ा देती हैं, इसलिए व्यापार में सहायक होने के कारण इन्हें व्यापारिक पवनें कहा जाता है।

2. अंग्रेज़ी के मुहावरे, To blow trade का अर्थ है-लगातार बहना। ये पवनें लगातार एक ही दिशा की ओर बहती हैं। इसलिए इन्हें Trade winds कहते हैं।

उत्पत्ति का कारण (Why caused ?) भूमध्य रेखा पर बहुत गर्मी के कारण निम्न वायु दाब पेटी मिलती है। भूमध्य रेखा से ऊपर उठने वाली गर्म और हल्की हवा 30° उत्तर और दक्षिण के पास ठंडी और भारी होकर नीचे उतरती रहती है। ध्रुवों से खिसक कर आने वाली हवा भी इन अक्षांशों में नीचे उतरती है। इन नीचे उतरती हुई पवनों के कारण मकर रेखा के निकट उच्च वायु दाब पेटी बन जाती है। इसलिए भूमध्य रेखा के निम्न वायु दाब (Low Pressure) का स्थान ग्रहण करने के लिए 30° उत्तर और दक्षिण के उच्च वायु दाब से भूमध्य रेखा की ओर व्यापारिक पवनें चलती हैं।

दिशा परिवर्तन (Change in Direction)—यदि धरती स्थिर होती तो ये पवनें उत्तर-दक्षिण दिशा में चलतीं, परंतु धरती की दैनिक गति के कारण ये पवनें इस लंबवत् दिशा से हटकर एक तरफ झुक जाती हैं और Deflect हो जाती हैं। फैरल के नियम और कोरोलिस बल के कारण, ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • गर्म प्रदेशों में चलने के कारण ये पवनें आम तौर पर शुष्क होती हैं।
  • ये पवनें महाद्वीपों के पूर्वी भागों में वर्षा करती हैं और पश्चिमी भागों तक पहुँचते-पहुँचते शुष्क हो जाती हैं। यही कारण है कि पश्चिमी भागों में 20°-30° में गर्म मरुस्थल (Hot Deserts) मिलते हैं।
  • ये पवनें उत्तरी भाग में उच्च दाब (High Pressure) के निकट होने के कारण ठंडी (Cool) और शुष्क (Dry) होती हैं, पर भूमध्य रेखा के निकट दक्षिणी भागों में गर्म (Hot) और नम (Wet) होती हैं।
  • ये पवनें समुद्रों से लगातार और धीमी चाल में चलती हैं, पर महाद्वीपों में इनकी दिशा और गति में अंतर आ जाता है।

व्यापारिक पवनों के देश (Areas)-उत्तरी गोलार्द्ध में पूर्वी अमेरिका और मैक्सिको, दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया, पूर्वी अफ्रीका और पूर्वी ब्राज़ील।

2. पश्चिमी पवनें (Westerlies) विस्तार (Extent)-ये पवनें ऐसी स्थायी पवनें हैं जो शीतोष्ण (Temperate) खंड में 30° उच्च वायु दाब से 60° के उप-ध्रुवीय निम्न वायु दाब (Sub-Polar Low Pressure) की ओर चलती हैं। इनका विस्तार आम तौर पर 30° से 65° तक पहुँच जाता है। इन पवनों की उत्तरी सीमा ध्रुवीय सीमांत (Polar Fronts) और चक्रवातों (Cyclones) के कारण सदा बदलती रहती है।

दिशा (Direction)-उत्तरी गोलार्द्ध में इन पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिमी (South-west) होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में इन पवनों की दिशा उत्तर-पश्चिमी (North-west) होती है।

नाम का कारण (Why so Called ?)दोनों गोलार्डों में ये पवनें पश्चिम से आती हुई महसूस होती हैं, इसलिए इन्हें पश्चिमी पवनें कहते हैं। इनकी दिशा व्यापारिक पवनों के विपरीत होती है, इसलिए इन्हें प्रतिकूल व्यापारिक पवनें (Anti-Trade winds) भी कहते हैं।

उत्पत्ति का कारण (Why Caused ?)-कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट नीचे उतरती पवनों (Descending winds) के कारण उच्च वायु दाब हो जाता है। भूमध्य रेखा से गर्म और हल्की हवा इन अक्षांशों में नीचे उतरती है। इसी प्रकार ध्रुवों से खिसक कर आने वाली हवा भी नीचे उतरती है, परंतु 60°C अक्षांशों के निकट Antarctic Circle पर धरती की दैनिक गति के कारण निम्न वायु दाब हो जाता है। इसलिए 30° के उच्च वायु दाब की ओर से 60° के निम्न वायु दाब की ओर पश्चिमी पवनें चलती हैं।

दिशा परिवर्तन (Change in Direction)-आम तौर पर पवनों की दिशा उत्तर-दक्षिणी होनी चाहिए, परंतु धरती की दैनिक गति के कारण यह पवनें लंबवत् दिशा से हटकर एक ओर झुक जाती हैं। फैरल के नियम (Ferral’s Law) के अनुसार और कोरोलिस बल के कारण ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं।

प्रभाव (Effects)-

  • समुद्रों की नमी से भरी होने के कारण यह पवनें अधिक वर्षा करती हैं।
  • यह पवनें पश्चिमी प्रदेशों में बहुत वर्षा करती हैं, परंतु पूर्वी भाग सूखे रह जाते हैं।
  • यह पवनें बहुत अस्थिर होती हैं। इनकी दिशा और शक्ति बदलती रहती है। चक्रवात (Cyclones) और प्रति-चक्रवात (Anti-cyclones) इनके मार्ग में अनिश्चित मौसम ले आते हैं। वर्षा, बादल, कोहरा, बर्फ और तेज़ आँधियों के कारण मौसम लगातार बदलता रहता है।
  • यह दक्षिणी गोलार्द्ध में समुद्रों पर लगातार और तेज़ चाल से चलती हैं। 40°-50° दक्षिण के अक्षांशों में इन्हें गर्जते चालीस (Roaring Forty) कहा जाता है। 50°-60° दक्षिण में इन्हें क्रमशः गुस्सैल पचास (Furious Fifties) और कूकते (चीखते) साठ (Shrieking Sixty) कहते हैं। इन प्रदेशों में ये इतनी तेज़ी से चलती हैं कि दक्षिणी अमेरिका के Cape-Horn पर समुद्री आवाजाही रुक जाती है।
  • व्यापारिक पवनों की तुलना में इनका प्रवाह-क्षेत्र बड़ा होता है।

पश्चिमी पवनों के क्षेत्र (Areas)-इन पवनों के कारण पश्चिमी यूरोप के सभी देशों में आदर्श जलवायु (Ideal Climate) होती है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी अमेरिका, पश्चिमी कनाडा, दक्षिणी-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड तथा दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका के प्रदेश इन पवनों के प्रभाव में आ जाते हैं।

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प्रश्न (ग)
निम्नलिखित पर नोट लिखें-
(i) कोरियोलिस प्रभाव
(ii) ऐलनीनो प्रभाव।
उत्तर-
(i) कोरियोलिस प्रभाव (Coriolis Effect)
पवनों की दिशा पर पृथ्वी के घूमने का प्रभाव (Effect of Earth’s Rotation on Wind’s Direction)पवनें उच्च दाब से निम्न दाब की दिशा की ओर चलती हैं। आम तौर पर ये सीधी चलती हैं, परंतु पृथ्वी की दैनिक गति ऐसा नहीं होने देती। इस गति के कारण पवनों की दिशा में विचलन (Deflection) हो जाता है। इस मोड़ने वाली या विचलन वाली शक्ति को विचलन शक्ति (Deflection Force) कहते हैं। इस बल की खोज एक फ्रांसीसी गणित शास्त्री कोरियोलिस (G.G. de Coriolis, 1792-1843) ने की थी। उसके नाम पर ही इस बल को कोरियोलिस बल या प्रभाव (Coriolis Force or Effect) का नाम दिया गया है।

इस प्रभाव के फलस्वरूप भू-तल पर चलने वाली सारी पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दाएँ हाथ और दक्षिणी गोलार्द्ध में अपने बाएँ हाथ मुड़ जाती हैं। इस प्रकार इस तथ्य की पुष्टि एक अन्य वैज्ञानिक फैरल (Ferral) ने एक प्रयोग द्वारा की थी। इसे फैरल का नियम (Ferral’s Law) भी कहते हैं।

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(ii) ऐलनीनो प्रभाव (Al-Nino Effect)-
ऐलनीनो गर्म पानी की एक धारा है, जो दक्षिणी महासागर में पेरु तथा चिली के तट के साथ-साथ बहती है। यह 6-7 वर्षों बाद चलती है। इस तट के साथ हंबोलट की ठंडी धारा बहती है, पर ऐलनीनो में स्थिति विपरीत हो जाती है और गर्म पानी की धारा बहती है। इसी कारण पेरु आदि देशों में भारी वर्षा होती है, पर मानसूनी वर्षा कम हो जाती है। भारत आदि देशों में सूखे के हालात बन जाते हैं।

प्रश्न (घ)
मानसून की उत्पत्ति संबंधी भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का वर्णन करें।
उत्तर-
मानसून पवनें (Monsoon Winds)-परिभाषा (Definition)-मानसून वास्तव में अरबी भाषा के शब्द ‘मौसम’ से बना है। सबसे पहले इनका प्रयोग अरब सागर पर चलने वाली हवाओं के लिए किया गया था। मानसून पवनें वे मौसमी पवनें हैं, जिनकी दिशा मौसम के अनुसार बिल्कुल विपरीत होती है। ये पवनें गर्मी की ऋतु में छह महीने समुद्र से थल की ओर तथा सर्दी की ऋतु में छह महीने थल से समुद्र की ओर चलती हैं।

कारण (Causes)-मानसून पवनें वास्तव में एक बड़े पैमाने पर थल समीर (Land Breeze) और जल समीर (Sea Breeze) हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण जल और थल के गर्म और ठंडा होने में भिन्नता (Difference in the cooling and Heating of land and water) है। जल और थल असमान रूप से गर्म और ठंडे होते हैं। इस प्रकार मौसम के अनुसार वायु दाब में भी अंतर हो जाता है, जिनसे हवाओं की दिशा विपरीत हो जाती है।

थल भाग समुद्र की अपेक्षा जल्दी गर्म और जल्दी ठंडा हो जाता है। दिन के समय समुद्र के निकट थल पर निम्न दाब (Low Pressure) और समुद्र पर उच्च दाब (High Pressure) होता है। परिणामस्वरूप समुद्र से थल की ओर जल समीर (Sea Breeze) चलती है, पर रात को दिशा विपरीत हो जाती है और थल से समुद्र की ओर थल समीर (Land Breeze) चलती है। इस प्रकार हर दिन वायु की दिशा बदलती रहती है परंतु मानसून पवनों की दिशा मौसम के अनुसार बदलती है। ये पवनें तट के निकट के प्रदेशों में ही नहीं, बल्कि एक पूरे महाद्वीप में चलती हैं। इसलिए मानसून पवनों को थल समीर (Land Breeze) और जल समीर (Sea Breeze) का एक बड़े पैमाने पर दूसरा रूप कह सकते हैं।

मानसून की उत्पत्ति के लिए जरूरी दशाएँ (Necessary Conditions)—मानसून पवनों की उत्पत्ति के लिए इन दशाओं की आवश्यकता होती है-

  • एक विशाल महाद्वीप का होना।
  • एक विशाल महासागर का होना।
  • थल और जल भागों के तापमान में काफी अंतर का होना।
  • एक लंबी तट रेखा का होना।

मानसूनी प्रदेश (Areas)-ये मानसून पवनें सदा उष्ण-कटिबंध में चलती हैं, परंतु एशिया में ये पवनें 60° उत्तरी अक्षांश तक चलती हैं। इसलिए मानसून खंड दो भागों में विभाजित होते हैं। हिमालय पर्वत इन्हें अलग करता है।

(i) पूर्वी एशियाई मानसून (East-Asia Monsoon)-हिंद-चीन (Indo-China), चीन और जापान क्षेत्र।
(ii) भारतीय मानसून (Indian Monsoon)-भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, बर्मा क्षेत्र।

गर्मी ऋतु की मानसून पवनें (Summer Monsoons)—मानसून पवनों के उत्पन्न होने और इनके प्रभाव के बारे में स्पष्ट करने के लिए एक ही वाक्य कहा जा सकता है-(“The chain of events is from temperature through pressure and winds to rainfall.”)

अथवा

Temp. → Pressure → Winds → Rainfall.
इन मानसून पवनों की तीन विशेषताएँ हैं-

(i) मौसम के साथ दिशा परिवर्तन।
(ii) मौसम के साथ वायु दाब केंद्रों का विपरीत हो जाना।
(iii) गर्मी ऋतु में वर्षा।

तापमान की भिन्नता के कारण वायु भार में अंतर पड़ता है और अधिक वायु भार से कम वायु भार की ओर ही पवनें चलती हैं। समुद्र से आने वाली पवनें वर्षा करती हैं। गर्मी की ऋतु में सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर सीधी पड़ती हैं, इसलिए भारत, चीन और मध्य एशिया के मैदान गर्म हो जाते हैं। इन थल भागों में कम वायु दाब केंद्र (Low Pressure Centres) स्थापित हो जाते हैं और हिंद महासागर तथा शांत महासागर से भारत और चीन की तरफ समुद्र से थल की ओर पवनें (Sea to Land Winds) चलती हैं। भारत में इन्हें दक्षिण-पश्चिमी गर्मी की ऋतु का मानसून (South-west Summer Monsoon) कहते हैं। चीन में इनकी दिशा दक्षिण-पूर्वी होती है। भारत में ये पवनें भारी वर्षा करती हैं, जिसे मानसून का फटना (Burst of Monsoon) भी कहते हैं। भारत में यह वर्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय कृषि इसी वर्षा पर निर्भर करती है। इसीलिए “भारतीय बजट को मानसून का जुआ” (“Indian Budget is a gamble of Monsoon.”) कहा जाता है।

सर्दी की मानसून पवनें (Winter Monsoon)-सर्दी की ऋतु में मानसून पवनों की उत्पत्ति थल भागों पर होती है। सूर्य की किरणें मकर रेखा पर सीधी चमकती हैं, इसलिए उत्तरी गोलार्द्ध के थल भाग आस-पास के सागरों की तुलना. में ठंडे हो जाते हैं। मध्य एशिया में गोबी मरुस्थल (Gobi Desert) और भारत में राजस्थान प्रदेश में उच्च वायु दाब हो जाता है, इसीलिए इन भागों से समुद्र की ओर पवनें (Land to sea winds) चलती हैं। ये पवनें शुष्क और ठंडी होती हैं। भारत में इन्हें उत्तर-पूर्वी सर्दी ऋतु का मानसून (North-East winter Monsoon) कहते हैं। ये पवनें खाड़ी बंगाल को पार करने के बाद तमिलनाडु प्रदेश में वर्षा करती हैं। भू-मध्य रेखा पार करने के बाद ऑस्ट्रेलिया के तटीय भागों में भी इन पवनों से ही वर्षा होती है।

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मानसून पवनों की उत्पत्ति (Origin of Monsoons)-मानसून पवनों की उत्पत्ति के बारे में नीचे लिखी विचारधाराएँ प्रचलित हैं

1. तापीय विचारधारा (Thermal Concept)-इनकी उत्पत्ति का कारण जल और थल के गर्म और ठंडा होने में भिन्नता (Difference in the cooling and Heating of Land and Water) है। जल और थल असमान रूस से गर्म और ठंडे होते हैं। इस प्रकार मौसम के अनुसार वायु दाब में भी अंतर हो जाता है जिससे हवाओं की दिशा विपरीत हो जाती है। गर्मी की ऋतु में ये पवनें समुद्र से थल की ओर चलती हैं और शीत ऋतु में ये पवनें थल से समुद्र की ओर चलती हैं।

2. स्पेट की विचारधारा (Spate’s Concept) स्पेट नाम के विद्वान् के अनुसार मानसून पवनें चक्रवातों और प्रति-चक्रवातों के कारण पैदा होती हैं। इनके मिलने के कारण सीमांत बनते हैं, जिसमें चक्रवातीय हवा को मानसून कहते हैं।

3. फ्लॉन की विचारधारा (Flohn’s Concept)—मानसून पवनों की उत्पत्ति के बारे में सिद्धांतों में कमियों को देखते हुए फ्लॉन (Flohn) नामक विद्वान् ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया। इसके अनुसार व्यापारिक पवनों और भूमध्य रेखीय निम्न वायु दाब क्षेत्र के आपसी मिलन स्थल (Inter-tropical convergence Zone-ITCZ) से पैदा हुए चक्रवातों के कारण मानसून पवनों की उत्पत्ति होती है और भारी वर्षा होती है, जिसे मानसून का फटना (Burst of Monsoon) कहते हैं। फ्लॉन के शब्दों में मानसून पवनें भू-मंडलीय पवन-तंत्र का ही रूपांतर हैं। (“The tropical Monsoon is simply a modification of Planetary wind system”.)

4. जेट प्रवाह विचारधारा (Jet Stream Theory)-वायुमंडल में ऊपरी सतहों में तेज़ गति से चलने वाली हवा को जेट प्रवाह कहते हैं। इस प्रवाह की गति 500 कि०मी० प्रति घंटा होती है। यह एक विशाल क्षेत्र को घेरे हुए 20°N-40°N के मध्य मिलती है। हिमालय पर्वत की रुकावट के कारण इसकी दो शाखाएँ हो जाती हैं-उत्तरी जेट प्रवाह और दक्षिणी जेट प्रवाह। दक्षिणी जेट प्रवाह भारत की जलवायु पर प्रभाव डालता है।
इस जेट प्रवाह के कारण दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पवनें भारत की ओर चलती हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें

प्रश्न (ङ)
चक्रवात क्या होते हैं ? उष्ण विभाजीय (कटिबंधीय) और शीतोष्ण विभाजीय (कटिबंधीय) चक्रवातों का वर्णन करें।
उत्तर-
चक्रवात निम्न वायुदाब का क्षेत्र होता है। चक्रवात में पवनें उत्तरी गोलार्द्ध (Northern Hemisphere) में घड़ी की दिशा के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध (Southern Hemisphere) में घड़ी की दिशा के साथ चलती हैं। इस प्रकार पवनों के उच्च वायु दाब से निम्न वायु दाब की ओर सुइयों के प्रतिकूल और अनुकूल चलने के कारण पवनों का एक चक्र उत्पन्न हो जाता है, जिसे चक्रवात कहते हैं। चक्रवात को उनकी स्थिति के अनुसार दो भागों में बांटा जाता है-

(1) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones)
(2) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)

1. शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones) – ये चक्रवात शीतोष्ण कटिबंध में मुख्य रूप से 30° से 60° अक्षांशों के मध्य पश्चिमी पवनों की पेटी में उत्पन्न होते हैं, जो आकृति में प्रायः वृत्त-आकार या अंडाकार होते हैं। इन्हें वायुगर्त (Depression) या निम्न (Low) या ट्रफ (Trough) भी कहते हैं।

1. आकृति और विस्तार (Shape and Size)-ये चक्रवात प्राय: वृत्त-आकार या अंडाकार होते हैं। इनका व्यास 1000 से 2000 किलोमीटर तक होता है। कभी-कभी इनका व्यास 3000 किलोमीटर से भी बढ़ जाता है। इनकी दाब-ढलान (Pressure Gradient) कम होती है।

2. उत्पत्ति (Formation)-शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति उष्ण और शीतल वायु-पिंडों (Air Masses) के मिलने से होती है। गर्म प्रदेशों से आने वाली गर्म पश्चिमी पवनें जब ध्रुवों से आने वाली पवनों से शीतोष्ण कटिबंध में मिलती हैं, तो शीतल पवनें गर्म पवनों को चारों ओर से घेर लेती हैं, जिसके फलस्वरूप केंद्र में गर्म पवनों से निम्न वायु दाब और बाहर गर्म पवनों से उच्च दाब बन जाता है। इस प्रकार चक्रवातों की उत्पत्ति होती है। इसे ध्रुवीय सीमांत सिद्धांत (Polar Front Theory) भी कहते हैं।
चक्रवातों के जीवन के इतिहास में अवस्थाओं का एक क्रम देखा जा सकता है-

1. पहली अवस्था-इस अवस्था के अनुसार दो वायु-राशियाँ एक-दूसरे के निकट आती हैं और सीमांत (Front) की रचना होती है। ध्रुवों की वायु-राशि और भूमध्य रेखा से आने वाली गर्म वायु विपरीत दिशाओं से आती है।

2. दूसरी अवस्था-इस अवस्था में उष्ण वायु-राशि में एक उभार उत्पन्न हो जाता है और फ्रंट एक तरंग का
रूप धारण कर लेता है। फ्रंट (Front) के दो भाग हो जाते हैं-उष्ण फ्रंट और शीत फ्रंट। गर्म वायु-राशि उष्ण फ्रंट (Warm Front) के निकट शीत वायु से टकराती है।

3. तीसरी अवस्था-इस अवस्था में शीत फ्रंट तेज़ी से आगे बढ़ता है। तरंगों की ऊँचाई और वेग में वृद्धि होती है। गर्म वायु-राशि का भाग छोटा हो जाता है।

4. चौथी अवस्था-इस अवस्था में तरंगों की ऊँचाई अधिकतम होती है। दोनों वायु राशियों में धाराएँ चक्राकार गति प्राप्त कर लेती हैं और चक्रवात का विकास होता है।

5. पाँचवी अवस्था-इस अवस्था में शीत फ्रंट उष्ण फ्रंट को पकड़ लेता है। शीतल वायु उष्ण वायु को धरातल पर दबा देती है।

6. अंतिम अवस्था-इस अवस्था में उष्ण वायु अपने स्रोत से हटकर ऊपर उठ जाती है। धरातल पर शीतल वायु की एक भँवर (Whirl) चक्रवात का निर्माण होता है।

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3. प्रवाह की दिशा (Direction of Movement)-चक्रवात सदा प्रवाहित होते रहते हैं। प्रायः ये प्रचलित पवनों द्वारा प्रवाहित होते हैं। पश्चिमी पवनों के कटिबंध में ये पूर्व दिशा की ओर चलते हैं। इनका क्षेत्र उत्तरी प्रशांत महासागर, उत्तरी संयुक्त राज्य अमेरिका और दक्षिणी कनाडा, उत्तरी अंधमहासागर और उत्तर-पश्चिमी यूरोप है।

4. वेग (Velocity)-इन चक्रवातों का वेग (गति) ऋतु और स्थिति पर निर्भर करता है। गर्म ऋतु की तुलना में शीतकाल में इनका वेग तीव्र होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में ये गर्मी की ऋतु में 60 कि०मी० प्रति घंटा और सर्दियों की ऋतु में 48 कि०मी० प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ते हैं।

5. मौसम की स्थिति (Weather Conditions)—इनमें तापमान ऋतु परिवर्तन के साथ बदलता रहता है। शीतकाल में इसका अगला भाग कुछ उष्ण रहता है और पिछला भाग शीतल। गर्मी की ऋतु में पिछला भाग शीतकाल की तुलना में निम्न रहता है। आम तौर पर चक्रवात का अगला भाग पूरा वर्ष लगभग उष्ण-नम (Muggy) होता है। इन चक्रवातों के आने पर आकाश पर खंभ-आकारी बादल छा जाते हैं। सूर्य और चंद्रमा के आस-पास एक प्रकाश-वृत्त (Halo) बन जाता है। फिर धीरे-धीरे फुहार शुरू हो जाती है, जो जल्दी ही तेज़ वर्षा का रूप धारण कर लेती है। परंतु शीघ्र ही आकाश साफ और सुहावना हो जाता है। यह इस बात का प्रतीक है कि चक्रवात का केंद्र पहुँच गया है। जब यह केंद्र आगे बढ़ जाता है, तो मौसम फिर ठंडा हो जाता है। ठंड बहुत तेजी से बढ़ने लगती है। आकाश में घने बादल छा जाते हैं और वर्षा की झड़ी लग जाती है। वर्षा के साथ ओले भी पड़ने लगते हैं। बहुत तेज़ हवाएँ चलती हैं जिसके परिणामस्वरूप तापमान और भी कम हो जाता है। बादल गर्जते हैं और बिजली चमकती है। चक्रवात के शीत पिंड पर पहुँचने पर वर्षा बंद हो जाती है और इस प्रकार चक्रवात का अंत हो जाता है और आकाश साफ हो जाता है।

2. उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)-

उष्ण कटिबंध 2372° उत्तर से 2372° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उत्पन्न होने वाले चक्रवातों को उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं। ये चक्रवात अपनी आकृति, वेग और मौसमी स्थिति संबंधी विशेषताओं में अलग हैं।

1. आकृति और विस्तार (Shape and size)-ये चक्रवात प्रायः वृत्ताकार और शीतोष्ण चक्रवातों की तुलना में छोटे व्यास के होते हैं। इनका व्यास 80 से 3000 कि०मी० तक होता है; पर कभी-कभी ये 50 कि०मी० से भी कम व्यास के होते हैं।

2. उत्पत्ति (Formation)-इनकी उत्पत्ति गर्मी के कारण उत्पन्न संवहन धाराओं (Convection Currents) के द्वारा होती है। मुख्य रूप में चक्रवात भूमध्य रेखीय निम्न वायु दाब पेटी में उत्पन्न संवहन धाराओं का प्रतिफल है, विशेष रूप से जब यह पेटी सूर्य के साथ उत्तर की ओर खिसक जाती है। इसकी उत्पत्ति गर्मी की ऋतु के अंतिम भाग में होती है।

3. प्रवाह की दिशा (Direction of Movement)-इन चक्रवातों का मार्ग विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होता है। प्राय: यह व्यापारिक पवनों के साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में प्रवाह करते हैं। जब ये महासागर से स्थल में प्रवेश करते हैं, तो उनकी शक्ति कम हो जाती है और वे जल्दी ही समाप्त हो जाते हैं।

4. वेग (Velocity)–इन चक्रवातों के वेग में भिन्नता पाई जाती है। प्रायः ये 32 कि०मी० प्रति घंटा के वेग से चलते हैं, परंतु इनमें से कुछ अधिक शक्तिशाली, जैसे-हरीकेन (Harricane) और टाईफून (Typhoon) 120 कि०मी० प्रति घंटा से भी अधिक गति से चलते हैं। सागरों में इनकी गति तेज़ हो जाती है, परंतु स्थल पर विभिन्न भू-आकृतियों द्वारा रुकावट होने पर ये कमज़ोर पड़ जाते हैं। ये सदा गतिशील नहीं रहते। कभी-कभी ये एक स्थान पर ही कई दिन तक रुककर भारी वर्षा करते हैं।

5. मौसमी स्थिति (Weather Conditions)-उष्ण कटिबंधीय चक्रवात के केंद्र को ‘चक्रवात की आँख’ (Eye of the Cyclone) कहा जाता है। इस क्षेत्र में आकाश साफ होता है। केंद्र में पवनें गर्म होकर ऊपर उठती हैं, जिसके परिणामस्वरूप घने बादल बन जाते हैं और तेज़ वर्षा करते हैं। चक्रवात के अगले भाग (Front) में पिछले भाग (Rear) की तुलना में गर्मी अधिक होती है। चक्रवात के दाएँ और अगले भाग में अधिक वर्षा होती है। ये अपनी प्रचंड गति वाली पवनों के कारण अत्यंत विनाशकारी होते हैं। इनमें अलगअलग पिंड (Front) न होने के कारण शीतोष्ण चक्रवातों के समान तापमान की भिन्नता नहीं होती। इन चक्रवातों के आने से पहले पतले सिरस बादल (Cirrus Clouds) की उत्पत्ति होती है। मौसम शांत और गर्म होता है। धीरे-धीरे कपासी (Cumulus) और पतली परत (Stratus) वाले बादल आ जाते हैं। जल्दी ही आकाश बादलों से ढक जाता है। अंधेरी आ जाती है और बादल गर्जते हैं। इसके बाद बड़ी-बड़ी बूंदों वाली वर्षा प्रारंभ हो जाती है। चक्रवात के पिछले भाग में ओले पड़ते हैं और कुछ समय बाद मौसम सुहावना हो जाता है।

प्रभावित प्रदेश (Affected Regions)-विश्व में इनसे प्रभावित होने वाले प्रमुख देश नीचे लिखे हैं-

  • पश्चिमी द्वीप समूह (West Indies)-इन प्रदेशों में इन चक्रवातों को हरीकेन (Hurricane) कहते हैं।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका मैक्सिको (Mexico)—यहाँ इन्हें टोरनैडो (Tornado) कहते हैं।
  • बंगाल की खाड़ी और अरब सागर-यहाँ इन्हें साइक्लोन (Cyclone) या चक्रवात कहते हैं।
  • फिलीपाइन द्वीप समूह (Philippine Island)–चीन और जापान में इन्हें टाईफून (Typhoon) कहते हैं। .
  • पश्चिमी अफ्रीका का गिनी प्रदेश–यहाँ इन चक्रवातों को टोरनैडो (Tornado) कहते हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पश्चिमी प्रदेश–यहाँ इन्हें विल्ली-विल्ली (Willy-Willy) का नाम दिया जाता है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का विनाशकारी प्रभाव-उष्ण कटिबंधीय चक्रवात निम्न दाब के केंद्र होते हैं। बाहर से तीव्र हवाएँ अंदर आती हैं। इनकी गति 200 कि०मी० प्रति घंटा होती है। ये चक्रवात महासागर के ऊपर बिना रोकटोक के चलते हैं। समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं, जिनसे समुद्री जहाजों को नुकसान होता है। समुद्री तटों के ऊपर छोटे-छोटे द्वीपों के ऊपर भयानक लहरें जान और माल का नुकसान करती हैं। हजारों लोग समुद्र में डूब जाते हैं। समुद्री यातायात ठप्प हो जाता है। सन् 1970 में बांग्लादेश में इसी प्रकार के चक्रवात आए थे, जिन्होंने जान और माल का बहुत अधिक नुकसान किया था।

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प्रश्न (च)
निम्नलिखित पर नोट लिखें(i) टोरनैडो (ii) विपरीत चक्रवात।
उत्तर-
(i) टोरनैडो या बवंडर (Tornado)-संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्यवर्ती मैदान में गर्मी की ऋतु के प्रारंभ होने के साथ तेज़ आंधियाँ चलनी आरंभ हो जाती हैं, जिन्हें बवंडर के नाम से पुकारा जाता है। इन मैदानों में गर्मी की ऋतु आरंभ होते ही गर्मी में तेजी से वृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। फलस्वरूप वहाँ निम्न वायु दाब उत्पन्न हो जाता है। निकटवर्ती बर्फ से ढके रॉकी पर्वत के उच्च वायु दाब से अत्यंत ठंडी और शुष्क पवनें तेज़ गति से यहाँ पहुँचती हैं और मैक्सिको की खाड़ी से आती हुई गर्म और नम पवनों के साथ संबंध स्थापित कर लेती हैं। शीतल और शुष्क तथा उष्ण और नम पवनों के मेल से प्रचंड बवंडर की उत्पत्ति होती है। ये बवंडर बहुत विनाशकारी होते हैं।

(ii) विपरीत चक्रवात (Anti-Cyclones)-विपरीत चक्रवात में वायु दाब की व्यवस्था चक्रवात से बिल्कुल विपरीत होती है। जब मध्य में उच्च वायु दाब और चारों ओर निम्न वायु दाब होता है, तो वायु दाब की इस स्थिति को प्रति चक्रवात कहते हैं। इसमें पवनें केंद्र से बाहर की ओर चलती हैं। फैरल के नियम के अनुसार, उत्तरी गोलार्द्ध में यह घड़ी की सुइयों के समान (Clockwise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत (Anti-Clock wise) चलती हैं। केंद्र से बाहर की ओर वायु दाब निम्न होता जाता है जिससे प्रति चक्रवात में समदाब रेखाएँ (Isobars) लगभग गोलात्मक होती हैं।

(क) आकृति और विस्तार (Shape and Size)-प्रति चक्रवात प्रायः वृत्त आकार के होते हैं, परंतु कभी-कभी दो चक्रवातों के बीच स्थित होने के कारण ये फलीदार (Wedge-Shaped) होते हैं। ये – बहुत बड़े होते हैं, जिनका व्यास 3000 कि०मी० से भी अधिक होता है। कभी-कभी तो इनका व्यास 9000 कि०मी० तक भी होता है। समूचे यूरोप और साइबेरिया जैसे विशाल भू-खंड को कभी-कभी एक ही प्रतिकूल चक्रवात घेर लेता है।

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(ख) मार्ग और वेग (Track and Velocity)-प्रतिकूल चक्रवात का अपना कोई निश्चित मार्ग नहीं होता क्योंकि ये प्रायः शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में रहते हैं और उनका मार्ग ही अपनाते हैं। कभी-कभी ये एक ही स्थान पर निरंतर कई दिनों तक रहते हैं। जब ये चलते हैं, तो इनका वेग 30 से 50 कि०मी० प्रति घंटा होता है। इनकी दिशा और मार्ग अनिश्चित होते हैं। ये अचानक प्रवाह दिशा में परिवर्तन भी कर लेते हैं।

Geography Guide for Class 11 PSEB वपवनें Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न तु (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
पूर्वी पवनें किन्हें कहते हैं ?
उत्तर-
व्यापारिक पवनों को।

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प्रश्न 2.
व्यापारिक पवनों की उत्तरी गोलार्द्ध में दिशा बताएँ।
उत्तर-
उत्तरी-पूर्वी।

प्रश्न 3.
व्यापारिक पवनों के मरुस्थल कहाँ मिलते हैं ?
उत्तर-
पश्चिमी भागों में।

प्रश्न 4.
पश्चिमी पवनों की उत्तरी गोलार्द्ध में दिशा बताएँ।
उत्तर-
दक्षिणी-पश्चिमी।।

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प्रश्न 5.
उस प्राकृतिक खंड का नाम बताएँ, जहाँ पश्चिमी पवनों के कारण सर्दियों में वर्षा होती है।
उत्तर-
भू-मध्य सागरीय खंड।

प्रश्न 6.
शीतोष्ण चक्रवात किन पवनों के साथ-साथ चलते हैं ?
उत्तर-
पश्चिमी पवनों।

प्रश्न 7.
40°- 50° दक्षिणी अक्षांशों में पश्चिमी पवनों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
गर्जता चालीस।

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प्रश्न 8.
रॉकी पर्वत से नीचे उतर कर प्रेरीज़ में चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें।

प्रश्न 9.
अल्पस पर्वत से नीच उतर कर चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
फोहन पवनें।

प्रश्न 10.
दिन के समय तटीय क्षेत्रों में चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
जल-समीर।

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प्रश्न 11.
रात के समय तटीय क्षेत्रों में चलने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
थल-समीर।

प्रश्न 12.
दिन के समय पहाड़ी ढलानों के ऊपर उठने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
घाटी पवनें।

प्रश्न 13.
रात के समय घाटी ढलानों से नीचे उतरने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
पर्वतीय पवनें।

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प्रश्न 14.
आरोही पवनों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
घाटी पवनें।

प्रश्न 15.
अवरोही पवनों को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
पर्वतीय पवनें।

प्रश्न 16.
बर्फ को खाने वाली पवनों का नाम बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें।

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बहुविकल्पीय प्रश्न

नोट-सही उत्तर चुनकर लिखें-

प्रश्न 1.
उत्तरी गोलार्द्ध में व्यापारिक पवनों की दिशा है
(क) उत्तर-पूर्वी
(ख) दक्षिण-पूर्वी
(ग) पश्चिमी
(घ) दक्षिणी।
उत्तर-
उत्तर-पूर्वी।

प्रश्न 2.
वायु दाब मापने की इकाई है-
(क) बार
(ख) मिलीबार
(ग) कैलोरी
(घ) मीटर।
उत्तर-
मिलीबार।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
नक्षत्रीय पवनों या स्थायी पवनों से क्या अभिप्राय है ? इनके उदाहरण बताएँ।
उत्तर-
भू-तल पर सदा एक ही दिशा में लगातार चलने वाली पवनों को स्थायी या नक्षत्रीय पवनें कहते हैं, जैसेव्यापारिक पवनें, पश्चिमी पवनें और ध्रुवीय पवनें।

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प्रश्न 2.
व्यापारिक पवनों की दिशा बताएँ।
उत्तर-
उत्तरीय गोलार्द्ध में व्यापारिक पवनें उत्तर-पूर्व दिशा में और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व दिशा में चलती हैं।

प्रश्न 3.
पश्चिमी पवनों की दिशा बताएँ।
उत्तर-
पश्चिमी पवनें उत्तरी-गोलार्द्ध में दक्षिण-पश्चिम दिशा में और दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम दिशा में चलती हैं।

प्रश्न 4.
व्यापारिक पवनों के क्षेत्र में पश्चिमी भागों में मरुस्थल क्यों मिलते हैं ?
उत्तर-
व्यापारिक पवनें पूर्वी भागों में वर्षा करती हैं और पश्चिमी भाग शुष्क रह जाते हैं। यहाँ सहारा, थार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, कालाहारी, ऐटेकामा मरुस्थल मिलते हैं।

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प्रश्न 5.
दक्षिणी गोलार्द्ध में पश्चिमी पवनों के कोई चार उपनाम बताएँ।
उत्तर-
दक्षिणी गोलार्द्ध में थल की कमी के कारण पश्चिमी पवनों के मार्ग में कोई रुकावट नहीं होती। तेज़ गति से चलने के कारण इन्हें वीर पश्चिमी पवनें (Brave Westerlies) कहते हैं। 40°-50° अक्षाशों में गर्जता चालीस (Roaring forties), 50°-60° अक्षाशों में गुस्सैल पचास (Ferocious fifties) और 60° से आगे इन्हें कूकते या चीखते साठ (Shrieking Sixties) कहते हैं।

प्रश्न 6.
तटवर्ती भागों में चलने वाली दो स्थानीय पवनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
थल समीर और जल समीर।

प्रश्न 7.
पर्वतीय भागों की दो स्थानीय पवनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
पर्वतीय समीर और घाटी समीर।

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प्रश्न 8.
पर्वतीय ढलानों से नीचे उतरती दो स्थानीय पवनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें (उत्तरी अमेरिका) और फोहन पवनें (अल्पस पर्वत)।

प्रश्न 9.
थल समीर और जल समीर में क्या अंतर है ?
उत्तर-
तटवर्ती भागों में दिन के समय समुद्र से थल की ओर जल समीर चलती है, परंतु रात के समय थल से समुद्र की ओर थल समीर चलती है।

प्रश्न 10.
चिनूक पवनों और फोहन पवनों के बारे में बताएँ।
उत्तर-
चिनूक पवनें रॉकी पर्वतीय ढलानों से उतर कर अमेरिका और कनाडा के मैदानी भागों में चलती हैं। ये गर्म पवनें बर्फ को पिघला देती हैं। अल्पस पर्वत को पार करके फोहन पवनें स्विट्ज़रलैंड में चलती हैं।

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प्रश्न 11.
कुछ स्थानीय पवनों के नाम बताएँ, जो यूरोप और अफ्रीका की ओर चलती हैं।
उत्तर-

  1. बौरा पवनें-इटली
  2. मिस्ट्रल-फ्रांस के तट पर
  3. लू-उत्तरी भारत
  4. हर्मटन-पश्चिमी अफ्रीका
  5. सिरोको-इटली।

प्रश्न 12.
पवन पेटियों के खिसकने का क्या कारण है ?
उत्तर-
पृथ्वी की वार्षिक गति में 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर और 22 दिसंबर को मकर रेखा पर लंब पड़ती है। परिणामस्वरूप उच्च तापमान के क्षेत्र भी अपना स्थान बदल लेते हैं, इसलिए गर्मियों में सभी पवनों की पेटियाँ कुछ उत्तर की ओर तथा सर्दी की ऋतु में दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

प्रश्न 13.
पवन-पेटियों के खिसकने का रोम सागरीय खंड पर क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर-
पवन-पेटियों के खिसकने के कारण रोम सागरीय खंड (30°-45°) में गर्मी की ऋतु में उच्च वायु दाब पेटी बन जाती है और शुष्क ऋतु होती है, परंतु सर्दी की ऋतु में यहाँ पश्चिमी पवनें चलती हैं और वर्षा करती हैं। रोम सागरीय खंड को शीतकाल की वर्षा का खंड कहते हैं।

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प्रश्न 14.
कोरियोलिस बल से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पवनें उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर चलती है, परंतु पृथ्वी की घूमने की गति के कारण उनमें विक्षेप बल पैदा होता है, जिसके कारण पवनें अपने दायीं या बायीं ओर मुड़ जाती हैं, इस बल को कोरियोलिस बल कहते हैं।

प्रश्न 15.
फैरल का सिद्धांत क्या है ?
उत्तर-
पृथ्वी के घूमने के प्रभाव के अंतर्गत भू-तल पर चलने वाली पवनें उत्तरी-गोलार्द्ध में अपने दाएँ हाथ और.. दक्षिणी गोलार्द्ध में अपने बाएँ हाथ की ओर मुड़ जाती हैं, इसे फैरल (Ferral) का सिद्धांत कहते हैं।

प्रश्न 16.
Buys Ballot का नियम क्या है ?
उत्तर-
Buys Ballot नामक वैज्ञानिक के अनुसार उत्तरी गोलार्द्ध में निम्न वायु दाब का क्षेत्र पवन प्रवाह की दिशा के दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवाह की दिशा के बायीं ओर होता है। इसे Buys Ballot का नियम कहते हैं।

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लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
भूमध्य रेखा का शांत खंड कैसे बनता है ?
उत्तर-
स्थिति (Location)-यह शांत खंड भूमध्य रेखा के दोनों तरफ 5°N और 5°S के मध्य स्थित है। इसे भूमध्य रेखा का शांत खंड (Equatorial Calms) भी कहते हैं। धरातल पर चलने वाली वायु की मौजूदगी नहीं होती या बहुत ही शांत वायु चलती है। यह शांत खंड भूमध्य रेखा के चारों ओर फैला हुआ है। इस खंड में सूर्य की किरणें पूरा वर्ष सीधी पड़ती हैं और औसत तापमान अधिक रहता है। हवा गर्म और हल्की होकर लगातार संवाहक धाराओं (Convection Currents) के रूप में ऊपर उठती रहती है और धरालत पर वायु दाब कम हो जाता है।

प्रश्न 2.
फैरल के नियम का वर्णन करें।
उत्तर-
फैरल का नियम (Ferral’s Law)-धरालत पर पवनें कभी भी उत्तर से दक्षिण की ओर सीधी नहीं चलतीं। सभी पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। इसे फैरल का नियम कहते हैं । (“All moving bodies are deflected to the right in the Northern Hemisphere and to the left in the Southern Hemisphere.”)

हवा की दिशा में परिवर्तन का कारण धरती की दैनिक गति है। जब हवाएँ धीमी चाल वाले भागों से तेज़ चाल वाले भागों की ओर आती हैं, तो पीछे रह जाती हैं, जैसे-उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें अपनी दायीं ओर मुड़ जाती हैं। पश्चिमी पवनें भी मुड़कर उत्तर-पश्चिमी दिशा में चलती हैं। इसी प्रकार दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। पश्चिमी पवनें भी मुड़कर दक्षिण-पश्चिमी दिशा में चलती हैं। इस विक्षेप शक्ति को कोरोलिस बल (Corolis Force) भी कहते हैं।

प्रश्न 3.
जल समीर और थल समीर में अंतर बताएँ।
उत्तर-
1. जल समीर (Sea Breeze)—ये वे पवनें हैं, जो दिन के समय समुद्र से थल की ओर चलती हैं। दिन के समय सूर्य की तीखी गर्मी से थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी गर्म हो जाता है। थल पर हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और निम्न वायु दाब बन जाता है, परंतु समुद्र पर थल की तुलना में अधिक वायु दाब रहता है। इस प्रकार थल पर निम्न दबाव का स्थान लेने के लिए समुद्र की ओर से ठंडी हवाएँ चलती हैं। थल की गर्म हवा ऊपर उठकर समुद्र की ओर चली जाती है, इस प्रकार हवा के बहने का एक चक्र बन जाता है। जल समीर ठंडी और सुहावनी (Cool and Fresh) होती है।

2. थल समीर (Land Breeze)-ये वे पवनें हैं, जो दिन के समय थल से समुद्र की ओर चलती हैं। रात को स्थिति दिन के विपरीत होती है। थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक और जल्दी ठंडे हो जाते हैं। समुद्र पर वायु दाब कम हो जाता है, परंतु थल पर अधिक वायु दाब होता है। इस प्रकार थल से समुद्र की ओर पवनें चलती हैं। समुद्र की गर्म हवा ऊपर उठकर थल पर उतरती है, जिससे हवा के बहने का एक चक्र बन जाता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें

प्रश्न 4.
पर्वतीय और घाटी की पवनों में अंतर बताएँ।
उत्तर-
1. पर्वतीय पवनें (Mountain Winds)-पर्वतीय प्रदेशों में रात के समय पर्वत के शिखर से घाटी की ओर ठंडी और भारी हवाएं चलती हैं, जिन्हें पर्वतीय पवनें (Mountain Winds) कहते हैं। रात के समय तेज़ विकिरण (Rapid Radiation) के कारण हवा ठंडी और भारी हो जाती है। यह हवा गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity) के कारण ढलानों से होकर नीचे उतरती है। इसे वायु प्रवाह (Air Drainage) भी कहते हैं। इन पवनों के कारण घाटियाँ (Valleys) ठंडी हवाओं से भर जाती हैं, जिसके फलस्वरूप घाटी के निचले भागों
में पाला पड़ता है।

2. घाटी की पवनें (Valley Winds)-दिन के समय घाटी की गर्म हवाएँ ढलान पर से होकर चोटी की ओर ऊपर चढ़ती हैं, इन्हें घाटी की पवनें (Valley Winds) कहते हैं। दिन के समय पर्वत के शिखर पर तेज़ गर्मी और वायु दाब पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह प्रदेश घोड़ा अक्षांशों की उच्च वायु दाब पेटी के प्रभाव में आ जाता है, जिसके कारण पवनें इस प्रदेश की ओर नहीं चलतीं। इसलिए यहाँ गर्मियों में वर्षा नहीं होती। इसके विपरीत सर्दियों में वायु दाब पेटियों के दक्षिणी दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह खंड पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है और ये पवनें इस खंड में वर्षा करती हैं। इस प्रकार भूमध्य सागरीय प्रदेश में शीतकाल में वर्षा होती है, जबकि गर्मी की ऋतु में यह शुष्क रहता है।

प्रश्न 5.
चक्रवात से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चक्रवात (Cyclones)—वायु दाब में अंतर होने के कारण वायुमंडल गतिशील होता है। जिस क्षेत्र में वायु दाब निम्न होता है, उसके निकटवर्ती चारों ओर के क्षेत्रों में उच्च वायु दाब होता है, जिसके परिणामस्वरूप उच्च वायु दाब क्षेत्र से निम्न वायु क्षेत्र की ओर पवनें चलती हैं। फैरल के नियम अनुसार पृथ्वी की दैनिक गति के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। परिणामस्वरूप इन पवनों की गति उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत (anti-clock wise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की समान (clock wise) दिशा में होती है। इस प्रकार पवनों के उच्च वायु दाब से निम्न वायु दाब की ओर सुइयों के विपरीत और अनुकूल चलने के कारण पवनों का एक चक्र उत्पन्न हो जाता है, जिसे चक्रवात कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 7 पवनें 11

प्रश्न 6.
शीतोष्ण चक्रवात की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
शीतोष्ण चक्रवात (Temperate Cyclones)-

  • ये चक्रवात पश्चिमी पवनों के क्षेत्र में 35° से 65° के अक्षांशों के बीच पश्चिमी-पूर्वी दिशा में चलते हैं।
  • शीतोष्ण चक्रवात की शक्ल गोलाकार या V आकार जैसी होती है।
  • इस प्रकार के चक्रवातों की मोटाई 9 से 11 किलोमीटर और व्यास 100 किलोमीटर चौड़ा होता है।
  • चक्रवात की अभिसारी पवनें केंद्र की वायु को ऊपर उठा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप बादलों का निर्माण और वर्षा होती है।
  • साधारण रूप में इनकी गति 50 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। गर्मी की ऋतु की तुलना में शीतकाल में इनकी गति अधिक होती है।

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प्रश्न 7.
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के प्रमुख गुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)-

  • ये चक्रवात 50 से 30° अक्षांशों के बीच व्यापारिक पवनों के साथ-साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में चलते हैं।
  • इनके केंद्र में निम्न दाब होता है और समदाब रेखाएँ गोलाकार होती हैं।
  • साधारण रूप में इनका आकार और विस्तार छोटा होता है। इनका व्यास 150 से 500 मीटर तक होता है।
  • चक्रवात के केंद्रीय भाग को ‘तूफान की आँख’ (Eye of the Storm) कहते हैं। ये प्रदेश शांत और वर्षाहीन होते हैं। ये गर्म वायु की धाराओं के रूप में ऊपर से उठने पर बनता है और इसकी ऊर्जा का स्रोत संघनन की गुप्त ऊष्मा है।
  • शीत ऋतु की तुलना में गर्मी की ऋतु में इनका अधिक विकास होता है।
  • इन चक्रवातों में हरीकेन और तूफान बहुत विनाशकारी होते हैं।
  • इन चक्रवातों द्वारा भारी वर्षा होती है।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
वायु पेटियों के खिसकने के कारण और प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
पृथ्वी की वार्षिक गति और इसका अपनी धुरी पर झुके रहने के कारण पूरा वर्ष सूर्य की किरणें एक समान नहीं पड़तीं। सूर्य की किरणें 21 जून को कर्क रेखा पर लंब पड़ती हैं, तब वायु पेटियाँ उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। 22 दिसंबर को सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लंब पड़ती हैं, तब वायु पेटियाँ दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

इस क्रिया को वायु दाब पेटियों का सरकना (Swing of the Pressure Belts) कहते हैं। पवनें वायु दाब की भिन्नता के कारण उत्पन्न होती हैं, इसलिए वायु दाब पेटियों के साथ-साथ पवन पेटियाँ भी सरक जाती हैं।

कारण (Causes)—पृथ्वी की धुरी पर तिरछा स्थित होने के कारण परिक्रमा के समय सूर्य 237°N त 237°S तक (47° क्षेत्र) में अपनी स्थिति बदलता रहता है। इस स्थिति बदलने की क्रिया के कारण उच्च तापमान की पेटियाँ भी उत्तर या दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप वायु पेटियाँ भी सरकती हैं।

21 जून की दशा (Summer Solstice)—सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंब पड़ती हैं। इस क्षेत्र के उच्च वायु दाब का स्थान निम्न वायु दाब पेटी ले लेती है। उच्च वायु दाब पेटी उत्तर की ओर सरक जाती है।

22 दिसंबर की दशा (Winter Solstice)—सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लंब पड़ती हैं। उच्च वायु दाब पेटी कुछ दक्षिण की ओर खिसक जाती है और इसका स्थान निम्न वायु दाब पेटी ले लेती है।

वायु दाब और पवनों के खिसकने से नीचे लिखे प्रभाव पड़ते हैं-

प्रभाव (Effects)-

1. गर्मी की ऋतु में मानसून पवनों की उत्पत्ति (Formation of Summer Monsoons)-गर्म संक्रांति या 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लंब पड़ती हैं, जिसके फलस्वरूप भूमध्य रेखा पर निम्न वायु दाब पेटी कर्क रेखा की ओर खिसक जाती है। घोड़ा अक्षांशों के दक्षिणी उपोष्ण उच्च वायु दाब पेटी से आने वाली पवनें भूमध्य रेखा को पार करके फैरल के नियम के अनुसार, दक्षिण-पश्चिमी हो जाती हैं, उन्हें गर्मी की ऋतु की मानसून पवनें कहते हैं। इस प्रकार मानसूनी पवनें भूमंडलीय पवन-तंत्र (Planetary Wind System) का ही रूपांतर होती हैं।

2. सर्दी की ऋतु में मानसून पवनों की उत्पत्ति (Formation of Winter Monsoons)-शीत संक्रांति या 22 दिसंबर को सूर्य की लंब किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं, जिसके फलस्वरूप भूमध्य रेखीय निम्न दाब पेटी मकर रेखा की ओर खिसक जाती है। घोड़ा अक्षांशों की उत्तरी उपोष्ण उच्च वायु दाब पेटी की पवनें भूमध्य रेखा को पार करते ही, फैरल के नियम के अनुसार दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। फलस्वरूप दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पश्चिमी हो जाती है। उत्तरी गोलार्द्ध में इन पवनों को शीत काल की मानसूनी पवनों का नाम दिया जाता है।

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3. सुडान जैसे प्राकृतिक प्रदेशों पर प्रभाव (Effect on Sudan type of Natural Region)-सुडान जैसे प्राकृतिक प्रदेश 5° से 20° अक्षांश पर महाद्वीप के मध्यवर्ती क्षेत्रों में विस्तृत हैं। शीतकाल में वायु दाब पेटियों के दक्षिण दिशा में सरकने के फलस्वरूप यह खंड घोड़ा अक्षांशों की उच्च वायु दाब पेटी के प्रभाव के अंतर्गत आ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पवनें इस प्रदेश की ओर नहीं चलतीं, इसलिए यह क्षेत्र शीतकाल की वर्षा से रहित रहता है। इसके विपरीत गर्मियों में वायु दाब पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह प्रदेश भूमध्य रेखीय निम्न वायु दाब पेटी के प्रभाव में आ जाता है, फलस्वरूप पवनें इस प्रदेश की ओर चलती हैं और वर्षा करती हैं। इस प्रकार सुडान प्रदेश में गर्मियों में वर्षा होती है।

4. रोम सागरीय प्राकृतिक प्रदेश पर प्रभाव (Effect on Mediterranean Type of Natural Region) रोम सागरीय प्राकृतिक प्रदेश 30°-45° अक्षांशों के बीच महाद्वीप के पश्चिमी भागों में विस्तृत है। गर्मियों में वायु दाब पेटियों के उत्तर दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह प्रदेश घोड़ा अक्षांशों की उच्च पेटी के प्रभाव में आ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पवनें इस प्रदेश की ओर नहीं चलतीं। इसलिए यह गर्मी की वर्षा से रहित रह जाता है। इसके विपरीत सर्दियों में वायु दाब पेटियों के दक्षिण दिशा में खिसकने के फलस्वरूप यह खंड पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है और ये पवनें इस खंड में वर्षा करती हैं। इस प्रकार रोम सागरीय प्रदेश में शीतकाल में वर्षा होती है, जबकि गर्मी की ऋतु शुष्क रहती है।

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प्रश्न 2.
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों और शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की तुलना करें।
उत्तर-
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Tropical Cyclones)-

  1. स्थिति-ये चक्रवात उष्ण कटिबंध में 50°- 30° अक्षांशों तक चलते हैं।
  2. दिशा-ये व्यापारिक पवनों के साथ पूर्व से पश्चिम की ओर चलते हैं।
  3. विस्तार-इनका व्यास 150 से 500 किलोमीटर तक होता है।
  4. आकार-ये गोल आकार के होते हैं।
  5. उत्पत्ति-ये संवाहक धाराओं के कारण जन्म लेते हैं।
  6. गति-इनमें हवा की गति 100 से 200 किलोमीटर प्रति घंटा होती है।
  7. रचना-यह अधिक गर्मी की ऋतु में अस्तित्व में आते हैं। इनके केंद्रीय भाग को ‘तूफान की आँख’ कहा जाता है।
  8. मौसम-इसमें थोड़े समय के लिए तेज़ हवाएँ चलती हैं और भारी वर्षा होती है।

शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Temperate Cyclones)-

  1. ये चक्रवात शीतोष्ण कटिबंध में 35°-65° अक्षांश तक चलते हैं।
  2. ये पश्चिमी पवनों के साथ-साथ पश्चिम से पूर्व की ओर चलते हैं।
  3. इनका व्यास 1000 किलोमीटर से अधिक होता है।
  4. ये ‘V’ आकार के होते हैं।
  5. ये गर्म और ठंडी हवाओं के मिलने से जन्म लेते हैं।
  6. इनमें हवा की गति 30 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा होती है।
  7. यह अधिक सर्दी की ऋतु में बनते हैं। इसके दो भाग-उष्ण सीमांत और शीत सीमांत होते हैं।
  8. इसमें शीत लहर चलती है और कई दिनों तक रुक-रुककर वर्षा होती है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
शिवाजी के उत्थान व शासन-प्रबन्ध के सन्दर्भ में 1713 ई० तक के मराठों के इतिहास की प्रमुख राजनीतिक घटनाओं की चर्चा करें ।
उत्तर-
मराठे दक्षिण में महाराष्ट्र के रहने वाले थे । वे सर्वप्रथम शिवाजी के अधीन एक शक्ति के रूप में उभरे । शिवाजी को शक्तिशाली बनाने में अनेक बातों ने योगदान दिया । सर्वप्रथम इस दिशा में उनकी मां ने भूमिका निभाई । उन्होंने शिवाजी को महापुरुषों की कहानियां सुना-सुना कर उनमें देशभक्ति की भावना भरी । समरथ गुरु रामदास ने उनका चरित्र-निर्माण किया । दादा कोण्ड देव ने उन्हें तीर, तलवार तथा घुड़सवारी की शिक्षा दी । महाराष्ट्र की पहाड़ियों ने उन्हें परिश्रमी तथा वीर बनाया । दक्षिण की मुस्लिम रियासतों ने मराठों को सैनिक शिक्षा दी और ये प्रशिक्षित सैनिक शिवाजी की शक्ति का आधार बने । वैसे भी सन्त एकनाथ तथा तुकाराम के उपदेशों ने महाराष्ट्र में एकता का संचार किया और इस एकता ने शिवाजी को बल प्रदान किया । परिस्थितियों ने तो शिवाजी को शक्ति प्रदान की ही थी, साथ ही उनके अपने कार्यों ने भी उन्हें शक्तिशाली बनाया । उन्होंने मुट्ठी भर सैनिक लेकर 19 वर्ष की आयु में तोरण का किला जीता । इसके बाद उन्होंने सिंहगढ़, पुरन्धर तथा अन्य दुर्गों पर विजय पाई । इन विजयों से उन्हें धन भी प्राप्त हुआ और यश भी । धन का प्रयोग उन्होंने अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए किया । संक्षेप में, शिवाजी के उत्थान, शासन-प्रबन्ध तथा 1713 ई० तक मराठा इतिहास की प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है :-

शिवाजी का उत्थान (विजयें)-

शिवाजी एक महान् मराठा सरदार थे । सबसे पहले उन्होंने बिखरी हुई मराठा शक्ति को संगठित करके एक विशाल सेना तैयार की। उन्होंने 1646 ई० में अपना विजय अभियान आरम्भ कर दिया । शिवाजी की पहली विजय तोरण दुर्ग पर थी । इसके बाद उन्होंने चाकन, सिंहगढ़, पुरन्धर तथा कोन्द्रन के दुर्गों पर अपना अधिकार जमा लिया । उन्होंने जावली के सरदार चन्द्र राव को मरवा कर जावली को भी अपने अधिकार में ले लिया । शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर बीजापुर का सुल्तान चिन्ता में पड़ गया । उसने शिवाजी के विरुद्ध अपने सेनापति अफ़जल खां को भेजा । अफ़जल खां ने धोखे से शिवाजी को मारने का प्रयत्न किया परन्तु इस प्रयास में वह स्वयं मारा गया । अब शिवाजी ने मुग़ल प्रदेशों में लूटमार आरम्भ कर दी जिससे मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को चिन्ता हुई । अतः 1660 ई० में उसने दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । वह बढ़ता हुआ पूना तक जा पहुंचा, परन्तु शिवाजी ने उसे यहां से भागने पर विवश कर दिया ।

अब शिवाजी ने सूरत के समृद्ध नगर पर आक्रमण कर दिया और वहां खूब लूटमार की । इससे औरंगज़ेब की चिन्ता और भी बढ़ गई । उसने राजा जयसिंह तथा दिलेर खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । उनके नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने मराठों के अनेक किले जीत लिए । विवश होकर शिवाजी ने मुग़लों के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के बाद शिवाजी आगरा में मुग़ल दरबार में पहुंचे । वहां उन्हें बन्दी बना लिया गया । परन्तु शिवाजी बड़ी चालाकी से मुग़लों की कैद से भाग निकले । 1676 ई० में उन्होंने रायगढ़ में अपना राज्याभिषेक किया । इस अवसर पर उन्होंने छत्रपति की उपाधि धारण की । राज्याभिषेक के पश्चात् उन्होंने कर्नाटक के समृद्ध प्रदेशों जिंजी और वैलोर पर भी अपना अधिकार कर लिया । इस तरह वह दक्षिण भारत में एक स्वतन्त्र मराठा राज्य स्थापित करने में सफल हुए ।

शासन प्रबन्ध-

शिवाजी ने उच्चकोटि के शासन-प्रबन्ध द्वारा भी मराठों को एकता के सूत्र में बांधा । केन्द्रीय शासन का मुखिया छत्रपति (शिवाजी) स्वयं था । राज्य की सभी शक्तियां उसके हाथ में थीं । छत्रपति को शासन कार्यों में सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल था । इसे अष्ट-प्रधान कहते थे । प्रत्येक मन्त्री के पास एक अलग विभाग था । शिवाजी ने अपने राज्य को तीन प्रान्तों में बांटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था । प्रान्त आगे चलकर परगनों अथवा तर्कों में बंटे हुए थे । शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी।

शिवाजी की न्याय-प्रणाली बड़ी साधारण थी । परन्तु यह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप थी । मुकद्दमों का निर्णय प्रायः हिन्दू धर्म की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता था । राज्य की आय के मुख्य साधन भूमि-कर, चौथ तथा सरदेशमुखी थे । शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया । उनकी सेना में घुड़सवार तथा पैदल सैनिक शामिल थे । उनके पास एक शक्तिशाली समुद्री बेड़ा, हाथी तथा तोपें भी थीं । सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था । उनकी सेना की सबसे बड़ी विशेषता अनुशासन थी । शिवाजी एक उच्च चरित्र के स्वामी थे । वह एक आदर्श पुरुष, वीर योद्धा, सफल विजेता तथा उच्च कोटि के शासन प्रबन्धक थे । धार्मिक सहनशीलता तथा देश-प्रेम उनके चरित्र के विशेष गुण थे । देशप्रेम से प्रेरित होकर उन्होंने मराठा जाति को संगठित किया और एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना की ।

शिवाजी के पश्चात् 1713 ई० तक मराठा-इतिहास –

शिवाजी के जीवन काल में औरंगजेब ने यह प्रयत्न किया था कि शिवाजी या तो मुग़ल साम्राज्य के मनसबदार बन जाएं या सामन्त । परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल न हो सका । 1680 ई० के पश्चात् तो स्थिति और भी बदल गई । औरंगजेब के पुत्र शहज़ादा अकबर ने बादशाह होने की घोषणा कर दी और वह शिवाजी के उत्तराधिकारी शम्भाजी की शरण में चला गया । औरंगजेब ने शम्भा जी के विरुद्ध अभियान भेजे किन्तु वह सफल न हुआ । बीजापुर तथा गोलकुण्डा के सुल्तान मराठों की सहायता करते रहे. । औरंगज़ेब ने बीजापुर और गोलकुण्डा दोनों को जीत लिया । इस प्रकार 1686-87 ई० तक दक्कन में केवल मराठे ही ऐसे लोग रह गए जो अभी तक स्वतन्त्र थे । औरंगज़ेब ने उन्हें अपने अधीन करने का निर्णय किया । उसने 1689 ई० में शम्भा जी को गिरफ्तार कर लिया तथा उनके पुत्र शाहू को भी पकड़ लिया गया । परन्तु शिवाजी का दूसरा पुत्र राजा राम मुग़लों के विरुद्ध जिंजी के किले से युद्ध करता रहा । 1700 ई० में राजाराम की भी मृत्यु हो गई । परन्तु अब उसकी पत्नी ताराबाई ने कोल्हापुर से संघर्ष जारी रखा । इस समय तक स्वराज्यी एवं मुगलई का अन्तर मिट गया था । मराठों के पास राज्य नहीं रहा था किन्तु बहुत से किले और छोटे-छोटे इलाके अब भी उनके अधिकार में आते रहे । इस प्रकार मराठे 1713 ई० तक मुग़लों से अपने प्रदेश वापस छीनने के लिए प्रयत्नशील रहे ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

प्रश्न 2.
18वीं सदी में पेशवाओं तथा मराठा सरदारों के अधीन मराठा शक्ति के उत्थान की रूप-रेखा बताएं।
उत्तर-
शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र शम्भाजी का वध कर दिया गया और उनके पौत्र शाहूजी को दिल्ली में बन्दी बना लिया गया । उसकी अनुपस्थिति में राजाराम की विधवा ताराबाई अपने पुत्र की संरक्षिका बन कर शासन करने लगी। मुग़लों ने मराठों को आपस में लड़ाने के लिए शाहूजी को बन्दीगृह से मुक्त कर दिया । शाहूजी के महाराष्ट्र पहुंचते ही बालाजी विश्वनाथ नामक ब्राह्मण ने उसकी सहायता की । उसने अन्य मराठा सरदारों को भी शाहूजी के साथ मिला दिया । प्रसन्न होकर शाहजी ने उसे अपना पेशवा नियुक्त कर लिया । बालाजी विश्वनाथ ने 1719 ई० में मुग़ल बादशाह से एक सन्धि की जिसके कारण शाहूजी को मुग़लों से वे सभी प्रदेश वापस मिल गए जो शिवाजी के अधीन स्वराज्य प्रदेश कहलाते थे । इसके अतिरिक्त मराठों को वे प्रदेश भी मिल गए जो कभी उन्होंने खानदेश, बरार, गोंडवाना, गोलकुण्डा तथा कर्नाटक में विजय किए थे।

1719 ई० में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा बनाया गया । 1740 ई० में उसकी भी मृत्यु हो गई और बालाजी बाजीराव पेशवा बना । वह 1761 ई० तक पेश्वा के पद पर आसीन रहा । इन दो पेशवाओं के अधीन मराठों ने लगभग समस्त भारत पर अपना अधिकार कर लिया और मराठा झण्डा अटक की दीवारों तक फहराने लगा । 1757 ई० तक वे मुग़ल बादशाह के भी संरक्षक बन गए । इसी कारण जब 1757 ई० में अहमदशाह ने लाहौर तथा सरहिन्द के प्रान्त पर आक्रमण किया, तो मराठों ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया और अहमदशाह अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह को पंजाब से मार भगाया । इसी बीच कई अन्य मराठा सरदारों ने कई प्रदेश जीते और मराठा राज्य की शक्ति में वृद्धि की । – पेशवाओं के पराक्रम से शाहूजी बड़े प्रसन्न थे । उन्होंने राज्यकर्म का सारा भार उन्हीं पर छोड़ दिया । धीरे-धीरे पेशवा ही राज्य के शासक बन गए । 1751 ई० में शाहूजी की मृत्यु के पश्चात् छत्रपति की शक्ति नाममात्र रह गई और पेशवा ही वास्तविक शासक बन गए । 1772 ई० के पश्चात् मराठा राजनीति का केन्द्र बिन्दु ‘पेशवा’ बन गया और स्वयं अंग्रेज़ भी उन्हीं से सन्धियां करने लगे । इस प्रकार मुख्यमन्त्री के रूप में कार्य करने वाला ‘पेशवा’ समय की गति के साथ-साथ राज्य की वास्तविक शक्ति बन गया ।

पेशवाओं तथा मराठा सरदारों के कार्य-पेशवाओं तथा मराठा सरदारों द्वारा शक्ति के विकास के लिए किए गए कार्यों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-

बालाजी विश्वनाथ पेशवा वंश का संस्थापक था । शाहूजी ने उसे 1713 ई० में पेशवा नियुक्त किया । बालाजी विश्वनाथ ने मुग़ल राज परिवार के आपसी झगड़ों का लाभ उठाया । उसने 1719 ई० में मुग़लों से एक सन्धि की, जिसकी शर्ते ये थीं : (क) शाहूजी को ‘स्वराज्य प्रदेशों’ का शासक स्वीकार कर लिया । (ख) शाहूजी दक्षिण के 6 मुग़ल प्रदेशों से ‘चौथ’ तथा ‘सरदेशमुखी’ एकत्र कर सकेंगे । ये सूबे थे-खानदेश, बीदर, बरार, बीजापुर, गोलकुण्डा तथा औरंगाबाद । (ग) शाहूजी मुग़लों की सहायता के लिए एक सेना तैयार रखेंगे जिसमें 15 हज़ार सैनिक होंगे । इस सन्धि द्वारा वास्तव में शाहू जी को मराठों का राजा मान लिया गया । अतः मराठा सरदारों की शक्ति अब शाहू के विरुद्ध लड़ने की बजाय दूर स्थित प्रदेशों को । जीतने में लग गई । धीरे-धीरे पेशवा की शक्ति इतनी बढ़ गई कि वह शासन का सर्वेसर्वा हो गया ।

बाजीराव प्रथम-बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा बना । उसने निज़ाम हैदराबाद को 1728 ई० में ‘मालखेद’ के स्थान पर पराजित किया और उसके साथ मुजीशिव गांव की सन्धि की । उसने 1738 ई० में एक बार फिर निज़ाम को भोपाल के समीप पराजित किया । निजाम तथा मुग़लों ने नर्मदा और चम्बल के बीच का प्रदेश मराठों को दे दिया । बाजीराव प्रथम ने बुन्देल सरदार छत्रसाल की सहायता करके बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया । उसने दिल्ली के समीप मुग़ल सेना को पराजित किया । उसने अपने भाई ‘चिमनाजी आपे’ की सहायता से पुर्तगालियों को पराजित करके थाना, सालसट तथा बसीन के प्रदेश जीत लिए । इस प्रकार बाजीराव प्रथम ने एक के बाद दूसरा प्रर्देश जीता और चारों दिशाओं में मराठा शक्ति का विकास किया। निःसन्देह वह एक महान् सेनानायक था ।

बालाजी बाजीराव तथा मराठा सरदार-बालाजी बाजीराव अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् पेशवा नियुक्त हुआ । उस समय उसकी आयु 18 वर्ष की थी । उसके काल में जहां मराठा शक्ति का उत्थान हुआ, वहां मराठा सरदारों की स्वतन्त्र सत्ता का भी विकास हुआ । उसके काल की मुख्य घटनाएं थीं :

(i) मराठा सरदार सिंधिया तथा होल्कर ने जयपुर के शासक ईश्वर सिंह से ‘चौथ’ मांगा । ईश्वर सिंह कर देने में असमर्थ था इसलिए तंग आकर उसने विष खा कर आत्म-हत्या कर ली । यह मराठों की एक बहुत बड़ी भूल थी जिसके परिणामस्वरूप मराठों को राजपूतों की सहानुभूति से वंचित होना पड़ा ।

(ii) 1758 ई० में सदाशिव राव ने 40 हज़ार सैनिकों की सहायता से निज़ाम पर आक्रमण किया । उदयगीर में निज़ाम पराजित हुआ । सन्धि के अनुसार निज़ाम को बीजापुर, औरंगाबाद, बीदर तथा दौलताबाद से हाथ धोना पड़ा ।

(iii) मराठों ने उत्तर में भी अपने राज्य का विस्तार आरम्भ कर दिया । सितम्बर, 1751 ई० में मलहार राव होल्कर तथा रघुनाथ राव दिल्ली की ओर बढ़े । उन्होंने अब्दाली के प्रतिनिधि को गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली का प्रबन्ध वज़ीर इमान को सौंप दिया । तत्पश्चात् वे पंजाब की ओर बढ़े । मार्च, 1758 ई० में इन्होंने सरहिन्द पर अधिकार कर लिया और अप्रैल में लाहौर पर । उन्होंने अब्दाली के पुत्र तैमूर शाह तथा उसके जरनैल जमाल खां को मार भगाया ।

(iv) शाहूजी भौंसले ने कटक पर अधिकार कर लिया और अलीवरदी खां से 20 लाख रुपया प्राप्त किया
(v) सदाशिव राव ने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार हम देखते हैं कि बालाजी बाजीराव के अधीन मराठा शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई । मराठा पताका अटक तक फहराने लगी।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

प्रश्न 3.
18वीं सदी में हैदराबाद एवं मैसूर के नए-नए राज्यों के उत्थान और मराठों के साथ उनके सम्बन्धों के बारे में बताएं।
उत्तर-
18वीं शताब्दी में उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में अनेक नई शक्तियों का उदय हुआ । इनमें से हैदराबाद तथा मैसूर की रियासतें काफ़ी महत्त्वपूर्ण थीं । इन रियासतों के उत्थान तथा मराठों के साथ उनके सम्बन्धों का वर्णन इस प्रकार है :-

1. हैदराबाद-

हैदराबाद 18वीं शताब्दी में दक्षिण भारत की एक बहुत ही शक्तिशाली रियासत थी । इसकी स्थापना किलिच खां ने की। वह 1713 ई० में दक्षिण का मुग़ल सूबेदार बना और सम्राट ने उसे निजाम-उल-मुल्क की उपाधि प्रदान की । वह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी था। वह दक्षिण भारत का स्वतन्त्र शासक बनना चाहता था । इसलिए 1724 ई० में उसने मुग़ल सम्राट के मुख्य वज़ीर से लड़ाई की और उसे हरा कर दक्षिण पर अपना अधिकार जमा लिया । अत: मुग़ल सम्राट् मुहम्मद शाह ने उसे दक्षिण का सूबेदार मान लिया और 1725 ई० में उसे आसफजाह की उपाधि से सुशोभित किया । परन्तु सम्राट का यह काम दिखावा मात्र था । आसफजाह अब तक दक्षिण का शासक बन चुका था । वह और उसके उत्तराधिकारी हैदराबाद के निज़ाम के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

निजाम-उल-मुल्क आसफजाह दक्षिण के सारे मुग़ल प्रदेशों में अपनी शक्ति स्थापित न कर सका । मरने से पहले उसके पास केवल वही राज्य रह गया था जो सबसे पहले मुग़ल साम्राज्य का गोलकुण्डा प्रान्त था । उसकी राजधानी भी गोलकुण्डा की पुरानी राजधानी हैदराबाद ही थी । 1719 में बाला जी विश्वनाथ ने बादशाह के साथ राजा शाहू के नाम से एक सन्धि करके दक्षिण के मुग़ल सूबे से चौथ तथा सरदेशमुखी एकत्रित करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था । परन्तु अब निजाम-उलमुल्क आसफजाह मराठों के इस अधिकार को स्वीकार नहीं कर सकता था । इसलिए मराठों से उसकी लड़ाई होनी आवश्यक हो गई थी । उसने राजा शाहू के विरुद्ध उसके कोल्हापुर वाले सम्बन्धियों को भड़काना आरम्भ कर दिया । उसने कुछ मराठा सरदारों को भी पेशवा के विरुद्ध उत्तेजित किया । स्वयं 1728 ई० में निज़ाम-उल-मुल्क ने पेशवा के साथ लड़ाई की जो मालखेद में हुई। परन्तु इस लड़ाई में निजाम-उल-मुल्क पराजित हुआ और उसने शाहू को छत्रपति मान लिया । उसने छत्रपति को चौथ और सरदेशमुखी देना भी स्वीकार कर लिया ।

निजाम-उल-मुल्क अब भी यह नहीं चाहता था कि मराठों की शक्ति का अधिक विस्तार हो । उसको यह भय था कि मराठे उत्तरी भारत में अपनी शक्ति बढ़ा कर और मुग़ल सम्राट् से अधिकार प्राप्त करके हैदरबाद की रियासत को समाप्त करने का प्रयत्न करेंगे । इसलिए यह आवश्यक था कि वह मालवा पर अपना अधिकार स्थापित करते । परन्तु 1738 ई० में वह भोपाल के निकट मराठों से एक बार फिर हार गया । अब वह इस योग्य न रहा कि मराठों को उत्तरी-भारत में शक्ति बढ़ाने से रोक सके । मुग़ल सम्राट की दृष्टि में भी उसकी शक्ति स्पष्ट रूप से मराठों से क्षीण हो गई थी । उसकी 1748 ई० में मृत्यु हो गई । इस समय तक वह हैदराबाद का एक स्वतन्त्र शासक बन चुका था ।

निज़ाम-उल-मुल्क की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों तथा निकट सम्बन्धियों के बीच हैदराबाद की राजगद्दी के लिए आपसी संघर्ष छिड़ गया । फलस्वरूप लगभग दस-बारह वर्षों तक हैदराबाद की राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय रही । परन्तु 1761 ई० में उसके पुत्र निज़ाम अली ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और मुग़ल सम्राट् से हैदराबाद पर अपने अधिकार का अनुमति पत्र प्राप्त कर लिया । सम्राट ने उसे भी निज़ाम-उल-मुल्क तथा आसफजाह की उपाधि प्रदान की । इतना होने पर भी निज़ाम अली हैदराबाद की शक्ति को और अधिक न बढ़ा सका । कई वर्षों तक उसे मैसूर के शासक हैदर अली की ओर से खतरा बना रहा । समय-समय पर हैदरअली के साथ उसकी लड़ाई भी हुई परन्तु किसी को भी निर्णायक विजय प्राप्त न हो सकी। कुछ अन्य पड़ोसी शक्तियों से भी उसका संघर्ष चलता रहा। इन परिस्थितियों में उसने 1798 ई० में अंग्रेजों के साथ एक सन्धि की और उनकी अधीनता स्वीकार कर ली । इस प्रकार हैदराबाद की रियासत अंग्रेजों की अधीनता में आ गई।

2. मैसूर-

मैसूर रियासत का उदय विजयनगर राज्य के पतन के बाद हुआ । 1600 ई० के लगभग उदियार नामक एक व्यक्ति ने विजयनगर के सामन्त के रूप में मैसूर में अपना राज्य स्थापित कर लिया था । लगभग 1700 ई० में उदियार का एक अधिकारी मैसूर का स्वतन्त्र शासक बन गया । उसका नाम देव राय था । लगभग आधी शताब्दी तक उसके उत्तराधिकारियों ने इस रियासत को स्थाई रखा । परन्तु वे धीरे-धीरे निर्बल होते गए और उनके मन्त्री शक्तिशाली हो गए । 1750 ई० से कुछ समय पश्चात् मैसूर के एक मन्त्री नन्दराज के संरक्षण में हैदरअली नामक एक सेनानायक मैसूर का मुख्य सेनापति बन गया । वह 1761 ई० नन्दराज से भी अधिक शक्तिशाली हो गया । इसके दो वर्ष बाद उसने मराठों के कुछ राज्यों को अपने अधीन करना आरम्भ कर दिया । इसीलिए मराठों से उसकी टक्कर होनी आवश्यक हो गई ।

1764 से 1770 के बीच मराठों ने कई बार मैसूर पर आक्रमण किया और हैदरअली को पराजित किया । परन्तु मराठा सरदार आपसी झगड़ों के कारण मैसूर का अन्त न कर सके । 1770 ई० में उन्होंने हैदरअली से सन्धि कर ली । इस सन्धि से भी हैदरअली की कठिनाइयों का अन्त न हुआ । उसे मराठों के अतिरिक्त हैदराबाद, कर्नाटक तथा अंग्रेजों से भी निपटना पड़ा । इस प्रकार अपनी मृत्यु तक वह किसी-न-किसी लड़ाई में ही उलझा रहा । उसके बाद उसके पुत्र टीपू ने एक स्वतन्त्र शासक के रूप में मैसूर की राजगद्दी सम्भाली । उसे भी अंग्रेजों से टक्कर लेनी पड़ी । 1799 ई० में वह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया । अंग्रेजों ने मैसूर के बहुत से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया और शेष राज्य उदियार वंश के एक राजकुमार को दे दिया । हैदराबाद की भान्ति मैसूर की रियासत भी अंग्रेजों के अधीन 1947 ई० तक स्थापित रही ।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
शिवाजी का जन्म कब तथा कहां हुआ ?
उत्तर-
शिवाजी का जन्म 1627 ई० में पूना के निकट शिवनेरी के दुर्ग में हुआ।

प्रश्न 2.
शिवाजी के माता-पिता का क्या नाम था ?
उत्तर-
शिवाजी की माता का नाम जीजाबाई तथा पिता का नाम शाह जी भौंसले था ।

प्रश्न 3.
शाइस्ता खां कौन था ?
उत्तर-
शाइस्ता खां औरंगजेब का मामा था जो एक योग्य सेनानायक था।

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प्रश्न 4.
पुरन्धर की सन्धि किस-किस के बीच हुई ?
उत्तर-
पुरन्धर की सन्धि मुग़ल सेनानायक मिर्जा राजा जयसिंह तथा शिवाजी के बीच में हुई।

प्रश्न 5.
ताराबाई कौन थी ?
उत्तर-
ताराबाई छत्रपति शिवाजी के पुत्र की पत्नी अर्थात् शिवाजी की पुत्रवधू थी। वह अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका थी।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) शाहू ………. का पुत्र था ।
(ii) पानीपत का तीसरा युद्ध ……… ई० में हुआ था।
(iii) टीपू सुल्तान ………… का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था।
(iv) हैदराबाद रियासत का संस्थापक ………… था।
(v) अंग्रेजों ने दिल्ली पर ………. ई० में अधिकार किया।
उत्तर-
(i) शम्भा जी
(ii) 1761
(iii) हैदरअली
(iv) चिन किलिच खान
(v) 1803 ।

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3. सही/ग़लत कथन

(i) पानीपत का तीसरा युद्ध अहमदशाह अब्दाली तथा शिवाजी के बीच हुआ। — (✗)
(ii) होल्कर सरदारों की राजधानी इंदौर थी। — (✓)
(iii) हैदरअली मैसूर का मुख्य सेनापति था। — (✓)
(iv) शिण्डे सरदार मालवा पर शासन करते थे। — (✗)
(v) शिण्डे सरदारों की राजधानी ग्वालियर थी। — (✓)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
मिर्जा राजा जयसिंह किसका सेनापति था?
(A) अकबर
(B) औरंगजेब
(C) शिवाजी
(D) हैदरअली ।
उत्तर-
(B) औरंगजेब

प्रश्न (ii)
निम्न में से कौन सा अंग शिवाजी की सेना का नहीं था?
(A) पैदल सैनिक
(B) तोपखाना
(C) घुड़सवार
(D) अश्व सेना ।
उत्तर-
(D) अश्व सेना ।

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प्रश्न (iii)
निम्न लड़ाई मराठों के लिए बहुत घातक सिद्ध हुई-
(A) पानीपत की पहली लड़ाई
(B) पानीपत की दूसरी लड़ाई
(C) पानीपत की तीसरी लड़ाई
(D) उपरोक्त सभी ।
उत्तर-
(C) पानीपत की तीसरी लड़ाई

प्रश्न (iv)
शिवाजी के ‘अष्ट प्रधान’ का मुखिया कहलाता था-
(A) पेशवा
(B) पण्डित राव
(C) पाटिल
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर-
(A) पेशवा

प्रश्न (v)
हैदरअली की मृत्यु हुई-
(A) 1702
(B) 1707
(C) 1761
(D) 1782.
उत्तर-
(D) 1782.

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मराठों के इतिहास की जानकारी के स्रोतों के चार मुख्य प्रकारों के नाम बताओ ।
उत्तर-
मराठों के इतिहास की जानकारी के चार प्रकार के स्रोत हैं-मराठी में लिखे गए वृत्तान्त, मराठा सरकार के रिकार्ड, फ़ारसी एवं राजस्थानी में भेजे गए पत्र और तत्कालीन अखबार ।

प्रश्न 2.
इतिहासकार कौन-सी सदी को ‘मराठों का युग’ कहते हैं और क्यों ?
उत्तर-
इतिहासकार 18वीं सदी को मराठों का युग कहते हैं क्योंकि इस सदी में मराठे सबसे अधिक शक्तिशाली थे ।

प्रश्न 3.
शिवाजी का जन्म कब हुआ और उन्होंने राज्य स्थापना का प्रयत्न कब आरम्भ किया ?
उत्तर-
शिवाजी का जन्म 1627 ई० में हुआ । उन्होंने राज्य स्थापना का प्रयत्न 1646 ई० में आरम्भ किया ।

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प्रश्न 4.
शिवाजी के पिता का क्या नाम था और उन्होंने दक्कन के किन सुल्तानों से जागीरें प्राप्त की थी ?
उत्तर-
शिवाजी के पिता का नाम शाहजी था । उन्होंने अहमदनगर तथा बीजापुर के सुल्तानों से जागीरें प्राप्त की ।

प्रश्न 5.
शिवाजी ने अपनी विजय किस प्रदेश से आरम्भ की तथा 1646 ई० में किस किले पर अधिकार किया ?
उत्तर-
शिवाजी ने अपनी विजय पश्चिमी घाट के कोंकण प्रदेश से आरम्भ की । उन्होंने 1646 ई० में तोरण के किले पर अधिकार किया ।

प्रश्न 6.
शिवाजी ने दक्षिण के कौन-से चार राज्यों के क्षेत्रों में विजय प्राप्त की ?
उत्तर-
शिवाजी ने दक्षिण के अहमदनगर, बीजापुर, मैसूर तथा कर्नाटक राज्यों के क्षेत्रों में विजय प्राप्त की ।

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प्रश्न 7.
शिवाजी ने कौन-सी प्रसिद्ध मुगल बन्दरगाह को लूटा तथा किस मुगल सेनापति को हराया ?
उत्तर-
शिवाजी ने मुग़लों की प्रसिद्ध बन्दरगाह सूरत को लूटा । उन्होंने मुग़ल सेनापति शाइस्ता खाँ को हराया ।

प्रश्न 8.
शिवाजी ने मुग़लों के साथ कौन-सी सन्धि की तथा यह किसके प्रयासों से हुई ?
उत्तर-
शिवाजी ने मुग़लों से पुरन्धर की सन्धि की । यह सन्धि मुग़ल सेनापति जयसिंह के प्रयासों से हुई ।

प्रश्न 9.
शिवाजी औरंगजेब को कहां और कौन-से वर्ष में मिले थे ?
उत्तर-
शिवाजी औरंगजेब को 1666 ई० में आगरा में मिले थे ।

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प्रश्न 10.
शिवाजी का राज्याभिषेक कब और कहां हुआ तथा उन्होंने कौन-सी उपाधि धारण की ?
उत्तर-
शिवाजी का राज्याभिषेक 16 जून, 1676 को रायगढ़ में हुआ । उन्होंने ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की ।

प्रश्न 11.
शिवाजी की मृत्यु कब हुई तथा उनका उत्तराधिकारी कौन था ?
उत्तर-
शिवाजी की मृत्यु 1680 ई० में हुई । उनका उत्तराधिकारी शम्भाजी था ।

प्रश्न 12.
शिवाजी का राज्य कितने प्रशासनिक भागों में बंटा हुआ था ?
उत्तर-
शिवाजी का राज्य ‘प्रान्तों’, ‘परगनों’, ‘तरफों’ तथा गांवों में बंटा हुआ था । इस प्रकार उनका राज्य चार प्रशासनिक भागों में विभाजित था ।

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प्रश्न 13.
शिवाजी के मन्त्रिमण्डल को क्या कहा जाता था तथा उनका प्रधान कौन था ?
उत्तर-
शिवाजी के मन्त्रिमण्डल को ‘अष्ट प्रधान’ कहा जाता था । ‘अष्ट प्रधान’ का मुखिया (प्रधान) पेशवा होता था ।

प्रश्न 14.
शिवाजी की सेना में कौन-से चार अंग थे ?
उत्तर-
शिवाजी की सेना के चार अंग थे-‘घुड़सवार’, ‘पैदल सैनिक’, ‘तोपखाना’ तथा ‘समुद्री बेड़ा’।

प्रश्न 15.
स्वराजीय तथा मुगलई से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
स्वराजीय वे प्रदेश थे जो सीधे तौर पर शिवाजी के अधीन थे । मुग़लई वे प्रदेश थे जहां से शिवाजी चौथ तथा सरदेशमुखी नामक कर वसूल करते थे ।

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प्रश्न 16.
चौथ तथा सरदेशमुखी लगान के कौन-से भाग थे ?
उत्तर-
चौथ लगान का चौथा भाग तथा सरदेशमुखी लगान का दसवां भाग होता था ।

प्रश्न 17.
शिवाजी के दो पुत्रों के नाम बताएं और ताराबाई किसकी पत्नी थी और वह कहां से राज्य करती थी ?
उत्तर-
शिवाजी के दो पुत्रों के नाम थे-शम्भाजी तथा राजाराम । ताराबाई राजाराम की पत्नी थी जो कोल्हापुर से राज्य करती थी।

प्रश्न 18.
शाहू किसका पुत्र था तथा उसने अपनी राजधानी कौन-सी बनाई ?
उत्तर-
शाहू शम्भाजी का पुत्र था । उसने सतारा को अपनी राजधानी बनाया ।

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प्रश्न 19.
शाहू ने अपना पेशवा कब और किसको बनाया ?
उत्तर-
शाहू ने 1713 ई० में बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा बनाया ।

प्रश्न 20.
शाहू तथा मुगल बादशाह में सन्धि कब हुई तथा इसमें शाहू का प्रतिनिधित्व किसने किया ?
उत्तर-
शाहू तथा मुग़ल बादशाह में 1719 ई० में सन्धि हुई । इसमें शाहू का प्रतिनिधित्व बालाजी विश्वनाथ ने किया ।

प्रश्न 21.
मुगल बादशाह के साथ सन्धि के द्वारा शाहू ने कितने घुड़सवार रखना और कितना खिराज देना स्वीकार किया ?
उत्तर-
इस सन्धि द्वारा शाहू ने 15,000 घुड़सवार रखना तथा दस लाख रुपया वार्षिक खिराज देना स्वीकार किया ।

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प्रश्न 22.
18वीं सदी के चार महत्त्वपूर्ण पेशवाओं के नाम बताएं । .
उत्तर-
18वीं सदी के चार महत्त्वपूर्ण पेशवा थे-बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव, बालाजी बाजीराव और माधोराव ।

प्रश्न 23.
किन दो पेशवाओं के समय में मराठों की शक्ति अपने शिखर पर पहुंची तथा उनका कार्यकाल क्या था ?
उत्तर-
बालाजी विश्वनाथ तथा बाजीराव के समय में मराठों की शक्ति अपने शिखर पर पहुंची । बालाजी विश्वनाथ का कार्यकाल 1713 ई० से 1719 ई० तथा बाजीराव का कार्यकाल 1719 ई० से 1740 ई० तक था ।

प्रश्न 24.
मराठों ने दक्षिण के किन दो शासकों से खिराज वसूल किया ?
उत्तर-
मराठों ने दक्षिण में हैदराबाद तथा कर्नाटक के शासकों से खिराज वसूल किया ।

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प्रश्न 25.
मराठों ने पुर्तगालियों से कौन-से दो स्थान जीते ?
उत्तर-
मराठों ने पुर्तगालियों से सालसैट और बसीन के प्रदेश जीते ।

प्रश्न 26.
1740 ई० से पूर्व मराठों ने उत्तरी भारत के कौन-कौन से दो प्रदेशों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली ?
उत्तर-
1740 ई० से पूर्व मराठों ने उत्तरी भारत के मालवा और बुन्देलखण्ड प्रदेशों में अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की ।

प्रश्न 27.
1740 ई० से पूर्व मराठों ने कौन-से चार प्रदेशों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल किया ?
उत्तर-
1740 ई० से पूर्व मराठों ने हैदराबाद, कर्नाटक, मालवा और बुन्देलखण्ड के प्रदेशों से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल किया ।

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प्रश्न 28.
कौन-से वर्ष में मराठे मुग़ल बादशाह के रक्षक बन गए तथा उन्होंने अहमदशाह अब्दाली के पुत्र को पंजाब से कब खदेड़ा ?
उत्तर-
मराठे 1757 ई० में मुग़ल बादशाह के रक्षक बन गए । उन्होंने अहमदशाह अब्दाली के पुत्र को 1758 ई० में पंजाब से खदेड़ा।

प्रश्न 29.
पानीपत का तीसरा युद्ध कब और किनके बीच हुआ?
उत्तर-
पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई० में हुआ । यह युद्ध अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच हुआ ।

प्रश्न 30.
पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद किन पांच इलाकों में मराठों की सत्ता समाप्त हो गई ?
उत्तर-
पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठा सत्ता बंगाल, बिहार, अवध, पंजाब और मैसूर में समाप्त हो गई ।

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प्रश्न 31.
गुजरात पर कौन-से मराठा सरदारों का अधिकार था और उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
गुजरात पर गायकवाड़ सरदारों का अधिकार था । उनकी राजधानी बड़ौदा थी ।

प्रश्न 32.
उड़ीसा तथा मध्य भारत पर कौन-से मराठा सरदारों का अधिकार था तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर-
उड़ीसा तथा मध्य भारत पर भौंसला सरदारों का शासन था । उनकी राजधानी नागपुर थी ।

प्रश्न 33.
होल्कर सरदार किस प्रदेश पर शासन करते थे तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
होल्कर सरदार मालवा में शासन करते थे । उनकी राजधानी इन्दौर थी ।

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प्रश्न 34.
शिण्डे सरदार किस प्रदेश पर शासन करते थे तथा उनकी राजधानी कौन-सी थी ?
उत्तर-
शिण्डे सरदार बुन्देलखण्ड पर शासन करते थे । उनकी राजधानी ग्वालियर थी ।

प्रश्न 35.
पानीपत के युद्ध के बाद नए पेशवा का क्या नाम था तथा उसकी राजधानी कहां थी ?
उत्तर-
पानीपत के युद्ध के बाद नए पेशवा का नाम माधोराव था । उसकी राजधानी पूना थी ।

प्रश्न 36.
मराठे कौन-से मुगल बादशाह को और कब दिल्ली में लाए ?
उत्तर-
मराठे मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय को 1772 ई० में दिल्ली लाए ।

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प्रश्न 37.
उत्तर भारत में सबसे शक्तिशाली मराठा सरदार कौन था तथा उसे मुग़ल बादशाह से कौन-सी पदवियां मिलीं ?
उत्तर-
उत्तर भारत में सबसे शक्तिशाली मराठा सरदार महादजी शिण्डे था । उसे मुग़ल बादशाह से ‘वकील-ए-मुतलक’ तथा ‘मीर बख्शी’ की पदवियां मिलीं ।

प्रश्न 38.
अंग्रेजों ने 1802-03 ई० में कौन-से चार मराठा सरदारों के साथ सन्धियां की ?
उत्तर-
अंग्रेजों ने 1802-03 ई० में जिन चार मराठा सरदारों से सन्धियां कीं, वे थे-गायकवाड़, भौंसले, शिण्डे तथा स्वयं पेशवा ।

प्रश्न 39.
अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब अधिकार किया और किस मुग़ल बादशाह को अपने प्रभाव अधीन लिया ?
उत्तर-
अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर 1803 ई० में अधिकार किया । इस प्रकार उन्होंने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को अपने प्रभाव अधीन कर लिया ।

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प्रश्न 40.
18वीं सदी में मराठों के बाद दक्षिण की सबसे शक्तिशाली रियासत कौन-सी थी तथा इसके आरम्भिक संस्थापक का नाम क्या था ?
उत्तर-
18वीं सदी में मराठों के बाद दक्षिण की सबसे शक्तिशाली रियासत हैदराबाद थी । इसके आरम्भिक संस्थापक का नाम चिन किलिच खान था ।

प्रश्न 41.
हैदराबाद के शासक को मुगल बादशाह की ओर से कौन-सी दो उपाधियां और कब दी गईं ?
उत्तर-
हैदराबाद के शासक को मुग़ल बादशाह की ओर से ‘निजामुलमुल्क’ तथा ‘आसफ़जाह’ की उपाधियां दी गईं। उसे पहली उपाधि 1713 ई० में और दूसरी उपाधि 1725 ई० में दी गई ।

प्रश्न 42.
निजामुलमुल्क मराठों से किन दो लड़ाइयों में तथा कब पराजित हुआ ?
उत्तर-
निज़ामुलमुल्क मराठों से मालखेद तथा भोपाल के निकट लड़ी गई लड़ाइयों में क्रमश: 1728 ई० तथा 1738 ई० में पराजित हुआ ।

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प्रश्न 43.
निज़ामअली किसका पुत्र था तथा उसने कब सत्ता प्राप्त की ?
उत्तर-
निज़ामअली आसफजाह (निजामुलमुल्क) का पुत्र था । उसने 1761 ई० में सत्ता प्राप्त की ।

प्रश्न 44.
हैदरअली कब और किस राज्य का मुख्य सेनापति बना ?
उत्तर-
हैदरअली 1750 ई० से कुछ समय पश्चात् मैसूर राज्य का मुख्य सेनापति बना ।

प्रश्न 45.
हैदरअली की दक्षिण की कौन-सी चार शक्तियों के साथ लड़ाई रही ?
उत्तर-
हैदरअली की दक्षिण की जिन शक्तियों के साथ लड़ाई रही, वे थीं-मराठे, हैदराबाद का शासक, कर्नाटक का नवाब और अंग्रेज़ ।

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प्रश्न 46.
हैदरअली ने मराठों के साथ समझौता कब किया और कितना रुपया देना स्वीकार किया ?
उत्तर-
हैदरअली ने 1770 ई० में मराठों के साथ समझौता किया और उन्हें 31 लाख रुपया देना स्वीकार किया ।

प्रश्न 47.
हैदरअली की मृत्यु कब हुई तथा उसके उत्तराधिकारी का नाम क्या था ?
उत्तर-
हैदरअली की मृत्यु 1782 ई० में हुई । उसके उत्तराधिकारी का नाम टीपू सुल्तान था ।

प्रश्न 48.
टीपू सुल्तान ने अपने आपको एक स्वतन्त्र शासक कब घोषित किया तथा उसकी मृत्यु कब और किससे लड़ते समय हुई ?
उत्तर-
टीपू सुल्तान ने 1786 ई० में अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित किया । उसकी मृत्यु 1799 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते समय हुई ।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
18वीं शताब्दी में दक्षिणी भारत की नई रियासतें कौन-सी थीं ?
उत्तर-
18वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण में अनेक नई रियासतों का उदय हुआ । इनमें से मराठा राज्य, हैदराबाद और मैसूर प्रमुख थीं । मराठा राज्य यूं तो 17वीं शताब्दी में ही शिवाजी के अधीन शक्तिशाली हो गया था परन्तु इसके उत्तराधिकारियों के समय तथा पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद इस राज्य की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई । हैदराबाद राज्य की स्थापना चिन-किलिच खान ने की थी । सम्राट् मुहम्मद शाह ने 1725 ई० में इसे आसफजाह की उपाधि दी जो कि एक दिखावा मात्र थी । वास्तव में आसफजाह निज़ाम के नाम से प्रसिद्ध हुए । 1798 ई० में हैदराबाद के शासक ने अंग्रेजों के साथ सन्धि कर ली और उनकी शरण ले ली । इसके बाद भारत के स्वतन्त्र होने तक यह रियासत अंग्रेजों की अधीनता में ही स्थापित रही ।

मैसूर रियासत का उदय विजयनगर राज्य के पतन के बाद हुआ । इस राज्य के प्रसिद्ध शासक थे-हैदरअली और टीपू सुल्तान । अंग्रेजों ने 1799 ई० में टीपू सुल्तान को हराकर मैसूर के बहुत-से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया और शेष राज्य उदियार वंश के एक राजकुमार को दे दिया । हैदराबाद की भान्ति मैसूर की रिसायत भी अंग्रेजों के अधीन 1947 ई० तक स्थापित रही।

प्रश्न 2.
दक्षिण में मराठा शक्ति के उदय के कारण लिखो ।
उत्तर-
मराठे महाराष्ट्र के रहने वाले थे । इस प्रदेश में पश्चिमी घाट की पहाड़ियां स्थित हैं । अतः मराठों को आजीविका कमाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता था । परिश्रम के जीवन ने उन्हें वीर तथा साहसी बनाया । दक्षिण के मुसलमान राज्यों में रह कर उनके सैनिक गुणों का विकास हुआ । यहां के मुसलमान शासकों ने उन्हें सेना में भर्ती किया और उनकी सहायता से अनेक युद्ध जीते । इस प्रकार मराठों को अपनी सैनिक शक्ति का पूर्णतया आभास हो गया । 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में मराठा प्रदेश में धार्मिक पुनर्जागरण हुआ । तुकाराम, एकनाथ, रामदास तथा वामन पण्डित आदि सन्तों ने मराठों में एकता और समानता की भावना का प्रचार किया । परिणामस्वरूप मराठे जाति-पाति के भेदभाव भूल कर एक हो गए । मराठा शक्ति के उत्थान में सबसे अधिक योगदान शिवाजी का था। उन्होंने अपनी योग्यता और वीरता से बिखरी हुई मराठा शक्ति को एक लड़ी में पिरोया । अन्त में शिवाजी के नेतृत्व में मराठे दक्षिण भारत में सबसे अधिक शक्तिशाली हो गए ।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 14 दक्षिण में नई शक्तियों का उदय

प्रश्न 3.
बाजीराव के नेतृत्व में मराठा शक्ति के उत्तरी भारत में विस्तार का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
बाजीराव 1719 ई० में पेशवा बना । मराठा इतिहास में उसे सबसे महान् पेशवा कहा जाता है । वह मराठा राज्य का विस्तार सारे भारत में करना चाहता था । उसने निज़ाम हैदराबाद को 1728 ई० में पराजित किया और उसके साथ एक सन्धि की । सन्धि के अनुसार निज़ाम ने शाहू जी को एकमात्र मराठा राजा स्वीकार किया और वचन दिया कि वह शम्भूजी का पक्ष नहीं लेगा । 1738 ई० में भोपाल के समीप बाजीराव ने पुनः निज़ाम को पराजित किया । निज़ाम तथा मुगलों ने नर्मदा और चम्बल के बीच का प्रदेश मराठों को दे दिया । इसके अतिरिक्त पेशवा के भाई चिमना जी आपे ने मालवा के गवर्नर गिरधर बहादुर को पराजित किया । पेशवा ने बुन्देल सरदार छत्रसाल की सहायता करके बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर भी अधिकार कर लिया । उसने दिल्ली के समीप मुग़ल सेना को हराया। तत्पश्चात् उसने अपने भाई चिमना जी आपे की सहायता से पुर्तगालियों को पराजित करके थाना, सालसेट तथा बसीन के प्रदेशों पर भी विजय प्राप्त की । इस प्रकार बाजीराव प्रथम ने अनेक प्रदेश विजित किए और मराठा राज्य का विस्तार किया ।

प्रश्न 4.
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय के कारणों की समीक्षा कीजिए ।
उत्तर-
पानीपत की तीसरी लड़ाई में अनेक कारणों से मराठों की पराजय हुई । प्रथम, मराठा सरदार सदाशिव राव बड़ा ही हठी स्वभाव का व्यक्ति था। अपने हठी स्वभाव के कारण ही उसने राजपूतों को अपना शत्रु बना लिया था। परिणामस्वरूप पानीपत के युद्ध में मराठों को राजपूतों की सहायता न मिल सकी। दूसरे, युद्ध में मराठा सरदार विश्वास राव की मृत्यु के कारण सदाशिव राव चुपचाप हाथी से नीचे उतर आया। उसके सैनिकों ने जब उसे हाथी पर न देखा तो उनका धैर्य टूट गया। तीसरे, मराठा सरदारों में आपसी एकता नहीं थी। एकता के अभाव में उन्हें पराजित होना पड़ा । चौथे, मराठा सैनिक छापामार युद्ध करने में अधिक कुशल थे। वे इस आमने-सामने के युद्ध में शत्रु सेना का पूरी तरह सामना न कर सके । पांचवें, इस युद्ध में अब्दाली को अवध के नवाब तथा रुहेला सरदारों ने भी सहायता दी, जिससे उसकी शक्ति बढ़ गई । छठे, युद्ध में मराठा सेना की रसद का प्रबन्ध ठीक न होने के कारण उन्हें कई बार भूखा रहना पड़ा । यह बात भी उनकी पराजय का कारण बनी।

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प्रश्न 5.
मराठे एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने में क्यों असफल रहे ?
उत्तर-
मराठे कई कारणों से भारत में शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहे । प्रथम, शिवाजी अपने सैनिकों को नकद वेतन देते थे । परन्तु पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने जागीर प्रथा आरम्भ कर दी । परिणाम यह हुआ कि मराठा सरदार शक्तिशाली हो गए और केन्द्रीय सत्ता निर्बल हो गई । दूसरे, पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों के लगभग 70 हज़ार सैनिक मारे गये। इस प्रकार उनकी सैनिक शक्ति लगभग नष्ट हो गई । तीसरे, मराठों के पास अंग्रेज़ों की तरह अच्छे शस्त्र नहीं थे। उनकी सेना भी अंग्रेज़ों जैसी संगठित नहीं थी। इस कारण वे अंग्रेजों के विरुद्ध पराजित हुए । चौथे, मराठे गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में कुशल थे। परन्तु उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध मैदानी युद्ध करने पड़े । पांचवें, मराठा सरदारों में एकता का अभाव था। इस स्थिति में शक्तिशाली राज्य स्थापित करना असम्भव था । छठे, मराठों ने शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की ओर विशेष ध्यान न दिया। वे अधिकतर लूटमार में ही अपना समय बिताते थे । इस कारण उनकी प्रजा उनसे नाराज़ हो गई और मराठा राज्य का पतन हो गया ।

प्रश्न 6.
मैसूर में हैदरअली और टीपू सुल्तान की सफलताओं का वर्णन करो ।
उत्तर-
हैदरअली मैसूर का शासक था । उसने यहां का शासन 1761 ई० में मैसूर के एक हिन्दू राजा से प्राप्त किया था। वह एक वीर तथा साहसी व्यक्ति था । वह पक्का देशभक्त था । वह अंग्रेज़ों का घोर शत्रु था और उनकी कूटनीति को खूब समझता था । इसलिए वह इन्हें भारत से बाहर निकालना चाहता था । इस उद्देश्य से उसने अंग्रेजों के साथ दो युद्ध किए । प्रथम युद्ध में तो उसे कुछ सफलता मिली परन्तु दूसरे युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु हो गई । परिणामस्वरूप वह अपना उद्देश्य पूरा न कर सका ।

टीपू सुल्तान एक योग्य शासक, कुशल सेनापति और महान् प्रशासक था । टीपू सुल्तान ने एक नवीन कैलेंडर लागू किया और सिक्के ढालने की एक नई प्रणाली आरम्भ की । उसने मापतोल के नये पैमाने भी अपनाए । उसने अपने पुस्तकालय में धर्म, इतिहास, सैन्य विज्ञान, औषधि विज्ञान और गणित आदि विषयों की पुस्तकों का समावेश किया । उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से संगठित किया। उसने व्यापार तथा औद्योगिक विकास की ओर पूरा ध्यान दिया । संक्षेप में, उसकी उपलब्धियां अपने युग के अन्य शासकों की तुलना में महान् थीं। .

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प्रश्न 7.
शिवाजी के राज्य प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएं बताएं ।
उत्तर-
शिवाजी का राज्य प्रबन्ध प्राचीन हिन्दू नियमों पर आधारित था । शासन के मुखिया वह स्वयं थे । उनकी सहायता तथा परामर्श के लिए 8 मन्त्रियों की राजसभा थी, जिसे अष्ट-प्रधान कहते थे । इसका मुखिया ‘पेशवा’ कहलाता था । प्रत्येक मन्त्री के अधीन अलग-अलग विभाग थे । प्रशासन की सुविधा के लिए राज्य को चार प्रान्तों में बांटा गया था । प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त परगनों में बंटे हुए थे । शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी । इसका प्रबन्ध ‘पाटिल’ करते थे । शिवाजी के राज्य की आय का सबसे बड़ा साधन भूमिकर था । भूमि-कर के अतिरिक्त चौथ, सरदेशमुखी तथा कुछ अन्य कर भी राज्य की आय के मुख्य साधन थे । न्याय के लिए पंचायतों की व्यवस्था थी। शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन भी किया । उन्होंने घुड़सवार सेना भी तैयार की। घुड़सवार सिपाही पहाड़ी प्रदेशों में लड़ने में फुर्तीले होते थे । शिवाजी के पास एक समुद्री बेड़ा भी था ।

प्रश्न 8.
चौथ तथा सरदेशमुखी से क्या अभिप्राय था तथा इसका क्या महत्त्व था ?
उत्तर–
चौथ तथा सरदेशमुखी दो प्रकार के कर थे । शिवाजी कर निश्चित इलाकों से प्राप्त किया करते थे । उनके प्रभावाधीन दो तरह के क्षेत्र थे-एक वे प्रदेश जो सीधे तौर पर शिवाजी के राज्य में शामिल थे । इन प्रदेशों को स्वराज्यी कहा जाता था । दूसरे प्रकार के प्रदेश इसके चारों ओर के इलाके में फैला था । इसे मुग़लई कहते थे । मुगलई इलाकों से चौथ अथवा लगान का एक चौथाई भाग और सरदेशमुखी अथवा लगान का दसवां भाग तलवार के ज़ोर से वसूल किया जाता था । शिवाजी छत्रपति होने के अतिरिक्त स्वयं को महाराष्ट्र का सरदेशमुख (सबसे बड़ा देशमुख) भी कहलाते थे । अतः लगान का दसवां हिस्सा लेना वे अपना अधिकार समझते थे । चौथ और सरदेशमुखी मराठा शक्ति के चिन्ह भाग बन गए । इनके कारण मराठा शक्ति का क्षेत्र अधिक विस्तृत दिखाई देता था ।

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प्रश्न 9.
बालाजी विश्वनाथ ने राजा शाहू की स्थिति को सुदृढ़ करने में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
बालाजी ने शाहू जी के लिए अनेक कार्य किए । उसने ताराबाई तथा अन्य सरदारों को पराजित करके शाहूजी की स्थिति सुदृढ़ की । अत: शाहूजी ने उसे 1713 ई० में पेशवा नियुक्त किया । पेशवा के रूप में बालाजी ने न केवल मराठा सत्ता को सुदृढ़ किया बल्कि अपने परिवार के लिए पेशवा की गद्दी सदा के लिए सुरक्षित कर ली । बाला जी विश्वनाथ ने मुग़ल राज परिवार के आपसी झगड़ों का लाभ उठाया । उसने 1719 में मुग़लों से एक सन्धि की । इस सन्धि के अनुसार शाहूजी को ‘स्वराज प्रदेशों’ का शासक स्वीकार कर लिया गया और उसे दक्षिण के मुग़ल प्रदेशों से ‘चौथ’ तथा ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने का अधिकार भी मिल गया । यह निर्णय भी किया गया कि शाहूजी मुग़लों की सहायता के लिए सेना तैयार रखेंगे जिसमें 15 हज़ार सैनिक होंगे । बालाजी ने शाहूजी की माता तथा मराठा राज-परिवार के अन्य सदस्यों को मुग़ल कैद से छुड़ाने में भी सफलता प्राप्त की । उसने शाहूजी को दक्षिण में मुग़ल शासन का प्रतिनिधि बनवा दिया और ताराबाई की सत्ता का अन्त कर दिया ।

प्रश्न 10.
इतिहास में पानीपत के तीसरे युद्ध का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई० में अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के बीच हुआ । अहमदशाह को तो इस युद्ध से कोई विशेष लाभ न हुआ, परन्तु मराठा शक्ति पर इस युद्ध का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा । युद्ध में लगभग दो लाख मराठा सैनिक तथा अन्य लोग मारे गए । पेशवा बालाजी बाजीराव इस पराजय के शोक से मर गए । फलस्वरूप भारत में मराठों का अदबा लगभग समाप्त हो गया। बंगाल, बिहार, अवध, पंजाब और मैसूर में उनकी सत्ता समाप्त हो गई । पेशवा पद का महत्त्व इतना कम हो गया कि मराठा सरदार अपनी मनमानी करने लगे । मराठों की इस कमज़ोरी का लाभ अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी सत्ता को पहुँचा ।

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प्रश्न 11.
प्रमुख मराठा सरदार तथा उनके राज्य क्षेत्र कौन-से थे ?
उत्तर-
मराठा राज्य में बड़े-बड़े मराठा सरदारों ने अपने राज्य क्षेत्र अलग-अलग स्थापित किए हुए थे । ज्यों-ज्यों पेशवा की शक्ति बढ़ी त्यों-त्यों मराठा सरदारों का अधिकार क्षेत्र भी बढ़ा । पानीपत के युद्ध से पूर्व ही पांच अलग-अलग मराठा राज्य क्षेत्र अस्तित्व में आ चुके थे । पूना से पेशवा स्वयं महाराष्ट्र पर शासन करता था । गुजरात में गायकवाड़ सरदार प्रधान थे। उनकी राजधानी बड़ौदा थी। उड़ीसा को मिलाकर मध्य भारत पर भौंसला सरदारों का शासन था । उनकी राजधानी नागपुर थी। मालवा में होल्कर सरदार इन्दौर से शासन करते थे। इसी तरह बुन्देलखण्ड में ग्वालियर से शिंडे सरदार राज्य करते थे। पानीपत के युद्ध के पश्चात् कुछ सरदारों ने नए पेशवा माधोराव का विरोध करना आरम्भ कर दिया । परन्तु महादजी शिंडे की सहायता से उसकी स्थिति बनी रही। 1772 में माधोराव की मृत्यु के पश्चात् पेशवा की ओर से नाना फड़नवीस ने 1800 तक मराठा सरदारों को एक सूत्र में बांधे रखा। बाद में मराठा सरदारों की नई पीढ़ियां लगभग स्वतन्त्र हो गईं ।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
(क) शिवाजी के नेतृत्व में मराठों के उत्थान का वर्णन कीजिए ।
(ख) मराठों की शक्ति को रोकने के लिए औरंगजेब को किस सीमा तक सफलता मिली ? .
अथवा
शिवाजी की विजयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
(क) शिवाजी के नेतृत्व में मराठों का उत्थान-शिवाजी एक महान् मराठा सरदार थे । उन्होंने मराठों को एक सूत्र में बांधने के अनेक प्रयत्न किए । सबसे पहले उन्होंने बिखरी हुई मराठा शक्ति को संगठित करके एक विशाल सेना तैयार की । 1646 ई० में उन्होंने अपना विजय-अभियान आरम्भ किया ।

विजयें-शिवाजी की पहली विजय तोरण दुर्ग पर थी । इसके बाद उन्होंने चाकन, सिंहगढ़, पुरन्धर तथा कोंकण के दुर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया । उन्होंने जावली के सरदार चन्दराव को मरवा कर जावली को भी अपने अधिकार में ले लिया । शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर बीजापुर का सुल्तान चिन्ता में पड़ गया । उसने शिवाजी के विरुद्ध अपने सेनापति अफज़ल खां को भेजा। अफज़ल खां ने धोखे से शिवाजी को मारने का प्रयत्न किया । परन्तु इस प्रयास में वह स्वयं मारा गया । अब शिवाजी ने मुग़ल प्रदेशों में लूट-मार आरम्भ कर दी जिससे मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को चिन्ता हुई । अतः 1660 ई० में उसने दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । वह बढ़ता हुआ पूना तक जा पहुंचा । परन्तु शिवाजी ने उसे वहां से भागने पर विवश कर दिया ।

अब शिवाजी ने सूरत के समृद्ध नगर पर आक्रमण कर दिया और वहां खूब लूट-मार की । इससे औरंगजेब की चिन्ता और बढ़ गई। उसने राजा जयसिंह तथा दिलेर खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । उनके नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने मराठों के अनेक किले जीत लिए । विवश होकर शिवाजी ने मुगलों के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के बाद शिवाजी आगरा में मुग़लदरबार में पहुंचे । वहां उन्हें बन्दी बना लिया गया । परन्तु शिवाजी बड़ी चालाकी से मुग़लों की कैद से बच निकले । 1674 ई० में उन्होंने रायगढ़ में अपना राज्याभिषेक किया। इस अवसर पर उन्होंने छत्रपति की उपाधि भी धारण की । राज्याभिषेक के पश्चात् उन्होंने कर्नाटक के समृद्ध प्रदेशों जिंजी और वैलोर पर भी अपना अधिकार कर लिया । इस तरह वह दक्षिणी भारत में एक स्वतन्त्र मराठा राज्य स्थापित करने में सफल हुए।

(ख) औरंगज़ेब द्वारा मराठा शक्ति को रोकने के उपाय-औरंगज़ेब ने मराठा शक्ति को दबाने के अनेक कार्य किए–

  • सबसे पहले उसने 1660 ई० में दक्षिण के सूबेदार शाइस्ता खां को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। वह बढ़ता हुआ पूना जा पहुंचा। परन्तु उसे वहां से भागने पर विवश कर दिया।
  • शाइस्ता खां की पराजय के पश्चात् औरंगज़ेब ने राजा जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा । उसने मराठों के अनेक किले जीत लिए । विवश हो कर शिवाजी ने मुग़लों के साथ सन्धि कर ली । सन्धि के बाद वह आगरा में मुग़ल दरबार में पहुंचे जहां उन्हें बन्दी बना लिया गया परन्तु शिवाजी बड़ी चालाकी से मुग़लों की कैद से भाग गए।
  • 1689 ई० में औरंगज़ेब नए मराठा शासक शम्भाजी को बन्दी बनाने में सफल हो गया और उसका वध कर दिया।
  • शम्भा जी के वध के पश्चात् औरंगज़ेब ने उसके पुत्र शाहूजी को भी कैद कर लिया। उसे पूरी तरह विलासी बना दिया गया ताकि वह शासन करने के योग्य न रहे।
  • शाहूजी के पश्चात् शिवाजी के दूसरे पुत्र राजा राम ने मुग़लों से संघर्ष किया । उसने मुग़लों के अनेक दुर्ग जीत लिए । उसकी विजयों को देखते हुए औरंगजेब ने मराठों के साथ सन्धि कर ली।
  • राजाराम की 1707 ई० में मृत्यु हो गई और उसकी विधवा ताराबाई ने बड़ी कुशलता से मराठों का नेतृत्व किया। औरंगजेब ने उसकी शक्ति को कुचलने का काफ़ी प्रयास किया, परन्तु असफल रहा । 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु हो गई।

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प्रश्न 2.
शिवाजी की शासन व्यवस्था का वर्णन कीजिए ।
अथवा
शिवाजी के असैनिक तथा सैनिक शासन प्रबंध की अलग-अलग चर्चा कीजिए।
उत्तर-
शिवाजी ने एक उच्च कोटि के शासन प्रबन्ध की व्यवस्था की। उनके शासन-प्रबन्ध की रूप-रेखा इस प्रकार थी –

असैनिक प्रबन्ध-
1. केन्द्रीय शासन–केन्द्रीय शासन का मुखिया छत्रपति (शिवाजी) था । राज्य की सभी शक्तियां उसके हाथ में थीं । छत्रपति को शासन-कार्यों में सलाह देने के लिए आठ मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल था । इसे अष्ट-प्रधान कहते थे । प्रत्येक मन्त्री के अधीन एक विभाग होता था ।।

2. प्रान्तीय शासन-शिवाजी ने अपने राज्य को तीन प्रान्तों में बांटा हुआ था । प्रत्येक प्रान्त एक सूबेदार के अधीन था। प्रान्त आगे चलकर परगनों तथा तर्कों में बंटे हुए थे । शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी ।

3. न्याय-प्रणाली-शिवाजी की न्याय-प्रणाली बड़ी साधारण थी, परन्तु यह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप थी । मुकद्दमों का निर्णय प्रायः हिन्दू धर्म की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता था ।

4. कर प्रणाली-शिवाजी ने राज्य की आय को बढ़ाने के लिए कृषि को विशेष प्रोत्साहन दिया । सारी भूमि की पैमाइश करवाई गई और उपज का 2/5 भाग ‘भूमि-कर’ निश्चित किया गया । यह कर नकद अथवा उपज दोनों रूप में दिया जा सकता था। भूमि-कर के अतिरिक्त चौथ तथा सरदेशमुखी नामक कर भी राज्य की आय के महत्त्वपूर्ण स्रोत थे ।

सैनिक प्रबन्ध-

शिवाजी ने एक शक्तिशाली सेना का संगठन किया । इसके प्रमुख अंगों तथा विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है

  • घुड़सवार सेना-घुड़सवार सैनिक शिवाजी की सेना का महत्त्वपूर्ण अंग थे । उनकी सेना में घुड़सवारों की संख्या लगभग 45,000 थी । इस सेना को ‘पागा’ कहा जाता था । पागा कई टुकड़ियों में बंटी हुई थी । सबसे छोटी टुकड़ी 25 सैनिकों की होती थी, जिसके मुखिया को ‘हवलदार’ कहा जाता था । घुड़सवार सेना का सबसे बड़ा अधिकारी ‘पांच हज़ारी’ कहलाता था ।
  • पैदल सेना-शिवाजी की पैदल सेना में लगभग 10,000 सैनिक थे । यह भी कई टुकड़ियों में विभक्त थे । सबसे छोटी टुकड़ी 9 सैनिकों की होती थी । इसके मुखिया को ‘नायक’ कहते थे । पैदल सेना का सबसे बड़ा अधिकारी ‘सरए-नौबत’ कहलाता था ।
  • हाथी सेना-शिवाजी की सेना में हाथी भी सम्मिलित थे । हाथियों की संख्या लगभग 1,260 थी ।
  • जल सेना-शिवाजी ने जल सेना की व्यवस्था भी की हुई थी । इस सेना में कुल 200 जल सैनिक थे । उसके पास एक जहाज़ी बेड़ा भी था ।।
  • तोपखाना-तोपखाना शिवाजी की सेना का विशेष अंग था ।
  • दुर्ग अथवा किले-शिवाजी के राज्य में किलों की संख्या 280 थी । संकट के समय मराठा सैनिक इन्हीं किलों में रहते थे । शिवाजी ने इन किलों का प्रबन्ध भी बड़े अच्छे ढंग से किया हुआ था ।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

PSEB 11th Class Physical Education Guide खेल मनोविज्ञान Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
खेल मनोविज्ञान शब्द कौन-से तीन शब्दों के मेल से बना है? (What are the three words combines Sports Psychology ?)
उत्तर-
‘खेल मनोविज्ञान’ शब्द तीन शब्दों का मेल है, खेल + मन + विज्ञान। खेल’ से भाव है ‘खेल और खिलाड़ी’ मन से ‘भाव है व्यवहार या मानसिक प्रक्रिया और ‘विज्ञान’ से भाव है अध्ययन करना अर्थात् खेल और खिलाड़ियों की हरकतों के व्यवहारों का प्रत्यक्ष रूप में अध्ययन करना, खेल मनोविज्ञान कहलाता है।

प्रश्न 2.
खेल मनोविज्ञान की परिभाषा लिखें। (Write definition of Sports Psychology.)
उत्तर-
ब्राउन और मैहोनी के अनुसार, “खेलों और शारीरिक सरगर्मियों में हर स्तर पर निपुणता बढ़ाने के लिए मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग करना ही खेल मनोविज्ञान है।”
(According to Brown and Mahoney “The sports psychology is the application of psychological principles sports and physical activity, at all levels’.)
खेल मनोविज्ञान का यूरोपियन संघ के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान खेलों के मानसिक आधार, कार्य और प्रभाव का अध्ययन है।”
(According to European Union of Sports psychology “Sports psychology is the study of the psychological oasis processed and effect of sports.)
आर० एन० सिंगर के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान शिक्षा और प्रयोगी क्रियाओं द्वारा, एथलैटिक, शारीरिक शिक्षा मनोरंजन और व्यायाम से सम्बन्धित लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।” – (According to R.N. Singer, “Sports Psychology is encompossing scholarly education and practical activities associated with the understanding and influencing of related behaviour of people in Athletics, Physical Educations vigorous recreational activities and exercise.”)

मि० के० एम० बर्नस के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा के लिए मनोविज्ञान की वह शाखा है जो व्यक्ति शारीरिक योग्यता को बढ़ावा देती है खेल-कूद में भाग लेने से।”
(According to Mr. K.M. Burns, “Sports psychology for physical education is that branch of psychology which deals with Physical Fitness of an individual through his participation in games and sports.”)
खेल मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of Sports Psychology)-मनोविज्ञान एक विशाल विषय है। यह मनुष्य के ज्ञान की सभी शाखाओं पर लागू होता है। हमारी प्रत्येक क्रिया मनोविज्ञान द्वारा निर्धारित होती है। यह मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखने में सहायता करता है, परन्तु खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा में मनुष्य की शारीरिक योग्यता पर प्रकाश डालता है। खेल मनोविज्ञान इस बात पर जोर डालता है कि शारीरिक और मानसिक योग्यता खेल-कूद के द्वारा हासिल की जा सकती है। इसलिए खेल मनोविज्ञान की शारीरिक शिक्षा में बहुत बड़ा रोल है जिससे व्यक्ति का बहुमुखी विकास हो सके इसलिए हमें खेल मनोविज्ञान को अवश्य जानना चाहिए।

मनोविज्ञान मनुष्य के व्यवहार का ज्ञान है औ केल मनोविज्ञान खिलाड़ियों के व्यवहार जब वह खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेते हैं। उस समय के व्यवहार के अध्ययन को खेल मनोविज्ञान कहते हैं। खेल मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जो खेल के मैदान में खिलाड़ियों के व्यवहार से सम्बन्धित है।
खेल मनोविज्ञान का खेल-कूद में बड़ा योगदान है। इसके द्वारा हम खिलाड़ियों का भिन्न-भिन्न स्थानों पर उनके मानसिक व्यवहार को देख सकते हैं।
करैटी के अनुसार-खेल मनोविज्ञान तीन भागों में बांटा जा सकता है—

  1. प्रयोगी खेल मनोविज्ञान (Experiment Sports Psychology)
  2. शिक्षक खेल मनोविज्ञान (Educational Sports Psychology)
  3. क्लीनिकल खेल मनोविज्ञान (Clinical Sports Psychology)।

प्रयोगी खेल मनोविज्ञान के खिलाड़ियों के खेल स्तर को उन्नत करने के लिए खोज की जाती है। शिक्षक मनोविज्ञान में आपसी सम्बन्ध और तालमेल के बारे में जाना जाता है जिससे टीम के प्रदर्शन को बढ़ावा मिल सके क्लीनिकल खेल मनोविज्ञान में खिलाड़ियों की उन कठिनाइयों का हल ढूँढा जाता है जो उनके प्रदर्शन में रुकावट डालती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 3.
खेल मनोविज्ञान का आधुनिक युग में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Sports Psychology in today’s scenario ?)
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान का आधुनिक युग में महत्त्व—
1. सरल से कठिन की ओर का सिद्धान्त (Principles of progression)—खिलाड़ी के खेल में भाग लेने से पहले उसको अपने शरीर को इस ढंग से गर्म करना चाहिए कि उसके लिए गर्म होने से पहले व्यायाम सरल होने चाहिए, क्योंकि पहले व्यायाम उसको शुरू में ही इतने मुश्किल दें तो मांसपेशियों में कई तरह के नुक्सान पैदा हो जाएंगे। इसलिए गर्म होने के लिए सरल से कठिन वाले सिद्धान्त हम हमेशा अपने सामने रखते हैं। इसी विषयानुसार खिलाड़ी को गर्म होने के समय उस द्वारा उठाए जाने वाले भार हम धीरे-धीरे बढ़ाते हैं।

2. स्वास्थ्य (Health)—एथलीट या खिलाड़ी को गर्म होने से पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। उसके स्वास्थ्य के अनुसार ही हमें उसको व्यायाम देने चाहिए। यदि किसी कमज़ोर स्वास्थ्य वाले खिलाड़ी के शरीर को अच्छी तरह गर्म करने के लिए कोई कठिन व्यायाम दे दें तो शरीर के अच्छी तरह गर्म होने के स्थान पर उसके शरीर की अलग-अलग प्रणालियों में नुक्स पड़ जाएगा। इनसे बचने के लिए हमें खिलाड़ी के शरीर को उसके स्वास्थ्य के अनुकूल गर्म करना चाहिए।

3. व्यक्ति की क्षमता या प्रशिक्षण अवस्था (Capacity or training of individual)—किसी भी खिलाड़ी या एथलीट को गर्म होने से पहले यह देखना चाहिए कि आका प्रशिक्षण किस अवस्था में चल रहा है या वह कितने सालों से प्रशिक्षण ले रहा है। किस खेल का प्रशिक्षण है और उसका उद्देश्य क्या है ? उसकी व्यक्तिगत अवस्था किस तरह की है, इसके प्रशिक्षण का जो कार्यक्रम चल रहा है, इन सारी बातों को सामने रखकर उसको गर्म करने वाले व्यायाम देने चाहिए।

4. क्रमवार (Systematic)—किसी भी खिलाड़ी या ऐथलीट को गर्म करने वाले व्यायाम इस तरह के देने चाहिएं कि उस ऐथलीट या खिलाड़ी के शरीर के सभी अंगों का तापमान और रक्त संचार ठीक ढंग से कार्य करें। उसके शरीर का कौन-सा भाग अधिक गर्म चाहिए। इसलिए उसको गर्म होने वाले व्यायाम क्रमवार देने चाहिएं।

5. जलवायु सम्बन्धी अवस्थाएं (Climate conditions)—किसी भी खिलाड़ी या ऐथलीट को गर्म करने वाले व्यायाम देने से पहले यह देखना चाहिए कि जिस स्थान पर खिलाड़ी को गर्म करने वाले व्यायाम दे रहे हैं। वहां का वातावरण कैसा है, वहां अधिक गर्मी है या अधिक सर्दी तो नहीं। खेल खुले मैदान के अन्दर हो रही है या जिम्नेजियम के अन्दर, दिन का समय है या रात का। सूर्य की धूप है या बरसात का मौसम। इन सभी बातों को सामने रखकर ही खिलाड़ियों को गर्म करने वाले व्यायाम देने चाहिएं।

6. भिन्नता (Variety)-खिलाड़ी को गर्म करने से पहले यह देखना चाहिए कि उसने किस खेल में कितनी देर भाग लेना है और खेल में उसका ज़ोर कितना लगता है। इन तरह खिलाड़ी को गर्म होने वाले व्यायाम उसकी खेल के अनुरूप ही देने चाहिएं।

7. भार, ऊंचाई, उम्र, शरीर की किस्म (Weight, height, age, body type)—खिलाड़ी को गर्म होने से पहले उसका भार, उसकी ऊंचाई, उसके शरीर की बनावट किस तह की है, यह देख लेना चाहिए। एक पांच साल के खिलाड़ी को यह व्यायाम नहीं दिया जा सकता, जो कि पच्चीस साल के खिलाड़ी को दिए हैं। एक लड़की को यह व्यायाम नहीं दिया जा सकता जो कि एक लड़के दो दिया जाता है क्योंकि लड़की और लड़के की बनावट में बहुत अन्तर है।

8. मुकाबला और काम करने की तीव्रता (According to competition and intensity of work)—खेल के मुकाबले को प्रमुख रखते हुए ही हमें खिलाड़ी को गर्म करने वाले व्यायाम देने चाहिए। मुकाबले को देखते हुए यह भी देखना पड़ता है कि कितनी देर पहले गर्म होना चाहिए, जिस से खिलाड़ी अपने खेल का अच्छा प्रदर्शन कर सके। एक सौ मीटर दौड़ में भाग लेने वाले ऐथलीट को गर्म होने वाले वे व्यायाम नहीं दिए जा सकते जो कि गोला फेंकने वाले या दस हज़ार मीटर दौड़ दौड़ने वाले या एक फुटबॉल का मैच खेलने वाले खिलाड़ी को दिया जाता है। इसलिए खिलाड़ी को मुकाबले के अनुसार ही गर्म होना चाहिए।

9. सभी शारीरिक अंगों से सम्बन्धित व्यायाम (Exercises pertaining to all parts of body)—गर्म होने वाले व्यायामों को इस ढंग से करना चाहिए कि खिलाड़ी के शरीर के सभी अंग गर्म हो जाएं। पैरों की अंगुलियों से लेकर सिर तक सभी अंग अच्छी तरह व्यायाम में लगे हुए हों, चार सौ मीटर की दौड़ दौड़ने के लिए भुजाओं को गर्म करने वाले व्यायाम उतने ही ज़रूरी हैं जितने व्यायाम टांगों के होने चाहिएं। इस तरह किसी भी खेल में भाग लेने से पहले शरीर के सभी अंगों को गर्म करना चाहिए।

10. क्रियाशीलता के लिए विशेष अभ्यास (Special exercises for activities)—अलग-अलग क्रियाशीलता के लिए विशेष गर्म होने के व्यायाम करवाने चाहिएं।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 4.
प्रेरणा क्या है ? प्रेरणा के स्त्रोतों की व्याख्या कीजिए। (What is Motivation ? Explain its sources in detail.)
उत्तर-
प्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation)—प्रेरणा का अर्थ विद्यार्थियों की सीखने की क्रियाओं में चि पैदा करना और उनको उत्साह देना है। प्रेरणा से विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में रूचि लेता है। खिलाड़ी खेलने में रुचि लेता है। मज़दूर फैक्टरी में अपने काम में रुचि लेता है और किसान अपने खेतों के कार्यों में रुचि लेता है। सच तो यह है कि प्रेरणा में इस तरह की चल शक्ति (Motive Force) है। यह एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को काम करने के लिए उत्साहित करती है। इस शक्ति के द्वारा मनुष्य अपनी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने का लगातार प्रयास करता है और अन्त में उसकी पूर्ति करने में सफलता प्राप्त करता है।

प्रेरणा की परिभाषाएं (Definitions of Motivation) मारगन और किंग के अनुसार, “प्रेरणा मनुष्य अथवा जानवर की उस स्थिति को दर्शाती है, जो उसके व्यवहार द्वारा अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ता है।”
(According to Margan and King “Motivation refers to take within a person or animal that derives behaviour towards some goal.”)
करूक और स्टेन के अनुसार, “प्रेरणा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। जिन हालतों द्वारा हमें कार्य करने के लिए दिशा और शक्ति मिलती है। उसे प्रेरणा कहते हैं।”
(According to Crooks and Stain, Motivation defined as, “Any condition that might energize . and direct our action.”)

क्रो और क्रो के अनुसार, “प्रेरणा सीखने में रुचि पैदा करने के साथ सम्बन्धित है और यह सीखने के लिए ज़रूरी है।”
According to Crow and Crow, “Motivation means inculcating in students the interest in activities of learning and motivating them in this regard. It is essential for learning.”
कैली के अनुसार, “सीखने की प्रक्रिया की प्रभावशाली व्यवस्था में प्रेरणा एक केन्द्रीय तत्व है। हर प्रकार सीखने में कोई-न-कोई प्रेरणा अवश्य होती है।”
(According to Kelly. Motivation is the central factor in the effective management of the process of learning, some type of motivation must be present in learning.”)
मुरैए के अनुसार “प्रेरणा एक आन्तरिक तत्व है जो कि व्यक्ति के व्यवहार को उकसाती है, दिशा देती है और एकसुर बनाती है।”
एलिजाबेथ और डेफी के अनुसार, “प्रेरणा व्यवहार की दिशा और तीव्रता को कहा जाता है।” (According to Rlizabeth and Duffy, “Motivation is direction and intensity of behaviour.”)
प्रेरणा की किस्में (Types of Motivation) प्रेरणा मुख्य तौर पर निम्नलिखित दो प्रकार की होती है –
(क) आंतरिक प्रेरणा (Intrinsic Motivation)
(ख) बाहरी प्रेरणा (Extrinsic Motivation) इनका संक्षिप्त वर्णन इस तरह है

(क) आंतरिक प्रेरणा (Intrinsic Motivation)—यह प्रेरणा व्यक्ति की प्राकृतिक इच्छा, आवश्यकता और प्रवृत्तियों के साथ सम्बन्धित होती है। इसलिए इसको प्राकृतिक प्रेरणा (Natural Motivation) कहते हैं। एक प्रेरित व्यक्ति किसी काम को इसलिए करता है क्योंकि काम करने से उसे खुशी अनुभव होती है। जब कोई विद्यार्थी किसी रोचक उपन्यास या किसी अच्छी कविता को पढ़ कर खुशी प्राप्त करता है तो वह आंतरिक रूप में प्रेरित (Motivated) होता है। ऐसी अवस्था में खुशी का स्रोत उसकी क्रियाओं में छिपा रहता है। (The source of happiness implied in actions) शिक्षा के स्रोत में आंतरिक प्रेरणा विशेष महत्त्व रखती है क्योंकि इसमें स्वाभाविक रुचि पैदा होती है और अंत तक भी रहती है।

(ख) बाहरी प्रेरणा (Extrinsic Motivation)-बाहरी प्रेरणा में खुशी का स्रोत क्रियाओं में नहीं होता। इसमें व्यक्ति जो भी काम करता है उसका उद्देश्य किसी मनोरथ को प्राप्त करना या पुरस्कार प्राप्त करना होता है। खुशी प्राप्त करने के लिए काम नहीं करता। अपनी आजीविका प्राप्त करने के लिए काम सीखना, प्रशंसा प्राप्ति के लिए काम करना, पदोन्नति के लिए काम करना आदि सभी इस प्रेरणा की श्रेणी में आते हैं। बाहरी प्रेरणा के स्थान पर आंतरिक प्रेरणा उत्साह एवं उत्तेजना का साधन है। इसलिए जहां तक सम्भव हो सके आंतरिक प्रेरणा का प्रयोग होना चाहिए।

1. प्राकृतिक अथवा आंतरिक प्रेरणा (Natural or Instrinsic Motivation)—प्राकृतिक प्रेरणा इस तरह की प्रेरणा होती है जोकि खिलाड़ी के भीतर पैदा होने के समय भी मौजूद होती है। कुछ प्राकृतिक प्रेरणाएं निम्नलिखित हो सकती हैं—

  • शारीरिक प्रेरणा (Physical Motivation) भूख, प्यास, काम आदि।
  • आंतरिक प्रेरणा (Internal Motivation) शौक, इच्छा आदि।
  • भावनात्मक प्रेरणा (Emotional Motivation) प्यार, सफलता, सुरक्षा व अपनापन।
  • सामाजिक प्रेरणा (Social Motivation) सामाजिक प्रगति व सामाजिक आवश्यकताएं इत्यादि।
  • प्राकृतिक प्रेरणा (Natural Motivation) आत्म-सम्मान, नेतृत्व व विश्वास इत्यादि।
  • नकल करने की प्रेरणा (Imitative Motivation) अच्छे खिलाड़ियों की नकल करना इत्यादि।

2. अप्राकृतिक अथवा कृत्रिम अथवा बाहरी प्रेरणा (Unnatural or Artificial or External Motivation) कृत्रिम प्रकार की प्रेरणा का भी खेलों की निपुणता में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। शारीरिक शिक्षा के अध्यापक व कोच इत्यादि कृत्रिम प्रेरणा के द्वारा ही खिलाड़ियों में खेल निपुणता लाने के लिए अक्सर बहुत सफल हो सकते हैं और खिलाड़ी प्रेरणा के द्वारा खेल मन लगा कर करते हैं। कृत्रिम प्रेरणा कुछ इस तरह की होती है—

  • पुरस्कार (Reward)-आर्थिक वस्तुओं (Material Reward) जैसे, बाल पैन, बैग, अटैची, तौलिए इत्यादि।
  • सामाजिक पुरस्कार (Social Reward)–तरक्की, नौकरी, कप, प्रमाण-पत्र इत्यादि।
  • सज़ा (Punishment)-इस तरह की प्रेरणा को नकारात्मक प्रेरणा कहा जाता है जैसे भय, जुर्माना, शारीरिक सज़ा इत्यादि। जहां तक हो सके इस तरह की प्रेरणा का कम-से कम प्रयोग होना चाहिए।
  • मुकाबले (Competition)-टूर्नामेंट, इंटराम्यूरल व एकस्ट्रा म्यूरल इत्यादि।
  • परीक्षाएं (Examination)-खेलों का मूल्यांकन नम्बर विजेता का स्थान देकर करना।
  • श्रवण-दृश्य सहायक सामग्री (Audio-Visual Aids)-जैसे फिल्में, तस्वीरें, आंखें, देख-भाल इत्यादि।
  • कोच व खिलाड़ी रिश्ता (Coach and Player Relationship)-अच्छा व्यवहार खिलाड़ी के भावों और उसकी ज़रूरतों का अहसास।
  • सहयोग (Cooperation)—आपसी सहयोग, अधिकारियों के साथ सहयोग इत्यादि।
  • लक्ष्य (Goal)-जीत, पुरस्कार, पदोन्नति, प्रशंसा इत्यादि।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 5.
खेल मनोविज्ञान की शाखाओं के नाम लिखिए। (Explain the various branches of Sports Psychology.)
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान की शाखाएँ—

  1. खेल संगठन मनोविज्ञान (Sports Organization Psychology)
  2. शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology)
  3. स्वास्थ्य मनोविज्ञान (Health Psychology)
  4. चिकित्सा और क्लीनिक मनोविज्ञान (Medical and Clinical Psychology)
  5. विकसित मनोविज्ञान (Development Psychology)
  6. व्यायाम मनोविज्ञान (Exercise Psychology)
  7. समाज और ग्रुप मनोविज्ञान (Social and Group Psychology)

प्रश्न 6.
खेल प्रदर्शन को प्रभावित करने वाले मनोवेज्ञानिक तत्वों की विस्तारपूर्वक जानकारी दीजिए। (Explain in detail the factors that affects the Sports Performance.)
उत्तर-
खेल कुशलता को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक तत्व (Psychological factors affecting the performance in game and sports)—प्रत्येक खिलाड़ी की अपने खेल को आगे बढ़ाने की इच्छा होती है। वह इसको बढ़ाने के लिए पूरी कोशिश करता है और खेल का ध्यान के साथ अभ्यास करता है ताकि वह उस खेल में अपना नाम बाकी खिलाड़ियों की तरह चांद की तरह चमका सके और अपने खेल जगत को सही लक्ष्य पर पहुंचाने में सफलता प्राप्त कर सके और अपना, अपने माता-पिता, स्कूल-कॉलेज, अपने जिले, राज्य और देश का नाम रौशन कर सके और अन्तर्राष्ट्रीय खेल मुकाबलों में अपने देश के झंडे को ऊंचा कर सके।

1. दिशा (Direction)-दिशाहीन व्यक्ति अपनी मंजिल पर नहीं पहुँच सकता है। किसी कार्य की पूर्ति के लिए उसकी दिशा, उद्देश्य या निशाने का अवश्य पता होना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में यदि विद्यार्थी और खिलाडियों को दिशा का पता नहीं है तो उनका प्रशिक्षण अर्थहीन है। यदि मनुष्य को प्रशिक्षण लेना हो तो उसको अपना उद्देश्य और मंजिल मालूम होनी चाहिए। समुद्र में आए तूफ़ान में किश्ती किनारे की तरफ तब ही जा सकती है जब नाविक को किनारे की दिशा का ज्ञान हो। इसलिए यदि प्रशिक्षण लेने वाले को प्रशिक्षण की दिशा का ज्ञान हो तो सिखलाई में बहुत आसानी हो जाती है।

2. सीखने का समय (Learning Time)-कहावत के अनुसार समय पर आरम्भ किया हुआ काम अवश्य मंज़िल हासिल कर लेता है। इस कहावत में बुद्धिमान लोगों की बुद्धिमत्ता स्पष्ट नज़र आती है। इसके अनुसार ही मनुष्य अपनी शिक्षा के लिए उचित समय का निर्णय करता है। यदि समय अनुकूल हो और सीखने के कार्य में रुचि हो तो काम आसान हो जाता है। देखने में आता है कि बच्चे शीघ्र सो जाते हैं। यदि उसके मातापिता चाहें कि उनके बच्चे रात को ही अपनी पढ़ाई करें तो यह बच्चों के अनुकूल न होकर रास्ते में रुकावट डालने का काम होगा। इसी प्रकार शारीरिक शिक्षा के विद्यार्थियों को सायंकाल के समय खेल के मैदान में रोका जाए और ग़लत समय पर उनको शारीरिक शिक्षा की क्रियाएं करने को कहा जाए तो उन विद्यार्थियों द्वारा अच्छे नतीजे प्राप्त नहीं किए जा सकेंगे क्योंकि प्रत्येक कार्य अपने उचित समय पर ही शोभा देता है और शिक्षा में सहायक होता है।

3. शारीरिक योग्यता (Physical Fitness) शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में शारीरिक क्रियाओं के प्रशिक्षण में शारीरिक योग्यता बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यदि व्यक्ति रोगी, सुस्त अथवा आलसी और और उसमें शारीरिक योग्यता की कमी हो तो हृदय, दिमाग़ और शारीरिक अंग किसी भी क्रिया को सीखने के लिए कठिनाई अनुभव करेंगे। इससे अधिक यदि मनुष्य किसी क्रिया को सीखने के लिए शारीरिक तौर पर ही स्वस्थ नहीं हो उसको अधिक कार्य करना पड़ेगा जिसके वह योग्य नहीं है। इस प्रकार वह प्रशिक्षण पूरा नहीं कर सकेगा। इसलिए शारीरिक योग्यता बहुत ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। उस मनुष्य के लिए भी और महत्त्वपूर्ण है जो व्यक्ति शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रशिक्षण लेना चाहता है।

4. अभ्यास और दोहराना (Practice and Revision)-केवल मौखिक ज्ञान से प्रशिक्षण पूरा नही होता। इसलिए अभ्यास अति आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा में अभ्यास का बहुत महत्त्व है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक अपने विद्यार्थियों को भिन्न-भिन्न तत्त्वों का ज्ञान देता है और नई-नई तकनीकें सिखाता है वहां उसे अभ्यास करने के लिए भी प्रेरणा देता है क्योंकि वह जानता है कि अभ्यास और दोहराई के बिना प्रशिक्षण का कार्य पूरा नहीं हो सकता है। अभ्यास और दोहराई द्वारा ही मनुष्य में आत्मविश्वास और कुशलता आती है, जो प्रशिक्षण में सहायक है।

5. व्यक्तिगत भिन्नताएं (Individual difference)—मनुष्यों, पक्षियों और सभी जीवधारी प्राणियों में सोचने, समझने और महसूस करने की भिन्नता होती है। इस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है। इसलिए एक व्यक्ति कम बुद्धिमान है तो दूसरा बुद्धि वाला है। इन भिन्नताओं का ही प्रशिक्षण पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। एक विद्यार्थी किसी चीज़ को शीघ्र सीख लेता है, जब कि दूसरा उस क्रिया को अधिक समय में भी सीख नहीं पाता है। इसका आधारभूत कारण विद्यार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नता है। शारीरिक शिक्षा में यह भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। एक शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को इन भिन्नताओं का विशेष ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि इन भिन्नताओं के ज्ञान के बिना विद्यार्थियों को कुछ भी सिखाना मुमकिन नहीं है।

6. उचित समय पर सुधार (Correction at Proper Time)-प्रशिक्षण का कार्य उस समय तक अधूरा रहता है जब तक सीखने वाले व्यक्ति को अपनी ग़लती का एहसास न हो जो वह किसी वस्तु को सीखने के लिए कर रहा है उस ग़लती को उचित समय पर सुधारा न जा सके क्योंकि बार-बार ग़लती करने पर उसको आदत पड़ जाती है और उसे सुधारा नहीं जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि किसी वस्तु को सीखने के लिए उसकी ग़लती और कमियों को उचित समय पर सुधार लेना चाहिए जिससे प्रशिक्षण में कोई कमी महसूस न हो।

7. आवश्यक ज्ञान (Adequate Knowledge) किसी वस्तु को सीखने के लिए जब तक उसके बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त नहीं होता उस समय तक सीखने की क्रिया में पूर्णता प्राप्त नहीं होती। इस कमी से उससे बार-बार ग़लती होती है। इससे मनुष्य में हीन भावना आ जाती है। इसलिए सीखने वाले को उन वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना बहुत आवश्यक है जिसके बिना प्रशिक्षण अधूरा रह जाता है।

8. शिक्षा के लिए सुविधाएं (Facilities for learning)-प्रशिक्षण के कार्य में सुविधाओं की बड़ी भूमिका होती है। विशेष तौर पर शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों की शारीरिक शिक्षा की क्रियाओं को सीखने में सहायता मिलती है। आज कल हॉकी के अन्तर्राष्ट्रीय मैच ऎसरोटर्क अथवा पोलीग्रास के मैदानों पर खेले जाने लगे हैं और भारतीय टीम को इन मैदानों की कमी के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए भारत में भी इस प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाने लगी हैं जिससे भारतीय खिलाड़ियों का प्रशिक्षण ठीक ढंग से हो सकें।

9. संतोष (Satisfaction) व्यक्ति कोई भी चीज़ तब ही सीखना चाहता है ताकि सीखने से उसे प्रसन्नता प्राप्त हो और उसे संतोष की भावना मिले जो वस्तु मनुष्य के भीतर इस प्रकार की भावना जागृत करने के काबिल होती है उनको कोई भी सीखने वाला आसानी से सीख सकता है और प्रसन्नता प्राप्त करता है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में जिस प्रकार एक जिमनास्टिक के खिलाड़ी को अपने शरीर को लचकीला बनाकर उस तकनीक का प्रदर्शन लोगों के सामने करके अति प्रसन्नता होती है जो उसको अधिक सीखने के लिए प्रेरित करती है।

10. देखने-सुनने की सुविधाएँ (Audi-Visual Aids)-आज शिक्षा प्रणाली में देखने-सुनने की सुविधाओं को बहुत महत्त्व दिया जाने लगा है क्योंकि इन सुविधाओं द्वारा विद्यार्थियों के दिमाग पर अति शीघ्र प्रभाव पड़ता है उनको कठिन-कठिन क्रिया भी आसानी से सिखाई जा सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में फिल्में, टैलीविज़न, रेडियो, चार्ट, नक्शे, मॉडल आदि आते हैं। जिनकी सहायता से प्रशिक्षण का काम और आसान हो गया है। शारीरिक शिक्षा की क्रियाओं के लिए देखने-सुनने की सुविधाओं का अपनाया जाना अति आवश्यक है। इनकी सहायता द्वारा संसार की बड़ी-से-बड़ी हस्ती को भी अंदाज में दिखाया जा सकता है जो आम लोगों के लिए उनको देख पाना अति कठिन होता है। इन सुविधाओं द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में बहुत लाभ पहुंचा है।

11. पूर्ण विधि का महत्त्व (Importance of Whole Method) कोई भी कार्य सीखने के लिए पूर्ण विधि का प्रयोग आवश्यक है जिससे सिखाने वाले को कोई परेशानी नहीं आती है। यदि शारीरिक शिक्षा की किसी क्रिया को पूरी तरह प्रदर्शन करके दिखा दिया जाए तो विद्यार्थियों के सामने उनकी पूरी तस्वीर खिंच जाती है। इस प्रकार इस पूर्ण विधि से सीखना अधूरी विधि से सीखने से अधिक लाभकारी होता है। जब तक हाथी को पूर्ण रूप से नहीं दिखाया जाता है उसके भिन्न-भिन्न भागों को दिखाकर उसकी स्थिति को नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि (Whole is somthing more than the parts.)

12. नेतृत्व की भावना (Sense of Leadership) यदि व्यक्ति के भीतर नेतृत्व की भावना हो उसकी यह विशेषता प्रशिक्षण में अधिक सहायक है क्योंकि उसके अन्दर लोगों को आकर्षित करने की भावना होती है। जिससे प्रत्येक वस्तु को शीघ्र सीख कर लोगों के सामने मिसाल बन कर नेतृत्व करना चाहता है। इस गुण के द्वारा ही लोगों से सहयोग और परस्पर प्रेम प्राप्त करके शिक्षा की आवश्यकता को पूरा कर सकता है।

13. आन्तरिक निरीक्षण (Introspection) आन्तरिक निरीक्षण द्वारा ही प्रशिक्षण में बहुत-सी कमियों का ज्ञान हो जाता है और इन कमियों को सुधारने के लिए प्रेरणा मिलती है और शिक्षा प्राप्त कर उसे संतोष प्राप्त होता है जिससे प्रशिक्षण अधिक रोचक और आसान क्रिया बन जाती है. क्योंकि प्रत्येक क्रिया के अच्छे और बुरे पहलू को आन्तरिक निरीक्षण द्वारा जांचा जाता है।

14. अधिक भार (Over Load)-व्यक्ति की समर्था और योग्यता के मुताबिक उस पर अधिक भार डालकर प्रशिक्षण के काम को तेज़ किया जा सकता है। यदि खिलाड़ी किसी तकनीक को विशेष तरीके से प्रदर्शन करने में सफल नहीं हो पा रहा तो उसके प्रशिक्षण के ढंग को बदल दिया जाता है जिससे उस पर अधिक बोझ पड़ जाता है। उसका शरीर अधिक भार सहने की आदत प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार प्रशिक्षण आसान होकर उसकी मंज़िल तक पहुँचने में सहायता करता है। उपरोक्त दिए हुए तत्त्व शिक्षा के कार्य में बहुत ही सहायक होते हैं जिनके द्वारा ही मनुष्य की शिक्षा का प्रोग्राम पूरा होता है। यह तत्त्व प्रशिक्षण में बहुत सहायता प्रदान करते हैं।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 6 खेल मनोविज्ञान

Physical Education Guide for Class 11 PSEB खेल मनोविज्ञान Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
(1) सहयोग
(2) वजीफे
(3) प्रशांशा
(4) अच्छा वातावरण और खेल सहुलता। यह किस प्रेरणा के भाग हैं ?
उत्तर-
बाहरी प्रेरणा।

प्रश्न 2.
(1) शारीरिक प्रेरणा
(2) सामाजिक प्रेरणा
(3) भावनात्मक प्रेरणा
(4) कुदरती प्रेरणा, यह किस प्रेरणा का भाग हैं ?
उत्तर-
अन्दरूनी प्रेरणा।

प्रश्न 3.
खेल मनोविज्ञान कितने शब्दों का बना है ?
(a) तीन
(b) चार
(c) पांच
(d) आठ।
उत्तर-
(a) तीन।

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प्रश्न 4.
प्रेरणा कितने प्रकार की होती है ?
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) छः।
उत्तर-
(a) दो।

प्रश्न 5.
खेल मनोविज्ञान की शाखाएं हैं ?
(a) सात
(b) छः
(c) पांच
(d) चार।
उत्तर-
(a) सात।

प्रश्न 6.
“खेलों और शारीरिक सरगर्मियों में हर स्तर पर निपुणता बढ़ाने के लिए मनोविज्ञान सिद्धान्तों का प्रयोग करना ही खेल मनोविज्ञान है।” यह किसका कथन है?
उत्तर-
ब्राउन और मैहोनी।

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प्रश्न 7.
“मनोविज्ञान व्यक्ति के वातावरण के साथ जुड़ा उसकी क्रियाओं का अध्ययन करता है।” किसका कथन है ?
उत्तर-
बडबर्ड।

प्रश्न 8.
“मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार और मनुष्य सम्बन्धों का अध्ययन है”-किसका कथन है।”
उत्तर-
क्रो और क्रो।

प्रश्न 9.
“खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा के लिए मनोविज्ञान की वह शाखा है जो मनुष्य की शारीरिक योग्यता को खेलकूद में भाग लेना बढ़ाती है।” किसका कथन है ?
उत्तर-
के० एस० बन०।

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प्रश्न 10.
मनोविज्ञान का अर्थ लिखो।
उत्तर-
व्यक्ति के व्यवहार, उसकी प्रतिक्रियां, तरीके और सीखने के तरीकों के अध्ययन को मनोविज्ञान कहते हैं।

प्रश्न 11.
क्रो एंड क्रो की मनोविज्ञान की परिभाषा लिखो।
उत्तर-
“मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार और मानव सम्बन्ध का अध्ययन है।”

प्रश्न 12.
बडबर्ड की परिभाषा लिखो ?
उत्तर-
“मनोविज्ञान व्यक्ति के वातावरण के साथ जुड़ी उस क्रिया का अध्ययन है।”

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प्रश्न 13.
“खेलों और शारीरिक सरगर्मियों में हर स्तर पर निपुणता बढ़ाने के लिए मनोविज्ञान सिद्धान्तों का प्रयोग करना ही खेल मनोविज्ञान है।”, यह किसका कथन है।
उत्तर-
ब्राउन और मैहोनी।

प्रश्न 14.
“खेल मनोविज्ञान खेलों के मानसिक आधार, कार्य और प्रभाव का अध्ययन है।” यह किसका कथन है ?
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान का यूरोपियन संघ।

अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
खेल मनोविज्ञान क्या है ?
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान शिक्षा और प्रयोगी क्रिया एथलेटिकस शारीरिक शिक्षा, मनोरंजन और कसरत के साथ सम्बन्धित लोगों के व्यवहार में परिवर्तन ले आती है।।

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प्रश्न 2.
मनोविज्ञान का अर्थ लिखो।
उत्तर-
व्यक्ति का व्यवहार उसकी प्रतिक्रियाएं तरीके और सीखने के तरीके के अध्ययन को मनोविज्ञान कहते हैं।

प्रश्न 3.
मि० के० एम० बर्नस की परिभाषा लिखो।
उत्तर-
“खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा के लिए मनोविज्ञान की वह शाखा है, जो व्यक्ति शारीरिक योग्यता को बढ़ावा देती है खेल-कूद में भाग लेने से।”

प्रश्न 4.
प्रेरणा कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर-
प्रेरणा दो तरह की होती है :

  1. अन्दरूनी प्रेरणा
  2. बाहरी प्रेरणा।

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प्रश्न 5.
करूक और स्टेन के अनुसार प्रेरणा की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
“प्रेरणा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-जिन हालतों द्वारा हमें कार्य करने के लिए दिशा और शक्ति मिलती है। उसे प्रेरणा कहते हैं।”

प्रश्न 6.
मनोविज्ञान की कोई चार शाखाओं के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. खेल संगठन मनोविज्ञान
  2. विकसित मनोविज्ञान
  3. स्वास्थ्य मनोविज्ञान
  4. शिक्षा मनोविज्ञान।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
खेल मनोविज्ञान का अर्थ लिखो।
उत्तर-
‘खेल मनोविज्ञान’ शब्द तीन शब्दों का मेल है। “खेल+मनो+विज्ञान खेल से भाव है।” खेल और खिलाड़ी, मनो तो भाव ‘व्यवहार’ मानसिक प्रक्रिया और विज्ञान से भाव ‘अध्ययन करना’ भाव खेल और खिलाड़ियों के व्यवहार का अध्ययन करना है।

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प्रश्न 2.
आर० एन० सिंगर के अनुसार, “मनोविज्ञान की परिभाषा लिखो।”
उत्तर-
“खेल मनोविज्ञान शिक्षा और प्रयोगी क्रियाओं द्वारा एथलैटिक शारीरिक शिक्षा, मनोरंजन और व्यायाम से सम्बन्धित लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।”

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान के कोई दो महत्त्व लिखें।
उत्तर-
खेल मनोविज्ञान रीढ़ की हड्डी की तरह खिलाड़ी की प्रफोरमैंस को सफल बनाने के लिए दिशा निर्देश देता है। खेल मनोविज्ञान का सम्बन्ध बाइउमैकनिकस, किनज़ियालोजी, स्पोर्टस, फिज़िआलोजी स्पोटर्स मैडिसन विषयों के साथ है, जिसके साथ खिलाड़ियों के खेल कौशल और खेल व्यवहार में शोध करके खिलाड़ी की शारीरिक और मानसिक तन्दरुस्ती को बढ़ाया जाता है।

प्रश्न 4.
प्रेरणा की किस्में लिखो।
उत्तर-
(1) अन्दरूनी प्रेरणा या कुदरती प्रेरणा
(2) बाहरी या बनावटी प्रेरणा

1. अन्दरूनी या कुदरती प्रेरणा—

  • शारीरिक प्रेरणा
  • सामाजिक प्रेरणा
  • भावनात्मक प्रेरणा
  • कुदरती प्रेरणा।

2. बाहरी या बनावटी प्रेरणा।

  • ईनाम
  • सज़ा
  • मुकाबले
  • इम्तिहान

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बड़े उत्तर वाला प्रश्न (Long Answer Type Question)

प्रश्न-
प्रेरणा का अर्थ, परिभाषा तथा महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation)-प्रेरणा का अर्थ विद्यार्थियों की सीखने की क्रियाओं में रुचि पैदा करना और उनको उत्साह देना है। प्रेरणा से विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में रूचि लेता है। खिलाड़ी खेलने में रुचि लेता है। मज़दूर फ़ैक्टरी में अपने काम में रुचि लेता है और किसान अपने खेतों के कार्यों में रुचि लेता है। सच तो यह है कि प्रेरणा में इस तरह की चल शक्ति (Motive Force) है। यह एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को काम करने के लिए उत्साहित करती है। इस शक्ति के द्वारा मनुष्य अपनी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने का लगातार प्रयास करता है और अन्त में उसकी पूर्ति करने में सफलता प्राप्त करता है।

परिभाषा (Definition)—
करूक और स्टेन के अनुसार, “प्रेरणा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। जिन हालतों द्वारा हमें कार्य करने के लिए दिशा और शक्ति मिलती है। उसे प्रेरणा कहते हैं।”
क्रो और क्रो के अनुसार, “प्रेरणा सीखने में रुचि पैदा करने के साथ सम्बन्धित है और यह सीखने के लिए ज़रूरी है।”

कैली के अनुसार, “सीखने की प्रक्रिया की प्रभावशाली व्यवस्था में प्रेरणा एक केन्द्रीय तत्व है। हर प्रकार सीखने में कोई-न-कोई प्रेरणा अवश्य होती है।”
महत्त्व (Importance)-खेल निपुणता में प्रेरणा का बहुत ही आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है। खिलाड़ी जितनी देर तक प्रेरित नहीं होता तब तक वह कुछ सीखने के योग्य नहीं हो सकता तथा न ही उसमें कुछ सीखने के लिए रुचि ही पैदा होती है। खेलों के प्रति बच्चों में प्रेम पैदा करने के लिए प्रेरणा बहुत मूल्य योगदान देती है। यह खिलाड़ियों के अन्दर कई प्रकार की भावनाओं को जाग्रित करती है। इन मंजिलों अथवा आदर्शों की प्राप्ति के .. लिये खिलाड़ी तरह-तरह की मुश्किलों तथा कठिनाईयों को बर्दाशत करता है।

हाँसला, बहादुरी, निडरता तथा स्वयं कुर्बान होना आदि के गुण व्यक्ति अथवा खिलाड़ी के अन्दर किसी न किसी विशेष प्रेरणा द्वारा ही आते हैं तथा उनके अन्दर छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि किसी किस्म का भेदभाव पैदा नहीं होता। मन की शान्ति तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए खिलाड़ी प्रेरणा के इन स्त्रोतों का भरपूर उपयोग करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि खेल निपुणता के लिए प्रेरणा की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण, आवश्यक तथा लाभदायक है।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules.

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. बॉस्केट बाल कोर्ट की लम्बाई और चौड़ाई = 28 × 15 मीटर
  2. बॉस्केट बाल टीम के खिलाड़ी = 12 खिलाड़ी खेलते हैं, सात बदलवें खिलाड़ी
  3. कोर्ट के केन्द्रीय चक्र का अर्धव्यास = 1.80 मीटर
  4. रेखाओं की चौड़ाई = 5 मीटर
  5. बोर्ड की मोटाई = 3 सैं० मी०
  6. बोर्ड की ज़मीन से निचले भाग की ऊंचाई = 2.90 मीटर
  7. बोर्ड का आकार = 180 × 120 मीटर
  8. बाल का घेरा = 75 से 78 सै० मी०
  9. बाल का भार = 600 से 650 ग्राम
  10. बोर्ड के आयात का साइज़ = 49 × 45 ग्राम
  11. पोलों की दूरी = 2 मीटर
  12. खेल का समय = 40 मिनट के चार क्वाटर 10-2-10 (10) 10-2-10
  13. बास्केट बाल के अधिकारी = 1 रेफरी, 2 अम्पायर, 1-स्कोरर, 1-सहायक स्कोरर, 1 समय कीपर, 1 सोर्ट क्लॉक ऑपरेटर
  14. मैच खेलने वाले खिलाड़ियों की संख्या = 05 खिलाड़ी
  15. वैकल्पिक खिलाडी = 07 खिलाड़ी
  16. बॉल की परिधि (पुरुषों के लिए) (महिलाओं के लिए) = 74.9 सेंटीमीटर से 78 सेंटीमीटर 72.4 सेंटीमीटर से 37.7 सेंटीमीटर
  17. बाल का वजन (पुरुषों के लिए) (महिलाओं के लिए) = 567 ग्राम से 650 ग्राम 510 ग्राम से 567 ग्राम
  18. टाइम आऊट (30 सैकिण्ड) = पहले हाफ में 2 टाइम आऊट, दूसरे हाफ में 3 टाइम आऊट, अतिरिक्ति समय में 1 टाईम आऊट

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

बास्केट बाल खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Basket-Ball)

  1. बॉस्केट बाल का मैच दो टीमों के मध्य होता है। प्रत्येक टीम में पाँच-पाँच खिलाड़ी होते हैं। इसके अतिरिक्त सात अतिरिक्त खिलाड़ी होते हैं जिन्हें हम बदलवें खिलाड़ी (Substitutes) कहते हैं।
  2. प्रत्येक टीम चाहती है कि वह विरोधी टीम की बॉस्केट में गेंद डाल दे तथा विरोधी टीम को न ही गेंद मिले और न ही प्वाईंट।
  3. बॉस्केट बाल खेल का मैदान आयताकार होता है। मैदान की लम्बाई 28 मीटर तथा चौड़ाई 15 मीटर होती है।
  4. टीम के प्रत्येक खिलाड़ी की बनियान के सामने और पीछे नम्बर लगे होते हैं। एक टीम के दो खिलाड़ी एक ही नम्बर नहीं डाल सकते।
  5. जब तक मध्यान्तर (Interval) न हो या अधिकारी आज्ञा न दे कोई भी खिलाड़ी मैदान से बाहर नहीं जा सकता।
  6. खेल 10 – 2 – 10, 10, 10 – 2- 10 की चार अवधियों की होती है तथा दो अवधियों के पश्चात् 10 मिनट का विश्राम होता है।
  7. बॉस्केट बाल के खेल में खिलाड़ियों को जितनी बार चाहे बदला जा सकता है।
  8. जब कोई टीम 4 फ़ाऊल कर जाती है तो विरोधी टीम को 2 या 3 फ्री-थ्रोज़ हालात अनुसार दी जाती हैं।
  9. किसी टीम का एक खिलाड़ी यदि 5 फ़ाऊल कर दे तो उसे मैच में से बाहर निकाल दिया जाता है।
  10. खेल के मध्य किसी समय भी कोई खिलाड़ी बदला जा सकता है परन्तु शर्त यह है कि थ्रो उस टीम की हो।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

PSEB 11th Class Physical Education Guide बॉस्केट बाल (Basket Ball) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
बॉस्कट बाल कोर्ट की लम्बाई लिखें।
उत्तर-
28 मीटर।

प्रश्न 2.
बॉस्कट बाल कोर्ट की चौड़ाई लिखें।
उत्तर-
15 मीटर।

प्रश्न 3.
इस मैच में बदले जाने वाले खिलाड़ियों की संख्या लिखें।
उत्तर-
7 खिलाड़ी।

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प्रश्न 4.
बॉस्कटबाल का घेरा पुरुषों के लिये कितना होता है ?
उत्तर-
74.9 सैं.मी. से 78 सें. मी.।

प्रश्न 5.
बॉस्कटबाल के मैच में कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 1, अम्पायर = 2, स्कोरर = 1, सहायक स्कोरर = 1, टाइम कीपर = 1, सोर्ट ब्लॉक आपरेटर -1.

प्रश्न 6.
बॉस्कट बाल खेल का समय लिखें।
उत्तर-
40 मिनट के चार क्वाटर 10-2-10 (10) 10-2-10.

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प्रश्न 7.
बॉस्कट बाल खेल के कोई तीन फाऊल लिखें।
उत्तर-

  1. अधिकारी को अपमानजनक ढंग से सम्बोधित करना या मिलना।
  2. असभ्य व्यवहार करना।
  3. विरोधी खिलाड़ी को तंग करना या उसकी आंखों के आगे हाथ करके उसे देखने में रुकावट डालना।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB बॉस्केट बाल (Basket Ball) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
बॉस्केट बाल का संक्षिप्त परिचय दीजिए। रैस्ट्रिक्टेड एरिया से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
खेल-बॉस्केट बाल खेल दो टीमों के बीच खेला जाता है। प्रत्येक टीम में पाँच-पाँच खिलाड़ी होते हैं। प्रत्येक टीम का यह लक्ष्य होता है कि वह विरोधी टीम की बॉस्केट में गेंद फेंक दे, न विरोधी टीम के हाथ गेंद लगने दे और न ही अंक प्राप्त करने दे।

कोर्ट-बॉस्केट बाल कोर्ट 28 मीटर लम्बा और 15 मीटर चौड़ा होगा। यह आयताकार और ठोस धरातल वाला होगा। यदि खेल हाल कमरे में हो तो हाल की छत की ऊंचाई कम-से-कम 7 मीटर होनी चाहिए। सम्बन्धित अधिकारी दो मीटर की लम्बाई और दो मीटर चौड़ाई की सीमा के अन्दर परिवर्तन (यह परिवर्तन एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं) की आज्ञा दे सकता है। फिर भी फीबा (FIBA-International Amateur Basketball Federation) की बड़ी सरकारी प्रतियोगिताओं के लिए निर्णित लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार नई कोर्ट (Court) बनाई जाएगी। कोर्ट में पर्याप्त मात्रा में एक-सा प्रकाश रहना चाहिए। – सीमा-रेखाएं-कोर्ट की परिधि स्पष्ट रेखाओं द्वारा अंकित की जाएगी जो प्रत्येक स्थान से बाधाओं से कम-से- . कम 2 मीटर की दूरी पर होगी। इन रेखाओं और दर्शकों के बीच दूरी कम-से-कम 3 मीटर की होगी।

केन्द्रीय वृत्त-कोर्ट के मध्य में एक वृत्त अंकित किया जाएगा। उसका अर्द्धव्यास 1.80 मीटर होगा। इसे केन्द्रीय वृत्त कहा जाता है।
केन्द्रीय रेखा-अन्त रेखाओं के समानान्तर केन्द्रीय रेखा खींची जाएगी जो कोर्ट को आगे वाली कोर्ट और पीछे वाली कोर्ट में विभक्त करेगी। यह रेखा 15 सम बाहर दोनों तरफ होगी।
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तीन अंक मैदानी गोल-क्षेत्र-एक नई मार्किंग “तीन अंक मैदानी गोल क्षेत्र” की जाती है। यह दो सीमित चा होती हैं जिनमें से प्रत्येक का बाहरी किनारों से अर्द्धव्यास 6.25 मीटर होता है। केन्द्र फर्श पर बिन्दु होता है, टोकरी के केन्द्र के ठीक लम्ब रूप होता है और किनारे वाली लकीरों पर समाप्त होती हुई पार्श्व रेखाओं के समानान्तर रहती है। केन्द्र अन्तिम लकीर के केन्द्रीय बिन्दु से 1.20 मीटर 0.225 मीटर + 0.10 मीटर + 1.525 मीटर होता है।
नोट-यह चाप केवल अर्द्ध वृत्त तक ही है और इसके पश्चात् पार्श्व रेखा के समानान्तर है (देखो चित्र)

फ्री-थो रेखाएं-प्रत्येक अन्त-रेखा के समानान्तर एक फ्री-थ्रो रेखा खींची जाएगी जो अन्त-रेखा के भीतर किनारे से 5.80 मीटर दूर होगी। इसकी लम्बाई 3.60 मीटर होगी तथा केन्द्र बिन्दु दोनों अन्त-रेखाओं के मध्य बिन्दुओं को जोड़ने वाली रेखा पर होगा।

प्रतिबद्ध क्षेत्र (रिस्ट्रिकटेड एरिया) तथा फ्री-थो रेखाएं-ये स्थान जिन पर परिधि अन्त-रेखाओं, फ्री-थ्रो रेखाओं से निकलने वाली रेखाओं से निर्धारित होती है, उन्हें प्रतिबद्ध क्षेत्र कहते हैं। सिरों की ओर फ्री-थ्रो रेखाएं इसके अर्द्धव्यास को अंकित करती हैं। इन रेखाओं का बाहरी किनारा अन्त-रेखाओं के मध्य बिन्दु से 3 मीटर होगा और फ्रीथ्रो रेखाओं के सिरों पर आकर समाप्त हो जाएगा।
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फ्री-थ्रो रेखाएं वे प्रतिबद्ध स्थान हैं जो कोर्ट में 1.80 मीटर के अर्द्धव्यास वाले अर्द्ध-वृत्त में फैले होते हैं। . पहली रेखा सिरे वाली रेखा के भीतरी किनारे में 1.75 मीटर है। पहली गली के स्थान से आगे एक उदासीन क्षेत्र (Neutral Zone) होगा जिसकी चौड़ाई 30 सैंटीमीटर होगी। दूसरी गली का स्थान 85 सैंटीमीटर चौड़ा होगा और उदासीन क्षेत्र के साथ लगता होगा। तीसरी गली का स्थान दूसरी गली के साथ लगता है और इसकी चौड़ाई 85 सेंटीमीटर होगी। जहां तक टूटे हुए अर्द्ध वृत्त का सम्बन्ध है, प्रत्येक अंकित क्षेत्र की लम्बाई 35 सैंटीमीटर होगी और दोनों भागों के बीच की दूरी 40 सम होगी।

पिछले बोर्ड का आकार, पदार्थ और स्थिति (Back Board-Size, Material and Position)-पीछे वाले बोर्ड कठोर लकड़ी के बनाए जाएंगे या फाइबर ग्लास के भी हो सकते हैं जिनकी मोटाई 3 सम होगी। ये टेढ़े रुख 1.80 मीटर तथा खड़े रुख में 1.20 मीटर होंगे। यहां रिंग लगता है, उसके पीछे बोर्ड पर 59 सैंटीमीटर × 45 सेंटीमीटर की आयत बनाई जाती है। किनारा रिंग की सतह के बराबर होगा। बोर्ड की सीमाएं 5 सैंटीमीटर चौड़ी रेखाओं द्वारा अंकित की जाएंगी।

यह बोर्ड के रंग के उलट वाले रंग की होगी। बोर्ड का निचला किनारा ज़मीन से 2.75 मीटर ऊंचा होगा। पीछे बोर्ड के आधार स्तम्भ सीमा के बाहरी क्षेत्र में अन्त-रेखाओं के बाह्य किनारे से कम-से-कम 1.00 मीटर दूर गाड़े जाएंगे।

बॉस्केट-बॉस्केट छल्लों और जाली की बनी होती है। बॉस्केट नारंगी रंग वाले अन्दर से 45 सैंटीमीटर व्यास के लोहे के घेरे होते हैं। घेरे की धातु 20 मिलीमीटर मोटी होगी। जाल सफ़ेद रस्सी का बना होता है जोकि छल्लों से लटकता है। यह छल्ले इस प्रकार के बने होते हैं कि जब गेंद इनसे गुज़रती है, वह इसे थोड़ी देर के लिए रोक लेते हैं।
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गेंद-गेंद गोलाकार होगी। यह चमड़े की बनी होगी और इसके अन्दर का ब्लैडर रबड़ का होगा। इसकी परिधि 75 सम से 78 सम होगी। इसका भार 600 ग्राम से 650 ग्राम होगा।

अब नियम यह आज्ञा देता है कि प्रयुक्त गेंद भी प्रयोग की जा सकती है। फिर भी गेंद के विषय में रैफरी ने सहमति प्रकट की हो। रैफरी प्रयुक्त गेंद चुन सकता है। जब गेंद एक बार चुन ली गई हो तो कोई भी टीम खेल की गेंद का प्रयोग नहीं करती। यदि उचित पुरानी गेंद न मिल सकती हो तो नई गेंद प्रयुक्त की जा सकती है।

बॉस्केट बॉल का इतिहास
(History of Basket Ball)
बॉस्केट बॉल एक उत्तेजना पूर्ण खेल है तथा इसका मूल स्थान अमेरिका है। इसका आविष्कार “अन्तर्राष्ट्रीय YMCA” के शिक्षक डॉ. स्मिथ (Dr. Smith) ने सन् 1891 में स्प्रिंगफील्ड मैसाशसटस (Springfiled Massa Chussets U.S.A.) में किया था। इसके नियम बाद में संशोधित (Revised) किए गए, जिनके अन्तर्गत ‘गोल’ (Goals) को कोर्ट (Court) के ठीक बाहर रखा गया, शारीरिक सम्पर्क (Body Contact) को स्वीकृति नहीं दी गई तथा गेंद के साथ-साथ दौड़ने को ‘फाऊल’ (Foul) घोषित कर दिया गया। अनुभवहीन खिलाड़ियों को खेल में शामिल करने के प्रयोजन से खेल को अधिक सरल बनाया गया। डॉ. स्मिथ ने खेल क्षेत्र के दोनों ओर दो बाक्स (Reach Baskets) दोनों ओर एक-एक, एक निश्चित ऊंचाई पर टांग दिए तथा खिलाड़ियों को स्कोर के लिए गेंद उन बाक्सों में फेंकनी पड़ती थी।
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अब गेंद के बाक्स से वापस आने की समस्या थी इसलिए ‘बाक्स’ के स्थान पर आज की तरह के ‘गोल’ प्रयोग किए गए। इस प्रकार यह खेल अमेरिका में शुरू हुआ तथा इसके नियमों को सन् 1934 में मानक (Standardised) रूप दिया गया।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
बॉस्केट बाल खेल में तकनीकी उपकरण (सामान) क्या-क्या होते हैं ?
उत्तर-
तकनीकी उपकरण (सामान)
(क)

  1. खेल की घड़ी (गेम-वाच)
  2. टाइम-आऊट के लिए घड़ी (टाइम-आऊट वाच)-एक
  3. स्टाप घड़ियां (स्टाप वाचिज़)-(क) टाइम कीपर के पास कम-से-कम दो घड़ियां होनी चाहिएं और खेल घड़ी मेज़ पर रखी जाएगी।

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(ख) स्कोर-शीट
(ग) कम-से-कम 20 सम × 10 सम आकार के एक से पांच तक अंक-एक से चार तक के काले रंग के अंक तथा पांच के लिए लाल रंग के अंक। .
(घ) 24 सैकिंड नियम के प्रबन्ध के लिए एक योग्य यन्त्र जिसको खिलाड़ी और दर्शक देख सकें।
(ङ) सब को दिखाई देने वाला एक खेल अंक बोर्ड स्कोर बोर्ड होगा जिस पर दोनों टीमों के खेल अंक लिखे जाएंगे।
(च) स्कोरर के पास दो लाल झण्डे दोनों टीमों के फाऊल मार्कर के हाथ में होंगे। इसे आठ फाऊल एक अवधि में होने की अवस्था में इस टीम की तरफ लिया जाएगा तथा खिलाड़ियों, कोच साहिब और खेल अधिकारियों को दिखाई दे सकेगा।
टीमें-प्रत्येक टीम में दस खिलाड़ी होंगे और सात खिलाड़ी प्रतिस्थापन के लिए होते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी की कमीज़ के सामने और पिछली ओर कमीज़ के रंग से अलग नम्बर लगे होते हैं। यह नम्बर 4 से 15 तक होते हैं।

एक टीम के सभी खिलाड़ी ऐसी कमीजें पहनेंगे जिनका रंग आगे और पीछे की ओर एक जैसा होगा।
खिलाड़ी द्वारा कोर्ट छोड़ना-जब तक मध्यान्तर (Interval) न हो जाए अथवा नियम स्वीकृति न दे कोई भी खिलाड़ी बिना अधिकारियों की आज्ञा के कोर्ट छोड़ कर बाहर नहीं जा सकता।

कप्तान-इसके अधिकार और कर्तव्य-केवल कप्तान की सूचना लेने के लिए या किसी तरह की व्याख्या के लिए अधिकारी से बातचीत कर सकता है। खिलाड़ी बदलने का अधिकार कोच या कोच के स्थान पर काम कर रहे अधिकारी का होता है।

खेल की अवधि-खेल 10-2-10-10-2-10 मिनट की चार अवधियों में खेला जाएगा। इन दोनों अवधियों में 10 मिनट का अवकाश होगा।
खेल का आरम्भ-खेल का आरम्भ रैफरी द्वारा किया जाएगा। वह दोनों विरोधियों के बीच केन्द्र में गेंद को ऊपर उछालेगा। खेल उस समय तक आरम्भ नहीं होगा जब तक एक टीम पांच खिलाड़ियों सहित मैदान में खेलने के लिए प्रस्तुत न हो जाए। यदि खेल आरम्भ होने के समय तक कोई अनुपस्थित टीम मैदान में नहीं पहुंचती तो उसकी विरोधी टीम को वॉक ओवर मिल जाता है, अर्थात् उसे बिना खेल के ही विजयी घोषित कर दिया जाता है।

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प्रश्न 3.
जम्प बाल और जम्प बाल के समय फाऊल बताएं।
उत्तर-
जम्प बाल-जम्प बाल के समय दो कूदने वाले अर्द्ध-वृत्त के अन्दर पांव रख कर अपनी-अपनी बॉस्केट के समीप खड़े होंगे तथा उनका एक पांव बीच में पड़ी रेखा के केन्द्र के पास होगा। उस समय कोई अधिकारी गेंद को इतनी ऊंचाई से ऊपर फैंकेगा कि उनमें से कोई खिलाड़ी उछल कर गेंद न पकड़ सके और गेंद उन दोनों के मध्य में गिरे। कोई खिलाड़ी गेंद को उस समय तक थपथपाने का यत्न नहीं करेगा जब तक उसने अधिकतम ऊंचाई प्राप्त न कर ली हो। कूदने वाला खिलाड़ी केवल दो बार ही गेंद को थपथपा सकता है।
जिस समय जम्प बाल (Jump Ball) में नियम तोड़ा जाता है इसके दण्ड-स्वरूप पार्श्व रेखा (Side line) पर से थ्रो-इन (Throw-in) दी जाती है। यह अपने विरोधियों के लिए केन्द्र बिन्दु होता है।

कोच (Coach) खेल के आरम्भ होने के निश्चित समय से लगभग 20 मिनट पहले कोच (Coach) फलांकन कर्ता (Scorer) को उन खिलाड़ियों के नाम और गिनती जिन्होंने खेल में खेलना है, के अतिरिक्त कप्तान, कोच और सहायक कोच के नाम देगा।

खेल के आरम्भ होने से स्कोर शीट (Score-Sheet) पर यह हस्ताक्षर करके खिलाड़ियों के नाम और गिनती से अपनी सहमति प्रकट करेंगे और उसी समय पांच खिलाड़ियों के नाम बताएंगे जिन्होंने खेल आरम्भ करना है।
ए (A) टीम का कोच यह जानकारी पहले देगा।

नोट-ऐसा न करने पर और जिससे खेल आरम्भ होने में देरी हो, कोच पर तकनीकी फाऊल (Technical Foul) का दोष लग सकता है और खेल दो फ्री-थ्रो (Free Throws) करने के पश्चात् आरम्भ होगा।

गोल-जब गेंद बास्केट में ऊपर से जाकर रुक जाए या निकल जाए तब गोल बन जाता है। रेखा के क्षेत्र से किए गए गोल के दो अंक तथा फ्री-थ्रो द्वारा किए गए गोल का एक अंक होता है। बिन्दु रेखा से परे फील्ड गोल लगाने के लिए प्रयत्न करने के तीन अंक दिए जाएंगे।

आक्रमण के समय बाधा उत्पन्न करना-जिस समय गेंद बॉस्केट के समतल के ऊपर से नीचे की ओर आती है तो कोई खिलाड़ी अपने सीमित क्षेत्र में न तो गेंद को छू सकता है और न ही वह इसे पकड़ सकता है चाहे वह गोल बनाने की कोशिश में हो।

प्रतिरक्षा के समय गेंद में बाधा-जब विरोधी खिलाड़ी गोल करने के लिए गेंद फेंकता है तथा सारी गेंद बॉस्केट के घेरे की सतह के ऊपर हो, उस समय जैसे ही गेंद नीचे आना शुरू करे, प्रतिरक्षा खिलाड़ी उसको छूने की बिल्कुल कोशिश नहीं करेगा। उल्लंघन होने पर गेंद मृत (Dead) हो जाती है। यदि फ्री-थ्रो के समय उल्लंघन हो तो फेंकने वाले के पक्ष में एक अंक यदि गोल की चेष्टा के समय हो तो फेंकने वाले के पक्ष में जोड़ दिए जाते हैं।

गोल के पश्चात् गेंद खेल में-गोल बनाने के 5 सैकिंड बाद विरोधी टीम का कोई खिलाड़ी, कोर्ट के अन्त में, परिधि से बाहर किसी भी बिन्दु से, जहां गोल बना था, गेंद खेल में डालेगा।

पिवटिंग
(Pivoting)
जब गेंद पकड़े हुए कोई खिलाड़ी एक ही पैर से एक बार या अधिक बार किसी दिशा में बढ़ता (घूमता) है तो इसे “पिवटिंग” (Pivoting) कहते हैं। खिलाड़ी के दूसरे पैर को जो जमीन के साथ सम्पर्क में रहता है—’पिवट’ कहा जाता है।
बॉस्केट बॉल में पिवटिंग निम्नलिखित तीन प्रकार की होती है—
1. स्थित पिवट (Stationary Pivot)—इस पिवट में—

  • एक खिलाड़ी दोनों पैरों को ज़मीन पर टिकाए हुए गेंद प्राप्त करता है।
  • यह रिबाउण्ड (Rebound) लेता है।
  • हवा में पास (Pass) देता है तथा दोनों पैरों को एक साथ ही भूमि पर टिकाते हुए वापस आता है। चाहे पैर एक-दूसरे के समान्तर हैं अथवा एक पैर दूसरे के सामने है। खिलाड़ी किसी भी पैर का प्रयोग करते हुए पिवट (रिवर्स अथवा रेयर पिवट) ले सकता है। यदि कोई खिलाड़ी ड्रिबलिंग (Dribbling) कर रहा है अर्थात् वह गतिशील है तो वह गेंद प्राप्त करके एक पैर को दूसरे पैर के सामने रखते हुए तथा सामने वाले पैर को किसी भी दिशा में गतिशील करते हुए स्ट्राइड स्टॉप (Stride Stop) में आ जाता है। इस पिवट का प्रयोग विपक्ष के खिलाड़ी से दूर जाने तथा अपने ही किसी साथी को खेल में लाने के लिए किया जाता है।

सामने या भीतरी पिवट
(Front or Inside Pivot)
इसकी तकनीक वही है जो रेयर पिवट (Rare Pivot) की है किन्तु इसमें अपने सामने के विपक्षी खिलाड़ी की तरफ टर्न (Turn) लिया जाता है अर्थात् गेंद पकड़े हुए खिलाड़ी एक पैर को आगे रख कर खड़ा होता है तथा दूरवर्ती पैर को विपक्षी खिलाड़ी के लगभग निकट रखते हुए अपने सामने के पैर पर पिवट लेता है।

अधिकारिक संकेत
(Official Signals)

  1. जब स्वतन्त्र थ्रो की संख्या का संकेत देता हो तो उंगलियों को अपने चेहरे की ऊंचाई पर रख कर कलाई से नीचे की ओर बार-बार गति दी जाती है।
  2. टाइम चार्ज (Charged Time Out) के लिए अधिकारी अपनी हथेली पर उंगलियों से T का चिह्न बनाता
  3. जम्प बॉल (Jump Ball) के संकेत के लिए अधिकारी अपने दोनों अंगूठे ऊपर करते हैं।
  4. त्रुटिपूर्ण ड्रिबल (Illegal dribble) के लिए वह Patting motion देता है।
  5. तीन सैकेण्ड के नियम (Three second rule) का उल्लंघन होने पर अधिकारी अपनी तीन उंगलियों (अंगूठा सहित) को साइड की तरफ करके संकेत करता है।
  6. किसी क्षेपण को निरस्त (Cancellation of a throw) करने के लिए अधिकारी अपने बाजुओं को अपने शरीर पर स्थानान्तरित करता है।
  7. स्टैपिंग (Stepping or travelling) के संकेत के लिए अधिकारी अपनी मुट्ठी घुमाता है।
  8. व्यक्तिगत फाऊल के लिए रैफरी बन्द मुट्ठी (Close fist) द्वारा संकेत करता है।
  9. व्यक्तिगत फाऊल की स्थिति में. यदि कोई स्वतन्त्र क्षेपण न देता हो तो अधिकारी अपनी उंगली को साइड रेखा की तरफ कर देता है।
  10. किसी तकनीकी फाऊल का संकेत देने के लिए अधिकारी खुली हथेली से ‘T’ बनाता है तथा उसे दूसरी हथेली पर दिखाता है।
  11. दोहरे फाऊल के संकेत के लिए वह अपनी बन्द मुट्टियों को अपने सिर के ऊपर हिलाता है।
  12. जानबूझ कर किए गए फाऊल के लिए रैफरी अपनी मुट्ठियों को बन्द रखते हुए अपनी कलाई को पकड़ कर संकेत करता है।
  13. धकेलने तथा चार्जिंग के संकेत के लिए रैफरी धकेलने जैसी नकल करता है।
  14. सीमाओं के उल्लंघन के लिए रैफरी हाथ हिला कर सीमा के बाहर संकेत करता है तत्पश्चात् उस टीम की बॉस्केट की तरफ संकेत करता है-जिसे “आऊट ऑफ़ बाऊण्ड-बॉल” दी गई है।
  15. टाइम आऊट के लिए अधिकारी सिर के ऊपर खुली हथेली से संकेत करता है।

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प्रश्न 4.
बॉस्केट बाल खेल के विभिन्न पासों के विषय में लिखें ।
उत्तर-
पास के प्रकार
(Types of Passes)
पासिंग (Passing)-बॉस्केट बॉल के खिलाड़ी को उन सभी प्रकार के पास (Passes) देने में निपुण होना चाहिए जिनका प्रयोग गेंद को अपने साथी को देने के लिए विपक्षी खिलाड़ी के ऊपर से, नीचे से अथवा उसके पास से फेंका जाता है।

पास देने के लिए आवश्यक बातें
(Some Essentials of Passing)
पास देने के लिए कुछ आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं—

  1. पास देने से पहले सामने देखने की आदत बनाओ।
  2. पास प्राप्त करने वाले साथी की दूरी का अनुमान लगाना तथा साथ ही यह अनुमान भी लगाना कि कितने समय में गेंद उसके पास पहुंचेगी।
  3. पास करने से पहले विपक्षी खिलाड़ी की स्थिति का अनुमान लगाना।
  4. “पास” सही तथा शीघ्र होना चाहिए।

दो हाथ का छाती वाला या पश पास
(Two Handed Chest Pass or Push Pass)
बॉस्केट बॉल में यह सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाला पास है। कम या मध्यम दूरियों के लिए इस पास का प्रयोग होता है तथा इसमें कलाई द्वारा अतिरिक्त शक्ति लगाई जाती है। गेंद को छाती की ऊंचाई पर लाना चाहिए ताकि इसे सरलता से प्राप्त (Catch) किया जा सके। पास देने के लिए गेंद को छाती के सामने दोनों हाथों में पकड़ा जाता है, कोहनियां काफ़ी दूर होती हैं ताकि गति में अवरोध न हो। इस स्थिति में खिलाड़ी गेंद को पास, शूट या स्टार्ट (Pass, Shoot or Start) कर सकता है। भुजाओं को फैला कर तथा हथेली को पास की दिशा में घुमाकर गेंद को शक्ति के साथ आगे की ओर धकेलना चाहिए।

दो हाथ का बाउन्स पास (Two Handed Bounce Pass)—यह पास भी लगभग “Chest Pass” की तरह ही है। इसमें गेंद को ठीक पहले की तरह ही फेंका जाता है किन्तु इसे ज़मीन की तरफ प्राप्तकर्ता खिलाड़ी के यथासम्भव निकट फेंकते हैं ताकि वह गेंद को घुटनों तथा कमर के बीच किसी ऊंचाई पर प्राप्त करके ले। “बाउन्स पास” का प्रयोग साधारणतया छोटी दूरियों के लिए किया जाता है। बाउन्स पास देने के लिए गेंद को अपनी छाती या कमर की ऊंचाई पर दोनों हाथों में पकड़े कोहनियों को सीधा करें तथा हथेली से शक्ति के साथ गेंद को ज़मीन की तरफ इस प्रकार फेंको कि विपक्षी के पास से होकर जैसे ही गेंद ज़मीन को छुए, वह उछल कर प्राप्तकर्ता के हाथ में गिरे।

दो हाथों का अण्डर हैण्ड पास
(Two Handed Under Hand Pass)
इसे शौवल पास (Shoval Pass) भी कहते हैं। यह तब प्रयोग किया जाता है जब खिलाड़ी (Passer) अपने साथी खिलाड़ी के निकट ही हो। गेंद शीघ्र देने के लिए यह एक छोटा पास है। यह पास देने के लिए कोहनियों को बाहर की तरफ़ मोड़ते हुए दाएं या बाएं तरफ से दोनों हाथों का प्रयोग करो। दाईं साइड के पास के लिए बायां तथा बाईं साइड के पास के लिए तुम्हें दायां पैर आगे धकेलना चाहिए।

बेस बॉल पास
(Base Ball Pass) यह पास बहुत प्रभावशाली है। इसका प्रयोग गेंद को पिवट खिलाड़ी (Pivot Player) को देने अथवा लम्बा पास देने के लिए होता है। सुविधा के अनुसार दायां या बायां हाथ प्रयोग किया जा सकता है। पास को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए गेंद को अपने कन्धों के ऊपर तथा दाएं कान के निकट रखो। अब गेंद को पूरी शक्ति के साथ आगे फेंको। इस पूरी क्रिया में तुम्हारा दायां हाथ पीछे रहना चाहिए। इस पास में देखने की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गेंद को कलाई (न कि बाजुओं) की मदद से कितनी शक्ति से धकेला जाता है।

दो हाथों वाला साइड पास
(Two Handed Side Pass)
सिवाय हाथों की स्थिति के, यह पास “बेस बॉल पास” की तरह ही है। इसमें हाथों को गेंद के दोनों तरफ फैलाना चाहिए। इसे हुक के दाएं या बाएं किसी तरफ से भी खेला जा सकता है।

बैक पास
(Back Pass) अपने असुरक्षित साथी (Unguarded) को गेंद देने के लिए यह सर्वोत्तम पास है। इसमें गेंद को पीछे से, कलाई से तथा उंगलियों की मदद से पास किया जाता है। क्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए कूल्हों (Hips) को थोड़ा हिलाया जा सकता है। किसी भी हाथ से यह पास प्रभावशाली ढंग से दिया जा सकता है।

एक हाथ का बाऊन्स पास
(One Handed Bounce Pass)
यह दाएं या बाएं हाथ से दिया जाता है। इसका प्रयोग दो स्थितियों में किया जाता है।

  1. जब “गार्ड” खिलाड़ी (Guard Player) पासर खिलाड़ी (Passer Player) को बहुत निकट से गार्ड कर रहा
  2. जब गतिशील प्राप्तकर्ता खिलाड़ी बहुत निकट से गार्ड किया जा रहा हो।

इस ‘पास’ की तकनीक स्थिति के साथ बदलती रहती है। पहली स्थिति में पास को प्रभावशाली बनाने के लिए इसे शीघ्रता से तथा अकस्मात् (Suddenness and Surprise) किया जाता है। इसकी साधारण विधि में इसे शुरू करके आवश्यकतानुसार किसी भी साइड में शीघ्रता से हट जाना होता है। ठीक उसी समय गार्ड खिलाड़ी से बचने के लिए बाजू को कदम की दिशा में बढ़ा कर गेंद प्राप्तकर्ता की तरफ आवश्यकतानुसार स्विग (Swing) के साथ उछाल दिया जाता है। दूसरे प्रकार का ‘एक हाथ वाला पास’ तब आवश्यक होता है जब दौड़ता हुआ प्राप्तकर्ता (Receiver) खिलाड़ी बहुत निकट से गार्ड हो रहा हो। इस स्थिति में ‘गार्ड’ द्वारा इसी प्रकार का सीधा पुश पास प्रयोग करना सम्भावित है। इस पास (Pass) को फेंकने के लिए गेंद को थोड़ा-सा कन्धों के ऊपर कानों के पास रखा जाता है। इसके बाद बाजू को आगे तथा नीचे की तरफ इस तरह फैलाया जाता है कि गेंद को सामने स्विग किया जा सके परन्तु गेंद ‘गार्ड’ (जो प्राप्तकर्ता को कवर किए हैं) की पहुंच के बाहर होनी चाहिए।

फ्लिप पास
(Flip Pass)
‘फ्लिप पास’ का प्रयोग गेंद को निकट से ‘पास’ के लिए किया जाता है। यह आवश्यकतानुसार दोनों हाथों से या एक हाथ से किया जा सकता है। थोड़ी दूरी पर खड़े खिलाड़ी को गेंद फ्लिप करने के लिए झुकी हुई कलाई (Flexed Wrist) का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि यह एक छोटा ‘पास’ है गेंद को केवल कलाई द्वारा ही ‘फ्लिप’ किया जाता है ताकि गेंद को केवल इतना बल ही मिले कि प्राप्तकर्ता इसे सरलता से तथा निश्चित रूप से दबोच सके। क्योंकि दूरी कम होती है इसलिए प्रतिपक्षी खिलाड़ी इसे रोक नहीं सकता तथा प्राप्तकर्ता इसे सरलता से पकड़ लेता है।

एक हाथ का साइड पास
(One Handed Side Pass)
जब अधिक शुद्धता (Accuracy) तथा गति (Speed) की आवश्यकता न हो तो उस स्थिति में यह ‘पास’ प्रयोग किया जाता है। इस पास की तकनीक इस प्रकार है—
गेंद को अपने हाथों में पकड़ो, हाथों की उंगलियां अच्छी तरह फैली हुई हों ताकि पूरे गेंद को ढक सकें। अपने शरीर को थोड़ा-सा घुमाते हुए गेंद को दाएं कान के पास ले जाओ। कोहनियों को खोलते हुए तथा उसी समय बाएं पैर को आगे बढ़ाओ। कोहनी को नीचे की तरफ खोलते हुए दाएं हाथ से गेंद को आगे की ओर फेंको। विश्राम सहित (Relaxed) शरीर तथा कलाई द्वारा इसका पीछा करो। पास देते समय बाईं भुजा, दाईं भुजा की मदद करती है। परन्तु बाईं कोहनी छाती की ऊंचाई पर मुड़ी रहती है।

टिप अर्थात् वॉली पास
(Tip or Volley Pass)
किसी दिशा में भी एक कदम लेकर फ्रन्ट लाइन की स्थिति से यह पास दिया जा सकता है। गेंद पकड़ते समय एक हाथ गेंद के नीचे तथा दूसरा उसकी मदद करते हुए होता है। गेंद को उंगलियों के सिरों से या कलाई द्वारा फ्लिप करके थोड़ी दूर पर खड़े अपने साथी खिलाड़ी को लुढ़का दिया जाता है।

पासिंग क्रिया की आवश्यक बातें
(Some Hints on Passing Strategy)

  1. ‘पासर’ खिलाड़ी को प्राप्तकर्ता खिलाड़ी की स्थिति तथा उसके द्वारा की जाने वाली सम्भावित कार्यवाही का . पूर्व अनुमान लगा लेना चाहिए।
  2. पास देते समय शीघ्रता नहीं करनी चाहिए विशेषकर जब उसका साथी विपक्षी खिलाड़ियों से घिरा हआ हो।
  3. टीम का आफैन्स (Offence) मुख्य रूप से छोटे पासों (Short Passes) पर निर्भर होता है।

बॉस्केटबाल में प्रयुक्त शब्दावली
पिछला कोर्ट-कोर्ट का आधा भाग जहां से आक्रामक टीम आती है। अन्य शब्दों में, वह अर्द्ध भाग है जिसमें कि बॉस्केट होती है जिसको उन्होंने बचाना होता है।
ब्लाईंड पास-एक दिशा में देखते हुए बाल को पृथक् दिशा का प्रयोग करते हुए दूसरी दिशा में पास देना।
स्पष्ट शॉट-यह शॉट जो बोर्डों या रिंग को बिना छुए सीधा बॉस्केट में जाता है।

क्षेत्र से क्षेत्र की प्रतिरक्षा (Zone to Zone defence)—यह एक प्रकार की प्रतिरक्षा प्रणाली है जिसमें खिलाड़ी किसी क्षेत्र की केवल प्रतिरक्षा के ज़िम्मेदार होते हैं। इनका ध्यान केवल गेंद की तरफ होता है, प्रतिपक्षी खिलाड़ी की तरफ नहीं।

खिलाड़ी से खिलाड़ी की प्रतिरक्षा (Man to Man defence)—यह वह प्रतिरक्षा प्रणाली है जिसमें प्रत्येक खिलाड़ी की ज़िम्मेदारी किसी विशेष शत्रु खिलाड़ी से प्रतिरक्षा की होती है।
मिश्रित प्रतिरक्षा (Combined defence)—यह प्रतिरक्षा प्रणाली दोनों प्रणालियों ‘क्षेत्र से क्षेत्र’ तथा ‘खिलाड़ी से खिलाड़ी’ का मिश्रण है।

कट इन (Cut in)-किसी खिलाड़ी का दो या अधिक शत्रु खिलाड़ियों के मध्य से होकर गेंद प्राप्त करने के लिए किसी बॉस्केट की ओर तेज़ी से भागना ‘कट इन’ कहलाता है।

चार्जिंग (Charging)-किसी खिलाड़ी के साथ अनावश्यक शारीरिक सम्पर्क। किसी खिलाड़ी के बीच से निकलना तथा उससे बचने की कोशिश करना।

फाऊल आऊट (Fouled Out)-पांच फाऊलों के बाद खिलाड़ी को क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है। इसे फाऊल आऊट कहते हैं।
फ्रीज या हैल्ड गेंद (Freeze or Held bal)—गेंद को बजाय खेलने की कोशिश करने के उसे अपने पास ही रख लेना।

ओवर लोडिंग (Over Loading)—’क्षेत्र से क्षेत्र प्रतिरक्षा’ के विरुद्ध विरोधी खिलाड़ियों की आक्रामक प्रणाली। इस हेतु एक ही तरफ अधिक आक्रामक खिलाड़ियों को खड़े करने की प्रणाली को ओवरलोडिंग कहा जाता है।
पोस्ट खिलाड़ी (Post Player)—स्वतन्त्र थ्रो के क्षेत्र में खड़े आक्रामक खिलाड़ी को पोस्ट खिलाड़ी कहते हैं।
स्क्रीन (Screen)-जब कोई खिलाड़ी अपने साथी की रक्षा के लिए उसके गार्ड के मार्ग में स्वयं को खड़ा कर लेता है।

खेल का निर्णय-खेल में अधिक अंक प्राप्त करने वाली टीम को विजयी घोषित किया जाएगा।
खेल का अधिकार छिन जाना—मध्यान्तर या टाइम-आऊट के पश्चात् यदि कोई टीम रैफरी के बुलाने के बाद एक मिनट के अन्दर खेल के लिए मैदान में नहीं उतरती तो गेंद खेल में लाई जाएगी और अनुपस्थित टीम खेल अधिकार खो देगी। यदि खेल के दौरान किसी टीम के खिलाड़ियों की संख्या दो से कम रह जाए तो खेल समाप्त हो जाएगा और टीम भी खेल अधिकार खो देगी।

स्कोर तथा अतिरिक्त समय–यदि दूसरे खेल अर्द्धक की समाप्ति तक दोनों टीमों के अंक बराबर हों तो पांच मिनटों की अधिक अवधि दी जाएगी और ऐसी अवधि जब तक खेल का फैसला न हो, दी जाएगी। अतिरिक्त समय में बॉस्केट के चुनाव के लिए टॉस होगा और उसके बाद प्रत्येक अतिरिक्त समय के लिए बॉस्केट बदल लिया जाएंगे।

टाइम-आऊट-मध्यान्तर तक प्रत्येक टीम को दो टाइम-आऊट मिल सकते हैं तथा अतिरिक्त समय में एक टाइमआऊट मिल सकता है। किसी खिलाड़ी को चोट लगने की दशा में एक मिनट का टाइम-आऊट मिलता है। यदि इस बीच घायल खिलाड़ी ठीक नहीं होता तो उसकी जगह नया खिलाड़ी ले लिया जाता है।

खेल की समाप्ति-टाइम कीपर द्वारा खेल की समाप्ति की सूचना दिए जाने पर खेल समाप्त कर दिया जाएगा।
खिलाड़ी का बदलना-स्थानापन्न खिलाड़ी (Substitute Player) मैदान में उतरने से पहले स्कोरर के पास रिपोर्ट करेगा और तुरन्त खेलने के लिए प्रस्तुत रहेगा। अधिकारी का संकेत पाते ही मैदान में तुरन्त उतरेगा। स्थानापन्न को मैदान में उतरने के लिए 20 सैकिंड से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। यदि उसे अधिक समय लगता है तो टाइम-आऊट माना जाएगा और विरोधी दल के विरुद्ध अंकित कर दिया जाएगा।

मृत गेंद (Dead Ball)—गेंद उस समय भी मृत होती है जब गेंद जो पहले ही गोल के लिए शॉट (Shot) के लिए उड़ान में होती है और खिलाड़ी के द्वारा उस समय के पश्चात् छुई जाती है जब बाधा या फाऊल समय पूरा हो चुका होता है या जब फाऊल बुलाया जा चुका होता है। (ऊपर की ओर उड़ान में जब गेंद को छुआ जाता है, बॉस्केट यदि असफल हो, नहीं गिनी जाती।)

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
बास्केट बाल खेल में तीन सैकिण्ड, पांच सैकिण्ड, आठ सैकिण्ड और चौबीस सैकिण्ड नियम क्या
उत्तर-
तीन सैकिण्ड नियम-जब गेंद किसी टीम के अधिकार में हो तो उस टीम का कोई भी खिलाडी विरोधी टीम के प्रतिबद्ध क्षेत्र में तीन सैकिण्ड से अधिक नहीं रहेगा।
पांच सैकिण्ड नियम -जब पास का कोई रक्षक खिलाड़ी गेंद को खेलने से रोकता है और वह पांच सैकिण्ड के अन्दर गेंद को खेल में डालने की कोई सामान्य कोशिश नहीं करता तो वह ब्लॉकिंग कहलाता है।

आठ सैकिण्ड नियम -जब किसी टीम को मैदान के पिछले भाग में गेंद प्राप्त हो जाता है तो उसे आठ सैकिण्ड के अन्दर गेंद को अगले भाग में डालना पड़ता है।
चौबीस सैकिण्ड नियम-नये नियम के अनुसार पार्श्व रेखा (Side line) पर आऊट ऑफ बाऊंड्ज़ (Out of bounds) से थ्रो-इन के पश्चात् एक नई चौबीस (26) सैकिण्ड की अवधि तब तक आरम्भ नहीं होती जब तक—

  • गेंद आऊट ऑफ बाऊंड्ज़ (Out of bounds) नहीं जाती है और उसी टीम के खिलाड़ी के द्वारा थ्रो-इन नहीं ली जाती।
  • अधिकारी (Officials) ने किसी आहत को बचाने के लिए खेल को रोक (Suspend) कर दिया हो और आहत खिलाड़ी वाली टीम के खिलाड़ी ने थ्रो-इन (Throw-in) ली हो।

24 सैकिण्ड आप्रेटर (Operator) उस समय से घड़ी को रोके हुए समय से चलाये जब तक वह टीम थ्रो-इन (Throw-in) किये जाने के पश्चात् पुनः काबू पा लेती है।
फाऊल के बाद गेंद खेल में-जब गेंद किसी फाऊल के साथ खेल से बाहर हो जाए तो इस स्थिर गेंद को—

  1. बाहर से थ्रो करके, या
  2. किसी एक वृत्त में जम्प बाल द्वारा, या
  3. एक या अधिक फ्री-थ्रो द्वारा फिर खेल में लाया जाएगा।

थ्रो-इन-जब किसी नियम का उल्लंघन हो जाए तो गेंद स्थिर समझी जाती है और विरोधी टीम को साइड-लाइन के समीपवर्ती बिन्दु से थ्रो-इन के लिए दी जाती है।

अब नियम उस खिलाड़ी को आज्ञा देता है जिसने थ्रो-इन (Throw-in) करना है कि वह समाप्ति रेखा (End line) को छुए और यह नियम का उल्लंघन नहीं है।

फ्री-थ्रो-जिस खिलाड़ी पर फाऊल किया गया हो वह फ्री-थ्रो लेता है परन्तु किसी तकनीकी फाऊल होने की दशा में कोई भी खिलाड़ी फ्री-थ्रो ले सकता है। जब फ्री-थ्री ली जाती है, तो खिलाड़ियों की स्थिति इस प्रकार होती है—

  1. विरोधी टीम के दो खिलाड़ी बॉस्केट के समीप खड़े होंगे।
  2. अन्य खिलाड़ी भिन्न-भिन्न पोजीशन लेंगे।
  3. बाकी के खिलाड़ी कोई भी और पोजीशन ले सकते हैं परन्तु वे फ्री-थ्रो के समय बाधक नहीं बनने चाहिएं।

फ्री-थ्रो के उल्लंघन-फ्री-थ्रो करने वाले सैकिण्ड खिलाड़ी के अधिकार में गेंद देने के पश्चात्

  • इन पांच सैकिण्ड के अन्दर गेंद को इस तरह फेंकेगा कि खिलाड़ी द्वारा छुए जाने से पहले गेंद बॉस्केट में चली जाए या घेरे का स्पर्श कर ले।
  • गेंद के बॉस्केट की ओर जाते समय या अन्दर पहुंचने पर न तो वह और न ही कोई दूसरा खिलाड़ी गेंद या बॉस्केट को छुएगा।
  • वह फ्री-थ्रो लाइन या उसके परे भूमि को छुएगा और न ही किसी टीम का कोई दूसरा खिलाड़ी फ्री-थ्रो लाइन को छुएगा या फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी को बाधा पहुंचाएगा।

खेल को प्रतिबन्धित करना (Game to be Forefeited)-नये नियम के अनुसार रैफरी को अब यह आवश्यक नहीं है कि वह गेंद को उस विधि से खेल में रखे जैसे कि दोनों टीमें फर्श पर खेलने के लिए और खेल को प्रतिबन्धित करने के लिए तैयार हों। अब रैफरी के खेल में बुलाने के पश्चात् यदि एक टीम खेलने से इन्कार कर देती है तो खेल प्रतिबन्धित हो जाता है।

गेंद का पिछली कोर्ट को वापिस जाना (Ball Return to Back Court) नये नियम के अनुसार गेंद को टीम ए (A) को पिछली कोर्ट की ओर भेजा जाता है, शर्त यह है कि इसको टीम ए (A) का एक खिलाड़ी छूता है जबकि टीम ‘A’ सामने की कोर्ट में गेंद को नियन्त्रित रखती है। इसके अनुसार A, खिलाड़ी को छूना जबकि गेंद टीम ए के सामने की कोर्ट में टीम बी (B) के नियन्त्रण में है। यदि गेंद टीम ए (A) के सामने की कोर्ट में जाता है उसको ऐसा नहीं समझा जाता है कि पिछली कोर्ट में जाने दिया जाए।

इसके आगे केन्द्र (Mid-Point) से थ्रो-इन (Throw-in) के बीच अधिकारी (Official) यह निश्चित बताएगा कि खिलाड़ी बढ़ाई गई पार्श्व रेखा (Side-line) के दोनों ओर एक पैर रख कर पोजीशन स्थापित करता है।

आऊट आफ बाऊंड खेल पर नियम का उल्लंघन (Violation on Out of bounds play) यह नियम को तोड़ना नहीं है जबकि थ्रो-इन (Throw-in) दी गई है, खिलाड़ी गेंद को छोड़ते समय लकीर पर पांव रखता है।
दण्ड—
1. फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी द्वारा उल्लंघन होने पर कोई अंक रिकार्ड न होगा। फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी के विपक्षी की गेंद फ्री-थ्रो लाइन के सामने दे दी जाएगी।

2. फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी को टीम के अन्य खिलाड़ी द्वारा नियम का उल्लंघन होने पर भी अंक रिकार्ड होगा। यदि नियम (ख) का उल्लंघन दोनों टीमों द्वारा होता है तो कोई अंक दर्ज नहीं होगा और फ्री-थ्रो लाइन पर जम्प बाल द्वारा खेल जारी किया जाएगा।

3. यदि नियम (ग) का उल्लंघन फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी के साथी द्वारा होता है तथा फ्री-थ्रो सफल हो जाती है तो उल्लंघन की उपेक्षा करके गोल गिन लिया जाएगा और उसका दण्ड दिया जाएगा।

4. यदि (ग) नियम का उल्लंघन फ्री-थ्रो करने वाले खिलाड़ी के विरोधियों से होता है तो फ्री-थ्रो सफल होने पर उल्लंघन की उपेक्षा करके गोल गिना जाएगा।

5. यदि नियम (ग) का उल्लंघन दोनों टीमों द्वारा होता है और फ्री-थ्रो सफल हो जाती है तो उल्लंघन की उपेक्षा करके गोल गिना जाएगा। फ्री-थ्रो सफल न होने की दशा में फ्री-थ्रो लाइन पर जम्प बाल के साथ खेल पुनः जारी किया जाएगा।

बॉस्केट बाल (Basket Ball) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 6.
बॉस्केट बाल खेल में खिलाड़ी के तकनीकी फाऊल लिखें।
उत्तर-
खिलाड़ी द्वारा तकनीकी फाऊल-कोई भी खिलाड़ी अधिकारियों द्वारा दी गई चेतावनी की अवहेलना नहीं करेगा और न ही ऐसा व्यवहार करेगा जो एक खिलाड़ी को शोभा न दे, जैसे—

  1. अधिकारी को अपमानजनक ढंग से सम्बोधित करना या मिलना।
  2. असभ्य व्यवहार करना।
  3. विरोधी खिलाड़ी को तंग करना या उसकी आंखों के आगे हाथ करके उसे देखने में रुकावट डालना।
  4. खेल को अनुसूचित ढंग से विलम्बित करना।
  5. फाऊल का संकेत मिलने पर ठीक ढंग से बाजू न उठाना।
  6. स्कोरर या रैफरी को बिना सूचित किए अपना नम्बर बदलना।।
  7. स्कोरर को सूचित किए बिना स्थानापन्न (Substitute) की तरह कोर्ट में प्रवेश करना।

दण्ड-प्रत्येक अपराध को एक फाऊल माना जाएगा और प्रत्येक फाऊल के लिए विरोधी को दो फ्री-थ्रो दी जाएंगी। इस नियम का बार-बार उल्लंघन किए जाने पर खिलाड़ी को अयोग्य घोषित करके खेल से निकाल दिया जाएगा।

कोच का स्थानापन्न (Substitute) द्वारा तकनीकी फाऊल-कोई कोच या स्थानापन्न बिना अधिकारी की आज्ञा के कोर्ट में दाखिल नहीं हो सकता, न ही कोर्ट के कार्यों को जानने के लिए अपना स्थान छोड़ सकता है और न ही किसी अधिकारी या विरोधी को अपमानजक ढंग से बुला सकता है।

दण्ड-कोच द्वारा इस नियम का उल्लंघन करने पर उसके नाम फाऊल दर्ज किया जाएगा। प्रत्येक अपराध के लिए एक फ्री-थ्रो दी जाएगी और बाल उसी टीम को केन्द्रीय रेखा पर थ्रो-इन करने के लिए मिलेगा। इस नियम के बारबार उल्लंघन किए जाने पर कोच को क्षेत्र की सीमाओं से बाहर निकाला जा सकता है।

निजी फाऊल-निजी फाऊल उस खिलाड़ी का होता है तो विरोधी खिलाड़ी को ब्लॉक करता है, पकड़ता है, धक्का देता है तथा उस पर आक्रमण करता है।
दण्ड-यदि शूटिंग करते समय खिलाड़ी पर फाऊल देता है तो—

  1. यदि गोल हो जाता है तो उसकी गिनती की जाएगी और एक फ्री-थ्रो दी जाएगी।
  2. यदि गोल (2 अंक) असफल हो, दो फ्री-थ्रो (Free Throw) दिए जाएंगे।
  3. यदि गोल (Goal) के लिए शाट (Shot) असफल होता है तो तीन फ्री-थ्रो (Free Throws) दिये जाएंगे।

जानबूझ कर (साभिप्राय ) फाऊल-यह वह शारीरिक फाऊल है जो किसी खिलाड़ी द्वारा जानबूझ कर दिया जाता है। जो खिलाड़ी बार-बार साभिप्राय फाऊल करता है उसे अयोग्य करार देकर खेल से निकाला जा सकता है।

दण्ड-अपराधी पर शारीरिक फाऊल का दोष लगाया जाएगा और दो फ्री-थ्रो दिए जाएंगे। यदि यह फाऊल ऐसे खिलाड़ी पर होता है तो गोल बनाता है तो यह गोल माना जाएगा और एक अतिरिक्त फ्री-थ्रो दी जाएगी।

डबल फाऊल-डबल फाऊल उस स्थिति में होता है जब दो खिलाड़ी एक-दूसरे के प्रति लगभग एक ही समय फाऊल करते हैं। डबल फाऊल होने पर निकटतम वृत्त से जम्प बाल द्वारा खेल पुनः शुरू करवा दी जाएगी।

बहुपक्षीय (Multiple) फाऊल-बहुपक्षीय फाऊल उस समय होता है जब एक टीम के दो या तीन खिलाड़ी एक ही विरोधी खिलाड़ी पर निजी फाऊल कर देते हैं।

इस स्थिति में प्रत्येक अपराधी खिलाड़ी पर एक फाऊल लगेगा और जिस खिलाड़ी के प्रति अपराध हुआ है उसे दो फ्री-थ्रो दी जाएगी। यदि फेंकने की प्रक्रिया में किसी खिलाड़ी के प्रति फाऊल हुआ है तो गोल बनने पर किया जाएगा और एक फ्री-थ्रो दी जाएगी।
पांच फाऊल-यदि कोई खिलाड़ी पांच फाऊल (निजी या तकनीकी) करता है तो उसे नियमानुसार बाहर निकाल देना चाहिए।

तीन और दो नियम (Three for two Rule)-जब खिलाड़ी गोल करने लगा हो तो उस पर विरोधी टीम का खिलाड़ी फाऊल कर दे और यदि गोल बन जाए तो एक और फ्री-थ्रो मिलेगा। गोल न होने की अवस्था में दोनों फ्रीथ्रो में से एक भी न होने पर अतिरिक्त फ्री-थ्रो मिलेगा।

चयन का अधिकार (Right of Option) केन्द्र बिन्दु (Mid Point) से थ्रो-इन के लिए चयन का अधिकार एक, दो और तीन थ्रो की दशा में लागू होता है। चयन करने से पहले कप्तान को कोच के साथ संक्षिप्त परामर्श करने की आज्ञा होती है।

टीम के द्वारा चार फाऊल (Four fouls by the Team)-जब टीम किसी अवधि में चार खिलाड़ियों का फ़ाऊल (निजी और तकनीकी) कर चुकती है, इस अवधि समय में सभी बाद के खिलाड़ियों को फाऊल होने पर दो फ्री-थ्रो मिलती है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 2 भारतीय आर्य

अध्याय का विस्तृत अध्ययन ।

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
कृषि तथा नगरों के विकास के सन्दर्भ में भारत में आर्यों के प्रसार की चर्चा करें।
उत्तर-
भारतीय आर्य सम्भवतः मध्य एशिया से भारत में आये थे। आरम्भ में ये सप्त सिन्धु प्रदेश में आकर बसे और लगभग 500 वर्षों तक यहीं टिके रहे। ये मूलतः पशु-पालक थे और विशाल चरागाहों को अधिक महत्त्व देते थे। परन्तु धीरेधीरे वे कृषि के महत्त्व को समझने लगे। अधिक कृषि उत्पादन की खपत के लिए नगरों का विकास भी होने लगा। फलस्वरूप आर्य लोग एक विशाल क्षेत्र में फैलते गए। इस प्रकार कृषि तथा नगरों के विकास ने आर्यों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ अन्य तत्त्वों ने भी उनके प्रसार में सहायता पहुंचाई। इन सब बातों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है :-

आर्यों के प्रसार की तीव्र गति के कारण- भारत में आर्यों का अधिकतर विस्तार 9वीं सदी ई० पू० से हुआ। इसके कई कारण थे-

(1) अब तक सिन्धु घाटी के अनेक लोग दास बना लिए गए थे। इनसे कृषि के लिए जंगल साफ करने का काम लिया जा सकता था।

(2) आर्यों ने लोहे का प्रयोग भी सीख लिया। लोहे से बने औजार पत्थर, तांबे या कांसे की कुल्हाड़ी से कहीं अधिक बेहतर थे। लोहे के प्रयोग द्वारा ही आर्य गंगा के मैदान के घने जंगलों को काटने में सफल हुए।

(3) सिन्धु घाटी सभ्यता की सीमा से बाहर बड़े पैमाने पर कोई अन्य संगठित समाज नहीं था। इसीलिए आर्यों को किसी लम्बे या शक्तिशाली विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। 600 ई० पू० से पहले ही आधुनिक उत्तर प्रदेश का क्षेत्र आर्य सभ्यता का केन्द्र बन चुका था। बिहार और पश्चिम बंगाल में भी इन्होंने बस्तियां स्थापित कर ली थीं। ब्राहाण ग्रन्थों में दो समुद्रों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त विंध्य पर्वत तथा हिमालय का भी उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट है कि आर्य लोग 600 ई० पू० तक सारे उत्तर भारत से परिचित हो गए थे। अतः यह कहा जा सकता है कि 900 ई० पू० से 600 ई० पू० तक की तीन सदियों में आर्य बस्तियों का विस्तार बड़े पैमाने पर हुआ।

कृषि का विकास तथा आर्यों का प्रसार-आर्यों का उत्तरी भारत में प्रसार वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसके । फलस्वरूप एक नई सभ्यता अस्तित्व में आई। आरम्भ में आर्यों ने अपने पशुओं के लिए खुले चरागाह पाने के लिए उन बांधों को नष्ट किया जो सिन्धु घाटी के लोगों ने बाढ़ द्वारा सिंचाई करने के उद्देश्य से बनाए थे। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति इसीलिए की गई है कि उसने उन नदियों को स्वतन्त्र किया जो ‘कृत्रिम’ रुकावटों द्वारा ‘स्थिर’ कर दी गई थीं। नदियों के स्वतन्त्र हो जाने पर पंजाब की धरती पर विशाल चरागाह बन गई जिसमें नगरों के स्थान पर गांव थे। परन्तु समय पाकर आर्य लोग कृषि के उपयोग तथा महत्त्व को समझने लगे। कृषि के विस्तार के लिए ऋग्वेद में एक प्रार्थना भी मिलती है। इसमें कहा गया है कि गेहूं, जौ, चावल, तिल, मोठ, मसूर, बाजरे आदि की फसलें बढ़ें और कृषि का विस्तार एवं विकास हो। गंगा के मैदान में वे शीघ्र ही लोहे का हल तथा सिंचाई और खाद के प्रयोग से परिचित हो गए। इसके फलस्वरूप पहले से कहीं अधिक विस्तृत प्रदेश कृषि के अधीन हो गया।

नगरों का विकास तथा आर्यों का प्रसार-कृषि से प्राप्त अधिक अन्न की खपत के लिए नगरों के विकास की सम्भावना उत्पन्न हुई। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के पतन के पश्चात् एक बार फिर भारत में हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, कौशाम्भी और काशी जैसे नगर अस्तित्व में आए। समय पाकर नगरों की संख्या बढ़ती गई। उनकी संख्या में वृद्धि के साथ-साथ व्यापार की सम्भावनाएं भी बढ़ीं। ऋग्वैदिक आर्यों के समाज में रथ बनाने वाले से लेकर साधारण बढ़ई तथा धातु और चमड़े के कारीगर भी थे। आरम्भ में वे जिन धातुओं का प्रयोग करते थे, उनमें सोना, तांबा और कांसा मुख्य थे। परन्तु ऋग्वेद के बाद के काल में रांगे (कली), सीसे और लोहे का प्रयोग भी किया जाने लगा।

ऋग्वेद के बाद की रचनाओं में व्यापार के साथ-साथ कहीं अधिक संख्या में दूसरे धन्धों का उल्लेख मिलता है, जैसेशिकारी, मछुआरे, पशु-सेवक, जेवर बनाने वाले, लोहा पिघलाने वाले, टोकरियां बुनने वाले, धोबी, रंगरेज़, रथ बनाने वाले, जुलाहे, कसाई, सुनार, रसोइये, कमान बनाने वाले, सूखी मछलियां बेचने वाले, लकड़ियां इकट्ठी करने वाले, द्वारपाल, प्यादे, सन्देशवाहक, मांस को काटने और मसालेदार भोजन बनाने वाले, कुम्हार, धातु का काम करने वाले, रस्से बनाने वाले, नाविक, बाजीगर, ढोल और बांसुरी वादक आदि। इनके अतिरिक्त व्यापारी तथा ब्याज लेने वाले साहूकार भी थे। नगरों के उदय तथा उद्योग-धन्धों में वृद्धि के कारण आर्यों के प्रसार की गति और भी तीव्र हो गई।

राज्यों (जनपद) की स्थापना-उत्तरी भारत में पूर्ण रूप से फैल जाने के पश्चात् आर्यों ने कुछ बड़े-बड़े राज्य स्थापित किए। लगभग 600 ई० पू० तक उत्तरी भारत में कई राज्य स्थापित हो चुके थे। इनकी संख्या सोलह बताई जाती है। कम्बोज और गान्धार राज्य उत्तर-पश्चिम में स्थित थे। सतलुज और यमुना के मध्य कुरू का राज्य विस्तृत था। यमुना और चम्बल के मध्य शूरसेन राज्य था। शूरसेन के नीचे मत्स्य और मध्य भारत में चेदि राज्य था। नर्मदा नदी के ऊपरी भाग में अवन्ति और महाराष्ट्र में गोदावरी के ऊपरी घेरे में अशमक था। इसी प्रकार गंगा में मैदान में भी कई राज्य थे जिनमें पांचाल, कोशल, मल्ल, वत्स, काशी, वज्जि, मगध और अंग का नाम लिया जा सकता है। इस प्रकार आधे से अधिक मुख्य राज्य गंगा के मैदान में ही स्थित थे। 800 ई० पू० के पश्चात् आर्यों के प्रभाव अधीन क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ। परन्तु पुराने प्रदेशों की तुलना में नए प्रदेशों में आर्यों की जनसंख्या बहुत कम थी।

ऊपर दिए गये विवरण से स्पष्ट है कि आर्यों ने कुछ ही समय में पूरे उत्तरी भारत में अपना विस्तार कर लिया। कृषि नगरों तथा विभिन्न उद्योग-धन्धों के विस्तार ने उनके प्रसार की गति को तीव्र किया और उनकी शक्ति में वृद्धि की। यह उनके प्रसार का ही परिणाम था कि वे भारत में 16 बड़े-बड़े राज्य (जनपद) स्थापित करने में सफल रहे। उनके द्वारा स्थापित यही जनपद आगे चल कर विशाल साम्राज्य की स्थापना का आधार बने।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य

प्रश्न 2.
आर्यों की सामाजिक संस्थाओं तथा धर्म पर लेख लिखें।
उत्तर-
आर्यों ने भारतीय समाज एवं धर्म को नया रूप प्रदान किया। उन्होंने परिवार, जाति, वर्ण आदि सामाजिक संस्थाओं का गठन किया और उन्हें स्थायी रूप प्रदान किया। धर्म के क्षेत्र में भी वे अत्यन्त विकसित विचारधारा लिए हुए थे। प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के साथ-साथ उन्होंने धर्म में आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त जैसे अत्यन्त गहन विचारों का समावेश किया। उनकी आदर्श सामाजिक संस्थाओं तथा धर्म के विभिन्न पक्षों का वर्णन इस प्रकार है :

I. सामाजिक संस्थाएं

1. वर्ण-व्यवस्था-वर्ण व्यवस्था आर्यों की महत्त्वपूर्ण संस्था थी। आर्यों का पूरा समाज इससे प्रभावित था। इस संस्था का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ। आरम्भ में आर्यों का समाज तीन वर्गों में बंटा हुआ था। युद्ध लड़ने वाले योद्धा ‘क्षत्रिय’ कहलाते थे तथा कबीले के साधारण लोगों को ‘वैश्य’ कहा जाता था। उस समय पुरोहित भी थे, परन्तु अभी पुरोहित वर्ग अस्तित्व में नहीं आया था। आरम्भ में इस सामाजिक विभाजन का उद्देश्य केवल सामाजिक तथा आर्थिक संगठन को सुदृढ़ बनाना था। यहां एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि समाज के इन वर्गों को अभी तक कोई ठोस रूप नहीं दिया गया था।

समय बीतने पर आर्य लोगों ने कुछ दासों (युद्ध बन्दियों) को अपने अधीन कर लिया। फलस्वरूप उन्हें समाज में कोई स्थान देने की समस्या उत्पन्न हो गई। यह समस्या उन्हें समाज में सबसे निम्न स्थान देकर सुलझाई गई। इसके अतिरिक्त वैदिक संस्कारों का महत्त्व भी बढ़ने लगा। इन संस्कारों को सम्पन्न करने का कार्य पुरोहितों ने सम्भाल लिया। धीरे-धीरे उन्होंने एक पृथक् वर्ग का रूप धारण कर लिया। धीरे-धीरे आर्यों का समाज चार वर्गों में बंट गया। इन चार वर्गों में योद्धा वर्ग ‘क्षत्रिय’ तथा पुरोहित वर्ग ‘ब्राह्मण’ कहलाया। समृद्ध ज़मींदार तथा व्यापारी वैश्य तथा साधारण किसान ‘शूद्र’ कहलाने लगे। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था ने स्पष्ट रूप धारण कर लिया।

समय के साथ-साथ वर्ण-व्यवस्था जटिल होने लगी। यदि एक वर्ग के लोग अपना व्यवसाय बदल भी लेते थे, तो उन्हें नए वर्ग का अंग नहीं माना जाता था। दूसरे वर्ण-व्यवस्था में मुख्य रूप से आर्य लोग ही शामिल थे। शूद्रों को जोकि प्रायः आर्य नहीं थे, वैदिक संस्कार करने की आज्ञा नहीं थी। वे अपने ही देवी-देवताओं की पूजा करते थे और उनके धार्मिक संस्कार आर्यों से अलग थे। बाद में ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक ढांचे में ढाल दिया। वर्ण-व्यवस्था के इस नए संगठन में ब्राह्मणों को पहला, क्षत्रियों को दूसरा, वैश्यों को तीसरा और शूद्रों को चौथा स्थान प्राप्त था। यह बात ऋग्वेद के मन्त्र ‘पुरुष सूक्त’ से स्पष्ट हो जाती है। उसमें कहा गया है कि एक बलि-संस्कार में पुरुष के मुंह से ब्राह्मण, बाजुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शद्रों की उत्पत्ति हई थी। वर्ण-व्यवस्था काफ़ी समय तक अपने इस रूप में संगठित रही।

2. जाति-1000 ई० पू० के पश्चात् कस्बों तथा उद्योग-धन्धों की संख्या बढ़ जाने के कारण वर्ण-व्यवस्था में विविधता आने लगी और इसके स्थान पर ‘जाति’ व्यवस्था का महत्त्व बढ़ने लगा। ‘जाति’ एक ही व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों के समूह को कहा जाता था। धीरे-धीरे चार वर्णों की तरह नवीन जातियों का स्थान भी समाज में निश्चित कर दिया गया। सभी जातियों के लोग अपना पैतृक व्यवसाय अपनाते थे। उनके विवाह-सम्बन्धी नियम भी बड़े जटिल थे। एक जाति के लोगों को दूसरी जाति के लोगों के साथ मिलकर खाने-पीने की मनाही थी। एक जाति के लोग अपना व्यवसाय बदल कर समाज में ऊंचा दर्जा प्राप्त कर सकते थे। परन्तु जब केवल एक ही व्यक्ति अपना व्यवसाय बदलता था, उसे समाज में तब तक ऊंचा स्थान नहीं मिलता था जब तक कि वह किसी ऐसे धार्मिक समूह का अंग न बन जाता जिसका वर्ण-व्यवस्था में कोई विश्वास न हो।

3. परिवार-परिवार भी आर्यों के सामाजिक जीवन की एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी। परिवार पितृ प्रधान होते थे। पिता अर्थात् परिवार में सबसे अधिक आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। पिता अपनी सन्तान से दया तथा प्रेम का व्यवहार करता था। पिता के अधिकार काफ़ी अधिक थे और वह परिवार में अनुशासन को बड़ा महत्त्व देता था। पुत्र तथा पुत्री के विवाह में पिता का पूरा हाथ होता था। पिता परिवार की सम्पत्ति का भी स्वामी होता था। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र उस सम्पत्ति का स्वामी होता था। उन दिनों पुत्र गोद लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। परिवार में स्त्री का सम्मान होता था। परन्तु सम्पत्ति में उसे हिस्सा नहीं दिया जाता था।

II. धर्म

ऋग्वैदिक आर्यों के देवी-देवता-ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। वे उन सभी प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करते थे जो उनके लिए वरदान अथवा अभिशाप थीं। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी और तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है।

आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। ऋग्वेद में इन्द्र का वर्णन यूं किया गया है-“हे पुरुषो ! इन्द्र वह है जिसको आकाश और पृथ्वी नमस्कार करते हैं, जिसकी श्वास से पर्वत भयभीत हो जाते हैं।” युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की उपासना की जाती थी। आर्यों का एक अन्य देवता रुद्र था। उसकी पूजा प्रायः विपत्तियों के निवारण के लिए की जाती थी। आर्यों में अग्नि देवता की भी पूजा प्रचलित थी। उसे मनुष्य तथा देवताओं के बीच दूत माना जाता था। इन देवताओं के साथ-साथ आर्य लोग पृथ्वी, वायु, सोम आदि अनेक देवी-देवताओं की उपासना भी करते थे।

यज्ञों का उद्देश्य और महत्त्व-आर्यों के धर्म में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ भी होते थे जिनमें सारा गांव या कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों के रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे। इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान तथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा हुई मानी गई थी।

उत्तर वैदिक धर्म-ऋग्वेद के बाद भारतीय आर्यों (उत्तर वैदिक आर्यों) के धर्म का रूप निखरने लगा। अब रुद्र और विष्णु जैसे नए देवता आर्यों में अधिक प्रिय हो गए। ऋग्वैदिक काल में विष्णु को सूर्य का एक रूप समझा जाता था। परन्तु अब उसकी पूजा एक स्वतन्त्र देवता के रूप में की जाने लगी। अब अनेक प्रकार के यज्ञ होने लगे। सूत्र यज्ञ’ कई-कई वर्षों तक चलते रहते थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में पूरी शताब्दी तक चलने वाले यज्ञों का उल्लेख भी मिलता है। इन यज्ञों को लोग स्वयं नहीं कर सकते थे अपितु उन्हें ब्राह्मणों को बुलाना पड़ता था। फलस्वरूप ब्राह्मण वर्ग समाज पर पूरी तरह छा गया था। अब लोग कर्म सिद्धान्त में विश्वास रखने लगे थे। उनके अनुसार जो मनुष्य अपने जीवन काल में ईश्वर को प्राप्त कर लेता था वह मोक्ष प्राप्त करता था। मोक्ष से आत्मा मरती नहीं अपितु अमर हो जाती है। जो व्यक्ति नेक कार्य तो करता है, परन्तु ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाता, वह सीधा चन्द्र लोक में जाता है। कुछ समय पश्चात् वह मनुष्य के रूप में पुनः जन्म लेता है। प्रत्येक मनुष्य का भाग्य अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार निश्चित होता है।

सच तो यह है कि ऋग्वैदिक समाज बड़ा उच्च तथा सभ्य समाज था। सफल पारिवारिक जीवन, नारी का गौरवमय स्थान, अध्यात्मवाद का प्रचार आदि सभी बातें एक उन्नत समाज का संकेत देती हैं। हमें एक ऐसे विकसित समाज के दर्शन होते हैं जहां पाप-पुण्य में भेद समझा जाता था और जहां लोगों को बुरे-भले की पहचान थी।

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महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
आर्यों का मुख्य व्यवसाय क्या था ?
उत्तर-
आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशु-पालन तथा कृषि करना था।

प्रश्न 2.
आर्य भारत में कब आकर बसे ?
उत्तर-
आर्य भारत में लगभग 1500 ई० पूर्व में आकर बसे।

प्रश्न 3.
भारतीय आर्यों ने किस प्रदेश को सबसे पहले अपना निवास-स्थान बनाया ?
उत्तर-
उत्तर-पश्चिमी प्रदेश सप्त सिन्धु को।

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प्रश्न 4.
आर्यों के किन्हीं चार देवी-देवताओं के नाम बताओ।
उत्तर-
सूर्य, इन्द्र, वायु और ऊषा आर्यों के मुख्य देवी-देवता थे।

प्रश्न 5.
सांख्य दर्शन की रचना किसने की थी ?
उत्तर-
सांख्य दर्शन की रचना कपिल ने की थी।

प्रश्न 6.
योग दर्शन का लेखक कौन था ?
उत्तर-
योग दर्शन का लेखक पातंजलि था।

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प्रश्न 7.
ऋग्वैदिक काल की दो विदुषियों के नाम बताओ।
उत्तर-
गार्गी और विश्वारा।

प्रश्न 8.
आर्य लोग किस पशु को पवित्र मानते थे ?
उत्तर-
आर्य लोग गाय को पवित्र मानते थे।

प्रश्न 9.
ऋग्वैदिक काल के राजा की शक्तियों पर रोक लगाने वाली दो संस्थाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
‘सभा और समिति’।

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प्रश्न 10.
श्रीकृष्ण ने किस स्थान पर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया ?
उत्तर-
श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।

प्रश्न 11.
“भगवद्गीता” का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर-
“भगवद्गीता” का शाब्दिक अर्थ भगवान का गीत है।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) वैदिक आर्यों की मूल भाषा ……… थी।
(ii) आर्यों के मूल स्थान के विषय में सर्वमान्य सिद्धान्त ……… का सिद्धान्त है।
(iii) आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रंथ ……… है।
(iv) ऋग्वैदिक काल में पंजाब को ………… प्रदेश कहा जाता था।
(v) वैदिक काल में ………… शासन प्रणाली थी। .
उत्तर-
(i) संस्कृत
(ii) मध्य एशिया
(iii) ऋग्वेद
(iv) सप्तसिंधु
(v) राजतंत्रीय।

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3. सही/ग़लत कथन-

(i) इन्द्र आर्यों का वर्षा का देवता था।– (√)
(ii) वैदिक समाज में स्त्री को निम्न स्थान प्राप्त था।– (×)
(iii) मुख्य वेद संख्या में 6 हैं।– (×)
(iv) वरुण आर्यों का एक देवता था।– (√)
(v) आयुर्वेद एक चिकित्सा शास्त्र है।– (√)

4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
वैदिक समाज कितने वर्षों में बंटा हुआ था ?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) छः।
उत्तर-
(C) चार

प्रश्न (ii)
दस्यु कौन थे ?
(A) आर्यों से पहले समाज में रहने वाले लोग
(B) आर्यों को हराने वाले लोग।
(C) आर्यों के समाज में सबसे उच्च स्थान रखने वाले लोग
(D) व्यापारी तथा दस्तकार के रूप में काम करने वाले लोग।
उत्तर-
(A) आर्यों से पहले समाज में रहने वाले लोग

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प्रश्न (iii)
आर्यों के समाज में सर्वोच्च स्थान पर थे-
(A) क्षत्रिय
(B) ब्राह्मण
(C) वैश्य
(D) शूद्र।
उत्तर-
(D) उपनिषदों में।

प्रश्न (iv)
आर्य विचारकों के दार्शनिक विचार मिलते हैं-
(A) वेदांगों में
(B) उपवेदों में
(C) श्रुतियों में
(D) उपनिषदों में।
उत्तर-
(D) उपनिषदों में।

प्रश्न (v)
निम्न में से कौन-सा आर्यों का देवता नहीं था ?
(A) मातंग
(B) सूर्य.
(C) वायु
(D) वरूण।
उत्तर-
(A) मातंग

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में कौन-से क्षेत्र बताए जाते हैं ?
उत्तर-
भारतीय आर्यों की आदिभूमि के बारे में मुख्य रूप से मध्य एशिया अथवा सप्त सिन्धु प्रदेश, उत्तरी ध्रुव तथा मध्य एशिया के क्षेत्र बताए जाते हैं। मध्य प्रदेश तथा सप्त सिन्धु प्रदेश का सम्बन्ध प्राचीन भारत से है।

प्रश्न 2.
आर्यों की मूल भाषा में से कौन-सी दो यूरोपीय भाषायें निकली ?
उत्तर-
आर्यों की मूल भाषा में से निकलने वाली दो यूरोपीय भाषाएं थीं-यूनानी तथा लातीनी।

प्रश्न 3.
आरम्भ में आर्यों का मुख्य धन्धा तथा उनकी सम्पत्ति का माप क्या था ?
उत्तर-
आरम्भ में आर्यों का मुख्य धन्धा पशु चराना था। पशु ही उनकी सम्पत्ति का माप थे।

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प्रश्न 4.
आर्यों का मुख्य वाहन कौन-सा पशु था और यह किस प्रकार के रथों में जोता जाता था ?
उत्तर-
आर्यों का मुख्य वाहन पशु घोड़ा था। इसे हल्के रथों में जोता जाता था।

प्रश्न 5.
चार वेदों के क्या नाम हैं ?
उत्तर-
चार वेदों के नाम हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद।

प्रश्न 6.
600 ई० पू० के लगभग कौन-से दो धार्मिक ग्रन्थों की रचना हुई थी ?
उत्तर-
600 ई० पू० के लगभग ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की रचना हुई।

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प्रश्न 7.
1000 से 700 ई० पू० की घटनाएं कौन-से दो महाकाव्यों में बताई गई हैं ?
उत्तर-
1000 से 700 ई० पू० तक की घटनाएं महाभारत तथा रामायण नामक दो महाकाव्यों में बताई गई हैं।

प्रश्न 8.
ऋग्वेद में दी गई किन्हीं चार नदियों के नाम बताओ।
उत्तर-
ऋग्वेद में दी गई चार नदियों के नाम हैं-काबुल, स्वात, कुर्रम और गोमल।

प्रश्न 9.
‘पणि’ शब्द से क्या भाव था ?
उत्तर-
‘पणि’ शब्द से भाव सम्भवतः सिन्धु घाटी के व्यापारी वर्ग से था। ऋग्वेद में इन लोगों को पशु चोर बताया गया है और आर्य लोग इन्हें अपना शत्रु समझते थे।

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प्रश्न 10.
ऋग्वेद में दिए गए दस राजाओं के युद्ध का सामाजिक महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
दस राजाओं का युद्ध इस बात का प्रतीक है कि ऋग्वैदिक काल में सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी।

प्रश्न 11.
राजा सुदास कौन-से कबीले से था और इसकी चर्चा किस सन्दर्भ में आती है ?
उत्तर-
राजा सुदास का सम्बन्ध ‘भरत’ कबीले से था। उसकी चर्चा दस राजाओं के संघ को हराने के सन्दर्भ में आती है।

प्रश्न 12.
राजसूय यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
राजसूय यज्ञ राज्य में दैवी शक्ति का संचार करने के लिए किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि राजपद को दैवी देन माना जाने लगा था।

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प्रश्न 13.
ब्राह्मण ग्रन्थों में किन दो पर्वतों का उल्लेख मिलता है ?
उत्तर-
ब्राह्मण ग्रन्थों में विन्ध्य पर्वत तथा हिमालय का उल्लेख मिलता है।

प्रश्न 14.
सबसे अधिक गौरव का स्थान किस यज्ञ को प्राप्त था और इसमें किस पशु की बलि दी जाती थी ?
उत्तर-
सबसे अधिक गौरव अश्वमेध यज्ञ को प्राप्त था। इस यज्ञ में घोड़े (अश्व) की बलि दी जाती थी।

प्रश्न 15.
600 ई० पू० के लगभग उत्तर-पश्चिम में तथा सतलुज एवं यमुना नदियों के मध्य में कौन-से तीन राज्य थे ?
उत्तर-
इस काल में देश के उत्तर-पश्चिम में कम्बोज तथा गान्धार राज्य स्थित थे। सतलुज और यमुना नदियों के मध्य कुरू राज्य था।

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प्रश्न 16.
700 ई० पू० के लगभग कोई चार गणराज्यों के नाम बतायें।
उत्तर-
700 ई० पू० के लगभग चार गणराज्य थे-शाक्य, मल्ल, वज्जि तथा यादव।

प्रश्न 17.
भारत में विकसित होने वाले चार आरम्भिक नगरों के नाम बताएं।
उत्तर-
भारत में विकसित होने वाले चार आरम्भिक नगरों के नाम थे-हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, कौशाम्भी और काशी।

प्रश्न 18.
‘वर्ण’ का शाब्दिक अर्थ बताएं। इस शब्द का आरम्भ में व्यवहार किस परिस्थिति में हुआ ?
उत्तर-
वर्ण का शाब्दिक अर्थ है-रंग। आरम्भ में इस शब्द का व्यवहार उस समय हुआ जब आर्य स्वयं को पराजित दासों से भिन्न रखने के लिए रंग भेद को महत्त्व देने लगे थे।

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प्रश्न 19.
वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत चार वर्णों के नाम बताएं।
उत्तर-
वर्ण-व्यवस्था के अनुसार चार वर्णों के नाम थे-क्षत्रिय (योद्धा वर्ग), ब्राह्मण (पुरोहित लोग), वैश्य (धनी व्यापारी एवं ज़मींदार) और शूद्र (साधारण किसान आदि)।

प्रश्न 20.
आर्यों के समय परिवार का प्रधान कौन-सा सदस्य होता था ? तब सम्बन्धित परिवारों के समूह को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
परिवार का प्रधान परिवार में सबसे बड़ी आयु वाला सदस्य होता था। सम्बन्धित परिवारों के समूह को ‘ग्राम’ कहा जाता था।

प्रश्न 21.
ऋग्वेद में कौन-सी चार देवियों का उल्लेख आता है ? .
उत्तर-
ऋग्वेद में प्रात:काल की देवी उषा, रात की देवी रात्रि, वन की देवी अरण्यी तथा धरती की देवी पृथ्वी का उल्लेख आता है।

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प्रश्न 22.
आर्यों के समय किन दो संस्कारों में अग्नि देवता का सम्बन्ध था ?
उत्तर-
अग्नि देवता का सम्बन्ध मुख्यतः ‘विवाह संस्कार’ तथा ‘दाह संस्कार’ के साथ था।

प्रश्न 23.
आर्यों में इन्द्र किन चीज़ों का देवता होता था ?
उत्तर-
आर्यों में इन्द्र युद्ध तथा वर्षा का देवता होता था।

प्रश्न 24.
साधारण जीवन के चार आश्रम कौन-से थे ?
उत्तर-
साधारण जीवन के चार आश्रम थे-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास।

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प्रश्न 25.
‘द्विज’ से क्या भाव था और कौन-से तीन वर्गों को यह स्थान प्राप्त था ?
उत्तर-
‘द्विज’ से भाव था-‘दूसरा जन्म’। यह स्थान क्षत्रियों, ब्राह्मणों तथा वैश्यों को प्राप्त था।

II. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आर्य लोग भारत में कब और कैसे आये ?
उत्तर-
आर्यों का भारत-आगमन एक उलझा हुआ प्रश्न है। इस विषय में प्रत्येक विद्वान् अपना पृथक् दृष्टिकोण रखता है। तिलक और जैकोबी ने आर्यों के भारत में आने का समय 6000 ई० पू० से 4000 ई० पू० बताया है। प्रो० मैक्समूलर के विचार में आर्य लोगों ने 1200 से 1000 ई० पू० के मध्य में भारत में प्रवेश किया। डॉ० आर० के० मुखर्जी के अनुसार आर्य लोग सबसे पहले 2500 ई० पू० में भारत में आए तथा लगभग 1900 ई० पू० तक वे लगातार आते रहे। आज यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्य लोग भारत में एक साथ नहीं आए। वे धीरे-धीरे यहां आते रहे और बसते रहे। अतः डॉ० आर० के० मुखर्जी का मत अधिक मान्य जान पड़ता है।

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प्रश्न 2.
ऋग्वैदिक काल में आर्य लोगों की बस्तियां मुख्य रूप से कहां केन्द्रित थी ?
उत्तर-
ऋग्वैदिक काल से अभिप्राय उस काल से है जिस काल में आर्य लोगों ने ऋग्वेद की रचना की। ये लोग अफगानिस्तान के मार्ग से भारत आए थे और यहां आकर बस गए थे। आरम्भ में ये 500 वर्षों तक उसी क्षेत्र में बसे जिसमें सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग रहते थे। इस प्रदेश में मुख्यत: सिन्धु नदी तथा प्राचीन पंजाब की पांच नदियों (सिन्धु नदी की सहायक नदियों) का प्रदेश सम्मिलित था। बाद में वे पूर्व दिशा में आगे की ओर बढ़े। धीरे-धीरे उन्होंने सतलुज तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश और दिल्ली के आस-पास के प्रदेशों में अपनी बस्तियां बसा लीं। आर्यों के ये सभी क्षेत्र सामूहिक रूप से सप्त सिन्धु प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध हैं। अतः हम यूं भी कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक काल में आर्यों की बस्तियां मुख्य रूप से सप्त सिन्धु प्रदेश में ही केन्द्रित थीं।

प्रश्न 3.
आर्य लोग यमुना नदी की पूर्वी दिशा में कब बढ़े ? उनके इस दिशा में विस्तार के क्या कारण थे ?
उत्तर-
आर्य लोग लगभग 500 वर्ष तक सप्त सिन्धु प्रदेश में रहने के पश्चात् यमुना नदी के पूर्व की ओर बढ़े। इस दिशा में उनके विस्तार के मुख्य कारण ये थे :-

1. इस समय तक आर्यों ने सप्त सिन्धु के अनेक लोगों को दास बना लिया था। इन दासों से वे जंगलों को साफ करने का काम लेते थे। जहां कहीं जंगल साफ हो जाते, वहां वे खेती करने लगते थे।

2. इसी समय आर्य लोहे के प्रयोग से भी परिचित हो गए। लोहे से बने औज़ार तांबे अथवा कांसे के औज़ारों की अपेक्षा अधिक मजबूत और तेज़ थे। इन औजारों की सहायता से वनों को बड़ी तेजी से साफ किया जाता था।

3. आर्यों के तीव्र विस्तार का एक अन्य कारण यह था कि सिन्धु घाटी की सभ्यता की सीमाओं के पार कोई शक्तिशाली संगठन अथवा कबीला नहीं था। परिणामस्वरूप आर्यों को किसी विरोधी का सामना न करना पड़ा और वे बिना किसी बाधा के आगे बढ़ते गए।

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प्रश्न 4.
जाति-प्रथा के क्या लाभ हुए ?
उत्तर-

  • जाति-प्रथा के कारण भारतीयों ने विदेशियों से अधिक मेल-जोल न बढ़ाया। परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभाव से सुरक्षित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोग केवल अपनी ही जाति में विवाह करते थे। इस प्रकार रक्त की पवित्रता बनी रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोग बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय में जुट जाते थे। फलस्वरूप बड़े होकर वे निपुण कारीगर सिद्ध होते थे।
  • जाति-प्रथा के कारण प्रत्येक जाति के लोगों को अपनी जाति का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। अतः लोगों को रोज़ी का कोई अन्य साधन ढूंढ़ने की चिन्ता नहीं रहती थी।
  • जाति-प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना था। वे निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे।
  • शुद्धि द्वारा अन्य जातियों के लोग हिन्दू बन सकते थे। अतः शक, हूण, यूनानी आदि भारत पर आक्रमण करने वाली अनेक जातियां हिन्दू समाज का अंग बन गईं।

प्रश्न 5.
जाति-प्रथा से भारतीय समाज को क्या हानि पहुंची ?
उत्तर-

  • जाति-प्रथा के कारण राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात पहुंचा। लोग राष्ट्रीय हितों को भूलकर केवल अपनी जाति के बारे में सोचने लगे।
  • जाति-प्रथा के कारण केवल क्षत्रिय ही सैनिक शिक्षा प्राप्त करते थे। फलस्वरूप देश में सैनिक शिक्षा सीमित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोगों के लिए पैतृक धन्धा बदलना बड़ा कठिन होता था। फलस्वरूप लोगों का व्यक्तिगत विकास रुक गया।
  • ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जाति के लोग शूद्रों को अपने से नीचा समझते थे और उनसे घृणा करते थे। परिणामस्वरूप समाज में छुआछूत की भावना बढ़ी।
  • ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए अनेक प्रथाएं प्रचलित की जिनसे उन्हें अधिक-से-अधिक लाभ पहुंचे। इस प्रकार अनेक सामाजिक कुरीतियां प्रचलित हुईं।

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प्रश्न 6.
ऋग्वेद से दासों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है ?
उत्तर-
ऋग्वेद में ‘आर्यों के दासों’ के साथ हुए सशस्त्र संघर्षों का बार-बार उल्लेख मिलता है। दास काले वर्ण के, मोटे होठों एवं चपटी नाक वाले थे। वास्तव में यहां ‘दास’ से भाव सिन्धु घाटी के कृषक समाज से है। ये लोग भूमि पर अच्छी तरह बसे हुए थे जबकि आर्य लोग अभी भी अधिकांशत: पशु-पालन अवस्था में थे। अन्ततः आर्यों ने दासों को अपने अधीन कर लिया। इस तथ्य की जानकारी संस्कृत के ‘दास’ शब्द से होती है। यह शब्द जो अब अधीनस्थ अथवा ‘गुलाम’ का अर्थ देने लगा था। ‘गुलाम स्त्रियों’ के लिए संस्कृत शब्द ‘दासी’ प्रचलित हो गया। कुछ दासों की स्थिति बड़ी उन्नत थी। ऋग्वेद में एक दास मुखिया का उल्लेख मिलता है। सच तो यह है कि दास वर्ग धीरे-धीरे आर्यों के साथ मिलकर रहने लगा था।

प्रश्न 7.
आर्यों के समय में कृषि व्यवस्था की विशेषताएं क्या थी ?
उत्तर-
आर्य लोग मूल रूप से पशु-पालक थे। परन्तु समय पाकर वे कृषि के उपयोग तथा महत्त्व को समझने लगे। उन्होंने जंगलों को साफ किया और कृषि आरम्भ कर दी। लोहे के औज़ारों के कारण जहां उनके लिए जंगल साफ करने सरल हो गए थे, वहां कृषि की दशा भी उन्नत हो गई। लोहे के हल के अतिरिक्त उन्होंने सिंचाई व्यवस्था को भी उत्तम बनाया। वे खाद का प्रयोग भी करने लगे। वे मुख्य रूप से गेहूं, जौ, चावल, तिल, मोठ, मसूर, बाजरा आदि की कृषि करते थे।

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प्रश्न 8.
प्रमुख गणराज्य कौन-से थे तथा उनकी राज्य व्यवस्था किस प्रकार की थी ?
उत्तर-
आर्यों द्वारा स्थापित सभी जनपदों में राजतन्त्रीय प्रशासन नहीं था। इनमें से कुछ गणराज्य भी थे जो विशेषकर पंजाब में और गंगा नदी तथा हिमालय के बीच के क्षेत्र में विस्तृत थे। कुछ गणराज्य अकेले कबीलों ने स्थापित किए, जैसे-शाक्य, कौशल और मल्ल। अन्य गणराज्य एक से अधिक कबीलों के संघ थे। वज्जि और यादव इसी प्रकार के गणराज्य थे। इन गणराज्यों में कबीलों की परम्परा के कई अंशों के अनुसार शासन होता था। शासन का कार्यभार एक समिति के पास था। इस समिति की अध्यक्षता सरदारों में से एक प्रतिनिधि करता था। वह राजा कहलाता था। अतः स्पष्ट है कि राजा का पद निर्वाचित होता था। यह पद वंशागत नहीं था। समिति में राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण मामलों पर विचार-विमर्श होता था। सदस्यों को अपना मत देने का अधिकार था। प्रशासन में राजा की सहायता सेनानी और कोषाध्यक्ष करते थे।

प्रश्न 9.
आर्यों की परिवार की संस्था की विशेषताएं क्या थीं ?
उत्तर-
‘परिवार’ आर्यों की एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था थी। परिवार पितृ-प्रधान था अर्थात् परिवार का मुखिया पिता (या सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति) होता था। पिता की मृत्यु के पश्चात् परिवार का सबसे बड़ी आयु का पुरुष उसका स्थान लेता था। परिवार का गठन प्रायः तीन पीढ़ियों पर आधारित था। परिवार में सम्पत्ति के अधिकारी केवल पुरुष सदस्य ही होते थे। इसलिए पुत्र का पैदा होना शुभ माना जाता था। कई धार्मिक अनुष्ठान भी ऐसे थे जिन्हें पुत्र ही कर सकता था। कई रीतियों में भी उसकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। भले ही आर्य बहु-विवाह की प्रथा से परिचति थे फिर भी मान्यता केवल एक विवाह पद्धति को ही प्राप्त थी। बाद की कुछ रचनाओं में बहुपति प्रथा का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, महाभारत की द्रौपदी पांच पाण्डवों की पत्नी थी। विधवा स्त्री का विवाह प्रायः उसके मृत पति के भाई से कर दिया जाता था। सती-प्रथा प्रचलित नहीं थी। स्त्रियों के साथ प्रायः अच्छा व्यवहार होता था।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 2 भारतीय आर्य

प्रश्न 10.
आर्यों के मुख्य देवताओं के बारे में बताएं।
उत्तर-
ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है आर्य लोग प्रकृति के पुजारी थे। अपनी समृद्धि के लिए वे सूर्य, वर्षा, पृथ्वी आदि की पूजा करते थे। वे अग्नि, आंधी, तूफान आदि की भी स्तुति करते थे ताकि वे उनके प्रकोपों से बचे रहें। कालान्तर में आर्य लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर पूजने लगे। वरुण उनका प्रमुख देवता था। उसे आकाश का देवता माना जाता था। आर्यों के अनुसार वरुण समस्त जगत् का पथ-प्रदर्शन करता है। आर्य सैनिकों के लिए इन्द्र देवता अधिक महत्त्वपूर्ण था। उसे युद्ध तथा ऋतुओं का देवता माना जाता था। युद्ध में विजय के लिए इन्द्र की ही उपासना की जाती थी। इन्द्र के अतिरिक्त वे रुद्र, अग्नि, पृथ्वी, वायु, सोम आदि देवताओं की उपासना भी करते थे।

प्रश्न 11.
आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त से क्या भाव है ?
उत्तर-
आवागमन तथा कर्म-सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं। आवागमन के अनुसार आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में निरन्तर चक्कर लगाती रहती है। यह चक्कर अनन्तकाल तक जारी रहता है और कभी समाप्त नहीं होता। कर्म-सिद्धान्त से भाव मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार उनके जन्म के निर्धारण से है। ऋग्वेद में कहा गया है कि मरने के पश्चात् मनुष्य का परलोक में स्थान निश्चित हो जाता है। बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को दण्ड के रूप में ‘मिट्टी के घर’ में रहना पड़ता है जबकि अच्छे कर्मों वाले मनुष्य को पुरस्कार के रूप में ‘पुरखों की दुनिया में स्थान दिया जाता है। परन्तु उपनिषदों में ऐसा कुछ नहीं कहा गया जिसका अर्थ यह है कि मानव आत्मायें अपने पूर्वजन्म के अच्छे-बुरे कर्मों के अनुरूप सुख या दुःख भोगने के लिए पुनर्जन्म लेती हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म व कर्म-सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं।

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प्रश्न 12.
आर्यों की सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में यज्ञ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर-
आर्यों की सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में यज्ञों को बड़ा महत्त्व प्राप्त था। सबसे छोटा यज्ञ घर में ही किया जाता था। समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञ होते थे जिनमें सारा गांव या सारा कबीला भाग लेता था। बड़े यज्ञों की रीति-संस्कार अत्यन्त जटिल थे और इनके लिए काफ़ी समय पहले से तैयारी करनी पड़ती थी। इन यज्ञों में अनेक पुरोहित भाग लेते थे और इनमें अनेक जानवरों की बलि दी जाती थी। यह बलि देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दी जाती थी। आर्यों का विश्वास था कि यदि देवता प्रसन्न हो जाएं तो वे युद्ध में विजय दिलाते हैं, आयु बढ़ाते हैं और सन्तान प्रथा धन में वृद्धि करते हैं। बाद में एक और उद्देश्य से भी यज्ञ किए जाने लगे। वह यह था कि प्रत्येक यज्ञ से संसार पुनः एक नया रूप धारण करेगा, क्योंकि संसार की उत्पत्ति यज्ञ द्वारा ही मानी गई थी।

प्रश्न 13.
आर्यों की भारतीय सभ्यता को क्या देन थी ?
उत्तर-
आर्यों ने भारतीय सभ्यता को काफ़ी समृद्ध बनाया। उन्होंने वैदिक साहित्य की रचना की और संस्कृत भाषा का प्रचलन किया। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान सामाजिक संस्थाओं एवं धर्म के क्षेत्र में था। भारत में जाति भेद पर आधारित समाज की परम्परा दो हजार वर्षों से अधिक समय तक चलती रही है। आर्यों द्वारा रचित उपनिषदों का आध्यात्मिक चिन्तन बाद में कई दर्शनों का आधार बना। आर्य लोगों ने जंगलों को साफ करके देश के विशाल क्षेत्र को कृषि अधीन किया। यह भी कोई कम प्रभावशाली कार्य नहीं था। कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था की प्रगति के कारण ही उत्तरी भारत में शक्तिशाली राज्य विकसित हुए जो कई शताब्दियों तक बने रहे। वर्ण-व्यवस्था एवं बलि संस्कारों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप जैन तथा बौद्ध धर्म सहित कुछ शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन उभरे। इन्हें भी भारतीय आर्यों की एक महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता

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प्रश्न 14.
वैदिक तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता की चार असमानताएं बताओ।
उत्तर-
सिन्धु घाटी की सभ्यता-

  • यह सभ्यता आज से लगभग 5,000 वर्ष पुरानी है।
  • इस सभ्यता की जानकारी हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो|  आदि की खुदाई से मिली है।
  • यह एक नागरिक सभ्यता थी। यहां के अधिकतर निवासी नगरों में रहते थे।
  • सिन्धु घाटी के लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास रखते थे। वे लिंग, योनि तथा पीपल की पूजा करते थे।

वैदिक सभ्यता-

  • यह सभ्यता लगभग 3,000 वर्ष पुरानी है।
  • इस सभ्यता की जानकारी हमें वेदों से मिली है।
  • यह सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थी। यहां के अधिकतर निवासी गाँवों में रहते थे।
  • आर्य लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं रखते थे। वे अपने देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करते थे।

प्रश्न 15.
वैदिक तथा सिन्धु घाटी की सभ्यता की चार समानताएं बताओ।
उत्तर-
वैदिक तथा सिन्धु घाटी सभ्यता की चार मुख्य समानताओं का वर्णन इस प्रकार है :

  • भोजन में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों का भोजन पौष्टिक था। गेहूं, दूध, चावल, फल आदि उनके भोजन के मुख्य अंग थे।
  • व्यवसायों में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था। वैदिक काल में तो स्वयं राजा लोग भी हल चलाया करते थे। इन दोनों सभ्यताओं के लोग पशुओं के महत्त्व को समझते थे। इसलिए वे पशु पालते थे। गाय, बैल, भेड़-बकरी आदि उनके मुख्य पालतू पशु थे।
  • मनोरंजन के साधनों में समानता-दोनों सभ्यताओं के लोगों के मनोरंजन के कुछ साधन समान थे। वे प्रायः नाचगानों द्वारा तथा शिकार खेल कर अपना मन बहलाते थे।
  • धार्मिक समानता-दोनों सभ्यताओं के लोग धार्मिक प्रवृत्ति के थे। आर्यों का धर्म भले ही सिन्धु घाटी के लोगों के धर्म से अधिक विकसित था, तो भी अग्नि की पूजा दोनों ही सभ्यताओं में प्रचलित थी।

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प्रश्न 16.
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धर्म का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक विचारों में काफ़ी परिवर्तन आया। ऋग्वैदिक काल के कई देवताओं की पूजा अब भी की जाती थी, परन्तु उनका महत्त्व पहले से काफ़ी कम हो गया। इस काल में इन्द्र, वरुण तथा सूर्य की बजाय शिव-विष्णु की पूजा पर अधिक बल दिया जाने लगा। आत्मा-परमात्मा तथा जन्म-मृत्यु के विषय में अनेक नए सिद्धान्त धर्म में शामिल हो गए। यज्ञ तो अब भी होते थे, परन्तु अब उनमें काफ़ी धन खर्च करना पड़ता था। यज्ञों के लिए ब्राह्मणों की आवश्यकता होती थी। कर्म, मोक्ष तथा माया सम्बन्धी सिद्धान्तों ने धर्म को और भी अधिक जटिल बना दिया। इस काल में लोग अनेक प्रकार के जादू-टोनों में भी विश्वास रखने लगे थे।

प्रश्न 17.
ऋग्वैदिक काल तधा उतर वैदिक काल में अन्तर स्पष्ट करने तथ्यों का वर्णन करो
उत्तर-

  • ऋग्वैदिक काल में राजा की शक्तियां सीमित थीं। उसे प्रचलित प्रथाओं के नियम के अनुसार शासन चलाना पड़ता था, परन्तु उत्तर वैदिक काल में राजा की शक्तियां बहुत बढ़ गईं।
  • ऋग्वैदिक काल में कबीले न तो अधिक विशाल थे और न ही अधिक शक्तिशाली, परन्तु उत्तर वैदिक काल में बड़े बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ।
  • ऋग्वैदिक काल में नारी का बड़ा आदर था। वह प्रत्येक धार्मिक कार्यों में भाग लेती थी। उसे शासन कार्यों में भी भाग लेने का अधिकार था। इसके विपरीत उत्तर वैदिक काल में नारी का सम्मान कम हो गया।
  • ऋग्वैदिक काल में धर्म बड़ा सरल था। यज्ञों पर अधिक व्यय नहीं होता था, परन्तु उत्तर वैदिक काल में धर्म जटिल हो गया। धर्म में अनेक व्यर्थ के कर्म-काण्ड शामिल हो गए। यज्ञ इतने महंगे हो गए कि साधारण लोगों के लिए यज्ञ करना असम्भव हो गया।

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प्रश्न 18.
सभा और समिति का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
पूर्व वैदिक युग में सभा तथा समिति ने लोक संस्थाओं का रूप धारण कर लिया था। सभा का आकार समिति से छोटा होता था। यह केवल वृद्धों की संस्था थी। इसका मुख्य कार्य न्याय करना था। सभा और समिति शासन के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों पर अपने विचार प्रकट करती थी जिसे राजा को मानना पड़ता था। कुछ समय के पश्चात् सभा गुरु सभा में बदल गई तथा समिति ने राज्य की केन्द्रीय संस्था का रूप ले लिया जिसका अध्यक्ष राजा होता था। इसका कार्य क्षेत्र नीति का निर्णय तथा कानून का निर्माण करना था।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न-

प्रश्न 1.
ऋग्वैदिक काल के आर्यों की सभ्यता की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक तथा आर्थिक दशा की जानकारी दीजिए।
अथवा
ऋग्वेद में वर्णित आर्यों की सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
ऋग्वैदिक काल की सभ्यता के विषय में जानकारी का एकमात्र स्रोत ऋग्वेद है। यह आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। ऋग्वेद के अध्ययन से आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशा के बारे में हमें निम्नलिखित बातों का पता चलता है :

1. राजनीतिक अवस्था-आर्यों ने एक आदर्श शासन प्रणाली की नींव रखी। शासन की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। कुछ परिवारों के मेल से एक गांव बनता था। कुछ गाँवों के समूह को ‘विश’ कहते थे। विशों का समूह ‘जन’ कहलाता था। प्रत्येक ‘जन’ एक राजा के अधीन था। राजा का मुख्य कार्य जन के लोगों की भलाई करना तथा युद्ध के समय उनका नेतृत्व करना था। राजा की शक्तियों पर रोक लगाने के लिए सभा समिति नामक दो संस्थाएं थीं। राजा की सहायता के लिए पुरोहित, सेनानी, दूत आदि अनेक अधिकारी होते थे।

2. आर्थिक अवस्था अथवा भौतिक जीवन-ऋग्वैदिक काल में लोगों की आर्थिक दशा काफ़ी अच्छी थी। वे मुख्य रूप से पशु-पालक थे। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी आदि प्रमुख थे। वे लकड़ी के फालों के साथ खेती करते थे। उन्हें खेती सम्बन्धी कई बातों, जैसे-कटाई, बुआई आदि की काफ़ी जानकारी थी। कुछ अन्य लोग छोटे-छोटे उद्योगधन्धों में भी लगे हुए थे। इनमें से बढ़ई, कुम्हार, लुहार, बुनकर, चर्मकार आदि मुख्य थे।

3. सामाजिक अवस्था-ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन का आधार परिवार था जो पितृ-प्रधान था। परिवार में सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। अन्य सभी सदस्यों को उनकी आज्ञा का पालन करना पड़ता था। इस काल में समाज चार वर्गों-योद्धा, पुरोहित, जनसाधारण तथा शूद्रों में बंटा हुआ था। शूद्र वे लोग थे जिन्हें युद्ध में पराजित करके दास बनाया जाता था। काम के आधार पर भी समाज का बंटवारा शुरू हो गया था, परन्तु यह बंटवारा अभी पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं था। समाज में नारी का बड़ा आदर था। उसे पुरुष की अर्धांगिनी समझा जाता था। वह पुरुष के साथ यज्ञों में भाग लेती थी। उसे शासन कार्यों में भाग लेने का भी अधिकार था। लोगों का मुख्य गेहूं, जौ, घी और दूध था। विशेष अवसरों पर लोग सोमरस भी पीते थे। लोगों के मनोरंजन के मुख्य साधन रथ-दौड़, शिकार करना तथा जुआ खेलना थे।

4. धार्मिक अवस्था-ऋग्वैदिक आर्य सन्तान, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि की प्राप्ति के लिए अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उनके देवताओं में सोम, अग्नि, वायु, इन्द्र, द्यौस, ऊषा, वरुण तथा सूर्य प्रमुख थे। इन्द्र उनका सबसे बड़ा देवता था। युद्ध से पहले विजय पाने के लिए प्रायः इन्द्र की पूजा की जाती थी। उनकी मुख्य देवी उषा थी। आर्य लोगों के धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते हुए भी एक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते थे।

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प्रश्न 2.
उत्तर वैदिक कालीन आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक अवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
1000 ई० पू० में ऋग्वैदिक काल की समाप्ति हो गई। इस समय से लेकर लगभग 600 ई० पू० के काल को इतिहासकार उत्तर वैदिक काल का नाम देते हैं। इन दिनों आर्य लोग गंगा की घाटी में आ बसे थे। यहां उन्होंने सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की। इन्हीं ग्रन्थों के अध्ययन से ही हमें उत्तर वैदिक आर्यों की सभ्यता का पता चलता है। इस सभ्यता की मुख्य विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. राजनीतिक जीवन-उत्तर वैदिक काल में बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित हो गए। राजा की शक्तियां बढ़ गईं। शासन कार्यों में राजा की सहायता के लिए सेनानी, पुरोहित, संगृहित्री आदि अनेक अधिकारी थे। परन्तु राजा के लिए उनके निर्णय को मानना आवश्यक नहीं था शासन कार्यों के व्यय के लिए वह प्रजा से कर और दक्षिणा लेता था।

2. सामाजिक जीवन-उत्तर वैदिक काल में समाज चार जातियों में बंटा हुआ था। वे जातियां थीं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य .. तथा शूद्र। ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। इस काल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता आश्रम व्यवस्था थी। जीवन को 100 वर्ष मान कर इसे चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास में बांट दिया गया।

3. आर्थिक अथवा भौतिक जीवन-इस काल के आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना था, परन्तु अब वे लोग बड़ेबड़े हलों का प्रयोग करने लगे थे। राजा और राजकुमार स्वयं भी हल चलाते थे। इस काल में कौशाम्बी, विदेह, काशी आदि बड़े-बड़े नगरों का उदय हुआ। ये नगर व्यापार और उद्योग-धन्धों के प्रमुख केन्द्र बने। उस समय विदेशी व्यापार भी होता था।

4. धार्मिक अवस्था-उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाज तथा धार्मिक विचारों में काफ़ी परिवर्तन आया। इस काल में इन्द्र, वरुण तथा सूर्य की बजाय शिव-विष्णु की पूजा पर अधिक बल दिया जाने लगा। आत्मा, परमात्मा तथा जन्म-मृत्यु के विषय में अनेक नये सिद्धान्त धर्म में शामिल हो गए। कर्म, मोक्ष तथा माया सम्बन्धी सिद्धान्तों ने धर्म को और भी अधिक जटिल बना दिया। इस काल में लोग अनेक प्रकार के जादू-टोनों में भी विश्वास रखने लगे थे।
सच तो यह है कि उत्तर वैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन में अनेक परिवर्तन आए।

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प्रश्न 3.
जाति-प्रथा के विषय में आप क्या जानते हैं ? इसके (क) लाभ तथा (ख) हानियों का वर्णन करो।
उत्तर-
जाति-प्रथा से अभिप्राय उन श्रेणियों से हैं जिनमें हमारा प्राचीन समाज बंटा हुआ था। हर जाति की अपनी अलग प्रथाएँ थीं। जाति के प्रत्येक सदस्य को उनका पालन करना पड़ता था। आरम्भ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक चार जातियां थीं, परन्तु धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। आजकल भारत में लगभग तीन हज़ार जातियां हैं।

(क) जाति-प्रथा के लाभ-

  • जाति-प्रथा के कारण भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभाव से सुरक्षित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण रक्त की पवित्रता बनी रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोग बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय में जुट जाते थे। फलस्वरूप बड़े होकर वे निपुण कारीगर सिद्ध होते थे।
  • जाति-प्रथा के अनुसार बुरा काम करने वाले लोगों को जाति से निकाल दिया जाता था। इस भय से लोग कोई बुरा काम नहीं करते थे।
  • प्रत्येक जाति के लोग अपनी जाति के निर्धन तथा रोगी व्यक्तियों की सेवा तथा सहायता करते थे। इस प्रकार लोगों के मन में समाज-सेवा और त्याग की भावना बढी।
  • जाति-प्रथा के कारण प्रत्येक जाति के लोगों को अपनी जाति का व्यवसाय अपनाना पड़ता था। अतः लोगों को रोज़ी का कोई अन्य साधन ढूंढ़ने की चिन्ता नहीं रहती थी।
  • जाति-प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों का कार्य शिक्षा देना था। वह निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते थे।
  • शुद्धि तथा अन्य जातियों के लोग हिन्दू बन जाते थे। अतः शक, हूण, यूनानी आदि भारत पर आक्रमण करने वाली अनेक जातियां हिन्दू समाज का अंग बन गईं। .

(ख) जाति-प्रथा की हानियां –

  • जाति-प्रथा के कारण राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात पहुंचा।
  • जाति-प्रथा के कारण देश में सैनिक शिक्षा सीमित रही।
  • जाति-प्रथा के कारण लोगों के लिए पैतृक धन्धा बदलना बड़ा कठिन होता था। फलस्वरूप लोगों का व्यक्तिगत विकास रुक गया।
  • इस प्रथा के कारण समाज में छुआछूत की भावना बढ़ी।
  • ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्वयं को सभी जातियों से श्रेष्ठ समझते थे। इस प्रकार जातियों में आपसी द्वेष उत्पन्न हो गया।
  • ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए अनेक ऐसी कुप्रथाएं चलाईं जिससे उन्हें अधिक से अधिक लाभ पहुंचे। इस प्रकार अनेक सामाजिक कुरीतियां प्रचलित हुईं। सच तो यह है कि जाति-प्रथा से भारत को आरम्भ में अवश्य कुछ लाभ पहुंचे, परन्तु धीरे-धीरे यह प्रथा भारत के लिए अभिशाप बन गई। वास्तव में यह एक कुप्रथा है जो हिन्दू समाज को अन्दर से खोखला करती रही है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

PSEB 11th Class Physical Education Guide नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
समाज में आम प्रचलित कौन-कौन से नशे हैं ?
(Which Drugs are commonly used by the people in the society ?)
उत्तर-

  1. शराब
  2. अफीम
  3. तम्बाकू
  4. भांग
  5. हशीश
  6. नस्वार
  7. कोकीन
  8. ऐडरनवीन
  9. नार्कोटिक्स
  10. ऐनाबोलिक स्टीराइडस।

प्रश्न 2.
नशे क्या होते हैं ? (What are Drugs ?)
उत्तर-
नशा एक ऐसा पदार्थ है जिसका इस्तेमाल करने से शरीर में किसी न किसी तरह की उत्तेजना या आलस्यपन आ जाता है। मनुष्य के नाड़ी प्रबन्ध पर सभी नशीली वस्तुओं का बहुत बुरा असर पड़ता है जिसके कारण कई तरह के विचार, कल्पना तथा व्यक्ति को कोई सुध नहीं रहती और बुरी भावनाएं पैदा होती हैं। वह अपना, अपने परिवार तथा समाज के लोगों का नुकसान करता है।

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प्रश्न 3.
नशों की किस्में लिखें। (Write the types of Drugs.)
उत्तर-
नशे कई प्रकार के होते हैं ; जैसे-शराब, तम्बाकू, अफ़ीम, भांग, चरस, कैफीन तथा मैडीकल नशे या नशीली दवाइयां आदि।
1. शराब-शराब का सेहत पर प्रभाव (Effect of Alcohol on Health) शराब एक नशीला तरल पदार्थ है। शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बाज़ार में बेचने से पहले प्रत्येक शराब की बोतल पर यह लिखना ज़रूरी है। फिर भी बहुत से लोगों को इसकी लत (आदत) लगी हुई है जिससे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर को कई तरह के रोग लग जाते हैं। फेफड़े कमजोर हो जाते हैं और व्यक्ति की आयु घट जाती है। ये शरीर के सभी अंगों पर बुरा प्रभाव डालती है। पहले तो व्यक्ति शराब को पीता है कुछ समय के बाद शराब आदमी को पीने लग जाती है। भाव शराब शरीर के अंगों को नुकसान पहुंचाने लग जाती है।
शराब पीने की हानियाँ निम्नलिखित हैं—

  • शराब का असर दिमाग पर होता है। नाड़ी प्रबन्ध बिगड़ जाता है और दिमाग कमजोर हो जाता है। मनुष्य के सोचने की शक्ति घट जाती है।
  • शरीर में गुर्दे कमजोर हो जाते हैं।
  • शराब पीने से पाचन रस कम पैदा होना शुरू हो जाता है जिससे पेट खराब रहने लग जाता है।
  • श्वास की गति तेज़ और सांस की अन्य बीमारियां लग जाती हैं।
  • शराब पीने से रक्त की नाड़ियां फूल जाती हैं। दिल को अधिक काम करना पड़ता है और दिल के दौरे का डर बना रहता है।
  • लगातार शराब पीने से मांसपेशियों की शक्ति घट जाती है। शरीर बीमारियों का मुकाबला करने के योग्य नहीं रहता।
  • आविष्कारों से पता लगता है कि शराब पीने वाला मनुष्य शराब न पीने वाले व्यक्ति से काम कम करता है। शराब पीने वाले व्यक्ति को बीमारियां भी जल्दी लगती हैं।
  • शराब से घर, स्वास्थ्य, पैसा आदि बर्बाद होता है और यह एक सामाजिक बुराई है।

2. तम्बाकू-तम्बाकू पीना-खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुका है। तम्बाकू पीने के अलग-अलग ढंग हैं, जैसे बीड़ी, सिगरेट पीना, सिगार पीना, हुक्का पीना, चिल्म पीना आदि। इसी तरह खाने के ढंग भी अलग हैं, जैसे तम्बाक चूने में मिला कर सीधे मुंह में रख कर खाना, या रगने में रखकर खाना, या गले में रखकर खाना आदि। तम्बाकू में खतरनाक ज़हर निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा कार्बन-डाइऑक्साइड आदि भी होता है। निकोटीन का बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे सिर चकराने लग जाता है और फिर दिल पर प्रभाव करता है।

3. अफ़ीम-अफ़ीम पैपेबर सोनिफेरस नामक पौधे से प्राप्त किया जाता है, जो एक काले रंग का कसैला मादक पदार्थ है और जिसका प्रयोग नशे के रूप में किया जाता है।

4. चरस-यह भांग से बना नशीला पदार्थ होता है जिसके प्रयोग से आलस्य, नींद, उत्तेजना, बिमारी आदि महसूस होने लगती है। यह सोच शक्ति पर बुरा असर डालती है।

5. कोकीन-कोकीन कोका नामक पत्तियों से प्राप्त होने वाला नशीला पदार्थ है। इससे चिड़चिड़ापन आ जाता है। इसका प्रयोग करने से दिल का दौरा पड़ सकता है, दिल फेल भी हो सकता है।

6. नशीली दवाइयां-स्वास्थ्य संस्थानों में प्रयोग की जाने वाली कई प्रकार की दर्द निवारक दवाएँ होती हैं, जो किसी भयानक बिमारी या ऑप्रेशन के समय दर्द से राहत के लिए दी जाती हैं।

परन्तु आज कल ये दर्द निवारक दवाइयां डॉक्टरी सलाह के बिना नौजवान और खिलाड़ी वर्ग इनका आम जिंदगी में प्रयोग कर रहे हैं। इस तरह की दवाओं में कई तरह की नशीली गोलियां, पीने वाली दवाईयां, टीके, कैप्सूल आदि शामिल हैं। जैसे-डायाजेपाम, नेबूटाल, सेकोनाल, आदि।

प्रश्न 4.
तम्बाकू पर नोट लिखें। (Write a note on Tobacco.)
उत्तर-
हमारे देश में तम्बाकू पीना-खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुका है। तम्बाकू निकोटीन के पौधों के पत्तों से प्राप्त नशीला पदार्थ होता है। तम्बाकू पीने के अलग-अलग ढंग हैं, जैसे बीड़ी, सिगरेट पीना, सिगार पीना, हुक्का पीना, चिल्म पीना आदि। इसी तरह खाने के ढंग भी अलग हैं, जैसे तम्बाकू चूने में मिला कर सीधे मुंह में रख कर खाना, या रगने में रखकर खाना, या गले में रखकर खाना आदि। तम्बाकू में खतरनाक ज़हर निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा कार्बन-डाइऑक्साइड आदि भी होता है। निकोटीन का बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे सिर चकराने लग जाता है और फिर दिल पर प्रभाव करता है।
तम्बाकू के नुकसान इस तरह हैं—

  1. तम्बाकू खाने या पीने से नज़र कमजोर हो जाती है।
  2. इससे दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। दिल का रोग लग जाता है जो कि मृत्यु का कारण बन सकता है।
  3. आविष्कारों से पता लगा है कि तम्बाकू पीने या खाने से रक्त की नाड़ियां सिकुड़ जाती हैं।
  4. तम्बाकू शरीर के तन्तुओं को उत्तेजित रखता है, जिससे नींद नहीं आती और नींद न आने की हालत में बीमारी लग जाती है।
  5. तम्बाकू के प्रयोग से पेट खराब रहने लग जाता है।
  6. तम्बाकू के प्रयोग से खांसी लग जाती है जिससे फेफड़ों की टी० बी० होने का खतरा बढ़ जाता है।
  7. तम्बाकू से कैंसर की बीमारी का डर बढ़ जाता है। विशेष कर छाती का कैंसर और गले का कैंसर।
  8. तम्बाकू के प्रयोग से खुराक नली, मुंह के कैंसर का डर भी रहता है।

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प्रश्न 5.
अफ़ीम के शरीर पर पड़ने वाले कुप्रभाव लिखें। (Write about the fatal effects of using opium on our body.)
उत्तर-
अफ़ीम के शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावः

  1. हल्का-हल्का सिरदर्द महसूस होता रहता है।
  2. दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है।
  3. कोई भी निर्णय लेने की योग्यता कम हो जाती है।
  4. डर, घबराहट और बीमारी हालत महसूस होती है।
  5. वातावरण या हवा में अनावश्यक नमी या ठंड महसूस होती है।
  6. छाती में दर्द महसूस होता रहता है।
  7. होंठ और हाथों के नाखुन नीले हो जाते हैं।
  8. आँखों की पुतलियाँ सिकुड़ जाती है और कोई भी वस्तु साफ दिखाई नहीं देती।
  9. व्यक्ति साधारण परिस्थितियों में भी उतावलापन महसूस करता है।

प्रश्न 6.
नशे करने के क्या कारण हैं ? (What are the reasons of taking drugs ?)
उत्तर-
1. मीडिया-मीडिया द्वारा वैसे तो नौजवानों को नशे न करने के प्रति जागरुक किया जाता है। परन्तु विद्यार्थी गीतों, फिल्मों तथा नाटकों आदि में किए जाने वाले नशों के प्रयोग को फैशन या स्टेट्स समझने की भूल कर बैठते हैं।

2. अपना अस्तित्व दिखाना-कई बार माता-पिता द्वारा या समाज द्वारा विद्यार्थी या खिलाड़ी को अनदेखा किया जाता है। बच्चे या खिलाड़ी को लगता है कि उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा, इसलिए वह दूसरों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए ऐसे गलत तरीकों का प्रयोग करते हैं।

3. अपने आपको बड़ा साबित करना-कई बार दोस्तों मित्रों या माता-पिता द्वारा विद्यार्थी को अनजान या . छोटा कहकर कोई विशेष काम करने से रोक दिया जाता है। तब वह गुस्से में या अपने आपको बड़ा साबित करने के लिए ऐसे ग़लत तरीके का प्रयोग करता है।

4. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी भी नशों के बढ़ रहे रुझान का बड़ा कारण है। जब किसी अधिक पढ़े-लिखे नौजवान या खिलाड़ी को समय पर नौकरी नहीं मिलती तो वह धीरे-धीरे निराशा का शिकार हो जाता है और अपने तनाव को घटाने के लिए नशों का प्रयोग करने लग जाता है।

5. मौज मस्ती के लिए—जवान लड़के और लड़कियों द्वारा पार्टी को मज़ेदार बनाने या अपनी मौज-मस्ती के लिए इन नशों का प्रयोग किया जाता है, जो धीरे-धीरे उनकी आदत बन जाती है।

6. मानसिक दबाव-कुछ नौजवान मानसिक दबाव के कारण जैसे पढ़ाई का बोझ, किसी समस्या का सामना न कर पाने की हालत में डिप्रेशन में चले जाते हैं, ऐसी हालत में से निकलने के लिए वे नशे का सहारा लेते

7. जानने की इच्छा-नौजवान उम्र के विद्यार्थी के भीतर हर एक नयी चीज़ के बारे में जानने की इच्छा होती है। अगर घर में किसी सदस्य द्वारा किसी नशे का प्रयोग किया जाता है तो बच्चे में भी उसको जानने की इच्छा पैदा होती है। वे पहले घर वालों से चोरी यह गलती करते हैं और धीरे-धीरे नशों की जकड़ में आ जाते हैं।

8. मानसिक दबाव-कुछ नौजवान मानसिक दबाव के कारण जैसे पढ़ाई का बोझ, किसी समस्या का सामना न कर पाने की हालत में डिप्रेशन में चले जाते हैं, ऐसी हालत में से निकलने के लिए वे नशे का सहारा लेते हैं।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

प्रश्न 7.
नशों का खिलाड़ी, परिवार, समाज तथा देश पर क्या प्रभाव पड़ता है ? (What are the bad effects of using drugs on a player, family, society and country ?)
उत्तर-
नशीले पदार्थों का शरीर, परिवार और समाज पर बुरा प्रभाव (Effects of Intoxicants on Individual, Family and Society And Their Abuses)—मनुष्य प्राचीन काल से ही नशीली वस्तुओं का प्रयोग करता आ रहा है। उसका विश्वास था कि इनके प्रयोग से रोग दूर होते हैं तथा मन ताज़ा होता है। परन्तु बाद में इनके कुप्रभाव भी देखने में आए हैं। आज के वैज्ञानिक युग में अनेक नई-नई नशीली वस्तुओं का आविष्कार हुआ है जिसके कारण क्रीड़ा जगत् दुविधा में पड़ गया है। इन नशीली वस्तुओं के सेवन से भले ही कुछ समय के लिए अधिक काम लिया जा सकता है, परन्तु नशे और अधिक काम से मानव रोग का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। इन घातक नशों में से कुछ नशे तो कोढ़ के रोग से भी बुरे हैं। शराब, तम्बाकू, अफीम, भांग, हशीश, ऐडरनविन तथा निकोटीन ऐसी नशीली वस्तुएं हैं जिनका सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।

प्रत्येक व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए किसी-न-किसी खेल में भाग लेता है। वह अपने साथियों तथा पड़ोसियों के साथ मेल-मिलाप तथा सद्भावना की भावना रखता है। इसके विपरीत एक नशे का गुलाम व्यक्ति दूसरों की सहायता करना तो दूर रहा, अपना बुरा-भला भी नहीं सोच सकता। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए बोझ होता है। वह दूसरों के लिए सिर दर्दी बन जाता है। परिवार में कलेश रहने के कारण बच्चों के विकास पर भी असर पड़ता है। वह पारिवारिक कार्यों तथा फैसलों में अपना कोई योगदान नहीं देता। समाज और परिवार में उसके कोई पास नहीं आता। वह न केवल अपने जीवन को दु:खद बनाता है, बल्कि अपने परिवार और सम्बन्धियों के जीवन को भी नरक बना देता है। सच तो यह है कि नशीली वस्तुओं का सेवन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव डालता है। इससे ज्ञान शक्ति, पाचन शक्ति, दिल, रक्त, फेफड़ों आदि से सम्बन्धित अनेक रोग लग जाते हैं।
नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना खिलाड़ियों के लिए ठीक नहीं होता।
नशीली वस्तुओं के दोष (Harms of Intoxicants)-जो खिलाड़ी नशीली वस्तुओं का प्रयोग करते हैं उनके दोष निम्नलिखित हैं—

  1. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  2. कदम लड़खड़ाते हैं।
  3. मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है।
  4. खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाता है।
  5. पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  6. तेज़ाबी अंश आमाशय की शक्ति को कम करते हैं।
  7. पेट के कई प्रकार के रोग लग जाते हैं।
  8. पेशियों के काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
  9. खेल के मैदान में खिलाड़ी खेल का अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता।
  10. कैंसर और दमे की बीमारियां लग जाती हैं।
  11. खिलाड़ियों की स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है।
  12. नशे में डूबे खिलाड़ी खेल की परिवर्तित अवस्थाओं को नहीं समझ सकते और अपनी टीम की पराजय का कारण बन जाते हैं।
  13. नशे वाला खिलाड़ी लापरवाह हो जाता है।
  14. शरीर में समन्वय नहीं होता।
  15. नशे वाले खिलाड़ी के पैरों का तापमान सामान्य शक्ति के तापमान से 1.8° सैंटीग्रेड कम होता है।

नशीली वस्तुओं के सेवन का खिलाड़ियों तथा खेल पर बुरा प्रभाव पड़ता है जो कि इस प्रकार है—
1. शारीरिक समन्वय एवं स्फूर्ति का अभाव-नशे करने वाले खिलाड़ी में शारीरिक तालमेल तथा स्फूर्ति नहीं रहती। अच्छे खेल के लिये इनका होना बहुत जरूरी है। हॉकी, फुटबॉल, वॉलीबॉल आदि ऐसी खेलें हैं।

2. मन के सन्तुलन और एकाग्रचित्त का प्रभाव-किसी खिलाड़ी की मामूली-सी सुस्ती खेल का पासा पलट देती है। इतना ही नहीं नशे में धुत्त खिलाड़ी एकाग्रचित्त नहीं हो सकता। इसलिए वह खेल के दौरान ऐसी गलतियां कर देता है जिसके फलस्वरूप उसकी टीम को पराजय का मुंह देखना पड़ता है।

3. लापरवाही तथा बेफिक्री-नशे से ग्रस्त खिलाड़ी बहुत लापरवाह और बेफिक्र होता है। वह अपनी शक्ति तथा दक्षता का उचित अनुमान नहीं लगा सकता। कई बार जोश में आकर वह ऐसी चोट खा जाता है जिससे उसे आयु पर्यन्त पछताना पड़ता है।

4. खेल भावना का अन्त-नशे में रहने से खिलाड़ी की खेल भावना का अन्त हो जाता है। नशा करने वाले खिलाड़ी की स्थिति अर्द्ध-बेहोशी की होती है। उसके मन का सन्तुलन बिगड़ जाता है। वह खेल में अपनी ही हांकता है और साथी खिलाड़ी की बात नहीं सुनता।

5. सोचने का अभाव-वह रैफरी या अम्पायर के उचित निर्णयों के प्रति असहमति व्यक्त करता है। सहनशीलता की शक्ति की कमी हो जाती है।

6. नियमों की अवहेलना-वह खेल के नियमों की अवहेलना करता है।

7. मैदान लड़ाई का अखाड़ा बन जाना-नशे में रहने वाला खिलाड़ी खेल के मैदान को लड़ाई का अखाड़ा बना देता है।

अन्तर्राष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने खेल के दौरान नशीली वस्तुओं के प्रयोग पर पाबन्दी लगा दी है। यदि खेल के दौरान कोई नशे की दशा में पकड़ा जाता है तो उसका जीता हुआ इनाम वापस ले लिया जाता है। इसलिए खिलाड़ियों को चाहिए कि वे स्वयं को हर प्रकार की नशीली वस्तुओं के सेवन से दूर रखें और सर्वोत्तम खेल का प्रदर्शन करके अपने और अपने देश के नाम को चार चांद लगायें।

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प्रश्न 8.
अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति पर नोट लिखें। (Write a note on the International Olympic Committee.)
उतर-
आधुनिक युग में प्रत्येक खिलाड़ी खेल की दुनिया में अपना नाम चमकाना चाहता है। परन्तु कुछ ऐसे भी खिलाड़ी होते हैं जो बिना मेहनत किए अपना नाम चमकाने के लालच में कुछ गल्त दवाईयों का सहारा ले लेते है। ऐसी दवाईयां न सिर्फ खेल भावना को नुक्सान पहुंचाती हैं बल्कि उनकी सेहत को भी खराब करती हैं ! इसी को देखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी समिति बनाई गई है जो खिलाड़ियों को ऐसी दवाईयों का प्रयोग नहीं करने देती।

अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति द्वारा ऐसे मादक पदार्थों पर पाबंदी लगायी हुई है, जो खिलाड़ियों का प्रदर्शन बढ़ाने . के लिए प्रयोग किए जाते हैं। इन दवाओं का प्रयोग करने वालों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाती है। उनसे जीते हुए मैडल वापिस ले लिए जाते हैं और उनके खेलने पर पाबन्दी लगा दी जाती है। समिति द्वारा लंदन 2012 ओलंपिक खेलों में 1001 डोप टेस्ट किये गये और इन टेस्टों से पता चला कि 100 खिलाड़ियों ने पाबन्दी वाली दवा का प्रयोग किया हुआ था। इनमें अल्बेनियन वेटलिफ्टर हसन पूलाकू वह खिलाड़ी था, जिसके टेस्ट में ‘ऐनाबोलिक स्टीराईड’ पायी गयी।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
पैपेबर सोनिफेरस पौधे से कौन-सा नशीला पदार्थ मिलता है ?
उत्तर-
पैपेबर सोनिफेरस पौधे से अफीम मिलता है।

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प्रश्न 2.
शराब, तम्बाकू और अफीम क्या है ?
उत्तर-
शराब, तम्बाकू और अफीम नशीले पदार्थ हैं।

प्रश्न 3.
Central Nervous System को कौन प्रभावित करता है ?
उत्तर-
Central Nervous System को नशीली वस्तुएं प्रभावित करती हैं।

प्रश्न 4.
निकोटीआना कुल के पौधों और पत्तों से कौन-सा नशा प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर-
निकोटीआना कुल के पौधों और पत्तों से तम्बाकू प्राप्त किया जाता है।

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प्रश्न 5.
ऐमसेटेमिन, कैफीन, कोकीन, नारकोटिक कौन-सी दवाइयां हैं ?
उत्तर-
खिलाड़ियों को उत्तेजित करने की।

प्रश्न 6.
पाबंदीशुदा दवाई खिलाड़ियों का भार कम करने वाली कौन-सी है ?
उत्तर-
डिऊरैटिकस दवाई खिलाड़ियों का भार घटाने वाली है।

प्रश्न 7.
अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी के क्या कार्य हैं ?
(a) ओलम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की जांच करनी।
(b) नशों की जांच करनी।
(c) खिलाड़ियों को उत्साहित करना।
(d) खिलाड़ियों को इनाम देने।
उत्तर-
(a) ओलम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की जांच करनी।

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प्रश्न 8.
ओलम्पिक कमेटी पाबंदी लगाती है ?
(a) नशीले पदार्थ
(b) पीने वाले पदार्थ
(c) खाने वाली ताकत वाली चीजें
(d) उपरोक्त को भी नहीं।
उत्तर-
(a) नशीले पदार्थ।

प्रश्न 9.
कोई तीन नशीले पदार्थों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. शराब,
  2. अफीम,
  3. तम्बाकू।

प्रश्न 10.
ओलम्पिक कमेटी ने खिलाड़ियों के कौन-कौन सी नशीली वस्तुओं पर पाबंदी लगाई।
उत्तर-
ऐमफेटेमिन, कैफीन, कोकीन, नार्कोटिक।

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प्रश्न 11.
अंतर्राष्ट्रीय कमेटी को कोई दो नाम लिखो।
उत्तर-

  1. नशों की जानकारी
  2. विजेता खिलाड़ियों को इनाम देने।

प्रश्न 12.
नशों से व्यक्ति की सेहत पर क्या असर होता है ?
उत्तर-
नाड़ी प्रबंध बिगड़ जाता है और दिमाग कमजोर हो जाता है।

प्रश्न 13.
नशीली वस्तुओं का खिलाड़ियों और खेल पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
खेल भावना का अन्त, नियम के विरुध जाना तथा मैदान लड़ाई का अखाड़ा बन जाता है।

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प्रश्न 14.
शराब से व्यक्ति की सेहत पर क्या असर पड़ता है.?
उत्तर-
नाड़ी प्रबंध बिगड़ जाता है, दिमाग कमजोर हो जाता है।

प्रश्न 15.
तम्बाकू से क्या नुक्सान होता है ?
उत्तर-
तम्बाकू खाने या पीने से नजर कमजोर हो जाती है और कैंसर की बीमारी का डर बढ़ जाता है।

प्रश्न 16.
शराब पीने से किस विटामिन की कमी होती है ?
उत्तर-
शराब पीने से विटामिन ‘B’ की कमी होती है।

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प्रश्न 17.
शराब पीने से कौन-सा रोग होता है ?
उत्तर-
शराब पीने से सबसे बड़ा रोग ‘जिगर’ का हो जाता है।

प्रश्न 18.
सिगरेट, बीड़ी, नसवार और सिगार किस नशाखोरी के साथ संबंधित है ?
उत्तर-
तम्बाकू पीने से संबंधित है।

प्रश्न 19.
सिगरेट पीने से कौन-सा जहरीला पदार्थ मिलता है ?
उत्तर-
निकोटिन पदार्थ मिलता है।

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प्रश्न 20.
तम्बाकू पीने से मनुष्य का खून का दबाव कितना बढ़ जाता है ?
उत्तर-
20 mg खून का दबाव बढ़ जाता है।

अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अगर खिलाड़ी ओलम्पिक में नशीली दवाइयों का सेवन करता पकड़ा जाए तो उसको क्या जुर्माना पड़ता है ?
उत्तर-
अगर खिलाड़ी ने कोई मैडल जीता हो तो वह वापिस ले लिया जाता है और उससे नकद जुर्माना भी लिया जाता है।

प्रश्न 2.
नशीली वस्तुओं के कोई दो दोष लिखो।
उत्तर-
नशीली वस्तुओं के दोष निम्नलिखित हैं—

  1. चेहरा पीला हो जाता है।
  2. मानसिक संतुलन खराब हो जाता है।

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प्रश्न 3.
नशीली वस्तुओं के खिलाड़ियों पर कोई दो बुरे प्रभाव लिखो।
उत्तर-
नशीली वस्तुओं के खिलाड़ियों पर पड़ने वाले दो बुरे प्रभाव निम्नलिखित हैं—

  1. फुर्ती कम हो जाती है।
  2. मानसिक संतुलन की एकाग्रता कम हो जाती है।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
नशीली वस्तुओं के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. शराब
  2. अफ़ीम
  3. तम्बाकू
  4. भंग
  5. नारकोटिक्स
  6. हशीश
  7. नसवार
  8. कैफ़ीन
  9. ऐडग्वीन
  10. ऐनाबोलिक सटीराइड।

प्रश्न 2.
शराब का स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-

  1. श्वास की गति तेज हो जाती है और श्वास की दूसरी बीमारियाँ भी लग जाती है।
  2. शराब का असर पहले दिमाग पर होता है। नाड़ी प्रबंध बिगड़ जाता है और दिमाग कमजोर हो जाता है। मनुष्य की सोचने की शक्ति कम हो जाती है।
  3. शराब पीने से पाचक रस कम पैदा होना शुरू हो जाता है। जिसके कारण पेट खराब होने लगता है।
  4. शराब से गुर्दे कमजोर हो जाते हैं।

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प्रश्न 3.
तम्बाकू पर एक नोट लिखो।
उत्तर-
हमारे देश में तम्बाकू पीना और तम्बाकू खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुकी है। तम्बाकू पीने के अलगअलग ढंग होते हैं। जैसे-बीड़ी पीना, सिगार पीना, चिलम पीना आदि। इस तरह खाने के ढंग भी अलग होते हैं, जैसेतम्बाकू में मिलाकर सीधा मुंह में रख कर खाना या पान में रख कर खाना। तम्बाकू में खतरनाक जहरीला निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा अमोनिया कार्बनडाइआक्साइड आदि भी होती है। निकोटीन का बुरा असर सिर पर पड़ता है। जिसके साथ सिर चकराने लगता है और फिर दिल पर असर होता है।

प्रश्न 4.
अफ़ीम से शरीर पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव बताओ।
उत्तर-

  1. पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  2. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  3. खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाता है।
  4. कदम लड़खड़ाते हैं।

प्रश्न 5.
नशे करने के दो कारण लिखो।
उत्तर-

  1. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी भी नशों के बढ़ रहे शौक का बड़ा कारण है। जब खिलाड़ी को नौकरी नहीं मिलती और फिर उसका झुकाव नशों की तरफ चला जाता है।
  2. दोस्तो की तरफ से मज़बूर करना-खिलाड़ी को उसके साथियों द्वारा नशे की एक दो दफा नशा करने के लिए मजबूर करना और नशे को मज़ेदार चीज़ बता कर उसको नशा करवाया जाता है।

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प्रश्न 6.
नशों का खिलाड़ी, परिवार, समाज और देश पर प्रभाव लिखो।
उत्तर-
नशा एक ऐसी लाइलाज लत है। जिसको करने से व्यक्ति अपना धैर्य खो बैठता है। वह स्वास्थ्य तो खराब करता ही है, बल्कि अपने परिवार का जीना भी मुश्किल कर देता है। वह अपने नशे की जरूरत के लिए हर गलत तरीका अपनाता है। जिस कारण परिवार में कलेश रहता है। जिसका बुरा प्रभाव बच्चों की वृद्धि और विकास पर प्रभाव पड़ता है। समाज में व्यक्ति की इज्जत खत्म हो जाती है। हर कोई ऐसे नशेड़ी व्यक्ति से दूर रहता है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
नशीली वस्तुओं के शरीर पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के बारे में वर्णन करें।
उत्तर-
शराब, अफीम, तम्बाकू, हशीश आदि नशीली वस्तुएं हैं। इनके सेवन से भले ही कुछ समय के लिए अधिक काम लिया जा सकता है, परन्तु नशे और अधिक काम से मानव रोग का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त करता है। इन घातक नशों में से कुछ नशे तो कोढ़ के रोग से भी बुरे हैं। शराब, तम्बाकू, अफीम, भांग, हशीश, ऐडरनविन तथा निकोटीन ऐसी नशीली वस्तुएं हैं जिनका सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।
नशीली वस्तुओं के शरीर पर बुरे प्रभाव :—

  1. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  2. कदम लड़खड़ाते हैं।
  3. मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है।
  4. खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बन जाता है।
  5. पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  6. तेज़ाबी अंश आमाशय की शक्ति को कम करते हैं।
  7. पेट के कई प्रकार के रोग लग जाते हैं।
  8. पेशियों के काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
  9. खेल के मैदान में खिलाड़ी खेल का अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता।
  10. कैंसर और दमे की बीमारियां लग जाती हैं।
  11. खिलाड़ियों की स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है।
  12. नशे में डूबे खिलाड़ी खेल की परिवर्तित अवस्थाओं को नहीं समझ सकते और अपनी टीम की पराजय का कारण बन जाते हैं।
  13. नशे वाला खिलाड़ी लापरवाह हो जाता है।
  14. शरीर में समन्वय नहीं होता।
  15. नशे वाले खिलाड़ी के पैरों का तापमान सामान्य शक्ति के तापमान से 1.8° सैंटीग्रेड कम होता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 5 नशों तथा डोपिंग के घातक प्रभाव

प्रश्न 2.
डोपिंग किसे कहते हैं ? ब्लॅड डोपिंग तथा जीन डोपिंग के बारे में लिखें।
उत्तर-
डोपिंग से भाव है कुछ ऐसी मादक दवाओं या तरीकों का प्रयोग करना जिसके साथ खेल प्रदर्शन को बढ़ाया जाता है। डोपिंग दो तरह की होती है—

  1. शारीरिक विधि द्वारा
  2. दवाओं द्वारा

शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव—

  1. कई बार जल्दवाजी में दूसरे व्यक्ति के खून को मैच नहीं किया जाता, जिसके परिणामस्वरुप संक्रमण द्वार खिलाड़ी की मृत्यु भी हो सकती है।
  2. दूसरे व्यक्ति से किसी भी भयानक बीमारी के कीटाणु खिलाड़ी के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।
  3. कई बार अपनी ओर से रखे गए खून में भी संक्रमण हो सकता है। जिसके साथ व्यक्ति को भयानक बीमारियाँ लग सकती हैं या खिलाड़ी की मौत भी हो सकती है।

ब्लॅड डोपिंग-इस तरह की विधि खिलाड़ी की हिमोग्लोबिन की तीव्रता को बढ़ाया जाता है। जिसके साथ मांसपेशियों को ज्यादा ऑक्सीजन मिलती है। इसके साथ खिलाड़ी की कारगुजारी बढ़ती है। लम्बी दूरी की दौड़ों में एथलीट्स द्वारा यह विधि ज्यादा प्रयोग की जाती है।
जीन डोपिंग-जीन डोपिंग में अपने शरीर की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए अपने ही जीन को बदला जाता है। इस डोपिंग से मांसपेशियों की वृद्धि होती है, शरीर की सहनशक्ति, ज्यादा दर्द सहन करने की शक्ति आदि बढ़ जाती है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

PSEB 11th Class Agriculture Guide कृषि उत्पादों का मंडीकरण Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
उपयुक्त मंडीकरण फसल की कटाई से पूर्व आरम्भ होता है या बाद में ?
उत्तर-
पहले।

प्रश्न 2.
यदि किसान महसूस करें कि उन्हें मंडी में उत्पाद का उचित मूल्य नहीं दिया जा रहा, तो उन्हें किसके साथ सम्पर्क करना चहिए?
उत्तर-
मार्केटिंग इंस्पैक्टर तथा मार्केटिंग कमेटी वालों से।.

प्रश्न 3.
यदि बोरी के वजन से अधिक उत्पाद तोला गया हो तो इसकी शिकायत किस को करनी चाहिए?
उत्तर-
मंडीकरण के उच्च अधिकारी से।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

प्रश्न 4.
उत्पाद को मंडी में ले जाने से पूर्व कौन सी दो बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है?
उत्तर-

  1. दानों में नमी की मात्रा निर्धारित माप दण्ड के अनुसार ठीक होनी चाहिए।
  2. उत्पाद की सफाई।

प्रश्न 5.
मंडी गोबिंदगढ़, मोगा और जगराओं में गेहूं संभालने के लिए ब्लॉक हैंडलिंग इकाइयां किसने स्थापित की हैं ?
उत्तर-
भारतीय खाद्य निगम।

प्रश्न 6.
किसानों को फसल की तोलाई के बाद आढ़ती से कौन सा फार्म लेना जरूरी है?
उत्तर-
जे (J) फार्म।

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प्रश्न 7.
अलग-अलग मंडियों में उत्पादों के मूल्यों (कीमतों) की जानकारी किन साधनों द्वारा प्राप्त की जा सकती है?
उत्तर-
टी०वी०, रेडियो, समाचार-पत्र आदि द्वारा।

प्रश्न 8.
सरकारी खरीद एजेंसियां उत्पाद का मूल्य किस आधार पर लगाती हैं ?
उत्तर-
नमी की मात्रा देख कर।

प्रश्न 9.
संदेह के आधार पर मंडीकरण एक्ट के अनुसार कितने प्रतिशत तक उत्पाद की तोलाई बिना पैसे दिए करवाई जा सकती है?
उत्तर-
10% उत्पाद की।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

प्रश्न 10.
कौन सा एक्ट किसानों को तुलाई पड़ताल का अधिकार देता है?
उत्तर-
मंडीकरण एक्ट 1961।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
कृषि सम्बन्धी कौन-कौन से काम करते समय विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए?
उत्तर-
गुडाई, दवाइयों का प्रयोग, पानी, खाद, कटाई, गहाई इत्यादि कार्य करते समय विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए।

प्रश्न 2.
खेती के लिए फसलों का चुनाव करते समय किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-
कृषि के लिए उस फसल का चुनाव करें जिससे अधिक लाभ मिल सकता है और इस फसल की बढ़िया किस्म की ही बुआई करें।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

प्रश्न 3.
उत्पाद बिक्री के लिए मंडी में ले जाने से पूर्व किस बात की पड़ताल कर लेनी चाहिए?
उत्तर-
मंडी ले जाने से पहले दानों के बीच नमी की मात्रा निर्धारित मापदण्डों के अनुसार है या नहीं इसकी जांच कर लेनी चाहिए और फसल को तोल कर और वर्गीकरण करके मण्डी में ले जाने पर अधिक लाभ मिलता है।

प्रश्न 4.
मंडी में उत्पाद की बिक्री के समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-
सफ़ाई, तोल और बोली के समय किसान अपनी ढेरों के पास ही खड़ा रहे और देखे कि उसके उत्पाद का मूल्य ठीक लग रहा है या नहीं। यदि मूल्य ठीक न लगे तो मार्केटिंग इन्स्पैक्टर की सहायता ली जा सकती है। तोलाई वाले बाटों पर सरकारी मोहर लगी होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
ब्लॉक हैंडलिंग इकाइयों में सीधे उत्पाद बिक्री से क्या लाभ होते हैं ?
उत्तर-
बल्क हैंडलिंग इकाइयों में सीधा उत्पाद बिक्री से कई लाभ होते हैं, जैसे-पैसे का भुगतान उसी दिन हो जाता है, मंडी का खर्चा नहीं देना पड़ता, मज़दूरों का खर्चा बचता है, प्राकृतिक आपदाओं, जैसे-वर्षा, आंधी आदि के कारण उत्पाद नुकसान से बच जाता है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

प्रश्न 6.
मंडी में उत्पाद की निगरानी क्यों जरूरी है?
उत्तर-
कई बार मंडी में मज़दूर जानबूझ कर उत्पाद को किसी अन्य ढेरी में मिला देते हैं या कई बार उत्पाद को बचे हुए ‘छान’ में मिला देते हैं जिससे किसान को बहुत नुकसान हो जाता है। इसलिए उत्पाद का ध्यान रखना ज़रूरी है।

प्रश्न 7.
अलग-अलग मंडियों में उत्पादों के मूल्यों की जानकारी के क्या लाभ हैं?
उत्तर-
फसल की मंडी में आमद अधिक हो जाने या कम हो जाने पर कीमतें घटती तथा बढ़ती रहती हैं। इसलिए मंडियों के मूल्यों की लगातार जानकारी लेते रहना चाहिए ताकि अधिक मूल्य पर उत्पाद बेचा जा सके।

प्रश्न 8.
मार्किट कमेटी के दो मुख्य काम क्या हैं ?
उत्तर-
मार्किट कमेटी का मुख्य काम मण्डी में किसानों के अधिकारों की रक्षा करना है। यह उत्पाद की बोली करवाने में पूरा-पूरा तालमेल बना कर रखती है। इसके अलावा उत्पाद की तुलाई भी ठीक ढंग से होती है यह भी ध्यान रखती है।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

प्रश्न 9.
श्रेणीबद्ध से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
फसल को उसकी गुणवत्ता के अनुसार भिन्न-भिन्न भागों में बांटने को वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) करना कहा जाता है।

प्रश्न 10.
जे (J) फार्म लेने के क्या-क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
जे (J) फार्म में बिक चुके उत्पाद के बारे में सारी जानकारी होती है, जैसेउत्पाद की मात्रा, बिक्री कीमत तथा प्राप्त किए खर्चे । यह फार्म लेने के अन्य लाभ हैं कि बाद में यदि कोई बोनस मिलता है तो वह भी प्राप्त किया जा सकता है तथा मण्डी फीस की चोरी को भी रोका जा सकता है।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
मंडीकरण में सरकारी दखल पर नोट लिखो।
उत्तर-
एक समय था जब कृषक अपनी उपज के लिए व्यापारियों पर निर्भर था। व्यापारी अकसर कृषक को अधिक उत्पाद लेकर कम दाम ही देते थे। अब सरकार द्वारा कई नियम कानून बना दिए गए हैं तथा मार्किट कमेटियां, सहकारी संस्थाएं आदि बन गई हैं। नियमों कानूनों के अनुसार किसान को उचित दाम तो मिलता ही है क्योंकि सरकार द्वारा कमसे-कम निर्धारित मूल्य तय कर दिया जाता है। किसान को यदि किसी तरह का शक हो तो वह अपने उत्पाद की तुलाई करवा सकता है तथा पैसे नहीं लगते। सरकार द्वारा मैकेनिकल हैंडलिंग इकाइयां भी स्थापित की गई हैं। किसान अपने उत्पाद को बेच कर आढ़ती से फार्म-J ले सकता है जिसके बाद में बोनस मिलने पर किसान को सुविधा रहती है। इस प्रकार सरकार के दखल से किसान के अधिकार अधिक सुरक्षित हो गए हैं।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

प्रश्न 2.
सहकारी मंडीकरण का संक्षेप में विवरण दो।
उत्तर-
सहकारी मंडीकरण द्वारा किसानों को अपनी उपज बेच कर अच्छा दाम मिल जाता है। ये सभाएं आम करके कमीशन ऐजंसियों का काम करती हैं। ये सभाएं किसानों द्वारा ही बनाई जाती हैं। इसलिए यह किसानों को अधिक दाम प्राप्त करवाने के लिए सहायक होती हैं। इनके द्वारा किसानों को आढ़ती से जल्दी भुगतान हो जाता है। इन सभाओं द्वारा किसानों को अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं; जैसे-फसलों के लिए ऋण तथा सस्ते दाम पर खादें, कीटनाशक दवाइयां मिलना आदि।

प्रश्न 3.
कृषि उत्पादों को श्रेणीबद्ध करने के क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) की हुई फसल का मूल्य अच्छा मिलता है। अच्छी उपज एक ओर करके अलग दों में मंडी में लेकर जाओ। घटिया उपज को दूसरे दर्जे में रखो। इस प्रकार अधिक लाभ कमाया जा सकता है। यदि वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) किए बिना घटिया वस्तु नीचे और ऊपर अच्छी वस्तु रख कर बेची जाएगी तो कुछ दिन तो अच्छे पैसे कमा लोगे परन्तु जल्दी ही लोगों को इस बात का पता चल जाएगा और किसान ग्राहकों में अपना विश्वास खो बैठेगा और दोबारा लोग ऐसे किसानों से चीज़ खरीदने में परहेज करेंगे। परन्तु यदि किसान मंडी में ईमानदारी के साथ अपना माल बेचेगा तो लोग भी उसका माल खरीदने के लिए उत्सुक होंगे और किसान अब लम्बे समय तक लाभ कमाता रहेगा। ऐसा तब ही हो सकता है जब कृषक अपनी उपज की दर्जाबन्दी करें।

प्रश्न 4.
मकैनिकल हैंडलिंग इकाइयों पर संक्षेप में नोट लिखो।
उत्तर-
पंजाब राज्य मंडी बोर्ड द्वारा पंजाब में कुछ मंडियों में मकैनिकल हैंडलिंग इकाइयां स्थापित की गई हैं। इन इकाइयों की सहायता से किसान के उत्पाद की सफाई, भराई तथा तुलाई मशीनों द्वारा मिनटों में हो जाती है। यदि इसी कार्य को मजदूरों ने करना हो तो कई घण्टे लग जाएंगे। इन इकाइयों का प्रयोग किया जाए तो किसानों को कम खर्चा करना पड़ता है तथा उत्पाद की कीमत भी अधिक मिल जाती है। रकम का भुगतान भी उसी समय हो जाता है। भारतीय खाद्य निगम द्वारा मोगा, मंडी गोबिंदगढ़ तथा जगराओं में गेहूँ को संभालने के लिए इसी तरह की बड़े स्तर पर इकाइयों की स्थापना की गई हैं । यहां किसान सीधा गेहूँ बेच सकता है। उसको उसी दिन भुगतान हो जाता है। मंडी का खर्चा नहीं पड़ता, प्राकृतिक आपदाओं से भी उत्पाद का बचाव हो जाता है। किसान को इन इकाइयों का पूरा लाभ लेना चाहिए।

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प्रश्न 5.
कृषि उत्पादों के उपयुक्त मंडीकरण के क्या लाभ हैं?
उत्तर-
फसल उगाने के लिए बड़ी मेहनत लगती है और इसका उचित मूल्य भी मिलना चाहिए। इसके लिए मंडीकरण का काफ़ी महत्त्व हो जाता है। मण्डीकरण की तरफ बुवाई के समय से ही ध्यान देना चाहिए। ऐसी फसल की कृषि करें जिससे अधिक लाभ मिल सके। अधिक फसल की उन्नत किस्म की बुवाई करें। फसल की सम्भाल ठीक ढंग से करें। खादें, कृषि जहर, निराई, सिंचाई आदि के लिए कृषि विशेषज्ञों की राय लें। फसल को धूल मिट्टी से बचाएं। इसे नाप तोल कर और इसका वर्गीकरण करके ही मण्डी में लेकर जाएं। मण्डी में जल्दी पहुंचे और कोशिश करें कि उसी दिन फसल बिक जाए।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB कृषि उत्पादों का मंडीकरण Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हम अपनी उपज का उपयुक्त मूल्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?
उत्तर-
उपज के मण्डीकरण की ओर विशेष ध्यान देकर।

प्रश्न 2.
उपयुक्त मण्डीकरण कब आरम्भ होता है?
उत्तर-
बुवाई के समय से ही।

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प्रश्न 3.
उपज का पूर्ण मूल्य लेने के लिए उसमें कितनी नमी होनी चाहिए?
उत्तर-
नमी की मात्रा निर्धारित मापदंडों के अनुसार होनी चाहिए।

प्रश्न 4.
सफाई, तोलाई और बोली के समय किसान को कहां होना चाहिए?
उत्तर-
अपने उत्पाद के समीप।

प्रश्न 5.
किस प्रकार की फसल की कृषि के बारे में किसान को सोचना चाहिए?
उत्तर-
जिससे अधिक मुनाफा कमाया जा सके।

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प्रश्न 6.
आकार के अनुसार सब्जियों और फलों के वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध करने) को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
वर्गीकरण या श्रेणीबद्ध या दर्जाबंदी।

प्रश्न 7.
क्या अपने उत्पाद को बिक्री के लिए मण्डी ले जाने से पहले मण्डी की परिस्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए अथवा नहीं ?
उत्तर-
मण्डी की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
उपयुक्त मण्डीकरण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है या नहीं ?
उत्तर-
अच्छे मण्डीकरण की ओर ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है।

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प्रश्न 9.
फसल निकालने के बाद इसे तोलना क्यों चाहिए?
उत्तर-
ऐसा करने से मण्डी में बेची जाने वाली फसल का अन्दाज़ा रहता है।

प्रश्न 10.
आढ़ती से फार्म पर रसीद लेने का क्या महत्त्व है?
उत्तर-
इस तरह क्या कमाया, कितना खर्च किया इसकी पड़ताल की जा सकती है।

प्रश्न 11.
यदि किसान को उसके उत्पाद का उचित मूल्य न मिल रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए?
उत्तर-
यदि उत्पाद का उचित मूल्य न मिले तो मार्केटिंग इन्सपैक्टर की सहायता लेनी चाहिए।

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प्रश्न 12.
सब्जियों और फलों का वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) करने से क्या लाभ होता है ?
उत्तर-
वर्गीकरण (श्रेणीबद्ध) किए हुए फलों और सब्जियों को बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त होता है।

प्रश्न 13.
लोगों का विश्वास जीतने के लिए किसान को क्या करना चाहिए?
उत्तर-
किसान को वर्गीकरण करके अपनी फसल ईमानदारी से बेचनी चाहिए ताकि ग्राहकों का विश्वास बनाया जा सके।

प्रश्न 14.
खेती उत्पादों के मण्डीकरण से क्या भाव है?
उत्तर-
फसलों की मण्डी में अच्छी बिक्री।

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प्रश्न 15.
उत्तम क्वालटी के उत्पाद तैयार करने के लिए किसानों को किसकी आवश्यकता है?
उत्तर-
शोधित प्रमाणित बीज तथा अच्छी योजनाबंदी।

प्रश्न 16.
वर्गीकरण ( श्रेणीबद्ध) करके उत्पाद भेजने से कितनी अधिक कीमत मिल जाती है?
उत्तर-
10 से 20%

प्रश्न 17.
मण्डी में उत्पाद कब लेकर जाना चाहिए?
उत्तर-
सुबह ही।

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प्रश्न 18.
फसल की कटाई पूरी तरह पकने से पहले करने से क्या होता है?
उत्तर-
दाने सिकुड़ जाते हैं।

प्रश्न 19.
देर से कटाई करने की क्या हानि है?
उत्तर-
दाने झड़ने का डर रहता है।

प्रश्न 20.
दर्जाबंदी सहायक कहां होता है ?
उत्तर-
दाना मण्डी में नियुक्त होता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
फसल की संभाल उपयुक्त विधि से करने का क्या भाव है?
उत्तर-
फसल की संभाल उपयुक्त विधि से करने का भाव है कि गुड़ाई, दवाइयों का प्रयोग, खाद, पानी, कटाई तथा गहाई के काम विशेषज्ञों के मतानुसार करना चाहिए।

प्रश्न 2.
किसान को फसल का अच्छा मूल्य लेने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर-

  1. किसान को अपनी फसल तोल, माप कर मण्डी में ले जानी चाहिए।
  2. किसान को उत्पाद की दर्जाबंदी (श्रेणीबद्ध) करके मण्डी में लेकर जाना चाहिए।
  3. उत्पाद में नमी की मात्रा निर्धारित माप-दंडों के अनुसार होनी चाहिए।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कृषि उत्पादों की बिक्री के लिए किसान को किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर-

  1. सफाई, तोलाई तथा बोली के समय किसान को अपने उत्पाद के समीप रहना चाहिए।
  2. यदि उत्पाद की कम कीमत मिले तो किसान को मार्केटिंग इंस्पैक्टर तथा मार्कीट कमेटी के अमले की सहायता लेनी चाहिए।
  3. तोलाई के समय तुला तथा वाटों के ऊपर सरकारी मोहर देख लेनी चाहिए।
  4. उत्पाद बेचने की आढ़ती से फार्म पर रसीद लेनी चाहिए।

प्रश्न 2.
कृषि उत्पादों की बिक्री के समय कौन-सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-

  1. सफ़ाई, तोलाई और बोली के समय किसान अपनी ढेरी के पास ही खड़ा हो।
  2. तोलाई के समय तराजू और बाटों की जांच करो। बांटों पर सरकारी मोहर लगी होनी चाहिए।
  3. यदि लगे कि फसल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है तो मार्केटिंग इन्स्पैक्टर और मार्केटिंग स्टाफ की सहायता लो।
  4. फसल बेचकर आढ़ती से फार्म के ऊपर रसीद ले लो। इस तरह लाभ और खर्चों की जांच की जा सकती है।

प्रश्न 3.
अधिक लाभ कमाने के लिए किसान को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-

  1. ऐसी फसल बोएं जिससे अच्छी आमदन हो जाए।
  2. अच्छी किस्म का पता करने के बाद बोना चाहिए।
  3. फसल की संभाल अच्छी प्रकार करनी चाहिए।
  4. गुड़ाई, दवाइयों का प्रयोग, खाद, सिंचाई, कटाई, गहाई विशेषज्ञों की राय के अनुसार करें।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 4 कृषि उत्पादों का मंडीकरण

कृषि उत्पादों का मंडीकरण PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • कृषि उपज का मंडीकरण बढ़िया ढंग से किया जाए तो अधिक मुनाफ़ा कमाया जा सकता है।
  • अच्छे मंडीकरण के लिए बुवाई के समय से ही ध्यान रखना पड़ता है।
  • अधिक पैसा दिलाने वाली फसल की उत्तम किस्म की बुवाई करें।
  • निराई, दवाइयों का प्रयोग, पानी, खाद, कटाई आदि विशेषज्ञों की सलाह से करें।
  • उत्पाद निकालने के बाद इसे तोल लेना चाहिए। यह बेहद जरूरी है।
  • उत्पादों का वर्गीकरण करके उसे मंडी में ले जाएं।
  • उत्पाद बेचने के दौरान आढ़ती से फार्म व रसीद ले लें ताकि मुनाफे और खर्चे की पड़ताल की जा सके।
  • किसानों को अपनी उपज का मंडीकरण सांझी तथा सहकारी संस्थाओं द्वारा करना चाहिए।
  • पंजाब राज्य मण्डी बोर्ड द्वारा कुछ मंडियों में मकैनिकल हैंडलिंग इकाइयाँ स्थापित की गई हैं।
  • भारतीय खाद्य निगम द्वारा मंडी गोबिन्दगढ़, मोगा तथा जगराओं में गेहँ को संभालने के लिए बड़े स्तर पर प्रबंध इकाइयों की स्थापना की गई है।
  • कृषकों को अपने आस-पास की मंडियों के भाव की जानकारी लेते रहना चाहिए।
  • भिन्न-भिन्न मंडियों के मूल्य रेडियो, टी०वी० तथा समाचार-पत्रों आदि से भी पता लगते रहते हैं।
  • कृषक को उत्पाद बेचने के लिए कोई समस्या आए तो वह मार्किट कमेटी के उच्च अधिकारियों से सम्पर्क कर सकता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions Chapter 4 योग Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Physical Education Chapter 4 योग

PSEB 11th Class Physical Education Guide योग Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आसन कितने प्रकार के होते हैं ?
(How many types of Asanas are there ?)
उत्तर-
आसन तीन प्रकार के होते हैं—

  1. ध्यानात्मक आसन (Meditative Asanas)पद्मासन, सिद्ध आसन, सुख आसन, वज्र आसन।
  2. आरामदायक आसन (Relaxative Asanas)-. शवासन और मक्रासन।
  3. कल्चरल आसन (Cultural Asanas)पवनमुक्तासन, कटिंचचक्रासन, पर्वतासन, चक्रासन, शलभासन, वृक्षासन, उष्ट्रासन, गोमुखासन आदि।

प्रश्न 2.
योग की परिभाषा, अर्थ तथा महत्त्व के बारे में लिखें।
(Write the definition, meaning and importance of Yoga.)
उत्तर-
योग का अर्थ (Meaning of Yoga)-भारतीय विद्वानों ने आत्मबल, द्वारा “योग विज्ञान” के सम्बन्ध में जानकारी दी है तथा इसमें बताया है कि मनुष्य का शरीर तथा मन अलग-अलग हैं। ये दोनों ही मनुष्य को अलग.. अलग दिशाओं में आकर्षित करते हैं जिसके कारण मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का विकास रुक जाता है। शरीर तथा मन को एकाग्र करके परमात्मा से मिलने का मार्ग बताया गया है जिसे योग की सहायता से जाना जा सकता है।

‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘युज’ से हुई है, जिसका अभिप्राय है जोड़’ अथवा ‘मेल’। इस प्रकार शरीर तथा मन के सुमेल को योग कहते है। योग वह क्रिया अथवा साधन है जिससे आत्मा का मिलाप परमात्मा से होता है।

इतिहास (History)-‘योग’ शब्द काफी समय से प्रचलित है। गीता में भी योग के बारे में लिखा हुआ मिलता है। रामायण तथा महाभारत युग में भी इस शब्द का काफी प्रयोग हुआ है। इन पवित्र ग्रन्थों में योग द्वारा मोक्ष (Moksha) की प्राप्ति करने के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा हुआ मिलता है। इन विद्वानों में से प्रसिद्ध विद्वान् पतंजलि का नाम प्रमुख है। उसने योग के सम्बन्ध में काफी विस्तार में लिखा परन्तु योग के सम्बन्ध में सभी विद्वानों का एक मत नहीं है। पतंजलि ऋषि के अनुसार, “मनोवृत्ति के विरोध का नाम ही योग है।”
गीता में भगवान् कृष्ण जी लिखते हैं, कि सही ढंग से काम करने का नाम ही योग है।

डॉक्टर सम्पूर्णानन्द (Dr. Sampurnanand) के अनुसार, “योग आध्यात्मिक कामधेनु है जिससे जो मांगो, वही मिलता है।”
श्री व्यास जी (Sh. Vyas Ji) ने लिखा है कि “योग का अर्थ समाधि है।”
ऊपर दी गई विचारधाराओं से पता चला है कि “योग का शाब्दिक अर्थ जोड़ना है।” मानवीय शरीर स्वस्थ तथा मन शुद्ध होने से उसका परमात्मा से मेल हो जाता है। योग द्वारा शरीर स्वस्थ रहता है तथा मन की एकाग्रता में वृद्धि होती है। इससे परमात्मा से मिलाप आसान हो जाता है।

“योग विज्ञान मनुष्य का मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक रूप से सम्पूर्ण विकास होता है।”
इस प्रकार आत्मा का परमात्मा से मेल ही योग है। इस मधुर मिलन का माध्यम शरीर है। स्वस्थ तथा शक्तिशाली शरीर के बल पर ही आत्मा पर परमात्मा से मिलन हो सकता है तथा उस सर्वशक्तिमान प्रभु के दर्शन हो सकते हैं। योग शरीर को स्वस्थ एवं शक्तिशाली बनाता है। इसलिए ही आत्मा का परमात्मा में विलीन होने का यह एकमात्र साधन है। परमात्मा अलौकिक, गुण, कर्म एवं विद्या युक्त है। वह आकाश के समान व्यापक है। प्राणी तथा परमात्मा का आपस में सम्बन्ध होना अति आवश्यक है। योग इन सम्बन्धों को मजबूत बनाने में सहायक होता है।

मनुष्य का उद्देश्य-संसार के सभी सुखों को प्राप्त करते हुए अन्त में जीवात्मा को परमात्मा में विलीन होना है ताकि आवागमन के चक्करों से मुक्ति प्राप्त की जा सकें।
योग का मुख्य लक्ष्य शरीर को स्वस्थ, लचकदार, जोशीला एवं चुस्त रखना तथा महान् शक्तियों (Great Powers) का विकास करके मन पर विजय प्राप्त करना है जिससे आत्मा का परमात्मा से मिलन हो सके। आत्मा को परमात्मा में विलीन करके आवागमन अर्थत् जन्म और मृत्यु के चक्र से छुटकारा प्राप्त करना ही वास्तव में मोक्ष (Moksha) अथवा मुक्ति है। शारीरिक शिक्षा से योग के केवल दो साधन-आसन (Asanas) और प्राणायाम (Pranayama) सम्बन्ध रखते हैं। योग विज्ञान द्वारा मनुष्य शारीरिक रूप में स्वस्थ, मानसिक रूप में दृढ़ चेतना तथा व्यवहार मे अनुशासनबद्ध रहता हुआ मन पर विजय प्राप्त करके परमात्मा में लीन हो जाता है।

योग का महत्त्व
(Importance of Yoga)
योग विज्ञान का मनुष्य के जीवन के लिए बहुत महत्त्व है। योग केवल भारत का ही नहीं बल्कि संसार का प्राचीन ज्ञान है। देश-विदेशों के डॉक्टरों तथा शारीरिक शिक्षा के शिक्षकों ने इसके महत्त्व को स्वीकार किया है। योग से शरीर तथा मन स्वस्थ रहता है तथा इसके साथ-साथ शरीर की नाड़ियां लचकदार एवं मज़बूत रहती हैं। योग शरीर को रोगों से दूर रखता है और यदि कोई बीमारी लग भी जाए तो आसन अथवा किसी अन्य योग क्रिया द्वारा इसे दूर किया जा सकता है। योग जहां शरीर को स्वस्थ, सुन्दर एवं शक्तिशाली बनाता है, वहां यह प्रतिभा को चार चांद लगा देता है। योग हमें उस दुनिया में ले जाता है जहां जीवन है, स्वास्थ है, परम सुख है, मन की शान्ति है। योग ज्ञान की ऐसी गंगा है जिसकी एक-एक बूंद में अनेक रोगों को समाप्त करने की क्षमता है। योग परमात्मा से मिलने का सर्वोत्तम साधन है। शरीर आत्मा और परमात्मा के मिलन का माध्यम है। स्वस्थ शरीर के द्वारा ही परमात्मा के दर्शन किये जा सकते हैं। योग मनुष्य को स्वस्थ एवं शक्तिशाली बनाने के साथ-साथ सुयोग्य एवं गुणवान् भी बनाता है। यह हमारे शरीर में शक्ति पैदा करता है। योग केवल रोगी व्यक्ति के लिए ही लाभदायक नहीं बल्कि स्वस्थ मनुष्य भी इसके अभ्यास से लाभ उठा सकते हैं। योग प्रत्येक आयु के व्यक्तियों के लिए लाभदायक है।
1. “Yoga can be defined as Science of healthy and better living physically, mentally, intellectually and spiritually.”

योग का अभ्यास करने से शरीर के सभी अंग ठीक प्रकार से कार्य करने लगते हैं। योग अभ्यास द्वारा मांसपेशियां मज़बूत होती हैं तथा मानसिक संतुलन में वृद्धि होती है। योग की आवश्यकता आधुनिक युग में भी उतनी ही है जितनी प्राचीन युग में थी। हमारे देश से कहीं अधिक विदेशों ने इस क्षेत्र में प्रगति की है। उन देशों में मानसिक शान्ति के लिए इसका अत्यधिक प्रचार होता है। साथ ही उन देशों में योग के क्षेत्र में बहुत विद्वान् हैं । यह विचारधारा भी गलत है कि आजकल के लोग योग करने के योग्य नहीं रहे। आज के युग में भी मनुष्य योग से पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकता है। योग-विज्ञान व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास में इस प्रकार योगदान देता है—

1. मनुष्य की शारीरिक और मानसिक आधारभूत शक्तियों का विकास (Development of Physical, Mental and Latent Powers of Man)-योग-ज्ञान मनुष्य निरोग रहकर दीर्घ-आयु का आनन्द प्राप्त करता है। योग नियम और आसन व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक विकास में सहायक होते हैं । विभिन्न आसनों का अभ्यास करने से शरीर के विभिन्न अंग क्रियाशील होते हैं। इनसे उनका विकास होता है। इसके अतिरिक्त यह शरीर की विभिन्न प्रणालियों जैसे-पाचन प्रणाली, श्वास प्रणाली और मांसपेशी प्रणाली के ऊपर भी अच्छा प्रभाव डालता है और व्यक्ति की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है। शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम और अष्टांग योग द्वारा मनुष्य की गुप्त शक्तियों (Latent Powers) का विकास होता है।

2. शरीर की आन्तरिक शुद्धता (Cleanliness of Body)—योग की छः अवस्थाओं द्वारा शरीर का सम्पूर्ण विकास (All Round Development) होता है। आसनों से जहां शरीर स्वस्थ होता है वहां योगाभ्यास द्वारा मन नियन्त्रण तथा नाड़ी संस्थान और मांसपेशी संस्थान को आपसी तालमेल भी बना रहता है। प्राणायाम द्वारा शरीर चुस्त तथा स्वस्थ रहता है। प्रत्याहार द्वारा दृढ़ता में वृद्धि होती है। ध्यान और समाधि से सांसारिक चिन्ताओं से मुक्ति प्राप्त होती है। इससे आत्मा-परमात्मा में विलीन हो जाती है। इसी तरह ध्यान, समाधि, यम और नियमों की भान्ति षटकर्म भी आन्तरिक सफाई में सहायक होते हैं। षट कर्मों में धोती, नेती, बस्ती, त्राटक, नौली से कपाल, छाती, जिगर और आंतों की सफाई होती है।
आत्मा का परमात्मा से मेल कराने में शरीर माध्यम है और षट कर्मों, आसनों तथा प्राणायाम इत्यादि क्रियाओं से शरीर की आन्तरिक सफाई के लिए योग सहायता करता है।

3. शारीरिक अंगों में शक्ति एवं लचक का विकास करना (Development of Strength and Elasticity)-प्रायः देखने में आता है कि यौगिक क्रियाओं में भाग लेने वाले व्यक्ति की सेहत उन व्यक्तियों के बेहतर होती है जो योग क्रियाओं में रुचि नहीं रखते। योग द्वारा मनुष्य का केवल शारीरिक विकास ही नहीं होता बल्कि आसनों द्वारा जोड़ों और हड्डियों का विकास भी होता है। खून का प्रवाह तेज हो जाता है। धनुष आसन तथा हलआसन रीढ़ की हड्डी में लचक पैदा करते हैं जिससे मनुष्य शीघ्र बूढ़ा नहीं होता। इस प्रकार योग क्रियाओं द्वारा शरीर में शक्ति तथा लचक पैदा होती है।

4. भावात्मक विकास (Emotional Development) आधुनिक मानव मानसिक और आत्मिक शान्ति की इच्छा करता है। प्रायः देखने में आता है कि हम अपनी भावनाओं के प्रवाह में बहकर कभी तो उदासी की गहरी खाई में डूब जाते हैं और कभी खुशी के मारे पागलों जैसे हो जाते हैं। एक साधारण-सी असफलता अथवा दुःखदाई घटना हमें इतना दुःखी कर देती है कि संसार की कोई भी वस्तु हमें अच्छी नहीं लगती। हमें जीवन नीरस तथा बोझिल दिखाई देता है। इसके विपरीत कई बार साधारण-सी सफलता अथवा प्रसन्नता की बात हमें इतना खुश कर देती है कि हमारे पांव ज़मीन पर नहीं लगते। हम अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं। इन बातों में हमारी भावात्मक अपरिपक्वता (Emotional Immaturity) की झलक होती है।

योग हमें अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखना एवं सन्तुलन में रहना सिखाता है। यह हमें सिखाता है कि असफलता अथवा सफलता, प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता एक ही सिक्के के दो पहलू (Two sides of the same coin) हैं। यह जीवन दुःखों तथा सुखों का अद्भुत संगम है। दुःखों और खुशियों से समझौता करना ही सुखी जीवन का भेद है। हमें अपने जीवन में विजय और पराजय को, शोक और प्रसन्नता को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। यदि भाग्य में सफलता हमारे पांव चूमती है तो हमें खुशी के मारे स्वयं के नियन्त्रण से बाहर नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत यदि हमे असफलता का मुंह देखना पड़ता है। तो हमें मुंह लटकाना नहीं चाहिए। इसलिए योग क्रियाएं भावात्मक विकास में विशेष महत्त्व रखती है।

5. रोगों की रोकथाम और रोगों से प्राकृतिक बचाव (Prevention of Diseases and Immunization) योग क्रियाओं से रोगों से बचाव होता है। यदि किसी कारण वश-बीमारियां लग जाएं तो उनसे छुटकारा पाने की विधियों और रोगों से प्राकृतिक बचाव शामिल हैं। रोगों के कीटाणु (Germs And Bacteria) एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के शरीर पर आक्रमण करके रोग फैलाते हैं। इन रोगों से बचाव करने के ढंग अर्थात् रोगों का मुकाबला किस प्रकार किया जाए। रोगों से छुटकारा किस प्रकार पाया जाए और मनुष्य को निरोग किस प्रकार रखा जाए। यह आसन, धोती, नौली इत्यादि जिनसे आन्तरिक अंग शुद्ध होते हैं, योग ज्ञान ही बताता है।

6. त्याग एवं अनुशासन की भावना (Spirit of Sacrifice and Discipline) योग ज्ञान द्वारा व्यक्ति में त्याग एवं अनुशासन की भावना का संचार होता है। त्यागी तथा अनुशासन में रहने वाले नागरिक ही वास्तव में आदर्श नागरिक कहलाने के अधिकारी होते हैं। इन गुणों से भरपूर व्यक्ति ही कठिन कार्य आसानी से कर सकते हैं। अष्टांग योग में अनुशासन को मुख्य स्थान दिया जाता है। अनुशासन के सांचे में ढलकर नागरिक अपने देश को महान् बना सकते हैं। योग के नियमों की पालना करने वाला व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं, अनुशासित इच्छाओं, मानवीय भावनाओं, संवेग, विचार इत्यादि पर नियन्त्रण रखता है।

7. सुधारात्मक महत्त्व और शिथिलता (Corrective value and Relexation) आसनों से योग का सुधारात्मक महत्त्व भी बहुत अधिक है। यह हमें उचित आसन (Correct positive) बनावट रखने में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। योग क्रियाओं और आसनों द्वारा ठीक ढंग से बैठने, ठीक ढंग से खड़े होने तथा ठीक ढंग से चलने आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 3.
योग करने से पूर्व किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
(What precautions are needed to taken before performing Yoga ?).
उत्तर-

  1. योग आसन करते समय सबसे पहले सूर्य नमस्कार करना चाहिए।
  2. यौगिक व्यायाम करने का स्थान समतल होना चाहिए। जमीन पर दरी या कम्बल डाल कर यौगिक व्यायाम करने चाहिएं।
  3. यौगिक व्यायाम करने का स्थान एकान्त, हवादार और सफाई वाला होना चाहिए।
  4. यौगिक व्यायाम करते हुए श्वास और मन को शान्त रखना चाहिए।
  5. भोजन करने के बाद कम से कम चार घण्टे के पश्चात् यौगिक आसन करने चाहिएं।
  6. सबसे पहले आरामदायक तथा फिर कल्चरल आसन करने चाहिए।
  7. यौगिक आसन धीरे-धीरे करने चाहिएं और अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।
  8. अभ्यास प्रतिदिन किसी योग्य प्रशिक्षक की देख-रेख में करना चाहिए।
  9. दो आसनों के मध्य में थोड़ा विश्राम शव आसन द्वारा कर लेना चाहिए।
  10. शरीर पर कम-से-कम कपड़े पहनने चाहिएं, लंगोट, निक्कर, बनियान आदि और सन्तुलित भोजन करना चाहिए।
  11. योग आसन के समय श्वास अन्दर तथा बाहर निकालने की क्रिया की तरतीब ठीक होनी चाहिए।
  12. योग करने से पहले मौसम के अनुसार गरम या ठंडे पानी से स्नान कर लेना चाहिए या फिर बाद में कमसे-कम आधे घंटे का अन्तराल होना चाहिए।

प्रश्न 4.
सूर्य नमस्कार से क्या अभिप्राय है ? इसके कुल कितने अंग है ?
(What is meant by Surya Namaskara ? How may parts does it have in total ?)
उत्तर-
‘सूर्य’ से अभिप्राय ‘सूरज’ और ‘नमस्कार’ से अभिप्राय है-प्रणाम करना। क्रिया करते हुए सूर्य को प्रणाम करना, सूर्य नमस्कार कहलाता है। सूर्य नमस्कार में कुल 12 क्रियाएं होती हैं जो कि व्यायाम करते हुए पूरे शरीर की लचक बढ़ाने में मदद करती हैं। प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करने से व्यक्ति में बल और बुद्धि का विकास होता है। इसके साथ व्यक्ति की उम्र भी बढ़ती है। सूर्य नमस्कार के साथ हमारा सारा शरीर चुस्त हो जाता है। शरीर, साँस और मन एकसार हो जाते हैं। अग्रअंकित चित्र को देखकर इसकी एक से बारह तक की क्रियाएं स्पष्ट होती हैं। सूर्य नमस्कार की विधि इस प्रकार है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 1
सूर्य नमस्कार विधि
ढंग—
स्थिति 1. प्रणामासन

  1. यदि सम्भव हो तो सूर्य की तरफ मुंह करके खड़े हो जाएं।
  2. पाँव सीधे तथा हाथों को छाती के केन्द्र में आराम की स्थिति में रखें।
  3. चेतना में धीरे-धीरे साँस लेते रहें।
  4. शरीर को बिल्कुल ढीला तथा पीठ सीधी रखें।

लाभ-इस स्थिति में ध्यान और शांति को बनाने में मदद मिलती है।
स्थिति 2. हस्त उत्थानासन

  1. धीरे-धीरे सांस लेते हुए बाजू को ऊपर की तरफ लेकर जाएं। बाजुओं को कंधों की चौड़ाई अनुसार खोल कर रखें।
  2. पीठ को धीरे-धीरे पीछे की तरफ खींचो तथा धीरे-धीरे बाजुओं को पीछे की तरफ ले जाओ।
  3. धीरे-धीरे अभ्यास से कमर में लचकता आ जाएगी।

लाभ-इस आसान से पेट की मांसपेशियां अच्छी तरह खुल कर फैल जाती हैं। बाजू, कंधे तथा रीढ़ की हड्डी टोन हो जाती है। इसके अभ्यास के साथ फेफड़े भी खुल जाते हैं।

स्थिति 3. पद-हस्तासन

  1. साँस बाहर छोड़ते हुए आगे की तरफ को झुको, टांगे सीधी रखो तथा अपने हाथों की ऊंगलियों के साथ फर्श को छूने की कोशिश करो।
  2. रीढ़ की हड्डी को कमर के जोड़ को उतना ही झुकाओ जितना की दर्द महसूस ना हो या फिर जितना झुका जा सके।

लाभ-इस आसन से पेट की कई बिमारियों से मुक्ति मिलती है तथा आराम पहुंचता है। ये पेट की फालतू चर्बी को घटाता है।
स्थिति 4. अश्व संचालनासन

  1. हाथों की ऊंगलियों को फर्श के साथ छूते हुए बाईं टांग मोड़ते हुए दाईं टांग को पीछे की तरफ सीधा कर के ले जाओ।
  2. सिर और गर्दन को आगे की ओर रीढ़ की हड्डी की सीध में रखें। छाती को आगे की ओर झुकाकर न रखें।

लाभ-ये आसन पेट की मांसपेशियों को टोन करता है तथा टांगों और पैरों की मांसपेशियों को मजबूत करता है।
स्थिति 5. पर्वतासन

  1. साँस बाहर छोड़ते हुए, बाईं टांग को पीछे की तरफ दाईं टाँग की तरफ सीधा रखो।
  2. सिर को दोनों बाजुओं के बीच रखते हुए शरीर के सारे भार को बाजुओं तथा पैरों पर डालो और यही स्थिति बनाकर रखो।

लाभ-ये आसन कन्धों तथा गर्दन की मांसपेशियों को टोन करता है। टांगों तथा बाजुओं की मांसपेशियों को भी मज़बूत करता है।
स्थिति 6. अष्टांग आसन

  1. पिछले आसन से धीरे-धीरे घुटनों को ज़मीन की तरफ ले जाओ।
  2. छाती और ठोड़ी को ज़मीन से छुआओ।
  3. दोनों बाजुओं को छाती के बराबर मोड़ कर रखो तथा चूल्हों को जमीन से ऊपर की तरफ खींच कर रखो।

लाभ-ये आसन कन्धों तथा गर्दन की मांसपेशियों को टोन करता है। टांग तथा हाथ की मांसपेशियों को मज़बूत बनाता है तथा छाती को विकसित करता है।
स्थिति 7. भुजंगासन

  1. धीरे-धीरे साँस अन्दर लेते हुए टांगें तथा कमर को ज़मीन पर रखो।
  2. बाजुओं को खींचते हुए छाती वाले भाग को पीछे की तरफ खींचों।
  3. सिर को धीरे-धीरे पीछे की तरफ ले जाओ।

लाभ-ये आसन पेट की तरफ खून के दौरे को तेज़ करता है तथा कई पेट की बिमारियों से छुटकारा दिलवाता है; जैसे कि बदहज़मी कब्ज आदि। रीढ़ की हड्डी को मज़बूती मिलती है तथा खून संचार में सुधार होता है।
स्थिति 8. पर्वतासन

  1. धीरे-धीरे दोनों पैरों पर वापिस जा के सीधे खड़े हो जाओ।
  2. छाती वाले भागों को पेट की तरफ लेकर जाओ तथा दोनों हाथों से जमीन को छू लो। ये बिल्कुल 5वीं स्थिति जैसा हो सकता है।

स्थिति 9. अश्व संचालनासन

  1. धीरे-धीरे सांस अन्दर खींचते हुए दाएं पैर को दोनों हाथों के बीच ले जाओ तथा बाईं टांग को पीछे की तरफ सीधा रखो। इसके साथ ही कन्धों को पीछे की तरफ सीधे खींचों तथा छाती वाले भाग को पीछे की तरफ ले जाओ तथा पीठ का आर्क बनाओ।

स्थिति 10. पद-हस्तासन

  1. धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए टांगें सीधी रखो तथा हाथों के साथ फर्श से छूने की कोशिश करो। ऐसे करते समय घुटने सीधे हों।

स्थिति 11. हस्त-उत्थानासन

  1. धीरे-धीरे सांस लेते समय बाजुओं को ऊपर की तरफ ले जाओ। बाजुओं को कन्धों की चौड़ाई अनुसार खोल . के रखो।
  2. पीठ को धीरे-धीरे पीछे की तरफ खींचों तथा धीरे-धीरे बाजू पीछे की तरफ ले जाओ।
  3. अभ्यास से कमर में लचकता आ जाएगी।

स्थिति 12. प्रणामासन

  1. पैर सीधे तथा हथेली को छाती के केन्द्र में आराम की स्थिति में रखो।
  2. चेतना में धीरे-धीरे सांस लेते रहो।
  3. शरीर बिल्कुल ढीला तथा पीठ सीधी रखो।

लाभ—

  1. सूर्य नमस्कार शरीर की अतिरिक्त चर्बी को भी घटा देता है।
  2. सूर्य नमस्कार शरीर के बल, शक्ति और लचक में विस्तार करता है।
  3. यह एकाग्रता बढ़ाने में सहायता करता है।
  4. यह शरीर को गर्म करता है।
  5. यह शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है।
  6. यह आसन बच्चों का कद बढ़ाने में भी मदद करता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 5.
किसी एक आरामदायक तथा कल्चरल आसन की विधि तथा लाभ के बारे में विस्तारपूर्वक लिखें।
(Write in detail the method and benefits of any one of Relaxative and Cultural asana.)
उत्तर-
सभ्याचारक आसन (मुद्रा)
(Cultural Asanas)
शवासन की विधि (Technique of Shavasana)-शवासन में पीठ के बल सीधा लेटकर शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ा जाता है। शवासन करने के लिए जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और शरीर के अंगों को ढीला छोड़ दें। धीरेधीरे लम्बे सांस लो। बिल्कुल चित्त लेटकर सारे शरीर के अंगों को ढीला छोड़ दो। दोनों पांवों के बीच में एक डेढ फुट की दूरी होनी चाहिए। हाथों की हथेलियों की आकाश की ओर करके शरीर से दूर रखो। आंखें बन्द कर अन्तर्ध्यान होकर सोचो कि शरीर ढीला हो रहा है। अनुभव करो कि शरीर विश्राम की स्थिति में है। यह आसन 3 से 5 मिनट तक करना चाहिए। इस आसन का अभ्यास प्रत्येक आसन के शुरू तथा अन्त में करना जरूरी है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 2
शवासन
महत्त्व (Importance)—

  1. शवासन से उच्च रक्त चाप और मानसिक तनाव से छुटकारा मिलता है।
  2. दिल और दिमाग को ताजा करता है।
  3. इस आसन द्वारा शरीर की थकावट दूर होती है।

हलासन (Halasana) -इस आसन के पूर्ण रूप में आने पर मनुष्य की आकृति बिल्कुल हल जैसी हो जाती है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 3
हलासन
विधि (Procedure)- भूमि पर कम्बल बिछा कर पीठ के बल लेट जाइए। हाथों को दोनों ओर भूमि पर रखिये। हथेलियां ज़मीन की ओर हों। दोनों पांवों को मिला कर धीरे-धीरे सांस भीतर की ओर कीजिए और बहुत धीरे-धीरे अपनी टांगों को ऊपर उठाते हुए पीछे सिर की ओर ले जाइए। टांगों के साथ-साथ शरीर को भी पीछे की ओर मोड़ते जाएं जब तक की पंजे ज़मीन को न छू लें। घुटनों को मिला कर टांगें बिल्कुल सीधी रखें। ठोड़ी को सीने ऊपर दबा दें और फिर नासिका द्वारा सांस लें और छोड़ें। जब तक सम्भव हो बिना कष्ट के इस आसन में रहें अन्यथा इसी प्रकार बिना किसी झटके के वापस पहली वाली मुद्रा में लौट आइए।

इस आसन में हाथों से पांवों की उंगलियों को छुआ भी जा सकता है या सिर के पीछे हाथों से एक दूसरी कोहनी को भी पकड़ा जा सकता है। किसी प्रकार का कोई झटका नहीं लगना चाहिए। आसन समाप्त कर धीरे-धीरे उसी प्रकार अपनी मूल स्थिति में आ जाएं।

लाभ (Advantages)- इस आसन से रीढ़ की नसें, कमर की मांसपेशियां, रीढ़ की हड्डी एवं नाड़ी प्रणाली (Nervous System) स्वस्थ रहता है। इससे नाड़ियों में रीढ़ रज्जू (Spins Cord) संवेदनशील ग्रन्थियों में पर्याप्त भागों में रक्त इकट्ठा होता है। इसलिए इनका पोषण अच्छी तरह होता है। इस आसन से मेरुदंड (Spinal Cord) अधिक लचकीला एवं मुलायम होता है। यह आसन मेरु (Spine) सम्बन्धी हड्डियों के शीघ्र विकास (Enlargement) को रोकता है। अस्थियों के विकास (Enlargement) से हड्डियों में जल्दी विकार पैदा होता है। इससे बुढ़ापा जल्दी आता है। हलासन करने वाला व्यक्ति अधिक फुर्तीला एवं बलवान् होता है। पीठ की मांसपेशियों को अधिक मात्रा में रक्त प्राप्त होता है तथा वे अच्छी तरह से पोषित होती हैं। आलस दूर होता है। इस आसन से मोटापा दूर होता है, चर्बी कम होती है। कब्ज दूर होती है। रक्त संचार तेज़ होता है।

ध्यानशील आसन मुद्रा
(Meditative Poses)
पद्मासन (Padamasana)-इसमें टांगों की चौकड़ी लगाकर बैठा जाता है।
पद्मासन की विधि (Technique of Padamasana)-चौकड़ी मारकर बैठने के बाद दायां पांव बायीं जांघ पर इस तरह रखो कि दायें पांव की एड़ी बाईं जांघ पर पेडू हड्डी को छुए। इसके पश्चात् बायें पांव को उठाकर उसी प्रकार दायें पांव की जाँघ पर रख लें। रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए। बाजुओं को तानकर हाथों को घुटनों पर रखो। कुछ दिनों के अभ्यास द्वारा आसन को बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 4
सुखासन
लाभ (Advantages)—

  1. इस आसन से पाचन शक्ति बढ़ती है।
  2. यह आसन मन की एकाग्रता के लिए सर्वोत्तम है।
  3. कमर दर्द दूर होता है।
  4. दिल तथा पेट के रोग नहीं लगते।
  5. मूत्र के रोगों को दूर करता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 6.
अष्टांग योग के अंगों के बारे में विस्तारपूर्वक लिखें। (Write in detail about the parts of Astanga Yoga.)
उत्तर-
अष्टांग योग
(Ashtang Yoga)
अष्टांग योग के आठ अंग हैं, इसलिए इसका नाम अष्टांग योग है।
योगाभ्यास की पतजंलि ऋषि द्वारा आठ अवस्थाएं मानी गई हैं। इन्हें पतजंलि ऋषि का अष्टांग योग भी कहते हैं—

  1. यम (Yama, Forbearmace)
  2. नियम (Niyama, Observance)
  3. आसान (Asana, Posture)
  4. प्राणायाम (Pranayama, Regulation of Breathing)
  5. प्रत्याहार (Pratyahara, Abstracition)
  6. धारणा (Dharma, Concentration)
  7. ध्यान (Dhyana, Meditation)
  8. समाधि (Samadhi, Trance)।

योग की ऊपरी बताई गई आठ अवस्थाओं में से पहली पांच अवस्थाओं का सम्बन्ध आन्तरिक यौगिक क्रियाओं से है। इन सभी अवस्थाओं को आगे फिर इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है—

  1. यम (Yama, Forbearance)-यम के निम्नलिखित पांच अंग हैं—
    • अहिंसा (Ahimsa, Non-violence)
    • सत्य (Satya, Truth)
    • अस्तेय (Astey, Conquest of the sense of mind)
    • अपरिग्रह (Aprigraha, Non-receiving)
    • ब्रह्मचर्य (Brahmacharya, Celibacy)
  2. नियम (Niyama, Observance)-नियम के निम्नलिखित पांच अंग हैं :
    • शौच (Shauch, Obeying the call of nature)
    • सन्तोष (Santosh, Contentment)
    • तप (Tapas, Penance)
    • स्वाध्याय (Savadhyay, Self-study)
    • ईश्वर परिधान (Ishwar Pridhan, God Consciousness)।
  3. आसन (Asana or Posture) आसनों की संख्या उतनी है जितनी कि इस संसार में पशु-पक्षियों की। आसन-शारीरिक क्षमता, शक्ति के अनुसार, प्रतिदिन सांस द्वारा हवा को बाहर निकलने, सांस रोकने और फिर सांस लेने से करने चाहिएं।।
    4. प्राणायाम (Pranayma, Regulation of Breathing) प्राणायाम उपासना की मांग है। इसको तीन भागों में बांटा जा सकता है—

    • पूरक (Purak, Inhalation)
    • रेचक (Rechak, Exhalation) और
    • कुम्भक (Kumbhak, Holding of Breath)
      कई प्रकार से सांस लेने तथा इसे रोककर बाहर निकालने को प्राणायाम कहते हैं।
  4. प्रत्याहर (Pratyahara)-प्रत्याहार से अभिप्रायः है वापिस लाना तथा सांसारिक प्रसन्नताओं से मन को मोड़ना।
  5. धारणा (Dharna)-अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने को धारणा कहते हैं जो बहुत कठिन है।
  6. ध्यान (Dhyana)-जब मन पर नियन्त्रण हो जाता है तो ध्यान लगना आरम्भ हो जाता है। इस अवस्था में मन और शरीर नदी के प्रवाह की भान्ति हो जाते हैं जिसमें पानी की धाराओं का कोई प्रभाव नहीं होता।
  7. समाधि (Samadhi)-मन की वह अवस्था जो धारणा से आरम्भ होती है, समाधि में समाप्त हो जाती है। इन सभी अवस्थाओं का आपस में गहरा सम्बन्ध है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

Physical Education Guide for Class 11 PSEB योग Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
“ठीक ढंग से कार्य करना ही योग है।” किसका कथन है ?
उत्तर-
भगवान् श्री कृष्ण जी का।

प्रश्न 2.
अष्टांग योग के अंग हैं—
(a) 6
(b) 8
(c) 10
(d) 12.
उत्तर-
(d) 12.

प्रश्न 3.
आसनों की किस्में हैं—
(a) 2
(b) 4
(c) 6
(d) 8.
उत्तर-
(a) 2.

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 4.
सूर्य-भेदी प्राणायाम, उजयी प्राणायाम किसके भेद हैं ?
उत्तर-
यह प्राणायाम के भेद हैं।

प्रश्न 5.
श्वास बाहर निकालने की क्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
श्वास बाहर निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैं।।

प्रश्न 6.
जब श्वास अंदर खींचते हैं तो उस क्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
जब श्वास अन्दर खींचते हैं तो उस क्रिया को पूरक कहते हैं।

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प्रश्न 7.
श्वास अंदर खींचने के पश्चात् उस क्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
श्वास अंदर खींचने के पश्चात् वहां ही रोकने की क्रिया को कुंबक कहते हैं।

प्रश्न 8.
प्राणायाम के भेद हैं—
(a) 8
(b) 6
(c) 4
(d) 2.
उत्तर-
(a) 8.

प्रश्न 9.
सूर्य नमस्कार की कितनी अवस्थाएँ हैं ?
(a) 12
(b) 8
(c) 6
(d) 4.
उत्तर-
(a) 12.

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प्रश्न 10.
अष्टांग योग के अंग हैं ?
(a) यम
(b) आसन
(c) नियम
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
योग शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
योग का अर्थ जुड़ना या मिलना है।

प्रश्न 12.
आसन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
आसन दो तरह के होते हैं।

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प्रश्न 13.
सूर्य नमस्कार में कितनी अवस्थाएं हैं ?
उत्तर-
12.

प्रश्न 14.
सूर्य नमस्कार कब करना चाहिए?
उत्तर-
सूर्य नमस्कार आसन करने से पहले करना चाहिए।

प्रश्न 15.
योग क्या है ?
उत्तर-
आत्मा को परमात्मा से मिलाने को योग कहते हैं।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 16.
आत्मा और परमात्मा के मिलने को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
योग।

प्रश्न 17.
योग संस्कृति के किस शब्द से बना है ?
उत्तर-
यूज से बना है, जिसका अर्थ है मेल।

प्रश्न 18.
सूर्य नमस्कार कब करना चाहिए ?
उत्तर-
सूर्य नमस्कार आसन करने से पहले करना चाहिए।

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अति छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
योग का कोई एक महत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. मनुष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास करना।
  2. बिमारियों का रोकथाम और लोगों को बचाओ।

प्रश्न 2.
सूर्य नमस्कार करने के दो लाभ लिखो।
उत्तर-

  1. सूर्य नमस्कार ताकत, शक्ति और लचक में वृद्धि करता है।
  2. इससे एकाग्रता बढ़ती है।

प्रश्न 3.
आसन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
आसन दो प्रकार के होते हैं।

  1. सभ्याचारक आसन
  2. आरामदायक आसन।

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प्रश्न 4.
शव आसन के लाभ लिखो।
उत्तर-
इस आसन को करने से शरीर ताज़ा हो जाता है। शव आसन करने से माँसपेशियां और नाड़ियां आराम की हालत में आ जाती हैं।

प्रश्न 5.
पवनमुक्तासन या पर्वत आसन के लाभ लिखें।
उत्तर-

  1. पाचन प्रणाली को मज़बूत करता है।
  2. गैस की बीमारी ठीक होती है।
  3. पेट के आस-पास भाग में बनी चर्बी कम हो जाती है।

प्रश्न 6.
प्राणायाम के कोई चार भेद लिखो।
उत्तर-

  1. सूर्यभेदी प्राणायाम
  2. शीतली प्राणायाम
  3. शीतकारी प्राणायाम
  4. उजयी प्राणायाम।

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छोटे उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
योग का अर्थ अपने शब्दों में लिखो। (Write the meaning of yoga in your own words.):
उत्तर-
‘योग’ शब्द संस्कृत की ‘युज्’ धातु से लिया गया है। इसका अर्थ है : जोड़ना या बाँधना। जोड़ने या बाँधने से अभिप्रायः है कि शरीर, दिमाग और आत्मा को एकसार करना। नीरोग शरीर में ही नीरोग मन का निवास होता है। योग के द्वारा हम मन और शरीर दोनों को चिंता और रोगों से मुक्त करके स्वस्थ शरीर प्राप्त कर लेते हैं।”

प्रश्न 2.
योग आसन करते समय कोई चार दिशा निर्देश लिखो।
उत्तर-

  1. यौगिक व्यायाम करने स्थान समतल होना चाहिए। ज़मीन पर दरी या कम्बल डाल कर यौगिक व्यायाम करने चाहिए।
  2. यौगिक व्यायाम करने वाला स्थान एकान्त, हवादार और सफाई वाला होना चाहिए।
  3. यौगिक व्यायाम करते हुए श्वास और मन को शान्त रखना चाहिए।
  4. भोजन करने के बाद कम से कम चार घण्टे के पश्चात् यौगिक आसन करने चाहिएं।

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प्रश्न 3.
सूर्य नमस्कार में पहली चार मुद्रा के बारे में लिखो।
उत्तर-

  1. दोनों हाथ और पैर जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में सीधे खड़े हो जाओ।
  2. साँस अंदर खींचते हुए दोनों बाजुओं को सिर के ऊपर ले जाओ और कमर को मोड़ते हुए थोड़ा पीछे को झुक जाओ।
  3. साँस को बाहर छोड़ते हुए दोनों हाथों के साथ ज़मीन को छूना है और माथा घुटनों को लगाना है। इस स्थिति में घुटने सीधे होने चाहिए।
  4. दाहिनी टांग पीछे को सीधी कर दो। बायाँ पैर दोनों हथेलियों में रहेगा। इस स्थिति में कुछ सेकिंड के लिए रुको।

प्रश्न 4.
योग करने के कोई दो महत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. योग करने से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
  2. योग से शरीर पूर्ण रूप से स्वस्थ रहता है। इससे शरीर के सभी अन्दरूंनी अंगों में ताकत मिलती है।

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प्रश्न 5.
अष्टांग योग के अंगों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. यम
  2. नियम
  3. आसन
  4. प्राणायाम
  5. प्रत्याहार
  6. धारणा
  7. ध्यान
  8. समाधि।

प्रश्न 6.
पद्मासन की विधि लिखें।
उत्तर-
चौकड़ी मारकर बैठने के बाद दायां पांव बायीं जांघ पर इस तरह रखो कि दायें पांव की एड़ी बाईं जांघ पर पेडू हड्डी को छुए। इसके पश्चात् बायें पांव को उठाकर उसी प्रकार दायें पांव की जाँघ पर रख लें। रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए। बाजुओं को तानकर हाथों को घुटनों पर रखो। कुछ दिनों के अभ्यास द्वारा आसन को बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 7.
शवासन के लाभ लिखें।
उत्तर-
शवासन के लाभ-

  1. शवासन से उच्च रक्त चाप और मानसिक तनाव से छुटकारा मिलता है।
  2. दिल और दिमाग को मजा करता है।
  3. इस आसन द्वारा शरीर की थकावट दूर होती है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न (Long Answer Type Questions)

‘प्रश्न 1.
योग का अर्थ तथा मानव जीवन में इसके महत्त्व के बारे में जानकारी दें।
उत्तर-
योग का अर्थ-‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘युज’ से हुई है, जिसका अभिप्राय है ‘जोड़ . अथवा ‘मेल’। शरीर, दिमाग तथा मन का सुमेल योग कहलाता है। योग वह साधन है जिससे आत्मा का मिलाप परमात्मा से होता है।

मानव जीवन में इसका महत्त्व-योग विज्ञान का मनुष्य के जीवन के लिए बहुत महत्त्व है। योग केवल भारत का ही नहीं बल्कि संसार का प्राचीन ज्ञान है। देश-विदेशों के डॉक्टरों तथा शारीरिक शिक्षा के शिक्षकों ने इसके महत्त्व को स्वीकार किया है। योग से शरीर तथा मन स्वस्थ रहता है तथा इसके साथ-साथ शरीर की नाड़ियां लचकदार एवं मज़बूत रहती हैं ! योग शरीर को रोगों से दूर रखता है और यदि कोई बीमारी लग भी जाए तो आसन अथवा किसी अन्य योग क्रिया द्वारा इसे दूर किया जा सकता है। योग जहां शरीर को स्वस्थ, सुन्दर एवं शक्तिशाली बनाता है, वहां यह प्रतिभा को चार चांद लगा देता है। योग हमें उस दुनिया में ले जाता है जहां जीवन है, स्वास्थ है, परम सुख है, मन की शान्ति है। योग ज्ञान की ऐसी… गंगा है जिसकी एक-एक बूंद में अनेक रोगों को समाप्त करने की क्षमता है। योग परमात्मा से मिलने का सर्वोत्तम साधन है। शरीर आत्मा और परमात्मा के मिलन का माध्यम है। स्वस्थ शरीर के द्वारा ही परमात्मा के दर्शन किये जा सकते हैं। योग मनुष्य को स्वस्थ एवं शक्तिशाली बनाने के साथ-साथ सुयोग्य एवं गुणवान् भी बनाता है। यह हमारे शरीर में शक्ति पैदा करता है। योग केवल रोगी व्यक्ति के लिए ही लाभदायक नहीं बल्कि स्वस्थ मनुष्य भी इसके अभ्यास से लाभ उठा सकते हैं। योग प्रत्येक आयु के व्यक्तियों के लिए लाभदायक है। इसका अभ्यास करने से शरीर के सभी अंग ठीक प्रकार से कार्य करने लगते हैं। योग अभ्यास द्वारा मांसपेशियां मज़बूत होती हैं तथा मानसिक संतुलन में वृद्धि होती है। योग की आवश्यकता आधुनिक युग में भी उतनी ही है जितनी प्राचीन युग में थी। हमारे देश से कहीं अधिक विदेशों ने इस क्षेत्र में प्रगति की है। उन देशों में मानसिक शान्ति के लिए इसका अत्यधिक प्रचार होता है। साथ ही उन देशों में योग के क्षेत्र में बहुत विद्वान् हैं। यह विचारधारा भी गलत है कि आजकल के लोग योग करने के योग्य नहीं रहे। आज के युग में भी मनुष्य योग से पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकता है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 2.
प्राणायाम क्या है ? इसकी विधि और महत्त्व लिखें।
उत्तर-
प्राणायाम दो शब्दों के मेल से बना है “प्राण” का अर्थ है ‘जीवन’ और ‘याम’ का अर्थ है ‘नियन्त्रण’ जिससे अभिप्राय है जीवन पर नियन्त्रण अथवा सांस पर नियन्त्रण।
प्राणायाम यह क्रिया है जिससे जीवन की शक्ति को बढ़ाया जा सकता है और इस पर नियन्त्रण किया जा सकता है। मनु-महाराज ने कहा है, “प्राणायाम से मनुष्य के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं और कमियां पूरी हो जाती है।”

प्राणायाम के आधार
(Basis of Pranayam)
सांस को बाहर की ओर निकालना तथा फिर अन्दर की ओर करना और अन्दर ही कुछ समय रोक कर फिर कुछ समय के बाद बाहर निकालने की तीनों क्रियाएं ही प्राणायाम का आधार है।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 5
प्राणायाम
रेचक-सांस बाहर की ओर छोड़ने की क्रिया को ‘रेचक’ कहते हैं।
पूरक-जब सांस अन्दर को खींचते हैं तो इसे ‘पूरक’ कहते हैं।
कुम्भक-सांस को अन्दर खींचने के बाद उसे वहां ही रोकने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं।

प्राण के नाम
(Name of Prana)
व्यक्ति के सारे शरीर में प्राण समाया हुआ है। इसके पांच नाम हैं—

  1. प्राण-यह गले से दिल तक है। इसी प्राण की शक्ति से सांस शरीर में नीचे जाता है।
  2. अप्राण-नाभिका से निचले भाग में प्राण को अप्राण कहते हैं। छोटी और बड़ी आंतों में यही प्राण होता है। यह शौच, पेशाब और हवा को शरीर में से बाहर निकालने के लिए सहायता करता है।
  3. समान-दिल और नाभिका तक रहने वाली प्राण क्रिया को समान कहते हैं। यह प्राण पाचन क्रिया और ऐडरीनल ग्रन्थि की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है।
  4. उदाण-गले से सिर तक रहने वाले प्राण को उदाण कहते हैं। आंखों, कानों, नाक, मस्तिष्क इत्यादि अंगों का काम इसी प्राण के कारण होता है।
  5. ध्यान- यह प्राण शरीर के सभी भागों में रहता है और शरीर का अन्य प्राणों से मेल-जोल रखता है। शरीर के हिलने-जुलने पर इसका नियन्त्रण होता है।

प्राणायाम करने की विधि
(Technique of doing Pranayama)
प्राणायाम श्वासों पर नियन्त्रण करने के लिए किया जाता है। इस क्रिया से श्वास अन्दर की ओर खींच कर रोक लिया जाता है और कुछ समय रोकने के बाद फिर बाहर छोड़ा जाता है। इस प्रकार सांस पर धीरे-धीरे नियन्त्रण करने के समय को बढ़ाया जा सकता है। अपनी दाईं नासिका को बन्द करके, बाईं से आठ गिनते समय तक सांस खींचो। फिर नौ और दस गिनते हुए सांस रोको। इससे पूरा सांस बाहर निकल जाएगा। फिर दाईं नासिका से गिनते हुए सांस खींचो। नौ-दस तक रोको। फिर दाईं नासिका बन्द करके बाईं से आठ कर गिनते हुए सांस बाहर निकालो तथा नौ-दस तक रोको।

प्राणायाम के भेद
(Kinds of Pranayama). शास्त्रों में प्राणायाम कई प्रकार के दिये गये हैं परन्तु प्राय: यह आठ होते हैं—

  1. सूर्य–भेदी प्राणायाम
  2. उजयी प्राणायाम
  3. शीतकारी प्राणायाम
  4. शीतली प्राणायाम
  5. भस्त्रिका प्राणायाम
  6. भरभरी प्राणायाम
  7. मूछ प्राणायाम
  8. कपालभाती प्राणायाम।

इन आठों का संक्षेप वर्णन इस प्रकार है—
1. सूर्यभेदी प्राणायाम-यह प्राणायाम शरीर में गर्मी पैदा करता है। इससे इच्छा शक्ति में वृद्धि होती है। इसे पदम आसन लगा कर करना चाहिए। पीठ, गर्दन, छाती और रीढ़ की हडी सीधी रखनी चाहिए। बायें हाथ की अंगुली के साथ नाक का बायां छेद बन्द कर लिया जाता है। दायें छेद से सांस लिया जाता है। सांस अन्दर खींच कर कुम्भक की जाती है। जब तक सांस रोका जा सके, रोकना चाहिए। इसके बाद दायें होती है, दिमाग के रोग दूर होते हैं और नाड़ियों की सफाई होती है।

अंगूठे से दायें छेद को दबा कर बायें छेद से आवाज़ करते हुए सांस को बाहर निकाला जाना चाहिए। पहले तीन बार अभ्यास होने से पन्द्रह बार किया जा सकता है।
इसमें सांस धीरे-धीरे लेना चाहिए। कुम्भक सांस रोकने का समय बढ़ाना चाहिए।

2. उज्जयी प्राणायाम (मानस श्वास)-उज्जयी प्राणायाम उचित श्वसन की नींव है, क्योंकि यह अभ्यास किया जाने वाला आम व्यायाम है। योग में ऐसा विश्वास किया जाता है कि जीवन का आंकलन साँसों की संख्या से किया जाता है। इसलिए श्वास के प्रवाह को निर्बाध बनाने के लिए तथा जीवन-काल में वृद्धि के लिए उज्जयी प्राणायाम की सलाह दी जाती है।
बैठने की मुद्रा-पैरों को क्रॉस करके आराम की मुद्रा में बैठे। धीरे-धीरे अपनी आँखों को बंद करें। अपने शरीर तथा मस्तिष्क को विश्रामावस्था में लाएँ।
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उज्जयी प्राणायाम
तकनीक-गहराई से भीतर की ओर श्वास लें तथा धीरे से श्वास बाहर निकालें। अपनी गर्दन की मांसपेशियों को मजबूत करें तथा श्वास लेते वक्त अपने बंद मुँह से आवाज़ निकालें। जब फेफड़े हवा से भर जाएँ, तब जितना देरं तक संभव हो सके, साँसों को रोककर रखें। दाई नाक को बंद करें। धीरे-धीरे बाई नाक से श्वास बाहर निकालें। यह उज्जयी प्राणायाम का प्रथम चक्र है। इस प्राणायाम को 10 से 15 बार दोहराएँ।
सावधानियाँ—

  1. प्रारंभिक अवस्था में इस व्यायाम को बिना साँस रोके करना चाहिए।
  2. इस व्यायाम को हमेशा एक योगा शिक्षक के निरीक्षण में किया जाना चाहिए।
  3. जो लोग उच्च रक्तचाप तथा दिल की बीमारी से ग्रसित हैं, उन्हें ऐसा व्यायाम नहीं करना चाहिए।

लाभ—

  1. खरटि की तकलीफ को ठीक करता है।
  2. जुकाम को ठीक करता है तथा गला साफ़ करता है।
  3. हृदय की मांसपेशियों को ठीक करता है।
  4. थायरॉइड के रोगियों के लिए यह व्यायाम लाभदायक है।
  5. श्वसन प्रणाली में सामंजस्य स्थापित करता है।
  6. शरीर के निचले भाग के लिए उपयोगी है तथा कमर के चारों ओर के मांस को कम करता है।

3. शीतकारी प्राणायाम (सिसकारीयुक्त श्वसन)-यह शीतली प्राणायाम का ही एक भिन्न रूप है। ‘शी’ का तात्पर्य वैसी आवाज़ से है, जो श्वास लेने के दौरान उत्पन्न की जाती है तथा ‘कारी’ का अर्थ है जो उत्पन्न किया जाता है। इस प्रकार शीतकारी प्राणायाम को वैसी श्वसन क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें ‘शी’ की आवाज़ उत्पन्न होती है। बैठने की मद्रा-किसी भी आसन में आराम से बैठिए। धीरेधीरे अपनी आँखों को बंद कीजिए तथा अपने शरीर तथा मस्तिष्क को विश्राम दीजिए।
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शीतकारी
तकनीक-अपने ऊपरी तथा निचले दाँतों को मिलाइए। अपने होंठ को जितना संभव हो सके, उतन, फैलाइए। अपनी जीभ को इस प्रकार मोडिए कि इसके सिरे मुँह के ऊपरी भाग को स्पर्श करें। ‘शी’ की आवाज़ के साथ धीरे-धीरे किंतु गहरी साँस लें। श्वास लेने के पश्चात् अपने होठों को बंद रखें तथा जीभ को आराम दें। अपने श्वास को जितना हो सके, रोकें। धीरे-धीरे नासिका की सहायता से श्वास को बाहर निकालें, लेकिन अपना मुंह न खोलें। यह ‘शीतकारी-प्राणायाम’ का प्रथम चरण है। इसे 10 से 15 बार नियमित दोहराएँ।
सावधानियाँ—

  1. जो व्यक्ति सर्दी, जुकाम या अस्थमा से पीड़ित हों, उन्हें शीतकारी प्राणायाम नहीं करना चाहिए।
  2. जो व्यक्ति उच्च रक्तचाप से पीड़ित होते हैं, उन्हें इस अभ्यास से बचना चाहिए।
  3. इसका अभ्यास ठंडे मौसम में नहीं करना चाहिए।

लाभ—

  1. शरीर तथा मस्तिष्क को ठंडा रखता है।
  2. यह आसन पायरिया को ठीक करता है तथा मुँह को साफ़ करता है, जो दाँत तथा मसूड़ों के लिए उचित है।
  3. शरीर से अतिरिक्त ऊष्मा को हटाता है।
  4. तनाव प्रबंधन में बहुत ही प्रभावकारी है।

4. शीतली प्राणायाम श्वास को शीतल करना-यह ‘हठ योग’ का एक भाग है। शीतल का अर्थ है-शांत। यह एक श्वसन व्यायाम है, जो आंतरिक ऊष्मा को कम करता है तथा मानसिक, शारीरिक तथा भावात्मक संतुलन को कायम रखता है।

बैठने की मुद्रा-पैरों को क्रॉस की तरह मोड़कर आराम से ज़मीन पर इस प्रकार बैठें, जिससे कि पैर जाँघों के ऊपर रहें तथा पैरों का तलवा ऊपर की ओर हो। अपने पैरों तथा मेरुदंड को सीधा रखें। तर्जनी अंगुली के सिरों को अँगूठों के सिरों से मिलाएँ। अपनी बाकी अंगुलियों को या तो फैलाएँ या ढीला छोडें। धीरे-धीरे अपनी आँखों को बंद करें तथा अपने मस्तिष्क
शीतली तथा शरीर को विश्राम दें।
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शीतलता
तकनीक-अपना मुँह खोलें तथा धीरे-धीरे जीभ को बाहर की ओर निकालते हुए मोड़ने की कोशिश करें। शांति से भीतर की ओर फुफकार की आवाज़ के साथ साँस लें तथा श्वास लेने की शीतलता को महसूस करें। अब अपनी जीभ को भीतर की ओर ले जाएँ तथा अपनी आँखों को बंद रखते हुए जब तक संभव हो, साँसों को रोककर रखें। अब इस बात का अहसास करें कि साँसें आपके मस्तिष्क को अनुप्राणित कर रही हैं तथा धीरे-धीरे समस्त तंत्रिका तंत्र में फैल रही हैं। धीरे-धीरे नासिका से श्वास छोड़ते हुए शीतलता का अनुभव करें। यह ‘शीतली प्राणायाम’ का प्रथम चरण है। इसे 10 से 15 बार नियमित दोहराएँ।
सावधानियाँ—

  1. इसका अभ्यास ठंडे मौसम में नहीं करना चाहिए।
  2. ऐसे लोग जिन्हें ठंड, जुकाम, अस्थमा, आर्थराइटिस, ब्रानकाइटिस तथा दिल की बीमारी है, उन्हें प्राणायाम से बचना चाहिए।

लाभ—

  1. यह क्रोध, चिंता तथा तनाव को कम करता है।
  2. यह रक्त को शुद्ध रखता है तथा शरीर और मस्तिष्क को तरोताज़ा रखता है।
  3. यह आसन उन लोगों के लिए लाभदायक है, जो सुबह उठते वक्त अथवा पूरे दिन थकावट, सुस्ती तथा आलस्य का अनुभव करते हैं।
  4. यह शरीर तथा मस्तिष्क को शांत रखता है।
  5. यह न केवल पाचन-क्रिया को सुधारता है, बल्कि उच्च रक्तचाप तथा अम्लता के लिए भी लाभकारी

5. भस्त्रिका प्राणायाम-इस प्राणायाम में लोहार की धौंकनी की तरह सांस अन्दर और बाहर लिया और निकाला जाता है। पहले नाक के एक छेद से सांस लेकर दूसरे से बाहर की ओर छोड़ा जाता है। इसके बाद दोनों छेदों द्वारा सांस बाहर तथा अन्दर किया जाता है। भस्त्रिका प्राणायाम आरम्भ में धीरे-धीरे करना चाहिए तथा बाद में इसकी गति को बढ़ाया जा सकता है। इस प्राणायाम के करने से मोटापा दूर होता है। मन की इच्छा बलवान् होती है। विचार ठीक रहते हैं।

6. भ्रमरी प्राणायाम-किसी आसन में बैठ कर कुहनियों को कन्धों के बराबर करके सांस लिया जाता है। थोडी देरं सांस रोकने के बाद निकालते समय भँवरे की आवाज़ के समान गले में से आवाज़ निकाली जाती है। इस प्रकार आवाज़ करते हुए सांस अन्दर खींचा जाता है। इस प्राणायाम का अभ्यास सात से दस बार किया जा सकता है। रेचक जहां तक हो सके, लम्बा किया जाना चाहिए। आवाज़ तथा रेचक करते हुए मुँह बन्द रखना चाहिए।
लाभ (Advantages)—इसका अभ्यास करने से आवाज़ साफ तथा मधुर होती है। गले के रोग दूर होते हैं।

7. मूर्छा प्राणायाम-इस प्राणायाम से नाड़ियों की सफाई होती है। सिद्ध आसन में बैठ कर नाक की बाईं नासिका से सांस लेना चाहिए। सांस लेकर कुम्भक किया जाए। इसके बाद दूसरी नासिका द्वारा सांस धीरे-धीरे बाहर छोड़ा जाता है। कुछ समय के लिए आन्तरिक कुम्भक किया जाता है और साथ बाईं नासिका द्वारा सांस बाहर छोड़ा जाता है। इसमें 1: 2: 2 का अनुपात होना चाहिए जैसे सांस लेने में पांच सैकिंड, सांस छोड़ने में दस सैकिंड इस तरह धीरे-धीरे कुम्भक का समय बढ़ाया जा सकता है। कुम्भक द्वारा ऑक्सीजन फेफड़ों के सभी छेदों में पहुँच जाती है। रेचक से फेफड़े सिकुड़ जाते हैं तथा हवा बाहर निकल जाती है।
लाभ (Advantages)—इस प्राणायाम से फेफड़ों के रोग दूर होते हैं और दिल की कमज़ोरी दूर होती है।

8. कपालभाति प्राणायाम (अग्रमस्तिष्क का धौंकना)कपालभाति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है। कपाल का अर्थ है-‘ललाट’ तथा भाति का अर्थ है-‘चमकना’। इस प्रकार कपालभाति का तात्पर्य है-आंतरिक कांति के साथ चेहरे का चमकना। यह एक अत्यधिक ऊर्जा देने वाला उदर का व्यायाम है। इस तरह के प्राणायाम में तेज़ी से श्वास छोड़ा जाता है तथा सामान्य तरीके से श्वास लिया जाता है।
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कपालभाति प्राणायाम
बैठने की मुद्रा-पीठ को सीधा रखते हुए पैरों को क्रॉस करते हुए बैठें। अपने हाथों को घुटनों पर आरामदायक अवस्था में रखें। अपने शरीर तथा मन को सहज रखें।
तकनीक-उदर को फैलाते हुए धीरे-धीरे गहराई से दोनों नाक की सहायता से श्वास भीतर लाएँ। अब उदर को अंदर खींचते हुए श्वास को बाहर निकालें। अब सहज हो जाएँ। फेफड़े स्वतः ही वायु से भर जाएँगे। 10 से 15 बार तेजी से श्वास लें तथा छोड़ें। तत्पश्चात् गहराई से श्वास लें तथा छोड़ें।
सावधानियां—

  1. दिल के रोगियों, उच्च रक्तचाप, हर्निया तथा अस्थमा के रोगियों को इस व्यायाम से बचना चाहिए।
  2. अगर दर्द या चक्कर का अनुभव होता है, तो इसे रोक देना चाहिए।
  3. इसका अभ्यास खाली पेट ही करना चाहिए।

लाभ—

  1. शरीर को अतिरिक्त ऑक्सीजन की प्राप्ति होती है।
  2. रक्त को शुद्ध करता है।
  3. चिंतन-मनन के लिए मस्तिष्क को तैयार करता है।
  4. पाचन तंत्र को सुधारता है।
  5. यह फेफड़ों तथा समस्त श्वसन प्रणाली के लिए उपयुक्त है।

प्राणायाम का महत्त्व
(Importance of Pranayama)
जिस प्रकार शरीर की सफाई के लिए स्नान करना आवश्यक है, उसी प्रकार मन की सफाई के लिए प्राणायाम ज़रूरी है। प्राणायाम से स्मरण शक्ति में वृद्धि, नाड़ी संस्थान (Nervous System) शक्तिशाली होता है और मन की चंचलता दूर होती है।

जिस प्रकार आग में सोना अथवा चांदी डालने से इनकी मैल समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार प्राणायाम से मन और बुद्धि की मैल धुल जाती है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
प्राणायाम करने से मनुष्य की आत्मा शक्तिशाली बनती है। आत्मा के बुरे संस्कार समाप्त होते हैं और अच्छे संस्कार बनते हैं।

प्राणायाम करने से पेट, छाती की मांसपेशियां मज़बूत बनती हैं और पेट के काफ़ी अंगों पर मालिश हो जाती है। अंगों के स्वस्थ और शक्तिशाली रहने से भोजन के पचने में बहुत लाभ होता है।

सांस भली प्रकार आने से शरीर में ऑक्सीजन अधिक मात्रा में मिलने लगती है। दिल की कार्यक्षमता बढ़ती है और यह शक्तिशाली हो जाता है। इससे रक्त संचार ठीक तरह होता है। रक्त संचार के भली प्रकार कार्य करने से नाड़ीसंस्थान और ग्रन्थि संस्थान के स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। शरीर में इन दोनों संस्थानों के कारण शरीर के सभी अंग ठीक तरह से काम करने लगते हैं। यह दोनों ही स्वास्थ्य का आधार हैं।

प्राणायाम से थकावट दूर हो जाती है। अधिक ऑक्सीजन के कारण रक्त साफ होता है। एक प्रसिद्ध कहावत है”आधा सांस, आधा जीवन।” पूरा तथा संतुलित सांस लेने से आयु लम्बी होती है। सांस के रोगों, गले के रोगों, जैसे गले पड़ना (Tonsils) से छुटकारा मिलता है।

आवाज़ मधुर तथा स्पष्ट हो जाती है। इच्छा शक्ति (Will Power) में वृद्धि होती है। गले, नाक, कान आदि के रोगों से मुक्ति मिलती है। इसके अतिरिक्त चेहरा प्रभावशाली आंखें साफ हो जाती हैं। सुषुम्ना-नाड़ी के साफ हो जाने से भूख लगने लगती है। स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।

PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग

प्रश्न 3.
भुजंगासन और सर्वांगासन की विधि और लाभ बताओ।
उत्तर-
भुजंगासन (Bhujangasana)—इसमें चित्त लेटकर धड़ को ढीला किया जाता है।
भुजंगासन की विधि (Technique of Bhujangasana)-इसे सर्पासन भी कहते हैं।
इसमें शरीर की स्थिति सर्प के आकार जैसी होती है। सर्पासन करने के लिए भूमि पर पेट के बल लेटें। दोनों हाथ कन्धों के बराबर रखो। धीरे-धीरे टांगों को अकड़ाते हुए हथेलियों के बल छाती को इतना ऊपर उठाएं कि भुजाएं बिल्कुल सीधी हो जाएं। पंजों को अन्दर की ओर करो और सिर को धीरे-धीरे पीछे की ओर लटकाएं। धीरे-धीरे पहली स्थिति में लौट आएं। इस आसन को तीन से पांच बार करें।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 10
भुजंगासन
लाभ (Advantages)—

  1. भुजंगासन से पाचन शक्ति मिलती है।
  2. जिगर और तिल्ली के रोगों से छुटकारा मिलता है।
  3. रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियां मज़बूत बनती हैं।
  4. कब्ज़ दूर होती है।
  5. बढ़ा हुआ पेट अन्दर को धंसता है।
  6. फेफड़े शक्तिशाली होते हैं।

सर्वांगासन (Sarvangasana)—इसमें कन्धों पर खड़ा हुआ जाता है।
सर्वांगासन की विधि (Technique of Saravangasana)-सर्वांगासन में शरीर की स्थिति अर्द्ध हल आसन की भांति होती है। इस आसन के लिए शरीर को सीधा करके पीठ के बल जमीन पर लेट जाएं। हाथों को जंघाओं के बराबर रखें। दोनों पांवों को एक बार उठाकर हथेलियां द्वारा पीठ को सहारा देकर कुहनियों को ज़मीन पर टिकाएं। सारे शरीर को सीधा रखें। शरीर का भार कन्धों और गर्दन पर रहे। ठोडी कण्ठकूप से लगी रहे। कुछ समय इस स्थिति में रहने के पश्चात् धीरेधीरे पहली स्थिति में आएं। आरम्भ में आसन का समय बढ़ाकर 5 से 7 मिनट तक किया जा सकता है। जो व्यक्ति किसी कारण शीर्षासन नहीं कर सकते उन्हें सर्वांगासन करना चाहिए।
PSEB 11th Class Physical Education Solutions Chapter 4 योग 11
सर्वांगासन
लाभ—

  1. इस आसन से कब्ज दूर होती है, भूख खूब लगती है।
  2. बाहर को बढ़ा हुआ पेट अन्दर की ओर धंसता है।
  3. शरीर के सभी अंगों में चुस्ती आती है।
  4. पेट की गैस नष्ट होती है।
  5. रक्त संचार तेज़ और शुद्ध होता है।
  6. बवासीर के रोग से छुटकारा मिलता है।