PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा सन्देश की चर्चा करें।
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रवर्तक थे। इतिहास में उन्हें महान् स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपने जीवन में भटके लोगों को सत्य का मार्ग दिखाया और धर्मान्धता से पीड़ित समाज को राहत दिलाई। जिस समय श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ, उस समय पंजाब का सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण अन्धकार में लिप्त था। लोग अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। हिन्दू और मुसलमानों में बड़ा भेदभाव था। श्री गुरु नानक देव जी ने इन सभी बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने ‘सत्यनाम’ का उपदेश दिया और लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया। उनके जीवन तथा शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :-

जन्म तथा माता-पिता-श्री गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1469 ई० को तलवण्डी (वर्तमान में ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में हुआ। उनके पिता का नाम मेहता कालू जी तथा माता का नाम तृप्ता जी था। आपकी बहन का नाम बेबे नानकी जी था।

बाल्यकाल, शिक्षा तथा व्यावसायिक जीवन-बचपन से ही श्री गुरु नानक देव जी दयावान थे। दीन-दुःखियों को देखकर उनका मन पिघल जाता था। 7 वर्ष की आयु में उन्हें पण्डित गोपाल की पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। पण्डित जी उन्हें सन्तुष्ट न कर सके। तत्पश्चात् उन्हें पं० बृज नाथ के पास पढ़ने के लिए भेजा गया। वहां गुरु जी ने ‘ओ३म्’ शब्द का वास्तविक अर्थ बता कर पण्डित जी को चकित कर दिया। पढ़ाई में गुरु नानक देव जी की रुचि न देखकर उनके पिता जी ने उन्हें पशु चराने के लिए भेजा। वहां भी गुरु नानक देव जी प्रभु चिन्तन में मग्न रहते और पशु दूसरे किसानों के खेतों में चरते रहते थे। किसानों की शिकायतों से तंग आकर मेहता कालू जी ने श्री गुरु नानक देव जी को व्यापार में लगाने का प्रयास किया। उन्होंने श्री गुरु नानक देव जी को 20 रुपए देकर व्यापार करने भेजा। परन्तु गुरु जी ने ये रुपये भूखे साधुओं को भोजन खिलाने में व्यय कर दिये और इस व्यापार को सच्चा सौदा कहा।

विवाह-अपने पुत्र की सांसारिक विषयों में रुचि न देखकर मेहता कालू जी निराश हो गए। उन्होंने गुरु जी का विवाह बटाला के क्षत्रिय मूलचंद की सुपुत्री सुलक्खणी जी से कर दिया। उस समय गुरु जी की आयु केवल 14 वर्ष की थी। उनके यहां श्री चन्द और लखमी दास नामक दो पुत्र भी पैदा हुए। विवाह के पश्चात् गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर लोधी चले गये। वहां उन्हें नवाब दौलत खां के अनाज घर में नौकरी मिल गई। उन्होंने पूरी ईमानदारी से काम किया। फिर भी वहां उनके विरुद्ध नवाब से शिकायत की गई। परन्तु जब जांच-पड़ताल हुई तो हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक था। इस प्रकार अपनी ईमानदारी से वहां भी उन्होंने यश प्राप्त किया।

ज्ञान प्राप्ति, उदासियां तथा ज्योति जोत समाना-अपने जीवन के अगले 21 वर्षों में उन्होंने अनेक स्थानों का भ्रमण करके ज्ञान का प्रचार किया। वह लंका, तिब्बत, मक्का, कामरूप तथा भारत के कई नगरों में गए। उनकी यात्राओं को उदासियां कहा जाता है। अपनी यात्राओं के मध्य उन्होंने लोगों को जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। आप ने 1521 ई० में रावी नदी के किनारे करतारपुर साहिब नगर बसाया। यहां ही आप ने अपने जीवन के अंतिम समय धर्म प्रचार किया। अपना अन्त समय निकट आया देखकर गुरु जी ने अपना उत्तराधिकारी चुनना उचित समझा। उन्होंने अपने सेवक भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उनके बाद भाई लहना ने गुरु अंगद देव जी के नाम से गुरु पद संभाला। 1539 ई० में श्री गुरु नानक देव जी ज्योति जोत समा गए।

सन्देश-श्री गुरु नानक देव जी का सन्देश बड़ा आदर्श था। उन्होंने अपनी शिक्षाओं द्वारा पथ-विचलित जनता को जीवन का सच्चा मार्ग दिखाया। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. ईश्वर सम्बन्धी विचार-श्री गुरु नानक देव जी ने इस बात का प्रचार किया कि ईश्वर एक है। वह अवतारवाद को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने ईश्वर को निराकार बताया। उनके अनुसार परमात्मा स्वयं-भू है। अतः इसकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं की जानी चाहिए। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है। वह संसार के कण-कण में रहता है। सारा संसार उसी की शक्ति से ही चल रहा है।

2. परमात्मा के नाम का जाप-श्री गुरु नानक देव जी ने परमात्मा के जाप पर बल दिया। उनके अनुसार गुरु सबसे महान् है। उसके बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु रूपी जहाज़ में सवार होकर ही संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। अतः वह मनुष्य बड़ा भाग्यशाली है, जिसे सच्चा गुरु मिल जाता है।

3. अन्य शिक्षाएं-
1. जाति-पाति का खण्डन-श्री गुरु नानक देव जी रंग, धर्म तथा जाति के भेदभावों में विश्वास नहीं रखते थे। उनका कहना था कि हम सभी एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। इसलिए हम सब भाई-भाई हैं।

2. यज्ञ, बलि आदि का विरोध-श्री गुरु नानक देव जी ने यज्ञ, बलि, व्रत आदि कर्मकाण्डों को व्यर्थ बताया।

3. मानव-प्रेम और समाज सेवा-श्री गुरु नानक देव जी के अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर के प्राणियों से प्रेम नहीं करता, उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। उन्होंने अपने अनुयायियों को मानव-प्रेम और समाज-सेवा का उपदेश दिया।

4. उच्च नैतिक जीवन-श्री गुरु नानक देव जी ने लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि सदा सत्य बोलो, नाम जपो, मिल-बाँट कर छको, ईमानदारी की कमाई खाओ और दूसरे की भावनाओं को कभी ठेस मत पहुंचाओ।

5. गृहस्थ जीवन-गुरु नानक देव जी मुक्ति प्राप्त करने के लिए गृहस्थ जीवन को त्यागने के हक में नहीं थे। आप अंजन में निरंजन के समर्थक थे।

गुरु नानक देव जी का सन्देश निःसन्देह बड़ा महान् था। प्रत्येक स्त्री-पुरुष उनके बताए मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उन्होंने अपने समय के शासन में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा जोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

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प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी की सिक्ख पंथ के विकास की चर्चा करें।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के संस्थापक थे। उनके सरल सन्देश से प्रभावित हो कर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने एक सिक्ख भाई लहना जी को गुरुगद्दी पर नियुक्त किया। इस प्रकार गुरु और सिक्ख की स्थिति परस्पर परिवर्तनशील बन गई। आगे चलकर सिक्ख इतिहास में यह विचार गुरु-पंथ के सिद्धान्त के रूप में विकसित हुआ। भाई लहना गुरु अंगद देव जी कहलाये।

गुरु अंगद देव जी-गुरु अंगद देव जी सिक्खों के दूसरे गुरु थे। उन्होंने अमृतसर जिले में स्थित खडूर साहिब में अपना प्रचार कार्य आरम्भ किया। उन्होंने गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित किया और उसे गुरुमुखी लिपि मे लिखा। यह वाणी बाद में गुरु ग्रन्थ साहिब के संकलन में सहायक सिद्ध हुई। गुरु अंगद देव जी ने स्वयं भी गुरु नानक देव जी के नाम पर वाणी लिखी। इससे गुरु पद की एकता दृढ़ हुई। उन्होंने संगत और लंगर की संस्थाओं को भी दृढ़ बनाया। गुरु नानक देव जी के पदचिन्हों पर चलते हुए 1552 ई० में गुरु अंगद देव जी ने भी अपने एक शिष्य अमरदास जी को गुरुगद्दी सौंप दी और स्वयं ज्योति-जोत समा गए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने गुरु-पद संभाला।

गुरु अमरदास जी-गुरु अमरदास जी ने लगभग 22 वर्ष तक सिक्खों का पथ-प्रदर्शन किया। इस अवधि में उन्होंने सिक्ख पंथ में अनेक नई बातों का समावेश किया। गुरु अंगद देव जी की भान्ति उन्होंने भी गुरु नानक देव जी के नाम पर वाणी की रचना की। उन्होंने खडूर साहिब को छोड़कर गोइन्दवाल साहिब को अपना प्रचार केन्द्र बना लिया। वहां उन्होंने बन रही बावली (बाऊली) का निर्माण कार्य पूरा करवाया। गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर पढ़ने के लिये आनन्द साहिब नामक वाणी की रचना की। उनके समय में सिक्खों की संख्या काफ़ी बढ़ गई। इसलिए उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के बाहर भी प्रचार कार्य के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त किये। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या और भी बढ़ने लगी। उन्होंने पाठ-कीर्तन के लिए स्थान-स्थान पर अपनी धर्मशालाएं स्थापित की। उन्होंने लंगर प्रथा का विस्तार भी किया।

गुरु रामदास जी-गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरु पद पर रहे। उन्होंने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया

  1. उनका सबसे बड़ा योगदान रामदास पुर शहर की नींव डालना था। वह स्वयं भी यहीं रह कर प्रचार कार्य करने लगे।
  2. उन्होंने अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवर खुदवाए।
  3. उन्होंने मसंद प्रथा प्रारम्भ की। मसंद उनके लिए उनके सिक्खों से भेंट एकत्रित करके लाते थे।
  4. उनके समय में सिक्खों तथा उदासियों में समझौता हो गया।
  5.  गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे परन्तु योग्य पुत्र अर्जन देव जी को गुरुपद सौंपा।

गुरु अर्जन देव जी-गुरु अर्जन देव जी सिक्खों के पांचवें गुरु थे। आप 1581 ई० से 1606 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। सिक्ख धर्म के विकास में उन्होंने निम्नलिखित योगदान दिया

1. हरिमंदर साहिब का निर्माण-गुरु रामदास जी ने अमृतसर तथा सन्तोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु उनके ज्योति जोत समाने के कारण यह कार्य पूरा न हो सका था। अब यह कार्य गुरु अर्जन देव जी ने अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिक्खों के सहयोग से इन दोनों सरोवरों का निर्माण कार्य पूरा किया। उन्होंने ‘अमृतसर’ सरोवर के बीच हरिमंदर साहिब का निर्माण करवाया। जो कि सिक्खों का पवित्र धार्मिक स्थान बन गया।

2. तरनतारन की स्थापना तथा लाहौर में बावली का निर्माण-गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, सरोवरों का निर्माण करवाया। तरनतारन भी इनमें से एक था। अमृतसर की भान्ति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। गुरु अर्जन देव जी ने अपनी लाहौर यात्रा के मध्य डब्बी बाजार में एक बावली का निर्माण करवाया। इसके निर्माण से बावली के निकटवर्ती प्रदेशों के सिक्खों को एक तीर्थ स्थान की प्राप्ति हुई।

3. हरगोबिन्दपुर तथा छहरटा की स्थापना और करतारपुर की नींव-गुरु जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द के जन्म के उपलक्ष्य में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिन्द नामक नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छ: रहट चलते थे। इसलिए इसको छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे यहां पर एक नगर बस गया जो आज भी विद्यमान है। गुरु जी ने 1593 ई० में जालन्धर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर रखा गया।

4. मसन्द प्रथा का विकास-मसन्द प्रथा का आरम्भ गुरु रामदास जी ने किया था। गुरु अर्जन देव जी ने इस प्रथा में सुधार लाने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने सिक्खों को आदेश दिया कि वे अपनी आय का 1/10 भाग आवश्यक रूप से मसन्दों को जमा कराएं। मसन्द वैशाखी के दिन इस राशि को अमृतसर में गुरु जी के केन्द्रीय कोष में जमा करवा देते थे।

राशि को एकत्रित करने के लिए वे अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने लगे। इन्हें ‘संगती’ कहते थे। मसन्द दशांश इकट्ठा करने के अतिरिक्त अपने क्षेत्र में सिक्ख धर्म का प्रचार भी करते थे।

5. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन-गुरु अर्जन देव जी ने ‘आदि ग्रन्थ’ साहिब का संकलन करके सिक्खों को एक धार्मिक ग्रन्थ प्रदान किया। इस पवित्र ग्रन्थ में उन्होंने अपने से पहले चार गुरु साहिबान की वाणी, फिर भक्तों की वाणी तथा उसके पश्चात् भाटों की वाणी का संग्रह किया। इसमें भक्त कबीर, बाबा फरीद, संत रविदास, जयदेव, रामानन्द तथा सूरदास जी की वाणी को भी स्थान दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इस ग्रन्थ साहिब में गुरु तेग बहादुर जी की बाणी शामिल की गई तथा आदि ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ साहिब का दर्जा दिया गया। गुरु अर्जन देव जी ने धर्म पर दृढ़ रहकर अपने जीवन का बलिदान (1606) भी दिया। इस शहीदी से सिक्खों में एक नवीन उत्साह पैदा हुआ।

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प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिन्द जी, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के सिक्ख पंथ के रूपान्तरण में योगदान की चर्चा करें।
उत्तर-
सिक्ख पंथ के विकास का आधार गुरु नानक देव जी के सरल एवं प्रभावशाली सन्देश थे। एक लम्बे समय तक यह पंथ शान्तिमय रूप धारण किए रहा। परन्तु गुरु अर्जन देव जी के समय में मुग़लों के धार्मिक अत्याचार बढ़ने लगे। उनके अत्याचारों का सामना शान्तिमय ढंग से करना असम्भव हो गया था। अतः सिक्ख पंथ का रूपान्तरण करना आवश्यक हो गया। इस कार्य में गुरु अर्जन देव जी, गुरु हरगोबिन्द जी, गुरु तेग बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपना-अपना योगदान दिया, जिसका वर्णन इस प्रकार है: –

I. गुरु अर्जन देव जी के अधीन-

मुग़ल सम्राट अकबर के गुरु अर्जन देव जी के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। परन्तु अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहांगीर ने सहनशीलता की नीति को छोड़ दिया। ।

जहांगीर की धर्मान्धता चरम सीमा पर पहुंच गई। अत: जहांगीर ने अपने पुत्र को आशीर्वाद देने के जुर्म में गुरु अर्जन देव जी को कठोर शारीरिक कष्ट देने का आदेश जारी कर दिया। सिक्ख परम्पराओं के अनुसार गुरु जी को गर्म लौह पर बिठाया गया और उनके शरीर पर तपती हुई रेत डाली गई। फिर उन्हें उबलते पानी की देश में डाला गया। आप इन तसीहों को परमात्मा का हुक्म समझ कर सहते रहे। आप 30 मई, 1606 ई० को लाहौर में शहीद हो गये।

गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई : (1) गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश दिया, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है, जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अत: मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया। (2) गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को भड़का दिया और उनके मन में मुगल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। (3) इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

II. गुरु हरगोबिन्द जी के अधीन-

गुरु हरगोबिन्द जी सिक्खों के छठे गुरु थे। उनके पिता गुरु अर्जन देव जी को मुग़ल सम्राट जहांगीर ने शहीद करवा दिया था। उनकी शहीदी से सिक्खों के मन में गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अनुभव किया कि यदि उन्हें अपने धर्म की रक्षा करनी है तो उन्हें माला के साथ-साथ शस्त्र भी धारण करने पड़ेंगे। इस उद्देश्य से गुरु हरगोबिन्द जी ने नवीन नीति अपनाई।

नवीन नीति की कार्यवाहियां-
1. गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु हरगोबिन्द जी ने तलवारें धारण की और इस अवसर पर उन्होंने यह घोषणा की कि अब सिक्ख सत्यनाम का जाप करने के साथ-साथ अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए भी सदा तैयार रहेंगे। यह गुरु जी की नवीन नीति का आरम्भ था।

2. नवीन नीति का अनुसरण करते हुए गुरु हरगोबिन्द जी ने ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण की। उन्होंने दो तलवारें, छत्र और कलगी धारण कर ली।

3. गुरु हरगोबिन्द जी अब सिक्खों के आध्यात्मिक नेता होने के साथ-साथ उनके सैनिक नेता भी बन गए। वे सिक्खों के पीर भी थे और मीर भी। इन बातों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पीरी और मीरी नामक दो तलवारें धारण की।

4. गुरु जी सिक्खों को धार्मिक शिक्षा देते थे। परन्तु सांसारिक विषयों में सिक्खों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने हरिमंदर साहिब के सामने एक नया भवन बनवाया जिसका नाम ‘अकाल तख्त’ (ईश्वर की गद्दी) रखा गया।

गुरु हरगोबिन्द जी ने आत्मरक्षा के लिए एक सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक तथा स्वयंसेवक सम्मिलित थे। गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने मसन्दों को सन्देश भेजा कि यदि धन के बजाय घोड़े तथा सैनिक शस्त्र उपहार अथवा भेंट के रूप में भेजें। परिणामस्वरूप काफ़ी मात्रा में सैनिक सामग्री इकट्ठी हो गई। सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृतसर) के चारों ओर एक दीवार भी बनवाई गई। इस नगर में एक दुर्ग का निर्माण भी किया गया, जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्यों से सिक्खों में धार्मिक भावना के साथ-साथ सैनिक गुणों का भी विकास हुआ। फलस्वरूप उन्होंने मुगल अत्याचारों का डटकर सामना किया।

III. गुरु तेग़ बहादुर जी के अधीन-

नौवें सिक्ख गुरु तेग़ बहादुर जी के समय में कई मुसलमानों ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया। औरंगज़ेब इस बात को सहन नहीं कर सकता था; इसलिए उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को दण्ड देने का निश्चय कर लिया। इन्हीं दिनों मुग़ल अत्याचारों से तंग आकर कुछ कश्मीरी ब्राह्मण गुरु जी की शरण में आए। उन्होंने गुरु जी को बताया कि उनको ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा है। यह सुनकर गुरु जी ने कहा कि सम्राट् से कहो कि यदि तुम हमारे गुरु साहिब जी को मुसलमान बना लोगे तो वे भी इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। अतः गुरु जी को 1675 ई० मे दिल्ली बुलाया गया और उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए विवश किया गया, परन्तु गुरु जी अपने धर्म पर अटल रहे। क्रोध में आकर औरंगजेब ने 11 नवम्बर, 1675 ई० को उन्हें शहीद करवा दिया। गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी से सिक्खों में एक नवीन जागृति आई।

IV. गुरु गोबिन्द सिंह जी के अधीन-

गुरु तेग़ बहादुर जी के पश्चात् गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के गुरु बने। उन्होंने सिक्ख धर्म की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न किए। उन्होंने मुग़ल अत्याचारों के विरुद्ध तलवार उठाई। वे अपने शिष्यों से भी भेंट के रूप में घोड़े तथा शस्त्र लेने लगे। उन्होंने सिक्खों को स्थायी सैनिक का रूप देने के लिए 1699 में खालसा की स्थापना की। इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह जी ने एक विशाल सेना तैयार कर ली। गुरु जी ने साधारण व्यक्तियों को वीर सैनिकों में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार वह राजनीतिक शक्ति में संगठित हुए और उन्होंने समय-समय पर मुग़लों से अनेक युद्ध किए।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य तक

प्रश्न 1.
‘सच्चा सौदा’ किस सिक्ख गुरु से सम्बन्धित है ?
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी से।

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प्रश्न 2.
श्री गुरु नानक देव जी का जन्म कहां हुआ था ?
उत्तर-
लाहौर के समीप तलवंडी नामक गांव में।

प्रश्न 3.
श्री गुरु नानक देव जी की माता का क्या नाम था?
उत्तर-
माता तृप्ता जी।

प्रश्न 4.
अमृतसर नगर किसने बसाया?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

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प्रश्न 5.
‘आदि ग्रंथ साहिब’ का संकलन किस गुरु साहिब ने किया?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने।

प्रश्न 6.
कौन-से गुरु ‘बाल गुरु’ के नाम से प्रसिद्ध हैं ?
उत्तर-
श्री गुरु हरकृष्ण जी।

प्रश्न 7.
सिक्खों के नौंवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
श्री गुरु तेग बहादुर जी।

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प्रश्न 8.
शहीदी देने वाले दो सिक्ख गुरुओं के नाम बताओ।
उत्तर-
श्री गुरु अर्जन देव जी तथा श्री गुरु तेग़ बहादुर जी।

प्रश्न 9.
गुरु गोबिन्द राय जी का जन्म कब और कहां हुआ?
(ii) उनके माता-पिता का नाम बताओ।
उत्तर-
(i) 22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में
(ii) उनकी माता का नाम गुजरी जी और पिता का नाम श्री गुरु तेग़ बहादुर जी था।

प्रश्न 10.
भंगानी की विजय के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने कौन-कौन से किले बनवाए ?
उत्तर-
आनन्दगढ़, केसगढ़, लोहगढ़ तथा फतेहगढ़।

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प्रश्न 11.
पांच प्यारों के नाम लिखिए।
उत्तर-
भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई साहब सिंह तथा भाई हिम्मत सिंह।

प्रश्न 12.
खालसा का सृजन कब और कहां किया गया?
उत्तर-
1699 ई० में आनन्दपुर साहिब में।

2. रिक्त स्थान भरें

(i) ……………….. गुरु नानक देव जी की पत्नी थीं।
(ii) गुरु नानक देव जी के पुत्रों के नाम …………………… तथा ……………….
(iii) गुरु नानक देव जी द्वारा रचित चार बाणियां वार मल्हार, वार आसा, ……………… और …………..
(iv) ……………… का पहला नाम भाई लहना था।
(v) ………….. सिक्खों के चौथे गुरु थे।
(vi) ……………. नामक नगर की स्थापना गुरु अंगद देव जी ने की।
(vii) गुरु हरगोबिन्द जी ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष …………… में धर्म-प्रचार में व्यतीत किए।
(viii) उदासी’ मत गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र ………………. जी ने स्थापित किया।
(ix) मंजियों की स्थापना श्री गुरु ………………. ने की।
(x) गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को ……….. में हुआ।
(xi) हरमंदिर साहिब का निर्माण कार्य ….. ……. ई० में पूरा हुआ।
उत्तर-
(i) बीबी सुलखनी
(ii) श्रीचंद, लखमी दास
(iii) जपुजी साहिब, बारहमाहा
(iv) गुरु अंगद साहिब
(v) गुरु रामदास जी
(vi) गोइन्दवाल साहिब
(vii) कीरतपुर साहिब
(viii) बाबा श्रीचंद जी
(ix) अमरदास जी
(x) गोइन्दवाल साहिब
(xi) 1601.

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3. सही/गलत कथन

(i) औरंगजेब कश्मीरी पंडितों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था। — (√)
(ii) गुरु गोबिंद सिंह जी ने काजी पीर मुहम्मद से शिक्षा लेने से इन्कार कर दिया। — (×)
(iii) खालसा की स्थापना श्री गुरु हरगोबिंद जी ने की। — (×)
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘ज़फरनामा’ नामक पत्र मुग़ल सम्राट औरंगजेब को लिखा। — (√)
(v) दिल्ली में गुरु हरराय जी राजा जयसिंह के यहां ठहरे थे। — (×)

4. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
गोइन्दवाल साहिब में बाऊली (जल-स्रोत) का निर्माण किसने करवाया ?
(A) गुरु अर्जन देव जी ने
(B) गुरु नानक देव जी ने ।
(C) गुरु अमरदास जी ने
(D) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(C) गुरु अमरदास जी ने

प्रश्न (ii)
गुरु अर्जन देव जी ने रावी तथा ब्यास के बीच किस नगर की नींव रखी ?
(A) जालंधर
(B) गोइन्दवाल साहिब
(C) अमृतसर
(D) तरनतारन।
उत्तर-
(D) तरनतारन।

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प्रश्न (iii)
जहांगीर के काल में शहीद होने वाले सिक्ख गुरु थे –
(A) गुरु अंगद देव जी
(B) गुरु अमरदास जी
(C) गुरु अर्जन देव जी
(D) गुरु रामदास जी।
उत्तर-
(C) गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न (iv)
गुरु हरकृष्ण जी गुरु गद्दी पर बैठे-
(A) 1661 ई० में
(B) 1670 ई० में
(C) 1666 ई० में
(D) 1538 ई० में।
उत्तर-
(A) 1661 ई० में

प्रश्न (v)
‘बाबा बकाला’ वास्तव में थे
(A) गुरु तेग़ बहादुर जी
(B) गुरु हरकृष्ण जी
(C) गुरु गोबिन्द सिंह जी
(D) गुरु अमरदास जी।
उत्तर-
(A) गुरु तेग़ बहादुर जी

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प्रश्न (vi)
गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म हुआ
(A) कीरतपुर साहिब में
(B) पटना में
(C) दिल्ली में
(D) तरनतारन में।
उत्तर-
(B) पटना में

प्रश्न (vii)
गुरु गद्दी को पैतृक रूप दिया
(A) गुरु अमरदास जी ने
(B) गुरु रामदास जी ने
(C) गुरु गोबिन्द सिंह जी ने
(D) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(A) गुरु अमरदास जी ने

प्रश्न (viii)
हरमंदिर साहिब का पहला मुख्य ग्रन्थी नियुक्त किया गया
(A) भाई पृथिया को
(B) श्री महादेव जी को
(C) बाबा बुड्डा जी को
(D) नत्था मल जी को।
उत्तर-
(C) बाबा बुड्डा जी को

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II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सिक्ख पंथ के बारे में जानकारी के गुरुमुखी लिपि में चार महत्त्वपूर्ण स्रोत कौन-से हैं ?
उत्तर-
सिक्ख पंथ के बारे में जानकारी के गुरुमुखी लिपि में चार महत्त्वपूर्ण स्रोत गुरु ग्रन्थ साहिब, भाई गुरदास की वारें, जन्मसाखियां तथा गुरसोभा हैं।

प्रश्न 2.
कौन-से दो गुरु साहिबान के हुक्मनामे उपलब्ध हैं ?
उत्तर-
हमें गुरु तेग़ बहादुर जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी के हुक्मनामे उपलब्ध हैं।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी का जीवन मुख्य रूप से कौन-से तीन भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जीवन मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है-आरम्भिक जीवन तथा सुल्तानपुर लोधी में ज्ञान प्राप्ति, उनकी यात्राएँ अथवा उदासियाँ तथा करतारपुर में एक नये भाईचारे की स्थापना।

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प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ।

प्रश्न 5.
सुल्तानपुर लोधी में गुरु नानक देव जी ने किस लोधी अधिकारी के अधीन, किस विभाग में कितने वर्ष काम किया ?
उत्तर-
सुल्तानपुर लोधी में गुरु नानक देव जी ने दौलत खाँ लोधी के अधीन काम किया। उन्होंने मोदीखाने में दस वर्ष . तक कार्य किया।

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी को सत्य की प्राप्ति कहाँ और लगभग किस आयु में हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी में सत्य की प्राप्ति हुई। इस समय उनकी आयु 30 वर्ष की थी।

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प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने एक नये भाईचारे का आरम्भ कहाँ और किन दो संस्थाओं द्वारा किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने एक नये भाईचारे का आरम्भ करतारपुर में संगत तथा लंगर नामक दो संस्थाओं द्वारा किया।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी मनुष्य के किन पांच शत्रुओं की बात करते हैं ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी मनुष्य के पांच शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की बात करते हैं।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के अनुसार सच्चा गुरु कौन है और वह किसके द्वारा शिक्षा देता है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा है। परमात्मा ‘शब्द’ के द्वारा शिक्षा देता है।

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प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी के अनुसार सही आचरण की आधारशिला क्या है तथा उसके लिए क्या करना आवश्यक है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार सही आचरण की आधारशिला दूसरों की सेवा है। उसके लिए मेहनत की कमाई करना आवश्यक है।

प्रश्न 11.
गुरु अंगद देव जी का आरम्भिक नाम क्या था और वे कब से कब तक गुरुगद्दी पर रहे ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का आरम्भिक नाम भाई लहना था। वह 1539 से 1552 तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 12.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र कौन-सा स्थान था तथा उन्होंने कौन-से कस्बे का निर्माण किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र अमृतसर जिले में खडूर साहिब था। उन्होंने गोइन्दवाल साहिब कस्बे का निर्माण किया।

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प्रश्न 13.
गुरु अंगद देव जी ने किस नाम से वाणी रची और उन्होंने गुरुगद्दी के लिए किसको मनोनीत किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने नानक नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने गुरुगद्दी के लिए गुरु अमरदास जी को मनोनीत किया।

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी ने बावली का निर्माण कहां करवाया तथा इसमें कितनी सीढ़ियां हैं ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइन्दवाल साहिब में बावली का निर्माण कराया, जिसमें 84 सीढ़ियां हैं।

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी ने साधारण जीवन के किन दो अवसरों के लिए सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियां निश्चित की ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने जन्म तथा मरण के मौकों पर सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियाँ निश्चित की।

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प्रश्न 16.
मंजियों की स्थापना किन गुरु साहिब ने की और वे कब-से-कब तक गुरुगद्दी पर रहे ?
उत्तर-
मंजियों की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की। वे 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 17.
अमृतसर की स्थापना करने वाले तथा सरोवर की खुदवाई करवाने वाले दो गुरु साहिबानों के नाम बताएं।
उत्तर-
अमृतसर की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी ने सरोवर की खुदाई कराई थी।

प्रश्न 18.
गुरु अमरदास जी के उत्तराधिकारी कौन थे ? उनका आरम्भिक नाम तथा गुरुआई का समय बताएं।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के उत्तराधिकारी गुरु रामदास जी थे। इनका आरम्भिक नाम भाई जेठा जी था। उनकी गुरुआई का समय 1574 ई० से 1581 ई० तक था।

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प्रश्न 19.
अमृत सरोवर में ‘धर्मशाला’ किन्होंने बनवाई तथा इसे क्या नाम दिया ?
उत्तर-
अमृत सरोवर में गुरु अर्जन देव जी ने धर्मशाला बनवाई थी और इसको हरमंदर साहिब का नाम दिया।

प्रश्न 20.
गुरु अर्जन देव जी ने किन तीन नगरों की नींव रखी और यह कौन-से दो दोआबों में हैं ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने बारी दोआब में तरनतारन तथा श्री हरगोबिन्दपुर और जालन्धर दोआब में करतारपुर की नींव रखी।

प्रश्न 21.
गुरु के प्रतिनिधियों को क्या कहा जाता था और ये संगतों से उनकी आय का कौन-सा भाग एकत्र करते थे ?
उत्तर-
गुरु के प्रतिनिधियों को मसन्द कहा जाता था। ये संगतों से उनकी आय का दसवां भाग एकत्र करते थे।

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प्रश्न 22.
आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन किन्होंने और कब सम्पूर्ण किया ?
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में सम्पूर्ण किया।

प्रश्न 23.
आदि ग्रन्थ साहिब में जिन गुरुओं की वाणी सम्मिलित है, उनके नाम बताएं।
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब में गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी तथा गुरु अर्जन देव जी की वाणी सम्मिलित है। बाद में गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई।

प्रश्न 24.
‘मीरी’ और ‘पीरी’ की तलवारें किसने धारण की और ये किसकी प्रतीक थीं ?
उत्तर-
‘मीरी’ और ‘पीरी’ की तलवारें गुरु हरगोबिन्द जी ने धारण की। ‘पीरी’ की तलवार आध्यात्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी और ‘मीरी’ की तलवार सांसारिक नेतृत्व की।

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प्रश्न 25.
गुरु हरगोबिन्द जी की गुरुगद्दी का समय क्या था और उन्होंने अमृतसर में कौन-से दो महत्त्वपूर्ण भवन बनवाए ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी की गुरुगद्दी का समय 1606 ई० से 1645 ई० तक था। उन्होंने अमृतसर में लोहगढ़ का किला बनवाया तथा हरमंदर साहिब के सामने अकाल तख्त बनवाया।

प्रश्न 26.
गुरु हरगोबिन्द जी को किस मुग़ल बादशाह ने कौन-से किले में नजरबन्द करवाया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी को जहांगीर ने ग्वालियर के किले में नजरबन्द करवाया।

प्रश्न 27.
गुरु हरगोबिन्द जी ने लाहौर प्रान्त को छोड़कर किस इलाके में किस स्थान पर रहने का फैसला किया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द जी ने लाहौर प्रान्त को छोड़कर कीरतपुर साहिब के स्थान पर रहने का फैसला किया।

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प्रश्न 28.
पिरथी चन्द कौन था तथा उसके अनुयायियों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
पिरथी चन्द गुरु हरगोबिन्द जी का चाचा था। उसके अनुयायियों को ‘मीणे’ कहा जाता था।

प्रश्न 29.
मिहरबान का आरम्भिक नाम क्या था तथा वह किसका पुत्र था ?
उत्तर-
मिहरबान का आरम्भिक नाम मनोहर दास था। वह पिरथी चन्द का पुत्र था।

प्रश्न 30.
धीरमल किसका पौत्र था तथा वह किस स्थान पर रहने लगा था ?
उत्तर-
धीरमल गुरु हरगोबिन्द जी का पौत्र था। वह करतारपुर में रहने लगा था।

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प्रश्न 31.
गुरु हर राय जी किनके पौत्र थे और वे गुरुगद्दी पर कब से कब तक रहे ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी गुरु हरगोबिन्द जी के पौत्र थे। वे 1645 ई० से 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

प्रश्न 32.
गुरु हर राय जी पर किस मुग़ल बादशाह ने किस शहज़ादे की सहायता करने का आरोप लगाया ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी पर औरंगजेब ने शहज़ादा दारा शिकोह की सहायता करने का आरोप लगाया।

प्रश्न 33.
गुरु हर राय जी के दो बेटों के नाम बताएं तथा उनमें से किन को गुरुगद्दी दी गई ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी के दो बेटों के नाम थे-रामराय जी तथा हरकृष्ण जी। गुरुगद्दी हरकृष्ण जी को दी गई थी।

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प्रश्न 34.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस वर्ष में गुरुआई सम्भाली और इस समय वे किस गांव में थे तथा यह किन दो नगरों के मध्य स्थित है ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने 1664 ई० में गुरुआई सम्भाली। इस समय वह बकाला में थे जो अमृतसर तथा जालन्धर के मध्य में है।

प्रश्न 35.
गुरु तेग़ बहादुर जी ने किस पहाड़ी रियासत के इलाके में किस नये कस्बे की नींव रखी और यह बाद में किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने बिलासपुर रियासत में माखोवाल कस्बे की नींव रखी। यह बाद में आनन्दपुर साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 36.
गुरु तेग बहादुर जी अपनी यात्रा के दौरान किन चार नगरों में गये तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म कौन-से नगर में हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्रा के दौरान आगरा, बनारस तथा गया में गये। गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म पटना में हुआ।

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प्रश्न 37.
गुरु तेग़ बहादुर जी को किस वर्ष में, किस शहर में, किस स्थान पर शहीद किया गया ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को 1675 ई० में दिल्ली में चांदनी चौक में शहीद किया गया।

प्रश्न 38.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने पूर्वजों में से किन की नीति अपनाने का निश्चय किया तथा उन्होंने भेंट में किन दो वस्तुओं को प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने गुरु हरगोबिन्द जी की नीति अपनाने का निश्चय किया। उन्होंने भेंट में शस्त्र तथा घोड़े प्राप्त करने को अधिक महत्त्व दिया।

प्रश्न 39.
गुरु गोबिन्द सिंह जी का पहला युद्ध किस वर्ष में, किस स्थान पर और कहां के राजा के विरुद्ध हुआ ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी का पहला युद्ध श्रीनगर के राजा के साथ 1686 ई० में भंगाणी नामक स्थान पर हुआ।

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प्रश्न 40.
किस पहाड़ी राजा के कहने पर गुरु गोबिन्द सिंह जी ने मुगलों के विरुद्ध कौन-सी लड़ाई लड़ी तथा इसमें किसकी जीत हुई ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने पहाड़ी राजा भीमचन्द के कहने पर मुगलों के विरुद्ध नादौन की लड़ाई लड़ी। इसमें पहाड़ी राजाओं की जीत हुई।

प्रश्न 41.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर की सुरक्षा के लिए किन चार किलों का निर्माण किया था ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर की सुरक्षा के लिए आनन्दगढ़, केसगढ़, लोहगढ़ तथा फतेहगढ़ किलों का निर्माण किया था।

प्रश्न 42.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कौन-से वर्ष, किस दिन और कहां पर खालसा की साजना की ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने 1699 ई० में वैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा की साजना की।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की यात्राओं अथवा उदासियों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपने सन्देश के प्रसार के लिए कुछ यात्राएं कीं। उनकी इन यात्राओं को उदासियां भी कहा जाता है। इन यात्राओं को तीन या चार हिस्सों अथवा उदासियों में बांटा जाता है। यह समझा जाता है कि इस दौरान गुरु नानक देव जी ने उत्तर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक तथा पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में असम तक की यात्रा की थी। वह सम्भवत: भारत से बाहर लंका, मक्का, मदीना तथा बगदाद भी गये थे। उनके जीवन के लगभग बीस वर्ष ‘उदासियों’ में गुजरे। अपनी सुदूर ‘उदासियों’ में गुरु साहिब विभिन्न धार्मिक विश्वासों वाले अनेक लोगों के सम्पर्क में आये। ये लोग भान्ति-भान्ति की संस्कार विधियों और रस्मों का पालन करते थे। गुरु नानक साहिब ने इन सभी लोगों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया।

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ‘माया’ मुक्ति के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा है। उनका माया का संकल्प वास्तविक है। यह वेदान्त की भान्ति ब्रह्माण्डीय भ्रम डालने वाला नहीं है। उनके अनुसार प्रभु ने ब्रह्माण्ड की रचना स्वयं को रूपवान करने के लिए की है। अतः रचनाकार और रचना में अन्तर जानना आवश्यक है। मनुष्य के मलिन भाव और ऐन्द्रिक सुख मनुष्य को माया से बाँध कर रखते हैं। इसलिए वह परमात्मा से दूर रहता है। इसी सन्दर्भ में ही गुरु नानक देव जी मनुष्य के पांच शत्रुओं की बात करते हैं, जिनके नाम हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार। मनुष्य में अहं अथवा ‘हउमै’ की अभिव्यक्ति है। यह परमात्मा और मनुष्य के बीच एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दीवार है। मनुष्य की ‘मनमुखता’ ही उसके लिए यह समझना कठिन कर देती है कि केवल परमात्मा ही एक सर्वशक्तिमान् सत्ता है।

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प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खण्डन किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अनेक व्यर्थ के धार्मिक विश्वासों एवं व्यवहारों का खण्डन किया। उन्होंने अनुभव किया कि ब्राह्मण बाहरी कर्मकाण्ड में रत हैं जिनमें सही आत्मिक जिज्ञासा या धार्मिक श्रद्धा-भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा और मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित संस्कार-विधियां और रीति-रिवाजों का खंडन किया। गुरु नानक देव जी ने जोगियों की पद्धति को भी अस्वीकार कर दिया। इसके दो मुख्य कारण थे : जोगियों द्वारा परमात्मा के प्रति व्यवहार में श्रद्धा-भक्ति का अभाव और अपने मठवासी जीवन में सामाजिक दायित्व से विमुखता। गुरु नानक देव जी ने वैष्णव भक्ति को भी अस्वीकृत किया और अपनी विचारधारा में अवतारवाद को कोई स्थान न दिया। उन्होंने मुल्ला लोगों के विश्वासों, रस्मों एवं व्यवहारों का खण्डन किया।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ क्या थे ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के सन्देश के सामाजिक अर्थ बड़े महत्त्वपूर्ण थे। उनका सन्देश सभी के लिए था। प्रत्येक स्त्रीपुरुष उनके बताये मार्ग को अपना सकता था। इसमें जाति-पाति या धर्म का कोई भेदभाव न था। उन्होंने सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलकर सभी नर-नारियों के मन में एकता का भाव दृढ़ किया। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के जटिल बन्धन टूटने लगे और लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। उनके अनुयायियों में समानता के विचार को वास्तविक रूप संगत और लंगर की संस्थाओं में मिला। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि गुरु नानक देव जी ने जात-पात पर आधारित भेदभावों का बड़े स्पष्ट शब्दों में खण्डन क्यों किया। उन्होंने अपने आपको जनसाधारण के साथ सम्बन्धित किया। इस स्थिति में उन्होंने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय, दमन और भ्रष्टाचार का बड़ा जोरदार खण्डन किया। फलस्वरूप समाज अनेक कुरीतियों से मुक्त हो गया।

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प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खण्डन क्यों किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का जोरदार खण्डन किया। ब्राह्मण दिखावे के कर्मकाण्डों में लिप्त थे। वे लोग वेद, शास्त्रों, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा तथा जन्म-मरण के अवसर पर विभिन्न धार्मिक संस्कारों पर भी बड़ा बल देते हैं। वह स्वयं सच्ची प्रभु भक्ति में विश्वास रखते थे। इसी कारण उन्होंने ब्राह्मणों तथा उनकी धार्मिक पद्धति का कड़ा विरोध किया। इस्लाम धर्म में मुल्ला लोगों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था। वे अपने आपको इस्लाम का रक्षक समझते थे और इसके सिद्धान्तों को बाहरी रूप से अपनाने पर बड़ा बल देते थे। गुरु नानक देव जी को दिखावे का यह जीवन बिल्कुल पसन्द नहीं था। अत: उन्होंने उस समय ब्राह्मणों के साथ-साथ मुल्लाओं के आडंबरों का भी विरोध किया।

प्रश्न 6.
गुरु अमरदास जी पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु थे। आपका जन्म अमृतसर जिले में हुआ था। आपने गुरु अंगद देव जी की सेवा बहुत श्रद्धा और प्यार से की। इसी के फलस्वरूप आपको गुरुगद्दी प्राप्त हुई। गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर बीस वर्ष रहे। उन्होंने सिक्ख पंथ के विकास के लिए अनेक कार्य किये।

  • गुरु अंगद देव जी की भान्ति गुरु अमरदास जी ने भी श्री गुरु नानक देव जी के नाम से वाणी की रचना की।
  • उन्होंने गोइन्दवाल साहिब में एक बावली बनवाई, जिसमें उनके सिक्ख (शिष्य) धार्मिक अवसरों पर स्नान करते थे। इस बावली की 84 सीढ़ियां हैं।
  • गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर पढ़ने के लिये आनन्द साहिब नामक वाणी की रचना की।
  • उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के बाहर प्रचार कार्य के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या बढ़ने लगी।
  • उन्होंने पाठ-कीर्तन के लिए स्थान-स्थान पर अपनी धर्मशालाएं स्थापित की।

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प्रश्न 7.
गुरु रामदास जी ने सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 से 1581 तक गुरु पद पर रहे। उन्होंने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया-

  • उनका सबसे बड़ा योगदान रामदास पुर शहर की नींव डालना था। वह स्वयं भी यहीं कह कर प्रचार कार्य करने लगे।
  • उन्होंने अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवर खुदवाए।
  • उन्होंने मसंद प्रथा प्रारम्भ की। मसंद उनके लिए उनके सिक्खों से भेंट एकत्रित करके लाते थे।
  • उनके समय में सिक्खों तथा उदासियों में समझौता हो गया।

प्रश्न 8.
आदि ग्रन्थ साहिब के संकलन तथा महत्त्व के बारे में बताएं।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन सिक्ख पंथ के विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। इसके लिए तैयारी पहले गुरु साहिबान के समय में आरम्भ हो चुकी थी। गुरु अर्जन देव जी ने गुरु अमरदास जी के बड़े पुत्र से पहले तीन गुरु साहिबान तथा कुछ भक्तों की वाणी की पोथियां प्राप्त की। इसमें उन्होंने गुरु रामदास जी तथा अपनी वाणी के साथ-साथ और कुछ अन्य सन्तों, भक्तों एवं सूफ़ी शेखों की रचनायें शामिल की। यह काम 1604 ई० तक सम्पूर्ण कर लिया गया। आदि ग्रन्थ साहिब की हरिमंदर साहिब में स्थापना की गई और बाबा बुड्डा जी इसके पहले ग्रन्थी नियुक्त हुए। आदि ग्रन्थ साहिब को गुरु ग्रन्थ साहिब का दर्जा दिया गया और यह सिक्ख धर्म का मूल स्रोत बन गया। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय ही आदि ग्रन्थ साहिब में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित कर ली गई। आदि ग्रन्थ साहिब का महत्त्व इस बात से जाना जा सकता है कि इस ग्रन्थ में भक्तों तथा सन्तों के साथ-साथ गुरु साहिबानों की वाणी सामूहिक रूप में प्राप्त हुई जो सिक्ख पंथ का सच्चा मार्गदर्शन करने लगी।

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प्रश्न 9.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी ने सिक्ख पंथ के इतिहास पर क्या प्रभाव डाला?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख पंथ के इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।
1. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जाओ, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।

2. गुरु जी की शहीदी ने सिक्खों के मन में मुगल राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी।

3. इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तैयार हो गए।

प्रश्न 10.
गुरु हरगोबिन्द साहिब की नई नीति तथा गतिविधियों के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिन्द साहिब की नवीन नीति तथा गतिविधियों के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। गुरु साहिब ने आत्मरक्षा के लिए एक सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक तथा स्वयंसेवक सम्मिलित थे। गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने मसन्दों को सन्देश भेजा कि वह धन के बजाय घोड़े तथा शस्त्र उपहार अथवा भेंट के रूप में भेजें। सिक्खों की सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृतसर) के चारों ओर एक दीवार बनवाई गई। इस नगर में एक दुर्ग का निर्माण भी किया गया, जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्यों से सिक्खों में धार्मिक भावना के साथ-साथ सैनिक गुणों का भी विकास हुआ। फलस्वरूप उन्होंने मुग़ल अत्याचारों का डटकर सामना किया।

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प्रश्न 11.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख पंथ में साम्प्रदायिक विभाजन तथा बाहरी खतरे की समस्या को कैसे हल किया?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्ख धर्म में विद्यमान अनेक सम्प्रदायों की तथा बाहरी खतरों की समस्या को भी बड़ी कुशलता से निपटाया। सर्वप्रथम गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं से अनेक युद्ध किए और उन्हें पराजित किया। उन्होंने अत्याचारी मुग़लों का भी सफल विरोध किया। 1699 ई० में गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने खालसा की स्थापना करके अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण पग उठाया। खालसा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिक्खों ने शस्त्रधारी का रूप धारण कर लिया। खालसा की स्थापना से गुरु जी को सिक्ख धर्म में विद्यमान् विभिन्न सम्प्रदायों से निपटने का अवसर भी मिला। गुरु जी ने घोषणा की कि सभी सिक्ख ‘खालसा’ का रूप हैं और उनके साथ जुड़े हुए हैं। इस प्रकार मसन्दों का महत्त्व समाप्त हो गया और सिक्ख धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय खालसा में विलीन हो गए।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
ईश्वर के बारे में गुरु नानक देव जी के विचारों का वर्णन करते हुए उनकी किन्हीं पांच शिक्षाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं उतनी ही आदर्श थीं जितना कि उनका जीवन। वह कर्मकाण्ड, जाति-पाति, ऊंच-नीच आदि संकीर्ण विचारों से कोसों दूर थे। उन्हें तो सत्यनाम से प्रेम था और इसी का सन्देश उन्होंने अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक प्राणी को दिया। उनकी मुख्य शिक्षाओं का वर्णन इस प्रकार है :

1. ईश्वर की महिमा-गुरु साहिब ने ईश्वर की महिमा का बखान अपने निम्नलिखित विचारों द्वारा किया है :

  • एक ईश्वर में विश्वास-श्री गुरु नानक देव जी ने इस बात का प्रचार किया कि ईश्वर एक है। वह अवतारवाद को स्वीकार नहीं करते थे।
  • ईश्वर निराकार तथा स्वयं-भू है-श्री गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को निराकार बताया। उनके अनुसार परमात्मा स्वयं-भू है। अत: उसकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं की जानी चाहिए।
  • ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है- श्री गुरु नानक देव जी ने ईश्वर को सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् बताया। उनके अनुसार ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। सारा संसार उसी की शक्ति पर चल रहा है।
  • ईश्वर दयालु है-श्री गुरु नानक देव जी का कहना था कि ईश्वर दयालु है। वह अपने भक्तों के पास हर पल रहता है। उनके सभी काम आप संवारता है।

2. सतनाम के जाप पर बल–श्री गुरु नानक देव जी ने सतनाम के जाप पर बल दिया। वह कहते थे कि आत्मा की बुरे विचारों रूपी मैल को सतनाम के जाप से ही धोया जा सकता है।

3. गुरु का महत्त्व-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु की बहुत आवश्यकता है। गुरु रूपी जहाज़ में सवार होकर संसार रूपी सागर को पार किया जा सकता है। उनका कथन है कि “सच्चे गुरु की सहायता के बिना किसी ने भी ईश्वर को प्राप्त नहीं किया।” गुरु ही मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है।

4. कर्म सिद्धान्त में विश्वास-गुरु नानक देव जी का विश्वास था कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। उनके अनुसार बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। इसके विपरीत, शुभ कर्म करने वाला व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है और निर्वाण प्राप्त करता है।

5. आदर्श गृहस्थ जीवन पर बल-गुरु नानक देव जी ने आदर्श गृहस्थ जीवन पर बल दिया है। उन्होंने लोगों को संसार में रहकर अच्छा जीवन व्यतीत करने और पवित्र बनने का सन्देश दिया है। उन्होंने इस धारणा को सर्वथा गलत सिद्ध कर दिखाया कि संसार माया जाल है और उसका त्याग किए बिना व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। उनके शब्दों में, “अंजन माहि निरंजन रहिए” अर्थात् संसार में रहकर भी मनुष्य को पृथक् और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।

6. मनुष्य-मात्र से प्रेम-गुरु नानक देव जी रंग-रूप के भेद-भावों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार एक ईश्वर की सन्तान होने के नाते सभी मनुष्य भाई-भाई हैं। वह कहते थे, “मैं सभी मनुष्यों को महान् समझता हूँ और किसी को भी नीचा नहीं समझता क्योंकि सभी मनुष्यों को बनाने वाला एक ही है।” अतः उन्होंने लोगों को मनुष्य-मात्र से प्रेम करने का सन्देश दिया।

7. जाति-पाति का खण्डन-गुरु नानक देव जी ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उनकी दृष्टि में न कोई हिन्दू था और न कोई मुसलमान। उनके अनुसार सभी जातियों तथा धर्मों में मौलिक एकता और समानता विद्यमान है।

8. समाज सेवा-गुरु नानक देव जी के अनुसार जो व्यक्ति ईश्वर प्राणियों से प्रेम नहीं करता, उसे ईश्वर की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। उन्होंने अपने अनुयायियों को निःस्वार्थ भाव से मानव प्रेम और समाज सेवा करने का उपदेश दिया। उनके अनुसार मानवता के प्रति प्रेम, ईश्वर के प्रति प्रेम का ही प्रतीक है।

9. मूर्ति-पूजा का खण्डन-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति-पूजा का कड़े शब्दों में खण्डन किया। उनके अनुसार ईश्वर की मूर्तियां बनाकर पूजा करना व्यर्थ है, क्योंकि ईश्वर अमूर्त तथा निराकार है।

10. यज्ञ, बलि तथा व्यर्थ के कर्मकाण्डों में अविश्वास-गुरु नानक देव जी ने व्यर्थ के कर्मकाण्डों का घोर खण्डन किया और ईश्वर की प्राप्ति के लिए यज्ञों तथा बलि आदि को व्यर्थ बताया। उनके अनुसार बाहरी दिखावे का प्रभु भक्ति में कोई स्थान नहीं है।

11. सर्वोच्च आनन्द (सचखण्ड) की प्राप्ति-गुरु नानक देव जी के अनुसार मनुष्य जीवन का उद्देश्य सर्वोच्च आनन्द (सचखण्ड) की प्राप्ति है। सर्वोच्च आनन्द वह मानसिक स्थिति है जहां मनुष्य सभी चिन्ताओं तथा कष्टों से मुक्त हो जाता है। उसका दुःखी हृदय शान्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है।

12. नैतिक जीवन पर बल-गुरु नानक देव जी ने लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आदर्श जीवन के लिए कई सिद्धान्त प्रस्तुत किए-

  • सदा सत्य बोलना।
  • नाम जपना।
  • नेक कमाई खाना।
  • दूसरों की भावनाओं को कभी ठेस न पहुंचाना
  • मिल-बाँट कर छकना। ‘किरत करना, वंड खाना तथा नाम जपना’ इस सिद्धान्त का मूल सार है।
    सच तो यह है कि गुरु नानक देव जी एक महान् सन्त और समाज सुधारक थे।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 2.
गुरु अर्जन देव जी ने सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
अथवा
सिख धर्म के प्रसार के लिए श्री गुरु अर्जन देव जी द्वारा किए गए किन्हीं पांच कार्यों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के गुरुगद्दी सम्भालते ही सिक्ख धर्म के इतिहास ने नवीन दौर में प्रवेश किया। उनके प्रयास से हरिमंदर साहिब बना और सिक्खों को अनेक तीर्थ स्थान मिले। यही नहीं उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब का संकलन किया जिसे सिक्ख धर्म में सबसे अधिक पूजनीय स्थान प्राप्त है। संक्षेप में, गुरु अर्जन देव जी के कार्यों तथा सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

1. हरिमंदर साहिब का निर्माण-गुरु रामदास जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर तथा सन्तोखसर नामक सरोवरों का निर्माण कार्य पूरा किया। उन्होंने ‘अमृतसर’ तालाब के बीच हरिमंदर साहिब का निर्माण करवाया। गुरु जी ने इसके चारों ओर एक-एक द्वार रखवाया। ये द्वार इस बात का प्रतीक हैं कि हरिमंदर साहिब सभी जातियों तथा धर्मों के लोगों के लिए खुला है।

2. तरनतारन की स्थापना-गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर के अतिरिक्त अन्य अनेक नगरों, सरोवरों तथा स्मारकों का निर्माण करवाया। तरनतारन भी इनमें से एक था। उन्होंने इसका निर्माण प्रदेश के ठीक मध्य में करवाया। अमृतसर की भान्ति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

3. लाहौर में बाऊली का निर्माण-गुरु अर्जन देव जी ने अपनी लाहौर यात्रा के दौरान डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इसके निर्माण से बाऊली के निकटवर्ती प्रदेशों के सिक्खों को एक तीर्थ स्थान की प्राप्ति हुई।

4. हरगोबिन्दपुर तथा छहरटा की स्थापना-गुरु जी ने अपने पुत्र हरगोबिन्द के जन्म की खुशी में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिन्दपुर नामक नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छः रहट चलते थे। इसलिए इसे छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा।

5. करतारपुर की नींव रखना-गुरु जी ने 1539 ई० में जालन्धर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर रखा गया। यहां उन्होंने एक सरोवर का निर्माण करवाया जो गंगसर के नाम से प्रसिद्ध है।

6. मसन्द प्रथा का विकास-गुरु अर्जन देव जी ने मसन्द प्रथा में सुधार लाने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने सिक्खों को आदेश दिया कि वह अपनी आय का 1/10 भाग आवश्यक रूप से मसन्दों को जमा कराएं। मसन्द वैशाखी के दिन इस राशि को अमृतसर के केन्द्रीय कोष में जमा करवा देते थे। राशि को एकत्रित करने के लिए वे अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने लगे। इन्हे ‘संगती’ कहते थे। दशांश इकट्ठा करने के अतिरिक्त मसन्द उस क्षेत्र में सिक्ख धर्म का प्रचार करते थे।

7. आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन करके सिक्खों को एक महान् धार्मिक ग्रन्थ प्रदान किया। गुरु जी ने आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन कार्य रामसर में आरम्भ किया। इस कार्य में भाई गुरदास जी ने गुरु जी को सहयोग दिया। अन्त में 1604 ई० में आदि ग्रन्थ साहिब की रचना का कार्य सम्पन्न हुआ। इस पवित्र ग्रन्थ में उन्होंने अपने से पहले चार गुरु साहिबान की वाणी, फिर भक्तों की वाणी तथा उसके पश्चात् भाटों की वाणी का संग्रह किया।

8. घोड़ों का व्यापार-गुरु जी ने सिक्खों को घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रेरित किया। इससे सिक्खों को निम्नलिखित लाभ हुए :

  • उस समय घोड़ों के व्यापार से बहुत लाभ होता था। परिणामस्वरूप सिक्ख धनी हो गए। अब उनके लिए दसवंद (1/10) देना कठिन न रहा।
  • इस व्यापार से सिक्खों को घोड़ों की अच्छी परख हो गई। यह बात उनके लिए सेना संगठन के कार्य में बड़ी काम आई।

9. धर्म प्रचार कार्य-गुरु अर्जन देव जी ने धर्म-प्रचार द्वारा भी अनेक लोगों को अपना शिष्य बना लिया। उन्होंने अपनी आदर्श शिक्षाओं, सद्व्यवहार, नम्र स्वभाव तथा सहनशीलता से अनेक लोगों को प्रभावित किया। उनके प्रभाव में आकर हज़ारों लोग उनके अनुयायी बन गए। इनमें कुछ मुसलमान भी सम्मिलित थे।

संक्षेप में, इतना कहना ही काफ़ी है कि गुरु अर्जन देव जी के काल में सिक्ख धर्म ने बहुत प्रगति की। आदि ग्रन्थ साहिब की रचना हुई, तरनतारन, करतारपुर तथा छहरटा अस्तित्व में आए तथा हरिमंदर साहिब सिक्ख धर्म की शोभा बन गया।

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प्रश्न 3.
आदि ग्रन्थ साहिब पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
उत्तर-
आदि ग्रन्थ साहिब सिक्खों का पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। वे इसका ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ कहकर आदर करते हैं। इस ग्रन्थ का संकलन श्री गुरु अर्जन देव जी ने किया था।
आदि ग्रन्थ साहिब की रचना (संकलन) के कारण-आदि ग्रन्थ साहिब का संकलन कई कारणों से किया गया-

1. गुरु अर्जन देव जी के पहले के चार गुरु साहिबान की रचनाएं बिखरी पड़ी थीं। गुरु अर्जन देव जी ने इन रचनाओं को सुरक्षित करने के लिए इनका संग्रह आवश्यक समझा।

2. गुरु अर्जन देव जी के बड़े भाई पृथिया ने सिक्ख गुरु साहिबान के नाम पर अनेक गीतों की रचना कर ली थी। अतः एक साधारण सिक्ख के लिए गुरु साहिबान के वास्तविक शबदों को ढूंढ़ना बड़ा कठिन हो गया था। इस बात को ध्यान में रखते हुए गुरु साहिबान की वास्तविक वाणी का संग्रह करना आवश्यक था।

3. गुरु अर्जन देव जी सिक्खों के पथ-प्रदर्शन के लिए कुछ विशेष नियम बनाना चाहते थे। अतः उनके मन में एक नियमपुस्तक तैयार करने का विचार उत्पन्न हुआ।

4. सिक्खों के पास अपनी लिपि तथा भाषा पहले ही थी। अब गुरु अर्जन देव जी ने यह अनुभव किया कि उन्हें उनकी बोलचाल की भाषा में एक धार्मिक ग्रन्थ दिया जाना चाहिए।

आदि ग्रन्थ साहिब की रचना-सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी के पुत्र बाबा मोहन गोइन्दवाल साहिब में पहले तीन गुरु साहिबान की रचनाओं को लिपिबद्ध कर रहे थे। यह रचनाएं प्राप्त करने के लिए गुरु अर्जन देव जी स्वयं नंगे पांव चलकर गोइन्दवाल साहिब गए। बाबा मोहन जी गुरु जी की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सारी वाणी गुरु अर्जन देव जी को सौंप दी। गुरु जी ने अनेक हिन्दू और मुसलमान विद्वानों को भी आदि ग्रन्थ साहिब की रचना में सहायता देने के लिए आमन्त्रित किया।

प्रारम्भिक तैयारी के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर से लगभग पांच मील दक्षिण की ओर एक एकान्त स्थान पर आदि ग्रन्थ साहिब की रचना का कार्य आरम्भ किया। 1604 ई० में यह कार्य मुकम्मल हो गया। इसको अमृतसर के हरिमंदर साहिब में प्रतिष्ठित किया गया। बाबा बुड्डा जी को वहां का पहला मुख्य ग्रन्थी नियुक्त किया गया।

विषय-वस्तु-आदि ग्रन्थ साहिब में पहले पांच सिक्ख गुरु साहिबान की बाणी सम्मिलित है। बाद में गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में गुरु तेग़ बहादुर जी की बाणी भी इसमें शामिल कर ली गई। इसमें कुछ हिन्द्र तथा मुसलमान सन्तों और फ़कीरों तथा प्रसिद्ध भाटों की रचनाएं भी शामिल हैं।

प्रश्न 4.
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान क्यों हुआ ? इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान मुग़ल सम्राट जहांगीर के समय में जून 1606 ई० को हुआ।
कारण-
(1) गुरु साहिब की शहीदी के पीछे मुख्यतः जहांगीर की कट्टर धार्मिक नीति का हाथ था। वह कट्टर मुसलमान था।

(2) गुरु जी द्वारा आदि ग्रन्थ साहिब की रचना ने जहांगीर के सन्देह को और बढ़ा दिया। गुरु जी के शत्रुओं ने जहांगीर को बताया कि आदि ग्रन्थ साहिब में इस्लाम धर्म के विरुद्ध काफ़ी कुछ लिखा गया है। यह सुनकर मुग़ल सम्राट का क्रोध काफ़ी बढ़ गया। उसने श्री गुरु अर्जन देव जी को कठोर शारीरिक कष्ट देने का आदेश जारी कर दिया। बाद में लाहौर के मुसलमान फकीर मियांमीर के प्रयत्नों से इस दण्ड को दो लाख रुपए के जुर्माने में बदल दिया गया। परन्तु गुरु जी ने जुर्माना देना स्वीकार नहीं किया। वह अपने धन का प्रयोग केवल निर्धनों एवं अनाथों की सेवा के लिए ही व्यय करना चाहते थे। अतः मुग़ल सम्राट ने क्रोध में आकर गुरु जी के लिए फिर से मृत्यु दण्ड का आदेश जारी कर दिया। सिक्ख परम्पराओं के अनुसार गुरु जी को क्रूर यातनाएं दी गईं। उनके शरीर पर गर्म रेत डाली गई और उन्हें उबलते पानी में डाला गया। कुछ विद्वानों के अनुसार गुरु जी ने यातनाओं के बीच रावी नदी में स्नान करने की इच्छा प्रकट की और वहां उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

शहीदी की प्रतिक्रिया-गुरु अर्जन देव जी की शहीदी से महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया हुई :

1. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पहले अपने पुत्र हरगोबिन्द के नाम यह सन्देश छोड़ा, “वह समय बड़ी तेजी से आ रहा है जब भलाई और बुराई की शक्तियों की टक्कर होगी। अतः मेरे पुत्र तैयार हो जा, आप शस्त्र पहन और अपने अनुयायियों को शस्त्र पहना। अत्याचारी का सामना तब तक करो जब तक कि वह अपने आपको सुधार न ले।” गुरु जी के इन अन्तिम शब्दों ने सिक्खों में सैनिक भावना को जागृत कर दिया।

2. गुरु जी की शहीदी से सिक्खों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंची और उनके मन में मुस्लिम राज्य के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई।

3. इस शहीदी से सिक्ख धर्म को लोकप्रियता मिली। सिक्ख अब अपने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिये तैयार हो गए। निःसन्देह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिक्ख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

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प्रश्न 5.
गुरु हरगोबिन्द जी की नई नीति का वर्णन करो।
अथवा
श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब की नई नीति की पांच मुख्य विशेषताएं बताइए।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के पश्चात् उनके पुत्र हरगोबिन्द जी सिक्खों के छठे गुरु बने। उन्होंने एक नई नीति को जन्म दिया। इस नीति का प्रमुख उद्देश्य सिक्खों को शान्ति-प्रिय होने के साथ निडर तथा साहसी बनाना था। गुरु साहिब द्वारा अपनाई गई नवीन नीति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं:

1. राजसी चिन्ह तथा ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण करना-नवीन नीति का अनुसरण करते हुए गुरु हरगोबिन्द जी ने ‘सच्चे पातशाह’ की उपाधि धारण की तथा अनेक राजसी चिन्ह धारण करने आरम्भ कर दिए। उन्होंने शाही वस्त्र धारण किए और सेली तथा टोपी की जगह दो तलवारें, छत्र और कलगी धारण कर ली। गुरु जी अब अपने अंगरक्षक भी रखने लगे।

2. मीरी तथा पीरी-गुरु हरगोबिन्द जी अब सिक्खों के आध्यात्मिक नेता होने के साथ-साथ उनके सैनिक नेता भी बन गए। वे सिक्खों के पीर भी थे और मीर भी। इन दोनों बातों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पीरी तथा मीरी नामक दो तलवारें धारण की। उन्होंने सिक्खों की शारीरिक उन्नति पर विशेष बल दिया। उन्होंने सिक्खों को व्यायाम करने, कुश्तियां लड़ने, शिकार खेलने तथा घुड़सवारी करने की प्रेरणा दी। इस प्रकार उन्होंने सन्त सिक्खों को सन्त सिपाहियों का रूप भी दे दिया।

3. अकाल तख्त का निर्माण-गुरु जी सिक्खों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के अतिरिक्त सांसारिक विषयों में भी उनका पथ-प्रदर्शन करना चाहते थे। हरिमंदर साहिब में वे सिक्खों को धार्मिक शिक्षा देने लगे। परन्तु सांसारिक विषयों में सिक्खों का पथ-प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने हरिमंदर साहिब के सामने एक नया भवन बनाया जिसका नाम अकाल तख्त (ईश्वर की गद्दी) रखा गया। इस प्रकार भवन के अन्दर निर्मित 12 फुट ऊंचे चबूतरे पर बैठकर वे सिक्खों की सैनिक तथा राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने लगे।

4. सेना का संगठन-गुरु हरगोबिन्द जी ने आत्मरक्षा के लिए सेना का संगठन किया। इस सेना में अनेक शस्त्रधारी सैनिक सम्मिलित थे। माझा के अनेक युद्ध प्रिय लोग गुरु जी की सेना में भर्ती हो गए। मोहसिन फ़ानी के मतानुसार, गुरु जी ने सेना में 800 घोड़े 300,घुड़सवार तथा 60 बन्दूकची थे। उनके पास 500 ऐसे स्वयं सेवक भी थे जो वेतन नहीं लेते थे। इसके अतिरिक्त पैंदे खां नामक पठान के अधीन पठानों की एक पृथक् सेना थी।

5. घोड़ों तथा शस्त्रों का संग्रह-गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी नवीन-नीति को अधिक सफल बनाने के लिए एक अन्य महत्त्वपूर्ण पग उठाया। उन्होंने अपने सिक्खों से आग्रह किया कि जहां तक सम्भव हो वे शस्त्र तथा घोड़े ही भेंट में दे। परिणामस्वरूप गुरु जी के पास काफ़ी मात्रा में सैनिक सामग्री इकट्ठी हो गई।

6. अमृतसर की किलेबन्दी-गुर जी ने सिक्खों की सुरक्षा के लिए रामदासपुर (अमृत्सर) के चारों ओर एक दीवार बनवाई । इस नगर में दुर्ग का निर्माण भी किया गया जिसे लोहगढ़ का नाम दिया गया। इस किले में काफ़ी सैनिक सामग्री रखी गई।

7. गुरु जी की दिनचर्या में परिवर्तन-गुरु हरिगोबिन्द जी की नवीन नीति के अनुसार उनकी दिनचर्या में भी कुछ परिवर्तन आए। नई दिनचर्या के अनुसार वे प्रातःकाल स्नान आदि करके हरिमंदर साहिब में धार्मिक उपदेश देने के लिए चले जाते थे और फिर अपने सैनिकों में प्रात:काल का भोजन बांटते थे। इसके पश्चात् वे कुछ समय के लिए विश्राम करके शिकार के लिए निकल पड़ते थे। गुरु जी ने अब्दुल तथा नत्थामल को जोशीले गीत ऊंचे स्वर में गाने के लिए नियुक्त किया। उन्होंने दुर्बल मन को सबल बनाने के लिए अनेक गीत मण्डलियां बनाईं। इस प्रकार गुरु जी ने सिक्खों में नवीन चेतना और नये उत्साह का संचार किया।

8. आत्मरक्षा की भावना-गुरु हरिगोबिन्द जी की नवीन नीति आत्मरक्षा की भावना पर आधारित थी। वह सैनिक बल पर न तो किसी के प्रदेश पर अधिकार करने के पक्ष में थे और न ही किसी पर ज़बरदस्ती आक्रमण करने के पक्ष में थे। यह सच है कि उन्होंने मुग़लों के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े। परन्तु इन युद्धों का उद्देश्य मुग़लों के प्रदेश छीनना नहीं था बल्कि उनसे अपनी रक्षा करना था।

प्रश्न 6.
(क) उन परिस्थितियों का वर्णन करो जो गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी थीं।
(ख) सिक्ख इतिहास में उनकी शहीदी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
(क) परिस्थितियां-गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी निम्नलिखित परिस्थितियों में हुई :

1. सिक्खों और मुग़लों में बढ़ता हुआ विरोध-अकबर के शासनकाल के बाद मुग़लों और सिक्खों के आपसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे, परन्तु जहांगीर के समय से मुग़लों और सिक्खों में आपसी शत्रुता शुरू हो गई। जहांगीर ने सिक्ख गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया था। अतः सिक्खों ने भी आत्मरक्षा के लिए शस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए थे। उनके शस्त्र धारण करते ही मुग़लों तथा सिक्खों में शत्रुता इतनी गहरी हो गई जो आगे चलकर गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का कारण बनी।

2. औरंगजेब की असहनशीलता की नीति-औरंगज़ेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने अपनी हिन्दू जनता पर अत्याचार करने शुरु कर दिए और उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए गए। उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने का प्रयास भी किया। औरंगज़ेब द्वारा निर्दोष लोगों पर लगाए जा रहे प्रतिबन्धों ने गुरु तेग़ बहादुर जी के मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे अपनी जान देकर भी इन अत्याचारों से लोगों की रक्षा करेंगे। आखिर उन्होंने यही किया।

3. सिक्ख धर्म का उत्साहपूर्ण प्रचार-गुरु नानक देव जी के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने भी स्थान-स्थान पर भ्रमण करके सिक्ख मत का प्रचार किया। औरंगज़ेब सिक्ख धर्म के इस प्रचार को सहन न कर सका। वह मन ही मन सिक्ख गुरु तेग़ बहादुर जी से ईर्ष्या करने लगा।

4. राम राय की शत्रुता-गुरु हरकृष्ण जी के भाई राम राय ने औरंगजेब से शिकायत की कि गुरु जी का धर्म प्रचार का कार्य राष्ट्र हित के विरुद्ध है। उसकी बातों में आकर औरंगजेब ने गुरु जी को सफ़ाई पेश करने के लिए मुग़ल दरबार में (दिल्ली) बुलाया और जहां गुरु जी ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

5. कश्मीरी ब्राह्मणों की पुकार-कुछ कश्मीरी ब्राह्मण मुग़ल अत्याचारों से तंग आ चुके थे। उन्हें कश्मीर का मुग़ल गवर्नर ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था। उन्होंने गुरु जी से यह प्रार्थना की कि वे उनकी रक्षा करें। ब्राह्मणों की दुःख भरी कहानी सुनकर गुरु जी ने कहा कि इस समय धर्म को बलिदान की आवश्यकता है। अतः उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि वे औरंगजेब से जाकर कहें कि “पहले हमारे गुरु साहिब को मुसलमान बनाओ, फिर हम सब लोग भी आपके धर्म को स्वीकार कर लेंगे।” इस प्रकार आत्म-बलिदान की भावना से प्रेरित होकर गुरु तेग़ बहादुर जी दिल्ली की ओर चल पड़े जहां उन्हें शहीद कर दिया गया।

(ख) शहीदी का महत्त्व-इतिहास में गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के महत्त्व को निम्नलिखित बातों के आधार पर जाना जा सकता है-

1. धर्म के प्रति बलिदान की परम्परा को बनाये रखना-गुरु तेग़ बहादुर जी ने धर्म के प्रति अपने जीवन का बलिदान देकर गुरु साहिबान के बलिदान की परम्परा को बनाए रखा। उनसे पहले गुरु अर्जन देव जी ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था।

2. खालसा की स्थापना- गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से गुरु गोबिन्द सिंह जी इस परिणाम पर पहुंचे कि जब तक भारत में मुग़ल राज्य रहेगा, तब धार्मिक अत्याचार समाप्त नहीं होंगे। मुग़ल अत्याचारों का सामना करने के लिए उन्होंने 1699 ई में आनन्दपुर साहिब में खालसा की स्थापना की।

3. मुग़लों के विरुद्ध घृणा तथा बदले की भावनाएं-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान से मुग़लों के अत्याचारों के विरुद्ध घृणा तथा बदले की भावनाएं भड़क उठीं।

4. मुग़ल साम्राज्य को धक्का-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने मुग़ल साम्राज्य की नींव हिला दी। गुरु गोबिन्द सिंह जी के वीर खालसा मुग़ल साम्राज्य से निरन्तर जूझते रहे जिससे मुग़लों की शक्ति को भारी धक्का पहुंचा।

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प्रश्न 7.
गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन तथा पूर्व खालसा काल में सफलताओं का सक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
निम्नलिखित पर नोट लिखिए :
(क) भंगानी तथा नादौन के युद्ध
(ख) खालसा की स्थापना।
उत्तर
गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के दसवें तथा अन्तिम गुरु थे। वे अद्भुत प्रतिभा के स्वामी थे। उनमें एक साथ अनेक योग्यताएं विद्यमान् थीं। वह एक महान् आध्यात्मिक नेता जन्मजात सेनानायक, कुशल संगठनकर्ता और प्रतिभाशाली विद्वान् थे। डॉ० इन्दु भूषण बैनर्जी के शब्दों में “गुरु गोबिन्द सिंह जी की गणना सभी युगों के सबसे महान् भारतीयों में की जानी चाहिए। वे नौवें गुरु तेग बहादुर जी के इकलौते पुत्र थे। इनका जन्म 22 दिसम्बर, 1666 ई० को पटना में हुआ। उनके बचपन के 6 वर्ष पटना में व्यतीत हुए।

शिक्षा तथा पिता की शहीदी- 1673 ई० में गुरु तेग बहादुर जी पटना से मक्खोवाल आ गए। वहां गोबिन्द राय जी को घुड़सवारी तथा युद्ध कला की शिक्षा दी गई। इन्होंने अरबी तथा फ़ारसी तथा गुरुमुखी का ज्ञान प्राप्त किया।

गोबिन्द राय अभी 9 वर्ष के ही थे कि इनके पिता गुरु तेग़ बहादुर को हिन्दू धर्म के लिए शहीदी देनी पड़ी। इस शहीदी का गोबिन्द राय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। गुरुगद्दी सम्भालते ही उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए सैनिक तैयारियां आरम्भ कर दी। डॉ० इन्दु भूषण बैनर्जी ने गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन को दो कालों में बांटा है-(क) पूर्व खालसा काल (ख) उत्तर खालसा काल।

(क) पूर्व खालसा काल (1675-1699) –

पूर्व खालसा काल में गुरु जी ने सर्वप्रथम अपनी एक सेना तैयार करनी आरम्भ की और कुछ ही समय में उन्होंने एक शक्तिशाली सेना तैयार कर ली। गुरु जी ने एक नगारा भी बनवाया जिसे रणजीत नगारा के नाम से पुकारा जाता था।

बिलासपुर का राजा भीमचन्द गुरु जी की बढ़ती हुई सैनिक शक्ति से घबरा उठा और वह उनके विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगा। श्रीनगर के राजा का ‘बिलासपुर से सम्बन्ध होने से दोनों की शक्ति बढ़ गई। यह बात नाहन के राजा मेदिनी प्रकाश के लिए चिन्ताजनक थी। उसने गुरु जी से सम्बन्ध बढ़ाने चाहे और गुरु जी को अपने यहां आमन्त्रित किया। गुरु जी ने उसके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया। वहां उन्होंने पौण्टा नामक किले का निर्माण करवाया। पौण्टा में गुरु जी ने फिर से सेना का संगठन आरम्भ कर दिया।

भंगानी तथा नादौन के युद्ध-1688 ई० में बिलासपुर के राजा भीमचन्द ने अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिल कर गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। पौण्टा से लगभग 6 मील दूर भंगानी के स्थान पर पहाड़ी राजाओं तथा सिक्खों में घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में पठान तथा उदासी सैनिक गुरु जी का साथ छोड़ गए। परन्तु ठीक इसी समय पर सढौरा का पीर बुद्धशाह गुरु जी की सहायता के लिए आ पहुंचा। उनकी सहायता से गुरु जी ने पहाड़ी राजाओं को बुरी तरह परास्त किया। यह गुरु जी की पहली महत्त्वपूर्ण विजय थी। भंगानी विजय के पश्चात् गुरु जी आनन्दपुर वापस आ गए। उन्होंने आनन्दपुर को अपना कार्य-क्षेत्र बनाया। उन्होंने लोहगढ़, केसगढ़, आनन्दगढ़ तथा फतेहगढ़ नामक चार दुर्गों का निर्माण भी करवाया।

उनकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर भीमचन्द तथा अन्य पहाड़ी राजाओं ने गुरु जी से मित्रता कर लेने में ही अपनी भलाई समझी। अब वे इतने निश्चिन्त हो गए कि उन्होंने मुग़ल सम्राट् को वार्षिक कर देना भी बन्द कर दिया। मुग़ल सम्राट् इसे सहन न कर सका। उसने सरहिन्द के मुग़ल गवर्नर को पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दिया। शीघ्र ही सरहिन्द के मुग़ल-गवर्नर ने अलिफ खां के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं तथा गुरु जी के विरुद्ध एक विशाल सेना भेज दी। कांगड़ा से 20 मील दूर नादौन के स्थान पर घमासान युद्ध हुआ। मुग़ल बुरी तरह पराजित हुए। कुछ समय पश्चात् सरहिन्द के गवर्नर ने गुरु जी के विरुद्ध एक बार फिर सेना भेजी, परन्तु अब भी उसे पराजय ही हाथ लगी। अन्त में औरंगजेब के बेटे राजकुमार मुअज्जम ने मिर्जाबेग के नेतृत्व में एक भारी सेना गुरु जी के विरुद्ध भेजी। गुरु जी ने मिर्जाबेग को भी पराजित कर दिया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना 1

खालसा की स्थापना-1699 ई० को वैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने आनन्दपुर साहिब में एक विशाल सभा बुलवाई। इस सभा में लगभग 80 हज़ार लोग शामिल हुए। जब सभी लोग अपने स्थान पर बैठ गए तो गुरु जी ने नंगी तलवार घुमाते हुए कहा-“क्या आप में कोई ऐसा सिक्ख है जो धर्म के लिए अपना सिर दे सके ?” सारी सभा में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने इस वाक्य को तीन बार दोहराया। तब लाहौर निवासी दयाराम ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। गुरु जी उसे शिविर में ले गए और खून से लथपथ तलवार लेकर बाहर आए। एक बार फिर उन्होंने बलिदान की मांग की। इस प्रकार यह मांग बार-बार दोहराई गई। क्रमश: धर्मदास, मोहकम चन्द, साहिब चन्द तथा हिम्मत राय ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। सिक्ख इतिहास में इन पांचों व्यक्तियों को पांच प्यारे’ कह कर पुकारा जाता है। गुरु जी ने दोधारी तलवार (खण्डा) से पाहुल तैयार करके इन पांचों व्यक्तियों को अमृत पान करवाया। इस प्रकार वे ‘खालसा’ कहलाए और सिंह बन गए। गुरु जी ने स्वयं भी उनके हाथों से अमृत पान किया। इस प्रकार वे भी गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंह बन गए। गुरु जी द्वारा खालसा की स्थापना के विषय में डॉ० इन्दू बनर्जी ने लिखा है-

“उन्होंने खालसा नामक एक नवीन संगठन को जन्म देकर भारतीय इतिहास में एक सक्रिय शक्ति का समावेश fanelli” (“He brought a new people (Khalsa) into being and released a new dynamic force into the arena of Indian History.”)

प्रश्न 8.
उत्तर खालसा काल में गुरु गोबिन्द सिंह जी की गतिविधियों एवं सफलताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी के जीवन की 1699 ई० के पश्चात् की अवधि उत्तर खालसा काल के नाम से प्रसिद्ध है। इस काल में गुरु साहिब की गतिविधियों एवं सफलताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

आनन्दपुर साहिब का प्रथम (1701 ई० ) तथा दूसरा युद्ध ( 1703 ई०)-खालसा की स्थापना से पहाड़ी राजा घबरा गए। अतः भीमचन्द ने अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर आनन्दपुर साहिब पर आक्रमण कर दिया। कम सैनिकों के होने पर भी गुरु जी ने उनका डटकर सामना किया। पहाड़ी राजा पराजित हुए। परन्तु कुछ समय पश्चात् पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों से सहायता प्राप्त करके आनन्दपुर साहिब पर एक बार फिर आक्रमण कर दिया। इस बार भी उन्हें कोई सफलता न मिली। विवश होकर उन्हें गुरु जी से सन्धि करनी पड़ी। पहाड़ी राजा सन्धि के बाद भी सैनिक तैयारियां करते रहे। उन्होंने गुजरों को अपने साथ मिला लिया। मुग़ल सम्राट ने भी उनकी, सहायता की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। 1703 ई० में सरहिन्द के गवर्नर वज़ीर खां ने सिक्खों की शक्ति को कुचलने के लिए एक विशाल सेना भेजी। सभी ने मिलकर आनन्दपुर साहिब को घेरा डाल दिया।

गुरु जी ने अपने वीर सिक्खों की सहायता से मुग़लों का डट कर सामना किया। परन्तु अन्त में गुरु जी को आनन्दपुर साहिब छोड़ना पड़ा। मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी का पीछा किया। जब वे सिरसा नदी पार कर रहे थे तो सेना में भगदड़ मच जाने के कारण गुरु जी की माता जी तथा उनके दो छोटे पुत्र जुझार सिंह तथा फतेह सिंह उनसे बिछुड़ गए। गुरु जी के पुराने रसोइए गंगू ने गुरु जी से विश्वासघात किया और गुरु पुत्रों को मुग़लों के हवाले कर दिया। सरहिन्द के सूबेदार वज़ीर खां ने उन्हें मुसलमान बनने को कहा, परन्तु निडर साहिबजादों ने अपना धर्म बदलने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें दीवार में चिनवा दिया गया और वे शहीदी को प्राप्त हुए।

चमकौर साहिब (1704 ई०) तथा खिदराना ( 1705 ई०) के युद्ध-सिरसा नदी को पार करके गुरु जी चमकौर पहुंचे। पहाड़ी राजाओं तथा मुग़ल सेनाओं ने उन्हें यहां भी आ घेरा। उस समय गुरु जी के साथ उनके दो पुत्र अजीत सिंह तथा जोरावर सिंह के अतिरिक्त केवल 40 सिक्ख थे। उन्होंने मुग़लों का डटकर सामना किया। गुरु जी के दोनों पुत्र और 35 सिक्ख सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। सिक्खों के प्रार्थना करने पर गुरु जी अपने 5 साथियों सहित माछीवाड़ा के जंगलों में चले गए। इसके बाद गुरु जी कोटकपूरा पहुंचे। मुग़ल सेना अब भी उनके पीछे थी। इसलिए कोटकपूरा के चौधरी ने गुरु जी को शरण देने से इन्कार कर दिया। गुरु जी वहां से सीधे खिदराना पहुंचे । यहा मुग़लों के साथ उनका अन्तिम युद्ध हुआ। इस युद्ध में वे चालीस सिक्ख भी गुरु जी से आ मिले जो आनन्दपुर साहिब के युद्ध में उनका साथ छोड़ गये थे। इस बार वे बड़ी वीरता से लड़े और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने इन शहीदों को अपनी पिछली भूल के लिए क्षमा कर दिया और उनकी मुक्ति के लिए प्रार्थना भी की । इसलिए खिदराना का नाम ‘श्री मुक्तसर साहिब’ पड़ गया।

ज्योति जोत समाना-गुरु जी ने अपने जीवन के अन्तिम कुछ वर्ष तलवण्डी साबो में व्यतीत किए। 1707 ई० में बहादुरशाह सम्राट् बना। वह गुरु साहिब को अपना मित्र समझता था क्योंकि उत्तराधिकार के युद्ध में गुरु साहिब ने उसकी सहायता की थी। 1708 ई० में गुरु जी बहादुर शाह के साथ दक्षिण की ओर गए। मार्ग में वह कुछ समय के लिए नांदेड नामक स्थान पर ठहरे। यहां एक पठान ने उन पर छुरे से वार कर दिया। अतः 1708 ई० को वे ज्योति जोत समा गए।

इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह जी का जीवन संघर्ष और बलिदान की एक अनोखी गाथा है। डॉ० हरि राम गुप्ता के शब्दों में, “गुरु साहिब के आदर्श तथा कारनामें उनकी पीढ़ी में ही लोगों के धार्मिक, सैनिक तथा राजनीतिक जीवन में एक परिवर्तन ले आये।”<sup>1</sup>

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 9.
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की नींव कैसे रखी ?
अथवा
खालसा पंथ की स्थापना के लिए कौन-सी परिस्थितियां उत्तरदायी थीं ?
उत्तर-
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना 1699 ई० में वैशाखी के दिन की। इसके लिए अनेक परिस्थितियां उत्तरदायी थीं :
(1) गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय में भारत की राजनीतिक दशा बड़ी शोचनीय थी। मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। गुरु जी यह सब देखकर बहुत दु:खी हुए। काफ़ी विचार के पश्चात् वे इस निर्णय पर पहुंचे कि मुग़लों के अत्याचारों से बचने के लिए स्थायी रूप से शस्त्र उठाना आवश्यक है। इसीलिए गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

(2) भारतीय समाज में अभी बहुत-सी बुराइयां चली आ रही थीं। इनमें से एक बुराई जाति-प्रथा थी। डॉ० गंडा सिंह के मतानुसार जाति-प्रथा राष्ट्रीय एकता के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बन गई थी। कई जातियों के लोगों में काफ़ी अन्तर आ चुका था। इस अन्तर को मिटाने के लिए ही गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

(3) खालसा की स्थापना से पहले गुरु गोबिन्द सिंह जी पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर अत्याचारी मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते थे। परन्तु शीघ्र ही गुरु जी को यह पता चल गया कि पहाड़ी राजाओं पर विश्वास करना ठीक नहीं है। अनेक अवसरों पर पहाड़ी राजा गुरु जी के विरुद्ध मुग़ल सरकार से जा मिले। ऐसी दशा में औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए अपने सैनिकों का दल होना आवश्यक था। अतः उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की।

(4) खालसा पंथ की स्थापना का एक और कारण सिक्ख धर्म की आन्तरिक दशा भी थी। रामराय और धीरमल के अनुयायी गुरु जी को बहुत तंग कर रहे थे। गुरु तेग़ बहादुर जी भी रामराइयों तथा धीरमल्लियों से तंग आकर आनन्दपुर साहिब चले गए थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी बुरे लोगों से सिक्ख धर्म की रक्षा करना चाहते थे। इसलिए भी उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की।

(5) गुरु अर्जन देव जी के समय में मसन्द भेंट इकट्ठा करने के साथ-साथ प्रचार कार्यों में बड़ी रुचि लेते थे। परन्त धीरे-धीरे मसन्द प्रथा में दोष आ गए। मसन्द भेंट से प्राप्त धन का दुरुपयोग करने लगे थे और अपने आपको स्वतन्त्र समझने लगे थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने यह अनुभव किया कि जब तक इस प्रथा का अन्त नहीं किया जाता तब तक सिक्ख धर्म उन्नति नहीं कर सकता । अतः गुरु जी ने मसन्दों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए नए वर्ग खालसा की स्थापना की।

पांच प्यारों का चुनाव- 1699 ई० में बैशाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ का निर्माण किया। इस वर्ष उन्होंने बैशाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में सिक्ख धर्म के अनुयायियों की एक महान् सभा बुलाई। इस सभा में विभिन्न प्रदेशों से 80,000 के लगभग लोग इकट्ठे हुए। जब सब लोग सभा में बैठ गए तो गुरु जी सभा में पधारे । उन्होंने तलवार को म्यान से निकाल कर घुमाया और ललकार कर कहा-“कोई ऐसा सिक्ख है जो धर्म के लिए अपना सीस भेंट कर सकता है। यह सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया। अन्त में दयाराम नामक एक क्षत्रिय ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। गुरु जी उसे समीप लगे एक तम्बू में ले गए । तंबू से बाहर आकर उन्होंने एक अन्य बलिदान की मांग की। इस बार दिल्ली निवासी धर्मदास ने अपने आपको भेंट किया। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने यह क्रम तीन बार फिर दोहराया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए क्रमश: मोहकम चन्द, साहिब चन्द तथा हिम्मत राय नामक तीन और व्यक्तियों ने अपने आपको बलिदान के लिए प्रस्तुत किया। यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि गुरु जी ने यह सब कुछ अपने अनुयायियों की परीक्षा लेने के लिए किया था। अन्त में गुरु जी पांचों व्यक्तियों को सभा के सामने लाए और उन्हें पांच प्यारे’ का नाम दिया।

खण्डे का पाहुल-गुरु जी ने पांच प्यारों का चुनाव करने के पश्चात् पांच प्यारों को अमृतपान करवाया जिसे ‘खण्डे का. पाहुल’ कहा जाता है। गुरु जी ने इन्हें आपस में मिलते समय ‘श्री वाहिगुरु जी का खालसा, श्री वाहिगुरु जी की फतेह’ कहने का आदेश दिया। इसी समय गुरु जी ने बारी-बारी पांचों प्यारों की आंखों तथा केशों पर अमृत के छींटे डाले और उन्हें (प्रत्येक प्यारे को) ‘खालसा’ का नाम दिया। सभी प्यारों के नाम के पीछे ‘सिंह’ शब्द जोड़ दिया गया। फिर गुरु जी ने पांच प्यारों के हाथ से स्वयं अमृत ग्रहण किया। इस प्रकार ‘खालसा’ का जन्म हुआ। गुरु जी का कथन था कि उन्होंने यह सब ईश्वर के आदेश से किया है। खालसा की स्थापना के अवसर पर गुरु जी ने ये शब्द कहे-“खालसा गुरु है और गुरु खालसा है। तुम्हारे और मेरे बीच अब कोई अन्तर नहीं है।”

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 11 श्री गुरु नानक देव जी और सिक्ख पंथ की स्थापना

प्रश्न 10.
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था ?
अथवा
खालसा की स्थापना सिख शक्ति के उत्थान में किस प्रकार सहायक सिद्ध हुई ? किन्हीं पांच तथ्यों के आधार पर इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर-
खालसा की स्थापना सिक्ख इतिहास की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। डॉ० हरिराम गुप्ता के शब्दों में “खालसा की स्थापना देश के धार्मिक तथा राजनीतिक इतिहास की एक युग-प्रवर्तक घटना थी।” (“The creation of the Khalsa was an epoch making event in the religious and political history of the country.”)

इस घटना का महत्त्व निम्नलिखित बातों से जाना जाता है :-
1. गुरु नानक देव जी द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्यों की पूर्ति-गुरु नानक देव जी ने सिक्ख धर्म की नींव रखी थी। उनके सभी उत्तराधिकारियों ने सिक्ख धर्म के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण काम किए। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का सृजन करके उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्य को सम्पन्न किया।

2. मसन्द प्रथा का अन्त-चौथे गुरु रामदास जी ने मसन्द प्रथा का आरम्भ किया था। कुछ समय तक मसन्दों ने सिक्ख धर्म के प्रचार तथा प्रसार में उल्लेखनीय योगदान दिया। परन्तु गुरु तेग़ बहादुर जी के समय तक मसन्द लोग स्वार्थी, लोभी तथा भ्रष्टाचारी हो गए। इसलिए गुरु गोबिन्द सिंह जी ने धीरे-धीरे मसन्द प्रथा का अंत कर दिया।

3. खालसा संगतों के महत्त्व में वृद्धि-गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने खालसा संगत को खण्डे का पाहुल छकाने का अधिकार दिया। उन्हें आपस में मिलकर निर्णय करने का अधिकार भी दिया गया। परिणामस्वरूप खालसा संगतों का महत्त्व बढ़ गया।

4. सिक्खों की संख्या में वृद्धि-गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्खों को अमृत छका कर खालसा बनाया। इसके उपरान्त गुरु साहिब ने यह आदेश दिया कि खालसा के कोई पाँच सिंह अमृत छका कर किसी को भी खालसा में शामिल कर सकते हैं। फलस्वरूप सिक्खों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होने लगी।

5. सिक्खों में नई शक्ति का संचार-खालसा की स्थापना से सिक्खों में एक नई शक्ति का संचार हुआ। अमृत छकने के बाद वे स्वयं को सिंह कहलाने लगे। सिंह कहलाने के कारण उनमें भय तथा कायरता का कोई अंश न रहा। वे अपना चरित्र भी शुद्ध रखने लगे। इसके अतिरिक्त खालसा जाति-पाति का भेदभाव समाप्त हो जाने से सिंहों में एकता की भावना मज़बूत हुई।

6. मुगलों का सफलतापूर्वक विरोध-गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का सृजन करके सिक्खों में वीरता तथा साहस की भावनाएं भर दीं। उन्होंने चिड़िया को बाज़ से तथा एक सिक्ख को एक लाख से लड़ना सिखाया। परिणामस्वरूप गुरु जी के सिक्खों ने 1699 ई० से 1708 ई० तक मुग़लों के साथ कई सफलतापूर्वक युद्ध लड़े।

7. गुरु साहिब के पहाड़ी राजाओं से युद्ध-खालसा की स्थापना से पहाड़ी राजा भी घबरा गए। विशेष रूप में बिलासपुर का राजा भीमचन्द गुरु साहिब की सैनिक कार्यवाहियों को देख कर भयभीत हो उठा। उसने कई अन्य पहाड़ी राजाओं से गठजोड़ करके गुरु साहिब की शक्ति को दबाने का प्रयास किया। अतः गुरु साहिब को पहाड़ी राजाओं से कई युद्ध करने पड़े।

8. सिक्ख सम्प्रदाय का पृथक स्वरूप-गुरु गोबिन्द सिंह जी के काल तक सिक्खों के अपने कई तीर्थ-स्थान बन गए थे। उनके लिए पवित्र ग्रन्थ ‘आदि ग्रन्थ’ साहिब का संकलन भी हो चुका था। वे अपने ही ढंग से तीज-त्योहार मनाते थे। अब खालसा की स्थापना से सिक्खों ने पाँच ‘ककारों’ का पालन करना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने बाहरी स्वरूप को भी जन-साधारण से अलग कर लिया।

9. हिन्दू धर्म की रक्षा-औरंगज़ेब हिन्दुओं पर अत्यधिक अत्याचार कर रहा था। खालसा के सिंह इन अत्याचारों का डट कर सामना करने लगे। खालसा से प्रभावित होकर देश के अन्य राज्यों के लोग भी औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म मिटने से बच गया।

10. अन्ध-विश्वासों का अन्त-खालसा हिन्दुओं में प्रचलित अन्ध-विश्वासों को नहीं मानता था। उन्होंने यज्ञ, बलि, व्रत, मूर्ति पूजा तथा अन्य कई अन्ध-विश्वासों से नाता तोड़ लिया। इस प्रकार खालसा की साजना से अंध-विश्वासों तथा अज्ञान का नाश हुआ।

11. सिक्खों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान-खालसा के संगठन से सिक्खों में वीरता, निडरता, हिम्मत तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ जागृत हो उठीं। परिणामस्वरूप उन्होंने गुरु जी के ज्योति जोत समाने के पश्चात् भी मुग़लों से संघर्ष जारी रखा। अंतत: बन्दा बहादुर के नेतृत्व में उन्होंने पंजाब के बहुत-से प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। बन्दा . बहादुर के बाद सिक्खों को भले ही भयंकर कष्टों और भीषण संकट से गुज़रना पड़ा, तो भी उन्होंने बड़े साहस तथा दृढ़ संकल्प का परिचय दिया। अंतत: पंजाब के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे स्वतन्त्र सिक्ख राज्य (मिसलें) स्थापित हो गए।
सच तो यह है कि खालसा की स्थापना ने ‘सिंहों’ को ऐसा अडिग विश्वास प्रदान किया जिसे कभी भी विचलित नहीं किया जा सकता।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules.

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

याद रखने योग्य बातें (TIPS TO REMEMBER)

  1. टेबल टेनिस खेल की किस्म = दो सिंगल और डबल
  2. टेबल टेनिस मेज़ की लम्बाई और चौड़ाई = 274 × 152.5 सैंटीमीटर
  3. खेलने वाले फर्श की ऊंचाई = 76 सैंटीमीटर
  4. खेलने वाले फर्श से जाल की ऊंचाई = 15.25 सेंटीमीटर
  5. जाल की लम्बाई = 183 सैंटीमीटर
  6. गेंद का वज़न = 2.5 ग्रेन से 2.7 ग्रेन
  7. गेंद किस वस्तु का बना होता है। = सेल्यूलाइड अथवा सफेद प्लास्टिक
  8. गेंद की परिधि = 40 सैंटीमीटर
  9. गेंद का रंग = सफेद
  10. मैच के अधिकारी = 1 रैफ़री, अम्पायर, 1 सहायक, 4 कार्नर जज
  11. गेमों के मध्य अन्तराल = 1 मिनट
  12. मैच के दौरान टाइम आउट = 1 मिनट
  13. रेखाओं की चौड़ाई = 2 सैं०मी०
  14. सतह को विभाजित करने वाली रेखा की चौड़ाई = 3 मि०मी०
  15. मेज़ का आकार = आयताकार
  16. मेज़ का रंग = पक्का हरा

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

टेबल टेनिस खेल की संक्षेप रूप-रेखा (Brief outline of the Table Tennis Game)

  1. टेबल टेनिस के मेज़ की लम्बाई 274 सैंटीमीटर और चौड़ाई 152.5 सैंटीमीटर होती है।
  2. टेबल टेनिस की खेल दो प्रकार की होती है-सिंगल्ज़ तथा डबल्ज़। सिंगल्ज़-इसमें कुल खिलाड़ी दो होते हैं। एक खिलाड़ी खेलता है तथा एक खिलाड़ी अतिरिक्त होता है। डबल्ज़-इसमें चार खिलाड़ी होते हैं, जिनमें से दो खेलते हैं तथा दो खिलाड़ी अतिरिक्त होते हैं।
  3. डबल्ज़ खेल के लिए खेलने की सतह (Playing Surface) को 3 सैंटीमीटर चौड़ी सफ़ेद रेखाओं द्वारा दो भागों में बांटा जाएगा।
  4. टेबल टेनिस की खेल में सिरों तथा सर्विस आदि के चुनाव का फैसला टॉस द्वारा किया जाता है।
  5. टॉस जीतने वाला सर्विस करने का फैसला करता है तथा टॉस हारने वाला सिरे का चुनाव करता है।
  6. सिंगल्ज़ खेल में 2 प्वाइंटों के बाद सर्विस बदल दी जाती है।
  7. मैच की अन्तिम सम्भव गेम में जब कोई खिलाड़ी या जोड़ी पहले 10 प्वाइंट कर ले तो सिरे बदल लिए जाते हैं।
    टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
  8. मैच एक पांच गेमों या सात गेमों में से सर्वोत्तम गेम होता है।
  9. टेनिस के टेबल की लाइनें सफेद होनी चाहिएं।
  10. टैनिस के टेबल का शेष भाग हरा और नीला होना चाहिए।

PSEB 11th Class Physical Education Guide टेबल टेनिस (Table Tennis) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
टेबल टेनिस के मेज़ का आकार कैसा होता है ?
उत्तर-
आयताकार।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
टेबल टेनिस मेज़ की ऊंचाई कितनी होती है ?
उत्तर-
टेबल टेनिस मेज़ की ऊँचाई 76 सेंटीमीटर होती है।

प्रश्न 3.
टेबल टेनिस मेज़ का रंग कैसा होता है ?
उत्तर-
पक्का हरा।

प्रश्न 4.
टेबल टेनिस खेल में कितने अधिकारी होते हैं ?
उत्तर-
रैफरी = 1, अम्पायर = 1, कार्नर जज = 4

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
टेबल टेनिस मैच में टास जीतने वाला खिलाड़ी सर्विस का चयन करता है या साइड का चयन करता
उत्तर-
टास जीतने वाला खिलाड़ी सर्विस या साइड दोनों में से एक का चयन कर सकता है।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB टेबल टेनिस (Table Tennis) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
टेबल टेनिस की खेल के सामान का संक्षेप वर्णन करें।
उत्तर-
मेज़ (Table)-मेज़ आयताकार होता है। इसकी लम्बाई 274 सैंटीमीटर तथा चौड़ाई 152.5 सेंटीमीटर होती है। इसकी ऊपरी सतह फर्श से 76 सैंटीमीटर ऊंची होगी। मेज़ किसी भी पदार्थ से निर्मित हो सकता है, परन्तु उसके धरातल पर 30.5 सेंटीमीटर की ऊंचाई से कोई प्रामाणिक गेंद फैंकने पर एक सार ठप्पा खाएगी जो 22 सैंटीमीटर से कम तथा 25 सैंटीमीटर से अधिक ऊंचा नहीं होना चाहिए। मेज़ के ऊपरी धरातल को क्रीड़ा तल (Playing Surface) कहते हैं। यह गहरे हल्के रंग का होता है। इसके प्रत्येक किनारे 42 सैंटीमीटर चौड़ी श्वेत रेखा होगी, 152.2 सैं० मी० के किनारे वाली रेखाएं अन्त रेखाएं तथा 23.4 सैंटीमीटर किनारे की रेखाएं पार्श्व (साइड) रेखाएं कहलाती हैं। डबल्ज़ खेल में मेज़ की सतह 3 मिलीमीटर चौड़ी सफेद रेखा दो भागों में विभक्त होती है जो साइड रेखा के समान्तर तथा प्रत्येक के समान दूरी पर होती है, इसे केन्द्र रेखा कहते हैं।
Class 11 Physical Education Practical टेबल टेनिस (Table Tennis) 2
जाल (Net) जाल की लम्बाई 183 सैं० मी० होती है। इसका ऊपरी भाग क्रीड़ा तल (Playing Surface) से 15.25 सैं० मी० ऊंचा होता है। यह रस्सी द्वारा 15.25 सैं० मी० ऊंचे सीधे खड़े डण्डों से बांधा होता है। प्रत्येक डण्डे की बाहरी सीमा उसी पार्श्व रेखा अर्थात् 15.25 सैंटीमीटर से बाहर की ओर होती है।

गेंद (Ball)-गेंद गोलाकार होती है। यह सैल्यूलाइड अथवा प्लास्टिक की सफ़ेद पीली परन्तु प्रतिबिम्बहीन होती है। इसका व्यास 37.2 मिलीमीटर से कम तथा 40 मि० मी० से अधिक नहीं होता। इसका भार 2.5 ग्रेन से कम तथा 2.7 ग्रेन से अधिक नहीं होता।
रैकेट (Racket) रैकेट किसी भी आकार या भार का हो सकता है। इसका तल गहरे रंग का होना चाहिए। यह खेल 21 अंक का होता है।

टेबल टेनिस (Table Tennis) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
टेबल टेनिस खेल में निम्नलिखित से आपका क्या भाव है ?
(1) टेबल का कम
(2) बाल खेल में
(3) अच्छी सर्विस
(4) अच्छी वापिसी
(5) लैट।
उत्तर-
खेल का क्रम (Order of Play) एकल (Single) खेल में सर्विस करने वाला (सर्वर) लगातार पांच वार सर्विस करता है, चाहे उसका अंक बने या न बने। उसके पश्चात् सर्विस दूसरे खिलाड़ी को मिलती है। इस तरह उसे भी पांच सर्विस करने का हक मलता है। इस तरह हर पांच सर्विस करने के बाद सर्विस में तबदीली होती है।
Class 11 Physical Education Practical टेबल टेनिस (Table Tennis) 3
दोकल (Double)-खेल में सर्वर सर्विस करता है तथा रिसीवर अच्छी वापसी करेगा। सर्वर का साथी फिर बढ़िया वापसी करेगा और बारी-बारी प्रत्येक खिलाड़ी उसी क्रम से बढ़िया वापसी करेंगे।

उत्कृष्ट (अच्छी) सर्विस (Good Service)-सर्विस में गेंद का सम्पर्क करता हुआ मुक्त हाथ खुला, अंगुलियां जुड़ी हुईं तथा अंगूठा मुक्त रहेगा और क्रीड़ा तल के लेवल के द्वारा सर्वर गेंद को ला कर हवा में इस प्रकार सर्विस शुरू करेगा कि गेंद हर समय निर्णायक को नज़र आए।
गेंद फिर इस प्रकार प्रहारित होगी कि सर्वप्रथम सर्वर का स्पर्श करके सीधे जाल के ऊपर या आस-पास पार करती हुई पुनः प्रहारक के क्षेत्र का स्पर्श कर ले।

दोकल (Double)-खेल में गेंद पहले सर्वर का दायां अर्द्धक या उसके जाल की ओर की केन्द्र रेखा स्पर्श करके जाल के आस-पास या सीधे ऊपर से गुज़र कर प्रहारक के दायें अर्द्धक या उसके जाल की ओर केन्द्र रेखा स्पर्श करे।

उत्कृष्ट (अच्छी) वापसी (A Good Return)-सर्विस या निवर्तन (Return) की हुई गेंद खिलाड़ी द्वारा इस प्रकार प्रहारित की जाएगी कि वह सीधे जाल को पार करके या चारों ओर पार करके विरोधी के क्षेत्र को स्पर्श कर ले।
बाल खेल में (Ball in Play)-सर्विस में हाथ द्वारा आगे को बढ़ाने के क्षण में गेंद खेल में मानी जाएगी जब तक कि—

  1. गेंद एक क्षेत्र में दो बार स्पर्श नहीं कर लेती।
  2. वह किसी खिलाड़ी को या उसके वस्त्र को छू नहीं लेती।
  3. वह किसी खिलाड़ी द्वारा एक से अधिक बार लगातार प्रहारित नहीं हो जाती।
  4. सर्विस को छोड़ कर वह प्रत्येक क्षेत्र को रैकेट तुरन्त प्रहारित किए बिना एकान्तर से स्पर्श नहीं कर लेती।
  5. बिना टप्पा खाए आती है।
  6. वह जाल तथा उसकी टेकों (Supports) को छोड़ कर किसी अन्य वस्तु से छू जाए।
  7. दोकल (Double) खेल की सर्विस में सर्वर या रिसीवर की बाईं कोर्ट को छू ले।
  8. डबल्ज़ खेल में यदि टीम से बाहर के खिलाड़ी ने प्रहार किया हो।

लैट (Let)-विराम लैट होता है—

  1. अच्छी सर्विस होने पर गेंद यदि जाल पार करते समय जाल या उसकी टेकों को छू जाती है।
  2. जब सर्विस प्राप्तकर्ता या उसके साथी के तैयार न होने की अवस्था में सर्विस कर दी जाए।
  3. यदि किसी दुर्घटना के कारण कोई खिलाड़ी अच्छी सर्विस या रिटर्न करने से रुक जाता है।
  4. यदि किसी त्रुटि को दूर करने के लिए खेल रोका जाता है।

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प्रश्न 3.
टेबल टेनिस खेल में अंक कैसे मिलते हैं और खिलाड़ी कैसे विजय होता है ?
उत्तर-
अंक (Points)-नियम 9 में दी गई स्थिति को छोड़ कर कोई भी खिलाड़ी अंक खो देगा—

  1. यदि वह अच्छी सर्विस करने में असफल रहता है।
  2. यदि विपक्षियों में से किसी एक द्वारा सर्विस या अच्छी रिटर्न होते पर वह अच्छी रिटर्न में असफल हो जाए।
  3. यदि किसी खिलाड़ी या गेंद के खेल में रहते हुए क्रीड़ा तल को हिला दे।
  4. यदि उसका मुक्त हाथ गेंद के खेल में रहते हुए क्रीड़ा तल का स्पर्श कर ले।
  5. यदि गेंद खेल में आने से पूर्व अन्त रेखा या पार्श्व रेखा पार करती हुई उनकी ओर की मेज़ के क्रीड़ा तल को स्पर्श नहीं कर पाई है।
  6. यदि गेंद बिना टप्पा खाये लौटता है।
  7. दोकल खेल (Double) में यदि वह उचित अनुक्रम के बिना गेंद को प्रहारित नहीं करता।

जब कोई खिलाडी सर्विस करता है या कोई स्ट्रोक मारता है तो उसकी तरफ से खेली गई गेंद विरोधी तरफ से टप्पा खाने की बजाए सीधी उसके रैकेट को लगती है तो उस अवस्था में टेकन होता है जो अंक या स्ट्रोक मारने वाले को मिलता है।

खेल (Game)-खेल उस खिलाड़ी या जोड़े द्वारा जीती हुई मानी जाएगी जो पहले 11 अंक बना लेगा। यदि दोनों खिलाड़ी जोड़े 10 अंक बना लेते हैं तो उस वक्त दोनों खिलाड़ी या जोड़े को क्रमवार एक-एक सर्विस करने के लिए सुचेत किया जाता है जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले दो अंक विरोधी से अधिक बना लेगा वह विजयी कहलाएगा।

मैच (Match)-मैच एक गेम, तीन गेम या पांच गेम का होगा। खेल निरन्तर जारी रहेगा, जब तक कोई खिलाड़ी या युगल विश्राम के लिए नहीं कहता। यह विश्राम पांच खेल वाले में से तीसरी और चौथी खेल के बीच पांच मिनट से अधिक नहीं होगा। अन्तरवर्ती क्षेत्रों में विश्राम एक मिनट से अधिक नहीं होगा।

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प्रश्न 4.
टेबल टेनिस में दिशा और सर्विस का चुनाव कैसे होता है ? दिशा परिवर्तन कैसे होता है ? सर्विस और रसीव करने की ग़लतियों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
दिशा और सर्विस का चुनाव (Selection of side and service)-प्रत्येक मैच में दिशा का चुनाव तथा सर्वर या प्रहारक बनने का अधिकार चुनता है तो विपक्षी को दिशा चुनने का अधिकार होगा। यह रीति विपरीत क्रम में भी रहेगी। टॉस जीतने वाला यदि चाहे तो विपक्षी को प्रथम चयन का अधिकार दे सकता है।

दोकल (Double)-खेल में जिस जोड़े को पहले सर्विस करने का अधिकार होगा वह निश्चित करेगा कि किस साथी को ऐसा करना है। इसी प्रकार मैच के प्रथम खेल में विपक्षी जोड़ा भी यह निश्चित करेगा कि किस साथी खिलाड़ी ने पहले सर्विस प्राप्त करनी है।

दिशा परिवर्तन तथा सर्विस
(Change of Ends and Service)
खेल में एक दिशा से प्रारम्भ करने वाला खिलाड़ी या जोड़ा उससे अगले खेल में दूसरी ओर से प्रारम्भ करेगा। यह क्रम मैच के अन्त तक जारी रहेगा। मैच के अन्तिम खेल में जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले 5 फलांकन बना लेगा वह दिशा परिवर्तन कर सकता है। एकल (Single) खेल में 2 अंक के पश्चात् रिसीवर सर्वर बन जाएगा और सर्वर रिसीवर और यही क्रम मैच के अन्त तक जारी रहेगा (नीचे दी हुई स्थिति को छोड़ कर)।

दोकल खेल में पहली 2 सर्विस उस जोड़े के चुने हुए साथी द्वारा होगी जिन्हें निर्णय का अधिकार या विपक्षी जोड़े के चुने हुए साथी द्वारा प्राप्त की जाएगी। दूसरी 2 सर्विस, प्रथम 2 सर्विस प्राप्त करने वाला प्रहार करेगा तथा पहली 2 सर्विस करने वाला सर्वर उन्हें प्राप्त करेगा। तीसरी 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस करने वाला सर्वर का साथी करेगा तथा प्रथम 2 सर्विस प्राप्त करने वाला प्रहारक का साथी उन्हें प्राप्त करेगा। चौथी 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस करने वाला प्रहारक का साथी करेगा तथा प्रथम 2 सर्विस करने वाला सर्वर उन्हें प्राप्त करेगा। पांचवीं 2 सर्विस प्रथम 2 सर्विस के समान संक्रमिन होगी। खेल इसी क्रम में जारी रहेगा जब तक खेल समाप्त नहीं हो (नीचे दी हुई स्थिति को छोड़ कर) जाता।

फलांकन के 10 अंक होने पर या खेल के एकस्पिडाइट पद्धति के अन्तर्गत खेले जाने पर सर्विस और प्रहार करने का क्रम वही रहेगा, किन्तु खेल के अन्त तक प्रत्येक खिलाड़ी बारी-बारी से केवल एक सर्विस करेगा जो खिलाड़ी या जोड़ा पहले खेल में सर्विस करेगा वह उससे अगले खेल में सर्विस प्राप्त करेगा।

‘दोकल’ मैच के अन्तिम खेल में 5 फलांकन पर जोड़े दिशा परिवर्तन कर लेंगे। इस तरह सिगल्ज़ में भी अन्तिम गेंद में 10 अंक खेलने के बाद दिशा बदल जाती है।

दिशा में सर्विस अनियमतता (Out of orders of Ends of Service) यदि कोई खिलाड़ी समय पर दिशा परिवर्तन नहीं करते तो वे त्रुटि ज्ञात होते ही दिशाएं बदलेंगे, जब तक कि त्रुटि के बाद खेल समाप्त न हो चुका हो। तब त्रुटि की उपेक्षा कर दी जाएगी। किसी भी परिस्थिति में त्रुटि ज्ञात होने से पूर्व वे सब बनाए हुए अंक माने जाएंगे।

यदि कोई खिलाड़ी अपनी बारी के बिना सर्विस करता है तो त्रुटि ज्ञात होते ही खेल रोक दिया जाएगा और खेल उस खिलाड़ी की सर्विस या प्राप्ति द्वारा पुनः जारी किया जाएगा जिस खेल के प्रारम्भिक क्रम के अनुसार करनी चाहिए थी या फलांकन के 5 पर पहुंचने पर। यदि नियम 14 के अंतर्गत उस क्रम में परिवर्तन हो गया तो उसी क्रम के अनुसार उसे सर्विस करनी या प्राप्त करनी चाहिए। किसी भी परिस्थिति में त्रुटि होने से पूर्व के सब बनाये हुए अंक माने जाएंगे।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

Punjab State Board PSEB 11th Class Sociology Book Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Sociology Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1-15 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में बांटे जाने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के चार रूप हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी व दासता।

प्रश्न 3.
सामाजिक स्तरीकरण के तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
यह सर्वव्यापक है, यह सामाजिक है, इसमें असमानता होती है तथा प्रत्येक समाज में इसका अलग आधार होता है।

प्रश्न 4.
जागीर व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
मध्यकालीन यूरोप की वह व्यवस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीरदार बनाकर उसे लगान एकत्र करने की आज्ञा दी जाती थी।

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प्रश्न 5.
शब्द ‘जाति’ कहां से लिया गया है ?
उत्तर-
शब्द जाति (Caste) स्पैनिश तथा पुर्तगाली शब्द Caste से निकला है जिसका अर्थ है प्रजाति या वंश।

प्रश्न 6.
वर्ण व्यवस्था क्या है ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज की वह व्यवस्था जिसमें समाज को पेशे के आधार पर चार भागों में विभाजित कर दिया जाता था।

प्रश्न 7.
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्धता स्थितियों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्राचीन समय के हिन्दू समाज के चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र।

प्रश्न 8.
छुआ-छूत से तुम क्या समझते हो ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था के समय अलग-अलग जातियों को एक-दूसरे को स्पर्श करने की मनाही थी जिसे अस्पृश्यता कहते थे।

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प्रश्न 9.
कुछ सुधारकों के नाम लिखो जिन्होंने छुआ छूत के खिलाफ विरोध प्रकट किया ।
उत्तर-
राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फूले, महात्मा गांधी, डॉ० बी० आर० अंबेदकर इत्यादि।

प्रश्न 10.
वर्ग क्या है ?
उत्तर-
वर्ग लोगों का वह समूह है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है जैसे कि पैसा, पेशा, सम्पत्ति इत्यादि।

प्रश्न 11.
वर्ग व्यवस्था के किस्सों के नाम लिखो।
उत्तर-
मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग पाए जाते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग।

प्रश्न 12.
मार्क्स ने कौन-से वर्गों का वर्णन किया है ?
उत्तर-
पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग।

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II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30-35 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक असमानता क्या है ?
उत्तर-
जब समाज के सभी व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के मौके प्राप्त न हों, उनमें जाति, जन्म, प्रजाति, रंग, पैसा, पेशे के आधार पर अंतर हो तथा अलग-अलग समूहों में अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता हो तो इसे असमानता का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. जाति-जाति स्तरीकरण का एक रूप है जिसमें अलग-अलग जातियों के बीच स्तरीकरण पाया जाता है।
  2. वर्ग-समाज में बहुत से वर्ग पाए जाते हैं तथा उनमें अलग-अलग आधारों पर अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा व्यक्ति योग्यता होते हुए भी इसे बदल नहीं सकता है।
  2. जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था तथा अलग-अलग जातियों के बीच विवाह करवाने की पांबदी थी।

प्रश्न 4.
अन्तर्विवाह क्या है ?
उत्तर-
अन्तर्विवाह विवाह करवाने का ही एक प्रकार है जिसके अनुसार व्यक्ति को अपने समूह अर्थात् जाति या उपजाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस कारण सभी अपने समूह में ही विवाह करवाते थे।

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प्रश्न 5.
प्रदूषण तथा शुद्धता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का क्रम पवित्रता तथा अपवित्रता के संकल्प के साथ जुड़ा हुआ था। इसका अर्थ है कि कुछ जातियों को परंपरागत रूप से शुद्ध समझा जाता था तथा उन्हें समाज में उच्च स्थिति प्राप्त थी। कुछ जातियों को प्रदूषित समझा जाता था तथा उन्हें सामाजिक व्यवस्था में उन्हें निम्न स्थान प्राप्त था।

प्रश्न 6.
औद्योगीकरण तथा नगरीकरण पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
औद्योगीकरण का अर्थ है देश में बड़े-बड़े उद्योगों का बढ़ाना। जब गांवों के लोग नगरों की तरफ जाएं तथा वहां रहने लग जाए तो इस प्रक्रिया को नगरीकरण कहा जाता है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

प्रश्न 7.
वर्ग व्यवस्था की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतना होती है कि उसका पद अथवा सम्मान दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है।
  2. इसमे लोग अपनी ही श्रेणी के सदस्यों के साथ गहरे संबंध रखते हैं तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उनके संबंध सीमित होते हैं।

प्रश्न 8.
नई मध्यम वर्ग पर संक्षिप्त रूप में लिखो।
उत्तर-
पिछले कुछ समय से समाज में एक नया मध्य वर्ग सामने आया है। इस वर्ग में डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर, अध्यापक, छोटे-मोटे व्यापारी, नौकरी पेशा लोग होते हैं। उच्च वर्ग इस मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।

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III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 75-85 शब्दों में दीजिए :

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-

  1. स्तरीकरण एक सर्वव्यापक प्रक्रिया है। कोई भी मानवीय समाज ऐसा नहीं जहां स्तरीकरण की प्रक्रिया न पाई जाती हो।
  2. स्तरीकरण में समाज के प्रत्येक सदस्य की स्थिति समान नहीं होती। किसी की स्थिति उच्च तथा किसी
    की निम्न होती है।
  3. स्तरीकरण में समाज का विभाजन विभिन्न स्तरों में होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती है। वर्गों में उच्चता निम्नता के संबंध होते हैं।
  4. चाहे इसमें अलग-अलग स्तरें होती हैं परन्तु उन स्तरों में आपसी निर्भरता भी पाई जाती है।

प्रश्न 2.
किस प्रकार वर्ग सामाजिक स्तरीकरण से संबंधित है ?
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण से वर्ग हमेशा ही संबंधित रहा है। अलग-अलग समाजों में अलग-अलग वर्ग पाए जाते हैं। चाहे प्राचीन समाज हों या आधुनिक समाज, इनमें अलग-अलग आधारों पर वर्ग पाए जाते हैं। यह आधार पेशा, पैसा, जाति, धर्म, प्रजाति, भूमि इत्यादि होते हैं। इन आधारों पर कई प्रकार के वर्ग मिलते हैं।

प्रश्न 3.
जाति तथा वर्ग व्यवस्था में अंतर बताइए।
उत्तर-

वर्ग- जाति-
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी।
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी।
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं।
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी।
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है।

प्रश्न 4.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के चार कारक लिखो।
उत्तर-

  1. भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
  2. भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
  3. देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
  4. नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।

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प्रश्न 5.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख रूपों के रूप में जाति तथा वर्ग के बीच अंतर बताइए।
उत्तर-

वर्ग- जाति-
(i) वर्ग के सदस्यों की व्यक्तिगत योग्यता से उनकी सामाजिक स्थिति बनती है। (i) जाति में व्यक्तिगत योग्यता का कोई स्थान नहीं होता था तथा सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर होती थी।
(ii) वर्ग की सदस्यता हैसियत, पैसे इत्यादि के आधार पर होती है। (ii) जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी।
(iii) वर्ग में व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता होती है। (iii) जाति में व्यक्ति के ऊपर खाने-पीने, संबंधों इत्यादि का बहुत-सी पाबंदियां होती थीं।
(iv) वर्गों में आपसी दूसरी काफ़ी कम होती है। (iv) जातियों में आपसी दूरी काफ़ी अधिक होती थी।
(v) वर्ग व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धान्त पर आधारित है। (v) जाति व्यवस्था प्रजातंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध है।

 

IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 250-300 शब्दों में दें :

प्रश्न 1.
स्तरीकरण को परिभाषित करो। सामाजिक स्तरीकरण की क्या विशेषताएं हैं ?
उत्तर-
जिस प्रक्रिया के द्वारा हम व्यक्तियों तथा समूहों को स्थिति पदक्रम के अनुसार स्तरीकृत करते हैं उसको स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। शब्द स्तरीकरण अंग्रेजी भाषा के शब्द Stratification का हिन्दी रूपान्तर है जिसमें strata का अर्थ है स्तरें (Layers) । इस शब्द की उत्पत्ति लातीनी भाषा के शब्द Stratum से हुई है। इस व्यवस्था के द्वारा सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए अलग-अलग स्तरों में बांटा हुआ है। कोई भी दो व्यक्ति, स्वभाव या किसी और पक्ष से, एक समान नहीं होते हैं। इस असमानता की वजह से उनमें कार्य करने की योग्यता का गुण भी अलग होता है। इस वजह से असमान गुणों वाले व्यक्तियों को अलग-अलग वर्गों में बांटने से हमारा समाज व्यवस्थित रूप से कार्य करने लग जाता है। व्यक्ति को विभिन्न स्तरों में बांट कर उनके बीच उच्च या निम्न सम्बन्धों का वर्णन किया जाता है। चाहे उनकी स्थिति के आधार पर सम्बन्ध उच्च या निम्न होते हैं परन्तु फिर भी वह एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इस उच्चता तथा निम्नता की अलग-अलग वर्गों में विभाजन को स्तरीकरण कहा जाता है।

अलग-अलग समाजों में स्तरीकरण भी अलग-अलग पाया जाता है। ज्यादातर व्यक्तियों को पैसे, शक्ति, सत्ता के आधार पर अलग किया जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ अलग-अलग सामाजिक समूहों को अलग-अलग भागों में बांटने से होता है। सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा अलग-अलग समाजशास्त्रियों ने दी है जिसका वर्णन इस प्रकार है-

1. किंगस्ले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार, “सामाजिक असमानता अचेतन रूप से अपनाया गया एक ऐसा तरीका है जिसके द्वारा विभिन्न समाज यह विश्वास दिलाते हैं कि सबसे ज्यादा पदों को चेतन रूप से सबसे ज्यादा योग्य व्यक्तियों को रखा गया है। इसलिए प्रत्येक समाज में आवश्यक रूप से असमानता तथा सामाजिक स्तरीकरण रहना चाहिए।”

2. सोरोकिन (Sorokin) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज की जनसंख्या का उच्च तथा निम्न पदक्रमात्मक तौर पर ऊपर आरोपित वर्गों में विभेदीकरण से है। इसको उच्चतम तथा निम्नतम सामाजिक स्तरों के विद्यमान होने के माध्यम से प्रकट किया जाता है। इस सामाजिक स्तरीकरण का सार तथा आधार समाज विशेष के सदस्यों में अधिकार तथा सुविधाएं, कर्तव्यों तथा ज़िम्मेदारियों, सामाजिक कीमतों तथा अभावों, सामाजिक शक्तियों तथा प्रभावों के असमान वितरण से होता है।”

3. पी० गिज़बर्ट (P.Gisbert) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों या वर्गों में बाँटने की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह उच्चता तथा अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च तथा निम्न अलग-अलग समूहों तथा व्यक्तियों की भूमिकाओं तथा पदों को निर्धारित करता है। इसमें जन्म, जाति, पैसा, लिंग, शक्ति इत्यादि के आधार पर तथा व्यक्तियों में पाए जाने वाले पदक्रम को दर्शाया जाता है। विभिन्न समूहों में उच्चता तथा निम्नता के सम्बन्ध पाए जाते हैं तथा व्यक्ति की स्थिति का समाज में निश्चित स्थान होता है। इसी के आधार पर व्यक्ति को समाज में सम्मान प्राप्त होता है।

स्तरीकरण की विशेषताएं या लक्षण (Features or Characteristics of Stratification)-

1. स्तरीकरण सामाजिक होता है (Stratification is Social) विभिन्न समाजों में स्तरीकरण के आधार अलग-अलग होते हैं। जब भी हम समाज में पाई जाने वाली चीज़ को दूसरी चीज़ से अलग करते हैं तो जब तक उस अलगपन को समाज के बाकी सदस्य स्वीकार नहीं कर लेते उस समय तक उस विभिन्नता को स्तरीकरण का आधार नहीं माना जाता। कहने का अर्थ है कि जब तक समूह के व्यक्ति स्तरीकरण को निर्धारित न करें उस समय तक स्तरीकरण नहीं पाया जा सकता। हम स्तरीकरण को उस समय मानते हैं जब समाज के सभी सदस्य असमानताओं को मान लेते हैं। इस तरह सभी के मानने के कारण हम कह सकते हैं कि स्तरीकरण सामाजिक होता

2. स्तरीकरण सर्वव्यापक प्रक्रिया है (Stratification is a Universal Process)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया हरेक समाज में पाई जाती है। यदि हम प्राचीन भारतीय कबाइली या किसी और समाज की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि कुछ न कुछ भिन्नता तो उस समय भी पाई जाती थी। लिंग की भिन्नता तो प्राकृतिक है जिसके आधार पर व्यक्तियों को बाँटा जा सकता है। आधुनिक तथा जटिल समाज में तो स्तरीकरण के कई आधार हैं। कहने का अर्थ यह है कि स्तरीकरण के आधार चाहे अलग-अलग समाजों में अलग-अलग रहे हैं, परन्तु स्तरीकरण प्रत्येक समाज में सर्वव्यापक रहा है। .

3. अलग-अलग वर्गों की असमान स्थिति (Inequality of status of different classes)-सामाजिक स्तरीकरण में व्यक्तियों की स्थिति या भूमिका समान नहीं होती है। किसी की सब से उच्च, किसी की उससे कम तथा किसी की बहुत निम्न होती है। व्यक्ति की स्थिति सदैव एक समान नहीं रहती। उसमें परिवर्तन आते रहते हैं। कभी वह उच्च स्थिति पर पहुंच जाता है तथा कभी निम्न स्थिति पर। कहने का अर्थ है कि व्यक्ति की स्थिति में असमानता पाई जाती है। यदि किसी की स्थिति पैसे के आधार पर उच्च है तो किसी की इस आधार पर निम्न होती है।

4. उच्चता तथा निम्नता का सम्बन्ध (Relation of Upper and Lower Class)-स्तरीकरण में समाज को विभिन्न स्तरों में बांटा होता है जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती हैं। मुख्य रूप से समाज को दो भागों में बांटा होता है-उच्चतम तथा निम्नतम । समाज में एक तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति उच्च होती है तथा दूसरी तरफ वह लोग होते हैं जिनकी स्थिति निम्न होती है। इनके बीच भी कई वर्ग स्थापित हो जाते हैं जैसे कि मध्यम उच्च वर्ग, मध्यम निम्न वर्ग। परन्तु इनमें उच्च तथा निम्न का सम्बन्ध ज़रूर होता है।

5. स्तरीकरण अन्तक्रियाओं को सीमित करती है (Stratification restricts interaction)-स्तरीकरण की प्रक्रिया में अन्तक्रियाएं विशेष स्तर तक ही सीमित होती हैं। साधारणतः हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही सम्बन्ध स्थापित करता है। इस वजह से वह अपने दिल की बात उनसे share करता है। व्यक्ति की मित्रता भी उसके अपने स्तर के सदस्यों के साथ ही होती है। इस प्रकार व्यक्ति की अन्तक्रिया और स्तरों के सदस्यों के साथ नहीं बल्कि अपनी ही स्तर के सदस्यों के होती है। कई बार व्यक्ति दूसरी स्तर के सदस्यों से सम्पर्क रख कर अपने आप को adjust नहीं कर सकता।

6. स्तरीकरण प्रतियोगिता की भावना को विकसित करती है (It develops the feeling of competition)-स्तरीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति में परिश्रम तथा लगन की भावना पैदा करती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में चेतन होता है। वह हमेशा आगे बढ़ने की कोशिश करनी शुरू कर देता है क्योंकि उसको अपने से उच्च स्थिति वाले व्यक्ति नज़र आते हैं। व्यक्ति अपनी योग्यता का प्रयोग करके प्रतियोगिता में आगे बढ़ना चाहता है। इस प्रकार व्यक्ति की उच्च स्तर के लिए पाई गई चेतनता व्यक्ति में प्रतियोगिता की भावना पैदा करती है। प्रत्येक व्यक्ति में अपने आप को समाज में ऊँचा उठाने की इच्छा होती है तथा वह अपने परिश्रम के साथ अपनी इच्छा पूर्ण कर सकता है। वह परिश्रम करता है तथा और वर्गों के व्यक्तियों के साथ प्रतियोगिता करता है। इस तरह वह अपने आप को ऊँचा उठा सकता है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 2.
सामाजिक स्तरीकरण के रूपों के बारे में विस्तृत रूप में विचार विमर्श करो।
उत्तर-
1. वर्ण स्तरीकरण (Varna Stratification)-वर्ण स्तरीकरण में जातीय भिन्नता तथा व्यक्ति की योग्यता तथा स्वभाव काफ़ी महत्त्वपूर्ण आधार है। शुरू में भारत में आर्य लोगों के आने के बाद भारतीय समाज दो भागों आर्यों तथा दस्यु या original inhabitants में बंट गया था। बाद में आर्य लोग, जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, अपने गुणों तथा स्वभाव के आधार पर चार वर्णों में विभाजित हो गए। इस तरह समाज चार वर्णों या चार हिस्सों में बंट गया था तथा स्तरीकरण का यह स्वरूप हमारे सामने आया। इस पदक्रम में ब्राह्मण की स्थिति सबसे उच्च होती थी। इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण का कार्य निश्चित तथा एक-दूसरे से भिन्न थे। वर्ण व्यवस्था का आरम्भिक रूप जन्म पर आधारित नहीं था बल्कि व्यक्ति के गुणों पर आधारित था जिसमें व्यक्ति अपने गुणों तथा आदतों को बदल कर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकता था। परन्तु वर्ण बदलना एक कठिन कार्य था जिसे आसानी से नहीं बदला जा सकता था।

2. दासता या गुलामी का स्तरीकरण (Slavery Stratification)-दास एक मनुष्य होता है जो किसी और मनुष्य के पूरी तरह नियन्त्रण में होता है। वह अपने मालिक की दया पर जीता है जिसे कोई अधिकार भी नहीं होता. है। मालिक कुछ एक मामलों में उसकी सुरक्षा करता है जैसे कि उसे किसी और का दास बनने से रोकना। परन्तु वह अधिकारविहीन व्यक्ति होता है जिसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है। वह पूरी तरह अपने मालिक की सम्पत्ति माना जाता है। इस तरह दास प्रथा वाले समाजों में बहुत ज्यादा असमानता पाई जाती है। अमेरिका, अफ्रीका इत्यादि महाद्वीपों में यह प्रथा 19वीं शताब्दी में पाई जाती थी। इसमें दास अपने मालिक के अधीन होता था तथा मालिक उसे किसी और के हाथों बेच भी सकता था। दास एक तरह से मालिक की सम्पत्ति था। दास की इस निम्न स्थिति की वजह से उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे जिस वजह से उसे समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। क्योंकि वह मालिक के अधीन होता था जिस वजह से मालिक उससे कठोर परिश्रम करवाता था तथा वह करने को मजबूर था। दासों को खरीदा तथा बेचा भी जाता था।

आधुनिक समय आते-आते दास प्रथा का विरोध होने लग गया जिस वजह से यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो गई तथा दासों ने किसानों का रूप ले लिया परन्तु इन समाजों में दास तथा मालिक के रूप में स्तरीकरण पाया जाता था।

3. सामन्तवाद (Feudalism)—दास प्रथा के साथ-साथ सामन्तवाद भी सामने आया। सामन्त लोग बहुत सारी ज़मीन के टुकड़े के मालिक होते थे तथा वह अपनी ज़मीन खेती करने के लिए और लोगों को या तो किराए पर दिया करते थे या पैदावार का बंटवारा करते थे। मध्य काल में तो सामन्त प्रथा को यूरोप में कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त थी। प्रत्येक सामन्त की एक विशेष स्थिति, विशेषाधिकार तथा कर्त्तव्य हुआ करते थे। उस समय में ज़मीन पर कृषि करने वाले लोगों के अधिकार काफ़ी कम हुआ करते थे। वह न्याय प्राप्त नहीं कर सकते थे तथा सामन्तों के रहमोकरम पर निर्भर होते थे। इस समय में श्रम विभाजन भी होता था। सामन्त प्रथा में सरदारों तथा पुजारियों के हाथ में सत्ता होती थी। भारत में ज़मींदार तो थे, परन्तु सामन्त प्रथा के लक्षण जाति प्रथा की वजह से नहीं थे। भारत में पाए जाने वाले ज़मींदार यूरोप में पाए जाने वाले सामन्तों से भिन्न थे। भारत के ज़मींदार प्रजा से राजा के लिए कर उगाहने का कार्य करते थे तथा ज़रूरत पड़ने पर राजा को अपनी सेना भी देते थे। जब राजा कमज़ोर हो गए तो बहुत सारे ज़मींदारों तथा सामन्तों ने अपने अलग-अलग राज्य स्थापित कर लिए। इस तरह ज़मींदारी प्रथा या सामन्तवाद के समय भी सामाजिक स्तरीकरण समाज में पाया जाता था।

4. नस्ली स्तरीकरण अथवा प्रजातीय स्तरीकरण (Racial Stratification)-अलग-अलग समाजों में नस्ल के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में बांटा हुआ होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-काकेशियन (सफेद), मंगोलाइड (पीले) तथा नीग्रोआइड (काले) लोग। इन उपरोक्त नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने भेजते हैं। यहां तक कि आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में चाहे इस प्रकार के स्वरूप में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी यह स्तरीकरण का एक स्वरूप है। गोरे काले व्यक्तियों को अपने से निम्न समझते हैं जिस वजह से वह उनसे काफ़ी भेदभाव करते हैं। नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेषाधिकारों में फर्क पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस प्रकार का फर्क देख सकते हैं। पश्चिमी समाजों में इस प्रकार का स्तरीकरण देखने को मिलता है।

5. जातिगत स्तरीकरण (Caste Stratification)-जो स्तरीकरण जन्म के आधार पर होता है उसे जातिगत स्तरीकरण का नाम दिया जाता है क्योंकि बच्चे की जाति जन्म के साथ ही निश्चित हो जाती है। प्राचीन तथा परम्परागत भारतीय समाज में हम जातिगत स्तरीकरण के स्वरूप की उदाहरण देख सकते हैं। इसका भारतीय समाज में ज्यादा प्रभाव था कि भारत में विदेशों से आकर रहने लगे लोगों में भी जातिगत स्तरीकरण शुरू हो गया था। उदाहरणतः मुसलमानों में भी कई प्रकार की जातियां या समूह पाए जाते हैं। समय के साथ-साथ इन जातियों में हज़ारों उप-जातियां पैदा हो गईं तथा इन उप-जातियों में भी स्तरीकरण पाया जाता है। यह स्तरीकरण जन्म पर आधारित होता है इसलिए इसे बन्द स्तरीकरण का नाम दिया जाता है। स्तरीकरण का यह स्वरूप और स्वरूपों की तुलना में काफ़ी स्थिर तथा निश्चित था क्योंकि व्यक्ति ने जिस जाति में जन्म लिया होता है वह तमाम उम्र अपनी उस जाति को बदल नहीं सकता था। इस प्रकार के स्तरीकरण में अपनी जाति या समूह बदलना मुमकिन नहीं होता। इस तरह जातिगत आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।

6. वर्ग स्तरीकरण (Class Stratification)-इसको सर्वव्यापक स्तरीकरण भी कहते हैं क्योंकि इस प्रकार के स्तरीकरण का स्वरूप प्रत्येक समाज में मिल जाता है। इसको खुला स्तरीकरण भी कहते हैं। वर्ग स्तरीकरण चाहे आधुनिक समाजों में देखने को मिलता है परन्तु प्राचीन समाजों में भी स्तरीकरण का यह स्वरूप मिल जाता था। इस प्रकार का स्तरीकरण जीव वैज्ञानिक आधारों को छोड़कर सामाजिक सांस्कृतिक आधारों जैसे आय, पेशा, सम्पत्ति, सत्ता, धर्म, शिक्षा, कार्य-कुशलता इत्यादि के आधार पर देखने को मिलता है। इसमें व्यक्ति को एक निश्चित स्थान प्राप्त हो जाता है तथा समान स्थिति वाले व्यक्ति इकट्ठे होकर समाज में एक वर्ग या स्तर का निर्माण करते हैं। इस तरह समाज में अलग-अलग प्रकार के वर्ग या स्तर बन जाते हैं तथा उनमें उच्च निम्न के सम्बन्ध सामाजिक स्थिति निश्चित तथा स्पष्ट नहीं होती क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्थिति कभी भी बदल सकती है। व्यक्ति परिश्रम करके पैसा कमा कर उच्च वर्ग में भी जा सकता है तथा पैसा खत्म होने की सूरत में निम्न वर्ग में भी आ सकता है। इस समाज में व्यक्ति के पद की महत्ता होती है। किसी समाज में कोई पद महत्त्वपूर्ण है तो किसी समाज में कोई पद। यह अन्तर प्रत्येक समाज की अलग-अलग संस्कृति, परम्पराओं, मूल्यों इत्यादि की वजह से होता है क्योंकि यह प्रत्येक समाज में अलग-अलग होते हैं। इस वजह से प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के आधार भी अलगअलग होते हैं। इस तरह हमारे समाजों में वर्ग स्तरीकरण पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था में परिवर्तन के कौन से कारक हैं ?
उत्तर-
1. सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन (Socio-religious reform movements)-भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के स्थापित होने से पहले भी कुछ धार्मिक लहरों ने जाति प्रथा की आलोचना की थी। बुद्ध धर्म तथा जैन धर्म से लेकर इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने भी जाति प्रथा का खण्डन किया। इनके साथ-साथ इस्लाम तथा सिक्ख धर्म ने तो जाति प्रथा की जम कर आलोचना की। 19वीं शताब्दी में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरों ने भी जाति प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। राजा राम मोहन राय की तरफ से चलाया गया ब्रह्मो समाज, दयानंद सरस्वती की तरफ से चलाया गया आर्य समाज, राम कृष्ण मिशन इत्यादि इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण समाज सुधार लहरें थीं। इनके अतिरिक्त ज्योति राव फूले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य समाज में सभी को समानता का दर्जा दिलाना था। जाति प्रथा की विरोधता तो महात्मा गांधी तथा डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने भी की थी। महात्मा गांधी ने शोषित जातियों को हरिजन का नाम दिया तथा उन्हें अन्य जातियों की तरह समान अधिकार दिलाने के प्रयास किए। आर्य समाज ने मनुष्य के जन्म के स्थान पर उसके गुणों को अधिक महत्त्व दिया। इन सभी लोगों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से होनी चाहिए न कि उसके जन्म से।

2. भारत सरकार के प्रयास (Efforts of Indian Government)-अंग्रेजी राज्य के समय तथा भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कई महत्त्वपूर्ण कानून पास किए गए जिन्होंने जाति प्रथा को कमज़ोर करने में गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेज़ी राज्य से पहले जाति तथा ग्रामीण पंचायतें काफ़ी शक्तिशाली थीं। यह पंचायतें तो अपराधियों को सज़ा तक दे सकती थीं तथा जुर्माने तक लगा सकती थी। अंग्रेजी शासन के दौरान जातीय असमर्थाएं दर करने का कानून (Caste Disabilities Removal Act, 1850) पास किया गया जिसने जाति पंचायतों को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। इस प्रकार विशेष विवाह कानून (Special Marriage Act, 1872) ने अलग-अलग जातियों के बीच विवाह को मान्यता दी जिसने परम्परागत जाति प्रथा को गहरे रूप से प्रभावित किया। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् Untouchability Offence Act, 1955 7811 Hindu Marriage Act, 1955 À 47 Gila gent at TET 3779116 लगाया। Hindu Marriage Validation Act पास हुआ जिससे अलग-अलग धर्मों, जातियों, उपजातियों इत्यादि के व्यक्तियों के बीच होने वाले विवाह को कानूनी घोषित किया गया।

3. अंग्रेज़ों का योगदान (Contribution of Britishers)-जाति प्रथा के विरुद्ध एक खुला संघर्ष ब्रिटिश काल में शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भारत में कानून के आगे सभी की समानता का सिद्धान्त लागू किया। जाति पर आधारित पंचायतों से उनके न्याय करने के अधिकार वापिस ले लिए गए। सरकारी नौकरियां प्रत्येक जाति के लिए खोल दी गईं। अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था धर्म निष्पक्ष थी। अग्रेजों ने भारत में आधुनिक उद्योगों की स्थापना करके तथा रेलगाड़ियों, बसों इत्यादि की शुरुआत करके जाति प्रथा को करारा झटका दिया। उद्योगों में सभी मिल कर कार्य करते थे तथा रेलगाड़ियों, बसों के सफर ने अलग-अलग जातियों के बीच सम्पर्क स्थापित किया। अंग्रेज़ों की तरफ से भूमि की खुली खरीद-फरोख्त के अधिकार ने गाँवों में जातीय सन्तुलन को काफ़ी मुश्किल कर दिया।

4. औद्योगीकरण (Industrialization)-औद्योगीकरण ने ऐसी स्थितियां पैदा की जो जाति व्यवस्था के विरुद्ध थी। इस कारण उद्योगों में कई ऐसे नए कार्य उत्पन्न हो गए जो तकनीकी थे। इन्हें करने के लिए विशेष योग्यता तथा ट्रेनिंग की आवश्यकता थी। ऐसे कार्य योग्यता के आधार पर मिलते थे। इसके साथ सामाजिक संस्तरण में निम्न स्थानों पर मौजूद जातियों को ऊपर उठने का मौका प्राप्त हुआ। औद्योगीकरण ने भौतिकता में बढ़ोत्तरी करके पैसे के महत्त्व को बढ़ा दिया। पैसे के आधार पर तीन वर्ग-धनी वर्ग, मध्य वर्ग तथा निर्धन वर्ग पैदा हो गए। प्रत्येक वर्ग में अलग-अलग जातियों के लोग पाए जाते थे। औद्योगीकरण से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे उद्योगों में कार्य करने लग गए, इकट्ठे सफर करने लगे तथा इकट्ठे ही खाना खाने लगे जिससे अस्पृश्यता की भावना खत्म होनी शुरू हो गई। यातायात के साधनों के विकास के कारण अलग-अलग धर्मों तथा जातियों के बीच उदार दृष्टिकोण का विकास हुआ जोकि जाति व्यवस्था के लिए खतरनाक था। औद्योगीकरण ने द्वितीय सम्बन्धों को बढ़ाया तथा व्यक्तिवादिता को जन्म दिया जिससे सामुदायिक नियमों का प्रभाव बिल्कुल ही खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सामाजिक प्रथाओं तथा परम्पराओं का महत्त्व खत्म हो गया। सम्बन्ध कानून के अनुसार खत्म होने लग गए। अब सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के आधार पर होते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को काफ़ी गहरा आघात लगाया।

5. नगरीकरण (Urbanization)–नगरीकरण के कारण ही जाति प्रथा में काफ़ी परिवर्तन आए। अधिक जनसंख्या, व्यक्तिगत भावना, सामाजिक गतिशीलता तथा अधिक पेशों जैसी शहरी विशेषताओं ने जाति प्रथा को काफ़ी कमज़ोर कर दिया। बड़े-बड़े शहरों में लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर रहना पड़ता है। वह यह नहीं देखते कि उनका पडोसी किस जाति का है। इससे उच्चता निम्नता की भावना खत्म हो गई। नगरीकरण के कारण जब लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आए तो अन्तर्जातीय विवाह होने लग गए। इस प्रकार नगरीकरण ने अस्पृश्यता के अन्तरों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया।

6. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)-अंग्रेजों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू किया जिसमें विज्ञान तथा तकनीक पर अधिक बल दिया जाता है। शिक्षा के प्रसार से लोगों में जागति आई तथा इसके साथ परम्परागत कद्रों-कीमतों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। जन्म पर आधारित दर्जे के स्थान पर प्रतियोगिता में प्राप्त दर्जे का महत्त्व बढ़ गया। स्कूल, कॉलेज इत्यादि पश्चिमी तरीके से खुल गए जहां सभी जातियों के बच्चे इकट्ठे मिलकर शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसने भी जाति प्रथा को गहरा आघात दिया।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 4.
वर्ग व्यवस्था को परिभाषित कीजिए। इनकी विशेषताओं को लिखो।
उत्तर–
प्रत्येक समाज कई वर्गों में विभाजित होता है व प्रत्येक वर्ग की समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इस स्थिति के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। वर्ग की मुख्य विशेषता वर्ग चेतनता होती है। इस प्रकार समाज में जब विभिन्न व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसको वर्ग व्यवस्था कहते हैं। प्रत्येक वर्ग आर्थिक पक्ष से एक-दूसरे से अलग होता है।

1. मैकाइवर (MacIver) ने वर्ग को सामाजिक आधार पर बताया है। उस के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एकत्रता वह हिस्सा होता है जिसको सामाजिक स्थिति के आधार पर बचे हुए हिस्से से अलग कर दिया जाता है।”

2. मोरिस जिन्सबर्ग (Morris Ginsberg) के अनुसार, “वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सांझे वंशक्रम, व्यापार सम्पत्ति के द्वारा एक सा जीवन ढंग, एक से विचारों का स्टाफ, भावनाएं, व्यवहार के रूप में रखते हों व जो इनमें से कुछ या सारे आधार पर एक-दूसरे से समान रूप में अलग-अलग मात्रा में पाई जाती हो।”

3. गिलबर्ट (Gilbert) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों की एकत्र विशेष श्रेणी है जिस की समाज में एक विशेष स्थिति होती है, यह विशेष स्थिति ही दूसरे समूहों से उनके सम्बन्ध निर्धारित करती है।”

4. कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के विचार अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी परिभाषित किया जा सकता है।”

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक वर्ग कई व्यक्तियों का वर्ग होता है, जिसको समय विशेष में एक विशेष स्थिति प्राप्त होती है। इसी कारण उनको कुछ विशेष शक्ति, अधिकार व उत्तरदायित्व भी मिलते हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इसी कारण हर व्यक्ति परिश्रम करके सामाजिक वर्ग में अपनी स्थिति को ऊँची करना चाहता है। प्रत्येक समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति निश्चित नहीं होती। उसकी स्थिति में गतिशीलता पाई जाती है। इस कारण यह खुला स्तरीकरण भी कहलाया जाता है। व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति को आप निर्धारित करता है। यह जन्म पर आधारित नहीं होता।

वर्ग की विशेषताएं (Characteristics of Class)-

1. श्रेष्ठता व हीनता की भावना (Feeling of superiority and inferiority)—वर्ग व्यवस्था में भी ऊँच व नीच के सम्बन्ध पाए जाते हैं। उदाहरणतः उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से अपने आप को अलग व ऊँचा महसूस करते हैं। ऊँचे वर्ग में अमीर लोग आ जाते हैं व निम्न वर्ग में ग़रीब लोग। अमीर लोगों की समाज में उच्च स्थिति होती है व ग़रीब लोग भिन्न-भिन्न निवास स्थान पर रहते हैं। उन निवास स्थानों को देखकर ही पता लग जाता है कि वह अमीर वर्ग से सम्बन्धित हैं या ग़रीब वर्ग से।

2. सामाजिक गतिशीलता (Social mobility)-वर्ग व्यवस्था किसी भी व्यक्ति के लिए निश्चित नहीं होती। वह बदलती रहती है। व्यक्ति अपनी मेहनत से निम्न से उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है व अपने गलत कार्यों के परिणामस्वरूप ऊंची से निम्न स्थिति पर भी पहुंच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी आधार पर समाज में अपनी इज्जत बढ़ाना चाहता है। इसी कारण वर्ग व्यवस्था व्यक्ति को क्रियाशील भी रखती है।

3. खुलापन (Openness)-वर्ग व्यवस्था में खुलापन पाया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति को पूरी आजादी होती है कि वह कुछ भी कर सके। वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी व्यापार को अपना सकता है। किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता के आधार पर बन सकता है। निम्न वर्ग के लोग मेहनत करके उच्च वर्ग में आ सकते हैं। इसमें व्यक्ति के जन्म की कोई महत्ता नहीं होती। व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता पर निर्भर करती है।

4. सीमित सामाजिक सम्बन्ध (Limited social relations)-वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध सीमित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बराबर के वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखना अधिक ठीक समझते हैं। प्रत्येक वर्ग अपने ही लोगों से नज़दीकी रखना चाहते हैं। वह दूसरे वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।

5. उपवर्गों का विकास (Development of Sub-Classes)-आर्थिक दृष्टिकोण से हम वर्ग व्यवस्था को तीन भागों में बाँटते हैं उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। परन्तु आगे हर वर्ग कई और उपवर्गों में बाँटा होता है, जैसे एक अमीर वर्ग में भी भिन्नता नज़र आती है। कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ उससे कम व कुछ सबसे है। इस प्रकार वर्ग, उप वर्गों से मिल कर बनता है।

6. विभिन्न आधार (Different basis)-वर्ग के भिन्न-भिन्न आधार हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। उसके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग पाए गए हैं। एक तो पूंजीपति वर्ग, दूसरा श्रमिक वर्ग। हर्टन व हंट के अनुसार हमें याद रखना चाहिए कि वर्ग मूल में, विशेष जीवन ढंग है। ऑगबर्न व निमकौफ़, मैकाइवर गिलबर्ट ने वर्ग के लिए सामाजिक आधार को मुख्य माना है। जिन्ज़बर्ग, लेपियर जैसे वैज्ञानिकों ने सांस्कृतिक आधार को ही वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है।

7. वर्ग पहचान (Identification of class)—वर्ग व्यवस्था में बाहरी दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार हम देख कर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न का। हमारे आधुनिक समाज में कोठी, कार, स्कूटर, टी० वी०, वी० सी० आर, फ्रिज आदि व्यक्ति के स्थिति चिन्ह को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार बाहरी संकेतों से हमें वर्ग भिन्नता का पता चल जाता है।

8. वर्ग चेतनता (Class Consciousness)—प्रत्येक सदस्य अपनी वर्ग स्थिति के प्रति पूरी तरह चेतन होता है। इसी कारण वर्ग चेतना, वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषता है। वर्ग चेतना व्यक्ति को आगे बढ़ने के मौके प्रदान करती है क्योंकि चेतना के आधार पर ही हम एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार भी इसके द्वारा ही निश्चित होता है।

प्रश्न 5.
भारत में कौन-से नए वर्गों का उद्भव हुआ है ?
उत्तर-
पिछले कुछ समय से देश में जाति व्यवस्था के स्थान पर वर्ग व्यवस्था सामने आ रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास हुए, लोगों ने पढ़ना शुरू किया जिस कारण जाति व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो रही है तथा वर्ग व्यवस्था का दायरा बढ़ रहा है। अब वर्ग व्यवस्था कोई साधारण संकल्प नहीं रहा। आधुनिक समय में अलग-अलग आधारों पर बहुत से वर्ग सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से भूमि सुधार किए गए जिस कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बहुत से परिवर्तन आए। हरित क्रान्ति ने इस प्रक्रिया में और योगदान दिया। पुराने किसान, जिनके पास काफ़ी भूमि थी, के साथ एक नया कृषक वर्ग सामने आया जिसके पास कृषि करने की तकनीकों की कला तथा तजुर्बा है। यह वह लोग हैं जो सेना या अन्य प्रशासनिक सेवाओं से सेवानिवृत्त होकर अपना पैसा कृषि के कार्यों में लगा रहे हैं तथा काफ़ी पैसा कमा रहे हैं। यह परंपरागत किसानों का उच्च वर्ग नहीं है, परन्तु इन्हें सैंटलमैन किसान (Gentlemen Farmers) कहा जाता है।

इसके साथ-साथ एक अन्य कृषक वर्ग सामने आ रहा है जिसे ‘पूंजीपति किसान’ कहा जाता है। यह वह किसान हैं जिन्होंने नई तकनीकों, अधिक फसल देने वाले बीजों, नई कृषि की तकनीकों, अच्छी सिंचाई सुविधाओं. बैंकों से उधार लेकर तथा यातायात व संचार के साधनों का लाभ उठाकर अच्छा पैसा कमाया है। परन्तु छोटे किसान इन सबका फायदा नहीं उठा सके हैं तथा निर्धन ही रहे हैं। इस प्रकार भूमि सुधारों तथा नई तकनीकों का लाभ सभी किसान समान रूप से नहीं उठा सके हैं। यह तो मध्यवर्गीय किसान हैं जिन्होंने सरकार की तरफ से उत्साहित करने वाली सुविधाओं का लाभ उठाया है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियों के किसानों ने कृषि की आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाया है। – इसके बाद मध्य वर्ग भी सामने आया जिसे उपभोक्तावाद की संस्कृति ने जन्म दिया है। इस मध्य वर्ग को संभावित मार्किट के रूप में देखा गया जिस कारण बहुत-सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्ग की तरफ आकर्षित हुई। अलग-अलग कंपनियों के विज्ञापनों में उच्च मध्य वर्ग को एक महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है। आजकल यह ऐसा मध्य वर्ग सामने आ रहा है जो अपने स्वाद तथा उपभोग को सबसे अधिक महत्त्व देता है तथा एक सांस्कृतिक आदर्श बन रहा है। इस प्रकार नए मध्य वर्ग के उभार ने देश में आर्थिक उदारवाद के संकल्प को सामने लाया है।

आधुनिक भारत में मौजूद वर्ग व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सभी वर्गों ने एक देश के बीच एक राष्ट्रीय आर्थिकता बनाने में सहायता की है। अब मध्य वर्ग में गांवों के लोग भी शामिल हो रहे हैं। अब गांव में रहने वाले अलग-अलग कार्य करने वाले लोग अलग-अलग नहीं रह गए हैं। अब जाति आधारित प्रतिबंधों का खात्मा हो गया है तथा वर्ग आधारित चेतना सामने आ रही है।

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प्रश्न 6.
भारत में वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. भारत में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन चले जिनके कारण जाति व्यवस्था को काफ़ी धक्का लगा।
  2. भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् बहुत से कानून पास किए तथा संविधान में कई प्रकार के प्रावधान रखे जिनकी वजह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आए।
  3. देश में उद्योगों के बढ़ने से अलग-अलग जातियों के लोग इकट्ठे मिलकर कार्य करने लग गए तथा जाति के प्रतिबंध खत्म हो गए।
  4. नगरों में अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं जिस कारण जाति व्यवस्था की मेलजोल की पाबंदी खत्म हो गई। (v) शिक्षा के प्रसार ने भी जाति व्यवस्था को खत्म करने में काफ़ी योगदान दिया।

प्रश्न 7.
मार्क्सवादी तथा वेबर का वर्ग परिप्रेक्षय क्या है ?
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण का संघर्षवाद का सिद्धान्त दिया है और यह सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों के कारण ही आगे आया है। मार्क्स ने केवल सामाजिक कारकों को ही सामाजिक स्तरीकरण एवं भिन्न-भिन्न वर्गों में संघर्ष का सिद्धान्त माना है।

मार्क्स ने यह सिद्धान्त श्रम विभाजन के आधार पर दिया। उसके अनुसार श्रम दो प्रकार का होता है-शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम और यही अन्तर ही सामाजिक वर्गों में संघर्ष का कारण बना।

मार्क्स का कहना है कि समाज में साधारणत: दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता है। इस मलकीयत के आधार पर ही पहला वर्ग उच्च स्थिति में एवं दूसरा वर्ग निम्न स्थिति में होता है। मार्क्स पहले (मालिक) वर्ग को पूंजीपति वर्ग और दूसरे (गैर-मालिक) वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग, मज़दूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है और मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यही स्तरीकरण का परिणाम है।

मार्क्स का कहना है कि स्तरीकरण के आने का कारण ही सम्पत्ति का असमान विभाजन है। स्तरीकरण की प्रकृति उस समाज के वर्गों पर निर्भर करती है और वर्गों की प्रकृति उत्पादन के तरीकों पर उत्पादन का तरीका , तकनीक पर निर्भर करता है। वर्ग एक समूह होता है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के समान होते हैं, इस तरह वह सभी व्यक्ति जो उत्पादन की शक्तियों पर नियन्त्रण रखते हैं। वह पहला वर्ग यानि कि पूंजीपति वर्ग होता है जो उत्पादन की शक्तियों का मालिक होता है। दूसरा वर्ग वह है तो उत्पादन की शक्तियों का मालिक नहीं है बल्कि वह मजदूरी या मेहनत करके अपना समय व्यतीत करता है यानि कि यह मजदूर वर्ग कहलाता है। भिन्न-भिन्न समाजों में इनके भिन्न-भिन्न नाम हैं जिनमें ज़मींदारी समाज में ज़मींदार और खेतीहर मज़दूर और पूंजीपति समाज में पूंजीपति एवं मज़दूर । पूंजीपति वर्ग के पास उत्पादन की शक्ति होती है और मज़दूर वर्ग के पास केवल मजदूरी होती है जिसकी सहायता के साथ वह अपना गुजारा करता है। इस प्रकार उत्पादन के तरीकों एवं सम्पत्ति के समान विभाजन के आधार पर बने वर्गों को मार्क्स ने सामाजिक वर्ग का नाम दिया है।

मार्क्स के अनुसार “आज का समाज चार युगों में से गुजर कर हमारे सामने आया है।”

(a) प्राचीन समाजवादी युग (Primitive Ancient Society or Communism)
(b) प्राचीन समाज (Ancient Society)
(c) सामन्तवादी युग (Feudal Society)
(d) पूंजीवाद युग (Capitalist Society)

मार्क्स के अनुसार पहले प्रकार के समाज में वर्ग अस्तित्व में नहीं आये थे। परन्तु उसके पश्चात् के समाजों में दो प्रमुख वर्ग हमारे सामने आये। प्राचीन समाज में मालिक एवं दास। सामन्तवादी में सामन्त एवं खेतीहारी मजदूर वर्ग। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी एवं मजदूर वर्ग। प्रायः समाज में मजदूरी का कार्य दूसरे वर्ग के द्वारा ही किया गया। मजदूर वर्ग बहुसंख्यक होता है और पूंजीवादी वर्ग कम संख्या वाला।

मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो प्रकार के वर्गों का अनुभव किया है। परन्तु मार्क्स के फिर भी इस मामले में विचार एक समान नहीं है। मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी समाज में तीन वर्ग होते हैं। मज़दूर, सामन्त एवं ज़मीन के मालिक (land owners) मार्क्स ने इन तीनों में से अन्तर आय के साधनों लाभ एवं जमीन के किराये के आधार पर किया है। परन्तु मार्क्स की तीन पक्षीय व्यवस्था इंग्लैण्ड में सामने कभी नहीं आई।

मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ तीन वर्गीय व्यवस्था दो वर्गीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी एवं मध्यम वर्ग समाप्त हो जायेगा। इस बारे में उसने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र में कहा है। मार्क्स ने विशेष समाज के अन्य वर्गों का उल्लेख भी किया है। जैसे बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग को उसने दो उपवर्ग जैसे प्रभावी बुर्जुआ और छोटे बुर्जुआ वर्गों में बांटा है। प्रभावी बुर्जुआ वह होते हैं जो बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति होते हैं और जो हज़ारों की संख्या में मजदूरों को कार्य करने को देते हैं। छोटे बुर्जुआ वह छोटे उद्योगपति या दुकानदार होते हैं जिनके व्यापार छोटे स्तर पर होते हैं और वह बहुत अधिक मज़दूरों को कार्य नहीं दे सकते। वह काफ़ी सीमा तक स्वयं ही कार्य करते हैं। मार्क्स यहां पर फिर कहता है कि पूंजीवाद के विकसित होने के साथ-साथ मध्यम वर्ग व छोटीछोटी बुर्जुआ उप जातियां समाप्त हो जाएंगी या फिर मज़दूर वर्ग में मिल जाएंगे। इस तरह समाज में पूंजीपति व मज़दूर वर्ग रह जाएगा।

वर्गों के बीच सम्बन्ध (Relationship between Classes)—मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का आर्थिक शोषण करता रहता है और मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करता रहता है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्ध विरोध वाले होते हैं। यद्यपि कुछ समय के लिये दोनों वर्गों के बीच का विरोध शान्त हो जाता है परन्तु वह विरोध चलता रहता है। वह आवश्यक नहीं कि यह विरोध ऊपरी तौर पर ही दिखाई दे। परन्तु उनको इस विरोध का अहसास तो होता ही रहता है।”

मार्क्स के अनुसार वर्गों के बीच आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता एवं संघर्ष पर आधारित होते हैं। हम उदाहरण ले सकते हैं पूंजीवादी समाज के दो वर्गों का। एक वर्ग पूंजीपति का होता है दूसरा वर्ग मज़दूर का होता है। यह दोनों वर्ग अपने अस्तित्व के लिये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन की शक्तियां एक मलकीयत नहीं होती हैं। उसके पास रोटी कमाने हेतु अपनी मेहनत के अतिरिक्त और कछ नहीं होता। वह रोटी कमाने के लिये पूंजीपति वर्ग के पास अपनी मेहनत बेचते हैं और उन पर ही निर्भर करते हैं। वह अपनी मज़दूरी पूंजीपतियों के पास बेचते हैं जिसके बदले पूंजीपति उनको मेहनत का किराया देता है। इसी किराये के साथ मज़दूर अपना पेट पालता है। पूंजीपति भी मज़दूरों की मेहनत पर ही निर्भर करता है। क्योंकि मजदूरों के बिना कार्य किये न तो उसका उत्पादन हो सकता है और न ही उसके पास पूंजी एकत्रित हो सकती है।

इस प्रकार दोनों वर्ग एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। परन्तु इस निर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि उनमें सम्बन्ध एक समान होते हैं। पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का शोषण करता है। वह कम धन खर्च करके अधिक उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका स्वयं का लाभ बढ़ सके। मज़दूर अधिक मज़दूरी मांगता है ताकि वह अपना व परिवार का पेट पाल सके। उधर पूंजीपति मज़दूरों को कम मज़दूरी देकर वस्तुओं को ऊँची कीमत पर बेचने की कोशिश करता है ताकि उसका लाभ बढ़ सके। इस प्रकार दोनों वर्गों के भीतर अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष (Conflict of Interest) चलता रहता है। यह संघर्ष अन्ततः समतावादी व्यवस्था (Communism) को जन्म देगा जिसमें न तो विरोध होगा न ही किसी का शोषण होगा, न ही किसी के ऊपर अत्याचार होगा न ही हितों का संघर्ष होगा और यह समाज वर्ग रहित समाज होगा।

मनुष्यों का इतिहास-वर्ग संघर्ष का इतिहास (Human history-History of Class struggle)—मार्क्स का कहना है कि मनुष्यों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हम किसी भी समाज की उदाहरण ले सकते हैं। प्रत्येक समाज में अलग-अलग वर्गों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष तो चलता ही रहा है।

इस तरह मार्क्स का कहना था कि सभी समाजों में साधारणतः पर दो वर्ग रहे हैं-मजदूर तथा पूंजीपति वर्ग। दोनों में वर्ग संघर्ष चलता ही रहता है। इन में वर्ष संघर्ष के कई कारण होते हैं जैसे कि दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा आर्थिक अन्तर होता है जिस कारण वह एक-दूसरे का विरोध करते हैं। पूंजीपति वर्ग बिना परिश्रम किए ही अमीर होता चला जाता है तथा मज़दूर वर्ग सारा दिन परिश्रम करने के बाद भी ग़रीब ही बना रहता है। समय के साथसाथ मज़दूर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना लेता है तथा यह संगठन पूंजीपतियों से अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष का परिणाम यह होता है कि समय आने पर मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति कर देता है तथा क्रान्ति के बाद पूंजीपतियों का खात्मा करके अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं। पूंजीपति अपने पैसे की मदद से प्रति क्रान्ति की कोशिश करेंगे परन्तु उनकी प्रति क्रान्ति को दबा दिया जाएगा तथा मजदूरों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। पहले साम्यवाद तथा फिर समाजवाद की स्थिति आएगी जिसमें हरेक को उसकी ज़रूरत तथा योग्यता के अनुसार मिलेगा। समाज में कोई वर्ग नहीं होगा तथा यह वर्गहीन समाज होगा जिसमें सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। कोई भी उच्च या निम्न नहीं होगा तथा मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित रहेगी। मार्क्स का कहना था कि चाहे यह स्थिति अभी नहीं आयी है परन्तु जल्द ही यह स्थिति आ जाएगी तथा समाज में से स्तरीकरण खत्म हो जाएगा।

मैक्स वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त-वर्ग, स्थिति समूह तथा दल (Max Weber’s Theory of Stratification-Class, Status, grouped and Party) मैक्स वैबर ने स्तरीकरण का सिद्धान्त दिया था जिसमें उसने वर्ग, स्थिति समूह तथा दल की अलग-अलग व्याख्या की थी। वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त तर्कसंगत तथा व्यावहारिक माना जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त को काफ़ी महत्त्व प्रदान किया है। वैबर ने स्तरीकरण को तीन पक्षों से समझाया है तथा वह है वर्ग, स्थिति तथा दल। इन तीनों ही समूहों को एक प्रकार से हित समूह कहा जा सकता है जो न केवल अपने अंदर लड़ सकते हैं बल्कि यह एक दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं बल्कि यह एक-दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं। यह एक विशेष सत्ता के बारे में बताते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से संबंधित भी होते हैं। अब हम इन तीनों का अलग-अलग विस्तार से वर्णन करेंगे।

वर्ग (Class)—मार्ल मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा आर्थिक आधार पर दी थी तथा उसी प्रकार वैबर ने भी वर्ग की धारणा आर्थिक आधार पर दी है। वैबर के अनुसार, “वर्ग ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी समाज के आर्थिक मौकों की संरचना में समान स्थिति में होता है तथा जो समान स्थिति में रहते हैं। “यह स्थितियां उनकी आर्थिक शक्ति के रूप तथा मात्रा पर निर्भर करती है।” इस प्रकार वैबर ऐसे वर्ग की बात करता है जिस में लोगों की एक विशेष संख्या के लिए जीवन के मौके एक समान होते हैं। चाहे वैबर की यह धारणा मार्क्स की वर्ग की धारणा से अलग नहीं है परन्तु वैबर ने वर्ग की कल्पना समान आर्थिक स्थितियों में रहने वाले लोगों के रूप में की है आत्म चेतनता समूह के रूप में नहीं। वैबर ने वर्ग के तीन प्रकार बताए हैं जोकि निम्नलिखित हैं :-

  1. सम्पत्ति वर्ग (A property Class)
  2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)
  3. सामाजिक वर्ग (A Social class)

1. सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)-सम्पत्ति वर्ग वह वर्ग होता है जिस की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितनी सम्पत्ति अथवा जायदाद है। यह वर्ग नीचे दो भागों में बांटा गया है-

i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Positively Privileged Property Class)-इस वर्ग के पास काफ़ी सम्पत्ति तथा जायदाद होती है तथा यह इस जायदाद से हुई आय पर अपना गुजारा करता है। यह वर्ग उपभोग करने वाली वस्तुओं के खरीदने या बेचने, जायदाद इकट्ठी करके अथवा शिक्षा लेने के ऊपर अपना एकाधिकार कर सकता है।

ii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Negatively Privileged Property Class)-इस वर्ग के मुख्य सदस्य अनपढ़, निर्धन, सम्पत्तिहीन तथा कर्जे के बोझ नीचे दबे हुए लोग होते हैं। इन दोनों समूहों के साथ एक विशेष अधिकार प्राप्त मध्य वर्ग भी होता है जिसमें ऊपर वाले दोनों वर्गों के लोग शामिल होते हैं। वैबर के अनुसार पूंजीपति अपनी विशेष स्थिति होने के कारण तथा मजदूर अपनी नकारात्मक रूप से विशेष स्थिति होने के कारण इस समूह में शामिल होता है।

2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)—यह उस प्रकार का समूह होता है जिस की स्थिति बाज़ार में मौजूदा सेवाओं का लाभ उठाने के मौकों के साथ निर्धारित होती है। यह समूह आगे तीन प्रकार का होता है-

i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Positively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग का उत्पादक फैक्टरी वालों के प्रबंध पर एकाधिकार होता है। यह फैक्ट्रियों वाले बैंकर, उद्योगपति, फाईनैंसर इत्यादि होते हैं। यह लोग प्रबंधकीय व्यवस्था को नियन्त्रण में रखने के साथ-साथ सरकारी आर्थिक नीतियों पर भीषण प्रभाव डालते हैं।

ii) विशेषाधिकार प्राप्त मध्य अधिग्रहण वर्ग (The Middle Privileged Acquisition Class)—यह वर्ग मध्य वर्ग के लोगों का वर्ग होता है जिसमें छोटे पेशेवर लोग, कारीगर, स्वतन्त्र किसान इत्यादि शामिल होते हैं।

iii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Negatively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग में छोटे वर्गों के लोग विशेषतया कुशल, अर्द्ध कुशल तथा अकुशल मजदूर शामिल होते हैं।

3. सामाजिक वर्ग (Social Class)—इस वर्ग की संख्या काफी अधिक होती है। इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की तरक्की के कारण निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देता है। परन्तु वैबर सामाजिक वर्ग की व्याख्या विशेष अधिकारों के अनुसार नहीं करता। उसके अनुसार मज़दूर वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, सम्पत्ति वाले लोग इत्यादि इसमें शामिल होते हैं।

वैबर के अनुसार किन्हीं विशेष स्थितियों में वर्ग के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं तथा इस कार्य करने की प्रक्रिया को वैबर ने वर्ग क्रिया का नाम दिया है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया कि वर्ग क्रिया जैसी बात अक्सर हो सकती है। वैबर का कहना था कि वर्ग में वर्ग चेतनता नहीं होती बल्कि उनकी प्रकृति पूर्णतया आर्थिक होती है। उनमें इस बात की भी संभावना नहीं होती कि वह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करेंगे। एक वर्ग लोगों का केवल एक समूह होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बाज़ार में एक जैसी होती है। वह उन चीज़ों को इकट्ठे करने में जीवन के ऐसे परिवर्तनों को महसूस करते हैं, जिनकी समाज में कोई इज्जत होती है तथा उनमें किसी विशेष स्थिति में वर्ग चेतना विकसित होने की तथा इकट्ठे होकर क्रिया करने की संभावना होती है। वैबर का कहना था कि अगर ऐसा होता है तो वर्ग एक समुदाय का रूप ले लेता है।

स्थिति समूह (Status Group)-स्थिति समूह को साधारणतया आर्थिक वर्ग स्तरीकरण के विपरीत समझा जाता है। वर्ग केवल आर्थिक मान्यताओं पर आधारित होता है जोकि समान बाज़ारी स्थितियों के कारण समान हितों वाला समूह है। परन्तु दूसरी तरफ स्थिति समूह सांस्कृतिक क्षेत्र में पाया जाता है यह केवल संख्यक श्रेणियों के नहीं होते बल्कि यह असल में वह समूह होते हैं जिनकी समान जीवन शैली होती है, संसार के प्रति समान दृष्टिकोण होता है तथा यह लोग आपस में एकता भी रखते हैं।

वैबर के अनुसार वर्ग तथा स्थिति समूह में अंतर होता है। हरेक का अपना ढंग होता है तथा इनमें लोग असमान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल का अध्यापक। चाहे उसकी आय 8-10 हजार रुपये प्रति माह होगी जोकि आज के समय में कम है परन्तु उसकी स्थिति ऊंची है। परन्तु एक स्मगलर या वेश्या चाहे माह में लाखों कमा रहे हों परन्तु उनका स्थिति समूह निम्न ही रहेगी क्योंकि उनके पेशे को समाज मान्यता नहीं देता। इस प्रकार दोनों के समूहों में अंतर होता है। किसी पेशे समूह को भी स्थिति समूह का नाम दिया जाता है क्योंकि हरेक प्रकार के पेशे में उस पेशे से संबंधित लोगों के लिए पैसा कमाने के समान मौके होते हैं। यही समूह उनकी जीवन शैली को समान भी बनाते हैं। एक पेशा समूह के सदस्य एक-दूसरे के नज़दीक रहते हैं, एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं तथा उनके मूल्य भी एक जैसे ही होते हैं। यही कारण है कि इसके सदस्यों का दायरा विशाल हो जाता है।

दल (Party)-वैबर के अनसार दल वर्ग स्थिति के साथ निर्धारित हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यह दल किसी न किसी स्थिति में उन सदस्यों की भर्ती करता है जिनकी विचारधारा दल की विचारधारा से मिलती हो। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए दल स्थिति दल ही बने । वैबर का कहना है कि दल हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में आए अर्थात् राज्य या सरकार की शक्ति उनके हाथों में हो। वैबर का कहना है कि चाहे दल राजनीतिक सत्ता का एक हिस्सा होते हैं परन्तु फिर भी सत्ता कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है जैसे कि पैसा, अधिकार, प्रभाव, दबाव इत्यादि। दल राज्य की सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा राज्य एक संगठन होता है। दल की हरेक प्रकार की क्रिया इस बात की तरफ ध्यान देती है कि सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाए। वैबर ने राज्य का विश्लेषण किया तथा इससे ही उसने नौकरशाही का सिद्धान्त पेश किया। वैबर के अनुसार दल दो प्रकार के होते हैं।

पहला है सरप्रस्ती का दल (Patronage Party) जिनके लिए कोई स्पष्ट नियम, संकल्प इत्यादि नहीं होते। यह किसी विशेष मौके के लिए बनाए जाते हैं तथा हितों की पूर्ति के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है। दूसरी प्रकार का दल है सिद्धान्तों का दल (Party of Pricniples) जिसमें स्पष्ट या मज़बूत नियम या सिद्धान्त होते हैं। यह दल किसी विशेष अवसर के लिए नहीं बनाए जाते। वैबर के अनुसार चाहे इन तीनों वर्ग, स्थिति समूह तथा दल में काफी अन्तर होता है परन्तु फिर भी इनमें आपसी संबंध भी मौजूद होता है।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions):

प्रश्न 1.
यह शब्द किसके हैं ? “एक सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग होता है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर दूसरों से भिन्न किया जा सकता है।”
(A) मार्क्स
(B) मैकाइवर
(C) वैबर
(D) आगबर्न।
उत्तर-
(B) मैकाइवर।

प्रश्न 2.
वर्ग व्यवस्था का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ?
(A) जाति प्रथा कमजोर हो रही है
(B) निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुंच रहे हैं।
(C) व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
इनमें से कौन-सी वर्ग की विशेषता नहीं है ?
(A) पूर्णतया अर्जित
(B) खुलापन
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता
(D) समूहों की स्थिति में उतार-चढ़ाव।
उत्तर-
(C) जन्म पर आधारित सदस्यता।

प्रश्न 4.
वर्ग तथा जाति में क्या अन्तर है ?
(A) जाति जन्म पर तथा वर्ग योग्यता पर आधारित होता है
(B) व्यक्ति वर्ग को बदल सकता है पर जाति को नहीं
(C) जाति में कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं पर वर्ग में नहीं
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।

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प्रश्न 5.
वर्ग की विशेषता क्या है ?
(A) उच्च निम्न की भावना
(B) सामाजिक गतिशीलता
(C) उपवर्गों का विकास
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपर्युक्त सभी।।

प्रश्न 6.
उस व्यवस्था को क्या कहते हैं जिसमें समाज में व्यक्तियों को अलग-अलग आधारों पर विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है ?
(A) जाति व्यवस्था
(B) वर्ग व्यवस्था
(C) सामुदायिक व्यवस्था
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 7.
जातियों के स्तरीकरण से क्या अर्थ है ?
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(B) समाज को इकट्ठा करना
(C) समाज को अलग करना
(D) समाज को कभी अलग कभी इकट्ठा करना।
उत्तर-
(A) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन।

प्रश्न 8.
जाति प्रथा से हमारे समाज को क्या हानि हुई है ?
(A) समाज को बांट दिया गया
(B) समाज के विकास में रुकावट
(C) समाज सुधार में बाधक
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 9.
इनमें से जाति व्यवस्था क्या है ?
(A) राज्य
(B) सामाजिक संस्था
(C) सम्पत्ति
(D) सरकार।
उत्तर-
(B) सामाजिक संस्था।

प्रश्न 10.
पुरातन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
(A) चार
(B) पांच
(C) छः
(D) सात।
उत्तर-
(A) चार।

प्रश्न 11.
जाति प्रथा का क्या कार्य है ?
(A) व्यवहार पर नियन्त्रण
(B) कार्य प्रदान करना
(C) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
भारतीय समाज में श्रम विभाजन किस पर आधारित था ?
(A) श्रम
(B) जाति व्यवस्था
(C) व्यक्तिगत योग्यता
(D) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(B) जाति व्यवस्था।

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II. रिक्त स्थान भरें (Fill in the blanks) :

1. समाज को अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया को ………….
2. जाति एक …………… वैवाहिक समूह है।
3. घूर्ये ने जाति के ……….. लक्षण दिए हैं।
4. वर्ण व्यवस्था …………. पर आधारित होती थी।
5. जाति व्यवस्था ………………… पर आधारित होती है।
6. ………….. ने पूँजीपति तथा मज़दूर वर्ग के बारे में बताया था।
7. जाति प्रथा में …………… प्रमुख जातियां होती थीं।
उत्तर-

  1. सामाजिक स्तरीकरण,
  2. अंतः,
  3. छ:,
  4. पेशे,
  5. जन्म,
  6. कार्ल मार्क्स,
  7. चार ।

III. सही/गलत (True/False) :

1. जाति बहिर्वैवाहिक समूह है।।
2. घूर्ये ने जाति की छः विशेषताएं दी थीं।
3. जाति व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता की धारणा सामने आई।
4. ज्योतिबा फूले ने जाति व्यवस्था में सुधार लाने का कार्य किया।
उत्तर-

  1. गलत,
  2. सही,
  3. सही,
  4. सही।

IV. एक शब्द/पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर (One Wordline Question Answers) :

प्रश्न 1.
……………. व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने हमारे समाज को बाँट दिया है।

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प्रश्न 2.
शब्द Caste किस भाषा के शब्द से निकला है ?
उत्तर-
शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द से निकला है।

प्रश्न 3.
जाति किस प्रकार का वर्ग है ?
उत्तर-
बन्द वर्ग।

प्रश्न 4.
जाति प्रथा में किसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी ?
उत्तर-
जाति प्रथा में प्रथम वर्ण को अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी।

प्रश्न 5.
जाति प्रथा में किस जाति का शोषण होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में निम्न जातियों का शोषण होता था।

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प्रश्न 6.
अन्तर्विवाह का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता है तो उसे अन्तर्विवाह कहते हैं।

प्रश्न 7.
जाति में व्यक्ति का पेशा किस प्रकार का होता है ?
उत्तर-
जाति में व्यक्ति का पेशा जन्म पर आधारित होता है अर्थात् व्यक्ति को अपने परिवार का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता है।

प्रश्न 8.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 9.
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कब पास हुआ था ?
उत्तर-
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1976 में पास हुआ था।

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प्रश्न 10.
हिन्दू विवाह अधिनियम ……………… में पास हुआ था।
उत्तर-
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 11.
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में किस बात पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था ?
उत्तर-
इस अधिनियम में किसी भी व्यक्ति को अस्पृश्य कहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। यह 1955 में पास हुआ था।

प्रश्न 12.
सामाजिक स्तरीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं।

प्रश्न 13.
जाति किस प्रकार के विवाह को मान्यता देती है ?
उत्तर-
जाति अन्तर्विवाह को मान्यता देती है।

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प्रश्न 14.
प्राचीन भारतीय समाज कितने भागों में विभाजित था ?
उत्तर-
प्राचीन भारतीय समाज चार भागों में विभाजित था।

प्रश्न 15.
जाति व्यवस्था का क्या लाभ था ?
उत्तर-
इसने हिन्दू समाज का बचाव किया, समाज को स्थिरता प्रदान की तथा लोगों को एक निश्चित व्यवसाय प्रदान किया था।

प्रश्न 16.
जाति प्रथा में किस प्रकार का परिवर्तन आ रहा है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा खत्म हो रही है, अस्पृश्यता खत्म हो रही है तथा परम्परागत पेशे खत्म हो रहे हैं।

प्रश्न 17.
जाति की मुख्य विशेषता क्या है ?
उत्तर-
जाति को जन्मजात सदस्यता होती है, समाज का खण्डात्मक विभाजन होता है तथा व्यक्ति को परम्परागत पेशा प्राप्त होता है।

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प्रश्न 18.
जाति प्रथा से क्या हानि होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा से निम्न जातियों का शोषण होता है, अस्पृश्यता बढ़ती है तथा व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है।

प्रश्न 19.
जाति की सदस्यता का आधार क्या है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता का आधार जन्म है।

प्रश्न 20.
स्तरीकरण का स्थायी रूप क्या है ?
उत्तर-
स्तरीकरण का स्थायी रूप जाति है।

प्रश्न 21.
किस संस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को बुरी तरह विघटित किया है।

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प्रश्न 22.
जाति शब्द किस भाषा से उत्पन्न हुआ है ?
उत्तर-
जाति शब्द अंग्रेजी भाषा के Caste शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जो कि पुर्तगाली शब्द Casta से बना

प्रश्न 23.
जाति के कौन-से मुख्य आधार हैं ?
उत्तर-
जाति एक बड़ा समूह होता है जिसका आधार जातीय भिन्नता तथा जन्मजात भिन्नता होता है।

प्रश्न 24.
जाति में आपसी सम्बन्ध किस पर आधारित होते हैं ?
उत्तर-
जाति में आपसी सम्बन्ध उच्चता और निम्नता पर आधारित होते हैं।

प्रश्न 25.
जाति में किसकी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा होती है ?
उत्तर-
जाति प्रथा में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा सबसे ज़्यादा थी तथा ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा था।

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प्रश्न 26.
जाति प्रथा में प्रतिबन्ध क्यों लगाए जाते थे ?
उत्तर-

  1. इसलिए ताकि विभिन्न जातियां एक-दूसरे के सम्पर्क में न आएं।
  2.  इसलिए ताकि जाति श्रेष्ठता तथा निम्नता बनाई रखी जा सके।

प्रश्न 27.
जाति प्रथा में व्यवसाय कैसे निश्चित होता था ?
उत्तर-
जाति प्रथा में व्यवसाय परम्परागत होता था अर्थात् परिवार का व्यवसाय ही अपनाना पड़ता था।

प्रश्न 28.
अन्तर्विवाह क्या होता है ?
उत्तर-
इस नियम के अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था अर्थात् वह . अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं करवा सकता।

प्रश्न 29.
औद्योगीकरण ने जाति प्रथा को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर-
उद्योगों में अलग-अलग जातियों के लोग मिलकर कार्य करने लग गए जिससे उच्चता निम्नता के सम्बन्ध खत्म होने शुरू हो गए।

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प्रश्न 30.
क्या वर्ग अन्तर्वैवाहिक है?
उत्तर-
जी हां, वर्ग अन्तर्वैवाहिक भी होता है तथा बर्हिविवाही भी।

प्रश्न 31.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
जाति प्रथा में चार मुख्य जातियां होती थी तथा वह थी-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जाति। यह ही जाति का पदक्रम होता था।

प्रश्न 32.
वर्ग का आधार क्या है?
उत्तर-
वर्ग का आधार पैसा, प्रतिष्ठा, शिक्षा, पेशा इत्यादि होते हैं।

प्रश्न 33.
जाति व्यवस्था का मुख्य आधार क्या है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था का मूल आधार कुछ जातियों की उच्चता तथा कुछ जातियों की निम्नता थी।

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प्रश्न 34.
जाति में खाने-पीने तथा सामाजिक संबंधों पर प्रतिबन्ध।
उत्तर-
जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों में खाने-पीने तथा उनमें सामाजिक संबंध रखने की भी मनाही होती

प्रश्न 35.
वर्ग का आधार क्या है ?
उत्तर-
आजकल वर्ग का आधार पैसा, व्यापार, पेशा इत्यादि है।

प्रश्न 36.
अब तक कौन-से वर्ग अस्तित्व में आए हैं ?
उत्तर-
अब तक अलग-अलग आधारों पर हजारों वर्ग अस्तित्व में आए हैं।

प्रश्न 37.
वर्ग की सदस्यता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

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प्रश्न 38.
आजकल वर्ग अंतर का निर्धारण किस आधार पर होता है ?
उत्तर-
शिक्षा, पैसा, पेशा, रिश्तेदारी इत्यादि के आधार पर।

प्रश्न 39.
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने किया था ?
उत्तर-
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने दिया था।

प्रश्न 40.
पैसे के आधार पर हम लोगों को कितने वर्गों में विभाजित कर सकते हैं ?
उत्तर-
पैसे के आधार पर हम लोगों को उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग में विभाजित कर सकते हैं।

प्रश्न 41.
वर्ग में किस प्रकार के संबंध पाए जाते हैं ?
उत्तर-
वर्ग में औपचारिक तथा अस्थाई संबंध पाए जाते हैं।

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प्रश्न 42.
स्तरीकरण क्या होता है ?
उत्तर-
समाज को उच्च तथा निम्न वर्गों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 43.
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार क्या होता है ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार आर्थिक अर्थात् पैसा होता है।

प्रश्न 44.
क्या जाति बदल रही है ?
उत्तर-
जी हां, जाति वर्ग में बदल रही है।

अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति में पदक्रम।
उत्तर-
समाज अलग-अलग जातियों में विभाजित हुआ था तथा समाज में इस कारण उच्च-निम्न की एक निश्चित व्यवस्था तथा भावना होती थी। इस निश्चित व्यवस्था को ही जाति में पदक्रम कहते हैं।

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प्रश्न 2.
व्यक्ति की सामाजिक स्थिति कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति पर निर्भर करती है जबकि वर्ग व्यवस्था में उसकी सामाजिक स्थिति उसकी व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर निर्भर करती है।

प्रश्न 3.
जाति सहयोग की भावना विकसित करती है।
उत्तर-
यह सच है कि जाति सहयोग की भावना विकसित करती है। एक ही जाति के सदस्यों का एक ही पेशा होने के कारण वह आपस में मिल-जुल कर कार्य करते हैं तथा सहयोग करते हैं।

प्रश्न 4.
कच्चा भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में पानी का प्रयोग हो उसे कच्चा भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में कई जातियों से कच्चा भोजन कर लिया जाता था तथा कई जातियों से पक्का भोजन।

प्रश्न 5.
पक्का भोजन क्या है ?
उत्तर-
जिस भोजन को बनाने में घी अथवा तेल का प्रयोग किया जाता है इसे पक्का भोजन कहा जाता है। जाति व्यवस्था में किसी विशेष जाति से ही पक्का भोजन ग्रहण किया जाता है।

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प्रश्न 6.
आधुनिक शिक्षा तथा जाति।
उत्तर-
लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जिस कारण धीरे-धीरे उन्हें जाति व्यवस्था के अवगुणों का पता चल रहा है। इस कारण अब उन्होंने जाति की पाबन्दियों को मानना बंद कर दिया है।

प्रश्न 7.
जाति में सामाजिक सुरक्षा।
उत्तर-
अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई समस्या आती है तो जाति के सभी सदस्य इकट्ठे होकर उस समस्या को हल करते हैं। इस प्रकार जाति में व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा मिलती है।

प्रश्न 8.
जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित।
उत्तर-
यह सच है कि व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है क्योंकि व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है। वह योग्यता होने पर भी उसकी सदस्यता को छोड़ नहीं सकता है।

प्रश्न 9.
रक्त की शुद्धता बनाए रखना।
उत्तर-
जब व्यक्ति अपनी ही जाति में विवाह करवाता है तो इससे जाति की रक्त की शुद्धता बनी रहती है तथा अन्य जाति में विवाह न करवाने से उनका रक्त अपनी जाति में शामिल नहीं होता।

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प्रश्न 10.
जाति की एक परिभाषा दें।
उत्तर-
राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstd) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक तथा एक से अधिक विषयों के ऊपर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

प्रश्न 11.
निम्न जाति का शोषण।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का काफ़ी शोषण किया जाता था। उनके साथ काफ़ी बुरा व्यवहार किया जाता था तथा उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं दिए जाते थे।

प्रश्न 12.
जाति व्यवस्था में दो परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. अलग-अलग कानूनों के पास होने से जाति प्रथा में अस्पृश्यता के भेदभाव का खात्मा हो रहा है।
  2. अलग-अलग पेशों के आगे आने के कारण अलग-अलग जातियों के पदक्रम तथा उनकी उच्चता में परिवर्तन आ रहा है।

प्रश्न 13.
जातीय समाज का खण्डात्मक विभाजन।
उत्तर-
जाति व्यवस्था में समाज चार भागों में विभाजित होता था पहले भाग में ब्राह्मण आते थे, दूसरे भाग में क्षत्रिय, तीसरे भाग में वैश्य तथा चतुर्थ भाग में निम्न जातियों के व्यक्ति आते थे।

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प्रश्न 14.
विवाह संबंधी जाति में परिवर्तन।
उत्तर-
अब लोग इकट्ठे कार्य करते हैं तथा नज़दीक आते हैं। इससे अन्तर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं। लोग अपनी इच्छा से विवाह करवाने लग गए हैं। बाल विवाह खत्म हो रहे हैं, विधवा विवाह बढ़ रहे हैं तथा विवाह संबंधी प्रतिबन्ध खत्म हो गए हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को कितने भागों में बाँटा है ?
उत्तर-
मार्क्स ने मनुष्यों के इतिहास को चार भागों में बाँटा है-

  1. प्राचीन साम्यवादी युग
  2. प्राचीन समाज
  3. सामन्तवादी समाज
  4. पूंजीवादी समाज।

प्रश्न 2.
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण का परिणाम क्या है ?
उत्तर-
मार्क्स का कहना है कि समाज में दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता। इस मलकीयत के आधार पर ही मालिक वर्ग की स्थिति उच्च तथा गैर-मालिक वर्ग की स्थिति निम्न होती है। मालिक वर्ग को मार्क्स पूंजीपति वर्ग तथा गैर-मालिक वर्ग को मजदूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है तथा मजदूर वर्ग अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यह ही स्तरीकरण का परिणाम है।

प्रश्न 3.
वर्गों में आपसी सम्बन्ध किस तरह के होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्गों में आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता तथा संघर्ष वाले होते हैं। पूंजीपति तथा मज़दूर दोनों अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। मजदूर वर्ग को रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचना पड़ता है। वह पूंजीपति को अपना परिश्रम बेचते हैं तथा रोटी कमाने के लिए उस पर निर्भर करते हैं। उसकी मज़दूरी के एवज में पूंजीपति उनको मजदूरी का किराया देते हैं। पूंजीपति भी मज़दूरों पर निर्भर करता है, क्योंकि मजदूर के कार्य किए बिना उसका न तो उत्पादन हो सकता है तथा न ही उसके पास पूंजी इकट्ठी हो सकती है। परन्तु निर्भरता के साथ संघर्ष भी चलता रहता है क्योंकि मज़दूर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उससे संघर्ष करता रहता है।

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प्रश्न 4.
मार्क्स के स्तरीकरण के सिद्धान्त में कौन-सी बातें मख्य हैं ?
उत्तर-

  1. सबसे पहले प्रत्येक प्रकार के समाज में मुख्य तौर पर दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा दूसरे के पास नहीं होते हैं।
  2. मार्क्स के अनुसार समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति उच्च होती है तथा जिस के पास साधन नहीं होते उसकी स्थिति निम्न होती है।
  3. सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप उत्पादन की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
  4. मार्क्स के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्ग संघर्ष किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में मौजूद रहा है।

प्रश्न 5.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार, प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग-एक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं। इनमें संघर्ष होता है जिसे मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है। शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा वह इन उत्पादन के साधनों के साथ अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग मजदूर वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते हैं। इसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। यह वर्ग पहले वर्ग से हमेशा शोषित होता है जिस कारण दोनों वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 6.
जाति का अर्थ।
अथवा
जाति।
उत्तर-
हिन्दू सामाजिक प्रणाली में एक उलझी हुई एवं दिलचस्प संस्था है जिसका नाम ‘जाति प्रणाली’ है। यह शब्द पुर्तगाली शब्द ‘Casta’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘जन्म’। इस प्रकार यह एक अन्तर-वैवाहिक समूह होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के ऊपर आधारित है, इसमें कार्य (धन्धा) पैतृक एवं परम्परागत होता है। रहना-सहना, खाना-पीना, सम्बन्धों पर कई प्रकार के नियम (बन्धन) होते हैं। इसमें कई प्रकार की पाबन्दियां भी होती हैं, जिनका पालन उन सदस्यों को करना ज़रूरी होता है।

प्रश्न 7.
जाति व्यवस्था की कोई चार विशेषताएं बतायें।
उत्तर-

  1. जाति की सदस्यता जन्म के आधार द्वारा होती है।
  2. जाति में सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध होते हैं।
  3. जाति में खाने-पीने के बारे में प्रतिबन्ध होते हैं।
  4. जाति में अपना कार्य पैतृक आधार पर मिलता है।
  5. जाति एक अन्तर-वैवाहिक समूह है, विवाह सम्बन्धी बन्दिशें हैं।
  6. जाति में समाज अलग-अलग हिस्सों में विभाजित होता है।
  7. जाति प्रणाली एक निश्चित पदक्रम है।

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प्रश्न 8.
पदक्रम क्या होता है ?
उत्तर-
जाति प्रणाली में एक निश्चित पदक्रम होता था, अभी भी भारत वर्ष में ज्यादातर भागों में ब्राह्मण वर्ण की जातियों को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था। इसी प्रकार दूसरे क्रम में क्षत्रिय आते थे। वर्ण व्यवस्था के अनुसार तीसरा स्थान ‘वैश्यों’ का था, उसी प्रकार ही समाज में वैसा ही आज माना जाता था। इसी क्रम के अनुसार सबसे बाद वाले क्रम में चौथा स्थान निम्न जातियों का था। समाज में किसी भी व्यक्ति की स्थिति आज भी भारत के ज्यादा भागों में उसी प्रकार से ही निश्चित की जाती थी।

प्रश्न 9.
सदस्यता जन्म पर आधारित।
अथवा
जाति की सदस्यता कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
जाति की सदस्यता जन्म के आधार पर मानी जाती थी। इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का फैसला अथवा निर्धारण स्वयं नहीं कर सकता। जिस जाति में वह जन्म लेता है उसका सामाजिक दर्जा भी उसी के आधार पर ही निश्चित होता है। इस व्यवस्था में व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, वह अपनी जाति को अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता था। जाति की सदस्यता यदि जन्म के आधार पर मानी जाती थी तो उसकी सामाजिक स्थिति उसके जन्म के आधार पर होती थी न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर।

प्रश्न 10.
जाति में खाने-पीने सम्बन्धी किस तरह के प्रतिबन्ध हैं ?
उत्तर-
जाति व्यवस्था में कुछ इस तरह के नियम बताये गये हैं जिनमें यह स्पष्ट होता है कि कौन-कौन सी जातियों अथवा वर्गों में कौन-कौन से खाने-पीने के बारे में बताया गया था। इस तरह खाने-पीने की वस्तुओं को दो भागों में बांटा गया था। सारे भोजन को तो एक कच्चा भोजन माना जाता था और दूसरा पक्का भोजन। इसमें कच्चे भोजन को पानी द्वारा तैयार किया जाता था और पक्के भोजन को घी (Ghee) द्वारा तैयार किया जाता था। आम नियम यह था कि कच्चा भोजन कोई भी व्यक्ति तब तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसी जाति के ही व्यक्ति द्वारा तैयार न किया जाये। परन्तु दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में यदि क्षत्रिय एवं वैश्य भी तैयार करते थे, तो ब्राह्मण उसको ग्रहण कर लेते थे।

प्रश्न 11.
जाति से सम्बन्धित व्यवसाय।
उत्तर-
जाति व्यवस्था के नियमों के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित किया जाता था। उसमें उसे परम्परा के अनुसार अपने पैतृक धन्धे को ही अपनाना पड़ता था। जैसे ब्राह्मणों का काम समाज को शिक्षित करना था और क्षत्रियों के ऊपर सुरक्षा का दायित्व था और कृषि के कार्य वैश्यों में विभाजित थे। इसी प्रकार निम्न जातियों का कार्य बाकी तीनों समुदायों की सेवा करने का कार्य था। इसी प्रकार जिस बच्चे का जन्म जिस जाति विशेष में होता था उसे व्यवसाय के रूप में भी वही काम करना होता था। इस प्रणाली में व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार कोई व्यवसाय नहीं कर सकता था। इस जाति प्रकारों में सभी चारों वर्ग अपने कार्य को अपना धर्म समझ कर करते थे।

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प्रश्न 12.
जाति के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की प्रथा में जाति भिन्न तरह से अपने सदस्यों की सहायता करती है, उसमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. जाति व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण करती है।
  2. व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  3. हर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है।
  4. व्यक्ति एवं जाति के रक्त की शुद्धता बरकरार रखती है।
  5. जाति राजनीतिक स्थिरता प्रदान करती है।
  6. जाति अपने तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखती है!
  7. जाति शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निर्धारण करती है।
  8. जाति विशेष व्यक्ति के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का ध्यान करवाती है।

प्रश्न 13.
जाति एक बन्द समूह है।
उत्तर-
जाति एक बन्द समूह है, जब हम इस बात का अच्छी तरह से विश्लेषण करेंगे तो जवाब ‘हां’ में ही आयेगा। इससे यही अर्थ है कि बन्द समूह की जिस जाति में व्यक्ति का जन्म होता था, उसी के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति तय होती थी। व्यक्ति अपनी जाति को छोड़कर, दूसरी जाति में भी नहीं जा सकता। न ही वह अपनी जाति को बदल सकता है। इस तरह इस व्यवस्था में हम देखते हैं कि चाहे व्यक्ति में अपनी कितनी भी योग्यता हो, वह उसे प्रदर्शित नहीं कर पाता था क्यों जो उसे अपनी जाति समूह के नियमों के अनुसार कार्य करना होता था क्योंकि इसका निर्धारण ही व्यक्ति के जन्म के आधार पर था न कि उसकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर। इस प्रकार जाति एक बन्द समूह ही था जिससे व्यक्ति अपनी इच्छा के आधार पर बाहर नहीं निकल सकता।

प्रश्न 14.
जाति के गुण बतायें।
उत्तर-

  1. जाति व्यवसाय का विभाजन करती है।
  2. जाति सामाजिक एकता को बनाये रखती है।
  3. जाति रक्त शुद्धता को बनाये रखती है।
  4. जाति शिक्षा के नियमों को बनाती है।
  5. जाति समाज में सहयोग से रहना सिखाती है।
  6. मानसिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

प्रश्न 15.
जाति चेतनता।
उत्तर-
जाति व्यवस्था की यह सबसे बड़ी त्रुटि थी कि उसमें कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के प्रति ज़्यादा सचेत नहीं होता था और यह कमी हर व्यवस्था में भी पाई जाती थी। क्योंकि इस व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति के आधार पर निश्चित होती थी, इसलिए व्यक्तिगत रूप से उतना जागरूक ही नहीं होता था। जब कि उसकी स्थिति एवं पहचान उनके जन्म के अनुसार ही होनी थी, तो उसे पता होता था कि उसे कौन-कौन से कार्य और कैसे करने हैं। यदि कोई व्यक्ति उच्च जाति में जन्म ले लेता था तो उसे पता होता था कि उसके क्या कर्त्तव्य हैं, यदि उसका जन्म निम्न जाति में हो जाता था, तो उसे पता ही होता था कि उसे सारे समाज की सेवा करनी है और इस स्वाभाविक प्रक्रिया में दखल अन्दाजी नहीं करता था और उसी को दैवी कारण मानकर अपना जीवन-यापन करता जाता था।

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प्रश्न 16.
जाति में बदलाव के कारणों के बारे में लिखें।
उत्तर-
19वीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों एवं धार्मिक विद्वानों की कोशिशों ने समाज में काफ़ी बदलाव की कोशिशें की और कई सामाजिक कुरीतियों का जमकर खण्डन किया। इन्हीं कारणों को हम संक्षेप में इस तरह बता सकते हैं-

  1. समाज सुधार आंदोलनों के कारण।
  2. भारत सरकार की कोशिशें एवं कानूनों का बनना।
  3. अंग्रेज़ी साम्राज्य का इसमें योगदान।
  4. औद्योगीकरण के कारणों से आई तबदीली।
  5. शिक्षा के प्रसार के कारण।
  6. यातायात एवं संचार व्यवस्था के कारण।
  7. आपसी मेल-जोल की वजह से।

प्रश्न 17.
जाति के अवगुण।
उत्तर-
स्त्रियों की दशा खराब होती है।

  1. यह प्रथा अस्पृश्यता को बढ़ावा देती है।
  2. यह जातिवाद को बढ़ाती है।
  3. इससे सांस्कृतिक संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
  4. सामाजिक एकता एवं गतिशीलता को रोकती है।
  5. सामाजिक संतुलन को भी खराब करती है।
  6. व्यक्तियों की कार्य-कुशलता में भी कमी आती है।
  7. सामाजिक शोषण के कारण गिरावट आती है।

प्रश्न 18.
जाति एवं वर्ग में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर-
जाति धर्म पर आधारित है परन्तु वर्ग पैसे के ऊपर आधारित है।

  1. जाति समुदाय का हित है, वर्ग में व्यक्तिगत हितों की बात है।
  2. जाति को बदला नहीं जा सकता, वर्ग को बदला जा सकता है।
  3. जाति बन्द व्यवस्था है परन्तु वर्ग खुली व्यवस्था का हिस्सा है।
  4. जाति लोकतन्त्र के विरुद्ध है पर वर्ग लोकतान्त्रिक क्रिया है।
  5. जाति में कई तरह के प्रतिबन्ध हैं, वर्ग में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं।
  6. जाति में चेतना की कमी होती है परन्तु वर्ग में व्यक्ति चेतन होता है।

प्रश्न 19.
श्रेणी व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार श्रेणी के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष कर्त्तव्य, अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। श्रेणी चेतनता ही श्रेणी की मुख्य ज़रूरत होती है। श्रेणी के बीच व्यक्ति अपने आप को कुछ सदस्यों से उच्च तथा कुछ से निम्न समझता है।

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प्रश्न 20.
वर्ग की दो विशेषताएं।
उत्तर-

  1. वर्ग चेतनता–प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतनता होती है कि उसका पद या आदर दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है। अर्थात् व्यक्ति को उच्च, निम्न या समानता के बारे में पूरी चेतनता होती है।
  2. सीमित सामाजिक सम्बन्ध-वर्ग व्यवस्था में लोग अपने ही वर्ग के सदस्यों से गहरे सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध सीमित होते हैं।

प्रश्न 21.
धन तथा आय-वर्ग व्यवस्था के निर्धारक।
उत्तर-
समाज के बीच उच्च श्रेणी की स्थिति का सदस्य बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। परन्तु पैसे के साथ व्यक्ति आप ही उच्च स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता परन्तु उसकी अगली पीढ़ी के लिए उच्च स्थिति निश्चित हो जाती है। आय के साथ भी व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि ज्यादा आमदनी से ज्यादा पैसा आता है। परन्तु इसके लिए यह देखना ज़रूरी है कि व्यक्ति की आमदनी ईमानदारी की है या काले धन्धे द्वारा प्राप्त है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
प्रत्येक समाज में स्तरीकरण के अलग-अलग लक्षण होते हैं क्योंकि यह सामाजिक कीमतों तथा प्रमुख विचारधाराओं पर आधारित होती हैं, इसलिए स्तरीकरण के आधार भी अलग-अलग होते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का स्वरूप अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पाया जाता है। यह प्रत्येक समाज में पाई जाने वाली सामाजिक कीमतों से सम्बन्धित होता है। इसलिए सामाजिक स्तरीकरण के आधार भी कई होते हैं। परन्तु सभी आधारों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं-

  1. जैविक अथवा प्राणी शास्त्रीय आधार (Biological Basis)
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-Cultural Basis) अब हम स्तरीकरण के इन दोनों प्रमुख आधारों का विस्तार से वर्णन करेंगे।

1. जैविक आधार (Biological Basis)—जैविक आधार पर समाज में व्यक्तियों को उनके जन्म के आधार पर उच्च तथा निम्न स्थान दिए जाते हैं। उनकी व्यक्तिगत योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता है। आम शब्दों में, समाज के अलग-अलग व्यक्तियों तथा समूहों में मिलने वाले उच्च निम्न के सम्बन्ध जैविक आधारों पर निर्धारित हो सकते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण के जैविक आधारों का सम्बन्ध व्यक्ति के जन्म से होता है। व्यक्ति को समाज में कई बार उच्च तथा निम्न स्थिति जन्म के आधार पर प्राप्त होती है। निम्नलिखित कुछ जैविक आधारों का वर्णन इस प्रकार है।

(i) जन्म (Birth)-समाज में व्यक्ति के जन्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है। यदि हम प्राचीन भारतीय हिन्दू समाज की सामाजिक व्यवस्था को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि जन्म के आधार पर ही समाज में व्यक्ति को उच्च या निम्न स्थिति प्राप्त होती थी।

जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको उसी जाति से जोड़ दिया जाता था तथा इस जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को स्थिति प्राप्त होती थी। व्यक्ति अपनी योग्यता तथा परिश्रम से भी अपनी जाति बदल नहीं सकता था। इस प्रकार जाति प्रथा में एक पदक्रम बना रहता था। इस विवरण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि व्यक्ति को समाज में स्थिति उसकी इच्छा तथा योग्यता के अनुसार नहीं प्राप्त होती थी। जाति प्रथा में सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था का मुख्य आधार जन्म होता था। जन्म के आधार पर ही व्यक्ति को समाज में उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता था।

इसमें व्यक्ति की निजी योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता था। निजी योग्यता न तो जाति बदलने में मददगार थी तथा न ही अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए मददगार थी। ज्यादा से ज्यादा निजी योग्यता व्यक्ति को अपनी ही जाति में ऊँचा कर सकती थी। अपनी जाति में ऊँचा होने के बावजूद भी वह अपने से उच्च जाति से निम्न ही रहेगा। जातीय स्तरीकरण में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी योग्यता के ऊपर निर्धारित नहीं होती थी बल्कि व्यक्ति के जन्म के आधार पर निर्धारित होती थी।

(ii) आयु (Age)-जन्म के बाद आयु के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। कई अन्य समाजशास्त्रियों ने भी आयु के आधार पर व्यक्ति की अलग-अलग अवस्थाएं बताई हैं। किसी भी समाज में छोटे बच्चे की स्थिति उच्च नहीं होती क्योंकि उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ होता। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उस तरह उसकी बुद्धि का विकास होता है। बुद्धि के विकास के साथ वह परिपक्व हो जाता है। इसलिए उसको प्राथमिकता दी जाती है। भारत सरकार में भी ज्यादा संख्या बड़ी आयु के लोगों की है। राष्ट्रपति बनने के लिए भी सरकार ने आयु निश्चित की होती है। भारत में यह उम्र 35 साल की है। यदि हम प्राचीन भारतीय समाज की पारिवारिक प्रणाली को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि बड़ी आयु के व्यक्तियों का ही परिवार पर नियन्त्रण होता था। भारत में वोट डालने का अधिकार 18 साल के व्यक्ति को ही प्राप्त है।

राजनीति को चलाने के लिए बुजुर्ग व्यक्ति एक स्तम्भ का कार्य करते हैं। यह ही जवान पीढ़ी को तैयार करते हैं। इस प्रकार सरकार ने विवाह की संस्था में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति की आयु निश्चित कर दी है ताकि बाल विवाह की प्रथा को रोका जा सके। संसार के सभी समाजों में बड़ी आयु के लोगों की इज्जत होती है। कई कबीलों में तो बडी आयु के लोगों की कौंसिल बनाई जाती है जिसके द्वारा समाज में महत्त्वपूर्ण फैसले लिए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के कबीलों के बीच प्रशासकीय अधिकार बड़ी आयु के व्यक्तियों को ही स्वीकार किया जाता है।

(iii) लिंग (Sex)-लिंग भी स्तरीकरण का आधार होता है। लिंग के आधार पर भेद आदमी तथा औरत का ही होता है। यदि हम प्राचीन समाजों पर नजर डालें तो उन समाजों में लिंग के आधार पर ही विभाजित होती थी। औरतें घर का कार्य करती थीं तथा आदमी घर से बाहर जा कर खाने-पीने की चीजें इकट्ठी करते थे।

सत्ता के आधार पर परिवार को दो हिस्सों में विभाजित किया गया है –

  1. पितृ सत्तात्मक परिवार (Patriarchal Family)
  2. मातृ सत्तात्मक परिवार (Matriarchal Family)

इन दोनों तरह के परिवारों के प्रकार लिंग के आधार पर पाए जाते हैं। पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की सत्ता महत्त्वपूर्ण थी तथा परिवार पिता की सत्ता में रहता था। परन्तु मातृसत्तात्मक परिवार में परिवार के ऊपर नियन्त्रण माता का ही होता था। यदि हम प्राचीन हिन्दू समाज को देखें तो लिंग के आधार पर आदमी की स्थिति समाज में उच्च थी। लिंग के आधार पर आदमी तथा औरतों के कार्यों में भिन्नता पायी जाती थी। लिंग के आधार पर पाई जाने वाली भिन्नता अभी भी आधुनिक समाजों में कुछ हद तक विकसित है। चाहे सरकार ने प्रयत्न करके औरतों को आगे बढ़ाने की कोशिशें भी की हैं। शिक्षा के क्षेत्र में औरतों को कुछ राज्यों में मुफ्त शिक्षा प्राप्त हो रही है। परन्तु आज भी कुछ फ़र्क नज़र आता है। पश्चिमी देशों में चाहे औरत तथा आदमी को प्रत्येक क्षेत्र में बराबर समझा जाता रहा है परन्तु अमेरिका में राष्ट्रपति का पद औरत नहीं सम्भाल सकती। आदमी तथा औरत की कुछ भूमिकाएं तो प्राकृतिक रूप से ही अलग होती हैं जैसे बच्चे को जन्म देने का कार्य औरत का ही होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लिंग भी स्तरीकरण का बहुत ही पुराना आधार रहा है जिसके द्वारा समाज में आदमी तथा औरत की स्थिति को निश्चित किया जाता है।

(iv) नस्ल (Race)-सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया का आधार नस्ल भी रही है। नस्ल के आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित होता है। मुख्यतः मनुष्य जाति की तीन नस्लें पाई जाती हैं-

(a) काकेशियन (Caucasion)
(b) मंगोलाइड (Mangoloid)
(c) नीग्रोआइड (Negroid)

इन तीनों नस्लों में पदक्रम की व्यवस्था पाई जाती है। सफेद नस्ल काकेशियन को समाज में सबसे उच्च स्थान प्राप्त होता है। पीली नस्ल मंगोलाइड को बीच का स्थान तथा काली नस्ल नीग्रोआइड की समाज में सबसे निम्न स्थिति होती है। अमेरिका में आज भी काली नस्ल की तुलना में सफेद नस्ल को उत्तम समझा जाता है। सफेद नस्ल के व्यक्ति अपने बच्चों को अलग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। यहां तक कि यह आपस में विवाह तक नहीं करते। आधुनिक समाज में विभिन्न नस्लों में पाई जाने वाली भिन्नता में कुछ परिवर्तन आ गए हैं परन्तु फिर भी नस्ल सामाजिक स्तरीकरण का एक आधार बनी हुई है। नस्ल श्रेष्ठता के आधार पर गोरे कालों से विवाह नहीं करवाते। काले व्यक्तियों के साथ गोरे बहुत भेदभाव करते हैं। कोई काला व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बन सकता है। इस तरह स्पष्ट है कि नस्ल के आधार पर गोरे तथा काले लोगों के रहने के स्तर, सुविधाओं तथा विशेष अधिकारों में भेद पाया जाता है। आज भी हम पश्चिमी देशों में इस आधार पर भेद देख सकते हैं। गोरे लोग एशिया के लोगों के साथ इस आधार पर भेद रखते हैं क्योंकि वह अपने आपको पीले तथा काले लोगों से उच्च समझते

2. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार (Socio-cultural basis) केवल जैविक आधार पर ही नहीं बल्कि सामाजिक आधारों पर भी समाज में स्तरीकरण पाया जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक आधार कई तरह के होते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(i) पेशे के आधार पर (Occupational basis)-पेशे के आधार पर समाज को विभिन्न भागों में बाँटा जाता है। कुछ पेशे समाज में ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं तथा कुछ कम। वर्ण व्यवस्था में समाज में स्तरीकरण पेशे के आधार पर ही होता था। व्यक्ति जिस पेशे को अपनाता था उसको उसी पेशे के अनुसार समाज में स्थिति प्राप्त हो जाती थी। जैसे जो व्यक्ति वेदों इत्यादि की शिक्षा प्राप्त करके लोगों को शिक्षित करने का पेशा अपना लेता था तो उसको ब्राह्मण वर्ण में शामिल कर लिया जाता था। पेशा अपनाने की इच्छा व्यक्ति की अपनी होती थी। डेविस के अनुसार विशेष पेशे के लिए योग्य व्यक्तियों की प्राप्ति उस पेशे की स्थिति को प्रभावित करती है। कई समाज वैज्ञानिकों ने पेशे को सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार माना है।

आधुनिक समाज में व्यक्ति जिस प्रकार की योग्यता रखता है वह उसी तरह का पेशा अपना लेता है। उदाहरण के तौर पर आधुनिक भारतीय समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर इत्यादि के पेशे को क्लर्क, चपड़ासी इत्यादि के पेशे से ज्यादा उत्तम स्थान प्राप्त होता है। जो पेशे समाज के लिए नियन्त्रण रखने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, उन पेशों को भी समाज में उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार विभिन्न पेशों, गुणों, अवगुणों इत्यादि को परख कर समाज में उनको स्थिति प्राप्त होती है।

चाहे पुराने समाजों में पेशे भी जाति पर आधारित होते थे तथा व्यक्ति की स्थिति जाति के अनुसार निर्धारित होती थी परन्तु आधुनिक समाजों में जाति की जगह व्यवसाय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। एक I.A.S. अफसर की स्थिति एक चपड़ासी से निश्चित रूप से उच्च होती है। उसी तरह अफसरों, जजों इत्यादि का पेशा तथा नाम एक होने के बावजूद उनका स्तर समान नहीं है। संक्षेप में अलग-अलग कार्यों तथा पेशों के आधार पर समाज में स्तरीकरण होता है। उदाहरणतः चाहे कोई वेश्या जितना मर्जी चाहे पैसा कमा ले परन्तु उसके कार्य के आधार पर समाज में उसका स्थान हमेशा निम्न ही रहता है।

(ii) राजनीतिक आधार (Political base)-राजनीतिक आधार पर तो प्रत्येक समाज में अलग-अलग स्तरीकरण पाया जाता है। भारतीय समाज में भी राजनीतिक स्तरीकरण का आधार पाया जाता है। भारत में वंश के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण रही है। भारत एक लोकतान्त्रिक समाज है। इसमें राजनीति की मुख्य शक्ति राष्ट्रपति के पास होती है। उपराष्ट्रपति की स्थिति उससे निम्न होती है। प्रत्येक समाज में दो वर्ग पाए जाते हैं तथा वह है शासक वर्ग व शासित वर्ग शासक वर्ग की स्थिति शासित वर्ग से उच्च होती है। प्रशासनिक व्यवस्था में विभिन्न अफसरों को उनकी नौकरी के स्वरूप के अनुसार ही स्थिति प्राप्त होती है। सोरोकिन के अनुसार, “यदि राजनीतिक संगठन में विस्तार होता है तो राजनीतिक स्तरीकरण बढ़ जाता है।”

राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक स्तरीकरण में भी complexity बढ़ती जाती है। यदि किसी क्रान्ति के कारण राजनीतिक व्यवस्था में एक दम परिवर्तन आ जाता है तो राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है। भारत में वैसे तो कई राजनीतिक पार्टियां पाई जाती हैं परन्तु जिस पार्टी की स्थिति उच्च होती है वह ही देश पर राज करती है। प्राचीन कबाइली समाज में प्रत्येक कबीले का एक मुखिया होता था जो अपने कबीले की समस्याएं दूर करता था तथा अपने कबीले के प्रति वफ़ादार होता था। राजाओं महाराजाओं के समय राजा के हाथ में शासन होता था, वह जिस तरह चाहता था उस तरह ही अपने राज्य को चलाता था।

परिवार में राजनीति होती है। पिता की स्थिति सब से उच्च होती है। देश के प्रशासन में सब से उच्च स्थिति राष्ट्रपति की होती है। फिर उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप-मन्त्री इत्यादि की बारी आती है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में कुछ नेता ऊँचे कद के होते हैं तथा कुछ निम्न कद के। कुछ नेता राष्ट्रीय स्तर के होते हैं तथा कुछ प्रादेशिक स्तर के होते हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर की तथा कुछ प्रादेशिक स्तर की होती हैं। उस पार्टी की स्थिति उच्च होगी जिसके हाथ में राजनीतिक सत्ता होती है तथा उस पार्टी की स्थिति निम्न रहेगी जिसके पास सत्ता नहीं होती। उदाहरणतः आज बी० जे० पी० की केन्द्र सरकार होने के कारण उसकी स्थिति उच्च है तथा कांग्रेस की स्थिति निम्न है।

(iii) आर्थिक आधार (Economic basis)-कार्ल मार्क्स के अनुसार आर्थिक आधार ही सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य आधार है। उनके अनुसार समाज में हमेशा दो ही वर्ग पाए जाते हैं
(a) उत्पादन के साधनों के मालिक (Owners of means of production)
(b) उत्पादन के साधनों से दूर (Those who don’t have means of production)

जो व्यक्ति उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं, उनकी स्थिति समाज में उच्च होती है। इनको कार्ल मार्क्स ने पूंजीपति का नाम दिया है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग होता है जो पूंजीपति लोगों के अधीन कार्य करता है। पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग का पूर्ण शोषण करता है। समाज में पैसे के आधार पर समाज को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जाता है-

  1. उच्च वर्ग (Higher Class)
  2. मध्यम वर्ग (Middlwe Class)
  3. निम्न वर्ग (Lower Class)

इस प्रकार इन वर्गों में श्रेष्ठता तथा हीनता वाले सम्बन्ध पाए जाते हैं। सोरोकिन के अनुसार, स्तरीकरण के आधार के रूप में आर्थिक तत्त्वों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। मुख्य उतार-चढ़ाव दो तरह का होता है-आर्थिक क्षेत्र में किसी भी समूह की उन्नति तथा गिरावट तथा स्तरीकरण की प्रक्रिया में आर्थिक तत्त्वों की महता का कम या ज्यादा होना। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक पिरामिड की ऊँचाई की तरफ बढ़ना तथा एक स्तर पर पहुँच कर चौड़ाई में बढ़ना तथा ऊँचाई की तरफ बढ़ने से रुकना।

संक्षेप में हम आधुनिक समाज को औद्योगिक समाज का नाम देते हैं। इस समाज में व्यक्ति का सम्पत्ति पर अधिकार होना या न होना स्तरीकरण का आधार होता है। इस प्रकार आर्थिक आधार भी स्तरीकरण के आधारों में से मुख्य माना गया है।

(iv) शिक्षा के आधार पर (On the basis of education) शिक्षा के आधार पर भी हम समाज को स्तरीकृत कर सकते हैं। शिक्षा के आधार पर समाज को दो भागों में स्तरीकृत किया जाता है-एक तो है पढ़ा-लिखा वर्ग तथा दूसरा है अनपढ़ वर्ग। इस प्रकार पढ़े-लिखे वर्ग की स्थिति अनपढ़ वर्ग से उच्च होती है। जो व्यक्ति परिश्रम करके उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं तो समाज में उनको ज्यादा इज्जत प्राप्त हो जाती है। आधुनिक समाज में स्तरीकरण का यह आधार भी महत्त्वपूर्ण होता है। समाज में पढ़े-लिखे व्यक्ति की इज्जत अनपढ़ से ज्यादा होती है। अब एक प्रोफैसर की स्थिति, जिसने पी० एच० डी० की है, निश्चित रूप से मौट्रिक पास व्यक्ति से उच्च होगी। एक इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक की स्थिति चपड़ासी से उच्च होगी क्योंकि उन्होंने चपड़ासी से ज्यादा शिक्षा प्राप्त की है। इस तरह शिक्षा के आधार पर भी समाजों में स्तरीकरण होता है।

(v) धार्मिक आधार (Religious basis)-धार्मिक आधार पर भी समाज को स्तरीकृत किया जाता है। प्राचीन हिन्दू भारतीय समाज में धार्मिक व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती थी क्योंकि वह धार्मिक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते थे तथा उस ज्ञान को आगे पहुंचाते थे। भारतीय समाज में कई प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। प्रत्येक धर्म को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको दूसरे धार्मिक समूहों से ऊंचा समझने लग जाता है। इस प्रकार धर्म के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण पाया जाता है। भारत में बहुत सारे धर्म हैं जो अपने आपको और धर्मों से श्रेष्ठ समझते हैं। प्रत्येक धर्म के व्यक्ति यह कहते हैं कि उनका धर्म और धर्मों से अच्छा है। एक धर्म, जिसके सदस्यों की संख्या ज्यादा है, निश्चित रूप से दूसरे धर्मों से उच्च कहलवाया जाएगा। हम भारत में हिन्दू तथा इसाई धर्म की उदाहरण ले सकते हैं। इस तरह धर्म के आधार पर भी स्तरीकरण पाया जाता है।

(vi) रक्त सम्बन्धी आधार (On the basis of blood relations) व्यक्ति जिस वंश में जन्म लेता है, उसके आधार पर भी समाज में उसको उच्च या निम्न स्थान प्राप्त होता है। जैसे राजा का पुत्र बड़ा होकर राजा के पद पर विराजमान हो जाता था। इस प्रकार व्यक्ति को समाज में कई बार सामाजिक स्थिति परिवार के आधार पर भी प्राप्त होती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के अलग-अलग महत्त्वपूर्ण आधार हैं। इसके बहुत सारे भेद होते हैं जिनके आधार पर समाज में असमानताएं पाई जाती हैं।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 3.
जाति व्यवस्था क्या होती है ? घूर्ये द्वारा दी गई विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
शब्द जाति अंग्रेजी भाषा के शब्द Caste का हिन्दी रूपांतर है। शब्द Caste पुर्तगाली भाषा के शब्द Casta में से निकला है जिसका अर्थ नस्ल अथवा प्रजाति है। शब्द Caste लातिनी भाषा के शब्द Castus से भी सम्बन्धित है जिसका अर्थ शुद्ध नस्ल है। प्राचीन समय में चली आ रही जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित होती थी तथा व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता था वह उसे तमाम आयु परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्राचीन समय में तो व्यक्ति के जन्म से ही उसका कार्य, उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाते थे क्योंकि उसे अपनी जाति का परंपरागत पेशा अपनाना पड़ता था तथा उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार ही उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित हो जाती थी। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों के जीवन पर बहुत सी पाबन्दियां लगाती थीं तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए इन पाबन्दियों को मानना आवश्यक होता था।

इस प्रकार जाति व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति के ऊपर जाति के नियमों के अनुसार कई पाबंदियां थीं। जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है जो अपने सदस्यों के जीवन सम्बन्धों, पेशे इत्यादि के ऊपर कई प्रकार के प्रतिबंध रखता है। यह व्यवस्था भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण आधारों में से एक थी तथा यह इतनी शक्तिशाली थी कि कोई भी व्यक्ति इसके विरुद्ध कार्य करने का साहस नहीं करता था।

परिभाषाएं (Definitions)-जाति व्यवस्था की कुछ परिभाषाएं प्रमुख समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों द्वारा दी गई हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1. राबर्ट बीयरस्टेड (Robert Bierstdt) के अनुसार, “जब वर्ग व्यवस्था की संरचना एक अथवा अधिक विषयों पर पूर्णतया बंद होती है तो उसे जाति व्यवस्था कहते हैं।”

2. रिज़ले (Rislay) के अनुसार, “जाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का संकलन है जिसका एक समान नाम होता है तथा जो काल्पनिक पूर्वज-मनुष्य अथवा दैवीय के वंशज होने का दावा करते हैं, जो समान पैतृक कार्य अपनाते हैं तथा वह विचारक जो इस विषय पर राय देने योग्य हैं, इसे समजातीय समूह मानते हैं।”

3. ब्लंट (Blunt) के अनुसार, “जाति एक अन्तर्वैवाहिक समूह अथवा अन्तर्वैवाहिक समूहों का एकत्र है जिसका एक नाम है, जिसकी सदस्यता वंशानुगत है, जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाती है, एक आम परम्परागत पेशे को अपनाती है अथवा एक आम उत्पत्ति की दावा करती है तथा साधारण एक समरूप समुदाय को बनाने वाली समझी जाती है।”

4. मार्टिनडेल तथा मोना चेसी (Martindale and Mona Chesi) के अनुसार, “जाति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसमें किसी व्यक्ति के कर्त्तव्य तथा विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित होते हैं, जिसे संस्कारों तथा धर्म की तरफ से मान्यता तथा स्वीकृति प्राप्त होती है।”

जाति व्यवस्था के कुछ लक्षण जी० एस० घर्ये ने दिए हैं:-

(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन
(ii) अलग-अलग हिस्सों में पदक्रम
(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां
(iv) भिन्न-भिन्न जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार
(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी
(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दी।

अब हम घूर्ये द्वारा दी विशेषताओं का वर्णन विस्तार से करेंगे-

(i) समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society) जाति व्यवस्था हिन्दू समाज को कई भागों में बांट देती है जिसमें प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर देती है। इस वजह से सदस्यों के बीच किसी विशेष समूह का हिस्सा होने के कारण चेतना होती है तथा इसी वजह से ही वह अपने आप को उस समूह का अटूट अंग समझने लग जाता है। समाज की इस तरह हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों के अन्तर्कार्यों का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता है। यह भी देखने में आया है कि अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के तरीके तथा रस्मों-रिवाज अलग-अलग होते हैं। एक जाति के लोग अधिकतर अपनी जाति के सदस्यों के साथ ही अन्तक्रिया करते हैं। इस प्रकार घूर्ये के अनुसार प्रत्येक जाति अपने आप में पूर्ण सामाजिक जीवन बिताने वाली सामाजिक इकाई होती है।

(ii) पदक्रम (Hierarchy) भारत के अधिकतर भागों में ब्राह्मण वर्ण को सबसे उच्च दर्जा दिया गया था। जाति व्यवस्था में एक निश्चित पदक्रम देखने को मिलता है। इस व्यवस्था में उच्च तथा निम्न जातियों का दर्जा तो लगभग निश्चित ही होता है परन्तु बीच वाली जातियों में कुछ अस्पष्टता है। परन्तु फिर भी दूसरे स्थान पर क्षत्रिय तथा तीसरे स्थान पर वैश्य आते थे।

(iii) सामाजिक मेल-जोल तथा खाने-पीने सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on feeding and social intercourse)-जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट तथा विस्तृत नियम मिलते हैं जो यह बताते हैं कि कोई व्यक्ति किस जाति से सामाजिक मेल-जोल रख सकता है तथा कौन-सी जातियों से खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। सम्पूर्ण भोजन को कच्चे तथा पक्के भोजन की श्रेणी में रखा जाता है। कच्चे भोजन को पकाने के लिए पानी का प्रयोग तथा पक्के भोजन को पकाने के लिए घी का प्रयोग होता है। जाति प्रथा में अलग-अलग जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध में प्रतिबन्ध लगे होते हैं।

(iv) अलग-अलग जातियों की नागरिक तथा धार्मिक असमर्थाएं तथा विशेषाधिकार (Civil and religious disabilities and priviledges of various castes)—अलग-अलग जातियों के विशेष नागरिक तथा धार्मिक अधिकार तथा निर्योग्यताएं होती थीं। कुछ जातियों के साथ किसी भी प्रकार के मेल-जोल पर पाबन्दी थी। वह मंदिरों में भी नहीं जा सकते थे तथा कुँओं से पानी भी नहीं भर सकते थे। उन्हें धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। उनके बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था। परन्तु कुछ जातियां ऐसी भी थीं जिन्हें अन्य जातियों पर कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे।

(v) मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबन्दी (Lack of unrestricted choice of occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार कुछ जातियों के विशेष, परम्परागत तथा पैतृक पेशे होते थे। जाति के सदस्यों को परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था चाहे अन्य पेशे कितने भी लाभदायक क्यों न हों। परन्तु कुछ पेशे ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी कर सकता था। इसके साथ बहुत-सी जातियों के पेशे निश्चित होते थे।

(vi) विवाह सम्बन्धी पाबन्दियां (Restrictions on Marriage)-भारत के बहुत से हिस्सों में जातियों तथा उपजातियों में विभाजन मिलता है। यह उपजाति समूह अपने सदस्यों को बाहर वाले व्यक्तियों के साथ विवाह करने से रोकते थे। जाति व्यवस्था की विशेषता उसका अन्तर्वैवाहिक होना है। व्यक्ति को अपनी उपजाति से बाहर ही विवाह करवाना पड़ता था। विवाह सम्बन्धी नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को उसकी जाति से बाहर निकाल दिया जाता था।

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प्रश्न 4.
जाति प्रथा की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
1. सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी (Membership was based on birth)-जाति व्यवस्था की सबसे पहली विशेषता यह थी कि इसकी सदस्यता व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यता के ऊपर नहीं बल्कि उसके जन्म पर आधारित होती थी। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति का निर्धारण नहीं कर सकता। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसकी स्थिति उसी के अनुसार निश्चित हो जाती थी। व्यक्ति में जितनी चाहे मर्जी योग्यता क्यों न हो वह अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था।

2. सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबंध (Restrictions on Social relations)-प्राचीन समय में समाज को अलग-अलग वर्गों के बीच विभाजित किया गया था तथा धीरे-धीरे इन वर्गों ने जातियों का रूप ले लिया। सामाजिक संस्तरण में किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से अच्छी थी तथा किसी वर्ण की स्थिति अन्य वर्गों से निम्न थी। इस प्रकार सामाजिक संस्तरण के अनुसार उनके बीच सामाजिक सम्बन्ध भी निश्चित हो गए। यही कारण है कि अलग-अलग वर्गों में उच्च निम्न की भावना पाई जाती थी। इन अलग-अलग जातियों के ऊपर एक दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखने के ऊपर प्रतिबन्ध थे तथा वह एक-दूसरे से दूरी बना कर रखते थे। कुछ जातियों को तो पढ़ने-लिखने कुँओं से पानी भरने तथा मन्दिरों में जाने की भी आज्ञा नहीं थी। प्राचीन समय में ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उपनयान संस्कार पूर्ण करना पड़ता था। कुछेक वर्गों के लिए तो इस संस्कार को पूर्ण करने के लिए आयु निश्चित की गई थी, परन्तु कुछ को तो वह संस्कार पूर्ण करने की आज्ञा ही नहीं थी। इस प्रकार अलग-अलग जातियों के बीच सामाजिक सम्बन्धों को रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।

3. खाने-पीने पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Eatables) जाति व्यवस्था में कुछ ऐसे स्पष्ट नियम मिलते थे जो यह बताते थे कि किस व्यक्ति ने किसके साथ सम्बन्ध रखने थे अथवा नहीं तथा वह किन जातियों के साथ खाने-पीने के सम्बन्ध स्थापित कर सकते थे। सम्पूर्ण भोजन को दो भागों में विभाजित किया गया था तथा वह थे कच्चा भोजन तथा पक्का भोजन। कच्चा भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए पानी का प्रयोग होता था तथा पक्का भोजन वह होता था जिसे बनाने के लिए घी का प्रयोग होता था। साधारण नियम यह था कि कोई व्यक्ति कच्चा भोजन उस समय तक नहीं खाता था जब तक कि वह उसकी अपनी ही जाति के व्यक्ति की तरफ से तैयार न किया गया हो। इसलिए बहत-सी जातियां ब्राह्मण द्वारा कच्चा भोजन स्वीकार कर लेती थी परन्तु इसके विपरीत ब्राह्मण किसी अन्य जाति के व्यक्ति से कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करते थे। पक्के भोजन को भी किसी विशेष जाति के व्यक्ति की तरफ से ही स्वीकार किया जाता था। इस प्रकार जाति व्यवस्था ने अलग-अलग जातियों के बीच खाने-पीने के सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगाए हुए थे तथा सभी के लिए इनकी पालना करनी ज़रूरी थी।

4. मनमर्जी का पेशा अपनाने पर पाबंदी (Restriction on Occupation)-जाति व्यवस्था के नियमों के अनुसार प्रत्येक जाति का कोई न कोई पैतृक तथा परंपरागत पेशा होता था तथा व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसे उसी जाति का परम्परागत पेशा अपनाना पड़ता था। व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता था। उसे बचपन से ही अपने परम्परागत पेशे की शिक्षा मिलनी शुरू हो जाती थी तथा जवान होते-होते वह उस कार्य में निपुण हो जाता है। चाहे कुछ कार्य ऐसे भी थे जिन्हें कोई भी व्यक्ति कर सकता था जैसे कि व्यापार, कृषि, मज़दूरी, सेना में नौकरी इत्यादि। परन्तु फिर भी अधिकतर लोग अपनी ही जाति का पेशा अपनाते. थे। इस समय चार मुख्य वर्ण होते थे। पहले वर्ण का कार्य पढ़ना, पढ़ाना तथा धार्मिक कार्यों को पूर्ण करवाना था। दूसरे वर्ण का कार्य देश की रक्षा करना तथा राज्य चलाना था। तीसरे वर्ण का कार्य व्यापार करना, कृषि करना इत्यादि था। चौथे तथा अन्तिम वर्ण का कार्य ऊपर वाले तीनों वर्गों की सेवा करना था तथा इन्हें अपने परम्परागत कार्य ही करने पड़ते थे।

5. जाति अन्तर्वैवाहिक होती है (Caste is endogamous)-जाति व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता था अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करवाना पड़ता था। जाति व्यवस्था बहुत-सी जातियों तथा उपजातियों में विभाजित होती थी। यह उपजातियां अपने सदस्यों को अपने समूह से बाहर विवाह करने की आज्ञा नहीं देती। अगर कोई इस नियम को तोड़ता था तो उसे जाति अथवा उपजाति से बाहर निकाल दिया जाता था। परन्तु अन्तर्विवाह के नियम में कुछ छूट भी मौजूद थी। किसी विशेष स्थिति में अपनी जाति से बाहर विवाह करवाने की आज्ञा थी। परन्तु साधारण नियम यह था कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था। इस प्रकार सभी जातियों के लोग अपने समूहों में ही विवाह करवाते थे।

6. समाज का अलग-अलग हिस्सों में विभाजन (Segmental division of Society)-जाति व्यवस्था द्वारा हिन्दू समाज को कई भागों में विभाजित कर दिया गया था तथा प्रत्येक हिस्से के सदस्यों का दर्जा, स्थान तथा कार्य निश्चित कर दिये गए थे। इस कारण ही सदस्यों में अपने समूह का एक हिस्सा होने की चेतना उत्पन्न होती थी अर्थात् वह अपने आप को उस समूह का अभिन्न अंग समझने लग जाते थे। समाज के इस प्रकार अलग-अलग हिस्सों में विभाजन के कारण एक जाति के सदस्यों की सामाजिक अन्तक्रिया का दायरा अपनी जाति तक ही सीमित हो जाता था। जाति के नियमों को न मानने वालों को जाति पंचायत की तरफ से दण्ड दिया जाता था। अलग-अलग जातियों के रहने-सहने के ढंग तथा रस्मों-रिवाज भी अलग-अलग ही होते थे। प्रत्येक जाति अपने आप में एक सम्पूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत करने वाली सामाजिक इकाई होती थी।

7. पदक्रम (Hierarchy)–जाति व्यवस्था में अलग-अलग जातियों के बीच एक निश्चित पदक्रम मिलता था जिसके अनुसार यह पता चलता था कि किस जाति की सामाजिक स्थिति किस प्रकार की थी तथा उनमें किस प्रकार के सम्बन्ध पाए जाते थे। चारों जातियों की इस व्यवस्था में एक निश्चित स्थिति होती थी तथा उनके कार्य भी उस संस्तरण तथा स्थिति के अनुसार निश्चित होते थे। कोई भी इस व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह नहीं खड़ा कर सकता था क्योंकि यह व्यवस्था तो सदियों से चली आ रही थी।

प्रश्न 5.
जाति प्रथा के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
अलग-अलग समाजशास्त्रियों तथा मानव वैज्ञानिकों ने भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन किया तथा अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की है। उन्होंने जाति प्रथा के अलग-अलग कार्यों का भी वर्णन किया है। उन सभी के जाति प्रथा के दिए कार्यों के अनुसार जाति प्रथा के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों का वर्णन इस प्रकार हैं-

1. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation) जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पैतृक गुणों वाली निपुणता स्वयं ही उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि जिस परिवार में वह पैदा होता है उससे पेशे सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार बिना कोई औपचारिक शिक्षा लिए उसका विशेषीकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा समाज में होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती है तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है इस प्रकार जाति प्रथा व्यक्ति के कार्य का निर्धारण करती है।

2. सामाजिक सुरक्षा (Social Security)-जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के अन्य सदस्यों की सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसे इस बात का पता होता है कि अगर उसके ऊपर किसी प्रकार का आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का संकट आएगा तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा दो प्रकार से सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। पहली तो यह सदस्यों की सामाजिक स्थिति को निश्चित करती है तथा दूसरी यह उनकी प्रत्येक प्रकार के संकट से रक्षा करती है। इस प्रकार जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।

3. मानसिक सुरक्षा (Mental Security)-जाति व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति तथा भूमिका निर्धारित होती है। उसने कौन-सा पेशा अपनाना है, कैसी शिक्षा लेनी है, कहां पर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने हैं तथा किस जाति से किस प्रकार का व्यवहार करना है। यह सब कुछ जाति के नियमों द्वारा ही निश्चित किया जाता है। इससे व्यक्ति को किसी प्रकार की अनिश्चिता का सामना नहीं करना पड़ता। उसके अधिकार तथा कर्त्तव्य अच्छी तरह स्पष्ट होते हैं। जाति ही सभी नियमों का निश्चय करती है। इस प्रकार व्यक्ति के जीवन की जो समस्याएं अथवा मुश्किलें होती हैं उन्हें जाति बहुत ही आसानी से सुलझा लेती है। इससे व्यक्ति को दिमागी तथा मानसिक सुरक्षा प्राप्त हो जाती है।

4. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)-चाहे वैज्ञानिक आधार पर यह मानना मुश्किल है, परन्तु यह कहा जाता है कि जाति रक्त की शुद्धता बना कर रखती है क्योंकि यह एक अन्तर्वैवाहिक समूह होता है। अन्तर्वैवाहिक होने के कारण एक जाति के सदस्य किसी अन्य जाति के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करते तथा उनका रक्त उन्हीं में शुद्ध रह जाता है। अन्य समाजों में भी रक्त की शुद्धता बनाकर रखने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु इससे कई प्रकार की मुश्किलें तथा संघर्ष उत्पन्न हो गए हैं। फिर भी भारत में यह नियम पूर्ण सफलता के साथ चला था। जाति में विवाह सम्बन्धी कठोर पाबन्दियां थीं। कोई भी अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करवा सकता था। यही कारण है कि जाति के विवाह जाति में ही होते थे। इस नियम को तोड़ने वाले व्यक्ति को जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। इससे रक्त की शुद्धता बनी रहती थी।

5. राजनीतिक स्थायित्व (Political Stability)-जाति व्यवस्था हिन्दू राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य आधार थी। राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार तथा कर्त्तव्य उसकी जाति निर्धारित करती थी क्योंकि लोगों का जाति के नियमों पर विश्वास दैवीय शक्तियों से भी अधिक होता था। इस कारण जाति के नियमों को मानना प्रत्येक व्यक्ति का मुख्य कर्त्तव्य था। आजकल तो अलग-अलग जातियों ने अपने-अपने राजनीतिक संगठन बना लिए हैं जो चुनावों के बाद अपने सदस्यों की सहायता करते हैं तथा जीतने के बाद अपनी जाति के लोगों का विशेष ध्यान रखते हैं। इस प्रकार जाति के सदस्यों को लाभ होता है। इस प्रकार यह जाति का राजनीतिक कार्य होता है।

6. शिक्षा सम्बन्धी नियमों का निश्चय (Fixing rules of education)-जाति व्यवस्था अलग-अलग जातियों के लिए विशेष प्रकार की शिक्षा का निर्धारण करती थी। इस प्रकार की शिक्षा का आधार धर्म था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को पेशे सम्बन्धी जानकारी भी देती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य सम्बन्धी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती है। इस प्रकार जाति व्यवस्था व्यक्ति को सैद्धान्तिक तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करती थी। जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा लेने के नियम बनाती थी। जाति ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति का व्यक्ति कितने समय के लिए शिक्षा प्राप्त करेगा तथा कौन-कौन से नियमों की पालना करेगा। इस प्रकार जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए उस जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

7. तकनीकी रहस्यों को गुप्त रखना (To preserve technical secrets)-प्रत्येक जाति के कुछ परम्परागत कार्य होते थे। उस परम्परागत कार्य के कुछ तकनीकी रहस्य भी होते थे जो केवल उसे करने वालों को ही पता होते हैं। इस प्रकार जब यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते थे तो यह तकनीकी रहस्य भी अगली पीढ़ी के पास चले जाते थे। क्योंकि यह कार्य केवल उस जाति ने करने होते थे इसलिए यह भेद भी जाति तक ही रहते थे। इनका रहस्य भी नहीं खुलता था। इस प्रकार जाति तकनीकी भेदों को गुप्त रखने का भी कार्य करती थी।

8. सामाजिक एकता (Social Unity) हिन्दू समाज को एकता में बाँधकर रखने में जाति व्यवस्था ने काफ़ी महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में बाँट दिया था तथा प्रत्येक भाग के कार्य भी अलग-अलग ही थे। जैसे श्रम विभाजन में कार्य अलग-अलग होते हैं वैसे ही जाति व्यवस्था ने भी सभी को अलग-अलग कार्य दिए थे। इस प्रकार सभी भाग अलग-अलग कार्य करते हुए एक-दूसरे की सहायता करते तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस कारण ही अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

9. व्यवहार पर नियन्त्रण (Control on behaviour)-जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति तथा उसके सदस्यों के लिए नियम बनाए हुए थे कि किस व्यक्ति ने किस प्रकार का व्यवहार करना है। जाति प्रथा के नियमों के कारण ही व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को नियन्त्रण में रखता था तथा उन नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करता था। शिक्षा, विवाह, खाने-पीने, सामाजिक सम्बन्धों इत्यादि जैसे पक्षों के लिए जाति प्रथा के नियम होते थे जिस कारण व्यक्तिगत व्यवहार नियन्त्रण में रहते थे।

10. विवाह सम्बन्धी कार्य (Function of Marriage)-प्रत्येक जाति अन्तर्वैवाहिक होती थी अर्थात् व्यक्ति को अपनी ही जाति तथा उपजाति के अन्दर ही विवाह करवाना पड़ता था। जाति प्रथा का यह सबसे महत्त्वपूर्ण नियम था कि व्यक्ति अपने वंश अथवा परिवार से बाहर विवाह करवाएगा परन्तु वह अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करवाएगा। यदि कोई अपनी जाति अथवा उपजाति से बाहर विवाह करवाता था तो उसे जाति से बाहर निकाल दिया जाता था। इस प्रकार जाति विवाह सम्बन्धी कार्य भी पूर्ण करती थी।

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प्रश्न 6.
जाति प्रथा के गुणों तथा अवगुणों का वर्णन करें।
उत्तर-
जाति अपने आप में एक ऐसा समूह है जिसने हिन्दू समाज तथा भारत में बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है। जितना कार्य अकेला जाति व्यवस्था ने किया है उतने कार्य अन्य संस्थाओं ने मिल कर भी नहीं किए होंगे। इससे हम देखते हैं कि जाति व्यवस्था के बहुत से गुण हैं। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ कुछ अवगुण भी हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

जाति व्यवस्था के गुण अथवा लाभ (Merits or Advantages of Caste System)-

1. सामाजिक सुरक्षा देना (To give social security)—जाति प्रथा का सबसे बड़ा गुण यह है कि यह अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक जाति के सदस्य अपनी जाति के सदस्यों की सहायता करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन्हें इस बात का पता होता है कि अगर उन्हें किसी प्रकार की समस्या आएगी तो उसकी जाति हमेशा उसकी सहायता करेगी। जाति प्रथा सदस्यों की सामाजिक स्थिति भी निश्चित करती थी तथा प्रतियोगिता की सम्भावना को भी कम करती थी।

2. पेशे का निर्धारण (Fixation of Occupation)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशेष पेशे अथवा कार्य का निर्धारण करती थी। यह कार्य उसके वंश के अनुसार होता था तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इसका हस्तांतरण होता रहता था। प्रत्येक बच्चे में अपने पारिवारिक कार्य के प्रति गुण स्वयं ही पैदा हो जाते थे। जिस परिवार में बच्चा पैदा होता था उससे कार्य सम्बन्धी वातावरण उसे स्वयं ही प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार बिना किसी औपचारिक शिक्षा के विशेषीकरण हो जाता था। इसके साथ ही जाति व्यवस्था समाज में पेशे के लिए होने वाली प्रतियोगिता को भी रोकती थी तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती थी। इस प्रकार जाति व्यवस्था का यह गुण काफ़ी महत्त्वपूर्ण था।

3. रक्त की शुद्धता (Purity of Blood)—जाति प्रथा एक अन्तर्वैवाहिक समूह है। अन्तर्वैवाहिक का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी जाति में ही विवाह करवाना पड़ता था तथा अगर कोई इस नियम को नहीं मानता था तो उसे जाति में से बाहर निकाल दिया जाता था। ऐसा करने का यह लाभ होता था कि बाहर वाली किसी जाति के साथ रक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं होते थे तथा अपनी जाति के रक्त की शुद्धता बनी रहती थी। इस प्रकार जाति का एक गुण यह भी था कि यह रक्त की शुद्धता बनाए रखने में सहायता करती थी।

4. श्रम विभाजन (Division of Labour)-जाति व्यवस्था का एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण यह था कि यह सभी व्यक्तियों में अपने कर्त्तव्य के प्रति प्रेम तथा निष्ठा की भावना उत्पन्न करती थी। निम्न प्रकार के कार्य भी व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझ कर अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था अपने सदस्यों में यह भावना भर देती थी कि प्रत्येक सदस्य को उसके पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में पेशा मिला है। उसे यह भी विश्वास दिलाया जाता था कि वर्तमान कर्त्तव्यों को पूर्ण करने से ही अगले जन्म में उच्च स्थिति प्राप्त होगी। इसका लाभ यह था कि निराशा खत्म हो गई तथा सभी अपना कार्य अच्छी तरह करते थे। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया हुआ था तथा इन चारों भागों को अपने कार्यों का अच्छी तरह से पता था। यह सभी अपना कार्य अच्छे ढंग से करते थे तथा समय के साथ-साथ अपने पेशे के रहस्य अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देते थे। इस प्रकार समाज में पेशे के प्रति स्थिरता बनी रही थी तथा श्रम विभाजन के साथ विशेषीकरण भी हो जाता था।

5. शिक्षा के नियम बनाना (To make rules of education)-जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने शिक्षा लेने के सम्बन्ध में निश्चित नियम बनाए हुए थे तथा धर्म को शिक्षा का आधार बनाया हुआ था। शिक्षा व्यक्ति को आत्म नियन्त्रण, पेशे सम्बन्धी जानकारी तथा अनुशासन में रहना सिखाती है। शिक्षा व्यक्ति को कार्य संबंधी तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी जानकारी भी देती है। जाति व्यवस्था ही यह निश्चित करती थी कि किस जाति के व्यक्ति ने कितनी शिक्षा लेनी है तथा कौन-से नियमों का पालन करना है। इस प्रकार जाति व्यवस्था ही प्रत्येक सदस्य के लिए उसकी जाति की सामाजिक स्थिति के अनुसार शिक्षा का प्रबन्ध करती थी।

6. सामाजिक एकता को बना कर रखना (To maintain social unity)—जाति व्यवस्था का एक अन्य गुण यह था कि इसने हिन्दू समाज को एकता में बाँध कर रखा। जाति व्यवस्था ने समाज को चार भागों में विभाजित किया था तथा प्रत्येक भाग को अलग-अलग कार्य भी दिए थे। जिस प्रकार श्रम विभाजन में प्रत्येक का कार्य अलगअलग होता है उसी प्रकार जाति व्यवस्था ने भी समाज में श्रम विभाजन को पैदा किया था। यह सभी भाग अलगअलग कार्य करते थे तथा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते थे। इस प्रकार अलग-अलग समूहों में विभाजित होने के बावजूद भी सभी समूह एक-दूसरे के साथ एकता में बंधे रहते थे।

जाति व्यवस्था के अवगुण (Demerits of Caste System)-चाहे जाति व्यवस्था के बहुत से गुण थे तथा इसने सामाजिक एकता रखने में काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, परन्तु फिर भी इस व्यवस्था के कारण समाज में कई बुराइयां भी पैदा हो गई थीं। जाति व्यवस्था के अवगुण निम्नलिखित हैं-

1. स्त्रियों की निम्न स्थिति (Lower Status of Women) जाति व्यवस्था के कारण स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न हो गई थी। जाति व्यवस्था के नियन्त्रणों के कारण हिन्दू स्त्रियों की स्थिति परिवार में नौकरानी से अधिक नहीं थी। जाति अन्तर्वैवाहिक समूह था जिस कारण लोगों ने अपनी जाति में वर ढूंढ़ने के लिए बाल विवाह का समर्थन किया। इससे बहुविवाह तथा बेमेल विवाह को समर्थन मिला। कुलीन विवाह की प्रथा ने भी बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहुविवाह तथा दहेज प्रथा जैसी समस्याओं को जन्म दिया। स्त्रियां केवल घर पर ही कार्य करती रहती थीं। उन्हें किसी प्रकार के अधिकार नहीं थे। इस प्रकार स्त्रियों से सम्बन्धित सभी समस्याओं की जड़ ही जाति व्यवस्था थी। जाति व्यवस्था ने ही स्त्रियों की प्रगति पर पाबंदी लगा दी तथा बाल विवाह पर बल दिया। विधवा विवाह को मान्यता न दी। स्त्रियां केवल परिवार की सेवा करने के लिए ही रह गई थीं।

2. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता जैसी समस्या का जन्म भी जाति प्रथा की विभाजन की नीति के कारण ही हुआ था। कुल जनसंख्या के एक बहुत बड़े भाग को अपवित्र मान कर इसलिए अपमानित किया जाता था क्योंकि वह जो कार्य करते थे उसे अपवित्र माना जाता था। उनकी काफ़ी दुर्दशा होती थी तथा उनके ऊपर बहुत से प्रतिबंध लगे हुए थे। वह आर्थिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकते थे। इस प्रकार जाति व्यवस्था के कारण जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग समाज के ऊपर बोझ बन कर रह गया था। इस कारण समाज में निर्धनता आ गई। अलगअलग जातियों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत उत्पन्न हो गई तथा जातिवाद जैसी समस्या हमारे सामने आई।

3. जातिवाद (Casteism)—जाति व्यवस्था के कारण ही लोगों की मनोवृत्ति भी सिकुड़ती चली गई। लोग विवाह सम्बन्धों तथा अन्य प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों के लिए जाति के नियमों पर निर्भर थे जिस कारण जातिवाद की भावना बढ़ गई। उच्च तथा निम्न स्थिति के कारण लोगों में गर्व तथा हीनता की भावना उत्पन्न हो गई। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा ने उनके बीच दूरियां पैदा कर दी। इस कारण देश में जातिवाद की समस्या सामने आई। जातिवाद के कारण लोग अपने देश के बारे में नहीं सोचते तथा इस समस्या को बढ़ाते हैं।

4. सांस्कृतिक संघर्ष (Cultural Conflict)-जाति एक बंद समूह है तथा अलग-अलग जातियों में एकदूसरे के साथ सम्बन्ध रखने पर प्रतिबंध होते थे। इन सभी जातियों के रहने-सहने के ढंग अलग-अलग थे। इस सामाजिक पृथक्ता ने सांस्कृतिक संघर्ष की समस्या को जन्म दिया। अलग-अलग जातियां अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों में विभाजित हो गईं। इन समूहों में कई प्रकार के संघर्ष देखने को मिलते थे। कुछ जातियां अपनी संस्कृति को उच्च मानती थीं जिस कारण वह अन्य समूहों से दूरी बना कर रखती थी। इस कारण उनमें संघर्ष के मौके पैदा होते रहते थे।

5. सामाजिक गतिशीलता को रोकना (To stop social mobility)-जाति व्यवस्था में स्थिति का विभाजन जन्म के आधार पर होता था। कोई भी व्यक्ति अपनी जाति परिवर्तित नहीं कर सकता था। प्रत्येक सदस्य को अपनी सामाजिक स्थिति के बारे में पता होता था कि यह परिवर्तित नहीं हो सकती, इसी तरह ही रहेगी। इस भावना ने आलस्य को बढ़ाया। इस व्यवस्था में वह प्रेरणा नहीं होती, जिसमें व्यक्ति अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित होते थे क्योंकि वह परिश्रम करके भी अपनी सामाजिक स्थिति परिवर्तित नहीं कर सकते थे। यह बात आर्थिक प्रगति में भी रुकावट बनती थी। योग्यता होने के बावजूद भी लोग नया आविष्कार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्हें अपना पैतृक कार्य अपनाना पड़ता था। पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा के कारण भारत में कई प्रकार के उद्योग पिछड़े हुए थे क्योंकि जाति व्यवस्था उन्हें ऐसा करने से रोकती थी।

6. कार्य कुशलता में रुकावट (Obstacle in efficiency)—प्राचीन समय में व्यक्तियों में कार्य-कुशलता में कमी होने का प्रमुख कारण जाति व्यवस्था तथा जाति का नियन्त्रण था। सभी जातियों के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करते थे बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इसके साथ ही जातियां धार्मिक संस्कारों पर इतना बल देती थी कि लोगों का अधिकतर समय तो इन संस्कारों को पूर्ण करने में ही निकल जाता था। जातियों में पेशा वंश के अनुसार होता था तथा लोगों को अपना परम्परागत पेशा ही अपनाना पड़ता था चाहे उनमें उस कार्य के प्रति योग्यता होती थी अथवा नहीं। इस कारण उनमें कार्य के प्रति उदासीनता आ जाती थी।

7. जाति व्यवस्था तथा प्रजातन्त्र (Caste System and Democracy) —जाति व्यवस्था आधुनिक प्रजातन्त्रीय शासन के विरुद्ध है। समानता, स्वतन्त्रता तथा सामाजिक चेतना प्रजातन्त्र के तीन आधार हैं, परन्तु जाति व्यवस्था इन सिद्धान्तों के विरुद्ध जाकर भाग्य के सहारे रहने वाले समाज का निर्माण करती थी। यह व्यवस्था असमानता पर आधारित थी। जाति व्यक्ति को अपने नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने की आज्ञा देती थी जोकि प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध है। कुछ जातियों पर बहुत से प्रतिबंध लगा दिए गए थे जिस कारण योग्यता होते हुए भी वह समाज में ऊपर उठ नहीं सकते थे। इन लोगों की स्थिति नौकरों जैसी होती थी जोकि प्रजातन्त्र के समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

प्रश्न 7.
वर्ग के विभाजन के अलग-अलग आधारों का वर्णन करो।
उत्तर-
वर्ग की व्याख्या व विशेषताओं के आधार पर हम वर्ग के विभाजन के कुछ आधारों का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया गया है
(1) परिवार व रिश्तेदार (2) सम्पत्ति व आय, पैसा (3) व्यापार (4) रहने के स्थान की दिशा (5) शिक्षा (6) शक्ति (7) धर्म (8) नस्ल (9) जाति (10) स्थिति चिन्ह।

1. परिवार व रिश्तेदारी (Family and Kinship)—परिवार व रिश्तेदारी भी वर्ग की स्थिति निर्धारित करने के लिए जिम्मेवार होता है। बीयरस्टेड के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार व रिश्तेदारी का महत्त्व सारे समाज में बराबर नहीं होता, बल्कि यह तो अनेक आधारों में एक विशेष आधार है जिसका उपयोग सम्पूर्ण व्यवस्था में एक अंग के रूप में किया जा सकता है। परिवार के द्वारा प्राप्त स्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। जैसे टाटा बिरला आदि के परिवार में पैदा हुई सन्तान पूंजीपति ही रहती है क्योंकि उनके बुजुर्गों ने इतना पैसा कमाया होता है कि कई पीढ़ियां यदि न भी मेहनत करें तो भी खा सकती हैं। इस प्रकार अमीर परिवार में पैदा हुए व्यक्ति को भी वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार परिवार व रिश्तेदारी की स्थिति के आधार पर भी व्यक्ति को वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।

2. सम्पत्ति, आय व पैसा (Property, Income and Money) वर्ग के आधार पर सम्पत्ति, पैसे व आय को प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण जगह प्राप्त होती है। आधुनिक समाज को इसी कारण पूंजीवादी समाज कहा गया है। पैसा एक ऐसा स्रोत है जो व्यक्ति को समाज में बहुत तेजी से उच्च सामाजिक स्थिति की ओर ले जाता है। मार्टिनडेल व मोनाचेसी (Martindal and Monachesi) के अनुसार, “उत्पादन के साधनों व उत्पादित पदार्थों पर व्यक्ति का काबू जितना अधिक होगा उसको उतनी ही उच्च वर्ग वाली स्थिति प्राप्त होती है।” प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने पैसे को ही वर्ग निर्धारण के लिए मुख्य माना। अधिक पैसा होने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अमीर है। उनकी आय भी अधिक होती है। इस प्रकार धन, सम्पत्ति व आय के आधार पर भी वर्ग निर्धारित होता है।”

3. पेशा (Occupation)-सामाजिक वर्ग का निर्धारक पेशा भी माना जाता है। व्यक्ति समाज में किस तरह का पेशा कर रहा है, यह भी वर्ग व्यवस्था से सम्बन्धित है। क्योंकि हमारी वर्ग व्यवस्था के बीच कुछ पेशा बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाए गए हैं व कुछ पेशे कम महत्त्वपूर्ण । इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि की पारिवारिक स्थिति चाहे जैसी भी हो परन्तु पेशे के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति उच्च ही रहती है। लोग उनका आदर-सम्मान भी पूरा करते हैं। इस प्रकार कम पढ़े-लिखे व्यक्ति का पेशा समाज में निम्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पेशा भी वर्ग व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने के लिए कोई-न-कोई काम करना पड़ता है। इस प्रकार यह काम व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार करता है। वह जिस तरह का पेशा करता है समाज में उसे उसी तरह की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति गलत पेशे को अपनाकर पैसा इकट्ठा कर भी लेता है तो उसकी समाज में कोई इज्जत नहीं होती। आधुनिक समाज में शिक्षा से सम्बन्धित पेशे की अधिक महत्ता पाई जाती है।

4. रहने के स्थान की दिशा (Location of residence)—व्यक्ति किस जगह पर रहता है, यह भी उसकी वर्ग स्थिति को निर्धारित करता है। शहरों में हम आम देखते हैं कि लोग अपनी वर्ग स्थिति को देखते हुए, रहने के स्थान का चुनाव करते हैं। जैसे हम समाज में कुछ स्थानों के लिए (Posh areas) शब्द भी प्रयोग करते हैं। वार्नर के अनुसार जो परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहर के काल में पुश्तैनी घर में रहते हैं उनकी स्थिति भी उच्च होती है। कहने से भाव यह है कि कुछ लोग पुराने समय से अपने बड़े-बड़े पुश्तैनी घरों में ही रह जाते हैं। इस कारण भी वर्ग व्यवस्था में उनकी स्थिति उच्च ही बनी रहती है। बड़े-बड़े शहरों में व्यक्तियों के निवास स्थान के लिए भिन्न-भिन्न कालोनियां बनी रहती हैं। मज़दूर वर्ग के लोगों के रहने के स्थान अलग होते हैं। वहां अधिक गन्दगी भी पाई जाती है। अमीर लोग बड़े घरों में व साफ़-सुथरी जगह पर रहते हैं जबकि ग़रीब लोग झोंपड़ियों या गन्दी बस्तियों में रहते हैं।

5. शिक्षा (Education)-आधुनिक समाज शिक्षा के आधार पर दो वर्गों में बँटा हुआ होता है-

  1. शिक्षित वर्ग (Literate Class)
  2. अनपढ़ वर्ग (Illiterate Class)

शिक्षा की महत्ता प्रत्येक वर्ग में पाई जाती है। साधारणतः पर हम देखते हैं कि पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में इज्जत की नज़र से देखा जाता है। चाहे उनके पास पैसा भी न हो। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान सामाजिक स्थिति अनुसार शिक्षा की प्राप्ति को ज़रूरी समझने लगा है। शिक्षा की प्रकृति भी व्यक्ति की वर्ग स्थिति के निर्धारण के लिए जिम्मेवार होती है। औद्योगीकृत समाज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊँची होती है।

6. शक्ति (Power)-आजकल औद्योगीकरण के विकास के कारण व लोकतन्त्र के आने से शक्ति भी वर्ग संरचना का आधार बन गई है। अधिक शक्ति का होना या न होना व्यक्ति के वर्ग का निर्धारण करती है। शक्ति से व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का भी निर्धारण होता है। शक्ति कुछ श्रेष्ठ लोगों के हाथ में होती है व वह श्रेष्ठ लोग नेता, अधिकारी, सैनिक अधिकारी, अमीर लोग होते हैं। हमने उदाहरण ली है आज की भारत सरकार की। नरेंद्र मोदी की स्थिति निश्चय ही सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह से ऊँची होगी क्योंकि उनके पास शक्ति है, सत्ता उनके हाथ में है, परन्तु मनमोहन सिंह के पास नहीं है। इस प्रकार आज भाजपा की स्थिति कांग्रेस से उच्च है क्योंकि केन्द्र में भाजपा पार्टी की सरकार है।

7. धर्म (Religion)-राबर्ट बियरस्टड ने धर्म को भी सामाजिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। कई समाज ऐसे हैं जहां परम्परावादी रूढ़िवादी विचारों का अधिक प्रभाव पाया जाता है। उच्च धर्म के आधार पर स्थिति निर्धारित होती है। आधुनिक समय में समाज उन्नति के रास्ते पर चल रहा है जिस कारण धर्म की महत्ता उतनी नहीं जितनी पहले होती थी। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च होती थी परन्तु आजकल नहीं। पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति निश्चित रूप से व हिन्दुओं व ईसाइयों से बढ़िया है क्योंकि वहां राज्य का धर्म ही इस्लाम है। इस प्रकार कई बार धर्म भी वर्ग स्थिति निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

8. नस्ल (Race)-दुनिया से कई समाज में नस्ल भी वर्ग निर्माण या वर्ग की स्थिति बताने में सहायक होती है। गोरे लोगों को उच्च वर्ग का व काले लोगों को निम्न वर्ग का समझा जाता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में एशिया के देशों के लोगों को बुरी निगाह से देखा जाता है। इन देशों में नस्ली हिंसा आम देखने को मिलती है। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति काफ़ी चली है।

9. जाति (Caste)—भारत जैसे देश में जहां जाति प्रथा सदियों से भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जाति वर्ग निर्धारण का बहुत महत्त्वपूर्ण आधार थी। जाति जन्म पर आधारित होती है। जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म लिया है वह अपनी योग्यता से भी उसको बदल नहीं सकता।

10. स्थिति चिन्ह (Status symbol) स्थिति चिन्ह लगभग हर एक समाज में व्यक्ति की वर्ग व्यवस्था को निर्धारित करता है। आजकल के समय, कोठी, कार, टी० वी०, टैलीफोन, फ्रिज आदि का होना व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति के पास अच्छा जीवन व्यतीत करने वाली कितनी सुविधाएं हैं। यह सब स्थिति चिन्हों में शामिल होती हैं, जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं।

इस विवरण के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति के वर्ग के निर्धारण में केवल एक कारक ही उत्तरदायी नहीं होता, बल्कि कई कारक उत्तरदायी होते हैं।

प्रश्न 8.
जाति व वर्ग में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य आधार जाति व वर्ग हैं। जाति को एक बन्द व्यवस्था व वर्ग को एक खुली व्यवस्था कहा जाता है। पर वर्ग अधिक खुली अवस्था नहीं है क्योंकि किसी भी वर्ग को अन्दर जाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती है व उस वर्ग के सदस्य रास्ते में काफ़ी रोड़े अटकाते हैं। कई विद्वान् यह कहते हैं कि जाति व वर्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं है परन्तु दोनों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलेगा कि दोनों में काफ़ी अन्तर है। इनका वर्णन नीचे लिखा है-

1. जाति जन्म पर आधारित होती है पर वर्ग का आधार कर्म होता है (Caste is based on birth but class is based on action)—जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, वह तमाम आयु उसी से जुड़ा होता है।

वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता शिक्षा, आय, व्यापार योग्यता पर आधारित होती है। व्यक्ति जब चाहे अपनी सदस्यता बदल सकता है। एक ग़रीब वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति मेहनत करके अपनी सदस्यता अमीर वर्ग से ही जोड़ सकता है। वर्ग की सदस्यता योग्यता पर आधारित होती है। यदि व्यक्ति में योग्यता नहीं है व वह कर्म नहीं करता है तो वह उच्च स्थिति से निम्न स्थिति में भी जा सकता है। यदि वह कर्म करता है तो वह निम्न स्थिति से उच्च स्थिति में भी जा सकता है। जिस प्रकार जाति धर्म पर आधारित है पर वर्ग कर्म पर आधारित होता है।

2. जाति का पेशा निश्चित होता है पर वर्ग का नहीं (Occupation of caste is determined but not of Class)-जाति प्रथा में पेशे की व्यवस्था भी व्यक्ति के जन्म पर ही आधारित होती थी अर्थात् विभिन्न जातियों से सम्बन्धित पेशे होते थे। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना होता था। वह सारी उम्र उस पेशे को बदल कर कोई दूसरा कार्य भी नहीं अपना सकता था। इस प्रकार न चाहते हुए भी उसको अपनी जाति के पेशे को ही अपनाना पड़ता था।

वर्ग व्यवस्था में पेशे के चुनाव का क्षेत्र बहुत विशाल है। व्यक्ति की अपनी इच्छा होती है कि वह किसी भी पेशे को अपना ले। विशेष रूप से व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता था कि वह किसी भी पेशे को अपना लेता है। विशेष रूप से पर व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता है वह उसी पेशे को अपनाता है क्योंकि उसका विशेष उद्देश्य लाभ प्राप्ति की ओर होता था व कई बार यदि वह एक पेशे को करते हुए तंग आ जाता है तो वह दूसरे किसी और पेशे को भी अपना सकता है। इस प्रकार पेशे को अपनाना व्यक्ति की योग्यता पर आधारित होता है।

3. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है पर वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है (Membership of Caste is ascribed but membership of class is achieved)-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति उसकी जाति से सम्बन्धित होती थी अर्थात् स्थिति वह स्वयं प्राप्त नहीं करता था बल्कि जन्म से ही सम्बन्धित होती थी। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति के लिए ‘प्रदत्त’ (ascribed) शब्द का उपयोग किया जाता था। इसी कारण जाति व्यवस्था में स्थिरता बनी रहती थी। व्यक्ति का पद वह ही होता था जो उसके परिवार का हो। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति ‘अर्जित’ (achieved) होती है भाव कि उसको समाज में अपनी स्थिति प्राप्त करनी पड़ती है। इसी कारण व्यक्ति शुरू से ही मेहनत करनी शुरू कर देता है। व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न स्थिति से उच्च स्थिति भी प्राप्त कर लेता है। इसमें व्यक्ति के जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता। व्यक्ति की मेहनत व योग्यता उसके वर्ग व स्थिति के बदलने में महत्त्वपूर्ण होती है।

4. जाति बन्द व्यवस्था है व वर्ग खुली व्यवस्था है (Caste is a closed system but class is an open system)-जाति प्रथा स्तरीकरण का बन्द समूह होता है क्योंकि व्यक्ति को सारी उम्र सीमाओं में बन्ध कर रहना पड़ता है। न तो वह जाति बदल सकता है न ही पेशा। श्रेणी व्यवस्था स्तरीकरण का खुला समूह होता है। इस प्रकार व्यक्ति को हर किस्म की आज़ादी होती है। वह किसी भी क्षेत्र में मेहनत करके आगे बढ़ सकता है। उसको समाज में अपनी निम्न स्थिति से ऊपर की स्थिति की ओर बढ़ने के पूरे मौके भी प्राप्त होते हैं। वर्ग का दरवाज़ा प्रत्येक के लिए खुला होता है। व्यक्ति अपनी योग्यता, सम्पत्ति, मेहनत के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है व वह अपनी सारी उम्र में कई वर्गों का सदस्य बनता है।

5. जाति व्यवस्था में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में कोई नहीं होती (There are many restrictions in caste system but not in any class)-जाति प्रथा द्वारा अपने सदस्यों पर कई पाबन्दियां लगाई जाती थीं।

खान-पान सम्बन्धी, विवाह, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि सम्बन्धी बहत पाबन्दियां थीं। व्यक्ति की ज़िन्दगी पर जाति का पूरा नियन्त्रण होता था। वह उन पाबिन्दयों को तोड़ भी नहीं सकता था। __ वर्ग व्यवस्था में व्यक्तिगत आज़ादी होती थी। भोजन, विवाह आदि सम्बन्धी किसी किस्म का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। किसी भी वर्ग का व्यक्ति दूसरे वर्ग के व्यक्ति से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता था।

6. जाति में चेतनता नहीं होती पर वर्ग में चेतनता होती है (There is no caste consciousness but there is class consciousness)-जाति व्यवस्था में जाति चेतनता नहीं पाई जाती थी। इसका एक कारण तो था कि चाहे निम्न जाति के व्यक्ति को पता था कि उच्च जातियों की स्थिति उच्च है, परन्तु फिर भी वह इस सम्बन्धी कुछ नहीं कर सकता था। इसी कारण वह परिश्रम करना भी बन्द कर देता था। उसको अपनी योग्यता अनुसार समाज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था।

वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतनता पाई जाती थी। इसी चेतनता के आधार पर तो वर्ग का निर्माण होता था। व्यक्ति इस सम्बन्धी पूरा चेतन होता था कि वह कितना परिश्रम करे ताकि उच्च वर्ग स्थिति को प्राप्त कर सके। इसी प्रकार वह हमेशा अपनी योग्यता को बढ़ाने की ओर ही लगा रहता था।

PSEB 11th Class Sociology Solutions Chapter 10 सामाजिक स्तरीकरण

सामाजिक स्तरीकरण PSEB 11th Class Sociology Notes

  • हमारे समाज में चारों तरफ असमानता व्याप्त है। कोई काला है, कोई गोरा है, कोई अमीर है, कोई निर्धन है, कोई पतला है कोई मोटा है, कोई कम साक्षर है तथा कोई अधिक। ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण समाज में प्राचीन समय से ही असमानता चली आ रही है तथा चलती रहेगी।
  • समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित किए जाने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहा जाता है। ऐसा कोई भी समाज नहीं है जहां स्तरीकरण मौजूद न हो। चाहे प्राचीन समाजों जैसे सरल एवं सादे समाज हों या आधुनिक समाजों जैसे जटिल समाज, स्तरीकरण प्रत्येक समाज में मौजूद होता है।
  • स्तरीकरण की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह सर्वव्यापक प्रक्रिया है, इसकी प्रकृति सामाजिक होती है, प्रत्येक समाज में इसी प्रकार अलग होती है, इसमें उच्चता-निम्नता के संबंध होते हैं।
  • सभी समाजों में मुख्य रूप से चार प्रकार के स्तरीकरण के रूप पाए जाते हैं तथा वह हैं-जाति, वर्ग, जागीरदारी तथा गुलामी। भारतीय समाज को जितना जाति व्यवस्था ने प्रभावित किया है शायद किसी अन्य सामाजिक संस्था ने नहीं किया है।
  • जाति एक अन्तर्वेवाहिक समूह है जिसमें व्यक्तियों के ऊपर अन्य जातियों के साथ मेल-जोल के कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं तथा व्यक्ति के जन्म के अनुसार उसकी जाति तथा स्थिति निश्चित होती है।
  • आधुनिक समाजों में स्तरीकरण का एक नया रूप सामने आया है तथा वह है वर्ग व्यवस्था। वर्ग लोगों का एक समूह होता है जिनमें किसी न किसी आधार पर समानता होती है। उदाहरण के लिए उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, श्रमिक वर्ग, उद्योगपति वर्ग, डॉक्टर वर्ग इत्यादि।
  • जागीरदारी व्यवस्था मध्यकालीन यूरोप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रही है। एक व्यक्ति को राजा की तरफ से काफ़ी भूमि दी जाती थी तथा वह व्यक्ति काफ़ी अमीर हो जाता था। उसके बच्चों के पास यह भूमि पैतृक रूप से चली जाती थी।
  • गुलामी भी 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में संसार के अलग-अलग देशों में मौजूद रही है जिसमें गुलाम को उसका मालिक खरीद लेता था तथा उसके ऊपर सम्पूर्ण अधिकार रखता था।
  • जी० एस० घुर्ये एक भारतीय समाजशास्त्री था जिसने जाति व्यवस्था के ऊपर अपने विचार दिए। उनके अनुसार जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि इसकी परिभाषा देना मुमकिन नहीं है। इसलिए उन्होंने जाति व्यवस्था के छ: लक्षण दिए हैं।
  • भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् जाति व्यवस्था में बहुत से कारणों की वजह से बहुत से परिवर्तन आए हैं तथा आ भी रहे हैं। अब धीरे-धीरे जाति व्यवस्था खत्म हो रही है। अब जाति पर आधारित प्रतिबन्ध खत्म हो रहे हैं, जाति के विशेषाधिकार खत्म हो गए हैं, संवैधानिक प्रावधानों ने सभी को समानता प्रदान की है
    तथा जाति प्रथा को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • सभी समाजों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के वर्ग मिलते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन वर्गों में मुख्य रूप से पैसे के आधार पर अंतर पाया जाता है।
  • जाति एक प्रकार का बन्द वर्ग है जिसे परिवर्तित करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। परन्तु वर्ग एक ऐसा खुला वर्ग है जिसे व्यक्ति अपने परिश्रम तथा योग्यता से किसी भी समय बदल सकता है।
  • कार्ल मार्क्स के अनुसार समाज में अलग-अलग समय में दो प्रकार के वर्ग रहे हैं। पहला है पूंजीपति वर्ग · तथा द्वितीय है श्रमिक वर्ग। दोनों के बीच अधिक वस्तुएं प्राप्त करने के लिए हमेशा से ही संघर्ष चला आ रहा है तथा दोनों के बीच होने वाले संघर्ष को वर्ग संघर्ष कहा जाता है।
  • वर्ग व्यवस्था में नए रूझान आ रहे हैं। पिछले काफी समय से एक नया वर्ग उभर कर सामने आया है जिसे हम मध्य वर्ग का नाम देते हैं। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग का शोषण करता है।
  • वर्ण (Varna)-प्राचीन समय में समाज को पेशे के आधार पर कई भागों में विभाजित किया गया था तथा प्रत्येक भाग को वर्ण कहते थे। चार वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा निम्न जातियां।
  • जाति (Caste)—वह अन्तर्वैवाहिक समूह जिसमें अन्य जातियों के साथ संबंध रखने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध थे।
  • वर्ग (Class)—वह आर्थिक समूह जिसे किसी न किसी आधार पर दूसरे आर्थिक समूह से अलग किया जा सकता है।
  • जागीरदारी व्यवस्था (Feudalism)—मध्यकाल से यूरोपियन समाज में महत्त्वपूर्ण संस्था जिसमें एक व्यक्ति को बहुत सी भूमि देकर जागीदार बना दिया जाता था तथा वह भूमि से लगान एकत्र करता था।
  • स्तरीकरण (Stratification)-समाज को अलग-अलग आधारों पर अलग-अलग स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 10 सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
सामाजिक प्रबन्ध में परिवर्तन के सन्दर्भ में उलेमा लोगों तथा सूफियों के धार्मिक विश्वासों और व्यवहारों की चर्चा करो।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत भारत के लिए एक नवीन अनुभव था। इस्लाम धर्म के आगमन से इस देश के पूरे समाज तथा सामाजिक परम्पराओं में परिवर्तन आ गया। शासक वर्ग में भी नवीन श्रेणियां देखने को मिलीं। इन सबका वर्णन इस प्रकार है

I. सामाजिक प्रबन्ध में परिवर्तन –

मुस्लिम समाज-सल्तनत काल में सामाजिक प्रबन्ध में शासक वर्ग का विशेष महत्त्व था। इस वर्ग में बड़ी संख्या में तुर्क और पठान या अफ़गान थे। उनके अतिरिक्त कई अरब और ईरानी लोग भी उत्तरी भारत में आकर बस गए। इन आवासियों का शासक वर्ग के साथ निकट सम्बन्ध था, परन्तु ये सभी सैनिक या प्रशासक नहीं थे। इनमें व्यापारी, लेखक, मुल्ला तथा सूफ़ी भी सम्मिलित थे। इन विदेशियों में से कइयों ने इस देश की स्त्रियों से विवाह कर लिया। दूसरे, नगरों में शिल्पकारों और गांवों में किसानों के कई समूहों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उत्तरी भारत में इस्लाम धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक हो गई।

गैर-मुस्लिम समाज-इन परिवर्तनों का प्रभाव समाज के देशी तत्त्वों पर भी पड़ा। विजयनगर साम्राज्य और राजस्थान के बाहर अब कहीं-कहीं, छोटे-छोटे इलाकों पर, पुराने शासकों के उत्तराधिकारियों का अधिकार रह गया था। इनमें कुछ शासक स्वतन्त्र थे। अधिकांश शासक सुल्तानों के सामन्त मात्र थे। सल्तनतों के सीधे प्रशासन क्षेत्र में भी देशी लोगों का काफ़ी प्रभाव था। वे प्रायः प्रशासन के निचले स्तरों पर छाए हुए थे। लगान प्रबन्ध का अधिकांश कार्य उनके हाथों में था। फिर भी उनका स्तर गौण था।

ब्राह्मण अब अपना पहले वाला गौरव खो बैठे थे। उनमें से कुछ अब भी स्वतन्त्र शासकों अथवा सामन्तों के पास राजज्योतिषी के रूप में या प्रशासन में विभिन्न पदों पर थे। परन्तु अधिकांश को नये संरक्षण और नये व्यवसायों की खोज करनी पड़ी। फिर भी समाज के धार्मिक कार्यों के कारण उनका महत्त्व बना रहा। ऐसा लगता था कि इस काल में व्यापारिक उन्नति के कारण व्यापारिक जातियां पहले से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली हो गई थीं। वे कस्बों और शहरों के आर्थिक जीवन की रीढ़ की हड्डी बन गईं। अतः इस युग में वैश्य जाति का महत्त्व खूब बढ़ा।

II. उलेमा-

उलेमा अथवा मुल्ला लोग सुन्नी मर्यादा के संरक्षक माने जाते थे। वे कुरान तथा हदीस पर आधारित शतकियों से प्रचलित विश्वासों और रस्मों के बाहरी पालन पर बल देते थे। उनका मूल विश्वास था कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई भगवान् नहीं तथा मुहम्मद उसके पैगम्बर हैं। मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा और नेक जीवन व्यतीत करने के लिए चार स्तम्भ थे। इनमें से एक था-रोज़ नमाज अदा करना। दूसरा रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा अथवा प्रवास का नाम जकात था। इसके अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए अपनी वार्षिक आय का एक निश्चित भाग गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए देना आवश्यक था। चौथा हज अर्थात् मक्का की यात्रा करना था। इन सभी रस्मों में धार्मिक भावना की अपेक्षा मर्यादा के बाह्य पालन पर अधिक बल दिया गया था।

III. सूफी-

धार्मिक नेताओं की एक और श्रेणी थी। इन्हें सूफी कहा जाता था। सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना के महत्त्व पर बल देते थे। वे शेख पीर के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर और मनुष्य के बीच बुनियादी नाता प्रेम का है। उनका यह भी विश्वास था कि पीर के नेतृत्व में एक विशेष प्रकार का जीवन व्यतीत करके ही ईश्वर में लीन होना सम्भव है। ईश्वर की प्राप्ति की आध्यात्मिक यात्रा के कई पड़ाव थे जिनमें एक ओर भावपूर्ण प्रचण्ड भक्ति थी और दूसरी ओर घोर त्याग तथा ‘कठिन संयम की आवश्यकता थी। मुल्ला लोग सूफियों को पसन्द नहीं करते थे।

सच तो यह है कि मुल्ला लोगों के विरोध के बावजूद, समाज में सूफी लोकप्रिय होते गए। उनका प्रभाव भी बढ़ता गया। उत्तरी भारत में सूफियों की कई परिपाटियां थीं। इनमें दो सबसे महत्त्वपर्ण भी-चिश्ती और सुहरानदी। उन्होंने इस्लाम को शान्तिपूर्ण ढंग से फैलाया। उनका उद्देश्य इस्लाम धर्म फैलाना नहीं था। परन्तु उनके व्यवहार से प्रभावित होकर कई लोगों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। मुसलमान लोगों में भी उनका बड़ा प्रभाव था। स्वयं सुल्तान उन्हें लगान मुक्त भूमि दिया करते थे।
वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम के आगमन से पूरे भारतीय समाज का रूप ही बदल गया।

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प्रश्न 2.
सन्त कबीर के विशेष सन्दर्भ में सन्तों तथा वैष्णव भक्तों के विश्वासों एवं व्यवहारों की चर्चा करें।
उत्तर-
मध्यकाल में भारत में एक महान् समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन चला जो भक्ति लहर के नाम से विख्यात है। सन्त लहर तथा वैष्णव भक्ति इसी आन्दोलन की दो शाखाएं थीं। भले ही इन दोनों शाखाओं के प्रचारकों के अनेक सिद्धान्त मेल खाते थे तो भी इनके विश्वासों एवं व्यवहारों में कुछ मूल अन्तर भी थे। इस दृष्टि से सन्तों की विचारधारा वैष्णव भक्ति की अपेक्षा अधिक विकसित थी। सन्त लहर को सबल बनाने वाले मुख्य सन्त कबीर जी थे। उनके सन्दर्भ में सन्तों एवं वैष्णव भक्तों के विश्वासों तथा व्यवहारों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है

I. सन्त कबीर-

जीवन-कबीर जी उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। कहते हैं कि उनका जन्म बनारस में 1398 ई० में हुआ था। उनको नीरू नामक मुसलमान जुलाहे ने पाल-पोस कर बड़ा किया था। कबीर जी भी कपड़ा बुन कर बाज़ार में बेचते थे और अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। अपने समय के कई सन्तों के साथ उनका सम्पर्क था। सन्त कबीर ने हिन्दी में रामायणी, साखी तथा शब्द छन्दों में बहुत सुन्दर भक्ति साहित्य की रचना की। इनकी रचनाओं के एक संकलन को बीजक कहा जाता है। इनके शब्द गुरु ग्रन्थ साहिब में भी सम्मिलित हैं। सन्त कबीर की मृत्यु 1518 ई० में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के मघर नामक स्थान पर हुई। उनके अनुयायी कबीर पन्थी कहलाए। परन्तु सन्त कबीर ने अपने जीवन काल में किसी संगठित पंथ की नींव नहीं रखी थी। इसलिए इनकी मृत्यु के पश्चात् कबीर पंथ कई हिस्सों में बंट गया।

विचारधारा-सन्त कबीर ने उस समय में प्रचलित विश्वासों तथा रीति-रिवाजों की कड़े शब्दों में निन्दा की। उन्होंने मूर्ति पूजा, शुद्धि स्नान, व्रत तथा तीर्थ यात्राएं आदि परम्पराओं का घोर खण्डन किया। उनके विचारानुसार, मुल्ला तथा पण्डित दोनों ही सच्ची धार्मिक जिज्ञासा से भटक चुके थे। उन्होंने वेदों और कुरान दोनों को ही कोई महत्त्व नहीं दिया।

कबीर के अनुसार परमात्मा मनुष्य के मन में बसता है। वह एक ही है; चाहे उसे अल्लाह कहा जाए या हरि। अत: मानव को अपनी अन्तरात्मा की गहराई में झांकना चाहिए। परमात्मा को अपने भीतर ढूंढ़ना ही मुक्ति है। इसी अनुभव के द्वारा ही मानव आत्मा परमात्मा के साथ चिर मिलन प्राप्त करती है। परन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति सरल नहीं है। इसके लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम-भक्ति और समर्पण की आवश्यकता है। इसमें परमात्मा से विरह की पीड़ा भी है और मुक्ति के लिए निरन्तर यत्न की आवश्यकता भी। वास्तव में इसकी प्राप्ति परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। कहने का अभिप्राय यह है कि सच्चा गुरु स्वयं परमात्मा है। वह विश्व के बाहर भी है और भीतर भी है। इसलिए वह मानव में भी विद्यमान है। सन्त कबीर के अनुसार मुक्ति का मार्ग सबके लिए खुला है। यद्यपि उस तक कोई विरला ही पहुंचता है। इस प्रकार कबीर भक्ति के विचार सूफियों और जोगियों के विचारों के साथ मिलकर एक मौलिक विचारधारा को जन्म देते हैं।

II. सन्तों के विश्वास एवं व्यवहार सन्त लहर के प्रचारक अवतारवाद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते थे। वे मूर्ति-पूजा के भी विरुद्ध थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है और वह मनुष्य के मन में निवास करता है। अतः परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराइयों में डूब जाना चाहिए। अन्तरात्मा से परमात्मा को खोज निकालने का नाम ही मुक्ति है। इस अनुभव से मनुष्य की आत्मा पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन हो जाती है। सन्तों के अनुसार सच्चा गुरु परमात्मा तुल्य है। जिस किसी को भी सच्चा गुरु मिल जाता है, उसके लिए परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है। संत जाति-प्रथा के भेदभाव के विरुद्ध थे। कुछ प्रमुख सन्तों के नाम इस प्रकार हैं-कबीर, नामदेव, सधना, रविदास, धन्ना तथा सैन जी। श्री गुरु नानक देव जी भी अपने समय के महान् सन्त हुए हैं।

III. वैष्णव भक्तों के विश्वास एवं व्यवहार वैष्णव भक्ति शाखा के प्रचारक सीता-राम तथा राधा-कृष्ण को परमात्मा (विष्णु) का रूप मानते थे और उनकी पूजा पर बल देते थे। इस लहर के प्रचारक विष्णु को नारायण, हरि, गोबिन्द आदि के रूप में भी पूजते थे। इस लहर के प्रमुख प्रचारक रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, रामानन्द और चैतन्य महाप्रभु थे। रामानुज ने भक्ति मार्ग की महानता पर बल दिया। उन्होंने विष्णु को ईश्वर का रूप कहा। निम्बार्क ने कृष्ण तथा राधा की भक्ति का प्रचार किया। वल्लभ ने भी कृष्ण और राधा की भक्ति पर बल दिया। उनके शिष्य कृष्ण की पूजा भिन्न-भिन्न ढंगों से करते थे। रामानन्द 14वीं शताब्दी के महान् प्रचारक थे। भक्ति-मार्ग के लिए उन्होंने स्थान-स्थान पर भ्रमण किया। उन्होंने अपना प्रचार आम बोल-चाल की भाषा में किया। वह जातिपाति में विश्वास नहीं रखते थे। उनके शिष्यों में अनेक जातियों के लोग शामिल थे। रामानन्द ने राम और सीता की भक्ति पर अधिक बल दिया। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के वैष्णव प्रचारक थे। वह काफ़ी समय तक बंगाल तथा उड़ीसा में भक्ति मार्ग का प्रचार करते रहे। उन्होंने कृष्ण तथा राधा का कीर्तन करने और उनकी स्तुति में गीत गाने पर विशेष बल दिया।

सच तो यह है कि सन्त लहर तथा वैष्णव भक्ति ‘भक्ति लहर’ का अंग होते हुए भी दो पृथक् विचारधाराएं हैं। इन दोनों विचारधाराओं में कई मूल अन्तर थे। वैष्णव भक्ति के प्रचारक राम अथवा कृष्ण को विष्णु का अवतार मान कर उनकी पूजा करते थे। परन्तु सन्तों ने वैष्णव भक्ति को स्वीकार न किया। इसके अतिरिक्त वैष्णव भक्ति के कुछ प्रचारक मूर्ति-पूजा में भी विश्वास रखते थे जबकि सन्त इसके घोर विरोधी थे। वास्तव में सन्त लहर की विचारधारा वैष्णव भक्ति की अपेक्षा सूफ़ियों की विचारधारा से अधिक मेल खाती है।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य में

प्रश्न 1.
बनारस से सम्बन्धित दो संतों के नाम बताइए।
उत्तर-
भक्त कबीर तथा संत रविदास।

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प्रश्न 2.
सूफी संत किन दो नामों से प्रसिद्ध थे?
उत्तर-
शेख और पीर।

प्रश्न 3.
चिश्ती सिलसिले की नींव किसने रखी?
उत्तर-
खवाजा मुइनुद्दीन चिश्ती।

प्रश्न 4.
अलवार कौन थे?
उत्तर-
दक्षिण के वैष्णव संत।

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प्रश्न 5.
नयनार कौन थे?
उत्तर-
दक्षिण के शैव संत।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति

(i) रामानंद ने अपने प्रचार के लिए………….भाषा का प्रयोग किया।
(ii) कीर्तन की प्रथा…………ने आरम्भ की।
(iii) संत…………..परमात्मा में विश्वास रखते थे।
(iv) निम्बार्क तथा माधव………..भक्ति के प्रतिपादक थे।
(v) रामानंद ने…………..भक्ति का प्रचार किया।
उत्तर-
(i) हिंदी
(ii) चैतन्य
(iii) निर्गुण
(iv) कृष्ण
(v) राम।

3. सही / ग़लत कथन

(i) मुलतान तथा लाहौर सुहरावर्दी (सूफी मत) सिलसिले के केंद्र थे। — (✓)
(ii) गुरु ग्रंथ साहिब में संत कबीर की वाणी शामिल नहीं है। — (✗)
(iii) गीतगोबिन्द की रचना जयदेव ने की थी। — (✓)
(iv) गोरखनाथियों का मूल उद्देश्य शिवास्था को प्राप्त करना था। — (✓)
(v) शेख फ़रीद एक वैष्णव संत थे। — (✗)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न

प्रश्न (i)
चैतन्य महाप्रभु का सम्बन्ध था
(A) शैव भक्ति
(B) वैष्णव भक्ति
(C) सूफी संत
(D) नाथ पंथ।
उत्तर-
(B) वैष्णव भक्ति

प्रश्न (ii)
‘पद्मावत’ का रचयिता था
(A) मलिक मुहम्मद जायसी
(B) जयदेव
(C) कल्हण
(D) सूरदास।
उत्तर-
(A) मलिक मुहम्मद जायसी

प्रश्न (iii)
‘राजतरंगिणी’ का लेखक था
(A) चन्द्रबरदाई
(B) जयदेव
(C) कलहण
(D) रामानुज।
उत्तर-
(C) कलहण

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प्रश्न (iv)
‘उर्दू भाषा का जन्म किन दो भाषाओं के मेल से हुआ?
(A) हिन्दी तथा फ़ारसी
(B) अरबी तथा फ़ारसी
(C) तुर्की तथा फ़ारसी
(D) हिन्दी तथा अरबी।
उत्तर-
(A) हिन्दी तथा फ़ारसी

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में आवासी मुसलमान किन चार श्रेणियों से थे ?
उत्तर-
भारत में आवासी मुसलमान तुर्क, पठान, अरब और ईरानी श्रेणियों से थे।

प्रश्न 2.
नगरों तथा गांवों में इस्लाम स्वीकार करने वाले दो वर्गों के नाम बताएं।
उत्तर-
नगरों में शिल्पकारों और गांवों में किसानों ने इस्लाम स्वीकार किया।

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प्रश्न 3.
सल्तनत के प्रशासन में देशी लोग अधिकतर किस स्तर पर तथा शासन प्रबन्ध के किस क्षेत्र में कार्य करते थे ?
उत्तर-
सल्तनत के प्रशासन में देशी लोग अधिकतर निचले स्तर पर कार्य करते थे। वे लगान प्रबन्ध के क्षेत्र में कार्य करते थे।

प्रश्न 4.
सल्तनत काल में व्यापारिक जातियां कहां के आर्थिक जीवन का स्तम्भ थीं ?
उत्तर-
व्यापारिक जातियां कस्बों और शहरों के आर्थिक जीवन का स्तम्भ थीं।

प्रश्न 5.
भारत में इस्लाम धर्म के तीन सम्प्रदायों के नाम बताएं तथा इनमें से सबसे अधिक संख्या किस सम्प्रदाय की थी ?
उत्तर-
भारत में इस्लाम के मुख्य तीन सम्प्रदाय ‘सुन्नी’, ‘शिया’ तथा ‘इस्माइली’ थे। इनमें से सबसे अधिक संख्या “सुन्नी’ सम्प्रदाय की थी।

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प्रश्न 6.
उलेमा लोग किन दो विषयों के विद्वान् थे ?
उत्तर-
उलेमा लोग इस्लाम के धार्मिक सिद्धान्तों तथा कानून के विद्वान थे।

प्रश्न 7.
उलेमा लोगों के विश्वास किन दो स्रोतों पर आधारित थे ?
उत्तर-
उलेमा लोगों के विश्वास कुरान तथा हदीस पर आधारित थे।

प्रश्न 8.
मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा के चार स्तम्भों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा के चार स्तम्भ हैं-

  • रोज़ नमाज़ अदा करना
  • रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा रखना
  • जकात, जिसके अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए अपनी वार्षिक आय का निश्चित भाग ग़रीबों को देना आवश्यक है।
  • हज, अर्थात् मक्का की यात्रा करना।

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प्रश्न 9.
सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर किसे अधिक महत्त्व देते थे ?
उत्तर-
सूफी लोग बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना को अधिक महत्त्व देते थे।

प्रश्न 10.
सूफी लोग किन दो नामों से प्रसिद्ध थे तथा इनकी विचारधारा के लिए किस शब्द का प्रयोग किया जाता
उत्तर-
सूफी लोग शेख और पीर के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। इनकी विचारधारा के लिए तसव्वुफ़ शब्द का प्रयोग किया जाता था।

प्रश्न 11.
सूफियों में सिलसिले अथवा परिपाटी से क्या भाव था ?
उत्तर-
सिलसिले से तात्पर्य एक सूफी शेख के मुरीदों अथवा उत्तराधिकारियों की परिपाटी से था।

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प्रश्न 12.
दिल्ली सल्तनत के समय में सूफियों की दो सबसे महत्त्वपूर्ण परिपाटियों अथवा सिलसिलों के नाम बताएं।
उत्तर-
दिल्ली सल्तनत के समय में सूफियों की दो सबसे महत्त्वपूर्ण परिपाटियां ‘चिश्ती’ तथा ‘सुहरावर्दी’ थीं।

प्रश्न 13.
चिश्ती सिलसिले की नींव किस सूफी शेख ने रखी और वे कहां बस गए ?
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले की नींव अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने रखी थी और वे अजमेर में ही बस गए।

प्रश्न 14.
चिश्ती सिलसिले से सम्बन्धित चार प्रमुख सूफी शेखों के नाम बताएं।
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले से सम्बन्धित सूफी शेखों के नाम हैं-

  • शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
  • फरीद शकर गंज
  • निज़ामुद्दीन औलिया तथा
  • शेख नसीरूद्दीन।

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प्रश्न 15.
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव किसने तथा कहां रखी ?
उत्तर-
सुहरावर्दी सिलसिले की नींव मखदूम बहाऊद्दीन जकरिया ने मुल्तान में रखी।

प्रश्न 16.
15वीं सदी में भारत में आरम्भ होने वाली दो सूफी परिपाटियों तथा उनके संस्थापकों के नाम बताएं।
उत्तर-
15वीं सदी में भारत में आरम्भ होने वाली दो सूफी परिपाटियां शत्तारी तथा कादरी थीं। इनके संस्थापक क्रमशः शाह अब्दुल्ला शत्तारी तथा सैय्यद गौस थे।

प्रश्न 17.
चिश्ती सिलसिले के चार केन्द्रों के नाम बताएं।
उत्तर-
चिश्ती सिलसिले के चार केन्द्र अजमेर, अजौधन, नारनौल तथा नागौर थे।

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प्रश्न 18.
सुहरावर्दी सिलसिले के दो केन्द्र कहां थे ?
उत्तर-
सुहरावर्दी सिलसिले के दो केन्द्र मुल्तान तथा लाहौर थे।

प्रश्न 19.
भारत के किन दो प्रदेशों में सूफियों का सबसे अधिक प्रभाव था ? किस सुल्तान के राज्यकाल में सूफी प्रभाव दक्षिण में भी पहुंचा ?
उत्तर-
भारत में पंजाब और सिन्ध में सूफियों का प्रभाव सबसे अधिक था। मुहम्मद-बिन-तुग़लक के राज्यकाल में यह प्रभाव दक्षिण में भी पहुंचा।

प्रश्न 20.
सूफियों द्वारा शातिपूर्वक ढंग से इस्लाम को फैलाने में कौन-सी दो बातें सहायक सिद्ध हुईं ?
उत्तर-
सूफियों को इन दो बातों ने सहायता पहुंचाई-

  1. उनके द्वारा आम लोगों की बोली बोलना तथा
  2. खानकाह के द्वारा साधारण लोगों के साथ उनका सम्पर्क।

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प्रश्न 21.
जोगियों का आन्दोलन मुख्यतः किन दो बातों के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी ? ।
उत्तर-
जोगियों का आन्दोलन मुख्यतः ब्राह्मणीय संस्कार विधियों तथा जाति-पाति के भेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी।

प्रश्न 22.
जोगियों के दो मुख्य पंथ कौन-कौन से थे और इनमें से उत्तर भारत में कौन-सा पंथ अधिक लोकप्रिय था ?
उत्तर-
जोगियों के दो मुख्य पंथ अधोपंथी और नाथपंथी थे। इनमें से नाथपंथी पंथ उत्तर भारत में अधिक लोकप्रिय था।

प्रश्न 23.
‘कनफटे’ जोगी से क्या प्रभाव था ?
उत्तर-
कनफटा जोगी उस संन्यासी को कहते थे, जिसके कान की पट्टियों में चाकू से सुराख कर दिया जाता था ताकि वह बड़े-बड़े कुण्डल पहन सके। कनफटे जोगियों का स्थान औघड़’ योगियों से ऊंचा समझा जाता था।

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प्रश्न 24.
पंजाब में गोरखनाथियों के कितने मठ थे तथा ये किसके निरीक्षण में संगठित थे ?
उत्तर-
पंजाब में गोरखनाथियों के लगभग 12 मठ थे। ये सभी मठ ज़िला जेहलम में स्थित टिल्ल गोरखनाथ के मठाधीश अथवा ‘नाथ’ के निरीक्षण में संगठित थे।

प्रश्न 25.
मध्यकाल में विष्णु के कौन-से दो अवतारों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ ?
उत्तर-
मध्यकाल में विष्णु के ‘कृष्ण तथा राम अवतारों’ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 26.
कृष्ण भक्ति के दो प्रति-पादकों के नाम बताएं और ये दक्षिण के किन प्रदेशों से थे ?
उत्तर-
कृष्ण भक्ति के दो प्रतिपादक निम्बार्क और माधव थे। निम्बार्क का सम्बन्ध तमिलनाडु से तथा माधव का सम्बन्ध मैसूर प्रदेश से था।

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प्रश्न 27.
राधा-कृष्ण की पूजा विधि किसने तथा कहां प्रचलित की ?
उत्तर-
राधा-कृष्ण की पूजा विधि वल्लभाचार्य ने मथुरा के निकट गोवर्धन में प्रचलित की।

प्रश्न 28.
चैतन्य पर कौन-से दो भक्ति रस के कवियों का प्रभाव था ?
उत्तर-
चैतन्य पर जयदेव तथा चण्डीदास का प्रभाव था।

प्रश्न 29.
कीर्तन की प्रथा किसने आरम्भ की और यह किस प्रकार किया जाता था ?
उत्तर-
कीर्तन की प्रथा चैतन्य ने आरम्भ की। इसमें वाद्य-संगीत और नृत्य के साथ भजनों का गायन किया जाता था।

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प्रश्न 30.
चैतन्य के अनुसार मुक्ति का प्रयोजन क्या था ?
उत्तर-
चैतन्य के अनुसार मुक्ति का प्रयोजन मृत्यु के पश्चात् ‘गोलोक’ में जाना था ताकि वहां राधा और कृष्ण की अनन्तकाल तक सेवा की जा सके।

प्रश्न 31.
चैतन्य की मृत्यु कब हुई और उन्होंने कौन-से मन्दिर में अपने जीवन के अन्तिम वर्ष व्यतीत किए ?
उत्तर-
चैतन्य की मृत्यु 1534 ई० में हुई। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम वर्ष उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी के प्रसिद्ध मन्दिर में व्यतीत किए।

प्रश्न 32.
राम भक्ति का प्रचार करने वाले कौन-से भक्त थे और ये किस नगर के रहने वाले थे ?
उत्तर-
राम भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त रामानन्द जी थे। वे प्रयाग नगर के रहने वाले थे।

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प्रश् 33.
रामानन्द जी ने कौन-सी भाषा का प्रयोग किया तथा उनके मठों के साथ कौन-सी दो संस्थाएं सम्बन्धित थीं ?
उत्तर-
रामानन्द जी ने हिन्दी भाषा का प्रयोग किया। उनके मठों के साथ सम्बन्धित दो संस्थाएं थीं-पाठशालाएं तथा गौशालाएं।

प्रश्न 34.
गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से किन्हीं चार का नाम बताएं।
उत्तर-
गुरु ग्रन्थ साहिब में जिन भक्तों तथा सन्तों की रचनाएं सम्मिलित की गई हैं, उनमें से चार के नाम हैं-भक्त कबीर, नामदेव जी, रामानन्द जी तथा धनानन्द जी।

प्रश्न 35.
बनारस से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं।
उत्तर-
बनारस से सम्बन्धित दो सन्त थे-संत कबीर और संत रविदास।

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प्रश्न 36.
भक्तों तथा सन्तों के बीच दो मुख्य अन्तर कौन-से हैं ?
उत्तर-

  1. भक्त अवतारवाद तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे, परन्तु सन्त निर्गुण परमात्मा को मानते थे।
  2. भक्त गुरु को अधिक महत्त्व नहीं देते थे परन्तु सन्तों के अनुसार गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।

प्रश्न 37.
महाराष्ट्र से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं।
उत्तर-
नामदेव जी तथा त्रिलोचन जी महाराष्ट्र से सम्बन्धित दो प्रमुख सन्त थे। प्रश्न 38. राजस्थान से सम्बन्धित दो सन्तों के नाम बताएं। उत्तर-राजस्थान से सम्बन्धित दो सन्त थे-धन्ना जी तथा पीपा जी।

III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
उलेमा लोगों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
उलेमा अथवा मुल्ला लोग सुन्नी मर्यादा के संरक्षक स्वीकार किए जाते थे। वे कुरान तथा हदीस पर आधारित सदियों से प्रचलित विश्वासों और रस्मों के बाहरी पालन पर बल देते थे। उनका मूल विश्वास था कि ‘अल्ला’ के अतिरिक्त कोई भगवान् नहीं और मुहम्मद उसके पैगम्बर हैं। वे ईश्वर की एकता पर बल देते थे। वे इस बात पर भी बल देते थे कि हज़रत मुहम्मद उनके अन्तिम पैगम्बर हैं। मुसलमानों के लिए धार्मिक निष्ठा और नेक जीवन के चार स्तम्भ थे। प्रतिदिन नमाज़ अदा करना, रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा अथवा उपवास रखना, अपनी वार्षिक आय का एक निश्चित भाग ग़रीब मुसलमानों की भलाई के लिए दान में देना तथा मक्का की यात्रा करना। उलेमा लोग रस्मों के पालन पर बल देते थे।

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प्रश्न 2.
सूफियों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
धार्मिक नेताओं की एक श्रेणी, जिन्हें सूफी कहा जाता था, बाहरी मर्यादा के स्थान पर भावना के महत्त्व पर बल देती थी। वे शेख और पीर के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर और मनुष्य के मध्य बुनियादी रिश्ता प्रेम का है। इसके अतिरिक्त उनका विश्वास था कि पीर की अगुवाई में एक विशेष प्रकार के जीवन को व्यतीत करने से ईश्वर में लीन होना सम्भव था। ईश्वर की प्राप्ति की आध्यात्मिक यात्रा के कई पड़ाव थे, जिसमें एक ओर भावावेग से परिपूर्ण प्रचण्ड भक्ति और दूसरी ओर घोर त्याग, संयम की आवश्यकता थी। मुल्ला लोग सूफियों को पसन्द नहीं करते थे। उनके सोचने के ढंग में आधारभूत अन्तर था।

प्रश्न 3.
व्यावहारिक स्तर पर चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिलों में कौन-से अन्तर थे ?
उत्तर-
उत्तरी भारत में सूफियों के दो सबसे महत्त्वपूर्ण सिलसिले थे-चिश्ती और सुहरावर्दी। चिश्ती परिपाटी की स्थापना अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन ने की थी। पाकपटन (पश्चिमी पाकिस्तान) के शेख फरीद शकरगंज और दिल्ली के शेख निज़ामुद्दीन औलिया का सम्बन्ध भी इसी से था। भारत में सुहरावर्दी परिपाटी की स्थापना मुल्तान के मखदूम बहाऊद्दीन जकरिया ने की। यह दोनों परिपाटियां इस काल में बराबर विकसित होती रहीं। चिश्ती और सुहरावर्दी शेखों ने देश के कई भागों में खानकाहों (सूफ़ी शेखों के इकट्ठे मिलकर रहने के स्थान) की स्थापना की।

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प्रश्न 4.
गोरखनाथी जोगियों के बुनियादी विश्वास क्या थे ?
उत्तर-
गोरखनाथियों का मूल उद्देश्य शिवावस्था को प्राप्त करना था। वे इसे ‘सहज’ अथवा ‘चिर आनन्द’ की अवस्था का नाम देते थे। इस अवस्था की प्राप्ति को जोगी जीवन मुक्ति कहते थे। जोगी नौ नाथों और चौरासी सिद्धों पर विश्वास रखते थे। उनका यह भी विश्वास था कि पर्वतों पर रहने वाली तथा हिमालय की चोटी की रक्षक देवात्माएं सिद्ध ही थे।

प्रश्न 5.
गोरखनाथी जोगियों की प्रथाओं और व्यवहारों के बारे में बताएं।
उत्तर-
गोरखनाथियों के मठ में दीक्षा गुरु द्वारा दी जाती थी। दीक्षा के अन्त में जोगी की कर्णपलियों में भैरवी चाकू से सुराख किया जाता था। उसके बाद वह बड़े-बड़े कुण्डल पहन लेता था। इस रस्म के पश्चात् जोगी ‘कनफटा’ कहलाता था। केवल कनफटे जोगी को ही अपने नाम के साथ ‘नाथ’ पद के प्रयोग की आज्ञा थी। जोगी अपने पास ‘सिंगी’ भी रखते थे जिसको वे फूंक कर बजाया करते थे। गोरखनाथियों के मठों में निरन्तर धूनी सुलगती रहती थी। अकेला जोगी भजन के लिए द्वार-द्वार पर जाकर भिक्षा मांग सकता था। किन्तु जो जोगी मठ में रहते थे। वे सांझे भण्डारे में भोजन करते थे।

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प्रश्न 6.
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित वैष्णव भक्ति की पूजा विधि में नित्य नेम क्या था ?
उत्तर-
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित कृष्ण भक्ति की पद्धति का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग राधा-कृष्ण की पूजा की विधि था। पूजा के नित्य कर्म का आरम्भ मन्दिर में प्रभात के समय में घंटियां और शंख बजाकर किया जाता था। इसके बाद इष्ट देव को निद्रा से जगाते थे और उन्हें प्रसाद भेंट करते थे। इसके बाद वे थाल में दीये जलाकर उनकी आरती करते थे। आरती के पश्चात् वे भगवान् को स्नान करवाते थे तथा उन्हें नए वस्त्र पहना कर भोजन अर्पित करते थे। तत्पश्चात् गायों को चराने के लिए बाहर ले जाने की रस्म की जाती थी। इसके बाद भगवान् को दोपहर का भोजन करवा कर आरती की जाती थी। आरती के बाद पर्दा तान दिया जाता था ताकि भगवान् निर्विघ्न आराम कर सकें। भगवान् के रात के विश्राम से पूर्व भी भोजन कराने की रस्म की जाती थी।

प्रश्न 7.
रामानन्दी बैरागियों के विश्वासों तथा व्यवहारों के बारे में बताएं।
उत्तर-
रामानन्दी बैरागी जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे। उनके विचार उदार थे। वे एक साथ भोजन करते थे। उन्हें अपने मठों में नित्य कठोर नियम का पालन करना पड़ता था। वे बहुत सवेरे उठते थे और स्नान कर के पूजा-पाठ करते थे। तत्पश्चात् वे धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन एवं मनन करते थे और मठ से सम्बन्धित कार्य करते थे। उनमें से अधिकांश दिन में केवल एक बार दोपहर के समय भोजन करते थे। उनमें से कुछ बैरागी स्थान-स्थान पर घूमते थे। वे विशेष प्रकार की पोशाक पहनते थे और माथे पर विलक्षण प्रकार के तिलक लगाते थे।।

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प्रश्न 8.
सन्त कबीर का बुनियादी धार्मिक दृष्टिकोण तथा बुनियादी विश्वास क्या थे ? (M. Imp.)
उत्तर-
सन्त कबीर के बुनियादी दृष्टिकोण के अनुसार परमात्मा मानव के हृदय में बसता है। उसी को हम अल्लाह या हरि कहते हैं। अतः मनुष्य को अपनी अन्तरात्मा की गहराई में झांकना चाहिए। परमात्मा को अपने भीतर ढूंढ़ना ही मुक्ति है। इस अनुभव के द्वारा मनुष्य की आत्मा परमात्मा के साथ चिर मिलन प्राप्त करती है। किन्तु यह कार्य सरल नहीं है। इसके लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण स्नेह और समर्पण की आवश्यकता है। इसमें परमात्मा से विरह की पीड़ा भी है और मुक्ति के लिए निरन्तर प्रयास की आवश्यकता भी है। वास्तव में इसकी प्राप्ति परमात्मा की कृपा पर निर्भर है। सन्त कबीर के अनुसार मुक्ति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है। फिर भी उस तक कोई विरला ही पहुंचता है।

प्रश्न 9.
सन्त कौन थे ?
उत्तर-
सन्त भक्ति-लहर के प्रचारक थे। उन्होंने 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के मध्य भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भक्ति लहर का प्रचार किया। लगभग सभी भक्ति प्रचारकों के सिद्धान्त काफ़ी सीमा तक एक समान थे। परन्तु कुछ एक प्रचारकों ने विष्णु अथवा शिव के अवतारों की पूजा को स्वीकार न किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी खण्डन किया। उन्होंने वेद, कुरान, मुल्ला, पण्डित, तीर्थ स्थान आदि में से किसी को भी महत्त्व न दिया। वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि परमात्मा निराकार है। ऐसे सभी प्रचारकों को ही प्रायः सन्त कहा जाता है। वे प्रायः जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार करते थे।

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प्रश्न 10.
क्या सन्त लहर को वैष्णव भक्ति के साथ जोड़ा जा सकता है ?
उत्तर-
सन्त लहर को वैष्णव भक्ति के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। इन दोनों विचारधाराओं में कई मूल अन्तर थे। वैष्णव भक्ति के प्रचारक राम अथवा कृष्ण को विष्णु का अवतार मानकर उसकी पूजा करते थे। परन्तु सन्तों ने वैष्णव भक्ति को स्वीकार न किया। इसके अतिरिक्त वैष्णव भक्ति के कुछ प्रचारक मूर्ति-पूजा में भी विश्वास रखते थे, जबकि सन्त इसके घोर विरोधी थे। वास्तव में सन्त लहर की विचारधारा वैष्णव भक्ति से दूर सूफियों की विचारधारा से अधिक मेल खाती

प्रश्न 11.
भारत में इस्लाम धर्म के कौन-कौन से सम्प्रदाय थे ?
उत्तर-
भारत में इस्लाम धर्म के अनेक सम्प्रदाय थे। इनमें से सुन्नी, शिया, इस्मायली आदि सम्प्रदाय प्रमुख थे। देश के अधिकतर सुल्तान सुन्नी सम्प्रदाय को मानते थे। अतः देश की अधिकतर मुस्लिम जनता का सम्बन्ध भी इसी सम्प्रदाय से था। परन्तु शिया तथा इस्मायली मुसलमानों की संख्या भी कम नहीं थी। इन सम्प्रदायों में आपसी तनाव भी रहता था। इसका कारण यह था कि सुन्नी अपने आपको परम्परागत इस्लाम के वास्तविक प्रतिनिधि समझते थे और अन्य सम्प्रदायों के मुसलमानों को घृणा तथा शत्रुता की दृष्टि से देखते थे। मुस्लिम सम्प्रदायों का यह आपसी तनाव कभी-कभी बहुत गम्भीर रूप धारण कर लेता था, जिसका सामाजिक जीवन तथा राजनीति पर बुरा प्रभाव पड़ता था।

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प्रश्न 12.
आप भारत में सूफ़ी शेखों के बारे में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मध्य काल में इस्लाम धर्म में एक नई सहनशील धार्मिक श्रेणी का उदय हुआ, जो सूफ़ी के नाम से लोकप्रिय है। इस धर्म श्रेणी के नेता शेख कहलाये। इस श्रेणी का उदय मुल्लाओं द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों के पालन के बाहरी दिखावे के विरुद्ध हुआ था। अतः सूफ़ी शेख बाहरी दिखावे के स्थान पर सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने और मन को शुद्ध करने पर बल देते थे। उनके अनुसार ‘प्रेम’ बहुत बड़ी शक्ति है। यह अल्लाह और मनुष्यों के आपसी सम्बन्ध को दृढ़ करता है। उनका विश्वास था कि किसी धार्मिक नेता के अधीन रहकर एक विशेष प्रकार का धार्मिक जीवन व्यतीत करने से परमात्मा को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। यह केवल प्रेम, त्याग, संयम तथा सच्ची भक्ति द्वारा ही सम्भव है।

प्रश्न 13.
बाबा फ़रीद के जीवन के विषय में बताओ। उन्होंने पंजाब में सूफी मत के लिए क्या कुछ किया ?
उत्तर-
शेख फ़रीद का जन्म ज़िला मुल्तान के एक गांव खोतवाल में हुआ था। वे बचपन से ही पक्के नमाज़ी थे। उनके मन में धार्मिक भावना उत्पन्न करने में उनकी माता जी का बहुत बड़ा हाथ था। वह दिल्ली के ख्वाजा बख्तियार काकी के शिष्य थे। वह हांसी, सिरसा तथा अजमेर में भी रहे। इनके नाम पर ही मोकल नगर का नाम फ़रीदकोट पड़ा। बख्तियार काकी की मृत्यु के पश्चात् वह चिश्ती गद्दी के स्वामी बने। उन्होंने अपनी आयु के अन्तिम दिन अयोधन में व्यतीत किए। दूर-दूर से लोग इनके दर्शनों के लिए यहां आते थे। फ़रीद के प्रयत्नों से चिश्ती सम्प्रदाय ने बड़ी उन्नति की। दिल्ली के चिश्ती गद्दी के सूफ़ी सन्त समय-समय पर पंजाब में भी आते रहे। बाबा फ़रीद ने पंजाब में सूफी मत का दूर-दूर तक प्रचार किया। उन्होंने अनेक श्लोकों की रचना की। उनके कुछ श्लोक गुरु ग्रन्थ साहिब में भी अंकित हैं।

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प्रश्न 14.
वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष को किसने विकसित किया ? इस परिपाटी की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा कया थी ?
उत्तर-
वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष का सबसे अधिक विकास बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने किया। इस भावपूर्ण परम्परा . का आरम्भ 13वीं शताब्दी में जयदेव की रचना ‘गीत-गोबिन्द’ से हुआ था। चैतन्य ने कविता के इसी संग्रह को अपना आधार बना कर राधा-कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। उसने चण्डीदास के भजनों से भी प्रेरणा ली। चैतन्य जी कृष्ण भक्ति में कभीकभी इतना लीन हो जाते थे कि उन्हें यह भी पता नहीं चलता था कि उनके आस-पास क्या हो रहा है। वैष्णव भक्ति के भावुक पक्ष की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा कीर्तन थी। इसमें भजनों को बड़ी लय के साथ गाया जाता था और साथ में कुछ वाद्य-यन्त्र भी बजाए जाते थे। कभी-कभी लोग मग्न होकर नृत्य भी करने लगते थे। इस प्रकार भक्तजन भक्ति के प्रति और भी अधिक भावुक हो उठते थे। इस भक्ति का सबसे बड़ा आदर्श मुक्ति प्राप्त करके राधा और कृष्ण के पास पहुंचना था ताकि उनकी सच्ची सेवा की जा सके।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भक्ति आन्दोलन से क्या अभिप्राय है ? इसके उदय के कारणों तथा मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
अथवा
भक्ति आन्दोलन के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तर-
12वीं शताब्दी में भारत में मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था। मुस्लिम शासक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए उन पर बहुत अत्याचार करते थे। इससे हिन्दुओं और मुसलमानों में द्वेष बढ़ गया था। समाज में अनेक कुरीतियों ने भी घर कर लिया था। ऐसे समय में आपसी द्वेषभाव और सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ धार्मिक सन्त आगे आये। उन्होंने जो प्रचार किया वह भक्ति आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। .
कारण-

1. हिन्दू धर्म में कई आडम्बरों का समावेश हो गया था। लोग अन्धविश्वासी हो चुके थे। वे जादू-टोनों में विश्वास करने लगे थे। इन सभी कुप्रथाओं का अन्त करने के लिए भक्ति-आन्दोलन का जन्म हुआ।

2. हिन्दू-धर्म में जातिपाति के बन्धन कड़े हो गये थे। निम्न जाति के लोगों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। अत: निम्न जातियों के हिन्दू मुसलमान बनने लगे, जिससे हिन्दू धर्म खतरे में पड़ गया। हिन्दू-धर्म को इस खतरे से बचाने के लिए किसी धार्मिक आन्दोलन की आवश्यकता थी।

3. मुसलमानों ने हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाना आरम्भ कर दिया था। अतः उनका आपसी द्वेष बढ़ गया। इस आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए भक्ति आन्दोलन का जन्म हुआ।

4. इसी समय सूफी-धर्म का प्रसार आरम्भ हो गया। इस धर्म ने ईश्वर-प्रेम पर बहुत बल दिया। बाबा फरीद और मुइनुद्दीन चिश्ती जैसे महान् सूफी-सन्तों के उपदेशों ने भक्ति आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं –

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएं निम्नलिखित थीं-

1. ईश्वर की एकता-भक्ति-आन्दोलन के प्रचारकों ने ईश्वर की एकता का प्रचार किया। उन्होंने लोगों को अनेक देवीदेवताओं के स्थान पर एक ही ईश्वर की उपासना करने का उपदेश दिया।

2. ईश्वर का महत्त्व-भक्त प्रचारकों के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापक है। वह कण-कण में विद्यमान्

3. जाति-प्रथा में विश्वास-भक्ति मार्ग के लगभग सभी प्रचारक जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर के लिए न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा।

4. गुरु की महिमा-सन्त प्रचारकों ने गुरु का स्थान सर्वोच्च बताया है। उनका कहना था कि सच्चे गुरु के बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

5. मूर्ति-पूजा का विरोध-भक्ति-मार्ग के प्रचारकों ने मूर्ति-पूजा का कड़ा विरोध किया। इस कार्य में कबीर और नामदेव आदि धार्मिक सन्तों ने बहुत योगदान दिया।

6. निरर्थक रीति-रिवाजों में अविश्वास-भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों ने समाज में झूठे रीति-रिवाजों का भी खण्डन किया। उनके अनुसार सच्ची ईश्वर भक्ति के लिए मन को निर्मल बनाना आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
भक्ति आन्दोलन के समाज पर क्या प्रभाव पड़े ? इस आन्दोलन के मुख्य नेताओं के नाम भी लिखो।
उत्तर-
भक्ति आन्दोलन ने मध्यकालीन भारतीय समाज के हर पहलू को प्रभावित किया। समाज का कोई भी क्षेत्र तथा वर्ग इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका।

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव-
1. हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान-भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दू धर्म में सुधार हुआ। भक्ति-सुधारकों ने धर्म के व्यर्थ के रीति-रिवाजों तथा जाति-पाति का खण्डन किया। इससे हिन्दू धर्म की लोकप्रियता बढ़ गई।

2. इस्लाम के विकास में बाधा-इस्लाम धर्म भ्रातृभाव, समानता और एक ईश्वर के सिद्धान्त के कारण काफी लोकप्रिय हुआ था। कबीर, गुरु नानक देव जी आदि ने भी इन्हीं विचारों का प्रचार किया। इससे इस्लाम का आकर्षण समाप्त होने लगा।

3. बौद्ध धर्म का पतन-भक्ति आन्दोलन के प्रभाव में आकर अनेक बौद्धों ने हिन्दू धर्म को ग्रहण कर लिया। इससे बौद्ध धर्म का तेजी से पतन आरम्भ हो गया।

4. सिक्ख धर्म का जन्म-पंजाब में गुरु नानक देव जी तथा अन्य नौ गुरु साहिबानों के प्रचार ने सिक्ख धर्म का रूप ले लिया।

5. अन्धविश्वासों का अन्त-भक्त प्रचारकों ने झूठे रीति-रिवाजों तथा अन्धविश्वासों का ज़ोरदार खण्डन किया। फलतः अन्धविश्वासों का प्रचलन कम हो गया।

6. हिन्दू-मुस्लिम एकता-भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दुओं और मुसलमान दोनों को एक-दूसरे को समझने का अवसर मिला। फलस्वरूप देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई।

7. साहित्यिक उन्नति-भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप देश में साहित्यिक उन्नति हुई। भक्ति प्रचारकों ने हमें ‘सूरसागर’, ‘रामचरितमानस’ तथा ‘गीतगोविन्द’ जैसे उत्कृष्ट साहित्यिक ग्रन्थ दिए।

मुख्य नेता-भक्ति आन्दोलन के मुख्य नेता शंकराचार्य, रामानन्द, कबीर, गुरु नानक देव जी, चैतन्य महाप्रभु आदि थे।
सच तो यह है कि भक्त प्रचारकों ने भारतीय समाज की अनेक कुरीतियों को दूर करके इसका रूप निखारा। उन्होंने लोगों को सच्चे ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया और हिन्दू धर्म को नष्ट होने से बचाया। संक्षेप में, “भक्ति आन्दोलन ने भारतीय जन-जीवन के प्रत्येक अंग को प्रभावित किया।”

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प्रश्न 3.
भारत में सूफी मत के प्रसार और मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
भारत में सूफ़ी मत का प्रसार कैसे हुआ ? सूफ़ी मत की किन्हीं पांच शिक्षाओं का वर्णन भी कीजिए।
उत्तर-
भारत में सूफी मत का प्रसार-सूफी मत का उदय सबसे पहले ईरान में हुआ था। भारत में इसका आरम्भ मुसलमानों के आगमन के साथ हुआ। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी के साथ कई एक सूफी सन्त भारत में आए और यहीं रहने लगे। इनमें से ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे 1197 ई० में मुहम्मद गौरी के साथ भारत आए और अजमेर में रहने लगे। उनके उच्च चरित्र तथा सरल उपदेशों के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनका बड़ा आदर करते थे। बाबा फरीद, कुतुबुद्दीन, निजामुद्दीन औलिया, सलीम चिश्ती, शेख नुरुद्दीन आदि सूफी मत के अन्य प्रसिद्ध प्रचारक थे। शिक्षाएं-सूफी मत की शिक्षाएं इस प्रकार थीं

1. ईश्वर की एकता-सूफी सन्तों ने लोगों को बताया कि ईश्वर एक है और आत्मा ईश्वर का ही रूप है। ईश्वर सर्वव्यापी है। वह मनुष्य के मन में भी निवास करता है।

2. ईश्वर भक्ति-उनका विश्वास था कि ईश्वर को सच्ची भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

3. ईश्वर की प्राप्ति-सूफी सन्तों का कहना है कि ईश्वर की प्राप्ति मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य है। उसे पाने के लिए मनुष्य का मन पवित्र होना चाहिए।

4. आत्मसंयम-ईश्वर को पाने के लिए मनुष्य को आत्मसंयम रखना चाहिए। उसका जीवन बहुत ही सादा होना चाहिए। उसे कम खाना चाहिए, कम बोलना चाहिए।

5. प्रेम-ईश्वर को पाने के लिए हमें एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए। प्रेम द्वारा ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है।

6. अहंकार का नाश-मनुष्य को चाहिए कि वह अहंकार को मिटा दे। जब तक मनुष्य अहंकार में रहता है, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। .

7. सहनशीलता-मनुष्य को सहनशील होना चाहिए और उसे सभी धर्मों का आदर करना चाहिए। कोई धर्म बुरा नहीं है, क्योंकि सभी का उद्देश्य ईश्वर को प्राप्त करना है।

8. गुरु में विश्वास-सूफी सन्तों का विश्वास था कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए गुरु का होना आवश्यक है।

9. जाति-पाति में अविश्वास-सूफी सन्तों ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि सभी मनुष्य समान हैं। कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है।

10. हिन्दू-मुस्लिम एकता-सूफी सन्त हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बड़ा बल देते थे। अतः उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों को आपसी भेदभाव मिटाने का उपदेश दिया।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Agriculture Objective Questions and Answers.

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

ख़रीफ़ की फसलें

बहुविकल्पीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
सावनी की अनाज वाली फसलें हैं :
(क) मक्की
(ख) धान
(ग) ज्वार
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

प्रश्न 2.
कपास की बोवाई का समय है :
(क) 1 अप्रैल से 15 मई
(ख) 1 जनवरी से 15 जनवरी
(ग) दिसम्बर
(घ) जून।
उत्तर-
(क) 1 अप्रैल से 15 मई

प्रश्न 3.
मक्की की पर्ल पॉपकार्न के लिए बीज की मात्रा है :
(क) 7 किलो प्रति एकड़
(ख) 20 किलो प्रति एकड़
(ग) 25 किलो प्रति एकड़
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) 7 किलो प्रति एकड़

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प्रश्न 4.
सावनी की फ़सल कब काटी जाती है ?
(क) जनवरी-फरवरी
(ख) अक्तूबर-नवम्बर
(ग) अप्रैल-मई
(घ) कभी भी।
उत्तर-
(ख) अक्तूबर-नवम्बर

प्रश्न 5.
भारत में सब से अधिक दाल की पैदावार …………. में होती है।
(क) हिमाचल प्रदेश
(ख) राजस्थान
(ग) पंजाब
(घ) गुजरात।
उत्तर-
(ख) राजस्थान

सही-गलत –

1. बासमती की किस्में हैं-पंजाब बासमती-3, पूसा पंजाब बासमती-1509, पूसा बासमती-1121.
2. मक्की की पैदावार में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व में तथा भारत में आंध्र प्रदेश सबसे आगे हैं।
3. मूंगी के लिए ठंडे जलवायु की आवश्यकता होती है।
4. सोयाबीन, दाल तथा तेल बीज दोनों श्रेणियों में है।
5. सोयाबीन को चितकबरा.रोग लग जाता है।
उत्तर-

1. सही
2. सही
3. गलत
4. सही
5. सही।

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रिक्त स्थान भरो –

1. मूंगी की लगभग ………………… पक जाने पर काट लें।
2. मक्की को उत्पन्न होने से लेकर फसल पकने तक ……………… जलवायु की आवश्यकता है।
3. सोयाबीन को ………………. जलवायु की आवश्यकता है।
4. बासमती को ………………… तत्त्व वाली खाद अधिक मात्रा में नहीं डालनी चाहिए।
5. सोयाबीन के …………………… बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है।
उत्तर-

  1. 80% फलियां
  2. नमी और गर्म
  3. गर्म
  4. नाइट्रोजन
  5. 25-30 किलो।

ख़रीफ़ की सब्ज़ियाँ

बहुविकल्पीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
टमाटर के लिए बीज की मात्रा है : .
(क) 1000 ग्राम प्रति एकड़
(ख) 500 ग्राम प्रति एकड़
(ग) 100 ग्राम प्रति एकड़
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) 100 ग्राम प्रति एकड़

प्रश्न 2.
पंजाब बरकत ……………. की किस्म है।
(क) घीया
(ख) करेला
(ग) टमाटर
(घ) मिर्च।
उत्तर-
(क) घीया

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प्रश्न 3.
करेले की किस्म है :
(क) पंजाब करेली-1
(ख) पंजाब चप्पन कद्
(ग) पंजाब नीलम ।
(घ) पी०ए०जी०-3.
उत्तर-
(क) पंजाब करेली-1

प्रश्न 4.
खरबूजे के लिए बीज की मात्रा है (प्रति एकड़):
(क) 200 ग्राम
(ख) 70 ग्राम
(ग) 100 ग्राम
(घ) 400 ग्राम।
उत्तर-
(घ) 400 ग्राम।

प्रश्न 5.
पंजाब नवीन ……………. की किस्म है।
(क) पेठा
(ख) घीया
(ग) टमाटर
(घ) खीरा।
उत्तर-
(घ) खीरा।

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सही-गलत-

1. सब्जियों में कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, धातु, विटामिन आदि तत्त्व होते हैं।
2. अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन 50 ग्राम सब्जियां खानी चाहिए।
3. पत्तों वाली सब्जियां हैं-पालक, मेथी, सलाद और साग।
4. जड़ों वाली सब्जियां हैं-गाजर, मूली, शलगम।
5. पौधे का नर्म भाग जैसे कि-फल, पत्ते, जड़ें, तना आदि को सलाद के रूप में कच्चा खाया जाता है, सब्जी कहलाता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. सही
  5. सही।

रिक्त स्थान भरो-

1. …………………….. की सब्जियां हैं-मिर्च, बैंगन, भिण्डी, करेला, चप्पन कद्दू, टमाटर, तोरी, घीया कद्, टिण्डा, ककड़ी, खीरा आदि।
2. मिर्च के लिए एक मरले की पनीरी के लिए ……………… बीज की आवश्यकता
3. बैंगन की पनीरी के लिए ………………. बीज प्रति एकड़ की आवश्यकता होती है।
4. पंजाब सुर्ख …………………. की किस्म है।
5. पंजाब-7, पंजाब-8 और पंजाब पदमनी ………………. की किस्में हैं।
उत्तर-

  1. खरीफ
  2. 200 ग्राम
  3. 300-400 ग्राम
  4. मिर्च
  5. भिण्डी।

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फूलों की खेती

बहुविकल्पीय प्रश्न –

प्रश्न 1.
डंडी वाले फूलों की उगाई जाने वाली मुख्य फ़सल है :
(क) गेंदा
(ख) गुलाब
(ग) ग्लैडीऑल्स
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) ग्लैडीऑल्स

प्रश्न 2.
रजनीगंधा फूलों की डंडी रहित प्रति एकड़ उत्पादन है :
(क) 2-2.5 टन
(ख) 5 टन
(ग) 20 टन
(घ) 1 टन।
उत्तर-
(क) 2-2.5 टन

प्रश्न 3.
ग्लैडीऑल्स की कृषि ……………. से की जाती है :
(क) बल्बों से
(ख) कलमों से
(ग) पत्ते से
(घ) कुछ भी।
उत्तर-
(क) बल्बों से

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प्रश्न 4.
डंडी रहित फूल है:
(क) गेंदा
(ख) गुलाब
(ग) मोतिया
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

प्रश्न 5.
फ्रांसीसी फूल ………………… की किस्म है।
(क) गेंदा
(ख) गुलाब
(ग) मोतिया
(घ) जरवरा।
उत्तर-
(क) गेंदा

सही-गलत-

1. पंजाब में 5000 हैक्टेयर क्षेत्रफल फूलों की कृषि के अधीन है।
2. पंजाब में 3000 हैक्टेयर क्षेत्रफल पर ताज़े तोड़ने वाले फूलों की कृषि होती है।
3. ग्लैडीऑल्स की कृषि बल्बों से की जाती है।
4. गेंदे की कृषि के लिए एक एकड़ की नर्सरी के लिए 600 ग्राम बीज की आवश्यकता है।
5. गुलदाउदी डंडी वाला तथा डंडी रहित फूल दोनों तरह प्रयोग होते हैं।
उत्तर-

  1. गलत
  2. गलत
  3. सही
  4. सही
  5. सही।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

रिक्त स्थान भरो-

1. पंजाब में मुख्य फूलों वाली फसलों को …………………. भागों में बांटा जाता है-डंडी रहित फूल (Loose flower), डंडी वाले फूल (Cut flower)। ।
2. डंडी रहित फूलों को ……………….. के साथ तोड़ा जाता है। उदाहरण_ग्लैडीऑल्स गुलाब, मोतिया आदि।
3. गेंदा पंजाब का .. …………… फूलों वाला मुख्य फूल है।
4. रजनीगंधा के बल्ब गांठें …………………. के लगाए जाते हैं।
5. मोतिया के फूल ……………… के तथा खुश्बूदार होते हैं।
उत्तर-

  1. दो
  2. लम्बी डंडी
  3. डंडी रहित
  4. फरवरी-मार्च
  5. सफेद रंग।

कृषि उत्पादों का मंडीकरण

बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मंडी में उपज ले जाने का उचित समय है :
(क) रात का
(ख) सवेर का
(ग) सायंकाल
(घ) वर्षा का।
उत्तर-
(ख) सवेर का

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 2.
फसल की कटाई देर से करने पर :
(क) दाने गिरने का डर लगता है
(ख) कुछ नहीं होता
(ग) अधिक लाभ होता है
(घ) सभी गलत।
उत्तर-
(क) दाने गिरने का डर लगता है

प्रश्न 3.
ठीक तथ्य है :
(क) उपज की दर्जाबंदी (वर्गीकर्ण) करके मंडी में ले जाना चाहिए
(ख) मंडीकरण एकट 1961 किसानों को तुलाई की जांच का अधिकार देता है।
(ग) किसानों को J फार्म लेना चाहिए
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

प्रश्न 4.
दर्जाबंदी कारण उपज बेचने के लिए अधिक कीमत मिलती है :
(क) 10-20%
(ख) 50%
(ग) 1%
(घ) 40%
उत्तर-
(क) 10-20%

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

सही-गलत

1. कृषि उपज का मंडीकरण बढ़िया ढंग से किया जाए तो अधिक मुनाफ़ा कमाया जा सकता है।
2. निराई, दवाइयों का प्रयोग, पानी, खाद, कटाई आदि विशेषज्ञों की सलाह से करें।
3. अच्छे मंडीकरण के लिए बुवाई के समय से ही ध्यान रखना पड़ता है।
4. उत्पाद बेचने के दौरान आढ़ती से फार्म व रसीद ले लें ताकि मुनाफे और खर्चे की पड़ताल की जा सके।
5. कृषकों को अपने आस-पास की मंडियों के भाव की जानकारी लेने की ज़रूरत नहीं होती।
उत्तर-

  1. सही,
  2. सही
  3. सही
  4. सही
  5. गलत।

रिक्त स्थान भरो-

1. उत्पाद निकालने के बाद इसे ………………. चाहिए।
2. किसानों को अपनी उपज का मंडीकरण ………………… संस्थाओं द्वारा करना चाहिए।
3. पंजाब राज्य मंडी बोर्ड द्वारा कुछ मंडियों में ………………. इकाइयाँ स्थापित की गई हैं।
4. ……………… द्वारा मंडी गोबिन्दगढ़, मोगा तथा जगराओं में गेहूँ को संभालने के लिए बड़े स्तर पर प्रबंध इकाइयों की स्थापना की गई है।
5. भिन्न-भिन्न ……………… मूल्य रेडियो, टी०वी० तथा समाचार-पत्रों आदि से भी पता लगते रहते हैं।
उत्तर-

  1. तोल लेना
  2. सांझी तथा सहकारी
  3. मकैनिकल हैंडलिंग
  4. भारतीय खाद्य निगम
  5. मंडियों के।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

बीज, खाद और कीड़ेमार दवाइयों का क्वालिटी कन्ट्रोल

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
खादों की प्रयोगशाला कहां है ?
(क) लुधियाना
(ख) कपूरथला
(ग) जालंधर
(घ) नहीं है।
उत्तर-
(क) लुधियाना

प्रश्न 2.
कीटनाशक दवाइयों के लिए प्रयोगशाला कहां है ?
(क) लुधियाना
(ख) भटिण्डा
(ग) अमृतसर ।
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

प्रश्न 3.
बीज कन्ट्रोल आर्डर कब बना ?
(क) 1980
(ख) 1983
(ग) 1950
(घ) 1995.
उत्तर-
(ख) 1983

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 4.
कीटनाशक दवाइयों के लिए इनसैक्टीसाइड एक्ट कब लागू किया गया ?
(क) 1950
(ख) 1968
(ग) 1990
(घ) 2000.
उत्तर-
(ख) 1968

प्रश्न 5.
खाद कन्ट्रोल आर्डर कब बना ?
(क) 1985
(ख) 1968
(ग) 1995
(घ) 1989.
उत्तर-
(क) 1985

सही-गलत

1. फ़सलों की लाभदायक उत्पादन के लिए बीज, खाद तथा कीटनाशक दवाइयां मुख्य तीन वस्तुएं हैं।
2. इन्सैक्टीसाइड अधिनियम (कीटनाशक एक्ट) 1968 में बनाया नहीं गया।
3. भारत सरकार ने अनिवार्य वस्तुओं के कानून के अन्तर्गत कृषि में काम आने वाली इन तीनों वस्तुओं के लिए विभिन्न कानून बनाए हैं।
4. ये कानून हैं बीज कन्ट्रोल आर्डर, खाद कन्ट्रोल आर्डर, कीटनाशक एक्ट।।
5. बीज कानून की धारा 7 के अन्तर्गत केवल निर्धारित बीजों की ही बिक्री नहीं की जा सकती है।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. सही
  5. गलत।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

रिक्त स्थान भरो-

1. खाद परीक्षण प्रयोगशाला ………………… तथा ………………… में है।
2. खाद कन्ट्रोल आर्डर ……………….. बनाया गया है जो कि खादों की क्वालटी तथा वज़न को ठीक रखने तथा मिलावट, घटिया तथा अप्रमाणित खादें बेचने को रोकने के लिए सहायक है।
3. दवाइयां चैक करने के लिए प्रयोगशालाएं लुधियाना, भटिण्डा तथा …………….. में हैं।
4. सेन्ट्रल इन्सैक्टीसाइड बोर्ड (केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड) ……………… को यह अधिनियम लागू करने की सलाह देता है।
5. सेन्ट्रल (केन्द्रीय) रजिस्ट्रेशन कमेटी कृषि रसायनों की रजिस्ट्रेशन करके इन्हें ……………. तथा आयात निर्यात के लिए आज्ञा देती है।
उत्तर-

  1. लुधियाना, फरीदकोट
  2. 1985
  3. अमृतसर
  4. सरकार
  5. बनाने।

पशु पालन

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भैंस के दो सूयों में अंतर होता है :
(क) 15-16 माह
(ख) 24-25 माह
(ग) 4-5 माह
(घ) 6-7 माह।
उत्तर-
(क) 15-16 माह

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 2.
जर्सी नस्ल का मूल घर है :
(क) पंजाब
(ख) हरियाणा
(ग) इंग्लैंड
(घ) सिंध।
उत्तर-
(ग) इंग्लैंड

प्रश्न 3.
गाय के पहले सूये की आयु बताएं।
(क) 30 माह
(ख) 10 माह
(ग) 50 माह
(घ) 100 माह।
उत्तर-
(क) 30 माह

प्रश्न 4.
400 किलो भार की गाय के लिए हरे चारे की मात्रा है :
(क) 50 किलो
(ख) 400 किलो
(ग) 35 किलो
(घ) 100 किलो।
उत्तर-
(ग) 35 किलो

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 5.
स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन कितना दूध आवश्यक है ?
(क) 250 ग्राम
(ख) 500 ग्राम
(ग) 100 ग्राम
(घ) 700 ग्राम।
उत्तर-
(क) 250 ग्राम

सही-गलत-

1. पंजाब में लगभग 70% जनसंख्या ग्रामीण है।
2. थारपार्कर तथा हरियाणा द्विउद्देश्यीय नसलें हैं।
3. देसी गाय एक सुए में लगभग 1000 से 1700 किलोग्राम दूध देती है।
4. पंजाब में 17 लाख गायें तथा 60 लाख भैंसें हैं।
5. होलस्टीन-फ्रीज़ियन दूध देने वाली सबसे बढ़िया विदेशी नसल है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. गलत
  4. गलत
  5. सही।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

रिक्त स्थान भरो-

1. बछड़े को दूध पिलाना चाहिए तथा ………………… नहीं चाहिए।
2. दूध दोहन का काम ……………….. मिनट में पूरी मुट्ठी से करना चाहिए।
3. दूध को 5°C तक ठण्डा करके रखें, इस तरह …………… फलते फूलते – नहीं।
4. भारत में भैंस के एक सूए का औसतन दूध ……………. किलोग्राम है। पंजाब में यह 1500 किलोग्राम है।
5. दूध वाले ………………… को अच्छी तरह साफ़ करना चाहिए।
उत्तर-

  1. चुसवाना
  2. 6-8
  3. बैक्टीरिया
  4. 500
  5. बर्तनों।

दूध और दूध से बनने वाले पदार्थ

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गाय के एक किलो दूध से कितना खोया तैयार हो सकता है ?
(क) 200 ग्राम
(ख) 500 ग्राम
(ग) 700 ग्राम
(घ) 300 ग्राम।
उत्तर-
(क) 200 ग्राम

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 2.
गाय के दूध में कितने प्रतिशत वसा होती है ?
(क) 4%
(ख) 50%
(ग) 0.5%
(घ) 70%.
उत्तर-
(क) 4%

प्रश्न 3.
टोन्ड दूध में कितनी वसा होती है ?
(क) 1/2%
(ख) 3%
(ग) 10%
(घ) 25%.
उत्तर-
(ख) 3%

प्रश्न 4.
भैंस के एक किलोग्राम दूध में से कितना पनीर तैयार हो जाता है ?
(क) 100 ग्राम
(ख) 50 ग्राम
(ग) 520 ग्राम
(घ) 250 ग्राम।
उत्तर-
(घ) 250 ग्राम।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 5.
डब्ल टोन्ड दूध में SNF की प्रतिशत मात्रा है ?
(क) 3%
(ख) 1%
(ग) 9%
(घ) 2%.
उत्तर-
(ग) 9%

सही-गलत-

1. दूध से बनाए जाने वाले पदार्थ हैं-खोया, पनीर, घी, दही आदि।
2. गाय के एक किलोग्राम दूध में से 200 ग्राम खोया तथा 160 ग्राम पनीर मिल जाता है।
3. दूध में कई आहारीय तत्त्व जैसे-प्रोटीन, हड्डियों के लिए कैल्शियम, अन्य धातुएं आदि होते हैं।
4. दूध एक अनमोल (बहुमूल्य) तथा बहुत बढ़िया पौष्टिक पदार्थ नहीं है।
5. भैंस के दूध में फैट की मात्रा 6% तथा एस०एन०एफ० की मात्रा 9% होनी चाहिए।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. गलत
  5. सही।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

रिक्त स्थान भरो-

1. दूध के ……………….. में सहकारी सभाओं का बहुत योगदान है।
2. दूध की श्रेणियां हैं-टोन्ड दूध, डबल टोन्ड दूध, …… ……. दूध।
3. दूध के ……………… से दूध की तुलना में अधिक कमाई की जा सकती है।
4. कच्चा दूध जल्दी ……………….. हो जाता है।
5. भैंस के एक किलोग्राम दूध में 250 ग्राम खोया तथा ……………….. ग्राम पनीर मिल जाता है।
उत्तर-

  1. मण्डीकरण
  2. स्टैंडर्ड
  3. पदार्थों
  4. खराब
  5. 250.

मुर्गी पालन

बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मुर्गी कितने दिनों बाद अण्डे देना शुरू करती है ?
(क) 50 दिन
(ख) 160 दिन
(ग) 500 दिन
(घ) 250 दिन।
उत्तर-
(ख) 160 दिन

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 2.
चूचों को गर्मी देने वाला यन्त्र है :
(क) माइक्रोवेव ओवन
(ख) बरूडर
(ग) अंगीठी
(घ) तवा।
उत्तर-
(ख) बरूडर

प्रश्न 3.
विष्ठी से कौन-सी गैस बनती है ?
(क) ऑक्सीजन
(ख) हाइड्रोजन
(ग) अमोनिया
(घ) हीलीयम।
उत्तर-
(ग) अमोनिया

प्रश्न 4.
रैड आइलैंड रैंड रंग के अण्डे देती है :
(क) खाकी
(ख) सफेद
(ग) काले
(घ) संतरी।
उत्तर-
(क) खाकी

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 5.
सतलुज लेयर के अण्डे का औसत भार है –
(क) 10 ग्राम
(ख) 20 ग्राम
(ग) 100 ग्राम
(घ) 55 ग्राम।
उत्तर-
(घ) 55 ग्राम।

सही-गलत-

1. ‘पोल्ट्री’ शब्द का अर्थ है ऐसे हर प्रकार के पक्षियों को पालना जो आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हों।
2. सतलुज लेयर, मुर्गियों की एक जाति है जो एक वर्ष में 255-265 अण्डे देती
है तथा अण्डे का औसत भार 55 ग्राम होता है।
3. ह्वाइट लैगहार्न विदेशी नसल है, जो वर्ष में 100-200 अण्डे देती है।
4. रैड आईलैंड रैड खाकी रंग के लगभग वार्षिक 180 अण्डे देती है।
5. आई० बी० एल० 80 ब्रायलर मीट पैदा करने वाली मुर्गियों की एक जाति है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. गलत
  4. सही
  5. सही।

रिक्त स्थान भरो-

1. चूजों को गर्मी देने वाला यंत्र ……………….. होता है।
2. एक मुर्गी को …………….. वर्ग फुट स्थान चाहिए।
3. पक्षियों के शरीर में पसीने के लिए …………….. नहीं होते।
4. ह्वाइट प्लाइमाऊथ राक वार्षिक ………………… के लगभग अण्डे देती है तथा इसके चूज़े दो माह में एक किलो भार के हो जाते हैं।
5. मुर्गियों को अपने भोजन में . …………… से अधिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है।
उत्तर-

  1. बरूडर,
  2. 2
  3. रोमछिद्र
  4. 140
  5. 40.

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

सूअर, भेड़ें/बकरियां और खरगोश पालना

बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
सफेद यार्कशायर किस की किसकी किस्म है ?
(क) मुर्गी
(ख) सूअर
(ग) गाय
(घ) भेड़।
उत्तर-
(ख) सूअर

प्रश्न 2.
बकरी की नसल नहीं है :
(क) सानन
(ख) बोअर
(ग) बीटल
(घ) मैरीनो।
उत्तर-
(घ) मैरीनो।

प्रश्न 3.
मास वाले छल्लों को कब खस्सी करवाना चाहिए?
(क) 2 माह की आयु में
(ख) 10 माह की आयु में
(ग) 15 माह की आयु में
(घ) 20 माह की आयु में।
उत्तर-
(क) 2 माह की आयु में

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 4.
मादा सुअर एक बार में कितने बच्चे पैदा कर सकती है ?
(क) 25-30
(ख) 10-12
(ग) 20-25
(घ) 3-40.
उत्तर-
(ख) 10-12

प्रश्न 5.
खरगोश की मादा पहली बार किस आयु में गर्भित हो जाती है ?
(क) 3-4 माह
(ख) 6-9 माह
(ग) 15-20 माह
(घ) 12-13 माह।
उत्तर-
(ख) 6-9 माह

सही-गलत-

1. सूअर अपने वंश की वृद्धि तेज़ी से करते हैं तथा कम आहार लेते हैं।
2. स्वस्थ मादा सूअर पहली बार 3-4 माह की आयु में कामवेग में आती हैं।
3. सूअरों के 160 वर्ग फुट में 10 बच्चे रखे जा सकते हैं।
4. बकरी की नसलें हैं-बीटल, जमनापरी।
5. भेड़ों की नसलें हैं-मैरीनो, कोरीडेल।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. गलत
  4. सही
  5. सही।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

रिक्त स्थान भरो-

1. मादा सूअर वर्ष में दो बार प्रसव कर सकती है तथा एक बार में बच्चे पैदा करती है।
2. बकरी तथा भेड़ का गर्भकाल का समय ………………… दिन है।
3. खरगोश की मादा पहली बार ……………….. माह की आयु में गर्भ धारण कर सकती है।
4. वार्षिक ऊन की क्रमशः पैदावार रूसी, ब्रिटिश तथा जर्मन अंगोरा से 215, 230 तथा ………………. ग्राम है।
5. खरगोश की आयु औसतन ……………….. वर्ष की है।
उत्तर-

  1. 10-12
  2. 145-153
  3. 6-9,
  4. 590
  5. 5.

मछली पालन

बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
मछली कब बेचने योग्य हो जाती है ?
(क) 500 ग्राम की
(ख) 50 ग्राम की
(ग) 10 ग्राम की
(घ) 20 ग्राम की।
उत्तर-
(क) 500 ग्राम की

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 2.
नदीन मछली है :
(क) कतला
(ख) मरीगल
(ग) पुट्ठी कंघी
(घ) रोहू।
उत्तर-
(ग) पुट्ठी कंघी

प्रश्न 3.
प्रति एकड़ कितने बच्चे तालाब में छोड़े जाते हैं ?
(क) 4000
(ख) 15000
(ग) 1000
(घ) 500.
उत्तर-
(क) 4000

प्रश्न 4.
मांसाहारी मछली है :
(क) सिंगाड़ा
(ख) डोला
(ग) मल्ली
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 5.
मछली पालन के लिए प्रयोग किए जाने वाले पानी का पी०एच० अंक कितना होना चाहिए ?
(क) 7-9
(ख) 2-3
(ग) 13-14
(घ) 11-72.
उत्तर-
(क) 7-9

सही-गलत-

1. मछलियों की भारतीय किस्में हैं-कतला, रोहू तथा मरीगल।
2. जौहड (छप्पड़) 1-5 एकड़ क्षेत्रफल के तथा 6-7 फुट गहरा होना चाहिए।
3. पानी की गहराई 2-3 फुट होनी चाहिए।
4. मछलियों को 10% प्रोटीन वाला सहायक भोजन देना चाहिए।
5. विभिन्न संस्थाओं से मछली पालन के व्यवसाय के लिए प्रशिक्षण नहीं लेना चाहिए।

रिक्त स्थान भरो-

1. जौहड़ में 1-2 इंच आकार के ………………. प्रति एकड़ के हिसाब से डालो।
2. …………………… ग्राम की मछली को बेचा जा सकता है।
3. वैज्ञानिक विधि से मछलियां पालने से वर्ष में लाभ ……………………. से भी अधिक हो जाता है।
4. ………………. बनाने के लिए चिकनी अथवा चिकनी मैरा मिट्टी वाली भूमि का प्रयोग करना चाहिए।
5. पानी का पी०एच० अंक ……. ……………….. के मध्य होना चाहिए। यदि 7 से कम हो तो चूने के प्रयोग से बढ़ाया जा सकता है।
उत्तर-

  1. 4000
  2. 500
  3. कृषि
  4. जौहड़
  5. 7-9.

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers
कुछ नए कृषि विषय

बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
ग्रीन हाऊस गैसें हैं :
(क) कार्बन डाइऑक्साइड
(ख) नाइट्रस ऑक्साइड
(ग) मीथेन
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(घ) सभी ठीक।

प्रश्न 2.
पौधे की किस्म तथा किसान अधिकार सुरक्षा एक्ट कौन-से वर्ष पास हुआ ?
(क) 1985
(ख) 2001
(ग) 2015
(घ) 1980.
उत्तर-
(ख) 2001

प्रश्न 3.
धान में पानी की बचत करने वाला यंत्र :
(क) टैशियोमीटर
(ख) कराहा
(ग) बी०टी०
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) टैशियोमीटर

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

प्रश्न 4.
ग्रीन हाऊस गैसों के कारण पिछले सौ वर्षों में धरती की सतह पर तापमान में कितनी वृद्धि हुई है ?
(क) 0.5°C
(ख) 5C
(ग) 2°C
(घ) 10°C.
उत्तर-
(क) 0.5°C

सही-गलत-

1. आदिकाल से ही मनुष्य कृषि का व्यवसाय नहीं करता आ रहा है।
2. बी० टी० का अर्थ बैसिलस थुरिजैनिसस नाम के बैक्टीरिया से है।
3. बी० टी० नरमे की किस्म से पैदावार पाँच क्विंटल कपास प्रति एकड़ से भी ज्यादा नहीं मिलता है।
4. बी० टी० किस्मों के प्रयोग के कारण कीटनाशकों के प्रयोग पर भी रोक लगी है।
5. वृक्ष और बेलदार वाली फ़सलों का समय पहले 9 साल तथा बढ़ा कर 10 साल तक हो सकता है।
उत्तर-

  1. गलत
  2. सही
  3. गलत
  4. सही
  5. गलत।

PSEB 11th Class Agriculture Objective Questions and Answers

रिक्त स्थान भरो –

1. नई तकनीकों का प्रयोग करके किसी ओर फ़सल या जीव जंतु का ……….. किसी फ़सल में डाल कर इसको संशोधित जाता है।
2. बी० टी० नरमे (कपास) में एक रवेदार प्रोटीन पैदा होता है जिसको खाकर ……………….. मर जाती हैं।
3. जीन डाल कर संशोधित फ़सल को जी० एम० या .. ……………… फ़सलें कहा जाता है।
4. किसानों के अधिकार और पौधे किस्मों के संबंध में ……………… में भारत सरकार ने पौध किस्म और किसान अधिकार सुरक्षा एक्ट पास किया।
5. बैंगन, सोयाबीन, मक्की , चावल आदि की भी ………………. फ़सलें तैयार की जा चुकी हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Geography Book Solutions Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Geography Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य

PSEB 11th Class Geography Guide समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 1 या 2 शब्दों में दें-

प्रश्न (क)
लहरों के ऊँचे भाग को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
क्रेस्ट (Crest)।

प्रश्न (ख)
भारत के समुद्री तट की लंबाई क्या है ?
उत्तर-
7516 कि०मी०।

प्रश्न (ग)
विश्व के दूसरे नंबर पर बड़ी बीच कौन-सी है ?
उत्तर-
मरीना बीच (चेन्नई)।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न (घ)
जब दो स्पिट आपस में मिल जाते हैं, तो इसको क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
लूपड बार (Looped Bar)।

2. निम्नलिखित पर नोट लिखें-

(क) स्पिट (Spit)
(ख) समुद्री बीच (Sea Beach)
(ग) समुद्री गुफा (Sea Caves)
(घ) हाईड्रोलिक एक्शन (Hydrolic Action)।
उत्तर-
(क) स्पिट-रेत की वह श्रेणी जिसका एक सिरा तट से जुड़ा होता है और दूसरा सिरा समुद्र में डूबा होता है।
(ख) समुद्री बीच-तट के साथ मलबे से बनी श्रेणी को बीच कहते हैं।
(ग) समुद्री गुफा-सागर की लहरों के अपरदन से तट पर चट्टानें टूटकर गुफा का निर्माण करती हैं।
(घ) हाईड्रोलिक एक्शन-जब जल-दबाव के कारण चट्टानें टूटती हैं, तो उन्हें जल-दबाव क्रिया कहते हैं।

3. निम्नलिखित में अंतर स्पष्ट करो-

(i) क्रेस्ट (Crest) और ट्रफ (Trough)
(ii) रेत बार (Sand Bar) और लैगून (lagoon)
उत्तर-
क्रेस्ट (Crest)-
(क) लहर के सबसे ऊँचे उठे हुए भाग को क्रेस्ट (Crest) कहते हैं।
(ख) हवा की शक्ति से लहरों का पानी ऊपर उठ जाता है।

ट्रफ (Trough)-
(क) लहर के सबसे नीचे दबे हुए भाग को ट्रफ (Trough) कहते हैं।
(ख) हवा की शक्ति कम होने से लहरों का पानी नीचे दब जाता है।

(ii) रेत बार (Sand Bar) – जब लहरें मलबे को तट के समानांतर एक श्रेणी के रूप में जमा कर देती हैं, तो इसे रेत बार कहते हैं।
लैगून (Lagoon) – कई तटों पर रेत की श्रेणियों के पीछे दलदले क्षेत्र बन जाते हैं, इनके मध्य पानी की एक झील बनती है, जिसे लैगून कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य

4. निम्नलिखित के उत्तर विस्तार सहित दो :

प्रश्न (क)
समुद्री जल की खुर्चन (अपघर्षण) की क्रिया (Erosional work) क्या है और इससे बनने वाली धरातलीय आकृतियों की व्याख्या करें।
उत्तर-
समुद्री तरंगों के अपरदन द्वारा उत्पन्न भू-आकृतियाँ (Landforms Produced by Sea Wave Erosion)-

समुद्री तरंगें अपरदन द्वारा तटों पर नीचे लिखी भू-आकृतियों की रचना करती हैं-

1. खड़ी चट्टान/समुद्री क्लिफ (Sea Cliffs)—समुद्री लहरें सबसे अधिक प्रभाव तट पर स्थित चट्टानों के निचले भाग पर डालती हैं। नीचे से चट्टानें कट जाती हैं और एक नोच (Notch) बन जाती है। तरंगों के निरंतर हमले के कारण नोच गहरी होती जाती है जिससे ऊपर का भाग आगे को झुका हुआ लगने लगता है। कुछ समय के बाद यह झुका हुआ भाग अपने ही भार के कारण टूटकर नीचे गिर जाता है। इसके फलस्वरूप नोच के ऊपरी भाग फिर से खड़ी ढलान वाले हो जाते हैं। तट पर ऐसी खड़ी ढलान को खड़ी चट्टान/समुद्री क्लिफ कहते हैं।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य 1

2. लहर-कटा चबूतरा (Wave-cut Platform or Bench)—कंधियों अथवा क्लिफों और नोचों (Notches) पर तरंगों के लगातार हमले के कारण वे कटकर स्थल की ओर पीछे को हटते रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप अगले भाग में बनी एक नोच का विस्तार होता रहता है, जिसे लहर-कटा चबूतरा (Wave-cut Platform) कहते हैं।

3. समुद्री गुफाएँ (Sea Caves)-कमज़ोर चट्टानों वाली नोचों (Notches) में तरंगों के जल-दबाव (Hydraulic Pressure) के कारण उनमें दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। तरंगें इन जोड़ों और दरारों के द्वारा प्रभाव डालकर उन्हें चौड़ा कर देती हैं। तरंगों के अपरदन के समय इन दरारों से भीतरी हवा दबाई जाती है और जब ये तरंगें समुद्र की ओर मुडती हैं तो जल के दबाव से मुक्त यह भीतरी हवा फैलती है और चट्टानों पर दबाव डालती है। इस क्रिया के निरंतर होते रहने से चट्टानें टूटती रहती हैं और कुछ समय के बाद गहरा खड्डा बन जाता है। धीरेधीरे यह खड्ड, गहरी गुफा का रूप धारण कर लेता है। दो पड़ोसी गुफाओं के बीच की दीवार टूट जाने पर
महराब (Arch) बन जाती है, जिसे प्राकृतिक पुल (Natural Bridge) कहते हैं।

4. समुद्री किनारे के सुराख (Spout Horns or Blow Holes)-तट पर हमले के समय तरंगें गुफाओं के मुँह को जल से बंद कर देती हैं, जिससे गुफाओं की अंदर की वायु अंदर ही बंद हो जाती है। यदि गुफा की छत कमज़ोर हो, तो वह वायु उसको फाड़कर ऊपर सुराख कर देती है। इसे समुद्री किनारे के सुराख कहते हैं। यदि तरंगों के हमले के समय वायु सीटी बजाती हुई इन सुराखों से निकलती है, तो गुफा में भरा जल भी वायु के साथ फव्वारे के समान बाहर निकलता है, इसीलिए इसे टोंटीदार सुराख (Spouting horn) कहकर भी पुकारते हैं।

5. खाड़ियाँ (Bays)–जब किसी तट पर कोमल और कठोर चट्टानें लंब रूप में स्थित हों, तो कोमल चट्टानें (Soft Rocks) अंदर की ओर अधिक कट जाती हैं। इस प्रकार कोमल चट्टानों में खाड़ियाँ (Bays) बन जाती हैं।

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6. हैडलैंड या केप या अंतरीप (Headland or Cape)-तट की लंबवर्ती स्थिति में फैली एक कठोर चट्टान के दोनों तरफ से नर्म चट्टानों का अपरदन हो जाता है और वहाँ खाड़ियाँ बन जाती हैं और वह सख्त चट्टान समुद्र में बढ़ी हुई रह जाती है, जिसे अंतरीप कहते हैं।

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7. स्टैक (Stack)-जब महराब की छत तरंगों द्वारा अपरदित हो जाती है अथवा किसी अन्य कारण से टूटकर नष्ट हो जाती है तो मेहराब का अगला भाग पिछले भाग से स्तंभ के रूप में अलग खड़ा रह जाता है। इस स्तंभ को स्टैक कहते हैं। स्कॉटलैंड के उत्तर में ओरकनीज़ (Orkneys) टापूओं में Old man of Hoai इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।

Geography Guide for Class 11 PSEB समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-4 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
समुद्री जल की गतियाँ बताएँ।
उत्तर-
लहरें, धाराएँ और ज्वारभाटा।

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प्रश्न 2.
तट रेखा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जहाँ जल-मंडल, थल-मंडल और वायु-मंडल मिलते हों।

प्रश्न 3.
ब्रेकर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लहरों का वह भाग, जो तट से टकराता है।

प्रश्न 4.
सागरीय जल किन चट्टानों पर घुलनशील क्रिया करता है ?
उत्तर-
चूने का पत्थर, डोलोमाइट और चॉक।

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प्रश्न 5.
क्लिफ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
तट पर खड़ी ढलान वाली चट्टान।

प्रश्न 6.
गुफ़ा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
क्लिफ़ के नीचे बने कटाव।

प्रश्न 7.
गुफ़ा कैसे बनती है ?
उत्तर-
Notch के बड़ा हो जाने पर।

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प्रश्न 8.
स्टैक कैसे बनते हैं ?
उत्तर-
कठोर चट्टानों के बचे-खुचे भाग।

प्रश्न 9.
भारत के पूर्वी तट पर किन्हीं दो लैगून झीलों के नाम बताएँ।
उत्तर-
चिलका झील और पुलीकट झील।

प्रश्न 10.
भारत के पश्चिमी तट पर किसी एक लैगून झील का नाम बताएँ।
उत्तर-
वेंबनाद झील।

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अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 2-3 वाक्यों में दें-

प्रश्न 1.
सागरीय लहरों के तीन प्रकार बताएँ।
उत्तर-

  1. ब्रेकर
  2. स्वैश
  3. कवाश।

प्रश्न 2.
Under Tow से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तट से टकराकर मुड़ती हुई लहर के नीचे के जल को Under Tow कहते हैं।

प्रश्न 3.
लहरों के अपरदन की क्रियाएँ बताएँ।
उत्तर-

  • जलीय दबाव क्रिया
  • घर्षण क्रिया
  • सहघर्षण क्रिया
  • घुलनशील क्रिया।

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प्रश्न 4.
समुद्री क्लिफ (Cliff) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
समुद्र तट पर खड़े ढलान वाले खंड को Cliff कहते हैं।

प्रश्न 5.
सागरीय लहरों का अपरदन किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-

  • तरंग की ऊँचाई
  • चट्टानों का झुकाव
  • चट्टानों की रचना
  • लहरों की दिशा।

प्रश्न 6.
समुद्री किनारे के सुराख (Blow-hole) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तट के निकट गुफाओं की छत पर जल सुराख कर देता है, जिसमें से वायु गुज़रती है, उसे समुद्री किनारे के सुराख कहते हैं।

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प्रश्न 7.
स्टैक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सागरीय तट पर कठोर चट्टानों के बचे-खुचे भाग को स्टैक कहते हैं।

प्रश्न 8.
बीच किसे कहते हैं ?
उत्तर-
तट के साथ-साथ मलबे के निक्षेप से बनी श्रेणियों को बीच कहते हैं।

प्रश्न 9.
रोधक किसे कहते हैं ?
उत्तर-
तट के समानांतर रेत की श्रेणी, जो रोकने का काम करती है, रोधक कहलाती है।

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प्रश्न 10.
लैगून से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
रोधक और तट के बीच बनी झील को लैगून कहते हैं।

प्रश्न 11.
स्पिट से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
स्पिट रेत की एक श्रेणी होती है, जिसका एक सिरा तट से जुड़ा होता है और दूसरा सिरा खुले सागर में होता है।

प्रश्न 12.
मेहराब कैसे बनती है ?
उत्तर-
दो गुफ़ाओं के मिलने से छत एक ढक्कन के समान खड़ी रहती है, जिसे मेहराब (Arch) कहते हैं।

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प्रश्न 13.
तमबोलो से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जब कोई रेत, रोधक तट को किसी वायु के साथ जोड़ती है, उसे तमबोलो कहते हैं।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न: (Short Answer Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 60-80 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
लहरों के द्वारा अपरदन के अलग-अलग रूप बताएँ।
उत्तर-
अपरदन (Erosion)-तट पर तोड़-फोड़ का काम आमतौर पर सर्फ (Surf), लहरों या तूफ़ानी लहरों द्वारा ही होता है। समुद्री लहरों द्वारा अपरदन अधिक-से-अधिक 200 मीटर की गहराई तक होता है। यह अपरदन चार प्रकार से होता है-

  1. जल-दबाव क्रिया (Water Pressure)-सुराखों में जल के दबाव से चट्टानें टूटने और बिखरने लगती हैं।
  2. अपघर्षण (Abrasion)-बड़े-बड़े पत्थर चट्टानों से टकराकर उन्हें तोड़ते रहते हैं।
  3. टूट-फूट (Attrition)-पत्थरों के टुकड़े आपस में टकराकर टूटते रहते हैं।
  4. घुलनशील क्रिया (Solution)—समुद्री जल चूने वाली चट्टानों को घोलकर अलग कर देता है।

प्रश्न 2.
लहरों द्वारा अपरदन किन तत्त्वों पर निर्भर करता है ?
उत्तर-
लहरों द्वारा अपरदन कई तत्त्वों पर निर्भर करता है- .

  1. चट्टानों की प्रकृति (Nature of Rocks)—तट पर स्थित कठोर चट्टानों की तुलना में कमज़ोर चट्टानें जल्दी ही टूट जाती हैं।
  2. लहरों का वेग और ऊँचाई (Speed and Height of Waves)-बड़ी और ऊँची लहरें अधिक कटाव करती हैं।
  3. तट के सागर की ओर ढलान (Slope) और ऊँचाई-कम ढलान वाले मैदानी तटों पर कटाव कम होता है।
  4. चट्टानों में सुराख (holes) और दरारों (Faults) का होना- यदि तटों की चट्टानों में सुराख और दरारें हों, तो तट का कटाव आसानी से होता है।
  5. जल की गहराई (Depth of water)-लहरें 30 फुट की गहराई तक ही कटाव करती हैं।

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प्रश्न 3.
समुद्री गुफाएँ कैसे बनती हैं ?
उत्तर-
समुद्री गुफाएँ (Sea Caves)-आधार की कोमल चट्टानों के टूटने या घुल जाने पर तट के पास खोखले स्थान बन जाते हैं। लहरों द्वारा हवा के बार-बार घूमने और निकलने की क्रिया से ये स्थान चौड़े हो जाते हैं और गुफाएँ बन जाती हैं। इन गुफाओं की ऊपरी छत कठोर चट्टानों से बनी होती है। दो पड़ोसी गुफ़ाओं के बीच की दीवार टूट जाने से मेहराब (Arch) बन जाती है। इसे प्राकृतिक पुल भी कहते हैं।

प्रश्न 4.
भू-जीभ (Spit) और भित्ती (Bar) में अंतर बताएँ।
उत्तर –
भू-जीभ (Spit)-

  1. मलबे के निक्षेप से बनी श्रेणी को भू-जीभ कहते हैं, जिसका एक सिरा तट से जुड़ा होता है और दूसरा सिरा खुले समुद्र में डूबा होता है।
  2. इसकी शक्ल एक जीभ के समान होती है।
  3. यह पानी में डूबी होती है और फिर से हुक (Hook) भी बन जाती है।

भित्ती (Bar)-

  1. लहरों द्वारा तट या खाड़ी के समानांतर निक्षेप से रेत की बनी ऊँची श्रेणी या रोक को भित्ती कहते हैं।
  2. यह रोक तट के समानांतर होती है।
  3. यह पानी से बाहर बनती है और इसके पीछे एक लैगून झील बन जाती है।

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निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर 150-250 शब्दों में दें-

प्रश्न 1.
तरंगों के प्रकारों और उनके अपरदन कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्र का अपरदन, परिवहन और निक्षेपण कार्य, इसके जल में उत्पन्न होने वाली तीन गतियों – तरंगों या लहरों, ज्वारभाटा और जल-धाराओं द्वारा होता है। इनमें से तरंगें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं।

समुद्री तरंगें (Sea Waves)- पवनों के प्रभाव से सागरीय जल के तल के ऊँचा-नीचा होने को तरंग (Waves) कहते हैं। तरंग में जल अपने मूल स्थान से आगे नहीं बढ़ता, बल्कि अपने स्थान पर ही ऊपर-नीचे होता रहता है। महासागरों में पवनें बड़ी तेज़ी से चलती हैं। इस कारण कई बार 5 से 10 मीटर तक ऊँची तरंगें उठती हैं।

समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन को नियंत्रित करने वाले कारक (Factors controlling the Erosion by Sea Waves)-

तरंगों द्वारा अपरदन सभी तटों पर एक समान नहीं होता, क्योंकि इनकी परिस्थितियाँ अलग-अलग स्थानों पर भिन्नभिन्न होती हैं। तरंगों द्वारा अपरदन को नीचे लिखे कारक प्रभावित करते हैं-

1. तरंगों की ऊँचाई (Height of the Waves) तरंगों की ऊँचाई के अनुसार ही तट पर जल आता है। ऊँची तरंगें तट पर ही अधिक जल फेंकती हैं। यह जल अधिक मात्रा में कंकड़, रेत आदि को प्रभावित करता है और तटों से टकराकर अधिक अपरदन करता है।

2. तटीय चट्टानों का झुकाव (Inclination of Coastal Rocks)—जिन तटों पर चट्टानों की परतों का – झुकाव समुद्र की ओर होता है, उन परतों के जोड़ तरंगों के सामने होते हैं, जिसके कारण उनका अपरदन आसान हो जाता है।

3. तटीय चट्टानों की संरचना (Structure of Coastal Rocks) चट्टानों की संरचना अपरदन को बहुत प्रभावित करती है। नर्म चट्टानें जल्दी टूटती हैं। कार्स्ट तटों पर तरंगें तेज़ गति से अपरदन करती हैं।

4. तरंगों की दिशा (Direction of Waves)-तटीय चट्टानों पर सीधी आकर टकराने वाली तरंगें अधिक अपरदन करती हैं।

5. वनस्पति फैलाव (Vegetation Cover)-तटों पर उगे पेड़-पौधों की जड़ें चट्टानों को खोखला कर देती हैं, जिस कारण तरंगों द्वारा तटों पर अपरदन आसान हो जाता है।

6. तरंगों की गहराई (Depth of Waves) तरंगों का अधिक कटाव 10 मीटर की गहराई तक ही होता है।

समुद्री लहरें (Sea Waves)-

समुद्री लहरों का काम समुद्री तटों तक ही सीमित रहता है। हवा के प्रभाव से समुद्र के पानी में लहरें पैदा होती हैं। हवा की शक्ति से समुद्र के पानी का कुछ भाग ऊपर उठ आता है और कुछ भाग नीचे दब जाता है। सबसे ऊँचे उठे हुए भाग को Crest और सबसे नीचे दबे भाग को ट्रफ (Trough) कहते हैं। महासागरों में लहरों की ऊँचाई 10 मीटर तक होती है, पर तूफान के समय लहरों की ऊँचाई 20 मीटर तक ऊँची हो जाती है।

लहरों के प्रकार (Types of Waves) –
1. ब्रेकर (Breaker)-समुद्र तट पर लहरों का उच्च भाग टूटकर तट की ओर आगे बढ़ता है। इसे ब्रेकर या सर्फ (Surf) या स्वैश (Swash) कहते हैं।

2. बैकवॉश (Backwash)-तट से टकराकर पानी वापिस जाती हुई लहर के नीचे-नीचे चलता है। इस वापिस जाते हुए जल को (Under Tow) या उतार (backwash) कहते हैं।

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समुद्री लहरों का कार्य (Work of Sea Waves)-दूसरे साधनों के समान लहरें भी अपरदन, परिवहन और निक्षेप का कार्य करती हैं।
अपरदन (Erosion)-तट पर तोड़-फोड़ का काम आमतौर पर सर्फ (Surf) लहरों या तूफानी लहरों द्वारा ही होता है। समुद्री लहरों द्वारा अपरदन अधिक-से-अधिक 200 मीटर की गहराई तक होता है। यह अपरदन चार प्रकार से होता है –

  1. जल-दबाव क्रिया (Water Pressure)-सुराखों में जल के दबाव से चट्टानें टूटने और बिखरने लगती हैं।
  2. अपघर्षण (Abrasion)-बड़े-बड़े पत्थर चट्टानों से टकराकर उन्हें तोड़ते रहते हैं।
  3. तोड़-फोड़ (Attrition)—पत्थरों के टुकड़े आपस में टकराकर टूटते रहते हैं।
  4. घुलनशील क्रिया (Solution)-समुद्री जल चूने वाली चट्टानों को घोलकर अलग कर देता है।

PSEB 11th Class Geography Solutions Chapter 3(v) समुद्र के अनावृत्तिकरण कार्य

प्रश्न 2.
समुद्री लहरों के निक्षेप से बनने वाली भू-आकृतियों का वर्णन करें।
उत्तर-
समुद्री तरंगों के निक्षेप द्वारा उत्पन्न भू-आकृतियां (Landforms Produced by Deposition of Sea Waves) – समुद्री तरंगों के निक्षेप द्वारा नीचे लिखी भू-आकृतियों का निर्माण होता है-

1. तरंग-निर्मित चबूतरा (Wave-built Platform)-तटों का अपरदन करके तरंगें, जिन पदार्थों को प्राप्त करती हैं, उनमें से हल्के पदार्थों को दूर ले जाकर पानी में डूबे हुए ढलान वाले तट पर निक्षेप कर देती हैं, जिससे वह भाग एक समतल चबूतरे का रूप धारण कर लेता है। यहाँ निक्षेप के कारण सागर गहरा हो जाता है। कभी-कभी यह चबूतरा पानी से बाहर भी दिखाई देने लग जाता है। इस चबूतरे को तरंग-निर्मित चबूतरा कहते हैं।

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2. बीच (Beach)—सागरीय तरंगों द्वारा अपरदन के भारी पदार्थों; जैसे-पत्थर, कंकड़ आदि को तट के पास ही अधिक मात्रा में ढेरी कर दिया जाता है, जिससे यह भाग थोड़ा ऊँचा और ढलान वाला हो जाता है। तट के इस क्षेत्र को बीच कहा जाता है। यहाँ पर ऊँची तरंगों के समय ही जल पहुँचता है। ये प्रदेश बड़े ज्वार (High Tides) और छोटे ज्वार (Low Tides) के मध्य में स्थित होते हैं। तट के पास ये ऊँचे प्रदेश खेलों के उत्तम स्थल बन जाते हैं, जैसे-मुंबई में जुहू बीच और चेन्नई में मरीना बीच।

3. अपतटीय रेत भित्तियाँ (Offshore Sand-bars) तरंगें तट से अपरदित किए पदार्थ विशेष रूप से रेत को तट के समानांतर पानी में डूबे भाग पर एक श्रेणी के रूप में ढेरी कर देती हैं। रेत की इस श्रेणी को अपतटीय रेत भित्ती कहते हैं। इसका ऊपरी भाग पानी के तल से भी ऊपर दिखाई देता है। ये रोधक का काम करती हैं।

4. भू-जीभ या स्पिट (Spits) – कभी-कभी तरंगों द्वारा बनाई किसी रेत भित्ती का एक सिरा स्थल से जुड़ा होता है और दूसरा समुद्र की ओर बढ़ा रहता है। उसे भू-जीभ या स्पिट कहते हैं। कभी-कभी इसका समुद्र की ओर का सिरा नुकीला हो जाता है, तो इसे कस्प (cusp) कहते हैं।

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5. हुक (Hook)-स्पिट का सिरा कभी-कभी समुद्री धाराओं या फिर तिरछी तरंगों के प्रभाव के कारण तट की ओर मुड़ जाता है। इसे हुक (Hook) कहते हैं।

6. संयोजक भित्ती या तमबोलो (Connecting bar or Tombolo)—कभी-कभी स्पिट द्वारा दो द्वीप या मुख्य स्थल किसी टापू के साथ जुड़ जाते हैं। ऐसी भित्ती को संयोजक भित्ती कहते हैं । इटली में इन्हें तमबोलो का नाम दिया जाता है। यदि स्पिट का बाहरी सिरा संयोजक भित्ती का रूप ग्रहण करते-करते तट की ओर मुड़कर उसके साथ आकर जुड़ जाए तो उसे Looped bar के नाम से पुकारा जाता है।

7. लैगून झीलें (Lagoons)—कई तटों पर रेत की श्रेणियों के पीछे झीलें बन जाती हैं, जिन्हें लैगून कहते हैं। भारत के पूर्वी तट पर चिल्का (Chilka) और पुलीकट (Pulikat) तथा केरल के तट पर वेबनाद झील. इसके उदाहरण हैं।

योग (Yoga) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions योग (Yoga) Game Rules.

योग (Yoga) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

PSEB 11th Class Physical Education Guide योग (Yoga) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
‘योग’ शब्द संस्कृत की किस धातु से लिया गया है ?
उत्तर-
योग शब्द संस्कृत की ‘युज्’ धातु से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘जोड़’ या ‘मेल’।

प्रश्न 2.
प्राणायाम की किस्मों के नाम लिखें।
उत्तर-
प्राणायाम
(Pranayama)
प्राणायाम दो शब्दों के मेल से बना है “प्राण” का अर्थ है ‘जीवन’ और ‘याम’ का अर्थ है, ‘नियन्त्रण’ जिससे अभिप्राय है जीवन पर नियन्त्रण अथवा सांस पर नियन्त्रण। प्राणायाम वह क्रिया है जिससे जीवन की शक्ति को बढ़ाया जा सकता है और इस पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
मनु-महाराज ने कहा है, “प्राणायाम से मनुष्य के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं और कमियां पूरी हो जाती हैं।”

प्राणायाम के आधार
(Basis of Pranayama)
सांस को बाहर की ओर निकालना तथा फिर अन्दर की ओर करना और अन्दर ही कुछ समय रोक कर फिर कुछ … समय के बाद बाहर निकालने की तीनों क्रियाएं ही प्राणायाम का आधार हैं।
रेचक-सांस बाहर को छोड़ने की क्रिया को ‘रेचक’ कहते हैं।
पूरक-जब सांस अन्दर खींचते हैं तो इसे पूरक कहते हैं।
कुम्भक-सांस को अन्दर खींचने के बाद उसे वहां ही रोकने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं।

प्राण के नाम
(Name of Prana)
व्यक्ति के सारे शरीर में प्राण समाया हुआ है। इसके पांच नाम हैं—

  1. प्राण-यह गले से दिल तक है। इसी प्राण की शक्ति से सांस शरीर में नीचे जाता है।
  2. अप्राण-नाभिका से निचले भाग में प्राण को अप्राण कहते हैं। छोटी और बड़ी आन्तों में यही प्राण होता है। यह टट्टी, पेशाब और हवा को शरीर में से बाहर निकालने के लिए सहायता करता है।
  3. समान-दिल और नाभिका तक रहने वाली प्राण क्रिया को समान कहते हैं। यह प्राण पाचन क्रिया और एडरीनल ग्रन्थि की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है।
  4. उदाना–गले से सिर तक रहने वाले प्राण को उदान कहते हैं। आंखों, कानों, नाक, मस्तिष्क इत्यादि अंगों का काम इसी प्राण के कारण होता है।
  5. ध्यान-यह प्राण शरीर के सभी भागों में रहता है और शरीर का अन्य प्राणों से मेल-जोल रखता है। शरीर के हिलने-जुलने पर इसका नियन्त्रण होता है।

प्राणायाम की किस्में
(Kinds of Pranayama)
शास्त्रों में प्राणायाम कई प्रकार के दिये गए हैं, परन्तु प्रायः यह आठ होते हैं—

  1. सूर्य-भेदी प्राणायाम
  2. उजयी प्राणायाम
  3. शीतकारी प्राणायाम
  4. शीतली प्राणायाम
  5. भस्त्रिका प्राणायाम
  6. भ्रमरी प्राणायाम
  7. मुर्छा प्राणायाम
  8. कपालभाती प्राणायाम

योग (Yoga) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
योग की कोई छः किस्मों के नाम लिखें।
उत्तर-
योग की छ: किस्में-अष्टांग योग, हठ योग, जनन योग, मंत्र योग, भक्ति योग, कुंडली योग।

प्रश्न 4.
अष्टांग योग के तत्वों के नाम लिखें।
उत्तर-
यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, धारणा, ध्यान तथा समाधि अष्टांग योग के तत्त्व हैं।

प्रश्न 5.
ताड़ासन की विधि लिखें।
उत्तर-
ताड़ासन (Tarasan)—इस आसन में खड़े होने की स्थिति में धड़ को ऊपर की ओर खींचा जाता है।
ताड़ासन की स्थिति (Position of Tarasan)-इस आसन में स्थिति ताड़ के वृक्ष जैसी होती है।
योग (Yoga) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
ताड़ासन
ताड़ासन की विधि (Technique of Tarasan) खड़े होकर पांव की एड़ियों और अंगुलियों को जोड़ कर भुजाओं को ऊपर सीधा करें। हाथों की अंगुलियां एक-दूसरे हाथ में फंसा लें। हथेलियां ऊपर और नज़र सामने हो। अपना पूरा सांस अन्दर की ओर खींचें। एड़ियों को ऊपर उठा कर शरीर का सारा भार पंजों पर ही डालें। शरीर को ऊपर की ओर खींचे। कुछ समय के बाद सांस छोड़ते हुए शरीर को नीचे लाएं। ऐसा दस पन्द्रह बार करो।
ताड़ासन के लाभ (Advantages of Tarasan)-

  1. इससे शरीर का मोटापा दूर होता है।
  2. इससे कब्ज दूर होती है।
  3. इससे आंतों के रोग नहीं लगते।
  4. प्रतिदिन ठण्डा पानी पी कर इस आसन को करने से पेट साफ रहता है।

योग (Yoga) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 6.
पश्चिमोत्तानासन की विधि लिखें।
उत्तर-
पश्चिमोत्तानासन (Paschimotanasana)—इसमें पांवों के अंगूठों को अंगुलियों से पकड़ कर इस प्रकार बैठा जाता है कि धड़ एक ओर ज़ोर से चला जाए।
पश्चिमोत्तानासन की स्थिति (Position of Paschimotanasana)-इस आसन में सारे शरीर को फैला कर मोड़ा जाता है।
पश्चिमोत्तानासन की विधि (Technique of Paschimotansana)-दोनों टांगें आगे की ओर फैला कर भूमि पर बैठ जाएं। दोनों हाथों से पांवों के अंगूठे पकड़ कर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए घुटनों को छूने की कोशिश करो। फिर धीरे-धीरे सांस लेते हुए सिर को ऊपर उठाएं और पहले वाली स्थिति में आ जाएं। यह आसन हर रोज़ 10-15 बार करना चाहिए।
योग (Yoga) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 2
पश्चिमोत्तानासन
लाभ (Advantages)—

  1. इस आसन से जंघाओं को शक्ति मिलती है।
  2. नाड़ियों की सफाई होती है।
  3. पेट के अनेक प्रकार के रोगों से छुटकारा मिलता है।
  4. शरीर की बढ़ी हुई चर्बी कम होती है।
  5. पेट की गैस समाप्त होती है।

Physical Education Guide for Class 11 PSEB योग (Yoga) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
योग का इतिहास लिखें।
उत्तर-
योग का इतिहास उत्तर
(History of Yoga)
‘योग’ का इतिहास वास्तव में बहुत पुराना है। योग के उद्भव के बारे में दृढ़तापूर्वक व स्पष्टता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। केवल यह कहा जा सकता है कि योग का उद्भव भारतवर्ष में हुआ था। उपलब्ध तथ्य यह दर्शाते हैं कि योग सिन्धु घाटी सभ्यता से सम्बन्धित है। उस समय व्यक्ति योग किया करते थे। गौण स्रोतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि योग का उद्भव भारतवर्ष में लगभग 3000 ई० पू० हुआ था। 147 ई० पू० पतंजलि (Patanjali) के द्वारा योग पर प्रथम पुस्तक लिखी गई थी। वास्तव में योग संस्कृत भाषा के ‘युज्’ शब्द से लिया गया है। जिसका अभिप्राय है ‘जोड़’ या ‘मेल’। आजकल योग पूरे विश्व में प्रसिद्ध हो चुका है। आधुनिक युग को तनाव, दबाव व चिंता का युग कहा जा सकता है। इसलिए अधिकतर व्यक्ति खुशी से भरपूर व फलदायक जीवन नहीं गुजार रहे हैं। पश्चिमी देशों में योग जीवन का एक भाग बन चुका है। मानव जीवन में योग बहुत महत्त्वपूर्ण है।

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प्रश्न 2.
यौगिक व्यायाम के नए नियम लिखे।
उत्तर-
यौगिक व्यायाम के नये नियम
(New Rules of Yogic Exercise)

  1. यौगिक व्यायाम करने का स्थान समतल होना चाहिए। ज़मीन पर दरी या कम्बल डाल कर यौगिक व्यायाम करने चाहिए।
  2. यौगिक व्यायाम करने का स्थान एकान्त, हवादार और सफाई वाला होना चाहिए।
  3. यौगिक व्यायाम करते हुए श्वास और मन को शान्त रखना चाहिए।
  4. भोजन करने के बाद कम-से-कम चार घण्टे के पश्चात् यौगिक आसन करने चाहिए।
  5. यौगिक आसन धीरे-धीरे करने चाहिए और अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।
  6. अभ्यास प्रतिदिन किसी योग्य प्रशिक्षक की देख-रेख में करना चाहिए।
  7. दो आसनों के मध्य में थोड़ा विश्राम शव आसन द्वारा कर लेना चाहिए।
  8. शरीर पर कम-से-कम कपड़े पहनने चाहिए, लंगोट, निक्कर, बनियान आदि और सन्तुलित भोजन करना चाहिए।

बोर्ड द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम में निम्नलिखित यौगिक व्यायाम सम्मिलित किए गए हैं जिनके दैनिक अभ्यास द्वारा एक साधारण व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहता है—

  1. ताड़ासन
  2. अर्द्धचन्द्रासन
  3. भुजंगासन
  4. शलभासन
  5. धनुरासन
  6. अर्द्धमत्स्येन्द्रासन
  7. पश्चिमोत्तानासन
  8. पद्मासन
  9. स्वास्तिकासन
  10. सर्वांगासन
  11. मत्स्यासन
  12. हलासन
  13. योग मुद्रा
  14. मयूरासन
  15. उड्डियान
  16. प्राणायाम : अनुलोम विलोम
  17. सूर्य नमस्कार
  18. शवासन

प्रश्न 3.
भुजंगासन की विधि बताकर इसके लाभ लिखें।
उत्तर-
भुजंगासन (Bhujangasana)-इसमें चित्त लेट कर धड़ को ढीला किया जाता है।
भुजंगासन की विधि (Technique of Bhujangasana)—इसे सर्पासन भी कहते हैं। इसमें शरीर की स्थिति सर्प के आकार जैसी होती है। सर्पासन करने के लिए भूमि पर पेट के बल लेटें। दोनों हाथ कन्धों के बराबर रखो। धीरेधीरे टांगों को अकड़ाते हुए हथेलियों के बल छाती को इतना ऊपर उठाएं कि भुजाएं बिल्कुल सीधी हो जाएं। पंजों को अन्दर की ओर करो और सिर को धीरे-धीरे पीछे की ओर लटकाएं। धीरे-धीरे पहली स्थिति में लौट आएं। इस आसन को तीन से पांच बार करें।
लाभ (Advantages)—

  1. भुजंगासन से पाचन शक्ति बढ़ती है।
  2. जिगर और तिल्ली के रोगों से छुटकारा मिलता है।
  3. रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियां मज़बूत बनती हैं।
  4. कब्ज दूर होती है।
  5. बढ़ा हुआ पेट अन्दर को धंसता है।
  6. फेफड़े शक्तिशाली होते हैं।
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    भुजंगासन

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प्रश्न 4.
धनुरासन और अर्द्धमत्स्येन्द्रासन की विधि और लाभ लिखें।
उत्तर-
धनुरासन (Dhanurasana)—इसमें चित्त लेट कर और टांगों को ऊपर खींच कर पांवों को हाथों से पकड़ा जाता है।
धनुरासन की विधि (Technique of Dhanurasana)-इससे शरीर की स्थिति कमान की तरह होती है। धनुरासन करने के लिए पेट के बल भूमि पर लेट जाएं। घुटनों को पीछे की ओर मोड़ कर रखें। टखनों के समीप पांवों
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धनुरासन
को हाथ से पकड़ें। लम्बी सांस लेकर छाती को जितना हो सके ऊपर की ओर उठाएं। अब पांव अकड़ायें जिससे शरीर का आकार कमान की तरह बन जाए। जितने समय तक सम्भव हो ऊपर वाली स्थिति में रहें। सांस छोड़ते समय शरीर को ढीला रखते हुए पहले वाली स्थिति में आ जाएं। इस आसन को तीन-चार बार करें। भुजंगासन और धनुरासन दोनों ही आसन बारी-बारी करने चाहिए।
लाभ (Advantages)—

  1. इस आसन से शरीर का मोटापा कम होता है।
  2. इससे पाचन शक्ति बढ़ती है।
  3. गठिया और मूत्र रोगों से छुटकारा मिलता है।
  4. मेहदा तथा आंतें अधिक ताकतवर बनती हैं।
  5. रीढ़ की ‘हड्डी तथा मांसपेशियां मज़बूत और लचकीली बनती हैं।

अर्द्धमत्स्येन्द्रासन (Ardhmatseyandrasana) इसमें बैठने की स्थिति में धड़ को पावों की ओर धंसा जाता है।
विधि-ज़मीन पर बैठकर बाएं पांव की एड़ी को दाईं ओर नितम्ब के पास ले जाओ। जिससे एडी का भाग गदा के निकट लगे। दायें पांव को ज़मीन पर बायें पांव के घुटने के निकट रखो फिर वक्षस्थल के निकट बाईं भुजा को लाएं, दायें पांव के घुटने के नीचे अपनी जंघा पर रखें, पीछे की ओर से दायें हाथ द्वारा कमर को लपेट कर नाभि को स्पर्श करने का यत्न करें। फिर पांव बदल कर सारी क्रिया को दोहराएँ।
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अर्द्धमत्स्येन्द्रासन
लाभ—

  1. इस आसन द्वारा मांसपेशियां और जोड़ अधिक लचीले रहते हैं और शरीर में शक्ति आती है।
  2. यह आसन, वायु विकार और मधुमेह दूर करता है तथा आन्त उतरने (Hernia) में लाभदायक है।
  3. यह आसन मूत्राशय, अमाशय, प्लीहादि के रोगों में लाभदायक है।
  4. इस आसन के करने से मोटापा दूर रहता है।
  5. छोटी तथा बड़ी आन्तों के रोगों के लिए बहुत उपयोगी है।

प्रश्न 5.
पद्मासन, मयूरासन, सर्वांगासन और मत्स्यासन की विधि और लाभ बताएं।
उत्तर-
पद्मासन (Padamasana)-इसमें टांगों की चौंकड़ी लगा कर बैठा जाता है। पद्मासन की विधि (Technique of Padamasana)-चौकड़ी मार कर बैठने के बाद दायां पांव बाईं जांघ पर इस तरह रखें कि दायें पांव की एड़ी बाईं जांघ पर पेडू हड्डी को छुए। इसके पश्चात् बायें पांव को उठा कर उसी प्रकार दायें पांव की जांघ पर रख लें। रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए। बाजुओं को तान कर हाथों को घुटनों पर रखो। कुछ दिनों के अभ्यास द्वारा इस आसन को बहुत ही आसानी से किया जा सकता है।
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पद्मासन
लाभ (Advantages)—

  1. इस आसन में पाचन शक्ति बढ़ती है।
  2. यह आसन मन की एकाग्रता के लिए सर्वोत्तम है।
  3. कमर दर्द दूर होता है।
  4. दिल के तथा पेट के रोग नहीं लगते।
  5. मूत्र के रोगों को दूर करता है।

मयूरासन (Mayurasana)
विधि (Technique)-पेट के बल ज़मीन पर लेट कर दोनों पांवों के पंजों को मिलाओ। दोनों कहनियों को आपस में मिला कर ज़मीन पर ले जाओ। सम्पूर्ण शरीर का भार कुहनियों पर दे कर घुटनों और पैरों को जमीन से उठाए रखो।
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मयूरासन
लाभ (Advantages)—

  1. यह आसन फेफड़ों की बीमारी दूर करता है। चेहरे को लाली प्रदान करता है।
  2. पेट की सभी बीमारियां इससे दूर होती हैं और बांहों तथा हाथों को बलवान बनाता है।
  3. इस आसन से आंखों की नज़र पास की व दूर की ठीक रहती है।
  4. इस आसन से मधुमेह रोग नहीं होता यदि हो जाए तो दूर हो जाता है।
  5. यह आसन रक्त संचार को नियमित करता है।

सर्वांगासन (Sarvangasana)—इसमें कन्धों पर खड़ा हुआ जाता है।
सर्वांगासन की विधि (Technique of Sarvangasana)—सर्वांगासन में शरीर की स्थिति अर्द्ध हल आसन की भान्ति होती है। इस आसन के लिए शरीर को सीधा करके पीठ के बल ज़मीन पर लेट जाएं। हाथों को जंघाओं के बराबर रखें। दोनों पांवों को एक बार उठा कर हथेलियों द्वारा पीठ को सहारा देकर कुहनियों को ज़मीन पर टिकाएँ।
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सर्वांगासन
सारे शरीर को सीधा रखें। शरीर का भार कन्धों और गर्दन पर रहे। ठोडी कण्ठकूप से लगी रहे। कुछ समय इस स्थिति में रहने के पश्चात् धीरे-धीरे पहली स्थिति में आएं। आरम्भ में आसन का समय बढ़ा कर 5 से 7 मिनट तक किया जा सकता है। जो व्यक्ति किसी कारण शीर्षासन नहीं कर सकते उन्हें सर्वांगासन करना चाहिए।
लाभ (Advantages)—

  1. इस आसन से कब्ज दूर होती है, भूख खूब लगती है।
  2. बाहर को बढ़ा हुआ पेट अन्दर धंसता है।
  3. शरीर के सभी अंगों में चुस्ती आती है।
  4. पेट की गैस नष्ट होती है।
  5. रक्त का संचार तेज़ और शुद्ध होता है।
  6. बवासीर के रोग से छुटकारा मिलता है।

मत्स्यासन (Matsyasana)—इसमें पद्मासन में बैठकर Supine लेते हुए और पीछे की ओर arch बनाते हैं।
विधि (Technique)—पद्मासन लगा कर सिर को इतना पीछे ले जाओ जिससे सिर की चोटी का भाग ज़मीन पर लग जाए और पीठ का भाग ज़मीन से ऊपर उठा हो। दोनों हाथों से दोनों पैरों के अंगूठे पकड़ें।
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मत्स्यासन
लाभ (Advantages)—

  1. वह आसन चेहरे को आकर्षक बनाता है। चर्म रोग को दूर करता है।
  2. यह आसन टांसिल, मधुमेह, घुटनों तथा कमर दर्द के लिए लाभदायक है। शुद्ध रक्त का निर्माण तथा संचार करता है।
  3. इस आसन द्वारा मेरूदण्ड में लचक आती है, कब्ज दूर होती है, भूख बढ़ती है, पेट की गैस को नष्ट करके भोजन पचाता है।
  4. यह आसन फेफड़ों के लिए लाभदायक है, श्वास सम्बन्धी रोग जैसे खांसी, दमा, श्वास नली की बीमारी आदि दूर करता है। नेत्र दोषों को दूर करता है।
  5. यह आसन टांगों और भुजाओं की शक्ति को बढ़ाता है और मानसिक दुर्बलता को दूर करता है।

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प्रश्न 6.
हलासन और शवासन की विधि और लाभ बताएं।
उत्तर-
हलासन (Halasana)—इसमें Supine लेते हुए, टांगें उठा कर और सिर से परे रखी जाती हैं।
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हलासन
विधि (Technique)—दोनों टांगों को ऊपर उठाएं, सिर को पीछे रखें और दोनों पांवों को सिर के पीछे ज़मीन पर रखें। पैरों के अंगूठे ज़मीन को छू लें। यह स्थिति जब तक हो सके रखें। इसके पश्चात् अपनी टांगें पहले वाले स्थान पर लाएं जहां से आरम्भ किया था।
लाभ (Advantages)—

  1. हल आसन औरतों और मर्दो के लिए हर आयु में लाभदायक है।
  2. यह आसन रक्त के दबाव अधिक और कम के लिए भी फायदेमंद है। जिस व्यक्ति को दिल की बीमारी हो उसके लिए भी लाभदायक है।
  3. रक्त का दौरा नियमित हो जाता है।
  4. इस आसन को करने से व्यक्ति की वसा कम हो जाती है और कमर व पेट पतले हो जाते हैं।
  5. रीढ़ की हड्डी लचकदार हो जाती है।

शवासन (Shavasana)—चित्त लेट कर मीटर को ढीला छोड़ दें।
शवासन की विधि (Technique of Shavasana)—शवासन में पीठ के बल सीधा लेट कर शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ा जाता है। शवासन करने के लिए जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और शरीर के अंगों को ढीला छोड़ दें। धीरे-धीरे लम्बे सांस लो। बिल्कुल चित्त लेट कर सारे शरीर के अंगों को ढीला छोड़ दो। दोनों पांवों के बीच एक डेढ़ फुट की दूरी होनी चाहिए। हाथों की हथेलियों को आकाश की ओर करके शरीर से दूर रखो। आंखें बन्द कर अन्तान हो कर सोचो कि शरीर ढीला हो रहा है। अनुभव करो कि शरीर विश्राम की स्थिति में है। यह आसन 3 से 5 मिनट तक करना चाहिए। इस आसन का अभ्यास प्रत्येक आसन के शुरू या अन्त में करना ज़रूरी है।
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शवासन
महत्त्व (Importance)—

  1. शवासन से उच्च रक्त चाप और मानसिक तनाव से छुटकारा मिलता है।
  2. यह दिल और दिमाग को ताज़ा करता है।
  3. इस आसन द्वारा शरीर की थकावट दूर होती है।

योग मुद्रा (Yog Mudra)—इसमें व्यक्ति पद्मासन में बैठता है, धड़ को झुकाता है और भूमि पर सिर को विश्राम देता है।
मयूरासन (Mayurasana)—इसमें शरीर को क्षैतिज रूप में कुहनियों पर सन्तुलित किया जाता है। हथेलियां भूमि पर टिकाई होती हैं।
उड्डियान (Uddiyan)—पांवों को अलग-अलग करके खड़ा होकर धड़ को आगे की ओर झुकाएं। हाथों को जांघों पर रखें। सांस बाहर निकालें और पसलियों के नीचे अन्दर को सांस खींचने की नकल करें।

प्राणायाम : अनुलोम विलोम (Pranayam : Anulom Vilom)—बैठकर निश्चित अवधि के लिए बारीबारी सांस को अन्दर खींचें, ठोडी की सहायता से सांस रोकें और सांस बाहर निकालें।

लाभ (Advantages)—प्राणायाम आसन द्वारा रक्त, नाड़ियों और मन की शुद्धि होती है।
सूर्य नमस्कार (Surya Namaskar)—सूर्य नमस्कार के 16 अंग हैं परन्तु 16 अंगों वाला सूर्य सम्पूर्ण सृष्टि के लय होने के समय प्रकट होता है। साधारणतया इसके 12 अंगों का ही अभ्यास किया जाता है।

लाभ (Advantages)—यह श्रेष्ठ यौगिक व्यायाम है। इससे व्यक्ति को आसन, मुद्रा और प्राणायाम के लाभ प्राप्त होते हैं। अभ्यासी का शरीर सूर्य के समान चमकने लगता है। चर्म सम्बन्धी रोगों से बचाव होता है। कोष्ठ बद्धता दृर होती है। मेरूदण्ड और कमर लचकीली होती है। गर्भवती स्त्रियों और हर्निया के रोगियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।

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प्रश्न 7.
वज्रासन, शीर्षासन, चक्रासन और गरुड़ासन की विधि एवं लाभ लिखें।
उत्तर-
वज्रासन (Vajur Asana)—पैरों को पीछे की ओर मोड़ कर बैठना और हाथों को घुटनों पर रखना इसकी स्थिति है।
विधि (Technique)—

  1. घुटने मोड़ कर पैरों को पीछे की ओर करके पैरों के तलुओं के भार बैठो।
  2. नीचे पैर इस प्रकार हों कि पैर के अंगूठे एक दूसरे से मिले हों।
  3. दोनों घुटने भी मिले हों और कमर तथा पीठ दोनों एकदम सीधे रहें।
  4. दोनों हाथों को तान कर घुटनों के पास रखो।
  5. सांसें लम्बी-लम्बी और साधारण हों।
  6. यह आसन प्रतिदिन 3 मिनट से लेकर 20 मिनट तक करना चाहिए।

लाभ (Advantages)—
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वज्रासन

  1. शरीर में स्फूर्ति आती है।
  2. शरीर का मोटापा दूर हो जाता है।
  3. शरीर स्वस्थ रहता है।
  4. मांसपेशियां मज़बूत होती हैं।
  5. इससे स्वप्न दोष दूर हो जाता है।
  6. पैरों का दर्द दूर हो जाता है।
  7. मानसिक शांति प्राप्त होती है।
  8. मनुष्य निश्चिंत हो जाता है।
  9. इससे मधुमेह की बीमारी में लाभ पहुंचता है।
  10. पाचन-क्रिया ठीक रहती है।

शीर्षासन (Shirsh Asana)-इस आसन में सिर नीचे और पैर ऊपर की ओर होते हैं।
विधि (Technique)—

  1. एक दरी या कम्बल बिछा कर घुटनों के भार बैठो।
  2. दोनों हाथों की अंगुलियां कस कर बांध लो। दोनों हाथों को कोणदार बना कर कम्बल या दरी पर रखो।
  3. सिर का सामने वाला भाग हाथों में इस प्रकार ज़मीन पर रखो कि दोनों अंगूठे सिर के पिछले हिस्से को दबाएं।
  4. टांगों को धीरे-धीरे अन्दर की ओर मोड़ते हुए शरीर को सिर और दोनों हाथों के सहारे आसमान की ओर उठाओ।
  5. पैरों को धीरे-धीरे ऊपर उठाओ। पहले एक टांग को सीधा करो, फिर दूसरी को।
  6. शरीर को बिल्कुल सीधा रखो।
  7. शरीर का सारा भार बांहों और सिर पर बराबर पड़े।
  8. दीवार या साथी का सहारा लो।

लाभ (Advantages)—
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शीर्षासन

  1. यह आसन भूख बढ़ाता है।
  2. इससे स्मरण-शक्ति बढ़ती है।
  3. मोटापा दूर हो जाता है।
  4. जिगर ठीक प्रकार से कार्य करता है।
  5. पेशाब की बीमारियां दूर हो जाती हैं।
  6. बवासीर आदि बीमारियां दूर हो जाती हैं।
  7. इस आसन का प्रतिदिन अभ्यास करने से कई मानसिक बीमारियां दूर हो जाती हैं।

सावधानियां (Precautions)—

  1. जब आंखों में लाली आ जाए तो बन्द कर दो।
  2. सिर चकराने लगे तो आसन बन्द कर दें।
  3. कानों में सां-सां की ध्वनि सुनाई दे तो शीर्षासन बन्द कर दें।
  4. नाक बन्द हो जाए तो यह आसन बन्द कर दें।
  5. यदि शरीर भार सहन न कर सके तो आसन बन्द कर दें।
  6. पैरों व बांहों में कम्पन होने लगे तो आसन बन्द कर दो।
  7. यदि दिल घबराने लगे तो भी आसन बन्द कर दो।
  8. शीर्षासन सदैव एकान्त स्थान पर करना चाहिए।
  9. आवश्यकता होने पर दीवार का सहारा लेना चाहिए।
  10. यह आसन केवल एक मिनट से पांच मिनट तक करो। इससे अधिक शरीर के लिए हानिकारक है।

चक्रासन (Chakar Asana) की स्थिति-इस आसन में शरीर को गोल चक्र जैसा बनाना पड़ता है।
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चक्रासन
विधि (Technique)—

  1. पीठ के भार लेट कर, घुटनों को मोड़ कर, पैरों के तलवों को जमीन से लगाओ। दोनों पैरों के बीच में एक से डेढ़ फुट का अन्तर रखो।
  2. हाथों को पीछे की ओर ज़मीन पर रखो। तलवों और अंगुलियों को दृढ़ता के साथ ज़मीन से लगाए रखो।
  3. अब हाथ-पैरों के सहारे पूरे शरीर को चक्रासन या चक्र की शक्ल में ले जाओ।
  4. सारे शरीर की स्थिति गोलाकार होनी चाहिए।
  5. आंखें बन्द रखो ताकि श्वास की गति तेज़ हो सके।

लाभ (Advantages)—

  1. शरीर की सारी कमजोरियां दूर हो जाती हैं।
  2. शरीर के सारे अंगों को लचीला बनाता है।
  3. हर्निया तथा गुर्दो के रोग दूर करने में लाभदायक होता है।
  4. पाचन शक्ति को बढ़ाता है।
  5. पेट की वायु विकार आदि बीमारियां दूर हो जाती हैं।
  6. रीढ़ की हड्डी मजबूत हो जाती है।
  7. जांघ तथा बाहें शक्तिशाली बनती हैं।
  8. गुर्दे की बीमारियां घट जाती हैं।
  9. कमर दर्द दूर हो जाता है।
  10. शरीर हल्कापन अनुभव करता है।

गरुड़ आसन (Garur Asana) की स्थिति- गरुड़ आसन में शरीर की स्थिति गरुड़ पक्षी की भांति पैरों पर सीधे खड़ा होना होता है।
विधि (Technique)—

  1. सीधे खड़े होकर बायें पैर को उठा कर दाहिनी टांग में बेल की तरह लपेट लो।
  2. बाईं जांघ दाईं जांघ पर आ जायेगी तथा बाईं जांघ पिंडली को ढांप देगी।
  3. शरीर का सारा भार एक ही टांग पर कर दो।
  4. बाएं बाजू को दायें बाजू से दोनों हथेलियों को नमस्कार की स्थिति में ले जाओ।
  5. इसके बाद बाईं टांग को थोड़ा सा झुका कर शरीर को बैठने की स्थिति में ले जाओ। इस प्रकार शरीर की नसें खिंच जाती हैं। अब शरीर को सीधा करो और सावधान की स्थिति में हो जाओ।
  6. अब हाथों और पैरों को बदल कर पहली वाली स्थिति में पुनः दोहराओ।

लाभ (Advantages)—
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गरुड़ासन

  1. शरीर के सभी अंगों को शक्तिाली बनाता है।
  2. शरीर स्वस्थ हो जाता है।
  3. यह बांहों को ताकतवर बनाता है।
  4. यह हर्निया रोग से मनुष्य को बचाता है।
  5. टांगें शक्तिशाली हो जाती हैं।
  6. शरीर हल्कापन अनुभव करता है।
  7. रक्त संचार तेज़ हो जाता है।
  8. गरुड़ आसन करने से मनुष्य बहुत-सी बीमारियों से बच जाता है।

योग (Yoga) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 8.
अष्टांग योग के अंगों के बारे में विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर-
अष्टांग योग
(Ashtang Yoga)
अष्टांग योग के आठ अंग हैं, इसलिए इसका नाम अष्टांग योग है।
योगाभ्यास की पतजंलि ऋषि द्वारा आठ अवस्थाएं मानी गई हैं। इन्हें पतजंलि ऋषि का अष्टांग योग भी कहते हैं—

  1. यम (Yama, Forbearnace)
  2. नियम (Niyama, Observance)
  3. आसन (Asana, Posture)
  4. प्राणायाम (Pranayama, Regulation of Breathing)
  5. प्रत्याहार (Pratyahara, Abstracition)
  6. धारणा (Dharna, Concentration)
  7. ध्यान (Dhyana, Meditation)
  8. समाधि (Samadhi, Trance)।

योग की ऊपरी बताई गई आठ अवस्थाओं में से पहली पांच अवस्थाओं का सम्बन्ध आन्तरिक यौगिक क्रियाओं से है। इन सभी अवस्थाओं को आगे फिर इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है—
1. यम (Yama, Forbearance) यम के निम्नलिखित पांच अंग हैं—

  • अहिंसा (Ahimsa, Non-violence)
  • सत्य (Satya, Truth)
  • अस्तेय (Astey, Conquest of the sense of mind)
  • अपरिग्रह (Aprigraha, Non-receiving)
  • ब्रह्मचर्य (Brahmacharya, Celibacy)।

2. नियम (Niyama, Observance)-नियम के निम्नलिखित पांच अंग हैं :—

  • शौच (Shauch, Obeying the call of nature)
  • सन्तोष (Santosh, Contentment)
  • तप (Tapas, Penance)
  • स्वाध्याय (Savadhyay, Self-study)
  • ईश्वर परिधान (Ishwar Pridhan, God Consciousness)।

3. आसन (Asana or Posture) आसनों की संख्या उतनी है जितनी कि इस संसार में पशु-पक्षियों की। आसन-शारीरिक क्षमता, शक्ति के अनुसार, प्रतिदिन सांस द्वारा हवा को बाहर निकलने, सांस रोकने और फिर सांस लेने से करने चाहिएं।

4. प्राणायाम (Pranayma, Regulation of Breathing), प्राणायाम उपासना की मांग है। इसको तीन भागों में बांटा जा सकता है—

  • पूरक (Purak, Inhalation)।
  • रेचक (Rechak, Exhalation) और
  • कुम्भक (Kumbhak, Holding of Breath)। कई प्रकार से सांस लेने तथा इसे रोककर बाहर निकालने को प्राणायाम कहते हैं।

5. प्रत्याहार (Pratyahara)– प्रत्याहार से अभिप्राय: है वापिस लाना तथा सांसारिक प्रसन्नताओं से मन को मोड़ना।

6. धारणा (Dharna)-अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने को धारणा कहते हैं जो बहुत कठिन है।

7. ध्यान (Dhyana)–जब मन पर नियन्त्रण हो जाता है तो ध्यान लगना आरम्भ हो जाता है। इस अवस्था में मन और शरीर नदी के प्रवाह की भान्ति हो जाते हैं जिसमें पानी की धाराओं का कोई प्रभाव नहीं होता।

8. समाधि (Samadhi)-मन की वह अवस्था जो धारणा से आरम्भ होती है, समाधि में समाप्त हो जाती है। इन सभी अवस्थाओं का आपस में गहरा सम्बन्ध है।

PSEB 11th Class History Solutions Chapter 9 दक्षिण के राज्य

Punjab State Board PSEB 11th Class History Book Solutions Chapter 9 दक्षिण के राज्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 History Chapter 9 दक्षिण के राज्य

अध्याय का विस्तृत अध्ययन

(विषय-सामग्री की पूर्ण जानकारी के लिए)

प्रश्न 1.
शासक वर्ग के सन्दर्भ में बाहमनी राज्य की स्थापना, विकास तथा विघटन के बारे में बताएं।
उत्तर-
बाहमनी राज्य दक्षिण भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य था जिसका संस्थापक हसन गंगू था। इस राज्य की स्थापना 11347 ई० में तुग़लक वंश की कमजोरी का परिणाम था। तत्पश्चात् 1526 ई० तक यह राज्य दक्षिण भारत के राजनीतिक भानचित्र का अभिन्न अंग बना रहा। इस सारी अवधि में इस राज्य पर अठारह शासकों ने राज्य किया। 1422 ई० तक इस राज्य की राजधानी गुलबर्गा रही, परन्तु इसके पश्चात् बीदर को बाहमनी राज्य की राजधानी बनने का श्रेय प्राप्त हुआ।

I. स्थापना एवं विकास-

बहमनी राज्य की स्थापना एवं विकास का अध्ययन निम्नलिखित तीन चरणों में किया जा सकता है
पहला चरण-मुहम्मद तुग़लक के शासन काल में दिल्ली सल्तनत का विघटन आरम्भ हो गया था। प्रान्तीय गवर्नर अपने आप को स्वतन्त्र घोषित करने लगे थे। इसी समय दक्षिण में दौलताबाद के दरबारियों ने ‘इस्माइल मख’ को राजगद्दी पर बिठाया। चूंकि इस्माइल खां अब वृद्ध हो चला था, इसलिए उसने 1347 ई० में हसन गंगू नामक एक नवयुवक तथा शक्तिशाली दरबारी को अपना राज्य सौंप दिया। हसन ने “अलाऊद्दीन बहमन शाह” की उपाधि धारण की और बाहमनी राज्य की नींव रखी। उसने अनेक छोटे-छोटे अभियान किए तथा कोटगीर, मोरण, मोहिन्दर तथा कल्याणी के नगर व दुर्ग अपने अधिकार में लिए। इस प्रकार उत्तर-पूर्व में माहूर तक तथा दक्षिण में तेलंगाना तक का सारा प्रदेश उसके राज्य का अंग बन गया।

तत्पश्चात् उसने वारंगल के एक हिन्दू शासक को पराजित करके कौलास के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अपने राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में उसने कोल्हापुर, गोआ, माण्डू, मालवा आदि प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। हसन की मृत्यु के बाद उसने पुत्र मुहम्मद शाह प्रथम ने भी अपने पिता के विजय कार्य को जारी रखा। उसने वारंगल और विजयनगर के हिन्दू शासकों को परास्त किया तथा गोलकुण्डा के प्रदेशों को अपने राज्य का अंग बना लिया। उसके शासन काल में बाहमनी राज्य का विजयनगर राज्य के साथ एक लम्बा संघर्ष आरम्भ हो गया।

विस्तार का दूसरा चरण-मुहम्मद शाह प्रथम की मृत्यु के बाद लगभग 20 वर्षों तक बाहमनी राज्य की सीमाओं में कोई विस्तार न हो सका। तत्पश्चात् 1397 ई० में फिर फिरोजशाह बाहमनी साम्राज्य का शासक बना। उसने एक बार फिर से वारंगल तथा विजयनगर के राज्यों पर आक्रमण किया तथा अपने राज्य का राजामुन्द्री तक विस्तार कर लिया। परन्तु 1420 ई० में यह विजयनगर के शासक देवराय द्वितीय से पराजित हुआ और बाहमनी राज्य के पूर्वी तथा दक्षिणी ज़िले विजयनगर राज्य के अंग बन गए। फिरोजशाह की मृत्यु के बाद अहमदशाह बाहमनी ने गुलबर्गा के स्थान पर बीदर को अपनी राजधानी बनाया। उसने वारंगल के राजा पर आक्रमण करके 1425 ई० में उसके राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने विजयनगर के बुक्का तृतीय से भी नज़राना प्राप्त किया।

तीसरा चरण तथा सबसे बड़ी सीमाएं-अहमदशाह के पश्चात् अलाऊद्दीन द्वितीय बाहमनी राज्य का शासक बना। उसकी गुजरात तथा मालवा के शासकों से टक्कर हुई। उसने विजयनगर राज्य से मिलने वाला वार्षिक कर भी वसूल किया। उसकी एक अन्य सफलता कोंकण प्रदेश की विजय थी। भले ही उसने कोंकण प्रदेश के कुछ ही भागों को विजय किया था, परन्तु उसके एक उत्तराधिकारी मुहम्मदशाह तृतीय ने यह सारे का सारा प्रदेश बाहमनी राज्य में मिला लिया। मुहम्मदशाह तृतीय ने अपने योग्य प्रधानमन्त्री महमूद गवां की सहायता से वारंगल के पूर्व में स्थित राजामुन्द्री के प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की। इस प्रकार 15वीं शताब्दी के अन्त तक बाहमनी राज्य की सीमाएं समुद्र के एक किनारे से दूसरे किनारे तक ताप्ती नदी के ऊपरी प्रदेश से लेकर तुंगभद्रा नदी तक फैल गईं। यही इस राज्य की सबसे बड़ी सीमाएं थीं।

II. बाहमनी राज्य का विघटन

बाहमनी राज्य का पतन महमूदशाह के समय में आरम्भ हुआ। वह बड़ा ही ऐश्वर्य प्रिय राजा था तथा सदा सुरा तथा सुन्दरी के चक्कर में पड़ा रहता था। शासन-कार्यों में उसकी कोई रुचि न थी। अतः शासन की वास्तविक शक्ति उसके मन्त्री बरीद के हाथों में रही। सुल्तान अपने 36 वर्ष (1482 ई० से 1518 ई०) के लम्बे शासन काल में विद्रोहों में उलझे रहने के अतिरिक्त कुछ न कर सका। सारे साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई। प्रान्तीय गवर्नरों ने अपने आप को बाहमनी राज्य से स्वतन्त्र घोषित कर दिया। इनमें से सबसे पहले 1490 ई० में अहमदनगर का शासक मलिक अहमद स्वतन्त्र हुआ। उसका अनुसरण करते हुए बीजापुर के तर्फदार यूसुफ़ आदिल खां तथा बरार के तर्फदार फतेह उल्लाह इमादुलमुल्क ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। तत्पश्चात् गोलकुण्डा का राज्य स्वतन्त्र हुआ। बीदर में बरीद के पुत्र ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित करके बरीदुलमुल्क की उपाधि धारण कर ली। इस प्रकार 16वीं शताब्दी के आरम्भ तक बाहमनी राज्य पांच स्वतन्त्र मुस्लिम रियासतों में बंट गया।

पतन के कारण (शासन-प्रबन्ध तथा शासक वर्ग की भूमिका)-बाहमनी राज्य की पतन की प्रक्रिया में यों तो अनेक कारणों का हाथ रहा, परन्तु शासन-प्रबन्ध के गलत संगठन तथा शासक वर्ग के विवेकहीन कार्यों से इस राज्य का पतन बड़ी तीव्रता से होने लगे। बाहमनी शासक अपनी विवेकपूर्ण नीति के कारण शासन को संगठित एवं स्थायी रूप प्रदान करने में असफल रहे। फलस्वरूप अमीरों के आपसी मतभेद काफ़ी बढ़ गए। दूसरे, सुल्तानों ने हिन्दुओं के प्रति असहनशीलता की नीति अपनाई जिससे राज्य की बहुसंख्यक हिन्दू जनता आरम्भ से ही बाहमनी शासकों के विरुद्ध हो गई। बाहमनी शासकों ने देशी अमीरों की अपेक्षा विदेशी अमीरों पर अधिक विश्वास किया। अतः उन्होंने यहां अनेक विदेशी अमीरों को भर्ती कर लिया। फलस्वरूप एक तो देशी और विदेशी अमीरों में आपसी शत्रुता पैदा हो गई। दूसरे, महमूद गवां को छोड़कर अन्य किसी भी अमीर ने राजभक्ति न दिखाई। अतः बाहमनी सुल्तानों को न तो देशी अमीरों का ही साथ मिल सका और न ही विदेशी अमीरों का। यह बात भी बाहमनी शासकों की असफलता का कारण बनी और बाहमनी राज्य का पतन तीव्रता से होने लगा।

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प्रश्न 2.
राज्य प्रबन्ध के सन्दर्भ में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना, विकास तथा पतन की चर्चा करें।
उत्तर-
विजयनगर का राज्य कृष्णा और कावेरी नदियों के मध्य स्थित था। इस राज्य की नींव संगम वंश के दो भाइयों हरिहर तथा बक्का राय ने रखी। इस राज्य की स्थापना के विषय में दो किंवदन्तियां प्रचलित हैं। पहली किंवदन्ती के अनुसार मुहम्मद तुग़लक ने 1323 ई० में जब वारंगल पर आक्रमण किया तो वह वहाँ से हरिहर तथा बुक्का राय नामक दो भाइयों को बन्दी बना कर अपने साथ दिल्ली ले गया।

ये दोनों भाई वारंगल के शासक प्रताप रुद्रदेव तृतीय के यहां नौकरी करते थे। मुहम्मद तुग़लक ने दक्षिण के विद्रोही राज्यों में कई गर्वनर भेजे। यह बात वहां के हिन्दुओं से सहन न हुई। उन्होंने मुस्लिम साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए मुहम्मद तुग़लक ने हरिहर तथा बुक्का को दक्षिण में भेजा। उन्होंने रायचूर दोआब में फैली अराजकता का दमन करके शान्ति की स्थापना की। इस कार्य में उनकी सहायता उस समय के प्रकाण्ड पण्डित विद्यारण्य (Vidyaranya) ने की। अपने इसी गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उन्होंने तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर एक नगर की स्थापना की तथा उसका नाम विद्यानगर अथवा ‘विजयनगर’ रखा। मुहम्मद तुग़लक के शासन के उत्तरार्द्ध (later half) में दिल्ली सल्तनत का पतन आरम्भ हो गया। दक्षिण राज्यों के मुसलमान गवर्नरों ने दिल्ली के सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। अवसर का लाभ उठा कर इन दोनों भाइयों ने भी अपने आपको स्वतन्त्र घोषित कर दिया। __ इनके द्वारा स्थापित विद्यानगर आगे चलकर एक विशाल साम्राज्य की राजधानी बनी जो विजयनगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

विजयनगर साम्राज्य तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक स्थापित रहा। इस समय में इस साम्राज्य पर चार राजवंशों ने शासन किया-

  1. संगम वंश, 1336-1485 ई०
  2. सल्लुव वंश, 1485-1505 ई०
  3. तल्लुव वंश, 1505-1570 ई० तक
  4. अरवीदु वंश, 1570-1674 ई०।

साम्राज्य का विकास एवं विघटन-

संगम वंश का प्रथम शासक हरिहर (1336-1357 ई०) था। उसने अपनी शक्ति दृढ़ करने के लिए विजयनगर में एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया तथा सभी महत्त्वपूर्ण सैनिक स्थानों की किलेबन्दी की। हरिहर की मृत्यु के पश्चात् उसका भाई बुक्का (1357-1377 ई०) विजयनगर का शासक बना। उसने पड़ोसी राज्यों से युद्ध करके अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उसका अधिकांश समय बाहमनी सुल्तान से युद्ध करने में ही व्यतीत हुआ। बुक्का की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई०) विजयनगर राज्य का प्रथम स्वतन्त्र शासक बना जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। अपने शासन काल में उसने केरल, त्रिचनापल्ली तथा कांची हिन्दू राज्यों पर विजय पाकर विजयनगर राज्य का विस्तार किया। इस राजवंश का एक अन्य प्रसिद्ध शासक देवराज प्रथम (1406-1422 ई०) था। 1420 ई० में उसने बाहमनी शासक फिरोज़ को पराजित किया। देवराज द्वितीय संगम वंश का एक महान् शासक था। उसने रायचूर दोआब पर विजय प्राप्त की और राजामुन्द्री के सामन्तों को पराजित किया। इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य कन्याकुमारी से लेकर कृष्णा नदी तक तथा दक्षिणी उड़ीसा से मलाबार तट तक फैल गया। देवराय द्वितीय के उत्तराधिकारियों के समय में विजयनगर साम्राज्य के बाहमनी शासकों ने बड़ी क्षति पहुंचाई।

विजयनगर साम्राज्य का दूसरा राजवंश सल्लुव वंश था। इसकी नींव नरसिंह वर्धन ने रखी थी। उसने संगम वंश के अन्तिम शासक वीरुपक्ष को गद्दी से उतार कर स्वयं को विजयनगर का शासक घोषित किया तथा विजयनगर में सल्लुव वंश की स्थापना की। नरसिंह वर्धन ने केवल छः वर्ष तक शासन किया। वह बड़ा वीर तथा योग्य शासक था। उसने उड़ीसा के कुछ भाग पर अधिकार करके अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया। नरसिंह वर्धन की मृत्यु के पश्चात् उसका अयोग्य पुत्र शासन की बागडोर अधिक देर तक न सम्भाल सका।

शेष भाग पर 1570 ई० में रामराय के भाई तिरुमल ने अपना अधिकार करके वहां अरवीदु वंश की नींव रखी। यह वंश लगभग 1674 ई० तक सत्तारूढ़ रहा। इस वंश के लगभग सभी शासक अयोग्य तथा दुर्बल सिद्ध हुए। वे अपने राज्य की सीमाओं की रक्षा करने में असफल रहे। उनकी दुर्बलता का लाभ उठाकर धीरे-धीरे सभी प्रान्तीय गवर्नर स्वतन्त्र होते गए। कुछ प्रदेश बीजापुर और गोलकुण्डा के राज्यों ने अपने अधिकार में ले लिए। अरवीदु वंश का अन्तिम शासक इंग तृतीय तो बिल्कुल ही निर्बल सिद्ध हुआ। उसके शासनकाल में राज्य का उत्तरी भाग मुसलमानों ने हथिया लिया और दक्षिणी भाग के बचे-खुचे प्रदेशों में नायकों ने अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिए। इस प्रकार 1674 ई० तक विजयनगर राज्य का अस्तित्व ही मिट गया।

पतन के कारण-

  1. इस राज्य की सारी शक्ति राजा के हाथ में थी। शासन में प्रजा का कोई योगदान नहीं था। इसलिए संकट के समय प्रजा ने अपने राजा का साथ न दिया।
  2. इस राज्य में सिंहासन प्राप्ति के लिए प्रायः गृह युद्ध चलते रहते थे। इन युद्धों ने राज्य की शक्ति नष्ट कर दी।
  3. कृष्णदेव राय के पश्चात् इस राज्य के सभी शासक निर्बल थे।
  4. विजयनगर के शासकों को बाहमनी राजवंश के साथ युद्ध करने पड़े। इन युद्धों में विजयनगर राज्य की शक्ति को बड़ी क्षति पहुंची।
  5. तालीकोटा की लड़ाई में विजयनगर का शासक मारा गया। इस लड़ाई के तुरन्त पश्चात् इस राज्य का पूरी तरह पतन हो गया।

शासन (राज्य) प्रबन्ध-

विजयनगर के केन्द्रीय शासन का मुखिया सम्राट् था। उसके पास असीम शक्तियां तथा अधिकार थे। अपनी सहायता के लिए उसने एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की हुई थी। इसमें मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि सम्मिलित थे। इनकी नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था। उसका सारा राज्य लगभग 200 प्रान्तों में बंटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त का शासन प्रबन्ध एक प्रान्तपति के हाथ में होता था। ये प्रान्तपति या तो राज घराने से सम्बन्धित होते थे या फिर कोई शक्तिशाली अमीर होते थे। प्रत्येक प्रान्त को जिलों में बांटा गया था। इन्हें नाडू तथा कोट्टम कहा जाता था। जिले परगनों में तथा परगने गांवों में बंटे होते थे। गांव का शासन प्रबन्ध ग्राम पंचायतों को सौंपा हुआ था। इन सभी संस्थाओं के प्रमुख अधिकारी को आयगर कहा जाता था। गांवों में आयगर तथा प्रान्तों में प्रान्तपति अथवा सूबेदार न्याय कार्य करते थे। परन्तु न्याय का मुख्य अधिकारी स्वयं सम्राट् था। दण्ड बड़े कठोर थे। घोर अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था, परन्तु साधारण अपराधों पर जुर्माना किया जाता था। राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था। किसानों की उपज का 1/6 से 1/4 भाग भूमि कर के रूप में भूमिपति को देना पड़ता था। विजयनगर राज्य के शासकों के पास एक शक्तिशाली सेना भी थी।

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प्रश्न 3.
विजयनगर तथा बाहमनी साम्राज्यों के प्रशासन काल तथा भवन निर्माण पर लेख लिखें।
उत्तर-
विजयनगर तथा बाहमनी दोनों ही साम्राज्य 14वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के महत्त्वपूर्ण राज्य थे। विजयनगर एक हिन्दू राज्य था परन्तु बाहमनी एक मुस्लिम राज्य था। इन साम्राज्यों के प्रशासन, कला तथा भवन निर्माण का अलग-अलग वर्णन इस प्रकार है

I. विजयनगर साम्राज्य-

1. प्रशासन-विजयनगर के केन्द्रीय शासन का मुखिया सम्राट होता था। शासन की सभी शक्तियां उसके हाथ में होती थीं। राजा की सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था भी की हुई थी। विजयनगर राज्य 200 से भी अधिक प्रान्तों में बंटा हुआ था। प्रान्त के मुखिया को प्रान्तपति अथवा नायक कहा जाता था। ये प्रान्तपति या तो राज घराने से सम्बन्ध रखते थे या फिर कोई शक्तिशाली अमीर होते थे। शासन की सुविधा के लिए प्रत्येक प्रान्त को जिलों में बांटा गया था। जिले आगे परगनों में तथा परगने गांवों में बंटे होते थे। राज्य की सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली सेना की व्यवस्था थी। सेना में हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिक होते थे। राज्य का मुख्य न्यायाधीश स्वयं राजा होता था। प्रान्तों में प्रान्तपति अथवा सूबेदार न्याय करते थे। दण्ड बहुत कठोर थे। भूमिकर राज्य की आय का मुख्य साधन था।

2. कला तथा भवन-निर्माण-विजयनगर के शासक बड़े ही कला-प्रेमी थे। उन्होंने मूर्तिकला और भवन निर्माण को विशेष रूप से संरक्षण प्रदान किया। चोल राज्य की भान्ति विजयनगर के मूर्तिकाल भी कांसे की मूर्तियां ढालने में बड़े निपुग थे। राजा कृष्णदेव राय का कांसे का बुत विजयनगर राज्य की मूर्तिकला का सबसे सुन्दर नमूना था। विजयनगर राज्य की भवन निर्माण की झलक हमें उनके बनवाए गए दुर्गों, भव्य महलों और सुन्दर मन्दिरों में दिखाई देती है। यहां के शासकों ने अनेक प्राचीन मन्दिरों को विशाल रूप दिया और कई नए मन्दिरों का निर्माण करवाया। उनके द्वारा बनवाए गए मन्दिर केवल विजयनगर तक ही सीमित नहीं हैं। ये तुंगभद्रा नदी के दक्षिण के सारे प्रदेशों में बने हुए हैं। इन मन्दिरों के उत्कृष्ट नमूने वैलोर, कांचीपुरम तथा श्रीरंगपट्टम में देखे जा सकते हैं। कृष्णदेव राय ने विजयनगर के निकट एक बहुत बड़ा तालाब भी खुदवाया जो सिंचाई के काम आता था।

II. बाहमनी साम्राज्य-

1. प्रशासन-बाहमनी शासकों ने जहां अपने राज्य का विस्तार किया वहां अपने राज्य में एक कुशल शासन प्रणाली स्थापित करने का भी प्रयास किया। इस क्षेत्र में गुलबर्गा से शासन करने वाले बाहमनी शासकों ने विशेष प्रयत्न किए। दूसरी ओर बीदर से शासन करने वाले बाहमनी शासकों ने केवल महमूद गवां की सहायता से ही कुछ आवश्यक सुधार किए। बाहमनी शासकों की सामूहिक शासन-व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है-

(i) सुल्तान-बाहमनी वंश के प्रथम शासक अलाऊद्दीन बाहमनशाह ने गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाते समय केन्द्रीय सरकार की स्थापना की। केन्द्रीय सरकार का मुखिया सुल्तान था। वह राज्य की सारी शक्तियों को स्रोत था। उसके अधिकार काफ़ी विस्तृत थे। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश था और सेना का मुख्य सेनापति भी था। वास्तव में सुल्तान पूर्ण रूप से निरंकुश था और स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर की छाया मानता था।

(ii) मन्त्री-सुल्तान को शासन कार्यों में परामर्श तथा सहयोग देने के लिए कुछ मन्त्री होते थे। इन मन्त्रियों की संख्या आठ थी। प्रधानमन्त्री को ‘वकील-उल-सत्तनत’ कहते थे। राज्य के सभी आदेश वही जारी करता था। प्रत्येक सरकारी पत्र पर भी उसकी मोहर होनी आवश्यक थी। न्याय विभाग का मन्त्री ‘सदर-ए-जहां’ कहलाता था। वह धर्मार्थ विभाग का भी अध्यक्ष था। मन्त्री अपने सभी कार्य सुल्तान की आज्ञा से करते थे और अपने कार्यों के लिए उसी के प्रति उत्तरदायी होते थे। इन आठ मन्त्रियों के अतिरिक्त कुछ निम्न स्तर के मन्त्री भी थे जिनमें कोतवाल तथा नाज़िर प्रमुख थे।

(iii) प्रान्तीय शासन-बाहमनी सुल्तानों के शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए राज्य को भागों तथा उपभागों में विभक्त किया हुआ था। शासन की प्रमुख इकाई प्रान्त अथवा ‘तरफ’ थी। ‘तरफ’ को आगे चलकर सरकारों तथा परगनों में बांटा गया था । प्रत्येक परगने में कुछ गांव सम्मिलित होते थे। प्रारम्भ में बाहमनी राज्य चार तरफों में विभक्त था-गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार तथा बीदर। कालान्तर में राज्य विस्तार हो जाने के कारण प्रान्तों की संख्या आठ हो गई। तरफ का मुखिया तरफदार कहलाता था। वह अनेक कार्य करता था। प्रान्त में राजस्व कर एकत्रित करवाना, सैनिक भर्ती करना, सेना का नेतृत्व करना आदि उसके प्रमुख कार्य थे। वह पूर्ण रूप से सुल्तान के अधीन था और सभी कार्य उसी की आज्ञा से करता था। उसके कार्यों का निरीक्षण करने के लिए सुल्तान स्वयं भी समय-समय पर तरफों का दौरा किया करता था। परगनों का शासन प्रबन्ध चलाने के लिए भी कई कर्मचारी नियुक्त थे। वे भी अपने सभी कार्य सुल्तान के आदेश द्वारा करते थे।

2. कला तथा भवन-निर्माण-बाहमनी शासकों ने चित्रकला तथा भवन निर्माण कला के विकास में बड़ी ही योगदान दिया। इस समय की चित्रकारी के सर्वोत्तम नमूने अलाऊद्दीन द्वितीय द्वारा बनवाए गए अहमदशाह के मकबरे की छत और दीवारों पर मिलते हैं। यह चित्रकारी फूलदार है और बड़ी सजीव तथा आकर्षक लगती है। बाहमनी राज्य की भवन निर्माण कला के मुख्य केन्द्र गुलबर्गा तथा बीदर हैं। इन स्थानों पर अनेक आकर्षक मस्जिदें, मकबरे, मदरसे तथा महल मिलते हैं। इनमें से कुछ भवनों को निर्माण में पुरानी शैली का अनुसरण किया गया है। परन्तु कुछ इमारतें फारसी शैली में बनाई गई हैं। गुलबर्गा में फिरोजशाह का मकबरा बाहमनी राज्य की भवन निर्माण कला का एक सुन्दर नमूना है।

महत्त्वपूर्ण परीक्षा-शैली प्रश्न

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उत्तर एक शब्द से एक वाक्य में

प्रश्न 1.
बाहमनी शासकों में सबसे महान् शासक किसे माना जाता है?
उत्तर-
फिरोजशाह को।

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प्रश्न 2.
विजयनगर राज्य की स्थापना करने वाले दो भाइयों के नाम बताओ।
उत्तर-
हरिहर तथा बुक्का।

प्रश्न 3.
विजयनगर राज्य की स्थापना कब हुई?
उत्तर-
विजयनगर राज्य की स्थापना 1336 ई० में हुई।

प्रश्न 4.
विजयनगर के दो प्रतापी राजाओं के नाम बताओ।
उत्तर-
कृष्णदेव राय तथा हरिहार द्वितीय।

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प्रश्न 5.
किस युद्ध के परिणामस्वरूप विजयनगर सामाज्य का विघटन हुआ?
उत्तर-
तालिकोट का युद्ध।

प्रश्न 6.
बाहमनी साम्राज्य राज्य की स्थापना किसने तथा कब की?
उत्तर-
बाहमनी साम्राज्य की स्थापना हसन गंगू ने 1347 ई० में की।

प्रश्न 7.
बाहमनी साम्राज्य के दो शासकों के नाम बताओ।
उत्तर-
मुहम्मद शाह द्वितीय (1387 से 1397 ई०) अहमद शाह (1422 से 1435 ई०)।

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प्रश्न 8.
बाहमनी साम्राज्य का सबसे योग्य प्रधानमन्त्री कौन था?
उत्तर-
बाहमनी साम्राज्य का सबसे योग्य प्रधान मन्त्री महमूद गावाँ था।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति-

(i) महमूद गावाँ………..देश से आया था।
(ii) बाहमनी राज्य की दो राजधानियां गुलबर्गा तथा…………..
(iii) तालिकोट का युद्ध………..ई० में हुआ था।
(iv) अरविंदु वंश का सम्बन्ध……….राज्य से था।
(v) दक्षिण में सामंतों को…………..कहते थे।
उत्तर-
(i) ईरान
(ii) बीदर
(iii) 1565
(iv) विजय नगर
(v) नायक।

3. सही/ग़लत कथन

(i) कृष्णदेव राय बाहमनी वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था।(✗)
(ii) विजयनगर के शासक बड़े कला प्रेमी थे। ( ✓ )
(iii) गुलबर्गा में फ़िरोज़शाह का मकमरा बाहमनी वंश की देन है। ( ✓ )
(iv) गोलकुण्डा के कुतुबशाही शासकों द्वारा बनाई गई प्रसिद्ध इमारत हैदराबाद स्थित चार मीनार है।( ✓ )
(v) महमूद गावाँ विजयनगर के शासक देवराय का प्रधानमन्त्री था। (✗)

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4. बहु-विकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न (i)
गोल गुम्बज स्थित है-
(A) हैदराबाद में
(B) बीजापुर में
(C) बीकानेर में
(D) जयपुर में।
उत्तर-
(B) बीजापुर में

प्रश्न (ii)
विजयनगर राज्य में प्रचलित कुप्रथा थी
(A) सती प्रथा
(B) वेश्यावृत्ति
(C) पशु बलि
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(D) उपरोक्त सभी।

प्रश्न (iii)
विजयनगर राज्य का राजवंश नहीं था
(A) संगम
(B) सल्लु व
(C) पल्लव
(D) तल्लु व।
उत्तर-
(C) पल्लव

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प्रश्न (iv)
‘गोल गुम्बज’ मकबरा है
(A) आदिलशाह का
(B) शेरशाह सूरी का
(C) कुतुबशाह का
(D) हुसैन बेग का।
उत्तर-
(A) आदिलशाह का

प्रश्न (v)
विजयनगर राज्य में सिक्के प्रचलित थे
(A) ताँबे के
(B) सोने-चाँदी के
(C) पीतल के
(D) इस्पात के।
उत्तर-
(B) सोने-चाँदी के

II. अति छोटे उत्तर वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
13वीं सदी में दक्षिण के चार प्रमुख राजवंशों के नाम बताएं।
उत्तर-
13वीं सदी में दक्षिण के चार प्रमुख राजवंश थे-देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसाल ल तथा मदुरई के पाण्डेय।

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प्रश्न 2.
देवगिरि के राजवंश के दो शासकों के नाम बताएं।
उत्तर-
देवगिरि पर यादव वंश का राज्य था। इस वंश के दो शासक थे-रामदेव तथा हरपाल देव।

प्रश्न 3.
ग्यासुद्दीन तुग़लक के समय वारंगल तथा द्वारसमुद्र के शासकों के नाम बताएं।
उत्तर-
ग्यासुद्दीन तुग़लक के समय वारंगल का शासक प्रताप रुद्र द्वितीय तथा द्वारसमुद्र का शासक बल्लाल तृतीय था।

प्रश्न 4.
कम्पिली की स्थापना किसने और किस नदी के इर्द-गिर्द के क्षेत्र में की थी ?
उत्तर-
कम्पिली की स्थापना कम्पिल देव ने की थी। इसकी स्थापना तुंगभद्रा नदी के इर्द-गिर्द के क्षेत्र में की गई थी।

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प्रश्न 5.
मुहम्मद-बिन-तुग़लक के समय में दक्षिण में स्वतन्त्र होने वाले दो राज्यों तथा उनके संस्थापकों के नाम बताएं।
उत्तर-
मुहम्मद-बिन-तुग़लक के समय में दक्षिण में स्वतन्त्र होने वाले दो राज्य थे- विजयनगर तथा बाहमनी राज्य। विजयनगर राज्य के संस्थापक हरिहर तथा बुक्का और बाहमनी राज्य का संस्थापक हसन गंगू था।

प्रश्न 6.
दौलताबाद के अधिकारियों के गिरोह को क्या कहा जाता था और उन्होंने किस वर्ष में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की ?
उत्तर-
दौलताबाद के अधिकारियों के गिरोह का नाम ‘अमीरान-ए-सदाह’ था। उन्होंने 1347 ई० में स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया।

प्रश्न 7.
बाहमनी साम्राज्य की दो राजधानियों के नाम बताएं।
उत्तर-
बाहमनी साम्राज्य की दो राजधानियों के नाम क्रमश: गुलबर्गा तथा बीदर थे।

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प्रश्न 8.
लम्बे समय तक राज्य करने वाले किन्हीं चार बाहमनी सुल्तानों के नाम बताएं। …
उत्तर-
लम्बे समय तक राज्य करने वाले चार बाहमनी सुल्तान मुहम्मद प्रथम (1358-77 ई०), मुहम्मद द्वितीय (137897 ई०), फिरोज़शाह (1397-1422 ई) तथा अहमदशाह (1422-35 ई०) थे।

प्रश्न 9.
बाहमनी सल्तनत के सबसे योग्य मन्त्री का नाम क्या था और वह किस देश से आया था ?
उत्तर-
बाहमनी सल्तनत का सबसे योग्य मन्त्री ‘महमूद गवाँ’ था। वह ईरान से आया था।

प्रश्न 10.
बाहमनी सल्तनत के प्रशासनिक भागों तथा उसके प्रशासकों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
बाहमनी सल्तनत के प्रशासनिक भागों को ‘तरफ’ तथा इसके प्रशासकों के ‘तरफदार’ कहा जाता था।

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प्रश्न 11.
बाहमनी सल्तनत में शासक वर्ग कौन-से दो गुटों में बंट गए थे ?
उत्तर-
बाहमनी सल्तनत में शासक वर्ग ‘विदेशी अमीर’ तथा ‘दक्कनी अमीर’ नामक दो गुटों में बंट गए थे।

प्रश्न 12.
महमूद शाह के शासन काल में बाहमनी साम्राज्य जिन पांच राज्यों में बंट गया, उनके नाम बताएं।
उत्तर-
महमूद शाह के शासनकाल में बाहमनी साम्राज्य बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमदनगर, बरार तथा बीदर नामक राज्यों में बंट गया।

प्रश्न 13.
बाहमनी साम्राज्य के उत्तराधिकारी सल्तनतों के संस्थापकों के नाम बताएं।
उत्तर-
बाहमनी साम्राज्य के उत्तराधिकारी सल्तनतों के संस्थापक थे-मलिक अहमद (अहमद नगर), आदिल खां (बीजापुर), फतहउल्ला इमाद-उल-मुल्क (बरार), कुतुब-उल-मुल्क (गोलकुण्डा) तथा कासिम बरीद (बीदर)।

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प्रश्न 14.
दक्कन की पांच सल्तनतों में से दो सबसे शक्तिशाली तथा दो सबसे छोटे राज्यों के नाम बताएं।
उत्तर-
दक्कन की पाँच सल्तनतों में से दो सबसे शक्तिशाली सल्तनतें ‘बीजापुर’ तथा ‘गोलकुण्डा’ थीं। इनमें से दो सबसे छोटे राज्य ‘बरार’ और ‘बीदर’ थे।

प्रश्न 15.
बरार तथा बीदर को किन वर्षों में दक्कन की कौन-सी अन्य दो सल्तनतों ने हड़प लिया ?
उत्तर-
1574 ई० में अहमद नगर के सुल्तान ने बरार को अपने अधिकार में ले लिया तथा 1619 ई० में बीजापुर के सुल्तान ने बीदर को हड़प लिया।

प्रश्न 16.
औरंगजेब ने किन वर्षों में दक्कन की कौन-सी दो सल्तनतों को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया ?
उत्तर-
औरंगज़ेब ने 1686-87 में दक्षिण की बीजापुर और गोलकुण्डा रियासतों को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।

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प्रश्न 17.
दक्षिण में ‘सामन्तों’ तथा ‘चौधरियों’ के स्थान पर किन नामों का प्रयोग किया जाता था ?
उत्तर-
दक्षिण में सामन्तों को ‘नायक’ तथा चौधरियों को ‘देशमुख’ और ‘देसाई’ कहा जाता था।

प्रश्न 18.
कौन-से दो नगर बाहमनी भवन निर्माण कला के केन्द्र थे ?
उत्तर-
गुलबर्गा और बीदर बाहमनी भवन निर्माण कला के केन्द्र थे ।

प्रश्न 19.
बाहमनी सल्तनत के भवनों में किन चार प्रकार के नमूने मिलते हैं ?
उत्तर-
बाहमनी सल्तनत के भवनों में पुरानी मस्जिदों, मकबरों, मदरसों और महलों के नमूने मिलते हैं।

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प्रश्न 20.
गोल गुम्बज कहां हैं और यह कौन-से सुल्तान का मकबरा है तथा यह कितने क्षेत्र में फैला हुआ है ?
उत्तर-
गोल गुम्बज बीजापुर में है। यह आदिलशाह का मकबरा है जो 2000 वर्ग गज़ के क्षेत्र में फैला हुआ है।

प्रश्न 21.
कुतुबशाही सुल्तानों ने कौन-से चार प्रकार के भवन बनवाए तथा उनके द्वारा बनवाई गई हैदराबाद की सबसे शानदार इमारत कौन-सी है ?
उत्तर-
कुतुबशाही सुल्तानों ने किले, महल, पुस्तकालय और मस्जिदें बनवाई। उनके द्वारा बनवाई गई हैदराबाद की शानदार इमारत ‘चारमीनार’ है।।

प्रश्न 22.
विजयनगर साम्राज्य के चार राजवंशों के नाम बताएं।
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य के चार राजवंश थे-‘संगम’, ‘सल्लुव’, ‘तल्लुव’ तथा ‘अरविंदु’।

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प्रश्न 23.
विजयनगर शहर किस नदी के किनारे बसाया गया तथा उसका संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
विजयनगर शहर तुंगभद्रा नदी के किनारे बसाया गया। इसके संस्थापक हरिहर और बुक्का नामक दो भाई थे।

प्रश्न 24.
विजयनगर साम्राज्य के विस्तार तथा उन्नति से सम्बन्धित दो राजवंशों के नाम बताएं।
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य के विस्तार तथा उन्नति से सम्बन्धित दो राजवंश हैं-‘संगम वंश’ तथा ‘सल्लव वंश’ ।

प्रश्न 25.
विजयनगर के पहले राजवंश के चार सबसे योग्य शासकों के नाम बताएं।
उत्तर-
पहले राजवंश (संगम वंश) के चार योग्य शासक बुक्का (1357-77 ई०), हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई०), देवराय (1406-22 ई०) तथा देवराय द्वितीय (1422-46 ई०) थे।

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प्रश्न 26.
विजयनगर तथा बाहमनी राज्य में झगड़ा मुख्यतः किस प्रदेश के कारण था और यह कौन-सी नदियों के बीच स्थित है ?
उत्तर-
विजयनगर तथा बाहमनी राज्यों में झगड़ा मुख्यत: उसके सीमावर्ती रायचूर दोआब पर अधिकार के कारण था। यह प्रदेश कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच स्थित है।

प्रश्न 27.
विजयनगर साम्राज्य का पुनर्निर्माण तथा पतन किन दो राजवंशों से सम्बन्धित है ?
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य का पुनर्निर्माण तथा पतन तल्लुव वंश तथा अरविंदु वंश से सम्बन्धित है।

प्रश्न 28.
विजयनगर राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था और वह कौन-से वंश से था ?
उत्तर-
विजयनगर का सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्ण देवराय था। वह तल्लुव राजवंश से सम्बन्धित था।

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प्रश्न 29.
कृष्णदेव राय का राजकाल क्या था और उसने बाहमनी सल्तनत के किन दो नगरों पर अधिकार कर लिया था ?
उत्तर-
कृष्णदेव राय का शासनकाल 1509 से 1529 ई० तक था। उसने गुलबर्गा और बीदर पर अपना अधिकार कर लिया था।

प्रश्न 30.
तालीकोटा का युद्ध कब और किन के बीच हुआ ? इसमें हारने वाले राज्य का नाम बताएं।
उत्तर-
तालीकोटा का युद्ध 1565 ई० में दक्षिण के सुल्तानों के संगठन तथा विजयनगर के शासक सदाशिव राय के बीच हुआ। इसमें विजयनगर की हार हुई।

प्रश्न 31.
अरविंदु वंश के राजकाल में कौन-से तीन प्रदेशों के नायक स्वतन्त्र हो गए थे ?
उत्तर-
अरविंदु वंश के राजकाल में मदुरई, तंजौर तथा जिंजी प्रदेशों के नायक स्वतन्त्र हो गए थे।

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प्रश्न 32.
विजयनगर के प्रशासन में सबसे महत्त्वपूर्ण तीन विभाग कौन-से थे ?
उत्तर-
विजयनगर के प्रशासन में सबसे महत्त्वपूर्ण तीन विभाग सेना, राजस्व और धर्मार्थ विभाग थे।

प्रश्न 33.
विजयनगर साम्राज्य में नायकों की संख्या क्या थी और वे सम्राट् को अधीनता के प्रतीक के रूप में क्या देते थे ?
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य में नायकों की संख्या 200 से भी अधिक थी। वे सम्राट् को अधीनता के प्रतीक के रूप में नज़राना तथा युद्ध के समय सैनिक सहायता देते थे।

प्रश्न 34.
विजयनगर साम्राज्य में अधिकारियों को वेतन किस रूप में दिया जाता था ?
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य में अधिकारियों को वेतन ‘जागीर’ के रूप में दिया जाता था।

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प्रश्न 35.
विजयनगर साम्राज्य में भूमि से इकट्ठा किए जाने वाले लगान की अधिकतम तथा न्यूनतम में क्या थीं ?
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य में भूमि से कर इकट्ठा किए जाने वाले लगान की न्यूनतम दर उपज का छठा भाग तथा अधिकतम दर उपज का आधा भाग थी।

प्रश्न 36.
विजयनगर साम्राज्य से सम्बन्धित मन्दिर किन चार नगरों में देखे जा सकते हैं ?
उत्तर-
विजयनगर साम्राज्य से सम्बन्धित मन्दिर वैलोर, विजयनगर शहर, काँचीपुरम तथा श्रीरंगपट्टम में देखे जा सकते

प्रश्न 37.
मराठी, कन्नड़, तमिल तथा मलयालम किन चार राज्यों तथा प्रदेशों की मुख्य भाषाएं थीं ? ये प्रदेश वर्तमान के कौन-से चार राज्यों में हैं ?
उत्तर-
अहमद नगर में मराठी, बीजापुर में कन्नड़, विजयनगर में तमिल तथा सुदूर दक्षिण में मलयालम भाषाएं बोली जाती थीं। ये प्रदेश वर्तमान भारत में क्रमश: महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल राज्यों में हैं।

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III. छोटे उत्तर वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
बाहमनी साम्राज्य के विघटन में प्रशासनिक व्यवस्था तथा शासक वर्ग का क्या हाथ था ?
उत्तर-
बाहमनी राज्य के पतन की प्रक्रिया में यों तो अनेक कारणों का हाथ रहा, परन्तु प्रशासनिक व्यवस्था के गलत संगठन तथा शासक वर्ग के विवेकहीन कार्यों से इस राज्य का पतन बड़ी तीव्रता से होने लगा। बाहमनी शासक अपनी अविवेकपूर्ण नीति के कारण शासन को संगठित एवं स्थायी रूप प्रदान करने में असफल रहे। फलस्वरूप अमीरों के आपसी मतभेद काफ़ी बढ़ गए। दूसरे, सुल्तानों ने हिन्दुओं के प्रति असहनशीलता की नीति अपनाई जिससे राज्य की बहुसंख्यक हिन्दू जनता आरम्भ से ही बाहमनी शासकों के विरुद्ध हो गई। बाहमनी शासकों ने देशी अमीरों की अपेक्षा विदेशी अमीरों पर अधिक विश्वास किया। अतः उनके अपने यहां अनेक अमीरों में आपसी शत्रुता पैदा हो गई। दूसरे, महमूद गवां को छोड़कर अन्य किसी भी अमीर ने राजभक्ति न दिखाई। अतः बाहमनी सुल्तानों को न तो देशी अमीरों का ही साथ मिल सका और न ही विदेशी अमीरों का। यह बात भी बाहमनी शासकों की असफलता का कारण बनी और बाहमनी राज्य का पतन तीव्रता से होने लगा।

प्रश्न 2.
बाहमनी सल्तनत तथा उत्तराधिकारी राज्यों के अधीन कला तथा भवन निर्माण कला की मुख्य विशेषताएं क्या थीं?
उत्तर-
बाहमनी शासकों ने चित्रकला तथा भवन निर्माण कला के विकास में बड़ा योगदान दिया। इस समय की चित्रकारी के सर्वोत्तम नमूने अलाऊद्दीन द्वितीय द्वारा बनवाए गए अहमदशाह के मकबरे की छत और दीवारों पर मिलते हैं। बाहमनी राज्य की भवन निर्माण कला के मुख्य केन्द्र गुलबर्गा तथा बीदर हैं। इन स्थानों पर अनेक आकर्षक मस्जिदें, मकबरे, मदरसे तथा महल मिलते हैं। ये इमारतें पुरानी शैली तथा फारसी शैली में बनाई गई हैं। गुलबर्गा में फिरोजशाह का मकबरा बाहमनी राज्य की भवन निर्माण कला का एक सुन्दर नमूना है। बीजापुर के आदिलशाही शासकों के समय में बीजापुर अपनी सुन्दर इमारतों के लिए सारे भारत में प्रसिद्ध हो गया। यहां का गोल गुम्बज और इब्राहीम रोजा भवन निर्माण कला के सबसे सुन्दर नमूने हैं। गोलकुण्डा के कुतुबशाही शासकों ने भी भवन निर्माण कला के विकास में अपना विशेष योगदान दिया। उनकी सबसे प्रसिद्ध इमारत हैदराबाद में स्थित चारमीनार है।

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प्रश्न 3.
विजयनगर साम्राज्य की उन्नति में कृष्णदेव राय का क्या योगदान था ?
उत्तर-
कृष्णदेव राय तुल्लुव वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। उसने 1509 ई० से 1529 ई० तक शासन किया। वह एक महान् योद्धा था। उसने मैसूर (कर्नाटक) के कुछ भाग को विजित किया तथा उड़ीसा के राजा को हरा कर काफ़ी लूट का माल प्राप्त किया। उसने बीजापुर के आदिलशाह से युद्ध करके रायचूर दोआब छीन लिया। उसके द्वारा बीजापुर की विजय से दक्षिण के मुस्लिम राज्यों के शासक इतने भयभीत हो उठे कि उन्हें उसके जीवन काल में फिर विजयनगर पर आक्रमण करने का कभी साहस न हुआ। कृष्णदेव राय एक महान् शासक प्रबन्धक भी था। उसने धार्मिक सहनशीलता की नीति अपनाई तथा देश की अर्थव्यवस्था में सुधार किया। इस प्रकार विजयनगर एक समृद्ध राज्य बन गया।

प्रश्न 4.
विजयनगर के राज्य प्रबन्ध की मुख्य विशेषताएं क्या थी ?
उत्तर-
विजयनगर के केन्द्रीय शासन का मुखिया सम्राट् था। उसके पास असीम शक्तियां तथा अधिकार थे। अपनी सहायता के लिए उसने एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की हुई थी। इसमें मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि सम्मिलित थे। इनकी नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था। उसका सारा राज्य लगभग 200 प्रान्तों में बंटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त का शासन प्रबन्ध एक प्रान्तपति के हाथ में होता था। ये प्रान्तपति या तो राज घराने से सम्बन्धित होते थे या फिर कोई शक्तिशाली अमीर होते थे। प्रत्येक प्रान्त को जिलों में बांटा गया था। इन्हें नाडू तथा कोट्टम कहा जाता था। जिले परगनों में तथा परगने गांवों में बंटे होते थे। गांव का शासन प्रबन्ध ग्राम पंचायतों को सौंपा हुआ था। इन सभी संस्थाओं के प्रमुख अधिकारी को आयगर कहा जाता था। न्याय का मुख्य अधिकारी स्वयं सम्राट् था। दण्ड बड़े कठोर थे। राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था। विजयनगर राज्य के शासकों के पास एक शक्तिशाली सेना भी थी।

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प्रश्न 5.
बाहमनी राज्य के पतन के कारण बताओ।
उत्तर-
बाहमनी राज्य के पतन में अनेक तत्त्वों का हाथ था। प्रथम, बाहमनी शासक असहनशील थे। उन्होंने हिन्दुओं के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। दूसरे, बाहमनी शासक सदा अपने पड़ोसी राज्यों के साथ लड़ते-झगड़ते रहते थे। इन युद्धों से बाहमनी वंश की शक्ति कम हो गई। तीसरे, अधिकतर बाहमनी शासक विलासी थे। वे राज कार्यों की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। चौथे, बाहमनी राज्य का अन्तिम शासक महमूदशाह बड़ा ही अयोग्य था। उसकी अयोग्यता का लाभ उठाकर प्रान्तीय गवर्नरों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। पांचवें, महमूद गावां को फांसी दिए जाने से बाहमनी राज्य को सबसे अधिक क्षति पहुंची और इस राज्य का पतन हो गया।

प्रश्न 6.
विजयनगर राज्य के पतन के कारण बताओ।
उत्तर-

  1. इस राज्य की सारी शक्ति राजा के हाथ में थी। शासन में प्रजा का कोई योगदान नहीं था। इसलिए संकट के समय प्रजा ने अपने राजा का साथ न दिया।
  2. इस राज्य में सिंहासन प्राप्ति के लिए प्रायः गृह-युद्ध चलते रहते थे। इन युद्धों ने राजा की शक्ति नष्ट कर दी।
  3. कृष्णदेव राय के पश्चात् ३५ गज्य के सभी शासक निर्बल थे।
  4. विजयनगर राज्य को बाहमनी राज्य के शासकों के साथ युद्ध करने पड़े। इन युद्धों में विजयनगर राज्य की शक्ति को बड़ी क्षति पहुंची।
  5. तालीकोट की लड़ाई में विजयनगर का शासक मारा गया। इस लड़ाई के तुरन्त पश्चात् इस का पूरी तरह पतन हो गया।

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प्रश्न 7.
आप विजयनगर राज्य की कला और भवन निर्माण कला के विषय में क्या जानते हैं ?
उत्तर-
विजयनगर के शासक बड़े ही कला-प्रेमी थे। उन्होंने मूर्ति कला और भवन निर्माण कला को विशेष रूप से संरक्षण प्रदान किया। चोल राज्य की भान्ति विजयनगर के मूर्तिकार भी कांसे की मूर्तियां ढालने में बड़े निपुण थे। राजा कृष्णदेव राय का कांसे का बुत विजयनगर राज्य की मूर्ति कला का सबसे सुन्दर नमूना है। विजयनगर कला भवन निर्माण की झलक हमें उनके द्वारा बनवाये गए दुर्गों, भव्य महलों और सुन्दर मन्दिरों में दिखाई देती है। यहां के शासकों ने अनेक प्राचीन मन्दिरों को विशाल रूप दिया और कई नए मन्दिरों का निर्माण करवाया। उनके द्वारा बनवाए गए मन्दिर केवल विजयनगर तक ही सीमित नहीं हैं। ये तुंगभद्रा नदी के दक्षिण के सारे प्रदेश में बने हुए हैं। इन मन्दिरों के उत्कृष्ट नमूने वैलोर, कांचीपुरम तथा श्रीरंगापट्टम में देखे जा सकते हैं। कृष्णदेव राय ने विजयनगर के निकट एक बहुत बड़ा तालाब भी खुदवाया जो सिंचाई के काम आता था।

प्रश्न 8.
14वीं शताब्दी के अन्त से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक दक्षिण में कौन-सी नई भाषाओं और साहित्य का विकास हुआ ?
उत्तर-
14वीं शताब्दी के अन्त से 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक दक्षिण में अनेक प्रादेशिक भाषाओं तथा साहित्य का विकास हुआ। गोलकुण्डा के सुल्तानों ने तेलगू भाषा और तेलगू साहित्य को संरक्षण प्रदान किया। उनके राज्य की सीमाएं लगभग वहीं थीं जो तेलगू-भाषी क्षेत्र की थीं। इसके विपरीत अन्य राज्यों की सीमाएं भले ही उन राज्यों में विकसित भाषाओं से सम्बन्धित क्षेत्र से मेल नहीं खाती थीं तो भी यहां के शासकों ने अलग-अलग भाषाओं के विकास में सहायता पहुंचाई। अहमदनगर में मराठी, बीजापुर में कन्नड़, विजयनगर में तमिल तथा सुदूर दक्षिण में मलयालम भाषा ने खूब उन्नति की। इन प्रादेशिक भाषाओं के साथ-साथ प्रादेशिक साहित्य का विकास भी हुआ। इस साहित्य के विकास में शासकों की अपेक्षा भक्ति लहर के अनुयायियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। इसका कारण यह था कि भक्ति लहर के प्रचारकों ने अपने सन्देश के प्रचार के लिए जन-साधारण की भाषाओं को ही अपनाया।

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प्रश्न 9.
महमूद गावां पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
उत्तर-
महमूद गावां बाहमनी शासक मुहम्मद शाह तृतीय का प्रधानमन्त्री था। उसने बाहमनी राज्य को बहुत ही शक्तिशाली बनाया। उसने प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किये। उसने कोंकण, संगमेश्वर, उड़ीसा और विजयनगर के शासकों को हराया। उसने सेना को फिर से संगठित किया और किसानों की कई प्रकार से सहायता की। वह विद्वानों तथा कलाकारों का आदर करता था। वह स्वयं भी बड़ा विद्वान् और योग्य व्यक्ति था। इतना कुछ करने पर भी महमूद गावां का अन्त बड़ा दुःखद था। बाहमनी शासक मुहम्मद शाह तृतीय ने उसके शत्रुओं के बहकावे में आकर उसे मृत्यु दण्ड दे दिया।

IV. निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विजयनगर राज्य के शासन प्रबन्ध की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
विजयनगर राज्य के शासन प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताओं का विवरण इस प्रकार है
1. सम्राट्-विजयनगर के केन्द्रीय शासन का मुखिया सम्राट होता था। उसके पास असीम शक्तियाँ तथा अधिकार होते थे। अपनी सहायता के लिए उसने एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की हुई थी। परन्तु उसका कार्य केवल सम्राट को परामर्श देना होता था।

2. मन्त्रिपरिषद्-अपनी सहायता तथा परामर्श के लिए सम्राट ने मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की हुई थी। इसमें मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि सम्मिलित होते थे। इन सभी सदस्यों की नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था।

3. प्रान्तीय शासन-विजयनगर राज्य लगभग 200 प्रान्तों में बंटा हुआ था। प्रत्येक प्रान्त का प्रबन्ध एक प्रान्तपति के हाथ में होता था। ये प्रान्तपति या तो राज घराने से सम्बन्धित होते थे या फिर कोई शक्तिशाली अमीर (Nobles) होते थे। इनकी नियुक्ति भी सम्राट् स्वयं करता था।

4. स्थानीय शासन-शासन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए पान्द को जिलों में बांटा गया था। ज़िले आगे परगनों में तथा परगने गाँवों में बँटे होते थे। गाँव का शासन प्रबन्ध ग्राम पंचायतों को सौंपा हुआ था। इन सभी संस्थाओं के प्रमुख अधिकारी को आयंगर कहा जाता था।

5. सैनिक संगठन-विजयनगर का बाहमनी सुल्तानों के साथ निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। अतः यहाँ के शासकों को अपने सैनिक संगठन की ओर विशेष ध्यान देना पड़ा।
विजयनगर राज्य की सेना दो प्रकार की थी। प्रान्तीय सेना तथा केन्द्रीय सेना। सेना में हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिक होते थे। अश्वारोही सेना का प्रमुख अंग थे।

6. न्याय-प्रणाली-विजयनगर राज्य में सम्राट् मुख्य न्यायाधीश का कार्य करता था। गाँवों में आयंगर तथा प्रान्तों में प्रान्तपति अथवा सूबेदार न्याय कार्य करते थे। दण्ड बड़े कठोर थे और गम्भीर अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था, परन्तु साधारण अपराधों पर जुर्माना किया जाता था।

7. भूमि कर प्रणाली-विजयनगर राज्य की समस्त भूमि का स्वामी सम्राट होता था। वह इसे आगे भूमिपतियों में तथा भूमिपति इसे किसानों में बाँट देते थे। किसानों की उपज का 1/6 से 1/4 भाग कर के रूप में भूमिपति को देना पड़ता था। किसानों की आर्थिक अवस्था बड़ी अच्छी थी। उन्हें जीवन का प्रत्येक सुख प्राप्त था।

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प्रश्न 2.
विजयनगर राज्य की सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दशा का वर्णन करो।
उत्तर-
विजयनगर की सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दशा का वर्णन निम्नलिखित है

I. सामाजिक अवस्था-
1. ब्राह्मणों का मान-विजयनगर राज्य में ब्राह्मणों को बड़ा सम्मान प्राप्त था। उन्हें राज्य में उच्च पद प्राप्त थे। अपराधी होने पर भी उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता था। उनका जीवन बड़ा पवित्र होता था। वे शाकाहारी होते थे तथा माँस, मदिरा आदि को छूते तक न थे। इस प्रकार ब्राह्मण लोग अन्य वर्गों के लोगों के लिए एक आदर्श थे।

2. नारी का स्थान-विजयनगर में नारी का भी बड़ा सम्मान था। योग्यता होने पर वे उच्च शिक्षा भी ग्रहण कर सकती थीं। उनमें पर्दे का रिवाज नहीं था। स्त्रियों को युद्ध-कला और ललित-कलाओं भी भी शिक्षा दी जाती थी।

3. कुप्रथाएँ-विजयनगर का समाज कुप्रथाओं से वंचित नहीं था। उस समय देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशु बलि दी जाती थी। समाज में सती प्रथा भी जोरों पर थी। यहाँ तक कि तेलगू स्त्रियों को अपने पति की मृत्यु पर धरती में जीवित गाड़ दिया जाता था। इसके अतिरिक्त राज्य में वेश्याओं की भी कमी नहीं थी। देवराज द्वितीय की 12 हज़ार रानियाँ थीं। इनमें से तीन हजार के साथ तो उसने केवल इस शर्त पर विवाह किया था कि वे उसकी मृत्यु के बाद उसके साथ सती होंगी।

II. आर्थिक दशा-

विजयनगर की आर्थिक अवस्था बड़ी उन्नत थी। यहाँ की धरती उपजाऊ थी। परिणामस्वरूप आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार खूब विकसित थे। उनके पुर्तगालियों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध थे। अरबी घोड़ों का भी व्यापार खूब होता था। विजयनगर के समुद्री तटों पर अच्छी-अच्छी बन्दरगाहें थीं। कालीकट यहाँ की प्रमुख बन्दरगाह थी। यहाँ से बर्मा, चीन, ईरान, अरब, पुर्तगाल तथा दक्षिणी अफ्रीका के साथ देश का व्यापार चलता था। इस बन्दरगाह से कपड़ा, चावल, चीनी, लोहा, गर्म मसाले तथा शोरा विदेशों में भेजा जाता था और वहां से घोड़े, हाथी, ताँबा, जवाहरात तथा रेशम आदि का आयात किया जाता था। व्यापारियों ने अपने संघ स्थापित किए हुए थे। लेन-देन की सुविधा के लिए अनेक सोने-चांदी के सिक्के प्रचलित थे। व्यापार के साथ-साथ देश में कृषि तथा अन्य उद्योग-धन्धे भी काफ़ी उन्नत थे। कपड़ा बुनना, खानों से खनिज निकालना, धातुओं की वस्तुएँ बनाना तथा इत्र निकालना उस समय के लोगों के प्रमुख उद्योग थे।

II. सांस्कृतिक जीवन विजयनगर के हिन्दू शासकों ने हिन्दू संस्कृति तथा कला के विकास की ओर भी विशेष ध्यान दिया। कई विद्वानों तथा साहित्यकारों को इन राजाओं ने आश्रय प्रदान कर रखा था। संस्कृत तथा तेलगू के कई विद्वान् इन शासकों के दरबार की शोभा बढ़ाते थे। इन विद्वानों में से सयन का नाम लिया जा सकता था जिसने ऋग्वेद संहिता, ऐतरेय ब्राह्मण तथा आरण्यक आदि ग्रन्थों की टीकाएँ लिखीं। इसके अतिरिक्त तेलगू भाषा का अलसनी कवि भी विजयनगर के राजदरबार की शोभा था।

साहित्य के साथ-साथ विजयनगर के शासकों को कला से भी विशेष प्रेम था। भवन निर्माण कला के प्रति उनके प्रेम के दर्शन हमें विजयनगर की राजधानी में बने भव्य भवनों को देखकर होते हैं जिसके अब अवशेष ही रह गए हैं।

सच तो यह है कि विजयनगर साम्राज्य की शासन व्यवस्था उच्चकोटि की थी। लोगों का जीवन समृद्ध था, समाज उच्च आदर्शों में ढला हुआ था तथा कलाएँ उन्नति की चरम सीमा पर थीं।

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प्रश्न 3.
बाहमनी राज्य की शासन-व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
बाहमनी शासकों ने अपने राज्य में कुशल शासन प्रणाली स्थापित करने का भी प्रयास किया। उनकी शासनव्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है

I. केन्द्रीय सरकार-

सुल्तान-बाहमनी वंश के प्रथम शासक अलाउद्दीन बहमनशाह ने गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाते समय केन्द्रीय सरकार की स्थापना की। केन्द्रीय सरकार का मुखिया सुल्तान था। वह राज्य की सारी शक्ति का स्रोत था। उसके अधिकार काफ़ी विस्तृत थे। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश और सेना का मुख्य सेनापति था। वास्तव में, सुल्तान पूर्ण रूप से निरंकुश था और स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर की छाया मानता था।

मन्त्री-सुल्तान को शासन कार्यों में परामर्श तथा सहयोग देने के लिए कुछ मन्त्री होते थे। इन मन्त्रियों की संख्या आठ थी। प्रधानमन्त्री को ‘वकील उल-सुल्तान’ कहते थे। राज्य के सभी आदेश वही जारी करता था। प्रत्येक सरकारी पत्र पर उसकी मोहर का होना आवश्यक था। न्याय विभाग का मन्त्री सदर-ए-जहां’ कहलाता था। वह धर्मार्थ विभाग का भी अध्यक्ष था। मन्त्री अपने सभी कार्य सुल्तान की आज्ञा से करते थे और अपने कार्यों के लिए उसी के प्रति उत्तरदायी होते थे। इन आठ मन्त्रियों के अतिरिक्त कुछ निम्न स्तरों के मन्त्री भी थे जिनमें कोतवाल तथा नाजिर प्रमुख थे।

II. प्रान्तीय शासन-

बाहमनी सुल्तानों ने शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए राज्य को कई भागों तथा उपभागों में विभक्त किया हुआ था। शासन की प्रमुख इकाई प्रान्त अथवा तर्फ थी। ‘तर्फ’ को आगे चल कर सरकारों तथा परगनों में बांटा गया था। प्रत्येक परगने में कुछ गांव सम्मिलित होते थे।

प्रारम्भ में बाहमनी राज्य चार तर्कों में विभक्त था-गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार तथा बीदर। बाद में इनकी संख्या आठ हो गई। तर्क का मुखिया तर्कदार कहलाता था। वह अनेक कार्य करता था। प्रान्त में राजस्व कर एकत्रित करवाना, सैनिक भर्ती करना, सेना का नेतृत्व करना आदि उसके प्रमुख कार्य थे। वह पूर्णरूप से सुल्तान के अधीन था और सभी कार्य उसी की आज्ञा से करता था। उसके कार्यों का निरीक्षण करने के लिए सुल्तान स्वयं भी समय-समय पर तर्कों का दौरा किया करता था।
परगनों का शासन प्रबन्ध चलाने के लिए कई कर्मचारी नियुक्त थे। वे भी अपने सभी कार्य सुल्तान के आदेश द्वारा करते थे।

PSEB 11th Class Agriculture Solutions Chapter 11 कुछ नए कृषि विषय

Punjab State Board PSEB 11th Class Agriculture Book Solutions Chapter 11 कुछ नए कृषि विषय Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Agriculture Chapter 11 कुछ नए कृषि विषय

PSEB 11th Class Agriculture Guide कुछ नए कृषि विषय Textbook Questions and Answers

(क) एक-दो शब्दों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
जी० एम० का पूरा नाम लिखो।
उत्तर-
जनैटिकली मोडीफाइड फसलें।

प्रश्न 2.
बी०टी० का पूरा नाम लिखो।
उत्तर-
बैसिलस थुरिजैनिसस।

प्रश्न 3.
बी० टी० कपास में कौन-सा कीटनाशक पदार्थ पैदा होता है ?
उत्तर-
रवेदार प्रोटीन पैदा होता है जिसको खाकर सूंडी मर जाती है।

प्रश्न 4.
पी० पी० वी० और एफ० आर० का पूरा नाम लिखो।
उत्तर-
पौध किस्म और किसान अधिकार सुरक्षा एक्ट (Protection of Plant Variety and Farmers Rights)।

प्रश्न 5.
पौध प्रकार एवं किसान अधिकार सुरक्षा अधिनियम किस वर्ष पास किया गया ?
उत्तर-
वर्ष 2001 में।

प्रश्न 6.
खेत को समतल करने वाली नवीनतम मशीनों का नाम लिखें।
उत्तर-
लेजर कराहा।

प्रश्न 7.
धान में पानी की बचत करने वाले यंत्र का नाम लिखें।
उत्तर-
टैंशीओमीटर।

प्रश्न 8.
गत एक शताब्दी में धरती की सतह के तापमान में कितनी वृद्धि हो चुकी है ?
उत्तर-
0.5 डिग्री सैंटीग्रेड।

प्रश्न 9.
प्रमुख ग्रीन हाऊस गैसों के नाम लिखो।
उत्तर-
कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मीथेन आदि।

प्रश्न 10.
सी० एफ० सी० का पूरा नाम लिखें।
उत्तर-
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (Chlorofloro Carbon)।

(ख) एक-दो वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
जी० एम० फसल की परिभाषा लिखें।
उत्तर-
जी० एम० फसल का अर्थ है ऐसी फ़सलें जिनमें किसी ओर फ़सल या जीवजंतु का जीन डाल कर सुधार किया गया हो। जी० जैम० का पूरा नाम है जनेटिकली मोडीफाइड फ़सलें।

प्रश्न 2.
बी०टी०-1 और बी० टी०-2 प्रकार में क्या अंतर है ?
उत्तर-
बी० टी०-1 और बी० टी०-2 से अर्थ है बालगार्ड-1 और बालगार्ड-2 किस्में, ये कपास की किस्में हैं। बी० टी०-1 में सिर्फ एक बी० टी० जीन डाला गया है जबकि बी० टी०-2 में दो बी० टी० जीन डाले गए हैं। बी० टी०-1 सिर्फ़ अमरीकन सूंडी का मुकाबला कर सकती थी जबकि बी० टी०-2 अमरीकन सूंडी के अलावा अन्य इंडियों का भी मुकाबला कर सकती है।

प्रश्न 3.
बी० टी० कपास की टिंडे की सुंडियां हानि क्यों नहीं पहुंचाती ?
उत्तर-
बी० टी० कपास में वैसिलस थरिजैनिसस नाम के बैक्टीरिया के जीन डाले जाते हैं। यह जीन कपास के पौधे में रवेदार प्रोटीन पैदा करता है। यह प्रोटीन टिंडे की सुंडियों के लिए विषैला होता है, इसे खाकर सुंडियां मर जाती हैं तथा कपास को हानि नहीं पहुंचातीं।

प्रश्न 4.
बारीकी की कृषि से क्या अभिप्राय है? इसके क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
बारीकी की कृषि से भाव है प्राकृतिक स्रोतों का उचित प्रयोग करना तथा कृषि में प्रयोग होने वाली वस्तुओं जैसे कीटनाशक, खादें, नदीननाशक आदि का भी उचित प्रयोग करना। खेत को एक जैसा न समझ कर उपरोक्त वस्तुओं की कुछ स्थानों पर अधिक तथा कुछ स्थानों पर कम प्रयोग की आवश्यकता होती है। इस प्रकार एक ही खेत में भिन्नभिन्न स्थानों पर आवश्यकता अनुसार कीड़े-मकौड़े तथा रोगों से प्रभावित भाग में स्प्रे, खादों का प्रयोग करके वातावरण भी दूषित नहीं होता तथा पैदावार भी बढ़ती है तथा दवाइयां, खादों पर अनावश्यक खर्चा भी नहीं होता।

प्रश्न 5.
पानी की बचत करने के लिए क्या पद्धति अपनाओगे ?
उत्तर-
लेज़र कराहे का प्रयोग करके खेत को समतल किया जाए तो पानी की काफ़ी बचत की जा सकती है। इस प्रकार धान की फसल में टैंशीयोमीटर का प्रयोग करके भी पानी की बचत की जा सकती है।

प्रश्न 6.
मौसमी (ऋतु) परिवर्तन का गेहूँ की कृषि पर क्या प्रभाव हो सकता है ?
उत्तर-
मौसमी (ऋतु) परिवर्तन के कारण फरवरी-मार्च में तापमान में वृद्धि होने के कारण पैदावार पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

प्रश्न 7.
ग्रीन हाऊस के भीतर तापमान में क्यों वृद्धि होती है ?
उत्तर-
शीशे या प्लास्टिक के बने घरों में जिनके अन्दर पौधे उगाए जाते हैं ; इनको हरे घर कहा जाता है। शीशे या प्लास्टिक में सूर्य की किरणें अन्दर प्रवेश कर सकती हैं परन्तु अन्दर से इनफ्रारेड किरणें बाहर नहीं निकल सकी। इस प्रकार शीशे या प्लास्टिक के घर के अन्दर गर्मी बढ़ जाती है तथा तापमान बढ़ जाता है।

प्रश्न 8.
ग्रीन हाऊस गैसों के नाम लिखो।
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

प्रश्न 9.
बी० टी० किस्मों ने पंजाब में कपास उत्पादन को किस प्रकार प्रभावित किया है ?
उत्तर-
बी० टी० किस्मों को पंजाब में वर्ष 2006 से बोना शुरू किया गया। इस फ़सल से पहले पंजाब में नरमे की फसल लगभग तबाह हो गई थी। अमरीकन सूंडी के हमले के कारण नरमे की पैदावार सिर्फ 2-3 क्विटल रुई प्रति एकड़ रह गई थी परन्तु बी० टी० नरमा बोने के बाद पैदावार 5 क्विटल रुई प्रति एकड़ से भी बढ़ गया है। कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग भी कम हो गया है जिस कारण वातावरण भी प्रदूषित नहीं होता तथा किसानों का अधिक खर्चा भी नहीं होता है।

प्रश्न 10.
सूक्ष्म कृषि में कौन सी उच्च तकनीकें प्रयोग में लाई जाती हैं ?
उत्तर-
सूक्ष्म कृषि में कई उच्च तकनीकों का प्रयोग किया जाता है ; जैसे-सैंसर्स, जी० पी० एस० अन्तरिक्ष तकनीक आदि।

(ग) पांच-छ: वाक्यों में उत्तर दो-

प्रश्न 1.
पंजाब में कौन-सी जी० एम० फसल बोई जाती है और इसके क्या लाभ
उत्तर-
पंजाब में जी० एम० फसलों में नरमे की फसल बोई जाती है। इस को बी० टी० नरमा कहा जाता है। अब कई अन्य जी० एम० फसल ; जैसे बैंगन, मक्की, सोयाबीन तथा धान आदि भी तैयार कर लिया जाता है। बी० टी० फसलों में बैसीलस थुरैजीनिसेंस नामक बैक्टीरिया का जीन डाला जाता है। इस कारण फसल में रवेदार प्रोटीन पैदा होता है जो कि सूंडियों के लिए ज़हर का काम करता है तथा सूंडिया इसको खा कर 3-4 दिन में मर जाती हैं। बी० टी० किस्में अमेरिकन सूंडी, गुलाबी सूंडी और तंबाकू की सूंडी का मुकाबला कर सकती है। पर कोई ओर सूंडी का नहीं। इसलिए बालगार्ड-1 किस्म जिसमें एक बी० टी० जीन था। इसकी जगह पर बालगार्ड-2 किस्म तैयार की गई है जिसमें बी० टी० जीन की दो किस्में हैं। ये किस्म अमेरिकन सूंडी और अन्य अन्य सूंडियों का मुकाबला कर सकती हैं। . बी० टी० नरमे को कृषि पंजाब में 2006 में शुरू की गई है। इस की कृषि से पहले नरमे की पैदावार 2-3 क्विटल रुई प्रति एकड़ रह गई थी। बी० टी० किस्म का प्रयोग करने के कारण कीटनाशक की ज़रूरत कम हो गई है जिसके साथ वातावरण शुद्ध रहता है।

प्रश्न 2.
जी० एम० फसलों से होने वाली संभावित संकट कौन-से हैं ?
उत्तर-
जी० एम० फसलों की जब से खोज हुई तब से ही बहुत सारी संस्थाओं ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया था। ये संस्थाएं वातावरण भलाई, सामाजिक, मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ संबंधित संस्थाएं और कई वैज्ञानिक भी इसके विरोध में हैं। उनके अनुसार जी० एम० मनुष्य की स्वास्थ्य, वातावरण, फ़सलों की प्रजातियाँ और अन्य पौधों के लिए हानिकारक हैं और उन पर बुरा असर पड़ता है। कई देशों में इन फ़सलों की पैदावार पर रोक लगाई गई है। पर इनके बुरे असर का कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।

प्रश्न 3.
पौध प्रकार एवं किसान अधिकार सुरक्षा अधिनियम के मुख्य उद्देश्य क्या
उत्तर-
पौध प्रकार एवं किसान अधिकार सुरक्षा अधिनयम के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित-

  • प्लांट ब्रीडर द्वारा पैदा की गई नई पौध किस्म के ऊपर अधिकार स्थापित करना।
  • किसान का कई सालों से संभाली और सुधारी पौध किस्म पर उसका अधिकार स्थापित करना।
  • किसान को सुधरी किस्मों का अच्छा बीज और पौध सामग्री की प्राप्ति करवाना।

प्रश्न 4.
ग्रीन हाऊस गैसों का वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
ग्रीन हाऊस गैसों का वातावरण पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। ग्रीन हाऊस गैसों के बढ़ने के कारण धरती की सतह का तापमान बढ़ रहा है, पिछले 100 सालों में इसके तापमान में 0.5°C की बढ़ोत्तरी हुई है और साल 2050 तक इसमें 3.2°C की बढ़ोत्तरी होने की संभावना है। इस तरह तापमान में वृद्धि के कारण आगे लिखे बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं। बाढ़, अकाल पढ़ना, ग्लेशियर पिघलना, जिसके साथ समुद्री पानी के स्तर का बढ़ना, मानसून वर्षा में उतार-चढ़ाव तथा अनिश्चितता का बढ़ना, समुद्री तूफ़ान और चक्रवात आदि में वृद्धि होना।

प्रश्न 5.
मौसमी (ऋतु) परिवर्तन के कृषि पर क्या प्रभाव पड़ सकते हैं ?
उत्तर-
मौसमी बदलाव के कारण खेतीबाड़ी में कई तरह के बुरे प्रभाव पड़ सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती की सतह का तापमान बढ़ रहा है जिस कारण कई तरह के प्रभाव पड़ सकते हैं।

  • तापमान में वृद्धि के कारण फसलों का जीवन काल, फसली चक्कर और फ़सलों की कृषि के समय पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • तापमान और हवा में नमी के बढ़ने के कारण कई तरह की नई बीमारियाँ और नए कीड़े-मकौड़े फसलों की हानि कर सकते हैं।
  • गेहूँ की पैदावार को फरवरी-मार्च में तापमान में हुई वृद्धि कम कर सकती है।
  • मानसून की अनिश्चितता के कारण खेती पैदावार कम हो सकती है।
  • रात के तापमान में वृद्धि के कारण खेती पैदावार कम हो सकता है।
  • कई देशों में तापमान में वृद्धि के कारण फसल की पैदावार पर अच्छे-प्रभाव भी हो सकते हैं।

Agriculture Guide for Class 11 PSEB कुछ नए कृषि विषय Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जी० एम० फसलों को ओर क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
ट्रांसजेनिक फसलें।

प्रश्न 2.
फसलों में अन्य किसी फसल या जीव के जीन को किस तकनीक के द्वारा डाला जाता है ?
उत्तर-
जैनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक द्वारा।

प्रश्न 3.
बी० टी० का पूरा नाम बताओ।
उत्तर-
बैसिलस थुरिजैनिसस।

प्रश्न 4.
बी० टी० क्या है ?
उत्तर-
ज़मीन में मिलने वाला एक बैक्टीरिया।

प्रश्न 5.
बी० टी० नरमे (कपास) के अलावा और कौन-सी फसलें तैयार की गई हैं ?
उत्तर-
बैंगन, मक्की, सोयाबीन, धान आदि।

प्रश्न 6.
किस तकनीक का प्रयोग करने के बाद कौन-सी किस्म को रजिस्टर नहीं कर सकते ? …
उत्तर-
टर्मीनेटर,तकनीक वाली फसल को।

प्रश्न 7.
फसली किसम की रजिस्ट्रेशन कितने समय के लिए करवाई जा सकती है ?
उत्तर-
6 साल के लिए जिसको 15 साल तक बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 8.
फसल की किस्म को रजिस्टर कराने के लिए जानकारी प्राप्त करने के लिए वैबसाइट बताओ।
उत्तर-
www. plantauthority. gov.in

प्रश्न 9.
सूक्ष्म कृषि का सिद्धान्त कौन-से किसानों के लिए लागू होता है ?
उत्तर-
छोटे और बड़े किसानों दोनों के लिए।

प्रश्न 10.
विकसित देशों में कौन-से यंत्र की सहायता से सही मात्रा में खाद डाली जाती है ?
उत्तर-
नाइट्रोजन सैंसर यंत्र।

प्रश्न 11.
विकसित देशों में किस तकनीक की सहायता से खेतों को मापा जाता
उत्तर-
जी० पी० एस० तकनीक के साथ।

प्रश्न 12.
धान के खेत में लंबे समय तक पानी खड़ा रहने से कौन-सी गैस पैदा होती है ?
उत्तर-
मीथेन गैस।

प्रश्न 13.
नाइट्रोजन की खाद के अधिक प्रयोग के कारण कौन-सी ग्रीन हाऊस गैस पैदा होती है ?
उत्तर-
नाइट्रोजन ऑक्साइड।

प्रश्न 14.
रात के तापमान में वृद्धि के कारण फ़सलों की पैदावार पर क्या असर पड़ता है ?
उत्तर-
पैदावार कम हो सकती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बालगार्ड-2 की कौन-सी किस्में हैं ?
उत्तर-
एम० आर० सी० 7017, एम० आर० सी०-7031, आर० सी० एच०-650, एन० सी० एस०-855 आदि बालगार्ड-2 की किस्में हैं।

प्रश्न 2.
PPV तथा FR एक्ट के अनुसार कौन-सी फसलों को रजिस्टार करवाया जा सकता है ?
उत्तर-
इस एक्ट के अनुसार ज्वार, मक्की , बाजरा, गेहूं, धान, गन्ना, कपास, मटर, अरहर, मसर, हल्दी, चने आदि फ़सलों को रजिस्टर करवाया जा सकता है।

प्रश्न 3.
PPV तथा FR एक्ट के अनुसार कौन-सी फसलों की रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकती ?
उत्तर-
ऐसी कोई भी किस्म जो मनुष्य के स्वास्थ्य, वातावरण या पौधों के लिए हानिकारक हो। टर्मीनेटर तकनीक वाली किस्मों को भी रजिस्टर नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 4.
टर्मीनेटर तकनीक किस्मों द्वारा पैदा की गई किस्मों को रजिस्टर क्यों नहीं करवाया जा सकता ?
उत्तर-
टर्मीनेटर तकनीक के साथ तैयार की गई बीजों की फसल के बीज में उगने की शक्ति नहीं होती है।

प्रश्न 5.
PPV तथा FR एक्ट के उल्लंघन की सजा के बारे में बताओ।
उत्तर-
गलत जानकारी देना जैसे रजिस्ट्रर्ड किस्म का गलत नाम, देश का गलत नाम या प्रजनन करता का गलत नाम और पता देने से एक्ट का उल्लंघन होता है। इसकी सजा के तौर पर जेल, जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।

प्रश्न 6.
सूक्ष्म कृषि का स्पष्ट संदेश क्या है ?
उत्तर-
सूक्ष्म कृषि का स्पष्ट संदेश यह है कि खेत के किसी भाग में क्या कमी है, इसको जाने बगैर केवल अधिक खादों का प्रयोग करके इन कमियों को पूरा नहीं किया जा सकता।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न-
ग्रीन हाऊस गैसों और ग्रीन हाऊस के सिद्धांत के बारे में बताओ। धरती के लिए इसका संबंध बताओ।
उत्तर-
ग्रीन हाऊस गैसें हैं-कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मीथेन आदि।
शीशे या प्लास्टिक के बने घरों को जिनके अंदर पौधे उगाए जाते हैं, इनको हरे घर कहा जाता है। शीशे या प्लास्टिक में सूरज की किरणें अंदर तो आ जाती हैं पर अंदर से इनफ्रारेड किरणे बाहर नहीं निकल सकतीं, इस तरह शीशे या प्लास्टिक के घर में गर्मी बढ़ जाती है और तापमान अधिक हो जाता है।
ग्रीन हाऊस गैसों ने शीशे की तरह धरती को सभी तरफ से घेरा हुआ है और सूरज की गर्मी को धरती पर आने देती हैं पर धरती से बाहर नहीं जाने देती जिससे धरती का तापमान बढ़ जाता है जिसको ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। धरती का तापमान बढ़ने के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जैसे-बाढ़ों में वृद्धि, सूखा पड़ना, मानसून के समय में अंतर आना आदि।

कुछ नए कृषि विषय PSEB 11th Class Agriculture Notes

  • आदिकाल से ही मनुष्य कृषि का व्यवसाय करता आ रहा है।
  • नई तकनीकों का प्रयोग करके किसी ओर फ़सल या जीव जंतु का जीन किसी फ़सल में डाल कर इसको संशोधित जाता है।
  • जीन डाल कर संशोधित फ़सल को जी० एम० या ट्रांसजीनक फ़सलें कहा जाता है।
  • बी० टी० का अर्थ बैसिलस थुरिजैनिसस नाम के बैक्टीरिया से है।
  • बी० टी० नरमे (कपास) में एक रवेदार प्रोटीन पैदा होता है जिसको खाकर – सुंडियां मर जाती हैं।
  • बी० टी० नरमे (कपास) की बोलगार्ड-1 किस्म में सिर्फ एक बी० टी० जीन डाला गया था पर बोलगार्ड-2 में दो बी० टी० जीन डाले गए हैं।
  • बी० टी० नरमे की किस्म से पैदावार पाँच क्विंटल कपास प्रति एकड़ से भी ज्यादा मिलता है।
  • बी० टी० किस्मों के प्रयोग के कारण कीटनाशकों के प्रयोग पर भी रोक लगी
  • बैंगन, सोयाबीन, मक्की, चावल आदि की भी जी० एम० फ़सलें तैयार की जा चुकी हैं।
  • कई संस्थाएं जी० एम० फसलों को मनुष्यों के स्वास्थ्य, वातावरण, फ़सलों की । प्रजातियाँ तथा अन्य पौधों के लिए हानिकारक मानते है और इसका विरोध करते हैं।
  • किसानों के अधिकार और पौधे किस्मों के संबंध में 2001 में भारत सरकार ने पौध किस्म और किसान अधिकार सुरक्षा एक्ट पास किया।
  • फ़सली किस्मों की रजिस्ट्रेशन की सीमा शुरू में 6 वर्ष और बाद में अर्जी दे कर सीमा ज्यादा-से-ज्यादा 15 साल तक बढ़ायी जा सकती है।
  • वृक्ष और बेलदार वाली फ़सलों का समय पहले 9 साल तथा बढ़ा कर 18 साल तक हो सकता है।
  • रजिस्ट्रेशन की जानकारी वैबसाइट www. plantauthority. gov.in से प्राप्त हो सकती है।
  • विकसित देशों में सूक्ष्म कृषि के लिए सैंसरज, जी० पी० एस०, अंतरिक्ष ) तकनीकों आदि का प्रयोग किया जाता है।
  • विकसित देशों में नाइट्रोजन सैंसर यंत्रों के प्रयोग से खाद की सही मात्रा का प्रयोग किया जाता है।
  • लेज़र कराहा और टैंशीयोमीटर के प्रयोग से हम पानी की बचत कर सकते हैं।
  • कई विकसित देशों में जी० पी० एस० तकनीक के प्रयोग से खेतों को नापा जाता है।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले सौ सालों में ग्लोबल वार्मिंग हुई है और धरती की सतह पर तापमान 0.5°C बढ़ गया है।
  • ग्रीन हाऊस गैसें हैं-कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रसऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मिथेन आदि।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

Punjab State Board PSEB 11th Class Physical Education Book Solutions ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules.

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules – PSEB 11th Class Physical Education

खेल सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण जानकारी: (Important Information Related Athletics)

  1. ऐथलैटिक्स प्रतियोगिताओं में कोई भी खिलाड़ी नशीली चीज़ों या दवाइयों का प्रयोग करके भाग नहीं ले सकता।
  2. जो खिलाड़ी अन्य खिलाड़ियों के लिए किसी प्रकार की बाधा प्रस्तुत करे, उसे अयोग्य घोषित किया जाता है। जो खिलाड़ी दौड़ते हुए अपनी इच्छा से ट्रैक को छोड़ता है, वह पुन: दौड़ जारी नहीं कर सकता।
  3. फील्ड इवेंट्स में दो तरह के इवेंट्स आते हैं-जम्पिंग इवेंट्स और थ्रो इवैंट्स। ट्रैक इवेंट्स में वह दौड़ आती हैं जो ट्रैक में दौड़ी जाती हैं।
  4. 200 मीटर ट्रैक की लम्बाई 40 मीटर तथा चौड़ाई 38.18 मीटर होती है, 400 मीटर ट्रैक की लम्बाई 77 मीटर तथा चौड़ाई 67 मीटर होती है।
  5. जैवलिन थ्रो का भार 805 से 825 ग्राम होता है और लड़कियों के लिए चौड़ाई 605 से 620 ग्राम तक होता है। डिसक्स का भार लड़कों के लिए 2 कि० ग्राम होता है। गोला, हैमर या डिसक्स थ्रो के समय यह आवश्यक है कि 40° के सैक्टर में लैंड करे। गोला फेंकने का भार 7 किलोग्राम निश्चित किया गया है।

PSEB 11th Class Physical Education Guide ऐथलैटिक्स (Athletics) Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
ऐथलैटिक्स इवेंटस को कितने भागों में बांटा गया है ?
उत्तर-
ऐथलैटिक्स इवेंटस को दो भागों में बांटा जाता है-ट्रेक इवेंटस और फील्ड इवैंटस।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
ऐथलैटिक्स में ट्रैक इवेंटस कौन-कौन से होते हैं ?
उत्तर-

  1. छोटी दूरी वाली दौड़ें,
  2. बीच की दूरी वाली दौड़ें,
  3. लम्बी दूरी वाली दौड़ें।

प्रश्न 3.
ऐथलैटिक्स में पुरुषों के लिये जैवलिन का भार कितना होता है ?
उत्तर-
800 ग्राम।

प्रश्न 4.
ऐथलैटिक्स में पुरुषों के लिए डिसकस का घेरा लिखें।
उत्तर-
219 से 221 मिलीमीटर।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 5.
ऐथलैटिक्स में हैमर थ्रो के कोई पांच नियम लिखें।
उत्तर-

  1. हैमर थ्रो में एथलीट को थ्रो के लिये तीन अवसर दिए जाते हैं।
  2. सबसे अधिक दूरी पर फैंकने वाले को विजयी घोषित किया जाता है।
  3. हैमर थ्रो में हैमर थ्रो पूरा करने के लिए 1.30 मिनट का समय दिया जाता है।
  4. हैमर मार्क सेक्टर में ही गिरना चाहिए अन्यथा थ्रो अयोग्य मानी जाएगी।
  5. हैमर को फेंकते हुए हैमर को चक्कर के अन्दर ही रखा जा सकता है।

प्रश्न 6.
ऐथलैटिक्स में थ्रोइंग इवेंटस कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर-

  1. गोला फेंकना,
  2. हैमर थ्रो,
  3. जैवलिन थ्रो,
  4. डिस्कस थ्रो।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

Physical Education Guide for Class 11 PSEB ऐथलैटिक्स (Athletics) Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
ऐथलैटिक्स प्रतियोगिता करवाने के लिए कौन-कौन से अधिकारियों की आवश्यकता होती है ?
उत्तर-
ऐथलैटिक्स प्रतियोगिता करवाने के लिए आगे लिखे अधिकारियों की आवश्यकता होती है—
ऐथलैटिक्स के लिए अधिकारी
(Officials for the meet)

  1. रैफ़री ट्रैक के लिए (Referee for Track Events)
  2. रैफ़री फील्ड इवेंट्स के लिए (Referee for Field Events)
  3. रैफ़री वाकिंग इवेंट्स (Referee for Walking Events)
  4. जज ट्रैक इवेंट्स (Judge for Track Events)
  5. जज फील्ड इवैंट्स (Judge for Field Events)
  6. जज वाकिंग इवेंट्स (Judge for Events)
  7. अम्पायर (Umpire)
  8. टाइम कीपर (Time Keeper)
  9. स्टार्टर (Starter)
  10. सहायक र्टाटर (Asst. Starter)
  11. मार्क मैन (Markman)
  12. लैप स्कोरर (Lap Scorer)
  13. रिकॉर्डर (Recorder)
  14. मार्शल (Marshall)

दूसरे अधिकारी
(Additional Officials)

  1. अनाउंसर (Announcer)
  2. आफिशल सर्वेयर (Official Surveyer)
  3. डॉक्टर (Doctor)
  4. सटुअरडज़ (Stewards)

ट्रैक इवेंट्स पुरुषों के लिए

  • 100 — मीटर रेस
  • 200 — मीटर रेस
  • 400 — मीटर रेस
  • 800 — मीटर रेस
  • 1500 — मीटर रेस
  • 3,000 — मीटर दौड़
  • 5,000 — मीटर दौड़
  • 10,000 — मीटर दौड़
  • 42,195 — मीटर या 26 मील दौड
  • 3,000 — मीटर स्टीपल चेज़
  • 20,000 — मीटर वाकिंग
  • 30,000 — मीटर वाकिंग
  • 50,000 — मीटर वाकिंग

महिलाओं के लिए ट्रैक इवेंट्स

  • 100 — मीटर रेस
  • 200 — मीटर रेस
  • 400 — मीटर रेस
  • 800 — मीटर रेस
  • 1500 — मीटर रेस

हर्डल दौड़ें पुरुषों के लिए

  • 110 — मीटर हर्डल दौड़
  • 200 — मीटर हर्डल दौड़
  • 400 — मीटर हर्डल दौड़

महिलाओं के लिए हर्डल दौड़

  • 100 — मीटर हर्डल दौड़
  • 200 — मीटर हर्डल दौड़

रीले दौड़ें पुरुषों के लिए

  • 4 × 100 — मीटर
  • 4 × 200 — मीटर
  • 4 × 400 — मीटर
  • 4 × 800 — मीटर
  • 4 × 1500 — मीटर

महिलाओं के लिए रिले दौड़

  • 4 × 100 — मीटर
  • 4 × 200 — मीटर
  • 4 × 400 मीटर

मैडल रिले रेस

  • 800 × 200 × 200 × 400

6. 110 मीटर हर्डल्ज लड़कों के लिए हर्डलों की ऊंचाई 1.06 मीटर होती है। जूनियर लड़कियों के लिए 1.00 मीटर हर्डल्ज़ की ऊंचाई, 0.76 मीटर और सीनियर लड़कियों के लिए 0.89 मीटर होती है।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 2.
ट्रैक इवेंट्स के लिए एथलीटों के लिए निर्धारित नियमों के बारे लिखें।
उत्तर-
ट्रैक इवेंटस के लिये एथलीटों के लिए निर्धारित नियम इस प्रकार हैं—

  1. एथलीट ऐसे वस्त्र पहने जो किसी किस्म के आपत्तिजनक न हों और वह साफ-सुथरे भी हों।
  2. कोई भी एथलीट नंगे पांव नहीं दौड़ सकता।
  3. यदि कोई खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ी के लिये किसी तरह की रुकावट पैदा करता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
  4. प्रत्येक खिलाड़ी को अपने आगे तथा पीछे स्पष्ट रूप में नम्बर लगाने चाहिए।
  5. लाइनों (Lines) में दौड़ी जाने वाली दौड़ों में खिलाड़ी को शुरू से अंत तक अपनी लाइन में ही रहना होगा।
  6. यदि कोई खिलाड़ी जान-बूझ कर अपनी लेन में से बाहर दौड़ता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जाता है।
  7. यदि खिलाड़ी अपनी मर्जी से ट्रैक को छोड़ता है तो उसको दोबारा दौड़ जारी रखने का अधिकार नहीं।
  8. खिलाड़ी को नशीली वस्तुओं तथा दवाइयों का प्रयोग करने की आज्ञा नहीं होगी और न ही खेलते समय इसको अपने पास रख सकता है।
  9. यदि ट्रैक तथा फील्ड दोनों इटस एक ही साथ शुरू हो चुके हों तो जज इसको अलग-अलग ढंगों से भाग लेने की आज्ञा दे सकता है।
  10. 800 मीटर दौड़ का स्टार्टर अपनी भाषा में कहेगा “On your marks” पिस्तौल चला दिया जाता है तथा खिलाड़ी दौड़ पड़ते हैं। 800 मीटर से अधिक दौड़ों में केवल “On your marks’शब्द कहे जाएंगे तथा फिर तैयार होने पर पिस्तौल चला दिया जाएगा।
  11. खिलाड़ी को “On your marks” की स्थिति में अपने सामने वाली ग्राऊंड पर आरम्भ रेखा (Start Line) को हाथों अथवा पैरों द्वारा छूना नहीं चाहिए।
  12. यदि कोई एथलीट दो बार फाऊल स्टार्ट लेता है तो उसको दौड़ से बाहर निकाल दिया जाता है।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 3.
ट्रैक इवेंट्स में कितने इवेंट्स होते हैं ?
उत्तर-
ऐथलैटिक्स दो प्रकार की होती है-Track Events और Field Events । भाव कुछ एथलीट Track Events में भाग लेते हैं और कुछ Field Events में।
ट्रैक इवेंट्स में छोटी दौड़ें (Sprint or Short Distance Races), मध्य दूरी वाली दौड़ें (Middle Distance Races) और लम्बी दौड़ें (Long Distance Races) आती हैं। फील्ड इवेंट्स में कूदने वाली इवेंट्स जैसे लम्बी छलांग (Long Jump), ऊंची छलांग (High Jump), पोल वाल्ट जम्प (Pole Vault Jump) और ट्रिपल्ल जम्प (Triple Jump) और फेंकने वाले इवेंट्स जैसे गोला फेंकना (Short put or Putting the Shot), पाथी फेंकना (Discuss : Throw), भाला फेंकना (Javelin Throw) और हैमर फैंकना (Hammer Throw) आदि सम्मिलित हैं।

ट्रैक
(TRACK)
ट्रैक दो प्रकार के होते हैं-एक 400 मीटर वाला ट्रैक और दूसरा 200 मीटर का ट्रैक। Standard ट्रैक का नाम 400 मीटर वाले ट्रैक को ही दिया जा सकता है। इस ट्रैक में कम-से-कम 6 लेन (Lanes) और अधिक-से-अधिक 8 लेन (Lanes) होती हैं।
Track Events Races : Short Middle and Long
SPRINTING
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 1
स्प्रिंटिंग (Sprinting) स्प्रिंट वह रेस होती है जो प्रायः पूरी शक्ति और पूरी गति से दौड़ी जाती है। इसमें 100 मीटर और 200 मीटर की दौड़ें आती हैं। आजकल तो 400 मीटर रेस को भी इसमें गिना जाने लगा है। इस प्रकार की दौड़ों में प्रतिक्रिया (Reaction), टाइम और गति (Speed) का बहुत महत्त्व है।
(1) स्टार्ट्स (Starts) कम दूरी की दौड़ों में प्राय: निम्नलिखित प्रकार के तीन स्टार्ट लिये जाते हैं—

  1. बंच स्टार्ट (Bunch Start)
  2. मीडियम स्टार्ट (Medium Start)
  3. इलोंगेटेड स्टार्ट (Elongated Start)

बंच स्टार्ट (Bunch Start)-इस प्रकार के स्टार्ट के लिए ब्लाकों के बीच दूरी 8 इंच से 10 इंच के बीच होनी चाहिए और आगे वाला स्टार्ट स्टार्टिंग लाइन से लगभग 19 इंच के करीब होना चाहिए। एथलीट इस प्रकार ब्लाक में आगे को झुकता है कि पिछले पांव की टो और अगले पांव की एड़ी एक-दूसरे के समान स्थित हों। हाथ स्टार्टिंग लाइन पर ब्रिज बनाए हुए हों और स्टार्टिंग लाइन से पीछे हों। इस प्रकार के स्टार्ट में जब Set Position का आदेश होता है, Hips को ऊंचा ले जाया जाता है। यह स्टार्ट सबसे अधिक अस्थिर होता है।

मीडियम स्टार्ट (Medium Start) इस प्रकार के स्टार्ट में ब्लाकों के बीच की दूरी 10 से 13 इंच के बीच होती है और स्टार्टिंग लाइन से पहले ब्लाक की दूरी लगभग 15 इंच के बीच होती है। प्रायः एथलीट इस प्रकार के स्टार्ट का प्रयोग करते हैं। इसमें पिछले पांव का घुटना और अगले पांव का बीच वाला भाग एक सीध में होते हैं और Set Position पर Hips तथा कंधे लगभग एक-सी ऊंचाई पर ही होते हैं।

इलोंगेटेड स्टार्ट (Elongated Start)-इस प्रकार का स्टार्ट बहुत कम लोग लेते हैं। इसमें ब्लाकों (Starting Block) के बीच की दूरी 25 से 28 इंच के बीच होती है। पिछले पांव का घुटना लगभग अगले पांव की एड़ी के सामने होता है।
स्टार्ट लेना (Start)—जब किसी भी रेस के लिए स्टार्ट लिया जाता है तो तीन प्रकार के आदेशों पर कार्य करना पड़ता है।

  1. आन यूअर मार्क (On Your Mark)
  2. सैट पोजीशन (Set Position)
  3. पिस्तौल की आवाज़ पर जाना (Go)

दौड़ का अन्त (Finish of the Race)-दौड़ का अन्त बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। आमतौर पर खिलाड़ी तीन प्रकार से दौड़ को समाप्त करते हैं। ये इस प्रकार हैं—

  1. दौड़ कर सीधा आगे निकल जाना (Run Through)
  2. आगे को झुकना (Lunge)
  3. कन्धा आगे करना (The shoulders String)

मध्यम दूरी की दौड़ें (Middle Distance Races)—ट्रैक इवेंटों में कुछ दौड़ें मध्यम दूरी की होती हैं। आमतौर पर उन दौड़ों को, जो 400 गज़ के ऊपर और 1000 गज़ से नीचे की होती हैं, इस श्रेणी में गिना जाता है। ये दौडें 400 मीटर और 800 मीटर की होती हैं। इन दौड़ों में गति और सहनशीलता दोनों की आवश्यकता होती है, और वही एथलीट इसमें सफल होता है जिसके पास ये दोनों चीजें हों। इस प्रकार की दौड़ों में आमतौर पर एक-जैसी गति बनाए रखी जाती है और अन्त में पूरा जोर लगा कर दौड़ को जीता जाता है। 400 मीटर का स्टार्ट तो स्प्रिंग की तरह ही लिया जाता है जबकि 800 मीटर का स्टार्ट केवल खड़े होकर ही लिया जा सकता है। जहां तक हो सके इस दौड़ में कदम (Strides) बड़े होने चाहिएं।

लम्बी दूरी की दौड़ें (Long Distance Races)-लम्बी दूरी की दौड़ों जैसे कि नाम से ही मालूम होता है, दूरी बहुत अधिक होती है और प्रायः ये दौड़ें एक मील से ऊपर की होती हैं। 1500 मीटर, 3000 मीटर और 5000 मीटर दूरी वाली दौड़ें लम्बी दूरी वाली रेसें हैं। इनमें एथलीट की सहनशीलता (Endurance) का अधिक योगदान है। लम्बी दूरी की दौड़ों में एथलीट को अपनी शक्ति और सामर्थ्य का प्रयोग एक योजनाबद्ध ढंग से करना होता है और जो एथलीट इस कला को प्राप्त कर जाते हैं वे लम्बी दूरी की दौड़ों में सफल हो जाते हैं।

इस प्रकार की दौड़ों में दौड़ के आरम्भ को छोड़ कर सारी दौड़ में एथलीट का शरीर सीधा और आगे की और कुछ झुका रहता है तथा सिर सीधा रखते हुए ध्यान ट्रैक की ओर रखा जाता है। बाजू ढीली सी आगे की ओर लटकी होती है जबकि कोहनियों के पास से बाजू मुड़े होते हैं और हाथ बिना किसी तनाव के थोड़े से बन्द होते हैं। बाजू और टांगों के एक्शन जहां तक हो सके बिना किसी अधिक शक्ति व प्रयत्न के होने चाहिएं। दौड़ते समय पांव का आगे वाला भाग धरती पर आना चाहिए और एड़ी भी मैदान को छूती है, परन्तु अधिक पुश (Push) टो से ही ली जाती है। इस प्रकार की दौड़ों में कदम (Strides) छोटे और अपने आप बिना अधिक बढ़ाए होने चाहिएं। सारी दौड़ में शरीर बहुत Relaxed होना चाहिए।
इस प्रकार की दौड़ को समाप्त करते समय शरीर में इतना बल (Stamina) और गति होनी चाहिए कि एथलीट अपनी रेस को लगभग फिनिश लाइन से पांच-सात गज़ आगे तक समाप्त करने का इरादा रखे तो ही अच्छे परिणामों की आशा की जा सकती है।
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ट्रैक इवेंट्स में 100, 200, 400 तथा 800 मीटर तक की दौड़ आती है।

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प्रश्न 4.
200 मीटर और 400 मीटर के ट्रैक की चित्र के साथ बनावट लिखें।
उत्तर-
200 मीटर के ट्रैक की बनावट
(Track for 200 Metre)
200 मीटर के ट्रैक की लम्बाई 94 मीटर तथा चौड़ाई 53 मीटर होती है। इसकी बनावट का विवरण नीचे दिया गया है—
ट्रैक की कुल दूरी = 200 मीटर
दिशाओं की लम्बाई = 40 मीटर दिशाओं
द्वारा रोकी गई दूरी = 40 × 2 = 80 मीटर
कोनों में रोकी जाने वाली दूरी = 120 मीटर
व्यास 120 मीटर ÷ 2r = 19.09 मीटर
दौड़ने वाली दूरी का व्यास = 19.09 मीटर
प्रतिफल मार्किंग व्यास = 18.79 मीटर
1.22 मीटर (4 फुट) चौड़ी लाइनों के लिए स्टैगर्ज
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लेन मीटर
पहली 0.00
दूसरी 3.52
तीसरी 7.35
चौथी 11.19
पांचवीं 15.02
छठी 18.86
सातवीं 26.52
आठवीं 26.52

400 मीटर ट्रैक की बनावट

कम-से-कम माप = 170.40 × 90.40 मीटर
ट्रैक की कुल दूरी = 600 मीटर
सीधी लम्बाई = 80 मीटर
दोनों दिशाओं की दूरी = 80 × 2 = 160 मीटर
वक्रों (Curves) की दूरी = 240 मीटर
व्यास 240 मीटर : 2r = 38.18 मीटर
छोड़ने वाली दूरी का अर्द्धव्यास = 38.18 मीटर
मार्किंग अर्द्धव्यास = 37.88 मीटर
(i) 400 मीटर लेन [चौड़ाई 1.22 (4 फुट)] के लिए स्टैगर्ज

लेन मीटर
पहली 0.00
दूसरी 7.04
तीसरी 14.71
चौथी 22.38
पांचवीं 30.05
छठी 37.72
सातवीं 45.39
आठवीं 53.06

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प्रश्न 5.
हर्डल दौड़ों के विषय में आप संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
100 मीटर बाधा महिला दौड़
(100 Metre Women Hurdle)
100 मी० बाधा दौड 1968 से प्रारम्भ की गई है। सामान्यतः महिला धाविका 13 मीटर दूर स्थित प्रथम बाधा तक की दूरी 8 डगों में पूरी कर लेती है। उछाल 1.95 मीटर से लेकर बाधा को पार कर 11 मीटर की दूरी पर उनके ये डग पूरे होते हैं। बाधा के बीच तीन डग पूरे करने पर पुनः उछाल 200 मी० की दूरी से लिया जाता है। इस प्रकार वे 8.50 मी० की दूरी तय करती है।

बाधा पार करते समय महिला धाविकाओं को अपने शरीर के ऊपरी भाग को आगे की ओर अधिक नहीं झुकाना चाहिए और न ही उछाल के समय अपने घुटने को अधिक ऊंचा उठाना चाहिए। बाधा को पार करने की विधि वही अपनानी चाहिए जो 400 मी० हर्डल में अपनायी जाती है।
भिन्न-भिन्न प्रतियोगिता के लिए हर्डल की गिनती, ऊंचाई और दूरी निम्नलिखित हैं—
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110 मीटर बाधा दौड़
(110 Metre Hurdle Race)
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सामान्यत: बाधा दौड़ के धावक (Runner) पहली बाधा तक पहुंचने में 8 कदम लेते हैं। प्रारम्भ स्थल (Starting Block) पर बैठते समय अधिक शक्ति वाले पैर (Take off Foot) को आगे रखा जाता है। धावक यदि लम्बा है और अधिक तेज़ दौड़ सकने की क्षमता रखता है तो उस स्थिति में यह दूरी उसके लिए कम पड़ सकती है। उस दशा में थोड़ा अन्तर होने पर प्रारम्भ स्थल की दूरी के बीच की दूरी कम करके तालमेल बैठाने का प्रयास होना चाहिए, किन्तु ऐसा करने पर | यदि धावक असुविधा अनुभव करता है तो बाधा को मात्र कदमों में ही पार कर लेना चाहिए। ऐसी स्थिति में शक्तिशाली पैर पीछे के स्थल (Block) पर रख कर धावक दौड़ेगा। अत: शक्तिशाली पैर बाधा से लगभग 2 मीटर पीछे आयेगा। आरम्भ में धावक को उसे 5 कदम तक अपनी दृष्टि नीचे रखनी चाहिए और बाद में हर्डल पर ही दृष्टि केन्द्रित होनी चाहिए। आरम्भ से अन्त तक कदमों के बीच का अन्तर निरन्तर बढ़ता ही जायेगा। किन्तु अन्तिम कदम उछाल कदम से लगभग 6 इंच (10 सैं० मी०) छोटा ही रहेगा। सामान्य दौड़ों की तुलना में बाधा दौड़ में दौड़ते समय धावक के घुटने अपेक्षाकृत अधिक ऊपर आयेंगे और जमीन पर पूरा पैर न रख कर केवल पैर के अगले भाग (पंजों) को ही रखना चाहिए।
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बाधा को पार करते समय उछाल पैर को सीधा रखना चाहिए तथा आगे के पैर को घुटने से ऊपर उठाना चाहिए। पैर का पंजा जमीन की ओर नीचे की ओर झुका हुआ रखना चाहिए, आगे के पैर को एक साथ सीधा करते हुए बाधा के ऊपर से लाना चाहिए, और शरीर का ऊपर का भाग आगे की ओर झुका हुआ रखना चाहिए। हर्डिल को पार करते ही अगले पैर की जांघ को नीचे दबाते रहना चाहिए कि जिस से बाधा पार हो जाने के बाद पंजा बाधा से अधिक दूरी पर न पड़ कर उसके पास ही ज़मीन पर पड़े। इसके साथ ही पीछे के पैर को घुटने से झुका कर बाधा के ऊपर से ज़मीन के समानान्तर रख कर घुटने को सीने के पास से आगे लाना चाहिए। इस प्रकार पैर आगे आते ही धावक तेज़ दौड़ने के लिए तत्पर रहेगा।

बाधा पार करने के उपरान्त पहला डग (कदम) 1.55 से 1.60 मीटर की दूरी पर, दूसरा 2.10 मीटर का तथा तीसरा . लगभग 2.20 मीटर के अन्तर पर पड़ना चाहिए। (13.72 मी०, 9.14 मी०, 14.20 मी०)
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400 मीटर बाधा (परुष तथा महिला)
(400 Metres Hurdles Men and Women)
सामान्यतः धावक को इस दौड़ में सर्वाधिक असुविधा अपने डगों के बीच तालमेल बैठाने में होती है। प्रारम्भ में प्रथम बाधा के बीच की दूरी को लोग सामान्यतः 21 से 23 डगों में पूरा कर लेते हैं और बाधा के बीच में 13-15 अथवा 17 डग रखते हैं। कुछ धावक प्रारम्भ में 14 और बाद में 16 कदमों में इस दूरी को पूरा कर लेते हैं। दाहिने पैर से उछाल लेने से लाभ होने की अधिक सम्भावना होती है। सामान्यतः उछाल 2.00 मीटर से लिया जाता है और पहला डग बाधा को पार कर जो ज़मीन पर पड़ता है, वह 1.20 मीटर का होता है। इसकी तकनीक 110 व 100 मीटर बाधाओं की ही भान्ति होती है। 400 मीटर दौड़ के समय से (सैकण्ड) 2-5 से 3-5 से 400 मीटर बाधा का समय अधिक आता है। 200 मीटर तथा प्रथम (220-2-5 से) = 25-5 से हर्डिल का समय।
200 मीटर दूसरा भाग (24-5-3-0 से) – 27-5 से = 52-00 में 400 मीटर हिडिल का समय।
अभ्यास के समय प्रत्येक हर्डिल पर समय लेकर पूरी दौड़ का समय निकालने की विधि।

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प्रश्न 6.
फील्ड इवेंट्स में कौन-कौन से इवेंट्स होते हैं ? संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
लम्बी कूद
(Long Jump)

  1. रनवे की लम्बाई = 40 मीटर से 45 मीटर
  2. रनवे की चौड़ाई = 1.22 मीटर
  3. पिट की लम्बाई = 10 मीटर
  4. पिट की चौड़ाई = 2.75 से 3 मीटर
  5. टेक ऑफ बोर्ड की लम्बाई = 1.22 मीटर
  6. टेक ऑफ बोर्ड की चौड़ाई = 20 सैंटी मीटर
  7. टेक ऑफ बोर्ड की गहराई = 10 सैंटी मीटर।

लम्बी कूद की विधि
(Method of Long Jump)
1. कूदने वाले पैर को मालूम करने के लिए लम्बी कूद में उसी प्रकार से करेंगे जैसे ऊंची कूद में किया गया था।
सर्वप्रथम कूदने वाले पैर को आगे सीधा रखेंगे और स्वतन्त्र पैर को इसके पीछे। यदि आप का कूदने वाला पैर बायां है तो बाएं पैर को आगे और दायें पैर को पीछे रख कर दायें घुटने से झुका कर ऊपर की ओर ले जायेंगे। और इसके साथ ही दायें हाथ को कुहनी से झुका कर रखेंगे। विधि उसी प्रकार से होगी जैसे कि तेज दौड़ने वाले करते हैं।
इस क्रिया को पहले खड़े होकर और बाद में चार-पांच कदम चल कर करेंगे। जब यह क्रिया ठीक प्रकार से होने लगे तब थोड़ा दौड़ते हुए यही क्रिया करनी चाहिए। इस समय ऊपर जाते समय ज़मीन को छोड़ देना चाहिए।
Long Jump
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2. छः या सात कदम दौड़ कर आगे आयेंगे और ऊपर जा कर कूदने वाले पैर पर ही नीचे ज़मीन पर आयेंगे। इसमें शरीर का भाग सीधा रहेगा जैसे कि ऊंची कूद में रहता है।
अगले स्वतन्त्र पैर जमीन पर आयेंगे। इस क्रिया को कई बार दुहराने के बाद ज़मीन पर आते समय कूदने वाले पैर को भी स्वतन्त्र पैर के साथ ही ज़मीन पर ले आएंगे।

3. ऊपर की क्रिया को कई बार करने के पश्चात् एक रूमाल लकड़ी में बांध कर कूदने वाले स्थान से थोड़ी ऊंचाई पर लगाएंगे और कूदने वाले बालकों को रूमाल को छूने को कहेंगे। ऐसा करने से एथलीट (Athlete) ऊपर जाना तथा शरीर के ऊपरी भाग को सीधा रखना सीख जाएगा।

अखाड़े में गिरने की विधि (लैंडिंग)
(Method of Landing)
1. दोनों पैरों को एक साथ करके एथलीट पिट (Pit) के किनारे पर खड़े हो जाएंगे। भुजाओं को आगे-पीछे की ओर हिलाएंगे और (Swing) करेंगे। साथ में घुटने भी झुकाएंगे और भुजाओं को एक साथ पीछे ले जाएंगे।

इसके पश्चात् घुटने को थोड़ा अधिक झुका कर भुजाओं को तेजी के साथ आगे और ऊपर की ओर ले जाएंगे और दोनों पैरों के साथ अखाड़े (Pit) में जम्प करेंगे। इस समय इस बात का ध्यान रहे कि पैर गिरते समय जहां तक सम्भव हो, सीधे रखने चाहिएं और इसके साथ ही पुट्ठों को आगे धकेलना चाहिए जिससे कि शरीर में पीछे झुकाव (Arc) बन सके जो कि हैंग स्टाइल (Hang Style) के लिए बहुत ही आवश्यक है।

2. एथलीट्स (Athletes) को सात कदम कूदने को कहेंगे। कूदते समय स्वतन्त्र पैर के घुटने को हिप (Hip) के बराबर लाएंगे। जैसे ही एथलीट (Athlete) हवा में थोड़ी ऊंचाई लेगा, स्वतन्त्र पैर को पीछे की ओर तथा नीचे की ओर लाएंगे जिससे वह कूदने वाले पैर के साथ मिल सके। कूदने वाला पैर घुटने से जुड़ा होगा और शरीर का ऊपरी भाग सीधा होगा। दोनों भुजाओं को पीछे की और तथा ऊपर की ओर गोलाई में ले जाएंगे। जब खिलाड़ी हवा में ऊंचाई लेता है, उस समय उसके दोनों घुटनों से झुके हुए पैर जांघ की सीध में होंगे। दोनों भुजाएं सिर की बगल में ओर ऊपर की ओर होंगी। शरीर पीछे की ओर गिरती हुई दशा में होगा तथा जैसे ही एथलीट्स (Athletes) अखाड़े (Pit) में गिरने को होंगे, वे स्वतन्त्र पैर घुटने से झुका कर आगे को तथा ऊपर को ले जाएंगे, पेट के नीचे की ओर लाएंगे तथा पैरों को,सीधा करके ऊपर की दशा में हवा में रोकने का प्रयास करेंगे।
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हिच किक की विधि
(Method of Hitch Kick)
1. जम्प करने के पश्चात् Split हवा में, पैरों को आगे-पीछे करके, स्वतन्त्र पैर पर लैंडिंग (Landing) करना, परन्तु ऊपरी भाग तथा सिर सीधा रहेगा, पीछे की ओर नहीं आएगा।

2. इस बार हवा में स्वतन्त्र पैर को रखेंगे और कूदने वाले पैर को आगे ले जाकर लैंडिंग (Landing) करेंगे।

3. अन्य सभी विधियां उसी प्रकार से होंगी जैसे कि ऊपर बताया गया है। केवल स्वतन्त्र पैर को लैंडिंग (Landing) करते समय टेक ऑफ पैर के साथ ले जाएंगे और दोनों पैरों पर एक साथ ज़मीन पर आएंगे। अन्य सभी शेष विधियां उसी प्रकार से होंगी जैसे कि हैंग (Hang) में दर्शाया गया है। एथलीट्स (Athletes) को दौड़ने का पथ (Approach run) धीरे-धीरे बढ़ाते रहना चाहिए।

4. ऊपर की क्रिया को कई बार करने के पश्चात् इस क्रिया को स्प्रिंग बोर्ड (Spring Board) की सहायता से करना चाहिए जैसा कि जिमनास्टिक (Gymnastic) वाले करते हैं। स्प्रिंग बोर्ड (Spring-Board) के अभाव में इस क्रिया को किसी अन्य ऊंचे स्थान से भी किया जा सकता है जिससे एथलीट्स को हवा में सही क्रिया विधि करने का अभ्यास हो जाए।

ट्रिपल जम्प
(Triple Jump)
अप्रोच रन (Approach Run) लम्बी कूद की भान्ति इसमें भी अप्रोच रन लिया जाएगा, परन्तु स्पीड (Speed) न अधिक तेज़ और न अधिक धीमी होगी।
अप्रोच रन की लम्बाई (Length of Approach Run) ट्रिपल जम्प में 18 से 22 कदम या 40 से 45 मीटर के लगभग अप्रोच रन लिया जाता है। यह कूदने वाले पर निर्भर करता है कि उसके दौड़ने की गति कैसी है। धीमी गति वाला लम्बा अप्रोच लेगा जबकि अधिक गति वाला छोटा अप्रोच लेगा। दोनों पैरों को एक साथ रखकर दौड़ना प्रारम्भ करेंगे तथा दौड़ने की गति को सामान्य रखेंगे। शरीर का ऊपरी भाग सीधा रहेगा।

  1. रनवे की लम्बाई = 40 मी० से 45 मीटर
  2. रनवे की चौड़ाई = 1.22 मीटर
  3. पिट की लम्बाई = टेक आफ बोर्ड से पिट समेत 21 मीटर
  4. पिट की चौड़ाई = 2.75 मीटर से 3 मीटर
  5. टेक ऑफ बोर्ड से पिट तक लम्बाई = 11 मीटर से 13 मीटर
  6. टेक ऑफ बोर्ड की लम्बाई = 1.22 मीटर
  7. टेक ऑफ बोर्ड की चौड़ाई = 20 सैंटी मीटर
  8. टेक ऑफ बोर्ड की गहराई = 10 सैंटी मीटर।

TRIPLE JUMP
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टेक ऑफ (Take off) लेते समय घुटना लम्बी कूद की अपेक्षा इसमें कम झुका होगा। शरीर का भार टेक ऑफ एवं होप स्टेप (Hop, Step) लेते समय पीछे रहेगा तथा दोनों बाजू भी पीछे रहेंगे। दूसरी टांग तेज़ी से हवा में आकर सप्लिट पोजीशन (Split Position) बनाएगी।
ट्रिपल जम्प में मुख्यतया तीन प्रकार की तकनीक (Technique) प्रचलित है—

  1. फ्लैट तकनीक
  2. स्टीप तकनीक
  3. मिक्सड तकनीक

ऊंची कूद
(High Jump)

  1. रनवे की लम्बाई = 15 मी० से 25 मी०
  2. तिकोनी क्रॉस बार की प्रत्येक भुजा = 30 मि०मी०
  3. क्रॉस बार की लम्बाई = 3.98 मी० से 4.02 मी०
  4. क्रॉस बार का वज़न = 2 कि० ग्राम०
  5. पिट की लम्बाई = 5 मी०
  6. पिट की चौड़ाई = 4 मी०
  7. पिट की ऊंचाई = 60 सैं०मी०

(1) समस्त प्रतियोगियों को पहले दोनों पैरों पर एक साथ अपने स्थान पर ही कूदने को कहेंगे। कुछ समय उपरान्त एक पैर पर कूदने के आदेश देंगे। ऊपर उछलते समय यह ध्यान रहे कि शरीर का ऊपरी भाग सीधा रहे एवं दस बार ही कूदा जाए। इस तरह जिस पैर पर कूदने पर आसानी प्रतीत हो उसी को उछाल (उठना) पैर (Take off foot) मान कर प्रशिक्षक को निम्नलिखित दो भागों में बांट देना चाहिए

  • बायें पैर पर कूदने वाले तथा
  • दायें पैर पर कूदने वाले।

(2) दो रेखाओं में प्रतियोगी अपने उछाल पैर (Take off Foot) को आगे रख कर दूसरे पैर को पीछे रखेंगे। दोनों भुजाओं को एक साथ पीछे से आगे, कुहनियों से मोड़ करके आगे, ऊपर की ओर तेजी से जाएंगे। इसके साथ ही पीछे रखे पैर को भी ऊपर किक (Kick) करेंगे, और ज़मीन से उछाल कर पुनः अपने स्थान पर वापस उसी पैर पर आएंगे। इस समय उछाल पैर (Take off Foot) वाले पैर का घुटना भी ऊपर उठते समय थोड़ा मुड़ा होगा। परन्तु शरीर का ऊपरी भाग सीधा रहेगा, एवं आगे न जा कर ऊपर उठेगा तथा उसी स्थान पर वापस आयेगा। ऊपर जाते समय कमर । तथा आगे का पैर सीधा रखने का प्रयास किया जाए।

(3) प्रतियोगियों को 45° पर बायें पैर वाले बाएं और दायें पैर से कूदने वाले दायीं ओर खड़े होकर क्रॉस छड़ (Cross bar) को लगभग दो फुट (60 सम) की ऊंचाई पर रख कर आगे चलते हुए ऊपर की भान्ति ही उछाल कर क्रॉस छड़ (Cross bar) को पार करेंगे और ऊपर जाकर नीचे आते समय उसी उछाल पैर (Take off Foot) पर वापिस आएंगे। केवल भिन्नता इतनी होगी कि अपने स्थान पर वापस न आकर आगे क्रॉस छड़ को पार करके गिरेंगे तथा दूसरा पैर पहले पैर के आने के उपरान्त आगे 10 या 12 इंच (25 सम) पर आएगा तथा आगे चलते जाएंगे, परन्तु यह ध्यान रखा जाए कि किक करते समय घुटना झुका हो। शरीर का ऊपरी भाग सीधा रखने का प्रयास किया जाए तथा दोनों भुजाओं को तेजी से ऊपर ले जाएंगे, परन्तु जब दोनों हाथ कंधों की सीध में पहुंचेंगे तो उसी स्थान पर वापिस गिरना होगा।
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HIGH JUMP
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(4) क्रॉस बार (Cross Bar) की ऊंचाई को बढ़ाएंगे तथा प्रशिक्षकों को टेक ऑफ़ (take off) पर आते समय टेक ऑफ़ फुट (Take off Foot) को लम्बा करने को कहेंगे, परन्तु यह ध्यान में रखेंगे कि इस समय एड़ी पहले ज़मीन पर आये। दोनों भुजाएं कुहनियों से मुड़ी हुई हों।
कूदते समय ध्यान क्रॉस बार (Cross Bar) पर होगा। सिर शरीर से कुछ पीछे की ओर झुका होगा तथा पीछे के पैर को ऊपर करते समय पैर का पंजा ऊपर की ओर कर सीधा होगा।

इस समय क्रॉस बार (Cross Bar) को प्रशिक्षक के सिर से दो फुट (60 से०मी०) ऊंचा रखेंगे तथा प्रत्येक को ऊपर बताई गई क्रिया के अनुसार क्रॉस बार को अपनी फ्री लैग (Free Leg) से किक (Kick) करने को कहेंगे।
इसमें निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखेंगे—

  • दोनों भुजाओं को एक साथ तेज़ी से ऊपर ले जाएगा।
  • टेक ऑफ़ फुट (Take off Foot) उस समय ज़मीन छोड़ेगा जबकि फ्री लैग अपनी पूर्ण ऊंचाई तक पहुंच जाएगी।
  • ऊपर बताई गई प्रक्रिया को जोगिंग (Jogging) के साथ भी किया जाएगा।

(5) क्रॉस बार (Cross bar) को दो फुट (60 सेमी०) के ऊपर रख कर खिलाड़ी को नं० 3 की भान्ति क्रॉस छड (Cross bar) पार करने को कहेंगे। केवल इतना अन्तर होगा कि क्रॉस बार पार करने के उपरान्त अखाड़े में आते समय हवा में 90 डिग्री पर घूमेंगे। बायें पैर से टेक ऑफ़ (Take off) लेने वाले बायीं तरफ घूमेंगे तथा दायें पैर पर टेक ऑफ़ (Take off) लेने वाले दायीं तरफ घूमेंगे।
इसमें निम्नलिखित दो बातों का विशेष ध्यान रखा जाएगा—

  1. खिलाड़ी उछाल (Take Off) लेते समय ही न घूमें तथा
  2. पूर्ण ऊंचाई प्राप्त करने से पहले घूमें।

स्टैडल रोल
(Straddle Roll)
(6) टेक ऑफ़ फुट (Take off Foot) को आगे रख कर खड़े होंगे, पर यह ध्यान रहे कि शरीर का भार एड़ी पर होना चाहिए तथा फ्री लैग को पीछे रखेंगे। दोनों हाथों को एक साथ तेज़ी से आगे लायेंगे और फ्री लैग (Free Leg) को ऊपर की ओर किक (Kick) करेंगे जिससे शरीर का समस्त भाग ज़मीन से ऊपर उठ जाये।

(7) ज़मीन पर चूने की समानान्तर रेखा डालेंगे। एथलीट इस चूने की रेखा के दाहिनी ओर खड़े होकर उपर्युक्त प्रक्रिया को करेंगे। ऊपर हवा में पहुंचते ही बायीं ओर टेक ऑफ़ (Take off) को घुमायेंगे, चेहरा नीचे करेंगे तथा पिछले पैर को किक (Kick) पर उठायेंगे।

इसमें मुख्यत: यह ध्यान रखा जाए कि फ्री लैग (Free Leg) को सीधी किक (kick) किया जाए। टेक ऑफ़ लैग (Take off Leg) को सीधा किक करके घुटना मोड़ (Bend) पर ऊपर ले जायेंगे। खिलाड़ी क्रॉस बार (Cross bar) पार करने के उपरान्त अखाड़े में रोज़ अभ्यास कर सकते हैं क्योंकि टेक ऑफ़ किक (Take off Kick) तेज़ होने के कारण सन्तुलन भी बिगड़ सकता है।

(8) तीन कदम आगे आ कर जम्प करना (Jumping from Three Steps) क्रॉस बार के समानान्तर डेढ़ फुट से 2 फुट (45 सम से 60 सम) की दूरी पर रेखा खींचेंगे। इस रेखा से 30° पर दोनों पैर रख कर खड़े होंगे तथा टेक ऑफ़ फुट (Take off Foot) को आगे निकालते हुए मध्यम गति से आगे को भागेंगे। जहां पर तीसरा पैर आये वहां निशान लगा दें और अब उस स्थान पर दोनों पैर रख कर क्रॉस बार (Cross bar) की ओर चलेंगे और ऊपर बताई गई प्रक्रिया को दोहरायेंगे। क्रॉस बार की ऊंचाई एथलीट की सुविधा के अनुसार बढ़ाते जायेंगे।

बांस कूद
(Pole Vault)

  1. रनवे की लम्बाई = 40 से 45 मीटर
  2. रनवे की चौड़ाई = 1.22 मीटर
  3. लैडिंग ऐरिया = 5 × 5 मी०
  4. तिकोनी क्रास बार की लम्बाई = 4.48 मीटर से 4.52 मीटर
  5. तिकोनी क्रास बार प्रत्येक भुजा = 3.14 मीटर
  6. क्रास बार का वजन = 2.25 किलो ग्राम
  7. लैडिंग एरिया की ऊचाई = 6 सैं०मी० से 9 सैं०मी०
  8. बाक्स की लम्बाई = 1.08 मी०
  9. बाक्स की चौड़ाई रनवे की तरफ से = 60 सैं०मी०

ऐथलैटिक्स में बांस कूद (Pole Vault) बहुत ही उलझा हुआ इवेंट है। किसी भी इवेंट में टेक ऑफ़ (Take off) से अखाड़े में आते समय तक इतनी क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती, जितनी कि पोल वाल्ट में। इसलिए इस इवेंट को पढ़ाने तथा सिखाने दोनों में ही परेशानी होती है।

बांस कूद के लिए एथलीट का चयन
(Selection of Athlete for Pole Vault)
अच्छा बांस कूदक एक सर्वांग (आल राऊण्डर) खिलाड़ी ही हो सकता है। क्योंकि यह ऐसी स्पर्धा (Event) है जोकि सभी प्रकार से शरीर की क्षमता को बनाये रखती है, जैसे कि गति (Speed), शक्ति (Strength), सहनशीलता (Endurance) तथा तालमेल (Coordination) । अच्छे बांस कूदक का एक अच्छा जिमनास्ट भी होना आवश्यक है। जिससे वह सभी क्रियाओं को एक साथ कर सके।

पोल की पकड़ तथा लेकर चलना
(Holding.and Carrying the Pole)
बहुधा बायें हाथ से शरीर के सामने हथेली को ज़मीन की ओर रखते हुए पोल को पकड़ते हैं। दायां हाथ शरीर के पीछे पुढे (Hip) के पास दायीं ओर बांस (pole) के अन्तिम सिरे की ओर होता है।

बांस को पकड़ते समय बायां बाजू कुहनी से 100 अंश का कोण बनाता है तथा शरीर से दूर कलाई को सीधा रखते हुए बांस को पकड़ते हैं। दायां हाथ, जो कि बांस के अन्तिम सिरे की ओर होता है, बांस को अंगूठे के अन्दरूनी भाग और तर्जनी अंगुली के बीच में ऊपर से नीचे को दबाते हुए पकड़ते हैं। दोनों कुहनियां 100 अंश के कोण बनाए हुई होती हैं। हाथों के बीच की दूरी 24 इंच (60 सैं० मी०) से 36 इंच (80 सैं० मी०) तक होती है। यह बांस कूदक के शरीर की बनावट पर और पोल को लेकर दौड़ते समय जिसमें उसको आराम अनुभव हो, उस पर निर्भर करता है।

पोल के साथ दौड़ने की विधियां
(Running with the Pole)
1. बांस को सिर के ऊपर रख कर चलना (Walking with Pole keeping over head)-इसमें बांस को बाक्स के पास लाते समय अधिक समय लगता है। इसलिए यह विधि अधिक उपयुक्त नहीं है।

2. बांस को सिर के बराबर रख कर चलना (Walking with pole keeping at the level of head)विश्व के अधिकतर बांस कूदक इसी विधि को अपनाते हैं। इसमें चलते समय बांस का सिरा सिर के बराबर और बायें कंधे की सीध में होता है।
दायें से बायें-इसमें कंधे तथा बाजू साधारण अवस्था में रहते हैं।

3. बांस को सिर से नीचे लेकर चलना (Walking with pole keeping below the head)—इस अवस्था में बाजुओं पर अधिक ताकत पड़ती है, जिसके कारण बाक्स तक आते समय शरीर थक जाता है। बहुत ही कम संख्या में लोग इसको काम में लाते हैं। अप्रोच रन (Approach run) एथलीट को अपने ऊपर विश्वास तब होता है जबकि उस का अप्रोच रन सही आना शुरू होता है। आगे की क्रिया पर इसके बाद ही विचार किया जा सकता है। इसके लिए सबसे अच्छी विधि (The best method) यह है कि एक चूने की लाइन लगा कर एथलीट को पोल के साथ लगभग 150 फुट (50 मी०) तक भागने को कहना। इस क्रिया को कई दिन तक करने से एथलीट का पैर एक स्थान पर ठीक आने लगेगा। उस समय आप उस दूरी को फीते से नाप लें, फिर बांस कूद के रन-वे (Run-way) पर काम करें। पैरों को तेजी के साथ अप्रोच रन को भी घटाना बढ़ाना पड़ता है।

बांस कूद के अप्रोच रन में केवल एक ही चिह्न होना चाहिए। अधिक चिह्न होने से कूदने वाला अपने स्टाइल (Style) को न सोच कर चेक मार्क (Check Mark) को सोचता रहता है। अप्रोच रन (Approach Run) की लम्बाई 40 से 45 मी० के लगभग होनी चाहिए और अन्तिम 4 या 6 कदम में अधिक तेजी होनी चाहिए।

पोल प्लाण्ट
(Pole Plant)
यह सम्भव नहीं कि आप पूरी तेजी के साथ पोल (Pole) को प्लांट (Plant) कर सकें उसके लिए गति को सीमित करना पड़ता है। स्टील पोल (Steel Pole) में प्लांट जल्दी होना चाहिए तथा फाइबर ग्लास (Fibre Glass) में देरी से।’ स्टील पोल में प्लांट करते समय एथलीट को “एक और दो” गिनना चाहिए। एक के कहने पर बायां पैर आगे टेक ऑफ़ के लिए आयेगा और दायें पैर का घुटना ऊपर की ओर जायेगा। दो कहने पर शरीर की स्विग (Swing) शुरू हो जाती है। इस समय वाल्टर (Vaulter) को अपनी दायीं टांग को स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए जिससे कि वह बायीं टांग के साथ मिल सके। इस विधि से अच्छी स्विग लेने में सुविधा होती है।

टेक ऑफ़
(Take Off)
टेक ऑफ़ के समय दायां घुटना आगे आना चाहिए। इससे शरीर को ऊपर पोल की ओर ले जाते हैं तथा सीने को । . पोल की ओर खींचते हैं। पोल को सीने के सामने रखते हैं। स्विंग (Swing) के समय दायीं टांग शरीर के आगे ऊपर की ओर उठेगी।

नोट-पोल करते समय एथलीट अपने हिप को ऊंचा ले जाते हैं, जबकि टांगों को ऊपर आना चाहिए व हिप को नीचे रखना चाहिए। पोल वाल्टरों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जब तक पोल सीधा नहीं होता, उनको पोल के साथ ही रहना चाहिए। पोल छोड़ते समय नीचे का हाथ पहले छोड़ना चाहिए। यह देखा गया है कि बहुत ही नये पोल वाल्टर . अपनी पीठ को क्रास बार के ऊपर से ले जाते हैं। यह केवल ऊपर के हाथ को पहले छोड़ने से होता है।
POLE VAULT
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 15
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ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 7.
श्री इवेंट्स कौन-कौन से होते हैं ? इनकी तकनीक और नियमों के बारे में लिखें।
उत्तर-

  1. गोले का भार = 7.260 कि०ग्राम + 5 ग्राम पुरुषों के लिए 4 कि० + 5 ग्राम स्त्रियों के लिए
  2. थरोईंग सैक्टर का कोना = 34.92°
  3. सर्कल का व्यास = 2.135 मी० + 5 मि०मी०
  4. स्टॉप बोर्ड की लम्बाई = 1.21 मी० से 1.23 मी०
  5. स्टॉप बोर्ड की चौड़ाई = 112 मि०मी० से 200 मि०मी०
  6. स्टॉप बोर्ड की ऊँचाई = 98 मि०मी० से 102 मि०मी०
  7. गोले का व्यास = 110 मि०मी० से 130 मि०मी०
  8. गोले का व्यास स्त्रियों के लिए = 95 मि०मी० से 110 मि०मी०।

शाट पुट-पैरी ओवरेइन विधि
(Shot Put-Peri Oberrain Method)
1. प्रारम्भिक स्थिति (Initial Position)-थ्रोअर गोला फेंकने की दशा में अपनी पीठ करके खड़ा होगा। शरीर
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का भार दायें पैर पर होगा। शरीर के ऊपरी भाग को नीचे लाते समय दायें पैर की एड़ी ऊपर उठेगी तथा बाएं पैर को घुटने से मुड़ी दशा में पीछे ऊपर जाकर तुरन्त पैर के पास पुनः लायेंगे। दोनों पैर मुड़े होंगे तथा ऊपरी भाग आगे को झुका होगा।

2. ग्लाइड (Glide)-दायां पैर सीधा करेंगे तथा दायें पैर के पंजे बाईं एड़ी से पीछे आयेंगे। बायां पैर स्टॉप बोर्ड (Stop Board) की ओर तेजी से किक करेंगे। बैठी हुई अवस्था में पुट्ठों को पीछे व नीचे की ओर गिरायेंगे। दायां पैर जमीन से ऊपर उठेगा तथा शरीर के नीचे ला कर बायीं ओर को पंजा मोड़ कर रखेंगे। बायां पैर इसी के लगभग साथ ही स्टॉप बोर्ड (Stop Board) पर थोड़ा दायीं ओर ज़मीन पर लगेगा। दोनों पैरों के पंजों को ज़मीन पर गोली दोनों कन्धे पीछे की ओर झुके होंगे। शरीर का समस्त भार दायें पैर पर होगा।

3. अन्तिम चरण (Final Phase)-दायें पैर के पंजे एवं घुटने को एक साथ बायीं ओर घुमायेंगे तथा दोनों पैरों को सीधा करेंगे। पुट्ठों को भी आगे बढ़ायेंगे। शरीर का भार दोनों पैरों पर होगा। बायां कन्धा सामने को खुलेगा। दायां कन्धा दायीं तरफ को ऊपर उठेगा तथा घूमेगा। पेट की स्थिति धनुष के आकार की तरह पीछे को झुकी हुई होगी।
SHOT PUT
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4. गोला फेंकना/थो करना (Putting throwing the Shot)-दायां कन्धा एवं दायीं भुजा को गोले के आगे की ओर ले जायेंगे। बायां कन्धा आगे को बढ़ता रहेगा। शरीर का समस्त भार बायें पैर पर होगा जोकि पूर्ण रूप से सीधा होगा। जैसे ही दाहिने हाथ द्वारा गोले को आगे फेंका जायेगा, दोनों पैरों की स्थिति भी बदलेगी। बायां पैर पीछे आयेगा तथा दायां पैर आगे आयेगा। शरीर का भार दायें पैर पर होगा। ऊपरी भाग एवं दायां पैर दोनों आगे को झुके होंगे।
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घूम कर गोला फेंकना या चक्के की भान्ति फेंकना
(Throwing the Shot by rotating or like a Discus)
1. प्रारम्भिक स्थिति (Initial Position)—प्रारम्भ करने के लिए गोले के दूसरे भाग पर गोला फेंकने की दशा में पीठ करके खड़े होंगे। बायां पैर मध्य रेखा पर तथा दायां भाग दायीं ओर होगा। दायां पैर लोहे की रिम (Rim) से 5 से 8 से०मी० पीछे रखेंगे जिससे कि वे घूमते समय फाउल (Foul) न हो। गोला गर्दन के नीचे भाग में होगा, कोहनी ऊपर उठी होगी। प्रारम्भ करने से पहले कन्धा, पेट, बायां बाजू, गोला सभी पहले बायीं तरफ को घूमेंगे तथा बाद में दायीं तरफ जायेगा। ऐसा करते समय दोनों घुटने झुके होंगे।

2. घूमना (Rotation)—दोनों पैरों पर शरीर का भार होगा तथा ऊपर की स्थिति से केवल एक स्विंग लेने के उपरान्त घूमना प्रारम्भ हो जायेगा। कन्धा एवं धड़ दायें को पूर्ण रूप से घूमते शरीर का भाग भी दायें पैर पर चला जायेगा। इस स्थिति में बायीं तरफ भुजा को ज़मीन के समानान्तर रखते हुए बायें पैर के पंजे पर शरीर का भार लाते हुए दोनों घुटने घूमेंगे। दायें पैर के पंजे पर भी 90 अंश तक घूमेंगे। दायें पैर को घुटने से झुकी हुई अवस्था में बायें पैर के टखने के ऊपर से गोले के बीच में पहुंचने पर लायेंगे।
बायें पैर पर घूमते समय चक्र समाप्त होने पर हवा में दोनों पैर होंगे तथा कमर को घुमाएंगे। दायां पैर केन्द्र में दाएं पैर के पंजे पर आएगा। दाएं पैर के पंजे की स्थिति उसी प्रकार से होगी जैसी कि घड़ी में 2 बजे की दशा में सुई होती है। बहादुर सिंह का पैर 10 बजे की स्थिति में आता है। वह हवा में ही कमर को मोड़ लेता है। 2 बजे की स्थिति में बायां पैर टो बोर्ड पर कुछ विलम्ब से आयेगा। परन्तु ऊपरी भाग को केन्द्र में रखा जा सकता है। 10 बजे की स्थिति में बायां पैर ज़मीन पर तेजी से आयेगा तथा अधिकतर यह सम्भावना रहती है कि शरीर का ऊपरी भाग शीघ्र ऊपर आ जाता है।
निम्नलिखित बातों का ध्यान रखेंगे—

  • प्रारम्भ में सन्तुलन ठीक बनाकर चलेंगे, बायां पैर नीचे रखेंगे।
  • दाएं पैर से पूरी ग्लाइड (Glide) लेंगे, जम्प नहीं करेंगे। शरीर के ऊपरी भाग को ऊपर नहीं उठायेंगे।
  • दायां पैर केन्द्र में आते समय अन्दर को घूम जाएगा।
  • बायें कन्धे एवं पुढे को जल्दी ऊपर नहीं लाना है।
  • बायीं भुजा को शरीर के पास रखेंगे।
  • बायां पैर ज़मीन पर न शीघ्र लगेगा और न अधिक विलम्ब से।

सामान्य नियम
(General Rules)
1. पुरुष वर्ग में 7.26 किग्रा०, महिला में 4.00 कि०ग्रा० । गोले के व्यास पुरुष वर्ग में 110 से 130 व महिलाओं में 95 से 110 सैंटीमीटर।

2. गोला व तारगोला को 2.135 मीटर के चक्र से फेंका जाता है। अन्दर का भाग पक्का होगा, बाहरी मैदान से 25 मिलीमीटर नीचा होगा। स्टॉप बोर्ड (Stop Board) 1.22 मीटर लम्बा, 114 मिलीमीटर चौड़ा और 100 मिलीमीटर ऊंचा होगा।
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 20

3. सैक्टर 40 अंश का गोला, तार गोला एवं चक्का होगा। केन्द्र से एक रेखा सीधी 20 मीटर की खींचेंगे। इस रेखा के 18.84 पर एक बिन्दु लगाएंगे, इस बिन्दु से दोनों ओर 6.84 की दूरी पर दो बिन्दु डाल देंगे तथा इन्हीं दो बिन्दुओं से सीधी रेखायें खींचने पर 40 अंश का कोण बनेगा।

4. गोला फेंकते समय शरीर का सन्तुलन होना चाहिए, गोला फेंक कर गोला ज़मीन पर गिरने के उपरान्त 75 सैंटीमीटर की दोनों रेखायें जो कि गोला फेंकने के क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करती हैं, उसके पीछे के भाग से बाहर आयेंगे। गोला एक हाथ से फेंक दिया जाएगा। गोला कन्धे के पीछे नहीं आयेगा, केवल गर्दन के पास रहेगा। सही पुट उसी को मानेंगे जो कि सैक्टर के अन्दर हो। सैक्टर की रेखाओं को काटने पर फाऊल (Foul) माना जायेगा। यदि आठ प्रतियोगी (Competitors) हैं, तब सभी को 6 अवसर देंगे अन्यथा टाई पड़ने पर 9 भी हो सकते हैं।

चक्का फेंकने का प्रारम्भ
(Initial Stance of Discus Throw)

  1. चक्के का वजन = 2 कि० ग्राम पुरुषों के लिए 1 कि० ग्राम स्त्रियों के लिए
  2. सर्कल का व्यास _ = 2.5 मी० ± 5 मि०मी०
  3. थ्रोईंग सैक्टर का कोण = 34.92° चक्के का ऊपर का व्यास = 219 मि०मी० से 2.21 मि० मी० पुरुषों के लिए 180 से 182 स्त्रियों के लिए

चक्का फेंकने की दिशा के विरुद्ध पीठ करके छल्ले (Ring) के पास चक्र में खड़े होंगे। दायीं भुजा को घुमाते हुए एक या दो स्विग (Swing) भुजा तथा धड़ को भी साथ में घुमाते हुए लेंगे। ऐसा करते समय शरीर का भार भी एक पैर से दूसरे पैर पर जायेगा जिस से पैरों की एड़ियां मैदान के ऊपर उठेंगी। जब चक्का दाईं ओर होगा तथा शरीर का ऊपरी भाग भी दाईं ओर मुड़ा होगा यहां से चक्र का प्रारम्भ होगा। चक्र का प्रारम्भ शरीर के नीचे के भाग से होगा, बायें पैर को बायीं ओर झुकाएंगे। शरीर का भार इसी के ऊपर आयेगा। दायां घुटना भी साथ ही घूमेगा, दायां पैर भी घूमेगा, साथ ही कमर, पेट भी घूमेगा जाकि दायीं बाजू एवं चक्के को भी साथ में लायेगा।

इस स्थिति में गोले को पार करने की क्रिया प्रारम्भ होगी। सबसे पहले बायां पैर ज़मीन को छोड़ेगा। इसके उपरान्त बायां पैर चक्का फेंकने की दशा में आगे बढ़ेगा। दायां पैर घुटने से मुड़ा हुआ अर्ध चक्र की दशा में बायीं से दायीं ओर आगे को चलेगा। घूमते समय दोनों पुढे कन्धों से आगे होंगे जिससे शरीर के ऊपरी भाग तथा नीचे के भाग में मोड़ उत्पन्न होगा। दायीं भुजा जिसमें चक्का होगा, सिर कोहनी से सीधा होगा, बायीं भुजा कोहनी से मुड़ी हुई सीने के सम्मुख होगी। सिर सीधा रहेगा। दायें पैर के पंजे पर ज़मीन से थोड़ा ऊपर रख कर गोले को पार करेंगे तथा दायें पैर के पंजे ज़मीन पर आयेंगे। यह पैर लगभग केन्द्र में आयेगा। पंजा बाईं ओर को मुड़ा होगा।
विधियां
(Methods)
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 21
इसमें मुख्यतः निम्नलिखित तीन प्रकार की विधियां हैं—

  1. प्रारम्भ करते समय भी जो नये फेंकने वाले होते हैं वे अपना दायां पैर केन्द्र की रेखा पर एवं बायां पैर 10 से०मी० छल्ले (Ring) के पीछे रखते हैं।
  2. दूसरी विधि जिसमें सामान्य फेंकने वाले केन्द्रीय रेखा को दोनों पैरों के मध्य रखते हैं।
  3. तीसरे वे फेंकने वाले हैं जो बायें पैर को केन्द्रीय रेखा पर रखते हैं।

इसी प्रकार गोले के मध्य में आते समय तीन प्रकार से पैर को रखते हैं। पहले 3 बजे की स्थिति में, दूसरे 10 बजे की स्थिति में, तीसरे 12 बजे की स्थिति में, जिसमें 12 बजे की स्थिति सर्वोत्तम मानी गयी है क्योंकि इसमें दायें पैर पर कम घूमना पड़ता है तथा बायें कन्धे को खुलने से रोका जा सकता है।
दायां पैर ज़मीन पर आने के उपरान्त भी निरन्तर घूमता रहेगा और बायां पैर गोले के केन्द्र की रेखा से थोड़ा बायीं ओर पंजे एवं अन्दर के भाग को ज़मीन पर लगा देगा।
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 22
अन्तिम चरण (Last Step)
इस समय पैर ज़मीन पर होंगे, कमर घूमती हुई दिशा में पीछे को झुकी होगी, बायां पैर सीधा होगा, दायां पैर घुटने से मुड़ा हुआ, दायां घुटना एवं पुढे बायीं ओर घूमते हुए होंगे.। बायीं भुजा ऊपर की ओर खुलेगी, दायीं भुजा को शरीर से दूर रखते हुए आगे एवं ऊपर की दशा में लायेंगे।

फेंकना (Throwing)
दोनों पैर जो कि घूम कर आगे आ रहे थे, इस समय घुटने से सीधे होंगे। पुढे आगे को बढ़ेंगे, कन्धे तथा धड़ अपना घूमना आगे की दशा में समाप्त कर चुके होंगे। बायीं भुजा तथा कन्धा आगे घूमना बन्द करके एक स्थान पर रुक जायेंगे। दायीं भुजा एवं कन्धा आगे तथा ऊपर बढ़ेगा। दोनों पैरों के पंजों पर शरीर का भार होगा तथा दोनों पैर सीधे होंगे। अन्त में बायां पैर पीछे आयेगा तथा दायां पैर आगे जा कर घुटने से मुड़ेगा। शरीर का ऊपरी भाग भी आगे को झुका होगा। ऐसा शरीर का सन्तुलन बनाये रखने के लिए किया जाता है।
साधारण नियम (General Rules)
चक्के (Discus) का भार पुरुष वर्ग हेतु 2 किग्रा०, महिला वर्ग हेतु 1 कि०ग्रा० होता है। वृत्त का व्यास 2.50 होता
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 23
LAY OUT OF DISCUS CIRCLE
है। वर्तमान समय के चक्के के गोले के बाहर लोहे की केज (Cage) बनाई जाती है ताकि चक्के से किसी को चोट न पहुंचे। सम्मुख 6 मीटर, अन्य 7 मीटर अंग्रेज़ी के ‘E’ के आकार की होती है। इसकी ऊंचाई 3.35 मीटर होती है।
सैक्टर-40° का इसी प्रकार बनायेंगे जैसे गोले के लिए, अन्य समस्त नियम गोले की भान्ति ही इसमें काम आयेंगे।

ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education

प्रश्न 8.
जैवलिन थ्रो और उसके नियम लिखें।
उत्तर-

  1. जैवलिन का भार = 800 ग्राम पुरुषों के लिए 600 ग्राम स्त्रियों के लिए
  2. रनवे की लम्बाई = 30 मी० 36.5 मी०
  3. रनवे की चौड़ाई = 4 मीटर
    जैवलिन की लम्बाई = 260 सें.मी० से 270 सें०मी० पुरुषों के लिए 220 सें०मी० के 230 सें०मी० स्त्रियों के लिए
  4. जैवलिन के थ्रोईंग सैक्टर का कोण = 28.950

भाला फेंकना (Javelin Throw) भाले की सिर के बराबर ऊंचाई पर कान के पास, भुजा को कोहनी से झकी हुई, कोहनी एवं जैवलिन दोनों का
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 24
मुख सामने की ओर होगा। हाथ की हथेली का रुख ऊपर की ओर होगा-ज़मीन के समानान्तर। सम्पूर्ण लम्बाई 30 से 35 मी० होगी। 3/4 दौड़ पथ में सीधे दौड़ेंगे। 1/3 अन्तिम के पांच कदम के लगभग क्रॉस स्टैप (Cross Step) लेंगे। अन्तिम चरण में जब बायां पैर जांच चिह्न (Check Mark) पर आएगा दायां कन्धा धीमी गति से दायीं ओर मुड़ना प्रारम्भ करेगा तथा दायीं भुजा भी पीछे आना प्रारम्भ करेगी। कदमों के बीच की दूरी बढ़ने लगेगी। दायां हाथ एवं कन्धा बराबर पीछे को आयेंगे एवं दाईं तरफ खुलते जायेंगे। कमर एवं शरीर का ऊपरी भाग पीछे को झुकता जायेगा। ऊपरी एवं नीचे
JAVELIN THROW
ऐथलैटिक्स (Athletics) Game Rules - PSEB 11th Class Physical Education 25
के भाग में मोड़ उत्पन्न होगा, क्योंकि ऊपरी भाग दायीं ओर खुलेगा तथा नीचे का भाग सीधा आगे को चलेगा। आंखें आगे की ओर देखती हुई होंगी।

अन्त में दायां पैर घुटने से झुकी दशा में जमीन पर क्रॉस स्टैप (Cross Step) के अन्त में आयेगा। जैसे ही घुटना आगे बढ़ेगा, दायें पैर की एड़ी जमीन से ऊपर उठना प्रारम्भ हो जायेगी। इस प्रकार यह बायें पैर को अधिक दूरी पर जाने में सहायता करती है, जिससे कि दोनों पैरों के बीच अधिक-से-अधिक दूरी हो सके। बायां पैर थोड़ा बायीं ओर ज़मीन पर आएगा। कन्धे दायीं ओर को होंगे। भाला कन्धे की सीध में होगा। मुट्ठी बन्द तथा हथेली ऊपर की ओर, कलाई सीधी, कलाई नीचे की ओर होने से भाले का अन्तिम सिरा ज़मीन पर लगेगा। इस स्थिति के समय बाईं भुजा मुड़ी हुई सीने के ऊपर होगी।

अन्तिम फेस (Last Phase)-थ्रो करने की स्थिति में जब बायां पैर ज़मीन पर आयेगा, कूल्हा (Hip) आगे बढ़ना प्रारम्भ कर देगा। दायां पैर एवं घुटना अन्दर को घूमेगा तथा सीधा होकर टांग को सीधा करेगा। बायां कन्धा भी साथ में खुलेगा, दायीं कुहनी बाहर की ओर घूमेगी एवं ऊपर को भाला कन्धा एवं भुजा के ऊपर सीध में होगा। बायें पैर का रुकना, दायें पैर को अन्दर घुमाना तथा सीधा करना इन सबसे शरीर का ऊपरी भाग धनुष की भान्ति पीछे को झुकेगा तथा सीना एवं पेट की मांसपेशियों में तनाव उत्पन्न होगा।

फेंकने के बाद फाऊल (Foul) बचाने के लिए तथा शरीर के भार को नियन्त्रण में रखने के लिए कदमों में परिवर्तन लायेंगे। दायां पैर आगे आकर घुटने से मुड़ेगा तथा पंजा बायीं ओर को झुकेगा। शरीर का ऊपरी भाग दायें पैर पर आगे को झुक कर सन्तुलन बनाएगा। दायां पैर अपने स्थान से उठ कर कुछ आगे भी जा सकता है।

साधारण नियम
(General Rules)
1. पुरुष भाले की लम्बाई 2.60 मी० से 2.70 मी०, महिला 2.20 मी० से2.30 मी०

2. भाला फेंकने के लिए कम-से-कम 30 मी०, अधिकतम 36.50 मी० लम्बा एवं 4 मी० चौड़ा मार्ग चाहिए। सामने 70 मि०मी० की चाप वक्राकार सफेद लोहे की पट्टी होगी जो कि दोनों ओर 75 सें०मी० निकली होगी। इसको सफेद लेन से भी बनाया जा सकता है। यह रेखा 8 मी० सेण्टर से खींची जा सकती है।

3. भाले का सैक्टर 29° का होता है जहां वक्राकार रेखा मिलती है वहीं निशान लगा देते हैं। पूर्ण रूप से सही कोण के लिए 40 मी० की दूरी पर दोनों भुजाओं के बीच की दूरी 20 मीटर होगी, 60 मी० की दूरी पर 30 मी० होगी।
JAVELIN RUNWAY THROWING
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4. भाला केवल बीच में पकड़ने के स्थान (Grip) से ही पकड़ कर फेंकेंगे। भाले का अगला भाग ज़मीन पर पहले लगना चाहिए। शरीर के किसी भी भाग से 50 सें०मी० चौड़ी दोनों ओर की रेखाओं को या आगे 70 सें.मी. चौड़ी रेखा को स्पर्श करने को फाऊल थ्रो (Foul Throw) मानेंगे।

5. प्रारम्भ करने से अन्त तक भाला फेंकने की दशा में रहेगा। भाले को चक्र काट कर नहीं फेंकेंगे, केवल कन्धे के ऊपर से फेंक सकते हैं।

6. 3 + 3 गोला एवं चक्के की भान्ति अवसर मिलेंगे।

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प्रश्न 9.
रिले दौड़ों के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
रिले दौड़ें (Relay Races)

पुरुष (Men) महिला (Women)
4 x 100 मीटर 4 x 100 मीटर
4 x 200 मीटर 4 x 400 मीटर
4 x 400 मीटर
4 x 800 मीटर

मेडले रिले दौड़ (Medley Relay Race)—
800 × 200 × 200 × 400 मीटर
बैटन (Baton)-सभी वृत्ताकार रिले दौड़ों में बैटन को ले जाना होता है। बैटन एक खोखली नली का होना चाहिए और इसकी लम्बाई 30 सें०मी० से अधिक नहीं होनी चाहिए। इसकी परिधि 12 सेंटीमीटर होनी चाहिए और भार 40 ग्राम होना चाहिए।
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रिले धावन पथ (Relay Race Track) रिले धावन पथ परे चक्र के लिए, गलियारों में विभाजित या अंकित होना चाहिए। यदि ऐसा सम्भव नहीं है, तो कम-से-कम बैटन विनिमय क्षेत्र गलियारों में होना चाहिए।

रिले दौड़ का प्रारम्भ (Start of Relay Race)-दौड़ के प्रारम्भ में बैटन का कोई भी भाग रेखा से आगे निकल सकता है, किन्तु बैटन रेखा या आगे की ज़मीन को स्पर्श नहीं करना चाहिए।

बैटन लेना (Taking the Baton) बैटन लेने के लिए भी क्षेत्र निर्धारित होता है। यह क्षेत्र दौड की निर्धारित दूरी रेखा के दोनों ओर 10 मीटर लम्बी प्रतिबन्ध रेखा खींच कर चिह्नित किया जाता है। 4 x 200 मीटर तक की रिले दौड़ों में पहले धावक के अतिरिक्त टीम के अन्य सदस्य बैटन लेने के लिए निर्धारित क्षेत्र के बाहर, किन्तु 10 मीटर से कम दूरी से दौड़ना आरम्भ करते हैं।
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बैटन विनिमय (Exchange of Baton)-बैटन विनिमय निर्धारित क्षेत्र के अन्दर ही होना चाहिए। धकेलने या किसी प्रकार से सहायता करने की अनुमति नहीं है। धावक एक-दूसरे को बैटन नहीं फेंक सकते यदि बैटन गिर जाता है, तो गिराने वाला धावक ही उठाएगा।
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