PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 25 सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 25 सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 25 सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती

PSEB 12th Class Economics सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
सहकारी समितियों का कृषि में क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
सहकारी समितियों द्वारा ग्रामीण विकास संभव है।

प्रश्न 2.
सरकारी समितियाँ ………….. में सहायक होती है।
उत्तर-
ग्रामीण विकास।

प्रश्न 3.
कृषि में विभिन्नता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
एक प्रकार की उपज के स्थान पर विभिन्न फसलों की बिजाई को कृषि में विभिन्नता कहते हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 25 सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती

प्रश्न 4.
सहज कृषि से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सहज कृषि (Organic Agriculture) का अर्थ है पुरातन ढंगों से कृषि करके उत्पादन करना।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
सहकारी समितियों का कृषि में महत्त्व स्पष्ट करें।
उत्तर-
सहकारी समितियाँ बहुत छोटे तथा मध्यम वर्ग के किसानों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती हैं। यदि छोटे किसान अपने छोटे-छोटे कृषि के टुकड़ों को सहकारिता की सहायता से इकट्ठा करते तो उन पर आधुनिक मशीनों का प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार उनकी आय में बहुत वृद्धि की जा सकती है। प्रम: कृषि में विभिन्नता के दो लाभ बताएं।
उत्तर-
कृषि में विभिन्नता के बहुत से लाभ हैं। दो मुख्य लाभ इस प्रकार हैं

  • द्वारा छोटे और मध्यम वर्ग के किसानों की आय में बहुत वृद्धि की जा सकती है।
  • निषि आधुनिक रासायनिक खाद के स्थान पर पुरातन गोबर खाद डालकर जैविक कृषि को अपनाया जा सकता है।

आज कल बहुत से लोग रासायनिक खाद के कारण बीमारी का शिकार हो रहे हैं इसलिए लोग लेविक अनाज, फल और सब्जियां खरीदना पसंद करते हैं जिससे जीवन स्तर में वृद्धि होगी।

प्रश्न 3.
सहज कृषि के लाभ बताएं।
उत्तर-
आधुनिक खादों के कारण ब्लड प्रैशर, मधुमेह और कई तरह की बीमारियां नज़र आ रही हैं। इसलिए लोगों का रुझान सहज कृषि (Organic Agriculture) की तरफ बढ़ रहा है। इसमें गोबर द्वारा पुरातन ढंग से कृषि की जाती है। जिससे न केवल मनुष्य के जीवन में सुधार होता है और इसके साथ-साथ धरती की उपजाऊ शक्ति में भी परिवर्तन होता है। इसलिए सहज कृषि आजकल प्रचलित हो रही है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न-
भारत में कृषि में विभिन्नता की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर-
भारत में अनाज की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 1966 में हरित क्रांति द्वारा अनाज वृद्धि पर जोर दिया गया। इससे रासायनिक खादों का अति अधिक प्रयोग किया गया। उत्पादन तो बढ़ गया परन्तु इससे न केवल भूमि की उपरी सतह पर बुरा प्रभाव पड़ा बल्कि भूमि के नीचे जल भी प्रदूषित हो गया। अधिक उद्योग स्थापित होने के कारण नदियों का जल प्रदूषित हो गया और अधिक रासायनिक खाद के कारण धरती के नीचे का जल भी प्रदूषित हो गया है। इस प्रकार पीने के पीने का संकट उत्पन्न हो गया है। इसलिए न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में कृषि में विभिन्नता की ओर ध्यान दिया जा रहा है।

कृषि में विभिन्नता का अर्थ है कि एक प्रकार की फसल लगातार बीजने के स्थान पर दूसरी प्रकार की फसलों की बिजाई करना। जैसे कि गेहूँ और चावल की कृषि के स्थान पर दालों, फल, सब्जियों आदि को सहज ढंग से बीज कर जैविक अनाज पैदा करना। जैविक अनाज की कीमत भी अधिक मिलती है और यह मनुष्य के स्वास्थ्य को भी ठीक रखते हैं। इसलिए आजकल लोग सहज कृषि की तरफ अधिक ध्यान दे रहे हैं।

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IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
सहकारी समितियों का ग्रामीण विकास में महत्त्व स्पष्ट करें। (Explain the Role of Co-operatives in Rural development.)
उत्तर-
ग्रामीण विकास में सहकारी समितियों का योगदान महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर गया है। भारत में किसान के पास ज़मीन कम हो रही है, छोटे-छोटे टुकड़े हो गए हैं जिन पर कृषि करना लाभदायक नहीं रहा है। इसलिए किसान का गुजारा इन छोटे आकार के खेतों पर कृषि करके निर्वाह मुश्किल से हो रहा है। किसान को कृषि करने के लिए कर्ज लेना पड़ता है और उस उधार की वापसी बहुत कठिन हो रही है। इसलिए सहकारी समितियों की सहायता से ही छोटे किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं और इससे कृषि करने के ढंग में सुधार हो सकता है।
सहकारी समितियों का कृषि में योगदान इस प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. यदि किसान अपने छोटे-छोटे जमीन के टुकड़ों पर कृषि के स्थान पर सहकारी खेती करना शुरू कर दे तो इससे बड़े पैमाने पर आधुनिक मशीनों का प्रयोग करके ऊपज में वृद्धि की जा सकती है।
  2. कृषि में जो उपज पैदा होती है उस को बाज़ार में बेचने के स्थान पर तैयार सामान बनाकर बेचा जा सकता है-जैसे कि गेहूँ के स्थान पर आटा बेचा जा सकता है। फल बेचने के स्थान पर जूस बना कर बेच सकते हैं। सरसों के स्थान पर सरसों का तेल बना कर बेचा जा सकता है। इससे किसान की आय में वृद्धि हो जाएगी।
  3. कृषि में उपज के मण्डीकरण में भी सुधार हो सकता है। छोटे किसान अपनी उपज बाजार में तुरन्त बेच के लिए मजबूर होते हैं। सहकारी समितियों द्वारा अनाज का भण्डार किया जा सकता है। जब कीमत में वृद्धि हो तब उसको बेच कर अधिक दाम प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए भारत में NAFED राष्ट्रीय कृषि बिक्री फैडरेशन बनाई गई है।
  4. कृषि के लिए आधुनिक औजारों का प्रयोग करके ऑर्गेनिक फसलें तैयार की जा सकती हैं। आजकल ऑर्गेनिक उपज की मांग बढ़ रही है जिसके द्वारा किसानों की आय में बहुत वृद्धि की संभावना है जो कि सहकारिता द्वारा ही संभव है।
  5. छोटे किसानों को उधार प्राप्त करने में तकलीफ का सामना करना पड़ता है। सहकारी समितियां बैंकों से आसानी से उधार लेकर कृषि कार्य पूर्ण कर सकती हैं। इससे सहकारी समिति के प्रत्येक सदस्य को लाभ प्राप्त हो सकता है।

इस क्षेत्र में NABARD का योगदान बहुत ही अच्छा है। कृषि में सहकारी समितियां बनाने के लिए लोगों को उत्साहित किया जा रहा है इसके फलस्वरूप भारत में KRIBCO और KD Milk Producers Co-operative समितियों की स्थापना हुई है। इस तरफ किसानों को और ध्यान देने की जरूरत है।

सहकारी समितियों का ग्रामीण विकास में योगदान (Role of Co-operatives in Rural Development) – भारत में कृषि ग्रामीण जीवन की आय और रोजगार का मुख्य स्रोत है। ग्रामीण जीवन के सुधार के लिए सहकारी समितियां महत्त्वपूर्ण योगदान डालती हैं। इस का वर्णन निम्नलिखित अनुसार किया जा सकता है –

  1. रोज़गार का स्रोत (Source of Employment)-गांवों में 65% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। गांवों के लोग कृषि, मछलीपालन, जंगलात और पशुधन द्वारा अपनी जीविका का प्रबन्ध करते हैं। सीमान्त किसान के लिए सहकारी समितियाँ रोजगार का स्रोत बन जाती हैं।
  2. आधुनिक कृषि तकनीक का प्रयोग (Use of Modern Cultivation Techniques) कृषि में अच्छी खाद, अच्छे बीज, औजार, भंडारण, यातायात आदि सहूलतों में सहकारी समितियों द्वारा वृद्धि की जाती है। इससे आय में वृद्धि होती है।
  3. धारणीय अर्थव्यवस्था (Sustainable Economy)-कृषि में हर काम में सहकारी समितियाँ सहायता करती हैं। जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है और इससे धारणीय विकास किया जा सकता है।
  4. वस्तुओं की पूर्ति में वृद्धि (Increase in Supply of Goods)-सहकारी समितियाँ ग्रामीण क्षेत्र में बहुत सी सेवाएं प्रदान करती हैं। गाँव में लोगों के पास वित्तीय साधन कम होते हैं इसलिए यह समितियां लोगों को शिक्षा, ऋण, नई तकनीकों की जानकारी देकर उनकी आय में वृद्धि करती है क्योंकि वह वस्तुओं की पूर्ति में वृद्धि करते हैं।
  5. ऋण की सुविधा (Credit Facilities)-ग्रामीण जीवन में लोगों को हर काम के लिए ऋण की जरूरत पड़ती है। फसल बीजने से लेकर कटाई तक पैसे की आवश्यकता होती है। वह सहकारी समितियों के सहयोग से प्राप्त किया जा सकता है।

सहकारी समितियों के प्रकार (Types of Co-operative Societies) सहकारी समितियों के विभिन्न प्रकार इस प्रकार हैं –

  • उपभोक्ता सहकारी समितियाँ (Consumer Co-operative Societies) सहकारी समितियाँ गांवों में लोगों को प्रत्यक्ष रूप से आवश्यक वस्तुएँ, बीज, खादें, उपभोगी वस्तुएं, उत्पादकों से प्रत्यक्ष तौर पर खरीदकर प्रदान करती हैं। इससे मध्यस्थों का लाभ समाप्त हो जाता है और कम कीमत पर उपभोक्ता वस्तुएं मिल जाती
  • उत्पादक सहकारी समितियाँ (Producer Co-operative Societies)-सीमान्त तथा लघु किसानों के लिए सहकारी समितियाँ लाभदायक सिद्ध होती है, उत्पादन के लिए औज़ार, मशीनें, कच्चा माल आदि इन समितियों द्वारा प्रदान किया जाता है।
  • मंडीकरण सहकारी समितियाँ (Marketing Co-operative Societies)-सीमान्त तथा लघु किसानों की उपज की बिक्री के लिए सहकारी समितियाँ लाभदायक होती हैं। किसानों को उपज की बिक्री में बहुत सी मुश्किलें सहन करनी पड़ती हैं जिनके लिए यह समितियाँ सहायता करती हैं।
  • सहकारी ऋण समितियाँ (Co-operative Credit Societies)-किसानों को ऋण की सहूलत प्रदान करने में भी सहकारी समितियाँ सहयोग करती हैं। यह समितियाँ अपने सदस्यों से उनकी बचत को इकट्ठा करती हैं और दूसरे सदस्यों को उधार देती हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों की समस्याएं (Problems faced by Co-operative Societies in Rural Areas) सहकारी समितियों की मुख्य समस्याएं इस प्रकार हैं –

  1. असन्तोषजनक फंड (Insufficient Funds)-सहकारी समितियों के पास जो फंड होते हैं वह संतोषजनक नहीं होते हैं। जब इन समितियों के पास फंड की कमी होती है तो वे अपने सदस्यों को उधार नहीं दे पातीं। इस कारण बहुत सी समितियां असफल हो जाती हैं।
  2. केवल कृषि ऋण (Agricultural Loans Only)ये समितियाँ किसानों की हर प्रकार की वित्तीय जरूरतें पूरी नहीं करती। यह केवल कृषि ऋण ही प्रदान करती हैं। इसलिए किसान इन समितियों से पूरा लाभ प्राप्त नहीं कर पाते।
  3. राजनीतिक दखल (Political Intrusion)-सहकारी समितियाँ किसी न किसी राजनीतिक दल द्वारा प्रभावित होती हैं। राजनीतिक नेता अपने पक्ष के लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और दूसरे पक्ष के लोगों को ऋण देते समय बहुत सी शर्ते लगा देते हैं। इस कारण सभी लोग इन समितियों से पूरा लाभ नहीं उठा पाते।
  4. निजी हित (Personal Interests)-बहुत से सहकारी समितियों के सदस्य निजी हित को ध्यान में रखते हैं। वे सभी सदस्यों के हितों का ध्यान नहीं रखते। इससे गरीब सदस्यों को ऋण लेने में तकलीफ होती है और ये समितियाँ असफल हो जाती हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 25 सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती

प्रश्न 2.
कृषि में विविधीकरण के महत्व को स्पष्ट करें। (Explain the role of Diversification in Agriculture.)
उत्तर-
विविधीकरण का अर्थ (Meaning of Diverssification)-विविधीकरण का अर्थ है कि कृषि में कम मूल्य की फसलों के स्थान पर अधिक मूल्य वाली फसलों को उगाना अथवा अधिक आय देने वाले काम को शुरू करना। इससे डेयरी (Dairy), पोल्ट्री (Poultary), बागवानी (Horticulture) और मछली पालन (Pisciculture) क्षेत्र में पुरानी फसलों के स्थान पर इन क्षेत्रों को अपनाने को विविधीकरण कहा जाता है। एक फसल (गेहूँ अथवा चावल) के स्थान पर विभिन्न प्रकार की अलग-अलग फसलों की बीजाई करके आय में वृद्धि करना कृषि में विविधीकरण कहलाता है।

भारत में विविधीकरण का अर्थ स्पष्ट करते हुए अराधना सिंह ने कहा, “विविधीकरण का अर्थ एक फसल के स्थान पर अधिक फसलों का उत्पादन करना है जिससे आय में वृद्धि हो।” (Diversification means shift from the regional dominance of one crop to regional production of a number of crops for enhancing the income of the farmers.” Aradhna Singh)
विविधीकरण की आवश्यकता (Need for Diversification)-विविधीकरण करने की आवश्यकता क्यों है इसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं –

  1. उपभोक्ता माँग में परिवर्तन (Changing Consumer Demand)-विकासशील देशों में लोगों की माँग में अधिक परिवर्तन हो रहा है। पहले लोग एक ही अनाज को आहार में प्रयोग करते थे। परन्तु अब आहार में मीट, अण्डे, और दूध, मक्खन, पनीर आदि वस्तुओं ने स्थान ले लिया है। इसलिए उपभोक्ता माँग में परिवर्तन आने से विविधीकरण की आवश्यकता है।
  2. जनसंख्या में वृद्धि (Increase in Population) विश्व की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। अब विश्व की जनसंख्या 7 मिलियन है और 2050 तक 9.5 बिलियन होने का अनुमान है। भारत में भी आज़ादी के समय जनसंख्या 36 करोड़ थी जो 2020-21 में 136 करोड़ के लगभग हो गई है। इस प्रकार तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के लिए अनाज पैदा करना एक चुनौती है। इस कारण भी कृषि में विविधीकरण की आवश्यकता
  3. निर्यात बाज़ार की मांग में वृद्धि (Increase in Export Market Demand) विकासशील देशों में किसान विश्व बाजार में बढ़ रही माँग को देखते हुए, निर्यात करने के लिए विविधीकरण को अपना रहे हैं। आजकल निर्यात करके अधिक आय प्राप्त की जा सकती है, इसलिए भी विविधीकरण की जरूरत है।
  4. सपर बाजार में बिक्री में वृद्धि (Increases in sale in Super-Market)-आजकल विश्व में बड़े बड़े सुपर स्टोर खुल रहे हैं। यहाँ पर इतनी किस्म की वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं कि ग्राहक प्रचून विक्रेता के पास जाने के स्थान पर सुपर बाज़ार में जाकर खरीदारी करनी पसंद करने लगा है। इसलिए विविधीकरण द्वारा सुपर बाज़ार में बिक्री के लिए वस्तुएं पैदा करना अधिक लाभकारी हो गया है।
  5. सरकार की नीतियों में परिवर्तन (Change in Government Policies)-बाज़ार की संभावना अब बढ़ गई हैं क्योंकि सरकार भी किसानों को वह अनाज अधिक मात्रा में पैदा करने को उत्साहिक करती है जिस की बिक्री बदलते बाज़ार के अनुकूल हो। अब किसान अपनी वस्तु मध्यस्थों के द्वारा बिक्री के स्थान पर सीधे खरीददारों को बेच सकता है इससे भी विविधीकरण को उत्साह प्राप्त हुआ है।
  6. पौष्टिक आहार (Nutrient Food)-पुरानी एक अनाज के प्रयोग के आहार में अब परिवर्तन हुआ है और इसके स्थान पर पौष्टिक आहार के विविधीकरण की ओर रुझान बढ़ रहा है।
  7. जोखिम (Risk)-एक ही अनाज को उगाने में अब किसान को अधिक जोखिम उठाना पड़ता है क्योंकि कृषि प्रकृति पर निर्भर है। इसलिए विविधीकरण द्वारा इस जोखिम को कम किया जा सकता है।
  8. शहरीकरण (Urbanization)-शहरीकरण में वृद्धि होने से किसान अब उन वस्तुओं की खेती करना अधिक लाभदायक समझता है जिससे उसकी आय में वृद्धि हो। शहरों में अधिक फल, सब्जियों की माँग होती है इसलिए विविधीकरण की आवश्यकता है।
  9. मौसम में परिवर्तन (Climate Change)-ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में परिवर्तन हो रहा है। . बेमौसमी वर्षा के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं। इसलिए बहुत से देशों, जैसे कि कैनेडा, कीनिया, भारत, श्रीलंका आदि में विविधीकरण पर बल दिया जा रहा है।
  10. घरेलू नीति (Domestic Policy)-कृषि में बहुत प्रकार की सहायता दी जाती है। यदि कृषि में सबसिडी (Subsidy) न दी जाए तो किसान अपनी लागत पूरी नहीं कर सकता। इसलिए सरकार अब इस सहायता में परिवर्तन करके विविधीकरण के लिए सहायता दे रही है जिससे किसान आत्मनिर्भर हो सके।

विविधीकरण के प्रकार
(Types of Diversification) विविधीकरण दो प्रकार से किया जाता है –

  • फसल उत्पादन में विविधीकरण (Diversification of Crop Pattern)-जब एक फसल गेहूँ और चावल के स्थान पर बहुत सी फसलें पैदा की जाती हैं तो इसको फसल उत्पादन में विविधीकरण कहा जाता है।
  • उत्पादन क्रिया में विविधीकरण (Diversification of Productive Activities)-इसका अर्थ है कि जब श्रम शक्ति को कृषि के स्थान पर अन्य सम्बन्धित कार्यों और गैर-कृषि कार्यों में लगाया जाता है इसको उत्पादन क्रिया में विविधीकरण कहा जाता है। जैसा कि पशुपालन द्वारा मीट, अण्डे, पशम आदि की पैदावार, दूध तथा दूध उत्पादों में वृद्धि, मछली पालन और बागवानी में श्रम शक्ति का प्रयोग करके किसान की आय में वृद्धि करना।

विविधीकरण के लाभ (Benefits of Diversification) विविधीकरण के मुख्य लाभ इस प्रकार हैं –
1. आय में वृद्धि (Increase in Income)-विविधीकरण द्वारा किसान एक ही फसल पर निर्भर होने के स्थान पर बहुत सी फसलों को बीजता है तो उसका जोखिम कम हो जाता है और आय में वृद्धि होती है।

2. अनाज सुरक्षा (Food Security)-जब किसान एक फसल की बिजाई करता है और मौसम खराब होने से अनाज नष्ट हो जाता है तो इससे अनाज की कमी हो जाती है। विविधीकरण द्वारा अलग-अलग वस्तुओं के उत्पादन से अनाज सुरक्षा बनी रहती है।

3. रोज़गार में वृद्धि (Increase in Employment)-जब एक फसल के स्थान पर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की पैदावार की जाती है, तो इससे रोज़गार में वृद्धि होती है। फल सब्जियां, और प्रोसैस्ड फूड में अधिक लोगों को काम मिलता है। इस प्रकार दूध, मुर्गी पालन, मछली पालन आदि काम करने से भी रोजगार में वृद्धि होती है।

4. गरीबी को कम करना (Reducing Poverty)-विकासशील देशों में गरीबी की समस्या भी जटिल समस्या है। विविधीकरण द्वारा गरीबी को कम किया जा सकता है। जब विविधीकरण किया जाता है तो गरीब लोगों को काम प्राप्त होता है जिससे उनकी आय में वृद्धि होती है। आय बढ़ने से गरीबों के जीवन स्तर में सुधार होता है। दूसरे जब विविधीकरण किया जाता है तो निर्यात में वृद्धि होती है इससे भी लोगों की आय में वृद्धि होती है।

5. सीमित साधनों की अधिक उत्पादकता (More Productivity of Scarce Resources)-प्रकृति ने जो साधन दिये हैं वे सीमित मात्रा में हैं जैसे जल, कोयला आदि। इनका उत्तम प्रयोग करने के लिए भी विविधीकरण की जरूरत है। कम जल का प्रयोग करके हम पोल्ट्री फार्म, पशु पालन करके आय अधिक प्राप्त कर सकते हैं।

6. निर्यात में वृद्धि (Increase in Exports) विविधीकरण द्वारा विदेशी उपभोक्ताओं की माँग के अनुसार उत्पादन करके निर्यात में वृद्धि की जा सकती है इससे आय में और वृद्धि होती है।

7. मूल्य में वृद्धि (Adding Value)-यूरोप, अमेरिका आदि देशों में लोगों को तैयार आहार चाहिए जैसे कटा हुआ सलाद, बर्गर, पीज़ा आदि। यदि विविधीकरण द्वारा इन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाया जाता है तो अनाज के मूल्य में वृद्धि की जा सकती है।

8. सरकार की नीति (Government Policies)-सरकार भी किसानों को विविधीकरण के लिए प्रेरित करती है जिससे किसानों की आय में वृद्धि हो। बहुत सी सहायता देकर नए किस्म की वस्तुओं को प्रोत्साहित किया जाता है।

9. शहरीकरण (Urbanization)–लोग ज्यादा शहरों में रहना पसंद करते हैं। इससे लोगों के आहार में परिवर्तन हो रहा है जिसको लोगों की माँग के अनुसार बदल कर लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

10. वातावरण (Environment)-विविधीकरण द्वारा हम भूमि, जल प्रदूषण पर नियन्त्रण कर सकते हैं। इससे धारणीय विकास (Sustainable Development) हो सकता है। इस प्रकार विविधीकरण द्वारा देश में आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जा सकता है। यह न केवल किसानों के हित में है इससे देश का विकास भी तीव्र गति से होगा।

प्रश्न 3.
जैविक खेती से क्या अभिप्राय है ? जैविक खेती के सिद्धान्त बताएं। इसके लाभ तथा त्रुटियाँ बताएँ।
(What is Organic Farming? Explain the principles of organic farming. Explain its merits & limitations.)
उत्तर-
जैविक खेती कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरक शक्ति को बनाए रखने के लिए आवश्यक तथा लाभकारी होता है। विश्व में जनसंख्या की वृद्धि के कारण हरित क्रान्ति ने जन्म लिया। इससे विश्व में रासायनिक खादों का प्रयोग करके अधिक अनाज पैदा करने के लिए यत्न किये गए। इस द्वारा अनाज के उत्पादन में बहुत वृद्धि हुई है परन्तु खाद तथा कीटनाशकों के अधिक प्रयोग के कारण उत्पादन में जहरीला असर बढ़ गया। लोगों को कैंसर, ब्लड प्रेशर, शूगर आदि बीमारियों का शिकार होना पड़ा। इसलिए विश्व भर में जैविक खेती की तरफ रुझान बढ़ रहा है। इसमें पुरातन ढंग से खेती करने का रुझान बढ़ गया है। इसमें पशुओं का गोबर और कूड़ा-कर्कट का प्रयोग करके अनाज की पैदावार की जाती है। इसको जैविक खेती (Organic Farming) कहा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 25 सहकारिता, कृषि में विभिन्नता और जैविक खेती

जैविक खेती के मुख्य सिद्धान्त (Main principles of Organic Farming)-UNO के विशेषज्ञों के अनुसार, “जैविक खेती प्राकृतिक तथा धारणीय प्रबन्धक विधि के विशेष मूल्यों पर आधारित है।” (Organic Farming is based on unique values of natural & sustainable farm management practices.” U.N.O. Experts. यह विधि निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है –
1. सेहत का सिद्धान्त (Principle of Health)-जैविक खेती सेहत के सिद्धान्त को ध्यान में रख कर अपनाई जाती है। इससे भूमि, जल, वायु आदि को प्रदूषित होने से रोका जाता। यह विधि मनुष्य, पशुओं तथा पक्षियों के लिए भी लाभदायक है।

2. वातावरण का सिद्धान्त (Principle of Ecology)-जैविक खेती वातावरण को ठीक रखने के उद्देश्य से अपनाई जाती है। इसके द्वारा न केवल भूमि, जल, वायु और सूर्य की ऊर्जा को ठीक रखा जाता है। बल्कि इस विधि द्वारा मनुष्यों, जानवरों, पशु-पक्षियों को भी प्रदूषण से बचाया जाता है। इसलिए यह विधि वातावरण को शुद्ध रखने के लिए भी उचित मानी जाती है।

3. उचित्ता का सिद्धान्त (Principle of Fairness)-जैविक खेती में लोगों के आहार सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पैदावार करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि इसका देश पर आर्थिक, सामाजिक तथा मनोविज्ञानिक बुरा प्रभाव न पड़े।

4. पूर्ण ध्यान रखने का सिद्धान्त (Principle of Care)-इस विधि द्वारा यह ध्यान रखा जाता है कि जो लोग अलग-अलग किस्म के काम करते हैं उन का सेहत तथा लागत में अधिक प्रभाव न पड़े। इस से लोगों की भलाई को भी ध्यान में रखा जाता है।

जैविक खेती में फसलों के बदलाव (Crop Rotation), देशी खाद, अच्छे शुद्ध बीज, पौधों में उचित दूरी पर पैदावार की जाए, जिससे प्राप्त अनाज की गुणवत्ता कायम रहे। भारत में जैविक खेती को सबसे पहले मध्य प्रदेश में चालू किया गया। पहले प्रत्येक जिले में एक गाँव का चुनाव किया। जिसमें जैविक खेती शुरू की गई। बाद में 2 गाँवों और फिर 5 गाँवों में जैविक खेती चाल की गई। इन गाँवों को जैविक गाँवों का नाम दिया गया। इस समय करीब 4000 गाँवों में जैविक खेती की जा रही है। जैविक खेती से उपजाई गई फसल का रेट काफी अधिक होता है। गेहूँ जोकि जैविक खेती से बनाया जाता है उसका आटा लगभग ₹ 60 प्रति किलो निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार जैविक खेती से अधिक आय भी होती है।

जैविक खेती के लाभ (Merits of Organic Farming) –

  1. इस द्वारा सेहत के लिए शुद्ध वातावरण प्राप्त होता है।
  2. इस द्वारा भूमि, जल, वायु आदि को प्रदूषण से हानि नहीं होती।
  3. इस द्वारा भूमि की चिरकालीन उपजाऊ शक्ति बनी रहती है।
  4. प्राकृतिक साधनों का उचित प्रयोग होता है और इससे भविष्य में आने वाली नस्लों को भी अच्छा वातावरण मिलता है।
  5. जैविक खेती से इंधन की लागत कम हो जाती है। इससे प्रत्येक को अच्छा अनाज उचित कीमतों पर प्राप्त होता है।

जैविक खेती में कम ऊर्जा का प्रयोग होता है और फसलों के खराब होने की सम्भावना घट जाती है। इससे कैमीकल क्रियाओं से होने वाला खतरा कम हो जाता है।

जैविक खेती की सीमाएं (Limitations of Organic Farming) –

  • जैविक खाद की सीमित मात्रा होने के कारण सभी लोगों को खाद प्राप्त करने में कठिनाई होती है।
  • जैविक खेती द्वारा अनाज का उत्पादन कम हो जाता है। इसलिए किसान अपनी आय को कम नहीं करना चाहते। यदि उपज कम होती है तो कीमत अधिक रखनी पड़ती है जो कि लोग देना पसंद नहीं करेंगे।
  • जैविक खेती से जो उपज पैदा होती है इसका उचित स्तर भारतीय किसानों द्वारा संभव नहीं है। लोग अधिकतर अनपढ़ होने के कारण इन बातों का ध्यान नहीं रख सकते।
  • जैविक खेती द्वारा उपज के मण्डीकरण की समस्या उत्पन्न हो सकती है भारत में 90% लोगों की आय बहुत कम होने के कारण जैविक अनाज को खरीदना मुश्किल होगा। परन्तु आजकल जैविक खेती की तरफ रुझान बढ़ रहा है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 30 सह-सम्बन्ध

PSEB 12th Class Economics सह-सम्बन्ध Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
सह-सम्बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जब दो या दो से अधिक मात्राएं सहानुभूति में परिवर्तित होती हैं जिससे एक में परिवर्तन के कारण दूसरे में भी परिवर्तन होता है तो वे सह-सम्बन्धित कहलाती हैं।

प्रश्न 2.
सह-सम्बन्ध (Correlation) तथा प्रतीपगमन (Regression) में क्या भेद हैं ?
उत्तर-
सह-सम्बन्ध से दो या दो से अधिक चरों में परस्पर सम्बन्ध की मात्रा (Degree) का ज्ञान होता है जबकि प्रतीपगमन द्वारा इस सम्बन्ध की प्रकृति (Nature) का पता चलता है।

प्रश्न 3.
दो अथवा दो से अधिक चरों अथवा समूहों में निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है तो इसको ………. कहते हैं।
(a) अपकिरण
(b) प्रमाप विचलन
(c) सह-सम्बन्ध
(d) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(c) सह-सम्बन्ध ।

प्रश्न 4.
जब दो चरों में एक ही दिशा में परिवर्तन होता है तो इसको …………. सह-सम्बन्ध कहते हैं।
(a) धनात्मक
(b) ऋणात्मक
(c) एक दिशाई
(d) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(a) धनात्मक।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध

प्रश्न 5.
जब दो चरों में परिवर्तन विपरीत दिशा में होता है तो इसको ……….. सह-सम्बन्ध कहते हैं।
(a) धनात्मक
(b) ऋणात्मक
(c) विपरीत दिशाई
(d) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(b) ऋणात्मक।

प्रश्न 6.
जब दो चरों में स्थाई रूप में समान अनुपात में परिवर्तन होता है तो इसको ……….. कहते हैं।
उत्तर-
समरेखीय सह-सम्बन्ध।

प्रश्न 7.
जब दो चरों में अस्थाई और असमान रूप में परिवर्तन हो तो इसको ………………… कहते हैं।
उत्तर-
वक्र रेखीय सह-सम्बन्ध।

प्रश्न 8.
सह-सम्बन्ध गुणांक विधि का निर्माण …………….. ने किया था।
(a) कार्ल पीयर्सन
(b) स्पीयर मैन
(c) बाऊले
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(a) कार्ल पीयर्सन।

प्रश्न 9.
पद सह-सम्बन्ध विधि का निर्माण ……………….. ने किया था।
उत्तर-
चार्ल्स एडवर्ड स्पीयर मैन। (1904)।

प्रश्न 10.
सह-सम्बन्ध गुणांक तथा पद सह-सम्बन्ध गुणांक में कोई अन्तर नहीं।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 11.
जब दो चरों में परिवर्तन एक ही दिशा में होता है इसको धनात्मक सह-सम्बन्ध कहते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 12.
जब दो चरों में परिवर्तन विपरीत दिशा में होता है तो इसको ऋणात्मक सह-सम्बन्ध कहते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 13.
जब दो चरों में सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है तो इसको सह-सम्बन्ध कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 14.
जब तीन अथवा इससे अधिक चरों के सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है तो इसको बहुमुखी सहसम्बन्ध कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 15.
सह-सम्बन्ध का मूल्य + 1 से – 1 के बीच में हो सकता है।
उत्तर-
सही।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध

प्रश्न 16.
कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध गुणांक का सूत्र लिखो।
उत्तर-
r= \(\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times \Sigma y^{2}}}\)

प्रश्न 17.
लघु विधि अनुसार सह-सम्बन्ध गुणांक का सूत्र लिखो।
उत्तर-
r= \(\frac{\Sigma d x^{\prime} d y^{\prime}-\frac{\Sigma d x^{\prime} \times \Sigma d y^{\prime}}{\mathrm{N}}}{\sqrt{\Sigma d x^{2}-\left(\frac{\Sigma d x}{\mathrm{~N}}\right)^{2} \sqrt{\Sigma d y^{2}-\frac{(\Sigma d y)^{2}}{\mathrm{~N}}}}}\)

प्रश्न 18.
स्पीयरमैन द्वारा दिये गए श्रेणी अन्तर के सह-सम्बन्ध का सूत्र लिखो।
उत्तर-
rk = \(1-\frac{6\left(\Sigma D^{2}\right)}{N^{3}-N}\)

प्रश्न 19.
श्रेणी सह-सम्बन्ध का प्रयोग गुणात्मक सम्बन्ध को प्रकट करने के लिए किया जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 20.
सह-सम्बन्ध की मात्राएं पांच प्रकार की होती हैं।
उत्तर-
सही।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध गुणांक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सह-सम्बन्ध तकनीक ऐसी सांख्यिकी तकनीक है, जिसकी मदद से दिए गए चरों के सह-सम्बन्ध के आकार, स्वभाव, दिशाओं तथा महत्त्व का अध्ययन किया जाता है। सह-सम्बन्ध द्वारा इस बात की पढ़ाई की जाती है कि क्या दिए गए चरों में सह-सम्बन्ध है ? यदि सह-सम्बन्ध है तो कितनी मात्रा में है ? क्या यह सम्बन्ध धनात्मक है अथवा ऋणात्मक है। इसलिए यूले तथा कैंडल अनुसार, “सह-सम्बन्ध विश्लेषण का सम्बन्ध इस बात से होता है कि दो चरों में सम्बन्ध किस तरह का है।”

प्रश्न 2.
सह-सम्बन्ध के कोई दो गुण बताएँ।
उत्तर-
गुण अथवा महत्त्व-कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध गुणांक के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं –

  1. दो चरों के सम्बन्ध की दिशा का पता लगता है। इस द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं कि दो चरों में सम्बन्ध धनात्मक है अथवा ऋणात्मक है।
  2. दो चरों में सह-सम्बन्ध की मात्रा का ज्ञान होता है। दो चरों में पूर्ण धनात्मक, ऊँचे दर्जे का धनात्मक कम दर्जे का धनात्मक सम्बन्ध पाया जाता है अथवा कि पूर्ण ऋणात्मक, ऊँचे दर्जे का धनात्मक, कम दर्जे का धनात्मक सम्बन्ध है अथवा कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका ज्ञान सह-सम्बन्ध गुणांक द्वारा होता है।

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प्रश्न 3.
सह-सम्बन्ध के कोई दो दोष बताएँ।
उत्तर-
दोष (Demerits)

  • साधारण तौर पर रेखीय सम्बन्ध की कल्पना करके सह-सम्बन्ध का माप किया जाता है, परंतु यह भी सम्भव है कि सम्बन्ध गैर-रेखीय हों। इस स्थिति में सह-सम्बन्ध की कल्पना गलत हो जाती है।
  • सीमान्त मूल्यों अर्थात् बहुत बड़ी अथवा बहुत छोटी मदों का प्रभाव सह-सम्बन्ध पर बहुत अधिक होता है।

प्रश्न 4.
स्पीयरमैन की दर्जा सह-सम्बन्ध विधि से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
इंग्लैंड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चार्ल्स एडवर्ड स्पीयरमैन ने 1904 में गुणात्मक तथ्यों के बीच सह-सम्बन्ध का पता करने के लिए एक विधि का निर्माण किया जिस विधि को स्पीयरमैन की दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक विधि कहा जाता है। इस विधि को स्पीयरमैन की दर्जा अन्तर विधि भी कहा जाता है। स्पीयरमैन के अनुसार कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जिनका अंकों में माप नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप सुन्दरता, भाषण मुकाबला, वीरता इत्यादि चरों को अंकों में नहीं दर्शाया जा सकता, बल्कि ऐसी स्थिति में प्राथमिकता क्रम दिए जाते हैं।

प्रश्न 5.
जब दर्जे दिए हों तो दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक के माप का सूत्र बताएँ।
उत्तर-
rk = \(1-\frac{6 \Sigma D^{2}}{N^{3}-N}\)

प्रश्न 6.
जब दर्जे न दिए गए हों तो दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक के माप सूत्र बताएँ। जब दर्जे एक-दूसरे के सामान्य हों।
उत्तर-
rk =\(1-\frac{6\left[\Sigma\mathrm{D}^{2}+\frac{1}{12}\left(m^{3}-m\right)+\frac{1}{12}\left(m^{3}-m\right) \cdots \cdots \cdots\right]}{\mathrm{N}^{3}-\mathrm{N}}\)

III. लघु उत्तरीय प्रश्न | (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध गुणांक से क्या अभिप्राय है ? इसके मुख्य लक्षण बताओ।
उत्तर-
सह-सम्बन्ध तकनीक ऐसी सांख्यिकी तकनीक है, जिसकी मदद से दिए गए चरों के सह-सम्बन्ध के आकार, स्वभाव, दिशाओं तथा महत्त्व का अध्ययन किया जाता है। सह-सम्बन्ध द्वारा इस बात की पढ़ाई की जाती है कि क्या दिए गए चरों में सह-सम्बन्ध है ? यदि सह-सम्बन्ध है तो कितनी मात्रा में है ? क्या यह सम्बन्ध धनात्मक है-
अथवा
ऋणात्मक है। इसलिए यूले तथा कैंडल अनुसार, “सह-सम्बन्ध विश्लेषण का सम्बन्ध इस बात से होता है कि दो चरों में सम्बन्ध किस तरह का है।”मुख्य लक्ष्ण (Main Features)-कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध के मुख्य लक्ष्ण अथवा विशेषताएं इस प्रकार हैं_-

  1. दिशा का ज्ञान-सह-सम्बन्ध द्वारा दो चरों की परिवर्तन की दिशा का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट किया जा सकता है कि दो चरों में धनात्मक अथवा ऋणात्मक सह-सम्बन्ध है।
  2. मात्रा का ज्ञान-दो चरों में यदि सम्बन्ध है तो कितना है। इसकी मात्रा में परिवर्तन – 1 से + 1 के बीच हो सकता है।
  3. अच्छा माप-सह-सम्बन्ध में सांख्यिकी का अच्छा माप होता है, क्योंकि यह समान्तर औसत तथा प्रमाप विचलन पर आधारित है।
  4. एकरूपता-सह-सम्बन्ध का गुणांक एकरूपता की विशेषता रखता है अर्थात् RXY = RYX होता है।

प्रश्न 2.
कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध गुणांक के गुण तथा दोष बताओ।
अथवा
सह-सम्बन्ध का महत्त्व बताओ।
उत्तर-
गुण अथवा महत्त्व-कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध गुणांक के मुख्य गुण अग्रलिखित हैं-

  1. दो चरों के सम्बन्ध की दिशा का पता लगता है। इस द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं कि दो चरों में सम्बन्ध धनात्मक है अथवा ऋणात्मक है।
  2. दो चरों में सह-सम्बन्ध की मात्रा का ज्ञान होता है। दो चरों में पूर्ण धनात्मक, ऊँचे दर्जे का धनात्मक कम दर्जे का धनात्मक सम्बन्ध पाया जाता है अथवा कि पूर्ण ऋणात्मक, ऊँचे दर्जे का धनात्मक, कम दर्जे का धनात्मक सम्बन्ध है अथवा कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका ज्ञान सह-सम्बन्ध गुणांक द्वारा होता है।
  3. सह-सम्बन्ध गुणांक एक आदर्श माप है, क्योंकि यह समान्तर औसत तथा प्रमाप विचलन पर आधारित है।
  4. सह-सम्बन्ध गुणांक न केवल सैद्धान्तिक समस्याओं का, बल्कि व्यावहारिक समस्याओं का हल करने के लिए भी लाभदायक होता है।
  5. सह-सम्बन्ध पर अन्य सांख्यिकी विधियां भी आधारित हैं।

दोष (Demerits) –

  • साधारण तौर पर रेखीय सम्बन्ध की कल्पना करके सह सम्बन्ध का माप किया जाता है, परंतु यह भी सम्भव है कि सम्बन्ध गैर-रेखीय हों। इस स्थिति में सह-सम्बन्ध की कल्पना गलत हो जाती है।
  • सीमान्त मूल्यों अर्थात् बहुत बड़ी अथवा बहुत छोटी मदों का प्रभाव सह-सम्बन्ध पर बहुत अधिक होता है।
  • सह-सम्बन्ध का प्रयोग सावधानी से करने की आवश्यकता होती है नहीं तो परिणाम गलत प्राप्त हो जाते
  • इस द्वारा गुणात्मक तत्त्वों ईमानदारी, सुन्दरता इत्यादि का अध्ययन नहीं किया जाता।

प्रश्न 3.
कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध की गणना के लिए प्रत्यक्ष विधि की व्याख्या करो।
उत्तर-
प्रत्यक्ष विधि (Direct Method)-कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध की गणना प्रत्यक्ष विधि द्वारा इस प्रकार की जाती है-

  1. दो श्रेणियों X तथा Y की समान्तर औसत (\(\overline{\mathrm{X}}\) तथा \(\bar{Y}\)) का पता किया जाता है।
  2. दोनों श्रेणियों के मूल्यों के समान्तर औसतों का विचलन निकाला जाता है अर्थात् X = (x –\(\overline{\mathrm{X}}\) ) तथा Y = (Y – \(\overline{\mathrm{Y}}\) ) का पता किया जाता है।
  3. विचलनों X तथा Y के वर्ग बनाकर इन वर्गों का जोड़ Σx2 तथा Σy2 प्राप्त किया जाता है।
  4. दोनों श्रेणियों के विचलनों X तथा Y को गुणा करके गुणनफल XY प्राप्त किया जाता है। इस गुणनफल के जोड़ को Σxy द्वारा प्रकट किया जाता है।
  5. सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना निम्नलिखित सूत्र द्वारा की जाती है। r = \(\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times \Sigma y^{2}}} \)

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प्रश्न 4.
सह-सम्बन्ध गुणांक का अर्थशास्त्र के लिए विशेषकर क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
अर्थशास्त्र में महत्त्व
1. नियमों की परख के लिए-अर्थशास्त्र के बहुत-से नियमों की परख सह-सम्बन्ध गुणांक से की जाती है। उदाहरणस्वरूप मांग के नियम में वस्तु की कीमत तथा वस्तु की मांग के ऋणात्मक सम्बन्ध को दिखाया जाता है। इस प्रकार पूर्ति के नियम में वस्तु की कीमत तथा इसकी पूर्ति का सीधा तथा धनात्मक सह-सम्बन्ध होता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र के नियमों की परख सह-सम्बन्ध द्वारा की जाती है।

2. अनुसन्धान के लिए-अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अनुसन्धान के कार्य के लिए भी सह-सम्बन्ध की सहायता प्राप्त की जाती है। अनुसन्धान द्वारा नियमों का निर्माण किया जाता है। उन नियमों की परख सह-सम्बन्ध द्वारा की जाती है।

3. नीति निर्माण के लिए-सह-सम्बन्ध विश्लेषण न केवल सैद्धान्तिक तौर पर ही महत्त्वपूर्ण होता है बल्कि यह तो व्यावहारिक तौर पर भी लाभदायक है। गरीबों को दी गई सहायता से उनकी आर्थिक स्थिति में कितना सुधार हुआ है इसका ज्ञान सह-सम्बन्ध की विधि द्वारा किया जा सकता है।

4. आर्थिक समस्याओं के लिए-आर्थिक समस्याएं निर्धनता, बेरोज़गारी, मुद्रा-स्फीति का हल सह-सम्बन्ध द्वारा किया जा सकता है। मुद्रा के फैलाव से रोज़गार में कितनी वृद्धि होती है तथा कीमत स्तर पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका ज्ञान सह-सम्बन्ध द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
प्रतीपगमन (Regression) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रतीपगमन विश्लेषण वह क्रिया है जिस द्वारा एक चर का अनुमान दूसरे चरों से लगा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप जब कीमत में विशेष दर पर परिवर्तन होता है तो मांग में कितना परिवर्तन होगा। इस तरह हमारे पास किसी देश की जनसंख्या के आंकड़े प्राप्त हैं उनमें से कोई एक अंक स्पष्ट नहीं तो प्रतीपगमन विश्लेषण की सहायता से उस अंक की खोज की जा सकती है।

इस प्रकार दो अथवा दो से अधिक चरों के लिए कारणात्मक सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए इस विधि का निर्माण किया गया है। इससे भविष्य के बारे अनुमान लगाया जा सकता है। इस विधि की सहायता से देश की सरकार यह बताती है कि पिछले वर्ष कितनी गेहूँ की पैदावार हुई है तथा अगले वर्ष कितनी गेहूँ उत्पन्न होने की सम्भावना है। इस प्रकार आंकड़ों के सह-सम्बन्ध से प्रतीपगमन किया जाता है। प्रतीपगमन विश्लेषण सह-सम्बन्ध विश्लेषण पर आधारित है।

प्रश्न 6.
सह-सम्बन्ध तथा प्रतीपगमन में अंतर बताओ।
उत्तर-
सह-सम्बन्ध तथा प्रतीपगमन में मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं –

  1. मात्रा तथा स्वरूप का ज्ञानसह-सम्बन्ध-इस विश्लेषण से दो अथवा दो से अधिक चरों में सम्बन्ध की मात्रा (Degree) का ज्ञान प्राप्त होता प्रतीपगमन-इस विश्लेषण से दो अथवा दो से अधिक चरों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है। सह-सम्बन्ध विश्लेषण दो अथवा दो से अधिक चरों के सह-परिवर्तन की जाँच करता है, जबकि प्रतीपगमन इन चरों के परिवर्तन के स्वरूप तथा मात्रा की गणना करके भविष्य सम्बन्धी अनुमान लगाने की योग्यता प्रदान करता है।
  2. कारण परिणाम का सम्बन्ध सह-सम्बन्ध-सह-सम्बन्ध विश्लेषण में एक चर में परिवर्तन कारण होती है तथा दूसरे चर में परिवर्तन उसका परिणाम होता है। यह अनिवार्य नहीं। सह-सम्बन्ध में कारण तथा परिणाम के सम्बन्ध को स्पष्ट नहीं किया जाता बल्कि दो चरों में परिवर्तन की दिशा की अभिव्यक्ति की जाती है। प्रतीपगमन-इस विश्लेषण में कारण तथा परिणाम के सम्बन्ध को विशेष तौर पर स्पष्ट किया जाता है। इस द्वारा चरों के मूल्यों में सह-सम्बन्ध मात्रा तथा दिशा का माप किया जाता है।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
सह-सम्बन्ध का अर्थ बताओ। सह-सम्बन्ध के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
(Explain the meaning of Correlation. Discuss the importance or significance of Correlation.)
उत्तर-
अब तक जिन सांख्यिकी विधियों का अध्ययन किया गया है, उन का सम्बन्ध एक चर से सम्बन्धित था, परन्तु व्यावहारिक जीवन में दो अथवा दो से अधिक चरों का परस्पर सम्बन्ध पाया जाता है। उदाहरणस्वरूप-

  1. कीमत में परिवर्तन से मांग में परिवर्तन हो जाता है।
  2. आय में परिवर्तन से व्यय में परिवर्तन होता है।
  3. किसी वस्तु के विज्ञापन से बिक्री में परिवर्तन होता है, इत्यादि।

इस प्रकार दो चरों में उस समय सह-सम्बन्ध कहा जाता है, जब दोनों में एक समय ही परिवर्तन हो जाता है। एक चर में परिवर्तन कारण दूसरे चर में परिणामस्वरूप में सम्बन्ध पाया जाता है। इस सम्बन्धित सांख्यिकी तकनीक को सह-सम्बन्ध कहते हैं। दो चरों में उससे सह-सम्बन्ध कहा जाता है, जब दोनों चरों में एकत्रित परिवर्तन आएं।
परिभाषाएं (Definitions) –

  1. यूले तथा कैंडल के अनुसार, “सह-सम्बन्ध विश्लेषण का सम्बन्ध यह बताता है कि दो चरों में सम्बन्ध किस तरह का है।” (“Correlation analysis deals with the study of the way in which the two variables are related.”-Yule & Kendall)
  2. प्रो० ए० एम० टयूटल के अनुसार, “दो अथवा दो से अधिक चरों के सह-परिवर्तनों के विश्लेषण को सह-सम्बन्ध कहा जाता है।” (“Correlation is an analysis of the variance between two or more variables.” -A.M. Tuttle)

सह-सम्बन्ध की विशेषताएं (Characteristics of Correlation)-
अथवा
सह-सम्बन्ध का महत्त्व-
(Importance of Correlation) सह-सम्बन्ध की विशेषताओं द्वारा इसके महत्त्व का पता लगता है –

  1. सह-सम्बन्ध द्वारा दो अथवा दो से अधिक चरों में पाए जाने वाले सम्बन्धों की मात्रा तथा दिर.. को स्पष्ट किया जाता है।
  2. सह-सम्बन्ध के कारण तथा परिणाम का सम्बन्ध नहीं बताता, बल्कि दो चरों के परस्पर सम्बन्ध को प्रकट करता है कि उसका उद्देश्य मात्र तथा दिशा का प्रगटावा करना होता है।
  3. प्रतीपगमन विधि सह-सम्बन्ध विधि पर आधारित है, यदि चरों में सह-सम्बन्ध हों तो एक चर के मूल्य का पता होने की स्थिति में दूसरे चर के मूल्य का अनुमान लगाया जा सकता है।
  4. व्यापारिक क्षेत्रों में भविष्य के लिए अनुमान लगाने के लिए सह-सम्बन्ध विश्लेषण लाभदायक होता है।
  5. सह-सम्बन्ध का प्रभाव हमारी भविष्यवाणी की अनिश्चितता के विस्तार को कम करता है।
  6. सह-सम्बन्ध की सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक महत्ता होने के कारण इसका प्रयोग वैज्ञानिक अनुसन्धानों में दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है।
  7. सह-सम्बन्ध द्वारा चरों सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इस द्वारा स्वतन्त्र तथा आधारित चरों का पता लगता है। इस प्रकार सह-सम्बन्ध की विशेषताएं ही सह-सम्बन्ध विश्लेषण के महत्त्व को स्पष्ट करती हैं।

प्रश्न 2.
सह-सम्बन्ध की मात्राओं की व्याख्या करो। (Discuss the degrees of Correlation.)
अथवा
सह-सम्बन्ध गुणांक से क्या अभिप्राय है ? सह-सम्बन्ध की मात्राओं को स्पष्ट करो।
(What is meant by Co-efficient of Correlation ? Discuss the degrees of Correlation.)
उत्तर-
सह-सम्बन्ध गुणांक का अर्थ-वह गुणांक जोकि सह-सम्बन्ध की मात्रा तथा दिशा को मापता है उसको सह-सम्बन्ध गुणांक कहा जाता है। सह-सम्बन्ध गुणांक को अंग्रेजी भाषा के अक्षर (r) द्वारा प्रकट किया जाता है। यदि X तथा Y दो चर हैं तो rxy इन दोनों चरों की मात्रा तथा दिशा को दर्शाता है।

सह-सम्बन्ध गुणांक की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-
1. सह-सम्बन्ध के गुणांक का विस्तार – 1 से + 1 तक है अर्थात् सह-सम्बन्ध गुणांक का मूल्य – 1 से कम अथवा + 1 से अधिक नहीं हो सकता।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 1
गुणांक का विस्तार – 1 से + 1 तक होता है।

2. सह-सम्बन्ध का गुणांक आरम्भ में परिवर्तनों से स्वतन्त्र है अर्थात् किसी भी स्थिर को X अथवा Y अथवा दोनों के मूल्यों से घटा दिया जाए तो इसका सह-सम्बन्ध गुणांक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

3. सह-सम्बन्ध गुणांक एक शुद्ध अंक होता है अर्थात् इसकी कोई भी इकाई नहीं होती।

4. सह-सम्बन्ध गुणांक एकरूपता की विशेषता रखता है, अर्थात्,
rxy = ryx
यदि हम X तथा Y को किसी स्थिर में विभाजित करते हैं तो इससे सह-सम्बन्ध गुणांक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

सह-सम्बन्ध की मात्राएं-
सह-सम्बन्ध गुणांक से सह-सम्बन्ध की दिशा तथा मात्रा का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार दिशा तथा मात्रा के आधार पर सह-सम्बन्ध गुणांक निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 2
ऊपर दिए गए चार्ट के आधार पर सह-सम्बन्ध की मात्राओं की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
1. पूर्ण सह-सम्बन्ध (Perfect Correlation)-सह-सम्बन्ध उस स्थिति में पूर्ण सह-सम्बन्ध कहा जाता है, जब दोनों चरों में समान दर पर परिवर्तन होता है, पूर्ण सह-सम्बन्ध दो प्रकार का होता है –

  • पूर्ण धनात्मक (Perfect Positive)-सह-सम्बन्ध को पूर्ण धनात्मक कहा जाता है जब सह सम्बन्ध गुणांक (+ 1) होता है।
  • पूर्ण ऋणात्मक (Perfect of Negative)-सह-सम्बन्ध को पूर्ण ऋणात्मक कहा जाता है, जब सह-सम्बन्ध गुणांक (- 1) होता है।

2. ऊँचे दों का सह-सम्बन्ध (High degree of Correlation)-जब दो चरों के सह-सम्बन्ध की बहुत अधिक मात्रा हो तो इसको ऊँचे दों का सह-सम्बन्ध कहा जाता है। यह भी दो प्रकार का होता है

  • ऊँचे दों का धनात्मक सह-सम्बन्ध (High degree of Positive Correlation)-इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक + 0.75 से + 1 के बीच होता है।
  • ऊँचे दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (High degree of Negative Correlation)-जब दो शृंखलाओं में सह-सम्बन्ध गुणांक – 0.75 से – 1 के बीच होता है तो इसको ऊँचे दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध कहा जाता है।

3. मध्य दों का सह-सम्बन्ध (Medium Correlation)-जब चरों के बीच सह-सम्बन्ध की मात्रा न तो बहुत अधिक तथा न ही बहुत कम हो तो ऐसी स्थिति में सह-सम्बन्ध को मध्य दों वाला कहा जाता है।
यह भी दो प्रकार का होता है-

  • मध्य दों का धनात्मक सह-सम्बन्ध (Medium degree of Positive Correlation) इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक – 0.25 से – 0.75 के बीच होता है।
  • मध्य दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (Medium degree of Negative Correlation) इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक – 0.25 से – 0.75 के बीच होता है।

4. निम्न दों का सह-सम्बन्ध (Low degree of Correlation)-जब दो चरों में सह-सम्बन्ध कम मात्रा में पाया जाता है तो इसको निम्न दों का सह-सम्बन्ध कहा जाता है।
यह दो प्रकार का हो सकता-

  • निम्न दर्जी का धनात्मक सह-सम्बन्ध (Low degree of Positive Correlation)-जब इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक 0 से + 0.25 के बीच होता है।
  • निम्न दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (Low degree of Negative Correlation)-इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक 0 से – 0.25 के बीच होता है| (a) निम्न दों का धनात्मक सह-सम्बन्ध

5. सह-सम्बन्ध का अभाव (No Correlation)-जब दो चरों में कोई सम्बन्ध न पाया जाए अर्थात् एक चर में परिवर्तन से दूसरे चर पर पड़ने वाला प्रभाव कोई न हो तो इसको सह-सम्बन्ध का अभाव कहा जाता है। इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक शून्य (0) होता है।

प्रश्न 3.
सह-सम्बन्ध पता लगाने की कौन-सी विधियां हैं ? बिखरे बिन्दु चित्र विधि की व्याख्या करो। इस विधि के गुण तथा दोष बताओ।
उत्तर-
दो चरों के परस्पर सम्बन्ध का पता लगाने के लिए मुख्य तौर पर निम्नलिखित विधियां हैं
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 3
1. बिखरे बिन्दु चित्र विधि (Scatter Diagram Method)
2. कार्ल पीयर्सन की सह-सम्बन्ध गुणांक विधि (Karl Pearsons co-efficient of correlation)
3. सपीयरमैन की दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक विधि (Spearman’s co-efficient of Rank correlation method) चाहे सह-सम्बन्ध का पता करने के लिए कुछ अन्य विधियां भी हैं, परन्तु हम इन तीन विधियों का अध्ययन करेंगे।

1. बिखरे बिन्दु चित्र विधि (Scatter Diagram Method)-दो चरों में सह-सम्बन्ध का पता करने के लिए यह सबसे सरल विधि है। बिखरे बिन्दु चित्र द्वारा दो चरों के परस्पर सह-सम्बन्ध की दशा तथा मात्रा का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ग्राफ पेपर पर स्वतन्त्र चरों को X अक्ष पर तथा आधारित चरों को Y अक्ष पर प्रदर्शित किया जाता है।

X श्रेणी तथा Y श्रेणी के जोड़े को एक बिन्दु द्वारा अंकित किया जाता है। इस प्रकार सभी जोड़ों के बिन्दु चित्र में बनाए जाते हैं। इस तरह X तथा Y के जितने जोड़े होते हैं, उनते ही बिन्दु अंकित हो जाते हैं। यह सभी बिन्दु एक निश्चित प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। इन बिन्दुओं की दिशा को देखकर धनात्मक अथवा ऋणात्मक सह-सम्बन्ध का पता लगता है, जबकि इन बिन्दुओं के बिखराव को देखकर सह-सम्बन्ध की मात्रा का ज्ञान प्राप्त होता है। बिखरे बिन्दु चित्र निम्नलिखित किस्म के हो सकते हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 4

1. पूर्ण धनात्मक सह-सम्बन्ध (Perfect Positive Correlation)-जब बिन्दु एक सीधी रेखा का रूप धारण कर लेते हैं तथा उनकी ढाल धनात्मक होती है तो इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक + 1 होगा।

2. ऊँचे दों का धनात्मक सह-सम्बन्ध (High degree of Positive Correlation)-जब भिन्न भिन्न मूल्यों के बिन्दु नीचे से ऊपर अर्थात् बाएं से दाएं ओर ऊपर की ओर बढ़ते हैं तथा सीधी रेखा के नज़दीक होते हैं तो इस स्थिति में ऊँचे दों का धनात्मक सह-सम्बन्ध होता है तथा सह-सम्बन्ध गुणांक (r) 0.5 से 1 तक होगा।

3. कम दों का धनात्मक सह-सम्बन्ध (Low degree of Positive Correlation)-जब दो चरों के बिन्दु बाएं से दाएं ओर ऊपर की ओर बढ़ते हैं, परन्तु रेखा से बिन्दुओं का बिखराव अधिक होता है तो इसको कम दों का सह-सम्बन्ध कहा जाता है। इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक 0 से 0.5 तक होता

4. सह-सम्बन्ध की कमी (No Correlation)-जिस समय बिन्दुओं का फैलाव अनियत होता है, एक चर में परिवर्तन से दूसरा चर बहुत अधिक अथवा घट जाता है या स्थिर रहता है तो बिन्दु बिखरे होते हैं तथा उनमें कोई निश्चित प्रवृत्ति नज़र नहीं आती तो इस स्थिति को सह-सम्बन्ध की कमी कहा जाता है तथा सह-सम्बन्ध गुणांक 0 (शून्य) होता है।

5. पूर्ण ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (Perfect Negative Correlation)-जब दो चरों का सम्बन्ध एक सीधी रेखा का रूप धारण कर लेता है तो वह रेखा बाईं ओर से दाईं ओर नीचे झुकी होती है तो इस स्थिति को पूर्ण ऋणात्मक सह-सम्बन्ध कहा जाता है, जैसे कि मांग वक्र होती है। इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक r = – 1 होता है।

6. ऊँचे दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (High degree of Negative Correlation)-जब भिन्न भिन्न मूल्यों के बिन्दु बाईं ओर से दाईं ओर को नीचे की ओर जाते हैं तथा ऋणात्मक ढाल वाली रेखा के नज़दीक होते हैं तो इस स्थिति को ऊँचे दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध कहा जाता है। इस स्थिति में सह-सम्बन्ध गुणांक r = – 0.5 से – 1 तक होता है।

7. कम दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध (Low degree of Negative Correlation)-जब दो चरों के बिन्दु बाईं से दाईं ओर नीचे की ओर जाते हैं तो सीधी रेखा से उन बिन्दुओं की अधिक दूरी होती है तो इस सह-सम्बन्ध को कम दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध कहा जाता है। इस स्थिति में सहसम्बन्ध गुणांक 0 से – 0.5 तक होता है।

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कार्ल पीयर्सन की सह-सम्बन्ध गुणांक विधि (Karl Pearson’s Co-efficient of Correlation) –

प्रश्न 4.
कार्ल पीयर्सन की सह-सम्बन्ध गुणांक विधि से क्या अभिप्राय है ? इस विधि द्वारा सह-सम्बन्ध की गणना कैसे की जाती है ?
(What is Karl Pearson’s Coefficient of Correlation Method? How co-efficient of correlation is calculated with this method ?)
उत्तर-
कार्ल पीयर्सन महत्त्वपूर्ण सांख्यिकी शास्त्री हुए हैं। उन्होंने 1870 में सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना के लिए वैज्ञानिक तथा गणितीय विधि का निर्माण किया। कार्ल पीयर्सन अनुसार दो चरों के परस्पर सम्बन्ध को अंग्रेज़ी के अक्षर r द्वारा प्रकट किया जा सकता है। इस विधि के अनुसार r का मूल्य निश्चित तथा स्थाई होता है। यह विधि समान्तर औसत तथा प्रमाप विचलन पर आधारित है। इसलिए इस विधि को सबसे अच्छी विधि कहा जाता है। इस विधि से दो चरों की दिशा तथा मात्रा दोनों का ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इस विधि को कार्ल पीयर्सन के नाम पर ही कार्ल पीयर्सन की सह-सम्बन्ध गुणांक विधि कहा जाता है।

मुख्य विशेषताएं (Main Characteristics) –
1. दिशा का ज्ञान-दो श्रृंखलाओं में सह-सम्बन्ध की दिशा का नाम कार्ल पीयर्सन की इस विधि द्वारा प्राप्त हो जाता है। जब हमारे पास जवाब धनात्मक आता है तो दोनों श्रृंखलाओं का सम्बन्ध धनात्मक होता है, जब जवाब ऋणात्मक होता है तो सह-सम्बन्ध ऋणात्मक होगा।

2. मात्रा का ज्ञान-कार्ल पीयर्सन की इस विधि द्वारा दो चरों में कितना सम्बन्ध है इस का ज्ञान भी प्राप्त होता है। सह-सम्बन्ध गुणांक का माप हमेशा (-)1 से (0) शून्य तथा (+) 1 के बीच होता है। यदि जवाब (-) है तो पूर्ण ऋणात्मक सह-सम्बन्ध होगा। + 1 की स्थिति में पूर्ण धनात्मक सह-सम्बन्ध होता है। इसी तरह ऊँचे दों, मध्य दों अथवा कम दों के सह-सम्बन्ध का पता लग जाता है। इस प्रकार सहसम्बन्ध की मात्रा का ज्ञान भी इस विधि द्वारा हो जाता है। शून्य (0) की स्थिति में सह-सम्बन्ध की कमी होती है।

3. उत्तम विधि-यह विधि गणित औसत तथा प्रमाप विचलनों पर आधारित है। इसलिए सह-सम्बन्ध गुणांक के परिणाम शुद्ध तथा उचित होते हैं। इस विधि द्वारा व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक समस्याओं का हल किया जा सकता है। इसलिए सह-सम्बन्ध की गणना के लिए इस विधि को उत्तम विधि कहा जाता है।

कार्ल पीयर्सन के सह-सम्बन्ध की गणना (Calculation of Karl Pearson’s Co-efficient of Correlation)-
कार्ल पीयर्सन की इस विधि अनुसार सह-सम्बन्ध के गुणांक का माप करने के लिए दोनों चरों की समान्तर औसत में से लिए गए विचलनों के गुणनफल के योग को दोनों चरों के प्रमाप विचलनों के गुणनफल तथा सम्बन्धित चरों की संख्या (N) से विभाजित कर प्राप्त किया जाता है। इसलिए कार्ल पीयर्सन ने निम्नलिखित सूत्र दिया-

प्रत्यक्ष विधि अथवा वास्तविक समान्तर औसत विधि
r = \(\frac{\Sigma x y}{N \sigma_{x} \times \sigma y}\)
इस सूत्र में,
r = सह-सम्बन्ध गुणांक सिगमा Σ = जोड़
X = X- \(\bar{X}\)
Y = Y- \(\bar{Y} \)
N = मदों की संख्या oX = X मदों का प्रमाप विचलन
OY = Y मदों का प्रमाप विचलन
कार्ल पीयर्सन के ऊपर दिए सूत्र को निम्नलिखित रूप में लिखा जा सकता है-
r = \(\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times \Sigma y^{2}}}\)
क्योंकि r = \(\frac{\Sigma x y}{N \sigma \times \sigma y}=\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\frac{\Sigma x^{2}}{N} \times \frac{\Sigma y^{2}}{N}}}=\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times y^{2}}}\)
यहां X = (x- \(\bar{X}\) ) तथा Y = (Y – \(\bar{Y}\) )

इस प्रकार सह-सम्बन्ध गुणांक (r) का मूल्य हमेशा – 1 तथा + के बीच रहता है।
माप विधि-

  1. दो श्रेणियों X तथा Y का समान्तर औसत (\(\bar{X}\) तथा \(\bar{Y}\) ) पता करो।
  2. दोनों श्रेणियों की समान्तर औसत से व्यक्तिगत मूल्यों का विचलन निकालो।
    (x = X-\(\bar{X}\) ) तथा (y = Y – \(\bar{X}\) )
  3. दोनों श्रेणियों के विचलनों x तथा ) का वर्ग (x2 तथा y2 ) निकालो तथा इनके वर्गों का अलग-अलग जोड़
    (Σx2 तथा Σy2) पता करो।
  4. दोनों श्रेणियों के विचलनों x तथा y को गुणा करके गुणनफल xy प्राप्त करो तथा गुणनफल जोड़ (Σxy) पता करो।
  5. निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करो।
    r = \(\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times \Sigma y^{2}}}\)
    इससे सह-सम्बन्ध गुणांक (r) का पता लग जाता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित आंकड़ों का सह-सम्बन्ध गुणांक पता करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 5
हल (Solution) :
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 6
समान्तर औसत (Mean)
\(\bar{X}\) = \(\frac{\Sigma X}{N}=\frac{15}{5}\) = 3
\(\overline{\mathrm{Y}}\) = \(\frac{\Sigma Y}{N}=\frac{30}{5}\) = 6

सह-सम्बन्ध गुणांक
r = \(\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times \Sigma y^{2}}}\)
Σxy = 20, Σx2= 10,Σy2= 40
∴ r = \( \frac{20}{\sqrt{10 \times 40}}=\frac{20}{\sqrt{400}}=\frac{20}{20}\) = 1
1 = 1 उत्तर
इसलिए सह-सम्बन्ध गुणांक पूर्ण धनात्मक है। इससे पता चलता है कि जब कीमतों में वृद्धि होती है तो पूर्ति में भी वृद्धि हो रही है। कीमत में वृद्धि 1, 1 रु० है तथा पूर्ति में वृद्धि 2, 2 वस्तुओं की है। वृद्धि का अनुपात कीमत तथा पूर्ति में समान होने के कारण सह-सम्बन्ध गुणांक पूर्ण धनात्मक है।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित आंकड़ों से शादी के समय पति-पत्नी की आयु का सह-सम्बन्ध गुणांक कार्ल पीयर्सन विधि द्वारा ज्ञात करो।

पति की आयु : 20 25 28 30 32 45
पत्नी की आयु : 18 20 22 32 28 42

हल (Solution) :
कार्ल पीयर्सन का सह-सम्बन्ध पति की आयु
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 7
\(\bar{X}\) = \(\frac{\Sigma X}{N}=\frac{180}{6}\) = 30
\(\overline{\mathrm{Y}}\) = \(\frac{\Sigma Y}{N}=\frac{162}{6}\) = 27
r = \(\frac{\Sigma x y}{\sqrt{\Sigma x^{2} \times \Sigma y^{2}}}=\frac{362}{\sqrt{358 \times 386}}=\frac{362}{371.34}\) = 0.975
सह-सम्बन्ध 0.975 ऊंचे दों का धनात्मक सम्बन्ध है। इसका अर्थ है कि पति-पत्नी की आयु में सम्बन्ध सीधा तथा नज़दीकी है।

दूसरा सुत्र (Second Method)-
r = \(\frac{\Sigma d x d y-\frac{\Sigma d x \times \Sigma d y}{\mathrm{~N}}}{\sqrt{\Sigma d x^{2}-\frac{(\Sigma d x)^{2}}{N}} \sqrt{\Sigma d y^{2}-\frac{(\Sigma d y)^{2}}{N}}}\)

इस सूत्र में
r = सह-सम्बन्ध गुणांक
dx = x श्रेणी की मदों का उस श्रेणी की कल्पित औसत पर विचलन (X – A)
Σdx = X श्रेणी के विचलनों dx का जोड़
dy = Y श्रेणी की मदों का उस श्रेणी की कल्पित औसत से विचलन (Y – A)
Σdy = Y श्रेणी के विचलनों dy का जोड़।
Σdxdy = dx तथा dy के गुणनफल का जोड़
Σdr2 = dx के वर्गों का जोड़
Σdy2 = dy के वर्गों का जोड़
N = मदों की संख्या।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध

प्रश्न 7.
निम्नलिखित आंकड़ों का सह-सम्बन्ध गुणांक पता करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 8
हल (Solution) :
कीमत तथा मांग के बीच सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना कामत | A = 12
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 9
कार्ल पीयर्सन का सह-सम्बन्ध गुणांक
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 10
r = \(\frac{(-) 105.33}{\sqrt{184-2.67} \sqrt{108-16.67}}\)
r = \(\frac{(-) 105.33}{\sqrt{181.33 \times 91.33}}\)
r = \(\frac{(-) 105.33}{\sqrt{16560.87}}\)
r = \(\frac{(-) 105.33}{128.69}\)
r = (-) 0.818 इसमें ऊँचे दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध है। इससे अभिप्राय है कि दी गई सूचना में कीमत तथा मांग में ऊँचे दों का ऋणात्मक सह-सम्बन्ध है।

स्पीयरमैन की दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक विधि
(Spearman’s Co-efficient of Rank Correlation)

प्रश्न 8.
स्पीयरमैन की दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक विधि को स्पष्ट करो। (Explain Spearman’s Co-efficient of rank Correlation Method) ।
उत्तर-
इंग्लैंड के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक चार्ल्स एडवर्ड स्पीयरमैन ने 1904 में गुणात्मक तथ्यों के बीच सह-सम्बन्ध का पता करने के लिए एक विधि का निर्माण किया जिस विधि को स्पीयरमैन की दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक विधि कहा जाता है। इस विधि को स्पीयरमैन की दर्जा अन्तर विधि भी कहा जाता है। स्पीयरमैन के अनुसार कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जिनका अंकों में माप नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप सुन्दरता, भाषण मुकाबला, वीरता इत्यादि चरों को अंकों में नहीं दर्शाया जा सकता, बल्कि ऐसी स्थिति में प्राथमिकता क्रम दिए जाते हैं। भाषण प्रतियोगिता में 10 बुलारे भाग लेते हैं। निर्णय करने के लिए दो न्यायाधीश हैं।

ये न्यायाधीश अपनी काबलीयत तथा समझ अनुसार प्रतियोगियों को प्राथमिकता क्रम देते हैं। इन दोनों न्यायाधीशों के निर्णय को दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक द्वारा परख कर यह बताया जाता है कि इनके निर्णय में धनात्मक सम्बन्ध है अथवा ऋणात्मक सम्बन्ध है। इस प्रकार दोनों न्यायाधीशों के फैसले की दिशा का पता लगता है। इससे दोनों के निर्णय की मात्रा का भी पता किया जा सकता है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए स्पीयरमैन ने निम्नलिखित सूत्र का निर्माण किया, जिस द्वारा दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक का पता किया जा सकता है
rk = \(1-\frac{6 \Sigma D^{2}}{N^{3}-N}\)
इस सूत्र में
rk = दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक
D2 = दो न्यायाधीशों द्वारा दिए गए प्राथमिकता क्रम का अंतर (R1 – R2) = D होता है, इसके वर्ग को D2 कहा जाता है तथा जोड़ को Σd2 कहा जाता है।
N = प्राथमिकता क्रम की संख्या
नोट : दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक का मूल्य – 1 से + के बीच होता है।
(1) यदि rk = (-) है तो इस स्थिति में दिए गए चरों के दर्जे एक-दूसरे के विपरीत होते हैं।
प्रथम न्यायाधीश द्वारा प्राथमिकता क्रम : 1. 2, 3, 4, 5, 6
द्वितीय न्यायाधीश द्वारा प्राथमिकता क्रम : 6, 5, 4. 3, 2, 1
इसको ऋणात्मक सह-सम्बन्ध दर्जा गुणांक कहा जाएगा।

(2) यदि rk = + 1 है तो इस स्थिति में दिए गए चरों के दर्जे एक-दूसरे के समरूप हैं तो इस स्थिति में प्राथमिकता क्रम एक-समान होता है। प्रथम न्यायाधीश द्वारा प्राथमिकता क्रम = 123456
द्वितीय न्यायाधीश द्वारा प्राथमिकता क्रम = 123456
इस स्थिति को पूर्ण धनात्मक दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक कहा जाता है।

(3) यदि rk = 0 है तो इस स्थिति में दो न्यायाधीशों द्वारा प्राथमिकता क्रम में कोई सम्बन्ध नहीं होता। दर्जा सह-सम्बन्ध के गुणांक की गणना दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना तीन स्थितियों में की जाती है –

  • जब दर्जे दिए हों।
  • जब दर्जे न दिए हों
  • जब श्रेणी मूल्य एक-दूसरे के समान हों।

(A) जब दर्जे दिए हों (When Ranks are Given)
दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना करते समय यदि दोनों श्रेणियों में भिन्न-भिन्न मदों के क्रम अथवा दर्जे दिए हों तो निम्नलिखित माप विधि का प्रयोग किया जाता है।

  • दिए गए दो दों का अन्तर (R1 – R2) की गणना करो तथा इन अन्तरों को D द्वारा लिखा जाता है।
  • इन अंतरों (D) का वर्ग निकालो इससे D प्राप्त हो जाएगा। इसका जोड़ कर लो जिसको ΣD द्वारा प्रकट किया जाता है।
  • इस प्रकार प्राप्त मूल्यों को निम्न सूत्र से भाग करो जिससे दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक (rk) का पता लग जाता है। rk = \(1-\frac{6 \Sigma D^{2}}{N^{3}-N}\)

प्रश्न 9.
सुन्दरता मुकाबले में दो न्यायाधीशों ने प्रतियोगियों को निम्नलिखित अनुसार प्राथमिकता क्रम प्रदान किए। इन न्यायाधीशों के फैसले में सह-

सम्बन्ध को स्पष्ट करो। प्रतियोगी A B C D E F
न्यायाधीश I द्वारा क्रम (Ranks) 1 2 3 4 5 6
न्यायाधीश II द्वारा क्रम (Ranks) 2 3 1 5 4 6

हल (Solution) :
दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 12
दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक
rk = \(1-\frac{6 \Sigma D^{2}}{N^{3}-N}\)
rk = \(1-\frac{6(8)}{(6)^{3}-6} \) = \(1-\frac{48}{216-6}\)
rk = \(1-\frac{48}{210}\)
rk = 1 – 0.229
rk = 0.771 उत्तर

न्यायाधीशों के निर्णय में ऊँचे दर्जे का धनात्मक सह-सम्बन्ध है अर्थात् दोनों न्यायाधीशों द्वारा जो निर्णय दिया गया है उस निर्णय में काफ़ी हद तक सहमति पाई जाती है।

(B) जब दर्जे न दिए हों (When Ranks are not Given)
माप विधि

  1. दोनों श्रेणियों की मदों को घटते क्रमानुसार तथा बढ़ते क्रमानुसार लिखो। मान लो घटते क्रमानुसार लिखा जाता है तो सबसे बड़ी मद को दर्जा 1, उससे छोटी को दर्जा 2, उससे छोटी को 3 से तथा इस तरह अन्य की मदों के दर्जे लिख लो।
  2. दर्जा देने के पश्चात् दोनों श्रेणियों को मूल रूप में लिख लो तथा सम्बन्धित दर्जे प्रदान करो।
  3. प्रथम श्रेणी के दों तथा द्वितीय श्रेणी के दों का अंतर (D = R1 – R2) पता करो।
  4. दों के अन्तर D के वर्ग बनाओ (D2) तथा इनका जोड़ करो (ΣD2)
  5. निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करके दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक प्राप्त किया जा सकता है-
    rk = \(1-\frac{6 \Sigma D^{2}}{N^{3}-N}\)

प्रश्न 10.
अर्थशास्त्र तथा सांख्यिकी की परीक्षा में 10 विद्यार्थियों ने निम्नलिखित अनुसार अंक प्राप्त किए हैं।

अर्थशास्त्र : 30 42 25 55 38 65 40 18 60 28
सांख्यिकी : 60 35 40 75 80 48 50 55 62 70

हल (Solution) : पहले प्राप्त किए अंकों को घटते क्रमानुसार लिखो तथा दर्जा दो।

अर्थशास्त्र : 65 60 55 42 40 38 30 28 25 16
क्रम (Ranks) : 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
सांख्यिकी : 80 75 70 62 60 55 50 48 40 35
क्रम (Ranks): 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10

अब सारणी की मदों को मूल रूप में लिखकर ऊपर दिए क्रम उनके सामने अंकित करके दर्जा सह-सम्बन्ध पता करते हैं।
दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक की गणना
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 13
दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक
rk = \(1-\frac{6 \Sigma D^{2}}{N^{3}-N}\)
rk = \(1-\frac{6(162)}{(10)^{3}-10}\)
rk = \(1-\frac{972}{1000-10}\)
rk = \(1-\frac{972}{990}\) = 1 – 0.982 = 0.018 उत्तर
इससे अभिप्राय है कि 10 विद्यार्थियों द्वारा अर्थशास्त्र तथा सांख्यिकी में प्राप्त किए अंकों में बहुत कम दर्जे का धनात्मक सह-सम्बन्ध है। जब एक विद्यार्थी के अर्थशास्त्र में अंक अधिक हैं तो सांख्यिकी में कम हैं, जब अर्थशास्त्र के विषय में अंकों की वृद्धि होती है तो सांख्यिकी में वृद्धि है परन्तु यह सम्बन्ध हमेशा नहीं रहता। |

(C) जब श्रेणी मूल्य एक दूसरे के समान हों (When the Values of series are same or when Ranks are Repeated) कई बार श्रेणी में दो अथवा दो से अधिक मदों के मूल्य समान होते हैं। इस स्थिति में समान मूल्य की मदों को औसत दर्जा दिया जाता है। उदाहरणस्वरूप प्रथम तथा द्वितीय मद का मूल्य समान है। इनको 1 तथा 2 दर्जा मिलना था, परन्तु अब समान होने के कारण दोनों मदों को औसत दर्जा \(\frac{1+2}{2}\) = 1.5 दिया जाएगा। इसी तरह यदि कोई मूल्य तीन बार समान आते हैं जिनको 3, 4, 5 दर्जा मिलना था। इन तीन मदों के समान होने के कारण औसत दर्जा \(\frac{3+4+5}{3} \) = \(\frac{12}{3}\) = 4 दर्जा प्रत्येक मूल्य को दिया जाएगा। इस प्रकार दर्जा प्रदान करने के पश्चात् पहले दिए सूत्र का समायोजन किया जाता है।

समायोजन विधि (Adjustment Method)-इस स्थिति में ΣD2 में +\(\frac{1}{12}\) (m3 – m) पद को जमा किया जाता है। जब दो मदों के मूल्य समान है तो ΣD2 में \(\frac{1}{12}\) = (23 – 2) = 0.5 शामिल करते हैं , यदि तीन मदें समान हैं तो \(\frac{1}{12}\) [(3)3-3] = 2 को शामिल किया जाता है जितनी मदों के मूल्य समान होते हैं उतनी बार ΣD2 में (m3 -m) का मूल्य शामिल किया जाता है। इस प्रकार जब श्रेणी मूल्य एक-दूसरे के समान होते हैं तो दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक का सूत्र इस प्रकार प्रयोग किया जाता है।
rk =1 \(-\left[\frac{\left.6 \Sigma \mathrm{D}^{2}+\frac{1}{12}\left(m^{3}-m\right)+\frac{1}{12}\left(m^{3}-m\right)\right)+\frac{1}{12}\left(m^{3}-m\right)+\ldots \ldots \ldots}{\mathrm{N}^{3}-\mathrm{N}}\right] \)

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध

प्रश्न 11.
कविता प्रतियोगिता में 7 प्रतियोगियों ने भाग लिया। दो न्यायाधीश द्वारा इन प्रतियोगियों को 100 में से निम्नलिखित अंक दिए गए। न्यायाधीश के निर्णय में दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक ज्ञात करो।

X : 82 80 70 70 68 67 50
Y: 17 25 25 40 16 20 10

हल (Solution) :
प्रथम X तथा Y श्रेणी के आँकड़ों को घटते क्रमानुसार लिखकर दर्जा प्रदान करते हैं।

X: 82 80 70 70 68 67 50
Ranks : 1 2 3.5 3.5 5 6 7

= \(\frac{3+4}{2}\) = 3.5

Y: 40 25 25 20 17 16 10
Ranks: 1 2.5 2.5 4 5 6 7

= \(\frac{2+3}{2}\) = 2.5
अब इनको मौलिक रूप में लिखकर प्रदान किए प्राथमिक क्रम लिखते हैं, परन्तु जितनी मदें समान हैं उस श्रेणी के ऊपर उनकी संख्या को अंकित किया जाता है। जैसे कि X श्रेणी में 70, 70 मदें समान हैं, उस श्रेणी के ऊपर m = 2 (item = 2) लिखा जाएगा। इसी तरह Y श्रेणी में 25, 25 दो मदें समान हैं तो इस स्थिति में Y श्रेणी के ऊपर m = 2 लिखा जाएगा। समायोजन सूत्र में m का मूल्य भर देते हैं।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 14
दर्जा सह-सम्बन्ध गुणांक
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 30 सह-सम्बन्ध 15
rk = \(1-\frac{6(29.5)}{336} \)
rk = \(1-\frac{177}{336}\)
rk = 1 – 0.527 = 0.473 उत्तर
दोनों न्यायाधीशों द्वारा निर्णय में धनात्मक दर्जा सह-सम्बन्ध है, परन्तु इस सह-सम्बन्ध में मध्य दर्जा के लगभग सह-सम्बन्ध पाया जाता है। परिणाम में पूर्ण सहमति नहीं है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 31 सूचकांक Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 31 सूचकांक

PSEB 12th Class Economics सूचकांक Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
सूचकांक किसे कहते हैं? उत्तर-सूचकांक वह अंक है जो किसी पूर्व निश्चित तिथि की चुनी हुई वस्तुओं या वस्तु समूह की कीमतों का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 2.
सूचकांकों का एक लाभ लिखिए।
उत्तर-
सूचकांकों का सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि इनके द्वारा समय-समय पर कीमत-स्तर में होने वाले परिवर्तन या मुद्रा के मूल्य की क्रय-शक्ति में होने वाले परिवर्तन को मापा जा सकता है।

प्रश्न 3.
सूचकांकों की एक सीमा लिखिए। .
उत्तर-
सूचकांक पूर्णतया सत्य नहीं होते। उदाहरण के लिए, कीमत सूचकांकों की सहायता से मुद्रा के मूल्य में होने वाले परिवर्तन का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
सूचकांकों का व्यापारियों के लिए क्या लाभ है?
उत्तर-
उत्पादक तथा व्यापारी वर्ग सूचकांकों की सहायता से कीमत-स्तर में परिवर्तन तथा सामान्य आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाता है।

प्रश्न 5.
सूचकांकों का सरकार के लिए क्या लाभ है?
उत्तर-
सरकार सूचकांकों की सहायता से ही अपनी मौद्रिक अथवा कर-नीति का निर्धारण करती है और देश के आर्थिक विकास के लिए ठोस कदम उठाती है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

प्रश्न 6.
वह माप जिस द्वारा समय, मात्रा, स्थान अथवा किसी अन्य आधार पर चरों में होने वाले परिवर्तन ………………….. कहते हैं।
उत्तर-
सूचकांक।

प्रश्न 7.
सूचकांक का निर्माण करने की लास्पीयर तथा पाश्चे की विधियों में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
लास्पीयर मदों के भार के रूप में आधार वर्ष की मात्राओं का प्रयोग करते हैं जबकि पाश्चे चालू वर्ष की मात्राओं का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 8.
सूचकांक का यह सूत्र किस द्वारा दिया गया है ?
Po1 = \(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{0}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{0}} \times 100\)
(a) लास्पीयर
(b) पाश्चे
(c) फिशर
(d) मार्शल।
उत्तर-
(a) लास्पीयर।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित सूत्र किसने दिया है ?
P01 = \(\sqrt{\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} \mathrm{q}_{0}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} \mathrm{q}_{0}} \times \frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} \mathrm{q}_{1}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} \mathrm{q}_{1}}} \times 100\)
(a) लास्पीयर
(b) पाश्चे
(c) फिशर
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(c) फिशर।

प्रश्न 10.
जिस सूचकांक द्वारा थोक बाज़ार में बेची जाने वाली वस्तुओं की थोक कीमतों में होने वाले सापेक्ष परिवर्तनों को मापते हैं उसको …………… कहते हैं।
उत्तर-
थोक कीमत सूचकांक।

प्रश्न 11.
वह सूचकांक जो औद्योगिक उत्पादन की मात्रा में होने वाले परिवर्तन को मापते हैं उनको ………….. कहते हैं।
उत्तर-
औद्योगिक सूचकांक।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

प्रश्न 12.
मुद्रा स्फीति को थोक कीमत सूचकांक में परिवर्तन के रूप में मापते हैं जो कि थोक कीमतों के ……………… समय पर आधारित होते हैं।
उत्तर-
साप्ताहिक।

प्रश्न 13.
फिशर का सूचकांक समय उल्टाऊ परीक्षण तथा तत्त्व (Factor) उल्टाऊ परीक्षण पर ठीक उत्तर देता है इसलिए फिशर के सूचकांक को आदर्श सूत्र माना जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 14.
सबसे अच्छा सूचकांक किस सांख्यिकी शास्त्री का माना जाता है ?
उत्तर-
फिशर का।

प्रश्न 15.
सरल सूचकांक की रचना चार प्रकार की होती है।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 16.
भारित सूचकांक के परिणाम अधिक उपयुक्त होते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 17.
समूहीकरण व्यय विधि अनुसार उपभोक्ता कीमत सूचकांक का सूत्र लिखें।
उत्तर-
उपभोक्ता कीमत सूचकांक = \(\frac{\Sigma p_{1} q_{0}}{\Sigma p_{0} q_{0}} \times 100\)

प्रश्न 18.
परिवारिक बजट विधि अनुसार उपभोक्ता सूचकांक बनाने का सूत्र लिखो।
उत्तर-
उपभोक्ता कीमत सूचकांक = \(\frac{\Sigma \mathrm{RW}}{\Sigma \mathrm{W}}\)

प्रश्न 19.
उपभोक्ता कीमत सूचकांक को जीवन निर्वाह लागत सूचकांक भी कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 20.
मुद्रा स्फीति की दर के माप का सूत्र लिखो।
उत्तर-
मुद्रा स्फीति की दर = \(\frac{\mathrm{A}_{2}-\mathrm{A}_{1}}{\mathrm{~A}_{1}} \times 100\)

प्रश्न 21.
औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक के माप का सूत्र लिखो।
उत्तर-
औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक = \(\frac{\Sigma\left(\frac{p_{1}}{q_{0}}\right) W}{\Sigma W} \times 100\)

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न । (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
कीमत सूचकांक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कीमत सूचकांक से अभिप्राय किसी देश में कीमत में हुए परिवर्तन को प्रकट करना होता है। जब किसी देश में कीमत सूचकांक में वृद्धि होती है तो इसका अर्थ देश की कीमत स्तर में वृद्धि हो रही है तथा मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो रही है। जब कीमत सूचकांक में कमी होती है तो इससे अभिप्राय है कि देश में मुद्रा अस्फीति की स्थिति है। मुद्रा स्फीति तथा अस्फीति के अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ते हैं।

प्रश्न 2.
सूचकांक बनाने की विधि की कोई दो समस्याएँ बताएं।
उत्तर-
1. सूचकांक का उद्देश्य (Purpose of Index Numbers)-सूचकांक तैयार करने के लिए आंकड़े एकत्रित करने से पहले सूचकांक का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। यदि बिना उद्देश्य से आंकड़ें एकत्रित किए जाते हैं तो इससे आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं होता।

2. वस्तुओं का चयन (Selection of Commodities)-सूचकांक का निर्माण करते समय वस्तुओं का चयन भी महत्त्वपूर्ण होता है। सभी वस्तुओं को शामिल करके सूचकांकों का निर्माण नहीं किया जाता, बल्कि यह फैसला करना पड़ता है कि –

  • कितनी वस्तुओं को लेकर सूचकांकों का निर्माण किया जाए ?
  • कौन-सी वस्तुओं का चयन किया जाए ?
  • वस्तुओं की कौन-सी किस्म को शामिल किया जाए ? वस्तुओं का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि सूचकांक में शामिल की वस्तुएं साधारण लोगों के उपभोग अनुसार होनी चाहिए तथा चुनी हुई वस्तुएं उच्च गुण वाली होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
सूचकांक तथा मुद्रा स्फीति के सम्बन्ध को स्पष्ट करें।
उत्तर-
हमारी रोज़ाना की ज़िन्दगी में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों की वृद्धि का अनुभव किया जाता है। जब वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों के स्तर में वृद्धि तीव्रता से तथा निरन्तर होती है तो इस स्थिति को मुद्रा-स्फीति कहा जाता है। मुद्रा-स्फीति के परिणामस्वरूप मुद्रा की खरीद शक्ति कम हो जाती है। मुद्रा-स्फीति का सम्बन्ध थोक की कीमतों (Wholesale Prices) से है। भारत में थोक की कीमतें प्रत्येक सप्ताह मापी जाती है। इस उद्देश्य के लिए सूचकांकों का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 4.
भारित सूचकांक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारित सूचकांक (Weighted Index Numbers)-सूचकांक की भारित सूचकांक विधि अधिक प्रचलित है तथा विधि का साधारण तौर पर प्रयोग किया जाता है। इस विधि में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के भार दिए होते हैं। जब वस्तुओं के भार अथवा महत्त्व को ध्यान में रखकर सूचकांक तैयार किया जाता है तो इसको भारित सूचक कहते

प्रश्न 5.
फिशर की सूचकांक माप विधि का सूत्र बताएँ।
उत्तर-
फिशर की विधि (Fisher’s Method)-प्रो० इरविंग फिशर के फार्मले में आधार वर्ष तथा वर्तमान वर्ष की मात्राओं को आधार माना जाता है। प्रो० फिशर ने सूचकांक की गणना करने के लिए लास्पेयर तथा पास्चे के सूचकांकों की रेखागणितीय औसत का प्रयोग किया है। इस सूत्र को सूचकांक की रचना का आदर्श सूत्र कहा जाता है-
P01(F) = \(\sqrt{\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{0}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{0}} \times \frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{1}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{1}}} \times 100\)

प्रश्न 6.
उपभोक्ता सूचकांक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उपभोक्ता सूचकांक वह सूचकांक है जो उपभोक्ता द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में परिवर्तन का माप करने के लिए प्रयोग किया जाता है। भिन्न-भिन्न वर्ग के लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। पिछले वर्ष की तुलना में वर्तमान वर्ष में इन वस्तुओं तथा सेवाओं की लागत में आए परिवर्तन का माप किया जाता है। इसीलिए उपभोक्ता सूचकांक को जीवन निर्वाह लागत (Cost of Living Index Number) भी कहा जाता है। यह सूचकांक परचून कीमतों (Retail Price) के आधार पर बनाया जाता है।

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प्रश्न 7.
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का अर्थ बताएँ।
उत्तर-
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक वह सूचकांक होता है जो हमें आधार वर्ष की तुलना में किसी देश में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि अथवा कमी को प्रकट करता है। इस सूचकांक की सहायता से किसी देश में औद्योगिक विकास का ज्ञान प्राप्त होता है। भारत में 1993-94 को आधार वर्ष मान कर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की गणना की जाती है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
कीमत सूचकांक से क्या अभिप्राय है ? इसका क्या उद्देश्य होता है ?
उत्तर-
कीमत सूचकांक से अभिप्राय किसी देश में कीमत में हुए परिवर्तन को प्रकट करना होता है। जब किसी देश में कीमत सूचकांक में वृद्धि होती है तो इसका अर्थ देश की कीमत स्तर में वृद्धि हो रही है तथा मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो रही है। जब कीमत सूचकांक में कमी होती है तो इससे अभिप्राय है कि देश में मुद्रा अस्फीति की स्थिति है। मुद्रा स्फीति तथा अस्फीति के अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ते हैं।

कीमत सूचकांक के उद्देश्य-

  1. देश में कीमत स्तर का ज्ञान प्राप्त करना।
  2. आर्थिक प्रगति का सूचक।
  3. आर्थिक प्रगति में कीमत स्तर पर तथा वास्तविक वृद्धि का ज्ञान।

प्रश्न 2.
मात्रा सूचकांक से क्या अभिप्राय है? मात्रा सूचकांक का क्या उद्देश्य होता है ?
उत्तर-
मात्रा सूचकांक वस्तुओं की मात्रा में हुई तबदीली का सूचक होता है। मात्रा सूचकांक इस बात का प्रकटावा करता है कि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में प्रतिशत परिवर्तन कितना हुआ है। इस द्वारा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में हुई पैदावार का ज्ञान होता है। जब मात्रा सूचकांक बढ़ता है तो इससे अभिप्राय है कि अर्थव्यवस्था में आर्थिक क्रिया बढ़ रही है-मात्रा सूचकांक घटता है तो देश में आर्थिक क्रिया में घाटे का प्रतीक है।

प्रश्न 3.
आधार वर्ष से क्या अभिप्राय है ? आधार वर्ष की विशेषताएँ बताओ।
उत्तर-
आधार वर्ष वह वर्ष होता है, जिसको आधार मान कर तुलना की जाती है। आधार वर्ष को 100 मानकर वर्तमान वर्ष से तुलना करते है। इसकी विशेषताएँ यह हैं-

  1. यह वर्ष परिवर्तनों रहित साधारण होना चाहिए।
  2. इस वर्ष सम्बन्धी विश्वसनीय तथा उचित आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए।
  3. आधार वर्ष तुलना के वर्ष से बहुत दूर नहीं होना चाहिए।
  4. आधार वर्ष की अवधि उचित होनी चाहिए।

कम-से-कम एक माह तथा अधिक-से-अधिक एक वर्ष।

प्रश्न 4.
सूचकांकों की विशेषताएँ लिखो।
उत्तर-
सूचकांकों की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

  1. परिवर्तनों का सापेक्ष माप-सूचकांकों द्वारा विशेष चर अथवा चरों में सापेक्ष अथवा प्रतिशत परिवर्तनों का माप किया जाता है। जैसे कि कीमत सूचकांक आधार वर्ष की तुलना में वर्तमान वर्ष में कीमत में प्रतिशत वृद्धि अथवा घाटे को स्पष्ट करते हैं।
  2. संख्यात्मक व्याख्या- सूचकांक संख्याओं के रूप में परिवर्तनों को स्पष्ट करते हैं, जैसे कि 2000 की तुलना में 2006 में सूचकांक 115 हो गया है तो इससे अभिप्राय है कीमतों में 15% वृद्धि हो गई है।
  3. औसतों का माप-सूचकांक औसतों का माप करते हैं। इनको विभिन्न इकाइयों टन, क्विटल, मीटर में व्यक्त नहीं किया जाता, बल्कि इकाई के रूप में माप किया जाता है।

प्रश्न 5.
सूचकांकों का साधारण लोगों को क्या लाभ है ?
उत्तर-
सूचकांकों द्वारा साधारण लोगों को कई प्रकार की सूचना प्राप्त होती है।

  1. देश में कीमत स्तर में हुई वृद्धि का ज्ञान प्राप्त होता है।
  2. बैंक अधिकारी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति अनुसार ब्याज की दर निश्चित करते हैं।
  3. रेल का किराया निश्चित करने में सहायक होते हैं।
  4. श्रम संघ मज़दूरों की मजदूरी में वृद्धि कीमत स्तर की वृद्धि अनुसार बढ़ाने का यत्न करते हैं।
  5. समाज सुधारकों, राजनीतिज्ञों तथा सट्टेबाजों को निर्णय लेने में सहायक होते हैं।

प्रश्न 6.
सूचकांकों की सीमाएं बताओ।
उत्तर-
सूचकांकों की सीमाएं इस प्रकार हैं-

  • सूचकांक पूर्ण सच्चाई प्रकट नहीं करते। यह अनुमानित परिवर्तन का ज्ञान देते हैं।
  • सूचकांक विशेष उद्देश्यों अनुसार तैयार किए जाते हैं। इन को दूसरे उद्देश्यों पर लागू नहीं किया जा सकता।
  • सूचकांक थोक कीमतों (Wholesale Price) अनुसार बनाए जाते हैं। इनको परचून कीमतों पर लागू नहीं किया जा सकता।
  • सूचकांक को वज़न (Weight) देने की कोई विधि नहीं है।
  • सूचकांकों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय तुलना नहीं की जा सकती।

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प्रश्न 7.
सूचकांक निर्माण करने की सरल सामूहिक विधि क्या है ?
उत्तर-
सरल सामूहिक विधि द्वारा सूचकांक का निर्माण करने के लिए वर्तमान वर्ष के मूल्यों के जोड़ को आधार वर्ष के मूल्यों से जोड़ने तथा विभाजित करने से 100 गुणा किया जाता है। इस उद्देश्य के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
P01 = \(\frac{\Sigma P_{1}}{\Sigma P_{0}} \times 100\)
इसमें P01= कीमत सूचकांक,
ΣP = वर्तमान वर्ष में वस्तुओं की कीमतों का जोड़,
ΣP = आधार वर्ष में वस्तुओं की कीमतों का जोड़।

प्रश्न 8.
सूचकांक निर्माण करने के लिए सरल कीमत अनुपात विधि को स्पष्ट करो।
उत्तर-
सूचकांक निर्माण में सभी वस्तुओं को शामिल नहीं किया जाता है बल्कि सैंपल के आधार पर वस्तुओं को शामिल किया जाता है। प्रत्येक वस्तु का अलग-अलग कीमत अनुपात मापा जाता है।
कीमत अनुपात P01 = \(\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)\)
विभिन्न वस्तुओं की कीमत अनुपात का माप करने के उपरान्त उनको जोड़ कर वस्तुओं की संख्या पर विभाजित किया जाता है, जिससे सरल कीमत अनुपात सूचकांक प्राप्त हो जाता है।
P01 = \(\frac{\sum\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)}{N}\)
ΣN इसमें P01 = कीमत सूचकांक, P1 = वर्तमान वर्ष में कीमत, P0 = आधार वर्ष की कीमत,
N = वस्तुओं की संख्या।

प्रश्न 9.
थोक कीमत सूचकांकों से क्या अभिप्राय है ? थोक कीमत सूचकांक में परिवर्तन किस बात का सूचक है ?
उत्तर-
थोक कीमत सूचकांक से अभिप्राय उस सूचकांक से है, जिसके निर्माण में थोक कीमतों का प्रयोग किया जाता है। थोक कीमत सूचकांक को साप्ताहिक आधार पर प्रकाशित किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य देश में कीमतों में परिवर्तन का माप करना होता है।

प्रश्न 10.
उपभोक्ता कीमत सूचकांक से क्या अभिप्राय है ? इसका माप कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
उपभोक्ता कीमत सूचकांक (C.P.I.) को निर्वाह लागत सूचकांक (Cost of living Index Number) भी कहा जाता है। यह सूचकांक विभिन्न वर्ग के उपभोक्ताओं के लिए तैयार किया जाता है। इसमें एक वर्ग के लोगों द्वारा वर्तमान वर्ष में आधार वर्ष की तुलना परचून कीमतों (Retail Prices) के आधार पर की जाती है। इसकी दो माप विधियां हैं-

  1. सामूहिक व्यय विधि-इस उद्देश्य के लिए लास्पेयर्स के सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
    उपभोक्ता कीमत सूचकांक अथवा निर्वाह लागत सूचकांक = \(\frac{\Sigma p_{1} q_{0}}{\Sigma p_{0} q_{0}} \times 100\)
  2. पारिवारिक बजट विधि- इसमें आनुपातिक कीमत विधि का प्रयोग किया जाता है उपभोक्ता कीमत सूचकांक अथवा निर्वाह लागत सूचकांक = \(\frac{\Sigma \mathrm{RW}}{\Sigma \mathrm{W}}\)
    यहां R = \(\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)\) तथा W = P0q0
    सामूहिक व्यय विधि तथा पारिवारिक बजट विधि का परिणाम समान होता है।

प्रश्न 11.
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक से क्या अभिप्राय है ? इसका माप क्या स्पष्ट करता है ?
उत्तर-
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक वह सूचकांक होता है जो कि आधार वर्ष की तुलना में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि अथवा घाटे को व्यक्त करता है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का माप इस सूत्र द्वारा किया जाता है-
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक = \(\frac{\Sigma\left(\frac{q_{1}}{q_{0}}\right) w}{\Sigma w} \times 100\)
इस सूत्र में q1 = वर्तमान वर्ष का औद्योगिक उत्पादन, q0 = आधार वर्ष का औद्योगिक उत्पादन, w = वज़न अथवा भार।

प्रश्न 12.
सूचकांक मुद्रा स्फीति का सूचक कैसे होते हैं ?
अथवा
मुद्रा-स्फीति तथा सूचकांकों के सम्बन्ध को स्पष्ट करो।
उत्तर-
हमारी रोज़ाना की ज़िन्दगी में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों की वृद्धि का अनुभव किया जाता है। जब वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों के स्तर में वृद्धि तीव्रता से तथा निरन्तर होती है तो इस स्थिति को मुद्रा-स्फीति कहा जाता है। मुद्रा-स्फीति के परिणामस्वरूप मुद्रा की खरीद शक्ति कम हो जाती है। मुद्रा-स्फीति का सम्बन्ध थोक की कीमतों (Wholesale Prices) से है। भारत में थोक की कीमतें प्रत्येक सप्ताह मापी जाती है। इस उद्देश्य के लिए सूचकांकों का प्रयोग किया जाता है।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
सूचकांक से क्या अभिप्राय है ? सूचकांक की विशेषताएं बताओ। (What is the meaning of Index Numbers ? Explain its characteristics.)
उत्तर-
सूचकांक का अर्थ (Meaning of Index Numbers)-सूचकांक एक विशेष प्रकार की औसत होती है जोकि समय, मात्रा अथवा स्थान इत्यादि के आधार पर कीमत, उपभोग, उत्पादन, राष्ट्रीय आय इत्यादि में परिवर्तन को प्रतिशत के रूप में प्रकट करती है। सूचकांक का प्रयोग सबसे पहले जी० आर० चारली ने किया है। वह इटली के रहने वाले थे। सन् 1500 से लेकर 1750 तक कीमत स्तर में हुए परिवर्तन का अध्ययन करना उनका मुख्य उद्देश्य था।

इस प्रकार सूचकांक का प्रयोग केवल कीमत स्तर में परिवर्तनों को मापने के लिए की जाने लगी। सांख्यिकी के विकास से सूचकांक का क्षेत्र भी विशाल हो गया। सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र के प्रत्येक पहल में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए सूचकांकों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए सूचकांक एक ऐसा यन्त्र है जिस द्वारा एक चर अथवा चरों के समूहों में भिन्न-भिन्न समय में होने वाले परिवर्तनों का माप किया जाता है।

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परिभाषाएं-

  1. प्रो० क्राक्सटन तथा काउडन के अनुसार, “सूचकांक वह यन्त्र है जिनके द्वारा सम्बन्धित तथ्यों के मूल्यों के आकार में होने वाले परिवर्तनों का माप किया जाता है।” (“Index Numbers are devices for measuring difference in the magnitude of a group of related variables.” -Croxton and Cowden)
  2. प्रो० एस० आर० सपीगल के शब्दों में, “सूचकांक एक सांख्यिकी माप है, जिस द्वारा एक चर अथवा चरों के समूह में समय, स्थान अथवा अन्य विशेषताओं के आधार पर होने वाले परिवर्तनों को दर्शित करना है।” (“As Index number is a statistical measure designed to show changes in variables or a group of related variabels with respect to time, geographical location or other characteristics.” -M.R. Spiegal)
    इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सूचकांक विशेष प्रकार की औसत होती है, जिस द्वारा समय अथवा स्थान अनुसार होने वाले परिवर्तनों का माप किया जाता है।

सूचकांक की विशेषताएं (Features of Index Number)- सूचकांक की विशेषताएं निम्नलिखित अनुसार-
1. विशेष प्रकार की औसत (Special Average)-सूचकांक विशेष प्रकार के औसत होते हैं। केन्द्रीय प्रवृत्तियों के माप में भिन्न-भिन्न मदों की इकाइयां एक जैसी होती हैं, जहां भिन्न-भिन्न मदों की इकाइयां एक समान न हों, उस स्थिति में सूचकांक का प्रयोग किया जा सकता है। जब यह कहा जाता है कि सूचकांक में वृद्धि 10% हो गई है। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हुई है। कुछ वस्तुओं की कीमत कम भी हो सकती है अथवा समान रहती है। परन्तु औसत वृद्धि को व्यक्त सूचकांक द्वारा किया जाता है।

2. परिवर्तन का माप (Measurement of Change)- सूचकांक द्वारा समय, स्थान अथवा दूसरे किसी आधार पर तथ्यों में होने वाले परिवर्तन का माप किया जाता है। यह माप कीमत, उत्पादन, उपभोग इत्यादि में परिवर्तन का हो सकता है।

3. तुलना में प्रयोग (Used for Comparison).- सूचकांक की एक विशेषता यह है कि इसका प्रयोग तुलना के लिए किया जाता है। समय, स्थान अथवा किसी अन्य आधार पर एक चर अथवा एक से अधिक चरों में तुलना की जा सकती है। यदि 1980 से 1990 तक कीमत स्तर में तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है तो 1980 को आधार वर्ष कहते हैं।

4. प्रतिशत में प्रदर्शन (Presented in Percentages)-सूचकांक को प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। आधार वर्ष के मूल्य को 100 के समान मानकर वर्तमान वर्ष के मूल्य का अध्ययन किया जाता है। यदि सूचकांक 112 हो गया है तो कीमत स्तर में वृद्धि 12% हुई है। यदि कीमत सूचकांक 96 है तो कीमत स्तर में कमी 4% हो गई है। इस प्रकार सूचकांक को प्रतिशत रूप में व्यक्त किया जाता है।

5. सर्व-व्यापक प्रयोग (Universal Application)-सूचकांक का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र तथा प्रत्येक देश में किया जाता है। प्रत्येक देश में कीमत स्तर, उत्पादन, उपभोग, बचत, राष्ट्रीय आय में परिवर्तन का माप करने के लिए सूचकांक एक सर्व-व्यापक विधि है।

प्रश्न 2.
सूचकांक बनाने की विधि तथा इसकी समस्याओं का वर्णन करो। (Explain the method for the construction and problems of Index Numbers.)
अथवा
सूचकांक बनाते समय कौन-सी मुश्किलें आती हैं ? (What are the difficulties in the construction of Index Numbers ?)
अथवा
सूचकांक बनाने सम्बन्धी समस्याओं, फ़ैसलों अथवा निर्देशों की व्याख्या करो। (Explain the problems in the construction of Index Numbers, Decisions and Directions.)
उत्तर-
सूचकांक बनाते समय बहुत-सी समस्याएं आती हैं। अब हम उन समस्याओं से सम्बन्धित फ़ैसलों तथा निर्देशों का अध्ययन करते हैं-

  1. सूचकांक का उद्देश्य (Purpose of Index Numbers)-सूचकांक तैयार करने के लिए आंकड़े एकत्रित करने से पहले सूचकांक का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। यदि बिना उद्देश्य से आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं तो इससे आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
  2. वस्तुओं का चयन (Selection of Commodities)-सूचकांक का निर्माण करते समय वस्तुओं का चयन भी महत्त्वपूर्ण होता है।

सभी वस्तुओं को शामिल करके सूचकांकों का निर्माण नहीं किया जाता, बल्कि यह फैसला करना पड़ता है कि-

  • कितनी वस्तुओं को लेकर सूचकाकों का निर्माण किया जाए ?
  • कौन-सी वस्तुओं का चयन किया जाए ?
  • वस्तुओं की कौन-सी किस्म को शामिल किया जाए ?

वस्तुओं का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि सूचकांक में शामिल की वस्तुएं साधारण लोगों के उपभोग अनुसार होनी चाहिए तथा चुनी हुई वस्तुएं उच्च गुण वाली होनी चाहिए।

3. कीमतों का चयन (Selection of Prices)-वस्तुओं का चयन करने के पश्चात् वस्तुओं की कीमतें एकत्रित करने की समस्याओं का सामना करना पड़ता है अर्थात् थोक की कीमतें ली जाएं अथवा परचून कीमतें लेकर सूचकांक तैयार किया जाए। इसलिए वस्तुओं की कीमतें थोक बाज़ार में से प्राप्त की जाएं अथवा परचून बाज़ार में से प्राप्त की जाएं। कीमतों में करों को शामिल किया जाए अथवा न किया जाए। यह फ़ैसले करते समय सूचकांक के उद्देश्य को ध्यान में रखना चाहिए । यदि सूचकांक का उद्देश्य लोगों के जीवन निर्वाह व्यय में परिवर्तन सम्बन्धी अध्ययन करना है तो सूचकांक का निर्माण करते समय परचून कीमतों का प्रयोग करना चाहिए।

4. आधार वर्ष का चयन (Selection of Base Year)-सूचकांक का निर्माण करते समय आधार वर्ष चुनना पड़ता है। जिस वर्ष से चालू वर्ष की कीमतों की तुलना की जाती है, उसको आधार वर्ष कहा जाता है। इस वर्ष के सूचकांक को 100 अंक लिया जाता है। आधार वर्ष का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि –

  • यह वर्ष साधारण हो अर्थात् इस वर्ष कोई असाधारण घटना न घटी हो जैसे कि युद्ध, जंग अथवा बाढ़ इत्यादि न आए हों।
  • यह वर्ष बहुत पुराना नहीं होना चाहिए। इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए। भारत में 1980-81 का वर्ष सूचकांक का आधार वर्ष माना जाता है।

5. औसत चयन (Selection of Average)-सूचकांक बनाते समय यह निर्णय भी करना पड़ता है कि कौन-सी औसत समान्तर औसत अथवा रेखा गणिती औसत का प्रयोग किया जाए। चाहे रेखा गणिती औसत से अधिक विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं परन्तु व्यावहारिक तौर पर समान्तर औसत का प्रयोग किया जाता है।

6. सूचकांक की गणना (Calculation of Index Numbers)-सूचकांक की गणना करते समय आधार वर्ष की कीमतों (P1) को 100 मान लिया जाता है इसके पश्चात् वर्तमान वर्ष की कीमतों (P0) में परिवर्तन की प्रतिशत का माप किया जाता है। इस प्रकार सूचकांक (P01) अर्थात् आधार वर्ष की कीमतों की तुलना में वर्तमान वर्ष (1) की कीमतों में कितने प्रतिशत परिवर्तन हुआ है, उसको सूचकांक कहते हैं।
उदाहरणस्वरूप आधार वर्ष में दूध की कीमत 5 रु० प्रति लिटर थी। वर्तमान वर्ष की दूध की कीमत 15 रु० प्रति लिटर है तो सूचकांक |
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 1
होगा अर्थात् आधार वर्ष के सूचकांक 100 से वर्तमान वर्ष का सूचकांक 300 है तो दूध की कीमत में तीन गुणा अथवा 300% वृद्धि हो गई है। इस प्रकार सूचकांक की गणना की जाती है।

7. भार का निर्धारण (Determination of Weights)-सूचकांक में शामिल की वस्तुओं को एक समान महत्त्व नहीं दिया जाता। जैसे कि गेहूँ, दूध, सब्जियां, अधिक महत्त्वपूर्ण हैं तथा स्कूटर, कार कम महत्त्वपूर्ण वस्तुएं हैं। इसलिए गेहूं, दूध, सब्जियों को अधिक भार देना चाहिए। स्कूटर का महत्त्व गांवों से अधिक शहरों में है। इसलिए भार का निर्धारण करते समय समस्या का सामना करना पड़ता है। किसी स्थान पर लोगों की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक इत्यादि स्थिति को ध्यान में रखकर वस्तुओं को भार देने चाहिए।

8. सूत्र का चयन (Selection of Formula)-सूचकांक बनाने के बहुत से सूत्र हैं। इनमें से किस सूत्र का प्रयोग किया जाए। इस सम्बन्धी फ़ैसला करने के लिए आंकड़ों की प्रकृति तथा सूचकांक के उद्देश्य को ध्यान में रखना चाहिए। सूचकांक बनाने की मुख्य दो विधियां हैं –

A. साधारण सूचकांक (Simple Index Numbers)-साधारण सूचकांक निर्माण के दो ढंग हैं-

  • सरल समूहीकरण विधि
  • सरल कीमत अनुपात औसत विधि।

B. भारित सूचकांक (Weighted Index Numbers)
(i) भारित समूहीकरण विधि –
(a) लास्पेयर्स की विधि
(b) पास्चे की विधि
(c) डारब्शि तथा बाऊले की विधि
(d) फिशर की विधि।

(ii) भारित कीमत अनुपात औसत विधि-इन विधियों में से चयन की समस्या होती है। इसका निर्णय सूचकांक के उद्देश्य को ध्यान में रखकर करना चाहिए।

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प्रश्न 3.
सूचकांक बनाने की मुख्य विधियां बताओ। (Explain the methods of Constructing Index Numbers.)
अथवा
सूचकांक की मुख्य किस्में लिखो। (Explain the main types of Index Numbers.)
उत्तर-
सूचकांक बनाने की मुख्य विधियां (Main methods of Constructing Index Numbers)सूचकांक बनाने की विधियों को सूचकांक की किस्में भी कहा जा सकता है। सूचकांक की मुख्य विधियां निम्नलिखित अनुसार हैं –
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 2
पीछे दिए चार्ट अनुसार सूचकांक मुख्य तौर पर दो प्रकार के होते हैं –
A. साधारण सूचकांक
B. भारित सूचकांक।

A. साधारण सूचकांक (Simple Index Numbers)-साधारण सूचकांक निर्माण की दो विधियां हैं-
1. सरल समूहीकरण विधि (Simple Index Numbers)-सूचकांक बनाने की सरल समूहीकरण विधि में वर्तमान वर्ष में भिन्न-भिन्न वस्तुओं की दी हुई कीमतों का जोड़ (ΣP1 ) किया जाता है। आधार वर्ष में भिन्न-भिन्न वस्तुओं की कीमतों का जोड़ (ΣP0) किया जाता है। वर्तमान वर्ष की कीमतों के जोड़ को आधार वर्ष की कीमतों के जोड़ से विभाजित करके 100 गुणा कर दिया जाता है। इससे सूचकांक प्राप्त हो जाता है।

इस विधि द्वारा सूचकांक की गणना का सूत्र निम्नलिखित अनुसार है-
कीमत सूचकांक (P01) = \(\frac{\Sigma P_{1}}{\Sigma P_{0}} \times 100\)
इस सूत्र में P01 = कीमत सूचकांक, 0 = आधार वर्ष, 1 = वर्तमान वर्ष ।
ΣP1 = वर्तमान वर्ष में भिन्न-भिन्न वस्तुओं की कीमतों का जोड़।
ΣP0 = आधार वर्ष में भिन्न-भिन्न वस्तुओं की कीमतों का जोड़।

2. सरल कीमत अनुपात औसत विधि (Simple Average of Price Relative Method) – सरल कीमत अनुपात औसत विधि में पहले प्रत्येक वस्तु की कीमत अनुपात पता किया जाता है। किसी वस्तु की कीमत अनुपात वर्तमान वर्ष की कीमत (P1) तथा आधार वर्ष की कीमत (P0) का प्रतिशत अनुपात होता है। यदि दो वस्तुओं की कीमत अनुपात का प्रतिशत निकालकर वस्तुओं की संख्या से विभाजित किया जाए तो हमारे पास कीमत अनुपात सूचकांक प्राप्त हो जाता है।

कीमत अनुपात सूचकांक (P01) = \(\frac{\Sigma\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)}{\mathrm{N}}=\frac{\Sigma \mathrm{R}}{\mathrm{N}}\)

B. भारित सूचकांक (Weighted Index Numbers)-सूचकांक की भारित सूचकांक विधि अधिक प्रचलित है तथा विधि का साधारण तौर पर प्रयोग किया जाता है। इस विधि में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के भार दिए होते हैं। जब वस्तुओं के भार अथवा महत्त्व को ध्यान में रखकर सूचकांक तैयार किया जाता है तो इसको भारित सूचक कहते हैं।

भारित सूचकांक निर्माण की दो विधियां हैं –
1. भारित औसत कीमत अनुपात विधि (Weighted Average of Price Relative Method)-इस विधि में भिन्न-भिन्न वस्तुओं की कीमत अनुपातों को वस्तुओं के भार से गुणा करके गुणनफल का पता किया जाता है। जो गुणनफल प्राप्त होता है, उसको भार के जोड़ से विभाजित किया जाता है। इस प्रकार भारित औसत कीमत अनुपात विधि का सूत्र निम्नलिखित अनुसार होता है-
P01 = \(\frac{\Sigma R W}{\Sigma W}\)
P01 = कीमत सूचकांक
R = कीमत अनुपात \(\left(\frac{\mathrm{P}_{1}}{\mathrm{P}_{0}} \times 100\right)\)
w = भार (Weight)

2. भारित समूहीकरण विधि (Weighted Aggregative Method)-इस विधि में विभिन्न वस्तुओं की कीमतों को उन वस्तुओं की खरीदी गई मात्रा अनुसार भार दिया जाता है। इस विधि का निर्माण बहुत से सांख्यिकी शास्त्रियों द्वारा किया गया है। इन सांख्यिकी शास्त्रियों द्वारा दी गई विधियों में मुख्य अन्तर भार देने की विधि में है। कुछ विद्वान् आधारवर्ष की मात्रा को आधार बना कर भार देते हैं जबकि कुछ वर्तमान वर्ष की वस्तुओं की खरीदी गई मात्रा को आधार बनाकर भार देते हैं। कुछ अन्य दोनों समयों को मात्राओं का आधार बनाकर भार देते हैं।

भारित समूहीकरण की भिन्न-भिन्न विधियाँ निम्नलिखित अनुसार हैं –

  • लास्पेयर की विधि (Laspeyer’s Method)-इस विधि में प्रो० लास्पेयर ने आधार वर्ष की मात्रा (q0) को आधार बनाकर वस्तुओं को भार दिए हैं। लास्पेयर ने सूचकांक की गणना का सूत्र निम्नलिखित अनुसार दिया
    P01 (La) = \(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} \mathrm{q}_{0}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} \mathrm{q}_{0}} \times 100\)
  • पास्चे की विधि (Pasche’s Method)-प्रो० पास्चे ने वर्तमान वर्ष की मात्रा (q1) को आधार बनाकर वस्तुओं को भार दिए हैं। पास्चे ने सूचकांक की रचना का सूत्र इस प्रकार दिया P01 (Pa) = \(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{1}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{1}} \times 100\)
  • फिशर की विधि (Fisher’s Method)-प्रो० इरविंग फिशर के फार्मले में आधार वर्ष तथा वर्तमान वर्ष की मात्राओं को आधार माना जाता है। प्रो० फिशर ने सूचकांक की गणना करने के लिए लास्पेयर तथा पास्चे के सूचकांकों की रेखा गणिती औसत का प्रयोग किया है।

इस सूत्र को सूचकांक की रचना का आदर्श सूत्र कहा जाता है-
P01 (F) = \(\sqrt{\frac{\Sigma P_{1} q_{0}}{\Sigma P_{0} q_{0}} \times \frac{\Sigma P_{1} q_{1}}{\Sigma P_{0} q_{1}}} \times 100\)

इस सूत्र को निम्नलिखित कारणों से आदर्श सूत्र कहा जाता है –

  • यह सूत्र पक्षपात से मुक्त है।
  • इस सूत्र में रेखा गणिती औसत द्वारा गणना की जाती है। इसलिए विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।
  • इस सूत्र में आधार वर्ष तथा वर्तमान वर्ष की मात्राओं दोनों को ही भार माना जाता है।
  • यह सूत्र परख की कसौटी पर ठीक उतरता है। फिशर ने परख की कसौटियों दो दी हैं।

1. समय उत्क्रामता (Time Reversal Test)-जब हम आधार वर्ष शून्य (0) जगह पर 1 तथा 1 की जगह पर शून्य (0) लिख देते हैं तथा फार्मूले को इस परिवर्तन अनुसार गुणा करते हैं तो जवाब 1 के समान होता
\(\frac{\mathrm{P}_{01} \times \mathrm{P}_{10}}{100}=\sqrt{\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{0}}{\Sigma P_{0} q_{0}} \times \frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{1}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} \mathrm{q}_{1}} \times \frac{\Sigma P_{0} q_{1}}{\Sigma P_{1} q_{1}} \times \frac{\Sigma P_{0} q_{0}}{\Sigma P_{1} q_{0}}}=1\)

2. साधन उत्क्रामता (Factor Reversal Test)-जब फार्मूले में P की जगह पर q तथा की जगह पर के समान P लिखते हैं तो जवाबः\(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{1}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{0}}\) के समान होता है।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 3
यह परख केवल फिशर के फार्मूले में ठीक लागू होती है। लास्पेयर तथा पास्चे की विधि पर ठीक लागू नहीं होती। इसलिए फिशर के सूत्र को आदर्श सूत्र कहा जाता है।

साधारण कीमत सूचकांक की रचना (Construction of Simple Index Numbers)
साधारण कीमत सूचकांक की रचना दो विधियों द्वारा की जाती है –
(i) सरल समूहीकरण विधि (Simple Aggregative Method) माप विधि (Measurement Method)-

  1. इस विधि द्वारा सूचकांक ज्ञात करने के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं के आधार वर्ष की कीमतों का जोड़ (ΣP0) पता करो।
  2. भिन्न-भिन्न वस्तुओं के वर्तमान वर्ष की कीमतों का जोड़ (ΣP) किया जाता है।
  3. वर्तमान वर्ष की कीमतों के जोड़ को आधार वर्ष की कीमतों के जोड़ से विभाजित करो तथा 100 से गुणा करो।
    अर्थात् निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करें-
    P01 = \(\frac{\Sigma P_{1}}{\Sigma P_{0}} \times 100\)

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

प्रश्न 4.
निम्नलिखित आंकड़ों से सरल समूहीकरण विधि द्वारा 1981 को आधार वर्ष मान कर कीमत सूचकांक का पता करो।

वस्तुएं A B C D E
1999 की कीमतें (रु०) प्रति किलोग्राम 20 15 35 26 5
2006 की कीमतें (रु०) प्रति किलोग्राम 30 18 34 30 12

हल (Solution) :
साधारण कीमत सूचकांक की रचना (सरल समूहीकरण विधि)-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 4

कीमत सूचकांक (P01)= \(\frac{\Sigma P_{1}}{\Sigma P_{0}} \times 100\) = \(\frac{124}{101} \times100 \)
= 122.77
P01 = 122.77 उत्तर

आधार वर्ष के सूचकांक 100 की तुलना में 2006 की वर्तमान कीमतों का सूचकांक 122.77 हो गया है। इन वस्तुओं की कीमतों में औसतन 122.77 % वृद्धि हो गई है। इस विधि में सभी वस्तुओं का मूल्य एक माप किलोग्राम, मीटर इत्यादि में दिया होता है।

(ii) सरल कीमत अनुपात औसत विधि (Simple Average of Price Relative Method)-
माप विधि

  • इस विधि में प्रत्येक वस्तु के कीमत अनुपात P01= \(\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)\) का पता किया जाता है।
  • कीमत अनुपातों का जोड़ \(\Sigma\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)\) का पता किया जाता है।
  • वस्तुओं की संख्या (N) से कीमत अनुपातों के जोड़ को विभाजित करो। इससे सूचकांक प्राप्त हो जाता है। इसका सूत्र निम्नलिखित अनुसार है
    P01 = \(\frac{\Sigma\left(\frac{P_{1}}{P_{0}} \times 100\right)}{\mathrm{N}} \text { or } \frac{\Sigma \mathrm{R}}{\mathrm{N}}\)
  • इस विधि का माप उस समय किया जाता है जब भिन्न-भिन्न वस्तुओं की कीमत भिन्न-भिन्न माप (किलोग्राम, मीटर, लिटर) में दी हो।

प्रश्न 5.
कीमत अनुपात विधि द्वारा निम्नलिखित आंकड़ों का सूचकांक ज्ञात करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 5
हल (Solution) :
सरल कीमत अनुपात विधि द्वारा सूचकांक की गणना
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 6
सरल कीमत अनुपात सूचकांक (P01) = \(\frac{\Sigma\left(\frac{\mathrm{P}_{1}}{\mathrm{P}_{0}} \times 100\right)}{\mathrm{N}}\) = \(\frac{765}{5}\) = 153
इसका अभिप्राय यह है कि ऊपर दी वस्तुओं की कीमतों में सरल कीमत अनुपात विधि अनुसार 53 प्रतिशत वृद्धि हो गई है।

भारित सूचकांकों की रचना

भारित सूचकांक अधिक प्रचलित हैं। वस्तुओं के महत्त्व अनुसार उनको भार दिया जाता है, जैसे कि गेहूँ तथा चावल का महत्त्व फलों से अधिक है। इसलिए गेहूँ तथा चावल को अधिक महत्त्व अथवा भार दिया जाएगा तथा फलों को कम भार दिया जाएगा। भार अनुसार सूचकांक की रचना को भारित सूचकांक कहा जाता है। इसकी गणना की दो विधियां हैं –

(iii) भारित औसत कीमत अनुपात विधि माप विधि-

  1. भारित सूचकांक का माप करने के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं के कीमत अनुपात R = \(\left(\frac{\mathrm{P}_{1}}{\mathrm{P}_{0}} \times 100\right)\) पत्ता|
  2. कीमत अनुपात (R) को भार (W) से गुणा करके गुणनफल (RW) निकालो।
  3. कीमत अनुपात तथा भाग के गुणनफलों का जोड़ = (ΣRW) करो।
  4. गुणनफल के जोड़ को भागों के जोड़ (ΣW) से विभाजित करो। भारित सूचकांक ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करो-
    Po1 = \(\frac{\Sigma R W}{\Sigma W}\)
  5. सभी वस्तुओं को सूचकांक बनाने में शामिल नहीं किया जाता बल्कि वस्तुओं का सैंपल के तौर पर चयन करके सूचकांक का निर्माण किया जाता है, जोकि सभी वस्तुओं की कीमतों में परिवर्तनों को समझने के लिए सहायक होता है।

प्रश्न 6.
कीमत अनुपात विधि द्वारा निम्नलिखित आंकड़ों की सहायता से 1991 को आधार वर्ष मानकर 2005 का भारित सूचकांक ज्ञात करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 7
हल (Solution) :
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 8
भारित सूचकांक
Po1 = \(\frac{\Sigma \mathrm{RW}}{\Sigma \mathrm{W}}\)
= \(\frac{4325}{25}\) = 173 उत्तर
इससे अभिप्राय यह है कि अध्ययन अधीन वस्तुओं की औसतन भारित कीमतों में परिवर्तन 73 प्रतिशत हो गया है। इसलिए भारित सूचकांक 100 से 173 हो गया है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

(iv) भारित समूहीकरण विधि (Weighted Aggregative Method)

प्रश्न 7.
निम्नलिखित आंकड़ों की सहायता से
(i) लास्पेयर
(ii) पास्चे
(iii) फिशर की विधि द्वारा सूचकांक पता करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 9
हल (Solution) :
भारित सूचकांक की गणना
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 10
1. लास्पेयर विधि अनुसार सूचकांक
P01 = \(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{0}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{0}} \times 100\)
P01 = \(\frac{170}{62} \times 100\) = 274.19 उत्तर

2. पास्चे विधि अनुसार सूचकांक
P01 = \(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{1}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{1}} \times 100\)
P01 = \(\frac{305}{225} \times 100\) = 135.55 उत्तर

3. फिशर विधि अनुसार सूचकांक
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 11
P01 = 192.75 उत्तर
लास्पेयर विधि अनुसार सूचकांक 274.19 है जो यह बताता है कि कीमतों में परिवर्तन लगभग पौने तीन गुणा है। पास्चे की विधि अनुसार कीमतों में परिवर्तन 33.55 प्रतिशत है परन्तु फिशर अनुसार कीमतों में परिवर्तन लगभग दो गुणा हो गया है जोकि 192.75% वृद्धि को प्रकट करता है। फिशर की विधि का परिणाम उचित है।

सूचकांकों की किस्में (Types of Index Numbers)
ऊपर हम सूचकांकों का अर्थ तथा माप विधि का अध्ययन कर चुके हैं। भारत में कई किस्म के सूचकांक तैयार किए जाते हैं। इनमें से तीन महत्त्वपूर्ण सूचकांक निम्नलिखित अनुसार हैं, जिनके बारे अध्ययन किया जाएगा।

A. थोक कीमत सूचकांक (Wholesale Price Index)
B. उपभोक्ता कीमत सूचकांक (Consumer’s Price Index)
C. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (Industrial Production Index).

A. थोक कीमत सूचकांक [Wholesale Price Index (W. P. I.)]

प्रश्न 8.
थोक कीमत सूचकांक से क्या अभिप्राय है ? थोक कीमत सूचकांक की निर्माण विधि को स्पष्ट करो। इसका महत्त्व बताओ।
(What is meant by Wholesale Price Index ? Explain the method for the construction of Wholesale Price Index. Give its importance.)
उत्तर-
थोक कीमत सूचकांक का अर्थ-थोक कीमत सूचकांक वह सूचकांक है जिसके निर्माण में थोक कीमतों का प्रयोग किया जाता है। साधारण तौर पर किसी देश में कीमतों के परिवर्तन के लिए इस सूचकांक का प्रयोग किया जाता है। भारत में प्रत्येक सप्ताह के अन्त में थोक कीमत सूचकांक तैयार किया जाता है। इस समय 1993-94 की कीमतों को आधार वर्ष मान कर सूचकांक तैयार किया जाता है। इसमें वस्तुओं को तीन कॉलमों में विभाजित किया गया है |

  1. प्राथमिक वस्तुएं-इनमें चावल, दालें, कपास इत्यादि 98 वस्तुओं को शामिल किया गया है।
  2. बिजली गैस तेल-इनमें 19 वस्तुएं शामिल हैं।
  3. निर्माण वस्तुएं-इनमें कपड़ा, चीनी, मशीनें इत्यादि 318 वस्तुएं शामिल हैं। इन वस्तुओं को महत्त्वानुसार वज़न (weights) दिए जाते हैं।

थोक कीमत सूचकांकों का महत्त्व (Importance of W.P.I.) –
1. वास्तविक मूल्य का अनुमान-थोक कीमत सूचकांकों द्वारा राष्ट्रीय आय, बचत, राष्ट्रीय निवेश इत्यादि के वास्तविक मूल्यों का निर्धारण करने के लिए किया जाता है। जब हम राष्ट्रीय आय का माप करते हैं तो इसको प्रचलित कीमतों अनुसार मापते हैं। राष्ट्रीय आय में परिवर्तन को स्थिर कीमतें (Constant Prices) तथा माप के पता किया जाता है। प्रचलित कीमतों पर राष्ट्रीय आय को स्थिर कीमतों में परिवर्तन करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 12
थोक कीमत सूचकांक इस प्रकार वास्तविक मूल्य वृद्धि अथवा कमी का पता लग जाता है।

2. मांग तथा पूर्ति का अनुमान-थोक कीमत सूचकांक द्वारा किसी देश में मांग तथा पूर्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। यदि थोक कीमत सूचकांक बढ़ रहा है तो इससे अभिप्राय है कि देश में मांग अधिक है। यदि थोक कीमत सूचकांक घट रहा है तो इसका अर्थ है कि वस्तुओं की पूर्ति अधिक है।

3. मुद्रा स्फीति दर का सूचक-थोक कीमत सूचकांक का प्रयोग मुद्रा-स्फीति दर ज्ञात करने के लिए भी किया जाता है। इससे पता चलता है कि समय के साथ कीमत में कितना परिवर्तन हुआ है। इसको उदाहरण से स्पष्ट करते हैं। मान लो प्रथम सप्ताह में थोक सूचकांक P1 है, द्वितीय सप्ताह में थोक कीमत सूचकांक P2 हो जाता है तो थोक कीमत सूचकांक का माप इस प्रकार किया जाएगा।
\(\frac{\mathrm{P}_{2}-\mathrm{P}_{1}}{\mathrm{P}_{1}} \times 100\)
उदाहरणस्वरूप प्रथम सप्ताह थोक सूचकांक 100 है। द्वितीय सप्ताह सूचकांक 105 हो जाता है तो इस समय में थोक कीमत सूचकांक में परिवर्तन का माप इस प्रकार किया जाता है-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 13

मुद्रा स्फीति दर = \(\frac{P_{2}-P_{1}}{P_{1}} \times 100=\frac{105-100}{100} \times 100\) = 5 %
इसी तरह वार्षिक मुद्रा स्फीति की दर का माप किया जा सकता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

प्रश्न 9.
1993-94 की कीमतों को आधार वर्ष मानकर 2005-06 के लिए थोक कीमत सूचकांक (W.P.I.) 215 है। वर्ष 2005-06 की राष्ट्रीय आय प्रचलित कीमतों पर 47527 करोड़ रु० है। आधार वर्ष की कीमतों पर राष्ट्रीय आय का मूल्य ज्ञात करो।
हल (Solution)-
2005-06 का थोक कीमत सूचकांक = 215
2005-06 की प्रचलित कीमतों पर राष्ट्रीय आय = 47527 करोड़ रु०
प्रचलित कीमतों पर राष्ट्रीय आय 1993-94 की कीमतों अनुसार वास्तविक राष्ट्रीय आय = img
\(\frac{47527}{215} \times 100\) = 22105.58 करोड़ रु० उत्तर

B. उपभोक्ता कीमत सूचकांक [Consumer Price Index (C.P.I.)]

प्रश्न 10.
उपभोक्ता सूचकांक से क्या अभिप्राय है ? उपभोक्ता सूचकांक का निर्माण कैसे किया जाता है ? इसका महत्त्व तथा मुश्किलें बताओ।
(What is meant by Consumer Price Index ? What is the method for the construction of Consumer Price Index. Explain its importance & Problems.)
उत्तर-
उपभोक्ता सूचकांक वह सूचकांक है जो उपभोक्ता द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में परिवर्तन का माप करने के लिए प्रयोग किया जाता है। भिन्न-भिन्न वर्ग के लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। पिछले वर्ष की तुलना में वर्तमान वर्ष में इन वस्तुओं तथा सेवाओं की लागत में आए परिवर्तन का माप किया जाता है। इसीलिए उपभोक्ता सूचकांक को जीवन निर्वाह लागत (Cost of Living Index Number) भी कहा जाता है।

यह सूचकांक परचून कीमतों (Retail price) के आधार पर बनाया जाता है। भारत में तीन प्रकार के उपभोगी समूहों के लिए उपभोक्ता कीमत सूचकांक तैयार किए जाते हैं-

  1. औद्योगिक मज़दूरों के लिए उपभोक्ता कीमत सूचकांक।
  2. कृषि मजदूरों के लिए उपभोक्ता कीमत सूचकांक।
  3. शहरी दिमागी कार्य करने वाले मजदूरों के लिए उपभोक्ता कीमत सूचकांक।

उपभोक्ता कीमत सूचकांक की निर्माण विधि-उपभोक्ता कीमत सूचकांक बनाने के लिए मज़दूर वर्ग का चयन किया जाता है। उन द्वारा प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं तथा उन वस्तुओं की खरीदी जाने वाली मात्रा का पता लगाया जाता है। इन वस्तुओं पर किए जाने वाले व्यय का पता लगाकर निम्नलिखित दो सूत्रों का प्रयोग किया जाता है-
1. कुल व्यय विधि (Aggregate Expenditure Method)—यह विधि लास्पेयर की विधि है। इसमें निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
उपभोक्ता कीमत सूचकांक (C.P.I.) = \(\frac{\Sigma \mathrm{P}_{1} q_{0}}{\Sigma \mathrm{P}_{0} q_{0}} \times 100\) इसमें P1 का अर्थ वर्तमान वर्ष की कीमतें, P0 का अर्थ आधार वर्ष की कीमतें तथा Q0 का अर्थ आधार वर्ष में खरीदी वस्तुओं की मात्रा।

2. पारिवारिक बजट विधि (Family Budget Method)-इस विधि में उपभोक्ता कीमत सूचकांक के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
उपभोक्ता कीमत सूचकांक (C.P.I.) = [/latex]\frac{\Sigma \mathrm{RW}}{\Sigma \mathrm{W}}[/latex]
इस सूत्र में कीमत अनुपात (R) = \(\frac{\mathrm{P}_{1}}{\mathrm{P}_{0}} \times 100\)
सभी वस्तुओं पर व्यय = वज़न (W) = P0q
कुल व्यय विधि तथा पारिवारिक बजट विधि का परिणाम एक समान होता है।

महत्त्व (Importance)-

  1. इनकी सहायता से कीमत नीति का निर्माण किया जाता है।
  2. लागत में वृद्धि होने के कारण मजदूरी में वृद्धि की जाती है।
  3. रु० के वास्तविक मूल्य का पता लगता है।
  4. बाज़ार में मांग तथा पूर्ति का ज्ञान प्राप्त होता है।
  5. राष्ट्रीय आय में शुद्ध वृद्धि अथवा कमी का ज्ञान प्राप्त होता है।

मुश्किलें (Difficulties)

  • भिन्न-भिन्न उपभोगी वर्गों के लिए एक उपभोगी कीमत सूचकांक नहीं बनाया जा सकता।
  • परचून कीमतों अनुसार इसका निर्माण होता है जोकि भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होती हैं।
  • भिन्न-भिन्न वर्ग के लोग भिन्न-भिन्न मदों पर एक अनुपात में व्यय नहीं करते।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित आंकड़ों के आधार पर
(i) कुल व्यय विधि
(ii) पारिवारिक बजट विधि द्वारा उपभोक्ता कीमत सूचकांक की गणना करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 14
उपभोक्ता सूचकांक (C.P.I.) = \(\frac{\sum \mathrm{P}_{1} q_{0}}{\sum \mathrm{P}_{0} q_{0}} \times 100[/ltex]
= [latex]\frac{900}{590} \times 100\)
= 152.54 वर्तमान वर्ष में आधार वर्ष 2000 की परचून कीमतों की तुलना में 52.54 % वृद्धि हुई है।

2. पारिवारिक बजट विधि–उपभोक्ता कीमत सूचकांक की गणना-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 16
उपभोक्ता कीमत सूचकांक (C.P.I.) = \(\frac{\Sigma \mathrm{RW}}{\Sigma \mathrm{W}}\)
= \(\frac{9000}{590}\) = 152.54
दोनों विधियों द्वारा एक समान परिणाम प्राप्त होता है।

प्रश्न 12.
भारत के एक मध्य वर्ग परिवार के सम्बन्ध में निम्नलिखित सूचना के आधार पर उपभोक्ता कीमत सूचकांक ज्ञात करो।
अथवा
निम्नलिखित सूचना के आधार पर 2005 को आधार वर्ष मानकर 2006 के जीवन निर्वाह लागत सूचकांक की गणना करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 17
हल (Solution) :
उपभोक्ता कीमत सूचकांक अथवा जीवन निर्वाह लागत सूचकांक की गणना वज़न (weights) दिए गए हैं। इसी लिए परिवार बजट विधि का प्रयोग किया जाएगा।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 18

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक | (Industrial Production Index Number)

प्रश्न 13.
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक से क्या अभिप्राय है? औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का निर्माण कैसे किया जाता है ? इसके महत्त्व को स्पष्ट करो।
उत्तर-
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक वह सूचकांक होता है जो हमें आधार वर्ष की तुलना में किसी देश में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि अथवा कमी को प्रकट करता है। इस सूचकांक की सहायता से किसी देश में औद्योगिक विकास का ज्ञान प्राप्त होता है। भारत में 1993-94 को आधार वर्ष मान कर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की गणना की जाती है।

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का निर्माण- औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का निर्माण करते समय उद्योगों का वर्गीकरण

  • खाने तथा खनन
  • निर्माण उद्योग
  • बिजली उत्पादन इत्यादि में किया जाता है।

इन क्षेत्रों सम्बन्धी प्रत्येक माह, तिमाही अथवा वार्षिक आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। इनके महत्त्व अनुसार भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को वज़न दिए जाते हैं। इसके पश्चात् निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक = \(\frac{\sum\left(\frac{\mathrm{P}_{1}}{q_{0}}\right) \mathrm{W}}{\sum \mathrm{W}}\)
इसमें q1 = वर्तमान वर्ष का उत्पादन स्तर, q0 = आधार वर्ष का उत्पादन स्तर, W = वज़न।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक

प्रश्न 14.
निम्नलिखित आंकड़ों के आधार पर औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक ज्ञात करो।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 19
हल (Solution) :
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की गणना
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 31 सूचकांक 20
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक = \(\frac{\Sigma R W}{\Sigma W}=\frac{16500}{100}\) = 165
इसका अर्थ है कि 2005 की तुलना में 2006 में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि 65% हुई है।

प्रश्न 15.
मुद्रा स्फीति और सूचकांक में क्या सम्बन्ध है ? मुद्रा स्फीति की दर और कीमत स्तर में सम्बन्ध स्पष्ट करें।
उत्तर-
मुद्रा स्फीति का माप थोक कीमत सूचकांक में होने वाले परिवर्तन के रूप में किया जाता है। जो कि बाज़ार में थोक कीमतों की साप्ताहिक तबदीली को प्रकट करती है। मुद्रा स्फीति वह स्थिति होती है जिसमें कीमत स्तर में वृद्धि लम्बे समय के दौरान दिखाई जाती है। आजकल प्रत्येक व्यक्ति मुद्रा स्फीति की दर का ध्यान रखता है। जैसा कि हम जानते हैं कि, “सूचकांक वह यंत्र है जिसके द्वारा सम्बन्धित तथ्यों के मूल्यों के आकार में होने वाले परिवर्तनों का माप किया जाता है।” सूचकांक की गणना करते समय किसी साधारण वर्ष को आधार साल मान कर उसको 100 मान लेते हैं।

जैसा कि भारत में 2001 साल को आधार साल मान लिया गया है तथा आधार साल की तुलना में 2008 में यदि सूचकांक 200 हो गया है तो हम कह सकते हैं कि भारत में 2001 से 2008 तक मुद्रा स्फीति के कारण मुद्रा के मूल्य में गिरावट आ गई है अथवा मुद्रा की खरीद शक्ति निरन्तर कम हो रही है। परन्तु यह भी देखना चाहिए कि लोगों की आय में कोई तबदीली हुई है या नहीं। यदि लोगों की आय भी इस समय में दो गुणा बढ़ गई है तो इससे मुद्रा स्फीति का लोगों पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता । मुद्रा स्फीति के मापने के लिए प्रति सप्ताह में थोक कीमत में परिवर्तन इस प्रकार मापते हैं :
मुद्रा स्फीति की दर = \(\frac{A_{2}-A_{1}}{A_{1}} \times 100\)
इसमें
A1 = पहले सप्ताह के थोक कीमत सूचकांक
A2 = दूसरे सप्ताह के थोक कीमत सूचकांक
इस प्रकार प्रति सप्ताह सूचकांक का माप सरकार द्वारा किया जाता है। थोक कीमत सूचकांक में एक लम्बे समय के दौरान होने वाली वृद्धि स्फीति को दर्शाती है। इस प्रकार मुद्रा स्फीति को थोक कीमतों के सूचकांक के परिवर्तन द्वारा मापा जाता है जिससे हमें थोक कीमतों में परिवर्तन का ज्ञान होता है।

मुद्रा स्फीति और कीमत स्तर का सम्बन्ध (Relationship between Inflation and Price Level)
जब मुद्रा स्फीति की दर में परिवर्तन होता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि बाजार में कीमत स्तर भी उसी अनुपात में परिवर्तित हो रहा है। बाजार में यदि मुद्रा स्फीति की दर में वृद्धि होती है तो हो सकता है कि कुछ वस्तुओं की कीमत पहले जैसी स्थिर हो जबकि थोड़ी सी वस्तुओं की कीमत में वृद्धि हो सकती है। जब देश में मुद्रा स्फीति में बढ़ोत्तरी हो जाती है तो लोग अधिक वेतन की मांग करते हैं। इससे स्पष्ट है कि मुद्रा स्फीति की दर में गिरावट कीमत स्तर में होने वाली कमी को नहीं दर्शाती।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

PSEB 12th Class Economics कृषि उपज का मण्डीकरण Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
कृषि उत्पादन मण्डीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कृषि उत्पादन मण्डीकरण से अभिप्राय कृषि उत्पादन उपज की बिक्री तथा खरीददारों को एकत्रित करना होता है।

प्रश्न 2. नियमित मण्डी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नियमित मण्डी कानून अधीन आरम्भ की जाती है, जोकि एक वस्तु अथवा वस्तुओं के समुच्चय के लिए बनाई जाती है। इसका संचालन मार्किट कमेटी द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 3.
नियमित मण्डी का मुख्य उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
नियमित मण्डी का उद्देश्य कृषि उपज की भ्रष्ट बुराइयों को दूर करके किसानों के हितों की रक्षा करना होता है। किसानों से प्राप्त किए अधिक व्ययों पर रोक लगाई जाती है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

प्रश्न 4.
भारत में नियमित मण्डियों की स्थिति का वर्णन करो।
उत्तर-
1951 में 200 नियमित मण्डियां स्थापित की गई थीं। 2020-21 में नियमित मण्डियों की संख्या 29000 हो गई है।

प्रश्न 5.
कृषि मण्डीकरण के सम्बन्ध में मॉडल एक्ट 2003 की कोई एक मुख्य विशेषता बताओ।
उत्तर-
किसानों, स्थानिक अधिकारियों तथा अन्य लोगों को नई मण्डियां स्थापित करने की आज्ञा दी गई है।

प्रश्न 6.
भारत में कृषि उत्पादन उपज के भण्डार की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
सन् 2019 तक भारत में 211 मिलियन मीट्रिक टन अनाज के भण्डार की सुविधाएं उपलब्ध थीं।

प्रश्न 7.
जब कृषक अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के पश्चात् उपज को बाज़ार में बिक्री के लिए तैयार हो जाता है तो उसको ……………….. कहते हैं।
उत्तर-
बिक्री योग्य आधिक्य (Marketable Surplus)।

प्रश्न 8.
भारत में …………………….. मिलियन टन अनाज भण्डारण की योग्यता है।
उत्तर-
162 मिलियन मीट्रिक टन।

प्रश्न 9.
भारत में अनाज भण्डार के गोदाम ………….. हैं।
(a) अधिक
(b) सन्तोषजनक
(c) कम
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(c) कम।

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प्रश्न 10.
भारत में सन् 2019 में ………………… नियमित मण्डियां गांव तथा शहरों में काम करती हैं।
उत्तर-
शहरों में 8511 और गांवों में 20808 मण्डियां हैं।

प्रश्न 11.
भारत में कृषि उपज की न्यूनतम समर्थन कीमत कृषि लागत तथा कीमत कमीशन द्वारा निर्धारण होती है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 12.
सन्तोषजनक कृषि उपज की बिक्री के लिए उचित शर्त ………. है।
(a) साहूकार से छुटकारा
(b) सौदेबाज़ी की अधिक शक्ति
(c) मध्यस्थों का अन्त
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 13.
भारत में कृषि उपज की बिक्री की मुख्य समस्याएँ ………… हैं।
(a) संगठन की गैर-मौजूदगी
(b) बिचौलियों की अधिक संख्या
(c) ग्रेडिंग की गैर-मौजूदगी
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 14.
सहकारी मण्डीकरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सहकारी मण्डीकरण का अर्थ आपसी लाभ प्राप्ति और मण्डीकरण की समस्याओं का हल करने के लिए आपसी सहयोग देना है।

प्रश्न 15.
भारत में कृषि उपज की बिक्री के लिए उचित कदम उठाये गए हैं ?
उत्तर
-सही।

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II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की समस्याओं को स्पष्ट करो।
उत्तर –
भारत में कृषि उपज के मण्डीकरण की समस्याएं इस प्रकार हैं –

  1. अपर्याप्त माल गोदाम-किसानों के पास माल गोदाम अपर्याप्त मात्रा में हैं। इसलिए किसानों की उपज का 10% से 20% हिस्सा नष्ट हो जाता है।
  2. साख सुविधाओं की कमी-किसान को अपनी उपज बहुत कम कीमत पर बेचनी पड़ती है। किसानm ऋण में रहता है, इसलिए फसल की कटाई के तुरन्त पश्चात् वह अपनी उपज साहूकार के पास बेचने के लिए मजबूर हो जाता है।

प्रश्न 2.
भारत में नियमित मण्डियों की विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
भारत में नियमित मण्डियों का उद्देश्य किसानों के साथ होने वाले शोषण को समाप्त करना है। भारत में नियमित मण्डियों की स्थापना कृषि उपज मण्डीकरण एक्ट 1951 के अनुसार की गई। 31 मार्च, 2019 तक भारत में 8511 मण्डियां थीं और 20868 मण्डियाँ फसल के आने पर काम करती हैं। नियमित मण्डियों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • नियमित मण्डियों का संचालन मार्किट कमेटियों द्वारा किया जाता है जिसमें राज्य सरकार के कर्मचारी, ज़िला बोर्ड, व्यापारी, कमीशन एजेन्ट तथा किसानों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
  • मार्किट कमेटी मण्डी में प्राप्त किए व्यय को निर्धारित करती है। यह भी निश्चित किया जाता है कि कितना व्यय खरीददार तथा कितना बेचने वाले को सहन करना पड़ेगा।

प्रश्न 3.
भारत में नियमित मण्डियों के लिए सरकार द्वारा उठाए कोई दो कदम बताएं।
उत्तर-
नियमित मण्डियों के लिए सरकार द्वारा उठाए गए पगभारत में सरकार ने नियमित मण्डियों सम्बन्धी निम्नलिखित पग उठाए हैं –
1. मण्डियों का सर्वेक्षण-देश में विभिन्न वस्तुओं की बिक्री के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों पर मण्डियों का सर्वेक्षण किया गया है। सरकार इन मण्डियों में वस्तुओं की कीमतों को प्रकाशित करती है तथा प्रचार किया जाता है।

2. ग्रेडिंग तथा स्तरीकरण-भारत सरकार ने कृषि उत्पादन वस्तुओं की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए एगमार्क की मोहर लगाने का निर्णय किया। एगमार्क की वस्तुएं विश्वसनीय होती हैं, क्योंकि वस्तुओं की गुणवत्ता को परखकर मोहर लगाने का अधिकार दिया जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की समस्याओं को स्पष्ट करो।
उत्तर-
भारत में कृषि उपज के मण्डीकरण की समस्याएं इस प्रकार हैं –

  1. अपर्याप्त माल गोदाम-किसानों के पास माल गोदाम अपर्याप्त मात्रा में हैं। इसलिए किसानों की उपज का 10% से 20% हिस्सा नष्ट हो जाता है।
  2. साख सुविधाओं की कमी-किसान को अपनी उपज बहुत कम कीमत पर बेचनी पड़ती है। किसान ऋण में रहता है, इसलिए फसल की कटाई के तुरन्त पश्चात् वह अपनी उपज साहूकार के पास बेचने के लिए मजबूर हो जाता है।
  3. यातायात की सुविधाओं की कमी-भारत में यातायात के साधन, रेलों की कमी के कारण, किसान को गांवों में से शहर तक उपज ले जाने में मुश्किल का सामना करना पड़ता है। उसको अधिक लागत सहन करनी पड़ती है तथा मार्ग में ही उसकी उपज का कुछ भाग नष्ट हो जाता है।
  4. मण्डी में भ्रष्टाचार-भारत का किसान अनपढ़ तथा अज्ञानी है। मण्डी में उसका शोषण किया जाता है। किसान से अधिक कटौतियां प्राप्त की जाती हैं। नापतोल में हेरा-फेरी की जाती है।

प्रश्न 2.
कृषि मण्डियों में कौन-सी सुविधाओं की आवश्यकता है ?
उत्तर-
भारत में कृषि की उपज के मण्डीकरण में निम्नलिखित बुनियादी सुविधाओं की आवश्यकता है

  • किसानों के पास माल गोदाम की उचित सुविधाएं होनी चाहिए।
  • किसान के पास फसल को कुछ समय अपने पास रखने की समर्था होनी चाहिए अर्थात् फसल की कटाई के पश्चात् फसल बेचने की जगह पर कुछ समय के लिए किसान अपनी उपज को संभाल कर रख सकें तथा उचित मूल्य पर ही उसकी बिक्री करें।
  • किसान को यातायात के लिए सुविधाएं प्रदान की जाएं ताकि वह अपनी उपज गांव में बेचने की जगह पर मण्डियों में उचित कीमत पर उपज बेच सकें।
  • बाज़ार सम्बन्धी किसान को पूरी जानकारी प्रदान करनी चाहिए।
  • बिचोलों की संख्या को घटाकर उनका कमीशन निर्धारण करना चाहिए।

प्रश्न 3.
भारत में नियमित मण्डियों की विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
भारत में नियमित मण्डियों का उद्देश्य किसानों के साथ होने वाले शोषण को समाप्त करना है। भारत में नियमित मण्डियों की स्थापना कृषि उपज मण्डीकरण एक्ट 1951 के अनुसार की गई। 31 मार्च, 2009 तक भारत में 7139 मण्डियां थीं और 20868 मण्डियाँ फसल के आने पर काम करती हैं। नियमित मण्डियों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं –

  1. नियमित मण्डियों का संचालन मार्किट कमेटियों द्वारा किया जाता है, जिसमें राज्य सरकार के कर्मचारी, ज़िला बोर्ड, व्यापारी, कमीशन एजेन्ट तथा किसानों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
  2. मार्किट कमेटी मण्डी में प्राप्त किए व्यय को निर्धारण करती है। यह भी निश्चित किया जाता है कि कितना व्यय खरीददार तथा कितना बेचने वाले को सहन करना पड़ेगा।
  3. नियमित मण्डियों द्वारा किसानों के साथ होने वाले छल-कपट पर नियन्त्रण करना है।
  4. नियमित मण्डियों द्वारा किसानों को प्राप्त होने वाली आय तथा उपभोक्ताओं द्वारा किए गए व्यय में अन्तर को घटाना है।
  5. मॉडल एक्ट 2003 अनुसार नियमित मण्डियों में नई सोच उत्पन्न की गई है, जिस द्वारा कई तरह के सुधार किए गए हैं। फसल की बिक्री के समय 20868 मण्डियां गांव में लगाई जाती है जिसके द्वारा किसान अपनी उपज गांव में ही बेच सकता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

प्रश्न 4.
सहकारी मार्किट कमेटियों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत में सहकारी मार्किट कमेटियों की स्थापना 1954 में की गई। सहकारी मार्किट कमेटियाँ किसानों की उपज का उचित मूल्य दिलवाने में सहायता करती हैं। इसके द्वारा किसानों को ऋण की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं ताकि किसान अपनी उपज, कटाई के तुरन्त पश्चात् न बेचें तथा कुछ समय रुककर अच्छी कीमत पर फसल बेच सकें। मार्किट कमेटियों द्वारा किसान की उपज माल गोदाम में रखने की सुविधा प्रदान की जाती है।

किसान को सस्ते मूल्य पर यातायात के साधन उपलब्ध करवाए जाते हैं। किसानों को ग्रेडिंग तथा मयारीकरण की फसलें बेचने के लिए सहायता की जाती है। विचोलों की जगह पर फसल सीधी ग्राहकों के पास बेचने का प्रबन्ध किया जाता है। इस प्रकार सहकारी मार्किट कमेटियाँ किसानों के लाभ हेतू महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं। 2019-20 में 55885 करोड़ रु० की उपज की बिक्री की गई। इन कमेटियों के पास 4.4 मिलियन टन अनाज भण्डार करने के लिए गोदामों की व्यवस्था है।

प्रश्न 5.
भारत में कृषि उपज के मण्डीकरण सम्बन्धी सरकारी नीति पर टिप्पणी लिखो।
उत्तर-
भारत में कृषि उपज के मण्डीकरण सम्बन्धी सरकार ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण पग उठाए हैं –

  1. मार्किट कमेटियों की स्थापना-भारत में मण्डियों को नियमित करने के लिए मार्किट कमेटियों की स्थापना की गई है।
  2. बाज़ार सम्बन्धी सूचना-भारत में बाज़ार सम्बन्धी सूचना प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य सरकार द्वारा किया गया है। इस सम्बन्धी रोज़ाना मण्डियों के मूल्य तथा होने वाले परिवर्तन के बारे रेडियो, टी० वी० तथा अखबारों में सूचना दी जाती है।
  3. वस्तुओं की ग्रेडिंग तथा मयारीकरण-वस्तुओं की ग्रेडिंग तथा मयारीकरण के लिए भी सरकार किसानों की सहायता करती है। सरकार द्वारा वस्तुओं की परख उपरान्त एगमार्क (AGMARK) का सर्टीफिकेट दिया जाता है। इससे अच्छी किस्म की वस्तुओं की बिक्री आसानी से हो जाती है।
  4. गोदामों की सुविधा-कृषि उपज के भण्डार के लिए सरकार ने गोदामों की सुविधा में प्रशंसनीय वृद्धि की है। सन् 2012 में भारत में 751 लाख टन अनाज के भण्डार के लिए गोदाम थे।

प्रश्न 6.
भारत में अनाज की सरकारी खरीद पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
भारत में 1965 में अनाज की कमी के पश्चात् सरकार ने अनाज का बफर स्टॉक स्थापित करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य के लिए सरकार के पास 2006-07 में 358 लाख टन गेहूँ तथा चावल की खरीद की गई। 2017-20 तक भारत में गेहूँ तथा चावल की बफर कस्वटी (Buffer Norm) 311 लाख टन थी जबकि असल भण्डार 312 लाख टन था।

प्रश्न 7.
भारत में कृषि उपज की कम-से-कम समर्थन मूल्य पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
भारत में कृषि उपज का कम-से-कम समर्थन मूल्य निश्चित किया जाता है, क्योंकि गेहूँ तथा चावल की फसल मण्डियों में आने से अनाज की पूर्ति बढ़ जाती है। इसलिए कीमतों के घटने का डर होता है। पिछले दस वर्षों से गेहूँ तथा चावल की कम-से-कम समर्थन कीमत में काफ़ी वृद्धि हुई है। भारत में एफ० सी० आई० (E.C.I.) द्वारा गेहूँ तथा चावल की खरीद की जाती है तथा इससे प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए बफर स्टॉक स्थापित किया जाता है। 2006-07 में गेहूँ की कम-से-कम समर्थन कीमत (Minimum support price) 360 रु० प्रति क्विटल थी जोकि 2020-21 में 1658 रु० निश्चित की गई। चावल की कम-से-कम समर्थन कीमत 1994-95 में 340 रु० थी जोकि 2020-21 में बढ़ाकर 1868 रु० की गई।

प्रश्न 8.
भारत में कृषि उपज के माल गोदामों की भण्डार समर्था का वर्णन करो।
उत्तर-
भारत में अनाज की जो सरकार द्वारा खरीद की जाती है। इसको सम्भाल कर रखने के लिए माल गोदामों की समर्था इस प्रकार है-

  1. फूड कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (F.C.I.) भारत में फूड कार्पोरेशन गेहूँ तथा चावल की समर्थन कीमत पर खरीद करती है। 2018 में एफ० सी० आई० 362 लाख टन अनाज भण्डार की समर्था थी।
  2. केन्द्रीय गोदाम कार्पोरेशन (C.W.C.)-केन्द्रीय गोदाम कार्पोरेशन भी अनाज के भण्डार की सुविधाएं प्रदान करती हैं। इस संस्था के पास 99 लाख टन अनाज भण्डार की समर्था है।
  3. राज्य गोदाम कार्पोरेशन (S.W.C.)-भारत में 16 राज्यों में राज्य गोदाम कार्पोरेशन स्थापित किए गए हैं। इन गोदामों में 273 लाख टन अनाज भण्डार की समर्था है।
  4. सहकारी गोदाम (Co-operative Warehouses)-राष्ट्रीय सहकारी विकास कार्पोरेशन (NCDC) की स्थापना 1963 में की गई। यह कार्पोरेशन सहकारी समितियों द्वारा भण्डार की सुविधाएं प्रदान करती हैं। 2012 में सहकारी गोदामों में 137.2 लाख टन अनाज की समर्था थी।
  5. ग्रामीण विकास विभाग (Deptt. of Rural Development)-ग्रामीण विकास विभाग द्वारा भी गोदामों की सुविधा में वृद्धि की गई है। 2019 में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा 25 लाख टन अनाज भण्डार करने की समर्था थी।
  6. नाबार्ड अधीन विभिन्न एजेन्सियाँ (Various Agencies through NABARD)-भारत में कृषि तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD) द्वारा निजी क्षेत्र (Private Sector) में अनाज के भण्डार के लिए गोदाम स्थापित करने के लिए उत्साहित किया जाता है।

इस संस्था द्वारा विभिन्न एजेन्सियों द्वारा बनाए गए माल गोदामों की समर्था 2018 में 211 मिलियन थी। अन्य एजेन्सियों द्वारा भी 82.1 लाख टन अनाज भण्डार की सुविधा प्रदान की गई है। भारत में वर्ष 2019 में विभिन्न संगठनों द्वारा 751 लाख टन अनाज भण्डार के लिए माल गोदाम की सुविधा थी जो कि देश की ज़रूरतों से कहीं कम हैं। .

V. दीर्य उत्तरीय प्रश्न न मिलन (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की समस्याओं का वर्णन करो। (Explain the problems of Agricultural selecting in India.)
उत्तर-
मण्डीकरण वह क्रिया है, जहां उत्पादक तथा खरीददारों को एक-दूसरे के सम्पर्क में लाया जाता है। उत्पादक, कृषि उपज पैदा करने वाले किसान होते हैं। खरीददारों में उपभोगी अथवा व्यापारी होते हैं। भारत में 70% लोग कृषि उत्पादन का कार्य करते हैं तथा गांवों में रहते हैं। कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण में बहुत दोष हैं।

कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की समस्याएं (Problems of Agricultural Marketing)-
अथवा
कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की असंतोषजनक स्थिति (Unsatisfactory Condition of Agricultural Marketing) भारत में कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की स्थिति संतोषजनक नहीं है। इसकी मुख्य समस्याएं इस प्रकार हैं –

  1. अपर्याप्त गोदाम सुविधाएं-भारत में कृषि उत्पादन उपज के भण्डार करने के लिए पर्याप्त गोदाम नहीं हैं। गांवों में कच्चे गोदाम हैं, जिनमें उपज का 10% से 20% भाग नष्ट हो जाता है। इसलिए किसान फसल की कटाई के पश्चात् इसको तुरन्त बेच देते हैं। किसानों को उपज का उचित मूल्य प्राप्त नहीं होता।
  2. अपर्याप्त यातायात के साधन–भारत में यातायात के साधन भी अपर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। भारत के बहुत से भागों में रेल अथवा पक्की सड़क की सुविधा नहीं है। कुछ साधनों पर कच्ची सड़कें भी नहीं हैं । इसलिए कृषि उत्पादन उपज को घर से मण्डी तक ले जाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। यातायात के साधनों पर अधिक व्यय करना पड़ता है तथा बहुत-सी उपज मार्ग में खराब हो जाती है।
  3. अपर्याप्त साख सुविधाएं-भारत के किसान साख सुविधाओं की कमी के कारण अपनी उपज अनुचित समय, अनुचित लोगों को अनुचित कीमतों पर बेचनी पड़ती है। किसान पर ऋण होने के कारण, उसको अपनी उपज फसल की कटाई के पश्चात् तुरन्त बेचनी पड़ती है। साख सुविधाओं की कमी के कारण वह अपनी फसल को कुछ देर तक सम्भाल कर नहीं रख सकता।
  4. ग्रेडिंग तथा मयारीकरण का अभाव-भारत में कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण की एक समस्या यह है कि वस्तुओं की उचित ग्रेडिंग नहीं की जाती। इस कारण किसानों को उपज की उचित कीमत प्राप्त नहीं होती। खरीददार भी बिना मयारीकरण की वस्तुओं की खरीद करना पसन्द नहीं करते।
  5. बाज़ार सम्बन्धी सूचना का अभाव-किसान को बाज़ार सम्बन्धी उचित सूचना भी प्राप्त नहीं होती। उनको विभिन्न स्थानों पर उपज की कीमतों, मांग, सरकारी नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय परिवर्तनों का ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इसलिए जो सूचना साहूकारों से प्राप्त होती है, वह किसान के पक्ष में नहीं होती।
  6. संस्थागत मंडियों का अभाव-भारत में कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण का एक दोष यह है कि किसान अपनी उपज व्यक्तिगत तौर पर मण्डी में बेचता है। इसका मुख्य कारण यह है कि देश में सहकारी मण्डी समितियों की कमी पाई जाती है। सरकार द्वारा भी उपज खरीदने का उचित प्रबन्ध नहीं है। यदि देश में संस्थागत मण्डियाँ हों तो किसान को उपज का उचित मूल्य प्राप्त हो सकता है।
  7. बिचोलों की अधिक संख्या-कृषि उपज किसान से लेकर अन्तिम उपभोगी तक पहुँचने के लिए बहुत से बिचोले होते हैं। प्रत्येक बिचोले का अपना कमीशन होता है। किसान को उपज की कम कीमत प्राप्त होती है, परन्तु जब वह उपज अन्तिम उपभोगी के पास पहुँचती है तो उसमें दलाल, परचून विक्रेता का कमीशन बढ़ने के कारण, उपज की कीमत बहुत बढ़ जाती है।
  8. खरीद तथा बिक्री में भ्रष्टाचार-कृषि उत्पादन उपज की गुप्त खरीद तथा बेच, गलत मापतोल के पैमाने, फ़िजूल कटौतियाँ इत्यादि भी कृषि उत्पादन उपज के मण्डीकरण के कुछ अन्य दोष हैं। उपज खरीदने वाले गुप्त रूप में उपज की कीमत निश्चित कर लेते हैं।

इसलिए काश्तकार को अपनी उपज का ठीक मूल्य प्राप्त नहीं होता। कई स्थानों पर बाटों की जगह पर पत्थरों को बाटों के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिनका भार साधारण बाटों से अधिक होता है। मण्डी फीस के रूप में बहुत सी फ़िजूल कटौतियाँ भी शामिल की जाती हैं। इस प्रकार किसानों का शोषण कई प्रकार से किया जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

प्रश्न 2.
नियमित मण्डियों से क्या अभिप्राय है? भारत में नियमित मण्डियों के विकास के लिए सरकार द्वारा किए गए यत्नों को स्पष्ट करो।
(What do you mean by regulated Market ? Discuss the steps taken by the Government of India regarding Regulated Markets.)
उत्तर-
नियमित मण्डी किसी नियम को आधारित करके एक वस्तु अथवा वस्तुओं के समूह के लिए बनाई जाती है। ऐसी मण्डी का प्रबन्ध मार्किट कमेटी (Market Committee) द्वारा किया जाता है। मार्किट कमेटी में राज्य सरकार, जिला बोर्ड, व्यापारी कमीशन एजेन्ट तथा किसानों के प्रतिनिधि होते हैं। यह कमेटी सरकार द्वारा निश्चित समय के लिए नियुक्त की जाती है जोकि मण्डी का प्रबन्ध करती है। मार्किट कमेटी द्वारा कमीशन तथा कटौतियाँ निर्धारित की जाती हैं। नियमित मण्डी का मुख्य उद्देश्य बाजार में भ्रष्टाचार को दूर करके किसानों के हितों की रक्षा करना होता है। इस उद्देश्य के लिए सभी राज्यों में कानून पास किए गए हैं। 1951 में नियमित मण्डियों की संख्या 200 थी, जोकि 31 मार्च, 2012 को बढ़कर 7139 हो गई है। इनके बिना समय-समय पर गांवों में जो मण्डियां लगाई जाती हैं, उनकी संख्या 20868 है।

नियमित मण्डियों की विशेषताएँ–नियमित मण्डियों को सरकार ने स्वतन्त्रता के पश्चात् स्थापित किया है। नियमित मण्डी का मुख्य उद्देश्य किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलवाना है। उत्पादक तथा उपभोगी में कीमत के अन्तर को घटाना है। व्यापारी तथा कमीशन एजेंटों द्वारा प्राप्त किए जाने वाले कमीशन को नियमित करना है। इस सम्बन्ध में केन्द्र सरकार ने 2003 में मॉडल एक्ट पास किया, जिसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं –

  1. मॉडल एकट 2003 अनुसार किसानों तथा स्थानिक अधिकारियों को आज्ञा दी गई है कि वह किसी क्षेत्र में नई मण्डी स्थापित कर सकते हैं।
  2. किसानों के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि अपनी उपज निश्चित नियमित मण्डी में ही बेचें।
  3. ऐसे खरीद केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जहां पर किसान तथा उपभोगी प्रत्यक्ष तौर पर मण्डी में खरीद, बेच कर सकते हैं।
  4. कृषि उत्पादन मण्डियों के विकास तथा प्रबन्ध के लिए सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र में भ्रातृभाव को उत्साहित किया गया है।
  5. नाशवान वस्तुएं जैसे कि सब्जियां, प्याज, फल तथा फूलों इत्यादि के लिए विशेष मण्डियां स्थापित की गई हैं।
  6. ठेकेदारी काश्तकार के सम्बन्ध में नए नियम बनाए गए हैं।

सहकारी मण्डियाँ (Co-operative Marketing)-भारत में 1954 में सहकारी मण्डीकरण समितियों की स्थापना की गई। सहकारी मार्किटिंग समितियों में इसके सदस्य अपनी अधिक उपज सोसाइटी को बेचते हैं। यदि वह अपनी उपज नहीं बेचना चाहते तो सोसाइटी के पास रखकर उधार प्राप्त करते हैं, जब उनको उपज का उचित मूल्य प्राप्त होता है तो उस समय उपज बेची जा सकती है। सहकारी मार्किट समितियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हुई है। 1960-61 में इन समितियों द्वारा 169 करोड़ रु० कृषि उत्पादन उपज बेची गई, जोकि 2019-20 में 35 हज़ार करोड़ रु० हो गई। यह समितियां पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश में अधिक प्रचलित हैं। नियमित मण्डियों के लिए सरकार द्वारा उठाए गए पगभारत में सरकार ने नियमित मण्डियों सम्बन्धी निम्नलिखित पग उठाए हैं –

  1. मण्डियों का सर्वेक्षण-देश में विभिन्न वस्तुओं की बिक्री के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों पर मण्डियों का सर्वेक्षण किया गया है। सरकार इन मण्डियों में वस्तुओं की कीमतों को प्रकाशित करती है तथा प्रचार किया जाता है।
  2. ग्रेडिंग तथा मयारीकरण-भारत सरकार ने कृषि उत्पादन वस्तुओं की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए एगमार्क की मोहर लगाने का निर्णय किया। एगमार्क की वस्तुएं विश्वसनीय होती हैं, क्योंकि वस्तुओं की गुणवत्ता को परखकर मोहर लगाने का अधिकार दिया जाता है।
  3. नियमित मण्डियों की स्थापना-भारत सरकार ने 31 मार्च, 2020 तक 55885 कृषि उत्पादन मण्डियों की स्थापना की है, जोकि नियमों की पालना करके कृषि उत्पादन वस्तुओं की खरीद बेच करती हैं। इस समय कृषि उत्पादन उपज का 80% हिस्सा नियमित मण्डियों में बेचा जाता है। 20868 मण्डियाँ फसल आने के समय काम करती हैं।
  4. गोदाम की सुविधाएं-किसानों की उपज को सम्भालने के लिए गोदाम स्थापित किए गए हैं। 1951 में केन्द्रीय वेयर हाऊसिंग कार्पोरेशन की स्थापना की गई, जिस द्वारा देश में 751 लाख टन अनाज रखने की व्यवस्था की गई है।
  5. सहकारी मार्किटिंग समितियों की स्थापना-भारत में सहकारी मण्डीकरण समितियां स्थापित की गई हैं, जोकि कृषि उत्पादन उपज की बिक्री के साथ-साथ उधार की सुविधाएं भी प्रदान करती हैं।
  6. कृषि उत्पादन वस्तुओं का निर्यात-सरकार ने कृषि उत्पादन वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि करने के लिए विशेष बोर्डों की स्थापना की है। 2009-10 में 31500 करोड़ रु० की वस्तुओं का विदेशों को निर्यात किया गया। नई विदेशी नीति (2012-17) में कृषि उत्पादन उपज के निर्यात में वृद्धि करने के लिए कृषि निर्यात जोन बनाए गए हैं।
  7. कृषि उत्पादन मण्डीकरण सुधार–भारत सरकार ने जोन 2002 में कृषि उत्पादन मण्डीकरण सुधार के लिए टास्क फोरस (Task Force) की स्थापना की जिसमें किसानों द्वारा उपज को प्रत्यक्ष तौर पर बेचना, भविष्य के लिए समझौते करने, गोदामों में माल रखने की सुविधा तथा आधुनिक तकनीकों की जानकारी प्रदान करना शामिल है।

प्रश्न 3.
भारत में सरकार द्वारा कृषि उत्पादन उपज की प्राप्ति तथा कीमत नीति को स्पष्ट करो। (Explain the Procurement and Price Policy of Agricultural Produce in India.)
उत्तर-
कृषि उत्पादन उपज की कीमत निर्धारण करना महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि इस द्वारा किसानों की आय निश्चित होती है। अनाज खरीदने वाले भी उपज की कीमत से प्रभावित होते हैं। इसलिए कृषि उत्पादन उपज की कीमतें तथा प्राप्ति महत्त्वपूर्ण समस्या है। कृषि उत्पादन उपज की कीमत नीति-भारत जैसे देश में कृषि उत्पादन उपज की कीमत को निर्धारित करना महत्त्वपूर्ण समस्या है। कृषि उत्पादन आगतों (Inputs) की कीमतें निरन्तर बढ़ रही हैं। इसलिए कृषि उत्पादन उपज की कीमतों में वृद्धि करना अनिवार्य हो जाता है, परन्तु भारत में अधिक लोग निर्धन होने के कारण अनाज खरीदने की सामर्थ्य नहीं रखते, इसलिए अनाज की अधिक कीमतें निश्चित करना सम्भव नहीं।

अनाज की कीमतों में निरन्तर परिवर्तन होते हैं। इसलिए मुख्य तौर पर कीमतों में परिवर्तनों के दो कारण होते हैं-
1. मांग पक्ष-

  • कृषि उत्पादन उपज की मांग में निरन्तर वृद्धि हो रही है, क्योंकि भारत में जनसंख्या तीव्रता से बढ़ रही है।
  • उद्योगों का विकास होने के कारण कृषि उत्पादन उपज की मांग कच्चे माल के तौर पर अधिक रही है।
  • कृषि उत्पादन उपज से वस्तुओं का निर्माण करके निर्यात किया जाता है। इसलिए मांग में वृद्धि हो रही है।

2. पूर्ति पक्ष-
कृषि उत्पादन के पूर्ति पक्ष में निरन्तर वृद्धि हो रही है। भारत में हरित क्रान्ति के पश्चात् वस्तुओं की उपज तथा उत्पादकता दोनों में ही वृद्धि हुई है। कुछ राज्यों पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में कृषि उत्पादन उपज में बहुत वृद्धि हुई है, जबकि बहुत से राज्यों में उत्पादकता कम है। कीमत स्थिरता की नीति-कृषि उत्पादन उपज की कीमतों को स्थिर रखा जाए अथवा दूसरी वस्तुओं की कीमतों के अनुसार बढ़ने दिया जाए, यह महत्त्वपूर्ण समस्या है।

यदि कीमतों में वृद्धि दूसरी उपभोगी वस्तुओं की कीमतों अनुसार की जाती है तो देश में लागत वृद्धि मुद्रा स्फीति उत्पन्न हो जाएगी। उपभोगी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकेंगे। यदि वस्तुओं को कम रखने का यत्न किया जाता है तो उत्पादक निरुत्साहित हो जाते हैं।

किसान अपनी लागत भी पूरी नहीं कर सकेंगे तो कृषि उत्पादन में उनकी रुचि कम हो जाती है। इसलिए उचित कीमत नीति निर्धारित करने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए –

  1. कीमत स्तर इस प्रकार निश्चित किया जाए ताकि किसान उत्पादन करने के लिए उत्साहित हों। तकनीक तथा आधुनिक ढंगों का प्रयोग किया जा सके।
  2. कृषि उत्पादन उपज की कीमतों का प्रभाव अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों पर देखना चाहिए । जब कृषि उत्पादन उपज को कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है तो बाकी वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की सम्भावना होगी, जिससे मुद्रा स्फीति उत्पन्न हो सकती है।
  3. कृषि उत्पादन क्षेत्र तथा गैर-कृषि उत्पादन क्षेत्र में कीमतों के सन्तुलन रखने की आवश्यकता है। जैसे कि रासायनिक खादों, कीड़ेमार दवाइयों, बिजली, कपड़ा इत्यादि वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से कृषि उत्पादन उपज की कीमतों में वृद्धि भी अनिवार्य होगी। इस उद्देश्य के लिए भारत सरकार ने देश में कृषि उत्पादन, लागत तथा कीमत कमीशन की स्थापना 1965 में की।

इस कमीशन को पहले कृषि उत्पादन कीमत कमीशन कहा जाता था। यह कमीशन कृषि उत्पादन में प्रयोग किए जाने वाले कच्चे माल की कीमतों को ध्यान में रखकर विभिन्न फसलों की कीमत निर्धारित करता है।

इसको न्यूनतम समर्थन कीमत (Minimum Support Price) कहा जाता है। इसको सरकारी प्राप्ति कीमत (Procurement Price) भी कहते हैं। प्राप्ति कीमत वह कीमत होती है, जिस पर देश की सरकार बाज़ार में आई उपज की खरीद करती है। इस कमीशन द्वारा डिपुओं पर दी जाने वाली चीनी, गेहूँ, चावल इत्यादि की कीमत भी निर्धारण की जाती है। कृषि उत्पादन उपज की सरकारी खरीद-भारत में कृषि मानसून हवाओं पर निर्भर है। इसलिए कृषि उत्पादन उपज अनिश्चित होने के कारण 1965-66 में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।

इसलिए सरकार ने अनाज भण्डार (Buffer stock) बनाने का निर्णय किया। इस नीति अधीन सरकार ने 1965 में कृषि उत्पादन लागतों तथा कीमतों कमीशन की स्थापना की, जोकि कृषि उत्पादन उपज की कम-से-कम समर्थन कीमत निश्चित करता है, जिसको प्राप्ति कीमत (Procurement Price) कहा जाता है । कम-से-कम समर्थन कीमत फसल को बीजते समय बताई जाती है ताकि किसान उस कीमत अनुसार फसल बीज सकें। देश में डिपुओं पर कम कीमत पर बेची जाने वाली वस्तुओं की कीमत भी कमीशन द्वारा निश्चित की जाती है। सरकार द्वारा कृषि उत्पादन उपज की खरीद करके अनाज का भण्डार बनाया जाता है ताकि मुश्किल समय प्रयोग किया जा सके।

भारत में फूड कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा अनाज खरीदा जाता है। कृषि उपज की कीमतों में उचित वृद्धि की गई है, चाहे किसान को उपज का उचित मूल्य प्राप्त नहीं होता, परन्तु अनाज की पैदावार बढ़ने के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है। उपभोक्ताओं को भी इस नीति का लाभ प्राप्त हुआ है। उनको अनाज उचित कीमतों पर प्राप्त हो जाता है। कृषि उत्पादन उपज की कीमतों को वैज्ञानिक बनाने की आवश्यकता है, इसलिए इस समस्या को मांग तथा लागत पक्ष से देखना आवश्यक है। समर्थन कीमत पर उचित वृद्धि करके किसान की आर्थिक स्थिति में सुधार करना चाहिए, जबकि देश के निर्धन लोगों तथा मजदूरों को वितरण प्रणाली द्वारा कम कीमतों पर अनाज खरीदने की सुविधा देनी चाहिए।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण

प्रश्न 4.
भारत में कृषि उत्पादन उपज के लिए माल गोदामों की सुविधा को स्पष्ट करो। (Explain the Warehousing facilities for Agriculture Produce in India.)
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादन उपज के भण्डार की समस्या बहुत समय से चली आ रही है। भण्डार सुविधाओं की कमी के कारण बहुत-सा अनाज नष्ट हो जाता है। इसलिए 1954 में सर्व भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण कमेटी (All India Rural Credit Survey Committee) की सिफारिशों के अनुसार

  • केन्द्रीय स्तर
  • राज्य स्तर
  • ग्रामीण स्तर पर गोदाम की सुविधाएं प्रदान करने का कार्य आरम्भ किया गया।

इस उद्देश्य के लिए राष्ट्रीय सहकारी विकास तथा माल गोदाम बोर्ड (1956) तथा केन्द्रीय गोदाम कार्पोरेशन (1957) में स्थापित किए गए। इसके पश्चात् सभी राज्यों में राज्य गोदाम कार्पोरेशनों की स्थापना की गई।

इस समय सार्वजनिक क्षेत्र में तीन एजेन्सियाँ हैं, जोकि बड़े पैमाने पर गोदाम स्थापित करती हैं-

  1. फूड कापैरेशन आँफ इंडिया (Food Corporation of India-F.C.I.)
  2. केन्द्रीय गोदाम कार्पोरेशन (Central Warehousing Corporation-C.W.C.)
  3. राज्य गोदाम कार्पोरेशन (State Warehousing Corporation-S.W.C.)

फूड कार्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया (F.C.I.) के अपने गोदाम हैं तथा बाकी की सरकारी तथा निजी संस्थाओं से गोदाम किराए पर लेती हैं। इसकी कुल समर्था लगभग 32.05 मिलियन मीट्रिक टन है।

केन्द्रीय गोदाम कार्पोरेशन (C.W.C.) का मुख्य कार्य उचित स्थानों पर ज़मीन खरीद कर गोदामों का निर्माण करना है। इस कार्पोरेशन के पास 470 माल गोदाम हैं जिनकी समर्था 10.7 मिलियन मीट्रिक टन है। राज्य गोदाम कार्पोरेशन (S.W.C.) भी उचित स्थानों पर गोदाम निर्माण करके अनाज भण्डार की सुविधाएं प्रदान करती हैं। इसके पास लगभग 2000 गोदाम हैं, जिनकी भण्डार समर्था 21.29 मिलियन मीट्रिक टन है। इसके अतिरिक्त सहकारी समितियाँ ग्रामीण क्षेत्र (Rural Areas) में अनाज, खाद, बीज इत्यादि रखने की सुविधा प्रदान की जाती है। 2019-20 में सहकारी समितियों की भण्डार समर्था 154 लाख टन थी। इसके बिना देश में 3200 कोल्ड स्टोर बनाए गए हैं, जिनमें सब्जियां, फल, मीट, मछलियाँ रखने की सुविधा प्रदान की जाती हैं। कोल्ड स्टोरों की समर्था 80 लाख टन है।

केन्द्रीय क्षेत्र द्वारा ग्रामीण गोदाम निर्माण योजना-ग्रामीण क्षेत्रों में वैज्ञानिक ढंग से स्टोर बनाने के लिए 2001 में सरकार ने केन्द्रीय क्षेत्र योजना अधीन गांवों में गोदाम बनाने की योजना आरम्भ की है। इस योजना अधीन निजी तथा सहकारी क्षेत्र में गोदाम बनाने वालों को सहायता दी जाती है। 2019-20 में बैंकों द्वारा 4850 स्टोर बनाने के लिए 1300 करोड़ रु० के निवेश की मंजूरी दी गई। इस योजना का विस्तार 2013-14 तक किया गया है। इन गोदामों के गाँवों में स्थापित होने से किसान अपनी उपज गोदामों में रखकर बैंकों से उधार प्राप्त कर सकते हैं। इससे उनको अपनी उपज फसल की कटाई के तुरन्त पश्चात् बेचनी नहीं पड़ेगी। वह अपनी मर्जी से अच्छी कीमत पर उपज बेच सकेंगे।

भारत में माल गोदामों की वर्तमान स्थिति-भारत में ग्यारहवीं तथा बारहवीं योजना में ग्रामों में माल गोदामों के निर्माण पर अधिक जोर दिया गया। सहकारी क्षेत्र में 100 गोदाम बनाए गए। पश्चात् में ग्रामीण गोदाम योजना (Rural Godown Scheme) आरम्भ की गई, जिसमें 200 से 100 टन की समर्था के गोदाम गांवों में स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया। क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय तथा राज्य गोदाम कार्पोरेशनें काम कर रही हैं। इनके बिना निजी क्षेत्र में 10 लाख टन समर्था के गोदामों का निर्माण किया गया है। कृषि उत्पादन तथा ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD) भी विभिन्न एजेन्सियों द्वारा गोदामों के विस्तार का कार्य कर रहा है। भारत में 2019-20 में विभिन्न संस्थाओं द्वारा गोदामों में कुल समर्था 758.46 मिलियन मीट्रिक टन थी, जिसका विवरण अग्रलिखित है
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 24 कृषि उपज का मण्डीकरण 1
देश में फूड कार्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया द्वारा नियमित गोदामों की सपथ 74 35 मिलियन पाटेक : है। केन्द्रीय गोदाम कार्पोरेशन की समर्था, राज्य गोदाम कार्पोरेशन को समर्था तथा सहकारी सामों की समय 30.68 मीट्रिक टन है। निजी क्षेत्र की समर्था 2040 मीट्रिक टन है। इस प्रकार भारत में कुल समय 58 मिलियन मोट्रिक लाख टन है, जोकि संतोषजनक नहीं है। 2 फरवरी 2020 में वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि वर्तमान में गोगों की माप 21 मिलियन sq.ft. से बढ़ाकर 2023 तक मिलियन sq.ft. करने का लक्ष्य है। इस उद्देश्य के लिए ₹ 2.99 करोड़ की राशि गोदामों के विस्तार के लिए मंजूर की गई है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

PSEB 12th Class Economics धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
चिरकालीन विकास की परिभाषा दीजिए।
उत्तर-
चिरकालीन विकास वह क्रिया है, जिसमें आर्थिक विकास द्वारा न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि भविष्य की पीढ़ी की लम्बे समय तक की आवश्यकताओं की अधिकतम पूर्ति की जाती है।

प्रश्न 2.
हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय की धारणा को स्पष्ट करो।
उत्तर-
हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय – राष्ट्रीय पूंजी की घिसावट।

  • शुद्ध राष्ट्रीय आय-एक देश में निवासियों द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं, सेवाओं के बाजार मूल्य को शुद्ध राष्ट्रीय आय कहा जाता है।
  • राष्ट्रीय पूंजी की घिसावट-प्राकृतिक साधनों में कमी + वातावरण की अधोगति।

प्रश्न 3.
साधनों की सीमित उपलब्धता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
साधनों की सीमित उपलब्धता से अभिप्राय है, प्राकृतिक साधनों भूमि, जल, खनिज, जंगल इत्य, की मात्रा का आवश्यकता से कम पाया जाना। आर्थिक विकास के लिए सीमित साधनों के उचित प्रयोग के लिए चयन की समस्या उत्पन्न होती है।

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प्रश्न 4.
भारत में वनों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
सन् 2011 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 67.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन पाए जाते थे जोकि कुल क्षेत्रफल का 20% हिस्सा है। एक देश के वातावरण को संतुलित रखने के लिए देश में 33 प्रतिशत क्षेत्रफल पर वन होने चाहिए।

प्रश्न 5.
वातावरण की अधोगति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वातावरण की अधोगति से अभिप्राय है जल, भूमि, खनिज तथा जलवायु का दुरुपयोग होना जिससे देश की धरती बंजर हो जाती है, जिससे कृषि तथा औद्योगिक विकास रुक जाता है।

प्रश्न 6.
औद्योगिक प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप जल, वायु, शोर, भूमि तथा मौसम की अधोगति को औद्योगिक प्रदूषण कहा जाता है।

प्रश्न 7.
एक अर्थव्यवस्था की वास्तविक आय में इस प्रकार वृद्धि होना जिससे पर्यावरण संरक्षण तथा जीवन की गुणवत्ता बनी रहे, जिससे न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि भावी पीढ़ी को अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके को चिरकालीन विकास कहते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 8.
धारणीय विकास का अर्थ है ……….
(a) प्राकृतिक साधनों का कुशल प्रयोग
(b) भावी पीढ़ी के जीवन की गुणवत्ता बनी रहे।
(c) प्रदूषण में वृद्धि न हो
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 9.
हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय (-) ………….
उत्तर-
पूंजी की घिसावट।

प्रश्न 10.
विशुद्ध बचतें (Genuine Savings) = बचत की दर (-) मनुष्य निर्मित पूंजी की घिसावट (-)
उत्तर-
प्राकृतिक पूंजी की घिसावट।

प्रश्न 11.
भूमि की अधोगति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मिट्टी के कटाव तथा पानी के जमाव के कारण भूमि के उपजाऊपन की क्षति को भूमि की अधोगति कहते हैं।

प्रश्न 29.
आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
आर्थिक वृद्धि से अभिप्राय है दीर्घकाल में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि होना।

प्रश्न 13.
आर्थिक विकास (Economic Development) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक विकास से अभिप्राय है प्रति व्यक्ति वास्तविक आय और आर्थिक कल्याण में दीर्घकाल में वृद्धि होना।

प्रश्न 14.
चिरकालीन विकास (Sustainable Development) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चिरकालीन विकास का अर्थ है प्रति व्यक्ति आय, आर्थिक कल्याण में वृद्धि के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ी के आर्थिक कल्याण को बनाए रखना।

प्रश्न 15.
जीवन की गुणवत्ता का अर्थ लोगों के स्वास्थ्य तथा शिक्षा जीवन से होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 16.
वायु प्रदूषण का अर्थ है वायु में जीवन के लिए ज़रूरी तत्त्वों में प्रदूषण।
उत्तर-
सही।

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II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
चिरकालीन विकास से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
धारणीय आर्थिक विकास का अर्थ-धारणीय आर्थिक विकास (Sustainable Economic Development) की धारणा बरंट्रडलैंड रिपोर्ट (Brendtland Report) में पहली बार 1987 में प्रयोग की गई। इस सम्बन्ध में विकास तथा पर्यावरण के लिए विश्व कमीशन (World Commission on environment and development) की स्थापना की गई थी। इस कमीशन के अनुसार विकास की प्रक्रिया का सम्बन्ध वर्तमान की कम समय की आवश्यकताओं से नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध लम्बे समय के आर्थिक विकास से होता है। रॉबर्ट रिपीटो के शब्दों में, “धारणीय विकास एक ऐसी विकास नीति है जोकि प्राकृतिक तथा मानवीय साधनों, वित्तीय तथा भौतिक भण्डारों का प्रबन्धीकरण इस प्रकार करती है जिससे दीर्घकाल में धन तथा भलाई में वृद्धि हो।”

प्रश्न 2.
पर्यावरण की अधोगति (Environment Degradation) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर–
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में आर्थिक विकास की वृद्धि के लिए कृषि उत्पादन तथा उद्योगों का विकास किया गया ताकि बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। परन्तु मशीनीकरण पर अधिक ज़ोर तथा खनिज पदार्थों के बिना सोचे-समझे अधिक प्रयोग से पर्यावरण की अधोगति में वृद्धि हुई है। पर्यावरण की अधोगति से अभिप्राय जल, भूमि, खनिज तथा जलवायु का दुरुपयोग होना जिससे एक देश की धरती बंजर हो जाती है।

प्रश्न 3.
वायु प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वायु प्रदूषण-वायु में मुख्य तौर पर 21% ऑक्सीजन, 1% कार्बन डाइऑक्साइड तथा 78.09% नाइट्रोजन की मात्रा पाई जाती हैं। उद्योगों के विकास से वायु में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड गैसें शामिल हो जाती हैं। इन गैसों के शामिल होने से टी०बी०, दमा, खांसी इत्यादि बीमारियां फैल जाती हैं। इसको वायु प्रदूषण कहा जाता है।

प्रश्न 4.
जल प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
जल प्रदूषण-उद्योगों के विकास से जो रासायनिक कूड़ा-कर्कट तथा गन्दा जल निकलता है, इसको नदियों, झीलों तथा नहरों में छोड़ दिया जाता है। इससे जहरीले पदार्थ तथा हानिकारक धातुओं के कण पानी में शामिल हो जाते हैं यह पानी पीने के लिए प्रयोग किया जाता है, जिस कारण बीमारियां फैलती हैं। इसको जल प्रदूषण कहा जाता

प्रश्न 5.
ध्वनि प्रदूषण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
ध्वनि प्रदूषण-उद्योगों में मशीनों के चलने के कारण शोर उत्पन्न होता है। इससे मज़दूरों की सुनने की शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मशीनों में से निकलने वाला धुआं तथा कण बहुत-सी बीमारियों को जन्म देते हैं। इससे टी०बी०, दमा, ब्लड प्रैशर तथा दिमागी तनाव इत्यादि बीमारियां उत्पन्न होती हैं।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न | (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
धारणीय विकास के मुख्य लक्षण बताओ।
उत्तर-
धारणीय विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति इस ढंग से की जाती है, ताकि भविष्य की पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से कर सके। धारणीय आर्थिक विकास के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. लम्बे समय तक प्रति व्यक्ति आय तथा आर्थिक भलाई में वृद्धि हो।
  2. प्राकृतिक साधनों का प्रयोग वर्तमान में आवश्यकता से अधिक न किया जाए।
  3. भविष्य की पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं को आसानी से पूरा कर सके।
  4. बिना प्रदूषण के अच्छा जीवन स्तर व्यतीत किया जा सके।

प्रश्न 2.
धारणीय आर्थिक विकास का माप कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
धारणीय आर्थिक विकास का माप दो धारणाओं से किया जाता है-

  1. हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय (Green Net National Income)-हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय (-) प्राकृतिक साधनों का प्रयोग (-) पर्यावरण अधोगति।
  2. वास्तविक बचत (Genuine Savings)-वास्तविक बचत = बचत की दर (-) मनुष्य द्वारा उत्पादित पूंजी की घिसावट (-) प्राकृतिक साधनों का प्रयोग (-) पर्यावरण अधोगति।

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प्रश्न 3.
भारत में साधनों की प्राप्ति का वर्णन करो।
उत्तर-
भारत सम्बन्धी कहा जाता है कि यह एक अमीर देश है परन्तु इसमें रहने वाले लोग ग़रीब हैं। भारत में साधन अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। लोहा तथा कोयला अधिक मात्रा में हैं परन्तु खनिज, पेट्रोल तथा तेल की कमी पाई जाती है। भारत में जल साधनों की कोई कमी नहीं। भारत का क्षेत्रफल भी विशाल है। मानवीय साधन बहुत अधिक हैं, परन्तु इन साधनों का प्रयोग उचित ढंग से नहीं किया गया। वन साधनों की कमी पाई जाती है। प्रत्येक देश क्षेत्रफल का 33% भाग वनों के अधीन होना चाहिए, परन्तु भारत में केवल 20% हिस्से पर वन हैं। 54% भूमि पर कृषि नहीं की जाती। भू-क्षरण, सेम, बाढ़ इत्यादि समस्याएं हैं। उद्योगों का विकास किया गया है जिससे औद्योगिक प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है। इसलिए साधनों की प्राप्ति तो काफ़ी है परन्तु इसका उचित तरह से प्रयोग नहीं किया गया।

प्रश्न 4.
भारत में प्राकृतिक साधनों पर नोट लिखो।
उत्तर-
भारत में प्राकृतिक साधन निम्नलिखित हैं-

  1. भूमि साधन-भारत का भौगोलिक क्षेत्र 329 मिलियन हेक्टेयर है। इस क्षेत्र में से 46 प्रतिशत भाग कृषि उत्पादन अधीन है।
  2. जल साधन-भारत में जल साधन काफ़ी मात्रा में हैं। पूरे वर्ष बहने वाली नदियां हैं, परन्तु जल साधनों के 38 प्रतिशत भाग का प्रयोग किया जाता है।
  3. वन-भारत में कुल क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग वनों के अधीन है।
  4. खनिज-भारत में लोहा तथा कोयला काफ़ी मात्रा में है, परन्तु तांबा, जिंक, निकल, सल्फर तथा पेट्रोल इत्यादि कम मात्रा में प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 5.
पर्यावरण की अधोगति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पर्यावरण की अधोगति से अभिप्राय यह है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि उत्पादन तथा उद्योगों का विकास इतनी तीव्रता से किया गया, जिससे भूमि बंजर हो गई, खनिज पदार्थों का दुरुपयोग किया गया, वायु तथा जल प्रदूषित हो गए, कृषि उत्पादन के कारण क्षार तथा सेम की समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। इसको पर्यावरण की अधोगति कहा जाता है।

प्रश्न 6.
कृषि उत्पादन द्वारा भूमि की अधोगति कैसे हुई है ?
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादन में वृद्धि की गई। वनों की कटाई करके कृषि की गई। इससे भूमि की अधोगति हुई है। जैसे कि भारत का कुल क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है। इस क्षेत्रफल में से 144 मिलियन हेक्येटर भूमि, भूमि कटाव की शिकार हो गई है। 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि, काला शोरा, सेम तथा भूमि कटाव के कारण खराब हो गई है। इस प्रकार 54% हिस्से की अधोगति हो चुकी है जिसमें सुधार करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 7.
प्रदूषण की किस्में बताएं।
उत्तर-

  1. वायु प्रदूषण-वायु में मुख्य तौर पर 21% ऑक्सीजन, 1% कार्बन डाइऑक्साइड तथा 87% नाइट्रोजन की मात्रा पाई जाती है। उद्योगों के विकास से वायु में सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड गैसें शामिल हो जाती हैं। इन गैसों के शामिल होने से टी० बी०, दमा, खांसी इत्यादि बीमारियां फैल जाती हैं। इसको वायु प्रदूषण कहा जाता है।
  2. जल प्रदूषण-उद्योगों के विकास से जो रासायनिक कूड़ा-कर्कट तथा गन्दा जल निकलता है, इसको नदियों, झीलों तथा नहरों में छोड़ दिया जाता है। इससे जहरीले पदार्थ तथा हानिकारक धातुओं के कण पानी में शामिल हो जाते हैं यह पानी पीने के लिए प्रयोग किया जाता है, जिस कारण बीमारियां फैलती हैं। इसको जल प्रदूषण कहा जाता है।
  3. ध्वनि प्रदूषण-उद्योगों में मशीनों के चलने के कारण शोर उत्पन्न होता है। इससे मजदूरों की सुनने की शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मशीनों में से निकलने वाला धुआं तथा कण बहुत-सी बीमारियों को जन्म देते हैं। इससे टी० बी०, दमा, ब्लड प्रैशर तथा दिमागी तनाव इत्यादि बीमारियां उत्पन्न होती हैं।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
धारणीय आर्थिक विकास से क्या अभिप्राय है ? इसकी मुख्य विशेषताएं बताओ। इसका माप कैसे किया जाता है ?
(What is sustainable Economic Growth? Explain the main features of sustainable Economic Growth. How is it measured ?)
उत्तर-
धारणीय आर्थिक विकास का अर्थ-धारणीय आर्थिक विकास (Sustainable Economic Development) की धारणा बरंट्रडलैंड रिपोर्ट (Brendtland Report) में पहली बार 1987 में प्रयोग की गई। इस सम्बन्ध में विकास तथा पर्यावरण के लिए विश्व कमीशन (World Commission on environment and development) की स्थापना की गई थी। इस कमिशन के अनुसार विकास की प्रक्रिया का सम्बन्ध वर्तमान की कम समय की आवश्यकताओं से नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध लम्बे समय के आर्थिक विकास से होता है। वर्तमान काल के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूमि, जल, खनिज पदार्थों तथा वनों इत्यादि का प्रयोग लापरवाही से न किया जाए ताकि भविष्यकाल के लोगों की आवश्यकताओं की अवहेलना की जाए तथा पर्यावरण का दुरुपयोग किया जाए।

पर्यावरण में भूमि तथा मौसम को ही शामिल नहीं किया जाता बल्कि इसमें जानवर, पशु, पक्षी, पौधे, जंगल, इत्यादि भी शामिल होते हैं। इस प्रकार धारणीय विकास का अर्थ आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप वर्तमान तथा भविष्य की नस्लें अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकें। रोबर्ट रिपीटो के शब्दों में, “धारणीय विकास एक ऐसी विकास नीति है जोकि प्राकृतिक तथा मानवीय साधनों, वित्तीय तथा भौतिक भण्डारों का प्रबन्धीकरण इस प्रकार करती है, जिससे दीर्घकाल में धन तथा भलाई में वृद्धि हो।” धारणीय आर्थिक विकास की विशेषताएं-धारणीय विकास की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. प्रति व्यक्ति आय तथा आर्थिक भलाई में धारणीय वृद्धि।
  2. प्राकृतिक साधनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग न किया जाए।
  3. वर्तमान पीढ़ी, प्राकृतिक साधनों का प्रयोग इस प्रकार करें कि भविष्य की पीढ़ी के लिए आवश्यकताएं पूरी करने के लिए साधनों की कमी न हो।
  4. प्राकृतिक साधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए, जिससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि न हो। आर्थिक विकास से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो सकती है। जिससे वर्तमान तथा भविष्य की नस्लों की जीवन गुणवत्ता (Quality of life) पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
  5. इसमें वातावरण सुरक्षा की ओर अधिक जोर दिया गया है।
  6. इसमें संरचनात्मक, तकनीकी तथा संस्थागत परिवर्तन पर अधिक ज़ोर नहीं दिया गया।
  7. धारणीय विकास का अर्थ जीवन गुणवत्ता का विकास है। अच्छी जीवन गुणवत्ता से अभिप्राय अच्छा स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, शुद्ध वातावरण, शुद्ध जल, वायु तथा अच्छी सामाजिक सुरक्षा से होता है।

धारणीय विकास के सूचक तथा शर्ते-

  • प्रति व्यक्ति आय तथा जीवन गुणवत्ता का विकास।
  • प्राकृतिक साधनों पर वातावरण का सद् उपयोग।
  • ग्रामीण जीवन का सर्वपक्षीय विकास तथा आधुनिक सुविधाएं, पानी, बिजली, टी० वी०, टेलीफोन इत्यादि सुविधाओं में वृद्धि।
  • कृषि उत्पादन में कीटनाशक तथा रासायनिक खादों का कम प्रयोग।
  • उद्योगों द्वारा जल, वायु, तथा ध्वनि प्रदूषण में कमी।

धारणीय आर्थिक विकास की माप विधिधारणीय विकास का माप दो समष्टि धारणाओं द्वारा किया जा सकता है –
1. हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय (Green Net National Income) हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय का माप निम्नलिखित सूत्र द्वारा किया जाता है हरित शुद्ध राष्ट्रीय आय = शुद्ध राष्ट्रीय आय ( – ) प्राकृतिक पूंजी की घिसावट |

  • शुद्ध राष्ट्रीय आय-देश में अंतिम वस्तुओं तथा सेवाओं के एक वर्ष के उत्पादन को शुद्ध राष्ट्रीय आय कहा जाता है।
  • प्राकृतिक पूंजी की घिसावट-प्राकृतिक पूंजी का अर्थ है प्राकृतिक साधन तथा वातावरण का योग।

प्राकृतिक साधनों तथा वातावरण की घिसावट का अर्थ है, इन साधनों के प्रयोग द्वारा मूल्य में कमी। वास्तविक बचत (Genuine Savings)-वास्तविक बचत द्वारा भी चिरकालीन विकास का माप किया जाता है। इस उद्देश्य के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग होता है| वास्तविक बचत = बचत की दर (-) मनुष्य द्वारा बनाई पूंजी की घिसावट – प्राकृतिक पूंजी की घिसावट |

वास्तविक बचत अधिक होने का अर्थ है अधिक चिरकालीन विकास की दर।

  1. बचत की दर-आय में से उपभोग खर्च घटाकर जो राशि शेष बच जाती है।
  2. मनुष्य द्वारा बनाई पूंजी की घिसावट-मनुष्य द्वारा बनाई मशीनों तथा औज़ारों की घिसावट।
  3. प्राकृतिक पूंजी की घिसावट-प्राकृतिक पूंजी की घिसावट में प्राकृतिक साधनों तथा वातावरण के निरन्तर प्रयोग द्वारा मूल्य में हुए नुकसान को शामिल किया जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

प्रश्न 2.
साधनों की सीमित उपलब्धता से क्या अभिप्राय है ? भारत में साधनों की प्राप्ति का वर्णन कीजिए।
(What do you mean by Limited Availability of Resources? Explain the availability of Resources in India.)
उत्तर-
प्रो० लईस के अनुसार, “किसी देश में साधनों की मात्रा, उस देश के आर्थिक विकास की मात्रा तथा सीमा का निर्धारण करती है।” अल्पविकसित देशों का विकास उस देश में प्राप्त साधनों पर निर्भर करता है। प्राकृतिक साधनों में भूमि, जल साधन, खनिज पदार्थ, वन, मौसम इत्यादि को शामिल किया जाता है। मनुष्यों को देश के कुछ साधनों का ज्ञान होता है, परन्तु कुछ साधन प्रकृति की गोद में छिपे होते हैं, जिनको ढूंढ़ने की आवश्यकता होती है। इस तरह कुछ साधन जैसे कि भूमि, जल, मछलियां, वन इत्यादि का पुनर्निर्माण होता रहता है परन्तु कुछ साधन जैसे कि खनिज, पेट्रोल इत्यादि समाप्त होने वाले होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक देश में साधनों की सीमित उपलब्धता पाई जाती है।

आर्थिक विकास के लिए इन साधनों के उचित प्रयोग की आवश्यकता होती है। साधन विकास के निर्देशक सिद्धान्त-

  1. साधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए ताकि साधनों का दुरुपयोग कम-से-कम हो।
  2. पूर्ण निर्मित साधनों तथा नष्ट योग्य साधनों का प्रयोग अच्छे ढंग से किया जाए।
  3. साधनों द्वारा बहुपक्षीय उद्देश्यों की पूर्ति की जाए, जैसे कि डैमों द्वारा बिजली, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण इत्यादि उद्देश्यों की पूर्ति होती है।
  4. उद्योगों की स्थापना साधनों की प्राप्ति के स्थानों पर करके उत्पादन लागत में कमी की जाए।
  5. शक्ति की पूर्ति में वृद्धि करके दूसरे साधनों का उत्तम प्रयोग किया जाए।

भारत में प्राकृतिक साधन-
1. भूमि साधन-भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 329 मिलियन हेक्टेयर है। इसमें से 306 मिलियन हेक्टेयर सम्बन्धी आंकड़े उपलब्ध हैं। यदि हम बंजर, भूमि, वन अधीन क्षेत्र, चरागाहें तथा बेकार भूमि को छोड़ देते हैं तो कृषि योग्य 141 मिलियन हेक्टेयर भूमि रह जाती है, जोकि कुल भूमि का 46% हिस्सा है। सरकार को 54% भूमि जिस पर कृषि नहीं होती इसलिए उचित नीति बनाने की आवश्यकता है।

2. वन साधन-ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना अनुसार भारत में सन् 2017 में 69 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर वन पाए जाते थे, जोकि कुल क्षेत्रफल का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है, भूमि के 33 प्रतिशत क्षेत्र पर वन होने चाहिए। परन्तु वन साधन बढ़ने की जगह पर कम होते जा रहे हैं। प्रत्येक वर्ष 1.3 से 1.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन काटे जाते हैं, जिससे प्राप्त लकड़ी टीक, बोर्ड, प्लाई इत्यादि के उद्योगों में प्रयोग होती है। सरकार ने 2015 में वनों सम्बन्धी नीति का निर्माण किया है। 33% क्षेत्र पर वन बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है।

3. जल साधन-भारत में जल साधन काफ़ी मात्रा में पाए जाते हैं। प्रो० बी० एस० नाग तथा जी० एन० कठपालिया ने अनुमान लगाया कि 1974 से 2005 तक 4000 कुइबक किलोमीटर वर्षा हुई। इसको तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। 2150 कुइबक किलोमीटर जल नदियों में चला जाता है तथा 700 कुइब्रक किलोमीटर जल वायुमडल में भाप बनकर उड़ जाता है। 1974 में 380 कुइबक किलोमीटर मीट्रिक जल का प्रयोग किया जाता था जोकि 2017 में बढ़कर 250 कुइबक किलोमीटर होने का अनुमान है। भारत में पूरे वर्ष बहने वाली नदियाँ हैं, जिन पर डैम बनाएं गए हैं। नहरों, टैंकों तथा ट्यूबवैलों द्वारा सिंचाई की जाती है। नदियों की सफाई की ओर और अधिक ध्यान दिया जा रहा है।

4. मछली पालन-भारत, विश्व में मछली पालने के क्षेत्र में तीसरा स्थान रखता है। समुद्र के किनारे पर रहने वाले एक मिलियन मछुआरे, मछलियों द्वारा जीवन पोषण करते हैं। 1951 में 0.7 मिलियन टन मछलियों का उत्पादन किया गया जोकि 2017-18 में बढ़कर 9.9% मिलियन टन हो गया। परन्तु भारत द्वारा एशिया में 9 प्रतिशत मछलियों का उत्पादन किया जाता है जबकि जापान द्वारा 43 प्रतिशत उत्पादन किया जाता है।

5. खनिज साधन-भारत में कोयला तथा लोहा काफ़ी मात्रा में पाए जाते हैं परन्तु कॉपर, जिंक, निकल, सल्फर, पेट्रोल इत्यादि खनिज पदार्थों की कमी पाई जाती है। परन्तु भारत में कोयले की खानें बहुत नीचे पाई जाती हैं, जिनमें से कोयला निकालने की लागत बहुत अधिक आती है। 1994 में सरकार ने नई खनिज नीति की घोषणा की है। जिस द्वारा खनिज पदार्थों को निजी क्षेत्र तथा विदेशी निवेशकों को सौंपने की योजना है। दसवीं योजना में खनिज साधनों को निजी क्षेत्र में विकसित करने का प्रोग्राम है।
भारत में साधनों को देखकर यह कह सकते हैं कि साधन सीमित मात्रा में हैं। इनका प्रयोग करने के लिए उचित नीति की आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
पर्यावरण की अधोगति (Environmental Degradation) से क्या अभिप्राय है ? भारत में साधनों की अधोगति पर प्रकाश डालें।
(What is meant by Environment Degradation? Discuss its effects on degradation of Resources in India.)
उत्तर-
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में आर्थिक विकास की वृद्धि के लिए कृषि उत्पादन तथा उद्योगों का विकास किया गया ताकि बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। परन्तु मशीनीकरण पर अधिक ज़ोर तथा खनिज पदार्थों के बिना सोचे-समझे अधिक प्रयोग से पर्यावरण की अधोगति में वृद्धि हुई है। पर्यावरण की अधोगति से अभिप्राय जल, भूमि, खनिज तथा जलवायु का दुरुपयोग होना, जिससे एक देश की धरती बंजर हो जाती है।

भारत में साधनों की अधोगति अग्रलिखित अनुसार हुई है –
1. कृषि तथा भूमि अधोगति (Agriculture and Land Degradation)-भारत के कृषि उत्पादन मंत्रालय अनुसार भारत में भूमि अधोगति तथा भू-क्षरण (Soil Erosion) की समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है। बाढ़ों तथा आंधियां इत्यादि ऋतु उपद्रवों के कारण भूमि की ऊपरी परत के हट जाने को भू-क्षरण कहा जाता है। भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र 329 मिलियन हेक्टेयर में से 144 मिलियन हेक्टेयर भूमि, भू-अपरदन का शिकार हो चुकी है। 30 मिलियन हेक्टेयर भूमि भूमि कटाव, काला शोरा तथा सेम के कारण खराब हो गई है। इस प्रकार कुल भूमि के 534 प्रतिशत भाग की अधोगति हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त सरकार ने चरागाहों की देखरेख की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार 11 मिलियन हेक्टेयर चरागाह का क्षेत्र बंजर भूमि बन गया है।

2. वनों की कटाई तथा भूमि अधोगति-भारत में भूमि अधोगति के अन्य कारणों में वनों की कटाई सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है। भारत में 1951 से 1972 तक वनों अधीन 34 लाख हेक्टेयर भूमि पर कटाई की गई। इस क्षेत्र में से 72 प्रतिशत क्षेत्र पर कृषि तथा 17 प्रतिशत क्षेत्र पर उद्योग, सड़कें, यातायात, संचार, डैम इत्यादि बनाए गए। इसकी ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों तथा वन विभाग की है, जिन्होंने वनों की देख-रेख की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

3. जल संसाधन अधोगति-भारत को विश्व का जल साधन भरपूर देश कहा जाता है। वनों की बेरहमी से कटाई के कारण, वर्षा के पानी का अधिक भाग समुद्र में चला जाता है। भारत में लगभग 250 मिलियन लोग बाढ़ वाले क्षेत्र पर निवास करते हैं। विश्व के 70 प्रतिशत लोग जो बाढ़ का शिकार होते हैं, भारत तथा बंगलादेश में रहते हैं। भारत के आर्थिक नियोजन की बड़ी गलती जल संसाधनों का उचित प्रयोग नहीं करना है। बाढ़ों के कारण वार्षिक 12000 करोड़ से 18000 करोड़ रु० की हानि होती है। पंजाब तथा हरियाणा में सेम की समस्या के कारण हज़ारों एकड़ भूमि बेकार हो गई है। शोरे की समस्या का भी सामना करना पड़ता है। सरकार ने जल संसाधनों के प्रयोग की ओर उचित नीति का निर्माण नहीं किया।

4. खनन तथा पर्यावरण समस्याएं-भारत ने खानों में से खनिज पदार्थों का अधिक प्रयोग किया, परन्तु सरकार ने पर्यावरण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे भूमि, जल, वन तथा वायु, अधोगति में वृद्धि हुई है, जोकि इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –

  • खानों के मालिकों ने कृषि भूमि पर सड़कें, रेलों, नहरों तथा नगरों का निर्माण किया
  • खनिजों की धूल (Dust) द्वारा वायु प्रदूषण की समस्या के साथ कृषि उत्पादकता के कम होने की समस्या उत्पन्न हुई है।
  • कोयले की खानों में आग लगने से जान, माल के नुकसान के अतिरिक्त लाखों हेक्टेयर भूमि बेकार हो गई है।
  • वर्षा का पानी खानों में से निकलकर नदियों, टैंकों में प्रदूषण पैदा करता है।
  • इस कारण जंगलों की कटाई होती है तथा भूमि कटाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  • जो लोग खानों में काम करते हैं, उनको दमा तथा अन्य बीमारियां लग जाती हैं। इसलिए भारत को अमेरिका की तरह खानों सम्बन्धी कानून बनाकर उचित नीति द्वारा खानों का सद्उपयोग करना चाहिए।

प्रश्न 4.
भारत में पर्यावरण अधोगति के कारण बताओ। वातावरण को कैसे बचाया जा सकता है ? (What are the causes of degradation of Environment in India ? How can Environment he saved ?)
उत्तर-
भारत में वातावरण अधोगति के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. जनसंख्या की वृद्धि– भारत में 1951 में जनसंख्या 36 करोड़ थी। 2011 में जनसंख्या 121 करोड़ हो गई है। जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उद्योगों तथा कृषि के विकास के कारण साधनों की अधोगति हुई है।
  2. औद्योगीकरण में वृद्धि-उद्योगों के विकास के कारण देश में जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि हुई है। इससे बीमारियां बढ़ गई हैं।
  3. शहरीकरण की ओर झुकाव-गांवों के लोग शहरों में रहने के लिए आ गए हैं। उनको सुविधाएं प्रदान करना एक समस्या बन गई है। इस कारण साधनों की अधोगति में वृद्धि हुई है।
  4. कृषि उत्पादन में वृद्धि-लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादकता में वृद्धि की गई। नई कृषि नीति अनुसार रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाइयों का अधिक प्रयोग किया गया, इससे प्रदूषण में वृद्धि हुई
  5. निर्धनता–भारत के लोगों में निर्धनता के कारण जलाने के लिए लकड़ी तथा गोबर के उपलों का प्रयोग किया जाता है। इससे प्राकृतिक पूंजी की अधोगति हुई है।
  6. यातायात के साधनों का कम विकास-देश में सड़कों का विस्तार उतनी तीव्रता से न हुआ, जितनी तीव्रता से वाहनों (स्कूटर, कारों) की संख्या में वृद्धि हुई है।

पर्यावरण के बचाव के लिए उपाय-

  1. जनसंख्या पर नियंत्रण-भारत में तीव्रता से बढ़ रही जनसंख्या पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है। इससे पर्यावरण की अधोगति को रोका जा सकता है।
  2. सामाजिक चेतना-लोगों में हवा, पानी, खनिज तथा प्रदूषण सम्बन्धी चेतना उत्पन्न करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण में शुद्धता लाने के लिए योगदान डाल सकता है।
  3. वन लगाना-पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए वनों का विस्तार करना चाहिए।
  4. कृषि प्रदूषण-कृषि उत्पादन क्षेत्र में प्रदूषण रोकने के लिए रासायनिक खादों का कम प्रयोग किया जाए। वृक्ष लगाकर भू-अपरदन की समस्याओं को घटाना चाहिए।
  5. औद्योगिक प्रदूषण-उद्योगों द्वारा जल, वायु तथा ध्वनि प्रदूषण फैलता है। भारत सरकार ने 17 उद्योगों की सूची तैयार की है जोकि अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। नए उद्योगों को स्थापित करते समय प्रदूषण मापदंड स्थापित करने चाहिए।
  6. जल प्रबन्ध-भारत में लोगों को शुद्ध जल पीने के लिए प्रदान करने के लिए जल प्रदूषण को रोकने की आवश्यकता है। इससे सभी लोगों के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ सकता है। इस प्रकार लोगों के रहन-सहन सम्बन्धी सुधार करके पर्यावरण की अधोगति पर रोक लगाई जा सकती है। विश्व बैंक के अनुसार भारत में पर्यावरण की अधोगति को ठीक करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 5.7% भाग व्यय करना पड़ रहा है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

प्रश्न 5.
ग्लोबल वार्मिंग से क्या अभिप्राय है? ग्लोबल वार्मिंग के कारण तथा प्रभाव स्पष्ट करो। (What is Global Warming ? Discuss its causes and effects ?)
उत्तर-
ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ (Meaning of Global Warming) ग्लोबल वार्मिंग अथवा वैश्विक तापन का अर्थ विश्व भर में वातावरण में बढ़ रही गर्मी से है। विश्व में जब से औद्योगिक क्रान्ति पैदा हुई है तब से लेकर आज तक विश्व के तापमान में वृद्धि हो रही है। 20वीं शताब्दी के मध्य से लेकर आज तक तापमान में जो वृद्धि हुई है वह पिछले 150 वर्ष में इतनी वृद्धि तापमान में नहीं देखी गई। अमरीका के वैज्ञानिकों का यह विचार है कि विश्व के तापमान में 10 Degree तक वृद्धि हो सकती है। वैश्विक तापन का मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होना है। ग्रीन आऊस गैसों में मुख्य रूप से कार्बनडाईआक्साईड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस आक्साइइ (N2O), ओजोन (O3), क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFCs) आदि गैसें शामिल हैं। ग्लोबल वार्मिंग विश्व की कितनी बड़ी समस्या है यह साधारण आदमी समझ नहीं पाता। आम लोग समझते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से फिलहाल संसार को कोई खतरा नहीं है। परन्तु यह धारणा ठीक नहीं है।

बढ़ते हुए तापमान को न रोका गया तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण (Causes of Global warming)-
1. जंगलों की कटाई (Deforestation)ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण जंगलों की कटाई है। आधुनिकीकरण के कारण पेड़ों की कटाई गांवों को शहरीकरण में बदलाव, हर खाली जगह पर बिल्डिंग, कारखाना या अन्य कोई कमाई के लिए स्रोत खोले जा रहे हैं। लकड़ी का प्रयोग इमारतो के निर्माण, खाना बनाने आदि के लिए बड़े स्तर पर होने के कारण अमरीका तथा आस्ट्रेलिया जैसे देशों में जहां जंगल अधिक मात्रा में हैं वहां जंगलों को अपने आप आग लग जाती है जिसको बुझाने के लिए सरकार को बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

2. उद्योगों का विकास (Growth of Industries) ग्लोबल वार्मिंग का एक कारण विश्व में औद्योगिकरण को भी माना जाता है। फ्रांस में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात विश्व में बड़े पैमाने पर उद्योगों का विकास हुआ है। इस से प्रदूषण में वृद्धि हुई है। ग्रीन हाउस गैसों कार्बन डाईआक्साइड, मीथेन, ओजोन आदि की वृद्धि के कारण विश्व के तापमान में वृद्धि तेजी से हो रही है।

3. मोटर वाहनों का विकास (Growth of Automobiles)-जैसे-जैसे विश्व ने आर्थिक विकास किया है उसके साथ लोगों की आय में तेजी से वृद्धि हुई है। इससे लोगों ने मोटर वाहनों का अधिक प्रयोग करना शुरू कर दिया है। मोटर वाहनों के अधिक प्रयोग के कारण विश्व में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है। इस कारण तापमान में वृद्धि हुई है।

4. वातावरण में गैसों का विकास (Growth of Gases in Atmosphere)-कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि ज्वालापुखी विस्फोट के कारण भी विश्व में गैसों की वृद्धि हुई है। इस कारण भी ग्लोबल वार्मिंग हुई है। जब ज्वालामुखी में विस्फोट होता है तो अन्त कार्बन डाईआक्साईड का प्रवाह होता है। इस कारण भी ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होती है।

5. मानव क्रियाओं का विकास (Growth of Human Activities) मानव क्रियाएं भी ग्लोबल वार्मिंग का कारण बन गई है। हम घरों में एयरकंडीशनर, फ्रिज, कोल्ड स्टोर आदि अधिक मात्रा में प्रयोग करने लगे हैं। इससे भी ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा हैता है अर्थात् जहरीली गैसें निकलती हैं जिस कारण तापमान में वृद्धि होती है जनसंख्या में वृद्धि प्रदूषण के कारण अधिक अनाज़ पैदा करने के लिए आधुनिक खादों का प्रयोग तथा कीट नाशकों के प्रयोग कारण भी प्रदूषण में वृद्धि होती है। वातावरण में प्रदूषण के फैलने से भी ग्लोबल वार्मिंग हो रही है।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव (Effects of Global Warming) – ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ रही है इस के दुष्प्रभाव इस प्रकार हो सकते हैं –
1. ग्लेशियरों का पिघलना (Melting of Glaciers)-ताप बढ़ने से ग्लेशियर पिघलने लगते हैं और उनका आकार कम होने लगता है। भारत में उत्तराखण्ड में 8 फरवरी 2021 को ग्लेशियर के पिघले से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई जिससे बहुत से लोगों की मृत्यु हुई है और बहुत से लोग लापता हैं। इस प्रकार ग्लेशियर लगातार कम हो रहे हैं जिसका कारण ग्लोबल वार्मिंग है।

2. बढ़ता समुद्री जलस्तर (Rising Sea Level)-ग्लेशियरों के पिघलने से प्राप्त जल सागरों में मिलता हो तो समुद्री जल स्तर में वृद्धि हो जाती है। समुद्री जलस्तर बढ़ने से समुद्री तटों पर जो शहर बसे हुए हैं उन में बाढ़ का खतरा बन जाता है।

3. नदियों में बाढ़ (Floods in Rivers) ग्लेशियरों से कई बार हमारी नदियां निकलती है। इन नदियों में जल का प्रवाह बढ़ने से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिस कारण बहुत से शहरों तथा गांवों में बाढ़ के कारण बहुत हानि सहन करनी पढ़ती है।

4. कृषि पर प्रभाव (Effect on Agriculture)-ग्लोबल वार्मिंग के कारण कभी गर्म तेज़ हवाएं चलती हैं और कभी अधिक वर्षा होती है। इस कारण कृषि में उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मछली उद्योग को भी ग्लोबल वार्मिंग से नुकसान होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 29 धारणीय आर्थिक विकास, आर्थिक विकास का वातावरण पर प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग

5. मानव तथा जानवरों पर बुरा प्रभाव (Bad Effect on Living Beings) ग्लोबल वार्मिंग के कारण मनुष्यों को बहुत सी बीमारियों का सामना करना पड़ता है। पशुओं तथा पक्षियों की बहुत सी प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

PSEB 12th Class Economics बुनियादी ढांचा और ऊर्जा Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढांचा शब्द किस भाषा से लिया गया है?
(a) लैटिन
(b) ग्रीक
(c) फ्रैंच
(d) संस्कृत।
उत्तर-
(c) फ्रैंच।

प्रश्न 2.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
किसी देश में आर्थिक तथा सामाजिक सेवाएं प्रदान करना बुनियादी ढांचा कहलाता है।

प्रश्न 3.
Infra शब्द का अर्थ नीचे का और Structure का अर्थ ढांचा होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 4.
देश में शिक्षा संस्थान, अस्पताल, पार्क आदि के विकास को ……. बुनियादी ढांचा कहा जाता
उत्तर-
सामाजिक अथवा नरम बुनियादी ढांचा (Soft-Infrastructure)।

प्रश्न 5.
देश में सड़कें, रेलें, पुल, बिजली, पानी सहूलतों को ……. बुनियादी ढांचा कहा जाता है।
उत्तर-
सख्त (सथूल) बुनियादी ढांचा (Hard Infrastructure)।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 6.
सामाजिक बुनियादी ढांचे का विकास देश में आर्थिक उत्पादन की वृद्धि के लिए सहायक होता है। (सही/गलत)
उत्तर-
सही।

प्रश्न 7.
आर्थिक और सामाजिक बुनियादी ढांचा एक दूसरे पर निर्भर करते हैं।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 8.
बुनियादी ढांचे के विकास का आर्थिक-विकास पर प्रभाव नहीं पड़ता।
उत्तर-
गलत।

प्रश्न 9.
मानव पूँजी का विकास …………… बुनियादी ढांचे का भाग है।
उत्तर-
सामाजिक।

प्रश्न 10.
आर्थिक बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे में कोई अन्तर नहीं है।
उत्तर-
गलत।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ उन आधारभूत सहूलतों से हैं जिन द्वारा देशवासियों को यातायात तथा जीवन स्तर के लिए सहूलते प्रदान की जा सकें। इनका उद्देश्य देश में कृषि, उद्योग, यातायात, संचार का विकास करके चिरकालीन आर्थिक विकास करना होता है। बुनियादी ढांचे में रेलों, सड़कों, सिंचाई, बिजली, पानी, सेहत, ऊर्जा आदि सुविधा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 2.
आर्थिक बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure) देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान डालता है। इसमें यातायात, संचार, सड़कों, रेलों, बिजली पानी कौशल, तकनीक के विकास द्वारा कृषि और उद्योगों के उत्पादन में वृद्धि की जाती है। इस द्वारा देश में चिरकालीन विकास होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 3.
सामाजिक बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है?
उत्तर–
सामाजिक बुनियादी ढांचे (Social Infrastructure) से अभिप्राय उन सहूलतों से है जो लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए सहयोगी होती हैं। इन सहूलतों में शिक्षा, सेहत, घर निर्माण, पार्क, अस्पताल, सभ्याचारक केन्द्र सथापित करना होता है।

प्रश्न 4.
ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत बताओ?
उत्तर-
ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत इस प्रकार हैं-
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा 1

प्रश्न 5.
परंपरागत ऊर्जा के किसी एक स्त्रोत का वर्णन करें।
उत्तर-
कोयला (Coal) कोयला ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण परंपरागत स्रोत है। भारत में कोयले के 326 बिलियन भंडार हैं। इस का वार्षिक उत्पादन 396 मिलियन टन किया जाता है। इसके भंडार, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और बंगाल में पाए जाते हैं।

प्रश्न 6.
किसी एक गैर पारम्परिक ऊर्जा के स्रोत का वर्णन करें।
उत्तर-
सूर्य ऊर्जा (Solar Energy)-यह ऊर्जा सूर्य की रोशनी द्वारा उत्पन्न होती है। फोटोवोल्टैनिक सैल, सूर्य की किरणों की ओर लगाए जाते हैं। इस द्वारा जो बिजली उत्पन्न होती है उस का प्रयोग घरेलू कामों के लिए किया जाता है। जैसे कि खाना बनाने, रोशनी और जल साफ़ करने आदि कामों के लिए किया जाता है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न | (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढाचे का अर्थ बताएं, बुनियादी ढांचे का वर्गीकरण स्पष्ट करें।
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ (Meaning of Infrastructure)-बुनियादी ढांचे का अर्थ उन आधारभूत सहूलतों से है जिन के द्वारा अर्थव्यवस्थता के संचालन को चिरकालीन विकास के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसमें उन आधारभूत सहूलतों को शामिल किया जाता है जो आर्थिक विकास का आधार बनती हैं। बुनियादी ढांचे में सड़कों, रेलों, पुल, जल आपूर्ति, बिजली संचार, इंटरनैट आदि को शामिल किया जाता है।

बुनियादी ढांचे का वर्गीकरण (Classification of Infrastructure) बुनियादी ढांचे के वर्गीकरण को दो भागों में बांटा जा सकता है।

  1. स्थूल बुनियादी ढांचा (Hard Infrastructure)-इसको आर्थिक बुनियादी ढांचा भी कहा जाता है। इसमें भौतिक वस्तुओं को शामिल किया जाता है जैसे कि सड़कें, रेलवे, फ्लाईओवर, बिजली आदि का विकास शामिल किया जाता है।
  2. नरम बुनियादी ढांचा (Soft Infrastructure)-नरम बुनियादी ढांचे को सामाजिक ढांचा भी कहा जाता है। इसमें अस्पताल, शिक्षा संस्थान, पार्क, मनोरंजन सहूलतों को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 2.
आर्थिक बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? ।
उत्तर-

  • आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure)-इस बुनियादी ढांचे में स्थूल वस्तुओं को शामिल किया जाता है जिसमें सड़कें, रेलवे, बिजली, कृषि विकास औद्योगिक सुविधाएं, ऊर्जा आदि शामिल होते हैं। इससे उत्पादन क्रियाओं में गति पैदा होती है और देश का आर्थिक विकास तेज़ हो जाता है। लोगों की आय और रोजगार में वृद्धि होती है।
  • सामाजिक बुनियादी ढांचा (Social Infrastructure)-सामाजिक बुनियादी ढांचे को नरम बुनियादी ढांचा भी कहा जाता है। इसमें सामाजिक सेवाएं शामिल होती हैं। जिनकी सहायता से उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है। सरकार द्वारा लोगों को शिक्षा, सेहत, तकनीकी शिक्षा, खेल के मैदान, पार्क आदि सहूलतें प्रदान की जाती हैं। इन सहूलतों के कारण लोगों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है और आर्थिक विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 3.
बुनियादी ढांचे के महत्त्व को स्पष्ट करें।
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का महत्त्व (Importance of Infrastructure) –

  1. आर्थिक विकास में वृद्धि-बुनियादी ढांचे द्वारा देश में आर्थिक विकास की गति तेज़ हो जाती है। आर्थिक विकास ही प्रत्येक देश का मुख्य उद्देश्य होता है इसके लिए बुनियादी ढांचा अति आवश्यक है।
  2. रोज़गार में वृद्धि-जब देश में आर्थिक ढांचे का निर्माण होता है जिस द्वारा सड़कें, नहरें, पुल आदि बनते हैं तो इसके निर्माण के समय रोज़गार में वृद्धि होती है और बनने के पश्चात् और बहुत से उद्योग स्थापित हो जाते हैं। इसलिए रोजगार में वृद्धि होने लगती है।
  3. उत्पाद शक्ति में वृद्धि-आधारभूत ढांचे के विकास से लोगों की उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है। उत्पादन शक्ति बढ़ने से न केवल देश के लोगों की आवश्यकताएं पूरी होती हैं बल्कि विदेशों में वस्तुओं का निर्यात बढ़ने से विदेशी मुद्रा के रूप में आय प्राप्त होती है।
  4. जीवन स्तर के लिए सहायक–देश में साफ सुथरा वातावरण, सेहत सहूलतों के बढ़ने से लोगों के काम करने की समर्था में वृद्धि होती है। उन की आय बढ़ जाती है और इस से राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।

प्रश्न 4.
ऊर्जा के परम्परागत तथा गैर परम्परागत स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. परम्परागत स्रोत (Conventional Sources)-इनको गैर-नवीनीकरण (Non-Renewable Source) भी कहा जाता है अर्थात इनका प्रयोग एक बार ही किया जा सकता है जितनी देर तक देश में इन स्रोतों के भंडार होते हैं तब तक ही यह प्रयोग में आ सकते हैं जैसे कि कोयला (Coal), पैट्रोल तथा गैस (Patrol and Gas) और बिजली (Electricity) आदि।
  2. गैर परम्परागत स्रोत (Non-Conventional Sources)-इनको नवीनीकरण स्रोत (Renewable Sources) कहा जाता है। यह प्रकृति की मुफ्त देन होती है जिसका प्रयोग हम बार बार कर सकते हैं। इन स्रोतों द्वारा ऊर्जा पैदा करना आसान होता है। जैसे कि सूर्य ऊर्जा (Solar Energy), वायु ऊर्जा (Wind Energy), बायो गैस ऊर्जा (BioGas Energy) आदि इसके महत्त्वपूर्ण रूप हैं। ये स्रोत प्रकृति द्वारा दिये जाते हैं और इनका अन्त नहीं होता। इन स्रोतों को विकसित करने की आवश्यकता है जिससे दीर्घकाल तक विकास किया जा सकता है।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? बुनियादी ढांचे की किस्में बताएं। (What is meant by Infrastructure ? Explain the types of Infrastructure.)
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ (Meaning of Intrastructure)-बुनियादी ढांचे शब्द का प्रयोग सबसे पहले फ्रांस में 1880 में किया गया। यह फ्रेन्च भाषा के दो शब्दों को मिलाकर बनाया गया। Infra जिसका अर्थ है नीचे का (Below) और Structure का अर्थ है ढांचा (Building) बुनियादी ढांचा आधार होता है जिसके ऊपर अर्थव्यवस्था का ढांचा तैयार किया जाता है। 1987 में अमरीका की राष्ट्रीय खोज कौंसिल (National Reserach Council) ने सार्वजनिक ढांचे के रूप में इसका प्रयोग किया जिससे हाईवेज़, हवाई अड्डे, टैलीकमिनीकेशन और जल आपूर्ति के लिए इसका प्रयोग किया गया।

बुनियादी ढांचे से अभिप्राय उन सहूलतों से है जिन के द्वारा अर्थव्यवस्था का संचालन किया जाता है जिससे चिरकालीन विकास हो सके। बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक अथवा निजी ढांचे को शामिल किया जाता है। इसमें सड़कें (Roads), रेलवे (Railways), पुल (Bridges) जल आपूर्ति (Water Supply), सीवरेज़ (Sewage), बिजली (Electricity), संचार (Telecommunication) और इन्टरनेट (Internet) आदि को शामिल किया जाता है। इसको परिभाषा देते हुए जैफ़री फलमर (Joffery Fulmer) ने कहा है, “बुनियादी ढांचा अन्तर सम्बन्धत प्रणाली को कहा जाता है जिस द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं की सुविधा प्रदान करके चिरकालीन विकास अथवा सामाजिक जीवन स्थितियाँ पैदा करके वातावरण को ठीक रखा जाता है।” (“Infrastructure is the physical components of inter-related system providing commodities and services essential to enable sustain or enhance social living conditions to maintain the surrounding or environment.” Jaffery Fulmer).

बुनियादी ढांचे का वर्गीकरण (Classification of Infrastructure) बुनियादी ढांचे को दो भागों में बांटा जा सकता है-

  1. सख्त और स्थूल बुनियादी ढांचा (Hard Infrastructure)-सख्त बुनियादी ढांचे में भौतिक काम (Physical Network) होते हैं। जिस के द्वारा उद्योगों (Industries) का संचालन किया जाता है। इनमें सड़कें, पुल, फ्लाईओवर, रेलें आदि का विकास शामिल होता है। इस को आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure) भी कहा जाता है।
  2. नरम बुनियादी ढांचा (Soft Infrastructure)-नरम बुनियादी ढांचे में वे संस्थाएं शामिल होती हैं जिन के द्वारा आर्थिक, सेहत, सामाजिक वातावरण और अस्पताल, पार्क, मनोरंजन सहूलतें, कानून व्यवस्था आदि सेवाओं को शामिल किया जाता है। इस को सामाजिक बुनियादी ढांचा भी कहा जाता है।

बुनियादी ढांचे की किस्में (Types of Infrastructure)-बुनियादी ढांचे की मुख्य किस्में इस प्रकार हैं-
1. आर्थिक बुनियादी ढांचा (Economic Infrastructure)-आर्थिक बुनियादी ढांचे में सड़कें, यातायात के साधन, जलापूर्ति, सीवरेज, कृषि का विकास, औद्योगिक विकास ऊर्जा आदि के विकास को शामिल किया जाता है। जिस से उत्पादन में वृद्धि होती है।

2. सामाजिक बुनियादी ढांचा (Social Infrastructure)-इसमें समाजिक सुविधाओं को शामिल किया जाता है जिनमें शिक्षा संस्थान, अस्पताल, पार्क आदि के विकास पर बल दिया जाता है। इसकी व्याख्या 1965 में प्रो. हैलसेन ने की थी।

3. निजी बुनियादी ढांचा (Personal Infrastructure)-निजी बुनियादी ढांचे में मानव पूँजी (Human Capital) को शामिल किया जाता है। जब लोग शिक्षा प्राप्त करके अपने कौशल का विकास करते हैं और उनकी सेहत अच्छी होती है तो उत्पादन शक्ति में वृद्धि होती है। इसको निजी बुनियादी ढांचा कहा जाता है।

4. भौतिक बुनियादी ढांचा (Material Infrastructure)-भौतिक बुनियादी ढांचे में अचल पूँजी (Immoveable Capital) को शामिल किया जाता है। इस में उद्योगों का विकास, कृषि की उत्पादन शक्ति में वृद्धि करके लोगों की आवश्यकता को पूरा किया जाता है।

5. ज़रूरी बुनियादी ढांचा (Core Infrastructure)-कुछ अर्थशास्त्रियों ने बुनियादी ढांचे क्षेत्रों में जरूरी बुनियादी ढांचे को शामिल किया है इसमें निवेश द्वारा आय में वृद्धि, मुद्रा स्फीति को काबू में रखना, उद्योगों का विकास, सड़कें, नहरें, बिजली आदि को शामिल किया जाता है।

6. आधारभूत बुनियादी ढांचा (Basic Infrastructure)-इसमें सड़कें, नहरें, रेलें, बंदरगाहों का विकास, भूमि की उपज में वृद्धि आदि को शामिल किया जाता है। यदि हम देखें तो बुनियादी ढांचे को दो किस्मों आर्थिक बुनियादी ढांचा और सामाजिक बुनियादी ढांचे को अलगअलग नाम दिये गए हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 2.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व को स्पष्ट करें। (What is meant by Infrastructure ? Discuss the importantce of Infrastructure)
उत्तर-
बुनियादी ढांचे का अर्थ (Meaning of Infrastructure)-बुनियादी ढांचे से अभिप्राय उन आधारभूत सुविधाओं से है जिन के द्वारा देश का आर्थिक विकास तेजी से किया जा सकता है। इन में कृषि पैदावार, औद्योगिक विकास, सड़कें, यातायात के साधन, रेलवे, बिजली, जलापूर्ति आदि सुविधाओं को शामिल किया जाता है।

बुनियादी ढांचे का महत्त्व (Importance of Infrastructure)-

  1. आर्थिक विकास में वृद्धि (Increase in Economic Development)-प्रत्येक देश का मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास प्राप्त करना होता है। इस के लिए बुनियादी ढांचे का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। देश में उत्पादन में वृद्धि होती है। मानव पूँजी का विकास होता है तो आर्थिक विकास तेजी से होता है।
  2. रोज़गार में वृद्धि (Increase in Employment)-बुनियादी ढांचे के विकास से देश में रोज़गार के नए अवसर पैदा होते हैं। जब देश में सड़कें, पुल, डैम आदि का निर्माण होता है तो रोज़गार में वृद्धि होती है। यह काम पूरा होते ही उद्योग स्थापित होते हैं, कृषि पैदावार बढ़ जाती है, होटल, बैंक, सुविधाएं अधिक हो जाती हैं तो रोज़गार में और वृद्धि होती है।
  3. उत्पादन शक्ति में वृद्धि (Increase in Productivity)-उत्पादन शक्ति में वृद्धि बुनियादी ढांचे पर निर्भर करती है। जब देश में आर्थिक तथा सामाजिक बुनियादी ढांचे का विकास होता है तो लोगों की उत्पादन शक्ति बढ़ जाती है जिस द्वारा न केवल देश के लोगों की आवश्यकताएं पूरी होती हैं बल्कि विदेशों की ज़रूरतों को पूरा किया जाता है।
  4. अर्थव्यवस्था के संचालन में सहायक (Helpful in Functioning of the Economy)-किसी देश के प्राकृतिक तथा मानव संसाधनों के उचित उपयोग के लिए भी बुनियादी ढांचा महत्त्वपूर्ण होता है। यातायात, संचार, बिजली, पानी, बैंकिंग आदि सहूलतें आर्थिक विकास के लिए अति आवश्यक होती हैं। इस से देश के साधनों का पूर्ण उपयोग संभव होता है।
  5. विदेशी काम के लिए सहायक (Helpful in Outsourcing)-जब विदेशी कंपनियां आपना काम दूसरे देशों में प्रारंभ करती हैं तो वहाँ के लोगों से सहयोग लिया जाता है। यदि लोगों को काम करने का ज्ञान है और वे आधुनिक, कम्पूयटर आदि को संचालन कर सकते हैं तो काल सैंटर (Call Center) खोल कर आय प्राप्त कर सकते हैं।
  6. जीवन स्तर के लिए सहायक (Helpful in Standard of Living)-जिस देश में बुनियादी ढांचा विकसित हो जाता है उस देश के लोगों को रोजगार प्राप्त होता है। उनकी आय बढ़ जाती है।

इससे रहन-सहन पर अच्छा प्रभाव पढ़ता है। लोग अपने बच्चों को शिक्षा और उच्च शिक्षा दिलवाने के काबिल हो जाते हैं। इससे लोगों की काम करने की शक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है और आर्थिक विकास होता है।

प्रश्न 3.
भारत में ऊर्जा के स्रोतों को वर्णन करो। Explain the sources of Energy in India.
उत्तर-
ऊर्जा आर्थिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसको दो भागों में बांट कर स्पष्ट किया जा सकता है|
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा 2
(A) परम्परागत स्रोत (Conventional Source)-परम्परागत स्रोत को गैर नवीनीकरण स्रोत भी कहा जाता है। जैसे जैसे हम परम्परागत स्रोतों का प्रयोग करते हैं तो धीरे-धीरे इन के भंडार समाप्त हो जाते हैं। इस कारण इन को गैर नवीनीकरण स्रोत कहा जाता है।

परम्परागत स्रोत दो प्रकार के होते हैं।

  • व्यापारिक स्रोत (Conventional Source)
  • गैर-व्यापारिक स्त्रोत (Non-conventional Source) ।

व्यापारिक स्त्रोंतो में मुख्य स्रोत

  1. कोयला
  2. पैट्रोल और प्राकृतिक गैस
  3. बिजली होते है और गैर

व्यापारिक स्रोत

  • लकड़ी
  • कृषि कूड़ा करकट
  • सूखा गोबर (उपले)।

इस अध्याय में हम व्यापारिक परम्परागत स्रोतों का अध्ययन करेंगे-
1. कोयला (Coal)-भारत में व्यापारिक परम्परागत स्रोत कुल स्रोतों का 74% हैं जिनमे कोयले का भाग 44% हैं। 2020-21 में अनुमान लगाया गया है कि कोयले के भंडार 100 साल के पश्चात समाप्त हो जाएंगे। कोयला उत्पादन में भारत का विश्व में चौथा स्थान है। भारत में कोयला थर्मल प्लांटों, फैक्ट्रियों, रेलों आदि में प्रयोग किया जाता है। कोयले के भंडार उड़ीसा, बिहार, बंगाल तथा मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं। भारत में भूरे कोयले (Liginite) के भंडार भी हैं जो कि नवेली (Neyveli) में पाए जाते हैं। इस कोयले का भंडार लगभग 3300 मिलियन टन है।

2. पैट्रोल तथा प्राकृतिक गैस (Petrol & Natural Gas)-पैट्रोल भी ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसका प्रयोग विश्व भर में किया जाता है। पैट्रोल का प्रयोग वाहनों (Automobiles) रेल गाड़ियों (Railway), हवाई जहाजों (Aeroplans) और समुद्री जहाजों (Ships) आदि के लिए किया जाता है। भारत में पैट्रोल आसाम, बाम्बे हाई और गुजरात में मिलता है। 2000-01 में अनुमान लगाया गया था कि भारत में 32 मिलियन टन पैट्रोल के भण्डार हैं यह देश की 25% आवश्यकताओं को पूरा करता है।

बाकी पैट्रोल खाड़ी देशों से आयात किया जाता है। भारत में तेल साफ करने की पहली रिफाइनरी आसाम में लगाई गई थी। इस के पश्चात भारत में 13 और रिफाइनरियाँ स्थापत की गई हैं जिन की तेल शोधक क्षमता 604 लाख टन है। यदि इस रफ्तार से पैट्रोल का प्रयोग भारत के पैट्रोल भण्डारों से किया गया तो 20-25 वर्ष में यह भंडार समाप्त हो जाएंगे। प्राकृतिक गैस भी ऊर्जा का स्रोत है। यह रासायनिक खाद और कैमीकल के उद्योगों में प्रयोग होती है। इस को खाना बनाने में भी प्रयोग किया जाता है।

3. बिजली (Electricity)-बिजली सब से अधिक प्रयोग किया जाने वाला और सब से अधिक प्रचलित ऊर्जा स्रोत है। इस का प्रयोग व्यापारिक कार्यों तथा घरेलू उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इस का प्रयोग खाना बनाने, पंखे, ऐ०सी० फ्रिज, कपड़ा धोने की मशीनों आदि के लिए किया जाता है। इस को कृषि उपकरणों को चलाने, उद्योगों के संचालन, व्यापारिक संस्थानों तथा घरेलू उपयोग के लिए किया जाता है।

भारत में कुल बिजली का 25% भाग कृषि के लिए, 36% भाग उद्योगों के लिए 24% भाग घरेलू कामों के लिए तथा अन्य 15% भाग और कामों के लिए प्रयोग किया जाता है। भारत में बिजली पैदा करने के तीन स्रोत हैं।

  • थर्मल शक्ति (Thermal Power)
  • हाईड्रो इलैक्ट्रिक शक्ति (Hydro Electric Power)
  • अणु शक्ति (Neuclear Power)।

31 मार्च 2020 तक भारत में बिजली पैदा करने की क्षमता 356100 MW है। जिसमें 68% थर्मल प्लांटों द्वारा प्राप्त की जाती है जिसका हिस्सा अब कम हो रहा है।

गैर-परम्परागत स्रोत (Non-Conventional Source)-गैर-परम्परागत स्रोतों को नवीनीकरण स्रोत (Renewable Source) भी कहा जाता है। गैर-परम्परागत स्रोत निम्नलिखित अनुसार हैं-
1. सौर ऊर्जा (Solar Energy)-सौर ऊर्जा एक महत्त्वपूर्ण और ऊर्जा का मुफ्त स्रोत है। विश्व में जितनी कुल ऊर्जा की ज़रूरत है उससे 15000 गुणा अधिक सौर ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। एक वर्ग km में 20 MW प्लांट की स्थापना की जा सकती है। सौर ऊर्जा को तीन भागों में बांटा जा सकता है। कम तापमान वाले यंत्र (100°C), मध्य ताप यत्र (100°C से 300°C) और उच्च ताप यंत्र 300°C से अधिक ऊर्जा पैदा करने के लिए यंत्र। इन का प्रयोग होटलों में, डेयरी फार्मों में, कपड़ा उद्योगों में तथा घर के कामों के लिए किया जा सकता है।

2. वायु ऊर्जा (Wind Energy) वायु द्वारा भी ऊर्जा पैदा की जा सकती है। भू-मध्य रेखा पर अधिक गर्म जलवायु होती है। जैसे हम उत्तरी पोल तथा दक्षणी पोल की तरफ जाते हैं। गर्मी कम होती जाती है। जहां पर वायु 15 km/h (15 km प्रति घंटा) की रफ्तार से चलती है वहां पर वायु ऊर्जा यन्त्र लगाए जा सकते हैं। यदि वायु 25 km/ h से 30 km/h की रफ्तार से चलती है वहाँ पर ज्यादा ऊर्जा पैदा की जा सकती है। भारत में अनुमान है कि 20,000 MW ऊर्जा वायु ऊर्जा द्वारा पैदा की जा सकती है।

3. बायो-ऊर्जा (Bio-Energy)-बायो ऊर्जा भी ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। यह लकड़ी उद्योग, कृषि तथा घरों से निकलने वाले कचरे के प्रयोग से ऊर्जा के निर्माण में सहायक होता है। पशुओं के गोबर से भी गैस प्राप्त की जा सकती है जिस का प्रयोग घर में खाना बनाने के लिये किया जा सकता है। कचरे द्वारा जो ऊर्जा पैदा की जाती है इस का दोहरा लाभ होता है। एक तो कचरे से पैदा होने वाला प्रदूषण समापत हो जाता है तथा इस के प्रयोग द्वारा जो बिजली उत्पन्न होती है उस का प्रयोग भी होता है। विकसित देशों में बायो ऊर्जा द्वारा भी ऊर्जा प्राप्त की जा रही है। आधुनिक युग में अनु ऊर्जा (Atomic Energy) के प्लांट भी स्थापित किये जा रहे हैं जिस द्वारा ऊर्जा पैदा करके देश की आवश्यकताओं को पूरा करने के यत्न किये जा रहे हैं।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 28 बुनियादी ढांचा और ऊर्जा

प्रश्न 4.
बुनियादी ढांचे से क्या अभिप्राय है? आर्थिक बुनियादी ढांचे के अंश बताएं।
(What do you mean by Infrastructure? Give brief account of components of economic Infrastructure?)
उत्तर-
बुनियादी ढांचे से अभिप्राय वह सुविधायें, काम अथवा सेवाएं हैं जो कि अर्थव्यवस्था के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों का विकास करने के लिए योगदान डालते हैं। देश का पूँजी भण्डार जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिए आवश्यक सेवाएं प्रदान करता है उस को बुनियादी ढांचा कहा जाता है। (“Infrastructure means the services and facilities which are helpful in development of Primary secondary & teritary sectors of the economy.”)
आर्थिक बुनियादी ढांचे के अंश- (Components of Economic Infrastructure) आर्थिक बुनियादी ढांचे के तीन अंश होते हैं –
1. ऊर्जा (Energy)
2. यातायात (Transportation)
3. संचार (Communication)
1. ऊर्जा (Energy)-ऊर्जा के बगैर औद्योगिक विकास संभव नहीं होता। ऊर्जा दो प्रकार की होती है। व्यावहारिक ऊर्जा (Commercial Energy) जिसमें कोयला (Coal), पैट्रोल (Petrol) प्राकृतिक गैस (Natural Gas) और बिजली (Electricity) को शामिल किया जाता है। गैर परंपरागत ऊर्जा में लकड़ी, पशुओं तथा कृषि का कचरा शामिल किया जाता है।

व्यावहारिक ऊर्जा के स्रोत इस प्रकार हैं-

  • कोयला (Coal)-कोयला ऊर्जा का पुरातन तथा महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत में कोयला काफी मात्रा में पाया जाता है। इस के भण्डार 100 वर्ष तक चलने की संभावना है।
  • पैट्रोल (Petrol)-पैट्रोल भी ऊर्जा का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। भारत में यह आसाम, बांबे हाई और गुजरात में पाया जाता है। इस के भण्डार देश की 25% आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
  • प्राकृतिक गैस (Natural Gas)-प्राकृतिक गैस भी बुनियादी ढांचे का अंश है। इस का प्रयोग घरों में खाना बनाने तथा खाद बनाने के लिए किया जाता हैं।
  • बिजली (Electricity)-बिजली भारत में थर्मल प्लांटों हाईड्रो इलैक्ट्रिक पावर और अणु शक्ति से प्राप्त की जाती है।

(A) गैर परंपरागत स्रोत (Non Conventional Sources)-

  • सूर्य ऊर्जा (Solar Energy)-भारत में यह महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकता है क्योंकि वर्ष के 365 दिनों में से 325 से 335 दिन तक सूर्य ऊर्जा उत्पादन की जा सकती है।
  • वायु ऊर्जा (Wind Energy)-भारत के पठारी इलाके में वायु ऊर्जा उत्पादन की जा सकती है।
  • बायो ऊर्जा (Bio-Energy)-यह पशुओं तथा कृषि के कचरे से पैदा की जा सकती है।

(B) यातायात (Transportation) यातायात भी बुनियादी ढांचे का महत्त्वपूर्ण अंश है। यातायात में रेलवे, सड़कें, जल यातायात, हवाई यातायात को शामिल किया जाता है।

  • रेल यातायात (Rail Transportation)-भारत में रेल यातायात सब से महत्त्वपूर्ण यातायात का स्रोत है। इस समय रेलों का जाल देश भर में फैला हुआ है। भारत में रेलवे ट्रैक 1,15,000 km है। यह एशिया में सब से अधिक और विश्व में दूसरे स्थान पर है। यह ट्रैक 67368 km क्षेत्र में फैला हुआ है।
  • सड़क यातायात (Road Transportation)-भारत में मार्च 2019 तक 1,32,500 km राष्ट्रीय सड़क मार्ग तथा 1,76,166 km राज्य सड़क मार्ग से सड़कों द्वारा मुसाफिरों तथा माल का आवागमन होता है।
  • जल यातायात (Water Transportation)-जल यातायात भी बुनियादी ढांचे का महत्त्वपूर्ण साधन है। यह भारत में 14,500 km क्षेत्र में फैला हुआ है जिसमें से 5,685 km व्यापारिक वाहनों के लिये प्रयोग किया जाता है।
  • हवाई यातायात (Air Transportation)-हवाई यातायात से लोग एक स्थान से दूसरे स्थानों तक सफर करते हैं तथा माल भी दूसरे स्थानों पर भेजा जाता है। भारत में दो हवाई कंपनियां हैं। पहली Air India जिस द्वारा 28 अन्तर्राष्ट्रीय तथा 13 घरेलू उड़ानें भरी जाती हैं। दूसरी Indian Airlines जो देश में 58 स्थानों को आपस में जोड़ती है।

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(C) संचार (Communication)-संचार में डाक सेवाएं (Postal Services), टैलीफोन सेवाएं (Telephone Services) तथा टैलीग्राम सेवाएं (Telegraphic Services) को शामिल किया जाता है।

  1. डाक सेवाएं (Postal Services) भारत में डाक विभाग बहुत पुरातन संचार का साधन है। भारत में इस समय लगभग 1,56,000 डाकखाने हैं। जिन में से 1,39,000 डाकखाने गाँव में स्थित है। प्रत्येक डाकखाने को पिन कोड दिया गया है। यह डाकखाने E Post, Speed Post, Express Post, Satellite Post आदि सेवाएं प्रदान करते हैं।
  2. टैलीफोन सेवाएं (Telephone Services)-भारत में टैलीफोन भी संचार का साधन है। टैलीफोन सेवाओं में भारत एशिया भर में पहले स्थान पर है। STD की सुविधा 23000 से अधिक स्थान पर दी जाती है।
  3. टैलीग्राफ सेवाएं (Telegraph Services)-भारत में लगभग 45,000 टैलीग्राफ दफ्तर हैं। इनके द्वारा देश में लिखती संदेश भेजे जाते हैं। इन आर्थिक सेवाओं द्वारा देश के आर्थिक विकास में वृद्धि होती है। प्रत्येक बजट में आर्थिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के लिए यत्न किये जा रहे हैं। इस द्वारा देश के आर्थिक विकास में तेजी से वृद्धि होने की संभावना है|

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 19 भारत में कृषि

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 19 भारत में कृषि Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 19 भारत में कृषि

PSEB 12th Class Economics भारत में कृषि Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कृषि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत में कृषि का महत्त्वभारत की राष्ट्रीय आय का अधिक भाग कृषि से प्राप्त होता है और कृषि उत्पादन रोज़गार का मुख्य स्रोत है।

प्रश्न 2.
कृषि उत्पादन तथा कृषि उत्पादकता में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
कृषि उत्पादकता में खाद्य उपज जैसे गेहूं इत्यादि और कृषि उत्पादकता द्वारा प्रति हेक्टेयर उत्पादन का माप किया जाता है।

प्रश्न 3.
भूमि सुधारों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भूमि सुधारों से अभिप्राय है

  • ज़मींदारी प्रथा का खात्मा
  • काश्तकारी प्रथा में सुधार
  • चकबंदी
  • भूमि की अधिक-से-अधिक सीमा निर्धारित करना
  • सहकारी खेती।

प्रश्न 4.
भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के कोई दो कारण बताओ।
उत्तर-

  1. सिंचाई की कमी।
  2. कृषि के पुराने ढंग।

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प्रश्न 5.
किसी खेत में पशुओं तथा फ़सलों के उत्पादन सम्बन्धी कला तथा विज्ञान को ……….. कहते हैं।
(a) अर्थशास्त्र
(b) समाजशास्त्र
(c) कृषि
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(c) कृषि।

प्रश्न 6.
कृषि उत्पादकता में .. …………. उत्पादन का माप किया जाता है।
(a) कुल उत्पादन
(b) प्रति हेक्टेयर
(c) फसलों के
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर-
(b) प्रति हेक्टेयर।

प्रश्न 7.
कृषि उत्पादन में ………….. में परिवर्तन का माप किया जाता है।
उत्तर-
उपज।

प्रश्न 8.
भूमि के भू-स्वामी से सम्बन्धित तत्त्वों को ……………. तत्त्व कहा जाता है।
उत्तर-
संस्थागत तत्त्व।

प्रश्न 9.
(1) ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति
(2) चक्कबंदी
(3) सहकारी खेती आदि को ……………… सुधार कहा जाता है।
उत्तर-
भूमि सुधार।

प्रश्न 10.
गेहूं, चावल, दालें, आदि फ़सलों को ……………. फ़सलें कहा जाता है।
उत्तर-
खाद्य फ़सलें।

प्रश्न 11.
भारत में वर्ष 2019-20 में 296.65 मिलियन टन अनाज की पैदावार हुई।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 12.
जिस नीति द्वारा उन्नत बीज, रासायनिक खाद, सिंचाई, कृषि, वित्त आदि में सुधार किया गया है उसको नई कृषि नीति कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

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प्रश्न 13.
कृषि से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
एक खेत में फसलों तथा पशुओं की पैदावार को कृषि कहा जाता है।

प्रश्न 14.
कृषि में संस्थागत तत्त्वों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भूमि के आकार और स्वामित्व से सम्बन्धित तत्त्वों को कृषि के संस्थागत तत्त्व कहा जाता है।

प्रश्न 15.
कृषि में तकनीकी तत्त्वों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कृषि में खेतीबाड़ी की विधियों को कृषि के तकनीकी तत्त्व कहा जाता है।

प्रश्न 16.
भारत में कृषि की उत्पादकता के पिछड़ेपन के लिए मुख्य तीन प्रकार के तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादकता के पिछड़ेपन के लिए मानवीय, संस्थागत और तकनीकी तत्त्व आते हैं।

प्रश्न 17.
नई कृषि नीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में उन्नत बीज, रासायनिक खाद्य, सिंचाई और कृषि सुधारों को कृषि की नई नीति कहा जाता है।

प्रश्न 18.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में नई कृषि के फलस्वरूप अनाज की वृद्धि को हरित क्रान्ति कहा जाता है।

प्रश्न 19.
भारत में 2019-20 में चावल का उत्पादन 117.47 मिलियन टन और गेहूँ का उत्पादन 106.21 मिलियन टन हुआ।
उत्तर-
सही।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कवि की कोई दो समस्याएं बताएं।
उत्तर-
1. कम उत्पादकता (Less Productivity)-भारत में विकसित देशों की तुलना में प्रति श्रमिक उत्पादकता बहुत कम है। भारत में प्रति श्रमिक उत्पादकता 1146 डालर जबकि नार्वे में 97879 डालर है। इसी तरह विभिन्न फसलों का उत्पादन भी बहुत कम है। गेहूं, चावल, कपास, पटसन इत्यादि उपज की पैदावार पश्चिमी देशों से बहुत कम है।

2. कृषि उत्पादन तथा रोज़गार (Agriculture and Employment)-भारत में कृषि रोज़गार का महत्त्वपूर्ण साधन है। 1951 में 97 मिलियन लोगों को रोज़गार कृषि उत्पादन में प्राप्त होता था। 2019-20 में 519 मिलियन लोग (57.9%) कृषि उत्पादन के पेशे में लगे हुए थे। भारत में लगभग दो तिहाई जनसंख्या का कृषि उत्पादन क्षेत्र पर निर्भर रहना, जहां कृषि के महत्त्व का सूचक है, वहां देश के अल्पविकसित होने का प्रमाण है।

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प्रश्न 2.
भारत में कृषि की कोई दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादन की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं-
1. कम उत्पादकता- भारत में कृषि उत्पादकता में वृद्धि हो हुई है परंतु विश्व के कई देशों से यह अब भी बहुत कम है। 2019-20 में भारत में गेहूं का उत्पादन 3307 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि इंग्लैंड में 8810 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। चावल को पैदावार भारत में 2659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जबकि अमेरिका में 686 किलोगाम पनि हेक्टेयर है ! इस्पसे गना लगता है कि भारत की तुलना में प्रत्येक देशों में फसलों की उपज अति है।

2. क्षेत्रीय असमानता–भारतीय ताषि में क्षेत्रीय असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत के कई राज्यों जैसे कि हरियाणा, पंजाब, आग प्रदेश, महाराष्ट्र, इत्यादि में अनाज का उत्पादन काफ़ी बढ़ा है। परन्तु कुछ राज्यों जैसे कि बिहार, छतीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि में खुराक-अनाज के उत्पादन में बहुत कम वृद्धि हुई है।

प्रश्न 3.
भारत में कृषि की समस्याओं को हल करने के लिए कोई दो सुझाव दें।
उत्तर-

  • जनसंख्या का कम दवाय-कृषि की उन्नति के लिए अनिवार्य है कि भूमि पर जनसंख्या का दबाव कम किया जाए। इसीलिए उद्योगों का विकास अनिवार्य है।
  • मशीनीकरण-कृषि के विकास के लिए नए यन्त्र बनाए जाने चाहिए। इससे उत्पादकता में वृद्धि होगी।

प्रश्न 4.
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् किसी एक भूमि सुधार का वर्णन करें।
उत्तर-
भूमि की उच्चतम सीमा- भूमि की उच्चतम सीमा का अर्थ है कि एक मनुष्य अथवा परिवार अधिक-सेअधिक कितनी कृषि योग्य भूमि का मालिक हो सकता है। यदि किसी मनुष्य अथवा परिवार के पास उच्चतम सीमा से अधिक भूमि है तो भूमि भू-स्वामियों से ले ली जाएगी इसके बदले में मुआवजा दिया जाएगा। यह अधिक प्राप्त भूमि छोटे किसानों, काश्तकारों तथा भूमिहीन कृषि मज़दूरों में विभाजित की जाएगी। इसका मुख्य उद्देश्य देश में भूमि का समान तथा उचित वितरण करके उत्पादन में वृद्धि करना है।

प्रश्न 5.
कृषि की नई नीति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नई कृषि नीति का अर्थ- भारत में कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए लॉर्ड फाऊंडेशन की प्रधानगी अधीन एक दल 1959 में अमेरिका से आया। इस दल की सिफारिशों को ध्यान में रखकर जो नीति अपनाई गई उसको नई कृषि नीति कहा जाता है। नई कृषि नीति से अभिप्राय उस नीति से है जिसका उद्देश्य कृषि विकास के नए साधनों, उन्नत बीजों, रासायनिक खाद, सिंचाई, कृषि वित्त, पौधों की सुरक्षा करना तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है।

प्रश्न 6.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
भारत में नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप अनाज में हुई 25% वृद्धि को हरित क्रान्ति का नाम दिया गया है। प्रो० जे० जी० हुगर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द का प्रयोग 1968 में होने वाले आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए किया जाता है, जो भारत में अनाज के उत्पादन में हुआ था तथा अब भी जारी है।” हरित क्रान्ति के मुख्य कारण-

  • सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि,
  • रासायनिक खादों का प्रयोग,
  • उन्नत बीज,
  • बहु-फसली कृषि,
  • आधुनिक कृषि यंत्र,
  • साख सुविधाएं हैं।”

III. लयु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में कृषि के महत्त्व को स्पष्ट करो।
उत्तर-
भारत में कृषि बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि 60% जनसंख्या कृषि क्षेत्र पर निर्भर करती है। कृषि के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. राष्ट्रीय आय-भारत में राष्ट्रीय आय का लगभग आधा भाग कृषि क्षेत्र से प्राप्त होता है।
  2. रोज़गार-भारत में कृषि रोज़गार का मुख्य स्रोत है। सन् 2015 में 60 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या कृषि क्षेत्र में रोजगार प्राप्त कर रही थी।
  3. विदेशी व्यापार–भारत के विदेशी व्यापार में कृषि का बहुत महत्त्व है। कृषि पदार्थों का निर्यात करके विदेशों से मशीनों का आयात किया जाता है।
  4. आर्थिक विकास- भारत की कृषि देश के आर्थिक विकास का आधार है। दशम् योजना में कृषि के विकास पर अधिक जोर दिया गया है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 19 भारत में कृषि

प्रश्न 2.
भारत में कृषि विकास के लिए किए गए प्रयत्नों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि के विकास के लिए बहुत प्रयत्न किए गए हैं।
1. उत्पादकता में वृद्धि-कृषि की उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए नए बीजों का प्रयोग किया गया है। फसलों के ढांचे के रूप में परिवर्तन किया जा रहा है।
2. तकनीकी उपाय-तकनीकी उपायों में-

  • सिंचाई का विस्तार,
  • बहुफसली कृषि
  • खाद्य
  • अधिक उपज देने वाले बीज
  • वैज्ञानिक ढंग से कृषि इत्यादि द्वारा कृषि विकास किया गया है।

3. संस्थागत उपाय-संस्थागत उपायों में

  • ज़मींदारी का खात्मा
  • काश्तकारी प्रथा
  • साख-सुविधाएं
  • बिक्री संबंधी सुधार शामिल हैं।

4. नई कृषि नीति-कृषि के विकास के लिए सरकार ने नई कृषि नीति अपनाई है, इसमें

  • अनुसंधान
  • पूंजी निर्माण
  • बिक्री तथा स्टोरज़
  • जल संरक्षण
  • सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि करना शामिल किए गए हैं।

प्रश्न 3.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है? हरित क्रान्ति के प्रभावों का वर्णन करो।
उत्तर-
भारत में नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप अनाज में हुई 25% वृद्धि को हरित क्रान्ति का नाम दिया गया है। प्रो० जे० जी० हुगर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द का प्रयोग 1968 में होने वाले आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए किया जाता है, जो भारत में अनाज के उत्पादन में हुआ था तथा अब भी जारी है।” हरित क्रान्ति के मुख्य कारण-

  • सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि,
  • रासायनिक खादों का प्रयोग,
  • उन्नत बीज,
  • बहु-फसली कृषि,
  • आधुनिक कृषि यंत्र,
  • साख सुविधाएं हैं।

प्रभाव-हरित क्रांति के मुख्य प्रभाव निम्नलिखित हैं

  1. हरित क्रांति के फलस्वरूप उत्पादन में बहुत वृद्धि हो गई है।
  2. हरित क्रांति के फलस्वरूप किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।
  3. हरित क्रांति से गांवों में रोज़गार बढ़ने की संभावना हो सकती है।
  4. हरित क्रांति के कारण उद्योगों के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ा है।
  5. भारत में आर्थिक विकास तथा स्थिरता के उद्देश्यों की पूर्ति हो सकी है।
  6. देश में कीमतों के स्तर में कम वृद्धि हुई है।
  7. हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भोज्य पदार्थों के आयात में कमी आई है।

प्रश्न 4.
भारत में दूसरी हरित क्रान्ति के लिए क्या प्रयत्न किये गए?
उत्तर-
भारत में बाहरवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में दूसरी हरित क्रान्ति लाने के लिए निम्नलिखित प्रयत्न किये गए-

  1. सिंचाई सुविधाओं को दो गुणा क्षेत्र में बढ़ाया जाएगा।
  2. वर्षा के पानी से सिंचाई की जाएगी।
  3. बेकार भूमि को खेती योग्य बनाया जाएगा।
  4. खेती प्रति किसानों को अधिक ज्ञान प्रदान किया जाएगा।
  5. साधारण फसलों के स्थान पर फल, फूल की खेती पर अधिक जोर दिया जाएगा।
  6. पशुपालन तथा मछली पालन को अधिक महत्त्व दिया जाएगा।
  7. कृषि मंडीकरण में सुधार करने की आवश्यकता है।
  8. भूमि सुधारों को लागू किया जाएगा।
  9. खोज के काम में तेजी लाई जाएगी।
  10. कृषि उत्पादन में वृद्धि की जाएगी।

ग्यारहवीं योजना का लक्ष्य दूसरी हरित क्रान्ति को प्राप्त करना था।

IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत के कृषि-उत्पादन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(Explain the main features of Agriculture production in India.)
उत्तर-
कृषि उत्पादन को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। भारत में कुल मज़दूर शक्ति का 65% भाग कृषि उत्पादन में लगा हुआ है। 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद का 55.4% हिस्सा कृषि उत्पादन का योगदान था, जोकि 1990-91 में 30.9% रह गया। 2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद का 25% भाग कृषि उत्पादन का योगदान था। 2019-20 में 296.65 मिलियन टन अनाज की पैदावार हुई।

भारत की कृषि उत्पादन की कुछ मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-
1. कम उत्पादकता (Less Productivity)-भारत में विकसित देशों की तुलना में प्रति श्रमिक उत्पादकता बहुत कम है। भारत में प्रति श्रमिक उत्पादकता 1146 डालर जबकि नार्वे में 97879 डालर है। इसी तरह विभिन्न फसलों का उत्पादन भी बहुत कम है। गेहूं, चावल, कपास पटसन इत्यादि उपज की पैदावार पश्चिमी देशों से बहुत कम है।

2. कृषि उत्पादन तथा रोज़गार (Agriculture and Employment) भारत में कृषि रोज़गार का महत्त्वपूर्ण साधन है। 1951 में 97 मिलियन लोगों को रोज़गार कृषि उत्पादन में प्राप्त होता था। 2019-20 में 57.9% लोग कृषि उत्पादन के पेशे में लगे हुए थे। भारत में लगभग दो तिहाई जनसंख्या का कृषि उत्पादन क्षेत्र पर निर्भर रहना, जहां कृषि के महत्त्व का सूचक है, वहां देश के अल्पविकसित होने का प्रमाण है।

3. कृषि उत्पादन तथा उद्योग (Agriculture and Industry)-भारत जैसे अल्पविकसित देश में आर्थिक विकास की आरम्भिक स्थिति में कृषि का औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इससे उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है। कृषि के विकास से लोगों की आय बढ़ जाती है। इसीलिए औद्योगिक वस्तुओं की मांग में वृद्धि होती है।

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4. वर्षा पर अधिक निर्भरता (More Dependence on Rains)-भारत में कृषि उत्पादन प्रकृति पर अधिक निर्भर करती है। भारत में कुल भूमि का 70% हिस्सा वर्षा पर निर्भर करता है। यदि भारत में वर्षा नहीं पड़ती तो कोई फसल नहीं होती, क्योंकि पानी नहीं होता।

5. अर्द्ध व्यापारिक कृषि (Semi-Commercial Farming)—भारत में न तो कृषि जीवन निर्वाह के लिए की जाती है तथा न ही पूर्ण तौर पर व्यापारिक फ़सलों की बिजाई की जाती है। वास्तव में कृषि उत्पादन इन दोनों का मिश्रण है, जिसको अर्द्ध व्यापारिक कहा जाता है।

6. छोटे तथा सीमांत किसान (Small and Marginal Farmers)-देश में अधिकतर किसान छोटे तथा सीमांत हैं। इसका अभिप्राय है कि किसानों के पास भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े हैं, जिन पर जीवन निर्वाह के लिए कृषि की जाती है। बहुत-से किसानों के पास अपनी भूमि नहीं है, वह दूसरे किसानों से भूमि किराए पर लेकर कृषि करते हैं।

7. आन्तरिक व्यापार (Internal Trade)-भारत में 90% लोग अपन – 7765% हिस्सा अनाज, चाय, चीनी, दालें, दूध इत्यादि पर खर्च करते हैं। भारत जैसे अल्पविकसित देशों में कृषि का अधिक महत्त्व है।

8. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार (International Trade)-बहुत-सी कृषि आधारित वस्तुएं जैसे कि चाय, चीनी, मसाले, तम्बाकू, तेलों के बीज निर्यात किए जाते हैं। इससे विदेशी मुद्रा प्राप्त की जाती है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में कृषि पैदावार में 4% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। इस योजनाकाल में कृषि पर 1,34,636 करोड़ रुपए व्यय किए गए। 2020-21 में कृषि क्षेत्र में 3.4% वृद्धि की संभावना है।

प्रश्न 2.
भारत में कृषि उत्पादन की मुख्य समस्याओं का वर्णन करो। इन समस्याओं के हल के लिए सुझाव दीजिए।
(Explain the main problems of Agriculture Production in India. Suggest measures to solve the problems.)
अथवा
भारत के कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन के कारण बताओ। पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
(Discuss the main causes of backwardness of Agricultural Productivity. Suggest measures to remove the backwardness.)
उत्तर-
भारत में कृषि उत्पादन की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं
1. कम उत्पादकता-भारत में कृषि उत्पादकता में वृद्धि तो हुई है परंतु विश्व के कई देशों से यह अब भी बहुत कम है। 2019-20 में भारत में गेहूं का उत्पादन 3509 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि इंग्लैंड में 8810 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। चावल की पैदावार भारत में 2659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जबकि स्पेन में 6323 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इससे पता लगता है कि भारत की तुलना में प्रत्येक देशों में फसलों की उपज अधिक है।

2. क्षेत्रीय असमानता-भारतीय कृषि में क्षेत्रीय असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत के कई राज्यों जैसे कि हरियाणा, पंजाब, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि में अनाज का उत्पादन काफ़ी बढ़ा है। परन्तु कुछ राज्यों जैसे कि बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि में खुराक-अनाज के उत्पादन में बहुत कम वृद्धि हुई

3. संस्थागत तत्त्व-भारत में कृषि उत्पादन कम होने का एक कारण संस्थागत तत्त्व है। इसका एक मुख्य कारण भू-माल की प्रणाली (Land Tenure System) रही है। चाहे स्वतन्त्रता के पश्चात् ज़मींदारी प्रथा को खत्म कर दिया गया है, परंतु भू-मालिक आज भी मनमानी करते हैं। दूसरा, खेतों का छोटा आकार (Small size of farms) भी भारतीय कृषि के पिछड़ेपन का कारण है। भारत में खेतों का औसत आकार लगभग 2.3 हेक्टेयर है।

4. भूमि पर जनसंख्या का भार-कृषि के पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण है हमारे देश में कृषि पर बहुत अधिक लोग निर्भर करते हैं। भारत में सामाजिक वातावरण भी कृषि के लिए रुकावट है। भारतीय किसान अनपढ़ तथा अज्ञानी हैं, इसलिए नई तकनीकों का प्रयोग आसानी से खेतों पर लागू नहीं कर सकता।

5. कृषि के पुराने ढंग-भारत में कृषि करने का ढंग पुराना है। आज भी पुराने कृषि यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। ट्रैक्टर तथा आधुनिक कृषि यन्त्रों का कम प्रयोग होता है। अधिक ऊपज वाले बीजों का भी कम प्रयोग किया जाता है। कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए खाद्य का अधिक महत्त्व है, परन्तु भारत के किसान उचित मात्रा में खाद्य का प्रयोग भी नहीं कर सकते।

6. तकनीकी तत्त्व-तकनीकी तत्त्वों में सिंचाई की कम सुविधा, मानसून का जुआ, मिट्टी के दोष, कमज़ोर पशु, पुराने यन्त्रों का प्रयोग, फसलों की बीमारियाँ, दोषपूर्वक बिक्री प्रथा, साख-सुविधाओं की कमी इत्यादि शामिल हैं।

समस्याओं का समाधान अथवा कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सुझाव –

  • जनसंख्या का कम दबाव-कृषि की उन्नति के लिए अनिवार्य है कि भूमि पर जनसंख्या का दबाव कम किया जाए। इसीलिए उद्योगों का विकास अनिवार्य है।
  • मशीनीकरण-कृषि के विकास के लिए नए यन्त्र बनाए जाने चाहिए। इससे उत्पादकता में वृद्धि होगी।
  • सिंचाई सुविधाएं-सबसे अधिक ध्यान सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि करने की ओर देना चाहिए इससे आधुनिक खाद्य, अच्छे बीज तथा वैज्ञानिक कृषि सम्भव होगी।
  • वित्त सुविधाएं-किसानों को सस्ते ब्याज पर काफ़ी मात्रा में धन मिलना चाहिए। व्यापारिक बैंकों को गांवों में अधिक-से-अधिक शाखाएं खोलनी चाहिए।
  • भूमि सुधार-भारत में कृषि की उन्नति के लिए अनिवार्य है कि भूमि सुधार किए जाएं। काश्तकारी का लगान निश्चित होना चाहिए। यदि किसान लगान देते रहें, उनको बेदखल नहीं किया जाना चाहिए।
  • कृषि मण्डीकरण-कृषि मण्डीकरण में अन्य सुधार करने की आवश्यकता है। किसानों को उनकी फ़सल की उचित कीमत दिलाने के प्रयत्न करने चाहिए। शिक्षा प्रसार, छोटे किसानों को सहायता, योग प्रशासन, नई तकनीक का प्रयोग इत्यादि बहुत-से उपायों से कृषि के पिछड़ेपन को दूर करने की समस्याओं का हल किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप कृषि पैदावार 2019-20 में 296.65 मिलियन टन हुआ है।

प्रश्न 3.
भारत में स्वतन्त्रता के बाद होने वाले मुख्य भूमि सुधारों का वर्णन करो। भूमि सुधारों की धीमी गति के कारण तथा सफलता के लिए सुझाव दीजिए।
(Explain the main Land Reforms undertaken after the independence in India. Discuss the causes of slow progress and suggest measures for the success of Land Reforms.)
उत्तर-
कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए संस्थागत तत्त्वों (Institutional factors) का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। प्रो० मिर्डल अनुसार, “मनुष्य तथा भूमि में पाए जाने वाले नियोजित तथा संस्थागत पुनर्गठन को भूमि सुधार कहा जाता है” भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् निम्नलिखित भूमि सुधार किए गए-
1. ज़मींदारी प्रथा का अन्त-ब्रिटिश शासन दौरान ज़मींदारी प्रथा आरम्भ की गई थी। इसमें भूमि का स्वामी ज़मींदार होता था। वह किसानों को लगान पर भूमि काश्त करने के लिए देता था। 1950 में सबसे पहले बिहार में तथा बाद में सारे भारत में कानून पास किया गया, जिस अनुसार ज़मींदारी प्रथा का अन्त किया गया है। ज़मींदारी प्रथा में काश्तकारों का शोषण किया जाता था। ज़मींदारी प्रथा का खात्मा देश के भूमि सुधारों में पहला विशेष पग है।

2. काश्तकारी प्रथा में सुधार-जब कोई कृषि भूमि का मालिक स्वयं कृषि नहीं करता, बल्कि दूसरे मनुष्य को लगान पर जोतने के लिए भूमि दे देता है तो उस मनुष्य को काश्तकार (Tenant) कहते हैं। इस प्रथा को काश्तकारी प्रथा कहा जाता है। भारत में लगभग 40% भूमि इस प्रथा के अन्तर्गत है। इस सम्बन्ध में सुधार करने के लिए स्वतन्त्रता के पश्चात् कानून पास किए गए हैं। इस द्वारा लगान को निर्धारित किया गया है तथा काश्त अधिकारों की सुरक्षा सम्बन्धी कानून पास किए गए हैं। इसके परिणामस्वरूप भूमि उपज में वृद्धि हुई है।

3. भूमि की उच्चतम सीमा-भूमि की उच्चतम सीमा का अर्थ है एक मनुष्य अथवा परिवार अधिक-से अधिक कितनी कृषि योग्य भूमि का मालिक हो सकता है। यदि किसी मनुष्य अथवा परिवार के पास उच्चतम सीमा से अधिक भूमि है तो भूमि भू-स्वामियों से ले ली जाएगी इसके बदले में मुआवजा दिया जाएगा। यह अधिक प्राप्त भूमि छोटे किसानों, काश्तकारों तथा भूमिहीन कृषि मजदूरों में विभाजित की जाएगी। इसका मुख्य उद्देश्य देश में भूमि का समान तथा उचित वितरण करके उत्पादन में वृद्धि करना है।

4. चकबन्दी-भारत में किसानों के खेत छोटे-छोटे तथा इधर-उधर बिखरे हुए हैं। जब तक खेतों का आकार उचित नहीं होगा भूमि तथा अन्य साधनों का उचित प्रयोग नहीं किया जा सकता। छोटे-छोटे खेतों को एक बड़े खेत में बदलने को चकबन्दी कहा जाता है। पंजाब तथा हरियाणा में चकबन्दी का काम पूरा हो चुका है। शेष राज्यों में यह कार्य तेजी से चल रहा है।

5. सहकारी कृषि-सहकारी कृषि वह कृषि है जिसमें प्रत्येक किसान का अपनी भूमि पर पूरा हक होता है, परन्तु कृषि सामूहिक रूप से की जाती है। परन्तु भारत में सहकारी कृषि में सफलता प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि किसान अपनी भूमि की साझ का प्रयोग करना पसन्द नहीं करते।। भूमि के सम्बन्ध में मिलकियत, उपज, काश्तकारों के अधिकारों सम्बन्धी रिकार्ड रखने के लिए कम्प्यूटर का 26 राज्यों में प्रयोग किया जा रहा है।

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भूमि सुधारों की धीमी गति के कारण-भारत में भूमि सुधारों की धीमी गति के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. भूमि सुधारों की नीति को धीरे-धीरे तथा बिना तालमेल के लागू किया गया।
  2. राजनीतिक इच्छा की कमी के कारण भूमि सुधारों की प्रगति धीमी रही।
  3. विभिन्न राज्यों में भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों का भिन्न-भिन्न होना।
  4. भूमि सुधार सम्बन्धी कानून दोषपूर्ण होने के कारण मुकद्दमेबाजी होती है।
  5. भूमि सुधारों की प्रभावपूर्ण अमल की कमी।

भूमि सुधारों की सफलता के लिए सुझाव-भूमि सुधारों की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं-

  • भूमि सम्बन्धी नए रिकार्ड तैयार किए जाएं।
  • भूमि सुधार सम्बन्धी कानून सरल तथा स्पष्ट होने चाहिए।
  • भूमि सुधारों में मुकद्दमे का फैसला करने के लिए विशेष अदालतों द्वारा कम समय में फैसले किए जाएं।
  • भूमि सुधारों सम्बन्धी गांवों के लोगों को पूरी तरह प्रचार द्वारा जानकारी दी जाए।
  • उच्चतम सीमा के कानून में दोष दूर करके एकत्रित की भूमि को तुरन्त काश्तकारों में विभाजित किया जाए।
  • भूमि सुधारों के कारण जिन किसानों को भूमि प्राप्त होती है, उनको वित्त की सुविधा देनी चाहिए ताकि भूमि का उचित प्रयोग किया जा सके।

प्रश्न 4.
नई कृषि नीति से क्या अभिप्राय है? नई कृषि नीति की विशेषताओं तथा प्राप्तियों का वर्णन कीजिए।
(What is New Agricultural Strategy ? Discuss the main features and achievement of New Agricultural Strategy.)
उत्तर-
नई कृषि नीति का अर्थ-भारत में कृषि उत्पादन के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए लॉर्ड फाऊंडेशन की प्रधानगी अधीन एक दल 1959 में अमेरिका से आया। इस दल की सिफारिशों को ध्यान में रखकर जो नीति अपनाई गई उसको नई कृषि नीति कहा जाता है। नई कृषि नीति से अभिप्राय उस नीति से है जिसका उद्देश्य कृषि विकास के नए साधनों, उन्नत बीजों, रासायनिक खाद, सिंचाई, कृषि वित्त, पौधों की सुरक्षा करना तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। विशेषताएं-नई कृषि नीति की मुख्य विशेषताएं हैं-

  1. नई कृषि तकनीक को अपनाया गया है।
  2. देश के चुने हुए भागों में उन्नत बीज, सिंचाई, रासायनिक खाद का प्रयोग करना।
  3. एक से अधिक फसलों की पैदावार करना।
  4. ग्रामीण विकास के सभी कार्यों में तालमेल करना।
  5. कृषि पदार्थों की उचित कीमत का निर्धारण करना।

भारत में नई कृषि नीति 17 जिलों में आरम्भ की गई। पंजाब में लुधियाना जिले में घनी कृषि जिला कार्यक्रम अपनाया गया है। नई कषि नीति की प्राप्तियां (Achievements of New Agricultural Strategy)-

1. खाद्य पदार्थों की उपज में वृद्धि-कृषि विकास की नई नीति से उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। इसके परिणामस्वरूप 1966 में हरित क्रान्ति आ गई। अनाज का उत्पादन 1951 में 62 मिलियन टन था। 2017-18 में अनाज का उत्पादन 284.83 मिलियन टन हो गया।

2. प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि-कृषि वृद्धि की नई नीति के परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है। 1970-71 में गेहूँ का उत्पादन 23.8 मिलियन टन था। 2016-17 गेहूँ का उत्पादन 97.4 मिलियन टन हो गया।

3. दूसरे किसानों से प्रेरणा-कृषि की नई नीति की सफलता से इस प्रोग्राम के बाहर के क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को भी उन्नत बीजों, कीड़ेमार दवाइयों तथा खाद्यों का प्रयोग करने की प्रेरणा मिली है। किसान के दृष्टिकोण में परिवर्तन-नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप किसानों की कृषि सम्बन्धी दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है तथा किसान की सामाजिक, आर्थिक तथा संस्थागत सोच बदल गई है।

5. वर्ष में एक से अधिक फ़सलें-नई कृषि नीति लागू होने के कारण किसान वर्ष में एक से अधिक फ़सलें प्राप्त करने लगे हैं। किसानों की आय तथा जीवन स्तर में वृद्धि हुई है।

6. अनाज में आत्म-निर्भरता-नई कृषि नीति लागू होने से कृषि उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। इसलिए भारत में किसान आत्म-निर्भरता होने में सफल हुए हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या की अनाज सम्बन्धी आवश्यकताओं को देश में से ही पूरा किया जाता है।

7. औद्योगिक विकास-नई कृषि नीति के परिणामस्वरूप अनाज का आयात नहीं किया जाएगा। इससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी। उसका इस्तेमाल उद्योगों के विकास के लिए सम्भव होगा।

8. इंद्रधनुष क्रान्ति-राष्ट्रीय कृषि नीति 2015 में इंद्रधनुष क्रान्ति लाने का लक्ष्य रखा गया है। इन्द्रधनुष जैसे कृषि उत्पादन पैदावार में 4% वार्षिक वृद्धि (हरित क्रान्ति) दूध की पैदावार में वृद्धि (सफेद क्रान्ति) मछली पालन उद्योग का विकास (नीली क्रान्ति) करने का लक्ष्य रखा गया है। यह मुख्यतया नई कृषि नीति का परिणाम है।

9. न्यूनतम सुरक्षित मूल्य-वर्ष 2020-21 में गेहूँ की सुरक्षित कीमत ₹ 1975 प्रति क्विंटल तथा चावल की कीमत ₹ 1860 प्रति क्विंटल और कपास ₹ 4600 प्रति क्विंटल निर्धारण की गई है। दिल्ली-यूपी सीमा पर किसानों के प्रदर्शन के बाद केन्द्र सरकार ने रबी की उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) इस प्रकार बढ़ा दिया है-

अनाज MSP
1. गेहूँ 1975
2. सरसों 7520
3. चना 4800

प्रश्न 5.
भारत में हरित क्रान्ति की कठिनाइयां बताएं। उसमें सुधार के सुझाव दें।
(Discuss the deficulties of Green Revolution in India. Suggest measures for its improvement.)
उत्तर-
कठिनाइयां –
1. केवल गेहूं क्रान्ति-इसमें कोई सन्देह नहीं कि हरित क्रान्ति के अधीन कुछ फसलों का उत्पादन बहुत बढ़ा है परन्तु अधिकतर गेहूं का ही उत्पादन, आधुनिक बीज जैसे कल्याण, सोना सोनालिका, सफ़ेद लर्मा तथा छोण लर्मा आदि के प्रयोग से, बढ़ा है जिसके कारण अधिकतर लोग इसे गेहूं क्रान्ति का नाम देना पसन्द करते हैं। इसी कारण हरित क्रान्ति के अधीन दूसरी फसलों का उत्पादन भी बढ़ाना चाहिए।

2. केवल अनाज की फसलों में ही क्रान्ति-हरित क्रान्ति अनाज की फसलों में ही आई है। ऐसी क्रान्ति व्यापारिक फसलों में भी आनी चाहिए। व्यापारिक फसलों में अभी तक अधिक फसल देने वाले बीज प्रयोग नहीं किये गये हैं । इस कारण यदि इनकी ओर अधिक ध्यान न दिया गया तो व्यापारिक फसलें बहुत धीरे-धीरे उन्नति करेंगी। कई व्यक्तियों को तो इस बात का सन्देह है कि यदि व्यापारिक फसलों का उत्पादन बढ़ाया गया तो कुल उत्पादन बढ़ने के स्थान पर कम हो जाएगा। वह इसलिए कि लोग व्यापारिक फसलों के स्थान पर उपभोक्ता वस्तुएं बीजने लग जायेंगे।

3. केवल बड़े-बड़े किसानों को ही लाभ-इसके अतिरिक्त यह देखने में आया है कि छोटे किसानों को इसका कोई लाभ नहीं हुआ है। लाभ केवल बड़े किसानों को ही पहुंचा है। छोटे किसानों को तो हरित क्रान्ति के कारण हानि ही हुई है क्योंकि कृषि साधनों में वृद्धि के कारण उनकी उत्पादन लागत बहुत बढ़ गई है। इस तरह क्रान्ति के कारण धन के असमान वितरण में वृद्धि हुई है।

4. असन्तुलित विकास-कुछ विशेषज्ञों का विचार है कि यदि हरित क्रान्ति समस्त देश में न लाई गई तो कुछ भाग दूसरे भागों से आगे निकल जायेंगे अर्थात् आर्थिक रूप से उन्नत हो जायेंगे जिसके कारण देश में क्षेत्रीय असन्तुलन की समस्या पैदा हो जाएगी।

5. कृषि आदानों की काले बाज़ार में बिक्री-यह ठीक है कि कृषि आदानों (Inputs) की मांग बहुत बढ़ गई है और उनकी पूर्ति दुर्लभ हो गई है जिसके फलस्वरूप कृषि उत्पादनों की बिक्री काले बाज़ार में ऊंचे दामों पर हो रही है। धनी किसान उन्हें खरीद सकते थे, पर निर्धन किसान उन्हें खरीद नहीं पाते।

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6. पूंजीकृत फार्मों को प्रोत्साहन-हरित क्रान्ति से बड़े-बड़े पूंजीकृत फार्मों को प्रोत्साहन मिल रहा है। बढ़िया खाद का प्रयोग करने में तथा ट्यूबवैल लगाने में काफ़ी मात्रा में धन लगाना पड़ता है। एक निर्धन किसान इसके बारे में कभी सोच भी नहीं सकता। इसका लाभ तो केवल धनी किसानों को ही हो रहा है जो बड़े-बड़े फार्म बना रहे हैं।

7. तालमेल का अभाव-हरित क्रान्ति की रफ्तार इस कारण भी धीमी है क्योंकि विभिन्न संस्थाओं में आपसी तालमेल नहीं है। सरकार तो अधिक बल केवल रासायनिक खाद के उत्पादन पर ही दे रही है। यह ठीक है कि हरित क्रान्ति लाने में खाद का बड़ा महत्त्व है, पर अकेली खाद भी क्या कर सकती है, जब तक किसान के पास पूंजी, मशीनें तथा सिंचाई आदि सुविधाओं का अभाव हो। ऋण प्रदान करने वाली संस्थाओं, खाद प्रदान करने वाली संस्थाओं, बीज प्रदान करने वाली संस्थाओं तथा सिंचाई की सुविधाएं प्रदान करने वाली संस्थाओं में तालमेल नहीं है।

सुझाव-
1. बढ़िया बीजों का खुला प्रयोग-हरित क्रान्ति को अधिक सफल बनाने के लिए देश में ऐसी सुविधाएं होनी चाहिएं जिनके साथ हरित क्रान्ति लानी सम्भव हो जाए। हम जानते हैं कि गेहूं की आधुनिक प्रकार की फसल की तरह दूसरी फसलों में अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। शुष्क भूमि पर अधिक उपज देने वाली फसलों के बीजों का प्रयोग करने के लिए किसानों को प्रेरणा देनी चाहिए।

2. उर्वरकों का खुला प्रयोग-उर्वरकों का प्रयोग बढ़ाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। गोबर को खाद के रूप में प्रयोग पर अधिक बल देना चाहिए। रासायनिक खादों की मांग हरित क्रान्ति के साथ बढ़ेगी। इस कारण देश में और कारखाने खाद तैयार करने के लिए लगाने चाहिएं।

3. सिंचाई की सुविधाएं-हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए अधिक बल सिंचाई की सुविधाओं को प्रदान करने पर देना चाहिए। सरकार को छोटे स्तर की सिंचाई योजनाएं बनानी चाहिएं। ट्यूबवैल लगाने के लिए ऋण की सुविधाएं देनी चाहिएं।

4. मशीनों का प्रयोग-हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए अधिक मशीनों का प्रयोग आवश्यक है। इसलिए देश में सस्ती मशीनें बनानी चाहिएं। किसानों को मशीनें खरीदने के लिए ऋण देने चाहिएं। विशेषतया ऐसी मशीनें बनानी चाहिए, जो छोटे किसान भी प्रयोग कर सकें

5. लाभों का समान वितरण-अब तक हुई हरित क्रान्ति से पैदा हुए लाभ सभी धनी किसानों या बड़े किसानों को हुए हैं। छोटे किसानों को तो कृषि साधनों पर व्यय बढ़ने के कारण हानि ही हुई है। सरकार को अनुकूल रणनीति अपनाकर इन लाभों की असमान बांट पर नियन्त्रण रखना चाहिए।

6. अन्य प्रकार की क्रान्तियां-कृषक के उपज क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र जैसे दूध देने वाले पशु पालना, फल पैदा करना आदि में भी क्रान्ति लानी चाहिए।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

PSEB 12th Class Economics आर्थिक नियोजन के उद्देश्य Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक नियोजन से अभिप्राय देश के साधनों का प्रयोग राष्ट्रीय प्राथमिकताओं अनुसार करके निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति करना होता है।

प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक नियोजन का काल कितना है तथा आर्थिक नियोजन कब आरम्भ किया गया ?
उत्तर-
भारत में रूस के आर्थिक नियोजन की सफलता को देखते हुए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की गईं। प्रथम योजना 1951-56 तक बनाई गई।

प्रश्न 3.
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना 1947 में प्रारम्भ हुई।
उत्तर-
ग़लत।

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प्रश्न 4.
भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना का काल ………… था।
उत्तर-
1951-56.

प्रश्न 5.
इस समय भारत में तेरहवीं योजना चल रही है।
उत्तर-
गलत।

प्रश्न 6.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 2012-17 है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 7.
बारहवीं पंचवर्षीय योजना की विकास दर का उद्देश्य 9% वार्षिक रखा गया है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 8.
नियोजन के उद्देश्य से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नियोजन के उद्देश्यों से अभिप्राय दीर्घकाल में प्राप्त करने वाले उद्देश्यों से होता है।

प्रश्न 9.
योजनाओं के उद्देश्यों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
योजनाओं के उद्देश्यों से अभिप्राय अल्पकालीन उद्देश्यों से होता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

प्रश्न 10.
भारत का प्रधानमंत्री योजना आयोग का अध्यक्ष होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 11.
भारत में योजना आयोग के स्थान पर …………….. बन गया है।
उत्तर-
नीति आयोग।

प्रश्न 12.
भारत में तेहरवीं पंचवर्षीय योजना 2017-2022 चल रही है।
उत्तर-
गलत।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आर्थिक नियोजन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आर्थिक नियोजन को स्पष्ट करते भारत के योजना आयोग ने कहा, “आर्थिक नियोजन का अर्थ है, राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुसार साधनों का आर्थिक क्रियाओं में प्रयोग करना।”

प्रश्न 2.
आर्थिक नियोजन के कोई दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य-भारत में आर्थिक योजनाओं के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि-आर्थिक योजनाओं का मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि कृषि, उद्योग इत्यादि का विकास करके राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना है।
  2. कृषि का विकास-कृषि के विकास में योजनाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। सन् 1966 से कृषि की तकनीक पर जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप हरित क्रान्ति हो सकी है। योजनाओं के काल में भोजन पदार्थों का उत्पादन तीन गुणा बढ़ गया है।

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III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में योजना काल तथा प्रत्येक योजना के उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के जीवनकाल का वर्णन इस प्रकार है –
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य 1
1. प्रथम योजना (1951-56) के मुख्य उद्देश्य-

  • कृषि पैदावार में वृद्धि
  • आय तथा धन का समान वितरण।

2. द्वितीय योजना (1956-61) के मुख्य उद्देश्य-

  • औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि
  • भारी उद्योगों का विकास।

3. तीसरी योजना (1961-66) के मुख्य उद्देश्य-

  • अनाज में आत्मनिर्भरता
  • असमानता को दूर करना।

4. चौथी योजना (1969-74) के मुख्य उद्देश्य-

  • विकास दर में वृद्धि
  • कीमत स्थिरता।

5. पाँचवीं योजना (1974-79) के मुख्य उद्देश्य-

  • गरीबी दूर करना
  • यातायात तथा शक्ति का विकास 1979-80 एकवर्षीय योजना

6. छठी योजना (1980-85) के मुख्य उद्देश्य-

  • ग़रीबों का जीवन स्तर ऊंचा करना
  • असमानता दूर करना।

7. सातवीं योजना (1985-90) के मुख्य उद्देश्य-

  • रोज़गार में वृद्धि
  • कृषि उत्पादन में वृद्धि। 1990-92 एकवर्षीय योजनाएं

8. आठवीं योजना (1992-97) के मुख्य उद्देश्य-

  • मानवीय शक्ति का पूर्ण प्रयोग
  • सर्व शिक्षा अभियान।

9. नौवीं योजना (1997-2002) के मुख्य उद्देश्य-

  • कृषि तथा ग्रामीण विकास
  • जनसंख्या की वृद्धि पर रोक।

10. दशम् योजना (2002-07) के मुख्य उद्देश्य-

  • जीवन स्तर का विकास
  • असमानता को घटाना।

11. ग्यारहवीं योजना (2007-12) के मुख्य उद्देश्य-

  • कृषि तथा ग्रामीण विकास
  • रोज़गार में वृद्धि।

12. 12वीं योजना (2012-17) के मुख्य उद्देश्य-

  • आर्थिक विकास में 9% वार्षिक वृद्धि
  • कृषि में 4% वार्षिक वृद्धि

प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक नियोजन के लम्बे समय के क्या उद्देश्य हैं ?
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के लम्बे समय के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि
  2. आय तथा धन का समान वितरण
  3. देश में मानवीय शक्ति का पूर्ण उपयोग तथा पूर्ण रोज़गार की स्थिति को प्राप्त करना।

प्रश्न 3.
भारत के आर्थिक नियोजन के अल्पकालीन उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के अल्पकालीन उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • कृषि पैदावार में वृद्धि
  • औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि
  • अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता
  • कीमत स्थिरता
  • ग़रीबी दूर करना
  • रोज़गार में वृद्धि
  • शिक्षा का प्रसार
  • जनसंख्या पर नियन्त्रण
  • ऊँचा जीवन स्तर।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

प्रश्न 4.
नीति आयोग पर नोट लिखें।
उत्तर-
नीति आयोग का पूरा नाम भारत परिवर्तन संस्थान [National Institute of Transforming India (NITI)] है। इस संस्था को योजना आयोग के स्थान पर बनाया गया है। जनवरी 2015 को नीति आयोग के बनाने की मंजूरी दी। यह संस्था थिंक टैंक (Think Tank) के रूप में काम करेगी। इस संस्था ने 2017 के पश्चात् काम करना शुरू कर दिया है।

प्रश्न 5.
नीति आयोग और योजना आयोग में अन्तर बताएं।
उत्तर –

अन्तर का आधार योजना आयोग नीति आयोग
1. निर्माण योजना आयोग का निर्माण 1 मार्च, 1950 में किया गया है। नीति आयोग का निर्माण 2015 को किया गया है।
2. कार्य इस का कार्य राज्य सरकारों को फंड वितरण करवाना है। नीति आयोग सुझाव देने वाली संस्था है।
3. राज्य सरकारों का योगदान समिति योगदान था। राज्यों का महत्त्व बढ़ गया है।
4. योजना निर्माण यह योजना का निर्माण करती है। योजना आयोग योजना का निर्माण करता था जिस को राज्य लागू करते थे।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्यों का वर्णन करो। (Explain the main objectives of Economic Planning of India.)
उत्तर-
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्य-भारत में आर्थिक योजनाओं के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि-आर्थिक योजनाओं का मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि कृषि, उद्योग इत्यादि का विकास करके राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना है।

2. कृषि का विकास-कृषि के विकास में योजनाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। सन् 1966 से कृषि की तकनीक पर जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप हरित क्रान्ति हो सकी है। योजनाओं के काल में भोजन पदार्थों का उत्पादन तीन गुणा बढ़ गया है।

3. उद्योगों का विकास- भारत में योजनाओं के परिणामस्वरूप बहुत सरलता मिली है। भारत के प्राथमिक तथा पूंजीगत उद्योग बहुत विकसित हुए हैं जैसे कि लोहा तथा इस्पात, मशीनरी, खाद्य रासायनिक उद्योगों ने विकास किया है।

4. जीवन स्तर में वृद्धि-पंचवर्षीय योजनाओं का एक उद्देश्य जीवन स्तर में वृद्धि करना है। देश में लोगों का जीवन स्तर कई बातों पर निर्भर करता है जैसे कि प्रति व्यक्ति आय, कीमतों में स्थिरता, आय का समान वितरण, टी० वी०, फ्रिज, कारें, स्कूटरों, टेलीफोन, इत्यादि की प्राप्ति।।

5. आर्थिक असमानताओं में कमी-भारत में प्रत्येक पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य अमीर तथा निर्धन में अन्तर को कम करना रहा है। आर्थिक असमानता देश में शोषण का प्रतीक होती है। इसलिए अमीर लोगों पर प्रगतिशील कर (Taxes) लगाए जाते हैं तो गरीब लोगों को सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।

6. रोज़गार में वृद्धि योजनाओं का एक उद्देश्य मानवीय शक्ति का अधिक प्रयोग करके रोज़गार में वृद्धि करना है। प्रत्येक योजना में विशेष प्रयत्न किया जाता है कि देश में बेरोजगारों को रोजगार प्रदान किया जाए, जिससे राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि हो सके।

7. आत्मनिर्भरता-पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य देश में कृषि, उद्योग इत्यादि क्षेत्रों को प्राप्त साधनों के अनुसार उत्पादन के संबंध में आत्मनिर्भर बनाना है। तीसरी पंचवर्षीय योजना के पश्चात् आत्मनिर्भरता के उद्देश्य की ओर अधिक ध्यान दिया गया। बारहवीं योजना (2012-17) का मुख्य उद्देश्य निर्यात में वृद्धि करके तथा आंतरिक साधनों की सहायता से आत्मनिर्भरता के उद्देश्य को पूरा रखा गया।

8. आर्थिक स्थिरता-आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए आर्थिक स्थिरता के उद्देश्य की प्राप्ति अनिवार्य होती है। आर्थिक विकास से अभिप्राय है कि देश में अधिक तीव्रता तथा मंदी नहीं आनी चाहिए। कीमतों में बहुत वृद्धि अथवा कमी देश के आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव डालती है। इसलिए योजनाओं में आर्थिक स्थिरता को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

9. बहुपक्षीय विकास-योजनाओं में कृषि, उद्योग, यातायात, व्यापार, बिजली, सिंचाई इत्यादि बहुत-सी उत्पादन क्रियाओं के विकास को महत्त्व दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य देश का बहुपक्षीय विकास करना है।

10. सामाजिक कल्याण-भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का एक उद्देश्य सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना है। स्वतन्त्रता के समय भारत गरीबी के कुचक्र में फंसा हुआ था। योजनाओं द्वारा भारत में गरीबी को घटाने के प्रयत्न किए गए हैं ताकि धन तथा आय की असमानता को घटाकर सामाजिक कल्याण में वृद्धि की जा सके।

योजना आयोग के अनुसार, “भारत में योजनाओं का मुख्य उद्देश्य जनता के जीवन स्तर में वृद्धि करना तथा आर्थिक सम्पन्न जीवन के मौके प्रदान करना है। नियोजन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र के भौतिक, मानवीय तथा पूंजीगत साधनों का प्रभावशाली उपयोग करके वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि करना तथा आय, धन और अवसर की असमानता को दूर करना है।” भारत की प्रति व्यक्ति आय 2014-15 में बढ़कर 88533 रुपए हो गई है। आर्थिक नियोजन के लिए NDA की सरकार ने योजना आयोग (Planning Commission) का नाम बदल कर नीति आयोग (NITI AAYOG) कर दिया है और इसके ढांचे में परिवर्तन किया है।

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प्रश्न 2.
नीति आयोग और योजना आयोग में अन्तर बताएं। (Explain the difference between Niti Aayog and Planning Commission.)
अथवा
नीति आयोग से क्या अभिप्राय है ? नीति आयोग की संरचना तथा उद्देश्य बताएं। (What is Niti Aayog ? Explain the Composition and functions of Niti Aayog.)
उत्तर-
नीति आयोग (Niti Aayog) (National Institute for Transforming India)-नीति आयोग राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (National Institute for Transforming India) भारत सरकार द्वारा गठित एक नया संस्थान है जिसे योजना आयोग (Planning Commission) के स्थान पर बनाया गया है।

1. जनवरी 2015 को इस नए संस्थान के बारे में जानकारी देने वाला मन्त्रिमण्डल का प्रस्ताव जारी किया गया। यह संस्थान सरकार के थिंक टैंक (Think Tank) के रूप में सेवाएं प्रदान करेगा। यह संस्था निर्देशात्मक एवं गतिशीलता प्रदान करेगा। नीति आयोग, केन्द्र और राज्य स्तरों पर सरकार को प्रमुख कारकों के संबंध में प्रासंगिक महत्त्वपूर्ण एवं तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराएगा। इसमें आर्थिक मोर्चे पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आयात, देश के भीतर और अन्य देशों की बेहतरीन पद्धतियों का प्रसार, नए नीतिगत विचारों का समावेश और महत्त्वपूर्ण विषयों पर आधारित समर्थन से सम्बन्धित मामले शामिल होंगे।

नीति आयोग और योजना आयोग में अन्तर (Difference between Niti Aayog and Planning Commission)-15 मार्च 1950 को एक प्रस्ताव के माध्यम से योजना आयोग (Planning Commission) की स्थापना की गई थी। इसके स्थान पर 1 जनवरी 2015 को मन्त्रिमण्डल के प्रस्ताव द्वारा नीति आयोग (Niti Aayog) की स्थापना की गई है। सरकार ने यह कदम राज्य सरकारों, विशेषज्ञों तथा प्रासंगिक संस्थानों सहित सभी हितधारकों से व्यापक विचार-विमर्श के बाद उठाया है। इन दोनों में मुख्य अन्तर इस प्रकार है1. योजना आयोग (Planning Commission) के पास यह शक्ति थी कि वह राज्य सरकारों को फंड प्रदान करता था, परन्तु अब यह शक्ति वित्त मन्त्रालय के पास होगी। नीति आयोग (Niti Aayog) एक सुझाव देने वाली संस्था के रूप में काम करेगी।

2. योजना आयोग (Planning Commission) में राज्य सरकारों का योगदान सीमित होता था। वह वर्ष में एक बार वार्षिक योजना पास करवाने के लिए आते थे। नीति आयोग (Niti Aayog) में राज्य सरकारों की भूमिका बढ़ गई है।

3. योजना आयोग (Planning Commission) जो योजना बनाता है वह उपर से नीचे की ओर लागू की जाती थी। नीति आयोग (Niti Aayog) में गावों से ऊपर की ओर योजना लागू होगी।

4. क्षेत्रीय कौंसिल (Regional Council) का काम नीति आयोग (Niti Aayog) को स्थानिक तथा क्षेत्रीय समस्याओं से अवगत कराना होगा। योजना आयोग (Planning Commission) में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं थी।

5. योजना आयोग (Planning Commission) केन्द्रीय योजनाओं का निर्माण करता था परन्तु नीति आयोग (Niti Aayog) किसी योजना का निर्माण नहीं करेगा। इस का मुख्य कार्य निर्धारत प्रोग्राम को ठीक ढंग से संचालन करना होगा। इस प्रकार नीति आयोग एक विमर्श देने वाला संस्थान होगा।

6. नीति आयोग (Niti Aayog) का एक नया कार्य यह होगा कि आर्थिक नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) को महत्त्व देना। योजना आयोग में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। नीति आयोग की कौंसिल में सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री और केन्द्रीय प्रशासक क्षेत्रों के प्रबन्धकों को शामिल किया गया है।

नीति आयोग की संरचना (Composition of Niti Aayog)- नीति आयोग की संरचना इस प्रकार है-

  1. चेयरपर्सन (Chairperson)-प्रधानमन्त्री।
  2. प्रबन्धकीय कौंसिल (Governing Council)-इस में सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री, Union Territories के प्रबन्धक तथा अंडमान निकोबार के विधायक तथा लैफ्टीनेंट गवर्नर शामिल होंगे।
  3. क्षेत्रीय कौंसिलें (Regional Councils)—इसमें क्षेत्र के मुख्यमन्त्री, केन्द्रीय गायक प्रदेशों के लैपटीनैंट गवर्नर होंगे जो कि अन्तर्राज्य तथा अन्तर-क्षेत्रीय समस्याओं के प्रति विचार-विमर्श करेंगे।
  4. प्रबन्धकीय ढांचा (Organizational Framework)-पूरा समय काम करने के लिए नीति आयोग में वाईस चेयरपर्सन, तीन पूरा समय सदस्य, दो अल्प समय सदस्य (जोकि महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों, खोज संस्थानों में से होंगे)। चार पद अथवा स्थिति के कारण (Ex-Officio) सदस्य जो केन्द्र सरकार में मन्त्री होंगे, एक मुख्यकार्यकारी अफसर (यह भारत सरकार में सैक्रेटरी के पद पर होगा) जो इसके संचालन और देख-रेख के लिए काम करेगा।
  5. विभिन्न क्षेत्रों के निपुण (Experts of Various fields)-नीति आयोग में कृषि उद्योग, व्यापार आदि विभिन्न क्षेत्रों के निपुण लोगों को शामिल किया जाएगा।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 18 आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

नीति आयोग के कार्य अथवा उद्देश्य (Functions or Objectives of Niti Aayog) नीति आयोग निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए कार्य करेगा

  1. राज्यों की सक्रिय भागीदारी (Active Involvement of States)-राष्ट्रीय उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करना जिसके द्वारा प्रधानमन्त्री और मुख्यमन्त्रियों को राष्ट्रीय एजेंडा का प्रारूप उपलब्ध कराना है।
  2. सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देना (Foster Co-operative Federalism)-भारत में सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देने के उद्देश्य से राज्यों का सहयोग तथा भागीदारी को अधिक महत्त्व देना क्योंकि सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।
  3. ग्राम स्तर पर योजना (Plan at the Village Level)-ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजना तैयार करने के लिए तन्त्र विकसित करेगा और इसे उत्तरोत्तर उच्च स्तर तक पहुंचाएगा।
  4. राष्ट्रीय सुरक्षा के अनुसार आर्थिक नीति (Economic Policy according to National Security)नीति आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि जो क्षेत्र विशेष रूप से उसे सौंपे गए हैं उनकी आर्थिक कार्य नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को शामिल किया गया है।
  5. निम्न वर्गों पर विशेष ध्यान (More Attention to deprived classes)-उन वर्गों पर विशेष रूप से ध्यान देगा जिन पर आर्थिक विकास से उचित प्रकार से लाभान्वित ना हो पाने का जोखिम होगा।
  6. दीर्घकाल और रणनीतिक नीति (Strategic and Long Term Policy)-दीर्घकाल और रणनीतिक नीति तथा कार्यक्रम का ढांचा तैयार करेगा और पहल करेगा और निगरानी करेगा।
  7. थिंक टैंक (Think Tank) समान विचारधारा वाले और महत्त्वपूर्ण हितधारकों, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय थिंक टैंक और शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के बीच भागीदारी को प्रोत्साहन देगा।
  8. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग (International Co-operation)-राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों तथा हितधारकों के सहयोग से नए विचारों से उद्यमशीलता सहायक प्रणाली बनाएगा।
  9. अन्तर क्षेत्रीय और अन्तर विभागीय मुद्दों के लिए एक मंच (One Platform for inter-sectoral and inter-departmental issues)-विकास के एजेंडे के कार्यान्वयन में तेजी लाने के क्रम में अन्तर-क्षेत्रीय और अन्तर-विभागीय मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
  10. अत्याधुनिक कला संसाधन केन्द्र (Art Resource Centre)-आयोग का एक उद्देश्य यह भी है कि देश में आधुनिक कला संसाधन केन्द्र स्थापित किया जाए जिस की जानकारी विकास से जुड़े सभी लोगों को प्रदान की जाए।
  11. सक्रिय मूल्यांकन (Proper Evaluation)-कार्यक्रमों और उपायों के संचालन का सक्रिय मूल्यांकन और सक्रिय निगरानी की जाएगी।
  12. क्षमता निर्माण पर ज़ोर (Focus on capacity Building)-कार्यक्रमों और नीतियों के संचालन के लिए क्षमता निर्माण पर जोर देना भी नीति आयोग का उद्देश्य है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

PSEB 12th Class Economics स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति क्या थी ?
उत्तर-
डॉ० करम सिंह गिल के अनुसार, “स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक अल्पविकसित, गतिहीन, अर्द्ध-सामन्तवादी, घिसी हुई तथा खण्डित अर्थव्यवस्था थी।”

प्रश्न 2.
अर्थव्यवस्था की संरचना (Structive) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अर्थव्यवस्था की आर्थिक स्थिति का ज्ञान उस अर्थव्यवस्था की संरचना से होता है। अर्थव्यवस्था की संरचना का अर्थ उसको उत्पादन के आधार पर क्षेत्रों में विभाजित करने से होता है।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय कृषि की क्या दशा थी ?
अथवा
स्वतन्त्रता के समय प्राथमिक क्षेत्र की क्या अवस्था थी ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय कृषि देश का प्रमुख व्यवसाय बन गई परन्तु इसकी उत्पादकता इतनी कम थी कि भारत एक निर्धन देश बनकर रह गया।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता के समय भारत का संरचनात्मक ढांचा अथवा मुख्य आर्थिक क्रियाएं क्या थी ?
उत्तर-
कृषि का महत्त्व बहुत अधिक था, जबकि उद्योगों का महत्त्व कम या तरश्री क्षेत्र अर्थात् सेवाएं यातायात, संचार, बैंकिंग, व्यापार इत्यादि का राष्ट्रीय आय में हिस्सा बहुत कम था।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 5.
स्वतन्त्रता के समय प्राथमिक, द्वितीयक तथा तरश्री क्षेत्र के महत्त्व अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था का संरचनात्मक ढांचा किस तरह का था ?
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय प्राथमिक क्षेत्र द्वारा 1947 में राष्ट्रीय आय का 58.7% भाग उत्पादन किया गया। द्वितीयक क्षेत्रों द्वारा 14.3 प्रतिशत तथा तरश्री क्षेत्र द्वारा 27 प्रति भाग योगदान पाया गया।

प्रश्न 6.
प्राथमिक क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्राथमिक क्षेत्र में

  • कृषि
  • जंगलात तथा छतरियां बनाना।
  • मछली पालन
  • खाने तथा खनन को शामिल किया जाता है।

इन चार प्रकार की क्रियाओं को प्राथमिक क्षेत्र कहते हैं। स्वतन्त्रता समय 72.7% लोग इस क्षेत्र में लगे हुए थे।

प्रश्न 7.
द्वितीयक क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
द्वितीयक क्षेत्र में-

  • निर्माण उद्योग
  • बिजली तथा जल पूर्ति को शामिल किया जाता है।

इस क्षेत्र में स्वतन्त्रता के समय 10% लोग कार्य में लगे हुए थे।

प्रश्न 8.
तरश्री क्षेत्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तरश्री क्षेत्र सेवाओं का क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र में-

  • व्यापार
  • संचार
  • यातायात
  • स्टोर सुविधाएं
  • अन्य सेवाओं को शामिल किया जाता है।

स्वतन्त्रता के समय भारत में 2 प्रतिशत लोग तरश्री क्षेत्र में कार्य करते थे।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 9.
प्राथमिक क्षेत्र में उद्योगों को शामिल किया जाता है।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 10.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था ………….
(a) अल्पविकसित और गतिहीन
(b) सामन्तवादी और घिसी हुई
(c) खण्डित
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 11.
अर्थव्यवस्था की संरचना में ………………. क्षेत्र शामिल होता है।
(a) प्राथमिक क्षेत्र
(b) गौण क्षेत्र
(c) टरश्री क्षेत्र
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 12.
स्वतन्त्रता के समय भारत में मुख्य पेशा …………. था।
उत्तर-
कृषि।

प्रश्न 13. स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था विकसित अर्थव्यवस्था थी।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 14.
प्राथमिक क्षेत्र में ………. को शामिल किया जाता है।
(a) कृषि
(b) जंगलात तथा छत्तरियाँ बनाना
(c) मछली पालन
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 15.
द्वितीयक क्षेत्र में कृषि को शामिल किया जाता है।
उत्तर-
ग़लत।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 16.
टरश्री क्षेत्र सेवाओं से सम्बन्धित क्षेत्र होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 17.
अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जिसमें जीवन स्तर नीचा होता है, ग़रीबी है और प्रति व्यक्ति आय कम होती है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 18.
गतिहीन अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जिसमें आय में परिवर्तन की दर में बहुत कम परिवर्तन होता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 19.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था न तो पूर्ण सामन्तवादी थी और न ही पूर्ण पूंजीवादी थी बल्कि यह तो अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था थी।
उत्तर-
सही।

II. अति लप उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ बताएं।
उत्तर-
1. पिछड़ी हुई, गतिहीन, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था-डॉक्टर करम सिंह गिल के अनुसार, स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई, गतिहीन तथा अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। 1947-48 में प्रति व्यक्ति आय 250 रु० के लगभग थी। ब्रिटिश शासन काल के सौ वर्षों में प्रति व्यक्ति आय की औसत वार्षिक वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत के लगभग थी।

2. पिछड़ी हुई खेती-स्वतन्त्रता के समय भारत में 72% जनसंख्या कृषि पर कार्य करती थी। राष्ट्रीय आय का 57% भाग खेती द्वारा प्राप्त किया जाता था। कृषि की उत्पादकता बहुत कम थी। इसके कई कारण थे जैसे कि ज़मींदारी प्रथा, वर्षा पर निर्भरता, कृषि के पुराने ढंग तथा सिंचाई की कम सुविधाएं।

प्रश्न 2.
अल्पविकसित अर्थव्यवस्था से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था (Underdeveloped Economy) स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था थी। एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती थी। 1947-48 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 230 रुपये के लगभग थी। देश की अधिकतर जनसंख्या बहुत अधिक निर्धन थी। लोगों को पेट भर भोजन नहीं मिलता था। रहने के लिए मकानों और पहनने के लिए कपड़ों का अभाव था। देश में अधिकतर लोग बेरोज़गार थे।

प्रश्न 3.
अर्द्ध सामन्तवादी अर्थव्यवस्था से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था (Semi Feudal Economy)-कृषि में पूरी तरह अंग्रेज़ों ने ज़मींदारी प्रथा प्रारंभ करके भूमि के स्वामित्व के अधिकार ज़मींदार को दे दिए। वास्तविक काश्तकार का भूमि पर कोई कानूनी अधिकार नहीं रह गया। स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों में लगान हमेशा के लिए निश्चित था परन्तु भूमि का किराया बढ़ता जा रहा था। इसलिए काश्तकारों ने भूमि उपकाश्तकारों को लगान पर देनी आरंभ कर दी।

सरकार तथा वास्तविक काश्तकार के बीच बहुत-से बिचौलिए उत्पन्न हो गए। ये बिचौलिए बिना कोई परिश्रम किए किसान से उसके उत्पादन का काफ़ी भाग प्राप्त कर लिया करते थे। किसानों की अवस्था बहुत खराब थी। भारत के जिन भागों में रैयतवाड़ी तथा मेंहलवाड़ी प्रथा थी वहां भी बड़े-बड़े किसानों ने भूमि काश्त के लिए काश्तकारों को दे दी थी। इस प्रकार इन क्षेत्रों सभी बहुत-से बिचौलिए उत्पन्न हो गए थे। इस प्रकार सारे भारत में ही भूमिपति तथा काश्तकार के सामन्तवादी सम्बन्ध पापित हो गए।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 4.
स्थिर अर्थव्यवस्था का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
स्थिर अर्थव्यवस्था (Stagnent Economy)-अंग्रेज़ी शासन काल में भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग स्थिरता की अवस्था में थी। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय वृद्धि की दर 0.5% थी। जनसंख्या में वृद्धि दर काफ़ी ऊंची थी। समस्यापूर्ण अर्थव्यवस्था-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था अनेक समस्याओं से घिरी हुई थी-जैसे शरणार्थियों के पुनः विस्थापन की समस्या, निर्धनता की समस्या, ऊँची कीमतों की समस्या, बेरोज़गारी की समस्या, खाद्यान्न की समस्या इत्यादि।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को स्पष्ट करो।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को डॉक्टर करम सिंह गिल ने निम्नलिखित अनुसार, स्पष्ट किया है-

  1. अल्पविकसित अर्थव्यवस्था-अल्पविकसित अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है जिसमें जीवन स्तर नीचा है, ग़रीबी है, प्रति व्यक्ति आय कम है, आर्थिक विकास की दर नीची है।
  2. गतिहीन अर्थव्यवस्था गतिहीन अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था होती है, जिसमें प्रति व्यक्ति आय की दर में परिवर्तन बहुत कम होता है। भारत में बर्तानवी शासन दौरान प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि लगभग 0.5% वार्षिक दर पर हुई।
  3. अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था-अंग्रेजों ने भारत में जागीरदारी प्रथा द्वारा इसको अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था बना दिया।
  4. घिसी हुई अर्थव्यवस्था-एक अर्थव्यवस्था में साधनों का अधिक प्रयोग होने के कारण उनमें घिसावट तथा टूट-फूट हो जाती है। भारत में साधनों का प्रयोग दूसरे महायुद्ध समय किया गया।
  5. खण्डित अर्थव्यवस्था-स्वतन्त्रता समय भारत के दो भाग हो गए। भारत तथा दूसरा पाकिस्तान। इसको बिखरी हुई अर्थव्यवस्था कहा जाता है।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता समय भारतीय कृषि की क्या दशा थी?
उत्तर-
स्वतन्त्रता समय भारत की कृषि पिछड़ी हुई दशा में थी। 1947 में भारत की केवल 13 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर कृषि की जाती थी। इससे 527 लाख टन अनाज का उत्पादन किया जाता था। भारत में सिंचाई, बीज, खाद्य, आधुनिक तकनीकें, साख इत्यादि का कम प्रयोग किया जाता था। कृषि का व्यापारीकरण हो गया था अर्थात् कृषि जीवन निर्वाह की जगह पर बाज़ार में बिक्री के लिए की जाती थी। भूमि पर जनसंख्या का बहुत भार था। किसानों पर लगान का भार बहुत अधिक होने के कारण ऋण में फंसे हुए थे। देश की 70% जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी।

प्रश्न 3.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय उद्योगों की क्या दशा थी?
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय उद्योग पिछड़ी हुई दशा में थे। ब्रिटिश पूंजी की मदद से कुछ उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग स्थापित किए गए। इनमें कपड़ा, उद्योग, चीनी उद्योग, माचिस उद्योग, जूट उद्योग इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतन्त्रता के समय कपड़े का उत्पादन 428 करोड़ वर्गमीटर, चीनी का 10 लाख टन तथा सीमेंट का उत्पादन 26 लाख टन हुआ।

कुछ नियति प्रोत्साहन उद्योग स्थापित हो चुके थे, क्योंकि बागान तथा खानों के उद्योगों का विकास किया गया। इन उद्योगों से प्राप्त लाभ बर्तानियों को भेजा जाता था। स्वतन्त्रता समय भारत में 12.5% जनसंख्या उद्योगों में लगी हुई थी। जबकि अमरीका में 32% तथा इंग्लैंड में 42% लोग उद्योगों के कार्य करते थे। अंग्रेज़ी शासन से पहले भारत के कुटीर उद्योग कलात्मक उत्पादन के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध थे, परन्तु अंग्रेज़ी नीति के परिणामस्वरूप उनका पतन हो गया।

प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा व्यावसायिक ढांचे की व्याख्या करो।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारत में उत्पादन (Output) का विवरण इस प्रकार है-

  1. प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)-प्रथमिक क्षेत्र द्वारा 1947 में राष्ट्रीय आय में 58.7 प्रतिशत योगदान पाया गया। इस क्षेत्र में कृषि, जंगलात तथा लंठा बनाना, मछली पालन तथा खानों को शामिल किया जाता है। राष्ट्रीय आय में इस क्षेत्र का अधिक योगदान इस बात का प्रतीक है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई थी।
  2. द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)-स्वतन्त्रता समय द्वितीयक क्षेत्र द्वारा राष्ट्रीय उत्पादन में 14.3% योगदान था। इसमें उद्योग बिजली तथा जल पूर्ति को शामिल किया जाता है।
  3. तरी क्षेत्र (Territary Sector)-इस क्षेत्र में बैंक, बीमा कम्पनियों इत्यादि सेवाओं को शामिल किया जाता है, जिसके द्वारा राष्ट्रीय आय अथवा उत्पादन में 27% योगदान पाया गया। व्यावसायिक वितरण (Occupational Distribution) भारत में 72.7 प्रति जनसंख्या प्राथमिक क्षेत्र में और 10.1 प्रतिशत जनसंख्या सेवा क्षेत्रों में लगी हुई थी।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रश्न 5.
स्वतन्त्रता के समय बर्तानवी राज्य द्वारा बस्तीवादी लूट-खसूट के रूपों का वर्णन करो।
अथवा
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण बताओ।
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण देश में अंग्रेजों का लगभग 200 वर्ष का शासन तथा बस्तीवादी लूट-खसूट तथा शोषण था। भारतीय अर्थव्यवस्था की लूट-खसूट तथा शोषण निम्नलिखित अनुसार किया गया-

  1. विदेशी व्यापार द्वारा शोषण-ब्रिटिश सरकार ने विदेशी व्यापार की ऐसी नीति अपनाई, जिस द्वारा कच्चा माल भारत से प्राप्त किया जाता था तथा तैयार माल भारत में बेचा जाता था। इस कारण इंग्लैंड तथा उद्योग विकसित हुए।
  2. हस्तशिल्प तथा लघु उद्योगों का विनाश-अंग्रेज़ी शासन से पहले भारत में हस्तशिल्पकला तथा लघु उद्योग बहुत विकसित थे। अंग्रेजों ने इंग्लैण्ड में बने तैयार माल को कम मूल्य पर बेचकर भारत के हस्तशिल्प तथा लघु उद्योगों का विनाश किया।
  3. लगान का दुरुपयोग- भारत में ज़मींदारी प्रथा आरम्भ की गई। इससे ब्रिटिश शासन को लगान के रूप में बहुत सी राशि प्राप्त हो जाती थी। उसका प्रयोग भारत में किए जाने वाले माल पर खर्च किया गया।
  4. प्रबन्ध पर फिजूलखर्च-अंग्रेजी सरकार ने अंग्रेजों को भारत के प्रशासन तथा सेना पर बहुत खर्च किया। उपनिवेश के रूप में भारत को पहले विश्व युद्ध (1914-18) तथा दूसरे विश्वयुद्ध (1939-45) दोनों में भाग लेना पड़ा तथा भार भी भारत का सहन करना पड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण भारत की लूट-खसूट थी, जिसको दादा भाई नौरोजी ने निकास सिद्धान्त का नाम दिया है।

IV. दीर्य उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की क्या विशेषताएं थीं?
(What were the features of Indian Economy on the eve of Independence ?)
उत्तर-
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखितानुसार थीं
1. पिछड़ी हुई, गतिहीन, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था-डॉक्टर करम सिंह गिल के अनुसार, स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई, गतिहीन तथा अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। 1947-48 में प्रति व्यक्ति आय 250 रु० के लगभग थी। ब्रिटिश शासन काल के सौ वर्षों में प्रति व्यक्ति आय की औसत वार्षिक वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत के लगभग थी।

2. पिछड़ी हुई खेती-स्वतन्त्रता के समय भारत में 72% जनसंख्या कृषि पर कार्य करती थी। राष्ट्रीय आय का 57% भाग खेती द्वारा योगदान पाया जाता था। कृषि की उत्पादकता बहुत कम थी। इसके कई कारण थे जैसे कि ज़मींदारी प्रथा, वर्षा पर निर्भरता, कृषि के पुराने ढंग तथा सिंचाई की कम सुविधाएं।

3. औद्योगिक पिछड़ापन-स्वतन्त्रता के समय औद्योगिक दृष्टिकोण से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत पिछड़ी हुई थी। देश में बुनियादी तथा आधारभूत उद्योगों की कमी थी। देश में उपभोक्ता उद्योग जैसे कि सूती कपड़ा, चीनी, पटसन, सीमेंट इत्यादि मुख्य थे, परन्तु इन उद्योगों में उत्पादन कम किया जाता था।

4. घरेलू तथा छोटे पैमाने के उद्योगों का पतन-ब्रिटिश शासन से पहले भारत में घरेलू तथा छोटे पैमाने के उद्योग विकसित थे, जिन द्वारा कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता था। इन वस्तुओं की विश्वभर में मांग की जाती थी। अंग्रेजों को बड़े पैमाने पर तैयार सामान भारत में भेजकर भारत के घरेलू तथा छोटे पैमाने के उद्योगों को नष्ट कर दिया।

5. सामाजिक ऊपरी पूंजी का कम विकास-सामाजिक ऊपरी पूंजी का अर्थ रेलवे, यातायात के अन्य साधन, सड़कों, बैंकों इत्यादि के विकास से होता है, उस समय 97500 मील पक्की सड़कें 33.86 मीटर लम्बी रेलवे लाइन थी। बिजली का उत्पादन 20 लाख किलोवाट था तथा सिर्फ 3000 गांवों में बिजली की सुविधा थी। इस प्रकार सामाजिक ऊपरी पूंजी की कमी थी।

6. सीमित विदेशी व्यापार-1947-48 में 792 करोड़ रु० का विदेशी व्यापार किया गया। भारत में से कच्चा माल तथा कृषि पैदावार की वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। निर्यातों में सूती कपड़ा, कपास, अनाज, पटसन, चाय इत्यादि वस्तुएं शामिल थीं। भारत का विदेशी व्यापार अनुकूल था। इंग्लैंड तथा राष्ट्र मण्डल के अन्य देशों से भारत मुख्य तौर पर व्यापार करता था।

7. व्यावसायिक रचना-भारत में स्वतन्त्रता के समय 72.7 प्रतिशत जनसंख्या प्राथमिक क्षेत्र 10.1%, द्वितीयक क्षेत्र तथा 17.2% जनसंख्या सेवा क्षेत्रों में कार्य करती थी। इससे पता चलता है कि स्वतन्त्रता के समय कृषि लोगों का मुख्य पेशा था तथा उद्योग कम विकसित थे।

8. उत्पादन संरचना-स्वतन्त्रता के समय भारत में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान 58.7% था। इसमें कृषि, जंगल, मछली पालन तथा खनिज शामिल थे। द्वितीयक क्षेत्र का योगदान 14.3% तथा सेवा क्षेत्र का योगदान 27 प्रतिशत था। इस संरचना से पता चलता है कि प्राथमिक क्षेत्र का योगदान अधिकतम था जोकि भारत के पिछड़ेपन का सूचक है।

9. जनसंख्या की समस्या-स्वतन्त्रता के समय भारत की जनसंख्या लगभग 36 करोड़ थी। देश में 83% जनसंख्या अनपढ़ थी। जन्म दर 40 प्रति हज़ार तथा मृत्यु दर 27 थी। अधिक जन्मदर तथा मृत्युदर पिछडेपन का सचक थी।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

10. पूंजी निर्माण की कम दर-स्वतन्त्रता के समय भारत में बचत तथा निवेश दर 7% थी इस कारण भी भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक तौर पर पिछड़ी हुई थी।

प्रश्न 2.
स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को स्पष्ट करें। (Discuss the nature of Indian Economy on the eve of Independence.)
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के समय अर्थव्यवस्था की हालत का वर्णन करते हुए डॉक्टर करम सिंह गिल ने कहा है, “स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक अल्पविकसित, गतिहीन, अर्द्धसामन्ती अर्थव्यवस्था थी।”
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था 1
1. पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था (Underdeveloped Economy) स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था थी। एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती थी। 1947-48 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 230 रुपये के लगभग थी। देश की अधिकतर जनसंख्या बहुत अधिक निर्धन थी। लोगों को पेट भर भोजन नहीं मिलता था। रहने के लिए मकानों और पहनने के लिए कपड़ों का अभाव था। देश में अधिकतर लोग बेरोज़गार थे।

2. अर्द्ध-सामन्तवादी अर्थव्यवस्था (Semi Feudal Economy)-कृषि में पूरी तरह अंग्रेजों ने जमींदारी प्रथा प्रारंभ करके भूमि के स्वामित्व के अधिकार ज़मींदार को दे दिए। वास्तविक काश्तकार का भूमि पर कोई कानूनी अधिकार नहीं रह गया। स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों में लगान हमेशा के लिए निश्चित था परन्तु भूमि का किराया बढ़ता जा रहा था। इसलिए काश्तकारों ने भूमि उपकाश्तकारों को लगान पर देनी आरंभ कर दी। सरकार तथा वास्तविक काश्तकार के बीच बहुत-से बिचौलिए उत्पन्न हो गए।

ये बिचौलिए बिना कोई परिश्रम किए किसान से उसके उत्पादन का काफ़ी भाग प्राप्त कर लिया करते थे। किसानों की अवस्था बहुत खराब थी। भारत के जिन भागों में रैयतवाड़ी तथा महलवाड़ी प्रथा थी वहां भी बड़े-बड़े किसानों ने भूमि काश्त के लिए काश्तकारों को दे दी थी। इस प्रकार इन क्षेत्रों में भी बहुतसे बिचौलिए उत्पन्न हो गए थे। इस प्रकार सारे भारत में ही भूमिपति तथा काश्तकार के सामन्तवादी सम्बन्ध स्थापित हो गए।

3. विच्छेदित अर्थव्यवस्था (Disintegrated Economy)-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक विच्छेदित अर्थव्यवस्था थी। 1947 में जब ब्रिटिश शासन का अन्त हुआ तो इस देश की अर्थव्यवस्था का भारतीय अर्थव्यवस्था तथा पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में विभाजन कर दिया गया था। विभाजन ने देश की अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया था। अविभाजित भारत का 77 प्रतिशत क्षेत्रफल तथा 81 प्रतिशत जनसंख्या भारत के हिस्से में आई।

इसके विपरीत 23 प्रतिशत क्षेत्रफल तथा 19 प्रतिशत जनसंख्या पाकिस्तान के हिस्से में आई। देश का गेहूं, कपास तथा जूट पैदा करने वाला अधिकतर भाग पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। परन्तु अधिकतर कारखाने भारत के हिस्से में रह गये। विभाजन का एक प्रभाव तो यह हुआ कि कपड़े बनाने वाले कारखाने तो भारत में रह गये, परन्तु कपास पैदा करने वाले पश्चिमी पंजाब तथा सिंध के क्षेत्र पाकिस्तान के हिस्से में आये। जूट के कारखाने कलकत्ता (कोलकाता) में थे परन्तु पटसन पैदा करने वाले खेत पूर्वी बंगाल में थे जो पाकिस्तान का एक भाग बन गया था। इस प्रकार भारत को अपने कारखानों के लिए कच्चा माल आयात करने के लिए पाकिस्तान पर निर्भर रहना पड़ा।

4. विहसित अर्थव्यवस्था (Deprecrated Economy) स्वतन्त्रता के अवसर पर भारतीय अर्थव्यवस्था एक विह्रसित अर्थव्यवस्था थी। प्रत्येक अर्थव्यवस्था के साधनों का अधिक प्रयोग करने से उनमें घिसावट तथा टूट-फूट हो जाती है। परन्तु यदि किसी अर्थव्यवस्था के साधनों की घिसावट को दूर करने का कोई प्रबन्ध नहीं किया जाता तो अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण की मात्रा कम हो जाती है। इसके फलस्वरूप उत्पादन क्षमता भी कम हो जाती है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 17 स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था

ऐसी अर्थव्यवस्था को विह्रसित अर्थव्यवस्था कहा जाता है। दूसरे महायुद्ध के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था एक विह्रसित अर्थव्यवस्था बन गई थी। महायुद्ध के दौरान मशीनरी तथा अन्य औज़ारों का बहुत अधिक उपयोग किया गया। इसके फलस्वरूप इनमें घिसाई तथा टूट-फूट बहुत अधिक हुई। इन मशीनों को बदलने के लिए नयी मशीनें विदेशों से आयात की जानी थीं क्योंकि भारत में मशीनों का उत्पादन नहीं था। परन्तु युद्ध के कारण विदेशों से मशीनों का आयात करना सम्भव नहीं था, इसलिए भारत से काफ़ी उद्योगों की मशीनें बेकार हो गईं, इन उद्योगों की उत्पादन क्षमता कम हो गई।

5. स्थिर अर्थव्यवस्था (Stagnent Economy)-अंग्रेजी शासन काल में भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग स्थिरता की अवस्था में थी। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय वृद्धि की दर 0.5% थी। जनसंख्या में वृद्धि दर काफ़ी ऊंची थी। समस्यापूर्ण अर्थव्यवस्था-स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था अनेक समस्याओं से घिरी हुई थी-जैसे शरणार्थियों के पुनः विस्थापन की समस्या, निर्धनता की समस्या, ऊँची कीमतों की समस्या, बेरोज़गारी की समस्या, खाद्यान्न की समस्या इत्यादि।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

Punjab State Board PSEB 12th Class Economics Book Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर Textbook Exercise Questions, and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Economics Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

PSEB 12th Class Economics विदेशी विनिमय दर Textbook Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
विदेशी विनिमय भण्डार से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
विदेशी मुद्रा तथा सोने के भण्डार को विदेशी विनिमय कहते हैं।

प्रश्न 2.
विदेशी विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रो० क्राऊथर के शब्दों में, “विदेशी विनिमय दर उस दर का माप है कि एक मुद्रा की इकाई के बदले दूसरी मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिलती हैं।”

प्रश्न 3.
सन्तुलन विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
सन्तुलन विनिमय दर दो मुद्राओं में वह विनिमय दर है, जहां पर विदेशी मुद्रा की माँग और विदेशी मुद्रा की पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाती है।

प्रश्न 4.
विदेशी मुद्रा बाजार की परिभाषा दें।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार वह बाज़ार है, जिसमें विभिन्न देशों की मुद्राओं को बेचा-खरीदा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 5.
विदेशी मुद्रा बाज़ार की भूमिकाएँ बताएँ।
उत्तर-
यह बाज़ार क्रय शक्ति के अंतरण, साख सुविधा और जोखिम से बचाव आदि भूमिकाएं निभाता है।

प्रश्न 6.
विदेशी मुद्रा बाज़ार में सन्तुलन कैसे स्थापित होता है ?
उत्तर-
स्वतन्त्र रूप से उच्चावचन कर रहे मुद्रा बाज़ार में विदेशी मुद्राओं की माँग तथा पूर्ति से सन्तुलन स्थापित होता है।

प्रश्न 7.
स्थिर विनिमय दर से क्या भाव है ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर वह दर होती है, जो देश की सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है।

प्रश्न 8.
समता मान क्या है ?
उत्तर-
मुद्रा की इकाई में स्वर्ण मान की समानता के आधार पर निर्धारित होने वाली विदेशी विनिमय दर को समता मान कहा जाता है।

प्रश्न 9.
विनिमय दर की ब्रैनवुड प्रणाली से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
1945 में ब्रैनवुड के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.) की स्थापना के साथ हर एक देश की करंसी का मूल्य सोने के रूप में निर्धारण किया गया। इसे स्थिर विनिमय दर प्रणाली कहते हैं।

प्रश्न 10.
I.M.F. द्वारा स्थिर विनिमय दर कब तक प्रचलित रही ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर 1946 से 1971 तक प्रचलित रही।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 11.
विश्व में 1972 के बाद विनिमय दर कैसे निर्धारण होती है ?
उत्तर-
विनिमय दर 1972 के बाद करंसी की माँग तथा पूर्ति द्वारा विदेशी विनिमय बाज़ार में निर्धारण होती है।

प्रश्न 12.
विदेशी मुद्रा में चालू बाज़ार (Spot Market) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यदि विदेशी मुद्रा की प्रकृति दैनिक किस्म की हो तो इसको चालू बाज़ार कहते हैं।

प्रश्न 13.
बढ़ोत्तरी बाज़ार से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
यदि विदेशी मुद्रा का भुगतान भविष्य में करना होता है तो इसको बढ़ौत्तरी बाज़ार (Forward Market) कहा जाता है।

प्रश्न 14.
चलत सीमा बन्ध (Crawling Peg) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
चलत सीमा बन्ध एक ऐसी स्थिति है, जिसमें देश की करंसी के मूल्य में 1% तक परिवर्तन किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
प्रबन्धित तरल चलिता (Managed Floting) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रबन्धित तरल चलिता ऐसी स्थिति है, जिसमें करंसी का मूल्य नियमों तथा अधिनियमों के अनुसार ही निर्धारण किया जा सकता है और परिवर्तन सीमा नहीं होती।

प्रश्न 16.
NEER (Nominal Effective Exchange Rate) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी मुद्रा की औसत सापेक्ष शक्ति का मान प्रभावी विनिमय दर कहा जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 17.
REER (Real Effective Exchange Rate) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (REER) वास्तविक विनिमय दर होती है। यह प्रचलित कीमतों पर आधारित होती है।

प्रश्न 18.
RER (Real Exchange Rate) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वास्तविक विनिमय दर (RER) का अर्थ स्थिर कीमतों पर आधारित विनिमय दर से होता है। इसमें कीमत परिवर्तन के प्रभाव को दूर किया जाता है।

प्रश्न 19.
अवमूल्यन क्या है ?
उत्तर-
सरकार द्वारा अपने देश की मुद्रा का मूल्य विदेशी मुद्रा के मुकाबले कम करना ही अवमूल्यन होता है।

प्रश्न 20.
वह विनिमय दर जो देश की सरकार द्वारा निर्धारण की जाती है इसको ………….. कहते हैं।
(क) स्थिर विनिमय दर
(ख) परिवर्तनशील विनिमय दर
(ग) अनुमानित विनिमय दर
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) स्थिर विनिमय दर।

प्रश्न 21.
विनिमय दर का सन्तुलन ………………. द्वारा स्थापित होता है।
(क) सरकार
(ख) विश्व बैंक
(ग) केन्द्रीय बैंक
(घ) मांग तथा पूर्ति।
उत्तर-
(घ) मांग तथा पूर्ति।

प्रश्न 22.
विदेशी मुद्रा और सोने के भंडार को विदेशी मुद्रा कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

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प्रश्न 23. मुद्रा की एक इकाई में सोने की समानता के आधार पर निर्धारण होने वाली विदेशी विनिमय दर को समता मान कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 24.
जब विदेशी मुद्रा की प्रकृति दैनिक किस्म की हो तो इस को चालू बाज़ार कहा जाता है।
उत्तर-
सही।

प्रश्न 25.
सरकार द्वारा अपने देश की मुद्रा का मूल्य विदेशी मुद्रा की तुलना में बढ़ाने को अवमूल्यन कहते ङ्केहैं।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 26.
विनिमय दर से अभिप्राय अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में एक करंसी की बाकी करंसियों के रूप में
(क) कीमत से है
(ख) विनिमय के अनुपात से है
(ग) दोनों (क) और (ख)
(घ) वस्तु विनिमय से है।
उत्तर-
(क) कीमत से है।

II. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
विदेशी विनिमय दर से क्या भाव है ?
उत्तर-
प्रो० क्राऊघर के शब्दों में, “विनिमय दर इसका माप है कि एक मुद्रा की इकाई के बदले में दूसरी मुद्रा की कितनी और इकाइयां मिलती हैं। विनिमय दर उस दर को कहते हैं जिससे एक देश की करेन्सी की एक इकाई के बदले विदेशी मुद्रा की कितनी और इकाइयां मिल सकती हैं।”

प्रश्न 2.
विदेशी मुद्रा बाज़ार को परिभाषित करो।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार वह बाज़ार है जहां भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की मुद्रा का व्यापार होता है। हर एक देश अपनी मुद्रा को बेचकर दूसरे देश की मुद्रा की खरीद करता है ताकि विदेशों से वस्तुएं और सेवाएं आयात की जा सकें। जिस बाज़ार में अलग-अलग देशों की मुद्रा का विनिमय किया जाता है उस बाज़ार को विदेशी मुद्रा बाज़ार कहा जाता है।

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प्रश्न 3.
सन्तुलन विनिमय दर से क्या भाव है ?
उत्तर-
सन्तुलन विनिमय दर दो मुद्रा में वह विनिमय दर है जहां पर विदेशी मुद्रा की मांग और विदेशी मुद्रा की पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होती है। विनिमय दर वह दर होती है जिससे एक देश की मुद्रा का विनिमय दूसरे देश की मुद्रा के साथ किया जाता है।

प्रश्न 4.
बढ़ौत्तरी बाज़ार (Forward Market) से क्या भाव है ?
उत्तर-
बढ़ौत्तरी बाज़ार वह बाज़ार है जिसमें विदेशी मुद्रा की खरीद-बेच की वृद्धि तो आज की जाती है परन्तु खरीद बेच निश्चित पहले निर्धारित समय के बाद की जाती है। इस बाज़ार में भविष्य की विनिमय दर का उल्लेख आज fabell GIII (A forward market is that in which the foreign exchange is promised to be delivered in future.)

प्रश्न 5.
विदेशी मुद्रा के चालू बाज़ार और वृद्धि बाज़ार में अन्तर करो।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा का चालू बाज़ार वह बाज़ार होता है जहां दैनिक स्वभाव की खरीद बेच रोज़ाना की है। बढ़ौत्तरी बाज़ार में समझौता आज किया जाता है। परन्तु विदेशी मुद्रा की खरीद-बेच भविष्य में निश्चित समय के बाद होती है।

प्रश्न 6.
चलत सीमा बन्ध (Crawling Peg) और पबंदित तरलचलिता (Manged Float) में अन्तर बताएँ।
उत्तर-
चलत सीमा बन्ध एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें देश की करेन्सी का मूल्य 1% परिवर्तन किया जा सकता है। पबंधित तरलचलिता एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें करेन्सी का मूल्य नियमों तथा अर्धनियमों के अनुसार ही किया जा सकता है तथा परिवर्तन सीमा नहीं होती।

प्रश्न 7.
विदेशी मुद्रा की मांग क्यों की जाती है ?
उत्तर-
विदेशी मुद्रा की मांग निम्नलिखित कारणों से की जाती है-

  • बाकी विश्व से वस्तुएं तथा सेवाएं आयात करने के लिए।
  • बाकी विश्व को अनुदान देने के लिए।
  • बाकी विश्व में निवेश करने के लिए।
  • अन्तर्राष्ट्रीय ऋण का भुगतान करने के लिए।

प्रश्न 8.
विदेशी मुद्रा की पूर्ति के स्त्रोत बताएं।
उत्तर-

  1. घरेलू वस्तुओं की विदेशों में मांग हो तो वस्तुओं का निर्यात करके विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।
  2. विदेशी निवेशकों द्वारा देश में किया गया प्रत्यक्ष विदेशी निवेश।
  3. देश के नागरिकों द्वारा विदेशों में काम करके विदेशी मुद्रा का हस्तांतरण।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 9.
विदेशी विनिमय दर का सन्तुलन कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर-
विदेशी विनिमय दर का सन्तुलन दर को विदेशी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति निर्धारण करती है।

प्रश्न 10.
स्थिर विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर वह दर है जो कि देश की सरकार द्वारा निर्धारण की जाती है और विनिमय दर में परिवर्तन भी सरकार द्वारा ही किया जाता है। करेंसी का मूल्य, उसमें छुपी हुई सोने की मात्रा के अनुसार निश्चित किया जाता है।

प्रश्न 11.
लोचशील विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर वह दर है जो कि देश मुद्रा की मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारण होती है। जिस बाज़ार में करेंसी की विनिमय दर निर्धारण होती है उस को विनिमय दर बाज़ार कहा जाता है। जिस प्रकार एक वस्तु की कीमत खुले बाज़ार में मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारण होती है वैसे ही देश की करेंसी का मूल्य मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारण होता है।

प्रश्न 12.
स्थिर विनिमय दर तथा लोचशील विनिमय दर में अन्तर बताएं।
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर-स्थिर विनिमय दर वह दर है जो कि किसी देश की सरकार द्वारा निर्धारण की जाती है और इसमें परिवर्तन भी सरकार द्वारा ही किया जाता है। लोचशील विनिमय दर-लोचशील विनिमय दर वह दर है जो कि करेंसी की मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है और इसमें परिवर्तन मांग तथा पूर्ति में तबदीली कारण होता है।

III. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
विदेशी मुद्रा बाजार से क्या भाव है ? विदेशी मुद्रा बाज़ार के मुख्य कार्य बताओ।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार वह बाज़ार है जिसमें विदेशी मुद्रा का व्यापार किया जाता है। हर देश की मुद्रा की विनिमय दर उस मुद्रा की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। विदेशी मुद्रा के मुख्य कार्य-

  1. हस्तांतरण कार्य-विदेशी मुद्रा बाज़ार का मुख्य कार्य भिन्न-भिन्न देशों की करन्सी के व्यापार द्वारा खरीद शक्ति का हस्तांतरण करना होता है।
  2. साख कार्य-विदेशी व्यापार करने के लिए विदेशी मुद्रा के रूप में साख मुद्रा का प्रबन्ध करना ही विदेशी ङ्के मुद्रा का मुख्य कार्य होता है।
  3. जोखिम से बचाव का कार्य-विदेशी मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के जोखिम के बाद का काम ही विदेशी मुद्रा बाज़ार करता है, जहां माँग तथा पूर्ति द्वारा विदेशी मुद्रा का मूल्य निश्चित हो जाता है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 2.
विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति के चार स्त्रोत बताओ।
अथवा
विदेशी मुद्रा की मांग क्यों की जाती है ? इसकी पूर्ति कैसे होती है ?
उत्तर-
विदेशी मुद्रा की माँग (Demand for Foreign Exchange)

  • विदेशों के साथ आयात तथा निर्यात करने के लिए।
  • विदेशों को तोहफे तथा ग्रांट भेजने के लिए।
  • विदेशों में परिसम्पत्तियां (Assets) खरीदने के लिए।
  • विदेशी मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन के कारण लाभ कमाने के लिए।

विदेशी मुद्रा की पूर्ति (Supply of Foreign Exchange)

  1. विदेशी जब देश की वस्तुओं और सेवाओं की खरीद निर्यात के लिए करते हैं तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति होती
  2. विदेशों द्वारा देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने के साथ विदेशी मुद्रा की पूर्ति होती है।
  3. विदेशी मुद्रा के व्यापारी लाभ कमाने के लिए विदेशी मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि करते हैं।
  4. देश के नागरिक जो विदेशों में रहते हैं उस परिवार को विदेशी मुद्रा के रूप में पैसे बेचते हैं ताकि विदेशी मुद्रा की पूर्ति हो सके।

प्रश्न 3.
स्थिर विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ?
अथवा
स्थिर विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। विश्व में 1880 से 1914 ई० तक स्वर्ण मान प्रणाली अपनाई जाती थी। इस प्रणाली में विदेशी मुद्रा में विनिमय करने के लिए करन्सी का मूल्य सोने के रूप में मापते थे। हर एक देश की मुद्रा विनिमय मूल्य सोने के मूल्य की तुलना द्वारा किया जाता था।

इस प्रकार सोने को विभिन्न-विभिन्न देशों की करन्सी में एक सांझी इकाई माना जाता था। उदाहरण के तौर पर अगर भारत में 1 ग्राम सोने का मूल्य ₹ 50 है और अमेरिका में सोने का मूल्य 1 डॉलर है तो भारत के रुपये का विनिमय मूल्य 50 होगा। डॉलर के रूप में इस विनिमय प्रणाली को स्वर्ण मान प्रणाली कहा जाता था| दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रटनवुड प्रणाली अपनाई गई है जिसमें हर एक मुद्रा का मूल्य अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा सोने के रूप में व्यक्त किया जाता था। हर एक मुद्रा के सोने के मूल्य की तुलना के साथ विनिमय दर निश्चित की जाती है।

प्रश्न 4.
विदेशी मुद्रा बाजार में सन्तुलन को स्पष्ट करो।
अथवा
विनिमय दर के सन्तुलन को स्पष्ट करो।
उत्तर-
विदेशी मुद्रा बाज़ार में विनिमय दर उस बिन्दु पर होती है जहां विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति बराबर होती है। रेखाचित्र 1 अनुसार अमेरिका के डॉलर की माँग DD और SS है। सन्तुलन E बिन्दु पर होता है। इसलिए विनिमय दर निर्धारित हो जाती है। अगर विनिमय दर OR1, हो जाए तो रुपये के रूप में डॉलर ज्यादा मात्रा में पैसे देने पड़ेंगे तो डॉलर की माँग R1D1 हो जाएगी। OR पूर्ति R1S1 हो जाएगी। इसलिए विनिमय दर OR1 से कम होकर OR निश्चित हो जाएगी।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर 1
अगर किसी समय विनिमय दर OR1 निश्चित होती है तो पूर्ति R2S2 कम है और माँग R2D2 ज्यादा है। इसलिए विनिमय रेखाचित्र 1 दर बढ़कर OR हो जाएगी। विनिमय दर का सन्तुलन माँग और पूर्ति द्वारा विदेशी मुद्रा बाज़ार में निर्धारित होता है।

प्रश्न 5.
स्थिर विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर देश की सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है और यह वह स्थिर दर रहती है। स्थिर विनिमय दर माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित नहीं होती बल्कि विनिमय दर 1920 से पहले स्वर्णमान प्रणाली द्वारा निर्धारित की जाती थी। इस प्रणाली में हर एक देश की मुद्रा का मूल्य सोने के रूप में परिभाषित किया जाता था। हर देश की मुद्रा के स्वर्ण मुद्रा मूल्य की तुलना करके विनिमय दर निर्धारित की जाती थी। उदाहरण के लिए रुपये का मूल्य = 2 ग्राम सोना और डॉलर का मूल्य 100 ग्राम सोना तो 1 डॉलर = 100/2 = ₹ 50 निर्धारित होता था। ब्रैटनवुड कुछ सुधार करके समान योजक सीमा प्रणाली अपनाई गई।

प्रश्न 6.
लोचशील विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ?
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर किसी देश की माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में हर एक देश की मुद्रा की माँग और पूर्ति उस देश की करंसी के विनिमय मूल्य को निर्धारित करती है।

जैसा कि रेखाचित्र में विदेशी करन्सी की माँग और पर्ति द्वारा सन्तुलन E बिन्दु पर स्थापित होता है। जहां OR विनिमय दर निर्धारित हो जाती है। अगर विदेशी करन्सी की माँग बढ़ जाती है तो विनिमय दर में वृद्धि हो जाएगी अर्थात् विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए ज्यादा देशी मुद्रा देनी पड़ेगी। अगर विदेशी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है तो विनिमय दर कम हो जाएगी। इससे यह नतीजा प्राप्त होता है कि विदेशी मुद्रा की जितनी माँग बढ़ जाएगी विनिमय मूल्य उतना अधिक हो जाएगा और विदेशी मुद्रा की पूर्ति जितनी ज्यादा होगी विनिमय मूल्य उतना कम हो जाएगा।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर 2

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

प्रश्न 7.
स्थिर विनिमय दर के लाभ और हानियां बताओ।
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर वह दर होती है जोकि देश की सरकार द्वारा निश्चित होती है और इसके मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं-
मुख्य लाभ (Merits)

  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय विदेशी मुद्रा बाज़ार में स्थिरता स्थापित होती है।
  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है।
  • इसके साथ बड़े पैमाने के उतार-चढ़ाव उत्पन्न नहीं होते।

हानियां (Demerits)-

  • इसके साथ व्यापक रूप में अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां रखनी पड़ती हैं क्योंकि मुद्रा सोने में परिवर्तनशील होती है।
  • इसके साथ पूँजी का विदेशों में आना-जाना कम हो जाता है क्योंकि स्वर्ण भण्डार ज़्यादा रुपये पड़ते हैं।
  • यह जोखिम पूँजी को उत्साहित करती है।

प्रश्न 8.
लोचशील विनिमय दर के लाभ और हानियां बताओ।
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर बाज़ार में माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है।
मुख्य लाभ (Merits)-

  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां रखने की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
  • इसके साथ पूँजी का निवेश करना आसान होता है।
  • यह जोखिम पूँजी को उत्साहित करती है।

हानियां (Demerits)

  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में अस्थिरता पैदा हो जाती है।
  • इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
  • इसके साथ बड़े पैमाने पर उतार-चढ़ाव पैदा होता है।

IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
स्थिर विनिमय दर से क्या भाव है ? स्थिर विनिमय दर कैसे निर्धारित की जाती है ? इसके गुण और . अवगुण बताओ।
(What is Fixed Exchange Rate ? How is fixed exchange rate determined ? Give its merits and demerits ?)
उत्तर-
स्थिर विनिमय दर का अर्थ (Meaning of Fixed Exchange Rate)-स्थिर विनिमय दर विनिमय की वह दर है जोकि सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है। इस प्रणाली में विनिमय दर सरकार निश्चित करती है और यह दर स्थिर होती है। (Fixed Exchange rate is that exchange rate which is fixed by the government and it is fixed) स्थिर विनिमय दर में सरकार अपनी इच्छा अनुसार थोड़ा परिवर्तन कर सकती है।

स्थिर विनिमय दर का निर्धारण (Determination of Fixed Exchange Rate)-इसके निर्धारण के लिए दो प्रणालियां अपनाई गई हैं-
1. स्वर्ण मान प्रणाली (Gold Standard System)-स्थिर विनिमय दर प्रणाली का सम्बन्ध 1880-1914 तक स्वर्ण मान प्रणाली के साथ था। इस प्रणाली में हर एक देश को अपनी करन्सी का मूल्य सोने के रूप में बताना पड़ता था। एक करन्सी का मूल्य दूसरी करन्सी में निर्धारित करने के लिए हर एक करन्सी के सोने के रूप में मूल्य की तुलना दूसरी करन्सी के सोने के रूप में मूल्य के साथ की जाती थी। इस प्रकार स्थिर विनिमय दर निर्धारित होती थी जिसको विनिमय का टक्साली समता मूल्य (What for value of exchange) कहा जाता था। उदाहरण के लिए भारत के एक रुपये के साथ 100 ग्राम सोना तथा अमेरिका के एक डॉलर के साथ 20 ग्राम सोने का विनिमय किया जा सकता है तो भारत के रुपये का विनिमय मूल्य \(\frac{100}{20}\) = 5 अमेरिकन डॉलर निर्धारित किया जाता था या विनिमय दर 1 : 5 थी।

2. समानयोजक सीमा प्रणाली (Adjustable Peg System)-बैटनवुड प्रणाली (Bretton Wood System) दूसरे महायुद्ध के बाद ब्रैटनवुड के स्थान पर विश्व के देशों ने समानयोजक सीमा प्रणाली को अपनाया था। यह प्रणाली स्थिर विनिमय दर को सोने के रूप में ही परिभाषित करके निश्चित की जाती थी। परन्तु इसमें कुछ समानयोजक या परिवर्तनशील की सम्भावना रखी गई। हर एक करन्सी का मूल्य अमेरिका के डॉलर के रूप में ही परिभाषित किया गया। कोई करन्सी के मूल्य में समानयोजक या तबदीली अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्वीकृति के साथ ही की जा सकती थी।

स्थिर विनिमय दर के लाभ (Merits of Fixed Exchange System)-
1. आर्थिक स्थिरता (Economic Stability)-इस प्रणाली का मुख्य लाभ यह था कि सभी देशों में आर्थिक उतार-चढ़ाव की सम्भावना नहीं होती थी। व्यापारिक चक्रों पर नियन्त्रण करने के लिए यह प्रणाली लाभदायक सिद्ध हुई है। इसके साथ आर्थिक नीतियों का निर्माण अच्छे ढंग के साथ किया जाने लगा।

2. विश्व आधार का विस्तार (Expansion of World Trade)-स्थिर दर के साथ विश्व व्यापार का विस्तार हो गया क्योंकि इस के साथ विनिमय पर अनिश्चित परिवर्तन नहीं होता है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को उत्साह प्राप्त हो गया।

3. समष्टि नीतियों का तालमेल (Co-ordination of Macro Policies)-स्थिर विनिमय दर समष्टि नीतियों में तालमेल उत्पन्न करने में सहायक हुई है। इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के समझौते ज़्यादा समय तक किये जा सकते हैं। इस प्रकार विश्व अर्थव्यवस्था में विनिमय दर नीतियों में सहायता करती है।

हानियां (Demerits)-स्थिर विनिमय दर के दोष निम्नलिखित हैं-
1. विशाल अन्तर्राष्ट्रीय निधियां (International Reserved)-स्थिर विनिमय प्रणाली का प्रतिपादन करने के लिए अधिक मात्रा में अन्तर्राष्ट्रीय निधियों की ज़रूरत पड़ती थी। हर एक देश को बहुत सारा धन सोने के रूप में सम्भालना पड़ता था क्योंकि देश की करन्सी सीधे या उल्टे रूप में सोने में बदली जा सकती थी।

2. पूँजी की कम गति (Less movement of Capital)—स्थिर विनिमय दर प्रणाली में विनिमय दर को स्थिर रखने के लिए सरकार को सोने के रूप में भण्डार स्थापित करने पड़ते थे। इसलिए पूँजी में गतिशीलता बहुत कम थी। पूँजी का निवेश विदेशों में कम मात्रा में किया जाता था।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

3. साधनों की अनुकूल बांट (Inefficient Resource Allocation)-स्थिर विनिमय दर में साधनों की बांट कुशल ढंग के साथ नहीं की जा सकती थी। उत्पादन के साधनों के उत्तम प्रयोग के लिए हर एक देश में पूँजी की ज़रूरत होती है। पूँजी निर्माण की कम प्राप्ति के कारण साधनों की अनुकूल बाँट सम्भव थी। स्थिर विनिमय दर के साथ जोखिम पूँजी को ही उत्साह प्राप्त नहीं होता। जिन कार्यों में पूँजी लगानी जोखिम का कार्य होता है उनके कार्य में कोई देश पूँजी लगाने को तैयार नहीं होता था क्योंकि विनिमय दर स्थिर रहती थी।

प्रश्न 2.
लोचशील विनिमय दर से क्या भाव है ? लोचशील विनिमय दर कैसे निर्धारित होती है ? इस प्रणाली के गुण और अवगुण बताओ।
(What is Flexible Exchange Rate? How is Flexible Exchange Rate determined? Explain the merits and demerits of this system.)
उत्तर-
लोचशील विनिमय दर का अर्थ (Meaning of Flexible Exchange Rate)-लोचशील विनिमय दर वह दर होती है जो कि किसी करन्सी की माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। इस दर का निर्धारित करने के लिए कोई सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता। इस हालत में करन्सी को बाजार में खुला छोड़ दिया जाता है जो कि विदेशी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति द्वारा बाज़ार शक्तियां निर्धारित होती हैं। विनिमय दर में लगातार परिवर्तन होता रहता है जहाँ विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति बराबर हो जाती है। इसको विनिमय दर की समता दर (Per Rate of Exchange) कहते हैं। इस को सन्तुलन दर भी कहा जाता है।

लोचशील विनिमय दर का निर्धारण (Determination of Flexible Exchange Rate)-प्रो० के० के० कुरीहारा के अनुसार, “मुफ्त विनिमय दर उस जगह पर निश्चित होगी जहां विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति बराबर हो जाएगी।” लोचशील विनिमय दर दो तत्त्वों द्वारा निर्धारित होती है-
(A) विदेशी मुद्रा की माँग (Demand for Foreign Exchange)-विदेशी मुद्रा का जब भुगतान किया जाता है तो इस महत्त्व के लिए विदेशी मुद्रा की मांग उत्पन्न होती है। एक देश में विदेशी मुद्रा की माँग निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न होती है-

  • विदेशों में वस्तुएं तथा सेवाएं आयात करने के लिए।
  • अन्तर्राष्ट्रीय कर्जे का भुगतान करने के लिए।
  • विश्व के दूसरे देशों में निवेश करने के लिए।
  • बाकी विश्व को तोहफे तथा ग्रांट देने के लिए।
  • विदेशी मुद्रा के सट्टा उद्देश्य के साथ लाभ कमाने के लिए।

अगर हम भारत के रुपये तथा अमेरिका के डॉलर के सम्बन्ध में डॉलर की माँग और विनिमय मूल्य का प्रतिपादन करना चाहते हैं तो विदेशी मुद्रा की माँग और विनिमय मूल्य का उल्ट सम्बन्ध होता है अर्थात् अमेरिका के डॉलर की कीमत जो रुपये के रूप में की जाती है इसका उल्ट सम्बन्ध होता है। इसके लिए जब विनिमय मूल्य कम होता जाता है तो डॉलर की माँग में वृद्धि होती है। इस प्रकार माँग वक्र ऋणात्मक ढलान की तरफ़ होता है।

विदेशी मुद्रा की पूर्ति (Supply of foreign exchange)–विदेशी मुद्रा की प्राप्ति द्वारा इसकी पूर्ति निश्चित होती है। विदेशी मुद्रा की पूर्ति निम्नलिखित तत्त्वों पर निर्भर करती है-

  • वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात के साथ अर्थात् जब विदेशी भारत में वस्तुओं तथा सेवाओं की खरीद करते
  • प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के साथ।
  • विदेशी मुद्रा के दलाल या सट्टा खेलने वालों के द्वारा भारत में भेजी गई विदेशी मुद्रा के साथ। ‘
  • विदेशों में काम कर रहे भारतीयों द्वारा देश में भेजी गई बचतों के साथ।
  • विदेशी राजदूत द्वारा भारत में सैर-सपाटे के साथ।

विनिमय दर और विदेशी मुद्रा की पूर्ति का सीधा सम्बन्ध होता है। जब विनिमय दर बढ़ती है तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती है। जब विनिमय दर कम हो जाती है तो विदेशी मुद्रा की पूर्ति कम हो जाती है। इस प्रकार पूर्ति वक्र धनात्मक ढलान वाली हो जाती है।

विनिमय की सन्तुलन दर (Equilibrium Exchange Rate)-विनिमय की सन्तुलन दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहां विदेशी मुद्रा की मांग तथा पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होते हैं। इसको रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता रेखाचित्र 3 में विनिमय दर निर्धारण को स्पष्ट किया गया है। विदेशी मुद्रा (डॉलर) की माँग तथा पूर्ति को OX रेखा पर और रुपये की तुलना में डॉलर के विनिमय मूल्य को OY रेखा पर दिखाया गया है।

विदेशी मुद्रा की मांग DD और पूर्ति SS एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। इसके साथ OR विनिमय दर निश्चित हो जाती है। अगर कोई समय विनिमय दर OR1 हो जाती है तो विदेशी मुद्रा की माँग R1d1 कम हो जाएगी और पूर्ति R2S2 बढ़ जाएगी। इसके साथ विनिमय दर कम होकर OR रह जाएगी। इसके विपरीत अगर विनिमय दर कम होकर OR2 रह जाती है तो विदेशी मुद्रा की माँग R2d2 ज़्यादा है और पूर्ति R2S2 कम है। इसलिए विनिमय दर OR2 से बढ़कर OR हो जाएगी। इस प्रकार विनिमय दर विदेशी मुद्रा की माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है।
PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर 3

लोचशील विनिमय दर के गुण (Merits of Flexible Rate of Exchange)लोचशील विनिमय दर के गुण इस प्रकार हैं –

  1. अन्तर्राष्ट्रीय निधियों की ज़रूरत न होना-इस प्रणाली में देश के केन्द्रीय बैंक को अन्तर्राष्ट्रीय भंडारे की कोई ज़रूरत नहीं होती।
  2. पूँजी में वृद्धि (More Capital Movement)-लोचशील विनिमय दर प्रणाली में देश विदेशों में पूँजी निवेश करते हैं क्योंकि देश के केन्द्रीय बैंक को अन्तर्राष्ट्रीय नीतियां रखने की ज़रूरत नहीं होती। इसलिए पूँजी गतिशीलता का लाभ सारे देशों को होता है।
  3. व्यापार में वृद्धि (Increase in Trade)-विनिमय प्रणाली में व्यापार पर पाबन्दियां लगाने की ज़रूरत नहीं होती है। हर एक देश स्वतन्त्रता के साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कर सकता है।
  4. साधनों की उत्तम बांट-लोचशील विनिमय दर में देश के साधनों की उत्तम बाँट सम्भव होती है। इसके साथ साधनों की कागज़ सुविधा में वृद्धि होती है और देश के विकास के अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

लोचशील विनिमय दर के दोष (Demerits of Flexible Exchange Rate)-लोचशील विनिमय दर के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –

  1. विनिमय दर में अस्थिरता (Instability of Exchange Rate)-विनिमय दर में परिवर्तन लोचशील विनिमय दर प्रणाली में निरन्तर होता रहता है। इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में विदेशी मुद्रा की कीमत में अस्थिरता पैदा हो जाती है।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता (Instability in International Trade)-लोचशील विनिमय दर में अस्थिरता होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भी अस्थिरता पाई जाती है। हर एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के राह में रुकावटें खड़ी कर देता है।
  3. समष्टि नीतियों में समस्या (Problems in Macro Policies)-समष्टि आर्थिक नीतियों के निर्माण में बहुत सारी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। विनिमय दर दिन-प्रतिदिन परिवर्तित होती है। इसलिए समय की नीतियों का न्याय करना मुश्किल हो जाता है। अमेरिका के डॉलर, इंग्लैण्ड के पौंड और यूरोप के यूरो को मज़बूत और सख्य करन्सियां कहा जाता है। क्योंकि करन्सी की माँग विश्व भर में है और लोगों का विश्वास अधिक है।

PSEB 12th Class Economics Solutions Chapter 16 विदेशी विनिमय दर

दूसरी तरफ भारत, पाकिस्तान के रुपये और विकासशील देशों की करन्सियों को कमज़ोर तथा नर्म (Weak and Soft) करन्सी कहा जाता है क्योंकि इनकी मांग कम है और इनका मूल्य लगातार कम होने का कारण इनकी विनिमय दर कम है।