PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 9 कृषि संयंत्र एवम् उनकी देखभाल

Punjab State Board PSEB 8th Class Agriculture Book Solutions Chapter 9 कृषि संयंत्र एवम् उनकी देखभाल Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Agriculture Chapter 9 कृषि संयंत्र एवम् उनकी देखभाल

PSEB 8th Class Agriculture Guide कृषि संयंत्र एवम् उनकी देखभाल Textbook Questions and Answers

(अ) एक-दो शब्दों में उत्तर दें—

प्रश्न 1.
भूमि के पश्चात् किसान की सबसे अधिक पूँजी किस वस्तु में लगी होती
उत्तर-
कृषि सम्बन्धित मशीनरी में।

प्रश्न 2.
हमारी कृषि मशीनरी (संयंत्रों) का प्रधान किसे माना जाता है ?
उत्तर-
ट्रैक्टर को।

प्रश्न 3.
ट्रैक्टर के साथ चलने वाली तीन मशीनों के नाम बताएँ।
उत्तर-
कल्टीवेटर, तवियां, सीड ड्रिल।

प्रश्न 4.
वे कौन-सी मशीनें हैं जिनमें शक्ति स्रोत मशीन का ही भाग हो ?
उत्तर-
ट्रैक्टर, ईंजन, मोटर आदि।

प्रश्न 5.
ट्रैक्टर की ओवरहालिंग कब की जानी चाहिए ?
उत्तर-
4000 घण्टे काम लेने के बाद।

प्रश्न 6.
ट्रैक्टर को स्टोर करते समय हमेशा कौन-से गेयर में खड़ा करना चाहिए ?
उत्तर-
न्यूट्रल गियर में।

प्रश्न 7.
ट्रैक्टर के बैटरी टर्मिनल को साफ़ करके किस चीज़ का लेप करना चाहिए ?
उत्तर-
पैट्रोलियम जैली का।

प्रश्न 8.
बोआई वाली मशीनों में बीज़/खाद निकाल कर एवम् अच्छी तरह सफाई करके किस वस्तु का लेप करना चाहिए ?
उत्तर-
पुराने तेल का लेप कर देना चाहिए।

प्रश्न 9.
मिट्टी में चलने वाली मशीनों के पुों को जंग लगने से बचाने के लिए क्या करेंगे ?
उत्तर-
ग्रीस या पुराने तेल का लेप करना चाहिए।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 9

प्रश्न 10.
स्प्रे पम्प को प्रयोग करने के पश्चात् पम्प को खाली करके क्यों चलाना चाहिए ?
उत्तर-
इस तरह पाइपों में रह गया पानी निकल जाता है।

(आ) एक-दो वाक्यों में उत्तर दें—

प्रश्न 1.
कृषि संयंत्र मुख्यतः कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर-
कृषि संयंत्र मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-चलाने वाले; जैसे- ट्रैक्टर, कृषि यन्त्र; जैसे-तवियां, स्व:चालित मशीनें; जैसे-कम्बाइन हार्वेस्टर आदि।

प्रश्न 2.
ट्रैक्टर की संभाल के लिए कितने घण्टे बाद सर्विस करनी चाहिए ?
उत्तर-
ट्रैक्टर की संभाल के लिए 10 घण्टे, 50 घण्टे, 125 घण्टे, 250 घण्टे, 500 घण्टे तथा 1000 घण्टे बाद सर्विस करनी चाहिए तथा 4000 घण्टे काम कर लेने के बाद ओवरहालिंग करवाना चाहिए।

प्रश्न 3.
यदि ट्रैक्टर को दीर्घ काल के लिए स्टोर करना है तो टायरों की संभाल के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
ट्रैक्टर को लकड़ी के गुटकों के ऊपर उठा देना चाहिए तथा टायरों में हवा कम कर देनी चाहिए।

प्रश्न 4.
ट्रैक्टर को दीर्घ काल के लिए स्टोर करने के लिए बैटरी की संभाल के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
यदि ट्रैक्टर को लम्बे समय तक खड़ा करना हो तो बैटरी की तार को अलग कर देना चाहिए तथा समय-समय पर बैटरी को चार्ज करते रहना चाहिए।

प्रश्न 5.
ट्रैक्टर की धूम्र नली एवम् करेंक केस ब्रीदर की संभाल के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
यदि धूम्र नली एवम् करेंक केस ब्रीदर के मुँह पर ढक्कन न हो तो किसी कपड़े से बंद कर देना चाहिए। इस तरह नमी अन्दर नहीं जा सकती।

प्रश्न 6.
काम के दिनों में मशीन के ध्रुवों की संभाल के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
काम के दिनों में हर 4-6 घण्टे मशीन चलाने के बाद घुरियों के सिरों पर वुशों में तेल या ग्रीस देनी चाहिए। यदि बाल वैरिंग फिट हो तो तीन-चार दिनों बाद ग्रीस देनी चाहिए।

प्रश्न 7.
बोआई वाली मशीनों के बीज एवम् खाद के डिब्बे प्रतिदिन साफ़ क्यों करने चाहिए ?
उत्तर-
खादें रासायनिक पदार्थ होती हैं जो डिब्बे के साथ क्रिया करके उसको खा जाती हैं। इसलिए बीज़ तथा खाद के डिब्बे को रोज़ साफ़ करना चाहिए।

प्रश्न 8.
कम्बाइन में दानों वाले टैंक, कन्वेयर, पुआलवाकर (स्टावाकर) एवम् छानने आदि को अच्छी तरह साफ़ क्यों करना चाहिए ?
उत्तर-
कम्बाइन में बीज़ वाले टैंक, कन्वेयर स्टावाकर तथा छननी आदि को अच्छी तरह साफ़ इसलिए किया जाता है ताकि चूहे यहां अपना घर न बना लें। चूहे कम्बाइन में बिजली की तारों आदि को तथा पाइपों को हानि पहुंचा सकते हैं।

प्रश्न 9.
कम्बाइन को जंग लगने से बचाने के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
कम्बाइन को नमी के कारण जंग लगता है इसलिए यह आवश्यक है कि इसको किसी शैड के अन्दर खड़ा किया जाए तथा इसको प्लास्टिक की शीट से ढक देना चाहिए। यदि किसी स्थान से रंग उतर गया हो तो वहां रंग कर देना चाहिए।

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प्रश्न 10.
स्टोर करते समय मशीन का मिट्टी से सम्पर्क न रहे, इसके लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
मिट्टी में चलने वाली मशीनों को स्टोर करने से पहले इनको धोकर साफ़ कर लेना चाहिए तथा जंग न लगे इसलिए ग्रीस या पुराने तेल का लेप ज़रूर कर देना चाहिए।

(इ) पाँच-छः वाक्यों में उत्तर दें—

प्रश्न 1.
कृषि संयंत्र एवम् देखभाल की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर-
कृषि से अधिक उपज लेने के लिए तथा अधिक आय प्राप्त करने के लिए कृषि मशीनरी का बहुत योगदान है। भूमि के बाद सबसे अधिक पूंजी कृषि से सम्बन्धित मशीनरी पर लगी होती है। यदि इतनी महंगी मशीनरी की अच्छी तरह देखभाल न की जाए तो समय पर पूरा लाभ नहीं मिल सकेगा। अच्छी तथा उपयुक्त देखभाल तथा संभाल की जाए तो मशीनरी की आयु में वृद्धि की जा सकती है। मशीनरी के खराब होने से इसकी मुरम्मत पर अधिक खर्चा होगा। अगले सीजन में मशीन तैयार-वर-तैयार मिले इसलिए पहले सीजन के अंत में मशीन की अच्छी तरह सफ़ाई करके संभाल करनी चाहिए।

प्रश्न 2.
ट्रैक्टर की देखभाल के लिए किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए ?
उत्तर-
ट्रैक्टर की संभाल के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए—

  1. ट्रैक्टर को अच्छी तरह धोकर, साफ़ करके शैड के अन्दर खड़ा करना चाहिए।
  2. यदि कोई छोटी-मोटी मुरम्मत होने वाली हो या किसी पाईप आदि से तेल लीक करता हो तो इसको ठीक कर लेना चाहिए। इंजन में बताई गई निशानी तक मुबाईल आयल का लेवल होना चाहिए।
  3. सारे ग्रीस वाले प्वाईंट अच्छी तरह डीजल से साफ करने चाहिए। पुरानी ग्रीस निकाल देनी चाहिए तथा नई ग्रीस से भर देनी चाहिए।
  4. बैटरी को गर्म पानी से अच्छी तरह साफ करके इसके टर्मीनलों को साफ करके पेट्रोलियम जैली का लेप लगा देना चाहिए। इस तरह लम्बे समय तक ट्रैक्टर का प्रयोग न करना हो तो बैटरी की तार अलग कर देनी चाहिए, परन्तु समय-समय पर बैटरी को चार्ज करते रहना चाहिए।
  5. टायरों तथा बैटरी की संभाल के लिए ट्रैक्टर को महीने में एक-दो बार स्टार्ट करके थोड़ा चला लेना चाहिए।
  6. लम्बे समय तक ट्रैक्टर को खड़ा रखना हो तो ट्रैक्टर को लकड़ी के गुटखों पर उठा देना चाहिए तथा टायरों की हवा कम कर देनी चाहिए।
  7. ट्रैक्टर को न्यूट्रल गियर में ही खड़ा रखना चाहिए, स्विच को बंद करके तथा पार्किंग ब्रेक लगा कर खड़ा करना चाहिए।
  8. धुएँ वाली पाइप तथा करैंक केस ब्रीदर के मुँह में ढक्कन न लगा हो तो कपड़े से बंद कर देना चाहिए। इस तरह नमी अन्दर नहीं जाती।
  9. ऐअर क्लीनर को कुछ समय बाद साफ करते रहना चाहिए।

प्रश्न 3.
मशीन की मुरम्मत मौसम समाप्त होने के पश्चात् ही क्यों कर लेनी चाहिए ?
उत्तर-
मशीन की मुरम्मत मौसम समाप्त होने के पश्चात्, स्टोर करने से पहले ही कर लेनी चाहिए। इस तरह मशीन अगले सीजन के शुरू में तैयार-वर-तैयार मिलती है तथा समय नष्ट नहीं होता तथा परेशानी भी नहीं होती। मौसम के खत्म होने पर हमें कौन-से पुर्जे या हिस्से में खराबी होने की संभावना है, पता होता है। यदि मुरम्मत न की जाए तो अगले मौसम के शुरू होने पर हमें यह कई बार याद भी नहीं रहता कि कौन-से पुर्जे या हिस्से मुरम्मत करने वाले हैं। इसलिए मौसम के समाप्त होते ही मुरम्मत करके मशीन को स्टोर करना चाहिए।

प्रश्न 4.
बैटरी की देख-भाल के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर-
बैटरी की संभाल के लिए ट्रैक्टर को महीने में एक-दो बार स्टार्ट करके चला लेना चाहिए। बैटरी को गर्म पानी से साफ करके बैटरी के टर्मिनलों पर पेट्रौलियम जैली का लेप कर लेना चाहिए। लम्बे समय तक बैटरी का प्रयोग न करना हो तो बैटरी की तार को अलग कर देना चाहिए पर बैटरी को कभी-कभी चार्ज करते रहना चाहिए।

प्रश्न 5.
कम्बाइन हारवैस्टर की देखभाल के लिए किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर-
कम्बाइन की देखभाल भी ट्रैक्टर की तरह ही की जाती है, परन्तु इसमें कुछ अन्य बातों का ध्यान भी रखना पड़ता है, जो निम्नलिखित है—

  1. कम्बाइन में बीज़ वाले टैंक, कन्वेयर, स्ट्रावाकरों तथा छननी आदि को अच्छी तरह साफ इसलिए किया जाता है ताकि चूहे यहां अपना घर न बना लें, चूहे कम्बाइन में बिजली की तारों आदि को तथा पाइपों को हानि पहुंचा सकते हैं।
  2. कम्बाइन को नमी के कारण जंग लगता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि इसको किसी शैड के अन्दर खड़ा किया जाए तथा इसको किसी प्लास्टिक शीट से ढक देना चाहिए। यदि किसी जगह से रंग उतर गया हो तो कर देना चाहिए।
  3. मशीन की रिपेयर सीजन खत्म होने के बाद स्टोर करने से पहले ही कर लेनी चाहिए। इस तरह मशीन अगले सीजन के शुरू में तैयार-वर-तैयार मिलती है तथा समय नष्ट नहीं होता तथा परेशानी भी नहीं होती। सीजन के समाप्त होने पर हमें उसके कौनसे पुर्जे या हिस्से में खराबी की संभावना है, पता होता है। यदि मुरम्मत नहीं की जाएगी तो अगले सीजन के शुरू होने पर हमें यह कई बार याद भी नहीं रहता कि कौन-से पुर्जे या हिस्से मुरम्मत करने वाले हैं। इसलिए सीजन के समाप्त होते ही मुरम्मत करके ही मशीन स्टोर करनी चाहिए।
    यदि उस समय संभव न हो तो पुों की लिस्ट बना लेनी चाहिए तथा जब समय मिले मुरम्मत करवा लेनी चाहिए।
  4. सारी बैल्टों को उतार कर निशान चिन्ह लगा कर संभाल लें ताकि दुबारा प्रयोग आसान हो जाए।
  5. चैन को भी डीज़ल से साफ करके ग्रीस लगा देनी चाहिए।
  6. रगड़ लगने वाले भाग को तेल देना चाहिए तथा ग्रीस वाले भागों को साफ करके नई ग्रीस भर देनी चाहिए।

Agriculture Guide for Class 8 PSEB कृषि संयंत्र एवम् उनकी देखभाल Important Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
पट्टे कुतरने वाली मशीन को क्या कहते हैं ?
उत्तर-
टोका।

प्रश्न 2.
डिस्क हैरो को देसी भाषा में क्या कहते हैं ?
उत्तर-
तवियां।

प्रश्न 3.
भूमि को समतल तथा भुरभुरा किससे करते हैं ?
उत्तर-
सुहागे से।

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प्रश्न 4.
खेतों में मेढ़ बनाने के लिए कौन-से यन्त्र का प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
ज़िदरे का।

प्रश्न 5.
गोड़ाई के लिए प्रयोग होने वाले यन्त्रों के नाम लिखें।
उत्तर-
खुरपा तथा त्रिफाली।

प्रश्न 6.
फसलों पर कीड़े मार दवाई का छिड़काव करने वाले यन्त्रों के नाम बताओ।
उत्तर-
ढोलकी पम्प या ट्रैक्टर स्प्रे।

प्रश्न 7.
बीज़ बोने के लिए प्रयोग की जाने वाली मशीन का नाम बताओ।
उत्तर-
बीज़ ड्रिल मशीन।

प्रश्न 8.
कृषि कार्यों के लिए प्रयोग होने वाली दो मशीनों के नाम बताओ।
उत्तर-
पठे कुतरने वाली मशीन, डीज़ल इंजन, ट्रैक्टर।

प्रश्न 9.
ट्रैक्टर के टायरों में हवा का दबाव कितना होता है ?
उत्तर-
अगले टायरों में 24-26 पौंड तथा पिछले टायरों में 12-18 पौंड हवा होती है

प्रश्न 10.
बीज बीजने वाली मशीन को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
इसको सीड ड्रिल कहते हैं।

प्रश्न 11.
स्प्रे पम्प को प्रयोग करने के बाद किसके साथ धोएंगे ?
उत्तर-
स्प्रे पम्प को साफ़ पानी से धोना चाहिए।

प्रश्न 12.
सीड ड्रिल को कितने दिनों के बाद ग्रीस देनी चाहिए ?
उत्तर-
इसमें यदि बाल फिट हो तो तीन या चार दिन के बाद ग्रीस देनी चाहिये।

प्रश्न 13.
बिजली की मोटर क्या ढीला होने पर कांपती है ?
उत्तर-
फाऊंडेशन बोल्टों के ढीले होने के कारण मशीन कांपती है।

प्रश्न 14.
ट्रैक्टर को कितने घण्टों के प्रयोग के पश्चात् ग्रीस देंगे ?
उत्तर-
60 घण्टे काम लेने के पश्चात् ग्रीस गन से सभी जगह पर ग्रीस देनी चाहिए।

प्रश्न 15.
ट्रैक्टर के गियर बॉक्स का तेल कितने घण्टे काम लेने के बाद बदलना चाहिए ?
उत्तर-
1000 घण्टे काम लेने के पश्चात् ट्रैक्टर के गियर बॉक्स का तेल बदल दें।

प्रश्न 16.
ट्रैक्टर को ओवरहालिंग कब करवाया जाना चाहिए ?
उत्तर-
4000 घण्टे काम लेने के पश्चात् ट्रैक्टर की ओवरहालिंग की जानी चाहिए।

प्रश्न 17.
तवियों के फ्रेम को कितने समय के बाद दोबारा रंग करेंगे ?
उत्तर-
तवियों के फ्रेम को 2-3 वर्ष बाद रंग करो।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
डीज़ल इंजन का कृषि में क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
डीज़ल इंजन ट्रैक्टर से छोटी मशीन है, इससे ट्यूबवैल चलाने, पढें कुतरने वाला टोका, दाने आदि निकालने के लिए मशीनें चलाई जाती हैं। इसको चलाने के लिए तेल तथा मुरम्मत का खर्चा ट्रैक्टर से काफी कम आता है। जहां कम शक्ति की आवश्यकता हो वहां ट्रैक्टर की जगह डीज़ल इंजन को पहल देनी चाहिए।

प्रश्न 2.
टिल्लर किस काम आता है ?
उत्तर-
इसका प्रयोग भूमि की जुताई के लिए होता है। इसको ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर भूमि की जुताई का काम किया जाता है।

प्रश्न 3.
डिस्क हैरों किस काम आता है ?
उत्तर-
इसको खेत की प्राथमिक जुताई के लिए प्रयोग किया जाता है। इसको तवियां भी कहते हैं।

प्रश्न 4.
कृषि मशीनों का आधुनिक युग में क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  1. फसल की बुवाई जल्दी तथा सस्ती हो जाती है।
  2. पौधों तथा पौधों की पंक्तियों का फासला बिल्कुल ठीक तरह रखा जाता है।
  3. पंक्तियों में बुवाई करके फसल की गुड़ाई सरलता से हो जाती है।
  4. बीज तथा खाद निश्चित गहराई तथा योग्य फासले पर केरे जाते हैं।
  5. ड्रिल से बीजी हुई फसल से 10% से 15% तक अधिक उपज प्राप्त हो जाता है।

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प्रश्न 5.
सीड ड्रिल मशीन को धूप में क्यों नहीं खड़ा करना चाहिए।
उत्तर-
सीड ड्रिल मशीन को धूप में खड़े रखने से रबड़ की पाइपें तथा गरारियां खराब हो जाती हैं। पाइपों की पिचक निकालने के लिये पाइप को एक मिनट तक उबलते पानी में डालें तथा किसी सरिये या छड़ी को बीच में घुमाकर पिचक निकालें।

प्रश्न 6.
बिजली की मोटर पर पड़ रहे अधिक भार का कैसे पता लगता है ? यदि भार अधिक पड़ रहा हो तो क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
मोटर पर पड़ रहे अधिक भार का पता करंट मीटर से लगता है जो कि स्टारटरों से लगे होते हैं। करंट अधिक जाता है तो यह ओवर लोडिंग होने का चिन्ह है। इसलिए मशीन पर भार घटाएं।

प्रश्न 7.
बीजाई के बाद सीड ड्रिल की सफ़ाई कैसे करोगे ?
उत्तर-
बीजाई के बाद रबड़ पाइपें साफ़ कर दें। मशीन के सभी खोलने वाले भाग खोलकर, सोडे के पानी के साथ अच्छी तरह सुखाकर सभी भागों को ग्रीस लगाकर किसी स्टोर में रख दें।

प्रश्न 8.
मोटर के स्टारटर तथा स्विच को अर्थ क्यों करना चाहिए ?
उत्तर-
मोटर के स्टारटर तथा स्विच को कई जगहों पर अर्थ किया जाता है ताकि यदि कोई खराबी पड़ने पर अधिक करंट आ जाए तो यह ज़मीन में चला जाये तथा फ्यूज़ वगैरा उड़ जाने पर हमें झटका न लग सके।

प्रश्न 9.
ट्रैक्टर के पहियों की स्लिप घटाने के लिये क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
इसके लिए पीछे के पहियों में हवा का दबाव कम करें।

प्रश्न 10.
ट्रैक्टर का खिंचाव बढ़ाने के लिये क्या किया जा सकता है ?
उत्तर-
खिंचाव बढ़ाने के लिये पहिये की ट्यूबों में पानी भरा जा सकता है।

प्रश्न 11.
बैटरी टर्मिनलों तथा तारों को कितने ट्रैक्टर चलाने के पश्चात् साफ़ करना चाहिये ?
उत्तर-
120 घण्टे के काम के बाद।

प्रश्न 12.
बैटरी की प्लेटों से पानी कितना ऊंचा होना चाहिये ?
उत्तर-
बैटरी की प्लेटों से पानी 9 इंच ऊपर होना चाहिए।

प्रश्न 13.
ट्रैक्टर की ब्रेकों के पटे, पिस्टन तथा रिंग की घिसावट को कितने घण्टे काम के बाद चैक करना चाहिए ?
उत्तर-
1000 घण्टे काम करने के बाद।

प्रश्न 14.
मोटर गर्म होने के क्या कारण हो सकते हैं ?
उत्तर-
फेज़ पूरे नहीं हैं तथा जिन छेदों में से हवा जाती है वह गन्दगी या धूल से बन्द हो गये हों तो मोटर गर्म हो जाती है।

प्रश्न 15.
यदि बार-बार स्टार्टर ट्रिप करता हो तो क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
यदि स्टार्टर बार-बार ट्रिप करता हो तो जबरदस्ती न करें तथा इलैक्ट्रीशन से मोटर चैक करवाएं।

प्रश्न 16.
यदि तीन फेज़ वाली मोटर का चक्र बदलना हो तो क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
यदि मोटर का चक्र बदलना हो तो किसी भी दो फेज़ों को आपस में बदल दें चक्कर बदल जाएगा।

प्रश्न 17.
यदि तवियां न घूमें तो मशीन की सफ़ाई कैसे करेंगे ?
उत्तर-
कई बार बहुत देर तक मशीन पड़ी रहे तो ग्रीस जम जाती है तथा तवियां नहीं घूमतीं। इसलिए इनको खोलकर सोडे वाले पानी के साथ ओवरहाल करना चाहिए।

प्रश्न 18.
यदि पम्प लीक कर जाये तो क्या करना चाहिए ?
उत्तर-
पम्प लीक कर जाये तो इसमें लगी सभी पेकिंगों तथा वाशलों को चैक करें तथा गली तथा घिसी पेकिंगों तथा वाशलों को बदल दें।

प्रश्न 19.
ट्रैक्टर के पहियों तथा रबड़ के अन्य पुों को मोबिल आयल तथा ग्रीस से कैसे बचाना चाहिए ?
उत्तर-
मोबिल आयल तथा ग्रीस पहियों तथा रबड़ के पुों को बहुत हानि पहुंचा सकते हैं। इसके बचाव के लिये डीज़ल के साथ कपड़े का टुकड़ा भिगो कर ग्रीस तथा मोबिल आयल को साफ़ करना चाहिए। कीटनाशक दवाई के छिड़काव के बाद ट्रैक्टर के पहियों को साफ पानी के साथ धो देना चाहिए।

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प्रश्न 20.
बीज ड्रिल के डिब्बे को रोज़ क्यों साफ़ करना चाहिए।
उत्तर-
बीज तथा खाद के डिब्बे रोज़ इसलिए साफ़ करने चाहिएं क्योंकि खाद बहुत जल्दी डिब्बे को खा जाती है। खाद की प्रति एकड़ बदलने वाली पत्ती को जंग लग जाता है। प्रत्येक दो एकड़ बीज देने के पश्चात् डिब्बे के नीचे तथा एल्यूमीनियम की गरारियों पर जमी हुई खाद अच्छी तरह साफ़ कर देनी चाहिए। अन्यथा मशीन जल्दी खराब हो जायेगी तथा काम नहीं करेगी।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
कृषि के कार्यों में प्रयोग की जाती मशीनरी तथा यन्त्रों की सम्भाल का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
आज के युग में कृषि के साथ सम्बन्धित सभी कार्य बीजाई, कटाई, गुड़ाई, गुहाई आदि मशीनों द्वारा किये जाते हैं। मशीनरी पर बहुत पैसे खर्च आते हैं तथा कई बार मशीनों के लिये कर्ज भी लेना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि जिस मशीनरी पर इतने पैसे खर्च किये हों, उसकी सम्भाल का पूरा ध्यान रखा जाये ताकि मशीन लम्बे समय तक बिना रुके काम करती रहे। इसलिए ट्रैक्टर, सीड ड्रिल, स्प्रे पम्प, तवियों आदि मशीनों तथा यन्त्रों की पूरी-पूरी देखभाल करनी चाहिए।

प्रश्न 2.
ट्रैक्टर से 60 घण्टे काम लेने के बाद सम्भाल सम्बन्धी की जाने वाली कार्यवाही का वितरण दें।।
उत्तर-
60 घण्टे काम लेने के बाद निम्नलिखित कार्य करने चाहिएं—

  1. चैक करो कि फैन बैल्ट ढीली तो नहीं। आवश्यकता अनुसार बैल्टों को कसें या बदल दें। इसका महत्त्व इंजन को ठण्डा करने तथा बिजली पैदा करने में हैं।
  2. ऐयर क्लीनर के आयल बाथ में तेल की सतह देखें।
  3. ग्रीस गन की सहायता से सभी जगह पर ग्रीस करो। अधिक समय तक कार्य के लिये निप्पलों को रोज ग्रीस करें।
  4. आयल फिल्टर को अच्छी तरह साफ़ करें।
  5. रेडियेटर की ट्यूबों को साफ़ करें।
  6. पहियों में हवा का दबाव चैक करें।

प्रश्न 3.
तवियों की सम्भाल कैसे की जाती है ?
उत्तर-
तवियों की सम्भाल के लिये निम्नलिखित कार्य करें—

  1. तवियों को हर दो तीन सप्ताह पश्चात् ट्रैक्टर में से निकाला हुआ ट्रेंड मोबिल आयल किसी कपड़े के टुकड़े से लगाते रहना चाहिए। इस प्रकार तवियों को जंग लगने से बचाया जा सकता है।
  2. तवियों के फ्रेम को दो तीन वर्ष बाद रंग कर देना चाहिए।
  3. हर 4 घण्टे के पश्चात् मशीन को ग्रीस दे देनी चाहिए।
  4. बुशों आदि पर तेल देते रहना चाहिए।
  5. यदि मशीन बहुत देर तक न प्रयोग की जाये, तो इसके अन्दर ग्रीस जम सकती है तथा इस प्रकार तवियां घूमेंगी नहीं। इसलिए इनको खोल कर सोडे वाले पानी के साथ ओवरहाल करें तथा इसके सभी पुों को खोलकर साफ़ करके फिट करें।

प्रश्न 4.
ट्रैक्टर से 120 घण्टे काम लेने के बाद क्या करोगे ?
उत्तर-
120 घण्टे वाली देखभाल शुरू करने से पहले इससे कम घण्टे काम लेने के बाद वाली कार्यवाही कर लेनी चाहिये तथा 120 घण्टे के बाद निम्नलिखित कार्य करें

  1. गेयर बॉक्स के तेल की सतह को चैक करें तथा ठीक करें।
  2. कनैक्शन ठीक रखने के लिये बैटरी टर्मिनल तथा तारें साफ़ करें।
  3. बैटरी के पानी की सतह चैक करें। प्लेटों पर पानी का लैवल 9 इंच ऊपर होना चाहिए। यदि पानी कम हो तो और पानी डाल दें।

प्रश्न 5.
ट्रैक्टर से 1000 घण्टे तथा 4000 घण्टे काम लेने के बाद की गई कार्यवाही के बारे में लिखें।
उत्तर-
1000 घण्टे वाली देखभाल शुरू करने से पहले कम समय वाली देखभाल करने के बाद निम्नलिखित कार्य करें

  1. गियर बॉक्स का तेल बदल देना चाहिए।
  2. ब्रेकों के पटे, पिस्टन तथा रिंग की घिसावट को चैक करके आवश्यकता अनुसार मरम्मत करनी चाहिये या बदल देने चाहिये।
  3. किसी अच्छे ट्रैक्टर मकैनिक से ट्रैक्टर को चैक करवाएं।
  4. ट्रैक्टर से 4000 घण्टे काम लेने के बाद पूरे ट्रैक्टर को किसी अच्छी वर्कशाप में से ओवरहाल करवाना चाहिए।

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प्रश्न 6.
बिजली की मोटर के लिये ध्यान रखने योग्य बातें कौन-सी हैं ?
उत्तर-

  1. मोटर की बॉडी पर हाथ रखें तथा देखें कि यह गर्म तो नहीं होती, देखें कोई बदबू आदि तो नहीं आती।
  2. मोटर पर ज्यादा भार नहीं पड़ा होना चाहिए। इसका पता करंट मीटर से लग जाता है, जोकि कई स्टारटरों के साथ लगा होता है। यदि आवश्यकता से अधिक करंट जाता हो तो यह ओवरलोडिंग की निशानी है। इसलिए भार घटाएं।
  3. यदि तीनों फेज़ पूरे नहीं आ रहे तो मोटर को तुरन्त बन्द कर देना चाहिए।
  4. फ्यूज़ उड़ जाने के कारण मोटर सिंगल फेज़ पर न चलती हो तथा बिजली पूरी आनी चाहिये।
  5. जिन छेदों में से हवा जाती है, वह गन्दगी या धूल से बन्द हो गये हों या बन्द हों तो मोटर गर्म हो जायेगी।
  6. यदि बाहर से आपको कोई नुक्स नज़र नहीं आता तो नुक्स मोटर के अन्दर है। बिजली के कारीगर को मोटर दिखाएं। वह सभी कुवाइलों की जांच करेगा।

प्रश्न 7.
ट्रैक्टर के पहियों की देखभाल कैसे की जाती है ?
उत्तर-

  1. पहियों की लम्बी आयु के लिये इनमें हवा का दबाव ट्रैक्टर के साथ मिली हुई पुस्तक में बताए के अनुसार रखें। आगे के पहियों में 24-26 पौंड तथा पीछे के पहियों में 12–18 पौंड हवा होनी चाहिए।
    पहियों को मोबिल आयल तथा ग्रीस बिल्कुल न लगने दें। यदि लग जाये तो डीज़ल से कपड़ा भिगो कर उनको साफ़ कर दें।
  2. पत्थरों तथा पौंधों की जड़ों पर ट्रैक्टर चलाने से पहिये जल्दी घिस जाते हैं।
  3. पहिये क्रैक हो जायें तो समय पर मुरम्मत करवा लें।
  4. ध्यान रखें कि पहिये एक सार घिसावट या भार सहन करें।

प्रश्न 8.
बिजली की मोटर की देखभाल के बारे में मुख्य बातें क्या हैं ?
उत्तर-

  1. मोटर के स्टारटर तथा स्विच को कई जगहों से अर्थ तार के साथ जोड़ना चाहिए, ताकि यदि कोई खराबी पड़े तो बिजली ज़मीन में चली जाये तथा फयूज वगैरा उड़ जाएं तथा झटके से बचा जाये।
  2. यदि स्टारटर बार-बार ट्रिप करता हो तो कोई जबरदस्ती न करें तथा नुक्स ढूंढ़े या इलैक्ट्रीशियन से मोटर चैक करवाएं।
  3. मोटर पर भार उसके हार्स पावर अनुसार ही डालें।
  4. यदि बेरिंग आवाज़ करते हों या ज्यादा ढीले हों, तो उनको तुरन्त बदल दें।
  5. कभी-कभी मोटर, स्विच तथा स्टारटर के सभी कनैक्शन की जांच करते रहें।
  6. वर्ष में दो बार मोटर को ग्रीस देनी चाहिये।
  7. ध्यान रखें कि मोटर की बैल्ट बहुत कसी न हो क्योंकि कसी हुई बैल्ट मोटर के बेरिंग को काट देती है।
  8. यदि मोटर बहुत कांपती हो तो बेरिंग घिसे हुए हो सकते हैं या फाउंडेशन बोल्ट ढीले हो सकते हैं। खराबी ढूंढे तथा ठीक करें।
  9. कभी-कभी मोटर को हाथ से घुमाकर चैक करें कि रोटर अन्दर से कहीं लगता तो नहीं या कोई बेरिंग जाम तो नहीं।
  10. मोटर से गन्दगी तथा धूल वगैरा साइकिल वाले पम्प या अन्य हवा के प्रैशर से दूर करें।
  11. कभी-कभी मोटर की इन्सुलेशन रजिस्टेंस चैक करवाते रहना चाहिये। यदि तीन फेज़ों वाली मोटर का चक्कर बदलना हो तो किसी भी दो फेज़ों को आपस में बदल दें, चक्कर बदल जाएगा।

प्रश्न 9.
सीड ड्रिल मशीन की सम्भाल कैसे की जा सकती है ?
उत्तर-
सीड ड्रिल मशीन की सम्भाल के लिये कुछ बातें निम्नलिखित हैं—

  1. प्रत्येक चार घण्टे मशीन चलने के पश्चात् किनारों तथा बुशों में तेल या ग्रीस देनी चाहिये। यदि बाल फिट हों तो तीन या चार दिन पश्चात् ग्रीस दी जा सकती है।
  2. बीजाई समाप्त होने के पश्चात् रबड़ पाइपों को साफ़ करके रखें।
  3. मशीन को कभी-कभी रंग करवा लेना चाहिये, इस प्रकार मौसम का प्रभाव इस पर कम हो जायेगा। इसको आंगन या शैड में रखना चाहिए।
  4. मशीन को धूप तथा बरसात में न रखें, क्योंकि इस प्रकार रबड़ की पाइपें तथा गरारियां खराब हो जाती हैं। यदि पाइपें पिचक जायें तो उनको उबलते पानी में एक मिनट के लिये डालें तथा कोई सरीया या छड़ी पानी में घुमा कर पिचक निकाल दें।
  5. बीजाई समाप्त होने के पश्चात् इसके खोलने वाले पुों को खोलकर, सोडे के पानी से धो दें, अच्छी तरह सुखा कर तथा ग्रीस वगैरा लगाकर, किसी स्टोर में रख देना चाहिए।

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प्रश्न 10.
स्प्रे पम्पों की सम्भाल के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
स्प्रे पम्प की सम्भाल के लिये कुछ बातें निम्नलिखित हैं—

  1. स्प्रे पम्प को प्रयोग से पहले तथा बाद में साफ़ पानी से अच्छी तरह धो लेना चाहिए।
  2. कभी-भी बिना पौनी से टैंकी में घोल न डालें।
  3. स्प्रे पम्प का प्रयोग करने के बाद कभी भी स्प्रे पम्प में रात भर दवाई नहीं पड़ी रहनी चाहिये।
  4. हमेशा प्रयोग से पहले स्प्रे पम्प के फिल्टरों को अच्छी तरह साफ़ कर लेना चाहिये। हो सकता है कि पम्प के पड़े रहने के कारण इसमें मिट्टी की धूल जम चुकी हो इसलिये इस कारण बाद में यह पूरा दबाव नहीं डाल सकेगा।
  5. स्प्रे पम्प बनाने वालों के निर्देशों अनुसार पम्प के चलने वाले सभी पुों को तेल या ग्रीस देनी चाहिये। हो सकता है कि इसके पड़े रहने के कारण इसमें मिट्टी की धूल जम चुकी हो, जिस कारण बाद में पूरा दबाव नहीं डाल सके।
  6. यदि पम्प लीक करता हो तो उसमें लगी सभी पेकिंग तथा वाशलों की जांच करने के पश्चात् घिसी या गली हुई पेकिंग तथा वाशलों को बदल दें।
  7. जब पम्प को लम्बे समय के लिये रखना हो इसके प्रत्येक पों को खोलकर उसकी ओवरहालिंग कर देनी चाहिए तथा खराब पुों को बदल देना चाहिए। मशीन को रंग कर रख दें।

प्रश्न 11.
ट्रैक्टर की सम्भाल के लिये कितने-कितने समय के बाद सर्विस करवानी चाहिये ? इस पर दस घण्टे काम लेने के पश्चात् सर्विस करवाते समय कौन-सी बातों का ध्यान रखेंगे ?
उत्तर-
ट्रैक्टर की सम्भाल के लिये 10 घण्टे काम लेने के बाद, 60 घण्टे बाद, 120 घण्टे बाद 1000 घण्टे बाद तथा 4000 घण्टे बाद सर्विस करनी चाहिये।

  1. प्रे ट्रैक्टर को अच्छी तरह किसी कपड़े से साफ़ करें।
  2. एयर क्लीनर के कप तथा ऐलिमेंट को साफ़ करें।
  3. ट्रैक्टर की टैंकी हमेशा भरी होनी चाहिये ताकि सारे सिस्टम में कमी न आ जाये।
  4. रेडियेटर को ओवरफलों पाइप तक शुद्ध पानी के साथ भरकर रखें।
  5. फ्रेक केस का तेल चैक करें, यदि कम हो तो और डालें।
  6. यदि कोई लीकेज हो, उसको भी ठीक करें।
  7. यदि कोई और नुक्स पड़ जाए, तो उसको ठीक करें।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

ठीक/गलत

  1. कृषि मशीनें प्राथमिक रूप से तीन प्रकार की होती हैं।
  2. ट्रैक्टर को स्टोर करते समय हमेशा न्यूट्रल गियर में खड़ा करना चाहिए।
  3. ट्रैक्टर को कृषि मशीनरी का प्रधान कहा जाता है।

उत्तर-

बहुविकल्पीय

प्रश्न 1.
ट्रैक्टर की सहायता से चलने वाली मशीनें हैं—
(क) कल्टीवेटर
(ख) तवियां
(ग) सीड ड्रिल
(घ) सभी ठीक
उत्तर-
(घ) सभी ठीक

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प्रश्न 2.
ट्रैक्टर की ओवरहालिंग कब की जाती है ?
(क) 2000 घण्टे काम करने के बाद
(ख) 4000 घण्टे काम करने के बाद
(ग) 8000 घण्टे काम करने के बाद
(घ) कभी नहीं।
उत्तर-
(ख) 4000 घण्टे काम करने के बाद

प्रश्न 3.
तवियों के फ्रेम को कितने समय के बाद दोबारा रंग किया जाता है ?
(क) 2-3 वर्ष बाद
(ख) 6 वर्ष बाद
(ग) 1 वर्ष बाद
(घ) 10 वर्ष बाद।
उत्तर-
(क) 2-3 वर्ष बाद

रिक्त स्थान भरें

  1. डिस्क हैरों का प्राथमिक …………….. के लिए प्रयोग होता है।
  2. कम्बाइन को ……….. के कारण जंग लगता है।
  3. ……………. को कृषि मशीनरी का प्रधान माना जाता है।

उत्तर-

  1. जुताई,
  2. नमी,
  3. ट्रैक्टर

कृषि संयंत्र एवम् उनकी देखभाल PSEB 8th Class Agriculture Notes

  • भूमि के बाद किसान की सबसे अधिक पूंजी कृषि से सम्बन्धित मशीनरी (संयंत्रों) में लगी रहती है।
  • मशीन की अच्छी तरह देखभाल की जाए तो मशीन की आयु में वृद्धि की जा सकती है।
  • कृषि मशीनें मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं।
  • चलाने वाली मशीनें संयंत्र हैं-ट्रैक्टर, ईंजन, मोटर आदि।
  • कृषि उपकरण; जैसे-कल्टीवेटर, तवियां, बीज खाद ड्रिल, हैपी सीडर आदि।
  • स्व:चालित मशीनें हैं-कम्बाइन, हार्वेस्टर, धान का ट्रांसप्लांटर आदि।
  • ट्रैक्टर को कृषि मशीनरी का प्रधान कहा जाता है।
  • ट्रैक्टर की सर्विस 10 घण्टे, 50 घण्टे, 125 घण्टे, 250 घण्टे, 500 घण्टे तथा 1000 घण्टे बाद करनी आवश्यक है।
  • ट्रैक्टर को 4000 घण्टे काम लेने के बाद किसी अच्छी वर्कशाप में ओवरहाल करवा लेना चाहिए।
  • जब ट्रैक्टर की लम्बे समय तक आवश्यकता न हो तो ट्रैक्टर को संभाल कर रख देना चाहिए।
  • कम्बाइन हार्वेस्टर की संभाल भी ट्रैक्टर के जैसे ही की जाती है।
  • कल्टीवेटर, तवियां तथा सीज ड्रिल आदि ट्रैक्टर की सहायता से चलने वाली मशीनें

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

Punjab State Board PSEB 8th Class Agriculture Book Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Agriculture Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

PSEB 8th Class Agriculture Guide फ़सली विभिन्नता Textbook Questions and Answers

(अ) एक-दो शब्दों में उत्तर दें—

प्रश्न 1.
अर्द्ध पहाड़ी क्षेत्रों में कौन-सा फ़सली चक्र अपनाया जाता है ?
उत्तर-
धान-गेहूँ।

प्रश्न 2.
दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में प्रमुख फ़सली चक्र कौन-सा है ?
उत्तर-
नरमा-कपास-गेहूँ।

प्रश्न 3.
दो-तीन फ़सली चक्रों की एक उदाहरण दें।
उत्तर-
मक्की-आलू-मूंगी, मूंगफली-आलू-बाजरा।

प्रश्न 4.
धान बोने से केन्द्रीय पंजाब में पानी का स्तर कितना गहरा हो रहा है ?
उत्तर-
लगभग 74 सैं० मी० प्रति वर्ष

प्रश्न 5.
वायु में विद्यमान नाइट्रोजन को पौधे की जड़ों में एकत्र करने के लिए कौन-सा बैक्टीरिया कार्य करता है ?
उत्तर-
राईजोबियम।

प्रश्न 6.
जंत्र-बासमती गेहूँ फ़सली चक्र में किस खाद की बचत होती है ?
उत्तर-
नाइट्रोजन खाद की।

प्रश्न 7.
भारत को कौन-सी फ़सलें आयात करनी पड़ रही हैं?
उत्तर-
दालें, तेल बीज की।

प्रश्न 8.
बासमती में कितने दिन पूर्व हरी खाद दबानी चाहिए ?
उत्तर-
पनीरी लगाने से एक दिन पूर्व।

प्रश्न 9.
पंजाब में कितने प्रतिशत क्षेत्रफल सिंचाई के अन्तर्गत है ?
उत्तर-
98 प्रतिशत।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

प्रश्न 10.
पंजाब में ट्यूबवैल की संख्या कितनी है ?
उत्तर-
14 लाख के लगभग।

(आ) एक-दो वाक्यों में उत्तर दें—

प्रश्न 1.
फ़सली विभिन्नता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
बहु-भांति कृषि से भाव है कि मौजूदा फ़सलों के नीचे क्षेत्रफल कम करके अन्य फ़सलों ; जैसे-मक्का, दालें, बासमती, कमाद, आलू, तेल बीज फ़सलें आदि के नीचे ले कर आना।

प्रश्न 2.
पानी के अभाव वाली भूमि पर कौन-सी फ़सलें बोनी चाहिए ?
उत्तर–
पानी की कमी वाली भूमि में तेल बीज फ़सलें बोई जानी चाहिए।

प्रश्न 3.
मक्की आधारित फ़सली चक्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
मक्की आधारित फ़सल चक्र हैं-मक्की-आलू-मूंग या सूरजमुखी, मक्कीआलू या तोरिया-सूरजमुखी, मक्की-आलू-प्याज या मेंथा तथा मक्की-गोभी सरसों-गर्म ऋतु की मूंग।

प्रश्न 4.
चारे आधारित फ़सली चक्रों के नाम लिखो।
उत्तर-
मक्की-बरसीम-बाजरा, मक्की-बरसीम-मक्की या रवांह।

प्रश्न 5.
बहु-फ़सली प्रणाली की विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. कम भूमि से अधिक पैदावार मिल जाती है।
  2. मौसमी बदलाव का सामना किया जा सकता है।
  3. रसायनिक खादों का प्रयोग कम होता है।
  4. संतुलित भोजन की मांग पूरी होती है तथा रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
  5. वातावरण की सुरक्षा होती है तथा प्राकृतिक स्रोतों की बचत होती है।

प्रश्न 6.
संयुक्त कृषि प्रणाली में कौन-कौन से सहायक व्यवसाय अपनाए जा सकते हैं ?
उत्तर-
संयुक्त कृषि प्रणाली में निम्नलिखित में से कोई एक या दो सहायक व्यवसाय अपनाए जा सकते हैं—

  1. मछली पालन
  2. फलों की कृषि
  3. सब्जी की कृषि
  4. डेयरी फार्मिंग
  5. खरगोश पालना
  6. सूअर पालना
  7. बकरी पालना
  8. मधु मक्खी पालना
  9. पोल्ट्री फार्मिंग
  10. वन कृषि फसलें जैसे पापलर।

प्रश्न 7.
पंजाब के जल स्रोतों के विषय में लिखो।
उत्तर-
पंजाब में 98% क्षेत्रफल सिंचाई के अधीन है तथा लगभग 14 लाख ट्यूबवैल लगे हुए है। पंजाब में सिंचाई के लिए नहरी पानी का भी जाल फैला हुआ है।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

प्रश्न 8.
केन्द्रीय पंजाब में धान व गेहूँ के अतिरिक्त कौन-कौन सी फ़सलें बोई जाती हैं ?
उत्तर-
मक्की, धान, गेहूँ, आलू, मटर, गन्ना, वासमती, सूरजमुखी, खरबूजा, मिर्च तथा अन्य सब्जियां।

प्रश्न 9.
अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्रों की प्रमुख फ़सलों के नाम बताएँ।
उत्तर-
अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्रों की प्रमुख फ़सलें हैं-गेहूँ, मक्की, धान, वासमती, आलू, तेल बीज फ़सलें तथा मटर।

प्रश्न 10.
हल्की ज़मीनों में कौन-कौन से फ़सली चक्र अपनाने चाहिए ?
उत्तर-
हल्की भूमियों में मूंगफली आधारित फ़सल चक्र अपनाए जा सकते हैं जैसेगर्मी ऋतु की मूंगफली-आलू या तोरिया या मटर या गेहूँ, मूंगफली-आलू-बाजरा, मूंगफलीतोरिया या गोभी सरसो।

(इ) पाँच-छः वाक्यों में उत्तर दें—

प्रश्न 1.
फ़सली विभिन्नता से क्या अभिप्राय है ? फ़सली विभिन्नता का क्या उद्देश्य है एवम् इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी ?
उत्तर-
फ़सली विभिन्नता-बहु-भांति कृषि से भाव है मौजूदा फ़सलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल कम करके कुछ अन्य फ़सलों ; जैसे-मक्की, दालें, बासमती, कमाद, आलू, तेल बीज फ़सलें आदि के नीचे लेकर आना।
उद्देश्य-फ़सली विभिन्नता के मुख्य उद्देश्य इस तरह हैं—

  1. गेहूँ प्राकृतिक स्रोतों का संयमित प्रयोग करना तथा इन्हें लम्बे समय तक बचाना।
  2. फसलों से कम लागत से अधिक आय प्राप्त करना।
  3. बार-बार एक ही फसली चक्कर से बाहर निकलना ताकि मिट्टी-पानी की बचत की जा सके।

फ़सली विभिन्नता की आवश्यकता-धान-गेहूँ फसल चक्र को वर्ष में लगभग 215 सैं०मी० पानी की आवश्यकता पड़ती है जिसमें से 80% पानी केवल धान की फसल में ही खपत हो जाता है। धान की कृषि से भूमि की भौतिक तथा रसायनिक बनावट में खराबी आ रही है। पिछले 50 वर्षों के दौरान मूंगफली, तेल बीज फसलों, कमाद तथा दाल वाली फ़सलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल कम होकर धान के अधीन आ गया है। इसलिए फ़सली विभिन्नता से भूमि के नीचे पानी की बचत हो जाएगी तथा भूमि का स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा।

प्रश्न 2.
बहु-फ़सली प्रणाली अपनाने की आवश्यकता क्यों है ? विस्तारपूर्वक उदाहरण सहित लिखें।
उत्तर-
बहु-फ़सली कृषि प्रणाली से भाव है कि एक वर्ष में खेत में दो से अधिक फसलें उगाना। इसका उद्देश्य मुख्य फ़सलों के बीच जो खाली समय बचता है इसमें एक या दो से अधिक फ़सलें उगाना है।
बहु-फ़सली प्रणाली की आवश्यकता—

  1. कम भूमि में से अधिक पैदावार मिल जाती है।
  2. मौसमी बदलाव का सामना किया जा सकता है।
  3. रसायनिक खादों का प्रयोग कम होता है।
  4. संतुलित भोजन की मांग पूरी होती है तथा रोज़गार के अधिक अवसर मिलते हैं।
  5. वातावरण की सुरक्षा होती है तथा प्राकृतिक स्रोतों की बचत होती है।
  6. बहु-फ़सली कृषि में फलीदार फ़सलें उगाने से भूमि में राईज़ोवियम वैक्टीरिया की सहायता से नाइट्रोजन जमा की जाती है। इससे नाइट्रोजन वाली खाद की बचत होती है।

इसलिए बहु-फ़सली चक्र अपनाया जाता है; जैसे—

  1. हरी खाद आधारित; जैसे-जंतर-मक्की आदि।
  2. मक्का आधारित; जैसे-मक्का-आलू-मूंग या सूरजमुखी।
  3. सोयाबीन आधारित; जैसे-सोयाबीन-गेहूँ-रवांह।।
  4. मूंगफली आधारित; जैसे–मूंगफली-आलू, तोरिया, मटर आदि।
  5. हरे चारे आधारित; जैसे-मक्का, बरसीम, बाजरा इस प्रकार मिली-जुली फसलों पर आधारित तथा सब्जी आधारित फसली चक्र भी अपनाया जा सकता है।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

प्रश्न 3.
पंजाब में कृषि से सम्बन्धित समस्याओं के विषय में लिखो।
उत्तर-
पंजाब में कृषि से सम्बन्धित समस्याएं निम्नलिखित अनुसार हैं—

  1. हरित क्रान्ति के बाद पंजाब गेहूँ-चावल के फ़सली चक्र में फंस कर रह गया। केवल दो ही फ़सलों पर ज़ोर देने से पंजाब में भूमि के नीचे पानी के स्तर की गहराई बढ़ती जा रही है तथा रसायनिक दवाइयों; जैसे-नदीननाशक, कीटनाशक तथा खादों के प्रयोग से भूमि की भौतिक तथा रसायनिक बनावट तथा स्वास्थ्य में खराबी आ रही है।
  2. तेल बीज फ़सलों तथा दालों की कृषि कम हो रही है।
  3. पंजाब में दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में अधिक वर्षा के कारण मिट्टी क्षरण की समस्या अधिक है।
  4. पानी का स्तर प्रत्येक वर्ष 74 सैं०मी० नीचे जा रहा है जिस कारण किसानों को सबमर्सीवल मोटर लगाकर पानी निकालना पड़ रहा है जिससे खर्चा बढ़ गया है।
  5. कीड़े-मकौड़े तथा नदीनों की नई किस्में पैदा हो रही हैं।
  6. जैविक विभिन्नता कम होती जा रही है।
  7. कई तरह के मौसम परिवर्तन हो रहे हैं।

प्रश्न 4.
संयक्त कृषि प्रणाली (Integrated Farming System) क्या है ? उदाहरण सहित विस्तारपूर्वक लिखो।
उत्तर-
संयुक्त फ़सल प्रणाली-संयुक्त फ़सल प्रणाली में किसान कृषि के अलावा एक-दो कृषि सहायक धन्धे अपनाकर अपनी आय में वृद्धि करते हैं। इस तरह किसान अपनी कमाई में वृद्धि तो करता ही है उसके घर के सदस्य भी इन कार्यों में सहायता कर सकते हैं। परिवार के सदस्यों को पौष्टिक आहार भी प्राप्त हो जाता है। किसान अपने फार्म के साधनों के अनुसार अपनी शुद्ध आमदन बढ़ा सकता है। आगे कुछ सहायक धन्धे हैं जिनमें से कोई एक या दो सहायक धन्धे अपनाए जा सकते हैं—

  1. मछली पालन
  2. फलों की कृषि
  3. सब्जी की कृषि
  4. डेयरी फार्मिंग
  5. खरगोश पालना
  6. सूअर पालना
  7. बकरी पालना
  8. मधु मक्खी पालना
  9. पोल्ट्री फार्मिंग
  10. वन कृषि फ़सलें जैसे पापलर।

प्रश्न 5.
मिश्रित फ़सल प्रणाली (Mixed Cropping) क्या है ? उदाहरण सहित लिखें।
उत्तर-
मिश्रित फ़सल प्रणाली-कम भूमि से अधिक-से-अधिक पैदावार लेने, अधिक आय लेने तथा आवश्यकताएं पूरी करने के लिए मिश्रत फ़सलों की कृषि की जाती है। इसको मिश्रत फ़सल प्रणाली कहा जाता है।
पंजाब में जुताई योग्य क्षेत्रफल कम होता जा रहा है। इसके कई कारण हैं; जैसेकारखाने, नई कलोनियों का अस्तित्व में आना। इसलिए मौजूदा उपलब्ध भूमि से अधिक पैदावार लेने के लिए, अपनी आय बढ़ाने के लिए लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए मिश्रत फ़सलों की कृषि करनी चाहिए; जैसे-मक्की या मूंगी, अरहर या मूंगी, सोयाबीन या मूंग, मक्की या सोयाबीन, मक्की या हरे चारे के लिए मक्की या मूंगफली, नर्मा या मक्की आदि। मिश्रत फ़सलों की कृषि के कारण मुख्य फ़सल की पैदावार पर कोई असर नहीं पड़ता। इस प्रकार अधिक पैदावार तो प्राप्त होती ही है भूमि की उपजाऊ शक्ति भी बनी रहती है। इससे नदीनों की समस्या को काफी हद तक कम करने में सहायता मिलती है।

Agriculture Guide for Class 8 PSEB फ़सली विभिन्नता Important Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
पंजाब में धान की कृषि के अधीन कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
लगभग 28.3 लाख हैक्टेयर।

प्रश्न 2.
पंजाब में गेहूँ की कृषि के अधीन कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
लगभग 35.1 लाख हैक्टेयर।

प्रश्न 3.
पिछले 50 वर्ष में कौन-सी फ़सलों का क्षेत्रफल धान के अधीन आ गया है ?
उत्तर-
मूंगफली, तेल बीज फसलें, कमाद तथा दालें।

प्रश्न 4.
धान-गेहूँ फ़सली चक्र को वर्ष में लगभग कितना पानी चाहिए ?
उत्तर-
215 सैं०मी०।

प्रश्न 5.
सारे वर्ष में कुल पानी की लागत में धान कितना पानी पी जाता है ?
उत्तर-
80%.

प्रश्न 6.
पंजाब में कृषि के अधीन कितना क्षेत्रफल है ?
उत्तर-
41.58 लाख हैक्टेयर।

प्रश्न 7.
कृषि तथा जलवायु के आधार पर पंजाब को कितने भागों में बांटा गया
उत्तर-
तीन-अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र, केन्द्रीय भाग, दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र।

प्रश्न 8.
अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र कौन-सी पहाड़ियों के पैरों में है ?
उत्तर-
शिवालिक पहाड़ियों के।

प्रश्न 9.
सीमावर्ती (कंडी) क्षेत्र, अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र का कितने प्रतिशत है ?
उत्तर-
लगभग 9%।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

प्रश्न 10.
पंजाब में प्रमुख फ़सली चक्र क्या है ?
उत्तर-
धान-गेहूँ।

प्रश्न 11.
दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में कौन-सा फ़सली चक्र अपनाया जाता है ?
उत्तर-
नर्मा-कपास-गेहूँ।

प्रश्न 12.
दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में नीचे का पानी कैसा है ?
उत्तर-
खारा।

प्रश्न 13.
हरी खाद वाली फ़सल कौन-सी है ?
उत्तर-
जंतर, रवाह या सन्न।

प्रश्न 14.
यदि मक्की बोई जानी हो तो हरी खाद को कितने दिन पहले खेत में जोत देना चाहिए ?
उत्तर-
8-10 दिन पहले।

प्रश्न 15.
कौन-सी फ़सल के टांगरों को हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ?
उत्तर-
सट्ठी मूंग।

प्रश्न 16.
सोयाबीन में कितने प्रतिशत प्रोटीन होता है ?
उत्तर-
35-40%.

प्रश्न 17.
पंजाब में ‘सफेद क्रान्ति’ का सेहरा कौन-सी फ़सल के सिर है ?
उत्तर-
हरे चारे की फ़सल।

प्रश्न 18.
अधिक दूध प्राप्त करने के लिए गाय तथा भैंस को कितना चारा खिलाया जाना चाहिए?
उत्तर-
40 किलो हरा चारा।

प्रश्न 19.
नगर से दूर फार्मों के लिए सब्जी आधारित फ़सली चक्र लिखें।
उत्तर-
आलू-भिण्डी-अग्रिम फूलगोभी।

प्रश्न 20.
नगर के निकटतम गांवों के फार्मों के लिए एक सब्जी आधारित फ़सली चक्र लिखें।
उत्तर-
फूलगोभी-टमाटर-भिण्डी।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
सीमावर्ती क्षेत्र बारे में आप क्या जानते हो ?
उत्तर-
सीमावर्ती क्षेत्र अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र का 9% भाग है।

प्रश्न 2.
केन्द्रीय पंजाब में मुख्य समस्या क्या है ?
उत्तर-
गेहूँ-धान फ़सली चक़ होने के कारण इस क्षेत्र में धरती के नीचे पानी का स्तर प्रत्येक वर्ष लगभग 74 मैं०मी० की दर से नीचे जा रहा है।

प्रश्न 3.
धान के स्थान पर सोयाबीन की कृषि का क्या कारण है ?
उत्तर-
धान को कीड़े-मकौड़े तथा बीमारियां अधिक लगती हैं, इसलिए इसकी पैदावार कम हो जाती है। इसलिए धान के स्थान सोयाबीन की कृषि की जा सकती है।

प्रश्न 4.
मिश्रत फ़सलों की कृषि का लाभ बताओ।
उत्तर-
मिश्रत फ़सलों की कृषि के कारण भूमि की उपजाऊ शक्ति बनी रहती है। इससे नदीन की समस्या को बहुत हद तक कम करने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 5.
नगर के निकटतम फार्मों के लिए सब्जी आधारित फ़सली चक्र बताओ।
उत्तर-

  1. बैंगन (लम्बे)- पिछेती फूलगोभी-घीया।
  2. आलू-खरबूजा।
  3. पालक-गांठ गोभी, प्याज, हरी मिर्च, मूली।
  4. फूलगोभी-टमाटर-भिण्डी।

बड़े उत्तर वाला प्रश्न

प्रश्न-मक्की आधारित फ़सली चक्र तथा सोयाबीन आधारित फ़सली चक्र के बारे में बताओ।
उत्तर-

  1. मक्की आधारति फ़सली चक्र-मक्की आधारित फ़सली चक्र निम्नलिखित अनुसार है—
    • मक्की-आलू-मूंग या सूरजमुखी।
    • मक्की -आलू या तोरिया-सूरजमुखी।
    • मक्की-आलू-प्याज या मैंथा आदि। इन फ़सली चक्रों को अपनाकर प्राकृतिक स्रोतों की बचत की जा सकती है।
  2. सोयाबीन आधारित फ़सली चक्र-सोयाबीन आधारित फ़सली चक्र हैसोयाबीन-गेहूँ-रवाह (हरा चारा)।

इस फ़सली चक्र का प्रयोग धान के स्थान पर किया जा सकता है क्योंकि धान को कीड़े तथा बीमारियां लग जाती हैं तथा इसका उत्पाद कम हो जाता है। सोयाबीन फलीदार फ़सल है। इसलिए इसकी कृषि से भूमि की उपजाऊ शक्ति बनी रहती है। सोयाबीन प्रोटीन का एक बहुत बढ़िया स्रोत है। इसमें 35-40% प्रोटीन तत्त्व होता है। सोयाबीन का प्रयोग लघु उद्योगों में करके लाभ भी लिया जा सकता है।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

ठीक/गलत

  1. पंजाब में प्रमुख फ़सली चक्र है-धान गेहूँ।
  2. पंजाब में 5 लाख ट्यूबवैल हैं।
  3. कृषि विभिन्नता से प्राकृतिक स्रोतों पर कम भार पड़ता है।

उत्तर-

बहुविकल्पीय

प्रश्न 1.
पंजाब में कितने प्रतिशत क्षेत्रफल सिंचाई के अधीन हैं ?
(क) 98%
(ख) 50%
(ग) 70%
(घ) 100%
उत्तर-
(क) 98%

प्रश्न 2.
चारा आधारित फ़सली चक्र है
(क) मक्की -बरसीम-बाजरा
(ख) गेहूँ-धान
(ग) मक्की -आलू-मुंगी
(घ) सभी ठीक।
उत्तर-
(क) मक्की -बरसीम-बाजरा

प्रश्न 3.
सोयाबीन में कितनी प्रतिशत प्रोटीन है ?
(क) 10-20%
(ख) 35-40%
(ग) 50-60%
(घ) 80%
उत्तर-
(ख) 35-40%

(ख) रिक्त स्थान भरें

  1. जंतर …………. खाद वाली फ़सल है।
  2. नीम पहाड़ी क्षेत्र में बहुत ………… होती है।
  3. ………. भूमि में मूंगफली आधारित फ़सली चक्र अपनाया जाता है।

उत्तर-

  1. हरी,
  2. वर्षा,
  3. हल्की

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 7 फ़सली विभिन्नता

फ़सली विभिन्नता PSEB 8th Class Agriculture Notes

  • फ़सली विभिन्नता को बहु-भांति कृषि भी कहा जाता है।
  • फ़सली विभिन्नता में कुछ वर्तमान फ़सलों के नीचे क्षेत्रफल कम करके कुछ अन्य फ़सलें ; जैसे-मक्की, दालें, तेल बीज, कमाद (गन्ना), आलू आदि के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ाना है।
  • फ़सली विभिन्नता के साथ प्राकृतिक स्रोतों पर भार कम पड़ता है।
  • पंजाब में प्रमुख फ़सल चक्र है-धान, गेहूँ।
  • पंजाब में धान, गेहूँ फ़सल चक्र को साल में लगभग 215 सैं० मी० पानी लगता है पर इसका 80% से ज़्यादा धान ही पी जाता है।
  • कृषि और जलवायु के आधार पर पंजाब को तीन भागों में बाँटा गया है। अर्द्ध पर्वतीय, केंद्रीय भाग, दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र। कंडी क्षेत्र भी अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र में आता है।
  • अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र में बहुत वर्षा होती है और इस क्षेत्र में भू-स्खलन की समस्या रहती है।
  • अर्द्ध पर्वतीय क्षेत्र की प्रमुख फसलें हैं-गेहूँ, मक्की, धान, बासमती, आलू, तेल बीज और मटर।
  • केंद्रीय पंजाब में धान-गेहूँ प्रमुख फ़सली चक्र है।
  • दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में नरमा-कपास-गेहूँ फ़सल चक्र अपनाया जाता है।
  • साल में एक खेत में दो से ज्यादा फसलें उगाने को बहु-फ़सली प्रणाली कहा जाता है।
  • सावनी (खरीफ) की फ़सलें जैसे बासमती और मक्की से पहले हरी खाद का उपयोग ज़रूर करना चाहिए।
  • मक्की आधारित फ़सल चक्र है-मक्की-आलू-मूंगी या सूरजमुखी, मक्की-आलू या तोरिया-सूरजमुखी आदि।
  • सोयाबीन-गेहूँ-रवाह फ़सल चक्र का प्रयोग करके उपजाऊ शक्ति बरकरार रखी जा सकती है।
  • गर्मी की ऋतु में रेतीली भूमियों में मूंगफली आधारित फ़सल चक्र है मूंगफली आलू या तोरिया या मटर या गेहूँ, मूंगफली-आलू-बाजरा, मूंगफली-तोरिया या गोभी-सरसों।
  • चारे वाले फ़सली चक्र हैं-मक्की-बरसीम-बाजरा, मक्की-बरसीम, मक्की या रवांह।
  • नगर से दूर फार्मों के लिए सब्जी आधारित फ़सली चक्र है-आलू-प्याज-हरी खाद, आलू-भिंडी-अग्रिम फूलगोभी, आलू (बीज)-मूली गाजर (बीज)-भिंडी (बीज)।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 8 जैविक कृषि

Punjab State Board PSEB 8th Class Agriculture Book Solutions Chapter 8 जैविक कृषि Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Agriculture Chapter 8 जैविक कृषि

PSEB 8th Class Agriculture Guide जैविक कृषि Textbook Questions and Answers

(अ) एक-दो शब्दों में उत्तर —

प्रश्न 1.
प्राचीन कहावत के अनुसार खेत में किस चीज़ के प्रयोग को भूलना नहीं चाहिए ?
उत्तर-
कनक, कमाद ते छल्लियां, बाकी फसलां कुल, रूड़ी बाझ न हुंदीयां, वेखीं न जावीं भुल।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय जैविक कृषि केन्द्र कहां है?
उत्तर-
गाज़ियाबाद में।

प्रश्न 3.
जैविक कृषि को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं ?
उत्तर-
आर्गेनिक फार्मिंग (Organic Farming).

प्रश्न 4.
जैविक कृषि में फसल के बचे-खुचे को जलाया जा सकता है अथवा नहीं ?
उत्तर-
नहीं जलाया जा सकता।

प्रश्न 5.
जैविक कृषि में बी०टी० फसलों को लाया जा सकता है अथवा नहीं ?
उत्तर-
बी०टी० किस्मों की मनाही (वर्जित) है।

प्रश्न 6.
जैविक कृषि में किस प्रकार की फसलों को अन्तर्फसलों के रूप में प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर-
फलीदार फसलों को।

प्रश्न 7.
किसी एक जैविक फफूंदीनाशक का नाम बताओ।
उत्तर-
ट्राइकोडरमा।

प्रश्न 8.
किसी एक जैविक कीटनाशक का नाम बताओ।
उत्तर-
बी०टी० ट्राइकोग्रामा।

प्रश्न 9.
जैविक कृषि के सम्बन्ध में इंटरनैट की किस साइट से जानकारी ली जा सकती है ?
उत्तर-
apeda.gov.in साइट से।

प्रश्न 10.
भारत की ओर से जैविक स्तर किस वर्ष से बनाए गए थे ?
उत्तर-
वर्ष 2004 में।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 8 जैविक कृषि

(आ) एक-दो वाक्यों में उत्तर —

प्रश्न 1.
किस प्रकार की फसलों की खेत में अदला-बदली (स्थानांतरण) करनी अनिवार्य होती है ?
उत्तर-
गहरी जड़ों वाली तथा कम गहरी जड़ों वाली तथा फलीदार तथा गैर फलीदार फसलों की अदला-बदली करनी चाहिए।

प्रश्न 2.
जैविक पदार्थों की बढ़ रही मांग के प्रमुख कारण क्या हैं?
उत्तर-
आधुनिक कृषि के वातावरण पर पड़ रहे बुरे प्रभावों संबंधी जागरूकता तथा लोगों की क्रय शक्ति में बढ़ौतरी होने के कारण जैविक खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ी है।

प्रश्न 3.
कौन-से राष्ट्र जैविक पदार्थों की मुख्य मण्डी हैं ?
उत्तर-
अमेरिका, जापान तथा यूरोपियन देश जैविक खाद्य पदार्थों की मुख्य मण्डी हैं।

प्रश्न 4.
जैविक कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जैविक कृषि ऐसी कृषि है जिसमें प्राकृतिक स्रोतों; जैसे-हवा, पानी, मिट्टी आदि को कम-से-कम हानि पहुंचाए तथा रासायनिक खादों, कृषि ज़हरों उल्लीनाशक आदि का प्रयोग किए बिना कृषि उत्पादन करना।

प्रश्न 5.
जैविक स्तर क्या है ?
उत्तर-
जैविक स्तर किसी कृषि उत्पाद को जैविक कहलाने योग्य बनाते हैं। हमारे देश में 2004 में इन्हें बनाया गया।

प्रश्न 6.
भारत में जैविक कृषि के लिए कौन-से क्षेत्र अधिक समुचित हैं ? ।
उत्तर-
ऐसे क्षेत्र जहां प्राकृतिक रूप से ही जैविक हो या उसके बहुत नज़दीक हो, में जैविक कृषि को उत्साहित किया जाना चाहिए।

प्रश्न 7.
कौन-कौन से जैविक पदार्थों की विश्व बाज़ार में अधिक मांग है ?
उत्तर-
चाय, बासमती चावल, सब्जियां, फल, दालें तथा कपास; जैसे-जैविक उत्पादों की विश्व मण्डी में बहुत मांग है।

प्रश्न 8.
जैविक खाद पदार्थों की मांग किन राष्ट्रों में अधिक है ?
उत्तर-
जैविक खाद पदार्थों की अमेरिका, जापान तथा यूरोपियन देशों में अधिक मांग है।

प्रश्न 9.
जैविक कृषि में बीज़ प्रयोग के क्या स्तर हैं ?
उत्तर-
बीज पिछली जैविक फसल में से लिया गया हो, परन्तु यदि यह बीज उपलब्ध हो तो बिना सुधाई किया परम्परागत बीज़ शुरू में प्रयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
मक्की में जैविक पद्धति से खरपतवार की रोकथाम कैसे की जा सकती है ?
उत्तर-
मक्की की फसल के साथ रवांह की बुवाई करके 35-40 दिनों बाद काट कर चारे के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार नदीनों की रोकथाम की जा सकती है तथा हरा चारा भी मिल जाता है।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 8 जैविक कृषि

(इ) पाँच-छः वाक्यों में उत्तर —

प्रश्न 1.
जैविक कृषि की आवश्यकता क्यों पड़ रही है ?
उत्तर-
हरित क्रान्ति आने से देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया, परन्तु कृषि ज़हरों, रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण भूमि, हवा, पानी का बड़े स्तर पर नुकसान हुआ। गेहूँ-धान की कृषि अधिक होने से पारम्परिक दालें, तेल बीजों की कृषि के अधीन क्षेत्रफल कम हो गया। धान-गेहूँ के फ़सल चक्र के बीच पड़ कर हम अपने कृषि के प्राथमिक सिद्धान्त गहरी जड़ों तथा कम गहरी जड़ों वाली फसलों तथा फलीदार तथा गैर फलीदार फसलों की अदला-बदली को भूल गए। अनावश्यक तथा असमय डाला गया यूरिया वर्षा के पानी में मिलकर भूमि के पानी में जाना शुरू हो गया। कृषि ज़हरों का प्रभाव हमारे खाद्य पदार्थों में आने लग गया है। प्रत्येक खाने-पीने वाली वस्तु; जैसे-दूध, गेहूँ, चावल, चारे आदि में जहरीले अंश मिलने शुरू हो गए हैं।
हमारी आधुनिक कृषि के वातावरण पर बुरे प्रभाव संबंधी जागरूकता तथा लोगों की क्रय शक्ति के बढ़ने के कारण लोगों द्वारा जैविक खाद्य पदार्थों की मांग उठने लगी तथा इस मांग को पूरा करने के लिए जैविक कृषि की आवश्यकता पड़ गई है।

प्रश्न 2.
जैविक कृषि में खेत की उर्वरा शक्ति को किस प्रकार बनाए रखा जा सकता है ?
उत्तर-
जैविक कृषि में वातावरण का प्राकृतिक संतुलन तथा प्राकृतिक स्रोतों को बनाए रखते हुए कृषि की जाती है। जैविक कृषि में उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए निम्न कार्य किए जाते है—

  1. जैविक कृषि में किसी भी तरह के कृषि ज़हर, रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि के प्रयोग की सख्त मनाही है।
  2. फसल चक्र में भूमि के स्वास्थ्य के लिए फलीदार फसल बोई जानी अत्यन्त आवश्यक है।
  3. जैविक कृषि में फसलों के खेत में बचे हुए भाग को आग लगाने की आज्ञा नहीं है।
  4. कृषि में प्रदूषित पानी जैसे सीवरेज के पानी से सिंचाई नहीं की जा सकती।
  5. कीड़े-मकौड़े समाप्त करने के लिए मित्र पक्षियों तथा कीड़ों का प्रयोग किया जाता है।
  6. जैविक कृषि में जैनेटीकली बदली फसलें जैसे-बी०टी० किस्मों की मनाही है।

प्रश्न 3.
जैविक कृषि में कीटों एवम् रोगों का प्रतिरोध कैसे किया जाता है ?
उत्तर-
जैविक कृषि में कृषि ज़हरों के प्रयोग की पूर्ण रूप से मनाही है। इसके लिए जैविक कृषि जैविक कृषि में कीड़ों तथा बीमारियों का मुकाबला करने के लिए प्राकृतिक ढंगों का प्रयोग किया जाता है। कीड़ों की रोकथाम के लिए भिन्न कीड़ों तथा पक्षियों की सहायता ली जाती है। नीम की निमोलियों के अर्क या जैविक कीटनाशक (बी०टी० ट्राइकोग्राम) आदि का प्रयोग किया जाता है। जैविक उल्लीनाशक जैसे कि ट्राइकोडरमा आदि का प्रयोग किया जाता,है। फसलों की मिली-जुली कृषि; जैसे-गेहूँ तथा चने भी कीड़ों तथा बीमारियों की रोकथाम में सहायक हैं।

प्रश्न 4.
जैविक प्रमाणीकरण क्या है एवम् यह कौन करता है ?
उत्तर-
जैविक कृषि के उत्पादों को यदि हमें लेबल करके मण्डी में बेचना हो या अन्य देशों में भेजना हो तो इन उत्पादों का प्रमाणीकरण आवश्यक होता है। प्रमाणीकरण में यह गारंटी दी जाती है कि जैविक उत्पादों को जैविक स्तरों के अनुसार ही पैदा किया गया है।
प्रमाणीकरण के लिए भारत सरकार द्वारा 24 एजेंसियों को मान्यता दी गई है। इन एजेंसियों में से किसी एक एजेंसी में किसान को फार्म भर कर रजिस्ट्रर्ड करवाना पड़ता है। कम्पनी के निरीक्षक किसान के खेत में अक्सर निरीक्षण करते रहते हैं तथा देखते हैं कि किसान द्वारा जैविक मानकों का पूरी तरह पालन किया जा रहा है या नहीं। इस निरीक्षण में पास होने पर ही उपज को जैविक करार दिया जाता है। जैविक स्तरों के बारे में अधिक जानकारी apeda.gov.in साइट से ली जा सकती है।

प्रश्न 5.
जैविक कृषि के क्या लाभ हैं ?
उत्तर-
जैविक कृषि के लाभ निम्नलिखित अनुसार हैं—

  1. भूमि की उपजाऊ (उर्वरा) शक्ति बढ़ती है।
  2. कृषि के खर्च कम होते हैं।
  3. जैविक कृषि में उत्पादों की अधिक कीमत मिलती है।
  4. यह टिकाऊ कृषि है।
  5. इससे रोज़गार बढ़ता है।
  6. खाद्य पदार्थ तथा वातावरण में ज़हरीले अंशों से बचाव हो जाता है।

Agriculture Guide for Class 8 PSEB जैविक कृषि Important Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
जैविक कृषि में गुड़ाई किस प्रकार की जाती है ?
उत्तर-
हाथों से, व्हील हो से या ट्रैक्टर से।

प्रश्न 2.
जैविक कृषि में कौन-सी फसलों को अंतर्फसलों के रूप में बोया जाता
उत्तर-
फलीदार फसलें।

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 8 जैविक कृषि

प्रश्न 3.
जैविक कृषि में आहारीय तत्वों के लिए कौन-सी न खाने योग्य खलों का प्रयोग होता है ?
उत्तर-
अरिंड की खल्ल।

प्रश्न 4.
जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण के लिए भारत सरकार द्वारा कितनी एजेंसियां हैं ?
उत्तर-
24.

प्रश्न 5.
हमें वर्ष 2020 तक कितने अनाज की आवश्यकता है ?
उत्तर-
276 मिलियन टन अनाज की। राम नाम

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
जैविक कृषि के दो लाभ बताएं।
उत्तर-

  1. भूमि की उपजाऊ (उर्वरा) शक्ति बनी रहना तथा इसमें वृद्धि होना।
  2. जैविक पदार्थों से अधिक लाभ।

प्रश्न 2.
हरित क्रान्ति के कारण कौन-सी फसलों की कृषि कम हुई ?
उत्तर-
हरित क्रान्ति के कारण धान-गेहूँ के फ़सल चक्र में पड़कर पारम्परिक दालें तथा तेल बीज फसलों की कृषि कम हो गई है।

प्रश्न 3.
कौन-से जैविक उत्पादों की विश्व मण्डी में बहुत मांग है तथा कौन-से देश इन उत्पादों की बड़ी मण्डियां हैं ?
उत्तर-
बासमती चावल, सब्जियां, फल, चाय, दालें तथा कपास जैसे जैविक उत्पादों की अमेरिका, जापान तथा यूरोपियन देशों की मण्डियों में बहुत मांग है।

बड़े उत्तर वाला प्रश्न

प्रश्न-
जैविक फसल उत्पादन के ढंग पर नोट लिखो।
उत्तर-
जैविक फसल उत्पादन में बीज किस्में तथा बुवाई के ढंग साधारण कृषि जैसे ही हैं। जैविक फसल उत्पादन में कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि दवाइयों के प्रयोग की मनाही है। खरपतवारों की रोकथाम के लिए फसलों की अदला-बदली की जाती है या अन्य कृषि ढंगों का प्रयोग किया जाता है। जैसे मक्की की फसल की पंक्तियों में रवांह की बुवाई की जाती है तथा रवांह को हरे चारे के रूप में प्रयोग कर लिया जाता है। इस प्रकार मक्की में खरपतवार नहीं उगते हैं। हल्दी की फसल में धान की पराली बिछा कर नदीनों की रोकथाम की जाती है। फलीदार फसलों की कृषि धरती की उपजाऊ (उर्वरा) शक्ति बनाए रखती है तथा धरती में नाइट्रोजन तत्व की कमी से बचाती है। फसलों के आहारीय तत्वों की पूर्ति कम्पोस्ट, रूड़ी की खाद आदि के प्रयोग से की जाती है। कीड़ों की रोकथाम के लिए मित्र कीटों तथा पक्षियों का प्रयोग किया जाता है। फसलों की मिश्रत कृषि भी कीड़ों तथा रोगों की रोकथाम में सहायक है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

ठीक/गलत

  1. जैविक कृषि में बी.टी.फसलों की मनाही है।
  2. जैविक कृषि में भूमि की उपजाऊ शक्ति कम हो जाती है।
  3. नैशनल सेंटर फॉर आर्गेनिक फार्मिंग गाज़ियाबाद में स्थित है।

उत्तर-

बहुविकल्पीय

प्रश्न 1.
जैविक कृषि को इंग्लश में क्या कहते हैं ?
(क) इनआर्गेनिक फार्मिंग
(ख) आर्गेनिक फार्मिंग
(ग) नार्मल फार्मिंग
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) आर्गेनिक फार्मिंग

प्रश्न 2.
भारत में जैविक कृषि के लिए जैविक स्तर कब तय किए गए ?
(क) 2000
(ख) 2004
(ग) 2008
(घ) 2012
उत्तर-
(ख) 2004

PSEB 8th Class Agriculture Solutions Chapter 8 जैविक कृषि

रिक्त स्थान भरें

  1. ………… कृषि में बी.टी. किस्मों की मनाही है।
  2. हमें वर्ष 2020 तक …………….. मिलियन टन अनाज की आवश्यकता है।

उत्तर-

  1. जैविक
  2. 276

जैविक कृषि PSEB 8th Class Agriculture Notes

  • जैविक कृषि करने से वातावरण का प्राकृतिक संतुलन तथा प्राकृतिक स्रोतों को बनाए रखा जाता है।
  • जैविक कृषि में रासायनिक खादों, खरपतवार नाशकों, फफूंदीनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता।
  • जैविक कृषि में फसल को खाद देने की जगह भूमि को उपजाऊ बनाने पर बल दिया जाता है।
  • जैविक कृषि के लाभ इस प्रकार हैं- भूमि की उपजाऊ (उर्वरा) शक्ति का बढ़ना, कम कृषि खर्चा (व्यय), जैविक उपज (कृषि) से अधिक आय, ज़हर (विषैले) वाले अंशों से रहित खाद्य पदार्थ आदि।
  • रासायनिक खादों का प्रयोग, कृषि ज़हरों (विषैले रसायनों) का प्रयोग, कृषि में पराली को आग लगाना आदि जैसी क्रियाओं ने वातावरण तथा भूमि को बहुत हानि पहुंचाई है।
  • गेहूँ-धान फसल चक्र के कारण परम्परागत दालों तथा तेल बीज वाली फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल कम हुआ है।
  • चाय, बासमती चावल, सब्जियां, फल, दालें, कपास जैसे जैविक उत्पादों की वैश्विक मण्डी में बहुत मांग है।
  • भारत सरकार द्वारा जैविक कृषि को उत्साहित करने के लिए गाज़ियाबाद में एक नैशनल सेंटर फॉर आर्गेनिक फार्मिंग (NCOF) खोला गया है। उत्तरी भारत में इसकी शाखा पंचकूला में है।
  • वर्ष 2004 में अपने देश में जैविक उत्पादों के लिए कुछ जैविक स्तर तय किए गए हैं। जिन्हें अन्य देशों द्वारा भी मान्यता मिली है।
  • जैविक कृषि में बीज, किस्मों तथा बुवाई के ढंग/तरीके साधारण कृषि जैसे ही है।
  • फसलों के आहारीय तत्त्वों की पूर्ति के लिए रूड़ी की खाद, केंचुआ खाद, कम्पोस्ट, जैविक खाद, अरिंड की खल्ल आदि का प्रयोग किया जाता है।
  • जैविक कृषि में कीड़ों की रोकथाम के लिए मित्र कीड़ों तथा पक्षियों की सहायता ली जाती है।
  • नीम की निमोलियों के अर्क को जैविक कीटनाशकों के रूप में प्रयोग किया जाता
  • जैविक प्रमाणीकरण में यह गारंटी दी जाती है कि जैविक उत्पाद को जैविक मानकों (स्तर) के अनुसार ही पैदा किया गया है।
  • जैविक मानकों (स्तर) तथा प्रमाणीकरण सम्बन्धी जानकारी के लिए अपीडा की वैबसाइट apeda.gov.in से ली जा सकती है।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

SST Guide for Class 9 PSEB लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व Textbook Questions and Answers

(क) रिक्त स्थान भरें :

  1. ……….. के अनुसार लोकतंत्र ऐसी प्रणाली है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी होती है।
  2. डेमोक्रेसी यूनानी भाषा के दो शब्दों ………. व ……… से मिलकर बना है।

उत्तर-

  1. सीले
  2. Demos, Crati

(ख) बहुविकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1.
लोकतंत्र की सफलता के लिए निम्नलिखित में से कौन-सी शर्त अनिवार्य है :
(अ) साक्षर नागरिक
(आ) चेतन नागरिक
(इ) वयस्क मताधिकार
(ई) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(ई) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 2.
लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है-
(अ) एक व्यक्ति का शासन
(आ) नौकरशाही का शासन
(इ) सैनिक तानाशाही
(ई) लोगों का शासन।
उत्तर-
(ई) लोगों का शासन।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

(ग) निम्नलिखित कथनों में सही के लिए तथा गलत के लिए चिन्ह लगाए :

  1. लोकतंत्र में भिन्न-भिन्न विचार रखने की स्वतंत्रता नहीं होती।
  2. लोकतंत्र स्पष्ट रूप में हिंसात्मक साधनों के विरुद्ध है भले ही ये समाज की भलाई के लिए ही क्यों न अपनाए जाएं।
  3. लोकतंत्र में व्यक्तियों को कई प्रकार के अधिकार दिए जाते हैं।
  4. नागरिकों का चेतन होना लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है।

उत्तर-

  1. (✗)
  2. (✓)
  3. (✓)
  4. (✓)

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
डेमोक्रेसी किन दो शब्दों से बना है ? उनके शाब्दिक अर्थ लिखें।
उत्तर-
डेमोक्रेसी यूनानी भाषा के दो शब्दों Demos तथा Cratia से मिलकर बना है। Demos का अर्थ है, जनता तथा Cratia का अर्थ है, शासन। इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ हुआ जनता का शासन।

प्रश्न 2.
लोकतंत्र शासन प्रणाली के सर्वप्रिय होने के दो कारण लिखें।
उत्तर-

  1. इसमें जनता को अभिव्यक्ति का अधिकार होता है।
  2. इसमें सरकार चुनने में जनता की भागीदारी होती है।

प्रश्न 3.
लोकतंत्र के मार्ग में आने वाली दो बाधाएं लिखें।
उत्तर-
क्षेत्रवाद, जातिवाद तथा क्षेत्रवाद लोकतंत्र के मार्ग में आने वाली बाधाएं हैं।

प्रश्न 4.
लोकतंत्र की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-
डाईसी के अनुसार, “लोकतंत्र सरकार का एक ऐसा रूप है जिसमें शासक दल समस्त राष्ट्र का तुलनात्मक रूप में एक बहुत बड़ा भाग होता है।”

प्रश्न 5.
लोकतंत्र के लिए कोई दो आवश्यक शर्ते (दशाएं) लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक समानता लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्ते हैं।

प्रश्न 6.
लोकतंत्र के कोई दो सिद्धांत लिखें।
उत्तर-

  1. लोकतंत्र सहिष्णुता के सिद्धांतों पर आधारित है।
  2. लोकतंत्र में सभी को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार होता है।

प्रश्न 7.
लोकतंत्र में शासन की शक्ति का स्रोत कौन होते हैं ?
उत्तर-
लोकतंत्र में शासन की शक्ति का स्रोत लोग होते हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

प्रश्न 8.
लोकतंत्र के दो प्रकार कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-
लोकतंत्र दो प्रकार का होता है-प्रत्यक्ष लोकतंत्र तथा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र ।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकतंत्र की सफलता के लिए कोई दो अनिवार्य शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. राजनीतिक स्वतंत्रता-लोकतंत्र की सफलता के लिए जनता को राजनीतिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। उन्हें भाषण देने, संघ बनाने, विचार व्यक्त करने तथा सरकार की अनुचित नीतियों की आलोचना करने का अधिकार होना चाहिए।
  2. नैतिक आचरण-लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए लोगों का आचरण भी उच्च होना चाहिए। अगर लोग व नेता भ्रष्ट होंगे तो लोकतंत्र ठीक ढंग से कार्य नहीं कर पाएगा।

प्रश्न 2.
निर्धनता लोकतंत्र के मार्ग में बाधा कैसे बनती है ? वर्णन करें।
उत्तर-
इसमें कोई शक नहीं है कि निर्धनता लोकतंत्र के मार्ग में बाधा है। सबसे पहले तो निर्धन व्यक्ति अपने मत का प्रयोग ही नहीं करता क्योंकि उसके लिए मत का प्रयोग करने से अधिक आवश्यक है अपने परिवार के लिए पैसा कमाना। इसके साथ-साथ कई बार निर्धन व्यक्ति अपने मत को बेचने पर भी मजबूर हो जाता है। अमीर लोग निर्धन लोगों के मत खरीद कर चुनाव जीत लेते हैं। निर्धन व्यक्ति अपने विचारों को खुल कर अभिव्यक्त भी नहीं कर सकते।

प्रश्न 3.
निरक्षरता लोकतंत्र के मार्ग में बाधा कैसे बनती है। स्पष्ट करें।
उत्तर-
लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु तो निरक्षरता ही है। एक अनपढ़ व्यक्ति, जिसे लोकतंत्र का अर्थ भी नहीं पता होता, लोकतंत्र में कोई भूमिका नहीं निभा सकता। इस कारण लोकतांत्रिक मूल्यों का पतन होता है कि सभी लोग इसमें भाग लेते हैं। अनपढ़ व्यक्ति को देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं के बारे में भी पता नहीं होता। इस कारण वह नेताओं के झूठे वायदों का शिकार बनकर अपने मत का ठीक ढंग से प्रयोग भी नहीं कर पाते।

प्रश्न 4.
“राजनीतिक समानता लोकतंत्र की सफलता के लिए ज़रूरी है।” इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर-
यह सत्य है कि राजनीतिक समानता लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को भाषण देने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, उन्हें एकत्र होने तथा संघ बनाने की भी स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसके साथ-साथ उन्हें सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने तथा अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी होनी चाहिए। ये सब स्वतंत्रताएं केवल लोकतंत्र में ही प्राप्त होती है जिस कारण लोकतंत्र सफल हो पाता है।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

प्रश्न 5.
“राजनीतिक दलों का अस्तित्व लोकतंत्र के लिए जरूरी है।” इस कथन की व्याख्या करें।
अथवा
राजनीतिक दल लोकतंत्र की गाड़ी के पहिए होते हैं। इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर-
लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों का अस्तित्व काफी आवश्यक है। वास्तव में राजनीतिक दल एक विशेष विचारधारा के यंत्र होते हैं तथा विचारों के अंतरों के कारण ही अलग-अलग राजनीतिक दल सामने आते है। अलगअलग विचारों को राजनीतिक दलों के द्वारा ही सामने लाया जाता है। इन विचारों को सरकार के सामने राजनीतिक दलों द्वारा ही रखा जाता है। इस प्रकार राजनीतिक दल जनता तथा सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त चुनाव लड़ने के लिए भी राजनीतिक दलों की आवश्यकता होती है तथा चुनाव के लिए लोकतंत्र मुमकिन ही नहीं है।

प्रश्न 6.
शक्तियों का विकेंद्रीकरण लोकतंत्र के लिए क्यों जरूरी है ?
उत्तर-
लोकतंत्र का एक आधारभूत सिद्धांत है शक्तियों का विभाजन तथा विकेंद्रीकरण का अर्थ है शक्तियों का सरकार के सभी स्तरों में विभाजन। अगर शक्तियों का विकेंद्रीकरण नहीं होगा तो शक्तियां कुछेक हाथों या किसी एक समूह के हाथों में केंद्रित होकर रह जाएंगी। इससे देश में तानाशाही उत्पन्न होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा तथा लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। अगर शक्तियों का विभाजन हो जाएगा तो तानाशाही नहीं हो पाएगी तथा व्यवस्था सुचारू रूप से कार्य कर पाएगी। इसलिए शक्तियों का विकेंद्रीकरण लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 7.
लोकतंत्र के किन्हीं दो सिद्धांतों की व्याख्या करें।
उत्तर-

  1. लोकतंत्र सहिष्णुता के सिद्धांत पर आधारित है। लोकतंत्र में सभी को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता होती है।
  2. लोकतंत्र व्यक्ति के व्यक्तित्व के गौरव को विश्वसनीय बनाता है। इस वजह से ही लगभग लोकतांत्रिक देशों ने अपने नागरिकों को समानता प्रदान करने के लिए कई प्रकार के अधिकार दिए हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-

  1. लोकतंत्र में सभी व्यक्तियों को अपने विचार प्रकट करने, आलोचना करने तथा अन्य लोगों से असहमत होने का अधिकार होता है।
  2. लोकतंत्र सहिष्णुता के सिद्धांत पर आधारित है। लोकतंत्र में सभी को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता होती है।
  3. लोकतंत्र व्यक्ति के व्यक्तित्व के गौरव को विश्वसनीय बनाता है। इस वजह से लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों ने अपने नागरिकों को समानता प्रदान करने के लिए कई प्रकार के अधिकार दिए हैं।
  4. किसी भी लोकतंत्र में आंतरिक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने के लिए शांतिपूर्ण तरीकों पर बल दिया जाता है।
  5. लोकतंत्र हिंसात्मक साधनों के प्रयोग पर बल नहीं देता भले ही यह समाज के हितों के लिए ही क्यों न किए जाएं।
  6. लोकतंत्र एक ऐसी प्रकार की सरकार है जिसके पास प्रभुसत्ता अर्थात् स्वयं निर्णय लेने की शक्ति होती है।
  7. लोकतंत्र बहुसंख्यकों का शासन होता है परंतु इसमें अल्पसंख्यकों को भी समान अधिकार दिए जाते हैं।
  8. लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार हमेशा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य करती है।
  9. लोकतंत्र में सरकार एक जनप्रतिनिधित्व वाली सरकार होती है। जिसे जनता द्वारा चुना जाता है। जनता को अपने प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार होता है।
  10. लोकतंत्र में चुनी गई सरकार को संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा ही बदला जा सकता है। सरकार बदलने के लिए हम हिंसा का प्रयोग नहीं कर सकते।

प्रश्न 2.
लोकतंत्र के मार्ग में बाधाओं का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
संपूर्ण विश्व में लोकतंत्र एक सर्वप्रचलित शासन व्यवस्था है परंतु इसके सफलतापूर्वक चलने के रास्ते में कुछ बाधाएं हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  1. जातिवाद तथा सांप्रदायिकता-अपनी जाति को बढ़ावा देना या अपने धर्म को अन्य धर्मों से ऊंचा समझना देश को तोड़ने का कार्य करता है जो लोकतंत्र के रास्ते में बाधा बनता है।
  2. क्षेत्रवाद-क्षेत्रवाद का अर्थ है अन्य क्षेत्रों या संपूर्ण देश की तुलना में अपने क्षेत्र को प्राथमिकता देना। इससे लोगों की मानसिकता संकीर्ण हो जाती है तथा वह राष्ट्रीय हितों को महत्त्व नहीं देते। इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो जाता है।
  3. अनपढ़ता-अनपढ़ता भी लोकतंत्र के रास्ते में एक बाधा है। एक अनपढ़ व्यक्ति को लोकतांत्रिक मूल्यों तथा अपनी वोट के महत्त्व का पता नहीं होता। अनपढ़ व्यक्ति या तो वोट देने नहीं जाते या फिर अपना वोट बेच देते हैं। इससे लोकतंत्र की सफलता पर संदेह होना शुरू हो जाता है।
  4. अस्वस्थ व्यक्ति-अगर देश की जनता अस्वस्थ अथवा बीमार होगी तो वह देश की प्रगति में कोई योगदान नहीं दे पाएगी। ऐसे व्यक्ति सार्वजनिक व राजनीतिक कार्यों में भी रुचि नहीं रखते।
  5. उदासीन जनता-अगर जनता उदासीन है तथा वह सामाजिक व राजनीतिक दायित्वों के प्रति कोई ध्यान नहीं देते तो वह निश्चय ही लोकतंत्र के रास्ते में बाधक हैं। वह अपने मताधिकार का भी ठीक ढंग से प्रयोग नहीं कर पाते। उनकी नेताओं का भाषण सुनने में भी कोई रुचि नहीं होती तथा यह बात ही लोकतंत्र के विरोध में जाती है।

प्रश्न 3.
लोकतंत्र की सफलता के लिए किन्हीं पांच शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकतंत्र में सफलतापूर्वक काम करने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना आवश्यक समझा जाता

  1. जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिक प्रजातंत्र की सफलता की पहली शर्त है। निरंतर देख रेख ही स्वतंत्रता की कीमत है। नागरिक अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने चाहिए। सार्वजनिक मामलों पर हर नागरिक को सक्रिय भाग लेना चाहिए। राजनीतिक समस्याओं और घटनाओं के प्रति सचेत रहना चाहिए। राजनीतिक चुनाव में बढ़-चढ़ कर भाग लेना चाहिए आदि-आदि।
  2. प्रजातंत्र से प्रेम-प्रजातंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातंत्र के लिए प्रेम होना चाहिए। बिना प्रजातंत्र से प्रेम के प्रजातंत्र कभी सफल नहीं हो सकता।
  3. शिक्षित नागरिक-प्रजातंत्र की सफलता के लिए शिक्षित नागरिकों का होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक प्रजातंत्र शासन की आधारशिला है। शिक्षा से ही नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षित नागरिक शासन की जटिल समस्याओं को समझ सकते हैं और उनको सुलझाने के लिए सुझाव दे सकते हैं।
  4. प्रैस की स्वतंत्रता-प्रजातंत्र की सफलता के लिए प्रेस की स्वतंत्रता आवश्यक है। 5. सामाजिक समानता-प्रजातंत्र की सफलता के लिए सामाजिक समानता की भावना का होना आवश्यक है।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

प्रश्न 4.
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की एक परिभाषा दें तथा लोकतंत्र के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
साधारण शब्दों में लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें शासकों का चुनाव लोगों द्वारा किया जाता है।

  1. प्रो० डायसी के अनुसार, “प्रजातंत्र ऐसी शासन प्रणाली है, जिसमें शासक वर्ग समाज का अधिकांश भाग हो।”
  2. लोकतंत्र की बहुत सुंदर, सरल तथा लोकप्रिय परिभाषा अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दी है”प्रजातंत्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।”

लोकतंत्र का महत्त्व-आजकल के समय में लगभग सभी देशों में लोकतांत्रिक सरकार है तथा इस कारण ही लोकतंत्र का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। लोकतंत्र का महत्त्व इस प्रकार है-

  1. समानता-लोकतंत्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता क्योंकि यह समानता पर आधारित होता है। इसके अमीर, गरीब सभी को एक समान अधिकार दिए जाते हैं तथा सभी के वोट का मूल्य एक समान होता है।
  2. जनमत का प्रतिनिधित्व-लोकतंत्र वास्तव में सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधित्व करता है। लोकतांत्रिक सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है तथा सरकार लोगों की इच्छा के अनुसार ही कानून बनाती है। अगर सरकार जनमत के अनुसार कार्य नहीं करती तो जनता उसे बदल भी सकती है।
  3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का रक्षक-केवल लोकतंत्र ही ऐसी सरकार है जिसमें जनता की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है। लोकतंत्र में सभी को अपने विचार व्यक्त करने, आलोचना करने तथा संघ बनाने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। लोकतंत्र में तो प्रेस की स्वतंत्रता को भी संभाल कर रखा जाता है जिसे लोकतंत्र का पहरेदार माना जाता है।
  4. राजनीतिक शिक्षा-लोकतंत्र में लगातार चुनाव होते रहते हैं, जिससे जनता को समय-समय पर राजनीतिक शिक्षा मिलती रहती है। अलग-अलग राजनीतिक दल जनमत का निर्माण करते हैं, जनता को सरकार के कार्यों के बारे में बताते है तथा सरकार का मूल्यांकन करते रहते हैं। इससे जनता में राजनीतिक चेतना का भी विकास होता है।
  5. नैतिक गुणों का विकास-शासन की सभी व्यवस्थाओं में से केवल लोकतंत्र ही है जो जनता में नैतिक गुणों का विकास करता है तथा उनके आचरण के उत्थान में सहायता करता है। यह व्यवस्था ही जनता में सहयोग, सहनशीलता जैसे गुणों का विकास करती है।

PSEB 9th Class Social Science Guide लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व Important Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
तानाशाही सरकार निम्नलिखित में से किस देश में पाई जाती है?
(क) उत्तरी कोरिया
(ख) भारत।
(ग) रूस
(घ) नेपाल।
उत्तर-
(क) उत्तरी कोरिया

प्रश्न 2.
प्रजातंत्र में निर्णय लिए जाते हैं-
(क) सर्वसम्मति से
(ख) दो-तिहाई बहुमत से
(ग) गुणों के आधार पर
(घ) बहुमत से।
उत्तर-
(घ) बहुमत से।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा है, “प्रजातंत्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति भाग लेता है।”
(क) लॉर्ड ब्राइस
(ख) डॉ० गार्नर
(ग) प्रो० सीले
(घ) प्रो० लॉस्की।
उत्तर-
(ग) प्रो० सीले

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “प्रजातंत्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।”
(क) अब्राहम लिंकन
(ख) वाशिंगटन
(ग) जैफरसन
(घ) प्रो० डायसी।
उत्तर-
(क) अब्राहम लिंकन

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

प्रश्न 5.
जिस शासन प्रणाली में शासकों का चुनाव जनता द्वारा किया जाता है, उसे क्या कहा जाता है ?
(क) अधिनायकतंत्र
(ख) राजतंत्र
(ग) लोकतंत्र
(घ) कुलीनतंत्र।
उत्तर-
(ग) लोकतंत्र

प्रश्न 6.
निम्न में से कौन-सी लोकतंत्र की विशेषता नहीं है ?
(क) लोकतंत्र जनता का राज है
(ख) संसद् सेना के अधीन होती है
(ग) लोकतंत्र में शासक जनता द्वारा चुने जाते हैं
(घ) लोकतंत्र में चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होते हैं।
उत्तर-
(ख) संसद् सेना के अधीन होती है

प्रश्न 7.
निम्न में से किस देश में लोकतंत्र है ?
(क) उत्तरी कोरिया
(ख) चीन
(ग) साऊदी अरब
(घ) स्विट्ज़रलैंड।
उत्तर-
(घ) स्विट्ज़रलैंड।

प्रश्न 8.
लोकतंत्र के लिए निम्न में से किस तत्त्व का होना अनिवार्य है?
(क) एक दलीय प्रणाली
(ख) स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव
(ग) अनियमित चुनाव
(घ) प्रैस पर सरकारी नियंत्रण।
उत्तर-
(घ) प्रैस पर सरकारी नियंत्रण।

प्रश्न 9.
निम्न में से कौन-सी लोकतंत्र की विशेषता नहीं है ?
(क) स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव
(ख) वयस्क मताधिकार
(ग) निर्णय लेने की अंतिम शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास
(घ) सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग।
उत्तर-
(घ) सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग।

रिक्त स्थान भरें :

  1. Demos तथा Cratia …………. भाषा के शब्द हैं।
  2. ……… में शासक जनता के प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाते हैं।
  3. राजनीतिक दल ………. के यंत्र हैं।
  4. व्यावहारिक रूप में लोकतंत्र ………. का शासन होता है।
  5. सन् ……….. में भारत में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो गए।
  6. चीन में प्रत्येक …….. वर्ष के बाद चुनाव होते हैं।
  7. मैक्सिको ……… में स्वतंत्र हुआ।

उत्तर-

  1. यूनानी
  2. लोकतंत्र
  3. विचारधारा
  4. बहुसंख्यक
  5. 1950
  6. पांच
  7. 19301

सही/गलत:

  1. तानाशाही में शासक जनता द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं।
  2. चुनाव करने की स्वतंत्रता ही लोकतंत्र का मूल आधार है।
  3. लोकतांत्रिक सरकार संविधान के अनुसार कार्य नहीं करती है।
  4. तानाशाही में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है।।
  5. परवेज मुशर्रफ ने 1999 ई० में पाकिस्तान में सत्ता संभाल ली थी।
  6. चीन में केवल एक राजनीतिक दल साम्यवादी दल है।
  7. PRI चीन का राजनीतिक दल है। ।

उत्तर-

  1. (✗)
  2. (✓)
  3. (✗)
  4. (✗)
  5. (✓)
  6. (✓)
  7. (✗).

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अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
डेमोक्रेसी शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-
यूनानी भाषा से।

प्रश्न 2.
ग्रीक भाषा के शब्द डिमोस (Demos) का अर्थ लिखें।
उत्तर-
डिमोस का अर्थ है लोग।

प्रश्न 3.
ग्रीक भाषा के शब्द ‘क्रेटिया’ का अर्थ लिखें।
उत्तर-
क्रेटिया का अर्थ है शासन।

प्रश्न 4.
‘डैमोक्रेसी’ का शाब्दिक अर्थ लिखें।
उत्तर-
जनता का शासन।

प्रश्न 5.
लोकतंत्र की साधारण परिभाषा लिखें।
उत्तर-
लोकतंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें शासकों का चुनाव जनता द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 6.
क्या नेपाल में लोकतंत्र है? अपने उत्तर के पक्ष में एक तर्क लिखें।
उत्तर-
नेपाल में लोकतंत्र है क्योंकि लोगों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार है।

प्रश्न 7.
लोकतंत्र की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता लिखें।
उत्तर-
लोकतंत्र, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव पर आधारित होना चाहिए।

प्रश्न 8.
सऊदी अरब में लोकतंत्र न होने का कारण लिखें।
उत्तर-
सऊदी अरब का राजा जनता द्वारा निर्वाचित नहीं है।

प्रश्न 9.
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का एक गुण लिखें।
उत्तर-
लोकतंत्र में नागरिकों को अधिकार एवं स्वतंत्रताएं प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 10.
लोकतंत्र का एक दोष लिखें।
उत्तर-
लोकतंत्र में गुणों की अपेक्षा संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

प्रश्न 11.
लोकतंत्र की एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-
प्रो० सीले के अनुसार, “प्रजातंत्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति भाग लेता है।”

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

प्रश्न 12.
लोकतंत्र की सफलता के लिए दो आवश्यक शर्ते लिखें।
उत्तर-

  1. जागरूक नागरिकता प्रजातंत्र की सफलता की प्रथम शर्त है।
  2. प्रजातंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातंत्र के लिए प्रेम होना चाहिए।

प्रश्न 13.
जब शासन की सभी शक्तियां एक व्यक्ति में केंद्रित हों तो उस शासन प्रणाली को क्या कहा जाता है?
उत्तर-
तानाशाही।

प्रश्न 14.
वर्तमान युग में लोकतंत्र का कौन-सा रूप प्रचलित है?
उत्तर-
प्रतिनिधित्व लोकतंत्र अथवा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र।

प्रश्न 15.
प्रतिनिधित्व लोकतंत्र की एक विशेषता लिखें।
उत्तर-
प्रतिनिधित्व लोकतंत्र में लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधि शासन चलाते हैं।

प्रश्न 16.
तानाशाही की एक विशेषता लिखें।
उत्तर-
तानाशाही में एक व्यक्ति या एक पार्टी का शासन होता है। सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 17.
“लोकतंत्र अन्य सभी शासन प्रणालियों से उत्तम है।” एक कारण बताओ।
उत्तर-
लोकतंत्र अन्य शासन प्रणालियों से श्रेष्ठ है क्योंकि यह अधिक उत्तरदायी शासन प्रणाली है और लोगों की आवश्यकताओं एवं हितों का भी ध्यान रखा जाता है।

प्रश्न 18.
क्या मैक्सिको (Mexico) में लोकतंत्र है? अपने उत्तर के पक्ष में एक तर्क लिखें।
उत्तर-
मैक्सिको में लोकतंत्र नहीं है क्योंकि वहां पर चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं होते।

प्रश्न 19.
किन्हीं दो देशों का नाम लिखें जहाँ पर लोकतंत्र नहीं पाया जाता।
उत्तर-

  1. चीन
  2. उत्तरी कोरिया।

प्रश्न 20.
चीन में सदैव किस पार्टी की सरकार बनती है ?
उत्तर-
चीन में सदैव साम्यवादी पार्टी की सरकार बनती है।

प्रश्न 21.
मैक्सिको में 1930 से 2000 तक किस पार्टी को जीत मिलती रही ?
उत्तर-
मैक्सिको में 1930 से 2000 तक पी० आर० आई० (इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी) को ही जीत मिलती रही।

प्रश्न 22.
फिजी के लोकतंत्र में क्या कमी है ?
उत्तर-
फिजी में फिजीअन लोगों के वोट की कीमत भारतीय लोगों के वोट की कीमत से अधिक होती है।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकतंत्र का अर्थ बताओ।
उत्तर-
लोकतंत्र (Democracy) ग्रीक भाषा के दो शब्दों डिमोस (Demos) और क्रेटिया (Cratia) से मिल कर बना है। डिमोस का अर्थ है ‘लोग’ और ‘क्रेटिया’ का अर्थ है ‘शासन’ या सत्ता। इस प्रकार डेमोक्रेसी का शाब्दिक अर्थ है वह शासन जिसमें शासन या सत्ता लोगों के हाथों में हो। दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र का अर्थ है प्रजा का शासन।

प्रश्न 2.
प्रत्यक्ष प्रजातंत्र किसे कहते हैं?
उत्तर-
प्रत्यक्ष प्रजातंत्र ही प्रजातंत्र का वास्तविक रूप है। जब जनता स्वयं कानून बनाए, राजनीति को निश्चित करे तथा सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण रखे, उस व्यवस्था को प्रत्यक्ष प्रजातंत्र कहते हैं। समय-समय पर समस्त नागरिकों की सभा एक स्थान पर बुलाई जाती है और उनमें सार्वजनिक मामलों पर विचार होता है। गांव की ग्राम सभा प्रत्यक्ष प्रजातंत्र का सरल उदाहरण है।

प्रश्न 3.
तानाशाही का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
तानाशाही में शासन की सत्ता एक व्यक्ति में निहित होती है। तानाशाह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है और वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। वह तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक शासन की शक्ति उसके हाथों में रहती है। फोर्ड ने तानाशाही की परिभाषा देते हुए कहा है, “तानाशाही राज्य के अध्यक्ष द्वारा गैर-कानूनी शक्ति प्राप्त करना है।”

प्रश्न 4.
तानाशाही की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर-

  1. राज्य की निरंकुशता-राज्य निरंकुश होता है। तानाशाह की शक्तियां असीमित होती हैं।
  2. एक नेता का गुण-गान-तानाशाही में नेता का गुण-गान किया जाता है। नेता में पूर्ण विश्वास किया जाता है और उसे राष्ट्रीय एकता का प्रतीक माना जाता है।
  3. राजनीतिक दल का अभाव या एक-दलीय व्यवस्था-तानाशाही शासन व्यवस्था में या तो कोई राजनीतिक दल नहीं होता या एक ही दल होता है।
  4. अधिकारों और स्वतंत्रताओं का न होना-तानाशाही में नागरिकों को अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं से वंचित कर दिया जाता है।

प्रश्न 5.
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली और अलोकतांत्रिक शासन प्रणाली में दो अंतर लिखें।
उत्तर-

  1. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में शासन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाया है। अलोकतांत्रिक शासन में शासन एक व्यक्ति या एक पार्टी द्वारा चलाया जाता है।
  2. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में चुनाव नियमित, स्वतंत्र व निष्पक्ष होना अनिवार्य है। अलोकतांत्रिक शासन प्रणाली में चुनावों का होना आवश्यक नहीं है। यदि चुनाव होते हैं तो स्वतंत्र व निष्पक्ष नहीं होते।

PSEB 9th Class SST Solutions Civics Chapter 2 लोकतंत्र का अर्थ एवं महत्त्व

प्रश्न 6.
लोकतंत्र के मार्ग में आने वाली किन्हीं दो बाधाओं का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. अनपढ़ता-लोकतंत्र के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा अनपढ़ता है। अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अधिकारों का ज्ञान होता है और न कर्त्तव्यों का। वह मताधिकार का महत्त्व नहीं समझ पाता।
  2. सामाजिक असमानता-लोकतंत्र की दूसरी गंभीर बाधा सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असंतोष को बढ़ावा दिया है। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं।

प्रश्न 7.
“एक व्यक्ति एक वोट’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘एक व्यक्ति एक वोट’ से अभिप्राय जाति, धर्म, वर्ग, लिंग तथा वंश के भेदभाव के बिना सभी को मताधिकार का समान अधिकार प्रदान करना। वास्तव में एक व्यक्ति एक वोट राजनीतिक समानता का ही दूसरा नाम हैं। राष्ट्र निर्माण एवं राष्ट्रीय एकता के लिए एक व्यक्ति एक वोट का अधिकार आवश्यक है।

प्रश्न 8.
पाकिस्तान में लोकतंत्र को कैसे खत्म किया गया ?
उत्तर-
1999 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने सैनिक षड्यंत्र करके लोकतांत्रिक सरकार को खत्म करके सत्ता हथिया ली। संसद् द्वारा प्रांतों की असैंबलियों की शक्तियां भी कम कर दी गई। एक कानून पास करके स्वयं को राष्ट्रपति घोषित कर दिया तथा व्यवस्था कर दी कि राष्ट्रपति जब चाहे संसद् को भंग कर सकता है। इस प्रकार वहां पर मुशर्रफ ने पाकिस्तान में लोकतंत्र को खत्म कर दिया।

प्रश्न 9.
चीन में लोकतंत्र क्यों नहीं है ?
उत्तर-चाहे चीन में प्रत्येक पांच वर्ष के पश्चात् चुनाव होते हैं परंतु वहां पर केवल एक राजनीतिक दल साम्यवादी दल है। लोगों को केवल उस दल को ही वोट देना पड़ता है। साम्यवादी दल द्वारा मनोनीत उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते हैं। संसद् के कुछ सदस्य सेना से भी लिए जाते हैं। जिस देश में कोई विरोधी दल या चुनाव लड़ने के लिए दूसरा दल न हो वहां पर लोकतंत्र हो ही नहीं सकता है।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्

प्रश्न 1.
लोकतंत्र की मुख्य विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
लोकतंत्र की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. जनता की प्रभुसत्ता-प्रजातंत्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है और जनता ही शक्ति का स्रोत होती है।
  2. जनता का शासन-प्रजातंत्र में शासन जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर चलाया जाता है। प्रजातंत्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से लिया जाता है।
  3. जनता का हित-प्रजातंत्र में शासन जनता के हित के लिए चलाया जाता है।
  4. समानता-समानता प्रजातंत्र का मूल आधार है। प्रजातंत्र में प्रत्येक मनुष्य को समान समझा जाता है। जन्म, जाति, शिक्षा, धन आदि के आधार पर मनुष्यों में भेद-भाव नहीं किया जाता। सभी मनुष्यों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होता है। कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होते हैं।
  5. वयस्क मताधिकार-प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट डालने का अधिकार होना चाहिए। प्रत्येक वोट का मूल्य एक ही होना चाहिए।
  6. निर्णय लेने की शक्ति-निर्णय लेने की अंतिम शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होनी चाहिए।
  7. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव-लोकतंत्र में चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होने चाहिए ताकि सत्ता में बैठे लोग भी चुनाव हार सकें।
  8. कानून का शासन-लोकतंत्र में कानून का शासन होता है। सभी कानून के सामने समान होते हैं। कानून सर्वोत्तम होता है।

प्रश्न 2.
लोकतंत्र के गुण लिखें।
उत्तर-
प्रजातंत्र में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं-

  1. यह सर्वसाधारण के हितों की रक्षा करता है-प्रजातंत्र की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें राज्य के किसी विशेष वर्ग के हितों की रक्षा न करके समस्त जनता के हितों की रक्षा की जाती है। प्रजातंत्र में शासक सत्ता को एक अमानत मानते हैं और उसका प्रयोग सार्वजनिक कल्याण के लिए किया जाता है।
  2. यह जनमत पर आधारित है-प्रजातंत्र शासन जनमत पर आधारित है अर्थात् शासन जनता की इच्छानुसार चलाया जाता है। जनता अपने प्रतिनिधियों को निश्चित अवधि के लिए चुनकर भेजती है। यदि प्रतिनिधि जनता की इच्छानुसार शासन नहीं चलाते तो उन्हें दोबारा नहीं चुना जाता है। इस शासन प्रणाली में सरकार जनता की इच्छाओं की ओर विशेष ध्यान देती है।
  3. यह समानता के सिद्धांत पर आधारित है-प्रजातंत्र में सभी नागरिकों को समान माना जाता है। किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, लिंग के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं दिये जाते। प्रत्येक वयस्क को बिना भेदभाव के मतदान, चुनाव लड़ने तथा सार्वजनिक पद प्राप्त करने का समान अधिकार प्राप्त है। सभी मनुष्यों को कानून के सामने समान माना जाता है।
  4. राजनीतिक शिक्षा-लोकतंत्र में नागरिकों को अन्य शासन प्रणालियों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक शिक्षा मिलती है।
  5. क्रांति का डर नहीं-लोकतंत्र में क्रांति की संभावना बहुत कम होती है।
  6. नागरिकों के गौरव में वृद्धि-लोकतंत्र में नागरिकों के गौरव में वृद्धि होती है।
  7. विवादों एवं मतभेदों का हल-लोकतंत्र में विवादों और मतभेदों को दूर किया जाता है। सभी समस्याओं का हल शांतिपूर्ण तरीकों से किया जाता है।

प्रश्न 3.
लोकतंत्र के मुख्य दोष लिखें।
उत्तर-
जहां एक ओर लोकतंत्र में इतने गुण पाए जाते हैं वहीं दूसरी ओर इसमें निम्नलिखित अवगुण भी पाए जाते

  1. यह अज्ञानियों, अयोग्य तथा मूल् का शासन है-प्रजातंत्र को अयोग्यता की पूजा बताया जाता है। इसका कारण यह है कि जनता में अधिकांश व्यक्ति अयोग्य, मूर्ख, अज्ञानी तथा अनपढ़ होते हैं।
  2. यह गुणों के स्थान पर संख्या को अधिक महत्त्व देता है-प्रजातंत्र में गुणों की अपेक्षा संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यदि किसी विषय को 60 मूर्ख ठीक कहें और 59 बुद्धिमान गलत कहें तो मूल् की ही बात को माना जाएगा। इस प्रकार लोकतंत्र में मूों का शासन होता है।
  3. यह उत्तरदायी शासन नहीं है-वास्तव में प्रजातंत्र अनुत्तरदायी शासन है। इसमें नागरिक केवल चुनाव वाले दिन ही संप्रभु होते हैं। परंतु चुनावों के पश्चात् नेता जानते हैं कि जनता उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती अतः अपनी मनमानी करते हैं।
  4. यह बहुत खर्चीला है-लोकतंत्र में आम चुनावों का प्रबंध पर बहुत धन खर्च हो जाता है।
  5. अमीरों का शासन-लोकतंत्र कहने को तो प्रजा का शासन है परंतु वास्तव में यह अमीरों का शासन है।
  6. अस्थायी तथा कमजोर शासन-लोकतंत्र में नेतृत्व में शीघ्र परिवर्तन होने के कारण सरकार अस्थायी तथा कमज़ोर होती है। बहु-दलीय प्रणाली के अंतर्गत किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने के कारण मिली-जुली सरकार बनाई जाती है। मिली-जुली सरकार अस्थायी और कमजोर होती है।
  7. भ्रष्टाचार-लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  8. नैतिक स्तर में गिरावट-चुनाव में विजयी होने के लिए सभी तरह के साधनों का प्रयोग किया जाता है जिससे नैतिक स्तर में गिरावट आती है।

प्रश्न 4.
क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दें।
उत्तर-
वर्तमान युग में संसार के अधिकांश देशों में लोकतंत्र पाया जाता है। लोकतंत्र को स्वतंत्र, कुलीनतंत्र, तानाशाही इत्यादि शासन प्रणालियों से निम्नलिखित कारणों से उत्तम माना जाता है।

  1. लोगों के हितों की रक्षा-लोकतंत्र अन्य शासन प्रणालियों से उत्तम है क्योंकि इसमें जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। लोकतंत्र में किसी विशेष वर्ग के हितों की रक्षा न करके समस्त जनता के हितों की रक्षा की जाती है।
  2. जनमत पर आधारित-लोकतंत्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जो जनमत पर आधारित है। शासन जनता की इच्छानुसार चलाया जाता है।
  3. उत्तरदायी शासन-लोकतंत्र श्रेष्ठ है क्योंकि लोकतंत्र में सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। जो सरकार लोगों के हितों की रक्षा नहीं करती उसे बदल दिया जाता है।
  4. नागरिकों के गौरव में वृद्धि-लोकतंत्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें नागरिकों के गौरव में वृद्धि होती है। सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। जब एक आम नागरिक के घर बड़े-बड़े नेता वोट मांगने आते हैं तो उससे उसके गौरव की वृद्धि होती है।
  5. समानता पर आधारित-सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त होता है और कानून के सामने भी सभी नागरिकों को समान माना जाता है।
  6. विचार-विमर्श एवं वाद-विवाद-लोकतंत्र में अच्छे निर्णय लिए जाते हैं, क्योंकि सभी निर्णय विचारविमर्श और वाद-विवाद से लिए जाते हैं।
  7. आलोचना का अधिकार-प्रजातंत्र में सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है।
  8. निर्णयों पर पुनर्विचार-लोकतंत्र अन्य शासन प्रणालियों से उत्तम है क्योंकि इसमें गलत निर्णयों को बदलना आसान है। लोकतंत्र में भी गलत निर्णय हो सकते हैं पर सार्वजनिक वाद-विवाद के बाद उन्हें बदला जा सकता है।

प्रश्न 5.
मैक्सिको में कैसे लोकतंत्र का दमन किया जाता रहा है ?
उत्तर-
मैक्सिको को 1930 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई तथा वहां प्रत्येक 6 वर्ष के पश्चात् राष्ट्रपति के चुनाव होते थे। परंतु सन् 2000 तक वहां केवल PRI (संस्थागत क्रांतिकारी दल) ही चुनाव जीतती आई है। इसके कुछ कारण हैं जैसे कि

  1. PRI शासित दल होने के कारण कुछ अनुचित साधनों का प्रयोग करती थी ताकि चुनाव जीते जा सकें।
  2. सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों को पार्टी की सभाओं में मौजूद रहने के लिए बाध्य किया जाता था।
  3. सरकारी अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों के माता-पिता को PRI के पक्ष में वोट देने के लिए कहने को कहा जाता था।
  4. अंतिम क्षणों में मतदान वाले दिन मतदान केंद्र ही बदल दिया जाता था ताकि लोग वोट ही न दे पाएं। इस प्रकार वहां पर निष्पक्ष मतदान नहीं हो पाते थे तथा लोकतंत्र का दमन किया जाता था।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 6 लिंग असमानता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 6 लिंग असमानता

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लिंग वर्ग संबंध व्याख्या करता है-
(क) पुरुष व स्त्री में असमानता
(ख) पुरुष शक्ति व स्त्री शक्ति के मध्य संबंध
(ग) पुरुष शक्ति व स्त्री शक्ति पर प्रबलता
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(ख) पुरुष शक्ति व स्त्री शक्ति के मध्य संबंध।

प्रश्न 2.
ट्रांसजेंडर का अर्थ है-
(क) पुरुष
(ख) स्त्री
(ग) तीसरा लिंग वर्ग
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(ग) तीसरा लिंग वर्ग।

प्रश्न 3.
नारीवाद के सिद्धान्त दिए गए हैं-
(क) कार्ल मार्क्स द्वारा
(ख) अगस्त काम्टे द्वारा
(ग) वैबर द्वारा
(घ) इमाइल दुर्थीम द्वारा।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स द्वारा।

प्रश्न 4.
लिंग भेदभाव क्या है ?
(क) व्यावहारिक अधीनता
(ख) निष्कासन
(ग) अप्रतिभागिता
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 5.
लिंग अनुपात का अभिप्राय है
(क) 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या
(ख) 1000 स्त्रियों पर पुरुषों की संख्या
(ग) 1000 स्त्रियों पर बच्चों की संख्या
(घ) स्त्रियों व पुरुषों की संख्या।
उत्तर-
(क) 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

B. रिक्त स्थान भरें-

1. …………. से भाव पुरुष प्रधान परिवार में पिता की अहम् भूमिका है।
2. ………….. स्त्रियों की अधीनता से जुड़ा हुआ मौलिक मुद्दा है।
3. ………. नारीवाद पितृवाद के सार्वभौमिक स्वभाव को केन्द्रीय मानते हैं।
4. …………. परिवार पैतृक प्रधान होते हैं।
5. भारत की जनगणना 2011 दर्शाती है कि 1000 पुरुषों पर …….. स्त्रियां हैं।
उत्तर-

  1. पितृपक्ष की प्रबलता
  2. नारीवाद
  3. प्रगतिशील
  4. पितृसत्तात्मक
  5. 943.

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. लिंग वर्ग समाजीकरण ने नारी अधीनता को संस्थागत किया है।
2. लिंग अनुपात का अर्थ है 1000 स्त्रियों पर पुरुषों की संख्या।
3. तीसरा लिंग का अर्थ उन व्यक्तियों से है जिनमें पुरुष व स्त्री दोनों प्रकार के लक्षण हों।
4. उदार नारीवाद विश्वास रखता है कि सभी व्यक्ति समान व महत्त्वपूर्ण हैं।
उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. सही
  4. सही।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
लिंग स्थिति — पिता की अहम् भूमिका
पैतृक प्रधानता — अपेक्षित दृष्टिकोण व व्यवहार
साइमन डे० व्योवर — जैविकीय श्रेणी
लिंग वर्ग भूमिका — विण्डीकेशन ऑफ द राइटस ऑफ वुमन
वाल्स्टोन क्राफ्ट– द सैकण्ड सैक्स
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
लिंग स्थिति — जैविकीय श्रेणी
पैतृक प्रधानता — पिता की अहम् भूमिका
साइमन डे० व्योवर — द सैकण्ड सैक्स
लिंग वर्ग भूमिका — अपेक्षित दृष्टिकोण व व्यवहार
वाल्स्टोन क्राफ्ट– विण्डीकेशन ऑफ द राइटस ऑफ वुमन

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. लिंग वर्ग सम्बन्ध से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-लिंग वर्ग सम्बन्ध का अर्थ है पुरुष व स्त्री के सम्बन्ध जो विचारधारा, सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक मुद्दों पर आधारित है।

प्रश्न 2. लिंग स्थिति की परिभाषा दें।
उत्तर-लिंग स्थिति एक जैविक श्रेणी है जिसमें उन जैविक या मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को शामिल किया गया है जिसमें स्त्रियों व पुरुषों के बीच अंतरों को दर्शाया गया है।

प्रश्न 3. 0-6 वर्ष के 1000 लड़कों के पीछे लड़कियों की संख्या क्या कहलाती है ?
उत्तर-इसे बाल लिंग अनुपात कहते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

प्रश्न 4. 1000 पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या क्या कहलाती है ?
उत्तर-इसे लिंग अनुपात कहते हैं।

प्रश्न 5. पुरुष प्रधान परिवारों को क्या कहते हैं ?
उत्तर- यह वह परिवार होते हैं जिनमें पिता की प्रधानता होती है तथा घर में पिता की सत्ता चलती है।

प्रश्न 6. लिंग वर्ग की परिभाषा दें।
उत्तर- शब्द लिंग वर्ग समाज की तरफ से बनाया गया है। इस शब्द का अर्थ है वह व्यवहार जो सामाजिक प्रथाओं से बनता है।

प्रश्न 7. लिंग वर्ग सम्बन्ध से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-देखें प्रश्न 1.

प्रश्न 8. पैतृक प्रधानता क्या है ?
उत्तर- यह वह सामाजिक व्यवस्था है जिसमें पिता की सत्ता चलती है, उसकी आज्ञा मानी जाती है तथा वंश का नाम भी पिता के नाम से ही चलता है।

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न मन

प्रश्न 1.
लिंग (Sex) तथा लिंग वर्ग (Gender) भेदभाव में जाति की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
लिंग तथा लिंग वर्ग भेदभाव में जाति की बहुत बड़ी भूमिका है। जाति ने अपने प्रबल समय में स्त्रियों पर बहुत से प्रतिबन्ध लगा दिए। वह शिक्षा नहीं ले सकती थी, घर से बाहर नहीं जा सकती थी, सम्पत्ति नहीं रख सकती थी। इस प्रकार उनकी स्थिति निम्न हो गई तथा लिंग आधारित भेदभाव शुरू हो गया।

प्रश्न 2.
लिंग वर्ग समानता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
लिंग वर्ग समानता का अर्थ है समाज में लिंग आधारित भेदभाव न हो तथा सभी को समान अधिकार प्राप्त हों। स्त्रियों को भी वह अधिकार प्राप्त हों जो पुरुषों को प्राप्त होते हैं। चाहे संविधान ने सभी को समान अधिकार दिए हैं परन्तु आज भी स्त्रियां समान अधिकारों के लिए जूझ रही हैं।

प्रश्न 3.
क्या लिंग वर्ग समाजीकरण लिंग भेदभाव का संकेत है ? संक्षेप में बताएं।
उत्तर-
जी हां, लिंग वर्ग समाजीकरण वास्तव में भेदभाव का प्रतीक है क्योंकि बचपन से ही बच्चों को लिंग के अनुसार रहने की शिक्षा दी जाती है। उनसे यह आशा की जाती है कि वह अपने लिंग अनुसार स्थापित नियमों के अनुसार व्यवहार करें जिसमें साफ भेदभाव झलकता है।

प्रश्न 4.
क्या पैतृक प्रधानता स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा का कारण है ? संक्षेप में टिप्पणी करें।
उत्तर-
हमारा समाज प्रकृति से ही पैतृक प्रधान है जिसमें पुरुषों की प्रधानता होती है तथा घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय पुरुष ही करते हैं। इसमें लड़कियों को सिखाया जाता है कि वह लड़कों से कमज़ोर है जिसका फायदा पुरुष उठाते हैं तथा स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा करते हैं।

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IV. दीर्य उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नारीवाद के सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नारीवाद आन्दोलनों तथा विचारधाराओं का एक संग्रह है जिनका उद्देश्य स्त्रियों के लिए समान राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों को परिभाषित करना, उन्हें स्थापित तथा उनकी रक्षा करना है। इसमें शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में स्त्रियों के लिए समान अवसरों की स्थापना करने की मांग करना शामिल है। नारीवादी सिद्धान्तों का उद्देश्य लिंग आधारित असमानता की प्रकृति तथा कारणों को समझना व इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले लिंग वर्ग भेदभाव की राजनीति तथा शक्ति संतुलन के सिद्धान्तों पर इसके प्रभाव की व्याख्या करना है।

प्रश्न 2.
सार्वजनिक क्षेत्र में लिंग वर्ग भेदभाव के उदाहरण दें।
उत्तर-
इसमें कोई शक नहीं है कि जनतक क्षेत्र में लिंग आधारित भेदभाव होता है। जनतक क्षेत्र का अर्थ है राजनीतिक। अगर हम देश की राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी का प्रतिशत देखें तो यह काफ़ी कम है। देश की संसद् में चुनी जाने वाली स्त्रियों की संख्या कभी भी 15% से अधिक नहीं हुई है। 2009-14 वाली 15वीं लोकसभा में यह संख्या 10% थी जो 2014-19 वाली 16वीं लोकसभा में 12% ही रह गई। इससे हमें लैंगिक भेदभाव का पता चलता है। हमारी वैधानिक संस्थाओं में स्त्रियों के लिए 33% स्थान आरक्षित करने का बिल अभी तक पास नहीं हुआ है जिससे पता चलता है कि लैंगिक भेदभाव चल रहा है। स्थानीय स्वैः संस्थाओं में चाहे स्त्रियों के लिए 33% स्थान आरक्षित हैं परन्तु वास्तव में सारा कार्य उनके पति ही करते हैं जो जनतक क्षेत्र में लिंग वर्ग भेदभाव दर्शाता है।

प्रश्न 3.
लिंग वर्ग भेदभाव में जाति की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
अगर हम भारतीय समाज के इतिहास को देखें तो हमें पता चलता है कि लिंग वर्ग भेदभाव का सबसे बड़ा कारण ही जाति प्रथा है। जब हमारे समाज में जाति नहीं थी, उस समय स्त्रियों को बहुत से अधिकार प्राप्त थे तथा समाज में उन्हें ऊँचा दर्जा प्राप्त था। परन्तु जाति प्रथा के आने के पश्चात् यह स्थिति निम्न होनी शुरू हो गई। जाति प्रथा में स्त्रियों को अपवित्र समझा जाता था जिस कारण उनके साथ कई निर्योग्यताएं जोड़ दी गईं। बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी बुराइयों ने स्थिति को और खराब कर दिया। मध्य काल में जाति प्रथा ने स्त्रियों पर और कठोर प्रतिबन्ध लगा दिए ताकि मुसलमान उनसे विवाह न कर पाएं। इससे स्थिति और खराब हो गई। सती प्रथा तथा बहुविवाह जैसी प्रथाओं ने आग में घी डालने का कार्य किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लिंग वर्ग भेदभाव में जाति प्रथा की काफ़ी बड़ी भूमिका है।

प्रश्न 4.
लिंग वर्ग भेदभाव में धर्म की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
लिंग वर्ग भेदभाव में हम धर्म की भूमिका को नकार नहीं सकते। धर्म ने भी स्त्रियों के प्रति भेदभाव सामने लाने में काफ़ी बड़ी भूमिका अदा की है। धर्म तथा जाति के कारण स्त्रियों को अपवित्र कहा गया। महीने के कुछ दिनों में उनके मंदिर जाने तथा धार्मिक कार्य करने पर पाबंदी लगा दी गई। आज भी इन प्रथाओं का पालन किया जाता है। देश के कई मंदिरों में आज भी स्त्रियां नहीं जा सकती क्योंकि उन्हें अपवित्र समझा जाता है। जब भारत पर दूसरे धर्म के लोगों ने हमला किया तो अलग-अलग धर्मों ने स्त्रियों पर बहुत-सी पाबंदियां लगा दी। ये पाबंदियां आज भी जारी हैं। चाहे आजकल लोगों में पढ़ने-लिखने के कारण धर्म का प्रभाव कम हो गया है परन्तु फिर भी लोग धर्म के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करते तथा धर्म भी लिंग वर्ग भेदभाव का एक कारण बन जाता है।

प्रश्न 5.
नगरीय भारत तथा ग्रामीण भारत में लिंग वर्ग के समाजीकरण पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
लिंग वर्ग समाजीकरण में बच्चों को यह सिखाया जाता है कि उन्होंने अपने लिंग के अनुसार किस प्रकार व्यवहार करना है। लड़कियों को ठीक कपड़े डालने के बारे में बताया जाता है, उन्हें ठीक ढंग से उठने-बैठने के बारे में कहा जाता है, उन्हें एक दायरे में रहना सिखाया जाता है तथा पारिवारिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखने के लिए कहा जाता है। लिंग वर्ग समाजीकरण में ही लिंग वर्ग भेदभाव छुपा हुआ है। ग्रामीण भारत में तो यह काफ़ी अधिक होता है क्योंकि लोग कम पढ़े-लिखे होते हैं तथा पुरानी प्रथाओं से जुड़े होते हैं। चाहे नगरीय भारत की शिक्षा दर काफ़ी बढ़ गई है परन्तु फिर भी लड़कियों को एक विशेष ढंग से रहना सिखाया जाता है ताकि वे अपनी सीमा से बाहर न जाएं। यह सब कुछ लिंग वर्ग भेदभाव को ही बढ़ाता है।

V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नारीवाद के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का वर्णन करें।
अथवा
मार्क्सवादी नारीवाद पर चर्चा कीजिए।
अथवा
नारीवाद के उदारवादी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
अथवा
प्रगतिशील नारीवाद और उदारवादी नारीवाद पर नोट लिखिए।
उत्तर-
नारीवाद आंदोलन तथा विचारधाराओं का एक संग्रह है, जिनका उद्देश्य स्त्रियों के लिए समान राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों को परिभाषित करना, उनकी स्थापना व रक्षा करना है। इसमें शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में स्त्रियों के लिए समान मौकों की स्थापना करने की मांग शामिल है। नारीवादी सिद्धान्तों का उद्देश्य लिंग वर्ग असमानता की प्रकृति तथा कारणों को समझना तथा इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले लिंग वर्ग भेदभाव की राजनीति व शक्ति संतुलन के सिद्धान्तों पर इसके प्रभाव की व्याख्या करना है।

नारीवाद एक विचारधारा है जिसमें कई प्रकार के विचारों को शामिल करते हैं जैसे कि मार्क्सवादी नारीवाद, प्रगतिशील नारीवाद, उदारवादी नारीवाद इत्यादि। यह सिद्धान्त वास्तव में पितृ सत्ता के विचार पर बल देते हुए स्त्रियों के आंदोलन के तर्क का निर्माण करते हैं। नारीवाद का मुख्य मुद्दा स्त्रियों की अधीनता से जुड़ा हुआ है। नारीवाद से संबंधित प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन इस प्रकार हैं-

1. मार्क्सवादी नारीवाद (Marxist Feminism)—यह सिद्धान्त कार्ल मार्क्स के समाजवादी सिद्धान्त में से निकला है। यह सिद्धान्त बताता है कि किस प्रकार स्त्रियों के शोषण को समाज की संरचना में योजनाबद्ध ढंग से बुना गया। उन्होंने पितृ सत्ता तथा पूँजीवाद के सम्बन्धों पर ध्यान केन्द्रित किया। उनके अनुसार स्त्रियों पर अत्याचार विचारधारक प्रभुत्व का परिणाम है जोकि आर्थिक क्रियाओं में से निकला है। फ्रेडरिक एंजल्स के अनुसार पूँजीवाद के विकास तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति के सामने आने से समाज में स्त्रियों की स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आया है। उनका मानना था कि स्त्रियों की क्रियाएं परिवार में ही सीमित थी जबकि बुर्जुआ परिवार पितृ सत्तात्मक तथा शोषण पर आधारित थे क्योंकि पुरुष हमेशा ध्यान रखते थे कि जायदाद उनके पुत्र के पास ही जाए।

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2. प्रगतिशील नारीवाद (Radical Feminism)-उग्र नारीवाद पितृसत्ता की सर्वव्यापक प्रकृति पर ध्यान केंद्रित करता है तथा बताता है कि पुरुष स्त्रियों को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। Simonede Beauvoir ने एक पुस्तक लिखी ‘The Second Sex’ जिसमें उन्होंने कहा कि, “स्त्रियां पैदा नहीं हुई बल्कि बनाई गई हैं।” उनका कहना था कि गर्भपात अधिकार की मौजूदगी, प्रभावशाली जन्म दर पर नियन्त्रण तथा एक विवाह के खत्म होने से उन्हें अपने शरीर पर अधिक अधिकार होगा। इस विचारधारा के समर्थक विश्वास करते हैं कि स्त्रियों के शोषण का आधार उनका प्रजनन सामर्थ्य है जिस पर पुरुषों का नियन्त्रण होता है। उनका कहना था कि पितृसत्तात्मक प्राकृतिक अथवा आवश्यक नहीं है बल्कि इसकी जड़ें जैविकता से जुड़ी हैं। इससे परिवार में प्राकृतिक श्रम विभाजन हो गया तथा स्त्रियों की स्वतन्त्रता उस समय ही मुमकिन है जब लिंग वर्ग अंतरों को खत्म कर दिया जाए।

3. उदारवादी नारीवाद (Liberal Feminism)–उदारवादी नारीवाद के समर्थकों का विश्वास है कि सभी व्यक्ति महत्त्वपूर्ण हैं तथा सभी के साथ समानता वाला व्यवहार होना चाहिए। Mary Wollstone Craft ने 1972 में एक पुस्तक लिखी ‘Vindication of the Rights of Women’ । आधुनिक नारीवाद की यह प्रथम पुस्तक थी जिसने स्त्रियों के लिए वोट के अधिकार का समर्थन किया। उनका मानना था कि अगर स्त्रियों को प्राकृतिक अधिकारों के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो जाए तो राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में लिंग के अंतर का कोई महत्त्व ही नहीं रहेगा।

प्रश्न 2.
‘स्त्री पैदा नहीं हुई-बनाई गई है’ इस विषय पर अपने विचार विस्तार में दें।
उत्तर-
अस्तित्ववादी कहते हैं कि व्यक्ति पैदा नहीं होता बल्कि वह हमारे विकल्पों का परिणाम है क्योंकि हम स्वयं को अपने साधनों तथा समाज की तरफ से दिए साधनों से बनाते हैं। Simonde Beauvoir ने एक पुस्तक लिखी The Second Sex’ जिसमें उन्होंने मानवीय स्वतन्त्रता की एक अस्पष्ट तस्वीर पेश की कि स्त्रियां अपने शरीर के कारण कौन-सी असुविधाओं के साथ जी रही हैं। इस पुस्तक में उन्होंने बताया कि किस प्रकार स्त्रियां अपने शरीर तथा समय के साथ उसमें आने वाले परिवर्तनों को देखती हैं। यहां वह स्त्री के शरीर को सुविधा व असुविधा के रूप में देखती है तथा स्त्री को स्वतन्त्र तथा दबे हुए व्यक्ति के रूप में देखती है। वास्तव में यह स्त्री पर निर्भर करता है कि वह किस हद तक स्वयं को स्वतन्त्र वस्तु के रूप में देखती है या समाज की तरफ से घूरे जाने वाली वस्तु के रूप में देखती है।

कुछ व्यक्तियों के अनुसार स्त्री एक घूरने वाली वस्तु है जिसकी परिभाषा हम लिखते हैं। De Beauvoir इस विचार को उठाती हैं तथा इसे पुरुषों के स्त्रियों के बारे में विचार पर लागू करती हैं। स्त्री के बारे में यह विचार एक पुरुषों द्वारा परिभाषित संकल्प है जिसमें स्त्री को वस्तु समझा जाता है तथा पुरुष स्वयं को एक Subject समझता है। इस प्रकार शब्द ‘स्त्री’ का वह अर्थ है जो पुरुषों द्वारा दिया गया है। De Beauvoir कहती हैं कि स्त्रियों की जैविक स्थिति उनके विरुद्ध नहीं है बल्कि वह स्थिति है जो सकारात्मक या नकारात्मक बन जाती है। स्त्रियों के जैविक अनुभव जैसे कि गर्भवती होना, माहवारी, शारीरिक अंगों का उभार इत्यादि का स्वयं में कोई अर्थ नहीं है परन्तु विरोधी समाज में इन्हें एक बोझ समझा जाता है तथा पितृ सत्तात्मक समाज में इन्हें स्त्रियों के लिए एक असुविधा के रूप में देखा जाता है।

इस प्रकार चाहे स्त्री प्राकृतिक रूप से पैदा होती है परन्तु उसके बारे में अलग-अलग प्रकार के विचार अलग-अलग समाजों में अलग-अलग ही बनते हैं। कई समाजों में स्त्रियों को उपभोग करने वाली वस्तु समझा जाता है तथा उन पर कई प्रकार के अत्याचार होते हैं जैसे कि बलात्कार, छेड़छाड़, मारना पीटना, घरेलू हिंसा, दहेज, हत्या इत्यादि। यह सब कुछ समाज की मानसिकता के कारण होता है जो स्त्रियों के प्रति बनी हुई है। इस कारण ही राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी कम होती है। परन्तु कई समाज ऐसे भी हैं जहाँ स्त्रियों का काफ़ी सम्मान होता है तथा उनके विरुद्ध कोई अत्याचार नहीं किए जाते। वहां राजनीतिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी काफ़ी अधिक होती है तथा वे समाज के प्रत्येक क्षेत्र में भाग लेती हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह सब कुछ समाज पर निर्भर करता है कि वह स्त्री को किस रूप में देखता है। अगर उन्हें ऊँचा दर्जा नहीं दिया जाएगा तथा घूरने वाली वस्तु समझा जाएगा तो समाज कभी भी प्रगति नहीं कर पाएगा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्त्रियां पैदा नहीं होती बल्कि उन्हें बनाया जाता है।

प्रश्न 3.
क्या लिंग वर्ग असमानता भारत के लोकतांत्रिक समाज में वाद-विवाद का विषय है ?
उत्तर-
भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ देश के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के बहुत से अधिकार समान रूप से दिए गए हैं। हमारा एक मूलभूत अधिकार है कि सम्पूर्ण देश में समानता मौजूद है अर्थात् व्यक्ति किसी भी जाति, लिंग, धर्म, रंग इत्यादि का हो, सब के साथ समान व्यवहार किया जाएगा। परन्तु अगर हम देश में वास्तविकता देखें तो समानता मौजूद नहीं है। बहुत से क्षेत्रों में स्त्रियों के साथ भेदभाव किया जाता है। हम अलग-अलग क्षेत्रों में लैंगिक असमानता की मौजूदगी देख सकते हैं तथा यह ही देश में लोकतांत्रिक समाज के होने पर प्रश्न खड़ा करती है। इसकी कई उदाहरणें हम दे सकते हैं जैसे कि-

(i) देश के निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्त्रियों की भागीदारी अधिक नहीं है। ग्रामीण तथा नगरीय समाजों में स्त्रियों के पास अपनी इच्छा से कुछ करने की स्वतन्त्रता नहीं होती। उन्हें वह ही करना पड़ता है जो उनके परिवार की इच्छा होती है। परिवार की इच्छा के बिना वह कुछ नहीं कर सकती।

(ii) जब भी जाति, रिश्तेदारी या धर्म का सवाल होता है तो स्त्रियों को ही निशाना बनाया जाता है। अगर हम ध्यान से देखें तो हम कह सकते हैं कि स्त्रियां पितृसत्ता की कैदी हैं। उनकी जब भी पुरुषों से तुलना की जाती है तो हमेशा ही उनके साथ भेदभाव होता है जो लोकतन्त्र की आत्मा के विरुद्ध है।

(iii) स्त्रियां सरकारी नौकरियां कर रही हैं तथा प्राइवेट भी। चाहे सरकारी क्षेत्र में स्त्री तथा पुरुष को एक जैसे कार्य के लिए समान वेतन मिलता है परन्तु प्राइवेट क्षेत्र में ऐसा नहीं होता। वहां पर स्त्रियों को पुरुषों से कम वेतन मिलता है तथा उनका काफ़ी शोषण भी किया जाता है जो हमारे मूलभूत अधिकारों के विरुद्ध है।

(iv) कम होता लिंग अनुपात भी हमें लिंग वर्ग भेदभाव के बारे में बताता है। स्त्रियों को एक निशाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। राजनीतिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता।

(v) संविधान ने स्त्रियों को समान अधिकार दिए हैं तथा कई कानूनों से उन्हें अपने पिता की सम्पत्ति में अपना हिस्सा लेने का अधिकार दिया गया है। परन्तु अगर वह अपने भाइयों से पिता की सम्पत्ति में हिस्सा मांगती हैं तो उनकी हमेशा आलोचना की जाती है तथा बात न्यायालय तक पहुँच जाती है।

(vi) इन उदाहरणों को देख कर हम कह सकते हैं कि भारतीय समाज के लोकतांत्रिक होने पर प्रश्न चिह्न खड़ा होता है। जब तक हम स्त्रियों की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में समानता सुनिश्चित नहीं करते, उस समय तक हम अपने देश को सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक नहीं कह सकते।

प्रश्न 4.
भारत के राजनीतिक क्षेत्र में लिंग वर्ग भेदभाव की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर-
अगर हम भारतीय राजनीति की तरफ देखें तो हमें कुछ ऐसे लक्षण मिल जाएंगे जो लिंग वर्ग भेदभाव को दर्शाते हैं। इनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है
(i) भारत की राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी काफ़ी कम है। अगर हम 1952 में गठित हुई प्रथम लोकसभा से लेकर 2014 में गठित हुई 16वीं लोकसभा की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि लोक सभा में उनकी भागीदारी काफ़ी कम है। प्रथम लोकसभा में केवल 22 स्त्रियां ही चुनकर आई थीं जो कि 5% के करीब बैठता है। परन्तु 2014 में बनी 16वीं लोकसभा में यह बढ़ कर 66 हो गया जो 12.2% बैठता है। इससे पता चलता है कि लोकसभा में उनकी भागीदारी कितनी कम है। यह सब कुछ नीचे दी गई सूची से स्पष्ट हो जाएगा :
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इस सूची को देखकर पता चलता है कि इस क्षेत्र में कितनी लिंग वर्ग असमानता मौजूद है।

(ii) राजनीतिक दल भी अधिक स्त्रियों के राजनीतिक क्षेत्र में आने के पक्ष में नहीं हैं। शायद इसका कारण यह है कि हमारा समाज पितृ प्रधान है तथा पुरुष स्त्रियों की आज्ञा मानने को तैयार नहीं होते। हमारी संसद् में एक बिल पेश किया गया था जिसके अनुसार देश की सभी वैधानिक संस्थाओं में स्त्रियों के लिए 33% स्थान आरक्षित रखने का प्रावधान था परन्तु वह बिल कई वर्ष बाद भी पास नहीं हो पाया है। इससे हमें पता चलता है कि राजनीति में किस प्रकार लिंग वर्ग भेदभाव जारी है।

(iii) यह भी देखा गया है कि चाहे स्त्रियां किसी राजनीतिक दल के बड़े नेताओं में शामिल हो जाती हैं परन्तु दल के निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भूमिका काफ़ी कम होती है। अगर उन्हें अपनी योग्यता साबित करने का मौका दिया जाता है तो उन्हें दल की महिला विंग का प्रधान बना दिया जाता है ताकि वह स्त्रियों से संबंधित मुद्दों को संभाल सकें। इस प्रकार लिंग वर्ग भेदभाव राजनीतिक दलों में साफ झलकता है।

(iv) हमारे देश में तीन प्रकार की सरकारें मिलती हैं—केंद्र सरकार, राज्य सरकारें तथा स्थानीय स्वैः संस्थाएं। स्थानीय स्वैः संस्थाओं में गांवों तथा नगरों दोनों संस्थाओं में स्त्रियों के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित रखे गए हैं जहां से केवल स्त्रियां ही चुनाव लड़ेंगी। उस स्थान पर स्त्री के चुनाव जीतने के पश्चात् सारा कार्य उनके पति करते हैं वह नहीं। बहुत ही कम स्त्रियां हैं जो अपना कार्य स्वयं करती हैं तथा अपने क्षेत्र का विकास करती हैं।

यहां आकर मुख्य मुद्दा सामने आता है कि राजनीतिक क्षेत्र तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्त्रियों की भागीदारी काफ़ी कम है। वह तो स्वयं को मुक्त रूप से प्रकट कर नहीं सकती हैं तथा विकास की प्रक्रिया से दूर हो जाती हैं।

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प्रश्न 5.
लिंग वर्ग भेदभाव किस प्रकार सर्वपक्षीय विकास में रुकावट है ? (P.S.E.B. 2017)
उत्तर-
इसमें कोई शक नहीं है कि लिंग वर्ग भेदभाव सर्वपक्षीय विकास के रास्ते में एक रुकावट है। हमारा समाज दो लिंगों के आपसी सहयोग पर टिका हुआ है तथा वह हैं पुरुष तथा स्त्री। समाज को चलाने व आगे बढ़ाने के लिए भी दोनों के सहयोग की आवश्यकता होती है। एक के न होने की स्थिति में समाज न तो आगे बढ़ सकेगा व न ही चल सकेगा। लिंग वर्ग भेदभाव तथा सर्वपक्षीय विकास को हम कुछ प्रमुख बिंदुओं पर रख सकते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है

(i) पुराने समय में श्रम विभाजन लिंग के आधार पर होता था। पुरुष खाने का प्रबन्ध करते थे तथा स्त्रियां घर संभालती थीं व बच्चों का पालन-पोषण करती थीं। इस सहयोग के कारण ही समाज ठीक ढंग से आगे बढ़ सका है।

(ii) आजकल के समय में भी पुरुष व स्त्री का सहयोग सर्वपक्षीय विकास के लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि अगर दोनों का सहयोग नहीं होगा तो एक घर का विकास नहीं हो सकता, समाज तो बहुत दूर की बात है।

(iii) यह कहा जाता है कि समाज की आधी जनसंख्या स्त्रियां ही हैं। अगर इस आधी जनसंख्या को विकास के क्षेत्र में भागीदार नहीं बनाया जाएगा तथा घर की चारदीवारी में बंद रखा जाएगा तो उस समाज की आय भी आधी ही रह जाएगी। वह आय आवश्यकताओं को ही मुश्किल से पूरा करेगी। परन्तु अगर वह आधी जनसंख्या आय बढ़ाने में भागीदार बनेगी तो परिवार, समाज तथा देश की प्रगति अवश्य हो जाएगी।

यहां हम एक उदाहरण ले सकते हैं भारतीय समाज व पश्चिमी समाजों की। भारतीय समाज में लिंग वर्ग भेदभाव काफ़ी अधिक है जिस कारण कई क्षेत्रों में स्त्रियां अपने मूलभूत अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती हैं तथा उन्हें सम्पूर्ण जीवन ही घर की चारदीवारी में व्यतीत करना पड़ता है। वह आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में भाग नहीं ले सकतीं जिस कारण देश का सर्वपक्षीय विकास नहीं हो सका है। इसके विपरीत अगर हम पश्चिमी देशों की तरफ देखें तो उनके आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी काफ़ी अधिक है। वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती हैं, पढ़ती हैं तथा पैसे कमाती हैं। इस कारण परिवार, समाज तथा देश का सर्वपक्षीय विकास हुआ है। दोनों समाजों की तुलना करके ही हमें अंतर पता चल जाता है। जहां पर लिंग वर्ग भेदभाव होता है, वहां विकास कम है तथा जहां लैंगिक भेदभाव नहीं होता वहां विकास ही विकास होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लैंगिक भेदभाव समावेशी विकास के रास्ते में एक रुकावट है।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लिंग के आधार पर समाज में कितने वर्ग मिलते हैं ?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार।
उत्तर-
(ख) दो।

प्रश्न 2.
लिंग शब्द एक ………. शब्द है।
(क) सामाजिक
(ख) जैविक
(ग) सामाजिक सांस्कृतिक
(घ) राजनीतिक।
उत्तर-
(ख) जैविक।

प्रश्न 3.
शब्द लिंग वर्ग कहां पर तैयार होता है ?
(क) घर
(ख) समाज
(ग) देश
(घ) संसार।
उत्तर-
(ख) समाज।

प्रश्न 4.
जब लिंग के आधार पर अंतर रखा जाता है तो उसे ……. कहते हैं।
(क) लिंग वर्ग समाजीकरण
(ख) लिंग वर्ग समानता
(ग) लिंग वर्ग भेदभाव
(घ) लिंग वर्ग संबंध।
उत्तर-
(ग) लिंग वर्ग भेदभाव।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

प्रश्न 5.
Simone de Beauvoir ने कौन-सी पुस्तक लिखी थी ?
(क) The Second Sex
(ख) The Third Sex
(ग) The Second Job
(घ) The Third Job.
उत्तर-
(क) The Second Sex.

प्रश्न 6.
प्रगतिशील नारीवाद किस चीज़ पर बल देता है ?
(क) पितृसत्ता
(ख) मातृसत्ता
(ग) लोकतन्त्र
(घ) राजशाही।
उत्तर-
(क) पितृसत्ता।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. संसार में दो प्रकार के लिंग …… तथा ………. पाए जाते हैं।
2. लिंग वर्ग असमानता का मुख्य कारण ……………… है।
3. …………. का अर्थ है घर में पिता की सत्ता।
4. मार्क्सवादी नारीवाद पितृ सत्ता तथा …………. के बीच संबंधों पर ध्यान देते हैं।
5. ………… ने किताब The Second Sex लिखी थी।
6. ………… का अर्थ पुरुष प्रधान समाज में पिता का शासन है।
उत्तर-

  1. स्त्री, पुरुष
  2. पितृसत्ता
  3. पितृसत्ता
  4. पूँजीवाद
  5. Simone de Beauvoir
  6. पैतृकता।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. प्रगतिशील नारीवाद कहता है कि सभी व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है।
2. प्रगतिशील नारीवाद कहता है कि स्त्रियों को दबाने में पुरुषों की काफ़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
3. बच्चों को लिंग अनुसार शिक्षा देने को लिंग वर्ग समाजीकरण कहते हैं।
4. लिंग वर्ग समाजीकरण भेदभाव बढ़ाने वाली प्रक्रिया है।
5. 2011 में 1000 पुरुषों के पीछे 914 स्त्रियां (0-6 वर्ष) थीं।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. सही
  4. सही
  5. सही।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. क्या समाज में स्त्रियों के साथ भेदभाव होता है ?
उत्तर-जी हां, समाज में स्त्रियों के साथ भेदभाव होता है।

प्रश्न 2. करवाचौथ क्या होता है ?
उत्तर-पत्नी अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती है जिसे करवाचौथ कहते हैं।

प्रश्न 3. पितृसत्ता में किसकी आज्ञा मानी जाती है ?
उत्तर-पितृसत्ता में घर के पुरुषों की आज्ञा मानी जाती है।

प्रश्न 4. लिंग क्या है ?
उत्तर-लिंग एक जैविक शब्द है जो पुरुष तथा स्त्री के बीच शारीरिक अंतरों के बारे में बताता है।

प्रश्न 5. लिंग वर्ग क्या है ?
उत्तर-लिंग वर्ग समाज की तरफ से बनाया गया शब्द है जिसमें बहुत सारे हालात आ जाते हैं जिनमें पुरुष व स्त्री के संबंध चलते हैं।

प्रश्न 6. लिंग वर्ग संबंधों में हम किस वस्तु का अध्ययन करते हैं ?
उत्तर-लिंग वर्ग संबंधों में हम लिंग वर्ग अधीनता का अध्ययन करते हैं।

प्रश्न 7. लिंग वर्ग समाजीकरण की नींव किस पर टिकी हई है ?
उत्तर-लिंग वर्ग समाजीकरण की नींव क्या, क्यों तथा क्या नहीं करना है पर टिकी हुई है।

प्रश्न 8. लिंग वर्ग समाजीकरण क्या है ?
उत्तर-जब समाज अपने बच्चों को लिंग के अनुसार व्यवहार करना सिखाता है, उसे लिंग वर्ग समाजीकरण कहते हैं।

प्रश्न 9. लिंग वर्ग भेदभाव क्या है ?
उत्तर-जब समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो उसे लिंग वर्ग भेदभाव कहते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

प्रश्न 10. लिंग अनुपात क्या होता है ?
उत्तर-एक विशेष क्षेत्र में 1000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या को लिंग अनुपात कहते हैं।

प्रश्न 11. कम होते लिंग अनुपात का मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर-कम होते लिंग अनुपात का मुख्य कारण है लिंग आधारित गर्भपात तथा लड़का प्राप्त करने की इच्छा।

III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जब हम लिंग वर्ग संबंधों की बात करते हैं तो किसके बारे में सोचते हैं ?
उत्तर-
जब हम लिंग वर्ग संबंधों की बात करते हैं तो चार बातों के बारे में सोचते हैं-

  • पुरुष व स्त्री के बीच असमानताएं।
  • पुरुष शक्ति व स्त्री शक्ति के बीच संबंध।
  • पुरुष शक्ति का स्त्रियों पर प्रभुत्व का अध्ययन करना।
  • आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी।

प्रश्न 2.
लिंग तथा लिंग वर्ग में क्या अंतर है ?
उत्तर-
लिंग एक जैविक धारणा है जो पुरुष तथा स्त्री के बीच शारीरिक अंतरों को दर्शाता है जबकि लिंग वर्ग समाज द्वारा बनाई गई एक धारणा है जिसमें वे राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक प्रस्थापनाएं होती हैं जिनमें स्त्री व पुरुष कार्य करते हैं।

प्रश्न 3.
लिंग वर्ग संबंध का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
लिंग वर्ग संबंध का अर्थ है स्त्रियों व पुरुषों के वह संबंध जो विचारधारक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक मुद्दों पर आधारित होते हैं। इसमें हम लिंग वर्ग प्रभुत्व, स्त्रियों की स्थिति को ऊँचा करने के मुद्दे तथा स्त्रियों से संबंधित समस्या को देखा जाता है।

प्रश्न 4.
लिंग वर्ग संबंधों में हम किन मुद्दों की बात करते हैं ?
उत्तर-
लिंग वर्ग संबंधों में हम कई मुद्दों की बात करते हैं जैसे कि विवाह तथा परिवार की संस्था, विवाह से पहले संबंध, वैवाहिक संबंध, विवाह के बाद बनने वाले संबंध, समलैंगिकता का मुद्दा, तीसरे लिंग का मुद्दा इत्यादि।

प्रश्न 5.
अलग-अलग समाजों में स्त्रियों की अधीनता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-
अलग-अलग समाजों में स्त्रियों की अधीनता कई मुद्दों पर निर्भर करती है : जैसे कि वर्ग, जाति, धर्म, शिक्षा, सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जिस प्रकार की समाज की प्रकृति होगी उस प्रकार की स्त्रियों की अधीनता होगी।

प्रश्न 6.
लिंग वर्ग समाजीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
लिंग वर्ग समाजीकरण का अर्थ है वह ढंग जिनसे समाज ध्यान रखता है कि बच्चे अपने लिंग से संबंधित ठीक व्यवहार सीखें। यह बच्चों को उनके लिंग अनुसार अलग-अलग समूहों में विभाजित कर देता है। इस प्रकार इससे समाज मानवीय व्यवहार को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 7.
लिंग वर्ग भेदभाव का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सम्पूर्ण जनसंख्या के बड़े हिस्से अर्थात् स्त्रियों से अधीनता, निष्काषन तथा गैर-भागीदारी वाला व्यवहार किया जाता है तथा उन्हें दरकिनार व नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। इस प्रकार के व्यवहार को लिंग वर्ग भेदभाव कहा जाता है।

प्रश्न 8.
लिंग अनुपात का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
एक विशेष क्षेत्र में 1000 पुरुषों की तुलना में मौजूद स्त्रियों की संख्या को लिंग अनुपात का नाम दिया जाता है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का लिंग अनुपात 1000 : 914 (0-6 वर्ष) था।

IV. लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अलग-अलग कालों में स्त्रियों की स्थिति।
उत्तर-
वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी अच्छी तथा ऊंची थी। इस काल में स्त्री को धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों को पूर्ण करने के लिए आवश्यक माना जाता है। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों का आदर सम्मान कम हो गया।

बाल-विवाह शुरू हो गए जिससे उसे शिक्षा प्राप्त करनी मुश्किल हो गई। स्मृति काल में स्त्री की स्थिति और निम्न हो गई। उसे हर समय निगरानी में रखा जाता था तथा उसका सम्मान केवल मां के रूप में ही रह गया था। मध्य काल में तो जाति प्रथा के कारण उसे कई प्रकार के प्रतिबन्धों के बीच रखा जाता था परन्तु आधुनिक काल में उसकी स्थिति को ऊंचा उठाने के लिए कई प्रकार की आवाजें उठीं तथा आज उसकी स्थिति मर्दो के समान हो गई है।

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प्रश्न 2.
स्त्रियों की निम्न स्थिति के कारण।
उत्तर-

  • संयुक्त परिवार प्रथा में स्त्री को घर की चारदीवारी तथा कई प्रकार के प्रतिबन्धों में रहना पड़ता था जिस कारण उसकी स्थिति निम्न हो गई।
  • समाज में मर्दो की प्रधानता तथा पितृ सत्तात्मक परिवार होने के कारण स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न हो गई।
  • बाल विवाह के कारण स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने का मौका प्राप्त नहीं होता था जिससे उनकी स्थिति निम्न हो गई।
  • स्त्रियों के अनपढ़ होने के कारण वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं थीं तथा उनकी स्थिति निम्न ही रही।
  • स्त्रियां मर्दो पर आर्थिक तौर पर निर्भर होती थीं जिस कारण उन्हें अपनी निम्न स्थिति को स्वीकार करना पड़ता था।

प्रश्न 3.
स्त्रियों की धार्मिक निर्योग्यताएं।
उत्तर-
वैदिक काल में स्त्रियों को धार्मिक कर्म-काण्डों के लिए आवश्यक माना जाता था परन्तु बाल विवाह के शुरू होने से उनका धार्मिक ज्ञान ख़त्म होना शुरू हो गया जिस कारण उन्हें यज्ञों से दूर किया जाने लगा। शिक्षा प्राप्त न कर सकने के कारण उनका धर्म सम्बन्धी ज्ञान ख़त्म हो गया तथा वह यज्ञ तथा धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं कर सकती थी। आदमी के प्रभुत्व के कारण स्त्रियों के धार्मिक कार्यों को बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया गया। उसको मासिक धर्म के कारण अपवित्र समझा जाने लगा तथा धार्मिक कार्यों से दूर कर दिया गया।

प्रश्न 4.
स्त्रियों की आर्थिक निर्योग्यताएं।
उत्तर-
स्त्रियों को बहुत-सी आर्थिक निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ता था। वैदिक काल में तो स्त्रियों को सम्पत्ति रखने का अधिकार प्राप्त था परन्तु समय के साथ-साथ यह अधिकार ख़त्म हो गया। मध्य काल में वह न तो सम्पत्ति रख सकती थी तथा न ही पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा ले सकती थी। वह कोई कार्य नहीं कर सकती थी जिस कारण उसे पैसे के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता हासिल नहीं थी। आर्थिक तौर पर वह पिता, पति तथा बेटों पर निर्भर थी।

प्रश्न 5.
स्त्रियों की स्थिति में आ रहे परिवर्तन।
उत्तर-

  • पढ़ने-लिखने के कारण स्त्रियां पढ़-लिख रही हैं।
  • औद्योगिकीकरण के कारण स्त्रियां अब उद्योगों तथा दफ्तरों में कार्य कर रही हैं।
  • पश्चिमी संस्कृति के विकास के कारण उनकी मानसिकता बदल रही है तथा उन्हें अपने अधिकारों का पता चल रहा है।
  • भारत सरकार ने उन्हें ऊपर उठाने के लिए कई प्रकार के कानूनों का निर्माण किया है जिस कारण उनकी स्थिति ऊंची हो रही है।

प्रश्न 6.
लिंग।
उत्तर-
साधारणतया शब्द लिंग को पुरुष तथा स्त्री के बीच के शारीरिक तथा सामाजिक अंतरों को बताने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि मर्द तथा स्त्री में कौन-से शारीरिक अंतर है जोकि प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं तथा कौन-से सामाजिक अंतर हैं जोकि दोनों को समाज में रहते हुए प्राप्त होते हैं। इन अंतरों को बताने के लिए शब्द लिंग का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 7.
लैंगिक भेदभाव।
उत्तर-
साधारण शब्दों में पुरुष तथा स्त्री में मिलने वाले अंतरों को लैंगिक भेदभाव अथवा अंतर का नाम दिया जाता है। संसार में दो तरह के मनुष्य मर्द तथा स्त्री रहते हैं। किसी भी मनुष्य को उसके शारीरिक लक्षणों के आधार पर देख कर ही पहचाना जा सकता है कि वह पुरुष है अथवा स्त्री। प्रकृति ने भी इनमें कुछ अन्तर किया है। पुरुष तथा स्त्री के अपने-अपने अलग ही शारीरिक लक्षण हैं। इन लक्षणों के आधार पर मर्द तथा स्त्री में अंतर तथा भेदभाव किया जा सकता है। इस प्रकार पुरुष तथा स्त्री में जो अंतर पाया जाता है उसे ही लैंगिक अंतर अथवा भेदभाव का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 8.
लैंगिक अंतर का प्राकृतिक कारण।
उत्तर-
लैंगिक अंतर की शुरुआत तो प्रकृति ने ही की है। मनुष्य को भी प्रकृति ने ही बनाया है। प्रकृति ने दो प्रकार के मनुष्यों-पुरुष तथा स्त्री को बनाया है। पुरुषों को प्रकृति ने दाढ़ी, मूंछे, शरीर पर बाल, कठोरता इत्यादि दिए हैं परन्तु स्त्रियों को सुन्दरता, कोमल स्वभाव, प्यार से भरपूर बनाया है। प्रकृति ने ही मनुष्यों को कठोर कार्य, पैसे तथा रोटी कमाने का कार्य दिया है जबकि स्त्रियों को आसान कार्य दिए हैं। इस प्रकार प्रकृति ने ही लैंगिक अंतर उत्पन्न किए हैं।

प्रश्न 9.
लैंगिक भेदभाव का सामाजिक कारक।
उत्तर-
प्रकृति ने तो लैंगिक अंतर उत्पन्न किए हैं परन्तु मनुष्य ने भी सामाजिक तौर पर अंतर उत्पन्न किए हैं। समाज में बहुत से ऐसे कार्य हैं जो पुरुषों के लिए रखे गए हैं स्त्रियों के लिए नहीं। प्राचीन समय से ही स्त्रियों से भेदभाव किया जाता रहा है तथा अंतर रखा जाता रहा है। स्त्रियों को प्राचीन समय से ही शिक्षा तथा सम्पत्ति से दूर रखा गया है। उन्हें केवल घर तक ही सीमित रखा गया है। स्त्रियों से सम्बन्धित निर्णय भी पुरुषों द्वारा लिए जाते हैं तथा उनका स्त्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। चाहे आधुनिक समाजों में यह अंतर कम हो रहा है। परन्तु परम्परागत समाजों में यह अभी भी कायम है।

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V. बड़े उत्तरो वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
लिंग का क्या अर्थ है ? समाज का निर्माण करने के रूप में इस की व्याख्या करो।
अथवा
सामाजिक रचना के रूप में लिंग-रूप के ऊपर नोट लिखें।
उत्तर-
साधारणतया शब्द लिंग को आदमी तथा औरत के बीच शारीरिक तथा सामाजिक अन्तर को बताने के लिए प्रयोग किया जाता है। इस का अर्थ यह है कि आदमी तथा औरत के बीच कौन-से शारीरिक अन्तर हैं जोकि प्रकृति से ही प्राप्त होते हैं तथा कौन से सामाजिक अन्तर हैं जोकि दोनों को समाज में रहते हुए प्राप्त होते हैं। इन अन्तरों को बताने के लिए शब्द लिंग का प्रयोग किया जाता है। यदि हम जैविक पक्ष से इसे देखें तो हमें पता चलता है कि आदमी तथा औरत में बहुत से जैविक अन्तर हैं जैसे कि कामुक अंग तथा और अंगों का उभार इत्यादि अथवा आदमी का औरत से अधिक परिश्रम वाले कार्य कर सकना।

इस तरह यदि हम सामाजिक रूप से देखेंगे हमें पता चलता है कि समाज में रहते हुए भी आदमी तथा औरत में बहुत से सामाजिक अन्तर होते हैं। उदाहरणतः पितृसत्तात्मक समाज तथा मातृसत्तात्मक समाज पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष का हुक्म चलता है, सभी को पुरुष का कहना मानना पड़ता है, पिता पैसे कमाता है तथा औरत घर की देखभाल करती है पितृसत्तात्मक समाजों में स्त्री की स्थिति बहुत ही निम्न होती है। उस को बच्चों की मां या घर की नौकरानी से बढ़कर स्थिति प्राप्त नहीं होती है। इस तरह पितृसत्तात्मकता समाजों में पिता की स्थिति सबसे उच्च होती है, वही समाज का कर्ताधर्ता होता है तथा वंश भी उस के नाम पर ही चलता है। जायदाद भी पिता के बाद उसके पुत्र को ही प्राप्त होती है। दूसरी तरफ मातृसत्तात्मक समाजों में आदमी की स्थिति औरत से निम्न होती है। समाज तथा परिवार को औरतें चलाती हैं। औरतों को प्रत्येक प्रकार की शक्ति प्राप्त होती है। औरतें ही परिवार को कर्ता-धर्ता होती हैं। वंश मां के नाम पर चलता है। विवाह के बाद आदमी औरत के घर रहने जाता है तथा जायदाद मां के बाद बेटी को या भानजे को प्राप्त होती है।

इस उदाहरण से यह पता चलता है कि सिर्फ जैविक रूप से ही लैंगिक अन्तर नहीं होता बल्कि सामाजिक रूप से भी लिंग अन्तर देखने को मिलता है। हमें समाज में रहते हुए ऐसी बहुत सी उदाहरणें मिल जाएंगी जिनसे हमें लिंग अन्तर के बारे में पता चलेगा। परन्तु समाजशास्त्रियों के अनुसार लिंग का अर्थ कुछ अलग ही है। समाजशास्त्री इस शब्द की सम्पूर्ण व्याख्या करने के पक्ष में हैं तथा इस बात का पता लगाना चाहते हैं कि किस हद तक लैंगिक व्यवहार प्राकृतिक है, सामाजिक है या मनुष्यों द्वारा निर्मित है। समाजशास्त्री लिंग शब्द को दो अर्थों में लेते हैं-

(1) पहला अर्थ है आदमी तथा औरत के बीच कौन-से जैविक तथा शारीरिक अन्तर हैं। इस का अर्थ यह है कि कौन-से जैविक तथा शारीरिक अन्तरों के कारण हम आदमी तथा औरत को एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं। यह अन्तर प्राकृतिक होते हैं तथा मनुष्य का इन पर कोई वश नहीं चलता है।

(2) लिंग शब्द का दूसरा अर्थ मनुष्य के व्यवहार तथा भूमिकाओं में सामाजिक तथा सांस्कृतिक अन्तर से है। इस का अर्थ यह है कि समाज में रहते हुए मनुष्यों के व्यवहार में कौन-सा अन्तर होता है जिस से हमें लैंगिक अन्तर (आदमी तथा औरत) का पता चलता है। यह अन्तर समाज में ही निर्मित होते हैं तथा मनुष्य इनका निर्माण करता है।

इस तरह समाजशास्त्री लिंग शब्द का अर्थ दो हिस्सों में लेते हैं। पहले हिस्से में जैविक अन्तर आते हैं जो प्रकृति पर निर्भर करते हैं। दूसरे हिस्से में सामाजिक तथा सांस्कृतिक अन्तर आते हैं जोकि मनुष्य द्वारा ही निर्मित होते हैं जैसे कि प्राचीन समय में स्त्री को उपनयान संस्कार नहीं करने दिया जाता था। परन्तु यहां महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह आगे आता है कि समाज में रहते हुए आदमी तथा औरत का व्यवहार जैविक कारणों की तरफ से निर्धारित होता है या सामाजिक सांस्कृतिक कारणों से ? उन दोनों का व्यवहार कौन से कारणों से प्रभावित होता है ? क्या आदमी तथा औरत प्राकृतिक रूप से ही एक-दूसरे से अलग हैं या फिर उनके बीच के अन्तर समाज में ही निर्मित होते हैं ? क्या आदमी जन्म से ही तार्किक तथा तेज़ हैं और औरतें प्राकृतिक रूप से ही शांत तथा सहनशील है क्या सिर्फ आदमी ही घर से बाहर जाकर कार्य करेंगे तथा पैसा कमाएंगे तथा औरतें घर तथा बच्चों की देखभाल करेंगी। क्या औरतें घरों से बाहर जाकर पैसा नहीं कमा सकतीं तथा आदमी घर की देखभाल नहीं कर सकते ? इस तरह के प्रश्न बहुत ही गम्भीर हैं तथा इस प्रकार के प्रश्नों पर गौर करना बहुत ज़रूरी है । इस तरह के प्रश्नों को देखते हुए हमारे सामने इन प्रश्नों को हल करने के लिए दो विचार हमारे सामने आते हैं। पहला विचार प्रकृतिवादियों (Naturists) ने दिया है तथा दूसरा विचार समाजशास्त्रियों (Sociologists) ने दिया है। इन दोनों के विचारों का वर्णन इस प्रकार हैं

(1) प्रकृतिवादी यह विचार देते हैं कि समाज में दोनों ही लिंगों में जो भी सामाजिक सांस्कृतिक अन्तर हैं वह सिर्फ जैविक अन्तरों के कारण है। इसका अर्थ यह है कि दोनों लिंगों के बीच सामाजिक सांस्कृतिक अन्तरों का आधार सामाजिक नहीं बल्कि जैविक है। जो भी अन्तर प्रकृति ने मनुष्यों को दिए हैं उन के कारण ही सामाजिक सांस्कृतिक अन्तर पैदा होते हैं। आदमी को औरत से ज्यादा शक्तिशाली माना जाता है तथा होते भी हैं तथा इस कारण ही वह समाज की व्यवस्था रखते हैं। औरतों को प्रकृति ने बच्चे पैदा करने तथा पालने का कार्य दिया है क्योंकि उनको प्यार, सहनशीलता तथा ध्यान रखने के गुण जन्म से ही प्राप्त होते हैं। उनको सहनशीलता तथा प्यार करना सिखाना नहीं पड़ता बल्कि यह गुण तो प्रत्येक औरत में जन्मजात ही होते हैं। इस तरह आदमी तथा औरत में प्राचीन समाज से ही श्रम विभाजन की व्यवस्था चली आ रही है कि आदमी घर से बाहर जाकर कार्य करेगा या परिश्रम करेगा तथा औरतें घर की देखभाल करेंगी तथा बच्चों का पालन-पोषण करेंगी। इसका कारण यह है कि प्रत्येक मनुष्य को जन्म से ही कुछ कार्य करने के गुण प्राप्त हो जाते हैं तथा वह करता भी है।

प्रकृतिशास्त्रियों का यह विचार डार्विन के उद्विकास के सिद्धान्त का ही एक हिस्सा है। परन्तु यह विचार डार्विन के विचार से भी आगे निकल गया है। प्रकृतिशास्त्रियों का कहना है कि प्रत्येक प्राणी उद्विकास की प्रक्रिया से होकर निकलता है अर्थात् वह छोटे से बड़ा तथा साधारण से जटिल की तरफ बढ़ता है। उदाहरणतः आदमी तथा औरत के संभोग से भ्रूण पैदा होता है तथा उस से धीरे-धीरे वह भ्रूण एक बच्चा बन जाता है। इस तरह प्रत्येक प्राणी निम्न स्तर से शुरू होकर उच्च स्तर की तरफ बढ़ता है। प्राणिशास्त्रियों का कहना है कि जैविक स्तर पर स्त्री तथा पुरुष एक-दूसरे से अलग हैं तथा दोनों ही अलग-अलग प्रकार से जीवन जीते हैं। परन्तु आदमी औरत से अधिक शक्तिशाली हैं इस कारण समाज में उनकी उच्च स्थिति है, उनकी सत्ता चलती है तथा फैसले लेने में उनका सबसे बड़ा हाथ होता है।

परन्तु यहां आकार सामाजिक मानवशास्त्रियों का कहना है कि आदमी तथा औरत में शारीरिक अन्तर हैं परन्तु इन्होंने इन शारीरिक अन्तरों को सामाजिक भूमिकाओं के साथ जोड़ दिया है। मोंक के अनुसार आदमी तथा औरत के बीच शारीरिक अन्तर समाज में लैंगिक श्रम विभाजन का आधार है। इस का अर्थ यह है कि चाहे आदमी तथा औरत के बीच शारीरिक अन्तर हैं परन्तु यह शारीरिक अन्तर ही समाज में आदमी तथा औरत के बीच श्रम विभाजन का आधार भी हैं। इसका कहना था कि आदमी क्योंकि शक्तिशाली होते हैं तथा औरतें बच्चों को पालने में सामर्थ्य होती हैं इस कारण यह श्रम विभाजन ही लैंगिक भूमिकाओं को निर्धारित करता है। इसी तरह पारसंज़ के अनुसार औरतें ही आदमी को प्यार, हमदर्दी, भावनात्मक मज़बूती इत्यादि देती हैं क्योंकि यह गुण उन्हें जन्म से ही प्राप्त हो जाते हैं तथा यही गुण किसी भी बच्चे के समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आदमी बाहर के कार्य करते हैं तथा औरतें घर के कार्य करती हैं। उसके अनुसार समाज में आदमी तथा औरत के बीच साफ़ तथा स्पष्ट श्रम विभाजन होना चाहिए ताकि सामाजिक व्यवस्था ठीक प्रकार से कार्य कर सके।

परन्तु मर्डोक तथा पारसंज़ के विचारों की भी आलोचना हुई है। कई प्रकृतिशास्त्रियों ने इस विचार का खण्डन किया है कि सामाजिक भूमिका का निर्धारण जैविक अन्तरों के कारण होता है। उन का कहना है कि माता तथा पिता दोनों ही बच्चों का ध्यान रखते हैं तथा ज़रूरत पड़ने पर एक-दूसरे की भूमिका भी निभाते हैं। उनके अनुसार आजकल औरतें भी मर्दो के शक्ति के प्रयोग करने वाले कार्य करने लग गई हैं जैसे सेना में भर्ती होना, खदानों में तथा बड़ी-बड़ी इमारतों के निर्माण के कार्य करना इत्यादि। इस तरह उनका कहना है कि सामाजिक भूमिकाओं का निर्धारण जैविक अन्तरों के . कारण नहीं होता है तथा जैविक अन्तर ही लिंग भूमिका के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

(2) समाजशास्त्रीय विचार (Sociological view)—दूसरी तरफ समाजशास्त्रीय विचार प्रकृतिशास्त्रियों के विचार के बिल्कुल ही विपरीत है। वह प्रकृतिशास्त्रियों के इस विचार को बिल्कुल ही नकारते हैं कि जैविक अन्तर ही लिंग भूमिका का निर्धारण करते हैं। वह कहते हैं कि लैंगिक भूमिका जैविक कारणों का कारण निर्धारित नहीं होती बल्कि यह तो समाज में ही निर्मित होती है तथा संस्कृति द्वारा निर्धारित होती है। व्यक्ति को समाज में रहते हुए बहुत-सी भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। चाहे कई बार यह भूमिका लिंग के आधार पर प्राप्त होती है जैसे कि माता या पिता। परन्तु बहुत-सी भूमिकाएं समाज की संस्कृति के अनुसार व्यक्ति को प्राप्त होती है। उनका कहना है कि हमारे अलग-अलग समाजों में बहुत-सी उदाहरणों से पता चलता है कि बच्चे पैदा करने को छोड़कर समाज में कोई भी कार्य औरतों के लिए आरक्षित नहीं है। इस का अर्थ यह है कि औरतें किसी भी कार्य को कर सकती हैं, उनके लिए कोई विशेष कार्य निर्धारित नहीं है। औरतों का लैंगिक आधार उन को किसी भी कार्य को करने से रोक नहीं सकता वह प्रत्येक प्रकार का कार्य कर सकती हैं। यहां तक कि मां की भूमिका भी समाज तथा संस्कृति द्वारा बनाई गई होती है। हमारे पास बहुतसी उदाहरणें मौजूद हैं जिन से पता चलता है कि जिन बच्चों की मां नहीं होती उन के पिता ही मां की भूमिका भी निभाते हैं। इस तरह समाजशास्त्रियों का विचार है कि लैंगिक भूमिका में निर्धारण में सामाजिक कारकों का बहुत बड़ा हाथ है।

समाज निर्माण में लिंग की भूमिका (Role of Gender in Social Construct)-

लैंगिक भूमिकाएँ जैविक कारणों के कारण नहीं सांस्कृतिक कारणों के कारण पैदा होती हैं। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मनुष्य समाज में रह कर ही आदमी तथा औरत की भूमिका निभाना सीखते हैं। उनको जन्म के बाद ही पता नहीं लग जाता कि वह लड़का है या लड़की। समाज में रहते-रहते, लोगों के व्यवहार करने के ढंगों से उसको अपने लिंग के बारे में पता चल जाता है। अब हम इसको समाजीकरण के रूप में देखेंगे। व्यक्ति को जंगली से इन्सान बनाने में समाजीकरण का बहुत बड़ा हाथ होता है। समाजीकरण करने में दोनों लिंगों का हिस्सा होता है। इस को लैंगिक समाजीकरण का नाम दिया जाता है।

समाजीकरण (Socialization)—समाजशास्त्र में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण संकल्प आता है समाजीकरण। समाजीकरण की प्रक्रिया वह प्रक्रिया है जिससे मनुष्य समाज में रहने के तौर-तरीके तथा व्यवहार करने के तरीके सीखता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति समाजिक भूमिकाओं को निभाना सीखता है। इस प्रकार से लैंगिक समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें आदमी तथा औरत अपने लिंग के अनुसार व्यवहार करना सीखते हैं। यह वह प्रक्रिया है जो बच्चे के जन्म के बाद ही शुरू हो जाती है तथा व्यक्ति के मरने तक चलती रहती है। हमारी लैंगिक भूमिका बहुत ही जल्दी शुरू हो जाती है तथा बच्चे को ही अपने लिंग के अनुसार भूमिका निभाने का पता चल जाता है। इस प्रक्रिया के कई स्तर हैं तथा यह स्तर इस प्रकार हैं

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 6 लिंग असमानता

(1) लिंग सम्बन्धी भूमिका का निर्धारण जन्म के कुछ समय बाद ही शुरू हो जाता है। 1-2 साल के बच्चे को भी इस बारे में पता चल जाता है क्योंकि परिवार के सदस्य उसके साथ उसके लिंग के अनुसार ही व्यवहार करते हैं तथा उसका सम्बोधन भी उसी के अनुसार ही होता है। लड़की के साथ लड़के की तुलना में कुछ कोमल व्यवहार होता है। लड़के को शक्तिशाली तथा लड़कियों से ज्यादा तेज़ समझा जाता है। मां-बाप भी बच्चे के लिंग के अनुसार उस से व्यवहार करते हैं चाहे व्यवहार में अन्तर बहुत कम होता है। दोनों लिंगों के बच्चों को अलग-अलग प्रकार के कपड़े पहनाए जाते हैं, अलग-अलग रंग के कपड़े पहनाए जाते हैं, उनके साथ बोलने का, सम्बोधन का, व्यवहार करने का तरीका भी अलग होता है। यहां तक कि यदि बच्चे को सज़ा देनी होती है तो वह भी उसके लिंग के अनुसार ही दी जाती है। इस तरह जन्म के कुछ समय बाद ही लैंगिक समाजीकरण शुरू हो जाता है तथा सारी उम्र चलता रहता है।

(2) लैंगिक समाजीकरण का दूसरा स्तर बचपन में शुरू हो जाता है जब बच्चा खेल समूह में तथा खेलों में भाग लेता है। बच्चा अपने लिंग के अनुसार ही खेल समूह में भाग लेता है। लड़की, लड़कियों के साथ खेलती है तथा लड़कालड़कों के साथ खेलता है। इस समय पर आकर दोनों लिंगों की खेलों में भी अन्तर आ जाता है। लड़के अधिक परिश्रम वाली खेलें खेलते हैं तथा लड़कियां कम परिश्रम वाली खेलें खेलती हैं। यहां तक कि लड़के को अधिक परिश्रम वाली खेल खेलने के लिए प्रेरित किया जाता है। लड़कों तथा लड़कियों के खेलने वाले खिलौनों में भी अन्तर होता है। लड़के को पिस्तौलैं, बसों, कारों, Outdoor sports की चीजें लेकर दी जाती हैं। इस तरह लड़के तथा लड़कियां अपने समूह के अनुसार व्यवहार करना सीखना शुरू कर देते हैं जिससे उनको समाज में रहने के तरीकों का पता चलना शुरू हो जाता है।

(3) लैंगिक समाजीकरण की प्रक्रिया का तीसरा स्तर है स्कूल जहां बच्चा जीवन के बहुत-से महत्त्वपूर्ण साल व्यतीत करता है। यही समय है जिस में बच्चा या तो बिगड़ जाता है या कुछ सीख जाता है। यह प्रक्रिया परिवार में ही नहीं चलती बल्कि स्कूल में भी पूरे जोर-शोर से चलती रहती है। जितना प्रभाव स्कूल का लैंगिक व्यवहार पर पड़ता है, और किसी भी साधन का नहीं पड़ता है। बच्चे अपने लिंग के अनुसार क्लास में बैठते हैं, एक-दूसरे से व्यवहार करते हैं। लड़कियां, लड़कों से दूर रहती हैं तथा उन से बात भी दूर से ही करती हैं क्योंकि उन को इस बारे में बताया जाता है। लड़के Female अध्यापकों से प्रभावित होते हैं तथा लड़कियां male अध्यापकों से प्रभावित होती हैं। यहां आकर दोनों के बिल्कुल ही अलग समूह बन जाते हैं जिससे समाज के निर्माण में बहुत मदद मिलती है। दोनों अपने लिंग के अनुसार कार्य करना सीख जाते हैं। लड़कों को घर से बाहर के कार्य करने भेजा जाता है तथा लड़कियों को घर के कार्य करने सिखाया जाता है। लड़कियों को साधारणतया Home Science जैसे विषय लेकर दिए जाते हैं तथा लड़कों को Science, Math, Commerce इत्यादि जैसे विषय लेकर दिए जाते हैं। इस तरह समाज निर्माण के मुख्य तत्त्वों का निर्माण इस स्तर पर आकर शुरू हो जाता है।

(4) लैंगिक समाजीकरण का अगला तथा अन्तिम स्तर होता है बालिग लैंगिक समाजीकरण जिस में लड़के तथा लड़कियां एक-दूसरे से बिल्कुल ही अलग हो जाते हैं। बालिग होने पर लड़के अधिक शक्तिशाली कार्य करते हैं तथा लड़कियां साधारणतया औरतों वाले कम परिश्रम वाले कार्य करना ही पसंद करती हैं जैसे पढ़ाना, क्लर्क के कार्य इत्यादि। औरतों को बहुत ही कम उच्च स्थितियां प्राप्त होती हैं, औरतों को कम वेतन तथा कम उन्नति मिलती है। औरतें जल्दी-जल्दी अपनी नौकरी बदलना पसन्द नहीं करती हैं।

इस प्रकार से लिंग के आधार पर दोनों समूह अलग-अलग कार्य करने लग जाते हैं जिससे समाज की व्यवस्था बनी रहती है तथा समाज सही प्रकार से कार्य करता है। यदि दोनों समूहों में कार्य के आधार पर अन्तर न हो तो दोनों लिंगों के कार्य एक-दूसरे में मिल जाएंगे तथा कोई अपना कार्य सही प्रकार से नहीं कर पाएगा। सामाजिक व्यवस्था तथा ढांचा बिल्कुल ही खत्म हो जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मर्जी के अनुसार कार्य करेगा तथा लैंगिक आधार पर श्रम विभाजन बिल्कुल ही खत्म हो जाएगा। आदमी तथा औरत अपनी ज़िम्मेदारियां तथा भूमिकाएं एक-दूसरे के ऊपर फेंक देंगे तथा कोई भी अपनी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होगा। इस तरह हम कह सकते हैं कि लिंग का समाज निर्माण के रूप में बहुत बड़ा हाथ है तथा समाज इसी कारण अच्छी प्रकार से कार्य कर रहा है।

प्रश्न 2.
महिलाओं की निम्न स्थिति के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
विभिन्न युगों या कालों में स्त्रियों की स्थिति कभी अच्छी या कभी निम्न रही है। वैदिक काल में तो यह बहुत अच्छी थी पर धीरे-धीरे काफ़ी निम्न होती चली गई। वैदिक काल के बाद तो विशेषकर मध्यकाल से लेकर ब्रिटिश काल अर्थात् आज़ादी से पहले तक स्त्रियों की स्थिति निम्न रही है। स्त्रियों की निम्न स्थिति का सिर्फ कोई एक कारण नहीं है बल्कि अनेकों कारण हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

1. संयुक्त परिवार प्रणाली (Joint Family System) भारतीय समाज में संयुक्त परिवार प्रथा मिलती है। स्त्रियों की दयनीय स्थिति बनाने में इस प्रणाली की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस प्रथा में स्त्रियों को सम्पत्ति रखने या किसी
और प्रकार के सामाजिक अधिकार नहीं होते हैं। स्त्रियों को घर की चारदीवारी में कैद रखना पारिवारिक सम्मान की बात समझी जाती थी। परिवार में बाल विवाह को तथा सती प्रथा को महत्त्व दिया जाता था जिस वजह से स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न होती थी।

2. पितृसत्तात्मक परिवार (Patriarchal Family) भारतीय समाज में ज्यादातर पितृसत्तात्मक परिवार देखने को मिल जाते हैं। इस प्रकार के परिवार में परिवार का प्रत्येक कार्य पिता की इच्छा के अनुसार ही होता है। बच्चों के नाम के साथ पिता के वंश का नाम जोड़ा जाता है। विवाह के बाद स्त्री को पति के घर जाकर रहना होता है। पारिवारिक मामलों तथा संपत्ति पर अधिकार पिता का ही होता है। इस प्रकार के परिवार में स्त्री की स्थिति काफ़ी निम्न होती है क्योंकि घर के किसी काम में स्त्री की सलाह नहीं ली जाती है।

3. कन्यादान का आदर्श (Ideal of Kanyadan)-पुराने समय से ही हिन्दू विवाह में कन्यादान का आदर्श प्रचलित रहा है। पिता अपनी इच्छानुसार अपनी लड़की के लिए अच्छा-सा वर ढूंढ़ता है तथा उसे अपनी लड़की दान के रूप में दे देता है। पिता द्वारा किया गया कन्या का यह दान इस बात का प्रतीक है कि पत्नी के ऊपर पति का पूरा अधिकार होता है। इस तरह दान के आदर्श के आधार पर भी स्त्रियों की स्थिति समाज में निम्न ही रही है।

4. बाल विवाह (Child Marriage) बाल विवाह की प्रथा के कारण भी स्त्रियों की स्थिति निम्न रही है। इस प्रथा के कारण छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह हो जाता है जिस वजह से न तो वह शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं तथा न ही उन्हें अपने अधिकारों का पता लगता है। पति भी उन पर आसानी से अपनी प्रभुता जमा लेते हैं जिस वजह से स्त्रियों को हमेशा पति के अधीन रहना पड़ता है।

5. कुलीन विवाह (Hypergamy)-कुलीन विवाह प्रथा के अन्तर्गत लड़की का विवाह या तो बराबर के कुल में या फिर अपने से ऊँचे कुल में करना होता है, जबकि लड़कों को अपने से नीचे कुलों में विवाह करने की छूट होती है। इसलिए लड़की के माता-पिता छोटी उम्र में ही लड़की का विवाह कर देते हैं ताकि किसी किस्म की उन्हें तथा लड़की को परेशानी न उठानी पड़े। इस वजह से स्त्रियों में अशिक्षा की समस्या हो जाती है तथा उनकी स्थिति निम्न ही रह जाती है।

6. स्त्रियों की अशिक्षा (Illiteracy) शिक्षा में अभाव के कारण भी हिन्दू स्त्री की स्थिति दयनीय रही है। बालविवाह के कारण शिक्षा न प्राप्त कर पाना जिसकी वजह से अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना स्त्रियों की निम्न स्थिति का महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। अज्ञान के कारण अनेक अन्धविश्वासों, कुरीतियों, कुसंस्कारों तथा सामाजिक परम्पराओं के बीच स्त्री इस प्रकार जकड़ती गई कि उनसे पीछा छुड़ाना एक समस्या बन गई। स्त्रियों को चारदीवारी के अन्दर रखकर पति को परमेश्वर मानने का उपदेश उसे बचपन से ही पढाया जाता था तथा पूर्ण जीवन सबके बीच में रहते हुए सबकी सेवा करते हुए बिता देना स्त्री का धर्म समझा जाता रहा है। इन सब चीज़ों के चलते स्त्री अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हो पाई तथा उसका स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता ही चला गया।

7. स्त्रियों की आर्थिक निर्भरता (Economic Dependency of Women)—पुराने समय से ही परिवार का कर्ता पिता या पुरुष रहा है। इसलिए परिवार के भरण-पोषण या पालन-पोषण का भार उसके कंधों पर ही होता है। स्त्रियों का घर से बाहर जाना परिवार के सम्मान के विरुद्ध समझा जाता था। इसलिए आर्थिक मामलों में हमेशा स्त्री को पुरुष के ऊपर निर्भर रहना पड़ता था। परिणामस्वरूप स्त्रियों की स्थिति निम्न से निम्नतम होती गई।

8. ब्राह्मणवाद (Brahmanism)-कुछ विचारकों का यह मानना है कि हिन्दू धर्म या ब्राह्मणवाद स्त्रियों की निम्न स्थिति का मुख्य कारण है क्योंकि ब्राह्मणों ने जो सामाजिक तथा धार्मिक नियम बनाए थे उनमें पुरुषों को उच्च स्थिति तथा स्त्रियों को निम्न स्थिति दी गई थी। मनु के अनुसार भी स्त्री का मुख्य धर्म पति की सेवा करना है। मुसलमानों ने जब भारत में अपना राज्य बनाया तो उनके पास स्त्रियों की कमी थी क्योंकि वह बाहर से आए थे तथा उन्हें हिन्दू स्त्रियों से विवाह पर कोई आपत्ति नहीं थी। इस वजह से हिंदू स्त्रियों को मुसलमानों से बचाने के लिए हिन्दुओं ने विवाह सम्बन्धी नियम और कठोर कर दिए। बाल विवाह को बढ़ावा दिया गया तथा विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए। सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा को बढ़ावा दिया गया जिस वजह से स्त्रियों की स्थिति और निम्न होती चली गई।

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प्रश्न 3.
स्त्रियों को जीवन में कौन-सी निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ता था ?
उत्तर-
यह माना जाता है कि मर्दो तथा स्त्रियों की स्थिति और संख्या लगभग समान है तथा इस कारण वैदिक काल में दोनों को बराबर अधिकार प्राप्त थे। परन्तु समय के साथ-साथ युग बदलते गए तथा स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आता गया। स्त्रियों की स्थिति निम्न होती गई तथा उन पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा कर कई प्रकार की निर्योग्यताएं थोप दी गईं। स्त्री का सम्मान केवल माता के रूप में ही रह गया। स्त्रियों से सम्बन्धित कुछ निर्योग्यताओं का वर्णन इस प्रकार है-

1. धार्मिक निर्योग्यताएं (Religious disabilities)-वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति बहुत ही अच्छी थी तथा उन्हें किसी भी प्रकार की निर्योग्यता का सामना नहीं करना पड़ता था। स्त्रियों को धार्मिक कार्य के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण समझा जाता था क्योंकि यह माना जाता था कि धार्मिक यज्ञों तथा और कई प्रकार के कर्मकाण्डों को पूर्ण करने के लिए स्त्री आवश्यक है। स्त्रियों के बिना यज्ञ तथा और कर्मकाण्ड पूर्ण नहीं हो सकते। इसके साथ ही स्त्रियां शिक्षा प्राप्त करती थी तथा शिक्षा धर्म के आधार पर होती थी। इसलिए उन्हें धार्मिक ग्रन्थों का पूर्ण ज्ञान होता था।

परन्तु समय के साथ-साथ स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आया तथा उनकी सामाजिक स्थिति निम्न होने लगी। बाल विवाह होने के कारण उनका धार्मिक ज्ञान खत्म होना शुरू हो गया जिस कारण उनको यज्ञ से दूर किया जाने लग गया। क्योंकि वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकती थी इस कारण धर्म के सम्बन्ध में उनकी जानकारी खत्म हो गई। अब वह यज्ञ नहीं कर सकती थी तथा धार्मिक कर्मकाण्ड भी पूर्ण नहीं कर सकती थी। मर्द के प्रभुत्व के कारण स्त्रियों के धार्मिक कार्यों को बिल्कुल ही खत्म कर दिया गया। उसका धर्म केवल परिवार तथा पति की सेवा करना ही रह गया। इस प्रकार स्त्रियों को धार्मिक शिक्षा से भी अलग कर दिया गया क्योंकि उसको मासिक धर्म के कारण अपवित्र समझा जाने लग गया। इस ढंग से यह धार्मक निर्योग्यताएं स्त्रियों के ऊपर थोपी गईं। .

2. सामाजिक निर्योग्यताएं (Social disabilities) धार्मिक निर्योग्यताओं के साथ-साथ स्त्रियों के लिए सामाजिक निर्योग्यताओं की शुरुआत भी हुई। काफ़ी प्राचीन समय से स्त्रियों को बाल विवाह के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं होती थी। शिक्षाप्राप्त न करने की स्थिति में वह किसी प्रकार की नौकरी भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि नौकरी प्राप्त करने के लिए शिक्षा ज़रूरी समझी जाती है। बाल विवाह के कारण शिक्षा प्राप्त करने के समय तो लड़की का विवाह हो जाता था। इसलिए वह शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर सकती थी।

समाज में स्त्रियों से सम्बन्धित कई प्रकार की सामाजिक कुरीतियां भी प्रचलित थीं। सबसे पहली कुरीति थी बाल विवाह । छोटी आयु में ही लड़की का विवाह कर दिया जाता था जिस कारण वह न तो पढ़ सकती थी तथा न ही बाहर के कार्य कर सकती थी। इस कारण वह घर की चारदीवारी में ही सिमट के रह गई थी।
बाल विवाह के साथ-साथ पर्दा प्रथा भी प्रचलित थी। स्त्रियां सभी मर्दो के सामने नहीं आ सकती थीं। यदि किसी कारण आना भी पड़ता था तो उसे लम्बा सा पर्दा करके आना पड़ता था। सती प्रथा तो काफ़ी प्राचीन समय से चली आ रही थी। यदि किसी स्त्री का पति मर जाता था तो उस स्त्री के लिए अकेले ही जीवन जीना नर्क समान समझा जाता था। इसलिए स्त्री अपने पति की चिता पर ही बैठ जाती थी तथा वह सती हो जाती थी। विधवा पुनर्विवाह वैदिक काल में तो होते थे परन्तु वह बाद में बन्द हो गए। विधवा होने के कारण स्त्रियों के लिए सती प्रथा भी 19वीं सदी तक चलती रही। मुसलमानों के भारत में राज्य करने के बाद उन्होंने हिन्दू स्त्रियों से विवाह करने शुरू कर दिए। हिन्दू स्त्रियों को मुसलमानों से बचाने के लिए ब्राह्मणों ने स्त्रियों पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिए। इस तरह स्त्रियों पर सामाजिक तौर पर कई प्रकार की निर्योग्यताएं थोप दी गई थीं।

3. पारिवारिक निर्योग्यताएं (Familial disabilities) स्त्रियों को परिवार से सम्बन्धित कई प्रकार की निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ता था। चाहे अमीर परिवारों में तो स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी परन्तु ग़रीब परिवार में तो स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न थी। विधवा स्त्री को परिवार के किसी भी उत्सव में भाग लेने नहीं दिया जाता था। पत्नी को दासी समझा जाता था। छोटी-सी गलती पर पत्नी को पीटा जाता था। पत्नी का धर्म पति तथा परिवार की सेवा करना होता था। सास तथा ससुर भी बह पर काफ़ी अत्याचार करते थे। स्त्री हमेशा ही पुरुष पर निर्भर करती थी। विवाह से पहले पिता पर, विवाह के बाद पति पर तथा बुढ़ापे के समय वह बच्चों पर निर्भर होती थी। परिवार पितृ प्रधान होते थे जिस कारण परिवार के किसी भी निर्णय में उसकी सलाह नहीं ली जाती थी। यहां तक कि उसके विवाह के निर्णय भी पिता ही लेता था। इस तरह औरत को दासी या पैर की जूती समझा जाता था।

4. आर्थिक निर्योग्यताएं (Economic disabilities)-स्त्रियों को बहुत-सी आर्थिक निर्योग्यताओं का भी सामना करना पड़ता था। वैदिक काल में तो स्त्रियों को सम्पत्ति रखने का अधिकार प्राप्त था परन्तु समय के साथ ही यह अधिकार खत्म हो गया। मध्य काल में तो वह न तो सम्पत्ति रख सकती थी तथा न ही पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा ले सकती थी। संयुक्त परिवार में सम्पत्ति पर सभी मर्दो का अधिकार होता था। बँटवारे के समय स्त्रियों तथा लड़कियों को कोई हिस्सा नहीं दिया जाता था। वह कोई कार्य नहीं करती थी केवल परिवार में ही रहकर परिवार की देखभाल करती थी। इस कारण उसे पैसे से सम्बन्धित कोई स्वतन्त्रता नहीं थी। आर्थिक तौर पर वह पिता, पति तथा लड़कों पर ही निर्भर थी।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि स्त्रियों को समाज में कई प्रकार की निर्योग्यताओं का सामना करना पड़ता था चाहे वैदिक काल में स्त्रियों पर कोई निर्योग्यता नहीं थी तथा उसको बहुत-से अधिकार प्राप्त थे, परन्तु समय के साथ-साथ यह सभी अधिकार खत्म हो गए तथा अधिकारों की जगह उन पर निर्योग्यताएं थोप दी गई।

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प्रश्न 4.
स्वतन्त्रता के बाद स्त्रियों की स्थिति सुधारने के क्या प्रयास किए गए ?
उत्तर-
देश की आधी जनसंख्या स्त्रियों की है। इसलिए देश के विकास के लिए यह भी ज़रूरी है कि उनकी स्थिति में सुधार लाया जाये। उनसे संबंधित कुप्रथाओं तथा अन्धविश्वासों को समाप्त किया जाए। स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान में कई ऐसे प्रावधान किये गये जिनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार हो। उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर बनाने के लिए अलग-अलग कानून बनाए गए। आजादी के बाद देश की महिलाओं के उत्थान, कल्याण तथा स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं-

1. संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions) महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संविधान में निम्नलिखित प्रावधान है-

  • अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के सामने सभी समान हैं।
  • अनुच्छेद 15 (1) द्वारा धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भारतीय से भेदभाव की मनाही है।
  • अनुच्छेद 15 (3) के अनुसार राज्य महिलाओं तथा बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करें।
  • अनुच्छेद 16 के अनुसार राज्य रोजगार तथा नियुक्ति के मामलों में सभी भारतीयों को समान अवसर प्रदान करें।
  • अनुच्छेद 39 (A) के अनुसार राज्य पुरुषों तथा महिलाओं को आजीविका के समान अवसर उपलब्ध करवाए।
  • अनुच्छेद 39 (D) के अनुसार पुरुषों तथा महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए।
  • अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य कार्य की न्यायपूर्ण स्थिति उत्पन्न करें तथा अधिक-से-अधिक प्रसूति सहायता प्रदान करें।
  • अनुच्छेद 51 (A) (E) के अनुसार स्त्रियों के गौरव का अपमान करने वाली प्रथाओं का त्याग किया जाए।
  • अनुच्छेद 243 के अनुसार स्थानीय निकायों-पंचायतों तथा नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थानों को महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है।

2. कानून (Legislations)-महिलाओं के हितों की सुरक्षा तथा उनकी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए कई कानूनों का निर्माण किया गया जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

  • सती प्रथा निवारण अधिनियम, 1829, 1987 (The Sati Prohibition Act)
  • हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 (The Hindu Widow Remarriage Act)
  • बाल विवाह अवरोध अधिनियम (The Child Marriage Restraint Act)
  • हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्ति पर अधिकार (The Hindu Women’s Right to Property Act) 1937.
  • विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act) 1954.
  • हिन्दू विवाह तथा विवाह विच्छेद अधिनियम (The Hindu Marriage and Divorce Act) 1955 & 1967.
  • हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (The Hindu Succession Act) 1956.
  • दहेज प्रतिबन्ध अधिनियम (Dowry Prohibition Act) 1961, 1984, 1986.
  • मातृत्व हित लाभ अधिनियम (Maternity Relief Act) 1961, 1976.
  • मुस्लिम महिला तलाक के अधिकारों का संरक्षण अधिनियम (Muslim Women Protection of Rights of Divorce) 1986.

पीछे दिए कानूनों में से चाहे कुछ आज़ादी से पहले बनाए गए थे पर उनमें आज़ादी के बाद संशोधन कर लिए गए हैं। इन सभी विधानों से महिलाओं की सभी प्रकार की समस्याओं जैसे दहेज, बाल विवाह, सती प्रथा, सम्पत्ति का उत्तराधिकार इत्यादि का समाधान हो गया है तथा इनसे महिलाओं की स्थिति सुधारने में मदद मिली है।

3. महिला कल्याण कार्यक्रम (Women Welfare Programmes)-स्त्रियों के उत्थान के लिए आज़ादी के बाद कई कार्यक्रम चलाए गए जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

  • 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया तथा उनके कल्याण के कई कार्यक्रम चलाए गए।
  • 1982-83 में ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक तौर पर मज़बूत करने के लिए डवाकरा कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
  • 1986-87 में महिला विकास निगम की स्थापना की गई ताकि अधिक-से-अधिक महिलाओं को रोज़गार के अवसर प्राप्त हों।
  • 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का पुनर्गठन किया गया ताकि महिलाओं के ऊपर बढ़ रहे अत्याचारों को रोका जा सके।

4. देश में महिला मंडलों की स्थापना की गई। यह महिलाओं के वे संगठन हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के कल्याण के लिए कार्यक्रम चलाते हैं। इन कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च का 75% पैसा केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड देता है।

5. शहरों में कामकाजी महिलाओं को समस्या न आए इसीलिए सही दर पर रहने की व्यवस्था की गई है। केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने होस्टल स्थापित किए हैं ताकि कामकाजी महिलाएं उनमें रह सकें।

6. केन्द्रीय समाज कल्याण मण्डल ने सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम देश में 1958 के बाद से चलाने शुरू किए ताकि ज़रूरतमंद, अनाथ तथा विकलांग महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवाया जा सके। इसमें डेयरी कार्यक्रम भी शामिल हैं।
इस तरह आजादी के पश्चात् बहुत सारे कार्यक्रम चलाए गए हैं ताकि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाया जा सके। अब महिला सशक्तिकरण में चल रहे प्रयासों की वजह से भारतीय महिलाओं का बेहतर भविष्य दृष्टिगोचर होता है।

प्रश्न 5.
भारतीय स्त्रियों की स्थिति में आए परिवर्तनों के कारणों तथा स्त्रियों की वर्तमान स्थिति का वर्णन करो।
अथवा
क्या आधुनिक समयों में औरत की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है ?
उत्तर-
आज के समय में भारतीय महिलाओं की स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आए हैं। महिलाओं की जो स्थिति आज से 50 साल पहले थी उसमें तथा आज की महिला की स्थिति में काफ़ी फर्क है। आज महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर बाहर दफ्तरों में काम कर रही हैं। पर यह परिवर्तन किसी एक कारण की वजह से नहीं आया है। इसके कई कारण हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

1. स्त्रियों की साक्षरता दर में वृद्धि (Improvement in the literacy rate of women)-आज़ादी से पहले स्त्रियों की शिक्षा की तरफ कोई ध्यान नहीं देता था पर आज़ादी के पश्चात् भारत सरकार की तरफ से स्त्रियों की शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए कई उपाय किए गए जिस वजह से स्त्रियों की शिक्षा के स्तर में काफ़ी वृद्धि हुई। सरकार ने लड़कियों को पढ़ाने के लिए मुफ्त शिक्षा, छात्रवृत्तियां प्रदान की, मुफ़्त किताबों का प्रबन्ध किया ताकि लोग अपनी लड़कियों को स्कूल भेजें। इस तरह धीरे-धीरे स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार हुआ तथा उनका शिक्षा स्तर बढ़ने लगा। आजकल हर क्षेत्र में लड़कियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। शिक्षा की वजह से उनके विवाह भी देर से होने लगे जिस वजह से उनका जीवन स्तर ऊंचा उठने लगा। आज लड़कियां भी लड़कों की तरह बढ़-चढ़ कर शिक्षा ग्रहण करती हैं। इस तरह स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण उनमें शिक्षा का प्रसार है।

2. औद्योगीकरण (Industrialization)-आज़ादी के बाद औद्योगीकरण का बहुत तेज़ी से विकास हुआ। शिक्षा प्राप्त करने की वजह से औरतें भी घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर नौकरियां करने लगीं जिस वजह से उनके ऊपर से पाबंदियां हटने लगीं। औरतें दफ्तरों में और पुरुषों के साथ मिलकर काम करने लगीं जिस वजह से जाति प्रथा की पाबंदियां खत्म होनी शुरू हो गईं। औरों के साथ मेल-जोल से प्रेम विवाह के प्रचलन बढ़ने लगे। दफ्तरों में काम करने की वजह से उनकी पुरुषों पर से आर्थिक निर्भरता कम हो गई जिस वजह से स्त्रियों की स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ। इस तरह औरतों की स्थिति सुधारने में औद्योगीकरण की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

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3. पश्चिमी संस्कृति (Western Culture)-आजादी के बाद भारत पश्चिमी देशों के संपर्क में आया जिस वजह से वहां के विचार, वहां की संस्कृति हमारे देश में भी आयी। महिलाओं को उनके अधिकारों, उनकी आजादी के बारे में पता चला जिस वजह से उनकी विचारधारा में परिवर्तन आना शुरू हो गया। इस संस्कृति की वजह से अब महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिला कर खड़ी होनी शुरू हो गईं। दफ्तरों में काम करने की वजह से औरतें आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो गईं तथा उनमें मर्दो के साथ समानता का भाव आने लगा। कुछ महिला आन्दोलन भी चले जिस वजह से महिलाओं में जागरूकता आ गई तथा उनकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया।

4. अंतर्जातीय विवाह (Inter Caste Marriage)-आज़ादी के बाद 1955 में हिन्दू विवाह कानून पास हुआ जिससे अन्तर्जातीय विवाह को कानूनी मंजूरी मिल गई। शिक्षा के प्रसार की वजह से औरतें दफ्तरों में काम करने लग गईं, घर से बाहर निकलीं जिस वजह से वह और जातियों के संपर्क में आईं। प्रेम विवाह, अन्तर्जातीय विवाह होने लगे जिस वजह से लोगों की विचारधारा में परिवर्तन आने लग गए। इस वजह से अब लोगों की नजरों में औरतों की स्थिति ऊँची होनी शुरू हो गई। औरतों की आत्मनिर्भरता की वजह से उन्हें और सम्मान मिलने लगा। इस तरह अन्तर्जातीय विवाह की वजह से दहेज प्रथा या वर मूल्य में कमी होनी शुरू हो गई तथा स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया।

5. संचार तथा यातायात के साधनों का विकास (Development in the means of communication and transport)-आजादी के बाद यातायात तथा संचार के साधनों में विकास होना शुरू हुआ। लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आने शुरू हो गए। लोग गांव छोड़कर दूर-दूर शहरों में जाकर रहने लगे जिस वजह से वे और जातियों के सम्पर्क में आए। इसके साथ ही कुछ नारी आन्दोलन चले तथा सरकारी कानून भी बने ताकि महिलाओं का शोषण न हो सके। इन साधनों के विकास की वजह से स्त्रियां पढ़ने लगीं, नौकरियां करने लगी तथा लोगों की विचारधारा में धीरे-धीरे परिवर्तन होने शुरू हो गए।

6. विधानों का निर्माण (Formation of Laws)-चाहे आजादी से पहले भी महिलाओं के उत्थान के लिए कई कानूनों का निर्माण हुआ था पर वह पूरी तरह लागू नहीं हुए थे क्योंकि हमारे देश में विदेशी सरकार थी। पर 1947 के पश्चात् भारत सरकार ने इन कानूनों में संशोधन किए तथा उन्हें सख्ती से लागू किया। इसके अलावा कुछ और नए कानून भी बने जैसे कि हिन्दू विवाह कानून, हिन्दू उत्तराधिकार कानून, दहेज प्रतिबन्ध कानून इत्यादि ताकि स्त्रियों का शोषण होने से रोका जा सके। इन कानूनों की वजह से स्त्रियों का शोषण कम होना शुरू हो गया तथा स्त्रियां अपने आपको सुरक्षित महसूस करने लग गईं। अब कोई भी स्त्रियों का शोषण करने से पहले दस बार सोचता है क्योंकि अब कानून स्त्रियों के साथ है। इस तरह कानूनों की वजह से भी स्त्रियों की स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आए हैं।

7. संयुक्त परिवार का विघटन (Disintegration of Joint Family) यातायात तथा संचार के साधनों के विकास, शिक्षा, नौकरी, दफ्तरों में काम, अपने घर या गांव या शहर से दूर काम मिलना तथा औद्योगीकरण की वजह से संयुक्त परिवारों में विघटन आने शुरू हो गए। पहले संयुक्त परिवारों में स्त्री घर में ही घुट-घुट कर मर जाती थी पर शिक्षा के प्रसार तथा दफ्तरों में नौकरी करने की वजह से हर कोई संयुक्त परिवार छोड़कर अपना केन्द्रीय परिवार बसाने लगा जो कि समानता पर आधारित होता है। संयुक्त परिवार में स्त्री को पैर की जूती समझा जाता है पर केंद्रीय परिवारों में स्त्री की स्थिति पुरुषों के समान होती है जहां स्त्री आर्थिक या हर किसी क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़ी होती है। इस तरह संयुक्त परिवारों के विघटन ने भी स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

लिंग असमानता PSEB 12th Class Sociology Notes

  • हम सभी समाज, परिवार व सम्बन्धों में रहते हैं तथा हमने परिवार में रहते हुए पुरुषों को स्त्रियों से बातें करते हुए सुना होगा। इस बातचीत में शायद हमें कभी लगा होगा कि घर की स्त्रियों के साथ भेदभाव हो रहा है। यह लिंग आधारित भेदभाव ही लैंगिक भेदभाव है।
  • शब्द लिंग वर्ग (Gender) समाज की तरफ से बनाया गया है तथा यह संस्कृति का योगदान है। लिंग वर्ग एक समाजशास्त्रीय शब्द है जिसमें राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक रूप से स्त्री तथा पुरुष के बीच रिश्तों की नींव रखी जाती है। इसका अर्थ है कि जब हम सामाजिक सांस्कृतिक रूप से पुरुष स्त्री के संबंधों की बात करते हैं तो लिंग वर्ग शब्द सामने आता है।
  • लिंग तथा लिंग वर्ग शब्दों में अंतर होता है। शब्द लिंग एक जैविक शब्द है जो बताता है कि कौन पुरुष है या कौन स्त्री। परन्तु लिंग अंतर वह व्यवहार है जो सामाजिक प्रथाओं से बनता है।
  • जब हम लिंग संबंधों की बात करते हैं इसका अर्थ है स्त्री-पुरुष के वह रिश्ते जो विचारधारा, संस्कृति, राजनीतिक तथा आर्थिक मुद्दों पर आधारित होते हैं। लिंग संबंधों में हम लिंग अधीनता का अध्ययन करते हैं कि कौन-सा लिंग दूसरे पर हावी होता है।
  • हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है जिसमें स्त्रियों के साथ कई प्रकार से भेदभाव किया जाता है। चाहे हमारे संविधान ने हमें समानता का अधिकार दिया है परन्तु आज भी बहुत से अधिकार हैं जो स्त्रियों को नहीं दिए जाते।
  • पितृप्रधान परिवार वह परिवार होता है जिसमें पिता की प्रधानता होती है तथा उसकी ही आज्ञा चलती है। परिवार
    के सभी निर्णय पिता लेता है तथा पुरुषों को स्त्रियों से ऊँचा समझा जाता है।
  • लिंग वर्ग समाजीकरण का वह तरीका है जिसमें समाज यह ध्यान रखता है कि बच्चे अपने लिंग के अनुसार सही व्यवहार करना सीख जाएं। यह बच्चों को भी अलग-अलग वर्गों में विभाजित करते हैं कि वह लड़का है या लड़की। इस प्रकार समाज लिंग वर्ग समाजीकरण के साथ व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करता है।
  • लिंग वर्ग भेदभाव हमारे समाज के लिए कोई नई बात नहीं है। यह सदियों से चलता आ रहा है। स्त्रियों के साथ कई ढंगों से भेदभाव किया जाता है जिससे स्त्रियों को काफ़ी कुछ सहना पड़ता है। अगर बच्चों के लिंग अनुपात (0-6 वर्ष) की बात करें तो 2011 में यह 1000 : 914 था अर्थात् 1000 लड़कों के पीछे 914 लड़कियां थीं।
  • यह भेदभाव हम शिक्षा के क्षेत्र में भी देख सकते हैं। 2011 में देश की साक्षरता दर 74% थी जिसमें 82% पुरुष तथा 65% स्त्रियां शिक्षित थीं। आज भी देश के अंदरूनी भागों में लोग लड़कियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजते।
  • हमारे देश में स्त्रियों को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बलात्कार, अपहरण, वेश्यावृत्ति, बेच देना, छेड़छाड़, घरेलू हिंसा, दहेज, तंग करना इत्यादि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिनसे स्त्रियों को रोजाना दो-चार होना पड़ता है।
  • लिंग वर्ग भूमिका (Gender Role) लिंग वर्ग भूमिका का अर्थ है वह व्यवहार जो प्रत्येक समाज में लिंग ‘ वर्ग से संबंधित होता है।
  • लिंग वर्ग भेदभाव (Gender Discrimination)-जनसंख्या के एक हिस्से से अधीनता, निष्कासन तथा भाग न लेने वाला व्यवहार विशेषतया स्त्रियां तथा उन्हें दरकिनार एवं नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
  • ट्रांसजेंडर (Transgender)-व्यक्तियों का वह वर्ग जिनमें पुरुषों व स्त्रियों दोनों के गुण मौजूद होते हैं।
  • समाजीकरण (Socialization) तमाम आयु चलने वाली व सीखने वाली वह प्रक्रिया जिसमें व्यक्ति समाज में जीवन जीने के तरीके, संस्कृति इत्यादि सीखते हैं तथा उन्हें अगली पीढ़ी को सौंप देते हैं।
  • पितृपक्ष की प्रबलता (Patriarchy) समाज का वह प्रकार जिसमें पुरुषों के हाथों में सत्ता होती है तथा स्त्रियों को इससे बाहर रखा जाता है। घर के सबसे बड़े पुरुष के हाथों में सत्ता होती है तथा परिवार का वंश
    सत्ता के नाम से चलता है।
  • शिशु लिंग अनुपात (Child Sex Ratio)-इसका अर्थ है 1000 लड़कों (0-6 वर्ष) के पीछे लड़कियों (0-6 वर्ष) की संख्या । 2011 में यह 1000 : 914 था।
  • लिंग अनुपात (Sex Ratio)- इसका अर्थ है 1000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या। 2011 में यह 1000 : 943 था।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 3 सिक्ख धर्म का विकास (1539 ई०-1581 ई०)

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions History Chapter 3 सिक्ख धर्म का विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 3 सिक्ख धर्म का विकास

SST Guide for Class 9 PSEB सिक्ख धर्म का विकास Textbook Questions and Answers

(क) बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
किस गुरु जी ने गोइंदवाल में बाउली का निर्माण शुरू करवाया ?
(क) श्री गुरु अंगद देव जी
(ख) श्री गुरु अमरदास जी
(ग) श्री गुरु रामदास जी
(घ) श्री गुरु नानक देव जी।
उत्तर-
(क) श्री गुरु अंगद देव जी

प्रश्न 2.
मंजीदारों की कुल संख्या कितनी थी ?
(क) 20
(ख) 21
(ग) 22
(घ) 23
उत्तर-
(ग) 22

प्रश्न 3.
मुग़ल सम्राट अकबर कौन-से गुरु साहिब के दर्शन के लिए गोइंदवाल आए ?
(क) गुरु नानक देव जी
(ख) गुरु अंगद देव जी
(ग) गुरु अमरदास जी
(घ) गुरु रामदास जी।
उत्तर-
(ग) गुरु अमरदास जी

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 3 सिक्ख धर्म का विकास (1539 ई०-1581 ई०)

प्रश्न 4.
भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी के दर्शन करने के लिए कहां गए ?
(क) श्री अमृतसर साहिब
(ख) करतारपुर
(ग) गोइंदवाल
(घ) लाहौर।
उत्तर-
(ख) करतारपुर

प्रश्न 5.
गुरु रामदास जी ने अपने पुत्रों में से गुरुगद्दी किसको दी ?
(क) पृथीचंद
(ख) महादेव
(ग) अर्जन देव
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ग) अर्जन देव

(ख) रिक्त स्थान भरें :

  1. गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी लिपि में ……………… लिखा।
  2. ……… जी हर साल हरिद्वार में गंगा स्नान के लिए जाते थे।
  3. …………. ने गोईंदवाल में बाउली का निर्माण पूरा करवाया।
  4. गुरु रामदास जी ने ………….. नगर की स्थापना की।
  5. ‘लावां’ बाणी ……….. जी की प्रसिद्ध रचना है।

उत्तर-

  1. ‘बाल बोध’
  2. गुरु अमरदास
  3. गुरु अमरदास जी
  4. रामदासपुर (अमृतसर)
  5. गुरु रामदास जी।

(ग) सही मिलान करें:

(क) – (ख)
1. बाबा बुड्ढा जी – (अ) अमृत सरोवर
2. मसंद प्रथा – (आ) श्री गुरु रामदास जी
3. भाई लहणा – (इ) श्री गुरु अंगद देव जी
4. मंजी प्रथा – (ई) श्री गुरु अमरदास जी।

उत्तर-

  1. अमृत सरोवर
  2. श्री गुरु रामदास जी
  3. श्री गुरु अंगद देव जी
  4. श्री गुरु अमरदास जी।

(घ) अंतर बताओ :

प्रश्न -संगत और पंगत।
उत्तर-संगत-संगत से अभिप्राय गुरु शिष्यों के उस समूह से है जो एक साथ बैठकर गुरु जी के उपदेशों पर अमल करते थे।
पंगत-पंगत के अनुसार गुरु के शिष्य इकट्ठे मिल-बैठकर एक ही रसोई में पका खाना खाते थे।

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु अंगद देव जी का पहला नाम क्या था ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का पहला नाम भाई लहणा था।

प्रश्न 2.
‘गुरुमुखी’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुरुमुखी का अर्थ है गुरुओं के मुख से निकलने वाली।

प्रश्न 3.
मंजीदार किसे कहा जाता था ?
उत्तर-
मंजियों के प्रमुख को मंजीदार कहा जाता था जो गुरु साहिब व संगत के मध्य एक कड़ी का कार्य करते थे।

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प्रश्न 4.
अमृतसर का पुराना नाम क्या था ?
उत्तर-
अमृतसर का पुराना नाम रामदासपुर था।

प्रश्न 5.
गुरु रामदास जी का मूल नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई जेठा जी।

प्रश्न 6.
मसंद प्रथा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मसंद प्रथा के अनुसार गुरु के मसंद स्थानीय सिख संगत के लिए गुरु के प्रतिनिधि होते थे।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न।

प्रश्न 1.
मंजी प्रथा पर नोट लिखो।
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी। उनके समय में सिक्खों की संख्या काफ़ी बढ चकी थी। परंतु गुरु जी की आयु अधिक होने के कारण उनके लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार करना कठिन हो गया। अतः उन्होंने अपने सारे आध्यात्मिक प्रदेश को 22 भागों में बांट दिया। इनमें से प्रत्येक भाग को ‘मंजी’ कहा जाता था। इसके प्रमुख को मंजीदार। प्रत्येक मंजी छोटे-छोटे स्थानीय केंद्रों में बंटी हुई थी जिन्हें पीड़ियां (Piris) कहते थे। सिख संगत इनके द्वारा अपनी भेंट गुरु साहिब तक पहुंचाती थी। मंजी प्रणाली का सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व है। डॉ० गोकुल चंद नारंग के शब्दों में, “गुरु जी के इस कार्य ने सिक्ख धर्म की नींव सुदृढ़ करने तथा देश के सभी भागों में प्रचार कार्य को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया।”

प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी का गुरुमुखी लिपि के विकास में क्या योगदान है ?
उत्तर-
गुरुमुखी लिपि गुरु अंगद देव जी से पहले प्रचलित थी। गुरु जी ने इसें गुरुमुखी का नाम देकर इसका मानकीकरण किया। कहते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी के प्रचार के लिए गुरुमुखी वर्णमाला में बच्चों के लिए ‘बाल बोध’ की रचना की। जनसाधारण की भाषा होने के कारण इससे सिक्ख धर्म के प्रचार के कार्य को बढ़ावा मिला। आज सिक्खों के सभी धार्मिक ग्रंथ इसी भाषा में हैं।

प्रश्न 3.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किये गए समाज सुधार के कार्यों पर नोट लिखो।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार किए-

  1. गुरु अमरदास जी ने जाति मतभेद का खंडन किया। गुरु जी का विश्वास था कि जाति मतभेद परमात्मा की इच्छा के विरुद्ध है। इसलिए गुरु जी के लंगर में जाति-पाति तथा छुआछूत को कोई स्थान नहीं दिया था।
  2. उस समय सती प्रथा जोरों से प्रचलित थी। गुरु जी ने इस प्रथा के विरुद्ध ज़ोरदार आवाज़ उठाई।
  3. गुरु जी ने स्त्रियों में प्रचलित पर्दे की प्रथा की भी घोर निंदा की। वे पर्दे की प्रथा को समाज की उन्नति के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा मानते थे।
  4. गुरु अमरदास जी नशीली वस्तुओं के सेवन के भी घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को सभी नशीली
    वस्तुओं से दूर रहने का निर्देश दिया।

इन सब कार्यों से स्पष्ट है कि गुरु अमरदास जी निःसंदेह एक महान् सुधारक थे।

प्रश्न 4.
अमृतसर की स्थापना पर नोट लिखो।
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने रामदासपुर की नींव रखी। आजकल इस नगर को अमृतसर कहते हैं। गुरु साहिब ने 1577 ई० में यहां अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदाई आरंभ की, परंतु उन्होंने देखा कि गोइंदवाल में रहकर खुदाई के कार्य का निरीक्षण करना कठिन है। अतः उन्होंने यहीं डेरा डाल दिया। कई श्रद्धालु लोग भी यहीं आ कर बस गए और कुछ ही समय में सरोवर के चारों ओर एक छोटा-सा नगर बस गया। इसे रामदासपुर का नाम दिया गया। गुरु जी ने इस नगर को हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक बाज़ार की स्थापना की जिसे आजकल ‘गुरु का बाज़ार’ कहते हैं। इस नगर के निर्माण से सिक्खों को एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान मिल गया जिससे सिक्ख धर्म के विकास में सहायता मिली।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
श्री गुरु अंगद देव जी ने सिक्ख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किए। वर्णन करो।
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी (1539 ई०) के पश्चात् गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर आसीन हुए। उनका नेतृत्व सिक्ख धर्म के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उन्होंने निम्नलिखित ढंग से सिक्ख धर्म के विकास में योगदान दिया

  1. गुरुमुखी लिपि में सुधार-गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी लिपि को मानक रूप दिया। कहते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी के प्रचार के लिए गुरुमुखी वर्णमाला में बच्चों के लिए ‘बाल बोध’ की रचना की। उन्होंने अपनी वाणी की रचना भी इसी लिपि में की। जनसाधारण की भाषा (लिपि) होने के कारण इससे सिक्ख धर्म के प्रचार के कार्य को बढ़ावा मिला। आज सिक्खों के सभी धार्मिक ग्रंथ इसी लिपि में हैं।
  2. गुरु नानक देव जी की जन्म-साखी-श्री गुरु अंगद देव जी ने श्री गुरु नानक देव जी की सारी बाणी को एकत्रित करके भाई बाला से गुरु जी की जन्म-साखी (जीवन-चरित्र) लिखवाई। इससे सिक्ख गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पालन करने लगे।
  3. लंगर प्रथा-श्री गुरु अंगद देव जी ने लंगर प्रथा जारी की। उन्होंने यह आज्ञा दी कि जो कोई उनके दर्शन को आए, उसे पहले लंगर में भोजन कराया जाए। यहां प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी भेद-भाव के भोजन करता था। इससे जाति-पाति की भावनाओं को धक्का लगा और सिक्ख धर्म के प्रसार में सहायता मिली।.
  4. उदासियों से सिक्ख धर्म को अलग करना-गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र श्रीचंद जी ने उदासी संप्रदाय की स्थापना की थी। उन्होंने संन्यास का प्रचार किया। यह बात गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के विरुद्ध थी। गुरु अंगद देव जी ने सिक्खों को स्पष्ट किया कि सिक्ख धर्म महारथियों का धर्म है। इसमें संन्यास का कोई स्थान नहीं है। उन्होंने यह भी घोषणा की कि वह सिक्ख जो संन्यास में विश्वास रखता है, सच्चा सिक्ख नहीं है। इस प्रकार उदासियों को सिक्ख संप्रदाय से अलग करके गुरु अंगद देव जी ने सिक्ख धर्म को ठोस आधार प्रदान किया।
  5. गोइंदवाल साहिब का निर्माण-गुरु अंगद देव जी ने 1596 ई० में गोइंदवाल साहिब नामक नगर की स्थापना की। गुरु अमरदास के समय में यह नगर एक प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र बन गया। आज भी यह सिक्खों का एक पवित्र धार्मिक स्थान है।
  6. अनुशासन को बढ़ावा-गुरु जी बड़े ही अनुशासन प्रिय थे। उन्होंने सत्ता और बलवंड नामक दो प्रसिद्ध रबाबियों को अनुशासन भंग करने के कारण दरबार से निकाल दिया, परंतु बाद में भाई लद्धा के प्रार्थना करने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस घटना से सिक्खों में अनुशासन की भावना को बल मिला।
  7. उत्तराधिकारी की नियुक्ति-गुरु अंगद देव जी ने.13 वर्ष तक निष्काम भाव से सिक्ख धर्म की सेवा की। 1552 ई० में ज्योति-जोत समाये से पूर्व उन्होंने अपने पुत्रों की बजाय भाई अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उनका यह कार्य सिख इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इससे सिक्ख धर्म का प्रचार कार्य जारी रहा।
  8. सच तो यह है कि गुरु अंगद देव जी ने सिक्ख धर्म को पृथक् पहचान प्रदान की। गुरुमुखी लिपि के प्रसार के कारण नानक पंथियों को नवीन बाणी मिली। लंगर प्रथा के कारण वे जाति-बंधनों से मुक्त हुए। इस प्रकार सिक्ख धर्म हिंदू धर्म से अलग रूप धारण करने लगा। इन सबका श्रेय गुरु अंगद देव जी को ही जाता है।

प्रश्न 2.
श्री गुरु अमरदास जी का सिक्ख धर्म के विकास में क्या योगदान है ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी को सिक्ख धर्म में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। गुरु नानक देव जी ने धर्म का जो बीज बोया था, वह गुरु अंगद देव जी के काल में अंकुरित हो गया। गुरु अमरदास जी ने इस नवीन खिले अंकुर के गिर्द बाड़ लगा दी, ताकि हिंदू धर्म इसे अपने में ही न समा ले। कहने का अभिप्राय यह है कि उन्होंने सिक्खों को सामाजिक जीवन व्यतीत करने के लिए नवीन रीति-रिवाज़ प्रदान किए जिससे सिक्ख धर्म हिंदू धर्म से अलग राह पर चल पड़ा। निःसंदेह वह एक महान् व्यक्ति थे। पेन (Payne) ने उन्हें उत्साही प्रचारक बताया है। एक अन्य इतिहासकार ने उन्हें बुद्धिमान तथा न्यायप्रिय गुरु कहा है। कुछ भी हो उनके गुरु काल में सिक्ख धर्म नवीन दिशाओं में प्रवाहित हुआ। संक्षेप में गुरु अमरदास जी के कार्यों का वर्णन इस प्रकार है–

1. गोइंदवाल साहिब की बावली का निर्माण-गुरु अमरदास जी ने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब के स्थान पर एक बावली (जल-स्रोत) का निर्माण कार्य पूरा किया जिसका शिलान्यास गुरु अंगद देव जी के समय रखा गया था। गुरु अमरदास जी ने इस बावली की तह तक पहुंचने के लिए 84 सीढ़ियां बनवाईं। गुरु जी के अनुसार प्रत्येक सीढ़ी पर जपुजी साहिब का पाठ करने से ही जन्म-मरण की चौरासी लाख योनियों के चक्कर से मुक्ति मिलेगी। गोइंदवाल साहिब की बावली सिक्ख धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान बन गई।

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2. लंगर प्रथा-गुरु अमरदास जी ने लंगर प्रथा का विस्तार करके सिक्ख धर्म के विकास की ओर एक और महत्त्वपूर्ण कदम उठाया। उन्होंने लंगर के लिए कुछ विशेष नियम बनाए। अब कोई भी व्यक्ति लंगर में भोजन किए बिना गुरु जी से नहीं मिल सकता था। लंगर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी जातियों के लोग एक ही पंक्ति में बैठकर एक ही रसोई में बना भोजन करते थे।
लंगर प्रथा सिक्ख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक सिद्ध हुई। इससे जाति-पाति तथा रंग-रूप के भेद भावों को बड़ा धक्का लगा और लोगों में समानता की भावना का विकास हुआ। परिणामस्वरूप सिक्ख एकता के सूत्र में बंधने लगे।

3. सिक्ख गुरु साहिबान के शब्दों को एकत्रित करना-गुरु नानक देव जी के शब्दों तथा श्लोकों को गुरु अंगद देव जी ने एकत्रित करके उनके साथ अपने रचे हुए शब्द भी जोड़ दिए थे। यह सारी सामग्री गुरु अंगद देव जी ने गुरु अमरदास जी को सौंप दी थी। गुरु अमरदास जी ने भी कुछ-एक नए श्लोकों की रचना की और उन्हें पहले वाले संकलन (collection) के साथ मिला दिया। इस प्रकार विभिन्न गुरु साहिबान के श्लोकों तथा उपदेशों के एकत्रित हो जाने से एक ऐसी सामग्री तैयार की गई जो आदि ग्रंथ साहिब के संकलन का आधार बनी। इस कार्य में उनके पोते ने इनकी बड़ी सहायता की।

4. मंजी प्रथा-गुरु अमरदास जी के समय में सिक्खों की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। परंतु वृद्धावस्था के कारण गुरु साहिब जी के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार करना कठिन हो गया था। अतः उन्होंने अपने पूरे आध्यात्मिक साम्राज्य को 22 प्रांतों में बांट दिया। इनमें से प्रत्येक प्रांत को मंजी’ कहा जाता था। प्रत्येक मंजी सिक्ख धर्म के प्रचार का एक केंद्र थी जिसके संचालन का कार्यभार गुरु जी ने अपने किसी विद्वान् श्रद्धालु शिष्य को सौंप रखा था।  गुरु अमरदास जी द्वारा स्थापित मंजी प्रणाली का सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व है। डॉ० गोकुल चंद नारंग के शब्दों में, “गुरु जी के इस कार्य ने सिक्ख धर्म की नींव सुदृढ़ करने तथा देश के सभी भागों में प्रचार कार्य बढ़ाने में विशेष योगदान दिया।”

5. उदासियों से सिक्खों को पृथक् करना-गुरु अमरदास जी के गुरुकाल के आरंभिक वर्षों में उदासी संप्रदाय काफी लोकप्रिय हो चुका था। इस बात का भय होने लगा कि कहीं सिक्ख धर्म उदासी संप्रदाय में ही विलीन न हो जाए। इसलिए गुरु साहिब ने जोरदार शब्दों में उदासी संप्रदाय के सिद्धांतों का खंडन किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को समझाया कि कोई भी व्यक्ति, जो उदासी नियमों का पालन करता है, सच्चा सिक्ख नहीं हो सकता। गुरु जी के इन प्रयत्नों से सिक्ख उदासियों से पृथक् हो गए और सिक्ख धर्म का अस्तित्व मिटने से बच गया।

6. मुगल सम्राट अकबर का गोइंदवाल आना-गुरु अमरदास जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुग़ल सम्राट अकबर गोइंदवाल आया। गुरु जी के दर्शन से पहले उसने पंक्ति में बैठ कर लंगर खाया। लंगर की व्यवस्था से अकबर बहुत प्रभावित हुआ। कहते हैं उसी वर्ष पंजाब में अकाल पड़ा था। गुरु जी के आग्रह पर अकबर ने पंजाब के किसानों का लगान माफ़ कर दिया था।

7. नई परंपराएं-गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को व्यर्थ के रीति-रिवाजों का त्याग करने का उपदेश दिया। हिंदुओं में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर खूब रोया-पीटा जाता था। परंतु गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को रोने-पीटने के स्थान पर ईश्वर का नाम लेने का उपदेश दिया। उन्होंने विवाह की भी नई विधि आरंभ की जिसे आनंद कारज कहते हैं।

8. अनंदु साहिब की रचना-गुरु अमरदास जी ने एक नई बाणी की रचना की जिसे अनंदु साहिब कहा जाता है। इस राग के प्रवचन से सिक्खों में वेद-मंत्रों के उच्चारण का महत्त्व बिल्कुल समाप्त हो गया।
सच तो यह है कि गुरु अमरदास जी का गुरुकाल (1552 ई०-1574 ई०) सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। गुरु जी के द्वारा बावली का निर्माण, मंजी प्रथा के आरंभ, लंगर प्रथा के विस्तार तथा नए रीति-रिवाजों ने सिक्ख धर्म के संगठन में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 3.
श्री गुरु रामदास जी ने सिख पंथ के विकास के लिए कौन-से महत्त्वपूर्ण कार्य किए ? वर्णन करो।
उत्तर-
श्री गुरु रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु थे। इनके बचपन का नाम भाई जेठा था। उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर गुरु अमरदास जी ने उन्हें गुरुगद्दी सौंपी थी। उन्होंने 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरुगद्दी का संचालन किया और उन्होंने निम्नलिखित कार्यों द्वारा सिख धर्म की मर्यादा को बढ़ाया।

1. अमृतसर का शिलान्यास-गुरु रामदास जी ने रामदासपुर की नींव रखी। आजकल इस नगर को अमृतसर कहते हैं। 1577 ई० में गुरु जी ने यहां अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदाई आरंभ की। परंतु उन्होंने देखा कि गोइंदवाल में रहकर खुदाई के कार्य का निरीक्षण करना कठिन है, अतः उन्होंने यहीं डेरा डाल दिया। कई श्रद्धालु लोग भी यहीं आ बसे। कुछ ही समय में सरोवर के चारों ओर एक छोटा-सा नगर बस गया। इसे रामदासपुर का नाम दिया गया। गुरु जी इस नगर को हर प्रकार से आत्म-निर्भर बनाना चाहते थे। अत: उन्होंने 52 अलग-अलग प्रकार के व्यापारियों को आमंत्रित किया। उन्होंने एक बाज़ार की स्थापना की जिसे आजकल ‘गुरु का बाज़ार’ कहते हैं। इस नगर के निर्माण से सिक्खों को एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान मिल गया और उन्होंने हिंदुओं के तीर्थस्थानों की यात्रा करनी बंद कर दी।

2. मसंद प्रथा का आरंभ-गुरु रामदास जी को अमृतसर तथा संतोखसर नामक सरोवरों की खुदाई के लिए काफ़ी धन की आवश्यकता थी। अतः उन्होंने मसंद प्रथा का आरंभ किया। उन्होंने अपने शिष्यों को दूर देशों में धर्म प्रचार करने तथा वहां से धन एकत्रित करने के लिए भेजा। इन मसंदों ने विभिन्न प्रदेशों में सिक्ख धर्म का खूब प्रचार किया तथा काफ़ी धन राशि एकत्रित की। वास्तव में इस प्रथा ने सिक्ख धर्म के प्रसार में काफी योगदान दिया। इससे सिक्ख एक लड़ी में पिरोए गए तथा उनमें भावनात्मक एकता आ गई।

3. उदासियों के मतभेद की समाप्ति-गुरु अंगद देव जी तथा गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को उदासी संप्रदाय से अलग कर दिया था। परंतु गुरु रामदास जी ने उदासियों से बड़ा विनम्रतापूर्ण व्यवहार किया। कहा जाता है कि उदासी संप्रदाय का नेता बाबा श्रीचंद एक बार गुरु रामदास जी से मिलने आए। उसने गुरु जी का मज़ाक उड़ाते हुए गुरु जी से यह प्रश्न किया- “सुनाओ दाढ़ा इतना लंबी क्यों है ?” गुरु जी ने बड़े विनम्र भाव से उत्तर दिया, “आप जैसे सत्य पुरुषों के चरण झाड़ने के लिए।” यह बात सुन कर श्रीचंद जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने गुरु जी की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उदासी संप्रदाय तथा सिक्ख गुरु साहिबान का काफी समय से चला आ रहा द्वेष-भाव समाप्त हो गया। यह बात सिक्ख मत के प्रसार में बहुत सहायक सिद्ध हुई।
सच तो यह कि गुरु रामदास जी ने भी गुरु अमरदास जी की भांति सिक्ख मत को इसका अलग अस्तित्व प्रदान करने का हर सभव प्रयास किया।

प्रश्न 4.
गुरुओं द्वारा नये नगरों की स्थापना और नई परंपराओं की शुरुआत ने सिख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
गुरु साहिबान ने सिख धर्म के प्रचार तथा सिखों की समृद्धि के लिए अनेक नगर बसाये। नए नगर बसाने का एक उद्देश्य यह भी था कि सिक्खों को अपने अलग तीर्थ-स्थान दिए जाएं ताकि उनमें एकता एवं संगठन की भावना मज़बूत हो। गुरु साहिबान ने समाज में प्रचलित परम्पराओं से हट कर कुछ नई परम्पराएं भी आरंभ की। इनसे सिख समाज में सरलता आई और सिख धर्म का विकास तेज़ी से हुआ।
I. नये नगरों का योगदान

  1. गोइंदवाल साहिब-गोइंदवाल साहिब नामक नगर की स्थापना गुरु अंगद देव जी ने की। इस नगर का निर्माण 1546 ई० में आरंभ हुआ था। इसका निर्माण कार्य उन्होंने अपने शिष्य अमरदास जी को सौंप दिया। गुरु अमरदास जी ने अपने गुरुकाल में यहां बाऊली साहब का निर्माण करवाया। इस प्रकार गोइंदवाल साहिब सिक्खों का एक प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र बन गया।
  2. रामदासपुर-गुरु रामदास जी ने रामदासपुर की नींव रखी। आजकल इस नगर को अमृतसर कहते हैं। 1577 ई० में गुरु जी ने यहां अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो तालाबों की खुदाई आरंभ की। कुछ ही समय में तालाब के चारों ओर एक छोटा-सा नगर बस गया। इसे रामदासपुर का नाम दिया गया। गुरु जी इस नगर को हर प्रकार से आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने 52 अलग-अलग प्रकार के व्यापारियों को आमंत्रित किया। उन्होंने एक बाजार की स्थापना की जिसे आजकल ‘गुरु का बाज़ार’ कहते हैं। इस नगर के निर्माण से सिक्खों को एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ-स्थान मिल गया।
  3. तरनतारन-तरनतारन का निर्माण गुरु अर्जन देव जी ने ब्यास तथा रावी नदियों के मध्य करवाया। इसका निर्माण 1590 ई० में हुआ। अमृतसर की भांति तरनतारन भी सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। हजारों की संख्या में यहां सिक्ख यात्री स्नान करने के लिए आने लगे।
  4. करतारपुर-गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर दोआब में एक नगर की स्थापना की जिसका नाम करतारपुर अर्थात् ‘ईश्वर का शहर’ रखा गया। यहां उन्होंने एक कुआं भी खुदवाया जो गंगसर के नाम से प्रसिद्ध है। यह नगर जालंधर दोआब में सिक्ख धर्म के प्रचार का केंद्र बन गया।
  5. हरगोबिंदपुर तथा छहरटा-गुरु अर्जन देव जी ने अपने पुत्र हरगोबिंद के जन्म की खुशी में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमृतसर के निकट पानी की कमी को दूर करने के लिए एक कुएं का निर्माण करवाया। इस कुएं पर छः रहट चलते थे। इसलिए इसको छहरटा के नाम से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे यहां एक नगर बस गया जो आज भी विद्यमान है।
  6. चक नानकी-चक नानकी की नींव कीरतपुर के निकट गुरु तेग बहादुर साहिब ने रखी। इस नगर की भूमि गुरु साहिब ने 19 जून, 1665 ई० को 500 रुपये में खरीदी थी।

II. नयी परम्पराओं का योगदान

  1. गुरु नानक देव जी ने ‘संगत’ तथा ‘पंगत’ प्रथा की परंपरा चलाई। इससे सिखों में एक साथ बैठ कर नाम सिमरण करने की भावना का विकास हुआ। परिणामस्वरूप सिख भाईचारा मज़बूत हुआ।
  2. आनंद कारज से विवाह की व्यर्थ रस्मों से सिखों को छुटकारा मिला और विवाह सरल रीति से होने लगे। इस परंपरा के कारण और भी बहुत से लोग सिख धर्म से जुड़ गए। .
  3. मृत्यु के अवसर पर रोने-पीटने की परंपरा को छोड़ प्रभु सिमरण पर बल देने से सिखों में गुरु भक्ति की भावना मजबूत हुई।

PSEB 9th Class Social Science Guide पंजाब : सिक्ख धर्म का विकास Important Questions and Answers

I. बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली (जल-स्रोत) की नींव रखी
(क) गुरु अर्जन देव जी ने
(ख) गुरु नानक देव जी ने
(ग) गुरु अंगद देव जी ने
(घ) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(ग) गुरु अंगद देव जी ने

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प्रश्न 2.
गुरु रामदास जी ने नगर बसाया
(क) अमृतसर
(ख) जालंधर
(ग) कीरतपुर साहिब
(घ) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(क) अमृतसर

प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी ने रावी तथा व्यास के बीच किस नगर की नींव रखी ?
(क) जालंधर
(ख) गोइंदवाल साहिब
(ग) अमृतसर
(घ) तरनतारन।
उत्तर-
(घ) तरनतारन।

प्रश्न 4.
गुरु अंगद देव जी को गुरुगद्दी मिली-
(क) 1479 ई० में
(ख) 1539 ई० में
(ग) 1546 ई० में
(घ) 1670 ई० में।
उत्तर-
(ख) 1539 ई० में

प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी ज्योति-जोत समाये
(क) 1552 ई० में
(ख) 1538 ई० में
(ग) 1546 ई० में
(घ) 1479 ई० में।
उत्तर-
(क) 1552 ई० में

प्रश्न 6.
‘बाबा बकाला’ वास्तव में थे-
(क) गुरु तेग़ बहादुर जी
(ख) गुरु हरकृष्ण जी
(ग) गुरु गोबिंद सिंह जी
(घ) गुरु अमरदास जी।
उत्तर-
(क) गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 7.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म हुआ
(क) कीरतपुर साहिब में
(ख) पटना में
(ग) दिल्ली में
(घ) तरनतारन में।
उत्तर-
(ख) पटना में

प्रश्न 8.
गुरु अमरदास जी ज्योति-जोत समाए
(क) 1564 ई० में
(ख) 1538 ई० में
(ग) 1546 ई० में
(घ) 1574 ई० में।
उत्तर-
(घ) 1574 ई० में।

प्रश्न 9.
गुरुगद्दी को पैतृक रूप दिया
(क) गुरु अमरदास जी ने
(ख) गुरु रामदास जी ने
(ग) गुरु गोबिंद सिंह जी ने
(घ) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(क) गुरु अमरदास जी ने

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रिक्त स्थान भरें :

  1. गुरु ………… का पहला नाम भाई लहना था।
  2. …………….. सिक्खों के चौथे गुरु थे।
  3. …………. नामक नगर की स्थापना गुरु अंगद देव जी ने की।
  4. गुरु हरगोबिंद साहिब ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष ……….. में धर्म प्रचार में व्यतीत किए।
  5. गुरु अंगद देव जी के पिता का नाम श्री ………….. और माता का नाम ………….. था।
  6. ‘उदासी’ मत गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र …………….. जी ने स्थापित किया।
  7. मंजियों की स्थापना गुरु ………… ने की।

उत्तर-

  1. अंगद साहिब
  2. गुरु रामदास जी
  3. गोइंदवाल साहिब
  4. फेरूमल, सभराई देवी
  5. कीरतपुर साहि
  6. बाबा श्रीचंद
  7. अमर दास जी।

सही मिलान करो :

(क) – (ख)
1. भाई लहना – (i) श्री गुरु नानक देव जी
2. अकबर – (ii) बाबा श्री चंद
3. लंगर प्रथा – (iii) अमृतसर
4. उदासी मत – (iv) श्री गुरु अंगद देव जी
5. रामदासपुर – (v) श्री गुरु अमरदास जी

उत्तर-

  1. श्री गुरु अंगद देव जी
  2. श्री गुरु अमरदास जी
  3. श्री गुरु नानक देव जी
  4. बाबा श्री चंद
  5. अमृतसर

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

उत्तर एक लाइन अथवा एक शब्द में :

(I)

प्रश्न 1.
भाई लहना किस गुरु साहिब का पहला नाम था ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब का।

प्रश्न 2.
लंगर प्रथा से क्या भाव है ?
उत्तर-
लंगर प्रथा अथवा पंगत से भाव उस प्रथा से है जिसके अनुसार सभी जातियों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक ही पंक्ति में बैठकर खाना खाते थे।

प्रश्न 3.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली (जल स्रोत) की नींव किस गुरु साहिब ने रखी थी ?
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब में बाऊली की नींव गुरु अंगद देव जी ने रखी थी।

प्रश्न 4.
अकबर कौन-से गुरु साहिब को मिलने गोइंदवाल साहिब आया ?
उत्तर-
अकबर गुरु अमरदास जी से मिलने गोइंदवाल साहिब आया था।

प्रश्न 5.
मसंद प्रथा के दो उद्देश्य लिखिए।
उत्तर-
मसंद प्रथा के दो मुख्य उद्देश्य थे- सिक्ख धर्म के विकास कार्यों के लिए धन एकत्रित करना तथा सिक्खों को संगठित करना।

प्रश्न 6.
सिक्खों के चौथे गुरु कौन थे तथा उन्होंने कौन-सा शहर बसाया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु थे जिन्होंने रामदासपुर (अमृतसर) नामक नगर बसाया।

प्रश्न 7.
लंगर प्रथा के बारे में आप क्या जानते हो ?
उत्तर-
लंगर प्रथा का आरंभ गुरु नानक साहिब ने सामाजिक भाईचारे के लिए किया।

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प्रश्न 8.
गुरु अंगद देव जी संगत प्रथा के द्वारा सिक्खों को क्या उपदेश देते थे ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी संगत प्रथा के द्वारा सिक्खों को ऊंच-नीच के भेदभाव को भूल कर प्रेमपूर्वक रहने की शिक्षा देते थे।

प्रश्न 9.
गुरु अंगद देव जी की पंगत-प्रथा के बारे में जानकारी दो ।
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी के द्वारा चलाई गई पंगत-प्रथा को आगे बढ़ाया जिसका खर्च सिक्खों की कार सेवा से चलता था।

प्रश्न 10.
गुरु अंगद देव जी द्वारा स्थापित अखाड़े के बारे में लिखिए।
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने सिक्खों को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने के लिए खडूर साहिब के स्थान पर एक अखाड़ा बनवाया।

प्रश्न 11.
गोइंदवाल साहिब के बारे में आप क्या जानते हो ?
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब नामक नगर की स्थापना गुरु अंगद देव जी ने की जो सिक्खों का एक प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र बन गया।

प्रश्न 12.
गुरु अमरदास जी के जाति-पाति के बारे में विचार बताओ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी जातीय भेदभाव तथा छुआछूत के विरोधी थे।

प्रश्न 13.
सती प्रथा के बारे में गुरु अमरदास जी के क्या विचार थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का खंडन किया।

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी द्वारा निर्मित शहर गोइंदवाल साहिब दूसरे धार्मिक स्थानों से कैसे अलग था ?
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब सिक्खों के सामूहिक परिश्रम से बना था जिसमें न तो किसी देवी-देवता की पूजा की जाती थी और न ही इसमें किसी पुजारी की आवश्यकता थी।

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी ने जन्म, विवाह तथा मृत्यु संबंधी क्या सुधार किए ? ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने जन्म तथा विवाह के अवसर पर ‘आनंद’ बाणी का पाठ करने की प्रथा चलाई और सिक्खों को आदेश दिया कि वे मृत्यु के अवसर पर ईश्वर की स्तुति तथा भक्ति के शब्दों का गायन करें।

प्रश्न 16.
रामदासपुर या अमृतसर की स्थापना की महत्ता बताइए।
उत्तर-
रामदासपुर की स्थापना से सिक्खों को एक अलग तीर्थ-स्थान तथा महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र मिल गया।

प्रश्न 17.
गुरु रामदास जी तथा अकबर बादशाह की मुलाकात का महत्त्व बताइए।
उत्तर-
गुरु रामदास जी की अकबर से मुलाकात से दोनों में मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी का नाम अंगद देव कैसे पड़ा ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी गुरु नानक देव जी के लिए सर्दी की रात में दीवार बना सकते थे तथा कीचड़ से भरी घास की गठरी उठा सकते थे, इसलिए गुरु जी ने उनका नाम अंगद अर्थात् शरीर का एक अंग रख दिया।

प्रश्न 19.
भाई लहना (गुरु अंगद साहिब) के माता-पिता का नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई लहना (गुरु अंगद साहिब) के पिता का नाम फेरूमल और माता का नाम सभराई देवी था।

प्रश्न 20.
गुरु अंगद साहिब का बचपन किन दो स्थानों पर बीता ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब का बचपन हरिके तथा खडूर साहिब में बीता।

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(II)

प्रश्न 1.
सिक्खों के दसरे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी।

प्रश्न 2.
गुरु अंगद देव जी का पहला नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई लहना जी।

प्रश्न 3.
गुरु अंगद देव जी को गुरुगद्दी कब सौंपी गई ?
उत्तर-
1539 ई० में।

प्रश्न 4.
लहना जी का विवाह किसके साथ हुआ और उस समय उनकी आयु कितनी थी ?
उत्तर-
लहना जी का विवाह 15 वर्ष की आयु में श्री देवीचंद जी की सुपुत्री बीबी खीवी से हुआ।

प्रश्न 5.
लहना जी के कितने पुत्र और पुत्रियां थीं ? उनके नाम भी लिखो।
उत्तर-
लहना जी के दो पुत्र दातू तथा दासू तथा दो पुत्रियां बीबी अमरो तथा बीबी अनोखी थीं।

प्रश्न 6.
‘उदासी’ मत किसने स्थापित किया ?
उत्तर-
‘उदासी’ मत गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्रं बाबा श्रीचंद जी ने स्थापित किया।

प्रश्न 7.
गुरु अंगद साहिब ने ‘उदासी’ मत के प्रति क्या रुख अपनाया ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत को गुरु नानक साहिब के उद्देश्यों के प्रतिकूल बताया और इस मत का विरोध किया।

प्रश्न 8.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा स्थान था ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र अमृतसर जिले में खडूर साहिब था।

प्रश्न 9.
लंगर प्रथा किसने चलाई ?
उत्तर-
लंगर प्रथा गुरु नानक देव जी ने चलाई।

प्रश्न 10.
उदासी संप्रदाय किसने चलाया ?
उत्तर-
बाबा श्रीचंद जी ने।

प्रश्न 11.
गोइंदवाल साहिब की स्थापना (1546 ई०) किसने की ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने।

प्रश्न 12.
गुरु अंगद देव जी ने अखाड़े का निर्माण कहां करवाया ?
उत्तर-
खडूर साहिब में।

प्रश्न 13.
गुरु अंगद देव जी ज्योति-जोत कब समाये ?
उत्तर-
1552 ई० में।

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी का जन्म कब और कहां हुआ था ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का जन्म 1479 ई० में जिला अमृतसर में स्थित बासरके नामक गांव में हुआ था।

प्रश्न 15.
गुरु अमरदास जी को गद्दी संभालते समय किस कठिनाई का सामना करना पड़ा ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी को गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा ।
अथवा
गुरु जी को गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद के विरोध का भी सामना करना पड़ा।

प्रश्न 16.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण कार्य किसने पूरा करवाया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

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प्रश्न 17.
मंजी प्रथा किस गुरु जी ने आरंभ करवाई ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 18.
‘आनंद’ नामक बाणी की रचना किसने की ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 19.
गुरु अमरदास जी ने किन दो अवसरों के लिए सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियां निश्चित की ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने आनंद विवाह की पद्धति आरंभ की जिसमें जन्म तथा मरण के अवसरों पर सिक्खों के लिए विशिष्ट रीतियां निश्चित की गईं।

प्रश्न 20.
गुरु अमरदास जी द्वारा सिक्ख मत के प्रसार के लिए किया गया कोई एक कार्य लिखो।।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बाउली का निर्माण किया।
अथवा
उन्होंने मंजी प्रथा की स्थापना की तथा लंगर प्रथा का विस्तार किया।

(III)

प्रश्न 1.
गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को कौन-कौन से तीन त्योहार मनाने का आदेश दिया ?
उत्तर-
उन्होंने सिक्खों को वैशाखी, माघी तथा दीवाली के त्योहार मनाने का आदेश किया।

प्रश्न 2.
गुरु अमरदास जी के काल में सिक्ख अपने त्योहार मनाने के लिए कहां एकत्रित होते थे ?
उत्तर-
सिक्ख अपने त्योहार मनाने के लिए गुरु अमरदास जी के पास गोइंदवाल साहिब में एकत्रित होते थे।

प्रश्न 3.
गुरु अमरदास जी ज्योति-जोत कब समाए ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी 1574 ई० में ज्योति-जोत समाए।

प्रश्न 4.
गुरुगद्दी को पैतृक रूप किसने दिया ?
उत्तर-
गुरुगदी को पैतृक रूप गुरु अमरदास जी ने दिया।

प्रश्न 5.
सिक्खों के चौथे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
श्री गुरु रामदास जी।

प्रश्न 6.
अमृतसर शहर की नींव किसने रखी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 7.
मसंद प्रथा का आरंभ सिक्खों के किस गुरु ने आरंभ किया ?
उत्तर-
श्री गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 8.
गुरु रामदास जी की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी की पत्नी का नाम बीबी भानी जी था।

प्रश्न 9.
गुरु रामदास जी के कितने पुत्र थे ? पुत्रों के नाम भी बताओ।
उत्तर-
गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे-पृथी चंद, महादेव तथा अर्जन देव।

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प्रश्न 10.
गुरु रामदास जी द्वारा सिक्ख धर्म के विस्तार के लिए किया गया कोई एक कार्य बताओ।
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर बसाया। इस नगर के निर्माण से सिक्खों को एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान मिल गया।
अथवा
उन्होंने मसंद प्रथा को आरंभ किया। मसंदों ने सिक्ख धर्म का खूब प्रचार किया।

प्रश्न 11.
अमृतसर नगर का प्रारंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
अमृतसर नगर की प्रारंभिक नाम रामदासपुर था।

प्रश्न 12.
गुरु रामदास जी द्वारा खुदवाए गए दो सरोवरों के नाम लिखो।
उत्तर-
गुरु रामदास जी द्वारा खुदवाए गए दो सरोवर संतोखसर तथा अमृतसर हैं।

प्रश्न 13.
गुरु रामदास जी ने अमृतसर सरोवर के चारों ओर जो ब्राज़ार बसाया वह किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?
उत्तर-
‘गुरु का बाज़ार’।

प्रश्न 14.
गुरु रामदास जी ने ‘गुरु का बाज़ार’ की स्थापना किस उद्देश्य से की ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी अमृतसर नगर को हर प्रकार से आत्म-निर्भर बनाना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने 52 अलग-अलग प्रकार के व्यापारियों को आमंत्रित किया और इस बाज़ार की स्थापना की।

प्रश्न 15.
गुरु रामदास जी ने महादेव को गुरुगद्दी के अयोग्य क्यों समझा ?
उत्तर-
महादेव फ़कीर स्वभाव का था तथा उसे सांसारिक विषयों से कोई लगाव नहीं था।

प्रश्न 16.
गुरु रामदास जी ने पृथी चंद को गुरुगद्दी के अयोग्य क्यों समझा ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने पृथी चंद को गुरुपद के अयोग्य इसलिए समझा क्योंकि वह धोखेबाज़ और षड्यंत्रकारी था।

लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को उदासी मत से कैसे अलग किया ?
उत्तर-
उदासी संप्रदाय की स्थापना गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र श्रीचंद जी ने की थी। उसने संन्यास का प्रचार किया। यह बात गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के विरुद्ध थी। गुरु अंगद देव जी ने सिक्खों को स्पष्ट किया कि सिक्ख धर्म गृहस्थियों का धर्म है। इसमें संन्यास का कोई स्थान नहीं है। उन्होंने यह भी घोषणा की कि वह सिक्ख जो संन्यास में विश्वास रखता है, सच्चा सिक्ख नहीं है। इस प्रकार उदासियों को सिक्ख संप्रदाय से अलग करके गुरु अंगद देव जी ने सिक्ख धर्म को ठोस आधार प्रदान किया।

प्रश्न 2.
गुरु अमरदास जी ने ब्याह की रस्मों में क्या सुधार किए ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के समय समाज में जाति मतभेद का रोग इतना बढ़ चुका था कि लोग अपनी जाति से बाहर विवाह करना धर्म के विरुद्ध मानने लगे थे। गुरु जी का विश्वास था कि ऐसे रीति-रिवाज लोगों में फूट डालते हैं। इसीलिए उन्होंने सिक्खों को जाति-मतभेद भूल कर अंतर्जातीय विवाह करने का आदेश दिया। उन्होंने विवाह की रीतियों में भी सुधार किया। उन्होंने विवाह के समय रस्मों, फेरों के स्थान पर ‘लावां’ की प्रथा आरंभ की।

प्रश्न 3.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली (जल स्रोत) का वर्णन करो।
उत्तर-
गुर अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब नामक स्थान पर बाऊली (जल स्रोत) का निर्माण कार्य पूरा किया जिसका शिलान्यास गुरु अंगद देव जी के समय में किया गया था। गुरु अमरदास जी ने इस बावली में 84 सीढ़ियां बनवाई। उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि जो सिक्ख प्रत्येक सीढ़ी पर श्रद्धा और सच्चे मन से ‘जपुजी साहिब’ का पाठ करके स्नान करेगा वह जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाएगा और मोक्ष को प्राप्त करेगा। डॉ. इंदू भूषण बनर्जी लिखते हैं, “इस बाऊली की स्थापना सिक्ख धर्म के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कार्य था।” गोइंदवाल साहिब की बाऊली सिक्ख धर्म का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गई। इस बाऊली पर एकत्रित होने से सिक्खों में आपसी मेलजोल की भावना भी बढ़ी और वे परस्पर संगठित होने लगे।

प्रश्न 4.
आनंद साहिब बारे लिखो।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने एक नई बाणी की रचना की जिसे आनंद साहिब कहा जाता है। गुरु साहिब ने अपने सिक्खों को आदेश दिया कि जन्म, विवाह तथा खुशी के अन्य अवसरों पर ‘आनंद’ साहिब का पाठ करें। इस बाणी से सिक्खों में वेद-मंत्रों के उच्चारण का महत्त्व बिल्कुल समाप्त हो गया। आज भी सभी सिक्ख जन्म, विवाह तथा खुशी के अन्य अवसरों पर इसी बाणी को गाते हैं।

प्रश्न 5.
सिक्खों तथा उदासियों में हुए समझौते के बारे में जानकारी दीजिए।
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी तथा गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को उदासी संप्रदाय से अलग कर दिया था, परंतु गुर रामदास जी ने उदासियों से बड़ा विनम्रतापूर्ण व्यवहार किया। उदासी संप्रदाय के संचालक बाबा श्रीचंद जी एक बार गुरु रामदास जी से मिलने गए। उनके बीच एक महत्त्वपूर्ण वार्तालाप भी हुआ। श्रीचंद जी गुरु साहिब की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने गुरु जी की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उदासियों ने सिक्ख गुरु साहिबान का विरोध करना छोड़ दिया।

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प्रश्न 6.
गुरु साहिबान के समय के दौरान बनी बाऊलियों (जल स्रोतों) का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
गुरु साहिबान के समय में निम्नलिखित बाऊलियों का निर्माण हुआ

  1. गोइंदवाल साहिब की बाऊली-गोइंदवाल साहिब की बाऊली का शिलान्यास गुरु अंगद देव जी के समय में हुआ था। गुरु अमदास जी ने इस बाऊली को पूर्ण करवाया। उन्होंने इसके जल तक पहुंचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनवाईं। उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि जो सिक्ख प्रत्येक सीढ़ी पर श्रद्धा और सच्चे मन से जपुजी साहिब का पाठ करेगा वह जन्म-मरण की चौरासी लाख योनियों के चक्कर से मुक्त हो जाएगा।
  2. लाहौर की बाऊली-लाहौर के डब्बी बाज़ार में स्थित इस बाऊली का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने करवाया। यह बाऊली सिक्खों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गई।

प्रश्न 7.
गुरु अंगद
देव जी द्वारा सिक्ख संस्था (पंथ) के विकास के लिए किए गए किन्हीं चार कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी (1539 ई०) के पश्चात् गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर आसीन हुए। उनका नेतृत्व सिक्ख धर्म के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उन्होंने निम्नलिखित कार्यों द्वारा सिक्ख धर्म के विकास में योगदान दिया-

  1. गुरुमुखी लिपि का मानकीकरण-गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी लिपि को मानक रूप दिया। कहते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी के प्रचार के लिए गुरुमुखी वर्णमाला में ‘बाल बोध’ की रचना की।
  2. गुरु नानक देव जी की जन्म-साखी-श्री गुरु अंगद देव जी ने श्री गुरु नानक देव जी की सारी बाणी को एकत्रित करके भाई बाला से गुरु जी की जन्म साखी (जीवन-चरित्र) लिखवाई। इससे सिक्ख गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पालन करने लगे।
  3. लंगर प्रथा-श्री गुरु अंगद देव जी ने लंगर प्रथा जारी रखी। इस प्रथा से जाति-पाति की भावनाओं को धक्का लगा और सिक्ख धर्म के प्रसार में सहायता मिली।
  4. गोइंदवाल साहिब का निर्माण-गुरु अंगद देव जी ने गोइंदवाल साहिब नामक नगर की स्थापना की। गुरु अमरदास के समय में यह नगर एक प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र बन गया। आज भी यह सिक्खों का एक पवित्र धार्मिक स्थान है।

प्रश्न 8.
सिक्ख पंथ में गुरु और सिक्ख (शिष्य) की परंपरा कैसे स्थापित हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक साहिब के 1539 में ज्योति-जोत समाने से पूर्व एक विशेष धार्मिक भाई-चारा अस्तित्व में आ चुका था। गुरु नानक देव जी इसे जारी रखना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने शिष्य भाई लहना जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। भाई लहना जी ने गुरु नानक साहिब के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु अंगद देव जी के नाम से गुरुगद्दी संभाली। इस प्रकार गुरु और सिक्ख (शिष्यों) की परंपरा स्थापित हुई और सिक्ख इतिहास में यह विचार गुरु पंथ के सिद्धांत के रूप में विकसित हुआ ।

प्रश्न 9.
गुरु नानक साहिब ने अपने पुत्रों के होते हुए भाई लहना जी को अपना उत्तराधिकारी क्यों बनाया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपने दो पुत्रों श्री चंद तथा लखमी दास (चंद) के होते हुए भी भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। उसके पीछे कुछ विशेष कारण थे-

  1. आदर्श गृहस्थ जीवन का पालन गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का मुख्य सिद्धांत था, परंतु उनके दोनों पुत्र गुरु जी के इस सिद्धांत का पालन नहीं कर रहे थे। इसके विपरीत भाई लहना गुरु नानक देव जी के सिद्धांत का पालन सच्चे मन से कर रहे थे।
  2. नम्रता तथा सेवा-भाव भी गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का मूल मंत्र था, परंतु बाबा श्रीचंद नम्रता तथा सेवा-भाव दोनों ही गुणों से खाली थे। दूसरी ओर, भाई लहना इन गुणों की साक्षात मूर्ति थे।
  3. गुरु नानक देव जी को वेद-शास्त्रों तथा ब्राह्मण वर्ग की सर्वोच्चता में विश्वास नहीं था। वे संस्कृत को भी पवित्र भाषा स्वीकार नहीं करते थे, परंतु उनके पुत्र श्रीचंद जी को संस्कृत भाषा तथा वेद-शास्त्रों में गूढ विश्वास था।

प्रश्न 10.
गुरु अंगद देव जी के समय में लंगर प्रथा तथा उसके महत्त्व का वर्णन करो।
उत्तर-
लंगर में सभी सिक्ख एक साथ बैठ कर भोजन करते थे। गुरु अंगद देव जी ने इस प्रथा को काफ़ी प्रोत्साहन दिया। लंगर प्रथा के विस्तार तथा प्रोत्साहन के कई महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। यह प्रथा धर्म प्रचार कार्य का एक शक्तिशाली साधन बन गई। निर्धनों के लिए एक सहारा बनने के अतिरिक्त यह प्रचार तथा विस्तार का एक महान् यंत्र बनी। गुरु जी के अनुयायियों द्वारा दिए गए अनुदानों, चढ़ावे इत्यादि को इसने निश्चित रूप दिया। हिंदुओं द्वारा स्थापित की गई दान संस्थाएं अनेक थीं, परंतु गुरु जी का लंगर संभवत: पहली संस्था थी जिसका खर्च समस्त सिक्खों के संयुक्त दान तथा भेंटों से चलाया जाता था। इस बात ने सिक्खों में ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करके एकता की भावना जागृत की।

प्रश्न 11.
गुरु अंगद देव जी के जीवन की किस घटना से उनके अनुशासनप्रिय होने का प्रमाण मिलता है ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने सिक्खों के समक्ष अनुशासन का एक बहुत बड़ा उदाहरण प्रस्तुत किया। कहा जाता है कि सत्ता और बलवंड नामक दो प्रसिद्ध रबाबी उनके दरबार में रहते थे। उन्हें अपनी कला पर इतना अभिमान हो गया कि वे गुरु जी के आदेशों का उल्लंघन करने लगे। वे इस बात का प्रचार करने लगे कि गुरु जी की प्रसिद्धि केवल हमारे ही मधुर रागों और शब्दों के कारण है। इतना ही नहीं उन्होंने तो गुरु नानक देव जी की महत्ता का कारण भी मरदाना का मधुर संगीत बताया। गुरु जी ने इस अनुशासनहीनता के कारण सत्ता और बलवंड को दरबार से निकाल दिया। अंत में श्रद्धालु भाई लद्धा जी की प्रार्थना पर ही उन्हें क्षमा किया गया। इस घटना का सिक्खों पर गहरा प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप सिक्ख धर्म में अनुशासन का महत्त्व बढ़ गया।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 3 सिक्ख धर्म का विकास (1539 ई०-1581 ई०)

प्रश्न 12.
गुरु अमरदास जी गुरु अंगद देव जी के शिष्य कैसे बने ? उन्हें गुरुगद्दी कैसे मिली ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने एक दिन गुरु अंगद देव जी की पुत्री बीबी अमरो के मुंह से गुरु नानक देव जी की बाणी सुनी। वे बाणी से इतने प्रभावित हुए कि तुरंत गुरु अंगद देव जी के पास पहुंचे और उनके शिष्य बन गये। इसके पश्चात् गुरु अमरदास जी ने 1541 से 1552 ई० तक (गुरुगद्दी मिलने तक) खडूर साहिब में रह कर गुरु अंगद देव जी की खूब सेवा की। एक दिन कड़ाके की ठंड में अमरदास जी गुरु अंगद देव जी के स्नान के लिए पानी का घड़ा लेकर आ रहे थे। मार्ग में ठोकर लगने से वह गिर पडे। यह देख कर एक बनकर की पत्नी ने कहा कि यह अवश्य निथावां (जिसके पास कोई स्थान न हो) अमरू ही होगा। इस घटना की सूचना जब गुरु अंगद देव जी को मिली तो उन्होंने अमरदास को अपने पास बुलाकर घोषणा की कि, “अब से अमरदास निथावां नहीं होगा, बल्कि अनेक निथावों का सहारा होगा।” मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद देव जी ने अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। इस प्रकार गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु बने।

प्रश्न 13.
गुरु अमरदास जी के समय में लंगर प्रथा के विकास का वर्णन करो।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने लंगर के लिए कुछ विशेष नियम बनाये। अब कोई भी व्यक्ति लंगर में भोजन किए बिना गुरु जी से नहीं मिल सकता था। कहा जाता है कि सम्राट अकबर को गुरु जी के दर्शन करने से पहले लंगर में भोजन करना पड़ा था। गुरु जी का लंगर प्रत्येक जाति, धर्म और वर्ग के लोगों के लिए खुला था। लंगर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी जातियों के लोग एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। इससे जाति-पाति तथा रंग-रूप के भेदभावों को बड़ा धक्का लगा और लोगों में समानता की भावना का विकास हुआ। परिणामस्वरूप सिक्ख एकता के सूत्र में बंधने लगे।

प्रश्न 14.
गुरु अमरदास जी के समय में मंजी प्रथा के विकास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने की थी। उनके समय में सिक्खों की संख्या काफ़ी बढ़ चुकी थी। परंतु गुरु जी की आयु अधिक होने के कारण यह बहुत कठिन हो गया कि वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार करें। अतः उन्होंने अपने सारे आध्यात्मिक प्रदेश को 22 भागों में बांट दिया। इनमें से प्रत्येक भाग को ‘मंजी’ तथा उसके मुखिया को मंजीदार कहा जाता था। प्रत्येक मंजी छोटे-छोटे स्थानीय केंद्रों में बंटी हुई थी जिन्हें पीढ़ियाँ (Piris) कहते थे। मंजी प्रणाली का सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व है। डॉ० गोकुल चंद नारंग के शब्दों में, “गुरु जी के इस कार्य ने सिक्ख धर्म की नींव सुदृढ़ करने तथा देश के सभी भागों में प्रचार कार्य को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया होगा।”

प्रश्न 15.
“गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे।” इस कथन के पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार किए-

  1. गुरु अमरदास जी ने जाति मतभेद का खंडन किया। गुरु जी का विश्वास था कि जाति मतभेद परमात्मा की इच्छा के विरुद्ध है। इसलिए गुरु जी के लंगर में जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं रखा जाता था।
  2. उस समय सती प्रथा जोरों से प्रचलित थी। गुरु जी ने इस प्रथा के विरुद्ध जोरदार आवाज़ उठाई। .
  3. गुरु जी ने स्त्रियों में प्रचलित पर्दे की प्रथा की भी घोर निंदा की। वे पर्दे की प्रथा को समाज की उन्नति के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा मानते थे।
  4. गुरु अमरदास जी नशीली वस्तुओं के सेवन के भी घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को सभी नशीली वस्तुओं से दूर रहने का निर्देश दिया।

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु अंगद साहिब ने सिक्ख धर्म के विकास के लिए क्या योगदान दिया?
उत्तर-
श्री गुरु नानक देव जी (1539 ई०) के पश्चात् गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर आसीन हुए। उनका नेतृत्व सिक्ख धर्म के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उन्होंने अग्रलिखित ढंग से सिक्ख धर्म के विकास में योगदान दिया

  1. गुरुमुखी लिपि में सुधार-गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी लिपि में सुधार किया। कहते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने गुरुमुखी के प्रचार के लिए गुरुमुखी वर्णमाला में बाल बोध’ की रचना की। जनसाधारण की भाषा होने के कारण इससे सिक्ख धर्म के प्रचार के कार्य को बढ़ावा मिला। आज सिक्खों के सभी धार्मिक ग्रंथ इसी भाषा में हैं।
  2. गुरु नानक देव जी की जन्म-साखी-श्री गुरु अंगद देव जी ने श्री गुरु नानक देव जी की सारी बाणी को एकत्रित करके भाई बाला से गुरु जी की जन्म-साखी (जीवन-चरित्र) लिखवाई। इससे सिक्ख गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पालन करने लगे।
  3. लंगर प्रथा-श्री गुर अंगद देव जी ने लंगर प्रथा जारी रखी। उन्होंने यह आज्ञा दी कि जो कोई उनके दर्शन को आए, उसे पहले लंगर में भोजन कराया जाए। यहां प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी भेद-भाव के भोजन करता था। इससे जाति-पाति की भावनाओं को धक्का लगा और सिक्ख धर्म के प्रसार में सहायता मिली।
  4. उदासियों से सिक्ख धर्म को अलग करना-गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र श्रीचंद जी ने उदासी संप्रदाय की स्थापना की थी। उन्होंने संन्यास का प्रचार किया। यह बात गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के विरुद्ध थी। अतः गुरु अंगद देव जी ने उदासियों से नाता तोड़ लिया।
  5. गोइंदवाल का निर्माण-गुरु अंगद देव जी ने गोइंदवाल नामक नगर की स्थापना की। गुरु अमरदास जी के समय में यह नगर सिक्खों का एक प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र बन गया। आज भी यह सिक्खों का एक पवित्र धार्मिक स्थान
  6. अनुशासन को बढ़ावा-गुरु जी बड़े ही अनुशासन प्रिय थे। उन्होंने सत्ता और बलवंड नामक दो प्रसिद्ध रबाबियों को अनुशासन भंग कराने के कारण दरबार से निकाल दिया, परंतु बाद में भाई लद्धा के प्रार्थना करने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया।
    सच तो यह है कि गुरु अंगद देव जी ने सिक्ख धर्म को पृथक् पहचान प्रदान की।

प्रश्न 2.
गुरु अमरदास जी ने सिक्ख धर्म के विकास के लिए क्या-क्या कार्य किए ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी को सिक्ख धर्म में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। गुरु नानक देव जी ने धर्म का जो बीज बोया था वह गुरु अंगद देव जी के काल में अंकुरित हो गया। गुरु अमरदास जी ने अपने कार्यों से इस नये पौधे की रक्षा की। संक्षेप में, गुरु अमरदास जी के कार्यों का वर्णन इस प्रकार है

  1. गोइंदवाल साहिब की बावली का निर्माण-गुरु अमरदास जी ने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब के स्थान पर एक बावली (जल-स्रोत) का निर्माण कार्य पूरा किया जिसका शिलान्यास गुरु अंगद देव जी के समय रखा गया था। गुरु अमरदास जी ने इस बावली की तह तक पहुंचने के लिए 84 सीढ़ियां बनवाईं। गुरु जी के अनुसार प्रत्येक सीढ़ी पर जपुजी साहिब का पाठ करने से जन्म-मरण की चौरासी लाख योनियों के चक्कर से मुक्ति मिलेगी। गोइंदवाल साहिब की बावली सिक्ख धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान बन गई।
  2. लंगर प्रथा-गुरु अमरदास जी ने लंगर प्रथा का विस्तार करके सिक्ख धर्म के विकास की ओर एक और महत्त्वपूर्ण कदम उठाया। उन्होंने लंगर के लिए कुछ विशेष नियम बनाए। अब कोई भी व्यक्ति लंगर में भोजन किए बिना गुरु जी से नहीं मिल सकता था। लंगर प्रथा से जाति-पाति तथा रंग-रूप के भेदभावों को बड़ा धक्का लगा और लोगों में समानता की भावना का विकास हुआ। परिणामस्वरूप सिक्ख एकता के सूत्र में बंधने लगे।
  3. सिक्ख गुरु साहिबान के शब्दों को एकत्रित करना-गुरु नानक देव जी के शब्दों तथा श्लोकों को गुरु अंगद देव जी ने एकत्रित करके उनके साथ अपने रचे हुए शब्द भी जोड़ दिए थे। यह सारी सामग्री गुरु अंगद देव जी ने गुरु अमरदास जी को सौंप दी थी। गुरु अमरदास जी ने कुछ-एक नए श्लोकों की रचना की और उन्हें पहले वाले संकलन (collection) के साथ मिला दिया। इस प्रकार विभिन्न गुरु साहिबान के शब्दों तथा उपदेशों के एकत्र हो जाने से ऐसी सामग्री तैयार हो गई जो आदि ग्रंथ साहिब के संकलन का आधार बनी।
  4. मंजी प्रथा-वृद्धावस्था के कारण गुरु साहिब जी के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपनी शिक्षाओं का प्रचार करना कठिन हो गया था। अतः उन्होंने अपने पूरे आध्यात्मिक साम्राज्य को 22 प्रांतों में बांट दिया। इनमें से प्रत्येक प्रांत को ‘मंजी’ कहा जाता था। प्रत्येक मंजी सिक्ख धर्म के प्रचार का एक केंद्र थी। गुरु अमरदास जी द्वारा स्थापित मंजी प्रणाली का सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व है। डॉ० गोकुल चंद नारंग के शब्दों में, “गुरु जी के इस कार्य ने सिक्ख धर्म की नींव सुदृढ़ करने तथा देश के सभी भागों में प्रचार कार्य बढ़ाने में विशेष योगदान दिया।”
  5. उदासियों से सिक्खों को पृथक् करना-गुरु साहिब ने उदासी संप्रदाय के सिद्धांतों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को समझाया कि कोई भी व्यक्ति, जो उदासी नियमों का पालन करता है, सच्चा सिक्ख नहीं हो सकता। गुरु जी के इन प्रयत्नों से सिक्ख उदासियों से पृथक् हो गए और सिक्ख धर्म का अस्तित्व मिटने से बच गया।
  6. नई परंपराएं-गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को व्यर्थ के रीति-रिवाजों का त्याग करने का उपदेश दिया। हिंदुओं में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर खूब रोया-पीटा जाता था। परंतु गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को रोने-पीटने के स्थान पर ईश्वर का नाम लेने का उपदेश दिया। उन्होंने विवाह की भी नई विधि आरंभ की जिसे आनंद कारज कहते हैं।
  7. आनंद साहिब की रचना-गुरु अमरदास जी ने एक नई बाणी की रचना की जिसे आनंद साहिब कहा जाता सच तो यह है कि गुरु अमरदास जी का गुरु काल सिक्ख धर्म के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। गुरु जी के द्वारा बाऊली का निर्माण, मंजी प्रथा के आरंभ, लंगर प्रथा के विस्तार तथा नए रीति-रिवाजों ने सिख धर्म के संगठन में बड़ी सहायता की।

PSEB 9th Class SST Solutions History Chapter 3 सिक्ख धर्म का विकास (1539 ई०-1581 ई०)

प्रश्न 3.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सुधारों का वर्णन करो। .
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के समय में समाज अनेकों बुराइयों का शिकार हो चुका था। गुरु जी इस बात को भली-भांति समझते थे, इसलिए उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार किए। सामाजिक क्षेत्र में गुरु जी के कार्यों का वर्णन निम्नलिखित है-

  1. जाति-पाति का विरोध-गुरु अमरदास जी ने जाति-मतभेद का खंडन किया। उनका विश्वास था कि जातीय मतभेद परमात्मा की इच्छा के विरुद्ध है। .
  2. छुआछूत की निंदा-गुरु अमरदास जी ने छुआछूत को समाप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उनके लंगर में जाति-पाति का कोई भेदभाव नहीं था। वहां सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करते थे।
  3. विधवा विवाह-गुरु अमरदास के समय में विधवा विवाह निषेध था। किसी स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् सारा जीवन विधवा के रूप में व्यतीत करना पड़ता था। गुरु जी ने विधवा विवाह को उचित बताया और इस प्रकार स्त्री जाति को समाज में योग्य स्थान दिलाने का प्रयत्न किया।
  4. सती-प्रथा की भर्त्सना-उस काल के समाज में एक और बड़ी बुराई सती-प्रथा की थी। जी० वी० स्टॉक के अनुसार, गुरु अमरदास जी ने सती-प्रथा की सबसे पहले निंदा की। उनका कहना था कि वह स्त्री सती नहीं कही जा सकती जो अपने पति के मृत शरीर के साथ जल जाती है। वास्तव में वही स्त्री सती है जो अपने पति के वियोग की पीड़ा को सहन करे।
  5. पर्दे की प्रथा का विरोध-गुरु जी ने स्त्रियों में प्रचलित पर्दे की प्रथा की भी घोर निंदा की। वह पर्दे की प्रथा को समाज की उन्नति के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा मानते थे। इसलिए उन्होंने स्त्रियों को बिना पर्दा किए लंगर की सेवा करने तथा संगत में बैठने का आदेश दिया।
  6. नशीली वस्तुओं की निंदा-गुरु अमरदास जी ने अपने अनुयायियों को नशीली वस्तुओं से दूर रहने का उपदेश दिया। उन्होंने अपने एक ‘शब्द’ में शराब सेवन की खूब निंदा की है।
  7. सिक्खों में भ्रातृत्व की भावना-गुरु जी ने सिक्खों को यह आदेश दिया कि वे माघी, दीपावली और वैशाखी आदि त्योहारों को एक साथ मिलकर नई परंपरा के अनुसार मनायें। इस प्रकार उन्होंने सिक्खों में भ्रातृत्व की भावना जागृत करने का प्रयास किया।
  8. जन्म तथा मृत्यु के संबंध में नये नियम-गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को जन्म-मृत्यु तथा विवाह के अवसरों पर नये रिवाजों का पालन करने को कहा। ये रिवाज हिंदुओं के रीति-रिवाजों से बिल्कुल भिन्न थे। इनके लिए ब्राह्मण वर्ग को बुलाने की कोई आवश्यकता न थी। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिक्ख धर्म को पृथक् पहचान प्रदान की।
    सच तो यह है कि गुरु अमरदास जी ने अपने कार्यों से सिक्ख धर्म को नया बल दिया।

प्रश्न 4.
गुरु रामदास जी ने सिक्ख धर्म के विकास के लिए क्या यत्न किए ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु थे। उन्होंने सिक्ख पंथ के विकास में निम्नलिखित योगदान दिया

  1. अमृतसर का शिलान्यास-गुरु रामदास जी ने रामदासपुर की नींव रखी। आजकल इस नगर को अमृतसर कहते हैं। 1577 ई० में गुरु जी ने यहां अमृतसर तथा संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदाई आरंभ की। कुछ ही समय में सरोवर के चारों ओर एक छोटा-सा नगर बस गया। इसे रामदासपुर का नाम दिया गया। गुरु जी इस नगर को हर प्रकार से आत्म-निर्भर बनाना चाहते थे। अत: उन्होंने 52 अलग-अलग प्रकार के व्यापारियों को आमंत्रित किया। उन्होंने एक बाज़ार की स्थापना की जिसे आजकल ‘गुरु का बाज़ार’ कहते हैं।
  2. मसंद प्रथा का आरंभ-गुरु रामदास जी को अमृतसर तथा संतोखसर नामक सरोवरों की खुदाई के लिए काफ़ी धन की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने मसंद प्रथा का आरंभ किया। इसके अनुसार गुरु के मसंद स्थानीय सिख संगत के लिए गुरु के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते थे। वे संगत को गुरु घर से जोड़ते थे और उनकी साझा समस्याओं का समाधान भी करते थे। इन मसंदों ने विभिन्न प्रदेशों में सिक्ख धर्म का खूब प्रचार किया तथा काफ़ी धन राशि एकत्रित की।
  3. उदासियों से मत-भेद की समाप्ति-गुरु अंगद देव जी तथा गुरु अमरदास जी ने सिक्खों को उदासी संप्रदाय से अलग कर दिया था। परंतु गुरु रामदास जी ने उदासियों से बड़ा विनम्रतापूर्ण व्यवहार किया। उदासी संप्रदाय के संचालक बाबा श्रीचंद जी एक बार गुरु रामदास जी से मिलने आए। दोनों के बीच एक महत्त्वपूर्ण वार्तालाप हुआ। श्रीचंद जी गुरु साहिब की विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने गुरु जी की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया।
  4. सामाजिक सुधार-गुरु रामदास जी ने गुरु अमरदास जी द्वारा आरंभ किए गए नए सामाजिक रीति-रिवाजों को जारी रखा। उन्होंने सती प्रथा की घोर निंदा की, विधवा पुनर्विवाह की अनुमति दी तथा विवाह और मृत्यु संबंधी कुछ नए नियम जारी किए।
  5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध -मुग़ल सम्राट अकबर सभी धर्मों के प्रति सहनशील था। वह गुरु रामदास जी का बड़ा सम्मान करता था। कहा जाता है कि गुरु रामदास जी के समय में एक बार पंजाब बुरी तरह अकाल की चपेट में आ गया जिससे किसानों की दशा बहुत खराब हो गई, परंतु गुरु जी के कहने पर अकबर ने पंजाब के कृषकों का पूरे वर्ष का लगान माफ कर दिया।
  6. गुरुगद्दी का पैतृक सिद्धांत-गुरु रामदास जी ने गुरुगद्दी को पैतृक रूप प्रदान किया। उन्होंने ज्योति जोत समाने से कुछ समय पूर्व गुरुगद्दी अपने छोटे, परंतु सबसे योग्य पुत्र अर्जन देव जी को सौंप दी। गुरु रामदास जी ने गुरुगद्दी को पैतृक बनाकर सिक्ख इतिहास में एक नवीन अध्याय का श्रीगणेश किया। परंतु एक बात ध्यान देने योग्य है कि गुरु पद का आधार गुण तथा योग्यता ही रहा।
    सच तो यह है कि गुरु रामदास जी ने बहुत ही कम समय तक सिक्ख मत का मार्ग-दर्शन किया। परंतु इस थोड़े समय में ही उनके प्रयत्नों से सिक्ख धर्म के रूप में विशेष निखार आया।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 5 वर्ग असमानताएं

Punjab State Board PSEB 12th Class Sociology Book Solutions Chapter 5 वर्ग असमानताएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Sociology Chapter 5 वर्ग असमानताएं

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (TEXTUAL QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘सभी समाजों के अस्तित्व का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।’ किसका कथन है :
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) वी० आई० लेनिन
(ग) एनटोनियो ग्रामसी
(घ) रोसा लक्समबर्ग।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 2.
‘अपने आप में वर्ग’ और ‘अपने आप के लिए वर्ग’ की अवधारणा किसने दी है ?
(क) मार्क्स
(ख) वैबर
(ग) सोरोकिन
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(क) मार्क्स।

प्रश्न 3.
ऐरिक आलिन राइट द्वारा दिया गया वर्ग सिद्धान्त किनके विचारों का संश्लेषण करते हैं ?
(क) मार्क्स और दुखीम
(ख) मार्क्स और वैबर
(ग) मार्क्स और स्पैंसर
(घ) मार्क्स और एंजेल्स।
उत्तर-
(क) मार्क्स और दुर्थीम।

प्रश्न 4.
सम्पत्तिविहीन सफेदपोश व्यावसायिक वर्ग की एक वर्ग के रूप में चर्चा किसने की है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) लॉयड वार्नर
(घ) विलफ्रिडो-पेरिटो।
उत्तर-
(ख) मैक्स वैबर।

प्रश्न 5.
जाति व वर्ग में भिन्नता को कौन नहीं दर्शाता :
(क) आरोपित व उपलब्धियां
(ख) बंद व मुक्त गतिशीलता
(ग) पवित्र व धर्म निरपेक्ष
(घ) शासक एवं शासित।
उत्तर-
(घ) शासक एवं शासित।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौन-सा उत्पादन का साधन नहीं है ?
(क) भूमि
(ख) संस्कृति
(ग) श्रम
(घ) पूंजी।
उत्तर-
(ख) संस्कृति।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन जीवन अवसरों व बाजार स्थितियों को वर्ग विश्लेषण के लिए महत्त्व देते हैं ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) एलफ्रेड वेबर
(घ) सी० डब्ल्यू० मिल्स।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 8.
भारत में उत्पादन के संसाधनों के स्वामित्व का निर्णायक कारण कौन-सा है ?
(क) स्थिति समूह
(ख) वर्ग
(ग) जाति
(घ) सामाजिक श्रेणी।
उत्तर-
(ग) जाति।

प्रश्न 9.
कृषिदास (खेतीहर मज़दूर) वर्ग का विरोधी है :
(क) सामंत
(ख) छोटे स्तर के पूंजीपति
(ग) बुर्जुआ
(घ) स्वामी।
उत्तर-
(क) सामंत।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. वर्ग प्रणाली स्वभाव में ……………… है।
2. वर्ग प्रणाली स्तर में ………………..
3. वैबर ने वर्ग के …………………… पद पर विचार किया है।
4. व्यक्ति का वर्ग स्तर …………………… एवं …………………… द्वारा निर्धारित होता है।
उत्तर-

  1. सार्वभौमिक,
  2. मुक्त,
  3. आर्थिक,
  4. शिक्षा, व्यवसाय।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं

1. सामाजिक वर्ग दासता, दर्जा, जागीरदारी तथा जाति की तरह स्तरीकरण का ही एक रूप है।
2. एक सामाजिक वर्ग अनिवार्य रूप से एक स्थिति समूह होता है।
3. वैबर के अनुसार धन, शक्ति तथा स्थिति असमानता के रूप हैं।
4. सामाजिक वर्ग मुक्त समूह हैं।
उत्तर-

  1.  सही
  2. सही
  3. सही
  4. सही।

D. निम्नलिखित शब्दों का मिलान करें-

कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
सामाजिक वर्ग — बुर्जुआ
पूंजीपति — विशेष वर्ग की जीवन शैली
वर्ग के निर्धारक — मुक्त समूह
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
वर्ग चेतना — व्यवसाय
जीने का ढंग — आत्म जागरुकता
उत्तर-
कॉलम ‘ए’ — कॉलम ‘बी’
सामाजिक वर्ग — मुक्त समूह
पूंजीपति — बुर्जुआ
वर्ग के निर्धारक — व्यवसाय
वर्ग चेतना — आत्म जागरुकता
जीने का ढंग — विशेष वर्ग की जीवन शैली

II. अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1. किस सामाजिक समूह में सदस्यों का उत्पादन की शक्तियों के साथ समान सम्बन्ध होता है ?
उत्तर-पूंजीपति वर्ग में।

प्रश्न 2. क्या वर्ग में किसी की उर्ध्वगामी व निम्नगामी गतिशीलता हो सकता है ?
उत्तर-जी हाँ, यह मुमकिन है।

प्रश्न 3. विभिन्न सामाजिक आर्थिक स्थितियों में समूहों के विभाजन को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 4. व्यक्तियों का कौन-सा सामाजिक वर्ग नीले कॉलर अथवा श्रम व्यवसाय की रचना करता है ?
उत्तर-श्रमिक वर्ग या मज़दूर वर्ग।

प्रश्न 5. वर्ग की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को दर्शाइए।
उत्तर-(i) वर्ग व्यवस्था के कई आधार होते हैं। (ii) वर्ग के लोगों में अपने वर्ग के प्रति चेतना होती है।

प्रश्न 6. आप संसाधनों के स्वामित्व से क्या समझते हैं ?
उत्तर- इसका अर्थ है कि साधनों पर किसी-न-किसी का व्यक्तिगत अधिकार होता है तथा वह ही उसका मालिक होता है।

प्रश्न 7. उत्पादन के साधनों को पहचानें।
उत्तर-वह साधन जो किसी न किसी वस्तु के उत्पादन में सहायता करते हैं, उत्पादन के साधन होते हैं जैसे कि मशीनें, उद्योग, औज़ार इत्यादि।

प्रश्न 8. उन दो वर्गों के नाम दें जो दासता के समय पाए गए।
उत्तर-दासता के समय दो वर्ग होते थे तथा वे थे गुलाम तथा स्वामी।

प्रश्न 9. बुर्जुआ कौन है ?
उत्तर-जिसके हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा जो उन साधनों की सहायता से अन्य वर्गों का शोषण करता है उसे बुर्जुआ कहते हैं। जैसे कि उद्योगपति।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

III. लघु उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
वर्ग से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वर्ग ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार वर्ग के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष उत्तरादियत्व, अधिकार तथा शक्तियां भी प्राप्त होती हैं।

प्रश्न 2.
जाति व वर्ग में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-

  • जाति में व्यक्ति की स्थिति प्रदत्त होती है, जबकि वर्ग में यह अर्जित होती है।
  • व्यक्ति अपनी जाति को परिवर्तित नहीं कर सकता जबकि वर्ग को कर सकता है।
  • मुख्यतः चार प्रकार की जातियां होती हैं जबकि वर्ग हज़ारों की संख्या में हो सकते हैं।

प्रश्न 3.
ग्रामीण भारत में पाए जाने वाले वर्गों की पहचान करें।
उत्तर-
बड़े ज़मींदार, गैर-हाज़िर ज़मींदार, पूँजीपति किसान, किसान, ठेका आधारित ठेकेदार, सीमांत किसान, भूमिविहीन कृषक, साहूकार, छोटे व्यापारी, स्वैः नियुक्त व्यक्ति इत्यादि।

प्रश्न 4.
मार्क्स के इस कथन का क्या अभिप्राय है कि ‘सभी मौजूद समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।’
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार आज तक जितने भी समाज हुए हैं उनमें मुख्य रूप से दो समूह हुए हैं-प्रथम वह जिसके पास उत्पादन के साधन हैं तथा द्वितीय वह जिसके पास नहीं है। इस कारण दोनों में संघर्ष चलता रहा है। इस कारण मार्क्स ने कहा था कि सभी मौजूद समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।

प्रश्न 5.
मैक्स वैबर द्वारा वर्णित किए गए वर्गों के नाम लिखें।
उत्तर-

  • पूंजीपति बुर्जुआ वर्ग
  • सम्पत्ति विहीन सफेद पोश कार्यकारी वर्ग
  • मध्यवर्गीय वर्ग
  • औद्योगिक कार्यकारी वर्ग।

IV. दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
ऐरिक ओलिन राइट के वर्ग विषयक विचारों की चर्चा करें।
उत्तर-
ऐरिक ओलिन राइट ने वर्ग का सिद्धांत दिया है तथा यह सिद्धांत मार्क्स वैबर के विचारों का मिश्रण है। राइट के अनुसार पूँजीपति समाज में आर्थिक साधनों पर नियंत्रण के लिए तीन मापदण्ड हैं तथा वह हैं-

  • पैसा या पूँजी पर नियन्त्रण ।
  • ज़मीन, फैक्टरी तथा दफ्तरों पर नियन्त्रण
  • मज़दूरों पर नियन्त्रण।।

यह मापदण्ड ही कई वर्गों का निर्माण करते हैं जैसे कि नीली वर्दी वाले कर्मी, श्वेत कालर कर्मी, व्यावसायिक कर्मचारी व शारीरिक कार्य करने वाले कर्मी इत्यादि। उसके अनुसार मध्य वर्ग के वर्करों (प्रबन्धक व निरीक्षक) का मालिकों से सीधा रिश्ता होता है जबकि मजदूर वर्ग का शोषण होता है।

प्रश्न 2.
जाति व वर्ग में संबंध स्पष्ट करें।
अथवा
जाति तथा वर्ग किस प्रकार परस्पर सम्बन्धित है ? वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • जाति जन्म पर आधारित होती है जबकि वर्ग व्यवसाय तथा व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित होता है।
  • जाति में प्रदत्त स्थिति प्राप्त होती है जबकि वर्ग में स्थिति अर्जित की जाती है।
  • जाति अन्तर्वैवाहिक समूह होती है, जबकि वर्ग बर्हिविवाही समूह होता है।
  • जाति को वैधता हिंदू धार्मिक क्रियाओं से मिलती है परन्तु वर्ग को वैधता उसकी व्यक्तिगत योग्यता तथा पूँजीवादी व्यवस्था से मिलती है।
  • जाति में गतिशीलता नहीं होती है क्योंकि यह एक बंद व्यवस्था है परन्तु वर्ग में गतिशीलता होती है क्योंकि यह एक मुक्त व्यवस्था है।

प्रश्न 3.
ग्रामीण भारत में पाए जाने वाले वर्गों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
बड़े ज़मींदार, गैर-हाज़िर ज़मींदार, पूँजीपति किसान, किसान, ठेका आधारित ठेकेदार, सीमांत किसान, भूमिविहीन कृषक, साहूकार, छोटे व्यापारी, स्वैः नियुक्त व्यक्ति इत्यादि।

प्रश्न 4.
शहरी भारत में पाए जाने वाले वर्गों का संक्षेप में वर्णन करें।
अथवा
नगरीय भारत में पाए जाने वाले वर्गों को लिखिए।
उत्तर-

  • कार्पोरेट पूंजीपति।
  • औद्योगिक पूंजीपति।
  • आर्थिक पूंजीपति।
  • नौकरशाह।
  • सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक अभिजात वर्ग।
  • मध्य वर्ग-मैनेजर, व्यापारी, छोटे दुकानदार, स्वै-कार्यरत व्यक्ति, बैंकर।
  • निम्न वर्ग-सहायक, मिस्त्री, निम्न स्तरीय निरीक्षक।
  • संगठित क्षेत्र में औद्योगिक कार्यरत वर्ग।
  • असंगठित/अर्द्ध संगठित क्षेत्र में कार्यरत वर्ग।
  • दिहाड़ीदार मज़दूर।
  • बेरोज़गार व्यक्ति।

प्रश्न 5.
मध्य वर्ग पर कुछ टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-
अमीर तथा निर्धन व्यक्तियों के बीच एक अन्य वर्ग आता है जिसे मध्य वर्ग का नाम दिया जाता है। यह वर्ग साधारणतया तथा नौकरी करने वालों, छोटे दुकानदारों या व्यापारी लोगों का होता है। यह वर्ग या तो उच्च वर्ग के लोगों के पास नौकरी करता है या सरकारी नौकरी करता है। छोटे-बड़े व्यापारी, छोटे-बड़े दुकानदार, क्लर्क, छोटे-बड़े अफसर, छोटे-बड़े किसान, ठेकेदार, जायदाद का कार्य करने वाले लोग, छोटे-मोटे कलाकार इत्यादि सभी इस वर्ग में आते हैं। उच्च वर्ग इस वर्ग की सहायता से निम्न वर्ग पर अपना अधिकार कायम रखता है।

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V. अति दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
मार्क्सवादी के वर्ग सिद्धान्त का वर्णन करें।
अथवा
वर्ग के मार्क्सवादी सिद्धान्त को बताइए।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण का संघर्षवाद का सिद्धान्त दिया है और यह सिद्धान्त 19वीं शताब्दी के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों के कारण ही आगे आया है। मार्क्स ने केवल सामाजिक कारकों को ही सामाजिक स्तरीकरण एवं अलग-अलग वर्गों में संघर्ष का सिद्धान्त माना है। ___ मार्क्स ने यह सिद्धान्त श्रम विभाजन के आधार पर दिया। उसके अनुसार श्रम दो प्रकार का होता है-शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम और यही अन्तर ही सामाजिक वर्गों में संघर्ष का कारण बना।

मार्क्स का कहना है कि समाज में साधारणतः दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता है। इस मलकीयत के आधार पर ही पहला वर्ग उच्च स्थिति में एवं दूसरा वर्ग निम्न स्थिति में होता है। मार्क्स पहले (मालिक) वर्ग को पूंजीपति वर्ग और दूसरे (गैर-मालिक) वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है और मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यही स्तरीकरण का परिणाम है।

मार्क्स का कहना है कि स्तरीकरण के आने का कारण ही सम्पत्ति का असमान विभाजन है। स्तरीकरण की प्रकृति उस समाज के वर्गों पर निर्भर करती है और वर्गों की प्रकृति उत्पादन के तरीकों पर उत्पादन का तरीका तकनीक पर निर्भर करता है। वर्ग एक समूह होता है जिसके सदस्यों के सम्बन्ध उत्पादन की शक्तियों के समान होते हैं, इस तरह वह सभी व्यक्ति जो उत्पादन की शक्तियों पर नियन्त्रण रखते हैं। वह पहला वर्ग यानि कि पूंजीपति वर्ग होता है जो उत्पादन की शक्तियों का मालिक होता है। दूसरा वर्ग वह है तो उत्पादन की शक्तियों का मालिक नहीं है बल्कि वह मजदूरी या मेहनत करके अपना समय व्यतीत करता है यानि कि यह मजदूर वर्ग कहलाता है। अलग-अलग समाजों में इनके अलगअलग नाम हैं जिनमें ज़मींदारी समाज में ज़मींदार और खेतीहर मज़दूर और पूंजीपति समाज में पूंजीपति एवं मजदूर। पूंजीपति वर्ग के पास उत्पादन की शक्ति होती है और मजदूर वर्ग के पास केवल मज़दूरी होती है जिसकी सहायता के साथ वह अपना गुजारा करता है। इस प्रकार उत्पादन के तरीकों एवं सम्पत्ति के समान विभाजन के आधार पर बने वर्गों को मार्क्स ने सामाजिक वर्ग का नाम दिया है।

मार्क्स के अनुसार “आज का समाज चार युगों में से गुजर कर हमारे सामने आया है।”

(a) प्राचीन समाजवादी युग (Primitive Ancient Society or Communism)
(b) प्राचीन समाज (Ancient Society)
(c) सामन्तवादी युग (Feudal Society)
(d) पूंजीवाद युग (Capitalist Society)।

मार्क्स के अनुसार पहले प्रकार के समाज में वर्ग अस्तित्व में नहीं आये थे। परन्तु उसके पश्चात् के समाजों में दो प्रमुख वर्ग हमारे सामने आये। प्राचीन समाज में मालिक एवं दास। सामन्तवादी में सामन्त एवं खेतीहारी मज़दूर वर्ग। पूंजीवादी समाज में पूंजीवादी एवं मज़दूर वर्ग। प्रायः समाज में मजदूरी का कार्य दूसरे वर्ग के द्वारा ही किया गया। मजदूर वर्ग बहुसंख्यक होता है और पूंजीवादी वर्ग कम संख्या वाला।

मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो प्रकार के वर्गों का अनुभव किया है। परन्तु मार्क्स के फिर भी इस मामले में विचार एक समान नहीं है। मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी समाज में तीन वर्ग होते हैं। मज़दूर, सामन्त एवं ज़मीन के मालिक (land owners) मार्क्स ने इन तीनों में से अन्तर आय के साधनों, लाभ एवं ज़मीन के किराये के आधार पर किया है। परन्तु मार्क्स की तीन पक्षीय व्यवस्था इंग्लैण्ड में कभी सामने नहीं आई।

मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ तीन वर्गीय व्यवस्था दो वर्गीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी एवं मध्यम वर्ग समाप्त हो जायेगा। इस बारे में उसने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र में कहा है। मार्क्स ने विशेष समाज के अन्य वर्गों का उल्लेख भी किया है। जैसे बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग को उसने दो उपवर्ग जैसे प्रभावी बुर्जुआ और छोटे बुर्जुआ वर्गों में बांटा है। प्रभावी बुर्जुआ वे होते हैं जो बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति होते हैं और जो हज़ारों की संख्या में मजदूरों को कार्य करने को देते हैं। छोटे बुर्जुआ वे छोटे उद्योगपति या दुकानदार होते हैं जिनके व्यापार छोटे स्तर पर होते हैं और वे बहुत अधिक मज़दूरों को कार्य नहीं दे सकते। वे काफ़ी सीमा तक स्वयं ही कार्य करते हैं। मार्क्स यहां पर फिर कहता है कि पूंजीवाद के विकसित होने के साथ-साथ मध्यम वर्ग व छोटी-छोटी बुर्जुआ उप-जातियां समाप्त हो जाएंगी या फिर मज़दूर वर्ग में मिल जाएंगी। इस तरह समाज में पूंजीपति व मजदूर वर्ग रह जाएगा।

वर्गों के बीच सम्बन्ध (Relationship between Classes) –

मार्क्स के अनुसार “पूंजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग का आर्थिक शोषण करता रहता है और मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करता रहता है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच के सम्बन्ध विरोध वाले होते हैं। यद्यपि कुछ समय के लिये दोनों वर्गों के बीच का विरोध शान्त हो जाता है परन्तु वह विरोध चलता रहता है। यह आवश्यक नहीं कि यह विरोध ऊपरी तौर पर ही दिखाई दे। परन्तु उनको इस विरोध का अहसास तो होता ही रहता है।”

मार्क्स के अनुसार वर्गों के बीच आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता एवं संघर्ष पर आधारित होते हैं। हम उदाहरण ले सकते हैं पूंजीवादी समाज के दो वर्गों का। एक वर्ग पूंजीपति का होता है दूसरा वर्ग मज़दूर का होता है। यह दोनों वर्ग अपने अस्तित्व के लिये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मज़दूर वर्ग के पास उत्पादन की शक्तियां एक मलकीयत नहीं होती हैं। उसके पास रोटी कमाने हेतु अपनी मेहनत के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। वह रोटी कमाने के लिये पूंजीपति वर्ग के पास अपनी मेहनत बेचते हैं और उन पर ही निर्भर करते हैं। वह अपनी मजदूरी पूंजीपतियों के पास बेचते हैं जिसके बदले पूंजीपति उनको मेहनत का किराया देता है। इसी किराये के साथ मज़दूर अपना पेट पालता है। पूंजीपति भी मज़दूरों की मेहनत पर ही निर्भर करता है। क्योंकि मजदूरों के बिना कार्य किये न तो उसका उत्पादन हो सकता है और न ही उसके पास पूंजी एकत्रित हो सकती है। – इस प्रकार दोनों वर्ग एक-दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। परन्तु इस निर्भरता का अर्थ यह नहीं है कि उनमें सम्बन्ध एक समान होते हैं।

पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का शोषण करता है। वह कम धन खर्च करके अधिक उत्पादन करना चाहता है ताकि उसका स्वयं का लाभ बढ़ सके। मज़दूर अधिक मज़दूरी मांगता है ताकि वह अपना व परिवार का पेट पाल सके। उधर पूंजीपति मज़दूरों को कम मजदूरी देकर वस्तुओं को ऊँची कीमत पर बेचने की कोशिश करता है ताकि उसका लाभ बढ़ सके। इस प्रकार दोनों वर्गों के भीतर अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष (Conflict of Interest) चलता रहता है। यह संघर्ष अन्ततः समतावादी व्यवस्था (Communism) को जन्म देगा जिसमें न तो विरोध होगा न ही किसी का शोषण होगा, न ही किसी के ऊपर अत्याचार होगा, न ही हितों का संघर्ष होगा और यह समाज वर्ग रहित समाज होगा।

कार्ल मार्क्स ने ऐतिहासिक आधार पर स्तरीकरण के संघर्ष सिद्धान्त की व्याख्या की है। मार्क्स के स्तरीकरण के संघर्ष के सिद्धान्त में निम्नलिखित बातें मुख्य हैं-

1. समाज में दो वर्ग (Two classes in society) मार्क्स का कहना था कि प्रत्येक प्रकार के समाज में साधारणत: दो वर्ग पाए जाते हैं। पहला तो वह जिसके हाथों में उत्पादन के साधन होते हैं तथा जिसे हम आज पूंजीपति के नाम से जानते हैं। दूसरा वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते तथा जो अपना श्रम बेचकर गुज़ारा करता है। इसको मज़दूर वर्ग का नाम दिया जाता है। पहला वर्ग शोषण करता है तथा दूसरा वर्ग शोषित होता है।

2. उत्पादन के साधनों पर अधिकार (Right over means of production)-मार्क्स ने स्तरीकरण की ऐतिहासिक आधार पर व्याख्या करते हुए कहा है कि समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। प्रत्येक समाज में इस आधार पर दो वर्ग पाए जाते हैं। पहला वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है। दूसरा वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते तथा जो अपना श्रम बेचकर रोज़ी कमाता है।

3. उत्पादन की व्यवस्था (Modes of Production)-उत्पादन की व्यवस्था पर ही सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप निर्भर करता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति अन्य वर्गों से उच्च होती है। इस वर्ग को मार्क्स ने पूंजीपति या बुर्जुआ (Bourgeoisie) का नाम दिया है। दूसरा वर्ग वह होता है जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते, जो अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं होता तथा अपनी स्थिति को बदलना चाहता है। इसको मार्क्स ने मज़दूर या प्रोलतारी (Proletariat) का नाम दिया है।

4. मनुष्यों का इतिहास-वर्ग संघर्ष का इतिहास (Human history-History of Class Struggle)-मार्क्स का कहना है कि मनुष्यों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। हम किसी भी समाज की उदाहरण ले सकते हैं। प्रत्येक समाज में अलग-अलग वर्गों में किसी-न-किसी रूप में संघर्ष तो चलता ही रहा है। __ इस तरह मार्क्स का कहना था कि सभी समाजों में साधारणतः पर दो वर्ग रहे हैं-मज़दूर तथा पूंजीपति वर्ग। दोनों में वर्ग संघर्ष चलता ही रहता है। इन में वर्ग संघर्ष के कई कारण होते हैं जैसे कि दोनों वर्गों में बहुत ज्यादा आर्थिक अन्तर होता है जिस कारण वह एक-दूसरे का विरोध करते हैं। पूंजीपति वर्ग बिना परिश्रम किए ही अमीर होता चला जाता है तथा मज़दूर वर्ग सारा दिन परिश्रम करने के बाद भी ग़रीब ही बना रहता है।

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समय के साथ-साथ मज़दूर वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना लेता है तथा यह संगठन पूंजीपतियों से अपने अधिकार लेने के लिए संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष का परिणाम यह होता है कि समय आने पर मज़दूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति कर देता है तथा क्रान्ति के बाद पूंजीपतियों का खात्मा करके अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं। पूंजीपति अपने पैसे की मदद से प्रति क्रान्ति की कोशिश करेंगे परन्तु उनकी प्रति क्रान्ति को दबा दिया जाएगा तथा मजदूरों की सत्ता स्थापित हो जाएगी। पहले साम्यवाद तथा फिर समाजवाद की स्थिति आएगी जिसमें हरेक को उसकी ज़रूरत तथा योग्यता के अनुसार मिलेगा। समाज में कोई वर्ग नहीं होगा तथा यह वर्गहीन समाज होगा जिसमें सभी को बराबर का हिस्सा मिलेगा। कोई भी उच्च या निम्न नहीं होगा तथा मज़दूर वर्ग की सत्ता स्थापित रहेगी। मार्क्स का कहना था कि चाहे यह स्थिति अभी नहीं आयी है परन्तु जल्द ही यह स्थिति आ जाएगी तथा समाज में से स्तरीकरण खत्म हो जाएगा।

प्रश्न 2.
वैबर के वर्ग सिद्धान्त का वर्णन करें।
अथवा
वर्ग के वैबर सिद्धान्त की चर्चा कीजिए।
अथवा
वैबर के वर्ग सिद्धान्त की चर्चा करें।
उत्तर-
मैक्स वैबर ने वर्ग का सिद्धान्त दिया था जिसमें उसने वर्ग, स्थिति समूह तथा दल की अलग-अलग व्याख्या की थी। वैबर का स्तरीकरण का सिद्धान्त तर्कसंगत तथा व्यावहारिक माना जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त को काफ़ी महत्त्व प्रदान किया है। वैबर ने स्तरीकरण को तीन पक्षों से समझाया है तथा वह है वर्ग, स्थिति तथा दल। इन तीनों ही समूहों को एक प्रकार से हित समूह कहा जा सकता है जो न केवल अपने अंदर लड़ सकते हैं बल्कि यह एक-दूसरे के विरुद्ध भी लड़ सकते हैं। यह एक विशेष सत्ता के बारे में बताते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से संबंधित भी होते हैं। अब हम इन तीनों का अलग-अलग विस्तार से वर्णन करेंगे।

वर्ग (Class)-मार्ल मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा आर्थिक आधार पर दी थी तथा उसी प्रकार वैबर ने भी वर्ग की धारणा आर्थिक आधार पर दी है। वैबर के अनुसार, “वर्ग ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी समाज के आर्थिक मौकों की संरचना में समान स्थिति में होता है तथा जो समान स्थिति में रहते हैं। “यह स्थितियां उनकी आर्थिक शक्ति के रूप तथा मात्रा पर निर्भर करती है।” इस प्रकार वैबर ऐसे वर्ग की बात करता है जिसमें लोगों की एक विशेष संख्या के लिए जीवन के मौके एक समान होते हैं। चाहे वैबर की यह धारणा मार्क्स की वर्ग की धारणा से अलग नहीं है परन्तु वैबर ने वर्ग की कल्पना समान आर्थिक स्थितियों में रहने वाले लोगों के रूप में की है आत्म चेतनता समूह के रूप में नहीं। वैबर ने वर्ग के तीन प्रकार बताए हैं जोकि निम्नलिखित हैं :

(1) सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)
(2) अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)
(3) सामाजिक वर्ग (A Social Class)।

1. सम्पत्ति वर्ग (A Property Class)-सम्पत्ति वर्ग वह वर्ग होता है जिस की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि उनके पास कितनी सम्पत्ति अथवा जायदाद है। यह वर्ग आगे दो भागों में बांटा गया है-

(i) सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Positively Privileged Property Class)—इस वर्ग के पास काफ़ी सम्पत्ति तथा जायदाद होती है तथा यह इस जायदाद से हुई आय पर अपना गुज़ारा करता है। यह वर्ग उपभोग करने वाली वस्तुओं के खरीदने या बेचने, जायदाद इकट्ठी करके अथवा शिक्षा लेने के ऊपर अपना एकाधिकार कर सकता है।
(ii) नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त सम्पत्ति वर्ग (The Negatively Privileged Property Class)—इस वर्ग के मुख्य सदस्य अनपढ़, निर्धन, सम्पत्तिहीन तथा कर्जे के बोझ नीचे दबे हुए लोग होते हैं। इन दोनों समूहों के साथ एक विशेष अधिकार प्राप्त मध्य वर्ग भी होता है जिसमें ऊपर वाले दोनों वर्गों के लोग शामिल होते हैं। वैबर के अनुसार पूंजीपति अपनी विशेष स्थिति होने के कारण तथा मज़दूर अपनी नकारात्मक रूप से विशेष स्थिति होने के कारण इस समूह में शामिल होता है।

2. अधिग्रहण वर्ग (An Acquisition Class)-यह उस प्रकार का समूह होता है जिस की स्थिति बाज़ार में मौजूदा सेवाओं का लाभ उठाने के मौकों के साथ निर्धारित होती है। यह समूह आगे तीन प्रकार का होता है-

  • सकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Positively Privileged Acquisition Class) इस वर्ग का उत्पादक फैक्टरी वालों के प्रबंध पर एकाधिकार होता है। यह फैक्ट्रियों वाले बैंकर, उद्योगपति, फाईनेंसर इत्यादि होते हैं। यह लोग प्रबंधकीय व्यवस्था को नियन्त्रण में रखने के साथ-साथ सरकारी आर्थिक नीतियों . पर भीषण प्रभाव डालते हैं।
  • विशेषाधिकार प्राप्त मध्य अधिग्रहण वर्ग (The Middle Privileged Acquisition Class)—यह वर्ग मध्य वर्ग के लोगों का वर्ग होता है जिसमें छोटे पेशेवर लोग, कारीगर, स्वतन्त्र किसान इत्यादि शामिल होते हैं।
  • नकारात्मक रूप से विशेष अधिकार प्राप्त अधिग्रहण वर्ग (The Negatively Privileged Acquisition Class)-इस वर्ग में छोटे वर्गों के लोग विशेषतया कुशल, अर्द्ध-कुशल तथा अकुशल मजदूर शामिल होते हैं।

3. सामाजिक वर्ग (Social Class)—इस वर्ग की संख्या काफी अधिक होती है। इसमें अलग-अलग पीढ़ियों की तरक्की के कारण निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देता है। परन्तु वैबर सामाजिक वर्ग की व्याख्या विशेष अधिकारों के अनुसार नहीं करता। उसके अनुसार मजदूर वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, सम्पत्ति वाले लोग इत्यादि इसमें शामिल होते हैं।

वैबर के अनुसार किन्हीं विशेष स्थितियों में वर्ग के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं तथा इस कार्य करने की प्रक्रिया को वैबर ने वर्ग क्रिया का नाम दिया है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर के अनुसार अपनी संबंधित होने की भावना से वर्ग क्रिया उत्पन्न होती है। वैबर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया कि वर्ग क्रिया जैसी बात अक्सर हो सकती है। वैबर का कहना था कि वर्ग में वर्ग चेतनता नहीं होती बल्कि उनकी प्रकृति पूर्णतया आर्थिक होती है। उनमें इस बात की भी संभावना नहीं होती कि वह अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इकट्ठे होकर संघर्ष करेंगे। एक वर्ग लोगों का केवल एक समूह होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बाज़ार में एक जैसी होती है। वह उन चीजों को इकट्ठे करने में जीवन के ऐसे परिवर्तनों को महसूस करते हैं, जिनकी समाज में कोई इज्जत होती है तथा उनमें किसी विशेष स्थिति में वर्ग चेतना विकसित होने की तथा इकट्ठे होकर क्रिया करने की संभावना होती है। वैबर का कहना था कि अगर ऐसा होता है तो वर्ग एक समुदाय का रूप ले लेता है।

स्थिति समूह (Status Group)—स्थिति समूह को साधारणतया आर्थिक वर्ग स्तरीकरण के विपरीत समझा जाता है। वर्ग केवल आर्थिक मान्यताओं पर आधारित होता है जोकि समान बाज़ारी स्थितियों के कारण समान हितों वाला समूह है। परन्तु दूसरी तरफ स्थिति समूह सांस्कृतिक क्षेत्र में पाया जाता है यह केवल संख्यक श्रेणियों के नहीं होते बल्कि यह असल में वह समूह होते हैं जिनकी समान जीवन शैली होती है, संसार के प्रति समान दृष्टिकोण होता है तथा ये लोग आपस में एकता भी रखते हैं।

वैबर के अनुसार वर्ग तथा स्थिति समूह में अंतर होता है। हरेक का अपना ढंग होता है तथा इनमें लोग असमान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल का अध्यापक। चाहे उसकी आय 8-10 हज़ार रुपये प्रति माह होगी जोकि आज के समय में कम है परन्तु उसकी स्थिति ऊंची है। परन्तु एक स्मगलर या वेश्या चाहे माह में लाखों कमा रहे हों परन्तु उनका स्थिति समूह निम्न ही रहेगी क्योंकि उनके पेशे को समाज मान्यता नहीं देता। इस प्रकार दोनों के समूहों में अंतर होता है। किसी पेशे समूह को भी स्थिति समूह का नाम दिया जाता है क्योंकि हरेक प्रकार के पेशे में उस पेशे से संबंधित लोगों के लिए पैसा कमाने के समान मौके होते हैं। यही समूह उनकी जीवन शैली को समान भी बनाते हैं। एक पेशा समूह के सदस्य एक-दूसरे के नज़दीक रहते हैं, एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं तथा उनके मूल्य भी एक जैसे ही होते हैं। यही कारण है कि इसके सदस्यों का दायरा विशाल हो जाता है।

दल (Party) वैबर के अनुसार दल वर्ग स्थिति के साथ निर्धारित हितों का प्रतिनिधित्व करता है। यह दल किसी न किसी स्थिति में उन सदस्यों की भर्ती करता है जिनकी विचारधारा दल की विचारधारा से मिलती हो। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए दल स्थिति दल ही बने। वैबर का कहना है कि दल हमेशा इस ताक में रहते हैं कि सत्ता उनके हाथ में आए अर्थात् राज्य या सरकार की शक्ति उनके हाथों में हो। वैबर का कहना है कि चाहे दल राजनीतिक सत्ता का एक हिस्सा होते हैं परन्तु फिर भी सत्ता कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है जैसे कि पैसा, अधिकार, प्रभाव, दबाव इत्यादि। दल राज्य की सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं तथा राज्य एक संगठन होता है। दल की हरेक प्रकार की क्रिया इस बात की तरफ ध्यान देती है कि सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाए। वैबर ने राज्य का विश्लेषण किया तथा इससे ही उसने नौकरशाही का सिद्धान्त पेश किया।

वैबर के अनुसार दल दो प्रकार के होते हैं। पहला है सरप्रस्ती का दल (Patronage Party) जिनके लिए कोई स्पष्ट नियम, संकल्प इत्यादि नहीं होते। यह किसी विशेष मौके के लिए बनाए जाते हैं तथा हितों की पूर्ति के बाद इन्हें छोड़ दिया जाता है। दूसरी प्रकार का दल है सिद्धान्तों का दल (Party of Principles) जिसमें स्पष्ट या मज़बूत नियम या सिद्धान्त होते हैं। यह दल किसी विशेष अवसर के लिए नहीं बनाए जाते। वैबर के अनुसार चाहे इन तीनों वर्ग, स्थिति समूह तथा दल में काफी अन्तर होता है परन्तु फिर भी इनमें आपसी संबंध भी मौजूद होता है।

प्रश्न 3.
वर्ग, सामाजिक गतिशीलता व सामाजिक स्तरीकरण में पारस्परिक सम्बन्ध क्या है ? वर्णन करें।
उत्तर-
वर्ग, सामाजिक गतिशीलता व सामाजिक स्तरीकरण में काफ़ी गहरा सम्बन्ध है परन्तु इस सम्बन्ध का जानने से पहले हमें इसका अर्थ देखना पड़ेगा।

  • वर्ग-वर्ग ऐसे लोगों का समूह है जो किसी-न-किसी आधार पर अन्य समूहों से अलग होता है। वर्ग के सदस्य अपने वर्ग के प्रति चेतन होते हैं तथा अन्य वर्गों के लोगों को अपने वर्ग में आसानी से नहीं आने देते। वर्ग के कई आधार होते हैं जैसे कि धन, सम्पत्ति, व्यवसाय इत्यादि।
  • सामाजिक गतिशीलता-सम्पूर्ण समाज अलग-अलग वर्गों में विभाजित होता है तथा इन वर्गों के लोगों के अपना वर्ग छोड़ कर दूसरे वर्ग में जाने की प्रक्रिया को सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। लोग अपनी व्यक्तिगत योग्यता से अपना वर्ग परिवर्तित कर लेते हैं तथा इस कारण गतिशीलता की प्रक्रिया चलती रहती है।
  • सामाजिक स्तरीकरण-समाज को अलग-अलग स्तरों अथवा वर्गों में विभाजित करने की प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। समाज को अलग-अलग आधारों पर विभाजित किया जाता है जैसे कि आय, जाति, लिंग, आयु, शिक्षा, धन इत्यादि।

अगर हम इन तीन संकल्पों के अर्थ को ध्यान से देखें तो हमें पता चलता है कि इन तीनों का आपस में काफ़ी गहरा सम्बन्ध है। समाज को अलग-अलग वर्गों अथवा स्तरों में विभाजित करने की प्रक्रिया को स्तरीकरण कहते हैं तथा लोग अपना वर्ग परिवर्तित करते रहते हैं। लोग अपनी व्यक्तिगत योग्यता से अपना वर्ग परिवर्तित कर लेते हैं तथा एक वर्ग से दूसरे वर्ग में जाने की प्रक्रिया को गतिशीलता कहते हैं।

आजकल के समय में लोग शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं तथा अलग-अलग व्यवसाय अपना रहे हैं। शिक्षा लेने के कारण उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो जाती है तथा वह अच्छी नौकरी करने लग जाते हैं। अच्छी नौकरी के कारण उनके पास पैसा आ जाता है तथा वह सामाजिक स्तरीकरण में उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं। धीरे-धीरे वह तरक्की प्राप्त करने के लिए नौकरी ही बदल लेते हैं तथा अधिक पैसा कमाने लग जाते हैं। इस प्रकार वह समय के साथ अलग-अलग वर्गों के सदस्य बनते हैं जिस कारण समाज में गतिशीलता चलती रहती है।

इस व्याख्या को देखने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि वर्ग, गतिशीलता तथा स्तरीकरण में काफ़ी गहरा सम्बन्ध होता है। इस कारण ही समाज प्रगति की तरफ बढ़ता है तथा लोग प्रगति करते रहते हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न (OTHER IMPORTANT QUESTIONS)

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
इनमें से कौन-सी वर्ग की विशेषता नहीं है ?
(क) अर्जित स्थिति
(ख) मुक्त व्यवस्था
(ग) जन्म पर आधारित
(घ) समूहों में उच्च निम्न स्थिति।
उत्तर-
(ग) जन्म पर आधारित।

प्रश्न 2.
कौन-सी वर्ग की विशेषता है ?
(क) उच्च निम्न की भावना
(ख) सामाजिक गतिशीलता
(ग) उपवर्गों का विकास
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 3.
उस व्यवस्था को क्या कहते हैं जिसमें समाज के व्यक्तियों को अलग-अलग आधारों पर विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है ?
(क) जाति व्यवस्था
(ख) वर्ग व्यवस्था
(ग) सामुदायिक व्यवस्था
(घ) सामाजिक व्यवस्था।
उत्तर-
(ख) वर्ग व्यवस्था।

प्रश्न 4.
वर्ग व्यवस्था का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(क) जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है।
(ख) निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुँच रहे हैं।
(ग) व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिलता है।
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 5.
वर्ग तथा जाति में क्या अंतर है ?
(क) जाति जन्म व वर्ग योग्यता पर आधारित होता है।
(ख) व्यक्ति वर्ग बदल सकता है पर जाति नहीं।
(ग) जाति में कई प्रकार के प्रतिबन्ध होते हैं पर वर्ग में नहीं।
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 6.
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने दिया था ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) राईट
(घ) वार्नर।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

प्रश्न 7.
वर्ग चेतना तथा वर्ग संघर्ष की अवधारणा किसने दी है ?
(क) कार्ल मार्क्स
(ख) मैक्स वैबर
(ग) दुर्थीम
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(क) कार्ल मार्क्स।

B. रिक्त स्थान भरें-

1. वर्ग की सदस्या व्यक्ति की …….. पर निर्भर करती है।
2. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत .. ………………… ने दिया था।
3. मार्क्स के अनुसार संसार में …. …. प्रकार के वर्ग होते हैं।
4. ……………… को बुर्जुआ कहते हैं।
5. ……………….. वर्ग को सर्वहारा कहते हैं।
उत्तर-

  1. योग्यता
  2. कार्ल मार्क्स
  3. दो
  4. पूँजीपति
  5. मज़दूर।

C. सही/ग़लत पर निशान लगाएं-

1. सभी वर्गों में वर्ग चेतना मौजूद होती है।
2. वर्ग में स्थिति अर्जित की जाती है।
3. आय, व्यवसाय, धन तथा शिक्षा व्यक्ति का वर्ग निर्धारित करते हैं।
4. वैबर के अनुसार धन, सत्ता तथा स्थिति असमानता के आधार हैं।
5. वार्नर ने भारत की वर्ग संरचना का अध्ययन किया था।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. सही
  4. सही
  5. गलत।

II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. वर्ग की सदस्यता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर-वर्ग की सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 2. आजकल वर्ग का निर्धारण किस आधार पर होता है ?
उत्तर-आजकल वर्ग का निर्धारण शिक्षा, धन, व्यवसाय, नातेदारी इत्यादि के आधार पर होता है।

प्रश्न 3. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत किसने दिया था ?
उत्तर-वर्ग संघर्ष का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने दिया था।

प्रश्न 4. धन के आधार पर हम लोगों को कितने वर्गों में बाँट सकते हैं ?
उत्तर-धन के आधार पर हम लोगों को उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा श्रमिक वर्ग में बाँट सकते हैं।

प्रश्न 5. गाँव में मिलने वाले मुख्य वर्ग बताएँ।
उत्तर- गाँव में हमें ज़मींदार वर्ग, किसान वर्ग व मज़दूर वर्ग मुख्यतः मिल जाते हैं।

प्रश्न 6. वर्ग व्यवस्था क्या होती है ?
उत्तर-जब समाज में अलग-अलग आधारों पर कई प्रकार के समूह बन जाते हैं उसे वर्ग व्यवस्था कहते हैं।

प्रश्न 7. वर्ग किस प्रकार का समूह है ?
उत्तर-वर्ग एक मुक्त समूह होता है जिसकी सदस्यता व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है।

प्रश्न 8. वर्ग में किस प्रकार के संबंध पाए जाते हैं ?
उत्तर-वर्ग में औपचारिक, अस्थाई तथा सीमित संबंध पाए जाते हैं।

प्रश्न 9. मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार क्या होता है ?
उत्तर-मार्क्स के अनुसार वर्ग का आधार आर्थिक अर्थात् धन होता है।

प्रश्न 10. मार्क्स के अनुसार संसार में कितने वर्ग होते हैं ?
उत्तर-मार्क्स के अनुसार संसार में दो वर्ग होते हैं-पूँजीपति तथा मज़दूर।

प्रश्न 11. वैबर के अनुसार असमानता का आधार क्या होता है ?
उत्तर-वैबर के अनुसार धन, सत्ता तथा स्थिति असमानता के आधार होते हैं।

प्रश्न 12. बुर्जुआ क्या होता है ?
उत्तर-जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसे बुर्जुआ कहते हैं।

प्रश्न 13. सर्वहारा क्या होता है ?
उत्तर-वह वर्ग जिसके पास उत्पादन के साधन नहीं होते, अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, उसे सर्वहारा कहते हैं।

प्रश्न 14. वर्गहीन समाज कौन-सा होता है ?
उत्तर-वह समाज जहाँ वर्ग नहीं होते, वह वर्गहीन समाज होता है।

प्रश्न 15. जाति व वर्ग में एक अंतर बताएं।
उत्तर-जाति जन्म पर आधारित होती है परन्तु वर्ग योग्यता पर आधारित होता है।

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III. अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न ।

प्रश्न 1.
वर्ग क्या होता है ?
अथवा
वर्ग से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
समाज में जब अलग-अलग व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसे विशेष सामाजिक स्थिति वाले समूह को वर्ग कहते हैं। मार्क्स के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों तथा सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले संबंधों के संदर्भ में परिभाषित किया जा सकता है।”

प्रश्न 2.
वर्ग की दो विशेषताएं बताएं।
उत्तर-

  • वर्ग के सभी सदस्यों की समाज में स्थिति लगभग समान ही होती है जैसे अमीर वर्ग के सदस्यों को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।
  • वर्गों का निर्माण अलग-अलग आधारों पर होता है जैसे कि शिक्षा, पैसा, व्यवसाय, राजनीति, धर्म इत्यादि।

प्रश्न 3.
वर्ग व्यवस्था के कोई तीन प्रभाव बताएं।
उत्तर-

  • वर्ग व्यवस्था से जाति व्यवस्था कमजोर हो गई है।
  • वर्ग व्यवस्था से निम्न जातियों के लोग उच्च स्तर पर पहुंच रहे हैं।
  • वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का मौका प्राप्त होता है।

प्रश्न 4.
नगरों में मुख्य रूप से कौन-से तीन वर्ग देखने को मिल जाते हैं ?
उत्तर-

  • उच्च वर्ग-वह वर्ग जो अमीर व ताकतवर होता है।
  • मध्य वर्ग-डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, नौकरी पेशा लोग, दुकानदार इसमें आते हैं।
  • निम्न वर्ग-इसमें वे मज़दूर आते हैं जो अपना परिश्रम बेच कर गुज़ारा करते हैं।

IV. लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
श्रेणी व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक-दूसरे को समान समझते हैं तथा प्रत्येक श्रेणी की स्थिति समाज में अपनी ही होती है। इसके अनुसार श्रेणी के प्रत्येक सदस्य को कुछ विशेष कर्त्तव्य, अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त होती हैं। श्रेणी चेतनता ही श्रेणी की मुख्य ज़रूरत होती है। श्रेणी के बीच व्यक्ति अपने आप को कुछ सदस्यों से उच्च तथा कुछ से निम्न समझता है।

प्रश्न 2.
वर्ग की दो विशेषताएं।
अथवा सामाजिक वर्ग की विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • वर्ग चेतनता-प्रत्येक वर्ग में इस बात की चेतनता होती है कि उसका पद या आदर दूसरी श्रेणी की तुलना में अधिक है। अर्थात् व्यक्ति को उच्च, निम्न या समानता के बारे में पूरी चेतनता होती है।
  • सीमित सामाजिक सम्बन्ध-वर्ग व्यवस्था में लोग अपने ही वर्ग के सदस्यों से गहरे सम्बन्ध रखता है तथा दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध सीमित होते हैं।

प्रश्न 3.
मुक्त व्यवस्था।
उत्तर-
श्रेणी व्यवस्था के बीच व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न या उच्च स्थिति की तरफ परिवर्तन कर सकता है। वह ग़रीब से अमीर तथा अमीर से ग़रीब हो सकता है। खुलेपन से अभिप्राय व्यक्तियों को बराबर अवसर प्राप्त होने से है। वह पूरी तरह अपनी योग्यता का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 4.
धन तथा आय वर्ग व्यवस्था के निर्धारक।
उत्तर-
समाज के बीच उच्च श्रेणी की स्थिति का सदस्य बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। परन्तु पैसे के साथ व्यक्ति आप ही उच्च स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता परन्तु उसकी अगली पीढ़ी के लिए उच्च स्थिति निश्चित हो जाती है। आय के साथ भी व्यक्ति को समाज में उच्च स्थिति प्राप्त होती है क्योंकि ज्यादा आमदनी से ज्यादा पैसा आता है। परन्तु इसके लिए यह देखना ज़रूरी है कि व्यक्ति की आय ईमानदारी की है या काले धन्धे द्वारा प्राप्त है।

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प्रश्न 5.
जाति तथा वर्ग में कोई चार अन्तर।
उत्तर-

  • जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है तथा वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता उसकी योग्यता पर आधारित होती है।
  • जाति व्यवस्था में पेशा जन्म पर ही निश्चित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति अपनी इच्छा से कोई भी पेशा अपना सकता है।
  • जाति बन्द व्यवस्था है पर वर्ग खुली व्यवस्था है।
  • जाति में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में नहीं।

प्रश्न 6.
जाति-बन्द स्तरीकरण का आधार।
उत्तर-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता उसके जन्म से सम्बन्धित होती है। जिस जाति में वह पैदा होता है वह उसके घेरे में बंध जाता है। यहां तक कि वह अपनी योग्यता का सम्पूर्ण इस्तेमाल नहीं कर सकता है। उसको न तो कार्य करने की स्वतन्त्रता होती है तथा न ही वह दूसरी जातियों से सम्पर्क स्थापित कर सकता है। यदि वह जाति के नियमों को तोड़ता है तो उसको जाति से बाहर निकाल दिया जाता है। इस कारण जाति को बन्द स्तरीकरण का आधार माना जाता है।

प्रश्न 7.
मार्क्स के अनुसार स्तरीकरण का परिणाम क्या है ?
उत्तर-मार्क्स का कहना है, कि समाज में दो वर्ग होते हैं। पहला वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा दूसरा वर्ग उत्पादन के साधनों का मालिक नहीं होता। इस मलकीयत के आधार पर ही मालिक वर्ग की स्थिति उच्च तथा गैर-मालिक वर्ग की स्थिति निम्न होती है। मालिक वर्ग को मार्क्स पूंजीपति वर्ग तथा गैर-मालिक वर्ग को मज़दूर वर्ग कहता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का आर्थिक रूप से शोषण करता है तथा मजदूर वर्ग अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करता है। यह ही स्तरीकरण का परिणाम है।

प्रश्न 8.
वर्गों में आपसी सम्बन्ध किस तरह के होते हैं ?
उत्तर-
मार्क्स के अनुसार वर्गों में आपसी सम्बन्ध, आपसी निर्भरता तथा संघर्ष वाले होते हैं। पूंजीपति तथा मजदूर दोनों अपने अस्तित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। मजदूर वर्ग को रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचना पड़ता है। वह पूंजीपति को अपना परिश्रम बेचते हैं तथा रोटी कमाने के लिए उस पर निर्भर करते हैं। उसकी मजदूरी के एवज में पूंजीपति उनको मज़दूरी का किराया देते हैं। पूंजीपति भी मज़दूरों पर निर्भर करता है, क्योंकि मज़दूर के कार्य किए बिना उसका न तो उत्पादन हो सकता है तथा न ही उसके पास पूंजी इकट्ठी हो सकती है। परन्तु निर्भरता के साथ संघर्ष भी चलता रहता है क्योंकि मजदूर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए उससे संघर्ष करता रहता है।

प्रश्न 9.
मार्क्स के वर्ग के सिद्धान्त में कौन-सी बातें मुख्य हैं ?
उत्तर-

  • सबसे पहले प्रत्येक प्रकार के समाज में मुख्य तौर पर दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा दूसरे के पास नहीं होते हैं।
  • मार्क्स के अनुसार समाज में स्तरीकरण उत्पादन के साधनों पर अधिकार के आधार पर होता है। जिस वर्ग के पास उत्पादन के साधन होते हैं उसकी स्थिति उच्च होती है तथा जिस के पास साधन नहीं होते उसकी स्थिति निम्न होती है।
  • सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप उत्पादन की व्यवस्था पर निर्भर करता है।
  • मार्क्स के अनुसार मनुष्यों के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्ग संघर्ष किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक समाज में मौजूद रहा है।

प्रश्न 10.
वर्ग संघर्ष।
उत्तर-
कार्ल मार्क्स ने प्रत्येक समाज में दो वर्गों की विवेचना की है। उसके अनुसार, प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्गएक शोषण करने वाला तथा दूसरा शोषित होने वाला वर्ग होते हैं। इनमें संघर्ष होता है जिसे मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है। शोषण करने वाला पूंजीपति वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं तथा वह इन उत्पादन के साधनों के साथ अन्य वर्गों को दबाता है। दूसरा वर्ग मज़दूर वर्ग होता है जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं होते हैं। इसके पास रोटी कमाने के लिए अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। यह वर्ग पहले वर्ग से हमेशा शोषित होता है जिस कारण दोनों वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। इस संघर्ष को ही मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया है।

प्रश्न 11.
उत्पादन के साधन।
उत्तर-
उत्पादन के साधन वे साधन हैं जिसकी सहायता से कार्य करके पैसा कमाया जाता है तथा अच्छा जीवन व्यतीत किया जाता है। मनुष्य उत्पादन के साधनों का प्रयोग करके अपने उत्पादन कौशल के आधार पर ही भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करता है तथा यह सभी तत्व इकट्ठे मिलकर उत्पादन शक्तियों का निर्माण करते हैं। उत्पादन के तरीकों पर पूँजीपति का अधिकार होता है तथा वह इनकी सहायता से अतिरिक्त मूल्य का निर्माण करके मज़दूर वर्ग का शोषण करता है। इन उत्पादन के साधनों की सहायता से वह अधिक अमीर होता जाता है जिसका प्रयोग वह मजदूर वर्ग को दबाने के लिए करता है।

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प्रश्न 12.
सामाजिक गतिशीलता।
उत्तर-
समाज मनुष्यों के बीच सम्बन्धों से बनता है। समाज में प्रत्येक मनुष्य की अपनी एक सामाजिक स्थिति होती है तथा यह स्थिति कुछ आधारों पर निर्भर करती है। कुछ समाजों में यह जन्म तथा कुछ में यह कर्म पर आधारित होती है। समाज में कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। जन्म के आधार पर यह परिवर्तन सम्भव नहीं है क्योंकि जाति जन्म के आधार पर निश्चित होती है जिसमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। परन्तु पेशों, कार्य, पैसे इत्यादि के आधार पर वर्ग परिवर्तन मुमकिन है। समाज में किसी भी सदस्य द्वारा अपनी सामाजिक स्थिति के आधार पर परिवर्तन करना ही सामाजिक गतिशीलता है।

प्रश्न 13.
गतिशीलता की दो परिभाषाएं।
उत्तर-
फेयरचाइल्ड के अनुसार, “मनुष्यों द्वारा अपने समूह को परिवर्तित करना ही सामाजिक गतिशीलता है। सामाजिक गतिशीलता का अर्थ व्यक्तियों की एक समूह से दूसरे समूह की तरफ की गति है।”
बोगार्डस के अनुसार, “सामाजिक पदवी में कोई भी परिवर्तन सामाजिक गतिशीलता है।”

प्रश्न 14.
शिक्षा-सामाजिक गतिशीलता का सूचक।
उत्तर-
शिक्षा को सामाजिक गतिशीलता का महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता है। यह कहा जाता है कि व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त करेगा उतना ही अधिक जीवन में सफल होगा। शिक्षा व्यक्ति के बजुर्गों द्वारा किए गलत कार्यों को भी ठीक कर देती है। यह माना जाता है कि शिक्षा को नौकरी का साधन नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि शिक्षा प्रत्यक्ष रूप से ऊपर की तरफ की गतिशीलता की तरफ नहीं लेकर जाती। शिक्षा तो व्यक्ति के लिए उस समय मौजूद मौके अर्जित करने के लिए व्यक्ति की योग्यता को बढ़ाती है। शिक्षा वह तरीके बताती है जो किसी भी पेशे को अपनाने के लिए ज़रूरी होते हैं, परन्तु यह उन तरीकों को प्रयोग करने के मौके प्रदान नहीं करती।

प्रश्न 15.
आय-सामाजिक गतिशीलता का सूचक।
उत्तर-
व्यक्ति की आय गतिशीलता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। व्यक्ति की आय उसकी सामाजिक स्थिति को उच्च अथवा निम्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिसकी आय अधिक होती है उसका सामाजिक रुतबा भी उच्च होता है तथा जिसकी आय कम होती है उसका सामाजिक रुतबा भी निम्न होता है। आय बढ़ने से लोग अपनी जीवन शैली बढ़िया कर लेते हैं तथा गतिशील होकर वर्ग व्यवस्था में ऊँचे हो जाते हैं। इस तरह आय गतिशीलता का महत्त्वपूर्ण सूचक है।

V. बड़े उत्तरों वाले प्रश्न-

प्रश्न 1.
वर्ग के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तार से लिखें ।
अथवा
वर्ग क्या होता है ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण का आधार वर्ग होता है। वर्ग में व्यक्ति की स्थिति उसके वर्ग की भूमिका के अनुसार होती है। मानवीय समाज में सभी मनुष्यों की स्थिति बराबर या समान नहीं होती। किसी-न-किसी आधार पर असमानता पाई जाती रही है व इसी असमानता की भावना के कारण ही वर्ग पहचान में आए हैं। विशेषकर पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, शिक्षा प्रणाली, आधुनिकीकरण के कारण समाज भारत में वर्ग व्यवस्था आगे आई है। पश्चिमी देशों में भी स्तरीकरण वर्ग व्यवस्था पर आधारित होता है। भारत में भी बहुत सारे वर्ग पहचान में आए हैं जैसे अध्यापक वर्ग, व्यापार वर्ग, डॉक्टर वर्ग आदि।

वर्ग का अर्थ व परिभाषाएं (Meaning & Definitions of Class):

प्रत्येक समाज कई वर्गों में विभाजित होता है व प्रत्येक वर्ग की समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। इस स्थिति के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च या निम्न जाना जाता है। वर्ग की मुख्य विशेषता वर्ग चेतनता होती है। इस प्रकार समाज में जब विभिन्न व्यक्तियों को विशेष सामाजिक स्थिति प्राप्त होती है तो उसको वर्ग व्यवस्था कहते हैं। प्रत्येक वर्ग आर्थिक पक्ष से एक-दूसरे से अलग होता है।

  • मैकाइवर (Maclver) ने वर्ग को सामाजिक आधार पर बताया है। उस के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एकत्रता वह हिस्सा होता है जिसको सामाजिक स्थिति के आधार पर बचे हुए हिस्से से अलग कर दिया जाता है।”
  • मोरिस जिन्सबर्ग (Morris Ginsberg) के अनुसार, “वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सांझे वंशक्रम, व्यापार सम्पत्ति के द्वारा एक सा जीवन ढंग, एक से विचारों का स्टाफ, भावनाएं, व्यवहार के रूप में रखते हों व जो इनमें से कुछ या सारे आधार पर एक-दूसरे से समान रूप में अलग-अलग मात्रा में पाई जाती हो।”
  • गिलबर्ट (Gilbert) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग व्यक्तियों की एकत्र विशेष श्रेणी है जिस की समाज में एक विशेष स्थिति होती है, यह विशेष स्थिति ही दूसरे समूहों से उनके सम्बन्ध निर्धारित करती है।”
  • कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के विचार अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति के विभाजन से स्थापित होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में भी परिभाषित किया जा सकता है।”
  • आगबन व निमकौफ (Ogburn & Nimkoff) के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग की मौलिक विशेषता दुसरे सामाजिक वर्गों की तुलना में उसकी उच्च व निम्न सामाजिक स्थिति होती है।”

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सामाजिक वर्ग कई व्यक्तियों का वर्ग होता है, जिसको समय विशेष में एक विशेष स्थिति प्राप्त होती है। इसी कारण उनको कुछ विशेष शक्ति, अधिकार व उत्तरदायित्व भी मिलते हैं। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की योग्यता महत्त्वपूर्ण होती है। इस कारण हर व्यक्ति परिश्रम करके सामाजिक वर्ग में अपनी स्थिति को ऊँची करना चाहता है। प्रत्येक समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित होता है। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति निश्चित नहीं होती। उसकी स्थिति में गतिशीलता पाई जाती है। इस कारण इसे खुला स्तरीकरण भी कहते हैं। व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति स्वयं निर्धारित करता है। यह जन्म पर आधारित नहीं होता।

वर्ग की विशेषताएं (Characteristics of Class):

1. श्रेष्ठता व हीनता की भावना (Feeling of Superiority and Inferiority)—वर्ग व्यवस्था में भी ऊँच व नीच के सम्बन्ध पाए जाते हैं। उदाहरणतः उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगों से अपने आप को अलग व ऊँचा महसूस करते हैं। ऊँचे वर्ग में अमीर लोग आ जाते हैं व निम्न वर्ग में ग़रीब लोग। अमीर लोगों की समाज में उच्च स्थिति होती है व ग़रीब लोग भिन्न-भिन्न निवास स्थान पर रहते हैं। उन निवास स्थानों को देखकर ही पता लग जाता है कि वह अमीर वर्ग से सम्बन्धित हैं या ग़रीब वर्ग से।

2. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)—वर्ग व्यवस्था किसी भी व्यक्ति के लिए निश्चित नहीं होती। वह बदलती रहती है। व्यक्ति अपनी मेहनत से निम्न से उच्च स्थिति को प्राप्त कर लेता है व अपने गलत कार्यों के परिणामस्वरूप ऊंची से निम्न स्थिति पर भी पहुंच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी आधार पर समाज में अपनी इज्जत बढ़ाना चाहता है। इसी कारण वर्ग व्यवस्था व्यक्ति को क्रियाशील भी रखती है। उदाहरणतः एक आम दफ़तर में लगा क्लर्क यदि परिश्रम करके I.A.S. इम्तिहान में आगे बढ़ जाता है तो उसकी स्थिति बिल्कुल ही बदल जाती है।

3. खुलापन (Openness)—वर्ग व्यवस्था में खुलापन पाया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति को पूरी आज़ादी होती है कि वह कुछ भी कर सके। वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी व्यापार को अपना सकता है। किसी भी जाति का व्यक्ति किसी भी वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता के आधार पर बन सकता है। निम्न वर्ग के लोग मेहनत करके उच्च वर्ग में आ सकते हैं। इसमें व्यक्ति के जन्म की कोई महत्ता नहीं होती। व्यक्ति की स्थिति उसकी योग्यता पर निर्भर करती है। एक अमीर मां-बाप का लड़का तब तक अमीर बना रहेगा जब तक उसके माता-पिता की सम्पत्ति समाप्त नहीं हो जाती। बाद में हो सकता है कि यदि वह मेहनत न करे तो भूखा भी मर सकता है। यह वर्ग व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को आगे बढ़ने के समान आर्थिक मौके भी प्रदान करती है। इस प्रकार इसमें खुलापन पाया जाता है।

4. सीमित सामाजिक सम्बन्ध (Limited Social Relations) वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध सीमित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोग अपने बराबर के वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखना अधिक ठीक समझते हैं। प्रत्येक वर्ग अपने ही लोगों से नज़दीकी रखना चाहता है। वह दूसरे वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।

5. उपवर्गों का विकास (Development of Sub-Classes)-आर्थिक दृष्टिकोण से हम वर्ग व्यवस्था को तीन भागों में बाँटते हैं

(i) उच्च वर्ग (Upper Class)
(ii) मध्य वर्ग (Middle Class)
(iii) निम्न वर्ग (Lower Class)।

परन्तु आगे हर वर्ग कई और उपवर्गों में बाँटा होता है, जैसे एक अमीर वर्ग में भी भिन्नता नज़र आती है। कुछ लोग बहुत अमीर हैं, कुछ उससे कम व कुछ सबसे कम। इसी प्रकार मध्य वर्ग व निम्न वर्ग में भी उप-वर्ग पाए जाते हैं। हर वर्ग के उप-वर्गों में भी अन्तर पाया जाता है। इस प्रकार वर्ग, उप वर्गों से मिल कर बनता है।

6. विभिन्न आधार (Different Bases)—जैसे हम शुरू में ही विभिन्न समाज वैज्ञानिकों के विचारों से यह परिणाम निकाल चुके हैं कि वर्ग के भिन्न-भिन्न आधार हैं। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार को वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है। उसके अनुसार समाज में केवल दो वर्ग पाए गए हैं। एक तो पूंजीपति वर्ग, दूसरा श्रमिक वर्ग। हर्टन व हंट के अनुसार हमें याद रखना चाहिए कि वर्ग मूल में, विशेष जीवन ढंग है। ऑगबर्न व निमकौफ़, मैकाइवर गिलबर्ट ने वर्ग के लिए सामाजिक आधार को मुख्य माना है। जिन्ज़बर्ग, लेपियर जैसे वैज्ञानिकों ने सांस्कृतिक आधार को ही वर्ग व्यवस्था का मुख्य आधार माना है।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि वर्ग के निर्धारण करने का कोई एक आधार नहीं, बल्कि कई अलग-अलग आधार हैं। जैसे पढ़ा-लिखा वर्ग, अमीर वर्ग, डॉक्टर वर्ग आदि। इस प्रकार वर्ग कई आधारों के परिणामस्वरूप पाया गया है।

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7. वर्ग पहचान (Identification of Class)—वर्ग व्यवस्था में बाहरी दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार हम देख कर यह अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति उच्च वर्ग का है या निम्न का। हमारे आधुनिक समाज में कोठी, कार, स्कूटर, टी० वी०, वी० सी० आर०, फ्रिज आदि व्यक्ति के स्थिति चिन्ह को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार बाहरी संकेतों से हमें वर्ग भिन्नता का पता चल जाता है।
प्रत्येक वर्ग के लोगों का जीवन ढंग लगभग एक सा ही होता है। मैक्स वैबर के अनुसार, “हम एक समूह को तो ही वर्ग कह सकते हैं जब उस समूह के लोगों को जीवन के कुछ ख़ास मौके न प्राप्त हों।” इस प्रकार हर वर्ग के सदस्यों की ज़रूरतें भी एक सी ही होती हैं।

8. वर्ग चेतनता (Class Consciousness)-प्रत्येक सदस्य अपनी वर्ग स्थिति के प्रति पूरी तरह चेतन होता है। इसी कारण वर्ग चेतना, वर्ग व्यवस्था की मुख्य विशेषता है। वर्ग चेतना व्यक्ति को आगे बढ़ने के मौके प्रदान करती है क्योंकि चेतना के आधार पर ही हम एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार भी इसके द्वारा ही निश्चित होता है।

9. उतार-चढ़ाव का क्रम (Hierarchical Order)-प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न स्थिति रखने वाले वर्ग पाए जाते हैं। स्थिति का उतार-चढ़ाव चलता रहता है व भिन्न-भिन्न वर्गों का निर्माण होता रहता है। साधारणत: यह देखने में आया है कि समाज में उच्च वर्ग के लोगों की गणना कम होती है व मध्यम व निम्न वर्गों के लोगों की गणना अधिक होती है। प्रत्येक वर्ग के लोग अपनी मेहनत व योग्यता से अपने से उच्च वर्ग में जाने की कोशिश करते रहते हैं।

10. आपसी निर्भरता (Mutual Dependence) समाज के सभी वर्गों में आपसी निर्भरता होती है व वह एकदूसरे पर निर्भर होते हैं। उच्च वर्ग को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए मध्यम वर्ग की ज़रूरत पड़ती है व इसी तरह मध्यम वर्ग को अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए निम्न वर्ग की ज़रूरत पड़ती है। इसी तरह उल्टा भी होता है। इस प्रकार यह सारे वर्ग अपनी पहचान बनाए रखने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।

11. वर्ग एक खुली व्यवस्था है (Class is an open system)-वर्ग एक खुली व्यवस्था होती है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक वर्ग के दरवाजे खुले होते हैं। व्यक्ति अपनी मेहनत, योग्यता व कोशिशों से अपना वर्ग बदल भी सकता है व कोशिशें न करके छोटे वर्ग में भी पहुँच सकता है। उसके रास्ते में जाति कोई रुकावट नहीं डालती। उदाहरणत: निम्न जाति का व्यक्ति भी परिश्रम करके उच्च वर्ग में पहुँच सकता है।

12. वर्ग की स्थिति (Status of Class)—प्रत्येक वर्ग की स्थितियों में कुछ समानता होती है। इस समानता के कारण ही प्रत्येक वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति करने के समान मौके प्राप्त होते हैं। व्यक्ति की शिक्षा, उसके रहने का स्थान, अन्य चीजें आदि उसके वर्ग की स्थिति अनुसार होती हैं।

प्रश्न 2.
वर्ग के विभाजन के अलग-अलग आधारों का वर्णन करो।
अथवा वर्ग के सह-संबंधों की व्याख्या करें।
अथवा आय तथा व्यवसाय की वर्ग निर्धारक के रूप में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
वर्ग की व्याख्या व विशेषताओं के आधार पर हम वर्ग के विभाजन के कुछ आधारों का जिक्र कर सकते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया गया है
(1) परिवार व रिश्तेदार (2) सम्पत्ति व आय, पैसा (3) व्यापार (4) रहने के स्थान की दिशा (5) शिक्षा (6) शक्ति (7) धर्म (8) प्रजाति (9) जाति (10) स्थिति चिन्ह।

1. परिवार व रिश्तेदारी (Family and Kinship) परिवार व रिश्तेदारी भी वर्ग की स्थिति निर्धारित करने के लिए जिम्मेवार होता है। बीयरस्टेड के अनुसार, “सामाजिक वर्ग की कसौटी के रूप में परिवार व रिश्तेदारी का महत्त्व सारे समाज में बराबर नहीं होता, बल्कि यह तो अनेक आधारों में एक विशेष आधार है जिसका उपयोग सम्पूर्ण व्यवस्था में एक अंग के रूप में किया जा सकता है। परिवार के द्वारा प्राप्त स्थिति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। जैसे टाटा बिरला आदि के परिवार में पैदा हुई सन्तान पूंजीपति ही रहती है क्योंकि उनके बुजुर्गों ने इतना पैसा कमाया होता है कि कई पीढ़ियां यदि न भी मेहनत करें तो भी खा सकती हैं। इस प्रकार अमीर परिवार में पैदा हुए व्यक्ति को भी वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार परिवार व रिश्तेदारी की स्थिति के आधार पर भी व्यक्ति को वर्ग व्यवस्था में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।।

2. सम्पत्ति, आय व पैसा (Property, Income and Money)-वर्ग के आधार पर सम्पत्ति, पैसे व आय को प्रत्येक समाज में महत्त्वपूर्ण जगह प्राप्त होती है। आधुनिक समाज को इसी कारण पूंजीवादी समाज कहा गया है। पैसा एक ऐसा स्रोत है जो व्यक्ति को समाज में बहुत तेज़ी से उच्च सामाजिक स्थिति की ओर ले जाता है। मार्टिनडेल व मोनाचेसी (Martindal and Monachesi) के अनुसार, “उत्पादन के साधनों व उत्पादित पदार्थों पर व्यक्ति का काबू जितना अधिक होगा उसको उतनी ही उच्च वर्ग वाली स्थिति प्राप्त होती है।” प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक कार्ल मार्क्स ने पैसे को ही वर्ग निर्धारण के लिए मुख्य माना। अधिक पैसा होने का मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अमीर है। उनकी आय भी अधिक होती है। इस प्रकार धन, सम्पत्ति व आय के आधार पर भी वर्ग निर्धारित होता है।

3. पेशा (Occupation)—सामाजिक वर्ग को निर्धारक पेशा भी माना जाता है। व्यक्ति समाज में किस तरह का पेशा कर रहा है, यह भी वर्ग व्यवस्था से सम्बन्धित है। क्योंकि हमारी वर्ग व्यवस्था के बीच कुछ पेशे बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाए गए हैं व कुछ पेशे कम महत्त्वपूर्ण। इस प्रकार हम देखते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि की पारिवारिक स्थिति चाहे जैसी भी हो परन्तु पेशे के आधार पर उनकी सामाजिक स्थिति उच्च ही रहती है। लोग उनका आदर-सम्मान भी पूरा करते हैं। इस प्रकार कम पढ़े-लिखे व्यक्ति का पेशा समाज में निम्न रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पेशा भी वर्ग व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण निर्धारक होता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने के लिए कोई-न-कोई काम करना पड़ता है। इस प्रकार यह काम व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार करता है। वह जिस तरह का पेशा करता है समाज में उसे उसी तरह की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति गलत पेशे को अपनाकर पैसा इकट्ठा कर भी लेता है तो उसकी समाज में कोई इज्ज़त नहीं होती। आधुनिक समाज में शिक्षा से सम्बन्धित पेशे की अधिक महत्ता पाई जाती है।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

4. रहने के स्थान की दिशा (Location of residence)—व्यक्ति किस जगह पर रहता है, यह भी उसकी वर्ग स्थिति को निर्धारित करता है। शहरों में हम आम देखते हैं कि लोग अपनी वर्ग स्थिति को देखते हुए, रहने के स्थान का चुनाव करते हैं। जैसे हम समाज में कुछ स्थानों के लिए (Posh areas) शब्द भी प्रयोग करते हैं। वार्नर के अनुसार जो परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहर के काल में पुश्तैनी घर में रहते हैं उनकी स्थिति भी उच्च होती है। कहने से भाव यह है कि कुछ लोग पुराने समय से अपने बड़े-बड़े पुश्तैनी घरों में ही रह जाते हैं। इस कारण भी वर्ग व्यवस्था में उनकी स्थिति उच्च ही बनी रहती है। बड़े-बड़े शहरों में व्यक्तियों के निवास स्थान के लिए भिन्न-भिन्न कालोनियां बनी रहती हैं। मज़दूर वर्ग के लोगों के रहने के स्थान अलग होते हैं। वहां अधिक गन्दगी भी पाई जाती है। अमीर लोग बड़े घरों में व साफ़-सुथरी जगह पर रहते हैं जबकि ग़रीब लोग झोंपड़ियों या गन्दी बस्तियों में रहते हैं।

5. शिक्षा (Education)-आधुनिक समाज शिक्षा के आधार पर दो वर्गों में विभाजित होता है-

(i) शिक्षित वर्ग (Literate Class)
(ii) अनपढ़ वर्ग (Illiterate Class)।

शिक्षा की महत्ता प्रत्येक वर्ग में पाई जाती है। साधारणतः पर हम देखते हैं कि पढ़े-लिखे व्यक्ति को समाज में इज्जत की नज़र से देखा जाता है। चाहे उनके पास पैसा भी न हो। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति वर्तमान सामाजिक स्थिति अनुसार शिक्षा की प्राप्ति को ज़रूरी समझने लगा है। शिक्षा की प्रकृति भी व्यक्ति की वर्ग स्थिति के निर्धारण के लिए जिम्मेवार होती है। औद्योगीकृत समाज में तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति काफ़ी ऊँची होती है।

6. शक्ति (Power)—आजकल औद्योगीकरण के विकास के कारण व लोकतन्त्र के आने से शक्ति भी वर्ग संरचना का आधार बन गई है। अधिक शक्ति का होना या न होना व्यक्ति के वर्ग का निर्धारण करती है। शक्ति से व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति का भी निर्धारण होता है। शक्ति कुछ श्रेष्ठ लोगों के हाथ में होती है व वह श्रेष्ठ लोग नेता, अधिकारी, सैनिक अधिकारी, अमीर लोग होते हैं। हमने उदाहरण ली है आज की भारत सरकार की। नरेंद्र मोदी की स्थिति निश्चय ही सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह से ऊँची होगी क्योंकि उनके पास शक्ति है, सत्ता उनके हाथ में है, परन्तु मनमोहन सिंह के पास नहीं है। इस प्रकार आज भाजपा की स्थिति कांग्रेस से उच्च है क्योंकि केन्द्र में भाजपा पार्टी की सरकार है।

7. धर्म (Religion)-राबर्ट बियरस्टड ने धर्म को भी सामाजिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। कई समाज ऐसे हैं जहां परम्परावादी रूढ़िवादी विचारों का अधिक प्रभाव पाया जाता है। उच्च धर्म के आधार पर स्थिति निर्धारित होती है। आधुनिक समय में समाज उन्नति के रास्ते पर चल रहा है जिस कारण धर्म की महत्ता उतनी नहीं जितनी पहले होती थी। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च होती थी परन्तु आजकल नहीं। पाकिस्तान में मुसलमानों की स्थिति निश्चित रूप से हिन्दुओं व ईसाइयों से बढ़िया है क्योंकि वहां राज्य का धर्म ही इस्लाम है। इस प्रकार कई बार धर्म भी वर्ग स्थिति का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

8. प्रजाति (Race) दुनिया से कई समाज में प्रजाति भी वर्ग निर्माण या वर्ग की स्थिति बताने में सहायक होती है। गोरे लोगों को उच्च वर्ग का व काले लोगों को निम्न वर्ग का समझा जाता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में एशिया के देशों के लोगों को बुरी निगाह से देखा जाता है। इन देशों में प्रजातीय हिंसा आम देखने को मिलती है। दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की नीति काफ़ी चली है।

9. जाति (Caste)-भारत जैसे देश में जहां जाति प्रथा सदियों से भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जाति वर्ग निर्धारण का बहुत
महत्त्वपूर्ण आधार रही है। जाति जन्म पर आधारित होती है। जिस जाति में व्यक्ति ने जन्म लिया है वह अपनी योग्यता से भी उसे परिवर्तित नहीं सकता।

10. स्थिति चिन्ह (Status Symbol)—स्थिति चिन्ह लगभग हर एक समाज में व्यक्ति की वर्ग व्यवस्था को निर्धारित करता है। आजकल के समय, कोठी, कार, टी० वी०, टैलीफोन, फ्रिज आदि का होना व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति के पास अच्छी ज़िन्दगी को बिताने वाली कितनी सुविधाएं हैं। यह सब स्थिति चिन्हों में शामिल होती हैं, जो व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करते हैं।
इस विवरण के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति के वर्ग के निर्धारण में केवल एक कारक ही जिम्मेवार नहीं होता, बल्कि कई कारक जिम्मेवार होते हैं।

प्रश्न 3.
जाति व वर्ग में अन्तर बताओ।
उत्तर-
सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य आधार जाति व वर्ग हैं। जाति को एक बन्द व्यवस्था व वर्ग को एक खुली व्यवस्था कहा जाता है। पर वर्ग अधिक खुली अवस्था नहीं है क्योंकि किसी भी वर्ग को अन्दर जाने के लिए सख्त मेहनत करनी पड़ती है व उस वर्ग के सदस्य रास्ते में काफ़ी रोड़े अटकाते हैं। कई विद्वान् यह कहते हैं कि जाति व वर्ग में कोई विशेष अन्तर नहीं है परन्तु दोनों का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलेगा कि दोनों में काफ़ी अन्तर है। इनका वर्णन इस प्रकार है-

1. जाति जन्म पर आधारित होती है पर वर्ग का आधार कर्म होता है (Caste is based on birth but class is based on action)-जाति व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, वह सारी ही उम्र उसी से जुड़ा होता था।
वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की सदस्यता शिक्षा, आय, व्यापार योग्यता पर आधारित होती है। व्यक्ति जब चाहे अपनी सदस्यता बदल सकता है। एक ग़रीब वर्ग से सम्बन्धित व्यक्ति परिश्रम करके अपनी सदस्यता अमीर वर्ग से ही जोड़ सकता है। वर्ग की सदस्यता योग्यता पर आधारित होती है। यदि व्यक्ति में योग्यता नहीं है व वह कर्म नहीं करता है तो वह उच्च स्थिति से निम्न स्थिति में भी जा सकता है। यदि वह कर्म करता है तो वह निम्न स्थिति से उच्च स्थिति में भी जा सकता है। जिस प्रकार जाति धर्म पर आधारित है पर वर्ग कर्म पर आधारित होता है।

2. जाति का पेशा निश्चित होता है पर वर्ग का नहीं (Occupation of caste is determined but not of class) जाति प्रथा में पेशे की व्यवस्था भी व्यक्ति के जन्म पर ही आधारित होती थी अर्थात् विभिन्न जातियों से सम्बन्धित पेशे होते थे। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसको जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना होता था। वह सारी उम्र उस पेशे को बदल कर कोई दूसरा कार्य भी नहीं अपना सकता था। इस प्रकार न चाहते हुए भी उसको अपनी जाति के पेशे को ही अपनाना पड़ता था।

वर्ग व्यवस्था में पेशे के चुनाव का क्षेत्र बहुत विशाल है। व्यक्ति की अपनी इच्छा होती है कि वह किसी भी पेशे को अपना ले। विशेष रूप से व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता था कि वह किसी भी पेशे को अपना लेता है। विशेष रूप से पर व्यक्ति जिस पेशे में माहिर होता है वह उसी पेशे को अपनाता है क्योंकि उसका विशेष उद्देश्य लाभ प्राप्ति की ओर होता था व कई बार यदि वह एक पेशे को करते हुए तंग आ जाता है तो वह दूसरे किसी और पेशे को भी अपना सकता है। इस प्रकार पेशे को अपनाना व्यक्ति की योग्यता पर आधारित होता है।

3. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है पर वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है (Membership of caste is ascribed but membership of class is achieved)-सम्बन्धित होती थी भाव कि स्थिति वह खुद प्राप्त नहीं करता था बल्कि जन्म से ही सम्बन्धित होती थी। इसी कारण व्यक्ति की स्थिति के लिए ‘प्रदत्त’ (ascribed) शब्द का उपयोग किया जाता था। इसी कारण जाति व्यवस्था में स्थिरता बनी रहती थी। व्यक्ति का पद वह ही होता था जो उसके परिवार का हो। वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति की स्थिति ‘अर्जित’ (achieved) होती है अर्थात् उसको समाज में अपनी स्थिति प्राप्त करनी पड़ती है। इस कारण व्यक्ति शुरू से ही परिश्रम करनी शुरू कर देता है। व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर निम्न स्थिति से उच्च स्थिति भी प्राप्त कर लेता है। इसमें व्यक्ति के जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता। बल्कि परिश्रम व योग्यता उसके वर्ग व स्थिति के बदलने में महत्त्वपूर्ण होती है।

4. जाति बन्द व्यवस्था है व वर्ग खुली व्यवस्था है (Caste is a closed system but class is an open system)-जाति प्रथा स्तरीकरण का बन्द समूह होता है क्योंकि व्यक्ति को सारी उम्र सीमाओं में बन्ध कर रहना पड़ता है। न तो वह जाति बदल सकता है न ही पेशा। श्रेणी व्यवस्था स्तरीकरण का खुला समूह होता है। इस प्रकार व्यक्ति को हर किस्म की आज़ादी होती है। वह किसी भी क्षेत्र में मेहनत करके आगे बढ़ सकता है। उसको समाज में अपनी निम्न स्थिति से ऊपर की स्थिति की ओर बढ़ने के पूरे मौके भी प्राप्त होते हैं। वर्ग का दरवाज़ा प्रत्येक के लिए खुला होता है। व्यक्ति अपनी योग्यता, सम्पत्ति, परिश्रम के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है व वह अपनी सारी उम्र में कई वर्गों का सदस्य बनता है।

5. जाति व्यवस्था में कई पाबन्दियां होती हैं परन्तु वर्ग में कोई नहीं होती (There are many restrictions in caste system but not in any class)-जाति प्रथा द्वारा अपने सदस्यों पर कई पाबन्दियां लगाई जाती थीं। खान-पान सम्बन्धी, विवाह, सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने आदि सम्बन्धी बहुत पाबन्दियां थीं। व्यक्ति की ज़िन्दगी पर जाति का पूरा नियन्त्रण होता था। वह उन पाबन्दियां को तोड़ भी नहीं सकता था। ___ वर्ग व्यवस्था में व्यक्तिगत आज़ादी होती थी। भोजन, विवाह आदि सम्बन्धी किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। किसी भी वर्ग का व्यक्ति दूसरे वर्ग के व्यक्ति से सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता था।

6. जाति में चेतनता नहीं होती पर वर्ग में चेतनता होती है (There is no caste consciousness but there is class consciousness) —जाति व्यवस्था में जाति चेतनता नहीं पाई जाती थी। इसका एक कारण तो था कि चाहे निम्न जाति के व्यक्ति को पता था कि उच्च जातियों की स्थिति उच्च है, परन्तु फिर भी वह इस सम्बन्धी कुछ नहीं कर सकता था। इसी कारण वह मेहनत करनी भी बन्द कर देता था। उसको अपनी योग्यता अनुसार समाज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था।

वर्ग के सदस्यों में वर्ग चेतनता पाई जाती थी। इसी चेतनता के आधार पर तो वर्ग का निर्माण होता था। व्यक्ति इस सम्बन्धी पूरा चेतन होता था कि वह कितनी मेहनत करे ताकि उच्च वर्ग स्थिति को प्राप्त कर सके। इसी प्रकार वह हमेशा अपनी योग्यता को बढ़ाने की ओर ही लगा रहता था।

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उपरोक्त विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था का केवल एक ही आधार होता है, वह था सांस्कृतिक। परन्तु वर्ग व्यवस्था के कई आधार पाए जाते हैं। हर आधार अनुसार वर्ग विभाजन अलग होता है। आर्थिक कारणों का वर्ग व्यवस्था पर अधिक प्रभाव होता था। व्यक्ति की आर्थिकता में परिवर्तन आने से उसकी सदस्यता बदल जाती है। परन्तु जाति व्यवस्था में आर्थिकता का कोई महत्त्व नहीं होता। यह एक बन्द व्यवस्था थी। भाव कि एक वर्ग व दूसरे वर्ग में जाति प्रथा वाली ही भिन्नता है, लेकिन जाति को व्यक्ति बदल नहीं सकता था जबकि वर्ग व्यवस्था को बदल सकता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक वर्ग के अलग-अलग संकेतकों का वर्णन करें।
उत्तर-
एक सूचक वह वस्तु है, जो किसी लक्षण के अतिरिक्त उस बारे में बताता है, कि वह उसके बारे में पूरी तरह बताता है। सामाजिक गतिशीलता के कई सूचक हैं जिनमें से शिक्षा, व्यवसाय एवं आय प्रमुख हैं। इनका वर्णन निम्न प्रकार का है

1. शिक्षा (Education) शिक्षा को सामाजिक वर्ग का महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है। यह कहा जाता है कि व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त करेगा, वह उतना ही ज़िन्दगी में सफल होगा। शिक्षा व्यक्ति के बुजुर्गों द्वारा किये गये गलत कार्यों को भी ठीक कर देती है। यह माना जाता है कि शिक्षा को केवल नौकरी का साधन मात्र नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि शिक्षा सीधे तौर पर ऊपर की तरफ गतिशीलता को लेकर जाती है। शिक्षा तो व्यक्ति के लिए उस समय उपस्थित अवसर प्राप्त करने के लिए व्यक्ति की योग्यता को बढ़ाती है। शिक्षा वह रास्ता बताती है, जो किसी भी व्यवसाय को अपनाने के लिए आवश्यक होते हैं, परन्तु यह उन रास्तों को प्रयोग करने के अवसर प्रदान नहीं करती है। शिक्षा गतिशीलता के साधन के रूप में कई कार्य करती है जैसे कि

  • शिक्षा व्यक्ति को मज़दूर से मैनेजर तक का रास्ता दिखाती है। कोई भी मज़दूर शिक्षा प्राप्त करने के बाद मैनेजर की पदवी तक पहुंच सकता है।
  • शिक्षा किसी को भी व्यवसाय प्राप्त करने के बारे में बताती है। व्यक्ति को अच्छी आय वाला रोजगार प्रदान करती है।
  • शिक्षा व्यक्ति की अधिक आय और नौकरी वाली पदवियां अर्जित करने में सहायता करती है। साधारणतः सरकारी नौकरी अच्छी शिक्षा द्वारा प्राप्त की जाती है। इसलिए अधिक तनख्वाह (Salary) के लिए अच्छी शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है।

यह माना जाता है कि व्यक्ति जितना अधिक समय पढ़ाई में लगाता है, उसकी अधिक आय एवं सामाजिक गतिशीलता में ऊपर की तरफ बढ़ने के अधिक अवसर आते हैं। शिक्षा व्यक्ति को कई प्रकार के व्यवसाय प्राप्त करने के अवसर प्रदान करती है। कई प्रकार के अध्ययनों से यह पता चला है कि शिक्षा न केवल व्यक्ति को ऊंची पदवी प्राप्त करने का अवसर देती है, बल्कि इसके साथ व्यक्ति समाज के बीच रहने एवं व्यवहार करने के तरीकों के बारे में बतलाती है। ऐसा सीखने से व्यक्ति के लिए सफलता प्राप्ति के अवसर बढ़ जाते हैं। इस तरह शिक्षा व्यक्ति के लिए सामाजिक गतिशीलता में ऊपर बढ़ने के अवसर प्रदान करती है।

शिक्षा एक विद्यार्थी के जीवन में अवसर प्राप्त करने के अवसरों में वृद्धि प्रदान करती है। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति में धन प्राप्ति हेतु समर्था में वृद्धि होती है। जो बच्चे पढ़ाई की तरफ ध्यान नहीं देते हैं, उनका जीवन काफ़ी कठिनाइयों वाला व संघर्षपूर्ण हो जाता है। परन्तु जो बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं और अपना अधिक समय पढ़ाई में व्यतीत करते हैं वे बड़े होकर अधिक धन की प्राप्ति करते हैं।

बच्चों की पृष्ठभूमि (Background History) भी उनकी वर्तमान प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिन बच्चों के माता-पिता अधिक पढ़े-लिखे होते हैं और ऊंची पदवी पर कार्य कर रहे होते हैं उनको घर में ही शिक्षा का अच्छा वातावरण प्राप्त होता है, उन बच्चों के माता-पिता उन बच्चों के लिए आदर्श बन जाते हैं। माता-पिता बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की महत्ता के बारे में बतला कर उनको शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह पढ़ाई के पश्चात् उनमें सामाजिक पदवी प्राप्त करने की लालसा बढ़ जाती है और वे ऊंची पदवी प्राप्त करके समाज में ऊंचा उठ जाते हैं। इस प्रकार शिक्षा गतिशीलता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है।

यहां एक बात साफ कर देनी ज़रूरी है कि व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त करता है, उसको जीवन में उन्नति करने के उतने ही मौके बढ़ जाते हैं। जितना अधिक समय तथा पैसा व्यक्ति शिक्षा में निवेश करता है, उतने ही उसको अच्छी नौकरी अथवा व्यापार करने के अधिक मौके प्राप्त होंगे। उदाहरणत: यदि किसी विद्यार्थी ने बी० कॉम (B.Com.) की डिग्री प्राप्त करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी है तो उसको अच्छी नौकरी मिलने के बहुत ही कम मौके प्राप्त होंगे। परन्तु उसने B.Com. के बाद किसी I.I.M. से M.B.A. कर ली है तो उसको बहुत ही अच्छी नौकरी तथा बहुत ही अच्छा वेतन प्राप्त हो सकता है। इस तरह जितना अधिक समय तथा पैसा शिक्षा पर खर्च किया जाएगा, उतने अधिक मौके बढ़िया नौकरी के लिए प्राप्त होंगे।

अन्त में हम कह सकते हैं कि चाहे शिक्षा गतिशीलता का एक सीधा रास्ता नहीं है परन्तु यह व्यक्ति को उसके पेशे को बदलने तथा उससे लाभ उठाने में बहुत ज्यादा मदद करती है। शिक्षा व्यक्ति को गतिशील होने के लिए प्रेरित करती है तथा जीवन में ऊपर उठने के मौके प्रदान करती है।

2. व्यवसाय (Occupation)-गतिशीलता के कारण ही समाज को पता चलता है कि किस पद पर किस व्यक्ति को बिठाया जाए। इस प्रकार समाज प्रत्येक पद पर योग्य व्यक्ति को ही बिठाता है। इस तरह यह व्यक्ति को उसके लक्ष्य प्राप्ति हेतु सहायता करती है। व्यवसाय के आधार पर समाज को हम दो तरह के समाजों में बांट सकते हैं। (1) बन्द समाज एवं खुला समाज। इन समाजों की गतिशीलता में व्यवसाय का महत्त्व इस प्रकार है

(i) बन्द समाज (Closed Society)-भारत पुराने समाज में बन्द समाजों की उदाहरण है। पुराने समाज में चार प्रकार की जातियां थीं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं निम्न जातियां। प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था।
ब्राह्मणों का कार्य पढ़ाना था, जिस कारण उसकी सामाजिक स्थिति सबसे ऊंची थी। उसके पश्चात् क्षत्रिय आते थे, जिनका कार्य देश की रक्षा करना था और राज्य चलाना था। तीसरे स्थान पर वैश्य थे जिनका कार्य व्यापार एवं कृषि करना था। सबसे निम्न स्थान निम्न जातियों का था, जिनका कार्य उपरोक्त तीनों जातियों की सेवा करना था।

प्रत्येक व्यक्ति का व्यवसाय उसकी जाति एवं जन्म से सम्बन्धित होता था। प्रत्येक जाति के लोग अपने-अपने विशेष कार्य करते थे। जाति अपने सदस्यों को अन्य व्यवसायों को अपनाने के लिए रोकती थी। क्योंकि इसके साथ जाति के आर्थिक एवं धार्मिक बन्धन टूटते थे। यदि कोई जाति के बन्धनों को तोड़ता भी था तो उसे जाति में ही से बाहर निकाल दिया जाता था। इस प्रकार जाति एवं उपजाति अपने-अपने भिन्न-भिन्न कार्यों को करती थी।

हमारे देश में स्वतन्त्रता के पश्चात् आधुनिकीकरण एवं औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। जिस कारण लोगों को अपने व्यवसायों को बदलने के अवसर प्राप्त हुए। लोगों के व्यवसाय से सम्बन्धित बन्धन समाप्त हो गये। उन्होंने अन्य व्यवसाय अपना लिये। इस प्रकार बन्द समाजों में गतिशीलता व्यवसायों के कारण आरम्भ हुई और वह अब भी चल रही है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि बन्द समाजों में पेशा व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त नहीं होता था बल्कि उसको जन्म के आधार पर प्राप्त होता था। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था उसको उस जाति से सम्बन्धित पेशा अपनाना ही पड़ता था। चाहे कुछ पेशे जैसे कि सेना में नौकरी करना, कृषि करना, व्यापार इत्यादि में कुछ प्रतिबन्ध कम थे, परन्तु फिर भी व्यक्तियों के ऊपर पेशा अपनाने की बन्दिशें थीं। यदि कोई पेशे से सम्बन्धित जाति के नियमों के विरुद्ध जाता था तो उसको जाति में से निकाल दिया जाता था। इस तरह बन्द समाजों में पेशा व्यक्ति की योग्यता पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर प्राप्त होता था। परन्तु हमारे देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् बहुत से कारणों के कारण गतिशीलता की प्रक्रिया शुरू हुई जैसे कि आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, शहरीकरण इत्यादि तथा धीरे-धीरे पेशे से सम्बन्धित गतिशीलता शुरू हो गई है। अब तो भारत जैसे बन्द समाजों में भी पेशे पर आधारित गतिशीलता शुरू हो गई है। लोग अब अपनी मर्जी तथा योग्यता के अनुसार पेशा अपनाने लग गए हैं। पेशे से सम्बन्धित पाबन्दियां बहुत ही कम हो गई हैं।

(ii) खुला समाज (Open Society)-खुले समाज के भीतर समूह कट्टर नहीं होते हैं। व्यक्ति को अपना कोई भी व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता होती है। वह कोई भी व्यवसाय स्वः इच्छा से अपना सकता है। ऐसे समाजों में ऊंची पदवी वाले व्यवसायों में श्रम की मांग में वृद्धि होने के कारण गतिशीलता भी बढ़ जाती है। परन्तु ऊंची पदवी केवल योग्य व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है। यद्यपि अब मशीनों के बढ़ने के कारण मजदूरों की मांग कम हो गई है। परन्तु तकनीकी शिक्षा प्राप्त व योग्य कर्मियों (कर्मचारियों) की मांग अब तक भी है। इस प्रकार तकनीकी शिक्षा प्राप्त योग्य व्यक्तियों के लिए रोजगार के अवसर अब बढ़ रहे हैं। लोग अलग-अलग कार्यों को अपना रहे हैं जिस कारण समाजों में गतिशीलता भी बढ़ रही है। इस तरह खुले समाजों में आधुनिकीकरण एवं औद्योगिकीकरण के कारण गतिशीलता भी बढ़ रही है।

खुले समाजों में व्यक्ति की जाति अथवा जन्म नहीं बल्कि उसकी योग्यता की महत्ता होती है। व्यक्ति में जिस प्रकार की योग्यता होती है वह उस प्रकार का पेशा अपनाता है। खुले समाजों में व्यक्ति की जाति का महत्त्व नहीं है कि उसने किस जाति में जन्म लिया है बल्कि महत्त्व इस बात का है कि उसमें किस कार्य को करने की योग्यता है। नाई का पुत्र बड़ा अफ़सर बन सकता है तथा अफसर का पुत्र कोई व्यापार कर सकता है। व्यक्ति अपनी मर्जी का पेशा अपना सकता है, उसके ऊपर किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं होता है कि वह किस प्रकार का पेशा अपनाए। वह अलग-अलग प्रकार की तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके अलग-अलग प्रकार के पेशे अपना सकता है। कोई छोटा सा कोर्स करते ही व्यक्ति के लिए नौकरी प्राप्त करने के मौके बढ़ जाते हैं। लोग अलग-अलग पेशे अपना रहे हैं। कंपनियां अधिक वेतन तथा अच्छी स्थिति का प्रलोभन देती हैं जिस कारण लोग पुरानी नौकरी छोड़कर अधिक वेतन वाली नौकरी कर लेते हैं जिस कारण समाज में गतिशीलता बढ़ रही है। आधुनिकीकरण तथा औद्योगीकरण ने तो गतिशीलता को बहुत ही अधिक बढ़ा दिया है। इस तरह खुले समाजों में पेशे के आधार पर गतिशीलता बहुत अधिक बढ़ रही है।

3. आय (Income)—व्यक्ति की आय गतिशीलता का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। व्यक्ति की आय उसकी सामाजिक स्थिति को ऊंचा व निम्न रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अपनाती है। जिसकी आय अधिक होती है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक होती है। परन्तु जिसकी आय कम होती है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी कम होती है।

आजकल का समाज वर्ग प्रणाली पर आधारित है। इस प्रणाली में धन एवं आय की महत्ता अधिक है। व्यक्ति अपनी योग्यता के कारण सामाजिक स्तरीकरण में ऊंचा स्थान प्राप्त करता है। व्यक्ति अपने आपके साथ, अपनी आर्थिक स्थिति अन्य लोगों के मुकाबले सुधार लेता है और अपनी जीवन शैली भी बदल लेता है। खुले समाजों में अधिक आय वाले को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सामाजिक वर्ग के निर्धारण हेतु आय एक महत्त्वपूर्ण कारक है। आमदनी (आय) के कारण ही व्यक्ति अपनी जीवन शैली बढ़िया कर लेता है। अमीर व्यक्तियों के पास पैसा तो काफ़ी अधिक होता है। परन्तु उनके जीवन शैली भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती है। नये बने अमीरों को अमीरों की जीवन शैली सीखने में काफ़ी समय लग जाता है। चाहे वह व्यक्ति स्वयं अमीरों की जीवन शैली न सीख सके। परन्तु उसके बच्चे अवश्य अमीरों की शैली सीख जाते हैं। इस प्रकार अमीर व्यक्ति के बच्चों का सामाजिक जीवन स्तर काफ़ी ऊंचा उठ जाता है। धन के कारण उसके बच्चे अमीरों की जीवन शैली अपना लेते हैं और उनके बच्चों को यह शैली विरासत में मिल जाती है।

इस प्रकार आमदनी के तरीकों से ही सामाजिक प्रतिष्ठा होती है। एक व्यापारी की कमाई को इज्जत प्राप्त होती है। परन्तु एक वेश्या या स्मगलर के द्वारा कमाये धन को इज्ज़त की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। आय में वृद्धि के साथ व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा, वर्ग, रहने-सहने का तरीका बदल लेता है जिस कारण सामाजिक गतिशीलता भी बढ़ती है।

व्यक्ति की आय बढ़ने से उसकी स्थिति में अपने आप ही परिवर्तन आ जाता है। लोग उसको इज्जत की नज़रों से देखना शुरू कर देते हैं। लोगों की नज़रों में अब वह एक अमीर आदमी बन जाता है तथा उसको समाज में प्रतिष्ठा हासिल हो जाती है। परन्तु एक बात ध्यान रखने वाली है कि आमदनी प्राप्त करने के ढंग समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होने चाहिए, गैर-मान्यता प्राप्त नहीं। पैसा आने से तथा आय बढ़ने से व्यक्ति अपने आराम की चीजें खरीदना शुरू कर देता है-जिससे उसके रुतबे तथा सामाजिक स्थिति में बढ़ोत्तरी होनी शुरू हो जाती है। वह अपना जीवन ऐश से जीना शुरू कर देता है। इस तरह आय बढ़ने से उसकी समाज में स्थिति निम्न से उच्च हो जाती है तथा यह ही गतिशीलता का सूचक है।
इस तरह इस व्याख्या से स्पष्ट है कि शिक्षा, पेशा तथा आय सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख सूचक हैं।

PSEB 12th Class Sociology Solutions Chapter 4 वर्ग असमानताएं

वर्ग असमानताएं PSEB 12th Class Sociology Notes

  • हमें हमारे समाज में कई सामाजिक समूह मिल जाएंगे जो अन्य समूहों से अधिक अमीर, इज्ज़तदार तथा शक्तिशाली होते हैं। यह अलग-अलग समूह समाज के स्तरीकरण का निर्माण करते हैं।
  • प्रत्येक समाज में बहुत से वर्ग होते हैं जो अलग-अलग आधारों के अनुसार निर्मित होते हैं तथा यह एक-दूसरे से किसी न किसी आधार पर अलग होते हैं।
  • कार्ल मार्क्स ने चाहे वर्ग की परिभाषा कहीं पर भी नहीं दी है परन्तु उसके अनुसार समाज में दो प्रकार के वर्ग होते हैं। पहला जिसके पास सब कुछ होता है (Haves) तथा दूसरा वह जिसके पास कुछ भी नहीं होता (Have nots)
  • वर्ग की कई विशेषताएं होती हैं जैसे कि यह प्रत्येक स्थान पर पाए जाते हैं, इसमें स्थिति अर्जित की जाती है, यह खुला समूह होता है, आर्थिकता इसका प्रमुख आधार होता है, यह स्थायी होते हैं इत्यादि।
  • कार्ल मार्क्स का कहना था कि वर्गों में चेतनता होती है जिस कारण समाज के अलग-अलग वर्गों में वर्ग संघर्ष चलता रहता है।
  • मार्क्स के अनुसार अलग-अलग समय में अलग-अलग समाजों में दो प्रकार के समूह पाए जाते हैं। प्रथम वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधन होते हैं जिसे पूँजीपति कहते हैं। दूसरा वर्ग वह है जिसके पास अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। उसे मज़दूर वर्ग कहते हैं।
  • मैक्स वैबर के अनुसार पैसा, शक्ति तथा प्रतिष्ठा असमानता के आधार हैं। वर्ग कई चीज़ों से जुड़ा होता है जैसे कि आर्थिकता, समाज में स्थिति तथा राजनीति में सत्ता। वैबर के अनुसार एक वर्ग के व्यक्तियों का जीवन जीने का ढंग एक जैसा ही होता है।
  • वार्नर ने अमेरिका में वर्ग व्यवस्था का अध्ययन किया तथा कहा कि तीन प्रकार के वर्ग होते हैं-उच्च वर्ग, मध्य वर्ग तथा निम्न वर्ग। यह तीनों वर्ग आगे जाकर उच्च, मध्य तथा निम्न में विभाजित होते हैं। वार्नर ने वर्ग संरचना की आय तथा धन के आधार पर व्याख्या की है।
  • अगर आजकल के समय में देखें तो वर्ग कई आधारों पर बनते हैं परन्तु शिक्षा, पेशा तथा आय इसके प्रमुख आधार हैं।
  • वर्ग तथा जाति एक-दूसरे से काफ़ी अलग होते हैं जैसे कि वर्ग एक खुली व्यवस्था है परन्तु जाति एक बंद वर्ग है, वर्ग में स्थिति अर्जित की जाती है परन्तु जाति में यह प्रदत्त होती है, वर्ग में गतिशीलता होती है परन्तु जाति में नहीं इत्यादि।
  •  वर्ग संघर्ष (Class Struggle)- यह एक प्रकार का तनाव है जो सामाजिक आर्थिक हितों तथा अलग-अलग समूहों के लोगों के हितों के कारण समाज में मौजूद होता है।
  • बुर्जुआ (Bourgeoisie)-यह एक प्रकार का सामाजिक वर्ग है जो उत्पादन के साधनों का मालिक होता है तथा जो अपने साधनों की सहायता से समाज के अन्य समूहों का आर्थिक शोषण करता है।
  • संभ्रांत वर्ग (Elite) यह उच्च विशिष्ट लोग होते हैं जो अपने समूह तथा समाज में नेता की भूमिका तथा रास्ता दिखाने की भूमिका निभाते हैं। उनकी भूमिका या नेतृत्व सामाजिक परिवर्तन को उत्पन्न करता है।
  • सर्वहारा (Proletariat)—पूँजीवादी समाज में इस शब्द को उस वर्ग के लिए प्रयोग किया जाता है जो श्रमिकों व औद्योगिक मजदूरों के लिए प्रयोग किया जाता है। इनके पास अपना परिश्रम बेचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता।
  • सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)—इस शब्द को व्यक्तियों अथवा समूहों को अलग-अलग सामाजिक आर्थिक पदों पर जाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • दासत्व (Slavery)—यह सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप है जिसमें कुछ व्यक्तियों के ऊपर अन्य व्यक्ति अपनी जायदाद की तरह स्वामित्व रखते हैं।
  • छोटे दुकानदार (Petty Bourgeoisie)—यह एक फ्रैंच शब्द है जो एक सामाजिक वर्ग के लिए प्रयोग किया
    जाता है जिसमें छोटे-छोटे पूँजीपतियों जैसे कि दुकानदार तथा वर्कर आ जाते हैं जो उत्पादन, विभाजन तथा वस्तुओं के विनिमय तथा बुर्जुआ मालिकों द्वारा स्वीकृत किए जाते हैं।

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 12 सफ़ाईकारी और अन्य पदार्थ

Punjab State Board PSEB 9th Class Home Science Book Solutions Chapter 12 सफ़ाईकारी और अन्य पदार्थ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Home Science Chapter 12 सफ़ाईकारी और अन्य पदार्थ

PSEB 9th Class Home Science Guide सफ़ाईकारी और अन्य पदार्थ Textbook Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
किसी एक सहायक सफाईकारक पदार्थ का नाम लिखें।
उत्तर-
कपड़े धोने वाला सोडा।

प्रश्न 2.
साबुन बनाने के लिए जरूरी पदार्थ कौन-से हैं?
उत्तर-
साबुन बनाने के लिए चर्बी तथा खार आवश्यक पदार्थ हैं। नारियल, महुए, सरसों, जैतून का तेल, सूअर की चर्बी आदि चर्बी के रूप में प्रयोग किये जा सकते हैं। जबकि खार कास्टिक सोडा अथवा पोटाश से प्राप्त की जाती है।

प्रश्न 3.
साबुन बनाने की कौन-कौन सी विधियाँ हैं?
उत्तर-
साबुन बनाने की दो विधियाँ हैं-(i) गर्म तथा (ii) ठण्डी विधि।

प्रश्न 4.
वस्त्रों में कड़ापन क्यों लाया जाता है?
उत्तर-

  1. वस्त्रों में ऐंठन लाने से यह मुलायम हो जाते हैं तथा इनमें चमक आ जाती है।
  2. मैल भी वस्त्र के ऊपर ही रह जाती है जिस कारण कपड़े को धोना आसान हो जाता
  3. वस्त्र में जान पड़ जाती है। देखने में मज़बूत लगता है।

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प्रश्न 5.
वस्त्रों से दाग उतारने वाले पदार्थों को मुख्य रूप से कितने भागों में बांटा जा सकता है?
उत्तर-
इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है

  1. ऑक्सीडाइजिंग ब्लीच-इससे ऑक्सीजन निकलकर धब्बे को रंग रहित कर देती है। हाइड्रोजन पराऑक्साइड, सोडियम परबोरेट आदि ऐसे पदार्थ हैं।
  2. रिड्यूसिंग एजेंट-यह पदार्थ धब्बे से ऑक्सीजन निकालकर उसे रंग रहित कर देते हैं। सोडियम बाइसल्फाइट तथा सोडियम हाइड्रोसल्फेट ऐसे पदार्थ हैं।

प्रश्न 6.
साबुन और साबुन रहित सफ़ाईकारी पदार्थ में क्या अन्तर है?
उत्तर-

साबुन साबुन रहित सफ़ाईकारी पदार्थ
(1) साबुन प्राकृतिक तेलों जैसे नारियल, जैतून, सरसों आदि अथवा चर्बी जैसे सूभर की चर्बी आदि से बनता है। (1) साबुन रहित सफ़ाईकारी पदार्थ शोधक रासायनिक पदार्थों से बनता है।
(2) साबुन का प्रयोग भारी पानी में नहीं किया जा सकता। (2) इनका प्रयोग भारी पानी में भी किया जा सकता है।
(3) साबुन को जब कपड़े पर रगड़ा जाता है तो सफ़ेद-सी झाग बनती है। (3) इनमें कई बार सफ़ेद झाग नहीं बनती।

प्रश्न 7.
वस्त्रों को सफ़ेद करने वाले पदार्थ कौन-कौन से हैं?
उत्तर-
वस्त्रों को सफ़ेद करने वाले पदार्थ हैं-नील तथा टीनोपॉल अथवा रानीपॉल।
नील-नील दो प्रकार के होते हैं-

  1. पानी में घुलनशील तथा
  2. पानी में अघुलनशील नील। इण्डिगो, अल्ट्रामैरीन तथा प्रशियन नील पहली प्रकार के नील हैं। यह पानी के नीचे बैठ जाते हैं। इन्हें अच्छी तरह से मलना पड़ता है।
    एनीलिन दूसरी तरह के नील हैं। यह पानी में घुल जाते हैं।
    टीनोपॉल-यह भी सफ़ेद वस्त्रों को और सफ़ेद तथा चमकदार करने के लिए प्रयोग किये जाते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 8.
ठण्डी विधि द्वारा कौन-कौन सी वस्तुओं से साबुन कैसे तैयार किया जा सकता है? इसकी क्या हानियां हैं?
उत्तर-
ठण्डी विधि द्वारा साबुन तैयार करने के लिए निम्नलिखित सामान लोकास्टिक सोडा अथवा पोटाश-250 ग्राम महुआ अथवा नारियल तेल-1 लीटर पानी- 3/4 किलोग्राम मैदा- 250 ग्राम।
किसी मिट्टी के बर्तन में कास्टिक सोडा तथा पानी को मिलाकर 2 घण्डे तक रख दो। तेल तथा मैदे को अच्छी तरह घोल लो तथा फिर इसमें सोडे का घोल धीरे-धीरे डालो तथा मिलाते रहो। पैदा हुई गर्मी से साबुन तैयार हो जाएगा। इसको किसी सांचे में डालकर सुखा लो तथा चक्कियां काट लो।
हानियां-साबुन में अतिरिक्त खार तथा तेल और ग्लिसरॉल आदि साबुन में रह जाते हैं। अधिक खार वाले साबुन कपड़ों को हानि पहुँचाते हैं।

प्रश्न 9.
साबुन किन-किन किस्मों में मिलता है?
उत्तर-
साबुन निम्नलिखित किस्मों में मिलता है

  1. साबुन की चक्की-साबुन चक्की के रूप में प्रायः मिल जाता है। चक्की को गीले वस्त्र पर रगड़कर इसका प्रयोग किया जाता है।
  2. साबुन का पाऊडर-यह साबुन तथा सोडियम कार्बोनेट का बना होता है। इसको गर्म पानी में घोलकर कपड़े धोने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसमें सफ़ेद-सफ़ेद सूती वस्त्रों को अच्छी तरह साफ़ किया जाता है।
  3. साबुन का चूरा-यह बन्द पैकटों में मिलता है। इसको पानी में उबालकर सूती वस्त्र कुछ देर भिगो कर रखने के पश्चात् इसमें धोया जाता है। रोगियों के वस्त्रों को भी । कीटाणु रहित करने के लिए साबुन के उबलते घोल का प्रयोग किया जाता है।
  4. साबुन की लेस-एक हिस्सा साबुन का चूरा लेकर पाँच हिस्से पानी डालकर तब तक उबालो जब तक लेस-सी तैयार न हो जाये। इसको ठण्डा होने पर बोतलों में डालकर रख लो तथा ज़रूरत पड़ने पर पानी डालकर धोने के लिए इसे प्रयोग किया जा सकता है।

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प्रश्न 10.
अच्छे साबुन की पहचान क्या है?
उत्तर-

  1. साबुन हल्के पीले रंग का होना चाहिए। गहरे रंग के साबुन में मिलावट भी हो सकती है।
  2. साबुन हाथ लगाने पर थोड़ा कठोर होना चाहिए। अधिक नर्म साबुन में ज़रूरत से अधिक पानी हो सकता है जो केवल भार बढ़ाने के लिए ही होता है।
  3. हाथ लगाने पर अधिक कठोर तथा सूखा नहीं होना चाहिए। कुछ घटिया किस्म के साबुनों में भार बढ़ाने वाले पाऊडर डाले होते हैं जो वस्त्र धोने में सहायक नहीं होते।
  4. अच्छा साबुन स्टोर करने पर, पहले की तरह रहता है, जबकि घटिया साबुनों पर स्टोर करने पर सफ़ेद पाऊडर-सा बन जाता है। इनमें आवश्यकता से अधिक खार होती है जोकि वस्त्र को खराब भी कर सकती है।
  5. अच्छा साबुन जुबान पर लगाने से ठीक स्वाद देता है जबकि मिलावट वाला साबुन जुबान पर लगाने से तीखा तथा कड़वा स्वाद देता है।

प्रश्न 11.
साबुन रहित प्राकृतिक सफ़ाईकारी पदार्थ कौन-से हैं?
उत्तर-
साबुन रहित प्राकृतिक, सफ़ाईकारी पदार्थ हैं-रीठे तथा शिकाकाई। इनकी फलियों को सुखा कर स्टोर कर लिया जाता है।

  1. रीठा-रीठों की बाहरी छील के रस में वस्त्र साफ़ करने की शक्ति होती है। रीठों की छील उतारकर पीस लो तथा 250 ग्राम छील को कुछ घण्टे के लिए एक लिटर पानी में भिगो कर रखो तथा फिर इन्हें उबालो वस्त्र तथा ठण्डा करके छानकर बोतलों में भरकर रखा जा सकता है। इसके प्रयोग से ऊनी, रेशमी वस्त्र ही नहीं अपितु सोने, चांदी के आभूषण भी साफ़ किये जा सकते हैं।
  2. शिकाकाई-इसका भी रीठों की तरह घोल बना लिया जाता है। इससे कपड़े निखरते ही नहीं अपितु उनमें चमक भी आ जाती है। इससे सिर भी धोया जा सकता है।

प्रश्न 12.
साबुन रहित रासायनिक सफ़ाईकारी पदार्थों से आप क्या समझते हो ? इनके क्या लाभ हैं?
उत्तर-
साबुन प्राकृतिक तेल अथवा चर्बी से बनते हैं जबकि रासायनिक सफ़ाईकारी शोधक रासायनिक पदार्थों से बनते हैं। यह चक्की, पाऊडर तथा तरल के रूप में उपलब्ध हो सकते हैं।
लाभ-

  1. इनका प्रयोग हर तरह के सूती, रेशमी, ऊनी तथा बनावटी रेशों के लिए किया जा सकता है।
  2. इनका प्रयोग गर्म, ठण्डे, हल्के अथवा भारी सभी प्रकार के पानी में किया जा सकता है।

प्रश्न 13.
साबुन और अन्य साबुन रहित सफ़ाईकारी पदार्थों के अतिरिक्त वस्त्रों की । धुलाई के लिए कौन-से सहायक सफ़ाईकारी पदार्थ प्रयोग किये जाते हैं?
उत्तर-
सहायक सफ़ाईकारी पदार्थ निम्नलिखित हैं

  1. वस्त्र धोने वाला सोडा-इसको सफ़ेद सूती वस्त्रों को धोने के लिए प्रयोग किया जाता है। परन्तु रंगदार सूती वस्त्रों का रंग हल्का पड़ जाता है तथा रेशे कमजोर हो जाते हैं।
    यह रवेदार होता है तथा उबलते पानी में तुरन्त घुल जाता है। इससे सफ़ाई की प्रक्रिया में वृद्धि होती है। इसका प्रयोग भारी पानी को हल्का करने के लिए, चिकनाहट साफ़ करने तथा दाग़ उतारने के लिए किया जाता है।
  2. बोरैक्स (सुहागा)-इसका प्रयोग सफ़ेद सूती वस्त्रों के पीलेपन को दूर करने के लिए तथा चाय, कॉफी, फल, सब्जियों आदि के दाग उतारने के लिए किया जाता है। इसके हल्के घोल में मैले वस्त्र भिगोकर रखने पर उनकी मैल उगल आती है। इससे वस्त्रों में ऐंठन भी लाई जाती है।
  3. अमोनिया- इसका प्रयोग रेशमी तथा ऊनी कपड़ों से चिकनाहट के दाग दूर करने के लिए किया जाता है।
  4. एसिटिक एसिड-रेशमी वस्त्र को इसके घोल में खंगालने से इनमें चमक आ जाती है। इसका प्रयोग वस्त्रों से अतिरिक्त नील का प्रभाव कम करने के लिए भी किया जाता है। रेशमी, ऊनी वस्त्र की रंगाई के समय भी इसका प्रयोग किया जाता है।
  5. ऑग्जैलिक एसिड-इसका प्रयोग छार की बनी चटाइयों, टोकरियों तथा टोपियों आदि को साफ़ करने के लिए किया जाता है। स्याही, जंग, दवाई आदि के दाग उतारने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 14.
वस्त्रों से दागों का रंगकाट करने के लिए क्या प्रयोग किया जाता है?
उत्तर-
कपड़ों से दागों का रंगकाट करने के लिए ब्लीचों का प्रयोग होता है। ये दो प्रकार के होते हैं।

  1. ऑक्सीडाइजिंग ब्लीच-जब इनका प्रयोग धब्बे पर किया जाता है, इसकी ऑक्सीजन धब्बे से क्रिया करके इसको रंग रहित कर देती है तथा दाग उतर जाता है। प्राकृतिक धूप, हवा तथा नमी, पोटाशियम परमैंगनेट, हाइड्रोजन पराक्साइड, सोडियम परबोरेट, हाइपोक्लोराइड आदि ऐसे रंग काट हैं।
  2. रिड्यूसिंग ब्लीच-जब इनका प्रयोग धब्बे पर किया जाता है तो यह धब्बे से ऑक्सीजन निकालकर इसको रंग रहित कर देते हैं। सोडियम बाइसल्फाइट, सोडियम हाइड्रोसल्फाइट ऐसे ही रंग काट हैं। ऊनी तथा रेशमी वस्त्रों पर इनका प्रयोग आसानी से किया जा सकता है।
    परन्तु तेज़ रंग काट से वस्त्र खराब भी हो जाते हैं।

प्रश्न 15.
वस्त्रों को नील क्यों दिया जाता है?
उत्तर-
सफ़ेद सूती तथा लिनन के वस्त्रों पर बार-बार धोने से पीलापन-सा आ जाता है। इसको दूर करने के लिए वस्त्रों को नील दिया जाता है तथा वस्त्र की सफ़ेदी बनी रहती है।

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प्रश्न 16.
नील की मुख्य कौन-कौन सी किस्में हैं?
उत्तर-
नील मुख्यतः दो प्रकार का होता है

  1. पानी मैं अघुलनशील नील-इण्डिगो, अल्ट्रामैरीन तथा प्रशियन नील ऐसे नील हैं। इसके कण पानी के नीचे बैठ जाते हैं, इसलिए वस्त्रों को देने से पहले नील वाले पानी में अच्छी तरह हिलाना पड़ता है।
  2. पानी में घुलनशील नील-इनको पानी में थोड़ी मात्रा में घोलना पड़ता है तथा इससे वस्त्र पर थोड़ा नीला रंग आ जाता है। इस तरह वस्त्र का पीलापन दूर हो जाता है। एनीलिन नील ऐसा ही नील है।

प्रश्न 17.
नील देते समय ध्यान में रखने योग्य बातें कौन-सी हैं?
उत्तर-

  1. नील सफ़ेद वस्त्रों को देना चाहिए रंगीन कपड़ों को नहीं।
  2. यदि नील पानी में अघुलनशील हो तो पानी को हिलाते रहना चाहिए नहीं तो वस्त्रों पर नील के धब्बे से पड़ जाएंगे।
  3. नील के धब्बे दूर करने के लिए वस्त्र को सिरके वाले पानी में खंगाल लेना चाहिए। (4) नील दिए वस्त्रों को धूप में सुखाने पर उनमें और भी सफ़ेदी आ जाती है।

प्रश्न 18.
नील देते समय धब्बे क्यों पड़ जाते हैं? यदि धब्बे पड़ जायें तो क्या करना चाहिए?
उत्तर-
अघुलनशील नील के कण पानी के नीचे बैठ जाते हैं तथा इस तरह वस्त्रों को नील देने से वस्त्रों पर कई बार नील के धब्बे पड़ जाते हैं। जब नील के धब्बे पड़ जाएं तो वस्त्र को सिरके के घोल में खंगाल लेना चाहिए।

प्रश्न 19.
वस्त्रों में कड़ापन लाने के लिए किन वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर-
वस्त्रों में ऐंठन लाने के लिए निम्नलिखित पदार्थों का प्रयोग किया जाता है

  1. मैदा अथवा अरारोट-इसको पानी में घोलकर गर्म किया जाता है।
  2. चावलों का पानी-चावलों को पानी में उबालने के पश्चात् बचे पानी जिसको छाछ कहते हैं का प्रयोग वस्त्र में ऐंठन लाने के लिए किया जाता है।
  3. आलू-आलू काटकर पीस लिया जाता है तथा पानी में गर्म करके वस्त्रों में ऐंठन लाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
  4. गूंद-गूंद को पीसकर गर्म पानी में घोल लिया जाता है तथा घोल को पतले वस्त्र में छान लिया जाता है। इसका प्रयोग रेशमी वस्त्रों, लेसों तथा वैल के वस्त्रों में ऐंठन लाने के लिए किया जाता है।
  5. बोरैक्स (सुहागा)-आधे लीटर पानी में दो बड़े चम्मच सुहागा घोल कर लेसों पर इसका प्रयोग किया जाता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 20.
वस्त्रों की धुलाई के लिए कौन-कौन से पदार्थ प्रयोग में लाए जा सकते हैं?
उत्तर-
स्वयं उत्तर दें।

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प्रश्न 21.
किस प्रकार के वस्त्रों को सफ़ेद करने की आवश्यकता पड़ती है? वस्त्रों में कड़ापन किन पदार्थों के द्वारा लाया जा सकता है?
उत्तर-
सफ़ेद सूती तथा लिनन के वस्त्रों को बार-बार धोने पर इन पर पीलापन सा आ जाता है। इनका यह पीलापन दूर करने के लिए नील देना पड़ता है।

वस्त्रों में ऐंठन लाने के लिए निम्नलिखित पदार्थों का प्रयोग किया जाता है

  1. मैदा अथवा अरारोट-इसको पानी में घोलकर गर्म किया जाता है।
  2. चावलों का पानी-चावलों को पानी में उबालने के पश्चात् बचे पानी जिसको छाछ कहते हैं का प्रयोग वस्त्र में ऐंठन लाने के लिए किया जाता है।
  3. आलू-आलू काटकर पीस लिया जाता है तथा पानी में गर्म करके वस्त्रों में ऐंठन लाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
  4. गूंद-गूंद को पीसकर गर्म पानी में घोल लिया जाता है तथा घोल को पतले वस्त्र में छान लिया जाता है। इसका प्रयोग रेशमी वस्त्रों, लेसों तथा वैल के वस्त्रों में ऐंठन लाने के लिए किया जाता है।
  5. बोरैक्स (सुहागा)-आधे लीटर पानी में दो बड़े चम्मच सुहागा घोल कर लेसों पर इसका प्रयोग किया जाता है।

Home Science Guide for Class 9 PSEB सफ़ाईकारी और अन्य पदार्थ Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

रिक्त स्थान भरें

  1. साबुन वसा तथा …………………. के मिश्रण से बनता है।
  2. ………………. के बाहरी छिलके के रस में वस्त्रों को साफ़ करने की शक्ति होती है।
  3. अच्छा साबुन जीभ पर लगाने से ……………….. स्वाद देता है।
  4. सोडियम हाइपोक्लोराइट को …………………. पानी कहते हैं।
  5. सोडियम परबोरेट …………….. काट पदार्थ है।

उत्तर-

  1. क्षार,
  2. रीठों,
  3. ठीक,
  4. जैवले,
  5. आक्सीडाइजिंग।

एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
एक रिडयूसिंग काट पदार्थ का नाम लिखें।
उत्तर-
सोडियम बाइसल्फाइट।

प्रश्न 2.
पानी में अघुलनशील नील का नाम लिखें।
उत्तर-
इण्डिगो।

प्रश्न 3.
गोंद का प्रयोग किस कपड़े में कड़ापन लाने के लिए किया जा सकता
उत्तर-
वायल के वस्त्रों में।

प्रश्न 4.
रासायनिक साबुन रहित सफाईकारी पदार्थों में से कोई एक नाम बताएं।
उत्तर-
शिकाकाई।

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ठीक/ग़लत बताएं

  1. साबुन बनाने की दो विधियां हैं-गर्म तथा ठण्डी।
  2. हाइड्रोजन पराक्साइड, रिड्यूसिंग ब्लीच है।
  3. साबुन बनाने के लिए चर्बी तथा क्षार आवश्यक पदार्थ हैं।
  4. कपड़ों में अकड़ाव लाने वाले पदार्थ हैं – मैदा, अरारोट, चावलों का पानी आदि।
  5. सफेद कपड़ों को धुलने के बाद नील दिया जाता है।

उत्तर-

  1. ठीक
  2. ग़लत
  3. ठीक
  4. ठीक
  5. ठीक।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
साबुन रहित प्राकृतिक, सफ़ाईकारी पदार्थ है
(A) रीठा
(B) शिकाकाई
(C) दोनों ठीक
(D) दोनों ग़लत।
उत्तर-
(C) दोनों ठीक

प्रश्न 2.
पानी में घुलनशील नील नहीं है
(A) इंडीगो
(B) अल्ट्रामैरीन
(C) परशियन नील
(D) सभी।
उत्तर-
(D) सभी।

प्रश्न 3.
कपड़ों में अकड़ाव लाने वाले पदार्थ हैं
(A) चावलों का पानी
(B) गोंद
(C) मैदा
(D) सभी।
उत्तर-
(D) सभी।

प्रश्न 4.
पानी में घुलनशील नील है
(A) एनीलीन
(B) इंडीगो
(C) अल्ट्रामैरीन
(D) परशियन नील।
उत्तर-
(A) एनीलीन

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
साबुन बनाने की गर्म विधि के बारे बताओ।
उत्तर-
तेल को गर्म करके धीरे-धीरे इसमें कास्टिक सोडा डाला जाता है। इस मिश्रण को गर्म किया जाता है। इस तरह चर्बी अम्ल तथा ग्लिसरीन में बदल जाती है। फिर उसमें नमक डाला जाता है, इससे साबुन ऊपर आ जाता है तथा ग्लिसरीन, अतिरिक्त खार तथा नमक नीचे चले जाते हैं । साबुन में सुगन्ध तथा रंग ठण्डा होने पर मिलाये जाते हैं तथा चक्कियां काट ली जाती हैं।

प्रश्न 2.
कपड़ों को नील कैसे दिया जाता है?
उत्तर-
नील देते समय वस्त्र को धोकर साफ़ पानी से निकाल लेना चाहिए। नील को किसी पतले वस्त्र में पोटली बनाकर पानी में खंगालना चाहिए। वस्त्र को अच्छी तरह निचोड़कर तथा बिखेरकर नील वाले पानी में डालो तथा बाद में वस्त्र को धूप में सुखाओ।

प्रश्न 3.
वस्त्रों की सफ़ाई करने के लिए कौन-कौन से पदार्थों का प्रयोग किया जाता है? नाम बताओ।
उत्तर-
वस्त्रों की सफ़ाई करने के लिए निम्नलिखित पदार्थों का प्रयोग किया जाता है साबुन, रीठे, शिकाकाई, रासायनिक साबुन रहित सफ़ाईकारी पदार्थ (जैसे निरमा, रिन, लिसापोल आदि), कपड़े धोने वाला सोडा, अमोनिया, बोरैक्स, एसिटिक एसिड, ऑग्ज़ैलिक एसिड, ब्लीच, नील, रानीपॉल आदि।

प्रश्न 4.
ठण्डी विधि से साबुन बनाने का लाभ लिखें।
उत्तर-
ठण्डी विधि के लाभ

  1. इसमें मेहनत अधिक नहीं लगती।
  2. साबुन भी जल्दी बन जाता है।
  3. यह एक सस्ती विधि है।

सफ़ाईकारी और अन्य पदार्थ PSEB 9th Class Home Science Notes

  • साबुन चर्बी तथा खार के मिश्रण हैं।
  • साबुन दो विधियों से तैयार किया जा सकता है-ठण्डी विधि तथा गर्म विधि।
  • साबुन कई तरह के मिलते हैं-साबुन की चक्की, साबुन का चूरा, साबुन का पाऊडर, साबुन की लेस।
  • साबुन रहित सफाईकारी पदार्थ हैं-रीठे, शिकाकाई, रासायनिक साबुन रहित सफ़ाईकारी पदार्थ।
  • सहायक सफ़ाईकारी पदार्थ हैं-कपड़े धोने वाला सोडा, अमोनिया, बोरेक्स, एसिटिक एसिड, ऑम्जैलिक एसिड।
  • रंग काट दो तरह के होते हैं-ऑक्सीडाइजिंग ब्लीच तथा रिड्यूसिंग ब्लीच।
  • नील, टीनोपाल आदि का प्रयोग कपड़ों को सफ़ेद रखने के लिए किया जाता है।
  • नील दो तरह के होते हैं-घुलनशील तथा अघुलनशील पदार्थ।
  • कपड़ों में ऐंठन अथवा अकड़न लाने वाले पदार्थ हैं-मैदा अथवा अरारोट, चावलों का पानी, आलू , गोंद, बोरैक्स।

PSEB 8th Class Welcome Life Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

Punjab State Board PSEB 8th Class Welcome Life Book Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 8 Welcome Life Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

Welcome Life Guide for Class 8 PSEB बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान InText Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
आपका कृतज्ञता से क्या मतलब है?
उत्तर-
इसका अर्थ सम्मान दिखाना।

प्रश्न 2.
क्या हमें अपने बड़ों से विनम्र होना चाहिए जब हमें उनसे कुछ चाहिए?
उत्तर-
नहीं, हमें हमेशा अपने बुजुर्गों के प्रति विनम्र रहना चाहिए।

प्रश्न 3.
हमारे दादा-दादी की देखभाल केवल हमारे माता-पिता की ज़िम्मेदारी है। यह कथन सही है या ग़लत?
उत्तर-
यह ग़लत है क्योंकि दादा-दादी की देखभाल परिवार के सभी सदस्यों की ज़िम्मेदारी है।

PSEB 8th Class Welcome Life Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

प्रश्न 4.
क्या हमें अपना समय अपने बड़ों के साथ बिताना चाहिए?
उत्तर-
हाँ हमें अपने बुजुर्गों के साथ कुछ समय बिताना चाहिए क्योंकि वे हमें कई अच्छी बातें बता सकते हैं जो हमारे जीवन में हमारी मदद करेंगी।

प्रश्न 5.
हमारे दादा-दादी हमें कैसे उपयोगी बातें बता सकते हैं, भले ही वे जीवन जीने के आधुनिक तरीकों से अवगत न हों?
उत्तर-
जीवन से जुड़ी कई चीजें हैं जो नहीं बदली हैं। हमारे दादा-दादी ऐसी चीज़ों के लिए अधिक अनुभवी हैं। वे हमें अपने अनुभवों के बारे में बता सकते हैं। ये अनुभव हमें समान परिस्थितियों में हमारे कार्यों को तय करने में मदद करेंगे।

प्रश्न 6.
हमारे बुजुर्गों के बारे में ऐसी कौन-सी बातें हैं जो हमें हमेशा अपने दिमाग में रखनी चाहिए?
उत्तर-
आपको हमेशा उनके अनुभवों, कड़ी मेहनत, उनके प्रयासों, बलिदानों, संघर्षों और उनके सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में ध्यान में रखना चाहिए।

प्रश्न 7.
हमें हमेशा अपने बड़ों का आभारी क्यों होना चाहिए?
उत्तर-
हमें हमेशा अपने बुजुर्गों और माता-पिता के अथक प्रयासों के लिए आभारी होना चाहिए, जो कि हमेशा हमारी भलाई के लिए वह करते आए हैं और करते रहेंगे।

प्रश्न 8.
हम अपने माता-पिता और दादा-दादी के प्रति अपना सम्मान कैसे दिखा सकते हैं?
उत्तर-
हम अपनी भावनाओं, दयालु शब्दों और प्यार और गर्मजोशी से भरे हमारे भावों के माध्यम से उनके प्रति अपना सम्मान दिखा सकते हैं।

प्रश्न 9.
क्यों हमारे बुजुर्ग हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर-
वे हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि वे हमारे लिए सबसे अच्छे मार्गदर्शक हैं।

प्रश्न 10.
क्या हमारे माता-पिता और दादा-दादी हमसे ज्यादा अनुभवी हैं?
उत्तर-
हां,हमारे माता-पिता और दादा-दादी हमसे ज्यादा अनुभवी हैं।

प्रश्न 11.
यदि किसी परिवार के साथ बड़े बुजुर्ग रहते हैं तो वह परिवार भाग्यशाली माना जाता है ऐसा क्यों?
उत्तर-
हां, क्योंकि बुजुर्ग अधिक अनुभवी होने के कारण कठिन परिस्थितियों में हमारी मदद कर सकते हैं और वे हमें उस कठिन परिस्थिति से बाहर आने के लिए हमारी कार्रवाई के बारे में मार्गदर्शन कर सकते हैं।

PSEB 8th Class Welcome Life Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन-सी बेहतर स्थिति है? (i) बड़ों बुजुर्गों के साथ रहना। (ii) बड़ों बुजुर्गों के बिना रहना
उत्तर-
बड़ों बुजुर्गों के साथ रहना बेहतर स्थिति है।

प्रश्न 13.
आप अपने बड़ों से प्यार करते हैं यह दिखाने के कुछ तरीके बताएं।
उत्तर-
निम्नलिखित ऐसे तरीके हैं जो यह संकेत करते हैं कि हम अपने बड़ों से प्यार करते हैं

  1. उनके साथ क्वालिटी टाइम बिताकर
  2. उनकी बात मानकर।

प्रश्न 14.
क्या हमें अपने माता-पिता और दादा-दादी के प्रति आभारी होना चाहिए?
उत्तर-
हां, हमें अपने माता-पिता और दादा-दादी के प्रति आभारी होना चाहिए।

प्रश्न 15.
हमें अपने दादा-दादी का आभारी क्यों होना चाहिए?
उत्तर-
हमें अपने दादा-दादी के प्रति आभारी होना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमारे माता-पिता का पालन-पोषण अच्छे तरीके से किया। परिणामस्वरूप हमें ऐसे प्यारे और देखभाल करने वाले माता-पिता मिलते हैं।

प्रश्न 16.
जब हमें समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो तो हमें अपने बड़ों से सलाह लेनी चाहिए?
उत्तर-
हां, हमें अपने बड़ों से सलाह अवश्य लेनी चाहिए क्योंकि वे अधिक अनुभवी होने के कारण निश्चित रूप से जानते होंगे कि ऐसी स्थितियों में क्या किया जाना चाहिए।

प्रश्न 17.
परिवार में परिवार के सदस्यों की भलाई के लिए सबसे ज्यादा कौन चिंतित होता है?
उत्तर-
परिवार में बुजुर्ग लोग विशेषकर माता-पिता और दादा-दादी परिवार के सदस्यों की भलाई के लिए अधिक चिंतित होते हैं।

प्रश्न 18.
कक्षा में प्रथम स्थान पर आने के लिए एक छात्र की कौन मदद करता है?
उत्तर-
माता-पिता और दादा-दादी मुख्य बल हैं जो कक्षा में एक छात्र को प्रथम स्थान पर लाने में मदद करते है।

प्रश्न 19.
बच्चों की भलाई के लिए कौन बलिदान करता है?
उत्तर-
माता-पिता और दादा-दादी परिवार में बच्चों की बेहतरी के लिए कोई भी त्याग कर सकते हैं।

प्रश्न 20.
हमारा सबसे अच्छा समर्थक कौन है?
उत्तर-
माता-पिता और दादा-दादी हमारे सबसे अच्छे समर्थक हैं।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अच्छे गणों का क्या मतलब है? एक अच्छे व्यक्ति का उत्कृष्ट गुण क्या है?
उत्तर-
गुणों (सदाचार) का अर्थ है गुण। अच्छे गुणों का मतलब है अच्छे गुण । एक अच्छे व्यक्ति का उत्कृष्ट गुण परिवार में माता-पिता, दादा-दादी और अन्य बुजुर्ग लोगों का प्यार करना, आदर करना, आभार और देखभाल करना है।

PSEB 8th Class Welcome Life Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

प्रश्न 2.
अपने माता-पिता और दादा-दादी की देखभाल करने के क्या फायदे हैं?
उत्तर-
अपने माता-पिता और दादा-दादी की देखभाल करने के मुख्य लाभ हैं:

  1. माता-पिता और दादा-दादी की देखभाल करने से हमें इस बात की संतुष्टि मिलती है कि उन्होंने हमें बड़ा करने के लिए जो मेहनत कि हम उसके लिए उनका कुछ हद तक भुगतान कर रहे हैं।
  2. जब वे खुश हो जाते हैं ते वे हमें आशीर्वाद देते हैं और परिवार के सदस्यों का आशीर्वाद खासकर माता पिता और दादा-दादी हमें अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।

प्रश्न 3.
हमारे माता-पिता और दादा-दादी का मस्मान करने के क्या फायदे हैं?
उत्तर-
हमारे माता-पिता और दादा-दादी का सम्मान करने से हम अच्छे इंसान बनते हैं। यह एक अच्छे समाज का निर्माण भी करता है। इसके अलावा, अपने माता-पिता का सम्मान करके हम उन्हें बताते हैं कि हम उनके बलिदानों और उनके द्वारा किए गए प्रयासों को जानते हैं और अभी भी हमारे जीवन को आसान और आरामदायक बना रहे हैं।

प्रश्न 4.
हमारे दादा-दादी को यह बताने के तरीके क्या हैं कि हम उनसे प्यार करते हैं?
उत्तर-
ऐसे कई तरीके और साधन हैं जिनके द्वारा हम अपने दादा-दादी को दिखा सकते हैं कि हम उनसे प्यार करते हैं। इनमें से कुछ है :

  1. सार्वजनिक रूप से उनकी प्रशंसा करके।
  2. हमारी सफलता उन्हें समर्पित करके।
  3. उनके साथ गुणवत्ता समय (क्वालिटी टाइम) बिताकर।
  4. उन्हें ध्यान से सुनने और जीवन में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने के बारे में उनके निर्देशों का पालन करते हुए।

प्रश्न 5.
हमारे माता-पिता हमारे लिए भगवान के समान हैं। इस कथन को सही साबित करें।
उत्तर-
यह सच है कि माता-पिता हमारे लिए भगवान के समान हैं। यह विश्वास करने के लिए हमें हमेशा उनके अनुभवों, कड़ी मेहनत, उनके प्रयासों, बलिदानों, संघर्षों और उनके सामने आने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखना चाहिए। इन कारणों से हमें सदैव उनके कल्याण के लिए किए गए अथक प्रयासों के लिए उनका आभारी होना चाहिए। उन्हें चुकाने के लिए हम अपनी भावनाओं, दयालु शब्दों और प्यार और गर्मजोशी से भरे भावों के माध्यम से उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त कर सकते हैं।

प्रश्न 6.
माता-पिता जैसे दादा-दादी भी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हैं क्यों?
उत्तर-
हम जानते हैं कि माता-पिता हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि वे सबसे अच्छे मार्गदर्शक हैं और हमें वे सभी चीजें प्रदान करते हैं, जो कि हमें जीवन जीने के लिए और अपने जीवन में प्रगति करने की आवश्यक है। हालाँकि, दादा-दादी भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। यह सच है क्योंकि सबसे पहले उन्होंने हमारे माता-पिता को जीवन में इस स्तर तक पहुँचने में मदद की है। वे अनुभवी हैं और उन्होंने हमारे माता-पिता को अपने जीवन का आकार देने के लिए मार्गदर्शन किया है। समय के साथ वे अधिक अनुभवी हो गए हैं और वे कठिन परिस्थितियों को जीतने के लिए बेहतर तरीके से मार्गदर्शन कर सकते हैं। उनके पास अधिक समय है और इस तरह वे हमारी बात सुनेंगे और हमारी समस्याओं के समाधान के लिए कई तरह से हमारी मदद करेंगे।

प्रश्न 7.
यदि आपके दादा-दादी बीमार हैं तो आपको क्या करना चाहिए?
उत्तर-
यदि हमारे दादा-दादी बीमार हैं तो हम निम्नलिखित कार्य कर सकते हैं

  1. हमें उनके पास बैठना चाहिए और उन छोटी-छोटी चीज़ों का ध्यान रखना चाहिए जिनकी उन्हें ज़रूरत थी।
  2. हम उन्हें समय पर पौष्टिक आहार दे सकते हैं।
  3. डॉक्टर द्वारा निर्धारित समय पर हम उन्हें दवा दे सकते हैं।
  4. हम उन्हें शौचालय या बाथरूप जाने में मदद कर सकते हैं।
  5. यदि वे चाहें तो हम उनसे बात कर सकते हैं।
  6. हम उन्हें बाहर बगीचे में घुमाने ले जा सकते हैं ताकि उनका मन बहल जाए।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अपने माता-पिता और दादा-दादी के प्रति आभार और सम्मान दिखाने के विभिन्न तरीकों का वर्णन करें।
उत्तर-
हमारे माता-पिता और दादा-दादी के प्रति आभार और सम्मान दिखाने के तरीके निम्नलिखित हैं

  1. हमें उन चीजों के लिए उनकी सहायता करनी चाहिए जो वे प्रभावी रूप से नहीं कर सकते हैं।
  2. हम उन्हें घर में मौजूद आधुनिक यंत्रों (गैजेट्स) के बारे में बता सकते हैं।
  3. हमें उनसे सम्मानपूर्वक और विनम्र तरीके से बात करनी चाहिए।
  4. हमें हमेशा नियमित रूप से उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करनी चाहिए।
  5. हमें उनके साथ कुछ क्वालिटी टाइम (गुणवत्ता समय) बिताना चाहिए। उनके दौरान हमें उनकी बातों को सुनना चाहिए और हमें अपने अनुभव भी उनके साथ साझा करने चाहिए।
  6. हमारे आस-पास, शहर या देश में क्या हो रहा है, इसके बारे में उन्हें अद्यतन (अपडेट) रखने के लिए हम उनके लिए अच्छी कहानियां और समाचार-पत्र पढ़ सकते हैं।
  7. हमें सभी शिष्टाचार में उन्हें सम्मान दिखाना चाहिए।
  8. हमें उनके भोजन और दवाओं का ध्यान रखना चाहिए।
  9. हमें अक्सर उन्हें बताना चाहिए कि जब हमें उनकी ज़रूरत होती है तो हमेशा हमारे साथ वहां रहने के लिए हम उनके आभारी होते हैं।
  10. हमें उनका हमेशा आज्ञाकारी होना चाहिए और उनके आदेशों की अवहेलना करने का कभी प्रयास नहीं करना चाहिए।

PSEB 8th Class Welcome Life Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

प्रश्न 2.
आप यह कैसे प्रमाणित करेंगे कि हमारे माता-पिता और दादा-दादी हमारे सबसे बड़े सहायक हैं?
उत्तर-
माता-पिता और दादा-दादी हम सभी के लिए सबसे बड़ा सहारा हैं। यह निम्नलिखित तथ्यों की सहायता से सिद्ध किया जा सकता है:

  1. वे हमारी बुनियादी ज़रूरतों जैसे भोजन, कपड़े, आश्रय आदि का अच्छे से ध्यान रखते हैं।
  2. वे हमारी शिक्षा के लिए आवश्यक धन प्रदान करते हैं।
  3. वे हमारी पढ़ाई और अन्य गतिविधियों में हमारी मदद करते हैं।
  4. वे हमारी उपलब्धियों के लिए हमारी प्रशंसा करते हैं।
  5. जब हम गलती करते हैं, तो वे हमें न केवल उन्हें दोहराने से हमें रोकते हैं बल्कि हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं कि हम इन गलतियों को फिर से करने से कैसे बच सकते हैं?
  6. वे हमें अपना निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरणा प्रदान करते हैं।
  7. वे विभिन्न महत्त्वपूर्ण चीजों के लिए अनुसूची बनाने में हमारी मदद करते हैं और इसका सख्ती से पालन करते हैं।

प्रश्न 3.
माता-पिता और दादा-दादी सभी के जीवन में सबसे सम्मानित व्यक्ति होते हैं। आप इसे कैसे उचित ठहराएंगे?
उत्तर-
माता-पिता और दादा-दादी सभी के जीवन में सबसे सम्मानित व्यक्ति होते हैं। हम इसे इस आधार पर उचित ठहराएंगे कि हम हर साल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मातृ दिवस, पिता दिवस और दादा-दादी दिवस मनाते हैं हम हर साल 9 मई को मातृ दिवस (मदर्स डे) मनाते हैं। यह दिन हमारे जीवन में माँ की भूमिका के बारे में याद दिलाने के लिए मनाया जाता है। इस दिन हम एक माँ और उसके बच्चे के बीच के बंधन के बारे में याद करते हैं और हमारे जीवन में उनके प्रभाव और योगदान के प्रति आभार प्रकट करते हैं। हम हर साल 20 मई को पिता दिवस मनाते हैं। इस दिन हम एक पिता और उसके बच्चे के बीच के बंधन के बारे में याद करते हैं और हमारे जीवन में उनके प्रभाव और योगदान के प्रति आभार प्रकट करते हैं।
हम हर साल 13 सितंबर को दादा-दादी दिवस मनाते हैं। सन् 2020 में भारत में यह दिवस 9 सितंबर को मनाया गया। यह दिन हमें अपने जीवन में दादा-दादी की भूमिका के बारे में याद दिलाने के लिए मनाया जाता है। इस दिन हम दादा-दादी और उनके पोते के बीच के बंधन के बारे में याद करते हैं और हमारे जीवन में उनके प्रभाव और योगदान के लिए आभार प्रकट करते हैं।

प्रश्न 4.
आप यह दिखाने के लिए क्या करते हैं कि आप अपने बड़ों का सम्मान करते हैं और उनके प्रति आभारी हैं?
उत्तर-
मैं यह दिखाने के लिए कि मैं अपने बड़ों की देखभाल और उनका सम्मान करता हूं के लिए निम्नलिखित कार्य करता हूँ। अपने कार्यों से मैं यह दिखाने की कोशिश करता हूँ कि मैं सर्वशक्तिमान का आभारी हैं:

  1. मैं अपने माता-पिता और दादा-दादी को हर रोज़ सुप्रभात और शुभ रात्रि की शुभकामनाएं देता हूँ।
  2. स्कूल से आने के बाद मैं उनके साथ कुछ समय बिताता हूँ और स्कूल में होने वाली घटनाओं के बारे में जानकारी साझा करता हूं।
  3. हम सभी रात का खाना एक साथ बैठकर खाते हैं और दिन की घटनाओं के बारे में बात करते हैं।
  4. मैं हमेशा सोने से पहले आपने दादा-दादी के साथ बैठता हूँ, उनके साथ वक्त बिताता हूं और भनिष्य में अपने कार्यों के बारे में सलाह लेने के लिए उनकी बातें सुनता और समझता हूँ और उन पर अमल करता हूं।
  5. मैं उनके जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण दिन मनाता हूँ जैसे उनके जन्मदिन, उनकी वर्षगांठ आदि।
  6. मैं उनकी दवाओं का रिकॉर्ड रखता हूँ और यह सुनिश्चित करता हूँ कि वे अपनी दवाओं को खाना ना भूलें।
  7. छुट्टियों में मैं अपने दादा-दादी के साथ पास के पार्क में जाता हूँ।
  8. मैं अपने दादा-दादी के साथ कुछ इनडोर गेम भी खेलता हूँ।
  9. मैं उनकी पसंद का संगीत बजाता हूँ और उनके बचपन के दिनों के बारे में बात करना पसंद करता हूँ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
हमें हमेशा
(क) परिवार के बड़े बुजुर्गों से प्यार करना चाहिए
(ख) परिवार के बड़े बुजुर्गों का आदर करना चाहिए
(ग) परिवार के बड़े बुजुर्गों की बात को ध्यान से सुनना चाहिए
(घ) सभी विकल्प।
उत्तर-
(घ) सभी विकल्प।

प्रश्न 2.
हमारा बुजुर्गों के प्रति सम्मान दिखाना और उनके प्रति आभारी होना एक …………
(क) ज़रूरी नहीं
(ख) उत्कृष्ट गुण
(ग) समय की बर्बादी
(घ) सभी।
उत्तर-
(ख) उत्कृष्ट गुण।

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प्रश्न 3.
हमें अपने बड़ों के प्रति आभारी होना चाहिए क्योंकि वे हमारे कल्याण के लिए ……… अथक प्रयास करते हैं।
(क) हमेशा
(ख) किसी खास मौके पर
(ग) जब ज़रूरत हो
(घ) कभी नहीं।
उत्तर-
(क) हमेशा।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा हमारे बुजुर्गों के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने का तरीका है?
(क) विनम्रता से बोलना
(ख) दैनिक कार्यों में उनकी मदद करना
(ग) अच्छे से देखभाल करना।
(घ) सभी विकल्प।
उत्तर-
(घ) सभी विकल्प।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा हमारे बुजुर्गों के प्रति सम्मान दिखाने का सबसे अच्छा तरीका है?
(क) उनके साथ गुणवत्ता समय बिता कर
(ख) उन्हें बाज़ार ले जाकर
(ग) उन्हें सिनेमा ले जाकर
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(क) उनके साथ गुणवत्ता समय बिताकर।

प्रश्न 6.
हमें अपने बड़े बुजुर्गों की देखभाल करनी चाहिए क्योंकि-
(क) उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया है।
(ख) वे हमसे बहुत पहले पैदा हुए थे।
(ग) वे उस दौर में पैदा हुए थे जब कोई भी आधुनिक साधन नहीं थे।
(घ) सभी विकल्प।
उत्तर-
(क) उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया है।

प्रश्न 7.
हमें अपने बड़े बुजुर्गों के लिए ………… महसूस करना चाहिए।
(क) अच्छा
(ख) बुरा
(ग) गर्व
(घ) क तथा ग।
उत्तर-
(घ) (क) तथा (ग)।

प्रश्न 8.
हमारे माता-पिता और बड़ों की सहायता करना उनके लिए हमारे ………. को व्यक्त करने का एक तरीका है।
(क) प्यार
(ख) आदर
(ग) सम्मान
(घ) सभी विकल्प।
उत्तर-
(घ) सभी विकल्प।

प्रश्न 9.
अपने बड़ों की अच्छी देखभाल करना, उन्हें प्यार करना तथा उनको सम्मान देना हमारा ………. है।
(क) काम
(ख) कर्त्तव्य
(ग) व्यापार
(घ) शिक्षा।
उत्तर-
(ख) कर्तव्य।

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प्रश्न 10.
कथन (क) हमें अपने माता-पिता के प्रति ईमानदार होना चाहिए।
कथन (ख) जब हमारे माता-पिता बूढ़े व कमजोर हो जाते हैं तब हमें उनका ध्यान रखना चाहिए उपरोक्त लिखे कथनों में से कौन सा कथन सही हैं
(क) कथन क सही और ख गलत है
(ख) कथन क गलत और ख सही है
(ग) दोनों कथन सही हैं
(घ) दोनों कथन गलत हैं।
उत्तर-
(क) कथन क सही और ख गलत है।

प्रश्न 11.
हमें अपने बुजुर्गों के जीवन के विशेष दिन मनाने चाहिए इससे उन्हें …….. मिलेगी।
(क) दुःख
(ख) खुशी
(ग) गुस्सा
(घ) सभी।
उत्तर-
(ख) खुशी।

प्रश्न 12.
हमारे बुजुर्गों ने हमें बड़ा करने व पालन-पोषण में बहुत कष्ट झेले हैं। हम उनका यह ऋण चुका सकते हैं
(क) उन्हें प्यार दिखा कर
(ख) उन्हें सम्मान देकर
(ग) दोनों (क) व (ख) विकल्प
(घ) कोई भी नहीं।
उत्तर-
(ग) दोनों (क) व (ख) विकल्प।

रिक्त स्थान भरो:

  1. अपने बुजुर्गों के प्रति सम्मान दिखाना और उनके प्रति आभारी होना एक ………….. है।
  2. हमें हमेशा अपने बुजुर्गों, अपने दादा-दादी और माता-पिता का …………. करना चाहिए।
  3. हमें अपने दादा-दादी और माता-पिता के प्रति अपने नि:स्वार्थ प्रेम और ……….. को व्यक्त करना चाहिए।
  4. हमें अपने बड़ों के साथ …………… बिताना चाहिए।
  5. हमें हमेशा अपने दादा-दादी और माता-पिता का ………… होना चाहिए।
  6. हमें अपने दादा-दादी और माता-पिता के यादगार बचपन की घटनाओं को ……….. चाहिए।
  7. हमारे ………… ने हमें आगे बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया है।
  8. हमारे …….. ने हमारी भलाई के लिए कई बलिदान दिए हैं।
  9. हमें अपने बड़ों से हमेशा ………… और ………. तरीके से बात करनी चाहिए।
  10. हमें अपने माता-पिता और दादा-दादी की ………….. नहीं करनी चाहिए।

उत्तर-

  1. उत्कृष्ट गुण
  2. सम्मान
  3. कृतज्ञता
  4. वालिटी टाइम (गुणवत्ता समय)
  5. आभारी
  6. सुनना
  7. माता-पिता
  8. बुजुर्गों
  9. सम्मान, विनम्र
  10. अवज्ञा।

PSEB 8th Class Welcome Life Solutions Chapter 3 बड़ों के प्रति प्यार और सम्मान

सही/ग़लतः

  1. हमें अपने बुजुर्गों की बात नहीं माननी चाहिए क्योंकि वे आधुनिक जीवन के बारे में नहीं जानते हैं।
  2. हमारे दादा दादी ने हमारे लिए कुछ नहीं किया है।
  3. बड़ों के प्रति सम्मान दिखाना और उनकी देखभाल करना एक उत्कृष्ट गुण है।
  4. हमें अपने बुजुर्गों की सलाह ज़रूर सुननी चाहिए।
  5. हमें अपने बड़ों के साथ समय बिताकर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए।
  6. दोस्तों के साथ खेलना हमारे बड़ों के साथ समय बिताने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
  7. हमारे माता-पिता और बड़ों की अवज्ञा करना अच्छा नहीं है।
  8. हमें अपने माता-पिता से सम्मानपूर्वक बात करनी चाहिए।
  9. हमें सभी बुजुर्गों की मदद करनी चाहिए।
  10. हमारे बुजुर्ग हमसे कम अनुभवी हैं।

उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत
  6. गलत
  7. सही
  8. सही
  9. सही
  10. ग़लत।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र का दूसरे सामाजिक विज्ञानों, इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र के साथ सम्बन्ध बताएं। (Textual Question)
(Explain the relationship of Political Science with other Social Sciences i.e. History, Economics, Sociology and Ethics.)
उत्तर-
राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय राज्य तथा राज्य के अन्दर रहने वाले नागरिक हैं। मनुष्य के जीवन के अनेक पहलू हैं-राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक इत्यादि। इन सब पहलुओं का अध्ययन अनेक शास्त्र करते हैं। जैसे-राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि। परन्तु मनुष्य की आर्थिक अवस्था का उसकी राजनीतिक अवस्था पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार धर्म का राजनीति पर प्रभाव पड़ता है अर्थात् व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाओं का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः राजनीतिशास्त्र का, जो मानव जीवन से सम्बन्धित है तथा समाजशास्त्र है, अन्य समाजशास्त्रों से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। डॉ० गार्नर के अनुसार, “सम्बन्धित विज्ञानों के बिना राजनीतिशास्त्र को समझना उतना ही कठिन है, जितना रसायन विज्ञान (Chemistry) के बिना जीव विज्ञान (Biology) को समझना या गणित (Mathematics) के बगैर यन्त्र विज्ञान (Mechanics) को।” राजनीति शास्त्र का समाज शास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि शास्त्रों से गहरा सम्बन्ध है। एक लेखक के शब्दों में-“ये सब शास्त्र एक फूल की पंखुड़ियों (Petals of flower) के समान हैं।”

राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। सीले (Seeley) ने इन दोनों में सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “बिना राजनीति विज्ञान के इतिहास का कोई फल नहीं। बिना इतिहास के राजनीति विज्ञान की कोई जड़ नहीं।”

बर्गेस (Burgess) ने दोनों के सम्बन्ध के बारे में लिखा है, “इन दोनों को अलग कर दो उनमें से एक यदि मृत नहीं तो पंगु अवश्य हो जाएगा और दूसरा केवल आकाश-पुष्प बनकर रह जाएगा।” (“Separate them and the one becomes a cripple, if not a corpse, the other a will of the wisp.”) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “इतिहास भूतकालीन राजनीति है और राजनीति वर्तमान इतिहास है।” (“History is nothing but past politics and politics is nothing but present History.”) इन विद्वानों के कथन से राजनीति तथा इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध का पता लगता है।

इतिहास की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of History to Political Science)—इतिहास से हमें बीती हुई घटनाओं का ज्ञान होता है। राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं। राजनीति विज्ञान में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए हमें इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है। राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए, उनके अतीत को जानना आवश्यक होता है और इतिहास से ही उनके अतीत को जाना जा सकता है। यदि हम इंग्लैंड की संसद् तथा राजतन्त्र का वर्तमान स्वरूप जानना चाहते हैं तो हमें वहां के इतिहास का गहरा अध्ययन करना पड़ेगा। राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। मानवीय इतिहास के विभिन्न समयों पर राजनीति क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए, जिनके परिणाम और सफलता-असफलता का वर्णन इतिहास से प्राप्त होता है। राजनीति क्षेत्र के ये भूतकालीन कार्य एक प्रयोग के समान ही होते हैं और ये भूतकालीन प्रयोग भविष्य के लिए मार्ग बतलाने का कार्य करते हैं। भारत के इतिहास से पता चलता है कि वही शासक सफल रहेगा जो धर्म-निरपेक्ष हो। धार्मिक सहिष्णुता की नीति के आधार पर अकबर ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जबकि औरंगज़ेब की धर्मान्ध नीति के कारण मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया। भारत आजकल धर्म-निरपेक्ष नीति को अपनाए हुए है। अतः राजनीति विज्ञान के अध्ययन का आधार इतिहास है।

इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास मनुष्य की सफलताओं एवं विफलताओं का संग्रह है। अतीत में मानव ने क्या-क्या भूलें कीं, किस नीति को अपनाने से अच्छा और बुरा परिणाम निकला आदि बातों का ज्ञानदाता इतिहास ही है। भारतीय इतिहास में अकबर की सफलता और औरंगज़ेब की विफलता हमें राजनीतिक शिक्षा देती है। इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय और फ्रांस के लुई चौदहवें के निरंकुश राजतन्त्र हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि निरंकुश राज्य अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। इतिहास द्वारा बतलाई गई भूलों के आधार पर ही राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन लाते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

कोई भी राजनीतिक संस्था अकस्मात् पैदा नहीं होती। उसका वर्तमान रूप शनैः-शनैः होने वाले क्रमिक विकास का फल है। किसी समय किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संस्था का जन्म होता है और समयानुसार उसमें परिवर्तन भी आते रहते हैं और कई बार यह संस्था नया रूप भी धारण कर लेती है। इस पृष्ठभूमि में यह आवश्यक है कि राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन पर्यवेक्षण (Observation) विधि के द्वारा किया जाए जिसके लिए इतिहास का सहारा लेना अनिवार्य है। यह कहना उचित ही है कि इतिहास की उपेक्षा करने से राजनीति शास्त्र का अध्ययन केवल काल्पनिक और सैद्धान्तिक ही होगा। ऐसे अध्ययन का दोष बताते हुए लॉस्की (Laski) कहता है, “हर प्रकार के काल्पनिक राजनीति शास्त्र का परास्त होना अनिवार्य ही है क्योंकि मनुष्य कभी भी ऐतिहासिक प्रभावों से उन्मुक्त नहीं हो सकते।” विलोबी (Willoughby) के शब्दों में “इतिहास राजनीति शास्त्र को तीसरी दिशा प्रदान करता है।” (“History gives the third dimension to Political Science …………”)

इतिहास को राजनीति शास्त्र की देन (Contribution of Political Science to History)—परन्तु इतिहास का ही राजनीति शास्त्र पर प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि इतिहास भी राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ हासिल करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। इतिहास में केवल युद्ध, विजयों तथा अन्य घटनाओं का ही वर्णन नहीं आता बल्कि इसमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक घटनाओं का भी वर्णन आता है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाता है। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, व्यक्तिवाद आदि धाराओं की चर्चा के बिना 17वीं शताब्दी का इतिहास अपूर्ण है। भारत के 20वीं शताब्दी के इतिहास से यदि कांग्रेस पार्टी का महत्त्व, असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य पार्टी, भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स योजना, केबिनेट मिशन योजना, भारत का विभाजन, चीन का भारत पर आक्रमण तथा पाकिस्तान के आक्रमण आदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो भारत का इतिहास महत्त्वहीन रह जाएगा। लॉर्ड एक्टन ने राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “राजनीति इतिहास की धारा में उसी प्रकार इकट्ठी हो जाती है जैसे नदी की रेत में सोने के कण।”

राजनीति की इतिहास को एक महत्त्वपूर्ण देन यह है कि राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। रूसो और मॉण्टेस्क्यू के विचारों का फ्रांस की राज्यक्रान्ति पर, कार्ल मार्क्स के विचारों का सोवियत रूस की राज्यक्रान्ति पर तथा महात्मा गांधी के विचारों का भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा।

दोनों में अन्तर (Differences between the two)-राजनीतिक विकास तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है।

1. इतिहास का क्षेत्र राजनीतिक विज्ञान से व्यापक है (Scope of History is wider than the scope of Political Science)-फ्रीमैन के कथन से समहत होना कठिन है क्योंकि पूर्ण भूतकालीन इतिहास राजनीति नहीं है और वर्तमान राजनीति कल का इतिहास नहीं है। इतिहास में प्रत्येक घटना का वर्णन किया जाता है। इसका क्षेत्र व्यापक है। जब हम 19वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की सभी घटनाओं, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक का वर्णन आ जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल राजनीतिक घटनाओं से होता है।

2. राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है, जबकि इतिहास केवल भूतकाल से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राजनीतिक संस्थाओं के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन किया जाता है। राज्य कैसा था, कैसा है और कैसा होना चाहिए, इन तीनों का उत्तर राजनीति शास्त्र से मिलता है, परन्तु इतिहास में केवल बीती घटनाओं का ही वर्णन आता है।

3. इतिहास वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान विचारशील है- इतिहास में केवल घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में इन घटनाओं का मूल्यांकन भी किया जाता है और इस मूल्यांकन के आधार पर निश्चित परिणाम निकाले जाते हैं। इस प्रकार इतिहास वर्णनात्मक है परन्तु राजनीति शास्त्र विचारात्मक भी है।

4. इतिहासकार नैतिक निर्णय नहीं देता, परन्तु राजनीति विज्ञान के विद्वानों के लिए नैतिक निर्णय देना आवश्यक है-इतिहासकार केवल बीती हुई घटनाओं का वर्णन करता है। वह घटनाओं की नैतिकता के आधार पर परख करके कोई निर्णय नहीं देता है। उदाहरण के लिए, दिसम्बर 1971 में भारत का पाकिस्तान से युद्ध हुआ। इतिहासकार का कार्य केवल युद्ध की घटनाओं का वर्णन करना है। इतिहासकार का इस बात के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है कि युद्धबन्दियों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, असैनिक आबादी पर बम बरसाए गए तो कोई अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं। परन्तु राजनीति विज्ञान का विद्वान् युद्ध के नैतिक पहलू पर अपना निर्णय अवश्य देगा।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में अन्तर होते हुए भी घनिष्ठ सम्बन्ध है और इस विचार को सब विद्वान् मान्यता प्रदान करते हैं। गार्नर (Garmer) के शब्दों में, ‘अध्ययन विषय के तौर पर यह एक-दूसरे के सहायक व पूरक हैं।’

सीले (Seeley) ने इन दोनों को पूरक सिद्ध करने के लिए कहा है, “इतिहास के उदार प्रभाव के बिना राजनीति अशिष्ट है और राजनीति से अपने सम्बन्ध को भुला देने से इतिहास साहित्य मात्र रह जाता है।”

राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। प्राचीन काल में अर्थशास्त्र ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ (Political Economy) के नाम से प्रसिद्ध था। विद्वानों ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ की परिभाषा इस प्रकार की है-“यह राज्य के लिए राजस्व (Revenue) जुटाने की एक कला है।” भारतीय विद्वान् चाणक्य ने अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में राजनीतिक समस्याओं का वर्णन किया । इसी प्रकार राजनीति विज्ञान के कई मान्य ग्रन्थों जैसे अरस्तु की ‘Politics’ तथा लॉक की ‘नागरिक प्रशासन पर दो लेख’ (Two Treatises on Civil Government) में उन विषयों का विवेचन मिलता है, जिन्हें आजकल अर्थशास्त्र में शामिल किया जाता है। इस प्रकार प्राचीन काल में दो शास्त्रों को एक माना जाता था, परन्तु 19वीं शताब्दी में एडम स्मिथ ने आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित बताया। एडम स्मिथ पहला विद्वान् था जिसने अर्थशास्त्र को राजनीति शास्त्र से अलग किया। 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विषय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। अर्थशास्त्र का सम्बन्ध सम्पत्ति के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा विनिमय सम्बन्धी मनुष्य की गतिविधियों से है।

यह ठीक है कि 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान माना गया है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में कोई सम्बन्ध नहीं। अब भी दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है और आपस में आदानप्रदान करते हैं।

अर्थशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Economics to Political Science)-वर्तमान युग में मनुष्य तथा राज्य की मुख्य समस्याएं आर्थिक हैं। इतिहास से पता चलता है कि आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। जब मनुष्य आखेट अवस्था में से गुज़र रहा था अर्थात् जब मनुष्य का पेशा शिकार करना था तब राज्य के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं होता था क्योंकि उस समय मनुष्य एक स्थान पर नहीं रहता था। जब मनुष्य ने कृषि करना आरम्भ किया, इसके साथ ही मनुष्य को एक निश्चित स्थान पर रहना पड़ा, जिससे राज्य की उत्पत्ति हुई। पहले सरकार पर बड़ेबड़े ज़मींदारों का प्रभाव होता था, परन्तु यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् सरकार पर उद्योगपतियों का प्रभाव हो गया है। आजकल हमारे देश में भी उद्योगपतियों का ही अधिक प्रभाव है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

व्यक्तिवाद, समाजवाद तथा साम्यवाद मुख्यतः आर्थिक सिद्धान्त हैं परन्तु इनका अध्ययन राजनीतिशास्त्र में भी किया जाता है क्योंकि इन आर्थिक सिद्धान्तों ने राज्य के ढांचे को ही बदल दिया है। चीन में साम्यवाद है। उत्पादन के साधनों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण है। सरकार की समस्त शक्तियां कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) के हाथ में ही हैं। अमेरिका में पूंजीवाद है, जिसके कारण वहां की सरकार संगठन तथा सरकार के उद्देश्य चीन की सरकार से भिन्न हैं। अतः आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के अनुसार, उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होने पर राजनीतिक परिवर्तन होना अनिवार्य है। कार्ल मार्क्स का यह कथन सर्वथा सत्य तो नहीं है परन्तु इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्थिक परिवर्तन ही राजनीतिक परिवर्तन का मुख्य कारण भी होता है।

राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में जो औद्योगिक क्रान्तियां हुई हैं उनके परिणामस्वरूप ही यूरोप के इन देशों में उपनिवेशवाद और समाजवाद की नीति अपनाई। इस सम्बन्ध में बिस्मार्क और जोज़फ चैम्बरलेन के कथन महत्त्वपूर्ण हैं। बिस्मार्क का कथन था, “मुझे यूरोप के बाहर नए राज्यों की नहीं, बल्कि व्यापारिक केन्द्रों की आवश्यकता है।” (“I want outside Europe…not provinces but commerical enterprises.”)

राजनीतिक क्षेत्र की अनेक मत्त्वपूर्ण घटनाएं आर्थिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप ही घटित हुई हैं। भारत में आज लोकतन्त्र को इतनी सफलता नहीं मिली जितनी कि अमेरिका तथा इंग्लैंड में प्राप्त हुई है। भारत में सफलता न मिलने का मुख्य कारण लोगों की आर्थिक दशा है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है, अधिकारों तथा कर्तव्यों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर पाती। लोगों के वोट खरीद लिए जाते हैं। दूसरे विश्व-युद्ध के पश्चात् बहुत से देशों को अमेरिका से आर्थिक सहायता लेनी पड़ी जिसका परिणाम यह हुआ कि उन देशों की नीतियों पर भी अमेरिका का प्रभाव पड़ा।

अर्थशास्त्र को राजनीति विज्ञान की देन (Contribution of Political Science to Economics)-अर्थशास्त्र के अध्ययन में राजनीति विज्ञान से भी बहुत सहायता मिलती है। राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शासन-व्यवस्था यदि दृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। आर्थिक दशाओं का ही नहीं सरकार की नीतियों का भी आर्थिक व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। सरकार की कर नीति, आयात-निर्यात नीति, विनिमय की दर, बैंक नीति, व्यापार तथा उद्योग सम्बन्धी कानून, सीमा शुल्क नीति आदि का राज्य की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ता है। सरकार पूंजीवाद तथा साम्यवाद को अपना कर देश की आर्थिक व्यवस्था को बदल सकती है। भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं हैं ताकि लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा किया जा सके। सरकार बड़े-बड़े उद्योगों को अपने हाथों में ले रही है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा।

युद्ध एक सैनिक और राजनीतिक क्रिया है परन्तु इसका देश की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ता है। अमेरिका की आर्थिक स्थिति में गिरावट होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण वियतनाम युद्ध रहा है। इसी प्रकार 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों ने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत प्रभावित किया है।

अतः इस विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर करता है।

अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में समानताएं (Points of Similarity between Economics and Political Science) अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में निम्नलिखित समानताएं पाई जाती हैं-

दोनों का विषय समाज में रह रहा मनुष्य है-समाज में रह रहा मनुष्य दोनों शास्त्रों का विषय है। दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण है और उसी के लिए दोनों कार्य करते हैं।

दोनों ही आदर्शात्मक सामाजिक विज्ञान हैं-दोनों ही भूतकाल के आधार पर वर्तमान का विश्लेषण करके भविष्य के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में मानव जीवन के लिए ऐसे आदर्श स्थापित करते हैं जिनके द्वारा अधिक-से-अधिक मानव हित हो।

दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं- राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं।

दोनों में अन्तर (Difference between the two) राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार है

1. विभिन्न विषय-क्षेत्र (Different Subject Matter) राजनीति विज्ञान मनुष्य की राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करता है और इस विज्ञान का मुख्य विषय राज्य तथा सरकार है। परन्तु अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करता है। मनुष्य धन कैसे कमाता है, कैसे उसका उपयोग करता है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र देता है। इस प्रकार दोनों का विषय-क्षेत्र अलग-अलग है।

2. दृष्टिकोण (Approach)—मिस्टर ब्राऊन (Mr. Brown) ने राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में भेद करते हुए लिखा है, “अर्थशास्त्र का सम्बन्ध वस्तुओं से है जबकि राजनीति विज्ञान का मनुष्यों से। अर्थशास्त्र वस्तुओं की कीमतों का अध्ययन करता है और राजनीति विज्ञान सदाचार सम्बन्धी मूल्यों का।” इस प्रकार अर्थशास्त्र व्याख्यात्मक विज्ञान है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक विज्ञान है।

3. अध्ययन पद्धति (Method of Study)—दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि दोनों तथा अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति विज्ञान के अध्ययन के अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है और इसके निष्कर्ष और सिद्धान्त अधिक सही होते हैं। इसका कारण यह है कि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं से है और इन आवश्यकताओं तथा इनकी पूर्ति का उल्लेख अंकों द्वारा दर्शाया जा सकता है। अर्थशास्त्र में मात्रात्मक आंकड़ों का संग्रह राजनीति विज्ञान की अपेक्षा अधिक सम्भव है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में भिन्नता होने के बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में दोनों ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति एक-दूसरे के सहयोग और सहायता के बिना नहीं कर सकते। डॉ० गार्नर (Dr. Garner) ने ठीक ही कहा है, “बहुत-सी आर्थिक समस्याओं का हल राजनीतिक आर्थिक हालतों से आरम्भ होता है।” विलियम एसलिंगर (William Esslinger) के विचारानुसार, “अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र की एकता का पाठ्यक्रम उपकक्षा में पढ़ाया जाना चाहिए।”

राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन का शास्त्र है। समाज- शास्त्र समाज की उत्पत्ति, विकास, उद्देश्य तथा संगठन का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र में मानव जीवन के सभी पहलुओं राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक इत्यादि का अध्ययन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में मानव जीवन के राजनीतिक पहलू का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा है। प्रसिद्ध विद्वान् रेटजनहाफर ने ठीक ही कहा है, “राज्य अपने विकास के प्रारम्भिक चरणों में एक सामाजिक संस्था ही थी।” हम आगस्ट काम्टे (August Comte) के इस कथन से सहमत हैं, “समाजशास्त्र सभी समाजशास्त्रों की जननी है।” राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान करते हैं। प्रो० कैटलिन (Catline) ने तो यहां तक कहा है, “राजनीति और समाजशास्त्र अखण्ड हैं और वास्तव में एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं।”

राजनीति विज्ञान को समाजशास्त्र की देन (Contribution of Sociology to Political Science) समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। बिना समाजशास्त्र के अध्ययन के राजनीति शास्त्र के सिद्धान्तों को समझना कठिन है। प्रो० गिडिंग्स (Prof. Giddings) ने ठीक ही कहा है, “समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ लोगों को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना उसी प्रकार है जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति को खगोल विज्ञान अथवा ऊष्मा गति की शिक्षा देना।” (“To teach the theory of the state to men who have not learned the first principles of sciology is like teaching Astronomy or Thermodynamics to men who have not learned Newton’s Laws of Motion.”) दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों को न जानने वाले व्यक्ति को खगोल विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है उसी प्रकार बिना समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनजान व्यक्ति को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना व्यर्थ है। समाजशास्त्रों में समाज के रीति-रिवाजों का अध्ययन किया जाता है। हम जानते हैं कि राज्य के कानून का पालन तभी किया जाता है यदि वह समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार हो।

राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाज शास्त्र की बहुत देन है। समाजशास्त्र से पता चलता है कि राज्य मानव की सामाजिक भावना का परिणाम है। समाज के विकास के स्तर के साथसाथ राज्य का विकास हुआ है। राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology) राजनीति विज्ञान की एक शाखा पनप रही है, जो इस बात की स्पष्ट सूचक है कि राजनीतिक तथ्यों के विधिवत अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेना आवश्यक है। इस प्रकार समाज शास्त्र का राजनीति शास्त्र पर बहुत प्रभाव पड़ा है।

राजनीति विज्ञान की समाजशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Sociology)-परन्तु दूसरी ओर राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय राज्य हैराज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, राज्य क्या है, राज्य का विकास कैसे हुआ, राज्य का उद्देश्य क्या है इन सब प्रश्नों का उत्तर राजनीति विज्ञान में मिलता है। समाजशास्त्र को राज्य से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी राजनीति शास्त्र से मिलती है। राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र का एक अंग है जिसके बिना समाजशास्त्र की विषय सामग्री पूर्ण नहीं हो सकती।

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राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के आपसी सम्बन्ध का एक प्रणाम यह है कि मॉरिस, गिन्सबर्ग, आगस्त काम्टे, लेस्टर वार्ड, समवर आदि समाजशास्त्रियों ने राज्य की प्रकृति और उद्देश्यों में इतनी रुचि दिखाई है, मानो वे समाजशास्त्र की मुख्य समस्याएं हों। इसी प्रकार डेविड ईस्टन, हैरल्ड लासवैल, ग्रेवीज ए० ऑल्मण्ड, पावेल, कोलमेन, मेक्स वेबर और राजनीति शास्त्र के अन्य आधुनिक विद्वानों द्वारा समाज शास्त्र से अधिक-से-अधिक मात्रा में अध्ययन सामग्री और अध्ययन पद्धतियां प्राप्त की गई हैं।

दोनों में अन्तर (Differences between the two) राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है-

दोनों के क्षेत्र अलग हैं-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र के क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं। राजनीतिक शास्त्र का मुख्य विषय-क्षेत्र राज्य है जबकि समाजशास्त्र का मुख्य क्षेत्र समाज है।

राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र से संकुचित है-राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र के क्षेत्र से संकुचित है। राजनीति शास्त्र मनुष्य के राजनीतिक पहलू का ही अध्ययन कराता है जबकि समाजशास्त्र मनुष्य के सभी पहलुओं का अध्ययन कराता है।

राजनीति विज्ञान यह मानकर चलता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसमें हम यह अध्ययन नहीं करते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी क्यों है। परन्तु समाजशास्त्र में इस प्रश्न का भी अध्ययन किया जाता है।

समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान से पहले बना–राजनीति शास्त्र में समाज बनने से पूर्व के मानव का अध्ययन नहीं किया जाता जबकि समाजशास्त्र के विषय का अध्ययन वहीं से शुरू होता है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत मानव जाति के दोनों युगों-संगठित तथा असंगठित-का अध्ययन किया जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र केवल संगठित युग का अध्ययन करता है।

समाजशास्त्र केवल भूत और वर्तमान से सम्बन्धित है परन्तु राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का भी अध्ययन किया जाता है जबकि समाज शास्त्र में समाज के अतीत तथा वर्तमान का ही अध्ययन किया जाता है।

समाजशास्त्र वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक है-समाजशास्त्र समाज की उत्पत्ति तथा विकास का विस्तृत रूप से अध्ययन करता है, परन्तु इस अध्ययन के पश्चात् कोई परिणाम नहीं निकलता। यह केवल सामाजिक घटनाओं का वर्णन करता है। उन घटनाओं में अच्छी तथा बुरी घटनाओं की पहचान नहीं कराता। राजनति शास्त्र केवल घटनाओं का वर्णन ही नहीं करता बल्कि परिणाम भी निकालता है, क्योंकि राजनीति विज्ञान का उद्देश्य एक आदर्श राज्य की स्थापना करना तथा आदर्श नागरिक पैदा करना है।

समाजशास्त्र में मनुष्य के चेतन (conscious) और अचेतन (unconscious) दोनों प्रकार के कार्यों का अध्ययन किया जाता है परन्तु राजनीति विज्ञान में केवल चेतन प्रकार के कार्यों का ही अध्ययन किया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में अन्तर होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध न होकर पूरक हैं। राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं।

राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। नीतिशास्त्र साधारण मनुष्य की भाषा में वह शास्त्र है, जो अच्छे-बुरे में अन्तर स्पष्ट करता है। नीतिशास्त्र वह शास्त्र है जिसके द्वारा धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, अहिंसा-हिंसा, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य तथा शुभ-अशुभ में अन्तर का पता चलता है। डीवी (Deewey) के अनुसार, “नीतिशास्त्र आचरण का वह विज्ञान है जिसमें मानवीय आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य तथा अच्छाई तथा बुराई पर विचार किया जाता है।” नीतिशास्त्र के द्वारा हम निश्चित करते हैं कि मनुष्य का कौन-सा कार्य अच्छा है और कौनसा कार्य बुरा । यह शास्त्र नागरिकको आदर्श नागरिक बनाने में सहायक है। दूसरी ओर राज्य का मुख्य उद्देश्य भी आदर्श नागरिक बनाना है। इस प्रकार दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राचीन यूनानी लेखकों प्लेटो तथा अरस्तु ने राजनीति शास्त्र को नीतिशास्त्र का ही एक अंग माना है। प्लेटो तथा अरस्तु के अनुसार, “राज्य एक सर्वोच्च नैतिक संस्था है। इसका उद्देश्य नागरिकों के नैतिक स्तर को ऊंचा करना है।” प्लेटो की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिपब्लिक’ (Republic) में राजनीति ही नहीं बल्कि नैतिक दर्शन भी भरा हुआ है। अरस्तु ने कहा था “राज्य जीवन को सम्भव बनाने के लिए उत्पन्न हुआ, परन्तु अब वह जीवन को अच्छा बनाने के लिए विद्यमान है।”

इटली के विद्वान् मैक्यावली ने सर्वप्रथम राजनीति तथा नीतिशास्त्र में भेद किया। इसके अनुसार राजा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह नैतिकता के नियमों के अनुसार शासन चलाए। आवश्यकता पड़ने पर अनैतिकता का रास्ता भी अपनाया जा सकता है। मैक्यावली के अनुसार-राजा के सामने सबसे बड़ा उद्देश्य राज्य की सुरक्षा है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की परवाह नहीं करनी चाहिए। हाब्स (Hobbes) ने भी मैक्यावली के विचारों का समर्थन किया। बोदीन (Bodin), ग्रोशियस (Grotius) तथा लॉक (Locke) ने भी इन दोनों शास्त्रों को अलग किया, परन्तु रूसो (Rouseau) ने फिर इन दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया। कांट (Kant), ग्रीन (Green) ने भी रूसो के मत का समर्थन किया।

नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Ethics to Political Science)-वर्तमान समय में इन दोनों शास्त्रों में गहरा सम्बन्धा समझा जाता है। महात्मा गांधी ने दोनों शास्त्रों को अभिन्न माना है। उनके अनुसारसरकार को अपनी नीति नैतिकता के सिद्धान्तों पर बनानी चाहिए। सरकार की नीतियों में असत्य, अधर्म, कपट तथा पाप इत्यादि की मिलावट नहीं होनी चाहिए। कॉक्स के मतानुसार, “जो बात नैतिक दृष्टि से गलत है, वह राजनीतिक दृष्टि से सही नहीं हो सकती।” कोई भी सरकार ऐसे कानून पास नहीं कर सकती जो नैतिकता के विरुद्ध हों। यदि पास किए जाएंगे तो उनका विरोध होगा। इसके अतिरिक्त नैतिक नियम जो स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं, कानून का रूप धारण कर लेते हैं। गैटेल (Gettell) ने लिखा है, “जब नैतिक विचार स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं तो वे कानून का रूप ले लेते हैं।” लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने ठीक ही कहा है, “समस्या यह नहीं है कि सरकार क्या करती है बल्कि यह है कि उन्हें क्या करना चाहिए।” यदि राजनीति विज्ञान को नीतिशास्त्र से पृथक् कर दें तो यह निस्सार और निरर्थक हो जाएगी। उसमें प्रगतिशीलता और आदर्शता नहीं रह पाएगी। इसलिए लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने भी कहा है, “नीतिशास्त्र के अध्ययन के बिना राजनीति शास्त्र का अध्ययन विफल है।” इसके अतिरिक्त राजनीति विज्ञान की अनेक शाखाएं आचार शास्त्र की नींव पर खड़ी हैं, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्पूर्ण शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता पर आधारित है। आचार शास्त्र से संविधान भी प्रभावित होता है क्योंकि अनेक प्रकार के आदर्शों को संविधान में उचित स्थान देना अनिवार्य है। भारत और आयरलैंड के संविधान में हमें दिए गए राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व’ ही स्पष्ट उदाहरण है।

राजनीति विज्ञान की नीतिशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Ethics)—वर्तमान राज्य कल्याणकारी राज्य है। सरकार लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाती है। इसके साथ ही सरकार सामाजिक बुराइयों को दूर करती है। भारत सरकार ने सती-प्रथा, दहेज-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों को कानून के द्वारा रोकने का प्रयत्न किया है और काफ़ी सफलता भी मिली है। भारत सरकार अहिंसा के सिद्धान्तों पर चल रही है और इन्हीं सिद्धान्तों का प्रचार कर रही है। भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील की स्थापना की थी ताकि संसार के दूसरे देशों में भी अहिंसा का प्रचार किया जा सके। सरकार राज्य में शान्ति की स्थापना करती है और नैतिकता शान्ति के वातावरण में ही विकसित हो सकती है। यदि राज्य शान्ति का वातावरण उत्पन्न न करे, तो नैतिक जीवन बिताना असम्भव हो जाएगा। इस प्रकार सरकार कानून द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें नैतिकता विकसित हो सके। क्रोशे के मतानुसार, “नैतिकता अपनी पूर्णता और उच्चतम स्पष्टता राजनीति में ही पाती है।”

दोनों में अन्तर (Difference between the two)-राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी उन दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार हैं-

नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित रहता है जब कि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से सम्बन्ध रखता है। नीतिशास्त्र मनुष्य के आन्तरिक तथा बाहरी दोनों कार्यों से सम्बन्धित है, परन्तु राजनीति विज्ञान मनुष्य के केवल बाहरी कार्यों से सम्बन्धित है।

राज्य के नियमों का पालन करवाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है। यदि सरकार के किसी कानून का उल्लंघन कोई मनुष्य करता है तो उसे न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जाता है, परन्तु नीतिशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने पर कोई दण्ड नहीं दिया जाता क्योंकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना अपराध नहीं केवल पाप है।

राजनीति विज्ञान मुख्यतः वर्णनात्मक है क्योंकि इसमें राज्य, सरकार की शक्तियां, संविधान इत्यादि का वर्णन करता है जबकि नीतिशास्त्र मुख्यतः आदर्शात्मक है और यह विषय जनता के सामने कुछ आदर्श रखे हुए हैं।

राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों से है जबकि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध केवल सिद्धान्तों से है। नीतिशास्त्र वास्तविकता से बहुत दूर है। यह केवल काल्पनिक है।

राज्य के नियमों तथा नैतिकता के नियमों में सदैव एकरूपता नहीं होती। सड़क के दाईं ओर चलना राज्य के नियम के विरुद्ध है, परन्तु नैतिकता के विरुद्ध नहीं।

राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं, परन्तु इस शास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इस बात से है कि वे क्या हैं परन्तु नीतिशास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इससे है कि वे क्या होने चाहिएं।
राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र के सम्बन्ध और अन्तर दोनों को स्पष्ट करते हुए कैटलिन ने कहा, “नीतिशास्त्र से एक राजनीतिज्ञ यह सीखता है कि अनेक मार्गों में से कौन-सा मार्ग सही है और राजनीति विज्ञान बतलाता है कि व्यावहारिक दृष्टि से कौन-सा मार्ग अपनाना सम्भव होगा।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

निष्कर्ष (Conclusion)-नीतिशास्त्र और राजनीति विज्ञान में भले ही कई भिन्नताएं हैं, फिर भी इनकी समीपता से इन्कार नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र राजनीति विज्ञान के अध्ययन को समृद्ध बनाता है और व्यावहारिक राजनीति को उदात्त बनाने (To ennoble) के लिए प्रेरित करता है। आजकल की व्यावहारिक राजनीति में भ्रष्टाचार के उदाहरण सर्वप्रसिद्ध हैं और इन भ्रष्टाचारी तरीकों ने समाज के हर पक्ष को दूषित कर दिया है। इस भ्रष्टाचार से बचने के साधन नीतिशास्त्र ही सुझा सकता है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान एवं इतिहास में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relation between Political Science and History.)
उत्तर-
राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। सीले (Seeley) ने इन दोनों में सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “बिना राजनीति विज्ञान के इतिहास का कोई फल नहीं। बिना इतिहास के राजनीति विज्ञान की कोई जड़ नहीं।”

बर्गेस (Burgess) ने दोनों के सम्बन्ध के बारे में लिखा है, “इन दोनों को अलग कर दो उनमें से एक यदि मृत नहीं तो पंगु अवश्य हो जाएगा और दूसरा केवल आकाश-पुष्प बनकर रह जाएगा।” (“Separate them and the one becomes a cripple, if not a corpse, the other a will of the wisp.”) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “इतिहास भूतकालीन राजनीति है और राजनीति वर्तमान इतिहास है।” (“History is nothing but past politics and politics is nothing but present History.”) इन विद्वानों के कथन से राजनीति तथा इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध का पता लगता है।

इतिहास की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of History to Political Science)—इतिहास से हमें बीती हुई घटनाओं का ज्ञान होता है। राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं। राजनीति विज्ञान में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए हमें इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है। राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए, उनके अतीत को जानना आवश्यक होता है और इतिहास से ही उनके अतीत को जाना जा सकता है। यदि हम इंग्लैंड की संसद् तथा राजतन्त्र का वर्तमान स्वरूप जानना चाहते हैं तो हमें वहां के इतिहास का गहरा अध्ययन करना पड़ेगा। राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। मानवीय इतिहास के विभिन्न समयों पर राजनीति क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए, जिनके परिणाम और सफलता-असफलता का वर्णन इतिहास से प्राप्त होता है। राजनीति क्षेत्र के ये भूतकालीन कार्य एक प्रयोग के समान ही होते हैं और ये भूतकालीन प्रयोग भविष्य के लिए मार्ग बतलाने का कार्य करते हैं। भारत के इतिहास से पता चलता है कि वही शासक सफल रहेगा जो धर्म-निरपेक्ष हो। धार्मिक सहिष्णुता की नीति के आधार पर अकबर ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जबकि औरंगज़ेब की धर्मान्ध नीति के कारण मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया। भारत आजकल धर्म-निरपेक्ष नीति को अपनाए हुए है। अतः राजनीति विज्ञान के अध्ययन का आधार इतिहास है।

इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास मनुष्य की सफलताओं एवं विफलताओं का संग्रह है। अतीत में मानव ने क्या-क्या भूलें कीं, किस नीति को अपनाने से अच्छा और बुरा परिणाम निकला आदि बातों का ज्ञानदाता इतिहास ही है। भारतीय इतिहास में अकबर की सफलता और औरंगज़ेब की विफलता हमें राजनीतिक शिक्षा देती है। इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय और फ्रांस के लुई चौदहवें के निरंकुश राजतन्त्र हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि निरंकुश राज्य अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। इतिहास द्वारा बतलाई गई भूलों के आधार पर ही राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन लाते हैं।

कोई भी राजनीतिक संस्था अकस्मात् पैदा नहीं होती। उसका वर्तमान रूप शनैः-शनैः होने वाले क्रमिक विकास का फल है। किसी समय किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संस्था का जन्म होता है और समयानुसार उसमें परिवर्तन भी आते रहते हैं और कई बार यह संस्था नया रूप भी धारण कर लेती है। इस पृष्ठभूमि में यह आवश्यक है कि राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन पर्यवेक्षण (Observation) विधि के द्वारा किया जाए जिसके लिए इतिहास का सहारा लेना अनिवार्य है। यह कहना उचित ही है कि इतिहास की उपेक्षा करने से राजनीति शास्त्र का अध्ययन केवल काल्पनिक और सैद्धान्तिक ही होगा। ऐसे अध्ययन का दोष बताते हुए लॉस्की (Laski) कहता है, “हर प्रकार के काल्पनिक राजनीति शास्त्र का परास्त होना अनिवार्य ही है क्योंकि मनुष्य कभी भी ऐतिहासिक प्रभावों से उन्मुक्त नहीं हो सकते।” विलोबी (Willoughby) के शब्दों में “इतिहास राजनीति शास्त्र को तीसरी दिशा प्रदान करता है।” (“History gives the third dimension to Political Science …………”)

इतिहास को राजनीति शास्त्र की देन (Contribution of Political Science to History)—परन्तु इतिहास का ही राजनीति शास्त्र पर प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि इतिहास भी राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ हासिल करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। इतिहास में केवल युद्ध, विजयों तथा अन्य घटनाओं का ही वर्णन नहीं आता बल्कि इसमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक घटनाओं का भी वर्णन आता है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाता है। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, व्यक्तिवाद आदि धाराओं की चर्चा के बिना 17वीं शताब्दी का इतिहास अपूर्ण है। भारत के 20वीं शताब्दी के इतिहास से यदि कांग्रेस पार्टी का महत्त्व, असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य पार्टी, भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स योजना, केबिनेट मिशन योजना, भारत का विभाजन, चीन का भारत पर आक्रमण तथा पाकिस्तान के आक्रमण आदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो भारत का इतिहास महत्त्वहीन रह जाएगा। लॉर्ड एक्टन ने राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध बताते हुए लिखा है, “राजनीति इतिहास की धारा में उसी प्रकार इकट्ठी हो जाती है जैसे नदी की रेत में सोने के कण।”

राजनीति की इतिहास को एक महत्त्वपूर्ण देन यह है कि राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। रूसो और मॉण्टेस्क्यू के विचारों का फ्रांस की राज्यक्रान्ति पर, कार्ल मार्क्स के विचारों का सोवियत रूस की राज्यक्रान्ति पर तथा महात्मा गांधी के विचारों का भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा।

दोनों में अन्तर (Differences between the two)-राजनीतिक विकास तथा इतिहास में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है।
1. इतिहास का क्षेत्र राजनीतिक विज्ञान से व्यापक है (Scope of History is wider than the scope of Political Science)-फ्रीमैन के कथन से समहत होना कठिन है क्योंकि पूर्ण भूतकालीन इतिहास राजनीति नहीं है और वर्तमान राजनीति कल का इतिहास नहीं है। इतिहास में प्रत्येक घटना का वर्णन किया जाता है। इसका क्षेत्र व्यापक है। जब हम 19वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की सभी घटनाओं, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक का वर्णन आ जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध केवल राजनीतिक घटनाओं से होता है।

2. राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है, जबकि इतिहास केवल भूतकाल से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राजनीतिक संस्थाओं के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन किया जाता है। राज्य कैसा था, कैसा है और कैसा होना चाहिए, इन तीनों का उत्तर राजनीति शास्त्र से मिलता है, परन्तु इतिहास में केवल बीती घटनाओं का ही वर्णन आता है।

3. इतिहास वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान विचारशील है- इतिहास में केवल घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में इन घटनाओं का मूल्यांकन भी किया जाता है और इस मूल्यांकन के आधार पर निश्चित परिणाम निकाले जाते हैं। इस प्रकार इतिहास वर्णनात्मक है परन्तु राजनीति शास्त्र विचारात्मक भी है।

4. इतिहासकार नैतिक निर्णय नहीं देता, परन्तु राजनीति विज्ञान के विद्वानों के लिए नैतिक निर्णय देना आवश्यक है-इतिहासकार केवल बीती हुई घटनाओं का वर्णन करता है। वह घटनाओं की नैतिकता के आधार पर परख करके कोई निर्णय नहीं देता है। उदाहरण के लिए, दिसम्बर 1971 में भारत का पाकिस्तान से युद्ध हुआ। इतिहासकार का कार्य केवल युद्ध की घटनाओं का वर्णन करना है। इतिहासकार का इस बात के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है कि युद्धबन्दियों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, असैनिक आबादी पर बम बरसाए गए तो कोई अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं। परन्तु राजनीति विज्ञान का विद्वान् युद्ध के नैतिक पहलू पर अपना निर्णय अवश्य देगा।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा इतिहास में अन्तर होते हुए भी घनिष्ठ सम्बन्ध है और इस विचार को सब विद्वान् मान्यता प्रदान करते हैं। गार्नर (Garmer) के शब्दों में, ‘अध्ययन विषय के तौर पर यह एक-दूसरे के सहायक व पूरक हैं।’

सीले (Seeley) ने इन दोनों को पूरक सिद्ध करने के लिए कहा है, “इतिहास के उदार प्रभाव के बिना राजनीति अशिष्ट है और राजनीति से अपने सम्बन्ध को भुला देने से इतिहास साहित्य मात्र रह जाता है।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

प्रश्न 3.
राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relation between Political Science and Economics.)
उत्तर-
राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। प्राचीन काल में अर्थशास्त्र ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ (Political Economy) के नाम से प्रसिद्ध था। विद्वानों ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ की परिभाषा इस प्रकार की है-“यह राज्य के लिए राजस्व (Revenue) जुटाने की एक कला है।” भारतीय विद्वान् चाणक्य ने अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में राजनीतिक समस्याओं का वर्णन किया । इसी प्रकार राजनीति विज्ञान के कई मान्य ग्रन्थों जैसे अरस्तु की ‘Politics’ तथा लॉक की ‘नागरिक प्रशासन पर दो लेख’ (Two Treatises on Civil Government) में उन विषयों का विवेचन मिलता है, जिन्हें आजकल अर्थशास्त्र में शामिल किया जाता है। इस प्रकार प्राचीन काल में दो शास्त्रों को एक माना जाता था, परन्तु 19वीं शताब्दी में एडम स्मिथ ने आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित बताया। एडम स्मिथ पहला विद्वान् था जिसने अर्थशास्त्र को राजनीति शास्त्र से अलग किया। 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विषय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। अर्थशास्त्र का सम्बन्ध सम्पत्ति के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा विनिमय सम्बन्धी मनुष्य की गतिविधियों से है।

यह ठीक है कि 20वीं शताब्दी के अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र विज्ञान माना गया है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में कोई सम्बन्ध नहीं। अब भी दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है और आपस में आदानप्रदान करते हैं।

अर्थशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Economics to Political Science)-वर्तमान युग में मनुष्य तथा राज्य की मुख्य समस्याएं आर्थिक हैं। इतिहास से पता चलता है कि आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। जब मनुष्य आखेट अवस्था में से गुज़र रहा था अर्थात् जब मनुष्य का पेशा शिकार करना था तब राज्य के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं होता था क्योंकि उस समय मनुष्य एक स्थान पर नहीं रहता था। जब मनुष्य ने कृषि करना आरम्भ किया, इसके साथ ही मनुष्य को एक निश्चित स्थान पर रहना पड़ा, जिससे राज्य की उत्पत्ति हुई। पहले सरकार पर बड़ेबड़े ज़मींदारों का प्रभाव होता था, परन्तु यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् सरकार पर उद्योगपतियों का प्रभाव हो गया है। आजकल हमारे देश में भी उद्योगपतियों का ही अधिक प्रभाव है।

व्यक्तिवाद, समाजवाद तथा साम्यवाद मुख्यतः आर्थिक सिद्धान्त हैं परन्तु इनका अध्ययन राजनीतिशास्त्र में भी किया जाता है क्योंकि इन आर्थिक सिद्धान्तों ने राज्य के ढांचे को ही बदल दिया है। चीन में साम्यवाद है। उत्पादन के साधनों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण है। सरकार की समस्त शक्तियां कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) के हाथ में ही हैं। अमेरिका में पूंजीवाद है, जिसके कारण वहां की सरकार संगठन तथा सरकार के उद्देश्य चीन की सरकार से भिन्न हैं। अतः आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के अनुसार, उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होने पर राजनीतिक परिवर्तन होना अनिवार्य है। कार्ल मार्क्स का यह कथन सर्वथा सत्य तो नहीं है परन्तु इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्थिक परिवर्तन ही राजनीतिक परिवर्तन का मुख्य कारण भी होता है।

राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में जो औद्योगिक क्रान्तियां हुई हैं उनके परिणामस्वरूप ही यूरोप के इन देशों में उपनिवेशवाद और समाजवाद की नीति अपनाई। इस सम्बन्ध में बिस्मार्क और जोज़फ चैम्बरलेन के कथन महत्त्वपूर्ण हैं। बिस्मार्क का कथन था, “मुझे यूरोप के बाहर नए राज्यों की नहीं, बल्कि व्यापारिक केन्द्रों की आवश्यकता है।” (“I want outside Europe…not provinces but commerical enterprises.”)

राजनीतिक क्षेत्र की अनेक मत्त्वपूर्ण घटनाएं आर्थिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप ही घटित हुई हैं। भारत में आज लोकतन्त्र को इतनी सफलता नहीं मिली जितनी कि अमेरिका तथा इंग्लैंड में प्राप्त हुई है। भारत में सफलता न मिलने का मुख्य कारण लोगों की आर्थिक दशा है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है, अधिकारों तथा कर्तव्यों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर पाती। लोगों के वोट खरीद लिए जाते हैं। दूसरे विश्व-युद्ध के पश्चात् बहुत से देशों को अमेरिका से आर्थिक सहायता लेनी पड़ी जिसका परिणाम यह हुआ कि उन देशों की नीतियों पर भी अमेरिका का प्रभाव पड़ा।

अर्थशास्त्र को राजनीति विज्ञान की देन (Contribution of Political Science to Economics)-अर्थशास्त्र के अध्ययन में राजनीति विज्ञान से भी बहुत सहायता मिलती है। राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शासन-व्यवस्था यदि दृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। आर्थिक दशाओं का ही नहीं सरकार की नीतियों का भी आर्थिक व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। सरकार की कर नीति, आयात-निर्यात नीति, विनिमय की दर, बैंक नीति, व्यापार तथा उद्योग सम्बन्धी कानून, सीमा शुल्क नीति आदि का राज्य की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ता है। सरकार पूंजीवाद तथा साम्यवाद को अपना कर देश की आर्थिक व्यवस्था को बदल सकती है। भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं हैं ताकि लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा किया जा सके। सरकार बड़े-बड़े उद्योगों को अपने हाथों में ले रही है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा।

युद्ध एक सैनिक और राजनीतिक क्रिया है परन्तु इसका देश की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ता है। अमेरिका की आर्थिक स्थिति में गिरावट होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण वियतनाम युद्ध रहा है। इसी प्रकार 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों ने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत प्रभावित किया है।

अतः इस विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर करता है।

अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में समानताएं (Points of Similarity between Economics and Political Science) अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में निम्नलिखित समानताएं पाई जाती हैं-

  • दोनों का विषय समाज में रह रहा मनुष्य है-समाज में रह रहा मनुष्य दोनों शास्त्रों का विषय है। दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण है और उसी के लिए दोनों कार्य करते हैं।
  • दोनों ही आदर्शात्मक सामाजिक विज्ञान हैं-दोनों ही भूतकाल के आधार पर वर्तमान का विश्लेषण करके भविष्य के लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं। दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में मानव जीवन के लिए ऐसे आदर्श स्थापित करते हैं जिनके द्वारा अधिक-से-अधिक मानव हित हो।
  • दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं- राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित हैं।

दोनों में अन्तर (Difference between the two) राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार है

1. विभिन्न विषय-क्षेत्र (Different Subject Matter) राजनीति विज्ञान मनुष्य की राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करता है और इस विज्ञान का मुख्य विषय राज्य तथा सरकार है। परन्तु अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करता है। मनुष्य धन कैसे कमाता है, कैसे उसका उपयोग करता है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर अर्थशास्त्र देता है। इस प्रकार दोनों का विषय-क्षेत्र अलग-अलग है।

2. दृष्टिकोण (Approach)—मिस्टर ब्राऊन (Mr. Brown) ने राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र में भेद करते हुए लिखा है, “अर्थशास्त्र का सम्बन्ध वस्तुओं से है जबकि राजनीति विज्ञान का मनुष्यों से। अर्थशास्त्र वस्तुओं की कीमतों का अध्ययन करता है और राजनीति विज्ञान सदाचार सम्बन्धी मूल्यों का।” इस प्रकार अर्थशास्त्र व्याख्यात्मक विज्ञान है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक विज्ञान है।

3. अध्ययन पद्धति (Method of Study)—दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि दोनों तथा अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति विज्ञान के अध्ययन के अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है और इसके निष्कर्ष और सिद्धान्त अधिक सही होते हैं। इसका कारण यह है कि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं से है और इन आवश्यकताओं तथा इनकी पूर्ति का उल्लेख अंकों द्वारा दर्शाया जा सकता है। अर्थशास्त्र में मात्रात्मक आंकड़ों का संग्रह राजनीति विज्ञान की अपेक्षा अधिक सम्भव है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र में भिन्नता होने के बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में दोनों ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति एक-दूसरे के सहयोग और सहायता के बिना नहीं कर सकते। डॉ० गार्नर (Dr. Garner) ने ठीक ही कहा है, “बहुत-सी आर्थिक समस्याओं का हल राजनीतिक आर्थिक हालतों से आरम्भ होता है।” विलियम एसलिंगर (William Esslinger) के विचारानुसार, “अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र की एकता का पाठ्यक्रम उपकक्षा में पढ़ाया जाना चाहिए।”

प्रश्न 4.
राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relations between Political Science and Sociology.)
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र मनुष्य के सामाजिक जीवन का शास्त्र है। समाज- शास्त्र समाज की उत्पत्ति, विकास, उद्देश्य तथा संगठन का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र में मानव जीवन के सभी पहलुओं राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक इत्यादि का अध्ययन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में मानव जीवन के राजनीतिक पहलू का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा है। प्रसिद्ध विद्वान् रेटजनहाफर ने ठीक ही कहा है, “राज्य अपने विकास के प्रारम्भिक चरणों में एक सामाजिक संस्था ही थी।” हम आगस्ट काम्टे (August Comte) के इस कथन से सहमत हैं, “समाजशास्त्र सभी समाजशास्त्रों की जननी है।” राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान करते हैं। प्रो० कैटलिन (Catline) ने तो यहां तक कहा है, “राजनीति और समाजशास्त्र अखण्ड हैं और वास्तव में एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

राजनीति विज्ञान को समाजशास्त्र की देन (Contribution of Sociology to Political Science) समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। बिना समाजशास्त्र के अध्ययन के राजनीति शास्त्र के सिद्धान्तों को समझना कठिन है। प्रो० गिडिंग्स (Prof. Giddings) ने ठीक ही कहा है, “समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ लोगों को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना उसी प्रकार है जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति को खगोल विज्ञान अथवा ऊष्मा गति की शिक्षा देना।” (“To teach the theory of the state to men who have not learned the first principles of sciology is like teaching Astronomy or Thermodynamics to men who have not learned Newton’s Laws of Motion.”) दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों को न जानने वाले व्यक्ति को खगोल विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है उसी प्रकार बिना समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनजान व्यक्ति को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना व्यर्थ है। समाजशास्त्रों में समाज के रीति-रिवाजों का अध्ययन किया जाता है। हम जानते हैं कि राज्य के कानून का पालन तभी किया जाता है यदि वह समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार हो।

राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाज शास्त्र की बहुत देन है। समाजशास्त्र से पता चलता है कि राज्य मानव की सामाजिक भावना का परिणाम है। समाज के विकास के स्तर के साथसाथ राज्य का विकास हुआ है। राजनीतिक समाजशास्त्र (Political Sociology) राजनीति विज्ञान की एक शाखा पनप रही है, जो इस बात की स्पष्ट सूचक है कि राजनीतिक तथ्यों के विधिवत अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेना आवश्यक है। इस प्रकार समाज शास्त्र का राजनीति शास्त्र पर बहुत प्रभाव पड़ा है।

राजनीति विज्ञान की समाजशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Sociology)-परन्तु दूसरी ओर राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय राज्य हैराज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, राज्य क्या है, राज्य का विकास कैसे हुआ, राज्य का उद्देश्य क्या है इन सब प्रश्नों का उत्तर राजनीति विज्ञान में मिलता है। समाजशास्त्र को राज्य से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी राजनीति शास्त्र से मिलती है। राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र का एक अंग है जिसके बिना समाजशास्त्र की विषय सामग्री पूर्ण नहीं हो सकती।

राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के आपसी सम्बन्ध का एक प्रणाम यह है कि मॉरिस, गिन्सबर्ग, आगस्त काम्टे, लेस्टर वार्ड, समवर आदि समाजशास्त्रियों ने राज्य की प्रकृति और उद्देश्यों में इतनी रुचि दिखाई है, मानो वे समाजशास्त्र की मुख्य समस्याएं हों। इसी प्रकार डेविड ईस्टन, हैरल्ड लासवैल, ग्रेवीज ए० ऑल्मण्ड, पावेल, कोलमेन, मेक्स वेबर और राजनीति शास्त्र के अन्य आधुनिक विद्वानों द्वारा समाज शास्त्र से अधिक-से-अधिक मात्रा में अध्ययन सामग्री और अध्ययन पद्धतियां प्राप्त की गई हैं।

दोनों में अन्तर (Differences between the two) राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी दोनों में अन्तर है-

  • दोनों के क्षेत्र अलग हैं-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र के क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं। राजनीतिक शास्त्र का मुख्य विषय-क्षेत्र राज्य है जबकि समाजशास्त्र का मुख्य क्षेत्र समाज है।
  • राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र से संकुचित है-राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र के क्षेत्र से संकुचित है। राजनीति शास्त्र मनुष्य के राजनीतिक पहलू का ही अध्ययन कराता है जबकि समाजशास्त्र मनुष्य के सभी पहलुओं का अध्ययन कराता है।
  • राजनीति विज्ञान यह मानकर चलता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसमें हम यह अध्ययन नहीं करते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी क्यों है। परन्तु समाजशास्त्र में इस प्रश्न का भी अध्ययन किया जाता है।
  • समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान से पहले बना–राजनीति शास्त्र में समाज बनने से पूर्व के मानव का अध्ययन नहीं किया जाता जबकि समाजशास्त्र के विषय का अध्ययन वहीं से शुरू होता है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत मानव जाति के दोनों युगों-संगठित तथा असंगठित-का अध्ययन किया जाता है, परन्तु राजनीति शास्त्र केवल संगठित युग का अध्ययन करता है।
  • समाजशास्त्र केवल भूत और वर्तमान से सम्बन्धित है परन्तु राजनीति विज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का भी अध्ययन किया जाता है जबकि समाज शास्त्र में समाज के अतीत तथा वर्तमान का ही अध्ययन किया जाता है।
  • समाजशास्त्र वर्णनात्मक है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक है-समाजशास्त्र समाज की उत्पत्ति तथा विकास का विस्तृत रूप से अध्ययन करता है, परन्तु इस अध्ययन के पश्चात् कोई परिणाम नहीं निकलता। यह केवल सामाजिक घटनाओं का वर्णन करता है। उन घटनाओं में अच्छी तथा बुरी घटनाओं की पहचान नहीं कराता। राजनति शास्त्र केवल घटनाओं का वर्णन ही नहीं करता बल्कि परिणाम भी निकालता है, क्योंकि राजनीति विज्ञान का उद्देश्य एक आदर्श राज्य की स्थापना करना तथा आदर्श नागरिक पैदा करना है।
  • समाजशास्त्र में मनुष्य के चेतन (conscious) और अचेतन (unconscious) दोनों प्रकार के कार्यों का अध्ययन किया जाता है परन्तु राजनीति विज्ञान में केवल चेतन प्रकार के कार्यों का ही अध्ययन किया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में अन्तर होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध न होकर पूरक हैं। राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं।

प्रश्न 5.
राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र में सम्बन्ध बताएं।
(Discuss the relations between Political Science and Ethics.)
उत्तर-
राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध है। नीतिशास्त्र साधारण मनुष्य की भाषा में वह शास्त्र है, जो अच्छे-बुरे में अन्तर स्पष्ट करता है। नीतिशास्त्र वह शास्त्र है जिसके द्वारा धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, अहिंसा-हिंसा, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य तथा शुभ-अशुभ में अन्तर का पता चलता है। डीवी (Deewey) के अनुसार, “नीतिशास्त्र आचरण का वह विज्ञान है जिसमें मानवीय आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य तथा अच्छाई तथा बुराई पर विचार किया जाता है।” नीतिशास्त्र के द्वारा हम निश्चित करते हैं कि मनुष्य का कौन-सा कार्य अच्छा है और कौनसा कार्य बुरा । यह शास्त्र नागरिकको आदर्श नागरिक बनाने में सहायक है। दूसरी ओर राज्य का मुख्य उद्देश्य भी आदर्श नागरिक बनाना है। इस प्रकार दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राचीन यूनानी लेखकों प्लेटो तथा अरस्तु ने राजनीति शास्त्र को नीतिशास्त्र का ही एक अंग माना है। प्लेटो तथा अरस्तु के अनुसार, “राज्य एक सर्वोच्च नैतिक संस्था है। इसका उद्देश्य नागरिकों के नैतिक स्तर को ऊंचा करना है।” प्लेटो की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिपब्लिक’ (Republic) में राजनीति ही नहीं बल्कि नैतिक दर्शन भी भरा हुआ है। अरस्तु ने कहा था “राज्य जीवन को सम्भव बनाने के लिए उत्पन्न हुआ, परन्तु अब वह जीवन को अच्छा बनाने के लिए विद्यमान है।”

इटली के विद्वान् मैक्यावली ने सर्वप्रथम राजनीति तथा नीतिशास्त्र में भेद किया। इसके अनुसार राजा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह नैतिकता के नियमों के अनुसार शासन चलाए। आवश्यकता पड़ने पर अनैतिकता का रास्ता भी अपनाया जा सकता है। मैक्यावली के अनुसार-राजा के सामने सबसे बड़ा उद्देश्य राज्य की सुरक्षा है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की परवाह नहीं करनी चाहिए। हाब्स (Hobbes) ने भी मैक्यावली के विचारों का समर्थन किया। बोदीन (Bodin), ग्रोशियस (Grotius) तथा लॉक (Locke) ने भी इन दोनों शास्त्रों को अलग किया, परन्तु रूसो (Rouseau) ने फिर इन दोनों शास्त्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया। कांट (Kant), ग्रीन (Green) ने भी रूसो के मत का समर्थन किया।

नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन (Contribution of Ethics to Political Science)-वर्तमान समय में इन दोनों शास्त्रों में गहरा सम्बन्धा समझा जाता है। महात्मा गांधी ने दोनों शास्त्रों को अभिन्न माना है। उनके अनुसारसरकार को अपनी नीति नैतिकता के सिद्धान्तों पर बनानी चाहिए। सरकार की नीतियों में असत्य, अधर्म, कपट तथा पाप इत्यादि की मिलावट नहीं होनी चाहिए। कॉक्स के मतानुसार, “जो बात नैतिक दृष्टि से गलत है, वह राजनीतिक दृष्टि से सही नहीं हो सकती।” कोई भी सरकार ऐसे कानून पास नहीं कर सकती जो नैतिकता के विरुद्ध हों। यदि पास किए जाएंगे तो उनका विरोध होगा। इसके अतिरिक्त नैतिक नियम जो स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं, कानून का रूप धारण कर लेते हैं। गैटेल (Gettell) ने लिखा है, “जब नैतिक विचार स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं तो वे कानून का रूप ले लेते हैं।” लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने ठीक ही कहा है, “समस्या यह नहीं है कि सरकार क्या करती है बल्कि यह है कि उन्हें क्या करना चाहिए।” यदि राजनीति विज्ञान को नीतिशास्त्र से पृथक् कर दें तो यह निस्सार और निरर्थक हो जाएगी। उसमें प्रगतिशीलता और आदर्शता नहीं रह पाएगी। इसलिए लॉर्ड एक्टन (Lord Acton) ने भी कहा है, “नीतिशास्त्र के अध्ययन के बिना राजनीति शास्त्र का अध्ययन विफल है।” इसके अतिरिक्त राजनीति विज्ञान की अनेक शाखाएं आचार शास्त्र की नींव पर खड़ी हैं, जैसे अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्पूर्ण शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता पर आधारित है। आचार शास्त्र से संविधान भी प्रभावित होता है क्योंकि अनेक प्रकार के आदर्शों को संविधान में उचित स्थान देना अनिवार्य है। भारत और आयरलैंड के संविधान में हमें दिए गए राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व’ ही स्पष्ट उदाहरण है।

राजनीति विज्ञान की नीतिशास्त्र को देन (Contribution of Political Science to Ethics)—वर्तमान राज्य कल्याणकारी राज्य है। सरकार लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा करने के लिए कई प्रकार के कानून बनाती है। इसके साथ ही सरकार सामाजिक बुराइयों को दूर करती है। भारत सरकार ने सती-प्रथा, दहेज-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों को कानून के द्वारा रोकने का प्रयत्न किया है और काफ़ी सफलता भी मिली है। भारत सरकार अहिंसा के सिद्धान्तों पर चल रही है और इन्हीं सिद्धान्तों का प्रचार कर रही है। भारत के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील की स्थापना की थी ताकि संसार के दूसरे देशों में भी अहिंसा का प्रचार किया जा सके। सरकार राज्य में शान्ति की स्थापना करती है और नैतिकता शान्ति के वातावरण में ही विकसित हो सकती है। यदि राज्य शान्ति का वातावरण उत्पन्न न करे, तो नैतिक जीवन बिताना असम्भव हो जाएगा। इस प्रकार सरकार कानून द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें नैतिकता विकसित हो सके। क्रोशे के मतानुसार, “नैतिकता अपनी पूर्णता और उच्चतम स्पष्टता राजनीति में ही पाती है।”

दोनों में अन्तर (Difference between the two)-राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी उन दोनों में अन्तर है, जो इस प्रकार हैं-

  • नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित रहता है जब कि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से सम्बन्ध रखता है। नीतिशास्त्र मनुष्य के आन्तरिक तथा बाहरी दोनों कार्यों से सम्बन्धित है, परन्तु राजनीति विज्ञान मनुष्य के केवल बाहरी कार्यों से सम्बन्धित है।
  • राज्य के नियमों का पालन करवाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है। यदि सरकार के किसी कानून का उल्लंघन कोई मनुष्य करता है तो उसे न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जाता है, परन्तु नीतिशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने पर कोई दण्ड नहीं दिया जाता क्योंकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना अपराध नहीं केवल पाप है।
  • राजनीति विज्ञान मुख्यतः वर्णनात्मक है क्योंकि इसमें राज्य, सरकार की शक्तियां, संविधान इत्यादि का वर्णन करता है जबकि नीतिशास्त्र मुख्यतः आदर्शात्मक है और यह विषय जनता के सामने कुछ आदर्श रखे हुए हैं।
  • राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों से है जबकि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध केवल सिद्धान्तों से है। नीतिशास्त्र वास्तविकता से बहुत दूर है। यह केवल काल्पनिक है।
  • राज्य के नियमों तथा नैतिकता के नियमों में सदैव एकरूपता नहीं होती। सड़क के दाईं ओर चलना राज्य के नियम के विरुद्ध है, परन्तु नैतिकता के विरुद्ध नहीं।
  • राजनीति विज्ञान में हम राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन करते हैं, परन्तु इस शास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इस बात से है कि वे क्या हैं परन्तु नीतिशास्त्र का मुख्य सम्बन्ध इससे है कि वे क्या होने चाहिएं।
    राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र के सम्बन्ध और अन्तर दोनों को स्पष्ट करते हुए कैटलिन ने कहा, “नीतिशास्त्र से एक राजनीतिज्ञ यह सीखता है कि अनेक मार्गों में से कौन-सा मार्ग सही है और राजनीति विज्ञान बतलाता है कि व्यावहारिक दृष्टि से कौन-सा मार्ग अपनाना सम्भव होगा।”

निष्कर्ष (Conclusion)-नीतिशास्त्र और राजनीति विज्ञान में भले ही कई भिन्नताएं हैं, फिर भी इनकी समीपता से इन्कार नहीं किया जा सकता। नीतिशास्त्र राजनीति विज्ञान के अध्ययन को समृद्ध बनाता है और व्यावहारिक राजनीति को उदात्त बनाने (To ennoble) के लिए प्रेरित करता है। आजकल की व्यावहारिक राजनीति में भ्रष्टाचार के उदाहरण सर्वप्रसिद्ध हैं और इन भ्रष्टाचारी तरीकों ने समाज के हर पक्ष को दूषित कर दिया है। इस भ्रष्टाचार से बचने के साधन नीतिशास्त्र ही सुझा सकता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र, इतिहास के ऊपर निर्भर है ? वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र और इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध है। राजनीति शास्त्र में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए राजनीति शास्त्र को इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है। निःसन्देह राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। भारत के इतिहास से हमें पता चलता है कि वही शासक सफल रहेगा जो धर्म-निरपेक्ष हो। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया। इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास की उपेक्षा करने से राजनीति शास्त्र का अध्ययन केवल काल्पनिक और सैद्धान्तिक ही होगा।

प्रश्न 2.
राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाजशास्त्र की बहुत बड़ी देन है।
राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। समाजशास्त्र को राज्य से सम्बन्धित प्रत्येक जानकारी राजनीति शास्त्र से मिलती है। राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र का एक अंग है जिसके बिना समाजशास्त्र की विषय सामग्री पूर्ण नहीं हो सकती।

प्रश्न 3.
राजनीति शास्त्र का अर्थशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
प्राचीनकाल में अर्थशास्त्र ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ के नाम से प्रसिद्ध था। 20वीं शताब्दी में अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को एक स्वतन्त्र सामाजिक विषय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इतिहास से पता चलता है कि आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना अनिवार्य है। राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं।

राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। शासन व्यवस्था यदि सुदृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। सरकार पूंजीवाद तथा साम्यवाद को अपनाकर देश की आर्थिक व्यवस्था को बदल सकती है। निःसन्देह राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 4.
इतिहास, राजनीति शास्त्र के ऊपर कैसे निर्भर है ?
उत्तर-
इतिहास, राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ प्राप्त करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाएगा। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, व्यक्तिवाद जैसी धाराओं की चर्चा के बिना 17वीं शताब्दी का इतिहास अधूरा है। भारत के 20वीं शताब्दी के इतिहास से यदि कांग्रेस पार्टी का महत्त्व, असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य दल, भारत छोड़ो आन्दोलन, क्रिप्स योजना, कैबिनेट मिशन योजना, भारत का विभाजन, चीन तथा पाकिस्तान द्वारा आक्रमण आदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो भारत का इतिहास महत्त्वहीन रह जाएगा। राजनीति की इतिहास को महत्त्वपूर्ण देन यह है कि राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। रूसो और माण्टेस्क्यू के विचारों का फ्रांस की राज्य क्रान्ति पर, कार्ल मार्क्स के विचारों का रूस की राज्य क्रान्ति पर तथा महात्मा गांधी के विचारों का भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 5.
राजनीति शास्त्र को इतिहास की देन का वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति विज्ञान में राज्य तथा अन्य संस्थाओं के अतीत के अध्ययन के लिए हमें इतिहास पर निर्भर रहना पड़ता है। राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए उनके अतीत को जानना आवश्यक होता है और इतिहास से ही उनके अतीत को जाना जा सकता है। राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला अथवा पथ-प्रदर्शक इतिहास है। मानवीय इतिहास के विभिन्न समयों पर राजनीतिक क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए, जिनके परिणाम और सफलता-असफलता का पता इतिहास से ही लगता है। राजनीतिक क्षेत्र के ये प्रयोग एक भूतकालीन प्रयोग के समान ही होते हैं और ये भूतकालीन प्रयोग भविष्य के लिए मार्ग बताने का कार्य करते हैं। इतिहास के ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हुए ही संविधान निर्माताओं ने भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया है। इतिहास, राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। इतिहास मनुष्य की सफलताओं एवं विफलताओं का संग्रह है। अतीत में मानव ने क्या-क्या भूलें कीं, किस नीति को अपनाने से अच्छा व बुरा परिणाम निकला आदि बातों का ज्ञानदाता इतिहास ही है। इतिहास द्वारा बताई गई भूलों के आधार पर राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन करते हैं।

प्रश्न 6.
राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में कोई चार अन्तर बताएं।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा इतिहास में घनिष्ठता होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • इतिहास का क्षेत्र राजनीति विज्ञान से अधिक व्यापक है-इतिहास की विषय-वस्तु का क्षेत्र राजनीति शास्त्र की अपेक्षा अधिक व्यापक है। जब हम 19वीं शताब्दी का इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की सभी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं का वर्णन होता है, परन्तु राजनीति शास्त्र केवल राजनीति घटनाओं से सम्बन्धित है।
  • राजनीति शास्त्र भूत, वर्तमान तथा भविष्य से सम्बन्धित है जबकि इतिहास केवल भूतकाल से सम्बन्धित है-राजनीति शास्त्र में राज्य के भूतकाल के अलावा उसके वर्तमान तथा भविष्य का भी अध्ययन किया जाता है जबकि इतिहास में केवल बीती घटनाओं का वर्णन होता है।
  • इतिहास वर्णनात्मक है, जबकि राजनीति शास्त्र विचारशील है-इतिहास में केवल घटनाओं का वर्णन किया जाता है जबकि राजनीति शास्त्र में घटनाओं के वर्णन के साथ-साथ उनका मूल्यांकन करके निश्चित परिणाम निकाले जाते हैं।
  • इतिहास नैतिक निर्णय नहीं देता, परन्तु राजनीति विज्ञान में विद्वानों के लिए नौतिक निर्णय देना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
अथशास्त्र की राजनीति शास्त्र को देन बताइए।
उत्तर-
आर्थिक समस्याएं मनुष्य की राजनीतिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक समस्याओं का ही परिणाम है। व्यक्तिवाद, समाजवाद, पूंजीवाद तथा साम्यवाद मुख्यतः आर्थिक सिद्धान्त है परन्तु इनका अध्ययन राजनीति शास्त्र में किया जाता है क्योंकि इन सिद्धान्तों ने राज्य के ढांचे को ही बदल दिया है। आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। राजनीतिक परिवर्तनों का मुख्य कारण आर्थिक परिवर्तन होते हैं। राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं। 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों में जो औद्योगिक क्रान्तियां हुईं, उनके परिणामस्वरूप ही उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की नीतियां अपनाई गईं। राजनीतिक क्षेत्र की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएं, आर्थिक गतिविधियों के फलस्वरूप ही घटित हुई हैं। भारत में लोकतन्त्र को अमेरिका और इंग्लैंड के समान सफलता न मिलने का मुख्य कारण इसकी आर्थिक दशा है।

प्रश्न 8.
राजनीति शास्त्र की अर्थशास्त्र को देन का वर्णन करें।
उत्तर-
अर्थशास्त्र के अध्ययन में राजनीति शास्त्र से भी बहुत सहायक मिलती है। राजनीतिक संगठन का देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ता है। शासन व्यवस्था यदि दृढ़ व शक्तिशाली है तो देश की आर्थिक दशा अच्छी होगी। आर्थिक दशाओं का ही नहीं सरकार की नीतियों का भी देश की अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सरकार पूंजीवाद और साम्यवाद जैसी नीतियों को अपनाकर देश की अर्थव्यवस्था को बदल सकती है। सरकार द्वारा बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किए जाने से देश की अर्थव्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ता है। युद्ध बेशक एक सैनिक और राजनीतिक प्रक्रिया है परन्तु इसका देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 9.
राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र में अन्तर बताएं।
उत्तर-
अर्थशास्त्र तथा राजनीति शास्त्र में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी निम्नलिखित अन्तर हैं

  • विभिन्न विषय क्षेत्र-राजनीति विज्ञान मनुष्य की राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करता है और इसका मुख्य विषय राज्य तथा सरकार हैं परन्तु अर्थशास्त्र मनुष्य की आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करता है। इस प्रकार दोनों का विषय क्षेत्र अलग-अलग है।
  • दृष्टिकोण-राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण में भी अन्तर पाया जाता है। अर्थशास्त्र व्याख्यात्मक विज्ञान है जबकि राजनीति शास्त्र मुख्यतः आदर्शात्मक विज्ञान है।
  • अध्ययन पद्धति में अन्तर-दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि दोनों की अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति शास्त्र की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
समाजशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन का वर्णन करें।
उत्तर-
समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का कार्य करता है। बिना समाजशास्त्र के सिद्धान्तों को समझे राजनीति शास्त्र के नियमों को समझना अति कठिन है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार न्यूटन के गति नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति को खगोल विज्ञान की शिक्षा देना व्यर्थ है उसी प्रकार समाजशास्त्र के मूल सिद्धान्तों से अनभिज्ञ व्यक्ति को राज्य के सिद्धान्त पढ़ाना व्यर्थ है। राज्य के अधिकतर कानून समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत प्रणाली आदि समझने में समाजशास्त्र की बहुत देन है। समाजशास्त्र से पता चलता है कि राज्य मनुष्य की सामाजिक भावना का परिणाम है। समाज के विकास के स्तर के साथ-साथ राज्य का विकास हुआ है। राजनीतिक समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान की एक शाखा है, जो इस बात की स्पष्ट सूचक है कि राजनीतिक तथ्यों के विधिवत् एवं पूर्ण अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की सहायता लेना बहुत आवश्यक है। इस प्रकार समाजशास्त्र राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन में सहायता प्रदान करता है।

प्रश्न 11.
राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में किन्हीं चार अन्तरों का वर्णन करें।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र में निम्नलिखित मुख्य अन्तर पाए जाते हैं-

  1. दोनों के विषय क्षेत्र अलग-अलग हैं-राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र दोनों के विषय क्षेत्र एक-दूसरे से पृथक् हैं। राजनीति विज्ञान का मुख्य विषय क्षेत्र राज्य है जबकि समाजशास्त्र समाज से सम्बन्धित है।
  2. समाजशास्त्र का क्षेत्र राजनीति शास्त्र की अपेक्षा व्यापक है-समाजशास्त्र का क्षेत्र राजनीति शास्त्र की अपेक्षा अधिक व्यापक है। राजनीति शास्त्र मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू का ही अध्ययन करता है परन्तु समाजशास्त्र में मानव जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।
  3. समाजशास्त्र की उत्पत्ति राजनीति शास्त्र से पहले हुई-राजनीति शास्त्र में राज्य बनने से पूर्व के मानव का अध्ययन नहीं किया जाता परन्तु समाजशास्त्र के विषय का अध्ययन मानव की उत्पत्ति से शुरू होता है।
  4. समाजशास्त्र वर्णनात्मक है, जबकि राजनीति शास्त्र आदर्शात्मक है।

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प्रश्न 12.
नीतिशास्त्र की राजनीति शास्त्र को चार देनों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. सरकार नैतिकता के सिद्धान्तों के अनुसार कानून बनाती है। कोई भी सरकार नैतिकता के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।
  2. जब राजनीति शास्त्र में हम यह निर्णय करते हैं कि राज्य कैसा होना चाहिए तब नीति शास्त्र हमारी बहुत सहायता करता है।
  3. नैतिक नियम जो स्थायी और लोकप्रिय हो जाते हैं, कुछ समय कानून का रूप धारण कर लेते हैं।
  4. नीति शास्त्र राजनीति शास्त्र को प्रगतिशीलता और आदर्शता प्रदान करती है।

प्रश्न 13.
नीतिशास्त्र किस प्रकार राजनीति शास्त्र से भिन्न है ? चार अन्तर बताइये।
उत्तर-
नीतिशास्त्र अग्रलिखित प्रकार से राजनीति शास्त्र से भिन्न है-

  • नीतिशास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित है जबकि राजनीति शास्त्र मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है। नीति मनुष्य के आन्तरिक तथा बाहरी दोनों कार्यों से सम्बन्धित है परन्तु राजनीति विज्ञान केवल मनुष्य के बाहरी कार्यों से सम्बन्धित है।
  • राज्य के नियमों का पालन करवाने के लिए शक्ति का प्रयोग किया जाता है। यदि कोई मनुष्य सरकार के किसी कानून का उल्लंघन करता है तो उसे न्यायालय द्वारा दण्ड दिया जाता है, परन्तु नीतिशास्त्र के नियमों का उल्लंघन करने पर कोई दण्ड नहीं दिया जाता क्योंकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना अपराध नहीं केवल पाप है।
  • राजनीति शास्त्र मुख्यतः वर्णनात्मक है क्योंकि इसमें राज्य, सरकार की शक्तियां, संविधान आदि का वर्णन रहता है, जबकि नीतिशास्त्र मुख्यत: आदर्शात्मक है और यह विषय जनता के सामने कुछ आदर्श रखे हुए हैं।
  • राजनीति शास्त्र का सम्बन्ध सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों से है, जबकि नीतिशास्त्र का सम्बन्ध केवल सिद्धान्तों से है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीति शास्त्र का समाजशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
राजनीति शास्त्र तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है और इसके नियम राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने के लिए बहुत सहायक हैं। राज्य की उत्पत्ति, राज्य का विकास, जनमत, दल प्रणाली आदि समझने में समाजशास्त्र की बहुत बड़ी देन है।

प्रश्न 2.
राजनीति शास्त्र का अर्थशास्त्र से सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-
राजनीतिक संस्थाओं का उदय व विकास आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम है। आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन आने पर राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन होना अनिवार्य है। राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं।
शासन व्यवस्था यदि सुदृढ़ और शक्तिशाली है तो वहां की जनता की आर्थिक दशा अच्छी होगी। निःसन्देह राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 3.
इतिहास, राजनीति शास्त्र के ऊपर कैसे निर्भर है ?
उत्तर-
इतिहास, राजनीति शास्त्र के अध्ययन से बहुत कुछ प्राप्त करता है। आज की राजनीति कल का इतिहास है। यदि इतिहास की घटनाओं से राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाए तो इतिहास केवल घटनाओं का संग्रह रह जाएगा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. राजनीति शास्त्र को इतिहास की किसी एक देन का वर्णन करें।
उत्तर- इतिहास द्वारा बतलाई गई भूलों के आधार पर ही राजनीतिज्ञ भविष्य में त्रुटियों में संशोधन लाते हैं।

प्रश्न 2. इतिहास को राजनीति शास्त्र की किसी एक देन का वर्णन करें।
उत्तर-राजनीतिक विचारधाराएं ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं।

प्रश्न 3. राजनीति विज्ञान एवं इतिहास में कोई एक अन्तर बताएं।
उत्तर-इतिहास का क्षेत्र राजनीतिक विज्ञान से व्यापक है।

प्रश्न 4. किस विद्वान् ने सर्वप्रथम अर्थशास्त्र को राजनीति शास्त्र से अलग किया ?
उत्तर-एडम स्मिथ ने।

प्रश्न 5. अर्थशास्त्र की राजनीति विज्ञान को किसी एक देन का वर्णन करें।
उत्तर-राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियां मुख्यतः आर्थिक अवस्थाओं का परिणाम होती हैं।

प्रश्न 6. अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में एक समानता बताएं।
उत्तर-अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान दोनों का ही विषय समाज में रह रहा मनुष्य है।

प्रश्न 7. अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान की अध्ययन पद्धतियां अलग-अलग हैं।

प्रश्न 8. राजनीति विज्ञान एवं समाज शास्त्र में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-राजनीति विज्ञान का क्षेत्र समाजशास्त्र से संकुचित है।

प्रश्न 9. राजनीति विज्ञान एवं नीति शास्त्र में एक अन्तर बताएं।
उत्तर-नीति शास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित है, जबकि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पहलू से संबंध रखता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. शासन व्यवस्था यदि शक्तिशाली है, तो वहां की जनता की आर्थिक दशा ………. होगी।
2. अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान, दोनों ही भूतकाल, वर्तमान और …………… से सम्बन्धित हैं।
3. ………… का सम्बन्ध वस्तुओं से है, जबकि राजनीति विज्ञान का मनुष्यों से।
4. ………… के अनुसार बहुत-सी आर्थिक सम्स्याओं का हल राजनीतिक आर्थिक हालतों से आरम्भ होता है।
5. राजनीति शास्त्र समाज शास्त्र की एक ……….. है।
उत्तर-

  1. अच्छी
  2. भविष्य
  3. अर्थशास्त्र
  4. डॉ० गार्नर
  5. शाखा।

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प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. समाज शास्त्र राजनीति विज्ञान के लिए नींव का काम करता है।
2. राजनीति शास्त्र एवं समाज शास्त्र का मुख्य विषय राज्य है।
3. समाज शास्त्र राजनीति विज्ञान से पहले बना।
4. राजनीति शास्त्र का विषय क्षेत्र समाज शास्त्र से व्यापक है।
5. समाज शास्त्र वर्णनात्मक है, जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
यह कथन किसका है कि, “राज्य जीवन को सम्भव बनाने के लिए उत्पन्न हुआ, परन्तु अब वह जीवन को अच्छा बनाने के लिए विद्यमान है।”
(क) प्लेटो
(ख) अरस्तु
(ग) हॉब्स
(घ) लॉक।
उत्तर-
(ख) अरस्तु

प्रश्न 2.
नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को क्या देन है ?
(क) जो नैतिक नियम स्थायी एवं प्रचलित होते हैं, वे कानून का रूप धारण कर लेते हैं।
(ख) नैतिकता के कारण राजनीति विज्ञान में प्रगतिशीलता एवं आदर्शता बनी रहती है।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय कानून का सम्पूर्ण शास्त्र अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता पर आधारित है।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी

प्रश्न 3.
राजनीति विज्ञान की नैतिक शास्त्र को क्या देन है ?
(क) सरकार लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा करने के लिए कानून बनाती है।
(ख) सरकार सामाजिक बुराइयों को दूर करती है।
(ग) सरकार राज्य में शान्ति की स्थापना करती है और नैतिकता शान्ति के वातावरण में ही विकसित होती है।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
राजनीति शास्त्र एवं नीति शास्त्र में क्या अन्तर पाया जाता है ?
(क) नीति शास्त्र मनुष्य के प्रत्येक कार्य से सम्बन्धित रहता है, जबकि राजनीति विज्ञान मनुष्य के जीवन के केवल राजनीतिक पक्ष से सम्बन्धित रहता है।
(ख) राज्य के कानूनों का पालन न करने वाले को दण्ड दिया जाता है, जबकि नीतिशास्त्र के नियमों को तोड़ना केवल पाप माना जाता है।
(ग) राजनीति विज्ञान मुख्यतः वर्णात्मक है, जबकि नीति शास्त्र आदर्शात्मक है।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।