PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Describe the chief features of the Indian Constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Discuss the salient features of the Indian Constitution.)
उत्तर- भारत का संविधान एक संविधान सभा ने बनाया और इस संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इस संविधान की अपनी कुछ विशेषतायें हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

1. लिखित तथा विस्तृत संविधान (Written and Detailed Constitution)-अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, साम्यवादी चीन, फ्रांस और जापान के संविधानों की तरह भारत का संविधान भी लिखित तथा विस्तृत है। संविधानसभा ने भारत का संविधान 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दिनों में बनाया और इस संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया। भारतीय संविधान लिखित होने के साथ-साथ अन्य देशों के संविधानों के मुकाबले में बहुत विस्तृत संविधान है। हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं और इन्हें 22 भागों में बांटा गया है।
सर आइवर जेनिंग्स (Sir Ivor Jennings) का कहना है कि, “भारतीय संविधान संसार में सबसे लम्बा एवं विस्तृत संविधान है।”

2. प्रस्तावना (Preamble)—प्रत्येक अच्छे संविधान की तरह भारत के संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इस प्रस्तावना में संविधान के मुख्य लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा राज्य के उत्तरदायित्वों का वर्णन किया गया है।

3. सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना (Creation of a Sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic)-भारतीय संविधान ने भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। इसका अर्थ है कि अब भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र तथा सर्वोच्च सत्ताधारी है और किसी अन्य सत्ता के अधीन नहीं है। भारत का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है और भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है। यहां पर लोकतन्त्रीय गणराज्य की स्थापना की गई है। राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक-मण्डल द्वारा 5 वर्ष की अवधि के लिए होता है।

4. जनता का अपना संविधान (People’s own Constitution)-भारत के संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह जनता का अपना संविधान है और इसे जनता ने स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लागू किया है। यद्यपि हमारे संविधान में आयरलैण्ड के संविधान की तरह कोई अनुच्छेद ऐसा नहीं है जिससे यह स्पष्ट होता हो कि भारतीय संविधान को जनता ने स्वयं बनाया है तथापि इस बात की पुष्टि संविधान की प्रस्तावना करती है-
“हम भारत के लोग, भारत में एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य स्थापित करते हैं। अपनी इस संविधान सभा में 26 नवम्बर, 1949 ई० को इस संविधान को अपनाते हैं।”

5. अनेक स्रोतों से तैयार किया हुआ संविधान (A Unique Constitution Derived from many Sources) हमारे संविधान की यह भी एक विशेषता है कि इसमें अन्य देशों के संविधान के अच्छे सिद्धान्तों तथा गुणों को सम्मिलित किया गया है। हमारे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य एक अच्छा संविधान बनाना था, इसलिए उनको जिस देश के संविधान में कोई अच्छी बात दिखाई दी, उसको उन्होंने संविधान में शामिल कर लिया। संसदीय शासन प्रणाली को इंग्लैण्ड के संविधान से लिया गया है। संघीय प्रणाली अमेरिका तथा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त आयरलैण्ड के संविधान से लिए गए हैं। इस प्रकार भारत का संविधान, अनेक संविधानों के गुणों का सार है।

6. संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution)-भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता यह है कि यह देश का सर्वोच्च कानून है। कोई कानून या आदेश इसके विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है। सरकार के सभी अंगों को संविधान के अनुसार कार्य करना पड़ता है। यदि संसद् कोई ऐसा कानून पास करती है जो संविधान के विरुद्ध हो या राष्ट्रपति आदेश जारी करता है जो संविधान के साथ मेल नहीं खाता तो न्यायपालिका ऐसे कानून और आदेश को अवैध घोषित कर सकती है, अतः संविधान सर्वोच्च है।

7. धर्म निरपेक्ष (Secular State)-भारत के संविधान के अनुसार भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ कर स्पष्ट रूप से भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं। नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त है और वे अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को अपना सकते हैं, अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट देव की पूजा कर सकते हैं, अपने धर्म का प्रचार कर सकते हैं। अनुच्छेद 25 से 28 तक में धार्मिक स्वन्त्रता प्रदान की गई है।

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8. लचीला तथा कठोर संविधान (Flexible and Rigid Constitution)—भारत का संविधान लचीला भी है और कठोर भी। संविधान के कुछ भाग में संशोधन करना बड़ा सरल है जिसमें संसद् साधारण बहुमत से उसमें संशोधन कर सकती है। संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिनमें संशोधन करना बड़ा ही कठोर है जैसे राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र तथा शक्तियां, संघ तथा राज्यों में शक्ति विभाजन, संसद् में राज्यों का प्रतिनिधित्व आदि विषयों में संशोधन करने के लिए यह आवश्यक है कि ऐसा प्रस्ताव संसद् के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से पास होने के अतिरिक्त कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा भी पास होना चाहिए। संविधान के शेष उपबन्धों को संशोधित करने के लिए संसद् का दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है।

9. संघात्मक संविधान परन्तु एकात्मक प्रणाली की ओर झुकाव (Federal Constitution with Unitary Bias) यद्यपि हमारे संविधान में किसी अनुच्छेद द्वारा ‘संघ’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, फिर भी मूल रूप में भारतीय संविधान भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना करता है। संविधान की धारा 1 में कहा गया है कि “भारत राज्यों का एक संघ है।” (India is a Union of States) इस समय भारत में 29 राज्य और 7 संघीय क्षेत्र हैं जिसमें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली भी शामिल है। इसमें संघात्मक शासन व्यवस्था की सभी बातें पाई जाती हैं-

  • भारत का संविधान लिखित तथा कठोर है।
  • भारत का संविधान सर्वोच्च कानून है।
  • केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा करने के लिए तीन सूचियों का वर्णन किया गया है।
  • न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। केन्द्र और राज्यों के झगड़ों तथा राज्यों के परस्पर झगड़ों का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है।
  • संसद् के दो सदन हैं-लोकसभा तथा राज्यसभा। लोकसभा सारे देश का प्रतिनिधित्व करती है जबकि राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

इस प्रकार भारत के संविधान में संघात्मक सरकार की सभी विशेषताएं पाई जाती हैं, परन्तु इसके बावजूद भी हमारे संविधान का झुकाव एकात्मक स्वरूप की ओर है। यह प्रायः कहा जाता है कि “भारतीय संविधान आकार में संघात्मक है और भावना में एकात्मक है।” (“Indian Constitution is federal in form but unitary in spirit.”) व्हीयर (Wheare) का कहना है कि, “भारतीय संविधान ने अर्ध-संघीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की है।” निम्नलिखित कारणों के कारण संविधान का झुकाव एकात्मक स्वरूप की ओर है-

  • केन्द्र के पास राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तियां हैं । केन्द्रीय-सूची में 97 विषय हैं, जबकि राज्य-सूची में 66 विषय हैं।
  • समवर्ती-सूची में 47 विषय हैं। केन्द्र और राज्यों को इस सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है यदि इन विषयों पर केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों कानून बनाती हैं तो केन्द्र का ही कानून लागू होता है।
  • अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास हैं।
  • यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पास कर दे कि राज्य-सूची में दिया गया कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है तो संसद् उस पर एक वर्ष के लिए कानून पास कर सकती है।
  • संकटकाल में संविधान का संघात्मक स्वरूप एकात्मक स्वरूप में बदल जाता है।
  • संसद् राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है।
  • राज्यों को अपना संविधान बनाने का अधिकार नहीं है।
  • नागरिकों को केवल भारत की नागरिकता प्राप्त है।
  • राज्य वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर निर्भर करते हैं।
  • सारे देश के लिए आर्थिक और सामाजिक योजनाएं बनाने का अधिकार केन्द्रीय सरकार के पास है।
  • संविधान में संशोधन की विधि बहुत कठोर नहीं है।
    यद्यपि भारत के संविधान में संघात्मक सरकार की सभी विशेषताएं पाई जाती हैं, परन्तु इसके बावजूद भी हमारे संविधान का झुकाव एकात्मक स्वरूप की ओर है।

10. संसदीय सरकार (Parliamentary form of Government) भारतीय संविधान ने भारत में संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की है। राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है, परन्तु उसकी शक्तियां नाम-मात्र हैं, वास्तविक नहीं। राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् की सलाह से ही करता है और मन्त्रिपरिषद् का संसद् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्री संसद् सदस्यों में से लिए जाते हैं और वे अपने कार्यों के लिए संसद् के निम्न सदन और लोकसभा के प्रति उत्तरदायी हैं। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिपरिषद् को जब चाहे अपदस्थ कर सकती है अर्थात् मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के प्रसाद-पर्यन्त ही अपने पद पर रह सकती है।

11. द्वि-सदनीय विधानमण्डल (Bicameral Legislature)-हमारे संविधान की एक अन्य विशेषता यह है कि इसके द्वारा केन्द्र में द्वि-सदनीय विधानमण्डल की स्थापना की गई है। संसद् के निम्न सदन को लोकसभा (Lok Sabha) तथा ऊपरि सदन को राज्यसभा (Rajya Sabha) कहा जाता है। लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है परन्तु आजकल 545 सदस्य हैं। राज्यसभा की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है परन्तु आजकल 245 सदस्य हैं। लोकसभा की शक्तियां और अधिकार राज्यसभा की शक्तियों और अधिकारों से अधिक हैं।

12. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)-भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि संविधान के तीसरे भाग में भारतीयों को 6 मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार हैं-(i) समानता का अधिकार, (ii) स्वतन्त्रता का अधिकार, (iii) शोषण के विरुद्ध अधिकार, (iv) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार, (1) सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा (vi) संवैधानिक उपचारों का अधिकार। इसके द्वारा नागरिकों को जाति, धर्म, रंग, जन्म, लिंग आदि के आधार पर बने भेदभाव के बिना समान घोषित किया गया है और उन्हें कई प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं जैसा कि भाषण देने, अपने विचार प्रकट करने, घूमने-फिरने, सभा व समुदाय बनाने, कोई भी व्यवसाय करने का अधिकार। धार्मिक स्वतन्त्रता के साथ ही उन्हें अपनी इच्छानुसार शिक्षा ग्रहण करने तथा अपनी भाषा व संस्कृति की रक्षा व विकास करने का अधिकार भी दिया गया है।

नागरिकों को शोषण के विरुद्ध भी अधिकार दिया गया है। कोई भी सरकार इन अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती तथा उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय को इनकी रक्षा के लिए पर्याप्त अधिकार व शक्तियां प्रदान की गई हैं। न्यायालय किसी भी कानून या सरकारी आदेश को जो इन अधिकारों के विरुद्ध हो, रद्द कर सकते हैं और प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटा सकता है। अब तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले बहुत से कानून अवैध घोषित किए जा चुके हैं। इन अधिकारों को लागू करना सरकार का कर्तव्य है। 1967 में गोलकनाथ केस के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद् को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने के अधिकार से वंचित कर दिया था, परन्तु संविधान के 24वें संशोधन के अनुसार संसद् को पुन: यह अधिकार देने की व्यवस्था की गई है तथा सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय (गोलकनाथ के केस में) को रद्द करते हुए संसद् के इस अधिकार को वैध घोषित कर दिया है।

13. मौलिक कर्त्तव्य (Fundamental Duties)_42वें संशोधन द्वारा संविधान में ‘मौलिक कर्त्तव्यों’ के नाम पर चतुर्थ भाग-ए (Part IV-A) शामिल किया गया है। इसमें नागरिकों के 11 कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जो कि इस प्रकार हैं-

  • संविधान का पालन करना तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गान का सम्मान करना।
  • स्वतन्त्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को बनाए रखना और उनका पालन करना।
  • भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता में विश्वास रखना तथा उसकी रक्षा करना।
  • देश की सुरक्षा करना और आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा करना।
  • भारत के सभी लोगों में मेल-मिलाप और बन्धुत्व की भावना का विकास करना तथा ऐसी रीतियों को त्यागना जो त्रियों की प्रतिष्ठा के विरुद्ध हों।
  • राष्ट्र की मिली-जुली संस्कृति की सम्पन्न परम्परा का आदर करना और उसे सुरक्षित रखना।
  • प्राकृतिक वातावरण को सुरक्षित रखना और उसे उन्नत करना तथा सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया की भावना रखना।
  • दृष्टिकोण में वैज्ञानिकता, मानवता, जिज्ञासा और सुधार की भावना को विकसित करना।
  • सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखना और हिंसा से बचना।
  • व्यक्तिगत तथा सामूहिक क्रिया-कलापों के सभी क्षेत्रों में ऊंचा उठाने का प्रयत्न करना।
  • छ: साल से 14 साल की आयु के बच्चे के माता-पिता या अभिभावक अथवा संरक्षक द्वारा अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराना।

14. राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त (Directive Principles of State Policy) भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि संविधान के चौथे भाग में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का अभिप्राय यह है कि केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के लिए संविधान में कुछ आदर्श रखे गए हैं ताकि उनके अनुसार अपनी नीति का निर्माण करके जनता की भलाई के लिए कुछ कर सके। यदि इन सिद्धान्तों को लागू किया जाए तो भारत का सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विकास बहुत शीघ्र हो सकता है।

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15. स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)-भारत के संविधान में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। भारत के संविधान में उन सभी बातों का वर्णन किया गया है जो स्वतन्त्र न्यायपालिका के लिए आवश्यक हैं। सर्वोच्च न्यायलय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारियों की सलाह से करता है। राष्ट्रपति इन न्यायाधीशों को अपनी इच्छा से नहीं हटा सकता। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को संसद् महाभियोग द्वारा ही हटा सकती है। इस प्रकार न्यायाधीशों की नौकरी सुरक्षित की गई। न्यायाधीशों का कार्यकाल भी निश्चित आयु पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायलय का न्यायाधीश 65 वर्ष तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु में रिटायर होते हैं। न्यायाधीशों को बहुत अच्छा वेतन दिया जाता है तथा रिटायर होने के पश्चात् पेंशन भी दी जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपए मासिक वेतन तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 हज़ार रुपए मासिक वेतन मिलता है जबकि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को 2,50,000 और अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते उनके कार्यकाल में कम नहीं किए जा सकते। ऐसी व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि न्यायाधीश सरकार के विरुद्ध बिना किसी डर के निर्णय दे सकें। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रिटायर होने के पश्चात् किसी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश उस न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते जहां से वे रिटायर हुए हों।

16. न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Judicial Review)-न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय संसद् द्वारा बनाए गए कानूनों तथा राज्य विधानमण्डलों के बनाए हुए कानून की संवैधानिक जांचपड़ताल कर सकती है और यदि कानून संविधान के विरुद्ध हो तो उसे अवैध घोषित कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया गया कोई भी कानून, अध्यादेश, आदेश या सन्धि अवैध मानी जाती है और सरकार उसे लागू नहीं कर सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल कई बार किया है।

17. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) भारत में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त है। सभी नागरिक चाहे वे किसी राज्य के हों, भारत के नागरिक हैं। नागरिकों को अपने राज्य की नागरिकता प्राप्त नहीं है।
18. वयस्क मताधिकार (Adult Franchise)-भारत के संविधान की एक अन्य विशेषता व्यस्क मताधिकार है। 61वें संशोधन एक्ट के अनुसार प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष अथवा इससे अधिक हो बिना किसी भेदभाव के वोट डालने का अधिकार प्राप्त है।

19. संयुक्त चुनाव प्रणाली (Joint Electorate System)-साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गई है। अब सभी सम्प्रदाय मिलजुल कर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं।

20. कानून का शासन (Rule of Law)-भारत के संविधान की यह विशेषता है कि इसके द्वारा कानून के शासन की स्थापना की गई है। कानून के सम्मुख सभी नागरिक समान हैं, कोई व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे तथा अनपढ़, शक्तिशाली तथा कमज़ोर सभी देश के कानून के सामने समान हैं कानून से कोई ऊंचा नहीं है।

21. अल्पसंख्यकों, अनुसूचित व पिछड़ी जातियों तथा कबीलों का संरक्षण (Protection of Minorities, Scheduled and Backward Classes and Tribes)—भारत के संविधान की अन्य विशेषता यह है कि इसमें एक ओर तो समानता की घोषण की गई है और दूसरी ओर इसमें अल्पसंख्यकों, अनुसूचित व पिछड़ी हुई जातियों तथा कबीलों के हितों के संरक्षण के लिए विशेष धाराओं की व्यवस्था की गई है। संसद् तथा राज्यों के विधानमण्डलों में अनुसूचित तथा पिछड़ी जातियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं। 95वें संशोधन द्वारा इस अवधि को 2020 ई० तक कर दिया गया है।

22. कल्याणकारी राज्य (Welfare State) भारत को कल्याणकारी राज्य घोषित किया गया है। उद्देश्य प्रस्ताव, संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार तथा राज्य के निर्देशक सिद्धान्तों को पढ़ कर यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक ऐसा कल्याणकारी राज्य स्थापित करना था जिसमें व्यक्ति के लिए आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था की जा सके।

23. विश्व शान्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा का समर्थक (Advocate of World Peace and International Security) भारतीय संविधान विश्व शान्ति का प्रबल समर्थक है। राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में स्पष्ट लिखा गया है कि भारत राष्ट्रों के बीच न्याय तथा समानतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा करेगा, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा बनाये रखने के लिए विधि तथा सन्धि बन्धनों के प्रति आदर का निर्माण करेगा और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता के द्वारा हल करने का प्रयत्न करेगा। व्यवहार में भी भारत सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को बनाये रखने के लिए अनेक प्रयास किये हैं।

24. एक सरकारी भाषा (One Official Language) भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं, इसलिए संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। हिन्दी को देवनागरी लिपि में संघ सरकार की सरकारी (Official) भाषा घोषित किया गया है।

25. छुआछूत की समाप्ति (Abolition of Untouchability)-भारतीय संविधान की यह विशेषता है कि इसके अनुच्छेद 17 द्वारा छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। जो व्यक्ति छुआछूत की समाप्ति के विरुद्ध बोलता है उसे कानून के अनुसार दण्ड दिया जा सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह संविधानों में एक अनूठा संविधान है। न्यायाधीश पी० वी० मुखर्जी के अनुसार, “यद्यपि हमारे संविधान ने विश्व के संवैधानिक प्रयोगों से बहुत-सी बातों को लिया है, केवल यही नहीं बल्कि अपने चरित्र और समन्वय में यह अनूठा संविधान है।” संविधान निर्माताओं का उद्देश्य कोई मौलिक या अद्वितीय संविधान बनाना नहीं था बल्कि वे एक अच्छा तथा कार्यसाधक संविधान बनाना चाहते थे।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के विभिन्न तरीकों का वर्णन करें।
(Describe the various methods of amending the Indian Constitution.)
उत्तर-
प्रत्येक राज्य का संविधान एक निश्चित समय पर तैयार किया जाता है, परन्तु समय के अनुसार देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बदलती रहती हैं। एक अच्छा संविधान वही होता है जिसे परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित किया जा सके। इसलिए प्रत्येक लिखित संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है। ___ संविधान को संशोधित करने की प्रक्रिया का वर्णन अनुच्छेद 368 में किया गया है। अनुच्छेद के अनुसार संविधान में संशोधन करने के लिए दो विधियों का वर्णन किया गया है, परन्तु भारतीय संविधान में निम्नलिखित तीन विधियों द्वारा संशोधन किया गया है-

  1. संसद् द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन ;
  2. संसद् द्वारा दो तिहाई बहुमत से संशोधन ;
  3. संसद् के विशेष बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति से संशोधन।

1.संसद द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन (Amendment by the Parliament by a Simple Majority)संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें भारतीय संसद् उसी प्रकार से और उतनी ही आसानी से बदल सकती है जितना कि ब्रिटिश संसद् ब्रिटिश संविधान को अर्थात् संसद् साधारण बहुमत से संविधान के कुछ भाग में संशोधन कर सकती है। इसमें मुख्य विषय सम्मिलित हैं-नए राज्यों का निर्माण, राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करना, नागरिकता की प्राप्ति और समाप्ति, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार बढ़ना इत्यादि।

2. संसद् द्वारा दो-तिहाई बहुमत से संशोधन (Amendment by the Parliament by a two-third Majority) संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें संसद् दो-तिहाई बहुमत से संशोधन कर सकती है। संविधान के अनुच्छेद 368 में स्पष्ट कहा गया है कि संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। दोनों सदनों में सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद वह संशोधन प्रस्ताव राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा और स्वीकृति मिलने पर ही संविधान इस प्रस्ताव की धाराओं के अनुसार संशोधित समझा जायेगा लोकसभा और राज्यसभा को संवैधानिक संशोधन के क्षेत्र में बिल्कुल बराबर की शक्तियां प्राप्त हैं।

3. संसद के विशेष बहुमत तथा राज्य विधानपालिका के अनुसमर्थन द्वारा संशोधन (Amendment by the special majority of Parliament and ratification by State Legislature) संविधान की कुछ धाराएं ऐसी भी हैं जिन्हें और भी कठोर बनाया गया है और जिसमें संसद् स्वतन्त्रतापूर्वक परिवर्तन नहीं कर सकती। संविधान के कुछ भाग में संसद् के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन से ही संशोधन किया जा सकता है। जिन विषयों में इस विधि से संशोधन किया जा सकता है उनमें मुख्य हैं-राष्ट्रपति का चुनाव और चुनाव विधि, केन्द्र और राज्यों के वैधानिक सम्बन्ध, संघीय सरकार और राज्य सरकारों की कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों की सीमा इत्यादि।

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संशोधन प्रक्रिया की आलोचना (Criticism of the Procedure of Amendment)-
भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  • राज्य को संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार नहीं-संविधान में संशोधन का प्रस्ताव केवल केन्द्रीय संसद् द्वारा ही पेश किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का समर्थन करते हुए ही अपनी राय देने का अधिकार है।
  • सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की आवश्यकता नहीं-संविधान की कुछ धाराओं पर ही आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन की आवश्यकता है। संविधान का एक बहुत बड़ा भाग संसद् स्वयं ही संशोधित कर सकती है।
  • राज्यों के अनुसमर्थन के लिए समय निश्चित नहीं-संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि किसी संशोधन प्रस्ताव पर राज्य के विधानमण्डल कितने समय के अन्दर अपना निर्णय दे सकते हैं।
  • दोनों में मतभेद-भारतीय संविधान इस बारे में भी मौन है कि यदि संसद् के दोनों सदनों में किसी संशोधन प्रस्ताव पर मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उसे कैसे सुलझाया जाएगा। ऐसी दशा में संशोधन प्रस्ताव रद्द समझा जाएगा या यह प्रस्ताव दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में रखा जाएगा।
  • संशोधन प्रस्ताव पर राष्ट्रपति की स्वीकृति-संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि क्या राष्ट्रपति को संशोधन के प्रस्ताव पर निषेधाधिकार (Veto-Power) प्राप्त है या नहीं। संविधान के 24वें संशोधन के अनुसार इस बात के विषय में जो सन्देह थे वे दूर कर दिए गए हैं। इस संशोधन के अनुसार संशोधन बिल पर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर नहीं रोक सकता।
  • जनमत संग्रह की व्यवस्था नहीं है-हमारे संविधान में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कि जिसके अनुसार जनता की इच्छा किसी अमुक प्रस्तावित संशोधन बिल पर ली जा सके अर्थात् संविधान में संशोधन जनता को पूछे बिना ही संसद् कर सकती है। आलोचकों का कहना है कि ऐसी व्यवस्था अन्यायपूर्ण एवं अलोकतन्त्रीय है।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी भारतीय संविधान के बारे में हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह एक ऐसा प्रलेख है जो काफ़ी सोच-विचार के बाद तैयार किया गया है और जिसे न तो इतनी आसानी से बदला जा सकता है कि यह सत्तारूढ़ दल के हाथों में खिलौना-मात्र बन कर रह जाए और न ही इतना कठोर है कि समय के अनुसार बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन न किया जा सके और यह अतीत की एक वस्तु बन कर रह जाए। हमारा संविधान न तो अमेरिकन संविधान की भान्ति कठोर है और न ही ब्रिटिश संविधान की तरह लचीला। प्रो० ह्वीयर (Wheare) ने ठीक ही कहा है कि, “भारतीय संविधान अधिक कठोर तथा अधिक लचीलापन के मध्य एक अच्छा सन्तुलन स्थापित करता है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
संविधान ऐसे नियमों तथा सिद्धान्तों का समूह है, जिसके अनुसार शासन के विभिन्न अंगों का संगठन किया जाता है, उसको शक्तियां प्रदान की जाती हैं, उनके आपसी सम्बन्धों को नियमित किया जाता है तथा नागरिकों और राज्य के बीच सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं। इन नियमों के समूह को ही संविधान कहा जाता है।
पिनॉक (Pennock) और स्मिथ (Smith) के अनुसार, “संविधान केवल प्रक्रिया एवं तथ्यों का ही मामला नहीं बल्कि राजनीतिक शक्तियों के संगठनों का प्रभावशाली नियन्त्रण भी है एवं प्रतिनिधित्व, प्राचीन परम्पराओं तथा भविष्य की आशाओं का प्रतीक है।”

प्रश्न 2.
हमें संविधान की आवश्यकता क्यों होती है ?
उत्तर–
प्रत्येक राज्य में संविधान का होना आवश्यक है। संविधान के बिना राज्य का शासन नहीं चल सकता। इसीलिए संविधान के बिना एक राज्य-राज्य न होकर अराजकता का शासन होता है। संविधान का होना आवश्यक है ताकि शासन के विभिन्न अंगों की शक्तियां तथा कार्य निश्चित किए जा सकें। संविधान का होना आवश्यक है ताकि देश का शासन सिद्धान्तों तथा नियमों के अनुसार चलाया जा सके।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान का निर्माण किस द्वारा किया गया है ?
उत्तर-
भारत का संविधान एक संविधान सभा द्वारा बनाया गया है। भारत के लिए संविधान सभा की मांग सबसे पहले 1922 में महात्मा गांधी ने, 1935 में कांग्रेस ने और 1940 में मुस्लिम लीग ने भी अलग से संविधान सभा की मांग की थी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान संविधान सभा के गठन की मांग तेज़ हो गई। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं की इस मांग को ध्यान में रखते हुए 15 मार्च, 1946 को कैबिनेट मिशन की स्थापना है। कैबिनेट मिशन ने अपनी योजनाओं में संविधान सभा की रचना के बारे में खुला वर्णन किया है। संविधान सभा में कुल 389 सदस्यों की व्यवस्था की गई। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को बुलाई गई और काफी मेहनत और विचार-विमर्श के बाद 26 नवम्बर, 1949 को संविधान बन कर तैयार हो गया। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा के प्रधान ने मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए। 26 जनवरी, 1950 को यह संविधान लागू कर दिया गया।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • लिखित एवं विस्तृत संविधान-भारत के संविधान की प्रथम विशेषता यह है कि यह लिखित एवं विस्तृत है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं और इन्हें 22 भागों में बांटा गया है। इसे 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दिनों के समय में बनाया गया।
  • प्रस्तावना-प्रत्येक अच्छे संविधान की तरह भारतीय संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इस प्रस्तावना में संविधान के मुख्य लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा राज्य के उद्देश्यों का वर्णन किया गया है।
  • सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना- इसका अर्थ यह है कि भारत पूर्ण रूप से प्रभुता सम्पन्न है। इसका उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है। भारत धर्म-निरपेक्ष और लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है।
  • भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता वयस्क मताधिकार है।

प्रश्न 5.
धर्म-निरपेक्ष राज्य किसे कहते हैं ? क्या भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है ? व्याख्या करो।
उत्तर-
धर्म-निरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसका कोई राज्य धर्म नहीं होता। राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। राज्य न तो धार्मिक और न ही अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी होता है। धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ भेद-भाव नहीं किया जाता। सभी धर्म के लोगों को समान रूप से बिना किसी भेद-भाव के अधिकार दिए जाते हैं।

42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ कर भारत को स्पष्ट रूप से धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और न ही राज्य धर्म को महत्त्व देता है। सभी धर्म समान हैं। किसी धर्म को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म का पालन कर सकता है। सभी धर्मों को प्रचार एवं उन्नति के लिए समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली का अन्त कर दिया गया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान की सफलता के लिए चार उत्तरदायी तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की सफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  • देश की परिस्थतियों के अनुकूल–भारतीय संविधान की सफलता का महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संविधान निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर संविधान बनाया।
  • लिखित तथा विस्तृत संविधान-लिखित तथा विस्तृत संविधान के कारण जनता के प्रतिनिधियों, शासकों तथा सरकारी कर्मचारियों को शासन चलाते हुए पथ-प्रदर्शन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता बल्कि हर प्रकार की सलाह और मार्गदर्शन संविधान से ही मिल जाता है।
  • विश्व के संविधान की अच्छी बातों को ग्रहण करना-भारतीय संविधान में अन्य देशों के संविधानों के अच्छे सिद्धान्तों तथा गुणों को सम्मिलित किया गया है।
  • भारतीय संविधान सभी धर्मों, समुदायों एवं वर्गों को साथ लेकर चलता है।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही क्यों लागू किया गया ?
अथवा
26 जनवरी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। 26 जनवरी का दिन भारत के इतिहास में एक विशेष महत्त्व रखता है। दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए लाहौर अधिवेशन में भारत के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग का प्रस्ताव पास किया और 26 जनवरी, 1930 का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में निश्चित किया गया और इस दिन सभी भारतीयों ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया। इसके पश्चात् हर वर्ष 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसलिए यद्यपि संविधान 26 नवम्बर, 1949 को तैयार हो गया था परन्तु इसको 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के विस्तृत होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
भारतीय संविधान लिखित होने के साथ ही विश्व के अन्य देशों के संविधानों के मुकाबले बहुत विस्तृत है। हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां हैं जिन्हें 22 भागों में बांटा गया है। भारतीय संविधान निम्नलिखित तथ्यों के कारण विशाल है-

  • भारत में केन्द्र और राज्यों के लिए एक ही संयुक्त संविधान की व्यवस्था की गई है। प्रान्तों के लिए कोई पृथक् संविधान नहीं है।
  • संविधान के तृतीय भाग में मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्त शामिल किए गए हैं।
  • संविधान के 18वें भाग में अनुच्छेद 352 से लेकर 360 तक राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के विभिन्न तरीकों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संविधान में संशोधन करने के लिए दो विधियों का वर्णन किया है। परन्तु भारतीय संविधान में निम्नलिखित तीन विधियों द्वारा संशोधन किया जा सकता है-

  1. संसद् द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन-संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें भारतीय संसद् उसी प्रकार से और उतनी ही आसानी से बदल सकती है जितना कि ब्रिटिश संविधान को अर्थात् उनमें साधारण बहुमत से संशोधन किया जा सकता है।
  2. संसद् द्वारा दो-तिहाई बहुमत से संशोधन-संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिनमें संसद् दो-तिहाई बहुमत से संशोधन कर सकती है। दोनों सदनों के सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले दो तिहाई सदस्यों की स्वीकृति के पश्चात् संशोधन प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तथा राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति मिलने के पश्चात् ही उन धाराओं को संशोधित किया जाता है।
  3. संसद् के विशेष बहुमत तथा आधे राज्य विधानमण्डलों के अनुसमर्थन द्वारा संशोधन-संविधान की कुछ धाराएं ऐसी भी हैं जिन्हें और भी कठोर बनाया गया है और जिनमें संसद् स्वतन्त्रतापूर्वक परिवर्तन नहीं कर सकती। संविधान के कुछ भाग में संसद् के दो-तिहाई बहुमत और आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन से ही संशोधन किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में संशोधन प्रक्रिया के किन्हीं चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  1. राज्य को संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार नहीं-संविधान में संशोधन का प्रस्ताव केवल केन्द्रीय संसद् द्वारा ही पेश किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का समर्थन करते हुए ही अपनी राय देने का अधिकार है।
  2. सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की आवश्यकता नहीं-संविधान की कुछ धाराओं पर ही आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन की आवश्यकता है। संविधान का एक बहुत बड़ा भाग संसद् स्वयं ही संशोधित कर सकती है।
  3. राज्यों के अनुसमर्थन के लिए समय निश्चित नहीं-संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि किसी संशोधन प्रस्ताव पर राज्य के विधानमण्डल कितने समय के अन्दर अपना निर्णय दे सकते हैं।
  4. दोनों में मतभेद-भारतीय संविधान इस बारे में भी मौन है कि यदि संसद् के दोनों सदनों में किसी संशोधन प्रस्ताव पर मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उसे कैसे सुलझाया जाएगा। ऐसी दशा में संशोधन प्रस्ताव रद्द समझा जाएगा या यह प्रस्ताव दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में रखा जाएगा।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया की विशषताएं बताएं।
उत्तर-

  • संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन किया जा सकता है। केशवानन्द भारती और मिनर्वा मिल्स के मुकद्दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद् संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।
  • भारतीय संविधान लचीला और कठोर भी है।
  • संवैधानिक संशोधन बिल संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है।
  • राज्य विधान मण्डल को संशोधन का प्रस्ताव पेश करने का कोई अधिकार नहीं है।
  • संवैधानिक संशोधन सम्बन्धी दोनों सदनों की शक्तियां बराबर हैं।
  • संवैधानिक संशोधन को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

प्रश्न 12.
“भारतीय संविधान लचीला और कठोर भी है।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह न तो पूर्णतः लचीला है और न ही पूर्णतः कठोर है। लचीला संविधान उसे कहा जाता है जिसमें संशोधन उतनी ही सरलता से किया जा सकता है जितनी सरलता से कोई कानून बनाया जा सकता है। भारतीय संविधान की कुछ धाराओं को, जैसे कि राज्यों के नाम बदलना, उनकी सीमाओं में परिवर्तन करना, राज्यों में विधान परिषद् को बनाना या उसे समाप्त करना आदि को संसद् के दोनों सदनों द्वारा उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से बदला जा सकता है। इस तरह भारतीय संविधान लचीला है। संविधान की कुछ धाराओं को बदलने के लिए संसद् के दोनों सदनों का दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है। इस प्रक्रिया के अनुसार संविधान कुछ कठोर हो गया है, परन्तु संघात्मक प्रणाली की आवश्यकताओं को देखते हुए इस अवस्था को भी लचीला कहा जा सकता है।
परन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण धाराओं को बदलने के लिए संसद् को दो-तिहाई बहुमत के बाद कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा संशोधन प्रस्ताव पर समर्थन प्राप्त होना आवश्यक है। यह तरीका बड़ा कठोर है और इसको देखते हुए संविधान को कठोर कहा गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. लिखित एवं विस्तृत संविधान-भारत के संविधान की प्रथम विशेषता यह है कि यह लिखित एवं विस्तृत है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं और इन्हें 22 भागों में बांटा गया है। इसे 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दियं के समय में बनाया गया।
  2. प्रस्तावना-प्रत्येक अच्छे संविधान की तरह भारतीय संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इस प्रस्तावना में संविधान के मुख्य लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा राज्य के उद्देश्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
26 जनवरी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। 26 जनवरी का दिन भारत के इतिहास में एक विशेष महत्त्व रखता है। दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए लाहौर अधिवेशन में भारत के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग का प्रस्ताव पास किया और 26 जनवरी, 1930 का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में निश्चित किया गया और इस दिन सभी भारतीयों ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया। इसके पश्चाता हर वर्ष 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसलिए यद्यपि संविधान 26 नवम्बर, 1949 को तैयार हो गया था परन्तु इसको 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के विस्तृत होने के दो कारण लिखें।
उत्तर-

  1. भारत में केन्द्र और राज्यों के लिए एक ही संयुक्त संविधान की व्यवस्था की गई है। प्रान्तों के लिए कोई पृथक् संविधान नहीं है।
  2. संविधान के तृतीय भाग में मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या की गई है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. वर्तमान भारतीय संविधान में कुल कितनी अनुसूचियां हैं ?
उत्तर-वर्तमान भारतीय संविधान में कुल 12 अनुसूचियां हैं।

प्रश्न 2. वर्तमान संविधान में कुल कितने अनुच्छेद हैं ?
उत्तर-वर्तमान भारतीय संविधान में कुल 395 अनुच्छेद हैं।

प्रश्न 3. भारतीय संविधान के मौलिक ढांचे की धारणा का विकास किस मुकद्दमें में हुआ ?
उत्तर-भारतीय संविधान के मौलिक ढांचे की धारणा का विकास 23 अप्रैल, 1973 को स्वामी केशवानंद भारती के मुकद्दमें में हुआ।

प्रश्न 4. भारतीय संघ में कितने राज्य एवं संघीय क्षेत्र शामिल हैं ?
उत्तर-29 राज्य एवं 7 संघीय क्षेत्र।

प्रश्न 5. भारत में कौन-सी शासन प्रणाली है?
उत्तर-भारत में संसदीय शासन प्रणाली है।

प्रश्न 6. भारत में कितने वर्ष के आयु के नागरिक को वोट डालने का अधिकार है?
उत्तर-18 वर्ष।

प्रश्न 7. भारत की राष्ट्र भाषा क्या है?
उत्तर-भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी है।

प्रश्न 8. भारत गणतन्त्र कब बना?
उत्तर-भारत गणतन्त्र 26 जनवरी, 1950 को बना।

प्रश्न 9. संविधान के किस अनुच्छेद में संशोधन विधि का वर्णन किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 368 में।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. 91वां संवैधानिक संशोधन ……….. में किया गया।
2. 61वें संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर ………. कर दी गई।
3. 1985 में दल-बदल रोकने के लिए संविधान में ………….. संशोधन किया गया।
4. भारतीय संविधान …………. है।
5. संशोधन विधि का वर्णन संविधान के अनुच्छेद ……….. में किया गया।
उत्तर-

  1. 2003
  2. 18 वर्ष
  3. 52वां
  4. लिखित
  5. 368.

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. जीवंत संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें समयानुसार परिवर्तन नहीं होते।
2. भारतीय संविधान एक जीवंत संविधान है।
3. भारतीय संविधान विकसित एवं अलिखित है।
4. राजनीतिक दल-बदल की बुराई को दूर करने के लिए 1980 में 42वां संशोधन पास किया गया।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत !

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में वोट डालने का अधिकार—
(क) 18 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है
(ख) 21 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है
(ग) 25 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है
(घ) 20 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है।
उत्तर-
(क) 18 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है

प्रश्न 2.
भारत की राष्ट्र भाषा
(क) हिंदी
(ख) तमिल
(ग) उर्दू
(घ) अंग्रेजी।
उत्तर-
(क) हिंदी

प्रश्न 3.
भारत का संविधान-
(क) संसार के सभी संविधानों से छोटा है
(ख) संसार में सबसे अधिक लंबा तथा विस्तृत है
(ग) जापान के संविधान से बड़ा और अमेरिका के संविधान से छोटा है
(घ) सोवियत संघ के संविधान से छोटा है।
उत्तर-
(ख) संसार में सबसे अधिक लंबा तथा विस्तृत है

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य ग़लत सूचना देता है ?
(क) 1935 का एक्ट भारतीय संविधान का महत्त्वपूर्ण स्रोत है
(ख) संसदीय शासन प्रणाली ब्रिटिश शासन की देन है
(ग) अमेरिकन संविधान का भारत पर प्रभाव पड़ा है
(घ) पाकिस्तानी संविधान का भारत पर प्रभाव पड़ा है।
उत्तर-
(घ) पाकिस्तानी संविधान का भारत पर प्रभाव पड़ा है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 1.
राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों का क्या अर्थ है ? मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों में क्या अन्तर है ?
(What is the meaning of the Directive Principles of State Policy ? How are these principles different from the Fundamental Rights ?)
अथवा
मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धान्तों के परस्पर सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Examine the relationship between Fundamental Rights and Directive Principles.)
उत्तर-
भारतीय संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का समावेश इसकी विशेषता है। इन सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के चौथे भाग में धारा 36 से 51 तक किया गया है। संविधान निर्माताओं ने इन सिद्धान्तों का विचार आयरलैंड के संविधान से लिया।

राज्यनीति के निर्देशक तत्त्वों का अर्थ-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति को कुछ ऐसे अधिकार और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था। अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इस भाग में शामिल उपबन्ध न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, परन्तु फिर भी जो सिद्धान्त रखे गए हैं, वे देश के शासन प्रबन्ध की आधारशिला हैं और कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”

मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में अन्तर (Difference between Fundamental Rights and Directive Principles)-
भारतीय संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई है जिनका प्रयोग करके नागरिक अपने जीवन का विकास कर सकते हैं। संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों की घोषणा की गई है जिसका उद्देश्य भारतीय लोगों का आर्थिक, सामाजिक, मानसिक तथा नैतिक विकास करना तथा भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है अर्थात् दोनों के उद्देश्य समान दिखाई देते हैं, परन्तु दोनों में अन्तर है। हम दोनों को समान प्रकृति वाले नहीं कह सकते।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

निर्देशक सिद्धान्तों तथा मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित भेद हैं-

1. मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं तथा निर्देशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं-निर्देशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं हैं, जबकि मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालयों द्वारा लागू करवाया जा सकता है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है तो नागरिक सरकार के उस कार्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकता है, परन्तु इसके विपरीत, यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।

2. मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। वे उसको कोई विशेष कार्य करने से मना करते हैं। उदाहरणस्वरूप, मौलिक अधिकार सरकार को आदेश देते हैं कि वह नागरिकों में जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। ये सरकार को कुछ निश्चित कार्य करने का आदेश देते हैं। उदाहरणस्वरूप, वे सरकार को ऐसी नीति अपनाने का आदेश देते हैं जिससे देश के नागरिकों का जीवन-स्तर ऊंचा उठ सके तथा बेरोज़गारी की समाप्ति हो सके।

3. मौलिक अधिकार व्यक्ति से और निर्देशक सिद्धान्त समाज से सम्बन्धित-मौलिक अधिकार मुख्यतः व्यक्ति से सम्बन्धित हैं और उनका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना है। मौलिक अधिकार ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनमें व्यक्ति अपने में निहित गुणों का विकास कर सके। परन्तु निर्देशक सिद्धान्त समाज के विकास पर बल देते हैं। अनुच्छेद 38 में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य ऐसे समाज की व्यवस्था करेगा जिसमें सभी को सामाजिक व आर्थिक न्याय मिल सके।

4. मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राजनीतिक लोकतन्त्र है परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों का आर्थिक लोकतन्त्रमौलिक अधिकारों द्वारा जो अधिकार नागरिकों को दिए गए हैं वे देश में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं। अनुच्छेद 19 में छः प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है जोकि राजनीतिक लोकतन्त्र की आधारशिला हैं, परन्तु राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में जो सिद्धान्त दिए गए हैं, उनका लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है ताकि राजनीतिक लोकतन्त्र को सफल बनाया जा सके।

5. मौलिक अधिकारों से निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है-मौलिक अधिकारों का सम्बन्ध केवल राज्य में रहने वाले व्यक्तियों से है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों का अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी महत्त्व है।

6. मौलिक अधिकार प्राप्त किए जा चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को अभी लागू नहीं किया गयामौलिक अधिकार लोगों को मिल चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को अभी व्यावहारिक रूप नहीं दिया गया। निर्देशक सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको प्राप्त करना सरकार का लक्ष्य है।

7. दोनों के बीच यदि विरोध हो तो किसे महत्त्व मिलेगा ?-25वें संशोधन तथा 42वें संशोधन से पूर्व मौलिक अधिकारों को निर्देशक सिद्धान्तों से अधिक प्रधानता प्राप्त थी। इसमें सन्देह नहीं कि निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्तव्य है, परन्तु ऐसा करते हुए राज्य किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता। एक मुकद्दमे में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “राज्य को चाहिए कि वह निर्देशक सिद्धान्तों के उचित पालन के लिए कानून बनाए लेकिन उसके द्वारा बनाए गए नए कानूनों से मौलिक अधिकारों को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए।”

परन्तु 25वें संशोधन ने इस स्थिति में परिवर्तन कर दिया है क्योंकि इस संशोधन ने अनुच्छेद 39 (B) और 39 (C) के निर्देशक सिद्धान्त को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि किसी भी सरकार द्वारा बनाया कोई भी ऐसा कानून जो अनुच्छेद 39B या 39C में वर्णन किए गए निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए बनाया गया है, इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून धारा 14, 19 या 31 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। 42वें संशोधन की धारा (Clause) 4 द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संविधान के चौथे भाग में दिए सभी या किसी भी निर्देशक सिद्धान्त को लागू करने के लिए बनाया गया कोई कानून इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून धारा 14, 19 या 31 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। परन्तु १ मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन की धारा (Clause) 4 को रद्द कर दिया है। इस निर्णय के बाद निर्देशक सिद्धान्तों की वही स्थिति हो गई जो 42वें संशोधन से पहले थी।

वैसे तो मौलिक अधिकार तथा निर्देशक सिद्धान्त साथ-साथ चलते हैं, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त मौलिक सिद्धान्तों के पूरक कहे जा सकते हैं जो कि उनके विरुद्ध नहीं चल सकते। मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं और निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। इस दृष्टि से वे एक दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 2.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की सहायता से हमारा देश सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति किस प्रकार कर सकता है ?
(How can true social and economic goals of the country be achieved through Directive Principles ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान के चौथे भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लेख है। ये सिद्धान्त सामाजिक तथा आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रयत्नशील भारत के लिए मार्गदर्शक भी हैं। श्री ग्रेनविल आस्टिन के शब्दों में, “ये निर्देशक-सिद्धान्त उन मानवीय सामाजिक आदर्शों की व्यवस्था करते हैं, जो भारतीय सामाजिक क्रान्ति का लक्ष्य हैं। निर्देशक-सिद्धान्त भारत में वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना का विश्वास दिलाते हैं क्योंकि सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता है।” डॉ० अम्बेदकर ने संविधान सभा में भाषण देते हुए एक बार कहा था कि “संविधान का उद्देश्य केवल राजनीतिक लोकतन्त्र की नहीं, बल्कि ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र का भी समावेश हो।”

इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर 42वें संशोधन 1976 द्वारा संविधान की प्रस्तावना में परिवर्तन कर भारत को एक समाजवादी राज्य घोषित किया गया है। प्रस्तावना में समाजवादी शब्द का शामिल किया जाना संविधान के सामाजिक और आर्थिक अंश को दृढ़ करता है और इस बात का विश्वास दिलाता है कि देश की उन्नति और विकास का फल कुछ लोगों के हाथों में ही केन्द्रित नहीं होगा, बल्कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों में न्याय-युक्त आधार पर बांट दिया जाएगा। भारतीय संविधान ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहता है, जिसमें राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त हो।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त इस बात की पूर्ति का साधन हैं। संविधान के निर्देशक सिद्धान्तों में यह आदेश दिया गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्र के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो। नागरिक को समान रूप से अपनी आजीविका कमाने के पर्याप्त साधन प्राप्त हों। स्त्री और पुरुष को समान काम के लिए समान वेतन प्राप्त हो। समाज के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार से हो कि सभी लोगों की भलाई हो सके। देश की अर्थव्यस्था इस प्रकार संचालित की जाए कि देश का धन तथा उत्पादन के साधन जनसाधारण के हितों के विरुद्ध कुछ व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित न हों।

श्रमिकों, पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा उन्हें आर्थिक आवश्यकताओं से विवश होकर ऐसे धन्धे न अपनाने पड़ें, जो उनकी आयु और शक्ति के अनुकूल न हों। राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के अर्न्तगत लोगों को काम देने, शिक्षा का प्रबन्ध करने तथा बेरोज़गारी, बुढ़ापे, बीमारी और अंगहीनता की अवस्था में लोगों को सार्वजनिक सहायता देने का प्रयत्न करेगा। राज्य मज़दूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन स्तर तथा अधिक से अधिक सामाजिक सुविधाओं का प्रबन्ध करे। 42वें संशोधन 1976 द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य उपर्युक्त कानून या किसी अन्य ढंग से आर्थिक दृष्टि से कमज़ोरों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का प्रयत्न करेगा। राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा।

प्रश्न 3.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का संक्षिप्त में उल्लेख कीजिए जो देश की आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित हैं।
(Give a brief account of those Directive Principles which reflect the country’s economic policies.)
अथवा
राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के क्या अर्थ है ? भारतीय संविधान में दिए गए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन करो।
(What is the meaning of Directive Principles of State Policy and discuss the Directive Principles of state policy as embodied in Indian Constitution ?)
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन 36 से 51 तक की धाराओं में किया गया है और इन का सम्बन्ध राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक, शिक्षा-सम्बन्धी तथा अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों से है। यों इनका वर्गीकरण करना कठिन है, लेकिन कुछ विद्वानों ने इस दिशा में प्रयास किया है। डॉ० एम० पी० शर्मा ने राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को तीन वर्गों में रखा है-(1) समाजवादी सिद्धान्त, (2) गांधीवादी सिद्धान्त, (3) उदारवादी सिद्धान्त। हम इन सिद्धान्तों को चार श्रेणियों में बांट सकते हैं
(1) समाजवादी एवं आर्थिक सिद्धान्त, (2) गांधीवादी सिद्धान्त, (3) उदारवादी सिद्धान्त तथा (4) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

1. समाजवादी एवं आर्थिक सिद्धान्त (Socialaistic and Economic Principles)—कुछ निर्देशक सिद्धान्त ऐसे भी हैं जिनके लागू करने से समाजवादी व्यवस्था स्थापित होने की सम्भावना है। ऐसे सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

  • राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिस में सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार हो कि जन-साधारण के हित की प्राप्ति हो सके।
  • आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि धन और उत्पादन के साधनों का सर्व-साधारण के लिए अहितकारी केन्द्रीयकरण न हो।
  • श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और वे अपनी आर्थिक आवश्यकता से मज़बूर होकर कोई ऐसा काम करने पर बाध्य न हों जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल न हो।
  • बचपन तथा युवावस्था का शोषण व नैतिक परित्याग से संरक्षण हो।
  • राज्य लोगों के भोजन को पौष्टिक बनाने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य यथासम्भव इस बात का प्रयत्न करे कि सभी नागरिकों को बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीन होने की अवस्था में सार्वजनिक सहायता प्राप्त करने, काम पाने तथा शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो।
  • राज्य को मज़दूरों के लिए न्यायपूर्ण परिस्थितियों तथा स्त्रियों के लिए प्रसूति सहायता देने का यत्न करना चाहिए।
  • राज्य प्रत्येक श्रेणी के मजदूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन-स्तर तथा आवश्यक छुट्टियों का प्रबन्ध करे। राज्य इस प्रकार का प्रबन्ध करे कि मज़दूर सामाजिक तथा सांस्कृतिक सुविधाओं को अधिक-से-अधिक प्राप्त करें।

2. गांधीवादी सिद्धान्त (Gandhian Principles)—इस श्रेणी में दिए गए सिद्धान्त गांधी जी के उन विचारों पर आधारित हैं जो वे स्वतन्त्र भारत के निर्माण के लिए रखते थे। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वे प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सकें।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को उत्साह देगा।
  • राज्य समाज के निर्बल वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों (Scheduled Castes) तथा अनुसूचित कबीलों (Scheduled Tribes) की शिक्षा तथा उनके आर्थिक हितों की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न करेगा तथा उनको सामाजिक अन्याय तथा लूट-खसूट से बचाएगा।
  • राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं को जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, रोकने का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य गायों, बछड़ों तथा दूध देने वाले अन्य पशुओं के वध को रोकने के लिए प्रयत्न करेगा।

3. उदारवादी सिद्धान्त (Liberal Principles) अन्य सिद्धान्तों को जो इस प्रकार की श्रेणियों में नहीं आते हम उन्हें उदारवादी सिद्धान्त कह कर पुकार सकते हैं और इनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के उचित कदम उठाएगा।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस के वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य कृषि तथा पशु-पालन का संगठन आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के आधार पर करेगा।
  • राज्य लोगों के जीवन-स्तर तथा भोजन-स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करेगा और सार्वजनिक स्वास्थ्य का सुधार करेगा।
  • राज्य उन स्मारकों, स्थानों तथा वस्तुओं की जिन्हें संसद् द्वारा ऐतिहासिक या कलात्मक दृष्टि से राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दिया गया हो रक्षा करेगा और उन्हें तोड़ने, बेचने, बाहर भेजने (Export), कुरूप या नष्ट किए जाने से बचाएगा।

4. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principles to promote International Peace and Security)-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, इस विषय में भी निर्देश दिए गए हैं।
अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित कार्य करने के लिए कहा गया है-

(क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना।
(ख) दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों तथा कानूनों के लिए सम्मान उत्पन्न करना।
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने के लिए मध्यस्थता का रास्ता अपनाना।

42वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। इस संशोधन द्वारा निम्नलिखित नए सिद्धान्त शामिल किए गए हैं-

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि बच्चों को स्वस्थ, स्वतन्त्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएं प्राप्त हों।
  • राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समान अवसर के आधार पर न्याय का विकास करें। आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का राज्य प्रयत्न करेगा।
  • राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा। (4) राज्य वातावरण की सुरक्षा और विकास करने तथा देश के वन और वन्य जीवन को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

44वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत अनुच्छेद 38 में एक और निर्देशक सिद्धान्त जोड़ा गया है। 44वें संशोधन के अनुसार राज्य विशेषकर आय की असमानता को न्यूनतम करने और न केवल व्यक्तियों में बल्कि विभिन्न क्षेत्रों अथवा व्यवसायों में लगे लोगों के समूहों में स्तर, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को दूर करने का प्रयास करेगा।

इस तरह राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ सम्बन्धित हैं, क्योंकि ये सिद्धान्त कई विषयों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इनको परस्पर किसी विशेष फिलॉसफी के साथ नहीं जोड़ा गया। यह तो एक तरह का प्रयत्न था कि इन सिद्धान्तों द्वारा सरकार को निर्देश दिए जाएं ताकि सरकार उन कठिनाइयों को दूर कर सके जो कठिनाइयां उस समाज में विद्यमान थीं।

प्रश्न 4.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को किस ढंग से किस सीमा तक क्रियान्वयन किया जा चुका है ? विवेचन कीजिए। (How far and in what manner have the Directive Principles been implemented ? Discuss.)
उत्तर-
भारत सरकार तथा राज्यों की सरकारों ने 1950 से लेकर अब तक निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए हैं

1. कमजोर वर्गों की भलाई (Welfare of Weaker Sections) सरकार ने कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों की भलाई के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। अनुसूचित जातियों, कबीलों और पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों को स्कूलों तथा कॉलेजों में विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। सरकारी नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। पंजाब सरकार ने राज्य सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान तथा पिछड़ी जातियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे हैं। जबकि तमिलनाडु सरकार ने जुलाई, 1995 को पास किए एक बिल के अन्तर्गत राज्य सेवाओं में 69 प्रतिशत स्थान अनुसूचित जातियों व पिछड़ी जातियों के लिए सुरक्षित रखे हैं। लोकसभा में अनुसूचित जाति के लिए 84 एवं अनुसूचित जनजाति के लिए 47 स्थान आरक्षित रखे गए हैं। 95वें संशोधन द्वारा संसद् और राज्य विधानमण्डलों में इनके लिए 2020 ई० तक स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।

2. ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि-सुधार (Abolition of Zamindari System and Land Reforms) ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने और भूमि-सुधार के लिए अनेक कानून पास किए गए हैं।

3. पंचवर्षीय योजनाएं (Five Year Plans)—सरकार ने देश की आर्थिक, सामाजिक उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की। मार्च, 2017 में 12वीं पंचवर्षीय योजना खत्म हो गई। इन योजनाओं का उद्देश्य प्राकृतिक साधनों का जनता के हित के लिए प्रयोग करना तथा लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा करना इत्यादि है।

4. पंचायती राज की स्थापना (Establishment of Panchayati Raj)-बलवंत राय मेहता कमेटी की रिपोर्ट, 1957 के अनुसार, प्रायः सभी राज्यों में पंचायती राज को लागू किया गया है। 73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा पंचायतों को गांवों के विकास के लिए अधिक शक्तियां दी गई हैं।

5. सामुदायिक योजनाएं (Community Projects)-गांवों का विकास करने के लिए सामुदायिक योजनाएं चलाई गई हैं।

6. निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा (Free and Compulsory Education)—प्रायः सभी राज्यों में प्राइमरी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य है। पंजाब में मिडिल तक शिक्षा नि:शुल्क है जबकि जम्मू-कश्मीर में एम० ए० तक शिक्षा निःशुल्क है।

7. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण (Separation of Judiciary From Executive) पंजाब और हरियाणा में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् कर दिया गया है और कई राज्यों में इस दिशा में उचित कदम उ ठाए गए हैं।

8. नशाबन्दी (Prohibition)—सरकार ने नशीली वस्तुओं तथा नशाबन्दी के लिए प्रयास किए हैं। जनता सरकार ने नशाबन्दी पर बहुत बल दिया था।

9. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन (Encouragement to Cottage Industries)—सरकार ने कुटीर और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए खादी और कुटीर उद्योग आयोग की स्थापना की है जो लघु और कुटीर उद्योगों को कई प्रकार की आर्थिक और तकनीकी सहायता देता है।

10. बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation of Big Industries)—सरकार ने मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया है।

11. स्त्रियों के लिए समान अधिकार (Equal Rights for Women)-स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं। वेश्यावृत्ति को कानून द्वारा समाप्त किया जा चुका है।

12. विश्व शान्ति का विकास (Promotion of World Peace)-भारतीय सरकार ने विश्व शान्ति के लिए तटस्थता और सह-अस्तित्व की नीति को अपनाया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

13. समाजवाद की स्थापना के लिए सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है और राजाओं के प्रिवी-पर्स भी समाप्त कर दिए हैं।

14. कृषि की उन्नति (Development of Agriculture)-कृषि की उन्नति के लिए सरकार ने अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। वैज्ञानिक आधार पर इसका संगठन किया जा रहा है। जनता सरकार का 1979-80 का बजट किसानों का बजट कहलाता था क्योंकि इस बजट में किसानों को बहुत रियायतें दी गई थीं।

15. सारे देश के लिए एक Civil Code प्राप्त करने के दृष्टिकोण से हिन्दू कोड बिल (Hindu Code Bill) जैसे कानून बनाए गए हैं।

16. प्राचीन स्मारकों (Ancient Monuments) की रक्षा के लिए भी कानून बनाए जा चुके हैं।

17. पशुओं की नस्ल सुधारने के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं। पशु-पालन से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम देहाती क्षेत्रों में चालू हैं। अधिकांश राज्यों में गौ, बछड़े, दूध देने वाले पशुओं का वध निषेध करने वाले कानून बनाये गए हैं।

18. संविधान के 25वें तथा 42वें संशोधन का मुख्य उद्देश्य निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना है।

19. अन्त्योदय-कुछ राज्यों में एक नया कार्यक्रम अन्त्योदय आरम्भ किया गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे ग़रीब परिवार आते हैं जिनकी कुल सम्पत्ति एक हजार से भी कम है। ऐसे परिवारों को विशेष सहायता देकर ऊपर उठाने का प्रयास किया जा रहा है।

20. अनुसूचित जातियों का विकास-अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों के आर्थिक, सामाजिक एवं
शैक्षिक विकास को गति देने और उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से निम्नलिखित उपाय किए गए हैं

(i) राज्यों और केन्द्रीय मन्त्रालयों को स्पेशल कम्पोनेंट प्लान कर दिया गया है।
(ii) राज्यों के विशेष कम्पनोनेंट प्लान को विशेष केन्द्रीय सहायता दी गई है।
(iii) राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगम स्थापित किए गए हैं।
(iv) मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ रहे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों के छात्रों के लिए बुक बैंक योजना शुरू की गई है। तीन विद्यार्थियों के एक समूह को 5000 रुपए की लागत की पाठ्य पुस्तकों का एक सैट दिया गया है। वर्ष 1987-88 में इस योजना के लिए 55 लाख का प्रावधान किया गया था।
(v) मलिन व्यवसाय में लगे लोगों के बच्चों के लिए प्री-मैट्रिक स्कालरशिप योजना को लागू किया गया है।
(vi) अनुसचित जाति और अनुसूचित जन जाति के प्रार्थियों के लिए कोचिंग एवं सहायता योजना शुरू की गई है।

यद्यपि निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं, परन्तु अभी बहुत कुछ करना शेष है। किसानों की दशा आज भी शोचनीय है, बेरोज़गारी की गति तेजी से बढ़ रही है, शराब का बोलबाला है और कमजोर वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय न मिलने के बराबर है। पंचायती राज की संस्थाओं को अनेक कारणों से विशेष सफलता नहीं मिली। आज भी भारत में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है। मई 1986 में संसद् ने मुस्लिम महिला विधेयक पास किया जोकि ‘Civil Code’ की भावना के विरुद्ध है। संक्षेप में निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने की गति बहुत धीमी है और सरकार को इन सिद्धान्तों को लागू करने के लिए शीघ्र ही उचित कदम उठाने चाहिएं।

प्रश्न 5.
नीति निर्देशक तत्त्वों के पीछे कौन-सी शक्ति कार्य कर रही है ? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(Write a paragraph on the sanction behind the Directive Principles.)
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करवाने के लिए न्यायपालिका के पास नहीं जाया जा सकता क्योंकि इनके पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। यद्यपि इनके पीछे कानून की शक्ति नहीं है, तथापि निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून से बढ़कर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं होती। जनमत की शक्ति उस शक्ति से लाख गुना अधिक होती है जो शक्ति कानून के पीछे होती है। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

प्रो० पायली (Pylee) ने ठीक ही कहा है कि “निर्देशक सिद्धान्त राष्ट्र की आत्मा का आधारभूत स्तर हैं तथा जो इनका उल्लंघन करेंगे वे अपने आपको उस उत्तरदायित्व की स्थिति से हटाने का खतरा मोल लेंगे जिसके लिए उन्हें चुना गया है।” 42वें संशोधन की धारा 4 द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि संविधान के चौथे भाग में दिए गए सभी या किसी भी निर्देशक सिद्धान्त को लागू करने के लिए बनाया गया कोई भी कानून इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून 13, 19 या 31 (अनुच्छेद 31 को 44वें संशोधन द्वारा संविधान से निकाल दिया गया है) अनुच्छेदों में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है अथवा इन अनुच्छेदों द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। परन्तु 9 मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन की धारा 4 को रद्द कर दिया है।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में दिए गए निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
(Critically examine the Directive Principles of State Policy as embodied in the Constitution.)
उत्तर-
संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। परन्तु इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता अर्थात् इन सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इसलिए इन सिद्धान्तों की कड़ी आलोचना हुई है और संविधान में इनका उल्लेख निरर्थक बताया गया है। डॉ० जैनिंग्ज का विचार है कि निर्देशक सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं। प्रो० के० टी० शाह (K.T. Shah) का कहना है कि “राज्यनीति के सिद्धान्त उस चैक के समान हैं जिस का भुगतान बैंक सुविधा पर छोड़ दिया गया गया है।” श्री नासिरद्दीन (Nassiruddin) ने कहा था कि, “निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व नए वर्ष के दिन की जाने वाली प्रतिज्ञाओं से अधिक नहीं जिन्हें अगले दिन ही भुला दिया जाता है।” निम्नलिखित बातों के आधार पर निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचना हुई है और इन्हें निरर्थक तथा महत्त्वहीन बताया गया है-

1. ये कानूनी दृष्टिकोणों से कोई महत्त्व नहीं रखते (No Legal Value)-निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि ये न्याय-योग्य नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इनको न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार इनको लागू नहीं करती तो कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता।

2. निर्देशक सिद्धान्तों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट (Vague and Indefinite)-निर्देशक सिद्धान्तों में बहुत-सी बातें अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं। उदाहरणस्वरूप, समाजवादी सिद्धान्तों में मज़दूरों तथा स्वामियों के परस्पर सम्बन्धों के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा गया है। श्रीनिवासन (Srinivasan) ने इन सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए कहा कि इन सिद्धान्तों की व्यवस्था विशेष प्रेरणादायक नहीं है।

3. पवित्र विचार (Pious Wish)-ये सिद्धान्त संविधान-निर्माताओं की पवित्र भावनाओं का एक संग्रहमात्र ही हैं। श्रद्धालु जनता को आसानी से झूठा सन्तोष प्रदान किया जा सकता है। सरकार इनसे सस्ती लोकप्रियता (Cheap Popularity) प्राप्त कर सकती है, हार्दिक लोकप्रियता नहीं। श्री वी० एन० राव के मतानुसार, “राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त राज्य के अधिकारियों के लिए नैतिक उपदेश के समान हैं और उनके विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि संविधान में नैतिक उपदेशों के लिए स्थान नहीं है।”

4. राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रभु राज्य में अप्राकृतिक हैं (Unnatural in Sovereign States)ये सिद्धान्त निरर्थक हैं क्योंकि निर्देश केवल अपने अधीन तथा घटिया को दिए जाते हैं। दूसरे, यह बात बड़ी हास्यास्पद तथा अर्थहीन लगती है कि प्रभुत्व-सम्पन्न राष्ट्र अपने आपको आदेश दे। यह तो समझ में आ सकता है कि एक बड़ी सरकार अपने अधीन सरकारों को आदेश दे। अतः ये सिद्धान्त अस्वाभाविक हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

5. संवैधानिक द्वन्द्व (Constitutional Conflict) आलोचकों का कहना है कि यदि राष्ट्रपति, जो संविधान के संरक्षण की शपथ लेते हैं, किसी बिल को इस आधार पर स्वीकृति देने से इन्कार कर दें कि वह निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है तो क्या होगा ? संविधान सभा में श्री के० सन्थानम (K. Santhanam) ने यह भय प्रकट किया कि इन निर्देशक तत्त्वों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमन्त्री के बीच मतभेद पैदा हो सकते

6. इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया (They are not properly classified) डॉ० श्रीनिवासन (Srinivasan) के अनुसार, “निर्देशक सिद्धान्तों का उचित ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है और न ही उन्हें क्रमबद्ध रखा गया है। इस घोषणा में अपेक्षाकृत कम महत्त्व वाले विषयों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक प्रश्नों के साथ जोड़ दिया गया है। इसमें आधुनिकता का प्राचीनता के साथ बेमेल मिश्रण किया गया है। इसमें तर्कसंगत और वैज्ञानिक व्यवस्थाओं को भावनापूर्ण और द्वेषपूर्ण समस्याओं के साथ जोड़ा गया है।”

7. इसमें राजनीतिक दार्शनिकता अधिक है और व्यावहारिक राजनीति कम है-ये सिद्धान्त आदर्शवाद पर ज़ोर देते हैं जिस कारण कहा जाता है कि ये सिद्धान्त एक प्रकार से राजनीति दर्शन ही हैं, व्यावहारिक दर्शन तथा व्यावहारिक राजनीति नहीं। ये लोगों को सान्त्वना नहीं दे सकते।

8. साधन का उल्लंघन (Means ignored)-डॉ० जेनिंग्ज (Jennings) का कहना है कि “संविधान का यह अध्याय सिर्फ लक्ष्य की चर्चा करता है, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन नहीं।”

9. संविधान में इनका समावेश सरल लोगों को धोखा देना है-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों से भारत के अनपढ़ तथा सरल लोगों को धोखा देने का प्रयत्न किया गया है। इनमें अधिकतर निर्देशक सिद्धान्त न तो व्यावहारिक हैं तथा न ही ठोस, इनमें से बहुत से ऐसे हैं जिन पर चला नहीं जा सकता। उदाहरतया नशाबन्दी अथवा शराब की मनाही से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्त । यह सिद्धान्त जहां सदाचार की दृष्टि से आदर्श हैं वहां कई आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न कर देते हैं। जहां कहीं भी भारत में नशाबन्दी कानून लागू किया है यह केवल असफल ही नहीं रहा अपितु इससे राष्ट्रीय आय में बहुत हानि हुई है। उदाहरणस्वरूप नवम्बर, 1994 में आंध्र प्रदेश में नशाबन्दी लागू की गई परन्तु मार्च 1997 को इसे रद्द करना पड़ा क्योंकि इसके कारण राज्य को राजस्व की भारी क्षति उठानी पड़ी थी। इसी प्रकार हरियाणा के मुख्यमन्त्री चौ० बंसी लाल ने 1996 में शराब बन्दी लागू की, लेकिन इसके परिणामस्वरूप हरियाणा राज्य को आर्थिक बदहाली का सामना करना पड़ा। अन्ततः 1 अप्रैल, 1998 को पुनः शराब की बिक्री खोल दी गई।
इस प्रकार इन कई बातों के आधार पर निर्देशक सिद्धान्तों को निरर्थक और महत्त्वहीन बताया गया है।

प्रश्न 7.
हमारे संविधान में दिए गए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
(Discuss the importance of Directive Princinples of State Policy as stated in our Constitution.)
उत्तर-
संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। परन्तु इन सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति न होने के कारण यद्यपि इनकी कड़ी आलोचना की गई है और इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू भी नहीं करवाया जा सकता, फिर भी यह कहना कि ये सिद्धान्त निरर्थक व अनावश्यक हैं, गलत है। इन सिद्धान्तों का संविधान में विशेष स्थान है और ये सिद्धान्त भारतीय शासन के आधारभूत सिद्धान्त हैं। कोई भी सरकार इनको दृष्टि से विगत नहीं कर सकती। निम्नलिखित बातों से इनकी उपयोगिता तथा महत्त्व सिद्ध हो जाता है।

1. सरकार के लिए मार्गदर्शक (Guidelines for the Government)-निर्देशक सिद्धान्तों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ये सत्तारूढ़ दल के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। संविधान की धारा 37 के अनुसार, “इन सिद्धान्तों को शासन के मौलिक आदेश घोषित किया गया है जिन्हें कानून बनाते तथा लागू करते समय प्रत्येक सरकार का कर्त्तव्य माना गया है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल मन्त्रिमण्डल बनाए उसे अपनी आन्तरिक तथा बाह्य नीति निश्चित करते समय इन सिद्धान्तों को अवश्य ध्यान में रखना पड़ेगा। इस तरह ये सिद्धान्त मानों सभी राजनीतिक दलों का सांझा चुनावपत्र है।”

2. कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा (Declaration of Ideal of a Welfare State)-इन सिद्धान्तों द्वारा कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों को अपनाना आवश्यक होता है वे सब निर्देशक सिद्धान्तों में पाई जाती हैं। जस्टिस सप्र (Justice Sapru) का मत है कि “राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में वे समस्त दर्शन विद्यमान हैं जिनके आधार पर किसी भी आधुनिक जाति में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है।”

3. सरकार की सफलताओं को जांचने के मापदण्ड (Basic Standard for assessing the Achievements of the Government)-इन सिद्धान्तों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि वे भारतीय जनता के पास सरकार की सफलताओं को आंकने की कसौटी है। मतदाता इन आदर्शों को सम्मुख रखकर अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने अपनी शासन सम्बन्धी नीति को बनाते समय किस सीमा तक इन सिद्धान्तों को सम्मुख रखा है।

4. मौलिक अधिकारों को वास्तविक बनाने में सहायक-मौलिक अधिकारों ने लोगों को राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा समानता प्रदान की, परन्तु जब तक इन निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करके बेरोज़गारी दूर नहीं होती और आर्थिक व सामाजिक समानता की व्यवस्था नहीं हो जाती, राजनीतिक अधिकारों का कोई लाभ नहीं हो सकता।

5. लाभदायक नैतिक आदर्श (Useful Moral Precepts)-कुछ लोग निर्देशक सिद्धान्तों को नैतिक आदर्श के नाम से पुकारते हैं, परन्तु इस बात से भी उनकी उपयोगिता कम नहीं होती। संविधान में उनका उल्लेख करने से ये नैतिक आदर्श एक निश्चित रूप में तथा सदा जनता और सरकार के सामने रहेंगे।

6. न्यायपालिका के मार्गदर्शक (Guidelines for the Judiciary)-निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायपालिका के द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता, परन्तु फिर भी बहुत से मामलों में न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं और बहुत से मुकद्दमों में इनका उल्लेख भी किया गया है।

7. स्थिरता तथा निरन्तरता (Stability and Continuity)-निर्देशक सिद्धान्त से राज्य की नीति में एक प्रकार की स्थिरता और निरन्तरता आ जाती है। कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो, उसे इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही अपनी नीतियों का निर्माण करना होता है और शासन चलाना होता है। इससे शासन की नीति में स्थिरता और निरन्तरता का आना स्वभाविक है।

8. जनमत का समर्थन (Support of Public Opinion) निःसन्देह निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है, परन्तु इनके पीछे कानून से बढ़कर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर कोई शक्ति नहीं होती। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

9. ये भारत में वास्तविक लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं (Faith in real Democracy)-निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व इस बात में भी है कि भारत में ये वास्तविक लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं क्योंकि इनकी स्थापना से आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना होती है जो सच्चे लोकतन्त्र के लिए आवश्यक है।

10. ये सामाजिक क्रान्ति का आधार हैं (These are Basis of Social Revolution)-निर्देशक सिद्धान्त नई सामाजिक दशा के सूचक हैं। ये सामाजिक क्रान्ति का आधार हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

निर्देशक सिद्धान्तों का संविधान में उल्लेख किया जाना निरर्थक नहीं बल्कि बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। सरकार और जनता के सामने इनके द्वारा ऐसे आदर्श प्रस्तुत कर दिए गए हैं जिन्हें लागू करने से भारत को धरती का स्वर्ग बनाया जा सकता है। लोकतन्त्र में कोई भी आसानी से इनकी अवहेलना नहीं कर सकता। इनके बारे में श्री एम० सी० छागला (M.C. Chhagla) ने लिखा है कि “यदि इन सिद्धान्तों को लागू कर दिया जाये तो हमारा देश वास्तव में धरती पर स्वर्ग बन जाएगा।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार
और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था। अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इस भाग में शामिल उपबन्ध न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते। फिर भी इनमें जो सिद्धान्त रखे गए हैं, वे देश के शासन प्रबन्ध की आधारशिला हैं और कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”

प्रश्न 2.
भारत के संविधान में अंकित निर्देशक सिद्धान्तों के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप इस प्रकार है-

  • संसद् तथा कार्यपालिका के लिए निर्देश-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त भावी सरकारों तथा संसद के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं जिनके आधार पर सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।
  • आर्थिक लोकतन्त्र-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • निर्देशक सिद्धान्त न्याययोग्य नहीं है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में चार अन्तर बताएं।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों और मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
  • मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है। मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। वे सरकार को कोई विशेष कार्य करने से रोकते हैं। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप सकारात्मक है। वे सरकार को कोई विशेष कार्य करने का आदेश देते हैं।
  • मौलिक अधिकार व्यक्ति से और निर्देशक सिद्धान्त समाज से सम्बन्धित-मौलिक अधिकार मुख्यत: व्यक्ति से सम्बन्धित हैं और उनका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त सम्पूर्ण समाज के विकास पर बल देते हैं।
  • मौलिक अधिकारों से निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है।

प्रश्न 4.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए चार समाजवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-
कुछ सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो समाजवादी व्यवस्था पर आधारित हैं। वे निम्नलिखित हैं-

  • राज्य ऐसी सामजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को आजीविका के साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार हो कि जन-साधारण के हित की प्राप्ति हो सके।

प्राश्न 5.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए चार उदारवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए उदारवादी सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उचित कदम उठाएगा।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य कृषि तथा पशु-पालन का संगठन आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के आधार पर करेगा।

प्राश्न 6.
कोई चार गांधीवादी निर्देशक सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वह प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सके।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देगा।
  • राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं का जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, रोकने का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य गायों, बछड़ों तथा दूध देने वाले अन्य पशुओं के वध को रोकने के लिए प्रयत्न करेगा।

प्राश्न 7.
निर्देशक सिद्धान्तों की चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है-

  • ये कानूनी मुष्टिकोणों से कोई महत्त्व नहीं रखते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार इनके अनुसार काम नहीं करती तो उसके विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता।
  • निर्देशक सिद्धान्तों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट-निर्देशक सिद्धान्तों में बहुत-सी बातें अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं। उमाहरणस्वरूप, समाजवादी सिद्धान्तों में मजदूरों तथा स्वामियों के परस्पर सम्बन्धों के विषय में कुछ नहीं कहा गया है।
  • पवित्र विचार-ये सिद्धान्त संविधान निर्माताओं की पवित्र भावनाओं का संग्रह मात्र ही है। इनसे अनभिज्ञ जनता को आसानी से झूठा संतोष प्रदान किया जा सकता है। सरकार इससे सस्ती लोकप्रियता प्राप्त कर सकती है, हार्दिक लोकप्रियता नहीं।
  • इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है।

प्राश्न 8.
निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व बाताएं।
उत्तर-
निम्नलिखित बातों से निर्देशक सिमान्तों का महत्व स्पष्ट हो जाता है-

  • सरकार के लिए मार्गदर्शक-निर्देशक सिद्धान्तों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ये राजनीतिक दलों के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। चाहे कोई भी दल मन्त्रिमण्डल बनाए, वह आपनी नीतियों का निर्माण इन्हीं सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही करता है।
  • कल्यणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा-इन सिद्धान्तों के द्वारा कल्याणकरी राज्य के आदर्श की घोषण की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों को अपनाना आवश्यक होता है, वे सब बातें निर्देशक सिद्धान्तों में पाई जाती हैं।
  • सरकार की सफलताओं को जांचने का मापदण्ड-इन सिद्धान्तों के द्वारा ही जनता सरकार की सफलताओं का अनुमन लगाती है। मतदाता इस आदर्श को सम्मुख रखकर ही अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने किस सीमा तक इन सिद्धान्तों का पालन किया है।
  • ये न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शन का काम करते हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में दिए गए निर्देशक सिद्धान्तों में से कोई चार सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य ऐसे समाज का निर्माण करेगा जिसमें लोगों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्राप्त होगा।
  • स्त्रियों और पुरुषों को आजीविका कमाने के समान अवसर दिए जाएंगे।
  • देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून तथा समान न्याय संहिता की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो।

प्रश्न 10.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को संविधान में समावेश करने का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर-

  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का उद्देश्य भारत में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • निर्देशक सिद्धान्त विधानमण्डलों तथा कार्यपालिका को मार्ग दिखाते हैं कि उन्हें अपना अधिकार किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए।
  • ये सिद्धान्त ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं जिनमें न्याय, स्वतन्त्रता और समानता विद्यमान् हो तथा जनता सुखी और सम्पन्न हो।
  • निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका के लिए मार्ग दर्शक का काम करते हैं।

प्रश्न 11.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है ?
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून की शक्ति न होकर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं होती। जनमत की शक्ति उस शक्ति से लाख गुना अधिक होती है जो शक्ति कानून के पीछे होती है। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

प्रश्न 12.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में से किन्हीं चार सिद्धान्तों की व्याख्या करें जिनका सम्बन्ध आर्थिक, शैक्षिक स्वतन्त्रताओं तथा विदेश नीति से है।
उत्तर-

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।

प्रश्न 13.
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्त लिखें।
उत्तर–
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन अनुच्छेद 51 में किया गया है। अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित काम करने के लिए कहा गया है-

  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को प्रोत्साहन देगा।
  • राज्य दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखेगा।
  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों और कानूनों के लिए सम्मान पैदा करेगा।
  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को हल करने के लिए मध्यस्थ का रास्ता अपनाएगा।
  • राज्य को न संस्थाओं में विश्वास है जो कि विश्व-शान्ति व सुरक्षा के साथ सम्बन्धित हो।

प्रश्न 14.
“निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं।” सिद्ध कीजिए।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों की तरह न्याय-योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्त राज्यों के लिए कुछ निर्देश हैं। इनके पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है। इनको न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि कोई सरकर इनको लागू नहीं करती तो कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता अर्थात् किसी न्यायालय द्वारा किसी भी सरकार को इन सिद्धान्तों को अपनाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यह राज्य या सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह इन सिद्धान्तों को कहां तक मानती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 15.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में से किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए जिन्हें व्यावहारिक रूप दिया जा चुका है।
उत्तर-
भारत में निम्नलिखित नीति निर्देशक तत्त्वों को व्यावहारिक रूप दिया गया है

  • कमजोर वर्गों की भलाई-अनुसूचित जातियों, कबीलों और पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों को स्कूलों और कॉलेजों में विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। संसद् और राज्य विधानमण्डल में इनके लिए 2020 तक सीटें सुरक्षित रखी गई हैं।
  • ज़मींदारी प्रथा का अन्त और भूमि-सुधार-किसानों की दशा सुधारने के लिए ज़मींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया है तथा भूमि सुधार कानूनों को पारित करके सम्पत्ति के लिए विकेन्द्रीयकरण की स्थापना का प्रयत्न किया गया है।
  • पंचवर्षीय योजनाएं-सरकार ने देश की आर्थिक व सामाजिक उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की। आजकल 12वीं पंचवर्षीय योजना चल रही है।
  • बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान में अंकित निर्देशक सिद्धान्तों के स्वरूप का वर्णन करें।
उत्तर-

  • संसद् तथा कार्यपालिका के लिए निर्देश-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त भावी सरकारों तथा संसद के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं जिनके आधार पर सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।

प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दो अन्तर बताएं।
उत्तर-

  1. मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
  2. मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप सकारात्मक है।

प्रश्न 4.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए कोई दो समाजवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य ऐसी सामजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को आजीविका के साधन प्राप्त हो सकें।

प्रश्न 5.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए दो उदारवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उचित कदम उठाएगा।

प्रश्न 6.
कोई दो गांधीवादी निर्देशक सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वह प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सके।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देगा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान के किस भाग एवं किस अनुच्छेद में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-संविधान के भाग IV-A तथा अनुच्छेद 51-A में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. संविधान के भाग IV-A में नागरिकों के कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को संविधान में किस संशोधन के द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 4. संविधान के किस भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-भाग IV में।

प्रश्न 5. संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा से संबंधित है ?
उत्तर-अनुच्छेद 51 में।

प्रश्न 6. मौलिक अधिकारों एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय संगत हैं, जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं।

प्रश्न 7. निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के कितने-से-कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 36 से 51 तक।

प्रश्न 8. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं ?
उत्तर-अनुच्छेद 37 के अनुसार।

प्रश्न 9. शिक्षा के अधिकार का वर्णन किस भाग में किया गया है?
उत्तर-शिक्षा के अधिकार का वर्णन भाग III में किया गया है।

प्रश्न 10. किस संवैधानिक संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का रूप दिया गया?
उत्तर-86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …….. संशोधन द्वारा …….. में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
2. वर्तमान समय में संविधान में ……….. मौलिक कर्त्तव्य शामिल हैं।
3. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन अनुच्छेद ………. तक में किया गया है।
4. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत ……… नहीं हैं।
उत्तर-

  1. 42वें, IV-A
  2. ग्यारह
  3. 36 से 51
  4. न्यायसंगत।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारतीय संविधान में 44वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए।
2. आरंभ में भारतीय संविधान में 6 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया था, परंतु वर्तमान समय में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है।
3. नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।
4. अनुच्छेद 51 के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
5. निर्देशक सिद्धांत कानूनी दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व रखते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
किस संविधान से हमें निर्देशक सिद्धांतों की प्रेरणा प्राप्त हुई है ?
(क) ब्रिटेन का संविधान
(ख) स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान
(ग) अमेरिका का संविधान
(घ) आयरलैंड का संविधान।
उत्तर-
(घ) आयरलैंड का संविधान।

प्रश्न 2.
निर्देशक सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(क) ये नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं
(ख) इनको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है
(ग) ये सकारात्मक हैं
(घ) ये सिद्धान्त राज्य के अधिकार हैं।
उत्तर-
(ग) ये सकारात्मक हैं

प्रश्न 3.
“राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है।” यह कथन किसका है ?
(क) प्रो० के० टी० शाह
(ख) मिस्टर नसीरूद्दीन
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) महात्मा गाँधी।
उत्तर-
(क) प्रो० के० टी० शाह

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है ?
(क) संविधान का पालन करना
(ख) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना
(ग) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना
(घ) माता-पिता की सेवा करना।
उत्तर-
(घ) माता-पिता की सेवा करना।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 22 मौलिक अधिकार

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की विशेषताओं की व्याख्या करो।
(Discuss the special features of the Fundamental Rights as given in the Indian Constitution.)
अथवा
हमारे संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की प्रकृति की व्याख्या करो।
(Discuss the nature of Fundamental Rights as mentioned in our Constitution.)
उत्तर-
भारत के संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है और संविधान द्वारा उनकी केवल घोषणा ही नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा भी की गई है। भारत के संविधान में मूल अधिकारों का वर्णन केवल इसलिए ही नहीं किया गया कि उस समय यह कोई फैशन था। यह वर्णन उस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए लिया गया है, जिसके अनुसार सरकार कानून के अनुसार कार्य करे, न कि गैर-कानूनी तरीके से।

मौलिक अधिकारों की प्रकृति अथवा स्वरूप
अथवा
मौलिक अधिकारों की विशेषताएं

संविधान ने जो भी मौलिक अधिकार घोषित किए हैं, उनकी कुछ अपनी ही विशेषताएं हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

1. व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े व्यापक तथा विस्तृत हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं (Art. 12-35) में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तार से व्याख्या की गई है।

2. मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की यह विशेषता है कि ये भारत के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।

3. मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं-कोई भी अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं हो सकता। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी असीमित नहीं हैं। संविधान के अन्दर ही मौलिक अधिकारों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।

4. मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं-मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और उनके माध्यम से प्रत्येक ऐसी संस्था जिसको कानून बनाने का अधिकार है, पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय सरकारों को मौलिक अधिकारों के अनुसार ही कानून बनाने पड़ते हैं तथा ये कोई ऐसा कानून नहीं बना सकतीं जो मौलिक अधिकारों पर के विरुद्ध हो।

5. अधिकार न्याय योग्य हैं-मौलिक अधिकार न्यायालयों द्वारा लागू किए जा सकते हैं। यदि इन अधिकारों में से किसी का उल्लंघन किया जाता है, तो वह व्यक्ति जिसको इनके उल्लंघन से हानि होती है, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संसद् अथवा राज्य विधान-मण्डलों के पास हुए कानून तथा आदेश को अवैध घोषित कर सकती है यदि वह कानून अथवा आदेश संविधान के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हो।

6. अधिकार निलम्बित किए जा सकते हैं-राष्ट्रपति संकट काल की घोषणा करके संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को निलम्बित कर सकता है तथा साथ ही उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में इन अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध अपील करने के अधिकार का भी निषेध कर सकता है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत दिए निजी और स्वतन्त्रता के अधिकार को आपात्कालीन स्थिति के दौरान भी स्थगित नहीं किया जा सकता, परन्तु 59वें संशोधन द्वारा इस अधिकार को भी निलम्बित किया जा सकता है।

7. नकारात्मक तथा सकारात्मक अधिकार-हमारे संविधान में नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों प्रकार के अधिकार हैं। नकारात्मक अधिकार निषेधों की तरह हैं जो राज्य की शक्ति पर सीमाएं लगाते हैं। उदाहरणस्वरूप अनुच्छेद 18 राज्यों को आदेश देता है कि वह किसी नागरिक को सेना या विद्या सम्बन्धी उपाधि के अलावा और किसी प्रकार की उपाधि नहीं देंगे, यह नकारात्मक अधिकार है। सकारात्मक अधिकार वे होते हैं जो नागरिक को किसी काम को करने की स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। बोलने का अधिकार सकारात्मक अधिकार है।

8. कुछ मौलिक अधिकार विदेशियों को भी प्राप्त हैं-संविधान में कुछ अधिकार तो केवल भारतीय नागरिकों को दिए गए हैं, जैसे अनुच्छेद 15, 16, 19 तथा 30 में वर्णित अधिकार और कुछ अधिकार नागरिकों तथा विदेशियों को समान रूप में मिले हैं, जैसे कानून के समक्ष समानता तथा समान संरक्षण, धर्म की स्वतन्त्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार इत्यादि।

9. इनका संशोधन किया जा सकता है-मौलिक अधिकारों की अनुच्छेद 368 में दी गई विधि कार्यविधि में संशोधन किया जा सकता है। इसके लिए कुल सदस्यों के बहुमत एवं संसद् के दोनों सदनों में से प्रत्येक में उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत का होना ज़रूरी है।

10. मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए विशेष संवैधानिक व्यवस्था-अनुच्छेद 32 में लिखा है कि भारत में किसी भी अधिकारी द्वारा यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों को छीनने का प्रयत्न किया जाता है, तो वह अपने अधिकारों को लागू कराने के लिए उचित विधि द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है ताकि आदेश अथवा रिट, हैबीयस कॉर्पस (Habeaus Corpus), मण्डामस (Mandamus), वर्जन (Prohibition), कौवारण्टो (Quo Warranto) एवं सरटरारी (Certiorari) जो भी उचित हो, जारी करवा सके।

11. साधारण व्यक्तियों तथा संस्थाओं पर लागू होना-मौलिक अधिकारों का प्रभाव सरकार तथा सरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त गैर-सरकारी व्यक्तियों और संस्थाओं पर भी है।

12. संविधान नागरिक स्वतन्त्रताओं पर अधिक बल देता है-मौलिक अधिकारों की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें नागरिक स्वतन्त्रताओं (कानून के समक्ष समता, भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता इत्यादि) पर ही अधिक बल दिया गया है। मौलिक अधिकारों में आर्थिक अधिकारों, जैसे काम करने का अधिकार का वर्णन नहीं किया है।

13. भारतीय संविधान में न तो प्राकृतिक और न ही अप्रगणित अधिकारों का वर्णन है (No Natural and Uneumerated Rights in the Indian Constitution)-प्राकृतिक अधिकार व्यक्ति को प्रकृति की ओर से मिले होते हैं। यह मनुष्य को जन्म से ही प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों का सम्बन्ध प्राकृतिक न्याय से है। यह राज्य और सरकार के जन्म से पूर्व के हैं, अतः अधिकारों के सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों का आधार संविधान में लिखा जाना मात्र नहीं है। इनका आधार सामाजिक समझौता है। सामाजिक समझौते के आधार पर ही राज्य की स्थापना हुई थी, परन्तु भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का आधार प्राकृतिक आधार नहीं है।

अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय संविधान में प्रगणित अधिकारों की व्याख्या तो कर ही सकता है, साथ ही वह अनेकों दूसरे अधिकारों की व्याख्या कर सकता है जिसका स्पष्ट रूप से संविधान में वर्णन नहीं, ऐसा अमेरिका के संविधान में लिखा है। किन्तु गोपालन बनाम मद्रास (चेन्नई) राज्य वाले विवाद में भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने यह फैसला कर दिया था कि “जब तक विधानमण्डल द्वारा बनाया गया कोई अधिनियम संविधान के किसी उपबन्ध के विपरीत नहीं, उस अधिनियम को केवल इस आधार पर कि न्यायालय उसे संविधान की भावना के विरुद्ध समझता है अवैध नहीं घोषित किया जाएगा।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(Explain in brief the meaning of the fundamental rights given in the constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान में दिए गए नगारिक अधिकारों का संक्षेप में वर्णन करें।
(Explain in brief the fundamental rights enshrined in the India constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों का वर्णन करो। इनका महत्त्व क्या है ?
(Describe briefly the fundamental rights as given in the Indian constitution. What is their significance ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में धारा 12 से 35 तक की धाराओं में किया गया है।
44वें संशोधन से पूर्व संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा गया था परन्तु 44वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 में संशोधन करके और अनुच्छेद 31 को हटा कर सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकाल कर कानूनी अधिकार बना दिया गया है। अतः 44वें संशोधन के बाद 6 मौलिक अधिकार रह गये हैं जो निम्नलिखित हैं

1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 व 18) [Right to Equality (Art. 14, 15, 16, 17 and 18)] – समानता का अधिकार एक महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है जिसका वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। भारतीय संविधान में नागरिकों को निम्नलिखित समानता प्रदान की गई है

(I) कानून के समक्ष समानता (Equality before Law, Art. 14) संविधान के अनुच्छेद 14 में “कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण” शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया है और संविधान में लिखा गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा।

कानून के समक्ष समानता (Equality before Law) का अर्थ यह है कि कानून के सामने सभी बराबर हैं और किसी को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। कोई भी व्यक्ति देश के कानून से ऊपर नहीं है। सभी व्यक्ति भले ही उनकी कुछ भी स्थिति हो, साधारण कानून के अधीन हैं और उन पर साधारण न्यायालय में मुकद्दमा चलाया जा सकता है।
कानून के समान संरक्षण (Equal Protection of Law) का यह आभप्राय कि समान परिस्थितियों में सब के साथ समान व्यवहार किया जाए।

अपवाद (Exceptions)—इस अधिकार के निम्नलिखित अपवाद हैं।

  • विदेशी राज्यों के अध्यक्ष तथा राजदूतों के विरुद्ध भारतीय कानूनों के अन्तर्गत कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।
  • राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उनके कार्यकाल में कोई फौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता।
  • मन्त्रियों, विधानमण्डल के सदस्यों, न्यायाधीशों और दूसरे कर्मचारियों को भी कुछ विशेषाधिकार दिए गए हैं और ये विशेषाधिकार साधारण नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं।

(II) भेदभाव की मनाही (Prohibition of Discrimination, Art. 15)—अनुच्छेद 15 के अनुसार अग्रलिखित व्यवस्था की गई है-

  • राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जाति लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं करेगा।
  • दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों के ऊपर दिए गए किसी आधार पर किसी नागरिक को अयोग्य व प्रतिबन्धित नहीं किया जाएगा।
  • उन कुओं, तालाबों, नहाने के घाटों, सड़कों व सैर के स्थानों से जिनकी राज्य की निधि से अंशतः या पूर्णतः देखभाल की जाती है अथवा जिनको सार्वजनिक प्रयोग के लिए दिया गया हो, किसी नागरिक को जाने की मनाही नहीं होगी अर्थात् सार्वजनिक स्थान सभी नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव के खुले हैं।

अपवाद (Exception)-अनुच्छेद 15 में दिए गए अधिकारों के निम्न दो अपवाद हैं-

  • राज्य स्त्रियों और बच्चों के हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था कर सकता है।
  • राज्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जन-जातियों तथा अनुसूचित कबीलों के लोगों की भलाई के लिए विशेष व्यवस्थाओं का प्रबन्ध कर सकता है।

(III) सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता (Equality of Opportunity in Matter of Public Employment-Art. 16) अनुच्छेद 16 राज्य में सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियां या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, लिंग, जन्म-स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

(IV) छुआछूत की समाप्ति (Abolition of Untouchability, Art. 17)-अनुच्छेद 17 द्वारा छुआछूत को समाप्त किया गया है। किसी भी व्यक्ति के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना या उसको अछूत समझकर सार्वजनिक स्थानों, होटलों, घाटों, तालाबों, कुओं, सिनेमा घरों, पार्कों तथा मनोरंजन के स्थानों के उपयोग से रोकना कानूनी अपराध है। छुआछूत की समाप्ति एक महान् ऐतिहासिक घटना है।

(V) उपाधियों की समाप्ति (Abolition of Titles, Art. 18) अनुच्छेद 18 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि-

  • सेना या शिक्षा सम्बन्धी उपाधि के अतिरिक्त राज्य कोई और उपाधि नहीं देगा।
  • भारत का कोई भी नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
  • कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं, परंतु भारत में किसी लाभप्रद अथवा भरोसे के पद पर नियुक्त है, राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना किसी विदेशी से कोई उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता।
  • कोई भी व्यक्ति जो राज्य के किसी लाभदायक पद पर विराजमान है, राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना कोई भेंट, वेतन अथवा किसी प्रकार का पद विदेशी राज्य से प्राप्त नहीं कर सकता।

भारत सरकार नागरिकों को भारत रत्न (Bharat Ratan), पदम् विभूषण (Padam Vibhushan), पदम् भूषण (Padam Bhushan), पद्म श्री (Padam Shri) आदि उपाधियां देती है जिस कारण अलोचकों का कहना है कि ये उपाधियां अनुच्छेद 18 के साथ मेल नहीं खातीं।

2. स्वतन्त्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 से 22 तक (Right to Freedom Art. 19 to 22) – स्वतन्त्रता का अधिकार प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि समानता का अधिकार। भारत के संविधान में स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 19 से 22 में किया गया है। स्वतन्त्रता के अधिकार को संविधान का ‘प्राण तथा आत्मा’ और स्वतन्त्रताओं का पत्र कहा जाता है। श्री एम० वी० पायली (M. V. Pylee) ने लिखा है, “स्वतन्त्रता के अधिकार सम्बन्धी ये चार धाराएं मौलिक अधिकारों के अध्याय का मूल आधार हैं।” अब हम अनुच्छेद 19 से 22 तक में दिए गए स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन करते हैं-

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(क) अनुच्छेद 19-अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत नागरिकों को निम्नलिखित 6 स्वतन्त्रताएं प्राप्त हैं

  • भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता-प्रत्येक नागरिक को भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। कोई भी नागरिक बोलकर या लिखकर अपना विचार प्रकट कर सकता है परन्तु भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता असीमित नहीं है।
  • शान्तिपूर्ण तथा बिना अस्त्रों के सम्मेलन की स्वतन्त्रता-भारतीय नागरिकों को शान्तिपूर्ण तथा बिना हथियारों के अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सम्मेलन करने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु राज्य भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता, सार्वजनिक व्यवस्था के हित में शान्तिपूर्वक तथा बिना शस्त्रों के इकट्ठे होने के अधिकार को सीमित कर सकता है।
  • संस्था तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता-संविधान नागरिकों को अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संस्था तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। परन्तु संघ तथा संस्था बनाने के अधिकार को राज्य भारत की प्रभुसत्ता तथा अखण्डता, सार्वजनिक व्यवस्था तथा नैतिकता के हित में उचित प्रतिबन्ध लगाकर सीमित कर सकता है।
  • समस्त भारत में चलने-फिरने की स्वतन्त्रता-संविधान नागरिकों को समस्त भारत में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। भारत के किसी भी भाग में जाने के लिए पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं है, परन्तु राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • भारत के किसी भाग में रहने तथा बसने की स्वतन्त्रता- भारतीय नागरिक किसी भी भाग में रह सकते हैं
    और अपना निवास स्थान बना सकते हैं। राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर भी उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • कोई भी व्यवसाय, पेशा करने अथवा व्यापार एवं वाणिज्य करने की स्वतन्त्रता- प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा से कोई भी व्यवसाय, पेशा अथवा व्यापार करने की स्वतन्त्रता दी गई है। राज्य किसी नागरिक को कोई विशेष व्यवसाय अपनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।

(ख) जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सुरक्षा (Right of Life and Personal Liberty-Art. 20-22)

अनुच्छेद 20 व्यक्ति और उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करता है; जैसे-

  • किसी व्यक्ति को किसी ऐसे कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड नहीं दिया जा सकता जो कानून उसके अपराध करते समय लागू नहीं था।
  • किसी व्यक्ति को उससे अधिक सज़ा नहीं दी जा सकती जितनी अपराध करते समय प्रचलित कानून के अधीन दी जा सकती है।
  • किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध उसी अपराध के लिए एक बार से अधिक मुकद्दमा नहीं चलाया जाएगा और दण्डित नहीं किया जाएगा।
  • किसी अभियुक्त को अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 21 में लिखा है कि कानून द्वारा स्थापित पद्धति के बिना, किसी व्यक्ति को उसके जीवन और उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

शिक्षा का अधिकार (Right to Education)-दिसम्बर, 2002 में राष्ट्रपति ने 86वें संवैधानिक संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। इस स्वीकृति के बाद शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान के तीसरे भाग में शामिल होने के कारण एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा। बच्चों के माता-पिता अभिभावकों या संरक्षकों का यह कर्त्तव्य होगा कि वे अपने बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध करवाएं, जिनसे उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के अधिकार के लागू होने के बाद भारतीय बच्चे इस अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं, क्योंकि मौलिक अधिकारों में शामिल होने के कारण ये अधिकार न्याय योग्य है।

1 अप्रैल, 2010 से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009′ के लागू होने के पश्चात् 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने का कानूनी अधिकार मिल गया है।

(ग) गिरफ्तारी एवं नज़रबन्दी के विरुद्ध रक्षा (Protection against Arrest and Detention in Certain Cases-Art. 22) –
अनुच्छेद 22 गिरफ्तार तथा नजरबन्द नागरिकों के अधिकारों की घोषणा करता है। अनुच्छेद 22 के अनुसार-

  • गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को, गिरफ्तारी के तुरन्त पश्चात् उसकी गिरफ्तारी के कारणों से परिचित कराया जाना चाहिए।
  • उसे अपनी पसन्द के वकील से परामर्श लेने और उसके द्वारा सफाई पेश करने का अधिकार होगा।
  • बन्दी-गृह में बन्द किए गए किसी व्यक्ति को बन्दी-गृह से किसी मैजिस्ट्रेट के न्यायालय तक की यात्रा के लिए आवश्यक समय निकाल कर 24 घण्टों के अन्दर-अन्दर निकट-से-निकट मैजिस्ट्रेट के न्यायालय में उपस्थित किया जाए।
  • बिना मैजिस्ट्रेट की आज्ञा के 24 घण्टे से अधिक समय के लिए किसी व्यक्ति को कारावास में नहीं रखा जाएगा।
    अपवाद-अनुच्छेद 22 में लिखे अधिकार उस व्यक्ति को नहीं मिलते जो शत्रु विदेशी है या निवारक नजरबन्दी कानून के अनुसार गिरफ्तार किया गया हो।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
(Right Against Exploitation-Art. 23-24) – संविधान के 23वें तथा 24वें अनुच्छेदों में नागरिकों के शोषण के विरुद्ध अधिकारों का वर्णन किया गया है। इस अधिकार का उद्देश्य है कि समाज का कोई भी शक्तिशाली वर्ग किसी निर्बल वर्ग पर अन्याय न कर सके।

(I) मानव के व्यापार और बलपूर्वक मज़दूरी की मनाही (Prohibition of traffic in human beings and forced Labour)-अनुच्छेद 23 के अनुसार ‘मनुष्यों का व्यापार, बेगार और अन्य प्रकार का बलपूर्वक श्रम निषेध है और इस व्यवस्था का उलंलघन करना दण्डनीय अपराध है।’ जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब भारत के कई भागों में दासता और बेगार की प्रथा प्रचलित थी। ज़मींदार किसानों से बहुत काम करवाया करते थे, परन्तु उसके बदले उनको कोई मज़दूरी नहीं दी जाती थी। मनुष्यों को विशेषकर स्त्रियों को पशुओं की तरह खरीदा और बेचा जाता था, अतः इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद 23 द्वारा उठाया गया पग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अपवाद-परन्तु इस अधिकार का एक अपवाद है। सरकार को जनता के हितों के लिए अपने नागरिकों से आवश्यक सेवा (Compulsory Service) करवाने का अधिकार है।

(II) कारखानों आदि में बच्चों को काम पर लगाने की मनाही (Prohibition of employment of children in factories etc.)–अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी भी बच्चे को किसी भी कारखाने अथवा खान में नौकर नहीं रखा जा सकता और न ही किसी संकटमयी नौकरी में लगाया जा सकता है। यह इसलिए किया गया है ताकि बच्चों को काम में लगाने के स्थान पर उनको शिक्षा दी जा सके। इसीलिए निर्देशक सिद्धान्तों में राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा का प्रबन्ध करे।

4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25, 26, 27 व 28)
(Right to Freedom of Religion-Art. 25, 26, 27 and 28) –
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है।

(i) अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा किसी भी धर्म को मानने व उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था नैतिकता, स्वास्थ्य और संविधान के तीसरे भाग की अन्य व्यवस्थाओं पर विचार करते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता (Freedom of Conscience) का अधिकार प्राप्त है और बिना रोक-टोक के धर्म में विश्वास (Profess) रखने, धार्मिक कार्य करने (Practice) तथा प्रचार (Propagation) करने का अधिकार है। यह अनुच्छेद भारत में एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। राज्य किसी धर्म विशेष का पक्षपात नहीं करता है और न ही उसे कोई विशेष सुविधा ही प्रदान करता है।

(ii) अनुच्छेद 26 के अनुसार धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता (Freedom to manage Religious Affairs) दी गई है। सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता को ध्यान में रखते हुए धार्मिक समुदायों या उसके किसी भाग को निम्नलिखित अधिकार दिए गए हैं
(क) धार्मिक एवं परोपकार के उद्देश्यों से संस्थाएं स्थापित करे तथा उन्हें चलाए। (ख) धार्मिक मामलों में अपने कार्यों का प्रबन्ध करे। (ग) चल तथा अचल सम्पत्ति का स्वामित्व ग्रहण करे। (घ) वह अपनी सम्पत्ति का कानून के अनुसार प्रबन्ध करे।

(iii) अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी धर्म विशेष के प्रसार के लिए कर न देने की स्वतन्त्रता है-किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी विशेष धर्म या धार्मिक समुदाय के विकास या बनाए रखने के लिए खर्च किया जाता हो।

(iv) सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर रोक-अनुच्छेद 28 में निम्नलिखित व्यवस्था की गई है
(क) किसी भी सरकारी शिक्षण संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, परन्तु यह धारा ऐसी शिक्षण संस्था ‘ पर लागू नहीं होती जिसका प्रबन्ध सरकार करती है, परन्तु जिसकी स्थापना किसी धनी, दानी अथवा ट्रस्ट द्वारा की गई है, तो ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देना वांछित घोषित करता है।
(ख) गैर-सरकारी शिक्षा संस्थाओं में जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है अथवा जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त होती है किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यदि विद्यार्थी वयस्क न हो तो उसके संरक्षक की अनुमति आवश्यक है।

धार्मिक स्वतन्त्रता से स्पष्ट पता चलता है कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है जिसमें व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अपने धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है।

5. सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) (Cultural and Educational Rights—Art. 29 and 30)- भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग हैं जिनकी भाषा, रीति-रिवाज और सभ्यता एक-दूसरे से भिन्न हैं। अनुच्छेद 29 तथा 30 के अधीन नागरिकों को विशेषतः अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार निम्नलिखित हैं-

(क) भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार (Right to conserve the Language, Script and Culture)-

  • अनुच्छेद 29 के अनुसार भारत के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग या उसके किसी भाग को जिसकी अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति हो, उसे यह अधिकार है कि वह उनकी रक्षा करे।
    अनुच्छेद 29 के अनुसार केवल अल्पसंख्यकों को ही अपनी भाषा, संस्कृति इत्यादि को सुरक्षित रखने का अधिकार प्राप्त नहीं है बल्कि यह अधिकार नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को प्राप्त है।
  • किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाई जाने वाली शिक्षा संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, वंश, भाषा या इसमें किसी के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता।

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(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-

  • अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षा संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा कि अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन है, चाहे वह अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।

6. संवैधानिक उपायों का अधिकार (अनुच्छेद 32) (Right to Constitutional Remedies—Art. 32) – अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है। यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू नहीं करती या उसके विरुद्ध कोई काम करती है तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या उस कानून को रद्द करवाया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कई पक्षों से आलोचना की गई है। मौलिक अधिकारों द्वारा नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा की गई है और कार्यपालिका तथा संसद् की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगा दिया गया है। हम एम० वी० पायली (M. V. Pylee) के इस कथन से सहमत हैं कि “सम्पूर्ण दृष्टि से संविधान में अंकित मौलिक अधिकार भारतीय प्रजातन्त्र को दृढ़ तथा जीवित रखने का आधार हैं।”

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में लिखित संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार पर विवेचना कीजिए।
(Discuss the fundamental right to constitutional remedies.)
उत्तर-
संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन कर देना ही काफ़ी नहीं है, इनकी सुरक्षा के उपायों की व्यवस्था भी उतनी ही आवश्यक है, इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में न्यायिक उपचारों की व्यवस्था की। इन उपचारों का वर्णन अनुच्छेद 32 में किया गया है। अनुच्छेद 32 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है-

  • मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को उचित कार्यवाही करने का अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 226 के अनुसार इन मौलिक अधिकारों को लागू करवाने का अधिकार उच्च न्यायालय को भी दिया गया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए निर्देश, आदेश और लेख-बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), निषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari) व अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto) जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
  • संसद् कानून द्वारा किसी भी न्यायालय को, सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों को हानि पहुंचाए बिना उसके क्षेत्राधिकार को स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत आदेश (Writ) जारी करने की सब या कुछ शक्ति दे सकती है।
  • उन परिस्थितियों को छोड़ कर जिनका संविधान में वर्णन किया गया है संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकारों को स्थगित नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए निम्नलिखित आदेश जारी कर सकता है-

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus)-‘हेबियस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो’, (Let us have the body)। इस आदेश के अनुसार न्यायालय किसी अधिकारी को जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून का औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है। अतः इस प्रकार की यह व्यवस्था नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए बहुत बड़ी सुरक्षा है।

2. परमादेश का आज्ञा पत्र (Writ of Mandamus)-‘मैण्डैमस’ शब्द भी लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है, “हम आदेश देते हैं।” (We Command) । इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो। ये आदेश केवल सरकारी कर्मचारियों या अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं बल्कि स्वयं सरकार तथा अधीनस्थ न्यायालयों, न्यायिक संस्थाओं के विरुद्ध भी जारी किया जा सकता है यदि वे अपने अधिकारों का उचित प्रयोग और कर्त्तव्य का पालन न करें।

3. प्रतिषेध अथवा मनाही आज्ञा पत्र (Writ of Prohibition)-इस शब्द का अर्थ है “रोकना अथवा मनाही करना”। इस आदेश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी निम्न न्यायालय को आदेश देता है कि वह अमुक कार्य जो उसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है न करे अथवा एक दम बन्द कर दे। जहां परमादेश किसी कार्य को करने का आदेश देता है वहां प्रतिषेध किसी कार्य को न करने का आदेश देता है। प्रतिषेध केवल न्यायिक अथवा अर्द्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है और उस सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता जो न्यायिक कार्य न कर रहा हो।

4. उत्प्रेषण लेख (Writ of Certiorari)—इसका अर्थ है, “अच्छी प्रकार सूचित करो।” यह आदेश न्यायालय निम्न न्यायालय को जारी करता है जिसके द्वारा निम्न न्यायालय को किसी अभियोग के विषय में अधिक जानकारी देने का आदेश दिया जाता है। यह लेख निम्न न्यायालय के मुकद्दमे की सुनवाई आरम्भ होने से पहले तथा उसके बाद भी जारी किया जाता है।

5. अधिकार-पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto)—इसका अर्थ है “किस के आदेश से” अथवा किस अधिकार से। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य को करने का दावा करता है जिसको करने का उसको अधिकार न हो। इस लेख (Writ) के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेध जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है जिसके लिए अवकाश प्राप्ति की उम्र 70 से कम है तो न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध अधिकार-पृच्छा लेख जारी कर उस पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) ने अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक उपचारों को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है। उन्होंने अनुच्छेद 32 के सम्बन्ध में कहा था, “यदि मुझ से कोई यह पूछे कि संविधान का कौन-सा महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद है, जिसके बिना संविधान प्रभाव शून्य हो जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद के अतिरिक्त किसी और अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान का हृदय है।”

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में दिए हुए मौलिक अधिकारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करो।
(Give a critical assessment of the fundamental rights as contained in the constitution.)
उत्तर-
वर्तमान युग में प्राय: सभी देशों में नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए जाते हैं क्योंकि बिना मौलिक अधिकारों के व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। भारत में तो मौलिक अधिकारों की अन्य देशों के मुकाबले में आवश्यकता अधिक थी। इसी कारण संविधान निर्माताओं ने संविधान में मौलिक अधिकारों की बड़ी विस्तृत व्याख्या की। संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 14 से 32 तक में मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गई है।

44वें संशोधन से पूर्व संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा गया था परन्तु 44वें संशोधन के अन्तर्गत सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकालकर कानूनी अधिकार बनाने की व्यवस्था की गई है। अतः 44वें संशोधन के बाद 6 मौलिक अधिकार रह गए हैं जो कि अग्रलिखित हैं-

  • समानता का अधिकार (Right to Equality)
  • स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation)
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Religious Freedom)
  • सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (Cultural and Educational Right)
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

नोट-इन अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

मौलिक अधिकारों की आलोचना (Criticism of Fundamental Rights) – मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित अधिकारों पर कड़ी आलोचना की गई है

1. बहुत अधिक बन्धन- मौलिक अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं कि अधिकारों का महत्त्व बहुत कम हो गया है। इन अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध हैं कि नागरिकों को यह समझने के लिए कठिनाई आती है कि इन अधिकारों द्वारा उन्हें कौन-कौन सी सुविधाएं दी गई हैं।

2. निवारक नज़रबन्दी व्यवस्था-अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की व्यवस्था की गई है, परन्तु इसके साथ ही संविधान में निवारक नजरबन्दी की भी व्यवस्था की गई है। जिन व्यक्तियों को निवारक नज़रबन्दी कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया हो उनको अनुच्छेद 22 में दिए गए अधिकार प्राप्त नहीं होते। निवारक नज़रबन्दी के अधीन सरकार कानून बना कर किसी भी व्यक्ति को बिना मुकद्दमा चलाए अनिश्चित काल के लिए जेल में बन्द कर सकती है तथा उसकी स्वतन्त्रता का हनन कर सकती है।

3. आर्थिक अधिकारों का अभाव-मौलिक अधिकारों की इसलिए भी कड़ी आलोचना की गई है कि इस अध्याय में आर्थिक अधिकारों का वर्णन नहीं किया गया है जबकि समाजवादी राज्यों में आर्थिक अधिकार भी दिए जाते हैं।

4. संकटकाल के समय अधिकार स्थागित किए जा सकते हैं-राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत संकटकाल की घोषणा कर के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जाना लोकतन्त्र की भावना के विरुद्ध है।

5. मौलिक अधिकारों की भाषा कठिन और अस्पष्ट मौलिक अधिकारों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि मौलिक अधिकारों की भाषा उलझन वाली तथा कठिन है।

6. न्यायपालिका के निर्णय संसद् के कानूनों द्वारा रद्द-सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार संसद् के कानूनों को इस आधार पर रद्द किया है कि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, परन्तु संसद् ने संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका द्वारा रद्द घोषित किए गए कानूनों को वैध तथा संवैधानिक घोषित कर दिया।

मौलिक अधिकारों का महत्त्व (Importance of Fundamental Rights) – यह कहना है कि मौलिक अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं है एक बड़ी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 1950 में ‘लीडर’ नामक पत्रिका ने मौलिक अधिकारों के बारे में कहा था कि “व्यक्तिगत अधिकारों पर लेख जनता को कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता की सम्भावना के विरुद्ध आश्वासन देता है। इन मौलिक अधिकारों का मनोवैज्ञानिक महत्त्व है, जिसकी कोई भी बुद्धिमान राजनीतिज्ञ उपेक्षा नहीं कर सकता।’ मौलिक अधिकारों का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के सम्बन्ध में विशेष महत्त्व है। मौलिक अधिकार वास्तव में लोकतन्त्र की आधारशिला हैं। मौलिक अधिकारों के अध्ययन का महत्त्व निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं-व्यक्ति अपने व्यक्तित्व.का विकास तभी कर सकता है जब उसे आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार नागरिकों को वे सुविधाएं प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।

2. मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इस में है कि ये सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकतीं। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।

3. मौलिक अधिकार व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में उचित सामंजस्य स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों द्वारा व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए काफ़ी सीमा तक सफल प्रयास किया गया है।

4. मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं। सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं और सभी को कानून द्वारा समान संरक्षण प्राप्त है।

5. मौलिक अधिकार सामाजिक समानता स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकार सामाजिक समानता स्थापित करते हैं। मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के दिए गए हैं। सरकार धर्म, जाति, भाषा, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं कर सकती है।

6. मौलिक अधिकार धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करते हैं- अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं और यह धार्मिक स्वतन्त्रता भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करती है। यदि भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य न बनाया जाता तो भारत की एकता ही खतरे में पड़ जाती।

7. मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करते हैं- अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार दिया गया है। अल्पसंख्यक अपनी पसन्द की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं और उनका संचालन करने का अधिकार भी उनको प्राप्त है। सरकार अल्पसंख्यकों के साथ किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करेगी।

8. मौलिक अधिकार भारतीय लोकतन्त्र की आधारशिला हैं-समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव लोकतन्त्र की नींव है। मौलिक अधिकारों द्वारा समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव की स्थापना की गई है।

निष्कर्ष (Conclusion) हम प्रो० टोपे (Tope) के इस कथन से सहमत हैं कि, “मैं यह मानता हूं कि मौलिक अधिकारों सम्बन्धी अध्याय में कुछ त्रुटियां रह गई हैं, परन्तु इस पर भी यह अध्याय सामूहिक रूप से सन्तोषजनक है।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ है ? भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर-
मौलिक अधिकार उन आधारभूत आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कहा जाता है जिनके बिना देश के नागरिक अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते। जो स्वतन्त्रताएं तथा अधिकार व्यक्ति तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समाज में आवश्यक समझे जाते हों, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। भारतीय संविधान में मूल रूप से सात प्रकार के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है, परन्तु 44वें संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया गया। अतः अब 6 तरह के अधिकार नागरिकों को प्राप्त हैं।

संविधान में नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं-

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  5. सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  6. संवैधानिक उपायों का अधिकार।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की चार विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
मौलिक अधिकारों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े विस्तृत तथा व्यापक हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की एक विशेषता यह है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।
  • मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं-कोई भी अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं हो सकता। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी असीमित नहीं हैं। संविधान के अन्तर्गत ही मौलिक अधिकारों पर कई प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।
  • मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 3.
समानता के अधिकार का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समानता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा। कानून के सामने सभी बराबर हैं और कोई कानून से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी पदों पर नियुक्तियां करते समय जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता है। सभी नागरिकों को सभी सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करने का समान अधिकार है। छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। सेना तथा शिक्षा सम्बन्धी उपाधियों को छोड़ कर अन्य सभी उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है।

प्रश्न 4.
कानून के समान संरक्षण पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
कानून के समान संरक्षण से यह अभिप्राय है कि समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार किया जाए। जेनिंग्स (Jennings) के अनुसार, “समानता के अधिकार का यह अर्थ है कि समान स्थिति में लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाए और समान लोगों के ऊपर समान कानून लागू हो।”

अनुच्छेद 14 द्वारा दिए गए समानता के अधिकार की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री के० सुब्बाराव (K. Subba Rao) ने 1960 में कहा था कि “कानून के समक्ष समानता नकारात्मक तथा कानून द्वारा समान सुरक्षा सकारात्मक विचार है। पहला इस बात की घोषणा करता है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है, कोई भी व्यक्ति विशेष सुविधाओं का दावा नहीं कर सकता तथा सब श्रेणियां समान रूप से देश के साधारण कानून के अधीन हैं तथा बाद वाला एक-जैसी दशाओं तथा एक-जैसी स्थिति में एक-जैसे व्यक्तियों की समान सुरक्षा स्वीकार करता है। उत्तरदायित्व स्थापित करते समय या विशेष सुविधाएं प्रदान करते समय किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।”
कानून के समक्ष समानता का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही नहीं बल्कि विदेशी नागरिकों को भी प्राप्त है।

प्रश्न 5.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 16 राज्य के सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वेंकटरमन बनाम मद्रास (चेन्नई) राज्य [Vankataraman Vs. Madras (Chennai) State] के मुकद्दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास (चेन्नई) सरकार की 1951 की उस साम्प्रदायिक राज्याज्ञा (Communal Gazetted Order of Madras (Chennai) Government] को अवैध घोषित कर दिया था जिसके अन्तर्गत कुछ तकनीकी संस्थाओं और अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों के अतिरिक्त कुछ अन्य वर्गों और सम्प्रदायों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गए थे।

प्रश्न 6.
अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतन्त्रताओं का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
अनुच्छेद 19 में 6 प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है-

  • प्रत्येक नागरिक को भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है।
  • प्रत्येक नागरिक को शान्तिपूर्वक तथा बिना हथियारों के इकट्ठे होने और किसी समस्या पर विचार करने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को संस्थाएं तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को समस्त भारत में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को भारत के किसी भी भाग में रहने तथा बसने की स्वतन्त्रता है।
  • प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा से कोई भी व्यवसाय, पेशा अथवा नौकरी करने की स्वतन्त्रता है।

प्रश्न 7.
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार को समझाइए।
उत्तर-
प्रत्येक नागरिक को भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। कोई भी नागरिक बोलकर या लिखकर अपने विचार प्रकट कर सकता है। प्रेस की स्वतन्त्रता, भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता का एक साधन है। परन्तु भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता असीमित नहीं है। संसद् भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टता अथवा नैतिकता, न्यायालय का अपमान, मान-हानि व हिंसा के लिए उत्तेजित करना आदि के आधारों पर भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के द्वारा दी गई धर्म की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है। सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता का समान अधिकार प्राप्त है और बिना रोक-टोक के धर्म में विश्वास रखने, धार्मिक कार्य करने तथा प्रचार करने का अधिकार है। सभी व्यक्तियों को धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता दी गई है। किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी विशेष धर्म या धार्मिक समुदाय के विकास या बनाए रखने के लिए खर्च किया जाना हो। किसी भी सरकारी शिक्षण संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। गैर-सरकारी शिक्षण संस्थाओं में जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है अथवा जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त होती है, किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 9.
शोषण के विरुद्ध अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संविधान की धारा 23 और 24 के अनुसार नागरिकों को शोषण के विरुद्ध अधिकार दिए गए हैं। इस अधिकार के अनुसार व्यक्तियों को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता। किसी भी व्यक्ति से बेगार नहीं ली जा सकती। किसी भी व्यक्ति की आर्थिक दशा से अनुचित लाभ नहीं उठाया जा सकता और कोई भी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी ऐसे कारखाने या खान में नौकर नहीं रखा जा सकता, जहां उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो।

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प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में ‘शिक्षा के अधिकार’ की व्याख्या का वर्णन करें।
उत्तर-

  • किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाए जाने वाली संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षण संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा, कि वह अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन हैं, चाहे वह अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।

प्रश्न 11.
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति की रक्षा का अधिकार है। अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है। यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू न करे या उसके विरुद्ध कोई काम करे तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या कानून को रद्द कराया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान के दिए गए मौलिक अधिकारों के कोई चार महत्त्व लिखें।
उत्तर-

  • मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं-व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास तभी कर सकता है जब उसे आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार नागरिकों को वे सुविधाएं प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।
  • मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकती। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।
  • मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं।
  • मौलिक भारतीय लोकतन्त्र की आधारशीला है।

प्रश्न 13.
बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘हेबयिस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।’ (Let us have the body) इस आदेश के अनुसार, न्यायालय किसी भी अधिकारी को, जिसने किसी व्यक्ति को गैर-काननी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून का औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने या आदेश दे सकता है।

प्रश्न 14.
परमादेश के आज्ञा-पत्र (Writ of Mandamus) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘मैण्डमस’ शब्द लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है ‘हम आदेश देते हैं’ (We Command)। इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी भी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसा कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

प्रश्न 15.
अधिकार पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
इसका अर्थ है ‘किसके आदेश से’ अथवा ‘किस अधिकार से’। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य को करने का दावा करता हो जिसको करने का उसका अधिकार न हो। इस आदेश के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को एक पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेध जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है जब तक कि न्यायालय द्वारा कोई निर्णय न हो।

प्रश्न 16.
86वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत शिक्षा के अधिकार की क्या व्यवस्था की गई है ?
उत्तर-
दिसम्बर 2002 में राष्ट्रपति ने 86वें संवैधानिक संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। इस स्वीकृति के बाद शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान के तीसरे भाग में शामिल होने के कारण एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा। बच्चों के माता-पिता अभिभावकों या संरक्षकों का यह कर्त्तव्य होगा, कि वे अपने बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध करवाएं, जिनसे उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के अधिकार के लागू होने के बाद भारतीय बच्चे इस अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं क्योंकि मौलिक अधिकारों में शामिल होने के कारण ये अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 17.
मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से सम्पत्ति के अधिकार को क्यों निकाल दिया गया है ?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मूल रूप से सम्पत्ति के अधिकार का मौलिक अधिकारों के अध्याय में वर्णन किया गया था, परन्तु 44वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में से निकल दिया गया है। मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से सम्पत्ति के अधिकारों को निम्नलिखित कारणों से निकाला गया है-

(1) भारत में निजी सम्पत्ति के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों में से निकाल दिया गया है।
(2) 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवाद शब्द रखा गया। समाजवाद और सम्पत्ति का अधिकार एक साथ नहीं चलते। अतः सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निकाल दिया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-मौलिक अधिकार उन आधारभूत आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कहा जाता है जिनके बिना देश के नागरिक अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते। जो स्वतन्त्रताएं तथा अधिकार व्यक्ति तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समाज में आवश्यक समझे जाते हों, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।

प्रश्न 2.
संविधान में भारतीय नागरिकों को कितने मौलिक अधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
संविधान में भारतीय नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं-

  • समानता का अधिकार
  • स्वतन्त्रता का अधिकार
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  • सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  • संवैधानिक उपायों का अधिकार।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की दो विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े विस्तृत तथा व्यापक हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  2. मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की एक विशेषता यह है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।

प्रश्न 4.
समानता के अधिकार का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समानता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा। कानून के सामने सभी बराबर हैं और कोई कानून से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी पदों पर नियुक्तियां करते समय जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 16 राज्य के सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

प्रश्न 6.
अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतन्त्रताओं में से किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
अनुच्छेद 19 में 6 प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है-

  1. प्रत्येक नागरिक को भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है।
  2. प्रत्येक नागरिक को शान्तिपूर्वक तथा बिना हथियारों के इकट्ठे होने और किसी समस्या पर विचार करने की स्वतन्त्रता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के किस भाग में किया गया है ? आजकल इनकी संख्या कितनी है ?
उत्तर-मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में किया गया है। आजकल नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 2. भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतंत्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  5. शैक्षिणक एवं सांस्कृतिक अधिकार
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 3. समानता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर-अनुच्छेद 14 से 18 तक।

प्रश्न 4. स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर-अनुच्छेद 19 से 22 तक।

प्रश्न 5. शोषण के विरुद्ध अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर- अनुच्छेद 23 एवं 24 में।

प्रश्न 6. धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 25 से 28 तक।

प्रश्न 7. शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 29 एवं 30 में।

प्रश्न 8. संवैधानिक उपचारों के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 32 में।

प्रश्न 9. जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का सम्बन्ध किस अनुच्छेद से है?
उत्तर-अनुच्छेद 21 से।

प्रश्न 10. सम्पत्ति का अधिकार कैसा अधिकार है?
उत्तर-संपत्ति का अधिकार एक कानूनी अधिकार है।

प्रश्न 11. मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं, या नहीं ?
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 12. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा कौन करता है?
उत्तर- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सर्वोच्च न्यायालय करता है।

प्रश्न 13. मौलिक अधिकारों में संशोधन किसके द्वारा किया जा सकता है?
उत्तर-संसद् द्वारा।

प्रश्न 14. 44वें संशोधन द्वारा किस मौलिक अधिकार को संविधान में से निकाल दिया गया है?
उत्तर-44वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को संविधान में से निकाल दिया गया है।

प्रश्न 15. किस मौलिक अधिकार को संविधान की आत्मा कहा जाता है?
उत्तर-संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 16. हैबियस कॉपर्स (Habeas Corupus) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-लैटिन भाषा से।

प्रश्न 17. हैबियस कॉपर्स का क्या अर्थ है?
उत्तर-हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।

प्रश्न 18. मैंडामस (Mandamus) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-लैटिन भाषा से।

प्रश्न 19. मैंडामस शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर–हम आदेश देते हैं।

प्रश्न 20. को-वारंटो (Quo-Warranto) का क्या अर्थ है?
उत्तर-किस आदेश से।

प्रश्न 21. किस मौलिक अधिकार को संकटकाल के समय भी स्थगित नहीं किया जा सकता ?
उत्तर-व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. अनुच्छेद 19 के अंतर्गत नागरिकों को ………. प्रकार की स्वतंत्रताएं दी गई हैं।
2. ……….. के अनुसार ………… से कम आयु वाले किसी भी बच्चे को किसी भी कारखाने अथवा खान में नौकर नहीं रखा जा सकता।
3. ………. के अनुसार धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतंत्रता दी गई है।
4. ………. ने अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक उपचारों को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है।
5. …….. लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।
उत्तर-

  1. छह
  2. अनुच्छेद 24, 14 वर्ष
  3. अनुच्छेद 26
  4. डॉ० अम्बेडकर
  5. हैबियस कॉर्पस।

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प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 10 से 20 तक में नागरिकों के 10 मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया
2. 42वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकालकर कानूनी अधिकार बनाने की व्यवस्था की गई।
3. मौलिक अधिकार न्याय संगत नहीं हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत न्यायसंगत हैं।
4. अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकार का वर्णन किया गया है।
5. अनुच्छेद 19 में 10 प्रकार की स्वतन्त्राओं का वर्णन किया गया है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संपत्ति का अधिकार
(क) मौलिक अधिकार
(ख) कानूनी अधिकार
(ग) नैतिक अधिकार
(घ) राजनीतिक अधिकार।
उत्तर-
(ख) कानूनी अधिकार ।

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकार
(क) न्याय योग्य हैं
(ख) न्याय योग्य नहीं हैं
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 3.
जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संबंध किस अनुच्छेद से है ?
(क) अनुच्छेद 21
(ख) अनुच्छेद 19
(ग) अनुच्छेद 18
(घ) अनुच्छेद 20.
उत्तर-
(क) अनुच्छेद 21।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) सर्वोच्च न्यायालय
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) स्पीकर।
उत्तर-
(ख) सर्वोच्च न्यायालय।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर एक आलोचनात्मक नोट लिखो। (Write a critical note on the Preamble to the Indian Constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की क्या महत्ता है ? (What is the significance of the Preamble to the Constitution of India ?)
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है, हमारे देश के संविधान का मूल दर्शन (Basic Philosophy) हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है जिसे के० एम० मुन्शी ने राजनीतिक जन्मपत्री (Political Horoscope) का नाम दिया है।

प्रस्तावना (Preamble)-संविधान सभा ने 1947 में एक उद्देश्य सम्बन्धी प्रस्ताव पास किया था जिसमें उसने अपने सामने कुछ उद्देश्यों को रखा था और उसी प्रस्ताव के आधार पर संविधान का निर्माण हुआ। संविधान के बनने के बाद संविधान सभा ने प्रस्तावना सहित ही उस संविधान को स्वीकार किया। संविधान की प्रस्तावना में उन भावनाओं का वर्णन है, जो 13 दिसम्बर, 1946 को पं० जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) के तत्त्व थे। उद्देश्य प्रस्ताव में कहा गया है कि संविधान-सभा घोषित करती है कि इसका ध्येय व दृढ़ संकल्प भारत को सर्वप्रभुत्व सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाना है और इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल प्रस्तावना में किया गया है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवाद (Socialist), धर्म-निरपेक्ष (Secular) तथा अखण्डता (Integrity) के शब्दों को प्रस्तावना में अंकित किया गया है। हमारे वर्तमान संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है-

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने तथा समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा तथा अवसर की समता प्राप्त कराने और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर, अपनी इस संविधान सभा में, आज 26 नवम्बर, 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, सम्वत् दो हज़ार छ: विक्रमी) को एतद् द्वारा, इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

“We, the people of India, having solemnly resolved to constitute India into a Sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic, and to secure to all its citizens, Justice, social, economic and political liberty of thought, expression, belief, faith and worship, Equality of status and of opportunity, and to promote among them all, Fraternity assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation.

In our Constituent Assembly, this twenty-sixth day of November 1949, do hereby Adopt, Enact, and Give to ourselves this Constitution.”
संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है। जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और उसका अर्थ स्पष्ट न हो तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या हो सकती है। प्रस्तावना से हमें यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की भावनाएं क्या थीं।

“प्रस्तावना संविधान बनाने वालों के मन की कुंजी है।”
सर्वोच्च न्यायालय के भू० पू० मुख्य न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने एक निर्णय देते हुए कहा था, “जिस उद्देश्य की प्राप्ति की संविधान से आशा की गई है, वह स्पष्ट रूप से इसकी प्रस्तावना में दिया गया है। इसमें इसके आदर्श तथा आकांक्षाएं निहित हैं।” इस प्रकार हमारे संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्यों, लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा हमारे स्वप्नों का स्पष्ट पता चल जाता है। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर के अनुसार, संविधान की प्रस्तावना से संविधान के मूल दर्शन का ज्ञान होता है। संविधान सभा के सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने प्रस्तावना की सराहना करते हुए कहा था, “प्रस्तावना संविधान का सबसे मूल्यवान अंग है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान का रत्न है।” कुछ वर्ष पूर्व श्री० एन० ए० पालकीवाला ने सुप्रीमकोर्ट में 28वें और 29वें संशोधनों की आलोचना करते समय कहा था कि प्रस्तावना संविधान का एक अनिवार्य अंग है।

1973 में केशवानन्द भारती के मुकद्दमे के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि प्रस्तावना संविधान का अंग है।
वी० एन० शुक्ला (V.N. Shukla) ने प्रस्तावना के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “यह सामान्यतया राजनीतिक, नैतिक व धार्मिक मूल्यों का स्पष्टीकरण करती है जिन्हें संविधान प्रोत्साहित करना चाहता है।”
भारतीय संविधान की प्रस्तावना स्पष्ट रूप से तीन बातों पर प्रकाश डालती है-

(क) संवैधानिक शक्ति का स्रोत क्या है ? (ख) भारतीय शासन-व्यवस्था कैसी है ? (ग) संविधान के उद्देश्य या लक्षण क्या हैं ?
(क) संवैधानिक शक्ति का स्रोत (Source of Constitutional Authority)—प्रस्तावना से ही हमें पता चलता है कि इस संविधान को बनाने वाला कौन है। संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने पर लागू करने वाले भारत के लोग हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। प्रस्तावना इन्हीं शब्दों से आरम्भ होती है, “हम भारत के लोग………उस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।” ये शब्द इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता की सर्वोच्च शक्ति है। संविधान को विदेशी शक्ति ने भारतीयों पर नहीं लादा बल्कि जनता ही समस्त शक्ति का मूल स्रोत है।

(ख) भारतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप (Nature of Indian Constitutionl System)—संविधान की प्रस्तावना से हमें भारत की शासन व्यवस्था के स्वरूप का भी पता चलता है। प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाए जाने के लिए घोषणा की है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी व धर्म-निरपेक्ष शब्दों को अंकित किया गया है, अतः भारतीय शासन व्यवस्था की निम्नलिखित पांच विशेषताएं हैं

  1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)
  2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)
  4. भारत लोकतन्त्रीय राज्य है (India is a Democratic State)
  5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republic State)

(ग) संविधान के उद्देश्य (Objectives of the Constitution)—प्रस्तावना से इस बात का भी स्पष्ट पता चलता है कि संविधान द्वारा किन उद्देश्यों की पूर्ति की आशा की गई है। वे उद्देश्य कई प्रकार के हैं-

  • न्याय (Justice)-संविधान का उद्देश्य है कि भारत के सभी नागरिकों को न्याय मिले और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में नागरिकों के साथ अन्याय न हो। इस बहुमुखी न्याय से ही नागरिकों के जीवन का पूर्ण विकास सम्भव है और इसकी प्राप्ति लोकतन्त्रात्मक ढांचे से ही हो सकती है।
  • स्वतन्त्रता (Liberty)—प्रस्तावना में नागरिकों की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख किया गया है, जैसे कि विचार रखने की स्वतन्त्रता, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा और बुद्धि के अनुसार किसी भी बात में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छानुसार अपने इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता।
  • समानता (Equality)—प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है। प्रतिष्ठा की समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान हैं तथा सभी को कानून की समान सुरक्षा प्राप्त है। अवसर की समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर विकसित होने का समान अवसर प्राप्त है।
  • बन्धुत्व (Fraternity)-प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है।
  • प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने की घोषणा की गई है।
  • संविधान का उद्देश्य राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को बनाए रखना है।

निष्कर्ष (Conclusion)-संविधान की प्रस्तावना सत्तारूढ़ दल के लिए, चाहे वह कोई भी हो, मार्गदर्शक का काम देती है और संविधान के विभिन्न उपबन्धों की व्याख्या करने और उसके बारे में उत्पन्न मतभेद या वाद-विवाद को सुलझाने में सहायता करती है। (“It is a key to open the minds of the maker.”) प्रस्तावना उद्देश्य है, जबकि संविधान उसकी पूर्ति का साधन है, इसलिए प्रस्तावना के महत्त्व को हम कम नहीं कर सकते। एम० वी० पायली (M.V. Pylee) के अनुसार, “प्रस्तावना संविधान की आत्मा है। इसमें भारतीय लोगों का एक संकल्प है कि वे मिलकर न्याय, स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृभाव के कार्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करेंगे।”

प्रश्न 2.
“भारत प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य है।” व्याख्या कीजिए।
(“India is a Sovereign Socialist, Secular, Democratic, Republic.” Explain and Discuss.)
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना से हमें भारत की शासन व्यवस्था के स्वरूप का पता चलता है। प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाए जाने की घोषणा की गई है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी व धर्म-निरपेक्ष शब्दों को अंकित किया गया है। इस प्रकार अब भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। ये पांचों शब्द भारतीय संवैधानिक प्रणाली के मुख्य आधार हैं-

  1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)
  2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)
  4. भारत लोकतन्त्रीय राज्य है (India is a Democratic State)
  5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republic State)

1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)-प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्वसम्पन्न राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। वह किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है। भारत न तो अब ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन है जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 से पहले था तथा न ही अधिराज्य अथवा उपनिवेश जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 से लेकर 26 जनवरी, 1950 तक रहा है। इसके विपरीत, भारत वैसे ही पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है जैसे कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, रूस आदि। किसी भी विदेशी शक्ति को इसकी विदेशी नीति तथा गृह-नीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। यह ठीक है कि भारत आज भी राष्ट्रमण्डल का सदस्य है, परन्तु इसकी सदस्यता स्वतन्त्रता पर कोई बन्धन नहीं है। भारत जब चाहे राष्ट्रमण्डल की सदस्यता को छोड़ सकता है।

भारत का संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होना भी उसकी स्वतन्त्रता पर कोई प्रभाव नहीं डालता। भारत अपनी इच्छा से सदस्य बना है और जब चाहे इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत एक प्रभुत्त्व-सम्पन्न राज्य है और राष्ट्रमण्डल का सदस्य और संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होने से इसकी प्रभुसत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)-42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके ‘समाजवादी’ (Socialist) शब्द अंकित किया गया है। समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही 42वें संशोधन के अन्तर्गत राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को मौलिक अधिकारों से श्रेष्ठ घोषित किया गया। सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए अनेक कदम उठाए हैं। 42वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में कुछ समाजवादी सिद्धान्त सम्मिलित किए गए हैं। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 39 (F) में यह लिखा गया है कि, “राज्य विशेष रूप से ऐसी नीति का निर्माण करे जिसके द्वारा……… बच्चों को स्वतन्त्रता तथा गौरव की अवस्थाओं में समग्र रूप में विकसित होने के लिए अवसर तथा सुविधाएं प्राप्त हो सकें तथा बच्चों तथा युवकों की रक्षा हो सके।” अनुच्छेद 39-A द्वारा निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई है। इस धारा के अन्तर्गत आर्थिक पक्ष से कमज़ोर लोगों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था के लिए सरकार को निर्देश दिया गया।

अनुच्छेद 43-A में यह व्यवस्था की गई है कि, “राज्य उचित कानूनी या किसी अन्य विधि से इस कानून के लिए प्रयत्न करेगा कि किसी उद्योग से सम्बन्धित कारोबार के प्रयत्न में अथवा अन्य संस्थाओं में श्रमिकों को भाग लेने का अवसर प्राप्त हो।”

श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए 20-सूत्रीय कार्यक्रम अपनाया और इस 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के लिए राज्यों को कड़े निर्देश दिए गए। 10 जून, 1976 को मास्को में एक सार्वजनिक सभा में भाषण देते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था, “हम एक ऐसे समाज का निर्माण करने के लिए यत्न कर रहे हैं जिनसे लोगों को राजनीतिक निर्णय करने तथा आर्थिक विकास में भाग लेने के पूर्ण अवसर प्राप्त होंगे। हम चाहेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति को गणना का एक अंक नहीं मिलेगा बल्कि एक विशेष व्यक्तित्व का स्वामी समझा जाये।”

मार्च, 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी की सरकार ने स्पष्ट शब्दों में समाजवादी समाज की स्थापना करने की घोषणा की। जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर ने 1 मई, 1977 को जनता पार्टी की सभा में भाषण देते हुए समाजवादी समाज के निर्माण के लिये भरसक प्रयत्न करने की घोषणा की। श्री राजीव गांधी की सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए भरसक प्रयत्न किए और 20-सूत्रीय कार्यक्रम लागू करने के लिए राज्यों को कड़े निर्देश दिए थे।

3. भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)-42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द अंकित करके भारत को स्पष्ट शब्दों में धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, भारतीय संविधान में ऐसी ही व्यवस्था की गई है जो भारत को निःसन्देह धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाती है। भारत में सभी धर्म के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता दी गई है। कोई व्यक्ति जिस धर्म को चाहे मान सकता है, धर्म का प्रचार कर सकता है और राज्य धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। राज्य किसी विशेष धर्म की किसी प्रकार की सहायता नहीं कर सकता।

4. भारत एक लोकतान्त्रिक राज्य है (India is a Democratic State)-संविधान की प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि शासन शक्ति किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हाथों में नहीं बल्कि समस्त जनता के पास है। लोग शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं और ये प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिए समस्त जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय तथा जाति से सम्बन्धित हो, समान अधिकार दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है। भारत में राजनीतिक प्रजातन्त्र की स्थापना के साथ-साथ प्रस्तावना में आर्थिक व सामाजिक प्रजातन्त्र की स्थापना का आदर्श भी प्रस्तुत किया गया है।

5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republican State)—प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ गणराज्य भी घोषित किया है। गणराज्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैण्ड व जापान गणराज्य नहीं है, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक है, परन्तु भारत एक गणराज्य है क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिये चुना जाता है। अत: भारत अमेरिका व स्विट्जरलैंड की तरह पूर्ण रूप से गणराज्य है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत की गणराज्य की स्थिति उसकी राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से मेल नहीं खाती है। आस्ट्रेलिया के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री सर राबर्ट मेन्ज़ीज़ (Sir Robert Menzies) ने 1949 में कहा था, “यह समझ नहीं आता कि भारत एक तरफ़ गणराज्य है और उसकी ब्रिटिश क्राऊन के प्रति कोई निष्ठा नहीं है। दूसरी तरफ़ वह राष्ट्रमण्डल का सदस्य है जिसकी ब्रिटिश क्राऊन के प्रति पूर्ण और अविच्छेद निष्ठा है।” परन्तु अब राष्ट्रमण्डल की वह स्थिति नहीं है जो पहले थी। अब यह ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के स्थान पर केवल राष्ट्रमण्डल है जिसके सदस्य स्वतन्त्र राज्य हैं जो पारस्परिक हितों के कारण एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। भारत का अध्यक्ष ब्रिटिश सम्राट् न होकर भारत का राष्ट्रपति है। भारतीयों की ब्रिटिश सम्राट् के प्रति कोई निष्ठा नहीं है, अतः राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत की गणराज्य की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं डालती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश में संविधान का मूल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह हमारे संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से होता है। संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है। जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और इसका अर्थ स्पष्ट न हो तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या हो सकती है। प्रस्तावना से यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की भावनाएं क्या थीं। चाहे यह संविधान का कानूनी अंग नहीं है फिर भी यह संविधान की कुंजी, संविधान की आत्मा और संविधान का रत्न है। इसीलिए के० एम० मुन्शी ने प्रस्तावना को राजनीतिक जन्म पत्री का नाम दिया है।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘गणराज्य’ शब्द की व्याख्या करो।
अथवा
गणराज्य शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ ‘गणराज्य’ भी घोषित किया गया है। ‘गणराज्य’ में राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैंड और जापान गणराज्य नहीं हैं, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक हैं, परन्तु भारत एक गणराज्य है, क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है। गणराज्य की परिभाषा करते हुए मिस्टर मैडीसन (Madison) ने कहा है कि, “गणराज्य एक ऐसी सरकार है जिसकी शक्तियों का स्रोत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जनता का महान् समूह है तथा जिसकी शक्तियों का प्रयोग उन लोगों द्वारा होता है जो अपने पद पर निश्चित समय के लिए जनता की प्रसन्नता या अपने सद्व्यवहार तक रहते हैं।” मैडीसन द्वारा दी गई परिभाषा भारत पर पूर्ण रूप से लागू होती है। भारत में सरकार की शक्तियों का अन्तिम स्रोत जनता है और शासन जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। संविधान में संशोधन करने का अधिकार भी संसद् को दिया गया है। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, संसद् सदस्य, राज्यपाल आदि का कार्यकाल संविधान द्वारा निश्चित किया गया है।

प्रश्न 3.
सार्वभौमिक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना में भारत को सार्वभौमिक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाये रखने की घोषणा की गई है। सार्वभौमिक का अर्थ है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है और वह किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है। प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि शासन शक्ति किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हाथों में नहीं बल्कि समस्त जनता के पास है। लोग शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं, प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिये समस्त जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। प्रस्तावना में लोकतन्त्र के साथ-साथ गणराज्य भी घोषित किया गया है। भारत एक गणराज्य है क्योंकि राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 4.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘सामाजिक’, ‘आर्थिक’ तथा ‘राजनीतिक न्याय’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सामाजिक न्याय (Social Justice) सामाजिक न्याय का अर्थ है कि किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, लिंग, रंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं होने दिया जाएगा। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए संविधान के तीसरे भाग में समानता का अधिकार दिया गया है।

आर्थिक न्याय (Economic Justice)-आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हों तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो। आर्थिक न्याय के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन के साधन कुछ व्यक्तियों के हाथों में नहीं होने चाहिएं। राष्ट्रीय धन पर सभी का नियन्त्रण और अधिकार समान होना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्त दिए गए

राजनीतिक न्याय (Political Justice)—राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों।

प्रश्न 5.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त बन्धुत्व’ की स्थापना का अर्थ एवं महत्त्व बताइए।
उत्तर-
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है। डॉ० अम्बेदकर के अनुसार, बन्धुत्व का तात्पर्य सभी भारतीयों में भ्रातृ-भाव है। उनके शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो सामाजिक जीवन को एकत्व एवं सुदृढ़ता प्रदान करता है। डॉ० अम्बेदकर के मतानुसार, “बिना बन्धुत्व के स्वतन्त्रता और समानता केवल ऊपरी रंग की तरह अधिक टिकाऊ नहीं रह सकती। स्वतन्त्रता और समानता और बन्धुत्व के उद्देश्यों को हम एक-दूसरे से पृथक नहीं कर सकते, बल्कि हमें इन तीनों को एक साथ लेकर चलना पड़ेगा।” साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद इत्यादि बुराइयों को तभी जड़ से उखाड़ कर फैंका जा सकता है जब सभी नागरिकों में बन्धुत्व की भावना पाई जाती हो।

प्रश्न 6.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त राष्ट्र की एकता’ और ‘अखण्डता’ शब्दों का महत्त्व बताइए।
उत्तर-
संविधान निर्माता अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से अच्छी तरह वाकिफ थे। अंग्रेज़ों की इसी नीति के कारण भारत का विभाजन हुआ था। इसीलिए संविधान निर्माता भारत की एकता को बनाए रखने के लिए बड़े इच्छुक थे। अतः संविधान की प्रस्तावना में राष्ट्र की एकता को बनाए रखने की घोषणा की गई। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया गया, सभी नागरिकों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई, समस्त देश के लिए एक ही संविधान की व्यवस्था की गई तथा 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गई। 42वें संशोधन द्वारा राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।

प्रश्न 7.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘धार्मिक विश्वास, निष्ठा तथा उपासना की स्वतन्त्रता’ का क्या महत्त्व है ?
उत्तर–
प्रस्तावना में धार्मिक स्वतन्त्रता तथा धर्म-निरपेक्षता पर बल दिया गया है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को किसी भी धर्म में विश्वास रखने तथा अपनी इच्छानुसार इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह जिस धर्म में चाहे, विश्वास रखे और अपने देवता या परमात्मा की जिस तरह चाहे पूजा करे। किसी भी नागरिक को कोई विशेष धर्म ग्रहण करने के लिए या किसी विशेष ढंग से पूजा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। राज्य को नागरिक के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। भारत के विभिन्न धर्मों के लोगों में सद्भावना एवं सहयोग की भावना को बनाए रखने के लिए धर्म की स्वतन्त्रता पर बल देना अति आवश्यक था।

प्रश्न 8.
42वें संवैधानिक संशोधन (1976) के द्वारा प्रस्तावना में कौन-कौन से परिवर्तन किए गए ?
उत्तर-
42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना में प्रभुसत्ता सम्पन्न, लोकतन्त्रीय, गणतन्त्र शब्दों के स्थान पर, प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रीय, गणराज्य शब्द शामिल किए गए हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्र की एकता शब्द की जगह पर राष्ट्र की एकता और अखण्डता शब्द शामिल किए गए हैं।

प्रश्न 9.
प्रस्तावना के अनुसार भारत में शक्ति का स्रोत क्या है ?
उत्तर-
प्रस्तावना के अनुसार भारत में शक्ति का स्रोत संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने पर लागू करने वाले भारत के लोग हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। प्रस्तावना इन शब्दों से आरम्भ होती है, “हम भारत के लोग ……… इस संविधान को स्वीकृत, अधिनियमित और आत्म-अर्पित करते हैं। ये शब्द इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता ही सर्वोच्च शक्ति है। संविधान को किसी विदेशी शक्ति ने भारत पर नहीं थोपा है बल्कि यह सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत है।”

प्रश्न 10.
“भारत प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रीय गणराज्य है।” व्याख्या करो।
उत्तर-

  1. भारत पूर्ण रूप से प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है। भारत अपने आन्तरिक मामलों और बाहरी मामलों में स्वतन्त्र है।
  2. संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत सरकार का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है।
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है। भारत का अपना कोई धर्म नहीं है। सभी नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।
  4. भारत में लोकतन्त्र है। शासन की सभी शक्तियों का स्रोत जनता है। शासन जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चलाया जाता है।
  5. भारत एक गणराज्य है। राष्ट्रपति भारत राज्य का अध्यक्ष है जोकि अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है।

प्रश्न 11.
प्रस्तावना में शामिल संविधान के उद्देश्य कौन-से हैं ?
उत्तर-
प्रस्तावना में शामिल संविधान के उद्देश्य इस प्रकार हैं-

  1. संविधान का उद्देश्य यह है कि सभी नागरिकों को न्याय मिले और जीवन के किसी भी क्षेत्र में नागरिकों के साथ अन्याय न हो।
  2. प्रस्तावना में नागरिकों की स्वतन्त्रता का उल्लेख किया गया है; जैसे-विचार प्रकट करने, विचार रखने, अपनी इच्छानुसार अपने इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता।
  3. प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है।
  4. प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश में संविधान का मल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह हमारे संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से होता है। संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘गणराज्य’ शब्द की व्याख्या करो।
उत्तर-
प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ ‘गणराज्य’ भी घोषित किया गया है। ‘गणराज्य’ में राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैंड और जापान गणराज्य नहीं हैं, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक हैं, परन्तु भारत एक गणराज्य है, क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रस्तावना में किस प्रकार के न्याय का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. प्रस्तावना किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रस्तावना एक संविधान का आमुख होता है, जिसमें उसके कारणों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया होता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 3. भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है ?
उत्तर-भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है।

प्रश्न 4. संविधान की प्रस्तावना में अखंडता’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन द्वारा समाविष्ट किया गया है ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 5. संविधान में प्रस्तावना का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-संविधान की प्रस्तावना से संवैधानिक शक्ति के स्रोतों, भारतीय शासन व्यवस्था के स्वरूप एवं संविधान के उद्देश्यों का पता चलता है।

प्रश्न 6. भारतीय संविधान की मौलिक प्रस्तावना में भारत को क्या घोषित किया गया था?
उत्तर- भारतीय संविधान की मौलिक प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया था।

प्रश्न 7. भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरम्भ किससे होता है?
उत्तर- भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरम्भ ‘हम भारत के लोग’ से आरम्भ होता है।

प्रश्न 8. संविधान के उद्देश्य का वर्णन कहां पर होता है?
उत्तर-संविधान के उद्देश्य का वर्णन प्रस्तावना में होता है।

प्रश्न 9. कौन-से संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए हैं?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 10. भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को क्या घोषित करती है ?
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को प्रभुसत्ता संपन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, प्रजातन्त्रात्मक गणतन्त्र घोषित करती है।

प्रश्न 11. भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर किस देश के संविधान की प्रस्तावना का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-अमेरिका।

प्रश्न 12. संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार किसके पास है?
उत्तर-संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार संसद् को है।

प्रश्न 13. संविधान की प्रस्तावना में अब तक कितनी बार संशोधन किया जा चुका है?
उत्तर-एक बार।

प्रश्न 14. प्रस्तावना में किस प्रकार के न्याय का वर्णन किया गया है?
उत्तर-प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 15. प्रस्तावना किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रस्तावना एक संविधान का आमुख होता है, जिसमें उसके कारणों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया होता है।

प्रश्न 16. भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है?
उत्तर-भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है।

प्रश्न 17. संविधान की प्रस्तावना में ‘अखंडता’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन द्वारा समाविष्ट किया गया है?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत के संविधान का मूल दर्शन ……… में निहित है।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना ………… से आरंभ होती है।
3. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद व धर्म-निरपेक्ष शब्द ………. द्वारा जोड़े गए हैं।
4. ………….. ने प्रस्तावना को जन्म-पत्री कहा है।
5. 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में ………. ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया।
उत्तर-

  1. प्रस्तावना
  2. हम भारत के लोग
  3. 42वें संशोधन
  4. के० एम० मुंशी
  5. पं० नेहरू।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत के संविधान का मूल दर्शन प्रस्तावना में निहित है।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना “भारत एक गणराज्य है” से आरंभ होती है।
3. संविधान सभा में 1949 में एक उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव पास किया गया था, जिसमें उसने अपने सामने कुछ उद्देश्यों को रखा और उसी प्रस्ताव के आधार पर संविधान का निर्माण हुआ।
4. के० एम० मुंशी के अनुसार, प्रस्तावना संविधान बनाने वालों के मन की कुंजी है।
5. 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष तथा अखंडता के शब्दों को अंकित किया गया है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरंभ कैसे होता है ?
(क) हम भारत के लोग
(ख) भारत के लोग
(ग) भारत को संपूर्ण
(घ) भारत एक समाजवादी।
उत्तर-
(क) हम भारत के लोग

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 2.
संविधान के दर्शन में शामिल होते हैं-
(क) न्याय
(ख) स्वतंत्रता
(ग) समानता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
प्रभुत्व संपन्न कौन है ?
(क) लोकसभा
(ख) राष्ट्रपति
(ग) जनता
(घ) संविधान।
उत्तर-
(ग) जनता

प्रश्न 4.
संविधान के उद्देश्य का वर्णन कहां मिलता है ?
(क) प्रस्तावना में
(ख) मौलिक अधिकारों में
(ग) संकटकालीन धाराओं में
(घ) राज्यनीति के निर्देशक सिद्धांत में।
उत्तर-
(क) प्रस्तावना में।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

दीर्घ उ त्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
(Describe in brief the functions of the Judiciary.)
उत्तर-
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है जिसका मुख्य कार्य विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करना तथा परस्पर झगड़ों को निपटाना है। इस अंग की कुशल व्यवस्था पर ही नागरिकों के हितों तथा अधिकारों की रक्षा निर्भर करती है। न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करते समय कई नए कानूनों को भी जन्म देती है। संघात्मक राज्यों में न्यायपालिका केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों के झगड़ों को निपटाती है तथा संविधान की रक्षा करती है। न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि शासन की कार्यकुशलता का अनुमान न्यायपालिका की कुशलता से ही लगाया जाता है।

लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) ने ठीक ही लिखा है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जांचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और वस्तु का नागरिकों की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके इस ज्ञान से कि एक निश्चित, शीघ्र तथा निष्पक्ष न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है।” न्यायपालिका का कर्त्तव्य है कि वह अमीर अथवा गरीब, शक्तिशाली अथवा निर्बल, सरकारी अथवा गैर-सरकारी का भेदभाव किए बिना न्याय करे। जब किसी नागरिक पर अत्याचार होता है तो वह न्यायपालिका के संरक्षण में जाता है और इस विश्वास से जाता है कि उचित न्याय मिलेगा। प्रजातन्त्र राज्यों में न्यायपालिका का महत्त्व दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है क्योंकि न्यायपालिका को अनेक कार्य करने पड़ते हैं।

मैरियट (Merriot) ने ठीक ही लिखा है, “सरकार के जितने भी मुख्य कार्य हैं, न्याय कार्य उनमें निःसन्देह अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध नागरिकों से होता है। चाहे कानून बनाने की मशीनरी कितनी ही विस्तृत और वैज्ञानिक क्यों न हो, चाहे कार्यपालिका का संगठन कितना ही पूर्ण क्यों न हो, परन्तु फिर भी नागरिक का जीवन दुःखी हो सकता है तथा उसकी सम्पत्ति को खतरा उत्पन्न हो सकता है यदि न्याय करने में देरी हो जाए या न्याय में दोष रह जाए अथवा कानून की व्यवस्था पक्षतापूर्ण या भ्रामक हो।” गार्नर ने तो यहां तक लिखा है कि न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्यायपालिका के अभाव में चोरों, डाकुओं तथा अन्य शक्तिशाली शक्तियों का निर्बलों की सम्पत्ति पर कब्जा हो जाएगा और चारों ओर अन्याय का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। लोग कानूनों का ठीक प्रकार से पालन करें और दूसरों के अधिकारों का हनन न करें, इसके लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। इस लोकतन्त्रात्मक युग में न्यायपालिका के अभाव में किसी भी राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती।

न्यायपालिका के कार्य (Functions of Judiciary)-

न्यायपालिका के कार्य विभिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। संविधान की प्रकृति, राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप, न्यायपालिका के संगठन इत्यादि पर न्यायपालिका के कार्य निर्भर करते हैं। आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यता निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

1. न्याय करना (To do Justice)न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। विधानमण्डल के बनाए गए कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है, परन्तु राज्य के अन्तर्गत कई नागरिक ऐसे होते हैं जो कानूनों का उल्लंघन करते हैं। कार्यपालिका ऐसे नागरिकों को पकड़कर न्यायपालिका के सामने पेश करती है ताकि कानून तोड़ने वाले नागरिकों को सज़ा दी जा सके। न्यायपालिका उन मुकद्दमों को सुनकर निर्णय करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकद्दमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं। अतः न्यायपालिका फौजदारी तथा दीवानी दोनों तरह के मुकद्दमों को सुनती है। न्यायपालिका व्यक्तियों के बीच हुए झगड़ों तथा सरकार और नागरिकों के बीच हुए झगड़ों का निर्णय करती है। न्यायपालिका न्याय करके नागरिकों को बुरे नागरिकों तथा सरकार के अत्याचारों से बचाती है।

2. कानून की व्याख्या करना (To Interpret Laws)-न्यायपालिका विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है। विधानमण्डल के बनाए हुए कानून कई बार स्पष्ट नहीं होते जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने लाभ के लिए उस कानून की व्याख्या करता है। अत: कानून की स्पष्टता की आवश्यकता पड़ती है। न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका द्वारा की गई कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इन्कार नहीं कर सकता। अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को कानून की व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त है।

3. कानूनों का निर्माण (Making of Laws)-साधारणतया कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कई नए अर्थों को जन्म देते हैं जिनसे कानून का अर्थ ही बदल जाता है और एक नए कानून का निर्माण हो जाता है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों की व्याख्या करते समय कई नए कानूनों को निर्माण किया है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जहां कानून बना नहीं होता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता, समानता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं। इस प्रकार न्यायपालिका कानूनों का निर्माण भी करती है।

4. संविधान का संरक्षक (Guardian of the Constitution)—जिन देशों में संविधान लिखित होता है वहां पर प्रायः संविधान को राज्य का सर्वोच्च कानून माना जाता है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका पर होती है। न्यायपालिका को अधिकार प्राप्त होता है कि यदि विधानपालिका कोई ऐसा कानून बनाए जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Judicial Review) की शक्ति का नाम दिया गया है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार तथा न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है।

5. संघ का संरक्षक (Guardian of Federation)-जिन देशों में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है वहां न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र तथा राज्य अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं। परन्तु कई बार केन्द्र तथा राज्यों के बीच कई प्रकार के झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन पारस्परिक झगड़ों का निर्णय न्यायपालिका के द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य होता है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के क्षेत्र में दखल दे।

6. व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण (Guardian of Individual Rights)-भारत, जापान, अमेरिका, कनाडा इत्यादि देशों के संविधानों में व्यक्ति के अधिकारों का वर्णन किया गया है। व्यक्ति के अधिकारों का संविधान में वर्णन ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि उन अधिकारों को लागू करना तथा उनको सुरक्षित करना और भी महत्त्वपूर्ण है। न्यायपालिका ही व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है तथा दूसरे व्यक्तियों अथवा सरकार को व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकती है, भारत में प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह सुप्रीम कोर्ट अथवा हाई कोर्ट के पास अपील कर सकता है यदि उसके किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ हो। सुप्रीम कोर्ट विधानमण्डल के कानूनों को भी रद्द कर सकती है यदि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों।

7. सलाह देना (Advisory Functions)-कई देशों में न्यायपालिका कानूनी मामलों में सलाह भी देती है। इंग्लैण्ड में प्रिवी-कौंसिल (Privy Council) की न्यायिक समिति से संवैधानिक समस्याओं पर परामर्श लिया जाता है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह ले सकता है, परन्तु सुप्रीम कोर्ट की सलाह मानना अथवा न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर करता है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को सलाह देने से इन्कार कर दिया है। कैनेडा का गवर्नर-जनरल भी कुछ बातों पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकता है।।

8. प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)-कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा निम्न न्यायालयों पर प्रशासकीय नियन्त्रण करती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

9. आज्ञा-पत्र जारी करना (To Act Injunctions and Writs of Mandamus)-न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे प्रमुख कार्य नहीं कर सकते और साथ ही कोई कार्य जिनके करने से लोग बचना चाहते हों, करवा सकती है। यदि वे कार्य न किए जाएं तो न्यायालयों का अपमान माना जाता है, जिस पर न्यायालय बिना अभियोग चलाए दण्ड दे सकता है। कई बार न्यायालय मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ़ रिकार्ड के कार्य (To Act as a Court of Record)-न्यायपालिका कोर्ट ऑफ़ रिकार्ड का भी कार्य करती है जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकद्दमों में निर्णयों तथा सरकार को दिए गए परामर्शों का रिकार्ड रखना पड़ता है। ये निर्णय तथा परामर्श की प्रतियां किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं।

11. विविध कार्य (Miscellaneous Functions)-न्यायपालिका उपरलिखित कार्यों के अतिरिक्त कुछ और भी कार्य करती है
(क) न्यायपालिका नाबालिगों की सम्पत्ति की देख-रेख के लिए संरक्षक (Trustee) नियुक्त करती है।
(ख) जब किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति के स्वामित्व के सम्बन्ध में झगड़ा उत्पन्न होता है, तब न्यायालय उस सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता है और उस समय तक प्रबन्ध करता है जब तक उस झगड़े का फैसला न हो जाए।
(ग) न्यायपालिका नागरिक विवाह (Civil Marriage) की अनुमति देती है। (घ) न्यायपालिका विवाह-विच्छेद (Divorce) के मुकद्दमे भी सुनती है। (ङ) शस्त्र इत्यादि रखने के लिए लाइसेंस जारी करती है।
(च) भारत में निर्वाचन सम्बन्धी अपीलें हाई कोर्ट सुनती है। उच्च अधिकारियों को शपथ दिलवाना न्यायपालिका का ही कार्य है।

निष्कर्ष (Conclusion)-किसी भी सरकार का न्यायपालिका अंग अपने कार्यों व शक्तियों का निर्धारण स्वयं नहीं करता। वह निर्धारण राज्य के संविधान और विधानपालिका के कानूनों द्वारा किया जाता है। इस कारण हर राज्य में न्यायपालिका के कार्य सदा एक समान नहीं होते। इसके अतिरिक्त एक प्रजातन्त्रात्मक ढांचे में न्यायपालिका को संविधान और लोगों के अधिकारों का रक्षक माना जाता है। अच्छे प्रजातन्त्र के आवश्यक तत्त्वों में निपुण और स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रमुख स्थान है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है ? यह किस तरह से प्राप्त की जा सकती है ?
(What is meant by ‘Independence of Judiciary’ ? How can it be secured ?)
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ (Meaning of Independence of Judiciary)-वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं, जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि न्यायपालिका कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा नहीं कर सकेंगे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व (Importance of Independence of Judiciary)-आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा कर सकती है। अमीर-गरीब, शक्तिशाली, निर्बल, पढ़े-लिखे, अनपढ़ तथा सरकारी, गैर-सरकारी सभी को न्याय तभी मिल सकता है जब न्यायाधीश स्वतन्त्र हों। यदि न्यायाधीश विधानमण्डल के अधीन होंगे तो वे विधानमण्डल के कानूनों को असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकेंगे और इस तरह वे संविधान की रक्षा नहीं कर सकेंगे। लोकतन्त्र की सफलता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का होना आवश्यक है। माण्टेस्क्यू ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए ही शक्तियों का पृथक्करण का सिद्धान्त दिया ताकि सरकार के तीनों अंग स्वतन्त्र होकर कार्य कर सकें।

संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में केन्द्र तथा प्रान्तों में शक्तियों का विभाजन होता है। कई बार शक्तियों के विभाजन पर केन्द्र तथा प्रान्तों में झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन झगड़ों को निपटाने के लिए एक स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। बिना स्वतन्त्र न्यायपालिका के संघीय शासन सफलतापूर्वक चल ही नहीं सकता है।

अमेरिकन राष्ट्रपति टाफ्ट ने न्यायपालिका के महत्त्व के विषय में कहा है, “सभी मामलों में, चाहे वे व्यक्ति तथा राज्य के बीच में हों, चाहे अल्पसंख्यक वर्ग और बहुमत के बीच में हों, न्यायपालिका को निष्पक्ष रहना चाहिए और बिना किसी भय के निर्णय देना चाहिए।” डॉ० गार्नर (Garner) ने न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है, “यदि न्यायाधीशों में प्रतिभा और निर्णय देने की स्वतन्त्रता न हो तो न्यायपालिका का यह सारा ढांचा खोखला प्रतीत होगा और ऊंचे उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।” (“If judges lack wisdom, probity and freedom of decision, the high purposes for which the Judiciary is established cannot be realised.’) अत: व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान की रक्षा के लिए, संघ की सफलता के लिए, न्याय के लिए तथा लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने वाले तत्त्व (Factors that Establish the Independence of Judiciary)—प्रत्येक लोकतन्त्रीय राज्य में न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए कोशिश की जाती है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने के लिए निम्नलिखित तत्त्व सहायक हैं-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग (Mode of Appointment of Judges)-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनकी नियुक्ति किस ढंग से की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के तीन ढंग हैं
(क) जनता द्वारा चुनाव (Election by the People)
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव (Election by the Legislature)
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति (Appointment by the Executive)

(क) जनता द्वारा चुनाव-न्यायाधीशों की नियुक्ति के सब ढंगों में जनता द्वारा चुने जाने का ढंग सबसे अधिक दोषपूर्ण है। इसलिए यह पद्धति अधिक प्रचलित नहीं है।
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव-स्विट्ज़रलैण्ड तथा रूस में न्यायाधीशों का चुनाव विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। यह पद्धति भी न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए उचित नहीं है।
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति-न्यायाधीशों की नियुक्ति का सबसे अच्छा ढंग कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति है। संसार के मुख्य देशों में इसी प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत में सुप्रीमकोर्ट तथा हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश राष्ट्रपति सीनेट की अनुमति से नियुक्त करता है। इंग्लैण्ड, कैनेडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अफ्रीका में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा ही की जाती है। यह प्रणाली इसलिए अच्छी समझी जाती है क्योंकि कार्यपालिका योग्य व्यक्तियों को नियुक्त कर सकती है। इससे राजनीतिक दलों का प्रभाव भी कम हो जाता है।

2. नौकरी की सुरक्षा (Security of Service) न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उनको नौकरी की सुरक्षा प्राप्त हो। उनको हटाने का तरीका काफ़ी कठिन होना चाहिए ताकि कार्यपालिका अपनी इच्छा से उन्हें न हटा सके। यदि न्यायाधीशों को नौकरी की चिन्ता रहेगी तो वह अपना कार्य कुशलतापूर्वक नहीं कर सकेंगे। यदि न्यायाधीशों को यह पता हो कि उन्हें तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक वे भ्रष्टाचारी साधनों का प्रयोग नहीं करते तो इससे वे बिना किसी डर के न्याय कर सकते हैं। न्यायाधीश कार्यपालिका के अत्याचारों के विरुद्ध तभी निर्णय दे सकते हैं जब उनकी अपनी नौकरी सुरक्षित हो और न्यायाधीश की नौकरी तभी सुरक्षित हो सकती है यदि उन्हें हटाने की विधि कठोर हो। इसलिए संसार के अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नौकरी को सुरक्षित रखा गया है ताकि वे स्वतन्त्र होकर अपना कार्य कर सकें। भारत में सुप्रीमकोर्ट तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीश को राष्ट्रपति उसी समय हटा सकता है जब संसद् के दोनों सदन अपने कुल सदस्यों के उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से एक प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति से किसी न्यायाधीश को हटाने की सिफ़ारिश करते हैं।

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3. लम्बा कार्यक्रम (Long Tenure)-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का कार्यक्रम काफ़ी लम्बा हो। यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल थोड़ा हो तो न्यायाधीश कभी भी स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष होकर कार्य नहीं कर सकते। जब न्यायाधीशों को कार्यकाल छोटा होता है तब न्यायाधीश रिश्वतें लेकर थोड़े समय में अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं। कार्यकाल थोड़ा होने की दशा में न्यायाधीशों को दोबारा न चुने जाने की चिन्ता रहती है। इसलिए न्यायाधीशों का कार्यकाल काफ़ी लम्बा होना चाहिए। इसके अतिरिक्त लम्बे कार्यकाल का यह भी होता है कि न्यायाधीशों को अपने कार्य का अनुभव हो जाता है जिससे वे अपने कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक करते हैं। संसार के प्रायः सभी देशों में न्यायाधीशों को अपने कार्य का अनुभव हो जाता है जिससे वे अपने कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक करते हैं। संसार के प्रायः सभी देशों में न्यायाधीशों का कार्यकाल काफ़ी लम्बा रखा जाता है। भारत में सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक सदाचार पर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं। इंग्लैण्ड में न्यायाधीश सदाचार पर्यन्त अपने पद पर रहते हैं। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सदाचार के आधार पर जीवन भर अपने पद पर रहते हैं।

4. न्यायाधीशों को अच्छा वेतन तथा पैन्शन (Good Salary and Pension to Judges)-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें अच्छा वेतन मिले ताकि वे अपना गुजारा अच्छी तरह कर सकें और अपने जीवन स्तर को अपने पद के अनुसार रखें। यदि न्यायाधीशों को अच्छा वेतन नहीं मिलेगा तो वे अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचारी साधनों का प्रयोग करेंगे। भारतवर्ष में न्यायाधीशों को बहुत अच्छा वेतन मिलता है-सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपये तथा न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है जबकि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 2,50,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है।

अच्छे वेतन के अतिरिक्त न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन भी मिलनी चाहिए ताकि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् अपनी रोजी की चिन्ता न रहे। यदि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन न दी जाए तो इसका अर्थ होगा कि वे अपने कार्यकाल में अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने की कोशिश करेंगे ताकि रिटायर होने के पश्चात् उनका जीवन सुख से व्यतीत हो सके। इससे न्यायाधीश भ्रष्टाचार के रास्ते पर चलने लगेंगे। भारतवर्ष तथा अमेरिका में न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् अच्छी पैन्शन दी जाती है।

5. सेवा की शर्तों में हानिकारक परिवर्तन न होना (No change in the terms of their disadvantage)न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के पश्चात् उनकी हानि के लिए वेतन, पैन्शन, छुट्टियों के नियमों में कोई परिवर्तन न किया जाए।

6. न्यायाधीशों की उच्च योग्यताएं (High Qualifications of Judges)-न्यायाधीश तभी स्वतन्त्र रह सकते हैं जब उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर हुई हो तथा न्यायाधीशों के लिए उच्च योग्यताएं निश्चित होनी चाहिएं। अयोग्य न्यायाधीश जिनकी नियुक्ति सिफ़ारिश पर की जाती है कभी भी निष्पक्ष नहीं रह सकते और न ही अपने कार्य को कुशलता से कर सकते हैं। यदि न्यायाधीशों को कानून का पूर्ण ज्ञान नहीं होगा तो वे चतुर वकीलों की बातों में आ जाएंगे और न्याय निष्पक्षता से नहीं कर पाएंगे। भारत में सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश वही व्यक्ति बन सकता है जो हाई कोर्ट में पांच वर्ष न्यायाधीश रहा हो अथवा दस वर्ष तक हाई कोर्ट में एडवोकेट रहा तो अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में एक प्रसिद्ध कानूनज्ञाता हो।

7. रिटायर होने के पश्चात् वकालत की मनाही (No Practice after Retirement) न्याय की निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् वकालत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् वकालत करने का अधिकार होगा तो इससे न्याय दूषित होगा। जब कोई न्यायाधीश रिटायर होने के पश्चात् कोर्ट के सामने वकील की हैसियत से पेश होता है तो उसके साथी न्यायाधीश उसका पक्षपात करेंगे, जिससे न्याय निष्पक्ष नहीं होगा। भारत में न्यायाधीश को वकालत करने की बिल्कुल मनाही है।

8. अवकाश प्राप्ति के पश्चात् न्यायाधीशों की सेवाओं पर प्रतिबन्ध (Restrictions on utilising services of Judges after Retirement) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् किसी भी प्रकार का राजकीय अथवा अर्द्ध-राजकीय पद नहीं दिया जाना चाहिए।

9. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण (Separation of Judiciary from the Executive)न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाये तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार न दिया जाये। यदि एक ही व्यक्ति के हाथों में कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियां दे दी जाएं तो वह उनका दुरुपयोग करेगा अर्थात् यदि मुकद्दमा चलाने वाला ही न्यायाधीश हो तो इससे नागरिकों को न्याय नहीं मिलेगा।

10. न्यायपालिका को व्यापक अधिकार (Sufficient Powers to Judiciary) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका को काफ़ी अधिकार प्राप्त हों। न्यायपालिका को साधारणतया विधानमण्डल तथा कार्यपालिका से निर्बल माना जाता है क्योंकि विधानमण्डल का नियन्त्रण देश के वित्त पर होता है जबकि कार्यपालिका का नियन्त्रण देश की शक्ति (सेना) पर होता है। इसलिए न्यायपालिका को सम्मान का स्थान देने के लिए आवश्यक हो जाता है कि इसको भी काफ़ी शक्तियां प्राप्त हों ताकि न्यायपालिका अपना कार्य स्वतन्त्रता से कर सके। अत: न्यायपालिका को विधानमण्डल के कानूनों को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

11. कार्य की स्वतन्त्रता (Liberty of Action)-न्यायाधीश को अपने कार्य में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। वे जब किसी भी मुकद्दमे का निर्णय कर रहे हों, किसी अन्य व्यक्ति को उनके काम में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों के कार्यों की सार्वजनिक आलोचना भी नहीं होनी चाहिए। भारत में प्रत्येक न्यायालय उनके काम में हस्तक्षेप करने वाले तथा उसका अनादर करने वाले के विरुद्ध स्वयं मुकद्दमा चला कर उसे दण्ड दे सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion) उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा की जाए। एक बार नियुक्ति करने पर उनका कार्यकाल सदाचारपर्यन्त लम्बा हो, उनको हटाने का तरीका कठिन हो, उसकी नियुक्ति के लिए उच्च योग्यताएं निश्चित हों, उन्हें अच्छा वेतन मिले तथा रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन दी जाए तथा न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाये। अतः ये सब तत्त्व मिल कर ही न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को कायम रख सकते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के चार कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-
न्यायपालिका के मुख्य तीन कार्य निम्नलिखित हैं

  1. न्याय करना-विधानमण्डल के बनाए गए कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है, परन्तु राज्य के अन्तर्गत कई नागरिक ऐसे भी होते हैं जो इन कानूनों का उल्लंघन करते हैं। कार्यपालिका ऐसे व्यक्तियों को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष पेश करती है। न्यायपालिका मुकद्दमों को सुनकर न्याय करती है।
  2. कानून की व्याख्या-न्यायपालिका, विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है। कई बार विधानमण्डल के बनाए हुए कानून स्पष्ट नहीं होते। अतः कानूनों की स्पष्टता की आवश्यकता पड़ती है। तब न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या कर उन्हें स्पष्ट करती है।
  3. कानूनों का निर्माण-साधारणतया कानूनों का निर्माण विधानपालिका के द्वारा किया जाता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानूनों की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कई नए अर्थों को जन्म देते हैं जिससे उस कानून का अर्थ ही बदल जाता है और एक नए कानून का निर्माण होता है।
  4. संविधान का संरक्षक-न्यायपालिका संविधान की संरक्षक मानी जाती है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ तथा महत्त्व लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ-वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलता एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व-आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा कर सकती है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में विभाजन होता है। कई बार शक्तियों के विभाजन पर केन्द्र और राज्यों में झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए कोई चार शर्ते लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्वतन्त्र बनाया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनकी नियुक्ति किस ढंग से की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के क्रमश: तीन ढंग हैं-
    (1) जनता द्वारा चुनाव (2) विधानमण्डल द्वारा चुनाव (3) कार्यपालिका द्वारा चुनाव। न्यायाधीशों की नियुक्ति का सबसे अच्छा ढंग कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति है।
  2. नौकरी की सुरक्षा-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें नौकरी की सुरक्षा प्राप्त हो। उन्हें हटाने का तरीका काफ़ी कठिन होना चाहिए ताकि वे निष्पक्षता और कुशलता से अपना कार्य कर सकें।
  3. लम्बा कार्यकाल-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का कार्यकाल लम्बा हो। यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल थोड़ा होगा तो वे कभी भी स्वतन्त्रतापूर्वक एवं निष्पक्षता से अपना कार्य नहीं कर सकेंगे।
  4. अच्छा वेतन-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है, कि उन्हें अच्छा वेतन मिले।

प्रश्न 4.
बंदी उपस्थापक अथवा प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
‘हैबियस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।’ (Let us have the body.) इस आदेश के अनुसार, न्यायालय किसी अधिकारी को, जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसके गिरफ्तारी के कानूनों का औचित्य अथवा अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है।

प्रश्न 5.
परमादेश लेख (Writ of Mandamus) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
‘मैण्डमस’ शब्द लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है, “हम आदेश देते हैं” (We Command)। इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाधित कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

प्रश्न 6.
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से क्यों खास महत्त्व दिया जाता है ?
उत्तर-
न्यायपालिका को राज्य सरकार के तीनों अंगों में विशेष महत्त्व प्राप्त होता है। ब्राइस के अनुसार, “यदि किसी राज्य के प्रशासन की जानकारी आप को प्राप्त करनी है तो आपके लिए यह आवश्यक है कि आप वहां की न्यायपालिका का अध्ययन करें और यदि न्याय व्यवस्था अच्छी व सुचारु है तो प्रशासन बढ़िया है।” न्यायपालिका को निम्नलिखित कारणों द्वारा खास महत्त्व प्राप्त है-

  • न्यायपालिका संविधान की रक्षक है।
  • न्यायपालिका लोगों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करती है।
  • जिन देशों में संघात्मक शासन प्रणाली है वहां न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में काम करती है।
  • न्यायपालिका विधानमण्डल के बनाए कानूनों की व्याख्या करती है।
  • कई देशों में न्यायपालिका कानूनी मामलों में सलाह भी देती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के दो कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-

  1. न्याय करना-न्यायपालिका मुकद्दमों को सुनकर न्याय करती है।
  2. कानून की व्याख्या-न्यायपालिका, विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका स्वतन्त्रता का अर्थ लिखें।
उत्तर-
वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलता एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बुल्जे के अनुसार, “संविधान उन नियमों का समूह है, जिनके अनुसार सरकार की शक्तियां, शासितों के अधिकार तथा इन दोनों के आपसी सम्बन्धों को व्यवस्थित किया जाता है।”

प्रश्न 2. संविधान के कोई दो रूप/प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. विकसित संविधान
  2. निर्मित संविधान।

प्रश्न 3. विकसित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो संविधान ऐतिहासिक उपज या विकास का परिणाम हो, उसे विकसित संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 4. लिखित संविधान किसे कहते हैं ? ।
उत्तर-लिखित संविधान उसे कहा जाता है, जिसके लगभग सभी नियम लिखित रूप में उपलब्ध हों।

प्रश्न 5. अलिखित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-अलिखित संविधान उसे कहते हैं, जिसकी धाराएं लिखित रूप में न हों, बल्कि शासन संगठन अधिकतर रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं पर आधारित हो।

प्रश्न 6. कठोर एवं लचीले संविधान में एक अन्तर लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान की अपेक्षा लचीले संविधान में संशोधन करना अत्यन्त सरल है।

प्रश्न 7. लचीले संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर- लचीला संविधान समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 8. किसी एक विद्वान् का नाम लिखें, जो लिखित संविधान का समर्थन करता है?
उत्तर-डॉ० टॉक्विल ने लिखित संविधान का समर्थन किया है।

प्रश्न 9. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता।

प्रश्न 10. एक अच्छे संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-संविधान स्पष्ट एवं सरल होता है।

प्रश्न 11. अलिखित संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-यह समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 12. अलिखित संविधान का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-अलिखित संविधान में शक्तियों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है।

प्रश्न 13. लिखित संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान निश्चित तथा स्पष्ट होता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

प्रश्न 14. लिखित संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान समयानुसार नहीं बदलता।

प्रश्न 15. जिस संविधान को आसानी से बदला जा सके, उसे कैसा संविधान कहा जाता है ?
उत्तर-उसे लचीला संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 16. जिस संविधान को आसानी से न बदला जा सकता हो, तथा जिसे बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाया जाता हो, उसे कैसा संविधान कहते हैं ?
उत्तर-उसे कठोर संविधान कहते हैं। प्रश्न 17. लचीले संविधान का एक दोष लिखें। उत्तर-यह संविधान पिछड़े हुए देशों के लिए ठीक नहीं।

प्रश्न 18. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान निश्चित एवं स्पष्ट होता है।

प्रश्न 19. कठोर संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान क्रान्ति को प्रोत्साहन देता है।

प्रश्न 20. शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Power) का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर-शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त मान्टेस्क्यू ने प्रस्तुत किया।

प्रश्न 21. संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कौन हैं ?
उत्तर-संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कार्ल-मार्क्स हैं।

प्रश्न 22. संविधानवाद के मार्ग की एक बड़ी बाधा लिखें।
उत्तर-संविधानवाद के मार्ग की एक बाधा युद्ध है।

प्रश्न 23. अरस्तु ने कितने संविधानों का अध्ययन किया?
उत्तर-अरस्तु ने 158 संविधानों का अध्ययन किया।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………. संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।
2. जिस संविधान को सरलता से न बदला जा सके, उसे …………… संविधान कहते हैं।
3. लिखित संविधान एक ……………. द्वारा बनाया जाता है।
4. ……………. संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
5. ……………. में क्रांति का डर बना रहता है।
उत्तर-

  1. लचीला
  2. कठोर
  3. संविधान सभा
  4. अलिखित
  5. लिखित संविधान।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अलिखित संविधान अस्पष्ट एवं अनिश्चित होता है।
2. लचीले संविधान में क्रांति की कम संभावनाएं रहती हैं।
3. कठोर संविधान अस्थिर होता है।
4. एक अच्छा संविधान स्पष्ट एवं निश्चित होता है।
5. कठोर संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कठोर संविधान का गुण है
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता
(ख) संघात्मक राज्य के लिए उपयुक्त नहीं है
(ग) समयानुसार नहीं बदलता
(घ) संकटकाल में ठीक नहीं रहता।
उत्तर-
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

प्रश्न 2.
एक अच्छे संविधान का गुण है-
(क) संविधान का स्पष्ट न होना
(ख) संविधान का बहुत विस्तृत होना
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय
(घ) बहुत कठोर होना।
उत्तर-
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय

प्रश्न 3.
“संविधान उन नियमों का समूह है, जो राज्य के सर्वोच्च अंगों को निर्धारित करते हैं, उनकी रचना, उनके आपसी सम्बन्धों, उनके कार्यक्षेत्र तथा राज्य में उनके वास्तविक स्थान को निश्चित करते हैं।” किसका कथन है ?
(क) सेबाइन
(ख) जैलिनेक
(ग) राबर्ट डाहल
(घ) आल्मण्ड पावेल।
उत्तर-
(ख) जैलिनेक

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से एक अच्छे संविधान की विशेषता है-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित
(ख) अस्पष्टता
(ग) कठोरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित

PSEB 11th Class Chemistry Book Solutions Guide in Punjabi English Medium

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PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदात्मक सरकार की मुख्य विशेषताएं बताइए।
(Describe the chief characteristics of the parliamentary form of government.)
अथवा
संसदीय सरकार क्या है ? संसदीय सरकार की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(What is parliamentary government ? Discuss the main features of parliamentary Government.)
उत्तर-
कार्यपालिका और विधानपालिका के सम्बन्धों के आधार पर दो प्रकार के शासन होते हैं-संसदीय तथा अध्यक्षात्मक। यदि कार्यपालिका और विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध हों और दोनों एक-दूसरे का अटूट भाग हों तो संसदीय सरकार होती है और यदि कार्यपालिका तथा विधानपालिका एक-दूसरे से लगभग स्वतन्त्र हों तो अध्यक्षात्मक सरकार होती है।

संसदीय सरकार का अर्थ (Meaning of Parliamentary Government)–संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् (विधानपालिका) के प्रति उत्तरदायी होती है और अब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार (Responsible Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार (Cabinet Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

1. डॉ० गार्नर (Dr. Garner) का मत है कि, “संसदीय सरकार वह प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका, मन्त्रिमण्डल या मन्त्रिपरिषद् अपनी राजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से विधानमण्डल या उसके एक सदन (प्रायः लोकप्रिय सदन) के प्रति और राजनीतिक तौर पर मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी हो जबकि राज्य का अध्यक्ष संवैधानिक या नाममात्र कार्यपालिका हो और अनुत्तरदायी हो।”

2. गैटेल (Gettell) के अनुसार, “संसदीय शासन प्रणाली शासन के उस रूप को कहते हैं जिसमें प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका अपने कार्यों के लिए कानूनी दृष्टि से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। चूंकि विधानपालिका के दो सदन होते हैं अतः मन्त्रिमण्डल वास्तव में उस सदन के नियन्त्रण में होता है जिसे वित्तीय मामलों पर अधिक शक्ति प्राप्त होती है जो मतदाताओं का अधिक सीधे ढंग से प्रतिनिधित्व करता है।”
इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है और राज्य का नाममात्र का मुखिया किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।

संसदीय सरकार को सर्वप्रथम इंग्लैंड में अपनाया गया था। आजकल इंग्लैंड के अतिरिक्त जापान, कनाडा, नार्वे, स्वीडन, बंगला देश तथा भारत में भी संसदीय सरकारें पाई जाती हैं।

संसदीय सरकार के लक्षण
(Features of Parliamentary Government)-

संसदीय प्रणाली के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-
1. राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी (Head of the State is Nominal Executive)-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी होता है। सैद्धान्तिक रूप में तो राज्य की सभी कार्यपालिका शक्तियां राज्य के अध्यक्ष के पास होती हैं और उनका प्रयोग भी उनके नाम पर होता है, पर वह उनका प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। उसकी सहायता के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता है, जिसकी सलाह के भार ही उस अपनी शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। अध्यक्ष का काम तो केवल हस्ताक्षर करना है।

2. मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है (Cabinet is the Real Executive)-राज्य के अध्यक्ष के नाम में दी गई शक्तियों का वास्तविक प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। अध्यक्ष के लिए मन्त्रिमण्डल से सलाह मांगना और मानना अनिवार्य है। मन्त्रिमण्डल ही अन्तिम फैसला करता है और वही देश का वास्तविक शासक है। शासन का प्रत्येक विभाग एक मन्त्री के अधीन होता है और सब कर्मचारी उसके अधीन काम करते हैं। हर मन्त्री अपने विभागों का काम मन्त्रिमण्डल की नीतियों के अनुसार चलाने के लिए उत्तरदायी होता है।

3. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between Executive and Legislature)-संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। इसके सदस्य अर्थात् मन्त्री संसद् में से ही लिए जाते हैं। ये मन्त्री संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, बिल पेश करते हैं, बिलों पर बोलते हैं और यदि सदन के सदस्य हों तो मतदान के समय मत का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मन्त्री प्रशासक (Administrator) भी हैं, कानून-निर्माता (Legislator) भी।

4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Responsibility of the Cabinet)—कार्यपालिका अर्थात मन्त्रिमा अपने सब कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद् सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूट सकते हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना पड़ता है। मन्त्रिमण्डल अपनी नीति निश्चित करता है, उसे संसद् के सामने रखता है तथा उसका समर्थन प्राप्त करता है। मन्त्रिमण्डल, अपना कार्य संसद् की इच्छानुसार ही करता है।

5. उत्तरदायित्व सामूहिक होता है (Collective Responsibility)-मन्त्रिमण्डल इकाई के रूप में कार्य करता है और मन्त्री सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं। यदि संसद् एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो समस्त मन्त्रिमण्डल को अपना पद छोड़ना पड़ता है। किसी विशेष परिस्थिति में एक मन्त्री अकेला भी हटाया जा सकता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

6. मन्त्रिमण्डल का अनिश्चित कार्यकाल (Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि भी निश्चित नहीं होती। संसद् की इच्छानुसार ही वह अपने पद पर रहते हैं। संसद् जब चाहे मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर सकती है, अर्थात् यदि निम्न सदन का बहुमत मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध हो तो उसे अपना पद छोड़ना पड़ता है। यही कारण है कि निम्न सदन के नेता को ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है और उसकी इच्छानुसार ही दूसरे मन्त्रियों की नियुक्ति होती है।

7. मन्त्रिमण्डल की राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity of the Cabinet)—संसदीय सरकार की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से सम्बन्धित होते हैं। यह आवश्यक भी है क्योंकि जब तक मन्त्री एक ही विचारधारा और नीतियों के समर्थक नहीं होंगे, मन्त्रिमण्डल में सामूहिक उत्तरदायित्व विकसित नहीं हो सकेगा।

8. गोपनीयता (Secrecy)-संसदीय सरकार में पद सम्भालने से पूर्व मन्त्री संविधान के प्रति वफादार रहने तथा सरकार के रहस्यों को गुप्त रखने की शपथ लेते हैं। कोई भी मन्त्री मन्त्रिमण्डल में हुए वाद-विवाद तथा निर्णयों को मन्त्रिमण्डल की स्वीकृति के बिना घोषित नहीं कर सकता। यदि कोई मन्त्रिमण्डल के रहस्यों की सूचना दूसरे लोगों को देता है तो कानून के अनुसार उसे सख्त दण्ड दिया जाता है।

9. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व (Leadership of the Prime Minister)-संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करता है। जिस दल का बहुमत होता है उसके नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है। प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का निर्माण करता है, मन्त्रियों में विभाग बांटता है, मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता करता है और सभी मन्त्री उसके अधीन कार्य करते हैं।

10. प्रधानमन्त्री संसद् के निम्न सदन को भंग कराने का अधिकार रखता है (Right of the Prime Minister to get the Lower House of the Parliament dissolved)–संसदीय शासन प्रणाली में प्रधानमन्त्री की सिफ़ारिश पर ही राष्ट्रपति या राजा संसद् के निम्न सदन को भंग करता है।

प्रश्न 2.
संसदीय सरकार के गुणों और दोषों की व्याख्या करें।
(Discuss the merits and demerits of Parliamentary Government.)
उत्तर-
संसदीय सरकार के गुण (Merits of Parliamentary Government)-
संसदीय शासन प्रणाली में बहुत-से गुण हैं-

1. कार्यपालिका तथा विधानपालिका में पूर्ण सहयोग (Complete Harmony between the Executive and Legislature)–संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग बना रहता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानपालिका के सदस्य होते हैं, बैठकों में भाग लेते हैं तथा बिल पास करते हैं। कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग के कारण अच्छे कानूनों का निर्माण होता है तथा शासन में दक्षता आती है।

2. उत्तरदायी सरकार (Responsible Government)—संसदीय सरकार में सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। मन्त्रिमण्डल अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छा से न करके विधानमण्डल की इच्छानुसार कार्य करता है। विधानपालिका के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछते हैं, काम रोको प्रस्ताव पेश करते हैं तथा निन्दा प्रस्ताव पास करते हैं और यदि मन्त्रिमण्डल अपनी मनमानी करता है विधानमण्डल अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकता है।

3. सरकार निरंकुश नहीं बन सकती (Government cannot become Despotic)-मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होने के कारण निरंकुश नहीं बन सकता। यदि मन्त्रिमण्डल अपनी मनमानी करता है तो विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटा सकती है। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है। विरोधी दल सरकार को निरंकुश नहीं बनने देता।

4. परिवर्तनशील सरकार (Flexible Government)—संसदीय सरकार का यह भी गुण है कि इसमें सरकार परिवर्तनशील होती है। सरकार को समय के अनुसार बदला जा सकता है। उदाहरणस्वरूप द्वितीय महायुद्ध में जब इंग्लैण्ड में चेम्बरलेन सफल न हो सका तो उसके स्थान पर चर्चिल को प्रधानमन्त्री बनाया गया।

5. सरकार जनमत के अनुसार चलती है (Government is responsive to Public Opinion)–संसदीय शासन प्रणाली में सरकार जनमत की इच्छानुसार शासन को चलाती है। मन्त्री विधानपालिका के सदस्य होते हैं और इस प्रकार वे जनता के प्रतिनिधि होते हैं। बहुमत दल ने चुनाव के समय जनता के साथ कुछ वायदे किए होते हैं। इन वायदों को पूरा करने के लिए मन्त्रिमण्डल अपनी नीतियों का निर्माण करता है। मन्त्री सदा जनमत के अनुसार कार्य करते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि यदि उन्होंने जनता की इच्छाओं को पूरा न किया तो उन्हें अगले चुनाव में बहुमत प्राप्त नहीं होगा।

6. योग्य व्यक्तियों का शासन (Government by Able Men)-संसदीय शासन प्रणाली में योग्य व्यक्तियों का शासन होता है। बहुमत दल उसी व्यक्ति को नेता चुनता है जो दल में सबसे योग्य, बुद्धिमान तथा लोकप्रिय हो। प्रधानमन्त्री उन्हीं व्यक्तियों को मन्त्रिमण्डल में शामिल करता है जो शासन चलाने के योग्य होते हैं। यदि कभी अनजाने में अयोग्य व्यक्ति को मन्त्री बना भी दिया जाए तो बाद में उसे हटाया जा सकता है। मन्त्रियों को अपने विभागों का प्रबन्ध करने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे मन्त्रियों को अपनी योग्यता दिखाने का अवसर मिलता है।

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7. जनता को राजनीतिक शिक्षा मिलती है (Political Education to the People) संसदीय सरकार राजनीतिक दलों पर आधारित होती है। प्रत्येक दल जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए अपनी नीतियों का प्रचार करता है और दूसरे दलों की नीतियों की आलोचना करता है। इस तरह जनता को विभिन्न दलों की नीतियों का पता चलता है। चुनाव के पश्चात् भी विरोधी दल सरकार की नीतियों की आलोचना करके जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है और सत्तारूढ़ दल सरकार की नीतियों का समर्थन करता है। इस प्रकार जनता को बहुत राजनीतिक शिक्षा मिलती है जिससे नागरिक राजनीतिक विषयों में रुचि लेने लगता है।

8. राज्य का अध्यक्ष निष्पक्ष सलाह देता है (Head of the State gives Impartial Advice)-राज्य का अध्यक्ष किसी राजनीतिक पार्टी से सम्बन्धित नहीं होता जिस कारण उसकी सलाह निष्पक्ष होती है। राज्य का अध्यक्ष सदा राष्ट्र के हित में सलाह देता है जिसे प्रधानमन्त्री प्रायः मान लेता है।

9. राजतन्त्र को प्रजातन्त्र में बदलना (Monarchy changed into Democracy)–संसदीय शासन प्रणाली का यह भी गुण है कि इसने राजतन्त्र को प्रजातन्त्र में बदल दिया है। संसदीय सरकार में शासन का मुखिया तथा राज्य का मुखिया अलग-अलग होता है। राजा राज्य का मुखिया होता है जबकि प्रधानमन्त्री शासन का मुखिया होता है। यदि आज इंग्लैण्ड में राजतन्त्रीय व्यवस्था होते हुए भी प्रजातन्त्र शासन है तो इसका श्रेय संसदीय शासन प्रणाली को है।

10. वैकल्पिक शासन की व्यवस्था (Provision for Alternative Government)-संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक उसे विधानमण्डल का विश्वास प्राप्त रहता है। अविश्वास प्रस्ताव पास होने की दशा में मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ता है तब विरोधी दल सरकार बनाता है। इस प्रकार प्रशासन लगातार चलता है और शासन में रुकावट नहीं पड़ती।

संसदीय सरकार के दोष (Demerits of Parliamentary Government)-

1. यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है (It is against the theory of Separation of Powers)–संसदीय सरकार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है। शक्तियों के केन्द्रीयकरण से व्यक्तियों की निजी स्वतन्त्रता खतरे में पड़ सकती है। संसदीय सरकार में शासन चलाने की शक्ति तथा कानून निर्माण की शक्ति मन्त्रिमण्डल के पास केन्द्रित होती है। मन्त्री विधानपालिका के सदस्य होते हैं, बिल पेश करते हैं तथा पास करवाते हैं। प्रधानमन्त्री राज्य के अध्यक्ष को सलाह देकर विधानपालिका के निम्न सदन को भंग करवा सकता है। इस प्रकार यह शासन प्रणाली शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

2. अस्थिर सरकार (Unstable Government)—संसदीय शासन प्रणाली में सरकार अस्थिर होती है क्योंकि मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं होती। विधानपालिका किसी भी समय अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है। जिन देशों में दो से अधिक राजनीतिक दल होते हैं वहां पर सरकार बहुत अस्थिर होती है। सरकार अस्थिर होने के कारण लम्बे काल की योजनाएं नहीं बनाई जा सकतीं।

3. नीति में निरन्तरता की कम सम्भावना (Less Possibility of Continuity of Policy)—संसदीय शासन प्रणाली में सरकार की स्थिरता की कम सम्भावना रहती है। इसलिए शासन की नीतियों में निरन्तरता नहीं रहती। कार्यपालिका को विधानपालिका जब चाहे पद से हटा सकती है। इस प्रकार कभी एक राजनीतिक दल का शासन होता है तो कभी दूसरा दल सत्ता में आ जाता है। इसी कारण इस प्रणाली में नीति की निरन्तरता की सम्भावना कम रहती है।

4. शासन में दक्षता का अभाव (Administration lacks Efficiency)—इस शासन प्रणाली में शासन में दक्षता का अभाव होता है, क्योंकि इसमें शासन की बागडोर अनाड़ियों के हाथ में होती है। मन्त्रियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होकर राजनीतिक आधार पर होती है। कई बार मन्त्री को उस विभाग का अध्यक्ष भी बना दिया जाता है जिसके बारे में बिल्कुल ज्ञान ही नहीं होता।

5. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही का भय (Danger of Dictatorship of the Cabinet)—संसदीय शासन प्रणाली में जहां केवल दो दल होते हैं वहां मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो जाती है। जिस दल को विधानपालिका में बहुमत प्राप्त होता है उसी दल का मन्त्रिमण्डल बनता है और मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है जब तक उसे बहुमत का समर्थन प्राप्त रहता है। दल में अनुशासन के कारण दल का प्रत्येक सदस्य मन्त्रिमण्डल की नीतियों का समर्थन करता है। विरोधी दल की आलोचना का मन्त्रिमण्डल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और मन्त्रिमण्डल अगले चुनाव तक अपनी मनमानी कर सकता है।

6. संसद् की दुर्बल स्थिति (Weak Position of the Parilament)-जिन देशों में राजनीतिक दल होते हैं वहां पर संसद् मन्त्रिमण्डल के हाथों का खिलौना बन जाती है। संसद् की बैठकों की तिथि तथा समय मन्त्रिमण्डल निश्चित करता है। 95% बिल मन्त्रियों द्वारा पेश किए जाते हैं और मन्त्रिमण्डल का बहुमत प्राप्त होने के कारण सभी बिल पास हो जाते हैं। वास्तव में संसद् स्वयं कानून नहीं बनाती बल्कि मन्त्रिमण्डल की सलाह से कानूनों का निर्माण करती है।

7. यह उग्र दलीय भावना को जन्म देती है (It gives birth to Aggressive Partisan Spirit)—यह शासन प्रणाली राजनीतिक दलों पर आधारित होने के कारण उग्र दलीय भावना को जन्म देती है। बहुमत दल अधिक-से-अधिक समय तक शासन पर नियन्त्रण रखना चाहता है और इसके लिए हर कोशिश करता है। दूसरी ओर विरोधी दल शीघ्रसे-शीघ्र सत्तारूढ़ दल को हटा कर स्वयं शासन पर नियन्त्रण करना चाहता है। विरोधी दल सरकार की आलोचना केवल आलोचना करने के लिए करता है। इस तरह सत्तारूढ़ दल तथा विरोधी दल में खींचातानी चलती रहती है।

8. संकटकाल के समय निर्बल सरकार (Weak in time of Emergency)—संकटकाल में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होना चाहिए, परन्तु संसदीय सरकार में सभी निर्णय मन्त्रिमण्डल के द्वारा होते हैं और सभी निर्णय बहुमत से स्वीकृत किए जाते हैं। मन्त्रिमण्डल में वाद- विवाद पर काफ़ी समय बरबाद होता है जिससे निर्णय लेने में देरी हो जाती है। संकटकाल में संकट का सामना करने के लिए निर्णयों का शीघ्रता से होना अति आवश्यक है।

9. आलोचना आलोचना के उद्देश्य से (Criticism for the sake of Criticism)-संसदीय प्रणाली का यह दोष भी है कि विरोधी दल सरकार के हर कार्य की आलोचना करता है, चाहे वह अच्छी और जन-हित में भी क्यों न हो। ऐसा करना अच्छी बात नहीं और इससे विरोधी दल की शक्ति भी नष्ट होती है और जनता को भी उचित शिक्षा नहीं मिलती।

10. योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा (Able Persons Neglected)—संसदीय प्रणाली में बहुमत दल के सदस्यों को ही मन्त्रिमण्डल में शामिल किया जाता है। चाहे उनमें बहुत-से अयोग्य ही क्यों हों और विरोधी दल के योग्य व्यक्तियों को भी नहीं पूछा जाता। इनसे देश को हानि होती है।

निष्कर्ष (Conclusion)–संसदीय सरकार अनेक दोषों के बावजूद भी अधिक लोकप्रिय है। आज संसार के अधिकांश देशों में संसदीय सरकार को अपनाया गया है। इस शासन प्रणाली की लोकप्रियता का कारण यह है कि इसमें सरकार जनमत की इच्छानुसार शासन चलाती है तथा अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है और इसमें परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

प्रश्न 3.
अध्यक्षात्मक सरकार की मुख्य विशेषताएं बताइए।
(Describe the chief characteristics of the Presidential form of Government.)
अथवा
अध्यक्षात्मक सरकार से आप क्या समझते हैं ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
(What do you understand by Presidential form of Government ? Discuss its main features.)
उत्तर-
अध्यक्षात्मक सरकार वह शासन प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका विधानपालिका से स्वतन्त्र होती है और उसके प्रति उसका कोई उत्तरदायित्व नहीं होता। राज्य का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है और वह वास्तविक शासक होता है। राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर चुना जाता है और विधानपालिका जब चाहे राष्ट्रपति को नहीं हटा सकती। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल का निर्माण स्वयं करता है और जब चाहे मन्त्रिमण्डल को तोड़ सकता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानपालिका के सदस्य नहीं होते। इस प्रकार अध्यक्षात्मक सरकार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है।

1. डॉ० गार्नर (Garner) के अनुसार, “अध्यक्षात्मक सरकार वह प्रणाली है जिसमें राज्य का अध्यक्ष और मन्त्री अपने कार्यकाल के लिए संवैधानिक तौर पर व्यवस्थापिका से स्वतन्त्र होते हैं और अपनी नीतियों के लिए उसके प्रति उत्तरदायी नहीं होते। इस प्रणाली में राज्य का अध्यक्ष केवल नाममात्र कार्यपालिका नहीं होता बल्कि वास्तविकता कार्यपालिका होता है और संविधान तथा कानूनों द्वारा दी गई शक्तियों का वास्तव में प्रयोग करता है।”
2. गैटेल (Gettell) के अनुसार, “अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था उसे कहते हैं जिसमें प्रधान कार्यपालिका अपनी नीति एवं कार्यों के बारे में विधानपालिका से स्वतन्त्र होता है।”

संयुक्त राज्य अमेरिका, चिल्ली, मैक्सिको, श्रीलंका, जर्मन, रूस आदि देशों में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली पाई जाती है।
अध्यक्षात्मक प्रणाली के लक्षण (Features of the Presidential System)-अध्यक्षात्मक प्रणाली में निम्नलिखित प्रमुख बातें होती हैं-

1. नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद नहीं (No distinction between Nominal and Real Executive)-अध्यक्षात्मक सरकार में नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद नहीं पाया जाता। राष्ट्र का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है। उसे संविधान द्वारा जो शक्तियां प्राप्त होती हैं उनका प्रयोग वह अपनी इच्छानुसार करता है। मन्त्रिमण्डल का निर्माण राष्ट्रपति स्वयं करता है और मन्त्रिमण्डल की सलाह को मानना अथवा न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर करता है। राष्ट्रपति जब चाहे मन्त्रियों को हटा सकता है।

2. मन्त्रिमण्डल केवल सलाहकार के रूप में (Cabinet is only an Advisory Body)-अध्यक्षात्मक प्रणाली में भी मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था होती है, परन्तु इसकी स्थिति संसदीय प्रणाली के मन्त्रिमण्डल की स्थिति से पूर्णतः भिन्न होती है। अध्यक्ष मन्त्रियों की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं होता। मन्त्री केवल सलाहकार ही होते हैं। उसकी अपनी इच्छा है कि मन्त्रियों से सलाह ले या न ले।

3. Cruiuifcich it alareucht at yerCUT (Separation of Executive and Legislature) अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में कोई सम्बन्ध नहीं होता। अध्यक्ष अपने मन्त्री संसद् में से नहीं लेता। मन्त्री संसद् की बैठकों मे न भाग ले सकते हैं, न बिल पेश कर सकते हैं, न भाषण दे सकते हैं। इस प्रकार व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।

4. कार्यपालिका का अनुत्तरदायित्व (Irresponsibility of the Executive)-अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका अपने कार्यों तथा नीतियों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। राष्ट्रपति को अविश्वास प्रस्ताव पास करके नहीं हटाया जा सकता। संसद् सदस्य मन्त्रियों से लिखित रूप में प्रश्न पूछ सकते हैं, परन्तु मन्त्री उनका उत्तर दें या न दें, उनकी इच्छा पर निर्भर है। मन्त्री राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और वे राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

5. कार्यपालिका की निश्चित अवधि (Fixed Tenure of the Executive)-अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है। विधानपालिका राष्ट्रपति को केवल महाभियोग द्वारा ही हटा सकती है। अमेरिका में राष्ट्रपति चार वर्ष के लिए चुना जाता है और उसे केवल महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है।

6.शक्तियों के पृथक्करण पर आधारित (Based on the theory of Separation of Powers)-अध्यक्षात्मक सरकार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित होती है। इसमें सरकार के मुख्य कार्य तीन विभिन्न अंगों द्वारा किए जाते हैं जो एक-दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं। अमेरिका में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त को अपनाया गया है।

7. राष्ट्रपति विधानमण्डल को भंग नहीं कर सकता (President cannot dissolve the Parliament)अध्यक्षात्मक सरकार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है। इसलिए राष्ट्रपति विधानपालिका के किसी सदन को भंग नहीं कर सकता। विधानपालिका की अवधि संविधान द्वारा निश्चित होती है और यदि राष्ट्रपति चाहे भी तो समय से पहले इसको भंग नहीं कर सकता।

8. राजनीतिक एकरूपता अनावश्यक (Political Homogeneity is Unnecessary)-इस प्रणाली में मन्त्रियों का एक ही राजनीतिक दल से सम्बन्धित होना आवश्यक नहीं होता। यह इसलिए कि मन्त्री केवल अपने व्यक्तिगत रूप में ही अध्यक्ष के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इसलिए इस प्रणाली में मन्त्री के सामूहिक उत्तरदायित्व का लक्षण अनुपस्थित होता है। इसलिए उनका राजनीतिक विचारों में पूर्णतः एकमत होना अधिक आवश्यक नहीं होता।

प्रश्न 4.
अध्यक्षात्मक शासन के गुणों और दोषों का वर्णन करें।
(Discuss the merits and demerits of Presidential Government.)
उत्तर-
अध्यक्षात्मक शासन के गुण (Merits of Presidential Government)-
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के निम्नलिखित गुण हैं-

1. शासन में स्थिरता (Stability in Administration)-अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति की अवधि निश्चित होती है जिससे शासन में स्थिरता आती है। राष्ट्रपति को केवल महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है। अमेरिका में अभी तक किसी राष्ट्रपति को नहीं हटाया गया। शासन में स्थिरता के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जाती हैं और उन्हें दृढ़ता से लागू किया जाता है।

2. संकटकाल के लिए उचित सरकार (Suitable in time of Emergency)-अध्यक्षात्मक सरकार संकटकाल के लिए बहुत उपयुक्त है। शासन की सभी शक्तियां राष्ट्रपति के पास होती हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छानुसार करता है। शासन के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय राष्ट्रपति द्वारा लिए जाते हैं । इसलिए राष्ट्रपति संकटकाल में शीघ्र निर्णय लेकर उन्हें दृढ़ता से लागू कर संकट का सामना कर सकता है। युद्ध और आर्थिक संकट का सामना करने के लिए अध्यक्षात्मक सरकार सर्वश्रेष्ठ है।

3. इसमें नीति की एकता बनी रहती है (It ensures Continuity of Policy)-इस शासन प्रणाली में कार्यपालिका एक निश्चित समय तक अपने पद पर रहती है जिससे एक ही नीति निश्चित अवधि तक चलती रहती है। शासन की नीतियों में शीघ्रता से परिवर्तन न होने के कारण एक शक्तिशाली नीति को अपनाया जा सकता है।

4. शासन में दक्षता (Efficiency in Administration)-यह प्रणाली शक्ति विभाजन के सिद्धान्त पर कार्य करती है। मन्त्रियों को न तो चुनाव लड़ना पड़ता है और न ही उन्हें संसद् की बैठकों में ही भाग लेना पड़ता है। उनके पास तो केवल शासन चलाने का ही कार्य रहता है। वे स्वतन्त्रतापूर्वक शासन-कार्य में लगे रहते हैं। इससे शासन में दक्षता आना स्वाभाविक ही है।

5. योग्य व्यक्तियों का शासन (Administration by Able Statesmen)-इस प्रणाली में मन्त्रियों को संसद् का सदस्य होने की आवश्यकता नहीं। इसलिए राष्ट्रपति ऐसे व्यक्तियों को मन्त्रिमण्डल में तथा सरकारी पदों पर नियुक्त करता है जो योग्य प्रशासक और अनुभवी राजनीतिज्ञ हों और इस प्रणाली में सभी राजनीतिक दलों से मन्त्री लिए जा सकते हैं।

6. यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है (It is based on the Theory of Separation of Powers) कार्यपालिका तथा विधानपालिका एक-दूसरे से स्वतन्त्र होती हैं। विधानपालिका कानूनों का निर्माण करती है और कार्यपालिका कानूनों को लागू करती है। कार्यपालिका विधानपालिका को भंग नहीं कर सकती और न ही विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पास करके कार्यपालिका को हटा सकती है। शक्तियों के विभाजन के कारण सरकार का कोई भाग निरंकुश नहीं बन सकता और नागरिकों की स्वतन्त्रता का खतरा नहीं रहता।।

7. इसमें राजनीतिक दल उग्र नहीं होते (Political Parties are Less Aggressive)-अध्यक्षात्मक सरकार में संसदीय सरकार की अपेक्षा राजनीतिक दलों का प्रभाव कम होता है। संसदीय सरकार में चुनाव के पश्चात् भी विरोधी दल सत्तारूढ़ दल को हटा कर स्वयं शासन पर अधिकार करने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं, परन्तु अध्यक्षात्मक सरकार के चुनाव के पश्चात् राजनीतिक दलों की उग्रता समाप्त हो जाती है क्योंकि विरोधी दल को पता होता है कि राष्ट्रपति को अगले चुनाव से पहले नहीं हटाया जा सकता।

8. बहु-दलीय प्रणाली के लिए उपयुक्त (Suitable for a Multiple-Party System)—जिस देश में बहुदल प्रणाली हो अर्थात् कई राजनीतिक दल हों और किसी भी दल को संसद् में बहुमत प्राप्त न होता हो, उस देश में यही प्रणाली अधिक उपयुक्त रहती है। बहुदल प्रणाली में संसदीय सरकार स्थापित हो जाए तो मन्त्रिमण्डल जल्दी-जल्दी बदलता रहता है, परन्तु अध्यक्षात्मक प्रणाली में चुनाव के समय ही दलों का संघर्ष अधिक रहता है और कार्यपालिका जल्दी-जल्दी नहीं बदलती।

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के दोष (Demerits of Presidential Government)-
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

1. निरंकुशता का भय (Fear of Despotism)-शासन की सभी शक्तियां राष्ट्रपति के पास होती हैं जिससे वह निरंकुश बन सकता है। राष्ट्रपति की अवधि निश्चित होने के कारण अगले चुनाव तक उसे हटाया नहीं जा सकता है। अतः राष्ट्रीय अपनी शक्तियों का प्रयोग मनमाने ढंग से कर सकता है।

2. शासन को परिस्थितियों के अनुसार नहीं बदला जा सकता (Government is not changeable according to Circumstances)–संसदीय सरकार में प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रियों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है, परन्तु अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और विधानपालिका की अवधि भी निश्चित होती है। राष्ट्रपति यदि शासन को ठीक ढंग से न चलाए तो भी जनता उसे निश्चित अवधि से पहले नहीं हटा सकती।

3. कार्यपालिका और विधानपालिका में गतिरोध की सम्भावना (Possibility of deadlock between the Executive and Legislature)-अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका के एक-दूसरे से स्वतन्त्र होने के कारण दोनों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। विशेषकर यदि राष्ट्रपति एक दल से हो और विधानमण्डल में किसी दूसरे राजनीतिक दल का बहुमत हो तो इन दोनों अंगों में संघर्ष होना अनिवार्य हो जाता है। इससे शासन अच्छी तरह नहीं चलता। विधानपालिका कार्यपालिका की इच्छानुसार कानून नहीं बनाती और न ही कार्यपालिका कानून को उस भावना से लागू करती है जिस भावना से कानूनों को बनाया गया होता है।

4. शक्तियों का विभाजन सम्भव नहीं (Separation of Powers not Possible)-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है, परन्तु यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है और न ही वांछनीय है। शासन एक इकाई है तथा इसके अंगों को उसी प्रकार बिल्कुल पृथक् नहीं किया जा सकता है जिस प्रकार शरीर के अंगों को। यदि सरकार के तीन अंगों को एक-दूसरे से बिल्कुल पृथक् रखा जाए तो इसका परिणाम यह होगा कि शासन की एकता समाप्त हो जाएगी और तीनों अंगों में क्षेत्राधिकार सम्बन्धी झगड़े उत्पन्न हो जाएंगे। अतः शक्तियों के विभाजन का सिद्धान्त अच्छे शासन के लिए आवश्यक नहीं है।

5. जनमत की अवहेलना (Public Opinion Neglected)—अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में जनमत की अवहेलना होने की बहुत अधिक सम्भावना रहती है। मन्त्री संसद् के सदस्य नहीं होते और न ही विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इन्हें चुनाव नहीं लड़ना पड़ता है। इसलिए उन्हें जनमत की परवाह नहीं होती।

6. अच्छे कानूनों का निर्माण नहीं होता (Good Laws are not Passed)-अच्छे कानूनों के निर्माण के लिए कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग का होना आवश्यक है, परन्तु अध्यक्षात्मक सरकार में दोनों एक-दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं। विधानपालिका को इस बात का पता नहीं होता कि कार्यपालिका को किस तरह के कानूनों की आवश्यकता है। आवश्यकतानुसार कानूनों का निर्माण न होने के कारण शासन में कुशलता नहीं रहती।

7. अनुत्तरदायी सरकार (Irresponsible Government)-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में सरकार अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं होती। राष्ट्रपति विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। इसलिए राष्ट्रपति अपनी मनमानी कर सकता है।

8. संविधान की कठोरता (Rigid Constitution)-अध्यक्षात्मक सरकार में संविधान बहुत कठोर होता है। इसलिए उसमें समयानुसार परिवर्तन नहीं किए जा सकते।

9. विदेशी सम्बन्धों में निर्बलता (Weakness in conduct of Foreign Relations)-अध्यक्षात्मक प्रणाली में कार्यपालिका दूसरे देशों के साथ दृढ़तापूर्वक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकती। इसका कारण यह है कि युद्ध और शान्ति की घोषणा करने की स्वीकृति संसद् ही दे सकती है। राष्ट्रपति को इस बात का भरोसा नहीं होता कि संसद् उस पर अपनी स्वीकृति देगी या नहीं।

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10. दल दोषों से मुक्त नहीं (Not free from Party Evils)—यह कहना ठीक नहीं है कि अध्यक्षात्मक सरकार में राजनीतिक दलों में बुराइयां नहीं पाई जातीं। राष्ट्रपति का चुनाव दलीय व्यवस्था के आधार पर होता है और जिस दल का उम्मीदवार राष्ट्रपति चुना जाता है वह अपने समर्थकों को खुश करने के लिए उन्हें बड़े-बड़े पद देता है। अमेरिका में राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने के बाद अपने दल के व्यक्तियों को ऊंचे-ऊंचे राजनीतिक पदों पर नियुक्त करता है। इससे शासन में भ्रष्टाचार फैलता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के गुण भी हैं और अवगुण भी। अमेरिका में यह प्रणाली सन् 1787 से प्रचलित है और सफलतापूर्वक कार्य कर रही है। भारत में बहुदल प्रणाली को देखकर कुछ एक विद्वान् भारत में संसदीय प्रणाली के स्थान पर अध्यक्षात्मक प्रणाली को स्थापित करने का सुझाव देते हैं, परन्तु सुझाव न तो ठोस है और न ही इसके माने जाने की सम्भावना है। फ्रांस में बहुदल के कारण वहां की संसदीय शासन प्रणाली ठीक प्रकार न चल सकी। इस कारण वहां भी अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के कुछ अंश अपनाए गए हैं।

प्रश्न 5.
संसदीय सरकार और अध्यक्षात्मक सरकारों की तुलना करो तथा दोनों में अन्तर का वर्णन करो।
(Compare and contrast the parliamentary and Presidential forms of governments.)
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली और अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में अग्रलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

संसदीय सरकार की विशेषताएं-

  1. अध्यक्षात्मक सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया न हो कर वास्तविक शासक होता है। संविधान के द्वारा शासन की सभी शक्तियां उसके पास होती हैं और वह उसका प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है।
  2. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका विधानपालिका से स्वतन्त्र होती है। राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल के सदस्य नहीं होते। मन्त्री न तो विधानपालिका की बैठकों में भाग ले सकते हैं और न ही बिल पेश कर सकते हैं।
  3. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। मन्त्री राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होते हैं न कि विधानपालिका के प्रति। विधानपालिका कार्यपालिका को अविश्वास प्रस्ताव पास करके नहीं हटा सकती।
  4. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका की अवधि निश्चित होती है। राष्ट्रपति को केवल महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है।
  5. संसदीय सरकार में प्रधानमन्त्री राज्य के अध्यक्ष को सलाह देकर विधानपालिका को भंग कर सकता है।

अध्यक्षात्मक सरकार की विशेषताएं-

  1. संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है। व्यवहार में उसकी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है।
  2. संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य विधानपालिका के सदस्य होते हैं । मन्त्री विधानमण्डल की बैठकों में भाग लेते हैं, बिल पेश करते हैं तथा वोट डालते हैं।
  3. संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। विधानपालिका के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं, काम रोको तथा निन्दा प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकते हैं।
  4. संसदीय सरकार में कार्यपालिका की अवधि निश्चित नहीं होती। विधानपालिका जब चाहे अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है।
  5. अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति विधानपालिका के किसी सदन को भंग नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
दोनों प्रकार की सरकारों में आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं और क्यों ?
(Which of the two types do you consider better ? Why ?)
उत्तर-
यह एक विवाद का विषय है कि दोनों प्रकार की शासन प्रणालियों में से कौन-सी शासन प्रणाली अच्छी है। यह कहना कठिन है कि कौन-सी शासन प्रणाली पूर्ण रूप से अच्छी है। इसका कारण यह है कि दोनों शासनप्रणालियों के अपने-अपने गुण भी हैं और दोष भी हैं। इंग्लैण्ड में संसदीय सरकार अच्छी तरह चल रही है जबकि अमेरिका में अध्यक्षात्मक सरकार। परन्तु फिर भी आजकल निम्नलिखित कारणों की वजह से संसदीय शासन व्यवस्था को अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था से अच्छा समझा जाता है

1. संसदीय शासन व्यवस्था कार्यपालिका तथा विधानपालिका में पूर्ण सहयोग का विश्वास दिलाती हैसंसदीय शासन व्यवस्था में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग बना रहता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानमण्डल के सदस्य होते हैं, वाद-विवाद में भाग लेते हैं और बिल पेश करते हैं। मन्त्रिमण्डल का विधानमण्डल में बहुमत होता है जिस कारण मन्त्रिमण्डल द्वारा पेश किए गए बिल पास हो जाते हैं। मन्त्रिमण्डल के समर्थन के बिना कोई बिल पास नहीं हो सकता है। मन्त्रिमण्डल तथा विधानपालिका में सहयोग होने के कारण अच्छे कानूनों का निर्माण होता है। सरकार में दक्षता तभी आती है जब सरकार के विभिन्न अंगों में सहयोग हो, क्योंकि सरकार एक इकाई होती है। संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में पूर्ण सहयोग होता है।

अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था में कार्यपालिका तथा विधानपालिका एक-दूसरे से स्वतन्त्र होती है और मन्त्रियों को विधानपालिका की बैठकों में भाग लेने का अधिकार नहीं होता है। यदि राष्ट्रपति एक दल से हो और विधापालिका में दूसरे दल का बहुमत हो, तो इन दोनों में संघर्ष होना अनिवार्य हो जाता है और गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। 1968 से 1976 तक अमेरिका में राष्ट्रपति रिपब्लिकन पार्टी से था जबकि कांग्रेस में डैमोक्रेटिक पार्टी का बहुमत था। जबकि 1992 से 2000 तक अमेरिका में राष्ट्रपति डैमोक्रेटिक पार्टी का था, और कांग्रेस में बहुमत रिपब्लिकन पार्टी का था। विधानपालिका और कार्यपालिका में सहयोग न होने के कारण विधानपालिका कार्यपालिका की इच्छानुसार कानून नहीं बनाती और न ही विधानपालिका के बनाए हुए कानूनों को कार्यपालिका उस भावना से लागू करती है, जिस भावना से कानूनों को बनाया गया होता है।

2. संसदीय शासन व्यवस्था अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था से अधिक प्रजातन्त्रात्मक होती है-संसदीय शासनव्यवस्था को अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली से अच्छा समझा जाता है क्योंकि यह अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था से अधिक प्रजातन्त्रात्मक होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य जनता के प्रतिनिधियों की निरन्तर आलोचना के अधीन कार्य करते हैं। निरन्तर आलोचना के कारण मन्त्री सदैव सतर्क रहते हैं और निरंकुश बनने की चेष्टा नहीं करते। ‘अविश्वास प्रस्ताव’ के डर के कारण मन्त्री जनता की इच्छाओं के अनुसार काम करते हैं। अध्यक्षात्मक शासन में राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और उसे अविश्वास प्रस्ताव पास करके नहीं हटाया जा सकता। निःसन्देह अमेरिका में राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है, परन्तु महाभियोग का तरीका इतना कठिन है कि अभी तक अमेरिका में एक भी राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा नहीं हटाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि अमेरिका में राष्ट्रपति को अवधि से पहले नहीं हटाया जा सकता।

3. गृह और विदेश-नीति में दृढ़ता-संसदीय शासन-व्यवस्था में मन्त्रिमण्डल गृह और विदेश नीति को दृढ़ता से लागू करता है क्योंकि उसे यह पता होता है कि विधानपालिका में उसे बहुमत का समर्थन प्राप्त है। इसके विपरीत अध्यक्षात्मक शासन-व्यवस्था में राष्ट्रपति विदेशी नीति को दृढ़ता से नहीं अपना सकता क्योंकि उसको कांग्रेस के समर्थन का विश्वास नहीं होता। इसके अतिरिक्त अमेरिका में राष्ट्रपति सीनेट की स्वीकृति के बिना दूसरे देशों के साथ सन्धिसमझौते नहीं कर सकता। अतः राष्ट्रपति दूसरे देशों के साथ दृढ़ नीति को नहीं अपना सकता।

4. संसदीय शासन-व्यवस्था में वैकल्पिक शासन की व्यवस्था-संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास होने की दशा में वैकल्पिक शासन की स्थापना बिना चुनाव करवाए सम्भव होती है। विशेषकर इंग्लैण्ड में जहां द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है, सत्तारूढ़ दल के हटने पर विरोधी दल सरकार बनाने के लिए सदैव तैयार रहता है। इस प्रकार प्रशासन लगातार चलता रहता है और शासन में कोई रुकावट नहीं पड़ती है।

संसदीय शासन प्रणाली के विपरीत अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में साधारणतया सरकार नहीं हटती क्योंकि राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है, परन्तु यदि सरकार हटती है तो इससे नए चुनाव करवाने की समस्या उत्पन्न होती है। वास्तव में अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में दो चुनावों के बीच के काल में नोति में कोई परिवर्तन सम्भव नहीं होता है। नीति में परिवर्तन तभी सम्भव होता है यदि चुनाव के समय दल अपने विभिन्न कार्यक्रम के आधार पर चुना जाए, परन्तु संसदीय शासन-प्रणाली में नीति में परिवर्तन चुनावों के बीच के काल में भी सम्भव होता है।

5. संसदीय शासन-व्यवस्था में सरकार परिवर्तनशील होती है-संसदीय शासन प्रणाली को सरकार की परिस्थितियों के अनुसार बदला जा सकता है। उदाहरणस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध में जब इंग्लैण्ड में चैम्बरलेन सफल न हो सका तो उसके स्थान पर चर्चिल को प्रधानमन्त्री बनाया गया, परन्तु अध्यक्षात्मक सरकार में ऐसा नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें कार्यपालिका के अध्यक्ष की अवधि निश्चित होती है। राष्ट्रपति चाहे ठीक ढंग से शासन न चलाए जनता उसे निश्चित अवधि से पूर्व नहीं हटा सकती।

6. जनमत के प्रति उत्तरदायी-संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल जनमत के प्रति अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की अपेक्षा अधिक उत्तरदायी होते हैं। मन्त्रिमण्डल सदैव जनमत के अनुसार शासन चलाता है और जनता के साथ किए गए वायदों को पूरा करने के लिए भरसक प्रयत्न करता है। मन्त्रिमण्डल यह जानता है कि उसका बना रहना जनमत के समर्थन पर निर्भर करता है, इसलिए कोई भी मन्त्रिमण्डल आसानी से जनमत के प्रति उदासीन नहीं रह सकता।

इसके विपरीत अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में शक्तियों के पृथक्करण के कारण सरकार जनमत के प्रति इतना अधिक उत्तरदायी नहीं होती। राष्ट्रपति और मन्त्रिमण्डल के सदस्य कांग्रेस के सदस्य नहीं होते, इसलिए उन्हें जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा यह जानने का अवसर प्राप्त नहीं होता कि जनमत क्या चाहता है। इसके अतिरिक्त कार्यपालिका इसलिए जनमत की परवाह नहीं करती क्योंकि उसको पता होता है कि उसका पद पर बने रहना जनमत पर निर्भर नहीं करता और अगले चुनाव तक जनता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। चुनाव आने पर ही कार्यपालिका जनमत की ओर ध्यान देती है।

निष्कर्ष (Conclusion)—संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि संसदीय शासन-प्रणाली अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली की अपेक्षा अधिक अच्छी है।

प्रश्न 7.
क्या आप इस मत से सहमत हैं कि भारत के लिए संसदात्मक सरकार ही अधिक उचित है ? कारण सहित स्पष्ट कीजिए।
(Do you agree with the view that the parliamentary form of government is more suitable to India ? Give reasons.)
उत्तर-
कुछ विद्वानों एवं राजनीतिज्ञों का विचार है कि भारत के लिए संसदीय शासन प्रणाली की अपेक्षा अध्यक्षात्मक शासन अधिक उपयुक्त है। इन विद्वानों का मुख्य तर्क यह है कि विधानपालिका अविश्वास प्रस्ताव पेश करके कार्यपालिका को नहीं हटा सकती, जिससे शासन में स्थिरता रहती है। देश की प्रगति के लिए कार्यपालिका का विधानपालिका से स्वतन्त्र होना आवश्यक है ताकि कार्यपालिका अपना सारा समय शासन में लगा सके जबकि संसदीय शासन में कार्यपालिका का काफ़ी समय संसद् में बर्बाद हो जाता है। भारत में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है जोकि संसदीय शासन के लिए उपयुक्त नहीं है। अतः इन विद्वानों के अनुसार भारत के लिए अध्यक्षात्मक शासन अधिक उपयुक्त है।

परन्तु हमारे विचार से भारत के लिए संसदीय शासन ही अधिक उपयुक्त है। संसदीय शासन प्रणाली स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर अब तक सफलता से कार्य कर रही है। इसमें शासन संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है और संसद् के साथ कार्यपालिका का गहरा सम्बन्ध होने के कारण अच्छे कानूनों का निर्माण होता है। संसदीय शासन को परिस्थितियों के अनुसार बदला जा सकता है और एक अच्छे शासन के लिए यह आवश्यक भी है। अत: भारत के लिए संसदीय शासन उपयुक्त है।
नोट- भारत के लिए संसदीय सरकार उचित होने के वही कारण हैं जो संसदीय सरकार के होते हैं। अतः पिछला प्रश्न देखें।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संसदीय सरकार किसे कहते हैं ? संसदीय सरकार की परिभाषा दें ।
उत्तर-
संसदीय सरकार उस शासन प्रणाली को कहते हैं जिसमें कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसको विधानपालिका का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका विधानपालिका का विश्वास खो देती है तो कार्यपालिका को अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ता है।

डॉ० गार्नर का मत है, “संसदीय सरकार वह प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका-मन्त्रिमण्डल या मन्त्रिपरिषद् अपनी राजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से विधानमण्डल या उसके एक सदन (प्रायः लोकप्रिय सदन) के प्रति और राजनीतिक तौर पर मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी हो जबकि राज्य का अध्यक्ष संवैधानिक या नाममात्र कार्यपालिका हो और उत्तरदायी हो।”

प्रश्न 2.
संसदीय सरकार की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं-

  1. राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का शासक होता है। सैद्धान्तिक रूप में राज्य की सभी शक्तियों उसके नाम पर होती हैं, परन्तु वास्तव में उन शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है।
  2. मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है-राज्य के अध्यक्ष को सौंपी गई शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है।
  3. कार्यपालिका और विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होना-संसदीय शासन प्रणाली में विधानपालिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्यों के लिए संसद् का सदस्य होना अनिवार्य है और वे संसद् की बैठकों में भाग भी लेते हैं, बिल पेश करते हैं और बिलों पर मतदान करते हैं।
  4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व-कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल अपने सब कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 3.
संसदीय सरकार के चार गुणों का वर्णन करो।
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  1. कार्यपालिका तथा विधानपालिका में पूर्ण सहयोग-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग बना रहता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानपालिका के सदस्य होते हैं, बैठकों में भाग लेते हैं तथा बिल पास करते हैं। कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग के कारण अच्छे कानूनों का निर्माण होता है तथा शासन में दक्षता होती
  2. उत्तरदायी सरकार-संसदीय सरकार में सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। यदि मन्त्रिमण्डल अपनी मनमानी करता है तो विधानमण्डल अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकता है।
  3. सरकार निरंकुश नहीं बन सकती-मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होने के कारण निरंकुश नहीं बन सकता।
  4. परिवर्तनशील सरकार-संसदीय सरकार का यह भी गुण है, कि इसमें सरकार परिवर्तनशील होती है। सरकार को समय के अनुसार बदला जा सकता है।

प्रश्न 4.
संसदीय सरकार के चार अवगुण बताइए।
उत्तर-
संसदीय सरकार में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  1. यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है-संसदीय सरकार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है। इसमें मन्त्रिमण्डल (कार्यपालिका) के सदस्य संसद् के सदस्य भी होते हैं, जिससे कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। शक्तियों के केन्द्रीयकरण के कारण व्यक्तियों की निजी स्वतन्त्रता खतरे में पड़ सकती है।
  2. अस्थिर सरकार-संसदीय शासन प्रणाली में सरकार अस्थिर होती है, क्योंकि मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं होती।
  3. नीति में निरन्तरता की कम सम्भावना-संसदीय शासन प्रणाली में नीति की निरन्तरता की कम सम्भावना रहती है क्योंकि विधानपालिका, कार्यपालिका को जब चाहे अविश्वास प्रस्ताव पास करके हटा सकती है।
  4. शासन में दक्षता का अभाव-संसदीय शासन प्रणाली में शासन में दक्षता का अभाव होता है, क्योंकि इसमें शासन की बागडोर अनाड़ियों के हाथ में होती है।

प्रश्न 5.
अध्यक्षात्मक सरकार का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
अध्यक्षात्मक सरकार उस शासन प्रणाली को कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका संवैधानिक दृष्टि से विधानपालिका से अपनी नीतियों और कार्यों के लिए स्वतन्त्र होती है। कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती और दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं होता। विधानपालिका मन्त्रियों को उनके पद से हटा नहीं सकती। राज्य का अध्यक्ष वास्तविक कार्यपालिका होता है और संविधान द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है। अमेरिका में अध्यक्षात्मक सरकार है।

डॉ० गार्नर के शब्दानुसार, “अध्यक्षात्मक सरकार वह प्रणाली है जिसमें राज्य का अध्यक्ष और मन्त्री अपने कार्यकाल के लिए संवैधानिक तौर पर व्यवस्थापिका से स्वतन्त्र होते हैं और अपनी राजनीतिक नीतियों के लिए उसके प्रति उत्तरदायी नहीं होते। इस प्रणाली में राज्य का अध्यक्ष केवल नाममात्र कार्यपालिका नहीं होता बल्कि वास्तविक कार्यपालिका होता है और संविधान तथा कानूनों द्वारा दी गई शक्तियों का वास्तव में प्रयोग करता है।”

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प्रश्न 6.
अध्यक्षात्मक सरकार की चार विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
अध्यक्षात्मक प्रणाली में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं होती हैं-

  1. नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद नहीं-अध्यक्षात्मक सरकार में नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद नहीं पाया जाता। राष्ट्र का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है। उसे संविधान द्वारा जो शक्तियां प्राप्त होती हैं उनका प्रयोग वह अपनी इच्छानुसार करता है।
  2. मन्त्रिमण्डल केवल सलाहकार के रूप में अध्यक्षात्मक प्रणाली में भी मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था होती है, परन्तु इसकी स्थिति संसदीय प्रणाली के मन्त्रिमण्डल की स्थिति में पूर्णत: भिन्न होती है। अध्यक्ष मन्त्रियों की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं होता। मन्त्री केवल सलाहकार ही होते हैं। उसकी अपनी इच्छा है कि मन्त्रियों से सलाह ले या न ले।
  3. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का पृथक्करण-अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में कोई सम्बन्ध नहीं होता। अध्यक्ष अपने मन्त्री संसद् में से नहीं लेता। मन्त्री संसद् की बैठकों में न भाग ले सकते हैं, न बिल पेश कर सकते हैं, न भाषण दे सकते हैं। इस प्रकार व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।
  4. कार्यपालिका का अनुत्तरदायित्व-अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका अपने कार्यों तथा नीतियों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती।

प्रश्न 7.
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के चार गुण लिखें।
उत्तर-
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में निम्नलिखित चार गुण पाए जाते हैं-

  1. शासन में स्थिरता-अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति की अवधि निश्चित होती है जिससे शासन में स्थिरता आती है।
  2. इसमें नीति की एकता बनी रहती है-इस शासन प्रणाली में कार्यपालिका एक निश्चित समय तक अपने पद पर रहती है जिससे एक ही नीति निश्चित अवधि तक चलती रहती है।
  3. शासन में दक्षता-यह प्रणाली शक्ति विभाजन के सिद्धान्त पर कार्य करती है। मन्त्रियों को न तो चुनाब लड़ना पड़ता है और न ही संसद् की बैठकों में भाग लेना पड़ता है। उनके पास तो केवल शासन चलाने का कार्य होता है। वे स्वतन्त्रतापूर्वक शासन चलाने में लगे रहते हैं, इससे शासन में दक्षता आना स्वाभाविक है।
  4.   संकटकाल के लिए उचित सरकार- अध्यक्षात्मक सरकार संकटकाल के लिए उचित सरकार मानी जाती है।

प्रश्न 8.
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के चार दोष बताइए।
उत्तर-
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के मुख्य चार दोष नीचे दिए गए हैं-

  1. निरंकुशता का भय-शासन की सभी शक्तियां राष्ट्रपति के पास होती हैं जिससे वह निरंकुश बन सकता है।
  2. शासन की परिस्थितियों के अनुसार नहीं बदला जा सकता- अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है और विधानपालिकाओं की अवधि भी निश्चित होती है। राष्ट्रपति यदि शासन ठीक ढंग से न चलाए तो भी जनता उसे निश्चित अवधि से पहले नहीं हटा सकती।
  3. कार्यपालिका और विधानपालिका में गतिरोध की सम्भावना-अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका के एक-दूसरे से स्वतन्त्र होने के कारण दोनों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है।
  4. जनमत की अवहेलना-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में जनमत की अवहेलना होने की बहुत अधिक सम्भावना रहती है।

प्रश्न 9.
संसदीय सरकार और अध्यक्षात्मक सरकार में चार अन्तर लिखें।
उत्तर-
संसदीय सरकार और अध्यक्षात्मक सरकार में निम्नलिखित मुख्य अन्तर पाए जाते हैं-

संसदीय सरकार-

  1. संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है। व्यवहार में उसकी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है।
  2. संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।
  3. संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है।
  4. संसदीय सरकार में कार्यपालिका की अवधि निश्चित नहीं होती।

अध्यक्षात्मक सरकार-

  1. अध्यक्षात्मक सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया न हो कर वास्तविक शासक होता है। संविधान के द्वारा शासन की सभी शक्तियां उसके पास होती हैं और वह उसका प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है।
  2. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका एवं विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं पाया जाता।
  3. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती।
  4. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका की अवधि निश्चित होती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

प्रश्न 10.
संसदीय शासन प्रणाली और अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में कौन-सी अच्छी सरकार है ? कारण दीजिए।
उत्तर-
संसदीय और अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में से संसदीय शासन प्रणाली को निम्नलिखित कारणों से अच्छा माना जाता है-

  1. संसदीय सरकार परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील है।
  2. उत्तरदायी सरकार।
  3. विधानपालिका तथा कार्यपालिका में सहयोग।
  4. अच्छे कानूनों का निर्माण।
  5. संसदीय सरकार जनमत पर आधारित है।

संसदीय सरकार अध्यक्षात्मक सरकार से अच्छी है, इसका यह भी प्रमाण है कि आज संसार के अधिकांश देशों में संसदीय सरकार को अपनाया गया है।

प्रश्न 11.
क्या अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली भारत के लिए अधिक उपयुक्त है ?
उत्तर-
कुछ विद्वानों एवं राजनीतिज्ञों का विचार है कि भारत के लिए संसदीय शासन प्रणाली की अपेक्षा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली अधिक उपयुक्त है। इन विद्वानों का मुख्य तर्क यह है कि अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका का चुनाव निश्चित अवधि के लिए होता है और विधानपालिका अविश्वास-प्रस्ताव पेश करके कार्यपालिका को नहीं हटा सकती, जिससे शासन में स्थिरता बनी रहती है। भारत में बहुदलीय प्रणाली पाई जाती है जो कि संसदीय शासन के लिए उपयुक्त है। अतः इन विद्वानों के मतानुसार भारत के लिए अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली अधिक उपयुक्त है।

परन्तु हमारे विचार में भारत के लिए संसदीय शासन ही अधिक उपयुक्त है । स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर अब तक संसदीय शासन प्रणाली सफलता से कार्य कर रही है। इसमें शासन संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है और संसद् के साथ कार्यपालिका का गहरा सम्बन्ध होने के कारण अच्छे कानूनों का निर्माण होता है। संसदीय शासन को परिस्थितियों के अनुसार बदला जा सकता है और एक अच्छे शासन के लिए यह आवश्यक भी है। अतः भारत के लिए संसदीय शासन प्रणाली उपयुक्त है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संसदीय सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
संसदीय सरकार उस शासन प्रणाली को कहते हैं जिसमें कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसको विधानपालिका का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका विधानपालिका का विश्वास खो देती है तो कार्यपालिका को अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ता है।

प्रश्न 2.
संसदीय सरकार की दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  1. राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का शासक होता है।
  2. मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है-राज्य के अध्यक्ष को सौंपी गई शक्तियों का प्रयोग वास्तव में मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 3.
संसदीय सरकार के दो गुणों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. कार्यपालिका तथा विधानपालिका में पूर्ण सहयोग-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में सहयोग बना रहता है।
  2. उत्तरदायी सरकार-संसदीय सरकार में सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 4.
संसदीय सरकार के दो अवगुण बताइए।
उत्तर-

  1. यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है-संसदीय सरकार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है।
  2. अस्थिर सरकार-संसदीय शासन प्रणाली में सरकार अस्थिर होती है, क्योंकि मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं होती।

प्रश्न 5.
अध्यक्षात्मक सरकार का अर्थ लिखें।
उत्तर-
अध्यक्षात्मक सरकार उस शासन प्रणाली को कहते हैं, जिसमें कार्यपालिका संवैधानिक दृष्टि से विधानपालिका से अपनी नीतियों और कार्यों के लिए स्वतन्त्र होती है। कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती और दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं होता। विधानपालिका मन्त्रियों को उनके पद से हटा नहीं सकती। राज्य का अध्यक्ष वास्तविक कार्यपालिका होता है और संविधान द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है। अमेरिका में अध्यक्षात्मक सरकार है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

प्रश्न 6.
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के दो गुण लिखें।
उत्तर-

  1. शासन में स्थिरता-अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति की अवधि निश्चित होती है जिससे शासन में स्थिरता आती है।
  2. इसमें नीति की एकता बनी रहती है-इस शासन प्रणाली में कार्यपालिका एक निश्चित समय तक अपने पद पर रहती है जिससे एक ही नीति निश्चित अवधि तक चलती रहती है।

प्रश्न 7.
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के दो दोष बताइए।
उत्तर-

  1. निरंकुशता का भय-शासन की सभी शक्तियां राष्ट्रपति के पास होती हैं जिससे वह निरंकुश बन सकता है।
  2. शासन की परिस्थितियों के अनुसार नहीं बदला जा सकता-अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है। राष्ट्रपति यदि शासन ठीक ढंग से न चलाए तो भी जनता उसे निश्चित अवधि से पहले नहीं हटा सकती।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संसदीय सरकार का क्या अर्थ है ?
उत्तर-संसदीय सरकार में कार्यपालिका अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होती है। वह तब तक अपने पद पर रहती है, जब तक इसको संसद का विश्वास प्राप्त रहता है।

प्रश्न 2. संसदीय सरकार की कोई एक विशेषता बताएं।
उत्तर-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाम-मात्र का सत्ताधारी होता है।

प्रश्न 3. संसदीय सरकार का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-संसदीय सरकार में कार्यपालिका एवं विधानपालिका में पूर्ण सहयोग रहता है।

प्रश्न 4. संसदीय सरकार का कोई एक अवगुण लिखें।
उत्तर-संसदीय सरकार अस्थिर होती है।

प्रश्न 5. सामूहिक उत्तरदायित्व किस सरकार में पाया जाता है ?
उत्तर-संसदीय सरकार में।

प्रश्न 6. अध्यक्षात्मक सरकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-अध्यक्षात्मक सरकार उस शासन प्रणाली को कहते हैं जिसमें कार्यपालिका संवैधानिक दृष्टि से विधानपालिका से अपनी नीतियों और कार्यों के लिए स्वतन्त्र होती है।

प्रश्न 7. संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकार में कोई एक अन्तर बताओ।
उत्तर-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है जबकि अध्यक्षात्मक सरकार में राज्य का अध्यक्ष वास्तविक अध्यक्ष होता है।

प्रश्न 8. अध्यक्षात्मक सरकार की कोई एक विशेषता बताओ।
उत्तर-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका का अध्यक्ष वास्तविक अध्यक्ष होता है। शासन की शक्तियों का प्रयोग अध्यक्ष द्वारा ही किया जाता है।

प्रश्न 9. अध्यक्षात्मक सरकार का कोई एक गुण बताओ।
उत्तर-इसमें सरकार स्थिर रहती है।

प्रश्न 10. अध्यक्षात्मक सरकार का कोई एक अवगुण बताओ।
उत्तर-अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति के निरंकुश बनने का भय बना रहता है।

प्रश्न 11. भारतीय राष्ट्रपति किस प्रकार की कार्यपालिका है?
उत्तर- भारतीय राष्ट्रपति नाममात्र की कार्यपालिका है।

प्रश्न 12. भारतीय प्रधानमन्त्री किस प्रकार की कार्यपालिका है?
उत्तर-भारतीय प्रधानमन्त्री वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 13. इंग्लैण्ड की रानी या राजा किस प्रकार की कार्यपालिका है?
उत्तर-इंग्लैण्ड की रानी या राजा नाममात्र की कार्यपालिका है।

प्रश्न 14. इंग्लैण्ड का प्रधानमन्त्री किस प्रकार की कार्यपालिका है?
उत्तर-इंग्लैण्ड में प्रधानमन्त्री वास्तविक कार्यपालिका है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 15 सरकारों के रूप-संसदीय और अध्यक्षात्मक सरकारें

प्रश्न 15. संसदीय एवं अध्यक्षात्मक सरकार में से किसे श्रेष्ठ समझा जाता है?
उत्तर-संसदीय सरकार को श्रेष्ठ समझा जाता है।

प्रश्न 16. अमेरिका में किस प्रकार की शासन प्रणाली है?
उत्तर-अमेरिका में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली है।

प्रश्न 17. भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनाने का एक कारण लिखें।
उत्तर-संसदीय परम्पराएं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. संसदीय शासन प्रणाली में सरकार …………….. की इच्छानुसार शासन को चलाती है।
2. संसदीय सरकार शक्तियों के ……………. के सिद्धान्त के विरुद्ध है।
3. संसदीय सरकार में शासन की …………… का अभाव रहता है।
4. संकटकाल के समय संसदीय सरकार …………… साबित होती है।
उत्तर-

  1. जनमत
  2. पृथक्करण
  3. कुशलता
  4. कमज़ोर।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका विधानपालिका से स्वतन्त्र होती है।
2. अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति नाममात्र का शासक होता है।
3. अध्यक्षात्मक सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्य विधानपालिका के सदस्य नहीं होते।
4. अध्यक्षात्मक सरकार में नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद नहीं पाया जाता।
5. अध्यक्षात्मक सरकार शक्तियों के पृथक्करण पर आधारित है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अध्यक्षात्मक शासन में जनमत की अवहेलना हो सकती है, यह कथन-
(क) सही है
(ख) ग़लत है
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) सही है।

प्रश्न 2.
अध्यक्षात्मक शासन में सरकार में राजनीतिक एकरूपता नहीं होती। यह कथन-
(क) सही है
(ख) ग़लत है
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) सही है।

प्रश्न 3.
संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल को महाभियोग द्वारा हटाया जाता है, यह कथन-
(क) सही है
(ख) ग़लत है
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) ग़लत है ।

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प्रश्न 4.
अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति को अविश्वास प्रस्ताव पास करके हटाया जाता है। यह कथन-
(क) सही है
(ख) ग़लत है
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) ग़लत है ।

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PSEB 11th Class History Book Solutions Guide in Punjabi English Medium

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PSEB 11th Class History Guide | History Guide for Class 11 PSEB

History Guide for Class 11 PSEB | PSEB 11th Class History Book Solutions

PSEB 11th Class History Book Solutions in Hindi Medium

PSEB 11th Class History Book Solutions in English Medium

  • Chapter 1 Indus Valley Civilization
  • Chapter 2 The Indo-Aryans
  • Chapter 3 Jainism and Buddhism
  • Chapter 4 The Mauryas
  • Chapter 5 The Age of the Guptas
  • Chapter 6 The Vardhanas and Their Time
  • Chapter 7 The Rajputs and Their Period
  • Chapter 8 The Sultanate of Delhi
  • Chapter 9 Kingdoms of the South
  • Chapter 10 Socio-Religious Movements
  • Chapter 11 Sri Guru Nanak Dev Ji and Foundation of Sikhism
  • Chapter 12 Foundation of The Mughal Empire
  • Chapter 13 Mughal Polity and Administration
  • Chapter 14 Rise of New Powers in the South
  • Chapter 15 Rise of New Powers in the North
  • Chapter 16 Maharaja Ranjit Singh
  • Chapter 17 Advent of the Europeans in India and Their Struggle for Supremacy
  • Chapter 18 Expansion and Consolidation of the British Empire
  • Chapter 19 Economic and Social Changes Under the Rule of British Empire
  • Chapter 20 Social/Religious Reforms
  • Chapter 21 Political Consciousness and Political Movement Against the British Empire
  • Chapter 22 Struggle for Freedom

PSEB Class 11 History Structure of Question Paper

History
Class – XI (PB.)

Time Allowed: 3 Hours

Theory: 80 Marks
Project Work/IA: 20 Marks
Total: 100 Marks

1. All questions are compulsory.

2. The question paper will comprise 5 questions in sections A, B, C, D, and E with subparts. The question paper will carry :

Section – A

1. Objective Type Questions: This section comprises questions with one word to one sentence answer/Fill in the blank/True or false/Multiple choice type questions. Question No. 1 comprises of 20 subparts (questions I to XX) carry 1 mark each. (20 × 1 = 20)

Section – B

2. Short Answer Type Questions: This question comprises of 4 subparts (question i to iv) carry 3 marks each. The answer to each question should be in about 35-40 words. (4 × 3 = 12)

Section – C

3. Source Based Question This section comprises 2 subparts I to II (based on a passage given) carry 5 marks. (2 × 5 = 10)

Section – D

4. Long Answer Questions: This question comprises of 7 subparts (question no. i to vii) carry 6 marks each. Students have to attempt any 4 questions out of 7. The answer to each question should be in about 100-150 words. (4 × 6 = 24)

Section – E

5. Map Question: This section comprises one question of map carries 14 marks (10 marks for showing 4 places and 4 marks for an explanation of those places to be written in 20 to 25 words) with 100% internal choice. (10 + 4)

Question Wise Break up

Type of Question Marks Per Question Total No. of Questions Total Marks
Objective Type (Learning checks) 1 20 20
Short Answer Type (VSA) 3 4 12
Source-Based Question 5 2 10
Long Answer Type (LA) 6 4(7) 24
Map Skill Based 10 + 4 1 14
Total 80

Weightage of Difficulty Level

Estimated Difficulty Level Percentage
Easy (E) 30%
Average (AV) 50%
Difficult (D) 20%

Weightage of Marks Unit Wise

Objective Type Questions
(1 Mark)
Short Answer
(3 Marks)
Source-Based
(5 Marks)
Long Answer
(6 Marks)
Map Question
(14 Marks)
Project Work/IA
(20 Marks)
1(5) 3(1) Passage From Prescribed Source
5*2
6(1)
Unit – 1
Unit – 2 1(5) 3(1) 6(1)
Unit – 3 1(5) 3(1) 6(1)
Unit – 4 1(5) 3(1) 6(1)
Map Work 1 (10 + 4)
Total 1 × 20 = 20 3 × 4 = 12 5 × 2 = 10 6 × 4 = 24 1(10 + 4) =  14 20 Marks

PSEB Class 11 History Syllabus

UNIT – 1

I. Indus Valley Civilisation: a synoptic view of research material, culture, socio-cultural life; decline and disappearance.

II. The Indo-Aryans: Early settlements; political organizations; Economic life; Social Institutions; religious beliefs and practices; legacy.

III. Buddhism and Jainism: the socio-political environment, major doctrines; socio¬political impact; Legacy.

IV. The Mauryas: The background to their rise into power; establishment and consolidation of their empire; Ashoka’s Dhamma; social and cultural life during their rule.

V. The age of the Guptas: establishment and consolidation of the Gupta empire, major socio-cultural achievement of the age; Legacy.

VI. The Vardhanas and their times; Political supremacy in the North; Kingdoms of the South; cultural achievements of the age; Legacy.

UNIT – 2

VII. The Rajputs; establishment of their kingdom; Political conflict and change; socio-political structure; survival.

VIII. The Sultanate of Delhi: establishment of Turkish Rule, Dynastic changes and the fortunes of the Sultanate, administration; the ruling classes; art, and architecture, Socio-religious life.

IX. Kingdoms of the South: The Bahmani empire and its successor states; the Vijayanagar empire; administration, the ruling classes: art architecture; socio-religious life.

X. socio-religious movements: Vaishnava Bhakti; the Saints.

XI. Guru Nanak Dev Ji and Foundation of Sikhism: Socio-religious environment; Development of Sikhism (1539-1605); Transformation of Sikhism (1605-1699); Discovery of a new path, the foundation of a new path, Legacy.

UNIT – 3

XII. Establishment of the Mughal Empire; Mughal Afghan contest; consolidation of the Mughal.

XIII. Mughal Policy and Administration; Conception of kingship: attitude towards the subjects people; central and provincial administration; administration of justice and local administration; the mansabdari system.

XIV. Rise of new powers in the South: with special reference to the Marathas.

XV. Rise of new powers in the North: with special reference to the Sikhs.

XVI. Maharaja Ranjit Singh: Conquests and consolidation; the new ruling classes administration; attitude towards the subject people, relationship with sovereign powers; the Legacy.

XVII. Advent of the Europeans and their struggle for supremacy: The Portuguese; the Dutch; The French: Anglo-French rivalry; the emergence of East India Company as a political power in India.

UNIT – 4

XVIII. Expansion and Consolidation of the British Empire: Expansion through war and diplomacy; Imperial framework: administration and bureaucracy.

XIX. Social and Economic changes under British Rule: Means of communication and transportation; raw materials for exports: industrial development; the Indian elite; the middle classes; the working class.

XX. Socio-Religious Movements; Construction, Brahmo Samaj; Aligarh Movement; Nirankari Movement; Kuka Movement and Singh Sabha Movement.

XXI. Political Consciousness and struggle for Representative Government in India: The Revolt of 1857 and it’s legacy; the Indian National Congress; the Home Rule Movement; Constitutional Reforms; Jallianwala Bagh massacre and its impact demand for independence.

XXII. Towards Freedom: The Quit India Movement and its aftermath; transfer of power.
(i) Sites of Indus Valley Civilization;
(ii) Extent of Ashoka’s empire;
(iii) Extent of Samudragupta’s Empire;
(iv) Important Historical places;
(v) India in 1526;
(vi) Extent of Akbar’s empire;
(vii) Extent of Ranjit Singh’s empire;
(viii) Important historical places;

PSEB 11th Class Geography Book Solutions Guide in Punjabi English Medium

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PSEB 11th Class Geography Guide | Geography Guide for Class 11 PSEB

Geography Guide for Class 11 PSEB | PSEB 11th Class Geography Book Solutions

PSEB 11th Class Geography Book Solutions in Hindi Medium

Unit 1 सूर्यमण्डल

Unit 2 स्थलमण्डल

Unit 3 वायुमण्डल

Unit 4 जलमण्डल

PSEB 11th Class Geography प्रयोगात्मक भूगोल

PSEB 11th Class Geography Book Solutions in English Medium

Unit 1 Solar System

  • Chapter 1 The Earth
  • Chapter 2 Rocks
  • Chapter 3 Agents of Change : Denudation, Transportation and Deposition
  • Chapter 3(i) Denudation Works of River
  • Chapter 3(ii) Denudation Works of Glacier
  • Chapter 3(iii) Denudation Works of Winds
  • Chapter 3(iv) Denudation Works of Underground Water
  • Chapter 3(v) Denudation Works of Sea

Unit 2 Lithosphere

  • Chapter 4 Major Land Forms
  • Chapter 5 Volcanoes and Earthquakes
  • Chapter 5(i) Volcanoes
  • Chapter 5(ii) Earthquakes

Unit 3 Atmosphere

  • Chapter 6 Formation and Structure of Atmosphere
  • Chapter 7 Winds
  • Chapter 8 Humidity and Precipitation

Unit 4 Hydrospere

  • Chapter 9 The Ocean
  • Chapter 10 Geo-Political Significance of Indian Ocean

PSEB 11th Class Geography Practical Geography

  • Chapter 1 Maps
  • Chapter 2 Scale
  • Chapter 3 Enlargement and Reduction of Maps
  • Chapter 4 Topographical Maps
  • Chapter 5 Weather Maps
  • Chapter 6 Contours
  • Chapter 7 Weather Instrument

PSEB Class 11 Geography Structure of Question Paper

Class – XI (Pb.)
Geography

Time Allowed: 3 Hours
Theory: 70 Marks

The question paper has 5 sections comprising a total of 25 questions. All questions are compulsory.

Section – I
MCQ/Objective Type Questions: This section comprises questions with one word to one sentence answer/fill in the blanks/true or false etc. all multiple choice type questions. The section has 8 subparts (questions) 1 to 8, carrying one mark each. This section shall cover whole the syllabus. (1 × 8 = 8)

Section – II
Very Short Answer Type Questions: This section comprises questions of 7 subparts or questions 9 to 15, carrying 2 marks each. The answer to each question maybe two to three sentences. This section will cover whole the syllabus, choosing at least one question from each unit. (2 × 7 = 14)

Section – III
Short Answer Type Questions: This section comprises 5 subparts, questions 16 to 20, each carrying 4 marks. One question each from Unit I and Unit IV shall be set in this section and three questions from Unit II and Unit III. All the questions shall have an internal choice. (4 × 5 = 20)

Section – IV
Long Answer Type Questions: This section comprises of 3 subparts (questions) with 100% internal choice, 21 to 23, carrying 6 marks each. The answer to each question should be in about 100 to 150 words. All four Units of the Syllabus shall be covered. (6 × 3 = 18)

Section – V
Map Question: This section comprises two questions of map carrying 5 marks each. Students/Examinees are to attempt any 5 out of 8 items in each question. One part of map work pertains to identification and the other pertains to labelling in a political outline map of India and the World as per syllabus. (5 × 2 = 10)

Question Wise Break up

Type of Question Marks Per Question Total no. of Questions Total Marks Percentage
Objective Type (Learning checks) 1 8 8 11.5
Short Answer (VSA) 2 7 14 20
Short Answer (SA) 4 5 20 28.5
Long Answer (LA) 6 3 18 25.5
Map Skills Based 5 2 10 14.5
Total 25 70 100

Weightage to Content

Section A 8 Marks
Section B 14 Marks
Section C 20 Marks
Section D 18 Marks
Section E (Map Work) 10 Marks
Practical 20 Marks
Project Work/Book bank 8/2 Marks
Total 100 Marks

Weightage of Difficulty Level

Estimated Difficulty Level Percentage
Easy (E) 30%
Average (AV) 50%
Difficult (D) 20%

Design of Question Paper

Typology of questions MCQ/Objective Type (1 Mark) Very Short Answer (VSA)
(2 Marks)
Short Answer-I (SA-I)
(4 Marks)
Long Answer (LA) (6 Marks) Map Work (5) Total Marks % Wise Weightage
Remembering-
(Kno­wledge based Simple recall questions, to know specific facts, terms, concepts, principles or theories; Identity, defined or recite information)
8 2 1 18 25.5%
Understanding- Comprehension-to be familiar with the meaning and to understand con­ceptually, interpret, compare, contrast, explain, paraphrase, or interpret information 3 3 2 30 43%
Application-
(Use abstract information in a concrete situation, to apply knowledge to the new situation; Use given content to interpret a situation, provide an example, or solve a problem)
1 2 2 12 17%
Thinking Skills-
(Analysis & Synthesis classify, compare, contrast, or differentiate between different pieces of information, Organize  and/or integrate            unique pieces of information from a variety of sources)
2 10 14.5%
Total – 70 8 7 × 2 = 14 5 × 4 = 20 3 × 6 = 18 2 × 5 = 10 Total = 70 100%

PSEB Class 11 Geography Syllabus

Theory

Unit – I: Solar System
Solar System: Earth Position of Earth in Solar System, Size and Shape, Movements of Earth and Effects, Longitudes and Latitudes.

Time; Local, Standard, and International Date Line.

Rocks: Origin, Classification, and Characteristics

Factors of change; Weathering and Denudation by river, glacier, wind, oceans, and underground water.

Unit – II: Lithosphere
Landforms: Mountains, Plateaus, and Plains; Origin, Classification and their significance to mankind.

Earthquakes: Causes, Effects, Types, and Distribution.

Volcanoes: Causes and effects of Volcanic activities.

Unit – III: Atmosphere

Extents, Layers, and composition.

Temperature; Factors controlling temperature, distribution, and range of temperature.

Pressures; Factors controlling pressures, horizontal and vertical distribution.

Winds; Planetary, seasonal and local; Shifting of wind belts and their impact. Cyclones and Anti-cyclones.

Humidity and Precipitation; Relative humidity and Specific humidity Precipitation types, rainfall types, and distribution.

Unit – IV: Hydrosphere
Oceans: Ocean basins and submarine relief, Ocean waters and their circulation, temperature, salinity^ waves, currents, and tides.

Special reference: Geopolitical importance of Indian Ocean.

Note:
A. Examples as far as possible be given from India.
B. Answers be illustrated with maps and diagrams.

Map Work: 20 Marks

Maps: Necessity of maps, classification, the scale of maps; R.F., Linear scale, its use in maps. Reduction and enlargement through the square method.

Direction: Finding direction in the field and on the map, Orientation of Local map in the field, methods of showing direction on the map.

Atlas map symbols: Identifications and Recognition of Symbols of conventional signs used in the atlas, Topographic sheet, and weather maps.

Methods of showing relief on maps: Contours, Interpolation of Contours identification of simple relief features from contours on a map.

Drawing of cross-section, observation, and recording of various weather elements with the help of the following instruments:
(a) Six’s minimum and maximum thermometer.
(b) Aneroid Barometer
(c) Wind Vane
(d) Wet and dry bulb thermometer
(e) Rain gauge
(f) Drawing of isotherms, isobars, and isohyets.