PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद् Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में राज्यसभा की रचना, कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन करो।
(Discuss the composition, functions and powers of Rajya Sabha in India.)
उत्तर-
भारत में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संघात्मक शासन प्रणाली में विधानमण्डल के दो सदन होते हैं। भारतीय संसद् के भी दो सदन हैं-लोकसभा तथा राज्यसभा। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है और यह समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करता है। राज्यसभा संसद् का द्वितीय सदन है और यह राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है।

रचना (Composition)—संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है, जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे, 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जा सकते हैं जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है। उदाहरणस्वरूप जहां पंजाब से 7 तथा हरियाणा से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं वहां उत्तर प्रदेश 31 प्रतिनिधि भेजता है।

इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र प्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए गए हैं।
राज्यसभा के सदस्यों की योग्यताएं (Qualifications of the Members of Rajya Sabha)-राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह संसद् द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
  4. वह पागल न हो, दिवालिया न हो।
  5. भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर न हो।
  6. वह उस राज्य का रहने वाला हो जहां से वह निर्वाचित होना चाहता है।
  7. संसद् के किसी कानून या न्यायपालिका द्वारा राज्यसभा का सदस्य बनने के अयोग्य घोषित न किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी उसमें कोई ऐसी अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो भी उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।

चुनाव (Election)—प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य अपने राज्य के लिए नियत सदस्य चुनते हैं। यह चुनाव आनुपातिक प्रणाली के अनुसार एकल हस्तान्तरण मतदान द्वारा किया जाता है। संघीय क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चुनाव संसद् द्वारा निश्चित तरीके से होता है।

अवधि (Term)-अमेरिकन सीनेट की तरह राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसके सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं और इसके 1/3 सदस्य प्रति दो वर्ष के पश्चात् अवकाश ग्रहण करते हैं। इस प्रकार दो वर्ष के पश्चात् राज्यसभा से 1/3 सदस्यों का चुनाव होता है। रिटायर होने वाले सदस्य दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं। राष्ट्रपति इस सदन को भंग नहीं कर सकता।

अधिवेशन (Sessions)—राज्यसभा की बैठकें राष्ट्रपति द्वारा बुलाई जाती हैं। एक वर्ष में राज्यसभा के कम-सेकम दो अधिवेशन अवश्य होते हैं। संविधान में स्पष्ट लिखा हुआ है कि पहले अधिवेशन की अन्तिम तिथि तथा दूसरे अधिवेशन की पहली तिथि में 6 मास से अधिक समय का अन्तर नहीं होना चाहिए। इसके विशेष अधिवेशन राष्ट्रपति जब चाहे बुला सकता है।
राज्यसभा की गणपूर्ति (Quorum of Rajya Sabha) संविधान में राज्य सभा की गणपूर्ति कुल सदस्यों का 1/10 भाग था अर्थात् जब तक 1/10 सदस्य उपस्थित नहीं होते राज्यसभा अपना कार्य आरम्भ नहीं कर सकती थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा राज्यसभा को अपनी गणपूर्ति संख्या स्वयं निश्चित करने का अधिकार दे दिया गया है।

राज्यसभा का अध्यक्ष (Chairman of the Rajya Sabha)-अमेरिका की तरह भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष (Ex-officio chairman) होता है। वर्तमान समय में उप-राष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू राज्यसभा के सभापति हैं। राज्य सभा अपने सदस्यों में से किसी एक को 6 वर्ष के लिए उपसभापति भी निर्वाचत करती है। 9 अगस्त, 2018 को राष्ट्रपति जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीद्वार श्री हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के उपसभापति चुने गए।

सभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। वह सदन में अनुशासन रखता है तथा राज्यसभा के कार्यों को नियमानुसार चलाता है। सभापति साधारणतः वोट नहीं डालता परन्तु जब किसी विषय पर दोनों पक्षों के समान वोट हों तो वह निर्णायक मत का प्रयोग करता है। सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है और अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालना करता है। सभापति के वेतन तथा भत्ते संसद् द्वारा निर्धारित किए जाते हैं।

राज्यसभा के कार्य तथा शक्तियां (Powers and Functions of the Rajya Sabha)-राज्यसभा को कई प्रकार की शक्तियां प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-धन विधेयकों को छोड़ कर कोई भी साधारण बिल राज्यसभा में पहले पेश हो सकता है। कोई भी बिल उस समय तक संसद् द्वारा पास नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पास न हो जाए। यदि किसी बिल पर दोनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उस बिल को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में बिल पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में लोकसभा का अध्यक्ष ही सभापति का आसन ग्रहण करता है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)-राज्यसभा की वित्तीय शक्तियां लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। धन बिल इसमें पेश नहीं हो सकता। धन बिल या बजट लोकसभा में पास होने के बाद ही राज्यसभा के पास आते हैं। राज्यसभा धन बिल को 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है।

भारतीय राज्यसभा चाहे धन बिल को रद्द कर दे या उसमें परिवर्तन कर दे या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन सभी दशाओं में वह बिल राज्य सभा के पास समझा जाएगा, जिस रूप में लोकसभा ने उसे पास किया था
और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाएगा। लोकसभा की इच्छा है कि वह धन बिल पर राज्यसभा की सिफ़ारिश को माने या न माने।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियां बहुत सीमित हैं। राज्यसभा के सदस्य मन्त्रिमण्डल में लिए जा सकते हैं। राज्यसभा के सदस्यों को मन्त्रियों से प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार है और प्रश्नों द्वारा वे प्रशासन के कार्यों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। बजट पर विचार करते समय तथा काम रोको प्रस्ताव पेश करके भी राज्यसभा के सदस्य शासन की कड़ी आलोचना कर सकते हैं तथा मन्त्रिमण्डल पर प्रभाव डाल सकते हैं। परन्तु राज्यसभा अविश्वास प्रस्ताव द्वारा मन्त्रियों को नहीं हटा सकती।

4. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-राज्यसभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं-

  • वह लोकसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा अपदस्थ कर सकती है।
  • उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग आरम्भ करने का अधिकार राज्यसभा को ही है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को पद से हटाए जाने का प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर चुनाव आयोग, महान्यायवादी (Attorney General) तथा नियन्त्रण एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास होने पर राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारी को हटा सकता है।
  • राज्यसभा अपने सदस्यों के व्यवहार तथा गतिविधियों की जांच-पड़ताल करने के लिए समिति नियुक्त कर सकती है और उसके विरुद्ध उचित कार्यवाही कर सकती है।
  • यदि कोई सदस्य, अन्य व्यक्ति अथवा संस्था राज्यसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करती है तो राज्यसभा उसको दण्ड दे सकती है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिलकर विशेष न्यायालयों (Special Courts) की स्थापना कर सकती है।

5. संवैधानिक शक्तियां (Constitutional Powers)—संवैधानिक मामलों में राज्य सभा को लोक सभा के समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान में संशोधन करने वाला बिल संसद् के किसी सदन में भी पेश हो सकता है अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी पेश किया जा सकता है। 59वां संशोधन बिल राज्यसभा में पेश किया गया था। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पास नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पास न हो जाए।

6. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers)-राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर राष्ट्रपति द्वारा घोषित संकटकालीन उद्घोषणा को एक महीने से अधिक लागू रहने अथवा रद्द करने का प्रस्ताव करती है। यदि लोकसभा भंग हो तो केवल राज्यसभा का अनुमोदन ही आवश्यक है।

7. निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियां (Electoral Powers)-राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। उप-राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यसभा के सभी सदस्य भाग लेते हैं। राज्यसभा अपना एक उप-सभापति चुनती है जिसे डिप्टी चेयरमैन कहते हैं।

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8. राज्यसभा की विशिष्ट शक्तियां (Special Powers of the Rajya Sabha)-राज्यसभा को कुछ विशिष्ट शक्तियां भी प्राप्त हैं। ये शक्तियां निम्नलिखित हैं

  • राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके संसद् को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  • 42वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि राज्यसभा अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत प्रस्ताव पास करके अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं (All India Judicial Services) स्थापित करने के सम्बन्ध में संसद् को अधिकार दे सकती है।
  • राज्यसभा 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके नई अखिल भारतीय सेवाओं (All India Services) को स्थापित करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दे सकती है।

9. अन्य कार्य (Other Functions)

  • जब राष्ट्रपति अपना आज्ञानुसार कोई भी मौलिक अधिकार छीनता है तो वह आज्ञा संसद् के दोनों सदनों में रखना ज़रूरी है।
  • जिन आयोगों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, उन सभी की रिपोर्ट दोनों सदनों के आगे रखनी आवश्यक है। राज्यसभा को भी लोकसभा की तरह उन पर विचार करने का अधिकार है।

निष्कर्ष (Conclusion)-राज्यसभा की शक्तियों एवं कार्यों से स्पष्ट है कि राज्यसभा लोकसभा के मुकाबले में शक्तिहीन सदन है, परन्तु इस सदन के पास इतनी शक्तियां हैं कि यह आदर्श द्वितीय सदन बन सकता है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की स्थिति और उपयोगिता की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। (Critically discuss the position and utility of the Rajya Sabha.)
उत्तर-
राज्यसभा की स्थिति लोकसभा के मुकाबले में बहुत महत्त्वहीन है। कानून निर्माण तथा वित्तीय मामलों में इसे कोई विशेष शक्ति प्राप्त नहीं और सभी साधारण तथा धन बिल लोकसभा की इच्छानुसार पास होते हैं। यह साधारण बिल को अधिक-से-अधिक 6 महीने तक पास होने से रोक सकती है तथा धन बिल को केवल 14 दिन के लिए रोक सकती है। मन्त्रिमण्डल पर इसका कोई नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा की उपयोगिता के बारे में डॉ० अम्बेदकर ने भी सन्देह प्रकट किया था। राज्यसभा की आलोचना मुख्यतः निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  • असंघीय सिद्धान्त पर आधारित (Based on Non-federal Principle)-राज्यसभा का संगठन संघीय सिद्धान्त पर आधारित नहीं है। प्रान्तों को इसमें समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। प्रतिनिधि जनसंख्या के आधार पर भेजे जाते हैं।
  • दलगत प्रतिनिधित्व (Party-Representations)-राज्यसभा के सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व न करके दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • मनोनीत सदस्य (Nominated Members)-राज्यसभा राज्यों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती क्योंकि 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
  • चुनाव प्रणाली दोषपूर्ण (Defective Election System)-राज्यसभा के सदस्य अप्रत्यक्ष ढंग से चुने जाते हैं। अप्रत्यक्ष प्रणाली में भ्रष्टाचार का भय अधिक रहता है।
  • शक्तिहीन सदन (Powerless House)-राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा से बहुत कम हैं। धन बिल को राज्यसभा केवल 14 दिन तक रोक सकती है और इसका कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं है।
  • बिलों को दोहराना लाभदायक नहीं है (Revision of Bills not Useful)-राज्यसभा का एक मुख्य कार्य बिलों को दोहराना है, ताकि बिल को जल्दी से पास किए जाने के कारण जो त्रुटियां रह गई हैं, उन्हें दूर किया जा सके। राज्यसभा को अपने इस कार्य में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती है क्योंकि साधारणतः एक ही दल का दोनों सदनों में बहुमत होने के कारण राज्यसभा आंखें बन्द करके बिलों को पास कर देती है।
  • राज्यसभा में प्रादेशिकता की भावना का ज़ोर अधिक रहता है। 8. राज्यसभा के सदस्य इनकी बैठकों में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते तथा अधिकांश सदस्य अनुपस्थित रहते हैं।
  • राज्यसभा के अधिकांश सदस्य इतने अधिक पूरक प्रश्न (Supplementary Questions) पूछते हैं, जिनसे न केवल समय बर्बाद होता है बल्कि कभी-कभी सदस्यों और मन्त्रियों के बीच छोटे-मोटे झगड़े भी उत्पन्न हो जाते हैं।
  • राज्यसभा के बहुत-से सदस्य वे होते हैं जो लोकसभा का चुनाव हार चुके होते हैं। इस प्रकार राज्यसभा संसद् में घुसने के लिए पिछले दरवाज़े का काम करती है।

राज्यसभा की भूमिका (Role of Rajya Sabha)
अथवा
राज्यसभा की उपयोगिता (Utility of Rajya Sabha)

इसमें कोई सन्देह नहीं कि राज्यसभा निचले सदन की भान्ति एक शक्तिशाली संस्था नहीं है, परन्तु राज्यसभा को हम एक व्यर्थ संस्था नहीं कह सकते बल्कि राज्यसभा एक बहुत उपयोगी संस्था है।

मौरिस जोन्स (Morris Jones) के अनुसार, “राज्यसभा के तीन भारी गुण हैं। यह अतिरिक्त राजनीतिक पद प्रदान करती है जिसके लिए मांग है। यह अतिरिक्त वाद-विवाद के लिए अवसर प्रदान करती है जिसके लिए कभी-कभी आवश्यकता होती है और यह वैधानिक समय सूची की समस्याओं को हल करने में सहायता देती है।”

राज्यसभा संघात्मक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जो इस प्रकार है-

  • योग्य व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व (Representative of Able Persons)-इसमें देश के अनुभवी सज्जन राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्यसभा के 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। राष्ट्रपति उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्ति करता है जिनकी विज्ञान, कला, साहित्य आदि में प्रसिद्धि होती है।
  • सरकारी कमजोरियों पर प्रकाश (Points out Shortcomings of the Govt.)-राज्यसभा के सदस्यों ने सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर आधे घण्टे की बहस के दौरान सरकार की कमजोरियों पर प्रकाश डाला और सरकार को महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए हैं।
  • सभी पहलुओं पर वाद-विवाद (Debates on AII Aspects)-राज्यसभा में प्रस्तुत प्रस्तावों के माध्यम से देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सम्बन्ध में वाद-विवाद होता रहता है। यद्यपि सरकार इन प्रस्तावों को प्रायः स्वीकार नहीं करती तथापि इसका सरकार पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
  • राज्यसभा अपने प्रस्ताव द्वारा राज्य सूची के किसी भी विषय को संसद् के अधिकार-क्षेत्र में ले जा सकती है।
  • केन्द्रीय सरकार राज्यसभा के परामर्श से किसी अखिल भारतीय सेवा की व्यवस्था कर सकती है।
  • संविधान में संशोधन करने वाला बिल राज्यसभा में प्रस्तुत हो सकता है और तब तक संशोधन नहीं हो सकता जब तक राज्यसभा भी पास न करे। 44वें संशोधन की पांच धाराओं को राज्यसभा ने रद्द कर दिया था।
  • राज्यसभा के सदस्य राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।
  • उप-राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग आरम्भ करने का अधिकार राज्यसभा को ही है।
  • राज्यसभा के सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं और सरकार की आलोचना कर सकते हैं।
  • संकटकालीन घोषणा की स्वीकृति-जब राष्ट्रपति लोकसभा को भंग कर देता है तो राज्यसभा उस समय भी बनी रहती है तथा राष्ट्रपति को अपनी संकटकालीन घोषणा की स्वीकृति उससे लेनी पड़ती है।
  • बिलों का पुनर्निरीक्षण-राज्यसभा लोकसभा में शीघ्रतापूर्वक पास किए गए बिलों पर उचित ढंग से विचार करने के पश्चात् उसमें संशोधन के लिए सुझाव भी देती है। 1979 में राज्यसभा ने लोकसभा द्वारा विशेष न्यायालय विधेयक में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए जिसे लोकसभा ने तुरन्त स्वीकार कर लिया।
  • विवादहीन बिलों का पेश होना-महत्त्वपूर्ण बिल प्रायः लोकसभा में प्रस्तुत किए जाते हैं, परन्तु अवित्तीय विवादहीन बिल राज्यसभा में प्रस्तुत करके लोकसभा के समय की बचत की जाती है क्योंकि राज्यसभा विवादहीन और विरोधहीन बिलों पर खूब सोच-विचार करके लोकसभा के पास भेजती है। लोकसभा ऐसे बिलों पर कम विवाद करती है और शीघ्रता से पास कर देती है। इस प्रकार लोकसभा का समय बच जाता है और इस समय का प्रयोग इसके महत्त्वपूर्ण बिलों पर किया जाता है।
  • राज्यसभा लोकसभा के साथ मिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी तथा नियन्त्रक एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • वाद-विवाद का उच्च स्तर-राज्यसभा में विचार का स्तर लोकसभा की अपेक्षा उच्च रहता है, वहां प्रत्येक बिल पर शान्तिपूर्वक विचार होता है। एक तो सदस्यों की संख्या लोकसभा की तुलना में कम है, दूसरे इसके मैम्बर अधिक अनुभवी और विद्वान् होते हैं।
  • लोकतन्त्रीय परम्परा का प्रतीक-राज्यसभा लोकतन्त्रीय परम्पराओं के अनुकूल है। संसार के कुछ देशों को छोड़ कर बाकी सब देशों में संसद् के दो सदन हैं।
  • भारतीय संवैधानिक परम्परा के अनुकूल-भारत में ब्रिटिश शासन काल से ही केन्द्रीय विधान मण्डल के दो सदन चले आ रहे हैं। अत: संविधान निर्माताओं ने इसी परम्परा का पालन किया।

यह संविधान का केवल एक शृंगारात्मक अंग ही नहीं, यह सदन कनाडा की सीनेट की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली तथा उपयोगी है। यह अपने विवादों तथा सरकार की आलोचना द्वारा जनता पर अधिक प्रभाव डालता है। इसमें बहुतसे सुधारवादी बिल पेश हुए हैं और जिनसे राष्ट्र को बहुत-सा लाभ हुआ है। 1952 से 1956 के बीच राज्यसभा में 101 विधेयक प्रस्तुत किए गए थे। राज्यसभा के उप-सभापति श्री रामनिवास मिर्धा ने राज्यसभा की रजत जयन्ती के अपने स्वागत भाषण में राज्यसभा की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहा था कि इन 25 वर्षों में राज्यसभा में विधान आरम्भ करने वाले सदन के रूप में 350 सरकारी विधेयक पुनः स्थापित किए गए जिनमें कुछ सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और वैधानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। इसमें हिन्दू कानून में दूरव्यापी परिवर्तन करने वाले विधेयक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना और शक्तियों का वर्णन करो।
[Describe the composition and powers of the Lok Sabha (House of People) in India.]
उत्तर-
लोकसभा भारतीय संसद् का निचला सदन है, परन्तु इसकी स्थिति ऊपरी सदन (राज्यसभा) से अधिक शक्तिशाली है। यह जनता का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि इसमें जनता के प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं और यही इसके अधिक शक्तिशाली होने का कारण है।

रचना (Composition)—प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 545 निश्चित की गई। परन्तु अब ‘गोवा, दमन और दियू पुनर्गठन अधिनियम 1987’ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-

(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए, (ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और (ग) 2 ऐंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इंडियन नियुक्त किए हुए हैं।

चुनाव की विधि (Method of Election)-लोकसभा के चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रणाली के आधार पर होते हैं। सभी नागरिकों को जिनकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, चुनाव में वोट डालने का अधिकार है। चुनाव गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। 5 लाख से 772 लाख की जनसंख्या के आधार पर एक सदस्य चुना जाता है और समस्त देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है। कुछ स्थान अनुसूचित जातियों तथा कबीलों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षित किए गए हैं। 2014 के लोकसभा के चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी।

अवधि (Term) लोकसभा के सदस्य पांच वर्ष के लिए चुने जाते हैं। संकट के समय इसकी अवधि को बढ़ाया जा सकता है, परन्तु एक समय में एक वर्ष से अधिक और संकटकालीन उद्घोषणा के समाप्त होने से छ: महीने से अधिक इसे नहीं बढ़ाया जा सकता। राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले जब चाहे लोकसभा को भंग करके दोबारा चुनाव करवा सकता है। ऐसा कदम उसी समय उठाया जाएगा जब प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को इस प्रकार की सलाह दे। 6 फरवरी, 2004 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने 13वीं लोकसभा को भंग किया।

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योग्यताएं (Qualifications)-लोकसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं होनी आवश्यक हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन व हो।
  4. वह संसद् द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो।
  5. वह पागल न हो, दिवालिया न हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी किसी सदस्य में कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।
  7. उसे किसी गम्भीर अपराध में दण्ड न मिल चुका हो।
  8. उसका नाम वोटरों की सूची में अंकित हो।
  9. नवम्बर, 1976 को संसद् में छुआछूत के विरुद्ध एक कानून पास किया गया। इस कानून के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी व्यक्ति को इस कानून के अन्तर्गत दण्ड मिला है तो वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकता।
  10. लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय उम्मीदवार के लिए यह आवश्यक है कि उसका नाम दस मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित किया जाए।

गणपूर्ति (Ouorum)-लोकसभा की कार्यवाही आरम्भ होने के लिए उसके कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग गणपूर्ति के लिए निश्चित किया गया है, परन्तु 42वें संशोधन द्वारा गणपूर्ति निश्चित करने का अधिकार लोकसभा को दिया गया है।

अधिवेशन (Session)-राष्ट्रपति जब चाहे लोकसभा का अधिवेशन बुला सकता है, परन्तु एक वर्ष में दो अधिवेशन अवश्य बुलाए जाने चाहिए और राष्ट्रपति का यह विशेष उत्तरदायित्व है कि पहले अधिवेशन के आखिरी दिन और दूसरे अधिवेशन के पहले दिन के बीच छः मास से अधिक समय नहीं गुज़रना चाहिए। इसलिए अधिवेशन बुलाने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है।

अध्यक्ष (Speaker)—लोकसभा का एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होता है जिस का काम लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, अनुशासन बनाए रखना तथा सदन की कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाना है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं। नई लोकसभा अपना नया अध्यक्ष चुनती है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से लोक सभा का अध्यक्ष चुना गया। लोकसभा अपने अध्यक्ष को जब चाहे प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकती है, यदि वे अपना काम ठीक प्रकार से न करे। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, अध्यक्ष के पद पर काम करता है।

विरोधी दल के नेता को सरकारी मान्यता (Official Recognition to the Leader of Opposition)मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ। जनता सरकार ने लोकतन्त्र को दृढ़ बनाने के लिए लोकसभा के विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री के समान मान्यता दी थी। विरोधी दल के नेता को वही वेतन, भत्ते और सुविधाएं प्राप्त होती हैं जो कैबिनेट स्तर के मन्त्री को मिलती हैं। नौवीं लोकसभा में राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे। मई, 2009 में 15वीं लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता दी गई थी, परन्तु दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लालकृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया था। मई, 2014 में 16वीं लोकसभा में किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

लोकसभा की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Lok Sabha) लोकसभा को बहुतसी शक्तियां प्राप्त हैं जो कई प्रकार की हैं-

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-लोकसभा भारतीय संसद् का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वास्तव में संसद् की विधायिनी शक्तियां लोकसभा ही प्रयोग करती है। इसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सकता । कोई भी बिल लोकसभा में पेश हो सकता है। यदि राज्यसभा लोकसभा द्वारा पास किए गए बिल पर छ: महीने तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन प्रस्ताव पास करके भेज दे जो लोकसभा को स्वीकृत न हो तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की एक संयुक्त बैठक बुला सकता है। संयुक्त अधिवेशन में प्रायः वही निर्णय होता है जो लोकसभा के सदस्य चाहते हैं क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से दुगुनी से भी अधिक है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers) राष्ट्र के धन पर संसद् का नियन्त्रण है, परन्तु यह नियन्त्रण लोकसभा ही प्रयोग करती है। बजट तथा धन विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही पेश हो सकते हैं। लोकसभा के पास होने के बाद बजट या धन बिल राज्यसभा के पास सुझाव के लिए जाते हैं। राज्यसभा उस पर विचार करती है। राज्यसभा यदि धन विधेयक पर 14 दिन तक कोई कार्यवाही न करे या उसे रद्द कर दे या उसमें ऐसे संशोधन प्रस्ताव पास करके भेज दे जो लोकसभा को स्वीकृत न हों तो इन सभी दशाओं में वह बिल दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पास समझा जाएगा जिस रूप में लोकसभा ने पहले पास किया था और राष्ट्रपति को स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्र के धन पर लोकसभा को अन्तिम निर्णय करने का अधिकार है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive)-मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा के सदस्य मन्त्रियों से उनके कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हैं तथा सम्बन्धित मन्त्री को उसका उत्तर देना पड़ता है। लोकसभा के सदस्य सरकार की नीतियों की आलोचना भी कर सकते हैं तथा मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी पास कर सकते हैं जिससे मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। 10 जुलाई, 1979 को लोकसभा के विरोधी दल के नेता यशवंतराव चह्वाण ने प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान होने से पूर्व ही प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने 15 जुलाई, 1979 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि जनता पार्टी के कई सदस्यों ने जनता पार्टी को छोड़ दिया था। नवम्बर 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह लोकसभा का विश्वास प्राप्त न कर सके जिस पर उन्हें त्याग-पत्र देना पड़ा। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत का प्रस्ताव पास न होने पर त्याग-पत्र दिया था। विश्वास मत के प्रस्ताव के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत पड़े।

4. संवैधानिक शक्तियां (Constitutional Powers) लोकसभा को संविधान में संशोधन करने के लिए प्रस्ताव पास करने का अधिकार है, लोकसभा में संशोधन का प्रस्ताव आवश्यक बहुमत से पास होने के बाद राज्यसभा के पास जाता है। यदि राज्यसभा भी उसे आवश्यक बहुमत से पास कर दे, तभी संशोधन लागू हो सकता है।

5. न्यायिक शक्तियां (Judicial Powers)-लोकसभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं, जिनका प्रयोग वह राज्यसभा के साथ मिलकर ही कर सकती है

  • लोकसभा राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग में भाग लेती है।
  • उपराष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाने का अधिकार केवल राज्यसभा को ही है, परन्तु उसमें निर्णय देने का अधिकार लोकसभा को है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के जजों को अपदस्थ किए जाने वाले प्रस्ताव पास कर सकती है।
  • लोकसभा के साथ मिल कर मुख्य चुनाव आयुक्त, महान्यायवादी (Attorney General) तथा नियन्त्रण एवं महालेखा निरीक्षक के विरुद्ध दोषारोपण के प्रस्ताव पास कर सकती है। ऐसा प्रस्ताव पास होने पर राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारी को हटा सकता है।
  • यदि कोई सदस्य या व्यक्ति अथवा संस्था लोकसभा के विशेषाधिकार का उल्लंघन करती है तो लोकसभा इसको दण्ड दे सकती है।

6. चुनाव सम्बन्धी कार्य (Electoral Functions) लोकसभा स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर का चुनाव स्वयं करती है। लोकसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं। लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है।

7. जनता की शिकायतों को दूर करना (Redressal of Public Grievances)—लोकसभा के सदस्य जनता के प्रतिनिधि हैं, अतः इनका कर्तव्य है जनता की शिकायतों को सरकार तक पहुंचाना। लोकसभा के सदस्य इस कार्य को प्रश्नों द्वारा, स्थगन प्रस्ताव द्वारा तथा वाद-विवाद के अन्तर्गत शासक वर्ग की आलोचना के जरिए पूरा करते हैं।

8. लोकसभा की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers of the Lok Sabha)-लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई संकटकालीन उद्घोषणा का समर्थन कर सकती है। 44वें संशोधन के अनुसार यदि लोकसभा संकटकाल की घोषणा के लागू रहने के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर दे तो संकटकाल की घोषणा लागू नहीं रह सकती। लोकसभा के 10 प्रतिशत सदस्य अथवा अधिक सदस्य घोषणा के अस्वीकृत प्रस्ताव पर विचार करने के लिए लोकसभा की बैठक बुला सकते हैं।

9. विविध शक्तियां (Miscellaneous Powers) लोकसभा की अन्य शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्रों में परिवर्तन कर सकती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के लिए कानून बनाती है।
  • राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों को लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर स्वीकृत या अस्वीकृत करती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर संघ में नए राज्यों को सम्मिलित करती है, राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं तथा नामों में परिवर्तन कर सकती है।
  • लोकसभा राज्यसभा के साथ मिलकर दो या दो से अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग या उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है।

लोकसभा की स्थिति (Position of the Lok Sabha)-लोकसभा भारतीय संसद् का निम्न सदन है जिसके लगभग सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। जनता का प्रतिनिधि सदन होने के कारण इसमें जनता का अधिक विश्वास है। यही कारण है कि लोकसभा संसद् का महत्त्वपूर्ण, प्रभावशाली, शक्तिशाली अंग है और संसद् की शक्तियों का वास्तविक प्रयोग करती है। इसे भारत की संसद् कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। लोकसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सकता। इसकी तुलना में राज्यसभा एक अत्यन्त महत्त्वहीन सदन है। प्रधानमन्त्री भी लोकसभा के ही बहुमत दल का नेता होता है और लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। प्रो० एम० पी० शर्मा (M.P. Sharma) के अनुसार, “यदि संसद् देश का सर्वोच्च अंग है, तो लोकसभा संसद् का सर्वोच्च अंग है, वस्तुतः सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए लोकसभा ही संसद् है।”

प्रश्न 4.
भारतीय संसद् की रचना, उसकी शक्तियों तथा कार्यों का वर्णन करो।
(Describe the composition, powers and functions of the indian Parliament.)
अथवा
संसद् के कार्यों की विवेचना कीजिए।
(Discuss the functions of Parliament.)
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनोंराज्यसभा एवं लोकसभा से मिलकर बनेगी।”

लोकसभा (Lok Sabha) लोकसभा संसद् का निम्न सदन है और समस्त देश का प्रतिनिधित्व करता है। 1973 में 31वें संशोधन के अनुसार लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 547 निश्चित की गई। ‘गोवा, दमन और दियू पुनर्गठन अधिनियम 1987′ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। आजकल लोकसभा में 545 सदस्य हैं। इनमें 543 निर्वाचित हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए गए हैं।

मनोनीत सदस्यों को छोड़कर शेष सभी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। लोकसभा की अवधि 5 वर्ष है। इसकी अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है और 5 वर्ष से पूर्व राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर इसको भंग भी कर सकता है। लोकसभा के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष चुनते हैं।

राज्यसभा (Rajya Sabha)-राज्यसभा भारतीय संसद् का ऊपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 निश्चित की गई है जिसमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से जिन्हें विज्ञान, कला, साहित्य, समाज-सेवा आदि क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी हो, मनोनीत किया जाता है। शेष सदस्य राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। इस समय राज्यसभा के सदस्यों की कुल संख्या 245 है, जिसमें से 233 राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए गए हैं।

राज्यसभा के सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद रिटायर होते हैं। भारत का उप-राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है। राज्यसभा के सदस्य अपने में से एक उपाध्यक्ष भी चुनते हैं जो अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके कार्यों को सम्पन्न करता है।

संसद सदस्यों के वेतन तथा भत्ते (Salary and Allowances of the Members of the Parliament)संसद् सदस्यों को समय-समय पर संसद् द्वारा निर्धारित वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधायें प्राप्त होती हैं।

संसद की शक्तियां तथा कार्य (Powers and Functions of the Parliament)-

भारतीय संसद् संघ की विधानपालिका है और संघ की सभी विधायिनी शक्तियां उसे प्राप्त हैं। विधायिनी शक्तियों के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की शक्तियां संसद् को दी गई हैं-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

1. विधायिनी शक्तियां (Legislative Powers)-संसद् का मुख्य कार्य कानून-निर्माण करना है। संसद् की कानून बनाने की शक्तियां बड़ी व्यापक हैं। संघीय सूची में दिए गए सभी विषयों पर इसे कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची पर संसद् और राज्यों की विधानपालिका दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार है परन्तु यदि किसी विषय पर संसद् और राज्य की विधानपालिका के कानून में पारस्परिक विरोध हो तो संसद् का कानून लागू होता है। कुछ परिस्थितियों में राज्य सूची के 66 विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है।

2. वित्तीय शक्तियां (Financial Powers)—संसद् राष्ट्र के धन पर नियन्त्रण रखती है। वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले बजट संसद् में पेश किया जाता है। संसद् इस पर विचार करके अपनी स्वीकृति देती है। संसद् की स्वीकृति के बिना सरकार जनता पर कोई टैक्स नहीं लगा सकती और न ही धन खर्च कर सकती है।

3. कार्यपालिका पर नियन्त्रण (Control over the Executive) हमारे देश में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष होने के नाते संसद् के प्रति उत्तरदायी नहीं है। जबकि मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त रहे।

4. राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करना (Determination of National Policies)-भारतीय संसद् केवल कानून ही नहीं बनाती वह राष्ट्रीय नीतियां भी निर्धारित करती है। यदि मन्त्रिपरिषद् संसद् द्वारा निर्धारित की गई नीतियों का पालन न करे तो संसद् के सदस्य सरकार की तीव्र आलोचना करते हैं तथा बहुधा ऐसे भी हो सकता है कि संसद् के सदस्य मन्त्रिपरिषद् से असन्तुष्ट हो जाने के कारण उससे भी त्याग-पत्र देने की मांग कर सकते हैं।

5. न्यायिक जांच (Judicial Powers)–संसद् राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति को यदि वे अपने कार्यों का ठीक प्रकार से पालन न करें तो महाभियोग लगाकर अपने पद से हटा सकती है। संसद् के दोनों सदन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के जजों को हटाने का प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। कुछ अन्य पदाधिकारियों को पदों से हटाए जाने के प्रस्ताव भी संसद् द्वारा पास किए जा सकते हैं।

6. संवैधानिक शक्तियां (Constituent Powers)-भारतीय संसद् को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार प्राप्त है। संविधान की कुछ धाराएं तो ऐसी हैं जिन्हें संसद् साधारण बहुमत से संशोधित कर सकती है। कुछ धाराओं का संशोधन करने के लिए संशोधन प्रस्ताव दोनों सदनों में सदन के बहुमत तथा उपस्थित वोट दे रहे सदस्यों के 2/3 बहुमत से पास होना आवश्यक है। कुछ संशोधन ऐसे भी हैं जिन पर कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों का समर्थन प्राप्त करने के बाद ही वे लागू हो सकते हैं।

7. सार्वजनिक मामलों पर वाद-विवाद (Deliberation over Public Matters)-संसद में जनता के प्रतिनिधि होते हैं और इसलिए वह सार्वजनिक मामलों पर वाद-विवाद का सर्वोत्तम साधन है। संसद् में ही सरकार की नीतियों तथा निर्णयों पर वाद-विवाद होता है और उनकी विभिन्न दृष्टिकोणों से आलोचना की जाती है। संसद् को जनता की शिकायतों पर प्रकाश डालने तथा उन्हें दूर करने का साधन भी कहा जा सकता है। संसद् सदस्य विभिन्न मामलों पर विचार प्रकट करते हुए अपने मतदाताओं की शिकायतों व आवश्यकताओं को सरकार के सामने रखते हैं और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

8. निर्वाचन सम्बन्धी अधिकार (Electoral Powers)–संसद् उप-राष्ट्रपति का चुनाव करती है। संसद् राष्ट्रपति के चुनाव में भी महत्त्वपूर्ण भाग लेती है। लोकसभा अपने स्पीकर तथा डिप्टी-स्पीकर का चुनाव करती है और राज्यसभा अपने उपाध्यक्ष का चुनाव करती है।

9. विविध शक्तियां (Miscellaneous Powers)-

  • संसद् सम्बन्धित राज्य सरकार की सलाह से नवीन राज्य बना सकती है। उदाहरणतया, अगस्त, 2000 में संसद् ने तीन नए राज्यों-छत्तीसगढ़, उत्तराँचल और झारखण्ड की स्थापना की। संसद् वर्तमान राज्यों के नाम परिवर्तन कर सकती है।
  • संसद् किसी राज्य की विधानपरिषद् का अन्त कर सकती है अथवा बना भी सकती है। यह किसी राज्य की सीमाएं भी परिवर्तित कर सकती है।
  • राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई संकटकालीन उद्घोषणा पर एक महीने के अन्दर-अन्दर संसद् की स्वीकृति आवश्यक है। वह चाहे तो उसे अस्वीकृत भी कर सकती है।

भारतीय संसद् की स्थिति (Position of Indian Parliament) भारतीय संसद् को कानून निर्माण आदि के क्षेत्र में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त हैं, परन्तु भारतीय संसद् इंग्लैण्ड की संसद् की तरह प्रभुसत्ता सम्पन्न नहीं है।

ब्रिटिश संसद् द्वारा बनाए हुए कानूनों को संसद् के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति द्वारा सुधार अथवा रद्द नहीं किया जा सकता। न ही इंग्लैण्ड में किसी न्यायालय को संसद् के बनाए कानूनों पर पुनर्विचार (Judicial Review) करने का अधिकार है। भारतीय संसद् को ब्रिटिश संसद् की तुलना में सीमित अधिकार (Limited Powers) प्राप्त हैं। इसके मुख्य कारण ये हैं

  • लिखित संविधान की सर्वोच्चता-हमारे देश का संविधान लिखित है जो संसद् की शक्तियों को सीमित करता है। भारतीय संसद् संविधान के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती।
  • संघीय व्यवस्था- भारत में इंग्लैण्ड के विपरीत संघीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है, जिस कारण केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों में शक्तियों का बंटवारा किया गया है।
  • मौलिक अधिकार- भारतीय संसद् नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकती।
  • संसद् द्वारा पास किए गए कानून राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किए जा सकते हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति-संसद् द्वारा पास किए गए कानूनों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है।
  • संशोधन करने की शक्ति सीमित है–संसद् को समस्त संविधान में संशोधन करने का अधिकार नहीं बल्कि उसकी महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन करने के लिए वह आधे राज्यों के समर्थन पर निर्भर रहती है।
  • राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्तियां-संसद् का जब अधिवेशन न हो रहा हो तो राष्ट्रपति अध्यादेश भी जारी कर सकता है। ये अध्यादेश भी कानून के समान शक्ति रखते हैं।
    इन सभी बातों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय संसद् ब्रिटिश संसद् का मुकाबला नहीं करती। प्रभुसत्ता सम्पन्न संसद् न होते हुए भी भारतीय संसद् को अपनी शक्तियों और कार्यों के कारण समस्त एशिया के विधानमण्डलों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 5.
संसद् में साधारण विधेयक कैसे पारित होते हैं ? समझा कर लिखिए।
(Describe the Procedure through which an ordinary bill is passed by parliament.)
अथवा
भारतीय संसद् में एक बिल एक्ट कैसे बनता है ?
(How does a bill become an Act in the Indian Parliament ?)
उत्तर-
संसद् का मुख्य काम कानून बनाना है। संविधान की धारा 107 से 112 तक कानून निर्माण सम्बन्धी बातों से सम्बन्धित है। दोनों सदनों में समान विधायिनी पक्रिया (Legislative Procedure) की व्यवस्था की गई है। किसी भी विधेयक को प्रत्येक सदन में पास होने के लिए पांच सीढ़ियों में से गुजरना पड़ता है-(1) बिल की पुनः स्थापना तथा प्रथम वाचन, (2) दूसरा वाचन, (3) समिति अवस्था, (4) प्रतिवेदन अवस्था और (5) तीसरा वाचन । भारत में सरकारी बिल तथा निजी सदस्य बिल (Private Member’s Bill) के पास करने का ढंग एक-सा है। किसी भी साधारण बिल के कानून का रूप धारण करने से पहले निम्नलिखित अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है-

1. पुनः स्थापना तथा प्रथम वाचन (Introduction and First Reading)—साधारण बिल संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। जो भी सदस्य कोई बिल पेश करना चाहता है उसे महीना पहले इस आशय की सूचना सदन के अध्यक्ष को देनी पड़ती है। परन्तु मन्त्रियों के लिए एक महीने का नोटिस देना अनिवार्य है। निश्चित तिथि को सम्बन्धित सदस्य खड़ा होकर सदन से बिल पेश करने की आज्ञा मांगता है जोकि प्रायः दे दी जाती है। यदि इस अवस्था में बिल का विरोध हो जैसे कि नवम्बर, 1954 मे निवारक नजरबन्दी संशोधन बिल (Preventive Detention Bill) का विरोध हुआ था, तो अध्यक्ष बिल पेश करने वाले बिल का विरोध करने वाले सदस्यों का संक्षिप्त रूप में बिल सम्बन्धी बात करने का मौका देता है। सदन का अध्यक्ष सदस्यों का मत ले लेता है। उपस्थिति सदस्यों के साधारण बहुमत से उसका निर्णय हो जाता है। बिल को पेश करने की आज्ञा मिल जाने पर सदस्य बिल का शीर्षक पढ़ता है, इस समय बिल पर कोई वाद-विवाद नहीं होता। महत्त्वपूर्ण बिलों पर इस समय उनकी मुख्य बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा सकता है। इस प्रकार बिल की पुनः स्थापना (Introduction) भी हो जाती है और उसका प्रथम वाचन भी। इसके बाद बिल को सरकारी गज़ट में छाप दिया जाता है।

2. द्वितीय वाचन (Second Reading)—बिल की पुन:स्थापना के बाद द्वितीय वाचन किसी भी समय पर प्रारम्भ हो सकता है। साधारणतः पुनः स्थापना तथा द्वितीय वाचन में दो दिनों का अन्तर होता है, परन्तु यदि सदन का अध्यक्ष आवश्यक समझे तो द्वितीय वाचन को प्राय: दो चरणों में बांटा जाता है।
प्रथम चरण में बिल को पेश करने वाला सदस्य निश्चित तिथि और समय पर यह प्रस्ताव पेश करता है कि बिल पर विचार किया जाए अथवा सदन की सलाह से किसी अन्य समिति के पास भेजा जाए अथवा बिल पर जनमत जानने के लिए इसे प्रसारित किया जाए। यदि प्रस्तावक सदस्य तीन विकल्पों में कोई एक प्रस्ताव लाता है तो कोई अन्य दूसरा प्रस्ताव भी ला सकता है। यदि बिल को प्रसारित करने का प्रस्ताव हो जाता है तो सदन का सचिवालय राज्य सरकारों को आदेश देता है कि वे अपने गज़ट में बिल को प्रकाशित करें तथा स्वीकृत संस्थाओं, सम्बन्धित व्यक्तियों तथा स्थानीय संस्थाओं का विचार लें, परन्तु इस सम्बन्धी प्रस्ताव निर्धारित तिथि के अन्दर किसी सुझाव तथा विचार के साथ सदन के सचिवालय में अवश्य ही पहुंचना चाहिए।

द्वितीय चरण में, बिल के सम्बन्ध में प्राप्त विचारों व सुझावों का संक्षिप्त रूप सदन के सदस्यों के बीच बांट दिया जाता है। प्रस्तावक सदस्य यह प्रस्ताव पेश करता है कि प्रवर या संयुक्त समिति के पास भेजा जाए। कभी-कभी अध्यक्ष की आज्ञा से बिल को बिना प्रवर या संयुक्त समिति में भेजे ही उस पर विचार करना शुरू हो जाता है, परन्तु इस स्तर पर वाद-विवाद सामान्य प्रकृति का होता है। बिल की धाराओं पर बहस नहीं की जाती बल्कि बिल के मौलिक सिद्धान्तों तथा उद्देश्यों पर वाद-विवाद होता है अर्थात् इस समय बिल के आधारमूल सिद्धान्तों पर ही बहस की जाती है, इसके पश्चात् स्पीकर बिल पर मतदान करवाता है। यदि बहुमत बिल के पक्ष में हो तो बिल किसी समिति के पास भेजा जाता है परन्तु यदि बहुमत विपक्ष में हो तो बिल रद्द हो जाता है।

3. समिति अवस्था (Committee Stage)—यदि सदन का निर्णय उस बिल को किसी विशेष कमेटी को भेजने का हो तो फिर ऐसा किया जाता है। जिस प्रवर समिति को वह बिल भेजा जाता है, उसमें बिल पेश करने वाला सदस्य तथा कुछ अन्य सदस्य होते हैं। यदि सदन का उप-सभापति इस समिति में हो तो फिर उसे ही इस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है। प्रवर समिति बिल की धाराओं पर विस्तारपूर्वक विचार करती है। समिति के प्रत्येक सदस्य को बिल की धाराओं, उपधाराओं, खण्डों तथा उपखण्डों आदि पर पूर्ण विस्तार से अपने विचार प्रकट करने और उनमें संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार है। पूरी छानबीन करने के पश्चात् समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है। यह सिफ़ारिश कर सकती है कि बिल रद्द कर दिया जाए या उसे मौलिक रूप में स्वीकर कर लिया जाए या उसे कुछ संशोधन सहित पास किया जाए। समिति अपनी रिपोर्ट निश्चित समय में सदन को भेज देती है।

4. प्रतिवेदन अवस्था (Report Stage)-समिति के लिए यह आवश्यक होता है कि वह बिल के सम्बन्ध में तीन महीने के अन्दर या सदन द्वारा निश्चित समय में अपनी रिपोर्ट सदन में पेश करे। रिपोर्ट तथा संशोधन बिल को छपवाकर सदन के सदस्यों में बांट दिया जाता है। समिति अपनी रिपोर्ट अवस्था पर बिल पर व्यापक रूप से विचार करती है। बिल की प्रत्येक धारा तथा समिति की रिपोर्ट तथा उसके द्वारा पेश किए संशोधन पर विस्तारपूर्वक वाद-विवाद होता है। वाद-विवाद के पश्चात् बिल की धाराओं पर अलग-अलग या सामूहिक रूप में मतदान करवाया जाता है। यदि बहुमत बिल के पक्ष में हो तो बिल पास कर दिया जाता है अथवा बिल रद्द हो जाता है।

5. तृतीय वाचन (Third Reading)-प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् बिल के तृतीय वाचन के लिए तिथि निश्चित कर दी जाती है। तृतीय वाचन किसी बिल की सदन में अन्तिम अवस्था होती है। इस अवस्था में प्रस्तावक यह प्रस्ताव पेश करता है कि बिल को पास किया जाए। इस अवस्था में बिल की प्रत्येक धारा पर विचार नहीं किया जाता। बिल के सामान्य सिद्धान्तों पर केवल बहस होती है और बिल की भाषा को अधिक-से-अधिक स्पष्ट बनाने के लिए यत्न किये जाते हैं। बिल में केवल मौखिक संशोधन किए जाते हैं। बिल की यह अवस्था औपचारिक है और बिल के रद्द होने की सम्भावना बहुत कम होती है।

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बिल दूसरे सदन में (Bill in the Second House)-एक सदन में पास होने के बाद बिल दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में भी बिल को इसी प्रकार की पांचों अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। यदि दूसरा सदन भी बिल को पास कर दे तो वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। यदि दूसरा सदन उसे रद्द कर दे या छ: महीने तक उस पर कोई कार्यवाही न करे या उसमें ऐसे सुझाव देकर वापस कर दे जो पहले सदन को स्वीकृत न हों तो राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है। बिल दोनों सदनों के उपस्थित तथा वोट देने वाले सभी सदस्यों के बहुमत से पास होता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या राज्य सभा की सदस्य संख्या के दुगने से भी अधिक है, इसलिए संयुक्त बैठक में लोकसभा की इच्छानुसार ही निर्णय होने की सम्भावना होती है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति (Assent of the President)-दोनों सदनों से पास होने के बाद बिल राष्ट्र की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर एक बार अपनी स्वीकृति देने से इन्कार कर सकता है, परन्तु यदि संसद् उस बिल को दोबारा साधारण बहुमत से पास करके राष्ट्रपति के पास भेज दे तो इस बार राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है। स्वीकृति कितने समय में देनी आवश्यक है, इस विषय में संविधान चुप है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और वह कानून बन जाता है।

धन-बिल के पास होने की प्रक्रिया-धन-बिल केवल मन्त्रियों द्वारा राष्ट्रपति की स्वीकृति से लोकसभा में पेश किया जा सकता है। लोकसभा द्वारा पास होने के पश्चात् धन-बिल को राज्यसभा के पास भेज दिया जाता है। राज्यसभा धन-बिल को अस्वीकार नहीं कर सकती। राज्यसभा अधिक-से-अधिक बिल को 14 दिन तक रोक सकती है। राज्यसभा की सिफारिशों को मानना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है। इसके बाद बिल को राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है और राष्ट्रपति हस्ताक्षर करने से इन्कार नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
लोकसभा के अध्यक्ष के चुनाव, शक्तियों तथा स्थिति की विवेचना कीजिए।
(Discuss the election, powers and position of the Speaker of Lok Sabha.)
उत्तर-
लोकसभा भारतीय संसद् का निम्न तथा जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदन है। संसद् की शक्तियां वास्तव में लोकसभा ही प्रयोग करती है। लोकसभा की अध्यक्षता उसके अध्यक्ष (Speaker) द्वारा की जाती है। लोकसभा अध्यक्ष के नेतृत्व में ही अपने समस्त कार्य करती है। लोकसभा के भंग होने पर भी अध्यक्ष का पद नई लोकसभा के कार्य तक बना रहता है। मुनरो (Munro) के अनुसार, “स्वीकर लोकसभा में प्रमुखतम व्यक्ति होता है।” (“The speaker is the most conspicuous figure in the house.”)

चुनाव (Election)-लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा उनसे ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी समय होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को 16वीं लोकसभा का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष के पद पर चुना जाता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

कार्यकाल (Term of Office)-लोकसभा के स्पीकर की अवधि 5 वर्ष है। यदि लोकसभा को भंग कर दिया जाए तो स्पीकर अपने पद का त्याग नहीं करता। वह उतनी देर तक अपने पद पर बना रहता है जब तक नई लोकसभा का चुनाव नहीं हो जाता तथा नई लोकसभा अपना स्पीकर नहीं चुन लेती । यदि स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर लोकसभा के सदस्य नहीं रहते तो उनको अपना पद त्यागना पड़ता है। स्पीकर तथा डिप्टी स्पीकर को 5 वर्ष की अवधि से पहले भी हटाया जा सकता है। यह तभी हो सकता है यदि लोकसभा के उपस्थित सदस्यों की बहसंख्या इसके लिए प्रस्ताव पास कर दे, परन्तु इस प्रकार का प्रस्ताव लोकसभा में तभी पेश हो सकता है यदि कम-से-कम 14 दिन पूर्व अध्यक्ष को ऐसे प्रस्ताव की सूचना दी गई हो। अभी तक स्पीकर के विरुद्ध चार-बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया है, परन्तु कभी भी प्रस्ताव पास नहीं हुआ। नौवीं लोकसभा के स्पीकर श्री रवि राय ने 18 महीने ही काम किया।

वेतन तथा भत्ता (Salary and Allowances)-लोकसभा अध्यक्ष को मासिक वेतन, अन्य भत्ते और रहने के लिए निःशुल्क स्थान आदि मिलता है। अध्यक्ष के वेतन, भत्ते तथा अन्य सुविधाएं भारत की संचित निधि से दी जाती हैं जिनको न तो अध्यक्ष के कार्य काल के दौरान घटाया जा सकता है और न ही संसद् इन पर मतदान कर सकती है।

अध्यक्ष की शक्तियां व कार्य (Powers and Functions of the Speaker)-अध्यक्ष को अपने पद से सम्बन्धित बहुत-सी शक्तियां तथा बहुत से कार्यों को करना पड़ता है जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

(क) व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियां (Regulatory Powers)-स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। सदन के सभी सदस्य उसी को सम्बोधित करते हैं। सदन के अध्यक्ष के नाते उसे अनेक व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियां प्राप्त हैं जो कि इस प्रकार हैं-

  • सदन की कार्यवाही चलाने के लिए सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना स्पीकर का कार्य है। (2) स्पीकर सदन के नेता से सलाह करके सदन का कार्यक्रम निर्धारित करता है।
  • स्पीकर सदन की कार्यवाही-नियमों की व्याख्या करता है। स्पीकर की कार्यवाही के नियमों पर की गई आपत्ति पर निर्णय देता है जोकि अन्तिम होता है।
  • जब किसी बिल पर या विषय पर वाद-विवाद समाप्त हो जाता है तो स्पीकर उस पर मतदान करवाता है। वोटों की गिनती करता है तथा परिणाम घोषित करता है।
  • साधारणतः स्पीकर अपना वोट नहीं डालता, परन्तु जब किसी विषय पर वोट समान हों तो अपना निर्णायक वोट दे सकता है।
  • प्रस्तावों व व्यवस्था सम्बन्धी मुद्दों को स्वीकार करना।
  • स्पीकर ही इस बात का निश्चय करता है कि सदन की गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य उपस्थित हैं अथवा नहीं।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों की जानकारी के लिए या किसी विशेष महत्त्व के मामले पर सदन को सम्बोधित करता है।
  • स्पीकर सदन के नेता की सलाह पर सदन की गुप्त बैठक की आज्ञा देता है।
  • लोकसभा में सदस्यों को उनकी मातृभाषा में बोलने की आज्ञा देता है।
  • मन्त्री पद छोड़ने के पश्चात् किसी सदस्य को अपनी सफाई देने की आज्ञा देता है।

(ख) निरीक्षण व भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियां (Supervisory and Censuring Powers)—स्पीकर की निरीक्षण व भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियां निम्नलिखित हैं-

  • सदन की विभिन्न समितियों को नियुक्त करने में स्पीकर का हाथ होता है और ये समितियां स्पीकर के निरीक्षण में कार्य करती हैं।
  • स्पीकर स्वयं कुछ समितियों की अध्यक्षता करता है।
  • स्पीकर लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की रक्षा करता है।
  • स्पीकर सरकार को आदेश देता है कि वह लोकहित के लिए सदन को या उसकी समिति को अमुक सूचना भेजे।
  • स्पीकर की आज्ञा के बिना कोई सदस्य लोकसभा में नहीं बोल सकता।
  • यदि कोई सदस्य सदन में अनुचित शब्दों का प्रयोग करे तो स्पीकर अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने वाले सदस्य को अपने शब्द वापस लेने के लिए कह सकता है और वह संसद् की कार्यवाही से ऐसे शब्दों को काट सकता है जो उसकी सम्मति में अनुचित तथा असभ्य हों।
  • यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ करे तो स्पीकर उसको सदन से बाहर जाने के लिए कह सकता है।
  • यदि कोई सदस्य अध्यक्ष के आदेशों का उल्लंघन करे तथा सदन के कार्य में बाधा उत्पन्न करे तो स्पीकर उसे निलम्बित (Suspend) कर सकता है। यदि कोई सदस्य उसके आदेशानुसार सदन से बाहर न जाए तो वह मार्शल की सहायता से उसे बाहर निकलवा सकता है।
  • सदन की मीटिंग में गड़बड़ होने की दशा में स्पीकर को सदन का अधिवेशन स्थगित करने का अधिकार है।
  • यदि सदन किसी व्यक्ति को अपने विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने के लिए दण्ड दे तो उसे लागू करना स्पीकर का काम है।
  • किसी कथित अपराधी को पकड़ने का आदेश जारी करना स्पीकर का कार्य है।

(ग) प्रशासन सम्बन्धी शक्तियां (Administrative Powers)-स्पीकर को प्रशासकीय शक्तियां भी प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं

  • स्पीकर का अपना सचिवालय होता है जिसमें काम करने वाले कर्मचारी उसके नियन्त्रण में काम करते हैं।
  • प्रेस तथा जनता के लिए दर्शक गैलरी में व्यवस्था करना स्पीकर का काम है।
  • सदन की बैठकों के लिए विभिन्न समितियों के कार्य-संचालन के लिए सदन के सदस्यों के लिए उपयुक्त स्थानों की व्यवस्था करना।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों के लिए निवास व अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करता है।
  • स्पीकर संसदीय कार्यवाहियों और अभिलेखों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करता है।
  • स्पीकर सदन के सदस्यों तथा कर्मचारियों के जीवन व उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए उचित प्रबन्ध करता है।
  • स्पीकर किसी गैर-सदस्य को सदन में प्रविष्ट नहीं होने देता।

(घ) विविध कार्य (Miscellaneous Powers)

  • कोई बिल वित्त बिल है या नहीं, इसका निर्णय स्पीकर करता है।
  • लोकसभा जब किसी बिल पर प्रस्ताव पास कर देती है तब उसे सदन अथवा राष्ट्रपति के पास स्पीकर ही हस्ताक्षर करके भेजता है।
  • दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता स्पीकर करता है।
  • स्पीकर राष्ट्रपति तथा संसद् के बीच एक कड़ी का कार्य करता है। राष्ट्रपति और संसद् के बीच पत्र-व्यवहार स्पीकर के माध्यम से ही होता है।
  • स्पीकर लोकसभा तथा राज्यसभा के बीच एक कड़ी का काम करता है। दोनों सदनों में पत्र-व्यवहार स्पीकर के माध्यम से ही होता है।
  • संसदीय शिष्टमण्डलों के सदस्यों को मनोनीत करना स्पीकर का कार्य है।
  • अन्तर संसदीय संघ में भारतीय संसदीय शिष्टमण्डल में पदेन अध्यक्ष के रूप में कार्य करना।
  • स्पीकर यदि किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए तो सदन को सूचना देता है।
  • सदन की अवधि पूर्ण होने पर स्पीकर विदाई भाषण देता है।

अध्यक्ष की स्थिति (Position of the Speaker) लोकसभा के अध्यक्ष का पद बड़ा महत्त्वपूर्ण तथा महान् आदर गौरव का है। मावलंकर (Mavlanker) ने एक स्थान पर कहा था, “सदन में अध्यक्ष की शक्तियां सबसे अधिक हैं।” (“His authority is supreme in the house.”) इसी प्रकार लोकसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री हुक्म सिंह (Hukam Singh) ने एक बार कहा था, “अध्यक्ष का पद राज्य के उच्च पदों में से एक है।” (“Speaker’s is one of highest office in the land.”) श्री एल० के० अडवाणी (L.K. Advani) ने मार्च 1977 में कहा था कि, “स्पीकर अथवा अध्यक्ष स्वयं में एक संस्था है।” इस पद पर बहुत-से योग्य, निष्पक्ष तथा विद्वान् व्यक्तियों ने कार्य किया है और उन्होंने इसके सम्मान को बढ़ाने में सहायता दी है। इसमें श्री वी० जे० पटेल जो केन्द्रीय विधानसभा के प्रथम स्पीकर थे और श्री जी० वी० मावलंकर (G.V. Mavlankar) का नाम जो लोकसभा के प्रथम स्पीकर थे, उल्लेखनीय हैं।

लोकसभा के अध्यक्ष का पद इंग्लैंड के कॉमन सदन के अध्यक्ष के समान सम्मानित तथा आदरपूर्ण न होते हुए भी काफ़ी प्रभावशाली, सम्मानित आदरपूर्ण है। स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा के स्पीकर के महत्त्व को बताते हुए कहा था, “अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधि है, वह सदन के गौरव, सदन की स्वतन्त्रता का प्रतिनिधित्व करता है और राष्ट्र की स्वतन्त्रता का प्रतीक है क्योंकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए उचित ही है कि उसका पद सम्मानित तथा स्वतन्त्र होना चाहिए और उच्च योग्यता तथा निष्पक्षता वाले व्यक्तियों के द्वारा ही इसे सुशोभित किया जाना चाहिए।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद् की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।” राज्यसभा संसद् का ऊपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके 250 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है। लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है। इनमें से 550 निर्वाचित और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति संघीय संसद् का भाग अवश्य है परन्तु इसका सदस्य नहीं है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे। 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। आजकल राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 245 है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है। उदाहरणस्वरूप जहां पंजाब से 7 तथा हरियाणा से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं वहां उत्तर प्रदेश से 31 प्रतिनिधि।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिक संख्या 545 निश्चित की गई। ‘गोवा, दमन और दीयू पुनर्गठन अधिनियम 1987’ द्वारा लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 निश्चित की गई। इस प्रकार लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-

(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और
(ग) 2 ऐंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए हुए हैं।

प्रश्न 4.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए संविधान में लिखित योग्यताएं बताएं।
उत्तर-
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो,
  • वह संसद् द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो,
  • वह पागल न हो, दिवालिया न हो,
  • किसी न्यायालय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो।
  • लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले आज़ाद उम्मीदवार के लिए आवश्यक है कि उसका नाम दस प्रस्तावकों द्वारा प्रस्तावित किया गया हो।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह संसद् द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो,
  • वह पागल न हो, दिवालिया न हो,
  • भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो,
  • वह उस राज्य का रहने वाला हो जहां से वह निर्वाचित होना चाहता है,
  • संसद् के किसी कानून या न्यायपालिका द्वारा राज्यसभा का सदस्य बनने के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रश्न 6.
लोकसभा में प्रश्नोत्तर काल का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकसभा के सदस्य मन्त्रियों से उनके विभागों के कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकते हैं जिनका मन्त्रियों को उत्तर देना पड़ता है। लोकसभा की दैनिक बैठकों का प्रथम घण्टा प्रश्नों का उत्तर देने के लिए निश्चित है। साधारणतया प्रशासकीय जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रश्न पूछे जाते हैं, परन्तु विरोधी दल कई बार सरकार की कमियों और उसके द्वारा किये गये स्वेच्छाचारी कार्यों पर प्रकाश डालने के लिए भी प्रश्न पूछ लेते हैं और मन्त्रियों को बड़ी सतर्कता के साथ इनका उत्तर देना पड़ता है। इस प्रकार लोकसभा के सदस्य प्रश्न पूछने के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखते हैं।

प्रश्न 7.
राज्यसभा के सदस्यों को कौन-से विशेषाधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
(क) राज्यसभा के सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। सदन में दिए गए भाषणों के कारण उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।
(ख) अधिवेशन के दौरान और 40 दिन पहले और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद तक सदन के किसी भी सदस्य को दीवानी अभियोग के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(ग) सदस्यों को वे सब विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं जो संसद् द्वारा समय-समय पर निश्चित किए जाते हैं।

प्रश्न 8.
‘काम रोको प्रस्ताव’ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
सांसद अपना दैनिक कार्य पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार करते हैं। परन्तु कई बार देश में अचानक कोई विशेष और महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है, जैसे कि कोई रेल दुर्घटना हो जाए, कहीं पुलिस और जनता में झगड़ा होने से कुछ व्यक्तियों की जानें चली जाएं, ऐसे समय में संसद् का कोई भी सदस्य स्थगन (काम रोको) प्रस्ताव पेश कर सकता है। इस प्रस्ताव का यह अर्थ है कि सदन का निश्चित कार्यक्रम थोड़े समय के लिए रोक दिया जाए और उस घटना या समस्या पर विचार किया जाए। अध्यक्ष इस पर विचार करता है और यदि उचित समझे तो काम रोको प्रस्ताव स्वीकार करके सामने रख देता है। वह यदि ठीक न समझे तो उसे अस्वीकृत भी कर सकता है। प्रस्ताव की स्वीकृति दो चरणों में मिलती है, पहले अध्यक्ष के द्वारा और फिर सदन के द्वारा। अध्यक्ष अपनी स्वीकृति के बाद सदन से पूछता है और यदि सदस्यों की निश्चित संख्या उस प्रस्ताव के शुरू किए जाने के पक्ष में हो तो प्रस्ताव आगे चलता है वरन् नहीं। लोकसभा में यह संख्या पचास है। प्रस्ताव स्वीकार हो जाने पर सदन का निश्चित कार्यक्रम रोक दिया जाता है और उस विशेष घटना पर विचार होता है। संसद् सदस्यों को ऐसी दशा में सरकार की आलोचना का अवसर मिलता है। मन्त्रिमण्डल भी उस स्थिति पर विचार प्रकट करता है और सदस्यों को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है।

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प्रश्न 9.
वित्त बिल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वित्त बिल उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने से तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि की बातों से हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक बिल धन बिल है या नहीं, तो इस सम्बन्ध में लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अंतिम समझा जाता है। उस बिल को केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। धन बिल केवल मन्त्री ही पेश कर सकते हैं।

प्रश्न 10.
राज्यसभा के अध्यक्ष के कोई चार कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है।
  2. वह राज्यसभा में शान्ति बनाए रखने तथा उसकी बैठकों को ठीक प्रकार से चलाने का जिम्मेदार है।
  3. वह सदस्यों को बोलने की आज्ञा देता है।
  4. उसे एक निर्णायक मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 11.
किन परिस्थितियों में संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है ?
उत्तर-
राष्टपति निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाता है-

  1. संसद् के दोनों सदनों के विवादों को हल करने के लिए संसद् का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है।
  2. संयुक्त अधिवेशन तब बुलाया जाता है जब एक बिल को संसद् का एक सदन पास कर दे और दूसरा अस्वीकार कर दे।

प्रश्न 12.
राज्यसभा की विशेष शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
राज्यसभा को संविधान के अन्तर्गत कुछ विशेष शक्तियां दी गई हैं, जो कि इस प्रकार हैं-

  1. राज्यसभा राज्यसूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके संसद् को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  2. 42वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि राज्यसभा अनुच्छेद 249 के अन्तर्गत प्रस्ताव पास करके अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएं (All India Judicial Services) स्थापित करने के सम्बन्ध में संसद् को अधिकार दे सकती है।
  3. संविधान के अनुसार राज्यसभा ही 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके नई अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं (All India Judicial Services) को स्थापित करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दे सकती है।

प्रश्न 13.
लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्यों के चुनाव में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
लोकसभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं और प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष हो, वोट डालने का अधिकार प्राप्त होता है। एक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही उम्मीदवार का चुनाव होता है और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे ही विजयी घोषित किया जाता है। राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है। इस तरह राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा ही होता है।

प्रश्न 14.
लोकसभा तथा राज्यसभा का क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर-
लोकसभा संसद् का निम्न सदन और राज्यसभा संसद् का ऊपरी सदन है। दोनों सदनों को समान शक्तियां प्राप्त नहीं हैं। लोकसभा राज्यसभा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है। राज्यसभा साधारण बिल को 6 महीने के लिए और धन बिल को केवल 14 दिन तक रोक सकती है। लोकसभा की इच्छा के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं हो सकता और देश के वित्त पर लोकसभा का ही नियन्त्रण है। राज्यसभा मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकती है, आलोचना कर सकती है परन्तु अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिपरिषद् को नहीं हटा सकती। यह अधिकार लोकसभा के पास है। राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदन भाग लेते हैं और महाभियोग में भी दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 15.
संसद् के प्रमुख कार्य तथा शक्तियां क्या हैं ?
उत्तर-

  • संसद् का मुख्य कार्य कानून का निर्माण करना है।
  • संसद् का राष्ट्र के वित्त पर नियन्त्रण है और बजट पास करती है।
  • संसद् का मन्त्रिमण्डल पर नियन्त्रण है और मन्त्रिमण्डल संसद् के प्रति उत्तरदायी है।
  • संसद् राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करती है।
  • संसद् को न्याय सम्बन्धी शक्तियां प्राप्त हैं।
  • संसद् निर्वाचन सम्बन्ध कार्य करती है और संविधान में संशोधन करती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संसद् की शक्तियों पर कोई चार सीमाएं बताइए।
उत्तर-
भारतीय संसद् ब्रिटिश संसद् की तरह सर्वोच्च नहीं है। इस पर निम्नलिखित मुख्य सीमाएं हैं-

  1. भारतीय संसद् संविधान के विरुद्ध कोई कानून नहीं बना सकती।
  2. संसद् मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकती।
  3. संसद् द्वारा पास किए गए कानून राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किए जा सकते हैं।
  4. सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति संसद् की शक्तियों पर महत्त्वपूर्ण प्रतिबन्ध है।

प्रश्न 17.
साधारण विधेयक किस तरह कानून बनता है, समझाइए।
उत्तर–
संसद् का मुख्य कार्य कानून बनाना होता है। संविधान की धारा 107 से 112 तक कानून निर्माण प्रक्रिया से सम्बन्धित है। साधारण विधेयक को संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। विधेयक को प्रत्येक सदन में पास होने के लिए पाँच अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है-(1) बिल की पुनर्स्थापना तथा प्रथम वाचन, (2) दूसरा वाचन, (3) समिति अवस्था, (4) प्रतिवादन अवस्था और (5) तीसरा वाचन। भारत में सरकारी बिल तथा निजी सदस्य बिल (Private Member’s Bill) के पास करने का ढंग एक-सा है।

एक सदन में पास होने के बाद बिल दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में भी बिल को इसी प्रकार की पाँचों अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। यदि दूसरा सदन भी बिल को पास कर दे तो वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और वह कानून बन जाता है।

प्रश्न 18.
लोकसभा के अध्यक्ष के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होता है जिसका काम लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना, अनुशासन बनाए रखना तथा सदन की कार्यवाही को ठीक प्रकार से चलाना है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुने जाते हैं। नई लोकसभा अपना नया अध्यक्ष चुनती है। लोकसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को जब चाहे प्रस्ताव पास करके अपने पद से हटा सकती है, यदि वे अपना कार्य ठीक प्रकार से न करें। परन्तु ऐसा प्रस्ताव उस समय तक लोकसभा में पेश नहीं किया जा सकता जब तक कि इस आशय की पूर्व सूचना कम-से-कम 14 दिन पहले अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को न दी गई हो। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष अध्यक्ष के पद पर काम करता है।

प्रश्न 19.
लोकसभा का अध्यक्ष कौन होता है ? इसके चार मुख्य काम लिखें। (P.B. 1988)
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष होता है, जिसे स्पीकर कहा जाता है और स्पीकर का चुनाव लोकसभा के सदस्य अपने में से करते हैं।

  • स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
  • स्पीकर लोकसभा में अनुशासन बनाए रखता है। यदि कोई सदस्य सदन में गड़बड़ी पैदा करता है तो स्पीकर उस सदस्य को सदन से बाहर निकाल सकता है।
  • स्पीकर सदन की कार्यवाही चलाता है। वह सदस्यों को बिल पेश करने, काम रोकने का प्रस्ताव करने, स्थगन प्रस्ताव पेश करने आदि की स्वीकृति देता है।
  • स्पीकर सदस्यों को बोलने की स्वीकृति देता है। कोई भी सदस्य स्पीकर की स्वीकृति के बिना सदन में नहीं बोल सकता।

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प्रश्न 20.
लोकसभा के अध्यक्ष को किस प्रकार चुना जाता है ?
उत्तर-
लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी प्रकार होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता श्रीमती सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से 16वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया। वास्तव में बहुमत दल की इच्छानुसार ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष के पद पर चुना जाता है क्योंकि यदि स्पीकर के पद के लिए मुकाबला होता है तो बहुमत दल का उम्मीदवार ही विजयी होता है।

प्रश्न 21.
लोकसभा के अध्यक्ष की चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
अध्यक्ष को बहुत-सी शक्तियां प्राप्त हैं तथा उसे पद से सम्बन्धित अनेकों कार्य करने पड़ते हैं जोकि मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं-

  1. सदन की कार्यवाही को चलाने के लिए शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना स्पीकर का कार्य है।
  2. स्पीकर सदन के नेता से सलाह करके सदन का कार्यक्रम निश्चित करता है।
  3. स्पीकर सदन के कार्यकारी नियमों की व्याख्या करता है।
  4. बिल पर वाद-विवाद के पश्चात् मतदान करवा कर परिणाम घोषित करता है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद् की रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद् होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों-राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।””राज्यसभा संसद् का उपरि सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके 250 सदस्य हो सकते हैं जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। लोकसभा संसद् का निम्न सदन है। लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 552 हो सकती है।

प्रश्न 2.
राज्यसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
संविधान द्वारा राज्यसभा के सदस्यों की अधिक-से-अधिक संख्या 250 हो सकती है जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे। 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। आजकल राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 245 है।

प्रश्न 3.
लोकसभा की रचना लिखें।
उत्तर-
लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है। 552 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है-
(क) 530 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(ख) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए और
(ग) 2 एंग्लो-इण्डियन जाति (Anglo-Indian Community) के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा ऐंग्लो-इण्डियन नियुक्त किए हुए हैं।

प्रश्न 4.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए संविधान में लिखित कोई दो योग्यताएं बताएं।
उत्तर-
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों-

  1. वह भारत का नागरिक हो,
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए कौन-सी दो योग्यताएं होनी चाहिएं ?
उत्तर-
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

प्रश्न 6.
वित्त बिल किसे कहते हैं ?
उत्तर-
वित्त बिल उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने से तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि की बातों से हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक बिल धन बिल है या नहीं, तो इस सम्बन्ध में लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अंतिम समझा जाता है। उस बिल को केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। धन बिल केवल मन्त्री ही पेश कर सकते हैं।

प्रश्न 7.
राज्यसभा के अध्यक्ष के कोई दो कार्य बताइए।
उत्तर-

  1. वह राज्यसभा के अधिवेशन में सभापतित्व करता है।
  2. वह राज्यसभा में शान्ति बनाए रखने तथा उसकी बैठकों को ठीक प्रकार से चलाने का ज़िम्मेदार है।

प्रश्न 8.
लोकसभा के अध्यक्ष को किस प्रकार चुना जाता है ?
उत्तर-
लोकसभा का अध्यक्ष सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है। आम चुनाव के बाद लोकसभा अपनी प्रथम बैठक में अध्यक्ष का चुनाव करती है। उपाध्यक्ष का चुनाव भी उसी प्रकार होता है। 6 जून, 2014 को भारतीय जनता पार्टी की नेता सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति से 16वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया।

प्रश्न 9.
लोकसभा स्पीकर, डिप्टी स्पीकर तथा राज्यसभा के सभापति एवं उप-सभापति का नाम बताएं।
उत्तर-
पद का नाम — व्यक्ति का नाम
1. लोकसभा स्पीकर — श्रीमती सुमित्रा महाजन
2. लोकसभा का डिप्टी स्पीकर — श्री थंबी दुरई
3. राज्य सभा का सभापति — वेंकैया नायडू
4. राज्य सभा का उप-सभापति — श्री हरिवंश नारायण सिंह

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 29 संघीय व्यवस्थापिका–संसद्

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारत की विधानपालिका को क्या कहते हैं ?
उत्तर-भारत की विधानपालिका को संसद् कहते हैं।

प्रश्न 2. भारतीय संसद् के कितने सदन हैं ?
उत्तर- भारतीय संसद् के दो सदन हैं-

  1. लोकसभा
  2. राज्यसभा।

प्रश्न 3. राज्यसभा की अवधि कितनी है ?
उत्तर-राज्यसभा एक स्थायी सदन है।

प्रश्न 4. राज्यसभा के सदस्यों की अवधि कितनी है ?
उत्तर-राज्यसभा के सदस्यों की अवधि 6 वर्ष है।

प्रश्न 5. राज्यसभा के कितने सदस्य प्रति दो वर्ष बाद सेवानिवृत्त होते हैं ?
उत्तर-एक तिहाई सदस्य।

प्रश्न 6. राज्यसभा की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर-राज्यसभा की अध्यक्षता उप-राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 7. लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल कितना है?
उत्तर-लोकसभा के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष है।

प्रश्न 8. लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है?
उत्तर-लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 हो सकती है।

प्रश्न 9. राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या कितनी हो सकती है?
उत्तर-राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है।

प्रश्न 10. राज्यसभा धन बिल को कितने समय तक रोक सकती है?
उत्तर-राज्यसभा धन बिल को अधिकतम 14 दिनों तक रोक सकती है।

प्रश्न 11. संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है?
उत्तर-लोकसभा का स्पीकर।

प्रश्न 12. संसद् का कोई एक कार्य लिखें।
उत्तर-संसद् कानूनों का निर्माण करती है।

प्रश्न 13. संविधान अनुसार संसद् में कौन-कौन शामिल है?
उत्तर-

  1. लोकसभा,
  2. राज्यसभा तथा
  3. राष्ट्रपति।

प्रश्न 14. लोकसभा में 2 एंग्लो इंडियन सदस्यों को कौन मनोनीत करता है?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 15. राज्यसभा में 12 सदस्यों को कौन मनोनीत करता है?
उत्तर-राष्ट्रपति।

प्रश्न 16. लोकसभा का सदस्य बनने के लिए कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-25 वर्ष।

प्रश्न 17. राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए कम-से-कम कितनी आयु होनी चाहिए?
उत्तर-30 वर्ष।

प्रश्न 18. लोकसभा में सबसे अधिक सदस्य किस राज्य से आते हैं ?
उत्तर-उत्तर प्रदेश से।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. संविधान के अनुच्छेद ………….. में संसद् का वर्णन किया गया है।
2. ……….. संसद् का निम्न सदन है।
3. लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए …………… स्थान आरक्षित रखे गए हैं।
4. लोकसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए …………… स्थान आरक्षित रखे गए हैं।
उत्तर-

  1. 79
  2. लोकसभा
  3. 84
  4. 47.

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प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. लोकसभा का सदस्य बनने के लिए 25 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
2. राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए 35 वर्ष की आयु होनी चाहिए।
3. राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को नियुक्त कर सकता है।
4. प्रधानमन्त्री लोकसभा में 12 ऐंग्लो इंडियन सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।
5. लोकसभा का चुनाव पांच वर्ष के लिए किया जाता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या हो सकती है
(क) 250
(ख) 400
(ग) 500
(घ) 545.
उत्तर-
(क) 250।

प्रश्न 2.
संसद् के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है ?
(क) राज्यसभा का चेयरमैन
(ख) लोकसभा का स्पीकर
(ग) भारत का राष्ट्रपति
(घ) भारत का प्रधानमन्त्री।
उत्तर-
(ख) लोकसभा का स्पीकर।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित संसद का कार्य है-
(क) कानूनों का निर्माण करना
(ख) शासन करना
(ग) युद्ध की घोषणा करना
(घ) नियुक्तियां करना।
उत्तर-
(क) कानूनों का निर्माण करना।

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प्रश्न 4.
संविधान के अनुसार संसद् में सम्मिलित है
(क) लोकसभा, राज्यसभा और मन्त्रिमंडल
(ख) लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति
(ग) लोकसभा, राज्यसभा और प्रधानमन्त्री
(घ) लोकसभा, राज्यसभा और उप-राष्ट्रपति।
उत्तर-
(ख) लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत के प्रधानमन्त्री की स्थिति की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(Describe in brief the position of the Prime Minister.)
अथवा
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कैसे होती है ? उसकी शक्तियों और स्थिति का वर्णन करो।
(How is Prime Minister of India appointed ? Discuss his powers and position.)
अथवा
भारत के प्रधानमन्त्री की नियुक्ति किस प्रकार होती है ? उसके मन्त्रिपरिषद् और राष्ट्रपति के साथ सम्बन्धों का वर्णन करो।
(How is the Prime Minister of India appointed ? Discuss his relations with the Council of Ministers and the President.)
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 के अन्तर्गत राष्ट्रपति की सहायता के लिए एक मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था की गई है जिसकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है। भारत के राज्य प्रबन्ध में प्रधानमन्त्री को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे संविधान द्वारा राष्ट्रपति को मुख्य कार्यपालक (Chief Executive Head of the State) नियुक्त किया गया है, किन्तु व्यावहारिक रूप में मुख्य कार्यपालिका के सब कार्य प्रधानमन्त्री ही करता है।

प्रधानमन्त्री की नियुक्ति (Appointment of the Prime Minister)-संविधान में कहा गया है कि प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। देश में संसदीय प्रणाली होने के कारण राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार किसी भी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। वह केवल उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है जो लोकसभा में बहुमत दल वाली पार्टी का नेता चुना गया हो। दिसम्बर, 1984 में लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (आई) को भारी बहुमत प्राप्त हुआ और राष्ट्रपति ने कांग्रेस (आई) के नेता श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। परन्तु कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को अपनी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। ये परिस्थितियां निम्नलिखित हैं-

  • जब लोकसभा में किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो, अथवा
  • कुछ दल मिलकर संयुक्त सरकार का निर्माण (Coalition Ministry) न कर सकें, अथवा
  • लोकसभा में दो दलों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
  • जब प्रधानमन्त्री की अचानक मृत्यु हो जाए।

उपर्युक्त परिस्थितियों में राष्ट्रपति अपने विवेक, बुद्धि तथा उच्च सूझ-बूझ से काम लेते हुए अपनी इच्छानुसार किसी भी दल के नेता को, जिसे वह स्थायी सरकार बनाने के योग्य समझता हो, मन्त्रिमण्डल बनाने के लिए निमन्त्रण दे सकता है। 15 जुलाई, 1979 को प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई के त्याग-पत्र देने पर किसी भी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं था। अतः राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने अपनी सूझबूझ के अनुसार विपक्ष के नेता यशवन्तराय चह्वाण को सरकार बनाने का निमन्त्रण दिया। परन्तु उसने सरकार बनाने में असमर्थता जाहिर की। उसके बाद राष्ट्रपति ने चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई को अपने समर्थकों की सूची देने को कहा और अन्त में 26 जुलाई, 1979 को राष्ट्रपति ने चौधरी चरण सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया और उसे सरकार बनाने को कहा। 31 अक्तूबर, 1984 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या होने के कुछ समय बाद राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने अपनी इच्छा से श्री राजीव गांधी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। 1 अप्रैल-मई, 1996 के लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ।

राष्ट्रपति ने लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मई, 1996 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि लोकसभा में उन्हें बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं था। 1 जून, 1996 को राष्ट्रपति ने संयुक्त मोर्चा के नेता एच० डी० देवेगौड़ा को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया, क्योंकि कांग्रेस ने देवेगौड़ा को समर्थन देने का वायदा किया था। प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा ने 12 जून, 1996 को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त किया। मार्च, 1998, में 12वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी अथवा चुनावी गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राष्ट्रपति ने लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 मार्च, 1998 को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त किया। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में 24 दलों वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन को बहुमत प्राप्त हुआ।

अतः राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने इस गठबन्धन के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः राष्ट्रपति डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने कांग्रेस के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के नेता डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोक सभा के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रधानमन्त्री की योग्यताएं (Qualifications of the Prime Minister)-प्रधानमन्त्री की योग्यताओं का वर्णन संविधान में नहीं किया गया है, क्योंकि प्रधानमन्त्री के लिए संसद् का सदस्य होना आवश्यक है। इसलिए संसद् सदस्यों की योग्यताएं तथा अयोग्यताएं उस पर लागू होती हैं। इसके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डलीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त होना चाहिए अर्थात् उसे बहुमत पार्टी का नेता होना चाहिए। व्यावहारिक रूप में उसमें व्यक्तिगत गुणों का होना आवश्यक है। जिस प्रकार ब्रिटेन के वाल्डविन के व्यक्तित्व में पाइप (Pipe) तथा चर्चिल के व्यक्तित्व में सिगार (Cigar) ने निखार ला दिया था, उसी प्रकार भारत में श्री नेहरू की प्रतिभा में गुलाब का फूल, श्री लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व में उनकी सादगी, श्रीमती इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता में उनका मनमोहक व्यक्तित्व और राजीव गांधी के व्यक्तित्व में उनका भोलापन और अच्छा आचरण चार चांद लगा देता था।

अवधि (Term)-साधारण रूप में प्रधानमन्त्री के पद की अवधि राष्ट्रपति की कृपादृष्टि पर आधारित है तथा इसका कार्यकाल 5 वर्ष समझा जाता है, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। इसकी अवधि लोकसभा के बहुमत के समर्थन पर निर्भर करती है। जब प्रधानमन्त्री के पक्ष में लोकसभा का बहुमत नहीं रहता तथा उसके विरुद्ध अविश्वास का मत स्वीकार हो जाता है, तब प्रधानमन्त्री को त्याग-पत्र देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री का त्याग-पत्र सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र समझा जाता है। 28 मई, 1996 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि वे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं कर सके। वे केवल 13 दिन तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे। प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने 17 अप्रैल, 1999 को त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि वे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त न कर सके।

वेतन (Salary)-प्रधानमन्त्री को 1987 के अधिनियम के अनुसार वही वेतन और भत्ते मिलते हैं जो संसद् के सदस्य को मिलते हैं।
प्रधानमन्त्री के कार्य तथा शक्तियां (Powers and Functions of the Prime Minister)—प्रधानमन्त्री की शक्तियां एवं कार्य निम्नलिखित हैं-

1. मन्त्रिमण्डल का नेता (Leader of the Cabinet)-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का नेता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने वाला और नष्ट करने वाला प्रधानमन्त्री ही है। वास्तव में मन्त्रिमण्डल का प्रधानमन्त्री के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। यही कारण है कि उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” (“Key-stone of the Cabinet arch.’) कहा गया है। प्रधानमन्त्री को मन्त्रिमण्डल से सम्बन्धित निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं :-

(क) प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है (Formation of the Council of Ministers)राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रिपरिषद् के अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों के नाम राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करता है तथा उसकी स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् वे मन्त्री बन जाते हैं। क्योंकि राष्ट्रपति की स्वीकृति एक औपचारिक कार्यवाही है, इसलिए मन्त्रियों की नियुक्ति की वास्तविक शक्ति प्रधानमन्त्री के पास ही है। 91वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सितम्बर, 2017 में मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 थी।

(ख) विभागों का विभाजन (Allocation of Portfolios)-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है तथा इसमें परिवर्तन भी कर सकता है। सितम्बर, 2017 में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी मंत्रिपरिषद् का विस्तार एवं पुनर्गठन किया, इससे मंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 हो गई। इसमें 27 कैबिनेट मंत्री 37 राज्यमंत्री तथा 11 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री शामिल थे।

(ग) प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति (Chairman of the Cabinet)-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। वह कैबिनेट की बैठकों में सभापतित्व करता है। वह कार्यसूची तैयार करता है। बैठकों में होने वाले वाद-विवाद पर नियन्त्रण रखता है। मन्त्रिमण्डल के अधिकतर निर्णय वास्तव में प्रधानमन्त्री के ही निर्णय होते हैं।

(घ) मन्त्रियों की पदच्युति (Removal of the Ministers)-संविधान के अनुसार मन्त्री राष्ट्रपति की प्रसन्नता तक अपने पद पर रहते हैं, परन्तु वास्तव में मन्त्री तब तक अपने पद पर रह सकते हैं जब तक प्रधानमन्त्री चाहे । उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति मन्त्रिपरिषद् में नहीं रह सकता। यदि कोई मन्त्री प्रधानमन्त्री के कहने के अनुसार त्यागपत्र न दे तो वह राष्ट्रपति को कहकर उसे पदच्युत करवा सकता है और दोबारा मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय अपने विरोधी व्यक्तियों को मन्त्रिमण्डल से बाहर रख सकता है।

1 अगस्त, 1990 को प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा उप प्रधानमन्त्री देवी लाल को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की सलाह से हटा दिया गया। जुलाई, 1992 को वाणिज्य मन्त्री पी. चिदम्बरम ने प्रतिभूति घोटाले के आरोप में दोषी ठहराए जाने के कारण अपना त्याग-पत्र प्रधानमन्त्री को दे दिया। जनवरी-फरवरी, 1996 में 6 केन्द्रीय मन्त्रियों ने हवाला कांड में शामिल होने के कारण त्यागपत्र दे दिए। 20 अप्रैल, 1998 को प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने त्याग-पत्र देने से इन्कार करने पर संचार मन्त्री बूटा सिंह को बर्खास्त कर दिया। इस प्रकार प्रधानमन्त्री को मन्त्रियों को हटाने का पूरा अधिकार प्राप्त है।

2. प्रधानमन्त्री का समन्वयकारी रूप (Prime Minister as a Co-ordinator)—प्रधानमन्त्री सरकार के भिन्न-भिन्न विभागों तथा उनके कार्यों में ताल-मेल रखता है। वह मन्त्रिमण्डल में एकता तथा सामूहिक उत्तरदायित्व स्थापित करता है। विभिन्न विभागों में जब मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं तब प्रधानमन्त्री ही उनको हल करता है।

3. योग्य सरकार के लिए उत्तरदायी (Responsible for able Government)-प्रधानमन्त्री सरकार की योग्यता के लिए उत्तरदायी है। उसको सदा यह ध्यान रखना पड़ता है कि उसकी सरकार तथा पार्टी की देश में साख बनी रहे। इस उत्तरदायित्व को निभाने हेतु वह अपने मन्त्रिमण्डल में समय-समय पर परिवर्तन भी कर सकता है। नवीन मन्त्रियों को नियुक्त कर सकता है तथा यदि ऐसा अनुभव करे कि किसी विशेष मन्त्री का मन्त्रिमण्डल में होना सरकार के हित में अथवा मान में नहीं है तो वह ऐसे मन्त्री को पद से हटा भी सकता है।

4. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार (Principle Adviser of the President)-प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है। राष्ट्रपति प्रशासन के प्रत्येक मामले पर प्रधानमन्त्री की सलाह लेता है। राष्ट्रपति को प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही शासन चलाना पड़ता है। राष्ट्रपति सीधा मन्त्रियों से बात न करके प्रधानमन्त्री के माध्यम से ही मन्त्रिमण्डल की सलाह लेता है।

5. राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी (Link between the President and the Cabinet)प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति तथा मन्त्रिमण्डल के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है। वह राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल के निर्णयों के विषय में सूचित करता है। मन्त्री, प्रधानमन्त्री की पूर्व स्वीकृति में राष्ट्रपति से मिल सकते हैं, परन्तु औपचारिक रूप में प्रधानमन्त्री ही राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णयों से सूचित करता है।

6. सरकार का मुखिया (Head of the Govt.) सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमन्त्री राज्य प्रबन्ध चलाता है। गृह तथा विदेश नीति का निर्माण करता है। वह समस्त महान् नीतियों की मन्त्रिमण्डल की ओर से घोषणा भी करता है। बजट भी उसकी देख-रेख में तैयार होता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सहमति के बिना न कोई नियुक्ति करता है तथा न ही कोई उपाधि देता है।

7. सरकार का प्रमुख प्रवक्ता (Chief Spokesman of the Government)-प्रधानमन्त्री ही सरकार का प्रमुख प्रवक्ता है। संसद् तथा जनता के सामने मन्त्रिमण्डल की नीति और निर्णयों की घोषणा प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती है। वह सभी प्रशासकीय विभागों की जानकारी रखता है। जब कभी कोई मन्त्री संकट में हो तो उसकी सहायता करके मन्त्रिमण्डल-रूपी नौका को डूबने से बचाने का काम प्रधानमन्त्री ही करता है।

8. संसद् का नेता (Leader of the Parliament)—प्रधानमन्त्री को संसद् का नेता माना जाता है। सरकार की नीतियों की सभी महत्त्वपूर्ण घोषणाएं प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती हैं। जब संसद् के सामने कोई समस्या आ खड़ी होती है तब वह प्रधानमन्त्री की ओर पथ-प्रदर्शन की आशा से देखती है और उसकी सलाह के अनुसार ही निर्णय करती है। सदन में अनुशासन बनाए रखने के लिए वह स्पीकर की सहायता करता है। प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही राष्ट्रपति संसद् का अधिवेशन बुलाता है। संसद् का कार्यक्रम भी प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार निश्चित किया जाता है।

9. लोकसभा को भंग करने का अधिकार (Right to get Lok Sabha dissolved)—प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है। 13 मार्च, 1991 को प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर की सलाह पर राष्ट्रपति आर० वेंकटरमण ने लोकसभा को भंग किया। 26 अप्रैल, 1999 को कैबिनेट की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति के० आर० नारायणन ने 12वीं लोकसभा को भंग कर दिया।

10. राष्ट्र का नेता (Leader of the Nation)-प्रधानमन्त्री राष्ट्र का नेता है। आम चुनाव प्रधानमन्त्री का चुनाव माना जाता है। जब देश पर कोई संकट आता है तब सारा देश प्रधानमन्त्री की ओर देखता है और जनता बड़े ध्यान से उसके विचारों को सुनती है। प्रधानमन्त्री जब भी किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलता है तो वह समस्त राष्ट्र की तरफ से बोल रहा होता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

11. दल का नेता (Leader of the Party)-प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी का नेता है। पार्टी को संगठित करना और पार्टी की नीतियों को निश्चित करने में प्रधानमन्त्री का बड़ा हाथ होता है। आम चुनाव के समय पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव करना प्रधानमन्त्री का ही काम है। अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को विजयी बनाने के लिए वह ज़ोरदार भाषण देता है।

12. नियुक्तियां (Appointments)-शासन के सभी उच्च अधिकारियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सिफ़ारिश पर करता है। राज्य के गवर्नर, विदेशों में भेजे जाने वाले राजदूत, संघीय लोक सेवा आयोग के सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश तथा विभिन्न आयोगों तथा शिष्टमण्डलों के सदस्य आदि प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार ही नियुक्त किए जाते हैं।

13. गृह तथा विदेश नीति का निर्माण (Formation of the Internal and Foreign Policies)-गृह तथा विदेश नीति के निर्माण में प्रधानमन्त्री का ही हाथ है। भारत की विदेश नीति क्या होगी, इसका निर्णय प्रधानमन्त्री ही करता है। दूसरे देशों के साथ भारत के सम्बन्ध कैसे होंगे, इसका निर्णय भी प्रधानमन्त्री ही करता है। युद्ध और शान्ति की घोषणा का अधिकार भी वास्तव में प्रधानमन्त्री के पास ही है।

14. प्रधानमन्त्री राष्ट्रमण्डल के देशों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करता है (Establishes good relations with the Commonwealth Countries)-भारत राष्ट्रमण्डल का सदस्य है जिस कारण राष्ट्रमण्डल के देशों के साथ मैत्री के सम्बन्ध स्थापित करना प्रधानमन्त्री का कार्य है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रमण्डल की बैठकों में भाग लेता है।

15. प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers of the Prime Minister)—संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को विभिन्न संकटकालीन शक्तियां प्रदान की गई हैं, परन्तु इन शक्तियों का वास्तव में प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है क्योंकि राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग स्वेच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति को इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री की सलाह से करना होता है। 44वें संशोधन के द्वारा प्रधानमन्त्री की संकटकालीन शक्तियों पर एक प्रतिबन्ध लगाया गया है। इस संशोधन के अन्तर्गत राष्ट्रपति संकट की घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे।

प्रधानमन्त्री की स्थिति (Position of the Prime Minister)-

प्रधानमन्त्री की ऊपरलिखित शक्तियों तथा कार्यों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे संविधान में सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी है। डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “यदि हमारे संविधान में किसी अधिकारी की तुलना अमेरिकन राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह हमारे देश का प्रधानमन्त्री ही है।” संविधान द्वारा कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं परन्तु इसका प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है। वह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका है। एक प्रसिद्ध लेखक के शब्दों में, “प्रधानमन्त्री की अन्य मन्त्रियों में वह स्थिति है जो सितारों में चन्द्रमा (Shining moon among the lesser stars) की होती है। वह एक धुरी है जिसके गिर्द राज्य प्रबन्ध की मशीनरी घूमती है अथवा हम उसे राज्यरूपी जहाज़ का कप्तान (Captain of the ship of the State) भी कहते हैं।”

प्रधानमन्त्री तानाशाह नहीं बन सकता (Prime Minister cannot become a dictator)-प्रधानमन्त्री की असाधारण शक्तियों को देखते हुए कई लोगों का विचार है कि वह इन शक्तियों के कारण तानाशाह बन सकता है। प्रो० के० टी० शाह (Prof. K.T. Shah) ने उसकी इन शक्तियों को दृष्टि में रखते हुए संविधान सभा में बोलते हुए ऐसा कहा था, “प्रधानमन्त्री की शक्तियों को देखकर मुझे ऐसा डर लगता है कि यदि वह चाहे तो किसी भी समय देश का तानाशाह बन सकता है।”

परन्तु दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी विचार है कि प्रधानमन्त्री, इन शक्तियों के होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता है। उनके अनुसार प्रधानमन्त्री को मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। कई बार उसे दल के ऐसे सदस्यों को भी मन्त्रिमण्डल में लेना पड़ता है जिनको वह न चाहता हो तथा उनकी इच्छानुसार उनको विभाग भी देने पड़ते हैं। इनके अतिरिक्त मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय उसे देश के भिन्न-भिन्न भागों तथा श्रेणियों को प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-

  • संसद का नियन्त्रण-प्रधानमन्त्री संसद् के प्रति उत्तरदायी है और संसद् प्रधानमन्त्री को निरंकुश बनने से रोकती है। कई बार उसको संसद् की इच्छानुसार अपनी नीति में परिवर्तन भी करना पड़ता है।
  • जनमत–प्रधानमन्त्री जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकता। प्रधानमन्त्री को जनमत को ध्यान में रखकर शासन चलाना होता है। यदि कोई प्रधानमन्त्री जनमत की परवाह नहीं करता तो जनता ऐसे प्रधानमन्त्री को अगले चुनाव में हटा देती है।
  • विरोधी दल-प्रधानमन्त्री कोई निरंकुश सीज़र (Ceasar) नहीं बन सकता। उनके शब्द कोई अन्तिम निर्णय नहीं। किसी भी समय उनको चुनौती दी जा सकती है। प्रधानमन्त्री को विरोधी दलों के होते हुए काम करना पड़ता है। विरोधी दल प्रधानमन्त्री की आलोचना करके उसे निरंकुश नहीं बनने देते।

अन्त में, हम कह सकते हैं कि प्रधानमन्त्री का पद उसके व्यक्तित्व तथा देश के वातावरण पर और उसकी अपनी पार्टी के समर्थन पर निर्भर करता है। स्वर्गीय प्रधानमन्त्री नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी शक्तियों का प्रयोग लोकहित को मुख्य रखकर किया। 26 जून, 1975 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति ने आन्तरिक आपात्कालीन स्थिति की घोषणा की। संकटकाल में इन्दिरा गांधी की स्थिति हिटलर तथा नेपोलियन जैसे तानाशाहों से कम नहीं थी। परन्तु मार्च, 1977 में लोकसभा के चुनाव में इन्दिरा गांधी की बुरी तरह हार हुई। जनता ने यह प्रमाणित कर दिया कि प्रधानमन्त्री, तानाशाह नहीं बन सकता और उसको अपनी शक्तियों का प्रयोग देश के हित में करना होगा।

मिली-जुली सरकार का प्रधानमन्त्री एक दल की सरकार के प्रधानमन्त्री की अपेक्षा कम शक्तिशाली होता है क्योंकि प्रधानमन्त्री को सहयोगी दलों के समर्थन का पूरा विश्वास नहीं होता। संयुक्त मोर्चा की सरकार के प्रधानमन्त्री एच० डी० देवगौड़ा श्रीमती इन्दिरा गांधी के मुकाबले में अत्यधिक कमज़ोर प्रधानमन्त्री थे। भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्थिति सुदृढ़ व शक्तिशाली नहीं थी क्योंकि आए दिन कोई न कोई सहयोगी दल सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देता रहता था। अक्तूबर, 1999 में 24 दलों के राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनी। परन्तु इस गठबन्धन के नेता अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर अपने सहयोगी दलों की कृपा पर निर्भर हैं।
मौखिक रूप से देना पड़ता है। कई बार मन्त्री के द्वारा अपने विभाग के सम्बन्ध में लिए गए निर्णय गलत सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 2.
मन्त्रिपरिषद् के निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन करो। उनके कार्यों का भी उल्लेख करो।
(Describe the procedure for the formation of the Council of Minister. Also explain its functions.)
उत्तर-
संघ की सभी कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु वह उनका प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सहायता से करता है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल द्वारा दी गई सलाह पर मन्त्रिमण्डल को पुनः विचार करने के लिए कह सकता है परन्तु मन्त्रिमण्डल द्वारा पुनः दी गई सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है।

मन्त्रिपरिषद् का निर्माण (Formation of the Council of Ministers)—संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। अतः राष्ट्रपति ने कांग्रेस के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के नेता डॉ० मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया।

अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है। मन्त्री बनने के लिए आवश्यक है कि वह संसद् के दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य हो। प्रधानमन्त्री किसी ऐसे व्यक्ति को भी मन्त्री नियुक्त करवा सकता है जो संसद् का सदस्य न हो, परन्तु नियुक्ति के छ: महीने के अन्दर-अन्दर उस मन्त्री को संसद् का सदस्य अवश्य बनना पड़ता है।

मन्त्रियों की संख्या (Number of Ministers)-91वें संविधान संशोधन अधिनियम 2003 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सितम्बर, 2017 में मन्त्रिपरिषद् की सदस्य संख्या 75 थी।

अवधि (Term of Office)-संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत ही यह कहा गया है कि मन्त्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहेंगे। सैद्धान्तिक रूप में मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति की इच्छा पर है परन्तु व्यवहार में मन्त्रिपरिषद् तब तक अपने पद पर रह सकती है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त रहे। यदि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास कर दे तो मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। नवम्बर, 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह लोकसभा में विश्वास मत न प्राप्त कर सके जिस कारण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ा। राष्ट्रपति नारायणन ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी की सलाह पर संचार मन्त्री बूटा सिंह को 20 अप्रैल, 1998 को बर्खास्त किया। राष्ट्रपति किसी मन्त्री को प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही हटा सकता है न कि अपनी इच्छा से। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त न कर सके जिस कारण उन्हें और उनके मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ा।

मन्त्रिपरिषद् की बैठकें (Meetings of the Cabinet)–मन्त्रिमण्डल की बैठक सप्ताह में एक बार या आवश्यकता पड़ने पर एक-से अधिक बार भी हो सकती है। मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्रधानमन्त्री द्वारा बुलाई जाती हैं और ये बैठकें प्रधानमन्त्री के कार्यालय या निवास स्थान पर होती हैं। इन बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है। मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णय बहुमत से किए जाते हैं।

मन्त्रिपरिषद् के कार्य (Functions of Council Ministers)—मन्त्रिपरिषद् वैसे तो एक सलाहकार परिषद् बताई गई है, परन्तु वास्तव में वह देश का वास्तविक शासक है। राष्ट्रपति की समस्त कार्यपालिका शक्तियां उसके द्वारा ही प्रयोग की जाती हैं। मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण (Determination of National Policy)-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है। राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण करते समय मन्त्रिमण्डल अपने दल के कार्यक्रम और सिद्धान्त को ध्यान में रखता है। मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय नीति का भी निर्माण करता है।

2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन (Conduct of Foreign Relations)-मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का भी निर्माण करता है और विदेश सम्बन्धों का संचालन करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है। मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्धों के बारे में निर्णय करता है, दूसरे देशों में राजदूतों को भेजता है। राजदूतों की नियुक्ति राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह से करता है। दूसरे देशों के साथ सन्धि-समझौते करना, व्यापारिक व आर्थिक समझौते करना, युद्ध की घोषणा और शान्ति की स्थापना इत्यादि प्रश्नों पर मन्त्रिमण्डल ही निर्णय लेता है।

3. प्रशासन पर नियन्त्रण (Control over the Administration)—प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-नकिसी मन्त्री के अधीन होता है और सम्बन्धित मन्त्रिमण्डल के द्वारा निर्धारित तथा संसद् द्वारा स्वीकृति के अनुसार अपने विभाग को सुचारु रूप से चलाने का प्रयत्न करता है। मन्त्रिपरिषद् प्रशासन के विभिन्न भागों में सहयोग तथा तालमेल उत्पन्न करने का प्रयत्न भी करता है ताकि विभिन्न विभाग एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य कर सकें तथा एक-दूसरे के विरोधी न बनें। समस्त भारत के कानूनों को अच्छे प्रकार से लागू करना, शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखना तथा जनता के सर्वोत्तम हित के लिए शासन चलाना मन्त्रिमण्डल का कर्त्तव्य है।

4. विधायिनी कार्य (Legislative Functions)-सैद्धान्तिक रूप में कानून बनाना संसद् का कार्य है परन्तु व्यावहारिक रूप में यदि कहा जाए कि मन्त्रिमण्डल संसद् की स्वीकृति से कानून बनाता है तो गलत नहीं है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं और वे संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं। संसद् में अधिकतर बिल मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पेश किए जाते हैं। क्योंकि बहुमत मन्त्रिपरिषद् के साथ होता है, इसलिए मन्त्रिपरिषद् का पेश किया हुआ बिल आसानी से पास हो जाता है। मन्त्रिपरिषद् की इच्छा के विरुद्ध कोई भी बिल संसद् में पास नहीं हो सकता। मन्त्रिपरिषद् ही इस बात की सलाह राष्ट्रपति को देती है कि संसद् का अधिवेशन कब बुलाया जाए और उसे कब तक स्थापित किया जाए। संसद् का अधिकतम समय मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पेश किए गए बिलों पर विचार करने में खर्च होता है। वास्तव में संसद् पर मन्त्रिपरिषद् का नियन्त्रण है और वह अपनी इच्छा के अनुसार जो भी कानून चाहे पास करवा सकती है।

5. प्रदत्त-कानून निर्माण (Delegated Legislation)–संसद् प्रायः कानून का केवल ढांचा निश्चित करती है और उसमें विस्तार करने का अधिकार मन्त्रिमण्डल को सौंप देती है। मन्त्रिमण्डल के उप-नियम बनाने के अधिकार को प्रदत्त-व्यवस्थापन कहा जाता है। मन्त्रिमण्डल के इस अधिकार से मन्त्रिमण्डल का शासन पर और नियन्त्रण बढ़ जाता है।

6. वित्तीय कार्य (Financial Functions)-मन्त्रिमण्डल का वित्त सम्बन्धी कार्य भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। मन्त्रिमण्डल ही राज्य के समस्त व्यय के लिए उत्तरदायी है और उस समस्त व्यय की पूर्ति के लिए वित्त जुटाना उसी का काम है। वार्षिक बजट तैयार करना मन्त्रिमण्डल का कार्य है और वित्त मन्त्री बजट को लोकसभा में पेश करता है। मन्त्रिमण्डल ही इस बात का निर्णय करता है कि कौन-सा नया कर लगाना है, या पुराने करों में बढ़ोत्तरी करनी है या पुराने करों को समाप्त करना है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

7. नियुक्तियां (Appointments)—महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं, परन्तु राष्ट्रपति अपनी इच्छा से नियुक्तियां न करके मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है । राजदूतों, राज्य के राज्यपाल, अटॉरनी जनरल, संघ लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग तथा अन्य महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार करता है।

8. मन्त्रिमण्डल का समन्यवकारी स्वरूप (The Cabinet as a Co-ordinator)-मन्त्रिमण्डल का एक महत्त्वपूर्ण कार्य मन्त्रियों के विभिन्न विभागों में समन्वय पैदा करना है। सारा शासन कई विभागों में बांटा जाता है। एक विभाग का दूसरे विभाग पर प्रभाव पड़ता है और कई बार एक महत्त्वपूर्ण समस्या का कई विभागों से सम्बन्ध होता है। इसलिए प्रत्येक विभाग का दूसरे विभाग के साथ समन्वय होना चाहिए और यह कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है। विदेश नीति पर व्यापार नीति का प्रभाव पड़ता है। इस तरह शिक्षा सम्बन्धी नीति का दूसरे विभागों पर विशेषकर वित्त विभाग पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि एक विभाग का दूसरे विभाग के साथ समन्वय हो और यह महत्त्वपूर्ण कार्य मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है।

9. संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers) 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत संकटकाल की घोषणा तभी कर सकता है यदि मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को संकटकाल घोषित करने की लिखित सलाह दे।

10. जांच-पड़ताल की शक्ति (Power of Investigation) मन्त्रिमण्डल भूतपूर्व मन्त्रियों, मुख्यमन्त्रियों तथा अन्य अधिकारियों के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-मन्त्रिमण्डल की शक्तियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है मन्त्रिमण्डल देश का वास्तविक शासक है। राष्ट्रपति नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय नीति का निर्माण करना, धन पर नियन्त्रण, कानून बनाना, महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां करना इत्यादि सभी कार्य मन्त्रिमण्डल के द्वारा किए जाते हैं। श्री एम० वी० पायली (M.V. Pylee) का यह कहना सर्वथा उचित है, “संघीय मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीतियों का निर्माता, नियुक्तियां करने वाले सर्वोच्च अधिकारी, विभागों के आपसी झगड़ों का निर्णायक तथा सरकार के विभिन्न विभागों में तालमेल पैदा करने वाला सर्वोच्च अंग है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रधानमन्त्री कैसे नियुक्त होता है ?
उत्तर–
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, परन्तु ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से काम नहीं ले सकता। प्रधानमन्त्री के पद पर उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। आम चुनाव के बाद जिस राजनीतिक दल को सदस्यों का बहुमत प्राप्त होगा, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है। यदि किसी भी राजनीतिक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो तो भी राष्ट्रपति को इस बारे में पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं मिलती बल्कि कठिनाई का सामना करना पड़ता है। ऐसी दशा में उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा के बहुमत सदस्यों का सहयोग प्राप्त कर सकता हो।

प्रश्न 2.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण-संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। परन्तु राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। जिस दल को लोकसभा में बहुमत प्राप्त होता है, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है।
अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है। मन्त्री बनने के लिए आवश्यक है कि वह संसद् के दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य हो। प्रधानमन्त्री किसी ऐसे व्यक्ति को भी मन्त्री नियुक्त करवा सकता है जो संसद् का सदस्य न हो, परन्तु नियुक्ति के छः महीने के अन्दर-अन्दर उस मन्त्री को संसद् का सदस्य अवश्य बनना पड़ता है।।

प्रश्न 3.
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है। व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का नेता है। प्रधानमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल को बनाता एवं नष्ट करता है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिमण्डल का कोई अस्तित्व नहीं है। अग्रलिखित कारणों से उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” कहा गया है(1) राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। (2) प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं, अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। (3) प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। (4) प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति मन्त्रियों को अपदस्थ कर सकता है।

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री की किन्हीं चार शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की निम्नलिखित मुख्य शक्तियां हैं-

  1. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों की एक सूची तैयार कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. विभागों का विभाजन-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है। वह किसी भी मन्त्री को कोई भी विभाग दे सकता है और जब चाहे इसमें परिवर्तन कर सकता है।
  3. प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सभापति-प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का सभापति होता है। वह कैबिनेट की बैठकों में सभापतित्व करता है। वह कार्य सूची तैयार करता है। बैठकों में होने वाले वाद-विवाद पर नियन्त्रण रखता है। मन्त्रिमण्डल के अधिकतर निर्णय वास्तव में प्रधानमन्त्री के निर्णय होते हैं।
  4. राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार–प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार है।

प्रश्न 5.
क्या प्रधानमन्त्री तानाशाह बन सकता है ?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की असाधारण शक्तियों को देखते हुए कई लोगों का विचार है कि वह इन शक्तियों के कारण तानाशाह बन सकता है। परन्तु विद्वानों का विचार है कि प्रधानमन्त्री इन शक्तियों के होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता है क्योंकि प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध हैं-

  • प्रधानमन्त्री संसद् के प्रति उत्तरदायी है और संसद् प्रधानमन्त्री को निरंकुश बनने से रोकती है।
  • प्रधानमन्त्री जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकता। प्रधानमन्त्री को जनमत को ध्यान में रखकर शासन चलाना होता है।
  • प्रधानमन्त्री को सदैव विरोधी दल का ध्यान रखना पड़ता है। विरोधी दल प्रधानमन्त्री की आलोचना करके उसे निरंकुश नहीं बनने देते हैं।

प्रश्न 6.
प्रधानमन्त्री की स्थिति की चर्चा करो।
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की शक्तियों तथा कार्यों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि वह हमारे संविधान में सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी है। डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) के शब्दों में, “यदि हमारे संविधान में किसी अधिकार की तुलना अमेरिकन राष्ट्रपति से की जा सकती है तो वह हमारे देश का प्रधानमन्त्री ही है, राष्ट्रपति नहीं।” संविधान द्वारा कार्यकारी शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु इनका प्रयोग प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है, वह देश की वास्तविक मुख्य कार्यपालिका है। एक प्रसिद्ध लेखक के शब्दों में, प्रधानमन्त्री की अन्य मन्त्रियों में वह स्थिति है जो सितारों में चन्द्रमा (Shining moon among the lesser stars) की होती है। वह एक धूरी है जिसके गिर्द राज्य की मशीनरी घूमती है अथवा हम उसे राज्यरूपी जहाज़ का कप्तान (Captain of the ship of the State) भी कहते हैं।

प्रश्न 7.
सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
भारतीय संविधान की धारा 75 (3) में स्पष्ट किया गया है कि मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। सामूहिक उत्तरदायित्व की बात हमने ब्रिटिश संविधान से ली है। भारतीय मन्त्रिमण्डल उस समय तक अपने पद पर रह सकता है जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो। यदि लोकसभा का बहुमत मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध हो जाए तो उसे अपना त्याग-पत्र देना पड़ेगा। मन्त्रिमण्डल एक इकाई की तरह काम करता है और यदि लोकसभा किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सब मन्त्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ता है। यह उस समय होता है जबकि किसी मन्त्री ने कोई कार्यवाही मन्त्रिमण्डल की स्वीकृति से की हो। यदि उसने व्यक्तिगत रूप में निर्णय लिया हो तो उस समय केवल उसी मन्त्री को ही त्याग-पत्र देना पड़ता है।

प्रश्न 8.
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रियों तथा विधानपालिका में गहरा सम्बन्ध होता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक मन्त्री अपने कार्यों और निर्णयों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रत्येक मन्त्री किसी-न-किसी प्रशासकीय विभाग का अध्यक्ष होता है। उस विभाग के कुशल संचालन का उत्तरदायित्व उस मन्त्री का होता है। अतः प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग को कुशलतापूर्वक चलाने के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होता है। विधानपालिका के सदस्य किसी भी मन्त्री से उसके विभाग के कार्यों के बारे में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। मन्त्री को उसका उत्तर लिखित अथवा मौखिक रूप से देना पड़ता है। कई बार मन्त्री के द्वारा अपने विभाग के सम्बन्ध में लिए गए निर्णय गलत सिद्ध होते हैं और इस कारण विधानपालिका में उसकी आलोचना की जाती है। यदि विधानपालिका में उस मन्त्री के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पास कर दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में केवल उस मन्त्री को ही त्याग-पत्र देना पड़ता है सारे मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देने की आवश्यकता नहीं होती। भारत में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं; जैसे- श्री लाल बहादुर शास्त्री, श्री टी० टी० कृष्णमाचारी और श्री वी० के० मेनन ने अपनी गलतियों के कारण केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र दे दिए थे।

प्रश्न 9.
मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं चार कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है।
  2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन–मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का निर्माण भी करता है और विदेशी सम्बन्धों का संचालन करता है । मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरे देशों में राजदूत भेजता है।
  3. प्रशासन पर नियन्त्रण-प्रशासन का प्रत्येक विभाग किसी-न-किसी मन्त्री के अधीन होता है और सम्बन्धित मन्त्री अपने विभाग को सुचारू ढंग से चलाने का प्रयत्न करता है। समस्त भारत में कानूनों को लागू करता, शान्ति व्यवस्था बनाए रखना और शासन को सुचारू रूप से चलाना मन्त्रिमण्डल का ही कार्य है।
  4. विधायिनी कार्य-मन्त्रिमण्डल द्वारा बहुत से विधायिनी कार्य किए जाते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 10.
भारतीय मन्त्रिमण्डल की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
भारतीय मन्त्रिमण्डल में निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं

  1. नाममात्र का अध्यक्ष- भारतीय संविधान के अन्तर्गत संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई है। राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है। देश का समस्त शासन राष्ट्रपति के नाम पर चलाया जाता है, परन्तु वास्तव में शासन मन्त्रिमण्डल द्वारा चलाया जाता है।
  2. कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठता-संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। भारत में भी संसदीय शासन प्रणाली को ही अपनाया गया है। अतः मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं।
  3. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-भारतीय मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्य प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में करता है, राष्ट्रपति के नेतृत्व में नहीं। प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का ह्रदय एवं आत्मा है। वह इसकी आधारशिला है।
  4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व-मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 11.
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में कितने प्रकार के मन्त्री होते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर-
केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् में तीन प्रकार के मन्त्री होते हैं-कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उपमन्त्री।

  • कैबिनेट मन्त्री-मन्त्रिपरिषद् के सबसे महत्त्वपूर्ण मन्त्रियों को कैबिनेट मन्त्री कहा जाता है और कैबिनेट मन्त्री किसी महत्त्वपूर्ण विभाग के अध्यक्ष होते हैं।
  • राज्य मन्त्री-राज्य मन्त्री कैबिनेट मन्त्री के सहायक के रूप में कार्य करते हैं। ये कैबिनेट के सदस्य नहीं होते तथा न ही ये कैबिनेट की बैठक में भाग लेते हैं।
  • उपमन्त्री-ये किसी विभाग के स्वतन्त्र रूप से अध्यक्ष नहीं होते। इसका कार्य केवल किसी दूसरे मन्त्री के कार्य में सहायता देना होता है।

प्रश्न 12.
मन्त्रिमण्डल और मन्त्रिपरिषद् में अन्तर बताएं।
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद् एक विशाल संस्था है। हमारे संविधान में भी मन्त्रिपरिषद् शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, मन्त्रिमण्डल का नहीं। मन्त्रिमण्डल मन्त्रिपरिषद् का हिस्सा होता है। मन्त्रिपरिषद् में लगभग 80 सदस्य होते हैं जबकि मन्त्रिमण्डल में लगभग 30 मन्त्री होते हैं। मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य मन्त्रिमण्डल के सदस्य नहीं होते हैं । मन्त्रिपरिषद् में सभी मन्त्री होते हैं जबकि मन्त्रिमण्डल में केवल महत्त्वपूर्ण मन्त्री ही होते हैं। मन्त्रिपरिषद् की बैठकें बहुत कम होती हैं जबकि मन्त्रिमण्डल की बैठकें सप्ताह में प्रायः एक बार अवश्य होती हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रधानमन्त्री कैसे नियुक्त होता है ?
उत्तर-
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, परन्तु ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से काम नहीं ले सकता। प्रधानमन्त्री के पद पर उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। आम चुनाव के बाद जिस राजनीतिक दल को सदस्यों का बहुमत प्राप्त होगा, उसी दल के नेता को राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है।

प्रश्न 2.
संघीय मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
संविधान की धारा 75 के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करेगा और फिर उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। अपनी नियुक्ति के पश्चात् प्रधानमन्त्री अपने साथियों अर्थात् अन्य मन्त्रियों की सूची तैयार करता है और राष्ट्रपति उस सूची के अनुसार ही अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध उस सूची में से किसी का नाम न काट सकता है और न ही उसमें कोई नया नाम सम्मिलित कर सकता है।

प्रश्न 3.
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है। व्याख्या करें।
उत्तर–
प्रधानमन्त्री, मन्त्रिमण्डल का नेता है। प्रधानमन्त्री ही मन्त्रिमण्डल को बनाता एवं नष्ट करता है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिमण्डल का कोई अस्तित्व नहीं है। निम्नलिखित कारणों से उसे “मन्त्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला” कहा गया है-

  • राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श से मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  • प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं, अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है।

प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री की किन्हीं दो शक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का निर्माण करता है-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री अपने साथी मन्त्रियों की एक सूची तैयार कर स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेजता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् वे व्यक्ति मन्त्री बन जाते हैं।
  2. विभागों का विभाजन-प्रधानमन्त्री अपने साथियों को चुनता ही नहीं अपितु उनमें विभागों का विभाजन भी करता है।

प्रश्न 5.
मन्त्रिपरिषद् के किन्हीं दो कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. राष्ट्रीय नीति का निर्माण-मन्त्रिमण्डल का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य नीति-निर्माण करना है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मन्त्रिमण्डल राष्ट्रीय नीति का निर्माण करता है।
  2. विदेशी सम्बन्धों का संचालन-मन्त्रिमण्डल विदेश नीति का निर्माण भी करता है और विदेशी सम्बन्धों का संचालन करता है। मन्त्रिमण्डल दूसरे देशों के साथ कूटनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करता है तथा दूसरे देशों में राजदूत भेजता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रधानमंत्री की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 2. राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार कौन है ?
उत्तर-राष्ट्रपति का प्रमुख सलाहकार प्रधानमंत्री है।

प्रश्न 3. भारत का वास्तविक प्रशासक कौन है ?
उत्तर-भारत का वास्तविक प्रशासक प्रधानमंत्री है।

प्रश्न 4. प्रधानमन्त्री किसकी अध्यक्षता करता है ?
उत्तर-प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल की अध्यक्षता करता है।

प्रश्न 5. मन्त्रिमण्डल किसके प्रति उत्तरदायी होता है ?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 6. भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-श्री नरेन्द्र मोदी।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 28 संघीय कार्यपालिका–प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद्

प्रश्न 7. भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री का नाम बताएं।
उत्तर-भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहर लाल नेहरू थे।

प्रश्न 8. भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमन्त्री कौन थे?
उत्तर- श्री मोरार जी देसाई।

प्रश्न 9. भारतीय प्रधानमन्त्री की अवधि कितनी होती है?
उत्तर- भारतीय प्रधानमन्त्री की अवधि लोकसभा के समर्थन पर निर्भर करती है।

प्रश्न 10. 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसने प्रधानमन्त्री बनने से इन्कार कर दिया?
उत्तर- श्रीमती सोनिया गांधी ने।

प्रश्न 11. मन्त्रिमण्डल में कौन-कौन शामिल होता है ?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल में कैबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री तथा उपमन्त्री शामिल होते हैं।

प्रश्न 12. किस प्रधानमन्त्री का विश्वास प्रस्ताव केवल एक मत से गिर गया था?
उत्तर-श्री अटल बिहारी वाजपेयी का।

प्रश्न 13. किस प्रधानमन्त्री का कार्यकाल केवल 13 दिन रहा?
उत्तर- श्री अटल बिहारी वाजपेयी का।

प्रश्न 14. मन्त्रिमण्डल के सदस्य किस सदन में से लिए जा सकते हैं?
उत्तर-मन्त्रिमण्डल के सदस्य लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों में से लिए जा सकते हैं।

प्रश्न 15. मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था संविधान के किस अनुच्छेद में दी गई ?
उत्तर-अनुच्छेद 74 में।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राष्ट्रपति मन्त्रियों की नियुक्ति ………….के कहने पर करता है।
2. राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सिफ़ारिश पर ………….. को भंग कर सकता है।
3. भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री ………….. थे।
4. भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री …………… हैं।
5. श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बनते समय …………. के सदस्य थे।
उत्तर-

  1. प्रधानमन्त्री
  2. लोकसभा
  3. पं० जवाहर लाल नेहरू
  4. श्री नरेन्द्र मोदी
  5. लोकसभा।

प्रश्न III. निम्नलिखित कथनों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. पं० जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा का कभी सामना नहीं किया।
2. प्रधानमन्त्री संसद् का अभिन्न अंग होता है।
3. प्रधानमन्त्री तानाशाह नहीं बन सकता।
4. भारत में राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिपरिषद् करता है।
5. भारत में संसद् मन्त्रियों से प्रश्न नहीं पूछ सकती।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश

प्रश्न 1.
भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे-
(क) पं० जवाहर लाल नेहरू
(ख) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ग) डॉ० अम्बेडकर ।
(घ) मोरारजी देसाई।
उत्तर-
(घ) मोरारजी देसाई।

प्रश्न 2.
भारत का वास्तविक शासक है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(घ) राज्यपाल।
उत्तर-
(ख)।

प्रश्न 3.
प्रशासन के लिए जिम्मेवार है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राज्यपाल
(घ) संसद्।
उत्तर-
(ख) प्रधानमन्त्री ।

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प्रश्न 4.
प्रधानमन्त्री को विश्वास प्राप्त होना चाहिए-
(क) राज्यसभा में
(ख) लोकसभा में
(ग) राज्य में विधानपालिका में
(घ) किसी में भी नहीं।
उत्तर-
(ख) लोकसभा में ।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारत में केन्द्र और राज्यों के बीच प्रशासकीय, वैधानिक और वित्तीय सम्बन्धों की विवचेना कीजिए।
(Discuss the administrative, legislative and financial relations between the union and the states.)
उत्तर-
केन्द्र राज्य सम्बन्धों का वर्णन हमें भारतीय संविधान के भाग XI की 19 धाराओं (Art 245-263) में मिलता है। इसके अतिरिक्त संविधान के अनेक अनुच्छेद इस प्रकार के हैं जोकि संघ राज्यों के सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं। उदाहरणस्वरूप, संकटकालीन व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद, वे अनुच्छेद जो राज्यसभा की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं, एकीकृत न्याय व्यवस्था, एक ही निर्वाचन आयोग की व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेद इत्यादि। अध्ययन की सुविधा के लिए केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-वैधानिक, प्रशासकीय तथा वित्तीय।
नोट-वैधानिक, प्रशासकीय और वित्तीय सम्बन्धों के लिए प्रश्न नं० 2, 4 और 5 देखें।

प्रश्न 2.
कानून निर्माण सम्बन्धी शक्तियों का केन्द्र तथा राज्य की सरकारों के बीच किस प्रकार बंटवारा किया गया है ?
(How have the legislative powers been distributed between the centre and the states.)
अथवा भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Discuss the legislative relations between the centre and states in Indian Constitution.)
उत्तर-
संघ व राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है, जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची कहा जाता है।

1. संघ सूची (Union List)-संघ-सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद् को है। इन विषयों में प्रतिरक्षा (Defence); विदेशी सम्बन्ध (Foreign Relations), युद्ध और शान्ति (War and Peace), यातायात तथा संचार, रेलवे, डाक व तार, नोट तथा मुद्रा, बीमा, बैंक, विदेशी व्यापार, जहाज़रानी, वायुसेना (Civil Aviation) आदि राष्ट्रीय महत्त्व के विषय जो सारे देश के नागरिकों से समान रूप में सम्बन्धित हैं। इन विषयों पर बने कानून सब राज्यों और सब नागरिकों पर बराबर रूप से लागू होते हैं।

2. राज्य सूची (State List)-राज्य-सूची में 66 विषय हैं और उन पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों को है । इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस व जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर कर आदि महत्त्वपूर्ण विषय आते हैं ।

3. समवर्ती सूची (Concurrent List)-इस सूची में 47 विषय हैं । इस सूची में विवाह, विवाह-विच्छेद, दण्ड विधि (Criminal Law), दीवानी कानून (Civil Procedure), न्याय (Trust) समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा छापाखानों, बिजली, मिलावट, आर्थिक तथा सामाजिक योजना, कारखाने आदि हैं । इस पर कानून बनाने का अधिकार संघ तथा राज्य दोनों को प्राप्त है । यदि एक ही विषय पर केन्द्र तथा राज्य द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हो तो ऐसी स्थिति में संघीय कानून को प्राथमिकता मिलती है और राज्य सरकार का कानून उस सीमा तक रद्द हो जाता है जिस सीमा तक राज्य का कानून संघीय कानून का विरोध करता है ।।

संघ सरकार अधिक शक्तिशाली है (Union Govt. is more Powerful)-शक्तियों के विभाजन से स्पष्ट है कि संघ सरकार राज्य सरकारों से अधिक शक्तिशाली है जबकि राज्य सरकार संघ की शक्तियों को प्रयुक्त नहीं कर सकती।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

1. अवशिष्ट शक्तियां (Residuary Powers)-अनुच्छेद 248 के अनुसार उन सब विषयों को जिनका वर्णन समवर्ती सूची और राज्य सूची में नहीं आया उन्हें अवशिष्ट शक्तियां माना गया है । इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को है । संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैंड में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को दी गई हैं।
2. संघ सरकार को राज्य सूची पर अधिकार (Power of the Union on the State List)-निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् विधानमण्डलों के वैधानिक अधिकारों का अपहरण कर सकती है-

  • राज्यसभा के प्रस्ताव पर (At the resolution of Rajya Sabha)-अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा में उपस्थित तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्य दो-तिहाई बहुमत से किसी प्रस्ताव को पास कर दें या घोषित करें कि राज्यसूची में दिए गए किसी विषय पर संसद् द्वारा कानून बनाना राष्ट्रीय हित में होगा तो संसद् उस विषय पर सारे भारत या किसी विशेष राज्य के लिए कानून बना सकेगी ।
  • युद्ध, बाहरी आक्रमण व सशस्त्र विद्रोह के कारण उत्पन्न हुए संकट के समय-यदि युद्ध अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण आपातकाल की घोषणा की गई तो संसद् राज्य सूची के किसी भी विषय पर सारे देश या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है और कानून संकट की घोषणा समाप्त हो जाने के 6 महीने बाद तक लागू रह सकता
  • राज्यों में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने पर-संविधान की धारा 356 के अन्तर्गत जब किसी राज्य में संवैधानिक यन्त्र (Machinery) के फेल होने पर वहां का शासन राष्ट्रपति अपने हाथ मे ले ले, तो संसद् को यह अधिकार है कि वह राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाए । यह कानून केवल संकटकाल वाले राज्य में ही लागू होगा । संसद् की इच्छा हो तो वैधानिक शक्ति राष्ट्रपति को दे दे ।
  • दो या दो से अधिक राज्यों की प्रार्थना पर-अनुच्छेद 252 के अनुसार जब दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद् से राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करे तो संसद् इस मामले पर कानून बना सकेगी । परन्तु ऐसा कानून प्रार्थना करने वाले राज्यों पर ही लागू होगा ।
  • अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों और सम्मेलनों के निर्णयों को लागू करने के लिए-यदि संघीय सरकार ने विदेशी सरकार से कोई सन्धि कर ली हो, तो संसद् उसको व्यावहारिक रूप देने के लिए किसी प्रकार का भी कानून बना सकती है, भले ही वह विषय राज्य सूची में ही क्यों न हो ।
  • कुछ विशेष प्रकार के बिलों के लिए राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक है-राज्यपाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखने की शक्ति रखता है । राष्ट्रपति ऐसे बिलों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है ।
  • बिल पेश करने से पूर्व स्वीकृति-राज्य विधानमण्डल में पेश करने से पहले कुछ बिलों के लिए पूर्व स्वीकृति की ज़रूरत होती है ।
  • राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने और नए राज्य स्थापित करने का अधिकार-किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना, पुराने राज्य को समाप्त करना, नए राज्यों की स्थापना करना तथा उसका नाम बदलना भी संसद् की शक्तियां हैं । संसद् यह सब कार्य साधारण बहुमत से करती है ।
  • राज्य में विधानपरिषद् स्थापित व समाप्त करने का अन्तिम अधिकार- यदि राज्य की विधानसभा अपने राज्य में विधानपरिषद् की स्थापना करने अथवा समाप्त करने के लिए प्रस्ताव पास करके उसे संसद् के पास भेजे तो संसद् कानून पास करके उस राज्य में विधानपरिषद् स्थापित या समाप्त कर सकती है ।
  • संघीय सूची में कुछ प्रकार के विषयों का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा संघ सरकार राज्य सरकारों पर नियन्त्रण रख सकती है । इस सम्बन्ध में दो विषयों का उल्लेख किया जा सकता है-चुनाव तथा लेखों की जांच । राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी संसद् के नियन्त्रण में रखे गए हैं । इसके अतिरिक्त राज्य के लेखों की जांच भी केन्द्र का विषय है ।

वैधानिक सम्बन्धों की आलोचना (Criticism of Legislative Relations) संघ और राज्यों में वैधानिक सम्बन्धों की आलोचनात्मक समीक्षा से स्पष्ट पता चलता है कि केन्द्र अधिक शक्तिशाली है और वह अपनी विशिष्ट कानूनी सर्वोच्चता के माध्यम से राज्यों पर अपनी इच्छा थोप सकता है। संघीय सूची में सभी महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित किए गए हैं और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने के मामले मे केन्द्र को ही सर्वोच्चता दी गई है । राज्य विधानमण्डलों का अधिकार क्षेत्र बहुत ही सीमित है । के० वी० राव (K.V. Rao) ने ठीक ही कहा है कि राज्य सूची पर एक नज़र डालने से पता चल जाएगा कि ये विषय कितने महत्त्वहीन और कितने अस्पष्ट हैं।

राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए कानूनों पर राष्ट्रपति के निषेधाधिकार (Veto Power) को आशंका की भावना से देखा जाता है । उदाहरण के लिए जिस प्रकार केन्द्र ने 1958 में केरल शिक्षा अधिनियम (Kerala Education Bill) के सम्बन्ध में कार्यवाही की, उससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्य की वैधानिक शक्तियां केन्द्र की दया-दृष्टि पर निर्भर करती हैं । कई व्यावहारिक मामलों के आधार पर एस० एन० जैन (S. N. Jain) और एलिस जैकब (Alice Jacob) के अनुसार कहा जा सकता है कि “केन्द्र ने अपनी स्वीकृति देते हुए राज्यों पर नीतियों को थोपने की कोशिश की है। हालांकि वास्तव में बहुत ही कम स्थितियों में इस प्रकार की स्वीकृति दी गई है।”

प्रश्न 3.
संघ सरकार और राज्य सरकारों के बीच प्रशासनिक सम्बन्धों का वर्णन करें ।
(Describe the administrative relations between the union and the states.
उत्तर-
संघात्मक सरकार तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्ध बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न सरकारों के बीच सहयोग और समन्वय, इस सम्बन्ध का मूल सिद्धान्त है। डी० डी० बसु (D.D. Basu) के शब्दों में, “संघ सरकार की सफलता और दृढ़ता सरकार के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है ।” भारतीय संविधान निर्माता इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे। अत: उन्होंने इस सम्बन्ध में अनेक अनुच्छेदों की व्यवस्था की है।

संघीय सूची का प्रशासन संघ के अधीन जबकि राज्य सूची व समवर्ती सूची का प्रशासन राज्य सरकारों के अधीन-संघ का प्रशासन विषयक अधिकार उन सभी विषयों पर लागू होता है जो संघ सूची में दिए गए हैं। राज्यों के प्रशासनिक विषय के अधिकार क्षेत्र में न केवल वे ही विषय आते हैं जो राज्य सूची में दिए गए हैं बल्कि वे विषय भी आते हैं जो समवर्ती सूची में दिए गए हैं। संसद् समवर्ती सूची में दिए विषयों पर कानून तो बना सकती है, पर उन कानूनों को लागू करना राज्य का कार्य है।

संघीय सरकार अधिक शक्तिशाली-संघीय कार्यपालिका राज्य की कार्यपालिकाओं पर निम्नलिखित ढंग से प्रभाव डाल सकती है-

1. राज्यपाल की नियुक्ति-राज्य के मुखिया की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है । राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है । राष्ट्रपति ही राज्यपाल को पद से हटा सकता है। राज्य का संवैधानिक मुखिया होने के बावजूद भी राज्यपाल केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि है।
2. राज्यों को निर्देश देने का अधिकार-भारतीय संविधान की धारा 257 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार निर्देश दे सकता है। तीन उदाहरण निम्नलिखित दिए गए हैं-

(क) यह निश्चित करने के लिए कि कोई राज्य सरकार अपने प्रशासन विषयक अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार करेगी की उससे केन्द्रीय सरकार के प्रशासन विषयक अधिकारों के मार्ग में रुकावट न हो, राष्ट्रपति राज्य सरकार को आवश्यक निर्देश दे सकता है।
(ख) राष्ट्रपति राज्य सरकारों को ऐसे संवहन और संचार साधनों के निर्माण और उसकी देखभाल के निर्देश दे सकता है जिन्हें राष्ट्रीय अथवा सैनिक महत्त्व का घोषित कर दिया जाए।
(ग) राष्ट्रपति किसी भी राज्य को निर्देश दे सकता है कि अपने राज्य की सीमा के अन्दर रेलों और जलमार्गों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कार्यवाही करे । ध्यान रहे,(ख) तथा (ग) में दिए निर्देशों का पालन करने में राज्यों को जो अतिरिक्त व्यय करना पड़े वह व्यय केन्द्रीय सरकार देगी।

3. केन्द्रीय सुरक्षा पुलिस-यदि केन्द्रीय सरकार किसी राज्य में शान्ति भंग होने का खतरा अनुभव करे तो वह उस राज्य में केन्द्रीय सम्पत्ति की रक्षा हेतु केन्द्रीय सुरक्षा पुलिस भेज सकती है। 4. संकटकालीन घोषणा-जब राष्ट्रपति बाहरी आक्रमण, युद्ध या सशस्त्र विद्रोह के कारण संकटकालीन अवस्था की घोषणा करे, तो वह राज्यों को अपनी कार्यपालिका शक्ति को विशेष ढंग से इस्तेमाल करने का आदेश दे सकता है।
5. राज्य में राष्ट्रपति का शासन-यदि केन्द्रीय सरकार द्वारा दिए गए आदेश का पालन कोई राज्य सरकार न करे या राज्य की सरकार संविधान की धाराओं के अनुसार न चले तो संविधान की धारा 356 के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सरकार को विघटित करके राज्य के प्रशासन को अपने हाथ में ले सकता है।
6. राज्य के उच्च अधिकारी अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी-राज्य के उच्च पदों पर अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी, जिनको केन्द्रीय सरकार नियुक्त करती है, कार्य करते हैं।
7. चुनाव आयोग-राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त निर्वाचन आयोग, संघ तथा राज्यों के निर्वाचन पर नियन्त्रण रखता है।
8. महालेखा परीक्षक-केन्द्र तथा राज्य सरकारों के हिसाब-किताब के निरीक्षण तथा नियन्त्रण के लिए राष्ट्रपति नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General) को नियुक्त करता है।
9. अन्तर्राज्यीय नदियों के विवादों को हल करना-ऐसी नदियों के सम्बन्ध में जो एक से अधिक राज्यों में से होकर गुज़रती है, सभी झगड़ों को निपटने और उनके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद् को है। ऐसे किसी झगड़े में उसे अधिकार है कि वह कानून बनाकर मामले को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र (सर्वोच्च न्यायालय) से बाहर घोषित कर दे।
10. राज्य की सरकारों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन-संघीय सरकार भारत के सारे राज्यों में शासन सम्बन्धी एकरूपता स्थापित करने के लिए राज्य की सरकारों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुला सकती है तथा उनको कुछ सिफ़ारिशें भी कर सकती है।
11. अन्तर्राज्यीय परिषद्-राज्यों के आपसी झगड़े निपटाने के लिए राष्ट्रपति अन्तर्राज्यीय परिषद् बना सकता है। अन्तर्राज्यीय परिषद् (Inter-State Council) के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • राज्यों में आपसी झगड़ों की छानबीन करके उसके सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार को रिपोर्ट देना।
  • संघ तथा राज्यों के सामूहिक हितों पर विचार करना।
  • संघीय सरकार द्वारा अन्तर्राज्य सम्बन्धी पूछे गये विषयों पर सलाह देना।

12. राष्ट्रपति अनुसूचित, आदिम जातियों तथा पिछड़ी जातियों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए राज्यों को आवश्यक आदेश भी दे सकता है।
13. राज्यपाल की प्रार्थना पर और राष्ट्रपति की स्वीकृति से संघीय लोक सेवा आयोग राज्य की किसी ज़रूरत के लिए कार्य कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)—वैधानिक क्षेत्र की तरह प्रशासनिक क्षेत्र में भी केन्द्रीय सरकार की स्थिति अत्यधिक प्रभावशाली है। राज्यपाल संवैधानिक मुखिया होने के बावजूद भी केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधि होता है। केन्द्रीय सरकार अनुच्छेद 356 का प्रयोग करके विरोधी दलों की सरकारों को अपदस्थ करके राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 4.
संघ और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों की व्याख्या करें।
(Discuss the financial relations between the Union and States in India.)
उत्तर-
डी० डी० बसु का कहना है कि, “कोई भी संघ राज्य सफल नहीं हो सकता जब तक कि संविधान द्वारा प्रदत्त उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए संघ तथा राज्यों के पास पर्याप्त आर्थिक साधन न हों।” परन्तु वित्तीय स्वायत्तता के इस सिद्धान्त को भी पूर्णतः अपनाया नहीं गया है। कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया में इकाइयों की आय के साधन इतने अपर्याप्त हैं कि केन्द्रीय सहायता के बिना उनका काम नहीं चल सकता। दूसरी ओर स्विट्ज़रलैंड में संघ सरकार को आर्थिक सहायता के लिए राज्य सरकारों पर आश्रित रहना पड़ता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघ तथा राज्य सरकार को पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश की गई है। भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के आय के साधनों का विभाजन कानून बनाने की शक्तियों के साथ कर दिया गया है।

1. कर निर्धारण की शक्ति का वितरण और करों से प्राप्त आय का विभाजन-भारतीय संविधान में वित्तीय धाराओं की. दो विशेषतायें हैं- एक तो संघ व राज्यों के मध्य कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है और दूसरे करों से प्राप्त आय का विभाजन किया गया है
संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार केन्द्र तथा राज्यों में राजस्व का विभाजन निम्नलिखित ढंग से किया गया-
(क)संघीय सरकार की आय के साधन-संघीय सरकार को आय के अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़ कर आय-कर, सीमा शुल्क, उत्पादन शुल्क, निगम कर, कृषि भूमि को छोड़ कर अन्य सम्पत्ति शुल्क, निर्यात शुल्क, व्यावसायिक उद्यमों पर कर आदि प्रमुख हैं।।
(ख) राज्यों की आय के साधन-राज्यों की आय के साधन अलग कर दिए गए हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि, आय-कर, कृषि भूमि कर, उत्तराधिकार शुल्क, सम्पत्ति शुल्क, उत्पादन कर, बिक्री-कर, यात्री-कर, मनोरंजन-कर, मुद्रांक शुल्क (Stamp duty), पशु कर, बिजली खपत आदि मुख्य हैं।

2. करों की वसूली व उनके बंटवारे की व्यवस्था-संघीय सूची में करों की आय को केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित किया गया है। इनको चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है

  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए गए तथा इकट्ठे किए जाते हैं, परन्तु उनका विभाजन केन्द्र तथा राज्यों में किया जाता है, जैसे आय-कर (Income Tax) ।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं, केन्द्र द्वारा एकत्र किए जाते हैं और इनकी पूर्ण आय केन्द्र के पास रहती है। जैसा आयात-निर्यात कर (Custom Duty), आयकर तथा अन्य करों पर सरचार्ज।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं पर राज्यों द्वारा एकत्र और व्यय होते हैं जैसे स्टाम्प शुल्क (Stamp Duty), दवाइयों तथा मद्य-पदार्थों तथा श्रृंगार प्रसाधन वाली वस्तुओं पर उत्पादन शुल्क आदि।
  • ऐसे कर जो केन्द्र द्वारा लगाए तथा इकट्ठे किए जाते हैं परन्तु राज्यों में बांट दिए जाते हैं। कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति उत्तराधिकार पर शुल्क, कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति पर भू-सम्पत्ति शुल्क, रेल, वायु तथा समुद्री जहाज़ द्वारा लाए गए यात्रियों तथा माल पर कर, रेल के किरायों तथा माल भाड़ों पर कर आदि।

3. अनुदान (Grants in aid)—संविधान द्वारा यह भी व्यवस्था है कि केन्द्रीय सरकार राज्यों को सहायक अनुदान दे। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है जिसके द्वारा संघ राज्यों पर नियन्त्रण रख सकता है।
संघीय सरकार ही अनुदान की राशि और अनुदान की शर्तों को नियत करती है जिसके अनुसार राज्य सरकारें इन अनुदानों का प्रयोग कर सकती हैं।

4. ऋण (Borrowing)-संविधान में यह लिखा है कि राज्य सरकार अपने राज्य विधानमण्डलों द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत अपनी संचित निधि की जमानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है। ध्यान रहे, राज्य किसी दूसरे देश से ऋण नहीं ले सकता। संघीय सरकार भी अपनी संचित निधि की जमानत पर संसद् की आज्ञानुसार ऋण ले सकती है।

5. वित्तीय आयोग (Finance Commission)-संविधान द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और उसमें चार अन्य सदस्य होंगे। हर पांच साल के बाद एक नया वित्त आयोग स्थापित किया जाएगा। संसद् इस आयोग के लिए योग्यताएं और उसकी नियुक्ति का तरीका निश्चित करेगी। वित्त आयोग का मुख्य कार्य केन्द्र और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों को सुधारने के लिए सलाह देना है।

6. करों की विमुक्ति (Exemption from Taxation) अनुच्छेद 285 के अनुसार जब तक संसद् विधि द्वारा कोई प्रतिबन्ध न लगा दे, राज्यों द्वारा संघ की सम्पत्ति पर कर नहीं लगाया जा सकता। भारत सरकार की रेलवे द्वारा प्रयोग में आने वाली बिजली पर संसद् की अनुमति के अभाव में राज्य किसी प्रकार का शुल्क नहीं लगा सकता। दूसरी ओर संघ सरकार राज्य की सम्पत्ति और आय पर कर लगा सकती है।

7. वित्तीय आपात्कालीन शक्तियां (Financial Emergency Powers)-अनुच्छेद 360 राष्ट्रपति को वित्तीय आपात्कालीन शक्तियां प्रदान करता है। वित्तीय आपात्काल की घोषणा होने पर राज्यों की आय सीमा उन्हीं करों तक सीमित रहती है जो राज्य सूची में उल्लिखित हैं। वित्तीय आपात्काल में राष्ट्रपति संविधान के किसी भी ऐसे अनुच्छेद को निलम्बित कर सकता है जिसका सम्बन्ध या तो अनुदानों से हो या संघ के करों की आय के भाग को बांटने से हो।

8. भारत के नियन्त्रण एवं महालेखा परीक्षक द्वारा नियन्त्रण-नियन्त्रण एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति मन्त्रिमण्डल के परामर्श से राष्ट्रपति करता है। यह संघीय सरकार तथा राज्य सरकारों के हिसाब का लेखा रखने के ढंग और उनकी निष्पक्ष रूप से जांच करता है। संसद् नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के द्वारा ही राज्यों की आय पर नियन्त्रण रखती है।
वित्तीय सम्बन्धों की आलोचना (Criticism of Financial Relations)-वित्तीय क्षेत्र में भी राज्यों की स्थिति काफ़ी शोचनीय है। राज्यों के आय के साधन इतने सीमित हैं कि राज्य अपनी विकासशील नीतियों को बिना केन्द्रीय सहायता के लागू नहीं कर पाते। अत: राज्यों को केन्द्र पर वित्तीय सहायता के लिए निर्भर रहना पड़ता है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission), केन्द्रीय कल्याण बोर्ड (Central Welfare Board) और योजना आयोग राज्यों को सशर्त अनुदान केन्द्र के अभाव में अधिक प्रभावशाली बनाते हैं। वित्त कमीशन की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राज्यों को इस सम्बन्ध में कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। राष्ट्रपति वित्तीय संकट को घोषित करके राज्यों के वित्तीय प्रबन्ध को अपने हाथ में ले सकता है। केन्द्र विरोधी दलों की सरकारों को अनुदान देने में मतभेद की नीति का अनुसरण करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघ और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन कितनी सूचियों में किया गया है ? वर्णन करें।
उत्तर-
संघ और राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची कहा जाता है।

(क) संघ सूची-संघ सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है। इन विषयों में युद्ध और शान्ति, डाक-तार, प्रतिरक्षा, नोट और मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं।
(ख) राज्य सूची-राज्य सूची में 66 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों के विधानमण्डलों के पास है। इस सूची में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और जेल, स्थानीय सरकार, सड़कें, पुल इत्यादि विषय शामिल
(ग) समवर्ती सूची-इस सूची में 47 विषय हैं। इस सूची में न्याय, समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा छापाखाना, बिजली इत्यादि विषय सम्मिलित हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र तथा राज्यों को प्राप्त है।

प्रश्न 2.
राज्य सूची से आप क्या समझते हैं ? इस सूची के प्रमुख विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-
वह सूची, जिसके विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों के पास है, राज्य सूची कहलाती है। राज्य सूची में कुल 66 विषय हैं। इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस तथा जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें, पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर टैक्स इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 26 संघ और राज्यों में सम्बन्ध

प्रश्न 3.
केन्द्र, राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार करता है ?
उत्तर-
राज्य सरकारों के साधन इतने पर्याप्त नहीं हैं कि केन्द्रीय सरकार की सहायता के बिना उनका कार्य सुचारू रूप से चल सके। अतः राज्यों को अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए केन्द्रीय सरकार की आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। केन्द्रीय सरकार, राज्य की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति निम्न ढंग से करती है

  • करों की वसूली तथा उनके बंटवारे की व्यवस्था-संघीय सूची के विषयों पर लगाए गए करों की आय को केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित किया गया है।
  • अनुदान राज्यों की आय के पर्याप्त साधन न होने के कारण उन्हें संघीय सरकार द्वारा दी गई आर्थिक सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। संघीय सरकार प्रत्येक वर्ष राज्यों को सहायक अनुदान देकर उनकी वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
  • ऋण-राज्य सरकार अपने राज्य विधानमण्डलों द्वारा बनाए गए नियमों के अन्तर्गत अपनी संचित निधि की ज़मानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची से आप क्या समझते हैं ? इस सूची में कौन-कौन से प्रमुख विषय आते हैं ?
उत्तर-
समवर्ती सूची में ऐसे विषय सम्मिलित किए गए हैं, जिन पर संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों ही कानून बना सकते हैं। यदि राज्य विधानमण्डल और संसद् द्वारा समवर्ती सूची पर बनाए गए कानून में मतभेद हो तो संसद् के कानून को प्राथमिकता दी जाती है और राज्य का कानून उस सीमा तक रद्द हो जाता है जिस सीमा तक राज्य का कानून संघीय कानून का विरोध करता है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। इसके अन्तर्गत विवाह, विवाह-विच्छेद, दण्ड विधि, दीवानी कानून, न्याय, समाचार-पत्र, पुस्तकें और छापाखाना, सामाजिक सुरक्षा आदि विषय आते हैं।

प्रश्न 5.
संसद् राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कब कानून बना सकती है ?
उत्तर-
निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद् राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कानून बना सकती है-

  • यदि राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित कर दे तो संसद् उस विषय पर कानून बना सकती है।
  • संकटकाल की घोषणा के दौरान संसद् राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बना सकती है।
  • दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डलों की प्रार्थना पर संसद् उन राज्यों के लिए कानून बना सकती है।
  • जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तब उस राज्य के लिए संसद् राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

प्रश्न 6.
वित्त आयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और इसमें चार अन्य सदस्य होंगे। हर पांच साल के बाद एक नया वित्त आयोग स्थापित किया जाएगा। संसद् इस आयोग के लिए योग्यताएं और उसकी नियुक्ति का तरीका निश्चित करेगी। 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग नियुक्त किया गया।

वित्त आयोग निम्नलिखित बातों के बारे में सलाह देता है-

  • केन्द्र और राज्यों में राजस्व का विभाजन।
  • केन्द्र और राज्यों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर राज्य सरकारों को दिए जाने वाले अनुदान की मात्रा का सुझाव देता है।
  • यह केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की सरकारों के बीच किए गए किसी समझौते को तथा उसमें परिवर्तन करने के लिए भी राष्ट्रपति को सिफ़ारिश कर सकता है।
  • अन्य जो भी मामले राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग को सौंपे जाएंगे उन सब की जांच-पड़ताल करना।

प्रश्न 7.
सरकारिया आयोग की मुख्य सिफ़ारिशें कौन-सी हैं ?
उत्तर-
केन्द्र व राज्यों के सम्बन्धों पर विचार करने के लिए 1983 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने सरकारिया आयोग की स्थापना की। सरकारिया आयोग ने अक्तूबर, 1987 में अपनी रिपोर्ट पेश की और रिपोर्ट में अग्रलिखित सिफ़ारिशें की-

  • सरकारिया आयोग ने केन्द्र व राज्यों के विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना स्थायी तौर से करने की सिफ़ारिश की।
  • राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व उस राज्य के मुख्यमन्त्री की सलाह लेनी चाहिए।
  • समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाने से पूर्व केन्द्र को राज्यों की सलाह लेनी चाहिए।
  • आयोग ने राज्यों की सरकारों के वित्तीय साधन में वृद्धि करने पर बल दिया।

प्रश्न 8.
अन्तर्राज्यीय परिषद् पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर-
राष्ट्रपति को सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए एक अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना करने का अधिकार है। राष्ट्रपति इस परिषद् द्वारा किए जाने वाले कार्यों और संगठन की प्रक्रिया को निश्चित कर सकता है। इस परिषद् के कार्य इस प्रकार हैं-

  • राज्यों के मध्य पैदा होने वाले विवादों की जांच-पड़ताल करना और उन्हें हल करने के बारे में सलाह देना।
  • उन विषयों की जांच-पड़ताल करना जो कुछ या सभी राज्यों या संघ और एक या एक से अधिक राज्यों के सामूहिक हितों में हों।
  • सामूहिक हित के विषय के बारे में खासतौर पर उन विषयों के बारे में नीति और कार्यवाही के अच्छे तालमेल के लिए सिफ़ारिश करना।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघ और राज्यों के बीच वैधानिक शक्तियों का विभाजन कितनी सूचियों में किया गया है ? वर्णन करें।
उत्तर-
संघ और राज्यों के वैधानिक सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची कहा जाता है।

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प्रश्न 2.
संघ सूची पर नोट लिखें।
उत्तर-
संघ सूची में 97 विषय हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद् को प्राप्त है। इन विषयों में युद्ध और शान्ति, डाक-तार, प्रतिरक्षा, नोट और मुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं।

प्रश्न 3.
राज्य सूची से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
वह सूची, जिसके विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों के पास है, राज्य सूची कहलाती है। राज्य सूची में कुल 66 विषय हैं। इस सूची में शामिल 66 विषयों में सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस तथा जेल, स्थानीय सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़कें, पुल, उद्योग, पशुओं और गाड़ियों पर टैक्स, विलासिता तथा मनोरंजन पर टैक्स इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश है।

प्रश्न 4.
समवर्ती सूची से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
समवर्ती सूची में ऐसे विषय सम्मिलित किए गए हैं, जिन पर संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों ही कानून बना सकते हैं। यदि राज्य विधानमण्डल और संसद् द्वारा समवर्ती सूची पर बनाए गए कानून में मतभेद हो तो संसद् के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं।

प्रश्न 5.
वित्त आयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि देश की आर्थिक परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर हमारे राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेंगे। संविधान में लिखा है कि इस संविधान के आरम्भ होने से दो साल की अवधि के भीतर राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा जिसका एक सभापति होगा और इसमें चार अन्य सदस्य होंगे। 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वां वित्त आयोग नियुक्त किया गया।

प्रश्न 6.
सरकारिया आयोग की दो मुख्य सिफ़ारिशें कौन-सी हैं ?
उत्तर-

  • सरकारिया आयोग ने केन्द्र व राज्यों के विवादों को हल करने के लिए अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना स्थायी तौर से करने की सिफारिश की।
  • राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व उस राज्य के मुख्यमन्त्री की सलाह लेनी चाहिए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. केन्द्र व राज्यों के बीच एक वैधानिक सम्बन्ध बताएं।
उत्तर- केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है।

प्रश्न 2. राज्य में राष्ट्रपति शासन किस अनुच्छेद के अन्तर्गत लगाया जाता है ?
उत्तर-अनुच्छेद 356 के अनुसार।

प्रश्न 3. संघीय सरकार की आय के कोई दो साधन बताएं।
उत्तर-

  1. सीमा शुल्क
  2. उत्पाद शुल्क।

प्रश्न 4. राज्यों की आय के कोई दो साधन बताएं।
उत्तर-

  1. भू-राजस्व
  2. उत्पादन कर।

प्रश्न 5. सरकारिया आयोग का सम्बन्ध किससे है ?
उत्तर-केन्द्र-राज्य सम्बन्ध।

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प्रश्न 6. किन्हीं दो देशों के नाम लिखो जहां पर अवशेष शक्तियां राज्यों के पास हैं?
उत्तर-

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका
  2. स्विट्जरलैंड।

प्रश्न 7. किसी एक परिस्थिति का वर्णन करें जब केन्द्र राज्य सूची पर भी कानून बना सकता है?
उत्तर-राज्य सभा दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करके कानून बनाने की शक्ति संसद् को दे सकती है।

प्रश्न 8. 30 अप्रैल, 1977 को जनता सरकार ने जिन राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने का निर्णय किया उनमें से किन्हीं दो राज्यों का नाम लिखें।
उत्तर-

  1. पंजाब
  2. हरियाणा।

प्रश्न 9. केन्द्र और प्रान्तों के बीच एक वित्तीय सम्बन्ध बताओ।
उत्तर-केन्द्र प्रान्तों को अनुदान देता है।

प्रश्न 10. संघ सूची में कितने विषय हैं ?
उत्तर-97 विषय।

प्रश्न 11. राज्य सूची में कितने विषय हैं ?
उत्तर-राज्य सूची में 66 विषय हैं।

प्रश्न 12. समवर्ती सूची के विषयों की संख्या बताओ।
उत्तर-समवर्ती सूची में 47 विषय हैं।

प्रश्न 13. संघ सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर-संघ सूची पर केन्द्र सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 14. राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर-राज्य सूची पर राज्य सरकार कानून बनाती है।

प्रश्न 15. संघ तथा राज्य सूची का एक-एक विषय लिखो।
उत्तर-मुद्रा व रेलवे संघ सूची के विषय हैं जबकि पुलिस व सड़क परिवहन राज्य सूची के विषय हैं।

प्रश्न 16. समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार किसके पास है?
उत्तर-संसद् तथा राज्य विधानमण्डल दोनों के पास है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित कुछ बिलों पर ………… की अनुमति आवश्यक है।
2. अनुच्छेद ……… के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सरकार को आवश्यकतानुसार निर्देश दे सकता है।
3. संविधान के अनुच्छेद ………. के अनुसार राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है।
4. नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति ………… के परामर्श से राष्ट्रपति करता है।
5. राज्य सरकार अपने राज्य विधान मण्डल द्वारा दिये गए नियमों के अन्तर्गत अपनी ……….. की जमानत पर केन्द्रीय सरकार से ऋण ले सकती है।
उत्तर-

  1. राष्ट्रपति
  2. 257
  3. 280
  4. मन्त्रिमण्डल
  5. संचित निधि।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत में संघ एवं राज्यों में कोई सम्बन्ध नहीं पाया जाता।
2. केन्द्र एवं राज्यों के सम्बन्धों का वर्णन भारतीय संविधान के भाग XI की 19 धाराओं (अनुच्छेद 245-263) में मिलता है।
3. संघ सूची पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार को ही है।
4. राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार को ही है।
5. राज्यपाल की नियुक्ति मुख्यमंत्री करता है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघीय सूची में कितने विषय हैं ?
(क) 66
(ख) 44
(ग) 97
(घ) 107
उत्तर-
(ग) 97

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से एक संघीय सूची का विषय है-
(क) सिंचाई
(ख) कानून-व्यवस्था
(ग) भू-राजस्व
(घ) प्रतिरक्षा।
उत्तर-
(घ) प्रतिरक्षा।

प्रश्न 3.
यह किसने कहा था-“भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है पर भावना में एकात्मक है ?”
(क) डी० एन० बैनर्जी
(ख) दुर्गादास बसु
(ग) डॉ० अम्बेदकर
(घ) के० सी० व्हीयर।
उत्तर-
(क) डी० एन० बैनर्जी

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संघात्मक व्यवस्था की प्रकृति की व्याख्या करें। (Discuss the nature of Indian Federalism.)
अथवा
“भारतीय संविधान की प्रकृति संघीय है, परन्तु आत्मिक रूप से एकात्मक है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
(“The Indian Constitution is federal in nature but unitary in spirit.” Examine the statement.)
उत्तर- भारतीय संविधान ने भारत में संघात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है और भारतीय संघ को विश्व के संघात्मक संविधान में एक विशेष स्थान प्राप्त है। परन्तु भारतीय संविधान की किसी अन्य व्यवस्था की शायद ही इतनी आलोचना हुई हो जितनी कि संघीय व्यवस्था की हुई है। प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता है कि क्या भारत वास्तव में एक संघीय राज्य है ? क्योंकि भारत के संविधान में कई प्रकार के उपबन्ध तथा एकात्मक रुचियां देखकर यह सन्देह होने लगता है कि भारत एक संघीय राज्य नहीं है। भारतीय संविधान में संघात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। संविधान के अनुच्छेद एक में भारत को यूनियन ऑफ़ स्टेट्स (Union of States) कहा गया है।

प्रो० डी० एन० बैनर्जी ने इस विषय पर अपना विचार बताते हुए कहा कि “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है पर भावना में एकात्मक है।” (“It is federal in structure but unitary in spirit.”) श्री दुर्गादास बसु (D.D. Basu) का विचार है कि, “भारत का संविधान न तो पूर्ण रूप से एकात्मक है तथा न ही पूर्ण संघात्मक ; यह दोनों का मिश्रण है।”
स्पष्ट है कि विद्वानों ने भारतीय संघ के स्वरूप पर विभिन्न मत प्रकट किए हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि भारतीय संघ का स्वरूप संघात्मक है जिसमें सन्तुलन केन्द्र की ओर झुका हुआ है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की वे कौन-सी विशेषताएं हैं जिनके कारण यह एक संघात्मक संविधान बन गया है ?
(What are the major characteristics that make the Indian Constitution a Federal Constitution ?)
अथवा
भारत की संघात्मक प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
(Describe the major characteristics of Indian Federal System.)
अथवा
उन प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो जो भारतीय संविधान को संघात्मक स्वरूप प्रदान करती हैं।
(Describe the major characteristics that make the Indian Constitution federal.)
उत्तर-
यद्यपि भारत के संविधान में संघ (Federal) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, इसके बावजूद भी पो० एलेग्जेंडरा विक्स (Alexandra Wics) ने कहा है, “भारत निःसन्देह संघात्मक राज्य है जिसमें प्रभुसत्ता के तत्त्वों को केन्द्र और राज्यों में बांटा हुआ है।” पाल एपलबी (Paul Appleby) के मतानुसार, “भारत पूर्ण रूप में संघात्मक राज्य है।” (India is completely a federal state)। भारतीय संविधान में निम्नलिखित संघीय तत्त्व विद्यमान हैं-

1. शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) हर संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची के 97 विषयों पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार है। राज्य सूची में मूल रूप से 66 विषय हैं। इन पर राज्यों को कानून बनाने का अधिकार है। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं । समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है।

अवशेष शक्तियां (Residuary Powers)-वे विषय जिनका वर्णन राज्य सूची और समवर्ती सूची में नहीं आया वे केन्द्रीय क्षेत्राधिकार में आ जाते हैं और इन विषयों पर केन्द्र कानून बना सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

2. लिखित संविधान (Written Constitution)—संघीय व्यवस्था का संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का वर्णन स्पष्ट रूप से किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं।

3. कठोर संविधान (Rigid Constitution)-संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान कठोर संविधान है चाहे यह इतना कठोर नहीं जितना कि अमेरिका का संविधान। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संसद् दो तिहाई बहुमत से राज्यों के आधे विधानमण्डलों के समर्थन पर ही संशोधन कर सकती है।

4. संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution)-भारतीय संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान की सर्वोच्चता है। संविधान के अनुसार बनाए गए कानूनों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई व्यक्ति, संस्था, सरकारी कर्मचारी या सरकार संविधान और संविधान के अन्तर्गत बनाए गए कानूनों के विरुद्ध नहीं चल सकता। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय किसी भी कानून को या कार्यपालिका के आदेश को अंसवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के विरुद्ध हों।

5. न्यायपालिका की सर्वोच्चता (Supremacy of the Judiciary)-भारतीय संघ की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता न्यायपालिका की सर्वोच्चता है। न्यायालय स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष है और इसे संघ व राज्यों के आपसी झगड़ों को निपटाने, संविधान की व्याख्या करने और संविधान की रक्षा हेतु कानूनों तथा आदेशों की संवैधानिकता परखने और उसके बारे में अपना निर्णय देने का अधिकार है। संघ और राज्यों का आपसी झगड़ा सीधा इसके पास आता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता। इसके द्वारा दी गई संविधान की व्याख्या सर्वोच्च तथा अन्तिम मानी जाती है।

6. द्विसदनीय व्यवस्थापिका (Bicameral Legislature)-संघात्मक शासन प्रणाली में विधानमण्डल का द्विसदनीय होना आवश्यक होता है। भारतीय संसद् के दो सदन हैं-लोकसभा और राज्यसभा। लोकसभा जनसंख्या के आधार पर समस्त देश का प्रतिनिधित्व करती है जबकि राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

7. दोहरी शासन प्रणाली (Dual Polity)-एक संघीय राज्य में दोहरी शासन प्रणाली होती है। संघ अनेक इकाइयों से निर्मित होता है। संघीय सरकार तथा राज्य सरकार दोनों संविधान की उपज हैं। जिस प्रकार केन्द्र में संसद्, राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व मन्त्रिमण्डल हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राज्य में विधानमण्डल, गवर्नर, मुख्यमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल है। केन्द्र और राज्य सरकारों के वैधानिक, प्रशासनिक तथा वित्तीय सम्बन्ध संविधान द्वारा निर्धारित किए गए हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में वर्णित उन धाराओं का वर्णन करें जो केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के पक्ष में
(Describe the various provisions in the Indian Constitution which show a bias in favour of the centre.)
उत्तर-
इसमें शक नहीं है कि भारतीय संविधान में संघ के सभी लक्षण विद्यमान हैं, परन्तु जो लोग इसकी आलोचना करते हैं और कहते हैं कि इसका झुकाव एकात्मकता की ओर है, उनकी बातें भी तर्कहीन नहीं हैं। निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय संविधान को एकात्मक बताया जाता है-

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में (Division of powers in favour of Centre)-भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है, वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्यसूची के विषयों के मुकाबले में बहुत अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य-सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के 47 विषयों पर भी वास्तविक अधिकार केन्द्र का है, राज्यों का नहीं। क्योंकि यदि राज्य सरकार केन्द्रीय कानून का विरोध करती है तो राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून उस सीमा तक रद्द कर दिया जाएगा। अवशेष शक्तियां भी केन्द्र के पास हैं राज्य के पास नहीं। अमेरिका, स्विट्ज़रलैण्ड, रूस, ऑस्ट्रेलिया आदि के संविधानों में अवशेष शक्तियां राज्यों के पास हैं।

2. राज्य सूची पर केन्द्र का हस्तक्षेप (Encroachment over the State List by the Union Government)-राज्य सरकारों को राज्य-सूची पर भी पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है। संघ सरकार निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है-

  • संसद् विदेशों से किए गए किसी समझौते या सन्धि को लागू करने और किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हुए निर्णय को लागू करने के लिए किसी भी विषय पर कानून बना सकती है, चाहे वह विषय राज्य-सूची में क्यों न हो।
  • राज्यसभा जो कि संसद् का एक अंग है, 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राज्य-सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है और संसद् को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
  • जब किसी राज्य में संवैधानिक यन्त्र फेल होने पर वहां का शासन राष्ट्रपति अपने हाथों में ले ले, तो संसद् को यह अधिकार है कि वह राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाए। यह कानून केवल संकटकाल वाले राज्यों पर ही लागू होता है।
  • राज्य-सूची में कुछ विषय ऐसे हैं जिनके बारे में राज्य विधानमण्डल में कोई भी बिल राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकृति के बिना पेश नहीं किया जा सकता। कुछ विषय ऐसे भी हैं जिन पर राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए अवश्य रक्षित किए जाते हैं, राज्यपाल उन पर अपनी स्वीकृति नहीं दे सकता।
  • जब दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद् से राज्यसूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो संसद् उस मामले पर कानून बना सकेगी। यह कानून प्रार्थना करने वाले पर ही लागू होगा।

3. राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति (Appointment of the Governors by the President)-भारत में राज्यों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति की प्रसन्नता तक ही अपने पद पर रह सकते हैं अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है। अमेरिका में राज्यों के राज्यपाल जनता द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं। भारत में राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि है तथा राज्यपालों द्वारा केन्द्र का राज्यों पर पूरा नियन्त्रण रहता है। शान्तिकाल में राज्यपाल नाममात्र का अध्यक्ष होता है परन्तु संकटकाल में राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में वास्तविक शासक बन जाता है।

4. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार नहीं है-संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में संघ की इकाइयों का अपना अलग संविधान है और वे अपने संविधान में स्वयं संशोधन कर सकते हैं। परन्तु भारत में जम्मू व कश्मीर राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों का अपना अलग कोई संविधान नहीं। उनकी शासन व्यवस्था का विवरण संघीय संविधान में ही किया गया है।

5. संसद् को राज्यों के क्षेत्र में परिवर्तन करने, नवीन राज्य उत्पन्न करने या पुराने राज्य समाप्त करने का अधिकार–संसद् राज्यों के क्षेत्रों को कम या बढ़ा सकती है। संसद् को यह अधिकार है कि वह दो या अधिक राज्यों को मिलाकर उनमें से कोई क्षेत्र निकाल कर नए राज्य बनाए। इस प्रकार संसद् किसी राज्य की सीमा बदल सकती है और उसका नाम भी बदल सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 25 भारतीय संघात्मक व्यवस्था

6. संवैधानिक संशोधन में संघीय सरकार का महत्त्व (Importance of the Union Govt. in Constitutional Amendments)-कहने को तो भारतीय संविधान कठोर है परन्तु संविधान के संशोधन में राज्यों का भाग लेने का अधिकार महत्त्वपूर्ण नहीं है। संविधान का थोड़ा-सा भाग ही कठोर है जिसमें संशोधन के लिए आधे राज्यों का अनुमोदन आवश्यक है। संविधान के शेष भाग में संशोधन करते हुए राज्यों की स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं। इसके अतिरिक्त संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद् ही पेश कर सकती है, राज्य नहीं। अमेरिका तथा स्विट्ज़रलैण्ड दोनों देशों में इकाइयों को भी संशोधन का प्रस्ताव पेश करने का अधिकार है। ।

7. राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व-अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड के उच्च सदनों में इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया है। परन्तु भारत में राज्यसभा के प्रतिनिधियों की संख्या राज्यों की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की गई है और वह समान नहीं है।

8. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship)-संघात्मक देशों के नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है। वे अपने राज्यों के भी नागरिक कहलाते हैं और समस्त देश के भी। परन्तु भारत में लोगों को एक ही नागरिकता प्रदान की गई है। वे केवल भारत के ही नागरिक कहला सकते हैं, अलग-अलग राज्यों के नागरिक नहीं। यह बात भी संघीय सिद्धान्त के विरुद्ध है।

9. इकहरी न्याय व्यवस्था (Single Judicial System)—संघीय राज्य में प्रायः दोहरी न्याय व्यवस्था को अपनाया जाता है जैसे कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में है। परन्तु भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। देश के सभी न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्य करते हैं और न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय सबसे ऊपर है।

10. अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (All India Administrative Services)-राज्यों में उच्च पदों पर कार्य करने वाले अधिकारी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं जैसे I.A.S. I.P.S. इत्यादि के सदस्य होते हैं। इन अधिकारियों पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण होता है और राज्य सरकारें इन्हें हटा नहीं सकतीं।

11. संविधान में संघ शब्द का अभाव (Constitution does not mention the word Federation)भारतीय संविधान ‘संघ’ (Federation) शब्द का प्रयोग नहीं करता बल्कि इसने Federation के स्थान पर Union शब्द का प्रयोग किया है।

12. संकटकाल में एकात्मक शासन (Unitary Government in time of emergency)-संकटकाल में देश का संघात्मक ढांचा एकात्मक ढांचे में बदला जा सकता है और इसके लिए संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं। संघ सरकार ही संकटकाल की घोषणा जारी कर सकती है। अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अनुसार राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है। संकट के नाम पर देश के समस्त शासन को एकात्मक रूप दिया जा सकता है।

13. राज्य का वित्तीय मामलों में संघीय सरकार पर निर्भर होना (Financial Dependence of the State on Centre)-आलोचकों का यह भी कथन है कि हमारे संविधान में राज्यों की आर्थिक अवस्था इतनी कमज़ोर रखी गई है कि वे अपने छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी केन्द्र पर निर्भर रहते हैं। योजना आयोग तथा केन्द्रीय सरकार कुछ इस प्रकार की शर्ते लगा सकते हैं जिन्हें पूरा किए बिना राज्यों को अनुदान नहीं मिलेगा।

14. राष्ट्रीय विकास परिषद् (National Development Council)-ऐसी राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना से केन्द्रीय सरकार के आर्थिक क्षेत्र के नियन्त्रण में विशेष वृद्धि हुई है।

15. एक चुनाव आयोग (One Election Commission)-समस्त भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग है। यही संघ तथा इकाइयों के लिए चुनावों की व्यवस्था करता है।

16. एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (One Comptroller and Auditor General)-एकात्मक शासन-प्रणाली वाले देशों की तरह सारे देश की वित्तीय शासन व्यवस्था को भारत में एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के अधीन रखा गया है।

17. केन्द्रीय क्षेत्रों का शासन केन्द्रीय सरकार के अधीन-केन्द्रीय क्षेत्रों का प्रशासन सीधे केन्द्रीय सरकार करती है जो संघीय व्यवस्था के माने हुए सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

18. विधान परिषद् की समाप्ति-किसी प्रान्त की विधानसभा यदि मत देने वाले उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई तथा कुल सदस्यों के स्पष्ट बहुमत से विधानपरिषद् को समाप्त करने का प्रस्ताव पास कर दे तो संसद् उसे कानून बनाकर समाप्त भी कर सकती है। यदि विधानपरिषद् न हो और ऐसा ही एक प्रस्ताव विधानसभा पास कर दे तो संसद् विधानपरिषद् को बना भी सकती है।

19. वित्त आयोग की नियुक्ति (Appointment of Finance Commission)-वित्त आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यह केन्द्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय सम्बन्धों के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है। केन्द्रीय सरकार वित्तीय आयोग की सिफारिशों को मानने के लिए स्वतन्त्र है। राष्ट्रपति ने 27 नवम्बर, 2017 को श्री एन० के० सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग की नियुक्ति की।

क्या भारत को सच्चा संघ कहना उचित होगा ?
(Is India a True Federation ?)

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संघात्मक शासन की विशेषताएं हैं और संविधान में ऐसे भी लक्षण हैं जिनसे भारतीय संविधान का एकात्मक शासन की ओर झुकाव दिखाई देता है। हमारे संविधान निर्माता संघात्मक शासन-प्रणाली के साथ-साथ केन्द्र को इतना शक्तिशाली बनाना चाहते थे ताकि किसी भी स्थिति का सामना किया जा सके। शक्तिशाली केन्द्र के कारण ही कई विद्वानों ने भारत को संघात्मक शासन मानने से इन्कार किया है और उन्होंने भारतीय संविधान को अर्द्ध-संघात्मक (Quasi-Federal) कहा है। संविधान सभा के कई सदस्यों ने ऐसा ही मत प्रकट किया था। उदाहरणस्वरूप, श्री पी० टी० चाको (P.T. Chacko) ने कहा है, “संविधान का बाहरी रूप संघात्मक होगा, परन्तु वास्तव में इसमें एकात्मक सरकार की स्थापना की गई है।” डॉ० के० सी० हवीयर ने इसे अर्द्ध-संघात्मक कहा है।

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यद्यपि आलोचकों के मत में काफ़ी वजन है किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में संघात्मक व्यवस्था नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ केन्द्र को जान-बूझ कर शक्तिशाली बनाया था। __शान्ति के समय भारत में संघात्मक शासन प्रणाली है और प्रान्तों को अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। परन्तु असाधारण परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार को विशेष शक्तियां दी गई हैं ताकि देश की एकता तथा स्वतन्त्रता को बनाए रखा जा सके। संकटकाल की समाप्ति के साथ ही प्रान्तों को पुन: सभी शक्तियां सौंप दी जाती हैं। अतः भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की गई है ताकि असाधारण परिस्थितियों पर काबू पाया जा सके। बदलती हुई राजनीति परिस्थितियों में केन्द्र तथा राज्यों के बीच मुठभेड़ से राष्ट्रीय एकता कमज़ोर पड़ सकती है। इसलिए केन्द्र और राज्यों की सरकारों को एक-दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए ताकि राष्ट्र की समस्याओं को हल किया जा सके।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के चार संघात्मक लक्षण लिखें।
उत्तर-
भारतीय संविधान में अग्रलिखित संघीय तत्त्व विद्यमान हैं-

  1. शक्तियों का विभाजन-प्रत्येक संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची।
  2. लिखित संविधान-संघीय व्यवस्था में संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं।
  3. कठोर संविधान-संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संसद् दो-तिहाई बहुमत तथा राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत से ही संशोधन कर सकती है।
  4. संविधान सर्वोच्चता-भारतीय संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान की सर्वोच्चता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के चार एकात्मक लक्षण लिखें।
उत्तर-
निम्नलिखित बातों के आधार पर भारतीय संविधान को एकात्मक कहा जाता है-

  1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्य सूची के विषयों की संख्या से अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं जबकि राज्य सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर भी असल अधिकार केन्द्र का है।
  2. राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति-भारत में राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर्यन्त ही अपने पद पर रह सकते हैं अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है।
  3. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार नहीं है—भारत में जम्मू-कश्मीर राज्यों को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य का अपना अलग कोई संविधान नहीं है। उनकी शासन व्यवस्था का विवरण संघीय संविधान में ही किया गया है।
  4. इकहरी नागरिकता-भारत में लोगों को इकहरी नागरिकता प्रदान की गई है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी भावना में एकात्मक है। व्याख्या करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान का ढांचा संघात्मक है परन्तु भावना में एकात्मक है। भारतीय संविधान में संघात्मक लक्षण पाए जाते हैं जैसे कि लिखित एवं कठोर संविधान, शक्तियों का विभाजन, संविधान की सर्वोच्चता, स्वतन्त्र न्यायपालिका इत्यादि। परन्तु भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व भी मिलते हैं जिनके कारण यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान एकात्मक है। भारत में शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में है इसलिए केन्द्र सरकार बहुत ही शक्तिशाली है। केन्द्र सरकार अनेक परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है। सारे देश के लिए एक संविधान है और नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है। राज्यों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। संकटकाल में देश का संघात्मक ढांचा एकात्मक ढांचा में बदला जा सकता है और इसके लिए संविधान में किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं है। भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। सम्पूर्ण भारत के लिए एक ही चुनाव आयोग है।

प्रश्न 4.
अर्द्ध-संघात्मक शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
अर्द्ध-संघात्मक का अर्थ है कि संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा तो किया गया हो, परन्तु राज्य कम शक्तिशाली हो जबकि केन्द्र अधिक शक्तिशाली हो। भारत की संघीय व्यवस्था को अर्द्ध-संघात्मक का नाम दिया जाता है क्योंकि भारत में केन्द्र प्रान्तों की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली है। प्रो० के० सी० बीयर के शब्दों में, “भारत का नया संविधान ऐसी शासन व्यवस्था को जन्म देता है जो अधिक-से-अधिक अर्द्ध-संघीय है। भारत एकात्मक लक्षणों वाला संघात्मक राज्य नहीं है, अपितु सहायक संघात्मक लक्षणों वाला एकात्मक राज्य है।”

प्रश्न 5.
राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ बताओ।
उत्तर-
संघीय शासन प्रणाली में संविधान के अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा किया जाता है। राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ है कि इकाइयों को अपने आन्तरिक क्षेत्र में अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। जो शक्तियां राज्यों को संविधान के द्वारा दी गई हैं, उनमें केन्द्र का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

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प्रश्न 6.
भारत में शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता के चार कारण लिखें।
अथवा
भारत में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के कोई दो कारण लिखो।
उत्तर-

  • देश की विभिन्न समस्याओं का सामना करने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई है।
  • देश के आर्थिक विकास के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता थी और इसीलिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई।
  • राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए तथा राष्ट्रवाद की भावना के विकास के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता थी।
  • बाहरी आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए तथा देश की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 7.
वित्त आयोग के प्रावधान व रचना का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की धारा 280 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि, “देश की आर्थिक एवं वित्तीय परिस्थिति के अध्ययन के लिए समय-समय पर राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है।” अनुच्छेद 280 में यह प्रावधान है कि, “इस संविधान के प्रारम्भ अथवा लागू होने के दो वर्ष के भीतर और उसके बाद आने वाले पांच वर्षों के लिए उसकी अवधि समाप्त होने से पूर्व राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करेगा, जोकि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक सभापति और 4 अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा। अशोक चन्दा के शब्दों में, “वित्त आयोग के प्रावधान का अभिप्राय राज्यों को आश्वस्त कराने के लिए किया गया था कि वितरण की योजना संघ द्वारा स्वेच्छा से नहीं बनाई जाएगी बल्कि एक स्वतन्त्र आयोग द्वारा बनाई जाएगी जो राज्यों की बदलती हुई आवश्यकताओं को आंकेगा। अब तक राष्ट्रपति द्वारा 15 वित्त आयोग नियुक्त किए जा चुके हैं।”

प्रश्न 8.
वित्त आयोग के चार मुख्य कार्य लिखें।
उत्तर-
वित्त आयोग के कार्यों का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है-

  1. वित्त आयोग संघीय राज्यों के मध्य राजस्व के वितरण जैसे जटिल किन्तु महत्त्वपूर्ण प्रश्नों से सम्बन्धित है। वित्त आयोग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राज्यों के मध्य आपसी दूरी को व केन्द्र और राज्य के मध्य पैदा हुए विवादों के निपटारे के लिए एक निर्णायक की भूमिका अदा करेगा।
  2. आयोग का प्रमुख कार्य आयकर के प्रमुख साधनों को वितरित करने हेतु तथा राज्यों के मध्य अपना प्रतिवेदना या फैसला प्रस्तुत करना है।
  3. राष्ट्रपति वित्त आदि मामले के विषय में हस्तक्षेप कर सकता है किन्तु आयकर के सम्बन्ध में उसकी सिफ़ारिशों का अध्ययन करने के बाद राष्ट्रपति अपने आदेश द्वारा वितरण की प्रणाली एवं प्रतिशत भाग को निर्धारित करता है। इस कार्य में संसद् प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेती है।
  4. वित्त आयोग पर कर वितरण के सिद्धांत निश्चित करने के दायित्व हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था किस संशोधन द्वारा की गई?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में शामिल किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  1. संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना- भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  1. मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  2. मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. भारतीय संविधान की कोई एक संघात्मक विशेषता बताइए।
उत्तर-केंद्र तथा प्रांतों में शक्तियों का विभाजन किया गया है।

प्रश्न 2. भारतीय संविधान का कोई एक एकात्मक लक्षण बताइए।
उत्तर-शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में है।

प्रश्न 3. शक्तिशाली केंद्र बनाने का कोई एक कारण बताइए।
उत्तर-देश की विभिन्न समस्याओं का समाधान करने के लिए शक्तिशाली केंद्र की व्यवस्था की गई।

प्रश्न 4. भारत में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त है या इकहरी ?
उत्तर-भारत में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है।

प्रश्न 5. भारत में किस राज्य का अपना अलग संविधान है ?
उत्तर-जम्मू-कश्मीर।

प्रश्न 6. भारतीय संविधान का स्वरूप कैसा है?
उत्तर- संघात्मक ढांचा और एकात्मक आत्मा।

प्रश्न 7. यह कथन किसका है कि, “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है, पर भावना में एकात्मक है?”
उत्तर-यह कथन डी० एन० बैनर्जी का है।

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प्रश्न 8. क्या संघीय सरकार में शक्तियों का बंटवारा होता है ?
उत्तर-हां, संघीय सरकार में शक्तियों का बंटवारा होता है।

प्रश्न 9. भारत किसका संघ है?
उत्तर–भारत राज्यों का संघ है।

प्रश्न 10. भारतीय संविधान में वर्तमान समय में कितने अनुच्छेद हैं ?
उत्तर- भारतीय संविधान में वर्तमान समय में 395 अनुच्छेद हैं।

प्रश्न 11. अवशेष शक्तियां किसके अधीन हैं?
उत्तर-अवशेष शक्तियां केन्द्र के अधीन हैं।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………. के अनुसार “भारतीय संविधान रूप में तो संघात्मक है, पर भावना में एकात्मक है।”
2. संघ सूची में ………….. विषय शामिल हैं।
3. राज्य सूची में ………….. विषय शामिल हैं।
4. समवर्ती सूची में …………. विषय शामिल हैं।
5. भारत में …………. विधानपालिका की व्यवस्था की गई है।
उत्तर-

  1. प्रो० डी० एन० बैनर्जी
  2. 97
  3. 66
  4. 47
  5. द्वि-सदनीय।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत में दोहरी नागरिकता पाई जाती है।
2. भारत में शक्तियों का विभाजन केंद्र के पक्ष में किया गया है।
3. राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार है।
4. राज्य सभा में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. गलत
  4. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संघात्मक सरकार के लिए कौन-सा तत्त्व आवश्यक है ?
(क) लिखित संविधान
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) कठोर संविधान
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में कौन-से संघीय तत्त्व पाए जाते हैं ?
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) लिखित संविधान
(ग) संविधान की सर्वोच्चता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
राज्य सूची पर कौन कानून बना सकता है ?
(क) राज्य सरकार
(ख) केंद्र सरकार
(ग) स्थानीय सरकार
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) राज्य सरकार

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प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में कितने अनुच्छेद हैं ?
(क) 395
(ग) 365
(ख) 250
(घ) 340.
उत्तर-
(क) 395

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में सम्मिलित मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करो।
(Explain the fundamental duties enshrined in the Indian Constitution.) (Textual Question)
अथवा
संविधान में किस संवैधानिक संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया है ? किन्हीं पांच मौलिक कर्तव्यों की व्याख्या करें।
(Which of the Constitutional amdendment has incorporated fundamental duties in the Constitution ? Explain any five fundamental duties.)
उत्तर-
कोई भी देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागृत न हों और अपने कर्तव्यों का पालन न करें। जिन देशों ने महान् उन्नति की है उनकी उन्नति का रहस्य ही यही है कि उनके नागरिकों ने अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों को अधिक महत्त्व दिया। चीन, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का वर्णन भी किया गया है।

भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया भाग IVA ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया। इस नये भाग में 51-A नामक का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस कर्तव्यों का वर्णन किया गया। दिसम्बर 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्तव्य शामिल किया गया, इससे मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई। ये 11 मौलिक कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

1. संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना-भारत का नया संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था। हमारा संविधान देश का सर्वोच्च कानून है जिसका पालन करना सरकार के तीनों अंगों का कर्तव्य ही नहीं है बल्कि नागरिकों का भी परम कर्तव्य है, इसलिए संविधान के 42वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 51-A के अधीन भारतीय नागरिकों के लिए यह मौलिक कर्त्तव्य अंकित किया गया है कि “वह संविधान का पालन करें और इसके आदर्शों, इसकी संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का सम्मान करें।” ।

2. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-राष्ट्रीय आन्दोलन कुछ आदर्शों पर आधारित था जैसे कि अहिंसा में विश्वास, संवैधानिक साधनों में विश्वास, धर्म-निरपेक्षता, सामान्य भ्रातृत्व, राष्ट्रीय एकता इत्यादि। स्वतन्त्र भारत इन आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है और इन आदर्शों को आधार मान कर ही भारतीय राष्ट्र का पुनः निर्माण किया जा रहा है। अतः आवश्यक है कि भारतीय इन आदर्शों का पालन करें और इसलिए 42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह परम कर्तव्य है कि स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को उत्साहित करने वाले आदर्शों का सम्मान और पालन करे।”

3. भारतीय प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन और रक्षा करना-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को प्रभुसत्ता-सम्पन्न समाजवादी धर्म-निरपेक्ष प्रजातन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन और उसकी रक्षा करे।

4. देश की रक्षा करना तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग लेना-उत्तरी कोरिया, चीन और यहां तक कि अमेरिका में भी प्रत्येक शारीरिक रूप से योग्य नागरिक के लिए कुछ समय तक सैनिक सेवा करना आवश्यक है, परन्तु भारतीय संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिए 42वें संशोधन के अन्तर्गत संविधान में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह देश की रक्षा तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग ले।

5. भारत में सब नागरिकों में भ्रातृत्व की भावना विकसित करना-राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए यह लिखा गया है कि “प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह धार्मिक, भाषायी तथा क्षेत्रीय या वर्गीय भिन्नताओं से ऊपर उठकर भारत के सब लोगों में समानता तथा भ्रातृत्व की भावना विकसित करे।”
नारियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह उन प्रथाओं का त्याग करे जिससे नारियों का अनादर होता है।

6. लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलाना-आधुनिक युग विज्ञान का युग है, परन्तु भारत की अधिकांश जनता आज भी अन्ध-विश्वासों के चक्कर में फंसी हुई है। उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी है जिस कारण वे अपने व्यक्तित्व तथा अपने जीवन का ठीक प्रकार से विकास नहीं कर पाते। इसलिए अब व्यवस्था की गई है कि “प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वैज्ञानिक स्वभाव, मानववाद तथा जांच करने और सुधार करने की भावना विकसित करे।”

7. प्राचीन संस्कृति की देनों को सुरक्षित रखना-आज आवश्यकता इस बात की है कि युवकों को भारतीय संस्कति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति में गर्व अनुभव कर सकें, इसलिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संयुक्त संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे तथा इसको स्थिर रखे।” । .

8. वनों, झीलों, नदियों तथा जंगली जानवरों की रक्षा करना तथा उनकी उन्नति के लिए यत्न करना-प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह वनों, झीलों, नदियों तथा वन्य-जीवन सहित प्राकृतिक वातावरण की रक्षा और सुधार करे तथा जीव-जन्तुओं के प्रति दया की भावना रखे।

9. हिंसा को रोकना तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति की रक्षा करना-प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करे तथा हिंसा का त्याग करे।

10. व्यक्तिगत तथा सामूहिक यत्नों के द्वारा उच्च राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए यत्न करना-कोई भी समाज तथा देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिकों में प्रत्येक कार्य करने की लिए लगन तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने की इच्छा न हो। अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह व्यक्तिगत तथा सामूहिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठता प्राप्त करने का यत्न करे ताकि राष्ट्र यत्न तथा प्रार्थियों के उच्च-स्तरों के प्रति निरन्तर आगे बढ़ता रहे।

11. छ: साल से 14 साल तक की आयु के बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों अथवा संरक्षकों द्वारा अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराने का प्रावधान करना।

प्रश्न 2.
मौलिक कर्तव्यों की महत्ता संक्षेप में बताएं। (Explain briefly the importance of fundamental duties.)
उत्तर-
संविधान में मौलिक कर्तव्यों का अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व निम्नलिखित आधारों पर वर्णन किया जा सकता है
1. मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में शामिल करके एक शून्य स्थान की पूर्ति की गई है। मूल रूप से भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को तो शामिल किया गया था परन्तु मौलिक कर्तव्यों को संविधान में शामिल नहीं किया गया था। इसके परिणामस्वरूप भारतीय नागरिक अपने अधिकारों के प्रति तो सचेत रहे परन्तु वे अपने कर्तव्यों को भूल चुके थे। 42वें संशोधन द्वारा इन कर्त्तव्यों को संविधान में अंकित कर संविधान में रह गई कमी को दूर कर दिया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 24 मौलिक कर्त्तव्य

2. मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक धारणा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं। कर्त्तव्यों के बिना अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व है। महात्मा गांधी का कहना था कि अधिकार कर्तव्यों का पालन करने से प्राप्त होते हैं। रूस, चीन, स्विट्जरलैंड आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों का भी वर्णन किया गया है।

3. मौलिक कर्त्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं- भारतीय संविधान में अंकित किये गये मौलिक कर्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं। इनके बारे में राजनीतिक विद्वानों के पृथक्-पृथक् अथवा विरोधी विचार नहीं हैं। ये कर्त्तव्य भारतीय संस्कृति के अनुकूल हैं। इनमें से अधिकतर कर्त्तव्यों का वर्णन हमारे धर्मशास्त्रों में मिलता है। सभी विद्वान् इस बात पर सहमत हैं कि इन कर्तव्यों का पालन भारत में सर्वप्रिय विकास के लिए अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा।

4. मौलिक कर्तव्यों का नैतिक महत्त्व है-मौलिक कर्तव्यों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं, परन्तु इनका स्वरूप नैतिक माना जाता है और उनका नैतिक स्वरूप अपना विशेष महत्त्व रखता है।

5. मौलिक कर्त्तव्य संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब भारत के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।

15 सितम्बर, 1976 को नई दिल्ली में अध्यापकों को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था कि “भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को सम्मिलित करने से भारतीयों के दृष्टिकोण में अवश्य ही परिवर्तन आयेगा। ये कर्त्तव्य लोगों की मनोवृत्तियों और चिन्तन शक्ति को बदलने में सहायक होंगे और यदि नागरिक इन्हें अपने मन में समायें तो हम शान्तिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण क्रान्ति ला सकते हैं।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना का वर्णन करें।
(Discuss the Criticism of Fundamental Duties.)
उत्तर-
मौलिक कर्तव्यों की निम्नांकित आधारों पर आलोचना की गई है-

1. कुछेक मौलिक कर्त्तव्य व्यावहारिक नहीं हैं-साम्यवादी दल के नेता भूपेश गुप्ता (Bhupesh Gupta) ने मौलिक कर्तव्यों की आलोचना करते हुए कहा कि स्वर्ण सिंह समिति ने आलोचनात्मक विवेचन नहीं किया कि जो कर्तव्य संविधान तथा कानून से उत्पन्न होते हैं उनका सही तौर पर पालन क्यों नहीं किया जाता रहा। उदाहरण के लिए एकाधिकारी (Monopolists) क्यों अपने इस कर्त्तव्य का पालन नहीं करते जो संविधान के अनुच्छेद 39C से उत्पन्न होता है। बड़े-बड़े एकाधिकारी अपने लाभ के लिए उन तरीकों को अपनाते हैं जिनसे उनके पास धन केन्द्रित होता जाता है, जबकि संविधान में लिखा गया है कि उत्पादन के साधनों तथा देश के धन पर थोड़े-से व्यक्तियों का नियन्त्रण नहीं होगा। इसी प्रकार धर्म-निरपेक्षता के पक्ष में और साम्प्रदायिकतावाद के विरुद्ध अनेक कानून होते हुए भी क्यों साम्प्रदायिक शक्तियां बढ़ती जा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि संविधान में केवल मौलिक कर्त्तव्यों को लिख देने से कुछ फर्क नहीं पड़ता जब तक उनका पालन न किया जाए।

2. मौलिक कर्त्तव्य केवल पवित्र इच्छाएं हैं-आलोचकों ने मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की है कि इन्हें लागू करने के लिए लोगों को इनके प्रति सचेत करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। इस प्रकार मौलिक कर्त्तव्य केवल पवित्र इच्छाएं (Pious Wishes) हैं।

3. कुछ मौलिक कर्तव्यों की अनुपस्थिति-संसद् के कुछ सदस्यों ने मौलिक कर्तव्यों में मन्त्रियों, विधायकों और सार्वजनिक कर्मचारियों के कर्त्तव्यों को शामिल करने पर जोर दिया था। कुछ सदस्यों ने ये प्रस्ताव पेश किए थे कि सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य मतदान, करों का ईमानदारी से भुगतान, अनिवार्य सैनिक प्रशिक्षण, परिवार नियोजन आदि कर्तव्यों में शामिल किया जाएं।

4. कुछ मौलिक कर्त्तव्य स्पष्ट नहीं हैं-मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की गई है कि कुछ कर्तव्यों की भाषा इस प्रकार की है कि आम व्यक्ति उसे समझ नहीं सकते। उदाहरण के लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्श, संयुक्त संस्कृति की सम्पन्न सम्पदा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास इत्यादि कुछ ऐसे कर्त्तव्य हैं जिनको समझना साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है।

5. कुछेक मौलिक कर्त्तव्य दोहराए गए हैं-कर्त्तव्यों की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि कई ऐसे कर्त्तव्य हैं जिन्हें केवल मात्र दोहराया गया है। उदाहरण के लिए तीसरा कर्त्तव्य कहता है कि नागरिकों को भारत की सम्प्रभुता की रक्षा करनी चाहिए, लगभग वही बात चौथे कर्त्तव्य के अन्तर्गत इन शब्दों में रखी गई है कि नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए।

6. कुछ मौलिक कर्त्तव्य व्यर्थ हैं-संविधान में शामिल किए गए कुछ कर्त्तव्य व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके लिए देश में पहले ही साधारण कानूनों के अन्तर्गत व्यवस्था की जा चुकी है। जैसे 1956 का “The Supression of Immoral Traffic in Women and Girls” का कानून उन रीतियों की मनाही करता है जिनसे नारियों का अनादर होता है। इसी प्रकार 1971, “The Prevention of Insult to National Honours” कानून राष्ट्रीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गान का सम्मान करने की व्यवस्था करता है और जो नागरिक इस कानून का उल्लंघन करता है उसे तीन वर्ष तक की कैद की सजा या जुर्माना या दोनों दण्ड दिए जा सकते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह मौलिक कर्त्तव्यों की आलोचना की गई है, परन्तु इससे मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। संविधान में मौलिक कर्तव्यों के अंकित किए जाने से ये नागरिकों को सदैव याद दिलाते रहेंगे कि नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य भी हैं। आवश्यकता इस बात की है कि नागरिकों में इन कर्तव्यों के प्रति जागृति उत्पन्न की जाये और जो व्यक्ति इन कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते उनके विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
42वें संशोधन द्वारा संविधान में अंकित मौलिक कर्तव्यों में से किन्हीं चार मौलिक कर्त्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

  • संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना-भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”
  • भारतीय प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन एवं रक्षा करे।
  • लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलना।

प्रश्न 2.
मौलिक कर्त्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
संविधान में मौलिक कर्तव्यों को अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। मौलिक कर्त्तव्यों का निम्नलिखित महत्त्व है-

  • मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्त्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  • मौलिक कर्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य संविधान के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक-संविधान की प्रस्तावना में लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।
  • मौलिक कर्त्तव्य विवादहीन सिद्धान्त हैं।

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का वर्णन संविधान में क्यों किया गया है ?
उत्तर-
देश की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें। भारतीय संविधान में केवल अधिकारों का वर्णन था, जिस कारण नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन थे। इसलिए नागरिकों के कर्तव्यों का वर्णन संविधान में किया गया ताकि नागरिक केवल अधिकारों की बात ही न सोचें बल्कि अपने कर्तव्यों के पालन करने के विषय में भी सोचें। इसके अतिरिक्त संविधान की प्रस्तावना में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब भारत के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करें।

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प्रश्न 4.
संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों में क्या कमियां हैं ?
उत्तर-

  • संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों की पहली कमी यह है कि इन कर्त्तव्यों को लागू करने के सम्बन्ध में कोई भी प्रबन्ध नहीं किया गया है। इस तरह ये केवल संविधान के आकार को ही बढ़ाते हैं।
  • इन कर्त्तव्यों की दूसरी कमी यह है कि इन मौलिक कर्त्तव्यों में कुछ महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों जैसे कि आवश्यक मतदान, ईमानदारी, अनुशासन का पालन करना, अधिकारों का मान आदि को इनमें शामिल नहीं किया गया है जबकि ये नागरिक के आवश्यक कर्त्तव्य हैं।
  • मौलिक कर्तव्यों का वर्णन मौलिक अधिकारों से अलग किया गया है जबकि कर्त्तव्य अधिकारों के साथ-साथ चलते हैं।
  • मौलिक कर्त्तव्य आदर्श हैं, इन पर चलना असम्भव है।

प्रश्न 5.
वर्तमान समय में भारतीय संविधान में कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
वर्तमान समय में भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A मौलिक कर्तव्य शामिल किया गया। इस नये भाग में 51-A नाम का एक अनुच्छेद जोड़ा गया जिसमें नागरिकों के दस कर्तव्यों का वर्णन किया गया। परन्तु दिसम्बर, 2002 में 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया, जिससे मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई।

प्रश्न 6.
राष्ट्र की सामाजिक संस्कृति को संरक्षित रखने के मौलिक कर्त्तव्य का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत एक विशाल देश है, जिसमें भिन्न-भिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों वाले लोग रहते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोगों की अपनी अलग संस्कृति है। इस प्रकार भारत में रहने वाले लोगों की एक संस्कृति नहीं, बल्कि अनेक संस्कृतियां पाई जाती हैं, परन्तु इन विभिन्न संस्कृतियों में महत्त्वपूर्ण समानताएं भी पाई जाती हैं और इन सांस्कृतिक समानताओं को राष्ट्र की संयुक्त संस्कृति कहा जाता है। राष्ट्र की एकता और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए यह आवश्यक है कि युवकों को भारतीय संस्कृति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति पर गर्व कर सकें। इसलिए मौलिक कर्त्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे तथा इनको स्थिर रखे।”

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था किस संशोधन द्वारा की गई?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी। परन्तु 42वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग IV-A ‘मौलिक कर्त्तव्य’ शामिल किया गया है। इस नए भाग में 51-A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया है जिसमें नागरिकों के मुख्य कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में शामिल किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करना- भारतीय नागरिक का प्रथम कर्त्तव्य यह है कि वह पूर्ण श्रद्धा से भारतीय संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करना-42वें संशोधन के अन्तर्गत लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करने वाले आदर्श का सम्मान एवं पालन करे।”

प्रश्न 3.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  • मौलिक कर्त्तव्य शून्य स्थान की पूर्ति करते हैं-मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में सम्मिलित करके रिक्त स्थान की पूर्ति की गई है।
  • मौलिक कर्त्तव्य आधुनिक विचारधारा के अनुकूल हैं-42वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में अंकित किया जाना आधुनिक विचारधारा के अनुकूल है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान के किस भाग एवं किस अनुच्छेद में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-संविधान के भाग IV-A तथा अनुच्छेद 51-A में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. संविधान के भाग IV-A में नागरिकों के कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को संविधान में किस संशोधन के द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

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प्रश्न 4. संविधान के किस भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-भाग IV में।

प्रश्न 5. संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा से संबंधित है ?
उत्तर-अनुच्छेद 51 में।

प्रश्न 6. मौलिक अधिकारों एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय संगत हैं, जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं।

प्रश्न 7. निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के कितने-से-कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 36 से 51 तक।

प्रश्न 8. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं ?
उत्तर-अनुच्छेद 37 के अनुसार।

प्रश्न 9. शिक्षा के अधिकार का वर्णन किस भाग में किया गया है?
उत्तर-शिक्षा के अधिकार का वर्णन भाग III में किया गया है।

प्रश्न 10. किस संवैधानिक संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का रूप दिया गया?
उत्तर-86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …….. संशोधन द्वारा …….. में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
2. वर्तमान समय में संविधान में ……….. मौलिक कर्त्तव्य शामिल हैं।
3. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन अनुच्छेद ………. तक में किया गया है।
4. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत ……… नहीं हैं।
उत्तर-

  1. 42वें, IV-A
  2. ग्यारह
  3. 36 से 51
  4. न्यायसंगत।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारतीय संविधान में 44वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए।
2. आरंभ में भारतीय संविधान में 6 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया था, परंतु वर्तमान समय में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है।
3. नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।
4. अनुच्छेद 51 के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
5. निर्देशक सिद्धांत कानूनी दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व रखते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
किस संविधान से हमें निर्देशक सिद्धांतों की प्रेरणा प्राप्त हुई है ?
(क) ब्रिटेन का संविधान
(ख) स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान
(ग) अमेरिका का संविधान
(घ) आयरलैंड का संविधान।
उत्तर-
(घ) आयरलैंड का संविधान।

प्रश्न 2.
निर्देशक सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(क) ये नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं
(ख) इनको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है
(ग) ये सकारात्मक हैं
(घ) ये सिद्धान्त राज्य के अधिकार हैं।
उत्तर-
(ग) ये सकारात्मक हैं

प्रश्न 3.
“राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है।” यह कथन किसका है ?
(क) प्रो० के० टी० शाह
(ख) मिस्टर नसीरूद्दीन
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) महात्मा गाँधी।
उत्तर-
(क) प्रो० के० टी० शाह

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है ?
(क) संविधान का पालन करना
(ख) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना
(ग) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना
(घ) माता-पिता की सेवा करना।
उत्तर-
(घ) माता-पिता की सेवा करना।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Describe the chief features of the Indian Constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Discuss the salient features of the Indian Constitution.)
उत्तर- भारत का संविधान एक संविधान सभा ने बनाया और इस संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इस संविधान की अपनी कुछ विशेषतायें हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

1. लिखित तथा विस्तृत संविधान (Written and Detailed Constitution)-अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, साम्यवादी चीन, फ्रांस और जापान के संविधानों की तरह भारत का संविधान भी लिखित तथा विस्तृत है। संविधानसभा ने भारत का संविधान 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दिनों में बनाया और इस संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया। भारतीय संविधान लिखित होने के साथ-साथ अन्य देशों के संविधानों के मुकाबले में बहुत विस्तृत संविधान है। हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं और इन्हें 22 भागों में बांटा गया है।
सर आइवर जेनिंग्स (Sir Ivor Jennings) का कहना है कि, “भारतीय संविधान संसार में सबसे लम्बा एवं विस्तृत संविधान है।”

2. प्रस्तावना (Preamble)—प्रत्येक अच्छे संविधान की तरह भारत के संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इस प्रस्तावना में संविधान के मुख्य लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा राज्य के उत्तरदायित्वों का वर्णन किया गया है।

3. सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना (Creation of a Sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic)-भारतीय संविधान ने भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। इसका अर्थ है कि अब भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र तथा सर्वोच्च सत्ताधारी है और किसी अन्य सत्ता के अधीन नहीं है। भारत का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है और भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है। यहां पर लोकतन्त्रीय गणराज्य की स्थापना की गई है। राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक-मण्डल द्वारा 5 वर्ष की अवधि के लिए होता है।

4. जनता का अपना संविधान (People’s own Constitution)-भारत के संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह जनता का अपना संविधान है और इसे जनता ने स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लागू किया है। यद्यपि हमारे संविधान में आयरलैण्ड के संविधान की तरह कोई अनुच्छेद ऐसा नहीं है जिससे यह स्पष्ट होता हो कि भारतीय संविधान को जनता ने स्वयं बनाया है तथापि इस बात की पुष्टि संविधान की प्रस्तावना करती है-
“हम भारत के लोग, भारत में एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य स्थापित करते हैं। अपनी इस संविधान सभा में 26 नवम्बर, 1949 ई० को इस संविधान को अपनाते हैं।”

5. अनेक स्रोतों से तैयार किया हुआ संविधान (A Unique Constitution Derived from many Sources) हमारे संविधान की यह भी एक विशेषता है कि इसमें अन्य देशों के संविधान के अच्छे सिद्धान्तों तथा गुणों को सम्मिलित किया गया है। हमारे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य एक अच्छा संविधान बनाना था, इसलिए उनको जिस देश के संविधान में कोई अच्छी बात दिखाई दी, उसको उन्होंने संविधान में शामिल कर लिया। संसदीय शासन प्रणाली को इंग्लैण्ड के संविधान से लिया गया है। संघीय प्रणाली अमेरिका तथा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त आयरलैण्ड के संविधान से लिए गए हैं। इस प्रकार भारत का संविधान, अनेक संविधानों के गुणों का सार है।

6. संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution)-भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता यह है कि यह देश का सर्वोच्च कानून है। कोई कानून या आदेश इसके विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है। सरकार के सभी अंगों को संविधान के अनुसार कार्य करना पड़ता है। यदि संसद् कोई ऐसा कानून पास करती है जो संविधान के विरुद्ध हो या राष्ट्रपति आदेश जारी करता है जो संविधान के साथ मेल नहीं खाता तो न्यायपालिका ऐसे कानून और आदेश को अवैध घोषित कर सकती है, अतः संविधान सर्वोच्च है।

7. धर्म निरपेक्ष (Secular State)-भारत के संविधान के अनुसार भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ कर स्पष्ट रूप से भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं। नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त है और वे अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को अपना सकते हैं, अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट देव की पूजा कर सकते हैं, अपने धर्म का प्रचार कर सकते हैं। अनुच्छेद 25 से 28 तक में धार्मिक स्वन्त्रता प्रदान की गई है।

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8. लचीला तथा कठोर संविधान (Flexible and Rigid Constitution)—भारत का संविधान लचीला भी है और कठोर भी। संविधान के कुछ भाग में संशोधन करना बड़ा सरल है जिसमें संसद् साधारण बहुमत से उसमें संशोधन कर सकती है। संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं, जिनमें संशोधन करना बड़ा ही कठोर है जैसे राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र तथा शक्तियां, संघ तथा राज्यों में शक्ति विभाजन, संसद् में राज्यों का प्रतिनिधित्व आदि विषयों में संशोधन करने के लिए यह आवश्यक है कि ऐसा प्रस्ताव संसद् के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से पास होने के अतिरिक्त कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा भी पास होना चाहिए। संविधान के शेष उपबन्धों को संशोधित करने के लिए संसद् का दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है।

9. संघात्मक संविधान परन्तु एकात्मक प्रणाली की ओर झुकाव (Federal Constitution with Unitary Bias) यद्यपि हमारे संविधान में किसी अनुच्छेद द्वारा ‘संघ’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, फिर भी मूल रूप में भारतीय संविधान भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना करता है। संविधान की धारा 1 में कहा गया है कि “भारत राज्यों का एक संघ है।” (India is a Union of States) इस समय भारत में 29 राज्य और 7 संघीय क्षेत्र हैं जिसमें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली भी शामिल है। इसमें संघात्मक शासन व्यवस्था की सभी बातें पाई जाती हैं-

  • भारत का संविधान लिखित तथा कठोर है।
  • भारत का संविधान सर्वोच्च कानून है।
  • केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा करने के लिए तीन सूचियों का वर्णन किया गया है।
  • न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। केन्द्र और राज्यों के झगड़ों तथा राज्यों के परस्पर झगड़ों का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है।
  • संसद् के दो सदन हैं-लोकसभा तथा राज्यसभा। लोकसभा सारे देश का प्रतिनिधित्व करती है जबकि राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

इस प्रकार भारत के संविधान में संघात्मक सरकार की सभी विशेषताएं पाई जाती हैं, परन्तु इसके बावजूद भी हमारे संविधान का झुकाव एकात्मक स्वरूप की ओर है। यह प्रायः कहा जाता है कि “भारतीय संविधान आकार में संघात्मक है और भावना में एकात्मक है।” (“Indian Constitution is federal in form but unitary in spirit.”) व्हीयर (Wheare) का कहना है कि, “भारतीय संविधान ने अर्ध-संघीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की है।” निम्नलिखित कारणों के कारण संविधान का झुकाव एकात्मक स्वरूप की ओर है-

  • केन्द्र के पास राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तियां हैं । केन्द्रीय-सूची में 97 विषय हैं, जबकि राज्य-सूची में 66 विषय हैं।
  • समवर्ती-सूची में 47 विषय हैं। केन्द्र और राज्यों को इस सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है यदि इन विषयों पर केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों कानून बनाती हैं तो केन्द्र का ही कानून लागू होता है।
  • अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास हैं।
  • यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पास कर दे कि राज्य-सूची में दिया गया कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है तो संसद् उस पर एक वर्ष के लिए कानून पास कर सकती है।
  • संकटकाल में संविधान का संघात्मक स्वरूप एकात्मक स्वरूप में बदल जाता है।
  • संसद् राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है।
  • राज्यों को अपना संविधान बनाने का अधिकार नहीं है।
  • नागरिकों को केवल भारत की नागरिकता प्राप्त है।
  • राज्य वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर निर्भर करते हैं।
  • सारे देश के लिए आर्थिक और सामाजिक योजनाएं बनाने का अधिकार केन्द्रीय सरकार के पास है।
  • संविधान में संशोधन की विधि बहुत कठोर नहीं है।
    यद्यपि भारत के संविधान में संघात्मक सरकार की सभी विशेषताएं पाई जाती हैं, परन्तु इसके बावजूद भी हमारे संविधान का झुकाव एकात्मक स्वरूप की ओर है।

10. संसदीय सरकार (Parliamentary form of Government) भारतीय संविधान ने भारत में संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की है। राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है, परन्तु उसकी शक्तियां नाम-मात्र हैं, वास्तविक नहीं। राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् की सलाह से ही करता है और मन्त्रिपरिषद् का संसद् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्री संसद् सदस्यों में से लिए जाते हैं और वे अपने कार्यों के लिए संसद् के निम्न सदन और लोकसभा के प्रति उत्तरदायी हैं। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिपरिषद् को जब चाहे अपदस्थ कर सकती है अर्थात् मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के प्रसाद-पर्यन्त ही अपने पद पर रह सकती है।

11. द्वि-सदनीय विधानमण्डल (Bicameral Legislature)-हमारे संविधान की एक अन्य विशेषता यह है कि इसके द्वारा केन्द्र में द्वि-सदनीय विधानमण्डल की स्थापना की गई है। संसद् के निम्न सदन को लोकसभा (Lok Sabha) तथा ऊपरि सदन को राज्यसभा (Rajya Sabha) कहा जाता है। लोकसभा की कुल अधिकतम संख्या 552 हो सकती है परन्तु आजकल 545 सदस्य हैं। राज्यसभा की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है परन्तु आजकल 245 सदस्य हैं। लोकसभा की शक्तियां और अधिकार राज्यसभा की शक्तियों और अधिकारों से अधिक हैं।

12. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)-भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि संविधान के तीसरे भाग में भारतीयों को 6 मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार हैं-(i) समानता का अधिकार, (ii) स्वतन्त्रता का अधिकार, (iii) शोषण के विरुद्ध अधिकार, (iv) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार, (1) सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार तथा (vi) संवैधानिक उपचारों का अधिकार। इसके द्वारा नागरिकों को जाति, धर्म, रंग, जन्म, लिंग आदि के आधार पर बने भेदभाव के बिना समान घोषित किया गया है और उन्हें कई प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं जैसा कि भाषण देने, अपने विचार प्रकट करने, घूमने-फिरने, सभा व समुदाय बनाने, कोई भी व्यवसाय करने का अधिकार। धार्मिक स्वतन्त्रता के साथ ही उन्हें अपनी इच्छानुसार शिक्षा ग्रहण करने तथा अपनी भाषा व संस्कृति की रक्षा व विकास करने का अधिकार भी दिया गया है।

नागरिकों को शोषण के विरुद्ध भी अधिकार दिया गया है। कोई भी सरकार इन अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती तथा उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय को इनकी रक्षा के लिए पर्याप्त अधिकार व शक्तियां प्रदान की गई हैं। न्यायालय किसी भी कानून या सरकारी आदेश को जो इन अधिकारों के विरुद्ध हो, रद्द कर सकते हैं और प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटा सकता है। अब तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले बहुत से कानून अवैध घोषित किए जा चुके हैं। इन अधिकारों को लागू करना सरकार का कर्तव्य है। 1967 में गोलकनाथ केस के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद् को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने के अधिकार से वंचित कर दिया था, परन्तु संविधान के 24वें संशोधन के अनुसार संसद् को पुन: यह अधिकार देने की व्यवस्था की गई है तथा सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय (गोलकनाथ के केस में) को रद्द करते हुए संसद् के इस अधिकार को वैध घोषित कर दिया है।

13. मौलिक कर्त्तव्य (Fundamental Duties)_42वें संशोधन द्वारा संविधान में ‘मौलिक कर्त्तव्यों’ के नाम पर चतुर्थ भाग-ए (Part IV-A) शामिल किया गया है। इसमें नागरिकों के 11 कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जो कि इस प्रकार हैं-

  • संविधान का पालन करना तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रीय झण्डे और राष्ट्रीय गान का सम्मान करना।
  • स्वतन्त्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को बनाए रखना और उनका पालन करना।
  • भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता में विश्वास रखना तथा उसकी रक्षा करना।
  • देश की सुरक्षा करना और आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा करना।
  • भारत के सभी लोगों में मेल-मिलाप और बन्धुत्व की भावना का विकास करना तथा ऐसी रीतियों को त्यागना जो त्रियों की प्रतिष्ठा के विरुद्ध हों।
  • राष्ट्र की मिली-जुली संस्कृति की सम्पन्न परम्परा का आदर करना और उसे सुरक्षित रखना।
  • प्राकृतिक वातावरण को सुरक्षित रखना और उसे उन्नत करना तथा सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया की भावना रखना।
  • दृष्टिकोण में वैज्ञानिकता, मानवता, जिज्ञासा और सुधार की भावना को विकसित करना।
  • सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखना और हिंसा से बचना।
  • व्यक्तिगत तथा सामूहिक क्रिया-कलापों के सभी क्षेत्रों में ऊंचा उठाने का प्रयत्न करना।
  • छ: साल से 14 साल की आयु के बच्चे के माता-पिता या अभिभावक अथवा संरक्षक द्वारा अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराना।

14. राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त (Directive Principles of State Policy) भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि संविधान के चौथे भाग में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का अभिप्राय यह है कि केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के लिए संविधान में कुछ आदर्श रखे गए हैं ताकि उनके अनुसार अपनी नीति का निर्माण करके जनता की भलाई के लिए कुछ कर सके। यदि इन सिद्धान्तों को लागू किया जाए तो भारत का सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विकास बहुत शीघ्र हो सकता है।

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15. स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)-भारत के संविधान में स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। भारत के संविधान में उन सभी बातों का वर्णन किया गया है जो स्वतन्त्र न्यायपालिका के लिए आवश्यक हैं। सर्वोच्च न्यायलय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति सम्बन्धित अधिकारियों की सलाह से करता है। राष्ट्रपति इन न्यायाधीशों को अपनी इच्छा से नहीं हटा सकता। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को संसद् महाभियोग द्वारा ही हटा सकती है। इस प्रकार न्यायाधीशों की नौकरी सुरक्षित की गई। न्यायाधीशों का कार्यकाल भी निश्चित आयु पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायलय का न्यायाधीश 65 वर्ष तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु में रिटायर होते हैं। न्यायाधीशों को बहुत अच्छा वेतन दिया जाता है तथा रिटायर होने के पश्चात् पेंशन भी दी जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपए मासिक वेतन तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 हज़ार रुपए मासिक वेतन मिलता है जबकि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को 2,50,000 और अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते उनके कार्यकाल में कम नहीं किए जा सकते। ऐसी व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि न्यायाधीश सरकार के विरुद्ध बिना किसी डर के निर्णय दे सकें। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रिटायर होने के पश्चात् किसी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश उस न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते जहां से वे रिटायर हुए हों।

16. न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Judicial Review)-न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय संसद् द्वारा बनाए गए कानूनों तथा राज्य विधानमण्डलों के बनाए हुए कानून की संवैधानिक जांचपड़ताल कर सकती है और यदि कानून संविधान के विरुद्ध हो तो उसे अवैध घोषित कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया गया कोई भी कानून, अध्यादेश, आदेश या सन्धि अवैध मानी जाती है और सरकार उसे लागू नहीं कर सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल कई बार किया है।

17. इकहरी नागरिकता (Single Citizenship) भारत में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त है। सभी नागरिक चाहे वे किसी राज्य के हों, भारत के नागरिक हैं। नागरिकों को अपने राज्य की नागरिकता प्राप्त नहीं है।
18. वयस्क मताधिकार (Adult Franchise)-भारत के संविधान की एक अन्य विशेषता व्यस्क मताधिकार है। 61वें संशोधन एक्ट के अनुसार प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष अथवा इससे अधिक हो बिना किसी भेदभाव के वोट डालने का अधिकार प्राप्त है।

19. संयुक्त चुनाव प्रणाली (Joint Electorate System)-साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गई है। अब सभी सम्प्रदाय मिलजुल कर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं।

20. कानून का शासन (Rule of Law)-भारत के संविधान की यह विशेषता है कि इसके द्वारा कानून के शासन की स्थापना की गई है। कानून के सम्मुख सभी नागरिक समान हैं, कोई व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे तथा अनपढ़, शक्तिशाली तथा कमज़ोर सभी देश के कानून के सामने समान हैं कानून से कोई ऊंचा नहीं है।

21. अल्पसंख्यकों, अनुसूचित व पिछड़ी जातियों तथा कबीलों का संरक्षण (Protection of Minorities, Scheduled and Backward Classes and Tribes)—भारत के संविधान की अन्य विशेषता यह है कि इसमें एक ओर तो समानता की घोषण की गई है और दूसरी ओर इसमें अल्पसंख्यकों, अनुसूचित व पिछड़ी हुई जातियों तथा कबीलों के हितों के संरक्षण के लिए विशेष धाराओं की व्यवस्था की गई है। संसद् तथा राज्यों के विधानमण्डलों में अनुसूचित तथा पिछड़ी जातियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं। 95वें संशोधन द्वारा इस अवधि को 2020 ई० तक कर दिया गया है।

22. कल्याणकारी राज्य (Welfare State) भारत को कल्याणकारी राज्य घोषित किया गया है। उद्देश्य प्रस्ताव, संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार तथा राज्य के निर्देशक सिद्धान्तों को पढ़ कर यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक ऐसा कल्याणकारी राज्य स्थापित करना था जिसमें व्यक्ति के लिए आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था की जा सके।

23. विश्व शान्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा का समर्थक (Advocate of World Peace and International Security) भारतीय संविधान विश्व शान्ति का प्रबल समर्थक है। राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में स्पष्ट लिखा गया है कि भारत राष्ट्रों के बीच न्याय तथा समानतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा करेगा, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा बनाये रखने के लिए विधि तथा सन्धि बन्धनों के प्रति आदर का निर्माण करेगा और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता के द्वारा हल करने का प्रयत्न करेगा। व्यवहार में भी भारत सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को बनाये रखने के लिए अनेक प्रयास किये हैं।

24. एक सरकारी भाषा (One Official Language) भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं, इसलिए संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। हिन्दी को देवनागरी लिपि में संघ सरकार की सरकारी (Official) भाषा घोषित किया गया है।

25. छुआछूत की समाप्ति (Abolition of Untouchability)-भारतीय संविधान की यह विशेषता है कि इसके अनुच्छेद 17 द्वारा छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। जो व्यक्ति छुआछूत की समाप्ति के विरुद्ध बोलता है उसे कानून के अनुसार दण्ड दिया जा सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह संविधानों में एक अनूठा संविधान है। न्यायाधीश पी० वी० मुखर्जी के अनुसार, “यद्यपि हमारे संविधान ने विश्व के संवैधानिक प्रयोगों से बहुत-सी बातों को लिया है, केवल यही नहीं बल्कि अपने चरित्र और समन्वय में यह अनूठा संविधान है।” संविधान निर्माताओं का उद्देश्य कोई मौलिक या अद्वितीय संविधान बनाना नहीं था बल्कि वे एक अच्छा तथा कार्यसाधक संविधान बनाना चाहते थे।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के विभिन्न तरीकों का वर्णन करें।
(Describe the various methods of amending the Indian Constitution.)
उत्तर-
प्रत्येक राज्य का संविधान एक निश्चित समय पर तैयार किया जाता है, परन्तु समय के अनुसार देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियां बदलती रहती हैं। एक अच्छा संविधान वही होता है जिसे परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित किया जा सके। इसलिए प्रत्येक लिखित संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है। ___ संविधान को संशोधित करने की प्रक्रिया का वर्णन अनुच्छेद 368 में किया गया है। अनुच्छेद के अनुसार संविधान में संशोधन करने के लिए दो विधियों का वर्णन किया गया है, परन्तु भारतीय संविधान में निम्नलिखित तीन विधियों द्वारा संशोधन किया गया है-

  1. संसद् द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन ;
  2. संसद् द्वारा दो तिहाई बहुमत से संशोधन ;
  3. संसद् के विशेष बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति से संशोधन।

1.संसद द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन (Amendment by the Parliament by a Simple Majority)संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें भारतीय संसद् उसी प्रकार से और उतनी ही आसानी से बदल सकती है जितना कि ब्रिटिश संसद् ब्रिटिश संविधान को अर्थात् संसद् साधारण बहुमत से संविधान के कुछ भाग में संशोधन कर सकती है। इसमें मुख्य विषय सम्मिलित हैं-नए राज्यों का निर्माण, राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करना, नागरिकता की प्राप्ति और समाप्ति, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार बढ़ना इत्यादि।

2. संसद् द्वारा दो-तिहाई बहुमत से संशोधन (Amendment by the Parliament by a two-third Majority) संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें संसद् दो-तिहाई बहुमत से संशोधन कर सकती है। संविधान के अनुच्छेद 368 में स्पष्ट कहा गया है कि संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। दोनों सदनों में सदन की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद वह संशोधन प्रस्ताव राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा और स्वीकृति मिलने पर ही संविधान इस प्रस्ताव की धाराओं के अनुसार संशोधित समझा जायेगा लोकसभा और राज्यसभा को संवैधानिक संशोधन के क्षेत्र में बिल्कुल बराबर की शक्तियां प्राप्त हैं।

3. संसद के विशेष बहुमत तथा राज्य विधानपालिका के अनुसमर्थन द्वारा संशोधन (Amendment by the special majority of Parliament and ratification by State Legislature) संविधान की कुछ धाराएं ऐसी भी हैं जिन्हें और भी कठोर बनाया गया है और जिसमें संसद् स्वतन्त्रतापूर्वक परिवर्तन नहीं कर सकती। संविधान के कुछ भाग में संसद् के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन से ही संशोधन किया जा सकता है। जिन विषयों में इस विधि से संशोधन किया जा सकता है उनमें मुख्य हैं-राष्ट्रपति का चुनाव और चुनाव विधि, केन्द्र और राज्यों के वैधानिक सम्बन्ध, संघीय सरकार और राज्य सरकारों की कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों की सीमा इत्यादि।

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संशोधन प्रक्रिया की आलोचना (Criticism of the Procedure of Amendment)-
भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  • राज्य को संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार नहीं-संविधान में संशोधन का प्रस्ताव केवल केन्द्रीय संसद् द्वारा ही पेश किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का समर्थन करते हुए ही अपनी राय देने का अधिकार है।
  • सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की आवश्यकता नहीं-संविधान की कुछ धाराओं पर ही आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन की आवश्यकता है। संविधान का एक बहुत बड़ा भाग संसद् स्वयं ही संशोधित कर सकती है।
  • राज्यों के अनुसमर्थन के लिए समय निश्चित नहीं-संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि किसी संशोधन प्रस्ताव पर राज्य के विधानमण्डल कितने समय के अन्दर अपना निर्णय दे सकते हैं।
  • दोनों में मतभेद-भारतीय संविधान इस बारे में भी मौन है कि यदि संसद् के दोनों सदनों में किसी संशोधन प्रस्ताव पर मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उसे कैसे सुलझाया जाएगा। ऐसी दशा में संशोधन प्रस्ताव रद्द समझा जाएगा या यह प्रस्ताव दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में रखा जाएगा।
  • संशोधन प्रस्ताव पर राष्ट्रपति की स्वीकृति-संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि क्या राष्ट्रपति को संशोधन के प्रस्ताव पर निषेधाधिकार (Veto-Power) प्राप्त है या नहीं। संविधान के 24वें संशोधन के अनुसार इस बात के विषय में जो सन्देह थे वे दूर कर दिए गए हैं। इस संशोधन के अनुसार संशोधन बिल पर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर नहीं रोक सकता।
  • जनमत संग्रह की व्यवस्था नहीं है-हमारे संविधान में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कि जिसके अनुसार जनता की इच्छा किसी अमुक प्रस्तावित संशोधन बिल पर ली जा सके अर्थात् संविधान में संशोधन जनता को पूछे बिना ही संसद् कर सकती है। आलोचकों का कहना है कि ऐसी व्यवस्था अन्यायपूर्ण एवं अलोकतन्त्रीय है।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी भारतीय संविधान के बारे में हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह एक ऐसा प्रलेख है जो काफ़ी सोच-विचार के बाद तैयार किया गया है और जिसे न तो इतनी आसानी से बदला जा सकता है कि यह सत्तारूढ़ दल के हाथों में खिलौना-मात्र बन कर रह जाए और न ही इतना कठोर है कि समय के अनुसार बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन न किया जा सके और यह अतीत की एक वस्तु बन कर रह जाए। हमारा संविधान न तो अमेरिकन संविधान की भान्ति कठोर है और न ही ब्रिटिश संविधान की तरह लचीला। प्रो० ह्वीयर (Wheare) ने ठीक ही कहा है कि, “भारतीय संविधान अधिक कठोर तथा अधिक लचीलापन के मध्य एक अच्छा सन्तुलन स्थापित करता है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
संविधान ऐसे नियमों तथा सिद्धान्तों का समूह है, जिसके अनुसार शासन के विभिन्न अंगों का संगठन किया जाता है, उसको शक्तियां प्रदान की जाती हैं, उनके आपसी सम्बन्धों को नियमित किया जाता है तथा नागरिकों और राज्य के बीच सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं। इन नियमों के समूह को ही संविधान कहा जाता है।
पिनॉक (Pennock) और स्मिथ (Smith) के अनुसार, “संविधान केवल प्रक्रिया एवं तथ्यों का ही मामला नहीं बल्कि राजनीतिक शक्तियों के संगठनों का प्रभावशाली नियन्त्रण भी है एवं प्रतिनिधित्व, प्राचीन परम्पराओं तथा भविष्य की आशाओं का प्रतीक है।”

प्रश्न 2.
हमें संविधान की आवश्यकता क्यों होती है ?
उत्तर–
प्रत्येक राज्य में संविधान का होना आवश्यक है। संविधान के बिना राज्य का शासन नहीं चल सकता। इसीलिए संविधान के बिना एक राज्य-राज्य न होकर अराजकता का शासन होता है। संविधान का होना आवश्यक है ताकि शासन के विभिन्न अंगों की शक्तियां तथा कार्य निश्चित किए जा सकें। संविधान का होना आवश्यक है ताकि देश का शासन सिद्धान्तों तथा नियमों के अनुसार चलाया जा सके।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान का निर्माण किस द्वारा किया गया है ?
उत्तर-
भारत का संविधान एक संविधान सभा द्वारा बनाया गया है। भारत के लिए संविधान सभा की मांग सबसे पहले 1922 में महात्मा गांधी ने, 1935 में कांग्रेस ने और 1940 में मुस्लिम लीग ने भी अलग से संविधान सभा की मांग की थी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान संविधान सभा के गठन की मांग तेज़ हो गई। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं की इस मांग को ध्यान में रखते हुए 15 मार्च, 1946 को कैबिनेट मिशन की स्थापना है। कैबिनेट मिशन ने अपनी योजनाओं में संविधान सभा की रचना के बारे में खुला वर्णन किया है। संविधान सभा में कुल 389 सदस्यों की व्यवस्था की गई। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को बुलाई गई और काफी मेहनत और विचार-विमर्श के बाद 26 नवम्बर, 1949 को संविधान बन कर तैयार हो गया। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा के प्रधान ने मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए। 26 जनवरी, 1950 को यह संविधान लागू कर दिया गया।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • लिखित एवं विस्तृत संविधान-भारत के संविधान की प्रथम विशेषता यह है कि यह लिखित एवं विस्तृत है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं और इन्हें 22 भागों में बांटा गया है। इसे 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दिनों के समय में बनाया गया।
  • प्रस्तावना-प्रत्येक अच्छे संविधान की तरह भारतीय संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इस प्रस्तावना में संविधान के मुख्य लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा राज्य के उद्देश्यों का वर्णन किया गया है।
  • सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना- इसका अर्थ यह है कि भारत पूर्ण रूप से प्रभुता सम्पन्न है। इसका उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है। भारत धर्म-निरपेक्ष और लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है।
  • भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता वयस्क मताधिकार है।

प्रश्न 5.
धर्म-निरपेक्ष राज्य किसे कहते हैं ? क्या भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है ? व्याख्या करो।
उत्तर-
धर्म-निरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसका कोई राज्य धर्म नहीं होता। राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। राज्य न तो धार्मिक और न ही अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी होता है। धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ भेद-भाव नहीं किया जाता। सभी धर्म के लोगों को समान रूप से बिना किसी भेद-भाव के अधिकार दिए जाते हैं।

42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द जोड़ कर भारत को स्पष्ट रूप से धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और न ही राज्य धर्म को महत्त्व देता है। सभी धर्म समान हैं। किसी धर्म को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म का पालन कर सकता है। सभी धर्मों को प्रचार एवं उन्नति के लिए समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली का अन्त कर दिया गया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान की सफलता के लिए चार उत्तरदायी तत्त्वों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की सफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  • देश की परिस्थतियों के अनुकूल–भारतीय संविधान की सफलता का महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संविधान निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर संविधान बनाया।
  • लिखित तथा विस्तृत संविधान-लिखित तथा विस्तृत संविधान के कारण जनता के प्रतिनिधियों, शासकों तथा सरकारी कर्मचारियों को शासन चलाते हुए पथ-प्रदर्शन के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता बल्कि हर प्रकार की सलाह और मार्गदर्शन संविधान से ही मिल जाता है।
  • विश्व के संविधान की अच्छी बातों को ग्रहण करना-भारतीय संविधान में अन्य देशों के संविधानों के अच्छे सिद्धान्तों तथा गुणों को सम्मिलित किया गया है।
  • भारतीय संविधान सभी धर्मों, समुदायों एवं वर्गों को साथ लेकर चलता है।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही क्यों लागू किया गया ?
अथवा
26 जनवरी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। 26 जनवरी का दिन भारत के इतिहास में एक विशेष महत्त्व रखता है। दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए लाहौर अधिवेशन में भारत के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग का प्रस्ताव पास किया और 26 जनवरी, 1930 का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में निश्चित किया गया और इस दिन सभी भारतीयों ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया। इसके पश्चात् हर वर्ष 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसलिए यद्यपि संविधान 26 नवम्बर, 1949 को तैयार हो गया था परन्तु इसको 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के विस्तृत होने के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
भारतीय संविधान लिखित होने के साथ ही विश्व के अन्य देशों के संविधानों के मुकाबले बहुत विस्तृत है। हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियां हैं जिन्हें 22 भागों में बांटा गया है। भारतीय संविधान निम्नलिखित तथ्यों के कारण विशाल है-

  • भारत में केन्द्र और राज्यों के लिए एक ही संयुक्त संविधान की व्यवस्था की गई है। प्रान्तों के लिए कोई पृथक् संविधान नहीं है।
  • संविधान के तृतीय भाग में मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्त शामिल किए गए हैं।
  • संविधान के 18वें भाग में अनुच्छेद 352 से लेकर 360 तक राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के विभिन्न तरीकों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संविधान में संशोधन करने के लिए दो विधियों का वर्णन किया है। परन्तु भारतीय संविधान में निम्नलिखित तीन विधियों द्वारा संशोधन किया जा सकता है-

  1. संसद् द्वारा साधारण बहुमत से संशोधन-संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें भारतीय संसद् उसी प्रकार से और उतनी ही आसानी से बदल सकती है जितना कि ब्रिटिश संविधान को अर्थात् उनमें साधारण बहुमत से संशोधन किया जा सकता है।
  2. संसद् द्वारा दो-तिहाई बहुमत से संशोधन-संविधान की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिनमें संसद् दो-तिहाई बहुमत से संशोधन कर सकती है। दोनों सदनों के सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले दो तिहाई सदस्यों की स्वीकृति के पश्चात् संशोधन प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तथा राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति मिलने के पश्चात् ही उन धाराओं को संशोधित किया जाता है।
  3. संसद् के विशेष बहुमत तथा आधे राज्य विधानमण्डलों के अनुसमर्थन द्वारा संशोधन-संविधान की कुछ धाराएं ऐसी भी हैं जिन्हें और भी कठोर बनाया गया है और जिनमें संसद् स्वतन्त्रतापूर्वक परिवर्तन नहीं कर सकती। संविधान के कुछ भाग में संसद् के दो-तिहाई बहुमत और आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन से ही संशोधन किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में संशोधन प्रक्रिया के किन्हीं चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-

  1. राज्य को संशोधन प्रस्ताव पेश करने का अधिकार नहीं-संविधान में संशोधन का प्रस्ताव केवल केन्द्रीय संसद् द्वारा ही पेश किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का समर्थन करते हुए ही अपनी राय देने का अधिकार है।
  2. सभी धाराओं में संशोधन करने के लिए राज्यों की आवश्यकता नहीं-संविधान की कुछ धाराओं पर ही आधे राज्यों के विधानमण्डलों के समर्थन की आवश्यकता है। संविधान का एक बहुत बड़ा भाग संसद् स्वयं ही संशोधित कर सकती है।
  3. राज्यों के अनुसमर्थन के लिए समय निश्चित नहीं-संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि किसी संशोधन प्रस्ताव पर राज्य के विधानमण्डल कितने समय के अन्दर अपना निर्णय दे सकते हैं।
  4. दोनों में मतभेद-भारतीय संविधान इस बारे में भी मौन है कि यदि संसद् के दोनों सदनों में किसी संशोधन प्रस्ताव पर मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उसे कैसे सुलझाया जाएगा। ऐसी दशा में संशोधन प्रस्ताव रद्द समझा जाएगा या यह प्रस्ताव दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में रखा जाएगा।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया की विशषताएं बताएं।
उत्तर-

  • संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन किया जा सकता है। केशवानन्द भारती और मिनर्वा मिल्स के मुकद्दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद् संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।
  • भारतीय संविधान लचीला और कठोर भी है।
  • संवैधानिक संशोधन बिल संसद् के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है।
  • राज्य विधान मण्डल को संशोधन का प्रस्ताव पेश करने का कोई अधिकार नहीं है।
  • संवैधानिक संशोधन सम्बन्धी दोनों सदनों की शक्तियां बराबर हैं।
  • संवैधानिक संशोधन को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 21 संविधान की मुख्य विशेषताएं

प्रश्न 12.
“भारतीय संविधान लचीला और कठोर भी है।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह न तो पूर्णतः लचीला है और न ही पूर्णतः कठोर है। लचीला संविधान उसे कहा जाता है जिसमें संशोधन उतनी ही सरलता से किया जा सकता है जितनी सरलता से कोई कानून बनाया जा सकता है। भारतीय संविधान की कुछ धाराओं को, जैसे कि राज्यों के नाम बदलना, उनकी सीमाओं में परिवर्तन करना, राज्यों में विधान परिषद् को बनाना या उसे समाप्त करना आदि को संसद् के दोनों सदनों द्वारा उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से बदला जा सकता है। इस तरह भारतीय संविधान लचीला है। संविधान की कुछ धाराओं को बदलने के लिए संसद् के दोनों सदनों का दो-तिहाई बहुमत आवश्यक है। इस प्रक्रिया के अनुसार संविधान कुछ कठोर हो गया है, परन्तु संघात्मक प्रणाली की आवश्यकताओं को देखते हुए इस अवस्था को भी लचीला कहा जा सकता है।
परन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण धाराओं को बदलने के लिए संसद् को दो-तिहाई बहुमत के बाद कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा संशोधन प्रस्ताव पर समर्थन प्राप्त होना आवश्यक है। यह तरीका बड़ा कठोर है और इसको देखते हुए संविधान को कठोर कहा गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन करो।
उत्तर-

  1. लिखित एवं विस्तृत संविधान-भारत के संविधान की प्रथम विशेषता यह है कि यह लिखित एवं विस्तृत है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां हैं और इन्हें 22 भागों में बांटा गया है। इसे 2 वर्ष, 11 महीने तथा 18 दियं के समय में बनाया गया।
  2. प्रस्तावना-प्रत्येक अच्छे संविधान की तरह भारतीय संविधान में भी प्रस्तावना दी गई है। इस प्रस्तावना में संविधान के मुख्य लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा राज्य के उद्देश्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2.
26 जनवरी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। 26 जनवरी का दिन भारत के इतिहास में एक विशेष महत्त्व रखता है। दिसम्बर, 1929 में कांग्रेस ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए लाहौर अधिवेशन में भारत के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग का प्रस्ताव पास किया और 26 जनवरी, 1930 का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में निश्चित किया गया और इस दिन सभी भारतीयों ने देश को स्वतन्त्र कराने का प्रण लिया। इसके पश्चाता हर वर्ष 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसलिए यद्यपि संविधान 26 नवम्बर, 1949 को तैयार हो गया था परन्तु इसको 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के विस्तृत होने के दो कारण लिखें।
उत्तर-

  1. भारत में केन्द्र और राज्यों के लिए एक ही संयुक्त संविधान की व्यवस्था की गई है। प्रान्तों के लिए कोई पृथक् संविधान नहीं है।
  2. संविधान के तृतीय भाग में मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या की गई है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. वर्तमान भारतीय संविधान में कुल कितनी अनुसूचियां हैं ?
उत्तर-वर्तमान भारतीय संविधान में कुल 12 अनुसूचियां हैं।

प्रश्न 2. वर्तमान संविधान में कुल कितने अनुच्छेद हैं ?
उत्तर-वर्तमान भारतीय संविधान में कुल 395 अनुच्छेद हैं।

प्रश्न 3. भारतीय संविधान के मौलिक ढांचे की धारणा का विकास किस मुकद्दमें में हुआ ?
उत्तर-भारतीय संविधान के मौलिक ढांचे की धारणा का विकास 23 अप्रैल, 1973 को स्वामी केशवानंद भारती के मुकद्दमें में हुआ।

प्रश्न 4. भारतीय संघ में कितने राज्य एवं संघीय क्षेत्र शामिल हैं ?
उत्तर-29 राज्य एवं 7 संघीय क्षेत्र।

प्रश्न 5. भारत में कौन-सी शासन प्रणाली है?
उत्तर-भारत में संसदीय शासन प्रणाली है।

प्रश्न 6. भारत में कितने वर्ष के आयु के नागरिक को वोट डालने का अधिकार है?
उत्तर-18 वर्ष।

प्रश्न 7. भारत की राष्ट्र भाषा क्या है?
उत्तर-भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी है।

प्रश्न 8. भारत गणतन्त्र कब बना?
उत्तर-भारत गणतन्त्र 26 जनवरी, 1950 को बना।

प्रश्न 9. संविधान के किस अनुच्छेद में संशोधन विधि का वर्णन किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 368 में।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. 91वां संवैधानिक संशोधन ……….. में किया गया।
2. 61वें संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर ………. कर दी गई।
3. 1985 में दल-बदल रोकने के लिए संविधान में ………….. संशोधन किया गया।
4. भारतीय संविधान …………. है।
5. संशोधन विधि का वर्णन संविधान के अनुच्छेद ……….. में किया गया।
उत्तर-

  1. 2003
  2. 18 वर्ष
  3. 52वां
  4. लिखित
  5. 368.

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. जीवंत संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें समयानुसार परिवर्तन नहीं होते।
2. भारतीय संविधान एक जीवंत संविधान है।
3. भारतीय संविधान विकसित एवं अलिखित है।
4. राजनीतिक दल-बदल की बुराई को दूर करने के लिए 1980 में 42वां संशोधन पास किया गया।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. ग़लत !

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में वोट डालने का अधिकार—
(क) 18 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है
(ख) 21 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है
(ग) 25 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है
(घ) 20 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है।
उत्तर-
(क) 18 वर्ष के नागरिक को प्राप्त है

प्रश्न 2.
भारत की राष्ट्र भाषा
(क) हिंदी
(ख) तमिल
(ग) उर्दू
(घ) अंग्रेजी।
उत्तर-
(क) हिंदी

प्रश्न 3.
भारत का संविधान-
(क) संसार के सभी संविधानों से छोटा है
(ख) संसार में सबसे अधिक लंबा तथा विस्तृत है
(ग) जापान के संविधान से बड़ा और अमेरिका के संविधान से छोटा है
(घ) सोवियत संघ के संविधान से छोटा है।
उत्तर-
(ख) संसार में सबसे अधिक लंबा तथा विस्तृत है

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य ग़लत सूचना देता है ?
(क) 1935 का एक्ट भारतीय संविधान का महत्त्वपूर्ण स्रोत है
(ख) संसदीय शासन प्रणाली ब्रिटिश शासन की देन है
(ग) अमेरिकन संविधान का भारत पर प्रभाव पड़ा है
(घ) पाकिस्तानी संविधान का भारत पर प्रभाव पड़ा है।
उत्तर-
(घ) पाकिस्तानी संविधान का भारत पर प्रभाव पड़ा है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 1.
राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों का क्या अर्थ है ? मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों में क्या अन्तर है ?
(What is the meaning of the Directive Principles of State Policy ? How are these principles different from the Fundamental Rights ?)
अथवा
मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धान्तों के परस्पर सम्बन्धों का वर्णन करो।
(Examine the relationship between Fundamental Rights and Directive Principles.)
उत्तर-
भारतीय संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का समावेश इसकी विशेषता है। इन सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के चौथे भाग में धारा 36 से 51 तक किया गया है। संविधान निर्माताओं ने इन सिद्धान्तों का विचार आयरलैंड के संविधान से लिया।

राज्यनीति के निर्देशक तत्त्वों का अर्थ-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति को कुछ ऐसे अधिकार और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था। अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इस भाग में शामिल उपबन्ध न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, परन्तु फिर भी जो सिद्धान्त रखे गए हैं, वे देश के शासन प्रबन्ध की आधारशिला हैं और कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”

मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में अन्तर (Difference between Fundamental Rights and Directive Principles)-
भारतीय संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई है जिनका प्रयोग करके नागरिक अपने जीवन का विकास कर सकते हैं। संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों की घोषणा की गई है जिसका उद्देश्य भारतीय लोगों का आर्थिक, सामाजिक, मानसिक तथा नैतिक विकास करना तथा भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है अर्थात् दोनों के उद्देश्य समान दिखाई देते हैं, परन्तु दोनों में अन्तर है। हम दोनों को समान प्रकृति वाले नहीं कह सकते।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

निर्देशक सिद्धान्तों तथा मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित भेद हैं-

1. मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं तथा निर्देशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं-निर्देशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं हैं, जबकि मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालयों द्वारा लागू करवाया जा सकता है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है तो नागरिक सरकार के उस कार्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकता है, परन्तु इसके विपरीत, यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।

2. मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। वे उसको कोई विशेष कार्य करने से मना करते हैं। उदाहरणस्वरूप, मौलिक अधिकार सरकार को आदेश देते हैं कि वह नागरिकों में जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं। ये सरकार को कुछ निश्चित कार्य करने का आदेश देते हैं। उदाहरणस्वरूप, वे सरकार को ऐसी नीति अपनाने का आदेश देते हैं जिससे देश के नागरिकों का जीवन-स्तर ऊंचा उठ सके तथा बेरोज़गारी की समाप्ति हो सके।

3. मौलिक अधिकार व्यक्ति से और निर्देशक सिद्धान्त समाज से सम्बन्धित-मौलिक अधिकार मुख्यतः व्यक्ति से सम्बन्धित हैं और उनका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना है। मौलिक अधिकार ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनमें व्यक्ति अपने में निहित गुणों का विकास कर सके। परन्तु निर्देशक सिद्धान्त समाज के विकास पर बल देते हैं। अनुच्छेद 38 में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य ऐसे समाज की व्यवस्था करेगा जिसमें सभी को सामाजिक व आर्थिक न्याय मिल सके।

4. मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राजनीतिक लोकतन्त्र है परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों का आर्थिक लोकतन्त्रमौलिक अधिकारों द्वारा जो अधिकार नागरिकों को दिए गए हैं वे देश में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं। अनुच्छेद 19 में छः प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है जोकि राजनीतिक लोकतन्त्र की आधारशिला हैं, परन्तु राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में जो सिद्धान्त दिए गए हैं, उनका लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है ताकि राजनीतिक लोकतन्त्र को सफल बनाया जा सके।

5. मौलिक अधिकारों से निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है-मौलिक अधिकारों का सम्बन्ध केवल राज्य में रहने वाले व्यक्तियों से है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों का अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी महत्त्व है।

6. मौलिक अधिकार प्राप्त किए जा चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को अभी लागू नहीं किया गयामौलिक अधिकार लोगों को मिल चुके हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्तों को अभी व्यावहारिक रूप नहीं दिया गया। निर्देशक सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको प्राप्त करना सरकार का लक्ष्य है।

7. दोनों के बीच यदि विरोध हो तो किसे महत्त्व मिलेगा ?-25वें संशोधन तथा 42वें संशोधन से पूर्व मौलिक अधिकारों को निर्देशक सिद्धान्तों से अधिक प्रधानता प्राप्त थी। इसमें सन्देह नहीं कि निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्तव्य है, परन्तु ऐसा करते हुए राज्य किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता। एक मुकद्दमे में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “राज्य को चाहिए कि वह निर्देशक सिद्धान्तों के उचित पालन के लिए कानून बनाए लेकिन उसके द्वारा बनाए गए नए कानूनों से मौलिक अधिकारों को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए।”

परन्तु 25वें संशोधन ने इस स्थिति में परिवर्तन कर दिया है क्योंकि इस संशोधन ने अनुच्छेद 39 (B) और 39 (C) के निर्देशक सिद्धान्त को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि किसी भी सरकार द्वारा बनाया कोई भी ऐसा कानून जो अनुच्छेद 39B या 39C में वर्णन किए गए निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए बनाया गया है, इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून धारा 14, 19 या 31 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। 42वें संशोधन की धारा (Clause) 4 द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संविधान के चौथे भाग में दिए सभी या किसी भी निर्देशक सिद्धान्त को लागू करने के लिए बनाया गया कोई कानून इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून धारा 14, 19 या 31 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। परन्तु १ मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन की धारा (Clause) 4 को रद्द कर दिया है। इस निर्णय के बाद निर्देशक सिद्धान्तों की वही स्थिति हो गई जो 42वें संशोधन से पहले थी।

वैसे तो मौलिक अधिकार तथा निर्देशक सिद्धान्त साथ-साथ चलते हैं, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त मौलिक सिद्धान्तों के पूरक कहे जा सकते हैं जो कि उनके विरुद्ध नहीं चल सकते। मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं और निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। इस दृष्टि से वे एक दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 2.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की सहायता से हमारा देश सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति किस प्रकार कर सकता है ?
(How can true social and economic goals of the country be achieved through Directive Principles ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान के चौथे भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लेख है। ये सिद्धान्त सामाजिक तथा आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रयत्नशील भारत के लिए मार्गदर्शक भी हैं। श्री ग्रेनविल आस्टिन के शब्दों में, “ये निर्देशक-सिद्धान्त उन मानवीय सामाजिक आदर्शों की व्यवस्था करते हैं, जो भारतीय सामाजिक क्रान्ति का लक्ष्य हैं। निर्देशक-सिद्धान्त भारत में वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना का विश्वास दिलाते हैं क्योंकि सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता है।” डॉ० अम्बेदकर ने संविधान सभा में भाषण देते हुए एक बार कहा था कि “संविधान का उद्देश्य केवल राजनीतिक लोकतन्त्र की नहीं, बल्कि ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र का भी समावेश हो।”

इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर 42वें संशोधन 1976 द्वारा संविधान की प्रस्तावना में परिवर्तन कर भारत को एक समाजवादी राज्य घोषित किया गया है। प्रस्तावना में समाजवादी शब्द का शामिल किया जाना संविधान के सामाजिक और आर्थिक अंश को दृढ़ करता है और इस बात का विश्वास दिलाता है कि देश की उन्नति और विकास का फल कुछ लोगों के हाथों में ही केन्द्रित नहीं होगा, बल्कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों में न्याय-युक्त आधार पर बांट दिया जाएगा। भारतीय संविधान ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहता है, जिसमें राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त हो।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त इस बात की पूर्ति का साधन हैं। संविधान के निर्देशक सिद्धान्तों में यह आदेश दिया गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्र के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो। नागरिक को समान रूप से अपनी आजीविका कमाने के पर्याप्त साधन प्राप्त हों। स्त्री और पुरुष को समान काम के लिए समान वेतन प्राप्त हो। समाज के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार से हो कि सभी लोगों की भलाई हो सके। देश की अर्थव्यस्था इस प्रकार संचालित की जाए कि देश का धन तथा उत्पादन के साधन जनसाधारण के हितों के विरुद्ध कुछ व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित न हों।

श्रमिकों, पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा उन्हें आर्थिक आवश्यकताओं से विवश होकर ऐसे धन्धे न अपनाने पड़ें, जो उनकी आयु और शक्ति के अनुकूल न हों। राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के अर्न्तगत लोगों को काम देने, शिक्षा का प्रबन्ध करने तथा बेरोज़गारी, बुढ़ापे, बीमारी और अंगहीनता की अवस्था में लोगों को सार्वजनिक सहायता देने का प्रयत्न करेगा। राज्य मज़दूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन स्तर तथा अधिक से अधिक सामाजिक सुविधाओं का प्रबन्ध करे। 42वें संशोधन 1976 द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य उपर्युक्त कानून या किसी अन्य ढंग से आर्थिक दृष्टि से कमज़ोरों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का प्रयत्न करेगा। राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा।

प्रश्न 3.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का संक्षिप्त में उल्लेख कीजिए जो देश की आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित हैं।
(Give a brief account of those Directive Principles which reflect the country’s economic policies.)
अथवा
राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के क्या अर्थ है ? भारतीय संविधान में दिए गए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन करो।
(What is the meaning of Directive Principles of State Policy and discuss the Directive Principles of state policy as embodied in Indian Constitution ?)
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन 36 से 51 तक की धाराओं में किया गया है और इन का सम्बन्ध राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक, शिक्षा-सम्बन्धी तथा अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों से है। यों इनका वर्गीकरण करना कठिन है, लेकिन कुछ विद्वानों ने इस दिशा में प्रयास किया है। डॉ० एम० पी० शर्मा ने राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को तीन वर्गों में रखा है-(1) समाजवादी सिद्धान्त, (2) गांधीवादी सिद्धान्त, (3) उदारवादी सिद्धान्त। हम इन सिद्धान्तों को चार श्रेणियों में बांट सकते हैं
(1) समाजवादी एवं आर्थिक सिद्धान्त, (2) गांधीवादी सिद्धान्त, (3) उदारवादी सिद्धान्त तथा (4) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

1. समाजवादी एवं आर्थिक सिद्धान्त (Socialaistic and Economic Principles)—कुछ निर्देशक सिद्धान्त ऐसे भी हैं जिनके लागू करने से समाजवादी व्यवस्था स्थापित होने की सम्भावना है। ऐसे सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

  • राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिस में सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार हो कि जन-साधारण के हित की प्राप्ति हो सके।
  • आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि धन और उत्पादन के साधनों का सर्व-साधारण के लिए अहितकारी केन्द्रीयकरण न हो।
  • श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और वे अपनी आर्थिक आवश्यकता से मज़बूर होकर कोई ऐसा काम करने पर बाध्य न हों जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल न हो।
  • बचपन तथा युवावस्था का शोषण व नैतिक परित्याग से संरक्षण हो।
  • राज्य लोगों के भोजन को पौष्टिक बनाने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य यथासम्भव इस बात का प्रयत्न करे कि सभी नागरिकों को बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीन होने की अवस्था में सार्वजनिक सहायता प्राप्त करने, काम पाने तथा शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो।
  • राज्य को मज़दूरों के लिए न्यायपूर्ण परिस्थितियों तथा स्त्रियों के लिए प्रसूति सहायता देने का यत्न करना चाहिए।
  • राज्य प्रत्येक श्रेणी के मजदूरों के लिए अच्छा वेतन, अच्छा जीवन-स्तर तथा आवश्यक छुट्टियों का प्रबन्ध करे। राज्य इस प्रकार का प्रबन्ध करे कि मज़दूर सामाजिक तथा सांस्कृतिक सुविधाओं को अधिक-से-अधिक प्राप्त करें।

2. गांधीवादी सिद्धान्त (Gandhian Principles)—इस श्रेणी में दिए गए सिद्धान्त गांधी जी के उन विचारों पर आधारित हैं जो वे स्वतन्त्र भारत के निर्माण के लिए रखते थे। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वे प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सकें।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को उत्साह देगा।
  • राज्य समाज के निर्बल वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों (Scheduled Castes) तथा अनुसूचित कबीलों (Scheduled Tribes) की शिक्षा तथा उनके आर्थिक हितों की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न करेगा तथा उनको सामाजिक अन्याय तथा लूट-खसूट से बचाएगा।
  • राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं को जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, रोकने का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य गायों, बछड़ों तथा दूध देने वाले अन्य पशुओं के वध को रोकने के लिए प्रयत्न करेगा।

3. उदारवादी सिद्धान्त (Liberal Principles) अन्य सिद्धान्तों को जो इस प्रकार की श्रेणियों में नहीं आते हम उन्हें उदारवादी सिद्धान्त कह कर पुकार सकते हैं और इनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के उचित कदम उठाएगा।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस के वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य कृषि तथा पशु-पालन का संगठन आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के आधार पर करेगा।
  • राज्य लोगों के जीवन-स्तर तथा भोजन-स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्न करेगा और सार्वजनिक स्वास्थ्य का सुधार करेगा।
  • राज्य उन स्मारकों, स्थानों तथा वस्तुओं की जिन्हें संसद् द्वारा ऐतिहासिक या कलात्मक दृष्टि से राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दिया गया हो रक्षा करेगा और उन्हें तोड़ने, बेचने, बाहर भेजने (Export), कुरूप या नष्ट किए जाने से बचाएगा।

4. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principles to promote International Peace and Security)-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में केवल राज्य की आन्तरिक नीति से सम्बन्धित ही निर्देश नहीं दिए गए बल्कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, इस विषय में भी निर्देश दिए गए हैं।
अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित कार्य करने के लिए कहा गया है-

(क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना।
(ख) दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना।
(ग) अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों तथा कानूनों के लिए सम्मान उत्पन्न करना।
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने के लिए मध्यस्थता का रास्ता अपनाना।

42वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। इस संशोधन द्वारा निम्नलिखित नए सिद्धान्त शामिल किए गए हैं-

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि बच्चों को स्वस्थ, स्वतन्त्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएं प्राप्त हों।
  • राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समान अवसर के आधार पर न्याय का विकास करें। आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का राज्य प्रयत्न करेगा।
  • राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा। (4) राज्य वातावरण की सुरक्षा और विकास करने तथा देश के वन और वन्य जीवन को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

44वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत अनुच्छेद 38 में एक और निर्देशक सिद्धान्त जोड़ा गया है। 44वें संशोधन के अनुसार राज्य विशेषकर आय की असमानता को न्यूनतम करने और न केवल व्यक्तियों में बल्कि विभिन्न क्षेत्रों अथवा व्यवसायों में लगे लोगों के समूहों में स्तर, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को दूर करने का प्रयास करेगा।

इस तरह राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ सम्बन्धित हैं, क्योंकि ये सिद्धान्त कई विषयों के साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इनको परस्पर किसी विशेष फिलॉसफी के साथ नहीं जोड़ा गया। यह तो एक तरह का प्रयत्न था कि इन सिद्धान्तों द्वारा सरकार को निर्देश दिए जाएं ताकि सरकार उन कठिनाइयों को दूर कर सके जो कठिनाइयां उस समाज में विद्यमान थीं।

प्रश्न 4.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को किस ढंग से किस सीमा तक क्रियान्वयन किया जा चुका है ? विवेचन कीजिए। (How far and in what manner have the Directive Principles been implemented ? Discuss.)
उत्तर-
भारत सरकार तथा राज्यों की सरकारों ने 1950 से लेकर अब तक निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए हैं

1. कमजोर वर्गों की भलाई (Welfare of Weaker Sections) सरकार ने कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े कबीलों की भलाई के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। अनुसूचित जातियों, कबीलों और पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों को स्कूलों तथा कॉलेजों में विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। सरकारी नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। पंजाब सरकार ने राज्य सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान तथा पिछड़ी जातियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे हैं। जबकि तमिलनाडु सरकार ने जुलाई, 1995 को पास किए एक बिल के अन्तर्गत राज्य सेवाओं में 69 प्रतिशत स्थान अनुसूचित जातियों व पिछड़ी जातियों के लिए सुरक्षित रखे हैं। लोकसभा में अनुसूचित जाति के लिए 84 एवं अनुसूचित जनजाति के लिए 47 स्थान आरक्षित रखे गए हैं। 95वें संशोधन द्वारा संसद् और राज्य विधानमण्डलों में इनके लिए 2020 ई० तक स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।

2. ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि-सुधार (Abolition of Zamindari System and Land Reforms) ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने और भूमि-सुधार के लिए अनेक कानून पास किए गए हैं।

3. पंचवर्षीय योजनाएं (Five Year Plans)—सरकार ने देश की आर्थिक, सामाजिक उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की। मार्च, 2017 में 12वीं पंचवर्षीय योजना खत्म हो गई। इन योजनाओं का उद्देश्य प्राकृतिक साधनों का जनता के हित के लिए प्रयोग करना तथा लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा करना इत्यादि है।

4. पंचायती राज की स्थापना (Establishment of Panchayati Raj)-बलवंत राय मेहता कमेटी की रिपोर्ट, 1957 के अनुसार, प्रायः सभी राज्यों में पंचायती राज को लागू किया गया है। 73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा पंचायतों को गांवों के विकास के लिए अधिक शक्तियां दी गई हैं।

5. सामुदायिक योजनाएं (Community Projects)-गांवों का विकास करने के लिए सामुदायिक योजनाएं चलाई गई हैं।

6. निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा (Free and Compulsory Education)—प्रायः सभी राज्यों में प्राइमरी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य है। पंजाब में मिडिल तक शिक्षा नि:शुल्क है जबकि जम्मू-कश्मीर में एम० ए० तक शिक्षा निःशुल्क है।

7. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण (Separation of Judiciary From Executive) पंजाब और हरियाणा में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् कर दिया गया है और कई राज्यों में इस दिशा में उचित कदम उ ठाए गए हैं।

8. नशाबन्दी (Prohibition)—सरकार ने नशीली वस्तुओं तथा नशाबन्दी के लिए प्रयास किए हैं। जनता सरकार ने नशाबन्दी पर बहुत बल दिया था।

9. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन (Encouragement to Cottage Industries)—सरकार ने कुटीर और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए खादी और कुटीर उद्योग आयोग की स्थापना की है जो लघु और कुटीर उद्योगों को कई प्रकार की आर्थिक और तकनीकी सहायता देता है।

10. बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation of Big Industries)—सरकार ने मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया है।

11. स्त्रियों के लिए समान अधिकार (Equal Rights for Women)-स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं। वेश्यावृत्ति को कानून द्वारा समाप्त किया जा चुका है।

12. विश्व शान्ति का विकास (Promotion of World Peace)-भारतीय सरकार ने विश्व शान्ति के लिए तटस्थता और सह-अस्तित्व की नीति को अपनाया है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

13. समाजवाद की स्थापना के लिए सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है और राजाओं के प्रिवी-पर्स भी समाप्त कर दिए हैं।

14. कृषि की उन्नति (Development of Agriculture)-कृषि की उन्नति के लिए सरकार ने अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। वैज्ञानिक आधार पर इसका संगठन किया जा रहा है। जनता सरकार का 1979-80 का बजट किसानों का बजट कहलाता था क्योंकि इस बजट में किसानों को बहुत रियायतें दी गई थीं।

15. सारे देश के लिए एक Civil Code प्राप्त करने के दृष्टिकोण से हिन्दू कोड बिल (Hindu Code Bill) जैसे कानून बनाए गए हैं।

16. प्राचीन स्मारकों (Ancient Monuments) की रक्षा के लिए भी कानून बनाए जा चुके हैं।

17. पशुओं की नस्ल सुधारने के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं। पशु-पालन से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम देहाती क्षेत्रों में चालू हैं। अधिकांश राज्यों में गौ, बछड़े, दूध देने वाले पशुओं का वध निषेध करने वाले कानून बनाये गए हैं।

18. संविधान के 25वें तथा 42वें संशोधन का मुख्य उद्देश्य निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना है।

19. अन्त्योदय-कुछ राज्यों में एक नया कार्यक्रम अन्त्योदय आरम्भ किया गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे ग़रीब परिवार आते हैं जिनकी कुल सम्पत्ति एक हजार से भी कम है। ऐसे परिवारों को विशेष सहायता देकर ऊपर उठाने का प्रयास किया जा रहा है।

20. अनुसूचित जातियों का विकास-अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों के आर्थिक, सामाजिक एवं
शैक्षिक विकास को गति देने और उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से निम्नलिखित उपाय किए गए हैं

(i) राज्यों और केन्द्रीय मन्त्रालयों को स्पेशल कम्पोनेंट प्लान कर दिया गया है।
(ii) राज्यों के विशेष कम्पनोनेंट प्लान को विशेष केन्द्रीय सहायता दी गई है।
(iii) राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगम स्थापित किए गए हैं।
(iv) मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ रहे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों के छात्रों के लिए बुक बैंक योजना शुरू की गई है। तीन विद्यार्थियों के एक समूह को 5000 रुपए की लागत की पाठ्य पुस्तकों का एक सैट दिया गया है। वर्ष 1987-88 में इस योजना के लिए 55 लाख का प्रावधान किया गया था।
(v) मलिन व्यवसाय में लगे लोगों के बच्चों के लिए प्री-मैट्रिक स्कालरशिप योजना को लागू किया गया है।
(vi) अनुसचित जाति और अनुसूचित जन जाति के प्रार्थियों के लिए कोचिंग एवं सहायता योजना शुरू की गई है।

यद्यपि निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं, परन्तु अभी बहुत कुछ करना शेष है। किसानों की दशा आज भी शोचनीय है, बेरोज़गारी की गति तेजी से बढ़ रही है, शराब का बोलबाला है और कमजोर वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय न मिलने के बराबर है। पंचायती राज की संस्थाओं को अनेक कारणों से विशेष सफलता नहीं मिली। आज भी भारत में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है। मई 1986 में संसद् ने मुस्लिम महिला विधेयक पास किया जोकि ‘Civil Code’ की भावना के विरुद्ध है। संक्षेप में निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने की गति बहुत धीमी है और सरकार को इन सिद्धान्तों को लागू करने के लिए शीघ्र ही उचित कदम उठाने चाहिएं।

प्रश्न 5.
नीति निर्देशक तत्त्वों के पीछे कौन-सी शक्ति कार्य कर रही है ? संक्षेप में विवेचना कीजिए।
(Write a paragraph on the sanction behind the Directive Principles.)
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करवाने के लिए न्यायपालिका के पास नहीं जाया जा सकता क्योंकि इनके पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। यद्यपि इनके पीछे कानून की शक्ति नहीं है, तथापि निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून से बढ़कर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं होती। जनमत की शक्ति उस शक्ति से लाख गुना अधिक होती है जो शक्ति कानून के पीछे होती है। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

प्रो० पायली (Pylee) ने ठीक ही कहा है कि “निर्देशक सिद्धान्त राष्ट्र की आत्मा का आधारभूत स्तर हैं तथा जो इनका उल्लंघन करेंगे वे अपने आपको उस उत्तरदायित्व की स्थिति से हटाने का खतरा मोल लेंगे जिसके लिए उन्हें चुना गया है।” 42वें संशोधन की धारा 4 द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि संविधान के चौथे भाग में दिए गए सभी या किसी भी निर्देशक सिद्धान्त को लागू करने के लिए बनाया गया कोई भी कानून इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह कानून 13, 19 या 31 (अनुच्छेद 31 को 44वें संशोधन द्वारा संविधान से निकाल दिया गया है) अनुच्छेदों में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है अथवा इन अनुच्छेदों द्वारा प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। परन्तु 9 मई, 1980 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में 42वें संशोधन की धारा 4 को रद्द कर दिया है।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में दिए गए निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
(Critically examine the Directive Principles of State Policy as embodied in the Constitution.)
उत्तर-
संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। परन्तु इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता अर्थात् इन सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इसलिए इन सिद्धान्तों की कड़ी आलोचना हुई है और संविधान में इनका उल्लेख निरर्थक बताया गया है। डॉ० जैनिंग्ज का विचार है कि निर्देशक सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं। प्रो० के० टी० शाह (K.T. Shah) का कहना है कि “राज्यनीति के सिद्धान्त उस चैक के समान हैं जिस का भुगतान बैंक सुविधा पर छोड़ दिया गया गया है।” श्री नासिरद्दीन (Nassiruddin) ने कहा था कि, “निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व नए वर्ष के दिन की जाने वाली प्रतिज्ञाओं से अधिक नहीं जिन्हें अगले दिन ही भुला दिया जाता है।” निम्नलिखित बातों के आधार पर निर्देशक सिद्धान्तों की आलोचना हुई है और इन्हें निरर्थक तथा महत्त्वहीन बताया गया है-

1. ये कानूनी दृष्टिकोणों से कोई महत्त्व नहीं रखते (No Legal Value)-निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि ये न्याय-योग्य नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इनको न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार इनको लागू नहीं करती तो कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता।

2. निर्देशक सिद्धान्तों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट (Vague and Indefinite)-निर्देशक सिद्धान्तों में बहुत-सी बातें अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं। उदाहरणस्वरूप, समाजवादी सिद्धान्तों में मज़दूरों तथा स्वामियों के परस्पर सम्बन्धों के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा गया है। श्रीनिवासन (Srinivasan) ने इन सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए कहा कि इन सिद्धान्तों की व्यवस्था विशेष प्रेरणादायक नहीं है।

3. पवित्र विचार (Pious Wish)-ये सिद्धान्त संविधान-निर्माताओं की पवित्र भावनाओं का एक संग्रहमात्र ही हैं। श्रद्धालु जनता को आसानी से झूठा सन्तोष प्रदान किया जा सकता है। सरकार इनसे सस्ती लोकप्रियता (Cheap Popularity) प्राप्त कर सकती है, हार्दिक लोकप्रियता नहीं। श्री वी० एन० राव के मतानुसार, “राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त राज्य के अधिकारियों के लिए नैतिक उपदेश के समान हैं और उनके विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि संविधान में नैतिक उपदेशों के लिए स्थान नहीं है।”

4. राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रभु राज्य में अप्राकृतिक हैं (Unnatural in Sovereign States)ये सिद्धान्त निरर्थक हैं क्योंकि निर्देश केवल अपने अधीन तथा घटिया को दिए जाते हैं। दूसरे, यह बात बड़ी हास्यास्पद तथा अर्थहीन लगती है कि प्रभुत्व-सम्पन्न राष्ट्र अपने आपको आदेश दे। यह तो समझ में आ सकता है कि एक बड़ी सरकार अपने अधीन सरकारों को आदेश दे। अतः ये सिद्धान्त अस्वाभाविक हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

5. संवैधानिक द्वन्द्व (Constitutional Conflict) आलोचकों का कहना है कि यदि राष्ट्रपति, जो संविधान के संरक्षण की शपथ लेते हैं, किसी बिल को इस आधार पर स्वीकृति देने से इन्कार कर दें कि वह निर्देशक सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है तो क्या होगा ? संविधान सभा में श्री के० सन्थानम (K. Santhanam) ने यह भय प्रकट किया कि इन निर्देशक तत्त्वों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमन्त्री के बीच मतभेद पैदा हो सकते

6. इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया (They are not properly classified) डॉ० श्रीनिवासन (Srinivasan) के अनुसार, “निर्देशक सिद्धान्तों का उचित ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है और न ही उन्हें क्रमबद्ध रखा गया है। इस घोषणा में अपेक्षाकृत कम महत्त्व वाले विषयों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक प्रश्नों के साथ जोड़ दिया गया है। इसमें आधुनिकता का प्राचीनता के साथ बेमेल मिश्रण किया गया है। इसमें तर्कसंगत और वैज्ञानिक व्यवस्थाओं को भावनापूर्ण और द्वेषपूर्ण समस्याओं के साथ जोड़ा गया है।”

7. इसमें राजनीतिक दार्शनिकता अधिक है और व्यावहारिक राजनीति कम है-ये सिद्धान्त आदर्शवाद पर ज़ोर देते हैं जिस कारण कहा जाता है कि ये सिद्धान्त एक प्रकार से राजनीति दर्शन ही हैं, व्यावहारिक दर्शन तथा व्यावहारिक राजनीति नहीं। ये लोगों को सान्त्वना नहीं दे सकते।

8. साधन का उल्लंघन (Means ignored)-डॉ० जेनिंग्ज (Jennings) का कहना है कि “संविधान का यह अध्याय सिर्फ लक्ष्य की चर्चा करता है, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन नहीं।”

9. संविधान में इनका समावेश सरल लोगों को धोखा देना है-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों से भारत के अनपढ़ तथा सरल लोगों को धोखा देने का प्रयत्न किया गया है। इनमें अधिकतर निर्देशक सिद्धान्त न तो व्यावहारिक हैं तथा न ही ठोस, इनमें से बहुत से ऐसे हैं जिन पर चला नहीं जा सकता। उदाहरतया नशाबन्दी अथवा शराब की मनाही से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्त । यह सिद्धान्त जहां सदाचार की दृष्टि से आदर्श हैं वहां कई आर्थिक समस्याएं भी उत्पन्न कर देते हैं। जहां कहीं भी भारत में नशाबन्दी कानून लागू किया है यह केवल असफल ही नहीं रहा अपितु इससे राष्ट्रीय आय में बहुत हानि हुई है। उदाहरणस्वरूप नवम्बर, 1994 में आंध्र प्रदेश में नशाबन्दी लागू की गई परन्तु मार्च 1997 को इसे रद्द करना पड़ा क्योंकि इसके कारण राज्य को राजस्व की भारी क्षति उठानी पड़ी थी। इसी प्रकार हरियाणा के मुख्यमन्त्री चौ० बंसी लाल ने 1996 में शराब बन्दी लागू की, लेकिन इसके परिणामस्वरूप हरियाणा राज्य को आर्थिक बदहाली का सामना करना पड़ा। अन्ततः 1 अप्रैल, 1998 को पुनः शराब की बिक्री खोल दी गई।
इस प्रकार इन कई बातों के आधार पर निर्देशक सिद्धान्तों को निरर्थक और महत्त्वहीन बताया गया है।

प्रश्न 7.
हमारे संविधान में दिए गए राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
(Discuss the importance of Directive Princinples of State Policy as stated in our Constitution.)
उत्तर-
संविधान के चौथे भाग में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। परन्तु इन सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति न होने के कारण यद्यपि इनकी कड़ी आलोचना की गई है और इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू भी नहीं करवाया जा सकता, फिर भी यह कहना कि ये सिद्धान्त निरर्थक व अनावश्यक हैं, गलत है। इन सिद्धान्तों का संविधान में विशेष स्थान है और ये सिद्धान्त भारतीय शासन के आधारभूत सिद्धान्त हैं। कोई भी सरकार इनको दृष्टि से विगत नहीं कर सकती। निम्नलिखित बातों से इनकी उपयोगिता तथा महत्त्व सिद्ध हो जाता है।

1. सरकार के लिए मार्गदर्शक (Guidelines for the Government)-निर्देशक सिद्धान्तों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ये सत्तारूढ़ दल के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। संविधान की धारा 37 के अनुसार, “इन सिद्धान्तों को शासन के मौलिक आदेश घोषित किया गया है जिन्हें कानून बनाते तथा लागू करते समय प्रत्येक सरकार का कर्त्तव्य माना गया है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल मन्त्रिमण्डल बनाए उसे अपनी आन्तरिक तथा बाह्य नीति निश्चित करते समय इन सिद्धान्तों को अवश्य ध्यान में रखना पड़ेगा। इस तरह ये सिद्धान्त मानों सभी राजनीतिक दलों का सांझा चुनावपत्र है।”

2. कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा (Declaration of Ideal of a Welfare State)-इन सिद्धान्तों द्वारा कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों को अपनाना आवश्यक होता है वे सब निर्देशक सिद्धान्तों में पाई जाती हैं। जस्टिस सप्र (Justice Sapru) का मत है कि “राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में वे समस्त दर्शन विद्यमान हैं जिनके आधार पर किसी भी आधुनिक जाति में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकती है।”

3. सरकार की सफलताओं को जांचने के मापदण्ड (Basic Standard for assessing the Achievements of the Government)-इन सिद्धान्तों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि वे भारतीय जनता के पास सरकार की सफलताओं को आंकने की कसौटी है। मतदाता इन आदर्शों को सम्मुख रखकर अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने अपनी शासन सम्बन्धी नीति को बनाते समय किस सीमा तक इन सिद्धान्तों को सम्मुख रखा है।

4. मौलिक अधिकारों को वास्तविक बनाने में सहायक-मौलिक अधिकारों ने लोगों को राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा समानता प्रदान की, परन्तु जब तक इन निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करके बेरोज़गारी दूर नहीं होती और आर्थिक व सामाजिक समानता की व्यवस्था नहीं हो जाती, राजनीतिक अधिकारों का कोई लाभ नहीं हो सकता।

5. लाभदायक नैतिक आदर्श (Useful Moral Precepts)-कुछ लोग निर्देशक सिद्धान्तों को नैतिक आदर्श के नाम से पुकारते हैं, परन्तु इस बात से भी उनकी उपयोगिता कम नहीं होती। संविधान में उनका उल्लेख करने से ये नैतिक आदर्श एक निश्चित रूप में तथा सदा जनता और सरकार के सामने रहेंगे।

6. न्यायपालिका के मार्गदर्शक (Guidelines for the Judiciary)-निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायपालिका के द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता, परन्तु फिर भी बहुत से मामलों में न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं और बहुत से मुकद्दमों में इनका उल्लेख भी किया गया है।

7. स्थिरता तथा निरन्तरता (Stability and Continuity)-निर्देशक सिद्धान्त से राज्य की नीति में एक प्रकार की स्थिरता और निरन्तरता आ जाती है। कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो, उसे इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही अपनी नीतियों का निर्माण करना होता है और शासन चलाना होता है। इससे शासन की नीति में स्थिरता और निरन्तरता का आना स्वभाविक है।

8. जनमत का समर्थन (Support of Public Opinion) निःसन्देह निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है, परन्तु इनके पीछे कानून से बढ़कर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर कोई शक्ति नहीं होती। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

9. ये भारत में वास्तविक लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं (Faith in real Democracy)-निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व इस बात में भी है कि भारत में ये वास्तविक लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं क्योंकि इनकी स्थापना से आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना होती है जो सच्चे लोकतन्त्र के लिए आवश्यक है।

10. ये सामाजिक क्रान्ति का आधार हैं (These are Basis of Social Revolution)-निर्देशक सिद्धान्त नई सामाजिक दशा के सूचक हैं। ये सामाजिक क्रान्ति का आधार हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

निर्देशक सिद्धान्तों का संविधान में उल्लेख किया जाना निरर्थक नहीं बल्कि बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। सरकार और जनता के सामने इनके द्वारा ऐसे आदर्श प्रस्तुत कर दिए गए हैं जिन्हें लागू करने से भारत को धरती का स्वर्ग बनाया जा सकता है। लोकतन्त्र में कोई भी आसानी से इनकी अवहेलना नहीं कर सकता। इनके बारे में श्री एम० सी० छागला (M.C. Chhagla) ने लिखा है कि “यदि इन सिद्धान्तों को लागू कर दिया जाये तो हमारा देश वास्तव में धरती पर स्वर्ग बन जाएगा।”

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार
और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था। अनुच्छेद 37 के अनुसार, “इस भाग में शामिल उपबन्ध न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते। फिर भी इनमें जो सिद्धान्त रखे गए हैं, वे देश के शासन प्रबन्ध की आधारशिला हैं और कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।”

प्रश्न 2.
भारत के संविधान में अंकित निर्देशक सिद्धान्तों के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप इस प्रकार है-

  • संसद् तथा कार्यपालिका के लिए निर्देश-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त भावी सरकारों तथा संसद के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं जिनके आधार पर सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।
  • आर्थिक लोकतन्त्र-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • निर्देशक सिद्धान्त न्याययोग्य नहीं है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में चार अन्तर बताएं।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों और मौलिक अधिकारों में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
  • मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है। मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। वे सरकार को कोई विशेष कार्य करने से रोकते हैं। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप सकारात्मक है। वे सरकार को कोई विशेष कार्य करने का आदेश देते हैं।
  • मौलिक अधिकार व्यक्ति से और निर्देशक सिद्धान्त समाज से सम्बन्धित-मौलिक अधिकार मुख्यत: व्यक्ति से सम्बन्धित हैं और उनका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्त सम्पूर्ण समाज के विकास पर बल देते हैं।
  • मौलिक अधिकारों से निर्देशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है।

प्रश्न 4.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए चार समाजवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-
कुछ सिद्धान्त ऐसे भी हैं जो समाजवादी व्यवस्था पर आधारित हैं। वे निम्नलिखित हैं-

  • राज्य ऐसी सामजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को आजीविका के साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार हो कि जन-साधारण के हित की प्राप्ति हो सके।

प्राश्न 5.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए चार उदारवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए उदारवादी सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उचित कदम उठाएगा।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अन्दर चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य कृषि तथा पशु-पालन का संगठन आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के आधार पर करेगा।

प्राश्न 6.
कोई चार गांधीवादी निर्देशक सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वह प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सके।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देगा।
  • राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं का जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, रोकने का प्रबन्ध करेगा।
  • राज्य गायों, बछड़ों तथा दूध देने वाले अन्य पशुओं के वध को रोकने के लिए प्रयत्न करेगा।

प्राश्न 7.
निर्देशक सिद्धान्तों की चार आधारों पर आलोचना करें।
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है-

  • ये कानूनी मुष्टिकोणों से कोई महत्त्व नहीं रखते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार इनके अनुसार काम नहीं करती तो उसके विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता।
  • निर्देशक सिद्धान्तों के विषय बहुत अनिश्चित तथा अस्पष्ट-निर्देशक सिद्धान्तों में बहुत-सी बातें अनिश्चित तथा अस्पष्ट हैं। उमाहरणस्वरूप, समाजवादी सिद्धान्तों में मजदूरों तथा स्वामियों के परस्पर सम्बन्धों के विषय में कुछ नहीं कहा गया है।
  • पवित्र विचार-ये सिद्धान्त संविधान निर्माताओं की पवित्र भावनाओं का संग्रह मात्र ही है। इनसे अनभिज्ञ जनता को आसानी से झूठा संतोष प्रदान किया जा सकता है। सरकार इससे सस्ती लोकप्रियता प्राप्त कर सकती है, हार्दिक लोकप्रियता नहीं।
  • इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है।

प्राश्न 8.
निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व बाताएं।
उत्तर-
निम्नलिखित बातों से निर्देशक सिमान्तों का महत्व स्पष्ट हो जाता है-

  • सरकार के लिए मार्गदर्शक-निर्देशक सिद्धान्तों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ये राजनीतिक दलों के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। चाहे कोई भी दल मन्त्रिमण्डल बनाए, वह आपनी नीतियों का निर्माण इन्हीं सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर ही करता है।
  • कल्यणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा-इन सिद्धान्तों के द्वारा कल्याणकरी राज्य के आदर्श की घोषण की गई है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए जिन बातों को अपनाना आवश्यक होता है, वे सब बातें निर्देशक सिद्धान्तों में पाई जाती हैं।
  • सरकार की सफलताओं को जांचने का मापदण्ड-इन सिद्धान्तों के द्वारा ही जनता सरकार की सफलताओं का अनुमन लगाती है। मतदाता इस आदर्श को सम्मुख रखकर ही अनुमान लगाते हैं कि शासन को चलाने वाली पार्टी ने किस सीमा तक इन सिद्धान्तों का पालन किया है।
  • ये न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शन का काम करते हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में दिए गए निर्देशक सिद्धान्तों में से कोई चार सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य ऐसे समाज का निर्माण करेगा जिसमें लोगों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्राप्त होगा।
  • स्त्रियों और पुरुषों को आजीविका कमाने के समान अवसर दिए जाएंगे।
  • देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून तथा समान न्याय संहिता की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो।

प्रश्न 10.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को संविधान में समावेश करने का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर-

  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का उद्देश्य भारत में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
  • निर्देशक सिद्धान्त विधानमण्डलों तथा कार्यपालिका को मार्ग दिखाते हैं कि उन्हें अपना अधिकार किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए।
  • ये सिद्धान्त ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं जिनमें न्याय, स्वतन्त्रता और समानता विद्यमान् हो तथा जनता सुखी और सम्पन्न हो।
  • निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका के लिए मार्ग दर्शक का काम करते हैं।

प्रश्न 11.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है ?
उत्तर-
निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानून की शक्ति न होकर जनमत की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं होती। जनमत की शक्ति उस शक्ति से लाख गुना अधिक होती है जो शक्ति कानून के पीछे होती है। क्योंकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं, इसलिए जनता इन सिद्धान्तों को लागू करने के पक्ष में है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी तथा अगले आम चुनाव में वह पार्टी चुनाव नहीं जीत सकेगी।

प्रश्न 12.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में से किन्हीं चार सिद्धान्तों की व्याख्या करें जिनका सम्बन्ध आर्थिक, शैक्षिक स्वतन्त्रताओं तथा विदेश नीति से है।
उत्तर-

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले।
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो।
  • राज्य संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा।

प्रश्न 13.
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्त लिखें।
उत्तर–
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन अनुच्छेद 51 में किया गया है। अनुच्छेद 51 के अनुसार राज्य को निम्नलिखित काम करने के लिए कहा गया है-

  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को प्रोत्साहन देगा।
  • राज्य दूसरे राज्यों के साथ न्यायपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखेगा।
  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों, समझौतों और कानूनों के लिए सम्मान पैदा करेगा।
  • राज्य अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को हल करने के लिए मध्यस्थ का रास्ता अपनाएगा।
  • राज्य को न संस्थाओं में विश्वास है जो कि विश्व-शान्ति व सुरक्षा के साथ सम्बन्धित हो।

प्रश्न 14.
“निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं।” सिद्ध कीजिए।
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों की तरह न्याय-योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्त राज्यों के लिए कुछ निर्देश हैं। इनके पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है। इनको न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि कोई सरकर इनको लागू नहीं करती तो कोई व्यक्ति न्यायालय में नहीं जा सकता अर्थात् किसी न्यायालय द्वारा किसी भी सरकार को इन सिद्धान्तों को अपनाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यह राज्य या सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह इन सिद्धान्तों को कहां तक मानती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 15.
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में से किन्हीं चार का उल्लेख कीजिए जिन्हें व्यावहारिक रूप दिया जा चुका है।
उत्तर-
भारत में निम्नलिखित नीति निर्देशक तत्त्वों को व्यावहारिक रूप दिया गया है

  • कमजोर वर्गों की भलाई-अनुसूचित जातियों, कबीलों और पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों को स्कूलों और कॉलेजों में विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। सरकारी नौकरियों में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। संसद् और राज्य विधानमण्डल में इनके लिए 2020 तक सीटें सुरक्षित रखी गई हैं।
  • ज़मींदारी प्रथा का अन्त और भूमि-सुधार-किसानों की दशा सुधारने के लिए ज़मींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया गया है तथा भूमि सुधार कानूनों को पारित करके सम्पत्ति के लिए विकेन्द्रीयकरण की स्थापना का प्रयत्न किया गया है।
  • पंचवर्षीय योजनाएं-सरकार ने देश की आर्थिक व सामाजिक उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएं आरम्भ की। आजकल 12वीं पंचवर्षीय योजना चल रही है।
  • बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक प्रकार के आदर्श अथवा शिक्षाएं हैं जो प्रत्येक सरकार के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। ये सिद्धान्त देश का प्रशासन चलाने के लिए आधार हैं। इनमें व्यक्ति के कुछ ऐसे अधिकार और शासन के कुछ ऐसे उत्तरदायित्व दिए गए हैं जिन्हें लागू करना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता। ये सिद्धान्त ऐसे आदर्श हैं जिनको हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में आर्थिक लोकतन्त्र लाने के लिए संविधान में रखा था।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान में अंकित निर्देशक सिद्धान्तों के स्वरूप का वर्णन करें।
उत्तर-

  • संसद् तथा कार्यपालिका के लिए निर्देश-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त भावी सरकारों तथा संसद के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं जिनके आधार पर सरकार को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए।
  • राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किए जा सकते-राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय के पास नहीं जा सकता।

प्रश्न 3.
मौलिक अधिकारों और राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दो अन्तर बताएं।
उत्तर-

  1. मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि मौलिक अधिकारों को न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है, परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता।
  2. मौलिक अधिकार स्वरूप में निषेधात्मक हैं जबकि निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक हैं-मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है। मौलिक अधिकारों के विपरीत निर्देशक सिद्धान्तों का स्वरूप सकारात्मक है।

प्रश्न 4.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए कोई दो समाजवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य ऐसी सामजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।
  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्री-पुरुषों को आजीविका के साधन प्राप्त हो सकें।

प्रश्न 5.
राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में दिए गए दो उदारवादी सिद्धान्त लिखें।
उत्तर-

  • राज्य समस्त भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा।
  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का उचित कदम उठाएगा।

प्रश्न 6.
कोई दो गांधीवादी निर्देशक सिद्धान्त लिखो।
उत्तर-

  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा उनको इतनी शक्तियां तथा अधिकार देगा कि वह प्रबन्धकीय इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सके।
  • राज्य ग्रामों में निजी तथा सहकारी आधार पर घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देगा।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान के किस भाग एवं किस अनुच्छेद में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-संविधान के भाग IV-A तथा अनुच्छेद 51-A में मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. संविधान के भाग IV-A में नागरिकों के कितने मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-11 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 3. नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को संविधान में किस संशोधन के द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 4. संविधान के किस भाग में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-भाग IV में।

प्रश्न 5. संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा से संबंधित है ?
उत्तर-अनुच्छेद 51 में।

प्रश्न 6. मौलिक अधिकारों एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय संगत हैं, जबकि निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं।

प्रश्न 7. निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के कितने-से-कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 36 से 51 तक।

प्रश्न 8. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार निर्देशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं ?
उत्तर-अनुच्छेद 37 के अनुसार।

प्रश्न 9. शिक्षा के अधिकार का वर्णन किस भाग में किया गया है?
उत्तर-शिक्षा के अधिकार का वर्णन भाग III में किया गया है।

प्रश्न 10. किस संवैधानिक संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का रूप दिया गया?
उत्तर-86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. …….. संशोधन द्वारा …….. में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया।
2. वर्तमान समय में संविधान में ……….. मौलिक कर्त्तव्य शामिल हैं।
3. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन अनुच्छेद ………. तक में किया गया है।
4. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत ……… नहीं हैं।
उत्तर-

  1. 42वें, IV-A
  2. ग्यारह
  3. 36 से 51
  4. न्यायसंगत।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारतीय संविधान में 44वें संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य शामिल किये गए।
2. आरंभ में भारतीय संविधान में 6 मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया था, परंतु वर्तमान समय में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है।
3. नीति निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।
4. अनुच्छेद 51 के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देना है।
5. निर्देशक सिद्धांत कानूनी दृष्टिकोण से बहुत महत्त्व रखते हैं।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
किस संविधान से हमें निर्देशक सिद्धांतों की प्रेरणा प्राप्त हुई है ?
(क) ब्रिटेन का संविधान
(ख) स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान
(ग) अमेरिका का संविधान
(घ) आयरलैंड का संविधान।
उत्तर-
(घ) आयरलैंड का संविधान।

प्रश्न 2.
निर्देशक सिद्धान्तों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-
(क) ये नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हैं
(ख) इनको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है
(ग) ये सकारात्मक हैं
(घ) ये सिद्धान्त राज्य के अधिकार हैं।
उत्तर-
(ग) ये सकारात्मक हैं

प्रश्न 3.
“राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त एक ऐसे चैक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है।” यह कथन किसका है ?
(क) प्रो० के० टी० शाह
(ख) मिस्टर नसीरूद्दीन
(ग) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(घ) महात्मा गाँधी।
उत्तर-
(क) प्रो० के० टी० शाह

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 23 राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है ?
(क) संविधान का पालन करना
(ख) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना
(ग) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना
(घ) माता-पिता की सेवा करना।
उत्तर-
(घ) माता-पिता की सेवा करना।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 22 मौलिक अधिकार

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की विशेषताओं की व्याख्या करो।
(Discuss the special features of the Fundamental Rights as given in the Indian Constitution.)
अथवा
हमारे संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की प्रकृति की व्याख्या करो।
(Discuss the nature of Fundamental Rights as mentioned in our Constitution.)
उत्तर-
भारत के संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है और संविधान द्वारा उनकी केवल घोषणा ही नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा भी की गई है। भारत के संविधान में मूल अधिकारों का वर्णन केवल इसलिए ही नहीं किया गया कि उस समय यह कोई फैशन था। यह वर्णन उस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए लिया गया है, जिसके अनुसार सरकार कानून के अनुसार कार्य करे, न कि गैर-कानूनी तरीके से।

मौलिक अधिकारों की प्रकृति अथवा स्वरूप
अथवा
मौलिक अधिकारों की विशेषताएं

संविधान ने जो भी मौलिक अधिकार घोषित किए हैं, उनकी कुछ अपनी ही विशेषताएं हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

1. व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े व्यापक तथा विस्तृत हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं (Art. 12-35) में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तार से व्याख्या की गई है।

2. मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की यह विशेषता है कि ये भारत के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।

3. मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं-कोई भी अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं हो सकता। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी असीमित नहीं हैं। संविधान के अन्दर ही मौलिक अधिकारों पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।

4. मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकार की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं-मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और उनके माध्यम से प्रत्येक ऐसी संस्था जिसको कानून बनाने का अधिकार है, पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय सरकारों को मौलिक अधिकारों के अनुसार ही कानून बनाने पड़ते हैं तथा ये कोई ऐसा कानून नहीं बना सकतीं जो मौलिक अधिकारों पर के विरुद्ध हो।

5. अधिकार न्याय योग्य हैं-मौलिक अधिकार न्यायालयों द्वारा लागू किए जा सकते हैं। यदि इन अधिकारों में से किसी का उल्लंघन किया जाता है, तो वह व्यक्ति जिसको इनके उल्लंघन से हानि होती है, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संसद् अथवा राज्य विधान-मण्डलों के पास हुए कानून तथा आदेश को अवैध घोषित कर सकती है यदि वह कानून अथवा आदेश संविधान के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हो।

6. अधिकार निलम्बित किए जा सकते हैं-राष्ट्रपति संकट काल की घोषणा करके संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को निलम्बित कर सकता है तथा साथ ही उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में इन अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध अपील करने के अधिकार का भी निषेध कर सकता है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत दिए निजी और स्वतन्त्रता के अधिकार को आपात्कालीन स्थिति के दौरान भी स्थगित नहीं किया जा सकता, परन्तु 59वें संशोधन द्वारा इस अधिकार को भी निलम्बित किया जा सकता है।

7. नकारात्मक तथा सकारात्मक अधिकार-हमारे संविधान में नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों प्रकार के अधिकार हैं। नकारात्मक अधिकार निषेधों की तरह हैं जो राज्य की शक्ति पर सीमाएं लगाते हैं। उदाहरणस्वरूप अनुच्छेद 18 राज्यों को आदेश देता है कि वह किसी नागरिक को सेना या विद्या सम्बन्धी उपाधि के अलावा और किसी प्रकार की उपाधि नहीं देंगे, यह नकारात्मक अधिकार है। सकारात्मक अधिकार वे होते हैं जो नागरिक को किसी काम को करने की स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। बोलने का अधिकार सकारात्मक अधिकार है।

8. कुछ मौलिक अधिकार विदेशियों को भी प्राप्त हैं-संविधान में कुछ अधिकार तो केवल भारतीय नागरिकों को दिए गए हैं, जैसे अनुच्छेद 15, 16, 19 तथा 30 में वर्णित अधिकार और कुछ अधिकार नागरिकों तथा विदेशियों को समान रूप में मिले हैं, जैसे कानून के समक्ष समानता तथा समान संरक्षण, धर्म की स्वतन्त्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार इत्यादि।

9. इनका संशोधन किया जा सकता है-मौलिक अधिकारों की अनुच्छेद 368 में दी गई विधि कार्यविधि में संशोधन किया जा सकता है। इसके लिए कुल सदस्यों के बहुमत एवं संसद् के दोनों सदनों में से प्रत्येक में उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत का होना ज़रूरी है।

10. मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए विशेष संवैधानिक व्यवस्था-अनुच्छेद 32 में लिखा है कि भारत में किसी भी अधिकारी द्वारा यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों को छीनने का प्रयत्न किया जाता है, तो वह अपने अधिकारों को लागू कराने के लिए उचित विधि द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है ताकि आदेश अथवा रिट, हैबीयस कॉर्पस (Habeaus Corpus), मण्डामस (Mandamus), वर्जन (Prohibition), कौवारण्टो (Quo Warranto) एवं सरटरारी (Certiorari) जो भी उचित हो, जारी करवा सके।

11. साधारण व्यक्तियों तथा संस्थाओं पर लागू होना-मौलिक अधिकारों का प्रभाव सरकार तथा सरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त गैर-सरकारी व्यक्तियों और संस्थाओं पर भी है।

12. संविधान नागरिक स्वतन्त्रताओं पर अधिक बल देता है-मौलिक अधिकारों की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें नागरिक स्वतन्त्रताओं (कानून के समक्ष समता, भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता इत्यादि) पर ही अधिक बल दिया गया है। मौलिक अधिकारों में आर्थिक अधिकारों, जैसे काम करने का अधिकार का वर्णन नहीं किया है।

13. भारतीय संविधान में न तो प्राकृतिक और न ही अप्रगणित अधिकारों का वर्णन है (No Natural and Uneumerated Rights in the Indian Constitution)-प्राकृतिक अधिकार व्यक्ति को प्रकृति की ओर से मिले होते हैं। यह मनुष्य को जन्म से ही प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों का सम्बन्ध प्राकृतिक न्याय से है। यह राज्य और सरकार के जन्म से पूर्व के हैं, अतः अधिकारों के सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों का आधार संविधान में लिखा जाना मात्र नहीं है। इनका आधार सामाजिक समझौता है। सामाजिक समझौते के आधार पर ही राज्य की स्थापना हुई थी, परन्तु भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का आधार प्राकृतिक आधार नहीं है।

अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय संविधान में प्रगणित अधिकारों की व्याख्या तो कर ही सकता है, साथ ही वह अनेकों दूसरे अधिकारों की व्याख्या कर सकता है जिसका स्पष्ट रूप से संविधान में वर्णन नहीं, ऐसा अमेरिका के संविधान में लिखा है। किन्तु गोपालन बनाम मद्रास (चेन्नई) राज्य वाले विवाद में भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका ने यह फैसला कर दिया था कि “जब तक विधानमण्डल द्वारा बनाया गया कोई अधिनियम संविधान के किसी उपबन्ध के विपरीत नहीं, उस अधिनियम को केवल इस आधार पर कि न्यायालय उसे संविधान की भावना के विरुद्ध समझता है अवैध नहीं घोषित किया जाएगा।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या करें।
(Explain in brief the meaning of the fundamental rights given in the constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान में दिए गए नगारिक अधिकारों का संक्षेप में वर्णन करें।
(Explain in brief the fundamental rights enshrined in the India constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों का वर्णन करो। इनका महत्त्व क्या है ?
(Describe briefly the fundamental rights as given in the Indian constitution. What is their significance ?)
उत्तर-
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में धारा 12 से 35 तक की धाराओं में किया गया है।
44वें संशोधन से पूर्व संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा गया था परन्तु 44वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 में संशोधन करके और अनुच्छेद 31 को हटा कर सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकाल कर कानूनी अधिकार बना दिया गया है। अतः 44वें संशोधन के बाद 6 मौलिक अधिकार रह गये हैं जो निम्नलिखित हैं

1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 व 18) [Right to Equality (Art. 14, 15, 16, 17 and 18)] – समानता का अधिकार एक महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है जिसका वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। भारतीय संविधान में नागरिकों को निम्नलिखित समानता प्रदान की गई है

(I) कानून के समक्ष समानता (Equality before Law, Art. 14) संविधान के अनुच्छेद 14 में “कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण” शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया है और संविधान में लिखा गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा।

कानून के समक्ष समानता (Equality before Law) का अर्थ यह है कि कानून के सामने सभी बराबर हैं और किसी को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। कोई भी व्यक्ति देश के कानून से ऊपर नहीं है। सभी व्यक्ति भले ही उनकी कुछ भी स्थिति हो, साधारण कानून के अधीन हैं और उन पर साधारण न्यायालय में मुकद्दमा चलाया जा सकता है।
कानून के समान संरक्षण (Equal Protection of Law) का यह आभप्राय कि समान परिस्थितियों में सब के साथ समान व्यवहार किया जाए।

अपवाद (Exceptions)—इस अधिकार के निम्नलिखित अपवाद हैं।

  • विदेशी राज्यों के अध्यक्ष तथा राजदूतों के विरुद्ध भारतीय कानूनों के अन्तर्गत कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।
  • राष्ट्रपति तथा राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उनके कार्यकाल में कोई फौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता।
  • मन्त्रियों, विधानमण्डल के सदस्यों, न्यायाधीशों और दूसरे कर्मचारियों को भी कुछ विशेषाधिकार दिए गए हैं और ये विशेषाधिकार साधारण नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं।

(II) भेदभाव की मनाही (Prohibition of Discrimination, Art. 15)—अनुच्छेद 15 के अनुसार अग्रलिखित व्यवस्था की गई है-

  • राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जाति लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं करेगा।
  • दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों के ऊपर दिए गए किसी आधार पर किसी नागरिक को अयोग्य व प्रतिबन्धित नहीं किया जाएगा।
  • उन कुओं, तालाबों, नहाने के घाटों, सड़कों व सैर के स्थानों से जिनकी राज्य की निधि से अंशतः या पूर्णतः देखभाल की जाती है अथवा जिनको सार्वजनिक प्रयोग के लिए दिया गया हो, किसी नागरिक को जाने की मनाही नहीं होगी अर्थात् सार्वजनिक स्थान सभी नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव के खुले हैं।

अपवाद (Exception)-अनुच्छेद 15 में दिए गए अधिकारों के निम्न दो अपवाद हैं-

  • राज्य स्त्रियों और बच्चों के हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था कर सकता है।
  • राज्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जन-जातियों तथा अनुसूचित कबीलों के लोगों की भलाई के लिए विशेष व्यवस्थाओं का प्रबन्ध कर सकता है।

(III) सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता (Equality of Opportunity in Matter of Public Employment-Art. 16) अनुच्छेद 16 राज्य में सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियां या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, लिंग, जन्म-स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

(IV) छुआछूत की समाप्ति (Abolition of Untouchability, Art. 17)-अनुच्छेद 17 द्वारा छुआछूत को समाप्त किया गया है। किसी भी व्यक्ति के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना या उसको अछूत समझकर सार्वजनिक स्थानों, होटलों, घाटों, तालाबों, कुओं, सिनेमा घरों, पार्कों तथा मनोरंजन के स्थानों के उपयोग से रोकना कानूनी अपराध है। छुआछूत की समाप्ति एक महान् ऐतिहासिक घटना है।

(V) उपाधियों की समाप्ति (Abolition of Titles, Art. 18) अनुच्छेद 18 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि-

  • सेना या शिक्षा सम्बन्धी उपाधि के अतिरिक्त राज्य कोई और उपाधि नहीं देगा।
  • भारत का कोई भी नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
  • कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं, परंतु भारत में किसी लाभप्रद अथवा भरोसे के पद पर नियुक्त है, राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना किसी विदेशी से कोई उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता।
  • कोई भी व्यक्ति जो राज्य के किसी लाभदायक पद पर विराजमान है, राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना कोई भेंट, वेतन अथवा किसी प्रकार का पद विदेशी राज्य से प्राप्त नहीं कर सकता।

भारत सरकार नागरिकों को भारत रत्न (Bharat Ratan), पदम् विभूषण (Padam Vibhushan), पदम् भूषण (Padam Bhushan), पद्म श्री (Padam Shri) आदि उपाधियां देती है जिस कारण अलोचकों का कहना है कि ये उपाधियां अनुच्छेद 18 के साथ मेल नहीं खातीं।

2. स्वतन्त्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 से 22 तक (Right to Freedom Art. 19 to 22) – स्वतन्त्रता का अधिकार प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि समानता का अधिकार। भारत के संविधान में स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 19 से 22 में किया गया है। स्वतन्त्रता के अधिकार को संविधान का ‘प्राण तथा आत्मा’ और स्वतन्त्रताओं का पत्र कहा जाता है। श्री एम० वी० पायली (M. V. Pylee) ने लिखा है, “स्वतन्त्रता के अधिकार सम्बन्धी ये चार धाराएं मौलिक अधिकारों के अध्याय का मूल आधार हैं।” अब हम अनुच्छेद 19 से 22 तक में दिए गए स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन करते हैं-

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

(क) अनुच्छेद 19-अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत नागरिकों को निम्नलिखित 6 स्वतन्त्रताएं प्राप्त हैं

  • भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता-प्रत्येक नागरिक को भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। कोई भी नागरिक बोलकर या लिखकर अपना विचार प्रकट कर सकता है परन्तु भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता असीमित नहीं है।
  • शान्तिपूर्ण तथा बिना अस्त्रों के सम्मेलन की स्वतन्त्रता-भारतीय नागरिकों को शान्तिपूर्ण तथा बिना हथियारों के अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सम्मेलन करने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु राज्य भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता, सार्वजनिक व्यवस्था के हित में शान्तिपूर्वक तथा बिना शस्त्रों के इकट्ठे होने के अधिकार को सीमित कर सकता है।
  • संस्था तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता-संविधान नागरिकों को अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संस्था तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। परन्तु संघ तथा संस्था बनाने के अधिकार को राज्य भारत की प्रभुसत्ता तथा अखण्डता, सार्वजनिक व्यवस्था तथा नैतिकता के हित में उचित प्रतिबन्ध लगाकर सीमित कर सकता है।
  • समस्त भारत में चलने-फिरने की स्वतन्त्रता-संविधान नागरिकों को समस्त भारत में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। भारत के किसी भी भाग में जाने के लिए पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं है, परन्तु राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • भारत के किसी भाग में रहने तथा बसने की स्वतन्त्रता- भारतीय नागरिक किसी भी भाग में रह सकते हैं
    और अपना निवास स्थान बना सकते हैं। राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर भी उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
  • कोई भी व्यवसाय, पेशा करने अथवा व्यापार एवं वाणिज्य करने की स्वतन्त्रता- प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा से कोई भी व्यवसाय, पेशा अथवा व्यापार करने की स्वतन्त्रता दी गई है। राज्य किसी नागरिक को कोई विशेष व्यवसाय अपनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।

(ख) जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की सुरक्षा (Right of Life and Personal Liberty-Art. 20-22)

अनुच्छेद 20 व्यक्ति और उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करता है; जैसे-

  • किसी व्यक्ति को किसी ऐसे कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड नहीं दिया जा सकता जो कानून उसके अपराध करते समय लागू नहीं था।
  • किसी व्यक्ति को उससे अधिक सज़ा नहीं दी जा सकती जितनी अपराध करते समय प्रचलित कानून के अधीन दी जा सकती है।
  • किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध उसी अपराध के लिए एक बार से अधिक मुकद्दमा नहीं चलाया जाएगा और दण्डित नहीं किया जाएगा।
  • किसी अभियुक्त को अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 21 में लिखा है कि कानून द्वारा स्थापित पद्धति के बिना, किसी व्यक्ति को उसके जीवन और उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।

शिक्षा का अधिकार (Right to Education)-दिसम्बर, 2002 में राष्ट्रपति ने 86वें संवैधानिक संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। इस स्वीकृति के बाद शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान के तीसरे भाग में शामिल होने के कारण एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा। बच्चों के माता-पिता अभिभावकों या संरक्षकों का यह कर्त्तव्य होगा कि वे अपने बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध करवाएं, जिनसे उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के अधिकार के लागू होने के बाद भारतीय बच्चे इस अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं, क्योंकि मौलिक अधिकारों में शामिल होने के कारण ये अधिकार न्याय योग्य है।

1 अप्रैल, 2010 से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009′ के लागू होने के पश्चात् 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने का कानूनी अधिकार मिल गया है।

(ग) गिरफ्तारी एवं नज़रबन्दी के विरुद्ध रक्षा (Protection against Arrest and Detention in Certain Cases-Art. 22) –
अनुच्छेद 22 गिरफ्तार तथा नजरबन्द नागरिकों के अधिकारों की घोषणा करता है। अनुच्छेद 22 के अनुसार-

  • गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को, गिरफ्तारी के तुरन्त पश्चात् उसकी गिरफ्तारी के कारणों से परिचित कराया जाना चाहिए।
  • उसे अपनी पसन्द के वकील से परामर्श लेने और उसके द्वारा सफाई पेश करने का अधिकार होगा।
  • बन्दी-गृह में बन्द किए गए किसी व्यक्ति को बन्दी-गृह से किसी मैजिस्ट्रेट के न्यायालय तक की यात्रा के लिए आवश्यक समय निकाल कर 24 घण्टों के अन्दर-अन्दर निकट-से-निकट मैजिस्ट्रेट के न्यायालय में उपस्थित किया जाए।
  • बिना मैजिस्ट्रेट की आज्ञा के 24 घण्टे से अधिक समय के लिए किसी व्यक्ति को कारावास में नहीं रखा जाएगा।
    अपवाद-अनुच्छेद 22 में लिखे अधिकार उस व्यक्ति को नहीं मिलते जो शत्रु विदेशी है या निवारक नजरबन्दी कानून के अनुसार गिरफ्तार किया गया हो।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
(Right Against Exploitation-Art. 23-24) – संविधान के 23वें तथा 24वें अनुच्छेदों में नागरिकों के शोषण के विरुद्ध अधिकारों का वर्णन किया गया है। इस अधिकार का उद्देश्य है कि समाज का कोई भी शक्तिशाली वर्ग किसी निर्बल वर्ग पर अन्याय न कर सके।

(I) मानव के व्यापार और बलपूर्वक मज़दूरी की मनाही (Prohibition of traffic in human beings and forced Labour)-अनुच्छेद 23 के अनुसार ‘मनुष्यों का व्यापार, बेगार और अन्य प्रकार का बलपूर्वक श्रम निषेध है और इस व्यवस्था का उलंलघन करना दण्डनीय अपराध है।’ जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब भारत के कई भागों में दासता और बेगार की प्रथा प्रचलित थी। ज़मींदार किसानों से बहुत काम करवाया करते थे, परन्तु उसके बदले उनको कोई मज़दूरी नहीं दी जाती थी। मनुष्यों को विशेषकर स्त्रियों को पशुओं की तरह खरीदा और बेचा जाता था, अतः इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद 23 द्वारा उठाया गया पग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अपवाद-परन्तु इस अधिकार का एक अपवाद है। सरकार को जनता के हितों के लिए अपने नागरिकों से आवश्यक सेवा (Compulsory Service) करवाने का अधिकार है।

(II) कारखानों आदि में बच्चों को काम पर लगाने की मनाही (Prohibition of employment of children in factories etc.)–अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी भी बच्चे को किसी भी कारखाने अथवा खान में नौकर नहीं रखा जा सकता और न ही किसी संकटमयी नौकरी में लगाया जा सकता है। यह इसलिए किया गया है ताकि बच्चों को काम में लगाने के स्थान पर उनको शिक्षा दी जा सके। इसीलिए निर्देशक सिद्धान्तों में राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए अनिवार्य और नि:शुल्क शिक्षा का प्रबन्ध करे।

4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25, 26, 27 व 28)
(Right to Freedom of Religion-Art. 25, 26, 27 and 28) –
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है।

(i) अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा किसी भी धर्म को मानने व उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था नैतिकता, स्वास्थ्य और संविधान के तीसरे भाग की अन्य व्यवस्थाओं पर विचार करते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता (Freedom of Conscience) का अधिकार प्राप्त है और बिना रोक-टोक के धर्म में विश्वास (Profess) रखने, धार्मिक कार्य करने (Practice) तथा प्रचार (Propagation) करने का अधिकार है। यह अनुच्छेद भारत में एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। राज्य किसी धर्म विशेष का पक्षपात नहीं करता है और न ही उसे कोई विशेष सुविधा ही प्रदान करता है।

(ii) अनुच्छेद 26 के अनुसार धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता (Freedom to manage Religious Affairs) दी गई है। सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता को ध्यान में रखते हुए धार्मिक समुदायों या उसके किसी भाग को निम्नलिखित अधिकार दिए गए हैं
(क) धार्मिक एवं परोपकार के उद्देश्यों से संस्थाएं स्थापित करे तथा उन्हें चलाए। (ख) धार्मिक मामलों में अपने कार्यों का प्रबन्ध करे। (ग) चल तथा अचल सम्पत्ति का स्वामित्व ग्रहण करे। (घ) वह अपनी सम्पत्ति का कानून के अनुसार प्रबन्ध करे।

(iii) अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी धर्म विशेष के प्रसार के लिए कर न देने की स्वतन्त्रता है-किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी विशेष धर्म या धार्मिक समुदाय के विकास या बनाए रखने के लिए खर्च किया जाता हो।

(iv) सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर रोक-अनुच्छेद 28 में निम्नलिखित व्यवस्था की गई है
(क) किसी भी सरकारी शिक्षण संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, परन्तु यह धारा ऐसी शिक्षण संस्था ‘ पर लागू नहीं होती जिसका प्रबन्ध सरकार करती है, परन्तु जिसकी स्थापना किसी धनी, दानी अथवा ट्रस्ट द्वारा की गई है, तो ऐसी संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देना वांछित घोषित करता है।
(ख) गैर-सरकारी शिक्षा संस्थाओं में जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है अथवा जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त होती है किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यदि विद्यार्थी वयस्क न हो तो उसके संरक्षक की अनुमति आवश्यक है।

धार्मिक स्वतन्त्रता से स्पष्ट पता चलता है कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है जिसमें व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अपने धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है।

5. सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) (Cultural and Educational Rights—Art. 29 and 30)- भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग हैं जिनकी भाषा, रीति-रिवाज और सभ्यता एक-दूसरे से भिन्न हैं। अनुच्छेद 29 तथा 30 के अधीन नागरिकों को विशेषतः अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार निम्नलिखित हैं-

(क) भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार (Right to conserve the Language, Script and Culture)-

  • अनुच्छेद 29 के अनुसार भारत के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग या उसके किसी भाग को जिसकी अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति हो, उसे यह अधिकार है कि वह उनकी रक्षा करे।
    अनुच्छेद 29 के अनुसार केवल अल्पसंख्यकों को ही अपनी भाषा, संस्कृति इत्यादि को सुरक्षित रखने का अधिकार प्राप्त नहीं है बल्कि यह अधिकार नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को प्राप्त है।
  • किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाई जाने वाली शिक्षा संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, वंश, भाषा या इसमें किसी के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता।

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(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-

  • अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षा संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा कि अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन है, चाहे वह अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।

6. संवैधानिक उपायों का अधिकार (अनुच्छेद 32) (Right to Constitutional Remedies—Art. 32) – अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है। यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू नहीं करती या उसके विरुद्ध कोई काम करती है तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या उस कानून को रद्द करवाया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कई पक्षों से आलोचना की गई है। मौलिक अधिकारों द्वारा नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा की गई है और कार्यपालिका तथा संसद् की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगा दिया गया है। हम एम० वी० पायली (M. V. Pylee) के इस कथन से सहमत हैं कि “सम्पूर्ण दृष्टि से संविधान में अंकित मौलिक अधिकार भारतीय प्रजातन्त्र को दृढ़ तथा जीवित रखने का आधार हैं।”

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में लिखित संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार पर विवेचना कीजिए।
(Discuss the fundamental right to constitutional remedies.)
उत्तर-
संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन कर देना ही काफ़ी नहीं है, इनकी सुरक्षा के उपायों की व्यवस्था भी उतनी ही आवश्यक है, इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में न्यायिक उपचारों की व्यवस्था की। इन उपचारों का वर्णन अनुच्छेद 32 में किया गया है। अनुच्छेद 32 के अनुसार यह व्यवस्था की गई है-

  • मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को उचित कार्यवाही करने का अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 226 के अनुसार इन मौलिक अधिकारों को लागू करवाने का अधिकार उच्च न्यायालय को भी दिया गया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए निर्देश, आदेश और लेख-बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), निषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari) व अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto) जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
  • संसद् कानून द्वारा किसी भी न्यायालय को, सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों को हानि पहुंचाए बिना उसके क्षेत्राधिकार को स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत आदेश (Writ) जारी करने की सब या कुछ शक्ति दे सकती है।
  • उन परिस्थितियों को छोड़ कर जिनका संविधान में वर्णन किया गया है संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकारों को स्थगित नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए निम्नलिखित आदेश जारी कर सकता है-

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus)-‘हेबियस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो’, (Let us have the body)। इस आदेश के अनुसार न्यायालय किसी अधिकारी को जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून का औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है। अतः इस प्रकार की यह व्यवस्था नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए बहुत बड़ी सुरक्षा है।

2. परमादेश का आज्ञा पत्र (Writ of Mandamus)-‘मैण्डैमस’ शब्द भी लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है, “हम आदेश देते हैं।” (We Command) । इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो। ये आदेश केवल सरकारी कर्मचारियों या अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं बल्कि स्वयं सरकार तथा अधीनस्थ न्यायालयों, न्यायिक संस्थाओं के विरुद्ध भी जारी किया जा सकता है यदि वे अपने अधिकारों का उचित प्रयोग और कर्त्तव्य का पालन न करें।

3. प्रतिषेध अथवा मनाही आज्ञा पत्र (Writ of Prohibition)-इस शब्द का अर्थ है “रोकना अथवा मनाही करना”। इस आदेश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी निम्न न्यायालय को आदेश देता है कि वह अमुक कार्य जो उसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है न करे अथवा एक दम बन्द कर दे। जहां परमादेश किसी कार्य को करने का आदेश देता है वहां प्रतिषेध किसी कार्य को न करने का आदेश देता है। प्रतिषेध केवल न्यायिक अथवा अर्द्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है और उस सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता जो न्यायिक कार्य न कर रहा हो।

4. उत्प्रेषण लेख (Writ of Certiorari)—इसका अर्थ है, “अच्छी प्रकार सूचित करो।” यह आदेश न्यायालय निम्न न्यायालय को जारी करता है जिसके द्वारा निम्न न्यायालय को किसी अभियोग के विषय में अधिक जानकारी देने का आदेश दिया जाता है। यह लेख निम्न न्यायालय के मुकद्दमे की सुनवाई आरम्भ होने से पहले तथा उसके बाद भी जारी किया जाता है।

5. अधिकार-पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto)—इसका अर्थ है “किस के आदेश से” अथवा किस अधिकार से। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य को करने का दावा करता है जिसको करने का उसको अधिकार न हो। इस लेख (Writ) के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेध जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है जिसके लिए अवकाश प्राप्ति की उम्र 70 से कम है तो न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध अधिकार-पृच्छा लेख जारी कर उस पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

डॉ० अम्बेदकर (Dr. Ambedkar) ने अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक उपचारों को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है। उन्होंने अनुच्छेद 32 के सम्बन्ध में कहा था, “यदि मुझ से कोई यह पूछे कि संविधान का कौन-सा महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद है, जिसके बिना संविधान प्रभाव शून्य हो जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद के अतिरिक्त किसी और अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान का हृदय है।”

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में दिए हुए मौलिक अधिकारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करो।
(Give a critical assessment of the fundamental rights as contained in the constitution.)
उत्तर-
वर्तमान युग में प्राय: सभी देशों में नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए जाते हैं क्योंकि बिना मौलिक अधिकारों के व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। भारत में तो मौलिक अधिकारों की अन्य देशों के मुकाबले में आवश्यकता अधिक थी। इसी कारण संविधान निर्माताओं ने संविधान में मौलिक अधिकारों की बड़ी विस्तृत व्याख्या की। संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 14 से 32 तक में मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गई है।

44वें संशोधन से पूर्व संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा गया था परन्तु 44वें संशोधन के अन्तर्गत सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकालकर कानूनी अधिकार बनाने की व्यवस्था की गई है। अतः 44वें संशोधन के बाद 6 मौलिक अधिकार रह गए हैं जो कि अग्रलिखित हैं-

  • समानता का अधिकार (Right to Equality)
  • स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation)
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Religious Freedom)
  • सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (Cultural and Educational Right)
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

नोट-इन अधिकारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।

मौलिक अधिकारों की आलोचना (Criticism of Fundamental Rights) – मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित अधिकारों पर कड़ी आलोचना की गई है

1. बहुत अधिक बन्धन- मौलिक अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं कि अधिकारों का महत्त्व बहुत कम हो गया है। इन अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध हैं कि नागरिकों को यह समझने के लिए कठिनाई आती है कि इन अधिकारों द्वारा उन्हें कौन-कौन सी सुविधाएं दी गई हैं।

2. निवारक नज़रबन्दी व्यवस्था-अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की व्यवस्था की गई है, परन्तु इसके साथ ही संविधान में निवारक नजरबन्दी की भी व्यवस्था की गई है। जिन व्यक्तियों को निवारक नज़रबन्दी कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया हो उनको अनुच्छेद 22 में दिए गए अधिकार प्राप्त नहीं होते। निवारक नज़रबन्दी के अधीन सरकार कानून बना कर किसी भी व्यक्ति को बिना मुकद्दमा चलाए अनिश्चित काल के लिए जेल में बन्द कर सकती है तथा उसकी स्वतन्त्रता का हनन कर सकती है।

3. आर्थिक अधिकारों का अभाव-मौलिक अधिकारों की इसलिए भी कड़ी आलोचना की गई है कि इस अध्याय में आर्थिक अधिकारों का वर्णन नहीं किया गया है जबकि समाजवादी राज्यों में आर्थिक अधिकार भी दिए जाते हैं।

4. संकटकाल के समय अधिकार स्थागित किए जा सकते हैं-राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत संकटकाल की घोषणा कर के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर सकता है। राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जाना लोकतन्त्र की भावना के विरुद्ध है।

5. मौलिक अधिकारों की भाषा कठिन और अस्पष्ट मौलिक अधिकारों की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि मौलिक अधिकारों की भाषा उलझन वाली तथा कठिन है।

6. न्यायपालिका के निर्णय संसद् के कानूनों द्वारा रद्द-सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार संसद् के कानूनों को इस आधार पर रद्द किया है कि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, परन्तु संसद् ने संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका द्वारा रद्द घोषित किए गए कानूनों को वैध तथा संवैधानिक घोषित कर दिया।

मौलिक अधिकारों का महत्त्व (Importance of Fundamental Rights) – यह कहना है कि मौलिक अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं है एक बड़ी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 1950 में ‘लीडर’ नामक पत्रिका ने मौलिक अधिकारों के बारे में कहा था कि “व्यक्तिगत अधिकारों पर लेख जनता को कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता की सम्भावना के विरुद्ध आश्वासन देता है। इन मौलिक अधिकारों का मनोवैज्ञानिक महत्त्व है, जिसकी कोई भी बुद्धिमान राजनीतिज्ञ उपेक्षा नहीं कर सकता।’ मौलिक अधिकारों का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के सम्बन्ध में विशेष महत्त्व है। मौलिक अधिकार वास्तव में लोकतन्त्र की आधारशिला हैं। मौलिक अधिकारों के अध्ययन का महत्त्व निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं-व्यक्ति अपने व्यक्तित्व.का विकास तभी कर सकता है जब उसे आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार नागरिकों को वे सुविधाएं प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।

2. मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इस में है कि ये सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकतीं। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।

3. मौलिक अधिकार व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में उचित सामंजस्य स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों द्वारा व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए काफ़ी सीमा तक सफल प्रयास किया गया है।

4. मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं। सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं और सभी को कानून द्वारा समान संरक्षण प्राप्त है।

5. मौलिक अधिकार सामाजिक समानता स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकार सामाजिक समानता स्थापित करते हैं। मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के दिए गए हैं। सरकार धर्म, जाति, भाषा, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं कर सकती है।

6. मौलिक अधिकार धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करते हैं- अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं और यह धार्मिक स्वतन्त्रता भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करती है। यदि भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य न बनाया जाता तो भारत की एकता ही खतरे में पड़ जाती।

7. मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करते हैं- अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार दिया गया है। अल्पसंख्यक अपनी पसन्द की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं और उनका संचालन करने का अधिकार भी उनको प्राप्त है। सरकार अल्पसंख्यकों के साथ किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करेगी।

8. मौलिक अधिकार भारतीय लोकतन्त्र की आधारशिला हैं-समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव लोकतन्त्र की नींव है। मौलिक अधिकारों द्वारा समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृभाव की स्थापना की गई है।

निष्कर्ष (Conclusion) हम प्रो० टोपे (Tope) के इस कथन से सहमत हैं कि, “मैं यह मानता हूं कि मौलिक अधिकारों सम्बन्धी अध्याय में कुछ त्रुटियां रह गई हैं, परन्तु इस पर भी यह अध्याय सामूहिक रूप से सन्तोषजनक है।”

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 22 मौलिक अधिकार

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ है ? भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर-
मौलिक अधिकार उन आधारभूत आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कहा जाता है जिनके बिना देश के नागरिक अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते। जो स्वतन्त्रताएं तथा अधिकार व्यक्ति तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समाज में आवश्यक समझे जाते हों, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। भारतीय संविधान में मूल रूप से सात प्रकार के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है, परन्तु 44वें संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया गया। अतः अब 6 तरह के अधिकार नागरिकों को प्राप्त हैं।

संविधान में नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं-

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  5. सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  6. संवैधानिक उपायों का अधिकार।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की चार विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
मौलिक अधिकारों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े विस्तृत तथा व्यापक हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  • मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की एक विशेषता यह है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।
  • मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं-कोई भी अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं हो सकता। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार भी असीमित नहीं हैं। संविधान के अन्तर्गत ही मौलिक अधिकारों पर कई प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।
  • मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 3.
समानता के अधिकार का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समानता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा। कानून के सामने सभी बराबर हैं और कोई कानून से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी पदों पर नियुक्तियां करते समय जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता है। सभी नागरिकों को सभी सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करने का समान अधिकार है। छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। सेना तथा शिक्षा सम्बन्धी उपाधियों को छोड़ कर अन्य सभी उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है।

प्रश्न 4.
कानून के समान संरक्षण पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर-
कानून के समान संरक्षण से यह अभिप्राय है कि समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार किया जाए। जेनिंग्स (Jennings) के अनुसार, “समानता के अधिकार का यह अर्थ है कि समान स्थिति में लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाए और समान लोगों के ऊपर समान कानून लागू हो।”

अनुच्छेद 14 द्वारा दिए गए समानता के अधिकार की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री के० सुब्बाराव (K. Subba Rao) ने 1960 में कहा था कि “कानून के समक्ष समानता नकारात्मक तथा कानून द्वारा समान सुरक्षा सकारात्मक विचार है। पहला इस बात की घोषणा करता है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है, कोई भी व्यक्ति विशेष सुविधाओं का दावा नहीं कर सकता तथा सब श्रेणियां समान रूप से देश के साधारण कानून के अधीन हैं तथा बाद वाला एक-जैसी दशाओं तथा एक-जैसी स्थिति में एक-जैसे व्यक्तियों की समान सुरक्षा स्वीकार करता है। उत्तरदायित्व स्थापित करते समय या विशेष सुविधाएं प्रदान करते समय किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।”
कानून के समक्ष समानता का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही नहीं बल्कि विदेशी नागरिकों को भी प्राप्त है।

प्रश्न 5.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 16 राज्य के सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वेंकटरमन बनाम मद्रास (चेन्नई) राज्य [Vankataraman Vs. Madras (Chennai) State] के मुकद्दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास (चेन्नई) सरकार की 1951 की उस साम्प्रदायिक राज्याज्ञा (Communal Gazetted Order of Madras (Chennai) Government] को अवैध घोषित कर दिया था जिसके अन्तर्गत कुछ तकनीकी संस्थाओं और अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों के अतिरिक्त कुछ अन्य वर्गों और सम्प्रदायों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गए थे।

प्रश्न 6.
अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतन्त्रताओं का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
अनुच्छेद 19 में 6 प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है-

  • प्रत्येक नागरिक को भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है।
  • प्रत्येक नागरिक को शान्तिपूर्वक तथा बिना हथियारों के इकट्ठे होने और किसी समस्या पर विचार करने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को संस्थाएं तथा संघ बनाने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को समस्त भारत में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता है।
  • नागरिकों को भारत के किसी भी भाग में रहने तथा बसने की स्वतन्त्रता है।
  • प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा से कोई भी व्यवसाय, पेशा अथवा नौकरी करने की स्वतन्त्रता है।

प्रश्न 7.
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार को समझाइए।
उत्तर-
प्रत्येक नागरिक को भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। कोई भी नागरिक बोलकर या लिखकर अपने विचार प्रकट कर सकता है। प्रेस की स्वतन्त्रता, भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता का एक साधन है। परन्तु भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता असीमित नहीं है। संसद् भारत की प्रभुसत्ता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टता अथवा नैतिकता, न्यायालय का अपमान, मान-हानि व हिंसा के लिए उत्तेजित करना आदि के आधारों पर भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के द्वारा दी गई धर्म की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है। सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता का समान अधिकार प्राप्त है और बिना रोक-टोक के धर्म में विश्वास रखने, धार्मिक कार्य करने तथा प्रचार करने का अधिकार है। सभी व्यक्तियों को धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता दी गई है। किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी विशेष धर्म या धार्मिक समुदाय के विकास या बनाए रखने के लिए खर्च किया जाना हो। किसी भी सरकारी शिक्षण संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती। गैर-सरकारी शिक्षण संस्थाओं में जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त है अथवा जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त होती है, किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 9.
शोषण के विरुद्ध अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संविधान की धारा 23 और 24 के अनुसार नागरिकों को शोषण के विरुद्ध अधिकार दिए गए हैं। इस अधिकार के अनुसार व्यक्तियों को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता। किसी भी व्यक्ति से बेगार नहीं ली जा सकती। किसी भी व्यक्ति की आर्थिक दशा से अनुचित लाभ नहीं उठाया जा सकता और कोई भी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी ऐसे कारखाने या खान में नौकर नहीं रखा जा सकता, जहां उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो।

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प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में ‘शिक्षा के अधिकार’ की व्याख्या का वर्णन करें।
उत्तर-

  • किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाए जाने वाली संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षण संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा, कि वह अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन हैं, चाहे वह अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।

प्रश्न 11.
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
संवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति की रक्षा का अधिकार है। अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है। यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू न करे या उसके विरुद्ध कोई काम करे तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या कानून को रद्द कराया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान के दिए गए मौलिक अधिकारों के कोई चार महत्त्व लिखें।
उत्तर-

  • मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं-व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास तभी कर सकता है जब उसे आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों। भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार नागरिकों को वे सुविधाएं प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है।
  • मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं। केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकती। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।
  • मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं-मौलिक अधिकारों का महत्त्व इसमें है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं।
  • मौलिक भारतीय लोकतन्त्र की आधारशीला है।

प्रश्न 13.
बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘हेबयिस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।’ (Let us have the body) इस आदेश के अनुसार, न्यायालय किसी भी अधिकारी को, जिसने किसी व्यक्ति को गैर-काननी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून का औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने या आदेश दे सकता है।

प्रश्न 14.
परमादेश के आज्ञा-पत्र (Writ of Mandamus) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
‘मैण्डमस’ शब्द लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है ‘हम आदेश देते हैं’ (We Command)। इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी भी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसा कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

प्रश्न 15.
अधिकार पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
इसका अर्थ है ‘किसके आदेश से’ अथवा ‘किस अधिकार से’। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य को करने का दावा करता हो जिसको करने का उसका अधिकार न हो। इस आदेश के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को एक पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेध जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है जब तक कि न्यायालय द्वारा कोई निर्णय न हो।

प्रश्न 16.
86वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत शिक्षा के अधिकार की क्या व्यवस्था की गई है ?
उत्तर-
दिसम्बर 2002 में राष्ट्रपति ने 86वें संवैधानिक संशोधन को अपनी स्वीकृति प्रदान की। इस स्वीकृति के बाद शिक्षा का अधिकार (Right to Education) संविधान के तीसरे भाग में शामिल होने के कारण एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा। बच्चों के माता-पिता अभिभावकों या संरक्षकों का यह कर्त्तव्य होगा, कि वे अपने बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध करवाएं, जिनसे उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा के अधिकार के लागू होने के बाद भारतीय बच्चे इस अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं क्योंकि मौलिक अधिकारों में शामिल होने के कारण ये अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 17.
मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से सम्पत्ति के अधिकार को क्यों निकाल दिया गया है ?
उत्तर-
भारतीय संविधान में मूल रूप से सम्पत्ति के अधिकार का मौलिक अधिकारों के अध्याय में वर्णन किया गया था, परन्तु 44वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में से निकल दिया गया है। मौलिक अधिकारों की श्रेणी में से सम्पत्ति के अधिकारों को निम्नलिखित कारणों से निकाला गया है-

(1) भारत में निजी सम्पत्ति के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों में से निकाल दिया गया है।
(2) 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवाद शब्द रखा गया। समाजवाद और सम्पत्ति का अधिकार एक साथ नहीं चलते। अतः सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निकाल दिया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-मौलिक अधिकार उन आधारभूत आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण अधिकारों को कहा जाता है जिनके बिना देश के नागरिक अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते। जो स्वतन्त्रताएं तथा अधिकार व्यक्ति तथा व्यक्तित्व का विकास करने के लिए समाज में आवश्यक समझे जाते हों, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।

प्रश्न 2.
संविधान में भारतीय नागरिकों को कितने मौलिक अधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
संविधान में भारतीय नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं-

  • समानता का अधिकार
  • स्वतन्त्रता का अधिकार
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  • सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार
  • संवैधानिक उपायों का अधिकार।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की दो विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  1. व्यापक और विस्तृत-भारतीय संविधान में लिखित मौलिक अधिकार बड़े विस्तृत तथा व्यापक हैं। इनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग की 24 धाराओं में किया गया है। नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है।
  2. मौलिक अधिकार सब नागरिकों के लिए हैं-संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की एक विशेषता यह है कि ये भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं। ये अधिकार सभी को जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना दिए गए हैं।

प्रश्न 4.
समानता के अधिकार का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
समानता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा। कानून के सामने सभी बराबर हैं और कोई कानून से ऊपर नहीं है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी पदों पर नियुक्तियां करते समय जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 5.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अनुच्छेद 16 राज्य के सरकारी नौकरियों या पदों (Employment or Appointment) पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।

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प्रश्न 6.
अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतन्त्रताओं में से किन्हीं दो का संक्षिप्त वर्णन करो।
उत्तर-
अनुच्छेद 19 में 6 प्रकार की स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है-

  1. प्रत्येक नागरिक को भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है।
  2. प्रत्येक नागरिक को शान्तिपूर्वक तथा बिना हथियारों के इकट्ठे होने और किसी समस्या पर विचार करने की स्वतन्त्रता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के किस भाग में किया गया है ? आजकल इनकी संख्या कितनी है ?
उत्तर-मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में किया गया है। आजकल नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।

प्रश्न 2. भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतंत्रता का अधिकार
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  5. शैक्षिणक एवं सांस्कृतिक अधिकार
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 3. समानता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर-अनुच्छेद 14 से 18 तक।

प्रश्न 4. स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर-अनुच्छेद 19 से 22 तक।

प्रश्न 5. शोषण के विरुद्ध अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है ?
उत्तर- अनुच्छेद 23 एवं 24 में।

प्रश्न 6. धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 25 से 28 तक।

प्रश्न 7. शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 29 एवं 30 में।

प्रश्न 8. संवैधानिक उपचारों के अधिकार का वर्णन कितने अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर-अनुच्छेद 32 में।

प्रश्न 9. जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का सम्बन्ध किस अनुच्छेद से है?
उत्तर-अनुच्छेद 21 से।

प्रश्न 10. सम्पत्ति का अधिकार कैसा अधिकार है?
उत्तर-संपत्ति का अधिकार एक कानूनी अधिकार है।

प्रश्न 11. मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं, या नहीं ?
उत्तर-मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 12. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा कौन करता है?
उत्तर- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सर्वोच्च न्यायालय करता है।

प्रश्न 13. मौलिक अधिकारों में संशोधन किसके द्वारा किया जा सकता है?
उत्तर-संसद् द्वारा।

प्रश्न 14. 44वें संशोधन द्वारा किस मौलिक अधिकार को संविधान में से निकाल दिया गया है?
उत्तर-44वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को संविधान में से निकाल दिया गया है।

प्रश्न 15. किस मौलिक अधिकार को संविधान की आत्मा कहा जाता है?
उत्तर-संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

प्रश्न 16. हैबियस कॉपर्स (Habeas Corupus) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-लैटिन भाषा से।

प्रश्न 17. हैबियस कॉपर्स का क्या अर्थ है?
उत्तर-हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।

प्रश्न 18. मैंडामस (Mandamus) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-लैटिन भाषा से।

प्रश्न 19. मैंडामस शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर–हम आदेश देते हैं।

प्रश्न 20. को-वारंटो (Quo-Warranto) का क्या अर्थ है?
उत्तर-किस आदेश से।

प्रश्न 21. किस मौलिक अधिकार को संकटकाल के समय भी स्थगित नहीं किया जा सकता ?
उत्तर-व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. अनुच्छेद 19 के अंतर्गत नागरिकों को ………. प्रकार की स्वतंत्रताएं दी गई हैं।
2. ……….. के अनुसार ………… से कम आयु वाले किसी भी बच्चे को किसी भी कारखाने अथवा खान में नौकर नहीं रखा जा सकता।
3. ………. के अनुसार धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतंत्रता दी गई है।
4. ………. ने अनुच्छेद 32 में दिए गए संवैधानिक उपचारों को संविधान की आत्मा तथा हृदय बताया है।
5. …….. लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।
उत्तर-

  1. छह
  2. अनुच्छेद 24, 14 वर्ष
  3. अनुच्छेद 26
  4. डॉ० अम्बेडकर
  5. हैबियस कॉर्पस।

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प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 10 से 20 तक में नागरिकों के 10 मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया
2. 42वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय से निकालकर कानूनी अधिकार बनाने की व्यवस्था की गई।
3. मौलिक अधिकार न्याय संगत नहीं हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांत न्यायसंगत हैं।
4. अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकार का वर्णन किया गया है।
5. अनुच्छेद 19 में 10 प्रकार की स्वतन्त्राओं का वर्णन किया गया है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संपत्ति का अधिकार
(क) मौलिक अधिकार
(ख) कानूनी अधिकार
(ग) नैतिक अधिकार
(घ) राजनीतिक अधिकार।
उत्तर-
(ख) कानूनी अधिकार ।

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकार
(क) न्याय योग्य हैं
(ख) न्याय योग्य नहीं हैं
(ग) उपरोक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) न्याय योग्य हैं।

प्रश्न 3.
जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संबंध किस अनुच्छेद से है ?
(क) अनुच्छेद 21
(ख) अनुच्छेद 19
(ग) अनुच्छेद 18
(घ) अनुच्छेद 20.
उत्तर-
(क) अनुच्छेद 21।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है-
(क) राष्ट्रपति
(ख) सर्वोच्च न्यायालय
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) स्पीकर।
उत्तर-
(ख) सर्वोच्च न्यायालय।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर एक आलोचनात्मक नोट लिखो। (Write a critical note on the Preamble to the Indian Constitution.)
अथवा
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की क्या महत्ता है ? (What is the significance of the Preamble to the Constitution of India ?)
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है, हमारे देश के संविधान का मूल दर्शन (Basic Philosophy) हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है जिसे के० एम० मुन्शी ने राजनीतिक जन्मपत्री (Political Horoscope) का नाम दिया है।

प्रस्तावना (Preamble)-संविधान सभा ने 1947 में एक उद्देश्य सम्बन्धी प्रस्ताव पास किया था जिसमें उसने अपने सामने कुछ उद्देश्यों को रखा था और उसी प्रस्ताव के आधार पर संविधान का निर्माण हुआ। संविधान के बनने के बाद संविधान सभा ने प्रस्तावना सहित ही उस संविधान को स्वीकार किया। संविधान की प्रस्तावना में उन भावनाओं का वर्णन है, जो 13 दिसम्बर, 1946 को पं० जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) के तत्त्व थे। उद्देश्य प्रस्ताव में कहा गया है कि संविधान-सभा घोषित करती है कि इसका ध्येय व दृढ़ संकल्प भारत को सर्वप्रभुत्व सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाना है और इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल प्रस्तावना में किया गया है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवाद (Socialist), धर्म-निरपेक्ष (Secular) तथा अखण्डता (Integrity) के शब्दों को प्रस्तावना में अंकित किया गया है। हमारे वर्तमान संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है-

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने तथा समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा तथा अवसर की समता प्राप्त कराने और उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर, अपनी इस संविधान सभा में, आज 26 नवम्बर, 1949 ई० (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, सम्वत् दो हज़ार छ: विक्रमी) को एतद् द्वारा, इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

“We, the people of India, having solemnly resolved to constitute India into a Sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic, and to secure to all its citizens, Justice, social, economic and political liberty of thought, expression, belief, faith and worship, Equality of status and of opportunity, and to promote among them all, Fraternity assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation.

In our Constituent Assembly, this twenty-sixth day of November 1949, do hereby Adopt, Enact, and Give to ourselves this Constitution.”
संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है। जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और उसका अर्थ स्पष्ट न हो तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या हो सकती है। प्रस्तावना से हमें यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की भावनाएं क्या थीं।

“प्रस्तावना संविधान बनाने वालों के मन की कुंजी है।”
सर्वोच्च न्यायालय के भू० पू० मुख्य न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने एक निर्णय देते हुए कहा था, “जिस उद्देश्य की प्राप्ति की संविधान से आशा की गई है, वह स्पष्ट रूप से इसकी प्रस्तावना में दिया गया है। इसमें इसके आदर्श तथा आकांक्षाएं निहित हैं।” इस प्रकार हमारे संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्यों, लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा हमारे स्वप्नों का स्पष्ट पता चल जाता है। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर के अनुसार, संविधान की प्रस्तावना से संविधान के मूल दर्शन का ज्ञान होता है। संविधान सभा के सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने प्रस्तावना की सराहना करते हुए कहा था, “प्रस्तावना संविधान का सबसे मूल्यवान अंग है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान का रत्न है।” कुछ वर्ष पूर्व श्री० एन० ए० पालकीवाला ने सुप्रीमकोर्ट में 28वें और 29वें संशोधनों की आलोचना करते समय कहा था कि प्रस्तावना संविधान का एक अनिवार्य अंग है।

1973 में केशवानन्द भारती के मुकद्दमे के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि प्रस्तावना संविधान का अंग है।
वी० एन० शुक्ला (V.N. Shukla) ने प्रस्तावना के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “यह सामान्यतया राजनीतिक, नैतिक व धार्मिक मूल्यों का स्पष्टीकरण करती है जिन्हें संविधान प्रोत्साहित करना चाहता है।”
भारतीय संविधान की प्रस्तावना स्पष्ट रूप से तीन बातों पर प्रकाश डालती है-

(क) संवैधानिक शक्ति का स्रोत क्या है ? (ख) भारतीय शासन-व्यवस्था कैसी है ? (ग) संविधान के उद्देश्य या लक्षण क्या हैं ?
(क) संवैधानिक शक्ति का स्रोत (Source of Constitutional Authority)—प्रस्तावना से ही हमें पता चलता है कि इस संविधान को बनाने वाला कौन है। संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने पर लागू करने वाले भारत के लोग हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। प्रस्तावना इन्हीं शब्दों से आरम्भ होती है, “हम भारत के लोग………उस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।” ये शब्द इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता की सर्वोच्च शक्ति है। संविधान को विदेशी शक्ति ने भारतीयों पर नहीं लादा बल्कि जनता ही समस्त शक्ति का मूल स्रोत है।

(ख) भारतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप (Nature of Indian Constitutionl System)—संविधान की प्रस्तावना से हमें भारत की शासन व्यवस्था के स्वरूप का भी पता चलता है। प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाए जाने के लिए घोषणा की है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी व धर्म-निरपेक्ष शब्दों को अंकित किया गया है, अतः भारतीय शासन व्यवस्था की निम्नलिखित पांच विशेषताएं हैं

  1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)
  2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)
  4. भारत लोकतन्त्रीय राज्य है (India is a Democratic State)
  5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republic State)

(ग) संविधान के उद्देश्य (Objectives of the Constitution)—प्रस्तावना से इस बात का भी स्पष्ट पता चलता है कि संविधान द्वारा किन उद्देश्यों की पूर्ति की आशा की गई है। वे उद्देश्य कई प्रकार के हैं-

  • न्याय (Justice)-संविधान का उद्देश्य है कि भारत के सभी नागरिकों को न्याय मिले और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में नागरिकों के साथ अन्याय न हो। इस बहुमुखी न्याय से ही नागरिकों के जीवन का पूर्ण विकास सम्भव है और इसकी प्राप्ति लोकतन्त्रात्मक ढांचे से ही हो सकती है।
  • स्वतन्त्रता (Liberty)—प्रस्तावना में नागरिकों की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख किया गया है, जैसे कि विचार रखने की स्वतन्त्रता, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा और बुद्धि के अनुसार किसी भी बात में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छानुसार अपने इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता।
  • समानता (Equality)—प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है। प्रतिष्ठा की समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान हैं तथा सभी को कानून की समान सुरक्षा प्राप्त है। अवसर की समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर विकसित होने का समान अवसर प्राप्त है।
  • बन्धुत्व (Fraternity)-प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है।
  • प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने की घोषणा की गई है।
  • संविधान का उद्देश्य राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता को बनाए रखना है।

निष्कर्ष (Conclusion)-संविधान की प्रस्तावना सत्तारूढ़ दल के लिए, चाहे वह कोई भी हो, मार्गदर्शक का काम देती है और संविधान के विभिन्न उपबन्धों की व्याख्या करने और उसके बारे में उत्पन्न मतभेद या वाद-विवाद को सुलझाने में सहायता करती है। (“It is a key to open the minds of the maker.”) प्रस्तावना उद्देश्य है, जबकि संविधान उसकी पूर्ति का साधन है, इसलिए प्रस्तावना के महत्त्व को हम कम नहीं कर सकते। एम० वी० पायली (M.V. Pylee) के अनुसार, “प्रस्तावना संविधान की आत्मा है। इसमें भारतीय लोगों का एक संकल्प है कि वे मिलकर न्याय, स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृभाव के कार्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करेंगे।”

प्रश्न 2.
“भारत प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य है।” व्याख्या कीजिए।
(“India is a Sovereign Socialist, Secular, Democratic, Republic.” Explain and Discuss.)
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना से हमें भारत की शासन व्यवस्था के स्वरूप का पता चलता है। प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाए जाने की घोषणा की गई है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी व धर्म-निरपेक्ष शब्दों को अंकित किया गया है। इस प्रकार अब भारत को प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रीय गणराज्य घोषित किया गया है। ये पांचों शब्द भारतीय संवैधानिक प्रणाली के मुख्य आधार हैं-

  1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)
  2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)
  4. भारत लोकतन्त्रीय राज्य है (India is a Democratic State)
  5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republic State)

1. भारत सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है (India is a Sovereign State)-प्रस्तावना में भारत को प्रभुत्वसम्पन्न राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। वह किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है। भारत न तो अब ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन है जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 से पहले था तथा न ही अधिराज्य अथवा उपनिवेश जैसा कि यह 15 अगस्त, 1947 से लेकर 26 जनवरी, 1950 तक रहा है। इसके विपरीत, भारत वैसे ही पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है जैसे कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, रूस आदि। किसी भी विदेशी शक्ति को इसकी विदेशी नीति तथा गृह-नीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। यह ठीक है कि भारत आज भी राष्ट्रमण्डल का सदस्य है, परन्तु इसकी सदस्यता स्वतन्त्रता पर कोई बन्धन नहीं है। भारत जब चाहे राष्ट्रमण्डल की सदस्यता को छोड़ सकता है।

भारत का संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होना भी उसकी स्वतन्त्रता पर कोई प्रभाव नहीं डालता। भारत अपनी इच्छा से सदस्य बना है और जब चाहे इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत एक प्रभुत्त्व-सम्पन्न राज्य है और राष्ट्रमण्डल का सदस्य और संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होने से इसकी प्रभुसत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

2. भारत समाजवादी राज्य है (India is a Socialist State)-42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके ‘समाजवादी’ (Socialist) शब्द अंकित किया गया है। समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही 42वें संशोधन के अन्तर्गत राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों को मौलिक अधिकारों से श्रेष्ठ घोषित किया गया। सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए अनेक कदम उठाए हैं। 42वें संशोधन द्वारा राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों में कुछ समाजवादी सिद्धान्त सम्मिलित किए गए हैं। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 39 (F) में यह लिखा गया है कि, “राज्य विशेष रूप से ऐसी नीति का निर्माण करे जिसके द्वारा……… बच्चों को स्वतन्त्रता तथा गौरव की अवस्थाओं में समग्र रूप में विकसित होने के लिए अवसर तथा सुविधाएं प्राप्त हो सकें तथा बच्चों तथा युवकों की रक्षा हो सके।” अनुच्छेद 39-A द्वारा निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई है। इस धारा के अन्तर्गत आर्थिक पक्ष से कमज़ोर लोगों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था के लिए सरकार को निर्देश दिया गया।

अनुच्छेद 43-A में यह व्यवस्था की गई है कि, “राज्य उचित कानूनी या किसी अन्य विधि से इस कानून के लिए प्रयत्न करेगा कि किसी उद्योग से सम्बन्धित कारोबार के प्रयत्न में अथवा अन्य संस्थाओं में श्रमिकों को भाग लेने का अवसर प्राप्त हो।”

श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना के लिए 20-सूत्रीय कार्यक्रम अपनाया और इस 20-सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करने के लिए राज्यों को कड़े निर्देश दिए गए। 10 जून, 1976 को मास्को में एक सार्वजनिक सभा में भाषण देते हुए प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था, “हम एक ऐसे समाज का निर्माण करने के लिए यत्न कर रहे हैं जिनसे लोगों को राजनीतिक निर्णय करने तथा आर्थिक विकास में भाग लेने के पूर्ण अवसर प्राप्त होंगे। हम चाहेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति को गणना का एक अंक नहीं मिलेगा बल्कि एक विशेष व्यक्तित्व का स्वामी समझा जाये।”

मार्च, 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता पार्टी की सरकार ने स्पष्ट शब्दों में समाजवादी समाज की स्थापना करने की घोषणा की। जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर ने 1 मई, 1977 को जनता पार्टी की सभा में भाषण देते हुए समाजवादी समाज के निर्माण के लिये भरसक प्रयत्न करने की घोषणा की। श्री राजीव गांधी की सरकार ने समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए भरसक प्रयत्न किए और 20-सूत्रीय कार्यक्रम लागू करने के लिए राज्यों को कड़े निर्देश दिए थे।

3. भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है (India is a Secular State)-42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द अंकित करके भारत को स्पष्ट शब्दों में धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, भारतीय संविधान में ऐसी ही व्यवस्था की गई है जो भारत को निःसन्देह धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाती है। भारत में सभी धर्म के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता दी गई है। कोई व्यक्ति जिस धर्म को चाहे मान सकता है, धर्म का प्रचार कर सकता है और राज्य धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। राज्य किसी विशेष धर्म की किसी प्रकार की सहायता नहीं कर सकता।

4. भारत एक लोकतान्त्रिक राज्य है (India is a Democratic State)-संविधान की प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि शासन शक्ति किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हाथों में नहीं बल्कि समस्त जनता के पास है। लोग शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं और ये प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिए समस्त जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय तथा जाति से सम्बन्धित हो, समान अधिकार दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है। भारत में राजनीतिक प्रजातन्त्र की स्थापना के साथ-साथ प्रस्तावना में आर्थिक व सामाजिक प्रजातन्त्र की स्थापना का आदर्श भी प्रस्तुत किया गया है।

5. भारत एक गणराज्य है (India is a Republican State)—प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ गणराज्य भी घोषित किया है। गणराज्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैण्ड व जापान गणराज्य नहीं है, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक है, परन्तु भारत एक गणराज्य है क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिये चुना जाता है। अत: भारत अमेरिका व स्विट्जरलैंड की तरह पूर्ण रूप से गणराज्य है।

कुछ लोगों का कहना है कि भारत की गणराज्य की स्थिति उसकी राष्ट्रमण्डल की सदस्यता से मेल नहीं खाती है। आस्ट्रेलिया के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री सर राबर्ट मेन्ज़ीज़ (Sir Robert Menzies) ने 1949 में कहा था, “यह समझ नहीं आता कि भारत एक तरफ़ गणराज्य है और उसकी ब्रिटिश क्राऊन के प्रति कोई निष्ठा नहीं है। दूसरी तरफ़ वह राष्ट्रमण्डल का सदस्य है जिसकी ब्रिटिश क्राऊन के प्रति पूर्ण और अविच्छेद निष्ठा है।” परन्तु अब राष्ट्रमण्डल की वह स्थिति नहीं है जो पहले थी। अब यह ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के स्थान पर केवल राष्ट्रमण्डल है जिसके सदस्य स्वतन्त्र राज्य हैं जो पारस्परिक हितों के कारण एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। भारत का अध्यक्ष ब्रिटिश सम्राट् न होकर भारत का राष्ट्रपति है। भारतीयों की ब्रिटिश सम्राट् के प्रति कोई निष्ठा नहीं है, अतः राष्ट्रमण्डल की सदस्यता भारत की गणराज्य की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं डालती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश में संविधान का मूल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह हमारे संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से होता है। संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है। जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और इसका अर्थ स्पष्ट न हो तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या हो सकती है। प्रस्तावना से यह पता चलता है कि संविधान निर्माताओं की भावनाएं क्या थीं। चाहे यह संविधान का कानूनी अंग नहीं है फिर भी यह संविधान की कुंजी, संविधान की आत्मा और संविधान का रत्न है। इसीलिए के० एम० मुन्शी ने प्रस्तावना को राजनीतिक जन्म पत्री का नाम दिया है।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘गणराज्य’ शब्द की व्याख्या करो।
अथवा
गणराज्य शब्द का अर्थ बताओ।
उत्तर-
प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ ‘गणराज्य’ भी घोषित किया गया है। ‘गणराज्य’ में राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैंड और जापान गणराज्य नहीं हैं, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक हैं, परन्तु भारत एक गणराज्य है, क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है। गणराज्य की परिभाषा करते हुए मिस्टर मैडीसन (Madison) ने कहा है कि, “गणराज्य एक ऐसी सरकार है जिसकी शक्तियों का स्रोत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में जनता का महान् समूह है तथा जिसकी शक्तियों का प्रयोग उन लोगों द्वारा होता है जो अपने पद पर निश्चित समय के लिए जनता की प्रसन्नता या अपने सद्व्यवहार तक रहते हैं।” मैडीसन द्वारा दी गई परिभाषा भारत पर पूर्ण रूप से लागू होती है। भारत में सरकार की शक्तियों का अन्तिम स्रोत जनता है और शासन जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है। संविधान में संशोधन करने का अधिकार भी संसद् को दिया गया है। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, मन्त्री, संसद् सदस्य, राज्यपाल आदि का कार्यकाल संविधान द्वारा निश्चित किया गया है।

प्रश्न 3.
सार्वभौमिक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
संविधान की प्रस्तावना में भारत को सार्वभौमिक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाये रखने की घोषणा की गई है। सार्वभौमिक का अर्थ है कि भारत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है और वह किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है। प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्रीय राज्य घोषित किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि शासन शक्ति किसी एक व्यक्ति या वर्ग विशेष के हाथों में नहीं बल्कि समस्त जनता के पास है। लोग शासन चलाने के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं, प्रतिनिधि अपने कार्यों के लिये समस्त जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। प्रस्तावना में लोकतन्त्र के साथ-साथ गणराज्य भी घोषित किया गया है। भारत एक गणराज्य है क्योंकि राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 4.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘सामाजिक’, ‘आर्थिक’ तथा ‘राजनीतिक न्याय’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सामाजिक न्याय (Social Justice) सामाजिक न्याय का अर्थ है कि किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, लिंग, रंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं होने दिया जाएगा। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए संविधान के तीसरे भाग में समानता का अधिकार दिया गया है।

आर्थिक न्याय (Economic Justice)-आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हों तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो। आर्थिक न्याय के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन के साधन कुछ व्यक्तियों के हाथों में नहीं होने चाहिएं। राष्ट्रीय धन पर सभी का नियन्त्रण और अधिकार समान होना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्त दिए गए

राजनीतिक न्याय (Political Justice)—राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के भेदभाव के बिना समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों।

प्रश्न 5.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त बन्धुत्व’ की स्थापना का अर्थ एवं महत्त्व बताइए।
उत्तर-
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है। डॉ० अम्बेदकर के अनुसार, बन्धुत्व का तात्पर्य सभी भारतीयों में भ्रातृ-भाव है। उनके शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो सामाजिक जीवन को एकत्व एवं सुदृढ़ता प्रदान करता है। डॉ० अम्बेदकर के मतानुसार, “बिना बन्धुत्व के स्वतन्त्रता और समानता केवल ऊपरी रंग की तरह अधिक टिकाऊ नहीं रह सकती। स्वतन्त्रता और समानता और बन्धुत्व के उद्देश्यों को हम एक-दूसरे से पृथक नहीं कर सकते, बल्कि हमें इन तीनों को एक साथ लेकर चलना पड़ेगा।” साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद इत्यादि बुराइयों को तभी जड़ से उखाड़ कर फैंका जा सकता है जब सभी नागरिकों में बन्धुत्व की भावना पाई जाती हो।

प्रश्न 6.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त राष्ट्र की एकता’ और ‘अखण्डता’ शब्दों का महत्त्व बताइए।
उत्तर-
संविधान निर्माता अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से अच्छी तरह वाकिफ थे। अंग्रेज़ों की इसी नीति के कारण भारत का विभाजन हुआ था। इसीलिए संविधान निर्माता भारत की एकता को बनाए रखने के लिए बड़े इच्छुक थे। अतः संविधान की प्रस्तावना में राष्ट्र की एकता को बनाए रखने की घोषणा की गई। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाया गया, सभी नागरिकों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई, समस्त देश के लिए एक ही संविधान की व्यवस्था की गई तथा 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गई। 42वें संशोधन द्वारा राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता (Integrity) शब्द जोड़ा गया है।

प्रश्न 7.
संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘धार्मिक विश्वास, निष्ठा तथा उपासना की स्वतन्त्रता’ का क्या महत्त्व है ?
उत्तर–
प्रस्तावना में धार्मिक स्वतन्त्रता तथा धर्म-निरपेक्षता पर बल दिया गया है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को किसी भी धर्म में विश्वास रखने तथा अपनी इच्छानुसार इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह जिस धर्म में चाहे, विश्वास रखे और अपने देवता या परमात्मा की जिस तरह चाहे पूजा करे। किसी भी नागरिक को कोई विशेष धर्म ग्रहण करने के लिए या किसी विशेष ढंग से पूजा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। राज्य को नागरिक के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। भारत के विभिन्न धर्मों के लोगों में सद्भावना एवं सहयोग की भावना को बनाए रखने के लिए धर्म की स्वतन्त्रता पर बल देना अति आवश्यक था।

प्रश्न 8.
42वें संवैधानिक संशोधन (1976) के द्वारा प्रस्तावना में कौन-कौन से परिवर्तन किए गए ?
उत्तर-
42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना में प्रभुसत्ता सम्पन्न, लोकतन्त्रीय, गणतन्त्र शब्दों के स्थान पर, प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रीय, गणराज्य शब्द शामिल किए गए हैं। इसके अतिरिक्त राष्ट्र की एकता शब्द की जगह पर राष्ट्र की एकता और अखण्डता शब्द शामिल किए गए हैं।

प्रश्न 9.
प्रस्तावना के अनुसार भारत में शक्ति का स्रोत क्या है ?
उत्तर-
प्रस्तावना के अनुसार भारत में शक्ति का स्रोत संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने पर लागू करने वाले भारत के लोग हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। प्रस्तावना इन शब्दों से आरम्भ होती है, “हम भारत के लोग ……… इस संविधान को स्वीकृत, अधिनियमित और आत्म-अर्पित करते हैं। ये शब्द इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता ही सर्वोच्च शक्ति है। संविधान को किसी विदेशी शक्ति ने भारत पर नहीं थोपा है बल्कि यह सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत है।”

प्रश्न 10.
“भारत प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्रीय गणराज्य है।” व्याख्या करो।
उत्तर-

  1. भारत पूर्ण रूप से प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है। भारत अपने आन्तरिक मामलों और बाहरी मामलों में स्वतन्त्र है।
  2. संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत सरकार का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना करना है।
  3. भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है। भारत का अपना कोई धर्म नहीं है। सभी नागरिकों को धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।
  4. भारत में लोकतन्त्र है। शासन की सभी शक्तियों का स्रोत जनता है। शासन जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा चलाया जाता है।
  5. भारत एक गणराज्य है। राष्ट्रपति भारत राज्य का अध्यक्ष है जोकि अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है।

प्रश्न 11.
प्रस्तावना में शामिल संविधान के उद्देश्य कौन-से हैं ?
उत्तर-
प्रस्तावना में शामिल संविधान के उद्देश्य इस प्रकार हैं-

  1. संविधान का उद्देश्य यह है कि सभी नागरिकों को न्याय मिले और जीवन के किसी भी क्षेत्र में नागरिकों के साथ अन्याय न हो।
  2. प्रस्तावना में नागरिकों की स्वतन्त्रता का उल्लेख किया गया है; जैसे-विचार प्रकट करने, विचार रखने, अपनी इच्छानुसार अपने इष्टदेव की उपासना करने की स्वतन्त्रता।
  3. प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है।
  4. प्रस्तावना में बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश में संविधान का मल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना से मिलता है। विश्व के अन्य संविधानों की तरह हमारे संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से होता है। संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है।

प्रश्न 2.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त ‘गणराज्य’ शब्द की व्याख्या करो।
उत्तर-
प्रस्तावना में भारत को लोकतन्त्र के साथ-साथ ‘गणराज्य’ भी घोषित किया गया है। ‘गणराज्य’ में राज्य का मुखिया कोई पैतृक राजा या रानी नहीं होता बल्कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। इसी कारण इंग्लैंड और जापान गणराज्य नहीं हैं, क्योंकि इन देशों में अध्यक्ष पद पैतृक हैं, परन्तु भारत एक गणराज्य है, क्योंकि यहां पर राष्ट्रपति निर्वाचक मण्डल द्वारा पांच वर्ष के लिए चुना जाता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रस्तावना में किस प्रकार के न्याय का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2. प्रस्तावना किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रस्तावना एक संविधान का आमुख होता है, जिसमें उसके कारणों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया होता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 3. भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है ?
उत्तर-भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है।

प्रश्न 4. संविधान की प्रस्तावना में अखंडता’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन द्वारा समाविष्ट किया गया है ?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 5. संविधान में प्रस्तावना का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-संविधान की प्रस्तावना से संवैधानिक शक्ति के स्रोतों, भारतीय शासन व्यवस्था के स्वरूप एवं संविधान के उद्देश्यों का पता चलता है।

प्रश्न 6. भारतीय संविधान की मौलिक प्रस्तावना में भारत को क्या घोषित किया गया था?
उत्तर- भारतीय संविधान की मौलिक प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया था।

प्रश्न 7. भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरम्भ किससे होता है?
उत्तर- भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरम्भ ‘हम भारत के लोग’ से आरम्भ होता है।

प्रश्न 8. संविधान के उद्देश्य का वर्णन कहां पर होता है?
उत्तर-संविधान के उद्देश्य का वर्णन प्रस्तावना में होता है।

प्रश्न 9. कौन-से संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए हैं?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न 10. भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को क्या घोषित करती है ?
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को प्रभुसत्ता संपन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, प्रजातन्त्रात्मक गणतन्त्र घोषित करती है।

प्रश्न 11. भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर किस देश के संविधान की प्रस्तावना का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-अमेरिका।

प्रश्न 12. संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार किसके पास है?
उत्तर-संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार संसद् को है।

प्रश्न 13. संविधान की प्रस्तावना में अब तक कितनी बार संशोधन किया जा चुका है?
उत्तर-एक बार।

प्रश्न 14. प्रस्तावना में किस प्रकार के न्याय का वर्णन किया गया है?
उत्तर-प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 15. प्रस्तावना किसे कहते हैं ?
उत्तर-प्रस्तावना एक संविधान का आमुख होता है, जिसमें उसके कारणों एवं उद्देश्यों का वर्णन किया गया होता है।

प्रश्न 16. भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता दी गई है?
उत्तर-भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है।

प्रश्न 17. संविधान की प्रस्तावना में ‘अखंडता’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन द्वारा समाविष्ट किया गया है?
उत्तर-42वें संशोधन द्वारा।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत के संविधान का मूल दर्शन ……… में निहित है।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना ………… से आरंभ होती है।
3. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद व धर्म-निरपेक्ष शब्द ………. द्वारा जोड़े गए हैं।
4. ………….. ने प्रस्तावना को जन्म-पत्री कहा है।
5. 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में ………. ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया।
उत्तर-

  1. प्रस्तावना
  2. हम भारत के लोग
  3. 42वें संशोधन
  4. के० एम० मुंशी
  5. पं० नेहरू।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें।

1. भारत के संविधान का मूल दर्शन प्रस्तावना में निहित है।
2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना “भारत एक गणराज्य है” से आरंभ होती है।
3. संविधान सभा में 1949 में एक उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव पास किया गया था, जिसमें उसने अपने सामने कुछ उद्देश्यों को रखा और उसी प्रस्ताव के आधार पर संविधान का निर्माण हुआ।
4. के० एम० मुंशी के अनुसार, प्रस्तावना संविधान बनाने वालों के मन की कुंजी है।
5. 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष तथा अखंडता के शब्दों को अंकित किया गया है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आरंभ कैसे होता है ?
(क) हम भारत के लोग
(ख) भारत के लोग
(ग) भारत को संपूर्ण
(घ) भारत एक समाजवादी।
उत्तर-
(क) हम भारत के लोग

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 20 संविधान की प्रस्तावना

प्रश्न 2.
संविधान के दर्शन में शामिल होते हैं-
(क) न्याय
(ख) स्वतंत्रता
(ग) समानता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
प्रभुत्व संपन्न कौन है ?
(क) लोकसभा
(ख) राष्ट्रपति
(ग) जनता
(घ) संविधान।
उत्तर-
(ग) जनता

प्रश्न 4.
संविधान के उद्देश्य का वर्णन कहां मिलता है ?
(क) प्रस्तावना में
(ख) मौलिक अधिकारों में
(ग) संकटकालीन धाराओं में
(घ) राज्यनीति के निर्देशक सिद्धांत में।
उत्तर-
(क) प्रस्तावना में।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

दीर्घ उ त्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
(Describe in brief the functions of the Judiciary.)
उत्तर-
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है जिसका मुख्य कार्य विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करना तथा परस्पर झगड़ों को निपटाना है। इस अंग की कुशल व्यवस्था पर ही नागरिकों के हितों तथा अधिकारों की रक्षा निर्भर करती है। न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करते समय कई नए कानूनों को भी जन्म देती है। संघात्मक राज्यों में न्यायपालिका केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों के झगड़ों को निपटाती है तथा संविधान की रक्षा करती है। न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि शासन की कार्यकुशलता का अनुमान न्यायपालिका की कुशलता से ही लगाया जाता है।

लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) ने ठीक ही लिखा है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जांचने के लिए उसकी न्याय व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और वस्तु का नागरिकों की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके इस ज्ञान से कि एक निश्चित, शीघ्र तथा निष्पक्ष न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है।” न्यायपालिका का कर्त्तव्य है कि वह अमीर अथवा गरीब, शक्तिशाली अथवा निर्बल, सरकारी अथवा गैर-सरकारी का भेदभाव किए बिना न्याय करे। जब किसी नागरिक पर अत्याचार होता है तो वह न्यायपालिका के संरक्षण में जाता है और इस विश्वास से जाता है कि उचित न्याय मिलेगा। प्रजातन्त्र राज्यों में न्यायपालिका का महत्त्व दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है क्योंकि न्यायपालिका को अनेक कार्य करने पड़ते हैं।

मैरियट (Merriot) ने ठीक ही लिखा है, “सरकार के जितने भी मुख्य कार्य हैं, न्याय कार्य उनमें निःसन्देह अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध नागरिकों से होता है। चाहे कानून बनाने की मशीनरी कितनी ही विस्तृत और वैज्ञानिक क्यों न हो, चाहे कार्यपालिका का संगठन कितना ही पूर्ण क्यों न हो, परन्तु फिर भी नागरिक का जीवन दुःखी हो सकता है तथा उसकी सम्पत्ति को खतरा उत्पन्न हो सकता है यदि न्याय करने में देरी हो जाए या न्याय में दोष रह जाए अथवा कानून की व्यवस्था पक्षतापूर्ण या भ्रामक हो।” गार्नर ने तो यहां तक लिखा है कि न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्यायपालिका के अभाव में चोरों, डाकुओं तथा अन्य शक्तिशाली शक्तियों का निर्बलों की सम्पत्ति पर कब्जा हो जाएगा और चारों ओर अन्याय का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। लोग कानूनों का ठीक प्रकार से पालन करें और दूसरों के अधिकारों का हनन न करें, इसके लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। इस लोकतन्त्रात्मक युग में न्यायपालिका के अभाव में किसी भी राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती।

न्यायपालिका के कार्य (Functions of Judiciary)-

न्यायपालिका के कार्य विभिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। संविधान की प्रकृति, राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप, न्यायपालिका के संगठन इत्यादि पर न्यायपालिका के कार्य निर्भर करते हैं। आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यता निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

1. न्याय करना (To do Justice)न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। विधानमण्डल के बनाए गए कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है, परन्तु राज्य के अन्तर्गत कई नागरिक ऐसे होते हैं जो कानूनों का उल्लंघन करते हैं। कार्यपालिका ऐसे नागरिकों को पकड़कर न्यायपालिका के सामने पेश करती है ताकि कानून तोड़ने वाले नागरिकों को सज़ा दी जा सके। न्यायपालिका उन मुकद्दमों को सुनकर निर्णय करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकद्दमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं। अतः न्यायपालिका फौजदारी तथा दीवानी दोनों तरह के मुकद्दमों को सुनती है। न्यायपालिका व्यक्तियों के बीच हुए झगड़ों तथा सरकार और नागरिकों के बीच हुए झगड़ों का निर्णय करती है। न्यायपालिका न्याय करके नागरिकों को बुरे नागरिकों तथा सरकार के अत्याचारों से बचाती है।

2. कानून की व्याख्या करना (To Interpret Laws)-न्यायपालिका विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है। विधानमण्डल के बनाए हुए कानून कई बार स्पष्ट नहीं होते जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने लाभ के लिए उस कानून की व्याख्या करता है। अत: कानून की स्पष्टता की आवश्यकता पड़ती है। न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका द्वारा की गई कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इन्कार नहीं कर सकता। अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को कानून की व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त है।

3. कानूनों का निर्माण (Making of Laws)-साधारणतया कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कई नए अर्थों को जन्म देते हैं जिनसे कानून का अर्थ ही बदल जाता है और एक नए कानून का निर्माण हो जाता है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों की व्याख्या करते समय कई नए कानूनों को निर्माण किया है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकद्दमे आते हैं जहां कानून बना नहीं होता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता, समानता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं। इस प्रकार न्यायपालिका कानूनों का निर्माण भी करती है।

4. संविधान का संरक्षक (Guardian of the Constitution)—जिन देशों में संविधान लिखित होता है वहां पर प्रायः संविधान को राज्य का सर्वोच्च कानून माना जाता है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका पर होती है। न्यायपालिका को अधिकार प्राप्त होता है कि यदि विधानपालिका कोई ऐसा कानून बनाए जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे। न्यायपालिका की इस शक्ति को न्यायिक पुनर्निरीक्षण (Judicial Review) की शक्ति का नाम दिया गया है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार तथा न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है।

5. संघ का संरक्षक (Guardian of Federation)-जिन देशों में संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है वहां न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्र तथा राज्य अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त करते हैं। परन्तु कई बार केन्द्र तथा राज्यों के बीच कई प्रकार के झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन पारस्परिक झगड़ों का निर्णय न्यायपालिका के द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य होता है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के क्षेत्र में दखल दे।

6. व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण (Guardian of Individual Rights)-भारत, जापान, अमेरिका, कनाडा इत्यादि देशों के संविधानों में व्यक्ति के अधिकारों का वर्णन किया गया है। व्यक्ति के अधिकारों का संविधान में वर्णन ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि उन अधिकारों को लागू करना तथा उनको सुरक्षित करना और भी महत्त्वपूर्ण है। न्यायपालिका ही व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है तथा दूसरे व्यक्तियों अथवा सरकार को व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकती है, भारत में प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह सुप्रीम कोर्ट अथवा हाई कोर्ट के पास अपील कर सकता है यदि उसके किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ हो। सुप्रीम कोर्ट विधानमण्डल के कानूनों को भी रद्द कर सकती है यदि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों।

7. सलाह देना (Advisory Functions)-कई देशों में न्यायपालिका कानूनी मामलों में सलाह भी देती है। इंग्लैण्ड में प्रिवी-कौंसिल (Privy Council) की न्यायिक समिति से संवैधानिक समस्याओं पर परामर्श लिया जाता है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह ले सकता है, परन्तु सुप्रीम कोर्ट की सलाह मानना अथवा न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर करता है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को सलाह देने से इन्कार कर दिया है। कैनेडा का गवर्नर-जनरल भी कुछ बातों पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकता है।।

8. प्रशासनिक कार्य (Administrative Functions)-कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा निम्न न्यायालयों पर प्रशासकीय नियन्त्रण करती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

9. आज्ञा-पत्र जारी करना (To Act Injunctions and Writs of Mandamus)-न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे प्रमुख कार्य नहीं कर सकते और साथ ही कोई कार्य जिनके करने से लोग बचना चाहते हों, करवा सकती है। यदि वे कार्य न किए जाएं तो न्यायालयों का अपमान माना जाता है, जिस पर न्यायालय बिना अभियोग चलाए दण्ड दे सकता है। कई बार न्यायालय मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ़ रिकार्ड के कार्य (To Act as a Court of Record)-न्यायपालिका कोर्ट ऑफ़ रिकार्ड का भी कार्य करती है जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकद्दमों में निर्णयों तथा सरकार को दिए गए परामर्शों का रिकार्ड रखना पड़ता है। ये निर्णय तथा परामर्श की प्रतियां किसी भी समय प्राप्त की जा सकती हैं।

11. विविध कार्य (Miscellaneous Functions)-न्यायपालिका उपरलिखित कार्यों के अतिरिक्त कुछ और भी कार्य करती है
(क) न्यायपालिका नाबालिगों की सम्पत्ति की देख-रेख के लिए संरक्षक (Trustee) नियुक्त करती है।
(ख) जब किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति के स्वामित्व के सम्बन्ध में झगड़ा उत्पन्न होता है, तब न्यायालय उस सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता है और उस समय तक प्रबन्ध करता है जब तक उस झगड़े का फैसला न हो जाए।
(ग) न्यायपालिका नागरिक विवाह (Civil Marriage) की अनुमति देती है। (घ) न्यायपालिका विवाह-विच्छेद (Divorce) के मुकद्दमे भी सुनती है। (ङ) शस्त्र इत्यादि रखने के लिए लाइसेंस जारी करती है।
(च) भारत में निर्वाचन सम्बन्धी अपीलें हाई कोर्ट सुनती है। उच्च अधिकारियों को शपथ दिलवाना न्यायपालिका का ही कार्य है।

निष्कर्ष (Conclusion)-किसी भी सरकार का न्यायपालिका अंग अपने कार्यों व शक्तियों का निर्धारण स्वयं नहीं करता। वह निर्धारण राज्य के संविधान और विधानपालिका के कानूनों द्वारा किया जाता है। इस कारण हर राज्य में न्यायपालिका के कार्य सदा एक समान नहीं होते। इसके अतिरिक्त एक प्रजातन्त्रात्मक ढांचे में न्यायपालिका को संविधान और लोगों के अधिकारों का रक्षक माना जाता है। अच्छे प्रजातन्त्र के आवश्यक तत्त्वों में निपुण और स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रमुख स्थान है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है ? यह किस तरह से प्राप्त की जा सकती है ?
(What is meant by ‘Independence of Judiciary’ ? How can it be secured ?)
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ (Meaning of Independence of Judiciary)-वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को निष्पक्षता तथा कुशलता से तभी कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं, जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि न्यायपालिका कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा नहीं कर सकेंगे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व (Importance of Independence of Judiciary)-आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा कर सकती है। अमीर-गरीब, शक्तिशाली, निर्बल, पढ़े-लिखे, अनपढ़ तथा सरकारी, गैर-सरकारी सभी को न्याय तभी मिल सकता है जब न्यायाधीश स्वतन्त्र हों। यदि न्यायाधीश विधानमण्डल के अधीन होंगे तो वे विधानमण्डल के कानूनों को असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकेंगे और इस तरह वे संविधान की रक्षा नहीं कर सकेंगे। लोकतन्त्र की सफलता के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का होना आवश्यक है। माण्टेस्क्यू ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए ही शक्तियों का पृथक्करण का सिद्धान्त दिया ताकि सरकार के तीनों अंग स्वतन्त्र होकर कार्य कर सकें।

संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में केन्द्र तथा प्रान्तों में शक्तियों का विभाजन होता है। कई बार शक्तियों के विभाजन पर केन्द्र तथा प्रान्तों में झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं। इन झगड़ों को निपटाने के लिए एक स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। बिना स्वतन्त्र न्यायपालिका के संघीय शासन सफलतापूर्वक चल ही नहीं सकता है।

अमेरिकन राष्ट्रपति टाफ्ट ने न्यायपालिका के महत्त्व के विषय में कहा है, “सभी मामलों में, चाहे वे व्यक्ति तथा राज्य के बीच में हों, चाहे अल्पसंख्यक वर्ग और बहुमत के बीच में हों, न्यायपालिका को निष्पक्ष रहना चाहिए और बिना किसी भय के निर्णय देना चाहिए।” डॉ० गार्नर (Garner) ने न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है, “यदि न्यायाधीशों में प्रतिभा और निर्णय देने की स्वतन्त्रता न हो तो न्यायपालिका का यह सारा ढांचा खोखला प्रतीत होगा और ऊंचे उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।” (“If judges lack wisdom, probity and freedom of decision, the high purposes for which the Judiciary is established cannot be realised.’) अत: व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान की रक्षा के लिए, संघ की सफलता के लिए, न्याय के लिए तथा लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने वाले तत्त्व (Factors that Establish the Independence of Judiciary)—प्रत्येक लोकतन्त्रीय राज्य में न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए कोशिश की जाती है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को स्थापित करने के लिए निम्नलिखित तत्त्व सहायक हैं-

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग (Mode of Appointment of Judges)-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनकी नियुक्ति किस ढंग से की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के तीन ढंग हैं
(क) जनता द्वारा चुनाव (Election by the People)
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव (Election by the Legislature)
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति (Appointment by the Executive)

(क) जनता द्वारा चुनाव-न्यायाधीशों की नियुक्ति के सब ढंगों में जनता द्वारा चुने जाने का ढंग सबसे अधिक दोषपूर्ण है। इसलिए यह पद्धति अधिक प्रचलित नहीं है।
(ख) विधानमण्डल द्वारा चुनाव-स्विट्ज़रलैण्ड तथा रूस में न्यायाधीशों का चुनाव विधानमण्डल द्वारा किया जाता है। यह पद्धति भी न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए उचित नहीं है।
(ग) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति-न्यायाधीशों की नियुक्ति का सबसे अच्छा ढंग कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति है। संसार के मुख्य देशों में इसी प्रणाली को ही अपनाया गया है। भारत में सुप्रीमकोर्ट तथा हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश राष्ट्रपति सीनेट की अनुमति से नियुक्त करता है। इंग्लैण्ड, कैनेडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी अफ्रीका में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा ही की जाती है। यह प्रणाली इसलिए अच्छी समझी जाती है क्योंकि कार्यपालिका योग्य व्यक्तियों को नियुक्त कर सकती है। इससे राजनीतिक दलों का प्रभाव भी कम हो जाता है।

2. नौकरी की सुरक्षा (Security of Service) न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उनको नौकरी की सुरक्षा प्राप्त हो। उनको हटाने का तरीका काफ़ी कठिन होना चाहिए ताकि कार्यपालिका अपनी इच्छा से उन्हें न हटा सके। यदि न्यायाधीशों को नौकरी की चिन्ता रहेगी तो वह अपना कार्य कुशलतापूर्वक नहीं कर सकेंगे। यदि न्यायाधीशों को यह पता हो कि उन्हें तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक वे भ्रष्टाचारी साधनों का प्रयोग नहीं करते तो इससे वे बिना किसी डर के न्याय कर सकते हैं। न्यायाधीश कार्यपालिका के अत्याचारों के विरुद्ध तभी निर्णय दे सकते हैं जब उनकी अपनी नौकरी सुरक्षित हो और न्यायाधीश की नौकरी तभी सुरक्षित हो सकती है यदि उन्हें हटाने की विधि कठोर हो। इसलिए संसार के अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नौकरी को सुरक्षित रखा गया है ताकि वे स्वतन्त्र होकर अपना कार्य कर सकें। भारत में सुप्रीमकोर्ट तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीश को राष्ट्रपति उसी समय हटा सकता है जब संसद् के दोनों सदन अपने कुल सदस्यों के उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से एक प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति से किसी न्यायाधीश को हटाने की सिफ़ारिश करते हैं।

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3. लम्बा कार्यक्रम (Long Tenure)-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का कार्यक्रम काफ़ी लम्बा हो। यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल थोड़ा हो तो न्यायाधीश कभी भी स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष होकर कार्य नहीं कर सकते। जब न्यायाधीशों को कार्यकाल छोटा होता है तब न्यायाधीश रिश्वतें लेकर थोड़े समय में अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं। कार्यकाल थोड़ा होने की दशा में न्यायाधीशों को दोबारा न चुने जाने की चिन्ता रहती है। इसलिए न्यायाधीशों का कार्यकाल काफ़ी लम्बा होना चाहिए। इसके अतिरिक्त लम्बे कार्यकाल का यह भी होता है कि न्यायाधीशों को अपने कार्य का अनुभव हो जाता है जिससे वे अपने कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक करते हैं। संसार के प्रायः सभी देशों में न्यायाधीशों को अपने कार्य का अनुभव हो जाता है जिससे वे अपने कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक करते हैं। संसार के प्रायः सभी देशों में न्यायाधीशों का कार्यकाल काफ़ी लम्बा रखा जाता है। भारत में सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक सदाचार पर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं। इंग्लैण्ड में न्यायाधीश सदाचार पर्यन्त अपने पद पर रहते हैं। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सदाचार के आधार पर जीवन भर अपने पद पर रहते हैं।

4. न्यायाधीशों को अच्छा वेतन तथा पैन्शन (Good Salary and Pension to Judges)-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें अच्छा वेतन मिले ताकि वे अपना गुजारा अच्छी तरह कर सकें और अपने जीवन स्तर को अपने पद के अनुसार रखें। यदि न्यायाधीशों को अच्छा वेतन नहीं मिलेगा तो वे अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचारी साधनों का प्रयोग करेंगे। भारतवर्ष में न्यायाधीशों को बहुत अच्छा वेतन मिलता है-सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपये तथा न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है जबकि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को 2,50,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है।

अच्छे वेतन के अतिरिक्त न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन भी मिलनी चाहिए ताकि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् अपनी रोजी की चिन्ता न रहे। यदि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन न दी जाए तो इसका अर्थ होगा कि वे अपने कार्यकाल में अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने की कोशिश करेंगे ताकि रिटायर होने के पश्चात् उनका जीवन सुख से व्यतीत हो सके। इससे न्यायाधीश भ्रष्टाचार के रास्ते पर चलने लगेंगे। भारतवर्ष तथा अमेरिका में न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् अच्छी पैन्शन दी जाती है।

5. सेवा की शर्तों में हानिकारक परिवर्तन न होना (No change in the terms of their disadvantage)न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के पश्चात् उनकी हानि के लिए वेतन, पैन्शन, छुट्टियों के नियमों में कोई परिवर्तन न किया जाए।

6. न्यायाधीशों की उच्च योग्यताएं (High Qualifications of Judges)-न्यायाधीश तभी स्वतन्त्र रह सकते हैं जब उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर हुई हो तथा न्यायाधीशों के लिए उच्च योग्यताएं निश्चित होनी चाहिएं। अयोग्य न्यायाधीश जिनकी नियुक्ति सिफ़ारिश पर की जाती है कभी भी निष्पक्ष नहीं रह सकते और न ही अपने कार्य को कुशलता से कर सकते हैं। यदि न्यायाधीशों को कानून का पूर्ण ज्ञान नहीं होगा तो वे चतुर वकीलों की बातों में आ जाएंगे और न्याय निष्पक्षता से नहीं कर पाएंगे। भारत में सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश वही व्यक्ति बन सकता है जो हाई कोर्ट में पांच वर्ष न्यायाधीश रहा हो अथवा दस वर्ष तक हाई कोर्ट में एडवोकेट रहा तो अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में एक प्रसिद्ध कानूनज्ञाता हो।

7. रिटायर होने के पश्चात् वकालत की मनाही (No Practice after Retirement) न्याय की निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् वकालत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। यदि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् वकालत करने का अधिकार होगा तो इससे न्याय दूषित होगा। जब कोई न्यायाधीश रिटायर होने के पश्चात् कोर्ट के सामने वकील की हैसियत से पेश होता है तो उसके साथी न्यायाधीश उसका पक्षपात करेंगे, जिससे न्याय निष्पक्ष नहीं होगा। भारत में न्यायाधीश को वकालत करने की बिल्कुल मनाही है।

8. अवकाश प्राप्ति के पश्चात् न्यायाधीशों की सेवाओं पर प्रतिबन्ध (Restrictions on utilising services of Judges after Retirement) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों को रिटायर होने के पश्चात् किसी भी प्रकार का राजकीय अथवा अर्द्ध-राजकीय पद नहीं दिया जाना चाहिए।

9. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण (Separation of Judiciary from the Executive)न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाये तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार न दिया जाये। यदि एक ही व्यक्ति के हाथों में कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियां दे दी जाएं तो वह उनका दुरुपयोग करेगा अर्थात् यदि मुकद्दमा चलाने वाला ही न्यायाधीश हो तो इससे नागरिकों को न्याय नहीं मिलेगा।

10. न्यायपालिका को व्यापक अधिकार (Sufficient Powers to Judiciary) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायपालिका को काफ़ी अधिकार प्राप्त हों। न्यायपालिका को साधारणतया विधानमण्डल तथा कार्यपालिका से निर्बल माना जाता है क्योंकि विधानमण्डल का नियन्त्रण देश के वित्त पर होता है जबकि कार्यपालिका का नियन्त्रण देश की शक्ति (सेना) पर होता है। इसलिए न्यायपालिका को सम्मान का स्थान देने के लिए आवश्यक हो जाता है कि इसको भी काफ़ी शक्तियां प्राप्त हों ताकि न्यायपालिका अपना कार्य स्वतन्त्रता से कर सके। अत: न्यायपालिका को विधानमण्डल के कानूनों को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

11. कार्य की स्वतन्त्रता (Liberty of Action)-न्यायाधीश को अपने कार्य में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। वे जब किसी भी मुकद्दमे का निर्णय कर रहे हों, किसी अन्य व्यक्ति को उनके काम में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों के कार्यों की सार्वजनिक आलोचना भी नहीं होनी चाहिए। भारत में प्रत्येक न्यायालय उनके काम में हस्तक्षेप करने वाले तथा उसका अनादर करने वाले के विरुद्ध स्वयं मुकद्दमा चला कर उसे दण्ड दे सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion) उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के द्वारा की जाए। एक बार नियुक्ति करने पर उनका कार्यकाल सदाचारपर्यन्त लम्बा हो, उनको हटाने का तरीका कठिन हो, उसकी नियुक्ति के लिए उच्च योग्यताएं निश्चित हों, उन्हें अच्छा वेतन मिले तथा रिटायर होने के पश्चात् पैन्शन दी जाए तथा न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाये। अतः ये सब तत्त्व मिल कर ही न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को कायम रख सकते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के चार कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-
न्यायपालिका के मुख्य तीन कार्य निम्नलिखित हैं

  1. न्याय करना-विधानमण्डल के बनाए गए कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है, परन्तु राज्य के अन्तर्गत कई नागरिक ऐसे भी होते हैं जो इन कानूनों का उल्लंघन करते हैं। कार्यपालिका ऐसे व्यक्तियों को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष पेश करती है। न्यायपालिका मुकद्दमों को सुनकर न्याय करती है।
  2. कानून की व्याख्या-न्यायपालिका, विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है। कई बार विधानमण्डल के बनाए हुए कानून स्पष्ट नहीं होते। अतः कानूनों की स्पष्टता की आवश्यकता पड़ती है। तब न्यायपालिका उन कानूनों की व्याख्या कर उन्हें स्पष्ट करती है।
  3. कानूनों का निर्माण-साधारणतया कानूनों का निर्माण विधानपालिका के द्वारा किया जाता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानूनों की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कई नए अर्थों को जन्म देते हैं जिससे उस कानून का अर्थ ही बदल जाता है और एक नए कानून का निर्माण होता है।
  4. संविधान का संरक्षक-न्यायपालिका संविधान की संरक्षक मानी जाती है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ तथा महत्त्व लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ-वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलता एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व-आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतन्त्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा कर सकती है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में विभाजन होता है। कई बार शक्तियों के विभाजन पर केन्द्र और राज्यों में झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका को स्वतन्त्र बनाने के लिए कोई चार शर्ते लिखें।
उत्तर-
न्यायपालिका को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्वतन्त्र बनाया जा सकता है-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनकी नियुक्ति किस ढंग से की जाती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के क्रमश: तीन ढंग हैं-
    (1) जनता द्वारा चुनाव (2) विधानमण्डल द्वारा चुनाव (3) कार्यपालिका द्वारा चुनाव। न्यायाधीशों की नियुक्ति का सबसे अच्छा ढंग कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति है।
  2. नौकरी की सुरक्षा-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि उन्हें नौकरी की सुरक्षा प्राप्त हो। उन्हें हटाने का तरीका काफ़ी कठिन होना चाहिए ताकि वे निष्पक्षता और कुशलता से अपना कार्य कर सकें।
  3. लम्बा कार्यकाल-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों का कार्यकाल लम्बा हो। यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल थोड़ा होगा तो वे कभी भी स्वतन्त्रतापूर्वक एवं निष्पक्षता से अपना कार्य नहीं कर सकेंगे।
  4. अच्छा वेतन-न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है, कि उन्हें अच्छा वेतन मिले।

प्रश्न 4.
बंदी उपस्थापक अथवा प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
‘हैबियस कॉर्पस’ लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, ‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो।’ (Let us have the body.) इस आदेश के अनुसार, न्यायालय किसी अधिकारी को, जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए ताकि उसके गिरफ्तारी के कानूनों का औचित्य अथवा अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है।

प्रश्न 5.
परमादेश लेख (Writ of Mandamus) का अर्थ बताएं।
उत्तर-
‘मैण्डमस’ शब्द लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है, “हम आदेश देते हैं” (We Command)। इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाधित कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 19 सरकार के अंग-न्यायपालिका

प्रश्न 6.
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से क्यों खास महत्त्व दिया जाता है ?
उत्तर-
न्यायपालिका को राज्य सरकार के तीनों अंगों में विशेष महत्त्व प्राप्त होता है। ब्राइस के अनुसार, “यदि किसी राज्य के प्रशासन की जानकारी आप को प्राप्त करनी है तो आपके लिए यह आवश्यक है कि आप वहां की न्यायपालिका का अध्ययन करें और यदि न्याय व्यवस्था अच्छी व सुचारु है तो प्रशासन बढ़िया है।” न्यायपालिका को निम्नलिखित कारणों द्वारा खास महत्त्व प्राप्त है-

  • न्यायपालिका संविधान की रक्षक है।
  • न्यायपालिका लोगों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करती है।
  • जिन देशों में संघात्मक शासन प्रणाली है वहां न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में काम करती है।
  • न्यायपालिका विधानमण्डल के बनाए कानूनों की व्याख्या करती है।
  • कई देशों में न्यायपालिका कानूनी मामलों में सलाह भी देती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यायपालिका के दो कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर-

  1. न्याय करना-न्यायपालिका मुकद्दमों को सुनकर न्याय करती है।
  2. कानून की व्याख्या-न्यायपालिका, विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करती है।

प्रश्न 2.
न्यायपालिका स्वतन्त्रता का अर्थ लिखें।
उत्तर-
वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ चुका है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलता एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि न्यायाधीश स्वतन्त्र, निष्पक्ष तथा निडर होने चाहिएं। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए और विधानमण्डल तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. संविधान की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-बुल्जे के अनुसार, “संविधान उन नियमों का समूह है, जिनके अनुसार सरकार की शक्तियां, शासितों के अधिकार तथा इन दोनों के आपसी सम्बन्धों को व्यवस्थित किया जाता है।”

प्रश्न 2. संविधान के कोई दो रूप/प्रकार लिखें।
उत्तर-

  1. विकसित संविधान
  2. निर्मित संविधान।

प्रश्न 3. विकसित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो संविधान ऐतिहासिक उपज या विकास का परिणाम हो, उसे विकसित संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 4. लिखित संविधान किसे कहते हैं ? ।
उत्तर-लिखित संविधान उसे कहा जाता है, जिसके लगभग सभी नियम लिखित रूप में उपलब्ध हों।

प्रश्न 5. अलिखित संविधान किसे कहते हैं ?
उत्तर-अलिखित संविधान उसे कहते हैं, जिसकी धाराएं लिखित रूप में न हों, बल्कि शासन संगठन अधिकतर रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं पर आधारित हो।

प्रश्न 6. कठोर एवं लचीले संविधान में एक अन्तर लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान की अपेक्षा लचीले संविधान में संशोधन करना अत्यन्त सरल है।

प्रश्न 7. लचीले संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर- लचीला संविधान समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 8. किसी एक विद्वान् का नाम लिखें, जो लिखित संविधान का समर्थन करता है?
उत्तर-डॉ० टॉक्विल ने लिखित संविधान का समर्थन किया है।

प्रश्न 9. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता।

प्रश्न 10. एक अच्छे संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-संविधान स्पष्ट एवं सरल होता है।

प्रश्न 11. अलिखित संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-यह समयानुसार बदलता रहता है।

प्रश्न 12. अलिखित संविधान का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-अलिखित संविधान में शक्तियों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है।

प्रश्न 13. लिखित संविधान का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान निश्चित तथा स्पष्ट होता है।

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प्रश्न 14. लिखित संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-लिखित संविधान समयानुसार नहीं बदलता।

प्रश्न 15. जिस संविधान को आसानी से बदला जा सके, उसे कैसा संविधान कहा जाता है ?
उत्तर-उसे लचीला संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 16. जिस संविधान को आसानी से न बदला जा सकता हो, तथा जिसे बदलने के लिए किसी विशेष तरीके को अपनाया जाता हो, उसे कैसा संविधान कहते हैं ?
उत्तर-उसे कठोर संविधान कहते हैं। प्रश्न 17. लचीले संविधान का एक दोष लिखें। उत्तर-यह संविधान पिछड़े हुए देशों के लिए ठीक नहीं।

प्रश्न 18. कठोर संविधान का एक गुण लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान निश्चित एवं स्पष्ट होता है।

प्रश्न 19. कठोर संविधान का एक दोष लिखें।
उत्तर-कठोर संविधान क्रान्ति को प्रोत्साहन देता है।

प्रश्न 20. शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Power) का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर-शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त मान्टेस्क्यू ने प्रस्तुत किया।

प्रश्न 21. संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कौन हैं ?
उत्तर-संविधानवाद की साम्यवादी विचारधारा के मुख्य समर्थक कार्ल-मार्क्स हैं।

प्रश्न 22. संविधानवाद के मार्ग की एक बड़ी बाधा लिखें।
उत्तर-संविधानवाद के मार्ग की एक बाधा युद्ध है।

प्रश्न 23. अरस्तु ने कितने संविधानों का अध्ययन किया?
उत्तर-अरस्तु ने 158 संविधानों का अध्ययन किया।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………. संविधान उसे कहा जाता है, जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके।
2. जिस संविधान को सरलता से न बदला जा सके, उसे …………… संविधान कहते हैं।
3. लिखित संविधान एक ……………. द्वारा बनाया जाता है।
4. ……………. संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
5. ……………. में क्रांति का डर बना रहता है।
उत्तर-

  1. लचीला
  2. कठोर
  3. संविधान सभा
  4. अलिखित
  5. लिखित संविधान।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. अलिखित संविधान अस्पष्ट एवं अनिश्चित होता है।
2. लचीले संविधान में क्रांति की कम संभावनाएं रहती हैं।
3. कठोर संविधान अस्थिर होता है।
4. एक अच्छा संविधान स्पष्ट एवं निश्चित होता है।
5. कठोर संविधान समयानुसार बदलता रहता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. सही
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत ।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
कठोर संविधान का गुण है
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता
(ख) संघात्मक राज्य के लिए उपयुक्त नहीं है
(ग) समयानुसार नहीं बदलता
(घ) संकटकाल में ठीक नहीं रहता।
उत्तर-
(क) यह राजनीतिक दलों के हाथ में खिलौना नहीं बनता

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प्रश्न 2.
एक अच्छे संविधान का गुण है-
(क) संविधान का स्पष्ट न होना
(ख) संविधान का बहुत विस्तृत होना
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय
(घ) बहुत कठोर होना।
उत्तर-
(ग) व्यापकता तथा संक्षिप्तता में समन्वय

प्रश्न 3.
“संविधान उन नियमों का समूह है, जो राज्य के सर्वोच्च अंगों को निर्धारित करते हैं, उनकी रचना, उनके आपसी सम्बन्धों, उनके कार्यक्षेत्र तथा राज्य में उनके वास्तविक स्थान को निश्चित करते हैं।” किसका कथन है ?
(क) सेबाइन
(ख) जैलिनेक
(ग) राबर्ट डाहल
(घ) आल्मण्ड पावेल।
उत्तर-
(ख) जैलिनेक

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से एक अच्छे संविधान की विशेषता है-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित
(ख) अस्पष्टता
(ग) कठोरता
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) स्पष्ट एवं निश्चित