PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 6 आदि ग्रंथ

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
श्री गुरु अर्जन देव जी की ओर से अपनाए गए श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संपादन के लिए अपनाई गई संपादन योजना के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Editorial Scheme of Sri Guru Granth Sabib Ji adopted by Sri Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the Editing Art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन किसने किया, कैसे किया, कब किया और कहां किया ? चर्चा करें।
(Who compiled, how compiled, when compiled and where compiled Guru Granth Sahib Ji ? Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन कार्य किसने और कैसे किया ? चर्चा कीजिए।
(Who and how did the editing work of Sri Guru Granth Sahib Ji ? Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने गुरु साहिबान की बाणी दर्ज है ? गुरु ग्रंथ साहिब की संपादन कला पर नोट लिखो।
(Give number of the Sikh Gurus whose composition are included in the Guru Granth Sahib Ji. Write a note on the Editorial Scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन-युक्ति का आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षण कीजिए।
(Examine critically the Editorial Scheme of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन एवं संपादन-युक्ति के इतिहास की चर्चा कीजिए।
(Discuss the history of compilation and Editing Scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की संपादन योजना कैसे बनी ? प्रकाश डालें। (How editing scheme of Adi Granth Sahib Ji was shaped ? Elucidate.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें। गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने रागों की वाणी अंकित है ?
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji. Give the number of musical measures under which hymns are included in the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें। जिन भक्तों की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज है, उनमें से किन्हीं पाँच के नाम लिखें।
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji. Give names of any five Bhaktas, whose hymns are included in the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन के इतिहास पर प्रकाश डालें। (Throw light on the history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन करते समय गुरु अर्जन देव जी ने कौन-सी प्रणाली अपनाई ?
(Which methodology was adopted by Guru Arjan Dev Ji for editing of Guru Granth Sahib Ji ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी ने सिख धर्म को एक विलक्षण ग्रंथ देकर इसके संगठन में एक अहम भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
(Guru Arjan Dev Ji made significant contribution in the development of Sikh faith by providing it a scripture. Discuss.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के विषय में जानकारी दीजिए। (Write about the editorial scheme of Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादना के संदर्भ में गुरु अर्जन देव जी की संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Editing Art of Guru Arjan Dev Ji in the context of editing Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन का संक्षिप्त इतिहास लिखें।
(Write a brief history of the compilation of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन क्यों किया गया ? उसके महत्त्व का भी वर्णन करें।
(Why was Adi Granth Sahib Ji compiled ? Also explain its importance.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के गुरु ग्रंथ साहिब जी के संपादन पर नोट लिखें।
(Write a note on Guru Arjan Dev’s editing of the Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला बारे आप क्या जानते हैं ? विस्तृत चर्चा करें।
(What do you know about the editorial scheme of Guru Granth Sahib Ji ? Explain in detail.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की विषय वस्तु के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the contents of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन तथा संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the compilation and editing art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य था। इसका मुख्य उद्देश्य न केवल सिखों अपितु समूची मानव जाति को एक नई दिशा देना था। इसका संकलन कार्य अमृतसर के निकट रामसर नामक स्थान पर गुरु अर्जन देव जी के आदेश पर भाई गुरदास जी ने किया। इसमें सिखों के प्रथम 5 गुरु साहिबान, 15 भक्तों एवं सूफी संतों, 11 भाटों तथा 4 गुरु घर के परम सेवकों की वाणी बिना किसी जातीय अथवा धार्मिक मतभेद के अंकित की गई है। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी 31 रागों में विभाजित है। यह संपूर्ण वाणी परमात्मा की प्रशंसा में रची गयी है। इसमें कर्मकांडों अथवा अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में 16 अगस्त, 1604 ई० को हुआ तथा बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।
1706 ई० में गुरु गोबिंद साहिब जी ने दमदमा साहिब में आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ तैयार करवाई। इसमें गुरु साहिब ने गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद तथा श्लोक सम्मिलित किए। इन्हें गुरु गोबिंद सिंह जी के आदेश पर भाई मनी सिंह जी ने लिखा था। इस प्रकार आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 36 महापुरुषों की वाणी संकलित है। 6 अक्तूबर, 1708 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का सम्मान दिया। सिखों के मन में गुरु ग्रंथ साहिब जी का वही सम्मान तथा श्रद्धा है जो बाइबल के लिए ईसाइयों, कुरान के लिए मुसलमानों तथा वेदों एवं गीता के लिए हिंदुओं के मदों में है। वास्तव में यह न केवल सिखों का पवित्र धार्मिक ग्रंथ है अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिए एक अमूल्य निधि है।

I. संपादन कला (Editorial Scheme)-

1. संकलन की आवश्यकता (Need for its Compilation)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु अर्जन साहिब जी के समय सिख धर्म का प्रसार बहुत तीव्र गति से हो रहा था। उनके नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई पृथिया स्वयं गुरुगद्दी प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर लोगों में प्रचलित करनी आरंभ कर दी थी। गुरु अर्जन देव जी गुरु साहिबान की वाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे ताकि सिखों को कोई संदेह न रहे। तीसरा, यदि सिखों का एक अलग राष्ट्र स्थापित करना था तो उनके लिए एक अलग धार्मिक ग्रंथ लिखा जाना भी आवश्यक था। चौथा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची वाणी पढ़ने के लिए कहा था। गुरु साहिब आनंदु साहिब में कहते हैं,

आवह सिख सतगुरु के प्यारो गावहु सच्ची वाणी॥
वाणी तां गावहु गुरु केरी वाणियां सिर वाणी॥
कहे नानक सदा गावहु एह सच्ची वाणी।

इन कारणों से गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करने की आवश्यकता अनुभव की।

2. वाणी को एकत्रित करना (Collection of Hymns)-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में लिखने के लिए भिन्न-भिन्न स्रोतों से वाणी एकत्रित की। प्रथम तीन गुरु साहिबान-गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र बाबा मोहन जी के पास पड़ी थी। इस
Class 12 Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ 1
GURU ARJAN DEV JI
वाणी को एकत्रित करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन देव जी ने पहले भाई गुरदास जी को तथा फिर बाबा बुड्डा जी को बाबा मोहन जी के पास भेजा किंतु वे अपने उद्देश्य में सफल न हो पाए। इसके पश्चात् गुरु साहिब स्वयं अमृतसर से गोइंदवाल साहिब नंगे पांव गए। गुरु जी की नम्रता से प्रभावित होकर बाबा मोहन जी ने अपने पास पड़ी समस्त वाणी गुरु जी के सुपुर्द कर दी। गुरु रामदास जी की वाणी गुरु अर्जन साहिब जी के पास ही थी। गुरु साहिब ने अपनी वाणी भी शामिल की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने हिंदू भक्तों और मुस्लिम संतों के श्रद्धालुओं को अपने पास बुलाया और कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित करने के लिए वे अपने संतों की सही वाणी बताएं। गुरु ग्रंथ साहिब जी में केवल उन भक्तों और संतों की वाणी सम्मिलित की गई जिनकी वाणी गुरु साहिबान की वाणी से मिलती-जुलती थी। लाहौर के काहना, छज्जू, शाह हुसैन और पीलू की रचनाएँ रद्द कर दी गईं।

3. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)-गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन कार्य के लिए अमृतसर से दक्षिण की ओर स्थित एकांत एवं रमणीय स्थान की खोज की। इस स्थान पर गुरु साहिब ने रामसर नामक एक सरोवर बनवाया। इस सरोवर के किनारे पर एक पीपल वृक्ष के नीचे गुरु जी के लिए एक तंबू लगवाया गया। यहाँ बैठकर गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य आरंभ किया। गुरु अर्जन देव जी वाणी लिखवाते गए और भाई गुरदास जी इसे लिखते गए। यह महान् कार्य अगस्त, 1604 ई० में सम्पूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश 16 अगस्त, 1604 ई० को श्री हरिमंदिर साहिब जी में किया गया तथा बाबा बुड्डा जी को प्रथम मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।

4. ग्रंथ साहिब में योगदान करने वाले (Contributors in the Granth Sahib)-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल 5,894 शबद दर्ज किए गए हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  • सिख गुरु (Sikh Gurus)-आदि ग्रंथ साहिब जी में सिख गुरुओं का योगदान सर्वाधिक है। इसमें गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शबद अंकित हैं। तत्पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद और श्लोक शामिल किए गए।
  • भक्त एवं संत (Bhagats and Saints)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की वाणी अंकित की गई है। प्रमुख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, शेख फरीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानन्द जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शबद हैं। इसमें शेख फ़रीद जी के 112 श्लोक एवं 4 शब्द सम्मिलित हैं।
  • भाट (Bhatts)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों के शबद भी अंकित किए गए हैं। इन शबदों की कुल संख्या 125 है। कुछ प्रमुख भाटों के नाम ये हैं-नल जी, बल जी, जालप जी, भिखा जी और हरबंस जी।
  • अन्य (Others)-आदि ग्रंथ साहिब जी में ऊपरलिखित महापुरुषों के अतिरिक्त सत्ता, बलवंड, मरदाना और सुंदर की रचनाओं को भी सम्मिलित किया गया है।

5. वाणी का क्रम (Arrangement of the Bani)-आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 1430 पृष्ठ हैं। इनमें दर्ज की गई वाणी को तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में जपुजी साहिब, रहरासि साहिब और सोहिला आते हैं। इनका वर्णन ग्रंथ साहिब जी के 1 से 13 पृष्ठों तक किया गया है। दूसरा भाग जो कि गुरु ग्रंथ साहिब जी का मुख्य भाग कहलाता है, में वर्णित वाणी को 31 रागों के अनुसार 31 भागों में विभाजित किया गया है। यहाँ यह बात स्मरण रखने योग्य है कि अधिक प्रसन्नता और अधिक दुःख प्रकट करने वाले रागों को ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित नहीं किया गया है। प्रत्येक राग में प्रभु की स्तुति के पश्चात् पहले गुरु नानक साहिब तथा फिर अन्य गुरु साहिबान के शबद क्रमानुसार दिए गए हैं।

क्योंकि सभी गुरुओं के शबदों में ‘नानक’ का नाम ही प्रयुक्त हुआ है, इसलिए उनके शबदों में अंतर प्रकट करने के लिए महलों का प्रयोग किया गया है। जैसे गुरु नानक साहिब जी की वाणी के साथ महला पहला का प्रयोग किया गया है तथा गुरु अंगद साहिब जी की वाणी के साथ महला दूसरा का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक रागमाला में गुरु साहिबान के शबदों के पश्चात् भक्तों और सूफी संतों की रचनाएँ क्रमानुसार दी गई हैं। इस भाग का वर्णन गुरु ग्रंथ साहिब जी के 14 से लेकर 1353 पृष्ठों तक किया गया है। तीसरे भाग में भट्टों के सवैये, सिख गुरुओं और भक्तों के वे श्लोक हैं जिन्हें रागों में विभाजित नहीं किया जा सका। आदि ग्रंथ साहिब जी ‘मुंदावणी’ नामक दो श्लोकों से समाप्त होता है। ये श्लोक गुरु अर्जन देव जी के हैं। इनमें उन्होंने आदि ग्रंथ साहिब जी का सार और ईश्वर का धन्यवाद किया है। अंत में ‘रागमाला’ के शीर्षक के अन्तर्गत एक अन्तिका दी गई है। इस तीसरे भाग का वर्णन आदि ग्रंथ साहिब जी के 1353 पृष्ठों से लेकर 1430 पृष्ठों तक किया गया है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

आदि ग्रंथ साहिब जी का क्रम
(Arrangement of Adi Granth Sahib Ji)

  1. जपुजी साहिब 1-8
  2. रहरासि साहिब 8-12
  3. सोहिला 12-13
  4. सिरि राग 14-93
  5. माझ 94-150
  6. गउड़ी 151-346
  7. आसा 347-488
  8. गूजरी 489-526
  9. देवगांधारी 527-536
  10. बेहागड़ा 537-556
  11. वडहंस 557-594
  12. सोरठ 595-659
  13. धनासरी 660-695
  14. जैतसरी 696-710
  15. टोडी 711-718
  16. बैराड़ी 719-720
  17. तिलंग 721-727
  18. सूही 728-794
  19. बिलावल 795-858
  20. गोंड 859-875
  21. रामकली 876-974
  22. नटनारायण 975-983
  23. माली गउड़ा 984-988
  24. मारू 989-1106
  25. तुखारी 1107-1117
  26. केदारा 1118-1124
  27. भैरो 1125-1167
  28. वसंत 1168-1196
  29. सारंग 1197-1253
  30. मल्लहार 1254-1293
  31. कन्नड़ा 1294-1318
  32. कल्याण 1319-1326
  33. प्रभाति 1327-1351
  34. जैजावंती 1352-1353
  35. श्लोक सहस्कृति 1353-1360
  36. गाथा 1360-1361
  37. फुनहे 1361-1363
  38. चउबले 1363-1364
  39. श्लोक कबीर 1364-1377
  40. श्लोक फरीद 1377-1384
  41. सवैये गुरु अर्जन 1385-1389
  42. सवैये भट्ट 1389-1409
  43. गुरु साहेबान के श्लोक 1409-1426
  44. श्लोक गुरु तेग़ बहादुर 1426-1429
  45. मुंदावणी-1429
  46. रागमाला 1429-1430

6. वाणी एवं संगीत का सुमेल (Synthesis of Bani and Music)-सिख गुरु संगीत के महत्त्व से भली-भांति परिचित थे। इसलिए आदि ग्रंथ साहिब जी की बीड़ का संपादन करते समय गुरु अर्जन देव जी ने रागों के अनुसार अधिकतर वाणी को क्रम दिया है। इस वाणी की रचना 31 रागों के अनुसार की गई है। सिरि राग से लेकर प्रभाती राग तक कुल 30 रागों की रचना गुरु अर्जन देव जी ने अपनी वाणी में अंकित की। गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी राग जैजावंती में रची गयी। यह बात यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत खुशी अथवा बहुत गमी अथवा उत्तेजक प्रकार के रागों का प्रयोग नहीं किया गया है।

7. विषय (Subject)-आदि ग्रंथ साहिब जी में प्रभु की स्तुति की गई है। इसमें नाम का जाप, सच्चखण्ड की प्राप्ति और गुरु के महत्त्व के संबंध में प्रकाश डाला गया है। इसमें समस्त मानवता के कल्याण, प्रभु की एकता और विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया गया है । इसमें गुरु साहिबान की जीवनियाँ अथवा चमत्कारों अथवा किसी प्रकार के सांसारिक मामलों का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार गुरु ग्रंथ साहिब जी का विषय नितांत धार्मिक है।

8. भाषा (Language)-आदि ग्रंथ साहिब जी गुरमुखी लिपि में लिखा गया है। इसमें 15वीं, 16वीं और 17वीं शताब्दी की पंजाबी, हिंदी, मराठी, गुजराती, संस्कृत तथा फ़ारसी इत्यादि भाषाओं के शबदों का प्रयोग किया गया है। गुरु साहिबान के शबद पंजाबी भाषा में हैं तथा अन्य भक्तों तथा सिख संतों की रचनाएँ दूसरी भाषाओं में हैं।
Class 12 Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ 2
SRI HARMANDIR SAHIB : AMRITSAR

II. आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व (Significance of Adi Granth Sahib Ji)
आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों का ही नहीं अपितु सारे संसार का एक अद्वितीय धार्मिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना ने सिख समुदाय को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए और उनके संगठन को दृढ़ किया। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातत्व का संदेश देती है।

1. सिखों के लिए महत्त्व (Importance for the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु ग्रंथ साहिब जी को सिखों का गुरु माना जाने लगा। आज विश्व में प्रत्येक सिख गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को बहुत मान-सम्मान सहित उच्च स्थान पर रेशमी रुमालों में लपेट कर रखा जाता है तथा इसका प्रकाश किया जाता है। सिख संगतें इसके सामने बहुत आदरपूर्ण ढंग से मत्था टेककर बैठती हैं। सिखों की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी रस्में गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख पूर्ण की जाती हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों के लिए न केवल प्रकाश स्तंभ है, अपितु उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। डॉक्टर वजीर सिंह के अनुसार,
“आदि ग्रंथ साहिब जी वास्तव में उनका (गुरु अर्जन साहिब का) सिखों के लिए सबसे मूल्यवान् उपहार था।”1

2. भ्रातृत्व का संदेश (Message of Brotherhood)-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन देव जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है। आज के युग में जब लोगों में सांप्रदायिकता की भावना बहुत बढ़ गई है और विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, गुरु ग्रंथ साहिब जी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी के अनुसार, .
“जब तक मानव-जाति जीवित रहेगी, वह इस ग्रंथ से शांति, बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन प्राप्त करती रहेगी। यह समस्त मानव-जाति के लिए एक अमूल्य निधि और उत्तम विरासत है।”2

3. साहित्यिक महत्त्व (Literary Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

4. ऐतिहासिक महत्त्व (Historical Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी निस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं और 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में गुरु नानक साहिब ने लोधी शासकों के शासनप्रबंध की बहुत आलोचना की है। शासक श्रेणी कसाई बन गई थी। काज़ी घूस लेकर न्याय करते थे। शासकों और अन्य दरबारियों की नैतिकता का पतन हो चुका था। बाबर के आक्रमण के समय पंजाब के लोगों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल गुरु नानक देव जी ने ‘बाबर वाणी’ में किया है। सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उन्हें बहुत निम्न स्थान प्राप्त था। उनमें सती प्रथा और पर्दे का बहुत प्रचलन था। विधवा का बहुत अनादर किया जाता था। हिंदू समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग बहुत अहंकार करते थे तथा निम्न जातियों पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय धर्म केवल बाह्याडंबर बनकर रह गया था। हिंदुओं और मुसलमानों में भारी अंध-विश्वास फैले हए थे। हिंदु वर्ग में ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग में मुल्ला जनता को लूटने में लगे हुए थे। मुसलमान धर्म के नाम पर हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। आर्थिक क्षेत्र में धनी वर्ग निर्धनों का बहुत शोषण करता था। उस समय की कृषि तथा व्यापार के संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश गुरु ग्रंथ साहिब में डाला गया है। डॉक्टर ए०सी० बैनर्जी के अनुसार,
” आदि ग्रंथ साहिब जी 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है। “3

5. अन्य महत्त्व (Other Importances)-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। मनुष्य को रहस्यमयी उच्चाइयों तक ले जाने के लिए संगीत को अत्यंत विलक्षण ढंग से वाणी के साथ जोड़ा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का सम्मान देने की उदाहरण किसी अन्य धर्म के इतिहास में नहीं मिलती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदि ग्रंथ साहिब ने मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान करके उसकी गोद हीरे-मोतियों से भर दी है। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“आदि ग्रंथ जी का संकलन सिखों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जाती है।”4

1. “The Adi Granth was indeed his most precious gift to the Sikh world.” Dr. Wazir Singh, Guru Arjan Dev (New Delhi : 1991, p. 21.
2. “As long as mankind lives it will derive peace, wisdom and inspiration from this scripture. It is a unique treasure, a noble heritage for the whole human race.” Dr. G. S. Mansukhani, A Hand Book of Sikh Studies (Delhi : 1978) p. 139.
3. “The Adi Granth is a rich mine of information on political, religious, social and economic conditions in the Punjab from the last years of the fifteenth to the beginning of the seventeenth century.” Dr. A. C. Banerjee, The Sikh Gurus and the Sikh Religion (Delhi : 1983) p. 194.
4. “The compilation of the Adi Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikhs (New Delhi : 1973) Vol. 1, p. 97.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 2.
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी सर्व सांझा पवित्र ग्रंथ है।
(Sri Guru Granth Sahib Ji is a sacred Granth of all common people. Discuss.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के संपादन की ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा कीजिए। (Discuss the historical importance of the editing work of Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का महत्त्व (Significance of Adi Granth Sahib Ji)
आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों का ही नहीं अपितु सारे संसार का एक अद्वितीय धार्मिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की रचना ने सिख समुदाय को जीवन के प्रत्येक पक्ष में नेतृत्व करने वाले स्वर्ण सिद्धांत दिए और उनके संगठन को दृढ़ किया। आदि ग्रंथ साहिब जी की वाणी ईश्वर की एकता एवं परस्पर भ्रातत्व का संदेश देती है।

1. सिखों के लिए महत्त्व (Importance for the Sikhs)-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के पश्चात् गुरु ग्रंथ साहिब जी को सिखों का गुरु माना जाने लगा। आज विश्व में प्रत्येक सिख गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीड़ को बहुत मान-सम्मान सहित उच्च स्थान पर रेशमी रुमालों में लपेट कर रखा जाता है तथा इसका प्रकाश किया जाता है। सिख संगतें इसके सामने बहुत आदरपूर्ण ढंग से मत्था टेककर बैठती हैं। सिखों की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी रस्में गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख पूर्ण की जाती हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी सिखों के लिए न केवल प्रकाश स्तंभ है, अपितु उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत है। डॉक्टर वजीर सिंह के अनुसार,
“आदि ग्रंथ साहिब जी वास्तव में उनका (गुरु अर्जन साहिब का) सिखों के लिए सबसे मूल्यवान् उपहार था।”1

2. भ्रातृत्व का संदेश (Message of Brotherhood)-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन देव जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है। आज के युग में जब लोगों में सांप्रदायिकता की भावना बहुत बढ़ गई है और विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, गुरु ग्रंथ साहिब जी की महत्ता और भी बढ़ जाती है। डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी के अनुसार, .
“जब तक मानव-जाति जीवित रहेगी, वह इस ग्रंथ से शांति, बुद्धिमत्ता और प्रोत्साहन प्राप्त करती रहेगी। यह समस्त मानव-जाति के लिए एक अमूल्य निधि और उत्तम विरासत है।”2

3. साहित्यिक महत्त्व (Literary Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

4. ऐति हासिक महत्त्व (Historical Importance)-आदि ग्रंथ साहिब जी निस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं और 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में गुरु नानक साहिब ने लोधी शासकों के शासनप्रबंध की बहुत आलोचना की है। शासक श्रेणी कसाई बन गई थी। काज़ी घूस लेकर न्याय करते थे। शासकों और अन्य दरबारियों की नैतिकता का पतन हो चुका था। बाबर के आक्रमण के समय पंजाब के लोगों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल गुरु नानक देव जी ने ‘बाबर वाणी’ में किया है। सामाजिक क्षेत्र में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उन्हें बहुत निम्न स्थान प्राप्त था। उनमें सती प्रथा और पर्दे का बहुत प्रचलन था। विधवा का बहुत अनादर किया जाता था। हिंदू समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग बहुत अहंकार करते थे तथा निम्न जातियों पर बहुत अत्याचार करते थे। उस समय धर्म केवल बाह्याडंबर बनकर रह गया था। हिंदुओं और मुसलमानों में भारी अंध-विश्वास फैले हए थे। हिंदु वर्ग में ब्राह्मण और मुस्लिम वर्ग में मुल्ला जनता को लूटने में लगे हुए थे। मुसलमान धर्म के नाम पर हिंदुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। आर्थिक क्षेत्र में धनी वर्ग निर्धनों का बहुत शोषण करता था। उस समय की कृषि तथा व्यापार के संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश गुरु ग्रंथ साहिब में डाला गया है। डॉक्टर ए०सी० बैनर्जी के अनुसार,
” आदि ग्रंथ साहिब जी 15वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से लेकर 17वीं शताब्दी के आरम्भ तक पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है। “3

5. अन्य महत्त्व (Other Importances)-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। मनुष्य को रहस्यमयी उच्चाइयों तक ले जाने के लिए संगीत को अत्यंत विलक्षण ढंग से वाणी के साथ जोड़ा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का सम्मान देने की उदाहरण किसी अन्य धर्म के इतिहास में नहीं मिलती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आदि ग्रंथ साहिब ने मनुष्य को उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान करके उसकी गोद हीरे-मोतियों से भर दी है। अंत में हम डॉक्टर हरी राम गुप्ता के इन शब्दों से सहमत हैं,
“आदि ग्रंथ जी का संकलन सिखों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जाती है।”4

1. “The Adi Granth was indeed his most precious gift to the Sikh world.” Dr. Wazir Singh, Guru Arjan Dev (New Delhi : 1991, p. 21.
2. “As long as mankind lives it will derive peace, wisdom and inspiration from this scripture. It is a unique treasure, a noble heritage for the whole human race.” Dr. G. S. Mansukhani, A Hand Book of Sikh Studies (Delhi : 1978) p. 139.
3. “The Adi Granth is a rich mine of information on political, religious, social and economic conditions in the Punjab from the last years of the fifteenth to the beginning of the seventeenth century.” Dr. A. C. Banerjee, The Sikh Gurus and the Sikh Religion (Delhi : 1983) p. 194.
4. “The compilation of the Adi Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikhs (New Delhi : 1973) Vol. 1, p. 97.

प्रश्न 3.
गुरु अर्जन देव जी के तैयार किए गुरु ग्रंथ साहिब जी के योगदानियों पर नोट लिखें।
(Write a brief note on the contributors of Guru Granth Sahib Ji prepared by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने वाणीकार थे ? उनका वर्णन कीजिए।
(How many are the contributors of Guru Granth Sahib Ji ? Give description of them.)
उत्तर-
ग्रंथ साहिब में योगदान करने वाले (Contributors in the Granth Sahib)-आदि ग्रंथ साहिब जी एक विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल 5,894 शबद दर्ज किए गए हैं। आदि ग्रंथ साहिब जी में योगदान करने वालों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है—

  1. सिख गुरु (Sikh Gurus)-आदि ग्रंथ साहिब जी में सिख गुरुओं का योगदान सर्वाधिक है। इसमें गुरु नानक देव जी के 976, गुरु अंगद देव जी के 62, गुरु अमरदास जी के 907, गुरु रामदास जी के 679 और गुरु अर्जन देव जी के 2216 शबद अंकित हैं। तत्पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी के 116 शबद और श्लोक शामिल किए गए।
  2. भक्त एवं संत (Bhagats and Saints)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 हिंदू भक्तों और संतों की वाणी अंकित की गई है। प्रमुख भक्तों तथा संतों के नाम ये हैं-भक्त कबीर जी, शेख फरीद जी, भक्त नामदेव जी, गुरु रविदास जी, भक्त धन्ना जी, भक्त रामानन्द जी और भक्त जयदेव जी। इनमें भक्त कबीर जी के सर्वाधिक 541 शबद हैं। इसमें शेख फ़रीद जी के 112 श्लोक एवं 4 शब्द सम्मिलित हैं।
  3. भाट (Bhatts)-आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों के शबद भी अंकित किए गए हैं। इन शबदों की कुल संख्या 125 है। कुछ प्रमुख भाटों के नाम ये हैं-नल जी, बल जी, जालप जी, भिखा जी और हरबंस जी।
  4. अन्य (Others)-आदि ग्रंथ साहिब जी में ऊपरलिखित महापुरुषों के अतिरिक्त सत्ता, बलवंड, मरदाना और सुंदर की रचनाओं को भी सम्मिलित किया गया है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब के संकलन और महत्त्व के संबंध में बताएँ।
[Write a note on the compilation and importance of Adi Granth Sahib (Guru Granth Sahib).]
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a note on Adi Granth Sahib.)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था। गुरु अर्जन साहिब ने आदि ग्रंथ साहिब का कार्य रामसर में आरंभ किया। आदि ग्रंथ साहिब को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। इसमें प्रथम पाँच गुरु साहिबों, अन्य संतों और भक्तों की वाणी को भी सम्मिलित किया गया। इसका संकलन 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। बाद में गुरु तेग बहादुर जी की वाणी भी इसमें सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of Adi Granth Sahib ?)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी के ऐतिहासिक महत्त्व की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Briefly explain the historical significance of Adi Granth Sahib Ji.)”
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। इसने सिखों में एक नवीन चेतना उत्पन्न की। इसमें बिना किसी जातीय भेदभाव, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन साहिब जी ने समस्त मानवता को आपसी भाईचारे का संदेश दिया। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है। यह 15वीं से 17वीं शताब्दी के पंजाब की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा को जानने के लिए हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन एवं महत्त्व के बारे में लिखें। (Write a note on the compilation and importance of Adi Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कैसे हुआ ? संक्षिप्त चर्चा करें। (How Adi Granth Sahib Ji was compiled ? Discuss in brief.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था और सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का कार्य रामसर साहिब में आरंभ किया। इसमें गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन साहिब की वाणी सम्मिलित की गई। गुरु अर्जन साहिब जी के सर्वाधिक 2,216 शबद सम्मिलित किए गए। इनके अतिरिक्त गुरु अर्जन साहिब ने कुछ अन्य संतों और भक्तों की वाणी को सम्मिलित किया। आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। गुरु गोबिंद सिंह के समय इसमें गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन सिख इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इससे सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में भिन्न-भिन्न धर्म और जाति के लोगों की रचनाएँ सम्मिलित करके एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 15वीं से 17वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति जानने के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी हमारा मुख्य स्त्रोत है। इनके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य तथा भाषाओं का एक अमूल्य खज़ाना है।

प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
(What was the need of the compilation of the Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु अर्जन साहिब जी के समय सिख धर्म का प्रसार बहुत तीव्र गति से हो रहा था। उनके नेतृत्व के लिए एक पावन धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी। दूसरा, गुरु अर्जन साहिब का बड़ा भाई पृथिया स्वयं गुरुगद्दी प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर लोगों में प्रचलित करना आरंभ कर दिया था। गुरु अर्जन साहिब गुरु साहिबान की वाणी शुद्ध रूप में अंकित करना चाहते थे ताकि सिखों को कोई संदेह न रहे। तीसरा, यदि सिखों का एक अलग राष्ट्र स्थापित करना था तो उनके लिए एक अलग धार्मिक ग्रंथ लिखा जाना भी आवश्यक था। चौथा, गुरु अमरदास जी ने भी सिखों को गुरु साहिबान की सच्ची वाणी पढ़ने के लिए कहा था। गुरु साहिब आनंदु साहिब में कहते हैं,

आवहु सिख सतगुरु के प्यारो गावहु सच्ची वाणी॥
वाणी तां गावहु गुरु केरी वाणियां सिर वाणी॥
कहे नानक सदा गावह एह सच्ची वाणी॥

इन कारणों से गुरु अर्जन साहिब जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करने की आवश्यकता अनुभव की।

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प्रश्न 5.
श्री गुरु अर्जन देव जी ने कौन-से पवित्र ग्रंथ का संपादन किया ? जानकारी दीजिए।
(Which sacred Granth was edited by Sri Guru Arjan Dev Ji ? Describe.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के संकलन तथा संपादन के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the compilation and editing of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपादन कला के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the editing art of Sri Guru Granth Sahib Ji.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को कैसे एकत्र किया गया ?
(How were the hymns collected for Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में लिखने के लिए भिन्न-भिन्न स्त्रोतों से वाणी एकत्रित की। प्रथम तीन गुरु साहिबान-गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र बाबा मोहन,जी के. पास पड़ी थी। इस वाणी को एकत्रित करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन साहिब ने पहले भाई गुरदास जी को तथा फिर बाबा बुड्डा जी को बाबा मोहन जी के पास भेजा किंतु वे अपने उद्देश्य में सफल न हो पाए। इसके पश्चात् गुरु साहिब स्वयं अमृतसर से गोइंदवाल साहिब नंगे पाँव गए। गुरु जी की नम्रता से प्रभावित होकर बाबा मोहन जी ने अपने पास पड़ी समस्त वाणी गुरु जी के सुपुर्द कर दी। गुरु रामदास जी की वाणी गुरु अर्जन देव जी के पास ही थी। गुरु साहिब ने अपनी वाणी भी शामिल की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने हिंदू भक्तों और मुस्लिम संतों के श्रद्धालुओं को अपने पास बुलाया और कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में सम्मिलित करने के लिए वे अपने संतों की सही वाणी बताए। गुरु ग्रंथ साहिब में केवल उनू भक्तों और संतों की वाणी सम्मिलित की गई जिनकी वाणी गुरु साहिबान की वाणी से मिलती-जुलती थी। लाहौर के काहना, छज्जू, शाह हुसैन और पीलू की रचनाएँ रद्द कर दी गईं।

प्रश्न 6.
आदि ग्रंथ साहिब जी के महत्त्व के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the importance of Adi Granth Sahib Ji ?)
उत्तर-

  1. सिखों के लिए महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का सिख इतिहास में एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे सिखों को एक अलग पवित्र धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हुआ। अब उनके लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों का कोई महत्त्व न रहा। इसने सिखों में जातीय चेतना की भावना उत्पन्न की और वे हिंदुओं से पूर्णतः अलग हो गए।
  2. भ्रातत्व का संदेश-आदि ग्रंथ साहिब जी विश्व में एकमात्र ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें बिना किसी जातीय, ऊँच-नीच, धर्म अथवा राष्ट्र के भेदभाव के वाणी सम्मिलित की गई है। ऐसा करके गुरु अर्जन साहिब जी ने समस्त मानव जाति को भ्रातृत्व का संदेश दिया है।
  3. साहित्यिक महत्त्व-गुरु ग्रंथ साहिब जी साहित्यिक पक्ष से एक अद्वितीय रचना है। पंजाबी साहित्य में इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इसमें सुंदर उपमाओं और अलंकारों का प्रयोग किया गया है। वास्तव में पंजाबी का जो उत्तम रूप ग्रंथ साहिब में प्रस्तुत किया गया है, उसकी तुलना उत्तरोत्तर लेखक भी नहीं कर पाए। इसी कारण इस ग्रंथ को साहित्यिक पक्ष से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
  4. ऐतिहासिक महत्त्व-आदि ग्रंथ साहिब जी निःस्संदेह एक धार्मिक ग्रंथ है किंतु फिर भी इसके गहन अध्ययन से हम 15वीं से 17वीं शताब्दी के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं।
  5. अन्य महत्त्व-ऊपरलिखित महत्त्वों के अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी के अनेक अन्य महत्त्व भी हैं। इसमें न केवल परलोक किंतु इस लोक को संवारने के लिए दिशा निर्देश दिया गया है। इसमें समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का खंडन करके संपूर्ण मानव जाति को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है। इसमें किरत करने, नाम जपने तथा बाँट छकने का संदेश दिया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ? कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-सिखों के नेतृत्व के लिए एक पवित्र ग्रंथ की आवश्यकता थी।

प्रश्न 2. गुरु अर्जन देव जी ने प्रथम तीन गुरुओं की वाणी किससे प्राप्त की थी ?
उत्तर-बाबा मोहन जी से।

प्रश्न 3. बाबा मोहन जी कौन थे ?
उत्तर- बाबा मोहन जी गुरु अमरदास जी के बड़े सुपुत्र थे।

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और किसने किया था ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम संकलन किसने तथा कब किया ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस गुरु साहिब ने किया ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में किया।

प्रश्न 5. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस वर्ष तथा किस स्थान पर हुआ ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संपादन कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में रामसर में हुआ।

प्रश्न 6. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन किसने, कब तथा कहाँ किया ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन गुरु अर्जन देव जी ने 1604 ई० में रामसर नामक स्थान पर किया।

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प्रश्न 7. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने के लिए गुरु अर्जन देव जी के साथ लेखक कौन था ?
उत्तर-भाई गुरदास जी।

प्रश्न 8. आदि ग्रंथ साहिब जी के प्रथम संपादक कौन थे ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 9. पहली बीड़ की रचना किसने तथा कहाँ की ?
उत्तर-पहली बीड़ की रचना गुरु अर्जन देव जी ने रामसर में की।

प्रश्न 10. प्रथम बीड़ की रचना किस वर्ष तथा किस स्थान पर की गई ?
उत्तर–प्रथम बीड़ की रचना 1604 ई० में रामसर में की गई।

प्रश्न 11. दूसरी बीड़ की रचना किसने तथा कहाँ की ?
उत्तर-दूसरी बीड़ की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दमदमा साहिब नामक स्थान पर की।

प्रश्न 12. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपूर्णता कब और कहाँ हुई ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की संपूर्णता 1706 ई० में तलवंडी साबो नामक स्थान में हुई।

प्रश्न 13. दूसरी बीड़ के लेखक कौन थे ?
उत्तर-भाई मनी सिंह जी।

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
उत्तर-हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में।

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कब किया गया था ?
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश किस वर्ष हुआ ?
उत्तर-16 अगस्त, 1604 ई० को।

प्रश्न 16. दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-बाबा बुड्ढा जी।

प्रश्न 17. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने महापुरुषों ने अपना योगदान दिया ?
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के कितने योगदानी हैं ?
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने रचयिता हैं ?
उत्तर-36 महापुरुषों ने।

प्रश्न 18. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने सिख गुरु साहिबान की वाणी शामिल है ?
उत्तर-6 सिख गुरु साहिबान की।

प्रश्न 19. किन्हीं दो सिख गुरुओं के नाम लिखें जिनकी वाणी गुरु ग्रंथ साहिब जी में है ?
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी
  2. गुरु अंगद देव जी।

प्रश्न 20. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-976 शबद।

प्रश्न 21. आदि ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक शब्द किस सिख गुरु के हैं ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी के।

प्रश्न 22. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-2216 शबद।

प्रश्न 23. आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों की वाणी सम्मिलित की गई है ?
उत्तर-15 भक्तों की।

प्रश्न 24. गुरु ग्रंथ साहिब जी में जिन भक्तों की वाणी दर्ज है उनमें से किन्हीं दो के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. कबीर जी
  2. फ़रीद जी।

प्रश्न 25. आदि ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक शबद किस भक्त के हैं ?
अथवा
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में सबसे अधिक कौन-से भक्त की वाणी दर्ज है ?
उत्तर-भक्त कबीर जी के।

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प्रश्न 26. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के कितने शबद हैं ?
उत्तर-541 शबद।

प्रश्न 27. आदि ग्रंथ साहिब जी में बाबा फरीद जी के कितने श्लोक व शबद शामिल हैं ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी में बाबा फरीद जी के 112 श्लोक व 4 शबद शामिल हैं।

प्रश्न 28. आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भाटों की वाणी शामिल है ?
उत्तर-11 भाटों की।

प्रश्न 29. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों और भाटों की वाणी शामिल है ?
उत्तर- श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में 15 भक्तों और 11 भाटों की वाणी शामिल है।

प्रश्न 30. आदि ग्रंथ साहिब जी में किनकी वाणी को सम्मिलित नहीं किया गया है ?
उत्तर-

  1. कान्हा,
  2. छज्जू,
  3. शाह हुसैन,
  4. पीलू।

प्रश्न 31. आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल कितने पन्ने हैं ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल 1430 पन्ने हैं।

प्रश्न 32. गुरु ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने रागों के अधीन वाणी अंकित है ?
उत्तर-31 रागों के।

प्रश्न 33. गुरु ग्रंथ साहिब जी में प्रयोग किए गए किन्हीं दो रागों के नाम बताएँ।
उत्तर-रामकली तथा बसंत।।

प्रश्न 34. गुरु ग्रंथ साहिब जी का आरंभ किस रचना से होता है ?
उत्तर-जपुजी साहिब।

प्रश्न 35. जपुजी साहिब की रचना किसने की ?
उत्तर-जपुजी साहिब की रचना गुरु नानक देव जी ने की।

प्रश्न 36. सुखमनी साहिब की रचना किसने की ?
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 37. आदि ग्रंथ साहिब जी का मुख्य विषय क्या है ?
उत्तर-परमात्मा की उपासना।

प्रश्न 38. आदि ग्रंथ साहिब जी की लिपि का नाम लिखो।
उत्तर-गुरुमुखी।

प्रश्न 39. किन्हीं दो भाषाओं के नाम लिखें जिनका प्रयोग आदि ग्रंथ साहिब जी में किया गया है ?
उत्तर-

  1. पंजाबी
  2. फ़ारसी।

प्रश्न 40. सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी।

प्रश्न 41. गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी किसने दी ?
उत्तर-गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी गुरु गोबिंद सिंह जी ने दी।

प्रश्न 42. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी कब तथा किसने दी ?
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु की पदवी 6 अक्तूबर, 1708 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने दी।

प्रश्न 43. आदि ग्रंथ साहिब जी का कोई एक महत्त्व बताओ।
उत्तर-आदि ग्रंथ साहिब जी ने संपूर्ण जाति को सांझीवालता का संदेश दिया।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. में किया गया था।
उत्तर-1604 ई०

प्रश्न 2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन ……….. ने किया था।
उत्तर–गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 3. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य ………. में किया गया था।
उत्तर-रामसर

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य ……….. ने किया।
उत्तर-भाई गुरदास जी

प्रश्न 5. आदि ग्रंथ साहिब जी का पहला प्रकाश ………. में किया गया था।
उत्तर-हरिमंदिर साहिब

प्रश्न 6. ……….. को हरिमंदिर साहिब का पहला मुख्य ग्रंथी नियुक्त किया गया।
उत्तर-बाबा बुड्ढा जी

प्रश्न 7. ………. ने आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ को तैयार किया था।
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रश्न 8. …….. ने आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया।
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रश्न 9. आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल …….. महापुरुषों के शबद हैं।
उत्तर-36

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 10. आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु नानक देव जी के ……….. शबद हैं।
उत्तर-976

प्रश्न 11. आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शबद ……… के हैं।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 12. आदि ग्रंथ साहिब जी में ………. हिंदू भगतों और मुस्लिम संतों की बाणी दर्ज है।
उत्तर-15

प्रश्न 13. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के ………. शबद हैं।
उत्तर-541

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी के कुल ……….. ‘पृष्ठ हैं।
उत्तर-1430

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को ……… रागों में विभाजित किया गया है।
उत्तर-31

प्रश्न 16. आदि ग्रंथ साहिब जी को ………. लिपि में लिखा गया है।
उत्तर-गुरमुखी

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु रामदास जी ने किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 2. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1675 ई० में किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. आदि ग्रंथ साहिब जी के लेखन का कार्य भाई गुरदास जी ने किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. आदि ग्रंथ साहिब का प्रथम प्रकाश आनंदपुर साहिब में किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. बाबा बुड्डा जी हरिमंदिर साहिब के पहले मुख्य ग्रंथी थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ गुरु गोबिंद सिंह जी ने तैयार करवाई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. आदि ग्रंथ साहिब में 36 महापुरुषों की बाणी संकलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 8. आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शब्द गुरु नानक देव जी के हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 9. आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल 6 सिख गुरुओं की बाणी सम्मिलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. आदि ग्रंथ साहिब जी में पाँच भक्तों और मुस्लिम संतों की बाणी सम्मिलित है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 11. आदि ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी के 541 शब्द हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. आदि ग्रंथ साहिब जी में 11 भाटों की बाणी संकलित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. आदि ग्रंथ साहिब के कुल 1420 पृष्ठ हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 14. आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को 31 रागों के अनुसार विभाजित किया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 15. आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरमुखी लिपि में लिखा गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किस ने किया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iii) गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 2.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब किया गया था ?
(i) 1604 ई०
(ii) 1605 ई०
(iii) 1606 ई०
(iv) 1675 ई०।
उत्तर-
(i) 1604 ई०

प्रश्न 3.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कहाँ किया गया था ?
(i) गंगासर में
(ii) रामसर में
(iii) गोइंदवाल साहिब में
(iv) तरनतारन में।
उत्तर-
(ii) रामसर में

प्रश्न 4.
आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखते समय किसने गुरु अर्जन देव जी की सहायता की ?
(i) बाबा बुड्डा जी
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) भाई गुरदास जी
(iv) बाबा दीप सिंह जी।
उत्तर-
(iii) भाई गुरदास जी

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 6 आदि ग्रंथ

प्रश्न 5.
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
(i) हरिमंदिर साहिब में
(ii) ननकाना साहिब में
(iii) श्री आनंदपुर साहिब में
(iv) पंजा साहिब में।
उत्तर-
(i) हरिमंदिर साहिब में

प्रश्न 6.
हरिमंदिर साहिब के प्रथम मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
(i) भाई गुरदास जी
(ii) बाबा बुड्डा जी
(iii) मीयाँ मीर जी
(iv) भाई मनी सिंह जी।
उत्तर-
(ii) बाबा बुड्डा जी

प्रश्न 7.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने सिख गुरुओं की बाणी सम्मिलित है ?
(i) 5
(ii) 6
(iii) 8
(iv) 10.
उत्तर-
(ii) 6

प्रश्न 8.
आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी के कितने शबद दिए गए हैं ?
(i) 689
(ii) 907
(iii) 976
(iv) 2216.
उत्तर-
(iv) 2216.

प्रश्न 9.
आदि ग्रंथ साहिब जी में निम्नलिखित में से किस भक्त के सर्वाधिक शबद थे ?
(i) फ़रीद जी
(ii) नामदेव जी
(iii) कबीर जी
(iv) गुरु रविदास जी।
उत्तर-
(iii) कबीर जी

प्रश्न 10.
आदि ग्रंथ साहिब जी में बाणी को कितने रागों में विभाजित किया गया है ?
(i) 11
(ii) 21
(iii) 30
(iv) 31.
उत्तर-
(iv) 31.

प्रश्न 11.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कुल कितने पृष्ठ हैं ?
(i) 1405
(ii) 1420
(iii) 1430
(iv) 1440.
उत्तर-
(iii) 1430

प्रश्न 12.
आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा किसने दिया था ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।

प्रश्न 13.
आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा कब दिया गया था ?
(i) 1604 ई०
(ii) 1675 ई०
(iii) 1705 ई०
(iv) 1708 ई०।
उत्तर-
(iv) 1708 ई०।

प्रश्न 14.
आदि ग्रंथ साहिब जी की दूसरी बीड़ को किसने लिखा था ?
(i) भाई गुरदास जी ने
(ii) भाई मनी सिंह जी ने
(iii) बाबा बुड्डा जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(ii) भाई मनी सिंह जी ने

प्रश्न 15.
आदि ग्रंथ साहिब जी को किस भाषा में लिखा गया था ?
(i) गुरमुखी
(ii) हिंदी
(iii) अंग्रेज़ी
(iv) संस्कृत।
उत्तर-
(i) गुरमुखी

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक प्रशासन (Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के सिविल प्रबंध के बारे में विवरण दें।
(Give a brief account of the Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सिविल प्रबंध का वर्णन करें। (Describe the Civil Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन प्रबंध का विस्तार सहित वर्णन करो।
(Explain in detail the Central and Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन का वर्णन कीजिए। (Describe the Central and Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय व स्थानीय शासन प्रबंध का विस्तृत ब्योरा दें।
(Give a detailed description of Maharaja Ranjit Singh’s Provincial and Local Administration.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय शासन का विस्तारपूर्वक वर्णन करो। (Describe in detail the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह न केवल एक महान् विजेता था अपितु एक उच्चकोटि का शासन प्रबंधक भी . था। उसके सिविल अथवा नागरिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
I. केंद्रीय शासन प्रबंध (Central Administration)
(क) महाराजा (The Maharaja)-महाराजा समूचे केंद्रीय प्रशासन का धुरा था। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा गैर-सैनिक अधिकारियों की नियुक्तियाँ करता था। वह अपनी इच्छानुसार किसी को भी उसके पद से अलग कर सकता था। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश था। उसके मुख से निकला हुआ हर शब्द प्रजा के लिये कानून बन जाता था। कोई भी व्यक्ति उसके आदेश का उल्लंघन करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। वह मुख्य सेनापति भी था तथा राज्य की सारी सेना उसके इशारे पर चलती थी। उसको युद्ध की घोषणा करने या संधि करने का अधिकार था। वह अपनी प्रजा पर नए कर लगा सकता था अथवा पुराने करों को कम या माफ कर सकता था। संक्षिप्त में महाराजा की शक्तियाँ किसी निरंकुश शासक से कम नहीं थीं परंतु महाराजा कभी भी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता था।

(ख) मंत्री (Ministers)-प्रशासन प्रबंध की कुशलता के लिये महाराजा ने एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया हुआ था। केवल योग्य एवं ईमानदार व्यक्तियों को ही मंत्री पद पर नियुक्त किया जाता था। इन मंत्रियों की नियुक्ति महाराजा स्वयं करता था। ये मंत्री अपने-अपने विभागों के संबंध में महाराजा को परामर्श देते थे। महाराजा के लिये उनके परामर्श को स्वीकार करना आवश्यक नहीं था। महाराजा के महत्त्वपूर्ण मंत्री निम्नलिखित थे
1. प्रधानमंत्री (Prime Minister) केंद्र में महाराजा के पश्चात् दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान प्रधानमंत्री का था। वह राज्य के सभी राजनीतिक मामलों में महाराजा को परामर्श देता था। वह राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण विभागों की देखभाल करता था। वह महाराजा की अनुपस्थिति में उसका प्रतिनिधित्व करता था। वह अपनी अदालत लगाकर मुकद्दमों का निर्णय भी करता था। हर प्रकार के प्रार्थना-पत्र उसके द्वारा ही महाराजा तक पहुँचाये जाते थे। वह महाराजा के सभी आदेशों को लागू करवाता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस पद पर अधिक देर तक राजा ध्यान सिंह रहा।

2. विदेश मंत्री (Foreign Minister)-महाराजा रणजीत सिंह के समय विदेश मंत्री का पद भी बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह विदेश नीति को तैयार करता था। वह महाराजा को दूसरी शक्तियों के साथ युद्ध एवं संधि के संबंध में परामर्श देता था। वह विदेशों से आने वाले पत्र महाराजा को पढ़कर सुनाता तथा महाराजा के आदेशानुसार उन पत्रों का जवाब भेजता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय विदेश मंत्री के पद पर फकीर अजीजउद्दीन लगा हुआ था।

3. वित्त मंत्री (Finance Minister)-वित्त मंत्री महाराजा के महत्त्वपूर्ण मंत्रियों में से एक था तथा उसको दीवान कहा जाता था। उसका मुख्य कार्य राज्य की आय तथा व्यय का ब्योरा रखना था। सभी विभागों के व्ययों आदि से संबंधित सभी कागज़ पहले दीवान के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध वित्त मंत्री दीवान भवानी दास, दीवान गंगा राम तथा दीवान दीनानाथ थे।

4. मुख्य सेनापति (Commander-in-Chief)-महाराजा रणजीत सिंह अपनी सेना का स्वयं ही मुख्य सेनापति था। विभिन्न अभियानों के समय महाराजा विभिन्न व्यक्तियों को सेनापति नियुक्त करता था। उनका मुख्य कार्य युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करना तथा उनमें अनुशासन रखना था। दीवान मोहकम चंद, मिसर दीवान चंद तथा सरदार हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के प्रख्यात सेनापति थे।

5. डियोढ़ीवाला (Deorhiwala)—डियोढ़ीवाला शाही राजवंश तथा राज दरबार की देखभाल करता था। उसकी अनुमति के बिना कोई व्यक्ति महलों के अंदर नहीं जा सकता था। इसके अतिरिक्त वह महाराजा के महलों के लिये पहरेदारों का भी प्रबंध करता था। इसके अतिरिक्त वह जासूसों का भी उचित प्रबंध करता था। महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध डियोढ़ीवाला जमादार खुशहाल सिंह था।

(ग) केंद्रीय विभाग या दफ्तर (Central Departments or Daftars)-महाराजा रणजीत सिंह ने प्रशासन की सुविधा के लिये केंद्रीय शासन प्रबंध को देखभाल के लिए विभिन्न विभागों या दफ्तरों में बाँटा हुआ था। इनकी संख्या के बारे में इतिहासकारों में विभिन्नता है। डॉ० जी० एल० चोपड़ा के अनुसार इनकी संख्या 15, डॉ० एन० के० सिन्हा के अनुसार 12 तथा डॉ० सीताराम कोहली के अनुसार 7 थी। इनमें से मुख्य दफ्तर निम्नलिखित थे—

  1. दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल (Daftar-i-Abwab-ul-Mal) यह दफ्तर राज्य के विभिन्न स्रोतों से होने वाली आय का ब्योरा रखता था।
  2. दफ्तर-ए-माल (Daftar-i-Mal)-यह दफ्तर विभिन्न परगनों से प्राप्त किये गये भूमि लगान का ब्योरा रखता था।
  3. दफ्तर-ए-वजुहात (Daftar-i-Wajuhat)-यह दफ्तर अदालतों के शुल्क, अफीम, भाँग तथा अन्य नशे वाली वस्तुओं पर लगे राजस्व से प्राप्त होने वाली आय का ब्योरा रखता था।,
  4. दफ्तर-ए-तोजिहात (Daftar-i-Taujihat)-यह दफ्तर शाही वंश की आय का ब्योरा रखता था।
  5. दफ्तर-ए-मवाजिब (Daftar-i-Mawajib) यह दफ्तर सैनिक तथा सिविल कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतनों का ब्योरा रखता था।
  6. दफ्तर-ए-रोजनामचा-इखराजात (Daftar-i-Roznamcha-i-Ikhrarat)—यह दफ्तर राज्य की दैनिक होने वाली आय का ब्योरा रखता था।

II. प्रांतीय प्रबंध (Provincial Administration)
महाराजा रणजीत सिंह ने शासन प्रबंध की कुशलता के लिए राज्य को चार बड़े सूबों में बाँटा हुआ था। इन सूबों के नाम ये थे—

  1. सूबा-ए-लाहौर,
  2. सूबा-ए-मुलतान,
  3. सूबा-ए-कश्मीर,
  4. सूबा-ए-पेशावर।

नाज़िम सूबे का मुख्य अधिकारी होता था। नाज़िम का मुख्य कार्य अपने अधीन प्रांत में शांति बनाये रखना था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों पर नज़र रखता था। वह भूमि का लगान एकत्र करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। वह जिलों के कारदारों के कार्यों पर नज़र रखता था। इस तरह नाज़िम के पास असंख्य अधिकार थे, परंतु वह उनका दुरुपयोग नहीं कर सकता था। महाराजा अपनी इच्छानुसार नाज़िम को स्थानांतरित कर सकता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय–

  1. सरदार लहना सिंह मजीठिया,
  2. मिसर रूप लाल,
  3. दीवान सावन मल,
  4. करनैल मीहा सिंह,
  5. अवीताबिल नाज़िम थे।

III. स्थानीय प्रबंध (Local Administration)
1. परगनों का शासन प्रबंध (Administration of the Parganas)-प्रत्येक प्रांत को आगे कई परगनों में बाँटा गया था। परगने का मुख्य अधिकारी कारदार होता था। कारदार का लोगों के साथ प्रत्यक्ष संबंध था। उसकी स्थिति आजकल के डिप्टी कमिश्नर की तरह थी। उसको असंख्य कर्त्तव्य निभाने पड़ते थे। कारदार के मुख्य कार्य परगने में शाँति स्थापित करना, महाराजा के आदेशों की पालना करवाना, लगान एकत्र करना, लोगों के हितों का ध्यान रखना तथा दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनना था। कारदार की सहायता के लिए कानूनगो तथा मुकद्दम नामक कर्मचारी नियुक्त किए जाते थे।

2. गाँव का प्रबंध (Village Administration)-प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसे उस समय मौजा कहते थे। गाँवों का प्रबंध पंचायत चलाती थी। पंचायत ग्रामीणों की देखभाल करती थी तथा उनके झगड़ों का समाधान करती थी। लोग पंचायतों को भगवान् का रूप समझते थे तथा उनके निर्णयों को स्वीकार करते थे। पटवारी गाँव की भूमि का रिकॉर्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था। वह सरकार एवं लोगों के मध्य एक कड़ी का काम करता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

3. लाहौर शहर का प्रबंध (Administration of the City of Lahore)-महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रबंध अन्य शहरों से अलग ढंग से किया जाता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी ‘कोतवाल’ होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस पद पर इमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना, शहर में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देखभाल करना, व्यापार एवं उद्योग का ध्यान रखना, नाप-तोल की वस्तुओं पर नज़र रखना आदि थे। सारे शहर को मुहल्लों में बाँटा गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अधीन होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफ़ाई का प्रबंध करता था।

IV. लगान प्रबंध (Land Revenue Administration)
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने इस ओर अपना विशेष ध्यान दिया। लगान एकत्र करने की निम्नलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं—

  1. बटाई प्रणाली (Batai System)-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार फसल काटने के उपरांत अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।
  2. कनकूत प्रणाली (Kankut System)-1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को लागू किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फ़सल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।
  3. बोली देने की प्रणाली (Bidding System)—इस प्रणाली के अंतर्गत अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।
  4. बीघा प्रणाली (Bigha System)—इस प्रणाली के अंतर्गत एक बीघा की उपज के आधार पर लगान निश्चित किया जाता था।
  5. हल प्रणाली (Plough System)-इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।
  6. कुआँ प्रणाली (Well System)—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था।

भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फसलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं।

v. न्याय प्रबंध (Judicial Administration)
महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध बहुत साधारण था। कानून लिखित नहीं थे। न्याय उस समय की परंपराओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार किया जाता था। न्याय के संबंध में अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने राज्य भर में कई अदालतें स्थापित की थीं।

महाराजा के उपरांत राज्य की सर्वोच्च अदालत का नाम अदालते-आला था। यह नाज़िम तथा परगनों में कारदार की अदालतें दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनती थीं। न्याय के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने विशेष अधिकारी भी नियुक्त किए थे जिनको अदालती कहा जाता था। अधिकाँश शहरों तथा कस्बों में काज़ी की अदालत भी कायम थी। यहाँ न्याय के लिए मुसलमान तथा गैर-मुसलमान लोग जा सकते थे। गाँवों में पंचायतें झगड़ों का निर्णय स्थानीय परंपराओं के अनुसार करती थीं। महाराजा रणजीत सिंह के समय दंड कठोर नहीं थे। मृत्यु दंड किसी को भी नहीं दिया जाता था। अधिकतर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाता था। परंतु बार-बार अपराध करने वालों के हाथ, पैर, नाक आदि काट दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध उस समय के अनुकूल था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह की वित्तीय व्यवस्था (Financial Adminisration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के वित्तीय प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ बताएँ। (Discuss the salient features of Maharaja Ranjit Singh’s Financial Adminisration.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की आर्थिक व्यवस्था का विस्तार सहित वर्णन करें। (Describe the Financial System of Maharaja Ranjit Singh in detail.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की भू-राजस्व प्रणाली की चर्चा करें। (Discuss the Land Revenue System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर–
प्रत्येक राज्य को अपना शासन-प्रबंध चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। ऐसा धन एक योजनाबद्ध वित्तीय प्रणाली द्वारा एकत्रित किया जाता है। आरंभ में रणजीत सिंह ने खजाने की कोई नियमित व्यवस्था नहीं की हुई थी। 1808 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने वित्तीय संरचना में सुधार लाने के लिए दीवान भवानी दास को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया। महाराजा रणजीत सिंह के काल की वित्तीय व्यवस्था का वर्णन इस प्रकार है—

I. लगान प्रबंध (Land Revenue Administration)—महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। राज्य की कुल वार्षिक होने वाली तीन करोड़ रुपए की आय में से लगभग दो करोड़ रुपये भूमि लगान के होते थे। उस समय लगान एकत्र करने की निम्नलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं
1. बटाई प्रणाली (Batai System)—इस प्रणाली के अंतर्गत फसल काटने के उपरांत सरकार अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।

2. कनकूत प्रणाली (Kankut System)-1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को विकसित किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फसल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।

3. बोली देने की प्रणाली (Bidding System)-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार की ओर से अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।

4. हल प्रणाली (Plough System)—इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।

5. कुआँ प्रणाली (Well System)—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था। – भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फ़सलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं। हम डॉक्टर बी० जे० हसरत के विचार से सहमत हैं,

“रणजीत सिंह का लगान प्रबंध न तो अधिक दयापूर्ण था तथा न ही दयाहीन परंतु यह व्यावहारिक और उस समय के अनुकूल था।”1

1. “Neither unduly benevolent nor exceedingly oppressive, the land revenue system of Ranjit Singh was highly practical and suited to the requirements of the time.” Dr. B.J. Hasrat, Life and Times of Maharaja Ranjit Singh (Hoshiarpur : 1968). p.306.

2. सरकार की आय के अन्य साधन (Other Sources of Government Income)-महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि लगान के अतिरिक्त निम्नलिखित स्रोतों से भी आय होती थी—
1. चुंगी कर (Custom Duties)-राज्य की आय का दूसरा स्रोत चुंगी कर था। प्रत्येक वस्तु पर चुंगी लगाई जाती थी, जिससे 17 लाख रुपय वार्षिक आय होती थी।

2. नज़राना (Nazrana)-नज़राना भी राज्य की आय का मुख्य स्रोत था। यह राज्य के उच्चाधिकारी तथा अन्य लोग, महाराजा को विभिन्न अवसरों पर देते थे।

3. ज़ब्ती (Zabti)-ज़ब्ती से राज्य को काफ़ी आय प्राप्त होती थी। महाराजा रणजीत सिंह अपराधियों की संपत्ति जब्त कर लेता था। इसके अतिरिक्त जागीरदारों की मृत्यु के बाद उनकी जागीरें भी जब्त कर ली जाती थीं।

4. अदालतों से आय (Income from Judiciary)-अदालती आय भी राज्य की आय का एक अच्छा साधन था। दोषियों से सरकार जुर्माना लेती थी और निर्दोष प्रमाणित होने वाले व्यक्तियों से शुक्राना प्राप्त करती थी।

5. आबकारी (Excise)-आबकारी कर अफ़ीम, भाँग, शराब तथा अन्य मादक पदार्थों पर लगाया जाता था। (च) नमक से आय (Income from Salt)—केवल सरकार को खानों से नमक निकालने तथा बेचने का अधिकार था। इससे भी सरकार को कुछ आय होती थी।

6. अबवाब (Abwabs) अबवाब वे कर थे, जो भूमि लगान के साथ-साथ उगाहे जाते थे। ये प्रायः भूमि लगान का 5% से 15% भाग होते थे।

7. व्यवसाय कर (Professional Tax)-महाराजा रणजीत सिंह की सरकार ने विभिन्न व्यवसायों के लोगों पर व्यवसाय कर लगाया था। यह कर व्यापारियों पर एक रुपए से दो रुपए प्रति व्यापारी होता था।

व्यय (Expenditure)—महाराजा रणजीत सिंह के समय सरकार अपनी आय शासन संचालन, युद्ध-सामग्री तैयार करने, अधिकारियों को वेतन देने, कृषि को उन्नत करने, सरकारी योजनाओं, धर्मार्थ कार्यों तथा पुरस्कार आदि पर व्यय करती थी।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा (Jagirdari System of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा पर चर्चा करें। (Discuss about the Jagirdari System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
जागीरदारी प्रथा महाराजा रणजीत सिंह से पहले भी सिख मिसलों में प्रचलित थी, परंतु महाराजा ने इस प्रथा को नया रूप दिया। महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी प्रथा की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

जागीरों की किस्में (Kinds of Jagirs)
महाराजा रणजीत सिंह के समय निम्नलिखित प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं—
1. सेवा जागीरें (Service Jagirs)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में सेवा जागीरें सब से महत्त्वपूर्ण थीं और इनकी संख्या भी सर्वाधिक थी। सभी सेवा जागीरें चाहे वह सैनिक हों अथवा असैनिक महाराजा की प्रसन्नता पर्यंत रहने तक रखी जा सकती थीं। इन जागीरों को घटाया अथवा बढ़ाया अथवा जब्त किया जा सकता था। सेवा जागीरें सैनिकों तथा असैनिक अधिकारियों को दी जाती थीं। इन जागीरों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

i) सैनिक जागीरें (Military Jagirs)—सैनिक जागीरें वे जागीरें थीं जिसमें जागीरदारों को राज्य की सेवा के लिए कुछ निश्चित घुड़सवार रखने पड़ते थे। इन जागीरदारों को अपनी निजी सेवाओं के बदले मिलने वाले वेतन तथा घुड़सवारों पर किए जाने वाले व्यय के बदले राज्य की ओर से जागीरें दी जाती थीं। महाराजा रणजीत सिंह इस बात का विशेष ध्यान रखता था कि प्रत्येक सैनिक जागीरदार अपने अधीन सरकार की ओर से निश्चित की गई संख्या में घुड़सवार अवश्य रखे। इसके लिए समय-समय पर जागीरदारों के घुड़सवारों का निरीक्षण किया जाता था। जिन जागीरदारों ने कम घुड़सवार रखे होते थे, उन्हें दंड दिया जाता था। 1830 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने घोड़ों को दागने का काम भी आरंभ कर दिया था।

ii) सिविल जागीरें (Civil Jagirs)–सिविल जागीरें राज्य के सिविल अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के स्थान पर दी जाती थीं। इन जागीरों से उन्हें लगान एकत्र करने का अधिकार प्राप्त था। सिविल जागीरदारों को अपने अधीन कोई निश्चित घुड़सवार नहीं रखने पड़ते थे। सिविल जागीरों की संख्या बहुत अधिक थी।

2. ईनाम जागीरें (Inam Jagirs)-ईनाम जागीरें वे जागीरें थीं, जोकि महाराजा रणजीत सिंह लोगों को उनकी विशेष सेवाओं के बदले अथवा विशेष कार्यों के बदले पुरस्कार के रूप में प्रदान करता था। ईनाम जागीरें । प्राय: स्थायी होती थीं।

3. गुजारा जागीरें (Subsistence Jagirs)—गुज़ारा जागीरें वे जागीरें थीं जो कि महाराजा लोगों को गुज़ारे अथवा आजीविका के लिए देता था। ऐसी जागीरों के लिए महाराजा किसी सेवा की आशा नहीं रखता था। ये जागीरें प्रायः महाराजा के संबंधियों, पराजित शासकों व उनके आश्रितों तथा जागीरदारों के आश्रितों को गुज़ारे के लिए दी जाती थीं। गुज़ारा जागीरें भी प्रायः ईनाम जागीरों की भाँति पैतृक अथवा स्थायी होती थीं।

4. वतन जागीरें (Watan Jagirs) वतन जागीरों को पट्टीदार जागीरें भी कहा जाता था। ये वे जागीरें होती थीं जो कि किसी जागीरदार को उसके अपने गाँव में दी जाती थीं। ये जागीरें सिख मिसलों के समय से चली आ रही थीं। ये जागीरें पैतृक (Hereditary) होती थीं। महाराजा रणजीत सिंह ने इन वतन जागीरों को जारी रखा. परंतु उसने कुछ वतन जागीरदारों को राज्य की सेवा के लिए कुछ घुड़सवार रखने का आदेश दिया था।

5. धर्मार्थ जागीरें (Dharmarth Jagirs) धर्मार्थ जागीरें वे जागीरें थीं जो धार्मिक संस्थाओं तथा गुरुद्वारों, मंदिरों और मस्जिदों अथवा धार्मिक व्यक्तियों को दी जाती थीं। धार्मिक संस्थाओं को दी गई धर्मार्थ जागीरों की आय यात्रियों के आवास, उनके लिए भोजन तथा पवित्र स्थानों के रख-रखाव पर व्यय की जाती थी। धर्मार्थ जागीरें स्थायी रूप से दी जाती थीं।

जागीरदारी प्रणाली की अन्य विशेषताएँ (Other Features of the Jagirdari System)
1. जागीरों का आकार (Size of the Jagirs) सभी जागीरों चाहे वे किसी भी वर्ग से संबंधित थीं, के आकार में बहुत अंतर था, परंतु यह अंतर सर्वाधिक सेवा जागीरों में था। सेवा जागीर एक गाँव के बराबर अथवा उसका कोई भाग या कुछ एकड़ से लेकर सारे जिले के समान बड़ी हो सकती थीं।

2. जागीरों का प्रबंध (Administration of the Jagirs)-जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से या तो जागीरदार स्वयं या अप्रत्यक्ष रूप से अपने एजेंटों के द्वारा करते थे। छोटी-छोटी जागीरों का प्रबंध तो जागीरदार स्वयं अथवा उनकी अनुपस्थिति में उनके परिवार के सदस्य करते थे, परंतु बहुत बड़ी जागीरें, जो कई क्षेत्रों में फैली होती थीं, उनका प्रबंध जागीरदार स्वयं अकेला नहीं कर सकता था, इसलिए जागीरों के प्रबंध की देख-रेख के लिए वह मुख्तारों की नियुक्ति करता था। जागीरदार अथवा उनके एजेंट सरकार द्वारा निश्चित किया गया लगान अपनी जागीरों . से एकत्र करते थे। जागीरदारों को इस बात का ध्यान रखना होता था कि उनके अधीन कार्यरत किसान अथवा श्रमिक उनसे रुष्ट न हों।

3. जागीरदारों के कर्त्तव्य (Duties of Jagirdars)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदार न केवल अपने अधीन जागीर में से लगान एकत्रित करने का कार्य करते थे, बल्कि उस जागीर में निवास करने वाले लोगों के न्याय संबंधी मामलों का निर्णय भी करते थे। कई बार महाराजा इन जागीरदारों में से वीर जागीरदारों को छोटेमोटे सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी सौंप देता था। कई बार महाराजा अपने अंतर्गत क्षेत्रों से शेष लगान एकत्रित करने की ज़िम्मेदारी जागीरदारों को सौंप देता था। कुछ जागीरदारों को कूटनीतिक मिशनों के लिए भेजा जाता था तथा कुछ अन्य को बाहर से आने वाले महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के स्वागत की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को बहुत-सी शक्तियाँ प्राप्त थीं।

जागीरदारी प्रणाली के गुण (Merits of the Jagirdari System)
1. लगान एकत्रित करने के झमेले से मुक्त (Free from the burden of Collecting Revenue)महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य के बहुत-से सिविल व सैनिक कर्मचारियों को जागीरें दी गई थीं। इन जागीरदारों को अपने अंतर्गत जागीर से भूमि का लगान एकत्रित करने का अधिकार दिया जाता था। इसलिए सरकार इन क्षेत्रों से लगान एकत्रित करने के झमेले से मुक्त हो जाती थी।

2. विशाल सेना का तैयार होना (A large force was prepared)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जिन जागीरदारों को सैनिक जागीरें दी गई थीं, उन्हें राज्य की सेवा के लिए सैनिक रखने पड़ते थे। महाराजा समय-समय पर इन सैनिकों का निरीक्षण भी करता था। जागीरदार आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों को महाराजा की सहायता के लिए भेजते थे। जागीरदारों के सैनिकों के कारण महाराजा रणजीत सिंह की एक विशाल सेना तैयार हो गई थी।

3. शासन व्यवस्था में सहायता (Help in the Administration)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदार न केवल लगान एकत्रित करने का ही कार्य करते थे, बल्कि अपने अधीन जागीर में वे सभी न्यायिक मामलों का भी निपटारा करते थे। इन जागीरदारों को नज़राना एकत्रित करने अथवा महाराजा के अधीन क्षेत्रों में शेष रहता लगान एकत्रित करने का अधिकार भी दिया जाता था। राज्य में शांति बनाए रखने के लिए वे छोटे-छोटे सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी करते थे। इस प्रकार ये जागीरदार महाराजा रणजीत सिंह की राज्य व्यवस्था चलाने में सहायक सिद्ध होते थे।

4. रणजीत सिंह की निरंकुशता पर अंकुश (Restriction on the despotism of Ranjit Singh)जागीरदारी प्रथा ने महाराजा रणजीत सिंह की असीमित शक्तियों पर अंकुश लगाने का भी कार्य किया था। क्योंकि महाराजा अपनी राज्य-व्यवस्था चलाने के लिये जागीरदारों की सहायता प्राप्त करता था, इसलिए वह स्वेच्छा से शासन नहीं कर सकता था। उसे जागीरदारों की प्रसन्नता का ध्यान रखना पड़ता था।

जागीरदारी प्रणाली के अवगुण (Demerits of the Jagirdari System)
1. सेना में एकता का अभाव (Lack of unity in the Army)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों के पास अपनी सेना होती थी। इस सेना में जागीरदार अपनी इच्छानुसार भर्ती करते थे। प्रत्येक जागीरदार के अंतर्गत इन सैनिकों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण एक जैसा नहीं होता था जिस कारण उनमें परस्पर तालमेल नहीं होता था। इसके अतिरिक्त ये सैनिक महाराजा की बजाए अपने जागीरदारों के प्रति अधिक वफ़ादार होते थे।

2. कृषकों का शोषण (Exploitation of Peasants)-जागीरदारों को अपने अधीन जागीर में से भूमि का लगान एकत्रित करने का अधिकार होता था। ये जागीरदार कृषकों से अधिक-से-अधिक लगान एकत्रित करने का प्रयास करते थे। बड़े जागीरदार प्रायः ठेकेदारों से निश्चित राशि लेकर उन्हें लगान एकत्रित करने की आज्ञा दे देते थे। ये ठेकेदार अधिक-से-अधिक लाभ कमाने के लिए कृषकों का बहुत शोषण करते थे।

3. जागीरदार ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे (Jagirdars used to lead a Luxurious Life) क्योंकि बड़े-बड़े जागीरदार बहुत धनवान् होते थे, इसलिए वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वे अपने महलों में रंगरलियाँ तथा जश्न मनाते रहते थे। इसका एक कारण यह भी था कि इन जागीरदारों को मालूम था कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी जागीर ज़ब्त की जा सकती थी। इस प्रकार राज्य के बहुमूल्य धन को व्यर्थ ही गँवा दिया जाता था।

4. जागीरदारी प्रथा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारियों के लिए हानिप्रद सिद्ध हुई (Jagirdari System proved harmful to the successors of Ranjit Singh)-महाराजा रणजीत सिंह ने जागीरदारों को बहुतसी शक्तियाँ सौंपी हुई थीं। अपने जीवित रहते हुए तो महाराजा ने उन्हें अपने नियंत्रण में रखा, किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के अंतर्गत वे नियंत्रण में न रहे। उन्होंने राज्य के विरुद्ध षड्यंत्रों में भाग लेना आरंभ कर दिया। यह बात सिख साम्राज्य के लिए बहुत हानिप्रद सिद्ध हुई।

यद्यपि जागीरदारी प्रथा में कुछ दोष थे, तथापि यह महाराजा रणजीत सिंह के समय बहुत सफल रही।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था (Judicial Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का मूल्यांकन करें। (Make an assessment of the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली के बारे में आप क्या जानते हैं ? विस्तारपूर्वक लिखें।
(What do you know about the Judicial Administration of Ranjit Singh ? Explain in detail.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का वर्णन करो।”
(Explain the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली बहुत साधारण थी। उस समय कानून लिखित नहीं थे। निर्णय प्रचलित प्रथाओं व धार्मिक विश्वासों के आधार पर किए जाते थे। रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. न्यायालय (Courts)-महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी प्रजा को न्याय देने के लिए अपने साम्राज्य में निम्नलिखित न्यायालय स्थापित किए थे—
1. पंचायत (Panchayat)-महाराजा रणजीत सिंह के समय पंचायत सबसे लघु किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण न्यायालय थी। पंचायत में प्राय: पाँच सदस्य होते थे। गाँव के लगभग सभी दीवानी तथा फ़ौजदारी मामलों की सुनवाई पंचायत द्वारा की जाती थी। सरकार पंचायत के कार्यों में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी।

2. काज़ी का न्यायालय (Qazi’s Court) नगरों में काज़ी के न्यायालय स्थापित किए गए थे। रणजीत सिंह के समय सभी धर्मों के लोगों को इस पद पर नियुक्त किया जाता था। काज़ी के न्यायालय में पंचायतों के निर्णय के विरुद्ध अपीलें की जाती थीं।

3. जागीरदार का न्यायालय (Jagirdar’s Court) महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में जागीरों की व्यवस्था जागीरदारों के हाथ में होती थी। वे अपने न्यायालय लगाते थे, जिनमें अपनी जागीर से संबंधित दीवानी व फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय किए जाते थे।

4. कारदार का न्यायालय (Kardar’s Court) कारदार परगने का मुख्य अधिकारी होता था। उसके न्यायालय में परगने के सारे दीवानी तथा फ़ौजदारी मामलों की सुनवाई की जाती थी।

5. नाज़िम का न्यायालय (Nazim’s Court)—प्रत्येक प्रांत में न्याय का मुख्य अधिकारी नाज़िम होता था। वह प्रायः फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था।

6. अदालती का न्यायालय (Adalti’s Court)—महाराजा रणजीत सिंह के राज्य के सभी बड़े नगरों जैसे लाहौर, अमृतसर, पेशावर, मुलतान, जालंधर आदि में न्याय देने के लिए अदालती नियुक्त किए हुए थे। वे दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों की सुनवाई करते थे एवं अपना निर्णय देते थे।

7. अदालत-ए-आला (Adalat-i-Ala)-लाहौर में स्थापित अदालत-ए-आला महाराजा की अदालत के नीचे सबसे बड़ी अदालत थी। इस अदालत में कारदार और नाज़िम अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती थीं। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपील महाराजा की अदालत में की जा सकती थी।

8. महाराजा की अदालत (Maharaja’s Court)-महाराजा की अदालत सर्वोच्च अदालत थी। उसके निर्णय अंतिम होते थे। याचक न्याय लेने के लिए सीधे महाराजा के पास याचना कर सकता था। महाराजा कारदारों, नाज़िमों और अदालत-ए-आला के निर्णयों के विरुद्ध भी अपीलें सुनता था। केवल महाराजा को ही किसी भी अपराधी को मृत्यु दंड देने अथवा अपराधियों की सजा को कम अथवा माफ करने का अधिकार प्राप्त था।

2. अदालतों की कार्य प्रणाली (Working of the Courts)-महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालतों की कार्य प्रणाली साधारण एवं व्यावहारिक थी। न्याय प्राप्ति के लिए लोग राज्य में स्थापित किसी भी अदालत में जा सकते थे। कानून लिखित नहीं थे, इसलिए न्यायाधीश प्रचलित रीति-रिवाजों या धार्मिक परंपराओं के अनुसार अपने निर्णय देते थे। लोग इन अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध महाराजा के पास अपील कर सकते थे।
3. दंड (Punishments)-महाराजा रणजीत सिंह अपराधियों को सुधारना चाहता था। इसलिए वह अपराधियों को कड़े दंड देने के विरुद्ध था। मृत्यु दंड किसी भी अपराधी को नहीं दिया जाता था। बहुत-से अपराधों का दंड प्रायः जुर्माना ही होता था। अंग काटने का दंड केवल उन अपराधियों को दिया जाता था, जो बार-बार अपराध करते रहते थे।
4. महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का मूल्यांकन (Estimate of Maharaja Ranjit Singh’s Judicial System)
(क) दोष (Demerits)—

  1. न्याय को बेचा जाता था (Justice was Sold)-सरकार ने न्याय को अपनी आय का एक साधन बनाया हुआ था। सरकार को धन देकर दंड से बचा जा सकता था।
  2. न्यायालयों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे (Courts’ rights were not Clear)-महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालतों के अधिकार स्पष्ट नहीं थे। इसलिए लोगों के साथ उचित न्याय नहीं किया जा सकता था।
  3. कोई लिखित कानून नहीं थे (No written Laws)-महाराजा रणजीत सिंह के समय कानून लिखित नहीं थे। इस प्रकार न्यायाधीश कई बार अपनी इच्छा का प्रयोग करते थे।

(ख) गुण (Merits)—

  1. न्याय को बेचा नहीं जाता था (Justice was not Sold)-अधिकाँश इतिहासकारों ने इस विचार का खंडन किया है कि महाराजा रणजीत सिंह के समय न्याय को बेचा जाता था।
  2. शीघ्र व सस्ता न्याय (Fast and Cheap Justice) महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली का एक प्रमुख गुण यह था कि उस समय लोगों को शीघ्र व सस्ता न्याय मिलता था।
  3. कानून परंपराओं पर आधारित थे (Laws were based on Conventions) न्यायाधीश अपने निर्णय समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों और धार्मिक परंपराओं के आधार पर देते थे। लोग इन रीति-रिवाजों का बहुत सम्मान करते थे।
  4. न्यायाधीशों पर कड़ी निगरानी (Strict watch over Judges)—महाराजा रणजीत सिंह न्यायाधीशों । पर कड़ी निगरानी रखता था ताकि वे ठीक प्रकार से न्याय करें।

महाराजा रणजीत सिंह का सैनिक प्रबंध । (Military Administration of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह की सेना का ब्योरा दीजिए। (Give an account of the military administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन का संक्षिप्त वर्णन करें। उसकी सेना को ‘शक्ति का इंजन’ क्यों कहा जाता है ?
(Write briefly the military organisation of Maharaja Ranjit Singh. Why was his army called the ‘Engine of Power’ ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध का वर्णन कीजिए।
(Describe the salient features of the Military Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध के गुण तथा अवगुण बताएँ।
(Describe the merits and demerits of the Military Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के पूर्व सिखों की सैनिक प्रणाली बहुत दोषपूर्ण थी। सैनिकों में अनुशासन का अभाव था। उनकी न तो कोई परेड होती थी तथा न ही किसी तरह का कोई प्रशिक्षण दिया जाता था। सैनिकों को नकद वेतन नहीं दिया जाता था। परिणामस्वरूप, सैनिक लूटमार की ओर अधिक ध्यान देते थे। महाराजा रणजीत सिंह पंजाब में एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना करने का स्वप्न देख रहा था। इस स्वप्न को पूरा करने के लिए, उसने एक शक्तिशाली तथा अनुशासित सेना की आवश्यकता अनुभव की। इस उद्देश्य से उसने अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने का निश्चय किया। इस सेना में भारतीय तथा यूरोपियन दोनों प्रणालियों का अच्छे ढंग से सुमेल किया गया था। इस सेना का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

सेना का विभाजन (Division of Army)
महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना को दो भागों (i) फ़ौज-ए-आइन तथा (ii) फ़ौज़-ए-बेकवायद में बाँटा हुआ था। इन भागों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

फ़ौज-ए-आइन (Fauj-I-Ain)
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को फ़ौज-ए-आइन कहा जाता था। इसके तीन भाग थे—
(i) पैदल सेना
(ii) घुड़सवार सेना
(iii) तोपखाना।

i) पैदल सेना (Infantry)-महाराजा रणजीत सिंह पैदल सेना के महत्त्व को अच्छी प्रकार जानता था। अत: उसके शासनकाल में पैदल सेना की भर्ती जो 1805 ई० के पश्चात् शुरू हुई थी वह महाराजा के अंत तक जारी रही। आरंभ में इस सेना में सिखों की संख्या बहुत कम थी। इसका कारण यह था कि वे इस सेना को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसलिए आरंभ में महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों एवं गोरखों को इस सेना में भर्ती किया। 1822 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने इस सेना को अच्छा प्रशिक्षण देने के लिए जनरल वेंतरा को नियुक्त किया। 1838-39 ई० में इस सेना की संख्या 26,617 हो गई थी।

ii) घुड़सवार (Cavalry)-अनुशासित सेना का भाग होने के कारण शुरू में सिख इस सेना में भी भर्ती न हुए। आरंभ में इस सेना में पठान, राजपूत तथा डोगरों आदि को भर्ती किया गया। परंतु बाद में कुछ सिख भी इसमें भर्ती हो गए। 1822 ई० में घुड़सवार सैनिकों को प्रशिक्षण देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने जनरल अलॉर्ड को नियुक्त किया। उसके योग्य नेतृत्व में शीघ्र ही घुड़सवार सेना बहुत शक्तिशाली बन गई। 1838-39 ई० में घुड़सवार सैनिकों की संख्या 4090 थी।

iii) तोपखाना (Artillery) तोपखाना महाराजा की सेना का विशेष अंग था। आरंभ में यह पैदल सेना का ही अंग था। 1810 ई० में तोपखाने का एक अलग विभाग खोला गया था। यूरोपीय ढंग का प्रशिक्षण देने के लिए जनरल कोर्ट एवं गार्डनर को इस विभाग में भर्ती किया गया। महाराजा रणजीत सिंह के समय में ही इस विभाग ने महत्त्वपूर्ण प्रगति कर ली थी। इस विभाग को चार भागों तोपखाना-ए-अस्पी, तोपखाना-ए-फीली, तोपखानाए-गावी तथा तोपखाना-ए-शुतरी में बाँटा गया था।

तोपखाना-ए-फीली में बहुत भारी तोपें थीं तथा इन्हें हाथियों से खींचा जाता था। तोपखाना-ए-शुतरी में वे तोपें थीं जिन्हें ऊँटों के द्वारा खींचा जाता था। तोपखाना-ए-अस्पी में वे तोपें थीं जिन्हें घोड़ों के द्वारा खींचा जाता था। तोपखाना-ए-गावी में वे तोपें थीं जिन्हें बैलों द्वारा खींचा जाता था।

फ़ौज-ए-खास
(Fauj-I-Khas)
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इस सेना में पैदल सेना की चार बटालियनें, घुड़सवार सेना की दो रेजिमैंटों तथा 24 तोपों का एक तोपखाना सम्मिलित था। इस सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षण देकर तैयार किया गया था। इस सेना में कुछ चुने हुए सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र तथा घोड़े भी अच्छी नस्ल के थे। इसलिए इस सेना को फ़ौज-ए-खास कहा जाता था। इस सेना का अपना अलग झण्डा तथा चिह्न थे।

फ़ौज-ए-बेकवायद (Fauj-i-Beqawaid)
फ़ौज-ए-बेकवायद वह सेना थी, जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी। इसके चार भाग थे
(i) घुड़चढ़े
(ii) फ़ौज-ए-किलाजात
(ii) अकाली
(iv) जागीरदार सेना।

i) घुड़चढ़े (Ghurcharas)-घुड़चढ़े बेकवायद सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। ये दो भागों में बंटे हुए थे—

  • घुड़चढ़े खास-इसमें राजदरबारियों के संबंधी तथा उच्च वंश से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित थे।
  • मिसलदार-इसमें वे सैनिक सम्मिलित थे, जो मिसलों के समय से सैनिक चले आ रहे थे। घुड़चढ़ों की तुलना में मिसलदारों का पद कम महत्त्वपूर्ण था। इनके युद्ध का ढंग भी पुराना था। 1838-39 ई० में घुड़चढ़ों की संख्या 10,795 थी।

ii) फ़ौज-ए-किलाजात (Fauj-i-Kilajat)-किलों की सुरक्षा के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास एक अलग सेना थी, जिसको फ़ौज-ए-किलाजात कहा जाता था। प्रत्येक किले में किलाजात सैनिकों की संख्या किले के महत्त्व के अनुसार अलग-अलग होती थी। किले के कमान अधिकारी को किलादार कहा जाता था।

iii) अकाली (Akalis) अकाली अपने आपको गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना समझते थे। इनको सदैव भयंकर अभियान में भेजा जाता था। वे सदैव हथियारबंद होकर घूमते रहते थे। वे किसी तरह के सैनिक प्रशिक्षण या परेड के विरुद्ध थे। वे धर्म के नाम पर लड़ते थे। उनकी संख्या 3,000 के लगभग थी। अकाली फूला सिंह एवं अकाली साधु सिंह उनके प्रसिद्ध नेता थे।

iv) जागीरदारी फ़ौज (Jagirdari Fauj)-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों पर यह शर्त लगाई गई कि वे महाराजा को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दें। इसलिए जागीरदार राज्य की सहायता के लिए पैदल तथा घुड़सवार सैनिक रखते थे।

अन्य विशेषताएँ (Other Features)
1. सेना की कुल संख्या (Total Strength of the Army)-अधिकतर इतिहासकारों का विचार है कि महाराजा रणजीत सिंह की सेना की कुल संख्या 75,000 से 1,00,000 के बीच थी।

2. रचना (Composition)-महाराजा रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न वर्गों से संबंधित लोग सम्मिलित थे। इनमें सिख, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रिय मुसलमान, गोरखे, पूर्बिया हिंदुस्तानी सम्मिलित थे।

3. भर्ती (Recruitment)-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में भर्ती बिल्कल लोगों की इच्छा के अनुसार थी। केवल स्वस्थ व्यक्तियों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। अफसरों की भर्ती का काम केवल महाराजा के हाथों में था।

4. वेतन (Pay)—पहले सैनिकों को या तो जागीरों के रूप में या ‘जिनस’ के रूप में वेतन दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों को नकद वेतन देने की परंपरा शुरू की। .

5. पदोन्नति (Promotions)-महाराजा रणजीत सिंह अपने सैनिकों की केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति करता था। पदोन्नति देते समय महाराजा किसी सैनिक के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था।

6. पुरस्कार तथा उपाधि (Rewards and Honours)-महाराजा रणजीत सिंह प्रत्येक वर्ष लाहौर दरबार । की शानदार सेवा करने वाले सैनिकों को तथा युद्ध के मैदान में वीरता दिखाने वाले सैनिकों को लाखों रुपये के पुरस्कार तथा ऊँची उपाधियाँ देता था।

7. अनुशासन (Discipline)-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में बहुत कड़ा अनुशासन स्थापित किया गया था। सैनिक नियमों का उल्लंघन करने वालों को कड़ा दंड दिया जाता था।

जनरल सर चार्ल्स गफ तथा आर्थर डी० इनस का विचार है,
“भारत में हमने जिन सेनाओं का मुकाबला किया उनमें से सिख सेना सबसे अधिक कुशल थी तथा जिसको पराजित करना सबसे अधिक कठिन था।”2

2.” “The Sikh army was the most efficient, the hardest to overcome, that we have ever faced in India.” Gen. Sir Charles Gough and Arthur D. Innes, The Sikhs and the Sikh Wars (Delhi : 1984) p. 33.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन प्रबंध की रूप-रेखा बताएँ।
(Give an outline of Central Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह राज्य का मुखिया था। उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। शासन प्रबंध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मंत्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढ़ीवाला प्रमुख थे। इन मंत्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए कुछ दफ्तरों की स्थापना भी की थी।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन में महाराजा की स्थिति कैसी थी? (What was the position of Maharaja in Central Administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का स्वरूप क्या था ? (Explain the nature of administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा राज्य का प्रमुख था। वह सभी शक्तियों का स्रोत था। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह मुख्य सेनापति था तथा राज्य की सारी सेना उसके संकेत पर चलती थी। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था और उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द लोगों के लिए कानून बन जाता था। महाराजा को किसी भी शासक के साथ युद्ध अथवा संधि करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय प्रबंध पर एक नोट लिखें। (Write a short note on the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रबंध कैसा था ? (How was the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे में नाज़िम की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of Nazim in Province during the times of Maharaja Ranjit Singh?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य चार महत्त्वपूर्ण प्राँतों—

  1. सूबा-ए-लाहौर,
  2. सूबा-ए-मुलतान,
  3. सूबा-ए-कश्मीर,
  4. सूबा-ए-पेशावर में बँटा हुआ था।

प्रत्येक सूबा नाज़िम के अधीन होता था। उसका मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति बनाए रखना था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह भूमि का लगान एकत्रित करने में कर्मचारियों की सहायता करता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय प्रशासन का विश्लेषण करें। (Analyse the local administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
(What do you know about the local administration of Maharaja Ranjit Singh ? Explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रांतों को परगनों में विभाजित किया गया था। परगने का शासन प्रबंध कारदार के अधीन था। कारदार का मुख्य कार्य शाँति स्थापित रखना, महाराजा के आदेशों का पालन करवाना, लगान एकत्र करना तथा दीवानी और फ़ौजदारी मुकद्दमे सुनना था। कानूनगो तथा मुकद्दम, कारदार की सहायता करते थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव अथवा मौजा थी। गाँवों का प्रबंध पंचायतों के हाथ में होता था। पंचायत गाँवों के लोगों की देख-रेख करती थी।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कारदार की स्थिति क्या थी ? (What was the position of Kardar during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। वह परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था। वह परगने से भूमि कर एकत्र करके केंद्रीय कोष में जमा करवाता था। वह परगना के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। वह परगना के हर प्रकार के दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह परगना के लोगों के हितों का पूरा ध्यान रखता था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के मुख्य कार्य लिखो। (Write main functions of Kotwal during Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-

  1. महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना।
  2. नगर में शांति व व्यवस्था को कायम रखना।
  3. नगर में सफाई का प्रबंध करना।।
  4. नगर में आने वाले विदेशियों का ब्योरा रखना।
  5. नगर में उद्योग और व्यापार का निरीक्षण करना।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के प्रबंध बारे एक संक्षिप्त नोट लिखें। .
(Write a short note on the administration of city of Lahore during the times of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के लिए विशेष प्रबंध किया गया था। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर ईमाम बखश नियुक्त था।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह की लगान व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें। (Write a note on the land revenue administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक प्रशासन पर नोट लिखें। (Write a note on the economic administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय में आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था। महाराजा रणजीत सिंह के समय में लगान एकत्र करने के लिए बटाई, कनकूत, बीघा, हल तथा कुआँ प्रणालियाँ प्रचलित थीं। लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान एकत्र करने वाले मुख्य अधिकारियों के नाम कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान नकद अथवा अन्न के रूप में दिया जा सकता था। लगान भूमि की उपजाऊ शक्ति के आधार पर लिया जाता था।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की जागीरदारी व्यवस्था पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a brief note on Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं? (What were the chief features of Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय कई प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं। इन जागीरों में सेवा जागीरों को सबसे उत्तम समझा जाता था। ये जागीरें राज्य के उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के बदले में दी जाती थीं। इसके अतिरिक्त उस समय इनाम जागीरें, वतन जागीरें तथा धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं। धर्मार्थ जागीरें धार्मिक संस्थाओं अथवा व्यक्तियों को दी जाती थीं। जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से जागीरदार अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके एजेंट करते थे।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के न्याय प्रबंध पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What were the main features of the Judicial system of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। . (Write any five features of the Judicial system of Maharaja. Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के काल में न्याय व्यवस्था साधारण थी। न्याय उस समय प्रचलित रस्म-रिवाज़ों तथा धार्मिक ग्रंथों के आधार पर किया जाता था। अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए राज्य भर में कई न्यायालय स्थापित किए गए थे। गाँवों में झगड़ों का निपटारा पंचायतें करती थीं। शहरों तथा कस्बों में काज़ी का न्यायालय होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय में दंड बहुत कड़े नहीं थे।

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं?
(What were the main features of Maharaja Ranjit Singh’s military administration ?)
अथवा
रणजीत सिंह ने अपने सैनिक प्रबंध में क्या सुधार किए ?
(What reforms were introduced by Ranjit Singh to improve his military administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सेना पर संक्षेप नोट लिखें।
(Write a short note on the military of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के फ़ौजी प्रबंध की कोई तीन विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(Describe any three Features of the military administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं? (What do you know about military administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था। उन्होंने सेना को प्रशिक्षण देने के लिए यूरोपीय अधिकारी भर्ती किए हुए थे। सैनिकों का ब्योरा रखने तथा घोड़ों को दागने की प्रथा भी आरंभ की गई। शस्त्रों के निर्माण के लिए राज्य में कारखाने स्थापित किए गए। महाराजा रणजीत सिंह व्यक्तिगत रूप से सेना का निरीक्षण करता था। युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने वाले सैनिकों को विशेष पुरस्कार दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने जागीरदारी सेना को भी बनाए रखा।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन में फ़ौज-ए-खास के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Fauj-i-Khas of Maharaja Ranjit Singh’s army.)
उत्तर-
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इस सेना को यूरोपीय ढंग के कड़े प्रशिक्षण के अंतर्गत तैयार किया गया था। इस सेना में बहुत उत्तम सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र व घोड़े भी सबसे बढ़िया किस्म के थे। इस सेना का अपना अलग ध्वज चिह्न था। यह सेना बहुत अनुशासित थी।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार था ? (What was Maharaja Ranjit Singh’s attitude towards his subjects ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था। उसने सरकारी कर्मचारियों को यह आदेश दिया था कि वे प्रजा के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की दशा जानने के लिए महाराजा भेष बदल कर प्रायः राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेश का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को कड़ा दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। महाराजा ने न केवल सिखों बल्कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को भी संरक्षण दिया।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर पड़े प्रभावों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the effects of Ranjit Singh’s rule on the life of the people.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। उसने पंजाब में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के लोगों ने शताब्दियों के पश्चात् चैन की साँस ली। इससे पूर्व पंजाब के लोगों को एक लंबे समय तक मुग़ल तथा अफ़गान सूबेदारों के घोर अत्याचारों को सहन करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की स्थापना की। उसके शासन का प्रमुख उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। उसने अपने राज्य में सभी अमानुषिक सज़ाएँ बंद कर दी थीं। मृत्यु की सज़ा किसी अपराधी को . भी नहीं दी जाती थी।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की धुरी कौन था ?
उत्तर-
महाराजा।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का कोई एक उद्देश्य बताएँ।
उत्तर-
प्रजा का भलाई करना।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की कोई एक शक्ति बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह राज्य की भीतरी तथा विदेश नीति का निर्धारण करता था।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री कौन था ?
उत्तर-
राजा ध्यान सिंह।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का मुख्य काम क्या होता था ?
उत्तर-
उसका मुख्य काम राज्य के सभी राजनीतिक विषयों पर महाराजा को परामर्श देना था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का नाम बताएँ।
उत्तर-
फकीर अज़ीज़-उद्दीन।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
महाराजा को युद्ध एवं संधि से संबंधित परामर्श देना।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री कौन था ?
उत्तर-
दीवान भवानी दास।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के किसी एक विख्यात सेनापति का नाम बताएँ।
उत्तर-
हरी सिंह नलवा।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योढ़ीवाला के पद पर कौन नियुक्त था ?
उत्तर-
जमादार खुशहाल सिंह।

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय के ड्योढ़ीवाला का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
राज्य परिवार की देख-रेख करना।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की देख-भाल के लिए गठित किए गए दफ्तरों में से किसी एक का नाम बताएँ।
उत्तर-
दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य कितने सूबों (प्रांतों) में बँटा हुआ था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के किसी एक प्रांत का नाम लिखो।
उत्तर-
सूबा-ए-लाहौर।

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबा के मुखिया को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नाज़िम।

प्रश्न 16.
मिसर रूप लाल कौन था ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रसिद्ध नाज़िम।

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प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम का कोई एक मुख्य कार्य बताएँ।
उत्तर-
प्रांत में शांति बनाए रखना।

प्रश्न 18.
परगना के सर्वोच्च अधिकारी को क्या कहते थे?
उत्तर-
कारदार।

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय मुकद्दम का मुख्य कार्य क्या था ?
उत्तर-
मुकद्दम गाँव में लगान एकत्र करने में सहायता करते थे।

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर की देख-रेख कौन करता था ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का शासन प्रबंध किस अधिकारी के अधीन होता था ?
उत्तर-
कोतवाल।

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प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
उत्तर-
इमाम बख्श।

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के मुख्य कार्य क्या थे ?
उत्तर-
शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना।

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई को क्या कहते थे ?
उत्तर-
मौज़ा।

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लगान एकत्र करने के लिए प्रचलित किसी एक प्रणाली के नाम लिखें।
उत्तर-
बटाई प्रणाली।

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प्रश्न 25.
बटाई प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
बटाई प्रणाली के अनुसार लगान फ़सल काटने के पश्चात् निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 26.
कनकूत प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
कनकूत प्रणाली के अनुसार लगान खड़ी फ़सल को देखकर निर्धारित किया जाता था।

प्रश्न 27.
भूमि लगान के अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का अन्य एक मुख्य साधन बताएँ।
उत्तर-
चुंगी कर।

प्रश्न 28.
जागीरदारी प्रथा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राज्य के कर्मचारियों को नकद वेतन के स्थान पर जागीरें दी जाती थीं।

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प्रश्न 29.
वतन जागीरें क्या थी ?
उत्तर-
ये वे जागीरें थीं जो किसी जागीरदार को उसके अपने गाँव में दी जाती थीं।

प्रश्न 30.
धर्मार्थ जागीरों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
ये वे जागीरें थीं जो धार्मिक संस्थाओं और व्यक्तियों को दी जाती थीं।

प्रश्न 31.
ईनाम जागीरें किसे दी जाती थीं ?
उत्तर-
विशेष सेवाओं के बदले अथवा बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को।

प्रश्न 32.
महाराजा रणजीत सिंह को दिए जाने वाले उपहारों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-
नज़राना।

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प्रश्न 33.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रचलित किसी एक न्यायालय का नाम बताएँ।
उत्तर-
काज़ी की अदालत।

प्रश्न 34.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की सबसे बड़ी अदालत कौन-सी होती थी ?
उत्तर-
अदालत-ए-आला।

प्रश्न 35.
महाराजा रणजीत सिंह से पहले सिख सेना का कोई एक मुख्य दोष बताएँ।
उत्तर-
सिख सेना में अनुशासन की भारी कमी थी ।

प्रश्न 36.
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा सिख सेना में किए गए सुधारों में से कोई एक बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख सेना को पश्चिमी ढंग का प्रशिक्षण दिया।

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प्रश्न 37.
महाराजा रणजीत सिंह की सेना कौन-से दो मुख्य भागों में बँटी हुई थी ?
उत्तर-
फ़ौज-ए-आईन तथा फ़ौज-ए-बेकवायद।

प्रश्न 38.
महाराजा रणजीत सिंह ने पैदल सेना का गठन कब आरंभ किया ?
उत्तर-
1805 ई०।

प्रश्न 39.
महाराजा रणजीत सिंह के समय तोपखाना को कितने भागों में बाँटा गया था ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 40.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने के लिए किसे नियुक्त किया था ?
उत्तर-
जनरल वेंतूरा।

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प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-खास का तोपखाना किसके अधीन था ?
उत्तर-
जनरल इलाही बख्श।

प्रश्न 42.
महाराजा रणजीत सिंह के समय हाथियों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-फीली।

प्रश्न 43.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ऊँटों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-शुतरी।

प्रश्न 44.
महाराजा रणजीत सिंह के समय घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को क्या कहते थे ?
उत्तर-
तोपखाना-ए-अस्पी।

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प्रश्न 45.
फ़ौज-ए-बेकवायद से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
यह वह सेना थी जो निश्चित नियमों का पालन नहीं करती थी।

प्रश्न 46.
रणजीत सिंह की सेना के दो प्रसिद्ध यूरोपियन अफसरों के नाम लिखिए।
अथवा
रणजीत सिंह के यूरोपियन सेनापतियों में से किन्हीं दो के नाम बताओ।
उत्तर-
जनरल वेंतूरा तथा जनरल कोर्ट।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय…..राज्य का मुखिया था।
उत्तर-
(महाराजा)

प्रश्न 2.
राजा ध्यान सिंह महाराजा रणजीत सिंह का………था।
उत्तर-
(प्रधानमंत्री)

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के विदेश मंत्री का नाम…….था।
उत्तर-
(फ़कीर अज़ीजुद्दीन)

प्रश्न 4.
………….और……..महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध वित्तमंत्री थे।
उत्तर-
(दीवान भवानी दास, दीवान गंगा राम)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह का सबसे प्रसिद्ध सेनापति……था।
उत्तर-
(हरी सिंह नलवा)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योड़ीवाला के पद पर…………….नियुक्त था।
उत्तर-
(जमादार खुशहाल सिंह)

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प्रश्न 7.
ड्योड़ीवाला……….की देख-रेख करता था।
उत्तर-
(शाही राजघराने)

प्रश्न 8.
……….द्वारा राज्य के प्रतिदिन होने वाले खर्च का ब्योरा रखा जाता था।
उत्तर-
(दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-इखराजात)

प्रश्न 9.
…………द्वारा राज्य की बहुमूल्य वस्तुओं की देखभाल की जाती थी।
उत्तर-
(दफ्तर-ए-तोशाखाना)

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य…………..सूबों में बँटा हुआ था।
उत्तर-
(चार)

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प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय……………सूबे का मुख्य अधिकारी होता था।
उत्तर-
(नाज़िम)

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह समय कारदार……………..का मुख्य अधिकारी होता था।
उत्तर-
(परगना)

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय……………गाँवों की भूमि का रिकॉर्ड रखता था।
उत्तर-
(पटवारी)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का मुख्य अधिकारी………होता था।
उत्तर-
(कोतवाल)

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प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रसिद्ध कोतवाल……………..था।
उत्तर-
(इमाम बख्श)

प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आमदनी का मुख्य स्रोत…………था।
उत्तर-
(भूमि का लगान)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लगान की………….प्रणाली सबसे अधिक प्रचलित थी।
उत्तर-
(बटाई)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि का लगान वर्ष में ……………..बार एकत्रित किया जाता था।
उत्तर-
(दो)

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में से…..जागीरें सबसे महत्त्वपूर्ण
उत्तर-
(सेवा)

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों को……..जागीरें कहा जाता
उत्तर-
(धर्मार्थ)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की सबसे बड़ी अदालत को………कहा जाता था।
उत्तर-
(अदालत-ए-आला)

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालत-ए-माला की स्थापना……..में की गई थी।
उत्तर-
(लाहौर)

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प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को प्रायः………….की सजा दी जाती थी।
उत्तर-
(जुर्माना)

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को……..कहा जाता था।
उत्तर-
(फ़ौज-ए-आईन)

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने घुड़सवार सेना को प्रशिक्षण देने के लिए जनरल अलॉर्ड को………में नियुक्त किया।
उत्तर-
(1822 ई०)

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह के समय हाथियों द्वारा खींची जाने वाली तोपों को…….कहा जाता था।
उत्तर-
(तोपखाना-ए-फीली)

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प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने के लिए………….को नियुक्त किया था।
उत्तर-
(जनरल वेंतूरा)

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह की फ़ौज-ए-खास का तोपखाना जनरल…………….के अधीन था।
उत्तर-
(इलाही बख्श)

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह की उस फ़ौज को जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी उसे………कहा जाता था।
उत्तर-
(फ़ौज-ए-बेकवायद)

(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह राज्य की सभी आंतरिक व बाहरी नीतियों को तैयार करता था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का नाम राजा ध्यान सिंह था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
दीवान दीना नाथ महाराजा रणजीत सिंह का विदेशी मंत्री था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के समय वित्त मंत्री को दीवान कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 5.
दीवान भवानी दास महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध वित्त मंत्री था।
उत्तर-
ठीक

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

प्रश्न 6.
दीवान मोहकम चंद और सरदार हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के प्रसिद्ध सेनापति थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जमादार खुशहाल सिंह ड्योढ़ीवाला के पद पर नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल द्वारा राज्य की आमदन का ब्योरा रखा जाता
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए- इखराजात द्वारा राज्य के प्रतिदिन होने वाले खर्च का ब्योरा रखा जाता था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय साम्राज्य की बाँट चार सूबों में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर इमाम बख्श नियुक्त था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय दीवान गंगा राम ने दफ्तरों की स्थापना की।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आमदन का मुख्य स्रोत भूमि कर था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय बटाई प्रणाली सब से अधिक प्रचलित थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय भूमि का लगान वर्ष में तीन बार एकत्रित किया जाता था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सेवा जागीरों की संख्या सबसे अधिक थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक स्थानों को दी जाने वाली जागीरों को धर्मार्थ जागीरें कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लोगों को विशेष सेवाओं के बदले गुज़ारा जागीरें दी जाती थीं।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह के समय शहरों में काज़ी की अदालतें स्थापित थीं।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रत्येक परगने में नाज़िम की अदालतें होती थीं।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अदालत-ए-आला की स्थापना लाहौर में की गई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को कंठोर दंड दिए जाते थे।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना में देशी व विदेशी प्रणालियों का सुमेल किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को फ़ौज-ए-आईन कहा जाता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने फौज-ए-खास को प्रशिक्षण देने को जनरल वेंतूरा को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को तोपखाना की प्रशिक्षण देने के लिए जनरल इलाही बख्श को नियुक्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-बेकवायद वह फ़ौज थी जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन प्रबंध की धुरी कौन थी ?
(i) महाराजा
(ii) विदेश मंत्री
(iii) वित्त मंत्री
(iv) प्रधानमंत्री।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री का क्या नाम था ?
(i) दीवान मोहकम चंद
(ii) राजा ध्यान सिंह
(iii) दीवान गंगानाथ
(iv) फकीर अज़ीजउद्दीन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
(i) दीवान मोहकम चंद
(ii) राजा ध्यान सिंह
(iii) फ़कीर अज़ीजउद्दीन
(iv) खुशहाल सिंह।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन महाराजा रणजीत सिंह का वित्त मंत्री नहीं था ?
(i) दीवान भवानी दास
(ii) दीवान गंगा राम
(iii) दीवान दीनानाथ
(iv) दीवान मोहकम चंद।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध सेनापति था ?
(i) हरी सिंह नलवा
(ii) मिसर दीवान चंद
(iii) दीवान मोहकम चंद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय शाही महल और राज दरबार की देख-रेख कौन करता था ?
(i) ड्योड़ीवाला
(ii) कारदार
(iii) सूबेदार
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के समय ड्योड़ीवाला के पद पर कौन नियुक्त था ?
(i) ज़मांदार खुशहाल सिंह
(ii) संगत सिंह
(iii) हरी सिंह नलवा
(iv) जस्सा सिंह रामगढ़िया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य कितने सूबों में बँटा हुआ था ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे के मुखिया को क्या कहा जाता था ?
(i) सूबेदार
(ii) कारदार
(iii) नाज़िम
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने का मुख्य अधिकारी कौन था ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय परगने के मुख्य अधिकारी को क्या कहते थे ?
(i) नाज़िम
(ii) सूबेदार
(iii) कारदार
(iv) कोतवाल।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का मुखिया कौन होता था?
(i) सूबेदार
(ii) कारदार
(iii) कोतवाल
(iv) पटवारी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का कोतवाल कौन था ?
अथवा
लाहौर शहर के मुख्य अधिकारी (कोतवाल) का नाम क्या था ?
(i) ध्यान सिंह
(ii) खुशहाल सिंह
(iii) इमाम बख्श
(iv) इलाही बख्श।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को क्या कहा जाता था ?
(i) परगना
(ii) “मौज़ा
(iii) कारदार
(iv) नाज़िम।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज की आमदन का मुख्य स्रोत कौन-सा था ?
(i) भूमि का लगान
(ii) चुंगी कर
(iii) नज़राना
(iv) ज़ब्ती ।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों को दी जाने वाली जागीरों में कौन-सी जागीर को सबसे महत्त्वपूर्ण समझा जाता था?
(i) ईनाम जागीरें
(ii) वतन जागीरें
(iii) सेवा जागीरें
(iv) गुजारा जागीरें।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह के समय धार्मिक संस्थाओं को दी जाने वाली जागीरों को क्या कहते थे ?
(i) वतन जागीरें
(ii) ईनाम जागीरें
(iii) धर्मार्थ जागीरें
(iv) गुजारा जागीरें।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सबसे छोटी अदालत कौन-सी थी ?
(i) पंचायत
(ii) काज़ी की अदालत
(iii) जागीरदार की अदालत
(iv) कारदार की अदालत।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय महाराजा की अदालत के नीचे सबसे बड़ी अदालत कौन-सी थी ?
(i) नाज़िम की अदालत
(ii) अदालत-ए-आला
(iii) अदालती की अदालत
(iv) कारदार की अदालत।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय अपराधियों को सामान्यतः कौन-सी सज़ा दी जाती थी ?
(i) मृत्यु की
(ii) जुर्माने की
(iii) अंग काटने की
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह से पहले सिखों की सैनिक प्रणाली में क्या दोष थे ?
(i) सैनिकों में अनुशासन की बहुत कमी थी
(ii) पैदल सैनिकों को बहुत घटिया समझा जाता था
(iii) सैनिकों को नकद वेतन नहीं दिया जाता था
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह की नियमित सेना को क्या कहा जाता था ?
(i) फ़ौज-ए-आईन
(ii) फ़ौज-ए-खास
(iii) फ़ौज-ए-बेकवायद
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौज-ए-खास को सिखलाई देने के लिए किसे नियुक्त किया था ?
(i) जनरल इलाही बख्श
(ii) जनरल अलार्ड
(iii) जनरल वेंतूरा
(iv) जनरल कार्ट।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के समय फ़ौज-ए-खास तोपखाना किसके अधीन था ?
(i) जनरल इलाही बख्श
(ii) जनरल कोर्ट
(iii) कर्नल गार्डनर
(iv) जनरल वेंतूरा।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय उस फ़ौज को क्या कहते थे जो निश्चित नियमों का पालन नहीं करती थी?
(i) फ़ौज-ए-खास
(ii) फ़ौज-ए-बेकवायद
(iii) फ़ौज-ए-आईन
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने घुड़सवार सैनिकों को सिखलाई देने के लिए किसको नियुक्त किया ?
(i) जनरल वेंतुरा
(ii) जनरल अलॉर्ड
(iii) जनरल कोर्ट
(iv) जनरल इलाही बखा।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन प्रबंध की रूप-रेखा बताएँ। (Give an outline of Central Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा केंद्रीय शासन की धुरी था। उसके मुख से निकलां प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। महाराजा रणजीत सिंह अपने अधिकारों का प्रयोग जन-कल्याण के लिए करता था। शासन प्रबंध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मंत्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढीवाला नाम के मंत्री प्रमुख थे। इन मंत्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। प्रशासन की कुशलता के लिए रणजीत सिंह प्रायः अपने मंत्रियों का परामर्श मान लेता था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए 12 दफ्तरों (विभागों) की स्थापना की थी। इनमें विशेषकर दफ्तर-एअबवाब-उल-माल, दफ्तर-ए-तोजीहात, दफ्तर-ए-मवाजिब तथा दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-अखराजात प्रमुख थे। निश्चय ही रणजीत सिंह का शासन प्रबंध बहुत अच्छा था।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के केंद्रीय शासन में महाराजा की स्थिति कैसी थी ? (What was the position of Maharaja in Central Administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रशासन का स्वरूप क्या था ? (Explain the nature of administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा राज्य का प्रमुख था। वह सभी शक्तियों का स्रोत था। राज्य की भीतरी तथा बाहरी नीतियाँ महाराजा द्वारा तैयार की जाती थीं। वह राज्य के मंत्रियों, उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह जब चाहे किसी को भी उसके पद से अलग कर सकता था। वह मुख्य सेनापति था तथा राज्य की सारी सेना उसके संकेत पर चलती थी। वह राज्य का मुख्य न्यायाधीश भी था और उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द लोगों के लिए कानून बन जाता था। कोई भी व्यक्ति उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था। महाराजा को किसी भी शासक के साथ युद्ध अथवा संधि करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। उसे अपनी प्रजा पर कोई भी कर लगा सकने तथा उसे हटाने का अधिकार था। संक्षेप में, महाराजा की शक्तियाँ किसी तानाशाह से कम नहीं थीं। महाराजा कभी भी इन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करता था। वह प्रजा के कल्याण में ही अपना कल्याण समझता था। निस्संदेह ऐसे महान् शासकों की उदाहरणे इतिहास में बहुत कम मिलती हैं।

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प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के प्रांतीय प्रबंध पर एक नोट लिखें। (Write a short note on the Provincial Administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रबंध कैसा था ?
(How was the provincial administration of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे में नाज़िम की क्या स्थिति थी ?
(What was the position of Nazim in Province during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने शासन व्यवस्था को कुशल ढंग से चलाने के लिए अपने राज्य को चार प्रांतों अथवा सूबों में विभाजित किया था। इनके नाम थे-सूबा-ए-लाहौर, सूबा-ए-मुलतान, सूबा-ए-कश्मीर तथा सूबा-ए-पेशावर। सूबे अथवा प्राँत का मुखिया नाज़िम कहलाता था। उसकी नियुक्ति महाराजा द्वारा की जाती थी। क्योंकि यह पद बहुत महत्त्व का होता था इसलिए महाराजा इस पद पर बहुत ही विश्वसनीय, समझदार, ईमानदार तथा अनुभवी व्यक्ति को ही नियुक्त करता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम को अनेक शक्तियाँ प्राप्त थीं।

  1. उसका प्रमुख कार्य अपने अधीन प्रांत में शाँति तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखना था।
  2. वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करता था।
  3. वह प्रांत में महाराजा रणजीत सिंह के आदेशों को लागू करवाता था।
  4. वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों का निर्णय करता था तथा कारदारों के निर्णयों के विरुद्ध याचिकाएँ सुनता था।
  5. वह भूमि लगान एकत्र करने में कर्मचारियों की सहायता करता था।
  6. उसके अधीन कुछ सेना भी होती थी तथा कई बार छोटे-मोटे अभियानों का नेतृत्व भी करता था।
  7. वह जिलों के कारदारों के कार्यों का निरीक्षण भी करता था।
  8. वह निश्चित लगान समय पर केंद्रीय खजाने में जमा करवाता था।
  9. वह आवश्यकता पड़ने पर केंद्र को सेना भी भेजता था।
  10. वह प्रायः अपने प्राँत का भ्रमण करके यह पता लगाता था कि प्रजा महाराजा रणजीत सिंह के शासन से सन्तुष्ट है अथवा नहीं।

इस प्रकार नाज़िम के पास असीम अधिकार थे परंतु उसे अपने प्रांत के संबंध में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने से पूर्व महाराजा रणजीत सिंह की अनुमति लेनी होती थी। महाराजा रणजीत सिंह स्वयं अथवा केंद्रीय अधिकारियों द्वारा नाज़िम के कार्यों का निरीक्षण करता था। संतुष्ट न होने पर नाज़िम को बदल दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय नाज़िम को अच्छी तन्खाहें मिलती थीं तथा वह बहुत शानों-शौकत से बड़े महलों में रहते थे।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय प्रबंध पर नोट लिखो। (Write a note on the local administration of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।
(What do you know about the local administration of Maharaja Ranjit Singh ? Explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के स्थानीय शासन प्रबंध की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. परगनों का शासन प्रबंध–प्रत्येक प्रांत को आगे कई परगनों में बाँटा गया था। परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। कारदार के मुख्य कार्य परगने में शांति स्थापित करना, महाराजा के आदेशों की पालना करवाना, लगान एकत्र करना, लोगों के हितों का ध्यान रखना तथा दीवानी एवं फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनना था। कानूनगो एवं मुकद्दम कारदार की सहायता करते थे।

2. गाँव का प्रबंध प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसको उस समय मौज़ा कहते थे। गाँवों का प्रबंध पंचायतों के हाथ में होता थी। पंचायत ग्रामीणों की देखभाल करती थी तथा उनके छोटे-छोटे झगड़ों का समाधान करती थी। लोग पंचायतों का बहुत सम्मान करते थे तथा उनके निर्णयों को अधिकाँश लोग स्वीकार करते थे। पटवारी गाँव की भूमि का रिकॉर्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

3. लाहौर शहर का प्रबंध-महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर का प्रबंध अन्य शहरों से अलग ढंग से किया जाता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को वास्तविक रूप देना, शहर में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देखभाल करना, शहर में सफाई का प्रबंध करना, शहर में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार एवं उद्योग का ध्यान रखना, नाप-तोल की वस्तुओं पर नज़र रखना आदि थे।

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कारदार की स्थिति क्या थी ? (What was the position of Kardar during the times of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रत्येक सूबे अथवा प्राँत को आगे कई परगनों में बाँटा हुआ था। परगने के मुख्य अधिकारी को कारदार कहा जाता था। उसे अनेक कर्त्तव्य निभाने होते थे। वह परगने में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था। वह परगने से भूमि कर एकत्र करके केंद्रीय कोष में जमा करवाता था। वह परगना के आय-व्यय का पूरा विवरण रखता था। वह परगना के हर प्रकार के दीवानी तथा फौजदारी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह दोषियों को दंड भी देता था। कारदार अपने क्षेत्र का आबकारी तथा सीमा कर अधिकारी भी होता था। इसलिए परगना से इन करों को एकत्र करना उसका कर्त्तव्य था। वह कर न देने वाले लोगों के विरुद्ध कार्यवाही भी करता था। वह जनकल्याण अधिकारी भी था, इसलिए वह परगना के लोगों के हितों का पूरा ध्यान रखता था। इस संबंध में वह परगना के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से संपर्क रखता था। वह परगनों में घटने वाली समस्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं की सूचना रखता था क्योंकि वह एक लेखाकार के रूप में भी कार्य करता था। वह परगना में निर्मित सरकारी अन्न भंडारों में अन्न जमा करवाता था। वह परगना में महाराजा के आदेशों का पालन भी करवाता था।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के प्रबंध बारे एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the administration of city of Lahore during the times of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर के लिए विशेष प्रबंध किया गया था। यह व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था। मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर ईमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप देना, शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देख-रेख करना, शहर में सफाई की व्यवस्था करना, शहरों में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार व उद्योग का निरीक्षण, नाप-तोल की वस्तुओं की जाँच करनी इत्यादि थे। वह दोषी लोगों के विरुद्ध वांछित कार्यवाही करता था। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह का लाहौर शहर का प्रबंध बहुत बढ़िया था।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह की लगान व्यवस्था की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें। (Describe main features of Maharaja Ranjit Singh’s land revenue administration.)
अथवा महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक प्रशासन पर नोट लिखें। (Write a note on the economic administration of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि का लगान था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने इस ओर अपना विशेष ध्यान दिया। लगान एकत्र करने की अग्रलिखित प्रणालियाँ प्रचलित थीं—
1. बटाई प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत सरकौर फसल काटने के उपराँत अपना लगान निश्चित करती थी। यह प्रणाली बहुत व्ययपूर्ण थी। दूसरा, सरकार को अपनी आमदन का पहले कुछ अनुमान नहीं लग पाता था।

2. कनकूत प्रणाली–1824 ई० में महाराजा ने राज्य के अधिकाँश भागों में कनकूत प्रणाली को लागू किया। इसके अंतर्गत लगान खड़ी फसल को देखकर निश्चित किया जाता था। निश्चित लगान नकदी के रूप में लिया जाता था।

3. बोली देने की प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत अधिक बोली देने वाले को 3 से 6 वर्षों तक किसी विशेष स्थान पर लगान एकत्र करने की अनुमति सरकार की ओर से दी जाती थी।

4. बीघा प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत एक बीघा की उपज के आधार पर लगान निश्चित किया जाता था।

5. हल प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत बैलों की एक जोड़ी द्वारा जितनी भूमि पर हल चलाया जा सकता था उसको एक इकाई मानकर लगान निश्चित किया जाता था।

6. कुआँ प्रणाली—इस प्रणाली के अनुसार एक कुआँ जितनी भूमि को पानी दे सकता था उस भूमि की उपज को एक इकाई मानकर भूमि का लगान निश्चित किया जाता था।

भू-लगान वर्ष में दो बार एकत्र किया जाता था। लगान अनाज अथवा नकदी दोनों रूपों में लिया जाता था। लगान प्रबंध से संबंधित मुख्य अधिकारी कारदार, मुकद्दम, पटवारी, कानूनगो तथा चौधरी थे। लगान की दर विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न थी। जिन स्थानों पर फसलों की उपज सबसे अधिक थी वहाँ लगान 50% था। जिन स्थानों पर उपज कम होती थी वहाँ भूमि का लगान 2/5 से 1/3 तक होता था। महाराजा रणजीत सिंह ने कृषि को उत्साहित करने के लिए कृषकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी हुई थीं।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के जागीरदारी प्रबंध पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
(Write a brief note on Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the chief features of Jagirdari system of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के समय में कई प्रकार की जागीरें प्रचलित थीं। इन जागीरों में सेवा जागीरों को सबसे उत्तम समझा जाता था। ये जागीरें राज्य के उच्च सैनिक तथा असैनिक अधिकारियों को उन्हें मिलने वाले वेतन के बदले में दी जाती थीं। इसके अतिरिक्त उस समय इनाम जागीरें, वतन जागीरें तथा धर्मार्थ जागीरें भी प्रचलित थीं। धर्मार्थ जागीरें धार्मिक संस्थाओं अथवा व्यक्तियों को दी जाती थीं। ये जागीरें स्थायी रूप से दी जाती थीं। जागीरों का प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से जागीरदार अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके ऐजेंट करते थे। जागीरदारों को न केवल अपनी जागीरों से लगान एकत्र करने का अधिकार था, अपितु वे न्याय संबंधी विषयों का निर्णय भी करते थे। कई बार उन्हें सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी सौंपा जाता था। सैनिक जागीरदारों को सैनिक भर्ती करने का भी अधिकार प्राप्त था। जागीरदारी व्यवस्था में यद्यपि कुछ दोष अवश्य थे, परंतु यह प्रबंध तत्कालीन समय के अनुकूल था।

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प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली की मुख्य विशेषताओं की चर्चा करें।
(Discuss the main features of the Judicial System of Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ बताएँ।। (Discuss the main features of the Judicial System of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध बहुलै साधारण था। कानून लिखित नहीं थे। न्याय उस समय की परंपराओं तथा धार्मिक ग्रंथों के अनुसार किया जाता था। न्याय के संबंध में अंतिम निर्णय महाराजा का होता था। लोगों को न्याय देने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने राज्य भर में कई अदालतें स्थापित की थीं। __महाराजा के उपरांत राज्य की सर्वोच्च अदालत का नाम अदालते-आला था। यह नाज़िम तथा परगनों में कारदार की अदालतें दीवानी तथा फ़ौजदारी मुकद्दमों को सुनती थीं। न्याय के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने विशेष अधिकारी भी नियुक्त किए थे जिनको अदालती कहा जाता था। अधिकाँश शहरों तथा कस्बों में काज़ी की अदालत भी कायम थी। यहाँ न्याय के लिए मुसलमान तथा गैर-मुसलमान लोग जा सकते थे। गाँवों में पंचायतें झगड़ों का निर्णय स्थानीय परंपराओं के अनुसार करती थीं। महाराजा रणजीत सिंह के समय दंड कठोर नहीं थे। मृत्यु दंड किसी को भी नहीं दिया जाता था। अधिकतर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाता था। परंतु बार-बार अपराध करने वालों के हाथ, पैर, नाक आदि काट दिए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह का न्याय प्रबंध उस समय के अनुकूल था।

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रबंध की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What were the main features of Maharaja Ranjit Singh’s military administration ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सेना पर संक्षेप नोट लिखें। (Write a short note on the military of Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
1. रचना-महाराजा रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न वर्गों से संबंधित लोग सम्मिलित थे। इनमें सिख, राजपूत, ब्राह्मण, क्षत्रिय, गोरखे तथा पूर्बिया हिंदुस्तानी सम्मिलित थे।

2. भर्ती-महाराजा रणजीत सिंह के समय सेना में भर्ती बिल्कुल लोगों की इच्छा के अनुसार होती थी। केवल स्वस्थ व्यक्तियों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। अफसरों की भर्ती का काम केवल महाराजा के हाथों में था। प्रायः उच्च तथा विश्वसनीय अधिकारियों के पुत्रों को अधिकारी नियुक्त किया जाता था।

3. वेतन-महाराजा रणजीत सिंह से पूर्व सैनिकों को या तो जागीरों के रूप में या ‘जिनस’ के रूप में वेतन दिया जाता था। महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों को नकद वेतन देने की परंपरा शुरू की।

4. पदोन्नति-महाराजा रणजीत सिंह अपने सैनिकों की केवल योग्यता के आधार पर पदोन्नति करता था। पदोन्नति देते समय महाराजा किसी सैनिक के धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता था।

5. पुरस्कार और उपाधि-महाराजा रणजीत सिंह प्रत्येक वर्ष लाहौर दरबार की शानदार सेवा करने वाले सैनिकों को और लड़ाई के मैदान में बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को लाखों रुपयों के पुरस्कार तथा ऊँची उपाधियाँ देता था।

6. अनुशासन-महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेना में बहुत कड़ा अनुशासन स्थापित किया हुआ था। सैनिक नियमों का उल्लंघन करने वाले सैनिकों को कड़ा दंड दिया जाता था।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह के सैनिक संगठन में फ़ौज-ए-खास के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Fauj-i-Khas of Maharaja Ranjit Singh’s army.)
उत्तर-
फ़ौज-ए-खास महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली अंग था। इस सेना को जनरल बैंतरा के नेतृत्व में तैयार किया गया था। इसे ‘मॉडल ब्रिगेड’ भी कहा जाता था। इस सेना में पैदल सेना की चार बटालियनें, घुड़सवार सेना की दो रेजीमैंटें तथा 24 तोपों का एक तोपखाना शामिल था। इस सेना को यूरोपीय ढंग के कड़े प्रशिक्षण के अंतर्गत तैयार किया गया था। इस सेना में बहुत उत्तम सैनिक भर्ती किए गए थे। उनके शस्त्र व घोड़े भी सबसे बढ़िया किस्म के थे। इसीलिए इस सेना को फ़ौज-ए-खास कहा जाता था। इस सेना का अपना अलग ध्वज चिह्न था। यह सेना बहुत अनुशासित थी। इस सेना को कठिन अभियानों में भेजा जाता था। इस सेना ने महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। इस सेना की कार्य-कुशलता को देखकर अनेक अंग्रेज़ अधिकारी चकित रह गए थे।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह की फ़ौज-ए-बेक्वायद से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Fauj-i-Baqawaid of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
फ़ौज-ए-बेकवायद वह सेना थी, जो निश्चित नियमों की पालना नहीं करती थी। इसके चार भाग थे—
(i) घुड़चढ़े
(ii) फ़ौज-ए-किलाजात
(iii) अकाली
(iv) जागीरदार सेना।

i) घुड़चढ़े-घुड़चढ़े बेकवायद सेना का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। ये दो भागों में बँटे हुए थे—

  • घुड़चढ़े खास-इसमें राजदरबारियों के संबंधी तथा उच्च वंश से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित थे।
  • मिसलदार-इसमें वे सैनिक सम्मिलित थे, जो मिसलों के समय से सैनिक चले आ रहे थे। घुड़चढ़ों की तुलना में मिसलदारों का पद कम महत्त्वपूर्ण था। इनके युद्ध का ढंग भी पुराना था। 1838-39 ई० में घुड़चढ़ों की संख्या 10,795 थी।।

ii) फ़ौज-ए-किलाजात-किलों की सुरक्षा के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास एक अलग सेना थी, जिसको फ़ौज-ए-किलाजात कहा जाता था। प्रत्येक किले में किलाजात सैनिकों की संख्या किले के महत्त्व के अनुसार अलग-अलग होती थी। किले के कमान अधिकारी को किलादार कहा जाता था।

iii) अकाली-अकाली अपने आपको गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना समझते थे। इनको सदैव भयंकर अभियान में भेजा जाता था। वे सदैव हथियारबंद होकर घूमते रहते थे। वे किसी तरह के सैनिक प्रशिक्षण या परेड के विरुद्ध थे। वे धर्म के नाम पर लड़ते थे। उनकी संख्या 3,000 के लगभग थी। अकाली फूला सिंह एवं अकाली साधु सिंह उनके प्रसिद्ध नेता थे।

iv) जागीरदारी फ़ौज-महाराजा रणजीत सिंह के समय जागीरदारों पर यह शर्त लगाई गई कि वे महाराजा को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता दें। इसलिए जागीरदार राज्य की सहायता के लिए पैदल तथा घुड़सवार सैनिक रखते थे।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 20 महाराजा रणजीत सिंह का नागरिक एवं सैनिक प्रशासन

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार था ? (What was Ranjit Singh’s attitude towards his subjects ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार बहुत अच्छा था। वह प्रजा के हितों की कभी उपेक्षा नहीं करता था। उसने सरकारी कर्मचारियों को यह आदेश दिया था कि वे प्रजा के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न करें। प्रजा की दशा जानने के लिए महारांजा भेष बदल कर प्रायः राज्य का भ्रमण किया करता था। महाराजा के आदेश का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को कड़ा दंड दिया जाता था। किसानों तथा निर्धनों को राज्य की ओर से विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं। कश्मीर में जब एक बार भारी अकाल पड़ा तो महाराजा ने हज़ारों खच्चरों पर अनाज लाद कर कश्मीर भेजा था। महाराजा ने न केवल सिखों बल्कि हिंदुओं तथा मुसलमानों को भी संरक्षण दिया। उन्हें भारी संख्या में लगान मुक्त भूमि दान में दी गई। परिणामस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह के समय में प्रजा बहुत समृद्ध थी।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर पड़े प्रभावों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the effects of Ranjit Singh’s rule on the life of the people.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के शासन के लोगों के जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। उसने पंजाब में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के लोगों ने शताब्दियों के पश्चात् चैन की. साँस ली। इससे पूर्व पंजाब के लोगों को एक लंबे समय तक मुग़ल तथा अफ़गान सूबेदारों के घोर अत्याचारों को सहन करना पड़ा था। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की स्थापना की। उसके शासन का प्रमुख उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। उसने अपने राज्य में सभी अमानुषिक सज़ाएँ बंद कर दी थीं। मृत्यु की सज़ा किसी अपराधी को भी नहीं दी जाती थी। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने नागरिक प्रबंध के साथ-साथ सैनिक प्रबंध की ओर भी विशेष ध्यान दिया। इस शक्तिशाली सेना के परिणामस्वरूप वह साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल हुआ। महाराजा ने कृषि, उद्योग तथा व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष उपाय किए। परिणामस्वरूप उसके शासन काल में प्रजा बहुत समृद्ध थी। महाराजा रणजीत सिंह यद्यपि सिख धर्म का पक्का श्रद्धालु था, किंतु उसने अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। आज भी लोग महाराजा रणजीत सिंह के शासन के गौरव को स्मरण करते हैं।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अन्त में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।

1
महाराजा केंद्रीय शासन की धुरी था। उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द कानून समझा जाता था। महाराजा रणजीत सिंह अपने अधिकारों का प्रयोग जन-कल्याण के लिए करता था। शासन प्रबन्ध में सहयोग प्राप्त करने के लिए महाराजा ने कई मन्त्री नियुक्त किए हुए थे। इनमें प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, दीवान, मुख्य सेनापति तथा ड्योढ़ीवाला हम के मन्त्री प्रमुख थे। इन मन्त्रियों के परामर्श को मानना अथवा न मानना रणजीत सिंह की इच्छा पर निर्भर था। प्रशासन की कुशलता के लिए रणजीत सिंह प्रायः अपने मन्त्रियों का परामर्श मान लेता था। महाराजा ने प्रशासन की अच्छी देख-रेख के लिए 12 दफ्तरों (विभागों) की स्थापना की थी। इनमें विशेषकर दफ्तर-ए-अबवाब-उल-माल, दफ्तरए-तोजीहात, दफ्तर-ए-मवाजिब तथा दफ्तर-ए-रोज़नामचा-ए-अखराजात प्रमुख थे। निश्चय ही रणजीत सिंह का शासन प्रबध बहुत अच्छा था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन का धुरा कौन होता था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री कौन था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विदेश मंत्री कौन था ?
    • राजा ध्यान सिंह
    • हरी सिंह नलवा
    • फकीर अजीजुद्दीन
    • दीवान मोहकम चंद।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की अच्छी देखभाल के लिए कितने दफ्तरों की स्थापना की गई थी ?
  5. दफ्तर-ए-तोजीहात का क्या काम होता था ?

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय केंद्रीय शासन का धुरा महाराजा स्वयं होता था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह का प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह था।
  3. फकीर अजीजुद्दीन।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की अच्छी देखभाल के लिए 12 दफ्तरों की स्थापना की गई थी।
  5. दफ्तर-ए-तोज़ीहात शाही घराने का हिसाब रखता था।

2
शासन-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के उद्देश्य से महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज्य को चार बड़े प्रांतों में विभाजित किया हुआ था। इन प्रांतों अथवा सूबों के नाम ये थे–(i) सूबा-ए-लाहौर, (ii) सूबा-ए-मुलतान, (ii) सूबाए-कश्मीर, (iv) सूबा-ए-पेशावर। प्राँत का प्रशासन चलाने की ज़िम्मेदारी नाज़िम की होती थी। नाज़िम का मुख्य कार्य अपने प्रांत में शांति बनाए रखना था। वह प्रांत के अन्य कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था। वह फ़ौजदारी तथा दीवानी मुकद्दमों के निर्णय करता था। वह भूमि का लगान एकत्रित करने में कर्मचारियों की सहायता करता था। वह जिलों के कारदारों के कार्यों का भी निरीक्षण करता था। इस प्रकार नाज़िम के पास असीमित अधिकार थे, परंतु उसे अपने प्रांत के संबंध में कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय करने से पूर्व महाराजा की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। महाराजा जब चाहे नाज़िम को परिवर्तित कर सकता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य को कितने सूबों में बाँटा हुआ था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के किन्हीं दो सूबों के नाम लिखें।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे का मुखिया कौन होता था ?
  4. नाज़िम का कोई एक मुख्य कार्य लिखें।
  5. महाराजा जब चाहे नाज़िम को …………. कर सकता था।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य को चार सूबों में बांटा हुआ था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के दो सूबों के नाम सूबा-ए-लाहौर तथा सूबा-ए-कश्मीर थे।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय सूबे का मुखिया नाज़िम होता था।
  4. वह अपने अधीन प्रांत में महाराजा के आदेशों को लागू करवाता था।
  5. परिवर्तित।

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3
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसे उस समय मौज़ा कहते थे। गाँवों की व्यवस्था पंचायतों के हाथ में होती थी। पंचायत ग्रामीण लोगों की देख-रेख करती थी तथा उनके छोटे-मोटे झगडों को निपटाती थी। लोग पंचायत का बहुत सम्मान करते थे तथा उसके निर्ण: को अधिकतर लोग स्वीकार करते थे। पटवारी गाँवों की भूमि का रिकार्ड रखता था। चौधरी लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करता था। मुकद्दम (नंबरदार) गाँव का मुखिया होता था। वह सरकार व लोगों में एक कड़ी का कार्य करता था। चौकीदार गाँव का पहरेदार होता था। महाराजा गाँव के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कौन-सी थी ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को क्या कहा जाता था ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव का प्रबंध किसके हाथ में होता था ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुकद्दम कौन था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँवों की भूमि का रिकार्ड कौन रखता था ?
    • मुकद्दम
    • चौधरी
    • पटवारी
    • उपरोक्त में से कोई नहीं।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव को मौज़ा कहते थे।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के समय गाँव का प्रबंध पंचायत के हाथ में होता था।
  4. मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था।
  5. पटवारी।

4
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी। समस्त शहर को मुहल्लों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक मुहल्ला एक मुहल्लेदार के अंतर्गत होता था । मुहल्लेदार अपने मुहल्ले में शांति व्यवस्था बनाए रखता था तथा सफ़ाई की व्यवस्था करता था। लाहौर शहर का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था। वह प्रायः मुसलमान होता था। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस महत्त्वपूर्ण पद पर इमाम बख्श नियुक्त था। कोतवाल के मुख्य कार्य महाराजा के आदेशों को व्यावहारिक रूप देना, शहर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, मुहल्लेदारों के कार्यों की देख-रेख करना, शहर में सफाई की व्यवस्था करना, शहरों में आने वाले विदेशियों का विवरण रखना, व्यापार व उद्योग का निरीक्षण, नाप-तोल की वस्तुओं की जाँच करना इत्यादि थे। वह दोषी लोगों के विरुद्ध वांछित कार्यवाई करता था।

  1. महाराजा रणजीत सिंह जी के समय लाहौर शहर का मुख्य अधिकारी कौन था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर कौन नियुक्त था ?
  3. कोतवाल का एक मुख्य कार्य बताएँ।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुहल्ले का मुखिया कौन होता था ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह के समय ………… शहर की व्यवस्था अन्य शहरों की अपेक्षा अलग विधि से की जाती थी।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर का मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय कोतवाल के पद पर इमाम बख्श नियुक्त था।
  3. शहर में शांति बनाए रखना।
  4. महाराजा रणजीत सिंह के समय मुहल्ले का मुखिया मुहल्लेदार होता था।
  5. लाहौर।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है ? संसदीय शासन प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
(What is meant by Parliamentary System ? Explain any four features of a parliamentary system of Government.)
उत्तर-
कार्यपालिका और विधानपालिका के सम्बन्धों के आधार पर दो प्रकार के शासन होते हैं-संसदीय तथा अध्यक्षात्मक। यदि कार्यपालिका और विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध हों और दोनों एक-दूसरे का अटूट भाग हों तो संसदीय सरकार होती हैं और यदि कार्यपालिका तथा विधानपालिका एक-दूसरे से लगभग स्वतन्त्र हों तो अध्यक्षात्मक सरकार होती है।

संसदीय सरकार का अर्थ (Meaning of Parliamentary Government)-संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् (विधानपालिका) के प्रति उत्तरदायी होती है और जब तक अपने मद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार (Responsible Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार (Cabinet Government) भी कहा जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

1. डॉ० गार्नर (Dr. Garmer) का मत है कि, “संसदीय सरकार वह प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका, मन्त्रिमण्डल या मन्त्रिपरिषद् अपनी राजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से विधानमण्डल या उसके एक सदन (प्रायः लोकप्रिय सदन) के प्रति और राजनीतिक तौर पर मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी हो जबकि राज्य का अध्यक्ष संवैधानिक या नाममात्र कार्यपालिका हो और अनुत्तरदायी हो।”

2. गैटेल (Gettell) के अनुसार, “संसदीय शासन प्रणाली शासन के उस रूप को कहते हैं जिसमें प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् अर्थात् वास्तविक कार्यपालिका अपने कार्यों के लिए कानूनी दृष्टि से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। चूंकि विधानपालिका के दो सदन होते हैं अतः मन्त्रिमण्डल वास्तव में उस सदन के नियन्त्रण में होता है जिसे वित्तीय मामलों पर अधिक शक्ति प्राप्त होती है जो मतदाताओं का अधिक सीधे ढंग से प्रतिनिधित्व करता है।”
इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है और राज्य का नाममात्र का मुखिया किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।
संसदीय सरकार को सर्वप्रथम इंग्लैंड में अपनाया गया था। आजकल इंग्लैंड के अतिरिक्त जापान, कनाडा, नार्वे, स्वीडन, बंगला देश तथा भारत में भी संसदीय सरकारें पाई जाती हैं।

संसदीय सरकार के लक्षण (FEATURES OF PARLIAMENTARY GOVERNMENT)
संसदीय प्रणाली के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-

1. राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी (Head of the State is Nominal Executive)-संसदीय सरकार में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का सत्ताधारी होता है। सैद्धान्तिक रूप में तो राज्य की सभी कार्यपालिका शक्तियां राज्य के अध्यक्ष के पास होती हैं और उनका प्रयोग भी उनके नाम पर होता है, परन्तु वह उनका प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। उसकी सहायता के लिए एक मन्त्रिमण्डल होता है, जिसकी सलाह के अनुसार ही उसे अपनी शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है। अध्यक्ष का काम तो केवल हस्ताक्षर करना है।

2. मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है (Cabinet is the Real Executive) राज्य के अध्यक्ष के नाम में दी गई शक्तियों का वास्तविक प्रयोग मन्त्रिमण्डल करता है। अध्यक्ष के लिए मन्त्रिमण्डल से सलाह मांगना और मानना अनिवार्य है। मन्त्रिमण्डल ही अन्तिम फैसला करता है और वही देश का वास्तविक शासक है। शासन का प्रत्येक विभाग एक मन्त्री के अधीन होता है और सब कर्मचारी उसके अधीन काम करते हैं । हर मन्त्री अपने विभागों का काम मन्त्रिमण्डल की नीतियों के अनुसार चलाने के लिए उत्तरदायी होता है।

3. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between Executive and Legislature) संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका होती है। इसके सदस्य अर्थात् मन्त्री संसद् में से ही लिए जाते हैं। ये मन्त्री संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, बिल पेश करते हैं, बिलों पर बोलते हैं और यदि सदन के सदस्य हों तो मतदान के समय मत का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मन्त्री प्रशासक (Administrator) भी हैं, कानून-निर्माता (Legislator) भी।

4. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Responsibilty of the Cabinet)-कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल अपने सब कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद् सदस्य मन्त्रियों से प्रश्न पूछ सकते हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना पड़ता है। मन्त्रिमण्डल अपनी नीति निश्चित करता है, उसे संसद के सामने रखता है तथा उसका समर्थन प्राप्त करता है। मन्त्रिमण्डल, अपना कार्य संसद् की इच्छानुसार ही करता है।

5. उत्तरदायित्व सामूहिक होता है (Collective Responsibility)-मन्त्रिमण्डल इकाई के रूप में कार्य करता है और मन्त्री सामूहिक रूप से संसद् के प्रति उत्तरदायी होते हैं। यदि संसद् एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो समस्त मन्त्रिमण्डल को अपना पद छोड़ना पड़ता है। किसी विशेष परिस्थिति में एक मन्त्री अकेला भी हटाया जा सकता है।

6. मन्त्रिमण्डल का अनिश्चित कार्यकाल (Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि भी निश्चित नहीं होती। संसद् की इच्छानुसार ही वह अपने पद पर रहते हैं। संसद् जब चाहे मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर सकती है, अर्थात् यदि निम्न सदन के नेता को ही प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जाता है और उसकी इच्छानुसार ही दूसरे मन्त्रियों की नियुक्ति होती है।

7. मन्त्रिमण्डल की राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity of the Cabinet)-संसदीय सरकार की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से सम्बन्धित होते हैं। यह आवश्यक भी है क्योंकि जब तक मन्त्री एक ही विचारधारा और नीतियों के समर्थक नहीं होंगे, मन्त्रिमण्डल में सामूहिक उत्तदायित्व विकसित नहीं हो सकेगा।

8. गोपनीयता (Secrecy)—संसदीय सरकार में पद सम्भालने से पूर्व मन्त्री संविधान के प्रति वफादार रहने तथा सरकार के रहस्यों को गुप्त रखने की शपथ लेते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 2.
संसदीय शासन प्रणाली क्या है ? भारतीय संसदीय प्रणाली की कोई चार विशेषताओं का विस्तार से वर्णन करें।
(What is Parliamentary form of Government ? Explain any four characteristics of Indian Parliamentary govt. in detail.)
अथवा
भारत में संसदीय शासन की सरकार की विशेषताओं का वर्णन करो। (Discuss the main features of Parliamentary Government in India.)
अथवा
भारत की संसदीय प्रणाली की विशेषताएं लिखिए। (Write about the features of Indian Parliamentary Government.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। भारत में भी स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान के अन्तर्गत प्रजातन्त्र की स्थापना की गई है। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। 24 जनवरी, 1950 को संविधान की अन्तिम बैठक में भाषण देते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि, “हमने भारत के लिए लोकतान्त्रिक संविधान का निर्माण किया है।” भारतीय लोकतन्त्र में वे सभी बातें पाई जाती हैं जो एक लोकतान्त्रिक देश में होनी चाहिए। प्रस्तावना से स्पष्ट पता चलता है कि सत्ता का अन्तिम स्रोत जनता है और संविधान का निर्माण करने वाले और उसे अपने ऊपर लागू करने वाले भारत के लोग हैं।

वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। 61वें संशोधन के द्वारा प्रत्येक नागरिक को जिसकी आयु 18 वर्ष या अधिक है, मताधिकार दिया गया है। जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई मतभेद नहीं किया गया है। सभी नागरिकों को समान रूप से मौलिक अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों के द्वारा भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र को मजबूत बनाया गया है। संविधान के चौथे अध्याय में राजनीति के निर्देशक तत्त्वों की व्यवस्था की गई है ताकि आर्थिक लोकतन्त्र की व्यवस्था की जा सके। संविधान का निर्माण करते समय इस बात पर काफ़ी विवाद हुआ कि भारत में संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की जाए या अध्यक्षात्मक लोकतन्त्र की। संविधान सभा में सैय्यद काज़ी तथा शिब्बन लाल सक्सेना ने अध्यक्षात्मक लोकतन्त्र की जोरदार वकालत की। के० एम० मुन्शी, अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर आदि ने संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन किया और काफ़ी वाद-विवाद के पश्चात् बहुमत के आधार पर संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की।

संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Parliamentary Govt.)इसके लिए प्रश्न नं० 1 देखें।

भारत में संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं (FEATURES OF PARLIAMENTARY GOVERNMENT IN INDIA)
भारतीय संसदीय प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद (Distinction between Nominal and Real Executive)-भारतीय संसदीय प्रणाली की प्रथम विशेषता यह है कि संविधान के अन्तर्गत नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद किया गया है। राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान के अन्दर कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।

2. कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध (Close Relation between the Executive and the Parliament) कार्यपालिका और संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्रिमण्डल में ले लिया जाता है जो संसद् का सदस्य नहीं है तो उसे 6 महीने के अन्दरअन्दर या तो संसद् का सदस्य बनना पड़ता है या फिर मन्त्रिमण्डल से त्याग-पत्र देना पड़ता है। लोकसभा में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है राष्ट्रपति उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह से अन्य मन्त्रियों को नियुक्त करता है। मन्त्रिमण्डल शासन चलाने का कार्य ही नहीं करता बल्कि कानून निर्माण में भी भाग लेता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, अपने विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं।

3. राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग है (President remains outside the Cabinet)–संसदीय प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग रहता है। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के प्रत्येक निर्णय से राष्ट्रपति को सूचित कर दिया जाता है।

4. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व (Leadership of the Prime Minister)-मन्त्रिमण्डल अपना समस्त कार्य प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में करता है। राष्ट्रपति राज्य का अध्यक्ष है और प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष है। प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार ही राष्ट्रपति अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। मन्त्रियों में विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री के द्वारा ही किया जाता है और वह जब चाहे मन्त्रियों के विभागों को बदल सकता है। वह मन्त्रिमण्डल की अध्यक्षता करता है। यदि कोई मन्त्री प्रधानमन्त्री से सहमत नहीं होता तो वह त्याग-पत्र दे सकता है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर किसी भी मन्त्री को पद से हटा सकता है। मन्त्रिमण्डल का जीवन तथा मृत्यु प्रधानमन्त्री के हाथों में होती है। प्रधानमन्त्री का इतना महत्त्व है कि उसे सितारों में चमकता हुआ चाँद (Shinning moon among the stars) कहा जाता है।

5. राजनीतिक एकरूपता (Political Homogeneity)—संसदीय शासन प्रणाली की अन्य विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक एकरूपता होती है। लोकसभा में जिस दल का बहुमत होता है उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री बनाया जाता है और प्रधानमन्त्री अपने मन्त्रिमण्डल का स्वयं निर्माण करता है। प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी के सदस्यों को ही मन्त्रिमण्डल में शामिल करता है। विरोधी दल के सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में नियुक्त नहीं किया जाता।

6. एकता (Solidarity)—भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक और विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल एक इकाई के समान कार्य करता है। मन्त्री एक साथ बनते हैं और एक साथ ही अपने पद त्यागते हैं। जो निर्णय एक बार मन्त्रिमण्डल के द्वारा कर लिया जाता है, मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य उस निर्णय के अनुसार ही कार्य करते हैं और कोई भी मन्त्री उसका विरोध नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल में जब कभी भी किसी विषय पर विचार होता है, उस समय प्रत्येक सदस्य स्वतन्त्रता से अपने-अपने विचार दे सकता है, परन्तु जब एक बार निर्णय ले लिया जाता है, चाहे वह निर्णय बहुमत के द्वारा क्यों न लिया गया हो, वह निर्णय समस्त मन्त्रिमण्डल का निर्णय कहलाता है।

7. मन्त्रिमण्डल का उत्तरदायित्व (Ministerial Responsibility)-भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल को अपनी आंतरिक तथा बाहरी नीति संसद के सामने रखनी पड़ती है और संसद् की स्वीकृति मिलने के बाद ही उसे लागू कर सकता है। संसद् के सदस्य मन्त्रियों से उनके विभागों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकते हैं और मन्त्रियों को प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है। यदि उत्तर स्पष्ट न हो या प्रश्नों को टालने की कोशिश की जाए तो सदस्य अपने इस अधिकार की रक्षा के लिए सरकार से अपील कर सकते हैं। यदि लोकसभा मन्त्रिमण्डल के कार्यों से सन्तुष्ट न हो तो वह उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास कर सकते हैं।

8. गोपनीयता (Secrecy) भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक अन्य विशेषता यह है कि मन्त्रिमण्डल की बैठकें प्राइवेट और गुप्त होती हैं। मन्त्रिमण्डल की कार्यवाही गुप्त रखी जाती है और मन्त्रिमण्डल की बैठकों में उसके सदस्यों के अतिरिक्त किसी अन्य को उसमें बैठने का अधिकार नहीं होता। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) के अनुसार मन्त्रियों को पद ग्रहण करते समय मन्त्रिमण्डल की कार्यवाहियों को गुप्त रखने की शपथ लेनी पड़ती है।

9. प्रधानमन्त्री लोकसभा को भंग करवा सकता है (Prime Minister Can get the Lok Sabha Dissolved) भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को सलाह देकर लोकसभा को भंग करवा सकता है। जनवरी, 1977 में राष्ट्रपति अहमद ने प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर लोकसभा को भंग कर किया। 22 अगस्त, 1979 को राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी ने प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह की सलाह पर लोकसभा को भंग किया। 6 फरवरी, 2004 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम ने 13वीं लोकसभा भंग कर दी।

10. मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं है (The Tenure of the Cabinet is not Fixed)-मन्त्रिमण्डल की अवधि निश्चित नहीं है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त है। इस प्रकार मन्त्रिमण्डल की अवधि लोकसभा पर निर्भर करती है। अत: यदि मन्त्रिमण्डल को लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त रहे तो वह 5 वर्ष तक रह सकता है। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को जब चाहे हटा सकती है।

11. लोकसभा की श्रेष्ठता (Superiority of the Lok Sabha)-संसदीय सरकार की एक विशेषता यह होती है कि संसद् का निम्न सदन ऊपरि सदन की अपेक्षा श्रेष्ठ और शक्तिशाली होता है। भारत में भी संसद् का निम्न सदन (लोकसभा) राज्यसभा से श्रेष्ठ और अधिक शक्तिशाली है। मन्त्रिमण्डल के सदस्यों की आलोचना और उनसे प्रश्न पूछने का अधिकार संसद् के दोनों सदनों के सदस्यों को है, परन्तु वास्तव में मन्त्रिमण्डल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा ही अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है, परन्तु ये अधिकार राज्यसभा के पास नहीं है। 17 अप्रैल, 1999 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने त्याग-पत्र दे दिया क्योंकि लोकसभा ने वाजपेयी के विश्वास प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

12. विरोधी दल के नेता को मान्यता (Recognition to the Leader of the Opposition Party)-मार्च, 1977 को लोकसभा के चुनाव के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। जनता सरकार ने संसदीय शासन प्रणाली को दृढ़ बनाने के लिए विरोधी दल के नेता को कैबिनेट स्तर के मन्त्री की मान्यता दी। ब्रिटिश परम्परा का अनुसरण करते हुए भारत में भी अगस्त,1977 में भारतीय संसद् द्वारा पास किए गए कानून के अन्तर्गत संसद् के दोनों सदनों में विरोधी दल के नेताओं को वही वेतन तथा सुविधाएं दी जाती हैं जो कैबिनेट स्तर के मन्त्री को प्राप्त होती हैं। मासिक वेतन और निःशुल्क आवास एवं यात्रा भत्ते की व्यवस्था की गई है। अप्रैल-मई, 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी को विरोधी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 3.
भारतीय संसदीय लोकतंत्र के कोई 6 दोषों या कमियों का वर्णन करें। (Explian six weaknesses or defects of Parliamentary democracy in India.)
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली के अवगुणों का वर्णन कीजिए। (Discuss the demerits of Indian Parliamentary System.)
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली के दोषों का वर्णन कीजिए। (Explain the defects of Indian Parliamentary System.)
उत्तर-
भारत में केन्द्र और प्रांतों में संसदीय शासन प्रणाली को कार्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं। भारतीय संसदीय प्रणाली की कार्यविधि के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संसदीय प्रजातन्त्रीय प्रणाली में बहुत-सी त्रुटियां हैं जिनके कारण कई बार यह कहा जाता है कि भारत में संसदीय प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि के अध्ययन के पश्चात् निम्नलिखित दोष नज़र आते हैं-

1. एक दल की प्रधानता (Dominance of One Party)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि यहां पर कांग्रेस दल का ही प्रभुत्व छाया रहा है। 1950 से लेकर मार्च, 1977 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही। राज्यों में भी 1967 तक इसी की प्रधानता रही।
जनवरी, 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस (इ) को भारी सफलता मिली। कांग्रेस (इ) को 351 सीटें मिलीं जबकि लोकदल को 41 और जनता पार्टी को केवल 31 स्थान मिले। हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में दल-बदल द्वारा कांग्रेस (इ) की सरकारें स्थापित की गईं। मई, 1980 में 9 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में तमिलनाडु को छोड़कर 8 अन्य राज्यों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली और कांग्रेस (इ) की सरकारें बनीं। दिसम्बर, 1984 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई। ऐसा लगता था कि कांग्रेस का एकाधिकार पुनः स्थापित हो जाएगा। परन्तु नवम्बर, 1989 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस (इ) की पराजय हुई और राष्ट्रीय मोर्चा को विजय प्राप्त हुई। फरवरी, 1990 में 8 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश को छोड़कर अन्य राज्यों में गैर-कांग्रेसी दलों को भारी सफलता प्राप्त हुई।

मई, 1991 के लोकसभा के चुनाव और विधानसभाओं के चुनाव से स्पष्ट हो गया है कि अब कांग्रेस (इ) की प्रधानता 1977 से पहले जैसी नहीं रही। मई, 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 140 सीटें प्राप्त हुईं। पश्चिमी बंगाल, केरल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश व पंजाब इत्यादि राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इसी प्रकार फरवरी-मार्च, 1998 एवं सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के चुनावों में भी कांग्रेस को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् यद्यपि कांग्रेस ने केन्द्र में सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके लिए अन्य दलों का समर्थन भी लेना पड़ा। अप्रैल-मई 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भी गठबन्धन सरकार का ही निर्माण किया गया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा उसे केवल 44 सीटें ही मिल पाईं, जबकि भाजपा को पहली बार स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। अतः अब कांग्रेस की प्रधानता समाप्त हो गई है।

2. संगठित विरोधी दल का अभाव (Lack of Effective Opposition)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि सदैव संगठित विरोधी दल के अभाव को अनुभव करती रही है।
लम्बे समय तक संगठित विरोधी दल न होने के कारण कांग्रेस ने विरोधी दलों की बिल्कुल परवाह नहीं की। परन्तु जनता पार्टी की स्थापना के पश्चात् भारतीय राजनीति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल बनी और कांग्रेस को विरोधी बैंचों पर बैठने का पहली बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार कांग्रेस की हार से संगठित विरोधी दल का उदय हुआ।

सितम्बर-अक्तूबर 1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को विपक्षी दल के रूप में और इस दल की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी को विपक्षी दल के नेता के रूप.में मान्यता दी गई है। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी दल के रूप में तथा इस दल के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को विपक्षी दल के नेता के रूप में मान्यता दी गई। दिसम्बर, 2009 में भारतीय जनता पार्टी ने श्री लाल कृष्ण आडवाणी के स्थान पर श्रीमती सुषमा स्वराज को लोकसभा में विपक्ष का नेता नियुक्त किया। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ।

3. बहुदलीय प्रणाली (Multiple Party System)—संसदीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक और बाधा बहुदलीय प्रणाली का होना है। भारत में फ्रांस की तरह बहुत अधिक दल पाए जाते हैं। स्थायी शासन के लिये दो या तीन दल ही होने चाहिए। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती। 1967 के चुनाव के पश्चात, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में सरकारों के गिरने और बनने का पता भी नहीं चलता था। अत: संसदीय प्रजातन्त्र की कामयाबी के लिए दलों की संख्या को कम करना अनिवार्य है। मई, 1991 के लोकसभा के चुनाव के अवसर पर चुनाव आयोग ने 9 राष्ट्रीय दलों को मान्यता दी परन्तु फरवरी, 1992 में चुनाव कमीशन ने 3 राष्ट्रीय दलों की मान्यता रद्द कर दी। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय तथा 58 दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

4. सामूहिक उत्तरदायित्व की कमी (Absence of Collective Responsibility)-संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अभिप्राय यह है कि एक मन्त्री के विरुद्ध भी निन्दा प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया जाए तो समस्त मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है जबकि व्यवहार में ऐसा होना चाहिए, परन्तु भारत में ऐसी परम्परा की कमी है।

5. अच्छी परम्पराओं की कमी (Absence of Healthy Convention)-संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है। इंग्लैण्ड में संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं के कारण ही है, परन्तु भारत में कांग्रेस शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई। इसके लिए विरोधी दल भी ज़िम्मेदार है।

6. अध्यादेशों द्वारा प्रशासन (Administration by Ordinances)-संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई है। संविधान निर्माताओं का यह उद्देश्य था कि जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो या असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो उस समय राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करेगा। परन्तु विशेषकर पिछले 20 वर्षों में कई बार अध्यादेश उस समय जारी किए गए हैं, जब संसद् का अधिवेशन एकदो दिनों में होने वाला होता है। बहुत अधिक अध्यादेश का जारी करना मनोवैज्ञानिक पक्ष में भी बुरा प्रभाव डालता है। लोग अनुभव करने लग जाते हैं कि सरकार अध्यादेशों द्वारा चलाई जाती है। इसके अतिरिक्त बहुत अधिक अध्यादेश जारी करना मनोवैज्ञानिक रूप से बुरा प्रभाव डालता है।

7. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contact With the Masses)-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते हैं। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को अपने विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान नहीं होता। .

8. चरित्र का अभाव (Lack of Character)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए मतदाता, शासक तथा आदर्श नागरिकों का चरित्र ऊंचा होना अनिवार्य है। परन्तु हमारे विधायक तथा राजनीतिक दलों के चरित्र का वर्णन करते हुए भी शर्म आती है। विधायक मन्त्री पद के पीछे दौड़ रहे हैं। जनता तथा देश के हित में न सोच कर विधायक अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता के नियमों का दिन-दिहाड़े मज़ाक उड़ा रहे हैं। विधायक अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दल बदलने में बिल्कुल नहीं झिझकते। .

9. दल-बदल (Defection)—भारतीय संसदीय लोकतन्त्र की सफलता में एक महत्त्वपूर्ण बाधा दल-बदल है। चौथे आम चुनाव के पश्चात् दल-बदल चरम सीमा पर पहुंच गया। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4000 विधायकों में से 1400 विधायकों ने दल बदले। सबसे अधिक दल-बदल कांग्रेस में हुआ। 22 जनवरी, 1980 को हरियाणा के मुख्यमन्त्री चौधरी भजन लाल 37 सदस्यों के साथ जनता पार्टी को छोड़कर कांग्रेस (आई) में शामिल हो गए। मई, 1982 को हरियाणा में चौधरी भजन लाल ने दल-बदल के आधार पर मन्त्रिमण्डल का निर्माण किया। अनेक विधायक लोकदल को छोड़ कर कांग्रेस (आई) में शामिल हुए। दल-बदल संसदीय प्रजातन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है। अनेक सरकारें दल-बदल के कारण ही गिरती हैं। 1979 में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई को और 1990 में प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह को दल-बदल के कारण ही त्याग-पत्र देना पड़ा था। 30 दिसम्बर, 1993 को कांग्रेस (इ) को दल-बदल द्वारा ही लोकसभा में बहुमत प्राप्त हुआ। वर्तमान समय में भी दलबदल की समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।

10. अनुशासनहीनता (Indiscipline)-विधायकों में अनुशासनहीनता भी भारतीय राजनीति में एक नया तत्त्व है। यह भावना भी 1967 के चुनावों के बाद ही विशेष रूप से उत्पन्न हुई है। विरोधी दलों ने राज्यों में अपना मन्त्रिमण्डल बनाने का प्रयत्न किया और कांग्रेस ने इसके विपरीत कार्य किया। शक्ति की इस खींचातानी में दोनों ही दल मर्यादा, नैतिकता और औचित्य की सीमाओं को पार कर गए और विधानमण्डलों में ही शिष्टाचार को भुलाकर आपस में लड़नेझगड़ने तथा गाली-गलोच करने लगे। इस खींचातानी में दलों ने यह सोचना ही छोड़ दिया कि क्या ठीक है, क्या गलत है। एक-दूसरे पर जूते फेंकने की घटनाएं घटने लगीं।

11. लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता पर सन्देह (Doubts about the Neutrality of the Speaker)लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) संसदीय प्रणाली की सरकार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः अध्यक्ष का निष्पक्ष होना आवश्यक है परन्तु भारत में केन्द्र एवं राज्यों में स्पीकर की निष्पक्षता पर सन्देह व्यक्त किया जाता है।।

12. राजनीतिक अपराधीकरण (Criminalisation of Politics)-भारत में राजनीतिक अपराधीकरण की समस्या निरन्तर गम्भीर होती जा रही है जोकि संसदीय शासन प्रणाली के लिए गम्भीर खतरा है। संसद् तथा राज्य विधानमण्डल अपराधियों के लिए सुरक्षित स्थान एवं आश्रय स्थल बनते जा रहे हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 11वीं लोकसभा में 40 एवं विभिन्न राज्यों के विधानमण्डलों में 700 से अधिक सदस्य थे, जिन्हें किसी न किसी अपराध के अंतर्गत सज़ा मिल चुकी थी। इस समस्या से पार पाने के लिए चुनाव आयोग ने 1997 में एक आदेश द्वारा अपराधियों को चुनाव लड़ने के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 2014 में निर्वाचित हुई 16वीं लोकसभा में भी अपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति सांसद चुने गए।

13. त्रिशंकु संसद् (Hung Parliament)-भारतीय संसदीय प्रणाली का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि भारत में पिछले कुछ आम चुनावों में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इसीलिए गठबन्धन सरकारों का निर्माण हो रहा है। त्रिशंकु संसद् होने के कारण सरकारें स्थाई नहीं हो पाती तथा क्षेत्रीय दल इसका अनावश्यक लाभ उठाते हैं।

14. डॉ० गजेन्द्र गडकर (Dr. Gajendra Gadkar) ने संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए अपने लेख ‘Danger to Parliamentary Government’ में लिखा है कि राजनीतिक दल यह भूल गए हैं कि राजनीतिक सत्ता ध्येय न होकर सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साधन है। राजनीतिक दल उन सभी साधनों का, जिससे चाहे राष्ट्र के हित को हानि पहुंचती हो, प्रयोग करते झिझकते नहीं है, जिनसे वे राजनीतिक सत्ता प्राप्त करते हों। चौथे आम चुनाव के पश्चात, राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ गई थी। हड़ताल, बन्द हिंसात्मक साधनों का प्रयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। साम्प्रदायिक दंगे-फसाद संसदीय प्रजातन्त्र के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं।

15. गाडगिल (Gadgil) ने वर्तमान संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए लिखा है कि सभी निर्णय जो संसद् में बहुमत से लिए जाते हैं, वे वास्तव में बहुमत के निर्णय न होकर अल्पमत के निर्णय होते हैं। सत्तारूढ़ दल अपने समर्थकों के साथ पक्षपात करते हैं और प्रत्येक साधन से चाहे वे जनता के हित में न हों सस्ती लोकप्रियता (Cheap Popularity) प्राप्त करने के लिए अपनाते हैं । गाडगिल ने यह भी कहा है कि संसदीय सरकार एकमात्र धोखा है क्योंकि वास्तव में निर्णय बहुमत के नेताओं द्वारा लिए जाते हैं जो सभी पर लागू होते हैं।

16. डॉ० जाकिर हुसैन (Dr. Zakir Hussain) के अनुसार, “संसदीय प्रजातन्त्र को सबसे मुख्य खतरा हिंसा के इस्तेमाल से है। भारत में कई राजनीतिक दल यह जानते हुए भी कि बन्द आदि से हिंसा उत्पन्न होती है, जनता को इनका प्रयोग करने के लिए उकसाते रहते हैं।”
निःसन्देह भारतीय संसदीय शासन प्रणाली में अनेक दोष पाए जाते हैं, परन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि भारत में संसदीय लोकतन्त्र असफल रहा है। भारत में संसदीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए उचित वातावरण है और संसदीय लोकतन्त्र की जड़ें काफ़ी मज़बूत हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 4.
भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक-आर्थिक तत्त्वों का वर्णन करें।
(Explain the socio-economic factors that influence the Indian Democracy.)
अथवा
लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तथा आर्थिक तत्त्वों का वर्णन करें।
(Discuss the social and economic factors conditioning Democracy.)
उत्तर-
भारत में लोकतन्त्र को अपनाया गया है और संविधान में लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाने के लिए भरसक प्रयत्न किया गया है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ घोषित किया गया है। प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि संविधान के निर्माण का उद्देश्य भारत के नागरिकों को कई प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्रदान करना है और इनमें मुख्य स्वतन्त्रताओं का उल्लेख प्रस्तावना में किया गया है। जैसे-विचार रखने की स्वतन्त्रता, अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा, बुद्धि के अनुसार किसी भी बात में विश्वास रखने की स्वतन्त्रता तथा अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट देव की उपासना करने की स्वतन्त्रता आदि प्राप्त है।

प्रस्तावना में नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्रदान की गई है और बन्धुत्व की भावना को विकसित करने पर बल दिया गया है। प्रस्तावना में व्यक्ति के गौरव को बनाए रखने की घोषणा की गई है। संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। इन अधिकारों का उद्देश्य भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। संविधान के चौथे भाग में राजनीति के निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है, जिनका उद्देश्य आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। संविधान में सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक नागरिकों को जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो वोट डालने का अधिकार है। अप्रैल-मई, 2014 में 16 वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर मतदाताओं की संख्या 81 करोड़ 40 लाख थी। संविधान में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों और पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं। निःसन्देह सैद्धान्तिक रूप में प्रजातन्त्र की आदर्श व्यवस्था कायम करने के प्रयास किए गए हैं, परन्तु व्यवहार में भारत में लोकतन्त्रीय प्रणाली को उतनी अधिक सफलता नहीं मिली जितनी कि इंग्लैण्ड, अमेरिका, स्विटज़रलैण्ड आदि देशों में मिली है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और इनका लोकतन्त्रीय प्रणाली पर भी प्रभाव पड़ता है। भारत की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों ने लोकतन्त्र को बहुत अधिक प्रभावित किया है।

भारतीय प्रजातन्त्र को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्त्व (SOCIAL FACTORS CONDITIONING INDIAN DEMOCRACY)-

1. सामाजिक असमानता (Social Inequality)-लोकतन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक समानता का होना आवश्यक है। सामाजिक समानता का अर्थ यह है कि धर्म, जाति, रंग, लिंग, वंश आदि के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना के इतने वर्षों बाद भी सामाजिक असमानता पाई जाती है। भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों व वर्गों के लोग रहते हैं। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है। निम्न जातियों और हरिजनों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा एवं असंतोष को बढ़ावा दिया है।

2. निरक्षरता (Illiteracy)-20वीं शताब्दी के अन्त में जब विश्व में पर्याप्त वैज्ञानिक व औद्योगिक प्रगति हो चुकी है, भारत जैसे लोकतन्त्रीय देश में अभी भी काफ़ी निरक्षरता है। शिक्षा एक अच्छे जीवन का आधार है, शिक्षा के बिना व्यक्ति अन्धकार में रहता है। अनपढ़ व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है इसलिए उसमें देश की समस्याओं को समझने व हल करने की क्षमता नहीं होती। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। वह अपने अधिकारों के अनुचित अतिक्रमण से रक्षा नहीं कर सकता और न ही वह अपने कर्त्तव्यों को ठीक तरह से निभा सकता है। इसके अतिरिक्त अशिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद आदि के चक्कर में पड़ा रहता है। ___

3. जातिवाद (Casteism)-भारतीय समाज में जातिवाद की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। आज भारत में तीन हज़ार से अधिक जातियां और उपजातियां हैं। जातिवाद का भारतीय राजनीति से गहरा सम्बन्ध है। भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी राजनीति में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिद्ध हुआ है।

4. अस्पृश्यता (Untouchability)-अस्पृश्यता ने भारतीय लोकतन्त्र को अत्यधिक प्रभावित किया है। अस्पृश्यता भारतीय समाज पर एक कलंक है। यह हिन्दू समाज की जाति-प्रथा का प्रत्यक्ष परिणाम है।

यद्यपि भारतीय संविधान के अन्तर्गत छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है तथा छुआछूत को मानने वाले को दण्ड दिया जाता है, फिर भी भारत के अनेक भागों में अस्पृश्यता प्रचलित है। अस्पृश्यता ने भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है। अस्पृश्यता के कारण हरिजनों में हीनता की भावना बनी रहती है, जिस कारण वे भारत की राजनीति में सक्रिय भाग नहीं ले पाते। छुआछूत के कारण समाज में उच्च वर्गों और निम्न वर्गों में बन्धुत्व की भावना का विकास नहीं हो पा रहा है। हरिजनों और जन-जातियों का शोषण किया जा रहा है और उन पर उच्च वर्गों द्वारा अत्याचार किए जाते हैं। भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए छुआछूत को व्यवहार में समाप्त करना अति आवश्यक है।

5. साम्प्रदायिकता (Communalism)—साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एकदूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। धर्म का भारतीय राजनीति पर सदैव ही प्रभाव रहा है। धर्म की संकीर्ण भावनाओं ने स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक झगड़ों का अखाड़ा बना दिया। धर्म के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच झगड़े चलते रहते थे और अन्त में भारत का विभाजन भी हुआ। परन्तु भारत का विभाजन भी साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं कर सका और आज फिर साम्प्रदायिक तत्त्व अपना सिर उठा रहे हैं।

6. सामाजिक तनाव और हिंसा (Social Tension and Violence)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक सहयोग और शान्ति का होना आवश्यक है। परन्तु भारत के किसी-न-किसी भाग में सदैव सामाजिक तनाव बना रहता है और हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं। सामाजिक तनाव उत्पन्न होने के कई कारण हैं। सामाजिक तनाव का महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक तथा आर्थिक असमानता है। कई बार क्षेत्रीय भावनाएं सामाजिक तनाव उत्पन्न कर देती हैं। साम्प्रदायिकता सामाजिक तनाव पैदा करने का महत्त्वपूर्ण कारण है। सामाजिक तनावों से हिंसा उत्पन्न होती है। उदाहरणस्वरूप 1983 से 1990 के वर्षों में पंजाब में 1992, 1993 में अयोध्या मुद्दे के कारण उत्तर प्रदेश में तथा 2002 में गुजरात में गोधरा कांड के कारण सामाजिक तनाव और हिंसा की घटनाएं होती रही हैं।

7. भाषावाद (Linguism)-भारत में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लोग रहते हैं। भारतीय संविधान में 22 भाषाओं का वर्णन किया गया है और इसमें हिन्दी भी शामिल है। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखित संघ सरकार की सरकारी भाषा घोषित की गई है। भाषावाद ने भारतीय लोकतन्त्र एवं राजनीति को काफी प्रभावित किया है। भाषा के आधार पर लोगों में क्षेत्रीयवाद की भावना का विकास हुआ और सीमा विवाद उत्पन्न हुए हैं। भाषा के विवादों ने आन्दोलनों, हिंसा इत्यादि को जन्म दिया। भाषायी आन्दोलनों से सामाजिक तनाव की वृद्धि हुई है। चुनावों के समय राजनीतिक दल अपने हितों के लिए भाषायी भानवाओं को उकसाते हैं। मतदान के समय मतदाता भाषा से काफी प्रभावित होते हैं। तमिलनाडु के अन्दर डी० एम० के० तथा अन्ना डी० एम० के० ने कई बार हिन्दी विरोधी आन्दोलन चला कर मतदाताओं को प्रभावित किया।

भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले आर्थिक तत्त्व
(ECONOMIC FACTORS CONDITIONING INDIAN DEMOCRACY)-

1. आर्थिक असमानता (Economic Inequality) लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। आर्थिक समानता का अर्थ है कि समाज में आर्थिक असमानता कम-से-कम होना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन मिलना चाहिए। परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष के पश्चात् आर्थिक असमानता बहत अधिक पाई जाती है। भारत में एक तरफ करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता। भारत में देश का धन थोड़े-से परिवारों के हाथों में ही केन्द्रित है। भारत में आर्थिक शक्ति का वितरण समान नहीं है। अमीर दिन-प्रतिदिन अधिक अमीर होते जाते हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब होते जाते हैं। आर्थिक असमानता ने लोकतन्त्र को काफी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं और प्रायः धनी व्यक्तियों को पार्टी का टिकट दिया जाता है। चुनावों में धन का अधिक महत्त्व है और धन के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथों में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारतीय लोकतन्त्र को ग़रीबी ने बहुत प्रभावित किया है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनको न तो खाने के लिए भर पेट भोजन मिलता है, न पहनने को कपड़ा और न रहने के लिए मकान। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। ग़रीब नागरिक को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहेगा और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना तो दूर की बात रही, वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 5.
भारतीय लोकतन्त्र की मुख्य समस्याओं का वर्णन करें।
(Discuss the major problems of Indian Democracy.)
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं और चनौतियों के बारे में लिखिए।
(Write down about problems and challenges to Indian democracy.)
उत्तर-
निःसन्देह सैद्धान्तिक रूप में भारत में प्रजातन्त्र की आदर्श-व्यवस्था कायम करने के प्रयास किए गये हैं परन्तु व्यवहार में आज भी भारतीय प्रजातन्त्र अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक बुराइयों से जकड़ा हुआ है और ये बुराइयां भारतीय लोकतन्त्र के लिए अभिशाप बन चुकी हैं। ये बुराइयां निम्नलिखित हैं-

1. सामाजिक तथा आर्थिक असमानता (Social and Economic Inequality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक व आर्थिक समानता का होना बहुत आवश्यक हैं। भारत में लोकतन्त्र की स्थापना हुए इतने वर्ष हो चुके हैं फिर भी यहां पर सामाजिक व आर्थिक असमानता पाई जाती है। समाज के सभी नागरिकों को समान नहीं समझा जाता। जाति, धर्म, वंश, लिंग के आधार पर व्यवहार में आज भी भेदभाव किया जाता है। स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता। निम्न जातियों और हरिजनों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा एवं असन्तोष को बढ़ावा दिया है। निम्न वर्ग के लोगों ने कई बार आन्दोलन किए हैं और संरक्षण की मांग की है। सामाजिक असमानता से लोगों का दृष्टिकोण बहुत संकीर्ण हो जाता है। प्रत्येक वर्ग अपने हित की सोचता है, न कि समस्त समाज एवं राष्ट्र के हित में। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं और सत्ता पर उच्च वर्ग को लोगों का ही नियन्त्रण रहता है। सामाजिक असमानता के कारण समाज का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक कार्यों के प्रति उदासीन रहता है।

2. ग़रीबी (Poverty)-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। गरीब नागरिक को पेट भर भोजन न मिल सकने के कारण उसका शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो सकता। वह सदा अपने पेट भरने की चिन्ता में लगा रहेगा और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। दीन-दुःखियों से चुनाव लड़ने की आशा करना मूर्खता है। ग़रीब नागरिक अपनी वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। अत: यदि हम भारतीय प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हैं तो जनता की आर्थिक दशा सुधारनी होगी।

3. अनपढ़ता (Illiteracy) शिक्षा एक अच्छे जीवन का आधार है, शिक्षा के बिना व्यक्ति अन्धकार में रहता है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष बाद भी भारत की लगभग 24 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 से 35 वर्ष की आयु के बीच लगभग 10 करोड़ व्यक्ति अनपढ़ है। अनपढ़ व्यक्ति में आत्म-विश्वास की कमी होती है और उसमें देश की समस्याओं को समझने तथा हल करने की क्षमता नहीं होती है। अशिक्षित व्यक्ति को न हो तो अपने अधिकारों का ज्ञान होता है और न ही अपने कर्तव्यों का। वह अपने अधिकारों की अनुचित अतिक्रमण से रक्षा नहीं कर सकता और न ही वह अपने कर्तव्यों को ठीक तरह से निभा सकता है। इसके अतिरिक्त अशिक्षित व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित होता है। वह जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद आदि के चक्कर में पड़ा रहता है।

4. बेकारी (Unemployment) बेकारी प्रजातन्त्र की सफलता में एक बहुत बड़ी बाधा है। बेकार व्यक्ति की बातें सोचता रहता है। वह देश तथा समाज के हित में सोच ही नहीं सकता।।
बेकार व्यक्ति में हीन भावना आ जाती है और वह अपने आपको समाज पर बोझ समझने लगता है। बेकार व्यक्ति अपनी समस्याओं में ही उलझा रहता है और उसे समाज एवं देश की समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता। बेरोज़गारी के कारण नागरिकों के चरित्र का पतन हुआ है। इससे बेइमानी, चोरी, ठगी, भ्रष्टाचार की बढ़ोत्तरी हुई है। प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए बेकारी को जल्दी-से-जल्दी समाप्त करना अति आवश्यक है।

5. एक दल की प्रधानता (Dominance of one Party)-प्रजातन्त्र का महत्त्वपूर्ण दोष यह रहा है कि यहां पर कांग्रेस दल का ही प्रभुत्व छाया रहा है। 1950 से लेकर मार्च, 1977 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी रही है। राज्यों में भी 1967 तक इसी की प्रधानता रही है और 1971 के मध्यावधि चुनाव के पश्चात् फिर उसी दल के एकाधिकार के कारण अन्य दल विकसित नहीं हो पाए।

6. संगठित विरोधी दल का अभाव (Lack of Organised Opposition)-भारतीय प्रजातन्त्र की कार्यविधि सदैव संगठित विरोधी दल के अभाव को अनुभव करती रही है।

संगठित विरोधी दल न होने के कारण कांग्रेस ने विरोधी दलों की बिल्कुल परवाह नहीं की। विरोधी दलों के नेताओं ने संसद् में सरकार के विरुद्ध कई बार यह आरोप लगाया है कि उन्हें अपने विचार रखने का पूरा अवसर नहीं दिया जाता है। कई बार तो सरकार संसद् में दिए गए वायदों को भी भूल जाती है।

जनता पार्टी की स्थापना के पश्चात् भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। मार्च, 1977 के लोकसभा के चुनाव में जनता पार्टी का सत्तारूढ़ दल बना और कांग्रेस को विरोधी बैंचों पर बैठने का पहली बार सौभाग्य प्राप्त हुआ।

अप्रैल-मई, 2004 में हुए 14वीं एवं अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में विरोधी दल की मान्यता प्रदान की गई। 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ।

7. बहुदलीय प्रणाली (Multiple Party System)—प्रजातन्त्र की सफलता में एक और बाधा बहुदलीय प्रणाली का होना है। भारत में फ्रांस की तरह बहुत अधिक दल पाए जाते हैं। स्थायी शासन के लिए दो या तीन दल ही होने चाहिएं। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती है। 1967 के चुनाव के पश्चात् बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि प्रान्तों में सरकारों के गिरने और बनने का पता भी नहीं चलता था। अतः संसदीय प्रजातन्त्र की कामयाबी के लिए दलों की संख्या को कम करना अनिवार्य है। संसदीय प्रजातन्त्रीय की सफलता की लिए जनता पार्टी का निर्माण एक महत्त्वपूर्ण कदम था। परन्तु जनता पार्टी का विभाजन हो गया और चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी (स) की स्थापना हुई। चुनाव आयोग ने 7 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्रदान की हुई है।

8. प्रादेशिक दल (Regional Parties)—भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या प्रादेशिक दलों का होना है। चुनाव आयोग ने 58 क्षेत्रीय दलों को राज्य स्तरीय दलों के रूप में मान्यता दी हुई है। प्रादेशिक दलों का महत्त्व दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, जो प्रजातन्त्र की सफलता के लिए ठीक नहीं। प्रादेशिक दल देश के हित की न सोचकर क्षेत्रीय हितों की सोचते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को खतरा पैदा हो गया है।

9. सिद्धान्तहीन राजनीति (Non-Principled Politics)-भारत में प्रजातन्त्र की सफलता में एक अन्य बाधा सिद्धान्तहीन राजनीति है। प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने सिद्धान्तहीन राजनीति का अनुसरण किया है। 1967 के बाद उनके राज्यों में मिली-जुली सरकारें बनी। सत्ता के लालच में ऐसे दल मिल गए जो आदर्शों की दृष्टि से एक-दूसरे के विरोधी थे। विरोधी दलों का लक्ष्य केवल कांग्रेस को सत्ता से हटाना था। कांग्रेस ने भी प्रजातान्त्रिक परम्पराओं का उल्लंघन किया। गर्वनर के पद का दुरुपयोग किया गया। आपात्काल में तमिलनाडु की सरकार को स्पष्ट बहुमत प्राप्त होने के बावजूद भी हटा दिया गया। श्रीमती गांधी के लिए सफलता प्राप्त करना ही सबसे बड़ा लक्ष्य था चाहे इसके लिए कैसे भी साधन अपनाए गए। लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों के अवसर पर लगभग सभी राजनीतिक दल सिद्धान्तहीन समझौते करते हैं।

10. निम्न स्तर की राजनीतिक सहभागिता (Low level of Political Participation)-लोकतन्त्र की सफलता के लिए लोगों का राजनीति में सक्रिय भाग लेना आवश्यक है, परन्तु भारत में लोगों की राजनीतिक सहभागिता बहुत निम्न स्तर की है। अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में लगभग 66.38% मतदाताओं ने भाग लिया। अतः लोगों की राजनीतिक उदासीनता लोकतन्त्र की समस्या है।

11. अच्छी परम्पराओं की कमी (Absence of Healthy Conventions)—प्रजातन्त्र की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है। इंग्लैण्ड में संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं के कारण ही है, परन्तु भारत में कांग्रेस के शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। इसके लिए विरोधी दल भी जिम्मेवार हैं।

12. अध्यादेशों द्वारा शासन (Administration by Ordinance)-संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई है। संविधान निर्माताओं का यह उद्देश्य था कि जब संसद् का अधिवेशन न हो रहा हो या असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई तो उस समय राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग करेगा। विशेषकर पिछले 20 वर्षों में कई बार अध्यादेश उस समय जारी किए गए जब संसद् का अधिवेशन एक-दो दिन में होने वाला होता है। आन्तरिक आपात्काल की स्थिति में तो ऐसा लगता है जैसे भारत सरकार अध्यादेशों द्वारा ही शासन चला रही है। अधिक अध्यादेशों से संसद् की शक्ति का ह्रास होता है। इसीलिए 25 जनवरी, 2015 को राष्ट्र के नाम दिए, अपने सम्बोधन में राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेशों को लागू करने पर अपनी चिन्ता जताई।

13. जनता के साथ कम सम्पर्क (Less Contract with the Masses) भारतीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते हैं। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को अपने विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान ही नहीं होता।

14. दल बदल (Defection)-भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक अन्य बाधा दल बदल की बुराई है। चौथे आम चुनाव के पश्चात् दल बदल चरम सीमा पर पहुंच गया। मार्च, 1967 से दिसम्बर, 1970 तक 4000 विधायकों में से 1400 विधायकों ने दल बदले। सबसे अधिक दल-बदल कांग्रेस में हुआ। दल-बदल प्रजातन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है क्योंकि इसमें से राजनीतिक अस्थिरता आती है और छोटे-छोटे दलों की स्थापना होती है। इससे जनता का अपने प्रतिनिधियों और नेताओं से विश्वास उठने लगता है।

15. विधायकों का निम्न स्तर (Poor Quality of Legislators)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या विधायकों का निम्न स्तर है। भारत के अधिकांश मतदाता अशिक्षित और साधारण बुद्धि वाले हैं, जिस कारण वे निम्न स्तर के विधायकों को चुन लेते हैं। अधिकांश विधायक स्वार्थी, हठधर्मी, बेइमान और रूढ़िवादी होते हैं। इसलिए ऐसे विधायकों को अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्व का अहसास नहीं होता। विधानमण्डल में सदस्यों का गाली-गलौच करना, मार-पीट करना, धरना देना, अध्यक्ष का आदेश न मानना इत्यादि सब विधायकों के घटिया स्तर के कारण होता है।

16. विधायकों में अनुशासन की कमी (Lack of Discipline among the Legislators)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या विधायकों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता है। विधानसभाओं में और संसद् में हाथापाई तथा मारपीट भी बढ़ती जा रही है।

17. चरित्र का अभाव (Lack of Character)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए मतदाता, शासक तथा आदर्श नागरिकों का चरित्र ऊंचा होना अनिवार्य है। परन्तु भारतीय जनता का तो कहना ही क्या, हमारे विधायक तथा राजनीतिक दलों के चरित्र का वर्णन करते हुए भी शर्म आती है। विधायक मन्त्री पद के पीछे दौड़ रहे हैं। जनता तथा देश के हित में न सोच कर विधायक अपने स्वार्थ के लिए नैतिकता के नियमों का दिन-दिहाड़े मज़ाक उड़ा रहे हैं।

18. दोषपूर्ण निर्वाचन प्रणाली (Defective Electoral System)-भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या चुनाव प्रणाली का दोषपूर्ण होना है। भारत में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है। लोकसभा राज्य विधानसभाओं के सदस्य एक सदस्यीय चुनाव क्षेत्र से चुने जाते हैं, जिसके अन्तर्गत एक चुनाव क्षेत्र में अधिकतम मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित किया जाता है। इस प्रणाली के अन्तर्गत कई बार चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार को हारने वाले उम्मीदवारों से कम मत प्राप्त होते हैं।

19. जातिवाद की राजनीति (Politics of Casteism) भारत में न केवल जातिवाद उस रूप में विद्यमान है जिसे सामान्यतः जातिवाद कहा जाता है बल्कि इस रूप में भी कि ऊंची जातियां अब भी यह मानती हैं कि देश का शासन केवल ब्राह्मणों के हाथ में ही रहना चाहिए।” यदि चौधरी चरण सिंह ने मध्य जातियों की जातीय भावना का इस्तेमाल किया और श्रीमती गांधी ने ब्राह्मणों के स्वार्थ और अल्पसंख्यकों के भय से लाभ उठाया, वहीं जनता पार्टी ने भी हरिजन और अन्य कई जातियों को धुरी बनाने के कोशिश की। न केवल पार्टियां उम्मीदवारों का चयन जाति के आधार पर करती हैं बल्कि उम्मीदवारों से भी यह उम्मीद की जाती है कि चुने जाने के बाद अपनी जाति के लोगों के काम निकलवाएंगे। राजनीति ने मरती हुई जात-पात व्यवस्था में नई जान फूंकी है और समाज में जातिवाद का जहर घोला है। जातिवाद पर आधारित भारतीय राजनीति लोकतन्त्र के लिए खतरा है।

20. साम्प्रदायिक राजनीति (Communal Politics)-स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व प्रति वर्ष देश के किसी-न-किसी भाग में साम्प्रदायिक संघर्ष होते रहते थे। मुस्लिम लीग की मांग पर ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। आज़ादी के बाद विदेशी शासक तो चले गए परन्तु साम्प्रदायिकता की राजनीति आज भी समाप्त नहीं हुई है। वास्तव में लोकतन्त्रीय प्रणाली तथा वोटों को राजनीति ने साम्प्रदायिकता को एक नया रूप दिया है। भारतीय राजनीति में ऐसे तत्त्वों की कमी नहीं है जो साम्प्रदायिक भावनाएं उभार कर मत पेटी की लड़ाई जीतना चाहते हैं।

21. क्षेत्रीय असन्तुलन (Regional Imbalances)-भारत एक विशाल देश है। भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों व भाषाओं के लोग रहते हैं। देश के कई प्रदेश एवं क्षेत्र विकसित हैं जबकि कई क्षेत्र अविकसित हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों, बिहार, असम व नागालैण्ड की जनजातियों तथा आन्ध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रेदश और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों का जीवन-स्तर बहुत नीचा है। क्षेत्रीय भावना और क्षेत्रीय असन्तुलन लोकतन्त्र के लिए बड़ा भारी खतरा है।
क्षेत्रीयवाद से प्रभावित होकर अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है। मतदाता क्षेत्रीयवाद की भावना से प्रेरित होकर मतदान करते हैं और राष्ट्र हित की परवाह नहीं करते। क्षेत्रीयवाद ने पृथकतावाद को जन्म दिया है।

22. सामाजिक तनाव (Social Tension)-सामाजिक तनाव लोकतन्त्र की सफलता में बाधा है। सामाजिक तनाव का राजनीतिक दलों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। धर्म, प्रान्तीयता और भाषा के आधार पर काम करने वाले राजनीतिक दल केन्द्र में स्थायी सरकार बनाने में अड़चने पैदा करते हैं और राष्ट्रीय दलों से सौदेबाजी करते हैं। जातीय तनाव से ऊंच-नीच की भावना को प्रोत्साहन मिलता है। नवयुवकों में निराशा और असन्तोष बढ़ता जा रहा है जिससे उनका लोकतन्त्र में विश्वास समाप्त होता जा रहा है। आर्थिक हितों के टकराव से मिल मालिकों और मज़दूरों में तनाव बढ़ा है, जिससे उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ा है। अत: लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए सामाजिक तनाव को कम करना बहुत आवश्यक है।

23. चुनाव बहुत खर्चीले हैं (Elections are very Expensive)-भारत में चुनाव बहुत खर्चीले हैं। चुनाव लड़ने के लिए अपार धन की आवश्यकता होती है। केवल धनी व्यक्ति ही चुनाव लड़ सकते हैं। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की नहीं सोच सकता। चुनाव में खर्च निर्धारित सीमा से ही अधिक होता है। कानून के अनुसार लोकसभा के चुनाव के लिए अधिकतम खर्च सीमा 15 लाख रुपए है जबकि विधानसभा के लिए 6 लाख रुपए है, परन्तु वास्तव में लोकसभा के चुनाव के लिए कम से कम 50 लाख खर्च होता है और महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा वाली सीट पर एक करोड़ से अधिक खर्च होता है। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के लोकसभा के चुनाव पर लगभग 845 करोड़ रुपए खर्च हुए। अप्रैल-मई, 2004 के लोकसभा के चुनाव पर लगभग 5000 करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनावों में लगभग 30000 करोड़ रु० खर्च हुए।

24. स्वतन्त्र और ईमानदार प्रेस की कमी (Lack of Free and Honest Press)-प्रजातन्त्र में प्रेस का बहुत ही महत्त्वपूर्ण रोल होता है और प्रेस को प्रजातन्त्र का पहरेदार कहा जाता है। प्रेस द्वारा ही जनता को सरकार की नीतियों और समस्याओं का पता चलता है। परन्तु प्रेस का स्वतन्त्र और ईमानदार होना आवश्यक है। भारत में प्रेस पूरी तरह स्वतन्त्र तथा ईमानदार नहीं है। अधिकांश प्रेसों पर पूंजीपतियों का नियन्त्रण है और महत्त्वपूर्ण दलों से सम्बन्धिते हैं। अतः प्रेस लोगों को देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति की सही सूचना नहीं देते, जिसके कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं होता।

25. हिंसा (Violence)-चुनावों में हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, जोकि प्रजातन्त्र की सफलता के मार्ग में एक खतरनाक बाधा भी साबित हो सकती है। दिसम्बर, 1989 में लोकसभा के चुनाव में 100 से अधिक व्यक्ति मारे गए। गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान एक मन्त्री पर छुरे से वार किया गया जिसकी बाद में मृत्यु हो गई। हरियाणा के भिवानी चुनाव क्षेत्र में कई कार्यकर्ता मारे गए। उत्तर प्रदेश में अमेठी विधानसभा क्षेत्र में जनता दल के उम्मीदवार डॉ० संजय सिंह को गोली मारी गई। फरवरी, 1990 में आठ राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में हिंसा की कई घटनाएं हुईं। मार्च, 1990 में हरियाणा में महम उप-चुनाव में हिंसा की घटनाओं के कारण चुनाव को रद्द कर दिया। मई, 1991 को लोकसभा के चुनाव में कई स्थानों पर हिंसक घटनाएं हुईं। इन हिंसक घटनाओं में 100 से अधिक व्यक्ति मारे गए और कांग्रेस (इ) अध्यक्ष श्री राजीव गांधी भी 21 मई, 1991 को बम विस्फोट में मारे गए। 1996 के लोकसभा के चुनाव में अनेक स्थानों पर हिंसक घटनाएँ हुईं। फरवरी, 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव में कुछ राज्यों में हिंसा की अनेक घटनाएँ हुईं। हिंसा की सबसे अधिक घटनाएँ बिहार में हुईं जहाँ 23 व्यक्ति मारे गए। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 में 13वीं लोक सभा के चुनाव में पंजाब, बिहार, जम्मू-कश्मीर, असम, तमिलनाडु एवं आन्ध्र प्रदेश में हिंसात्मक घटनाएँ हुईं, जिनमें लगभग 100 व्यक्ति मारे गए। अप्रैलमई, 2004, 2009 तथा 2014 में हुए 14वीं, 15वीं एवं 16वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान भी हुई राजनीतिक हिंसा में सैंकड़ों लोग मारे गए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 6.
क्षेत्रवाद से क्या अभिप्राय है ? भारत में क्षेत्रवाद के क्या कारण हैं ? भारतीय लोकतन्त्र पर क्षेत्रवाद के प्रभाव की व्याख्या करो। क्षेत्रवाद की समस्या को हल करने के लिए सुझाव दें।
(What is meant by Regionalism ? What are the causes of Regionalism is India ? Discuss the impact of Regionalism on Indian Democracy. Give suggestions to solve the problem of regionalism.)
उत्तर-
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीति में जो नये प्रश्न उभरे हैं, उनमें क्षेत्रवाद (Regionalism) का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। क्षेत्रवाद से अभिप्राय एक देश के उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागृत है। भारत की राजनीति को क्षेत्रवाद ने बहुत अधिक प्रभावित किया है और यह भारत के लिए एक जटिल समस्या बनी रही है और आज भी विद्यमान है। आज यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कौन है तो वह भारतीय कहने के स्थान पर बंगाली, बिहारी, पंजाबी, हरियाणवी आदि कहना पसन्द करेगा। यद्यपि संविधान के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को भारत की ही नागरिकता दी गई है तथापि लोगों में क्षेत्रीयता व प्रान्तीयता की भावनाएं इतनी पाई जाती हैं कि वे अपने क्षेत्र के हित के लिए राष्ट्र हित को बलिदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। 1950 से लेकर आज तक क्षेत्रवाद की समस्या भारत सरकार को घेरे हुए है और विभिन्न क्षेत्रों में आन्दोलन चलते रहते हैं।

क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारण (CAUSES OF THE ORIGIN OF REGIONALISM)
क्षेत्रवाद की भावना की उत्पत्ति एक कारण से न होकर अनेक कारणों से होती है, जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

1. भौगोलिक एवं सांस्कृतिक कारण (Geographical and Cultural Causes)—स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राज्यों का पुनर्गठन किया गया तब राज्यों की पुरानी सीमाओं को भुलाकर नहीं किया गया बल्कि उनके पुनर्गठन का आधार बनाया गया। इसी कारण एक राज्य के रहने वाले लोगों में एकता की भावना नहीं आ पाई। प्राय: भाषा और संस्कृति क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करने में बहुमत सहयोग देते हैं। तमिलनाडु के निवासी अपनी भाषा और संस्कृति को भारतीय संस्कृति से श्रेष्ठ मानते हैं। वे राम और रामायण की कड़ी आलोचना करते हैं। 1925 में उन्होंने तमिलनाडु में कई स्थानों पर राम-लक्ष्मण के पुतले जलाए। 1960 में इसी आधार पर उन्होंने भारत से अलग होने के लिए व्यापक आन्दोलन चलाया।

2. ऐतिहासिक कारण (Historical Causes)-क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में इतिहासकार का दोहरा सहयोग रहा हैसकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक योगदान के अन्तर्गत शिव सेना का उदाहरण दिया जा सकता है और नकारात्मक के अन्तर्गत द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का कहना है कि प्राचीनकाल से ही उत्तरी राज्य दक्षिण राज्यों पर शासन करते आए हैं।

3. भाषा (Languages)–नार्मर डी पामर का कहना है कि भारत की अधिकांश राजनीति क्षेत्रवाद और भाषा के बहुत से प्रश्नों के चारों ओर घूमती है। इनका विचार है कि क्षेत्रवाद की समस्याएं स्पष्ट रूप से भाषा से सम्बन्धित हैं। भारत में सदैव ही अनेक भाषाएं बोलने वालों ने कई बार राज्य के निर्माण के लिए व्यापक आन्दोलन किए हैं। भारत सरकार ने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन करके ऐसी समस्या उत्पन्न कर दी है जिसका अन्तिम समाधान निकालना बड़ा कठिन है।

4. जाति (Caste)—जाति ने भी क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही, वहीं पर क्षेत्रवाद का उग्र रूप देखने को मिला। जहां किसी एक जाति की प्रधानता नहीं रही वहां पर एक जाति ने दूसरी जाति को रोके रखा है और क्षेत्रीयता की भावना इतनी नहीं उभरी। यही कारण है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में क्षेत्रवाद का उग्र स्वरूप देखने को मिलता है जबकि उत्तर प्रदेश में नहीं मिलता है।

5. धार्मिक कारण (Religious Causes)-धर्म भी कई बार क्षेत्रवाद की भावनाओं को बढ़ाने में सहायता करता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबा की मांग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम थी।

6. आर्थिक कारण (Economic Causes) क्षेत्रीयवाद की उत्पत्ति में आर्थिक कारण महत्त्वपूर्ण रोल अदा करते हैं। भारत में जो थोड़ा बहुत आर्थिक विकास हुआ है उसमें बहुत असमानता रही है। कुछ प्रदेशों का आर्थिक विकास हुआ है और कुछ क्षेत्रों का विकास बहुत कम हुआ है। इसका कारण यह रहा है कि जिन व्यक्तियों के हाथों में सत्ता रही है उन्होंने अपने क्षेत्रों के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया। उदाहरणस्वरूप 1966 से पूर्व पंजाब में सत्ता पंजाबियों के हाथों में रही जिस कारण हिसार, गुड़गांव, महेन्द्रगढ़, जीन्द आदि क्षेत्रों का विकास न हो पाया। आन्ध्र प्रदेश में सत्ता मुख्य रूप से आन्ध्र के नेताओं के पास रही जिस कारण तेलंगाना पिछड़ा रह गया। उत्तर प्रदेश में पूर्वी उत्तर प्रदेश पिछड़ा रह गया। राजस्थान में पूर्वी राजस्थान अविकसित रहं गया और इसी प्रकार महाराष्ट्र में विदर्भ का विकास नहीं हो पाया। अतः पिछले क्षेत्रों में यह भावना उभरी कि यदि सत्ता उनके पास होती तो उनके क्षेत्र पिछड़े न रह जाते। इसलिए इन क्षेत्रों के लोगों में क्षेत्रवाद की भावना उभरी और उन्होंने अलग राज्यों की मांग की। इसीलिए आगे चलकर सन् 1966 में हरियाणा एवं 2014 में तेलंगाना नाम के दो अलग राज्य भी बन गए।

7. राजनीतिक कारण (Political Causes)-क्षेत्रवाद की भावनाओं को भड़काने में राजनीतिज्ञों का भी हाथ रहा है। कई राजनीतिक यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र को अलग राज्य बना दिया जाएगा तो उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी अर्थात् उनके हाथ में सत्ता आ जाएगी।
रजनी कोठारी ने क्षेत्रवाद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लिखा है, “पृथक्कता की भावना उनमें अधिक शक्तिशाली और खतरनाक है, जहां ऐसी आर्येतर जातियां हैं जो भारतीय संस्कृति की धारा में पूर्ण रूप में मिल नहीं पाई हैं जैसे उत्तर-पूर्व की आदिम जातियों का क्षेत्र है। यहां भी भारतीय लोकतन्त्रीय व्यवस्था और सरकारी विकास कार्यक्रमों का प्रभाव पड़ा है और धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के लोग भी देश की राजनीति में भाग लेने लगे हैं। पर राजनीतिकरण की यह प्रवृत्ति अभी शुरू हुई है। दूसरी ओर आधुनिकता के प्रसार से अपने पृथक् अस्तित्व की भावना भी उभरती है। इसलिए इनको सम्भालने के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है-राजनीतिक गतिविधि बढ़ने और शिक्षा तथा आर्थिक विकास के फलस्वरूप छोटे समूहों में अब तक दबे या पिछड़े हुए समूह थे, अधिकारी और स्वायत्तता की आकांक्षाओं का उठना स्वाभाविक है।”

क्षेत्रवाद का राजनीति में योगदान (ROLE OF REGIONALISM IN POLITICS)
राजनीति में क्षेत्रीयवाद के योगदान को इस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है-

  • क्षेत्रवाद के आधार पर राज्य केन्द्रीय सरकार में सौदेबाज़ी करती है। यह सौदेबाजी न केवल आर्थिक विकास के लिए होती है बल्कि कई महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए भी होती है। इस प्रकार के दबावों से हरियाणा राज्य का निर्माण हुआ।
  • राजनीतिक दल अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए क्षेत्रवाद का सहारा लेता है। पंजाब में अकाली दल ने और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम दल ने अपने आपको शक्तिशाली बनाने के लिए क्षेत्रवाद का सहारा लिया।
  • मन्त्रिपरिषद् के सदस्य अपने-अपने क्षेत्रों का अधिक विकास करते हैं ताकि अपनी सीट को पक्का किया जा सके। श्री बंसीलाल ने भिवानी के क्षेत्र को चमका दिया और श्री सुखाड़िया ने उदयपुर क्षेत्र का बहुत अधिक विकास किया।
  • चुनावों के समय भी क्षेत्रवाद का सहारा लिया जाता है। क्षेत्रीयता के आधार पर राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव करते हैं और क्षेत्रीयता की भावनाओं को भड़कार कर वोट प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है।
  • क्षेत्रवाद ने कुछ हद तक भारतीय राजनीति में हिंसक गतिविधियों को उभारा है। कुछ राजनीतिक दल इसे अपनी लोकप्रियता का साधन बना लेते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है। मन्त्रिमण्डल में प्रायः सभी मुख्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को लिया जाता है। साधारणतया यह शिकायत की जाती थी कि अब तक कोई प्रधानमन्त्री दक्षिणी राज्यों से नहीं बना। प्रधानमन्त्री को अपने मन्त्रिमण्डल में प्रत्येक को उसके महत्त्व के आधार पर प्रतिनिधित्व देना पड़ता है। प्रधानमन्त्री व्यक्ति चुनने में स्वतन्त्र है, परन्तु क्षेत्र चुनने में नहीं।

क्षेत्रवाद की समस्या का समाधान (SOLUTION OF THE PROBLEM OF REGIONALISM)-

क्षेत्रवाद राजनीति की आधुनिक शैली है। क्षेत्रवाद उस समय तक कोई जटिल समस्या उत्पन्न नहीं करता जब तक वह सीमा के अन्दर रहता है, परन्तु जब वह भावना उग्र रूप धारण कर लेती है तब राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाती है।

सेलिग एस० हेरीसन ने इस सम्बन्ध में कहा, “यदि क्षेत्रवाद की भावना या किसी विशेष क्षेत्र के लिए अधिकार या स्वायत्तता की मांग बढ़ती चली गई तो इससे या तो देश अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में बंट जाएगा या तानाशाही कायम हो जाएगी।” अतः क्षेत्रवाद की समस्या को सुलझाना अति आवश्यक है। कुछ विद्वानों ने क्षेत्रवाद की समस्या को सुलझाने के लिए राज्यों के पुनर्गठन की बात कही है। रजनी कोठारी का कहना है कि राज्यों को पुनर्गठित करते समय भाषा को ही एकमात्र आधार न माना जाए। राज्य की रचना के लिए भाषा के अतिरिक्त और भी कई सिद्धान्त हैं जैसे कि आकार, विकास की स्थिति, शासन की सुविधाएं, सामाजिक एकता तथा राजनीतिक व्यावहारिकता। मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगर क्षेत्रों में शासन और विकास की स्वायत्त संस्थाएं कायम करने और इनको राज्य के अंश से अलग साधन देने की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया है यद्यपि इन नगरों का साइज (आकार) और समस्याएं दिन प्रतिदिन विकट होती जा रही हैं । साधारणतया राज्यों के पुनर्गठन के समर्थक तीन तर्क देते हैं-

  • छोटे-छोटे राज्यों के निर्माण से अधिक उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी। प्रशासन और जनता में समीप का सम्पर्क स्थापित होगा और शासन में कार्यकुशलता आ जाएगी।
  • छोटे-छोटे राज्यों से उस क्षेत्र का आर्थिक विकास अधिक होगा। (3) यदि पहले ही राज्य पुनर्गठन आयोग की बातों को मान लिया जाता है तो अलग राज्यों की स्थापना के लिए जो आन्दोलन हुए हैं वे भी न होते।

इन तीनों तर्कों का आलोचनात्मक उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है-

(1) यह अनिवार्य नहीं है कि छोटे राज्यों में ही जनता और प्रशासन में समीप का सम्पर्क स्थापित हो। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार इस ओर कितना ध्यान देती है। एक बड़े राज्य में यदि प्रशासक चाहें तो जनता से सम्पर्क बनाए रख सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक अच्छी सरकार के लिए केवल सम्पर्क स्थापित करना इतना ज़रूरी नहीं होता जितना कि भ्रष्टाचारी को खत्म करना और जनता की भलाई के लिए अधिक-से-अधिक कार्य करना। छोटे-छोटे राज्यों में नियुक्तियां सिफ़ारिशों पर की जाती हैं क्योंकि आम व्यक्ति भी आसानी के साथ रिश्तेदारी निकाल लेता है। इससे प्रशासन में कार्यकुशलता नहीं रहती।

(2) यह कहना कि छोटे राज्यों के कारण आर्थिक विकास अधिक होता है, ठीक प्रतीत नहीं होता है। सारे देश की प्रगति का सम्बन्ध सभी राज्यों की उन्नति से जुड़ा होता है। अतः समस्त देश की उन्नति द्वारा ही राज्यों की प्रगति की जा सकती है न कि राज्यों को टुकड़ों में बांटने से। पिछड़े प्रदेशों की उन्नति करना केन्द्रीय सरकार की जिम्मेवारी है।

(3) यह कहना कि यदि राज्य पुनर्गठन आयोग की सभी सिफ़ारिशों को मान लिया जाता है तो अनेक आन्दोलन न होते, सही प्रतीत नहीं होता है। यदि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसार कुछ प्रदेशों को राज्य बना दिया जाता तो हो सकता था अन्य प्रदेश आन्दोलन कर देते।
संक्षेप में, क्षेत्रवाद की समस्या का हल छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना नहीं है बल्कि पिछड़े क्षेत्रों का आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार को समाप्त करना, जनता के कल्याण के लिए अधिक कार्य करना इत्यादि।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 7.
भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका का उल्लेख करो।
(Describe the role of Casteism in Indian Politics.)
अथवा
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जातिवाद ने किस प्रकार प्रभावित किया है ?
(How has Casteism affected the Indian democratic system ?)
उत्तर-
भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी राजनीति में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा था। स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा बढ़ा ही है जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है। जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता के बीज तो ब्रिटिश शासन में साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की मांग को स्वीकार करके ही बो दिए थे। 1909 के एक्ट के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को अपने प्रतिनिधि अलग चुनने का अधिकार दिया और फिर भारत की बहुत-सी जातियों ने इसी प्रकार अलग प्रतिनिधित्व की मांग की। महात्मा गान्धी जब दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भाग ले रहे थे तो उन्होंने देखा कि भारत से आए विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि अपनी जातियों के लिए ही सुविधाएं मांग रहे थे और राष्ट्रीय हित की बात कोई नहीं कर रहा था। इसी निराशा में वे वापस लौट आये। अंग्रेज़ों ने जातिवाद को दिल खोल कर बढ़ावा दिया। स्वतन्त्रता के पश्चात् कांग्रेस सरकार ने ब्रिटिश नीति का अनुसरण करके जातिवाद की भावना को बढ़ावा दिया है।

पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएं देकर कांग्रेस सरकार ने उसका एक अलग वर्ग बना दिया है। राजनीति के क्षेत्र में नहीं बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों में भी जातिवाद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। प्रो० वी० के० एन० मेनन (V. K. N. Menon) का यह निष्कर्ष ठीक है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले के अपेक्षा बढ़ा है। राजनीतिज्ञों, प्रशासनाधिकारियों तथा विद्वानों ने स्वीकार किया है कि जाति का प्रभाव कम होने की अपेक्षा, दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रो० मोरिस जोन्स (Morris Jones) ने अपनी खोज के आधार पर कहा है कि “राजनीति जाति से अधिक महत्त्वपूर्ण है और जाति पहले से राजनीति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। शीर्षस्थ नेता भले ही जाति-रहित समाज के उद्देश्य की पालना करें, परन्तु वह ग्रामीण जनता जिसे मताधिकार प्राप्त किए हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं, केवल परम्परागत राजनीति की ही भाषा को समझती है जो जाति के चारों ओर घूमती है और न जाति शहरी सीमाओं से परे हैं।” स्व० जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था, “भारत में जाति सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल है। जगदीश चन्द्र जौहरी ने तो यहां तक कहा है कि, “यदि मनुष्य राजनीति के संसार में ऊपर चढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अपने साथ अपनी जाति व धर्म को लेकर चलना चाहिए।”

भारतीय राजनीति अथवा लोकतन्त्र में जाति की भूमिका (ROLE OF CASTE IN INDIAN POLITICS OR DEMOCRACY)

स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति का प्रभाव कहीं अधिक बढ़ा है। आज भारत के प्राय: सभी राज्यों में जाति का राजनीति पर बहुत गहरा प्रभाव है। प्रो० मोरिस जोन्स ने ठीक ही लिखा है कि चाहे देश के बड़े-बड़े नेता जाति-रहित समाज का नारा बुलन्द करते रहे परन्तु ग्रामीण समाज के नए मतदाता केवल परम्परागत राजनीति की भाषा को ही जानते हैं। परम्परागत राजनीति की भाषा जाति के ही चारों तरफ चक्कर लगाती है। रजनी कोठारी ने भी ऐसा ही मत प्रकट करते हुए कहा है कि यदि जाति के प्रभाव को अस्वीकार किया जाता है और उसकी उपेक्षा की जाती तो राजनीतिक संगठन में बाधा पड़ती है।

1. जातिवाद के आधार पर उम्मीदवारों का चयन (Selection of Candidates on the basis of Caste)चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन (Selection) करते समय जातिवाद भी अन्य आधारों में से एक महत्त्वपूर्ण आधार होता है। (”Caste considerations are given great weight in the selection of candidates and in the appeals to voters during election campaigns.” — Palmar) पिछले 16 आम चुनावों में सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को प्रमुख बना दिया है। प्रायः जिस निर्वाचन क्षेत्र में जिस जाति के मतदाता अधिक होते हैं, उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा किया जाता है। क्योंकि भारतीय जनता का बड़ा भाग भी अनपढ़ है और पढ़े-लिखे लोगों का दृष्टिकोण भी इंतना व्यापक नहीं है कि जाति के दायरे को छोड़ कर देश के हित में सोच सकें।

2. राजनीतिक नेतृत्व (Political Leadership)-भारतीय राजनीति में जातिवाद ने राजनीतिक नेतृत्व को भी प्रभावित किया है। नेताओं का उत्थान तथा पतन जाति के कारण हुआ है। जाति के समर्थन पर अनेक नेता स्थायी तौर पर अपना महत्त्व बनाए हुए हैं। उदाहरण के लिए हरियाणा में राव वीरेन्द्र सिंह अहीर जाति के समर्थन के कारण बहुत समय से नेता चले आ रहे हैं।

3. राजनीतिक दल (Political Parties)-भारत में राष्ट्रीय दल चाहे प्रत्यक्ष तौर पर जाति का समर्थन न करते हों परन्तु क्षेत्रीय दल खुले तौर पर जाति का समर्थन करते हैं और कई क्षेत्रीय दल जाति पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में डी० एम० के० (D.M.K.) तथा अन्ना डी० एम० के० (A.D.M.K.) ब्राह्मण विरोधी या गैर-ब्राह्मणों के दल

4. चुनाव-प्रचार में जाति का.योगदान (Contribution of Caste in Election Propaganda)-कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव-प्रचार में जाति का महत्त्वपूर्ण हाथ है। उम्मीदवार का जीतना या हारना काफ़ी हद तक जाति पर आधारित प्रचार पर निर्भर करता है। जिस जाति का बहुमत उस चुनाव क्षेत्र में होता है प्रायः उसी जाति का उम्मीदवार चुनाव में जीत जाता है। अब तो मठों के स्वामी भी चुनाव में भाग लेने लगे हैं।

5. जाति एवं प्रशासन (Caste and Administration)—प्रशासन में भी जातीयता का समावेश हो गया है। संविधान में हरिजनों और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए संसद् तथा राज्य विधानमण्डल में स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। सरकारी नौकरियों में भी इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं। संविधान के इन अनुच्छेदों के कारण सब जातियों में इन जातियों के प्रति ईर्ष्या की भावना का पैदा होना स्वाभाविक है। कर्नाटक राज्य ने पहले सरकारी नौकरियों में जितने व्यक्ति लिए इनमें लगभग 80 प्रतिशत हरिजन थे जिस कारण जातीय भावना और दृढ़ हो गई। सन् 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने नौकरियों में इस प्रकार के जातीय पक्षपात की निन्दा की और इसे संविधान के साथ धोखा कहा।

6. सरकार निर्माण में जाति का प्रभाव (Influence of Caste at the time of Formation of Govt.)जाति की राजनीति चुनाव के साथ ही समाप्त नहीं हो जाती बल्कि सरकार निर्माण में भी बहुत महत्त्वपूर्ण रोल अदा करती है। मन्त्रिमण्डल बनाते समय बहुमत दल में जाति-राजनीति अपना चक्कर चलाए बिना नहीं रहती। राज्य में जिस जाति का ज़ोर होता है उसी जाति का कोई नेता ही मुख्यमन्त्री के रूप में सफल हो सकता है। पंजाब में 2007 एवं 2012 में जब अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो सरदार प्रकाश सिंह बादल मुख्यमन्त्री बने।

7. जाति और मतदान व्यवहार (Caste and Voting Behaviour)-चुनाव के समय मतदाता प्रायः जाति के आधार पर मतदान करते हैं । वयस्क मताधिकार ने जातियों को चुनावों को प्रभावित करने के अधिक अवसर प्रदान किए हैं। प्रत्येक जाति अपनी संख्या के आधार पर अपना महत्त्व समझने लगी है। जिसके जितने अधिक मत होते हैं, उसका महत्त्व भी उतना अधिक होता है।

8. पंचायती राज तथा जातिवाद (Panchayati Raj and Casteism)-स्वतन्त्रता के पश्चात् गांवों में पंचायती राज की व्यवस्था की गई। पंचायती राज के तीन स्तरों-पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद् चुनाव में जाति का बहुत महत्त्व है। कई बार चुनाव में जातिवाद की भावना भयानक रूप धारण कर लेती है तथा दंगे-फसाद भी हो जाते हैं। पंचायती राज की असफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण जातिवाद ही है।

श्री हरिसन ने अपनी पुस्तक ‘India, The Most Dangerous Decades’ में भारत के आम चुनावों में जातीय व्यवहार के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “निरपवाद रूप में जब जातीय कारक किसी जातीय विधानसभायी क्षेत्र में प्रकाश में आते हैं जो जटिल से जटिल चुनाव के अप्रत्याशित परिणाम स्पष्ट हो जाते हैं।”

(“Invariably, the most perplexing of election results become crystal clear when the caste factors in the constituency come to light.”_Harrison) उसके विचारानुसार, “चुनावों में जातीय निष्ठा, दलीय भावनाओं तथा दल की विचारधारा से पहले है।”
राजनीति का जातीय भावना से इतना अधिक प्रभावित होना राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक है। भारत में लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए चुनावों में जातिवाद के आधार को समाप्त करना होगा। इस आधार को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय हैं-

  • जातियों के नाम से चल रही सभी शिक्षा-संस्थाओं से जातियों का नाम हटाया जाए तथा इन संस्थाओं के प्रबन्धक-मण्डलों में विशिष्ट जातियों के प्रतिनिधित्व को समाप्त किया जाए।
  • सभी लोकतान्त्रिक, जाति-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्ष राजनीतिक दलों को मिलकर यह निश्चय करना चाहिए कि वे जातिवाद को प्रोत्साहन नहीं देंगे।
  • जाति पर आधारित राजनीतिक दलों को समाप्त किया जाना चाहिए।
  • विभिन्न जातियों तथा वर्गों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं तथा उन के प्रकाशित होने वाले ऐसे समाचारों पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए जो जातिवाद को बढ़ावा देते हैं।
  • जातीय अथवा वर्गीय आधार पर सरकार द्वारा दी जाने वाली सभी सुविधाएं तुरन्त समाप्त कर दी जानी चाहिए।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 8.
भारत में बढ़ते हुए साम्प्रदायवाद के पीछे क्या कारण हैं ? इन पर कैसे काबू पाया जा सकता है ? (What are the causes of rising communalism in India ? How can we curb it.)
उत्तर-
विदेशी शासन ने साम्प्रदायिकता का जो ज़हर भारतीय जन-मानस में घोला वह आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी निकल नहीं पाया है। भारत में राजनीति को साम्प्रदायिक आधार देकर राष्ट्र में अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिशें की जा रही हैं। साम्प्रदायिकता के खूनी पंजे राष्ट्र को जकड़ते जा रहे हैं और हम सब तमाशबीन बने खड़े हुए हैं। लोकतन्त्र धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद के सिद्धान्तों को स्वीकार करने के बाद भी साम्प्रदायिकता की जड़ें मज़बूत होती जा रही हैं।

साम्प्रदायिकता का अर्थ (Meaning of Communalism)-साम्प्रदायिकता से अभिप्राय है धर्म अथवा जाति के आधार पर एक -दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना, एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्र के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है।
ए० एच० मेरियम (A.H. Merriam) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफादारी की अभिवृत्ति की ओर संकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
डॉ० ई० स्मिथ (Dr. E. Smith) के अनुसार, “साम्प्रदायिकता को आमतौर पर किसी धार्मिक ग्रुप के तंग, स्वार्थी, विभाजकता और आक्रमणशील दृष्टिकोण से जोड़ा जाता है।”

भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के कारण (Causes of the growth of Communalism in India)भारत में बढ़ते हुए सम्प्रदायवाद के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं

1. पाकिस्तान की भूमिका (Role of Pakistan)—भारत के दोनों तरफ पाकिस्तान का अस्तित्व भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो इस देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है। जब कभी भी कोई दंगा-फसाद हुआ है, पाकिस्तानी नेताओं ने, रेडियो और समाचार-पत्रों ने वास्तविकता जाने बिना ही हिन्दुओं की मुसलमानों पर अत्याचार की कहानियां बनाई हैं। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान उग्रवादियों को हथियारों तथा धन से सहायता दे रहा है ताकि भारत में साम्प्रदायिक दंगे करवाए जा सकें।

2. विभिन्न धर्मों के लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास (Lack of faith among the People of different religions)-भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी इत्यादि अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। प्रत्येक धर्म में अनेक सम्प्रदाय पाए जाते हैं। एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों पर विश्वास नहीं है। अविश्वास की भावना साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है।

3. साम्प्रदायिक दल (Communal Parties)—साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने में साम्प्रदायिक दलों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। भारत में अनेक साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं। इन दलों की राजनीति धर्म के इर्द-गिर्द ही घूमती है। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई का कहना है कि यह दुर्भाग्य की बात है कि चुनावी सफलता के लिए सभी पार्टियां साम्प्रदायिक दलों से सम्बन्ध बनाए हुए हैं।

4. राजनीति और धर्म (Politics and Religion)-साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि राजनीति में धर्म घुसा हुआ है। धार्मिक स्थानों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता है।

5. सरकार की उदासीनता (Government’s Apathy)—साम्प्रदायिकता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि संघीय और राज्यों की सरकारों ने दृढ़ता से इस समस्या को हल करने का प्रयास नहीं किया है। कभी भी इस समस्या की विवेचना गम्भीरता से नहीं की गई और जब भी दंगे-फसाद हुए हैं तभी कांग्रेस सरकार ने विरोधी दलों पर दंगेफसाद कराने का दोष लगाया है।

6. साम्प्रदायिक शिक्षा (Communal Education)-कई प्राइवेट स्कूल तथा कॉलेजों में धर्म-शिक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता है।

7. पारिवारिक वातावरण (Family Environment)-कई घरों में साम्प्रदायिकता की बातें होती रहती हैं जिनका बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और बड़े होकर वे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं।

साम्प्रदायिकता को कैसे समाप्त किया जा सकता है? (HOW COMMUNALISM CAN BE CURBED ?).

एकता और उन्नति के लिए साम्प्रदायिकता को समाप्त करना अति आवश्यक है। साम्प्रदायिकता एक ऐसी चुनौती है जिसका स्थायी हल आवश्यक है। साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जाते हैं-

1. शिक्षा द्वारा (By Education)-साम्प्रदायिकता को दूर करने का सबसे अच्छा साधन शिक्षा का प्रसार है। जैसे-जैसे शिक्षित व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जाएगी, धर्म का प्रभाव भी कम हो जाएगा और साम्प्रदायिकता की बीमारी भी दूर हो जाएगी। शिक्षा में धर्म-निरपेक्ष तत्त्वों का समावेश करने तथा स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाने से साम्प्रदायिकता पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिल सकती है। सही शिक्षा से राष्ट्रीय भावना पैदा होती है।

2. साम्प्रदायिक दलों का अन्त करके (By abolishing Communal Parties) सरकार को ऐसे सभी दलों को समाप्त कर देना चाहिए जो साम्प्रदायिकता पर आधारित हों। चुनाव आयोग को साम्प्रदायिक पार्टियों को मान्यता नहीं देनी चाहिए।

3. धर्म और राजनीति को अलग करके-साम्प्रदायिकता को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय यह है कि राजनीति को धर्म से अलग रखा जाए। केन्द्र सरकार ने साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को नियन्त्रित करने के लिए धार्मिक स्थलों का राजनीतिक उपयोग कानूनी तौर से प्रतिबन्धित कर दिया है, परन्तु उसका कोई विशेष असर नहीं हुआ है।

4. सामाजिक और आर्थिक विकास-साम्प्रदायिक तत्त्व लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन का पूरा फायदा उठाते हैं। अतः ज़रूरत इस बात की है कि जहाँ-कहीं कट्टरपंथी ताकतों का बोलबाला है वहां की ग़रीब बस्तियों के निवासियों की आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के हल के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं।

5. सुरक्षा बलों में सभी धर्मों को प्रतिनिधित्व-साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में सुरक्षा बल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि सुरक्षा बलों (पुलिस, सी० आर० पी०) में सभी धर्मों व जातियों को, जहां तक हो सकें समान प्रतिनिधित्व देना चाहिए।

6. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा-सरकार को अल्प-संख्यकों के हितों की रक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए और उनमें सुरक्षा की भावना पैदा करनी चाहिए।

7. अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक मान्यता-अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए स्थायी तौर पर अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की जानी चाहिए। अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।

8. कड़ी सज़ा-साम्प्रदायिकता बढ़ाने वालों को कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए।

9. विशेष अदालतें-साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को कड़ी सज़ा देने के लिए विशेष अदालतों की स्थापना की जानी चाहिए। जनवरी, 1990 में सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों से सम्बन्धित मामले निपटाने के लिए दिल्ली, मेरठ और भागलपुर में विशेष अदालतें गठित करने का निर्णय किया।

प्रजातन्त्र पर साम्प्रदायिकता का प्रभाव
(IMPACT OF COMMUNALISM ON DEMOCRACY)-

धर्म का भारतीय राजनीति पर सदैव ही प्रभाव रहा है। धर्म की संकीर्ण भावनाओं ने स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक झगड़ों का अखाड़ा बना दिया है। धर्म के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़े चलते थे और अन्त में भारत का विभाजन भी हुआ। परन्तु भारत का विभाजन भी साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं कर सका और आज फिर साम्प्रदायिक तत्त्व अपना सिर उठा रहे हैं। साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से प्रजातन्त्र को प्रभावित किया है-

  • भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  • चुनावों में साम्प्रदायिकता की भावना महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चुनाव करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं और जिस चुनाव क्षेत्र में जिस सम्प्रदाय के अधिक मतदाता होते हैं प्रायः उसी सम्प्रदाय का उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र में खड़ा किया जाता है। प्राय: सभी राजनीतिक दल चुनावों में वोट पाने के लिए साम्प्रदायिक तत्त्वों के साथ समझौता करते हैं।
  • राजनीतिक दल ही नहीं मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं।
  • धर्म के नाम पर राजनीतिक संघर्ष और साम्प्रदायिक झगड़े होते रहते हैं। 1979-80 में साम्प्रदायिक दंगों की संख्या 304 थी। 1990 तथा दिसम्बर, 1992 में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मामले पर अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे-फसाद हुए। मार्च, 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे हुए।
  • राजनीति को साम्प्रदायिक आधार देकर राष्ट्र में अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिश की जा रही है। आज आवश्यकता इस बात की है जो ताकतें धर्म-निरपेक्षता को आघात पहुंचाती हैं और साम्प्रदायिक राजनीति चला रही हैं उनके खिलाफ सख्त कदम उठाये जायें। लोकतन्त्र की सफलता और राष्ट्र की एकता के लिए साम्प्रदायिकता के खूनी पंजे को काटना ही होगा।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 9.
भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों का वर्णन करो। (Discuss the essential conditions for the success of Democracy in India.)
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों की व्याख्या करें। (Discuss the conditions essential for the success of Indian democracy.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। इस शासन व्यवस्था को सर्वोत्तम माना गया है। परन्तु प्रजातन्त्र को प्रत्येक देश में एक समान सफलता प्राप्त नहीं हुई। कुछ देशों में प्रजातन्त्र प्रणाली को बहुत सफलता प्राप्त हुई जबकि कई देशों में इसको सफलता प्राप्त नहीं हुई है। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए कुछ विशेष वातावरण और मनुष्यों के आचरण में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता रहती है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों में प्रजातन्त्र शासन प्रणाली को सफलता मिली है क्योंकि इन देशों में उचित वातावरण मौजूद है।
भारतीय प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित शर्तों का होना आवश्यक है-

1. सचेत नागरिक (Enlightened Citizens)—प्रजातन्त्र की सफलता की प्रथम शर्त सचेत नागरिकता है। नागरिक बुद्धिमान, शिक्षित तथा समझदार होने चाहिएं। नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के प्रति सचेत होना चाहिए। नागरिकों को देश की समस्याओं में रुचि लेनी चाहिए। एक लेखक का कहना है कि “लगातार सतर्कता ही स्वतन्त्रता का मूल्य है।” (Constant vigilance is the price of liberty.)

2. शिक्षित नागरिक (Educated Citizens)—प्रजातन्त्र जनता की सरकार है और इसका शासन जनता द्वारा ही चलाया जाता है। इसलिए प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला है । शिक्षा के प्रसार से ही नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षित नागरिक ही अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित में भेद कर सकते हैं। शिक्षा नागरिक को शासन में भाग लेने के योग्य बनाती है। देश की समस्याओं को समझने के लिए तथा उनको सुलझाने के लिए शिक्षित नागरिकों का होना आवश्यक है। अत: शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्त है।

3. उच्च नैतिक स्तर (High Moral Standard) ब्राइस के मतानुसार प्रजातन्त्र की सफलता नागरिकों के उच्च नैतिक स्तर पर निर्भर करती है । नागरिकों का ईमानदार, निष्पक्ष तथा स्वार्थरहित होना आवश्यक है। प्रजातन्त्र में जनता को बहुत से अधिकार प्राप्त होते हैं, जिनका ईमानदारी से उपयोग होना प्रजातन्त्र की सफलता के लिए जरूरी होता है। उदाहरण के लिए, प्रजातन्त्र में नागरिकों को वोट देने का अधिकार प्राप्त होता है परन्तु नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने इस अधिकार का प्रयोग बुद्धिमता से करें। यदि नागरिक बेइमान हों, जमाखोर हों, चोरबाजारी करते हों, मन्त्री अपने स्वार्थ-हितों की पूर्ति में लगे रहते हों तथा सरकारी कर्मचारी रिश्वतें लेते हों तो वहां प्रजातन्त्र की सफलता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिक का नैतिक स्तर ऊंचा होना अनिवार्य है।

4. प्रजातन्त्र से प्रेम (Love for Democracy)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातन्त्र के लिए प्रेम होना चाहिए। प्रजातन्त्र से प्रेम के बिना प्रजातन्त्र कभी सफल नहीं हो सकता।

5. आर्थिक समानता (Economic Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। बिना आर्थिक समानता के राजनीतिक प्रजातन्त्र एक हास्य का विषय बन जाता है। कोल ने ठीक ही कहा है, “बिना आर्थिक स्वतन्त्रता के राजनीतिक स्वतन्त्रता अर्थहीन है।” (“Political democracy is meaningless without economic democracy.”) साम्यवाद के समर्थकों की इस बात में सच्चाई है कि एक भूखे-नंगे व्यक्ति के लिए वोट के अधिकार का कोई महत्त्व नहीं है। मनुष्य को रोटी पहले चाहिए और वोट बाद में है। अतः प्रत्येक मनुष्य की आय इतनी अवश्य होनी चाहिएं कि वह अपना और अपने परिवार का उचित पालन कर सके तथा अपने बच्चों को शिक्षा दे सकें। प्रजातन्त्र तभी सफल हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को पेट भर रोटी मिले, कपड़ा मिले तथा रहने को मकान मिले और कार्य करने का अवसर प्राप्त हो।

6. सामाजिक समानता (Social Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता के साथ सामाजिक समानता का होना भी आवश्यक है। यदि समाज में सभी व्यक्तियों को समान नहीं माना जाता और उनमें जाति, धर्म, रंग, वंश, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो प्रजातन्त्र को सफलता नहीं मिल सकती। समाज में सभी नागरिकों को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं और किसी व्यक्ति को ऊंचा-नीचा नहीं समझना चाहिए। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि समाज का संगठन समानता तथा न्याय के नियमों पर आधारित हो।

7. स्वस्थ जनमत (Sound Public Opinion)-प्रजातन्त्रात्मक सरकार जनमत पर आधारित होती है, जिस कारण प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्वस्थ जनमत का होना अति आवश्यक है। डॉ० बनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के शब्दों में, “जनमत नागरिकों के समस्त समूह का मत है। जनता का मत बनने के लिए बहुसंख्या काफ़ी नहीं तथा सर्वसम्मति की आवश्यकता नहीं।”

8. स्वतन्त्र तथा ईमानदार प्रेस (Free and Honest Press)—प्रजातन्त्र का शासन जनमत पर आधारित होता है। इसलिए शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए स्वतन्त्र तथा ईमानदार प्रेस का होना बहुत ज़रूरी है। नागरिक को अपने विचार प्रकट करने की भी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। यदि प्रेस पर किसी वर्ग अथवा पार्टी का नियन्त्रण होगा तो वह निष्पक्ष नहीं रह सकता जिसके परिणामस्वरूप जनता को झूठी खबरें मिलेंगी और झूठी खबरों के आधार पर बना जनमत शुद्ध नहीं हो सकता। यदि प्रेस पर सरकार का नियन्त्रण होगा तो जनता को वास्तविकता का पता नहीं चलेगा और सरकार की आलोचना करना भी कठिन हो जाएगा।

9. शान्ति और सुरक्षा (Peace and Order)–प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि देश में शान्ति और सुरक्षा का वातावरण हो। प्रजातन्त्र शासन ऐसे देशों में अधिक समय तक नहीं रह सकता जहां सदा युद्ध का भय बना रहता है। जिस देश में अशान्ति की व्यवस्था रहती है, वहां पर नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयत्न नहीं करते। युद्ध काल में न तो चुनाव हो सकते हैं और न ही नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। अतः प्रजातन्त्र ‘ की सफलता के लिए शान्ति व्यवस्था का होना आवश्यक है।

10. स्वतन्त्र चुनाव (Free Election)—प्रजातन्त्र में निश्चित अवधि के पश्चात् चुनाव होते हैं। चुनाव व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि चुनाव स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष हों तथा सत्तारूढ़ दल को कोई ऐसी सुविधा प्राप्त नहीं होनी चाहिए जो विरोधी दल को प्राप्त नहीं है। मतदाताओं को अपने मत को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। मतदाताओं पर दबाव डालकर उन्हें किसी विशेष दल के पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

11. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा (Protection of Fundamental Rights)—प्रजातन्त्र में लोगों को कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिनके द्वारा वे राजनीतिक भागीदार बन पाते हैं और अपने जीवन का विकास कर पाते हैं। प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इन अधिकारों की सुरक्षा संविधान द्वारा की जानी चाहिए ताकि कोई व्यक्ति या शासक उनको कम या समाप्त करके प्रजातन्त्र को हानि न पहुंचा सके।

12. स्थानीय स्वशासन (Local Self-government)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना आवश्यक है क्योंकि स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही नागरिकों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है। स्थानीय स्वशासन से नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है और वे वोट का उचित प्रयोग करना सीखते हैं। ब्राइस का कहना है कि स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के बिना लोगों में स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न नहीं की जा सकती है। स्थानीय शासन को प्रशासनिक शिक्षा की आरम्भिक पाठशाला कहा जाता है। डी० टाक्विल (De Tocqueville) ने स्थानीय संस्थाओं के महत्त्व का वर्णन करते हुए लिखा है, “एक राष्ट्र भले ही स्वतन्त्र सरकार की पद्धति को स्थापित कर ले, परन्तु स्थानीय संस्थाओं के बिना इसमें स्वतन्त्रता की भावना नहीं आ सकती।”

13. लिखित संविधान (Written Constitution)-कुछ विद्वानों के अनुसार प्रजातन्त्र की सफलता के लिए संविधान का लिखित होना आवश्यक है। जिन देशों का संविधान लिखित होता है वहां पर सरकार की शक्तियों को संविधान में लिखा होता है। जिससे सरकार मनमानी नहीं कर सकती। यदि संविधान लिखित न हो तो सरकार अपनी इच्छा से अपनी शक्तियों का विस्तार कर लेगी। हेनरी मेन का कहना है कि अच्छे संविधान के साथ लोकतन्त्र के वेग को रोका जा सकता है तथा उसको एक तालाब के पानी की तरह शान्त बनाया जा सकता है।

14. स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)-प्रजातन्त्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा संविधान की सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है। देश की न्यायपालिका विधानपालिका तथा कार्यपालिका से स्वतन्त्र होनी चाहिए। यदि न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं होगी तो वह अपना कार्य निष्पक्षता से नहीं कर सकेगी। जिस देश की न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं वहां पर नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं रहते। अतः प्रजातन्त्र शासन की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना अनिवार्य है।

15. संगठित राजनीतिक दल (Well Organised Political Parties)-प्रजातन्त्र शासन प्रणाली के लिए राजनीतिक दल आवश्यक हैं।
प्रजातन्त्र की सफलता के लिए राजनीतिक दलों का उचित संगठन होना चाहिए। दलों का संगठन जाति, धर्म, प्रान्त आदि के आधार पर न होकर आर्थिक आधार पर होना चाहिए। जो दल आर्थिक सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं उनका उद्देश्य देश का हित होता है। यदि देश में संगठित दल हों तो बहुत अच्छा है।

16. नागरिकों में सहयोग, समझौते तथा सहनशीलता की भावना (Spirit of Co-operation, Compromise and Toleration among the Citizens)-प्रजातन्त्र जनता का शासन है तथा जनता के द्वारा ही चलाया जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि नागरिकों में सहयोग, सहनशीलता तथा समझौते की भावना हो। प्रजातन्त्र में एक व्यक्ति को विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होती है तथा वे सरकार की आलोचना भी कर सकते हैं। दूसरे नागरिकों में इतनी सहनशीलता होनी चाहिए कि वे विरोधी विचारों के नागरिकों के विचारों को ध्यान से सुनें। दूसरे नागरिकों के विचारों को सुनकर लोगों को लड़ना-झगड़ना शुरू नहीं कर देना चाहिए। प्रजातन्त्र में एक दल सरकार बनाता है तथा दूसरे विरोधी दल का कार्य करते हैं। शासन दल के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे विरोधी दल की आलोचना को हंसते हुए बरदाश्त करें तथा विरोधी दल को आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

17. सेना का अधीनस्थ स्तर (Subordinate status of Army) विश्व के सफल प्रजातन्त्र देशों के अनुभव के अनुसार देश की सेना सरकार के असैनिक अंग (Civil Organ) के अधीन होनी चाहिए। सेना सरकार के अधीनस्थ रहने से ही प्रजातन्त्र की सहायक हो सकती है। यदि ऐसा न हो तो सेना प्रजातन्त्र की सबसे बड़ी विरोधी सिद्ध होगी जैसा कि संसार के अधिनायकवादी देशों का अनुभव है।

18. परिपक्व नेतृत्व (Mature Leadership)-प्रजातन्त्र शासन में जनता का नेतृत्व करने के लिए बुद्धिमान् नेताओं की आवश्यकता होती है। प्रजातन्त्र को सफल बनाने तथा समाप्त करने वाले नेता लोग ही होते हैं। वाशिंगटन तथा लिंकन जैसे महान् नेताओं ने अमेरिका को एक शक्तिशाली राज्य बनाया। इन महान् नेताओं की वजह से ही अमेरिका शक्तिशाली राज्य के साथ-साथ अमीर देश भी है। चर्चिल के नेतृत्व में इंग्लैण्ड ने द्वितीय महायुद्ध में विजय प्राप्त की। जब पाकिस्तान ने भारत पर 1965 ई० में आक्रमण किया तो हमारे प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश का बहुत अच्छा नेतृत्व किया और पाकिस्तान के हमले का मुंह तोड़ जबाव दिया। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए बुद्धिमान तथा चरित्रवान् नेता होना आवश्यक है।

19. दल-बदल के विरुद्ध बनाए गए कानून को प्रभावी ढंग से लागू करना (Strict Compliance with the Anti Defection Law)-भारतीय लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि दल-बदल के विरुद्ध बनाए गए कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए। 1985 में दल-बदल को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था, परन्तु उस कानून में एक कमी यह थी कि यदि किसी दल के 1/3 सदस्य अलग हो जाते हैं, तो उसे दलबदल नहीं माना जाएगा। अतः इस कानून के बावजूद भी दल-बदल पर कोई प्रभावशाली रोक न लग सकी। अतः दिसम्बर, 2003 में संसद् ने 91वां संवैधानिक संशोधन पास किया। इस संशोधन में यह व्यवस्था की गई कि यदि कोई भी विधायक या सांसद दल-बदल करता है तो उसकी सदन की सदस्यता तुरन्त प्रभाव से समाप्त हो जाएगी और वह सदस्य उस सदन के शेष कार्यकाल के दौरान किसी सरकारी लाभदायक पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा 1/3 सदस्यों द्वारा किए जाने वाले दल-बदल की व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया। 91वें संवैधानिक संशोधन द्वारा बनाये गए कानून के अनुसार अब किसी भी रूप में दल-बदल नहीं किया जा सकता। अतः यदि इस कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जाए तो इससे भारतीय लोकतन्त्र को सफल बनाने में मदद मिलेगी।

यदि ऊपरलिखित शर्ते पूरी हो जाएं तो प्रजातन्त्र शासन को सफलता मिलनी स्वाभाविक है। यदि किसी देश में प्रजातन्त्र के अनुकूल वातावरण नहीं होता तो वहां पर प्रजातन्त्र का स्थान शीघ्र ही कोई दूसरी सरकार ले लेती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जिस देश में ये सभी बातें नहीं पाई जाती हैं वहां पर प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं की जा सकती है। जे० एस० मिल ने इस बात पर जोर दिया है कि प्रजातन्त्र की सफलता के लिए वहां के लोगों में इस शासन को बनाए रखने की इच्छा होनी चाहिए। प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए जनता में इच्छा का होना आवश्यक है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
संसदीय सरकार से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है। संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार भी कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार अपने समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इस सरकार को कैबिनेट सरकार भी कहा जाता है। क्योंकि इसमें कार्यपालिका की शक्तियां कैबिनेट द्वारा प्रयोग की जाती हैं।

प्रश्न 2.
संसदीय शासन प्रणाली की चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर-
संसदीय सरकार की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-संसदीय सरकार में कार्यपालिका का असली मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। प्रधानमन्त्री निम्न सदन का नेता होता है जिस कारण वह सदन का भी नेता होता है। मन्त्रियों में विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री द्वारा ही किया जाता है।
  • कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी-मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है। विधानपालिका जब चाहे मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उस मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है।
  • राजनीतिक एकता-संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल के साथ सम्बन्धित होते हैं। जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, उस दल का मन्त्रिमण्डल बनता है और वही दल सरकार बनाता है। अन्य दल विरोधी दल की भूमिका अदा करते हैं।
  • संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल की बैठकें गुप्त होती हैं।

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प्रश्न 3.
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारतीय संसदीय शासन-प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद-राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान में कार्यपालिका की समस्य शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध-मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद की बैठकों में भाग लेते हैं, विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं। मन्त्रिमण्डल की सहायता के बिना कोई बिल पास नहीं हो सकता।
  • राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल से अलग है-राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल का सदस्य नहीं होता और मन्त्रिमण्डल की बैठकों में भाग नहीं लेता। मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करता है, परन्तु मन्त्रिमण्डल के प्रत्येक निर्णय से राष्ट्रपति को सूचित कर दिया जाता है।
  • प्रधानमन्त्री लोकसभा को भंग करवा सकता है।

प्रश्न 4.
उत्तरदायी सरकार का क्या अर्थ होता है?
उत्तर-
उत्तरदायी सरकार को संसदीय सरकार भी कहा जाता है। उत्तरदायी सरकार में कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है। विधानपालिका के सदस्यों को कार्यपालिका की आलोचना करने तथा उनसे प्रश्न पूछने का अधिकार प्राप्त होता है। कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। संसद् अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटा सकती है। चूंकि संसदीय सरकार में मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद् के प्रति उत्तरदायी होता है इसलिए उसको उत्तरदायी सरकार कहते हैं।

प्रश्न 5.
लोकतन्त्र को कौन-से सामाजिक तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर-

  • सामाजिक असमानता-सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है। सामाजिक असमानता के कारण समाज का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक कार्य के प्रति उदासीन रहता है।
  • अनपढ़ता- भारत में आज भी करोड़ों व्यक्ति अनपढ़ हैं। अनपढ़ व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी होती है इसलिए उसमें देश की समस्याओं को समझने तथा हल करने की क्षमता नहीं होती है।
  • जातिवाद-भारतीय राजनीति में जाति एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक तत्त्व रहा है और आज भी है। चुनाव में उम्मीदवारों का चयन प्रायः जाति के आधार पर किया जाता है और मतदाता प्राय: जाति के आधार पर मतदान करते हैं।
  • छूआछूत ने भारतीय लोकतन्त्र को बहुत प्रभावित किया है।

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प्रश्न 6.
भारतीय लोकतंत्र की चार समस्याओं का वर्णन करो।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं-

  • सामाजिक असमानता–भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है। राजनीतिक दल सामाजिक असमानता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं और सत्ता पर उच्च वर्ग के लोगों का ही नियन्त्रण रहता है।
  • ग़रीबी-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब व्यक्ति के पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो दूर, ऐसा सोच भी नहीं सकता।
  • अनपढ़ता-भारत की लगभग 24 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। अशिक्षित व्यक्ति को न तो अधिकारों का ज्ञान होता है और न कर्तव्यों का। वह मताधिकार का महत्त्व नहीं समझता। अनपढ़ व्यक्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के नारे, जातिवाद, धर्म आदि से प्रभावित होकर अपने वोट का प्रयोग कर बैठता है।
  • भारतीय लोकतन्त्र की एक मुख्य समस्या जातिवाद है।

प्रश्न 7.
अनपढ़ता ने भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
अथवा
निरक्षरता भारतीय लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करती है ?
उत्तर-
आज जातिवाद, भाषावाद और प्रान्तीयता आदि के देश में बोलबाला होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण भारतीयों का अशिक्षित होना है। प्रजातन्त्र में जनमत ही सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाता है। जनमत के भय से सरकार जनता के हित में नीतियों का निर्माण करती है, परन्तु भारत में अनपढ़ता के कारण स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। इसलिए सत्तारूढ़ दल चुनाव में किए गए वायदों को लागू कराने की चेष्टा नहीं करता। अनपढ़ व्यक्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के नारों, जातिवाद, धर्म, भाषावाद आदि से प्रभावित होकर अपने वोट का प्रयोग कर बैठता है। अतः भारतीय प्रजातन्त्र के सफल होने के लिए अधिक-से-अधिक जनता का शिक्षित एवं सचेत होना अत्यावश्यक है।

प्रश्न 8.
भारत ने संसदीय प्रणाली को क्यों अपनाया ?
अथवा
भारत ने संसदीय प्रणाली को क्यों ग्रहण किया?
उत्तर-
संविधान सभा में इस बात पर काफ़ी वाद-विवाद हुआ कि भारत के लिए संसदीय अथवा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली उचित रहेगी, परन्तु अन्त में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना करने का निर्णय निम्नलिखित कारणों से लिया गया-

  • संसदीय परम्पराएं-भारत में संसदीय शासन प्रणाली पहले से प्रचलित थी। 1919 के एक्ट द्वारा प्रान्तों में दोहरी शासन प्रणाली द्वारा आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई और 1935 के एक्ट के अन्तर्गत प्रान्तों में प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना की गई। अत: भारतीयों के लिए संसदीय शासन प्रणाली नई नहीं थी। इसी कारण राजनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया।
  • शक्ति और लचीलापन-श्री० के० एम० मुन्शी का विचार था कि संसदीय शासन प्रणाली में शक्ति तथा लचीलेपन का सम्मिश्रण रहता है।
  • विधानमण्डल तथा कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध-संसदीय प्रणाली में विधानमण्डल और कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और दोनों में तालमेल बना रहता है।
  • संसदीय शासन प्रणाली अधिक उत्तरदायी है।

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प्रश्न 9.
सामूहिक उत्तरदायित्व से आपका क्या भाव है?
अथवा
संसदीय शासन प्रणाली के अधीन सामूहिक (सांझी) जिम्मेवारी से क्या भाव है ?
अथवा
संसदीय लोकतन्त्र में सामूहिक उत्तरदायित्व का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय सरकार की मुख्य विशेषता है। भारतीय संविधान की धारा 75 (3) में कहा गया है कि “मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। जब मन्त्रिमण्डल किसी विषय पर कोई नीति निर्धारित करता है तो इस नीति के लिए सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ है कि यदि विधानपालिका में किसी एक मन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास हो जाए तो वह प्रस्ताव पूर्ण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वा प्रस्ताव माना जाएगा और सभी मन्त्री सामूहिक रूप से त्याग-पत्र देंगे। सामूहिक उत्तरदायित्व के अतिरिक्त मन्त्री अपने विभाग के लिए विधानपालिका के प्रति व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं। संक्षेप में मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी है और विधानपालिका जब भी चाहे मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसको त्याग-पत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है। इसीलिए कहा जाता है कि, “मन्त्री इकट्ठे तैरले और इकट्ठे डूबते हैं।”

प्रश्न 10.
भारतीय संसदीय प्रणाली के किन्हीं चार दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत में केन्द्र और प्रान्तों में संसदीय शासन प्रणाली को कार्य करते हुए कई वर्ष हो गए हैं। भारतीय संसदीय प्रणाली की कार्य विधि के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संसदीय प्रणाली में बहुत-सी त्रुटियां हैं जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं-

  • बहु-दलीय प्रणाली-संसदीय प्रजातन्त्र की सफलता में एक बाधा बहु-दलीय प्रणाली का होना है। स्थायी शासन के लिए दो या तीन दल ही होने चाहिएं। अधिक दलों के कारण प्रशासन में स्थिरता नहीं रहती।
  • अच्छी परम्पराओं की कमी-संसदीय शासन प्रणाली की सफलता अच्छी परम्पराओं की स्थापना पर निर्भर करती है, परन्तु भारत में कांग्रेस शासन में अच्छी परम्पराओं की स्थापना नहीं हो पाई है। इसके लिए विरोधी दल भी ज़िम्मेदार हैं।
  • जनता के साथ कम सम्पर्क-भारतीय संसदीय प्रजातन्त्र का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि विधायक जनता के साथ सम्पर्क नहीं बनाए रखते। कांग्रेस दल भी चुनाव के समय ही जनता के सम्पर्क में आता है और अन्य दलों की तरह चुनाव के पश्चात् अन्धकार में छिप जाता है। जनता को उसके विधायकों की कार्यविधियों का ज्ञान ही नहीं होता।
  • राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए अनैतिक गठबन्धन करते हैं।

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प्रश्न 11.
भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित करने वाले चार आर्थिक तत्त्व लिखो।
उत्तर-

  1. आर्थिक असमानता-लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है, परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी आर्थिक असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता रहता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथ में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।
  2. ग़रीबी- भारतीय लोकतन्त्र को ग़रीबी ने बहुत प्रभावित किया है। भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब नागरिक अपने वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल ग़रीबी को हटाने का वायदा करते हैं ताकि ग़रीबों की वोटें प्राप्त की जा सकें परन्तु बाद में सब भूल जाते हैं।
  3. बेरोज़गारी-बेरोज़गारी और ग़रीबी परस्पर सम्बन्धित हैं और बेरोज़गारी ही ग़रीबी का कारण है। भारत में बेरोज़गारी शिक्षित तथा अशिक्षित दोनों प्रकार के लोगों में पाई जाती है। लाखों शिक्षित बेकार फिर रहे हैं। बेकारी की समस्या ने लोकतन्त्र को बहुत प्रभावित किया है।
  4. भारतीय लोकतन्त्र को आर्थिक क्षेत्रीय असन्तुलन ने प्रभावित किया है।

प्रश्न 12.
भारतीय लोकतन्त्र पर साम्प्रदायिकता के प्रभाव को लिखिए।
उत्तर-
साम्प्रदायिकता भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक गम्भीर समस्या है। साम्प्रदायिकता ने निम्नलिखित ढंगों से भारतीय लोकतन्त्र को प्रभावित किया है-

  • भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  • चुनावों में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं।
  • राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि मतदाता भी धर्म से प्रभावित होकर अपने मत का प्रयोग करते हैं। यह प्रायः देखा गया है कि मुस्लिम मतदाता और सिक्ख मतदाता अधिकतर अपने धर्म से सम्बन्धित उम्मीदवार को ही वोट डालते हैं।
  • मन्त्रिमण्डल में भी धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाता है।

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प्रश्न 13.
भारतीय लोकतन्त्र पर जातिवाद का प्रभाव लिखिए।
अथवा
जातिवाद भारतीय लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर-
भारतीय समाज में जातिवाद की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है। जातिवाद ने भारतीय लोकतन्त्र को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित किया है-

  • चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
  • राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दल खुलेआम जाति का समर्थन करते हैं।
  • भारतीय राजनीति में जातिवाद ने राजनीतिक नेतृत्व को भी प्रभावित किया है।
  • मतदाता जातीय आधार पर मतदान करता है।

प्रश्न 14.
भारतीय लोकतन्त्र को आर्थिक असमानता किस प्रकार प्रभावित करती है?
अथवा
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करती है ?
उत्तर-
लोकतन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक है। परन्तु भारत में स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी आर्थिक असमानता बहुत अधिक पाई जाती है। भारत में एक तरफ करोड़पति पाए जाते हैं तो दूसरी तरफ करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें दो समय का भोजन भी नहीं मिलता। भारत में देश का धन थोड़े-से परिवारों के हाथों में ही केन्द्रित है। भारत में आर्थिक शक्ति का वितरण समान नहीं है। अमीर दिन-प्रतिदिन अधिक अमीर होते जातें हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब होते जाते हैं। आर्थिक असमानता ने लोकतन्त्र को भी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं। और प्रायः धनी व्यक्तियों को ही पार्टी का टिकट दिया जाता है। चुनावों में धन का बहुत अधिक महत्त्व है और धन के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं। सत्तारूढ़ दल अमीरों के हितों का ही ध्यान रखते हैं क्योंकि उन्हें अमीरों से धन मिलता रहता है। भारतीय लोकतन्त्र में वास्तव में शक्ति धनी व्यक्तियों के हाथों में है और आम व्यक्ति का विकास नहीं हुआ।

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प्रश्न 15.
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए चार ज़रूरी शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए निम्नलिखित तत्त्वों का होना आवश्यक है

  • जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिकता भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है। निरन्तर देखरेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है।
  • शिक्षित नागरिक-भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं।
  • स्थानीय स्वशासन-भारतीय प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना अनिवार्य है। 4. नागरिकों के मन में प्रजातन्त्र के प्रति प्रेम होना चाहिए।

प्रश्न 16.
भारतीय लोकतन्त्र पर बेरोज़गारी के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारतीय लोकतन्त्र को बेरोज़गारी कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
बेरोज़गारी युवकों में क्रोध तथा निराशा को जन्म देती है। उनका यह क्रोध समाज विरुद्ध घृणा तथा हिंसा का रूप धारण करता है। भारत के कई भागों में फैली अशान्ति का मुख्य कारण युवकों की बेरोज़गारी है। स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षित व्यक्तियों की बेरोज़गारी में अधिक वृद्धि हुई है। यह बेरोज़गारी भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक गम्भीर चेतावनी है। जहां बेरोज़गारी के कारण लोगों की निर्धनता में वृद्धि हुई है, वहां युवकों का लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों अथवा लोकतन्त्रीय नैतिक मूल्यों से विश्वास समाप्त हो गया है। ऐसे अविश्वास के कारण ही भारतीय राजनीति में हिंसक साधनों का प्रयोग बढ़ रहा है। इस तरह बेरोज़गारी भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा बनी हुई है।

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प्रश्न 17.
राजनीतिक एकरूपता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता राजनीतिक एकरूपता है। संसदीय सरकार में मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य प्रायः एक ही राजनीतिक दल से लिए जाते हैं। इसी कारण मन्त्रियों के विचारों में राजनीतिक एकरूपता पाई जाती है। मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं। यदि मन्त्रियों में किसी विषय पर विवाद भी हो जाता है तो उसे सार्वजनिक नहीं किया जाता अपितु मन्त्रिपरिषद् की बैठकों में सरलता से हल कर लिया जाता है। राजनीतिक एकरूपता के कारण शासन संचालन में आसानी रहती है। उल्लेखनीय है कि मिले-जुले मन्त्रिमण्डल में राजनीतिक एकरूपता की स्थापना करना कठिन होता है। परन्तु इस समस्या से निपटने के लिए विभिन्न दल एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम बना लेते हैं। इस कार्यक्रम के प्रति मन्त्रिपरिषद् के सदस्य एकरूप होते हैं।

प्रश्न 18.
राष्ट्रपति को नाममात्र का संवैधानिक प्रमुख (Constitutional Head) क्यों कहा जाता है?
अथवा भारत में नाममात्र कार्यपालिका के बारे में लिखो।
उत्तर-
भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। संसदीय शासन प्रणाली में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का अध्यक्ष होता है, जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिपरिषद् होती है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को सौंपी गई हैं। लेकिन व्यावहारिक रूप से इन शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है। राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही इन शक्तियों का प्रयोग करता है। मन्त्रिपरिषद् की सलाह के बिना और सलाह के विरुद्ध वह किसी भी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता। संविधान के 42वें संशोधन द्वारा यह कहा गया है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है। 44वें संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि मन्त्रिपरिषद् द्वारा जो सलाह दी जाएगी राष्ट्रपति उस सलाह को एक बार पुनर्विचार के लिए भेज सकता है। लेकिन यदि पुनर्विचार के बाद उसी सलाह को भेजा जाता है तो राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य है। इस प्रकार राष्ट्रपति केवल एक संवैधानिक मुखिया है।

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प्रश्न 19.
भारत में वास्तविक कार्यपालिका के बारे में लिखिए।
अथवा
भारत में वास्तविक कार्यपालिका कौन है?
उत्तर-
संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार भारतीय संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति के पास हैं। परन्तु राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का मुखिया अथवा नाममात्र की कार्यपालिका है। जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिपरिषद् है। चाहे संवैधानिक रूप से समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को सौंप दी गई हैं परन्तु राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता। मन्त्रिमण्डल की सलाह के बिना तथा सलाह के विरुद्ध राष्ट्रपति कोई कार्य नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने पर बाध्य है। व्यावहारिक रूप से मन्त्रिमण्डल ही सारे कार्य करता है। नीतियों के निर्माण से लेकर सामान्य प्रशासन तक का समस्त कार्य मन्त्रिमण्डल ही करता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल ही वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 20.
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए कोई चार सुझाव दीजिए।
उत्तर-
भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के चार सुझाव निम्नलिखित हैं

  • शिक्षा का प्रसार-भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति हिंसा के स्थान पर शान्तिपूर्ण और संवैधानिक साधनों को अपनाना अधिक पसन्द करता है।
  • आर्थिक समानता-भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को हल करने के लिए आर्थिक असमानता को दूर करके आर्थिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। ग़रीबी को दूर करके हिंसा को कम किया जा सकता है।
  • धर्म-निरपेक्षता-साम्प्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है। अतः धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करके भारतीय लोकतन्त्र की समस्याओं को कम किया जा सकता है। साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठनों पर रोक लगा देनी चाहिए।
  • बेरोज़गारी को दूर करना आवश्यक है।

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प्रश्न 21.
भारत में संसदीय सरकार के लिए बहुदलीय प्रणाली किस प्रकार का खतरा है ?
उत्तर-
बहुदलीय प्रणाली निम्नलिखित प्रकार से भारत में संसदीय सरकार के लिए खतरा है-

  • बहुदलीय प्रणाली में बनी सरकार सदैव कमज़ोर रहती है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मज़बूत एवं सुदृढ़ विपक्षी दल का अभाव रहता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में कई बार सरकार बनाने में कठिनाई पैदा हो जाती है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मज़बूत एवं सुदृढ़ विकल्प का सदैव अभाव रहता है।

प्रश्न 22.
साम्प्रदायिकता क्या है?
उत्तर-
साम्प्रदायिकता का अभिप्राय है धर्म जाति के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध भेदभाव की भावना रखना। एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदायों और राष्ट्रों के विरुद्ध उपयोग करना साम्प्रदायिकता है।

ए० एच० मेरियम के अनुसार, “साम्प्रदायिकता अपने समुदाय के प्रति वफ़ादारी की अभिवृति की ओर सकेत करती है जिसका अर्थ भारत में हिन्दुत्व या इस्लाम के प्रति पूरी वफादारी रखना है।”
के० पी० करुणाकरण के अनुसार, “भारत में साम्प्रदायिकता का अर्थ वह विचारधारा है जो किसी विशेष धार्मिक समुदाय या जाति के सदस्यों के हितों के विकास का समर्थन करती है।”

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प्रश्न 23.
राजनीतिक हिंसा लोकतन्त्र के लिए खतरा कैसे है?
अथवा
भारतीय लोकतंत्र पर राजनैतिक हिंसा के कोई चार प्रभाव लिखिए।
उत्तर-

  • लोकतन्त्रीय संस्थाएं हिंसा के भय के वातावरण में कार्य करती हैं। ऐसे वातावरण में चुनाव अवश्य होते हैं, परन्तु इसमें मतदाता अपनी इच्छानुसार मतदान नहीं करते हैं।
  • हिंसा को रोकने के लिए सरकार को पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों पर बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ता है। यह खर्च राष्ट्रीय कोष पर बोझ बनता है जिस कारण सरकार अपनी विकास नीतियों का कार्य पूरा नहीं कर पाती है।
  • हिंसा सत्य की आवाज़ का दुश्मन है। कई राजनीतिक नेता हिंसा के कारण अपनी इच्छा को लोगों के सामने प्रकट नहीं कर पाते हैं जिस कारण सरकार की गतिविधियों की जानकारी लोगों को स्पष्ट रूप से नहीं मिल पाती है।
  • राजनीतिक हिंसा के कारण लोग राजनीति से दूर रहते हैं।

प्रश्न 24.
राजनैतिक हिंसा बढ़ने के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर-
राजनीतिक हिंसा बढ़ती जा रही है। इसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं-

  1. चुनावों के समय की जाने वाली रैलियों, सभाओं आदि में राजनीतिक नेता एक-दूसरे पर गम्भीर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं जिससे हिंसा भड़कती है।
  2. चुनावों के दौरान अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उन्मादी नारेबाजी की जाती है जिससे हिंसक घटनाएं होती हैं।
  3. राजनीतिक नेताओं द्वारा चुनाव जीतने के लिए हथियारबंद लोगों और पेशेवर अपराधियों का प्रयोग किया जाता है। ये लोग हिंसा भड़काने का कार्य करते हैं। .
  4. क्षेत्रवादी प्रवृत्तियों के कारण भी राजनीतिक हिंसा बढ़ी है।

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प्रश्न 25.
जनजीवन में बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जा सकता है ?
अथवा
सार्वजनिक जीवन में बढ़ रही हिंसा को कैसे रोका जा सकता है?
उत्तर-
जनजीवन में बढ़ रही हिंसा को निम्नलिखित ढंग से रोका जा सकता है-

  • शिक्षा का प्रसार-हिंसा के न्यूनीकरण के लिए शिक्षा का प्रसार करना अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति हिंसा के स्थान पर शान्तिपूर्ण और संवैधानिक साधनों को अपनाना अधिक पसन्द करता है।
  • आर्थिक समानता-हिंसा के न्यूनीकरण के लिए आर्थिक असमानता को दूर करके आर्थिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। ग़रीबी को दूर करके हिंसा को कम किया जाता है।
  • धर्म-निरपेक्षता-साम्प्रदायिकता हिंसा को बढ़ावा देती है। अतः धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करके राजनीति में हिंसा को कम किया जाता है।
  • क्षेत्रीय असन्तुलन को समाप्त किया जाना चाहिए।

प्रश्न 26.
राजनीतिक दल-बदली भारतीय संसदीय सरकार के लिए किस प्रकार से खतरा है ?
उत्तर-

  • राजनीतिक दल-बदली से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है।
  • राजनीतिक दल-बदली अवसरवाद की राजनीति को बढ़ावा देती है।
  • राजनीतिक दल-बदली से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  • राजनीतिक दल-बदली से मतदाताओं का विश्वास संसदीय शासन प्रणाली में कम होता है।

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प्रश्न 27.
भाषावाद ने भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-

  • भाषावाद ने राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को नुकसान पहुंचाया है।
  • सन् 1956 में राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया गया था। ।
  • भाषा के आधार पर ही लोगों में क्षेत्रवाद की भावना का विकास हुआ है।
  • भाषायी आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
संसदीय शासन प्रणाली का अर्थ लिखें।
उत्तर-
संसदीय सरकार में कार्यपालिका तथा विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने समस्त कार्यों के लिए विधानपालिका (संसद्) के प्रति उत्तरदायी होती है और तब तक अपने पद पर रहती है जब तक इसको संसद् का विश्वास प्राप्त रहता है। जिस समय कार्यपालिका संसद् का विश्वास खो बैठे तभी कार्यपालिका को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

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प्रश्न 2.
संसदीय सरकार की दो विशेषताएं बताइएं।
उत्तर-

  • प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-संसदीय सरकार में कार्यपालिका का असली मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। राजा या राष्ट्रपति कार्यपालिका का नाम मात्र का मुखिया होता है। प्रशासन की वास्तविक शक्तियां प्रधानमन्त्री के पास होती हैं।
  • कार्यपालिका विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी-मन्त्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 3.
भारतीय संसदीय प्रणाली की दो मुख्य विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद-राष्ट्रपति राज्य का नाममात्र का अध्यक्ष है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिमण्डल है। संविधान में कार्यपालिका की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं, परन्तु राष्ट्रपति उन शक्तियों का इस्तेमाल स्वयं अपनी इच्छा से नहीं कर सकता। राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है।
  • कार्यपालिका तथा संसद् में घनिष्ठ सम्बन्ध-मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य संसद् के सदस्य होते हैं। मन्त्रिमण्डल के सदस्य संसद् की बैठकों में भाग लेते हैं, विचार प्रकट करते हैं और बिल पेश करते हैं।

प्रश्न 4.
भारतीय लोकतन्त्र की दो मुख्य समस्याएं लिखो।
उत्तर-

  1. सामाजिक असमानता- भारतीय लोकतन्त्र की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामाजिक असमानता है। सामाजिक असमानता ने लोगों में निराशा तथा असन्तोष को बढ़ावा दिया है।
  2. ग़रीबी-भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीब व्यक्ति के पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा। ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो दूर, ऐसा सोच भी नहीं सकता।

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प्रश्न 5.
ग़रीबी के भारतीय लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भारत की अधिकांश जनता ग़रीब है। ग़रीबी कई बुराइयों की जड़ है। ग़रीब व्यक्ति सदा अपना पेट भरने की चिन्ता में लगा रहता है और उसके पास समाज और देश की समस्याओं पर विचार करने का न तो समय होता है और न ही इच्छा।
  2. ग़रीब व्यक्ति चुनाव लड़ना तो दूर की बात, वह चुनाव की बात भी नहीं सोच सकता। ग़रीब नागरिक वोट का भी स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकता। वह अपने मालिकों के विरुद्ध मतदान नहीं कर सकता। ग़रीब व्यक्ति अपने वोट को बेच डालता है।

प्रश्न 6.
भ्रष्टाचार के लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के नैतिक चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।
  2. भ्रष्टाचार के कारण ईमानदार एवं गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाते।

प्रश्न 7.
आर्थिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित करती है ?
उत्तर-
भारत में बहुत अधिक आर्थिक असमानता पायी जाती है। आर्थिक असमानता ने भारतीय लोकतन्त्र को काफ़ी प्रभावित किया है। अमीर लोग राजनीतिक दलों को धन देते हैं और प्रायः धनी व्यक्तियों को ही चुनाव लड़ने के लिए पार्टी के टिकट दिए जाते हैं। चुनावों में धन का बहुत महत्त्व है और धन-बल पर तो चुनाव भी जीते जाते हैं।

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प्रश्न 8.
जातिवाद लोकतन्त्र को किस तरह प्रभावित करता है ?
उत्तर-

  • चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन करते समय जातिवाद को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
  • राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दल खुलेआम जाति का समर्थन करते हैं।

प्रश्न 9.
भारत में लोकतन्त्र की सफलता के लिए किन्हीं दो ज़रूरी शर्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. जागरूक नागरिकता-जागरूक नागरिकता भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है। निरन्तर देख-रेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है।
  2. शिक्षित नागरिक-भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों का शिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं।

प्रश्न 10.
साम्प्रदायिकता के भारतीय लोकतंत्र पर कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. भारत में अनेक राजनीतिक दलों का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है।
  2. चुनावों में प्रायः सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों का चयन करते समय साम्प्रदायिकता को महत्त्व देते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1.
भारत में संसदीय सरकार की कोई एक विशेषता लिखो।
अथवा
भारतीय संसदीय प्रणाली की एक विशेषता लिखो।
उत्तर-
भारत में कार्यपालिका एवं विधानपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।

प्रश्न 2.
भारत में नाममात्र कार्यपालिका का अध्यक्ष कौन है ?
उत्तर-
भारत में नाममात्र कार्यपालिका अध्यक्ष राष्ट्रपति है।

प्रश्न 3.
भारत द्वारा संसदीय प्रणाली के चुनाव करने का एक कारण लिखो।
उत्तर-
भारत में संसदीय प्रणाली पहले से ही प्रचलित थी। इसी कारण राजनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया।

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प्रश्न 4.
भारतीय संसदीय प्रणाली का एक दोष लिखो।
उत्तर-
भारत में अच्छी संसदीय परम्पराओं का अभाव है।

प्रश्न 5.
राजनीतिक एकरूपता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
राजनीतिक एकरूपता से अभिप्राय यह है कि मन्त्रिपरिषद् के सभी सदस्य प्रायः एक ही राजनीतिक दल से लिये जाते हैं।

प्रश्न 6.
सामाजिक असमानता भारतीय लोकतन्त्र के लिए किस प्रकार समस्या है?
उत्तर-
सामाजिक रूप से दबे लोग राजनीति में क्रियाशील भूमिका नहीं निभाते।

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प्रश्न 7.
सामूहिक उत्तरदायित्व से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
मन्त्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होती है। मन्त्रिपरिषद् एक इकाई की तरह काम करती है और यदि विधानपालिका किसी एक मन्त्रि के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सब मन्त्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ता है।

प्रश्न 8.
भारतीय लोकतन्त्र को गरीबी कैसे प्रभावित करती है ?
अथवा
गरीबी का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
गरीब व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाते।

प्रश्न 9.
भारत में बेरोज़गारी ने लोकतंत्र को कैसे प्रभावित किया है ?
उत्तर-
बेरोज़गार व्यक्ति सफल मतदाता की भूमिका नहीं निभा सकता।

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प्रश्न 10.
संसदीय शासन प्रणाली में लोकसभा को कौन किसके कहने पर भंग कर सकता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति लोकसभा को प्रधानमन्त्री (मन्त्रिपरिषद्) के कहने पर भंग कर सकता है।

प्रश्न 11.
संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को कौन भंग (स्थगित) कर सकता है ?
उत्तर-
संसदीय शासन प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति भंग कर सकता है।

प्रश्न 12.
कानून के शासन से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
कानून के शासन का अर्थ है देश में कानून सर्वोच्च है और कानून से ऊपर कोई नहीं है।

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प्रश्न 13.
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व से अभिप्राय यह है, कि प्रत्येक मन्त्री अपने विभाग का व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है।

प्रश्न 14.
भारत में असली कार्यपालिका कौन है ?
उत्तर-
भारत में असली कार्यपालिका प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिमण्डल है।

प्रश्न 15.
भ्रष्टाचार का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
भ्रष्टाचार के कारण भारतीय लोकतन्त्र में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है।

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प्रश्न 16.
भारत में अब तक कितने लोक सभा चुनाव हो चुके हैं ?
उत्तर-
भारत में अब तक लोकसभा के 16 आम चुनाव हो चुके हैं।

प्रश्न 17.
आर्थिक असमानता का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
राजनीतिक शक्ति पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रित होकर रह गई है।

प्रश्न 18.
भारतीय लोकतन्त्र को जातिवाद कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर-
चुनावों में जाति के नाम पर लोगों से वोट मांगें जाते हैं।

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प्रश्न 19.
भारतीय लोकतन्त्र पर साम्प्रदायिकता का क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
भारत में साम्प्रदायिक दल पाए जाते हैं।

प्रश्न 20.
भारत में निरक्षरता का मुख्य कारण क्या है ?
उत्तर-
भारत में निरक्षरता का मुख्य कारण बढ़ती हुई जनसंख्या एवं निर्धनता है।

प्रश्न 21.
भारत में लोकतन्त्र का भविष्य क्या है ?
उत्तर-
भारत में लोकतन्त्र का भविष्य उज्ज्वल है।

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प्रश्न 22.
भारत में अनपढ़ता ने लोकतन्त्र को कैसे प्रभावित किया है ?
अथवा
अनपढ़ता का भारतीय लोकतन्त्र पर क्या प्रभाव है ?
उत्तर-
अनपढ़ व्यक्ति अपने मत का उचित प्रयोग नहीं कर सकता। प्रश्न 23. भारत में सर्वोच्च शक्ति किसके पास है ? उत्तर-भारत में सर्वोच्च शक्ति जनता के पास है।

प्रश्न 24.
क्षेत्रवाद के कौन-से दो पहलू हैं ?
उत्तर-

  1. राजनीतिक पहलू
  2. आर्थिक पहलू।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 25.
जाति हिंसा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
अन्तर्जातीय हिंसा को जाति हिंसा कहा जाता है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् ……………. की स्थापना की गई।
2. भारत में …………… शासन प्रणाली पाई जाती है।
3. भारत में ………….. वर्ष के नागरिक को मताधिकार प्राप्त है।
4. भारत में ………….. संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
5. सैय्यद काज़ी एवं शिब्बन लाल सक्सेना ने संविधान सभा में ……………लोकतंत्र की जोरदार वकालत की।
उत्तर-

  1. प्रजातन्त्र
  2. संसदीय
  3. 18
  4. 61वें
  5. अध्यक्षात्मक ।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें

1. संसदीय शासन प्रणाली में उत्तरदायित्व का अभाव पाया जाता है।
2. प्रधानमंत्री लोकसभा को भंग नहीं करवा सकता।
3. संविधान के 86वें संशोधन द्वारा, अनुच्छेद 21-A मुफ्त व ज़रूरी शिक्षा का प्रबन्ध करती है।
4. 2014 के लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी दल की मान्यता प्रदान की गई।
5. भारत में राजनीतिक अपराधीकरण बढ़ता ही जा रहा है।
उत्तर-

  1. ग़लत
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय लोकतंत्र के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियां हैं ?
(क) ग़रीबी
(ख) अनपढ़ता
(ग) बेकारी
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
आर्थिक असमानता को कम करने के लिए क्या करना चाहिए ?
(क) पंचवर्षीय योजनाएं लागू की जानी चाहिएं
(ख) आर्थिक सुधार से संबंधित कार्यक्रम लागू किये जाने चाहिएं
(ग) सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किये जाने चाहिएं
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 13 भारतीय लोकतन्त्र

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से एक भारत में ग़रीबी का कारण है-
(क) विशाल जनसंख्या
(ख) शिक्षा
(ग) विकास
(घ) जागरूकता।
उत्तर-
(क) विशाल जनसंख्या

प्रश्न 4.
यह किसने कहा है, “स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ा है
(क) मोरिस जोन्स
(ख) रजनी कोठारी
(ग) डॉ० बी० आर० अंबेडकर
(घ) वी० के० आर० मेनन।
उत्तर-
(घ) वी० के० आर० मेनन।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 12 हित तथा दबाव समूह

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 12 हित तथा दबाव समूह Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 12 हित तथा दबाव समूह

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
दबाव समूह की परिभाषा लिखो। दबाव समूहों की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।। (Define Pressure Groups and explain its main characteristics.)
अथवा
“प्रभावक’ गुटों को परिभाषित कीजिए और उनकी विशेषताओं की चर्चा करें।। (Define Prssure Groups and discuss their characteristics.)

उत्तर-
वर्तमान राजनीतिक युग की महत्त्वपूर्ण देन दबाव समूहों (Pressure Groups) का विकास है जो आजकल सभी लोकतन्त्रीय देशों में पाए जाते हैं। कार्ल जे० फ्रेडरिक ने दबाव समूहों को “दल के पीछे सकिय जन” (“The living Public behind the Parties”) कहा है। पहले इन समूहों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें एक बुरी शक्ति माना जाता था जो लोकतन्त्र की जड़ों पर प्रहार करती है, किन्तु अब स्थिति बदल गई है। अब उन्हें आवश्यक बुराई के रूप में राजनीतिक क्रियाशीलता के लिए आवश्यक समझा जाने लगा है। राजनीतिक क्षेत्र में नीति निर्धारण और प्रशासन में दिन-प्रतिदिन इनके बढ़ते हुए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव के कारण विश्व के सभी देशों में इनका अध्ययन किया जा रहा है।

दबाव समूह का अभिप्राय (Meaning of Pressure Groups)—साधारण भाषा में दबाव समूह विशेष हितों से सम्बन्धित व्यक्तियों के ऐसे समूह होते हैं जो विधायकों को प्रभावित करके अपने उद्देश्यों और हितों के पक्ष में समर्थन प्राप्त करते हैं। ये राजनीतिक दल अथवा संगठन नहीं होते हैं बल्कि ये राजनीतिक दलों से भिन्न होते हैं।

1. ओडीगार्ड (Odegard) ने दबाव समूह का अर्थ बताते हुए कहा है, “एक दबाव समूह ऐसे लोगों का औपचारिक संगठन है जिनके एक अथवा अनेक सामान्य उद्देश्य और स्वार्थ हैं और जो घटनाओं के क्रम में विशेष रूप में सार्वजनिक नीति के निर्माण और शासन को इस प्रकार प्रभावित करने का प्रयत्न करे कि उनके अपने हितों की रक्षा और वृद्धि हो सके।

2. सी० एच० ढिल्लों (C. H. Dhillon) के अनुसार, “हित समूह ऐसे व्यक्तिों का समूह है जिनके उद्देश्य समान होते हैं। जब हित समूह अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार की सहायता चाहने लगते हैं, तब इन्हें दबाव समूह कहा जाता है।” (“An Interest Group is an association of people having a mutual concern. They become in turn a pressure group as they seek government aid in accomplishing what is advantageous of them.”)

3. मैनर वीनर (Myron Weiner) के अनुसार, “दबाव अथवा हित समूह से हमारा अभिप्राय ऐसे किसी ऐच्छिक रूप से संगठित समूह से होता है जो सरकार के संगठन से बाहर रह कर सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति, सरकार की नीति, इसका प्रशासन तथा इसके निर्णय को प्रभावित करने का यत्न करता है।”

4. एन० सी० हण्ट (N. C. Hunt) के अनुसार, “दबाव समूह ऐसा संगठन है जो सार्वजनिक पद की ज़िम्मेदारी स्वीकार किए बिना सरकार की नीतियों को प्रभावित करने का प्रयत्न करता है।” : “A pressure group is an organisation which seeks to influence governmental policies without at the same time being willing to accept the responsibility of public office.”)

5. वी० ओ० की (V.O. Key) के अनुसार, “हित समूह ऐसे असार्वजनिक संगठन (Private Associations) है जिनका निर्माण सार्वजनिक नीति को प्रभावित करने के लिए किया जाता है। यह उम्मीदवारों के उत्तरदायित्व की अपेक्षा सरकार को प्रभावित करने का प्रयत्न करके अपने हित साधन में लगे रहते हैं।”

इन परिभाषाओं में संगठन शब्द पर बल दिया गया है, जिससे ये परिभाषाएं सीमित हो गई हैं क्योंकि इन परिभाषाओं के आधार पर उन्हीं समूहों को हित समूह स्वीकार किया जा सकता है जिनका औपचारिक संगठन हो। अतः जिन समूहों का औपचारिक संगठन नहीं है उन्हें हित समूहों में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। आर्थर बेण्टले (Arthur Bentley) का विचार है कि हित समूह की परिभाषा संगठन के आधार पर न करके, क्रिया के आधार पर की जानी चाहिए। उसके अनुसार, “समूह समाज के लोगों का कोई एक भाग है, जिसे किसी ऐसे भौतिक पुंज के रूप में नहीं जोकि व्यक्तियों के अन्य पुंजों से पृथक् हो (Not as a physical mass cut off from other masses of men) बल्कि सामूहिक क्रिया के रूप में (As a mass activity) माना गया है जो कि अपने में भाग लेने वाले व्यक्तियों पर इसी प्रकार की अन्य सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने पर कोई रुकावट उत्पन्न नहीं करता।”

दबाव समूह की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि दबाव समूह राजनीतिक दलों की भान्ति किसी कार्यक्रम के आधार पर निर्वाचकों को प्रभावित नहीं करते हैं बल्कि वे किन्हीं विशेष हितों से सम्बन्धित होते हैं। वे राजनीतिक संगठन नहीं होते हैं और न ही चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं। वे तो अपने समूह विशेष के लिए सरकारी नीति और सरकारी ढांचे को प्रभावित करते हैं, राजनीतिक दल न होते हुए भी दलों के समान संगठित होते हैं, जिनकी सदस्यता, उद्देश्य, संगठन, एकता, प्रतिष्ठा और साधन होते हैं। इन समूहों का निर्माण विशेष हितों के लिए होता है। वे अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए जनता की सहानुभूति अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते हैं। वे सरकार पर ऐसी किसी नीति को न अपनाने के लिए जो उनके हितों के प्रतिकूल हो समाचार-पत्र, पुस्तकों, रेडियो तथा सार्वजनिक सम्बन्ध आदि माध्यमों द्वारा प्रभाव डालते हैं।

दबाव समूहों के लक्षण विशेषताएँ अथवा प्रकृति (CHARACTERISTICS OR NATURE OF PRESSURE GROUPS)-

दबाव समूहों की विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट पता चलता है कि ये न तो हित समूहों की भान्ति पूर्ण रूप से अराजनीतिक होते हैं और न ही राजनीतिक दलों की भान्ति पूर्णतः राजनीतिक होते हैं। दबाव समूह के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

1. औपचारिक संगठन (Formal Organisation)-दबाव समूह का प्रथम लक्षण यह है कि वह औपचारिक रूप से संगठित व्यक्तियों के समूह होते हैं। व्यक्तियों के इस समूह को बिना संगठन के दबाव समूह नहीं कहा जा सकता। दबाव समूह के लिए औपचारिक संगठन का होना अनिवार्य है। दबाव समूह का अपना संविधान, अपने उद्देश्य और अपने पदाधिकारी होते हैं। हो सकता है कि कोई समूह बिना औपचारिक संगठन के बहुत प्रभावशाली हो, परन्तु ऐसे समूह को दबाव समूह के स्थान पर शक्ति गुट (Power Group) कहना अधिक उचित होता है।

2. विशेष स्व-हित (Special Self-interest)-दबाव समूहों की स्थापना का आधार किसी विशेष स्व-हित की सिद्धि होता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दबाव समूहों के सामान्य उद्देश्य नहीं होते हैं। अनेक दबाव समूह विशेष कर पेशेवर समूह सामान्य हित का ही लक्ष्य रखते हैं, परन्तु फिर भी इस बात में सच्चाई है कि विशेष स्वहित विभिन्न व्यक्तियों को एक समूह में बांध कर रखता है। दबाव समूह की एकता का आधार ही इसके सदस्यों में एक जैसे हित का होना है। जिन व्यक्तियों के हितों की समानता होती है वे ही दबाव समूह का रूप ले लेते हैं ताकि सरकार को प्रभावित करके अपने हितों की रक्षा कर सकें।

3. ऐच्छिक सदस्यता (Voluntary Membership)-दबाव समूह की सदस्यता ऐच्छिक होती है। दबाव समूह का सदस्य बनना या न बनना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति को किसी विशेष दबाव समूह का सदस्य बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यदि कोई व्यक्ति किसी दबाव समूह का सदस्य बनने के बाद यह महसूस करे कि उसके हित इस समूह विशेष के द्वारा पूरे नहीं होते हैं तो वह इस समूह की सदस्यता छोड़ सकता है।

4. सर्वव्यापक प्रकृति (Universal in Nature)-दबाव समूह सभी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं में पाए जाते हैं। यह ठीक है कि लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में दबाव समूह अधिक पाए जाते हैं और उनकी भूमिका भी सर्वाधिकार व स्वेच्छाचारी शासन व्यवस्था की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। परन्तु सर्वाधिकारवादी व्यवस्था में भी दबाव समूह पाए जाते हैं। चीन में दबाव समूह पाए जाते हैं। अफ्रीका व लेटिन अमेरिका के अनेक स्वेच्छाधारी राज्यों में दबाव समूह पाए जाते हैं।

5. राजनीतिक क्रिया अभिमुखी (Political action Oriented)-दबाव समूह स्वयं राजनीतिक संगठन नहीं होते परन्तु ये राजनीतिक क्रिया को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। ये चुनावों में प्रत्यक्ष तौर पर भाग नहीं लेते और शासन व्यवस्था से अलग रहते हैं परन्तु ये राजनीतिक दलों और राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं।

6. उत्तरदायित्व का अभाव (Lack of Responsibility)-दबाव समूहों की एक अन्य विशेषता यह है कि समूह सत्ता का लाभ तो उठाते हैं परन्तु उत्तरदायित्व का वहन नहीं करते। दबाव समूह सत्तारूढ़ दल पर दबाव डालते हैं ताकि नीतियों का निर्माण उनके पक्ष में हो। परन्तु दबाव समूह किसी भी कार्य के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होते।

7. अमान्य संवैधानिक संगठन (Extra Constitutional Bodies) ‘दबाव समूहों को संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं होती क्योंकि इनका वर्णन संविधान में नहीं किया गया होता। परन्तु दबाव समूह देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और शासन को प्रभावित करते हैं।

8. राजनीतिक सत्ता प्राप्ति का उद्देश्य नहीं (Aim is not to acquire Political Power)-दबाव समूहों का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना नहीं होता अर्थात् इनका उद्देश्य सरकार बनाना नहीं होता। इनका उद्देश्य अपने हितों की रक्षा करना होता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 12 हित तथा दबाव समूह

प्रश्न 2.
दबाव समूहों से आपका क्या अभिप्राय है? लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में इनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों की व्याख्या कीजिए।
(What do you understand by Pressure Groups. Discuss the various functions of Pressure Groups which they perform in a Democratic Political System.)
उत्तर-
दबाव समूह की परिभाषा-इसके लिए प्रश्न संख्या नं० 1 देखो।
दबाव समूह के कार्य-दबाव समूहों के कार्यों की स्थाई सूची तैयार करना कठिन कार्य है, क्योंकि विभिन्न दबाव समूहों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते हैं। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दबाव समूह भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं और अलग-अलग भूमिका निम्न हैं। इसके अतिरिक्त दबाव समूहों के कार्य देश की शासन प्रणाली और परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। दबाव समूह मुख्य निम्नलिखित कार्य करते हैं-

1. सदस्यों के हितों की रक्षा करना (Protection of the Interests of Members)-दबाव समूह का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करना तथा विकास करना है। दबाव समूहों की स्थापना वास्तव में किसी विशेष हित की पूर्ति के लिए की जाती है और अपने हितों की रक्षा के लिए व्यक्ति दबाव समूहों के सदस्य बनते हैं। अतः सदस्यों के हितों की रक्षा करना दबाव समूहों का प्रथम कर्तव्य है। उदाहरणस्वरूप विद्यार्थी संघ का प्रथम कार्य विद्यार्थियों के हितों की रक्षा करना है। सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए भिन्न-भिन्न दबाव समूहों द्वारा भिन्न-भिन्न साधन अपनाए जाते हैं।

2. सार्वजनिक नीतियों तथा कानूनों के निर्माण को प्रभावित करना (To Influence the making of Public Policies and Laws) सरकार की नीतियां और कानून सभी को प्रभावित करते हैं। दबाव समूह सार्वजनिक नीतियों और कानूनों के हितों को प्रभावित करते हैं ताकि ऐसी नीतियों और कानूनों का निर्माण हो, जो उनके हितों के अनुकूल हों और उनके हितों को बढ़ावा दे। यद्यपि दबाव समूह सार्वजनिक नीतियों के निर्माण एवं कानून के निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेते तथापि वे प्रार्थना-पत्र में सरकारी शिष्टमण्डल भेजकर, सार्वजनिक सभाओं द्वारा, वार्ता द्वारा, प्रदर्शनों इत्यादि द्वारा कानून निर्माण और नीति-निर्माण को प्रभावित करते हैं।

3. अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करना (To establish Contact with Bureaucracy)-दबाव समूहों के महत्त्वपूर्ण कार्य सरकारी अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करना होता है। निकट के सम्पर्कों से ही दबाव समूहों को सरकारी नीतियों का पता चलता है और वे उन नीतियों को अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रयास करते हैं। दबाव समूह अधिकारियों से सम्पर्क स्थापित करने के लिए अधिकारियों, मन्त्रियों और विधायकों के रिश्तेदारों को अपने व्यवसाय में नौकरियां प्रदान करते हैं और सरकारी द्वारा अपने काम करवाते हैं।

4. चुनाव के समय उम्मीदवारों की सहायता करना (To help the Candidates at the time of Election)प्रभावित दबाव समूह चुनाव के दिनों में उन उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करके उनको सफल बनाने का प्रयत्न करते हैं जिनसे उनको उम्मीद होती है कि वे विधानमण्डल में जाकर या सरकार में जाकर उनके हितों की सुरक्षा करेंगे। दबाव समूह राजनीतिक दलों की धन से सहायता करके उनको सफल बनाने की कोशिश करते हैं ताकि बाद में वे अपने कार्य उनसे करवा सकें।

5. प्रचार तथा प्रसार के साधन (Propaganda and Means of Communication)-अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, जनता में अपने पक्ष के लिए सद्भावना पैदा करने के लिए तथा प्रशासन को अपने अनुकूल बनाने के लिए, दबाव समूह, भिन्न-भिन्न प्रचार व प्रसार के साधन अपनाते हैं। प्रचार व प्रसार के लिए रेडियो, प्रेस, टेलीविज़न व सार्वजनिक सम्बन्धों के विशेषज्ञों की सेवाओं आदि का उपयोग किया जाता है। जनमत को अपने पक्ष में उभार कर दबाव समूह कई बार आन्दोलन पैदा कर देते हैं, प्रदर्शनों का आयोजन करते हैं तथा इस प्रकार के उद्दण्ड व्यवहार प्रशासन व्यवस्था में भारी दबाव डालते हैं। यदि भिन्न-भिन्न दबाव समूह भिन्न-भिन्न और विपरीत दिशाओं में प्रचार अभियान चलाते रहें तो प्रशासन कार्य बहुत कठिन व जटिल हो जाए।

6. आंकड़ों का प्रकाशन-अपनी बातों की महत्ता प्रकट करने के लिए दबाव समूह आंकड़े प्रकाशित करने का साधन भी अपनाते हैं। इस उपाय से वे लोकमत को अपने पक्ष में जागृत करते हुए अधिकारियों पर दबाव डालने में समर्थ होते हैं।

7. गोष्ठियां आयोजित करना-साधनयुक्त अनेक दबाव समूह विचार-विमर्श व वाद-विवाद के लिए समयसमय पर गोष्ठियों, भाषण, वार्तालाप, वार्ताओं व सेमीनारों (Seminar) आदि का आयोजन करते रहते हैं। इन आयोजनों में प्रशासकों व विधायकों इत्यादि को आमन्त्रित किया जाता है। इन गोष्ठियों के द्वारा वस्तुतः दबाव समूह जनता व सरकार के समक्ष अपना प्रभाव प्रस्तुत करते हैं।

8. विधान सभाओं की लॉबियों में सक्रिय भाग लेना-लॉबिंग (Lobbying) का अर्थ है कि दबाव एवं हित समूहों के सदस्य संसद् में जाकर प्रत्यक्ष रूप से विधायकों से सम्पर्क स्थापित करते हैं और उन पर दबाव व प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं कि विधायक ऐसे विधान का निर्माण करें, जिससे उनके हितों की रक्षा हो सके। अनेक आर्थिक रूप से संगठित दबाव समूह योग्य व चतुर वकीलों को भी संसद् में नियुक्त करवातें हैं ताकि ये वकील विधायकों को तार्किक ढंग से अनुभव करवाएं कि अमुक विधेयक सार्वजनिक हित में हैं अथवा अहित में है। दबाव समूहों के सदस्य विधायकों पर पैनी नज़र रखते हुए कई बार उन्हें रिश्वत देकर अथवा बदनामी का भय आदि देकर अनेक अनुचित ढंगों से भी प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।

9. जनमत को प्रभावित करना (Influencing the Public Opinion)—दबाव समूह सरकार को प्रभावित करने में जनमत को प्रभावित करना आवश्यक समझते हैं। अतः ये समूह जनता को अपने पक्ष में करने के लिए जनमत से सम्पर्क बनाए रखते हैं। ये समूह अपने समाचार-पत्रों, सार्वजनिक सम्मेलनों तथा प्रचार के अन्य साधनों द्वारा जनमत को अपने विचारों के अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं, क्योंकि ये समूह जानते हैं कि लोकतन्त्र में जनमत ही सब कुछ है।

10. राजनीतिक दलों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना (To establish relations with Political Parties)दबाव समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक दलों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। दबाव समूह राजनीतिक दलों से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए राजनीतिक दलों को धन देते हैं, चुनाव के समय राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों का समर्थन करते हैं और उनके पक्ष में मतदान करवाते हैं। बड़े-बड़े दबाव समूह राजनीतिक दलों के माध्यम से अपने उम्मीदवार चुनाव में खड़े करते हैं। दबाव समूह राजनीतिक दलों से यह उम्मीद रखते हैं कि वे उनके हितों की रक्षा में उनकी सहायता करें।

11. सलाहकारी कार्य (Advisory Functions)-कई देशों में दबाव समूह अपने व्यवसायों से सम्बन्धित नीतिनिर्माण के कार्य में सरकार को सलाह देते हैं। सरकार का सम्बन्धित विभाग जब नीति-निर्माण करता है तो विभाग से सम्बन्धित दबाव समूहों से सूचना प्राप्त करता है तथा उनसे विचार-विमर्श करता है। इंग्लैण्ड में दबाव समूहों के प्रतिनिधियों को जांचकारी समितियों और सरकारी आयोगों के सामने बुलाया जाता है ताकि विभिन्न समस्याओं पर उनके विचारों को जाना जा सके।

12. संसदीय समितियों के सम्मुख उपस्थित होना (To appear befoer Parliamentary Committees)लोकतन्त्रीय राज्यों में कानून निर्माण के कार्य में बिल या विधेयक संसदीय समिति के पास अवश्य भेजा जाता है। जब संसदीय समिति बिल पर विचार करती है तो सम्बन्धित पक्षों के विचारों को सुनती है। दबाव समूहों के प्रतिनिधि कई बार संसदीय समिति के सामने पेश होते हैं और बिल को प्रभावित करने वाले विचार प्रकट करते हैं। इस प्रकार दबाव समूह कानून प्रक्रिया में भाग लेते हैं।

13. न्यायपालिका की शरण (Shelter of Judiciary)-कई बार दबाव समूह विधान-मण्डल द्वारा बनाए गए ऐसे कानून रद्द करवाने के लिए या कार्यपालिका द्वारा निर्मित किसी ऐसी नीति को अवैध घोषित करवाने के लिए जिनसे उसके किसी हित को आघात पहुंचता है न्यायपालिका की शरण भी लेते हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवीपर्स कानूनों के विरुद्ध इन समूहों ने न्यायपालिका के पास अपील की है।
निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि दबाव समूह सरकार की नीतियों को प्रभावित करने के भरसक प्रयत्न करते हैं। विशेष कर व्यापारिक संगठनों का सरकार पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि सत्तारूढ़ दल को चुनाव में धन की आवश्यकता होती है जो मुख्यतः इन दबाव समूहों द्वारा ही दिया जाता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 12 हित तथा दबाव समूह

प्रश्न 3.
दबाव समूहों की कार्यविधि के तरीकों का वर्णन कीजिए।
(Discuss the methods of the Working of Pressure Groups.)
अथवा
दबाव समूहों की कार्य प्रणाली के ढंगों का वर्णन कीजिए। (Describe the methods of the working of Pressure Groups.)
उत्तर-
दबाव समूहों की कार्यविधि के ढंग-प्रत्येक दबाव समूह का लक्ष्य होता है और अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए दबाव समूह अनेक साधनों को अपनाते हैं। दबाव समूह मुख्यत: जिन साधनों या तकनीकों को राजनीतिक व्यवहार में अपनाते हैं वे इस प्रकार हैं

1. चुनाव (Election)–दबाव समूह चुनावों द्वारा अपने हितों के संरक्षण का प्रयास करते हैं। प्रभावशाली दबाव समूह चुनाव के दिनों में उन उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करके उनको सफल बनाने का प्रयत्न करते हैं जिन से उनको यह उम्मीद होती है कि वे विधानमण्डल में जाकर या सरकार में जाकर उनके हितों की सुरक्षा करेंगे। दबाव समूह राजनीतिक दलों की धन से सहायता करके उनको सफल बनाने की कोशिश करते हैं ताकि बाद में वे अपने कार्य उनसे करवा सकें।

2. प्रार्थना-पत्र भेजना (To Send Petitions)-दबाव समूह को इस बात का पता होता है कि किस अधिकारी या मन्त्री या संस्था पर दबाव डाल कर अपने हितों की रक्षा की जा सकती है। इसलिए दबाव समूह समय-समय पर उन अधिकारियों या मन्त्रियों के पास प्रार्थना-पत्र भेजते रहते हैं। प्रार्थना-पत्र में दबाव.समूहों की मांगों का उल्लेख होता है। कई बार दबाव समूह मांगों के समर्थन में अपने सभी सदस्यों से तारें, पत्र इत्यादि भिजवाते हैं। इस प्रकार हज़ारों तारें, पत्र इत्यादि सम्बन्धित अधिकारी के पास पहुंच जाते हैं और अधिकारी निर्णय लेते समय इन तारों आदि से अवश्य प्रभावित होते हैं।

3. प्रचार तथा प्रसार के साधन (Propaganda and Means of Communication)-अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, जनता को अपने पक्ष में करने के लिए तथा प्रशासन को अपने अनुकूल बनाने के लिए भिन्न-भिन्न दबाव समूह, भिन्न-भिन्न प्रचार व प्रसार के साधन अपनाते हैं। प्रचार व प्रसार के लिए रेडियो, प्रेस, टेलीविज़न व सार्वजनिक सम्बन्धों के विशेषज्ञों की सेवाओं आदि का उपयोग किया जाता है। जनमत को अपने पक्ष में उभार कर दबाव समूह कई बार आन्दोलन पैदा कर देते हैं, प्रदर्शनों का आयोजन करते हैं तथा इस प्रकार के उद्दण्ड व्यवहार प्रशासन व्यवस्था में भारी दबाव डालते हैं। यदि भिन्न-भिन्न दबाव समूह भिन्न-भिन्न और विपरीत दिशाओं में प्रचार अभियान चलाते रहें तो प्रशासन कार्य बहुत कठिन व जटिल हो जाए।

4. आंकड़ा प्रकाशन-अपनी बातों की महत्ता प्रकट करने के लिए दबाव समूह आंकड़े प्रकाशित करने का साधन भी अपनाते हैं। इस उपाय से वे लोकमत को अपने पक्ष में जागृत करते हुए अधिकारियों पर दबाव डालने में समर्थ होते हैं।

5. गोष्ठियां आयोजित करना-साधन युक्त अनेक दबाव समूह विचार-विमर्श व वाद-विवाद के लिए समयसमय पर गोष्ठियों, भाषण, वार्तालाप, वार्ताओं व सेमीनारों (Seminars) आदि का आयोजन करते रहते हैं। इन आयोजनों में प्रशंसकों व विधायकों इत्यादि को आमन्त्रित किया जाता है। इन गोष्ठियों के द्वारा वस्तुतः दबाव समूह जनता व सरकार के समक्ष अपना प्रभाव प्रस्तुत करते हैं।

6. विधान-सभाओं की लॉबियों में सक्रिय भाग लेना-लॉबिइंग (Lobbing) का अर्थ है कि दबाव एवं हित समूहों के सदस्य संसद् में जाकर प्रत्यक्ष रूप से विधायकों से सम्पर्क स्थापित करते हैं और उन पर दबाव व प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं कि विधायक ऐसे विधान का निर्माण करे, जिससे उनके हितों की रक्षा हो सके। अनेक आर्थिक रूप से संगठित दबाव समूह योग्य व चतुर वकीलों को भी संसद् में नियुक्त करवाते हैं ताकि ये वकील विधायकों को तार्किक ढंग से अनुभव करवायें कि अमुक विधेयक सार्वजनिक हित में है अथवा अहित में है। दबाव समूहों के सदस्य विधायकों पर पैनी नज़र रखते हुए कई बार उन्हें रिश्वत देकर या उन्हें बदनामी का भय आदि देकर अनेक अनुचित ढंगों से भी प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।

7. रिश्वत, बेईमानी, बदनामी तथा अन्य उपाय-अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दबाव समूह रिश्वत, घूस व अन्य अनुचित ढंग को अपनाने से भी हिचकिचाते नहीं हैं। बेईमानी व बदनामी के उपकरणों द्वारा वे स्वार्थ सिद्ध करते हैं। प्रत्येक राष्ट्र में ये दबाव समूह सक्रिय रूप से गतिशील रहते हैं, परन्तु व्यावसायिक दबाव समूह धन खर्च करके आधुनिक उपायों के प्रयोग में अन्य दबाव समूहों की तुलना में आगे बढ़ कर रहते हैं।

8. जनमत को अपने पक्ष में करना (To win Public Opinion on their side)-दबाव समूह सरकार को प्रभावित करने के लिए जनमत को अपने पक्ष में करना आवश्यक समझते हैं। अतः ये समूह जनता को अपने पक्ष में करने के लिए जनता से सम्पर्क बनाए रखते हैं। ये समूह अपने समाचार-पत्रों, सार्वजनिक सम्मेलनों तथा प्रचार के अन्य साधनों द्वारा जनमत को अपने विचारों के अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं, क्योंकि ये समूह जानते हैं कि लोकतन्त्र में जनमत ही सब कुछ है। ,

9. हड़ताल, बन्द और प्रदर्शन (Strike, Bandh and Demonstration)-दबाव समूह कई बार अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हड़ताल, बन्द, घेराव और प्रदर्शन का भी सहारा लेते हैं। हड़ताल और प्रदर्शन का प्रयोग तो राष्ट्रीय आन्दोलन के हितों में किया जाता था, परन्तु घेराव और बन्द का प्रयोग स्वतन्त्रता के पश्चात् किया जाने लगा है। इन साधनों द्वारा दबाव समूह एक तो असन्तोष उत्पन्न करना चाहते हैं और दूसरा जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते हैं। इन साधनों का कई बार सरकार पर बड़ा प्रभाव पड़ता है और इन समूहों की बात मान ली जाती है।

10. उच्च पद देकर (By giving high jobs)-बड़े-बड़े व्यापारी और उद्योगपति जैसे टाटा, बिरला, डालमिया, मोदी आदि ने शिक्षा संस्थाएं, अस्पताल और अन्य सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाएं स्थापित कर रखी हैं। मन्त्रियों, विधायकों तथा उच्च सरकारी अधिकारियों के बच्चे तथा रिश्तेदार इन समूहों में काम करते हैं। कई बार सरकारी कर्मचारियों को यह लालच भी दिया जाता है कि उन्हें रिटायर होने के पश्चात् नियुक्त कर लिया जाएगा। इस लालच का काफ़ी प्रभाव पड़ता है।

11. भूख हड़ताल या मरण व्रत (Hunger Strikes or Fast upto Death)-दबाव समूह अपनी मांगें मनवाने के लिए कई बार भूख हड़ताल या मरण व्रत का भी सहारा लेते हैं। भारत में दबाव समूहों के लिए भूख हड़ताल करना या मरण व्रत रखना महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली साधन है।

12. संसदीय समितियों के सामने पेश होना (To appear before Parliamentary Commitees)संसदीय समितियां कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। दबाव समूहों के प्रतिनिधि संसदीय समितियों के सामने प्रस्तुत होते हैं और उन्हें प्रभावित करके अपने हितों की रक्षा करते हैं।

13. न्यायपालिका की शरण (Shelter of Judiciary) कई बार दबाव समूह विधानमण्डल द्वारा बनाए गए ऐसे कानून को रद्द करवाने के लिए या कार्यपालिका द्वारा निर्मित किसी ऐसी नीति को अवैध घोषित करवाने के लिए जिनसे उनके किसी हित पर आघात पहुंचता है, न्यायपालिका की शरण भी लेते हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवीपों के कानूनों के विरुद्ध इन समूहों ने न्यायपालिका के पास अपील की थी।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि दबाव समूह सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में भरसक प्रयत्न करते हैं और विशेषकर व्यापारिक संगठनों का सरकार पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि सत्तारूढ़ दल को चुनाव में धन की आवश्यकता होती है जो मुख्यतः इन दबाव समूहों द्वारा ही दिया जाता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 12 हित तथा दबाव समूह

लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
दबाव समूह से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
साधारण भाषा में दबाव समूह विशेष हितों से सम्बन्धित व्यक्तियों के ऐसे समूह होते हैं जो विधायकों तथा शासन को प्रभावित करके अपने उद्देश्यों और हितों के पक्ष में समर्थन प्राप्त करते हैं। दबाव समूह लोगों का औपचारिक संगठन है। दबाव समूह अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए जनता की सहानुभूति अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते हैं। वे सरकार पर किसी ऐसी नीति को न अपनाने के लिए जो उनके हितों के प्रतिकूल हो, प्रचार के साधनों, सार्वजनिक सम्बन्धों, टेलीविज़न तथा प्रेस द्वारा प्रभाव डालते हैं।

प्रश्न 2.
दबाव समूहों की कोई दो परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-

  • सी० एच० ढिल्लों के अनुसार, “हित समूह ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनके उद्देश्य समान होते हैं। जब हित समूह अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार की सहायता चाहने लगते हैं, तब उन्हें दबाव समूह कहा जाता है।”
  • मैनर वीनर के अनुसार, “दबाव समूह अथवा हित समूह से हमारा अभिप्राय ऐसे किसी ऐच्छिक रूप से संगठित समूह से होता है जो सरकार के संगठन से बाहर रहकर सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति, सरकार की नीति, इसका प्रशासन तथा इसके निर्णय को प्रभावित करने का प्रयत्न करता है।”

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प्रश्न 3.
दबाव समूह की चार विशेषताएं लिखो।
उत्तर-
दबाव समूह के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

  • औपचारिक संगठन-दबाव समूह का प्रथम लक्षण यह है कि ये औपचारिक रूप से संगठित व्यक्तियों के समूह होते हैं । व्यक्तियों के समूह को बिना संगठन के दबाव समूह नहीं कहा जा सकता। दबाव समूह के लिए औपचारिक संगठन का होना अनिवार्य है। दबाव समूह का अपना संविधान, अपने उद्देश्य और अपने पदाधिकारी होते हैं।
  • विशेष स्व-हित-दबाव समूहों की स्थापना का आधार किसी विशेष स्व-हित की सिद्धि होती है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि दबाव समूहों के सामान्य उद्देश्य नहीं होते हैं। अनेक दबाव समूह विशेषकर पेशेवर दबाव समूह सामान्य हित का ही लक्ष्य रखते हैं, फिर भी इस बात में सच्चाई है कि विशेष स्व-हित विभिन्न व्यक्तियों को एक समूह में बांध कर रखता है। दबाव समूह की एकता का आधार ही इसके सदस्यों में एक से हित का होना है।
  • ऐच्छिक सदस्यता-दबाव समूह की सदस्यता ऐच्छिक होती है। दबाव समूह का सदस्य बनना या न बनना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति को किसी विशेष दबाव समूह का सदस्य बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
  • दबाव समूह सभी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था में पाए जाते हैं।

प्रश्न 4.
दबाव समूहों की कार्यविधि के कोई चार ढंग लिखो।
अथवा
दबाव समूहों की कार्यविधि के कोई चार तरीके लिखो।
अथवा
दबाव समूहों की कार्य प्रणाली के चार ढंगों (तरीकों) का वर्णन करें।
उत्तर-
दबाव समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुख्यतः निम्नलिखित साधनों को अपनाते हैं

  • चुनाव-दबाव समूह चुनावों द्वारा अपने हितों के संरक्षण का प्रयास करते हैं। प्रभावशाली दबाव समूह चुनाव के दिनों में उन उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करके उनको सफल बनाने का प्रयत्न करते हैं जिनसे उनको यह उम्मीद होती है कि वे विधानमण्डल में जाकर उनके हितों की रक्षा करेंगे। दबाव समूह राजनीतिक दलों की धन से सहायता करके उनको सफल बनाने की कोशिश करते है ताकि बाद वे अपने कार्य उनसे करवा सकें।
  • प्रार्थना-पत्र भेजना-इसलिए दबाव समूह समय-समय पर उन अधिकारियों या मन्त्रियों के पास प्रार्थना-पत्र भेजते रहते हैं। प्रार्थना-पत्रों में दबाव समूहों की मांगों का उल्लेख होता है। कई बार दबाव में समूह मांगों के समर्थन में अपने सभी सदस्यों से तारें, पत्र इत्यादि भिजवाते हैं।
  • प्रचार तथा प्रसार के साधन-अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जनता में अपने पक्ष के लिए सद्भावना की भावना पैदा करने के लिए तथा प्रशासन को अपने अनुकूल बनाने के लिए भिन्न-भिन्न दबाव समूह, भिन्न-भिन्न प्रचार तथा प्रसार के साधन अपनाते हैं।
  • अपनी बातों की महत्ता प्रकट करने के लिए दबाव समूह आंकड़े प्रकाशित करने का साधन भी अपनाते हैं।

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प्रश्न 5.
हित समूहों और दबाव समूहों में अन्तर लिखो।
अथवा
दबाव समूह और हित समूह में अन्तर कीजिए।
उत्तर-
हित समूह और दबाव समूह समान प्रकृति और प्रवृत्ति के होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। इन दोनों में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • दोनों में पहला अन्तर कार्य-विधि का है। हित समूह अपने हितों की वृद्धि या रक्षा के लिए मुख्यतः अनुनयनी साधनों का प्रयोग करते हैं जबकि दबाव समूह दबाव डालने की तकनीकों का सहारा लेते हैं।
  • हित समूह अपने हितों की रक्षा के लिए शासन क्रिया को प्रभावित करने का लक्ष्य नहीं रखते परन्तु दबाव समूह राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील रहते हैं। हित समूह अन्य हित समूहों या सामाजिक संरचनाओं को प्रभावित करने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील रहते हैं।
  • हित समूह तथा दबाव समूह में तीसरा अन्तर प्रकृति का है। हित समूह का प्रत्यक्ष रूप से राजनीति से सम्बन्ध नहीं होता जबकि दबाव समूह का राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।

प्रश्न 6.
दबाव समूह की कोई चार किस्में लिखिए।
उत्तर-
वर्तमान समय में कई तरह के दबाव समूह पाए जाते हैं जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं

  • विशेष हित समूह-जिन लोगों के हितों में समानता नहीं होती है वे अपने विशेष हितों की रक्षा के लिए आपस में मल कर दबाव समूहों का गठन कर लेते हैं। ऐसे दबाव समूह विशेष हित समूह कहलाते हैं। इनमें श्रमिक संघ, किसान संगठन आदि शामिल हैं। ‘
  • साम्प्रदायिक हित समूह-ऐसे हित समूह किसी विशेष समुदाय या धर्म को प्रोत्साहित करने के लिए बनाए जाते हैं जैसे कि रिपब्लिकन दल, हिन्दू महासभा और अकाली दल।
  • सरकारी कर्मचारियों के समह-सरकारी कर्मचारियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए अनेक संघों की स्थापना की हुई है। इनमें रेलवे कर्मचारी संघ, डाक-तार कर्मचारी संघ आदि शामिल हैं।
  • साहचर्य हित समूह-ये हित समूह विशेष व्यक्तियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए औपचारिक रूप से संगठित होते हैं, जैसे श्रमिक संगठन एवं व्यापारिक संगठन।

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प्रश्न 7.
दबाव समूहों के चार गुणों अथवा लाभों का वर्णन करें।
उत्तर-

  • दबाव समूह का पहला लाभ यह है कि वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए जनता में अपना साहित्य वितरित करके जनमत को शिक्षित करते हैं।
  • इन दबाव समूहों के पास अपने नेता होते हैं जो विभिन्न तथ्यों को एकत्र करने के बाद जनता के सामने पेश करते
  • दबाव समूहों के अपने संगठन होते हैं जो कई तरह की लाभकारी सूचनाओं व आंकड़ों को एकत्र करते हैं। (4) कुछ दबाव समूह सामाजिक बुराइयों को दूर करने में प्रयासरत रहते हैं।

प्रश्न 8.
दबाव समूह के कोई चार अवगुण लिखो।
उत्तर-

  • इन दबाव समूहों के आपसी विरोध के कारण सामान्य हितों को हानि पहुंचने की सम्भावना होती है।
  • इन दबाव समूहों में कुछ शक्तिशाली तथा अच्छी प्रकार से संगठित होते हैं तथा उनकी सदस्य संख्या भी अधिक होती है जबकि कुछ दबाव समूह छोटे होते हैं तथा इनके पास अधिक पास अधिक धन भी नहीं होता है। इस कारण बड़े शक्तिशाली दबाव समूह सरकार से अपनी बात मनवाने में सफल हो जाते हैं।
  • कई बार व्यक्ति किसी दबाव समूह में शामिल नहीं होते हैं जिस कारण उनके हितों की उपेक्षा होती रहती है। (4) दबाव समूह राष्ट्रीय विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। .

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प्रश्न 9.
दबाव समूह और राजनीतिक दलों के बीच कोई चार अन्तर लिखें।
उत्तर-
राजनीतिक दल और दबाव समूह में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • संगठन के स्वरूप में अन्तर-राजनीतिक दल एक राजनीतिक संगठन होता है जो समाज के सामान्य हितों का प्रतिनिधित्व करता है, परन्तु दबाव समूह कोई राजनीतिक संगठन नहीं है। वह किसी विशेष अथवा कुछ समान उद्देश्यों को लेकर चलता है।
  • कार्यक्रम में अन्तर-राजनीतिक दलों का एक राजनीतिक कार्यक्रम होता है। जिसके आधार पर राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु दबाव समूहों का कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता है। इस कारण कार्य क्षेत्र विशिष्ट और संकीर्ण होता है।
  • व्यापक एवं संकुचित संगठन-राजनीतिक दल विस्तृत एवं व्यापक संगठन होता है जिसका उद्देश्य देश के सभी मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना होता है। इसके विपरीत दबाव समूह एक छोटा संगठन होता है जिसे जनता के एक विशेष वर्ग का समर्थन प्राप्त होता है।
  • राजनीतिक दल चुनाव में भाग लेते हैं, जबकि दबाव समूह चुनावों में भाग नहीं लेते।

प्रश्न 10.
दबाव समूहों के कोई चार कार्य लिखो।
उत्तर-
दबाव समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कई तरह के कार्य करते हैं। दबाव समूह मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करते हैं-

  • सदस्यों के हितों की रक्षा करना-दबाव समूहों का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करना तथा विकास करना है। अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए भिन्न-भिन्न दबाव समूहों द्वारा भिन्न-भिन्न साधन अपनाए जाते हैं।
  • सार्वजनिक नीतियों तथा कानूनों को प्रभावित करना-दबाव समूह सरकार की नीतियों तथा कानूनों को प्रभावित करते हैं । वे नीतियों और कानूनों के निर्माण को प्रभावित करते हैं ताकि ऐसी नीतियों और कानूनों का निर्माण हो, जो उनके हितों के अनुकूल हों और उन्हें बढ़ावा दें।
  • अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करना-दबाव समूहों का एक महत्त्वपूर्ण कार्य अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करना है। निकट सम्पर्क से ही दबाव समूह को सरकार की नीतियों का पता चलता है और वे उन नीतियों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करते हैं।
  • दबाव समूह चुनावों के समय उम्मीदवारों की सहायता करते हैं, ताकि सफल होकर वे दबाव समूहों के हितों की पूर्ति कर सकें।

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प्रश्न 11.
हित समूह से क्या भाव है ?
अथवा
हित समूह से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
समाज में अनेक वर्ग पाए जाते हैं और उन वर्गों के अलग-अलग हित हैं। उदाहरण के लिए समाज में श्रमिक, किसान, विद्यार्थी, अध्यापक, भूमिपति, मिल मालिक, उद्योगपति आदि के विभिन्न प्रकार के हित पाए जाते हैं। जब कोई छोटा अथवा बड़ा हित संगठित रूप धारण कर लेता है, तो उसे हित समूह कहा जाता है। हित समूह के उद्देश्य अपने समाज के सदस्यों के सामाजिक आर्थिक और व्यावसायिक हितों की रक्षा होता है। जब कोई हित समूह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी दबाव माध्यम से राज्य की किसी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करता है तो वह दबाव समूह में बदल जाता है। सभी दबाव समूह हित समूह होते हैं।

प्रश्न 12.
लॉबिंग से आपका क्या भाव है ?
अथवा
लॉबिंग से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
लॉबिंग एक ऐसी विधि है जिसका प्रयोग दबाव समूहों द्वारा विकसित देशों में किया जाता है। लॉबिंग का अर्थ है कि दबाव एवं हित समूहों के सदस्य संसद् में जाकर प्रत्यक्ष रूप से विधायकों से सम्पर्क स्थापित करते हैं और उन पर दबाव व प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं कि विधायक ऐसे विधान (कानून) का निर्माण करें जिससे उनके हितों की रक्षा हो सके। दबाव समूहों के सदस्य सरकार को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में सहयोग और सहायता का विश्वास देकर सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। अनेक आर्थिक रूप से संगठित दबाव समूह योग्य व चतुर वकीलों को भी संसद् में नियुक्त करवाते हैं ताकि ये वकील तार्किक ढंग से अनुभव करवाएं कि अमुक विधेयक सार्वजनिक हित में है अथवा अहित में है। दबाव समूहों के सदस्य विधायकों पर पैनी नज़र रखते हुए कई बार उन्हें रिश्वत देकर या उन्हें बदनामी के भय आदि देकर अनेक अनुचित ढंगों से भी प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।

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प्रश्न 13.
दबाव समूह कानून निर्माण में कैसे सहायता करते हैं ?
उत्तर-
वर्तमान समय में दबाव समूह सरकार की कानून निर्माण में काफ़ी सहायता करते हैं। जब संसद् की विभिन्न समितियों किसी बिल पर विचार-विमर्श कर रही होती हैं, तब से अलग-अलग दबाव समूहों को अपना पक्ष रखने के लिए कहती हैं। दबाव समूह उस बिल के कारण उन पर पड़ने वाले सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव की बात कहते हैं। इस प्रकार अपने दृढ़ पक्ष से दाबव समूह कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संसद् की विभिन्न समितियां भी इनके विचारों, तर्कों एवं आंकड़ों से महत्त्व देती हैं।

प्रश्न 14.
दबाव समूहों का सलाहकारी कार्य क्या है ?
उत्तर-
कई देशों में दबाव समूह अपने व्यवसायों से सम्बन्धित नीति-निर्माण के कार्य में सरकार को सलाह देते हैं। सरकार का सम्बन्धित विभाग जब.नीति-निर्माण करता है तो विभाग से सम्बन्धित दबाव समूहों से सूचना प्राप्त करता है तथा उनसे विचार-विमर्श करता है। इंग्लैण्ड में दबाव समूहों के प्रतिनिधियों को जांचकारी समितियों और सरकारी आयोगों के सामने बुलाया जाता है ताकि विभिन्न समस्याओं पर उनके विचारों को जाना जा सके।

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प्रश्न 15.
जाति दबाव समूह क्या होते हैं ?
उत्तर-
भारत में अनेक जातियां पाई जाती हैं। जब कोई जाति अपने हितों की.रक्षा के लिए दबाव समूह बनाती है तब उस दबाव समूह को जाति दबाव समूह कहा जाता है। भारत में जाति दबाव समूह बड़े सक्रिय हैं और उन्होंने न केवल सरकार को ही प्रभावित किया है बल्कि वे भारतीय राजनीति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । जाति दबाव समूह में प्रमुख हैं मारवाड़ी एसोसिएशन, वैश्य महासभा, जाट सभा, राजपूत तथा, ब्राह्मण सभा, रोड सभा, नादर जाति संघ (Nadar Caste Association), गुज्जर सम्मेलन इत्यादि।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
दबाव समूह से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
दबाव समूह विशेष हितों से सम्बन्धित व्यक्तियों के ऐसे समूह होते हैं जो विधायकों तथा शासन को प्रभावित करके अपने उद्देश्यों और हितों के पक्ष में समर्थन प्राप्त करते हैं। दबाव समूह लोगों का औपचारिक संगठन है। दबाव समूह अपने उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए जनता की सहानुभूति अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते हैं।

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प्रश्न 2.
दबाव समूह की दो विशेषताएं लिखो।
उत्तर-

  1. औपचारिक संगठन-दबाव समूह का प्रथम लक्षण यह है कि ये औपचारिक रूप से संगठित व्यक्तियों के समूह होते हैं।
  2. विशेष स्व-हित-दबाव समूहों की स्थापना का आधार किसी विशेष स्व-हित की सिद्धि होती है।

प्रश्न 3.
दबाव समूह की कार्य-विधि के कोई दो ढंगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  1. चुनाव-दबाव समूह चुनावों द्वारा अपने हितों के संरक्षण का प्रयास करते हैं।
  2. प्रार्थना-पत्र भेजना-दबाव समूह को इस बात का पता होता है किस अधिकारी या मन्त्री या संस्था पर दबाव डाल कर अपने हितों की रक्षा की जा सकती है।

प्रश्न 4.
दबाव समूहों की कोई दो किस्में लिखें।
उत्तर-

  • विशेष हित समूह-जिन लोगों के हितों में समानता होती है वे अपने विशेष हितों की रक्षा के लिए आपस में मिल कर दबाव समूहों का गठन कर लेते हैं। ऐसे दबाव समूह विशेष हित समूह कहलाते हैं। इनमें श्रमिक संघ, किसान संगठन आदि शामिल हैं।
  • साम्प्रदायिक हित समूह-ऐसे हित समूह किसी विशेष समुदाय या धर्म को प्रोत्साहित करने के लिए बनाए जाते हैं।

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प्रश्न 5.
लॉबिइंग से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लॉबिइंग एक ऐसी विधि है जिसका प्रयोग दबाव समूहों द्वारा विकसित देशों में किया जाता है। लॉबिइंग का अर्थ है कि दबाव एवं हित समूहों के सदस्य संसद् में जाकर प्रत्यक्ष रूप से विधायकों से सम्पर्क स्थापित करते हैं और उन पर दबाव व प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं कि विधायक ऐसे विधान (कानून) का निर्माण करें जिससे उनके हितों की रक्षा हो सके।

प्रश्न 6.
दबाव समूहों के कोई दो कार्य बताएं।
उत्तर-

  • दबाव समूह अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करते हैं।
  • दबाव समूह सार्वजनिक नीतियों तथा कानूनों के निर्माण को प्रभावित करते हैं।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1.
किन्हीं दो प्रमुख व्यावसायिक दबाव समूहों के नाम बताएं।
उत्तर-
व्यावसायिक हित समूह जैसे अखिल भारतीय रेलवे कर्मचारी संघ, अखिल भारतीय मेडिकल परिषद् आदि।

प्रश्न 2.
दबाव समूह का कोई एक लाभ बताएं।
उत्तर-
दबाव समूह विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा करते हैं।

प्रश्न 3.
भारत में कितने मजदूर संघ हैं ? किन्हीं दो के नाम लिखें।
उत्तर-
भारत में छ: मज़दूर संघ हैं-इनमें अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस और भारतीय मजदूर संघ प्रमुख हैं।

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प्रश्न 4.
हित समूह तथा दबाव समूह में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-
हित समूह का प्रत्यक्ष रूप से राजनीति से सम्बन्ध नहीं होता जबकि दबाव समूह का राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।

प्रश्न 5.
किन्हीं दो हित समूहों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. अखिल भारतीय महिला सम्मेलन।
  2. भारतीय किसान यूनियन।

प्रश्न 6.
किसी एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का नाम बताएं।
उत्तर-
(1) अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ।

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प्रश्न 7.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सम्बन्ध किस दल से है ?
उत्तर-
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सम्बन्ध भारतीय जनता पार्टी से है।

प्रश्न 8.
स्वतन्त्रता के बाद अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित किसी एक कृषक संगठन का नाम लिखिए।
उत्तर-
अखिल भारतीय किसान यूनियन।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………………. ने दबाव समूहों को दल के पीछे सक्रिय जन कहा है।
2. दबाव समूह ………….. हितों से सम्बन्धित व्यक्तियों का समूह होते हैं।
3. दबाव समूह के लिए ……….. संगठन का होना अनिवार्य है।
4. दबाव समूहों में …………. का अभाव होता है।
5. दबाव समूहों का उद्देश्य …………… प्राप्त करना नहीं होता।
उत्तर-

  1. कार्ल जे० फ्रेडरिक
  2. विशेष
  3. औपचारिक
  4. उत्तरदायित्व
  5. राजनीतिक सत्ता।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही या ग़लत का चुनाव करें

1. दबाव समूह चुनावों द्वारा अपने हितों के संरक्षण का प्रयास करते हैं।
2. राजनीतिक दल दबाव समूहों की धन से सहायता करके उनको सफल बनाने की कोशिश करते हैं।
3. दबाव समूह समय-समय पर अधिकारियों या मन्त्रियों के पास प्रार्थना-पत्र भेजते रहते हैं।
4. दबाव समूह अपने हितों की पूर्ति के लिए लॉबिंग का सहारा लेते हैं।
5. दबाव समूह सरकार को प्रभावित करने के लिए जनमत को अपने पक्ष में करना आवश्यक नहीं समझते।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. सही
  5. ग़लत।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दबाव समूह अपनाते हैं-
(क) शांतिपूर्ण साधन’
(ख) केवल हिंसात्मक साधन
(ग) शांतिपूर्ण और हिंसात्मक साधन
(घ) कोई साधन नहीं अपनाते।
उत्तर-
(ग) शांतिपूर्ण और हिंसात्मक साधन

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प्रश्न 2.
दबाव समूहों के संबंध में निम्न गलत है
(क) राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की इच्छा
(ख) सीमित उद्देश्य
(ग) सामान्य उद्देश्य
(घ) लॉबिंग।
उत्तर-
(क) राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की इच्छा

प्रश्न 3.
निम्न में से कौन-सी दबाव-समूह की विशेषता है-
(क) ऐच्छिक सदस्यता
(ख) सीमित उद्देश्य
(ग) औपचारिक संगठन का न होना
(घ) सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य ।
उत्तर-
(क) ऐच्छिक सदस्यता

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प्रश्न 4.
दबाव समूह का आधार होता है-
(क) संयुक्त संस्कृति
(ख) संयुक्त भाषा
(ग) एक धर्म
(घ) सामूहिक हित।
उत्तर-
(घ) सामूहिक हित।

प्रश्न 5.
नीचे लिखे में से कौन-सा कार्य दबाव समूह का नहीं है ?
(क) विशेष हितों की रक्षा
(ख) चुनाव लड़ना
(ग) सरकार पर दबाव डालना
(घ) सरकार को ज़रूरी जानकारी प्रदान करना।
उत्तर-
(ख) चुनाव लड़ना

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 19 महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंध तथा उसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 19 महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंध तथा उसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 19 महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंध तथा उसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंध (Ranjit Singh’s Relations with Afghanistan)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानों के साथ संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Briefly describe Maharaja Ranjit Singh’s relations with the Afghans.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंधों के मुख्य चरणों का संक्षिप्त विवरण दें।
(Give a brief account of the main stages of relations of Maharaja Ranjit Singh with Afghanistan.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानों के साथ संबंधों को चार चरणों में बाँटा जा सकता है—
(क) सिख-अफ़गान संबंधों का प्रथम चरण 1797-1812 ई०
(ख) सिख-अफ़गान संबंधों का द्वितीय चरण 1813-1834 ई०
(ग) सिख-अफ़गान संबंधों का तृतीय चरण 1834-1837 ई० (घ) सिख-अफ़गान संबंधों का चतुर्थ चरण 1838-1839 ई० ।

(क) सिख-अफ़गान संबंधों का प्रथम चरण 1797-1812 ई० (First Stage of Sikh-Afghan Relations 1797-1812 A.D)
1. रणजीत सिंह तथा शाह ज़मान (Ranjit Singh and Shah Zaman)-जब 1797 ई० में रणजीत सिंह ने शुकरचकिया मिसल की बागडोर संभाली उस समय अफ़गानिस्तान का बादशाह शाह ज़मान था। वह पंजाब पर अपना पैतृक स्वामित्व समझता था। इसका कारण यह था कि इस पर उसके दादा अहमद शाह अब्दाली ने 1752 ई० में अधिकार किया था। अतः शाह ज़मान ने 27 नवंबर, 1798 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। भंगी सरदार शाह ज़मान का सामना किए बिना शहर छोड़कर भाग गए। उसी समय अफ़गानिस्तान में हुए विद्रोह के कारण शाह ज़मान को काबुल जाना पड़ा। इस पर भंगी सरदारों ने जनवरी, 1799 ई० को लाहौर पर पुनः अधिकार कर लिया। रणजीत सिंह ने भंगी सरदारों को पराजित करके 7 जुलाई , 1799 ई० को लाहौर पर अपना अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् रणजीत सिंह ने शाह ज़मान की 12 अथवा 15 तोपें जो जेहलम नदी में गिर पड़ी थीं, निकलवाकर काबुल भेजी । इस पर प्रसन्न होकर शाह ज़मान ने रणजीत सिंह द्वारा लाहौर पर किए गए अधिकार को मान्यता प्रदान कर दी।

2. अफ़गानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता (Political instability in Afghanistan)-1800 ई० में काबुल में राज्य सिंहासन की प्राप्ति के लिए एक गृह युद्ध आरंभ हो गया। शाह ज़मान को सिंहासन से उतार दिया गया तथा शाह महमूद अफ़गानिस्तान का नया सम्राट् बना। 1803 ई० में शाह शुजा ने शाह महमूद से सिंहासन छीन लिया। वह बहुत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। इस कारण अफ़गानिस्तान में अशांति फैल गई। यह स्वर्ण अवसर देखकर अटक, कश्मीर, मुलतान व डेराजात इत्यादि के अफ़गान सूबेदारों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। महाराजा रणजीत सिंह ने भी काबुल सरदार की दुर्बलता का पूरा लाभ उठाया तथा कसूर, झंग, खुशाब तथा साहीवाल नामक अफ़गान प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

(ख) सिख-अफ़गान संबंधों का द्वितीय चरण 1813-1834 ई० (Second Stage of Sikh-Afghan Relations 1813–1834 A.D.)
1. रणजीत सिंह व फ़तह खाँ में समझौता 1813 ई० (Alliance between Ranjit Singh and Fateh Khan 1813 A.D.)-1813 ई० में अफ़गान वज़ीर फ़तह खाँ ने कश्मीर विजय की योजना बनाई। उसी समय पंजाब का महाराजा रणजीत सिंह भी कश्मीर को विजित करने की योजनाएँ बना रहा था। इसलिए 18 अप्रैल, 1813 ई० को रोहतासगढ़ में महाराजा रणजीत सिंह तथा फ़तह खाँ के बीच एक समझौता हो गया। इस समझौते के अनुसार महाराजा रणजीत सिंह तथा फ़तह खाँ की संयुक्त सेनाओं ने 1813 ई० में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। शेरगढ़ में हुई लड़ाई में कश्मीर के शासक अत्ता मुहम्मद खाँ की पराजय हुई। इस विजय के पश्चात् फ़तह खाँ अपने वायदे से मुकर गया तथा उसने महाराजा रणजीत सिंह को न तो कश्मीर का कोई प्रदेश दिया तथा न ही लूट के माल में से कोई भाग।

2. अटक पर अधिकार 1813 ई० (Occupation of Attock 1813 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह ने फ़तह खाँ द्वारा किए गए कपट के कारण उसे पाठ पढ़ाने का निर्णय किया । उसकी कूटनीति के फलस्वरूप अटक के शासक जहाँदद खाँ ने एक लाख रुपये की जागीर के स्थान पर अटक का क्षेत्र महाराजा के सुपुर्द कर दिया। जब फ़तह खाँ को इसके संबंध में ज्ञात हुआ तो वह अटक में से सिखों को निकालने के लिए चल दिया। 13 जुलाई, 1813 ई० को हज़रो अथवा हैदरो के स्थान पर हुई लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह ने फ़तह खाँ को एक कड़ी पराजय दी। यह अफ़गानों एवं सिखों के मध्य लड़ी गई प्रथम लड़ाई थी। इसमें सिखों की विजय के कारण सिखों के मान-सम्मान में बहुत वृद्धि हुई।

3. कश्मीर की विजय 1819 ई० (Conquest of Kashmir 1819 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह ने 1819 ई० में कश्मीर को विजित करने की योजना बनाई। मुलतान के विजयी मिसर दीवान चंद के अधीन एक विशाल सेना कश्मीर की ओर भेजी गई। यह सेना कश्मीर के शासक ज़बर खाँ को पराजित करने तथा कश्मीर पर अधिकार करने में सफल रही। इस महत्त्वपूर्ण विजय के कारण अफ़गान शक्ति को एक और कड़ी चोट लगी।

4. नौशहरा की लड़ाई 1823 ई० (Battle of Naushera 1823 A.D.) शीघ्र ही फ़तह खाँ के भाई अज़ीम खाँ ने अयूब खाँ को अफ़गानिस्तान का नया सम्राट् बनाया तथा स्वयं उसका वज़ीर बन गया। अफ़गानिस्तान में फैली अराजकता का लाभ उठाकर महाराजा रणजीत सिंह ने 1818 ई० में पेशावर पर आक्रमण कर दिया। पेशावर के शासकों ने महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। अज़ीम खाँ यह कभी सहन नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप 14 मार्च, 1823 ई० को नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी के स्थान पर दोनों सेनाओं में एक निर्णायक युद्ध हुआ। यह युद्ध बहुत भयंकर था। इस युद्ध में सिखों ने अफ़गानों को लोहे के चने चबवा दिए। डॉक्टर बी० जे० हसरत के अनुसार, “नौशहरा में सिखों की विजय ने सिंध नदी की दूसरी ओर अफ़गानों की सर्वोच्चता सदा के लिए समाप्त कर दी।”1

5. सैय्यद अहमद का विद्रोह 1827-31 ई० (Revolt of Sayyed Ahmad 1827-31 A.D.)-1827 ई० से 1831 ई० के मध्य सैय्यद अहमद नामक एक व्यक्ति ने अटक तथा पेशावर के प्रदेशों में सिखों के विरुद्ध विद्रोह किए रखा था। उसका कहना था अल्लाह ने उसे अफ़गान प्रदेशों से सिखों को निकालकर उन्हें समाप्त करने के लिए भेजा है। उसकी बातों में आकर अनेक अफ़गान सरदार उसके अनुयायी बन गए। उसे सिख सेनाओं ने पहले सैदू के स्थान पर तथा फिर पेशावर में पराजित किया था, परंतु वह बच निकलने में सफल रहा। आखिर 1831 ई० में वह बालाकोट में शहज़ादा शेर सिंह से लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार सिखों की एक बड़ी सिरदर्दी दूर हुई।

6. शाह शुजा से संधि 1833 ई० (Treaty with Shah Shuja 1833 A.D.)-12 मार्च, 1833 ई० को महाराजा रणजीत सिंह तथा शाह शुज़ा के मध्य एक संधि हुई। इसके अनुसार शाह शुजा ने महाराजा रणजीत सिंह द्वारा सिंधु नदी के उत्तर पश्चिम में विजित सभी प्रदेशों पर महाराजा के अधिकार को स्वीकार कर लिया। इसके बदले महाराजा रणजीत सिंह ने दोस्त मुहम्मद खाँ के विरुद्ध लड़ने के लिए शाह शुजा को सहायता दी।

7. पेशावर का लाहौर राज्य में विलय 1834 ई० (Annexation of Peshawar to Lahore Kingdom 1834 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह ने 1834 ई० में पेशावर को लाहौर राज्य में शामिल करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से शहज़ादा नौनिहाल सिंह, हरी सिंह नलवा तथा जनरल वेंतूरा के नेतृत्व में एक विशाल सेना पेशावर भेजी गई। 6 मई, 1834 ई० को पेशावर को सिख राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। हरी सिंह नलवा को वहाँ का पहला गवर्नर नियुक्त किया गया।

1. “The Sikh victory at Naushera sounded the deathknell of Afghan supremacy beyond the river Indus.” Dr. B.J. Hasrat, Life and Times of Ranjit Singh (Hoshiarpur : 1977) p. 121.

(ग) सिख-अफ़गान संबंधों का तीसरा चरण 1834-37 ई० (Third Stage of Sikh-Afghan Relations 1834-37 A.D.)
1. दोस्त महम्मद खाँ द्वारा पेशावर वापिस लेने के यत्न 1835 ई०(Efforts to Recapture Peshawar by Dost Muhammad Khan 1835 A.D.)-1834 ई० में जब महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया तो दोस्त मुहम्मद खाँ क्रोधित हो उठा। बहुसंख्या में अफ़गान कबीले उसके झंडे तले एकत्रित हो गए। उसने अपने भाई सुल्तान मुहम्मद को भी अपने साथ मिला लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने फकीर अजीजुद्दीन तथा हरलान को बातचीत करने के लिए काबुल भेजा। इस मिशन का एक अन्य उद्देश्य दोस्त मुहम्मद खाँ तथा सुल्तान मुहम्मद खाँ में फूट डालना था। यह मिशन अपने उद्देश्यों में सफल रहा। जब दोनों सेनाएँ आमने-सामने पहुंची तो सुल्तान मुहम्मद अपने सैनिकों सहित सिख सेनाओं के साथ जा मिला। यह देखकर दोस्त मुहम्मद खाँ बिना युद्ध किए ही 11 मई, 1835 ई० को अपने सैनिकों सहित वापिस काबुल भाग गया। इस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह ने बिना युद्ध किए ही एक शानदार विजय प्राप्त की।

2. जमरौद की लड़ाई 1837 ई० (Battle of Jamraud 1837 A.D-हरी सिंह नलवा ने अफ़गानों के आक्रमणों को रोकने के लिए जमरौद में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण आरंभ करवाया। हरी सिंह नलवा की कार्यवाई को रोकने के लिए दोस्त मुहम्मद खाँ ने अपने पुत्र मुहम्मद अकबर तथा शमसुद्दीन के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। इस सेना ने 28 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में यद्यपि हरि सिंह नलवा शहीद हो गया किंतु सिखों ने अफ़गान सेनाओं को ऐसी कड़ी पराजय दी कि उन्होंने स्वप्न में भी कभी पेशावर का नाम न लिया।

(घ) सिख-अफ़गान संबंधों का चतुर्थ चरण 1838-39 ई० (Fourth Stage of Sikh-Afghan Relations 1838-39 A.D.)

त्रिपक्षीय संधि 1838 ई० (Tripartite Treaty 1838 A.D.)-1837 ई० में रूस बहुत तीव्रता के साथ एशिया की ओर बढ़ रहा था। रूस के किसी संभावित आक्रमण को रोकने के लिए अंग्रेजों ने अफ़गानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद खाँ के साथ मैत्री के लिए बातचीत की। यह बातचीत असफल रही। अब अंग्रेजों ने शाह शुज़ा को अफ़गानिस्तान का नया शासक बनाने की योजना बनाई। अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह को इस समझौते में शामिल होने के लिए विवश किया। इस प्रकार 26 जून, 1838 ई० को अंग्रेजों, शाह शुजा तथा महाराजा रणजीत सिंह में एक त्रिपक्षीय संधि हुई।
त्रिपक्षीय संधि की मुख्य शर्ते थीं—

  1. शाह शुजा को अंग्रेज़ों एवं महाराजा रणजीत सिंह के सहयोग से अफ़गानिस्तान का सम्राट् बनाया जाएगा।
  2. शाह शुजा ने महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विजित किए समस्त अफ़गान क्षेत्रों पर उसका अधिकार मान लिया।
  3. सिंध के संबंध में अंग्रेजों व महाराजा रणजीत सिंह के मध्य जो निर्णय होंगे, शाह शुज़ा ने उन्हें मानने का वचन दिया।
  4. शाह शुज़ा अंग्रेज़ों एवं सिखों की आज्ञा लिए बिना विश्व की किसी अन्य शक्ति के साथ संबंध स्थापित नहीं करेगा।
  5. एक देश का शत्रु दूसरे दो देशों का भी शत्रु माना जाएगा।
  6. शाह शुजा को सिंहासन पर बिठाने के लिए महाराजा रणजीत सिंह 5,000 सैनिकों सहित सहायता करेगा तथा शाह शुज़ा इसके स्थान पर महाराजा को 2 लाख रुपए देगा।

त्रिपक्षीय संधि रणजीत सिंह की एक और कूटनीतिक पराजय थी। इस संधि ने रणजीत सिंह की सिंध एवं शिकारपुर पर अधिकार करने की सभी इच्छाओं पर पानी फेर दिया था।
त्रिपक्षीय संधि के अनुसार जनवरी, 1839 ई० में सिखों एवं अंग्रेज़ों की संयुक्त सेनाओं ने अफ़गानिस्तान पर आक्रमण कर दिया। दोस्त मुहम्मद खाँ के विरुद्ध अभी कार्यवाई जारी ही थी कि 27 जून, 1839 ई० को महाराजा रणजीत सिंह स्वर्ग सिधार गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सिख-अफ़गान संबंधों में महाराजा रणजीत सिंह का पलड़ा हमेशा भारी रहा। उसने अजेय कहे जाने वाले अफ़गानों को कई निर्णायक लड़ाइयों में पराजित किया। इन शानदार विजयों के कारण महाराजा के मान-सम्मान में भी भारी वृद्धि हुई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 19 महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंध तथा उसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति

महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति (North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 2.
रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति का वर्णन कीजिए।
(Discuss the North-West Frontier Policy of Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति की मुख्य विशेषताओं का निरीक्षण करें। इसका क्या महत्त्व था ?
[Examine the main features of the North-West (N.W.) Frontier Policy of Ranjit Singh. What was its significance ?]
अथवा
रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा से संबंधित नीति की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए। उसकी यह नीति किस सीमा तक सफल रही ?
(Critically examine the North-West Frontier Policy of Ranjit Singh. To what extent was his policy successful ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की व्याख्या करो। (Explain the North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
पश्चिमी सीमा की समस्या पंजाब तथा भारत के शासकों के लिए सदैव एक सिरदर्दी का कारण बनी रही है। इसका कारण यह.था कि इस ओर से विदेशी आक्रमणकारी पंजाब तथा भारत में आकर विनाशलीला करते रहे। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश के खूखार कबीले स्वभाव से ही अनुशासन के विरोधी थे। महाराजा रणजीत सिंह ऐसा प्रथम शासक था जिसने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ द्वारा इन कबीलों पर विजय प्राप्त की।
उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of the North-West Frontier Policy)
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

1. उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की विजयें (Conquests of North-Western Territories)-महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की विजयों के दो चरण थे। उसने अटक, मुलतान तथा कश्मीर की विजयों के पश्चात् दरिया सिंध के आसपास के प्रदेशों की ओर ध्यान दिया । उसने 1818 ई० में पेशावर, 1820 ई० में बहावलपुर तथा 1821 ई० में डेरा इस्माइल खाँ तथा मनकेरा नामक प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। महाराजा रणजीत सिंह ने सूझ-बूझ से काम लेते हुए इन प्रदेशों को वार्षिक कर के बदले में मुसलमानों के अधीन ही रहने दिया। 1827 ई० से 1831 ई० तक महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। इसलिए उसने इन प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित करने का निर्णय किया। अतः महाराजा ने 1831 ई० में डेरा गाजी खाँ, 1832 ई० में टंक, 1833 ई० में बन्नू, 1834 ई० में पेशावर और 1836 ई० में डेरा इस्माइल खाँ को अपने राज्य में शामिल कर लिया।

2. अफ़गानिस्तान पर अधिकार न करने का निर्णय (Decision of not conquering Afghanistan)महाराजा रणजीत सिंह बड़ा सूझवान था। इसलिए उसने अफ़गानिस्तान पर अधिकार करने का कभी कोई निर्णय न किया। उत्तर-पश्चिमी सीमा के क्षेत्रों में ही उसे बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसी स्थिति में वह अफ़गानिस्तान पर अधिकार करके अपने लिए कोई नई सिरदर्दी मोल नहीं लेना चाहता था। संभवतः एक बार ही उसने गंभीरता से अफ़गानिस्तान पर आक्रमण करने के संबंध में सोचा था। यह विचार अपने महान् योद्धा हरी सिंह नलवा की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए किया था, परंतु शीघ्र ही उसने अफ़गानिस्तान पर आक्रमण करने का विचार त्याग दिया। यह सही है कि महाराजा जून, 1838 ई० की त्रिपक्षीय संधि में शामिल हुआ था। परंतु वह इस संधि में इसलिए शामिल हुआ था ताकि अंग्रेजों की ओर से उसके हितों को कोई क्षति न पहुँचे।

3. कबीलों को कुचलने के प्रयत्न (Efforts to Crush the Tribes)-महाराजा रणजीत सिंह के अधीन उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में अनेक अफ़गान कबीले रहते थे। उनका मुख्य धंधा लूटपाट करना था। वे कभी भी किसी के अधीन नहीं रह सकते थे। 1827 ई० से 1831 ई० के मध्य सैय्यद अहमद ने इन प्रदेशों में रहने वाले कबीलों को सिखों के विरुद्ध भड़काया। महाराजा रणजीत सिंह ने इन कबाइलियों के दमन के लिए कई सैनिक अभियान भेजे। सैय्यद अहमद 1831 ई० में बालाकोट के स्थान पर शहज़ादा शेर सिंह से लड़ता हुआ अपने 500 साथियों सहित मारा गया था। 1834 ई० में जब पेशावर को सिख राज्य में शामिल कर लिया गया तो हरी सिंह नलवा को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया गया। हरी सिंह नलवा ने इन कबीलों के दमन के लिए बहुत कड़ी नीति धारण की।

4. उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए पग (Measures for the defence of the North-West Frontiers)-महाराजा रणजीत सिंह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित बनाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण पग उठाए। उसने कई नए दुर्गों जैसे अटक, खैराबाद, जहाँगीरा, जमरौद तथा फतेहगढ़ इत्यादि का निर्माण करवाया। इनके अतिरिक्त पुराने दुर्गों को मज़बूत किया गया। इन दुर्गों में विशेष प्रशिक्षित सेना रखी गई। गश्ती दस्ते स्थापित किए गए जो विद्रोही कबीलों के विरुद्ध कार्यवाई करते थे। इन दस्तों ने अफ़गान कबीलों में इतना भय उत्पन्न कर दिया था कि वे धीरे-धीरे बग़ावत करना भूल गए।

5. उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेश का शासन प्रबंध (Administration of North-West Frontier Territories)-इन प्रदेशों में बसे कबीलों को नियंत्रण में रखने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने वहाँ सैनिक गवर्नरों की नियुक्ति की। उसने इस प्रदेश के शासन प्रबंध में कोई परिवर्तन न किया। उसने प्रचलित कानूनों तथा रस्म-रिवाजों को बनाए रखा। प्रत्येक खाँ अपने कबीले के लोगों से कर एकत्र करता था। उसे लाहौर सरकार की सर्वोच्चता को स्वीकार करना तथा कर संबंधी माँगों को पूरा करना होता था। कृषि को बढ़ावा देने के लिए प्रदेश में नहरें बनवाई गईं तथा कुएँ खुदवाए गए। भू-राजस्व की दरों को काफ़ी कम किया गया। यातायात के साधनों का विकास किया गया। इन सभी प्रयत्नों से महाराजा ने यहाँ के लोगों का विश्वास प्राप्त करने का यत्न किया। गड़बड़ी करने वाले कबीलों के विरुद्ध कड़े पग उठाए गए।

उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति का महत्त्व (Importance of N.W.F. Policy)
महाराजा रणजीत सिंह अपनी उत्तर-पश्चिमी सीमा की नीति में काफ़ी सीमा तक सफल रहा था। यह सचमुच ही महाराजा रणजीत सिंह की महान् उपलब्धियों में से एक थी। महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान, कश्मीर, पेशावर इत्यादि के प्रदेशों पर कब्जा करके वहाँ अफ़गानिस्तान के प्रभाव को समाप्त कर दिया था। उसने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेशों में होने वाले विद्रोहों को कुचल कर वहाँ शाँति की स्थापना की। कृषि को उन्नत करने के लिए विशेष पग उठाए गए। परिणामस्वरूप न केवल वहाँ के लोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न हुए, अपितु महाराजा रणजीत सिंह के व्यापार को एक नया प्रोत्साहन मिला। डॉक्टर जी० एस० नय्यर का यह कथन बिल्कुल ठीक है,
“अनंगपाल के पश्चात् प्रथम बार उत्तर-पश्चिमी सीमा से होने वाले आक्रमणों को रोका तथा कबाइलों पर शासन किया जा सका।”2

2. “It was the first time after Anangpal that the series of invasions from the North-West were checked and the tribesmen were ruled.” Dr. G.S. Nayyar, Life and Achievements of Sardar Hari Singh Nalwa (Amritsar : 1997) p. 42.

संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
हज़रो अथवा हैदरो अथवा छछ की लड़ाई के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the battle of Hazro or Haidro or Chachh.)
उत्तर-
मार्च, 1813 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने जहाँदाद खाँ से एक लाख रुपये के बदले अटक का किला प्राप्त कर लिया था। जब फ़तह खाँ को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो वह भड़क उठा। वह एक विशाल सेना लेकर कश्मीर से अटक की ओर चल पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ की सेनाओं में 13 जुलाई, 1813 ई० को हज़रो अथवा हैदरो अथवा छछ के स्थान पर भारी युद्ध हुआ। इस युद्ध में रणजीत सिंह की सेनाओं ने फ़तह खाँ को कड़ी पराजय दी।

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प्रश्न 2.
शाह शुजा तथा महाराजा रणजीत सिंह के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Give a brief account of Shah Shuja’s relations with Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
शाह शुजा पर एक नोट लिखें।
(Write a note om Shah Shuja.)
उत्तर-
शाह शुज़ा 1803 ई० से 1809 ई० तक अफ़गानिस्तान का बादशाह रहा। 1809 ई० में शाह महमूद ने उससे गद्दी छीन ली। शाह शुजा को कश्मीर के अफ़गान सूबेदार अत्ता मुहम्मद खाँ ने 1812 ई० में गिरफ्तार कर लिया। 1813 ई० में महाराजा रणजीत सिंह की सेना ने शाह शुजा को रिहा करवा दिया। 26 जून, 1838 ई० को अंग्रेज़ों, शाह शुज़ा और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य त्रिपक्षीय संधि हुई। इस संधि के अनुसार शाह शुजा को अफ़गानिस्तान का सम्राट् बनाने का निश्चय किया गया किंतु यह प्रयास विफल रहा।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के दोस्त मुहम्मद के साथ संबंधों का संक्षेप वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations between Maharaja Ranjit Singh and Dost Mohammad.)
उत्तर-
दोस्त मुहम्मद खाँ 1826 ई० में अफ़गानिस्तान का शासक बना था। वह महाराजा रणजीत सिंह के उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्रों में बढ़ते हुए प्रभाव से परेशान था। महाराजा रणजीत सिंह ने 6 मई, 1834 ई० को पेशावर पर विजय प्राप्त कर ली थी। दोस्त मुहम्मद खाँ ने 1837 ई० में अपने पुत्र अकबर के अधीन एक विशाल सेना भेजी। जमरौद के स्थान पर हुई एक भयंकर लड़ाई में यद्यपि हरी सिंह नलवा वीरगति को प्राप्त हुआ था तथापि सिख सेना विजयी हुई। इसके पश्चात् दोस्त मुहम्मद खाँ ने पेशावर की ओर फिर कभी मुख नहीं किया।

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प्रश्न 4.
सैय्यद अहमद पर एक संक्षेप नोट लिखो। (Write a brief note on Sayyed Ahmad.)
अथवा
सैय्यद अहमद के धर्म युद्ध पर एक नोट लिखो।
[Write a note on the ‘Jihad’ (Religious War) of Sayyed Ahmad.]
उत्तर-
सैय्यद अहमद ने 1827 ई० से 1831 ई० के समय अटक तथा पेशावर के प्रदेशों के विरुद्ध जिहाद कर रखा था। वह बरेली का रहने वाला था। उसका कहना था, “अल्ला ने मुझे पंजाब और हिंदुस्तान को विजय करने और अफ़गान प्रदेशों में से सिखों को निकालकर खत्म करने के लिए भेजा है।” उसकी बातों में आकर कई अफ़गान उसके शिष्य बन गए। उसने एक बहुत बड़ी सेना संगठित कर ली। 1831 ई० में वह बालाकोट में शहज़ादा शेर सिंह से लड़ते हुए मारा गया।

प्रश्न 5.
अकाली फूला सिंह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a brief note on Akali Phula Singh.)
अथवा
अकाली फूला सिंह की सैनिक सफलताओं पर एक नोट लिखो। (Write a note on the achievements of Akali Phula Singh.)
उत्तर-
अकाली फूला सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह के काल में सिख राज्य की नींव को मजबूत करने तथा उसका विस्तार करने में बहुमूल्य योगदान दिया। 1807 ई० में महाराजा ने आपके सहयोग से कसूर पर विजय प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। 1818 ई० में मुलतान की विजय के समय भी आपने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1819 ई० में कश्मीर की विजय के समय भी वह महाराजा रणजीत सिंह के साथ थे। वह 14 मार्च, 1823 ई० को अफ़गानों के साथ हुई नौशहरा की भयंकर लड़ाई में वारगति को प्राप्त हुए।

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प्रश्न 6.
जमरौद की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the battle of Jamraud.)
उत्तर-
हरी सिंह नलवा ने जमरौद में एक शक्तिशाली किले का निर्माण करवाया था। अफ़गानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद खाँ के लिए यह एक चुनौती थी। उसने अपने पुत्र अकबर खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना जमरौद की ओर भेजी। उसकी सेना ने 28 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद के किले को घेरा डाल दिया। हरी सिंह नलवा ने अफ़गानों पर तीव्र आक्रमण किया, परंतु अचानक दो गोलियाँ लगने से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बावजूद सिखों ने अफ़गानों को 30 अप्रैल, 1837 ई० में एक करारी हार दी। इसके बाद अफ़गान सेनाओं ने पेशावर को पुनः जीतने का कभी साहस न किया।

प्रश्न 7.
हरी सिंह नलवा पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a brief note on Hari Singh Nalwa.)
अथवा
हरी सिंह नलवा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Hari Singh Nalwa ?)
अथवा
सरदार हरी सिंह नलवा पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a note on Sardar Hari Singh Nalwa.)
उत्तर-
हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के एक महान् योद्धा तथा सेनापति थे। हरी सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह के अनेक सैनिक अभियानों में भाग लिया। वह 1820-21 में कश्मीर तथा 1834 ई० से 1837 ई० तक पेशावर के नाज़िम रहे। इस पद पर कार्य करते हुए हरी सिंह नलवा से न केवल इन प्रांतों में शांति की स्थापना की अपितु अनेक महत्त्वपूर्ण सुधार लागू किए। वह 30 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद के स्थान पर अफ़गानों से मुकाबला करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

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प्रश्न 8.
रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति की मुख्य विशेषताओं के बारे में लिखिए।
(Write down main features of the North-West Frontier Policy of Ranjit Singh.) .
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की कोई तीन विशेषताएँ बताएँ।
(Describe any three features of North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की तीन मुख्य विशेषताओं के बारे में लिखें।
(Write down the three main features of the North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने के लिए कई नये किलों का निर्माण किया तथा पुराने किलों को मजबूत करवाया।
  2. विद्रोहियों को कुचलने के लिए चलते-फिरते दस्ते कायम किए गए।
  3. महाराजा ने इस प्रदेश में प्रचलित रस्म-रिवाजों को कायम रखा।
  4. कबाइली लोगों के मामलों में अनुचित दखल न दिया गया।
  5. शासन प्रबंध की देख-रेख के लिए सैनिक गवर्नर नियुक्त किए गए।

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति का क्या महत्त्व है ?
(What is the significance of North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति से महाराजा की कूटनीति तथा राजनीतिक योग्यता का प्रमाण मिलता है। महाराजा ने मुलतान, कश्मीर, पेशावर इत्यादि के प्रदेशों पर कब्जा करके वहाँ अफ़गानिस्तान के प्रभाव को समाप्त कर दिया था। उसने इन प्रदेशों में होने वाले विद्रोहों को कुचल कर वहाँ शाँति की स्थापना की। वहाँ यातायात के साधनों को विकसित किया गया। कृषि को उन्नत करने के लिए विशेष प्रयास किए गए। इनके अतिरिक्त महाराजा अपने साम्राज्य को अफ़गानों के आक्रमणों से सुरक्षित रखने में भी सफल रहा।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence) .

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के समय अफ़गानिस्तान के किसी एक सम्राट् का नाम बताएँ।
उत्तर-
शाह शुजा।

प्रश्न 2.
किन्हीं दो बरकज़ाई भाइयों के नाम बताएँ।
उत्तर-
दोस्त मुहम्मद खाँ तथा यार मुहम्मद खाँ।

प्रश्न 3.
शाह ज़मान कौन था ?
अथवा
शाह शुजा कौन था ?
उत्तर-
अफ़गानिस्तान का सम्राट्।

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प्रश्न 4.
शाह ज़मान ने लाहौर पर कब अधिकार किया था ?
उत्तर-
27 नवंबर, 1798 ई०।।

प्रश्न 5.
शाह ज़मान के लाहौर पर 1798.ई० में अधिकार करने के समय किसका शासन था ?
उत्तर-
तीन भंगी सरदारों का।

प्रश्न 6.
फ़तह खाँ कौन था ?
उत्तर-
अफ़गानिस्तान के सम्राट् शाह महमूद का वज़ीर।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के मध्य समझौता कब हुआ था ?
उत्तर-
1813 ई० में।

प्रश्न 8.
कश्मीर पर अधिकार करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के बीच समझौता कहाँ पर हुआ था ?
उत्तर-
रोहतास।

प्रश्न 9.
हज़रो अथवा हैदरो की लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
13 जुलाई, 1813 ई०।

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प्रश्न 10.
हज़रो की लड़ाई का कोई एक महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
अफ़गानों की शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को कब अपने अधिकार में किया ?
उत्तर-
1819 ई०।

प्रश्न 12.
नौशहरा की लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
उत्तर-
14 मार्च, 1823 ई०।

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प्रश्न 13.
नौशहरा की लड़ाई में किसकी पराजय हुई ?
उत्तर-
आज़िम खाँ।

प्रश्न 14.
अकाली फूला सिंह कौन था ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का एक प्रसिद्ध सेनापति।

प्रश्न 15.
अकाली नेता फूला सिंह किस लड़ाई में शहीद हुआ ?
अथवा
उस लड़ाई का नाम लिखें जिसमें अकाली फूला सिंह मारा गया।
उत्तर-
नौशहरा की लड़ाई में।

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प्रश्न 16.
सैय्यद अहमद कौन था?
उत्तर-
सैय्यद अहमद स्वयं को मुसलमानों का खलीफा कहलाता था।

प्रश्न 17.
सैय्यद अहमद ने कब सिखों के विरुद्ध विद्रोह किया था ?
उत्तर-
1827 ई० में से 1831 ई० के समय के दौरान।

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर को कब अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया ?
उत्तर-
1834 ई०

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प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह ने किसे पेशावर का प्रथम गवर्नर नियुक्त किया ?
उत्तर-
हरी सिंह नलवा।

प्रश्न 20.
जमरौद की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
1837 ई०।

प्रश्न 21.
हरी सिंह नलवा कौन था?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का प्रसिद्ध सेनापति।

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प्रश्न 22.
त्रिपक्षीय संधि कब हुई थी ?
उत्तर-
26 जून, 1838 ई०।

प्रश्न 23.
त्रिपक्षीय संधि की कोई एक मुख्य शर्त क्या थी ?
उत्तर-
शाह शुजा को अफ़गानिस्तान का सम्राट् बनाया जाए।

प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा के संबंध में किसी एक समस्या का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
पश्चिमी क्षेत्रों के कबीलों से निपटने की समस्या।

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प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की कोई एक मुख्य विशेषता बताएँ।
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने अफ़गानिस्तान पर अधिकार करने का कभी प्रयास न किया।

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह के समय उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों में स्थित किसी एक बर्बर कबीले का नाम बताएँ।
उत्तर-
यूसुफजई।

प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति का कोई एक प्रभाव बताएँ।
उत्तर-
इस कारण उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेशों में शांति की स्थापना हुई।

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(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के सिंहासन पर बैठने समय अफ़गानिस्तान का शासक……………..था।
उत्तर-
(शाह जमान)

प्रश्न 2.
1800 ई० में……….अफ़गानिस्तान का नया शासक बना।
उत्तर-
(शाह महमूद)

प्रश्न 3.
1813 ई० में महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के मध्य……………..में समझौता हुआ।
उत्तर-
(रोहतास)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह ने 1813 ई० में जहाँदाद खाँ से…………………का प्रदेश प्राप्त किया।
उत्तर-
(अटक)

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प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह और अफ़गानों के मध्य नौशहरा की लड़ाई……………..में हुई।
उत्तर-
(1823 ई०)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह पेशावर को………………में सिख साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
उत्तर-
(1834 ई०)

प्रश्न 7.
1838 ई० में महाराजा रणजीत सिंह, अंग्रेजों और………………के मध्य त्रिपक्षीय संधि हुई थी।
उत्तर-
(शाह शुजा)

प्रश्न 8.
हरी सिंह नलवा की मृत्यु……..में हुई।
उत्तर-
(1837 ई०

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(iii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के सिंहासन पर बैठते समय अफ़गानिस्तान का शासक शाह ज़मान था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
शाह महमूद 1805 ई० में अफ़गानिस्तान का नया शासक बना।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के बीच 1813 ई० में रोहतास में समझौता हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
हज़रो की लड़ाई 13 जुलाई, 1813 ई० में हुई।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 5.
1818 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर कब्जा कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह ने 1819 ई० में कश्मीर पर विजय प्राप्त की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
1820 ई० में हरी सिंह नलवा को. कश्मीर का नया गवर्नर नियुक्त किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
सरदार हरी सिंह नलवा को जफरजंग का खिताब दिया गया था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 9.
नौशहरा की लड़ाई 14 मार्च, 1828 ई० में हुई थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर को 1834 ई० में अपने साम्राज्य में शामिल किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
जमरौद की लड़ाई 1838 ई० में हुई थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह उत्तर-पश्चिमी सीमा की समस्याओं को हल करने में काफी हद तक सफल रहा था।
उत्तर-
ठीक

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(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
शाह ज़मान ने लाहौर पर कब अधिकार कर लिया था ?
(i) 1796 ई० में
(ii) 1797 ई० में
(iii) 1798 ई० में
(iv) 1799 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 2.
फ़तह खाँ कौन था ?
(i) अफ़गानिस्तान का वज़ीर
(ii) रणजीत सिंह का वज़ीर
(ii) ईरान का वज़ीर
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 3.
कश्मीर पर अधिकार करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के बीच समझौता कब हुआ ?
(i) 1803 ई० में
(ii) 1805 ई० में
(ii) 1809 ई० में
(iv) 1813 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के बीच समझौता कहाँ हुआ था ?
(i) रोहतास में
(ii) रोहतांग में
(iii) सुपीन में
(iv) हज़रो में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
अकाली फूला सिंह अफ़गानों के साथ लड़ते हुए कब शहीद हो गया ?
(i) 1813 ई० में
(ii) 1815. ई० में
(iii) 1819 ई० में
(iv) 1823 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 6.
सैय्यद अहमद ने कौन-से प्रदेशों में सिखों के विरुद्ध विद्रोह किया था ?
(i) अटक और पेशावर
(ii) पेशावर और कश्मीर
(iii) कश्मीर और मुलतान
(iv) मुलतान और अटक।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 7.
सैय्यद अहमद ने सिखों के विरुद्ध कब विद्रोह किया था ?
(i) 1823 ई० में
(ii) 1825 ई० में
(iii) 1827 ई० में
(iv) 1831 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर को कब अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया था ?
(i) 1823 ई० में
(ii) 1831 ई० में
(iii) 1834 ई० में
(iv) 1837 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 9.
हरी सिंह नलवा किस प्रसिद्ध लड़ाई में मारा गया था ?
(i) जमरौद की लड़ाई
(ii) नौशहरा की लड़ाई
(iii) हज़रो की लडाई
(iv) सुपीन की लड़ाई।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 10.
त्रिपक्षीय संधि के अनुसार किसको अफ़गानिस्तान का नया बादशाह बनाने की योजना बनाई ?
(i) शाह ज़मान
(ii) शाह शुजा
(iii) शाह महमूद
(iv) दोस्त मुहम्मद खाँ।
उत्तर-
(ii)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह ने अटक पर कैसे विजय प्राप्त की ? इस विजय का महत्त्व भी बताएँ। (How did Maharaja Ranjit Singh conquer Attock ? What was its significance ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की अटक विजय तथा हजरो की लड़ाई का संक्षेप में वर्णन करें।
(Give a brief account of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Attock and the battle of Hazro.)
उत्तर-
अटक का किला भौगोलिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। महाराजा रणजीत सिंह के समय यहाँ अफ़गान गवर्नर जहाँदाद खाँ का शासन था। कहने को तो वह काबुल सरकार के अधीन था, परंतु वास्तव में वह स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था। 1813 ई० में जब काबुल के वज़ीर फ़तह खाँ ने कश्मीर पर आक्रमण करके उसके भाई अता मुहम्मद खाँ को पराजित कर दिया तो वह घबरा गया। उसे यह विश्वास था कि फ़तह खाँ का अगला आक्रमण अटक पर होगा। इसलिए उसने एक लाख रुपए की वार्षिक जागीर के बदले अटक का किला महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया। जब फ़तह खाँ को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो वह आग-बबूला हो गया। उसने अटक के किले पर अधिकार करने के लिए अपनी सेना के साथ अटक की ओर कूच किया। 13 जुलाई, 1813 ई० को हजरो अथवा हैदरो के स्थान पर हुई एक भयंकर लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने फ़तह खाँ को कड़ी पराजय दी। यह अफ़गानों तथा सिखों में लड़ी गई पहली लड़ाई थी। इस विजय के कारण जहाँ अटक पर रणजीत सिंह का स्थायी अधिकार हो गया, वहाँ उसकी ख्याति भी दूर-दूर तक फैल गई।

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प्रश्न 2.
हज़रो अथवा हैदरो अथवा छछ की लड़ाई के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the battle of Hazro or Haidro or Chuch.)
उत्तर-
मार्च, 1813 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने जहाँदाद खाँ से एक लाख रुपये के बदले अटक का किला प्राप्त कर लिया था। यह किला भौगोलिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। जब फ़तह खाँ को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो वह भड़क उठा। वह एक विशाल सेना लेकर कश्मीर से अटक की ओर चल पड़ा। उसने सिखों के विरुद्ध धर्म युद्ध का नारा लगाया। फ़तह खाँ की सहायता के लिए अफ़गानिस्तान से कुछ सेना भेजी गई। दूसरी ओर महाराजा रणजीत सिंह ने भी अटक के किले की रक्षा के लिए एक विशाल सेना अपने विख्यात सेनापतियों-हरी सिंह नलवा, जोध सिंह रामगढ़िया और दीवान मोहकम चंद के नेतृत्व में भेजी। 13 जुलाई, 1813 ई० को हजरो अथवा हैदरो अथवा छछ के स्थान पर दोनों सेनाओं में भारी युद्ध हुआ। इस युद्ध में रणजीत सिंह की सेनाओं ने फ़तह खाँ को कड़ी पराजय दी। इस कारण जहाँ अटक पर रणजीत सिंह का अधिकार पक्का हो गया, वहाँ उसकी ख्याति दूरदूर तक फैल गई।

प्रश्न 3.
शाह शुजा तथा महाराजा रणजीत सिंह के संबंधों पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Give a brief account of Shah Shuja’s relations with Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
शाह शुजा अफ़गानिस्तान का बादशाह था। उसने 1803 ई० से 1809 ई० तक शासन किया। वह बड़ा अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। 1809 ई० में वह सिंहासन छोड़कर भाग गया। उसे कश्मीर के अफ़गान सूबेदार अता मुहम्मद खाँ ने गिरफ्तार कर लिया। 1813 ई० में कश्मीर के पहले अभियान के दौरान महाराजा रणजीत सिंह की सेना शाह शुजा को रिहा करवा कर लाहौर ले आई थी। इसके बदले में महाराजा रणजीत सिंह ने शाह शुजा की पत्नी वफ़ा बेगम से विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा प्राप्त किया था। 1833 ई० में शाह शुजा ने सिंहासन फिर प्राप्त करने के उद्देश्य से महाराजा के साथ एक संधि की, परंतु शाह शुजा को अपने इन यत्नों में सफलता नहीं मिली। 26 जून, 1838 ई० को अंग्रेजों, शाह शुजा और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य त्रिपक्षीय संधि हुई। इस संधि के अनुसार शाह शुजा को अफ़गानिस्तान का सम्राट् बनाने का निश्चय किया गया। अंग्रेजों के यत्नों से 1839 ई० में शाह शुजा अफ़गानिस्तान का सम्राट् तो बन गया, परंतु जल्दी ही उसके विरुद्ध विद्रोह हो गया जिसमें शाह शुजा मारा गया।

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के दोस्त मुहम्मद के साथ संबंधों का संक्षेप वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations between Maharaja Ranjit Singh and Dost Mohammad.)
उत्तर-
दोस्त मुहम्मद खाँ 1826 ई० में अफगानिस्तान का शासक बना था। वह महाराजा रणजीत सिंह के उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्रों में बढ़ते हुए प्रभाव को कभी सहन करने के लिए तैयार न था। पेशावर के मामले पर दोनों के परस्पर मतभेदों में अधिक दरार आ गई थी। 1833 ई० में अफ़गानिस्तान के भूतपूर्व शासक शाह शुजा तथा दोस्त मुहम्मद के मध्य राजगद्दी को प्राप्त करने के लिए युद्ध आरंभ हो गया था। इस स्थिति का लाभ उठाकर महाराजा रणजीत सिंह ने 6 मई, 1834 ई० को पेशावर पर सहजता से विजय प्राप्त कर ली थी। शाह शुजा को पराजित करने के पश्चात् दोस्त मुहम्मद खाँ ने पेशावर पर पुनः अधिकार करने का प्रयास किया पर उसे सफलता प्राप्त न हुई। 1837 ई० में दोस्त मुहम्मद खाँ ने अपने पुत्र अकबर के अधीन एक विशाल सेना पेशावर की ओर भेजी। जमरौद के स्थान पर हुई एक भयंकर लड़ाई में यद्यपि हरी सिंह नलवा वीरगति को प्राप्त हुआ तथापि सिख सेना इस लड़ाई में विजयी हुई। इसके पश्चात् दोस्त मुहम्मद खाँ ने पेशावर की ओर फिर कभी मुँह नहीं किया।

प्रश्न 5.
सैय्यद अहमद पर एक संक्षेप नोट लिखो। (Write a brief note on Sayyad Ahmed.)
अथवा
सैय्यद अहमद के धर्म युद्ध पर एक नोट लिखो। [Write a note on the ‘Zihad’ (Religious War) of Sayyad Ahmed.]
उत्तर-
1827 ई० से 1831 ई० के समय में सैय्यद अहमद ने अटक तथा पेशावर के प्रदेशों में सिखों के विरुद्ध जिहाद कर रखा था। वह बरेली का रहने वाला था। उसका कहना था, “अल्ला ने मुझे पंजाब और हिंदुस्तान को विजय करने और अफ़गान प्रदेशों में से सिखों को निकाल कर खत्म करने के लिए भेजा है।” उसकी बातों में आकर कई अफ़गान सरदार उसके शिष्य बन गए। कुछ ही समय में उसने एक बहुत बड़ी सेना संगठित कर ली। यह महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति के लिए एक चुनौती थी। उसको सिख सेनाओं ने पहले सैद्र में और फिर पेशावर में पराजित किया था, परंतु भाग्यवश वह दोनों बार बच निकलने में सफल हुआ। इन पराजयों के बावजूद भी सैय्यद अहमद ने सिखों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। अंत में 1831 ई० में वह बालाकोट में शहज़ादा शेर सिंह से लड़ते हुए मारा गया। इस तरह सिखों की एक बहुत बड़ी सिरदर्दी दूर हुई।

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प्रश्न 6.
अकाली फूला सिंह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Akali Phula Singh.)
अथवा
अकाली फूला सिंह की सैनिक सफलताओं पर एक नोट लिखो। (Write a note on the achievements of Akali Phula Singh.)
उत्तर-
अकाली फूला सिंह सिख राज्य के एक फौलादी स्तंभ थे। उन्होंने सिख राज्य की नींव को मज़बूत करने तथा उसकी सीमा का विस्तार करने में बहुमूल्य योगदान दिया। आपकी शूरवीरता, निर्भीकता, पंथ से प्यार तथा उज्वल चरित्र के कारण महाराजा रणजीत सिंह आपका बहुत सम्मान करता था। 1807 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने अकाली फूला सिंह के सहयोग से कसूर पर विजय प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। इसी वर्ष अकाली फला सिंह ने झंग को अपने अधीन कर लिया। आपके सहयोग के कारण 1816 ई० में मुलतान तथा बहावलपुर में मुसलमानों द्वारा सिख राज्य के विरुद्ध की गई बगावतों का दमन किया जा सका। 1818 ई० में मुलतान की विजय के समय भी अकाली फूला सिंह ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी वर्ष पेशावर पर आक्रमण के समय भी महाराजा रणजीत सिंह ने अकाली फूला सिंह की सेवाएँ प्राप्त की। 1819 ई० में कश्मीर की विजय के समय भी वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना के साथ थे। वह 14 मार्च, 1823 ई० को नौशहरा में अफ़गानों के साथ हुई एक भयंकर लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। निस्संदेह अकाली फूला सिंह सिख राज्य के एक महान् रक्षक थे।

प्रश्न 7.
जमरौद की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Battle of Jamraud.)
उत्तर-
दोस्त मुहम्मद खाँ 1835 ई० में सिखों के हाथों हुए अपने अपमान का प्रतिशोध लेना चाहता था। दूसरी ओर सिख भी पेशावर में अपनी स्थिति को दृढ़ करने में व्यस्त थे। हरी सिंह नलवा ने अफ़गानों के आक्रमणों को रोकने के लिए जमरौद में एक शक्तिशाली दुर्ग का निर्माण करवाया। दोस्त मुहम्मद खाँ सिखों की पेशावर में बढ़ती हुई शक्ति को सहन नहीं कर सकता था। इसलिए उसने अपने पुत्र मुहम्मद अकबर तथा शमसुद्दीन के अधीन 20,000 सैनिकों को जमरौद पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस सेना ने 28 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद पर आक्रमण कर दिया। सरदार महा सिंह ने दो दिन तक अपने केवल 600 सैनिकों सहित अफ़गान सेनाओं का डट कर सामना किया। उस समय हरी सिंह नलवा पेशावर में बहुत बीमार पड़ा हुआ था। जब उसे अफ़गान आक्रमण का समाचार मिला तो वह शेर की भाँति गर्जना करता हुआ अपने 10,000 सैनिकों को साथ लेकर जमरौद पहुँच गया। उसने अफ़गान सेनाओं के छक्के छुड़ा दिए। अचानक दो गोले लग जाने से 30 अप्रैल, 1837 ई० को हरी सिंह नलवा शहीद हो गए। इस बलिदान का प्रतिशोध लेने के लिए सिख सेनाओं ने अफ़गान सेनाओं पर इतना शक्तिशाली आक्रमण किया कि वे गीदड़ों की भाँति काबुल की ओर भाग गये। इस प्रकार सिख जमरौद की इस निर्णयपूर्ण लड़ाई में विजयी रहे। जब महाराजा रणजीत सिंह को अपने महान् जरनैल हरी सिंह नलवा की मृत्यु के विषय में ज्ञात हुआ तो उनकी आँखों से कई दिन तक आँसू बहते रहे। जमरौद की लड़ाई के पश्चात् दोस्त मुहम्मद खाँ ने कभी भी पेशावर पर पुनः आक्रमण करने का यत्न न किया। उसे विश्वास हो गया कि सिखों से पेशावर लेना असंभव है।

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प्रश्न 8.
हरी सिंह नलवा पर एक संक्षिप्त नोदे लिखो। (Write a brief note on Hari Singh Nalwa.)
अथवा
हरी सिंह नलवा के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखें। (What do you know about Hari Singh Nalwa ? Give a brief account.)
उत्तर-
हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह का सबसे महान् तथा निर्भीक सेनापति था। घुड़सवारी, तलवार चलाने तथा निशाना लगाने में वे बहुत दक्ष थे। महान् योद्धा होने के साथ-साथ वह एक कुशल शासन प्रबंधक भी थे। उनकी वीरता से प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया था। बहुत शीघ्र वह उन्नति करते हुए सेनापति के उच्च पद पर पहुँच गए। एक बार हरी सिंह ने एक शेर को जिसने उन पर आक्रमण कर दिया था अपने हाथों से मार डाला जिस कारण महाराजा ने उन्हें ‘नलवा’ की उपाधि से सम्मानित किया। वह इतने वीर थे कि दुश्मन उनके नाम से ही थर-थर काँपते थे। हरी सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह के अनेक सैनिक अभियानों में भाग लिया तथा प्रत्येक अभियान में सफलता प्राप्त की। वह 1820-21 ई० में कश्मीर तथा 1834 से 1837 ई० तक पेशावर के नाज़िम (गवर्नर) रहे। इस पद पर कार्य करते हुए हरी सिंह नलवा ने न केवल इन प्रांतों में शांति की स्थापना की अपितु अनेक महत्त्वपूर्ण सुधार भी लागू किए। वह 30 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद के स्थान पर अफ़गानों से मुकाबला करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उसकी मृत्यु से महाराजा रणजीत सिंह को इतना गहरा धक्का लगा कि वह उसकी याद में कई दिनों तक आँसू बहाते रहे। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह के राज्य को शक्तिशाली बनाने तथा उसका विस्तार करने में हरी सिंह नलवा ने बहुमूल्य योगदान दिया।

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र की नीतियों की विशेषताएँ बताएँ।
(Explain the features of the North-west Frontier policy of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ।
(Describe any five features of North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा संबंधी नीति की पाँच विशेषताएँ लिखें।
(Describe the five features of North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने अटक, मुलतान, कश्मीर, डेरा गाज़ी खाँ, डेरा इस्माइल खाँ, पेशावर आदि उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेशों पर विजय प्राप्त की और इन्हें अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने दूर-दृष्टि से काम लेते हुए कभी अफ़गानिस्तान पर अपना अधिकार करने की कोशिश न की। उन्हें पहले ही उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेश में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। इसलिए वह अफ़गानिस्तान पर कब्जा करके कोई नई सिरदर्दी मोल लेना नहीं चाहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। उसने कई नये किलों का निर्माण करवाया तथा कई पुराने किलों को मजबूत करवाया। इन किलों में बड़ी प्रशिक्षित सेना रखी गई। विद्रोहियों को कुचलने के लिए चलते-फिरते दस्ते कायम किये गये। महाराजा ने इस प्रदेश का शासन प्रबंध बड़ी सूझ-बूझ से किया। उसने इस प्रदेश में प्रचलित रस्म-रिवाजों को कायम रखा। कबाइली लोगों के मामलों में अनुचित दखल न दिया गया। शासन प्रबंध की देख-रेख के लिए सैनिक गवर्नर नियुक्त किए गए।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 19 महाराजा रणजीत सिंह के अफ़गानिस्तान के साथ संबंध तथा उसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति

प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of North-West Frontier Policy of Maharaja Ranjit Singh ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति का पंजाब के इतिहास में विशेष महत्त्व है। इससे महाराजा की दूर-दृष्टि, कूटनीति तथा राजनीतिक योग्यता का प्रमाण मिलता है। उसने मुलतान, कश्मीर, पेशावर इत्यादि के प्रदेशों पर कब्जा करके वहाँ अफ़गानिस्तान के प्रभाव को समाप्त कर दिया था। यह रणजीत सिंह की एक महान् सफलता थी कि उसने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेशों में होने वाले विद्रोहों को कुचल कर वहाँ शाँति की स्थापना की। महाराजा रणजीत सिंह ने कबीलों के प्रचलित कानूनों तथा रस्म-रिवाजों को बनाए रखा। वह अकारण उनके मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। महाराजा रणजीत सिंह ने वहाँ यातायात के साधनों को विकसित किया। कृषि को उन्नत करने के लिए विशेष पग उठाए गए। परिणामस्वरूप न केवल वहाँ के लोग आर्थिक दृष्टि से संपन्न हुए अपितु महाराजा रणजीत सिंह के व्यापार को एक नया उत्साह मिला। इनके अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह अपने साम्राज्य को अफ़गानों के आक्रमणों से सुरक्षित रखने में सफल रहा। इस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति काफी सफल रही।

Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
1800 ई० में काबुल में राज्य सिंहासन की प्राप्ति के लिए गृह युद्ध आरंभ हो गया। शाह ज़मान को सिंहासन से उतार दिया गया तथा शाह महमूद अफ़गानिस्तान का नया सम्राट् बना। उसने केवल तीन वर्ष (1800-03) तक शासन किया। 1803 ई० में शाह शुज़ा ने शाह महमूद से सिंहासन छीन लिया। उसने 1809 ई० तक शासन किया। वह बहुत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। इस कारण अफ़गानिस्तान में अशांति फैल गई। यह स्वर्ण अवसर देखकर अटक, कश्मीर, मुलतान व डेराजात इत्यादि के अफ़गान सूबेदारों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। महाराजा रणजीत सिंह ने भी काबुल सरदार की दुर्बलता का पूरा लाभ उठाया तथा कसूर, झंग, खुशाब तथा साहीवाल नामक अफ़गान प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। 1809 ई० में शाह शुज़ा को सिंहासन से उतार दिया गया तथा उसके स्थान पर शाह महमूद अफ़गानिस्तान का दुबारा सम्राट बना। क्योंकि राज्य-सिंहासन प्राप्त करने में शाह महमूद को फ़तह खाँ ने प्रत्येक संभव सहायता दी थी, इसलिए उसे शाह महमूद ने अपना वज़ीर (प्रधानमंत्री) नियुक्त कर लिया।

  1. …………… में काबुल में राज्य सिंहासन की प्राप्ति के लिए गृह युद्ध आरंभ हो गया था।
  2. शाह महमूद अफ़गानिस्तान का पहली बार बादशाह कब बना ?
  3. शाह शुजा कैसा शासक था ?
  4. फ़तह खाँ कौन था ?
  5. शाह शुजा को कब गद्दी से उतारा गया था ?

उत्तर-

  1. 1800 ई०।
  2. शाह महमूद पहली बार 1800 ई० में अफगानिस्तान का बादशाह बना था।
  3. शाह शुजा एक अयोग्य शासक था।
  4. फ़तह खाँ शाह महमूद का वज़ीर था।
  5. शाह शुज़ा को 1809 ई० में गद्दी से उतार दिया गया था।

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2
महाराजा रणजीत सिंह ने फ़तह खाँ द्वारा किए गए कपट के कारण उसे माठ पढ़ाने का निर्णय किया। उसने शीघ्र ही फ़कीर अजीजुद्दीन को अटक पर अधिकार करने के लिए भेजा। अटक के शासक जहाँदाद खाँ ने एक लाख रुपये की जागीर के स्थान पर अटक का क्षेत्र महाराजा के सुपुर्द कर दिया। जब फ़तह खाँ को इसके संबंध में ज्ञात हुआ तो वह आग बबूला हो उठा। उसने कश्मीर की शासन व्यवस्था अपने भाई आज़िम खाँ को सौंप दी तथा स्वयं एक विशाल सेना लेकर अटक में से सिखों को निकालने के लिए चल दिया। 13 जुलाई, 1813 ई० को हज़रो अथवा हैदरो के स्थान पर हुई एक घमासान की लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने फ़तह खाँ को एक कड़ी पराजय दी। यह अफ़गानों एवं सिखों के मध्य लड़ी गई प्रथम लड़ाई थी। इस लड़ाई में सिखों की विजय के कारण अफ़गानों की शक्ति को एक ज़बरदस्त धक्का लगा तथा सिखों के मान-सम्मान में बहुत वृद्धि हुई।

  1. फ़तह खाँ कौन था ?
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय अटक का शासक कौन था ?
  3. सिखों तथा अफ़गानों के मध्य लड़ी गई पहली लड़ाई कौन-सी थी ?
  4. हज़रो की लड़ाई कब हुई थी ?
    • 1811 ई०
    • 1812 ई०
    • 1813 ई०
    • 1814 ई०
  5. हज़रो की लड़ाई में कौन विजयी रहा ?

उत्तर-

  1. फ़तह खाँ अफ़गानिस्तान के शासक शाह महमूद का वज़ीर था।
  2. महाराजा रणजीत सिंह के समय अटक का शासक जहाँदाद खाँ था।
  3. सिखों तथा अफ़गानों के मध्य लड़ी गई पहली लड़ाई हज़रों की थी।
  4. 1813 ई०।
  5. हज़रो की लड़ाई में सिख विजयी रहे।

3
1827 ई० से 1831 ई० के मध्य सैय्यद अहमद नामक एक व्यक्ति ने अटक तथा पेशावर के प्रदेशों में सिखों के विरुद्ध विद्रोह किए रखा था। वह बरेली का रहने वाला था। उसका कहना था अल्लाह ने मुझे पंजाब तथा हिंदुस्तान को विजित करने तथा अफ़गान प्रदेशों से सिखों को निकाल कर उन्हें समाप्त करने के लिए भेजा है। उसकी बातों में आकर अनेक अफ़गान सरदार उसके अनुयायी बन गए। कुछ ही अवधि में उसने एक बहुत बड़ी सेना संगठित कर ली। यह महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति के लिए एक चुनौती थी। उसे सिख सेनाओं ने पहले सैदू के स्थान पर तथा फिर पेशावर में पराजित किया था, परंतु वह दोनों बार बच निकलने में सफल रहा। इन पराजयों के बावजूद सैय्यद अहमद ने सिखों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। आखिर 1831 ई० में वह बालाकोट में शहज़ादा शेर सिंह से लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार सिखों की एक बड़ी शिरोवेदना समाप्त हो गई।

  1. सैय्यद अहमद कौन था ?
  2. सैय्यद अहमद कहाँ का रहने वाला था ?
  3. सिख फौजों ने सैय्यद अहमद को किन दो स्थानों से पराजित किया था ?
  4. सैय्यद अहमद कहाँ तथा किस प्रकार लड़ते हुए मारा गया था ?
  5. सैय्यद अहमद कब मारा गया था ?
    • 1813 ई०
    • 1821 ई०
    • 1827 ई०
    • 1831 ई०।

उत्तर-

  1. सैय्यद अहमद मुसलमानों का एक धार्मिक नेता था।
  2. सैय्यद अहमद बरेली का रहने वाला था।
  3. सिख फ़ौजों ने सैय्यद अहमद को सैदू तथा पेशावर से पराजित किया।
  4. सैय्यद अहमद बालाकोट में शहज़ादा शेर सिंह के साथ लड़ते हुए मारा गया था।
  5. 1831 ई०।

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4
दोस्त मुहम्मद खाँ सिखों के हाथों हुए अपने अपमान का प्रतिशोध लेना चाहता था। दूसरी ओर सिख भी पेशावर में अपनी स्थिति को दृढ़ करना चाहते थे। हरी सिंह नलवा ने अफ़गानों के आक्रमणों को रोकने के लिए जमरौद में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण आरंभ करवाया। हरी सिंह नलवा की कार्यवाई को रोकने के लिए दोस्त मुहम्मद खाँ ने अपने पुत्र मुहम्मद अकबर तथा शमसुद्दीन के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों की एक विशाल सेना भेजी। इस सेना ने 28 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। हरी सिंह नलवा उस समय पेशावर में बहुत बीमार पड़ा था। जब उसे अफ़गानों के इस आक्रमण का समाचार मिला तो उन्हें पाठ पढ़ाने के लिए अपने 10,000 सैनिकों को साथ लेकर जमरौद में अफ़गानों पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में यद्यपि हरी सिंह नलवा शहीद हो गया किंतु सिखों ने अफ़गान सेनाओं का ऐसा विनाश किया कि उन्होंने पुनः कभी पेशावर की ओर अपना मुख न किया।

  1. दोस्त मुहम्मद खाँ कौन था ?
  2. जमरौद किले का निर्माण किसने करवाना था ?
  3. जमरौद दुर्ग पर आक्रमण ……………… को किया गया।
  4. जमरौद की लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह का कौन-सा जरनैल शहीद हुआ ?
  5. जमरौद की लड़ाई में कौन विजयी रहा ?

उत्तर-

  1. दोस्त मुहम्मद खाँ पेशावर का शासक था।
  2. जमरौद किले का निर्माण सरदार हरी सिंह नलवा ने करवाया था।
  3. 28 अप्रैल, 1837 ई०।
  4. जमरौद की लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह का जरनैल हरी सिंह नलवा शहीद हुआ था।
  5. जमरौद की लड़ाई में सिख विजयी रहे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्मTextbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
बुद्ध धर्म के उद्भव के समय इसकी धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा करें।
(Discuss the contemporary religious conditions of Buddhism at the time of its origin.)
अथवा
उन कारणों का संक्षेप वर्णन कीजिए जो बौद्ध धर्म के उद्भव के लिए उत्तरदायी थे।
(Give a brief account of those factors which led to the birth of Buddhism.)
उत्तर-
छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के हिंदू समाज एवं धर्म में अनेक अंध-विश्वास तथा कर्मकांड प्रचलित थे। पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थी हितों के कारण हिंदू धर्म को अधिक जटिल बना दिया था। अतः सामान्यजन इस धर्म के विरुद्ध हो गए थे। इन परिस्थितियों में भारत में कुछ नए धर्मों का जन्म हुआ। इनमें से बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। इस धर्म के उद्भव के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है:—

1. हिंदू धर्म में जटिलता (Complexity in the Hindu Religion)-ऋग्वैदिक काल में हिंदू धर्म बिल्कुल सादा था। परंतु कालांतर में यह धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसमें अंध-विश्वासों और कर्मकांडों का बोलबाला हो गया। यह धर्म केवल एक बाहरी दिखावा मात्र बनता जा रहा था। उपनिषदों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों का दर्शन साधारण लोगों की समझ से बाहर था। लोग इस तरह के धर्म से तंग आ चुके थे। वे एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जो अंध-विश्वासों से रहित हो और उनको सादा जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दे सके। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश के० कपूर के शब्दों में,
“हिंदू समाज ने अपना प्राचीन गौरव खो दिया था और यह अनगिनत कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त था।”1

2. खर्चीला धर्म (Expensive Religion)-आरंभ में हिंदू धर्म अपनी सादगी के कारण लोगों में अत्यंत प्रिय था। उत्तर वैदिक काल के पश्चात् इसकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसका कारण यह था कि अब हिंदू धर्म में यज्ञों और बलियों पर अधिक जोर दिया जाने लगा था। ये यज्ञ कईकई वर्षों तक चलते रहते थे। इन यज्ञों पर भारी खर्च आता था। ब्राह्मणों को भी भारी दान देना पड़ता थ। इन यज्ञों के अतिरिक्त अनेक ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित थे, जिनमें ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर भी लोगों को काफी धन खर्च करना पड़ता था। इस तरह के खर्च लोगों की पहुँच से बाहर थे। परिणामस्वरूप वे इस धर्म के विरुद्ध हो गए।

3. ब्राह्मणों का नैतिक पतन (Moral Degeneration of the Brahmanas)-वैदिक काल में ब्राह्मणों का जीवन बहुत पवित्र और आदर्शपूर्ण था। समय के साथ-साथ उनका नैतिक पतन होना शुरू हो गया। वे भ्रष्टाचारी, लालची तथा धोखेबाज़ बन गए थे। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधारण लोगों को किसी न किसी बहाने मूर्ख बना कर उनसे अधिक धन बटोरने में लगे रहते थे। इसके अतिरिक्त अब उन्होंने भोग-विलासी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था। इन्हीं कारणों से लोग समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे।

4. जाति-प्रथा (Caste System)-छठी शताब्दी ई० पू० तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा ने कठोर रूप धारण कर लिया था। ऊँची जातियों के लोग जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करते थे। वे उनकी परछाईं मात्र पड़ जाने से स्वयं को अपवित्र समझने लगते थे। शूद्रों को मंदिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने आदि की आज्ञा नहीं थी। ऐसी परिस्थिति से तंग आकर शूद्र किसी अन्य धर्म के पक्ष में हिंदू धर्म छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

5. कठिन भाषा (Difficult Language)-संस्कृत भाषा के कारण भी इस युग के लोगों में बेचैनी बढ़ गई थी। इस भाषा को बहुत पवित्र माना जाता था, परंतु कठिन होने के कारण यह साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे-वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे। साधारण लोग इन धर्मशास्त्रों को पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी। अतः धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसके सिद्धांत जन-साधारण की भाषा में हों।

6. जादू-टोनों में विश्वास (Belief in Charms and Spells)-छठी शताब्दी ई० पू० में लोग बहुत अंधविश्वासी हो गए थे। वे भूत-प्रेतों तथा जादू-टोनों में अधिक विश्वास करने लगे थे। उनका विचार था कि जादूटोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। जागरूक व्यक्ति समाज को ऐसे अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नए धर्म की राह देखने लगे।

7. महापुरुषों का जन्म (Birth of Great Personalities)-छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। उन्होंने अंधकार में भटकं रही मानवता को एक नया मार्ग दिखाया। इनमें महावीर तथा महात्मा बुद्ध के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहु-संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए थे। इन्होंने बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उल्लेख करते हुए बी० पी० शाह
और के० एस० बहेरा लिखते हैं,
“वास्तव में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय ने लोगों में एक नया उत्साह भर दिया और उनके सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया।”2

  1. “ The Hindu society had lost its splendour and was plagued with multifarious rituals and superstitions.” Dr. Satish K. Kapoor, The Legacy of Buddha (Chandigarh: The Tribune : April 4, 1977) p. 5.
  2. “In fact, birth of Jainism and Buddhism gave a new impetus to the people and significantly moulded social and religious life.” B.P. Saha and K.S. Behera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p. 107.

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म के संस्थापक के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the life of founder of Buddhism ?)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Lord Buddha.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म के प्रारंभ के बारे प्रकाश डालें।
(Throw light on the life of Mahatma Buddha and the origin of Buddhism.)
उत्तर-
Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म 1
LORD BUDDHA

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parents)-महात्मा बुद्ध का जन्म न केवल भारत अपितु समस्त संसार के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उनकी जन्म तिथि के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रचलित रहे। अधिकाँश इतिहासकार 566 ई०पू० को महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था। शुद्धोदन क्षत्रिय वंश से संबंधित था तथा वह नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य का शासक था। इस गणराज्य की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था। शुद्धोदन की दो रानियाँ थीं। इनके नाम महामाया अथवा महादेवी एवं प्रजापति गौतमी थे। ये दोनों बहनें थीं तथा कोलिय गणराज्य की राजकुमारियाँ थीं। महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम महामाया था।
महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक नाम सिद्धार्थ था। इस समय राज्य ज्योतिषी आसित ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो संसार का एक महान् सम्राट् बनेगा या एक महान् धार्मिक नेता। दुर्भाग्यवश सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उसकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इस कारण सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाने लगा।

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2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-सिद्धार्थ का पालन-पोषण बहुत लाड-प्यार से हुआ था। उन्हें विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के उचित प्रबंध किए गए। बाल्यावस्था में ही सिद्धार्थ चिंतनशील एवं कोमल स्वभाव के थे। वह बहुधा एकांत में रहना पसंद करते थे। यह देखकर उनके पिता को चिंता हुई। वह सिद्धार्थ का ध्यान आध्यात्मिक विचारों से हटाना चाहते थे ताकि उसका पुत्र एक महान् सम्राट बने। इस उद्देश्य से सिद्धार्थ के भोग-विलास के लिए राजमहल में यथासंभव प्रबंध किए गए। किंतु इन सब राजसी सुखों का सिद्धार्थ के मन पर कोई प्रभाव न पड़ा। जब सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष की हुई तो उनका विवाह एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। कुछ समय के पश्चात् उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल (बंधन) रखा गया। गृहस्थ जीवन भी सिद्धार्थ को सांसारिक कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर सका।

3. चार महान् दृश्य तथा महान् त्याग (Four Major Sights and Great Renunciation)-यद्यपि सिद्धार्थ को अति सुंदर महलों में रखा गया था किंतु उनका मन बाहरी संसार को देखने के लिए व्याकुल था। एक दिन वे अपने सारथी चन्न को लेकर राजमहल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। मानव जीवन के इन विभिन्न दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। उन्होंने यह जान लिया कि संसार दुःखों का घर है। अत: सिद्धार्थ ने गृह-त्याग का निश्चय किया तथा एक रात अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुए छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महान् स्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी।

4. ज्ञान की प्राप्ति (Enlightenment)-गृह त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ ने सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न.हुई। अत: सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाड़ियों को लांघ अंत गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छ: वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका । वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। अतः सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

5. धर्म प्रचार (Religious Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए अपने ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुँचे । यहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश अपने उन पाँच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गए थे। ये सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध का यश चारों ओर फैलने लगा तथा उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का संगठित ढंग से प्रचार करने के उद्देश्य से मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । महात्मा बुद्ध ने 45 वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर जाकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके सरल उपदेशों का लोगों के मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बुद्ध के अनुयायी बनते चले गए। महात्मा बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायियों में मगध के शासक बिंबिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु, कोशल का शासक प्रसेनजित, उसकी रानी मल्लिका तथा वहाँ का प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक, मल्ल गणराज्य का शासक भद्रिक तथा वहाँ का प्रसिद्ध ब्राह्मण आनंद, कौशांबी का शासक उदयन, वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली तथा कपिलवस्तु के शासक शुद्धोदन (बुद्ध के पिता), उसकी रानी प्रजापती गौतमी, महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा तथा उनके पुत्र राहुल के नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने परम शिष्य आनंद के आग्रह पर स्त्रियों को भी बौद्ध संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दी।

6. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana)-महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा भटकी हुई मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। अपने जीवन के अंतिम काल में जब वह पावा पहुंचे तो उन्होंने वहां एक स्वर्णकार के घर भोजन किया। इसके पश्चात् उन्हें पेचिश हो गया। यहां से महात्मा बुद्ध कुशीनगर (मल्ल गणराज्य की राजधानी) पहुँचे। यहाँ 80 वर्ष की आयु में 486 ई० पू० में वैशाख की पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the basic teachings of Lord Buddha.)
अथवा
बौद्ध धर्म की नैतिक शिक्षाओं के बारे चर्चा करें।
(Discuss the Ethical teachings of Buddhism.)“
अथवा
बौद्ध मत की मूल शिक्षाएँ बताएँ।
(Explain the basic teachings of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ क्या हैं ?
(What are the main teachings of Buddhism ?)
अथवा
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the teachings of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने लोगों को यह बताया कि संसार दुःखों का घर है तथा केवल अष्ट मार्ग पर चल कर ही कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की प्रचलित भाषा पाली में किया। उन्होंने किसी जटिल दर्शन का प्रचार नहीं किया। यही कारण था कि उनकी शिक्षाओं ने लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव डाला तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए।

1. चार महान् सत्य (Four Noble Truths)-महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का सार चार महान् सत्य थे। इन्हें आर्य सत्य भी कहा जाता है क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित हैं। ये चार महान् सत्य अग्र हैं—

  • संसार दुःखों से भरा हुआ है (World is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रथम सत्य यह है कि संसार दुःखों से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के जीवन में दुःख हैं। जन्म, बीमारी, वृद्धावस्था, अमीरी, गरीबी, अधिक संतान, नि:संतान तथा मृत्यु आदि सभी दुःख का कारण हैं।
  • दुःखों का कारण है (There is a cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध का दूसरा सत्य यह है कि दुःखों का कारण है। यह कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं। इन इच्छाओं के कारण मनुष्य आवागमन के चक्कर में भटकता रहता है।
  • दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)- महात्मा बुद्ध का तीसरा सत्य है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। यह अंत इच्छाओं का त्याग करने से हो सकता है।
  • दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध का चतुर्थ सत्य यह है कि दुःखों का अंत करने का केवल एक मार्ग है। इस मार्ग को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग पर चल कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् जे० पी० सुधा के शब्दों में,

” महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित चार महान् सत्य उसकी शिक्षाओं का सार हैं। ये मानव जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं के बारे में उसके (बुद्ध) गहन् तथा दृढ़ विश्वास को बताते हैं।”3

3. “ The Four Noble Truths expounded by the Master constitute the core of his teachings. They contain his deepest and most considered convictions about human life and its problems.” J. P. Suda, Religions in India (New Delhi : 1978)p. 82.

2. अष्ट मार्ग (Eightfold Path)- महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है क्योंकि यह कठोर तप तथा ऐश्वर्य के मध्य का मार्ग था। अष्ट मार्ग के सिद्धांत निम्नलिखित थे—

  • सत्य कर्म (Right Action)–मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिएँ। उसे चोरी, ऐश्वर्य तथा जीव हत्या से दूर रहना चाहिए। उसे समस्त मानवता से प्रेम करना चाहिए।
  • सत्य विचार (Right Thought)-सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिएँ। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों से दूर रहना चाहिए।
  • सत्य विश्वास (Right Belief)-मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अंत हो सकता है। उन्हें अष्ट मार्ग से भटकना नहीं चाहिए।
  • सत्य रहन-सहन (Right Living)-सभी मनुष्यों का रहन-सहन सत्य होना चाहिए। उन्हें किसी से हेरा-फेरी नहीं करनी चाहिए।
  • सत्य वचन (Right Speech)-मनुष्य के वचन पवित्र तथा मृदु होने चाहिएँ। उसे किसी की निंदा अथवा चुगली नहीं करनी चाहिए तथा सदा सत्य बोलना चाहिए।
  • सत्य प्रयत्न (Right Efforts)- मनुष्य को बुरे कर्मों के दमन तथा दूसरों के कल्याण हेतु सत्य प्रयत्न करने चाहिएँ।
  • सत्य ध्यान (Right Recollection)-मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।
  • सत्य समाधि (Right Meditation)- मनुष्य को बुराइयों का ध्यान छोड़कर सत्य समाधि में लीन होना चाहिए। डॉ० एस० बी० शास्त्री के अनुसार,

“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध शिक्षाओं का निष्कर्ष है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर, सकता है।”4

4. “This noble eightfold path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S. B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

3. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)-महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है. वैसा ही वह फल भोगता है। हमें पूर्व कर्मों का फल इस जन्म में मिला है तथा वर्तमान कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य की परछाईं सदैव उसके साथ रहती है ठीक उसी प्रकार कर्म मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते । महात्मा बुद्ध का कथन था, “व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम से न तो आकाश में, न समुद्र में तथा न ही किसी पर्वत की गुफा में बच सकता है।”
4. पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Rebirth)~महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण पुनः जन्म लेता रहता है। पुनर्जन्म का यह प्रवाह तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं हो जाती। जिस प्रकार तेल तथा बत्ती के जल जाने से दीपक अपने आप शांत हो जाता है उसी प्रकार वासना के अंत से मनुष्य कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा उसे परम शांति प्राप्त हो जाती है।
5. अहिंसा (Ahimsa)-महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं से प्रेम तथा सहानुभूति रखनी चाहिए। वह जीव हत्या तो दूर, उन्हें सताना भी पाप समझते थे। इसलिए उन्होंने जीव हत्या करने वालों के विरुद्ध प्रचार किया।
6. तीन लक्षण (Three Marks)- महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में एक तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है, ये तीन लक्षण हैं—

  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थाई नहीं (अनित) हैं ।
  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  • सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं।

यह हमारे राजाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि ( अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होगा। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

7. पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  • छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  • मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  • झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  • नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  • किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  • समय पर भोजन खाएं
  • नाच-गानों आदि से दूर रहें
  • नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  • हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  • सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

8. चार असीम सद्गुण (Four Unlimited Virtues)-महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं । मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है । यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से इर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

9. परस्पर भ्रातृ-भाव (Universal Brotherhood)-महात्मा बुद्ध ने लोगों को परस्पर भातृ-भाव का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि लोग परस्पर झगड़ों को छोड़कर प्रेमपूर्वक रहें। उनका विचार था कि संसार में घृणा का अंत प्रेम से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक वर्ण तथा जाति के लोगों को सम्मिलित करके समाज में प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को पर्याप्त सीमा तक दूर किया। महात्मा बुद्ध ने दु:खी तथा रोगी व्यक्तियों की अपने हाथों सेवा करके लोगों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत की।

10. यज्ञों तथा बलियों में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices)- उस समय हिंदू धर्म में अनेक अंधविश्वास प्रचलित थे। वे मुक्ति प्राप्त करने के लिए यज्ञों तथा बलियों पर बहुत बल देते थे। महात्मा बुद्ध ने इन अंधविश्वासों को ढोंग मात्र बताया। उसका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता तथा बलियाँ देने से मनुष्य अपने पापों में अधिक वृद्धि कर लेता है। अतः इनसे किसी देवी-देवता को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

11. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit)-महात्मा बुद्ध ने वेदों की पवित्रता को स्वीकार न किया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति होती है। उन्होंने अपना प्रचार जन-भाषा पाली में किया।

12. जाति प्रथा में अविश्वास (Disbelief in Caste System)-महात्मा बुद्ध ने हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा का कड़े शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार छोटा अथवा बड़ा हो सकता है न कि जन्म से। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक जाति के लोगों को सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “सभी देशों में जाओ और धर्म के संदेश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाओ और कहो कि इस धर्म में छोटे-बड़े और धनवान् तथा निर्धन का कोई प्रश्न नहीं। बौद्ध धर्म सभी जातियों के लिए खुला है। सभी जातियों के लोग इसमें इसी प्रकार मिल सकते हैं जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं।”

13. तपस्या में अविश्वास (Disbelief in Penance)-महात्मा बुद्ध का कठोर तपस्या में विश्वास नहीं था। उनके अनुसार व्यर्थ ही भूखा-प्यासा रह कर शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था परंतु कुछ प्राप्ति न हुई। वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए अष्ट मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

14. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-महात्मा बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं था। उनका कथन था कि इस संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति के द्वारा नहीं की गई है। परंतु वह यह अवश्य मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध ईश्वर संबंधी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है।

15. निर्वाण (Nirvana) महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद तथा शाँति की प्राप्ति हो जाती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदैव मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। वास्तव में निर्वाण वह अवस्था है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो इस सच्चाई का अनुभव करते हैं वे इस संबंध में बात नहीं करते हैं तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में जहाँ निर्वाण मृत्यु के उपरांत प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं ने अंधकार में भटक रही मानवता के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य किया। अंत में हम डॉ० बी० जिनानंदा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम और दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं।”5

5. “In fact, the Buddha’s teachings were based on love on the one hand and on logic on the other.” Dr. B. Jinananda, Buddhism (Patiala : 1969) p. 86.

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के जीवन तथा शिक्षाओं का वर्णन करें।
(Describe the life and teachings of Mahatma Buddha.)
अथवा
महात्मा बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं की चर्चा करें।
(Discuss the life and teachings of Mahatma Buddha.)
उत्तर-

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parents)-महात्मा बुद्ध का जन्म न केवल भारत अपितु समस्त संसार के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उनकी जन्म तिथि के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद प्रचलित रहे। अधिकाँश इतिहासकार 566 ई०पू० को महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि स्वीकार करते हैं। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था। शुद्धोदन क्षत्रिय वंश से संबंधित था तथा वह नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य का शासक था। इस गणराज्य की राजधानी का नाम कपिलवस्तु था। शुद्धोदन की दो रानियाँ थीं। इनके नाम महामाया अथवा महादेवी एवं प्रजापति गौतमी थे। ये दोनों बहनें थीं तथा कोलिय गणराज्य की राजकुमारियाँ थीं। महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम महामाया था।

महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक नाम सिद्धार्थ था। इस समय राज्य ज्योतिषी आसित ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो संसार का एक महान् सम्राट् बनेगा या एक महान् धार्मिक नेता। दुर्भाग्यवश सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद उसकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इस कारण सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाने लगा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-सिद्धार्थ का पालन-पोषण बहुत लाड-प्यार से हुआ था। उन्हें विभिन्न प्रकार की शिक्षा देने के उचित प्रबंध किए गए। बाल्यावस्था में ही सिद्धार्थ चिंतनशील एवं कोमल स्वभाव के थे। वह बहुधा एकांत में रहना पसंद करते थे। यह देखकर उनके पिता को चिंता हुई। वह सिद्धार्थ का ध्यान आध्यात्मिक विचारों से हटाना चाहते थे ताकि उसका पुत्र एक महान् सम्राट बने। इस उद्देश्य से सिद्धार्थ के भोग-विलास के लिए राजमहल में यथासंभव प्रबंध किए गए। किंतु इन सब राजसी सुखों का सिद्धार्थ के मन पर कोई प्रभाव न पड़ा। जब सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष की हुई तो उनका विवाह एक अति सुंदर राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया। कुछ समय के पश्चात् उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल (बंधन) रखा गया। गृहस्थ जीवन भी सिद्धार्थ को सांसारिक कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर सका।

3. चार महान् दृश्य तथा महान् त्याग (Four Major Sights and Great Renunciation)-यद्यपि सिद्धार्थ को अति सुंदर महलों में रखा गया था किंतु उनका मन बाहरी संसार को देखने के लिए व्याकुल था। एक दिन वे अपने सारथी चन्न को लेकर राजमहल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। मानव जीवन के इन विभिन्न दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। उन्होंने यह जान लिया कि संसार दुःखों का घर है। अत: सिद्धार्थ ने गृह-त्याग का निश्चय किया तथा एक रात अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोते हुए छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महान् स्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी।

4. ज्ञान की प्राप्ति (Enlightenment)-गृह त्याग करने के पश्चात् सिद्धार्थ ने सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न.हुई। अत: सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाड़ियों को लांघ अंत गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छ: वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका । वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। अतः सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथा तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

5. धर्म प्रचार (Religious Preachings)-ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने पीड़ित मानवता के उद्धार के लिए अपने ज्ञान का प्रचार करने का संकल्प लिया। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुँचे । यहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश अपने उन पाँच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गए थे। ये सभी बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध का यश चारों ओर फैलने लगा तथा उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का संगठित ढंग से प्रचार करने के उद्देश्य से मगध में बौद्ध संघ की स्थापना की । महात्मा बुद्ध ने 45 वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर जाकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके सरल उपदेशों का लोगों के मनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बुद्ध के अनुयायी बनते चले गए। महात्मा बुद्ध के प्रसिद्ध अनुयायियों में मगध के शासक बिंबिसार तथा उसका पुत्र अजातशत्रु, कोशल का शासक प्रसेनजित, उसकी रानी मल्लिका तथा वहाँ का प्रसिद्ध सेठ अनाथपिंडिक, मल्ल गणराज्य का शासक भद्रिक तथा वहाँ का प्रसिद्ध ब्राह्मण आनंद, कौशांबी का शासक उदयन, वैशाली की प्रसिद्ध वेश्या आम्रपाली तथा कपिलवस्तु के शासक शुद्धोदन (बुद्ध के पिता), उसकी रानी प्रजापती गौतमी, महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा तथा उनके पुत्र राहुल के नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने परम शिष्य आनंद के आग्रह पर स्त्रियों को भी बौद्ध संघ में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दी।

6. महापरिनिर्वाण ( Mahaparnirvana)-महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा भटकी हुई मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। अपने जीवन के अंतिम काल में जब वह पावा पहुंचे तो उन्होंने वहां एक स्वर्णकार के घर भोजन किया। इसके पश्चात् उन्हें पेचिश हो गया। यहां से महात्मा बुद्ध कुशीनगर (मल्ल गणराज्य की राजधानी) पहुँचे। यहाँ 80 वर्ष की आयु में 486 ई० पू० में वैशाख की पूर्णिमा को अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उन्होंने लोगों को सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने लोगों को यह बताया कि संसार दुःखों का घर है तथा केवल अष्ट मार्ग पर चल कर ही कोई व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की प्रचलित भाषा पाली में किया। उन्होंने किसी जटिल दर्शन का प्रचार नहीं किया। यही कारण था कि उनकी शिक्षाओं ने लोगों के मनों पर जादुई प्रभाव डाला तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

1. चार महान् सत्य (Four Noble Truths)-महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का सार चार महान् सत्य थे। इन्हें आर्य सत्य भी कहा जाता है क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित हैं। ये चार महान् सत्य अग्र हैं—

  1. संसार दुःखों से भरा हुआ है (World is full of Sufferings)-महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रथम सत्य यह है कि संसार दुःखों से भरा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के जीवन में दुःख हैं। जन्म, बीमारी, वृद्धावस्था, अमीरी, गरीबी, अधिक संतान, नि:संतान तथा मृत्यु आदि सभी दुःख का कारण हैं।
  2. दुःखों का कारण है (There is a cause of Sufferings)-महात्मा बुद्ध का दूसरा सत्य यह है कि दुःखों का कारण है। यह कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं। इन इच्छाओं के कारण मनुष्य आवागमन के चक्कर में भटकता रहता है।
  3. दुःखों का अंत किया जा सकता है (Sufferings can be Stopped)- महात्मा बुद्ध का तीसरा सत्य है कि दुःखों का अंत किया जा सकता है। यह अंत इच्छाओं का त्याग करने से हो सकता है।
  4. दुःखों का अंत करने का एक मार्ग है (There is a way to stop Sufferings)-महात्मा बुद्ध का चतुर्थ सत्य यह है कि दुःखों का अंत करने का केवल एक मार्ग है। इस मार्ग को अष्ट मार्ग अथवा मध्य मार्ग कहा जाता है। इस मार्ग पर चल कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है। प्रसिद्ध विद्वान् जे० पी० सुधा के शब्दों में,

” महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित चार महान् सत्य उसकी शिक्षाओं का सार हैं। ये मानव जीवन तथा उससे संबंधित समस्याओं के बारे में उसके (बुद्ध) गहन् तथा दृढ़ विश्वास को बताते हैं।”3

3. “ The Four Noble Truths expounded by the Master constitute the core of his teachings. They contain his deepest and most considered convictions about human life and its problems.” J. P. Suda, Religions in India (New Delhi : 1978)p. 82.

2. अष्ट मार्ग (Eightfold Path)- महात्मा बुद्ध ने लोगों को अष्ट मार्ग पर चलने का उपदेश दिया। अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है क्योंकि यह कठोर तप तथा ऐश्वर्य के मध्य का मार्ग था। अष्ट मार्ग के सिद्धांत निम्नलिखित थे—

  1. सत्य कर्म (Right Action)–मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिएँ। उसे चोरी, ऐश्वर्य तथा जीव हत्या से दूर रहना चाहिए। उसे समस्त मानवता से प्रेम करना चाहिए।
  2. सत्य विचार (Right Thought)-सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिएँ। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों से दूर रहना चाहिए।
  3. सत्य विश्वास (Right Belief)-मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिए कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अंत हो सकता है। उन्हें अष्ट मार्ग से भटकना नहीं चाहिए।
  4. सत्य रहन-सहन (Right Living)-सभी मनुष्यों का रहन-सहन सत्य होना चाहिए। उन्हें किसी से हेरा-फेरी नहीं करनी चाहिए।
  5. सत्य वचन (Right Speech)-मनुष्य के वचन पवित्र तथा मृदु होने चाहिएँ। उसे किसी की निंदा अथवा चुगली नहीं करनी चाहिए तथा सदा सत्य बोलना चाहिए।
  6. सत्य प्रयत्न (Right Efforts)- मनुष्य को बुरे कर्मों के दमन तथा दूसरों के कल्याण हेतु सत्य प्रयत्न करने चाहिएँ।
  7. सत्य ध्यान (Right Recollection)-मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिए।
  8. सत्य समाधि (Right Meditation)- मनुष्य को बुराइयों का ध्यान छोड़कर सत्य समाधि में लीन होना चाहिए। डॉ० एस० बी० शास्त्री के अनुसार,

“यह पवित्र अष्ट मार्ग बुद्ध शिक्षाओं का निष्कर्ष है जिससे मनुष्य जीवन के दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर, सकता है।”4

4. “This noble eightfold path forms the keynote of the Buddha’s teachings for emancipating oneself from the ills of life.” Dr. S. B. Shastri, Buddhism (Patiala : 1969) pp. 55-56.

3. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)-महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है. वैसा ही वह फल भोगता है। हमें पूर्व कर्मों का फल इस जन्म में मिला है तथा वर्तमान कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य की परछाईं सदैव उसके साथ रहती है ठीक उसी प्रकार कर्म मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते । महात्मा बुद्ध का कथन था, “व्यक्ति अपने दुष्कर्मों के परिणाम से न तो आकाश में, न समुद्र में तथा न ही किसी पर्वत की गुफा में बच सकता है।”

4. पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Rebirth)~महात्मा बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण पुनः जन्म लेता रहता है। पुनर्जन्म का यह प्रवाह तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं हो जाती। जिस प्रकार तेल तथा बत्ती के जल जाने से दीपक अपने आप शांत हो जाता है उसी प्रकार वासना के अंत से मनुष्य कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा उसे परम शांति प्राप्त हो जाती है।

5. अहिंसा (Ahimsa)-महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जंतुओं से प्रेम तथा सहानुभूति रखनी चाहिए। वह जीव हत्या तो दूर, उन्हें सताना भी पाप समझते थे। इसलिए उन्होंने जीव हत्या करने वालों के विरुद्ध प्रचार किया।

6. तीन लक्षण (Three Marks)- महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में एक तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है, ये तीन लक्षण हैं—

  1. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थाई नहीं (अनित) हैं ।
  2. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  3. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं।

यह हमारे राजाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि ( अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होगा। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

7. पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  1. समय पर भोजन खाएं
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

8. चार असीम सद्गुण (Four Unlimited Virtues)-महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं । मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है । यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से इर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

9. परस्पर भ्रातृ-भाव (Universal Brotherhood)-महात्मा बुद्ध ने लोगों को परस्पर भातृ-भाव का उपदेश दिया। वह चाहते थे कि लोग परस्पर झगड़ों को छोड़कर प्रेमपूर्वक रहें। उनका विचार था कि संसार में घृणा का अंत प्रेम से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक वर्ण तथा जाति के लोगों को सम्मिलित करके समाज में प्रचलित ऊँच-नीच की भावना को पर्याप्त सीमा तक दूर किया। महात्मा बुद्ध ने दु:खी तथा रोगी व्यक्तियों की अपने हाथों सेवा करके लोगों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत की।

10. यज्ञों तथा बलियों में अविश्वास (Disbelief in Yajnas and Sacrifices)- उस समय हिंदू धर्म में अनेक अंधविश्वास प्रचलित थे। वे मुक्ति प्राप्त करने के लिए यज्ञों तथा बलियों पर बहुत बल देते थे। महात्मा बुद्ध ने इन अंधविश्वासों को ढोंग मात्र बताया। उसका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता तथा बलियाँ देने से मनुष्य अपने पापों में अधिक वृद्धि कर लेता है। अतः इनसे किसी देवी-देवता को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

11. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास (Disbelief in Vedas and Sanskrit)-महात्मा बुद्ध ने वेदों की पवित्रता को स्वीकार न किया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति होती है। उन्होंने अपना प्रचार जन-भाषा पाली में किया।

12. जाति प्रथा में अविश्वास (Disbelief in Caste System)-महात्मा बुद्ध ने हिंदू समाज में व्याप्त जाति प्रथा का कड़े शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार छोटा अथवा बड़ा हो सकता है न कि जन्म से। अत: महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में प्रत्येक जाति के लोगों को सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “सभी देशों में जाओ और धर्म के संदेश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाओ और कहो कि इस धर्म में छोटे-बड़े और धनवान् तथा निर्धन का कोई प्रश्न नहीं। बौद्ध धर्म सभी जातियों के लिए खुला है। सभी जातियों के लोग इसमें इसी प्रकार मिल सकते हैं जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं।”

13. तपस्या में अविश्वास (Disbelief in Penance)-महात्मा बुद्ध का कठोर तपस्या में विश्वास नहीं था। उनके अनुसार व्यर्थ ही भूखा-प्यासा रह कर शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने स्वयं भी 6 वर्ष तक तपस्या का जीवन व्यतीत किया था परंतु कुछ प्राप्ति न हुई। वह समझते थे कि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए अष्ट मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।

14. ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)-महात्मा बुद्ध का ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं था। उनका कथन था कि इस संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति के द्वारा नहीं की गई है। परंतु वह यह अवश्य मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध ईश्वर संबंधी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है।

15. निर्वाण (Nirvana) महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद तथा शाँति की प्राप्ति हो जाती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदैव मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। वास्तव में निर्वाण वह अवस्था है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जो इस सच्चाई का अनुभव करते हैं वे इस संबंध में बात नहीं करते हैं तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। अन्य धर्मों में जहाँ निर्वाण मृत्यु के उपरांत प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में संभव है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं ने अंधकार में भटक रही मानवता के लिए एक प्रकाश स्तंभ का कार्य किया। अंत में हम डॉ० बी० जिनानंदा के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वास्तव में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं एक ओर प्रेम और दूसरी ओर तर्क पर आधारित थीं।”5

5. “In fact, the Buddha’s teachings were based on love on the one hand and on logic on the other.” Dr. B. Jinananda, Buddhism (Patiala : 1969) p. 86.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 5.
बौद्ध संघ की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ। (Explain the main features of the Buddhist Sangha.)
अथवा
बौद्ध संघ पर संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Buddhist Sangha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने संगठित ढंग से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से बौद्ध संघ की स्थापना की। संघ से भाव बौद्ध भिक्षओं के संगठन से था। बौद्ध संघ देश के विभिन्न भागों में स्थापित किए गए थे। धीरे-धीरे ये संघ शक्तिशाली संस्था का रूप धारण कर गए तथा बौद्ध धर्म के प्रसार का प्रमुख केंद्र बन गए। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० आर० सी० मजूमदार के शब्दों में,
“विशेष धर्म के लोगों का संघ अथवा संगठन की कल्पना नयी न थी। गौतम बुद्ध के पूर्व और उनके समय में भी इस ढंग की अनेक संस्थाएँ थीं, किंतु बुद्ध को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने इन संस्थाओं को पूर्ण एवं व्यवस्थित रूप दिया।”6

6.” The idea of a Church, or a corporate body of men following a particular faith, was not certainly a new one and there were many organisations of this type at and before the time of Gautama Buddha. His credit, however, lies in the thorough and systematic character which he gave to these organisations,” Dr. R. C. Majumdar, Ancient India (Delhi : 1991) p. 163.

1. संघ की सदस्यता (Membership of the Sangha)-महात्मा बुद्ध के अनुयायी दो प्रकार के थे। इन्हें उपासक-उपासिकाएँ तथा भिक्षु-भिक्षुणियाँ कहा जाता था। उपासक तथा उपासिकाएं वे थीं जो गृहस्थ जीवन का पालन करते थे। भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ गृह त्याग कर संन्यास धारण करते थे। आरंभ में संघ प्रवेश की विधि बहत सरल थी। किंतु जब धीरे-धीरे संघ के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी एवं इसमें लोग प्रवेश पाने लगे जो अज्ञानी तथा अनुशासनहीन थे, जो जनता के दान से विलासमय जीवन व्यतीत करने के इच्छुक थे, जो डाकू, हत्यारे और ऋणी थे तथा जो राजा के दंड से बचना चाहते थे। उस समय ऐसी राजाज्ञा थी कि कोई भी अधिकारी किसी बौद्ध भिक्षु अथवा भिक्षुणी को हानि नहीं पहुँचायेगा। अत: महात्मा बुद्ध ने संघ में प्रवेश करने वाले सदस्यों के लिए कुछ योग्यताएँ निर्धारित कर दीं। इनके अनुसार अब संघ में प्रवेश पाने के लिए किसी भी स्त्री अथवा पुरुष के लिए कम-से-कम आयु 15 वर्ष निश्चित कर दी गई। उन्हें संघ का सदस्य बनने के लिए अपने माता-पिता अथवा अभिभावकों की स्वीकृति लेना आवश्यक था। अपराधी, दास तथा रोगी संघ के सदस्य नहीं बन सकते थे। संघ में किसी भी जाति का व्यक्ति प्रवेश पा सकता था।
संघ में प्रवेश करने वाले भिक्षु अथवा भिक्षुणी का सर्वप्रथम मुंडन किया जाता था तथा उसे पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे। इसके पश्चात् उसे यह शपथ ग्रहण करनी होती थी, “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” तत्पश्चात् उसे संघ के सदस्यों में से किसी एक को अपना गुरु धारण करना पड़ता था तथा 10 वर्षों तक उससे प्रशिक्षण लेना पड़ता था। ऐसे सदस्यों को ‘श्रमण’ कहा जाता था। यदि 10 वर्षों के पश्चात् उसकी योग्यता को स्वीकार कर लिया जाता तो उसे संघ का पूर्ण सदस्य मान लिया जाता तथा उसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी की उपाधि प्रदान की जाती।

2. दस आदेश (Ten Commandments)-संघ सदस्यों को बड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। ये नियम थे—

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. जीवों को कष्ट न देना।
  3. दूसरों की संपत्ति की इच्छा न करना।
  4. सदा सत्य बोलना।
  5. मादक पदार्थों का प्रयोग न करना।
  6. नृत्य-गान में भाग न लेना।
  7. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करना।
  8. गद्देदार बिस्तर पर न सोना।
  9. अपने पास धन न रखना तथा
  10. निश्चित समय को छोड़कर किसी अन्य अवसर पर भोजन न करना।

3. भिक्षुणियों के लिए विशेष नियम (Special rules for Nuns)-भिक्षुणियों के लिए बौद्ध संघ भिक्षुओं से पृथक् हुआ करते थे । अतः भिक्षुणियों के लिए कुछ अन्य नियम भी बनाए गए थे। ये नियम इस प्रकार थे—

  1. भिक्षुणियों को अपने कर्तव्यों को भली-भांति समझना चाहिएं।
  2. उन्हें 15 दिनों में एक बार भिक्षा लानी चाहिए।
  3. उन स्थानों पर जहाँ भिक्षु हों उन्हें वर्षाकाल में निवास नहीं करना चाहिए।
  4. उन्हें भिक्षुकों से पृथक् रहना चाहिए ताकि भिक्षु न तो उन्हें तथा न उनके कार्यों को देख सकें।
  5. वे भिक्षुणियों को कुमार्ग पर न डालें।
  6. वे पाप कर्मों तथा क्रोध आदि से मुक्त रहें।
  7. प्रत्येक पखवाड़े वे किसी भिक्षु के समक्ष अपने पापों को स्वीकार करें।
  8. प्रत्येक भिक्षुणी को चाहे वह वयोवृद्ध ही क्यों न हो नवीन भिक्षु के प्रति भी आदर प्रदर्शन करना चाहिए।

4. आवास (Residence)-बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ वर्षा काल के तीन माह को छोड़कर देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते रहते थे तथा लोगों को उपदेश देते थे। वर्षा के तीन माह वे एक स्थान पर निवास करते थे तथा अध्ययन का कार्य करते थे। उनके निवास स्थान आवास कहलाते थे। प्रत्येक आवास में अनेक विहार होते थे जहाँ भिक्षुभिक्षुणियों के लिए अलग कमरे होते थे। इन विहारों में जीवन सामूहिक था। प्रत्येक भिक्षु-भिक्षुणी को जो भी भिक्षा मिलती थी वह संघ के समस्त सदस्यों में वितरित की जाती थी। ये बौद्ध विहार धीरे-धीरे बौद्ध धर्म तथा शिक्षा प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र बन गए।

5. संघ का संविधान (Constitution of the Sangha)-प्रत्येक बौद्ध संघ लोकतंत्रीय प्रणाली पर आधारित था। इसके सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यहाँ कोई छोटा या बड़ा नहीं समझा जाता था। संघ में भिक्षुगण अपनी वरीयता के अनुसार आसन ग्रहण करते थे। संघ के अधिवेशन के लिए कम-से-कम 20 भिक्षुओं की उपस्थिति __ अनिवार्य थी। इस गणपूर्ति के बिना प्रत्येक अधिवेशन अवैध समझा जाता था। संघ में प्रत्येक विषय पर पूर्व दी गई सूचना के आधार पर प्रस्ताव प्रस्तुत किए. जाते थे। इसके पश्चात् प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता था। जिस प्रस्ताव पर सदस्यों में मतभेद होता था वहां मतदान कराया जाता था। मतदान दो प्रकार का होता था-गुप्त तथा प्रत्यक्ष । यदि कोई भिक्षु अनुपस्थित होता था तो वह अपनी सहमति पहले दे जाता था। कभी-कभी कोई प्रस्ताव विशेष विचार के लिए किसी उप-समिति के सुपुर्द कर दिया जाता था। संघ के सभी निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते थे। प्रत्येक संघ की एक माह में दो बार बैठक अवश्य होती थी। इन बैठकों में धर्म के प्रचार के किए जा रहे प्रयासों तथा संघ के नियमों को भंग करने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों को दंडित किया जाता था। प्रत्येक बौद्ध संघ में कुछ ऐसे विशेष अधिकारी होते थे जिन्हें संघ के सदस्य सर्वसम्मति से चुनते थे। ये अधिकारी भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए विहारों तथा उनके लिए भोजन आदि का प्रबंध करते थे। डॉ० अरुण भट्टाचार्जी के शब्दों में,
“अनुशासित संघ बौद्ध धर्म की अद्वितीय सफलता के स्तंभ थे।”7

6. संघ में फूट (Schism in Sangha)–बौद्ध संघों ने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई थी। किंतु महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्षों के पश्चात् जब वैशाली में बौद्धों की दूसरी महासभा आयोजित की गई थी तो बौद्ध संघ में फूट पड़ गई। इससे बौद्ध धर्म में एकता न रही। प्रथम शताब्दी ई० में बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान अथवा महायान में बँट गया। बौद्ध संघ की इस फूट ने भारत में बौद्ध धर्म का पतन निश्चित कर दिया।

7. “The well disciplined Sanglia was the pillar of the success of Buddhism.” Dr. Arun Bhattacharjee, History of Ancient India (New Delhi : 1979) p. 122.

प्रश्न 6.
बौद्ध धर्म में संघ, निर्वाण एवं पंचशील के संबंध में जानकारी दें। (Write about Sangha, Nirvana and Panchsheel in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के संघ एवं पंचशील के बारे में जानकारी दें। (Write about Sangha and Panchsheel in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के निर्वाण के सिद्धांत संबंधी जानकारी दें।
(Write about the concept of Nirvana in Buddhism.)
उत्तर-
बौद्ध धर्म में संघ, निर्वाण तथा पंचशील नामक सिद्धांतों का विशेष महत्त्व है। बौद्ध धर्म के विकास में इन्होंने बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है :—
(क) बौद्ध संघ (Buddhist Sangha)
महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को संगठित करने के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की थी। संघ से भाव बौद्ध भिक्षुओं के संगठन से था। धीरे-धीरे ये संघ एक शक्तिशाली संस्था का रूप धारण कर गए थे। प्रत्येक पुरुष अथवा स्त्री, जिसकी आयु 15 वर्ष से अधिक थी, बौद्ध संघ का सदस्य बन सकता था। अपराधियों, रोगियों तथा दासों को सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। सदस्य बनने से पूर्व घर वालों से अनुमति लेना आवश्यक था। नए भिक्षु को संघ में प्रवेश के समय मुंडन करवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे और यह शपथ लेनी पड़ती थी “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूं, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” संघ के सदस्यों को बड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। ये नियम थे—

  1. ब्रह्मचर्य का पालन करना।
  2. जीवों को कष्ट न देना।
  3. दूसरों की संपत्ति की इच्छा न करना।
  4. सदा सत्य बोलना।
  5. मादक पदार्थों का प्रयोग न करना।
  6. नृत्य-गान में भाग न लेना।
  7. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करना ।
  8. गद्देदार बिस्तर पर न सोना
  9. अपने पास धन न रखना तथा
  10. निश्चित समय को छोड़कर किसी अन्य अवसर पर भोजन न करना।

संघ में सम्मिलित होने वाले भिक्षु तथा भिक्षुणी को दस वर्ष तक किसी भिक्षु से प्रशिक्षण लेना पड़ता था। इसमें सफल होने पर उन्हें संघ का सदस्य बना लिया जाता था। संघ के सभी सदस्यों को सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करना पड़ता था। वे अपना निर्वाह भिक्षा माँग कर करते थे। वर्षा ऋतु के तीन महीनों को छोड़ कर संघ के सदस्य सारा वर्ष विभिन्न स्थानों पर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए संघ की विशेष बैठकें बुलाई जाती थीं। इन बैठकों में सभी सदस्यों को भाग लेने की अनुमति थी। प्रत्येक बैठक में कम-से-कम दस सदस्यों का उपस्थित होना आवश्यक था। सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। इस संबंध में गुप्त मतदान करवाया जाता था। सदस्यों में मतभेद होने पर उस विषय का निर्णय इस उद्देश्य के लिए स्थापित उप-समितियों द्वारा किया जाता था। वास्तव में बौद्ध धर्म की प्रगति में इन बौद्ध संघों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ० एस० एन० सेन के अनुसार, “बौद्ध धर्म की अद्वितीय सफलता का कारण संगठित संघ थे।”8

8. “The phenomenal success of Buddhism was due to the organisation of the Sangha.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p. 67.

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(ख) निर्वाण (Nirvana)
महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने से है। बौद्ध धर्म में निर्वाण संबंधी यह विचार दिया गया है कि यह न जीवन है तथा न मृत्यु। यह कोई स्वर्ग नहीं जहां देवते आनंदित हों। इसे शाँति एवं सदैव प्रसन्नता का स्रोत कहा गया है। यह सभी दुःखों, लालसाओं एवं इच्छाओं का अंत है। इसकी वास्तविकता पूरी तरह काल्पनिक है। इसका वर्णन संभव नहीं। निर्वाण की वास्तविकता तथा इसका अर्थ जानने के लिए उसकी प्राप्ति आवश्यक है। जो इस सच्चाई को जानते हैं वे इस संबंध में बातें नहीं करते तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जहाँ अन्य धर्मों में निर्वाण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है वहां बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में भी संभव है।

(ग) पंचशील (Panchsheel)
पंचशील (Panchsheel)- महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। पंचशील को शिक्षापद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे से छोटे जीव की भी हत्या न करो
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो, किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएं शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ।

बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षुओं एक भिक्षुणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है। ये पाँच नियम हैं।—

  1. समय पर भोजन खाएं
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार–शृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म के प्रारंभिक वर्षों में बौद्ध संप्रदायों एवं समकालीन समाज पर विस्तृत नोट लिखिए।
(Write a detailed note on early Buddhist sects and society.)
उत्तर-
(क) प्रारंभिक बौद्ध संप्रदाय
(Early.Buddhist Sects) महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म 18 से भी अधिक संप्रदायों में विभाजित हो गया था। इनमें से अनेक संप्रदाय छोटे-छोटे थे तथा उनका कोई विशेष महत्त्व न था। बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदायों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है:—

1. स्थविरवादी तथा महासंघिक (Sthaviravadins and Mahasanghika)-महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् 387 ई० पू० में वैशाली में आयोजित की गई दूसरी महासभा में बौद्ध संघ से संबंधित अपनाए गए 10 नियमों के कारण फूट पड़ गई। परिणामस्वरूप स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक अस्तित्व में आए। स्थविरवादी भिक्षु बौद्ध धर्म में चले आ रहे परंपरावादी नियमों के समर्थक थे। वे किसी प्रकार भी इन नियमों में परिवर्तन किए जाने के पक्ष में नहीं थे। महासंघिक नए नियम अपनाए जाने के पक्ष में थे। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक को सभा छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। शीघ्र ही स्थविरवादी 11 एवं महासंघिक 7 सम्प्रदायों में विभाजित हो गए।

2. हीनयान तथा महायान (Hinayana and Mahayana)-कनिष्क के शासन काल में प्रथम शताब्दी ई०. में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयाम से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान धर्म का प्रसार एशिया के दक्षिणी देशों भारत, श्रीलंका तथा बर्मा (म्यांमार) आदि देशों में हुआ। महायान धर्म का प्रसार एशिया के उत्तरी देशों चीन, जापान, नेपाल तथा तिब्बत आदि में हुआ। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे :—

  • हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  • हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  • हीनयान बोधिसत्वों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल अपने प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। कोई भी देवता निर्वाण प्राप्ति में उसकी सहायता नहीं कर सकता। महायान संप्रदाय बोधिसत्वों में पूर्ण विश्वास रखता था। बोधिसत्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  • हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जो कि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  • हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  • हीनयान संप्रदाय का हिंदू धर्म के साथ कोई संबंध न था, जबकि महायान संप्रदाय ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपना लिया था।
  • हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अतः हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।
  • हीनयान संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक, मिलिन्दपन्हो तथा महामंगलसूत्र आदि थे। महायान संप्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ ललितविस्तार, बुद्धचरित तथा सौंदरानन्द आदि थे।

3. वज्रयान (Vajrayana)-8वीं शताब्दी में बंगाल तथा बिहार में बौद्ध धर्म का एक नया संप्रदाय अस्तित्व में आया। यह संप्रदाय जादू-टोनों तथा मंत्रों से जुड़ा हुआ था। इस संप्रदाय का विचार था कि जादू की शक्तियों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। इन जादुई शक्तियों को वज्र कहा जाता था। इसलिए इस संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ गया। इस संप्रदाय में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हो सकते थे। इस संप्रदाय में देवियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया था। समझा जाता था कि इन देवियों द्वारा बोधिसत्व तक पहुँचा जा सकता है। इन देवियों को तारा कहा जाता था। ‘महानिर्वाण तंत्र’ वज्रयान की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक थी । वज्रयान की धार्मिक पद्धति को तांत्रिक भी कहते हैं । बिहार राज्य वज्रयान का सब से महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला में स्थित है। वज्रयान शाखा ने अपने अनुयायियों को मादक पदार्थों का सेवन करने, माँस भक्षण तथा स्त्री गमन की अनुमति देकर बौद्ध धर्म के पतन का डंका बजा दिया। एन० एन० घोष के अनुसार,
“बौद्ध धर्म के पतन का मुख्य कारण वज्रयान का अस्तित्व था जिसने नैतिकता का विनाश करके इसकी नींव को हिला कर रख दिया था।”9

9. “……..the chief cause of disappearance of Buddhism was the prevalence of Vajrayana which sapped its foundation by destroying all moral strength.” N. N. Ghosh, Early History of India (Allahabad : 1951) p. 65.

(ख) समाज
(Society) बौद्ध विचारधारा में एक आदर्श समाज की कल्पना की गई है। इस समाज के प्रमुख नियम ये हैं—

  1. समाज में सामाजिक समानता एवं धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना की गई थी। बौद्ध धर्म में जाति प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की गई है। बौद्ध धर्म के द्वार सभी धर्मों, जातियों एवं नस्लों के लिए खुले हैं।
  2. स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा दिए जाने का प्रचार किया गया है।
  3. बुद्ध के लिए मन की पवित्रता तथा उच्च चरित्र, जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। उसने लोगों को झूठी गवाही न देने, झूठ न बोलने, किसी की चुगली न करने, नशीली वस्तुओं का प्रयोग न करने, चोरी न करने, अन्य पाप न करने तथा छोटे-से-छोटे जीव की भी हत्या न करने के लिए प्रेरित किया। महात्मा बुद्ध का कथन था कि,

“सौ वर्षों का वह जीवन भी तुच्छ है जिसमें परम सत्य की प्राप्ति नहीं होती, पर वह जिसे परम सत्य की प्राप्ति हो जाती है, उसके जीवन का एक दिन भी महान है।”
संक्षेप में यदि महात्मा बुद्ध के इन सिद्धांतों की सच्चे मन से पालना की जाए तो निस्संदेह हमारी यह पृथ्वी एक स्वर्ग का नमूना बन जाए।

प्रश्न 8.
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों बारे बताएँ।
(What do you know about the two main sects of Buddhism ?)
अथवा
हीनयान एवं महायान द्वारा प्रतिपादित विचार एवं विचारधारा कौन-सी है ? वर्णन करें।
(What thoughts and ideas are represented by Hinayana and Mahayana ? Discuss.)
अथवा
हीनयान एवं महायान से क्या भाव है ? दोनों के मध्य अंतर बताएं। (What is meant by Hinayana and Mahayana ? Distinguish between the two.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायाम तथा हीमयान संप्रदायों के बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you understand by Mahayana and Hinayana sects of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान संप्रदायों की मूल शिक्षाओं बारे बताएं। (Explain the basic teachings of Mahayana and Hinayana sects of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान संप्रदायों पर विस्तृत नोट लिखें। (Write a detailed note on the Buddhist sects named Mahayana and Hinayana.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायाम संप्रदाय के निकास तथा विकास के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the origin and growth of the Mahayana sect of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की प्रगति के बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the development of Mahayana ? Discuss.)
उत्तर-
हीनयान तथा महायान (Hinayana and Mahayana)-कनिष्क के शासन काल में प्रथम शताब्दी ई०. में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयाम से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान धर्म का प्रसार एशिया के दक्षिणी देशों भारत, श्रीलंका तथा बर्मा (म्यांमार) आदि देशों में हुआ। महायान धर्म का प्रसार एशिया के उत्तरी देशों चीन, जापान, नेपाल तथा तिब्बत आदि में हुआ। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे :—

  1. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  2. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  3. हीनयान बोधिसत्वों में विश्वास नहीं रखते थे। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल अपने प्रयासों से ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। कोई भी देवता निर्वाण प्राप्ति में उसकी सहायता नहीं कर सकता। महायान संप्रदाय बोधिसत्वों में पूर्ण विश्वास रखता था। बोधिसत्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  4. हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जो कि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  5. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  6. हीनयान संप्रदाय का हिंदू धर्म के साथ कोई संबंध न था, जबकि महायान संप्रदाय ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से हिंदू धर्म के अनेक सिद्धांतों को अपना लिया था।
  7. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अतः हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।
  8. हीनयान संप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक, मिलिन्दपन्हो तथा महामंगलसूत्र आदि थे। महायान संप्रदाय के प्रमुख ग्रन्थ ललितविस्तार, बुद्धचरित तथा सौंदरानन्द आदि थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 9.
प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों के बारे में संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the Early Buddhist scriptures.) –
अथवा
बौद्ध साहित्य के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about the Buddhist literature ? Explain.)
उत्तर–बौद्ध साहित्य बौद्ध धर्म की जानकारी के लिए हमारा बहुमूल्य स्रोत है। बौद्ध साहित्य यद्यपि अनेक भाषाओं में लिखा गया, किंतु अधिकतर साहित्य पालि एवं संस्कृत भाषाओं से संबंधित है। बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा से संबंधित साहित्य पालि भाषा में तथा महायान शाखा से संबंधित साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया।
(क) पालि भाषा में लिखा गया साहित्य
(Literature written in Pali)
बौद्ध धर्म से संबंधित प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे। प्रमुख बौद्ध ग्रंथों का संक्षिप्त ब्यौरा निम्न अनुसार है :—
1. त्रिपिटक (The Tripitakas)–त्रिपिटक बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनके नाम विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटकों को प्रमुख स्थान प्राप्त है। पिटक का अर्थ है ‘टोकरी’ जिसमें इन ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था।—

(क) विनयपिटक (The Vinayapitaka)–विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु तथा भिक्षुणियों के आचरण से संबंधित नियमों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसके तीन भाग हैं :

  1. सुत्तविभंग (The Suttavibhanga)—इसमें बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के लिए अपराधों की सूची तथा उनके प्रायश्चित दिए गए हैं। इन नियमों को पातिमोक्ख कहा जाता है।
  2. खंधक (The Khandhaka) खंधक दो भागों-महावग्ग एवं चुल्लवग्ग में विभाजित हैं। इनमें संघ के नियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इनमें महात्मा बुद्ध से संबंधित अनेक कथाओं की चर्चा भी की गई है।
  3. परिवार (The Parivara)—यह विनयपिटक का अंतिम भाग है। यह प्रथम दो भागों का सारांश है तथा यह प्रश्न-उत्तर के रूप में लिखी गई है।

(ख) सुत्तपिटक (The Suttapitaka)—यह त्रिपिटकों का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है। यह पांच निकायों अथवा संग्रहों में विभक्त है—

  1. दीघ निकाय (The Digha Nikaya)—इसमें 34 लंबे सूत्र हैं जो स्वयं अपने में पूर्ण हैं । इनमें महात्मा बुद्ध के विभिन्न प्रवचनों का ब्यौरा दिया गया है।
  2. मज्झिम निकाय (The Majjhima Nikaya)—इसमें 152 सूत्र हैं जो दीघ निकाय की अपेक्षा छोटे हैं। इनमें महात्मा बुद्ध के वार्तालापों का वर्णन दिया गया है। इनके अन्त में उपदेश दिए गए हैं।
  3. संयुत निकाय (The Sanyutta Nikaya)—इसमें 7762 सूत्र हैं। इनमें आध्यात्मिक विषयों की चर्चा की गई है। इनमें महात्मा बुद्ध तथा अन्य देवी-देवताओं की कथाएं मिलती हैं। इनके अतिरिक्त इनमें विरोधी धर्मों का खंडन भी किया गया है।
  4. अंगुत्तर निकाय (The Anguttara Nikaya)-इसमें 2308 सूत्र हैं। इसका अधिकतर भाग गद्य में है किंतु कुछ भाग पद्य में भी है। इसमें बौद्ध धर्म तथा इसके दर्शन का वर्णन किया गया है।
  5. खुद्दक निकाय (The Khuddaka Nikaya)-इसमें बौद्ध धर्म से संबंधित विभिन्न विषयों की चर्चा की गई है। इसमें 15 विभिन्न पुस्तकें संकलित हैं। ये पुस्तकें अलग-अलग समय लिखी गईं। इन पुस्तकों में खुद्दक पाठ, धम्मपद, जातक एवं सूत्रनिपात नामक पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। खुद्दक पाठ सबसे छोटी रचना है। इसमें 9 सूत्र हैं जो दीक्षा के समय पढ़े जाते हैं। धम्मपद बौद्ध धर्म से संबंधित सबसे पवित्र पुस्तक समझी जाती है। बोद्धि धम्मपद का उसी प्रकार प्रतिदिन पाठ करते हैं जैसे सिख जपुजी साहिब का एवं हिंदू गीता का।धम्मपद बौद्ध गीता के नाम से प्रसिद्ध है। इसका विश्व भर की भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म से संबंधित 549 कथाओं का वर्णन किया गया है। सुत्तनिपात कविता रूप में लिखी गई है। इसमें बौद्ध धर्म के प्रारंभिक इतिहास के संबंध में जानकारी दी गई है।

(ग) अभिधम्मपिटक (The Abhidhammapitaka)-अभिधम्म से भाव है ‘उत्तम शिक्षाएँ’। इस ग्रंथ का अधिकतर भाग प्रश्न-उत्तर रूप में लिखा गया है। इसमें आध्यात्मिक विषयों की चर्चा की गई हैं। इसमें 7 पुस्तकों का वर्णन किया गया है। इसमें धम्मसंगनी तथा कथावथु सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। धम्मसंगनी बौद्ध मनोविज्ञान से संबंधित महान् रचना है। कथावथु का लेखक मोग्गलिपुत्त तिस्स था। इसमें बौद्ध धर्म की स्थविरवादी शाखा से संबंधित नियमों का वर्णन किया गया है।
2. मिलिन्द पन्हो (Milind Panho)-यह बौद्ध धर्म से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण रचना है। यह 100 ई०पू० पंजाब में लिखी गई। इसमें पंजाब के एक यूनानी शासक मीनांदर तथा बौद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य हुए धार्मिक वार्तालाप का विवरण दिया गया है। इसमें बौद्ध दर्शन के संबंध में महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।
3. दीपवंश तथा महावंश (Dipavansa and Mahavansa)-इन दोनों बौद्ध ग्रंथों की रचना श्रीलंका में की गई थी। इन्हें पाँचवीं शताब्दी में लिखा गया था। इन बौद्ध ग्रंथों में वहां की बौद्ध कथाओं का विवरण मिलता है।
4. महामंगलसूत्र (Mahamangalsutra)—इस रचना में महात्मा बुद्ध द्वारा दिए गए शुभ एवं अशुभ कर्मों का ब्यौरा दिया गया है। बोद्धि इसका रोज़ाना पाठ करते हैं।

(ख) संस्कृत में लिखा गया साहित्य
(Literature written in Sanskrit)
बौद्ध धर्म का महायान संप्रदाय से संबंधित अधिकतर साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण निम्न अनुसार है—

  1. ललितविस्तार (The Lalitvistara) यह बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय से संबंधित प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों में से एक है। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन के बारे में अत्यंत रोचक शैली में वर्णन किया गया है।
  2. लंकावतार (The Lankavatara)—यह महायानियों का एक पवित्र ग्रंथ है। इसका चीन एवं जापान के बोद्धि प्रतिदिन पाठ करते हैं।
  3. सद्धर्मपुण्डरीक (The Saddharmapundarika)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ में महायान संप्रदाय के सभी नियमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध को परमात्मा के रूप में दर्शाया गया है जिसने इस संसार की रचना की।
  4. प्रज्ञापारमिता (The Prajnaparamita)—यह महायान संप्रदाय का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें बौद्ध दर्शन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
  5. अवदान पुस्तकें (The Avadana Books)—ये वह पुस्तकें हैं जिनमें महायान संप्रदाय से संबंधित बौद्ध संतों, पवित्र पुरुषों एवं स्त्रियों की नैतिक एवं बहादुरी के कारनामों का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। दिव्यावदान तथा अवदान शतक इस श्रेणी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
  6. बौद्धचरित (The Buddhacharita)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना महान् कवि अश्वघोष ने की थी। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन को एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
  7. सौंदरानन्द (The Saundrananda)-इस ग्रंथ की रचना भी अश्वघोष ने की थी। यह एक उच्च कोटि का ग्रंथ है। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित उन घटनाओं का विवरण विस्तारपूर्वक दिया गया है जिन का बुद्धचरित में संक्षेप अथवा बिल्कुल वर्णन नहीं किया गया है।
  8. मध्यमकसूत्र (The Madhyamaksutra)-यह प्रसिद्ध बोद्धि नागार्जुन की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि सारा संसार एक भ्रम है।
  9. शिक्षासम्मुचय (The Sikshasamuchchaya)-इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना शाँति देव ने की थी। इसमें महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन दिया गया है। इन्हें अनेक महायानी ग्रंथों से लिया गया हैं।
  10. बौधिचर्यावतार (The Bodhicharyavatara) इसकी रचना भी शांति देव ने की थी। यह कविता के रूप में लिखी गई है। इसमें बोधिसत्व के उच्च आदर्शों का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 10.
बौद्ध धर्म के उद्भव एवं विकास के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the origin and development of Buddhism.)
अथवा
अशोक से पूर्व बुद्ध धर्म द्वारा की गई उन्नति के विषय में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful the progress made by Buddhism befare Ashoka.)
अथवा
सम्राट अशोक से पहले बौद्ध धर्म की स्थिति बताइए।
(Describe the position of Buddhism’before Samrat Ashoka.)
अथवा
महाराजा अशोक तक बौद्ध धर्म ने जो विकास किया उसके संबंध में विस्तृत जानकारी दें।
(Describe in detail the progress made by Buddhism till the time of King Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के आंदोलन की उत्पत्ति तथा विकास की जानकारी अशोक से पूर्व काल की ब्यान करें।
(Give introductory information about origin and expansion of Buddhism before Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के उद्गम तथा विकास के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the origin and development of Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के उद्गम तथा विकास के बारे में एक विस्तृत नोट लिखें।
(Write a detailed note on the origin and development of Buddhism.)
अथवा
अशोक से पूर्व बौद्ध धर्म की उन्नति के बारे में व्याख्या करें।
(Explain the development of Buddhism before Ashoka.)
उत्तर-

I. बौद्ध धर्म का उद्भव ‘ (Origin of Buddhism)
छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के हिंदू समाज एवं धर्म में अनेक अंध-विश्वास तथा कर्मकांड प्रचलित थे। पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थी हितों के कारण हिंदू धर्म को अधिक जटिल बना दिया था। अतः सामान्यजन इस धर्म के विरुद्ध हो गए थे। इन परिस्थितियों में भारत में कुछ नए धर्मों का जन्म हुआ। इनमें से बौद्ध धर्म सर्वाधिक प्रसिद्ध था। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थे। इस धर्म के उद्भव के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षेप वर्णन निम्न अनुसार है:—

1. हिंदू धर्म में जटिलता (Complexity in the Hindu Religion)-ऋग्वैदिक काल में हिंदू धर्म बिल्कुल सादा था। परंतु कालांतर में यह धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसमें अंध-विश्वासों और कर्मकांडों का बोलबाला हो गया। यह धर्म केवल एक बाहरी दिखावा मात्र बनता जा रहा था। उपनिषदों तथा अन्य वैदिक ग्रंथों का दर्शन साधारण लोगों की समझ से बाहर था। लोग इस तरह के धर्म से तंग आ चुके थे। वे एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जो अंध-विश्वासों से रहित हो और उनको सादा जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दे सके। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश के० कपूर के शब्दों में,
“हिंदू समाज ने अपना प्राचीन गौरव खो दिया था और यह अनगिनत कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से ग्रस्त था।”1

2. खर्चीला धर्म (Expensive Religion)-आरंभ में हिंदू धर्म अपनी सादगी के कारण लोगों में अत्यंत प्रिय था। उत्तर वैदिक काल के पश्चात् इसकी स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हो गया। यह अधिकाधिक जटिल होता चला गया। इसका कारण यह था कि अब हिंदू धर्म में यज्ञों और बलियों पर अधिक जोर दिया जाने लगा था। ये यज्ञ कईकई वर्षों तक चलते रहते थे। इन यज्ञों पर भारी खर्च आता था। ब्राह्मणों को भी भारी दान देना पड़ता थ। इन यज्ञों के अतिरिक्त अनेक ऐसे रीति-रिवाज प्रचलित थे, जिनमें ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर भी लोगों को काफी धन खर्च करना पड़ता था। इस तरह के खर्च लोगों की पहुँच से बाहर थे। परिणामस्वरूप वे इस धर्म के विरुद्ध हो गए।

3. ब्राह्मणों का नैतिक पतन (Moral Degeneration of the Brahmanas)-वैदिक काल में ब्राह्मणों का जीवन बहुत पवित्र और आदर्शपूर्ण था। समय के साथ-साथ उनका नैतिक पतन होना शुरू हो गया। वे भ्रष्टाचारी, लालची तथा धोखेबाज़ बन गए थे। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साधारण लोगों को किसी न किसी बहाने मूर्ख बना कर उनसे अधिक धन बटोरने में लगे रहते थे। इसके अतिरिक्त अब उन्होंने भोग-विलासी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था। इन्हीं कारणों से लोग समाज में ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते थे।

4. जाति-प्रथा (Caste System)-छठी शताब्दी ई० पू० तक भारतीय समाज में जाति-प्रथा ने कठोर रूप धारण कर लिया था। ऊँची जातियों के लोग जिन्हें द्विज भी कहा जाता था, शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करते थे। वे उनकी परछाईं मात्र पड़ जाने से स्वयं को अपवित्र समझने लगते थे। शूद्रों को मंदिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने आदि की आज्ञा नहीं थी। ऐसी परिस्थिति से तंग आकर शूद्र किसी अन्य धर्म के पक्ष में हिंदू धर्म छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

5. कठिन भाषा (Difficult Language)-संस्कृत भाषा के कारण भी इस युग के लोगों में बेचैनी बढ़ गई थी। इस भाषा को बहुत पवित्र माना जाता था, परंतु कठिन होने के कारण यह साधारण लोगों की समझ से बाहर थी। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे-वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे। साधारण लोग इन धर्मशास्त्रों को पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरू कर दी। अतः धर्म का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोग एक ऐसे धर्म की इच्छा करने लगे जिसके सिद्धांत जन-साधारण की भाषा में हों।

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6. जादू-टोनों में विश्वास (Belief in Charms and Spells)-छठी शताब्दी ई० पू० में लोग बहुत अंधविश्वासी हो गए थे। वे भूत-प्रेतों तथा जादू-टोनों में अधिक विश्वास करने लगे थे। उनका विचार था कि जादूटोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। जागरूक व्यक्ति समाज को ऐसे अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नए धर्म की राह देखने लगे।

7. महापुरुषों का जन्म (Birth of Great Personalities)-छठी शताब्दी ई० पू० में अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ। उन्होंने अंधकार में भटकं रही मानवता को एक नया मार्ग दिखाया। इनमें महावीर तथा महात्मा बुद्ध के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर बहु-संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए थे। इन्होंने बाद में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का उल्लेख करते हुए बी० पी० शाह
और के० एस० बहेरा लिखते हैं,
“वास्तव में जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म के उदय ने लोगों में एक नया उत्साह भर दिया और उनके सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया।”2

1. “ The Hindu society had lost its splendour and was plagued with multifarious rituals and superstitions.” Dr. Satish K. Kapoor, The Legacy of Buddha (Chandigarh: The Tribune : April 4, 1977) p. 5.
2. “In fact, birth of Jainism and Buddhism gave a new impetus to the people and significantly moulded social and religious life.” B.P. Saha and K.S. Behera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p. 107.

II. बौद्ध धर्म का विकास
(Development of Buddhism)
महात्मा बुद्ध के अथक प्रयासों के कारण उनके जीवन काल में ही बौद्ध धर्म की नींव पूर्वी भारत में मज़बूत हो चुकी थी। उनके निर्वाण के पश्चात् बौद्ध संघों ने महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों को एकत्र करने, संघ से संबंधित नवीन नियम बनाने तथा बौद्ध धर्म के प्रसार के उद्देश्य से समय-समय पर चार महासभाओं का आयोजन किया। इन महासभाओं के आयोजन में विभिन्न शासकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म न केवल भारत अपितु विदेशों में भी फैला।

1. प्रथम महासभा 487 ई० पू० (First Great Council 487 B.C.)-महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के शीघ्र पश्चात् ही 487 ई० पू० राजगृह में बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम महासभा का आयोजन किया गया। राजगृह मगध के शासक अजातशत्रु की राजधानी थी। अजातशत्रु के संरक्षण में ही इस महासभा का आयोजन किया गया था। इस महासभा को आयोजित करने का उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणिक उपदेशों को एकत्र करना था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी। इस महासभा में त्रिपिटकोंविनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक की रचना की गई। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं संबंधी नियम, सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का वर्णन किया गया है। त्रिपिटकों के अतिरिक्त आरोपों की छानबीन करके महात्मा बुद्ध के परम शिष्य आनंद को दोष मुक्त कर दिया गया जबकि सारथी चन्न को उसके उदंड व्यवहार के कारण दंडित किया गया।

2. दूसरी महासभा 387 ई० पू० (Second Great Council 387 B.C.)-प्रथम महासभा के ठीक 100 वर्षों के पश्चात् 387 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया। इस महासभा का आयोजन मगध शासक कालाशोक ने किया था। इस महासभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इस सभा का आयोजन करने का कारण यह था कि बौद्ध संघ से संबंधित दस नियमों ने भिक्षुओं में मतभेद उत्पन्न कर दिए थे। इन नियमों के संबंध में काफी दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा, किंतु भिक्षुओं के मतभेदूर न हो सके। परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षु दो संप्रदायों में बंट गए। इनके नाम स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक थे। स्थविरवादी नवीन नियमों के विरुद्ध थे। वे बुद्ध के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। महासंघिक परंपरावादी नियमों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे ताकि बौद्ध संघ के अनुशासन की कठोरता को कुछ कम किया जा सके। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक भिक्षुओं को निकाल दिया गया।

3. तीसरी महासभा 251 ई० पू० (Third Great Council 251 B.C.)-दूसरी महासभा के आयोजन के बाद बौद्ध धर्म 18 शाखाओं में विभाजित हो गया था। इनके आपसी मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म की उन्नति को गहरा धक्का लगा। बौद्ध धर्म की पुनः प्रगति के लिए तथा इस धर्म में आई कुप्रथाओं को दूर करने के उद्देश्य से महाराजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में 251 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की तीसरी महासभा का आयोजन किया। इस महासभा में 1000 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। इस महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। यह महासभा 9 माह तक चलती रही। यह महासभा बौद्ध धर्म में आई अनेक कुप्रथाओं को दूर करने में काफी सीमा तक सफल रही। इस महासभा से थेरावादी भिक्षुओं के सिद्धांतों को न मानने वाले भिक्षुओं को निकाल दिया गया था। इस महासभा में कथावथु नामक ग्रन्थ की रचना की गई। इस महासभा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध प्रचारकों को भेजना था।

4. चौथी महासभा 100 ई० (Fourth Great Council 100 A.D.)-महाराजा अशोक की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं के मतभेद पुनः बढ़ गए थे। इन मतभेदों को दूर करने के उद्देश्य से कुषाण शासक कनिष्क ने जालंधर में आयोजन किया था। ईस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। वसुमित्र ने महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना की जिसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है। इस महासभा में सम्मिलित एक अन्य विद्वान् अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। इस महासभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान संप्रदाय का समर्थन किया।

प्रश्न 11.
बौद्ध धर्म के विकास में महाराजा अशोक ने शसक्त भूमिका निभाई। प्रकाश डालिए।
(Maharaja Ashoka performed a strong role for the development of Buddhism. Elucidate.)
अथवा
महाराजा अशोक ने बुद्ध धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
(What contribution Maharaja Ashoka made for the development of Buddhism ? Discuss.)
अथवा
महाराजा अशोक के समय बौद्ध धर्म के विकास के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the development made by Buddhism during the time of Maharaja Ashoka.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में अशोक के योगदान के बारे में प्रकाश डालें।
(Throw light on the contribution of Ashoka to the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक की भूमिका का वर्णन करें।
(Discuss the role of Emperor Ashoka in the development of Buddhism. )
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक का क्या योगदान था ? (Discuss the contribution of Emperor Ashoka in the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास में राजा अशोक के योगदान का वर्णन करें। (Discuss the contribution of Ashoka in the spread of Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म के विकास के लिए अशोक द्वारा की गई सेवाओं का वर्णन कीजिए।
(Describe the services rendered by Ashoka to the development of Buddhism.)
अथवा
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए किन साधनों का प्रयोग किया ? (What methods were adopted by Ashoka to the spread Buddhism ?)
अथवा
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म का फैलाव कैसे किया ? (How did Emperor Ashoka spread Buddhism ?)
अथवा
बौद्ध धर्म के प्रसार का वर्णन करें।
(Describe the spread of Buddhism.)
अथवा
“महाराजा अशोक के समय बौद्ध धर्म अधिक विकसित हुआ।” प्रकाश डालिए।
(“Buddhism was more developed during the period of Maharaja Ashoka.” Elucidate.)
उत्तर-
अशोक का नाम न केवल भारतीय बल्कि संसार के इतिहास में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यह उसके अथक यत्नों का ही परिणाम था कि बौद्ध धर्म शीघ्र ही संसार का सबसे लोकप्रिय धर्म बन गया। डॉक्टर डी० सी० सरकार के शब्दों में,
“अशोक बौद्ध धर्म का संरक्षक था तथा वह इस धर्म को जो कि पूर्वी भारत का एक स्थानीय धर्म था को संसार के सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्मों में से एक बनने के लिए जिम्मेवार था।”10

1. निजी उदाहरण (Personal Example)- अशोक के मन पर कलिंग के युद्ध के समय हुए रक्तपात ने गहरा प्रभाव डाला। परिणामस्वरूप अशोक ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म को अपना लिया। इस धर्म को फैलाने के लिए अशोक ने लोगों के आगे निजी उदाहरण प्रस्तुत किया। उसने महल की सभी सुख-सुविधाएँ त्याग दी। उसने मांस खाना तथा शिकार खेलना बंद कर दिया। उसने युद्धों से सदा के लिए तौबा कर ली तथा शांति व प्रेम की नीति अपनाई। इस प्रकार अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपनाने के कारण उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह उसके पद चिंहों पर चलने का प्रयास करने लगी।

2. बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित करना (Buddhism was declared as the State Religion)अशोक ने बौद्ध धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से उसको राज्य धर्म घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप लोग बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित होने आरंभ हो गए। इसका कारण यह था कि उस समय लोग अपने राजा का बहुत सम्मान करते थे तथा उसकी आज्ञा को मानने में वे अपना गर्व समझते थे।

3. प्रशासनिक पग (AdministrativeSteps)-अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रसार करने के लिए कुछ प्रशासनिक पग भी उठाए। उसने धार्मिक उत्सवों के दौरान दी जाने वाली जानवरों की बलि पर पाबंदी लगा दी। उसने राजकीय रसोईघर में भी किसी प्रकार के जानवरों की हत्या की मनाही कर दी। इसके अतिरिक्त उसने वर्ष में 56 ऐसे दिन निश्चित किए जब जानवरों को मारा नहीं जा सकता था। वह समय-समय पर बुद्ध की शिक्षाओं संबंधी निर्देश जारी करता था। उसने अपने कर्मचारियों को भी लोगों की अधिक से अधिक सेवा करने के आदेश जारी किए।

4. व्यापक प्रचार (Wide Publicity)-अशोक के बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए इसका व्यापक प्रचार करवाया। बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को शिलालेखों, चट्टानों, पत्थरों आदि पर खुदवाया। इनको राज्य की प्रसिद्ध सड़कों तथा विशेष स्थानों पर रखा गया ताकि आने-जाने वाले लोग इनको अच्छी तरह पढ़ सकें। इस प्रकार सरकारी प्रचार भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।

5. धर्म यात्राएँ (Dharma Yatras)-अशोक ने बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी स्थानों की यात्रा की। वह लुंबिनी जहां बुद्ध का जन्म हुआ, बौद्ध गया जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ, सारनाथ जहाँ बुद्ध ने सबसे पहले प्रवचन दिया था, कुशीनगर जहाँ बुद्ध का निर्वाण (मृत्यु) हुआ, के पवित्र स्थानों पर गया। अशोक की इन यात्राओं के कारण बौद्ध धर्म का गौरव और बढ़ गया।

6. धर्म महामात्रों की नियुक्ति (Appointment of Dharma Mahamatras)- अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए महामात्र नामक कर्मचारी नियुक्त किए। इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार करने में कोई प्रयास शेष न छोड़ा। इस कारण बौद्ध धर्म को एक नई प्रेरणा मिली।

7. विहारों तथा स्तूपों का निर्माण (Building of Viharas and Stupas)-अशोक ने राज्य भर में विहारों (बौद्ध मठों) का निर्माण करवाया। यहाँ आने वाले बौद्ध विद्वानों तथा विद्यार्थियों को राज्य की ओर से खुला संरक्षण दिया गया। इसके अतिरिक्त सारे राज्य में हज़ारों स्तूपों का भी निर्माण किया गया। इन स्तूपों में बुद्ध की निशानियाँ रखी जाती थीं। इन कारणों से बौद्ध धर्म अधिक लोकप्रिय हो सका।

8. लोक कल्याण के कार्य (Works of Public Welfare)-बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद अशोक ने अपना सारा जीवन लोगों के दिलों को जीतने में लगा दिया। प्रजा की सुविधा के लिए अशोक ने सड़कें बनवाईं तथा इसके किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाए। पानी पीने के लिए कुएँ खुदवाए। यात्रियों की सुविधा के लिए राज्य भर में सराएँ बनाई गईं। अशोक ने न केवल मनुष्यों के लिए अपितु पशुओं के लिए अस्पताल खुलवाए। अशोक के इन कार्यों के कारण बौद्ध धर्म को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से फैलने का अवसर मिला।।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

9. तीसरी बौद्ध सभा (Third Buddhist Council)- अशोक ने बौद्ध धर्म में चल रहे आपसी मतभेदों को दूर करने के लिए 251 ई० पू० पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा बुलवाई। इस सभा में अनेक बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। मोग्गलिपुत्त तिस्स इस सभा का अध्यक्ष था। यह सभा लगभग 9 माह तक चलती रही। इस सभा में बौद्धों का एक नया ग्रंथ कथावथु लिखा गया। यह सभा बौद्ध भिक्षुओं में एक नया जोश भरने में सफल रही तथा उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार अधिक ज़ोर-शोर से करना आरंभ कर दिया।

10. विदेशों में प्रचार (Foreign Missions)-अशोक ने विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। ये प्रचारक श्रीलंका, बर्मा (म्यनमार), नेपाल, मिस्र व सीरिया आदि देशों में गए। अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा तथा पुत्र महेंद्र को श्रीलंका में प्रचार करने के लिए भेजा था। इन प्रचारकों का लोगों के दिलों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म में सम्मिलित हुए। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना पूर्णत: ठीक है,
“वह (अशोक) एक मार्ग-दर्शक के रूप में प्रकट हुआ जो बुद्ध के संदेश को एक गाँव से दूसरे गाँव, एक नगर से दूसरे नगर, एक प्रांत से दूसरे प्रांत, एक देश से दूसरे देश तथा एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक ले गया।”11

10. “Ashoka was a patron of the Buddha’s doctrine and was responsible for raising Buddhism for the status of a local secretarian creed of Eastern India to that of one of the principal religions of the world.” Dr. D.C. Sircar, Inscriptions of Ashoka (Delhi : 1957) p. 17.
11. “He appeared as the torch bearer, who led the gospel from village to village, from city to city, from province to province, from country to country and from continent to continent.” Dr. R.C. Majumdar, Ancient India (Delhi : 1971) p. 165.

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म की भारतीय सभ्यता को क्या देन है ? (What is the legacy of Buddhism to Indian Civilization ?)
अथवा
बौद्ध धर्म की देन का वर्णन करें। (Discuss the legacy of Buddhism.)
उत्तर-यद्यपि बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो चुका है, परंतु जो देन इसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को दी है। उसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। बौद्ध धर्म ने भारत को कई क्षेत्रों में बड़ी गौरवपूर्ण धरोहर प्रदान की।

  1. राजनीतिक प्रभाव (Political Impact)—बौद्ध धर्म ने भारत में राजनीतिक स्थिरता, शांति तथा परस्पर एकता बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्ध धर्म के अहिंसा तथा शांति के सिद्धांतों से उस समय के शक्तिशाली शासक बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने युद्धों का त्याग कर दिया और अपना समय प्रजा के कल्याण में लगा दिया। इससे जहां राज्य में शांति स्थापित हुई वहाँ प्रजा काफी समृद्ध हो गई। अशोक तथा कनिष्क जैसे शासकों ने विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए अपने प्रचारक भेजे। इससे भारत तथा इन देशों में मित्रता स्थापित हुई, परंतु बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धांत का भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कुछ विनाशकारी प्रभाव भी पड़ा। युद्धों में भाग न लेने के कारण भारतीय सेना बहत दुर्बल हो गई। इस लिए जब बाद में भारतीयों को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा तो उनकी हार हुई। इस पराजयों के कारण भारतीयों ने अपनी स्वतंत्रता गंवा ली और उन्हें चिरकाल तक दासता का जीवन व्यतीत करना पड़ा।

2. धार्मिक प्रभाव (Religious Impact)—बौद्ध धर्म की धार्मिक क्षेत्र में देन भी बड़ी महत्त्वपूर्ण थी1 बौद्ध धर्म के उदय से पूर्व हिंदू धर्म में अनेक कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। लोग धर्म के वास्तविक रूप को भूलकर कर्मकांडों, पाखंडों, यज्ञों, हवनों तथा बलि आदि के चक्करों में फंसे हुए थे। समाज में ब्राह्मणों का बोलबाला था। उनके बिना कोई धार्मिक कार्य पूरा नहीं समझा जाता था, परंतु उस समय ब्राह्मण बहुत लालची तथा भ्रष्टाचारी हो चुके थे। उनका मुख्य उद्देश्य लोगों को किसी-न-किसी बहाने लूटना था। वे लोगों का सही मार्गदर्शन करने की अपेक्षा स्वयं भोग-विलास में डूबे रहते थे। इस प्रकार हिंदू धर्म केवल एक आडंबर बनकर रह गया था। महात्मा बुद्ध ने हिंदू धर्म में प्रचलित इन कुप्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति बिना ब्राह्मणों के सहयोग से अपने धार्मिक कार्य संपन्न कर सकता है। उन्होंने संस्कृत भाषा की पवित्रता का भी खंडन किया। इस लिए काफी संख्या में लोग हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म में सम्मिलित होने लगे। इसीलिए हिंदू धर्म ने अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए अनेक आवश्यक सुधार किए। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की सुंदर मूर्तियां निर्मित करके उनकी पूजा आरंभ कर दी। इस प्रकार बौद्ध धर्म ने भारत में मूर्ति-पूजा का प्रचलन किया जो आज तक जारी है।

3. सामाजिक प्रभाव Scial Inpact)— सामाजिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन बहुत प्रशंसनीय है। बौद्ध धर्म के उदय से पहले हिंद धर्म में जाति प्रथा वही जटिल हो गई थी ! एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। शूद्र मो: न्यास किए जा थे; मात्मा बुद्ध ने जाति प्रथा के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उन्होंने अपने अनुयाः ” संदेश दिया। महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में सभी जातियों और वर्गों को सम्मिलित क: भारतीय समाज को एक नया रूप प्रदान किया। निम्न वर्ग के लोगों को भी समाज में प्रगति करने का अवसरमा बौद्ध धर्म के प्रभावाधीन गों ने माँस-भक्षण, मदिरापान तथा अन्य नशों का सेवन बंद कर दिया और उन्नत तथा पत्र जीवन व्यती या आरंभ कर दिया। कालांतर में जब हिंदू धर्म पुनः लोकप्रिय होना आरंभ तुना तो बहुत से लोग बौद्ध धर्म को छोड़कर पुनः हिंदू धर्म में आ गए। इससे हिंदू समाज में कई जातियों तथा उप-जातियः अस्तित्व में आई।

4. सांस्कृतिक प्रभाव : (Cultural Impact)—सांस्कृतिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने भारत को बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन दी। बौद्ध संघों द्वारा न केवल बौद्ध धर्म का प्रचार किया जाता था, अपितु ये शक्षा देने के विख्यात केंद्र भी बन गए। तक्षशिला, नालंदा और त्रिक्रर्माणला नामक बौद्ध विश्वविद्यालयों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में छात्र विदेशों से भी आते थे। बौद्ध विद्वानों द्वारा रचित ग्रंथों जैसे त्रिपिटक, जातक, बुद्धचरित, महाविभास, मिलिंद पहो, सौंदरानंद. ललित विस्तार तथा महामंगल सूत्र इत्यादि ने भातीय साहित्य में बहुमूल्य वृद्धि की। भवन निर्माण कला और मूर्तिकला के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म की देन को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। अशोक तथा कनिष्क के राज्य काल में भारत में बड़ी संख्या में स्तूपों तथा विहारों का निर्माण हुआ। महाराजा अशोक द्वारा निर्मित करवाए गए साँची तथा भरहुत स्तूपों की सुंदर कला को देख कर व्यक्ति चकित रह जाता है। कनिष्क के समय गांधार और मथुरा कली का विकास हुआ। इस समय महात्मा बुद्ध तथा बोधिसत्वों की अति सुंदर मूर्तियाँ निर्मित की गईं।

इन मतियों को देख कर उस समय भूर्तिकला के क्षेत्र में हुई अद्वितीय उन्नति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। अजंता तथा जाप की फाओं को देखकर चित्रकला के क्षेत्र में उस समय हुए विकास का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। समय-समय पर बौद्ध भिक्षु धर्म प्रचार करने के लिए विदेशों जैसे-चीन, जापान, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार). इंडानशिया, जावा, सुमात्रा तथा तिब्बत आदि देशों में जाते रहे। इससे न केवल इन देशों में बौद्ध धर्म फैला, अपितु भारतीय संस्कृति का विकास भी हुआ। आज भी इन देशों में कई भारतीय प्रथाएँ प्रचलित हैं। निस्संदेह यह भारतीयों के लिए एक बहुत ही गर्व की बात है। अंत में हम डॉक्टर एस० राधाकृष्णन के इन शब्दों से सहमत हैं,
“बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसका प्रभाव सभी ओर देखा जा सकता है।”12

12. Buddhisni da leti pemanen’ mark on the culture of India. Its influence is visible on all sides.” Dr. S. Radhakrishnan, Indian Philosophy Deihi: 1962) p.608.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म का उत्थान। (Emergence of Buddhism.)
उत्तर-
6वीं सदी ई० पूर्व हिंदू समाज तथा धर्म में अनगिनत कुरीतियाँ प्रचलित थीं। जाति प्रथा बहुत कठोर रूप धारण कर गई थी। शूद्रों के साथ जानवरों से भी अधिक बुरा व्यवहार किया जाता था। अब लड़की का जन्म लेना दु:ख का कारण समझा जाता था। लोगों में अनेक अंध-विश्वास प्रचलित थे। यज्ञों तथा बलियों के कारण हिंदू धर्म बहुत खर्चीला हो गया था। ब्राह्मण बहुत भ्रष्टाचारी तथा धोखेबाज़ हो गए थे। हिंदू धर्म अब केवल एक बाहरी दिखावा बन कर रह गया था। इन कारणों से बौद्ध धर्म का उत्थान हुआ।

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध के जीवन की संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a short account of the life of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका जन्म 566 ई० पू० में लुंबिनी में हुआ। उनके माता जी का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोधन था। आप का विवाह यशोधरा से हुआ था। आपने 29 वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था। 35 वर्ष की आयु में आपको बौद्ध गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था। आपने 45 वर्ष तक अपने धर्म का प्रचार किया था। मगध, कौशल, कौशांबी, वैशाली तथा कपिलवस्तु आप के प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र थे। 486 ई० पू० में कुशीनगर में आपने निर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 3.
लुंबिनी। (Lumbini.)
उत्तर-
लुंबिनी भारत में बौद्ध धर्म के सर्वाधिक पवित्र स्थानों में से एक है। यह स्थान नेपाल की तराई में भारत-नेपाल सीमा से लगभग 10 किलोमीटर दूर भैरवा जिले में स्थित है। इसका आधुनिक नाम रुमिनदेई है। यहाँ 566 ई० पू० वैशाख की पूर्णिमा को महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। इस बालक के जन्म समय देवताओं ने आकाश से फूलों की वर्षा की। महाराजा अशोक ने यहाँ महात्मा बुद्ध की स्मृति में एक स्तंभ बनवाया था। चीनी यात्रियों फाह्यान एवं ह्यनसांग ने अपने वृत्तांतों में इस स्थान का अति सुंदर वर्णन किया है।

प्रश्न 4.
बौद्ध गया। , (Bodh Gaya.)
उत्तर-
बौद्ध गया का बौद्ध धर्मावलंबियों में वही स्थान है जो हरिमंदिर साहिब, अमृतसर का सिखों में, बनारस का हिंदुओं में एवं मक्का का मुसलमानों में है। यह स्थान बिहार राज्य के गया नगर से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण की ओर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ एक पीपल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) को ज्ञान प्राप्त हुआ था। उस समय सिद्धार्थ की आयु 35 वर्ष थी। यह घटना वैशाख की पूर्णिमा की थी। यहाँ 170 फीट ऊँचा महाबौद्धि मंदिर बना हुआ है।

प्रश्न 5.
सारनाथ। (Sarnath.)
उत्तर-
सारनाथ बौद्ध धर्मावलंबियों का एक अन्य पवित्र स्थान है। यह स्थान बनारस से लगभग 7 किलोमीटर उत्तर की दिशा की ओर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् अपने पुराने पाँच साथियों को प्रथम उपदेश दिया था। इस घटना को बौद्ध इतिहास में धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से स्मरण किया जाता है। यहाँ महाराजा अशोक ने एक प्रसिद्ध स्तंभ बनवाया था। यहाँ से गुप्त काल एवं कुषाण काल की महात्मा बुद्ध की अति सुंदर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

प्रश्न 6.
चार महान् दृश्य। (Four Major Sights.)
उत्तर-
सिद्धार्थ एक दिन अपने सारथि चन्न को लेकर महल से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक बूढ़े, एक रोगी, एक अर्थी तथा एक साधु को देखा। इन दृश्यों का सिद्धार्थ के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने जान लिया कि संसार दु:खों का घर है। इसलिए सिद्धार्थ ने घर त्याग देने का निश्चय किया। इस घटना को महान् त्याग कहा जाता है। उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी।

प्रश्न 7.
धर्म-चक्र प्रवर्तन। (Dharm-Chakra Pravartana.)
उत्तर-
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुंचे। यहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश अपने पुराने पाँच साथियों को दिया। वे बुद्ध के अनुयायी बन गए। इस समय महात्मा बुद्ध ने उन्हें चार महान् सत्य तथा अष्ट मार्ग की जानकारी दी। इस घटना को धर्म-चक्र प्रवर्तन कहा जाता है।

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ। (Teachings of Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का आधार चार महान् सत्य तथा अष्ट मार्ग हैं। वे आवागमन, कर्म सिद्धांत, अहिंसा, मनुष्य के परस्पर भ्रातृ-भाव में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। वे जाति प्रथा, यज्ञों, बलियों, वेदों, संस्कृत भाषा और घोर तपस्या में विश्वास नहीं रखते थे। वह परमात्मा संबंधी चुप रहे।

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध के कर्म सिद्धांत के बारे में क्या विचार थे ? (What were Lord Buddha’s views about Karma theory ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका विचार था कि मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता है। जैसे कर्म मनुष्य करेगा, उसे वैसा ही फल मिलेगा। हमें पिछले कर्मों का फल इस जन्म में मिला है और अब के कर्मों का फल अगले जन्म में मिलेगा। मनुष्य की परछाईं की तरह कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते।

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध के नैतिक संबंधी क्या विचार थे ? (What were Lord Buddha’s views about Morality ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध नैतिकता पर बहुत बल देते थे। उनके विचार से नैतिकता के बिना धर्म एक ढोंग मात्र रह जाता है। नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए महात्मा बुद्ध ने मनुष्यों को ये सिद्धांत अपनाने पर बल दिया—

  1. सदा सत्य बोलो।
  2. चोरी न करो।
  3. नशीले पदार्थों का सेवन न करो।
  4. स्त्रियों से दूर रहो।
  5. ऐश्वर्य के जीवन से दूर रहो।
  6. नृत्य-गान में रुचि न रखो।
  7. धन से दूर रहो।
  8. सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करो।
  9. झूठ न बोलो और
  10. किसी को कष्ट न पहुँचाओ।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध के ईश्वर के संबंध में विचार। (Lord Buddha’s .views about God.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व तथा उसकी सत्ता में विश्वास नहीं रखते थे। उनका कथन था कि संसार की रचना ईश्वर जैसी किसी शक्ति द्वारा नहीं की गई है परंतु वह यह आवश्यक मानते थे कि संसार के संचालन में कोई शक्ति अवश्य काम करती है। इस शक्ति को उन्होंने धर्म का नाम दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध इस संबंध में किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे।

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Nirvana in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। निर्वाण के कारण मनुष्य को सुख, आनंद और शांति की प्राप्ति हो सकती है। उसे आवागमन के चक्कर से सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है। यह सभी दुःखों का अंत है। इस स्थिति का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 13.
हीनयान। (Hinyana.)
उत्तर-
हीनयान बौद्ध धर्म का एक प्रमुख संप्रदाय था। हीनयान से अभिप्राय है छोटा चक्कर या छोटा रथ। इस संप्रदाय के लोग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध थे। वे मूर्ति पूजा के विरुद्ध थे। वे बौद्धिसत्व में विश्वास नहीं रखते थे। वे तर्क तथा अष्ट मार्ग में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपना प्रचार पाली भाषा में किया। इनके धार्मिक ग्रंथ भिन्न थे।

प्रश्न 14.
महायान। (Mahayana.)
उत्तर-
महायान बौद्ध धर्म का प्रमुख संप्रदाय था। महायान से अभिप्राय था बड़ा चक्कर या बड़ा रथ। इस संप्रदाय ने बुद्ध की शिक्षाओं में समय अनुसार परिवर्तन किये। वे मूर्ति पूजा और बौद्धिसत्व में विश्वास रखते थे। वे श्रद्धा पर अधिक बल देते थे। वे पाठ-पूजा को धर्म का आवश्यक अंग मानते थे। उन्होंने अपना प्रचार संस्कृत भाषा में किया। इनके धार्मिक ग्रंथ भिन्न थे।

प्रश्न 15.
प्रथम बौद्ध सभा। (First Buddhist Council.)
उत्तर-
प्रथम बौद्ध सभा का आयोजन 487 ई० पू० मगध के शासक अजातशत्रु द्वारा राजगृह में किया गया था। इसका उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणित उपदेशों को एकत्रित करना था। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसका नेतृत्व महाकश्यप ने किया। इसमें त्रिपिटक नाम के ग्रंथ लिखे गए। इस सभा में महात्मा बुद्ध के शिष्य आनंद पर लगाए गए आरोपों की जांच की गई तथा उसे निर्दोष घोषित किया गया।

प्रश्न 16.
दूसरी बौद्ध सभा। (Second Buddhist Council.)
उत्तर-
दूसरी बौद्ध सभा का आयोजन 387 ई० पू० में मगध के शासक कालाशौक ने वैशाली में किया था। इसका उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं में संघ के नियमों से संबंधित मतभेदों को दूर करना था। इस सभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इसके द्वारा अपनाए गए दस नियमों के कारण बौद्ध भिक्ष पूर्वी तथा पश्चिमी नाम के दो वर्गों में विभाजित हो गए। पूर्वी भारत के भिक्षु महासंघिक तथा पश्चिम भारत के भिक्षु थेरावादी कहलाए।

प्रश्न 17.
तीसरी बौद्ध सभा। (Third Buddhist Council.)
उत्तर-
तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन सम्राट अशोक ने 251 ई० पू० में पाटलिपुत्र में किया था। इसका उद्देश्य बुद्ध धर्म में आई कुरीतियों को दूर करना था। इसमें 1000 भिक्षुओं ने भाग लिया। इसका नेतृत्व मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किया था। उसने कथावथु नामक ग्रंथ तैयार किया था। इस सभा में बौद्ध प्रचारकों को विदेशों में भेजने का निर्णय किया गया। यह सभा बौद्ध धर्म में आई कुरीतियों को काफ़ी सीमा तक दूर करने में सफल रही।

प्रश्न 18.
चौथी बौद्ध सभा। (Fourth Buddhist Council.)
अथवा
चतुर्थ बोद्धी कौंसिल क्यों बुलाई गई ? (Why was the Fourth Buddhist Council convened ?)
उत्तर-
चौथी बौद्ध सभा का आयोजन सम्राट कनिष्क ने पहली सदी ई० में कश्मीर में किया था। इस सभा का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं के आपसी मतभेदों को दूर करना था। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। उसने महाविभाष नामक ग्रंथ तैयार किया था। इस सभा के उप-प्रधान अश्वघोष ने बुद्धचरित नाम के प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। इस सभा के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षुओं में व्याप्त न केवल आपसी मतभेद समाप्त हुए बल्कि यह मध्य एशिया के देशों में भी फैला।

प्रश्न 19.
बौद्ध धर्म में संघ से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you understand by Sangha in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को संगठित करने के लिए बौद्ध संघ की स्थापना की थी। प्रत्येक पुरुष या स्त्री, जिसकी आयु 15 वर्ष से अधिक हो बौद्ध संघ का सदस्य बन सकता था। अपराधियों, रोगियों, ऋणियों तथा दासों को सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। सदस्य बनने से पहले घर वालों से अनुमति लेना आवश्यक था। नए भिक्षु को संघ में प्रवेश के समय मुंडन करवा कर पीले वस्त्र धारण करने पड़ते थे और यह शपथ लेनी पड़ती थी “मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।” संघ के सदस्यों को कड़ा अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रत्येक सदस्य को इन नियमों का पालन करना आवश्यक था। संघ के सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते थे।

प्रश्न 20.
त्रिपिटक। (The Tripitakas.)
उत्तर-
बौद्धि साहित्य में त्रिपिटक नामक ग्रंथ को प्रमुख स्थान प्राप्त है। ये पाली भाषा में लिखे गए हैं। इन के नाम विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक हैं। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के प्रतिदिन जीवन से संबंधित नियमों का, सुत्तपिटक में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों तथा अभिधम्मपिटक में आध्यात्मिक विषयों का वर्णन किया गया है। त्रिपिटक से अभिप्राय तीन टोकरियों से है जिसमें ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था।

प्रश्न 21.
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए क्या यत्न किए ? (What steps were taken by Ashoka to spread Buddhism ?)
उत्तर-
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए इसको राज्य धर्म घोषित किया। उसने स्वयं इस धर्म को ग्रहण किया। बौद्ध धर्म से संबंधित महत्त्वपूर्ण स्थानों की यात्राएँ कीं। धर्म महामात्रों को नियुक्त किया। बौद्ध विहारों तथा स्तूपों का निर्माण करवाया। पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन किया गया। विदेशों में बौद्ध प्रचारक भेजें।

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प्रश्न 22.
बौद्ध धर्म के जन्म के क्या कारण थे ? (What were the reasons of origin of Buddhism ?)
उत्तर-
6वीं शताब्दी ई०पू० में भारत में बौद्ध धर्म के उद्भव का मुख्य कारण हिंदू धर्म में प्रचलित बुराइयाँ थीं। उत्तर वैदिक काल में ही हिंदू धर्म में यज्ञों एवं व्यर्थ के रीति-रिवाजों पर बल दिया जाने लगा था। इन यज्ञों में बड़ी संख्या में पुरोहित सम्मिलित होते थे। उन्हें काफ़ी दान देना पड़ता था। वास्तव में हिंदू धर्म इतना खर्चीला हो चुका था कि यह साधारण लोगों की समर्था से बाहर हो चुका था। ब्राह्मण वर्ग बहुत भ्रष्ट एवं लालची हो चुका था। वे साधारण लोगों को किसी-न-किसी बहाने मूर्ख बनाकर लूटने में लगे थे। हिंदुओं के सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में थे। अत: ये साधारण लोगों की समझ से बाहर थे। समाज में जाति प्रथा ने काफ़ी जटिल रूप धारण कर लिया था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। शूद्रों के साथ घोर अन्याय किया जाता था। परिणामस्वरूप वे किसी अन्य धर्म के पक्ष में अपना धर्म छोड़ने को तैयार हो गए। उस समय के अनेक शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना संरक्षण प्रदान किया। अतः यह धर्म तीव्रता से प्रगति करने लगा।

प्रश्न 23.
महात्मा बुद्ध पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Lord Buddha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध, बौद्ध मत के संस्थापक थे। उनका जन्म 566 ई० पू० कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी में हुआ। उनकी माता का नाम महामाया तथा पिता का नाम शुद्धोदन था। उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। वह बचपन से ही गंभीर स्वभाव के थे। वह एकांत में रहना अधिक पसंद करते थे। 16 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ की शादी एक सुंदर राजकुमारी से कर दी गई। उनके घर एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम राहुल रखा गया। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने घर त्याग दिया तथा वह सत्य की खोज में निकल पड़े। 35 वर्ष की आयु में उन्हें बोध गया में सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया। इस घटना को धर्म चक्र परिवर्तन कहा जाता है। महात्मा बुद्ध इसी तरह 45 वर्षों तक भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपने उपदेशों का प्रचार करते रहे। मगध, कौशल, कौशांबी, वैशाली तथा कपिलवस्तु उनके प्रचार के प्रसिद्ध केंद्र थे। महात्मा बुद्ध ने चार महान् सच्चाइयों, अष्ट मार्ग, अहिंसा, परस्पर भ्रातृत्व की भावना का प्रचार किया। वह यज्ञों, बलियों, जाति प्रथा तथा संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। महात्मा बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।

प्रश्न 24.
महात्मा बुद्ध ने कहाँ तथा कैसे ज्ञान प्राप्त किया ? (How and where the Buddha realised Great Enlightenment?)
उत्तर-
सिद्धार्थ ने गृह त्याग करने के पश्चात् सच्चे ज्ञान की खोज आरंभ कर दी। इस उद्देश्य से वह सर्वप्रथम मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे। यहाँ उन्होंने अरधकलाम तथा उद्रक रामपुत्र नामक दो प्रसिद्ध विद्वानों से ज्ञान के संबंध में शिक्षा प्राप्त की किंतु उनके मन को संतुष्टि न हुई। अतः सिद्धार्थ ने राजगृह छोड़ दिया। वह अनेक वनों तथा दुर्गम पहाडियों को लांघ कर गया के समीप उरुवेला वन में पहुँचे। यहाँ सिद्धार्थ की मुलाकात पाँच ब्राह्मण साधुओं से हुई। इन ब्राह्मणों के कहने पर सिद्धार्थ ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। छः वर्षों की तपस्या के परिणामस्वरूप उनका शरीर सूख कर काँटा हो गया। यहाँ तक कि उनमें दो-चार पग चलने की भी शक्ति न रही। इसके बावजूद उन्हें वांछित ज्ञान नहीं मिल सका। वह इस परिणाम पर पहुँचे कि शरीर को अत्यधिक कष्ट देना निरर्थक है। अतः उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगा ली तथा यह प्रण किया कि जब तक उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं होगा वह वहाँ से नहीं उठेंगे। आठवें दिन वैशाख की पूर्णिमा को सिद्धार्थ को सच्चे ज्ञान को प्राप्ति हुई। अत: सिद्धार्थ को बुद्ध (जागृत) तथागत (जिसने सत्य को पा लिया हो) भी कहा जाने लगा। जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे महाबौद्धि वृक्ष तथा गया को बौद्ध गया कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु 35 वर्ष थी।

प्रश्न 25.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। , Discuss briefly the teachings of Lord Buddha.)
अथवा
बौद्ध धर्म की कोई पाँच शिक्षाएँ लिखें।
(Write any five teachings of Buddhism.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ बिल्कुल सरल तथा स्पष्ट थीं। उनकी शिक्षाओं का आधार चार महान् सत्य हैं—

  1. संसार दुःखों का घर है।
  2. इन दुःखों का कारण मनुष्य की इच्छाएँ हैं।
  3. इन इच्छाओं को त्यागने से मनुष्य के दुःखों का अंत हो सकता है।
  4. इच्छाओं का अंत अष्ट मार्ग पर चलकर किया जा सकता है।

वह अंहिसा में विश्वास रखते थे। वह कर्म सिद्धांत तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। उनका कथन था मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। कर्म परछाईं की तरह मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने आपसी भाईचारे की भावना का प्रचार किया। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा की जा रही लूट-खसूट का विरोध किया। उनके अनुसार मनुष्य यज्ञों और बलि देने से निर्वाण (मुक्ति) की प्राप्ति नहीं कर सकता। वह वेदों और संस्कृत भाषा की पवित्रता में विश्वास नहीं रखते थे। वह कठोर तपस्या के पक्ष में नहीं थे। वह परमात्मा के अस्तित्व के बारे में मौन रहे। उनके अनुसार मानव जीवन का परम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है।

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म के तीन लक्षणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Three Marks in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में तीन लक्षणों वाला सिद्धांत भी सम्मिलित है। ये तीन लक्षण हैं—

  1. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ स्थायी नहीं (अनित) हैं।
  2. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ दुःख ग्रस्त हैं।
  3. सभी प्रतिबंधित वस्तुएँ आत्मन नहीं अनात्म हैं। यह हमारे रोज़ाना जीवन में आने वाले अनुभव हैं।

महात्मा बुद्ध के अनुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक वस्तु का अंत निश्चित है। भाव वह अग्नि (अस्थिर) है। जो अस्थिर है वह दुःखी भी है। मनुष्य का जन्म, बीमारी तथा मृत्यु आदि सभी दुःख के कारण हैं। मनुष्य के जीवन में कुछ खुशी के पल ज़रूर आते हैं किंतु इनका समय बहुत अल्प होता है। अनात्म से भाव है स्वयं का न होना। सभी कुछ जो अस्थिर है वह मेरा नहीं है।

प्रश्न 27.
पंचशील पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Panchshila.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक गृहस्थी को पाँच सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक बताया है। यह पाँच नियम ये हैं:—

  1. छोटे-से-छोटे जीव की भी हत्या न करो।
  2. मुक्त हृदय से दान दो एवं लो। किंतु लालच तथा धोखे से किसी की वस्तु न लो।
  3. झूठी गवाही न दो, किसी की निंदा न करो तथा न ही झूठ बोलो।
  4. नशीली वस्तुओं से बचें क्योंकि यह आपकी अक्ल पर पर्दा डालती हैं।
  5. किसी के लिए भी बुरे विचार दिल में न लाएँ। शरीर को अयोग्य पापों से बचाएँ। बौद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले भिक्षओं एवं भिक्षणिओं को पाँच अन्य नियमों का पालन करने का आदेश दिया गया है।

ये पाँच नियम हैं—

  1. समय पर भोजन खाएँ
  2. नाच-गानों आदि से दूर रहें
  3. नर्म बिस्तरों पर न सोएँ
  4. हार-श्रृंगार तथा सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग न करें।
  5. सोने एवं चाँदी के चक्करों में न पड़ें।

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म में चार असीम सद्गुणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Four Unlimited Virtues in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध ने चार सामाजिक सद्गुणों पर विशेष बल दिया। ये गुण हैं-मित्र भावना, दया, हमदर्दी भरी प्रसन्नता एवं निरपेक्षता। ये हमारे व्यवहार का अन्य मनुष्यों के साथ तालमेल करते हैं। मित्र भावना से भाव दूसरों की सहायता करना है। यह आपसी ईर्ष्या का अंत करती है। मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए। दया हमें अन्य के दु:ख के समय साथ देने की प्रेरणा देती है। हमदर्दी भरी प्रसन्नता एक ऐसा गुण है जो मनुष्य को अन्य की प्रसन्नता में सम्मिलित होने के योग्य बनाती है। जिस व्यक्ति में यह गुण होता है वह किसी अन्य की प्रसन्नता से ईर्ष्या नहीं करता। निरपेक्षता की भावना रखने वाला व्यक्ति लालच एवं अन्य कुविचारों से दूर रहता है। वह सभी मनुष्यों को समान समझता है। वास्तव में यह चार असीम सद्गुण बौद्ध धर्म के नैतिक नियमों की नींव हैं।

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प्रश्न 29.
बौद्ध संघ पर एक नोट लिखें। (Write a note on Buddhist Sangha.)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित किए गए संघों में कोई भी पुरुष या स्त्री जिसकी आयु 15 वर्षों से कम न हो इसका सदस्य बन सकता था। सदस्य बनने के लिए उनको घर वालों से आज्ञा लेनी पड़ती थी। किसी भी जाति से संबंधित व्यक्ति संघ का सदस्य बन सकता था, परंतु अपराधियों, रोगियों और दासों को सदस्य नहीं बनाया जाता था। संघ में प्रवेश के समय नए भिक्षु के लिए मुंडन संस्कार करना, तीन पीले कपड़े पहनने और इन शब्दों का उच्चारण करना अनिवार्य था-

  • मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
  • मैं ‘धम्म’ की शरण लेता हूँ।
  • मैं संघ की शरण लेता हूँ। इसके पश्चात् प्रत्येक भिक्षु को 10 आदेशों की पालना करनी पड़ती थी। उसको 10 वर्षों तक किसी भिक्षु से शिक्षा लेनी पड़ती थी। यदि वह अपने नियमों को पूरा करने में सफल हो जाता था तो उसको संघ का सदस्य बना लिया जाता था। नियम का पालन न करने वाले भिक्षुओं को संघ से निकाल दिया जाता था। संघ की सारी कारवाई लोकतंत्रीय नियमों पर आधारित थी।

प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म में निर्वाण पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the Nirvana in Buddhism.)
अथवा
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
(What is meant by Nirvana in Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करने से है। बौद्ध धर्म में निर्वाण संबंधी यह विचार दिया गया है कि यह न जीवन है तथा न मृत्यु। यह कोई स्वर्ग नहीं जहाँ देवते आनंदित हों। इसे शाँति एवं सदैव प्रसन्नता का स्रोत कहा गया है। यह सभी दुःखों, लालसाओं एवं इच्छाओं का अंत है। इसकी वास्तविकता पूरी तरह काल्पनिक है। इसका वर्णन संभव नहीं। निर्वाण की वास्तविकता तथा इसका अर्थ जानने के लिए उसकी प्राप्ति आवश्यक है। जो इस सच्चाई को जानते हैं वे इस संबंध में बातें नहीं करते तथा जो इस संबंध में बातें करते हैं उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं होती। महात्मा बुद्ध के अनुसार अष्ट मार्ग पर चल कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जहाँ अन्य धर्मों में निर्वाण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है वहाँ बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में भी संभव है।

प्रश्न 31.
हीनयान एवं महायान पर एक नोट लिखें। (Write a note on Hinayana and Mahayana.)
अथवा
बौद्ध धर्म के हीनयान तथा महायान के बारे में जानकारी दें।
(Describe the sect Hinayana and Mahayana of Buddhism.)
उत्तर-
कनिष्क के शासनकाल में प्रथम शताब्दी ई० में जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा आयोजित की गई थी। इस महासभा में हीनयान एवं महायान नामक दो नए बौद्ध संप्रदाय अस्तित्व में आए। यान का शाब्दिक अर्थ था मुक्ति प्राप्ति का ढंग। हीनयान से अभिप्राय था छोटा यान। महायान से अभिप्राय था बड़ा यान। हीनयान वालों ने बौद्ध धर्म के परंपरावादी नियमों के समर्थन को जारी रखा, जबकि महायान वालों ने नए सिद्धांतों को अपनाया। हीनयान तथा महायान के मध्य मुख्य अंतर निम्नलिखित थे—

  1. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध को एक पवित्र आत्मा समझते थे, जबकि महायान संप्रदाय उन्हें ईश्वर का एक रूप समझते थे।
  2. हीनयान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं था।
  3. हीनयान बोधिसत्त्वों में विश्वास नहीं रखते थे। महायान संप्रदाय बोधिसत्त्वों में पूर्ण विश्वास रखते थे। बोधिसत्त्व वे महान् व्यक्ति थे जो निर्वाण प्राप्ति में दूसरों की सहायता के उद्देश्यों से बार-बार जन्म लेते थे।
  4. हीनयान संप्रदाय ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया जोकि जन-साधारण की भाषा थी। महायान संप्रदाय ने संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
  5. हीनयान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करना है, जबकि महायान संप्रदाय के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य स्वर्ग को प्राप्त करना है।
  6. हीनयान संप्रदाय महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरुद्ध था, जबकि महायान संप्रदाय ने समय के अनुसार बौद्ध धर्म के नियमों में परिवर्तन किए। अत: हीनयान संप्रदाय की अपेक्षा महायान संप्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ।

प्रश्न 32.
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Vajrayana sect of Buddhism ?)
उत्तर-
8वीं शताब्दी में बंगाल तथा बिहार में बौद्ध धर्म का एक नया संप्रदाय अस्तित्व में आया। यह संप्रदाय जादू-टोनों तथा मंत्रों से जुड़ा हुआ था। इस संप्रदाय का विचार था कि जादू की शक्तियों से मुक्ति की प्राप्ति की जा सकती है। इन जादुई शक्तियों को वज्र कहा जाता था। इसलिए इस संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ गया। इस संप्रदाय में सभी जातियों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हो सकते थे। इस संप्रदाय में देवियों का महत्त्व बहुत बढ़ गया था। समझा जाता था कि इन देवियों द्वारा बोधिसत्त्व तक पहुँचा जा सकता है। इन देवियों को तारा कहा जाता था। ‘महानिर्वाण तंत्र’ वज्रयान की प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक थी। वज्रयान की धार्मिक पद्धति को तांत्रिक भी कहते हैं। बिहार राज्य में वज्रयान का सबसे महत्त्वपूर्ण विहार विक्रमशिला में स्थित है। वज्रयान शाखा ने अपने अनुयायियों को मादक पदार्थों का सेवन करने, माँस भक्षण तथा स्त्रीगमन की अनुमति देकर बौद्ध धर्म के पतन का डंका बजा दिया।

प्रश्न 33.
बौद्ध स्त्रोत। (Buddhist Sources.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य की तरह बौद्ध साहित्य भी काफी विस्तृत है। बौद्ध साहित्य की रचना पालि तथा संस्कृत भाषाओं में की गई है। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ये बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। त्रिपिटकों के नाम सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों, विनयपिटक में भिक्षु-भिक्षुणियों से संबंधित नियमों तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन के संबंध में जानकारी दी गई है। जातक कथाएँ जिनकी संख्या 549 है, में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों का वर्णन किया गया है। इनमें हमें ईसा पूर्व तीसरी सदी से दूसरी सदी तक की भारतीय समाज की धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। मिलिंदपन्हों नामक ग्रंथ से हमें यूनानी शासक मीनांदर के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। कथावथु जिसकी रचना मोग्गलीपुत्त तिम्स ने की थी में राजा अशोक पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। बुद्धचरित सौंदरानंद वथा महाविभाष से हमें कुषाण वंश की जानकारी प्राप्त होती है। दीपवंश एवं महावंश भारत के श्रीलंका के साथ संबंधों पर प्रकाश डालते हैं।

प्रश्न 34.
त्रिपिटक क्या हैं ? इनका ऐतिहासिक महत्त्व क्या है ? (What are Tripitakas ? What is their historical importance ?)
अथवा
त्रिपिटक क्या हैं ?
(What are Tripitakas ?)
उत्तर-
त्रिपिटक बौद्ध धर्म में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। पिटक का अर्थ है ‘टोकरी’ जिसमें इन ग्रंथों को संभाल कर रखा जाता था। त्रिपिटकों के नाम सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक हैं। ये पालि भाषा में लिखित हैं। सुत्तपिटक को पिटकों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें महात्मा बुद्ध के उपदेशों का वर्णन किया गया है। यह पाँच भागों दीर्घ निकाय, मझिम निकाय, संपुत निकाय, अंगतुर निकाय तथा खुदक निकाय में विभाजित है। खुदक निकाय में धम्मपद का वर्णन किया गया है। धम्मपद का बौद्ध भिक्षु उसी प्रकार रोजाना पाठ करते हैं जैसे सिख जपुजी साहिब का तथा हिंदू गीता का। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के आचरण से संबंधित नियम दिए गए हैं। इसमें इस बात का भी वर्णन किया गया है कि बौद्ध भिक्षुओं के लिए कौन-सी वस्तुएँ पाप हैं तथा उनका प्रायश्चित किस प्रकार किया जा सकता है। अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन के संबंध में जानकारी दी गई है। त्रिपिटकों के अध्ययन से हमें केवल बौद्ध धर्म के संबंध में ही नहीं अपितु तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में संबंध के भी काफी मूल्यवान् जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 35.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the First Great Council of Buddhism ?)
उत्तर-
महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के शीघ्र पश्चात् ही 487 ई० पू० राजगृह में बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम महासभा का आयोजन किया गया। राजगृह मगध के शासक अजातशत्रु की राजधानी थी। अजातशत्रु के संरक्षण में ही इस महासभा का आयोजन किया गया था। इस महासभा की आयोजित करने का उद्देश्य महात्मा बुद्ध के प्रमाणिक उपदेशों को एकत्र करना था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता महाकश्यप ने की थी। इस महासभा में त्रिपिटकों-विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक की रचना की गई। विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं संबंधी नियम, सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेश तथा अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का वर्णन किया गया है। त्रिपिटकों के अतिरिक्त आरोपों की छानबीन करके महात्मा बुद्ध के परम शिष्य आनंद को दोष मुक्त कर दिया गया जबकि सारथी चन्न को उसके उदंड व्यवहार के कारण दंडित किया गया।

प्रश्न 36.
दूसरी बौद्ध महासभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on the Second Great Council of Buddhism.)
उत्तर-
प्रथम महासभा के ठीक 100 वर्षों के पश्चात् 387 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया। इस महासभा का आयोजन मगध शासक कालाशोक ने किया था। इस महासभा में 700 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता सभाकामी ने की थी। इस सभा का आयोजन करने का कारण यह था कि बौद्ध संघ में संबंधित दस नियमों ने भिक्षुओं में मतभेद उत्पन्न कर दिए थे। इन नियमों के संबंध में काफी दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा, किंतु भिक्षुओं के मतभेद दूर न हो सके। परिणामस्वरूप बौद्ध भिक्षु दो संप्रदायों में बंट गए। इनके नाम स्थविरवादी अथवा थेरावादी एवं महासंघिक थे। स्थविरवादी नवीन नियमों के विरुद्ध थे। वे बुद्ध के नियमों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। महासंघिक परंपरावादी नियमों में कुछ परिवर्तन करना चाहते थे ताकि बौद्ध संघ के अनुशासन की कठोरता को कुछ कम किया जा सके। इस महासभा में स्थविरवादियों की विजय हुई तथा महासंघिक भिक्षुओं को निकाल दिया गया।

प्रश्न 37.
तीसरी बौद्ध महासभा पर एक संक्षिप्त नोट लिखिए। (Write a short note on Third Buddhist Council.)
उत्तर-
दूसरी महासभा के आयोजन के बाद बौद्ध धर्म 18 शाखाओं में विभाजित हो गया था। इनके आपसी मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म की उन्नति को गहरा धक्का लगा। बौद्ध धर्म की पुनः प्रगति के लिए तथा इस धर्म में आई कुप्रथाओं को दूर करने के उद्देश्य से महाराजा अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में 251 ई० पू० में बौद्ध भिक्षुओं की तीसरी महासभा का आयोजन किया। इस महासभा में 1000 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया। इस महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। यह महासभा 9 माह तक चलती रही। यह महासभा बौद्ध धर्म में आईं अनेक कुप्रथाओं को दूर करने में काफी सीमा तक सफल रही। इस महासभा से थेरावादी भिक्षुओं के सिद्धांतों को न मानने वाले भिक्षुओं को निकाल दिया गया था। इस महासभा में कथावथु नामक ग्रंथ की रचना की गई। इस महासभा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय विदेशों में बौद्ध प्रचारकों को भेजना था।

प्रश्न 38.
चौथी बौद्ध महासभा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Fourth Great Council ?)
उत्तर-
महाराजा अशोक की मृत्यु के पश्चात् बौद्ध भिक्षुओं के मतभेद पुन: बढ़ गए थे। इन मतभेदों को दूर करने के उद्देश्य से कुषाण शासक कनिष्क ने जालंधर में बौद्ध भिक्षुओं की चौथी महासभा का आयोजन प्रथम शताब्दी ई० में किया गया था। इस महासभा में 500 बौद्ध भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। वसुमित्र ने महाविभाष नामक ग्रंथ की रचना की जिसे बौद्ध धर्म का विश्वकोष कहा जाता है। इस महासभा में सम्मिलित एक अन्य विद्वान् अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का वर्णन किया गया है। इस महासभा में मतभेदों के कारण बौद्ध धर्म दो प्रमुख संप्रदायों हीनयान तथा महायान में विभाजित हो गया। कनिष्क ने महायान संप्रदाय का समर्थन किया।

प्रश्न 39.
बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अशोक ने क्या प्रयास किए ? (What steps were taken by Ashoka for the spread of Buddhism ?)
उत्तर-
अशोक ने बौद्ध धर्म को फैलाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उससे पहले बौद्ध मत बहुत ही कम लोगों तक सीमित था। अशोक ने इस धर्म को अपनाकर इसमें एक नई रूह फूंक दी। उसने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से इसे राज्य धर्म घोषित किया। इसका सारे राज्य भर में व्यापक प्रचार किया गया। बौद्ध
धर्म के प्रचार के लिए महामात्रों को नियुक्त किया गया। अशोक ने बौद्ध धर्म से संबंधित तीर्थ स्थानों की यात्राएँ की। समस्त राज्य में बौद्ध विहार तथा स्तूप बनवाए। पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा बुलाई। विदेशों में बौद्ध धर्म के लिए धर्म प्रचारकों को भेजा। श्रीलंका में अशोक का अपना पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा गए थे। अशोक के इन अथक यत्नों से बौद्ध धर्म संसार का एक महान् धर्म बन गया।

प्रश्न 40.
बौद्ध धर्म की भारतीय संस्कृति को क्या देन है ?
(What is the legacy of Buddhism to Indian Civilization ?)
उत्तर-
भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। समाज में एकता लाने के लिए महात्मा बुद्ध ने प्रत्येक जाति के लोगों को अपने धर्म में सम्मिलित होने की अनुमति दी। स्त्रियों को बौद्ध धर्म में सम्मिलित करके उन्हें एक नया सम्मान दिया। उन्होंने लोगों को व्यर्थ के रीति-रिवाजों को त्यागने और सादा जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया। महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघों की स्थापना करके लोकतंत्र प्रणाली की नींव रखी। इन के सदस्य लोगों द्वारा गुप्त मतदान से चुने जाते थे। इनमें निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। बौद्ध धर्म की भवन निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला के क्षेत्रों में बहुत महान् देन है। गंधार, मथुरा और अमरावती महात्मा बुद्ध की सुंदर मूर्तियों के कारण आज भी प्रसिद्ध हैं। बौद्ध मत के बारे में लिखे गए धार्मिक ग्रंथों से हमें उस समय की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर कई राजाओं अशोक, कनिष्क और हर्ष आदि ने लोक कल्याण के अथक कार्य किए। बौद्ध धर्म के कारण भारत के विदेशों से मित्रतापूर्वक संबंध स्थापित हुए।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 41.
स्तूप पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Stupa.)
उत्तर-
स्तूप बुद्ध के परिनिर्वाण (मुक्ति) के चिन्ह थे। यह एक अर्द्ध-गोलाकार गंबद होता था जिसके मध्य में स्थित एक छोटे-से कमरे में बुद्ध के अवशेष रखे जाते थे। कला के पक्ष से इन स्तूपों का बहुत महत्त्व था। अमरावती का स्तूप जोकि तमिलनाडु राज्य में है साँची एवं भरहुत के स्तूप जो मध्य प्रदेश में हैं, की उत्तम कला को देखकर व्यक्ति चकित रह जाता है। स्तूपों पर की गई नक्काशी की कला भी कम प्रभावशाली नहीं है। लकड़ी पर की गई नक्काशी के नमूने तो बहुत देर तक सुरक्षित न रह सके, परंतु अमरावती और साँची की पत्थर से बनी हुई दीवारों पर की गई सुंदर नक्काशी को आज भी देखा जा सकता है। इन पर बुद्ध के जन्म, गृह-त्याग, ज्ञान प्राप्ति, धर्म चक्कर परिवर्तन का पहला प्रवचन और महापरिनिर्वाण से संबंधित चित्रों को बड़े आकर्षक ढंग से दर्शाया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म का संस्थापक कौन था ?
अथवा
बौद्ध धर्म के बानी कौन थे ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध।

प्रश्न 2.
बौद्ध धर्म कितने वर्ष पुराना है ?
उत्तर-
2500 वर्ष।

प्रश्न 3.
बौद्ध धर्म का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
छठी शताब्दी ई० पू० में।

प्रश्न 4.
बौद्ध धर्म के उत्थान का कोई एक कारण लिखो।
उत्तर-
हिंदू धर्म की जटिलता।

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
566 ई० पू० में।

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर-
लुंबिनी में।

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म 566 ई० पू० में लुंबिनी में हुआ।

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध के पिता जी का नाम बताएँ।
अथवा
महात्मा बुद्ध के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
शुद्धोधन।

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध के पिता जी किस गणराज्य के मुखिया थे ?
उत्तर-
शाक्य गणराज्य।

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध की माता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
महामाया।

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध के जन्म के कितने दिनों के बाद उनकी माता जी की मृत्यु हो गई थी ?
उत्तर-
7 दिन।

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प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध का पालन किसने किया था ?
उत्तर-
प्रजापति गौतमी ने।

प्रश्न 13.
महात्मा बुद्ध का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
सिद्धार्थ।

प्रश्न 14.
महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान और बचपन का नाम क्या था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ तथा उनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

प्रश्न 15.
महात्मा बुद्ध का विवाह किसके साथ हुआ था ?
उत्तर-
यशोधरा के साथ।

प्रश्न 16.
महात्मा बुद्ध के पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
राहुल।

प्रश्न 17.
महात्मा बुद्ध की पत्नी तथा पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम यशोधरा और पुत्र का नाम राहुल था।

प्रश्न 18.
महात्मा बुद्ध के रथवान का क्या नाम था ?
उत्तर-
चन्न।

प्रश्न 19.
महात्मा बुद्ध के जीवन पर कितने दृश्यों का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-
चार दृश्यों का।

प्रश्न 20.
महान् त्याग के समय महात्मा बुद्ध की आयु क्या थी ?
उत्तर-
29 वर्ष।

प्रश्न 21.
महात्मा बुद्ध ने गृह त्याग के पश्चात् किसे अपना प्रथम गुरु धारण किया ?
उत्तर-
अरध कलाम को।

प्रश्न 22.
महात्मा बुद्ध को सत्य की प्राप्ति किस स्थान पर हुई ?
उत्तर-
बोध गया में।

प्रश्न 23.
ज्ञान प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु क्या थी ?
उत्तर-
35 वर्ष।

प्रश्न 24.
तथागत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
तथागत से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जिसने सत्य को प्राप्त कर लिया हो।

प्रश्न 25.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन किस स्थान पर दिया था ?
उत्तर-
सारनाथ में।

प्रश्न 26.
धर्मचक्र परिवर्तन किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर-
सारनाथ में।

प्रश्न 27.
धर्मचक्र परिवर्तन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
महात्मा बुद्ध द्वारा पाँच साथियों को बौद्ध धर्म में सम्मिलित करने की घटना को धर्मचक्र परिवर्तन कहा जाता है।

प्रश्न 28.
महात्मा बुद्ध के किन्हीं दो प्रसिद्ध प्रचार केंद्रों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. मगध
  2. वैशाली।

प्रश्न 29.
मगध के किन दो शासकों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया था?
उत्तर-

  1. बिंबिसार
  2. अजातशत्रु।

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प्रश्न 30.
महात्मा बुद्ध ने कहाँ निर्वाण प्राप्त किया था ?
उत्तर-
कुशीनगर में।

प्रश्न 31.
महात्मा बुद्ध की निर्वाण प्राप्ति के समय आयु कितनी थी ?
उत्तर-
80 वर्ष।

प्रश्न 32.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार किस भाषा में किया ?
उत्तर–
पालि भाषा में।

प्रश्न 33.
बौद्ध धर्म कितने महान् सत्यों में विश्वास रखता है ?
उत्तर-
चार।

प्रश्न 34.
बौद्ध धर्म के किसी एक महान् सत्य के बारे में बताएँ।
उत्तर-
संसार दुखों से भरा हुआ है।

प्रश्न 35.
बौद्ध धर्म में कितने लक्षणों का वर्णन किया गया है?
उत्तर-
तीन।

प्रश्न 36.
बौद्ध धर्म में गृहस्थियों के लिए किस सिद्धांत का पालन आवश्यक बताया है ?
उत्तर-
पंचशील की।

प्रश्न 37.
पंचशील को किस अन्य नाम से भी जाना जाता है ?
उत्तर-
शिक्षापद के नाम से।

प्रश्न 38.
पंचशील के किसी एक सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर-
छोट-से-छोटे जीव की भी हत्या न करें।

प्रश्न 39.
बौद्ध धर्म में कितने असीम सद्गुणों की पालना करने को कहा गया है ?
उत्तर-
चार असीम सद्गुणों की।

प्रश्न 40.
बौद्ध धर्म के किसी एक असीम सद्गुण का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
मनुष्य को अपने दुश्मनों के साथ भी प्यार करना चाहिए।

प्रश्न 41.
बौद्ध धर्म में निर्वाण से क्या भाव है ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म में निर्वाण से भाव उस दशा से है जहाँ मनुष्य के सभी दुखों का अंत हो जाता है।

प्रश्न 42.
बौद्ध संघ में प्रवेश के समय भिक्षु को क्या शपथ लेनी पड़ती थी ?
उत्तर-
“मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ, मैं धर्म की शरण लेता हूँ, मैं संघ की शरण लेता हूँ।”

प्रश्न 43.
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने के लिए किसी व्यक्ति के लिए कम-से-कम कितनी आयु निश्चित की गई थी ?
उत्तर-
15 वर्ष।

प्रश्न 44.
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों के लिए कितने नियमों का पालन आवश्यक था ?
उत्तर-
10 नियमों का।

प्रश्न 45.
बौद्ध संघ में किनको शामिल नहीं किया जाता था ?
उत्तर-
बौद्ध संघ में अपराधियों, रोगियों तथा दासों को शामिल नहीं किया जाता था।

प्रश्न 46.
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदायों के नाम लिखें।
अथवा
बौद्ध धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय कौन-कौन से हैं ?
अथवा
बुद्ध धर्म कौन-सी दो शाखाओं में बाँटा गया था ?
उत्तर-
हीनयान तथा महायान।

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प्रश्न 47.
हीनयान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हीनयान से अभिप्राय है छोटा चक्कर।

प्रश्न 48.
महायान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
महायान से अभिप्राय है बड़ा चक्कर।

प्रश्न 49.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा किस सम्राट के शासन काल में अस्तित्व में आई ?
उत्तर-
कनिष्क के शासन काल में।

प्रश्न 50.
बौद्ध धर्म के त्रिपिटकों के नाम बताएँ।
उत्तर-
सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक।

प्रश्न 51.
त्रिपिटक किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर–
पालि भाषा में।

प्रश्न 52.
किस पिटक में बुद्ध के उपदेशों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
सुत्तपिटक में।

प्रश्न 53.
किस पिटक में बौद्ध संघ के नियमों पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर-
विनयपिटक में।

प्रश्न 54.
अभिधम्मपिटक का मुख्य विषय क्या है ?
उत्तर-
बौद्ध दर्शन।

प्रश्न 55.
जातक क्या है ?
उत्तर-
जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ दी गई हैं।

प्रश्न 56.
जातकों की कुल संख्या कितनी है ?
उत्तर-
549.

प्रश्न 57.
पातीमोख क्या है ?
उत्तर-
इसमें विनयपिटक में वर्णित नियमों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

प्रश्न 58.
बौद्ध धर्म के किस ग्रंथ को बौद्ध गीता कहा जाता है ?
उत्तर-
धम्मपद ग्रंथ को।

प्रश्न 59.
किस बौद्ध ग्रंथ में नागसेन एवं यूनानी शासक मिनांदर के वार्तालाप का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-
मिलिंदपन्हो में।

प्रश्न 60.
बौद्ध धर्म से संबंधित श्रीलंका में किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की गई ?
उत्तर-
दीपवंश।

प्रश्न 61.
पालि भाषा में लिखे गए किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम लिखें।
उत्तर-
त्रिपिटक।

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प्रश्न 62.
संस्कृत भाषा में लिखे गए किसी एक प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम लिखें।
उत्तर-
बुद्धचरित।

प्रश्न 63.
बुद्धचरित का लेखक कौन था ?
उत्तर-
अश्वघोष।

प्रश्न 64.
नागार्जुन ने किस बौद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
मध्यमकसूत्र।

प्रश्न 65.
किसी एक प्रसिद्ध अवदान पुस्तक का नाम लिखें।
उत्तर-
दिव्यावदान।

प्रश्न 66.
शिक्षा सम्मुचय का लेखक कौन था ?
उत्तर-
शाँति देव।

प्रश्न 67.
प्रथम बौद्ध महासभा कब आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
487 ई० पू० में।

प्रश्न 68.
प्रथम बौद्ध महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
राजगृह में।

प्रश्न 69.
प्रथम बौद्ध महासभा का अध्यक्ष कौन था ?
उत्तर-
महाकश्यप।

प्रश्न 70.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा किस शासक ने आयोजित की थी ?
उत्तर-
अजातशत्रु ने।

प्रश्न 71.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा में कौन-से ग्रंथ तैयार किए गए थे ?
उत्तर-
त्रिपिटक।

प्रश्न 72.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा कब आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
387 ई० पू० में।

प्रश्न 73.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा कहाँ आयोजित की गई थी ?
उत्तर-
वैशाली में।

प्रश्न 74.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा में कौन-से दो संप्रदाय अस्तित्व में आए ?
उत्तर-
महासंघिक तथा थेरावादी।

प्रश्न 75.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
पाटलिपुत्र में।

प्रश्न 76.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
उत्तर-
251 ई० पू० में।

प्रश्न 77.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
उत्तर-
मोग्गलिपुत्त तिस्स ने।

प्रश्न 78.
मोग्गलिपुत्त तिस्स ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
कथावथु नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की।

प्रश्न 79.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन किस शासक ने किया था ?
उत्तर-
कनिष्क ने।

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प्रश्न 80.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
जालंधर में।

प्रश्न 81.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
उत्तर-
वसुमित्र ने।

प्रश्न 82.
वसुमित्र ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ?
उत्तर-
महाविभास नामक ग्रंथ की।

प्रश्न 83.
बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
बोधिसत्त्व किसको कहते हैं ? ।
उत्तर-
बोधिसत्त्व से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जो लोगों की भलाई के लिए बार-बार जन्म लेता है।

प्रश्न 84.
बौद्ध धर्म का प्रचार कौन-से राजा ने किया ?
उत्तर-
बौद्ध धर्म का प्रचार राजा अशोक ने किया।

प्रश्न 85.
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए क्या किया ? कोई एक बिंदु दें।
उत्तर-
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित किया।

प्रश्न 86.
महाराजा अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किसे श्रीलंका भेजा ?
उत्तर-
अपनी पुत्री संघमित्रा एवं पत्र महेंद्र को।

प्रश्न 87.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किस शासक ने किया था ?
अथवा
बौद्ध धर्म की किस राजा ने सरपरस्ती की ?
उत्तर-
महाराजा अशोक ने।

प्रश्न 88.
कौन-से दो राजाओं ने बौद्ध धर्म का विकास किया ?
उत्तर-
महाराजा अशोक और महाराजा कनिष्क।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध का जन्म ………… में हुआ।
उत्तर-
566 ई०पू०

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म …………में हुआ।
उत्तर-
लुंबिनी

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध के पिता का नाम ……….. था।
उत्तर-
शुद्धोधन

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध की माता का नाम ………… था।
उत्तर-
महामाया

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम …………. था।
उत्तर-
सिद्धार्थ

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम ………… था।
उत्तर-
यशोधरा

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध के गृह त्याग के समय उनकी आयु ……….. थी।
उत्तर-
29 वर्ष

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति ……….. में हुई।
उत्तर-
बौद्ध गया

प्रश्न 9.
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश ………. में दिया।
उत्तर-
सारनाथ

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध ने महापरिनिर्वाण ……….. में प्राप्त किया था।
उत्तर-
कुशीनगर

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प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध ने ……….. में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
486 ई० पू०

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ………… महान् सच्चाइयों में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
चार

प्रश्न 13.
अष्ट मार्ग को ………… मार्ग भी कहा जाता है।
उत्तर-
मध्य

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म …………… लक्षणों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
तीन

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म ………….. नियमों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
पाँच

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म ………… सामाजिक सद्गुणों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
चार

प्रश्न 17.
बौद्ध संघ में शामिल होने के लिए कम से कम आयु ………… वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तर-
15

प्रश्न 18.
बौद्ध संघ के सदस्यों को ………….. नियमों की पालना करनी पड़ती है।
उत्तर-
10

प्रश्न 19.
………. के समय बौद्ध धर्म की महायान शाखा का जन्म हुआ।
उत्तर-
निष्क

प्रश्न 20.
………….. में बौद्धी भिक्षुओं और भिक्षुणियों के दैनिक जीवन संबंधी नियमों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-
विनयपिटक

प्रश्न 21.
जातक कथाओं की कुल संख्या ……….. है।
उत्तर-
549

प्रश्न 22.
……….. नामक ग्रंथ की रचना श्री लंका में की गई थी।
उत्तर-
दीपवंश

प्रश्न 23.
बौद्ध चरित्र का लेखक ……… था।
उत्तर-
अश्वघोष

प्रश्न 24.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन …………. में किया गया।
उत्तर-
487 ई० पू०

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन ………… ने किया था।
उत्तर-
अजातशत्रु

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन …………. में हुआ था।
उत्तर-
वैशाली

प्रश्न 27.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन ……….. में किया गया था।
उत्तर-
पाटलिपुत्र

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा का आयोजन ………….. ने किया था।
उत्तर-
कनिष्क

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए महाराजा अशोक ने अपनी पुत्री ……….. को श्री लंका भेजा था।
उत्तर-

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नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म 546 ई० पू० में हुआ।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध की पत्नी का नाम महामाया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध के जीवन में चार महान् दृश्यों का गहरा प्रभाव पड़ा।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध के महान् त्याग के समय उनकी आयु 35 वर्ष थी।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध को बौद्ध गया में ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 8.
महात्मा बुद्ध को वैसाख की पूर्णमासी वाले दिन ज्ञान प्राप्त हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वैशाली में दिया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 10.
महात्मा बुद्ध ने 72 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध ने कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार पालि भाषा में किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म पाँच पावन सच्चाइयों में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 14.
बौद्ध धर्म अष्ट मार्ग में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
अष्ट मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा जाता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 16.
बौद्ध धर्म अहिंसा में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
बौद्धी संध में शामिल होने के लिए कम से कम आयु 20 वर्ष निश्चित की गई है।
उत्तर-
ग़लत

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प्रश्न 18.
बौद्ध धर्म पँचशील में विश्वास रखता है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
बौद्ध धर्म की महायान शाखा का जन्म अशोक के समय हुआ था।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 20.
बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा जादू-ट्रनों और मंत्रों में विश्वास रखती थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 21.
बौद्ध धर्म के त्रिपिटक नामक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गए थे।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 22.
बौद्धियों के लिए बनाए गए नियम पातीमोख में दिए गए हैं।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 23.
धर्मपद बौद्धी गीतों के नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 24.
कथावथु का लेखक मोग्गलिपुत्त तिस्स था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
महावंश चीन में लिखी गई बौद्धियों की एक प्रसिद्ध पुस्तक है।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 26.
अश्वघोष ने बौद्ध चरित की रचना की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
लंकावतार महायानियों का एक प्रमुख ग्रंथ है।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा की अध्यक्षता साबाकामी ने की थी।
उत्तर-
ग़लत

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म की पहली महासभा का आयोजन 487 ई० पू० में किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 30.
बौद्धियों की दूसरी महासभा का आयोजन वैशाली में किया गया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 31.
बौद्धियों की तीसरी महासभा का आयोजन 251 ई० पू० में हुआ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 32.
बौद्धियों की चौथी महासभा की अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। ,
उत्तर-
ग़लत

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प्रश्न 33.
महाराजा अशोक ने अपनी पुत्र संघमित्रा को चीन में बौद्ध मत के प्रचार के लिए भेजा था।
उत्तर-
ग़लत

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा कारण बौद्ध धर्म के जन्म के लिए उत्तरदायी नहीं था ?
(i) हिंदू धर्म की सादगी
(ii) ब्राह्मणों का नैतिक पतन
(iii) जटिल जाति प्रथा
(iv) महापुरुषों का जन्म।
उत्तर-
(i) हिंदू धर्म की सादगी

प्रश्न 2.
महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ था ?
(i) 466 ई० पू०
(ii) 566 ई० पू०
(iii) 577 ई० पू०
(iv) 599 ई० पू०।
उत्तर-
(ii) 566 ई० पू०

प्रश्न 3.
महात्मा बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ था ?
(i) वैशाली
(ii) कौशल
(iii) कुशीनगर
(iv) लुंबिनी।
उत्तर-
(iv) लुंबिनी।

प्रश्न 4.
महात्मा बुद्ध के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) शुद्धोधन
(ii) सिद्धार्थ
(iii) गौतम
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(i) शुद्धोधन

प्रश्न 5.
महात्मा बुद्ध की माता जी का नाम क्या था ?
(i) महामाया
(ii) प्रजापति गौतमी
(iii) यशोधरा
(iv) देवकी।
उत्तर-
(i) महा

प्रश्न 6.
महात्मा बुद्ध का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) शुद्धोधन
(ii) वर्धमान
(iii) सिद्धार्थ
(iv) राहुल।
उत्तर-
(ii) वर्धमान

प्रश्न 7.
महात्मा बुद्ध ने कितने दृश्यों को देखकर ग्रह त्याग का निर्णय किया ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 6
(iv) 8.
उत्तर-
(ii) 4

प्रश्न 8.
गृह त्याग के समय महात्मा बुद्ध की आयु कितनी थी ?
(i) 25 वर्ष
(ii) 27 वर्ष
(iii) 29 वर्ष
(iv) 35 वर्ष।
उत्तर-
(iii) 29 वर्ष

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति हुई थी ?
(i) अंग
(ii) राजगृह
(iii) वैशाली
(iv) बौद्धगया।
उत्तर-
(iv) बौद्धगया।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया ?
(i) कपिलवस्तु
(ii) लुंबिनी
(iii) कुशीनगर
(iv) सारनाथ।
उत्तर-
(iv) सारनाथ।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किस स्थान पर महात्मा बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था ?
(i) कुशीनगर
(ii) कौशल
(iii) विदेह
(iv) कपिलवस्तु।
उत्तर-
(i) कुशीनगर

प्रश्न 12.
महापरिनिर्वाण प्राप्ति के समय महात्मा बुद्ध की आयु कितनी थी ?
(i) 45 वर्ष
(ii) 55 वर्ष
(iii) 80 वर्ष
(iv) 85 वर्ष ।
उत्तर-
(iii) 80 वर्ष

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म कितनी पावन सच्चाइयों में विश्वास रखता था ?
(i) 4
(ii) 5
(iii) 6
(iv) 7
उत्तर-
(i) 4

प्रश्न 14.
अष्टमार्ग का संबंध किस धर्म के साथ है ?
(i) जैन धर्म के साथ
(i) बौद्ध धर्म के साथ
(iii) इस्लाम के साथ
(iv) पारसी धर्म के साथ।
उत्तर-
(i) बौद्ध धर्म के साथ

प्रश्न 15.
बौद्ध धर्म कितने लक्षणों में विश्वास रखता है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 6
उत्तर-
(i) 3

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन-सा तथ्य ग़लत है ?
(i) महात्मा बुद्ध कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे।
(ii) वे परस्पर भातृत्व में विश्वास रखते थे।
(iii) वे यज्ञों व बलियों में विश्वास रखते थे।
(iv) वे अहिंसा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-
(iii) वे यज्ञों व बलियों में विश्वास रखते थे।

प्रश्न 17.
बौद्ध संघ में शामिल होने के लिए कम-से-कम कितनी आयु निश्चित की गई थी ?
(i) 15
(ii) 20
(iii) 30
(iv) 40
उत्तर-
(i) 15

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में से किस संप्रदाय का संबंध बौद्ध धर्म के साथ नहीं है ?
(i) हीनयान
(ii) महायान
(iii) दिगंबर
(iv) वज्रयान।
उत्तर-
(iii) दिगंबर

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा ग्रंथ बौद्ध धर्म के साथ संबंधित नहीं है ?
(i) त्रिपिटक
(ii) आचारंग सूत्र
(iii) दीपवंश
(iv) सौंदरानंद।
उत्तर-
(i) त्रिपिटक

प्रश्न 20.
महात्मा बुद्ध ने अपना प्रचार किस भाषा में किया था ?
(i) पालि में
(ii) संस्कृत में
(iii) हिंदी में
(iv) अर्ध मगधी में।
उत्तर-
(i) पालि में

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में से कौन बौद्ध चरित का लेखक था ?
(i) महात्मा बुद्ध
(ii) अश्वघोष
(iii) नागार्जुन
(iv) शांति देव।
उत्तर-
(i) महात्मा बुद्ध

प्रश्न 22.
निम्नलिखित में से कौन-सी पुस्तक श्रीलंका में लिखी गई थी ?
(i) त्रिपिटक
(iI) दीपवंश
(iii) बौद्धचरित
(iv) ललित विस्तार।
उत्तर-
(Ii) दीपवंश

प्रश्न 23.
निम्नलिखित में से कौन-सी पुस्तक बौद्धी गीतों के नाम से प्रसिद्ध है ?
(i) जातक
(ii) पातीमोख
(iii) धमपद
(iv) महावंश।
उत्तर-
(iii) धमपद

प्रश्न 24.
जातक में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म के साथ संबंधित कितनी कथाएँ प्रचलित हैं ?
(i) 549
(ii) 649
(iii) 749
(iv) 849.
उत्तर-
(i) 549

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
(i) 485 ई० पू०
(ii) 486 ई० पू०
(iii) 487 ई० पू०
(iv) 488 ई० पू०।
उत्तर-
(iii) 487 ई० पू०

प्रश्न 26.
बौद्ध धर्म की प्रथम महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
(i) राजगृह में
(ii) लुंबिनी में
(iii) कपिलवस्तु में
(iv) कुशीनगर में।
उत्तर-
(i) राजगृह में

प्रश्न 27.
त्रिपिटक नामक ग्रंथ बौद्ध धर्म की किस महासभा में लिखे गए थे ?
(i) पहली महासभा में
(ii) दूसरी महासभा में
(iii) तीसरी महासभा में
(iv) चौथी महासभा में।
उत्तर-
(i) पहली महासभा में

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 2 अशोक के समय तक बौद्ध धर्म

प्रश्न 28.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन कब किया गया था ?
(i) 384 ई० पू०
(ii) 385 ई० पू०
(iii) 386 ई० पू०
(iv) 387 ई० पू०
उत्तर-
(iv) 387 ई० पू०

प्रश्न 29.
बौद्ध धर्म की दूसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) अजातशत्रु
(ii) कालासोक
(iii) महाकश्यप
(iv) अशोक।
उत्तर-
(i) अजातशत्रु

प्रश्न 30.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) 251 ई० पू०
(ii) 254 ई० पू०
(iii) 255 ई० पू०
(iv) 257 ई० पू०।
उत्तर-
(i) 251 ई० पू०

प्रश्न 31.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन कहाँ किया गया था ?
(i) पाटलिपुत्र में
(ii) वैशाली में
(iii) राजगृह में
(iv) लुंबिनी में।
उत्तर-
(i) पाटलिपुत्र में

प्रश्न 32.
बौद्ध धर्म की तीसरी महासभा का आयोजन किसने किया था ?
(i) अजातशत्रु ने
(ii) अशोक ने
(iii) हर्षवर्धन ने
(iv) कनिष्क ने।
उत्तर-
(ii) अशोक ने

प्रश्न 33.
बौद्ध धर्म की चौथी महासभा की अध्यक्षता किसने की थी ?
(i) महाकश्यप ने
(ii) सभाकामी ने
(iii) मोग्गलिपुत्त तिस्स ने
(iv) वसुमित्र ने।
उत्तर-
(iv) वसुमित्र ने।

प्रश्न 34.
महाराजा अशोक ने निम्नलिखित में से किसे श्रीलंका में प्रसार के लिए भेजा था ?
(i) राहुल को
(ii) आनंद को
(iii) आम्रपाली को
(iv) महेंद्र को।
उत्तर-
(iv) महेंद्र को।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

Punjab State Board PSEB 12th Class History Book Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 History Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

महाराजा रणजीत सिंह का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के आरंभिक जीवन के बारे में विस्तार से लिखें।
(Describe in detail the early life of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के प्रारंभिक जीवन का वर्णन कीजिए। उसका प्रारंभिक जीवन कहाँ तक शिवाजी के जीवन से भिन्न था ?
(Describe the early life of Maharaja Ranjit Singh. How far is his early life different from that of Shivaji ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह का सिख इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसने अपनी योग्यता के बल पर अपने छोटे से राज्य को एक विस्तृत साम्राज्य में बदल दिया। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब में सिख राज्य के स्वप्न को साकार किया। महाराजा रणजीत सिंह के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-
1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-रणजीत सिंह का जन्म शुकरचकिया मिसल के नेता महा सिंह के घर 1780 ई० में हुआ था। उनकी जन्म तिथि और जन्म स्थान के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद पाया जाता है । ओसबोर्न, ग्रिफिन, लतीफ़ एवं कन्हैया लाल जैसे इतिहासकार रणजीत सिंह के जन्म की तिथि 2 नवंबर, 1780 ई० बताते हैं। दूसरी ओर सोहन लाल सूरी तथा दीवान अमरनाथ जो कि रणजीत सिंह के समकालीन इतिहासकार थे, रणजीत सिंह की जन्म तिथि 13 नवंबर, 1780 ई० बताते हैं। इसी प्रकार रणजीत सिंह के जन्म स्थान के विषय में भी कुछ इतिहासकारों का विचार है कि रणजीत सिंह का जन्म गुजरांवाला में हुआ जबकि कुछ का विचार है कि उनका जन्म जींद राज्य के बडरुखाँ (Badrukhan) नामक स्थान पर हुआ। आधुनिक इतिहासकार गुजरांवाला को रणजीत सिंह का जन्म स्थान मानते हैं। रणजीत सिंह की माता का नाम राज कौर था क्योंकि वह मालवा प्रदेश की रहने वाली थी इसलिए वह माई मलवैण व माई मलवई के नाम से प्रसिद्ध हुई। रणजीत सिंह के बचपन का नाम बुध सिंह था।

2. बचपन और शिक्षा (Childhood and Education) रणजीत सिंह अपने माता-पिता की एक मात्र संतान था इसलिए उसका पालन पोषण बहुत लाड-प्यार से किया गया था। रणजीत सिंह अभी छोटा ही था कि उस पर चेचक का भयंकर आक्रमण हो गया। इस बीमारी के कारण रणजीत सिंह की बाईं आँख सदा के लिए खराब हो गई। रणजीत सिंह जब 5 वर्ष का हुआ तो उसे गुजरांवाला में भाई भाग सिंह के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा गया। क्योंकि रणजीत सिंह की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं थी इसलिए वह जीवन पर्यंत अनपढ़ ही रहा। रणजीत सिंह ने भी अपना अधिकतर समय घुड़सवारी करने, तलवारबाजी सीखने और शिकार खेलने में व्यतीत किया। रणजीत सिंह की योग्यता को देखते हुए उसके पिता महा सिंह ने यह भविष्यवाणी की थी,
“गुजरांवाला का राज्य मेरे वीर पुत्र रणजीत सिंह के लिए पर्याप्त नहीं होगा। वह एक महान् योद्धा बनेगा ।”1

3. वीरता के कारनामे (Acts of Bravery) रणजीत सिंह अभी 12 वर्ष का भी नहीं हुआ था कि जब उसे लड़ाई में जाने का प्रथम अवसर मिला। सौद्धरां दुर्ग के आक्रमण के समय महा सिंह अपने पुत्र रणजीत सिंह को भी साथ ले गया। अचानक बीमार हो जाने के कारण महा सिंह ने सेना की कमान रणजीत सिंह के सुपुर्द की। रणजीत सिंह ने न केवल दुश्मनों के दाँत खट्टे किए, बल्कि उनका गोला-बारूद भी लूट लिया। इस विजय के कारण महा सिंह ने अपने पुत्र का नाम बुध सिंह से बदल कर रणजीत सिंह रख दिया। रणजीत सिंह से भाव है रण (लड़ाई) को जीतने वाला शेर। 1793 ई० में एक बार रणजीत सिंह शिकार खेलता हुआ अकेला लाडोवाली गाँव के समीप पहुँच गया। चट्ठा कबीले का सरदार हशमत खाँ उसे अकेला देखकर एक झाड़ी में छुप गया। जब रणजीत सिंह उस झाड़ी के पास से गुज़रा तो हशमत खाँ ने अपनी तलवार से रणजीत सिंह पर प्रहार किया। रणजीत सिंह ने तीव्रता से हशमत खाँ पर जवाबी प्रहार किया और उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया।

4. विवाह (Marriage)-रणजीत सिंह की 6 वर्ष की अल्पायु में ही कन्हैया मिसल के मुखिया जय सिंह की पौत्री मेहताब कौर के साथ सगाई कर दी गई थी। जब रणजीत सिंह 16 वर्ष का हो गया था तो उसका विवाह बहुत धूम-धाम से किया गया। रणजीत सिंह की सास सदा कौर ने रणजीत सिंह को शक्ति बढ़ाने में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। ग्रिफ़िन के अनुसार रणजीत सिंह की 18 रानियाँ थीं।

5. तिक्कड़ी का संरक्षण (The Triune Regency)-1792 ई० में अपने पिता की मृत्यु के समय रणजीत सिंह नाबालिग था। इसलिए राज्य-व्यवस्था का कार्य उसकी माता राज कौर के हाथ में आ गया। परन्तु उसने शासन-व्यवस्था का कार्य अपने एक चहेते दीवान लखपत राय को सौंप दिया। 1796 ई० में जब रणजीत सिंह का विवाह हो गया तो उसकी सास सदा कौर भी शासन-व्यवस्था में रुचि लेने लग पड़ी। इस प्रकार 1792 ई० से लेकर 1797 ई० तक शासन-व्यवस्था तीन व्यक्तियों-राज कौर, दीवान लखपतराय और सदा कौर के हाथ में रही। इसलिए इस काल को तिक्कड़ी के संरक्षण का काल कहा जाता है।

6. तिक्कड़ी के संरक्षण का अंत (The End of Triune Regency)-जब रणजीत सिंह 17 वर्ष का हो गया तो उसने शासन-व्यवस्था को अपने हाथों में लेने का निर्णय किया। कुछ यूरोपीय व मुस्लिम इतिहासकारों ने यह प्रमाणित करने का यत्न किया है कि रणजीत सिंह ने अपनी माता तथा दीवान लखपत राय की अवैध संबंधों के कारण हत्या कर दी थी। परंतु डॉ० एन० के० सिन्हा, सीताराम कोहली तथा खुशवंत सिंह का कथन है कि यदि ऐसा हुआ होता तो समकालीन इतिहासकार इसका वर्णन अवश्य करते। दूसरा, रणजीत सिंह पर यह आरोप उसके चरित्र के साथ मेल नहीं खाता। रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल में बड़े-से-बड़े अपराधी को भी मृत्यु-दंड नहीं दिया था। ऐसा शासक भला अपनी माता की कैसे हत्या कर सकता है। डॉ०एच० आर० गुप्ता अनुसार, “यह कहानी पूरी तरह अनुचित तथा पक्षपात पर आधारित थी।”2

1. “The State of Gujranwala will not be a sufficient place for my brave son Ranjit Singh. He would become a great warrior.” Mahan Singh.
2. “The story is purely malicious and absolutely unfair and unjust.” Dr. H.R. Gupta, History of the Sikhs (New Delhi : 1991) Vol.5, p.10.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें 1
MAHARAJA RANJIT SINGH

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

पंजाब की राजनीतिक दशा (Political Condition of the Punjab)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के गद्दी पर बैठते समय पंजाब की राजनीतिक हालत का वर्णन करो।
(Describe the political condition of Punjab on the eve of Maharaja Ranjit Singh’s accession to power.)
अथवा
रणजीत सिंह के गद्दी पर बैठते समय पंजाब की राजनीतिक अवस्था कैसी थी ? यह अवस्था उसकी शक्ति के उत्थान में कैसे सहायक हुई ?
(What was the political condition of Punjab on the eve of Ranjit Singh’s accession ? How did this condition prove helpful in his rise to power ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के राजगद्दी पर बैठते समय पंजाब की राजनीतिक टिप्पणी कैसी थी? व्याख्या करें।
(What was the political condition of the Punjab on the eve of Maharaja Ranjit Singh’s accession to throne ? Describe it.)
उत्तर-
1797 ई० में रणजीत सिंह ने शुकरचकिया मिसल की बागडोर संभाली थी तो पंजाब में चारों ओर अशाँति व अराजकता फैली हुई थी। पंजाब में मुग़लों का शासन समाप्त हो चुका था और उसके खंडहरों पर सिखों, अफ़गानों और राजपूतों ने अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए थे। पंजाब की यह राजनीतिक दशा रणजीत सिंह की शक्ति के उत्थान में बड़ी सहायक सिद्ध हुई। महाराजा रणजीत सिंह के समय की राजनीतिक दशा का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

सिख मिसलें (The Sikh Misls)
पंजाब के अधिकाँश भाग में सिखों की 12 स्वतंत्र मिसलें स्थापित थीं। रणजीत सिंह के सौभाग्य से 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों तक कोई भी मिसल बहुत शक्तिशाली नहीं रही थी। मुख्य मिसलों का विवरण निम्न प्रकार है—
1. भंगी मिसल (Bhangi Misl) रणजीत सिंह के उत्थान से पूर्व सतलुज नदी के उत्तर-पश्चिम की ओर भंगी मिसल काफ़ी शक्तिशाली थी। इस मिसल में पंजाब के दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शहर लाहौर तथा अमृतसर सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त गुजरात एवं स्यालकोट भी इनके अधीन थे। भंगी सरदारों में चेत सिंह, साहेब सिंह तथा मोहर सिंह प्रमुख थे। इन सभी भंगी शासकों को भांग पीने तथा अफ़ीम खाने का व्यसन था। वे अपने अत्याचारों के कारण अपनी प्रजा में बहुत बदनाम थे। अतः यह मिसल बहुत तीव्रता से अपने अंत की और बढ़ रही थी।

2. आहलूवालिया मिसल (Ahluwalia Misl)—आहलूवालिया मिसल का संस्थापक जस्सा सिंह आहलूवालिया था। वह एक महान् योद्धा था। उसने जालंधर दोआब तथा बारी दोआब के कुछ क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया था। 1783 ई० में इस योद्धा का देहांत हो गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् भाग सिंह उसका उत्तराधिकारी बना। किन्तु उसमें जस्सा सिंह आहलूवालिया जैसे गुणों का अभाव था।

3. कन्हैया मिसल (Kanahiya Misl) कन्हैया मिसल का संस्थापक जय सिंह कन्हैया था। उसके अधीन मुकेरियाँ, गुरदासपुर, दातारपुर, धर्मपुर तथा पठानकोट के क्षेत्र थे। 1786 ई० में जय सिंह के बेटे गुरबख्श सिंह की मृत्यु हो गई थी। वह अपने पिता की भांति बहादुर था। 1796 ई० में गुरबख्श सिंह की बेटी मेहताब कौर का विवाह महाराजा रणजीत सिंह के साथ हुआ। 1798 ई० में जय सिंह की मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् इस मिसल का नेतृत्व गुरबख्श सिंह की विधवा सदा कौर के हाथ में आ गया। वह एक महत्त्वाकांक्षी स्त्री थी।

4. शुकरचकिया मिसल (Sukarchakiya Misl) शुकरचकिया मिसल का संस्थापक रणजीत सिंह का दादा चढ़त सिंह था। उसने गुजरांवाला, ऐमनाबाद और स्यालकोट के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। 1774 ई० में चढ़त सिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका बेटा महा सिंह उसका उत्तराधिकारी बना। उसने भी शुकरचकिया मिसल के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 1792 ई० में रणजीत सिंह अपने पिता का उत्तराधिकारी बना। क्योंकि उस समय रणजीत सिंह अभी काफ़ी छोटा (12 वर्ष) था इसलिए शासन प्रबंध 1797 ई० तक मुख्यतया रणजीत सिंह की माता राज कौर, दीवान लखपत राय तथा सास सदा कौर के हाथों में रहा।

5. रामगढ़िया मिसल (Ramgarhia Misl)—स० जस्सा सिंह रामगढ़िया बहुत उत्साही, वीर तथा योद्धा था। उसके राज्य में गुरदासपुर, कलानौर, बटाला तथा कादियाँ शामिल थे। चूंकि जस्सा सिंह रामगढ़िया काफ़ी वृद्ध हो चुका था इसलिए वह रणजीत सिंह के मार्ग में बाधा नहीं बन सकता था।

6. फैज़लपुरिया मिसल (Faizalpuria Misl)-फैज़लपुरिया मिसल का संस्थापक नवाब कपूर सिंह था। उसने सिख पंथ का सबसे संकटमयी समय में योग्यतापूर्वक नेतृत्व किया था। वह एक बहादुर एवं योग्य सरदार था। इस मिसल का क्षेत्र जालंधर, बहरामपुर, नूरपुर, पट्टी आदि तक फैला हुआ था। 1795 ई० में उसका पुत्र बुध सिंह सिंहासन पर बैठा। वह कोई योग्य शासक प्रमाणित न हुआ।

7. अन्य मिसलें (Other Misls)-उपर्युक्त मिसलों के अतिरिक्त उस समय पंजाब में डल्लेवालिया, फुलकियाँ, करोड़सिंघिया, निशानवालिया एवं शहीद नामक मिसलें भी स्थापित थीं।

मुसलमानों के राज्य (Muslim States)
18वीं शताब्दी के अंत में पंजाब के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में मुसलमानों ने कई स्वतंत्र रियासतें स्थापित कर ली थीं। इनमें से कसूर, मुलतान, कश्मीर, अटक और पेशावर की रियासतें प्रसिद्ध थीं। कसूर पर पठान शासक निज़ामुद्दीन, मुलतान में मुज्जफर खाँ, कश्मीर में अत्ता मुहम्मद खाँ, अटक में जहाँदद खाँ और पेशावर में फ़तह खाँ का शासन था। इनके अतिरिक्त कुछ छोटी अन्य मुस्लिम रियायतें भी अस्तित्व में थीं। इन शासकों में भी परस्पर एकता नहीं थी। फलस्वरूप उनमें से कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह रणजीत सिंह के मार्ग में बाधा डाल सके।

पहाड़ी रियासतें (Hilly States)
पंजाब के उत्तर में बहुत-सी स्वतंत्र पहाड़ी रियासतें स्थापित थीं जिनमें से काँगड़ा की रियासत सुविख्यात थी। काँगड़ा का राजपूत शासक संसार चंद कटोच समस्त पंजाब को अपने अधिकार में लेना चाहता था। काँगड़ा के अतिरिक्त मंडी, कुल्लू, चंबा, सुकेत, नूरपुर तथा जम्मू की पहाड़ी रियासतों में भी राजपूत शासकों का शासन था। इनके शासक बहुत दुर्बल थे और वे परस्पर झगड़ते रहते थे।

गोरखे (The Gorkhas)
नेपाल के गोरखे अपनी बहादुरी के लिए विश्व भर में विख्यात थे। 18वीं शताब्दी के अंत में गोरखों ने अपनी शक्ति का विस्तार पंजाब की ओर करना आरंभ कर दिया था। 1794 ई० में उन्होंने गढ़वाल और कमाऊँ पर अधिकार कर लिया था। भीम सेन थापा अपने योग्य पुत्र अमर सिंह थापा के नेतृत्व में पंजाब पर आक्रमण करना चाहता था। इसलिए रणजीत सिंह तथा गोरखों के बीच टकराव होना अनिवार्य था।

जॉर्ज थॉमस (George Thomas)
जॉर्ज थॉमस एक निडर अंग्रेज़ था। उसने पंजाब के दक्षिण-पूर्व में हाँसी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली थी। यहाँ उसने अपने ही नाम पर ‘जॉर्जगढ़’ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। उसने कई बार पटियाला तथा जींद प्रदेशों पर आक्रमण करके लूटपाट की। जॉर्ज थॉमस का शासन थोड़े समय के लिए रहा। उसे फ्रांसीसी जनरल पैरों ने पराजित कर दिया था, परंतु वह भी अधिक समय तक शासन न कर पाया।

मराठा (Marathas)
1797 ई० तक मराठों ने अपने योग्य नेता दौलत राव सिंधिया के नेतृत्व में मेरठ एवं दिल्ली पर अधिकार कर लिया था। वह पंजाब को अपने अधीन करने के स्वपन देख रहा था। एक अन्य मराठा नेता धारा राव ने पंजाब के दक्षिण-पूर्व में स्थित फुलकियाँ मिसल पर कुछ आक्रमण भी किए थे। रणजीत सिंह के सौभाग्यवश ठीक उसी समय मराठों को अंग्रेजों के साथ उलझना पड़ गया। इस कारण वे पंजाब की ओर अपना ध्यान न दे पाए।

अंग्रेज़ (The British)
18वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ भले ही पंजाब की ओर ललचाई हुई दृष्टि से देख रहे थे, किंतु वे मराठों, निज़ाम तथा अन्य उलझनों में उलझे हुए थे। इसलिए रणजीत सिंह को अंग्रेज़ों की ओर से कोई तुरंत ख़तरा नहीं था।

शाह ज़मान (Shah Zaman)
1793 ई० में शाह ज़मान अफ़गानिस्तान का नया शासक बना था। उसने पंजाब पर अधिकार करने हेतु उसने 1793 ई० से 1798 ई०के दौरान चार बार आक्रमण किए। परंतु हर बार उसके गृह प्रदेश में विद्रोह हो जाता। इस कारण शाह ज़मान को विद्रोह का दमन करने के लिए वापिस जाना पड़ा। इस प्रकार रणजीत सिंह की शक्ति के लिए उत्पन्न होने वाला संकट भी टल गया।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० जी० एल० चोपड़ा का कथन है,
“19वीं शताब्दी के आरंभ में पंजाब की राजनीतिक दशा दृढ़-निश्चयी तथा श्रेष्ठ व्यक्ति के उत्थान के लिए पूर्ण रूप से अनुकूल थी जो परस्पर विरोधी तत्त्वों को जोड़ कर एक संगठित राज्य स्थापित कर पाए तथा जैसे कि हम देखेंगे, रणजीत सिंह ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया।”3

3. “Thus the political situation on the eve of the 19th century was eminently suited for the rise of a resolute and outstanding personality who might weld these discordant elements steadily organised kingdom, and as we shall see, Ranjit Singh availed himself of this opportunity.’ Dr. G.L. Chopra, The Punjab As A Sovereign State (Hoshiarpur : 1960) p. 6.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

सिरव मिसलों के प्रति रणजीत सिंह की नीति (Ranjit Singh’s Policy towards the Sikh Misls)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के सिख मिसलों के साथ संबंधों का वर्णन करें। (Describe the relations of Maharaja Ranjit Singh with the Sikh Misls.)
अथवा
रणजीत सिंह की मिसल नीति की आलोचनात्मक चर्चा करें। (Examine critically the Misl policy of Ranjit Singh)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति की मुख्य विशेषताएँ बताएँ। (Give an account of the salient features of the Misl policy of Ranjit Singh.)
उत्तर-
1797 ई० में जब रणजीत सिंह ने शुकरचकिया मिसल की बागडोर संभाली तो उसका राज्य छोटे से प्रदेश तक ही सीमित था । वह अपने राज्य को साम्राज्य में परिवर्तित करना चाहता था। इस संबंध में उसने सर्वप्रथम अपना ध्यान पंजाब की सिख मिसलों की ओर लगाया।

मिसल नीति की विशेषताएँ (Characteristics of the Misl Policy)
रणजीत सिंह की सिख मिसलों के प्रति नीति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—

  1. राज्य विस्तार के लिए न तो रिश्तेदारी और न ही कृतज्ञता की भावना को कोई महत्त्व देना।
  2. यह नहीं देखना कि राज्य पर अधिकार करना न्यायपूर्ण है अथवा नहीं ।
  3. शक्तिशाली मिसल सरदारों के साथ मित्रता तथा विवाह-संबंध स्थापित करना ताकि राज्य–विस्तार के लिए उनका सहयोग प्राप्त किया जा सके।
  4. दुर्बल मिसलों पर आक्रमण करके उनके प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित करना।
  5. अवसर पाकर मित्र मिसल सरदारों से विश्वासघात करना।
  6. सिखों की केंद्रीय संस्था ‘गुरमता’ को समाप्त करना ताकि कोई मिसलदार रणजीत सिंह की समानता न कर सके ।

शक्तिशाली मिसलों के प्रति नीति (Policy Towards the Powerful Misls)
1. कन्हैया मिसल के साथ विवाह संबंध (Matrimonial Relations with Kanahiya Misl) रणजीत सिंह ने सर्वप्रथम कन्हैया मिसल के गुरबख्श सिंह की पुत्री मेहताब कौर से 1796 ई० में विवाह करवा लिया। इस कारण रणजीत सिंह की स्थिति मज़बूत हो गई। रणजीत सिंह की सास सदा कौर ने रणजीत सिंह को लाहौर, भसीन
और अमृतसर की विजय के समय बहुमूल्य सहायता प्रदान की।

2. नकई मिसल से विवाह संबंध (Matrimonial Relations with Nakai Misl)–तरनतारन में रणजीत सिंह ने 1798 ई० में नकई मिसल के सरदार खज़ान सिंह की पुत्री राज कौर से दूसरा विवाह करवा लिया। इस विवाह के कारण रणजीत सिंह को अपने राज्य के विस्तार में नकई मिसल से भी पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ।

3. फ़तह सिंह आहलूवालिया से मित्रता (Friendship with Fateh Singh Ahluwalia) रणजीत सिंह के समय आहलूवालिया मिसल एक शक्तिशाली मिसल थी। उस समय इस मिसल का नेता फ़तह सिंह आहलूवालिया था। 1801 ई० में रणजीत सिंह और फ़तह सिंह आहलूवालिया ने परस्पर पगड़ियाँ बदली तथा गुरु ग्रंथ साहिब के सामने शपथ ली कि वे सदा भाइयों की भाँति रहेंगे और दुःख-सुख में एक दूसरे का साथ देंगे। इसके पश्चात् फ़तह सिंह ने रणजीत सिंह की अनेक लड़ाइयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

4. जोध सिंह रामगढ़िया से मित्रता (Friendship with Jodh Singh Ramgarhia)-1803 ई० में सरदार जोध सिंह रामगढ़िया मिसल का नया सरदार बना। वह भी अपने पिता सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया की भाँति बड़ा वीर था। रणजीत सिंह ने कूटनीति से काम लेते हुए जोध सिंह से मित्रता कर ली। जोध सिंह ने कई सैनिक अभियानों में रणजीत सिंह की सहायता की थी।

5. तारा सिंह घेबा से मित्रता (Friendship with Tara Singh Gheba)–तारा सिंह घेबा डल्लेवालिया मिसल का नेता था। वह वीर तथा शक्तिशाली था। इसलिए रणजीत सिंह ने उससे भी मित्रता के संबंध स्थापित किए।

दुर्बल मिसलों के प्रति नीति (Policy towards the Weak Misls)
रणजीत सिंह ने जहाँ एक ओर शक्तिशाली मिसलों से मित्रता स्थापित की वहाँ दूसरी ओर कमज़ोर मिसलों पर आक्रमण करके उन को अपने राज्य में सम्मिलित करने की नीति अपनाई। इनका विवरण निम्नलिखित अनुसार है—
1. भंगी मिसल (Bhangi Misl) रणजीत सिंह ने जुलाई 1799 ई० में भंगी सरदारों से लाहौर छीन लिया था। यह विजय रणजीत सिंह की सबसे महत्त्वपूर्ण विजयों में से एक थी। 1805 ई० में गुलाब सिंह भंगी की विधवा माई सुक्खाँ को पराजित करके अमृतसर पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने 1808 ई० में स्यालकोट के जीवन सिंह भंगी को और 1809 ई० में गुजरात के साहिब सिंह भंगी को हराकर उनके प्रदेशों को अपने राज्य में शामिल कर लिया था। इन विजयों के परिणामस्वरूप भंगी मिसल समाप्त हो गई।

2. डल्लेवालिया मिसल (Dallewalia MisI)-रणजीत सिंह ने डल्लेवालिया मिसल के नेता तारा सिंह घेबा से मित्रता की थी । 1807 ई० में तारा सिंह घेबा का देहांत हो गया। उसी समय रणजीत सिंह ने आक्रमण करके डल्लेवालिया मिसल के क्षेत्रों राहों, नकोदर तथा नौशहरा आदि को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

3. करोड़सिंधिया मिसल (Karorsinghia Misl)-1809 ई० में करोड़सिंघिया मिसल के नेता बघेल सिंह की मृत्यु हो गई। यह स्वर्ण अवसर पाकर रणजीत सिंह की सेना ने करोड़सिंघिया मिसल पर अधिकार कर लिया।

4. नकई मिसल (Nakkai Misl)-नकई मिसल से महाराजा रणजीत सिंह के गहरे संबंध थे परंतु रणजीत सिंह ने 1810 ई० में नकई मिसल पर आक्रमण करके इसके नेता काहन सिंह के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

5. फैज़लपुरिया मिसल (Faizalpuria Misl)-1795 ई० में बुद्ध सिंह फैज़लपुरिया मिसल का नया नेता बना। वह बड़ा अयोग्य था। परिणामस्वरूप फैजलपुरिया मिसल का पतन होना आरंभ हो गया। रणजीत सिंह ने इस स्वर्ण अवसर को देखकर 1811 ई० में फैज़लपुरिया मिसल पर अधिकार कर लिया।

मित्र मिसलों के प्रति नीति में परिवर्तन (Change in the Policy towards the Friendly Misls)
जब महाराजा रणजीत सिंह का राज्य काफ़ी सुदृढ़ हो गया तो उसने अब मित्र मिसलों के प्रति अपनी नीति में परिवर्तन करना उचित समझा। इस नीति का वर्णन अग्रलिखित अनुसार है—
1. कन्हैया मिसल (Kanahiya Misl)-महाराजा रणजीत सिंह ने 1796 ई० में कन्हैया मिसल के गुरबख्श सिंह तथा उसकी पत्नी सदा कौर की पुत्री मेहताब कौर से विवाह किया था। परंतु 1821 ई० में महाराजा ने अपनी सास सदा कौर को बंदी बना लिया तथा उसके प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

2. रामगढ़िया मिसल (Ramgharhia Mis)-जब तक जोध सिंह रामगढ़िया जीवित रहा, महाराजा ने उससे मित्रता के संबंध बनाए रखे, परंतु 1815 ई० में जब जोध सिंह की मृत्यु हो गई तो रणजीत सिंह ने रामगढ़िया मिसल पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

3. आहलूवालिया मिसल (Ahluwalia Misl)—फ़तह सिंह आहलूवालिया से रणजीत सिंह की गहरी मित्रता थी। उसने कई सैनिक अभियानों में रणजीत सिंह की सहायता की थी। 1825-26 ई० में फ़तह सिंह आहलूवालिया अपने परिवार सहित अंग्रेज़ों की शरण में चला गया। महाराजा रणजीत सिंह ने फ़तह सिंह के सभी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। 1827 ई० में दोनों में पुनः समझौता हो गया। महाराजा रणजीत सिंह ने कुछ क्षेत्र फ़तह सिंह आहलूवालिया को लौटा दिए जबकि शेष अपने राज्य में शामिल रखे।

गुरमता की समाप्ति (Abolition of Gurmata)
गुरमता सिख मिसलों की केंद्रीय संस्था थी। गुरमता मिसल सरदारों की एकता, संगठन तथा समानता का प्रतीक था। गुरमता की सभा अमृतसर में अकाल तख्त पर हुआ करती थी। विभिन्न मिसलों के सरदार इस सभा में महत्त्वपूर्ण विषयों पर संयुक्त रूप से विचार-विमर्श करते थे। 1805 ई० में गुरमता संस्था को समाप्त कर दिया। इस संस्था की समाप्ति से महाराजा रणजीत सिंह अपने राजनीतिक निर्णय लेने में पूर्णतया स्वतंत्र हो गया।

(क) मिसल नीति की आलोचना (Criticism of the Misl Policy)
कुछ इतिहासकारों ने, जिनमें ग्रिफ़िन, सिन्हा तथा लतीफ़ शामिल हैं, ने महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की है—
1. महाराजा रणजीत सिंह ने डल्लेवालिया, भंगी, फैजलपुरिया, नकई तथा करोड़सिंघिया मिसलों पर आक्रमण करके उनके प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। इन सरदारों ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा था।

2. महाराजा रणजीत सिंह की मिसलों के प्रति नीति पूर्णतया स्वार्थपूर्ण तथा अनैतिक थी। उसने उन शक्तिशाली मिसल सरदारों से भी अच्छा व्यवहार न किया जिन्होंने उसके उत्थान में सहायता की थी । यहाँ तक कि उसने 1821 ई० में अपनी सास सदा कौर के प्रदेशों को भी अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया था। डॉ० एन० के० सिन्हा के कथनानुसार,
“रणजीत सिंह की नीति सभी मिसलों को हड़प कर जाने की नीति थी। न तो रिश्तेदारी के बंधन और न ही कृतज्ञता की भावना उसके मार्ग में बाधा डाल सकती थी।”4

3. रणजीत सिंह की मिसल नीति का मुख्य उद्देश्य सब सिख मिसलों को हड़पना था। इस संबंध में उसने न किसी रिश्तेदार तथा न ही किसी की कृतज्ञता की भावना को देखा।

4. “Ranjit Singh’s policy was one of absorption of all the Sikh confederacies. No tie of kinship, no sentiment of gratitude was strong enough to stand in his way.” Dr. N.K. Sinha, Ranjit Singh (Calcutta 1975), p. 66..

(ख) मिसल नीति की उचितता (Justification of the Misl Policy)
कुछ अन्य निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति को उचित ठहराते हैं—

  1. महाराजा रणजीत सिंह ने पराजित मिसल सरदारों के प्रति दयालुता का रुख अपनाया। उन्हें निर्वाह के लिए बड़ी-बड़ी जागीरें दीं।
  2. महाराजा रणजीत सिंह ने मिसलों को समाप्त करके कोई गलत कार्य नहीं किया। ऐसा करके वह एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य की स्थापना कर सका।
  3. महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति पंजाब के लोगों के लिए एक वरदान सिद्ध हुई। इसने पंजाब में एक नए युग का सूत्रपात किया।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

महाराजा रणजीत सिंह की विजयें (Conquests of Maharaja Ranjit Singh)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की विजयों का संक्षिप्त विवरण लिखें।
(Give a brief description of the victories of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मुख्य विजयों का वर्णन करें। (Explain the conquests of Maharaja Ranjit Singh.)
अथवा
“महाराजा रणजीत सिंह एक विजयी और साम्राज्य निर्माता था।” इस कथन की व्याख्या करते हुए महाराजा रणजीत सिंह की विजयों पर संक्षिप्त प्रकाश डालें।
(“Maharaja Ranjit Singh was a great conqueror and an empire-builder.” In the light of this statement, give a brief account of the important conquests of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक महान् विजेता था। जिस समय वह सिंहासन पर बैठा तो वह एक छोटीसी रियासत शुकरचकिया का सरदार था, किंतु उसने अपनी वीरता व योग्यता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। महाराजा रणजीत सिंह की विजयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. लाहौर की विजय 1799 ई० (Conquest of Lahore 1799 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह की सर्वप्रथम तथा महत्त्वपूर्ण विजय लाहौर की थी । लाहौर कई वर्षों से पंजाब की राजधानी चली आ रही थी। उस समय लाहौर पर तीन भंगी सरदारों-साहिब सिंह, मोहर सिंह तथा चेत सिंह का शासन था। लोग उनके अत्याचारों तथा कुशासन के कारण बहुत दुःखी थे। अफ़गानिस्तान के शासक शाह ज़मान ने नवंबर, 1798 ई० में लाहौर पर आसानी से अधिकार कर लिया परंतु काबुल में बगावत हो जाने के कारण शाहज़मान को वापिस जाना पड़ा। इस स्थिति का लाभ उठाकर भंगी सरदारों ने पुनः लाहौर पर अधिकार कर लिया। इस पर लाहौर की प्रजा ने महाराजा रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार करने का निमंत्रण दिया। महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सास सदा कौर की सहायता से 6 जुलाई, 1799 ई० को लाहौर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का समाचार मिलते ही भंगी सरदार लाहौर छोड़कर भाग गए। इस तरह रणजीत सिंह ने 7 जुलाई, 1799 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। फकीर सैयद वहीदउद्दीन के अनुसार,
“इस (लाहौर) के अधिकार ने रणजीत सिंह की शक्ति एवं महत्त्व को ही नहीं बढ़ाया अपितु इससे उसको शेष पंजाब पर अधिकार करने का राजकीय अधिकार भी मिल गया।”5

2. भसीन की लड़ाई 1800 ई० (Battle of Bhasin 1800 A.D.)-लाहौर की विजय के कारण अधिकाँश सरदार महाराजा के विरुद्ध हो गये। अमृतसर के गुलाब सिंह भंगी तथा कसूर के निजामुद्दीन महाराजा के विरुद्ध अपनी सेनाओं को लेकर लाहौर के समीप भसीन नामक गाँव में पहुँच गये। अकस्मात् एक दिन गुलाब सिंह भंगी जो कि गठजोड़ का नेता था, अधिक शराब पीने के कारण मर गया। इससे महाराजा रणजीत सिंह के विरोधियों का साहस टूट गया। इस तरह बिना रक्तपात के ही महाराजा रणजीत सिंह को विजय प्राप्त हुई।

3. अमृतसर की विजय 1805 ई० (Conquest of Amritsar 1805 A.D.)-धार्मिक पक्ष से अमृतसर शहर का सिखों के लिये महत्त्व था। सिख इसको अपना ‘मक्का’ समझते थे। पंजाब का महाराजा बनने के लिए महाराजा रणजीत सिंह के लिये अमृतसर पर अधिकार करना बहुत आवश्यक था। 1805 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने माई सुक्खाँ को जो अमृतसर में अपने अवयस्क पुत्र गुरदित्त सिंह के नाम पर शासन कर रही थी, को लोहगढ़ का किला तथा प्रख्यात जमजमा तोप उसको सौंपने के लिए कहा। माई सुक्खाँ ने ये माँगें स्वीकार न की। महाराजा रणजीत सिंह ने तुरंत अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। माई सुक्खाँ ने थोड़े से विरोध के उपरांत अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इस तरह अमृतसर पर महाराजा रणजीत सिंह का अधिकार हो गया।

4. सतलुज पार के आक्रमण 1806-08 ई० (Cis-Sutlej Expeditions 1806-08 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह ने सतलुज पार के प्रदेशों पर तीन बार क्रमश: 1806 ई०, 1807 ई० तथा 1808 ई० में आक्रमण किये। इन आक्रमणों के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने पहली बार लुधियाना, जगरांव, दाखा, जंडियाला, तलवंडी के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। अपने दूसरे अभियान के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने मोरिडा, सरहिंद, जीरा, कोटकपूरा एवं धर्मकोट के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। अपने तीसरे अभियान के दौरान महाराजा रणजीत सिंह ने फरीदकोट, अंबाला तथा शाहबाद के क्षेत्रों पर अधिकार किया था। महाराजा ने ये सारे प्रदेश अपने साथियों में बाँट दिये थे। इसके अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह ने इन अभियानों के दौरान पटियाला, नाभा, जींद, मलेरकोटला, शाहबाद, कैथल तथा अंबाला आदि के शासकों से ‘खिराज’ भी प्राप्त किया।

5. डल्लेवालिया मिसल पर विजय 1807 ई० (Conquest of Dallewalia Misl 1807 A.D.) डल्लेवालिया मिसल के नेता तारा सिंह घेबा की 1807 ई० में मृत्यु हो गई। उचित अवसर देखकर महाराजा रणजीत सिंह ने डल्लेवालिया मिसल पर आक्रमण कर दिया। तारा सिंह की विधवा ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना का कुछ समय तक सामना किया परंतु वह पराजित हो गई। महाराजा ने डल्लेवालिया मिसल के सभी प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।

6. स्यालकोट की विजय 1808 ई० (Conquest of Sialkot 1808 A.D.) स्यालकोट के शासक का नाम जीवन सिंह था। 1808 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने उसको स्यालकोटका किला सौंपने के लिये कहा। उसके इंकार करने पर महाराजा रणजीत सिंह ने स्यालकोट पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। जीवन सिंह ने छोटी-सी मुठभेड़ के उपरांत अपनी पराजय स्वीकार कर ली।

7. काँगड़ा की विजय 1809 ई० (Conquest of Kangra 1809 A.D.)-1809 ई० में नेपाल के गोरखों ने काँगड़े के किले पर आक्रमण कर दिया था। काँगड़े के शासक संसार चंद कटोच ने महाराजा रणजीत सिंह से गोरखों के विरुद्ध सहायता माँगी। इसके बदले उसने महाराजा को काँगड़ा का किला देने का वचन दिया। महाराजा रणजीत सिंह की सेना ने गोरखों को भगा दिया परंतु अब संसार चंद ने किला देने में कुछ आनाकानी की। महाराजा रणजीत सिंह ने संसार चंद के पुत्र अनुरुद चंद को बंदी बना लिया। विवश होकर, उसने काँगड़े का किला पहाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया।

8. गुजरात की विजय 1809 ई० (Conquest of Gujarat 1809 A.D.)—गुजरात का शहर अपने आर्थिक स्रोतों के लिये बहुत प्रख्यात था। यहाँ का शासक साहिब सिंह भंगी महाराजा रणजीत सिंह के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा था। 1809 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने फकीर अज़ीज़उद्दीन के नेतृत्व में गुजरात के विरुद्ध अभियान भेजा। उसने साहिब सिंह भंगी को पराजित करके गुजरात पर अधिकार कर लिया।

9. अटक की विजय 1813 ई० (Conquest of Attock 1813 A.D.)—अटक का किला भौगोलिक पक्ष से बहुत महत्त्वपूर्ण था। महाराजा रणजीत सिंह के समय यहाँ अफ़गान गवर्नर जहाँदद खाँ का शासन था। कहने को तो वह काबुल सरकार के अधीन था, परंतु वास्तव में वह स्वतंत्र रूप में शासन कर रहा था। 1813 ई० में जब काबुल के वज़ीर फतह खाँ ने कश्मीर पर आक्रमण किया तो वह घबरा गया। उसने एक लाख रुपये की वार्षिक जागीर के बदले अटक का किला महाराजा को सौंप दिया। फतह खाँ ने अटक के किले को अपने अधीन करने के लिए अपनी सेनाओं के साथ कूच किया। 13 जुलाई, 1813 ई० में हजरो या हैदरो के स्थान पर हुई एक भीषण लड़ाई में महाराजा ने फतह खाँ को पराजित किया। इस विजय के कारण महाराजा रणजीत सिंह की लोकप्रियता दूर-दूर तक फैल गई।

10. मुलतान की विजय 1818 ई० (Conquest of Multan 1818 A.D.)-मुलतान का भौगोलिक तथा आर्थिक पक्ष से बहुत महत्त्व था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह मुलतान पर अपना अधिकार करना चाहता था। उस समय मुलतान में नवाब मुजफ्फर खाँ का शासन था। महाराजा रणजीत सिंह ने 1802 ई० से 1817 ई० के मध्य मुलतान पर अधिकार करने के लिए 6 बार अभियान भेजे किन्तु हर बार नवाब महाराजा रणजीत सिंह को नज़राना भेंट कर टाल देता रहा। 1818 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर अधिकार करने का निर्णय किया। उसने एक विशाल सेना मिसर दीवान चंद के नेतृत्व में भेजी। भीषण युद्ध के पश्चात् महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं ने मुलतान पर अधिकार कर लिया। इस आक्रमण में नवाब मुजफ्फ़र खाँ अपने पाँच पुत्रों के साथ लड़ता हुआ मारा गया था। महाराजा ने कई दिनों तक इस विजय के उपलक्ष्य में रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किये। मिसर दीवान चंद को ‘ज़फ़र जंग’ की उपाधि दी गई।

11. कश्मीर की विजय 1819 ई० (Conquest of Kashmir 1819 A.D.)-कश्मीर की घाटी अपने सौंदर्य तथा व्यापार के कारण बहुत प्रसिद्ध थी, इस कारण महाराजा इस प्राँत पर अपना अधिकार करना चाहता था। 1818 ई० में मुलतान की विजय से महाराजा रणजीत सिंह बहत उत्साहित हआ। उसने 1819 ई० में मुलतान के विजयी सेनापति मिसर दीवान चंद के नेतृत्व में एक विशाल सेना कश्मीर की विजय के लिए भेजी। इस सेना ने कश्मीर के अफ़गान गवर्नर ‘जबर खाँ’ को पराजित करके कश्मीर पर अधिकार कर लिया। कश्मीर की विजय के कारण अफ़गानों की शक्ति को बहुत आघात पहुँचा। यह विजय आर्थिक पक्ष से महाराजा के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। डॉक्टर जी० एस० छाबड़ा के अनुसार,
“कश्मीर की विजय महाराजा की शक्ति के विकास के लिए बहुत महत्त्व रखती थी।”6

12. पेशावर की विजय 1834 ई० (Conquest of Peshawar 1834 A.D.) भौगोलिक पक्ष से इस प्रदेश का बहुत महत्त्व था। उत्तर-पश्चिमी सीमा से पंजाब आने वाले आक्रमणकारी प्रायः इसी मार्ग से ही आते थे। इसलिए पेशावर की विजय के बिना पंजाब में स्थायी शाँति स्थापित नहीं की जा सकती थी। 1823 ई० में ही महाराजा रणजीत सिंह ने इस महत्त्वपूर्ण प्राँत पर विजय प्राप्त कर ली थी, परंतु इसको 1834 ई० में सिख राज्य में शामिल किया गया।

5. “Its capture, therefore, not only added much to Ranjit Singh’s strength and importance, but also invested him with title to the rest of the Punjab.” Fakir Syed Waheeduddin, The Real Ranjit Singh (Patiala : 1981) p. 54.
6. “The conquest of Kashmir had a great significance in the Maharaja’s development of power.” Dr. G.S. Chhabra, Advanced History of The Punjab (Jalandhar : 1972) Vol. 2, p. 61.

राज्य का विस्तार (Extent of the Empire)
महाराजा रणजीत सिंह का राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक तथा पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला हुआ था। रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल के दौरान एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था। ।
डॉक्टर जी० एल० चोपड़ा के अनुसार, “40 वर्ष के भीतर रणजीत सिंह एक छोटे सरदार से एक विशाल साम्राज्य का महाराजा बन गया था।”7

7. “Ranjit Singh, within forty years, raised himself from a petty sardar to the rulership of an extensive kingdom.” Dr. G.L. Chopra, op. cit., p. 22.

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मुलतान की विजय (Conquest of Multan)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान विजय के विभिन्न चरणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। इस विजय का महत्त्व भी बताएँ।
(Briefly describe the various stages in the conquest of Multan by Ranjit Singh. Point out its significance.)
उत्तर-
मुलतान भौगोलिक तथा आर्थिक पक्ष से एक महत्त्वपूर्ण प्राँत था। 1779 ई० में अहमद शाह अब्दाली के उत्तराधिकारी तैमूर शाह ने भंगी सरदारों को हरा कर नवाब मुजफ्फर खाँ को मुलतान का गवर्नर नियुक्त किया। शीघ्र ही अफ़गानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर नवाब मुजफ्फ़र खाँ ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। महाराजा रणजीत सिंह के समय मुलतान पर मुजफ्फर खाँ का राज्य था। मुलतान पर विजय प्राप्त करने के लिए महाराजा रणजीत सिंह ने 1802 ई० से लेकर 1818 ई० के मध्य 7 अभियान भेजे। इन अभियानों का विवरण निम्नलिखित अनुसार है—

1. पहला अभियान 1802 ई० (First Expedition 1802 A.D.)-1802 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं मुलतान के विरुद्ध प्रथम अभियान का नेतृत्व किया। इस पर घबराकर मुजफ्फर खाँ महाराजा को भारी धनराशि तथा प्रति वर्ष कुछ नज़राना देने को तैयार हो गया। रणजीत सिंह बिना लड़े ही मुलतान से काफ़ी धन लेकर लाहौर लौट गया।

2. दूसरा अभियान 1805 ई० (Second Expedition 1805 A.D.)-1802 ई० की संधि के अनुसार मुजफ्फर खाँ ने रणजीत सिंह को दिया जाने वाला वार्षिक नज़राना न भेजा। इसलिए रणजीत सिंह ने 1805 ई० में मुलतान पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया परंतु मराठा सरदार जसवंत राय होल्कर के पंजाब आगमन के कारण, यह अभियान बीच में ही छोड़ दिया गया। .

3. तीसरा अभियान 1807 ई० (Third Expedition 1807 A.D.)-1807 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर तीसरी बार आक्रमण किया। इसका कारण यह था कि मुजफ्फर खाँ झंग तथा कसूर के शासकों को रणजीत सिंह के विरुद्ध सहायता दे रहा था। अतः महाराजा रणजीत सिंह ने तीसरी बार मुलतान पर आक्रमण कर दिया। महाराजा की सेना मुलतान के किले पर विजय प्राप्त न कर सकी और मुजफ्फ़र खाँ से 70,000 रुपए नज़राना लेकर लौट गई।

4. चौथा अभियान 1810 ई० (Fourth Expedition 1810 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह ने 1810 ई० में चौथी बार मुलतान के विरुद्ध दीवान मोहकम चंद के नेतृत्व में एक सेना भेजी। इस बार भी सिख सेना पूर्ण रूप से सफल न हो सकी। अंत में, मुजफ्फर खाँ ने रणजीत सिंह को दो लाख रुपये देने स्वीकार किए।

5. पाँचवां अभियान 1816 ई० (Fifth Expedition 1816 A.D.)-1816 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने मिसर दीवान चंद के नेतृत्व में एक सेना मुलतान भेजी। अकाली फूला सिंह भी अपने कुछ अकालियों के साथ इस अभियान में शामिल हुआ। इस बार भी मुजफ्फर खाँ ने महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं को नज़राना देकर टाल दिया।

6. छठा अभियान 1817 ई० (Sixth Expedition 1817 A.D.)-1817 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने मुजफ्फर खाँ से लाहौर दरबार की ओर शेष रहता नज़राना वसूल करने के लिए कुछ सेना मुलतान भेजी। यह अभियान अपने उद्देश्यों में असफल रहा।

7. सातवाँ अभियान 1818 ई० (Seventh Expedition 1818 A.D.)-1818 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान को अपने अधिकार में ले लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। 20,000 घुड़सवारों और पैदल सैनिकों की कमांड मिसर दीवान चंद को सौंपी गई। इस सेना ने मुलतान के दुर्ग पर घेरा डाला। यह घेरा चार माह तक जारी रहा। 2 जून की शाम को अकाली नेता साधू सिंह अपने कुछ साथियों को साथ लेकर दुर्ग के भीतर जाने में सफल हो गया। इस लड़ाई में मुजफ्फ़र खाँ अपने पाँच पुत्रों सहित वीरता से लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार रणजीत सिंह की सेनाओं ने मुलतान के दुर्ग को 2 जून, 1818 ई० को विजित कर लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने इस विजय की प्रसन्नता में लाहौर एवं अमृतसर में भारी दीपमाला की। युद्ध में वीरता दिखाने वाले सरदारों तथा सैनिकों को भी मूल्यवान उपहार दिए गए। मिसर दीवान चंद को ज़फ़र जंग की उपाधि से सम्मानित किया गया।

मुलतान की विजय का महत्त्व (Importance of the Conquest of Multan)
मुलतान की विजय महाराजा रणजीत सिंह की महत्वपूर्ण विजयों में से एक थी।
1. मुलतान की विजय से पंजाब में से अफ़गान शक्ति का दबदबा सदैव के लिए समाप्त हो गया। इस विजय ने यह सिद्ध कर दिया कि सिख अफ़गानों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं।

2. मुलतान की विजय का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह भी हुआ कि छोटी मुस्लिम रियासतों के शासकों ने भय से शीघ्र ही रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली।

3. मुलतान का प्रदेश बहुत उपजाऊ तथा समृद्ध था। इसलिए इसकी विजय से रणजीत सिंह की आय में काफ़ी वृद्धि हुई।

4. मुलतान की विजय से जहाँ महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य में वृद्धि हुई, वहीं उसके मान-सम्मान में चार चाँद लग गए। सभी उसकी शक्ति का लोहा मानने लगे।

5. मुलतान की विजय व्यापारिक पक्ष से भी बहुत लाभप्रद सिद्ध हुई। इस महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र पर रणजीत सिंह का अधिकार हो जाने के कारण पंजाब के व्यापार को काफ़ी प्रोत्साहन मिला। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,

“इस ( मुलतान ) विजय से न केवल रणजीत सिंह के आर्थिक साधनों में वृद्धि हुई अपितु उसका अपने दुश्मनों पर दबदबा भी स्थापित हो गया।’8

8. “The conquest besides adding to his financial sources, established Ranjit Singh’s prestige among his enemies.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. IV, p. 85.

कश्मीर की विजय (Conquest of Kashmir)

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा कश्मीर को विजित करने के लिए भेजे गए विभिन्न अभियानों का वर्णन कीजिए। इस विजय का महत्त्व भी बताएँ। (Discuss the various expeditions sent to conquer Kashmir. Study its significance.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर विजय का वर्णन करें।
(Describe Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Kashmir.)
उत्तर-
कश्मीर की घाटी अपनी सुंदरता, प्राकृतिक दृश्यों, मनमोहक जलवायु, स्वादिष्ट फलों तथा समृद्ध व्यापार के कारण सदैव विख्यात रही है । इसे धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है महाराजा रणजीत सिंह के समय कश्मीर का अफ़गान गवर्नर अत्ता मुहम्मद खाँ था । 1809 ई० में अफ़गानिस्तान में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर अत्ता मुहम्मद खाँ ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। काबुल का वज़ीर फ़तह खाँ कश्मीर पर पुनः अधिकार करना चाहता था। दूसरी ओर महाराजा रणजीत सिंह भी कश्मीर को विजित करने की योजनाएँ बना रहा था। 1813 ई० में महाराजा रणजीत सिंह तथा फ़तह खाँ के मध्य रोहतास में एक समझौता हुआ। इस समझौते । के अनुसार दोनों राज्यों की सम्मिलित सेनाएँ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण करेंगी। महाराजा के कश्मीर अभियानों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

कश्मीर का प्रथम अभियान-1813 ई० (First Expedition of Kashmir-1813 A.D.)
1813 ई० में रोहतास में हुए समझौते के अनुसार रणजीत सिंह का सेनापति दीवान मोहकम चंद अपने 12,000 सैनिकों सहित तथा फ़तह खाँ अपनी भारी सेना को साथ लेकर साँझे रूप में कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए चल पड़े। फ़तह खाँ की सेनाएँ एक मार्ग से कश्मीर में प्रविष्ट हुईं तथा दूसरे मार्ग से मोहकम चंद की सेनाएँ कश्मीर पहुँचीं। कश्मीर के गवर्नर अत्ता मुहम्मद खाँ को जब दोनों सेनाओं के आगमन का समाचार मिला तो उसने शेरगढ़ (Shergarh) के किले के निकट उन्हें रोकने का प्रयत्न किया। अत्ता मुहम्मद खाँ थोड़े से मुकाबले के पश्चात् युद्ध क्षेत्र से भाग गया। इस तरह कश्मीर पर आसानी से अधिकार कर लिया गया। कश्मीर की विजय के बाद फ़तह खाँ ने घोषणा की कि सिखों को विजित क्षेत्रों तथा लूट के सामान से कुछ नहीं मिलेगा ।

जब महाराजा रणजीत सिंह को यह पता चला कि फ़तह खाँ ने धोखा किया है तो महाराजा ने एक लाख रुपये वार्षिक जागीर के बदले में जहाँदद खाँ से अटक का महत्त्वपूर्ण किला प्राप्त कर लिया। इस पर फ़तह खाँ भड़क उठा। वह अटक को पुनः प्राप्त करने के लिए चल पड़ा। 13 जुलाई, 1813 ई० को दोनों सेनाओं के मध्य हज़रो अथवा हैदरो के स्थान पर हुई लड़ाई में बहु-संख्या में अफ़गान मारे गए और फ़तह खाँ को भागना पड़ा। इस लड़ाई में सिखों ने पहली बार अफ़गान सेनाओं को कड़ी पराजय दी थी।

कश्मीर का दूसरा अभियान 1814 ई० (Second Expedition of Kashmir 1814 A.D.)
हज़रो की विजय से उत्साहित होकर रणजीत सिंह ने अप्रैल, 1814 ई० में कश्मीर पर आक्रमण करने का निर्णय किया। इस समय कश्मीर पर फ़तह खाँ का छोटा भाई अज़ीम खाँ गवर्नर के रूप में काम कर रहा था। महाराजा रणजीत सिंह के अनुभवी सेनापति मोहकम चंद ने महाराजा को परामर्श दिया कि वह अभी कश्मीर पर आक्रमण न करे। महाराजा ने दीवान मोहकम चंद के इस परामर्श की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह स्वयं दीवान मोहकम चंद के पोते रामदयाल तथा सेना को साथ लेकर कश्मीर की ओर चल पड़ा।

जब रणजीत सिंह की सेनाएँ राजौरी पहुँची तो वहाँ के सरदार अगर खाँ (Agar Khan) के ग़लत परामर्श से महाराजा ने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया। इस विभाजन के कारण रामदयाल के नेतृत्व में सिख सेना को जुलाई 1814 ई० में सोपियाँ (Sopian) की लड़ाई में काफ़ी क्षति उठानी पड़ी। अत: रणजीत सिंह को भी बिना मुकाबला किए लौट जाना पड़ा। खराब मौसम होने से रणजीत सिंह की सेना की जन-धन की भारी क्षति हुई। रामदयाल को भी भारी क्षति उठाकर लाहौर लौटना पड़ा।

कश्मीर का तीसरा अभियान-1819 ई० (Third Expedition of Kashmir-1819 A.D.)
1818 ई० में अज़ीम खाँ ने अपने भाई ज़बर खाँ को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त कर दिया। वह एक निकम्मा तथा अयोग्य शासक प्रमाणित हुआ। महाराजा रणजीत सिंह ऐसी स्थिति से पूरा लाभ उठाना चाहता था। दूसरा 1818 ई० में मुलतान की विजय के कारण महाराजा रणजीत सिंह के सैनिकों में एक नया जोश भर गया था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह अप्रैल, 1819 ई० को 30,000 सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर कश्मीर की ओर चल पड़ा। सेना का मुख्य भाग मिसर दीवान चंद के अधीन रखा गया । दोनों सेनाओं में 5 जुलाई, 1819 ई० में सुपीन (Supin) के स्थान पर भारी युद्ध हुआ। सिख सेना के सामने अफ़गान सेना अधिक समय तक न ठहर सकी तथा वह युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ी हुई। ज़बर खाँ भी पेशावर की ओर भाग गया। इस प्रकार सिखों ने कश्मीर पर अधिकार कर लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने इस विजय पर बहुत खुशी मनाई। मिसर दीवान चंद को फ़तह-ओ-नुसरत नसीब की उपाधि प्रदान की गई।

कश्मीर विजय का महत्त्व (Importance of the Conquest of Kashmir)
कश्मीर की विजय महाराजा रणजीत सिंह की महत्त्वपूर्ण विजयों में से एक थी। प्रथम, इस कारण महाराजा की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई। दूसरे, कश्मीर पर सिखों का अधिकार हो जाने से अफ़गान शक्ति को एक और गहरा आघात पहुँचा। तीसरे, सिखों के हौंसले बुलंद हो गए। चौथा, इस विजय से महाराजा को भारी आर्थिक लाभ हुआ। इस प्राँत से महाराजा को 40,00,000 रुपये वार्षिक आय होती थी। पाँचवां, कश्मीर की विजय व्यापारिक दृष्टि से भी बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुई। यह राज्य शालों के उद्योग के लिए विश्व भर में विख्यात था। खुशवंत सिंह के अनुसार,
“कश्मीर पंजाब के लिए एक अति महत्त्वपूर्ण प्राप्ति थी।”9

9. “Kashmir was an important acquisition for the Punjab.” Khushwant Singh, Ranjit Singh : Maharaja of the Punjab (Bombay : 1973) p. 56.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

पेशावर की विजय (Conquest of Peshawar)

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह की पेशावर की विजय तां इसे साम्राज्य में सम्मिलित करने के मुख्य चरणों का वर्णन कीजिए।
(Give the main stages of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Peshawar and its anņexation to his kingdom.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की पेशावर विजय का वर्णन करें।
(Describe the conquest of Peshawar by Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
पेशावर पंजाब की उत्तर पश्चिमी सीमा पर स्थित था। इसलिए यह भौगोलिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। उत्तर-पश्चिमी सीमा से पंजाब आने वाले आक्रमणकारी प्रायः इसी मार्ग से आते थे । परिणामस्वरूप पंजाब राज्य की सुरक्षा के लिए रणजीत सिंह के लिए पेशावर पर अधिकार करना आवश्यक था। महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर विजय के लिए विभिन्न अभियान भेजे। इन अभियानों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
1. प्रथम अभियान 1818 ई० (First Expedition 1818 A.D.)-महाराजा रणजीत सिंह ने 1818 ई० में पेशावर पर प्रथम आक्रमण किया। उस समय पेशावर पर दो भाई-यार मुहम्मद खाँ तथा दोस्त मुहम्मद खाँ संयुक्त रूप से शासन कर रहे थे। वे सिख सेना का बिना सामना किए पेशावर से भाग गए। इस प्रकार 20 नवंबर, 1818 को पेशावर पर अधिकार कर लिया गया। महाराजा रणजीत सिंह ने अटक के भूतपूर्व शासक जहाँदद खाँ को पेशावर का गवर्नर नियुक्त किया।

2. द्वितीय अभियान 1819 ई० (Second Expedition 1819 A.D.)—शीघ्र ही यार मुहम्मद खाँ तथा दोस्त मुहम्मद खाँ ने पेशावर पर पुनः अधिकार कर लिया। इस पर महाराजा ने 12,000 सैनिकों की एक विशाल सेना पेशावर पर आक्रमण के लिए भेजी। यार मुहम्मद खाँ तथा दोस्त मुहम्मद खाँ ने महाराजा की अधीनता स्वीकार कर ली।

3. तृतीय अभियान 1823 ई० (Third Expedition 1823 A.D.)-कुछ समय पश्चात् पेशावर पर काबुल के वज़ीर अजीम खाँ ने अधिकार कर लिया। अज़ीम खाँ जानता था कि उसे कभी भी महाराजा की सेनाओं का सामना करना पड़ सकता है। शीघ्र ही महाराजा ने हरी सिंह नलवा, शहजादा शेर सिंह तथा अतर सिंह अटारीवाला के नेतृत्व में एक विशाल सेना पेशावर भेजी। 14 मार्च, 1823 ई० को दोनों सेनाओं के बीच नौशहरा में एक निर्णायक लड़ाई हुई। इस लड़ाई को टिब्बा टेहरी (Tibba Tehri) की लड़ाई भी कहते हैं। आरंभ में खालसा सेना के पाँव उखड़ने लगे। ऐसे समय महाराजा रणजीत सिंह ने सैनिकों में एक नया जोश भरा। अंत में अज़ीम खाँ और उसके साथी लड़ाई के मैदान से भाग खड़े हुए और सिख विजयी हुए। महाराजा रणजीत सिंह ने एक बार फिर यार मुहम्मद खाँ को पेशावर का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

4. चतुर्थ अभियान 1827-31 ई० (Fourth Expedition 1827-31 A.D.)-1827 ई० से 1831 ई० के समय के बीच महाराजा रणजीत सिंह को सय्यद अहमद के विद्रोह का दमन करने के लिए कई सैनिक अभियान भेजने पड़े थे। अफ़गान नेता सय्यद अहमद ने पेशावर पर अधिकार कर लिया था। इस पर महाराजा रणजीत सिंह ने शहज़ादा शेर सिंह तथा जनरल वेंतूरा को सेना देकर पेशावर भेजा। इस सेना ने सय्यद अहमद तथा उसके सैनिकों को कड़ी पराजय दी। किन्तु वह भागने में सफल हो गया। सय्यद अहमद 1831 ई० में बालाकोट में शेर सिंह के साथ लड़ता हुआ मारा गया। सुल्तान मुहम्मद खाँ को पेशावर का नया गवर्नर नियुक्त किया गया।

5. पाँचवाँ अभियान 1834 ई० (Fifth Expedition 1834 A.D.) महाराजा रणजीत सिंह ने 1834 ई० में पेशावर को अपने साम्राज्य में सम्मिलित करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से शहज़ादा नौनिहाल सिंह तथा हरी सिंह नलवा के नेतृत्व में एक विशाल सेना पेशावर भेजी गई। दोस्त मुहम्मद खाँ सिख सैनिकों का बिना सामना किए काबुल भाग गया। इस प्रकार सिखों ने 6 मई, 1834 ई० को सरलता से पेशावर पर अधिकार कर लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर का शासन प्रबंध चलाने के लिए हरी सिंह नलवा को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया।

जमरौद की लड़ाई (Battle of Jamraud)
अफ़गानिस्तान का तत्कालीन शासक दोस्त मुहम्मद खाँ पेशावर को पुनः हासिल करना चाहता था। दूसरी ओर हरी सिंह नलवा ने अफ़गानों के आक्रमणों को रोकने के लिए जमरौद में एक शक्तिशाली दुर्ग का निर्माण करवाया। दोस्त मुहम्मद खाँ ने अपने पुत्रों के अधीन 20,000 सैनिकों को जमरौद पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस सेना ने 28 अप्रैल, 1837 ई० को जमरौद पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में 30 अप्रैल, 1837 ई० को हरी सिंह नलवा शहीद हो गया। इस पर क्रोधित सिख सेना ने इतना जोरदार आक्रमण किया कि अफ़गानों को पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार सिख जमरौद की इस निर्णायक लड़ाई में विजयी रहे और पेशावर पर उनका अधिकार हो गया।

पेशावर की विजय का महत्त्व (Significance of the Conquest of Peshawar)
पेशावर की विजय महाराजा रणजीत सिंह की एक निर्णायक विजय थी। महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। उसकी सैनिक-शक्ति की धाक् समस्त भारत में जम गई। पंजाबियों ने भी सुख की साँस ली क्योंकि इसी मार्ग से होकर मुस्लिम आक्रमणकारी पंजाब तथा भारत के अन्य भागों पर आक्रमण करते थे। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पेशावर पर अधिकार कर लिए जाने के कारण इन आक्रमणों का भय दूर हो गया। इस कारण महाराजा रणजीत सिंह की वार्षिक आय में काफ़ी वृद्धि हो गई। ये आक्रमण बहुत विनाशकारी थे। पेशावर पर अधिकार महाराजा के लिए आर्थिक पक्ष से भी बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ। प्रोफेसर हरबंस सिंह का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“सिखों की पेशावर की विजय ने उत्तर-पश्चिमी दिशा से होने वाले लगातार आक्रमणों का सदैव के लिए अंत कर दिया।”10

10. “The Sikh conquest of Peshawar finally ended the long sequence of invasions from the north west.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi : 1994) p. 140.

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

संक्षिप्त उत्तरों वाले प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के जीवन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief account of the career of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल पंजाब बल्कि भारत के महानतम शासकों में की जाती है। आपका जन्म 13 नवंबर, 1780 ई० को गुजराँवाला में हुआ। आप ने 1799 ई० से 1839 ई० तक शासन किया। आप ने एक विशाल एवं स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की। लाहौर, मुलतान, कश्मीर एवं पेशावर आपकी सब से महत्त्वपूर्ण विजयें थीं। आपके राज्य में सभी धर्मों का समान आदर किया जाता था। आपने एक उच्चकोटि के शासन प्रबंध की व्यवस्था की। निस्संदेह आप पंजाब के ‘शेरे-ए-पंजाब’ थे।

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के सिंहासन पर बैठने के समय पंजाब की राजनीतिक स्थिति कैसी थी ?
(What was the political condition of Punjab at the time of Maharaja Ranjit Singh’s accession to power ?)
अथवा
जब महाराजा रणजीत सिंह गद्दी पर बैठे, तो पंजाब की राजनीतिक अवस्था कैसी थी ?
(What was the political condition of the Punjab on the occasion of Maharaja Ranjit Singh’s accession to throne ?)
उत्तर-
रणजीत सिंह ने 1797 ई० में जब शुकरचकिया मिसल का नेतृत्व संभाला तो उस समय पंजाब में हर तरफ अशाँति तथा अव्यवस्था थी। सिखों ने अपनी 12 स्वतंत्र मिसलें स्थापित कर ली थीं। इन मिसलों की परस्पर एकता समाप्त हो चुकी थी। पंजाब के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में मुसलमानों के कुछ स्वतंत्र रियासतों की स्थापना कर ली थी। अफ़गानिस्तान के शासक शाह ज़मान ने पंजाब को अपने अधिकार में लेने के उद्देश्य से पंजाब पर आक्रमण आरंभ कर दिए थे। काँगड़ा के शासक संसार चंद तथा नेपाल के शासक भीमसेन थापा पंजाब पर अधिकार करने का स्वप्न देख रहे थे।

प्रश्न 3.
शाह ज़मान पर एक टिप्पणी लिखें।
(Write a short note on Shah Zaman.)
उत्तर-
शाह ज़मान 1793 ई० में अपने पिता तैमूरशाह की मृत्यु के पश्चात् अफ़गानिस्तान का शासक बना था। उसने सबसे पहले पंजाब को अपने अधिकार में लेने के प्रयत्न आरंभ किए। इस उद्देश्य के लिए उसने 1793 ई० और पुनः 1795 ई० में पंजाब पर आक्रमण किए, परंतु उसे यह अभियान मध्य में ही छोड़ कर काबुल लौट जाना पड़ा था। पंजाब पर अपने तीसरे आक्रमण के समय उसने जनवरी, 1797 ई० में लाहौर पर आसानी से अधिकार कर लिया था। नवंबर, 1798 ई० में शाह ज़मान ने लाहौर पर अधिकार कर लिया था । 1800 ई० में काबुल में शाह ज़मान का तख्ता पलट दिया गया।

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प्रश्न 4.
रणजीत सिंह द्वारा लाहौर विजय तथा इसके महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the conquest of Lahore by Ranjit Singh and its significance.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की लाहौर विजय पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Lahore.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की सर्वप्रथम तथा महत्त्वपूर्ण विजय लाहौर की थी। उस समय लाहौर पर तीन भंगी सरदारों-साहिब सिंह, मोहर सिंह तथा चेत सिंह का शासन था। रणजीत सिंह ने अपनी सास सदा कौर की सहायता से लाहौर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण की सूचना मिलते ही साहिब सिंह तथा मोहर सिंह भाग गए। चेत सिंह ने कुछ संघर्ष के पश्चात् अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इस प्रकार रणजीत सिंह ने 7 जुलाई, 1799 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। यह विजय महाराजा रणजीत सिंह के जीवन में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

प्रश्न 5.
भसीन की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhasin.)
उत्तर-
लाहौर की विजय के कारण अमृतसर के गुलाब सिंह भंगी तथा कसूर के निजामुद्दीन ने 1800 ई० में महाराजा रणजीत सिंह के विरुद्ध गठबंधन कर लिया। वे अपनी सेनाएँ लेकर लाहौर के निकट भसीन नामक गाँव में पहुँच गए। रणजीत सिंह भी उनका सामना करने के लिए भसीन आ डटा। अचानक एक दिन गुलाब सिंह भंगी जो कि गठबंधन का नेता था, अधिक शराब पीने से मर गया। इससे रणजीत सिंह के विरोधियों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार बिना रक्तपात के रणजीत सिंह को विजयश्री मिल गई।

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह की अमृतसर की विजय तथा इसके महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly about the conquest of Amritsar by Maharaja Ranjit Singh and its importance.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आरंभिक जीवन में अमृतसर की विजय का क्या महत्त्व था ?
(What is the significance of the conquest of Amritsar in the early career of Maharaja Ranjit Singh ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की अमृतसर की विजय का संक्षिप्त वर्णन करो।
(Describe briefly about the conquest of Amritsar by Maharaja Ranjit Singh.) .
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की अमृतसर विजय पर संक्षेप नोट लिखो।
(Write a brief note on Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Amritsar.)
उत्तर-
1805 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर पर शासन करने वाली माई सुक्खाँ को लोहगढ़ का किला तथा प्रसिद्ध जमजमा तोप उसके सुपुर्द करने के लिए कहा। माई सुक्खाँ ने इंकार कर दिया। इस कारण महाराजा ने अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। माई सुक्खाँ ने थोड़े-से संघर्ष के बाद पराजय स्वीकार कर ली। इस प्रकार 1805 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर पर कब्जा कर लिया। अमृतसर की विजय से महाराजा रणजीत सिंह की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।

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प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर कैसे विजय प्राप्त की ? (How did Maharaja Ranjit Singh conquer Multan ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान विजय का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Multan.)
उत्तर-
मुलतान भौगोलिक तथा व्यापारिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। महाराजा रणजीत सिंह ने 1802 ई० से लेकर 1817 ई० तक मुलतान के विरुद्ध.6 सैनिक अभियान दल भेजे। मुलतान का शासक मुजफ्फर खाँ हर बार . नज़राना देकर टालता रहा। 1818 ई० में रणजीत सिंह ने सातवीं बार एक विशाल सेना मिसर दीवान चंद के नेतृत्व में मुलतान की ओर भेजी। 2 जून, 1818 ई० को सिख सेना ने मुलतान के नवाब मुजफ्फर खाँ को हरा कर मुलतान पर कब्जा कर लिया।

प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान की विजय का महत्त्व बताएँ। (Describe the significance of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Multan.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान विजय के तीन महत्त्व बताएँ। (Discuss the three significance of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Multan.)
उत्तर-
मुलतान की विजय महाराजा रणजीत सिंह की महत्त्वपूर्ण विजयों में से एक थी। इस विजय से पंजाब में से अफ़गान शक्ति का दबदबा सदैव के लिये समाप्त हो गया। इस विजय से सिखों की सेना के हौंसले बुलंद हो गए। इस विजय से जहाँ महाराजा रणजीत के साम्राज्य में वृद्धि हुई, वहीं उसके मान-सम्मान में चार चाँद लग गए। परिणामस्वरूप मुलतान की विजय से पंजाब के व्यापार में बहुत वृद्धि हुई।

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर कैसे अधिकार किया ? (How did Maharaja Ranjit Singh conquer Kashmir ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह और फ़तह खाँ के मध्य हुए समझौते के अनुसार 1813 ई० में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। कश्मीर का गवर्नर अता मुहम्मद खाँ इन दोनों सेनाओं से टक्कर लेने के लिए आगे बढ़ा, परंतु शेरगढ़ के स्थान पर हुई लड़ाई में वह हार गया। 1814 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर दूसरी बार आक्रमण किया, परंतु महाराजा को असफलता का सामना करना पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह ने 1819 ई० में कश्मीर पर तीसरी बार आक्रमण किया तथा कश्मीर को विजित करने में सफल हुआ।

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर की विजय का महत्त्व बताएँ। (Describe the significance of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Kashmir.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर विजय से उसकी प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। दूसरा, लेह, ल्हासा तथा उसकी शक्ति की धाक प्राकृतिक सीमा तक पहुंच गई। तीसरा, कश्मीर पर सिखों का अधिकार हो जाने से अफ़गान शक्ति को एक और भारी आघात पहुँचा। चौथा, कश्मीर की विजय से महाराजा को भारी आर्थिक लाभ हुआ। पाँचवां कश्मीर की विजय व्यापारिक दृष्टि से भी बहुत लाभप्रद साबित हुई।

प्रश्न 11.
नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी की लड़ाई पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a brief note on the battle of Naushehra or Tibba Tehri.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह और आज़िम खाँ की सेनाओं के मध्य 14 मार्च, 1823 ई० को नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी के स्थान पर बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। आरंभ में अफ़गानों का पलड़ा भारी रहा। अकाली फूला सिंह तथा कई अन्य विख्यात योद्धा इस लड़ाई में मारे गए। ऐसे समय में महाराजा रणजीत सिंह ने अफ़गान सेना पर एक ऐसा ज़ोरदार आक्रमण किया कि उन्हें अपने प्राण बचाने के लिए रण क्षेत्र से भागना पड़ा। इस निर्णायक लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह की विजय से उसकी सेना का प्रोत्साहन बहुत बढ़ गया।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह की पेशावर की विजय एवं इसके महत्त्व पर संक्षेप नोट लिखें।
(Write a short note on Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Peshawar and its significance.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने 1834 ई० में पेशावर पर विजय प्राप्त की। इस विजय से महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। पेशावर पर रणजीत सिंह का अधिकार हो जाने से पंजाबियों ने सुख की साँस ली, क्योंकि इसी मार्ग से होकर मुस्लिम आक्रमणकारी पंजाब तथा भारत के अन्य भागों पर आक्रमण करते थे। पेशावर पर अधिकार महाराजा के लिए आर्थिक पक्ष से भी लाभप्रद सिद्ध हुआ। इसके अतिरिक्त इस विजय ने पंजाब में अफ़गानों की शक्ति को पूर्णत: नष्ट कर दिया।

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प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह ने पराजित शासकों के प्रति क्या नीति धारण की?
(What policy did Maharaja Ranjit Singh adopt towards the defeated rulers ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने न केवल बहुत-से प्रदेशों पर अधिकार किया, अपितु उनके प्रति एक सफल प्रशासनिक नीति भी अपनाई। यह नीति सभी शासकों पर समान रूप से लागू होती थी, चाहे वह शासक हिंदू, सिख अथवा मुसलमान थे। कई शासकों को, जिन्होंने रणजीत सिंह की अधिराज्य शर्ते स्वीकार कर ली थीं, उनके क्षेत्र लौटा दिए गए। जिन शासकों के क्षेत्र सिख राज्य में सम्मिलित कर लिए गए उन्हें महाराजा ने अपने दरबार में नौकरी पर रख लिया अथवा उन्हें गुज़ारे के लिए जागीरें दे दी गईं। विरोध जारी रखने वाले शासकों के विरुद्ध कड़ी नीति अपनाई गई।

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख मिसलों के संबंध में क्या नीति अपनाई? (What policy did Maharaja Ranjit Singh adopt towards the Sikh Misls ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की सिख मिसलों के प्रति नीति के बारे में बताओ। (Write down the policy of Maharaja Ranjit Singh towards Sikh Misls ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति की विवेचना करें। (Examine the Misl policy of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
रणजीत सिंह ने जिस समय शुकरचकिया मिसल की बागडोर संभाली, उस समय पंजाब में 12 स्वतंत्र सिख मिसलें स्थापित थीं। महाराजा रणजीत सिंह ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से सिख मिसलों को अपने अधीन करने की योजना बनाई। उसने आरंभ में इन शक्तिशाली मिसलों के साथ या तो विवाह संबंध स्थापित कर लिए अथवा मित्रता कर ली। उनके सहयोग से रणजीत सिंह ने दुर्बल मिसलों पर अधिकार कर लिया। जब रणजीत सिंह के साधनों का विस्तार हो गया तो उसने शक्तिशाली मिसलों को एक-एक करके अपने राज्य में शामिल कर लिया।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

(i) एक शब्द से एक पंक्ति तक के उत्तर (Answer in One Word to One Sentence)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
13 नवंबर, 1780 ई०।

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म कहाँ हआ ?
उत्तर-
गुजरांवाला।

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह की माता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
राज कौर।

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
महा सिंह।

प्रश्न 5.
राज कौर कौन थी?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की माँ।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

प्रश्न 6.
रणजीत सिंह की माता को क्या कहा जाता था?
उत्तर-
रणजीत सिंह की माता को माई मलवैण कहा जाता था।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के दादा जी का क्या नाम था?
उत्तर-
चढ़त सिंह।

प्रश्न 8.
रणजीत सिंह कब सिंहासन पर बैठा?
उत्तर-
1792 ई०।

प्रश्न 9.
रणजीत सिंह का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
बुध सिंह।

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह का संबंध किस मिसल के साथ था ?
उत्तर-
शुकरचकिया मिसल।

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह का पहला विवाह किसके साथ हुआ था ?
उत्तर-
मेहताब कौर के साथ।

प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह का पहला विवाह कब हुआ था ?
उत्तर-
1796 ई० में।।

प्रश्न 13.
सदा कौर कौन थी ?
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की सास।

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प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह की सासू का क्या नाम था ?
उत्तर-
सदा कौर।

प्रश्न 15.
कौर कौन-सी मिसल से संबंधित थी?
अथवा
सदा कौर का संबंध किस मिसल से था ?
उत्तर-
कन्हैया मिसल।

प्रश्न 16.
रणजीत सिंह के उत्थान के समय लाहौर में किन सरदारों का शासन था ?
उत्तर-
भंगी सरदारों का।

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के उत्थान के समय कसूर पर किस शासक का शासन था ?
उत्तर-
निज़ामुद्दीन।

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प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के उत्थान के समय काँगड़ा का शासक कौन था ?
उत्तर-
संसार चंद कटोच।

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के उत्थान के समय गोरखों का प्रसिद्ध नेता कौन था ?
उत्तर-
भीम सेन थापा।

प्रश्न 20.
जॉर्ज थामस कौन था ?
उत्तर-
वह एक बहादुर अंग्रेज़ था जिसने हाँसी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी।

प्रश्न 21.
शाह ज़मान कौन था ?
उत्तर-
अफ़गानिस्तान का बादशाह।

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प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत का शासनकाल क्या था ?
उत्तर-
1799 ई० से 1839 ई०

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह के आक्रमण के समय लाहौर पर किस मिसल का शासन था ?
उत्तर-
भंगी मिसल।

प्रश्न 24.
रणजीत सिंह ने लाहौर पर कब विजय प्राप्त की थी ?
उत्तर-
7 जुलाई, 1799 ई०।

प्रश्न 25.
लाहौर की विजय महाराजा रणजीत सिंह के लिए किस प्रकार महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई ?
उत्तर-
इस विजय के कारण महाराजा रणजीत सिंह को पंजाब का स्वामी समझा जाने लगा।

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प्रश्न 26.
रणजीत सिंह को कब पंजाब का महाराजा घोषित किया गया ?
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की ताजपोशी कब हुई ?
उत्तर-
12 अप्रैल, 1801 ई०।

प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह की ताजपोशी कहाँ हुई ?
उत्तर-
लाहौर।

प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर को कब जीता ?
उत्तर-
1805 ई०।

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर को किस से जीता था ?
उत्तर-
माई सुखां से।

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प्रश्न 30.
जमजमा क्या थी ?
उत्तर-
एक प्रसिद्ध तोप थी।

प्रश्न 31.
महाराजा रणजीत सिंह ने मालवा के प्रदेशों पर कितनी बार आक्रमण किए ?
उत्तर-
तीन बार।

प्रश्न 32.
महाराजा रणजीत सिंह की कसूर विजय के समय वहाँ पर किसका शासन था ?
उत्तर-
नवाब कुतब-उद-दीन ।

प्रश्न 33.
महाराजा रणजीत सिंह ने कसूर पर कब विजय प्राप्त की थी ?
उत्तर-
1807 ई० में।

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प्रश्न 34.
महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा पर कब विजय प्राप्त की ?
उत्तर-
1809 ई०।

प्रश्न 35.
महाराजा रणजीत सिंह की काँगड़ा विजय के समय वहाँ किसका शासन था ?
उत्तर-
संसार चंद कटोच।

प्रश्न 36.
महाराजा रणजीत सिंह ने गुजरात को कब जीता था ?
उत्तर-
1809 ई०।

प्रश्न 37.
महाराजा रणजीत सिंह ने गुजरात को किससे विजय किया था ?
उत्तर-
साहिब सिंह भंगी।

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प्रश्न 38.
महाराजा रणजीत सिंह ने अटक पर कब विजय प्राप्त की थी ?
उत्तर-
1813 ई०।

प्रश्न 39.
महाराजा रणजीत सिंह की अटक विजय के समय वहाँ पर किसका शासन था ?
उत्तर-
नवाब जहाँदाद खाँ।।

प्रश्न 40.
हजरो अथवा हैदरो अथवा छछ की लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
13 जुलाई, 1813 ई०

प्रश्न 41.
महाराजा रणजीत सिंह के समय मुलतान का शासक कौन था ?
उत्तर-
नवाब मुजफ्फर खाँ।

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प्रश्न 42.
महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर कब विजय प्राप्त की ?
उत्तर-
2 जून, 1818 ई०।

प्रश्न 43.
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा मुलतान की विजय के समय सिख सेना का नेतृत्व किस सेनापति ने किया ?
उत्तर-
मिसर दीवान चंद।

प्रश्न 44.
मुलतान की विजय का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
इस विजय से अफ़गानों की शक्ति को भारी आघात पहुँचा।

प्रश्न 45.
रणजीत सिंह ने फ़तह खाँ के साथ कब कश्मीर पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से समझौता किया ?
उत्तर-
1813 ई०।

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प्रश्न 46.
वफ़ा बेग़म कौन थी ?
उत्तर-
वह अफ़गानिस्तान के शासक शाह शुज़ाह की पत्नी थी।

प्रश्न 47.
महाराजा रणजीत सिंह ने वफ़ा बेगम से क्या प्राप्त किया ?
उत्तर-
कोहेनूर हीरा

प्रश्न 48.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर पहली बार कब आक्रमण किया था ?
उत्तर-
1813 ई०

प्रश्न 49.
महाराजा रणजीत सिंह के कश्मीर पर प्रथम आक्रमण के समय वहाँ पर किसका शासन था ?
उत्तर-
अता मुहम्मद खाँ

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प्रश्न 50.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर दूसरी बार कब आक्रमण किया था ?
उत्तर-
1814 ई०

प्रश्न 51.
1814 ई० में महाराजा रणजीत सिंह के कश्मीर आक्रमण के समय वहाँ पर किसका शासन था ?
उत्तर-
आज़िम खाँ।

प्रश्न 52.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर कब विजय प्राप्त की ?
उत्तर-
5 जुलाई, 1819 ई० को।

प्रश्न 53.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर का पहला गवर्नर किसे नियुक्त किया था ?
उत्तर-
दीवान मोती राम।

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प्रश्न 54.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर पर पहली बार कब आक्रमण किया ?
उत्तर-
1818 ई०।

प्रश्न 55.
1818 ई० में महाराजा रणजीत सिंह के पेशावर आक्रमण के समय वहाँ पर किसका शासन था ?
उत्तर-
यार मुहम्मद खाँ तथा दोस्त मुहम्मद खाँ।

प्रश्न 56.
नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी की प्रसिद्ध लड़ाई कब लड़ी गई थी ?
उत्तर-
14 मार्च, 1823 ई० को।

प्रश्न 57.
नौशहरा की लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह के कौन-से प्रसिद्ध योद्धा ने वीरगति प्राप्त की ?
उत्तर-
अकाली फूला सिंह।

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प्रश्न 58.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर को कब सिख साम्राज्य में शामिल किया ?
उत्तर-
1834 ई० में।

प्रश्न 59.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर का पहला गवर्नर जनरल किसे नियुक्त किया था ?
उत्तर-
हरी सिंह नलवा।

प्रश्न 60.
जमरौद की लड़ाई कब लड़ी गई थी ? ।
उत्तर-
1837 ई०

प्रश्न 61.
जमरौद की लड़ाई में सिखों का कौन-सा प्रसिद्ध जरनैल मारा गया ?
उत्तर-
हरी सिंह नलवा।

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प्रश्न 62.
हरी सिंह नलवा किस लड़ाई में शहीद हुआ था ?
उत्तर-
जमरौद की लड़ाई।

प्रश्न 63.
जमरौद की लड़ाई में किसकी पराजय हुई ?
उत्तर-
अफ़गानों की।

प्रश्न 64.
महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी का नाम क्या था ?
उत्तर-
लाहौर।

प्रश्न 65.
महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति की कोई एक विशेषता बताओ।
उत्तर-
अपने राज्य का विस्तार करने के लिए न तो किसी रिश्तेदारी और न ही किसी के प्रति कृतज्ञता की भावना को कोई महत्त्व देना।

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प्रश्न 66.
महाराजा रणजीत सिंह ने रामगढ़िया मिसल के किस सरदार से मित्रता की थी ?
उत्तर-
जोध सिंह रामगढ़िया।

प्रश्न 67.
महाराजा रणजीत सिंह ने गुरमता संस्था का अंत कब किया ?
उत्तर-
1805 ई०।

प्रश्न 68.
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु कब हुई ?
उत्तर-
27 जून, 1839 ई०।

प्रश्न 69.
महाराजा रणजीत सिंह का उत्तराधिकारी कौन बना ?
उत्तर-
खड़क सिंह।

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प्रश्न 70.
खड़क सिंह कौन था ?
उत्तर-
खड़क सिंह महाराजा रणजीत सिंह का बड़ा बेटा था।

(ii) रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks)

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह……..मिसल के साथ संबंधित थे।
उत्तर-
(शुकरचकिया)

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म………….में हुआ।
उत्तर-
(1780 ई०)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के पिता जी का नाम…………था।
उत्तर-
(महा सिंह)

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की माता जी का नाम…………..था।
उत्तर-
(राज कौर)

प्रश्न 5.
महाराजा रणजीत सिंह के बचपन का नाम……………था।
उत्तर-
(बुध सिंह)

प्रश्न 6.
1796 ई० में रणजीत सिंह का विवाह…………..के साथ हुआ।
उत्तर-
(मेहताब कौर)

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह की सास का नाम……………था।
उत्तर-
(सदा कौर)

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प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह के समय लाहौर पर……………मिसल का शासन था।
उत्तर-
(भंगी)

प्रश्न 9.
रणजीत सिंह ने………….में लाहौर पर विजय प्राप्त की।
उत्तर-
(1799 ई०)

प्रश्न 10.
रणजीत सिंह…………में पंजाब का महाराजा बना।
उत्तर-
(1801 ई०)

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी का नाम……था।
उत्तर-
(लाहौर)

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प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर को ………में विजय किया।
उत्तर-
(1805 ई०)

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह ने……..में काँगड़ा पर विजय प्राप्त की।
उत्तर-
(1809 ई०)

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह के समय काँगड़ा का शासक…….था।
उत्तर-
(संसार चंद कटोच)

प्रश्न 15.
1809 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने गुजरात के शासक………..को पराजित किया।
उत्तर-
(साहिब सिंह भंगी)

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प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह ने अटक पर………में विजय प्राप्त की।
उत्तर-
(1813 ई०)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह के समय मुलतान का नवाब……..था।
उत्तर-
(मुजफ्फर खाँ)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर………में विजय प्राप्त की।
उत्तर-
(1818 ई०)

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कश्मीर का गवर्नर…….था।
उत्तर-
(अत्ता मुहम्मद खाँ)

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प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर पहली बार……में आक्रमण किया।
उत्तर-
(1813 ई०)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर दूसरी बार……..में आक्रमण किया।
उत्तर-
(1814 ई०)

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर……….में विजय प्राप्त की थी।
उत्तर-
(1819 ई०)

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर पर आक्रमण बार………..में आक्रमण किया।
उत्तर-
(1818 ई०)

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प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह के समय सिखों और अफ़गानों के मध्य टिब्बा टेहरी की लड़ाई………में हुई।
उत्तर-
(14 मार्च, 1823 ई०)

प्रश्न 25.
अकाली फूला सिंह अफ़गानों का मुकाबला करते समय…………के युद्ध में मारा गया था।
उत्तर-
(नौशहरा)

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर को…………….में अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया था।
उत्तर-
(1834 ई०)

प्रश्न 27.
सिखों और अफ़गानों के मध्य जमरौद की लड़ाई……में हुई।
उत्तर-
(1837 ई०)

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प्रश्न 28.
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु……में हुई।
उत्तर-
(1839 ई०)

(ii) ठीक अथवा गलत (True or False)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का संबंध कन्हैया मिसल के साथ था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 ई० में हुआ।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह के पिता का नाम महा सिंह था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की माता का नाम सदा कौर था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 5.
सदा कौर कन्हैया मिसल से संबंध रखती थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 6.
महाराजा रणजीत सिंह के बचपन का नाम बुध सिंह था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था।
उत्तर-
गलत

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प्रश्न 8.
शाह जमान तैमूर शाह का बेटा था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 9.
शाह जमान अफ़गानिस्तान का शासक था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 10.
रणजीत सिंह ने 1799 ई० में लाहौर पर विजय प्राप्त की।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 11.
रणजीत सिंह ने 1801 ई० में पंजाब का महाराजा बना।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 12.
महाराजा रणजीत सिंह ने 1805 ई० में अमृतसर को माई सुक्खां से जीता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 13.
जमजमा एक किले का नाम था।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह ने 1809 ई० में काँगड़ा पर विजय प्राप्त की थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह ने 1813 ई० में अटक पर विजय प्राप्त की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान को 1818 ई० में जीता था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर प्रथम बार 1814 ई० में आक्रमण किया।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह के समय कश्मीर के प्रथम आक्रमण के समय वहाँ का गवर्नर अत्ता मुहम्मद खाँ था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 19.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर 1819 ई० में विजय प्राप्त की थी।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर पर प्रथम बार 1818 ई० में आक्रमण किया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 21.
हजरो की लड़ाई 13 जुलाई, 1813 ई० में हुई।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 22.
नौशहरा की प्रसिद्ध लड़ाई 1813 ई० में हुई थी।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 23.
अकाली फूला सिंह नौशहरा की लड़ाई में मारा गया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह ने 1834 ई० में पेशावर को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 25.
जमरौद की लड़ाई 1837 ई० में हुई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु 27 जून, 1839 ई० को हुई थी।
उत्तर-
ठीक

प्रश्न 27.
महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर को अपने साम्राज्य की राजधानी घोषित किया था।
उत्तर-
ठीक

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प्रश्न 28.
महाराजा दलीप सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह के बाद उसके साम्राज्य की बागडोर संभाली।
उत्तर-
गलत

प्रश्न 29.
महाराजा खड़क सिंह महाराजा रणजीत सिंह का उत्तराधिकारी था।
उत्तर-
ठीक

(iv) बहु-विकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर का चयन कीजिए—

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म कब हुआ ?
(i) 1770 ई० में
(ii) 1775 ई० में
(iii) 1776 ई० में
(iv) 1780 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) गुजराँवाला में
(i) लाहौर में
(iii) अमृतसर में
(iv) मुलतान में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 3.
महाराजा रणजीत सिंह का संबंध किस मिसल के साथ था ?
(i) कन्हैया
(ii) शुकरचकिया
(iii) रामगढ़िया
(iv) फुलकियाँ।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) बुध सिंह
(ii) चढ़त सिंह
(iii) महा सिंह
(iv) भाग सिंह।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 5.
‘माई मलवैण’ के नाम से कौन प्रसिद्ध थी ?
(i) दया कौर
(ii) रतन कौर
(iii) राज कौर
(iv) सदा कौर।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 6.
रणजीत सिंह शुकरचकिया मिसल का सरदार कब बना ?
(i) 1790 ई० में
(ii) 1792 ई० में
(iii) 1793 ई० में
(iv) 1795 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 7.
सदा कौर कौन थी ?
(i) रणजीत सिंह की रानी
(ii) रणजीत सिंह की सास
(iii) रणजीत सिंह की बहन
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 8.
रणजीत सिंह की शक्ति के उत्थान के समय लाहौर पर कौन-से भंगी सरदार का शासन था ?
(i) चेत सिंह
(ii) साहिब सिंह
(iii) मोहर सिंह
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 9.
रणजीत सिंह की शक्ति के उत्थान के समय कसूर पर किसका शासन था ?
(i) निज़ामुद्दीन
(ii) कदम-उद-दीन
(iii) वज़ीर खाँ
(iv) जकरिया खाँ।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 10.
रणजीत सिंह की शक्ति के उत्थान के समय संसार चंद कटोच कहाँ का शासक था ?
(i) नेपाल का
(ii) काँगड़ा का
(iii) जम्मू का
(iv) स्यालकोट का।।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 11.
18वीं शताब्दी में गोरखों का सबसे प्रसिद्ध नेता कौन था ?
(i) भीमसेन थापा
(ii) अगरसेन थापा
(iii) अमर सिंह थापा
(iv) तेज बहादुर थापा।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 12.
18वीं शताब्दी में जॉर्ज थॉमस ने कहाँ एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली थी ?
(i) झाँसी में
(ii) हाँसी में
(iii) सरहिंद में
(iv) मुरादाबाद में।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 13.
शाह ज़मान कौन था ?
(i) ईरान का शासक
(ii) नेपाल का शासक
(iii) अफ़गानिस्तान का शासक
(iv) चीन का शासक।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 14.
रणजीत सिंह की प्रथम सबसे महत्त्वपूर्ण विजय कौन-सी थी ?
(i) अमृतसर की
(ii) लाहौर की
(iii) भसीन की
(iv) कश्मीर की।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर पर कब विजय प्राप्त की ?
(i) 1799 ई० में
(ii) 1801 ई० में
(iii) 1803 ई० में
(iv) 1805 ई० में।
उत्तर-
(i)

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प्रश्न 16.
महाराजा रणजीत सिंह ने किसको अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया था ?
(i) लाहौर को
(ii) अमृतसर को
(iii) कश्मीर को
(iv) पेशावर को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 17.
महाराजा रणजीत सिंह की ताजपोशी कब हुई थी ?
(i) 1799 ई० में
(ii) 1800 ई० में
(iii) 1801 ई० में
(iv) 1805 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 18.
महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर पर कब विजय प्राप्त की थी ?
(i) 1805 ई० में
(ii) 1806 ई० में
(iii) 1808 ई० में
(iv) 1809 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 19.
हजरो अथवा हैदरो की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 1809 ई० में
(ii) 1811 ई० में
(iii) 1813 ई० में
(iv) 1814 ई० में।
उत्तर-
(iii)

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

प्रश्न 20.
महाराजा रणजीत सिंह के समय मुलतान में किसका शासन था ?
(i) मिसर दीवान चंद
(ii) अत्ता मुहम्मद खाँ
(iii) मुजफ्फर खाँ
(iv) दोस्त मुहम्मद खाँ।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 21.
महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर कब विजय प्राप्त की ?
(i) 1802 ई० में
(ii) 1805 ई० में
(iii) 1817 ई० में
(iv) 1818 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 22.
महाराजा रणजीत सिंह ने कोहेनूर हीरा किससे प्राप्त किया था ?
(i) शाह शुज़ा से
(ii) वफ़ा बेगम से
(iii) फ़तह खाँ
(iv) ज़बर खाँ से।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 23.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर प्रथम आक्रमण कब किया ?
(i) 1811 ई० में
(ii) 1812 ई० में
(iii) 1813 ई० में
(iv) 1818 ई० में।
उत्तर-
(iii)

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प्रश्न 24.
महाराजा रणजीत सिंह ने जब प्रथम आक्रमण कश्मीर पर किया तब कश्मीर का गवर्नर कौन था ?
(i) अत्ता मुहम्मद खाँ
(ii) शाह शुजा
(iii) ज़बर खाँ
(iv) कुतुबुद्दीन।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 25.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर कब विजय प्राप्त की थी ?
(i) 1813 ई० में
(ii) 1814 ई० में
(iii) 1818 ई० में
(iv) 1819 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 26.
महाराजा रणजीत सिंह ने पेशावर पर पहली बार कब आक्रमण किया ?
(i) 1802 ई० में
(ii) 1805 ई० में
(iii) 1809 ई० में
(iv) 1818 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 27.
किस प्रसिद्ध लड़ाई में अकाली फूला सिंह अफ़गानों से लड़ता हुआ शहीद हो गया था ?
(i) जमरौद की लड़ाई
(ii) नौशहरा की लड़ाई
(iii) सोपियाँ की लड़ाई
(iv) सुपीन की लड़ाई।
उत्तर-
(ii)

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प्रश्न 28.
नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 1818 ई० में
(ii) 1819 ई० में
(iii) 1821 ई० में
(iv) 1823 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 29.
महाराजा रणजीत सिंह ने कब पेशावर पर विजय प्राप्त की थी ?
(i) 1819 ई० में
(ii) 1821 ई० में
(iii) 1823 ई० में
(iv) 1834 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 30.
महाराजा रणजीत सिंह ने कब पेशावर को सिख साम्राज्य में शामिल किया था ?
(i) 1823 ई० में
(ii) 1825 ई० में
(iii) 1834 ई० में
(iv) 1839 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 31.
जमरौद की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 1818 ई० में
(ii) 1819 ई० में
(iii) 1823 ई० में
(iv) 1837 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 32.
जमरौद की लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह का कौन-सा प्रसिद्ध जरनैल मारा गया था ?
(i) हरी सिंह नलवा
(ii) अकाली फूला सिंह
(iii) मिसर दीवान चंद
(iv) दीवान मोहकम चंद।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 33.
महाराजा रणजीत सिंह ने निम्नलिखित में से किस मिसल के साथ मित्रता की नीति नहीं अपनाई ?
(i) आहलूवालिया
(ii) भंगी
(iii) रामगढ़िया
(iv) डल्लेवालिया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 34.
महाराजा रणजीत सिंह किस मिसल सरदार को बाबा कह कर पुकारता था ?
(i) गुरबख्श सिंह को
(ii) फ़तह सिंह आहलूवालिया को
(iii) जोध सिंह रामगढ़िया को
(iv) तारा सिंह घेबा को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 35.
महाराजा रणजीत सिंह ने गुरमता संस्था की कब समाप्ति कर दी ?
(i) 1799 ई० में
(ii) 1801 ई० में
(iii) 1802 ई० में
(iv) 1805 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 36.
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु कब हुई ?
(i) 1829 ई० में
(ii) 1831 ई० में
(iii) 1837 ई० में
(iv) 1839 ई० में।
उत्तर-
(iv)

Long Answer Type Question

प्रश्न 1.
महाराजा रणजीत सिंह के जीवन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the career of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की गणना न केवल पंजाब बल्कि भारत के महानतम शासकों में की जाती है। आपका जन्म 13 नवंबर, 1780 ई० को गुजराँवाला में हुआ। आपके पिता का नाम महा सिंह तथा माता जी का नाम राज कौर था। आपके पिता जी शुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। आप में बचपन से ही वीरता के गुण पाए जाते थे। महाराजा रणजीत सिंह अनपढ़ होते हुए भी बुद्धिमान व्यक्तित्व के स्वामी थे। आपने 1797 ई० में शुकरचकिया मिसल की बागडोर संभाली। 1799 ई० में आपने अपनी सास सदा कौर की सहायता से भंगी सरदारों से लाहौर को विजित किया। निस्संदेह यह विजय आपके जीवन में एक परिवर्तनकारी मोड़ प्रमाणित हुई। आपने 1801 ई० में महाराजा की उपाधि धारण की। महाराजा रणजीत सिंह ने 1839 ई० तक शासन किया। आपने एक विशाल सिख साम्राज्य की स्थापना की। आपकी 1805 ई० में अमृतसर की विजय, 1818 ई० में मुलतान की विजय, 1819 ई० में कश्मीर की विजय एवं 1834 ई० की पेशावर की विजय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थीं। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा स्थापित साम्राज्य उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक तथा पूर्व में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैला हुआ था। महाराजा रणजीत सिंह एक सफल विजेता होने के साथ-साथ एक कुशल प्रबंधक भी सिद्ध हुए। उनके शासन प्रबंध का मुख्य उद्देश्य प्रजा की भलाई करना था। महाराजा रणजीत सिंह ने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाकर उन्हें एक सूत्र में बाँधा। उन्होंने सेना का पश्चिमीकरण करके उसे शक्तिशाली बनाया। उन्होंने पंजाब को अंग्रेजों के साथ मित्रता करके अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित होने से बचाए रखा। इन सभी गुणों के कारण महाराजा रणजीत सिंह को शेर-ए-पंजाब कहा जाता है। निस्संदेह महाराजा रणजीत सिंह को सिख इतिहास में एक गौरवमयी स्थान प्राप्त है।

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प्रश्न 2.
महाराजा रणजीत सिंह के सिंहासन पर बैठने के समय पंजाब की राजनीतिक स्थिति कैसी थी ?
(What was the political condition of Punjab at the time of Maharaja Ranjit Singh’s accession to power ?)
अथवा
जब महाराजा रणजीत सिंह गद्दी पर बैठे, तो पंजाब की राजनीतिक अवस्था कैसी थी ?
(What was the political condition of the Punjab on the occassion of Maharaja Ranjit Singh’s accession to throne ?)
उत्तर-
जब रणजीत सिंह ने 1797 ई० में शुकरचकिया मिसल का नेतृत्व संभाला तो उस समय पंजाब की राजनीतिक स्थिति बहुत दयनीय थी। हर तरफ अशाँति तथा अव्यवस्था थी। मुग़लों का शक्तिशाली राज्य छिन्नभिन्न हो चुका था तथा उसके खंडहरों पर कई छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित हो चुके थे। पंजाब के अधिकाँश क्षेत्र पर सिखों ने अपनी 12 स्वतंत्र मिसलें स्थापित कर ली थीं। इन मिसलों की परस्पर एकता समाप्त हो चुकी थी और उन्होंने सत्ता के लिए परस्पर झगड़ना आरंभ कर दिया था। पंजाब के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में मुसलमानों ने कुछ स्वतंत्र रियासतों की स्थापना कर ली थी, परंतु इनमें आपसी एकता की कमी थी। अफ़गानिस्तान के शासक शाह ज़मान ने पंजाब को अपने अधिकार में लेने के उद्देश्य से पंजाब पर आक्रमण कर दिए थे। काँगड़ा के शासक संसार चंद तथा नेपाल के शासक भीमसेन थापा पंजाब पर अधिकार करने के लिए ललचाई दृष्टि से उसकी ओर देख रहे थे। मराठे तथा अंग्रेज भी पंजाब को अपने अधीन करने के स्वप्न देख रहे थे, परंतु इस समय वे अन्य समस्याओं में ग्रस्त थे। पंजाब की यह राजनीतिक दशा रणजीत सिंह की शक्ति के उत्थान के लिए सहायक सिद्ध हुई।

प्रश्न 3.
शाह ज़मान पर एक टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Shah Zaman.)
उत्तर-
शाह ज़मान 1793 ई० में अपने पिता तैमूरशाह की मृत्यु के पश्चात् अफ़गानिस्तान का शासक बना था। उसने सबसे पहले पंजाब को अपने अधिकार में लेने के प्रयत्न आरंभ किए। इस उद्देश्य के लिए उसने 1793 ई० और पुनः 1795 ई० में पंजाब पर आक्रमण किए, परंतु उसे यह अभियान मध्य में ही छोड़ कर काबुल लौट जाना पड़ा था। पंजाब पर अपने तीसरे आक्रमण के समय उसने जनवरी, 1797. ई० में लाहौर पर आसानी से अधिकार कर लिया था। लाहौर के भंगी सरदार लहणा सिंह तथा गुज्जर सिंह शाह ज़मान के आक्रमण की सूचना पाते ही लाहौर छोड़कर भाग गए थे, परंतु इसी मध्य काबुल में विद्रोह हो जाने से शाह ज़मान को काबुल लौटना पड़ा था। स्थिति का लाभ उठाकर भंगी सरदारों ने लाहौर पर सहजता से अधिकार कर लिया था। नवंबर, 1798 ई० में शाह जमान ने पुनः एक बार लाहौर पर अधिकार कर लिया था, परंतु इस बार भी काबुल में विद्रोह हो जाने के कारण उसे लौट जाना पड़ा। 7 जुलाई, 1799 ई० को महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर पर अधिकार कर लिया था। 1800 ई० में काबुल में शाह ज़मान का तख्ता पलटा दिया गया।

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प्रश्न 4.
महाराजा रणजीत सिंह की छः विजयों का संक्षिप्त विवरण लिखें। (Explain briefly any six conquests of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
रणजीत सिंह एक महान् विजेता था। जिस समय वह सिंहासन पर बैठा तो वह एक छोटीसी रियासत शुकरचकिया का सरदार था, किंतु उसने अपनी वीरता व योग्यता से अपने राज्य को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। महाराजा रणजीत सिंह की विजयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
1. लाहौर की विजय 1799 ई०-महाराजा रणजीत सिंह की सर्वप्रथम विजय लाहौर की थी। यहाँ तीन भंगी सरदारों-साहिब सिंह, मोहर सिंह तथा चेत सिंह का राज्य था। रणजीत सिंह ने लाहौर पर आक्रमण कर 7 जुलाई, 1799 ई० को इस पर सुगमता से अधिकार कर लिया।

2. अमृतसर की विजय 1805 ई०-पंजाब का महाराजा बनने के लिए रणजीत सिंह को अमृतसर पर अधिकार करना आवश्यक था। अत: 1805 ई० में रणजीत सिंह ने अमृतसर पर आक्रमण करके माई सुक्खाँ को पराजित कर दिया। इस प्रकार अमृतसर को लाहौर राज्य में शामिल कर लिया गया।

3. गुजरात की विजय 1809 ई०-गुजरात शहर अपने साधनों के कारण काफ़ी प्रसिद्ध था। यहाँ का शासक साहिब सिंह भंगी रणजीत सिंह के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा था। 1809 ई० में रणजीत सिंह ने फकीर अजीजुद्दीन के नेतृत्व में गुजरात पर आक्रमण कर दिया और उसने साहिब सिंह भंगी को हरा कर गुजरात पर अधिकार कर लिया।

4. मुलतान की विजय 1818 ई०-मुलतान को विजित करने के लिए महाराजा ने 7 बार आक्रमण किए। मुलतान का शासक मुज़फ्फर खाँ प्रत्येक बार रणजीत सिंह को भारी नज़राना देकर टालता रहा। 1818 ई० में रणजीत सिंह ने एक विशाल सेना मिसर दीवान चंद के अधीन भेजी। घमासान युद्ध के बाद रणजीत सिंह की सेनाओं ने मुलतान पर अधिकार कर लिया।

5. कश्मीर की विजय 1819 ई०-कश्मीर की घाटी अपने सौंदर्य व व्यापार के कारण सुविख्यात थी। मुलतान की विजय से रणजीत सिंह बहुत प्रोत्साहित हुआ था। उसने 1819 ई० में मिसर दीवार चंद के नेतृत्व में ही एक विशाल सेना कश्मीर को विजित करने के लिए भेजी। इस सेना ने कश्मीर के शासक जबर खाँ को पराजित करके कश्मीर पर अधिकार कर लिया।

6. पेशावर की विजय 1834 ई०—पेशावर का क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। 1823 ई० में अफ़गानिस्तान के वज़ीर मुहम्मद आज़िम खाँ ने पेशावर पर अधिकार कर लिया था। अतः महाराजा रणजीत सिंह ने उसे नौशहरा में हुई एक घमासान लड़ाई में पराजित करके पेशावर पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार पेशावर को 1834 ई० में लाहौर साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

प्रश्न 5.
रणजीत सिंह द्वारा लाहौर विजय तथा इसके महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the conquest of Lahore by Ranjit Singh and its significance.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की लाहौर विजय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a brief note on Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Lahore.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा लाहौर विजय का क्या महत्त्व था ? संक्षेप में वर्णन करें।
(What is the importance of Maharaja Ranjit Singh’s Lahore conquest ? Briefly explain.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह की सर्वप्रथम तथा महत्त्वपूर्ण विजय’ लाहौर की थी। लाहौर पंजाब का सबसे बड़ा तथा प्राचीन शहर होने के कारण बहुत महत्त्व रखता था। इसके अतिरिक्त लाहौर काफ़ी समय से पंजाब की राजधानी चला आ रहा था। यहाँ तीन भंगी सरदारों-साहिब सिंह, मोहर सिंह तथा चेत सिंह का शासन था। इनके अत्याचारों तथा कुप्रबंध के कारण प्रजा बहुत दुःखी थी। नवंबर, 1798 ई० में अफगानिस्तान के शासक शाह ज़मान ने लाहौर पर अधिकार कर लिया था, परंतु काबुल में विद्रोह हो जाने के कारण उसे वापस लौटना पड़ा। इस स्थिति से लाभ उठाकर भंगी सरदारों ने लाहौर पर सहजता से अधिकार कर लिया था। क्योंकि लाहौर के लोग उनसे बहुत दुःखी थे, इसलिए उन्होंने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार करने का निमंत्रण दिया। एक सुनहरी अवसर देखकर रणजीत सिंह ने अपनी सास सदा कौर की सहायता से लाहौर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण की सूचना मिलते ही साहिब सिंह तथा मोहर सिंह भाग गए। चेत सिंह ने रणजीत सिंह का संक्षिप्त-सा मुकाबला करने के पश्चात् अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इस प्रकार रणजीत सिंह ने 7 जुलाई, 1799 ई० को लाहौर पर अधिकार कर लिया। यह विजय महाराजा रणजीत सिंह के जीवन में एक नया मोड़ सिद्ध हुई।

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प्रश्न 6.
भसीन की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhasin.)
उत्तर-
लाहौर की विजय के कारण बहुत-से सरदार रणजीत सिंह के विरुद्ध हो गए। अमृतसर के गुलाब सिंह भंगी तथा कसूर के निजामुद्दीन ने महाराजा के विरुद्ध गठबंधन कर लिया। वे अपनी सेनाएँ लेकर लाहौर के निकट भसीन नामक गाँव में पहुँच गए। रणजीत सिंह भी उनका सामना करने के लिए भसीन आ डटा। लगभग दो माह किसी ने भी आक्रमण करने का साहस न किया। अचानक एक दिन गुलाब सिंह भंगी जो कि गठबंधन का नेता था, अधिक शराब पीने से मर गया। इससे रणजीत सिंह के विरोधियों का साहस टूट गया और इनमें भगदड़ मच गई। इस प्रकार बिना रक्तपात के रणजीत सिंह को विजयश्री मिल गई। इस विजय से रणजीत सिंह का एक बड़ा खतरा टल गया और लाहौर पर उसका अधिकार पक्का हो गया। भसीन की लड़ाई के पश्चात् सिख सरदारों ने रणजीत सिंह के विरुद्ध फिर कोई गठजोड़ करने का यत्न न किया।

प्रश्न 7.
महाराजा रणजीत सिंह की अमृतसर की विजय तथा इसके महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe briefly about the conquest of Amritsar by Maharaja Ranjit Singh and its importance.)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह के आरंभिक जीवन में अमृतसर की विजय का क्या महत्त्व था ?
(What is the significance of the conquest of Amritsar in the early career of Ranjit Singh ?) .
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की अमृतसर विजय का संक्षिप्त वर्णन करो। (Describe briefly about the conquest of Amritsar by Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
धार्मिक दृष्टि से अमृतसर का सिखों में बड़ा महत्त्व था। सिख इसे अपना मक्का समझते थे। इसके अतिरिक्त यह पंजाब का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र भी था। पंजाब का महाराजा बनने के लिए भी रणजीत सिंह के लिए अमृतसर पर अधिकार करना अत्यावश्यक था। 1805 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने गुलाब सिंह भंगी की विधवा माई सुखाँ को जो अमृतसर में अपने अवयस्क पुत्र गुरदित्त सिंह के नाम पर शासन कर रही थी, लोहगढ़ का किला तथा प्रसिद्ध.जमजमा तोप उसके सुपुर्द करने के लिए कहा। माई सुखाँ ने महाराजा की ये मांगें मानने से इंकार कर दिया। इस कारण महाराजा ने अपनी सास सदा कौर और फतह सिंह आहलूवालिया को साथ लेकर अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। माई सुखाँ ने संक्षिप्त से विरोध के पश्चात् पराजय स्वीकार कर ली। इस प्रकार 1805 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर पर कब्जा कर लिया। अमृतसर की विजय से महाराजा रणजीत सिंह की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। अमृतसर एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था। इस कारण महाराजा रणजीत सिंह के आर्थिक साधनों में वृद्धि हुई। इनके अतिरिक्त महाराजा को अकालियों की सेवाएँ भी प्राप्त हुईं।

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प्रश्न 8.
महाराजा रणजीत सिंह ने मुलतान पर कैसे विजय प्राप्त की ? (How did Maharaja Ranjit Singh conquer Multan ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान विजय का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of Ranjit Singh’s conquest of Multan.)”
उत्तर-
मुलतान भौगोलिक तथा आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह इसे अपने अधिकार में करना चाहता था। मुलतान पर उस समय अफ़गान गवर्नर नवाब मुज़फ्फर खाँ का शासन था। कहने को तो वह काबुल सरकार के अधीन था परंतु वास्तव में वह स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था। महाराजा रणजीत सिंह ने 1802 ई० से 1817 ई० तक 6 अभियान मुलतान भेजे थे। नवाब मुज़फ्फर खाँ हर बार नज़राना देकर रणजीत सिंह की सेना को टाल देता था। 1818 ई० में महाराजा ने मुलतान पर अधिकार करने का निर्णय कर लिया। मुलतान पर आक्रमण करने के लिए बड़े पैमाने पर तैयारियाँ आरंभ कर दी गईं। मिसर दीवान चंद, जो महाराजा के विख्यात सेनापतियों में से एक था, के अधीन 20,000 सैनिकों की विशाल सेना जनवरी, 1818 ई० में मुलतान पर आक्रमण करने के लिए भेजी गई। उधर नवाब मुज़फ्फर खाँ ने महाराजा की सेनाओं का सामना करने के लिए अपनी तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं। उसने सिखों के विरुद्ध जेहाद (धर्म युद्ध) की घोषणा कर दी थी। मुलतान का घेरा चार महीने तक जारी रहा, परंतु सिख किले पर अधिकार करने में विफल रहे। 2 जून, 1818 ई० को अकाली नेता साधु सिंह अपने कुछ साथियों सहित किले के भीतर प्रवेश करने में सफल हो गए। उसके पीछे-पीछे सिख सेनाएं भी किले के भीतर प्रवेश कर गईं। नवाब मुज़फ्फर खाँ तथा उसके पुत्रों ने डट कर सामना किया। अंत में इस लड़ाई में मुज़फ्फर खाँ तथा उसके पाँच बेटे मारे गए। छठा पुत्र घायल हो गया तथा शेष दो ने क्षमा माँग ली। इस प्रकार मुलतान के किले पर अंततः सिख सेना का अधिकार हो गया। जब महाराजा रणजीत सिंह को इस महत्त्वपूर्ण विजय की सूचना मिली तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। विजय के उपलक्ष्य में कई दिनों तक उत्सव मनाया जाता रहा। मिसर दीवान चंद को ‘जफर जंग’ की उपाधि प्रदान की गई। यह विजय महाराजा रणजीत सिंह के लिए अनेक पक्षों से लाभकारी प्रमाणित हुई।

प्रश्न 9.
महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान की विजय का महत्त्व बताएँ। (Describe the significance of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Multan.)
उत्तर-
मुलतान की विजय महाराजा रणजीत सिंह की एक महत्त्वपूर्ण विजय थी। यह विजय कितनी महान् थी, इसका अनुमान हम निम्नलिखित तथ्यों से आसानी से लगा सकते हैं—
1. अफ़गान शक्ति को गहरा आघात-मुलतान विजय से पंजाब से अफ़गान शक्ति का दबदबा समाप्त हो गया। इस विजय ने पंजाब से अफ़गान शक्ति का अंत करके यह प्रमाणित कर दिया कि सिख अफ़गानों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं।

2. मुलतान सिंध एवं बहावलपुर के मध्य एक दीवार बन गया-महाराजा रणजीत सिंह द्वारा मुलतान पर अधिकार कर लिए जाने के कारण सिंध तथा बहावलपुर के मुसलमान अलग-अलग हो गए। इनके पृथक् हो जाने से वे महाराजा रणजीत सिंह के विरुद्ध कोई संयुक्त मोर्चा बनाने के योग्य न रहे। इस प्रकार मुलतान, सिंध तथा बहावलपुर के मध्य एक दीवार बन गया।

3. कुछ छोटी मुस्लिम रियासतों ने रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली-महाराजा रणजीत सिंह की मुलतान की विजय का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि बहावलपुर, डेराजात, डेरा गाज़ी खाँ तथा डेरा इस्माइल खाँ जो छोटी मुस्लिम रियासतें थीं, के शासक बहुत भयभीत हो गए और उन्होंने शीघ्र ही रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली।

4. आय में वृद्धि-मुलतान का प्रदेश बहुत उपजाऊ तथा समृद्ध था। इसलिए इसकी विजय से रणजीत सिंह की आय में 7 लाख रुपए वाषिक की वृद्धि हुई। यहाँ से प्राप्त किए धन से महाराजा रणजीत सिंह को भविष्य में अपनी कई योजनाओं को पूर्ण करने का अवसर मिला।

5. व्यापार को प्रोत्साहन-मुलतान की विजय महाराजा रणजीब सिंह के लिए व्यापारिक एवं सैनिक पक्षों से भी बहुत लाभप्रद सिद्ध हुई। मुलतान के मार्ग से भारत का अफ़गानिस्तान तथा मध्य एशिया देशों के साथ व्यापार होता था। इस महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र पर रणजीत सिंह का अधिकार हो जाने के कारण पंजाब के व्यापार को काफी प्रोत्साहन मिला।

6. रणजीत सिंह के सम्मान में वृद्धि-मुलतान की विजय से जहाँ महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य में वृद्धि हुई, वहाँ उसके मान-सम्मान में चार चाँद लग गए। सभी उसकी शक्ति का लोहा मानने लगे।

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प्रश्न 10.
महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर कैसे अधिकार किया ? (How did Maharaja Ranjit Singh conquer Kashmir ?)
उत्तर-
कश्मीर अपनी सुंदरता तथा व्यापार के लिए बहुत विख्यात था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर पर अधिकार करना चाहता था। ठीक उसी समय काबुल का वज़ीर फ़तह खाँ भी कश्मीर को अपने अधिकार में लेने की योजनाएँ बना रहा था। क्योंकि वे दोनों अकेले कश्मीर को जीतने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए दोनों के मध्य रोहतास में एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार 1813 ई० में इन दोनों सेनाओं ने कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। कश्मीर का गवर्नर अता मुहम्मद खाँ इन दोनों सेनाओं से टक्कर लेने के लिए आगे बढ़ा, परंतु शेरगढ़ के स्थान पर हुई लड़ाई में वह हार गया। कश्मीर पर अधिकार करने के पश्चात् फ़तह खाँ ने रणजीत सिंह को कुछ भी न दिया। 1814 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर दूसरी बार आक्रमण किया, परंतु इस आक्रमण में महाराजा को असफलता का सामना करना पड़ा। 1818 ई० में मुलतान की विजय से उत्साहित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने 1819 ई० में कश्मीर पर तीसरी बार आक्रमण किया। 5 जुलाई, 1819 ई० को सोपियाँ के स्थान पर हुई लड़ाई ने कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर जबर खाँ की कड़ी पराजय हुई। इस प्रकार अंततः महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर को विजित करने में सफल हुआ। इस भव्य विजय के कारण महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत खुशियाँ मनाईं।

प्रश्न 11.
महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर की विजय का महत्त्व बताएँ। (Describe the significance of Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Kashmir.)
उत्तर-
1. महाराजा रणजीत की प्रतिष्ठा में वृद्धि-कश्मीर की विजय महाराजा रणजीत सिंह की महत्त्वपूर्ण विजयों में से एक थी। इस विजय से महाराजा की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई तथा लेह, लहासा तथा कराकुर्म के पहाड़ों के दूसरी ओर तक उसकी शक्ति की धाक जम गई। उत्तर में अब उसके राज्य की सीमा प्राकृतिक सीमा तक पहुंच गई।

2. अफ़गान शकित को गहरा आघात-कश्मीर पर सिखों का अधिकार हो जाने से अफगान शक्ति को एक और भारी आघात पहुँचा तथा सिख सेना का साहस और बढ़ गया।

3. आय में वृद्धि-कश्मीर की विजय से महाराजा रणजीत सिंह को भारी आर्थिक लाभ हुआ। इस प्राँत से महाराजा को 40,00,000 रुपए वार्षिक आय होती थी।

4. व्यापार को प्रोत्साहन-कश्मीर की विजय व्यापारिक दृष्टि से भी बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुई। यह राज्य शालों के उद्योग के लिए विश्व भर में विख्यात था। इसके अतिरिक्त कश्मीर विभिन्न प्रकार के फलों, केसर तथा वनों के कारण भी जाना जाता था। कश्मीर के पंजाब में सम्मिलित होने से यहाँ के व्यापार में वृद्धि हुई।

PSEB 12th Class History Solutions Chapter 17 महाराजा रणजीत सिंह का जीवन और विजयें

प्रश्न 12.
नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी की लड़ाई पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a brief note on the battle of Naushehra or Tibba Tehri.)
उत्तर-
जनवरी, 1823 ई० में काबुल के शासक अजीम खाँ ने पेशावर पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में ले लिया था। उसने सिखों के विरुद्ध धर्म युद्ध का नारा लगाया था जिसके कारण बहुत-से अफगान उसके झंडे के नीचे एकत्र होने लगे थे। दूसरी ओर रणजीत सिंह ने अज़ीम खाँ का सामना करने के लिए 20,000 सैनिकों की एक विशाल सेना भेजी। इस सेना के साथ हरी सिंह नलवा, जनरल एलार्ड, जनरल बैंतूरा, अकाली फूला सिंह, फतह सिंह आहलूवालिया तथा राजकुमार खड़क सिंह को भेजा गया। इस सारी सेना का नेतृत्व महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं किया। 14 मार्च, 1823 ई० को दोनों सेनाओं में नौशहरा अथवा टिब्बा टेहरी के स्थान पर बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। आरंभ में अफ़गानों का पलड़ा भारी रहा। अकाली फूला सिंह तथा कई अन्य विख्यात योद्धा इस लड़ाई में मारे गए। ऐसे समय में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेनाओं में एक नया प्रोत्साहन पैदा किया। अब सिखों ने अफ़गान सेना पर एक ऐसा ज़ोरदार आक्रमण किया कि उन्हें अपने प्राण बचाने के लिए रण क्षेत्र से भागना पड़ा। इस निर्णायक लड़ाई में महाराजा रणजीत सिंह की विजय से उसकी सेना का प्रोत्साहन बहुत बढ़ गया और अज़ीम खाँ इस अपमान के कारण शीघ्र ही इस संसार से चल बसा।

प्रश्न 13.
महाराजा रणजीत सिंह की पेशावर की विजय एवं इसके महत्त्व पर संक्षेप नोट लिखें।
(Write a short note on Maharaja Ranjit Singh’s conquest of Peshawar and its significance.)
उत्तर-
पेशावर की विजय महाराजा रणजीत सिंह की महत्त्वपूर्ण विजयों में से एक थी। महाराजा रणजीत सिंह को पेशावर पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से 1818 ई० से 1834 ई० तक एक कड़ा संघर्ष करना पड़ा। इस समय के दौरान उसने अपने पाँच सैनिक अभियानों को पेशावर भेजा। महाराजा रणजीत सिंह ने यद्यपि 1823 ई० में पेशावर विजित करने में सफलता प्राप्त की थी किंतु इसे उसने 1834 ई० में अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। इस विजय से महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का काफ़ी विस्तार हुआ। उसकी सैनिक शक्ति की धाक समस्त भारत में जम गई। उसके सम्मान में भी काफ़ी वृद्धि हुई। पेशावर पर रणजीत सिंह का अधिकार हो जाने के कारण 8 शताब्दियों के पश्चात् पंजाबियों ने सुख की सांस ली क्योंकि इसी मार्ग से होकर मुस्लिम आक्रमणकारी पंजाब तथा भारत के अन्य भागों पर आक्रमण करते थे। इस कारण यहाँ भारी विनाश हुआ, वहीं उन्होंने लोगों की नींद हराम कर दी थी। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पेशावर पर अधिकार महाराजा के लिए आर्थिक पक्ष से भी बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ। इस प्राँत से रणजीत सिंह को वार्षिक लगभग लाख रुपये आय प्राप्त हुई।

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प्रश्न 14.
महाराजा रणजीत सिंह ने पराजित शासकों के प्रति क्या नीति धारण की ? (What policy did Maharaja Ranjit Singh adopt towards the defeated rulers ?)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह एक दूरदर्शी तथा उदार शासक था। उसने न केवल बहुत-से प्रदेशों पर अधिकार किया, अपितु उनके प्रति एक सफल प्रशासनिक नीति भी अपनाई। यह नीति सभी शासकों पर समान रूप से लागू होती थी, चाहे वह शासक हिंदू, सिख अथवा मुसलमान थे। कई शासकों को, जिन्होंने रणजीत सिंह की अधिराज्य शर्ते स्वीकार कर ली थीं, उनके क्षेत्र लौटा दिए गए। जिन शासकों के क्षेत्र सिख राज्य में सम्मिलित कर लिए गए उन्हें महाराजा ने अपने दरबार में नौकरी पर रख लिया अथवा उन्हें गुज़ारे के लिए जागीरें दे दी गईं। विरोध जारी रखने वाले शासकों के विरुद्ध कड़ी नीति अपनाई गई। उनके विरुद्ध सैनिक अभियान भेजे गए तथा उनके राज्यों को हड़प लिया गया। संक्षेप में, महाराना रणजीत सिंह ने पराजित शासकों के प्रति जो नर्म तथा दयालुता का व्यवहार किया उसकी उस समय कोई अन्य उदाहरण नहीं मिलती।

प्रश्न 15.
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख मिसलों के प्रति कैसी नीति अपनाई ?
(What policy did Maharaja Ranjit Singh adopt towards the Sikh Misls ?)
अथवा
महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति का वर्णन करें।
(Examine the Misl policy of Maharaja Ranjit Singh.)
उत्तर-
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख मिसलों के संबंध में विशेष नीति अपनाई थी। इस नीति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलखित थीं।

  1. अपने राज्य का विस्तार करने के लिए न किसी रिश्तेदारी और न ही किसी के प्रति एहसानमंदी की भावना को महत्त्व देना।
  2. राज्य के विस्तार के समय यह नहीं देखना कि किसी मिसल सरदार के राज्य पर अधिकार करना न्यायोचित है अथवा नहीं।
  3. शक्तिशाली मिसल सरदारों से मित्रता कर लेना अथवा उनसे विवाह संबंध स्थापित कर लेना।
  4. दुर्बल मिसल सरदारों के राज्यों पर आक्रमण करके उनके प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लेना।
  5. अवसर पाकर मित्र मिसल सरदारों से विश्वासघात करना और उनके प्रदेशों को अपने राज्य में शामिल करना।
  6. सिखों की महत्त्वपूर्ण केंद्रीय संस्था गुरमता को समाप्त करना ताकि कोई मिसलदार रणजीत सिंह की समानता न कर सके।

महाराजा रणजीत सिंह ने सर्वप्रथम कन्हैया मिसल से मित्रता स्थापित की। उसने 1796 ई० में गुरबख्श सिंह की पुत्री मेहताब कौर से विवाह किया। इस प्रकार 1798 ई० में उसने नकई मिसल के सरदार खजान सिंह की पुत्री राजकौर से विवाह किया। 1801 ई० में उसने फतह सिंह आहलूवालिया से एक-दूसरे का सदैव साथ देने का प्रण किया। इसी प्रकार जोध सिंह रामगढ़िया तथा डल्लेवालिया मिसल के सरदार तारा सिंह घेवा से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए। इस नीति के कारण महाराजा अपने राज्य का विस्तार करने में सफल हुआ।

दूसरी ओर महाराजा रणजीत सिंह ने कमज़ोर मिसलों पर आक्रमण करके उन्हें अपने राज्य में सम्मिलित करने की नीति अपनाई। उसने भंगी मिसल, डल्लेवालिया मिसल, करोड़सिंधिया मिसल, नकई मिसल, फैज़लपुरिया मिसल पर आक्रमण करके उनके प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। जब महाराजा रणजीत सिंह की स्थिति शक्तिशाली हो गई तो उसने कन्हैया मिसल, रामगढ़िया मिसल तथा आहलूवालिया मिसल प्रदेशों को हड़प लिया यद्यपि उनके रणजीत सिंह के साथ मैत्री संबंध थे। इस कारण कुछ इतिहासकार महाराजा रणजीत सिंह की मिसल नीति की आलोचना करते हैं, पर वास्तव में यह नीति पंजाब के लोगों के लिए एक वरदान सिद्ध हुई।

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Source Based Questions

नोट-निम्नलिखित अनुच्छेदों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके अंत में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दीजिए।
1
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 1780 ई० में शुकरचकिया मिसल के नेता महा सिंह के घर हुआ। यद्यपि महाराजा रणजीत सिंह अनपढ़ रहा, तथापि उसने तलवारबाजी और घुड़सवारी में बहुत कुशलता प्राप्त कर ली थी। उसने बाल्यकाल से ही अपनी वीरता के कारनामे दिखाने आरंभ कर दिए थे। 1797 ई० में रणजीत सिंह ने शुकरचकिया मिसल की बागडोर संभाली तो उस समय पंजाब की राजनीतिक स्थिति बहुत डावाँडोल थी। यह एक अंधकारमय युग में से गुजर रहा था। महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी विजयों का श्रीगणेश 1799 ई० में लाहौर की विजय से आरंभ किया था। मुलतान, कश्मीर तथा पेशावर उसकी अन्य सबसे महत्त्वपूर्ण विजयें थीं। इस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी वीरता एवं योग्यता से अपने छोटे से राज्य को एक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। उसके राज्य की सीमाएँ उत्तर में लद्दाख से लेकर दक्षिण में शिकारपुर तक तथा पूरब में सतलुज नदी से लेकर पश्चिम में पेशावर तक फैली हुई थीं।

  1. महाराजा रणजीत सिंह का जन्म ……… में हुआ। ।
  2. महाराजा रणजीत सिंह का संबंध किस मिसल के साथ था ?
  3. 18वीं सदी में पंजाब की राजनीतिक स्थिति कैसी थी ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह की दो महत्त्वपूर्ण विजयें कौन-सी थीं?
  5. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु कब हुई थी ?

उत्तर-

  1. 1780 ई०।
  2. महाराजा रणजीत सिंह का संबंध शुकरचकिया मिसल के साथ था।
  3. 18वीं सदी में पंजाब की राजनीतिक स्थिति स्थिर नहीं थी।
  4. महाराजा रणजीत सिंह की दो महत्त्वपूर्ण विजयें लाहौर तथा पेशावर थीं।
  5. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु 1839 ई० में हुई थी।

2
जब रणजीत सिंह 12 वर्ष का था तो 1792 ई० में उसके पिता महा सिंह की मृत्यु हो गई थी। क्योंकि रणजीत सिंह अभी नाबालिग था इसलिए राज्य-व्यवस्था का कार्य उसकी माता राज कौर के हाथ में आ गया, किंतु राज कौर में प्रशासकीय योग्यता नहीं थी। इसलिए उसने शासन-व्यवस्था का कार्य अपने एक चहेते दीवान लखपत राय को सौंप दिया। 1796 ई० में जब रणजीत सिंह का विवाह मेहताब कौर से हो गया तो उसकी सास सदा कौर भी शासन-व्यवस्था में रुचि लेने लग पड़ी। इस प्रकार 1792 ई० से लेकर 1797 ई० तक शासन-व्यवस्था तीन व्यक्तियों-राज कौर, दीवान लखपत राय और सदा कौर के हाथ में रही। इसलिए इस काल को तिक्कड़ी के संरक्षण का काल कहा जाता है।

  1. महाराजा रणजीत सिंह के पिता जी का क्या नाम था ?
  2. राज कौर कौन थी ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह का पहला विवाह किसके साथ हुआ था ?
  4. मेहताब कौर का संबंध किस मिसल के साथ था ?
    • शुकरचकिया मिसल
    • कन्हैया मिसल
    • भंगी मिसल
    • रामगढ़िया मिसल।
  5. सदा कौर कौन थी ?

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह के पिता जी का नाम महा सिंह था।
  2. राज कौर महाराजा रणजीत सिंह की माता जी का नाम था।
  3. महाराजा रणजीत सिंह का विवाह मेहताब कौर से हुआ।
  4. कन्हैया मिसल।
  5. सदा कौर महाराजा रणजीत सिंह की सास का नाम था।

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3
रणजीत सिंह के उत्थान से पूर्व सतलुज नदी के उत्तर-पश्चिम की ओर भंगी मिसल काफ़ी शक्तिशाली थी। इस मिसल में पंजाब के दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शहर लाहौर तथा अमृतसर सम्मिलित थे। इनके अतिरिक्त इस मिसल के अधीन गुजरात तथा स्यालकोट के क्षेत्र भी थे। 1797 ई० में लाहौर में तीन भंगी सरदारों चेत सिंह, साहिब सिंह तथा मोहर सिंह, अमृतसर में गुलाब सिंह, स्यालकोट में जीवन सिंह तथा गुजरात में साहिब सिंह भंगी का शासन था। इन सभी भंगी शासकों को भांग पीने तथा अफीम खाने का व्यसन था। वे सारा दिन रंगरलियाँ मनाने में व्यस्त रहते थे। प्रजा उनके अत्याचारों से बहुत दुखी थी। गुजरात के साहिब सिंह भंगी ने तो दूसरे भंगी सरदारों से ही लड़ना आरंभ कर दिया था। परिणामस्वरूप यह मिसल दिन-प्रतिदिन तीव्रता से पतन की ओर जा रही थी।

  1. भंगी मिसल का यह नाम क्यों पड़ा ?
  2. भंगी मिसल का शासन कौन-से शहरों में था ?
  3. …………….. में लाहौर में तीन भंगी सरदारों का शासन था।
  4. भंगी शासकों का शासन कैसा था ?
  5. कहाँ के भंगी शासकों ने आपस में लड़ना आरंभ कर दिया था ?

उत्तर-

  1. भंगी मिसल का यह नाम यहाँ के शासकों द्वारा भांग पीने के कारण पड़ा।
  2. भंगी मिसल का शासन लाहौर, अमृतसर, स्यालकोट तथा गुजरात में था।
  3. 1797 ई०।
  4. भंगी शासक अपना अधिकतर समय ऐशो-आराम में व्यतीत करते थे।
  5. गुजरात के शासक साहिब सिंह ने दूसरे भंगी शासकों के साथ लड़ना आरंभ कर दिया था।

4
शुकरचकिया मिसल का संस्थापक रणजीत सिंह का दादा चढ़त सिंह था। उसने गुजरांवाला, ऐमनाबाद और स्यालकोट के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। 1774 ई० में चढ़त सिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र महा सिंह उसका उत्तराधिकारी बना। उसमें एक योग्य सरदार के सभी गुण थे। उसने रसूलनगर तथा अलीपुर के क्षेत्रों को जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया। 1792 ई० में महा सिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र रणजीत सिंह उसका उत्तराधिकारी बना। क्योंकि उस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष थी, इसलिए शासन प्रबंध मुख्यतया रणजीत सिंह की माता राज कौर, दीवान लखपत राय तथा सास सदा कौर के हाथों में रहा। जवान होने पर रणजीत सिंह ने 1797 ई० में शासन स्वयं संभाल लिया। वह एक योग्य, वीर तथा दूरदर्शी शासक प्रमाणित हुआ।

  1. शुकरचकिया मिसल का संस्थापक कौन था ?
  2. महा सिंह ने किन दो प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी ?
  3. तिक्कड़ी के संरक्षण का काल क्या था ?
  4. रणजीत सिंह ने ………….. में स्वतंत्र रूप से शासन स्वयं संभाल लिया।
  5. रणजीत सिंह कैसा शासक सिद्ध हुआ ?

उत्तर-

  1. शुकरचकिया मिसल का संस्थापक चढ़त सिंह था।
  2. महा सिंह ने रसूल नगर तथा अलीपुर नाम के दो प्रदेशों पर विजय प्राप्त की थी।
  3. तिक्कड़ी के संरक्षण का काल 1792 ई० से 1797 ई० तक था।
  4. 1797 ई०।
  5. रणजीत सिंह एक योग्य, बहादुर तथा दूरदर्शी शासक था।

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5
कश्मीर अपनी सुंदरता तथा व्यापार के लिए बहुत विख्यात था। इसलिए महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर पर अधिकार करना चाहता था। ठीक उसी समय काबुल का वज़ीर फ़तह खाँ भी कश्मीर को अपने अधिकार में लेने की योजनाएँ बना रहा था। क्योंकि वे दोनों अकेले कश्मीर को जीतने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए दोनों के मध्य रोहतास में एक समझौता हुआ। 1813 ई० में इन दोनों सेनाओं ने कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। कश्मीर का गवर्नर अत्ता मुहम्मद खाँ इन दोनों सेनाओं से टक्कर लेने के लिए आगे बढ़ा, परंतु शेरगढ़ के स्थान पर हुई लड़ाई में अत्ता मुहम्मद खाँ हार गया। कश्मीर पर अधिकार करने के पश्चात् फ़तह खाँ ने रणजीत सिंह को कुछ भी न दिया। 1814 ई० में महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर दूसरी बार आक्रमण किया, परंतु इस आक्रमण में महाराजा को असफलता का सामना करना पड़ा। 1818 ई० में मुलतान की विजय से उत्साहित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने 1819 ई० में कश्मीर पर तीसरी बार आक्रमण किया। 5 जुलाई, 1819 ई० को सुपीन के स्थान पर हुई लड़ाई में कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर ज़बर खाँ की कड़ी पराजय हुई। इस प्रकार अंततः महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर को विजित करने में सफल हुआ।

  1. महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर को अपने अधीन क्यों करना चाहता था ?
  2. रोहतास समझौता कब हुआ ?
  3. महाराजा रणजीत सिंह के कश्मीर के पहले आक्रमण के समय वहाँ का गवर्नर कौन था ?
  4. महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर पर कब विजय प्राप्त की थी ?
  5. महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर विजय समय वहाँ का गवर्नर कौन था ?
    • फतेह खाँ
    • ज़बर खाँ
    • नुसरत खाँ
    • दीवान मोहकम चंद।

उत्तर-

  1. महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर की सुंदरता तथा इसके व्यापार के कारण इसे अपने अधीन करना चाहता था।
  2. रोहतास समझौता 1813 ई० में हुआ।
  3. महाराजा रणजीत सिंह के कश्मीर पर पहले आक्रमण के समय वहाँ का गवर्नर अत्ता मुहम्मद खाँ था।
  4. महाराजा रणजीत सिंह ने 1819 ई० में कश्मीर पर विजय प्राप्त की थी।
  5. ज़बर खाँ।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ

Punjab State Board PSEB 12th Class Geography Book Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Geography Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ

PSEB 12th Class Geography Guide मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ Textbook Questions and Answers

प्रश्न I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में दें :

प्रश्न 1.
मानवीय विकास का कोई एक महत्त्वपूर्ण पहलू क्या है ?
उत्तर-
लोगों के पास अवसर का होना मानवीय विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

प्रश्न 2.
मानवीय विकास के स्तम्भ माने जाते किसी एक तत्त्व का नाम लिखो।
उत्तर-
हक या इन्साफ, निरंतरता इत्यादि मानवीय विकास के स्तम्भ हैं।

प्रश्न 3.
रहन-सहन का कैसा स्तर अच्छे मानवीय विकास का सूचक है ?
उत्तर-
लिंग-समानता, स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक प्राप्तियां, मानवीय ग़रीबी सूचक इत्यादि रहन-सहन के स्तर अच्छे मानवीय विकास के सूचक हैं।

प्रश्न 4.
आर्थिक निरीक्षण (2011) के अनुसार मानवीय विकास सूचक स्तर भारत के किस राज्य में सबसे अधिक है और कितना ?
उत्तर-
आर्थिक निरीक्षण (2011) के अनुसार मानवीय विकास सूचक स्तर भारत के केरल राज्य (0.7117) में सबसे अधिक है।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ

प्रश्न 5.
मानवीय बस्तियों को कौन-से दो भागों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
मानवीय बस्तियों को ग्रामीण बस्तियाँ और शहरी बस्तियाँ दो भागों में विभाजित किया जाता है।

प्रश्न 6.
पंजाब का कौन-सा शहर ‘स्मार्ट सिटी’ प्रोजैक्ट के प्रथम दौर में शामिल हआ है ?
उत्तर-
पंजाब का लुधियाना शहर ‘स्मार्ट सिटी’ प्रोजैक्ट के प्रथम दौर में शामिल हुआ है।

प्रश्न 7.
फ्रांसिस पैरोकस (1955) ने विकास के कौन-से फोकल प्वाइंट की धारणा विकसित की ?
उत्तर-
फ्रांसिस पैरोकस ने 1955 में विकास के धुरे की धारणा विकसित की।

प्रश्न 8.
वर्तमान में विकास का इंजन’ किस किस्म के शहर को कहा गया है ?
उत्तर-
वह शहर जहाँ सूचना तकनीक, एक प्रमुख ढांचा अपने निवासियों को सेवाएं प्रदान करने के लिए एक आधार का काम करता है, स्मार्ट शहर के विकास का इंजन’ कहलाता है।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ

प्रश्न 9.
किसी तालाब के किनारे बसी जनसंख्या कैसी बस्ती का नमूना होगी ?
उत्तर-
किसी तालाब के किनारे बसी जनसंख्या गोलाकार नमूना होगी।

प्रश्न 10.
संसार में किस देश का मानवीय सूचक अंक सबसे ज्यादा है और कितना ?
उत्तर-
संसार में नार्वे (0.949) देश का मानवीय सूचक अंक सबसे अधिक है।

प्रश्न II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर चार पंक्तियों में दें :

प्रश्न 1.
मानवीय विकास सूचक का नवीन सिद्धांत कौन-से अर्थशास्त्री ने दिया ?
उत्तर-
1990 तक देश का विकास उस देश में हो रहे आर्थिक विकास से मापा जाता है। विकास के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू थे लोगों की जीवन गुणवत्ता, लोगों के पास रोज़गार के अवसर, लोगों के द्वारा आज़ादी मानना इत्यादि। पाकिस्तान के अर्थशास्त्री डॉक्टर महबूब-उल-हक और भारतीय मूल के नोबल, विजेता डॉक्टर अमर्त्य सेन के अनुसार, मानवीय चुनाव दायरे में वृद्धि करना है, ताकि वे लम्बी और स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें। इस सिद्धांत को मानवीय विकास, सूचक का नवीन सिद्धांत कहा जाता है।

प्रश्न 2.
भारत ने कौन-से तीन तरीके मानवीय विकास के तौर पर चुने हैं ?
उत्तर-

  1. लिंग समानता।
  2. स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक प्राप्तियाँ।
  3. मानवीय ग़रीबी सूचक।

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प्रश्न 3.
मानवीय विकास के स्तंभ के तौर पर जाने जाते चार तरीके कौन-से हैं ?
उत्तर-
मानवीय विकास के स्तंभ के तौर पर जाने जाते चार तरीके—

  1. हक या इन्साफ़
  2. निरंतरता-आर्थिक अवसरों की उपलब्धि।
  3. उत्पादकता-आर्थिक जिंदगी के हर क्षेत्र में उत्पादन वृद्धि।
  4. शक्तिकरण-अपनी मर्जी का अवसर चुनने की शक्ति का होना।

प्रश्न 4.
मानवीय विकास सूचक अंक के अनुसार भारत के चार पहले राज्य कौन से हैं ?
उत्तर-
मानवीय विकास सूचक अंक के अनुसार भारत में केरल (0.7117) अंक से देश में पहले स्थान पर है और हिमाचल प्रदेश (0.6701) दूसरे स्थान पर, गोवा (0.6701) तीसरे स्थान पर, महाराष्ट्र (0.6659) चौथे स्थान पर है।

प्रश्न 5.
मानवीय विकास सूचक अंक के अनुसार भारत की विश्व में स्थिति के विषय में लिखो।
उत्तर-
मानवीय विकास सूचक अंक के अनुसार 0.624 अंक कीमत से 188 देशों में से क्रमवार भारत 131वें स्थान पर है। भारत देश का स्थान शुरुआत में 119 (साल 2010 में) से बदल कर 131 (2016 में) तक पहुँच गया।

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प्रश्न 6.
ग्रामीण बस्तियाँ आमतौर पर कौन से इलाकों में मिलती हैं ?
उत्तर-
भारत गाँवों का देश है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत के 6,40,930 गाँव में 68.84% आबादी रहती हैं। गाँव बस्तियाँ आमतौर पर बाढ़ के मैदानों, नदी के किनारों, पहाड़ों की ढलानों, घाटी मैदानों, तटवर्ती इलाकों इत्यादि में मिलती हैं।

प्रश्न 7.
स्थानीय सरकारी विभाग की परिभाषा के अनुसार शहरी क्षेत्रों की प्रबंधक संस्थाएं कौन-सी हो सकती हैं ?
उत्तर-
स्थानीय सरकारी विभाग की परिभाषा के अनुसार शहरी क्षेत्रों की प्रबंधक संस्थाएं हैं। नगरपालिकाएँ, नगरपरिषद्, नगर निगम, नोटीफाइड एरिया कमेटियाँ, कैनटोनमैंट बोर्ड इत्यादि।

प्रश्न III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 10-12 पंक्तियों में दें:

प्रश्न 1.
किसी देश के विकास की कहानी में मानवीय विकास का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
विकास का अर्थ होता है, स्वतन्त्रता तथा आज़ादी। इसका सम्बन्ध अवसरों में स्वतन्त्रता, आराम, सुख, खुशहाली से होता है। हमारे आज के समाज में औद्योगीकरण, कम्प्यूटर तथा यातायात तथा संचार साधनों की उपलब्धि के कारण, अच्छी शिक्षा तथा सेहत सेवाओं के कारण लोगों का जीवन स्तर काफी हद तक सुधर गया है तथा ये सभी विकास के चिन्ह हैं। विकास का स्तर इन भिन्न-भिन्न मानवीय विकास के सूत्रों द्वारा मापा जाता है। मानवीय विकास का मुख्य उद्देश्य मानव के लिए अवसर या चुनाव करने के घेरे को बढ़ाना तथा मानव के हालातों को सुधारना होता है। इससे मानवीय गुणों में विकास होता है। मानवीय विकास प्रदूषण को कम करना तथा मानवीय ज़िन्दगी को आरामदायक बनाता है। देश का आर्थिक, राजनैतिक अथवा सामाजिक विकास करता है। सुधरा हुआ मानवीय जीवन ग़रीबी तथा अन्य कई सामाजिक बुराइयों का अंत कर देता है। इस तरह जिस देश का मानवीय विकास सूचक अंक ज्यादा होता है, उस देश का आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास अंक भी अधिक होता है।

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प्रश्न 2.
असम, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश में केरल तथा हिमाचल के मुकाबले खुशहाली कम है। कैसे ?
उत्तर-
मानवीय विकास सूचक अंक के अनुसार केरल का सूचक अंक 0.7117 है अथवा हिमाचल प्रदेश का 0.6701 है और मानवीय विकास सूचक अंक के अनुसार भारत में पहला और दूसरा स्थान रखते हैं। परन्तु इसके विपरीत असम, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश का मानवीय विकास सूचक अंक बहुत पीछे है। किसी प्रदेश का आर्थिक, सामाजिक विकास मानवीय विकास सूचक अंक निर्धारित करता है। इन प्रदेशों का आर्थिक विकास का स्तर केरल और हिमाचल प्रदेश से कम है, जिसके कारण मानवीय विकास सूचक अंक भी केरल और हिमाचल प्रदेश के मुकाबले काफ़ी कम है। किसी देश का विकास उसके आर्थिक विकास, राजनैतिक, सांस्कृतिक विकास पर निर्भर करता है और यह विकास उस देश में ही होगा जहाँ के लोगों का जीवन खुशहाल होगा और उन्हें रोज़गार के अवसर उपलब्ध होंगे। उनकी जीवन गुणवत्ता का विकास होगा। उनका जीवन लंबा और स्वस्थ होगा और हर काम को चुनने की पूरी आजादी होगी।

प्रश्न 3.
महानगर किसी विशाल शहर क्षेत्र से अलग है। कैसे ?
उत्तर-
महानगर एक बड़ा शहर होता है। महानगर की जनसंख्या 10 लाख व्यक्ति या इससे अधिक होती है। परन्तु विशाल शहरी क्षेत्र बड़े शहरी क्षेत्र होते हैं, जिसमें ऐसे महानगर शामिल होते हैं। जब महानगर की वृद्धि होती है, उसके साथ ही कई शहरी बस्तियाँ बस जाती हैं, तो ये महानगर विशाल शहरी क्षेत्रों में तबदील होने शुरू हो जाते हैं। 1981 में हुई जनगणना के अनुसार भारत में 12 महानगर ही थे, परन्तु 2001 ई० में इनकी संख्या बढ़ कर 35 हो गई, जब कि 2011 में इनकी संख्या 53 तक बढ़ गई। मुख्य महानगरों में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद, अहमदाबाद इत्यादि बड़े शहर शामिल होते हैं। विशाल शहरी क्षेत्र की धारणा सबसे पहले जीन गोटमैन द्वारा अमेरिका के उत्तर-पूर्वी समुद्री क्षेत्र के साथ बसने वाले शहरी क्षेत्र के लिए प्रयोग में लाई गई। हमारे देश में ऐसा विशाल शहरी क्षेत्र नहीं है।

प्रश्न 4.
कोई ग्रामीण क्षेत्र, कोई शहरी क्षेत्र घोषित किया गया है। परिभाषा के अनुसार उसमें क्या-क्या परिवर्तन हो सकते हैं ?
उत्तर-
शहरी शब्द ग्राम क्षेत्र के विपरीत स्थान के लिए प्रयोग किया जाता है। इसमें शहर, गांव, कस्बे, नगर, महानगर इत्यादि शामिल होते हैं। शहरी क्षेत्र में सिर्फ कृषि की बेहतर सुविधायें ही नहीं, बल्कि उद्योग, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा की सुविधाएँ और अन्य उपयोगी सुविधाएँ आसानी से मिल जाती हैं।

कोई ग्राम क्षेत्र तभी शहरी घोषित किया जाता है, जब वह पूरी तरह विकसित शहरी बस्ती बन जाता है, जहाँ हर प्रकार के शहरी धंधे विकसित हो जाते हैं। जब इसकी जनसंख्या निर्धारित सीमा से ऊपर हो जाती है तो उस क्षेत्र को शहरी क्षेत्र घोषित किया जाता है और उसमें आए औद्योगिक विकास, स्वास्थ्य संबंधी, यातायात और संचार साधनों के विकास इत्यादि के कारण कुछ परिवर्तन आ जाने के कारण उसको एक शहरी श्रेणी में शामिल किया जाता है।

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प्रश्न 5.
मानवीय विकास के कोई दो स्तंभों का वर्णन करो।
उत्तर-
मानवीय विकास का अध्ययन मुख्य रूप में चार स्तम्भों पर आधारित है। ये हैं-हक या इन्साफ, निरंतरता, उत्पादकता, शक्तिकरण। इनका वर्णन निम्नलिखित है—
1. हक या इन्साफ-हक या इन्साफ का अर्थ है, समानता का अधिकार। हर व्यक्ति के लिए, हर एक अवसर के लिए बिना किसी जाति-पाति, नस्ल, रंग-भेद के भेदभाव से उस अवसर को हासिल करने का पूरा-पूरा हक है। इसका अर्थ है कि हर इन्सान के लिए हर अवसर की प्राप्ति के लिए पूरी पहुँच करवानी। हर जरूरत को बिना किसी भेदभाव के समान समझ कर विभाजित किया जाना चाहिए।

2. निरंतरता-निरंतरता का अर्थ है, अवसर की तलाश और उपलब्धता में पूरी आज़ादी होनी चाहिए। मानव विकास के लिए हर पीढ़ी के लिए स्रोतों का पूरा विभाजन होना चाहिए। वर्तमान में स्रोतों को इस तरह प्रयोग किया जाए कि आने वाली पीढ़ियां भी उन स्रोतों की उपयोगिता का प्रयोग कर सकें। किसी भी अवसर का गलत प्रयोग आने वाली पीढ़ी के लिए खतरा बन सकता है।

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प्रश्न IV. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 20 पंक्तियों में दें:

प्रश्न 1.
ग्रामीण बस्तियों के अलग नमूनों की संक्षेप व्याख्या करें।
उत्तर-
ग्रामीण इलाके में बनी बस्तियों को ग्राम बस्तियाँ कहा जाता है। शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में । जनसंख्या का घनत्व कम होता है। भारत गाँवों का देश है। इसकी 68.84% आबादी गाँवों में रहती है। धरातल और जमीन की उपलब्धि के कारण हमारे देश में ग्रामीण बस्तियाँ घनी या बिखरी हुई हो सकती हैं।
भारत में ग्रामीण बस्तियों के कुछ नमूने निम्नलिखित हैं—

1. रैखिक नमूना (Linear Settlement Pattern)—
यह देखने में एक रस्सी की तरह दिखता है। इस प्रकार की बस्तियां मुख्य रूप में सड़क, रेलवे लाइन या नहर के समानांतर होती हैं। यह एक रेखा की तरह दिखाई देता है।
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Linear Settlement Pattern

2. चैक बोर्ड नमूना (Check Board Pattern)—जिस स्थान पर कोई रास्ता या यातायात का साधन एक-दूसरे को समकोण पर मिलते हों, उस तरह की बस्ती को चैक बोर्ड नमूना कहा जाता है।
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Check Board Pattern

3. आयताकार नमूना (Rectangular Pattern)-इस तरह की बस्तियाँ मुख्य रूप में आयताकार या वर्ग आकार की तरह होती हैं।
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Rectangular Pattern

4. अर्ध-व्यास नमूना (Radial Settlement Pattern)—यह एक वह केन्द्रीय धुरा होता है, जिस जगह पर कई रास्ते, गलियाँ या पैदल रास्ते और चक्र के अर्ध-व्यास की तरह, अलग-अलग दिशाओं से आकर एक केन्द्रीय स्थान पर मिलते हैं अर्ध-व्यास नमूना कहलाता है।
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Radial Settlement Pattern

5. तारों सा नमूना (Star Like Pattern)-जिस तरह एक अर्ध-व्यास में सभी स्थान एक धुरे से मिलते हैं, यह उसका ही एक रूप है। इसमें भी किसी मकान के निर्माण का काम एक केंद्रीय धुरे से शुरू किया जाता है और सभी दिशाओं में फैल जाता है। इस प्रकार आमतौर पर पंजाब और हरियाणा में मिलता है।
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Star Like Pattern

6. त्रिकोणी नमूना (Triangular Pattern)—इस तरह का नमूना त्रिकोण आकार का होता है, जिसमें तीन तरफ से किसी रुकावट के कारण, इस तरह का नमूना बनना शुरू हो जाता है।
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Triangular Pattern

7. गोलाकार बस्तियों का नमूना (Circular Pattern)—इस प्रकार की बस्ती किसी मंदिर, मस्जिद, तालाब, झील इत्यादि के पास बननी शुरू हो जाती है।
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Circular Pattern

8. अर्ध-गोलाकार नमना (Semi Circular Pattern)—इस प्रकार की बस्तियाँ आमतौर पर नदी के नजदीक खुर-आकार की झीलों या पहाड़ों के पैरों में बनी झीलों के पास बनती हैं। वह अर्ध-गोलाकार शक्ल धारण कर लेते हैं।
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Semi Circular Pattern

9. तीर जैसा नमूना (Arrow Shaped Pattern)-जो गाँव किसी कैप के सिर या बल खाती झील या नदी के तीखे मोड़ पर निवास करते हैं उन्हें तीर जैसा नमूना कहा जाता है। इस तरह की बस्तियाँ आमतौर पर कन्याकुमारी, चिलका झील, सोनार नदी इत्यादि के किनारों पर मिलती हैं।
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Arrow Shaped Pattern

10. बादल जैसा नमूना (Cloud Shaped Pattern)-इस तरह के नमूनों की बनावट एक बादल जैसी होती है। इस तरह की बस्तियों की सड़कें मुख्य तौर पर गोलाकार ही होती हैं। भारत में पंजाब के 12581 गाँवों में आबादी, 1,73,44,192 व्यक्ति हैं। एक गाँव की औसतन आबादी 1425 व्यक्ति है। उपरोक्त दिए नमूनों के आधार पर गाँव को अलग-अलग नमूनों में विभाजित किया गया है।
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Cloud Shaped Pattern

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प्रश्न 2.
‘स्मार्ट शहर’ क्या है ? इस प्रोजैक्ट सम्बन्धी नोट लिखो।
उत्तर-
स्मार्ट शहर-स्मार्ट शहर का दर्जा उस स्थान को दिया जाता है जहाँ सूचना तकनीक, एक प्रमुख ढांचा, अपने निवासियों को ज़रूरी सेवाएँ देना, जैसे स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाएँ, शिक्षा सम्बन्धी सेवाएँ प्रदान करने के लिए एक आकार का काम करे। स्मार्ट शहर वह शहर क्षेत्र कहलाता है, जिस शहर में सभी प्रमुख ढांचे जैसे कि अच्छी ज़मीन, जायदाद, संचार और यातायात के साधन और मण्डी की स्थिरता इत्यादि क्षेत्र में अधिक विकसित हों। शहर के लोगों को रोजगार के अच्छे अवसर मिलें क्योंकि वहाँ व्यापार पूरी तरह से विकसित होते हैं। नागरिकों को निवास के लिए साफसुथरा और अच्छा पर्यावरण मिलता हो, जिस कारण लोगों की जीवन गुणवत्ता बढ़ जाती है, स्मार्ट शहर कहलाते हैं।

भारत में कई शहर ऐसे हैं, जिनको स्मार्ट शहर का दर्जा दिया जा सकता है। सरकार ने मौजूदा शहरों में से कुछ शहरों को यह दर्जा देने की घोषणा की थी। सरकार की इस घोषणा के पीछे मुख्य उद्देश्य शहरों को बेहतर बनाना और नागरिकों को बहुत आवश्यक (बुनियादी) सुविधाएं प्रदान करवाना था। सरकार का मकसद था कि शहरों को विकसित किया जा सके और शहरी नागरिकों को साफ-सुथरा और अच्छा वातावरण प्रदान करवाना था ताकि उनकी जीवन गुणवत्ता में सुधार आए।

स्मार्ट शहरों को विकास का इंजन भी कहा जाता है, क्योंकि जिस स्थान पर अपेक्षित सुविधाएं, सेवाएँ, साधनों इत्यादि की बहुलता होगी, लोगों का जीवन स्तर अच्छा होगा और जिन स्थानों पर यह सारी सुविधाएं होती हैं उसको स्मार्ट शहर का दर्जा दिया गया है इस तरह हम कह सकते हैं कि स्मार्ट शहरों को विकास का इंजन कहा जाता है।

शुरुआत में भारत ने इस प्रोजैक्ट के अधीन 100 शहरों को स्मार्ट शहर के रूप में विकसित करने की घोषणा की थी। परन्तु अगस्त 2015 में 98 शहरों को ही स्मार्ट शहर रूप में विकसित करने के लिए चुना गया। इनमें से जो 98 शहर चुने गये थे, उनमें से 24 शहर तो बड़ी राजधानियाँ ही थीं और बाकी 24 बड़े व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्र थे, 18 सांस्कृतिक क्षेत्र और पर्यटन केंद्र थे और बाकी 5 बंदरगाह शहर और 1 शैक्षिक और स्वास्थ्य संभाल केन्द्र थे।

भारत सरकार ने इन 98 चुने गए शहरों में से कार्य आरंभ करने वाले 90 स्मार्ट शहर की सूची जारी की है। यह 90 शहर केंद्रीय फंड प्राप्त करने वाले सब से अगली कतार/पंक्ति वाले केंद्र होंगे और स्मार्ट शहर विकसित करने की प्रक्रिया की शुरुआत करेंगे।
स्मार्ट शहर प्रोजैक्ट का उद्देश्य शहरों का विकास करना है। स्मार्ट शहर के बुनियादी तत्त्वों के अधीन कुछ मापदंड शामिल किये गए हैं—

  1. यहाँ जल की उचित सप्लाई होगी।
  2. निश्चित बिजली का प्रबंध हो।
  3. ठोस कूड़ा-कर्कट प्रबंध के साथ ही साफ पर्यावरण नागरिकों के लिए होगा।
  4. कुशल शहरी गतिशीलता और यातायात।
  5. सस्ते घर खास तौर पर ग़रीब जनता के लिए।
  6. सूचना तकनोलॉजी का विशेष प्रबंध और नागरिकों के लिए अच्छा प्रशासन। नागरिकों के लिए सुरक्षा।
  7. उचित स्वास्थ्य और शैक्षिक सेवाएं।

प्रश्न 3.
मानवीय विकास की धारणा और इसके आधारों का वर्णन करें।
उत्तर-
वृद्धि और विकास दोनों के द्वारा ही समय के साथ कुछ परिवर्तन आता है। इसलिए ये दोनों स्तर एक-दूसरे से अलग हैं। वृद्धि परिमाणात्मक होती है, जिसके धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही चिन्ह हैं। इस तरह वृद्धि को किसी वस्तु के बढ़ने और घटने दोनों चिन्हों द्वारा पेश किया जा सकता है। जबकि विकास गुणात्मक होता है, जिसमें हमेशा धनात्मक परिवर्तन होता है। इसका अर्थ है जब तक किसी स्थान पर वृद्धि नहीं होती, अर्थ मौजूदा हालातों में कुछ सुधार नहीं होता, उतना समय विकास संभव नहीं होता। जनसंख्या की वृद्धि से विकास नहीं होता विकास तब होता है, जब विशेषता में वृद्धि होती है। उदाहरण के तौर पर अगर किसी क्षेत्र की जनसंख्या 10 लाख से 20 लाख हो गई, तो इससे सिर्फ जनसंख्या में वृद्धि होगी, परंतु अगर मूल जरूरतों, जैसे कि-घर, पानी की सप्लाई, ऊर्जा यातायात इत्यादि साधनों में विकास होता है, तो उसको विकास कहा जाता है।

1990 तक इस देश की वृद्धि दर को वहाँ के आर्थिक विकास के हिसाब से मापा जाता था। इसका अर्थ यह है कि जिस देश में विकसित आर्थिक सुविधाएं थीं वे देश विकसित देश हैं और जिन देशों में इस तरह की सुविधाओं की कमी थी वे विकसित देश नहीं माने जाते थे। इस तरह इन अंदाज़ों के आधार पर सही स्थिति के बारे में पता लगाना एक मुश्किल काम था क्योंकि कई बार कुछ मामलों में आर्थिक वृद्धि का लाभ लोगों तक नहीं पहुँचता था। इस प्रकार विकास के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू भी निर्धारित किए गए, जैसे—

  1. लोगों की जीवन गुणवत्ता
  2. लोगों के पास अवसर का होना
  3. लोगों द्वारा स्वतन्त्रता को मानना।

उपर्युक्त विचार स्पष्ट रूप में सबसे पहले 1980 के अंत और 1990 की शुरुआत के दौर में बनाए गए और यह विचार एशिया के महान् अर्थशास्त्रियों ने दिए। इनमें से एक थे महबूब-उल-हक जो कि पाकिस्तान के थे और दूसरे भारतीय नोबल विजेता डॉक्टर अमर्त्य सेन थे। महबूब-उल-हक ने 1990 में मानवीय विकास का सूचक बनाया। उनके अनुसार विकास का अर्थ है कि लोगों के चुनाव के दायरे को बढ़ाना, ताकि वे शान से लंबी और स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें।
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डॉक्टर अमर्त्य सेन ने अपने विचार में कहा कि स्वतंत्रता बहुत ज़रूरी है और यह विकास का मूल उद्देश्य है। स्वतन्त्रता में आज़ादी के साथ विकास का आना स्वाभाविक हो जाता है। उसने अधिकतर इस बात पर बल दिया है कि सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं को मनुष्य को पूरी स्वतन्त्रता देनी चाहिए। इस तरह विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं—

  1. लंबा और स्वस्थ जीवन
  2. अच्छी ज़िन्दगी का विकास
  3. ज्ञान की प्राप्ति के लिए योग्यता हासिल करना।

डॉक्टर हक के अनुसार लोग ही विकास का धुरा हैं। लोगों के विकल्प निर्धारित नहीं हैं ये बदलते रहते हैं। विकास का मुख्य उद्देश्य लोगों के लिए इस तरह के हालात पैदा करना है, जिससे एक महत्त्वपूर्ण और सार्थक ज़िन्दगी व्यतीत कर सकें।

सार्थक ज़िन्दगी का अर्थ सिर्फ यह नहीं कि वे लम्बा जीवनयापन करें। यह एक ऐसी ज़िन्दगी होगी जो कुछ संकल्पों के लिए होगी। इसका अर्थ है कि लोग स्वस्थ होने चाहिए, ताकि वे अपनी योग्यता को सुधार सकें, समाज की गतिविधियों में हिस्सा ले सकें और अपने उद्देश्यों को हासिल करने में स्वतन्त्र बन सकें।

उपर्युक्त पहलुओं के अनुसार यह आवश्यक है कि स्रोतों तक पहुँच होनी चाहिए, अच्छी सेहत और शिक्षा की सहूलियत होनी चाहिए, पर अधिकतर लोग अपनी योग्यताएं हासिल करने और अपने विकल्पों के चुनाव में स्वतंत्रता न होने के कारण फेल हो जाते हैं। इसके अलग-अलग कारण हो सकते हैं जैसे शिक्षा की कमी, गरीबी, सामाजिक भेदभाव इत्यादि। ये हालात मनुष्य को एक स्वस्थ जीवन जीने से रोकते हैं। इस तरह लोगों के विकल्प के दायरे को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि उनकी स्वास्थ्य के क्षेत्र में सामर्थ्य को बढ़ाया जाए और साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी वृद्धि की जाए। सामर्थ्य की कमी के कारण कई बार विकल्प के चुनाव की कमी पैदा हो जाती है।

आम शब्दों में कहा जा सकता है कि विकास का अर्थ है स्वतन्त्रता। विकास और स्वतन्त्रता का सम्बन्ध आधुनिकता, आराम, सुख और खुशहाली से होता है। हमारे आज के समय में औद्योगीकरण, कम्प्यूटरीकरण, अच्छा यातायात और संचार के साधन, अच्छी शिक्षा के कारण, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण, लोगों की सुरक्षा और बचाव इत्यादि विकास सुविधाओं के मापदण्डों को माना जाता है।

मानवीय विकास का मुख्य उद्देश्य मानवीय विकल्प या चुनाव के दायरे को बड़ा करना और मानवीय हालातों को सुधारना होता है। इसका निशाना मानवीय गुणों में सुधार लाना है और यह तब ही संभव है, अगर समाज के सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों में जरूरी निवेश किया जाएं।

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प्रश्न 4.
बस्तियों के पक्ष से विकास धुरा और विकास केंद्र क्या होते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर-
विकास धुरे की धारणा सबसे पहली बार फ्रांसिस पैरोकस ने 1955 में दी थी, जिसका कुछ समय के बाद मिस्टर बोडविले ने विस्तार किया। उनका कहना था कि विकास हर स्थान पर एक जैसा नहीं होता। यह अलग-अलग वेग से ‘बिंदु’ केंद्र और धुरों में होता है। सभी भाग या हिस्से विकास का एक प्राकृतिक रुझान नहीं रखते। कुछ केंद्रों की विकास केंद्र या विकास धुरे के तौर पर पहचान करते हैं और फिर उनको पूरी तरह विकसित करने पर जोर देते हैं। ये हिस्से आगे बढ़ने वाले होते हैं और आर्थिक विकास पर गुणात्मक प्रभाव डालते हैं।
आर०पी० मिश्रा ने विकास केंद्र में चार सत्र शामिल किए हैं—

  1. स्थानीय सेवा केंद्र
  2. विकास बिंदु
  3. विकास केंद्र
  4. विकास धुरा।

जहाँ तक विकास का सम्बन्ध है, सेवा केंद्र और विकास बिन्दु स्थानीय स्तर की जरूरतें पूरी करने वाले केंद्र माने जाते हैं।
विकास केंद्र और विकास धुरा दोनों ही उत्पादन का केंद्र हैं, जिनका मुख्य काम निर्माण कार्य का होता है।
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विकास धुरे का अर्थ है आर्थिक विकास, वृद्धि और इसके अनुसार कहा जाता है कि विकास हर स्थान पर एक जैसा नहीं होता। यहाँ तक कि एक क्षेत्र में विकास एक जैसा नहीं होता पर यह विकास कुछ समूहों में होता है। यह विकास खास तौर पर केन्द्रीय उद्योगों के साथ विकसित होता है, जिसके साथ जुड़े हुए उद्योग बनने शुरू हो जाते हैं। यह अधिकतर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में पड़े प्रभाव के कारण होता है। केंद्रीय उद्योग में कई तरह के क्षेत्र, जैसे कि मोटरगाड़ियाँ, इलैक्ट्रॉनिक, इस्पात-उद्योग इत्यादि शामिल हैं। केंद्र उद्योगों पर पड़ रहे इन क्षेत्रों के प्रभाव के कारण केंद्रीय उद्योग कुछ सेवाएँ और वस्तुएँ खरीदते हैं और ये सेवाएं और वस्तुएँ ग्राहकों को उपलब्ध करवाते हैं।

केन्द्रीय भाग के विकास के साथ उत्पादन, रोजगार, पूंजी निवेश इत्यादि में भी वृद्धि होती है और इसके साथ ही तकनीकी विकास और नए औद्योगिक सैक्टर का जन्म भी होता है और विकास धुरा केंद्रीय विकास में सब से ऊँचा स्थान रखता है। ऐसे केन्द्र आमतौर पर 5 से 25 लाख की जनसंख्या की जरूरतें पूरी करते हैं। विकास धुरा क्षेत्रीय आर्थिक विकास का केन्द्र बिंदु होता है। जहाँ वित्तीय, शैक्षिक तकनीकी और औद्योगिक विभागों का बोल-बाला होता है।
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विकास केन्द्र या विकास फोकल प्वाइंट की श्रृंखला में विकास तीसरे स्तर पर आता है। आमतौर पर विकास केन्द्र उत्पादन के केन्द्र हैं, जिनका मुख्य काम निर्माण करना होता है। यह दूसरे और तीसरे दर्जे के कार्य का केन्द्र माना जाता है। विकास केन्द्र 1 से 2 लाख तक की जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करता है। इन केन्द्रों का काम-काजी चरित्र होने से ये औद्योगिक केन्द्र के तौर पर भी काम करते हैं। ये केन्द्र शैक्षिक सेवाओं के साथ-साथ अनाज एकत्रित करने में, भंडारण करने में, कृषि के उपकरणों के केन्द्र, खादों तथा कीड़ेमार दवाइयों इत्यादि की सुविधा भी लोगों को उपलब्ध करवाते हैं।

Geography Guide for Class 12 PSEB मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ Important Questions and Answers

I. वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर (Objective Type Question Answers)

A. बहु-विकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1.
विकास क्या है ?
(A) विशिष्टता आश्रित परिवर्तन
(B) धनात्मक परिवर्तन
(C) ऋणात्मक परिवर्तन
(D) सादा (साधारण) परिवर्तन।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 2.
समय में कौन-सी सीमाएँ विकास के मापदंड माने जाते हैं ?
(A) औद्योगीकरण
(B) आधुनिकता
(C) आर्थिक विकास
(D) जनसंख्या का बढ़ाव।
उत्तर-
(C)

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन-सा भाग मनुष्य के विकास का सूचक नहीं है ?
(A) आज़ादी
(B) अवसर
(C) स्वास्थ्य
(D) लोगों की संख्या।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 4.
साल 2017 में भारत का कुल राष्ट्रीय प्रसन्नता दर्जाबंदी में कौन-सा स्थान है ?
(A) 122वां
(B) 123वां
(C) 125 वां
(D) 121वां।
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा मापदंड मानव विकास का मापदंड नहीं है ?
(A) औद्योगीकरण
(B) अच्छी यातायात
(C) चिकित्सा सुविधा
(D) ऋणात्मक विकास।
उत्तर-
(D)

प्रश्न 6.
भारत में निम्नलिखित राज्यों में कौन-से राज्य का मानवीय विकास सूचक सबसे अधिक है ?
(A) केरल
(B) तमिलनाडु
(C) पंजाब
(D) बिहार।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 7.
मानवीय विकास अंक के साथ संसार में भारत का दर्जा कितना है ?
(A) 134
(B) 107
(C) 122
(D) 137
उत्तर-
(A)

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प्रश्न 8.
नीचे लिखे में से कौन-से देश का मानवीय विकास सूचक अंक सबसे अधिक है ?
(A) ऑस्ट्रेलिया
(B) नार्वे
(C) पंजाब
(D) अफ्रीका।
उत्तर-
(B)

प्रश्न 9.
नीचे लिखे में से कौन-से विद्वान् ने मानव विकास का नवीन सिद्धान्त दिया है ?
(A) डॉ० महबूब-उल-मुलक
(B) ऐलन० सी० सैंपल
(C) ट्रीबार्था
(D) रैटजल।
उत्तर-
(A)

प्रश्न 10.
आर०पी० मिश्रा के विकास केन्द्र में कौन-सा स्तर इनमें से शामिल नहीं किया गया ?
(A) सेवा केन्द्र
(B) विकास बिंदु
(C) विकास केन्द्र
(D) टिकाऊ पर्यावरण
उत्तर-
(D)

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प्रश्न 11.
शहरी बस्ती की सबसे छोटी इकाई कौन-सी है ?
(A) कस्बा
(B) शहरी गाँव
(C) महानगर
(D) गाँव।
उत्तर-
(A)

B. खाली स्थान भरें :

  1. ……………… गाँव आधे शहरी होते हैं।
  2. कोनअरथेशन की खोज ………………….. ने की।
  3. विकास केन्द्र ………………….. की जरूरतें पूरी करते हैं।
  4. भारत …………. प्रतिशत आबादी देश के कुल …………… गाँवों में रहती है।
  5. कुल राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक …………….. में भूटान के नरेश ………………. ने दिया।

उत्तर-

  1. शहरी,
  2. पैटरिक गैडिस,
  3. 1 से 2 लाख जनसंख्या,
  4. 68.84%, 6.40930,
  5. 1979, जिगमे सिंह बांगचू।

C. निम्नलिखित कथन सही (✓) हैं या गलत (✗):

  1. लम्बा और स्वस्थ जीवन मानवीय विकास का महत्त्वपूर्ण पहलू है।
  2. ऑस्ट्रेलिया मानवीय विकास सूचक अंक अनुसार संसार में दूसरे स्थान पर आता है।
  3. रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की तीन बुनियादी ज़रूरतें हैं।
  4. जो बस्ती तीन ओर से किसी रुकावट के परिणाम के कारण खोज में आती है उसे अर्ध गोलाकार कहते हैं।
  5. शहर एक विकसित शहरी बस्ती होती है।

उत्तर-

  1. सही,
  2. सही,
  3. सही,
  4. गलत,
  5. सही।

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II. एक शब्द/एक पंक्ति वाले प्रश्नोत्तर (One Word/Line Question Answers) :

प्रश्न 1.
विकास से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब किसी वस्तु, मनुष्य या तकनीक की गुणवत्ता में वृद्धि होती है, उसे विकास कहते हैं।

प्रश्न 2.
पाकिस्तान और भारत के उन विद्वानों के नाम बताओ, जिन्होंने पहली बार मानवीय विकास सूचक का सिद्धान्त दिया।
उत्तर-
डॉ० महबूब-उल-हक और डॉ० अमर्त्य सेन।।

प्रश्न 3.
सकारात्मक विकास से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
जब गुणवत्ता में सकारात्मक बदलाव आता है, उसे सकारात्मक विकास कहते हैं।

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प्रश्न 4.
मानवीय विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू कौन-से हैं ?
उत्तर-
लम्बा और स्वस्थ जीवन, ज्ञान की प्राप्ति, साधन इत्यादि मानवीय विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।

प्रश्न 5.
मानवीय विकास के स्तंभ कौन-से हैं ?
उत्तर-
हक, निरंतरता, उत्पादकता, शक्तिकरण मानवीय विकास के स्तंभ हैं।

प्रश्न 6.
भारत में बच्चों का कौन-सा समूह स्कूल जाना छोड़ देता है ?
उत्तर-
आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए बच्चों का समूह।

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प्रश्न 7.
एक अच्छा जीवनयापन करने के लिए मनुष्य की बुनियादी जरूरतें कौन-सी हैं ?
उत्तर-
रोटी, कपड़ा और मकान।

प्रश्न 8.
I.L.0 क्या है ?
उत्तर-
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन।

प्रश्न 9.
UNDP क्या है ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम।

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प्रश्न 10.
कितने देशों में मानवीय विकास का अंक ज्यादा है ?
उत्तर-
57 देशों में।

प्रश्न 11.
भारत का मानवीय विकास का अंक सभी देशों में कितना स्थान है ?
उत्तर-
134 वां।

प्रश्न 12.
मानवीय बस्तियों को कितनी श्रेणियों में बाँटा जाता है ?
उत्तर-
मानवीय बस्तियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है—

  1. ग्रामीण बस्तियाँ,
  2. शहरी बस्तियाँ।

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प्रश्न 13.
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत के एक गाँव में औसतन आबादी कितनी है और गाँव का औसत क्षेत्रफल कितना है ?
उत्तर-
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत के एक गाँव में औसत जनसंख्या 1395 व्यक्ति और क्षेत्रफल 5.5 वर्ग किलोमीटर है।

प्रश्न 14.
ग्रामीण बस्तियों का चेक बोर्ड नमूना किस तरह का होता है ?
उत्तर-
ये बस्तियाँ अधिकतर वहाँ विकसित होती हैं, जहाँ दो रास्ते या यातायात के साधन एक-दूसरे को समकोण पर मिलते हों।

प्रश्न 15.
कस्बा किसे कहा जाता है ?
उत्तर-
कस्बा शहरी बस्ती की सबसे छोटी इकाई होती है। यहाँ शहरी काम करने के तरीके इत्यादि देखने को मिलते

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प्रश्न 16.
ग्रामीण बस्तियाँ अधिकतर कहां पर मिलती हैं ? ।
उत्तर-
ग्रामीण बस्तियाँ, घाटी के मैदानों, तटवर्ती इलाकों, पहाड़ों की ढलानों, नदी के किनारों इत्यादि के नज़दीक मिलती हैं।

प्रश्न 17.
मानवीय विकास का सूचक सिद्धान्त किसने और कब बनाया ?
उत्तर–
पाकिस्तान के अर्थशास्त्री महबूब उल-हक ने 1990 में यह सिद्धान्त बनाया।

प्रश्न 18.
भारत में मानवीय विकास को मापने के लिए कौन-से तीन सैट चुने गए हैं ?
उत्तर-
लिंग समानता, स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक प्राप्ति और मानवीय गरीबी सूचक।

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प्रश्न 19.
मानवीय विकास सूचक की कीमत क्या होती है ?
उत्तर-
मानवीय विकास सूचक की कीमत 0 से 1 के बीच होती है।

प्रश्न 20.
उच्च मानवीय विकास सूचक का अंक क्या है ?
उत्तर-
0.8 या इससे अधिक।

प्रश्न 21.
विकास कब होता है ?
उत्तर-
विकास तब होता है जब सकारात्मक परिवर्तन किसी स्थान पर होता है।

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प्रश्न 22.
किसमें धनात्मक तबदीली होती है ? विकास में या बढ़ोत्तरी में।
उत्तर-
विकास में।

प्रश्न 23.
विकास का मुख्य लक्ष्य क्या होता है ?
उत्तर-
इस तरह के हालात या सुविधा पैदा करनी, जिसके साथ मनुष्य समृद्ध जीवन बिता सके।

प्रश्न 24.
उत्तरी अमेरिका के कौन-से देश का मानवीय विकास सूचक सबसे अधिक है ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका।

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प्रश्न 25.
किस देश का संसार में मानवीय विकास अंक ज्यादा है और कितना है ?
उत्तर-
नार्वे का (0.963)

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मानवीय विकास से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
विकास का अर्थ है गुणात्मक परिवर्तन। यह किसी प्रदेश के संसाधनों के विकास के लिए अधिकतम शोषण की प्रक्रिया है। इसका मुख्य उद्देश्य किसी प्रदेश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। इसका मुख्य लक्ष्य मनुष्य के लिए अवसरों की पहुंच को बढ़ाना है।

प्रश्न 2.
मानवीय विकास के चिन्ह या सूचक कौन से हैं ?
उत्तर-
विश्व बैंक प्रति वर्ष विश्व विकास रिपोर्ट तैयार करके प्रस्तुत करता है। इसमें उत्पादन, स्वास्थ्य, शिक्षा, मांग, ऊर्जा, व्यापार, जनसंख्या वृद्धि, इत्यादि के आँकड़े एकत्रित किए जाते हैं। यह रिपोर्ट कुछ सूचकों पर आधारित होती है। ये सूचक हैं—

  1. जीवन अवधि
  2. साक्षरता
  3. रहन-सहन का स्तर।

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प्रश्न 3.
मानवीय विकास के सिद्धान्त के अनुसार उत्पादकता से क्या अर्थ है ?
उत्तर-
इसका अर्थ है जिन्दगी के प्रत्येक क्षेत्र में उत्पादन का बढ़ना। देश की जनसंख्या या देश के लोग देश की असल पूँजी हैं। इसलिए उन लोगों की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए उनको बढ़िया चिकित्सा सुविधाएं और शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिए।

प्रश्न 4.
विकास से क्या अभिप्राय है ? इसके कोई तीन मूल बिंदु बताओ।
उत्तर-
विकास का अर्थ है गुणात्मक परिवर्तन। इसके तीन मूल बिंदु हैं—

  1. लोगों के जीवन की गुणवत्ता
  2. अवसर
  3. लोगों की स्वतंत्रता।

प्रश्न 5.
एक उचित जीवन जीने के लिए जरूरी पहलू कौन से हैं ?
उत्तर-
एक उचित जीवन जीने के लिए ज़रूरी पहलू निम्नलिखित अनुसार हैं—

  1. लंबा और स्वस्थ जीवन
  2. ज्ञान में वृद्धि
  3. एक सार्थक जीवन के पर्याप्त साधन।

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प्रश्न 6.
कुछ लोग मूल ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर सकते। इसके क्या कारण हैं ?
उत्तर-
अधिकतर लोगों के पास योग्यता की कमी होने के कारण और आजादी की कमी के कारण वे अपनी मूल जरूरतों को नहीं पूरा कर सकते, क्योंकि—
—ज्ञान प्राप्त करने की सामर्थ्य का न होना
—लोगों की गरीबी
—सामाजिक विभिन्नता।
उदाहरण—एक अशिक्षित बच्चा कभी डॉक्टर नहीं बन सकता। एक गरीब साधनों की कमी के कारण चिकित्सा उपचार नहीं करवा सकता।

प्रश्न 7.
प्रो० अमर्त्य सेन के अनुसार विकास का मुख्य उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-
अमर्त्य सेन के अनुसार विकास का मुख्य उद्देश्य लोगों की स्वतंत्रता में वृद्धि करना है। यह विकास का एक सबसे प्रभावशाली और योग्य साधन है। सामाजिक और राजनैतिक संस्थाएं आजादी को बढ़ाती हैं।

प्रश्न 8.
एक सार्थक जीवन की प्रमुख विशेषताएँ बताओ।
उत्तर-
एक सार्थक जीवन की प्रमुख विशेषताएँ हैं—

  1. लोगों का जीवन स्वस्थ होना चाहिए।
  2. लोगों में अपनी प्रतिभा के विकास करने की योग्यता होनी चाहिए।
  3. प्रत्येक सामाजिक गतिविधियों में शामिल हो।
  4. संसाधनों तक पहुँच, स्वस्थ जीवन।

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प्रश्न 9.
हक या इन्साफ से आपका क्या अर्थ है ? इसमें कौन सी मुश्किलें आती हैं ?
उत्तर-
इन्साफ का अर्थ है कि हर मनुष्य को हर अवसर में एक बराबर पहुंच है या हर अवसर को हर मनुष्य प्राप्त कर सकता है। हर मनुष्य को जो भी अवसर मिले वह बराबर मिले। पर इसमें कुछ मुश्किलें भी आती हैं जैसे कि—
—लिंग असमानता
—पीढ़ी भिन्नता
—जाति।

प्रश्न 10.
निरंतरता क्या है ? कोई तीन स्रोतों के नाम लिखें जो निरंतरता में प्रयोग किये जाते हैं।
उत्तर-
निरंतरता का अर्थ है अवसरों की उपलब्धि में निरंतरता। हर पीढ़ी की अपनी जरूरतें होती हैं, इसलिए स्रोतों का गलत प्रयोग नहीं होना चाहिए परन्तु फिर भी कुछ स्रोतों का गलत प्रयोग होता है। जैसे कि—

  1. पर्यावरण,
  2. मनुष्य,
  3. आमदनी।

प्रश्न 11.
भारत में ग्रामीण बस्तियों के कौन-कौन से नमूने मिलते हैं ?
उत्तर-
भारत में ग्रामीण बस्तियों के निम्नलिखित नमूने मिलते हैं—

  1. रेखीय नमूना
  2. चैक बोर्ड
  3. आयताकार नमूना
  4. अर्धव्यास नमूना
  5. तारों के समान
  6. त्रिकोण नमूना
  7.  गोलाकार
  8. अर्धगोलाकार
  9. तीर जैसा
  10. बादल जैसा।

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प्रश्न 12.
शहरी बस्तियों को कौन-सी मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
शहरी बस्तियों को नीचे लिखी श्रेणियों में विभाजित किया जाता है—

  1. शहरी गाँव
  2. कस्बा
  3. शहरा
  4. महानगर
  5. विशाल शहरी क्षेत्र
  6. शहरों के समूह।

प्रश्न 13.
मानवीय विकास सूचक के अनुसार देशों को कैसे विभाजित किया जाता है ?
उत्तर-
मानवीय विकास सूचक के अनुसार देशों को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जाता है।

मानवीय विकास सूचक अंक देश
1. उच्च मानवीय विकास सूचक स्तर 0.8 से ज्यादा 57
2. मध्यम विकास सूचक स्तर 0.5 से 0.799 88
3. सबसे कम विकास सूचक स्तर 0.5 से कम 32

 

प्रश्न 14.
स्मार्ट शहर से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
स्मार्ट शहर उन शहरी क्षेत्रों को कहते हैं जो पूरी तरह विकसित शहर हैं। यहाँ तकनीक एक संपूर्ण बुनियादी ढाँचा, टिकाऊ जमीन जायदाद, अपने नागरिकों के लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवाएँ, संचार साधन, मंडीकरण और आवश्यक सेवाएँ आसानी से प्राप्त हों, स्मार्ट शहर कहलाते हैं।

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प्रश्न 15.
आर० पी० मिश्रा ने विकास केन्द्र में कौन से स्तर शामिल किये हैं ?
उत्तर-

  1. स्थानिक सेवा केन्द्र
  2. विकास बिंदु
  3. विकास केन्द्र
  4. विकास धुरा इत्यादि चार स्तरों को आर० पी० मिश्रा ने विकास फोकल प्वाइंट में शामिल किया है।

प्रश्न 16.
भारत में मानवीय विकास को मापने के लिए कौन-से तीन कारकों को चुना गया है ?
उत्तर-

  1. लिंग समानता
  2. स्त्रियों की अपेक्षाकृत अधिक प्राप्तियाँ
  3. मानवीय गरीबी सूचक।

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लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
उत्पादकता से क्या अभिप्राय है ? इसमें किस प्रकार वृद्धि की जा सकती है ?
उत्तर-
उत्पादकता का अर्थ है मानव कार्य के संदर्भ में उत्पादकता। देश के लोग ही देश की असल दौलत हैं। अगर लोगों को अच्छी सुविधाएँ मिलेंगी तो भविष्य में उत्पादन बढ़ाने में योगदान डालेंगे। इसमें वृद्धि करने के उपाय हैं—

  1. लोगों की क्षमताओं का निर्माण करना।
  2. लोगों के ज्ञान में वृद्धि करना।
  3. बेहतर चिकित्सा सुविधाएँ प्रदान करके।
  4. कार्यक्षमता बेहतर करके।

प्रश्न 2.
सशक्तिकरण से क्या अभिप्राय है ? लोगों को कैसे सशक्त किया जा सकता है ? .
उत्तर-
सशक्तिकरण का अर्थ है-अपने विकल्प चुनने के लिए शक्ति प्राप्त करना। ऐसी शक्ति से स्वतंत्रता और क्षमता बढ़ती है। लोगों को सशक्त करने के उपाय हैं—

  1. लोगों की स्वतंत्रता का स्तर बढ़ा कर
  2. योग्यता का स्तर बढ़ा कर
  3. सुशासन
  4. लोकोन्मुखी नीतियाँ।

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प्रश्न 3.
मानव विकास के मापन के लिए कौन-से प्रमुख क्षेत्रों को चुना गया है ? भारत में मानवीय विकास सूचक की कीमत क्या है ?
उत्तर-
मानवीय विकास को मापने के लिए कुछ प्रमुख क्षेत्र हैं-जन्म दर, मृत्यु दर, बाल मृत्यु दर, पोषक तत्व और जन्म के समय जीवन संभावना, साक्षरता, स्त्रियों की साक्षरता, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या, छात्रों का अनुपात, आर्थिक मापदंड, आमदनी, रोजगार, उत्पादन, गरीबी की घटनायें, रोजगार के क्षेत्रों को शामिल किया जाता है। ये सारे मुख्य क्षेत्र आपस में मिल कर मानवीय विकास सूचक अंक का निर्माण करते हैं जो 0 से 1 के बीच हैं। इसकी कीमत एक के जितने पास होगी उतना ही मानवीय विकास सूचक अंक उच्च होगा।

प्रश्न 4.
कुल राष्ट्रीय प्रसन्नता क्या है ? इसके कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू कौन-से हैं ?
उत्तर-
भूटान के राजा जिगमें सिंह वांगचू ने यह सूचकांक 1979 में सुझाया था। इसके द्वारा मानवीय विकास को मापा जाता है। इसका अर्थ है कि मानसिक शांति, खुशी, प्रसन्नता, संतोष इत्यादि जिन्दगी के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं और यह सिर्फ पैसे की बदौलत या पैसे की बहुलता से ही पूरा नहीं होता। कुल राष्ट्रीय प्रसन्नता का सिद्धान्त हमें पवित्र धार्मिक गुणात्मक पहलू के विकास की ओर बल देने का सुझाव देता है। वर्ष 2017 में भारत का कुल राष्ट्रीय प्रसन्नता दर्जाबंदी में 122वां स्थान था जो पड़ोसी देशों से भी कम है।

प्रश्न 5.
मानवीय विकास का महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
मानवीय विकास का मुख्य उद्देश्य मानवीय चुनाव के क्षेत्र को बढ़ाना है जिसके साथ मानवीय दिशाओं का सुधार होता है। यह उत्पादन का स्तर बढ़ाता है। मानवीय विकास का महत्त्व निम्नलिखित है—

  1. यह मानवीय जनसंख्या की वृद्धि को कम करने में सहायक होता है।
  2. हर तरह का प्रदूषण कम करने और मानवीय जिन्दगी को आरामदायक पर्यावरण प्रदान करने में सहायता करता
  3. इस तरह गरीबी दूर होती है और सामाजिक बुराइयों का खात्मा होता है तथा राजनीतिक संतुलन और मजबूत बनता है।

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प्रश्न 6.
मानवीय बस्तियों का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की तीन जरूरतें हैं। इस तरह मनुष्य अपनी हैसियत और इच्छानुसार मकान बनाकर उसमें रहता है। जिस स्थान को मनुष्य, अपना मकान या रहने के लिए चुनता है उसे बस्ती कहा जाता है। जब मनुष्य इन बस्तियों में रहना शुरू कर लेता है, वे मानवीय बस्तियाँ कहलाती हैं। आबादी के घनत्व, सुख-सुविधाएँ सेवाएँ और अवसरों इत्यादि के आधार पर मानवीय बस्तियों को मुख्य तौर पर दो भागों में विभाजित किया जाता है—

  1. ग्रामीण बस्तियाँ,
  2. शहरी बस्तियाँ।

प्रश्न 7.
शहरों के समूह से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
Conurbation (शहरों का समूह) शब्द की खोज और प्रयोग सबसे पहले पैट्रिक गैडिस ने किया। शहरों का समूह इस तरह का शहरी क्षेत्र होता है जिसमें कई महानगर और कई छोटे-बड़े कस्बे विलीन हो जाते हैं और एक बहुत बड़े शहरी क्षेत्र को आकार मिल जाता है। उदाहरण के तौर पर भारत में कोलकाता ही एक ऐसा बड़ा महानगर है, जिसमें 85 के करीब छोटे-बड़े कस्बे और शहरी क्षेत्र शामिल होते हैं। यह क्षेत्र हुगली नदी के दोनों ओर फैला हुआ है। हावड़ा, डम-डम, कालीघाट, बिशनूपुर, डॉयमंड हार्बर और कोलकाता अन्य स्थान इसमें शामिल होते हैं। इनको शहरों का समूह कहा जाता है। परन्तु इस क्षेत्र में लोगों को विकास के साथ-साथ अनेकों मुसीबतों का भी सामना करना पड़ता है, जैसे कि इन क्षेत्रों में आबादी की वृद्धि के कारण हर क्षेत्र में गैर योजनाबंदी होती जा रही है।

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प्रश्न 8.
स्मार्ट शहर प्रोजैक्ट का मुख्य उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-
स्मार्ट शहर प्रोजैक्ट का मुख्य उद्देश्य शहरों का हर तरफ से विकास करने से है। इसके लिए महत्त्वपूर्ण तत्वों के मापदण्ड निम्नलिखित हैं—

  1. उचित जलापूर्ति और बिजली का उचित प्रबन्ध
  2. सफाई का अच्छा प्रबन्ध और टिकाऊ पर्यावरण।
  3. कुशल यातायात और संचार के साधन।
  4. गरीब जनसंख्या के लिए घर।
  5. सूचना तकनीक का उचित प्रबंध।
  6. सरकार द्वारा उचित प्रशासन।
  7. नागरिकों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध।
  8. उचित शिक्षित, साहित्यिक और स्वास्थ्य सेवाएँ इत्यादि।

प्रश्न 9.
मानवीय विकास के चिन्ह और सूचक कौन से हैं ?
उत्तर-
संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम द्वारा हर साल मानवीय विकास इन्डैक्स या रिपोर्ट बनाई जाती है। इसमें उत्पादक, खपत और मांग, व्यापार ऊर्जा, जनसंख्या की वृद्धि, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि से सम्बन्धित जानकारी प्रदान की जाती है। यह रिपोर्ट कुछ चिन्हों पर आधारित होती है। मानवीय विकास के तीन मुख्य घटक हैं—

  1. दीर्घायु,
  2. ज्ञान स्तर,
  3. रहन-सहन का स्तर।

भारत का मानवीय विकास सूचकांक देशों में 134वां है और नार्वे का पहला स्थान है। मानवीय विकास के मुख्य चिन्ह हैं—

  1. जन्म पर जीवन अवधि
  2. साक्षरता
  3. G.D.P. और G.N.P.
  4. आयु संरचना इत्यादि।

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प्रश्न 10.
देश के कुछ भागों में मानवीय विकास सूचकांक साधारण है। इसके क्या कारण हैं ?
उत्तर-
साधारण मानवीय विकास सूचकांक वाले देशों की संख्या सबसे ज्यादा है। इस भाग में 88 देशों को शामिल किया गया है।
कारण—

  1. अधिकतर ये वे देश हैं जो विकास कर रहे देशों के साथ मिल चुके हैं।
  2. “बहुत सारे देश इसमें भूतपूर्व कालोनियों के हैं।
  3. कुछ देश सोवियत यूनियन के टूटने के बाद 1990 में उभर कर सामने आए।
  4. कुछ देशों ने मानवीय विकास का सूचकांक सामाजिक भेदभाव और मानवीय विकास पर आधारित योजनाओं को बनाकर किया है।
  5. इनमें से बहुत सारे देशों में बहुत ज्यादा भेदभाव देखने को मिलता है। अन्य देशों के मुकाबले यहाँ मानवीय सूचकांक ज्यादा है।
  6. काफी देशों में राजनीतिक अस्थिरता भी साधारण मानवीय विकास का कारण है।

प्रश्न 11.
विकास धुरे की अवधारणा से आपका क्या अर्थ है ?
उत्तर-
1955 में फ्रांसिस पैरोकस ने सबसे पहले विकास धुरे की अवधारणा पेश की जिसे बाद में मिस्टर बोडविले ने विस्तार से पेश किया था। उनके अनुसार हर स्थान पर विकास एक समय या एक जैसा नहीं होता। विकास का स्तर और विकास का समय, हर स्थान पर अलग होता है। यह विकास अलग-अलग वेग के साथ ‘बिंदु’ केन्द्र में होता है। इस प्रकार अलग-अलग स्थानों के विकास का ज्ञान इकट्ठा करने के लिए और विकास धुरे की पहचान करने के लिए विकास धुरे को विकसित करने पर जोर दिया जा रहा है। यह हिस्सा विकास और स्थिति को गुणात्मक बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान डालते हैं।
आर०पी० शर्मा ने इसमें चार स्तरों या दों को शामिल किया है—

  1. स्थानीय सेवा केन्द्र
  2. विकास बिंदु
  3. विकास केन्द्र
  4. विकास धुरा।

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प्रश्न 12.
विकासशील देशों पर नोट लिखो।
उत्तर-
विकासशील देशों में मुख्य उद्योग, जैसे कि कृषि, वन, खनन, मछली पकड़ना, राष्ट्रीय आर्थिकता पर मुख्य अधिकार रखते हैं। अधिकतर जनसंख्या कृषि के काम में लगी हुई है और कृषि मुख्य रूप में अपने गुजर-बसर के लिए की जाती है। कृषि के लिए भूमि का आकार छोटा होता है। मशीनीकरण बहुत ही कम होता है और फसल का मुनाफा भी कम ही होता है जिसके कारण ज्यादातर क्षेत्र ग्रामीण आबादी के अधीन आता है। जन्म दर और मृत्यु दर दोनों ही अधिक होती हैं। बच्चों की संख्या अधिक होती है। खाने में पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण प्रोटीन की कमी, भुखमरी और कुपोषण की समस्या आम मिलती है। विकासशील देशों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी आती है, जिसके कारण बहुत सारी बीमारियां क्षेत्र में फैल जाती हैं। ये क्षेत्र जनसंख्या की वृद्धि के कारण भीड़ वाले बन जाते हैं, जहां घरों की हालात बहुत खराब होती है। शिक्षा सेवा भी पूरी विकसित नहीं होती। समाज में स्त्रियों की दशा भी ठीक नहीं होती।

निबंधात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
मानवीय विकास से आपका क्या अभिप्राय है ? इस मनोभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
उत्तर-
मानवीय विकास एक प्रगतिशील सिद्धान्त है। मानवीय विकास का अर्थ है विकास का प्रक्रम और यह किसी प्रदेश के संसाधनों के विकास के लिए अधिकतम शोषण की प्रक्रिया है। इसका मुख्य उद्देश्य किसी प्रदेश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। मानवीय विकास का मुख्य उद्देश्य मानव के लिए इस प्रकार का पर्यावरण पैदा करना होता है, जिसमें कोई बच्चा बिना शिक्षा से न रहे। जहाँ किसी भी मनुष्य को स्वास्थ्य सुविधा के लिए कोई मनाही न हो, जहाँ पर हर प्राणी अपनी योग्यता को बढ़ा सके।

भूगोलवेत्ता और समाज वैज्ञानिकों ने मानवीय विकास के क्षेत्र में विशिष्ट ध्यान दिया है। उन्होंने गरीबी का नाश करने और मानवीय जीवन को आनंदमय बनाने का उपदेश दिया है।

विकास का अर्थ स्वतंत्रता से है। आज के समाज में औद्योगीकरण, कम्प्यूटरीकरण, अच्छे यातायात और संचार के साधनों, अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण मनुष्य विकास कर रहा है।

मानवीय विकास का महत्त्व-मानवीय विकास के कारण आबादी की दर में कमी आ रही है। प्रदूषण जैसी समस्याओं को काबू करने के लिए भिन्न तरीके अपनाये जा रहे हैं। जिन्दगी को सुहावना और टिकाऊ बनाने के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं के साथ-साथ पर्यावरण की सफाई पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इस कारण कई सामाजिक बुराइयों का अंत हो रहा है।

मानवीय विकास के चिन्ह या सूचक-संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम द्वारा हर साल मानवीय विकास इन्डैक्स विकसित किया जाता है। इसमें उत्पादन, खपत, मांग, ऊर्जा, वित्त, व्यापार, जनसंख्या वृद्धि, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि के आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। यह रिपोर्ट कुछ सूचकों पर आधारित होती है। इसके तीन मूल घटक हैं-जीवन अवधि, ज्ञान, रहन-सहन का स्तर। मानवीय विकास के सूचक अंक के अनुसार, भारत का 134वां और नार्वे का पहला स्थान है। निम्नलिखित कुछ तत्व मानवीय विकास इन्डैक्स में शामिल किये गये हैं—

  1. जन्म पर जीवन अवधि (Life Expectancy)
  2. साक्षरता (ज्ञान का स्तर) (Level of Knowledge)
  3. जनसंख्यात्मक विशेषताएं (Demographic Characteristics)
  4. मानवीय गरीबी सूचक (Human Poverty Indicators)

1. जन्म पर जीवन अवधि-विश्व की औसत रूप से आयु 65 वर्ष है। उत्तरी अमेरिका में जीवन अवधि 77 वर्ष है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इसके उलट अफ्रीका में सबसे कम जीवन अवधि 54 वर्ष है जो कि सबसे कम है। विकसित देशों में पौष्टिक तत्व, चिकित्सा सेवाएं इत्यादि के कारण लोगों की आयु लम्बी होती है।
Life Expectancy Rate (2012)

Country Life Expectancy % of population above 65 years
Japan 83 24
Canada 81 14
Switzerland 82 17
Australia 82 14
France 82 17
India 65 5

 

2. ज्ञान का स्तर-ज्ञान किसी भी देश के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विकास के लिए सबसे अधिक विश्वसनीय स्रोत माना जाता है। गरीबी को दूर करने के लिए शिक्षा का होना अनिवार्य है। साक्षरता जनसांख्यिकीय विशेषताओं को प्रभावित करती है। विकसित देशों में साक्षरता का स्तर विकासशील देशों के मुकाबले ज्यादा होगी। ज्यादा साक्षरता खासकर आस्ट्रेलिया, यू०एस०ए, कैनेडा, जर्मनी, इत्यादि देशों में देखने को मिलती है। भारत में स्त्रियों की साक्षरता दर 65.5% और पुरुषों की साक्षरता दर 80% हैं।

3. मानवीय गरीबी सूचक-GDP और GNP देश की प्रति व्यक्ति (Per capita) आय दिखाती है, जो मानवीय विकास का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। जिस देश की प्रति व्यक्ति आय अधिक होगी वे देश भी अधिक विकसित होंगे। विकसित देशों में लोग विकासशील देशों से अधिक कमाते हैं। यू० एस० ए०, स्विट्ज़रलैंड, कैनेडा, जापान, आस्ट्रेलिया की GDP की आय अधिक है।

4. जनसंख्यात्मक विशेषताएँ-देश की आर्थिक स्थिति किसी देश की जनसंख्या के विभाजन, वृद्धि और घनत्व को प्रभावित करती है। विकसित और विकासशील देशों की जनसंख्या में विशेष अंतर पाए जाते हैं।

  • प्राकृतिक जनसंख्या में वृद्धि-कच्ची आयु और मृत्यु दर के बीच के फर्क को प्राकृतिक जनसंख्या की वृद्धि कहते हैं। यह व्यापार, आर्थिकता पर विशेष प्रभाव डालते हैं।
  • आयु वर्ग-यह भी विकसित और विकासशील देशों में अलग होती है। विकासशील देशों में ज्यादातर आश्रित जनसंख्या रहती है जैसे कि (0-14 साल) और 60 साल से ऊपर के लोग, परन्तु यह आश्रित जनसंख्या की संख्या विकसित देशों में कम होती है।

इस प्रकार उपरोक्त कारकों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विश्व में मानवीय विकास असमान है।
इसी प्रकार मानवीय विकास का जो यह अनमोल सिद्धान्त है, इसको मुख्य रूप में चार स्तंभों के अधीन विभाजित किया गया है।

  1. समता-इसका मतलब हर इन्सान को अपनी मर्जी का रोजगार चुनने का पूरा-पूरा अधिकार है।
  2. निरंतरता- इसका अर्थ है कि लोगों को अलग-अलग प्रकार के अवसर लगातार मिलते रहने चाहिए।
  3. उत्पादकता- इसका अर्थ हर एक क्षेत्र में उत्पादन में वृद्धि से है।
  4. शक्तिकरण- इसका अर्थ है अपने विकल्प चुनने के लिए शक्ति प्रदान करना।

इस प्रकार उपरोक्त कारकों के आधार पर हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि विश्व में मानवीय विकास का सूचक अंक असमान है। हर समाज, आर्थिकता इत्यादि में अलग है। यहां विकासशील और विकसित देशों के सूचक अंक में भिन्नता है।

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प्रश्न 2.
मानवीय बस्तियों पर नोट लिखो।
उत्तर-
रोटी, कपड़ा और मकान मानव की तीन मूल जरूरतें हैं। मनुष्य अपनी हैसियत और इच्छा के अनुसार अपना घर बनाता है। जिस स्थान पर कोई मनुष्य रहता है, वह उसका बसेरा या बस्ती होती है। जनसंख्या और विकास के आधार पर बस्तियों को दो भागों में विभाजित किया जाता है—

  1. ग्रामीण बस्तियाँ
  2. शहरी बस्तियाँ।

I. ग्रामीण बस्तियाँ-गाँवों में बने निवास स्थानों को ग्रामीण बस्तियाँ कहते हैं। ग्रामीण बस्तियाँ आमतौर पर बाढ़ के मैदानों, नदी के किनारों पर, पहाड़ी क्षेत्रों में, घाटी के मैदानों, तटवर्ती इलाकों इत्यादि में मिलती हैं। धरातल और भूमि इत्यादि के आधार पर हमारे देश में कई स्थानों पर घनी और कई स्थानों पर बिखरी हुई ग्रामीण बस्तियां मिलती हैं। भारत में ग्रामीण बस्तियों के कुछ नमूने इस प्रकार हैं—
(A) रैखिक नमूना-इस प्रकार की बस्तियाँ अधिकतर हमें सड़कों के किनारों, रेल लाइनों के नजदीक या किसी नहर इत्यादि के पास मिलती हैं।
PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ 14
Linear Pattern

2. चेक बोर्ड नमूना-ऐसी बस्तियाँ उन स्थानों पर मिलती हैं यहाँ यातायात के साधन और सड़कें एक-दूसरे को एक समकोण पर काटते हैं।
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Check Board Pattern

3. आयताकार प्रतिरूप-यह नमूना देखने में चेक बोर्ड के नमूने के जैसा ही होता है। यहां भी सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं और खासकर ये एक वर्ग आकार की होती हैं।
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Rectangular Pattern

4. अर्धव्यास नमूना-इस प्रकार की बस्तियाँ एक केन्द्रीय धुरे से शुरू होती हैं, जहाँ कई सड़कें, रास्ते इत्यादि अलग-अलग दिशाओं से एक केन्द्रीय स्थान पर इकट्ठे होते हैं।
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5. तारे जैसा नमूना-ये बस्तियाँ अर्धव्यास के नमूने में हुए कुछ सुधारों का नतीजा है।
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6. त्रिकोण नमूना- इस प्रकार की बस्तियाँ त्रिकोण आकार की होती हैं जो कि तीनों ओर से घिरी होती हैं।
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7. गोलाकार नमूना-इस प्रकार की बस्तियाँ आमतौर पर किसी नदी, तालाब, मस्जिद, मंदिर इत्यादि के आस-पास मिलती हैं।
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8. अर्धगोलाकार नमूना-इस प्रकार का नमूना किसी नदी के किनारे पर मिलता है। पर नदी का दूसरा हिस्सा किसी पहाड़ी इलाके के साथ मिला होना चाहिए। यह देखने में अर्ध गोल आकार की बन जाती है।
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9. तीर नमूना-इस प्रकार की बस्तियाँ किसी नदी के किनारों या नदी की उप-नदियों के किनारों के साथ-साथ मिलती हैं।
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10. बादल जैसा नमूना-यह देखने में एक बादल जैसी होती है।
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II. शहरी बस्तियाँ-शहरी बस्तियों का सम्बन्ध कस्बों या नगरों से होता है। इन क्षेत्रों में लोग ग्रामीण लोगों के जैसे कृषि के काम की अपेक्षा औद्योगिक विकास के कारण उद्योगों इत्यादि में काम करते हैं। यहाँ ग्रामीण मुकाबले विकास ज्यादा के होने कारण जनसंख्या का घनत्व भी ज्यादा होता है। शहरी बस्तियों को भी आगे कुछ श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। जैसे—

1. शहरी गाँव-इस प्रकार के गाँव के ढंग, तरीके शहरी होते हैं। इसको शहरी, ग्रामीण, कस्बा या शहरी बस्ती कहते हैं। यह किसी गाँव में हुए परिवर्तन को दिखाता है।

2. कस्बा-यह किसी शहरी बस्ती की सबसे छोटी इकाई होती है।

3. शहर-यह पूरी तरह से विकसित बस्ती होती है। यहां शहरी काम और जटिल अंदरूनी बनावट का बोलबाला होता है। जिस बस्ती की जनसंख्या एक लाख या इससे ज्यादा व्यक्तियों की होती हैं, वह शहर कहलाते हैं। यहां आबादी की वृद्धि शहर में मिलने वाली सेवाओं, सुविधाओं और रोजगार के अवसरों के कारण होती है।

4. महानगर-यह एक विशाल शहर होता है जिसकी जनसंख्या दस लाख या इससे ज्यादा व्यक्तियों की होती है। जैसे-जैसे विकास और समय बदलता जा रहा है, इस प्रकार के शहरों की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। इस प्रकार एक रिकार्ड अनुसार 1981 ई० में देश में सिर्फ 12 महानगर थे, जो कि 2011 में 53 तक बढ़ गए।

5. विशाल शहरी क्षेत्र-यह एक बहुत बड़ा विशाल शहरी क्षेत्र होता है जिसमें कई महानगर शामिल होते हैं। महानगर के विकास के कारण कई शहरी बस्तियाँ इसमें शामिल हो जाती हैं। जिस कारण यह क्षेत्र एक विशाल शहरी क्षेत्र में बदल जाता है। इस सिद्धान्त को सबसे पहली बार जीन गोटमैन ने दिया। इस धारणा का मुख्य रूप में उत्तर पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए उपयोग किया गया।

6. शहरों का समूह-यह एक ऐसा क्षेत्र होता है जिसमें कई महानगर और छोटे-बड़े शहरी क्षेत्र आपस में समा जाते हैं और यह एक शहर के समूह को जन्म देते हैं। हमारे भारत में इसका सबसे बड़ा उदाहरण कोलकाता शहर का है जिसमें 85 के करीब छोटे-बड़े शहरी क्षेत्र शामिल हैं।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ

प्रश्न 3.
विकसित तथा विकासशील देशों में विकास की तुलना करो।
उत्तर-
विकसित और विकासशील देशों में मानवीय विकास का सूचक अंक अलग-अलग होता है। विकसित देशों में सेजगार के अच्छे अवसर और स्वास्थ्य सेवायें आसानी से मिल जाती हैं, जिस कारण मानवीय विकास अधिक होता है और विकासशील देशों में मानवीय विकास कम होता है। इनकी तुलना निम्नलिखित—

विकसित देश विकासशील देश
1. इन देशों में राष्ट्रीय आर्थिक पूंजी का मुख्य स्रोतऔद्योगिक काम होते हैं। 1. इन देशों में लोगों का मूल रोजगार जैसे कि कृषि, मछली पालन, खनन इत्यादि होते हैं।।
2. इन देशों में बहुत कम लोग कृषि का काम करते 2. अधिकतर देश की आबादी कृषि के कामों में लगी होती है।
3. मुख्य रूप में कृषि व्यापार के लिए की जाती है और अच्छी मशीनों की सहायता से खेती की जाती है। भूमि का आकार बड़ा होता है। 3. कृषि सिर्फ अपने ही निर्वाह के लिए की जाती है, क्योंकि खेत छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित किया होता है और मशीनीकरण की कमी होती है।
4. मुख्य तौर पर जनसंख्या शहरी होती है और अधिकतर 80% लोग शहरों और कस्बों में रहते हैं। 4. मुख्य तौर पर जनसंख्या गाँवों में रहती है और 80% के लगभग जनसंख्या ग्रामीण होती है।
5. जन्म दर और मृत्यु दर कम होती है और आयु हमेशा अधिक होती है। बच्चे और बूढ़े, भाव निर्भर जनसंख्या कम होती है और काम करने वालों की जनसंख्या ज्यादा होती है। 5. जन्म दर और मृत्यु दर दोनों ही अधिक होती हैं और आयु हमेशा छोटी होती है। बच्चे और बुजुर्ग अर्थात् निर्भर अधिक जनसंख्या होती है और काम करने वालों की संख्या कम होती है।
6. इन देशों में पौष्टिक आहार के कारण बीमारियों का खतरा कम होता है और लोग विकास के कामों में लगे रहते हैं। 6. इन देशों में पौष्टिक आहार की कमी होती है जिस कारण बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
7. इन देशों में अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ लोगों के लिए होती हैं। 7. इन क्षेत्रों में अच्छी चिकित्सा सुविधाएं नहीं होतीं।
8. सामाजिक हालात इन क्षेत्रों में अधिकतर अच्छे होते हैं और स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ अच्छा घर और पर्यावरण होता है। 8. इन क्षेत्रों में भीड, घटिया मकान और सफाई का प्रबंध कम होता है जिसके कारण पर्यावरण प्रदूषित होता है।
9. इन क्षेत्रों में अच्छी शिक्षित सेवा प्रदान की जाती है, जिस कारण साक्षरता दर ऊँची होती है और साक्षरता दर उच्च होने के कारण इन क्षेत्रों में मानवीय विकास का स्तर उच्च होता है। 9. इन क्षेत्रों में शिक्षित सेवा उच्च स्तर की नहीं होती, जिस कारण साक्षरता दर कम होती है और मानवीय विकास दर कम होती है।
10. स्त्रियों की दशा में काफी सुधार होता है। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार और अवसर प्रदान किये जाते हैं। 10. अशिक्षा के कारण लोगों की सोच अच्छी नहीं होती जिस कारण स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता।
11. विकसित होने के कारण लोगों को रोजगार के अच्छे अवसर मिलते हैं। 11. ये देश आज भी विकास कर रहे हैं जिस कारण इतने अच्छे रोजगार के अवसर नहीं मिलते।

 

प्रश्न 4.
मानव विकास की धारणा क्या है ? इसका महत्त्व और इसके स्तंभों के बारे में विस्तार से चर्चा करो।
उत्तर-
वृद्धि और विकास दोनों द्वारा ही समय के साथ कुछ परिवर्तन आता जाता है, इसलिए ये दोनों स्तर एक-दूसरे से अलग हैं। विकास गुणवत्ता पर आधारित परिवर्तन होता है और वृद्धि का सम्बन्ध संख्या से होने कारण यह धनात्मक और ऋणात्मक भी हो सकता है। इस प्रकार विकास किसी वस्तु की वृद्धि और कमी दोनों ही चिन्हों द्वारा दर्शाया जा सकता है। इस तरह विकास गुणात्मक होता है जिसमें हमेशा धनात्मक परिवर्तन होता है। इसका अर्थ है कि जंब तक किसी स्थान पर वृद्धि नहीं होती अर्थात् मौजूदा हालातों में कुछ सुधार नहीं होता उतना समय विकास संभव नहीं होता। जनसंख्या की वृद्धि से विकास नहीं होता। विकास तब होता है, जब योग्यता में वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए अगर किसी क्षेत्र की आबादी 10 लाख से 20 लाख हो गई तो इससे सिर्फ जनसंख्या में वृद्धि होगी, पर अगर मूल जरूरतों जैसे-घरों की सप्लाई, जल, ऊर्जा, यातायात इत्यादि साधनों में विकास होता है, तो उसे विकास कहते हैं।

1990 से पहले देश में वृद्धि दर को और विकास दर को वहाँ की आर्थिक समृद्धि के हिसाब से मापा जाता था। इसका अर्थ है कि देश में विकसित आर्थिक अवसरों के साथ उस देश के विकसित होने पर अंदाजा लगाया जाता था, पर इन अंदाजों के आधार पर सही स्थिति के बारे में जान पाना काफी मुश्किल होता था, क्योंकि कई बार कुछ मसलों में आर्थिक वृद्धि के लाभ मनुष्य तक नहीं पहुंचते थे। इस प्रकार विकास के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू इस प्रकार हैं—

  1. लोगों की जीवन क्षमता
  2. लोगों के पास अवसरों का होना
  3. लोगों द्वारा स्वतंत्रता या खुलेपन को मानना।

उपरोक्त विचार स्पष्ट रूप में सबसे पहली बार 1980 के अंत के समय और 1990 के पहले दौर में दिये गये। यह विचार मशहूर अर्थशास्त्री महबूब उल हक और डॉ० अमर्त्य सेन द्वारा दिये गये। महबूब उल हक ने 1990 में मानवीय विकास का अर्थ बताया कि लोगों के चुनाव के घेरे को बढ़ाना चाहिए, ताकि वे शान से लम्बा और स्वस्थ जीवन जी सकें। डॉ० हक के अनुसार, “लोग ही विकास का धुरा हैं। लोगों के विकल्प, निर्धारित नहीं। ये बदलते रहते हैं। विकास का मुख्य उद्देश्य लोगों के लिए ऐसे अवसर पैदा करना है जिनके साथ वे एक सार्थक जिन्दगी बिता सकें। डॉक्टर अमर्त्य सेन ने अपने विचारों में कहा है, “मनुष्य की स्वतंत्रता में वृद्धि होना जरूरी है, क्योंकि यह ही विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। विकास के लिए मनुष्य की स्वतंत्रता बहुत ज़रूरी है। उसने ज्यादातर राजनीतिक और सामाजिक आधारों द्वारा मनुष्य को स्वतंत्रता देने पर जोर दिया है।
मानवीय विकास के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
—लम्बा और स्वस्थ जीवन
—ज्ञान की प्राप्ति के लिए योग्यता हासिल करना
—खूबसूरत जिन्दगी बिताने के लिए योग्य साधनों का होना।
आम शब्दों में विकास का अर्थ खुलापन या स्वतंत्रता से है। विकास और स्वतंत्रता का आपस में अच्छा संबंध है। विकास के स्तर को आधुनिक सुविधायों की मौजूदगी और उन तक पहुँच से मापा जा सकता है।

मानवीय विकास का महत्त्व-मानवीय विकास एक संयुक्त इंडेकस है-जैसे कि आयु संरचना, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय इत्यादि सारे सूचक अंक इसका हिस्सा है। ये किसी देश को एक क्रम प्रदान करते हैं और इनके अनुसार ही देश के विकास का अंदाजा लगाया जाता है। एक देश में मानवीय विकास सूचक अंक प्राप्त कर लेता है जब वहाँ के नागरिकों का जीवन स्तर ऊँचा होगा, शिक्षा सेवाएँ अच्छी होंगी और लोग (GDP) और (GNP) के विकास में अपना योगदान दे पायेंगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मानवीय विकास का मुख्य उद्देश्य मानवीय विकल्पों के क्षेत्र को बढ़ाना है और मानवीय परिस्थितियों को और आगे बढ़ाना है। यह उत्पादन के स्तर को ऊंचा उठाने में सहायक है। इस तरह ये मानवीय गुणों में सुधार लाने में सहायक हैं। यह तभी सम्भव है जब समाज के सभी तत्वों में ज़रूरत अनुसार निवेश किया जाए। मानवीय विकास देश की आबादी में वृद्धि की दर को कम करता है क्योंकि साक्षरता के कारण उनकी सोचने की क्षमता में विकास होता है। प्रदूषण पर काबू पाया जा सकता है और मानव जीवन को शुद्ध और साफ-सुथरा पर्यावरण प्रदान किया जा सकता है। सुधरा हुआ मानवीय जीवन राजनैतिक और सामाजिक संतुलन को मजबूत करता

मानवीय विकास के स्तंभ
जिस तरह एक मकान बनाने के लिए कुछ स्तंभों की जरूरत होती है, उसी प्रकार मानवीय विकास के लिए कुछ स्तभों की जरूरत होती है। जैसे कि—

1. हक या इंसाफ-हक या इंसाफ का अर्थ है अवसरों और रोजगार को हासिल करने में हर इंसान को समानता। जो भी अवसर उपलब्ध हैं वह हर एक के लिए समान हों बिना किसी लिंग, नस्ल, धर्म, जाति इत्यादि के भेदभाव से। ज्यादातर गरीब लोगों को अच्छे अवसर नहीं मिलते और वे अपने हक को प्राप्त करने से असमर्थ हो जाते हैं।

2. निरंतरता-इसका अर्थ है अवसरों की लगातार उपलब्धि। इसका अर्थ है हमारी हर पीढ़ी को एक समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए हमें अपने पर्यावरण, पूंजी, मानवीय स्रोतों का फालतू प्रयोग नहीं करना चाहिए। हमें ये स्रोत अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए संभाल कर रखने चाहिए ताकि वे भी इनका फायदा उठा सकें। हमें इनका प्रयोग सही रूप में करना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इनका लाभ उठा सकें।

3. उत्पादकता- इसका अर्थ मजदूर वर्ग की उत्पादकता या मानवीय काम में उत्पादकता से है। यह मानवीय योग्यताओं को सम्पन्न बनाता है और कहा जाता है कि देश के लोग ही इसकी असली पूंजी हैं। अगर उनके ज्ञान के विकास के लिए कोशिश की जाए और अच्छी सुविधाएँ प्रदान की जाएं, अच्छा स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएं दी जाएं तो वे अपने कार्य में कुशलता हासिल कर सकेंगे।

4. शक्तिकरण-इसका अर्थ है कि लोगों के पास अपनी मर्जी के अवसरों को चुनने की शक्ति का होना। इसका अर्थ है लोगों में अपने अवसर बनाने की शक्ति होनी चाहिए। इस तरह की शक्ति स्वतंत्रता और योग्यताओं द्वारा मानव में आती है। अच्छी सरकारी नीतियां और लोगों की भलाई के लिए सरकार द्वारा किए गए काम भी इस श्रेणी में शामिल हैं। लोगों को शक्तिकरण प्रदान करने के लिए लोकहित में बनी नीतियां या अच्छे प्रशासन की जरूरत है।

मानवीय विकास सूचक को ज्ञात करने के लिए सारे तत्वों के औसत मूल्य को जोड़कर तत्वों की संख्या के साथ भाग करके इसका मूल्य पता किया जाता है।

PSEB 12th Class Geography Solutions Chapter 3 मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ

मानवीय संसाधन-मानवीय विकास तथा बस्तियाँ PSEB 12th Class Geography Notes

  • वृद्धि से भाव किसी वस्तु या चीज़ की संख्या से है और विकास का भाव किसी गुणवत्ता की वृद्धि से होता है। विकास के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू हैं—लोगों की गुणवत्ता में वृद्धि, लोगों के पास अवसर का होना । अथवा लोगों द्वारा आज़ादी को मानना।
  • लंबा और स्वस्थ जीवन, ज्ञान की प्राप्ति के लिए योग्यता का होना, बेहतरीन जिंदगी बनाने के लिए साधनों का होना इत्यादि कुछ पहलू मानवीय विकास के लिए आवश्यक हैं।
  • मानवीय विकास का मुख्य उद्देश्य, मानवीय चुनाव के क्षेत्र को और अधिक विशाल करना और मानवीय हालातों को सुधारना है। हक या इन्साफ़, उत्पादकता, अवसर की उपलब्धता, मनमर्जी के अवसर, मानवीय विकास के स्तंभ माने जाते हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र विकास प्रोग्राम द्वारा मानवीय विकास इन्डैक्स विकसित किया गया, जिसमें लंबी उम्र, ज्ञान का स्तर, रहन-सहन का स्तर इत्यादि तत्त्व शामिल किए गए हैं।
  • मानवीय विकास सूचक की कीमत 0 से 1 के बीच होती है। जिसकी कीमत 1 के नज़दीक या आस- पास होगी, मानवीय विकास का स्तर उतना ही उच्च होगा।
  • रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की तीन मुख्य ज़रूरतें हैं। मानवीय बस्तियों को ग्रामीण और शहरी दो भागों में बाँटा जाता है। !
  • नार्वे जिसका मानवीय सूचक अंक 0.949 है, दुनिया में पहले स्थान पर आता है।
  • मानवीय विकास सूचक अंक अनुसार भारत में केरल पहले और फिर हिमाचल प्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु इत्यादि प्रदेश आते हैं।
  • भारत सरकार ने मौजूद शहरों में कुछ शहरों को स्मार्ट शहर बनाने का ऐलान किया है। स्मार्ट शहर प्रोजैक्ट का मुख्य उद्देश्य शहरों का हर पक्ष से विकास करना है। इसलिए एक स्मार्ट शहर के लिए कुछ मापदंड निर्धारित किए गए हैं–जैसे-जलापूर्ति, निश्चित बिजली का प्रबंध, अच्छी साफ़-सफ़ाई, गरीबों के लिए सस्ते घर इत्यादि।
  • फ्रांसिस पैरोकस ने 1955 में विकास धुरे की धारणा दी, जिसका बाद में मिस्टर बोडविले ने विस्तार किया। | उनका विचार था कि विकास हर जगह पर एक ही समय में नहीं होता। इसमें अलग-अलग वेग से बिन्दु, । केंद्र और अक्ष में विकास होता है।
  • मानव विकास-मानव विकास का अर्थ है लोगों की जीवन गुणवत्ता में वृद्धि होना।
  • मानवीय विकास के चिन्ह—
    • दीर्घायु,
    • ज्ञान का स्तर,
    • रहन-सहन का स्तर।
  • मानवीय विकास सूचकांक का सिद्धांत डॉक्टर महबूब-उल-हक ने 1990 ई० में दिया।
  • मानवीय विकास के स्तम्भ-हक, निरन्तरता, उत्पादकता, शक्तिकरण मानवीय विकास के स्तम्भ के तौर पर जाने जाते हैं।
  • मानवीय विकास की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार नार्वे जिसका मानवीय सूचक अंक 0.949 है, दुनिया भर में – पहले स्थान पर आता है।
  • मानवीय बस्तियों को सुविधाओं और आबादी के अनुसार दो मुख्य-श्रेणियों में विभाजित किया जाता है
    • ग्रामीण बस्तियाँ,
    • शहरी बस्तियाँ।
  • कस्बा-यह शहर की सबसे छोटी इकाई होती है। यहाँ शहरी रहने के तरीके, काम-काज साफ़ देखने को मिलता है।
  • महानगर-जिस शहर की आबादी 10 लाख व्यक्ति या इससे ज्यादा हो, उसे महानगर कहा जाता है।
  • स्मार्ट शहर-जिस शहर में तकनीक, प्रमुख ढांचे, अपने नागरिकों के मुताबिक सेवाएं हों उन्हें स्मार्ट शहर कहते हैं।
  • विकास केंद्र में चार स्तर या दर्जे—
    • स्थानिक सेवा केंद्र
    • विकास बिंदु
    • विकास केंद्र
    • विकास धुरा।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 11 दल प्रणाली Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 11 दल प्रणाली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक दलों की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करो।
(Explain the main Characteristics of Political Parties.)
अथवा
राजनीतिक दलों की चार विशेषताएं बताते हुए लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका का वर्णन करें।
(Explain the characteristics of Political Parties and also write the importance of Political Parties in Democracy.)
अथवा
राजनीतिक दलों की परिभाषा दें और लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के कोई चार कार्यों का वर्णन करें ।
(Define Political Parties. Describe any four functions of Political Parties in democracy.)
उत्तर-
आधुनिक प्रजातन्त्र राज्यों में राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य समझा जाता है। प्रजातन्त्र और राजनीतिक दलों का एक-दूसरे के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि प्रजातन्त्र के बिना राजनीतिक दलों की उन्नति नहीं हो सकती तथा बिना राजनीतिक दलों के प्रजातन्त्र शासन का चलाना सम्भव नहीं होता। वास्तव में आधुनिक युग राजनीतिक दलों का युग है। किसी भी देश में इसके बिना शासन चलाना सम्भव नहीं। चुनाव भी दलों के आधार पर होते हैं, विधानमण्डल का काम भी इनके द्वारा ही चलाया जाता है और शासन भी किसी-न-किसी राजनीतिक दल के कार्यक्रम के अनुसार ही चलाया जाता है।
राजनीतिक दल की परिभाषाएं (Definitions of Political Party)-राजनीतिक दल की परिभाषा विभिन्न लेखकों ने विभिन्न प्रकार से की है

परम्परागत परिभाषाएं (Traditional Definitions)-

1. बर्क (Burke) का कहना है कि, “राजनीतिक दल ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी ऐसे आधार पर, जिस पर वे सब एकमत हों, अपने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा जनता के हित में काम करने के लिए एकता में बंधे हों।”
(“A political party is a body of men united for promoting, by their joint endeavours, the national interest upon some particular principle on which they are all agreed.”)

2. डॉ० लीकॉक (Dr. Leacock) के मतानुसार, “राजनीतिक दल से हमारा अभिप्राय उन नागरिकों का थोड़ा या अधिक संगठित समूह है जो एक राजनीतिक इकाई के रूप में इकटे काम करते हैं। वे सार्वजनिक मामलों पर एक-सी राय रखते हैं और सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मतदान की शक्ति का प्रयोग करके सरकार पर अपना नियन्त्रण रखना चाहते हैं।”
(“By a political party we mean more or less organised group of citizens who act together as a political unit. They share or profess to share the same opinion on public questions and by exercising their voting power towards a common end, seek to obtain control of the government.”)

3. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के शब्दानुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है जिनके राजनीतिक विचार एक से हों और जो एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हों।”
(“A political party may be defined as an organised group of citizens who profess to share the same political view and who, by acting as a political unit, try to control the government.”)

4. मैकाइवर (Maclver) का कहना है, “राजनीतिक दल किसी सिद्धान्त या नीति के समर्थन के लिए संगठित वह समुदाय है जो संवैधानिक ढंग से उस सिद्धान्त या नीति को शासन का आधार बनाना चाहता है।” .
(“A political party is an association organised in support of some principle or policy which by constitutional means it endeavours to make the determinant of the government.”)

5. गैटल (Gettell) के अनुसार, “राजनीतिक दल उन नागरिकों का कम या अधिक संगठित समूह है जो एक राजनीतिक इकाई की तरह काम करते हैं और जो अपने मतों के द्वारा सरकार पर नियन्त्रण करने तथा अपने सिद्धान्त को लागू करना चाहते हों।”
इन सभी परिभाषाओं द्वारा हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का समूह है जो सार्वजनिक मामलों पर एक-से विचार रखते हों और संगठित होकर अपने मताधिकार द्वारा सरकार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहते हों ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सके।

आधुनिक परिभाषाएं-मोरिस दुवर्जर (Maurice Duverger), रॉय मैकरिडिस (Roy Macridis) तथा जे० ए० शूम्पीटर (J. A. Schumpeter) आदि आधुनिक विद्वानों का विचार है कि राजनीतिक दल केवल ‘सत्ता’ हथियाने के साधन बन गए हैं। जे० ए० शूम्पीटर (J. A. Schumpeter) के मतानुसार, “राजनीतिक दल एक ऐसा गुट या समूह है जिसके सदस्य सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष व होड़ में संलग्न हैं।” (“A party is a group whose members propose to act in concert in the competitive struggle for political power.”).

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 2.
आधुनिक लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों के कार्यों का वर्णन करें। (Discuss the functions of Political Parties in a Democratic Government.)
उत्तर-
लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों का विशेष महत्त्व है। इन्हें हम लोकतन्त्र की धुरी कह सकते हैं जिनके ऊपर सरकार की मशीन के पहियों का भार होता है। प्रो० मैकाइवर के शब्दों में, “बिना दलीय संगठन के किसी सिद्धान्त का पर्याप्त प्रकाशन नहीं हो सकता, किसी भी नीति का क्रमानुसार विकास नहीं हो सकता और न ही किसी प्रकार की स्वीकृत संस्थाएं हो सकती हैं जिनके द्वारा कोई दल शक्ति प्राप्त करना चाहता है या उसे स्थिर रखना चाहता हैं।”
राजनीतिक दल निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं-

1. लोकमत तैयार करना (To Mould Public Opinion)-लोकतन्त्रात्मक देश में राजनीतिक दल जनमत के निर्माण में बहुत सहायता करते हैं। साधारण जनता को देश की पूरी जानकारी नहीं होती जिसके कारण वे इन समस्याओं पर ठीक प्रकार से सोच नहीं सकते। राजनीतिक दल देश की समस्याओं को स्पष्ट करके जनता के सामने रखते हैं तथा उनको हल करने के सुझाव भी देते हैं जिससे जनमत के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। .

2. सार्वजनिक नीतियों का निर्माण (Formulation of Public Policies) राजनीतिक दल देश के सामने आने वाली समस्याओं पर विचार करते हैं तथा अपनी नीति निर्धारित करते हैं। राजनीतिक दल अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर भी सोच-विचार करते हैं और अपनी नीति बनाते हैं। प्रत्येक दल का समस्याओं को सुलझाने के लिए अपना दृष्टिकोण होता है।

3. राजनीतिक शिक्षा (Political Education)-राजनीतिक दल जनता को राजनीतिक शिक्षा देने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। राजनीतिक दल देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपनी नीति का निर्माण करते हैं और उन नीतियों का जनता में प्रचार करते हैं। इससे जनता को देश की समस्याओं की जानकारी होती है तथा विभिन्न दलों की नीतियों का पता चलता है। राजनीतिक दल सरकार की आलोचना करते हैं तथा जनता को सरकार की बुराइयों से अवगत करवाते हैं। विशेषकर चुनाव के दिनों में प्रत्येक राजनीतिक दल जनता को अपने पक्ष में करने के लिए अपनी नीतियों का जोरदार समर्थन करता है। राजनीतिक दलों के नेता नागरिकों के घरों में जाकर उन्हें अपने विचारों से अवगत करवाते हैं। चुनाव के दिनों में तो साधारण से साधारण व्यक्ति भी राजनीति में रुचि लेने लगता है।

4. चुनाव लड़ना (To Contest Election)-राजनीतिक दलों का मुख्य कार्य चुनाव लड़ना है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं और उनको चुनाव में विजयी कराने के लिए उनके पक्ष में प्रचार करते हैं। राजनीतिक दल चुनाव का घोषणा-पत्र (Election Manifesto) प्रकाशित करते हैं। स्वतन्त्र उम्मीदवार बहुत कम खड़े होते हैं और मतदाता भी स्वतन्त्र उम्मीदवारों को बहुत कम वोट डालते हैं। राजनीतिक दल मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए हर सम्भव यत्न करते हैं।

5. सरकार बनाना (To form the Government)-प्रत्येक राजनीतिक दल का मुख्य उद्देश्य सरकार पर नियन्त्रण करके अपनी नीतियों को लागू करना होता है। चुनाव में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है उसी दल की सरकार बनती है। सरकार की स्थापना करने के पश्चात् सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों तथा चुनाव में किए गए वायदों को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न करता है। बहुमत दल शासन को अच्छी तरह चलाने का प्रयत्न करता है ताकि अगले चुनाव में भी बहुमत प्राप्त कर सके।

6. विरोधी दल बनाना (To form Opposition)-चुनाव में जिन दलों को बहुमत प्राप्त नहीं होता, वे विरोधी दल के रूप में कार्य करते हैं। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है और सरकार की बुराइयों को जनता के सामने रखता है। विरोधी दल केवल विरोध करने के लिए ही सरकार की आलोचना नहीं करता बल्कि रचनात्मक आलोचना करता है और संकटकाल में सरकार का पूर्ण सहयोग करता है। संसदीय सरकार में विरोधी दल सत्तारूढ़ दल को हटाकर स्वयं सरकार बनाने के लिए प्रयत्न करता रहता है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए एक संगठित तथा शक्तिशाली विरोधी दल का होना बहुत आवश्यक है।

7. अपने विधायकों पर नियन्त्रण करता है (Control over the Legislators)-राजनीतिक दल विधानमण्डल के सदस्यों पर नियन्त्रण रखता है तथा उन्हें संगठित करता है। एक दल के सदस्य विधानमण्डल में एक टोली के रूप में कार्य करते हैं और दल के आदेशों के अनुसार अपने मतों का प्रयोग करते हैं। संसदीय सरकार में बहुमत दल के सदस्य सरकार का सदा समर्थन करते हैं और विरोधी दल के सदस्य सरकार की नीतियों के विपक्ष में वोट डालते हैं।

8. आर्थिक तथा सामाजिक सुधार (Economic and Social Reforms)-राजनीतिक दल राजनीतिक कार्यों के साथ-साथ आर्थिक एवं सामाजिक सुधार के भी कार्य करते हैं। राजनीतिक दल सामाजिक कुरीतियों जैसे कि छुआछूत, दहेज प्रथा, नशीली वस्तुओं आदि के विरुद्ध प्रचार करते हैं तथा उन्हें समाप्त करने का प्रयास करते हैं। जब कभी लोगों पर किसी प्रकार का संकट आ जाए उस समय भी राजनीतिक दल ही जनता की सेवा करने के लिए मैदान में आते हैं और संगठित रूप में लोगों की सहायता करते हैं, प्राकृतिक आपत्तियों-बाढ़, अकाल, युद्ध आदि के कारण पीड़ित लोगों की भी राजनीतिक दल सहायता करते हैं।

9. कार्यपालिका और विधानपालिका में सहयोग उत्पन्न करना (To Create Harmony betweent the Executive and the Legislature)-अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में कोई कानूनी सम्बन्ध नहीं होता। सरकार के ये दोनों अंग एक-दूसरे से पृथक और स्वतन्त्र होते हैं। ऐसी दशा में इन अंगों में गतिरोध होने की सम्भावना रहती है। ऐसे अवसरों पर राजनीतिक दल बहुत लाभकारी सिद्ध होते हैं। चूंकि दोनों अंगों में राजनीतिक दलों के सम्बन्धित व्यक्ति होते हैं, ये आपस में सामंजस्य तथा सहयोग स्थापित कर सकते हैं। अपने राजनीतिक दल के उन सदस्यों के द्वारा जो विधानपालिका में होते हैं, अध्यक्ष अपने विचारों आदि को वहां तक पहुंचा सकता है। यह सदस्य अध्यक्ष और विधानपालिका के बीच एक कड़ी का काम करते हैं।

10. जनता और सरकार के बीच कड़ी का काम करना (To Serve as a Link between People and the Government)-राजनीतिक दल जनता और सरकार के बीच कड़ी का काम करता है। जिस दल की सरकार होती है वह जनता में सरकार के कार्यक्रमों का प्रचार करता है। राजनीतिक दल जनता की तकलीफों और उनकी शिकायतों को भी सरकार तक पहुंचाते हैं और उनको दूर करवाने का प्रयत्न करते रहते हैं।

11. केन्द्र तथा इकाइयों में ताल-मेल करना (To create Harmony between the Centre and the Units)—संघात्मक शासन में केन्द्र तथा इकाइयों में शक्तियों का विभाजन होता है जिसके कारण केन्द्र तथा इकाइयों में गतिरोध उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है। राजनीतिक दलों ने गतिरोध की सम्भावना को कम कर दिया है। जब केन्द्र तथा इकाइयों में एक ही दल की सरकार होती है तब मतभेद उत्पन्न होने की कोई सम्भावना नहीं रहती।

12. राष्ट्रीय एकता का साधन (Means of National Unity)-संघात्मक राज्यों में राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। संघात्मक शासन में शक्तियों के केन्द्र तथा इकाइयों में विभाजन के कारण दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होते हैं। कई बार केन्द्र तथा इकाइयों में झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल केन्द्र तथा इकाइयों में कड़ी होने के कारण राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में सहायता करते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-आज के युग में, राजनीतिक दलों का बड़ा महत्त्व है और प्रजातन्त्र की सफलता के लिए राजनीतिक दल अनिवार्य हैं। लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) का कहना है कि, “इनके बिना कोई देश कार्य नहीं कर सकता। कोई भी आज तक यह नहीं दिखा सका है कि लोकतन्त्र सरकारें इनके बिना कैसे कार्य कर सकती हैं।” जब अमेरिकन संविधान बना तो वहां कोई राजनीतिक दल नहीं था और न ही संविधान निर्माताओं को इसकी सम्भावना थी, परन्तु कुछ समय के बाद ही वहां दल प्रणाली ने अपना स्थान बना लिया। देश में क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए इसकी जानकारी जनता को देने का श्रेय राजनीतिक दलों को ही है। प्रो० ब्रोगन (Prof. Brogan) ने लिखा है कि, “बिना दलीय व्यवस्था के अमेरिका के राष्ट्रपति जैसे किसी राष्ट्रीय महत्त्व के अधिकारी का निर्वाचन शायद असम्भव हो जाता और यह भी निश्चित है कि अमेरिका के संवैधानिक इतिहास में सबसे बड़ा गतिरोध अथवा गृह-युद्ध केवल उसी समय हुआ जब वहां दल व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी।”

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 3.
दल प्रणाली की किस्मों का वर्णन कीजिए। आपको कौन-सी दल प्रणाली पसन्द है व क्यों ? (Describe the types of Party System. Which party system do you like and why ?)
उत्तर-
आज लोकतन्त्र का युग है और लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली राजनीतिक दलों के बिना कार्य नहीं कर सकती है। दल प्रणाली कई प्रकार की होती है
(क) एक दलीय प्रणाली
(ख) दो दलीय प्रणाली
(ग) बहु-दलीय प्रणाली।
नोट-एक दलीय प्रणाली, दो दलीय प्रणाली तथा बहु-दलीय प्रणाली की व्याख्या-

यदि किसी राज्य में केवल एक ही राजनीतिक दल राजनीति में भाग ले रहा हो और अन्य राजनीतिक दलों को संगठित होने का कार्य करने की स्वतन्त्रता एवं अधिकार प्राप्त न हो तो ऐसी दल-प्रणाली को एक दलीय प्रणाली कहा जाता है। अधिनायकतन्त्र देशों में प्रायः एक दल प्रणाली प्रचलित होती है। 1917 की क्रान्ति के बाद रूस में एक दल प्रणाली स्थापित की गई। सोवियत संघ में साम्यवादी दल के अतिरिक्त और किसी दल की स्थापना नहीं की जा सकती थी। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् इटली और जर्मनी में एक-दलीय प्रणाली स्थापित की गई। इटली में फासिस्ट पार्टी के अतिरिक्त अन्य कोई पार्टी स्थापित नहीं की गई। जर्मनी में केवल नाज़ी पार्टी थी। 1991 में सोवियत संघ, रूमानिया, पोलैण्ड आदि देशों में एक दलीय शासन समाप्त हो गया। आजकल चीन, वियतनाम, क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि देशों में एक दलीय प्रणाली (साम्यवादी) पाई जाती है।

एक दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF ONE PARTY SYSTEM) –

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. राष्ट्रीय एकता-एक दलीय प्रणाली में राष्ट्रीय एकता बनी रहती है क्योंकि विभिन्न दलों में संघर्ष नहीं होता। सभी नागरिक एक ही विचारधारा में विश्वास रखते हैं और एक ही नेता के नेतृत्व में कार्य करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न होती है।
2. स्थायी सरकार-एक दलीय प्रणाली के कारण सरकार स्थायी होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल से होते हैं और विधानसभा के सभी सदस्य सरकार का समर्थन करते हैं।
3. दृढ़ शासन-एक दलीय प्रणाली में शासन दृढ़ होता है। किसी दूसरे दल के न होने के कारण सरकार की आलोचना नहीं होती। इस शासन से देश की उन्नति होती है।
4. दीर्घकालीन योजनाएं सम्भव-एक दलीय प्रणाली में सरकार स्थायी होने के कारण दीर्घकालीन योजनाएं बनानी सम्भव होती हैं जिससे देश की आर्थिक उन्नति बहुत होती है।
5. शासन में दक्षता-सरकार के सदस्यों में पारस्परिक विरोध न होने के कारण शासन प्रणाली के निर्णय शीघ्रता से लिए जाते हैं जिससे शासन में दक्षता आती है।
6. राष्ट्रीय उन्नति–राजनीतिक दलों के पारस्परिक झगड़े, आलोचना और सत्ता के लिए खींचातानी में समय नष्ट नहीं होता और जो भी योजना बन जाती है उसको ज़ोरों से लागू किया जाता है, जिससे देश की उन्नति तेज़ी से होती है।

एक दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF ONE PARTY SYSTEM)

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-
1. लोकतन्त्र के विरुद्ध-यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं है। इसमें नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं होती और न ही उन्हें संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होती है।
2. नाममात्र के चुनाव-एक दलीय प्रणाली में चुनाव केवल दिखावे के लिए होते हैं। नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती।
3. तानाशाही की स्थापना-एक दलीय प्रणाली में तानाशाही का बोलबाला रहता है। विरोधियों को सख्ती से दबाया जाता है अथवा उन्हें समाप्त कर दिया जाता है।
4. सरकार उत्तरदायी नहीं रहती-सरकार की आलोचना और विरोध करने वाला कोई और दल नहीं होता जिसके कारण सरकार उत्तरदायी नहीं रहती।
5. व्यक्तित्व का विकास नहीं होता-मनुष्यों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती जिसके कारण वे अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।
6. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-एक दलीय प्रणाली के कारण सभी वर्गों को मन्त्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। सभी नागरिकों के विचारों का सही प्रतिनिधित्व एक दलीय प्रणाली में नहीं हो सकता।
7. लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती-विरोधी दलों के अभाव के कारण चुनाव के दिनों में भी कोई विशेष हलचल नहीं होती। एक दल होने के कारण यह सदा सरकार की अच्छाइयों का प्रचार करता है। जनता को सरकार की बुराइयों का पता नहीं चलता।
8. विरोधी दल का अभाव-एक दलीय प्रणाली में विरोधी दल का अभाव रहता है। सरकार को निरंकुश बनाने से रोकने के लिए तथा सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने के लिए विरोधी दल का होना अति आवश्यक है। बिना विरोधी दल के बिना लोकतन्त्र सम्भव नहीं है।
9. संवैधानिक साधनों से सरकार को बदलना कठिन कार्य है-एक दलीय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण दोष ये हैं कि इसमें सरकार को संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा बदला नहीं जा सकता। सरकार को केवल क्रान्तिकारी तरीकों से ही बदला जा सकता है।

द्वि-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत केवल दो मुख्य महत्त्वपूर्ण दल होते हैं। दो मुख्य दलों के अतिरिक्त और भी दल होते हैं, परन्तु उनका कोई महत्त्व नहीं होता। सत्ता मुख्य रूप में दो दलों में बदलती रहती है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली प्रचलित है। इंग्लैण्ड के मुख्य दलों के नाम हैं-अनुदार दल तथा श्रमिक दल। अमेरिका में दो महत्त्वपूर्ण दल हैं-रिपब्लिकन पार्टी तथा डैमोक्रेटिक दल।

द्वि-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. सरकार आसानी से बनाई जा सकती है-द्वि-दलीय प्रणाली का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें सरकार आसानी से बनाई जा सकती है। दोनों दलों में एक दल का विधानमण्डल में बहुमत होता है। बहुमत दल अपना मन्त्रिमण्डल बनाता है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। जिस समय सत्तारूढ़ दल चुनाव में हार जाता है अथवा विधानमण्डल में बहुमत का विश्वास खो देता है तब विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर मिलता है।

2. स्थिर सरकार-बहुमत दल की सरकार बनती है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त रहता है। दल में कड़ा अनुशासन पाया जाता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटाया नहीं जा सकता। इस तरह सरकार अगले चुनाव तक अपने पद पर रहती है।

3. दृढ़ सरकार तथा नीति में निरन्तरता-सरकार स्थिर होने के कारण शासन में दृढ़ता आती है। सरकार अपनी नीतियों को दृढ़ता से लागू करती है। सरकार स्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जा सकती हैं और इससे नीति में भी निरन्तरता बनी रहती है।

4. जनता स्वयं सरकार चुनती है-द्वि-दलीय प्रणाली में जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सरकार का चुनाव करती है। दोनों दलों के कार्यक्रम और दोनों दलों के नेताओं को जनता अच्छी तरह जानती है। अतः जनता जिस दल को शक्ति सौंपना चाहती है उस दल के पक्ष में निर्णय दे दिया जाता है। जनता दो दलों में से जिस दल को सत्तारूढ़ दल बनाना चाहे बना सकती है।

5. निश्चित उत्तरदायित्व-द्वि-दलीय प्रणाली में बहुमत दल की सरकार होती है जिससे सरकार की बुराइयों के लिए सत्तारूढ़ को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। परन्तु जब मन्त्रिमण्डल में विभिन्न दलों के सदस्य होते हैं तब मन्त्रिमण्डल के बुरे प्रशासन के लिए किसी एक दल को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता।

6. प्रधानमन्त्री की शक्तिशाली स्थिति-प्रधानमन्त्री को संसद् में स्पष्ट बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, जिसके कारण वह दृढ़ता से शासन कर सकता है। इंग्लैण्ड में द्वि-दलीय प्रणाली के कारण ही प्रधानमन्त्री बहुत शक्तिशाली है।

7. संगठित विरोधी दल-द्वि-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल होता है जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करके सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है। सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल की आलोचना को ध्यान से सुनना पढ़ता है और कई बार सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल के सुझाव को मानना पड़ता है।

8. सरकार आसानी से बदली जा सकती है-सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटाया जा सकता है और विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सरकार बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती।

9. राजनीतिक एकरूपता-द्वि-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य एक ही दल से लिए जाते हैं जिस कारण मन्त्रियों के राजनीतिक विचारों में एकरूपता पाई जाती है।

10. संसदीय सरकार के लिए लाभदायक-द्वि-दलीय प्रणाली संसदीय सरकार को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होती है क्योंकि संसदीय सरकार दलों पर आधारित होती है। जहां पर दो दल पाए जाते हैं वहां पर स्पष्ट होता है कि किस दल को संसद् में बहुमत प्राप्त है। अत: इस बात पर विवाद पैदा नहीं होता कि किस दल को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया जाए।

द्वि-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही-दलीय मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो जाती है। मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण मन्त्रिमण्डल जो चाहे कर सकता है। विरोधी दल की आलोचना का मन्त्रिमण्डल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। विरोधी दल सरकार की कितनी ही आलोचना क्यों न कर ले पर जब वोटें ली जाती हैं तब बहुमत सरकार के समर्थन में ही होता है। इंग्लैण्ड में आजकल मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो चुकी है।

2. विधानमण्डल के महत्त्व की कमी-मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होने के कारण कोई भी बिल पास करवाना कठिन नहीं होता। विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल की इच्छाओं को रजिस्टर करने वाली एक संस्था बन जाती है।

3. मतदाताओं की सीमित स्वतन्त्रता-द्वि-दलीय प्रणाली में मतदाताओं की इच्छा सीमित हो जाती है। मतदाताओं को दो दलों के कार्यक्रमों में से एक को पसन्द करना पड़ता है। परन्तु कई मतदाता दोनों में से किसी को भी पसन्द नहीं करते पर उनके सामने कोई और विकल्प (Alternative) नहीं होता।

4. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-समाज में विभिन्न वर्गों के लोग रहते हैं जिनके हित तथा विचार भी भिन्न-भिन्न हैं। द्वि-दलीय प्रणाली के कारण इन वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

5. राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है-द्वि-दलीय प्रणाली से राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। दोनों गुटों का एक नीति पर सहमत होना कठिन होता है जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हो जाता है।

6. कानून दलीय हितों को समक्ष रख कर बनाए जाते हैं-सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दलीय हितों को समक्ष रखते हुए नीति का निर्माण करता है और कानून बनाता है। इससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-द्वि-दलीय प्रणाली के अनेक दोषों के बावजूद भी इसे अच्छा समझा जाता है। संसदीय सरकार की सफलता के लिए द्वि-दलीय प्रणाली का होना आवश्यक है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रजातन्त्र की सफलता का कारण द्वि-दलीय प्रणाली ही है।

बहु-दलीय प्रणाली में दो से अधिक दलों का राजनीतिक क्षेत्र में भाग होता है। प्रायः इन दलों में से कोई दल इतना अधिक शक्तिशाली नहीं होता कि वह बिना किसी दल की सहायता के सरकार बनाने में समक्ष हो। भारत, फ्रांस, इटली, जापान, जर्मनी आदि देशों में बहु-दलीय प्रणाली प्रचलित है।

बहु-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली से सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली से सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
2. मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपनी वोट का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है। मतदाताओं के लिए अपने विचारों से मिलते-जुलते दल को वोट देना आसान हो जाता है।
3. राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता-बहु-दलीय प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इससे राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता। जहां बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां अनेक प्रकार के विचार प्रचलित होते हैं और दलों में कठोर अनुशासन नहीं होता यदि कोई सदस्य अपने दल को छोड़ दे या उसे निकाल दिया जाए तो वह अपने विचारों से मिलता-जुलता दल ढूंढ़ लेता है।
4. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती-बहु-दलीय प्रणाली में अनेक दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जिस कारण मन्त्रिमण्डल तानाशाह नहीं बन सकता। मन्त्रिमण्डल में शामिल होने वाले दल एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके तथा समझौते की नीति अपना कर कार्य करते हैं।
5. सरकार बिना चुनाव के बदली जा सकती है-बहु-दलीय प्रणाली में चुनाव से पहले भी सरकार को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है। यदि एक दल भी मन्त्रिमण्डल से बाहर आ जाए तो सरकार हट जाती है और नई सरकार का निर्माण करना पड़ता है।
6. विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल के हाथों में कठपुतली नहीं बनता-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल का निर्माण कई दल मिलकर करते हैं। जिस कारण मन्त्रिमण्डल को अपने अस्तित्व के लिए एक दल पर निर्भर न रहकर विधानमण्डल पर निर्भर रहना पड़ता है।

बहु-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिल कर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।

2. दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।

3. सरकार के बनाने में कठिनाई-बहु-दलीय प्रणाली में किसी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण सरकार का बनाना कठिन हो जाता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने के लिए विभिन्न दलों में कई प्रकार की सौदेबाज़ी होती है। कई सदस्य मन्त्री बनने के लिए दल भी बदल जाते हैं, इसमें दल बदली को बढ़ावा मिलता है।

4. संगठित विरोधी दल का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल का अभाव होता है जिस कारण सरकार की नीतियों की प्रभावशाली आलोचना नहीं हो पाती। अत: सरकार के लिए मनमानी करना तथा विरोधी दल की अपेक्षा करना सम्भव हो जाता है।

5. प्रधानमन्त्री की कमज़ोर स्थिति-मिली-जुली सरकार में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमज़ोर होती है। प्रधानमन्त्री को उन दलों को साथ लेकर चलना पड़ता है। जो मन्त्रिमण्डल में शामिल होते हैं। प्रधानमन्त्री के लिए सभी दलों को प्रसन्न करना कठिन होता है। इस प्रकार प्रधानमन्त्री विभिन्न दलों की दया पर निर्भर रहता है।

6. उत्तरदायित्व निश्चित नहीं-बहु-दलीय प्रणाली में मिली-जुली सरकार होने के कारण बुरे प्रशासन के लिए किसी दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

7. शासन में अदक्षता-मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में सहयोग न होने के कारण शासन दक्षतापूर्ण नहीं चलाया जा सकता। इसके अतिरिक्त सरकार अस्थायी होने के कारण कर्मचारी शासन को ठीक तरह से नहीं चलाते और न ही शासन में दिलचस्पी लेते हैं।

8. जनता प्रत्यक्ष रूप से सरकार नहीं चुनती-बहु-दलीय प्रणाली में सरकार के निर्माण में जनता का प्रत्यक्ष हाथ नहीं होता। मतदान के समय जनता को यह पता नहीं होता कि किस दल का मन्त्रिमण्डल बनेगा। मिश्रित मन्त्रिमण्डल में न जाने कौन-कौन से दलों का समझौता हो और किसकी सरकार बने ?

9. नौकरशाही के प्रभाव में वृद्धि-इस प्रणाली के अन्तर्गत सरकार की अस्थिरता तथा मन्त्रियों के नियन्त्रण बदलने के कारण शासन का संचालन वास्तविक रूप में सरकारी अधिकारियों के द्वारा किया जाता है। इससे नौकरशाही के प्रभाव मे वृद्धि होती है और मन्त्रियों का प्रभाव कम हो जाता है। शासन की बागडोर अधिकारी वर्ग के हाथ में होने के कारण शासन में नौकरशाही के सभी अवगुण उत्पन्न हो जाते हैं।

10. भ्रष्टाचार में वृद्धि-बहु-दलीय प्रणाली में कई प्रकार के भ्रष्टाचारों की वृद्धि होती है। बहु-दलीय प्रणाली में सरकार को बनाए रखने के लिए विधायकों को कई प्रकार के लालच देकर साथ रखने का प्रयास किया जाता है। विभिन्न दलों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सरकार उन्हें अनेक प्रकार का लालच देती है।

11. राजनीतिक एकरूपता का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल प्रायः विभिन्न दलों द्वारा मिलकर बनाया जाता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में राजनीतिक एकरूपता नहीं पाई जाती। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विभिन्न विचारधाराओं के होने के कारण कई बार एक दूसरे की भी आलोचना कर देते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 4.
एक पार्टी प्रणाली से क्या भाव है ? इसके गुणों और अवगुणों की चर्चा कीजिए। (What is meant by one Party System ? Discuss its merits and demerits.)
अथवा
एक दलीय प्रणाली के गुण और अवगुण की व्याख्या करो। (Explain the merits and demerits of Single Party System.)
उत्तर-
यदि किसी राज्य में केवल एक ही राजनीतिक दल राजनीति में भाग ले रहा हो और अन्य राजनीतिक दलों को संगठित होने का कार्य करने की स्वतन्त्रता एवं अधिकार प्राप्त न हो तो ऐसी दल-प्रणाली को एक दलीय प्रणाली कहा जाता है। अधिनायकतन्त्र देशों में प्रायः एक दल प्रणाली प्रचलित होती है। 1917 की क्रान्ति के बाद रूस में एक दल प्रणाली स्थापित की गई। सोवियत संघ में साम्यवादी दल के अतिरिक्त और किसी दल की स्थापना नहीं की जा सकती थी। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् इटली और जर्मनी में एक-दलीय प्रणाली स्थापित की गई। इटली में फासिस्ट पार्टी के अतिरिक्त अन्य कोई पार्टी स्थापित नहीं की गई। जर्मनी में केवल नाज़ी पार्टी थी। 1991 में सोवियत संघ, रूमानिया, पोलैण्ड आदि देशों में एक दलीय शासन समाप्त हो गया। आजकल चीन, वियतनाम, क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि देशों में एक दलीय प्रणाली (साम्यवादी) पाई जाती है।

एक दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF ONE PARTY SYSTEM) –

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. राष्ट्रीय एकता-एक दलीय प्रणाली में राष्ट्रीय एकता बनी रहती है क्योंकि विभिन्न दलों में संघर्ष नहीं होता। सभी नागरिक एक ही विचारधारा में विश्वास रखते हैं और एक ही नेता के नेतृत्व में कार्य करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न होती है।
2. स्थायी सरकार-एक दलीय प्रणाली के कारण सरकार स्थायी होती है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल से होते हैं और विधानसभा के सभी सदस्य सरकार का समर्थन करते हैं।
3. दृढ़ शासन-एक दलीय प्रणाली में शासन दृढ़ होता है। किसी दूसरे दल के न होने के कारण सरकार की आलोचना नहीं होती। इस शासन से देश की उन्नति होती है।
4. दीर्घकालीन योजनाएं सम्भव-एक दलीय प्रणाली में सरकार स्थायी होने के कारण दीर्घकालीन योजनाएं बनानी सम्भव होती हैं जिससे देश की आर्थिक उन्नति बहुत होती है।
5. शासन में दक्षता-सरकार के सदस्यों में पारस्परिक विरोध न होने के कारण शासन प्रणाली के निर्णय शीघ्रता से लिए जाते हैं जिससे शासन में दक्षता आती है।
6. राष्ट्रीय उन्नति–राजनीतिक दलों के पारस्परिक झगड़े, आलोचना और सत्ता के लिए खींचातानी में समय नष्ट नहीं होता और जो भी योजना बन जाती है उसको ज़ोरों से लागू किया जाता है, जिससे देश की उन्नति तेज़ी से होती है।

एक दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF ONE PARTY SYSTEM)

एक दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. लोकतन्त्र के विरुद्ध-यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं है। इसमें नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं होती और न ही उन्हें संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होती है।
2. नाममात्र के चुनाव-एक दलीय प्रणाली में चुनाव केवल दिखावे के लिए होते हैं। नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती। ___3. तानाशाही की स्थापना-एक दलीय प्रणाली में तानाशाही का बोलबाला रहता है। विरोधियों को सख्ती से दबाया जाता है अथवा उन्हें समाप्त कर दिया जाता है।
4. सरकार उत्तरदायी नहीं रहती-सरकार की आलोचना और विरोध करने वाला कोई और दल नहीं होता जिसके कारण सरकार उत्तरदायी नहीं रहती।
5. व्यक्तित्व का विकास नहीं होता-मनुष्यों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती जिसके कारण वे अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते।
6. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-एक दलीय प्रणाली के कारण सभी वर्गों को मन्त्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। सभी नागरिकों के विचारों का सही प्रतिनिधित्व एक दलीय प्रणाली में नहीं हो सकता।
7. लोगों को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती-विरोधी दलों के अभाव के कारण चुनाव के दिनों में भी कोई विशेष हलचल नहीं होती। एक दल होने के कारण यह सदा सरकार की अच्छाइयों का प्रचार करता है। जनता को सरकार की बुराइयों का पता नहीं चलता।
8. विरोधी दल का अभाव-एक दलीय प्रणाली में विरोधी दल का अभाव रहता है। सरकार को निरंकुश बनाने से रोकने के लिए तथा सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने के लिए विरोधी दल का होना अति आवश्यक है। बिना विरोधी दल के बिना लोकतन्त्र सम्भव नहीं है।
9. संवैधानिक साधनों से सरकार को बदलना कठिन कार्य है-एक दलीय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण दोष ये हैं कि इसमें सरकार को संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा बदला नहीं जा सकता। सरकार को केवल क्रान्तिकारी तरीकों से ही बदला जा सकता है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 5.
द्वि-दलीय प्रणाली किसे कहते हैं ? इसके गुणों और अवगुणों का वर्णन करें।
(What is Bi-Party System ? Discuss its merits and demerits.)
अथवा
द्वि-दलीय प्रणाली के गुण और अवगुण लिखो। (Write down the merits and demerits of Bi-party System.)
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत केवल दो मुख्य महत्त्वपूर्ण दल होते हैं। दो मुख्य दलों के अतिरिक्त और भी दल होते हैं, परन्तु उनका कोई महत्त्व नहीं होता। सत्ता मुख्य रूप में दो दलों में बदलती रहती है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली प्रचलित है। इंग्लैण्ड के मुख्य दलों के नाम हैं-अनुदार दल तथा श्रमिक दल। अमेरिका में दो महत्त्वपूर्ण दल हैं-रिपब्लिकन पार्टी तथा डैमोक्रेटिक दल।

द्वि-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

1. सरकार आसानी से बनाई जा सकती है-द्वि-दलीय प्रणाली का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें सरकार आसानी से बनाई जा सकती है। दोनों दलों में एक दल का विधानमण्डल में बहुमत होता है। बहुमत दल अपना मन्त्रिमण्डल बनाता है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। जिस समय सत्तारूढ़ दल चुनाव में हार जाता है अथवा विधानमण्डल में बहुमत का विश्वास खो देता है तब विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर मिलता है।

2. स्थिर सरकार-बहुमत दल की सरकार बनती है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त रहता है। दल में कड़ा अनुशासन पाया जाता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके मन्त्रिमण्डल को हटाया नहीं जा सकता। इस तरह सरकार अगले चुनाव तक अपने पद पर रहती है।

3. दृढ़ सरकार तथा नीति में निरन्तरता-सरकार स्थिर होने के कारण शासन में दृढ़ता आती है। सरकार अपनी नीतियों को दृढ़ता से लागू करती है। सरकार स्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जा सकती हैं और इससे नीति में भी निरन्तरता बनी रहती है।

4. जनता स्वयं सरकार चुनती है-द्वि-दलीय प्रणाली में जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से सरकार का चुनाव करती है। दोनों दलों के कार्यक्रम और दोनों दलों के नेताओं को जनता अच्छी तरह जानती है। अतः जनता जिस दल को शक्ति सौंपना चाहती है उस दल के पक्ष में निर्णय दे दिया जाता है। जनता दो दलों में से जिस दल को सत्तारूढ़ दल बनाना चाहे बना सकती है।

5. निश्चित उत्तरदायित्व-द्वि-दलीय प्रणाली में बहुमत दल की सरकार होती है जिससे सरकार की बुराइयों के लिए सत्तारूढ़ को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। परन्तु जब मन्त्रिमण्डल में विभिन्न दलों के सदस्य होते हैं तब मन्त्रिमण्डल के बुरे प्रशासन के लिए किसी एक दल को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता।

6. प्रधानमन्त्री की शक्तिशाली स्थिति-प्रधानमन्त्री को संसद् में स्पष्ट बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, जिसके कारण वह दृढ़ता से शासन कर सकता है। इंग्लैण्ड में द्वि-दलीय प्रणाली के कारण ही प्रधानमन्त्री बहुत शक्तिशाली है।

7. संगठित विरोधी दल-द्वि-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल होता है जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करके सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है। सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल की आलोचना को ध्यान से सुनना पढ़ता है और कई बार सत्तारूढ़ दल को विरोधी दल के सुझाव को मानना पड़ता है।

8. सरकार आसानी से बदली जा सकती है-सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उसे हटाया जा सकता है और विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सरकार बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती।

9. राजनीतिक एकरूपता-द्वि-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल के सभी सदस्य एक ही दल से लिए जाते हैं जिस कारण मन्त्रियों के राजनीतिक विचारों में एकरूपता पाई जाती है।

10. संसदीय सरकार के लिए लाभदायक-द्वि-दलीय प्रणाली संसदीय सरकार को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होती है क्योंकि संसदीय सरकार दलों पर आधारित होती है। जहां पर दो दल पाए जाते हैं वहां पर स्पष्ट होता है कि किस दल को संसद् में बहुमत प्राप्त है। अत: इस बात पर विवाद पैदा नहीं होता कि किस दल को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया जाए।

द्वि-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF BI-PARTY SYSTEM)
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. मन्त्रिमण्डल की तानाशाही-दलीय मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो जाती है। मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत का समर्थन प्राप्त होने के कारण मन्त्रिमण्डल जो चाहे कर सकता है। विरोधी दल की आलोचना का मन्त्रिमण्डल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। विरोधी दल सरकार की कितनी ही आलोचना क्यों न कर ले पर जब वोटें ली जाती हैं तब बहुमत सरकार के समर्थन में ही होता है। इंग्लैण्ड में आजकल मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो चुकी है।

2. विधानमण्डल के महत्त्व की कमी-मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होने के कारण कोई भी बिल पास करवाना कठिन नहीं होता। विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल की इच्छाओं को रजिस्टर करने वाली एक संस्था बन जाती है।

3. मतदाताओं की सीमित स्वतन्त्रता-द्वि-दलीय प्रणाली में मतदाताओं की इच्छा सीमित हो जाती है। मतदाताओं को दो दलों के कार्यक्रमों में से एक को पसन्द करना पड़ता है। परन्तु कई मतदाता दोनों में से किसी को भी पसन्द नहीं करते पर उनके सामने कोई और विकल्प (Alternative) नहीं होता।

4. सभी हितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता-समाज में विभिन्न वर्गों के लोग रहते हैं जिनके हित तथा विचार भी भिन्न-भिन्न हैं। द्वि-दलीय प्रणाली के कारण इन वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

5. राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है-द्वि-दलीय प्रणाली से राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। दोनों गुटों का एक नीति पर सहमत होना कठिन होता है जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हो जाता है।

6. कानून दलीय हितों को समक्ष रख कर बनाए जाते हैं-सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दलीय हितों को समक्ष रखते हुए नीति का निर्माण करता है और कानून बनाता है। इससे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचती है।

निष्कर्ष (Conclusion)-द्वि-दलीय प्रणाली के अनेक दोषों के बावजूद भी इसे अच्छा समझा जाता है। संसदीय सरकार की सफलता के लिए द्वि-दलीय प्रणाली का होना आवश्यक है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में प्रजातन्त्र की सफलता का कारण द्वि-दलीय प्रणाली ही है।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 6.
बहु-दलीय प्रणाली के गुण और अवगुण का वर्णन करो। (Write down the merits and demerits of Multi-Party System.)
अथवा
बहु-दलीय प्रणाली के गुणों और दोषों की व्याख्या करें। (Discuss the merits and demerits of Multi-Party System.)
उत्तर-
बहु-दलीय प्रणाली में दो से अधिक दलों का राजनीतिक क्षेत्र में भाग होता है। प्रायः इन दलों में से कोई दल इतना अधिक शक्तिशाली नहीं होता कि वह बिना किसी दल की सहायता के सरकार बनाने में समक्ष हो। भारत, फ्रांस, इटली, जापान, जर्मनी आदि देशों में बहु-दलीय प्रणाली प्रचलित है।

बहु-दलीय प्रणाली के गुण (MERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली से सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली से सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
  • मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपनी वोट का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है। मतदाताओं के लिए अपने विचारों से मिलते-जुलते दल को वोट देना आसान हो जाता है।
  • राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता-बहु-दलीय प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इससे राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता। जहां बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां अनेक प्रकार के विचार प्रचलित होते हैं और दलों में कठोर अनुशासन नहीं होता यदि कोई सदस्य अपने दल को छोड़ दे या उसे निकाल दिया जाए तो वह अपने विचारों से मिलता-जुलता दल ढूंढ़ लेता है।
  • मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती-बहु-दलीय प्रणाली में अनेक दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जिस कारण मन्त्रिमण्डल तानाशाह नहीं बन सकता। मन्त्रिमण्डल में शामिल होने वाले दल एक-दूसरे से विचार-विमर्श करके तथा समझौते की नीति अपना कर कार्य करते हैं।
  • सरकार बिना चुनाव के बदली जा सकती है-बहु-दलीय प्रणाली में चुनाव से पहले भी सरकार को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है। यदि एक दल भी मन्त्रिमण्डल से बाहर आ जाए तो सरकार हट जाती है और नई सरकार का निर्माण करना पड़ता है।
  • विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल के हाथों में कठपुतली नहीं बनता-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल का निर्माण कई दल मिलकर करते हैं। जिस कारण मन्त्रिमण्डल को अपने अस्तित्व के लिए एक दल पर निर्भर न रहकर विधानमण्डल पर निर्भर रहना पड़ता है।

बहु-दलीय प्रणाली के दोष (DEMERITS OF MULTI-PARTY SYSTEM)
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिल कर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।

2. दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।

3. सरकार के बनाने में कठिनाई-बहु-दलीय प्रणाली में किसी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण सरकार का बनाना कठिन हो जाता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने के लिए विभिन्न दलों में कई प्रकार की सौदेबाज़ी होती है। कई सदस्य मन्त्री बनने के लिए दल भी बदल जाते हैं, इसमें दल बदली को बढ़ावा मिलता है।

4. संगठित विरोधी दल का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल का अभाव होता है जिस कारण सरकार की नीतियों की प्रभावशाली आलोचना नहीं हो पाती। अत: सरकार के लिए मनमानी करना तथा विरोधी दल की अपेक्षा करना सम्भव हो जाता है।

5. प्रधानमन्त्री की कमज़ोर स्थिति-मिली-जुली सरकार में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमज़ोर होती है। प्रधानमन्त्री को उन दलों को साथ लेकर चलना पड़ता है। जो मन्त्रिमण्डल में शामिल होते हैं। प्रधानमन्त्री के लिए सभी दलों को प्रसन्न करना कठिन होता है। इस प्रकार प्रधानमन्त्री विभिन्न दलों की दया पर निर्भर रहता है।

6. उत्तरदायित्व निश्चित नहीं-बहु-दलीय प्रणाली में मिली-जुली सरकार होने के कारण बुरे प्रशासन के लिए किसी दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

7. शासन में अदक्षता-मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में सहयोग न होने के कारण शासन दक्षतापूर्ण नहीं चलाया जा सकता। इसके अतिरिक्त सरकार अस्थायी होने के कारण कर्मचारी शासन को ठीक तरह से नहीं चलाते और न ही शासन में दिलचस्पी लेते हैं।

8. जनता प्रत्यक्ष रूप से सरकार नहीं चुनती-बहु-दलीय प्रणाली में सरकार के निर्माण में जनता का प्रत्यक्ष हाथ नहीं होता। मतदान के समय जनता को यह पता नहीं होता कि किस दल का मन्त्रिमण्डल बनेगा। मिश्रित मन्त्रिमण्डल में न जाने कौन-कौन से दलों का समझौता हो और किसकी सरकार बने ?

9. नौकरशाही के प्रभाव में वृद्धि-इस प्रणाली के अन्तर्गत सरकार की अस्थिरता तथा मन्त्रियों के नियन्त्रण बदलने के कारण शासन का संचालन वास्तविक रूप में सरकारी अधिकारियों के द्वारा किया जाता है। इससे नौकरशाही के प्रभाव मे वृद्धि होती है और मन्त्रियों का प्रभाव कम हो जाता है। शासन की बागडोर अधिकारी वर्ग के हाथ में होने के कारण शासन में नौकरशाही के सभी अवगुण उत्पन्न हो जाते हैं।

10. भ्रष्टाचार में वृद्धि-बहु-दलीय प्रणाली में कई प्रकार के भ्रष्टाचारों की वृद्धि होती है। बहु-दलीय प्रणाली में सरकार को बनाए रखने के लिए विधायकों को कई प्रकार के लालच देकर साथ रखने का प्रयास किया जाता है। विभिन्न दलों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सरकार उन्हें अनेक प्रकार का लालच देती है।

11. राजनीतिक एकरूपता का अभाव-बहु-दलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल प्रायः विभिन्न दलों द्वारा मिलकर बनाया जाता है। इसलिए मन्त्रिमण्डल के सदस्यों में राजनीतिक एकरूपता नहीं पाई जाती। मन्त्रिमण्डल के सदस्य विभिन्न विचारधाराओं के होने के कारण कई बार एक दूसरे की भी आलोचना कर देते हैं।

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प्रश्न 7.
लोकतंत्र में विरोधी दल की भूमिका लिखें।
(Write down the role of Opposition Party in Democracy.)
अथवा
प्रजातन्त्रीय ढांचे में विपक्षी दलों की भूमिका की व्याख्या करें।
(Discuss the role of opposition parties in a democratic set up.)
अथवा
लोकतन्त्र में विरोधी दलों की भूमिका लिखें। (Explain the role of opposition Parties in Democracy.)
उत्तर-
आज का युग दल प्रणाली का युग है। लोकतन्त्र के लिए राजनीतिक दल अनिवार्य है। शासन पर जिस दल का नियन्त्रण होता है उसे सत्तारूढ़ दल कहा जाता है और अन्य दलों को विरोधी दल कहा जाता है। इंगलैण्ड में दो मुख्य दल हैं-श्रमिक दल और अनुदार दल। आजकल इंग्लैण्ड में अनुदार दल की सरकार है और श्रमिक दल विरोधी दल है। अमेरिका में दो मुख्य दल हैं-रिपब्लिकन पार्टी तथा डेमोक्रेटिक पार्टी। चुनावों में सदा इन दोनों दलों का मुकाबला होता है। भारत में अनेक राष्ट्रीय स्तर के दल पाए जाते हैं। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और कांग्रेस को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त हुआ। 1980 के चुनाव में कांग्रेस (इ) सत्तारूढ़ हुई और अन्य दल विरोधी दल कहलाए। 1984 के चुनाव में कोई भी विरोधी दल मान्यता प्राप्त विरोधी दल नहीं था। 1989 के चुनाव में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी और कांग्रेस (इ) को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा प्राप्त हुआ।

जून, 2004 में भारतीय जनता पार्टी को 14वीं लोकसभा में प्रमुख विरोधी दल की मान्यता प्रदान की गई। अप्रैल-मई, 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् भी भारतीय जनता पार्टी को विरोधी दल के रूप में मान्यता प्रदान की गई। 2014 के 16वीं लोकसभा के चुनावों के पश्चात् किसी भी दल को मान्यता प्राप्त विरोधी दल का दर्जा नहीं दिया गया। लोकतन्त्र में विरोधी दल का बड़ा महत्त्व होता है। वास्तव में जिस प्रकार लोकतन्त्र के लिए दलों का होना आवश्यक है, उसी तरह विरोधी दल का अस्तित्व भी प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक समझा जाता है। इंग्लैण्ड में विरोधी दल का महत्त्व इतना अधिक है कि उसे रानी का विरोधी दल (Her Majestry’s Opposition) कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि इंग्लैण्ड में विरोधी दल को सरकार मान्यता प्राप्त है। लोकतन्त्र में विरोधी दल अनेक कार्य करता है और जिनमें महत्त्वपूर्ण निम्नलिखित हैं

1. आलोचना (Criticism)-विरोधी दल का मुख्य कार्य सरकार की नीतियों की आलोचना करना है। विरोधी दल यह आलोचना मन्त्रिमण्डल के सदस्यों से विभिन्न प्रश्न पूछ कर, वाद-विवाद तथा अविश्वास प्रस्ताव पेश करके करता है। जब सत्तारूढ़ दल संसद् में बजट पेश करता है, तब विरोधी दल की आलोचना अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है। विरोधी दल सरकार से प्रत्येक तरह की जानकारी प्राप्त कर सकता है। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके उस समुदाय को जागरूक कर देता है जिस पर सरकार की नीतियों का प्रभाव पड़ना होता है। इसके अतिरिक्त मतदाताओं को सरकार की कार्यकुशलता और नीतियों के सम्बन्ध में अपनी राय बनाने में सुविधा हो जाती है।

2. उत्तरदायी आलोचना (Responsible Criticism)—विरोधी दल के सदस्य केवल आलोचना करने के लिए ही आलोचना नहीं करते बल्कि सत्तारूढ़ दल को शासन अच्छे ढंग से चलाने के लिए भी सुझाव देते हैं और कई बार उन के सुझाव मान भी लिए जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर विरोधी दल सरकार को पूर्ण सहयोग भी देते हैं । सत्तारूढ़ दल भी कई बार संसद् के कार्य और राष्ट्रीय समस्याओं के बारे में विरोधी दल से सलाह-मशवरा करता है। विशेष कर संकटकालीन समय में जब देश की रक्षा का प्रश्न होता है, विरोधी दल सरकार को सहयोग देता है और सरकार भी प्रत्येक कार्य विरोधी दल को विश्वास में लेकर करती है।

3. अस्थिर मतदाता को अपील करना (Appeal to Floating Voters)-विरोधी दल संसद् में अविश्वास प्रस्ताव पेश करता है ताकि सत्तारूढ़ दल को अपने पद से हटा कर स्वयं सरकार बना सके। परन्तु द्वि-दलीय प्रणाली वाले देशों में अविश्वास प्रस्ताव पास होना आसान नहीं है।
भारत में अविश्वास प्रस्ताव पास होना बहु कठिन है। इसलिए विरोधी दल आम चुनावों में सत्तारूढ़ दल को हराने का प्रयत्न करता है। विरोधी दल सत्तारूढ़ दल की आलोचना करके मतदाताओं के सामने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है कि यदि उसे अवसर दिया जाए तो वह देश का शासन सत्तारूढ़ दल की अपेक्षा अच्छा चला सकता है। जैनिंग्स (Jennings) ने ठीक ही कहा है, “विरोधी दल अपने वोटों के आधार पर कभी यह आशा नहीं करता कि सत्तारूढ़ दल को अपने पद से हटा सकेगा। यह तो अस्थायी मतदाताओं (Floating Voters) को समझाने और प्रभावित करने का प्रयत्न करता है ताकि अगले आम चुनाव में उनकी सहायता से शासन पर अधिकार किया जा सके।”

4. शासन नीति को प्रभावित करना (To Influence the policy of the Administration)-विरोधी दल सरकार की नीतियों की आलोचना करके सरकार की नीतियों को प्रभावित करता है। सत्तारूढ़ दल बड़ा सोच-समझ करके अपनी नीतियों का संचालन करता है ताकि विरोधी दल को आलोचना का अवसर ही न मिले, परन्तु विरोधी दल इस ताक में रहता है कि किस तरह सरकार की आलोचना की जाए।

5. विरोधी दल सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है (Opposition checks the despotism of the Government) विरोधी दल सरकार को सत्ता का दुरुपयोग करने से रोकता है। विरोधी दल सरकार की विधानमण्डल में तथा उसके बाहर आलोचना करके उसे अनुचित कार्य करने से रोकता है। विरोधी दल सरकार की त्रुटियों को प्रकाशित करके नागरिकों को यह बताने की चेष्टा करता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को जो विश्वास सौंपा गया है उसका दुरुपयोग हो रहा है। विरोधी दल की उपस्थिति में सरकार मनमानी नहीं कर सकती।

6. जनता को राजनीतिक शिक्षा (Political Education to the People)-विरोधी दल जनता को राजनीतिक शिक्षा देता है। सरकार के सभी दोषों की जानकारी उसकी आलोचना द्वारा जनता तक पहुंचती है। जनता को सरकार के कार्यों पर सोचने और इसके बारे में कोई निर्णय करने का अवसर मिलता रहता है।

7. अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की रक्षा (Protection of Rights and Freedoms)-लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को कई प्रकार के अधिकार और स्वतन्त्रताएं प्राप्त होती हैं। विरोधी दल नागरिकों को उनके अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं का ज्ञान कराता है। यदि सरकार नागरिक के अधिकारों का उल्लंघन करती है तो विरोधी दल सरकार के विरुद्ध कदम आवाज़ उठाता है। विरोधी दल जनमत को जागृत एवं संगठित करके अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं की रक्षा करते हैं।

8. जनता की शिकायतों को प्रकट करना (Ventilation of the grievances of the People)-जनता को शासन से कई प्रकार की शिकायतें होती हैं। विरोधी दल जनता की शिकायतों को प्रकट करते हैं और सरकार तक पहुंचाते है। विरोधी दल जलसों द्वारा, समाचार-पत्रों द्वारा और विधानमण्डलों के अन्दर भाषण देकर जनता की शिकायतों को दूर करने के लिए दबाव डालते हैं।

9. विशेषज्ञों की समितियों की नियुक्ति (Appointment of Committees of Experts) कई बार देश के अन्दर कोई महत्त्वपूर्ण घटना घट जाती है या देश के सामने कोई महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी हो जाती है, उस समय विरोधी दल उस घटना या समस्या की जांच-पड़ताल के लिए विशेषज्ञों की समिति नियुक्त करता है। विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट के आधार पर विरोधी दल अपनी नीति तय करते हैं और कई बार श्वेत-पत्र (White-Paper) भी प्रकाशित करते हैं।

10. लोकतन्त्र की सुरक्षा (To Safeguard Democracy)-विरोधी दल अपने उपर्युक्त कार्यों से लोकतन्त्र की सुरक्षा के महान् कार्य को बहुत हद तक सम्पादित करता है। वह जनता के कष्टों का वर्णन करके सरकार का ध्यान उनकी तरफ करता है ताकि कष्टों को दूर किया जा सके। विरोधी दल सरकार को बाध्य करता है ताकि वह अपनी नीतियों को कल्याणकारक रूप प्रदान करे।

11. सरकार के साथ सहयोग करना (Co-operation with the Govt.)-यद्यपि विरोधी दल सरकार की आलोचना तथा विरोध करते हैं, परन्तु कई बार राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए सरकार को पूर्ण सहयोग व समर्थन देते हैं। राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सत्ताधारी दल भी विरोधी दलों से विचार-विमर्श करते रहते हैं और राष्ट्रीय समस्याओं पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का प्रयास करते हैं।

12. वैकल्पिक सरकार प्रदान करना (To provide Alternative Govt.)—प्रजातन्त्र में विरोधी दल सदैव वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए तैयार रहते हैं। विरोधी दल हमेशा इस ताक में रहते हैं, कि कब सत्ताधारी दल सत्ता छोड़े, तथा वे सत्ताहीन हों। सामान्यतः देखा गया है कि जब भी सत्तारूढ़ दल ने शासन छोड़ा है, तब विपक्षी दल को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह लोकतन्त्र में विरोधी दल का बहुत महत्त्व है। विरोधी दल सरकार की आलोचना करके सरकार को मनमानी करने से रोकता है और नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा करता है। हॉग क्विटन (Hogg Quintin) ने ठीक ही कहा, “संगठित विरोधी दल के अभाव और पूर्ण तानाशाही में कोई अधिक फासला नहीं है।” (It is not along step from the absence of an organised opposition to a complete dictatorship.”) भारत में अनेक विरोधी दल होने के बावजूद संगठित विरोधी दल का अभाव है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक पार्टी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का समूह है जो सार्वजनिक मामलों पर एक-से विचार रखते हों और संगठित होकर अपने मताधिकार द्वारा सरकार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहते हों ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सकें।

  • गिलक्राइस्ट के शब्दानुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है जिनके राजनीतिक विचार एक से हों और एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हों।”
  • मैकाइवर का कहना है कि, “राजनीतिक दल किसी सिद्धान्त या नीति के समर्थन के लिए संगठित वह समुदाय है जो संवैधानिक ढंग से उस सिद्धान्त या नीति को शासन के आधार पर बनाना चाहता है।”
  • गैटेल के अनुसार, “राजनीति दल उन नागरिकों का कम या अधिक संगठित समूह है जो एक राजनीतिक इकाई की तरह काम करते हों और अपने मतों के द्वारा सरकार पर नियन्त्रण करना तथा अपने सिद्धान्तों को लागू करना चाहते हों।”
    भारतीय जनता पार्टी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल हैं।

प्रश्न 2.
राजनीतिक दलों के कोई चार कार्यों का वर्णन करें।
अथवा
राजनीतिक दलों के कोई चार कार्य लिखो।
उत्तर-

  • सार्वजनिक नीतियों का निर्माण-राजनीतिक दल देश के सामने आने वाली समस्याओं पर विचार करते हैं तथा अपनी नीति निर्धारित करते हैं। राजनीतिक दल अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर भी सोच-विचार करते हैं और अपनी नीति बनाते हैं।
  • राजनीतिक शिक्षा-राजनीतिक दल देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपनी नीतियों का निर्माण करते हैं और उन नीतियों का जनता में प्रचार करते हैं । इससे जनता को देश की समस्याओं की जानकारी होती है तथा विभिन्न दलों की नीतियों का पता चलता है।
  • चुनाव लड़ना-राजनीतिक दलों का मुख्य कार्य चुनाव लड़ना है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं और उनको चुनाव में विजयी कराने के लिए उनके पक्ष में प्रचार करते हैं।
  • सरकार बनाना-चुनाव में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है उसी दल की सरकार बनती है। सरकार की स्थापना करने के पश्चात् सत्तारूढ़ दल अपनी नीतियों तथा चुनाव के लिए किए गए वायदों को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न करता है।

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प्रश्न 3.
राजनीतिक दल की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • संगठन-राजनीतिक दल के निर्माण के लिए संगठन का होना आवश्यक है। जब तक एक से विचार रखने वाले सदस्य पूर्ण रूप से संगठित न हों तब तक राजनीतिक दल का निर्माण नहीं हो सकता।
  • मूल सिद्धान्तों पर सहमति-राजनीतिक दल के सदस्यों की मूल सिद्धान्तों पर सहमति होनी चाहिए। समान राजनीतिक विचार रखने वाले व्यक्ति ही राजनीतिक दल का निर्माण कर सकते हैं। सिद्धान्तों के विस्तार में थोड़ा-बहुत मतभेद हो सकता है परन्तु मूल सिद्धान्त पर कोई मतभेद नहीं होना चाहिए।
  • शासन पर नियन्त्रण की इच्छा-राजनीतिक दल का उद्देश्य शासन पर नियन्त्रण करना होता है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजनीतिक दल जनमत का समर्थन प्राप्त करने के प्रयास करते हैं।
  • प्रत्येक राजनीतिक दल का एक निश्चित कार्यक्रम होता है।

प्रश्न 4.
दल प्रणाली की भिन्न-भिन्न किस्में लिखिए।
उत्तर-
सभी लोकतान्त्रिक देशों में राजनीतिक दल पाए जाते हैं और अधिनायकतन्त्रीय राज्यों में भी राजनीतिक दल मिलते हैं। दल प्रणाली कई प्रकार की होती है-एक दलीय प्रणाली, द्वि-दलीय प्रणाली तथा बहु-दलीय प्रणाली।

  • एक-दलीय प्रणाली-यदि किसी राज्य में केवल एक ही राजनीतिक दल राजनीति में भाग ले रहा हो और अन्य दल संगठित करने का अधिकार न हो तो ऐसी दल प्रणाली को एक-दलीय प्रणाली तथा बहु-दलीय प्रणाली कहते हैं।
  • द्वि-दलीय प्रणाली-द्वि-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत केवल दो महत्त्वपूर्ण दल होते हैं। अन्य दलों का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता। अमेरिका और इंग्लैण्ड में द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है।
  • बहु-दलीय प्रणाली-बहु-दलीय प्रणाली में दो से अधिक राजनीतिक दल पाए जाते हैं। भारत, फ्रांस, इटली, स्विट्ज़रलैण्ड में बहु-दलीय प्रणाली पाई जाती है।

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प्रश्न 5.
बहु-दलीय प्रणाली के कोई चार गुण लिखो।
उत्तर-
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली में सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली में सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
  • मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपने मत का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है। मतदाताओं के लिए अपने विचारों से मिलते-जुलते दल को वोट देना आसान हो जाता है।
  • राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता-बहु-दलीय प्रणाली का महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि इससे राष्ट्र दो गुटों में नहीं बंटता। जहां बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां अनेक प्रकार के विचार प्रचलित होते हैं लेकिन दलों में कठोर अनुशासन नहीं होता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित नहीं होती है।

प्रश्न 6.
राजनीतिक दलों के कोई चार अवगुण लिखिए। .
उत्तर-
यद्यपि दल-प्रणाली के गुण अत्यन्त प्रभावशाली हैं, परन्तु दूसरी ओर इसके दोष भी कम भयानक नहीं हैं। राजनीतिक दलों का उचित संगठन न हो तो अनेक दोष भी निकल सकते हैं। इसके मुख्य दोष निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रीय एकता को खतरा-राजनीतिक दलों के कारण राष्ट्रीय एकता को सदैव खतरा बना रहता है। दलों के द्वारा देश में गुटबन्दी की भावना उत्पन्न होती है जिसके द्वारा सारा देश उतने विभागों में बंट जाता है जितने कि राजनीतिक दल होते हैं।
  • राजनीतिक दल भ्रष्टाचार फैलाते हैं-चुनाव के दिनों में दल चुनाव जीतने के लिए जनता को कई प्रकार का प्रलोभन देते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात् सत्तारूढ़ दल उन लोगों को अनुचित लाभ पहुंचाता है जिन्होंने चुनाव के समय उसकी पूरी मदद की होती है।
  • राजनीतिक दल नैतिक स्तर को गिराते हैं-राजनीतिक दल अपनी नीतियों का प्रसार करने के लिए तथा दूसरे दलों को नीचा दिखाने के लिए झूठा प्रचार करते हैं। विशेषकर चुनाव के दिनों में एक दल दूसरे दलों पर इतना कीचड़ उछालते हैं कि नैतिक स्तर बहुत गिर जाता है।
  • साम्प्रदायिक भावना को बढ़ाना-राजनीतिक दल अपने लाभ के लिए देश में साम्प्रदायिक भावना को बढ़ावा देते हैं।

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 11 दल प्रणाली

प्रश्न 7.
राजनीतिक दलों के कोई चार गुणं लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दलों में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • राजनीतिक दल मानवीय प्रकृति के अनुसार हैं-मनुष्य की प्रकृति में विभिन्नता दलों द्वारा प्रकट होना अनिवार्य है। कुछ लोग उदार विचारों के होते हैं और कुछ अनुदार विचारों के होते हैं।
  • राजनीतिक दल लोकतन्त्र के लिए आवश्यक हैं-राजनीतिक दलों के बिना लोकतन्त्र की सफलता सम्भव नहीं है।
  • दृढ़ सरकार की स्थापना में सहायक-जिस दल को भी चुनाव में बहुमत प्राप्त है, उस दल की सरकार बनती है ! ऐसे दल को यह विश्वास होता है कि जनता का बहुमत उसके साथ है और वे दल की नीतियों का समर्थन करते हैं।
  • राजनीतिक दल लोगों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करते हैं।

प्रश्न 8.
बहु-दलीय प्रणाली के कोई चार दोष लिखो।
अथवा
बहु-दलीय प्रणाली के कोई तीन दोष लिखो।
उत्तर-
बहु-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।
  • दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।
  • सरकार बनाने में कठिनाई-बहु-दलीय प्रणाली में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण सरकार का बनाना कठिन हो जाता है। मन्त्रिमण्डल को बनाने के लिए विभिन्न दलों में कई प्रकार की सौदेबाज़ी होती है। कई सदस्य मन्त्री बनने के लिए दल भी बदल लेते हैं, जिससे दल बदली को बढ़ावा मिलता है।
  • बहुदलीय प्रणाली में संगठित विरोधी दल का अभाव होता है।

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प्रश्न 9.
एक-दलीय प्रणाली के चार गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
एक-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • राष्ट्रीय एकता-एक-दलीय प्रणाली में राष्ट्रीय एकता बनी रहती है क्योंकि विभिन्न दलों में संघर्ष नहीं होता। सभी नागरिक एक ही विचारधारा में विश्वास रखते हैं और एक ही नेता के नेतृत्व में कार्य करते हैं जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न होती है। .
  • स्थायी सरकार-एक-दलीय प्रणाली के कारण सरकार स्थायी होती. है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य एक ही दल से होते हैं और विधानमण्डल में सभी सदस्य सरकार का समर्थन करते हैं।
  • दृढ़ शासन-एक-दलीय प्रणाली में शासन दृढ़ होता है। किसी दूसरे दल के न होने के कारण सरकार की आलोचना नहीं होती। इस शासन से देश की उन्नति होती है।
  • एक दलीय प्रणाली में सरकार स्थायी होने के कारण दीर्घकालीन योजनाएं बनानी सम्भव होती हैं।

प्रश्न 10.
एक दल प्रणाली के कोई चार दोष लिखो।
उत्तर-
एक-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • लोकतन्त्र के विरुद्ध-यह प्रणाली लोकतन्त्र के अनुकूल नहीं है। इसमें नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं होती और न ही उन्हें संगठन बनाने की स्वतन्त्रता होती है।
  • नाममात्र के चुनाव-एक-दलीय प्रणाली में चुनाव केवल दिखावे के लिए होते हैं। नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती।
  • तानाशाही की स्थापना-एक-दलीय प्रणाली में तानाशाही का बोलबाला रहता है। विरोधियों को सख्ती से दबाया जाता है अथवा उन्हें समाप्त कर दिया जाता है।
  • एक दलीय प्रणाली में सरकार उत्तरदायी नहीं होती।

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प्रश्न 11.
‘द्वि-दलीय’ (Two Party) प्रणाली का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली उसे कहते हैं जब किसी राज्य में केवल दो मुख्य तथा महत्त्वपूर्ण दल हों परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि द्वि-दलीय प्रणाली में तीसरा दल हो ही नही सकता। दो मुख्य दलों के अतिरिक्त और दल भी हो सकते हैं परन्तु उनका कोई महत्त्व नहीं होता। इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली को अपनाया गया है । इंग्लैण्ड में दो मुख्य दलों के नाम है-अनुदार दल तथा श्रमिक दल। इंग्लैण्ड में इन दलों के अतिरिक्त और दल भी हैं जैसे कि उदारवादी तथा साम्यवादी दल परन्तु इन दलों का राजनीति में कोई महत्त्व नहीं है। वास्तव में अनुदार दल तथा श्रमिक दल का ही राजनीति में महत्त्व है। अमेरिका में भी दो दल ही महत्त्वपूर्ण हैं। इनके नाम हैं-रिपब्लिकन दल तथा डैमोक्रेटिक दल।

प्रश्न 12.
द्वि-दलीय प्रणाली के कोई चार गुण लिखो।
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-

  • सरकार आसानी से बनाई जा सकती है-द्वि-दलीय प्रणाली का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें सरकार आसानी से बनाई जा सकती है। दोनों दलों में से एक दल का विधानमण्डल में बहुमत होता है। बहुमत दल अपना मन्त्रिमण्डल बनाता है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है।
  • स्थिर सरकार-बहुमत दल की सरकार बनती है और दूसरा दल विरोधी दल बन जाता है। मन्त्रिमण्डल तब तक अपने पद पर रहता है और जब तक उसे विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है। दल में कड़ा अनुशासन पाया जाता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव करके मन्त्रिमण्डल को हटाया नहीं जा सकता। इस तरह सरकार अगले चुनाव तक अपने पद पर रहती है।
  • दृढ़ सरकार तथा नीति में निरन्तरता-सरकार स्थिर होने के कारण शासन में दृढ़ता आती है। सरकार अपनी नीतियों को दृढ़ता से लागू करती है। सरकार स्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं बनाई जा सकती हैं और इससे नीति में भी निरन्तरता बनी रहती है।
  • द्वि-दलीय प्रणाली में प्रधानमन्त्री की स्थिति शक्तिशाली होती है।

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प्रश्न 13.
बाएं-पक्षीय राजनीतिक दल कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
बाएं-पक्षीय राजनीतिक दल साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित होते हैं । वामपंथी दल विचारधारा की दृष्टि से वे दल होते हैं जो क्रान्तिकारी सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों का समर्थन करते हैं और दूसरे वे जो समाजवाद का समर्थन करते हैं। भारत में भारतीय साम्यवादी दल मार्क्सवादी दल बाएं-पक्षीय राजनीतिक दल माने जाते हैं।

प्रश्न 14.
दाएं-पक्षीय राजनीतिक दल कौन-से होते हैं ?
उत्तर-
राजनीतिक प्रणाली में दाएं पक्षीय या दक्षिणपंथी राजनीतिक दल भी पाए जाते हैं। दक्षिणपंथी दल विचारधारा की दृष्टि से वे दल होते हैं जो यथास्थिति को बनाये रखने के लिए रूढ़िवादी स्थिति का समर्थन करते हैं।

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प्रश्न 15.
लोकतन्त्र में विपक्ष पार्टी की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर-

  • आलोचना-विरोधी दल का मुख्य कार्य सरकार की नीतियों की आलोचना करना है।
  • शासन नीति को प्रभावित करना-विरोधी दल सरकार की नीतियों की आलोचना करके सरकार की नीतियों को प्रभावित करता है।
  • विरोधी दल सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है-विरोधी दल सरकार को सत्ता का दुरुपयोग करने से रोकता है।
  • विरोधी दल नागरिकों के अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं की रक्षा करते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
राजनीतिक दल किसको कहा जाता है?
उत्तर-
राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का समूह है जो सार्वजनिक मामलों पर एक-से विचार रखते हों और संगठित होकर अपने मताधिकार द्वारा सरकार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहते हों ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सकें।
(1) गिलक्राइस्ट के शब्दानुसार, “राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है जिनके राजनीतिक विचार एक से हों और एक राजनीतिक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करते हों।”

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प्रश्न 2.
राजनीतिक दलों के कोई दो कार्य लिखो।
उत्तर-

  • लोकमत तैयार करना-लोकतन्त्रात्मक देश में राजनीतिक दल जनमत के निर्माण में बहुत सहायता करते हैं। .
  • सार्वजनिक नीतियों का निर्माण-राजनीतिक दल देश के समाने आने वाली समस्याओं पर विचार करते हैं तथा अपनी नीति निर्धारित करते हैं।

प्रश्न 3.
बहु-दलीय प्रणाली के कोई दो गुण लिखो।
उत्तर-

  • विभिन्न मतों का प्रतिनिधित्व-बहु-दलीय प्रणाली में सभी वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इस प्रणाली में सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना होती है।
  • मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता-अधिक दलों के कारण मतदाताओं को अपने मत का प्रयोग करने के लिए अधिक स्वतन्त्रता होती है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक दलों के कोई से दो दोष बताएं।
उत्तर-

  • राष्ट्रीय एकता को खतरा-राजनीतिक दलों के कारण राष्ट्रीय एकता को सदा खतरा बना रहता है।
  • राजनीतिक दल भ्रष्टाचार फैलाते हैं-चुनाव के दिनों में दल चुनाव जीतने के लिए जनता को कई प्रकार का प्रलोभन देते हैं।

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प्रश्न 5.
दो दलीय प्रणाली के दो देशों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. इंग्लैण्ड
  2. संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 6.
एक दलीय प्रणाली के दो प्रमुख देशों के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. चीन
  2. क्यूबा ।

प्रश्न 7.
बहु-दलीय प्रणाली के किन्हीं दो दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • निर्बल तथा अस्थायी सरकार-विभिन्न दल मिलकर मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते हैं जो किसी भी समय टूट सकता है। मिली-जुली सरकार शासन की नीतियों को दृढ़ता से लागू नहीं कर सकती।
  • दीर्घकालीन आयोजन असम्भव-सरकार अस्थायी होने के कारण लम्बी योजनाएं नहीं बनाई जाती क्योंकि सरकार का पता नहीं होता कि यह कितने दिन चलेगी।

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
एक दलीय प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
जिस देश की राजनीतिक व्यवस्था पर केवल एक ही दल का नियन्त्रण हो तथा अन्य दलों के संगठित होने और कार्य करने पर प्रतिबन्ध हो तो उसे एक दलीय प्रणाली कहते हैं।

प्रश्न 2.
एक-दलीय प्रणाली वाले दो देशों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. चीन
  2. क्यूबा।

प्रश्न 3.
द्वि-दलीय प्रणाली वाले दो देशों के नाम लिखो।
अथवा
किसी एक देश का नाम लिखो जिसमें द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है?
उत्तर-
इंग्लैण्ड और अमेरिका में द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है।

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प्रश्न 4.
किसी एक देश का नाम लिखो, जिनमें बहु-दल प्रणाली पाई जाती है ?
उत्तर-
भारत।

प्रश्न 5.
बहु-दलीय प्रणाली का क्या अर्थ है?
अथवा
बहुदल प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
बहु-दलीय प्रणाली से क्या भाव है ?
उत्तर-
जहां तीन या तीन से अधिक राजनीतिक दलों का अस्तित्व हो उस प्रणाली को बहु-दलीय प्रणाली का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 6.
विरोधी दल का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
विधानपालिका में सत्ता पक्ष का विरोध करने वाले दलों को विरोधी दल कहा जाता है।

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प्रश्न 7.
सत्तारूढ़ दल किसको कहा जाता है?
उत्तर-
सत्तारूढ़ दल उसे कहा जाता है, जिसने चुनावों में जीतने के पश्चात् सरकार का निर्माण किया हो।

प्रश्न 8.
चीन में कौन-सी दल-प्रणाली पाई जाती है ?
उत्तर-
चीन में एक दलीय प्रणाली पाई जाती है।

प्रश्न 9.
द्वि-दलीय प्रणाली का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-
द्वि-दलीय प्रणाली से राष्ट्र दो विरोधी गुटों में बंट जाता है, जो एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं।

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प्रश्न 10.
द्वि-दलीय प्रणाली से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
किसी देश में दो बड़े और महत्त्वपूर्ण दल हों और शेष महत्त्वहीन हों।

प्रश्न 11.
राजनीतिक दलों का एक गुण लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दल जनमत निर्माण में मदद करते हैं।

प्रश्न 12.
राजनीतिक दलों का एक अवगुण लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा दलीय हितों को बढ़ावा देते हैं।

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प्रश्न 13.
राजनीतिक दलों के गठन का एक आधार लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दलों के गठन का एक आधार राजनीतिक है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. आधुनिक प्रजातन्त्र राज्यों में ……….. का होना अनिवार्य समझा जाता है।
2. जे० ए० शूम्पीटर के अनुसार राजनीतिक दल एक ऐसा गुट या समूह है, जिसके सदस्य ……….. प्राप्ति के लिए संघर्ष व होड़ में संलग्न है।
3. राजनीतिक दल के सदस्यों में ………… पर सहमति होनी चाहिए।
4. प्रत्येक राजनीतिक दल का एक निश्चित ……….. होता है।
5. राजनीतिक दल का उद्देश्य ………… शक्ति प्राप्त करना होता है।
6. राजनीतिक दल .. ……………… की जान कहलाते हैं।
उत्तर-

  1. राजनीतिक दलों
  2. सत्ता
  3. मूल सिद्धान्त
  4. कार्यक्रम
  5. राजनीतिक
  6. लोकतन्त्र।

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प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. संघात्मक राज्यों में राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता का एक महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं।
2. प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का अधिक महत्त्व नहीं होता।
3. प्रत्येक राजनीतिक दल चुनाव के लिए अपने-अपने उम्मीदवार खड़े करता है।
4. जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, वह विपक्ष में बैठता है।
5. आधुनिक राज्य में राजनीतिक दल लोगों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करते हैं।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दलीय प्रणाली निम्नलिखित प्रकार की होती है-
(क) एक दलीय
(ख) द्वि-दलीय
(ग) बहु दलीय
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित एक देश में एक दलीय प्रणाली पाई जाती है-
(क) भारत
(ख) इंग्लैण्ड
(ग) चीन
(घ) अमेरिका।
उत्तर-
(ग) चीन

प्रश्न 3.
निम्नलिखित एक देश में द्वि-दलीय प्रणाली पाई जाती है-
(क) अमेरिका
(ख) भारत
(ग) चीन
(घ) जापान।
उत्तर-
(क) अमेरिका

प्रश्न 4.
निम्नलिखित एक देश में बहुदलीय प्रणाली पाई जाती है-
(क) इंग्लैण्ड
(ख) अमेरिका
(ग) भारत
(घ) चीन।
उत्तर-
(ग) भारत

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा राजनीतिक दल का कार्य नहीं है-
(क) जनमत तैयार करना
(ख) राजनीतिक शिक्षा देना
(ग) सड़कें एवं पुल बनवाना
(घ) चुनाव लड़ना।
उत्तर-
(ग) सड़कें एवं पुल बनवाना

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 10 जनमत

Punjab State Board PSEB 12th Class Political Science Book Solutions Chapter 10 जनमत Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Political Science Chapter 10 जनमत

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
लोकमत का क्या अर्थ है ? इसकी मुख्य विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
(What is meant by Public Opinion ? Discuss its main characteristics.)
अथवा
जनमत की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करो। (Explain the main characteristics of Public Opinion.)
उत्तर-
लोकतन्त्र सरकार को प्रायः लोकमत राज्य भी कहा जाता है। जो सरकार लोकमत के अनुसार काम नहीं करती, वह बहुत समय तक नहीं चल सकती। इसका कारण यह है कि लोकतन्त्रीय राज्य में सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथों में होती है। रूसो (Rousseau) के शब्दों में, “जनता की आवाज़ वास्तव में भगवान् की आवाज़ होती है।” यदि लोगों का सरकार के प्रति विश्वास न रहे तो बड़ी-से-बड़ी शक्ति भी सरकार को अस्तित्व में नहीं रख सकती। उदाहरणस्वरूप 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के लोकमत ने पाकिस्तान की सैनिक तानाशाही के विरुद्ध आवाज़ उठाई और बंगला देश के नाम से एक स्वतन्त्र राज्य बन गया। . नेपोलियन (Napolean) जैसे तानाशाह ने भी एक बार कहा था, “एक लाख तलवारों की अपेक्षा मुझे तीन समाचार-पत्रों से अधिक भय है।” _जनमत का अर्थ (Meaning of Public Opinion)-जनमत क्या है ? जनमत सार्वजनिक मामलों पर जनता की राय को कहते हैं। परन्तु किसी भी विषय पर समस्त नागरिक एकमत नहीं हो सकते। समाज के सामने कोई समस्या हो, उसके समाधान के बारे में लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं और होते हैं। तो क्या ऐसे समाज में राज्य को बहुमत के कार्य करने चाहिएं ? परन्तु बहुमत ‘बहुमत’ है, जनमत नहीं। जनमत के लिए बहुमत का होना काफ़ी नहीं है क्योंकि बहुमत में बहुमत संख्या का अपना दृष्टिकोण रहता है, समस्त राष्ट्र का नहीं। इसलिए केवल बहुमत को जनमत का नाम नहीं दिया जा सकता। जनमत की विद्वानों ने विभिन्न परिभाषाएं दी हैं, जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं-

1. लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) का कहना है कि, “समस्त समाज से सम्बन्धित किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।” (“Public opinion is commonly used to denote the aggregate of the views, which men hold regarding matters that effect or interest the community.”)

2. लावेल (Lowell) का कहना है कि, “जनमत बनाने के लिए केवल बहुमत काफ़ी नहीं और सर्वसम्मति आवश्यक नहीं, परन्तु राय ऐसी होनी चाहिए जिससे अल्पसंख्यक वर्ग बेशक सहमत न हों, लेकिन फिर भी वे भय के कारण नहीं बल्कि विश्वास से मानने को तैयार हों।” (“In order that opinion may be public, a majority is not enough and unanimity is not required, but the opinion must be such that while the minority may not share it they feel bound by conviction and not by fear to accept it.”’)

3. कैरोल (Carrol) के अनुसार, “साधारण प्रयोग में जनमत साधारण जनता की मिली-जुली प्रतिक्रिया को कहा जाता है।” (“In its common use it refers to composite reactions of the general public.”)

4. डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) का कहना है, “केवल उसी राय को वास्तविक जनमत कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य जनता का कल्याण हो। हम कह सकते हैं कि सार्वजनिक मामलों पर बहुसंख्यक का वह मत जिसे अल्पसंख्यक भी अपने हितों के विरुद्ध नहीं मानते, जनमत कहलाता है।” (“Opinion may be regarded as truly public, when it is motivated by a regard for the welfare of the whole of the society.”)

5. डॉ० इकबाल नारायण (Dr. Iqbal Narayan) के अनुसार, “जनमत सार्वजनिक मामलों पर जनता का वह मत है, जो किसी समुदाय अथवा वर्ग विशेष का न होकर जन-साधारण का हो। जो किसी क्षणिक आवेश का परिणाम न होकर स्थायी हो और जिसमें लोक कल्याण की भावना निहित हो।” ___ उपर्युक्त दी गई परिभाषाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न विद्वान् आपस में एकमत नहीं हैं। परन्तु इनमें कुछ एक बातों पर सहमति होनी आवश्यक है जैसे कि लोकमत के लिए अधिक-से-अधिक लोगों में उस पर सहमति होनी चाहिए। उस प्रस्ताव में समाज के अधिक भाग की भलाई की बात होनी चाहिए। चाहे इस लोकमत की गणना कोई अलग कार्य नहीं, परन्तु फिर भी लोगों में प्रायः किसी बात की सहमति के बारे में एकत्रित होना आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
लोकतन्त्रीय राज्य में जनमत के महत्त्व का वर्णन करें। (Discuss the importance of Public Opinion in a democratic state.)
उत्तर-
जनमत का महत्त्व मनुष्य के समाज के अस्तित्व में आने से ही माना जाता है। यह एक मानी हुई बात है
जाती है। आज के लोकतन्त्रीय युग में तो इसकी महानता को और भी अधिक माना जाता है। लोकतन्त्र में राज्य प्रबन्ध सदा लोगों की इच्छानुसार चलता है। अतः प्रत्येक राजनीतिक दल और सरकार चला रहा दल जनमत को अपने पक्ष में करने का यत्न करता है। जिस राजनीतिक दल की विचारधारा लोगों को अच्छी लगती है, लोग उसको शक्ति दे देते हैं। लोकतन्त्र में जनमत का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है-

1. लोकतन्त्र शासन-प्रणाली में सरकार का आधार जनमत होता है (Public Opinion is the basis of Government in a democratic set up)-सरकार जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बनाई जाती है। कोई भी सरकार जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकती। सरकार सदैव जनमत को अपने पक्ष में कायम रखने के लिए जनता में अपनी नीतियों का प्रचार करती रहती है। विरोधी दल जनमत को अपने पक्ष में करने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं ताकि सत्तारूढ़ दल को हटा कर अपनी सरकार बना सकें। जो सरकार जनमत के विरोध में काम करती है, वह शीघ्र ही हटा दी जाती है। यदि लोकतन्त्र सरकार जनमत के विरुद्ध कानून पास करती है तो उस कानून को सफलता प्राप्त नहीं होती। वास्तव में लोकतन्त्र में जनमत का शासन होता है। यदि हम जनमत को लोकतन्त्र सरकार की आत्मा कहें तो गलत न होगा।

2. जनमत सरकार की मार्गदर्शक है (Public Opinion is a guide to the Government)-जनमत लोकतन्त्र सरकार का आधार ही नहीं बल्कि जनमत लोकतन्त्र सरकार का मार्गदर्शक भी है। जनमत सरकार को रास्ता दिखाता है कि उसे क्या करना है और किस तरह करना है। सरकार कानूनों का निर्माण करते समय जनमत का ध्यान अवश्य रखती है। यदि सरकार को पता हो कि किसी कानून का जनमत विरोध करेगा तो सरकार ऐसे कानून को वापस ले लेती है। कई बार तो सरकार किसी विशेष समस्या को हल करने से पहले जनमत को जानना चाहती है। जनमत लोकतन्त्र सरकार में अध्यापक की तरह कार्य करता है। जिस प्रकार अध्यापक ‘अपने शिष्यों को रास्ता दिखाता है, उसी प्रकार जनमत लोकतन्त्र को रास्ता दिखाता है।’

3. जनता प्रतिनिधियों की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है (Public Opinion checks the Despotism of the Representatives) लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है और जनमत जिस दल के पक्ष में होता है, उसी दल की सरकार बनती है। कोई भी प्रतिनिधि अथवा मन्त्री अपनी मनमानी नहीं कर सकता। उन्हें सदैव जनमत का डर रहता है। प्रतिनिधि को पता होता है कि यदि जनमत उसके विरुद्ध हो गया तो वह चुनाव नहीं जीत सकेगा। इसलिए प्रतिनिधि सदा जनमत के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार जनमत प्रतिनिधियों को तथा सरकार को मनमानी करने से रोकता है।

4. कानून निर्माण में सहायक (Helpful in Law-making)-लोकतन्त्र में कानून निर्माण में जनमत का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। विधानमण्डल कानूनों का निर्माण करते समय जनमत को अवश्य ही ध्यान में रखता है। कोई भी लोकतान्त्रिक सरकार ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती जो जनमत के विरुद्ध हो। जो कानून जनमत के विरुद्ध होता है, उसकी जनता द्वारा अवहेलना की जाती है। कई बार विधानमण्डल कानून बनाने से पहले या किसी विधेयक को पास करने से पहले उस पर जनमत जानने के लिए उसे समाचार-पत्रों में प्रकाशित करता है। जनमत जानने के पश्चात् विधेयक में आवश्यक परिवर्तन किए जाते हैं।

5. नीति-निर्माण में सहायक (Helpful in Policy-making) सरकार गृह और विदेश नीति निर्माण करते समय जनमत से बहुत अधिक प्रभावित होती है। सरकार देश की आन्तरिक समस्याओं जैसे कि बेरोजगारी, ग़रीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि को हल करने के लिए नीति-निर्माण करती है और नीति-निर्माण करते समय सरकार जनमत को अवश्य ध्यान में रखती है। सरकार दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते समय, महान् शक्तियों के प्रति दृष्टिकोण अपनाते समय तथा संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य विश्व संस्थाओं में भूमिका निभाते समय जनमत को ध्यान में रखती है। जनमत के विरुद्ध सरकार किसी नीति का निर्माण नहीं करती।

6. जनमत सरकार का उत्साह बढ़ता है (Public Opinion encourages the Govt.)-जब प्रतिनिधि सरकार कोई अच्छा कार्य करती है तो जनता उस सरकार को प्रोत्साहन देती है। जब इन्दिरा सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो जनमत ने सरकार को उत्साहित किया कि वह ऐसे ही और कार्य करे जिससे समाज की भलाई हो।

7. जनमत अधिकारों की रक्षा करता है (Public Opinion protects the Rights)-लोकतन्त्र शासन प्रणाली में नागरिकों को सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों की रक्षा जनमत के द्वारा की जाती है। जनमत सरकार को ऐसा कानून नहीं बनाने देता जिससे जनता के अधिकारों में हस्तक्षेप हो। जब सरकार कोई ऐसा कार्य करती है जिससे जनता की स्वतन्त्रता समाप्त हो तो जनमत उस सरकार की आलोचना करता है और लोकतन्त्र में कोई भी सरकार जनमत की आलोचना का सामना करने को तैयार नहीं होती।

8. यह सरकार को दृढ़ बनाता है (It makes the Government Strong)-जनमत से सरकार को बल मिलता है और वह दृढ़ बन जाती है। जब सरकार को यह विश्वास हो कि जनमत उनके साथ है तो वह मज़बूती से अपनी नीतियों को लागू कर सकती है और प्रगतिशील काम भी कर सकती है।

9. सामाजिक क्षेत्र में जनमत का महत्त्व (Its importance in Social Field)—प्रत्येक समाज में कुछ बुराइयां पाई जाती हैं और सरकार केवल कानून निर्माण द्वारा उन बुराइयों को दूर नहीं कर सकती। सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए जनमत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारत में आज अनेक सामाजिक बुराइयां पाई जाती हैं जैसे कि दहेज प्रथा, छुआछूत, जातिवाद, सती प्रथा आदि। ये बुराइयां तब तक समाप्त नहीं हो सकती जब तक इनके लिए जनमत तैयार नहीं किया जाता। सरकार जनमत से प्रेरणा लेकर ही इन बुराइयों के विरुद्ध जंग छेड़ती है।

10. अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जनमत का महत्त्व (Importance of Public Opinion in International Field)आधुनिक युग न केवल लोकतन्त्र का युग है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीयवाद का युग है। कोई भी देश जनमत की अवहेलना नहीं कर सकता और जनमत अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि कोई देश मानव अधिकारों का उल्लंघन करता है और अपने नागरिकों पर अत्याचार करता है तो इसमें विश्व जनमत उस देश के विरुद्ध हो जाता है और उस देश को अपनी नीति बदलने के लिए मजबूर कर देता है। आज शक्तिशाली राज्य भी विश्व जनमत की अवहेलना करने की हिम्मत नहीं करता क्योंकि कोई भी राज्य यह नहीं चाहता है कि विश्व जनमत उसके विरुद्ध हो जाए। अफ़गानिस्तान से सोवियत संघ की सेना की वापसी इस बात का सबूत है। विश्व जनमत ने सोवियत संघ को ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया था।

निष्कर्ष (Conclusion)-संक्षेप में, लोकतन्त्र शासन प्रणाली में जनमत का विशेष महत्त्व है। सरकार का आधार जनमत ही होता है जो सरकार को रास्ता दिखाता है। सरकार जनमत की अवहेलना नहीं कर सकती और यदि करती है तो आने वाले चुनावों में उसे हटा दिया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि लोकतन्त्र के लिए एक सचेत जनमत पहली आवश्यकता है। (An alert and enlightened public opinion is the first essential of democracy.)

PSEB 12th Class Political Science Solutions Chapter 10 जनमत

प्रश्न 3.
जनमत से क्या अभिप्राय है ? जनमत के निर्माण में राजनीतिक दल, शिक्षा संस्थाएं व आधुनिक श्रव्य-दृश्य (बिजली) साधन क्या भूमिका निभा सकते हैं ?
(What do you understand by word-Public Opinion ? What is the role performed by Political Parties, educational institutions and modern Audio-visual (Electrical) media in forming in Public Opinion ?)
अथवा
जनमत के निर्माण और अभिव्यक्ति के साधनों का वर्णन करो। (Explain the means of the formation and expression of Public Opinion.)
उत्तर-
जनमत के निर्माण में कई साधन भाग लेते हैं और जनमत कई साधनों द्वारा प्रकट होता है। जनमत कैसे बनता है, इसके बारे में लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) बताते हैं कि समाज में तीन प्रकार के लोग होते हैं जो कि जनमत के बनने और सामने आने में सहायता करते हैं जैसे कि (क) जो जनमत को उत्पन्न करते हैं, (ख) जो इसको परिवर्तित करते हैं और (ग) जो इसको उतारते हैं। प्रथम प्रकार में तो बहुत कम लोग जैसे संसद् के प्रतिनिधि और पत्रकार आदि ही आते हैं। यह अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं का अध्ययन करते हैं और विचारानुसार लोगों के सामने रखते हैं। यह अपने विचारों को प्रेस और राज्यों द्वारा दर्शाते हैं। दूसरी प्रकार के लोगों में वे व्यक्ति आते हैं जो राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में बहुत रुचि रखते हैं। इस प्रकार के लोग देश में हो रही घटनाओं को अख़बार और वाद-विवाद के स्रोतों से पहचानते हैं और अपने ज्ञानानुसार उनकी अभिव्यक्ति करते हैं। तीसरी प्रकार में वे लोग आते हैं जो कि ऊपरिलिखित दोनों प्रकारों में नहीं आते। इस श्रेणी में सबसे अधिक लोग आते हैं। ये लोग अखबार तथा दूसरा साहित्य आदि पढ़ने में कम रुचि रखते हैं। ये लोग जलसों और नारों आदि से बहुत प्रभावित होते हैं। ये लोग किसी भी विचारधारा की आलोचना नहीं करते बल्कि हर प्रकार की विचारधारा मानने में विश्वास रखते हैं।

एक सफल लोकतन्त्र में यह आवश्यक है कि दूसरी प्रकार के लोग अधिक होने चाहिएं। ये लोग अखबारों और नई-नई समस्याओं के साथ अधिक सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार ये लोग देश में हो रही भिन्न-भिन्न घटनाओं का आलोचनात्मक अध्ययन करते हैं और ठीक रूप से और उचित रूप से अपना मत बनाकर जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं और तीसरी प्रकार के लोगों को प्रभावित करते हैं।

एक अच्छा और स्वस्थ जनमत बनाने के लिए आवश्यक है कि नागरिक पढ़े-लिखे हों और राजनीतिक मामलों में अधिक-से-अधिक रुचि रखते हों। भारत में इस प्रकार के लोग बहुत कम संख्या में हैं और भारतीय जनमत के विकास में यह एक बड़ी बाधा है। लोकतन्त्रीय सरकारें चाहे सफल हैं या असफल परन्तु जनमत का इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान है।

जनमत के उत्थान के लिए वर्तमान युग में निम्नलिखित साधन हैं –

1. प्रैस (Press)-जनमत प्रकट करने तथा जनमत निर्माण करने में प्रेस का महत्त्वपूर्ण हाथ है। प्रैस का अर्थ छापाखाना नहीं बल्कि प्रैस से अभिप्रायः वे सभी प्रकाशित साधन हैं जिनके द्वारा मत प्रकट किए जाते हैं जैसे कि समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, पुस्तकें । समाचार-पत्र दैनिक भी होते हैं, साप्ताहिक भी और मासिक भी। लोकतन्त्र के निर्माण में समाचार-पत्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गैटेल (Gettell) का कहना है, “समाचार-पत्र सम्पादकीय लेखों और समाचारों द्वारा अपने विचार प्रकट करते हैं और अनेक तथ्यों पर टिप्पणियां करते हैं। यदि लोगों के सामने तथ्य ठीक प्रकार से और निष्पक्षता के साथ रखे जाएं तो समाचार-पत्र लोगों को दैनिक समस्याओं से परिचय करने में अमूल्य सेवा करते हैं।” समाचार-पत्र निम्नलिखित तरीकों द्वारा सार्वजनिक मामलों पर जनमत तैयार करते हैं-

(1) समाचार-पत्र जनता को दैनिक घटनाओं और समाचारों से परिचित रखता है। समाचार-पत्रों में देशविदेश में कहीं भी घटी घटनाओं का वर्णन होता है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं, उनके समाधान के बारे में विभिन्न नेताओं के विचारों, सरकार की नीतियों और कार्यों की जानकारी समाचार-पत्रों की सहायता से मिल जाती है।

(2) समाचार-पत्र और पत्रिकाएं सरकार के कार्यों पर टीका-टिप्पणी करते हैं और उसके कार्यों की प्रशंसा तथा आलोचना करते हैं। सम्पादकीय लेखों से शिक्षित जनता को अपना मत बनाने में सहायता मिलती है।

(3) समाचार-पत्र सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं ताकि लोग सरकार को अपनी नीतियां बदलने के लिए मजबूर कर सकें।

(4) समाचार-पत्र प्रचार का भी मुख्य साधन है। राजनीतिक नेता प्रायः प्रैस सम्मेलन बुलाते हैं, जहां वे देश-विदेश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार प्रेस प्रतिनिधियों के सामने रखते हैं।

(5) समाचार-पत्र लोगों की शिकायतें सरकार तक पहुंचाते हैं। जनता क्या चाहती है, उसकी क्या इच्छा है ? इन समस्याओं के बारे में उसकी क्या राय है ? उसे कैसा कानून चाहिए ? इन सब बातों को सरकार तक पहुंचाने का काम भी समाचार-पत्र ही सम्पादित करते हैं। सरकार की नीति और उसके कार्यों की जानकारी समाचार-पत्रों द्वारा ही जनता तक पहुंचाई जाती है।

(6) समाचार-पत्र जनमत को शिक्षित, सुचेत तथा संगठित करते हैं।

2. सार्वजनिक सभाएं (Public Meetings) सार्वजनिक सभाएं जनमत निर्माण में महत्त्वपूर्ण साधन हैं। सत्तारूढ़ दल सरकार की नीतियों का प्रचार करने के लिए सार्वजनिक सभाओं का सहारा लेते हैं। मन्त्री अपनी नीतियों की प्रशंसा करते हैं और जनमत को अपने पक्ष में कायम करने का प्रयत्न करते हैं जबकि विरोधी दल इन सभाओं में सरकार की कड़ी आलोचना करते हैं और सरकार की नीतियों के बुरे प्रभावों को जनता के सम्मुख रखते हैं। सार्वजनिक सभाएं अनपढ़ व्यक्तियों को बहुत प्रभावित करती हैं क्योंकि अनपढ़ व्यक्ति समाचार-पत्र अथवा पुस्तक इत्यादि नहीं पढ़ सकता। अनपढ़ व्यक्ति लीडरों के भाषण सुनकर अपनी राय बनाता है। सार्वजनिक सभाओं के द्वारा जनमत प्रकट होता है।

3. राजनीतिक दल (Political Parties) लोकतन्त्र सरकार में राजनीतिक दलों का बहुत महत्त्व होता है। वास्तविकता यह है कि बिना राजनीतिक दलों के लोकतन्त्र सरकार चल ही नहीं सकती। राजनीतिक दलों का उद्देश्य सरकार पर नियन्त्रण करना होता है ताकि अपने सिद्धान्तों को लागू कर सके। राजनीतिक दल सरकार की सत्ता को तभी नियन्त्रित कर सकते हैं जब जनमत उनके पक्ष में हो। इसलिए प्रत्येक राजनीतिक दल जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है। राजनीतिक दल समाचार-पत्रों द्वारा सार्वजनिक सभाओं द्वारा, रेडियो द्वारा तथा घर-घर जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। देश की समस्याओं पर अपने विचार जनता को बताते हैं। चुनाव के दिनों में तो विशेषकर राजनीतिक दल अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं और अपने सिद्धान्तों से जनता को सहमत करवाने का यत्न करते हैं ताकि अधिक वोट प्राप्त कर सकें।

4. रेडियो और टेलीविज़न (Radio and Television)-आधुनिक युग में जनमत के निर्माण में रेडियो और टेलीविज़न महत्त्वपूर्ण साधन हैं। रेडियो और टेलीविज़न जनता का मनोरंजन ही नहीं करते बल्कि जनता को देश की समस्या से भी अवगत कराते हैं। राजनीतिक दलों के नेता तथा बड़े-बड़े विद्वान् अपने विचारों को रेडियो द्वारा जनता तक पहुंचाते हैं। अनपढ़ व्यक्ति रेडियो तथा टेलीविज़न द्वारा काफ़ी प्रभावित होते हैं।

5. विधानमण्डल (Legislature)-विधानमण्डल जनमत के निर्माण तथा प्रकट करने का महत्त्वपूर्ण साधन है। विधानमण्डल के सदस्य विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार प्रकट करते हैं। वाद-विवाद के पश्चात् कानूनों का निर्माण किया जाता है। विरोधी दल के सदस्य और कई बार सत्तारूढ़ दल के सदस्य सरकार के कार्यों की आलोचना करते हैं, मन्त्रियों से प्रश्न पूछे जाते हैं जिनके उन्हें उत्तर देने पड़ते हैं। विधानमण्डल में जब बजट पेश होता है तब सरकार के प्रत्येक विभाग की कड़ी आलोचना की जाती है। विधानमण्डल की समस्त कार्यवाही समाचार-पत्रों में प्रकाशित होती है जिनको पढ़कर जनता अपने मत का निर्माण करती है।

6. शिक्षा संस्थाएं (Education Institutions)—आज के विद्यार्थी कल के नागरिक हैं। विद्यार्थी अपने मत का निर्माण प्रायः अपने अध्यापकों के विचारों को सुनकर करते हैं। स्कूलों और कॉलेजों में इतिहास, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि अनेक विषय पढ़ाए जाते हैं, जिससे विद्यार्थियों के विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। नागरिक शास्त्र के अध्यापक विशेषकर पढ़ाते समय सरकार के कार्यों के उदाहरण देते हैं और कई अध्यापक सरकार की कड़ी आलोचना करते हैं और अपने विचारों को प्रकट करते हैं। अध्यापकों के विचारों का विद्यार्थी के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

7. चुनाव (Election)-लोकतन्त्र में चार-पांच वर्ष पश्चात् चुनाव होते रहते हैं। चुनावों के समय राजनीतिक दल देश की समस्याओं को जनता के सामने प्रस्तुत करते हैं और अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। प्रत्येक उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिए जनता को अधिक-से-अधिक प्रभावित करने का यत्न करता है। स्वतन्त्र उम्मीदवार तथा राजनीतिक दल सार्वजनिक सभाओं द्वारा समाचार-पत्रों द्वारा अपने विचारों का प्रचार करते हैं। आजकल तो चुनाव के समय उम्मीदवार तथा उसके समर्थक घर-घर जाकर नागरिकों को अपने विचारों को बताते हैं। इश्तिहार छपवाकर सड़कों तथा गलियों में लगवाए जाते हैं। इस प्रकार चुनाव जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण साधन है।

8. सिनेमा (Cinema) सिनेमा भी जनमत निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण साधन है। सरकार चल-चित्रों (News Reels) द्वारा देश की विभिन्न समस्याओं के सम्बन्ध में जनता को शिक्षित करती है।

9. धार्मिक संस्थाएं (Religious Institutions) धर्म का राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ता है। विभिन्न धार्मिक संस्थाएं समाज की बुराइयों को जनता के सामने पेश करती हैं और उन बुराइयों को समाप्त करने के लिए जनमत को तैयार करती हैं।

10. साहित्य (Literature)-साहित्य भी लोकमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। महान् लेखकों एवं विद्वानों के विचारों को जनता बड़े उत्साह से पढ़ती है जिसका आम जनता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।

11. अन्य संस्थाएं (Other Institutions)-ऊपरिलिखित भिन्न-भिन्न साधनों के अतिरिक्त और भी बहुत-सी संस्थाएं हैं, जो जनमत के उत्थान में अपना भाग डालती हैं। कई बार विशेष समस्या के उत्पन्न होने से भी उसके समाधान के लिए कई प्रकार के गुट अस्तित्व में आ जाते हैं। ये लोगों में अपने विचारों का प्रचार करते हैं और सरकार को कई प्रकार के प्रार्थना-पत्र आदि भेजते हैं। वह सरकार का ध्यान उन समस्याओं की ओर आकर्षित करने की चेष्टा करते हैं। इसकी कार्यवाहियों को समाचार-पत्रों और सार्वजनिक सभाओं द्वारा प्रसारित किया जाता है। कई बार ये गुट बड़ी राजनीतिक पार्टियों से जनता को झंझोड़ने में अधिक सफल हो जाते हैं और जनता के विचारों को प्रभावित करते हैं। इनको आजकल हम ‘दबाव समूह’ (Pressure Groups) भी कहते हैं।
अतः ऊपरलिखित सभी संस्थाएं जनमत के प्रचार में बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं।

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प्रश्न 4.
लोकमत के निर्माण के रास्ते में आने वाली रुकावटों का वर्णन करो। (Explain the hindrances in the way of formation of Public Opinion.)
अथवा
जनमत के निर्माण के मार्ग में बाधाओं का वर्णन करो। (Explain the hindrances in the way of the formation of Public Opinion.)
उत्तर-
लोकतन्त्र शासन प्रणाली का आधार जनमत है। जिस दल के पक्ष में जनमत होता है, उसी दल की सरकार बनती है। पर लोकतन्त्र सरकार की सफलता और समाज की भलाई के लिए यह आवश्यक है कि जनमत शुद्ध हो । यदि जनमत शुद्ध न होगा तो लोकतन्त्र सरकार का आधार भी गलत होगा। शुद्ध जनमत के निर्माण में निम्नलिखित बाधाएं आती हैं-

1. अनपढ़ता एवं अज्ञानता (Imliteracy and Ignorance)-अनपढ़ता तथा अज्ञानता शुद्ध जनमत के निर्माण में बहुत बड़ी रुकावट है। अनपढ़ता और अज्ञानता के फलस्वरूप जनता की सोचने की शक्ति तथा मनोवृत्ति संकुचित हो जाती है। अनपढ़ नागरिक अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को भली-भान्ति नहीं जानते। वे अपनी समस्याओं को समझ नहीं पाते तो वे सार्वजनिक समस्याओं पर क्या विचार करेंगे ? आधुनिक राज्य की समस्याएं बहुत जटिल हैं जिन्हें अनपढ़ व्यक्ति समझ नहीं सकता और न ही उनमें उन समस्याओं के बारे में सोचने की शक्ति होती है। अनपढ़ व्यक्ति शीघ्र ही अपने नेताओं के भड़कीले भाषण में आ जाता है और भावनाओं के आधार पर अपने मत का निर्माण कर लेता है। जिस देश की अधिकांश जनता अनपढ़ एवं अज्ञानी है वहां पर स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो सकता।

2. पक्षपाती प्रैस (Partial Press)-जो प्रैस पार्टियों द्वारा अथवा पूंजीपतियों द्वारा चलाए जाते हैं वे निष्पक्ष नहीं होते। ऐसे प्रैस सदा अपनी पार्टियों की प्रशंसा करते रहते हैं और दूसरी पार्टियों की निन्दा करते रहते हैं। ऐसे प्रैसों के समाचार-पत्रों में झूठी खबरें छपती रहती हैं जिससे साधारण जनता गुमराह हो जाती. है। पक्षपाती प्रैस देश का हित न सोचकर साम्प्रदायिकता की भावना को उत्साहित करते रहते हैं। भारत में ऐसे कई प्रैस हैं जो समस्त समाज का हित न सोचकर अपने सम्प्रदाय के हित के लिए उचित-अनुचित समाचार छापते हैं।

3. निर्धनता (Poverty)-निर्धनता भी शुद्ध जनमत के निर्माण में बहुत बड़ी बाधा है। निर्धन व्यक्ति को सदा रोटी की चिन्ता रहती है और इन्हीं उलझनों में फंसा रहता है। जिससे उसे समाज तथा देश की समस्याओं पर विचार करने का समय नहीं मिलता। एक भूखा व्यक्ति रोटी की खातिर अपने देश का अहित भी करने के लिए तैयार हो जाता है। वह अपने वोट को बेच देता है। निर्धन व्यक्ति का अपना कोई मत नहीं होता।

4. आलस्य और उदासीनता (Indolence and Indifference)-आलस्य और उदासीनता भी शुद्ध जनमत निर्माण में रुकावट डालते हैं। यदि किसी देश के नागरिक आलसी और सार्वजनिक समस्याओं के प्रति उदासीन हों तो शुद्ध जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। भारत के नागरिक बहुत आलसी हैं। वे वोट डालने के लिए भी जाने के लिए तैयार नहीं होते। साधारण नागरिक यह सोचता है कि यदि वह वोट न डालेगा तो क्या अन्तर पड़ेगा, जिसने चुनाव जीतना है वह जीत ही जाएगा। अतः नागरिकों में राजनीतिक चेतना का अभाव शुद्ध जनमत के निर्माण में बाधा है।

5. रूढ़िवादिता (Conservatism)-रूढ़िवादिता से अभिप्रायः है पुरानी घिसी-पिटी परम्पराओं का पालन करते जाना। रूढ़िवादिता प्रगतिशील दृष्टिकोण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। रूढ़िवादी सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास नहीं करते और अन्य लोगों को सुधार करने से रोकते हैं। अत: वे सामाजिक परिस्थितियों को आर्थिक दृष्टिकोण से नहीं समझते जिस कारण एक निष्पक्ष और बौद्धिक जनमत के निर्माण में बाधा उत्पन्न होती है।

6. गलत सिद्धान्तों पर आधारित राजनीतिक दल (Political Parties based on wrong Principles)जो राजनीतिक दल आर्थिक सिद्धान्तों और राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित न होकर धर्म या जाति पर आधारित होते हैं, वे शुद्ध जनमत के निर्माण में बाधा डालते हैं। ऐसे राजनीतिक दल देश के हित की परवाह न करके अपनी जाति या सम्प्रदाय के लिए गलत बातों का प्रचार करते रहते हैं और एक सम्प्रदाय में दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध नफरत की भावना पैदा करते रहते हैं। इन दलों से प्रभावित जनता शुद्ध जनमत का निर्माण नहीं कर सकती।

7. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली (Defective Education System)—जिन देशों में दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली होती है वहां पर भी शुद्ध जनमत का निर्माण नहीं होता है। यदि स्कूल-कॉलेजों में धर्म पर आधारित शिक्षा दी जाए और विद्यार्थियों के दिलों में साम्प्रदायिकता की भावना को भर दिया जाए तो विद्यार्थी नागरिक बनकर प्रत्येक समस्या को धर्म अथवा सम्प्रदाय की दृष्टि से सुलझाना चाहेंगे जिससे शुद्ध जनमत का निर्माण नहीं हो सकेगा।

8. निरंकुश सरकार (Autocratic Governments)-लोकराज के उत्थान में निरंकुश सरकारें भी बाधा बनती हैं क्योंकि निरंकुश सरकारों में व्यक्तियों को विचार प्रकट करने और प्रेस की स्वतन्त्रता नहीं होती। यह केवल उन्हीं विचारों को प्रकट कर सकते हैं जो सरकार या शासकों के पक्ष में हों। शासकों के विरुद्ध मुंह खोलने की स्वतन्त्रता नहीं होती। व्यक्तियों को अपने विचारों को दबाना पड़ता है। ठीक जनमत के उत्थान के लिए लोकराज्यीय सरकारें बहुत सहायक होती हैं क्योंकि लोकराज्यीय सरकारों में वह सब वातावरण मिलता है जो शुद्ध जनमत के उत्थान के लिए आवश्यक है। निरंकुश सरकारों में प्रचार के सब साधनों पर सरकार का नियन्त्रण होता है।

9. अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की अनुपस्थिति (Absence of Right and Liberties)-जहां लोगों को अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की प्राप्ति नहीं है वहां भी जनमत का उत्थान करना सम्भव नहीं होता। अधिकार और स्वतन्त्रताएं एक ऐसा वातावरण उत्पन्न करते हैं जिनके अनुसार व्यक्ति अपने विचारों का ठीक प्रसार कर सकता है। यदि लोगों के विचारों को दबाया जाए और स्वतन्त्रता के साथ सोचने की स्वतन्त्रता न हो तो जनमत भी शुद्ध नहीं बन सकेगा। लोगों को ठीक विचारों का पता नहीं लग सकेगा और न ही वे ठीक रूप से सरकार की आलोचना ही कर सकेंगे। और वे गलत धारणाएं बना लेंगे। जितनी गलत धारणाएं बनेंगी उतना ही गलत जनमत तैयार होगा।

10. सामाजिक असमानता (Social Inequality)-समाज में सामाजिक असमानताएं भी जनमत के मार्ग में बाधा बनती हैं। सामाजिक असमानता वाले देशों में लोगों के मध्य जाति-पाति, धर्म, रंग, नस्ल के आधार पर भेदभाव किए जाते हैं। कुछ लोगों को नीचा समझा जाता है ओर कुछ व्यक्ति समाज में शेष लोगों से ऊंचे होते हैं। ऊंचे व्यक्ति निम्न व्यक्तियों पर अपना नियन्त्रण रखते हैं और अपने विचारों को निम्न के विचारों पर ठोंसते हैं। ऐसी दशा में तैयार किया गया जनमत कभी भी शुद्ध और निष्पक्ष नहीं हो सकता।

ऊपरिलिखित शुद्ध जनमत की बाधाओं को पढ़कर हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि ठीक जनमत के उत्थान के लिए एक विशेष प्रकार के जनमत की आवश्यकता है। ऐसा वातावरण तभी तैयार हो सकता है यदि ऊपरिलिखित सब बाधाओं को दूर करने का यत्न किया जाए। शुद्ध जनमत लोकराज्यीय सरकार का प्राण है क्योंकि लोकराज्यीय सरकार जनमत पर ही आधारित होती है। यदि जनमत गलत और अशुद्ध है तो स्वाभाविक ही है कि नीतियां भी ठीक नहीं होंगी और राज्य प्रबन्ध भी ठीक नहीं होगा।

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प्रश्न 5.
स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए कौन-सी शर्ते आवश्यक हैं ? (What conditions are essential for the formulation of Sound Public Opinion ?)
उत्तर-
शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए विशेष अवस्थाओं की आवश्यकता होती है। शुद्ध जनमत के निर्माण में जो बाधाएं आती हैं, उनको दूर करके ही अवस्थाओं को उत्पन्न किया जा सकता है। शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए अग्रलिखित अवस्थाएं आवश्यक हैं

1. शिक्षित जनता (Educated People)-शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए जनता का होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक देश की समस्याओं को समझ सकता है और वह नेताओं के भड़कीले भाषणों को सुनकर अपने मत का निर्माण नहीं करता। वह सच, झूठ में अन्तर कर सकता है और वह प्रत्येक तर्क से काम लेता है। शिक्षित नागरिक देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने सुझाव भी दे सकता है अतः सरकार को चाहिए कि वह नागरिकों को शिक्षित करे।

2. निष्पक्ष प्रेस (Impartial Press)—शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए निष्पक्ष प्रेस का होना आवश्यक है। प्रेस दलों और पूंजीपतियों से स्वतन्त्र होने चाहिएं ताकि सच्चे समाचार दे सकें और सरकार के अच्छे कार्यों की प्रशंसा कर सकें। सरकार का प्रेस पर कोई नियन्त्रण नहीं होना चाहिए ताकि प्रेस स्वतन्त्रतापूर्वक काम कर सके और सरकार बुरे कार्यों की आलोचना कर सके। पर सरकार को उन प्रेसों को बन्द कर देना चाहिए जो धर्म अथवा जाति पर आधारित होते हैं या जो पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली होते हैं। शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि प्रेस ईमानदार, निष्पक्ष और साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर हों।

3. गरीबी का अन्त (End of Poverty)-शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि गरीबी का अन्त किया जाए। गरीब व्यक्ति, जिसे 24 घण्टे रोटी की चिन्ता रहती है, देश की समस्याओं पर नहीं सोच सकता। भूखा व्यक्ति उसी उम्मीदवार को अच्छा मानता है जो उसे रोटी-कपड़ा दे, चाहे वह उम्मीदवार देशद्रोही ही क्यों न हो। गरीब व्यक्ति अपने वोट को बेचने को सदा तैयार रहता है जिससे जनमत पूंजीपतियों के हाथों में आ जाता है। अतः शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि जनता को भर पेट भोजन मिलता हो, मज़दूरों का शोषण न होता हो और अकाल न पड़ते हों। ..

4. आदर्श शिक्षा प्रणाली (Ideal Education System)-देश की शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि विद्यार्थियों का दृष्टिकोण विशाल बन सके और वे साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर उठकर देश के हित में सोच सकें अर्थात् आदर्श नागरिकों बन सकें।

5. राजनीतिक दल आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिएं (Political Parties should be based on Economic and Political Principles)-शुद्ध जनमत के निर्माण में राजनीतिक दलों का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। राजनीतिक दल धर्म अथवा जाति पर आधारित न होकर आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिएं। जो दल धर्म अथवा जाति पर आधारित होते हैं, वे अपने दल के हित में ही सोचते हैं न कि देश के हित में। ऐसे दल समाज में साम्प्रदायिक भावना का प्रचार करके जनता को गुमराह करते हैं।

6. धार्मिक सहिष्णुता (Religious Toleration)—शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि जनता में धार्मिक सहिष्णुता होनी चाहिए। नागरिक प्रत्येक समस्या पर उसके गुण तथा अवगुण के आधार पर अपने मत का निर्माण करे न कि धर्म की दृष्टि से प्रत्येक समस्या पर विचार करे। नागरिकों को धर्म, जाति, भाषा आदि से ऊपर उठ कर अपने मत का निर्माण करना चाहिए।

7. भाषण तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता (Freedom of Speech and Expression)-शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों को भाषण देने तथा अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। नागरिकों को स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए कि वे सरकार के बुरे कार्यों की आलोचना कर सकें और देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने सुझाव दे सकें। साधारण जनता विद्वानों तथा नेताओं के विचार सुनकर अपने मत का निर्माण करती है। यदि भाषण देने की स्वतन्त्रता नहीं होगी तो साधारण नागरिकों को विद्वानों और नेताओं के विचारों का ज्ञान न होगा जिससे शुद्ध जनमत का निर्माण नहीं हो सकेगा।

8. नागरिकों का उच्च चरित्र (High Character of the Citizens)-शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए नागरिकों का चरित्र भी ऊंचा होना चाहिए। नागरिकों में सामाजिक एकता की भावना होनी चाहिए और उन्हें प्रत्येक समस्या पर राष्ट्रीय हित में सोचना चाहिए। उच्च चरित्र का नागरिक अपने वोट को नहीं बेचता और न ही झूठी बातों का प्रचार करता है। वह उन्हीं बातों तथा सिद्धान्तों का प्रचार करता है जिन्हें वह ठीक समझता है।

9. राष्ट्रीय आदर्शों की समरूपता (Uniformity over National Ideals)-स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए एक अनिवार्य तत्त्व यह है कि राष्ट्र के राज्य सम्बन्धी आदर्शों में जनता के मध्य अत्यधिक मतभेद नहीं होना चाहिए। जनता में राष्ट्रीय आदर्शों के विषय में एकता न होने की अवस्था में पारस्परिक कटुता और वैमनस्य इतना बढ़ जाएगा कि अराजकता फैलने की स्थिति आ जाएगी। ऐसी अवस्था में स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो सकता। इसके साथ ही राष्ट्र के तत्त्वों कम-से-कम विभिन्नता होनी चाहिए। जिस राष्ट्र में धर्म, भाषा, संस्कृति, प्राचीन इतिहास तथा राजनीतिक परम्पराओं के मध्य विभिन्नता होगी, वहां इन विषयों से सम्बद्ध सार्वजनिक नीतियों के सम्बन्ध में स्वस्थ जनमत के निर्माण में बड़ी बाधा पहुंचती है। उदाहरण के लिए भारत में भाषा की समस्या का हल अभी तक सन्तोषजनक नहीं हुआ है। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष के पश्चात् भी अंग्रेजी की समाप्ति के प्रश्न पर स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाया है।

10. सहनशीलता एवं सहयोग की भावना (Spirit of toleration and co-operation)-शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए लोगों में एक दूसरे के प्रति सहनशीलता एवं सहयोग की भावना का होना आवश्यक है। इन भावनाओं के अभाव में व्यक्ति दूसरे के विचार को नहीं सुन सकेगा जबकि उचित विचार वाद-विवाद के बाद ही सामने आते हैं। अतः सहनशीलता एवं परस्पर सहयोग की भावनाओं का विकास किया जाना चाहिए।

11. स्वस्थ दलीय प्रणाली (Healthy Party System)–लोकतान्त्रिक राज्यों में स्वस्थ दलीय प्रणाली भी जनमत बनाने में सहायक होती है। अतः राजनीतिक दलों का आधार ठीक होना चाहिए।
ऊपरलिखित अवस्थाओं के होने से ही शुद्ध जनमत का निर्माण हो सकता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
जनमत से आपका क्या भाव है ?
उत्तर-
जनमत सार्वजनिक मामलों पर जनता की राय को कहते हैं, परन्तु किसी भी विषय पर समस्त नागरिक एकमत नहीं हो सकते । जनमत बहुमत नहीं है क्योंकि बहुमत में बहुमत संख्या का अपना दृष्टिकोण रहता है, समस्त राष्ट्र का नहीं। बहुमत का मत जनमत बन सकता है यदि उसमें जनसाधारण की भलाई छिपी हुई हो। डॉ० बेनी प्रसाद ने ठीक ही कहा है कि, “केवल उसी मत को वास्तविक जनमत कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य जनता का कल्याण है।” लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “समस्त समाज से सम्बन्धित किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है” लावेल के अनुसार, “जनमत बनाने के लिए केवल बहुमत काफ़ी नहीं और सर्वसम्मति आवश्यक नहीं, परन्तु राय ऐसी होनी चाहिए जिससे अल्पसंख्यक वर्ग बेशक सहमत न हो, लेकिन फिर भी वह भय के कारण नहीं बल्कि विश्वास से मानने को तैयार हो।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सार्वजनिक मामलों पर बहुसंख्यक का वह मत जिसे अल्पसंख्यक भी अपने हितों के विरुद्ध नहीं मानते, जनमत कहलाता है।

प्रश्न 2.
जनमत की कोई चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • आम सहमति-जनमत की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें आम सहमति होनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि किसी मामले पर सभी लोगों की एक राय हो।
  • जनता की भलाई-जनमत की दूसरी विशेषता जनता की भलाई है। जिस मत में जनता की भलाई निहित न हो वह मत जनमत नहीं बन सकता है।
  • तथ्यों पर आधारित-जनमत तथ्यों पर आधारित और तर्कों से भरपूर होना चाहिए। आम जनता को जनमत को स्वीकार करते समय यह देखना चाहिए कि यह तर्क पर आधारित है या नहीं।
  • जनमत का रूप सकारात्मक होता है।

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प्रश्न 3.
जनमत के निर्माण में शैक्षणिक संस्थाएं क्या भूमिका निभाती हैं ?
अथवा
लोकमत के निर्माण में शिक्षा संस्थानों की क्या भूमिका है?
उत्तर-
आज के विद्यार्थी कल के नागरिक हैं। विद्यार्थी अपने मत का प्रयोग प्रायः अपने अध्यापकों के विचारों को सुन कर करते हैं। स्कूलों और कॉलेजों में इतिहास, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि अनेक विषय पढ़ाए जाते हैं, जिससे विद्यार्थियों के विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। नागरिक शास्त्र के अध्यापक विशेषकर पढ़ाते समय सरकार के कार्यों के उदाहरण देते हैं और कई अध्यापक सरकार की कड़ी आलोचना करते हैं तथा अपने विचारों को प्रकट करते हैं। अध्यापकों के विचारों का विद्यार्थी के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त स्कूलों और कॉलेजों में विभिन्न विषयों और समस्याओं पर वाद-विवाद तथा भाषण प्रतियोगिता होती रहती है। साहित्यिक गोष्ठियां (Study Circles) भी होती रहती हैं जिनमें विद्वानों तथा नेताओं को बुलाया जाता है। इस प्रकार शिक्षण संस्थाएं विद्यार्थियों के विचारों को बहुत प्रभावित करती हैं।

प्रश्न 4.
स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए चार ज़रूरी शर्ते लिखो।
अथवा
स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए आवश्यक चार शर्ते लिखो। ।
उत्तर-
1. शिक्षित जनता-स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए जनता का शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक देश की समस्याओं को समझ सकता है तथा समस्याओं को हल करने के लिए सुझाव भी दे सकता है।

2. निष्पक्ष प्रेस-स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए निष्पक्ष प्रेस का होना आवश्यक है। प्रेस अर्थात् समाचार-पत्र राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों से स्वतन्त्र होने चाहिए ताकि सच्चे समाचार दे सकें और सरकार के अच्छे कार्यों की प्रशंसा कर सकें। स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि प्रेस ईमानदार, निष्पक्ष और साम्प्रदायिक भावनाओं से ऊपर हो।

3. ग़रीबी का अन्त-शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए आवश्यक है कि ग़रीबी का अन्त किया जाए। ग़रीब व्यक्ति जिसे 24 घण्टे रोटी की चिन्ता रहती है, देश की समस्याओं पर नहीं सोच सकता। अतः शुद्ध जनमत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि जनता को भर पेट भोजन मिलता हो, मजदूरों का शोषण न होता हो और अकाल न पड़ते हों।

4. राजनीतिक दल आर्थिक तथा राजनीतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिए।

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प्रश्न 5.
दबाव समूह कानून निर्माण में किस प्रकार सहायता करते हैं ?
उत्तर-
वर्तमान समय में दबाव समूह सरकार की कानून निर्माण में काफ़ी सहायता करते हैं । जब संसद् की विभिन्न समितियाँ किसी बिल पर विचार-विमर्श कर रही होती है, तब वे अलग-अलग दबाव समूहों को अपना पक्ष रखने के लिए कहती हैं। दबाव समूह उस बिल के कारण उन पर पड़ने वाले सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव की बात कहते हैं। इस प्रकार अपने दृढ़ पक्ष से दबाव समूह कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संसद् की विभिन्न समितियां भी इनके विचारों, तर्कों एवं आंकड़ों को महत्त्व देती हैं।

प्रश्न 6.
स्वस्थ जनमत के निर्माण के रास्ते में आने वाली चार बाधाएं लिखो।
उत्तर-
स्वस्थ जनमत के निर्माण में मुख्य बाधाएं निम्नलिखित हैं –

  • अनपढ़ता तथा अज्ञानता-अनपढ़ता तथा अज्ञानता स्वस्थ जनमत के निर्माण में बहुत बड़ी बाधा है। अनपढ़ता और अज्ञानता के फलस्वरूप जनता की सोचने की शक्ति तथा मनोवृत्ति संकुचित हो जाती है।
  • निर्धनता-निर्धनता स्वस्थ जनमत के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण बाधा है। निर्धन व्यक्ति आर्थिक समस्याओं में जकड़ा रहता है। जहां ग़रीबी होती है वहां जनमत का निर्माण नहीं हो पाता।
  • आलस्य और उदासीनता-आलस्य और उदासीनता स्वस्थ जनमत के निर्माण में बाधा है। यदि किसी देश के नागरिक आलसी और सार्वजनिक समस्या के प्रति उदासीन हों तो शुद्ध जनमत का निर्माण नहीं हो पाता।
  • दोषणपूर्ण शिक्षा प्रणाली भी स्वस्थ लोकमत के निर्माण में एक बाधा है।

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प्रश्न 7.
लोकतन्त्र में लोकमत की क्या भूमिका है ?
उत्तर-
लोकतन्त्रीय राज्य में जनमत का बहुत अधिक महत्त्व है। रूसो के शब्दों में, “जनता की आवाज़ वास्तव में भगवान् की आवाज़ होती है।” लोकतन्त्र में जनमत का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है-

  • लोकतन्त्र शासन प्रणाली में सरकार का आधार जनमत होता है-लोकतन्त्र में सरकार जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बनाई जाती है। कोई भी सरकार जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकती। सरकार सदैव जनमत को अपने पक्ष में रखने के लिए जनता में अपनी नीतियों का प्रचार करती रहती है। जो सरकार जनमत के विरुद्ध काम करती है वह शीघ्र ही हटा दी जाती है।
  • जनमत सरकार का मार्गदर्शक है-जनमत लोकतन्त्रीय सरकार का आधार ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक भी है। जनमत सरकार को रास्ता दिखाता है कि उसे क्या करना है और किस तरह करना है। सरकार कानूनों का निर्माण करते समय जनमत का ध्यान अवश्य रखती है।
  • जनमत प्रतिनिधियों की निरंकुशता को नियन्त्रित करता है-लोकतन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है और जिस दल के पक्ष में जनमत होता है, उस दल की सरकार बनती है। कोई भी प्रतिनिधि अथवा मन्त्री अपनी मनमानी नहीं कर सकता। उन्हें सदैव जनमत के विरोध का डर रहता है।
  • लोकतन्त्र में कानून निर्माण में जनमत का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है।’

प्रश्न 8.
जनमत के निर्माण और अभिव्यक्ति के कोई चार साधन लिखें।
अथवा
जनमत के निर्माण में प्रेस, रेडियो और टेलीविज़न की क्या भूमिका है।
अथवा
जनमत के निर्माण और अभिव्यक्ति के कोई तीन साधन लिखो।
उत्तर-
लोकमत के निर्माण में प्रेस, राजनीतिक दल, टेलीविज़न इत्यादि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

  • प्रेस-समाचार-पत्र, पत्र-पत्रिकाएं इत्यादि जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समाचार-पत्र लाखों व्यक्ति पढ़ते हैं उनके मतों पर समाचार-पत्रों का बहुत प्रभाव पड़ता है।
  • राजनीतिक दल-राजनीतिक दल जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करते हैं। राजनीतिक दल समाचारपत्रों द्वारा, सार्वजनिक सभाओं द्वारा, रेडियो द्वारा तथा घर-घर जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। देश की समस्याओं पर अपने विचार जनमत को बताते हैं। राजनीतिक दल अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। इन सब तरीकों से जनमत के निर्माण में सहायता मिलती है।
  • रेडियो और टेलीविज़न-रेडियो और टेलीविज़न जनता का मनोरंजन ही नहीं करते बल्कि जनता को देश-विदेश की समस्याओं से भी अवगत कराते हैं। राजनीतिक दलों के नेता, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति तथा बड़े-बड़े विद्वान् अपने विचारों को रेडियो तथा टेलीविज़न द्वारा जनता तक पहुंचाते हैं। अनपढ़ व्यक्ति विशेषकर रेडियो तथा टेलीविज़न से काफ़ी प्रभावित होते हैं।
  • शैक्षिक संस्थाएं-शैक्षिक संस्थाएं भी जनमत निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं । अध्यापक अध्यापन के समय कई महत्त्वपूर्ण मामलों सम्बन्धी अपने विचार भी अभिव्यक्त करते हैं जिनका विद्यार्थियों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
    सहा

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
जनमत क्या होता है?
उत्तर-
जनमत सार्वजनिक मामलों पर जनता की राय को कहते हैं, परन्तु किसी भी विषय पर समस्त नागरिक एकमत नहीं हो सकते । जनमत बहुमत नहीं है क्योंकि बहुमत में बहुमत संख्या का अपना दृष्टिकोण रहता है, समस्त राष्ट्र का नहीं। बहुमत का मत जनमत बन सकता है यदि उसमें जनसाधारण की भलाई छिपी हुई हो।

प्रश्न 2.
जनमत की दो परिभाषाएं लिखें।
उत्तर-

  1. डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार, “केवल उसी मत को वास्तविक जनमत कहा जा सकता है जिसका उद्देश्य जनता का कल्याण है।”
  2. लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “समस्त समाज से सम्बन्धित किसी समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जा सकता है।”

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प्रश्न 3.
जनमत की कोई दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  • आम सहमति-जनमत की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें आम सहमति होनी चाहिए। इसका अर्थ यह कि किसी मामले पर सभी लोगों की एक राय हो।
  • जनता की भलाई-जनमत की दूसरी विशेषता जनता की भलाई है। जिस मत में जनता की भलाई निहित न हो वह मत जनमत नहीं बन सकता है।

प्रश्न 4.
अच्छे व स्वस्थ लोकमत (जनमत) के लिए दो जरूरी शर्ते बताएं।
उत्तर-

  • शिक्षित जनता-स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए जनता का शिक्षित होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक देश की समस्याओं को समझ सकता है और समस्याओं को हल करने के लिए सुझाव भी दे सकता है।
  • निष्पक्ष प्रेस-स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए निष्पक्ष प्रेस का होना आवश्यक है। प्रेस अर्थात् समाचार-पत्र राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों से स्वतन्त्र होने चाहिएं ताकि सच्चे समाचार दे सकें और सरकार के अच्छे कार्यों की प्रशंसा कर सकें।

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प्रश्न 5.
स्वस्थ लोकमत के निर्माण में आने वाली किन्हीं जो रुकावटों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-

  • अनपढ़ता तथा अज्ञानता-अनपढ़ता तथा अज्ञानता स्वस्थ जनमत के निर्माण में बहुत बड़ी बाधा हैं। अनपढ़ता और अज्ञानता के फलस्वरूप जनता की सोचने की शक्ति तथा मनोवृत्ति संकुचित हो जाती है।
  • निर्धनता-निर्धनता स्वस्थ जनमत के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण बाधा है। निर्धन व्यक्ति आर्थिक समस्याओं में जकड़ा रहता है। जहां ग़रीबी होती है वहां जनमत का निर्माण नहीं हो पाता।

प्रश्न 6.
लोकतन्त्र में लोकमत का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-

  • लोकतन्त्र शासन प्रणाली में सरकार का आधार जनमत होता है-लोकतन्त्र में सरकार जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बनाई जाती है। कोई भी सरकार जनमत के विरुद्ध नहीं जा सकती है। जो सरकार जनमत के विरुद्ध काम करती है वह शीघ्र ही हटा दी जाती है।
  • जनमत सरकार का मार्गदर्शक है-जनमत लोकतन्त्रीय सरकार का आधार ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक भी है।

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प्रश्न 7.
जनमत के निर्माण और अभिव्यक्ति के कोई दो साधन लिखो।
उत्तर-
1. प्रेस-समाचार-पत्र, पत्र-पत्रिकाएं इत्यादि जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समाचारपत्रों में देश-विदेश की घटनाओं और समस्याओं को छापा जाता है। समाचार-पत्र जनता की शिकायतें सरकार तक पहुंचाते हैं और सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं। समाचार-पत्र लाखों व्यक्ति पढ़ते हैं। उनके मतों पर समाचार-पत्र का बहुत प्रभाव पड़ता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न-

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1.
जनमत से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जनमत से हमारा अभिप्राय सार्वजनिक मामलों पर जनता की राय से है।

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प्रश्न 2.
लोकमत की एक परिभाषा लिखो।
उत्तर-
प्रो० ब्राईस के अनुसार, “समस्त समाज से सम्बन्धित समस्या पर जनता के सामूहिक विचारों को जनमत कहा जाता है।”

प्रश्न 3.
क्या बहुमत की राय को जनमत कहा जा सकता है? ,
उत्तर-
केवल बहुमत की राय को ही जनमत नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 4.
प्रेस जनमत के निर्माण में क्या भूमिका निभाता है ?
उत्तर-
प्रेस जनता को दैनिक घटनाओं और समाचारों से परिचित रखता है। ये सरकार के कार्यों पर टीका-टिप्पणी करते हैं और उनके कार्यों की प्रशंसा और आलोचना करते हैं।

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प्रश्न 5.
जनमत के निर्माण में राजनीतिक दल क्या भूमिका निभाते हैं ? .
उत्तर-
राजनीतिक दल लोगों के सामने देश की विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार रखते हैं और समस्याओं को हल करने के लिए अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं।

प्रश्न 6.
स्वस्थ लोकमत के निर्माण के मार्ग में कोई दो कठिनाइयां लिखो।
अथवा
लोकमत निर्माण में एक रुकावट लिखो।
उत्तर-

  1. अनपढ़ता
  2. पक्षपाती प्रेस।

प्रश्न 7.
जनमत के निर्माण का कोई एक साधन लिखो।
उत्तर-
राजनीतिक दल।

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प्रश्न 8.
रेडियो तथा टेलीविज़न जनमत के निर्माण में कैसे सहायक होते हैं ?
उत्तर-
रेडियो तथा टेलीविज़न द्वारा नेताओं के विचार लोगों तक पहुँचते हैं, तथा लोगों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

प्रश्न 9.
जनमत की कोई एक विशेषता लिखो।
उत्तर-
जनमत तर्कसंगत होता है।

प्रश्न 10.
लोकमत के निर्माण और प्रकटावे के दो साधन लिखो।
अथवा
जनमत के निर्माण के दो साधन लिखें।
उत्तर-

  1. प्रेस
  2. राजनीतिक दल।

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प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………… की आवाज परमात्मा की ……………. होती है।
2. नेपोलियन के अनुसार एक लाख तलवारों की अपेक्षा मुझे तीन ………… से अधिक भय है।
3. ……….. सार्वजनिक मामलों पर जनता की राय को कहते हैं।
4. कैरोल के अनुसार साधारण प्रयोग में जनमत साधारण जनता की ……… को कहते हैं।
5. ………. में लोकमत को बढ़ावा मिलता है।
6. लोकतन्त्र शासन प्रणाली में …………. का आधार जनमत होता है।
उत्तर-

  1. जनता, आवाज
  2. समाचार-पत्रों
  3. जनमत
  4. मिली-जुली प्रतिक्रिया
  5. लोकतन्त्र
  6. सरकार।

प्रश्न III. निम्नलिखित वाक्यों में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. जनमत सरकार को निरंकुश बनने से रोकता है।
2. देश की बहुसंख्यक जनता के मत को जनमत कहते हैं।
3. जनमत नागरिकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता को सुरक्षा प्रदान करता है।
4. श्रेष्ठ जनमत के निर्माण के लिए सबसे आवश्यक शर्त जनता का अशिक्षित होना है।
5. रेडियो और सिनेमा जनमत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा तत्त्व स्वस्थ जनमत को बढ़ावा देता है ?
(क) साम्यवाद
(ख) जातिवाद
(ग) क्षेत्रवाद
(घ) स्वतन्त्र प्रेस।
उत्तर-
(घ) स्वतन्त्र प्रेस।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में जनमत निर्माण का साधन है-
(क) प्रेस
(ख) सार्वजनिक सभाएं
(ग) राजनीतिक
(घ) उपरोक्त।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त।

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प्रश्न 3.
लोकतान्त्रिक सरकार की सफलता किस पर निर्भर करती है ?
(क) तानाशाह पर
(ख) क्षेत्रवाद पर
(ग) जातिवाद पर
(घ) जनमत पर।
उत्तर-
(घ) जनमत पर।

प्रश्न 4.
“एक लाख तलवारों की अपेक्षा मुझे तीन समाचार-पत्रों से अधिक भय है।” यह किसका कथन है?
(क) नेपोलियन
(ख) रूसो
(ग) हिटलर
(घ) मुसोलिनी।
उत्तर-
(क) नेपोलियन

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प्रश्न 5.
जनमत बनाने के लिए केवल बहुमत काफ़ी नहीं और सर्वसम्मति आवश्यक नहीं है।” यह किसका कथन
(क) डॉ० बेनी प्रसाद
(ख) लावेल
(ग) श्रीनिवास शास्त्री
(घ) लॉस्की ।
उत्तर-
(ख) लावेल