PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
पुराणों की हिंदू धर्म में विशेषता और इसके प्रमुख लक्षणों की जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Puranas in Hinduism and their basic salient features.)
अथवा
पुराण साहित्य के प्रमुख लक्षणों और इनका हिंदू धर्म में महत्त्व के बारे में संक्षेप में और भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the salient features of Purana literature and its importance in Hinduism.)
अथवा
पुराणों से क्या भाव है ? विभिन्न पुराणों का संक्षेप में वर्णन दो। (What is meant by Puranas ? Give a brief account of the various Puranas.)
अथवा
प्रसिद्ध पुराणों के विषय में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Give a brief account of important Puranas.)
अथवा
पुराणों की विषय-वस्तु एवं महत्ता के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the subject-matter of Puranas.)
अथवा
पुराणों की रचना किस प्रकार हुई ? जानकारी दें। (Explain how Puranas were written ?)
अथवा
पुराण साहित्य के मुख्य विषयों के बारे में जानकारी दें। (Describe the main contents of Purana literature.)
अथवा
पौराणिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Discuss the importance of Pauranic Literature.)
अथवा
पुराणों बारे संक्षिप्त जानकारी दें।
(Write in brief about the Puranas.)
पथवा प्रसिद्ध पाँच पुराणों के बारे में जानकारी दें। (Give information about famous five Puranas.)
उत्तर-
पुराण हिंदू धर्म के पुरातन ग्रंथ हैं। पुराण से भाव है प्राचीन। ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। ये कब लिखे गये इस का कोई पक्का उत्तर अभी तक नहीं मिला है। ये किसी एक शताब्दी की रचना नहीं हैं। इनका वर्णन अथर्ववेद, उपनिषदों और महाकाव्यों आदि में आता है। समय-समय पर इनमें तबदीलियाँ की जाती रहीं और नये अध्यायों को जोड़ा जाता रहा। गुप्त काल में पुराणों को अंतिम रूप दिया गया। इस तरह पुराणों की रचना अनेक लेखकों द्वारा की गई है। पुराणों को “पाँचवां वेद” कहा जाता था और शूद्रों को इनको पढ़ने की आज्ञा दी गई थी।
पुराणों की कुल संख्या 18 है। यह पुराण तीन भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 6 पुराण आते हैं और यह शिव, वैष्णव और ब्रह्म पुराण कहलाते हैं।
इनके भाग इस तरह हैं :—

1. शिव पुराण—

  • वायु,
  • लिंग,
  • स्कंद,
  • अग्नि,
  • मत्स्य और
  • कूर्म।

2. वैष्णव पुराण—

  • विष्णु,
  • भगवद्,
  • नारद,
  • गरुड़,
  • पद्म और
  • वराह

3. ब्रह्म पुराण—

  • ब्रह्मा,
  • ब्रह्मांड,
  • ब्रह्मावैव्रत,
  • मारकंडेय,
  • भविष्य और
  • वामन।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। मिथिहास वह कथा कहानियाँ होती हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं होता परंतु वे लोगों में बहुत प्रचलित होती हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा होता था। ये भाग हैं-

(1) सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
(2) प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
(3) वंश-इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
(4) मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
(5) वंशानचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था। यह बात यहाँ याद रखने योग्य है कि हमें मूल पुराण उपलब्ध नहीं हैं। ये पुराण हमें आजकल जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं उनमें यह जरूरी नहीं कि उनमें दिया गया वर्णन इस बाँट अनुसार हो। पुराणों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है :—

  1. ब्रह्म पुराण (The Brahman Purana)-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं। इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण, आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण (The Padma Purana)-यह सबसे विशाल पुराण है। इस में लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, भूमि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इन के अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है। इस में अनेकों मिथिहासिक कथायें भी दर्ज हैं।
  3. विष्णु पुराण (The Vishnu Purana)-इस पुराण में 23,000 श्लोक दिये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि विष्णु ही सर्वोच्च देवता है। उसने ही संसार की रचना की और इसका पालनहार है। इसमें दी गई कथाओं में प्रह्लाद और ध्रुव की कथायें प्रसिद्ध हैं। इस में इस संसार और स्वर्ग के लोगों की अनेकों विचित्र बातों का भी वर्णन है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है। पाँचवें और अंतिम खंड में कृष्ण की अनेक अलौकिक लीलाओं की चर्चा की गई है।
  4. वायु पुराण (The Vayu Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक हैं । इस में शिव की महिमा के साथ संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इस लिए इस को शिव पुराण भी कहते हैं। इस में अनेक वंशों का वर्णन किया गया है। प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण इन की बहुत ऐतिहासिक महत्ता है। इसमें दिया गया भूगौलिक वर्णन भी बड़ा लाभदायक है।
  5. भगवद् पुराण (The Bhagavata Purana)-विष्णु देवता के साथ संबंधित पुराणों में भगवद् पुराण सब से अधिक लोकप्रिय है। इस में कृष्ण के जीवन से संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध और साक्ष्य दर्शन के संस्थापक कपिल को विष्णु का अवतार बताया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इस पुराण का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
  6. नारद पुराण (The Narada Purana)-इस पुराण में 25,000 श्लोक दिये गये हैं। यह विष्ण भक्ति से संबंधित पुराण है। इस में प्राचीन कालीन भारत में प्रचलित विद्या के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इस में वंशों का विवरण नहीं मिलता।
  7. मारकंडेय पुराण (The Markandeya Purana)-इस पुराण में 900 श्लोक दिये गये हैं। इस में वैदिक देवताओं इंद्र, सूर्य और अग्नि आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है।
  8. अग्नि पुराण (The Agni Purana)-इस पुराण में 15,400 श्लोक दिये गये हैं। एक परंपरा के अनुसार इस पुराण को अग्नि देवता ने आप ऋषि विशिष्ट को सुनाया था। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे युद्धनीति, यज्ञ विधि, ज्योतिष, भूगोल, राजनीति, कानून, छंद शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, व्रत, दान, श्राद्ध और विवाह आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। निस्संदेह यह पुराण एक विश्वकोष की तरह
  9. भविष्य पुराण (The Bhavishya Purana)—इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में ब्रह्म, विष्ण, शिव और सूर्य देवताओं से संबंधित अनेक कथायें दी गई हैं। इस में अनेक प्राचीन राजवंशों और ऋषियों का भी वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक कर्मकांडों की भी चर्चा की गई है।
  10. ब्रह्मावैव्रत पुराण (The Brahmavaivarta Purana)—इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण में ब्रह्म को इस संसार का रचयिता कहा गया है। इस में कृष्ण के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में राधा का वर्णन भी आता है। इस में गणेश को कृष्ण का अवतार कहा गया है।
  11. लिंग पुराण (The Linga Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक दिये गये हैं। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में शिव अवतारों, व्रतों तथा तीर्थों का वर्णन किया गया है। इस में लिंग की शिव के रूप में उपासना का उपदेश दिया गया है।
  12. वराह पुराण (The Varaha Purana)-इस में 10,700 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की तरह वराह अवतार के रूप में पूजा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में शिव, दुर्गा और गणेश से संबंधित वर्णन . भी दिया गया है।
  13. स्कंद पुराण (The Skanda Purana)—यह एक विशाल पुराण था। इस में 51,000 श्लोकों का वर्णन किया गया था। यह पुराण आजकल उपलब्ध नहीं है। इस के बारे में जानकारी अन्य ग्रंथों में दी गई उदाहरणों से प्राप्त होती है। इस पुराण में मुख्य तौर पर शिव की पूजा के बारे बताया गया है। इस के अतिरिक्त इस में भारत के अनेक तीर्थ स्थानों और मंदिरों के बारे बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।
  14. वामन पुराण (The Vamana Purana)इस पुराण में 10,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण के अधिकतर भाग में शिव, विष्णु और गणेश आदि देवताओं की पूजा के बारे वर्णन किया गया है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का भी वर्णन मिलता है।
  15. कूर्म पुराण (The Kurma Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु के कुर्म अवतार की पूजा का वर्णन है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का वर्णन भी मिलता है।
  16. मत्स्य पुराण (The Matsya Purana)-इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। यह पुराण मत्स्य (मछली) तथा मनु के मध्य एक वार्तालाप है। जब इस संसार का विनाश हुआ तब इस मछली ने मनु की सुरक्षा की थी। इस में अनेक प्रसिद्ध राजवंशों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक मेलों और तीर्थ स्थानों का भी वर्णन है।
  17. गरुढ़ पुराण (The Garuda Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की पूजा से संबंधित अनेक विधियों का वर्णन है। इस में यज्ञ विद्या, छंद शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, खगोल विज्ञान, शारीरिक विज्ञान और भूत-प्रेतों के बारे जानकारी दी गई है। इस में अंतिम संस्कार संबंधी, सती संबंधी और पितर श्राद्धों के संबंध में विस्तावपूर्वक जानकारी दी गई है।
  18. ब्रह्माण्ड पुराण (The Brahmanda Purana)—इस पुराण में 12,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण को ब्रह्मा ने पढ़ के सुनाया था। इस में अनेक राजवंशों और तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है।

पुराणों का महत्त्व (Importance of the Puranas)-
पुराण भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र पेश करते हैं। आज के हिंदू धर्म में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वह इन पुराणों की ही देन हैं । इन पुराणों में हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं की पूजा विधियों, व्रतों, श्राद्धों, जन्म, विवाह और मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों के बारे भरपूर प्रकाश डाला गया है। मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद की कल्पना इन पुराणों की ही देन है। इन पुराणों ने भारत में पितर पूजा के रिवाज को अधिक प्रचलित किया। लोगों को दान देने के लिए प्रेरित किया गया। पुराणों में दिये गये प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक पक्ष से काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है। इन में तीर्थ स्थानों और मंदिरों के विवरण से हमें उस समय की कला के बारे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन के अतिरिक्त ये पुराण प्राचीन कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्था के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हैं। निस्संदेह यदि पुराणों को भारतीय संस्कृति का विश्वकोष कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी। डॉक्टर आर० सी० हाज़रा का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“पुराणों ने हिंदुओं के जीवन में दो हज़ार से अधिक वर्षों तक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने आम लोगों तक उच्च दर्जे के ऋषियों के विचारों को बिना किसी मतभेद के पहुँचाया। इन ग्रंथों के लेखकों ने प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए ऐसे नुस्खे बताये जो उनके सामाजिक और धार्मिक जीवन के लिए लाभदायक सिद्ध हों।”1

1. “The Puranas have played a very important part in the life of the Hindus for more than two thousand years. They have brought home to the common man the wisdom of the saints of the highest order without creating any discord. The authors of these works took every individual into consideration and made such prescriptions as would benefit him in his social and religious life.” Dr. R. C. Hazra, The Cultural Heritage of India (Colcutta : 1975) Vol. 2, p. 269.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 2.
उपनिषदों की विषयवस्तु और महत्त्व के विषय में संक्षिप्त भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief but meaningful the subject matter and importance of Upanishads.)
अथवा
‘उपनिषद्’ शब्द के अर्थ तथा महत्त्व के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Give a brief account of importance and meaning of Upanishad.)
अथवा
उपनिषदों की विषय-वस्तु एवं महत्ता के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the contents of Upanishads and their importance.)
अथवा
उपनिषदों का विषय-वस्तु क्या है ? उल्लेख करें।
(Explain the subject matter of Upanishads.)
अथवा
उपनिषद् साहित बारे भावपूर्ण संक्षिप्त जानकारी दें।
(Describe briefly meaningful about the Upanishad literature.)
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं पर एक नोट लिखो।
(Write a short note on the main teachings of the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं का वर्णन करो।
(Discuss the main teachings of the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं के बारे आप क्या जानते हो ?
(What do you know about the main teachings of the Upanishads ?)
अथवा
उपनिषदों के प्रमुख सिद्धांतों के बारे आप क्या जानते हो ?
(What do you know about the main doctrines of the Upanishads ?)
अथवा
उपनिषद् से क्या भाव है ? इनकी मुख्य विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन करो।
(What is meant by Upanishads ? Give a brief account of their main features.)
अथवा
उपनिषदों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Give brief introduction about the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में जानकारी दें। दो प्रथम उपनिषदों के नाम बताएँ।
(Write about the main teachings of the Upanishads. Name two earliest Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाओं पर नोट लिखो ।
(Write a note on the main teachings of the Upanishads.)
अथवा
उपनिषदों से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं दो उपनिषदों के बारे में भावपूर्ण जानकारी दें।
(What is meant by Upanishads ? Describe any two of them in brief.)
अथवा
उपनिषद से क्या भाव है ? कोई एक प्रसिद्ध उपनिषद के बारे में जानकारी दीजिए।
(What is meant by Upanishads ? Describe any one popular Upanishads.)
उत्तर-
भारतीय दर्शन प्रणाली का वास्तविक आरंभ उपनिषदों से माना जाता है। उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें दुनिया के सबसे ऊँचे आध्यात्मिक ज्ञान के मोती पिरोये हुए हैं। इन मोतियों की चमक से मनुष्य का आंतरिक अंधेरा दूर हो जाता है और ऐसा प्रकाश होता है जिस के आगे सूर्य का प्रकाश भी कम हो जाता है। यदि उपनिषदों को भारतीय दर्शन का मूल स्रोत कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी। उपनिषद् तीन शब्दों के मेल से बना है। ‘उप’ से भाव है नज़दीक, ‘नि’ से भाव है श्रद्धा और ‘षद्’ से भाव है बैठना। इस तरह उपनिषद् से भाव है श्रद्धा भाव से नज़दीक बैठना। वास्तव में उपनिषद् एक ऐसा ज्ञान है जो एक गुरु अपने पास (समीप) बैठे हुए शिष्य को गुप्त रूप से प्रदान करता है। उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है क्योंकि इनको वेदों का अंतिम भाग समझा जाता है। वेदांत से भाव अंतिम ज्ञान है। इसका भाव यह है कि उपनिषदों में ऐसा ज्ञान दिया गया है जिस के बाद और अन्य कोई ज्ञान नहीं है। उपनिषदों की रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 550 ई० पू० से 100 ई०पू० के मध्य की गई। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। इनमें से ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मुंडुक्य, तैतरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, ब्रहदआरण्यक, श्वेताश्वतर नामों के उपनिषदों को सब से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। छांदोगय एवं ब्रहदआरण्यक नामक उपनिषदों की रचना सबसे पहले हुई थी। इनकी रचना 550 ई० पू० से 450 ई० पू० के मध्य हुई। उपनिषदों की मुख्य शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं—

1. आत्मा का स्वरूप (Nature of Self)-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। आत्मा नित भी है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता।

2. ब्रह्म का स्वरूप (Nature of the Absolute)-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उस के ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

3. आत्मा और ब्रह्म की अभेदता (Identity of Self and the Absolute)-उपनिषदों में, ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं किया। वे इनको एक ही मूल तत्त्व समझते थे। इस कारण वे उपनिषदों में बहुत बार आत्मा की जगह ब्रह्म और ब्रह्म शब्द की जगह आत्मा का प्रयोग करते हैं। भेद केवल शब्दों का है परंतु अर्थ अथवा तत्त्व का भेद नहीं है। जगत् का मूल तत्त्व एक ही है। उसी को कभी आत्मा और कभी ब्रह्म कहा जाता है। जैसे कोई नदी सागर में मिलकर एक हो जाती है ठीक उसी तरह आत्मा परमात्मा में मिलकर एक हो जाती है। क्योंकि आत्मा और ब्रह्म एक ही है इस लिए उनमें भेद नहीं किया जा सकता। संक्षेप में एक बूंद में सागर और सागर में बूंद को देखना ही उपनिषदक दर्शन है।

4. सृष्टि की रचना (Creation of the World)-उपनिषदों में सृष्टि की रचना संबंधी अनेक वर्णन मिलते हैं। इन में बताया गया है कि ब्रह्म ने सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना से पहले ब्रह्म अपने आप में मौजूद था। फिर ब्रह्म ने सोचा कि वह अनेक रूपों में प्रगट हो जाये। परिणामस्वरूप उसने तेज़ पैदा किया। उत्पन्न होने वाले तेज़ ने भी संकल्प किया कि मैं अनेक रूपों वाला हो जाऊँ। फलस्वरूप उसने जल की सृजना की। जल ने अनेक जीव जंतु और अन्न को पैदा किया। इस तरह सृष्टि की रचना आरंभ हुई।

5. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)–उपनिषद् कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उस द्वारा किये गये कर्मों का फल ज़रूर भुगतना पड़ता है। जैसे कर्म हमने पिछले जन्म में किये हैं वैसा फल हमें इस जीवन में प्राप्त होगा। इस जन्म में किये गये कर्मों का फल हमें अगले जीवन में प्राप्त होगा। इसलिए हमारे जीवन के सुख अथवा दुःख हमारे किये गये कर्मों पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए हमें सदा शुभ कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए और पाप कर्मों से दूर रहना चाहिए। मनुष्य अपने बुरे कर्मों के कारण परमात्मा से बिछड़ा रहता है और वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आता रहता है।

6. नैतिक गुण (Moral Virtues)-उपनिषदों में मनुष्यों के नैतिक गुणों पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इन गुणों को अपना कर मनुष्य इस भवसागर से पार हो सकता है। ये गुण हैं—

  • सदा सच बोलो
  • सभी जीवों से प्यार करो।
  • दूसरों के दुःखों को अपना दुःख समझें।
  • अहंकार, लालच और बुरी इच्छाओं से कोसों दूर रहो।
  • चोरी और ठगी आदि न करो।
  • धर्म का पालन करो।
  • वेदों के अध्ययन, शिक्षा, देवताओं और पितरों की ओर लापरवाही न दिखाओ।
  • लोक कल्याण की ओर लापरवाही का प्रयोग न करो।
  • अध्यापक का पूरा आदर करो।

7. माया (Maya) उपनिषदों में पहली बार माया के सिद्धाँत पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस जगत् और उसके पदार्थों को माया कहा गया है। अज्ञानी पुरुष जगत् के आकर्षक पदार्थों के पीछे दौड़ते हैं। इनको प्राप्त करने के उद्देश्य से वे बुरे से बुरा ढंग अपनाने से भी नहीं डरते। इस माया के कारण उस की बुद्धि पर पर्दा पड़ा रहता है और वह हमेशा जन्म-मरण के चक्रों में फिरता रहता है। ज्ञानी पुरुष माया के रहस्य को समझते हैं नतीजे के तौर पर वह ज़हर रूपी माया से प्यार नहीं करते। ऐसे व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

8. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष मनुष्य के ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है जिस पर पहुँच कर मनुष्य सब कुछ जान लेता है और सब कुछ पा लेता है। मोक्ष के आनंद के आगे संसार के सभी आनंद घटिया हैं। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष केवल ज्ञान के मार्ग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एस० एन० सेन का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषदों में बड़े गहरे दार्शनिक विचार दिये गये हैं और जो बाद में दर्शन के विकास का मूल आधार बने।”2

2. “The Upanishads are rich in deep philosophical content and are the bed-rock on which all the latter philosophical development rests.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p.4.

प्रश्न 3.
उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म से भाव और स्वरूप का वर्णन करो। (Explain the meaning and nature of Self and the Absolute.)
अथवा
आत्मा और ब्रह्म के मध्य क्या संबंध है ? व्याख्या करो। (What is the relationship between Self and the Absolute ? Explain.)
उत्तर-
उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के संबंध में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। आत्मा क्या है ? ब्रह्म से क्या भाव है ? इन दोनों का स्वरूप क्या है और उन दोनों के मध्य क्या संबंध हैं इस संबंध में संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

(क) आत्मा का स्वरूप (Nature of Self)-
उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत ज्यादा प्रयोग किया गया है क्योंकि इसे संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सब तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। आत्मा के स्वरूप को उपनिषदों में अग्रलिखित ढंगों से प्रकट किया गया है—

  1. आत्मा निश्चित सत्ता है (Self is certain Being) उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। इस लिए इस को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह स्वयं सिद्ध है। इस को सभी भौतिक और अभौतिक तत्त्वों का आधार माना गया है। कोई भी अनुभव आत्मा के बिना नहीं हो सकता परंतु वह अनुभव कर्ता नहीं है। वह स्वयं अनुभव अतीत है भाव ज्ञाता ज्ञात नहीं। वह तो समूचे अनुभव का साक्षी है।
  2. आत्मा नित्य है (Self is Permanent)-आत्मा नित्य है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता। यह सारी मानसिक क्रियाओं से दूर है इसलिए उस पर सांसारिक परिवर्तनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में यह परिवर्तन की सृजना करती है परंतु उससे अतीत रहती है। इस तरह आत्मा की नित्यता से इंकार नहीं किया जा सकता।
  3. पाँच कोषों का सिद्धांत (The Doctrine of Five Layers)-आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए तैतरीय उपनिषद् में पाँच कोषों का सिद्धांत पेश किया गया है। ये पाँच कोष हैं—
    • अन्नमयी कोष—यह अचेतन और निर्जीव पदार्थ है। यह भौतिक स्तर पर आता है।
    • प्राणमयी कोष-यह जीवन स्तर पर आता है। इस में सारी वनस्पति और पशु शामिल है।
    • मनोमयी कोष-यह चेतना का स्तर है। यह जीवन का उद्देश्य है । जीवन चेतना तक पहुँच कर खुश होता है।
    • विज्ञानमयी कोष-यह आत्म चेतन का स्तर है। इस में चेतना अपने अंदर तार्किक बुद्धि का विकास करती है।
    • आनंदमयी कोष-यह आत्मा का वास्तविक स्तर है।
      इस में अनेकता और भेद की भावना नष्ट हो जाती है। पहले चारों कोष इस आनंद में लीन हो जाते हैं जो उनके विकास की अंतिम मंज़िल है। इस तरह पाँच कोष सिद्धांत यह सिद्ध करता है कि आत्मा शुद्ध चेतन आनंद स्वरूप है।
  4. चार अवस्थायें (The Four Stages)–मांडूक्य उपनिषद् आत्मा के असली स्वरूप को समझाने के लिए चेतना के आधार पर आत्मा की चार अवस्थाओं का विश्लेषण करता है। चार अवस्थायें ये हैं—
    • जागृत अवस्था-इस में मन इंद्रियों के सहारे जगत् की वस्तुओं का आनंद अनुभव करता है।
    • स्वप्न अवस्था-इस में चेतना अपने अंदर से ही अनेक तरह के चित्रों (प्रतिबिंबों) के रूप में प्रकट होती है।
    • सुंसप्ति अवस्था-यह गहरी नींद की अवस्था है। इस में अनुभव किये आनंद को वास्तविक नहीं माना जा सकता।
    • तुरीय अवस्था-यह धर्म अवस्था है। इसमें अज्ञान नष्ट हो जाता है। आत्मा जिस आनंदमयी अवस्था में पहुँचती है उसका वर्णन करना असंभव है।

(ख) ब्रह्म का स्वरूप (Nature of the Absolute)
‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा के एक धातु “बृह” से निकला है जिस का अर्थ है उगना, बढ़ना और फूट निकलना। इस से यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उस की शक्तियाँ असीम हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उस को सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सभी गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उसके ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है। ब्रह्म के स्वरूप का विश्लेषण निम्नलिखित ढंग के अनुसार किया जा सकता है—

  1. ब्रह्म सर्व रूप है (Absolute is Qualified Essence)-उपनिषदों में ऋषियों ने अनेक स्थानों पर ब्रह्म को सर्वरूप बताया है। मुंडक उपनिषद् में ब्रह्म के स्वरूप के बारे में कहा गया है कि ब्रह्म ही हमारे सामने, पीछे, दक्षिण-उत्तर, पश्चिम-पूर्व, ऊपर तथा नीचे है। ब्रह्म ही विश्व है। वृहद्-आरण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि पहले ब्रह्म ही था और जब उस ने अपने स्वरूप को रूपमान किया तो वह सर्वरूप हो गया। छांदोग्य उपनिषद् में आता है कि ब्रह्म सभी कारवाइयों, सभी इच्छाओं, सभी गंधों और सभी स्वादों को चखता हुआ सब तक पहुँचता है। भाव यह कि ब्रह्म सब कुछ है।

2. ब्रह्म निर्गुण स्वरूप है (Absolute is Attributeless Essence)-उपनिषदों में ब्रह्म को निर्गुण स्वरूप भी बताया गया है। उसका कोई भी रूप, रंग, आकार आदि नहीं है। इसी कारण उसको न देखा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है। मुंडक उपनिषद् में ब्रह्म को न देखने योग्य, न ग्रहण करने योग्य और बिना गोत्र, आँखों, कान, हाथ, पैर आदि वाला बताया गया है। शंकर का कहना है कि ब्रह्म जगत् का कारण तो है परंतु यह जगत् में परिवर्तित नहीं होता। वह इस परिवर्तन का आधार है। क्योंकि ब्रह्म वर्णनातीत है इस लिए उस के लिए “नेति, नेति” (अंत नहीं, अंत नहीं) शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

3. ब्रह्म जगत् का कारण है (Absolute is the Cause of World) उपनिषदों में ब्रह्म को जगत् का मूल कारण बताया गया है। तैतरीय उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म वह है जिस से सभी वस्तुओं की उत्पत्ति होती है और जिस के आधार पर वे सभी अस्तित्व में रहती हैं और अंत में जिस के अंदर फिर समा जाती हैं। छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्म को ‘तजलॉन’ कहा गया है जिस का अर्थ है जगत् का जन्म ब्रह्म से होता है, उस के सहारे रहता है और अंत में उस में लीन हो जाता है। इस का भाव यह है कि ब्रह्म में से जगत् की अभिव्यक्ति हुई है और इस अभिव्यक्ति का निमित्त और उपादान कारण ब्रह्म ही है।

4. ब्रह्म प्रकाश का स्रोत है (Absolute is the Source of Lights)-उपनिषदों में ब्रह्म को सारे प्रकाश का स्रोत माना गया है। सूर्य, चाँद, वारे आदि ब्रह्म के प्रकाश के अंश के साथ ही प्रकाश देते हैं। ब्रह्म प्रकाश को भौतिक प्रकाश का रूप नहीं समझना चाहिए क्योंकि भौतिक प्रकाश को आँखें देख सकती हैं परंतु ब्रह्म प्रकाश को केवल योग शक्ति के द्वारा देखा जा सकता है। ब्रह्म का यह अध्यातम प्रकाश संसार की प्रत्येक वस्तु में मौजूद है।

5. ब्रह्म सत्य है (Absolute is Existence)-उपनिषदों में ब्रह्म को पूर्ण सत्य का रूप माना गया है। दर्शन में सत्य से भाव अस्तित्व से है। ब्रह्म सर्व अस्तित्व का आधार है। इस कारण जहाँ भी अस्तित्व मौजूद है वह ब्रह्म के कारण ही होता है। ब्रह्म अपनी सत्ता के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं बल्कि वह संसार के सभी जीवों और तत्त्वों की सत्ता का आधार माना जाता है। परिणामस्वरूप ब्रह्म को सत्य स्वरूप माना जाता है।

6. ब्रह्म आनंद है (Absolute is Bliss)-उपनिषदों में ब्रह्म को आनंदमयी भी माना गया है। यहाँ यह याद रखने योग्य है कि ब्रह्म का यह आनंद संसार की खुशियों जैसा नहीं होता यह आनंद सागर की भाँति अनंत और अथाह होता है। ब्रह्म के आनंद पर ही संसार के सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। इसी कारण ही सारे जीव जीते हैं। प्रत्येक जीवन अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस आनंद को महसूस करता है। अंत में सारे जीव इस आनंद में लीन हो जाते हैं। ब्रह्म के इस आनंद का कोई अंत नहीं है क्योंकि वह पूर्ण आनंद स्वरूप है।

आत्मा और ब्रह्म की अभेदता (Identity of Self and the Absolute)
उपनिषदों में ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं किया। वे इनको एक ही मूल तत्त्व समझते थे। इस कारण वे उपनिषदों में बहुत बार आत्मा शब्द के स्थान पर ब्रह्म और ब्रह्म शब्द के स्थान पर आत्मा का प्रयोग करते हैं। भेद केवल शब्दों का है परंतु अर्थ अथवा तत्त्व का भेद नहीं है। जगत् का मूल तत्त्व एक ही है। उसको कभी आत्मा और कभी ब्रह्म कहा जाता है। जैसे कोई नदी सागर में मिलकर एक हो जाती है। ठीक उसी तरह आत्मा परमात्मा में मिलकर एक हो जाती है। क्योंकि आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप एक ही है इस लिए उनमें भेद नहीं किया जा सकता। संक्षेप में एक बूंद में सागर और सागर में बूंद को देखना ही उपनिषदक दर्शन है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 4.
भगवद्गीता की मुख्य शिक्षाओं का संक्षेप में वर्णन करो। (Give a brief account of the main teachings of Bhagvadgita.)
अथवा
भगवद्गीता का मुख्य संदेश क्या है ? स्पष्ट करें।
(Explain the basic teachings of Bhagvadgita.)
अथवा
कर्मयोग के बारे में विस्तृत चर्चा करो।
(Discuss in detail the Karama Yoga.)
उत्तर-
भगवद्गीता महाभारत का एक हिस्सा है। इस को गीता के नाम से अधिक जाना जाता है। इस में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले दिया था। उपनिषदों में दी गई विचारधारा आम लोगों की समझ से बाहर थी। गीता में दिये गये विचार जनसाधारण पर जादुई प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि गीता आज भी हिंदुओं में हरमन प्यारी है। गीता की मुख्य शिक्षाओं का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. परमात्मा (God)-गीता. में परमात्मा को सृष्टि का निर्माता बताया गया है। वह एक है। वह सर्वव्यापक है और हर जीव तथा वस्तु में मौजूद है। परंतु यही सब जीवों का सृजनहार, रक्षक और विनाशक है। परमात्मा ही ज्ञान, सत्य, सुख-दुःख, हिंसा, अहिंसा, निडर, खुशी, गमी, प्रसिद्धि और अनादर आदि का मूल है। गीता के दसवें अध्याय में कहा गया है “मैं सब का आरंभ हूँ। सब की उत्पत्ति मेरे से ही है। यह जानते हुए पूर्ण विश्वास रखने वाले बुद्धिमान व्यक्ति मेरी पूजा करते हैं ।” परमात्मा अमर है। वह जन्म और मृत्यु से रहित है। वह सब से महान् है।

2. आत्मा (Atma)—गीता के अनुसार शरीर आत्मा नहीं है। जन्म-मृत्यु का संबंध शरीरों के साथ है, आत्मा के साथ नहीं। आत्मा सदैव रहने वाला अविनाशी तत्त्व है। परंतु जल, वायु, अस्त्र-शस्त्र आदि का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह न कभी अस्तित्व में आता है और न ही उसका अंत होता है। शरीर के मरने पर भी यह नहीं मरता। जिस तरह मनुष्य अपने पुराने और फटे हुए कपड़े उतार देता है और नये कपड़े पहन लेता है ठीक उसी तरह ही यह आत्मा पुराने शरीरों को छोड़ देती है और नया शरीर धारण कर लेती है।

3. कर्मयोग (Karamayoga)-कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उस के फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म-जन्मांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उस को अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सब से ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

4. भक्तियोग (Bhaktiyoga)-भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है।

  • प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  • स्वार्थ भक्ति-ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  • ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  • निर्गुण भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  • सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  • कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है।
  • श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए हैं जो कम पढ़े लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

5. ज्ञानयोग (Jnanayoga)-भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में से ज्ञानयोग को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति न ही सच्चा कर्मयोगी हो सकता है और न ही सच्चा भक्त हो सकता है। मानव जीवन की प्राप्ति के बाद जो जीव अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह कर्मों के चक्र से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुई बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 5.
मानव जाति के कल्याण के कारण भगवद्गीता में दर्शाये गये तीनों मार्गों के बारे आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the three paths shown in the Bhagvadgita for the benefit of mankind ?)
अथवा
भगवद्गीता के दर्शाए गए तीन योग कौन से हैं ? चर्चा करें।
(Which are the three Yogas mentioned in the Bhagvad Gita ? Discuss.)
अथवा
भगवद्गीता में कितने योग दर्शाए गए हैं ? विस्तार सहित वर्णन करें। (How many Yogas are referred to in the Bhagvadgita ? Discuss in detail.)
उत्तर-
भगवद्गीता अथवा गीता हिंदुओं का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। इस में मानव के जीवन की प्रत्येक समस्या का हल सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। गीता मुक्ति के लिए कोई एक जीवन मार्ग नहीं बताता। इस का कथन है कि अगर मनुष्य के स्वभाव अलग-अलग हैं, तो उसको अलग-अलग मार्गों के द्वारा ही अपने उच्चतम उद्देश्य पर पहुँचाना होगा। ये तीन मार्ग हैं-कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। मनुष्य अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार ही अपने जीवन का मार्ग चुनते हैं।

1. कर्मयोग (Karamayoga)-कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उस के फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म-जन्मांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उस को अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सब से ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

2. भक्तियोग (Bhaktiyoga)-भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है।

  • प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  • स्वार्थ भक्ति-ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  • ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  • निर्गुण भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  • सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  • कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है।
  • श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए हैं जो कम पढ़े लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

3. ज्ञानयोग (Jnanayoga)-भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में से ज्ञानयोग को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति न ही सच्चा कर्मयोगी हो सकता है और न ही सच्चा भक्त हो सकता है। मानव जीवन की प्राप्ति के बाद जो जीव अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह कर्मों के चक्र से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुई बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
भगवद्गीता के निष्काम कर्म बारे आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Nishkama Karma of Bhagvadgita ?)
उत्तर-
कर्मयोग (Karamayoga)-कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उस के फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म-जन्मांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उस को अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सब से ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

प्रश्न 7.
भगवद्गीता में अंकित उपदेश किसने किसे दिया था ? गीता के तीन योगों में से भक्ति योग के बारे में चर्चा करें।
(Who gave the lesson as contained in the Bhagvadgita and to whom ? Of the three Yogas in the Gita, write about the Bhakti Yoga.)
अथवा
भगवद्गीता में दर्शाए तीन योग कौन-से हैं ? भक्ति योग के बारे में चर्चा करें।
(Which are three Yogas mentioned in the Bhagvadgita ? Discuss Bhakti Yoga.)
उत्तर-
भगवद्गीता में अंकित उपदेश भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।
भक्तियोग (Bhaktiyoga)-भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है।

  1. प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  2. स्वार्थ भक्ति-ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  3. ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  4. निर्गुण भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  5. सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  6. कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है।
  7. श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए हैं जो कम पढ़े लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

प्रश्न 8.
धर्म शास्त्रों से आप क्या समझते हैं ? मुख्य धर्म शास्त्रों पर एक नोट लिखें।
(What do you mean by Dharma Shastras ? Write a note on the main Dharma Shastras.)
अथवा
धर्म शास्त्रों में किन विषयों को छुआ गया है ? वर्णन करो।
(Which subjects have been touched in Dharma Shastras ? Explain.)
अथवा
धर्म शास्त्र से क्या भाव है ? किसी एक धर्म शास्त्र का वर्णन करें। (What is Dharma Shastra ? Explain any one of the Dharma Shastra.)
अथवा
धर्म शास्त्रों के महत्त्व का वर्णन करो।
(Explain the importance of Dharma Shastras.)
अथवा
शास्त्र से क्या भाव है ? किसी एक हिंदू शास्त्र की जानकारी दें।
[What is Shastra ? Give brief description of any Hindu scripture (Shastras).]
अथवा
किसी एक धर्म शास्त्र को आधार बनाकर शास्त्र साहित्य के बारे में जानकारी दें।
(Describe the Shastra, literature on the basis of any one Shastra.)
अथवा
हिंदू शास्त्रों बारे जानकारी दें। [Write a brief note on Hindu Scriptures (Shastras).]
अथवा
शास्त्रों के मुख्य लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the main features of Shastras.)
अथवा
शास्त्रों के आध्यात्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the spiritual importance of Shastras.)
अथवा
धर्म शास्त्रों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Dharma Shastras.)
उत्तर-
धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं । इनको स्मृति भी कहा जाता है। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन धर्म शास्त्रों के रचनाकाल के बारे इतिहासकारों में मतभेद हैं। आम सुझाव यह है कि इनकी रचना पहली सदी ई० पू० से पाँचवीं सदी ई० पू० के मध्य हई। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गये हैं। इनमें केवल विष्णु स्मृति गद्य रूप में लिखी गई है जबकि बाकी के तीनों धर्म शास्त्र कविता के रूप में लिखे गये हैं। इन धर्म शास्त्रों में प्राचीन कालीन भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत है। प्रमुख धर्मशास्त्रों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:—

1. मनु स्मृति (Manu Smriti)—मनु स्मृति को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस की रचना मनु ने की थी। मनु को संसार का पहला कानूनदाता माना जाता है। उसने अपनी रचना में धर्म की उत्पत्ति और उसके स्रोतों के बारे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है। इस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य अंकित किये गये हैं। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और शूद्रों को सब से नीच समझा जाता है। इस में मानव जीवन के चार आश्रमों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों और महत्त्व के बारे बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की गई है। इस में मनु ने राजाओं को कौन से नियमों की पालना करनी चाहिए के बारे भी जानकारी दी है। उस अनुसार राजा को प्रशासन प्रबंध चलाने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन करना चाहिए। राजा को स्थानिक प्रबंध में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए।

मनु का कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों और बुजुर्गों के सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उनके नाराज़ होने पर भी हमें गुस्से में नहीं आना चाहिए। क्योंकि हम उन के ऋण को चुका नहीं सकते। जो व्यक्ति इन का निरादर करता है उस को 100 पन जुर्माना किया जाये। मनु के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और सम्पत्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए। उनके विचारों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। उनको स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए। वह बाल विवाह के पक्ष में था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का विरोध किया। मनु के अनुसार लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस अनुसार दुराचारी और पापी व्यक्तियों को नर्क में अनेक कष्टों को सहन करना पड़ेगा। वह जुए के घोर विरोधी थे। उनके अनुसार सरकार के द्वारा वस्तुओं की कीमतें निर्धारित की जानी चाहिए। इन विषयों के अतिरिक्त मनु ने अपनी रचना में दान, योग, तप, पुनर्जन्म, मोक्ष के बारे में भी जानकारी प्रदान की है।

2. याज्ञवल्कय स्मृति (Yajnavalkya Smriti)-याज्ञवल्कय स्मृति चाहे मनु स्मृति के मुकाबले संक्षेप है परंतु वह अनेक पक्षों से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। इस में दिया गया वर्णन नियमबद्ध है और भाषा प्रवाहमयी है। इस का रचनाकाल 100 ई० पू० से 300 ई० के मध्य माना जाता है। याज्ञवल्कय की स्मृति तीन अध्यायों में बाँटी गई है। पहले अध्याय में गर्भ धारण करने से लेकर विवाह तक के संस्कार, पत्नी के कर्त्तव्य, चार वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, यज्ञ, दान के नियमों, श्राद्ध के नियमों और उन्हें करवाने से प्राप्त फल, राजा और उसके मंत्रियों के लिए निर्धारित योग्यतायें, न्याय व्यवस्था और अपराधियों के लिए सज़ायें और कर व्यवस्था आदि का वर्णन है। दूसरे अध्याय में धर्म शास्त्र और अर्थ शास्त्र में अंतर, संपत्ति के स्वामित्व संबंधी, दास, जुए, चोरी, बलात्कार, सीमावाद संबंधी आदि के नियमों की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय में मनुष्य के अंतिम संस्कार, शोक काल, शुद्धि के साधन, आत्मा, मोक्ष मार्ग, पापियों, योगियों, आत्म ज्ञान के साधनों, नरक, प्रायश्चित के उद्देश्य, मदिरापान और जीव हत्या आदि विषयों के बारे प्रकाश डाला गया है।

याज्ञवल्कय की स्मृति और मन की स्मृति के मध्य कुछ बातों पर मतभेद था। मनु ने जहाँ ब्राह्मण को शूद्र की लड़की के साथ विवाह करने की आज्ञा दी है वहाँ याज्ञवल्कय इस के विरोधी थे। मनु ने नियोग की निंदा की है परंतु याज्ञवल्कय इस के पक्ष में थे। मनु का कहना था कि विधवाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं होना चाहिए जबकि याज्ञवल्कय इसके पूरी तरह पक्ष में था। मनु जुए के सख्त विरुद्ध थे जबकि याज्ञवल्कय इस को बुरा नहीं समझता था। वह इसको सरकार के नियंत्रण में ला कर माल प्राप्त करने के पक्ष में था। याज्ञवल्कय ने अपनी स्मृति में शारीरिक विज्ञान और चिकित्सा संबंधी बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की है।

3. विष्णु स्मृति (Vishnu Smriti)-इस स्मृति कीचना 100 ई० से 300 ई० के मध्य की गई थी। यह गद्य रूप में लिखी गई थी। इस में कुछ श्लोक मनु और याज्ञवल्कय स्मृतियों में से लिये गये हैं। विष्णु स्मृति में आर्यव्रत का क्षेत्र मनु स्मृति के मुकाबले अधिक विस्तारपूर्वक माना है। इस में लगभग सारा भारत शामिल है। इस से सिद्ध होता है कि विष्णु स्मृति की रचना के समय आर्य सारे भारत में बिखर गये थे। राजा प्रशासन की धुरी होता था। अपने राज्य का विस्तार करना और प्रजा की रक्षा करना उसके प्रमुख कार्य समझे जाते थे। राजा प्रशासन प्रबंध को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से एक मंत्रिपरिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति का मुख्य आधार उनकी योग्यता और राज्य के प्रति वफादारी थी। राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता था। प्रशासन की सब से छोटी इकाई को ग्राम (गाँव) कहते थे। प्रजा को निष्पक्ष न्याय देना राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य समझा जाता था। विष्णु स्मृति में अपराधों की किस्मों और उनको मिलने वाली सज़ाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
मनु स्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मणों पर उनकी समाज में सर्वोच्च स्थिति के कारण कर नहीं लगाया जाना चाहिए परंतु विष्णु स्मृति इस के पक्ष में थी। विष्णु स्मृति जुए के विरुद्ध थी और इसको समाज पर एक घोर कलंक समझती थी। यह समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था और आश्रम प्रथा में विश्वास रखती थी। शूद्र भी संन्यासी होते थे जबकि मनु स्मृति के अनुसार वे संन्यास धारण नहीं कर सकते थे। इस काल में स्त्रियों की दशा पहले से बदत्तर (बुरी) हो गई थी। इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस समय समाज में सती प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया था। विष्णु स्मृति में लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। उनको मलेच्छों से न बोलने के लिए भी कहा गया है। विष्णु स्मृति में यव, माषा, स्वर्ण, निषक, किश्णाल आदि सिक्कों का वर्णन भी मिलता है। इस से पता चलता है कि उस समय व्यापार न केवल वस्तु-विनिमय बल्कि सिक्कों से भी किया किया जाता था।

4. नारद स्मृति (Narda Smriti)-इस स्मृति की रचना 100 ई० से 400 ई० के मध्य की गई थी। इस स्मृति में भी कुछ श्लोक मनु स्मृति से लिये गये हैं परंतु इस की अनेक विशेषतायें अपनी हैं। राज्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित सूचना देने के लिए राजा की ओर से गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। कुल, श्रेणी और गण जनहित संस्थायें थीं। ये संस्थायें अपने नियम बनाती थीं। राजा उन के आंतरिक मामलों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। नारद स्मृति में राज्य के न्याय प्रबंध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। राजा को राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके निर्णय अंतिम होते थे। यदि किसी चोर को न पकड़ा जा सकता तो चोरी हुए सामान का मूल्य राजा को अपने खज़ाने से देना पड़ता है। चोर को शरण देना या चोरी का सामान खरीदने वाले को भी सज़ा का बराबर हकदार माना जाता था। अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ायें निर्धारित की गई हैं। निर्दोष सिद्ध करने के लिए सात प्रकार की परीक्षाओं का वर्णन किया गया है।

नारद जुआखोरी को सरकार के नियंत्रण के नीचे लाने के पक्ष में थे ताकि राज्य को उससे कुछ आय प्राप्त हो सके। वह विधवा को अपने पति की संपत्ति दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का समर्थन किया। उसने समाज में प्रचलित 15 किस्मों के दासों का वर्णन किया है। इनका मुख्य कार्य उपरोक्त तीन जातियों की सेवा करना था। उनको संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। व्यापार में साझेदारी की प्रथा थी और लाभ तथा हानि सांझेदारों द्वारा लगाई गई पूंजी के हिसाब से बाँटा जाता था। नारद ने दीनार, पन और स्वर्ण नामी सिक्कों का वर्णन किया है। उसने विद्यार्थियों या शिल्पियों की सिखलाई के लिए भी कुछ नियम निर्धारित किये थे। उनको अपने स्वामी की कार्यशाला में जाकर काम सीखना पड़ता था। वे अपने निर्धारित शिक्षाकाल से पहले अपने स्वामी को छोड़ नहीं सकते थे। ऐसा करने वाले शिल्पी को भारी दंड दिया जाता था।

ऊपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि धर्म शास्त्रों में हिंदुओं के विभिन्न कानूनों और रीति-रिवाजों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इनकी बहुत महत्ता है। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“धर्म शास्त्रों ने जिनको स्मृतियाँ भी कहा जाता है, हिंदुओं के जीवन में पिछले दो हज़ार वर्षों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि वेदों को धर्म का अंतिम स्त्रोत समझा जाता है परंतु व्यवहार में सारे भारत के हिंदू अपने धार्मिक कर्तव्यों और रस्मों के लिए स्मृति ग्रंथों की ओर देखते हैं। उनको हिंदू कानून और सामाजिक रीति-रिवाजों का सब से भरोसेयोग्य स्त्रोत भी समझा जाता है।”3

3. “The Dharma Sastras, also called Smritis, have played a very important part in Hindu life during the last two thousand years. Although the Vedas are regarded as the ultimate sources of Dharma, in practice it is the Smriti works to which the Hindus all over India turn for the real exposition of religious duties and usages. They are also regarded as the only authentic sources of Hindu law and social customs.” Dr. R. C. Majumdar, The History and Culture of the Indian People (Bombay : 1953) Vol. 2, pp. 254-55.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 9.
मनु स्मृति से क्या भाव है ? इस में किन विषयों का वर्णन किया गया है ?
(What is ineant by Manu Smriti ? What subjects have been discussed in it ?)
अथवा
मनु स्मृति के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करो।
(What do you know about Manu Smriti ? Explain.)
उत्तर-
धर्म शास्त्रों में मनु स्मृति की गणना प्रथम स्थान पर की जाती है। इस को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस का रचना काल 200 ई० पू० से 200 ई० के मध्य माना जाता है। इस में 27,000 श्लोक हैं और इस के 12 अध्याय हैं। यह संस्कृत में कविता रूप में लिखी गई है। मनु को संसार का पहला कानूनदाता समझा जाता है। अपनी कृति में मनु ने अपने युग में भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। प्रमुख नियमों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:—

1. धर्म के चार स्रोत (Four Sources of Dharma)-मनु की भारतीय संस्कृति को सब से बड़ी देन धर्म के चार स्त्रोतों के बारे जानकारी देना है। उस के अनुसार वेद धर्म का पहला स्रोत है। ये विश्व के सारे धर्मों को मूल तत्त्व प्रदान करते हैं। दूसरा स्रोत स्मृति है। स्मृति से भाव है वे बातें जिन को याद शक्ति के सहारे लिखा गया है। स्मृति श्रुति से भिन्न होती है। श्रुति में वे बातें सम्मिलित हैं जिन को सीधा परमात्मा से सुना गया है। स्मृति में धर्म शास्त्र और श्रुति में वेद आते हैं। वह व्यक्ति जो श्रुति और स्मृति में दिये गये कानूनों का पालन करता है, वह इस जीवन में प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है और अगले जीवन में भी अथाह खुशी का भागी बनता है। तीसरा स्रोत मान्यता प्राप्त रीति-रिवाज हैं परंतु ये शिष्टाचार पर आधारित होने चाहिए। चौथा स्रोत वह है जिस को आत्मा माने परंतु वह भी शिष्टाचार पर आधारित होना चाहिए।

2. प्रशासनिक नियम (Administrative Laws)-मनु स्मृति में राजा का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। वह राज्य का मुखिया होता था। उस को देवता स्वरूप समझा जाता था। उसका मुख्य कर्त्तव्य धर्म और प्रजा की रक्षा करना था। प्रजा के लिए उसकी आज्ञा का पालन करना ज़रूरी था। राजा निरंकुश नहीं होता था। वह प्रशासन को अच्छे ढंग (तरीके) से चलाने के उद्देश्य से 7 अथवा

3. मंत्रियों की एक मंत्रि-परिषद् का गठन करता था। इसका अध्यक्ष मुख्यमात्य होता था जो आम तौर पर ब्राह्मण होता था। इन मंत्रियों की योग्यतायें और कर्तव्यों के बारे, युद्ध के नियमों के बारे, राजा के द्वारा लगाये जाने वाले प्रजा पर करों के बारे विशेष तौर पर प्रकाश डाला गया है। मनु ब्राह्मणों पर कर लगाये जाने के पक्ष में नहीं था। अपंग व्यक्तियों से भी कर नहीं लिये जाते थे। प्रशासन की सुविधा के लिए राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता था। प्रशासन की सब से छोटी इकाई ग्राम (गाँव) थी जिस का अध्यक्ष ग्रामिणी होता था। स्थानिक प्रशासन में राजा बहुत कम हस्तक्षेप करता था।

4. न्याय व्यवस्था (Judicial Administration)-मन ने कानून के क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान दिया। वह पहला व्यक्ति था जिसने दीवानी और फौजदारी कानूनों में अंतर स्पष्ट किया। प्रजा को निष्पक्ष न्याय देना वह राजा का पहला कर्त्तव्य समझता था। राजा अपने राज्य में अनेक अदालतें स्थापित करता था। कुल, श्रेणी तथा गणों को भी अपनी अदालतें स्थापित करने का अधिकार प्राप्त था। न्याय से संतुष्ट न होने पर कोई भी फरियादी राजा से फरियाद कर सकता था। मनु ने 18 किस्मों के अपराधों का वर्णन किया है। जैसे ऋण वापस न देना, वचन भंग, विश्वासघात, चोरी, डाका, मानहानि, उत्तराधिकारी संबंधी, पर-स्त्री गमन, वेतन न देना, सीमा संबंधी विवाद आदि। भिन्न-भिन्न अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न सज़ायें निर्धारित की गई हैं। मनु ब्राह्मणों को मृत्युदंड देने के पक्ष में नहीं था। अपराधियों से अपराध कबूल करवाने के उद्देश्य से उनको कई बार अग्नि परीक्षा अथवा जल परीक्षा देनी पडती थी। संक्षेप में आधुनिक कानून की कोई ऐसी शाखा नहीं थी जो मनु की दृष्टि से ओझल रह गई हो।

वर्ण व्यवस्था (Varna System)—मनु समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था के पक्ष में था। उसके अनुसार ब्राह्मण परमात्मा के मुँह से, क्षत्रिय बाजुओं से, वैश्य पेट से और शूद्र पैरों से पैदा हुए। ब्राह्मण को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। उसके प्रमुख काम वेद पढ़ना और पढ़ाना, दूसरों के लाभ के लिए यज्ञ करना, दान देना और qलेना, न्यायाधीश और राजा के प्रमुख सलाहकार का काम करना आदि थे। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करें। क्षत्रिय का काम लोगों की रक्षा करना था। इस के अतिरिक्त उनको वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना और उपहार देने के लिए कहा गया है। वैश्य का मुख्य काम वाणिज्य-व्यापार, खेतीबाड़ी और पशु पालन था। वह भी वेदों का अध्ययन करते थे। शूद्रों का काम ऊपर वाली तीन जातियों की बड़ी नम्रता के साथ सेवा करना था। उनको वेदों का अध्ययन करने की आज्ञा नहीं थी।

5. चार आश्रम (The Four Ashramas)—मनु ने मनुष्य के जीवन को 100 वर्षों का मान कर उसको 25-25 वर्षों के चार आश्रमों में बाँटा। इनके नाम थे-ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संयास आश्रम। ये सारे आश्रम ऊपर लिखित तीन जातियों के लिए निर्धारित किये गये थे। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य था। इस में बच्चा 5 वर्ष से लेकर 25 वर्षों तक विद्या प्राप्त करता था। गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य विवाह करके संतान उत्पन्न करता था। वह अपने परिवार के पालन-पोषण का पूरा ख्याल रखता था। परिवार में पुत्र का होना ज़रूरी समझा जाता था। वाणप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य अपना घर बाहर छोड़ कर जंगलों में चला जाता था और तपस्वी जीवन व्यतीत करने का यत्न करता था। चौथा और अंतिम आश्रम संयास का था। यह 75 से 100 वर्षों तक चलता था। इस में मनुष्य एक संयासी की भाँति जीवन व्यतीत करता था और मुक्ति प्राप्त करने का यत्न करता था।

6. स्त्रियों संबंधी विचार (Views about Women)-मनु स्त्रियों को स्वतंत्रता दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसका विचार था कि अविवाहित लड़की का उसके पिता द्वारा, विवाहित लड़की का उसके पति द्वारा और पति की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों द्वारा ख्याल रखा जाना चाहिए। उस का कहना था कि स्त्रियाँ पुरुष को गलत रास्ते पर लगाती हैं। वह स्त्रियों की बातों पर विश्वास किये जाने के पक्ष में नहीं थे। मनु ने बाल विवाह का समर्थन किया। उसका कहना था कि लड़कियों की 8 से 12 वर्ष की आयु तक शादी कर देनी चाहिए। मनु ने विधवा विवाह और नियोग प्रथा का विरोध किया। नियोग प्रथा के अनुसार कोई विधवा पुत्र पैदा करने के लिए अपने किसी देवर से विवाह करवा सकती थी। मनु स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिये जाने के पक्ष में नहीं था। वह केवल ‘स्त्री धन’ जो दहेज के रूप में अपने साथ लाई थी प्राप्त कर सकती थी। स्त्रियों पर लगाये गये इन प्रतिबंधों के बावजूद मनु ने गृहणी के रूप में स्त्रियों का बड़ा सम्मान किया है। उसका कहना था, “जहाँ स्त्रियों का सत्कार किया जाता है वहाँ परमात्मा निवास करता है जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं किया जाता वहाँ सारे धार्मिक कार्य बेकार हो जाते हैं।”

7. कुछ अन्य विचार (Some other Views)—मनु ने लोगों को शुद्ध और पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए कहा। उसका कहना था कि दुराचारी मनुष्य हमेशा दुःखी रहता है। वह झूठ बोलने वालों को महाचोर समझता था। ऐसे पापी सीधा नरक में जाते हैं। उसका कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापक और बुजुर्गों का हमेशा सत्कार करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता उसको दंड दिया जाना चाहिए। मनु ने वाणिज्य व्यापार के नियमों संबंधी भी प्रकाश डाला है। ए० ए० मैकडोनल के शब्दों में,
“किसी और ग्रंथ ने सारे भारत में सदियों तक इतनी प्रसिद्धि और प्रमाण प्राप्त नहीं किये, जितने मानव धर्म शास्त्र ने जिसको मनु स्मृति भी कहा जाता था।”4

4. “No work has enjoyed so great a reputation and authority throughout India for centuries as the Manava Dharmasastra, also called the Manu Smriti.” A. A. Macdonell, Political, Legal and Military History of India, ed. by H.S. Bhatia (New Delhi : 1984) Vol. 1, p. 153.

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(क) पुराण
(ख) उपनिषद्
(ग) शास्त्र।
[Write short notes on any two of the following
(a) Puranas
(b) Upanishads
(c) Shastras.]
उत्तर-
पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। मिथिहास वह कथा कहानियाँ होती हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं होता परंतु वे लोगों में बहुत प्रचलित होती हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा होता था। ये भाग हैं-
(1) सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
(2) प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
(3) वंश-इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
(4) मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
(5) वंशानचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था। यह बात यहाँ याद रखने योग्य है कि हमें मूल पुराण उपलब्ध नहीं हैं। ये पुराण हमें आजकल जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं उनमें यह जरूरी नहीं कि उनमें दिया गया वर्णन इस बाँट अनुसार हो। पुराणों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है :—

  1. ब्रह्म पुराण (The Brahman Purana)-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं। इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण, आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण (The Padma Purana)-यह सबसे विशाल पुराण है। इस में लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, भूमि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इन के अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है। इस में अनेकों मिथिहासिक कथायें भी दर्ज हैं।
  3. विष्णु पुराण (The Vishnu Purana)-इस पुराण में 23,000 श्लोक दिये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि विष्णु ही सर्वोच्च देवता है। उसने ही संसार की रचना की और इसका पालनहार है। इसमें दी गई कथाओं में प्रह्लाद और ध्रुव की कथायें प्रसिद्ध हैं। इस में इस संसार और स्वर्ग के लोगों की अनेकों विचित्र बातों का भी वर्णन है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है। पाँचवें और अंतिम खंड में कृष्ण की अनेक अलौकिक लीलाओं की चर्चा की गई है।
  4. वायु पुराण (The Vayu Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक हैं । इस में शिव की महिमा के साथ संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इस लिए इस को शिव पुराण भी कहते हैं। इस में अनेक वंशों का वर्णन किया गया है। प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण इन की बहुत ऐतिहासिक महत्ता है। इसमें दिया गया भूगौलिक वर्णन भी बड़ा लाभदायक है।
  5. भगवद् पुराण (The Bhagavata Purana)-विष्णु देवता के साथ संबंधित पुराणों में भगवद् पुराण सब से अधिक लोकप्रिय है। इस में कृष्ण के जीवन से संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध और साक्ष्य दर्शन के संस्थापक कपिल को विष्णु का अवतार बताया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इस पुराण का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
  6.  नारद पुराण (The Narada Purana)-इस पुराण में 25,000 श्लोक दिये गये हैं। यह विष्ण भक्ति से संबंधित पुराण है। इस में प्राचीन कालीन भारत में प्रचलित विद्या के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इस में वंशों का विवरण नहीं मिलता।
  7. मारकंडेय पुराण (The Markandeya Purana)-इस पुराण में 900 श्लोक दिये गये हैं। इस में वैदिक देवताओं इंद्र, सूर्य और अग्नि आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया गया है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है।
  8. अग्नि पुराण (The Agni Purana)-इस पुराण में 15,400 श्लोक दिये गये हैं। एक परंपरा के अनुसार इस पुराण को अग्नि देवता ने आप ऋषि विशिष्ट को सुनाया था। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे युद्धनीति, यज्ञ विधि, ज्योतिष, भूगोल, राजनीति, कानून, छंद शास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, व्रत, दान, श्राद्ध और विवाह आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। निस्संदेह यह पुराण एक विश्वकोष की तरह
  9. भविष्य पुराण (The Bhavishya Purana)—इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में ब्रह्म, विष्ण, शिव और सूर्य देवताओं से संबंधित अनेक कथायें दी गई हैं। इस में अनेक प्राचीन राजवंशों और ऋषियों का भी वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक कर्मकांडों की भी चर्चा की गई है।
  10. ब्रह्मावैव्रत पुराण (The Brahmavaivarta Purana)—इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण में ब्रह्म को इस संसार का रचयिता कहा गया है। इस में कृष्ण के जीवन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में राधा का वर्णन भी आता है। इस में गणेश को कृष्ण का अवतार कहा गया है।
  11. लिंग पुराण (The Linga Purana)-इस पुराण में 11,000 श्लोक दिये गये हैं। यह शिव धर्म से संबंधित पुराण है। इस में शिव अवतारों, व्रतों तथा तीर्थों का वर्णन किया गया है। इस में लिंग की शिव के रूप में उपासना का उपदेश दिया गया है।
  12. वराह पुराण (The Varaha Purana)-इस में 10,700 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की तरह वराह अवतार के रूप में पूजा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस में शिव, दुर्गा और गणेश से संबंधित वर्णन . भी दिया गया है।
  13. स्कंद पुराण (The Skanda Purana)—यह एक विशाल पुराण था। इस में 51,000 श्लोकों का वर्णन किया गया था। यह पुराण आजकल उपलब्ध नहीं है। इस के बारे में जानकारी अन्य ग्रंथों में दी गई उदाहरणों से प्राप्त होती है। इस पुराण में मुख्य तौर पर शिव की पूजा के बारे बताया गया है। इस के अतिरिक्त इस में भारत के अनेक तीर्थ स्थानों और मंदिरों के बारे बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है।
  14. वामन पुराण (The Vamana Purana)इस पुराण में 10,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण के अधिकतर भाग में शिव, विष्णु और गणेश आदि देवताओं की पूजा के बारे वर्णन किया गया है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का भी वर्णन मिलता है।
  15. कूर्म पुराण (The Kurma Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु के कुर्म अवतार की पूजा का वर्णन है। इस में अनेक मिथिहासिक कथाओं का वर्णन भी मिलता है।
  16. मत्स्य पुराण (The Matsya Purana)-इस पुराण में 14,000 श्लोक दिये गये हैं। यह पुराण मत्स्य (मछली) तथा मनु के मध्य एक वार्तालाप है। जब इस संसार का विनाश हुआ तब इस मछली ने मनु की सुरक्षा की थी। इस में अनेक प्रसिद्ध राजवंशों का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त इस में अनेक मेलों और तीर्थ स्थानों का भी वर्णन है।
  17. गरुढ़ पुराण (The Garuda Purana)-इस पुराण में 18,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में विष्णु की पूजा से संबंधित अनेक विधियों का वर्णन है। इस में यज्ञ विद्या, छंद शास्त्र, ज्योतिष, व्याकरण, खगोल विज्ञान, शारीरिक विज्ञान और भूत-प्रेतों के बारे जानकारी दी गई है। इस में अंतिम संस्कार संबंधी, सती संबंधी और पितर श्राद्धों के संबंध में विस्तावपूर्वक जानकारी दी गई है।
  18. ब्रह्माण्ड पुराण (The Brahmanda Purana)—इस पुराण में 12,000 श्लोक दिये गये हैं। इस पुराण को ब्रह्मा ने पढ़ के सुनाया था। इस में अनेक राजवंशों और तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है।

भारतीय दर्शन प्रणाली का वास्तविक आरंभ उपनिषदों से माना जाता है। उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें दुनिया के सबसे ऊँचे आध्यात्मिक ज्ञान के मोती पिरोये हुए हैं। इन मोतियों की चमक से मनुष्य का आंतरिक अंधेरा दूर हो जाता है और ऐसा प्रकाश होता है जिस के आगे सूर्य का प्रकाश भी कम हो जाता है। यदि उपनिषदों को भारतीय दर्शन का मूल स्रोत कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी। उपनिषद् तीन शब्दों के मेल से बना है। ‘उप’ से भाव है नज़दीक, ‘नि’ से भाव है श्रद्धा और ‘षद्’ से भाव है बैठना। इस तरह उपनिषद् से भाव है श्रद्धा भाव से नज़दीक बैठना। वास्तव में उपनिषद् एक ऐसा ज्ञान है जो एक गुरु अपने पास (समीप) बैठे हुए शिष्य को गुप्त रूप से प्रदान करता है। उपनिषदों को वेदांत भी कहा जाता है क्योंकि इनको वेदों का अंतिम भाग समझा जाता है। वेदांत से भाव अंतिम ज्ञान है। इसका भाव यह है कि उपनिषदों में ऐसा ज्ञान दिया गया है जिस के बाद और अन्य कोई ज्ञान नहीं है। उपनिषदों की रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 550 ई० पू० से 100 ई०पू० के मध्य की गई। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। इनमें से ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मुंडुक्य, तैतरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, ब्रहदआरण्यक, श्वेताश्वतर नामों के उपनिषदों को सब से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। छांदोगय एवं ब्रहदआरण्यक नामक उपनिषदों की रचना सबसे पहले हुई थी। इनकी रचना 550 ई० पू० से 450 ई० पू० के मध्य हुई। उपनिषदों की मुख्य शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं—

  1. आत्मा का स्वरूप (Nature of Self)-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। आत्मा नित भी है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता।

2. ब्रह्म का स्वरूप (Nature of the Absolute)-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उस के ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

3. आत्मा और ब्रह्म की अभेदता (Identity of Self and the Absolute)-उपनिषदों में, ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं किया। वे इनको एक ही मूल तत्त्व समझते थे। इस कारण वे उपनिषदों में बहुत बार आत्मा की जगह ब्रह्म और ब्रह्म शब्द की जगह आत्मा का प्रयोग करते हैं। भेद केवल शब्दों का है परंतु अर्थ अथवा तत्त्व का भेद नहीं है। जगत् का मूल तत्त्व एक ही है। उसी को कभी आत्मा और कभी ब्रह्म कहा जाता है। जैसे कोई नदी सागर में मिलकर एक हो जाती है ठीक उसी तरह आत्मा परमात्मा में मिलकर एक हो जाती है। क्योंकि आत्मा और ब्रह्म एक ही है इस लिए उनमें भेद नहीं किया जा सकता। संक्षेप में एक बूंद में सागर और सागर में बूंद को देखना ही उपनिषदक दर्शन है।

4. सृष्टि की रचना (Creation of the World)-उपनिषदों में सृष्टि की रचना संबंधी अनेक वर्णन मिलते हैं। इन में बताया गया है कि ब्रह्म ने सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना से पहले ब्रह्म अपने आप में मौजूद था। फिर ब्रह्म ने सोचा कि वह अनेक रूपों में प्रगट हो जाये। परिणामस्वरूप उसने तेज़ पैदा किया। उत्पन्न होने वाले तेज़ ने भी संकल्प किया कि मैं अनेक रूपों वाला हो जाऊँ। फलस्वरूप उसने जल की सृजना की। जल ने अनेक जीव जंतु और अन्न को पैदा किया। इस तरह सृष्टि की रचना आरंभ हुई।

5. कर्म सिद्धांत में विश्वास (Belief in Karma Theory)–उपनिषद् कर्म सिद्धांत में विश्वास रखते थे। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उस द्वारा किये गये कर्मों का फल ज़रूर भुगतना पड़ता है। जैसे कर्म हमने पिछले जन्म में किये हैं वैसा फल हमें इस जीवन में प्राप्त होगा। इस जन्म में किये गये कर्मों का फल हमें अगले जीवन में प्राप्त होगा। इसलिए हमारे जीवन के सुख अथवा दुःख हमारे किये गये कर्मों पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए हमें सदा शुभ कर्मों की ओर ध्यान देना चाहिए और पाप कर्मों से दूर रहना चाहिए। मनुष्य अपने बुरे कर्मों के कारण परमात्मा से बिछड़ा रहता है और वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आता रहता है।

6. नैतिक गुण (Moral Virtues)-उपनिषदों में मनुष्यों के नैतिक गुणों पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इन गुणों को अपना कर मनुष्य इस भवसागर से पार हो सकता है। ये गुण हैं—

  • सदा सच बोलो
  • सभी जीवों से प्यार करो।
  • दूसरों के दुःखों को अपना दुःख समझें।
  • अहंकार, लालच और बुरी इच्छाओं से कोसों दूर रहो।
  • चोरी और ठगी आदि न करो।
  • धर्म का पालन करो।
  • वेदों के अध्ययन, शिक्षा, देवताओं और पितरों की ओर लापरवाही न दिखाओ।
  • लोक कल्याण की ओर लापरवाही का प्रयोग न करो।
  • अध्यापक का पूरा आदर करो।

7. माया (Maya) उपनिषदों में पहली बार माया के सिद्धाँत पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस जगत् और उसके पदार्थों को माया कहा गया है। अज्ञानी पुरुष जगत् के आकर्षक पदार्थों के पीछे दौड़ते हैं। इनको प्राप्त करने के उद्देश्य से वे बुरे से बुरा ढंग अपनाने से भी नहीं डरते। इस माया के कारण उस की बुद्धि पर पर्दा पड़ा रहता है और वह हमेशा जन्म-मरण के चक्रों में फिरता रहता है। ज्ञानी पुरुष माया के रहस्य को समझते हैं नतीजे के तौर पर वह ज़हर रूपी माया से प्यार नहीं करते। ऐसे व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

8. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष मनुष्य के ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है जिस पर पहुँच कर मनुष्य सब कुछ जान लेता है और सब कुछ पा लेता है। मोक्ष के आनंद के आगे संसार के सभी आनंद घटिया हैं। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष केवल ज्ञान के मार्ग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एस० एन० सेन का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषदों में बड़े गहरे दार्शनिक विचार दिये गये हैं और जो बाद में दर्शन के विकास का मूल आधार बने।”2

2. “The Upanishads are rich in deep philosophical content and are the bed-rock on which all the latter philosophical development rests.” Dr. S.N. Sen, Ancient Indian History and Civilization (New Delhi : 1988) p.4.

धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं । इनको स्मृति भी कहा जाता है। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन धर्म शास्त्रों के रचनाकाल के बारे इतिहासकारों में मतभेद हैं। आम सुझाव यह है कि इनकी रचना पहली सदी ई० पू० से पाँचवीं सदी ई० पू० के मध्य हई। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गये हैं। इनमें केवल विष्णु स्मृति गद्य रूप में लिखी गई है जबकि बाकी के तीनों धर्म शास्त्र कविता के रूप में लिखे गये हैं। इन धर्म शास्त्रों में प्राचीन कालीन भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत है। प्रमुख धर्मशास्त्रों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:—

1. मनु स्मृति (Manu Smriti)—मनु स्मृति को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस की रचना मनु ने की थी। मनु को संसार का पहला कानूनदाता माना जाता है। उसने अपनी रचना में धर्म की उत्पत्ति और उसके स्रोतों के बारे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है। इस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य अंकित किये गये हैं। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और शूद्रों को सब से नीच समझा जाता है। इस में मानव जीवन के चार आश्रमों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों और महत्त्व के बारे बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की गई है। इस में मनु ने राजाओं को कौन से नियमों की पालना करनी चाहिए के बारे भी जानकारी दी है। उस अनुसार राजा को प्रशासन प्रबंध चलाने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन करना चाहिए। राजा को स्थानिक प्रबंध में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए।

मनु का कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों और बुजुर्गों के सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उनके नाराज़ होने पर भी हमें गुस्से में नहीं आना चाहिए। क्योंकि हम उन के ऋण को चुका नहीं सकते। जो व्यक्ति इन का निरादर करता है उस को 100 पन जुर्माना किया जाये। मनु के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और सम्पत्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए। उनके विचारों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। उनको स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए। वह बाल विवाह के पक्ष में था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का विरोध किया। मनु के अनुसार लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस अनुसार दुराचारी और पापी व्यक्तियों को नर्क में अनेक कष्टों को सहन करना पड़ेगा। वह जुए के घोर विरोधी थे। उनके अनुसार सरकार के द्वारा वस्तुओं की कीमतें निर्धारित की जानी चाहिए। इन विषयों के अतिरिक्त मनु ने अपनी रचना में दान, योग, तप, पुनर्जन्म, मोक्ष के बारे में भी जानकारी प्रदान की है।

2. याज्ञवल्कय स्मृति (Yajnavalkya Smriti)-याज्ञवल्कय स्मृति चाहे मनु स्मृति के मुकाबले संक्षेप है परंतु वह अनेक पक्षों से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। इस में दिया गया वर्णन नियमबद्ध है और भाषा प्रवाहमयी है। इस का रचनाकाल 100 ई० पू० से 300 ई० के मध्य माना जाता है। याज्ञवल्कय की स्मृति तीन अध्यायों में बाँटी गई है। पहले अध्याय में गर्भ धारण करने से लेकर विवाह तक के संस्कार, पत्नी के कर्त्तव्य, चार वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, यज्ञ, दान के नियमों, श्राद्ध के नियमों और उन्हें करवाने से प्राप्त फल, राजा और उसके मंत्रियों के लिए निर्धारित योग्यतायें, न्याय व्यवस्था और अपराधियों के लिए सज़ायें और कर व्यवस्था आदि का वर्णन है। दूसरे अध्याय में धर्म शास्त्र और अर्थ शास्त्र में अंतर, संपत्ति के स्वामित्व संबंधी, दास, जुए, चोरी, बलात्कार, सीमावाद संबंधी आदि के नियमों की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय में मनुष्य के अंतिम संस्कार, शोक काल, शुद्धि के साधन, आत्मा, मोक्ष मार्ग, पापियों, योगियों, आत्म ज्ञान के साधनों, नरक, प्रायश्चित के उद्देश्य, मदिरापान और जीव हत्या आदि विषयों के बारे प्रकाश डाला गया है।

याज्ञवल्कय की स्मृति और मन की स्मृति के मध्य कुछ बातों पर मतभेद था। मनु ने जहाँ ब्राह्मण को शूद्र की लड़की के साथ विवाह करने की आज्ञा दी है वहाँ याज्ञवल्कय इस के विरोधी थे। मनु ने नियोग की निंदा की है परंतु याज्ञवल्कय इस के पक्ष में थे। मनु का कहना था कि विधवाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं होना चाहिए जबकि याज्ञवल्कय इसके पूरी तरह पक्ष में था। मनु जुए के सख्त विरुद्ध थे जबकि याज्ञवल्कय इस को बुरा नहीं समझता था। वह इसको सरकार के नियंत्रण में ला कर माल प्राप्त करने के पक्ष में था। याज्ञवल्कय ने अपनी स्मृति में शारीरिक विज्ञान और चिकित्सा संबंधी बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

3. विष्णु स्मृति (Vishnu Smriti)-इस स्मृति कीचना 100 ई० से 300 ई० के मध्य की गई थी। यह गद्य रूप में लिखी गई थी। इस में कुछ श्लोक मनु और याज्ञवल्कय स्मृतियों में से लिये गये हैं। विष्णु स्मृति में आर्यव्रत का क्षेत्र मनु स्मृति के मुकाबले अधिक विस्तारपूर्वक माना है। इस में लगभग सारा भारत शामिल है। इस से सिद्ध होता है कि विष्णु स्मृति की रचना के समय आर्य सारे भारत में बिखर गये थे। राजा प्रशासन की धुरी होता था। अपने राज्य का विस्तार करना और प्रजा की रक्षा करना उसके प्रमुख कार्य समझे जाते थे। राजा प्रशासन प्रबंध को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से एक मंत्रिपरिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति का मुख्य आधार उनकी योग्यता और राज्य के प्रति वफादारी थी। राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता था।

प्रशासन की सब से छोटी इकाई को ग्राम (गाँव) कहते थे। प्रजा को निष्पक्ष न्याय देना राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य समझा जाता था। विष्णु स्मृति में अपराधों की किस्मों और उनको मिलने वाली सज़ाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
मनु स्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मणों पर उनकी समाज में सर्वोच्च स्थिति के कारण कर नहीं लगाया जाना चाहिए परंतु विष्णु स्मृति इस के पक्ष में थी। विष्णु स्मृति जुए के विरुद्ध थी और इसको समाज पर एक घोर कलंक समझती थी। यह समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था और आश्रम प्रथा में विश्वास रखती थी। शूद्र भी संन्यासी होते थे जबकि मनु स्मृति के अनुसार वे संन्यास धारण नहीं कर सकते थे। इस काल में स्त्रियों की दशा पहले से बदत्तर (बुरी) हो गई थी। इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उस समय समाज में सती प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया था। विष्णु स्मृति में लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। उनको मलेच्छों से न बोलने के लिए भी कहा गया है। विष्णु स्मृति में यव, माषा, स्वर्ण, निषक, किश्णाल आदि सिक्कों का वर्णन भी मिलता है। इस से पता चलता है कि उस समय व्यापार न केवल वस्तु-विनिमय बल्कि सिक्कों से भी किया किया जाता था।

4. नारद स्मृति (Narda Smriti)-इस स्मृति की रचना 100 ई० से 400 ई० के मध्य की गई थी। इस स्मृति में भी कुछ श्लोक मनु स्मृति से लिये गये हैं परंतु इस की अनेक विशेषतायें अपनी हैं। राज्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित सूचना देने के लिए राजा की ओर से गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। कुल, श्रेणी और गण जनहित संस्थायें थीं। ये संस्थायें अपने नियम बनाती थीं। राजा उन के आंतरिक मामलों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। नारद स्मृति में राज्य के न्याय प्रबंध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। राजा को राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके निर्णय अंतिम होते थे। यदि किसी चोर को न पकड़ा जा सकता तो चोरी हुए सामान का मूल्य राजा को अपने खज़ाने से देना पड़ता है। चोर को शरण देना या चोरी का सामान खरीदने वाले को भी सज़ा का बराबर हकदार माना जाता था। अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ायें निर्धारित की गई हैं। निर्दोष सिद्ध करने के लिए सात प्रकार की परीक्षाओं का वर्णन किया गया है।

नारद जुआखोरी को सरकार के नियंत्रण के नीचे लाने के पक्ष में थे ताकि राज्य को उससे कुछ आय प्राप्त हो सके। वह विधवा को अपने पति की संपत्ति दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का समर्थन किया। उसने समाज में प्रचलित 15 किस्मों के दासों का वर्णन किया है। इनका मुख्य कार्य उपरोक्त तीन जातियों की सेवा करना था। उनको संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। व्यापार में साझेदारी की प्रथा थी और लाभ तथा हानि सांझेदारों द्वारा लगाई गई पूंजी के हिसाब से बाँटा जाता था। नारद ने दीनार, पन और स्वर्ण नामी सिक्कों का वर्णन किया है। उसने विद्यार्थियों या शिल्पियों की सिखलाई के लिए भी कुछ नियम निर्धारित किये थे। उनको अपने स्वामी की कार्यशाला में जाकर काम सीखना पड़ता था। वे अपने निर्धारित शिक्षाकाल से पहले अपने स्वामी को छोड़ नहीं सकते थे। ऐसा करने वाले शिल्पी को भारी दंड दिया जाता था।

ऊपरलिखित विवरण से स्पष्ट है कि धर्म शास्त्रों में हिंदुओं के विभिन्न कानूनों और रीति-रिवाजों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इनकी बहुत महत्ता है। डॉक्टर आर० सी० मजूमदार का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“धर्म शास्त्रों ने जिनको स्मृतियाँ भी कहा जाता है, हिंदुओं के जीवन में पिछले दो हज़ार वर्षों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि वेदों को धर्म का अंतिम स्त्रोत समझा जाता है परंतु व्यवहार में सारे भारत के हिंदू अपने धार्मिक कर्तव्यों और रस्मों के लिए स्मृति ग्रंथों की ओर देखते हैं। उनको हिंदू कानून और सामाजिक रीति-रिवाजों का सब से भरोसेयोग्य स्त्रोत भी समझा जाता है।”3

3. “The Dharma Sastras, also called Smritis, have played a very important part in Hindu life during the last two thousand years. Although the Vedas are regarded as the ultimate sources of Dharma, in practice it is the Smriti works to which the Hindus all over India turn for the real exposition of religious duties and usages. They are also regarded as the only authentic sources of Hindu law and social customs.” Dr. R. C. Majumdar, The History and Culture of the Indian People (Bombay : 1953) Vol. 2, pp. 254-55.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुराण साहित्य के प्रमुख लक्षण संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe the salient features of Purana Literature in brief but meaningful.)
अथवा
पुराणों से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Puranas ?)
उत्तर-पुराण हिंदू धर्म के पुरातन ग्रंथ हैं। पुराण से भाव है प्राचीन। ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। समयसमय पर इनमें तबदीलियाँ की जाती रहीं और नये अध्यायों को जोड़ा जाता रहा। इस तरह पुराणों की रचना अनेक लेखकों द्वारा की गई है। पुराणों को “पाँचवां वेद” कहा जाता था और शूद्रों को इनको पढ़ने की आज्ञा दी गई थी। पुराणों की कुल संख्या 18 है। यह पुराण तीन भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 6 पुराण आते हैं और यह शिव, वैष्णव और ब्रह्म पुराण कहलाते हैं।

प्रश्न 2.
पुराणों में क्या वर्णन किया गया है ? (What is discussed in the Puranas ?)
उत्तर-
पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटे गए हैं। ये भाग हैं—

  1. सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
  2. प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
  3. वंश- इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
  4. मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
  5. वंशानुचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था।

प्रश्न 3.
दो प्रसिद्ध पुराणों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दें। (Describe in brief but meaningfully the two popular Puranas.)
उत्तर-

  1. ब्रह्म पुराण-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं। इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण-यह सबसे विशाल पुराण है। इसमें लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है।

प्रश्न 4.
पुराण साहित्य के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Purana Literature.)
उत्तर-
पुराण भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र पेश करते हैं। आज के हिंदू धर्म में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वह इन पुराणों की ही देन हैं। इन पुराणों में हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं की पूजा विधियों, व्रतों, श्राद्धों, जन्म, विवाह और मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों के बारे भरपूर प्रकाश डाला गया है। मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद इन पुराणों की ही देन है। इन पुराणों ने भारत में पितर पूजा के रिवाज को अधिक प्रचलित किया। पुराणों में दिये गये प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक पक्ष से काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है।

प्रश्न 5.
उपनिषदों से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Upanishads ?)
उत्तर-
उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 550 ई० पू० से 100 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है।

प्रश्न 6.
उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप क्या है ? . (What is the nature of Self and Absolute according to the Upanishads ?)
उत्तर-

  1. आत्मा का स्वरूप-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्त्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है।
  2. ब्रह्म का स्वरूप-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है, जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है।

प्रश्न 7.
उपनिषदों के अनुसार ‘ब्रह्म’ निराकार है। प्रकाश डालिए। (According to Upanishads ‘Brahma’ is formless. Elucidate.)
अथवा
उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म जगत का कारक है। चर्चा कीजिए। (According to Upanishads Brahma is the Creator of Universe. Discuss.)
hods ?
उत्तर-
ब्रह्मा को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उसके ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

प्रश्न 8.
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to the Upanishads ?)
उत्तर-
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख-सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।

प्रश्न 9.
भगवद्गीता पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Bhagvadgita.)
उत्तर-
भगवद्गीता हिंदुओं का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। यह महाभारत का एक हिस्सा है। इस को गीता के नाम से अधिक जाना जाता है। इस में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले दिया था। गीता में दिये गये विचार जनसाधारण पर जादुई प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि गीता आज भी हिंदुओं में हरमन प्यारी है। इस में मानव के जीवन की प्रत्येक समस्या का हल सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है।

प्रश्न 10.
कर्मयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Karamayoga.)
उत्तर-
कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई

प्रश्न 11.
ज्ञानयोग से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Jnanayoga ?)
उत्तर-
भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुआ बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 12.
धर्म शास्त्र क्या है ? (What are the Dharma Shastras ?)
उत्तर-
धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गए हैं। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत हैं।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 13.
पुराण साहित्य के प्रमुख लक्षण संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe the salient features of Purana Literature in brief but meaningful.)
अथवा
पुराणों से क्या अभिप्राय है ?
(What is meant by Puranas ?)
उत्तर-
पुराण हिंदू धर्म के पुरातन ग्रंथ हैं। पुराण से भाव है प्राचीन। ये संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। ये कब लिखे गये इस का कोई पक्का उत्तर अभी तक नहीं मिला है। ये किसी एक शताब्दी की रचना नहीं है। इनका वर्णन अथर्ववेद, उपनिषदों और महाकाव्यों आदि में आता है। समय-समय पर इनमें तबदीलियाँ की जाती रहीं और नये अध्यायों को जोड़ा जाता रहा। गुप्त काल में पुराणों को अंतिम रूप दिया गया। इस तरह पुराणों की रचना अनेक लेखकों द्वारा की गई है। पुराणों को “पाँचवां वेद” कहा जाता था और शूद्रों को इनको पढ़ने की आज्ञा दी गई थी। पुराणों की कुल संख्या 18 है। यह पुराण तीन भागों में बाँटे गये हैं। प्रत्येक भाग में 6 पुराण आते हैं और यह शिव, वैष्णव और ब्रह्म पुराण कहलाते हैं। इनके भाग इस तरह हैं

1. शिव पुराण—

  • वायु ,
  • लिंग,
  • स्कंद,
  • अग्नि,
  • मत्सय और
  • कूर्म।

2. वैष्णव पुराण—

  • विष्णु ,
  • भगवद् ,
  • नारद,
  • गरुड़,
  • पद्म और
  • वराह।

3. ब्रह्म पुराण—

  • ब्रह्म,
  • ब्रह्मांड,
  • ब्रह्मवैव्रत,
  • मारकंडेय,
  • भविष्य और
  • वामन।

प्रश्न 14.
पुराणों में क्या वर्णन किया गया है ? (What is discussed in the Puranas ?)
उत्तर-
पुराणों में लोगों में प्रचलित वैदिक और अवैदिक धार्मिक विश्वास, मिथिहास और कहानियाँ संकलित हैं। मिथिहास वह कथा कहानियाँ होती हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं होता परंतु वे लोगों में बहुत प्रचलित होती हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा होता था। ये भाग हैं—

  1. सर्ग-इसमें संसार की उत्पत्ति बारे वर्णन किया गया था।
  2. प्रतिसर्ग-इसमें संसार के विकास, नष्ट होने और फिर से उत्पत्ति के बारे वर्णन किया गया था।
  3. वंश-इसमें प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों के वंशों का वर्णन किया गया था।
  4. मनवंतर-इसमें संसार के महायुद्धों और प्रत्येक युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन किया गया था।
  5. वंशानुचित-इसमें प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों के कारनामों का वर्णन किया गया था। यह बात यहाँ याद रखने योग्य है कि हमें मूल पुराण उपलब्ध नहीं हैं । ये पुराण हमें आजकल जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं । यह आवश्यक नहीं है कि उनका विभाजन इसी प्रकार हो।

प्रश्न 15.
किसी पाँच पुराणों का संक्षिप्त वर्णन करो।
(Give a brief account any five Puranas.)
अथवा
चार प्रसिद्ध पुराणों के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण जानकारी दें। (Describe in brief but meaningfully the four popular Puranas.)
उत्तर-

  1. ब्रह्म पुराण-इसको आदि पुराण भी कहा जाता है। इस में 14,000 श्लोक हैं । इस के अधिकाँश भाग में भारत के पवित्र तीर्थ स्थानों का वर्णन किया गया है। इस के अतिरिक्त इस में कृष्ण, राम, सूर्य, पूजा, प्रसिद्ध राजवंशों, पृथ्वी, नरक, विभिन्न जातियों, वर्ण आश्रम व्यवस्था और श्राद्धों आदि का वर्णन दिया गया है।
  2. पद्म पुराण-यह सबसे विशाल पुराण है। इसमें लगभग 55,000 श्लोक दिये गये हैं। इस में सृष्टि खंड, स्वर्ग खंड और पाताल खंड का वर्णन दिया गया है। इसमें विष्णु कथा और राम कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त इस पुराण में अनेक तीर्थ स्थानों और व्रतों का भी वर्णन मिलता है।
  3. विष्णु पुराण-इस पुराण में 23,000 श्लोक दिये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि विष्णु ही सर्वोच्च देवता है। उसने ही संसार की रचना की और पालनहार है। इसमें दी गई कथाओं में प्रह्लाद और ध्रुव की कथायें प्रसिद्ध हैं। इस में इस संसार और स्वर्ग के लोगों की अनेकों विचित्र बातों का भी वर्णन है। इस में कई प्रसिद्ध वंशों का भी वर्णन मिलता है।
  4. वायु पुराण-इस पुराण में 11,000 श्लोक हैं। इस में शिव की महिमा के साथ संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इस लिए इस को शिव पुराण भी कहते हैं। इस में अनेक वंशों का वर्णन किया गया है। प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण इन की बहुत ऐतिहासिक महत्ता है।
  5. भगवद् पुराण-विष्णु देवता के साथ संबंधित पुराणों में भगवद् पुराण सब से अधिक लोकप्रिय है। इस में कृष्ण के जीवन से संबंधित अनेक कथाओं का वर्णन किया गया है। इसमें महात्मा बुद्ध और साक्ष्य दर्शन के संस्थापक कपिल को विष्णु का अवतार बताया गया है। ऐतिहासिक पक्ष से इस पुराण का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

प्रश्न 16.
पुराण साहित्य के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Purana Literature.) .
अथवा
पुराण साहित्य की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ?
(What are the salient features of Purana Literature ?).
अथवा
हिंदू धर्म में पुराणों का बहुत महत्त्व है ? चर्चा कीजिए।
(Puranas are very important in Hinduism. Discuss.)
अथवा
हिंदू धर्म में पुराणों का आध्यात्मिक महत्त्व संक्षिप्त रूप में दर्शाएं। (Show in brief the spiritual importance of Puranas in Hinduism.)
अथवा
पुराण साहित्य की महानता के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of Purana Literature.)
उत्तर-
पुराण भारतीय संस्कृति का व्यापक चित्र पेश करते हैं। आज के हिंदू धर्म में जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं वह इन पुराणों की ही देन हैं। इन पुराणों में हिंदुओं के धार्मिक विश्वासों, देवी-देवताओं की पूजा विधियों, व्रतों, श्राद्धों, जन्म, विवाह और मृत्यु के समय किये जाने वाले संस्कारों के बारे भरपूर प्रकाश डाला गया है। मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद की कल्पना इन पुराणों की ही देन है। इन पुराणों ने भारत में पितर पूजा के रिवाज को अधिक प्रचलित किया। लोगों को दान देने के लिए प्रेरित किया गया। पुराणों में दिये गये प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन ऐतिहासिक पक्ष से काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है। इन में तीर्थ स्थानों और मंदिरों के विवरण से हमें उस समय की कला के बारे महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन के अतिरिक्त ये पुराण प्राचीन कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्था के बारे काफी विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हैं। निस्संदेह यदि पुराणों को भारतीय संस्कृति का विश्वकोष कह दिया जाये तो इस में कोई अतिकथनी नहीं होगी।

प्रश्न 17.
उपनिषदों से क्या अभिप्राय है ? (What do you mean by Upanishads ?)
अथवा
पाँच उपनिषदों के नाम और उनकी महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the name of five Upanishads and their importance.)
अथवा
उपनिषद् साहित्य के बारे में जानकारी दीजिए।
(Give information about Upanishads literature.)
उत्तर-
उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदाँत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहुत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”

प्रश्न 18.
उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म का स्वरूप क्या है ? (What is the nature of Self and Absolute according to the Upanishads ?)
उत्तर-
1. आत्मा का स्वरूप-उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है क्योंकि इसको संपूर्ण ज्ञान का भंडार समझा जाता है। आत्मा सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। यह तत्व ही सारे तत्त्वों का मूल आधार है। यही जीव रूप धारण करके सब के हृदयों में निवास करता है। यही ब्रह्म या परमात्मा है। इसी कारण आत्मा को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। उपनिषदों के अनुसार केवल आत्मा ही एक ऐसी वस्तु है जिस पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता। आत्मा एक निश्चित सत्ता है। आत्मा नित भी है। यह परिवर्तनशील नहीं है। यह स्वयं परिवर्तनशील वस्तुओं का आधार है। इसलिए उसका अपना परिवर्तन नहीं हो सकता।

2. ब्रह्म का स्वरूप-‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है, जिस का अर्थ है उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्म को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उस के ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निसंदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

प्रश्न 19.
उपनिषदों के अनुसार ‘ब्रह्म’ निराकार है। प्रकाश डालिए। (According to Upanishads ‘Brahma’ is formless. Elucidate.)
अथवा
उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म जगत का कारक है। चर्चा कीजिए।
(According to Upanishads Brahma is the Creator of Universe. Discuss.)
उत्तर –
‘ब्रह्म’ शब्द संस्कृत भाषा की एक धातु ‘बृह’ से निकला है जिस का अर्थ उगना और बढ़ना। इससे यह दार्शनिक भाव निकाला जा सकता है कि ब्रह्म वह तत्त्व है जिस से दृष्टिमान जगत् की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा को व्यक्ति और प्रकृति की शक्ति का रूप माना जा सकता है। उसकी शक्तियाँ असीमित (असीम) हैं क्योंकि वह स्वयं असीम है। उसको सर्व रूप और ज्योतियों की ज्योति कहा गया है। वह सब गुणों का आधार होते हुए भी निर्गुण माना गया है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। उसके ज्ञान का शब्दों में वर्णन करना असंभव है। निस्संदेह वह सारे संसार का मूल कारण और आधार है।

प्रश्न 20.
पाँच कोषों के सिद्धांत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Doctrine of five Layers ?)
उत्तर-
आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए तैतरीय उपनिषद् में पाँच कोषों का सिद्धांत पेश किया गया है। ये पाँच कोष हैं—

  1. अन्नमयी कोष-यह अचेतन और निर्जीव पदार्थ है। यह भौतिक स्तर पर आता है।
  2. प्राणमयी कोष-यह जीवन स्तर पर आता है। इस में सारी वनस्पति और पशु शामिल है।
  3. मनोमयी कोष-यह चेतना का स्तर है। यह जीवन का उद्देश्य है। जीवन चेतना तक पहुँच कर खुश होता है।
  4. विज्ञानमयी कोष-यह आत्म चेतन का स्तर है। इस में चेतना अपने अंदर तार्किक बुद्धि का विकास करती है।
  5. आनंदमयी कोष-यह आत्मा का वास्तविक स्तर है। इस में अनेकता और भेद की भावना नष्ट हो जाती है। पहले चारों कोष इस आनंद में लीन हो जाते हैं जो उनके विकास की अंतिम मंज़िल है। इस तरह पाँच कोष सिद्धांत यह सिद्ध करता है कि आत्मा शुद्ध चेतन आनंद स्वरूप है।

प्रश्न 21.
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to the Upanishads ?)
उत्तर-
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य है। कर्म करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। शरीर में कैद आत्मा दुःख और सुख की भागी है। जब तक आत्मा शरीर की कैद में है इस को दुःख सुख से छुटकारा नहीं मिल सकता। अविद्या अथवा अज्ञानता ही मनुष्य के बंधन का प्रमुख कारण है। जब यह अज्ञान नष्ट हो जाता है तो मनुष्य को बंधनों से छुटकारा मिल जाता है और वह मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष मनुष्य के ज्ञान की अंतिम सीढ़ी है जिस पर पहुँच कर मनुष्य सब कुछ जान लेता है और सब कुछ पा लेता है। मोक्ष के आनंद के आगे संसार के सभी आनंद घटिया हैं। उपनिषदों के अनुसार मोक्ष केवल ज्ञान के मार्ग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 22.
कर्मयोग पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
(Write a short note on the Karamayoga.)
उत्तर-
कर्मयोग गीता का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है। कोई भी जीव एक पल के लिए भी बिना कर्म से नहीं रह सकता। जो व्यक्ति इंद्रियों पर काबू पा कर निष्काम कर्म करते हैं, वो कर्मयोगी हैं और जो व्यक्ति इंद्रियों के अधीन हो कर दिखावे के लिए कर्म करते हैं, वे पाखंडी हैं। योग कर्म (यह वो कर्म है जिस में फल की इच्छा नहीं होती) को छोड़कर शेष सभी कर्म बंधन वाले कहे गये हैं। इसलिए गीता में मनुष्य को कर्मयोग करने की प्रेरणा दी गई है। गीता के अनुसार प्रत्येक कर्म का फल ज़रूर निकलता है, जिसको उसे भोगना पड़ता है और यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति कोई कर्म करे और उसके फल से बच जाये। यह एक अटल नियम है। कर्मों के फल जीव को जन्म जमांतर के चक्र में डालते हैं। वह प्रत्येक जन्म में कुछ पिछले फलों को भोग कर दूर करता है और कुछ नये कर्मों के द्वारा फलों को संचित करता है, जो उसको अगले जन्म में ले जाते हैं। कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य को अनेक पदवियों की प्राप्ति होती है। इनमें से सबसे ऊँची पदवी परमपद है जो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। केवल कर्मयोग ही मनुष्य को परमपद तक पहुँचा सकते हैं।

प्रश्न 23.
भक्तियोग का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the Bhaktiyoga.)
उत्तर-
भक्तियोग की गणना गीता के तीन प्रमुख मार्गों में की जाती है। भक्ति कई तरह की होती है—

  1. प्राप्ति भक्ति-यह वह भक्ति है जिस में भक्त अपनी शुद्ध भावना के साथ ईश्वर की शरण में आ जाता है और वह सांसारिक पदार्थों से मोह तोड़ लेता है।
  2. स्वार्थ भक्ति- ज्यादातर संसार में भक्ति स्वार्थ की भावना से की जाती है। इस का कारण यह है कि संसार के दुःखों से तंग आकर कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं ताकि उन्हें दुःखों से छुटकारा मिल सके।
  3. ज्ञान भक्ति-ऐसे भक्त अपने ज्ञान की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और अंत ईश्वर की कृपा से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
  4. निर्गुण भक्ति- यह वह भक्ति है जिस में भक्त ईश्वर के अस्तित्व को सभी जीवों में व्यापक समझ कर उन जीवों की सेवा करता है।
  5. सगुण भक्ति-इस में भक्त शुद्ध मन से अपने ईष्ट देवता की मूर्ति के सामने भक्ति करता है।
  6. कीर्तन भक्ति-इस भक्ति में भक्त ईश्वर के नाम का लगातार कीर्तन करता रहता है ।
  7. श्रवण भक्ति-यह भक्ति उन व्यक्तियों के लिए है जो कम पढ़े-लिखे होते हैं। इस कारण वे शास्त्रों का अध्ययन नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप दूसरों से शास्त्र सुनकर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इन सभी भक्ति रूपों को मुक्ति का साधन समझा जाता है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 24.
ज्ञानयोग से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Jnanayoga ?)
उत्तर-
भगवद्गीता के अनुसार ज्ञान की अग्नि सारे कर्मों के बंधन को भस्म कर देती है। इसी कारण ज्ञान जैसी पवित्र और कोई वस्तु इस जगत् में नहीं है। यह ज्ञान साधारण पदार्थों के ज्ञान तक सीमित नहीं है। इस का वास्तविक संबंध शुद्ध आत्म ज्ञान से है। इसी को ज्ञान योग कहते हैं। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में से ज्ञानयोग को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि आत्म ज्ञान के बिना व्यक्ति न ही सच्चा कर्मयोगी हो सकता है और न ही सच्चा भक्त हो सकता है। मानव जीवन की प्राप्ति के बाद जो जीव अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं करता वह कर्मों के चक्र से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान मुक्ति का एक उत्तम साधन है क्योंकि ज्ञान की अग्नि में कर्म का बीज जल जाता है और जला हुआ बीज पुनर्जन्म के पौधे को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 25.
भगवद्गीता पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Bhagvadgita.)
उत्तर-
भगवद्गीता हिंदुओं का एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ है। यह महाभारत का एक हिस्सा है। इस को गीता के नाम से अधिक जाना जाता है। इस में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता का उपदेश श्री कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले दिया था। उपनिषदों में दी गई विचारधारा आम लोगों की समझ से बाहर थी। गीता में दिये गये विचार जनसाधारण पर जादुई प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि गीता आज भी हिंदुओं में हरमन प्यारी है। इस में मानव के जीवन की प्रत्येक समस्या का हल सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। गीता मुक्ति के लिए कोई एक जीवन मार्ग नहीं बताता। इस का कथन है कि अगर मनुष्य के स्वभाव अलग-अलग हैं, तो उसको अलग-अलग मार्गों के द्वारा ही अपने उच्चतम उद्देश्य पर पहुँचना होगा। ये तीन मार्ग हैं-कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। मनुष्य अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार ही अपने जीवन का मार्ग चुनते हैं।

प्रश्न 26.
धर्म शास्त्र के प्रमुख लक्षण संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Dharma Shastras.)
अथवा
धर्म शास्त्र क्या है?
(What are the Dharma Shastras ?)
अथवा
धर्म शास्त्रों के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Dharma Shastras.)
अथवा
शास्त्र साहित्य के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Shastra Literature.)
अथवा
धर्म शास्त्रों के साहित्यिक महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the literary importance of Dharma Shastras.)
उत्तर-
धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं। इनको स्मृति भी कहा जाता है। इन धर्म शास्त्रों में मनु का मानव धर्म शास्त्र अथवा मनु स्मृति सब से अधिक प्रसिद्ध है। इस के अतिरिक्त याज्ञवलक्य, विष्णु और नारद के द्वारा लिखी गई स्मृतियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इन धर्म शास्त्रों के रचना काल के बारे इतिहासकारों में मतभेद हैं। आम सुझाव यह है कि इनकी रचना पहली सदी ई० पू० से पाँचवीं सदी ई० पू० के मध्य हुई। ये धर्म शास्त्र संस्कृत में लिखे गये हैं। इनमें केवल विष्णु स्मृति गद्य रूप में लिखी गई है जबकि बाकी के तीनों धर्म शास्त्र कविता के रूप में लिखे गये हैं। इन धर्म शास्त्रों में प्राचीन कालीन भारत के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नियमों के बारे बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। परिणामस्वरूप ये धर्म शास्त्र हमारे लिए उस समय के लोगों की दशा जानने के लिए एक बहुमूल्य स्रोत है।

प्रश्न 27.
मनु स्मृति पर संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on the Manu Smriti.)
अथवा
मनु स्मृति के बारे में जानकारी दें। (Give information about Manu Smriti.)
उत्तर-
मनु स्मृति को मानव धर्म शास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस की रचना मनु ने की थी। मनु को संसार का पहला कानूनदाता माना जाता है। उसने अपनी रचना में धर्म की उत्पत्ति और उसके स्रोतों के बारे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान की है। इस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्त्तव्य अंकित किये गये हैं। ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और शूद्रों को सब से नीच समझा जाता है। इस में मानव जीवन के चार आश्रमों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यास आश्रम के कर्तव्यों और महत्त्व के बारे बहुत लाभदायक जानकारी प्रदान की गई है। इस में मनु ने राजाओं को कौन से नियमों की पालना करनी चाहिए के बारे में जानकारी दी है। उस अनुसार राजा को प्रशासन प्रबंध चलाने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन करना चाहिए। राजा को स्थानिक प्रबंध में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए। मनु का कहना था कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों और बुजुर्गों के सत्कार का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उनके नाराज़ होने पर भी हमें गुस्से में नहीं आना चाहिए। क्योंकि हम उन के ऋण को चुका नहीं सकते। जो व्यक्ति इन का निरादर करता है उस को 100 पन जुर्माना किया जाये। मनु के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और संपत्ति का अधिकार नहीं देना चाहिए।

प्रश्न 28.
चार आश्रम से क्या अभिप्राय है ?
(What do you mean by the Four Ashramas ?) .
उत्तर-
मनु ने मनुष्य के जीवन को 100 वर्षों का मान कर उसको 25-25 वर्षों के चार आश्रमों में बाँटा। इनके नाम थे-ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। ये सारे आश्रम ऊपर लिखित तीन जातियों के लिए निर्धारित किये गये थे। पहला आश्रम ब्रह्मचर्य था। इस में बच्चा 5 वर्ष से लेकर 25 वर्षों तक विद्या प्राप्त करता था। गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य विवाह करके संतान उत्पन्न करता था। वह अपने परिवार के पालन-पोषण का पूरा ख्याल रखता था। परिवार में पुत्र का होना जरूरी समझा जाता था। वाणप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्षों तक होता था। इस में मनुष्य अपना घर बाहर छोड़ कर जंगलों में चला जाता था और तपस्वी जीवन व्यतीत करने का यत्न करता था। चौथा और अंतिम आश्रम संन्यास का था। यह 75 से 100 वर्षों तक चलता था। इस में मनुष्य एक संन्यासी की भाँति जीवन व्यतीत करता था और मुक्ति प्राप्त करने का यत्न करता था।

प्रश्न 29.
मनु स्मृति में स्त्रियों संबंधी क्या विचार दिए गए हैं ? (What views are given about women in Manu Smriti ?)
उत्तर-
मनु स्त्रियों को स्वतंत्रता दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसका विचार था कि अविवाहित लड़की का उसके पिता द्वारा, विवाहित लड़की का उसके पति द्वारा और पति की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों द्वारा ख्याल रखा जाना चाहिए। उस का कहना था कि स्त्रियाँ पुरुष को गलत रास्ते पर लगाती हैं। वह स्त्रियों की बातों पर विश्वास किये जाने के पक्ष में नहीं थे। मनु ने बाल विवाह का समर्थन किया। उसका कहना था कि लड़कियों की 8 से 12 वर्ष की आयु तक शादी कर देनी चाहिए। मनु ने विधवा विवाह और नियोग प्रथा का विरोध किया। नियोग प्रथा के अनुसार कोई विधवा पुत्र पैदा करने के लिए अपने किसी देवर से विवाह करवा सकती थी। मनु स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिये जाने के पक्ष में नहीं था। वह केवल ‘स्त्री धन’ जो दहेज के रूप में अपने साथ लाई थी प्राप्त कर सकती थी। स्त्रियों पर लगाये गये इन प्रतिबंधों के बावजूद मनु ने गृहणी के रूप में स्त्रियों का बड़ा सम्मान किया है। उसका कहना था, “जहाँ स्त्रियों का सत्कार किया जाता है वहाँ परमात्मा निवास करता है जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं किया जाता वहाँ सारे धार्मिक कार्य बेकार हो जाते हैं।”

प्रश्न 30.
याज्ञवल्कय स्मृति से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you know about Yajnavalkya Smriti ?)
उत्तर-
याज्ञवल्कय स्मृति चाहे मनु स्मृति के मुकाबले संक्षेप है परंतु वह अनेक पक्षों से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। इस में दिया गया वर्णन नियमबद्ध है और भाषा प्रवाहमयी है। इस का रचनाकाल 100 ई० पू० से 300 ई० के मध्य माना जाता है। याज्ञवल्कय की स्मृति तीन अध्यायों में बाँटी गई है। पहले अध्याय में गर्भ धारण करने से लेकर विवाह तक के संस्कार, पत्नी के कर्त्तव्य, चार वर्णों के अधिकार और कर्त्तव्य, यज्ञ, दान के नियमों ,श्राद्ध के नियमों और उन्हें करवाने से प्राप्त फल, राजा और उसके मंत्रियों के लिए निर्धारित योग्यतायें, न्याय व्यवस्था और अपराधियों के लिए सज़ायें और कर व्यवस्था आदि का वर्णन है। दूसरे अध्याय में धर्म शास्त्र और अर्थ शास्त्र में अंतर, संपत्ति के स्वामित्व संबंधी, दास, जुए, चोरी, बलात्कार, सीमावाद संबंधी आदि के नियमों की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। तीसरे अध्याय में मनुष्य के अंतिम संस्कार, शोक काल, शुद्धि के साधन, आत्मा, मोक्ष मार्ग, पापियों, योगियों, आत्म ज्ञान के साधनों, नरक, प्रायश्चित के उद्देश्य, मदिरापान और जीव हत्या आदि विषयों के बारे प्रकाश डाला गया है।

प्रश्न 31.
विष्णु स्मृति पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Vishnu Smriti.)
उत्तर-
इस स्मृति की रचना 100 ई० से 300 ई० के मध्य की गई थी। यह गद्य रूप में लिखी गई थी। इस में कछ श्लोक मनु और याज्ञवल्कय स्मृतियों में से लिये गये हैं। विष्णु स्मृति में आर्यव्रत का क्षेत्र मनु स्मृति के मुकाबले अधिक विस्तारपूर्वक माना है। इस में लगभग सारा भारत शामिल है। इस से सिद्ध होता है कि विष्णु स्मृति की रचना के समय आर्य सारे भारत में बिखर गये थे। राजा प्रशासन की धुरी होता था। अपने राज्य का विस्तार करना और प्रजा की रक्षा करना उसके प्रमुख कार्य समझे जाते थे। राजा प्रशासन प्रबंध को अच्छे ढंग से चलाने के उद्देश्य से एक मंत्रि परिषद का गठन करता था। मंत्रियों की नियुक्ति का मुख्य आधार उनकी योग्यता और राज्य के प्रति वफादारी थी। विष्णु स्मृति जुए के विरुद्ध थी और इसको समाज पर एक घोर कलंक समझती थी। यह समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था और आश्रम प्रथा में विश्वास रखती थी। इस काल में स्त्रियों की दशा पहले से बदत्तर (बुरी) हो गई। इस का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि उस समय समाज में सती प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया था। विष्णु स्मृति में लोगों को सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बहुत ज़ोर दिया गया है।

प्रश्न 32.
नारद स्मृति के बारे में आप क्या जानते हो? (What do you know about Narda Smriti ?)
उत्तर-
इस स्मृति की रचना 100 ई० से 400 ई० के मध्य की गई थी। इस स्मृति में भी कुछ श्लोक मनु स्मृति से लिये गये हैं परंतु इस की अनेक विशेषतायें अपनी हैं। राज्य में होने वाली घटनाओं से संबंधित सूचना देने के लिए राजा की ओर से गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। कुल, श्रेणी और गण जनहित संस्थायें थीं। ये संस्थायें अपने नियम बनाती थीं। राजा उन के आंतरिक मामलों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। नारद स्मृति में राज्य के न्याय प्रबंध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। राजा को राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके निर्णय अंतिम होते थे। यदि किसी चोर को न पकड़ा जा सकता तो चोरी हुए सामान का मूल्य राजा को अपने खज़ाने से देना पड़ता है। चोर को शरण देना या चोरी का सामान खरीदने वाले को भी सज़ा का बराबर हकदार माना जाता था। अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ायें निर्धारित की गई हैं। निर्दोष सिद्ध करने के लिए सात प्रकार की परीक्षाओं का वर्णन किया गया है। नारद जुआखोरी को सरकार के नियंत्रण के नीचे लाने के पक्ष में थे ताकि राज्य को उससे कुछ आय प्राप्त हो सके। वह विधवा को अपने पति की संपत्ति दिये जाने के पक्ष में नहीं था। उसने विधवा विवाह और नियोग प्रथाओं का समर्थन किया। उसने समाज में प्रचलित 15 किस्मों के दासों का वर्णन किया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. पुराण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-पुराण से अभिप्राय है प्राचीन।

प्रश्न 2. पुराण किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर-संस्कृत।

प्रश्न 3. पाँचवां वेद किसे कहा जाता है ?
उत्तर-पुराणों को।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 4. कुल कितने पुराण हैं ?
अथवा
पुराणों की कुल संख्या बताएँ।
उत्तर-18.

प्रश्न 5. पुराणों को कितने भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-पुराणों को तीन भागों में बाँटा गया है।

प्रश्न 6. पुराणों को कौन-से तीन भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-

  1. शिव पुराण
  2. वैष्णव पुराण
  3. ब्रह्म पुराण।

प्रश्न 7. पुराण कितने माने जाते हैं ? पांच के नाम बताएं।
उत्तर-

  1. पुराण 18 माने जाते हैं।
  2. पांच पुराणों के नाम शिव पुराण, विष्णु पुराण, लिंग पुराण, ब्रह्मण्ड पुराण और पदम पुराण थे।

प्रश्न 8. दो प्रसिद्ध पुराणों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. शिव पुराण
  2. वैष्णव पुराण।

प्रश्न 9. शिव पुराण में शामिल किसी एक पुराण का नाम लिखो।
उत्तर- लिंग पुराण।

प्रश्न 10. वैष्णव पुराण में शामिल किसी एक पुराण का नाम बताओ।
उत्तर-विष्णु पुराण।।

प्रश्न 11. ब्रह्म पुराण में शामिल एक पुराण का नाम बताओ।
उत्तर- ब्रह्मांड पुराण।

प्रश्न 12. प्रत्येक पुराण को कितने भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर- पाँच भागों में।

प्रश्न 13. पुराणों के किस भाग में संसार की उत्पत्ति के बारे में वर्णन किया गया है ?
उत्तर-सर्ग भाग में।

प्रश्न 14. पुराणों के किस भाग को ऐतिहासिक पक्ष से महत्त्वपूर्ण समझा जाता है ?
उत्तर–पाँचवें भाग को।

प्रश्न 15. पुराणों में से कौन-सा पुराण सर्वाधिक प्राचीन है ?
उत्तर-ब्रह्म पुराण।

प्रश्न 16. ब्रह्म पुराण को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-आदि पुराण।।

प्रश्न 17. ब्रह्म पुराण में कितने श्लोक हैं ?
उत्तर-14,000 श्लोक।

प्रश्न 18. अग्नि पुराण और भविष्य पुराण में श्लोकों की गिनती बताओ।
उत्तर-अग्नि पुराण में श्लोकों की संख्या 15,400 तथा भविष्य पुराण में श्लोकों की संख्या 14,000 है।.

प्रश्न 19. कौन-सा पुराण सर्वाधिक विशाल है ?
उत्तर-पदम पुराण।

प्रश्न 20. पदम पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-55,000 श्लोक।

प्रश्न 21. सबसे बड़ा पुराण कौन-सा है और उसमें कितने श्लोक हैं ?
उत्तर- सबसे बड़ा पुराण पदम पुराण तथा उसमें 55,000 श्लोक हैं।

प्रश्न 22. विष्णु पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-23,000 श्लोक।

प्रश्न 23. वायु पुराण को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-शिव पुराण।

प्रश्न 24. भगवद् पुराण का संबंध कौन-से देवता के साथ संबंधित है ?
अथवा
भगवद् पुराण किस देवते से संबंधित है ?
उत्तर- भगवद् पुराण विष्णु देवता के साथ संबंधित है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 25. नारद पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-25,000 श्लोक।

प्रश्न 26. नारद पुराण किस देवता के साथ संबंधित है ?
उत्तर-विष्णु देवता के साथ।

प्रश्न 27. किस पुराण में सबसे कम श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-मारकंडेय पुराण।

प्रश्न 28. मारकंडेय पुराण में कुल कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-900 श्लोक।

प्रश्न 29. मारकंडेय पुराण में वर्णन किए गए किन्हीं दो देवताओं के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. इंद्र
  2. अग्नि।

प्रश्न 30. भविष्य पुराण कौन-से देवताओं के साथ संबंधित है ?
उत्तर-

  1. ब्रह्म
  2. विष्णु
  3. शिव
  4. सूर्य।

प्रश्न 31. स्कंद पुराण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-51,000 श्लोक।

प्रश्न 32. स्कंद पुराण किस देवता के साथ संबंधित है ?
उत्तर-शिव देवता के साथ।

प्रश्न 33. मत्स्य पुराण में किनके मध्य वार्तालाप का वर्णन मिलता है ?
उत्तर-मत्स्य (मछली) तथा मनु के मध्य ।

प्रश्न 34. गरुढ़ पुराण किस देवता के साथ संबंधित है ?
उत्तर-विष्णु देवता के साथ।

प्रश्न 35. पुराणों का एक मुख्य विषय बताओ।
उत्तर-संसार की उत्पत्ति।

प्रश्न 36. उपनिषद् से क्या अभिप्राय है ?
अथवा
उपनिषद् की परिभाषा करें।
उत्तर-उपनिषद् से अभिप्राय है श्रद्धा भाव से नज़दीक बैठना।

प्रश्न 37. उपनिषदों को वेदांत क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-क्योंकि इनको वेदों का अंतिम भाग माना जाता है।

प्रश्न 38. उपनिषदों की रचना किस भाषा में की गई है ?
उत्तर-संस्कृत।

प्रश्न 39. उपनिषदों का रचना काल क्या है ?
उत्तर-550 ई० पू० से 100 ई० पू०

प्रश्न 40. उपनिषदों की कुल संख्या क्या है ?
उत्तर-108.

प्रश्न 41. मुख्य उपनिषद कितने हैं ?
उत्तर-मुख्य उपनिषद् 11 हैं।

प्रश्न 42. प्रसिद्ध पाँच उपनिषदों के नाम बताएँ।
अथवा
किन्हीं दो उपनिषदों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. ईश
  2. केन
  3. कठ
  4. प्रश्न
  5. तैतरीय।

प्रश्न 43. दो प्रथम उपनिषदों के नाम बताएँ।
उत्तर-छांदोग्य तथा वृहद आरण्यक।

प्रश्न 44. आरंभ में कितने उपनिषद थे ? इनमें से पाँच के नाम बताओ।
अथवा
आरंभ में उपनिषदों की संख्या कितनी थी ? चार के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. आरंभ में उपनिषदों की संख्या 11 थी।
  2. इनमें से पाँच के नाम ईश, केन, कठ, तैतरीय और प्रश्न हैं।

प्रश्न 45. छांदोग्य एवं वृहद आरण्यक नाम के उपनिषदों की रचना कब हुई ?
उत्तर-550 ई० पू० से 450 ई० पू०।

प्रश्न 46. उपनिषदों के कोई दो मुख्य विषय बताएँ।
उत्तर-

  1. आत्मा का स्वरूप
  2. कर्म का सिद्धांत।

प्रश्न 47. उपनिषदों के अनुसार क्या आत्मा परिवर्तनशील है ?
उत्तर-नहीं।

प्रश्न 48. उपनिषदों में वर्णन किये गए दो नैतिक गण बताएँ।
उत्तर-

  1. सदा सच बोलो
  2. सभी जीवों से प्यार करो।

प्रश्न 49. उपनिषदों के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-मोक्ष प्राप्त करना।

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प्रश्न 50. भगवद् गीता किस महाकाव्य का हिस्सा है ?
उत्तर-भगवद् गीता महाभारत का हिस्सा है।

प्रश्न 51. भगवद् गीता की रचना किस भाषा में की गई है ?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 52. भगवद् गीता में कितने श्लोकों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-700 श्लोकों का।

प्रश्न 53. भगवद् गीता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-परमात्मा का गीत।

प्रश्न 54. भगवद् गीता में अंकित उपदेश किसने किसे दिया था ?
उत्तर-भगवद् गीता में अंकित उपदेश भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।

प्रश्न 55. भगवद् गीता में कितने योगों का वर्णन है ?
उत्तर- भगवद् गीता में तीन योगों का वर्णन है।

प्रश्न 56. गीता के तीन योग कौन-से हैं ?
उत्तर-गीता के तीन योग हैं-कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग।

प्रश्न 57. गीता का कोई एक उपदेश बताएँ।
उत्तर–प्रत्येक व्यक्ति को कर्मों का फल ज़रूर भोगना पड़ता है।

प्रश्न 58. गीता के अनुसार भक्ति कितनी तरह की होती है ?
उत्तर-गीता के अनुसार भक्ति तीन तरह की होती है।

प्रश्न 59. गीता में दिए भक्तियोग की कोई एक किस्म बताएँ।
उत्तर-ज्ञान भक्ति।

प्रश्न 60. भगवद् गीता का सबसे पहले अंग्रेज़ी में अनुवाद किसने किया ?
उत्तर-एडविन अरनोल्ड ने।

प्रश्न 61. किस विद्वान् ने भगवद गीता पर टीका लिखा ?
उत्तर-रामानुज ने भगवद् गीता पर टीका लिखा।

प्रश्न 62. धर्म शास्त्रों से क्या भाव है ?
अथवा धर्म शास्त्र क्या हैं ?
उत्तर-धर्म शास्त्र हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ हैं।

प्रश्न 63. धर्म शास्त्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण व प्रसिद्ध कौन-सा है ?
उत्तर-मनुस्मृति।

प्रश्न 64. धर्म शास्त्र किस भाषा में लिखे गए हैं ?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 65. कौन-सा धर्म शास्त्र सर्वाधिक प्राचीन है ?
उत्तर-मनु शास्त्र

प्रश्न 66. मानवता का पितामह किसको माना जाता है ?
उत्तर-मानवता का पितामह मनु को माना जाता है।

प्रश्न 67. मनुस्मृति का लेखक कौन था ?
उत्तर-मनु।

प्रश्न 68. मनु स्मृति को किस अन्य नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-मानवधर्म शास्त्र।

प्रश्न 69. किस धर्म शास्त्र में चार वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन किया जाता है ?
उत्तर-मनु स्मृति में।

प्रश्न 70. मानवता के जीवन को कितने आश्रमों में बाँटा गया है ?
उत्तर-चार आश्रमों में।

प्रश्न 71. शास्त्रों में दर्शाए गए चार आश्रमों के नाम लिखें।
अथवा
मनु स्मृति में कौन-से चार आश्रम बताए गए ?
उत्तर-शास्त्रों में दर्शाए चार आश्रमों के नाम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और सन्यास हैं।

प्रश्न 72. किसी एक आश्रम का नाम लिखो।
उत्तर-गृहस्थ आश्रम।

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प्रश्न 73. क्या मनु स्मृति के अनुसार शूद्रों को वेदों के पढ़े जाने की आज्ञा दी जानी चाहिए ?
उत्तर-नहीं।

प्रश्न 74. मनु स्मृति में धर्म के कितने स्रोत बताए गए हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 75. मनु स्मृति के अनुसार धर्म का कोई एक स्रोत बताएँ।
उत्तर-वेद।

प्रश्न 76. कौन-सा धर्म शास्त्र समाज में जुए के विरुद्ध था ?
उत्तर-विष्णु स्मृति।

प्रश्न 77. कौन-सा धर्म शास्त्र विधवा विवाह के पक्ष में था ?
उत्तर-नारद स्मृति।

प्रश्न 78. धर्म शास्त्रों में किन विषयों को छुआ गया है ?
उत्तर-धर्म शास्त्रों में कानूनों तथा समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों को छुआ गया है।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. पुराण से भाव ……….. है।
उत्तर-प्राचीन

प्रश्न 2. पुराण ………….. भाषा में लिखे गए थे।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 3. पुराणों की कुल संख्या ………. है।
उत्तर-18

प्रश्न 4. प्रत्येक पुराण ……….. भागों में विभाजित है।
उत्तर- पाँच

प्रश्न 5. ………… में संसार की उत्पत्ति के बारे में वर्णन किया गया है।
उत्तर-सर्ग

प्रश्न 6. ………… में प्रसिद्ध वंशों के राजाओं और ऋषियों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-वंशानचरित

प्रश्न 7. ब्रह्म पुराण को ……….. भी कहा जाता है।
उत्तर-आदि पुराण

प्रश्न 8. सबसे विशाल पुराण का नाम ………. पुराण है।
उत्तर-पद्म

प्रश्न 9. वायु पुराण को ……….. पुराण भी कहते थे।
उत्तर-शिव

प्रश्न 10. गरुड़ पुराण में ………….. श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-18,000

प्रश्न 11. नारद पुराण में ………….. श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-25,000

प्रश्न 12. ……………. पुराण सभी पुराणों में से छोटा है।
उत्तर-मारकंडेय पुराण

प्रश्न 13. उपनिषदों को ……… भी कहा जाता है।
उत्तर-वेदांत

प्रश्न 14. उपनिषदों ने ………. कोषों का सिद्धांत प्रचलित किया।
उत्तर-पाँच

प्रश्न 15. भगवद्गीता …………’का एक भाग है।
उत्तर-महाभारत

प्रश्न 16. भगवद्गीता में ………… श्लोक हैं।
उत्तर-700

प्रश्न 17. गीता का उपदेश ……….. ने दिया।
उत्तर-श्री कृष्ण जी

प्रश्न 18. भगवद्गीता में ……… योगों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-तीन

प्रश्न 19. धर्मशास्त्र ……….. भाषा में लिखे गए हैं।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 20. ……… को मानवता का पितामह कहा जाता है।
उत्तर-मनु

प्रश्न 21. मनुस्मृति को ………… धर्मशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-मानव

प्रश्न 22. मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियों को वेदों के अध्ययन और संपत्ति के अधिकार ……… होना चाहिए।
उत्तर-नहीं

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. पुराणों की रचना संस्कृत भाषा में की गई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. पुराणों को पाँचवां वेद भी कहा जाता था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 3. पुराणों की कुल संख्या 10 है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 4. ब्रह्म पुराण सबसे विशाल पुराण है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. पद्म पुराण में 55,000 श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. वायु पुराण को शिव पुराण भी कहते हैं।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 7. भगवद् पुराण में शिव की महिमा गाई गई है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. नारद् पुराण विष्णु भक्ति के साथ संबंधित है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. पुराणों में अग्नि पुराण सबसे छोटा पुराण है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 10. भविष्य पुराण में 14,000 श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. संकद पुराण में 51,000 श्लोक दिए गए हैं।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 12. मत्स्य पुराण में एक मछली और मनु के मध्य वार्तालाप का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. उपनिषदों की कुल संख्या 108 है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. उपनिषदों की रचना पालि भाषा में की गई है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. उपनिषद पाँच कोषों के सिद्धांत में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. भगवद्गीता रामायण का ही एक भाग है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 17. भगवद्गीता को 18 अध्यायों में बांटा गया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. गीता का उपदेश श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को दिया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 19. भगवद्गीता चार योगों में विश्वास रखता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 20. हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथों को धर्मशास्त्रों के नाम से जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 21. मनुस्मृति की रचना याज्ञवल्कय ने की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 22. मानवता का पितामाह मनु को माना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 23. नारद स्मृति विधवा विवाह के पक्ष में था।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
पुराणों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 6
(ii) 10
(iii) 15
(iv) 18
उत्तर-
(iv) 18

प्रश्न 2.
पुराण किस भाषा में लिखे गए हैं ?
(i) संस्कृत
(ii) हिंदी
(iii) खड़ी बोली
(iv) बृजभाषा।
उत्तर-
(i) संस्कृत

प्रश्न 3.
पुराणों को कितने भागों में विभाजित किया गया है ?
(i) 3
(ii) 4
(iii) 5
(iv) 6
उत्तर-
(i) 3

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण शिव पुराण नहीं है ?
(i) वायु
(ii) विष्णु
(iii) स्कंद
(iv) लिंग।
उत्तर-
(ii) विष्णु

प्रश्न 5.
पुराणों के किस भाग में प्रसिद्ध राजाओं और ऋषियों का वर्णन किया गया है ?
(i) वंश
(ii) वंशानुचरित
(iii) सर्ग
(iv) मनवंत्र।
उत्तर-
(i) वंश

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण सबसे प्राचीन है ?
(i) ब्रह्म पुराण
(ii) पद्म पुराण
(iii) विष्णु पुराण
(iv) अग्नि पुराण।
उत्तर-
(i) ब्रह्म पुराण

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण सबसे विशाल है ?
(i) विष्णु पुराण
(ii) स्कंद पुराण
(iii) वामन पुराण
(iv) पद्म पुराण।
उत्तर-
(iv) पद्म पुराण।

प्रश्न 8.
पद्म पुराण में दिए गए श्लोकों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 15,000
(ii) 23,000
(iii) 51,000
(iv) 55,000.
उत्तर-
(iv) 55,000.

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण सबसे छोटा है ?
(i) वराह पुराण
(ii) वामन पुराण
(iii) पद्म पुराण
(iv) मार्कंडेय पुराण।
उत्तर-
(iv) मार्कंडेय पुराण।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किस पुराण में अंतिम संस्कार संबंधी जानकारी दी गई है, ?
(i) नारद पुराण
(ii) वायु पुराण
(iii) गरुड़ पुराण
(iv) भविष्य पुराण।
उत्तर-
(iii) गरुड़ पुराण

प्रश्न 11.
उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 6
(ii) 11
(iii) 18
(iv) 108.
उत्तर-
(iv) 108.

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन-सा उपनिषद् नहीं है ?
(i) ईश
(ii) केन
(iii) छंद
(iv) स्कंद।
उत्तर-
(iv) स्कंद।

प्रश्न 13.
भगवद्गीता का उपदेश किसने दिया था ?
(i) श्री कृष्ण जी
(ii) अर्जुन
(iii) श्री रामचंद्र जी
(iv) शिव जी।
उत्तर-
(i) श्री कृष्ण जी

प्रश्न 14.
भगवद्गीता निम्नलिखित में से किस ग्रंथ का भाग है ?
(i) रामायण
(ii) महाभारत
(iii) बौद्धचरित
(iv) कथावथु।
उत्तर-
(ii) महाभारत

प्रश्न 15.
भगवद्गीता में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
(i) 500
(ii) 700
(iii) 800
(iv) 900.
उत्तर-
(i) 500

प्रश्न 16.
हिंदुओं के प्राचीन कानूनी ग्रंथों को क्या कहा जाता है ?
(i) वेद
(ii) महाभारत
(iii) रामायण
(iv) धर्मशास्त्र।
उत्तर-
(iv) धर्मशास्त्र।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित में से किस शास्त्र को मानव धर्म शास्त्र के नाम से जाना जाता है ?
(i) याज्ञवल्कय स्मृति
(ii) मनु स्मृति
(iii) विष्णु स्मृति
(iv) नारद स्मृति।
उत्तर-
(ii) मनु स्मृति

प्रश्न 18.
मानवता का पितामह किसे माना जाता है ?
(i) नारद
(ii) विष्णु
(iii) मनु
(iv) याज्ञवल्कय।
उत्तर-
(iii) मनु

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 5 पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों की सामान्य जानकारी

प्रश्न 19.
निम्नलिखित में से कौन-सा पुराण स्त्रियों की स्वतंत्रता के विरुद्ध था ?
(i) मनु स्मृति
(ii) नारद स्मृति
(ii) विष्णु स्मृति
(iv) याज्ञवल्कय स्मृति।
उत्तर-
(i) मनु स्मृति

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षण एवं महत्ता का वर्णन कीजिए।
(Describe the salient features and importance of Vedic literature.)
अथवा
चार वेदों के प्रमुख लक्षणों के बारे में भावपूर्ण संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
(Describe the Pre-eminent features of four Vedas in brief but meaningful.)
अथवा
वैदिक साहित्य से क्या भाव है ? आरम्भिक और उत्तर वैदिक काल के साहित्य का संक्षेप में वर्णन करो।
(What is meant by Vedic literature ? Explain briefly the early and later Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य की संक्षेप जानकारी दो । चार वेदों पर संक्षेप में नोट लिखें।
(Give a brief introduction of Vedic literature. Write short notes on four Vedas as well.)
अथवा
वैदिक साहित्य की मुख्य विशेषताओं और महत्ता का वर्णन करो। (Explain the main features and importance of the Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के बारे बताएँ।
(Give a brief introduction about the Vedic literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the salient features of Vedic literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य से भाव उस साहित्य से है जिसकी रचना आर्यों ने की थी। इस साहित्य को अनमोल ज्ञान का भंडार माना जाता है। इस में जीवन की आध्यात्मिक और अन्य समस्याओं के समाधान का वर्णन किया गया है। निस्संदेह वैदिक साहित्य को लिखने का मुख्य उद्देश्य धार्मिक था परन्तु इस से वैदिक और उत्तर वैदिक काल के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन की भी स्पष्ट झलक प्राप्त होती है। इसी कारण इस साहित्य को प्राचीन काल भारतीय इतिहास लिखने के लिए एक बहुत ही विश्वसनीय स्रोत माना जाता है। यह सारा साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। रचना काल के आधार पर वैदिक साहित्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है। आरंभिक वैदिक काल का साहित्य और उत्तर वैदिक काल का साहित्य। इनका संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

(क) आरंभिक वैदिक काल का साहित्य (Early Vedic Literature)-
आरंभिक वैदिक काल के साहित्य में चार वेद, ब्राह्मण, आरण्य और उपनिषद् आदि शामिल हैं। इस साहित्य को स्मति भी कहा जाता है क्योंकि इसकी रचना मनुष्यों के द्वारा नहीं बल्कि परमात्मा के बताये जाने पर ऋषियों द्वारा की गई। इसलिए इस साहित्य को परमात्मा के ज्ञान का भंडार माना जाता है।

1. चार वेद (The Four Vedas)-वेदों को भारत का सब से प्राचीन साहित्य माना जाता है। इन को सारे भारतीय दर्शन का मूल माना जाता है। वेद शब्द “विद” धातु से निकला है जिसका अर्थ है “जानना” या “ज्ञान”। दूसरे शब्दों में वेदों को आर्यों के ज्ञान का भंडार कहा जा सकता है। वेद चार हैं :-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

ऋग्वेद (The Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है। इस की रचना 1500-1000 ई० पू० में हुई। इस में 1028 सूक्त हैं जिनको 10 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की उपासना की गई है। सबसे अधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। इनकी संख्या 250 है। ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। इन की पूजा लड़ाई में विजय के लिए, धन और संतान तथा सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद को आर्य लोगों के जीवन को जानने के लिए बहुमूल्य स्रोत माना जाता है।

सामवेद (The Samaveda)-सामवेद में कुल 1875 मंत्र दिये गये हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी सारे मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञों के समय पुरोहित निश्चित स्वरों में गाते थे। इसी कारण सामवेद को “गायन ग्रंथ” भी कहा जाता है। यदि इस वेद को भारतीय संगीत कला का स्रोत कह दिया जाये तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

यजुर्वेद (The Yajurveda)-यजुर्वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में यज्ञों को किये जाने के ढंग भी बताये गये हैं। वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा गया है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी बताये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के धार्मिक और सामाजिक जीवन के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

अथर्ववेद (The Atharvaveda)—इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। इस वेद को सबसे बाद में वेदों की गिनती में शामिल किया गया है। इस वेद में 731 सूक्त दिये गये हैं। यह वेद जादू-टोनों और भूतों तथा चुडैलों को वश में करने के मंत्रों का संग्रह है। इस में अनेक बीमारियों से बचने के लिए औषधियों का भी वर्णन किया गया है।

2. ब्राह्मण ग्रंथ (The Brahmanas) ब्राह्मण ग्रंथों की रचना वेदों की रचना के बाद हुई। इनमें वेदों की सरल व्याख्या की गई है ताकि साधारण लोग उनके अर्थ समझ सकें। प्रत्येक वेद के अलग-अलग ब्राह्मण हैं। एतरेय ब्राह्मण, तैत्तरीय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण आदि नाम के ब्राह्मण सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यह गद्य में लिखे गये हैं। इनसे यज्ञों और बलियों की विधियों का ज्ञान प्राप्त होता है। इनमें कई प्रसिद्ध राजाओं के बहादुरी से भरपूर कारनामों का भी वर्णन मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर ब्राह्मण ग्रंथों की बड़ी महत्ता है।

3. आरण्यक (The Aranyakas)—ये ग्रंथ ब्राह्मण ग्रंथों का ही हिस्सा हैं। ये ग्रंथ जंगलों में रहने वाले साधुओं के लिये लिखे गये हैं। इनमें आध्यात्मिक विषयों और नैतिक कर्तव्यों पर अधिक जोर दिया गया है। इनमें यज्ञों और बलियों की रस्मों के बारे में भी समझाया गया है। ऐतरेय आरण्यक, कोषतकी आरण्यक, तैत्तरीय आरण्यक और बृहद आरण्यक नामों के ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं।

4. उपनिषद् (The Upanishads)-उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”1

1. “The Upanishadic philosophy is rightly regarded as the source of all Indian Philosophy.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 119.

(ख) उत्तर वैदिक काल का साहित्य
(Later Vedic Literature)
उत्तर वैदिक काल के साहित्य में वेदांग, सूत्र, उपवेद, पुराण, धर्म-शास्त्र और महाकाव्य आदि शामिल हैं। इस काल में रचे साहित्य को स्मृति भी कहा जाता है क्योंकि इस की रचना ऋषियों ने अपने ज्ञान के द्वारा की।

  1. वेदांग (The Vedangas)—वेदांग से अभिप्राय है वेदों के अंग। इनकी गिनती 6 है और ये अलग-अलग विषयों से संबंधित हैं। इनके नाम शिक्षा, छंद, कल्प, व्याकरण, निरुक्त और ज्योतिष हैं। इनमें से कल्प वेदांग सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसमें आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है। वेदों को समझने के लिए और उनका ठीक उच्चारण करने के लिए वेदांगों को विशेष महत्त्व प्राप्त है।
  2. सूत्र (The Sutras)-उत्तर वैदिक काल में साहित्य लिखने की एक नई शैली की शुरुआत हुई। इनको सूत्र कहा जाता है। इनमें कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बातें कहने का यत्न किया गया है। इस का उद्देश्य यह था कि लोग वैदिक साहित्य को आसानी से याद कर सकें। इनको तीन श्रेणियों में बाँटा गया है।
    • स्त्रोत सूत्र-इसमें सोम यज्ञ, बलियाँ और अन्य धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है।
    • ग्रह सूत्र-यह सूत्र सब सूत्रों से महत्त्वपूर्ण है। इस में जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
    • धर्म सूत्र-इसमें उस समय के प्रचलित कानूनों और रिवाजों का वर्णन किया गया है।
  3. उपवेद (The Upavedas)-उपवेद सहायक वेद हैं। इनकी संख्या चार है—
    • आयुर्वेद-इसमें औषधियों का वर्णन किया गया है।
    • धनुर्वेद-इसमें युद्ध-कला का वर्णन किया गया है।
    • गन्धर्ववेद-इसमें संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
    • शिल्प वेद-इसमें कला और भवन निर्माण कला से संबंधित जानकारी दी गई है।
  4. धर्मशास्त्र (The Dharma Shastras)-धर्म शास्त्र हिंदुओं के कानूनी ग्रंथ थे। इन को स्मृति ग्रंथ भी कहा जाता है। इनमें से मनु स्मृति सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति और नारद स्मृति भी बहुत प्रसिद्ध शास्त्र माने जाते हैं। इनमें चार जातियों, आश्रमों, नित्य की रस्मोंरीतियों, शासकों के कर्त्तव्य और न्यायिक व्यवस्था आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर धर्मशास्त्रों की बहुत महत्ता है।
  5. पुराण (The Puranas)—पुराण से अभिप्राय है प्राचीन यह हिंदुओं के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए हमारा एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पुराणों की कुल संख्या 18 है। इनमें से विष्णु, भागवत, मत्स्य और वायु पुराण बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा हुआ है। पहले भाग में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे में विश्व की पुनः उत्पत्ति, तीसरे भाग में देवताओं के वंशों, चतुर्थ में महायुगों और पाँचवें भाग में प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक तौर पर पुराणों का पाँचवां भाग बहुत लाभदायक है।
  6. दर्शन के षट-शास्त्र (Six Shastras of Philosophy)-उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—
    • कपिल का सांख्य शास्त्र,
    • पतंजलि का योग शास्त्र,
    • गौतम का न्याय शास्त्र
    • कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
    • जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
    • व्यास का उत्तर मीमांसा।
      इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

महाकाव्य (The Epics)-रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है। महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में 1,00,000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पांडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। प्रोफेसर एच० वी० श्रीनिवास मूर्ति का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“दोनों महाकाव्य रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के अलग-अलग पक्षों पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने पर्याप्त सीमा तक हमारे लोगों के चरित्र और जीवन को परिवर्तित किया है। इस तरह वे पुराने और नये भारत के मध्य एक मजबूत कड़ी हैं।”2

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

वैदिक साहित्य का महत्त्व (Importance of the Vedic Literature)-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है ? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है ? ज्ञान क्या है ? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इस तरह वैदिक साहित्य हिंदू धर्म को जानने के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य आर्यों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए भी हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है। संक्षेप में वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एक दर्पण का कार्य करता है। आधुनिक काल में यह न केवल भारतीय बल्कि विदेशी लेखकों और विद्वानों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। निस्संदेह यह हमारे लिए एक बहुत ही गर्व की बात है। प्रसिद्ध लेखकों वी० पी० शाह तथा के० एस० बहेरा का यह कहना उचित है कि,
“वैदिक साहित्य आर्यों द्वारा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को दी गई सबसे अमूल्य देन है। निःसंदेह, वेद मख्य तौर पर धार्मिक साहित्य है, परंतु इनसे सीधे रूप से उस समय की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दशा के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।”3

2. “The two great epics, the Ramayana and the Mahabharata, throw a flood of light on various aspects of Indian culture. They have to a large extent, moulded the character and life of our people. Thus they form the strongest link between India, old and new.” Prof. H. V. Sreenivasa Murthy, History and Culture of India to 1000 A.D. (New Delhi : 1980) p. 68.
3. “The Vedic literature is a magnificient contribution of the Aryan’s to the Indian culture and civilisation. No doubt the Vedas are predominantly religious literature but the Vedas directly indicate about religious, social, economic and political conditions of the time.” B.P. Saha and K.S. Bahera, Ancient History of India (New Delhi : 1988) p.72.

प्रश्न 2.
निम्नलिखित के बारे पहचान कराएँ—
(1) पुराण,
(2) उपनिषद्
(3) ऋग्वेद,
(4) शास्त्र।
[Explain the following :
(1) Puranas
(2) Upanishads
(3) Rigveda
(4) Shastras.]
उत्तर-
1. पुराण (Purana)—पुराण से अभिप्राय है प्राचीन यह हिंदुओं के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए हमारा एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पुराणों की कुल संख्या 18 है। इनमें से विष्णु, भागवत, मत्स्य और वायु पुराण बहुत प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक पुराण पाँच भागों में बाँटा हुआ है। पहले भाग में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे में विश्व की पुनः उत्पत्ति, तीसरे भाग में देवताओं के वंशों, चतुर्थ में महायुगों और पाँचवें भाग में प्रसिद्ध राजवंशों का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक तौर पर पुराणों का पाँचवां भाग बहुत लाभदायक है।

2. उपनिषद् (Upanishads)—उपनिषद् वे ग्रंथ हैं जिनमें ज्ञान का वर्णन किया गया है। क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग है इसलिए इनको वेदांत भी कहा जाता है। इनकी कुल गिनती 108 है और इनकी रचना अलग-अलग ऋषियों द्वारा 1000-500 ई० पू० के मध्य की गई। इन उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, छांदोग्य, तैत्तरीय, ऐतरेय, मुंडक और वृहद आरण्यक आदि नाम के उपनिषद् सबसे प्रसिद्ध हैं। इनमें बहुत गहरे आध्यात्मिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इनमें यह बताने का यत्न किया गया है कि आत्मा क्या है तथा इस का परमात्मा के साथ क्या संबंध है। जीवन तथा मृत्यु से संबंधित बहत से भेदों को सुलझाने का यत्न किया गया है। कर्म, मोक्ष, माया और आवागमन के विषयों पर बहुत अधिक प्रकाश डाला गया है। डॉक्टर एस० आर० गोयल का यह कहना बिल्कुल ठीक है,
“उपनिषद् दर्शन को ठीक ही भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जा सकता है।”1

3. ऋग्वेद (Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है। इस की रचना 1500-1000 ई० पू० में हुई। इस में 1028 सूक्त हैं जिनको 10 अध्यायों में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की उपासना की गई है। सबसे अधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। इनकी संख्या 250 है। ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। इन की पूजा लड़ाई में विजय के लिए, धन और संतान तथा सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद को आर्य लोगों के जीवन को जानने के लिए बहुमूल्य स्रोत माना जाता है।

4. शास्त्र (Shashtras)—धर्म शास्त्र हिंदुओं के कानूनी ग्रंथ थे। इन को स्मृति ग्रंथ भी कहा जाता है। इनमें से मनु स्मृति सब से पुराना और महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णु स्मृति और नारद स्मृति भी बहुत प्रसिद्ध शास्त्र माने जाते हैं। इनमें चार जातियों, आश्रमों, नित्य की रस्मोंरीतियों, शासकों के कर्त्तव्य और न्यायिक व्यवस्था आदि पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर धर्मशास्त्रों की बहुत महत्ता है।

1. “The Upanishadic philosophy is rightly regarded as the source of all Indian Philosophy.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 119.

प्रश्न 3.
धार्मिक क्षेत्र में चार वेदों तथा उनके महत्त्व के बारे में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief the four Vedas and their importance in the field of Religion.)
अथवा
वेद कितने माने जाते हैं तथा इनके नाम क्या हैं ? संक्षेप परंतु प्रभावशाली जानकारी दें।
(How many Vedas are there ? Explain with their names in brief but meaningful.)
अथवा
वेदों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
(Describe the main features of the Vedas.)
अथवा
चार वेदों के प्रमुख लक्षणों की जानकारी दीजिए।
(Describe the salient features of the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के नाम लिखें। किन्हीं दो के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें।
(Write the names of the four Vedas. Explain in brief any two Vedas.)
अथवा
वेदों की रचना किस प्रकार हुई ? दो वेदों की संक्षिप्त जानकारी दें।
(How Vedas were written ? Discuss any two in brief.)
अथवा
चारों वेदों की महत्ता की संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए। (Describe in brief, but meaningful the importance of the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के बारे में संक्षेप से बताएँ। (Write in brief about the four Vedas.)
अथवा
वेदों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Vedas ?)
अथवा
चार वेदों के नाम बताएँ। ऋग्वेद के बारे में विस्तार से बताएँ।
(Name the four Vedas. Explain Rigveda in detail.)
अथवा
ऋग्वेद के विषय-वस्तु के बारे में जानकारी दें। चार वेदों के नाम बताएँ।
(Discuss the subject-matter of the Rigveda. Name the four Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद की विषय-वस्तु पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the subject-matter of the Rigveda.)
अथवा
कुल वेद कितने हैं ? किन्हीं दो वेदों के बारे में व्याख्या करें।
(What are the total number of Vedas ? Explain any two Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद एवं सामवेद के प्रमुख विषयों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the main contents of Rigveda and Samaveda.)
अथवा
चार वेदों के बारे में संक्षेप में भावपूरित जानकारी दीजिए।
(Describe in brief meaningfully the four Vedas.)
अथवा
चार वेदों के आध्यात्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the spiritual importance of the four Vedas.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य में वेदों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वेद चार हैं। इनके नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद हैं। अथर्ववेदं को वेदों की संख्या में सब से बाद में शामिल किया गया। इस कारण पहले तीन वेदों को “तरई” के नाम से भी जाना जाता है। ये वेद संस्कृत में लिखे गये हैं। ये हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं। वेद शब्द “विद्” धातु से निकला है जिस का अर्थ है ज्ञान या जानना। दूसरे शब्दों में वेदों को आर्यों के ज्ञान का भंडार कहा जा सकता है। यह ज्ञान ऋषियों ने ईश्वर से प्राप्त किया था। इसी कारण वेदों को “श्रुति” भी कहा जाता है। वेदों का रचना काल 1500 ई० पू० से 600 ई० पू० माना जाता है। निस्संदेह वेद आर्यों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक इतिहास को जानने के लिए हमारा एक अनमोल स्रोत हैं। वेदों की विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ऋग्वेद (The Rigveda)-ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। ऋग “ऋक” शब्द से निकला है जिसका अर्थ है स्तुति में रचे गये मंत्र। इसी कारण ऋग्वेद को देवताओं की स्तुति में रचे गये मंत्रों का समूह कहा जाता है। ऋग्वेद की रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। यह वो समय था जब आर्य पंजाब में रहते थे। ऋग्वेद एक विशाल ग्रंथ है। इस में 1028 सूक्त हैं। एक सूक्त में अनेक मंत्र होते हैं। ऋग्वेद में मंत्रों की कुल संख्या 10,580 है। इन को दस अध्यायों में बाँटा गया है। इनमें कुछ अध्याय बड़े हैं और कुछ छोटे। पहला और दसवाँ अध्याय (मंडल) सब से बड़े हैं। इन दोनों मंडलों में 191-191 सूक्त दिये गये हैं। दूसरे मंडल से लेकर सातवें मंडल में दिये गये सूक्तों को ऋग्वेद का दिल माना जाता है। ये शेष मंडलों से पुराने समझे जाते हैं। ऋग्वेद के नवम अध्याय में केवल सोम देवता से संबंधित मंत्र दिये गये हैं।
ऋग्वेद में सबसे अधिक मंत्र (250) इंद्र देवता की प्रशंसा में दिये गये हैं। अग्नि की प्रशंसा में 200 मंत्र हैं। बाकी के मंत्र वरुण, सूर्य, रुद्र, सोम, ऊषा, रात्रि और सरस्वती आदि देवी-देवताओं को समर्पित हैं। इन सभी देवीदेवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक समझा जाता था। ये देवता बहुत शक्तिशाली और महान् थे। वे मनुष्य का रूप धारण करते थे और अपने श्रद्धालुओं की प्रार्थनाओं से खुश हो कर उन पर कई प्रकार की कृपा करते थे। उनकी पूजा युद्ध में विजय के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुखी और लंबे जीवन तथा संतान की प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद में अनेक ऋषियों ने मंत्र लिखे हैं। इनमें विश्वामित्र, भारद्वाज, वशिष्ट, वामदेव, अत्री, कण्व तथा ग्रितस्मद बहुत प्रसिद्ध थे। ऋग्वेद में अपाला, घोषा, विश्ववरा, मुदगालिनी तथा लोपामुद्रा आदि स्त्रियों के भी मंत्र दिये गये हैं। ऋग्वेद में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र भी दिया गया है जिसे हिंदू आज भी प्रतिदिन पढ़ते हैं। ऋग्वेद की रचना यद्यपि धार्मिक तौर पर की गई थी परंतु इस की ऐतिहासिक महत्ता भी बहुत है।

2. सामवेद (The Samaveda) साम शब्द से भाव सरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। ये मंत्र दो भागों में बाँटे गये हैं जिन को पूर्वरचिका तथा उत्तररचिका कहते हैं। पूर्वरचिका में 650 मंत्र हैं जबकि उत्तररचिका में 1225 मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। इन मंत्रों को सात स्वरों में गाया जाता था। इन मंत्रों को गाते समय तीन प्रकार के वाद्यों वेणु, दुंदुभि और वीणा का प्रयोग किया जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

3. यजुर्वेद (The Yajurveda)—यर्जु से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इस लिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

4. अथर्ववेद (The Atharvaveda)-अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। इस वेद का नाम अथर्वन ऋषि के नाम से पड़ा। यह ऋषि जादुई शक्तियों का स्वामी था और भूतों-प्रेतों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध था। अथर्ववेद वास्तव में जादू टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता चलता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था। वे अग्नि की सहायता से मनुष्यों को भूतों-प्रेतों से बचा कर उनकी सहायता करते थे। अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र हैं। इन मंत्रों में से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। यह वेद 20 अध्यायों में बाँटा गया है। इस का 20वाँ अध्याय सब से बड़ा है जिसमें 928 मंत्रों का वर्णन है।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

प्रश्न 4.
चार वेदों में से यजुर्वेद के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe Yajurveda among the four vedas.)
उत्तर-
यर्जु से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इस लिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 5.
वैदिक साहित्य से आप क्या समझते हैं ? वैदिक साहित्य के प्रमुख विषय कौन-कौन से हैं ?
(What is meant by the Vedic literature ? What are the main subjects of the Vedic literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य के मुख्य विषयों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the main contents of the Vedic literature.)
अथवा
वेदों के महत्त्वपूर्ण पक्षों के बारे में बहस करें।
(Examine the important aspects of the Vedas.)
अथवा
ऋग्वेद में कौन से मुख्य विषय छुए गए हैं ? ऋग्वेद के बीच कुल मंत्रों की संख्या बताओ।
(Which main subjects are touched in the Rigveda ? Mention the total number of hymns given in Rigveda.)
अथवा
ऋग्वेद की विषय-वस्तु के बारे जानकारी दो। पुरुष सूक्त के बारे संक्षेप नोट लिखो ।
(Write about the subject-matter of the Rigveda. Write a brief note on the PurushSukta hymn.)
अथवा
हिंदू धर्म के प्रमुख सिद्धांतों के बारे में जानकारी दें। (Write about the main features of Hinduism.)
अथवा
वेदों के धार्मिक विचारों के बारे में बताएँ। (Give an account of the religious thoughts of the Vedas.)
अथवा
आध्यात्मिक क्षेत्र में वेदों का क्या महत्त्व है ? स्पष्ट करें।
(Explain the spirityal importance of the Vedas.)..
उत्तर-
वैदिक साहित्य में मुख्य तौर पर हिंदू धर्म के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है। इसमें बहुदेववाद, एकेश्वरवाद और सर्वेश्वरवाद का वर्णन किया गया है। इस में परमात्मा को खुश करने के लिए यज्ञों और बलियों का भी वर्णन मिलता है। इसमें यह भी बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? आत्मा क्या हैं और ब्रह्म क्या है ? आत्मा और ब्रह्म में क्या संबंध है कर्म और आवागमन सिद्धांत क्या है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? स्वर्ग-नरक क्या हैं ? इन विषयों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. बहुदेववाद (Polytheism)—ऋग्वेद के वर्णन से पता चलता है कि आरंभ में आर्य प्रकृति की शक्तियों को देवता समझ कर उनकी पूजा करते थे। आर्यों ने प्रकृति की हर चमकने वाली, भयानक अथवा सुंदर नज़र आने वाली हर शक्ति को कोई न कोई देवी अथवा देवता समझ लिया। ऋग्वेद के अनुसार आर्य 33 देवताओं की पूजा करते थे। इनको 3 भागों में बाँटा गया था। ये भाग इस प्रकार थे- आकाश के देवता, पृथ्वी के देवता और पृथ्वी तथा आकाश के मध्य निवास करने वाले देवता। इन सभी देवताओं को शक्तिशाली और महान् समझा गया था। कभी एक देवता की स्तुति की जाती और कभी दूसरे की। इस तरह बहुदेववाद का सिद्धांत प्रचलित हुआ।

2. एकेश्वरवाद (Monotheism) वैदिक काल के बहुदेववाद के पीछे सदैव ही एकेश्वरवाद या एक ईश्वर का विचार रहा है। ऋग्वेद में ऐसी कई उदाहरणें मिलती हैं जैसे इंद्र ब्रह्म है, देवताओं का प्राणदाता एक है, ‘सभी देवता एक ही हैं केवल ऋषियों ने उनका विभिन्न रूपों में वर्णन किया है।’ ईश उपनिषद् में कहा गया है, “वह अग्नि है, वही सूर्य है, वो ही वायु है, वो ही चंद्रमा है, वो ही शुक्र है, वो ही ब्रह्म है, वो ही जल है और वो ही प्रजापति है।” “ज्योतियों की ज्योति एक है।” इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य एक सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास रखते थे।

3. सर्वेश्वरवाद (Henotheism)—यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था। ऋग्वेद के एक सूक्त में कहा गया है, “हे देवताओ आप में से कोई छोटा नहीं है, आप में से कोई छोटा बच्चा नहीं है। आप सभी महान् हैं।” इस तरह आर्यों के लिए उनके सभी देवता बराबर थे।

4. यज्ञ और बलियाँ (Yajnas and Sacrifices)—वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहुत विधिपूर्वक किया जाता था ताकि किसी छोटी-सी गलती के कारण देवता नाराज़ न हो जायें। सबसे पहले यज्ञ के लिए वेदी बनाई जाती थी। फिर इसमें पवित्र अग्नि जलाई जाती थी। इस अग्नि में घी, दूध, चावल और सोमरस डाला जाता था। इन यज्ञों के दौरान कई जानवरों जैसे बकरी, भेड़ और घोड़ों आदि की बलि भी दी जाती थी। छोटे यज्ञ पारिवारिक स्तर के होते थे जबकि बड़े यज्ञ अमीर लोगों के द्वारा करवाये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में यह यज्ञ अधिक जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी। डॉक्टर एस० आर० गोयल के अनुसार,
“वैदिक धर्म को निश्चित तौर पर यज्ञ तथा बलियों का एक धर्म समझा जाता था। पूजा करने वाला प्रार्थनाओं के उच्चारण से कुछ भेंटें देता था और देवता से इसके बदले में किसी वरदान की आशा करता था।”4

5. संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? (How was World Created ?)-संसार की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस से संबंधित हमें ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से जानकारी प्राप्त होती है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति से पहले अकेला ईश्वर ही था। उसके बिना चारों तरफ अंधकार था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने संसार की रचना कर दी । उसने न केवल मनुष्य, पशु, पक्षी आदि बनाये बल्कि सूर्य, चाँद, तारों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों तथा फूलों आदि की भी रचना की । उपनिषदों में भी यह वर्णन बार-बार आता है कि ब्रह्म ने सारे ब्रह्माण्ड की रचना की।

6. आत्मा क्या है (What is Self)-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है। यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक यह कर्मों के बंधन से मुक्त न हो जाये। ऐसा होने पर यह ब्रह्म में लीन हो जाती है । इस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता।

7. ब्रह्म क्या है ? (What is Absolute ?)-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह सत्य मन और आनंद रूप है। वह संपूर्ण
ज्ञान का भंडार है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है। इसी कारण ब्रह्म और आत्मा में कोई मूल भेद नहीं रह जाता।

8. पितरों की पूजा (Worship of Forefathers)-ऋग्वेद में पितरों की पूजा का वर्णन मिलता है। पितर स्वर्गों में निवास करते थे। यह आर्यों के आरंभिक बुजुर्ग थे। उनकी पूजा भी देवताओं के समान की जाती थी। ऋग्वेद में बहुत सारे मंत्र उनकी स्तुति में दिये गये हैं। पितरों की पूजा इस आशा से की जाती थी कि वे अपने वंश की रक्षा करेंगे, उनके दुःख, मुसीबतों को दूर करेंगे, उनको धन, शक्ति, लंबी आयु तथा संतान देंगे। समय के साथसाथ आर्यों की पितर पूजा के प्रति आस्था में वृद्धि होती गई।

9. ऋत और धर्मन (Rita and Dharman)—ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में ऋत और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। ऋत से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करके प्रकाश देती है। इस तरह ऋत एक सच्चाई है। इस का उल्ट अनऋत (झूठ) है। उपनिषदों के समय धर्म शब्द ने ऋत का स्थान ल लिया। ‘धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे। अच्छे मनुष्य अपना जीवन धर्मन अनुसार व्यतीत करते थे।

10. कर्म और आवागमन (Karma and Transmigration)-वैदिक साहित्य में इस बात का बार-बार वर्णन आया है कि मनुष्य अपनी किस्मत का स्वयं ही निर्माता है। जैसे वह कर्म करेगा वैसा ही उसको फल प्राप्त होगा। यदि उसके कर्म अच्छे होंगे तो वह आवागमन के चक्करों से छुटकारा प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त कर लेगा। यदि उसके कर्म बुरे हैं वह सदा ही दुःखी रहेगा और किसी भी स्थिति में आवागमन से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म मनुष्य का साथ उस तरह नहीं छोड़ते जैसे कि उसकी परछाईं।

11. मोक्ष (Moksha)-मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। वह एंद्रीय सुख भोग कर और धन प्राप्त करके यह समझता है कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। वह यह भूल जाता है कि सभी सुख क्षण-भंगुर हैं। इन कारणों के लिए वह कभी भवसागर से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी-शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती है।

12. स्वर्ग और नरक में विश्वास (Faith in Heaven and Hell)—वैदिक साहित्य में इस बात का वर्णन मिलता है कि आर्य स्वर्ग और नरक में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार जो व्यक्ति अपना जीवन नैतिक नियमों के अनुसार व्यतीत करता है, दान देता है और कभी किसी को कोई दुःख तकलीफ नहीं देता, वह मौत के बाद स्वर्ग में निवास करता है। यह वो स्थान है जहाँ देवताओं का वास है। यहाँ सदा ही खुशी रहती है। दूसरी ओर पापी और अधर्मी व्यक्ति मौत के बाद नरक में जाते हैं। पुराणों आदि में नरक में मिलने वाले घोर दुःखों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

13. पुरुष सूक्त (Purusha-Sukta)-पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जाँघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। इस से कई इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ऋग्वैदिकं काल में जाति प्रथा प्रचलित हो गई थी। परंतु इस के संबंध में ऋग्वेद में कहीं और कोई वर्णन नहीं मिलता। यह कहा जाता है कि पुरुष सूक्त की रचना भी ऋग्वेद से कई सौ वर्ष बाद की गई थी। इसकी भाषा ऋग्वेद से भिन्न है। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

4. “Vedic religion was essentially a religion of yaznas or sacrifices. The worshipper offered some oblations to god with the chanting of prayers and expected that god would grant him desired boon in return.” Dr. S. R. Goyal, A Religious History of Ancient India (Meerut : 1984) Vol. 1, p. 72.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ऋग्वेद के प्रमुख लक्षणों का संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Rigveda.)
अथवा
ऋग्वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए। (Discuss the importance of Rigveda in the Rigvedic literature.)
उत्तर-
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। इसकी रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। इसमें 1028 सूक्त हैं जिनको 10 मंडलों (अध्यायों) में बाँटा गया है। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कुल 10,552 मंत्र हैं। इन मंत्रों में देवी-देवताओं की स्तुति की गई है। ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र इंद्र देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं। इनकी संख्या 250 हैं। भारतीय दर्शन को जानने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है।

प्रश्न 2.
सामवेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the Samaveda ?)
उत्तर-
साम शब्द से भात्र सुरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

प्रश्न 3.
यजुर्वेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of the Yajurveda.)
उत्तर-
यजुर से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कहा जाता है।

प्रश्न 4.
अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Atharvaveda.)
अथवा
अथर्ववेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? उल्लेख करें। (What do you know about Atharvaveda ? Explain.)
उत्तर-
अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। अथर्ववेद वास्तव में जादू-टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता लगता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहुत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था।

प्रश्न 5.
दर्शन के षट शास्त्र क्या हैं एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Six Shastras of Philosophy ?)
अथवा
खट दर्शन के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Khat Darshan.)
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—

  1. कपिल का सांख्य शास्त्र,
  2. पतंजलि का योग शास्त्र,
  3. गौतम का न्याय शास्त्र
  4. कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
  5. जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
  6. व्यास का उत्तर मीमांसा।

इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवन-मृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रश्न 6.
महाकाव्य से क्या अभिप्राय है एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What do you mean by Epics and their importance ?)
उत्तर-
रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय श्री रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है। महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में 1.00.000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पाँडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं।

प्रश्न 7.
वैदिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the importance of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य का क्या महत्त्व है ? (What is importance of the Vedic Literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ बताओ। (Describe the prominent features of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में बताओ। (Describe the salient features of Vedic Literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है? ज्ञान क्या है? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है।

प्रश्न 8.
वैदिक साहित्य के किन्हीं दो विषयों के बारे में संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the two subjects of Vedic Literature.)
उत्तर-

  1. सर्वेश्वरवाद-यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था।
  2. यज्ञ और बलियाँ-वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहत विधिपूर्वक किया जाता था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी।

प्रश्न 9.
वैदिक साहित्य के अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Self and Absolute according to Vedic Literature ?)
उत्तर-

  1. आत्मा क्या है ?-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है।
  2. ब्रह्म क्या है?- ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है।

प्रश्न 10.
ऋत और धर्मन से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Rita and Dharman ?)
उत्तर-
ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में ऋत और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। ऋत से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य, चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करेके प्रकाश देती है। ‘धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे।

प्रश्न 11.
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती

प्रश्न 12.
पुरुष सूक्त के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Purusha-Sukta ?)
उत्तर-
पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जांघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

प्रश्न 13.
ऋग्वेद के प्रमुख लक्षणों का संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण बयान कीजिए। (Describe in brief but meaningful the salient features of Rigveda.)
अथवा
ऋग्वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के महत्त्व के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the importance of Rigveda in the Rigvedic literature.)
उत्तर-
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण वेद है। इसकी रचना 1500-1000 ई० पू० के मध्य हुई। यह वह समय था जब आर्य पंजाब में रहते थे। ऋग्वेद एक विशाल ग्रंथ है। इसमें 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त में अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कुल 10,552 मंत्र हैं। इन्हें दस मंडलों (अध्यायों) में विभाजित किया गया है। इनमें कुछ मंडल छोटे हैं तथा कुछ बड़े। ऋग्वेद में सर्वाधिक 250 मंत्र इंद्र देवता की तथा 200 मंत्र अग्नि देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं। शेष मंत्र वरुण, सूर्य, ऊषा, सरस्वती तथा अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। ये सभी देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं। इनकी उपासना युद्ध में विजय के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, सुखमय तथा लंबे जीवन के लिए तथा संतान प्राप्ति के लिए की जाती थी। ऋग्वेद में विख्यात गायत्री मंत्र भी दिया गया है जिसे हिंदू आज भी प्रतिदिन पढ़ते हैं। ऋग्वेद की रचना का मुख्य उद्देश्य यद्यपि धार्मिक था किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्त्व है। यह वैदिक काल के लोगों के जीवन को जानने का हमारा एकमात्र तथा बहुमूल्य स्रोत है। भारतीय दर्शन को जानने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है।

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प्रश्न 14.
सामवेद के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Samaveda ?)
उत्तर-
साम शब्द से भाव सुरीले गीत से है। इस कारण सामवेद को सुरीले गीतों का एक संग्रह माना जाता है। इसमें कुल 1875 मंत्र हैं। इनमें से केवल 75 मंत्र नये हैं और बाकी के सभी मंत्र ऋग्वेद में से लिए गये हैं। ये मंत्र दो भागों में बाँटे गये हैं जिन को पूर्वरचिका तथा उत्तररचिका कहते हैं। पूर्वरचिका में 650 मंत्र हैं जबकि उत्तररचिका में 1225 मंत्र दिये गये हैं। इन मंत्रों को यज्ञ के समय सुरताल में गाया जाता था। जो पुरोहित इन मंत्रों को गाते थे उनको उद्गात्री कहा जाता था। इन मंत्रों को सात स्वरों में गाया जाता था। इन मंत्रों को गाते समय तीन प्रकार के वाद्यों वेणु, दुंदुभि और वीणा का प्रयोग किया जाता था। निस्संदेह सामवेद को भारतीय संगीत कला का पहला और अमूल्य स्रोत कहा जा सकता है।

प्रश्न 15.
यजुर्वेद के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए। (Give a brief account of the Yajurveda.)
उत्तर-
यजुर से भाव है यज्ञ तथा यजुर्वेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है। इस में कुल 2086 मंत्र दिये गये हैं। ये मंत्र 40 अध्यायों में बाँटे गये हैं। यजुर्वेद का कुछ भाग गद्य है और कुछ भाग कविता के रूप में है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस वेद की रचना कुरुक्षेत्र में हुई। इस वेद का उद्देश्य यज्ञों से संबंधित विधियों को बताना था। जो पुजारी यज्ञों के कार्यों में सहायता करते थे उनको “अध्वरयु” कहते थे। यज्ञों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था ताकि वे अपने श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं को पूरा करें। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान वेद कुहा जाता है। इस में दैवी शक्तियों को प्राप्त करने के लिए साधन भी बताये गये हैं। यह वेद दो भागों शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा हुआ है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्रों का वर्णन है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथसाथ उनके अर्थ भी दिये गये हैं। इस वेद से हमें आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 16.
अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the Atharvaveda.)
अथवा
अथर्ववेद के बारे में आप क्या जानते हैं ? उल्लेख करें। (What do you know about Atharvaveda ? Explain.)
उत्तर-
अथर्ववेद की रचना सब से बाद में हुई। इस वेद का नाम अर्थवन ऋषि के नाम से पड़ा। यह ऋषि जादुई शक्तियों का स्वामी था और भूतों-प्रेतों का नाश करने के लिए प्रसिद्ध था। अथर्ववेद वास्तव में जादू-टोनों के मंत्रों का संग्रह है। इस में भूतों और चुडैलों की शक्तियों और उनको वश में करने के तरीके बताये गये हैं। इस से पता लगता है कि आर्यों के धार्मिक जीवन में पहले से बहुत तबदीली आ गई थी। इन के अतिरिक्त इस वेद में अनेकों बीमारियों के उपचार का भी वर्णन किया गया है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता था क्योंकि यह वेद ब्राह्मण पुजारियों के लिए लिखा गया था। वे अग्नि की सहायता में मनुष्यों को भूतों-प्रेतों से बचा कर उनकी सहायता करते थे। अथर्ववेद में कुल 731 सूक्त और लगभग 6000 मंत्र हैं। इन मंत्रों में से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद में से लिये गये हैं। यह वेद 20 अध्यायों में बाँटा गया है। इस का 20वाँ अध्याय सब से बड़ा है जिसमें 928 मंत्रों का वर्णन है।

प्रश्न 17.
दर्शन के षट शास्त्र क्या हैं एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What is the importance of the Six Shastras of Philosophy ?)
अथवा
खट दर्शन के महत्त्व के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Khat Darshan.)
उत्तर-
उत्तर वैदिक काल में अलग-अलग ऋषियों ने भारतीय दर्शन से संबंधित 6 शास्त्र लिखे। इनके नाम ये हैं—

  1. कपिल का सांख्य शास्त्र,
  2. पतंजलि का योग शास्त्र,
  3. गौतम का न्याय शास्त्र
  4. कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
  5. जैमिनी का पूर्व मीमांसा और
  6. व्यास का उत्तर मीमांसा।

इनमें ऋषियों ने आत्मा-परमात्मा और जीवनमृत्यु से संबंधित अलग-अलग पहलुओं पर भरपूर प्रकाश डाला है। वास्तव में यह शास्त्र एक ऐसे दर्पण की तरह है जिसमें भारतीय दर्शन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रश्न 18.
महाकाव्य से क्या अभिप्राय है एवं इनका क्या महत्त्व है ? (What do you mean by Epics and their importance ?)”
उत्तर-
रामायण और महाभारत उत्तर वैदिक काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं । रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि जी ने की थी। इस में 24,000 श्लोक हैं। रामायण का मुख्य विषय श्री रामचंद्र और रावण के मध्य युद्ध है । महाभारत भारत का सब से बड़ा महाकाव्य है। इस की रचना ऋषि वेद व्यास ने की थी। इस में.1,00,000 से अधिक श्लोक दिये गये हैं। भगवद् गीता, महाभारत का ही एक हिस्सा है। महाभारत का मुख्य विषय पाँडवों और कौरवों के मध्य युद्ध है। ये दोनों महाकाव्य उस समय के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। इनमें कुछ काल्पनिक घटनाओं का वर्णन किया गया है। इसके बावजूद ऐतिहासिक पक्ष से इन दोनों महाकाव्यों का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 19.
वैदिक साहित्य के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य की महत्ता के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the importance of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य का क्या महत्त्व है ?
(What is importance of the Vedic Literature ?)
अथवा
वैदिक साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ बताओ।
(Describe the prominent features of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के प्रमुख लक्षणों के बारे में बताओ।
(Describe the salient features of Vedic Literature.)
उत्तर-
वैदिक साहित्य को भारतीय इतिहास में विशेष स्थान प्राप्त है। इस को हिंदू धर्म की जान कहा जा सकता है। इस का कारण यह है कि इस साहित्य में हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार की रचना कैसे हुई ? आत्मा क्या है ? उसका परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? मोक्ष क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? कर्म क्या है ? ज्ञान क्या है ? मनुष्य अवगुणों के चक्रों में क्यों भटकता रहता है ? ये कुछ ऐसे रहस्यवादी प्रश्न हैं जिनका उत्तर वैदिक साहित्य में बहुत स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इस तरह वैदिक साहित्य हिंदू धर्म को जानने के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह साहित्य आर्यों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए भी हमारा एक बहुमूल्य स्रोत है। संक्षेप में वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एक दर्पण का कार्य करता है। आधुनिक काल में यह न केवल भारतीय बल्कि विदेशी लेखकों और विद्वानों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र है। निस्संदेह यह हमारे लिए एक बहुत ही गर्व की बात है।

प्रश्न 20.
वेदों की संख्या और इनके रचयिता के बारे में जानकारी दीजिए। (Describe the number of Vedas and their author.)
अथवा
वैदिक साहित्य के किसी पाँच प्रमुख विषयों के बारे में वर्णन करो।
(Give a brief account of the main five subjects of the Vedic Literature.)
अथवा
वेदों में क्या दर्शाया गया है ? स्पष्ट करें।
(What has been described in Vedas ? Explain.)
अथवा
वैदिक साहित्य के किसी एक विषय के बारे में संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the one subject of Vedic Literature.)
अथवा
वैदिक साहित्य के विषय-वस्तु के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the subject matter of Vedic Literature.)
उत्तर-

  1. वेदों की संख्या-वेदों की संख्या चार है। इनके नाम हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
  2. विषय-वस्तु-वेदों के मुख्य विषय निम्नलिखित हैं—
    • सर्वेश्वरवाद-यद्यपि आर्य लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे परंतु उनमें से किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा जाता था। सभी को एक दूसरे से बढ़कर माना जाता था और आर्य लोग सभी देवताओं की प्रशंसा करते थे। जिस क्षेत्र से संबंधित जो देवता होता था, उसको उस क्षेत्र का प्रधान माना जाता था।
    • यज्ञ और बलियाँ-वैदिक काल में आर्य अपने देवी-देवताओं को खुश करने के लिए कई तरह के यज्ञ करते थे। इन यज्ञों को बहुत विधिपूर्वक किया जाता था। छोटे यज्ञ पारिवारिक स्तर के होते थे जबकि बड़े यज्ञ अमीर लोगों के द्वारा करवाये जाते थे। उत्तर वैदिक काल में यह यज्ञ जटिल हो गये थे। इन यज्ञों को करवाने के पीछे युद्ध में विजय, धन की प्राप्ति, संतान की प्राप्ति और सुखी जीवन मिलने की आशा की जाती थी।
    • संसार की उत्पत्ति कैसे हुई-संसार की उत्पत्ति कैसे हुई? इस से संबंधित हमें ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से जानकारी प्राप्त होती है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की उत्पत्ति से पहले अकेला ईश्वर ही था। उसके बिना चारों तरफ अंधकार था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने संसार की रचना कर दी।
    • आत्मा क्या है-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है।
    • ब्रह्म क्या है?-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह अमर है।

प्रश्न 21.
वैदिक साहित्य के अनुसार आत्मा एवं ब्रह्म से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Self and Absolute according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
1. आत्मा क्या है ?-आर्य आत्मा में विश्वास रखते थे। उपनिषदों में आत्मा शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। यह सर्वव्यापक चेतन तत्त्व है। सभी जीवों में जो चेतन शक्ति है वो ही आत्मा है। इसी कारण इस को सभी ज्योतियों की ज्योति माना जाता है। यह ब्रह्म अथवा ईश्वर है। यही जीव रूप धारण करके सबके हृदयों में निवास करती है। आत्मा अमर है। यह एक शरीर से दूसरे शरीर में तब तक प्रवेश करती रहती है जब तक यह कर्मों के बंधन से मुक्त न हो जाये। ऐसा होने पर यह ब्रह्म में लीन हो जाती है। इस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता।

2. ब्रह्म क्या है ?-उपनिषदों में ब्रह्म पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म एक तत्त्व है जिस से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वह असीम शक्तियों का स्वामी है। वह जो चाहे कर सकता है । वह निर्गुण भी है और सगुण भी। वह सभी ज्योतियों की ज्योति है। वह सत्य मन और आनंद रूप है। वह संपूर्ण ज्ञान का भंडार है। शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अमर है। ब्रह्म को आत्म रूप माना जाता है। इसी कारण ब्रह्म और आत्मा में कोई मूल भेद नहीं रह जाता।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 4 वैदिक साहित्य की जानकारी

प्रश्न 22.
रित और धर्मन से आपका क्या अभिप्राय है ? (What do you meant by Rita and Dharman ?)
उत्तर-
ऋग्वेद और दूसरे वैदिक ग्रंथों में रित और धर्मन शब्दों का अनेक बार वर्णन आया है। रित से भाव है वह व्यवस्था जिस के अनुसार संसार का प्रबंध चलता है। ऋत के नियमानुसार ही सुबह पौ फूटती है। सूर्य, चाँद और तारे चमकीले नज़र आते हैं। पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्र लगाती है। वह अंधेरे को दूर करके प्रकाश देती है। इस तरह रित एक सच्चाई है। इस का उल्ट अनऋत (झूठ) है। उपनिषदों के समय धर्म शब्द ने रित का स्थान ले लिया। धर्मन’ शब्द से भाव कानून से है। ये देवताओं द्वारा बनाये जाते थे। ये भौतिक संसार, मनुष्यों और बलियों पर लागू होते थे। अच्छे मनुष्य अपना जीवन धर्मन अनुसार व्यतीत करते थे।

प्रश्न 23.
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? (What is meant by Moksha according to Vedic Literature ?)
उत्तर-
वैदिक साहित्य के अनुसार मोक्ष प्राप्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। अविद्या अथवा अज्ञानता के कारण मनुष्य संसार के सुखों को प्राप्त करने के पीछे अपना सारा जीवन लगा देता है। वह एंद्रीय सुख भोग कर और धन प्राप्त करके यह समझता है कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। वह यह भूल जाता है कि सभी सुख क्षण-भंगुर हैं। इन कारणों के लिए वह कभी भवसागर से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। जब मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाता है तो उसके सभी शक अपने आप दूर हो जाते हैं। वह सब कुछ जान लेता है और संसार के बंधनों से छूट जाता है। यह मोक्ष की स्थिति है। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और हमेशा का सुख प्राप्त करती है।

प्रश्न 24.
पुरुष सूक्त के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Purusha-Sukta ?)
उत्तर-
पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के दसवें अध्याय में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों को, बाजुओं से क्षत्रियों को, जांघ से वैश्यों को और पाँवों से शूद्रों को पैदा किया। इस से कई इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि ऋग्वैदिक काल में जाति प्रथा प्रचलित हो गई थी। परंतु इस के संबंध में ऋग्वेद में कहीं और कोई वर्णन नहीं मिलता। यह कहा जाता है कि पुरुष सूक्त की रचना भी ऋग्वेद से कई सौ वर्ष बाद की गई थी। इसकी भाषा ऋग्वेद से भिन्न है। पुरुष सूक्त से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दुनिया में आ चुके थे। ब्राह्मण पुरोहित, क्षत्रिय युद्ध, वैश्य खेतीबाड़ी और व्यापार तथा शूद्र उपरोक्त तीन वर्गों की सेवा का कार्य करते थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1. वैदिक साहित्य से क्या भाव है ?
उत्तर- वैदिक साहित्य से भाव उस साहित्य से है जिसकी रचना आर्यों द्वारा की गई थी।

प्रश्न 2. वैदिक साहित्य की रचना किस भाषा में की गई है?
उत्तर-संस्कृत भाषा में।

प्रश्न 3. वैदिक साहित्य को कितने भागों में बाँटा गया है?
उत्तर-दो भागों में।

प्रश्न 4. वेदों का रचना काल बताएँ।
उत्तर-1500-600 ई० पू०

प्रश्न 5. वेदों की रचना किसने की ?
अथवा
वेदों का रचियता किसे माना जाता है ?
अथवा
हिंदू धर्म के अनुसार वेदों का रचयिता कौन है ?
उत्तर-वेदों की रचना ईश्वर के कहने पर ऋषियों ने की।

प्रश्न 6. श्रुति से क्या भाव है ?
उत्तर-श्रुति से भाव उस वैदिक साहित्य से है, जिसकी रचना ईश्वर के बताने पर ऋषियों द्वारा की गई।

प्रश्न 7. स्मृति से क्या भाव है ?
उत्तर-स्मृति से भाव उस वैदिक साहित्य से है, जिसकी रचना ईश्वर के बताने ऋषियों ने अपने ज्ञान द्वारा की।

प्रश्न 8. वेद से क्या भाव है ?
उत्तर-वेद से भाव है ज्ञान का भंडार।

प्रश्न 9. वेद शब्द किस भाषा से तथा कैसे बना ?
उत्तर-वेद शब्द संस्कृत भाषा के शब्द विद् से बना है, जिसका भाव है जानना।

प्रश्न 10. कुल कितने वेद हैं ?
उत्तर-कुल चार वेद हैं।

प्रश्न 11. चार वेदों की बाँट किसने की थी ?
उत्तर-चार वेदों की बाँट ऋषि वेद व्यास ने की थी।

प्रश्न 12. चार वेदों के नाम बताएँ।
अथवा
किन्हीं दो वेदों के नाम बताएँ।
उत्तर-चार वेदों के नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद है।

प्रश्न 13. वेदों के नाम व संख्या बताएँ।
उत्तर-वेदों के नाम ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद थे और इनकी संख्या चार है।

प्रश्न 14. भारत का सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण वेद कौन-सा है ?
अथवा
सबसे पुराना वेद कौन-सा माना जाता है ?
उत्तर-ऋग्वेद।

प्रश्न 15. ऋग्वेद का रचना काल क्या है ?
उत्तर-1500-1000 ई० पूर्व।

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प्रश्न 16. ऋग्वेद में कुल कितने सूक्त दिए गए हैं ?
उत्तर-1028 सूकत।

प्रश्न 17. ऋग्वेद को कुल कितने मंडलों में बाँटा गया है ?
उत्तर-10 मंडलों में।

प्रश्न 18. ऋग्वेद में कुल कितने भजन हैं ?
अथवा
ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या बताएँ।
उत्तर-ऋग्वेद में कुल मंत्रों की संख्या 10,552 हैं।

प्रश्न 19. ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र किस देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं ?
उत्तर-इंद्र देवता की।

प्रश्न 20. ऋग्वेद में इंद्र देवता की प्रशंसा में कुल कितने मंत्र दिये गए हैं ?
उत्तर–250 मंत्र।

प्रश्न 21. ऋग्वेद में जिन ऋषियों के मंत्र दिए गए हैं, उनमें से किन्हीं चार के नाम लिखें।
अथवा
ऋग्वेद में मंत्र लिखने वाले किन्हीं चार ऋषियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. वामदेव
  2. विश्वामित्र
  3. भारद्वाज
  4. अत्री।

प्रश्न 22. ऋग्वेद में जिन स्त्रियों ने मंत्र लिखें हैं उनमें से किन्हीं दो के नाम बताएँ।
अथवा
ऋग्वेद में मंत्र लिखने वाली किन्हीं दो स्त्रियों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. अपाला
  2. घोषा।

प्रश्न 23. हिंदुओं के प्रसिद्ध गायत्री मंत्र का वर्णन किस वेद में किया गया है ?
उत्तर-ऋग्वेद में।

प्रश्न 24. किस वेद को भारतीय संगीत कला का स्रोत कहा जाता है ?
उत्तर-सामवेद को।

प्रश्न 25. सामवेद में कुल कितने मंत्र दिए गए हैं ?
उत्तर-875 मंत्र।

प्रश्न 26. वेदों में दिए गए मंत्रों को गाने वाले पुरोहितों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-उद्गात्री।

प्रश्न 27. किस वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं ?
उत्तर-यजुर्वेद में।

प्रश्न 28. यज्ञों के समय बलि देने वाले पुरोहितों को क्या कहा जाता था ?
उत्तर-होतरी।

प्रश्न 29. यजुर्वेद को कौन-से दो भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर-

  1. शुक्ल यजुर्वेद
  2. कृष्ण यजुर्वेद ।

प्रश्न 30. किस वेद की रचना सबसे बाद में हुई ?
उत्तर- अथर्ववेद।

प्रश्न 31. अथर्ववेद में कुल कितने सूक्त दिए गए हैं ?
उत्तर-731 सूक्त।

प्रश्न 32. किस वेद में जादू टोनों के मंत्रों का संग्रह है ?
उत्तर-अथर्ववेद।

प्रश्न 33. किन्हीं दो वेदों के नाम बताओ जो त्रिविधिया में शामिल थे ?
उत्तर-

  1. ऋग्वेद
  2. सामवेद।

प्रश्न 34. ब्राह्मण ग्रंथों की रचना क्यों की, गई थी ?
उत्तर-वेदों की सरल व्याख्या के लिए।

प्रश्न 35. किन्हीं दो ब्राह्मण ग्रंथों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. ऐतरीय ब्राह्मण
  2. तैत्तरीय ब्राह्मण।

प्रश्न 36. जंगलों में रहने वाले साधुओं के निर्देशों के लिए कौन-से ग्रंथों की रचना की गई थी ?
उत्तर- अरणायक ग्रंथों की।

प्रश्न 37. वेदांग से क्या भाव है ?
उत्तर-वेदों का अंग।

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प्रश्न 38. किन्हीं दो वेदांगों के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. शिक्षा
  2. कल्प।

प्रश्न 39. आर्यों के धार्मिक रीति-रिवाजों का वर्णन किस वेदांग में दिया गया है ?
उत्तर-कल्प वेदांग में।

प्रश्न 40. किन्हीं दो तरह के सूत्रों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. स्रोत सूत्र
  2. ग्रह सूत्र।

प्रश्न 41. उपवेद कितने हैं ?
उत्तर-चार।

प्रश्न 42. किन्हीं दो उपवेदों के नाम लिखो।
उत्तर-

  1. आयुर्वेद
  2. धनुर्वेद।

प्रश्न 43. किस वेद में औषधियों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-आयुर्वेद।

प्रश्न 44. उस वेद का नाम बताओ जिस में युद्ध-कला का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-धनुर्वेद।

प्रश्न 45. गंधर्ववेद में किन विषयों पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर-संगीत कला के।

प्रश्न 46. योग शास्त्र की रचना किसने की थी ?
उत्तर-पतंजलि।

प्रश्न 47. किन्हीं दो शास्त्रों के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. योग शास्त्र
  2. न्याय शास्त्र।

प्रश्न 48. भारत के दो प्रसिद्ध महाकाव्य कौन-से है ?
उत्तर-

  1. रामायण
  2. महाभारत।

प्रश्न 49. भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य कौन-सा है ?
उत्तर-महाभारत।

प्रश्न 50. महाभारत की रचना किसने की थी ?
उत्तर-महर्षि वेद व्यास जी ने।

प्रश्न 51. महाभारत में कितने श्लोक दिए हैं ?
उत्तर-महाभारत में एक लाख से ज्यादा श्लोक दिए गए हैं।

प्रश्न 52. रामायण की रचना किसने की थी ?
उत्तर-महर्षि वाल्मीकि जी ने।

प्रश्न 53. रामायण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
उत्तर-24,000 श्लोक।

प्रश्न 54. वैदिक साहित्य के कोई दो मुख्य विषय बताओ।
उत्तर-

  1. आत्मा क्या है
  2. ऋत और धर्मन।

प्रश्न 55. ऋग्वेद के अनुसार आर्यों के देवताओं की कुल गिनती कितनी है ?
उत्तर-33.

प्रश्न 56. ऋग्वेद के किस सूक्त से संसार की उत्पत्ति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है ?
उत्तर-ऋग्वेद के नासदिया सूक्त से संसार की उत्पत्ति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 57. वैदिक साहित के अनुसार मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-मोक्ष प्राप्त करना।

प्रश्न 58. ऋग्वेद के किस सूक्त में चार जातियों का वर्णन किया गया है ?
उत्तर-पुरुष सूक्त में।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. वेदों की कुल संख्या ………. है।
उत्तर-चार

प्रश्न 2. ……….. आर्यों का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है।
उत्तर-ऋग्वेद

प्रश्न 3. ऋग्वेद में ………… सूक्त हैं।
उत्तर-1028

प्रश्न 4. सामवेद को ………… ग्रंथ भी कहा जाता है।
उत्तर-गायन

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प्रश्न 5. …………. में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं।
उत्तर-यजुर्वेद

प्रश्न 6. …….. में अनेक बीमारियों से बचने के लिए औषधियों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-अथर्ववेद

प्रश्न 7. उपनिषदों की कुल संख्या ……….. है।
उत्तर-108

प्रश्न 8. वेदांग से भाव है ……….. के अंग।
उत्तर-वेदों

प्रश्न 9. वेदांगों की कुल संख्या ………… है।
उत्तर-6

प्रश्न 10. ……….. में युद्ध कला का वर्णन किया गया है।
उत्तर-धनुर्वेद

प्रश्न 11. …………. में संगीत संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
उत्तर-गधर्व वेद

प्रश्न 12. योग शास्त्र का लेखक ……… था।
उत्तर-पतंजलि

प्रश्न 13. न्याय शास्त्र के लेखक का नाम ……….. था।
उत्तर-गौतम

प्रश्न 14. रामायण की रचना ……….. ने की थी।
उत्तर-महर्षि वाल्मीकि जी

प्रश्न 15. महाभारत की रचना ………… ने की थी।
उत्तर- महर्षि वेद व्यास जी

प्रश्न 16. यज्ञों के समय आहूति देने वाले पुजारियों को …….. कहा जाता है।
उत्तर-होत्री

प्रश्न 17. वैदिक साहित्य ………. भाषा में लिखा गया है।
उत्तर-संस्कृत

प्रश्न 18. पुरुष-सूक्त का वर्णन ……… में किया गया है।
उत्तर–ऋग्वेद

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा ग़लत चुनें—

प्रश्न 1. ऋग्वैदिक साहित्य को स्मृति भी कहा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. वेदों की कुल संख्या आठ है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. ऋग्वेद आर्यों का सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण वेद है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. वेदों को पालि भाषा में लिखा गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. महर्षि वेद व्यास जी ने वेदों का विभाजन किया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. ऋग्वेद को 10 मंडलों में बांटा गया है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र अग्नि देवता की प्रशंसा में दिए गए हैं।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. उदगात्री वह पुरोहित थे जो सुर-ताल में मंत्रों का उच्चारण करते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. यर्जुवेद यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का ग्रंथ है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. अर्थववेद को ब्रह्मदेव के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. ब्राह्मण ग्रंथ उपनिषदों का अंग है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 12. उपनिषदों की कुल गिनती 108 है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. वेदांगों में कलप वेदांग को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. धर्म सूत्र में मौर्य काल में प्रचलित कानूनों और रिवाज़ों का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. उपवेदों की कुल गिनती चार है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. आर्युवेद में युद्ध कला का वर्णन किया गया है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 17. कपिल ने सांख्य शास्त्र की रचना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकी जी ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 19. महाभारत में दिए गए श्लोकों की संख्या 24,000 है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 20. वैदिक साहित्य के अनुसार मानवीय जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है।
उत्तर-ठीक

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य को किस भाषा में लिखा गया है ?
(i) पालि में
(ii) प्राकृति में
(iii) हिंदी में
(iv) संस्कृत में।
उत्तर-
(iv) संस्कृत में।

प्रश्न 2.
वेदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 4
(ii) 5
(iii) 6
(iv) 18
उत्तर-
(i) 4

प्रश्न 3.
वेदों का विभाजन किस ऋषि ने किया था ?
(i) वेद व्यास
(ii) विशिष्ठ
(iii) विश्वामित्र
(iv) गौतम।
उत्तर-
(i) वेद व्यास

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद सबसे पुराना और महत्त्वपूर्ण है ?
(i) ऋग्वेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(i) ऋग्वेद

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद नहीं है ?
(i) गंधर्ववेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(i) गंधर्ववेद

प्रश्न 6.
ऋग्वेद में कितने सूक्त दिए गए हैं ?
(i) 1028
(ii) 1873
(iii) 731
(iv) 10,552
उत्तर-
(i) 1028

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा वेद त्रिविधा में शामिल नहीं है ?
(i) अथर्ववेद
(ii) यर्जुवेद
(iii) ऋग्वेद
(iv) सामवेद।
उत्तर-
(i) अथर्ववेद

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से किस वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले मंत्र दिए गए हैं ?
(i) ऋग्वेद
(ii) सामवेद
(iii) यर्जुवेद
(iv) अथर्ववेद।
उत्तर-
(iii) यर्जुवेद

प्रश्न 9.
आरण्यक ग्रंथ किन ग्रंथों का भाग है ?
(i) उपनिषद
(ii) ब्राह्मण
(iii) धर्मशास्त्र
(iv) महाभारत।
उत्तर-
(ii) ब्राह्मण

प्रश्न 10.
उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है ?
(i) 18
(ii) 108
(iii) 48
(iv) 128
उत्तर-
(ii) 108

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से किस उपवेद में दवाइयों का वर्णन किया गया है
(i) आयुर्वेद
(ii) धर्नुवेद
(iii) गंधर्ववेद
(iv) शिल्पवेद।
उत्तर-
(i) आयुर्वेद

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किसने योग शास्त्र की रचना की थी ?
(i) कपिल
(ii) पंतजलि
(iii) गौतम
(iv) व्यास।
उत्तर-
(ii) पंतजलि

प्रश्न 13.
रामायण की रचना, किसने की थी ?
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने
(iii) महर्षि विश्वामित्र जी ने
(iv) महर्षि गौतम जी ने।
उत्तर-
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने

प्रश्न 14.
रामायण में कितने श्लोक दिए गए हैं ?
(i) 14,000
(ii) 20,000
(iii) 24,000
(iv) 26,000।
उत्तर-
(iii) 24,000

प्रश्न 15.
महाभारत की रचना किसने की थी ?
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने
(ii) महर्षि बाल्मीकी जी ने
(iii) महर्षि गौतम जी ने
(iv) महर्षि विशिष्ठ जी ने।
उत्तर-
(i) महर्षि वेद व्यास जी ने

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

Punjab State Board PSEB 12th Class Religion Book Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई० Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 12 Religion Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the life of the founder of the Sikh faith Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
सिख धर्म कैसे आरंभ हुआ ?
(How Sikhism came into being ?)
अथवा
सिख धर्म के प्रारंभ के विषय में जानकारी दीजिए।
(Explain the origin of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के बारे में भावपूर्वक संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief but meaning the origin of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म का आरंभ कैसे और किसने किया ? चर्चा कीजिए। (How did Sikhism was originated and by whom ? Discuss.) .
अथवा
सिख धर्म का आरंभ क्यों और कैसे हुआ ? चर्चा कीजिए।
(Why and how the Sikhism was originated ? Elucidate.)
अथवा
सिख धर्म के संस्थापक के जीवन पर प्रकाश डालें। (Throw light on the life of the founder of the Sikh faith.)
अथवा
सिख धर्म के संस्थापक के जीवन पर एक नोट लिखें। (Write a note on the life of the founder of the Sikh faith.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the life of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
“सिख धर्म को गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया। प्रकाश डालिए।” (“Sikhism was orginated by Guru Nanak Dev Ji.” Elucidate.)
उत्तर-
सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी की गणना विश्व के महापुरुषों में की जाती है। गुरु नानक साहिब ने अज्ञानता के अंधकार में भटक रही मानवता को ज्ञान का मार्ग दिखाया। उन्होंने लोगों को सत्यनाम और भ्रातृत्व का संदेश दिया। गुरु नानक साहिब जी के महान् जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अगदार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 16 ई० को पूर्णिमा के दिन राय भोय की तलवंडी में हुआ। यह स्थान अब पाकिस्तान के शेखूपुरा जिला में इस पवित्र स्थान को आजकल ननकाणा साहिब कहा जाता है। गुरु नानक साहिब के पिता जी का नाम महा कालू जी और माता जी का नाम तृप्ता देवी जी था। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु साहिब के जन्म के समय अनेक चमत्कार हुए। भाई गुरदास जी लिखते हैं—
सतगुरु नानक प्रगटिया मिटी धुंध जग चानण होया॥ जिओ कर सरज निकलिया तारे छपे अंधेर पलोया॥

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

2. बचपन और शिक्षा (Childhood and Education)-गुरु नानक देव जी बचपन से ही बहुत गंभीर और विचारशील स्वभाव के थे। उनका झुकाव खेलों की ओर कम और प्रभु-भक्ति की ओर अधिक था। गुरु साहिब जब सात वर्ष के हुए तो उन्हें पंडित गोपाल की पाठशाला में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा गया। इसके पश्चात् गुरु साहिब ने पंडित बृजनाथ से संस्कृत तथा मुल्ला कुतुबुद्दीन से फ़ारसी और अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। जब गुरु नानक देव जी 9 वर्ष के हुए तो पुरोहित हरिदयाल को उन्हें जनेऊ पहनाने के लिए बुलाया गया। परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि वे केवल दया, संतोष, जत और सत से निर्मित जनेऊ पहनेंगे जो न टूटे, न जले और न ही मलिन हो पाये।

3. भिन्न-भिन्न व्यवसायों में (In Various Occupations)-गुरु नानक देव जी को अपने विचारों में मगन देखकर उनके पिता जी ने उन्हें किसी कार्य में लगाने का यत्न किया। सर्वप्रथम गुरु नानक देव जी को भैंसें चराने का कार्य सौंपा गया परंतु गुरु नानक देव जी ने कोई रुचि न दिखाई। फलस्वरूप अब गुरु साहिब को व्यापार में लगाने का निर्णय किया गया। गुरु जी को 20 रुपये दिए गए और मंडी भेजा गया। मार्ग में गुरु साहिब को भूखे साधुओं की टोली मिली। गुरु नानक देव जी ने अपने सारे रुपये इन साधुओं को भोजन खिलाने में व्यय कर दिए और खाली हाथ लौट आए। यह घटना इतिहास में ‘सच्चा सौदा’ के नाम से जानी जाती है।

4. विवाह (Marriage)-गुरु नानक देव जी की सांसारिक कार्यों में रुचि उत्पन्न करने के लिए मेहता कालू जी ने आपका विवाह बटाला निवासी मूल चंद की सुपुत्री सुलक्खनी देवी जी से कर दिया। उस समय आपकी आयु 14 वर्ष थी। समय के साथ आपके घर दो पुत्रों श्री चंद और लखमी दास ने जन्म लिया।

5. सुल्तानपुर में नौकरी (Service at Sultanpur)-जब गुरु नानक देव जी 20 वर्ष के हुए तो मेहता कालू जी ने आपको सुल्तानपुर में अपने जंवाई जयराम के पास भेज दिया। उनकी सिफ़ारिश पर नानक जी को मोदीखाना अन्न भंडार में नौकरी मिल गई। गुरु साहिब ने यह कार्य बड़ी योग्यता से किया।

6. ज्ञान प्राप्ति (Enlightenment)-गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर में रहते हुए प्रतिदिन सुबह बेईं नदी में स्नान करने के लिए जाते थे। एक दिन वे स्नान करने गए और तीन दिनों तक लुप्त रहे। इस समय उन्हें सत्य ज्ञान की प्राप्ति हुई । उस समय गुरु नानक साहिब की आयु 30 वर्ष थी। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् गुरु साहिब ने सर्वप्रथम “न को हिंदू, न को मुसलमान” शब्द कहे।

7. उदासियाँ (Travels)-गुरु नानक देव जी ने 1499 ई० में ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं को उदासियाँ भी कहा जाता है। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता एवं अंधविश्वास को दूर करना था तथा परस्पर भ्रातृभाव व एक ईश्वर का प्रचार करना था। भारत में गुरु नानक साहिब जी ने दर में कैलाश पर्वत से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक तथा पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में आसाम तक की यात्रा की। गुरु साहिब भारत से बाहर मक्का, मदीना, बगदाद तथा लंका भी गए। गुरु साहिब की यात्राओं के बारे में हमें उनकी बाणी से महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। गुरु नानक साहिब जी ने अपने जीवन के लगभग 21 वर्ष इन यात्राओं में बिताए। इन यात्राओं के दौरान गुरु नानक देव जी लोगों में फैले अंध-विश्वास को काफी सीमा तक दूर करने में सफल हुए तथा उन्होंने नाम के चक को चारों दिशाओं में फैलाया।

8. करतारपुर में निवास (Settled at Kartarpur)-गुरु नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर 1521 ई० में करतारपुर नामक नगर की स्थापना की। यहाँ गुरु साहिब जी ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की। गुरु साहिब का यह कार्य सिख पंथ के विकास के लिए एक मील पत्थर सिद्ध हुआ। गुरु नानक साहिब की प्रमुख वाणियों के नाम जपुजी साहिब, वार माझ, आसा दी वार, सिद्ध गोष्टि, वार मल्हार, बारह माह और पट्टी इत्यादि हैं।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)–गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई लहणा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार भाई लहणा जी गुरु अंगद देव जी बने। इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने एक ऐसा पौधा लगाया जो गुरु गोबिंद सिंह जी के समय एक घने वृक्ष का रूप धारण कर गया। डॉक्टर हरी राम गुप्ता के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति एक बहुत ही दूरदर्शिता वाला कार्य था।”1

10. ज्योति-जोत समाना (Immersed in Eternal Light)—गुरु नानक देव जी 22 सितंबर, 1539 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

1. The apperiance of Angod was a step of far-reaching significance.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Guru New Delhi : 1973 p.81.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (1)
GURU NANAK DEV JI

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का वर्णन करें इनका क्या उद्देश्य था ? (Write a note on the Udasis of Guru Nanak Dev Ji. What was the aim of these Udasis ?)
अथवा
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (What is meant by Udasis ? Give a brief account of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
संक्षेप में गुरु नानक देव जी की उदासियों का वर्णन करें। उनका क्या उद्देश्य था ? (Briefly discuss the travels (Udasis) of Guru Nanak Dev Ji. What was their aim ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। इन उदासियों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ? (Describe briefly the Udasis of Guru Nanak Dev Ji. What was their impact on society ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की चार उदासियों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the four Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
1439 ई० में ज्ञान – प्राप्ति के पश्चात् गुरु नानक देव ही देश और विदेशों की लंबी यात्रा के लिए निकल पूरे गुर मानष्य 21 वर्ष इन यात्राओं में व्यतीत किए। गुरु नानक साहिब की इन यात्राओं को उदासियाँ भी कहा जाता है क्योंकि गुरु साहिब जी इस समय के दौरान घर-द्वार त्याग कर एक उदासी की भाँति भ्रमण करते रहे। गुरु नानक साहिब जी ने कुल कितनी उदासियाँ कीं, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। आधुनिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि गुरु नानक देव जी की उदासियों की संख्या तीन थी।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (2)
GURDWARA NANKANA SAHIB: PAKISTAN

उदासियों का उद्देश्य (Objects of the Udasis)
गुरु नानक देव जी की उदासियों का प्रमुख उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता और अंध-विश्वासों को दूर करना था। उस समय हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्म के मार्ग से भटक चुके थे। हिंदू ब्राह्मण और योगी जिनका प्रमुख कार्य भटके हुए लोगों को सही मार्ग दिखाना था, वे स्वयं ही भ्रष्ट और आचरणहीन हो चुके थे। लोगों ने असंख्य देवी-देवताओं, कब्रों, वृक्षों, सर्पो और पत्थरों इत्यादि की आराधना आरंभ कर दी थी। मुसलमानों के धार्मिक नेता भी चरित्रहीन हो चुके थे। उस समय अधिकाँश मुसलमान भोग-विलास का जीवन व्यतीत करते थे। समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। समाज में स्त्रियों की दशा बहुत ही दयनीय थी। गुरु नानक साहिब जी ने अज्ञानता में भटक रहे इन लोगों को प्रकाश का एक नया मार्ग बताने के लिए यात्राएँ कीं।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० एस० एस० कोहली के अनुसार,
“इस महापुरुष ने अपने मिशन को इस देश तक सीमित नहीं रखा। उसने सारी मानवता की जागति के लिए दूर-दूर के देशों की यात्राएँ कीं।”2

प्रथम उदासी (First Udasi)
गुरु नानक देव जी ने 1499 ई० के अंत में अपनी पहली यात्रा आरंभ की। इन यात्राओं के समय भाई मरदाना जी उनके साथ रहे। इस यात्रा को गुरु नानक देव जी ने 12 वर्ष में संपूर्ण किया और वह पूर्व से दक्षिण की ओर गए। इस यात्रा के दौरान गुरु जी ने निम्नलिखित प्रमुख स्थानों की यात्रा की—

1. सैदपुर (Saidpur)-गुरु नानक देव जी अपनी प्रथम उदासी के दौरान सर्वप्रथम सैदपुर पहुँचे। यहाँ पहुँचने पर मलिक भागो ने गुरु साहिब को एक ब्रह्मभोज पर निमंत्रण दिया, परंतु गुरु साहिब एक निर्धन बढ़ई भाई लालो के घर ठहरे। जब इस संबंध में मलिक भागो ने गुरु नानक साहिब से पूछा तो उन्होंने एक हाथ में मलिक भागो के भोज और दूसरे हाथ में भाई लालो की सूखी रोटी लेकर ज़ोर से दबाया। मलिक भागो के भोज से खून और भाई लालो की रोटी में से दूध निकला। इस प्रकार गुरु साहिब ने उसे बताया कि हमें श्रम तथा ईमानदारी की कमाई करनी चाहिए।

2. तालुंबा (Talumba)-तालुंबा में गुरु नानक देव जी की भेंट सज्जन ठग से हुई। उसने यात्रियों के लिए अपनी हवेली में एक मंदिर और मस्जिद बनाई हुई थी। वह दिन के समय तो यात्रियों की खूब सेवा करता किंतु रात के समय उन्हें लूटकर कुएँ में फैंक देता था। वह गुरु नानक देव जी और मरदाना के साथ भी कुछ ऐसा ही करने की योजनाएँ बना रहा था। रात्रि के समय जब गुरु नानक साहिब ने वाणी पढ़ी तो सज्जन ठग गुरु साहिब के चरणों में गिर पड़ा। गुरु नानक देव जी ने उसे क्षमा कर दिया। इस घटना के पश्चात् सज्जन ने अपना शेष जीवन सिख धर्म का प्रचार करने में व्यतीत किया। के० एस० दुग्गल के अनुसार,
“सज्जन की सराय जो कि एक वधस्थल था, एक धर्मशाला में परिवर्तित हो गया।”3

3. कुरुक्षेत्र (Kurukshetra)—गुरु नानक देव जी सूर्य ग्रहण के अवसर.पर कुरुक्षेत्र पहुँचे। इस अवसर पर हज़ारों ब्राह्मण और साधु एकत्रित हुए थे। कहा जाता है कि एक श्रद्धालु ने उन्हें हिरण का माँस भेट किया। गुरु जी ने उस श्रद्धालु को वहाँ ही वह माँस पकाने की आज्ञा दे दी। ब्राह्मण यह सहन करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने गुरु जी को भला-बुरा कहना आरंभ कर दिया। गुरु साहिब शाँत बने रहे। उन्होंने ब्राह्मणों को समझाया कि हमें व्यर्थ की बातों पर झगड़ने की अपेक्षा अपनी आत्मा को पवित्र रखने की ओर ध्यान देना चाहिए। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके अनुयायी बन गए। अधिकाँश इतिहासकार इस घटना से सहमत नहीं हैं।

4. दिल्ली (Delhi)-दिल्ली में गुरु नानक देव जी मजनूं का टिल्ला में रुके। कहा जाता है कि गुरु नानक साहिब ने दिल्ली में इब्राहीम लोधी के एक मुर्दा हाथी को जीवित कर दिया था। सिख परंपरा के अनुसार इस घटना को ठीक नहीं माना जाता।

5. हरिद्वार (Haridwar)—गुरु नानक देव जी जब हरिद्वार पहुँचे तो वहाँ बड़ी संख्या में हिंदू स्नान करते हुए पूर्व की ओर मुँह करके सूर्य और पितरों को पानी दे रहे थे। ऐसा देखकर गुरु साहिब ने पश्चिम की ओर मुँह करके पानी देना आरंभ कर दिया। यह देखकर लोग गुरु जी से पूछने लगे कि वे क्या कर रहे हैं। गुरु जी ने कहा कि वे करतारपुर में अपने खेतों को पानी दे रहे हैं। यह उत्तर सुनकर लोग हंस पड़े और कहने लगे कि यह पानी यहाँ से 300 मील दूर उनके खेतों में कैसे पहुँच सकता है ? गुरु जी ने उत्तर दिया कि यदि तुम्हारा पानी लाखों मील दूर स्थित सूर्य तक पहुँच सकता है तो मेरा पानी इतने निकट स्थित खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता ? गुरु जी के इस उत्तर से लोग बहुत प्रभावित हुए तथा उनके अनुयायी बन गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

6. गोरखमता (Gorakhmata)-हरिद्वार के पश्चात् गुरु नानक देव जी गोरखमता पहुँचे। गुरु नानक साहिब ने यहाँ के सिद्ध योगियों को बताया कि कानों में कुंडल पहनने, शरीर पर विभूति रमाने, गैंख बजाने से अथवा सिर मुँडवा देने से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। मुक्ति तो आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है। ये योगी गुरु साहिब के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित हुए। उस समय से ही गोरखमता का नाम नानकमता पड़ गया।

7. बनारस (Banaras)-बनारस भी हिंदुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु नानक देव जी का पंडित चतर दास से मूर्ति-पूजा के संबंध में एक दीर्घ वार्तालाप हुआ। गुरु जी के उपदेशों से प्रभावित होकर चतर दास गुरु जी का सिख बन गया।

8. कामरूप (Kamrup)-धुबरी से गुरु नानक देव जी कामरूप (असम) पहुँचे। यहाँ की प्रसिद्ध जादूगरनी नूरशाही ने अपनी सुंदरता के बल पर गुरु जी को भटकाने का असफल प्रयास किया। गुरु जी ने उसे जीवन का सही मनोरथ बताया।

9. जगन्नाथ पुरी (Jagannath Puri)-असम की यात्रा के पश्चात् गुरु नानक देव जी उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी पहुँचे! पंडितों ने गुरु साहिब को जगन्नाथ देवता की आरती करने के लिए कहा। गुरु नानक साहिब ने उन्हें बताया कि उस परम पिता परमात्मा की आरती प्रकृति सदैव करती रहती है।

10. लंका (Ceylon)-गुरु नानक जी दक्षिण भारत के प्रदेशों से होते हुए लंका पहुँचे। गुरु साहिब के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होकर लंका का राजा शिवनाथ गुरु जी का अनुयायी बन गया।

11. पाकपटन (Pakpattan)—लंका से पंजाब वापसी के समय गुरु नानक देव जी पाकपटन में ठहरे। यहाँ वे शेख फरीद जी की गद्दी पर बैठे शेख़ ब्रह्म को मिले। यह मुलाकात दोनों के लिए एक प्रसन्नता का स्रोत सिद्ध हुई।

2. “The Great Master did not confine his mission to this country; he travelled far and wide to far off lands and countries in order to enlighten humanity as a whole.” S.S. Kohli, Travels of Guru Nanak (Chandigarh : 1978) p. IX.
3. “Sajjan’s den of an assassin was transformed into a dharmsala.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 16.

द्वितीय उदासी
(Second Udasi)
गुरु नानक देव जी ने 1513-14 ई० में अपनी द्वितीय उदासी उत्तर की ओर आरंभ की। इस उदासी में उन्हें चार वर्ष लगे। इस उदासी के दौरान गुरु नानक साहिब निम्नलिखित प्रमुख स्थानों पर गए—

  1. पहाड़ी रियासतें (Hilly States)—गुरु नानक देव जी ने मंडी, रवालसर, ज्वालामुखी, काँगड़ा, बैजनाथ और कुल्लू इत्यादि पहाड़ी रियासतों की यात्रा की। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से प्रभावित होकर इन पहाड़ी रियासतों के बहुत-से लोग उनके अनुयायी बन गए।
  2. कैलाश पर्वत (Kailash Parvat) गुरु नानक देव जी तिब्बत से होते हुए कैलाश पर्वत पहुँचे। गुरु साहिब के यहाँ पहुँचने पर सिद्ध बहुत हैरान हुए। गुरु नानक देव जी ने उन्हें बताया कि संसार में से सत्य लुप्त हो गया है और चारों ओर भ्रष्टाचार और झूठ का बोलबाला है। इसलिए गुरु साहिब ने उन्हें मानवता का पथ-प्रदर्शन करने का संदेश दिया।
  3. लद्दाख (Ladakh)-कैलाश पर्वत के पश्चात् गुरु नानक देव जी लद्दाख पहुँचे। यहाँ के बहुत-से लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए।
  4. कश्मीर (Kashmir)-कश्मीर में स्थित मटन में गुरु नानक देव जी का पंडित ब्रह्मदास से काफ़ी लंबा धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ। गुरु नानक साहिब ने उसे समझाया कि मुक्ति केवल वेदों और रामायण इत्यादि को पढ़ने से नहीं अपितु उनमें दी गई बातों पर अमल करके प्राप्त की जा सकती है।
  5. हसन अब्दाल (Hasan Abdal)-गुरु नानक देव जी पंजाब की वापसी यात्रा के समय हसन अब्दाल ठहरे। यहाँ एक अहँकारी फकीर वली कंधारी ने गुरु नानक साहिब को कुचलने के उद्देश्य से एक बहुत बड़ा पत्थर पहाड़ी से नीचे की ओर लुढ़का दिया। गुरु साहिब ने इसे अपने पंजे से रोक दिया। इस स्थान को आजकल पंजा साहिब कहा जाता है।
  6. स्यालकोट (Sialkot) स्यालकोट में गुरु नानक देव जी की मुलाकात एक मुसलमान संत हमजा गौस से हुई। उसने किसी बात पर नाराज़ होकर अपनी शक्ति द्वारा सारे शहर को नष्ट करने का निर्णय कर लिया था। परंतु जब वह गुरु साहिब से मिला तो वह उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपना निर्णय बदल दिया। इस घटना का लोगों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

तृतीय उदासी
(Third Udasi) गुरु नानक देव जी ने 1517 ई० में अपनी तृतीय उदासी आरंभ की। इस उदासी के दौरान गुरु साहिब पश्चिमी एशिया के देशों की ओर गए। इस उदासी के दौरान गुरु नानक साहिब ने निम्नलिखित प्रमुख स्थानों की यात्रा की—

  1. मुलतान (Multan)-मुलतान में बहुत-से सूफ़ी संत निवास करते थे। मुलतान में गुरु साहिब की भेंट प्रसिद्ध सूफी संत शेख बहाउद्दीन से हुई। शेख बहाउद्दीन उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए।
  2. मक्का (Mecca)मक्का हज़रत मुहम्मद साहिब का जन्म स्थान है । सिख परम्परा के अनुसार गुरु नानक . देव जी जब मक्का पहुँचे तो काअबे की ओर पाँव करके सो गए। जब काज़ी रुकनुद्दीन ने यह देखा तो वह क्रोधित
    हो गया। कहा जाता है कि जब काजी ने गुरु साहिब के पाँव पकड़कर दूसरी ओर घुमाने आरंभ किए तो मेहराब भी उसी ओर घूमने लग पड़ा। यह देखकर मुसलमान बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब ने उन्हें समझाया कि अल्लाह सर्वव्यापक है।
  3. मदीना (Madina)-मक्का के पश्चात् गुरु नानक देव जी मदीना पहुँचे। गुरु साहिब ने अपने उपदेशों का प्रचार किया। यहाँ गुरु साहिब का इमाम आज़िम के साथ शास्त्रार्थ भी हुआ।
  4. बगदाद (Baghdad)-बगदाद में गुरु नानक देव जी की भेंट शेख बहलोल से हुई। वह गुरु साहिब की वाणी से प्रभावित होकर उनका श्रद्धालु बन गया।
  5. कंधार और काबुल (Qandhar and Kabul)-बगदाद की यात्रा के पश्चात् गुरु नानक देव जी पहले कंधार और फिर काबुल पहुँचे। गुरु नानक देव जी ने यहाँ अपने उपदेशों का प्रचार किया। काबुल के बहुत-से लोग गुरु साहिब के श्रद्धालु बन गए। वे आज भी गुरु नानक साहिब का बहुत सम्मान करते हैं।
  6. पेशावर (Peshawar)-पेशावर में गुरु नानक साहिब का योगियों से काफी दोघं वार्तालाप हआ। गुरु साहिब ने उन्हें धर्म का वास्तविक मार्ग बताया।

सैदपुर (Saidpur)-गुरु नानक देव जी जब 1520-21 ई० में सैदपुर पहुँचे तो उस समय बाबर ने पंजाब पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से वहाँ पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के समय मुग़ल सेनाओं ने बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। सैदपुर में भारी लूटपाट की गई और घरों में आग लगा दी गई। स्त्रियों को अपमानित किया गया। हज़ारों की संख्या में पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया। इन बंदी बनाए गए लोगों में गुरु नानक साहिब जी भी थे। जब बाद में बाबर को यह ज्ञात हुआ कि गुरु साहिब एक महान् संत हैं तो वह गुरु जी के दर्शनों के लिए स्वयं आया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने न केवल गुरु नानक साहिब को बल्कि बहुत से अन्य बंदियों को भी रिहा कर दिया। बाबर के अत्याचारों के संबंध में गुरु नानक साहिब बाबर वाणी में लिखते हैं,

“जैसी मैं आवे खसम की वाणी तैसड़ा करी ज्ञान वे लालो।
पाप की जंज लै काबलह धाया जोरि मंमे दान वे लालो।
शर्म धर्म दोए छप खलोए कूड़ फिरे प्रधान वे लालो।
काजियां ब्राह्मणां की गल थक्की अगद पढ़े शैतान वे लालो”

इसके पश्चात् गुरु नानक देव जी तलवंडी आ गए। इस प्रकार गुरु नानक साहिब की इन यात्राओं की श्रृंखला 1521 ई० में समाप्त हुई।

उदासियों का प्रभाव (Impact of the Udasis)-
गुरु नानक देव जी की यात्राओं के बहुत महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। वे लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करने और उनमें एक नई जागृति लाने में काफी सीमा तक सफल हुए। उन्होंने अपनी मधुर वाणी द्वारा बड़े-बड़े विद्वानों, योगियों, सिद्धों, ब्राह्मणों, चोरों, ठगों और अपराधियों का दिल जीत लिया। गुरु साहिब से मिलने के पश्चात् इन व्यक्तियों की जीवन-धारा ही परिवर्तित हो गई। गुरु साहिब के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों की संख्या में लोग उनके श्रद्धालु बन गए। अंत में हम डॉक्टर एस० एस० कोहली के इन शब्दों से सहमत हैं,
“वे (गुरु नानक साहिब) एक पवित्र उद्देश्य को पूर्ण करना चाहते थे और इसमें उन्हें चमत्कारी सफलता प्राप्त हुई”4

4. “He had a.holy mission to perform and his performance was no less than a miracle.” Dr.S.S. Kohli, Travels of Guru Nanak (Chandigarh : 1978) p. XV.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी दें। (Describe in brief the basic teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the main teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ लिखें।
(Write down the teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म की प्रमुख सदाचारक शिक्षाओं पर नोट लिखें।
(Write a note on the major ethical teachings of Sikhism.)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने मानव समाज के विकास के लिए क्या उपदेश दिए ? चर्चा करें।
(Discuss the teachings of Guru Nanak Dev Ji for the development of Human society.)
अथवा
रु नानक देव जी की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में संक्षिप्त, परंतु भावपूर्ण जानकारी दीजिए।
(Describe in brief, but meaningful the basic teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की मूल नैतिक शिक्षाओं पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the basic ethical teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म की मुख्य शिक्षाओं पर नोट लिखें।
(Write a short note on the main teachings of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म की शिक्षाओं के बारे में बताएँ।
(Explain the teachings of Sikhism.)
अथवा
गुरु ग्रंथ साहिब की प्रमुख शिक्षाओं के बारे में चर्चा करें। (Discuss the main teachings of the Guru Granth Sahib.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ बड़ी सरल किंतु प्रभावशाली थीं। गुरु जी की शिक्षाओं ने लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव डाला। उनकी शिक्षाएँ किसी एक वर्ग, जाति अथवा प्राँत के लिए नहीं थीं। इनका. संबंध तो सारी मानव जाति से था। गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ईश्वर एक है (The Unity of God)-गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। सिख परंपरा के अनुसार मूलमंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘१’ है, वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक साहिब के अनुसार ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और उसका विनाश करता है। ऐसी शक्तियाँ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवताओं में नहीं हैं। इस कारण प्रभु के सम्मुख इन देवी-देवताओं का कोई महत्त्व नहीं है। ईश्वर के सम्मुख वे उसी प्रकार हैं जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों और हज़ारों हैं, परंतु ईश्वर एक है। उस परमपिता ईश्वर को कई नामों से जाना जाता है। जैसे-हरि, गोपाल, वाहेगुरु, साहिब, अल्लाह, खुदा और राम इत्यादि। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

“दूजा काहे सिमरिए जन्मे ते मर जाए।
ऐको सिमरो नानका, जो जल थल रिहा समाए।’

2. निर्गुण और सगुण (Nirguna and Sarguna)—ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। सर्वप्रथम ईश्वर ने भूमि और आकाश की रचना की थी और वह अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर ईश्वर ने इस संसार की रचना की। इस रचना द्वारा ईश्वर ने अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था।

3. रचयिता, पालनकर्ता और नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)-ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और इसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना करने से पूर्व कोई पृथ्वी, आकाश नहीं थे और चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का आदेश ही चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके आदेश के साथ ही चारों ओर मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियाँ, पर्वत और वन इत्यादि अस्तित्व में आ गए। ईश्वर ही इस संसार का पालनकर्ता है। वही सभी को रोज़ी-रोटी देता है। ईश्वर की जब इच्छा हो, वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है।

4. सर्वशक्तिमान् (Sovereign)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह जो चाहता है, वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि ईश्वर चाहे तो वह भिखारी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं—

कुदरत कवण कहा वीचारु॥
वारिआ न जावा एक वार॥ जो
तुधु भावै साई भली कार॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥

5. सदैव रहने वाला (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान् है। यह अस्थिर है। ईश्वर सदैव रहने वाला है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों, लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान हैं, किंतु ईश्वर नहीं।

6. निराकार और सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर कार है। उसका कोई आकार अथवा रंग-रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है किंतु ईश्वर सर्वव्यापक भी है। गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर की लीला निराली है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। इसलिए ईश्वर को अपने से दूर न समझो। वह तुम्हारे निकट ही है। गुरु नानक साहिब जी का कथन है,
“सभी में एक प्रकाश है और यह उसी का प्रकाश है जो सभी में विद्यमान है”

7. ईश्वर की महानता (Greatness of God)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सबसे महान् है। उसकी महानता का वर्णन करना असंभव है। हज़ारों और लाखों भक्तों और संतों ने ईश्वर की महानता का गुणगान किया है फिर भी यह उसकी महिमा भंडार का छोटा-सा भाग ही है। उसकी महिमा मनुष्य की कल्पना से दूर है। उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसके ज्ञान, उसकी देन, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महिमा का ज्ञाता स्वयं ही है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

पताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इक धात॥ लेखा होई त लिखीए लेखै होई विणासु॥
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु॥

8. माया (Maya)-गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र इत्यादि क चक्र में फंसा रहता है। इसी को माया कहते हैं। मनमुख व्यक्ति रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ पाता। माया, जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

9. हऊमै (Haumai)—मनमुख व्यक्ति में हऊमै (अहं) की भावना बड़ी प्रबल होती है। अहं के कारण वह मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान पाता। वह ईश्वर के आदेश की अपेक्षा अपनी मनमानी करता है। अहं के कारण वह संसार की बुराइयों में फंसा रहता है और ईश्वर से दूर रहता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा आवागमन के चक्र में और फंस जाता है। डॉक्टर तारन सिंह के अनुसार,
“हऊमै मन की वह अवस्था है जो मनुष्य को वास्तविकता से तथा उसके जीवन के उद्देश्य से दूर रखती है तथा इस प्रकार उसका मुक्ति तथा परमात्मा से मिलन नहीं होने देती।”5

10. इंद्रियजन्य भूख (Evil Impulses)-मनमुख व्यक्ति सदैव इंद्रियजन्य भूख से घिरा रहता है। काम. क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मनुष्य के पाँच शत्रु हैं। इनके कारण मनुष्य पाप करता है तथा लोगों को धोखा देता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने के स्थान पर आवागमन की जंजीरों में और भी दृढ़ता से जकड़ा जाता है और उसे यमदूतों की मार पड़ती है।

11. पुरोहित वर्ग का खंडन (Condemnation of the Priestly Class)-गुरु नानक देव जी ने पंडित और मुल्ला इत्यादि पुरोहित वर्ग का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेद शास्त्र और कुरान तो पढ़ते थे किंतु उनका अंतःकरण शुद्ध नहीं था। वे लोगों को धोखा देते थे और उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर उन्हें लूटते थे।
इस कारण गुरु नानक साहिब ने लोगों को उनके पीछे न चलने का परामर्श दिया। गुरु नानक साहिब का कथन था कि पुरोहित वर्ग जो कि लोगों का सही नेतृत्व करने की अपेक्षा स्वयं कुमार्ग पर चल रहा है, को उस ईश्वर के दरबार में कठोर दंड मिलेगा और वे आवागमन के चक्र में फंसे रहेंगे।

12. जाति प्रथा का खंडन (Condemnation of the Caste System)-उस समय का हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जाति से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया।

13. मूर्ति पूजा का खंडन (Condemnation of Idol Worship)-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कहना था कि पत्थर की मूर्तियाँ निर्जीव हैं। यदि उन्हें पानी में फैंक दिया जाए तो वे डूब जाएँगी। जो मूर्तियाँ स्वयं की रक्षा नहीं कर पातीं, वे मनुष्य को कैसे इस भवसागर से पार उतार सकती हैं ? इसलिए मूर्तियों की पूजा करना व्यर्थ है। हमें केवल एक ईश्वर की ही पूजा करनी चाहिए।

14. स्त्रियों का उद्धार (Uplift of Women)-गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्थान पुरुषों की जूती के समान था। उनमें असंख्य कुरीतियाँ प्रचलित थीं। उस समय स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा जाता था तथा उनका पशुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। गुरु नानक साहिब ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने स्त्रियों का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए और उनके समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,
“सो क्यों मंदा आखिए जित जन्मे राजान।”

15. नाम और शब्द (Nam and Shabad)-गुरु नानक देव जी नाम जपने और शब्द की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। इन पर चलकर मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर उसे नरक से नहीं बचा सकता। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए।

16. गुरु का महत्त्व (Importance of Guru)-गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु के बिना मनुष्य को सभी ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर लाता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेषोल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानव-गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

17. आत्म-समर्पण (Self Surrender)-गुरु नानक देव जी के अनुसार कोई भी मनुष्य तब तक उस परम पिता परमात्मा को नहीं पा सकता जब तक कि वह स्वयं को पूरी तरह उसको समर्पण न कर दे। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपने अस्तित्व को मिटाना आवश्यक है। नदी तथा उस पर उठा बुलबुला एक ही है। यदि बुलबुला अपने अस्तित्व को नदी के जल से भिन्न समझने लगे तो यह उसकी भूल है। वह नदी से उत्पन्न हुआ है और उसे नदी में ही मिल जाना है।

18. हुक्म (Hukam)-गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म (आदेश) अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुष्य को परमात्मा का हुक्म मानना चाहिए। जो मनुष्य ऐसा करता है, परमात्मा उस पर अपनी कृपा करता है और उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य परमात्मा के आदेश को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरें खाता है। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोई॥
नानक हुकमै जे बुझे त हउमै कहे न कोई॥

19. उचित आचार (Right Conduct)-गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। दूसरों की सेवा करना ठीक आचार की आधारशिला है। दूसरों की सेवा के योग्य होने के लिए श्रम करना आवश्यक है,। दूसरों की कमाई पर जीने को गुरु जी निम्न आचरण का चिन्ह मानते थे। मुक्ति के लिए गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन का त्याग करने के पक्ष में नहीं थे।

20. सच्च-खंड (Sach Khand)-गुरु नानक देव जी के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सच्चखंड को प्राप्त करना है। सच्च-खंड तक पहुँचने के लिए मनुष्य को धर्म-खंड, ज्ञान-खंड, शर्म-खंड तथा कर्मखंड में से गुजरना होता है। सच्च-खंड आखिरी अवस्था है। सच्च-खंड में आत्मा पूर्णतया परमात्मा में लीन हो जाती है तथा मानव के कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वह परमानंद अवस्था में पहुँच जाता है।

5. “Haumai is that condition of mind which keeps man ignorant of the true reality, the true purpose of life, and thus keeps him away from salvation and union with God.” Dr. Taran Singh, Teachings of Guru Nanak Dev (Patiala : 1990) p. 36.

शिक्षाओं का महत्त्व (Importance of Teachings)
गुरु नानक देव जी के उपदेशों ने न केवल धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों अपितु राजनीतिक क्षेत्र को भी. प्रभावित किया। गुरु साहिब के उपदेशों ने समाज में छाए अंधविश्वासों के काले बादलों पर सूर्य की किरणें फैलाने का कार्य किया। परिणामस्वरूप लोगों में एक नई जागृति का संचार होने लगा। वे व्यर्थ के रस्म-रिवाज छोड़कर एक परमात्मा की पूजा करने लगे। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा का खंडन करके, परस्पर भ्रातृ-भाव का प्रचार करके, स्त्रियों को पुरुषों के समान दर्जा देकर, संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की स्थापना करके एक नए समाज की आधारशिला रखी। गुरु जी ने अपने उपदेशों द्वारा उस समय के शासकों को भी झकझोर डाला। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर एच० आर० गुप्ता के अनुसार,
“इस प्रकार गुरु नानक साहिब ने समूची मानवता के लिए एक ऐसी देन दी जो अभी तक प्रभावशाली है तथा भविष्य में भी यह संपूर्ण विश्व के सिखों को प्रेरित तथा उनका मार्ग दर्शन करती रहेगी।”6

6. “Thus Nanak left for all mankind a legacy which is still going strong and will continue to surprise and serve the Sikhs all over the world and for all times to come.” Dr. H.R. Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi :1973) p.56.

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प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा उनकी कुछ मूल शिक्षाएँ बताएँ। (Explain Guru Nanak’s life and his basic teachings.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा शिक्षाओं के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करें।
(Discuss in detail the life and teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी के जीवन तथा उपदेशों के बारे में लिखें। (Write the life and teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ बड़ी सरल किंतु प्रभावशाली थीं। गुरु जी की शिक्षाओं ने लोगों के दिलों पर जादुई प्रभाव डाला। उनकी शिक्षाएँ किसी एक वर्ग, जाति अथवा प्राँत के लिए नहीं थीं। इनका. संबंध तो सारी मानव जाति से था। गुरु नानक देव जी की मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. ईश्वर एक है (The Unity of God)-गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। सिख परंपरा के अनुसार मूलमंत्र के आरंभ में जो अक्षर ‘१’ है, वह ईश्वर की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक साहिब के अनुसार ईश्वर ही संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और उसका विनाश करता है। ऐसी शक्तियाँ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवताओं में नहीं हैं। इस कारण प्रभु के सम्मुख इन देवी-देवताओं का कोई महत्त्व नहीं है। ईश्वर के सम्मुख वे उसी प्रकार हैं जैसे तेज़मय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों और हज़ारों हैं, परंतु ईश्वर एक है। उस परमपिता ईश्वर को कई नामों से जाना जाता है। जैसे-हरि, गोपाल, वाहेगुरु, साहिब, अल्लाह, खुदा और राम इत्यादि। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,

“दूजा काहे सिमरिए जन्मे ते मर जाए।
ऐको सिमरो नानका, जो जल थल रिहा समाए।’

2. निर्गुण और सगुण (Nirguna and Sarguna)—ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। सर्वप्रथम ईश्वर ने भूमि और आकाश की रचना की थी और वह अपने आप में ही रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। फिर ईश्वर ने इस संसार की रचना की। इस रचना द्वारा ईश्वर ने अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था।

3. रचयिता, पालनकर्ता और नाशवानकर्ता (Creator, Sustainer and Destroyer)-ईश्वर ही इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता और इसका विनाश करने वाला है। संसार की रचना करने से पूर्व कोई पृथ्वी, आकाश नहीं थे और चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था। केवल ईश्वर का आदेश ही चलता था। जब उस ईश्वर के मन में आया तो उसने इस संसार की रचना की। उसके आदेश के साथ ही चारों ओर मनुष्य, पशु, पक्षी, नदियाँ, पर्वत और वन इत्यादि अस्तित्व में आ गए। ईश्वर ही इस संसार का पालनकर्ता है। वही सभी को रोज़ी-रोटी देता है। ईश्वर की जब इच्छा हो, वह इस संसार का विनाश कर सकता है तथा इसकी पुनः रचना कर सकता है।

4. सर्वशक्तिमान् (Sovereign)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। वह जो चाहता है, वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। यदि ईश्वर चाहे तो वह भिखारी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है और राजा को भिखारी बना सकता है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं—

कुदरत कवण कहा वीचारु॥
वारिआ न जावा एक वार॥ जो
तुधु भावै साई भली कार॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥

5. सदैव रहने वाला (Immortal)-ईश्वर द्वारा रचित संसार नाशवान् है। यह अस्थिर है। ईश्वर सदैव रहने वाला है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। ईश्वर के दरबार में हज़ारों, लाखों मुहम्मद, ब्रह्मा, विष्णु और राम हाथ जोड़कर खड़े हैं। ये सभी नाशवान हैं, किंतु ईश्वर नहीं।

6. निराकार और सर्वव्यापक (Formless and Omnipresent)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर कार है। उसका कोई आकार अथवा रंग-रूप नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे न तो मूर्तिमान किया जा सकता है और न ही इन आँखों से देखा जा सकता है किंतु ईश्वर सर्वव्यापक भी है। गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर की लीला निराली है। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। इसलिए ईश्वर को अपने से दूर न समझो। वह तुम्हारे निकट ही है। गुरु नानक साहिब जी का कथन है,
“सभी में एक प्रकाश है और यह उसी का प्रकाश है जो सभी में विद्यमान है”

7. ईश्वर की महानता (Greatness of God)-गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर सबसे महान् है। उसकी महानता का वर्णन करना असंभव है। हज़ारों और लाखों भक्तों और संतों ने ईश्वर की महानता का गुणगान किया है फिर भी यह उसकी महिमा भंडार का छोटा-सा भाग ही है। उसकी महिमा मनुष्य की कल्पना से दूर है। उसकी महानता अवर्णनीय है। उसकी महिमा, उसकी दया, उसके ज्ञान, उसकी देन, वह क्या देखता और क्या सुनता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अपनी महिमा का ज्ञाता स्वयं ही है। गुरु नानक देव जी फरमाते हैं,

पताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहन इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इक धात॥ लेखा होई त लिखीए लेखै होई विणासु॥
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु॥

8. माया (Maya)-गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र इत्यादि क चक्र में फंसा रहता है। इसी को माया कहते हैं। मनमुख व्यक्ति रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ पाता। माया, जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

9. हऊमै (Haumai)—मनमुख व्यक्ति में हऊमै (अहं) की भावना बड़ी प्रबल होती है। अहं के कारण वह मुक्ति के मार्ग को नहीं पहचान पाता। वह ईश्वर के आदेश की अपेक्षा अपनी मनमानी करता है। अहं के कारण वह संसार की बुराइयों में फंसा रहता है और ईश्वर से दूर रहता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा आवागमन के चक्र में और फंस जाता है। डॉक्टर तारन सिंह के अनुसार,
“हऊमै मन की वह अवस्था है जो मनुष्य को वास्तविकता से तथा उसके जीवन के उद्देश्य से दूर रखती है तथा इस प्रकार उसका मुक्ति तथा परमात्मा से मिलन नहीं होने देती।”5

10. इंद्रियजन्य भूख (Evil Impulses)-मनमुख व्यक्ति सदैव इंद्रियजन्य भूख से घिरा रहता है। काम. क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार मनुष्य के पाँच शत्रु हैं। इनके कारण मनुष्य पाप करता है तथा लोगों को धोखा देता है। फलस्वरूप वह मुक्ति प्राप्त करने के स्थान पर आवागमन की जंजीरों में और भी दृढ़ता से जकड़ा जाता है और उसे यमदूतों की मार पड़ती है।

11. पुरोहित वर्ग का खंडन (Condemnation of the Priestly Class)-गुरु नानक देव जी ने पंडित और मुल्ला इत्यादि पुरोहित वर्ग का जोरदार शब्दों में खंडन किया। वे वेद शास्त्र और कुरान तो पढ़ते थे किंतु उनका अंतःकरण शुद्ध नहीं था। वे लोगों को धोखा देते थे और उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर उन्हें लूटते थे।
इस कारण गुरु नानक साहिब ने लोगों को उनके पीछे न चलने का परामर्श दिया। गुरु नानक साहिब का कथन था कि पुरोहित वर्ग जो कि लोगों का सही नेतृत्व करने की अपेक्षा स्वयं कुमार्ग पर चल रहा है, को उस ईश्वर के दरबार में कठोर दंड मिलेगा और वे आवागमन के चक्र में फंसे रहेंगे।

12. जाति प्रथा का खंडन (Condemnation of the Caste System)-उस समय का हिंदू समाज न केवल चार मुख्य जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-बल्कि अनेक अन्य उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर बहुत गर्व करते थे। वे निम्न जाति से बहुत घृणा करते थे और उन पर बहुत अत्याचार करते थे। समाज में छुआछूत की भावना बहुत फैल गई थी। गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा और छुआछूत की भावना का जोरदार शब्दों में खंडन किया तथा परस्पर भ्रातृत्व का प्रचार किया।

13. मूर्ति पूजा का खंडन (Condemnation of Idol Worship)-गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु साहिब का कहना था कि पत्थर की मूर्तियाँ निर्जीव हैं। यदि उन्हें पानी में फैंक दिया जाए तो वे डूब जाएँगी। जो मूर्तियाँ स्वयं की रक्षा नहीं कर पातीं, वे मनुष्य को कैसे इस भवसागर से पार उतार सकती हैं ? इसलिए मूर्तियों की पूजा करना व्यर्थ है। हमें केवल एक ईश्वर की ही पूजा करनी चाहिए।

14. स्त्रियों का उद्धार (Uplift of Women)-गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्थान पुरुषों की जूती के समान था। उनमें असंख्य कुरीतियाँ प्रचलित थीं। उस समय स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु समझा जाता था तथा उनका पशुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। गुरु नानक साहिब ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने स्त्रियों का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए और उनके समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। गुरु नानक साहिब जी फरमाते हैं,
“सो क्यों मंदा आखिए जित जन्मे राजान।”

15. नाम और शब्द (Nam and Shabad)-गुरु नानक देव जी नाम जपने और शब्द की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। इन पर चलकर मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। ईश्वर उसे नरक से नहीं बचा सकता। ईश्वर के दरबार में वह उसी प्रकार ध्वस्त हो जाता है जैसे भयंकर तूफान आने पर एक रेत का महल। ईश्वर के नाम का जाप पावन मन और सच्ची श्रद्धा से करना चाहिए।

16. गुरु का महत्त्व (Importance of Guru)-गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है। गुरु के बिना मनुष्य को सभी ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर लाता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेषोल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानव-गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

17. आत्म-समर्पण (Self Surrender)-गुरु नानक देव जी के अनुसार कोई भी मनुष्य तब तक उस परम पिता परमात्मा को नहीं पा सकता जब तक कि वह स्वयं को पूरी तरह उसको समर्पण न कर दे। परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपने अस्तित्व को मिटाना आवश्यक है। नदी तथा उस पर उठा बुलबुला एक ही है। यदि बुलबुला अपने अस्तित्व को नदी के जल से भिन्न समझने लगे तो यह उसकी भूल है। वह नदी से उत्पन्न हुआ है और उसे नदी में ही मिल जाना है।

18. हुक्म (Hukam)-गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म (आदेश) अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुष्य को परमात्मा का हुक्म मानना चाहिए। जो मनुष्य ऐसा करता है, परमात्मा उस पर अपनी कृपा करता है और उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य परमात्मा के आदेश को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरें खाता है। गुरु नानक साहिब फरमाते हैं,

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोई॥
नानक हुकमै जे बुझे त हउमै कहे न कोई॥

19. उचित आचार (Right Conduct)-गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्ति असंभव है। दूसरों की सेवा करना ठीक आचार की आधारशिला है। दूसरों की सेवा के योग्य होने के लिए श्रम करना आवश्यक है,। दूसरों की कमाई पर जीने को गुरु जी निम्न आचरण का चिन्ह मानते थे। मुक्ति के लिए गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन का त्याग करने के पक्ष में नहीं थे।

20. सच्च-खंड (Sach Khand)-गुरु नानक देव जी के अनुसार मानव जीवन का उच्चतम उद्देश्य सच्चखंड को प्राप्त करना है। सच्च-खंड तक पहुँचने के लिए मनुष्य को धर्म-खंड, ज्ञान-खंड, शर्म-खंड तथा कर्मखंड में से गुजरना होता है। सच्च-खंड आखिरी अवस्था है। सच्च-खंड में आत्मा पूर्णतया परमात्मा में लीन हो जाती है तथा मानव के कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। वह परमानंद अवस्था में पहुँच जाता है।

5. “Haumai is that condition of mind which keeps man ignorant of the true reality, the true purpose of life, and thus keeps him away from salvation and union with God.” Dr. Taran Singh, Teachings of Guru Nanak Dev (Patiala : 1990) p. 36.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 5.
गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं ? संक्षिप्त वर्णन करें। (What do you know about the early career of Guru Angad Dev Ji ? Explain briefly.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी अथवा भाई लहणा जी सिखों के दूसरे गुरु थे। उनका गुरु काल 1539 ई० से 1552 ई० तक रहा। गुरु अंगद देव जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अंगद देव जी का पहला नाम भाई लहणा जी था। उनका जन्म 31 मार्च, 1504 ई०को मत्ते की सराय नामक गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम फेरूमल था तथा वह क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। भाई लहणा जी की माता जी का नाम सभराई देवी जी था। वह बहुत धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। भाई लहणा जी पर उनके धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई लहणा जी का बचपन हरीके एवं खडूर साहिब में व्यतीत हुआ। आरंभ में भाई लहणा जी दुर्गा माता के भक्त थे। 15 वर्ष के होने पर उनका विवाह मत्ते की सराए के निवासी श्री देवी चंद की सुपुत्री बीबी खीवी जी के साथ कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों दातू और दासू तथा दो पुत्रियों बीबी अमरो और बीबी अनोखी ने जन्म लिया।

3. लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बने (Lehna Ji becomes the disciple of Guru Nanak Dev Ji)-भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी से भेंट करने से पूर्व दुर्गा माता के भक्त थे। वह प्रतिवर्ष ज्वालामुखी (ज़िला काँगड़ा) देवी के दर्शन के लिए जाते थे। एक दिन खडूर साहिब में भाई जोधा जी के मुख से ‘आसा दी वार’ का पाठ सुना। यह पाठ सुनकर भाई लहणा जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गुरु नानक देव जी के दर्शन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। आगामी वर्ष जब भाई लहणा जी ज्वालामुखी की यात्रा के लिए निकले तो वह मार्ग में करतारपुर में गुरु नानक देव जी के दर्शनों के लिए रुके। वह गुरु साहिब के महान् व्यक्तित्व और मधुर वाणी को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए, इसलिए भाई लहणा जी गुरु नानक देव जी के अनुयायी बन गए और गुरु-चरणों में ही अपना जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-भाई लहणा जी ने पूर्ण श्रद्धा के साथ गुरु नानक साहिब की अथक सेवा की। भाई लहणा जी की सच्ची भक्ति और अपार प्रेम को देखकर गुरु नानक देव जी ने गुरुगद्दी उनके सुपुर्द करने का निर्णय किया। गुरु नानक साहिब ने एक नारियल और पाँच पैसे भाई लहणा जी के सम्मुख रखकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। भाई लहणा को अंगद का नाम दिया गया। यह घटना 7 सितंबर, 1539 ई० की है। गुरु नानक साहिब द्वारा गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना सिखइतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यदि गुरु नानक साहिब अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व ऐसा न करते तो निस्संदेह सिख धर्म का अस्तित्व लुप्त हो जाना था। इसका कारण यह था कि सिख धर्म अभी अच्छी प्रकार से संगठित नहीं था। गुरु नानक देव जी के उपदेशों से जो लोग प्रभावित हुए थे उनकी संख्या दूसरे लोगों की अपेक्षा नगण्य थी। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति से सिख धर्म को एक निश्चित दिशा प्राप्त हुई तथा इसका आधार मज़बूत हुआ। जी० सी० नारंग का यह कहना पूर्णतः सही है,
“यदि गुरु नानक जी उत्तराधिकारी की नियुक्ति के बिना ही ज्योति जोत समा जाते तो आज सिख धर्म नहीं होना था।”7

7. “Had Nanak died without a successor, there would have been no Sikhism today.” G.C. Narang, Transformation of Sikhism (New Delhi : 1989) p. 29.

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (3)
GURU ANGAD DEV JI

प्रश्न 6.
सिख-धर्म के आरंभिक विकास में गुरु अंगद देव जी का क्या योगदान है ? वर्णन कीजिए ।
(What is the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के सिख पंथ के विकास में योगदान का संक्षेप वर्णन करें।
(Give a brief account of the contribution made by Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला बड़ा संकट हिंदू धर्म से था। सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi) गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”8

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद साहिब जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में एक जन्म साखी लिखवाई। इस जन्म साखी को भाई पैड़ा मौखा जी ने लिखा था। इस साखी को भाई बाला की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने कुल 62 शब्दों की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णत: सही है,
“सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना । संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. सिख मत में अनुशासन (Discipline in Sikhism)-गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। उनके दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड ने, अपनी मधुर आवाज़ के कारण अहंकार में आकर गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप, उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही रागियों को अपनी ग़लती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन की मर्यादा को बनाए रखा।

7. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)—गुरु अंगद साहिब यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

8. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)—गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

9. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद साहिब जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोलीं और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

10. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

11. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)—इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गुरु घर में अनुशासन स्थापित करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,
“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”10
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”11

8. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaeodic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
9. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of The Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
10. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 69.
11. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

प्रश्न 7.
गुरु अंगद देव जी के जीवन तथा सिख पंथ के विकास में उनके योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the life and contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी के जीवन एवं सफलता का संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe in brief, the life and achievements of Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने। वह 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। जिस समय गुरु अंगद देव जी गुरुगद्दी पर बैठे थे, उस समय सिख पंथ के सामने कई संकट विद्यमान थे। पहला बड़ा संकट हिंदू धर्म से था। सिख धर्म का हिंदू धर्म में विलीन हो जाने का खतरा था। दूसरा बड़ा ख़तरा उदासियों से था। सिख अनुयायियों की कम संख्या होने के कारण बहुत से सिख उदासी मत में शामिल होते जा रहे थे। गुरु अंगद साहिब ने अपने यत्नों से सिख पंथ के सम्मुख विद्यमान इन खतरों को दूर किया। गुरु अंगद साहिब ने सिख पंथ के विकास में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. गुरमुखी को लोकप्रिय बनाना (Popularisation of Gurmukhi) गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इसके रूप में एक नया निखार लाया। अब इस लिपि को समझना सामान्य लोगों के लिए सरल हो गया। सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना इस लिपि में हुई। इस लिपि का नाम गुरमुखी [गुरुओं के मुख से निकली हुई] होने के कारण यह सिखों को गुरु के प्रति अपने कर्तव्य का स्मरण दिलाती रही। इस प्रकार यह लिपि सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई। इस लिपि के प्रसार के कारण सिखों में तीव्रता से विद्या का प्रसार भी होने लगा। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी ने सिखों को हिंदुओं एवं मुसलमानों से एक अलग भाषा दी तथा उन्हें यह अनुभव करवाया कि वे अलग लोग हैं।”8

2. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अंगद देव जी का दूसरा महान् कार्य गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित करना था। यह वाणी एक स्थान पर न होकर अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई थी। गुरु अंगद साहिब ने इस समूची वाणी को एकत्रित किया। सिख परंपराओं के अनुसार गुरु अंगद साहिब जी ने एक श्रद्धालु सिख भाई बाला जी को बुलाकर गुरु नानक साहिब के जीवन के संबंध में एक जन्म साखी लिखवाई। इस जन्म साखी को भाई पैड़ा मौखा जी ने लिखा था। इस साखी को भाई बाला की जन्म साखी के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान् इस तथ्य से सहमत नहीं हैं कि भाई बाला जी की जन्म साखी को गुरु अंगद देव जी के समय लिखा गया था। गुरु अंगद साहिब ने स्वयं ‘नानक’ के नाम से वाणी की रचना की। उन्होंने कुल 62 शब्दों की रचना की। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब ने वाणी के वास्तविक रूप को बिगड़ने से बचाया। दूसरा, इसने आदि ग्रंथ साहिब जी की तैयारी के लिए महत्त्वपूर्ण आधार तैयार किया।

3. लंगर प्रथा का विस्तार (Expansion of Langar System)-लंगर प्रथा के विकास का श्रेय गुरु अंगद देव जी को जाता है। लंगर का समूचा प्रबंध उनकी धर्म पत्नी माता खीवी जी करते थे। लंगर में सभी व्यक्ति बिना किसी ऊँच-नीच, जाति के भेदभाव के इकट्ठे मिलकर छकते थे। इस लंगर के लिए सारी माया गुरु जी के सिख देते थे। इस प्रथा के कारण सिखों में परस्पर सहयोग की भावना बढ़ी। इसने हिंदू समाज में फैली जाति-प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। इस प्रकार इस संस्था ने सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को दूर करने में प्रशंसनीय योगदान दिया। इसके कारण सिख धर्म की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफैसर हरबंस सिंह का यह कहना पूर्णत: सही है,
“सामाजिक क्रांति लाने में यह (लंगर) संस्था महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध हुई।”

4. संगत का संगठन (Organisation of Sangat)-गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित संगत संस्था को भी संगठित किया। संगत से अभिप्राय था-एकत्रित होकर बैठना । संगत में सभी धर्मों के लोगस्त्री और पुरुष भाग ले सकते थे। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था ने सामाजिक असमानता को दूर करने तथा सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

5. उदासी मत का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था। बहुत से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया था कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भूल कर उदासी मत न अपना लें। अतः गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया तथा स्पष्ट किया कि उदासी मत के सिद्धांत सिख धर्म के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत हैं एवं जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता। इस प्रकार गुरु अंगद साहिब जी ने सिख मत के अस्तित्व को बनाए रखा।

6. सिख मत में अनुशासन (Discipline in Sikhism)-गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। उनके दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड ने, अपनी मधुर आवाज़ के कारण अहंकार में आकर गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप, उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही रागियों को अपनी ग़लती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन की मर्यादा को बनाए रखा।

7. शारीरिक शिक्षा (Physical Training)—गुरु अंगद साहिब यह मानते थे कि जिस प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए नाम का जाप करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम करना भी आवश्यक है। इस उद्देश्य के साथ गुरु जी ने खडूर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया। यहाँ सिख प्रतिदिन प्रातःकाल मल्ल युद्ध तथा अन्य व्यायाम करते थे।

8. गोइंदवाल साहिब की स्थापना (Foundation of Goindwal Sahib)—गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब के समीप गोइंदवाल साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। इस नगर का निर्माण कार्य एक श्रद्धालु सेवक अमरदास की देख-रेख में 1546 ई० में आरंभ हुआ। यह नगर शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।

9. हुमायूँ से भेंट (Meeting with Humayun)-1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी के हाथों पराजय के पश्चात् पंजाब पहुँचा। वह खडूर साहिब गुरु अंगद साहिब जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में लीन थे। हुमायूँ ने इसे अपना अपमान समझकर तलवार निकाल ली। उस समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोलीं और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार जिसका तुम मुझ पर प्रयोग करने लगे हो, वह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँगी। गुरु जी ने हुमायूँ को आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें कुछ समय प्रतीक्षा करने के पश्चात् राज्य सिंहासन प्राप्त होगा। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। इस भेंट के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।

10. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सबसे महान् कार्य अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना था। गुरु अंगद देव जी ने काफ़ी सोच-समझकर इस उच्च पद के लिए अमरदास जी का चुनाव किया। गुरु जी ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया। इस प्रकार अमरदास जी को सिखों का तीसरा गुरु नियुक्त किया गया। गुरु अंगद देव जी 29 मार्च, 1552 ई० को ज्योति जोत समा गए।

11. गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Angad Dev Ji’s Achievements)—इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अंगद देव जी ने अपनी गुरुगद्दी के काल में सिख पंथ के विकास में बहुत प्रशंसनीय योगदान दिया। गुरु जी ने गुरमुखी लिपि का प्रचार करके, गुरु नानक साहिब की वाणी को एकत्रित करके, संगत और पंगत संस्थाओं का विस्तार करके, सिख पंथ को उदासी मत से अलग करके, गुरु घर में अनुशासन स्थापित करके, गोइंदवाल साहिब की स्थापना करके और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके सिख पंथ की नींव को और सुदृढ़ किया। गुरु अंगद देव जी की सफलताओं का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल का कहना है,
“यह आश्चर्य वाली बात है कि गुरु अंगद साहिब ने अपने अल्प समय के दौरान कितनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी।”10
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के अनुसार,
“गुरु अंगद देव जी का गुरु काल सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।”11

8. “Guru Angad Dev Ji gave the Sikhs a written language different from the language of the Hindus and Muslims and thus made them realise that they were separate people.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaeodic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 12.
9. “This served as an instrument of a far-reaching social revolution.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of The Sikhs (Delhi : 1994) p. 31.
10. “It is amazing how much Guru Angad could achieve in the short time at his disposal.” K.S. Duggal, The Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1980) p. 69.
11. “The pontificate of Guru Angad Dev is indeed a turning point in the history of Sikh faith.” S.S. Johar, Handbook on Sikhism (Delhi : 1979) p. 26.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 8.
गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Give a brief account of the early career and difficulties of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गरु अमरदास जी के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के आरंभिक जीवन एवं कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (4)
GURU AMAR DAS JI

I. गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन
(Early Life of Guru Amardas Ji)

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को ज़िला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बख्त कौर था।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी जी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियोंबीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद साहिब जी का सिख बनना (To become the Disciple of Guru Angad SahibJi)एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया। एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद साहिब जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

II. गुरु अमरदास जी की प्रारंभिक कठिनाइयाँ (Guru Amar Das Ji’s Early Difficulties)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी, गुरु अंगद साहिब जी के आदेश पर खडूर साहिब से गोइंदवाल साहिब आ गए। यहाँ गुरु जी को आरंभ में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है—

  1. दासू और दातू का विरोध (Opposition of Dasu and Dattu)—गुरु अमरदास जी को अपने गुरुकाल के आरंभ में, गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू और दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया तथा स्वयं को असली उत्तराधिकारी घोषित किया। उनका कहना था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है। एक दिन दातू ने क्रोधित होकर गोइंदवाल साहिब जाकर भरे दरबार में गुरु जी को ठोकर मारी जिसके कारण वह गद्दी से नीचे गिर पड़े। इस पर भी गुरु साहिब ने बहुत ही नम्रता से दातू से क्षमा माँगी। इसके पश्चात् गुरु जी गोइंदवाल साहिब को छोड़कर अपने गाँव बासरके
  2. चले गए। सिख संगतों ने दातू को अपना गुरु मानने से इंकार कर दिया। अंतत: निराश होकर वह खडूर साहिब लौट गया। बाबा बुड्डा जी तथा अन्य सिख संगतों के कहने पर गुरु अमरदास जी पुनः गोइंदवाल साहिब आ गए।

2. बाबा श्रीचंद का विरोध (Opposition of Baba Sri Chand)-बाबा श्रीचंद जी गुरु नानक जी के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने गुरु अंगद देव जी का विरोध इसलिए न किया क्योंकि उन्हें गुरुगद्दी गुरु नानक साहिब ने स्वयं सौंपी थी। परंतु गुरु अंगद देव जी के पश्चात् उन्होंने अपने पिता की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। बाबा श्रीचंद जी के अनेक समर्थक थे। गुरु अमरदास जी ने ऐसे समय में दृढ़ता से काम लेते हुए सिखों को स्पष्ट किया कि उदासी संप्रदाय के सिद्धांत गुरु नानक देव जी के उपदेशों के विपरीत हैं। उनके तर्कों से प्रभावित होकर सिखों ने बाबा श्रीचंद जी का साथ छोड़ दिया। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिखों को उदासी संप्रदाय से सदैव के लिए पृथक् कर दिया।

3. गोइंदवाल साहिब के मुसलमानों का विरोध (Opposition by the Muslims of Goindwal Sahib)-गोइंदवाल साहिब में गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देखकर वहाँ के मुसलमानों ने सिखों को परेशान करना आरंभ कर दिया। वे सिखों का सामान चोरी कर लेते। वे सतलुज नदी से जल भर कर लाने वाले सिखों के घड़े पत्थर मार कर तोड़ देते थे। सिख इस संबंध में गुरु जी से शिकायत करते। अमरदास जी ने सिखों को शाँत रहने का उपदेश दिया। एक बार गाँव में कुछ सशस्त्र व्यक्ति आ गए। इन मुसलमानों का उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। उन्होंने बहुत से मुसलमानों को यमलोक पहुँचा दिया। लोग सोचने लगे कि मुसलमानों को परमात्मा की ओर से यह दंड मिला है। इस प्रकार उनका सिख धर्म में विश्वास और दृढ़ हो गया।

4. हिंदुओं द्वारा विरोध (Opposition by the Hindus)-गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों से प्रभावित होकर बहुत से लोग सिख धर्म में शामिल होते जा रहे थे। सिख धर्म में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता था। लंगर में सब एक साथ भोजन करते थे। इसके अतिरिक्त बाऊली का निर्माण होने से सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान भी मिल गया था। गोइंदवाल साहिब के उच्च जातियों के हिंदू यह बात सहन न कर सके। उन्होंने मुग़ल बादशाह अकबर के पास यह झूठी शिकायत की कि गुरु जी हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। इस आरोप की जाँच के लिए अकबर ने गुरु साहिब को अपने दरबार में बुलाया। गुरु अमरदास जी ने अपने श्रद्धालु भाई जेठा जी को भेजा। भाई जेठा जी से मिलने के पश्चात् अकबर ने गुरु जी को निर्दोष घोषित किया। इससे सिख लहर को और उत्साह मिला।

प्रश्न 9.
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अमरदास जी की भूमिका पर प्रकाश डालें।
(Elucidate the role of Guru Amardas Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
श्री गुरु अमरदास जी द्वारा बसाये गए नये नगर गोइंदवाल साहिब में किए गए कार्य बताओ।
(Describe the tasks done by Guru Amardas Ji at new place Goindwal Sahib.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का वर्णन करें।
(Describe the contribution of Guru Amar Das Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अमरदास जी की सिख धर्म के विकास में की गई सेवाओं का वर्णन करो।
(Describe the services rendered by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के सिख पंथ के संगठन तथा प्रसार के लिए किए गए कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Describe in brief the organisational development and spread of Sikhism by Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के संगठन र विकास के लिए गुरु अमरदास जी ने क्या-क्या कार्य किए ?
(What were the measures taken by Guru Amar Das Ji for the consolidation and expansion of Sikhism ?)
उत्तर-
सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णत: संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में,
“गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”12

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव – जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत” का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”13

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि-ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।

PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (5)
BAOLI SAHIB : GOINDWAL SAHIB

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”14

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था.। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए।
गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। इस पर अकबर ने यह जागीर बीबी भानी जी को दे दी। इस जागीर पर बाद में गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की स्थापना की। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 को ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”15
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”16

12. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
13. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala: 1982) p 25.
14. “The establishment of Manji system gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
15. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29.
16. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.”Dr.D.S. Dhillon Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 10.
गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों का मूल्यांकन करें। (Examine the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
“गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे।” बताएँ। (“Guru Amar Das Ji was a great social reformer.” Discuss.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का नाम सिख इतिहास में एक महान् समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध है। वह सिखों की सामाजिक संरचना को एक नया रूप देना चाहते थे। वह सिखों को तात्कालीन समाज के जटिल नियमों से मुक्त करना चाहते थे ताकि उनमें आपसी भ्रातृत्व स्थापित हो। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधार का संक्षिप्त वर्णन निम्न अनुसार है—

जातीय भेद-भाव तथा छुआ-छूत का खंडन (Denunciation of Caste Distinctions and Untouchability)-गुरु अमरदास जी ने जातीय एवं छुआ-छूत की प्रथाओं का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जाति पर अभिमान करने वाले मूर्ख तथा गंवार हैं। उन्होंने संगतों को यह हुक्म दिया कि जो कोई उनके दर्शन करना चाहता है उसे पहले पंगत में लंगर छकना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कुछ सामान्य कुएँ खुदवाए। इन कुओं से प्रत्येक जाति के लोगों को पानी लेने का अधिकार था। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने आपसी भ्रातृत्व का प्रचार किया।

2. लड़कियों की हत्या का खंडन (Denunciation of Female Infanticide)-उस समय लड़कियों के जन्म को अशुभ माना जाता था। समाज में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने इस कुप्रथा का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया। उनका कथन था कि जो व्यक्ति ऐसा करता है वह घोर पाप का सहभागी बनता है । उन्होंने सिखों को इस अपराध से दूर रहने का उपदेश दिया।

3. बाल विवाह का खंडन (Denunciation of Child Marriage)-उस समय समाज में प्रचलित परंपराओं के अनुसार लड़कियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता था। इस कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई थी। गुरु अमरदास जी ने बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार किया।

4. सती प्रथा का खंडन (Denunciation of Sati System)-उस समय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं में से सबसे घृणा योग्य कुप्रथा सती प्रथा की थी। इस अमानवीय प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उसे जबरन पति की चिता के साथ जीवित जला दिया जाता था। गुरु अमरदास जी ने शताब्दियों से चली आ रही इस कुप्रथा के विरुद्ध एक ज़ोरदार अभियान चलाया। गुरु साहिब का कथन था
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोटि मरनि॥
भाव उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती तो वह है जो अपने पति के वियोग की पीड़ा में प्राण त्याग दे।

5. पर्दा प्रथा का खंडन (Denunciation of Purdah System)-उस समय समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन भी काफ़ी बढ़ गया था। यह प्रथा स्त्रियों के शारीरिक तथा मानसिक विकास में एक बड़ी बाधा थी। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने यह आदेश दिया कि संगत अथवा लंगर में सेवा करते समय कोई भी स्त्री पर्दा न करे।

6. नशीली वस्तुओं का विरोध (Prohibition of Intoxicants)-उस समय समाज में शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों का प्रयोग बहुत बढ़ गया था। इस कारण समाज का दिन-प्रतिदिन नैतिक पतन होता जा रहा था। इसलिए गुरु अमरदास जी ने इन नशों के विरुद्ध जोरदार प्रचार किया। उनका कथन था कि जो मनुष्य शराब पीता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह अपने-पराए का भेद भूल जाता है। मनुष्य को ऐसी झूठी शराब नहीं पीनी चाहिए, जिस कारण वह परमात्मा को भूल जाए।

7. विधवा विवाह के पक्ष में (Favoured Widow Marriage)-जो स्त्रियाँ सती होने से बच जाती थीं, उन्हें सदैव विधवा का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। समाज की ओर से विधवा विवाह पर प्रतिबंध लगा हुआ था। विधवा का जीवन नरक के समान था। गुरु अमरदास जी ने इस प्रथा को खेदजनक बताया। उनका कथन था कि हमें विधवा का पूरा सम्मान करना चाहिए। गुरु जी ने बाल विधवा के पुनर्विवाह के पक्ष में प्रचार किया।

8. जन्म, विवाह तथा मृत्यु के.समय के नवीन नियम (New Ceremonies related to Birth, Marriage and Death)-उस समय समाज में जन्म, विवाह तथा मृत्यु से संबंधित जो रीति-रिवाज प्रचलित थे, वे बहुत जटिल थे। गुरु साहिब ने सिखों के लिए इन अवसरों पर विशेष नियम बनाए। ये नियम पूर्णतः सरल थे। गुरु साहिब ने जन्म, विवाह तथा अन्य अवसरों पर गाने के लिए अनंदु साहिब की रचना की। इसमें 40 पौड़ियाँ हैं। इसके अतिरिक्त विवाह के समय लावाँ की नई प्रथा आरंभ की गई।

9. त्योहार मनाने का नवीन ढंग (New Mode of Celebrating Festivals)-गुरु अमरदास जी ने सिखों को वैसाखी, माघी तथा दीवाली के त्योहारों को नवीन ढंग से मनाने के लिए कहा। इन तीनों त्योहारों के अवसरों पर बड़ी संख्या में सिख गोइंदवाल साहिब पहुँचते थे। गुरु साहिब का यह पग सिख पंथ के प्रचार में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर बी० एस० निझर के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी द्वारा आरंभ किए गए इन सामाजिक सुधारों को सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाले समझे जाने चाहिएँ।”17

17. “These social reforms introduced by Guru Amar Das must be regarded as a turning point in the history of Sikhism.” Dr. B.S. Nijjar, op. cit., p. 83.

प्रश्न 11.
गुरु अमरदास जी के जीवन एवं सफलताओं का वर्णन कीजिए। (Describe the life and achievements of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को गुरुगद्दी पर बिराजमान होते समय किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा ? सिख मत के संगठन और विस्तार के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदमों की चर्चा कीजिए ।
(What were the difficulties faced by Guru Amar Das Ji at the time of his accession ? Discuss the steps taken by him to consolidate and expand Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का आरंभिक जीवन (Early Life of Guru Amardas Ji)-

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई, 1479 ई० को ज़िला अमृतसर के बासरके गाँव में हुआ। आपके पिता जी का नाम तेज भान था। वे भल्ला जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। गुरु जी के पिता जी काफ़ी धनवान थे। गुरु अमरदास जी की माता जी का नाम बख्त कौर था।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अमरदास जी ने बड़े होकर अपने पिता जी का काम संभाल लिया। क्योंकि आपके माता-पिता विष्णु के पुजारी थे, इसलिए आप भी वैष्णव मत के अनुयायी बन गए। 24 वर्ष की आयु में आपका विवाह देवी चंद की सुपुत्री, मनसा देवी जी से कर दिया गया। आपके घर दो पुत्रों-बाबा मोहन और बाबा मोहरी और दो पुत्रियोंबीबी दानी और बीबी भानी ने जन्म लिया।

3. गुरु अंगद साहिब जी का सिख बनना (To become the Disciple of Guru Angad SahibJi)-एक बार जब अमरदास जी हरिद्वार यात्रा से लौट रहे थे तो वे मार्ग में एक साधु से मिले। उन दोनों ने इकट्ठे भोजन किया। भोजन के पश्चात् उस साधु ने अमरदास जी से पूछा कि उनका गुरु कौन है ? अमरदास जी ने उत्तर दिया कि उनका गुरु कोई नहीं है। उस साधु ने कहा, “मैंने एक गुरु विहीन व्यक्ति के हाथों भोजन खाकर पाप किया है और अपना जन्म भ्रष्ट कर लिया है। मुझे प्रायश्चित के लिए पुनः गंगा में स्नान करना पड़ेगा।” इसका आपके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा आपने गुरु धारण करने का दृढ़ निश्चय किया। एक दिन अमरदास जी ने बीबी अमरो के मुख से गुरु नानक देव जी की वाणी सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। इसलिए अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी के दर्शन करने का निर्णय किया। वे गुरु जी के दर्शनों के लिए खडूर साहिब गए तथा उनके अनुयायी बन गए। उस समय गुरु जी की आयु 62 वर्ष की थी।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-अमरदास जी ने खडूर साहिब में रह कर 11 वर्षों तक गुरु अंगद साहिब जी की अथक सेवा की। वे प्रतिदिन गुरु साहिब जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से, जो वहाँ से तीन मील की दूरी पर स्थित थी, पानी से भरा घड़ा अपने सिर पर उठाकर लाते तथा गुरु-घर में आई संगतों की तन-मन से सेवा करते। 1552 ई० की बात है कि अमरदास जी सदा की भाँति ब्यास से पानी लेकर लौट रहे थे। अंधेरा होने के कारण अमरदास जी को ठोकर लगी और वह गिर पड़े। साथ ही एक जुलाहे का घर था। आवाज़ सुनकर जुलाहा उठा और उसने पूछा कि कौन है। जुलाहिन ने कहा कि यह अवश्य अमरु निथावाँ (जिसके पास कोई स्थान न हो) होगा। धीरे-धीरे यह बात गुरु अंगद देव जी तक पहुँची। उन्होंने कहा कि आज से अमरदास ‘निथावाँ’ नहीं होगा, बल्कि निथावों को सहारा देगा। मार्च, 1552 ई० में गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी के सम्मुख एक नारियल और पाँच पैसे रखकर अपना शीश झुकाया और उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार अमरदास जी 73 वर्ष की आयु में सिखों के तीसरे गुरु बने।

सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। क्योंकि सिख धर्म अभी पूर्णत: संगठित नहीं हुआ था अतः गुरु जी ने इस दिशा में अनेक पग उठाए। गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव जी द्वारा आरंभ किए कार्यों को जारी रखा और बहुत-सी नई प्रथाओं तथा संस्थाओं की स्थापना की।

1. गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण (Construction of the Baoli at Goindwal Sahib)-गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली के निर्माण से सिख पंथ को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब उन्हें हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता न रही। इसके साथ ही वहाँ लोगों की पानी की समस्या भी हल हो गई। लोग बड़ी संख्या में गोइंदवाल साहिब आने लगे। इससे सिख धर्म के प्रसार को बल मिला। एच० एस० भाटिया तथा एस० आर० बक्शी के शब्दों में,
“गुरु अमरदास जी का गुरुगद्दी काल, सिख आंदोलन के इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ।”12

2. लंगर संस्था का विस्तार (Expansion of Langar Institution)-गुरु अमरदास जी ने, गुरु नानक देव – जी द्वारा स्थापित लंगर संस्था का और विस्तार किया। गुरु जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर छके बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। “पहले पंगत फिर संगत” का नारा दिया गया। यहाँ तक कि मुग़ल बादशाह अकबर तथा हरिपुर के राजा ने भी गुरु जी से भेंट से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर खाया था। इस लंगर में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोग सम्मिलित होते थे। यह लंगर देर रात तक चलता रहता था। लंगर संस्था सिख धर्म के प्रचार में बड़ी सहायक प्रमाणित हुई । इससे जाति-प्रथा को गहरा आघात पहुँचा। इसने निम्न जातियों को समाज में एक नया सम्मान दिया। इससे सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ। डॉक्टर फौजा सिंह के अनुसार,
“इस (लंगर) संस्था ने जाति प्रथा को गहरी चोट पहुँचाई तथा सामाजिक एकता के लिए मार्ग साफ किया।”13

3. वाणी का संग्रह (Collection of Hymns)-गुरु अमरदास जी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य गुरु नानक देव जी तथा गुरु अंगद देव जी की वाणी का संग्रह करना था। गुरु साहिब ने स्वयं 907 शब्दों की रचना की। ऐसा करने से आदि-ग्रंथ साहिब के संकलन के लिए आधार तैयार हो गया।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (6)
BAOLI SAHIB : GOINDWAL SAHIB

4. मंजी प्रथा (Manji System)-मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक थी। सिखों की संख्या में वृद्धि के कारण गुरु साहिब के लिए प्रत्येक सिख तक पहुँच पाना संभव नहीं था। उन्होंने अपने उपदेश दूर-दूर के क्षेत्रों में रहने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की । इन मंजियों की स्थापना एक ही समय पर नहीं बल्कि अलग-अलग समय पर की गई। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। ये मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी (चारपाई) पर बैठकर प्रचार करते थे, इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा की स्थापना के परिणामस्वरूप सिख धर्म की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“मंजी प्रथा की स्थापना ने सिख पंथ की प्रसार गतिविधियों में उल्लेखनीय योगदान दिया।”14

5. उदासी संप्रदाय का खंडन (Denunciation of the Udasi Sect)-गुरु अमरदास जी के समय में उदासी संप्रदाय सिख संप्रदाय के अस्तित्व के लिए खतरा बना हुआ था। बहुत से सिख बाबा श्रीचंद जी से प्रभावित होकर उदासी संप्रदाय में सम्मिलित होने लगे थे। ऐसे समय गुरु अमरदास जी ने बड़े साहस से काम लिया। उन्होंने सिखों को समझाया कि सिख धर्म उदासी मत से बिल्कुल अलग है। उनका कहना था कि सिख धर्म गृहस्थ मार्ग अपनाने तथा संसार में रह कर श्रम करने की शिक्षा देता है। दूसरी ओर उदासी मत मुक्ति की खोज में वनों में मारेमारे फिरने की शिक्षा देता है। गुरु साहिब के आदेश पर सिखों ने उदासी मत से सदैव के लिए अपने संबंध तोड़ लिए। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म में विलीन होने से बचा लिया।

6. सामाजिक सुधार (Social Reforms)-गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। समाज में जाति बंधन कठोर रूप धारण कर चुका था.। उस समय निम्न जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार होते थे। गुरु अमरदास जी ने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने जाति का अहंकार करने वाले को मूर्ख तथा गंवार बताया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित सती-प्रथा का डट कर विरोध किया। गुरु जी का कथन था—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़ियाँ लग जलनि॥
सतीआ सेई नानका जो विरहा चोट मरनि॥
अर्थात् उस स्त्री को सती नहीं कहा जा सकता जो पति की चिता में जल कर मर जाती है। वास्तव में सती वही है जो पति के बिछोह को सहन न करती हुई विरह के आघात से मर जाए।

गुरु अमरदास जी ने बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने मादक द्रव्यों के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके अतिरिक्त गुरु अमरदास जी ने सिखों के जन्म, विवाह तथा मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में प्रचलित की। ये रस्में बिल्कुल सरल थीं। संक्षेप में गुरु अमरदास जी ने एक आदर्श-समाज का निर्माण किया।

7. अकबर का गोइंदवाल साहिब आगमन (Akbar’s visit to Goindwal Sahib)-मुग़ल सम्राट अकबर 1568 ई० में गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु अमरदास जी को मिलने से पूर्व संगत में बैठ कर लंगर खाया। वह गुरु जी के व्यक्तित्व और लंगर व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुछ गाँवों की जागीर देने की गुरु जी को पेशकश की। परंतु गुरु जी ने यह जागीर लेने से इंकार कर दिया। इस पर अकबर ने यह जागीर बीबी भानी जी को दे दी। इस जागीर पर बाद में गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की स्थापना की। अकबर की इस यात्रा का लोगों के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। इस कारण सिख धर्म और भी लोकप्रिय हो गया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अमरदास जी ने 1574 ई० में अपने दामाद भाई जेठा जी की नम्रता तथा सेवा भाव से प्रभावित होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का निर्णय किया। गुरु जी ने न केवल भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी ही बनाया अपितु गुरुगद्दी उनके वंश में रहने का आशीर्वाद भी दिया। गुरु अमरदास जी 1 सितंबर, 1574 को ज्योति-जोत समा गए।

9. गुरु अमरदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Amar Das Ji’s Achievements)-गुरु अमरदास जी के नेतृत्व में सिख पंथ ने महत्त्वपूर्ण विकास किया। गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण करके, लंगर प्रथा का विस्तार करके, पूर्व गुरुओं की वाणी को एकत्र करके, सामाजिक कुरीतियों का विरोध करके, उदासी संप्रदाय का खंडन करके सिख पंथ के इतिहास में एक मील पत्थर का काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार संगत सिंह के अनुसार,
“गुरु अमरदास जी के अधीन सिख पंथ का तीव्र विकास हुआ।”15
एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के अनुसार,
“सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी ने प्रशंसनीय योगदान दिया।”16

12. “The pontificate of Guru Amar Das Ji is thus a turning point in the history of the Sikh movement.” H. S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 15.
13. “This institution gave a shattering blow to the rigidity of the caste system and paved the way for social equality.” Dr. Fauja Singh, Perspectives on Guru Amar Das (Patiala: 1982) p 25.
14. “The establishment of Manji system gave a big thrust to the missionary activities of the Sikhs.” Dr. D.S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 207.
15. “Under Guru Amar Das, Sikhism made rapid strides.” Sangat Singh, The Sikhs in History (New Delhi : 1996) p. 29.
16. “Guru Amar Das’s contribution to the growth of the Sikh Panth was great.”Dr.D.S. Dhillon Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 94.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 12.
गुरु रामदास जी के जीवन और सफलताओं का वर्णन करें।
(Describe the life and the achievements of Guru Ram Das Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी के योगदान के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the contribution of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे। वह 1574 ई० से लेकर 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनके गुरुकाल में सिख पंथ के संगठन और विकास में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। गुरु रामदास जी के आरंभिक जीवन और उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—
I. गुरु रामदास जी का प्रारंभिक जीवन (Early Career of Guru Ram Das.Ji)

  1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु रामदास जी का जन्म 24 सितंबर, 1534 ई० को चूना मंडी लाहौर में हुआ था। आपको पहले भाई जेठा जी के नाम से जाना जाता था। आपके पिता जी का नाम हरिदास जी तथा माता जी का नाम दया कौर जी था। वे सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। जेठा जी के माता-पिता बहुत निर्धन थे।

2. बचपन और विवाह (Childhood and Marriage)-भाई जेठा जी बचपन से ही धार्मिक विचारों वाले थे। एक बार आपके माता जी ने आपको उबले हुए चने बेच कर कुछ कमाने को कहा। बाहर जाते समय उन्हें कुछ भूखे साधु मिल गए। आपने सारे चने इन भूखे साधुओं को खिला दिए-और स्वयं खाली हाथ लौट आए। आप लोगों की सेवा करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। एक बार आपको एक सिख जत्थे के साथ गोइंदवाल साहिब जाने का अवसर मिला। आप वहाँ पर गुरु अमरदास जी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बन गए। गुरु अमरदास जी भाई जेठा जी की भक्ति और गुणों को देखकर बहुत प्रभावित हुए। इसलिए गुरु साहिब ने 1553 ई० में अपनी छोटी लड़की बीबी भानी जी का विवाह उनके साथ कर दिया। भाई जेठा जी के घर तीन लड़कों का जन्म हुआ। उनके नाम पृथी चंद (पृथिया), महादेव और अर्जन देव थे।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship) विवाह के पश्चात् भी भाई जेठा जी गोइंदवाल साहिब में ही रहे तथा पहले की तरह गुरु जी की सेवा करते रहे। भाई जेठा जी की निष्काम सेवा, नम्रता और मधुर स्वभाव ने गुरु अमरदास जी का मन मोह लिया था। इसलिए 1 सितंबर, 1574 ई० में गुरु अमरदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व भाई जेठा जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय से भाई जेठा जी को रामदास जी कहा जाने लगा। इस प्रकार गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु बने।

II. गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (7)
GURU RAM DAS JI

  1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”18

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With the Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। गुरु रामदास जी को देखकर उन्होंने यह प्रश्न किया, “सुनाइए दाढ़ा इतना लंबा क्यों बढ़ाया है ?” गुरु साहिब ने उत्तर दिया, “आप जैसे महापुरुषों के चरण साफ़ करने के लिए।” यह कहकर गुरु साहिब अपनी दाढ़ी से श्रीचंद के चरण साफ करने लगे। श्रीचंद ने अपने पाँव फौरन पीछे खींच लिए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) तथा लावाँ द्वारा विवाह करने की प्रथा का आरंभ था। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसेजाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब को 500 बीघा भूमि दान में दी। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। गुरु अर्जन देव जी प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)—गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, “गत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”19

18. “Masand System played a big role in consolidating Sikhism.” S. S. Gandhi, History of the Sikh Gurus (Delhi : 1978) p. 209.
19. “During the short period of his Guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

प्रश्न 13.
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी के योगदान के बारे में जानकारी दो। (Describe the cntribution of Guru Ram Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी के समय सिख पंथ का विकास (Development of Sikhism under Guru Ram Das Ji)
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था। उनका गुरुकाल का समय बहुत ही कम था। फिर भी उन्होंने सिख पंथ के विकास तथा संगठन में प्रशंसनीय योगदान दिया।

1. रामदासपुरा की स्थापना (Foundation of Ramdaspura)-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। रामदासपुरा की स्थापना 1577 ई० में हुई। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंध रखने वाले 52 व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। अमृतसर सरोवर के निर्माण का कार्य बाबा बुड्डा जी की देखरेख में हुआ। शीघ्र ही अमृत सरोवर के नाम पर ही रामदासपुरा का नाम अमृतसर पड़ गया। अमृतसर की स्थापना से सिखों को उनका मक्का मिल गया। यह शीघ्र ही सिखों का सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया।

2. मसंद प्रथा का आरंभ (Introduction of Masand System)-गुरु रामदास जी को रामदासपुरा में अमृतसर एवं संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदवाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। इसलिए गुरु साहिब ने अपने प्रतिनिधियों को अलग-अलग स्थानों पर भेजा ताकि वे सिख मत का प्रचार कर सकें और संगतों से धन एकत्रित कर सकें। यह संस्था मसंद प्रथा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसंद प्रथा के कारण ही सिख मत का दूर-दूर तक प्रचार हुआ। एस० एस० गाँधी के अनुसार,
“मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”18

3. उदासियों से समझौता (Reconciliation With the Udasis)-गुरु रामदास जी के समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना उदासी तथा सिख संप्रदाय के मध्य समझौता था। एक बार उदासी मत के संस्थापक बाबा श्रीचंद जी गुरु रामदास जी के दर्शनों के लिए अमृतसर आए। गुरु रामदास जी को देखकर उन्होंने यह प्रश्न किया, “सुनाइए दाढ़ा इतना लंबा क्यों बढ़ाया है ?” गुरु साहिब ने उत्तर दिया, “आप जैसे महापुरुषों के चरण साफ़ करने के लिए।” यह कहकर गुरु साहिब अपनी दाढ़ी से श्रीचंद के चरण साफ करने लगे। श्रीचंद ने अपने पाँव फौरन पीछे खींच लिए। वह गुरु साहिब की नम्रता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस दिन के पश्चात् सिख मत का विरोध नहीं किया। यह समझौता सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुआ।

4. कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य (Some other important Works)-गुरु जी के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में वाणी की रचना (679 शब्द) तथा लावाँ द्वारा विवाह करने की प्रथा का आरंभ था। गुरु साहिब ने पहले से चली आ रही संगत, पंगत और मंजी नामक संस्थाओं को जारी रखा। गुरु साहिब ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसेजाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का भी ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया।

5. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar)-गुरु रामदास जी के समय में भी सिखों के मुग़ल बादशाह अकबर से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित रहे। अकबर ने गुरु रामदास जी से लाहौर में मुलाकात की थी। गुरु जी के विचारों से प्रभावित होकर उसने गुरु साहिब को 500 बीघा भूमि दान में दी। इसके अतिरिक्त उसने गुरु साहिब के कहने पर पंजाब के कृषकों का एक वर्ष के लिए लगान माफ कर दिया। फलस्वरूप गुरु साहिब की ख्याति में और वृद्धि हुई।

6. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-1581 ई० में गुरु रामदास जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसका कारण यह था कि गुरु साहिब के सबसे बड़े पुत्र पृथिया ने अपने षड्यंत्रों के कारण उन्हें नाराज़ कर लिया था। दूसरे पुत्र महादेव को सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। गुरु अर्जन देव जी प्रत्येक पक्ष से गुरुगद्दी के योग्य थे। गुरु रामदास जी 1 सितंबर, 1581 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

7. गुरु रामदास जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of the Achievements of Guru Ram Das Ji)—गुरु रामदास जी अपने गुरुगद्दी काल में सिख पंथ को एक नया स्वरूप देने में सफल हुए। गुरु जी ने रामदासपुरा एवं मसंद प्रथा की स्थापना से, उदासियों के साथ समझौता करके, अपनी वाणी की रचना करके, समाज में प्रचलित कुरीतियों का खंडन करके, संगत, “गत एवं मंजी संस्थाओं को जारी रख कर तथा अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करके सिख धर्म की नींव को और सुदृढ़ किया। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु रामदास जी ने अपने लगभग 7 वर्षों के गुरुकाल में सिख पंथ को दृढ़ ढाँचा एवं दिशा प्रदान की।”19

19. “During the short period of his Guruship of about seven years, Guru Ram Das provided a well-knit community with a form and content.” Dr. D. S. Dhillon, Sikhism : Origin and Development (New Delhi : 1988) p. 100.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 14.
गुरु अर्जन देव जी के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन करें। गुरुगद्दी पर बैठते समय उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(Describe briefly the early life of Guru Arjan Dev Ji. What difficulties he had to face at the time of his accession to Guruship ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे। उनका गुरु काल 1581 से 1606 ई० तक था। गुरु अर्जन देव जी के गुरु काल में जहाँ सिख पंथ का अद्वितीय विकास हुआ, वहीं उनके बलिदान से सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु जी के आरंभिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

गुरु अर्जन देव जी का आरंभिक जीवन (Early Career of Guru Arjan Dev Ji)

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। आप गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे तथा सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। आपके माता जी का नाम बीबी भानी जी था। बीबी भानी जी बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। इसलिए अर्जन देव जी के मन पर इसका गहन प्रभाव पड़ा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अर्जन देव जी बचपन से ही संबके विशेषकर अपने नाना गुरु अमरदास जी के बड़े लाडले थे। गुरु अमरदास जी ने एक बार भविष्यवाणी की, “यह मेरा दोहता वाणी का बोहथा होगा” अर्थात् यह एक ऐसी नाव बनेगा जो मानवता को संसार-सागर से पार उतारेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। गुरु अर्जन देव जी आरंभ से ही बड़े धार्मिक विचारों के थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी तथा गुरुवाणी के संबंध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आपका विवाह मऊ गाँव (फिल्लौर) के निवासी कृष्ण चंद की सुपुत्री गंगा देवी जी से हुआ। 1595 ई० में आपके घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र पृथी चंद बड़ा स्वार्थी तथा बेईमान था। दूसरा पुत्र महादेव वैरागी स्वभाव का था। उसकी सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। तीसरे तथा सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी थे। उनमें गुरुभक्ति, सेवा भाव तथा नम्रता आदि गुण प्रमुख थे। इसी कारण गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जन देव जी को 1581 ई० में अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु बने।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (8)
GURU ARJAN DEV JI

II. गुरु अर्जन देव जी की कठिनाइयाँ
(Difficulties of Guru Arjan Dev Ji)
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अर्जन साहिब को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. पृथी चंद का विरोध (Opposition of Prithi Chand)-पृथी चंद गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बड़ा होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना हक समझता था परंतु गुरु अमरदास जी ने उसके कपटी तथा स्वार्थी स्वभाव को देखते हुए अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस पर उसने अपने पिता जी को दुर्वचन कहे। उसने गुरु रामदास जी के ज्योति-जोत समाने के समय यह अफवाह फैला दी कि गुरु अर्जन देव जी ने उन्हें विष देकर मरवा दिया है। गुरु अर्जन देव जी की दस्तारबंदी के समय पृथी चंद ने गुरु साहिब से दस्तार (पगड़ी) छीन कर अपने सिर पर रख ली। उसने गुरु अर्जन साहिब से संपत्ति भी ले ली। उसने लंगर के लिए आई माया भी हड़पनी आरंभ कर दी। जब 1595 ई० में गुरु साहिब के घर हरगोबिंद साहिब जी का जन्म हुआ तो उसने इस बालक की हत्या के कई प्रयत्न किए। उसने लाहौर के मुग़ल कर्मचारी सुलही खाँ से मिलकर बादशाह अकबर को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया। इस प्रकार पृथिया ने गुरु अर्जन साहिब को परेशान करने में कोई यत्न खाली न छोड़ा।

2. कट्टर मुसलमानों का विरोध (Opposition of Orthodox Muslims)-गुरु अर्जन साहिब को कट्टर मुसलमानों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। ये मुसलमान सिखों के बढ़ते प्रभाव के कारण उनके दुश्मन बन गए। कट्टरपंथी मुसलमानों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए सरहिंद में ‘नक्शबंदी’ लहर का गठन किया। इस लहर का नेता शेख अहमद सरहिंदी था। 1605 ई० में जहाँगीर मुग़लों का नया बादशाह बना। वह बहुत कट्टर विचारों का था। नक्शबंदियों ने जहाँगीर को सिखों के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध उपयुक्त कार्यवाही करने का मन बना लिया।

3. ब्राह्मणों का विरोध (Opposition of Brahmans)-गुरु अर्जन देव जी को पंजाब के हिंदुओं के प्रमुख वर्ग अर्थात् ब्राह्मणों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। इसका कारण यह था कि सिख धर्म के प्रचार के कारण समाज में ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत कम होता जा रहा था। सिखों ने ब्राह्मणों के बिना अपने रीति-रिवाज मनाने शुरू कर दिए थे। गुरु अर्जन देव जी ने जब आदि-ग्रंथ साहिब का संकलन किया तो ब्राह्मणों ने मुग़ल सम्राट अकबर से यह शिकायत की कि इसमें हिंदुओं तथा मुसलमानों के विरुद्ध बहुत कुछ लिखा है। जाँच करने पर अकबर का कहना था कि यह ग्रंथ तो पूजनीय है।

4. चंदू शाह का विरोध (Opposition of Chandhu Shah)-चंदू शाह जो कि लाहौर का दीवान था __ अपनी पुत्री के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंदू शाह के आदमियों ने चंदू शाह.को गुरु अर्जन साहिब के सुपुत्र हरगोबिंद से रिश्ता करने का सुझाव दिया। इस पर उसने गुरु जी को अपशब्द कहे। बाद में अपनी पत्नी के विवश करने पर चंदू शाह यह रिश्ता करने के लिए सहमत हो गया। क्योंकि उस समय तक सिखों को चंदू शाह द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल गया था इसलिए उन्होंने गुरु जी को यह रिश्ता स्वीकार न करने के लिए प्रार्थना की। परिणामस्वरूप गुरु साहिब ने यह रिश्ता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अब चंदू शाह एक लाख रुपया लेकर गुरु जी के पास पहुँचा और गुरु जी को दहेज का लालच देने लगा। गुरु जी ने चंदू शाह से कहा, “मेरे शब्द पत्थर पर लकीर हैं। यदि तू समस्त संसार को भी दहेज में दे दे तो भी मेरा पुत्र तेरी पुत्री से विवाह नहीं करेगा।” इस पर चंदू शाह गुरु जी का घोर शत्रु बन गया।

प्रश्न 15.
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अर्जन देव जी द्वारा अपनाई गई विधि के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the measures adopted by Guru Arjan Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के समय सिख धर्म के हुए विकास के बारे में संक्षिप्त परंतु भावपूर्ण चर्चा कीजिए।
(Discuss in brief, but meaningful the development of Sikhism during Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की विशेष देन की चर्चा करें।
(Discuss the special contribution of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अर्जन देव जी के योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the contribution of Guru Arjan Dev Ji in the development of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म एवं परंपरा के विकास में गुरु अर्जन देव जी के योगदान की चर्चा करें।
(Discuss the role of Guru Arjan Dev Ji in the development of Sikh faith and tradition.)
अथवा
सिख पंथ के संगठन एवं विकास में गुरु अर्जन साहिब के योगदान बारे जानकारी दें।
(Discuss Guru Arjan Sahib’s contribution to the organisation and development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की विभिन्न सफलताओं का वर्णन करें। (Give an account of the various achievements of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का गुरु काल 1581 ई० से 1606 ई० तक था। उनके गुरुगद्दी पर बैठने से सिख इतिहास में एक नए युग का आगमन हुआ। गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों का विवरण निम्नलिखित है—

1. हरिमंदिर साहिब का निर्माण (Construction of Harmandir Sahib)–गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सर्वप्रथम महान् कार्य हरिमंदिर साहिब का निर्माण था। सर्वप्रथम गुरु अर्जन देव जी ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू कराए गए अमृतसर सरोवर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसके पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृत सरोवर में हरिमंदिर (ईश्वर का मंदिर) साहिब का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। इसकी नींव 13 जनवरी, 1588 ई० में प्रसिद्ध सूफी संत मीयाँ मीर जी ने रखी थी। सिखों ने गुरु जी को हरिमंदिर साहिब को आस-पास की इमारतों से ऊँचा बनवाने के लिए कहा परंतु गुरु साहिब का कहना था कि जो नीचा होगा, वही ऊँचा कहलाने के योग्य होगा। इसलिए इसका भवन अन्य भवनों से नीचा रखा गया। हरिमंदिर साहिब की एक अन्य विशेषता इसकी चारों दिशाओं में बनाए गए एक-एक द्वार हैं। इसका अर्थ यह था कि संसार की चारों दिशाओं से लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ आ सकते हैं। 1601 ई० में हरिमंदिर साहिब का निर्माण-कार्य संपूर्ण हुआ।
इस समय गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि इस मंदिर की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। सिख वहाँ बड़ी संख्या में आने लगे। फलस्वरूप जल्दी ही हरिमंदिर साहिब
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SRI HARMANDIR SAHIB : AMRITSAR
सिखों का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। प्रसिद्ध लेखक जी० एस० तालिब के अनुसार,
“इस मंदिर एवं सरोवर का सिखों के लिए वही स्थान है जो मक्का का मुसलमानों के लिए, जेरूस्लेम का यहूदियों तथा ईसाइयों के लिए तथा बौद्ध गया का बौद्धों के लिए।”20

2. तरन तारन की स्थापना (Foundation of Tarn Taran)-1590 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने माझा क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के लिए अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर भी खुदवाया गया। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव-सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन्होंने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

3. करतारपुर एवं हरिगोबिंदपुर की स्थापना (Foundation of Kartarpur and Hargobindpur)गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर जिला में करतारपुर नगर की स्थापना की। करतारपुर से अभिप्राय था ‘ईश्वर का शहर’। यह शहर ब्यास और सतलुज नदियों के मध्य स्थित है। करतारपुर में गुरु साहिब ने गंगसर नामक एक सरोवर भी बनवाया। इस प्रकार करतारपुर जालंधर दोआब में एक प्रसिद्ध प्रचार केंद्र बन गया। 1595 ई० में गुरु साहिब ने अपने पुत्र हरगोबिंद जी के जन्म की प्रसन्नता में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की।

4. लाहौर में बाऊली का निर्माण (Construction of Baoli at Lahore)-गुरु अर्जन देव जी एक बार सिख संगतों के आग्रह पर लाहौर गए। यहाँ उन्होंने डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इस प्रकार उस क्षेत्र के सिखों को भी एक तीर्थ स्थान मिल गया।

5. मसंद प्रथा का विकास (Development of Masand System)-मसंद प्रथा का विकास निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ऊँचा स्थान’। गुरु साहिब के प्रतिनिधि संगत में ऊँचे स्थान पर बैठते थे, इसलिए उन्हें मसंद कहा जाने लगा। सिखों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण गुरु साहिब को लंगर तथा अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांश (दशम् भाग) गुरु साहिब को भेंट करे। इस पैसे को एकत्रित करने के लिए गुरु साहिब ने मसंद नियुक्त किए। ये मसंद अपने क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ धन भी एकत्रित करते थे तथा इस धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आकर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा के कारण सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर के क्षेत्रों में संभव हो सका। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग सिख धर्म में सम्मिलित हुए। दूसरा, इस प्रथा के कारण गुरु घर की आय निश्चित हो गई। इस कारण सिख धर्म एवं गुरु साहिब की लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)—गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य सिख पंथ के विकास के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका प्रमुख उद्देश्य पूर्व सिख गुरुओं की वाणी को वास्तविक रूप में अंकित करना तथा सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य रामसर नामक सरोवर के किनारे आरंभ किया गया। भाई गुरदास जी ने वाणी को लिखने का कार्य किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी की और अपनी वाणी शामिल की। इनके अतिरिक्त इनमें कई भक्तों, सूफी संतों और भट्टों इत्यादि की वाणी भी दर्ज की गई। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी शामिल कर ली गई तथा आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिखों को एक पावन धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। इसने सिखों में एक नई जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।”21

7. घोड़ों का व्यापार (Trade of Horses)-गुरु अर्जन देव जी सिखों की आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिखों को अरब देशों के साथ घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। इसके तीन लाभ हुए। प्रथम, सिख अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जिस कारण उनकी आर्थिक दशा सुधर गई। दसरा, वे अच्छे घुड़सवार बन गए। तीसरा, इसने समाज में प्रचलित इस भ्रम पर गहरा आघात किया कि समुद्र पार जाने से ही किसी व्यक्ति का धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

8. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar) गुरु अर्जन देव जी तथा मुग़ल सम्राट अकबर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। गुरु अर्जन देव जी के विरोधियों पृथिया, चंदू शाह, ब्राह्मणों एवं कट्टरपंथी मुसलमानों ने अकबर को गुरु साहिब जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया परंतु उनकी चालें बेकार गईं। कई मुसलमानों ने अकबर को यह कहकर भड़काने का प्रयास किया कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं, परंतु अकबर इस ग्रंथ को पूजनीय मानता था। गुरु अर्जन देव के अनुरोध करने पर अकबर ने कृषकों के लगान में 10% की कमी कर दी। इसके कारण जहाँ गुरु साहिब की ख्याति में वृद्धि हुई, वहीं सिख पंथ के विकास में भी काफ़ी सहायता मिली।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देने से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु साहिब ने उसे पूर्ण रूप से सशस्त्र होकर गुरुगद्दी पर बैठने और सेना रख्नने का भी आदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने न केवल गुरुगद्दी की परंपरा __ को ही बनाए रखा, बल्कि इसके स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया।

10. गरु अर्जन देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Arjan Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने सिख्ख पंथ के विकास में अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हरिमंदिर साहिब, तरनतारन, हरगोबिंदपुर, करतारपुर और लाहौर में बाऊली की स्थापना, मसंद प्रथा के विकास तथा आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिख धर्म को नई दिशा मिली। फलस्वरूप यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभर कर सामने आया। प्रोफ़ेसर हरबंस सिंह के शब्दों में,
“पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी के अधीन सिख धर्म अच्छी प्रकार दृढ़ हो गया था।”22
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० मनसुखानी के अनुसार,
“गुरु अर्जन जी के गुरु काल में सिख धर्म का तीव्र विकास हुआ है।”23

20. “This temple and the pool became Sikhism what Mecca is to Islam, Jerusalem to Judaism and Christianity and Bodh Gaya to Buddhism.” G.S. Talib, An Introduction to Sri Guru Granth Sahib (Patiala : 1991) p. 10.
21. “The compilation of the Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1973) p. 97
22. “Under Cuu Arjan, the Fifth Garu, Sikhism became more firmly established.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi: 1004), p. 37.
23. During the period of Guru Arjan, Sikhism took a significant stride.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhisra (New Delhi : 1982) p. 144.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 16.
गुरु अर्जन देव जी के आरंभिक जीवन का वर्णन करें। उनकी सिख धर्म को क्या देन है ? (Briefly describe the early life of Guru Arjan Dev Ji. What is his contribution to Sikhism ?)
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे। उनका गुरु काल 1581 से 1606 ई० तक था। गुरु अर्जन देव जी के गुरु काल में जहाँ सिख पंथ का अद्वितीय विकास हुआ, वहीं उनके बलिदान से सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु जी के आरंभिक जीवन और कठिनाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I गुरु अर्जन देव जी का आरंभिक जीवन
(Early Career of Guru Arjan Dev Ji)

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु अर्जन देव जी का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई० को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। आप गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे तथा सोढी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। आपके माता जी का नाम बीबी भानी जी था। बीबी भानी जी बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। इसलिए अर्जन देव जी के मन पर इसका गहन प्रभाव पड़ा।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु अर्जन देव जी बचपन से ही संबके विशेषकर अपने नाना गुरु अमरदास जी के बड़े लाडले थे। गुरु अमरदास जी ने एक बार भविष्यवाणी की, “यह मेरा दोहता वाणी का बोहथा होगा” अर्थात् यह एक ऐसी नाव बनेगा जो मानवता को संसार-सागर से पार उतारेगा। उनकी यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। गुरु अर्जन देव जी आरंभ से ही बड़े धार्मिक विचारों के थे। उन्होंने हिंदी, फ़ारसी तथा गुरुवाणी के संबंध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। आपका विवाह मऊ गाँव (फिल्लौर) के निवासी कृष्ण चंद की सुपुत्री गंगा देवी जी से हुआ। 1595 ई० में आपके घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु रामदास जी के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र पृथी चंद बड़ा स्वार्थी तथा बेईमान था। दूसरा पुत्र महादेव वैरागी स्वभाव का था। उसकी सांसारिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। तीसरे तथा सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी थे। उनमें गुरुभक्ति, सेवा भाव तथा नम्रता आदि गुण प्रमुख थे। इसी कारण गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जन देव जी को 1581 ई० में अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस तरह गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु बने।

गुरु अर्जन देव जी का गुरु काल 1581 ई० से 1606 ई० तक था। उनके गुरुगद्दी पर बैठने से सिख इतिहास में एक नए युग का आगमन हुआ। गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए। गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों का विवरण निम्नलिखित है—

1. हरिमंदिर साहिब का निर्माण (Construction of Harmandir Sahib)–गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के विकास के लिए सर्वप्रथम महान् कार्य हरिमंदिर साहिब का निर्माण था। सर्वप्रथम गुरु अर्जन देव जी ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू कराए गए अमृतसर सरोवर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसके पश्चात् गुरु अर्जन देव जी ने अमृत सरोवर में हरिमंदिर (ईश्वर का मंदिर) साहिब का निर्माण कार्य आरंभ करवाया। इसकी नींव 13 जनवरी, 1588 ई० में प्रसिद्ध सूफी संत मीयाँ मीर जी ने रखी थी। सिखों ने गुरु जी को हरिमंदिर साहिब को आस-पास की इमारतों से ऊँचा बनवाने के लिए कहा परंतु गुरु साहिब का कहना था कि जो नीचा होगा, वही ऊँचा कहलाने के योग्य होगा। इसलिए इसका भवन अन्य भवनों से नीचा रखा गया। हरिमंदिर साहिब की एक अन्य विशेषता इसकी चारों दिशाओं में बनाए गए एक-एक द्वार हैं। इसका अर्थ यह था कि संसार की चारों दिशाओं से लोग बिना किसी भेदभाव के यहाँ आ सकते हैं। 1601 ई० में हरिमंदिर साहिब का निर्माण-कार्य संपूर्ण हुआ।
इस समय गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि इस मंदिर की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। सिख वहाँ बड़ी संख्या में आने लगे। फलस्वरूप जल्दी ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। प्रसिद्ध लेखक जी० एस० तालिब के अनुसार, “इस मंदिर एवं सरोवर का सिखों के लिए वही स्थान है जो मक्का का मुसलमानों के लिए, जेरूस्लेम का यहूदियों तथा ईसाइयों के लिए तथा बौद्ध गया का बौद्धों के लिए।”20

2. तरन तारन की स्थापना (Foundation of Tarn Taran)-1590 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने माझा क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के लिए अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर भी खुदवाया गया। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव-सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन्होंने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

3. करतारपुर एवं हरिगोबिंदपुर की स्थापना (Foundation of Kartarpur and Hargobindpur)गुरु अर्जन देव जी ने 1593 ई० में जालंधर जिला में करतारपुर नगर की स्थापना की। करतारपुर से अभिप्राय था ‘ईश्वर का शहर’। यह शहर ब्यास और सतलुज नदियों के मध्य स्थित है। करतारपुर में गुरु साहिब ने गंगसर नामक एक सरोवर भी बनवाया। इस प्रकार करतारपुर जालंधर दोआब में एक प्रसिद्ध प्रचार केंद्र बन गया। 1595 ई० में गुरु साहिब ने अपने पुत्र हरगोबिंद जी के जन्म की प्रसन्नता में ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नगर की स्थापना की।

4. लाहौर में बाऊली का निर्माण (Construction of Baoli at Lahore)-गुरु अर्जन देव जी एक बार सिख संगतों के आग्रह पर लाहौर गए। यहाँ उन्होंने डब्बी बाज़ार में एक बाऊली का निर्माण करवाया। इस प्रकार उस क्षेत्र के सिखों को भी एक तीर्थ स्थान मिल गया।

5. मसंद प्रथा का विकास (Development of Masand System)-मसंद प्रथा का विकास निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ऊँचा स्थान’। गुरु साहिब के प्रतिनिधि संगत में ऊँचे स्थान पर बैठते थे, इसलिए उन्हें मसंद कहा जाने लगा। सिखों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण गुरु साहिब को लंगर तथा अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांश (दशम् भाग) गुरु साहिब को भेंट करे। इस पैसे को एकत्रित करने के लिए गुरु साहिब ने मसंद नियुक्त किए। ये मसंद अपने क्षेत्र में सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ धन भी एकत्रित करते थे तथा इस धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आकर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा के कारण सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर के क्षेत्रों में संभव हो सका। इससे प्रभावित होकर अनेक लोग सिख धर्म में सम्मिलित हुए। दूसरा, इस प्रथा के कारण गुरु घर की आय निश्चित हो गई। इस कारण सिख धर्म एवं गुरु साहिब की लोकप्रियता में बढ़ौतरी हुई।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)—गुरु अर्जन देव जी का सबसे महान् कार्य सिख पंथ के विकास के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका प्रमुख उद्देश्य पूर्व सिख गुरुओं की वाणी को वास्तविक रूप में अंकित करना तथा सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य रामसर नामक सरोवर के किनारे आरंभ किया गया। भाई गुरदास जी ने वाणी को लिखने का कार्य किया। यह महान् कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी की और अपनी वाणी शामिल की। इनके अतिरिक्त इनमें कई भक्तों, सूफी संतों और भट्टों इत्यादि की वाणी भी दर्ज की गई। गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय आदि ग्रंथ साहिब जी में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी शामिल कर ली गई तथा आदि ग्रंथ साहिब जी को गुरु ग्रंथ साहिब जी का दर्जा दिया गया। आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिखों को एक पावन धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। इसने सिखों में एक नई जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी से हमें उस समय के पंजाब की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। डॉक्टर हरी राम गुप्ता का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन सिख इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।”21

7. घोड़ों का व्यापार (Trade of Horses)-गुरु अर्जन देव जी सिखों की आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी चाहते थे। इसलिए उन्होंने सिखों को अरब देशों के साथ घोड़ों का व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन दिया। इसके तीन लाभ हुए। प्रथम, सिख अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जिस कारण उनकी आर्थिक दशा सुधर गई। दसरा, वे अच्छे घुड़सवार बन गए। तीसरा, इसने समाज में प्रचलित इस भ्रम पर गहरा आघात किया कि समुद्र पार जाने से ही किसी व्यक्ति का धर्म भ्रष्ट हो जाता है।

8. अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Akbar) गुरु अर्जन देव जी तथा मुग़ल सम्राट अकबर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। गुरु अर्जन देव जी के विरोधियों पृथिया, चंदू शाह, ब्राह्मणों एवं कट्टरपंथी मुसलमानों ने अकबर को गुरु साहिब जी के विरुद्ध भड़काने का यत्न किया परंतु उनकी चालें बेकार गईं। कई मुसलमानों ने अकबर को यह कहकर भड़काने का प्रयास किया कि आदि ग्रंथ साहिब में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं, परंतु अकबर इस ग्रंथ को पूजनीय मानता था। गुरु अर्जन देव के अनुरोध करने पर अकबर ने कृषकों के लगान में 10% की कमी कर दी। इसके कारण जहाँ गुरु साहिब की ख्याति में वृद्धि हुई, वहीं सिख पंथ के विकास में भी काफ़ी सहायता मिली।

9. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देने से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु साहिब ने उसे पूर्ण रूप से सशस्त्र होकर गुरुगद्दी पर बैठने और सेना रख्नने का भी आदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने न केवल गुरुगद्दी की परंपरा को ही बनाए रखा, बल्कि इसके स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया।

10. गरु अर्जन देव जी की सफलताओं का मूल्याँकन (Estimate of Guru Arjan Dev Ji’s Achievements)-इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु अर्जन देव जी ने सिख्ख पंथ के विकास में अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हरिमंदिर साहिब, तरनतारन, हरगोबिंदपुर, करतारपुर और लाहौर में बाऊली की स्थापना, मसंद प्रथा के विकास तथा आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन से सिख धर्म को नई दिशा मिली। फलस्वरूप यह एक शक्तिशाली संगठन के रूप में उभर कर सामने आया। प्रोफ़ेसर हरबंस सिंह के शब्दों में,
“पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव जी के अधीन सिख धर्म अच्छी प्रकार दृढ़ हो गया था।”22
एक अन्य विख्यात इतिहासकार डॉक्टर डी० एस० मनसुखानी के अनुसार,
“गुरु अर्जन जी के गुरु काल में सिख धर्म का तीव्र विकास हुआ है।”23

20. “This temple and the pool became Sikhism what Mecca is to Islam, Jerusalem to Judaism and Christianity and Bodh Gaya to Buddhism.” G.S. Talib, An Introduction to Sri Guru Granth Sahib (Patiala : 1991) p. 10.
21. “The compilation of the Granth formed an important landmark in the history of the Sikhs.” Dr. Hari Ram Gupta, History of Sikh Gurus (New Delhi : 1973) p. 97
22. “Under Cuu Arjan, the Fifth Garu, Sikhism became more firmly established.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Delhi: 1004), p. 37.
23. During the period of Guru Arjan, Sikhism took a significant stride.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhisra (New Delhi : 1982) p. 144.

प्रश्न 17.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए जिम्मेवार हालातों का वर्णन करें। (Explain the circumstances responsible for the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के विषय में विस्तार सहित वर्णन करें। इसकी क्या महत्ता थी ? (Write in detail about the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji and its significance.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए जिम्मेदार कारणों का वर्णन करें। शहीदी का वास्तविक कारण क्या था ?
(Explain the causes which led to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the real cause of his martyrdom ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारणों की व्याख्या कीजिए। उनकी शहीदी का क्या महत्त्व था ?
(Examine the circumstances leading to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the significance of his martyrdom ?)
अथवा
उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए जो गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी थीं। उनके बलिदान का क्या महत्त्व था ?
(Describe the circumstances that led to the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji. What was the significance of his martyrdom ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारण एवं महत्त्व बताएँ।
(Discuss the causes and importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास की अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना से सिख पंथ में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारणों और महत्त्व का वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)

1. जहाँगीर की धार्मिक कट्टरता (Fanaticism of the Jahangir)-जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उसकी यह कट्टरता गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। वह इस्लाम धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को कभी सहन नहीं कर सकता था। वह पंजाब में सिखों के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करने के किसी स्वर्ण अवसर की तलाश में था। इस संबंध में उसने अपनी आत्मकथा तुज़कए-जहाँगीरी में स्पष्ट लिखा है।

2. सिख पंथ का विकास (Development of Sikh Panth)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में सिख पंथ की बढ़ती लोकप्रियता का भी योगदान है। हरिमंदिर साहिब के निर्माण, तरनतारन, करतारपुर और हरगोबिंदपुर के नगरों तथा मसंद प्रथा की स्थापना के कारण सिख पंथ दिन-प्रतिदिन लोकप्रिय होता चला गया। गुरु ग्रंथ साहिब की रचना के कारण सिख धर्म के प्रचार में बहुत सहायता मिली। यह बात मुग़लों के लिए असहनीय थी। इसलिए उन्होंने सिखों की शक्ति का दमन करने का निर्णय किया।।

3. पृथी चंद की शत्रुता (Enmity of Prithi Chand)-पृथी चंद गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। वह बड़ा लोभी और स्वार्थी था। उसे गुरुगद्दी नहीं मिली इसलिए वह गुरु साहिब से रुष्ट था। उसने इस बात की घोषणा की कि वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक उसे गुरुगद्दी प्राप्त नहीं हो जाती। उसने मसंदों द्वारा गुरुघर के लंगर के लिए लाया धन हड़प करना आरंभ कर दिया। उसने अपनी रचनाओं को गुरु साहिबान की वाणी कहकर प्रचलित करना आरंभ कर दिया। उसने मुग़ल अधिकारियों के साथ मिलकर गुरु जी के विरुद्ध षड्यंत्र रचे। इन षड्यंत्रों ने मुगलों में गुरु जी के विरुद्ध और शत्रुता उत्पन्न कर दी।

4. चंदू शाह की शत्रुता (Enmity of Chandu Shah)-चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंदू शाह को गुरु साहिब के पुत्र हरगोबिंद का नाम सुझाया गया। इस पर उसने गुरु जी की शान में बहुत-से अपमानजनक शब्द कहे। परंतु पत्नी द्वारा विवश करने पर वह यह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। गुरु साहिब को चंदू शाह द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल चुका था, इसलिए उन्होंने इस शगुन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इस पर चंदू शाह ने अपने प्रतिशोध का बदला लेने के लिए जहाँगीर के कान भरने आरंभ कर दिए। जहाँगीर पर इसका प्रभाव पड़ा और उसने गुरु जी के विरुद्ध कठोर कार्यवाई करने का मन बना लिया।

5. नक्शबंदियों का विरोध (Opposition of Naqshbandis)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का भी बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों का संप्रदाय था। यह संप्रदाय इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता देख कभी सहन नहीं कर सकता था। शेख अहमद सरहिंदी जो कि नक्शबंदियों का नेता था का मुग़ल दरबार में काफी प्रभाव था। उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। इसलिए जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब के विरुद्ध कार्यवाई करने का निर्णय किया।

6. आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन (Compilation of Adi Granth Sahib Ji)-आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन भी गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बना। गुरु साहिब के विरोधियों ने जहाँगीर को कहा कि इस ग्रंथ में बहुत-सी इस्लाम विरोधी बातें लिखी हैं। गुरु जी का कहना था कि इस ग्रंथ में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी गई जो किसी भी धर्म के विरुद्ध हो। जहाँगीर ने ग्रंथ साहिब जी में हज़रत मुहम्मद साहिब के संबंध में भी लिखने के लिए कहा। गुरु साहिब का कहना था कि वे ईश्वर के आदेश के बिना ऐसा नहीं कर सकते। निस्संदेह, जहाँगीर के लिए यह बात असहनीय थी।

7. खुसरो की सहायता (Help to Khusrau)-गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहज़ादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तात्कालिक कारण बना। शहज़ादा खुसरो अपने पिता के विरुद्ध असफल विद्रोह के बाद भाग कर पंजाब आ गया। पंजाब पहुँचकर खुसरो गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तरन तारन पहुँचा। गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया और उसे काबुल जाने के लिए कुछ वांछित सहायता प्रदान की। जब जहाँगीर को इस बात का पता चला तो उसने लाहौर के गवर्नर मुर्तज़ा खान को आदेश दिया कि गुरु साहिब को गिरफ्तार कर लिया जाए।

II. बलिदान कैसे हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जन देव जी को 24 मई, 1606 ई० को बंदी बनाकर लाहौर लाया गया। जहाँगीर ने गुरु जी को मृत्यु के बदले 2 लाख रुपए जुर्माना देने के लिए कहा। गुरु जी ने यह जुर्माना देने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप मुग़ल अत्याचारियों ने गुरु साहिब को लोहे के तपते तवे पर बिठाया और शरीर पर गर्म रेत डाली गई। गुरु साहिब ने इन अत्याचारों को ईश्वर की इच्छा समझकर, यह कहते हुए अपना बलिदान दे दिया

तेरा किया मीठा लागे।
हरि नाम पदार्थ नानक माँगे।।

इस प्रकार 30 मई, 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी लाहौर में शहीद हो गए।
III. गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व (Importance of the Martyrdom of Guru Arjan Dev Ji)
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास में एक नया मोड़ सिद्ध हुआ। इस बलिदान के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले—

1. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का गुरु हरगोबिंद जी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने सिखों को सशस्त्र करने का निश्चय किया। उन्होंने अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। यहाँ सिखों को शस्त्रों का प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार सिख एक संत-सिपाही बनकर उभरने लगे। प्रसिद्ध इतिहासकार के० एस० दुग्गल के अनुसार,
“गुरु अर्जन देव जी के बलिदान ने समस्या को प्रबल बनाया। इसने पंजाब तथा सिख राजनीति को नई दिशा दी।”24

2. सिखों में एकता (Unity among the Sikhs)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से सिख यह अनुभव करने लगे कि मुग़लों के अत्याचार के विरुद्ध उनमें एकता का होना अति आवश्यक है। अतः सिख तीव्रता से एकता के सूत्र में बंधने लगे।

3. सिखों और मुग़लों के संबंधों में परिवर्तन (Change in the relationship between Mughals and the Sikhs)-गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से पूर्व मुग़लों और सिखों के मध्य संबंध सुखद थे किंतु अब स्थिति पूर्णतया परिवर्तित हो चुकी थी। सिखों के दिलों में मुग़लों से प्रतिशोध लेने की भावना भड़क उठी थी। मुग़लों को भी सिखों का गुरु हरगोबिंद जी के अधीन सशस्त्र होना प्रसंद नहीं था। इस प्रकार सिखों तथा मुग़लों के बीच खाई और बढ़ गई।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

4. सिखों पर अत्याचार (Persecution of the Sikhs)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के साथ ही मुग़लों के सिखों पर अत्याचार आरंभ हो गए। जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद जी को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। शाहजहाँ के समय गुरु जी को मुग़लों के साथ लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। 1675 ई० में औरंगजेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को दिल्ली में शहीद कर दिया था। उसके शासनकाल में सिखों पर घोर अत्याचार किए गए। सिखों ने गुरु गोबिंद सिंह जी, बंदा सिंह बहादुर तथा अन्य सिख नेताओं के अधीन मुग़ल अत्याचारों का डटकर सामना किया तथा हँसते-हँसते शहीदियाँ दीं।

5. सिख धर्म की लोकप्रियता (Popularity of Sikhism)—गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिख धर्म पहले की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हो गया। इस घटना से न केवल हिंदू अपितु बहुत-से मुसलमान भी प्रभावित हुए। वे बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होना आरंभ हो गए। इस प्रकार गुरु अर्जन देव जी के बलिदान ने सिख इतिहास में एक नए युग का आरंभ किया।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर जी० एस० मनसुखानी का यह कहना पूर्णतः सही है,
“गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख धर्म के विकास में एक नया मोड़ था।”25

24. “Guru Arjan’s martyrdom precipitated the issues. It gave a new complexion to the shape of things in the Punjab and the Sikh polity.” K.S. Duggal, Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 123.
25. “The martyrdom of Guru Arjan marks a turning point in the development of Sikh religion.” Dr. G.S. Mansukhani, Aspects of Sikhism (New Delhi : 1982) p. 146.

प्रश्न 18.
गुरु हरगोबिंद जी के जीवन के बारे में विस्तृत नोट लिखो। (Write a detailed note on the life of Guru Hargobind Ji.)
अथवा
गरु हरगोबिंद जी के जीवन का वर्णन करें।
(Describe the life of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु थे। वे 1606 ई० से लेकर 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस काल का सिख पंथ के इतिहास में विशेष महत्त्व है। गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपना कर न केवल सिख लहर के स्वरूप को ही बदला अपितु सिखों में स्वाभिमान की भावना भी उत्पन्न की। परिणामस्वरूप उनके समय में सिख पंथ का न केवल रूपांतरण ही हुआ अपितु इसका अद्वितीय विकास भी हुआ। उनके जीवन का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

  1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 14 जून, 1595 ई० को जिला अमृतसर के गाँव वडाली में हुआ था। वह गुरु अर्जन देव जी के एक मात्र पुत्र थे। आप की माता जी का नाम गंगा देवी जी था।
  2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)-गुरु हरगोबिंद जी बाल्यकाल से ही बहुत होनहार थे। आप ने पंजाबी, संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन किया था। बाबा बुड्डा जी ने आपको न केवल धार्मिक शिक्षाएँ ही दीं अपितु घुड़सवारी तथा शस्त्र-विद्या में भी प्रवीण कर दिया। विवाह के कुछ समय के पश्चात् आप के घर पाँच पुत्रों-गुरदित्ता जी, अणि राय जी, सूरज मल जी, अटल राय जी तथा तेग बहादुर जी और एक पुत्री बीबी वीरो जी ने जन्म लिया।
  3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने लाहौर जाने से पूर्व, जहाँ उन्होंने अपना बलिदान दिया था, हरगोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उस समय हरगोबिंद जी की आयु केवल 17 वर्ष थी। इस प्रकार हरगोबिंद जी सिखों के छठे गुरु बने। वह 1606 ई० से लेकर 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।
  4. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-नोट-इस भाग के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न नं० 19 का उत्तर देखें।
  5. गुरु हरगोबिंद जी के मुगलों के साथ संबंध (Relations of Guru Hargobind Ji with the Mughals)-नोट-इस भाग के उत्तर के लिए विद्यार्थी कृपया प्रश्न नं० 20 का उत्तर देखें।

प्रश्न 19.
सिख धर्म में गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई ‘मीरी-पीरी’ की युक्ति के बारे में आलोचनात्मक : घर्चा कीजिए।
(Examine critically the new method ‘Miri-Piri’ adopted by Guru Hargobind Ji.)
अथवा
गुरु हरगोविंद जी की नई नीति से क्या भाव है ? इस नीति की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करते हुए इसका महत्व भी बताएँ।
(What is meant by the New Policy of Guru Hargobind Ji ? Describe its main features and importance.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए श्री गुरु हरगोबिंद जी की ओर से चलाए गए ‘मीरी और पीरी’ के ढंग की चर्चा कीजिए।
(Discuss the new method ‘Miri and Piri’ adopted by Sri Guru Hargobind Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी का सिख लहर को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Hargobind Ji to Sikh Movement ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी से सिख लहर में पीरी के साथ मीरी का अंश भी आ गया। स्पष्ट करें।
[Guru Hargobind introduced militant (Miri) element alongwith spirituality (Piri) in the Sikh Movement. Explain.]
अथवा
मीरी तथा पीरी क्या है ? व्याख्या करें।
(What is Miri and Piri ? Explain.)
अथवा
सिख धर्म में ‘मीरी-पीरी के सिद्धांत की व्याख्या करो।
(Discuss the method ‘Miri-Piri’ in Sikhism.)
अथवा
मीरी एवं पीरी के सिद्धांत के बारे में जानकारी दीजिए। (Discuss the concept of Miri and Piri.)
अथवा
मीरी एवं पीरी के संकल्प के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the concept of Miri and Piri.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों को संत सिपाही के रूप में कैसे बदला ? (How Guru Hargobind Ji changed the Sikhs into Sant Sipahis ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा 1606 ई० में गुरुगद्दी पर बैठने के साथ ही सिख पंथ में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों तथा मुग़लों के मध्य संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। ऐसी स्थिति में गुरु हरगोबिंद जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए सिखों को शस्त्र उठाने होंगे। अतः गुरु साहिब ने सिखों को संत सिपाही बनाने की नवीन नीति धारण की। इस नीति को अपनाने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे—
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (10)
GURU HARGOBIND JI

1. मुग़लों की धार्मिक नीति में परिवर्तन (Change in the Religious Policy of the Mughals)जहाँगीर से पूर्व के शासकों के साथ सिखों के संबंध मधुर थे। बाबर ने गुरु नानक देव जी के प्रति सम्मान प्रकट किया था। हुमायूँ ने राज-गद्दी की पुनः प्राप्ति के लिए गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद प्राप्त किया। मुग़ल बादशाह अकबर ने गुरु अमरदास जी के समय स्वयं गोइंदवाल साहिब में आकर लंगर छका था। उसने गुरु रामदास जी को 500 बीघे भूमि दान में दी तथा पंजाब के किसानों का एक वर्ष का लगान माफ कर दिया था। परंतु 1605 ई० में बादशाह बना जहाँगीर बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के सिवाय किसी अन्य धर्म को विकसित होते नहीं देख सकता था। अतः इन बदली हुई परिस्थितियों में गुरु साहिब को भी नई नीति अपनानी पड़ी।

2. गुरु अर्जन देव जी का बलिदान (Martyrdom of Guru Arjan Dev Ji)-जहाँगीर के लिए सिखों की बढ़ती लोकप्रियता असहनीय थी। इस लहर के दमन के लिए उसने 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया। गुरु अर्जन देव के बलिदान ने सिखों को स्पष्ट कर दिया था यदि वे जीवित रहना चाहते हैं तो उन्हें शस्त्रधारी बनकर मुगलों से टक्कर लेनी होगी। इस प्रकार गुरु अर्जन देव जी का बलिदान गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति धारण करने के लिए काफ़ी सीमा तक उत्तरदायी था।

3. गुरु अर्जन देव जी का अंतिम संदेश (Last Message of Guru Arjan Dev Ji)-गुरु अर्जन देव जी ने अपने बलिदान से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद जी को यह संदेश भेजा कि, “उसे पूरी तरह शस्त्रों से सुसज्जित होकर गद्दी पर बैठना चाहिए। अपनी पूर्ण योग्यता के अनुसार सेना रखनी चाहिए।” अतः गुरु साहिब के इन शब्दों को व्यावहारिक रूप देने का गुरु हरगोबिंद जी ने निश्चय किया।

4. जाटों का स्वभाव (Character of the Jats)-सिख पंथ में सम्मिलित होने वाले लोगों में जाटों की संख्या सबसे अधिक थी। ये जाट साहसी, वीर तथा स्वाभिमानी थे। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान से उनका खून खौल उठा। उन्होंने गुरु हरगोबिंद जी को शस्त्रधारी होने के लिए प्रेरित किया तथा स्वयं भी इस कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति धारण करने में जाटों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

नई नीति की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of the New Policy)

1. मीरी तथा पीरी तलवारें धारण करना (Wearing of Miri and Piri Swords)—गुरु हरगोबिंद जी ने गुरुगद्दी पर विराजमान होते समय मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण कीं। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी और पीरी तलवार धार्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी। गुरु हरगोबिंद साहिब ने एक ओर सिखों को सतनाम का जाप करने तथा दूसरी ओर शस्त्र धारण करने का संदेश दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई इस मीरी तथा पीरी नीति का सिख इतिहास पर बहुत गहन प्रभाव पड़ा।

2. सेना का संगठन (Organisation of Army)-गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सिख पंथ की रक्षा के लिए सेना का संगठन करने का भी निर्णय किया गया। उन्होंने सिखों को यह आदेश दिया कि वे गुरु साहिब की सेना में भर्ती हों। फलस्वरूप 500 योद्धा आपकी सेना में भर्ती हुए। इन सैनिकों को सौ-सौ के पाँच जत्थों में विभाजित किया गया। प्रत्येक जत्था पाँच जत्थेदारों के अधीन रखा गया। इनके अतिरिक्त गुरु साहिब ने 52 अंगरक्षक भी भर्ती किए। धीरे-धीरे गुरु साहिब की सेना की संख्या बढ़कर 2500 हो गई। गुरु जी की सेना में पठानों की एक अलग रैजमैंट बनाई गई। इसका सेनापति पँदा खाँ को नियुक्त किया गया।

3. शस्त्र तथा घोड़े एकत्र करना (Collection of Arms and Horses)-गुरु हरगोबिंद जी ने मसंदों को यह आदेश दिया कि वे सिखों से धन की अपेक्षा शस्त्र एवं घोड़े एकत्रित करें। सिखों से भी कहा कि वे मसंदों को शस्त्र एवं घोड़े भेंट करें। गुरु जी के इस आदेश का मसंदों और सिखों ने बड़े उत्साह से स्वागत किया। फलस्वरूप गुरु जी की सैन्य-शक्ति अधिक दृढ़ हो गई।

4. अकाल तख्त साहिब का निर्माण (Construction of Akal Takhat Sahib)—गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अकाल तख्त साहिब का निर्माण उनकी नई नीति का ही महत्त्वपूर्ण भाग था। अकाल तख्त साहिब का निर्माण गुरु हरगोबिंद जी ने हरिमंदिर साहिब के सामने करवाया था। इसके भीतर एक 12 फीट ऊँचे चबूतरे का निर्माण किया जो एक तख्त के समान था। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद जी सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देते, उनके सैनिक कारनामे देखते, मसंदों से घोड़े और शस्त्र स्वीकार करते, ढाडी वीर-रस की वारें सुनाते तथा सिखों के परस्पर झगड़ों का भी निपटारा करते थे। एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बख्शी के अनुसार,
“अकाल तख्त सिखों की सबसे पवित्र संस्था है। इसने सिख समुदाय के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।”26

5. राजनीतिक प्रतीकों को अपनाना (Adoptation of Royal Symbols)-गुरु हरगोबिंद जी अपनी नई नीति के अंतर्गत राजसी ठाठ-बाठ से रहने लगे। उन्होंने अब सेली (ऊन की माला) के स्थान पर कमर में दो तलवारें धारण कीं। एक शानदार दरबार की स्थापना की गई। उन्होंने अब राजाओं की भाँति दस्तार के ऊपर कल्गी सुशोभित करनी आरंभ कर दी। उन्होंने ‘सच्चा पातशाह’ की उपाधि धारण की। गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने अब बहुमूल्य वस्त्र धारण करते और अपने अंगरक्षकों के साथ चलते थे।

6. अमृतसर की किलाबंदी (Fortification of Amritsar)-अमृतसर न केवल सिखों का सर्वाधिक पावन धार्मिक स्थान ही था, अपितु यह उनका विख्यात सैनिक प्रशिक्षण केंद्र भी था। इसलिए गुरु जी ने इस
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AKAL TAKHT SAHIB : AMRITSAR
महत्त्वपूर्ण स्थान की सुरक्षा के लिए अमृतसर शहर के चारों ओर एक दीवार बनवा दी। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया गया जिसका नाम लोहगढ़ रखा गया।

7. गुरु जी के प्रतिदिन के जीवन में परिवर्तन (Changes in the daily life of the Guru)-अपनी नवीन नीति के कारण गुरु हरगोबिंद जी के प्रतिदिन के जीवन में भी कई परिवर्तन आ गए थे। उन्होंने अब शिकार खेलना आरंभ कर दिया था। उन्होंने अपने दरबार में अब्दुला तथा नत्था मल को वीर-रस से परिपूर्ण वारें गाने के लिए भर्ती किया। एक विशेष संगीत मंडली की स्थापना की गई जो रात्रि को ऊँची आवाज़ में जोशीले शब्द गाती हुई हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा करती थी। गुरु साहिब ने अपने जीवन में ये परिवर्तन केवल सिखों में वीरता की भावना उत्पन्न करने के लिए किए थे।

26. “Sri Akal Takhat is one of the most sacred institutions of Sikhism. It has played historic role in the sociopolitical transformation of the Sikh community.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, Encyclopaedic History of the Sikhs and Sikhism (New Delhi : 1999) Vol. 1, p. 140.

नई नीति का आलोचनात्मक मूल्याँकन (Critical Estimate of the New Policy)
जब गुरु हरगोबिंद साहिब जी की नई नीति ने कई संदेह उत्पन्न कर दिए। डॉक्टर ट्रंप का कहना है कि गुरु जी ने अपने पूर्व गुरुओं के आदर्शों को त्याग दिया था। वास्तव में गुरु हरगोबिंद साहिब की नई नीति का गलत आँकलन किया गया है। गुरु साहिब ने पुरानी सिख परंपरा का त्याग नहीं किया था। वे प्रतिदिन सुबह हरिमंदिर साहिब ‘आसा दी वार’ का पाठ सुनते थे तथा उन्होंने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब के भिन्न-भिन्न स्थानों में अपने प्रचारक भेजे। यदि गुरु साहिब ने अपने प्रतिदिन के जीवन में कुछ परिवर्तन किए तो उसका उद्देश्य केवल सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करना था। समय के साथ-साथ गुरु साहिब की सिखों की नई नीति के संबंध में उत्पन्न हुई शंकाएँ दूर होनी आरंभ हो गई थीं। वास्तव में गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु नानक देव जी के उपदेशों को ही वास्तविक रूप दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार एच० एस० भाटिया एवं एस० आर० बक्शी के शब्दों
“यद्यपि बाहरी रूप में ऐसा लगता था कि गुरु हरगोबिंद जी ने गुरु नानक जी के उद्देश्यों को परिपूर्ण करने में भिन्न मार्ग अपनाया, किंतु यह मुख्य तौर पर गुरु नानक जी के आदर्शों पर ही आधारित था।”27

नई नीति का महत्त्व (Importance of the New Policy)
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। सिख अब संत सिपाही बन गए। वे ईश्वर की भक्ति के साथ-साथ शस्त्रों का भी प्रयोग करने लग पड़े। इस नीति के अभाव में सिखों का पावन भ्रातृत्व समाप्त हो गया होता अथवा फिर वे फकीरों और संतों की एक श्रेणी बनकर रह जाते । गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के परिणामस्वरूप पंजाब के जाट अधिक संख्या में सिख पंथ में सम्मिलित हुए। इस नई नीति के कारण सिखों एवं मुग़लों के संबंधों में आपसी तनाव और बढ़ गया। शाहजहाँ के समय गुरु साहिब को मुग़लों के साथ चार युद्ध लड़ने पड़े। इन युद्धों में सिखों की विजय से मुग़ल साम्राज्य के गौरव को धक्का लगा। अंत में हम के० एस० दुग्गल के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु हरगोबिंद जी का सबसे महान् योगदान सिखों के जीवन मार्ग को एक नई दिशा देना था। उसने संतों को सिपाही बना दिया किंतु फिर भी परमात्मा के भक्त रहे”28

27. “Though outwardly, it may appear that Guru Hargobind persued a slightly different course for fulfilling the mission of Guru Nanak, yet, basically, it was Curu Nanak’s ideals that he preached.” H.S. Bhatia and S.R. Bakshi, op. cit., Vol. 1, p. 24.
28. “Guru Hargobind’s greatest contribution is that he gave a new turn to the Sikh way of life. He turned saints into soldiers and yet remained a man of God.” K.S. Duggal, Sikh Gurus : Their Lives and Teachings (New Delhi : 1993) p. 164.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 20.
गुरु हरगोबिंद जी के जहाँगीर तथा शाहजहाँ के साथ संबंधों का संक्षिप्त विवरण दें।
(Describe briefly the relationship of Guru Hargobind Ji with Jahangir and Shah Jahan.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी एवं मुग़लों के संबंधों पर एक विस्तृत लेख लिखो। (Write a detailed note on relations between Guru Hargobind Ji and the Mughals.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़लों के साथ संबंधों की चर्चा करें। (Explain the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughals.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे। उनके गुरुगद्दी के काल के दौरान उनके मुग़लों के साथ संबंधों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—
प्रथम काल 1606-27 ई० (First Period 1606-27 A.D.)

1. गरु हरगोबिंद जी ग्वालियर में बंदी (Imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior)गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। गुरु जी द्वारा उसकी पुत्री के साथ विवाह करने से पुन: इंकार करने पर उसने जहाँगीर को गुरु साहिब के विरुद्ध भडक़ाया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने उन्हें बंदी बना लिया। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण बंदी बनाया। इस नीति से उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो गई थीं तथा गुरु जी के विरोधियों ने भी जहाँगीर के कान भरे कि गुरु जी विद्रोह करने की तैयारियाँ कर रहे हैं।

2. कारावास की अवधि (Period of Imprisonment) इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं कि गुरु हरगोबिंद साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे। दाबिस्तान-ए-मज़ाहिब के लेखक के अनुसार गुरु साहिब 12 वर्ष कारागृह में रहे। डॉक्टर इंदू भूषण बैनर्जी यह समय पाँच वर्ष, तेजा सिंह एवं गंडा सिंह दो वर्ष और सिख साखीकार यह समय चालीस दिन बताते हैं। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु हरगोबिंद साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

3. गुरु साहिब की रिहाई (Release of the Guru Sahib)—गुरु हरगोबिंद जी की रिहाई के संबंध में भी इतिहासकारों ने कई मत प्रकट किए हैं। सिख साखीकारों का कहना है कि गुरु जी को बंदी बनाने के बाद जहाँगीर बहुत बेचैन रहने लग पड़ा था। भाई जेठा जी ने जहाँगीर को पूर्णत: ठीक कर दिया। उनके ही निवेदन पर जहाँगीर ने गुरु साहिब को रिहा कर दिया। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि जहाँगीर ने यह निर्णय सूफी संत मीयाँ मीर जी के निवेदन पर लिया था। कुछ अन्य इतिहासकारों के विचारानुसार जहाँगीर गुरु साहिब के बंदी काल के दौरान सिखों की गुरु जी के प्रति श्रद्धा देखकर बहुत प्रभावित हुआ। फलस्वरूप जहाँगीर ने गुरु साहिब की रिहाई का आदेश दिया। गुरु जी की जिद्द पर ग्वालियर के दुर्ग में ही बंदी 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करना पड़ा। इसके कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी छोड़ बाबा’ भी कहा जाने लगा।

4. जहाँगीर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly Relations with Jahangir) शीघ्र ही जहाँगीर को यह विश्वास हो गया था कि गुरु साहिब निर्दोष थे और गुरु साहिब के कष्टों के पीछे चंदू शाह का बड़ा हाथ था। इसलिए जहाँगीर ने चंदू शाह को दंड देने के लिए सिखों के सुपुर्द कर दिया। यहाँ तक कि जहाँगीर ने अकाल तख्त साहिब के निर्माण कार्य के लिए सारा खर्चा देने की पेशकश की, परंतु गुरु जी ने इंकार कर दिया। इस प्रकार गुरु जी की ग्वालियर की रिहाई के पश्चात् तथा जहाँगीर की मृत्यु तक जहाँगीर एवं गुरु जी के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहे।

द्वितीय काल 1628-35 ई० । (Second Period 1628-35 A.D.)
1628 ई० में शाहजहाँ मुग़लों का नया बादशाह बना। उसके शासनकाल में एक बार फिर सिखों और मुग़लों में निम्नलिखित कारणों से संबंध बिगड़ गए—

  1. शाहजहाँ की धार्मिक कट्टरता (Shah Jahan’s Fanaticism)—शाहजहाँ बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने हिंदुओं के कई मंदिरों को नष्ट करवा दिया। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली के स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण करवा दिया था। फलस्वरूप सिखों में उसके प्रति अत्यधिक रोष उत्पन्न हो गया था।
  2. नक्शबंदियों का विरोध (Opposition of Nagashbandis) नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। गुरु अर्जन देव जी को शहीद करवाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। शाहजहाँ के सिंहासन पर बैठने के पश्चात् एक बार फिर नक्शबंदियों ने शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ गुरु साहिब के विरुद्ध हो गया।
  3. गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति (New Policy of Guru Hargobind Ji)-गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति भी सिखों तथा मुग़लों के मध्य संबंधों को बिगाड़ने का एक प्रमुख कारण बनी। इस नीति के कारण गुरु साहिब ने सैन्य शक्ति का संगठन कर लिया था। सिख श्रद्धालुओं ने उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कहकर संबोधित करना आरंभ कर दिया था। शाहजहाँ इस नीति को मुग़ल साम्राज्य के लिए गंभीर खतरा समझता था। इसलिए उसने गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया।
  4. कौलाँ का मामला (Kaulan’s Affair)-कौलाँ के मामले के कारण गुरु साहिब और शाहजहाँ के बीच तनाव में और वृद्धि हुई। कौलाँ लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की पुत्री थी। वह ‘गुरु अर्जन देव जी की वाणी को बहुत चाव से पढ़ती थी। काजी भला यह कैसे सहन कर सकता था। फलस्वरूप उसने अपनी बेटी पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए। कौलाँ तंग आकर गुरु साहिब की शरण में चली गई। जब काज़ी को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने गुरु साहिब के विरुद्ध शाहजहाँ के खूब कान भरे।।

सिखों और मुग़लों की लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and Mughals)
मुग़लों और सिखों के बीच 1634-35 ई० में हुई चार लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. अमृतसर की लड़ाई 1634 ई० (Battle of Amritsar 1634 A.D.)-1634 ई० में अमृतसर में मुग़लों और सिखों के बीच प्रथम लड़ाई हुई। शाहजहाँ अपने सैनिकों सहित अमृतसर के निकट शिकार खेल रहा था। शिकार खेलते समय शाहजहाँ का एक विशेष बाज़ उड़ गया। सिखों ने इस बाज़ को पकड़ लिया। मुग़ल सैनिकों ने बाज़ वापस करने की माँग की। सिखों के इंकार करने पर दोनों पक्षों में लड़ाई हो गई। इसमें कुछ मुग़ल सैनिक मारे गए। क्रोधित होकर शाहजहाँ ने लाहौर से मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7,000 सैनिकों की एक टुकड़ी अमृतसर भेजी। इस लड़ाई में गुरु साहिब के अतिरिक्त पैंदा खाँ ने अपनी वीरता प्रदर्शित की। मुखलिस खाँ गुरु साहिब से लड़ता हुआ मारा गया। परिणामस्वरूप मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस लड़ाई में विजय के कारण सिख सेनाओं का साहस बहुत बढ़ गया। इस लड़ाई के संबंध में लिखते हुए प्रो० हरबंस सिंह का कहना है,
“अमृतसर की लड़ाई यद्यपि एक छोटी घटना थी किंतु इसके दूरगामी परिणाम निकले।”29

2. लहरा की लड़ाई 1634 ई० (Battle of Lahira 1634 A.D.)-शीघ्र ही मुग़लों तथा सिखों के मध्य लहरा (भटिंडा के निकट) नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई के कारण दो घोड़े थे जिनके नाम दिलबाग तथा गुलबाग थे। इन दोनों घोड़ों को बखत मल और तारा चंद नामक दो मसंद काबुल से गुरु साहिब को भेंट करने के लिए ला रहे थे। मार्ग में ये दोनों घोड़े मुग़लों ने छीन लिए। गुरु साहिब का एक सिख भाई बिधी चंद भेष बदलकर दोनों घोड़े शाही घुड़साल से निकाल लाया। शाहजहाँ ने क्रोधित होकर तुरंत लल्ला बेग तथा कमर बेग के नेतृत्व में एक भारी सेना सिखों के दमन के लिए भेजी। लहरा नामक स्थान पर भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़लों के दोनों सेनापति लल्ला बेग तथा कमर बेग मारे गए। इस लड़ाई में भाई जेठा जी भी शहीद हो गए। अंत में सिख विजयी रहे।

3. करतारपुर की लड़ाई 1635 ई० (Battle of Kartarpur 1635 A.D.)-मुग़लों तथा सिखों के मध्य तीसरी लड़ाई 1635 ई० में करतारपुर में हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। वह हरगोबिंद जी की सेना में पठान टुकड़ी का सेनापति था। उसने गुरु साहिब का एक बाज़ चोरी करके अपने दामाद को दे दिया। गुरु साहिब के पूछने पर उसने इस बात से इंकार कर दिया। जब गुरु जी को पैंदा खाँ के झूठ का पता चला तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। पैंदा खाँ मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की शरण में चला गया। पैंदा खाँ के उकसाने पर शाहजहाँ ने पैंदा खाँ और काले खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना सिखों के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में तेग़ बहादुर जी ने अपने शौर्य का खूब प्रदर्शन किया। इस लड़ाई में गुरु साहिब से लड़ते हुए काले खाँ, पैंदा खाँ और उसका पुत्र कुतब खाँ मारे गए। इस प्रकार गुरु जी को एक शानदार विजय प्राप्त हुई।

4. फगवाड़ा की लड़ाई 1635 ई० (Battle of Phagwara 1635 A.D.)—करतारपुर की लड़ाई के __पश्चात् गुरु हरगोबिंद जी कुछ समय के लिए फगवाड़ा आ गए। यहाँ अहमद खाँ के नेतृत्व में कुछ मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। चूंकि मुग़ल सैनिकों की संख्या बहुत कम थी इसलिए फगवाड़ा में दोनों सेनाओं में मामूली झड़प हुई। फगवाड़ा की लड़ाई गुरु हरगोबिंद जी के समय में मुग़लों तथा सिखों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई थी।

लड़ाइयों का महत्त्व
(Importance of the Battles)
गुरु हरगोबिंद जी के काल में मुग़लों तथा सिखों के मध्य लड़ी गई विभिन्न लड़ाइयों का सिख इतिहास में विशेष महत्त्व है। इन लडाइयों में सिख विजयी रहे थे। इन लड़ाइयों में विजय के कारण सिखों का साहस बहुत बढ़ गया था। सिखों ने अपने सीमित साधनों के बलबूते पर इन लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। अत: गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। बहुत-से लोग सिख धर्म में सम्मिलित हो गए। परिणामस्वरूप सिख पंथ का बड़ी तीव्रता से विकास होने लगा। प्रसिद्ध इतिहासकार पतवंत सिंह के अनुसार__ “इन लड़ाइयों का ऐतिहासिक महत्त्व इस बात में नहीं था कि ये कितनी बड़ी थीं अपितु इस बात में था कि इन्होंने आक्रमणकारियों के वेग को रोका तथा उनकी शक्ति को चुनौती दी। इसने मुगलों के विरुद्ध चेतना का संचार किया तथा दूसरों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत की।”30

29. “This Amritsar action was a small incident, but its implications were far-reaching.” Prof. Harbans Singh, The Heritage of the Sikhs (Dehi : 1994) p. 49.
30. “The historical importance of these battles did not lie in their scale, but in the fact that the aggressor’s writ was rejected and his power scorned. A mood of defiance was generated against the Mughals and an example set for others.” Patwant Singh, The Sikhs (New Delhi : 1999) p. 42.

गुरु हरराय जी (GURU HAR RAI JI)

प्रश्न 21.
गुरु हरराय जी के जीवन और उपलब्धियों के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Guru Har Rai Ji’s early career and achievements ?)
उत्तर-
गुरु हरराय जी सिखों के सातवें गुरु थे। उनके गुरुकाल (1645 से 1661 ई०) को सिख पंथ का शाँतिकाल कहा जा सकता है। गुरु हरराय जी के आरंभिक जीवन तथा उनके अधीन सिख पंथ के विकास का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु हरराय जी का जन्म 30 जनवरी, 1630 ई० को कीरतपुर साहिब नामक स्थान पर हुआ। उनके माता जी का नाम बीबी निहाल कौर जी था। आप गुरु हरगोबिंद जी के पौत्र तथा बाबा गुरदित्ता जी के पुत्र थे।

2. बाल्यकाल तथा विवाह (Childhood and Marriage)—आप बाल्यकाल से ही शाँत प्रकृति, मृदुभाषी तथा दयालु स्वभाव के थे। कहते हैं कि एक बार हरराय जी बाग में सैर कर रहे थे। उनके चोले से लग जाने से कुछ फूल झड़ गए। यह देखकर आपकी आँखों में आँसू आ गए। आप किसी का भी दुःख सहन नहीं कर सकते थे। आपका विवाह अनूप शहर (यू० पी०) के दया राम जी की सुपुत्री सुलक्खनी जी से हुआ। आपके घर दो पुत्रों रामराय तथा हरकृष्ण ने जन्म लिया।

3. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु हरगोबिंद जी के पाँच पुत्र थे। बाबा गुरदित्ता, अणि राय तथा अटल राय अपने पिता के जीवन काल में स्वर्गवास को चुके थे। शेष दो में से सूरजमल का सांसारिक मामलों की ओर आवश्यकता से अधिक झुकाव था तथा तेग़ बहादुर जी का बिल्कुल नहीं। इसलिए गुरु हरगोबिंद जी ने बाबा गुरदित्ता के छोटे पुत्र हरराय जी को अपना उत्तराधिकारी बनाया। आप 8 मार्च, 1645 ई० को गुरुगद्दी पर विराजमान हुए। इस प्रकार आप सिखों के सातवें गुरु बने।

4. गुरु हरराय जी के समय में सिख धर्म का विकास (Development of Sikhism under Guru Har Rai Ji)- गुरु हरराय जी 1645 ई० से 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। आपने सिख धर्म के प्रचार के लिए तीन मुख्य केंद्र स्थापित किए जिन्हें ‘बख्शीशें’ कहा जाता था। पहली बख्शीश एक संन्यासी गिरि की थी जिसकी भक्ति से प्रसन्न होकर गुरु साहिब ने उसका नाम भक्त भगवान रख दिया। उसने पूर्वी भारत में सिख धर्म के बहुत-से केंद्र स्थापित किए। इनमें पटना, बरेली तथा राजगिरी के केंद्र प्रसिद्ध हैं। दूसरी बख्शीश सुथरा शाह की थी। उसे सिख धर्म के प्रचार के लिए दिल्ली भेजा गया। तीसरी बख्शीश भाई फेरु की थी। उनको राजस्थान भेजा गया था। इसी प्रकार भाई नत्था जी को ढाका, भाई जोधा जी को मुलतान भेजा गया तथा आप स्वयं पंजाब के कई स्थानों जैसे जालंधर, करतारपुर, हकीमपुर, गुरदासपुर, अमृतसर, पटियाला, अंबाला तथा हिसार आदि गए।

5. फूल को आशीर्वाद (Phool Blessed)—एक दिन काला नामक श्रद्धालु अपने भतीजों संदली तथा फूल को गुरु हरराय जी के दर्शन हेतु ले आया। उनकी शोचनीय हालत को देखते हुए गुरु साहिब ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि एक दिन वे बहुत धनी बनेंगे। गुरु जी की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। फूल की संतान ने फूलकिया मिसल की स्थापना की।

6. दारा की सहायता (Help to Prince Dara)-गुरु हरराय जी के समय दारा शिकोह पंजाब का गवर्नर था। वह औरंगज़ेब का बड़ा भाई था। सत्ता प्राप्त करने के प्रयास में औरंगजेब ने उसे विष दे दिया। इस कारण वह बहुत बीमार हो गया। उसने गुरु साहिब से आशीर्वाद माँगा। गुरु साहिब ने अमूल्य जड़ी-बूटियाँ देकर दारा की चिकित्सा की। इस कारण वह गुरु साहिब का आभारी हो गया। वह प्रायः उनके दर्शन के लिए आया करता।
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (16)
GURU HAR RAI JI

7. गुरु हरराय साहिब को दिल्ली बुलाया गया (Guru Har Rai was summoned to Delhi)औरंगज़ेब को संदेह था कि गुरु ग्रंथ साहिब में कुछ श्लोक इस्लाम धर्म के विरुद्ध हैं। इस बात की पुष्टि के लिए उसने आपको अपने दरबार में उपस्थित होने के लिए कहा। गुरु साहिब ने अपने पुत्र रामराय को औरंगज़ेब के पास भेजा। औरंगज़ेब ने ‘आसा दी वार’ में से एक पंक्ति की ओर संकेत करते हुए उससे पूछा कि इसमें मुसलमानों का विरोध क्यों किया गया है। यह पंक्ति थी,
मिटी मुसलमान की पेडै पई कुम्हिआर॥
घड़ भांडे इटा कीआ जलदी करे पुकार॥
इसका अर्थ था मुसलमान की मिट्टी कुम्हार के घमट्टे में चली जाएगी जो इससे बर्तन तथा ईंटें बनाएगा। जैसेजैसे वह जलेगी तैसे-तैसे मिट्टी चिल्लाएगी। औरंगजेब के क्रोध से बचने के लिए रामराय ने कहा कि इस पंक्ति में भूल से बेईमान शब्द की अपेक्षा मुसलमान शब्द लिखा गया है। गुरु ग्रंथ साहिब जी के इस अपमान के कारण आपने रामराय को गुरुगद्दी से वंचित कर दिया।

8. उत्तराधिकारी की नियुक्ति (Nomination of the Successor)-गुरु हरराय जी ने ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरुगद्दी अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण को सौंप दी। गुरु हरराय जी 6 अक्तूबर, 1661 ई० को ज्योति जोत समा गए।

9. गुरु हरराय जी के कार्यों का मूल्याँकन (Estimate of the works of Guru Har Rai Ji)-गुरु हरराय जी ने सिख पंथ के विकास में अमूल्य योगदान दिया। आप जी ने माझा, दोआबा और मालवा में सिख धर्म का प्रचार किया। आपने संगत और पंगत की मर्यादा को पूरी तेजी के साथ जारी रखा। आपके दवाखाने से बिना किसी भेद-भाव के नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा प्रदान की जाती थी। इस प्रकार आपने सिख धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 22.
गुरु हरकृष्ण जी के समय सिख पंथ के हुए विकास का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of development of Sikhism during the pontificate of Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर –
गुरु हरकृष्ण जी सिख इतिहास में बाल गुरु के नाम से जाने जाते हैं। वे 1661 ई० से लेकर 1664 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। उनके अधीन सिख पंथ में हुए विकास का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

1. जन्म और माता-पिता (Birth and Parents)-गुरु हरकृष्ण जी का जन्म 7 जुलाई, 1656 ई० में कीरतपुर साहिब में हुआ। आप गुरु हरराय साहिब जी के छोटे पुत्र थे। आप जी की माता का नाम सुलक्खनी
जी था। रामराय आपके बड़े भाई थे।

2. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)—गुरु हरराय साहिब जी ने अपने बड़े पुत्र रामराय को उसकी अयोग्यता के कारण गुरुगद्दी से वंचित कर दिया था । 6 अक्तूबर, 1661 ई० को गुरु हरराय साहिब जी ने हरकृष्ण जी को गुरुगद्दी सौंप दी। उस समय हरकृष्ण साहिब जी की आयु मात्र 5 वर्ष थी। इस कारण इतिहास में आपको बाल गुरु के नाम से याद किया जाता है। यद्यपि आप उम्र में बहुत छोटे थे पर फिर भी आप बहुत उच्च प्रतिभा के स्वामी थे। आप में अद्वितीय सेवा भावना, बड़ों के प्रति मान-सम्मान, मीठा बोलना, दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा अटूट भक्ति-भावना इत्यादि के गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। इन गुणों के कारण ही गुरु हरराय जी ने आपको गुरुगद्दी सौंपी। इस प्रकार आप सिखों के आठवें गुरु बने। आप 1664 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

3. रामराय का विरोध (Opposition of Ram Rai)-रामराय गुरु हरराय जी का बड़ा पुत्र होने के कारण गुरु साहिब के पश्चात् गुरुगद्दी का अधिकारी स्वयं को समझता था, परंतु गुरु हरराय जी उसे पहले ही गुरुगद्दी से वंचित कर चुके थे। जब उसे ज्ञात हुआ कि गुरुगद्दी हरकृष्ण साहिब को सौंपी गई है तो वह यह बात सहन न कर
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GURU HAR KRISHAN JI
सका। उसने गद्दी हथियाने के लिए षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए। उसने बहुत-से बेईमान और स्वार्थी मसंदों को अपने साथ मिला लिया। इन मसंदों द्वारा उसने यह घोषणा करवाई कि वास्तविक गुरु रामराय हैं और सभी सिख उसी को अपना गुरु मानें परंतु वह उसमें सफल न हो पाया। फिर उसने औरंगजेब से सहायता लेने का प्रयास किया। औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाया ताकि दोनों गुटों की बात सुनकर वह अपना निर्णय दे सके।

4. गुरु साहिब का दिल्ली जाना (Guru Sahib’s Visit to Delhi)-गुरु हरकृष्ण जी को दिल्ली लाने का कार्य औरंगज़ेब ने राजा जय सिंह को सौंपा। राजा जय सिंह ने अपने दीवान परस राम को गुरु जी के पास भेजा। गुरु हरकृष्ण जी ने औरंगज़ेब से मिलने और दिल्ली जाने से इंकार कर दिया, परंतु परस राम के यह कहने पर कि दिल्ली की संगतें गुरु हरकृष्ण साहिब जी के दर्शनों के लिए बेताब हैं, गुरु हरकृष्ण जी ने दिल्ली जाना तो स्वीकार कर लिया, परंतु औरंगज़ेब से भेंट करने से इंकार कर दिया। आप 1664 ई० में दिल्ली चले गए और राजा जय सिंह के घर निवास करने के लिए मान गए। गुरु हरकृष्ण जी की औरंगज़ेब से भेंट हुई अथवा नहीं, इस संबंध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद पाए जाते हैं।

5. ज्योति-जोत समाना (Immersed in Eternal Light)-उन दिनों दिल्ली में चेचक और हैजा फैला हुआ था। गुरु हरकृष्ण जी ने यहाँ बीमारों, निर्धनों और लावारिसों की तन, मन और धन से अथक सेवा की। चेचक और हैजे के सैंकड़ों रोगियों को ठीक किया, परंतु इस भयंकर बीमारी का आप स्वयं भी शिकार हो गए। यह बीमारी उनके लिए घातक सिद्ध हुई। उन्हें बहुत गंभीर अवस्था में देखते हुए श्रद्धालुओं ने प्रश्न किया कि आपके पश्चात् उनका नेतृत्व कौन करेगा तो आप ने एक नारियल मंगवाया। नारियल और पाँच पैसे रखकर माथा टेका और “बाबा बकाला” का उच्चारण करते हुए 30 मार्च, 1664 ई० को दिल्ली में ज्योति-जोत समा गए। आपकी याद में यहाँ गुरुद्वारा बाला साहिब का निर्माण किया गया है।

गुरु हरकृष्ण जी ने कोई अढ़ाई वर्ष के लगभग गुरुगद्दी संभाली और गुरु के रूप में आपने सभी कर्त्तव्य बड़ी सूझ-बूझ से निभाए। आप इतनी कम आयु में भी तीक्ष्ण बुद्धि, उच्च विचार और अलौकिक ज्ञान के स्वामी थे।

प्रश्न 23.
गुरु तेग़ बहादुर जी के प्रारंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of the early life of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नवम् गुरु थे। उनका गुरुकाल 1664 ई० से 1675 ई० तक रहा। गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार और प्रसार के लिए अनेक प्रदेशों की यात्राएँ कीं। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर उन्होंने भारतीय इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु जी के प्रारंभिक जीवन और यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. जन्म तथा माता-पिता (Birth and Parentage)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ। आप गुरु हरगोबिंद जी के पाँचवें तथा सबसे छोटे पुत्र थे। आपके माता जी का नाम नानकी जी था। आपके पिता जी ने आपके जन्म पर भविष्यवाणी की कि यह बालक सत्य तथा धर्म के मार्ग पर चलेगा तथा अत्याचार का डट कर मुकाबला करेगा। गुरु जी का यह कथन सत्य सिद्ध हुआ।

2. बाल्यकाल तथा शिक्षा (Childhood and Education)-बचपन में आपका नाम त्यागमल था। जब आप पाँच वर्ष के हुए तो आपने बाबा बुड्डा जी तथा भाई गुरदास जी से शिक्षा प्राप्त करनी आरंभ की। आपने पंजाबी, ब्रज, संस्कृत, इतिहास, दर्शन, गणित, संगीत आदि की शिक्षा प्राप्त की। आपको घुड़सवारी तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा भी दी गई। करतारपुर की लड़ाई में आपकी वीरता देखकर आपके पिता गुरु हरगोबिंद जी ने आपका नाम त्यागमल से बदल कर तेग बहादुर रख दिया।
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GURU TEGH BAHADUR JI

3. विवाह (Marriage)-तेग़ बहादुर जी का विवाह करतारपुर वासी लाल चंद जी की सुपुत्री गुजरी जी से हुआ। आपके घर 1666 ई० में एक पुत्र ने जन्म लिया। इस बालक का नाम गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास रखा गया।

4. बकाला में निवास (Settlement at Bakala)-गुरु हरगोबिंद जी ने ज्योति-जोत समाने से पूर्व अपने पौत्र हरराय जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उन्होंने तेग बहादुर जी को अपनी पत्नी गुजरी जी तथा माता नानकी जी को लेकर बकाला चले जाने का आदेश दिया। यहाँ तेग बहादुर जी 20 वर्ष तक रहे।

5. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-गुरु हरकृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व यह संकेत दिया था कि सिखों का अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बकाला पहुँचा तो 22 सोढियों ने अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूँढा । वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका समुद्री जहाज डूब रहा था तो उसने शुद्ध मन से गुरु साहिब के आगे अरदास की कि यदि उसका जहाज़ डूबने से बच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। उसका जहाज़ किनारे लग गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेंट करने के लिए बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देखकर चकित रह गया। वास्तविक गुरु को ढूँढने के लिए उसने बारी-बारी प्रत्येक गुरु को दो-दो मोहरें भेंट की। नकली गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में श्री तेग़ बहादुर जी को दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेंट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। गुरु तेग़ बहादुर जी 1664 ई० से 1675 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे।

6. धीरमल का विरोध (Opposition of Dhir Mal)-धीरमल गुरु हरराय जी का बड़ा भाई था। बकाला में स्थापित 22 मंजियों से एक धीरमल की भी थी। जब धीरमल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसने कुछ गुंडों के साथ गुरु जी पर आक्रमण कर दिया। इस घटना से सिख रोष से भर उठे। वे धीरमल को पकड़कर गुरु जी के पास लाए। धीरमल द्वारा क्षमा याचना पर गुरु साहिब ने उसे क्षमा कर दिया।

प्रश्न 24.
गुरु तेग बहादुर जी की धर्म यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the religious tours of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
1664 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए पंजाब तथा पंजाब से बाहर की यात्राएँ आरंभ कर दीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों को सत्य तथा प्रेम का संदेश देना था। गुरु साहिब की यात्राओं के उद्देश्य के संबंध में लिखते हुए विख्यात इतिहासकार एस० एस० जौहर का कहना है,
“गुरु तेग़ बहादुर ने लोगों को नया जीवन देने तथा उनके भीतर नई भावना उत्पन्न करना आवश्यक समझा।”31

31. “Guru Tegh Bahadur thought it necessary to infuse a new life and rekindle a new spirit among the people.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 104.

पंजाब की यात्राएँ (Travels of Punjab)

  1. अमृतसर (Amritsar)-गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1664 ई० में अमृतसर से किया। उस समय हरिमंदिर साहिब में पृथी चंद का पौत्र हरजी मीणा कुछ भ्रष्टाचारी मसंदों के साथ मिलकर स्वयं गुरु बना बैठा था। गुरु साहिब के आने की सूचना मिलते ही उसने हरिमंदिर साहिब के सभी द्वार बंद करवा दिए। जब गुरु साहिब वहाँ पहुँचे तो द्वार बंद देखकर उन्हें दुःख हुआ। अतः वह अकाल तख्त के निकट एक वृक्ष के नीचे जा बैठे। यहाँ पर अब एक छोटा-सा गुरुद्वारा बना हुआ है जिसे ‘थम्म साहिब’ कहते हैं।
  2. वल्ला तथा घुक्केवाली (Walla and Ghukewali)-अमृतसर से गुरु तेग़ बहादुर जी वल्ला नामक गाँव गए। यहाँ लंगर में महिलाओं की अथक सेवा से प्रसन्न होकर गुरु जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा कहा “माईयाँ रब्ब रजाईयाँ”। वल्ला के पश्चात् गुरु जी घुक्केवाली गाँव गए। इस गाँव में अनगिनत वृक्षों के कारण गुरु जी ने इसका नाम ‘गुरु का बाग’ रख दिया।
  3. खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन, खेमकरन आदि (Khadur Sahib, Goindwal Sahib, Tarn Taran, Khem Karan etc.)-गुरु तेग बहादुर साहिब की यात्रा के अगले पड़ाव खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब तथा तरन तारन थे। यहाँ पर गुरु जी ने लोगों को प्रेम तथा भाईचारे का संदेश दिया। तत्पश्चात् गुरु साहिब खेमकरन गए। यहाँ के एक श्रद्धालु चौधरी रघुपति राय ने गुरु साहिब को एक घोड़ी भेंट की।
  4. कीरतपुर साहिब और बिलासपुर (Kiratpur Sahib and Bilaspur)-माझा प्रदेश की यात्रा पूर्ण करने के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी कीरतपुर साहिब पहुँचे। वे रानी चंपा के निमंत्रण पर बिलासपुर पहुँचे। गुरु साहिब यहाँ तीन दिन ठहरे। गुरु साहिब ने रानी को 500 रुपए देकर माखोवाल में कुछ भूमि खरीदी तथा एक नए नगर की स्थापना की जिसका नाम उनकी माता जी के नाम पर “चक्क नानकी” रखा गया। बाद में यह स्थान श्री आनंदपुर साहिब के नाम से विख्यात हुआ।

पूर्वी भारत की यात्राएँ (Travels of Eastern India)
पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी ने पूर्वी भारत की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का संक्षिप्त वर्णन निनलिखित अनुसार है—

1. सैफाबाद और धमधान (Saifabad and Dhamdhan)-अपनी पूर्वी भारत की यात्रा के दौरान सर्वप्रथम गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने सैफाबाद तथा धमधान की यात्रा की। यहाँ गुरु साहिब के दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आए। सिख धर्म के इस बढ़ते हुए प्रचार को देखकर औरंगज़ेब ने गुरु साहिब को बंदी बना लिया।

2. मथुरा और वृंदावन (Mathura and Brindaban)-अंबर के राजा राम सिंह के कहने पर औरंगज़ेब ने गुरु तेग़ बहादुर जी को छोड़ दिया। छूटने के बाद गुरु साहिब दिल्ली से मथुरा तथा वृंदावन पहुँचे। इन दोनों स्थानों पर गुरु साहिब ने धर्म प्रचार किया और संगतों को उपदेश दिए।

3. आगरा और प्रयाग (Agra and Paryag)—गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की यात्रा का अगला पड़ाव आगरा था। यहाँ पर वह एक बुजुर्ग श्रद्धालु माई जस्सी के घर ठहरे। तत्पश्चात् गुरु साहिब प्रयाग पहुँचे। यहाँ गुरु साहिब ने संन्यासियों, साधुओं और योगियों को उपदेश देते हुए फरमाया “साधो मन का मान त्यागो।”
8. बनारस (Banaras)-प्रयाग की यात्रा के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी बनारस पहुँचे। यहाँ सिख संगतें प्रतिदिन बड़ी संख्या में गुरु साहिब के दर्शन और उनके उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होतीं। यहाँ के लोगों का विश्वास था कि कर्मनाशा नदी में स्नान करने वाले व्यक्ति के सभी अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। गुरु साहिब ने स्वयं इस नदी में स्नान किया और कहा कि नदी में स्नान करने से कुछ नहीं होता मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है।

4. ससराम और गया (Sasram and Gaya) बनारस के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी सासराम पहुँचे। यहाँ पर एक श्रद्धालु सिख ‘मसंद फग्गू शाह’ ने गुरु साहिब की बहुत सेवा की। तत्पश्चात् गुरु साहिब गया पहँचे। यह बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था। यहाँ गुरु साहिब ने लोगों को सत्य तथा परस्पर भ्रातृभाव का संदेश दिया।

5. पटना (Patna)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी 1666 ई० में पटना पहुँचे। यहाँ पर सिख संगतों (श्रद्धालुओं) ने गुरु साहिब का भव्य स्वागत किया। गुरु साहिब ने सिख सिद्धांतों पर प्रकाश डाला तथा पटना को ‘गुरु का घर’ कहकर सम्मानित किया। गुरु साहिब ने अपनी पत्नी और माता जी को यहाँ छोड़कर स्वयं मुंगेर के लिए प्रस्थान किया।

6.ढाका (Dhaka) ढाका पूर्वी भारत में सिख धर्म का एक प्रमुख प्रचार केंद्र था। गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के आगमन के कारण बड़ी संख्या में लोग सिख-धर्म में शामिल हुए। गुरु साहिब ने यहाँ संगतों को जातिपाति के बंधनों से ऊपर उठने और नाम स्मरण से जुड़ने का संदेश दिया।

7. असम (Assam)–ढाका की यात्रा के बाद गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी अंबर के राजा राम सिंह के निवेदन पर असम गए। असमी लोग जादू-टोनों में बहुत कुशल थे। गुरु जी की उपस्थिति में जादू-टोने वाले प्रभावहीन होने लगे और उन्हें गुरु जी का लोहा मानना पड़ा। वे गुरु जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके दर्शनों के लिए आने लगे और उन्होंने अपनी भूल के लिए क्षमा याचना की। तत्पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी अपने परिवार सहित पंजाब लौट आए और चक्क नानकी में रहने लगे।

मालवा और बांगर प्रदेश की यात्राएँ (Tours of Malwa and Bangar Region)
1673 ई० के मध्य में गुरु तेग़ बहादुर जी ने पंजाब के मालवा और बांगर प्रदेश की दूसरी बार यात्रा आरंभ की। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफ़ाबाद, मलोवाल, ढिल्लवां, भोपाली, खीवा, ख्यालां, तलवंडी, भठिंडा और धमधान आदि प्रदेशों में गए। इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब ने स्थान-स्थान पर धर्म प्रचार के केंद्र खोले और गुरु नानक जी का संदेश घर-घर पहुँचाया। गुरु साहिब के सर्वपक्षीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हज़ारों लोग गुरु साहिब के अनुयायी बन गए। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार हरबंस सिंह के इन शब्दों से सहमत हैं, “गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं ने देश में एक तूफान-सा ला दिया। यह न तो पहले जैसा देश रहा और न ही वे लोग। उनमें नई जागृति आ चुकी थी।”32

32. “Guru Tegh Bahadur’s tours left the country in ferment. It was not the same country again, nor the same people. A new awakening had spread.” Harbans Singh, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1982) p. 92.

प्रश्न 25.
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की शहीदी के बारे में चर्चा करें।
(Discuss the martyrdom of Sri Guru Tegh Bahadur Sahib Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों और परिणामों का वर्णन करें। (Discuss the causes and results of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारणों तथा महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त विवरण दें। उनके बलिदान का देश एवं समाज पर क्या प्रभाव पड़ा ?
(Give a brief account of the circumstances leading to the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji. Also explain the effects of his execution on the country and the society.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी किन कारणों से हुई ? इन्हें कब, कहाँ और कैसे शहीद किया गया ?
(What were the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ? When, where and how was he executed ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारण और महत्त्व का वर्णन करें। (Describe the causes and significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान इतिहास की एक अति महत्त्वपूर्ण घटना है। धर्म तथा मानवता के लिए अपना बलिदान देकर गुरु साहिब ने अपना नाम चिरकाल के लिए अमर कर लिया। गुरु जी के बलिदान से जुड़े तथ्यों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—
I. बलिदान के कारण (Causes of Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इन कारणों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित अनुसार है—0

1. मुग़लों और सिखों में शत्रुता (Enmity between the Mughals and the Sikhs)-1605 ई० तक सिखों और मुग़लों में मैत्रीपूर्ण संबंध चले आ रहे थे, परंतु जब 1606 ई० में मुग़ल सम्राट जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी को शहीद कर दिया तो ये संबंध शत्रुता में बदल गए। गुरु हरगोबिंद जी द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण उन्हें जहाँगीर द्वारा दो वर्ष के लिए ग्वालियर के दुर्ग में नज़रबंद कर दिया गया। शाहजहाँ के काल में गुरु हरगोबिंद जी को चार लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। औरंगजेब के शासनकाल में सिखों और मुग़लों के बीच शत्रुता में और वृद्धि हो गई। यही शत्रुता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी।

2. औरंगजेब की कट्टरता (Fanaticism of Aurangzeb)-औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता भी गुरु साहिब के बलिदान का प्रमुख कारण बनी। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में चारों ओर इस्लाम धर्म का बोलबाला देखना चाहता था। इसलिए उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं तथा उनके त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए। 1679 ई० में हिंदुओं पर पुनः जजिया कर लगा दिया गया। तलवार के बल पर लोगों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित किया जाने लगा। औरंगज़ेब ने यह भी आदेश दिया कि सिखों के सभी गुरुद्वारों को गिरा दिया जाए और मसंदों को देश निकाला दे दिया जाए। डॉक्टर आई० बी० बैनर्जी के अनुसार,
“निस्संदेह औरंगजेब के सिंहासन पर बैठने के साथ ही साम्राज्य की सारी नीति को उलट दिया गया और एक नए युग का सूत्रपात हुआ।”33

3. नक्शबंदियों का औरंगज़ेब पर प्रभाव (Impact of Naqashbandis on Aurangzeb)-कट्टर सुन्नी मुसलमानों के नक्शबंदी संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती न बन जाए। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध औरंगजेब को भड़काना आरंभ कर दिया।

4. सिख धर्म का प्रचार (Spread of Sikhism)-गुरु तेग़ बहादुर साहिब की सिख धर्म के प्रचार के लिए की गई यात्राओं से प्रभावित होकर हज़ारों लोग सिख मत में सम्मिलित हो गए थे। गुरु साहिब जी ने सिख मत के प्रचार में तीव्रता और योग्यता लाने के लिए सिख प्रचारक नियुक्त किए तथा उन्हें संगठित किया। सिख धर्म का हो रहा विकास तथा उसका संगठन औरंगज़ेब की सहन शक्ति से बाहर था।

5. रामराय की शत्रुता (Enmity of Ram Rai)-रामराय गुरु हरकृष्ण जी का बड़ा भाई था। गुरु हरकृष्ण जी के पश्चात् जब गुरुगद्दी तेग़ बहादुर जी को मिल गई तो वह यह सहन न कर पाया। उसने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए कई हथकंडे अपनाने आरंभ किए। जब उसके सभी प्रयास असफल रहे तो उसने गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के विरुद्ध औरंगज़ेब के कान भरने आरंभ कर दिए।

6. कश्मीरी पंडितों की पुकार (Call of Kashmiri Pandits)-कश्मीरी ब्राह्मण अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति के संबंधों में बहुत दृढ़ थे तथा समस्त भारत में उनका आदर होता था। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने इस्लाम धर्म कबूल करवाने के लिए ब्राह्मणों पर घोर अत्याचार किए। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका 16 सदस्यों का एक दल 25 मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग़ बहादुर जी के पास अपनी करुण याचना लेकर पहुँचा। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को यह बता दें कि यदि वे गुरु तेग़ बहादुर जी को मुसलमान बना लें तो वे बिना किसी विरोध के इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे।

33. “Necessarily, on the accession of Aurangzeb the entire policy of the Empire was reversed and a new era commenced.” Dr. I.B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol 2, p. 68.

II. बलिदान किस प्रकार हुआ ? (How was Guru Martyred ?)
औरंगज़ेब ने गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी को दिल्ली बुलाने का निश्चय किया। गुरु तेग़ बहादुर जी अपने तीन साथियों-भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को लेकर 11 जुलाई, 1675 ई० को श्री आनंदपुर साहिब से दिल्ली के लिए रवाना हुए। मुग़ल अधिकारियों ने उन्हें रोपड़ के निकट गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 4 महीने तक सरहिंद के कारावास में रखा गया तथा औरंगजेब के आदेश पर 6 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली दरबार में पेश किया गया। औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम धर्म अथवा मृत्यु में से एक स्वीकार करने को कहा। गुरु साहिब तथा उनके तीनों साथियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। मुग़लों ने गुरु जी को हतोत्साहित करने के लिए उनके तीनों साथियों भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी तथा भाई दयाला जी को उनके सम्मुख शहीद कर दिया। इसके पश्चात् गुरु जी को कोई चमत्कार दिखाने के लिए कहा गया, परंतु गुरु साहिब ने इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप 11 नवंबर,1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरु जी का शीश धड़ से अलग कर दिया गया। हरबंस सिंह तथा एल० एम० जोशी का यह कथन पूर्णतः ठीक है,
“यह भारतीय इतिहास की सर्वाधिक दिल दहला देने वाली एवं कंपाने वाली घटना थी।”34

जिस स्थान पर गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद किया गया उस स्थान पर गुरुद्वारा शीश गंज का निर्माण किया गया। भाई लक्खी शाह गुरु जी के धड़ को अपनी बैलगाड़ी में छुपा कर अपने घर ले आया। यहाँ उसने गुरु जी के धड़ का अंतिम संस्कार करने के लिए अपने घर को आग लगा दी। इस स्थान पर आजकल गुरुद्वारा रकाब गंज बना हुआ है।

34. “This was a most moving and earthshaking event in the history of India.” Harbans Singh and L.M. Joshi, An Introduction to Indian Religions (Patiala : 1973) p. 248.

III. बलिदान का महत्त्व (Significance of the Martyrdom)
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान की घटना न केवल सिख इतिहास अपितु समूचे विश्व इतिहास की एक अतुलनीय घटना है। इस बलिदान से न केवल पंजाब, अपितु भारत के इतिहास पर दूरगामी प्रभाव पड़े। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के साथ ही महान् मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। डॉक्टर त्रिलोचन सिंह के शब्दों में,
“गुरु तेग़ बहादुर जी के महान् बलिदान के सिखों पर प्रभावशाली एवं दूरगामी प्रभाव पड़े।”35

1. इतिहास की एक अद्वितीय घटना (A Unique Event of History)-संसार का इतिहास बलिदानों से भरा पड़ा है। ये बलिदान अधिकतर अपने धर्म की रक्षा अथवा देश के लिए दिए गए। परंतु गुरु तेग़ बहादुर जी ने मानवता तथा सत्य के लिए अपना शीश दिया। निस्संदेह संसार के इतिहास में यह एक अतुलनीय उदाहरण थी। इसी कारण गुरु तेग़ बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा जाता है।

2. सिखों में प्रतिशोध की भावना (Feeling of revenge among the Sikhs)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के फलस्वरूप समूचे पंजाब में मुग़ल साम्राज्य के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। अतः सिखों ने मुग़लों के अत्याचारी शासन का अंत करने का निर्णय किया।

3. हिंदू धर्म की रक्षा (Protection of Hinduism)-औरंगज़ेब के दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे अत्याचारों से तंग आकर बहुत-से हिंदुओं ने इस्लाम धर्म को स्वीकार करना आरंभ कर दिया था। हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो चुका था। ऐसे समय में गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देकर हिंदू धर्म को लुप्त होने से बचा लिया। इस बलिदान ने हिंदू कौम में एक नई जागृति उत्पन्न की। अतः वे औरंगज़ेब के अत्याचारों का सामना करने के लिए तैयार हो गए। ,

4. खालसा का सृजन (Creation of the Khalsa)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब धर्म की रक्षा के लिए उनका संगठित होना अत्यावश्यक है। इस उद्देश्य से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया। खालसा पंथ के सृजन ने ऐसी बहादुर जाति को जन्म दिया जिसने मुग़लों और अफ़गानों का पंजाब से नामो-निशान मिटा दिया।

5. बलिदानों की परंपरा का आरंभ होना (Beginning of the tradition of Sacrifice)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान ने सिखों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ कर दी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस मार्ग का अनुसरण करते हुए अनेक कष्ट सहन किए। आपके छोटे साहिबजादों को जीवित नींवों
में चिनवा दिया गया। बड़े साहिबजादे युद्धों में शहीद हो गए। गुरु साहिब के पश्चात् बंदा सिंह बहादुर तथा उनके साथ सैंकड़ों सिखों ने बलिदान दिए। सिखों ने मुग़ल अत्याचारों के आगे हँस-हँस कर बलिदान दिए। इस प्रकार गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ।

6. सिखों और मुग़लों में लड़ाइयाँ (Battles between the Sikhs and the Mughals)-गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों एवं मुग़लों के बीच लड़ाइयों का एक लंबा दौर आरंभ हुआ। इन लड़ाइयों के दौरान सिख चट्टान की तरह अडिग रहे। अपने सीमित साधनों के बावजूद सिखों ने अपनी वीरता के कारण महान् मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया। अंत में, हम प्रसिद्ध इतिहासकार एस० एस० जौहर के इन शब्दों
से सहमत हैं,
“गुरु तेग़ बहादुर जी का बलिदान भारतीय इतिहास की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके बहुत गहरे परिणाम निकले।”36

35. “The impact of the great sacrifice of Guru Tegh Bahadur was extremely powerful and far-reaching in its consequences on the Sikh people.” Dr. Trilochan Singh, Guru Tegh Bahadur : Prophet and Martyr (New Delhi : 1978) p. 179.
36. “The Martyrdom of Guru Tegh Bahadur was an event of great significance in the history of India. It had farreaching consequences.” S.S. Johar, Guru Tegh Bahadur (New Delhi : 1975) p. 231.

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 26.
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन पर प्रकाश डालें।
(Throw light on the life of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की जीवनी लिखें।
(Write about the life of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-गुरु गोबिंद सिंह जी न केवल पंजाब बल्कि संसार के महान् व्यक्तियों में से एक थे। सिख पंथ का जिस योग्यता एवं बुद्धिमता से गुरु गोबिंद सिंह जी ने नेतृत्व किया, उसकी इतिहास में कोई अन्य उदाहरण मिलनी बहुत ही मुश्किल है। खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही उन्होंने सिख पंथ में नए युग का सूत्रपात किया। गुरु गोबिंद सिंह जी के आरंभिक जीवन का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1.जन्म और माता-पिता (Birth and Parentage) मात्र 9 वर्ष की आयु में अपने पिता जी को धर्म की रक्षा हेतु बलिदान देने की प्रेरणा देने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर, 1666 ई० को पटना साहिब में हुआ था। आप गुरु तेग़ बहादुर जी के इकलौते पुत्र थे। आपकी माता जी का नाम गुजरी जी था। आपका आरंभिक नाम गोबिंद दास अथवा गोबिंद राय रखा गया। 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् आपका नाम गोबिंद सिंह पड़ गया था। गोबिंद दास के जन्म के समय एक मुस्लिम फकीर भीखण शाह ने यह भविष्यवाणी की थी, कि यह बालक बड़ा होकर महापुरुष बनेगा और यह भविष्यवाणी सत्य निकली।

2. बचपन (Childhood)-गोबिंद दास ने अपने बचपन के पहले 6 वर्ष पटना साहिब में ही व्यतीत किए। बचपन से ही गोबिंद दास में एक महान् योद्धा के सभी गुण विद्यमान् थे। वह तीरकमान तथा अन्य शस्त्रों से खेलते, अपने साथियों को दो गुटों में विभाजित करके उनमें कृत्रिम युद्ध करवाते। वह कई बार अपना दरबार लगाते तथा साथी बच्चों के झगड़ों के फैसले भी करते। उनके बचपन की अनेक घटनाओं से उनकी वीरता तथा बुद्धिमता की उदाहरण मिलती है। गुरु गोबिंद सिंह जी के नाबालिग काल में उनकी सरपरस्ती उनके मामा श्री कृपाल चंद जी ने की।

3. शिक्षा (Education)-1672 ई० में आप परिवार सहित आनंदपुर साहिब आ गए। यहाँ पर आप की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध किया गया। आपने भाई साहिब चंद से गुरमुखी, पंडित हरिजस से संस्कृत और काज़ी पीर मुहम्मद से फ़ारसी और अरबी का ज्ञान प्राप्त किया। आपने घुड़सवारी और शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण बजर सिंह नामी एक राजपूत से प्राप्त किया।

4. गुरुगद्दी की प्राप्ति (Assumption of Guruship)-औरंगज़ेब के अत्याचारों से तंग आकर कश्मीरी पंडितों का एक जत्था अपनी दःखभरी याचना लेकर गुरु तेग़ बहादुर जी के पास मई, 1675 ई० में आनंदपुर साहिब पहुँचा। कश्मीरी पंडितों की गुहार तथा पुत्र की प्रेरणा पर धर्म की रक्षा हेतु गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देने का निश्चय किया। गुरु साहिब ने दिल्ली में अपनी शहीदी देने से पूर्व गोबिंद दास को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किए जाने की घोषणा की। इस प्रकार गोबिंद दास को सिख परंपरा के अनुसार 11 नवंबर, 1675 ई० को गुरुगद्दी पर बैठाया गया। इस तरह आप 9 वर्ष की आयु में सिखों के दशम गुरु बने। आप 1708 ई० तक गुरुगद्दी पर रहे।

5. विवाह (Marriage)–कहा जाता है कि गोबिंद दास जी ने बीबी जीतो जी, बीबी सुंदरी जी और बीबी साहिब देवाँ जी नामक तीन स्त्रियों से विवाह किया था। गुरु साहिब को चार पुत्र-रत्नों की प्राप्ति हुई। इनके नाम साहिबज़ादा अजीत सिंह जी, साहिबजादा जुझार सिंह जी, साहिबजादा जोरावर सिंह जी और साहिबजादा फतह सिंह जी थे।

6. सेना का संगठन (Army Organisation)-गुरुगद्दी पर विराजमान होने के शीघ्र पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह घोषणा की कि जिस सिख के चार पुत्र हों, वह दो पुत्र गुरु साहिब की सेना में भर्ती करवाए। इसके
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (14)
GURU GOBIND SINGH JI
साथ ही गुरु साहिब ने यह आदेश भी दिया कि सिख धन के स्थान पर घोड़े और शस्त्र भेंट करें। शीघ्र ही गुरु साहिब की सेना में बहुत-से सिख भर्ती हो गए और उनके पास बहुत-से शस्त्र और घोड़े भी एकत्रित हो गए। इन सब के पीछे गुरु साहिब का उद्देश्य मुग़ल साम्राज्य को टक्कर देना था।

7. शाही प्रतीक धारण करना (Adoptation of Royal Symbols)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दादा गुरु हरगोबिंद साहिब जी की भाँति शाही प्रतीकों को धारण करना आरंभ कर दिया। वह अपनी दस्तार में कलगी सजाने लग पड़े। उन्होंने सिंहासन और छत्र का प्रयोग करना आरंभ कर दिया। इनके अतिरिक्त गुरु साहिब ने एक विशेष नगाड़ा भी बनवाया, जिसका नाम रणजीत नगाड़ा रखा गया।

8. नाहन से निमंत्रण (Invitation from Nahan) गुरु गोबिंद सिंह जी की सैनिक गतिविधियों के कारण कहलूर का शासक, भीम चंद गुरु साहिब से ईर्ष्या करने लग पड़ा था। गुरु साहिब अभी किसी भी प्रकार के सैनिक द्वंद्व में पड़ना नहीं चाहते थे। इसी समय नाहन के राजा, मेदनी प्रकाश ने उन्हें नाहन आने का निमंत्रण दिया। गुरु साहिब ने यह निमंत्रण तुरंत स्वीकार कर लिया और वह माखोवाल से अपने परिवार सहित नाहन चले गए। यहाँ पर गुरु साहिब ने एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम पाऊँटा साहिब रखा गया।

9. पाऊँटा साहिब में गतिविधियाँ (Activities at Paonta Sahib)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने पाऊँटा साहिब में सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देना आरंभ कर किया। उन्हें घुड़सवारी, तीर कमान और शस्त्रों का प्रयोग करने में निपुण बनाया गया। गुरु साहिब ने साढौरा के पीर बुद्ध शाह की सिफ़ारिश पर 500 पठानों को भी अपनी सेना में भर्ती कर लिया। पाऊँटा साहिब में ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने बड़े उच्च कोटि के साहित्य की भी रचना की। गुरु साहिब ने अपने दरबार में 52 प्रसिद्ध कवियों को संरक्षण दिया हुआ था। इनमें सैनापत, नंद लाल, हंस राम एवं अनी राय प्रमुख थे। आपकी साहित्यिक रचना का उद्देश्य परमात्मा की प्रसँसा करना और सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करना था। गुरु साहिब की साहित्यिक क्षेत्र में देन अद्वितीय थी।

प्रश्न 27.
गुरु गोबिंद सिंह जी की पूर्व खालसा काल तथा उत्तर खालसा काल में लड़ी गई लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन दो।
(Give a brief account of Pre-Khalsa and Post-Khalsa battles of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के पूर्व खालसा काल तथा उत्तर खालसा काल की लड़ाइयों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of the Pre-Khalsa and Post-Khalsa battles of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की प्रसिद्ध लड़ाइयों का वर्णन करें। (Describe the important battles of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर विराजमान होते ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी सैनिक गतिविधियाँ आरंभ कर दीं। गुरु जी की सैनिक गतिविधियों ने पहाड़ी राजाओं तथा मुग़लों को उनके विरुद्ध कर दिया। परिणामस्वरूप नौबत युद्ध तक आ गई। गुरु गोबिंद सिंह जी की पूर्व-खालसा तथा उत्तर-खालसा काल की लड़ाइयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है—

1. भंगाणी की लड़ाई 1688 ई० (Battle of Bhangani 1688 A.D.)—गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं के बीच प्रथम लड़ाई भंगाणी में हुई। इस लड़ाई के कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा पाऊँटा साहिब में सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देने से पहाड़ी राजाओं में घबराहट उत्पन्न हो गई। दूसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी मूर्ति-पूजा और जाति-प्रथा के विरुद्ध प्रचार करते थे। इसे पहाड़ी राजा अपने धर्म में हस्तक्षेप समझते थे। तीसरा, पहाड़ी राजाओं ने सिख संगतों द्वारा लाए जा रहे उपहारों को मार्ग में ही लूटना आरंभ कर दिया था। गुरु साहिब यह बात पसंद नहीं करते थे। चौथा, गुरु जी द्वारा भीम चंद को सफेद हाथी देने से इंकार करना था। पाँचवां, मुग़ल सरकार ने इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए भड़काया। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद और श्रीनगर के शासक फतह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं के गठबंधन ने गुरु साहिब पर भंगाणी नामक स्थान पर 22 सितंबर, 1688 ई० को आक्रमण कर दिया।

इस लडाई के आरंभ होने से पूर्व ही गुरु साहिब की सेना के पठान सैनिक गरु साहिब को धोखा दे गए। ऐसे समय साढौरा का पीर बुद्ध शाह गुरु साहिब की सहायता के लिए अपने चार पुत्रों और 700 सैनिकों सहित रणभूमि में पहुँच गया । इस लड़ाई में गुरु हरगोबिंद साहिब की सुपुत्री बीबी वीरो के पाँच पुत्रों ने बहुत वीरता दिखाई। इस लड़ाई में पहाड़ी राजाओं के बहुत-से सैनिक और प्रसिद्ध नेता मारे गए। भीम चंद और फतह शाह युद्ध-भूमि से भाग गए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह ने इस लड़ाई में शानदार विजय प्राप्त की। इस विजय से गुरु साहिब की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।

2. नादौन की लड़ाई 1690 ई० (Battle of Nadaun 1690 A.D.)-भंगाणी की लड़ाई के पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी पुनः श्री आनंदपुर साहिब आ गए। इसी समय पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों को दिया जाने वाला वार्षिक खिराज (कर) देना बंद कर दिया। जब औरंगजेब को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसके आदेश पर जम्मू के सूबेदार मीयाँ खाँ ने तुरंत अपने एक जरनैल, आलिफ खाँ के अंतर्गत मुगलों की एक भारी सेना इन पहाड़ी राजाओं ने विरुद्ध भेजी। ऐसे समय में भीम चंद ने गुरु साहिब को सहायता के लिए निवेदन किया। गुरु साहिब ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया। 20 मार्च, 1690 ई० को काँगड़ा के पास नादौन में भीम चंद और आलिफ खाँ की सेनाओं में लड़ाई आरंभ हुई। इस लड़ाई में गुरु साहिब और सिखों की वीरता के कारण आलिफ खाँ को पराजय का सामना करना पड़ा। इस प्रकार गुरु साहिब के सहयोग से भीम चंद और उसके साथी पहाड़ी राजाओं को विजय प्राप्त हुई।

3. खानजादा का अभियान 1694 ई० (Expedition of Khanzada 1694 A.D.)-गुरु गोबिंद सिंह जी की बढ़ती हुई लोकप्रियता औरंगजेब के लिए चिंता का विषय बन गई। उसके आदेश पर लाहौर के सूबेदार, दिलावर खाँ ने अपने पुत्र खानजादा रुस्तम खाँ के अंतर्गत गुरु जी के विरुद्ध सेना भेजी। उसने रात्रि के अंधकार में आक्रमण करने की योजना बनाई। रुस्तम खाँ के आगमन का रात्रि को पहरा दे रहे सिख को पता चल गया। उसने फ़ौरन इसकी सूचना सिखों को दी। सिखों ने जैकारे की आवाज़ गुंजाई और गोलियाँ चलानी आरंभ की। परिणामस्वरूप, मुग़ल सैनिक बिना मुकाबला किए ही युद्ध के मैदान से भाग निकले।

4. कुछ सैनिक अभियान 1695-96 ई० (Some Military Expeditions 1695-96 A.D.)-1695-96 ई० .. में मुगलों ने गुरु जी की शक्ति को कुचलने के लिए हुसैन खाँ, जुझार सिंह तथा शहजादा मुअज्जम के अधीन कुछ सैनिक अभियान भेजे । ये सभी अभियान किसी न किसी कारण असफल रहे तथा गुरु जी की शक्ति कायम
रही।

5. श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई 1701 ई० (First Battle of Sri Anandpur Sahib 1701 A.D.)-खालसा पंथ की स्थापना के बाद गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति के कारण पहाड़ी राजाओं में घबराहट पैदा हो गई। कहलूर के राजा भीम चंद, जिसकी रियासत में श्री आनंदपुर साहिब स्थित था, ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। इस पर भीम चंद ने कुछ पहाड़ी राजाओं से मिलकर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले में सिखों की संख्या बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं का खूब डटकर सामना किया। जब पहाड़ी राजाओं ने देखा कि सफलता मिलने की कोई आशा नहीं है तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली।

6. श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1704 ई० (Second Battle of Sri Anandpur Sahib 1704 A.D.)-पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह जी से प्रतिशोध लेने की खातिर मुग़ल सेनाओं से मिलकर मई, 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब को दूसरी बार घेर लिया! घेरे की अवधि बहुत लंबी हो गई, जिस कारण दुर्ग __ के भीतर खाद्य-सामग्री कम होनी आरंभ हो गई। इसलिए मुगलों का मुकाबला करना कठिन हो गया। गुरु साहिब ने सिखों को कुछ और दिन संघर्ष जारी रखने को कहा। परंतु 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़ कर चले गए। दूसरी ओर शाही सेना भी बहुत परेशान थी। उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया, कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन कस्मों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

7. सिरसा की लड़ाई 1704 ई० (Battle of the Sirsa 1704 A.D.)– श्री आनंदपुर साहिब छोड़ते ही मुग़ल सैनिकों ने गुरु गोबिंद सिंह जी पर फिर आक्रमण कर दिया। शाही सेना तथा सिखों में सिरसा में लड़ाई हुई। इस समय सिरसा नदी में बाढ़ कारण सिखों में भगदड़ मच गई। इसी भगदड़ में गुरु साहिब के छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी तथा फतह सिंह जी और माता गुजरी जी उनसे बिछुड़ गए। गंगू जो गुरु साहिब का पुराना सेवक था, ने लालच में आकर उन्हें सरहिंद के नवाब वज़ीर खाँ को सौंप दिया। नवाब वज़ीर खाँ ने इन दोनों छोटे साहिबजादों को 27 दिसंबर, 1704 ई० को दीवार में जीवित चिनवा दिया।

8. चमकौर साहिब की लड़ाई 1704 ई० (Battle of Chamkaur 1704 A.D.)-इसके उपरांत गुरु गोबिंद सिंह जी अपने 40 सिखों के साथ चमकौर साहिब पहुँचे। गुरु जी तथा उनके साथियों ने एक गढ़ी में शरण ली। मुग़ल सेना ने गढ़ी पर 22 दिसंबर, 1704 ई० को आक्रमण कर दिया। यह बड़ी जबरदस्त लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह जी तथा जुझार सिंह जी ने अत्यंत वीरता का प्रदर्शन किया और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। जब पाँच सिख शेष रह गए तो उन्होंने खालसा पंथ के लिए गुरु साहिब से गढ़ी छोड़ देने की प्रार्थना की। गुरु जी ने इस प्रार्थना को सिख पंथ का आदेश समझकर अपने साथ तीन सिखों को लेकर गढ़ी छोड़ दी।

9. गुरु जी माछीवाड़ा में (Guru Ji in Machhiwara)-गुरु गोबिंद सिंह जी चमकौर की लड़ाई के पश्चात् माछीवाड़ा के वनों में पहुंचे। यहाँ दो मुसलमान भाइयों नबी खाँ तथा गनी खाँ ने गुरु जी को एक पालकी में बिठा कर मुग़ल सैनिकों से उनकी रक्षा की। दीना कांगड़ नामक स्थान पर पहुँचने पर गुरु जी ने ज़फ़रनामा नामक फ़ारसी में एक चिट्ठी औरंगजेब को लिखी। इस चिट्ठी में गुरु जी ने बहुत निर्भीकता से औरंगजेब के अत्याचारों की आलोचना की।

10. खिदराना की लड़ाई 1705 ई० (Battle of Khidrana 1705 A.D.)-गुरु गोबिंद सिंह जी तथा मुग़ल सेना में लड़ी जाने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाई खिदराना में हुई। 29 दिसंबर, 1705 ई० को सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिखों ने बड़ी वीरता दिखाई और बड़ी शानदार विजय प्राप्त हुई। इसी लड़ाई में वे 40 सिख भी शहीद हो गए, जो श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उनके अद्वितीय बलिदान से प्रभावित होकर गुरुं साहिब ने उन्हें मुक्ति का वरदान दिया। इसी कारण खिरदाना का नाम श्री मुक्तसर साहिब पड़ गया। प्रसिद्ध लेखक करतार सिंह के अनुसार,
“यह सच है कि वह (गुरु गोबिंद सिंह जी) मुग़ल साम्राज्य अथवा शक्ति को नष्ट न कर सके परंतु इसे जड़ से हिलाकर रख दिया था।”37

37. “It is true that he did not actually uproot the Mughal empire or power, but he shook it violently to its very foundations.” Kartar Singh, Life of Guru Gobind Singh (Ludhiana : 1976) p. 222.

प्रश्न 28.
खालसा पंथ के सृजन का वर्णन करें। (Describe about the creation of Khalsa Panth.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन क्यों किया ? इसके मुख्य सिद्धांतों एवं महत्त्व का भी वर्णन करें।
(Why was Khalsa created by Guru Gobind Singh Ji ? Explain its main principles and importance.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के द्वारा ‘खालसा सृजना’ के क्या कारण थे ? चर्चा कीजिए।
(What were the reasons of ‘Khalsa Sirjana’ by Guru Gobind Singh Ji ? Discuss.)
अथवा
खालसा पंथ के सृजन के बारे में आप क्या जानते हैं ? पाँच प्यारों के नाम बताएँ।
[What do you know about the creation of Khalsa Panth ? Name the Panj Piaras (Five Beloved ones).]
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा कैसे प्रकट किया ?
(How did Gobind Singh create Khalsa ?)
अथवा
खालसा पंथ का सृजन किस प्रकार हुआ ? संक्षेप उत्तर लिखें। (How Khalsa Panth was created ? Answer briefly.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की रचना करके सिख लहर को संपन्न किया। स्पष्ट करें।
(Guru Gobind Singh completed the Sikh Movement with the creation of the Khalsa. Explain.)
अथवा
खालसा निर्माण प्रभाव के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the effects of creation of Khalsa.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का सबसे महान् कार्य 1699 ई० में वैसाखी वाले दिन खालसा पंथ का सृजन करना था। खालसा पंथ के सृजन को सिख इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात माना जाता है। खालसा पंथ की स्थापना के कारण, उसकी स्थापना तथा उसके महत्त्व का विवरण निम्नलिखित अनुसार है। प्रसिद्ध लेखक हरबंस सिंह के अनुसार,
“यह इतिहास का एक महान्, रचनात्मक कार्य था जिसने लोगों के दिलों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए।”38
I. खालसा पंथ का सृजन क्यों किया गया ? (Why was Khalsa Panth Created ?)

1. मुगलों का अत्याचारी शासन (Tyrannical Rule of the Mughals)-जहाँगीर के काल से ही मुग़ल सिख संबंधों में तनाव उत्पन्न हो गया था। यह तनाव औरंगज़ेब के काल में सभी सीमाएँ पार कर चुका था। औरंगज़ेब ने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवा दिया था। उसने हिंदुओं की धार्मिक रस्मों पर प्रतिबंध लगा दिए तथा जजिया कर को पुनः लागू कर दिया। उसने सिखों के गुरुद्वारों को गिराए जाने के भी आदेश दिए। उसने
PSEB 12th Class Religion Solutions Chapter 3 सिख धर्म का उत्थान तथा विकास 1469-1708 ई० (15)
CREATION OF THE KHALSA
बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म स्वीकार न करने वाले गैर-मुसलमानों की हत्या करवा दी। सबसे बढ़कर उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद करवा दिया। अत: मुग़लों के इन बढ़ रहे अत्याचारों का अंत करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करने का निर्णय किया।

2. पहाड़ी राजाओं का विश्वासघात (Treachery of the Hill Chiefs)—गुरु गोबिंद सिंह जी मुग़लों के विरुद्ध संघर्ष के लिए पहाड़ी राजाओं को साथ लेना चाहते थे। परंतु गुरु जी इस बात से परिचित थे कि पहाड़ी राजाओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने ऐसे सैनिकों को तैयार करने का निर्णय किया जो मुग़लों की शक्ति का सामना कर पाएँ। फलस्वरूप खालसा पंथ की स्थापना की गई।

3. जातीय बंधन (Shackles of the Caste System) भारतीय समाज में जाति-प्रथा शताब्दियों से चली आ रही थी। फलस्वरूप समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। उच्च जाति के लोग निम्न जाति के लोगों के साथ बुरा व्यवहार करते थे। इस जाति-प्रथा ने भारतीय समाज को एक घुण की भाँति भीतर ही भीतर से खोखला बना दिया था। पूर्व हुए सभी गुरु साहिबान ने संगत और पंगत की संस्थाओं द्वारा जाति प्रथा को कड़ा आघात पहुँचाया था, किंतु यह अभी भी समाप्त नहीं हुई थी। अतः गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें जाति-पाति का कोई स्थान न हो।

4. दोषपूर्ण मसंद प्रथा (Defective Masand System)-दोषपूर्ण मसंद प्रथा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना का महत्त्वपूर्ण कारण बनी। समय के साथ-साथ मसंद अपने प्रारंभिक आदर्शों को भूल गए और बड़े भ्रष्टाचारी और अहंकारी बन गए। उन्होंने सिखों को लूटना आरंभ कर दिया। उनका कहना था कि वे गुरुओं को बनाने वाले हैं। बहुत से प्रभावशाली मसंदों ने अपनी अलग गुरुगद्दी स्थापित कर ली थी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इन मसंदों से छुटकारा पाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना करने का निर्णय किया।

5. गुरुगद्दी का पैतृक होना (Hereditary Nature of Guruship)-गुरु अमरदास जी द्वारा गुरुगद्दी को पैतृक बना दिए जाने से भी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। जिसको भी गुरुगद्दी न मिली, उसने गुरु घर का विरोध करना आरंभ कर दिया। पृथी चंद, धीर मल्ल और रामराय ने तो गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए मुग़लों के साथ मिलकर कई षड्यंत्र भी रचे । इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें धीर मल्लों और राम रायों जैसों के लिए कोई स्थान न हो।

6. जाटों का स्वभाव (Nature of Jats)—गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय से ही बड़ी संख्या में जाट सिख धर्म में सम्मिलित हो गए थे। जाट स्वभाव से ही निडर, स्वाभिमानी और वीर थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे याद्धाओं का सहयोग प्राप्त करना चाहते थे ताकि अत्याचारियों का अंत किया जा सके। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

7. गुरु गोबिंद सिंह जी का उद्देश्य (Mission of Guru Gobind Singh Ji)-गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘बचित्र नाटक’ में लिखा है, कि उनके जीवन का उद्देश्य संसार में धर्म-प्रचार का कार्य करना और अत्याचारियों का विनाश करना है। अत्याचारियों के विनाश के लिए तलवार उठाना अत्यावश्यक है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया। गुरु गोबिंद सिंह जी का कथन था,

हम यह काज जगत में आए। धर्म हेतु गुरुदेव पठाए।।
जहाँ तहाँ तुम धर्म बिथारो।। दुष्ट देखियन पकड़ पछारो।।

38. “It was a grand creative deed of history which wrought revolutionary change in men’s minds.” Harbans Singh, Guru Gobind Singh (New Delhi : 1979)p.50. :

II. खालसा पंथ का सृजन कैसे किया गया ?
(How Khalsa was Created ?)
खालसा पंथ की स्थापना के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने * 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन विद्यार्थी यह बात विशेष तौर पर नोट करें कि खालसा की स्थापना के समय बैसाखी का दिवस 30 मार्च था। 1752 ई० में अंग्रेजों ने भारत में ग्रेगोरियन कैलेंडर को प्रचलित किया। अत: भारत में पूर्व प्रचलित विक्रमी कैलेंडर में 12 दिनों की बढ़ौतरी की गई। इस कारण आजकल बैसाखी सामान्य तौर पर 13 अप्रैल को मनाई जाती है।

श्री आनंदपुर साहिब में केसगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। इस दीवान में 80,000 सिखों ने भाग लिया। जब लोगों ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया तो गुरु जी मंच पर आए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाल कर एकत्रित सिखों से कहा कि, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है जो धर्म के लिए अपना शीश भेंट करे ?” जब गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया तो भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए आगे आए। गुरु जी उसे पास हो एक तंबू में ले गए। कुछ समय के पश्चात् गुरु जी खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आ गए। उन्होंने एक और सिख से बलिदान की माँग की। अब भाई धर्मदास जी आगे आए। इस क्रम को तीन बार और दोहराया गया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। गुरु जी उन्हें बारी-बारी से तंबू में ले जाते थे तथा खून से भरी तलवार लेकर लौटते थे। कुछ समय के पश्चात् गुरु जी ने इन पाँचों को केसरी रंग के कपड़े पहना कर स्टेज पर लाए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया। गुरु साहिब ने इन पाँच प्यारों को पहले खंडे का पाहुल छकाया और बाद में स्वयं इन प्यारों से अमृत छका। इसी कारण गुरु गोबिंद सिंह जी को ‘आपे गुरु चेला’ कहा जाता है। इस प्रकार खालसा पंथ का सृजन हुआ। ” गोबिंद सिंह जी का कथन था,

खालसा मेरो रूप है खास॥
खालसा में हौं करु निवास।।

III. खालसा पंथ के सिद्धांत
(Principles of the Khalsa Panth) गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की पालना के लिए कुछ विशेष नियम भी बनाए कुछ प्रमुख नियमों का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है—

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को ‘खंडे का पाहुल’ छकना होगा।
  2. खालसा ‘पाँच कक्कार’ अर्थात् केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण धारण करेगा।
  3. खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करेगा।
  4. खालसा पुरुष अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  5. खालसा जाति-प्रथा और ऊँच-नीच में विश्वास नहीं रखेगा।
  6. खालसा शस्त्र धारण करेगा और धर्म-‘युद्ध के लिए सदैव तैयार रहेगा।
  7. खालसा श्रम द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करेगा और अपनी आय का दशांश धर्म के लिए दान करेगा।
  8. खालसा प्रातः काल जागकर स्नान करने के पश्चात् गुरवाणी का पाठ करेगा।
  9. खालसा परस्पर भेंट के समय ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जो की फ़तह’ कहेंगे।
  10. खालसा नशीले पदार्थों का सेवन, पर स्त्री गमन इत्यादि बुराइयों से कोसों दूर रहेगा।
  11. खालसा देश, धर्म की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए सदैव तैयार रहेगा।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

IV. खालसा की सृजना का महत्त्व (Importance of the Creation of Khalsa)
1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन न केवल पंजाब के इतिहास, बल्कि भारत के इतिहास में एक युग परिवर्तक घटना मानी जाती है। निस्संदेह, खालसा पंथ की स्थापना के बड़े दूरगामी परिणाम निकले।

  1. सिखों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग इसमें शामिल होने लग पड़े। गुरु साहिब ने स्वयं हज़ारों सिखों को पाहुल छकाकर खालसा बनाया। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने खालसा पंथ के किसी भी पाँच सिखों को अमृत छकाने का अधिकार देकर खालसा पंथ में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि की।
  2. आदर्श समाज का निर्माण (Creation of an Ideal Society)-खालसा पंथ की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। खालसा पंथ में ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें निम्न और पिछड़ी श्रेणियों को समानता का दर्जा दिया गया। खालसा समाज में अंध-विश्वासों तथा नशीले पदार्थों के सेवन करने के लिए कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार गुरु जी ने खालसा पंथ को रच कर स्वस्थ समाज की रचना की। डॉक्टर इंद्रपाल सिंह के अनुसार,
    “खालसा की महानता इस बात में है कि यह जाति एवं नस्ल की अपेक्षा मानव भाईचारे की बात करता है।”39
  3. मसंद प्रथा एवं पंथ विरोधी संप्रदायों का अंत (End of Masand System and Sects which were against Panth)—मसंद प्रथा में आई कुरीतियाँ खालसा पंथ के निर्माण का एक प्रमुख कारण बनी थीं। इसलिए जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, तो उसमें मसंदों को कोई स्थान नहीं दिया गया। गुरु जी ने सिखों को आदेश दिया, कि वे इनसे किसी प्रकार का कोई संबंध न रखें।
  4. सिखों में नया जोश (New spirit among the Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण __ परिणाम सिखों में एक नया जोश तथा शक्ति पैदा हुई। वे अपने आप को शेर के समान बहादुर समझने लग पड़े। उन्होंने अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब शस्त्र उठा लिए। उन्होंने मुग़लों और अफ़गानों से होने वाली लड़ाइयों में अद्वितीय वीरता और बलिदान के प्रमाण दिए।
  5. निम्न जातियों के लोगों का उद्धार (Upliftment of the Downtrodden People)—खालसा पंथ की स्थापना निम्न जातियों के उद्धार का संदेश थी। इससे पूर्व शूद्रों और अन्य निम्न जातियों के लोगों से बहुत दुर्व्यवहार किया जाता था। गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों को खालसा पंथ में शामिल करके उन्हें उच्च जातियों के बराबर
    स्थान दिया। गुरु जी ने यह महान् पग उठाकर निम्न जाति के लोगों में एक नया जोश भरा। गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में वे महान् योद्धा सिद्ध हुए।
  6. खालसा पंथ में लोकतंत्र (Democracy in Khalsa Panth)-1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं पाँच प्यारों को उन्हें अमृतपान करवाने का निवेदन किया। ऐसा करना एक महान् क्रांतिकारी कदम था। गुरु साहिब ने यह घोषणा की थी कि कहीं भी पाँच खालसा एकत्रित होकर अन्य सिखों को अमृत छका सकते हैं। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों में लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित किया।
  7. सिखों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान (Rise of Political Power of the Sikhs)-खालसा पंथ ‘ की स्थापना के साथ ही सिखों की राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ। असंख्य बलिदान के बाद वे पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। तत्पश्चात् 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख-साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार अंत में खालसों का स्वप्न साकार हुआ। अंत में हम डॉक्टर जी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
    “खालसा पंथ के सृजन को मानव इतिहास का एक आश्चर्यजनक कारनामा माना जा सकता है।’40

39. “The grandeur of Khalsa is that it is above all notion of caste and creed and speaks only of universal brotherhood.” Dr. Inderpal Singh, The Grandeur of Khalsa (Amritsar : 1999) p. 3.
40. “Creation of the Khalsa was a unique phenomenon in the annals of mankind.” Dr. G. S. Dhillon, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 1999) p.22.

प्रश्न 29.
सिख धर्म में खालसा के सृजन के महत्त्व के बारे में चर्चा करें। (Discuss the importance of creation of Khalsa in Sikhism.)
उत्तर-
खालसा की सृजना का महत्त्व (Importance of the Creation of Khalsa)
1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन न केवल पंजाब के इतिहास, बल्कि भारत के इतिहास में एक युग परिवर्तक घटना मानी जाती है। निस्संदेह, खालसा पंथ की स्थापना के बड़े दूरगामी परिणाम निकले।

1. सिखों की संख्या में वृद्धि (Increase in the number of Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग इसमें शामिल होने लग पड़े। गुरु साहिब ने स्वयं हज़ारों सिखों को पाहुल छकाकर खालसा बनाया। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने खालसा पंथ के किसी भी पाँच सिखों को अमृत छकाने का अधिकार देकर खालसा पंथ में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि की।

2. आदर्श समाज का निर्माण (Creation of an Ideal Society)-खालसा पंथ की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। खालसा पंथ में ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं था। इसमें निम्न और पिछड़ी श्रेणियों को समानता का दर्जा दिया गया। खालसा समाज में अंध-विश्वासों तथा नशीले पदार्थों के सेवन करने के लिए कोई स्थान नहीं था। इस प्रकार गुरु जी ने खालसा पंथ को रच कर स्वस्थ समाज की रचना की। डॉक्टर इंद्रपाल सिंह के अनुसार,
“खालसा की महानता इस बात में है कि यह जाति एवं नस्ल की अपेक्षा मानव भाईचारे की बात करता है।”39

3. मसंद प्रथा एवं पंथ विरोधी संप्रदायों का अंत (End of Masand System and Sects which were against Panth)—मसंद प्रथा में आई कुरीतियाँ खालसा पंथ के निर्माण का एक प्रमुख कारण बनी थीं। इसलिए जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, तो उसमें मसंदों को कोई स्थान नहीं दिया गया। गुरु जी ने सिखों को आदेश दिया, कि वे इनसे किसी प्रकार का कोई संबंध न रखें।

4. सिखों में नया जोश (New spirit among the Sikhs)-खालसा पंथ की स्थापना का सबसे महत्त्वपूर्ण __ परिणाम सिखों में एक नया जोश तथा शक्ति पैदा हुई। वे अपने आप को शेर के समान बहादुर समझने लग पड़े। उन्होंने अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब शस्त्र उठा लिए। उन्होंने मुग़लों और अफ़गानों से होने वाली लड़ाइयों में अद्वितीय वीरता और बलिदान के प्रमाण दिए।

5. निम्न जातियों के लोगों का उद्धार (Upliftment of the Downtrodden People)—खालसा पंथ की स्थापना निम्न जातियों के उद्धार का संदेश थी। इससे पूर्व शूद्रों और अन्य निम्न जातियों के लोगों से बहुत दुर्व्यवहार किया जाता था। गुरु जी ने निम्न जाति के लोगों को खालसा पंथ में शामिल करके उन्हें उच्च जातियों के बराबर
स्थान दिया। गुरु जी ने यह महान् पग उठाकर निम्न जाति के लोगों में एक नया जोश भरा। गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व में वे महान् योद्धा सिद्ध हुए।

6. खालसा पंथ में लोकतंत्र (Democracy in Khalsa Panth)-1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं पाँच प्यारों को उन्हें अमृतपान करवाने का निवेदन किया। ऐसा करना एक महान् क्रांतिकारी कदम था। गुरु साहिब ने यह घोषणा की थी कि कहीं भी पाँच खालसा एकत्रित होकर अन्य सिखों को अमृत छका सकते हैं। इस प्रकार गुरु साहिब ने सिखों में लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहित किया।

7. सिखों की राजनीतिक शक्ति का उत्थान (Rise of Political Power of the Sikhs)-खालसा पंथ ‘ की स्थापना के साथ ही सिखों की राजनीतिक शक्ति का भी उदय हुआ। असंख्य बलिदान के बाद वे पंजाब में अपनी स्वतंत्र मिसलें स्थापित करने में सफल हुए। तत्पश्चात् 19वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिख-साम्राज्य की स्थापना की। इस प्रकार अंत में खालसों का स्वप्न साकार हुआ। अंत में हम डॉक्टर जी० एस० ढिल्लों के इन शब्दों से सहमत हैं,
“खालसा पंथ के सृजन को मानव इतिहास का एक आश्चर्यजनक कारनामा माना जा सकता है।’40

39. “The grandeur of Khalsa is that it is above all notion of caste and creed and speaks only of universal brotherhood.” Dr. Inderpal Singh, The Grandeur of Khalsa (Amritsar : 1999) p. 3.
40. “Creation of the Khalsa was a unique phenomenon in the annals of mankind.” Dr. G. S. Dhillon, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 1999) p.22.

प्रश्न 30.
गुरु गोबिंद सिंह जी के चरित्र एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।
(Discuss the character and achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करें। (Make an evaluation of the personality of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के बहुपक्षीय व्यक्तित्व की ऐतिहासिक उदाहरणों सहित व्याख्या करें। (Illustrate historically the multi-dimensional personality of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के एक मनुष्य, एक सैनिक और एक धार्मिक नेता के बारे में विस्तार से लिखो।
(Write in detail about Guru Gobind Singh Ji as a Man, as a Soldier and as a Religious Leader.)
अथवा
आप गुरु गोबिंद सिंह जी के एक मनुष्य, एक सैनिक, एक विद्वान् तथा एक धार्मिक नेता बारे क्या जानते हैं ?
(What do you know about Guru Gobind Singh Ji as a Man, as a Soldier, as a Scholar and as a Saint ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन तथा उपलब्धियों का विवरण दें। . (Give an account of the career and achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी विश्व के महान् व्यक्तियों में से एक थे। उनके व्यक्तित्व में अनेक गुण- थे। वह संपूर्ण मनुष्य, महान् योद्धा, अत्याचारियों के शत्रु, उच्चकोटि के कवि, समाज सुधारक, उत्तम संगठनकर्ता तथा महान् पैगंबर थे।
मनुष्य के रूप में (As a Man)

  1. शक्ल सूरत (Physical Appearance)-गुरु गोबिंद सिंह जी का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। उनका कद लंबा, रंग गोरा तथा शरीर गठित था। उनका मुख मंडल भव्य था। वह बहुत मृदुभाषी थे। उनका पहरावा बहुत सुंदर होता था तथा वह सदैव शस्त्रों से सुसज्जित रहते थे। उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके जादुई व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होता था।
  2. गृहस्थ जीवन (House Holder) गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े आज्ञाकारी पुत्र, विचारवान् पिता और आदर्श पति थे। उन्होंने अपनी माता जी की आज्ञा मानते हुए श्री आनंदपुर साहिब का किला खाली कर दिया था। इसके पश्चात् चाहे उन्हें भारी कष्टों का सामना करना पड़ा परंतु उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की। गुरु जी ने अपने पुत्रों को भी अत्याचारों का वीरता से सामना करने का सबक सिखाया।
  3. उच्च चरित्र (High Character)–गुरु गोबिंद सिंह जी महान् चरित्र के स्वामी थे। झूठ, छल, कपट तो उन्हें छू भी न पाया था। युद्ध हो अथवा शाँति, उन्होंने कभी भी धैर्य नहीं छोड़ा था। वह स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे। वह प्रत्येक प्रकार के नशे के विरुद्ध थे। उन्होंने अपने सिखों को भी उच्च नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया।
  4. कुर्बानी की प्रतिमा (Embodiment of Sacrifices)-गुरु गोबिंद सिंह जी कुर्बानी के पुंज थे। 9 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता गुरु तेग़ बहादुर जी को बलिदान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन के सभी सुख त्याग दिए। अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए गुरु जी के चारों साहिबजादों, माता तथा अनेक सिखों ने बलिदान दिए। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं मिलता।

एक विद्वान् के रूप में (As a Scholar)
गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। उन्हें अनेक भाषाओं जैसे अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, हिंदी तथा संस्कृत आदि का ज्ञान था। ‘जापु साहिब’, ‘बचित्तर नाटक’, ‘ज़फ़रनामा’, ‘चंडी दी वार’ तथा ‘अकाल उस्तति’ आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ संपूर्ण मानवता को स्वतंत्रता, भाईचारे, सामाजिक असमानता को दूर करने तथा अत्याचारों का मुकाबला करने की प्रेरणा देती हैं। इसके अतिरिक्त ये रचनाएँ आत्मा को शाँति भी प्रदान करती हैं। निस्संदेह ये रचनाएँ भक्ति एवं शक्ति के सुमेल का सुंदर उदाहरण हैं । आपने अपने दरबार में उच्चकोटि के 52 कवियों को आश्रय दिया हुआ था। इनमें से सैनापत, नंद लाल, गोपाल तथा उदै राय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। विख्यात इतिहासकार दविंद्र कुमार का यह कथन बिल्कुल ठीक है। “वह (गुरु गोबिंद सिंह जी) एक महान् कवि थे।41

41. “He was a poet par excellence.” Devindra Kumar, Guru Gobind Singh’s Contribution to the Indian · Literature, cited in, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 2000) p. 127.

योद्धा तथा सेनापति के रूप में (As a Warrior and General)-
गुरु गोबिंद सिंह जी अपने समय के महान् योद्धा तथा सेनापति थे। वह घुड़सवारी, तीर चलाने तथा शस्त्र चलाने में बहुत प्रवीण थे। वह प्रत्येक युद्ध में अपने सैनिकों का नेतृत्व करते थे। गुरु जी ने लड़ाई में भी नैतिक सिद्धांतों का सदैव पालन किया। उन्होंने कभी भी रणभूमि से भाग रहे सिपाहियों तथा निहत्थों पर आक्रमण न किया। उनके तथा शत्रुओं के साधनों में आकाश-पाताल का अंतर था, फिर भी गुरु जी ने उनके विरुद्ध बड़ी शानदार सफलता प्राप्त की। उदाहरणस्वरूप गुरु जी ने भंगाणी की लड़ाई में, आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई में, चमकौर साहिब की लड़ाई में तथा खिदराना की लड़ाई में कम सैनिकों तथा सीमित साधनों के होते हुए भी पहाड़ी राजाओं तथा मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे। गुरु जी के सैनिक सदैव अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहते थे।

धार्मिक नेता के रूप में (As a Religious Leader)-
निस्संदेह गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् धार्मिक नेता थे। गुरु जी ने अपने जीवन का अधिकाँश समय लड़ाइयों में व्यतीत किया परंतु इन लड़ाइयों का उद्देश्य धर्म की रक्षा करना ही था। गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना धार्मिक उद्देश्यों के लिए ही की थी। उन्होंने प्रत्येक सिख को यह आदेश दिया था कि वह सुबह उठकर स्नान के पश्चात् गुरुवाणी का पाठ करे। वह एक ईश्वर की ही पूजा करे तथा पवित्र जीवन व्यतीत करे। उनकी धार्मिक महानता का प्रमाण इस बात से मिलता है कि जब उन्हें साहिबजादों के बलिदान की सूचना दी गई तो झट खड़े होकर उन्होंने ईश्वर का धन्यवाद किया कि उनके पुत्रों के प्राण धर्म के लिए गए। डॉ० आई० बी० बैनर्जी के अनुसार, “गुरु गोबिंद सिंह जी और चाहे जो कुछ भी थे परंतु सब से पहले वह एक धार्मिक नेता थे।”42

समाज सुधारक के रूप में (As a Social Reformer)-
गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् समाज सुधारक भी थे। उन्होंने खालसा पंथ में निम्न जातियों के लोगों को भी उच्च जातियों के समान स्थान दिया। ऐसा करके गुरु जी ने शताब्दियों पुराने जाति-पाति के बंधनों को तोड़कर रख दिया। गुरु जी का कहना था, “मानस की जात सभै एकै पहिचानबो।” गुरु जी ने अपने सिखों को मादक पदार्थों से दूर रहने को कहा। उन्होंने सती तथा पर्दा प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इस प्रकार गुरु साहिब ने एक आदर्श समाज को जन्म दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

संगठनकर्ता के रूप में (As an Organiser)-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। उस समय औरंगज़ेब का शासन था। वह गैर-मुसलमानों के अस्तित्व को कभी सहन करने के लिए तैयार नहीं था। उसने गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद कर दिया था। सिखों में मसंद प्रथा बहुत भ्रष्ट हो गई थी। हिंदुओं में बहादुरी एवं आत्म-विश्वास की भावनाएँ खत्म हो चुकी थीं एवं वे मुग़लों के अत्याचार सहने के अभ्यस्त हो चुके थे। पहाड़ी राजा अपने स्वार्थों के कारण मुग़ल सरकार से मिले हुए थे। ऐसे विरोधी तत्त्वों के रहते गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। सचमुच यह एक महान् कार्य था। इसने लोगों में एक ऐसा जोश भरा जिसके आगे मुग़ल साम्राज्य को भी घुटने टेकने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में हम प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर मदनजीत कौर के इन शब्दों से सहमत हैं,
“गुरु गोबिंद सिंह जी के योगदान ने भारतीय इतिहास एवं विश्व संभ्यता के चित्रपट पर दूरगामी प्रभाव छोड़े।”43

42. “Whatever else he might have been, Guru Gobind Singh was first and foremost a great religious leader.”Dr. I. B. Banerjee, Evolution of the Khalsa (Calcutta : 1972) Vol. 2, p. 157.
43. “Guru Gobind Singh’s contributions had left imprints of deep impact on the canvas of Indian history and world civilisation.” Prof. Madanjit Kaur, Guru Gobind Singh and Creation of Khalsa (Amritsar : 2000) p.1.

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक देव जी की सिख पंथ को देन के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the contribution of Guru Nanak Dev Ji to Sikhism.)
उत्तर-
15वीं शताब्दी में, जब गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ तो उस समय लोग अज्ञानता के अँधकार में भटक रहे थे। समाज में महिलाओं की दशा बहुत खराब थी। गुरु नानक देव जी ने लोगों में नई जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। गुरु जी ने संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की नींव डाली। गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुई।

प्रश्न 2.
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों के क्या उद्देश्य थे ?
(What do you mean by Udasis ? What were the aims of Guru Nanak Dev Ji’s Udasis ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य तथा महत्त्व था ?
(What were the aims and importance of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी द्वारा विभिन्न दिशाओं में की गई यात्राओं को उनकी उदासियाँ कहा जाता है। इन उदासियों का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता तथा अंधविश्वास को दूर करना था। वह एक ईश्वर की पूजा तथा भाईचारे का संदेश जन-साधारण तक पहुंचाना चाहते थे। गुरु नानक साहब ? लोगों को अपने विचारों से अवगत करवाया। उन्होंने समाज में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों, कर्मकांडों तथा कुप्रथाओं का खंडन किया।

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी की किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of any two important Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी सैदपुर से शुरू की। मलिक भागों द्वारा पूछने पर गुरु जी ने बताया कि हमें मेहनत की कमाई से गुजारा करना चाहिए न कि बेईमानी के पैसों से।
  2. हरिद्वार में गुरु नानक साहिब ने लोगों को यह बात समझाई कि गंगा स्नान करने से या पितरों को पानी देने से कुछ प्राप्त नहीं होता।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सार लिखिए। (Write an essence of the teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है। वह निराकार तथा सर्वव्यापक है।
  2. गुरु जी माया को मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे।
  3. गुरु जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मनुष्य के पाँच शत्रु बताते हैं। इनके कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।
  4. गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा का खंडन किया।

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nank Dev Ji’s concept of God ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about God ?)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया।
  2. केवल ईश्वर ही संसार को रचने वाला, पालने वाला तथा नाश करने वाला है।
  3. ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी।
  4. ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता।

प्रश्न 6.
गुरु नानक साहिब ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खंडन क्यों किया ? (Why did Guru Nanak Sahib condemn the Brahmans and Mullas ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ब्राह्मणों में श्रद्धा भक्ति का अभाव था। वे सारा दिन वेद-शास्त्र पढ़ते थे, परंतु उन पर अमल नहीं करते थे। वे लोगों को धोखा देते थे तथा उन्हें व्यर्थ के रीति-रिवाजों में फंसाकर लूटते थे। कुछ ऐसी ही स्थिति मुसलमानों में मुल्लाओं की थी। वे भी व्यर्थ के रीति-रिवाजों पर बल देते थे। वे अन्य धर्मों के लोगों को बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते थे। इन कारणों से गुरु नानक देव जी ने ब्राह्मणों तथा मुल्लाओं का खंडन किया।

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा प्रथाओं का खंडन किया ?
(Which prevalent religious beliefs and conventions were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने कौन-से प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खंडन किया ? (What type of religious beliefs and rituals were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित समस्त अंधविश्वासों तथा व्यवहारों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने वेद, शास्त्र, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, तथा जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अवसरों से संबंधित संस्कारों का विरोध किया। ब्राह्मण इन रस्मों के मुख्य समर्थक थे। उन्होंने जोगियों की पद्धति को भी दो कारणों से स्वीकार न किया। प्रथम, जोगियों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव था। दूसरा, वे अपने सामाजिक दायित्व से दूर भागते थे। गुरु नानक देव जी अवतारवाद में भी विश्वास नहीं रखते थे।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ? संक्षेप में उत्तर दें। (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of Maya ? Explain in brief)
अथवा
गुरु नानक देव जी के माया के संकल्प का वर्णन करें। (Describe Guru Nank Dev Ji’s concept of Maya.)”
उत्तर-
गुरु नानक देव जी मानते थे कि माया मनुष्य के लिए मुक्ति के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, सुंदर नारी, पुत्र आदि के चक्रों में फंसा रहता है। इसे ही माया कहते हैं। माया जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसका मौत के बाद साथ नहीं देती। माया के कारण वह आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

प्रश्न 9.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of “Guru’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी के गुरु संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of. ‘Guru’ ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु को एक वास्तविक सीढ़ी मानते थे। वह ही मनुष्य को मोह और अहं से दूर करता है। वही नाम और शब्द की आराधना करने का ढंग बताता है। गुरु के बिना भक्ति भाव और ज्ञान असंभव है। गुरु के बिना मनुष्य को चारों और अँधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अँधकार से प्रकाश की ओर लाता है। सच्चा गुरु ईश्वर स्वयं है, जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में ‘नाम’ का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of ‘Nam’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी नाम की आराधना को ईश्वर की भक्ति का सर्वोच्च रूप समझते थे। नाम आराधना के कारण मनुष्य इस रोगग्रस्त अथवा कष्टमयी संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। नाम की आराधना करने वाले मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं तथा उसके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। उसकी आत्मा सदैव एक कमल के फूल की तरह खिली रहती है। ईश्वर के नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है। नाम के बिना मनुष्य सभी प्रकार के पापों और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है।

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में हुक्म का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of Hukam’ in Guru Nanak Dev Ji’s teachings ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं में परमात्मा के हुक्म अथवा इच्छा को विशेष महत्त्व प्राप्त है। सारा संसार उस परमात्मा के हुक्म के अनुसार चलता है। उसके हुक्म के अनुसार ही जीव इस संसार में जन्म लेता है या उसकी मृत्यु होती है। उसे प्रशंसा प्राप्त होती है अथवा वह नीच बन जाता है। हुक्म के कारण ही उसे सुखदुःख प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के हुक्म को नहीं मानता वह दर-दर की ठोकरे खाता है।

प्रश्न 12.
गुरु नानक देव जी के स्त्री जाति संबंधी क्या विचार थे ? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about women ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों की जूती के समान था। उन्हें जानवरों की भाँति खरीदा अथवा बेचा जाता था। गुरु नानक देव जी बाल-विवाह, बहु-विवाह तथा सती प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का समर्थन किया। इस संबंध में उन्होंने स्त्रियों को संगत एवं पंगत में सम्मिलित होने की आज्ञा दी।

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी के संदेश का सामाजिक अर्थ क्या था ? (What was the social meaning of Guru Nanak Dev Ji’s message ?) Solis
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के संदेश के सामाजिक अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनका संदेश प्रत्येक के लिए था। कोई भी स्त्री-पुरुष गुरु जी द्वारा दर्शाए गए मार्ग को अपना सकता था। गुरु जी ने सामाजिक समानता का प्रचार किया। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। सामाजिक समानता के संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु जी ने संगत तथा पंगत (लंगर) नामक दो संस्थाएँ चलाईं। लंगर तैयार करते समय जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था।

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से किस प्रकार भिन्न थीं ?
(How far were the teachings of Guru Nanak Dev Ji different from the Bhakti reformers ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा निराकार है। वह कभी भी मानवीय रूप को धारण नहीं करता। भक्ति प्रचारकों ने कृष्ण तथा राम को परमात्मा का अवतार माना। गुरु नानक देव जी मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे। जबकि भक्ति प्रचारकों का इसमें पूर्ण विश्वास था। गुरु नानक देव जी गृहस्थ जीवन में विश्वास रखते थे। क्ति प्रचारक गृहस्थ जीवन को मुक्ति की राह में आने वाली एक बड़ी रुकावट मानते थे। गुरु नानक देव जी ने गत तथा पंगत नामक दो संस्थाएँ स्थापित की। भक्ति प्रचारकों ने ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं की।

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी एक क्रांतिकारी थे। अपने उत्तर की पुष्टि में कोई चार तर्क दीजिए।
(Guru Nanak Dev Ji was a revolutionary. Give any four arguments in support of your answer.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने अवतारवाद का जोरदार शब्दों में खंडन किया।
  2. गुरु नानक देव जी ने मूर्ति पूजा के विरोध में भी ज़ोरदार आवाज़ उठाई।
  3. गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया।
  4. गुरु नानक देव जी ने हिंदू रीति-रिवाजों का खंडन किया।

प्रश्न 16.
गुरु नानक देव जी एक सुधारक थे। इस पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए। (Guru Nanak Dev Ji was a reformer. Give any four arguments in its favour.)
उत्तर-

  1. गुरु नानक देव जी ने कभी भी किसी देवी-देवता को बुरा नहीं कहा था।
  2. गुरु नानक देव जी ने जाति प्रथा का खंडन नहीं किया अपितु जाति प्रथा से उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या का विरोध किया था।
  3. गुरु नानक देव जी ने उस समय हिंदुओं में प्रचलित रस्मों जैसे उपवास, तीर्थ यात्रा, सूर्य को पानी देने तथा गंगा स्नान इत्यादि का पूर्ण रूप से खंडन नहीं किया था।
  4. गुरु नानक देव जी ने हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों में दिए गए ज्ञान को कभी भी बुरा नहीं कहा।

प्रश्न 17.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 कहाँ तथा कैसे व्यतीत किए ? (How and where did Guru Nanak Dev Ji spend last 18 years of his life ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने करतारपुर ( अर्थात् ईश्वर का नगर) नामक नगर की स्थापना की। इसी स्थान पर गुरु जी ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु जी ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की ‘संगत’ से अभिप्राय उस सभा से था जो प्रतिदिन गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए होती थी। ‘पंगत’ से अभिप्राय था–पंक्ति में बैठकर लंगर छकना। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की।

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प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
उत्तर-

  1. गुरु अंगद देव जी ने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया।
  2. उन्होंने गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया।
  3. गुरु अंगद देव जी ने संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया।
  4. उन्होंने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया।

प्रश्न 19.
गुरु अंगद साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ? (What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurmukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को संशोधित कर नया रूप प्रदान किया। परिणामस्वरूप, इस लिपि को समझना लोगों के लिए सरल हो गया। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हई। इस लिपि के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि विद्या के प्रसार में भी सहायक सिद्ध हुई।

प्रश्न 20.
गुरु अंगद देव जी ने उदासी मत का खंडन किस प्रकार किया ? (How did Guru Angad Dev Ji denounce the Udasi sect ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी का सिख मत के विकास की ओर एक अन्य प्रशंसनीय कार्य उदासी मत का खंडन करना था। इस मत की स्थापना गुरु नानक साहिब जी के बड़े सपत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत संयास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था, जबकि गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सिद्धांत गुरु नानक देव जी के सिद्धांतों से मिलते थे। इस कारण बहुत-से सिख उदासी मत को मान्यता देने लग पड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में गुरु अंगद साहिब ने उदासी मत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो सिख उदासी मत में विश्वास रखता है, वह सच्चा सिख नहीं हो सकता।

प्रश्न 21.
“गुरु अंगद साहिब बहुत अनुशासन प्रिय थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? (“Guru Angad Dev Ji was a great disciplinarian.’ Do you agree to it ?)
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। गुरु जी के दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों सत्ता और बलवंड, अपनी मधुर आवाज़ के कारण बहुत गर्व करने लग पड़े थे। अपने अहंकार में आकर उन्होंने मुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। कुछ समय के पश्चात् उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया।

प्रश्न 22.
गुरु अंगद साहिब तथा हुमायूँ में हुई भेंट की संक्षेप जानकारी दें। (Give a brief account of the meeting between Guru Angad Sahib and Humayun.)
उत्तर-
1540 ई० में मुग़ल बादशाह हुमायूँ को शेरशाह सूरी के हाथों कन्नौज के स्थान पर कड़ी पराजय हुई थी। पराजय के पश्चात् हुमायूँ खडूर साहिब गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। उस समय गुरु जी समाधि में इतने लीन थे कि उन्होंने आँखें खोलकर न देखा। हुमायूँ ने क्रोधित होकर अपनी तलवार म्यान से निकाल ली। उसी समय गुरु जी ने अपनी आँखें खोली और हुमायूँ से कहा कि, “यह तलवार शेरशाह सूरी के विरुद्ध लड़ाई करते समय कहाँ थी ?” ये शब्द सुनकर हुमायूँ अत्यंत लज्जित हुआ और उसने गुरु जी से क्षमा माँग ली।

प्रश्न 23.
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? : (What do you know about Sangat ?).
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होती थी। गुरु अंगद साहिब ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के बिना कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

प्रश्न 24.
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
लंगर प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Langar system ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें। (Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-
पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 25.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। (Write a short note on importance of Sangat and Pangat.)
उत्तर-
संगत संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों तथा सतनाम का जाप करने के लिए एकत्रित होती थी। गुरु अंगद साहिब ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के बिना कोई भी आ सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था।

पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना भी गुरु नानक देव जी ने की थी। इसके अंतर्गत विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक जगह बैठकर खाते थे। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। इस संस्था ने समाज में जाति-प्रथा और असमानता की भावनाओं को समाप्त करने में बड़ी सहायता की।

प्रश्न 26.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das Ji face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-

  1. गुरुगद्दी पर विराजमान होने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को सबसे पहले गुरु अंगद देव जी के पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने गुरु पुत्र होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार जताया।
  2. गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद भी गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। उन्होंने भी गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया।

प्रश्न 27.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ। (Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (From an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.) .
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया।
  2. उन्होंने लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया।
  3. उन्होंने सिख पंथ के प्रचार के लिए मंजी प्रथा की स्थापना की।
  4. गुरु साहिब ने सिख धर्म को उदासी मत से अलग रखकर इसे लुप्त होने से बचा लिया।

प्रश्न 28.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is importance of the construction of the Baoli of Goindwal Sahib in Sikh History ?)
अथवा
गोइंदवाल साहिब को सिख धर्म का केंद्र क्यों कहा जाता है ? (Why is Goindwal Sahib called the centre of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला कदम गोइंदवाल साहिब में एक बाऊली का निर्माण करवाना था। इस पवित्र बाऊली का निर्माण कार्य 1552 ई० से 1559 ई० तक चला। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को हिंदुओं से अलग तीर्थ स्थान देना चाहते थे। दूसरा, वह वहाँ के लोगों की पानी की कठिनाई को दूर करना चाहते थे। बाऊली के निर्माण से सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 29.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-

  1. गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का डटकर विरोध किया।
  2. गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया।
  3. उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा की बड़े ज़ोरदार शब्दों में निंदा की।
  4. गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 30.
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji system ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें। (Write a note on Manji system.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का एक और महान कार्य था मंजी प्रथा की स्थापना करना। उनके समय में सिखों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि गुरु जी के लिए प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचना असंभव था। अतः गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के प्रदेशों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। इसके अतिरिक्त वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे।

प्रश्न 31.
गुरु अमरदास जी के मुगलों के साथ कैसे संबंध थे ? (What type of relations did Guru Amar Das Ji have with the Mughals ?)
अथवा
मुगल बादशाह अकबर तथा गुरु अमरदास जी के मध्य संबंधों का उल्लेख कीजिए। (Describe the relations between Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
अथवा
मुगल सम्राट अकबर तथा गुरु अमरदास जी के बीच संबंधों का उल्लेख करें। (Explain the relations between the Mughal emperor Akbar and Guru Amar Das Ji.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के मुग़लों के साथ संबंध मैत्रीपूर्ण थे। 1568 ई० में अकबर गुरु साहिब के दर्शनों के लिए गोइंदवाल साहिब आया। उसने गुरु साहिब के दर्शन करने से पूर्व मर्यादानुसार लंगर खाया। वह गुरु साहिब के व्यक्तित्व और लंगर प्रबंध से बहुत प्रभावित हुआ। उसने लंगर प्रबंध को चलाने के लिए कुछ गाँवों की जागीर गुरु जी की सुपुत्री बीबी भानी जी के नाम लगा दी। अकबर की इस यात्रा के कारण गुरु अमरदास जी की प्रसिद्धि बहुत दूर-दूर तक फैल गई। इससे सिख धर्म का प्रसार और प्रचार बढ़ा।

प्रश्न 32.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?)
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरु काल 1574 ई० से 1581 ई० तक रहा। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य भी आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म के प्रचार तथा उसके विकास के लिए धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों को समाप्त किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा।

प्रश्न 33.
रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? [What is the importance of foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया।

प्रश्न 34.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi system ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। यह मत त्याग और वैराग्य पर बल देता था। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद जी के जीवन से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। इसलिए गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी ने जोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता था। गुरु अमरदास जी के काल में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया।

प्रश्न 35.
गुरुगद्दी पर बैठने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji after he ascended the Gurgaddi.)
अथवा
गुरु बनने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji immediately after his accession to Gurgaddi. Explain briefly.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के पश्चात् गुरु अर्जन साहिब को सर्वप्रथम अपने बड़े भाई पृथी चंद के विरोध का सामना करना पड़ा। वह बड़ा होने के नाते गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझता था। उसने मुग़ल बादशाह जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काने का हर संभव प्रयत्न किया। पंजाब के कट्टर मुसलमान पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव से घबरा रहे थे। उन्होंने गुरु जी के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरे। कट्टर मुसलमान होने के कारण जहाँगीर पर इनका बहुत प्रभाव पड़ा। चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के सुपुत्र हरगोबिंद जी के साथ करना चाहता था। गुरु जी के इंकार करने के कारण वह उनका घोर शत्रु बन गया।

प्रश्न 36.
गुरु अर्जन देव जी ने सिख पंथ के विकास में क्या योगदान दिया ? (What was Guru Arjan Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु अर्जन साहिब जी के संगठनात्मक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the organisational works of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण करके सिखों को एक पावन तीर्थ स्थान प्रदान किया।
  2. गुरु साहिब ने कई पवित्र नगरों जैसे तरनतारन, हरिगोबिंदपुर और करतारपुर की स्थापना की।
  3. उन्होंने लाहौर में एक बाऊली का निर्माण करवाया।
  4. मसंद प्रथा का विकास गुरु अर्जन साहिब के महान् कार्यों में से एक था। इस प्रथा से सिख धर्म का प्रसार दूर-दूर तक हुआ।

प्रश्न 37.
गुरु अर्जन देव जी द्वारा हरिमंदिर साहिब की स्थापना और इसकी महत्ता के बारे में बताइए।
(Describe briefly the’importance of the foundation of Harmandir Sahib by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a brief note on Harmandir Sahib.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब की स्थापना एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the foundation and importance of Harmandir Sahib.)
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब का सिख इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी स्थापना सिखों के पाँचवें गुरु अर्जन देव जी ने की थी। गुरु अर्जन साहिब ने इसकी नींव 1588 ई० में विख्यात सूफी संत मियाँ मीर जी द्वारा रखवाई थी। हरिमंदिर से अभिप्राय था-ईश्वर का मंदिर। गुरु साहिब ने हरिमंदिर साहिब का भवन इर्द-गिर्द के सभी भवनों से निम्न रखाया क्योंकि गुरु साहिब का मानना था कि जो निम्न होगा, वही उच्च कहलाने के योग्य होगा। शीघ्र ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे पवित्र तीर्थ-स्थान बन गया।

प्रश्न 38.
मसंद व्यवस्था तथा इसके महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand system and its importance.)
अथवा
मसंद प्रथा के विकास तथा संगठन का वर्णन कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand system.)
अथवा
मसंद प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about Masand system ? Explain.)
अथवा
मसंद प्रथा किसने शुरू की ? इसके उद्देश्य बताएँ। (Who started Masand system ? What were its aims ?)
अथवा
मसंद प्रथा के संगठन तथा विकास की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand system.)
अथवा
मसंद प्रथा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand system.)
उत्तर-
मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से बना है जिसका अर्थ है ‘उच्च स्थान’। इस प्रथा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। इसका वास्तविक विकास गुरु अर्जन साहिब जी के समय में हुआ। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दसवाँ भाग गुरु साहिब को भेंट करें। मसंदों का मुख्य कार्य इसी धन को इकट्ठा करना था। ये मसंद धन एकत्रित करने के साथ-साथ सिख धर्म का प्रचार भी करते थे। मसंद प्रथा सिख पंथ के विकास में एक मील पत्थर सिद्ध हुई।

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प्रश्न 39.
तरन तारन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Write a short note on Tarn Taran and its importance.)
उत्तर-
गुरु अर्जन साहिब ने 1590 ई० में तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर की खुदवाई भी आरंभ करवाई। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भवसागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत-से जाटों ने सिख धर्म को अपना लिया। इन जाटों ने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की।

प्रश्न 40.
पृथी चंद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Prithi Chand.)
अथवा
पृथी चंद कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Prithi Chand ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
पृथी चंद गुरु अर्जन साहिब का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बहुत स्वार्थी स्वभाव का था। यही कारण है कि गुरु रामदास जी ने गुरुगद्दी गुरु अर्जन साहिब को सौंपी। इससे पृथी चंद क्रोधित हो उठा। पृथी चंद ने गुरुगद्दी के लिए गुरु अर्जन देव का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया। वह यह आशा लगाए बैठा था कि गुरु अर्जन साहिब के पश्चात् गुरुगद्दी उसके पुत्र मेहरबान को अवश्य मिलेगी परंतु जब हरगोबिंद जी का जन्म हुआ तो उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया। इसलिए वह गुरु अर्जन साहिब के प्राणों का शत्रु बन गया।

प्रश्न 41.
चंद्र शाह कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Chandu Shah ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
अथवा
चंदू शाह गुरु अर्जन देव जी का विरोधी क्यों बन गया था ? (Why Chandu Shah opposed Guru Arjan Dev Ji ?)’
अथवा
चंदू शाह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Chandu Shah.)
उत्तर-
चंद्र शाह लाहौर प्रांत का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। उसके परामर्शदाताओं ने उसे अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब जी के लड़के हरगोबिंद से करने का परामर्श दिया। इस पर चंदू शाह ने कहा कि वह कभी भी नाली की गंदी ईंट को उपने चौबारे की शान नहीं बनने देगा। बाद में वह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। उसने गुरु अर्जन साहिब को शगुन भेजा। गुरु अर्जन साहिब ने इस शगुन को लेने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप चंदू शाह ने मुग़ल बादशाह अकबर तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध बहुत भड़काया।

प्रश्न 42.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly explain the causes responsible for the martyrdom of the Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-

  1. मुग़ल बादशाह जहाँगीर एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह पंजाब में सिखों के तीव्रता से बढ़ रहे प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।
  2. लाहौर का दीवान चंदू शाह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के लडके हरगोबिंद से करना चाहता था। गुरु साहिब द्वारा इंकार करने पर वह गुरु साहिब का घोर शत्रु बन गया।
  3. पृथी चंद इस बात को सहन करने को कभी तैयार नहीं था कि गुरुगद्दी उसे न मिलकर किसी ओर को मिले।
  4. गुरु अर्जन देव जी द्वारा जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो को दी गई सहायता भी उनके बलिदान का तत्कालिक कारण बनी।

प्रश्न 43.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of Naqshbandis in the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आरंभ किया गया एक आंदोलन था। शेख अहमद सरहिंदी जो कि उस समय नक्शबंदियों का नेता था बहुत कट्टर विचारों का था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को.तैयार नहीं था। उसका मुग़ल दरबार में काफ़ी प्रभाव था। इसलिए उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन साहिब जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने का निश्चय किया।

प्रश्न 44.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdrom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहजादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तात्कालिक कारण बनी। शहज़ादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता के विरुद्ध राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वह तरन तारन पहुँचा। सिख गुरुओं के साथ मुगलों के बहुत घनिष्ठ संबंध थे, यह स्वाभाविक था कि गुरु अर्जन देव जी उससे सहानुभूति रखते। कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया। जब जहाँगीर को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसे गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का स्वर्ण अवसर मिल गया।

प्रश्न 45.
क्या गुरु अर्जन देव जी को राजनीतिक कारणों से शहीद किया गया अथवा धार्मिक कारणों से ? संक्षिप्त जानकारी दें।।
(Was Guru Arjan Dev Ji martyred for political or religious causes ? Write briefly.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० में लाहौर में शहीद किया गया था। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए धार्मिक कारण उत्तरदायी थे। जहाँगीर की आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँगीर धार्मिक कारणों से गुरु साहिब को शहीद करना चाहता था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह भारत में केवल इस्लाम धर्म को प्रफुल्लित देखना चाहता था।

प्रश्न 46.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व लिखें। (Write the importance of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom in the Sikh History ?)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly describe the importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। इस बलिदान के कारण शाँति से रह रहे सिख भड़क उठे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि अब शस्त्र उठाने बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपनाई। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की। इस प्रकार सिख एक संत सिपाही बन गए। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों एवं मुग़लों में मित्रतापूर्वक संबंधों का अंत हो गया। इसके पश्चात् सिखों और मुग़लों के मध्य एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। दूसरी ओर इस शहीदी ने सिखों को संगठित करने में सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 47.
सिख पंथ के रूपांतरण में गरु हरगोबिंद साहिब ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Hargobind Sahib in transformation of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी के गुरु काल की सफलताओं का संक्षिप्त वर्णन करें। (Briefly describe the achievements of Guru Hargobind’s pontificate.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उन्होंने मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण कीं। गुरु जी ने मुग़ल अत्याचारियों का सामना करने के लिए एक सेना का गठन किया। उन्होंने अमृतसर की रक्षा के लिए लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों का सांसारिक मामलों में निर्देशन करने के लिए गुरु हरगोबिंद जी ने हरिमंदिर साहिब के सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण आरंभ करवाया। गुरु हरगोबिंद साहिब ने शाहजहाँ के समय में मुग़लों के साथ चार लड़ाइयाँ लड़ीं जिनमें गुरु साहिब को विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 48.
गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी नीति को क्यों धारण किया ?
(What were the main causes of the adoption of New Policy or Miri and Piri by Guru Hargobind Ji ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद द्वारा नई नीति क्यों अपनाई गई ? (Why did Guru Hargobind Sahib adopt the ‘New Policy’ ?)
उत्तर-

  1. मुग़ल बादशाह जहाँगीर बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को नहीं देख सकता था। इस बदली हुई स्थिति में गुरु साहिब को नई नीति अपनानी पड़ी।
  2. 1606 ई० में जहाँगीर ने गुरु अर्जन साहिब को लाहौर में शहीद कर दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के उद्देश्य से सिखों को हथियार-बंद करने का फैसला किया।

प्रश्न 49.
गुरु हरगोबिंद साहिब की नई नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of Guru Hargobind Sahib’s New Policy ?)
अथवा
गरु हरगोबिंद जी की नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the New Policy or Miri and Piri of Guru Hargobind Ji ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की ‘नई नीति’ क्या थी ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें। (What were the ‘New Policy’ of Guru Hargobind Ji ? What were its main features ?)
उत्तर-

  1. गुरु हरगोबिंद साहिब बहुत शान-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की।
  2. सिख पंथ की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने एक सेना का गठन किया।
  3. गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि सिख उन्हें धन के स्थान पर शस्त्र और घोड़ें भेंट करें।
  4. सिखों के राजनीतिक एवं अन्य सांसारिक मामलों के समाधान के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के निकट अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया।

प्रश्न 50.
मीरी और पीरी के विषय में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? इसकी ऐतिहासिक महत्ता बताएँ। (What is Miri and Piri ? Describe its historical importance.)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? (What is meant by Miri and Piri ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Briefly describe the importance of the New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने गुरुगद्दी पर विराजमान होने के समय मीरी एवं पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी जबकि पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद जी ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। इसके कारण प्रथम, सिखों में जोशीली भावना का संचार हुआ। दूसरा, अब उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का निर्णय किया। तीसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस नीति का अनुसरण करते हुए खालसा पंथ का सृजन किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 51.
गुरु हरगोबिंद जी के ग्वालियर में बंदी बनाए जाने पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior.)
अथवा
जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी क्यों बनाया ? (Why did Jahangir arrest Guru Hargobind Sahib ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नीति के कारण बंदी बनाया। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

प्रश्न 52.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on relations between Guru Hargobind Sahib and Mughal emperor Jahangir.)
उत्तर-
1605 ई० में मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही मुग़ल-सिख संबंधों में एक नया मोड़ आया। जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब को शहीद करवा दिया था। मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के उद्देश्य के साथ गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति धारण की। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बना कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। बाद में जहाँगीर ने गुरु जी को रिहा करने का आदेश दिया। इसके बाद गुरु हरगोबिंद साहिब तथा जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए।

प्रश्न 53.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों के बीच लड़ाइयों के क्या कारण थे ? (What were the causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब और मुग़लों के बीच लड़ाइयों के कोई चार कारण लिखो। (Write any four causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals.)
उत्तर-

  1. मुग़ल सम्राट शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था।
  2. शाहजहाँ के समय नक्शबंदियों के नेता शेख मासूम ने सम्राट को सिखों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करने के लिए भड़काया।
  3. गुरु हरगोबिंद जी ने अपनी सेना में बहुत-से मुग़ल सेना के भगौड़ों को भर्ती कर लिया था।
  4. सिख श्रद्धालु गुरु जी को ‘सच्चा पातशाह’ कहने लगे थे।

प्रश्न 54.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य हुई अमृतसर की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
Give a brief account of the battle of Amritsar fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी और मुग़लों के मध्य अमृतसर में प्रथम लड़ाई 1634 ई० में हुई। इस लड़ाई का मुख्य कारण एक बाज़ था। उस समय मुग़ल बादशाह शाहजहाँ एक विशेष बाज़ उड़ गया। सिखों ने उसको पकड़ लिया। फलस्वरूप शाहजहाँ ने सिखों को सबक सिखाने के लिए मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7000 सैनिक भेजे। सिखों ने मुग़ल सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। इस लड़ाई में मुखलिस खाँ मारा गया। परिणामस्वरूप मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार मुग़लों और सिखों के मध्य हुई इस प्रथम लड़ाई में सिख विजयी रहे।

प्रश्न 55.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुगलों के बीच हुई करतारपुर की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते
(What do you know about the battle of Kartarpur fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
1635 ई० में मुग़लों तथा सिखों के मध्य करतारपुर में लड़ाई हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। गुरु हरगोबिंद जी ने उसके अहंकारी होने के कारण उसे अपनी फ़ौज में से निकाल दिया था। पैंदा खाँ ने इस अपमान का बदला लेने के लिए शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए खूब भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ ने एक सेना गुरु हरगोबिंद जी के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़ल सेना को अंत में पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 56.
गुरु हरगोबिंद जी की मुग़लों के साथ हुई लड़ाइयों का वर्णन करें तथा उनका ऐतिहासिक महत्त्व भी बताएँ।
(Write briefly Guru Hargobind Ji’s battles with the Mughals. What is their significance in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी की मुग़लों (शाहजहाँ के समय) के साथ 1634-35 ई० में चार लड़ाइयाँ हुईं। प्रथम लड़ाई 1634 ई० में अमृतसर में हुई। इसी वर्ष मुग़लों एवं सिखों में लहरा नामक लड़ाई हुई। 1635 ई० में गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य तीसरी लड़ाई करतारपुर में हुई। इस लड़ाई में गुरु साहिब के दो पुत्रों गुरुदित्ता जी तथा तेग़ बहादुर जी ने वीरता के जौहर दिखाए। इसी वर्ष फगवाड़ा में मुग़लों तथा गुरु हरगोबिंद जी के मध्य अंतिम लड़ाई हुई। इन लड़ाइयों में सिख अपने सीमित साधनों के बावजूद सफल रहे।

प्रश्न 57.
गुरु हरगोबिंद जी को बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Hargobind Ji known as ‘Bandi Chhor Baba’ ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बनाकर उन्हें ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। उस समय इस दुर्ग में 52 अन्य राजा भी बंदी बनाए हुए थे। ये सभी राजा गुरु जी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब की मौजूदगी में वे अपने कष्ट भूल गए। जब जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को रिहा करने का निर्देश दिया तो गुरु जी ने कहा कि वे तब तक रिहा नहीं होंगे जब तक 52 राजाओं को नहीं छोड़ा जाता। अंततः मजबूर होकर जहाँगीर ने इन राजाओं को भी रिहा कर दिया। इसी कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड बाबा’ कहा जाने लगा।

प्रश्न 58.
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें। (Write a note on Akal Takht Sahib.)
अथवा
अकाल तख्त साहिब के निर्माण का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of building of Sri Akal Takht Sahib in Sikh History ?)
उत्तर-
अकाल तख्त साहिब का निर्माण गुरु हरगोबिंद साहिब का महान् कार्य था। सिखों के राजनीतिक तथा सांसारिक पथ-प्रदर्शन के लिए उन्होंने अकाल तख्त साहिब की नींव रखी। अकाल तख्त साहिब का निर्माण कार्य गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ई० में आरंभ करवाया था। यह कार्य 1609 ई० में संपूर्ण हुआ। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के राजनीतिक एवं सैनिक मामलों का नेतृत्व करते. थे। यहाँ वह सैनिकों को प्रशिक्षण भी देते थे।

प्रश्न 59.
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughal Emperor Shah Jahan.)
उत्तर-
शाहजहाँ बहुत कट्टर सुन्नी बादशाह था। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था। दूसरा, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सैना तैयार किए जाने तथा उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कह कर संबोधन करना शाहजहाँ को एक आँख नहीं भाता था। 1634-35 ई० के समय के दौरान सिखों तथा मुसलमानों के मध्य अमृतसर, लहरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा नामक लड़ाइयाँ हुईं। इन लड़ाइयों में सिख विजयी रहे तथा मुग़लों को पराजय का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 60.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़ल सम्राटों के संबंधों का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Write a brief note on the relations between Guru Hargobind Ji and the Mughal Emperors.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के दो समकालीन मुग़ल बादशाह जहाँगीर तथा शाहजहाँ थे। ये दोनों बादशाह बहुत कट्टर विचारों के थे। इस कारण गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए मीरी तथा पीरी की नीति धारण की। कुछ समय के लिए जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर लिया। बाद में जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद जी से मित्रता स्थापित कर ली। 1634-35 ई० के समय में शाहजहाँ के शासन काल में मुग़लों तथा सिखों के मध्य चार लड़ाइयाँ-अमृतसर, लहरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा लड़ी गईं। इनमें गुरु हरगोबिंद साहिब विजयी रहे।

प्रश्न 61.
सिख पंथ के विकास में गुरु हर राय जी का गुरुकाल क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
(Why is pontificate of Guru Har Rai Ji considered important in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हर राय जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Har Rai Ji.)
अथवा
सिख धर्म में गुरु हर राय जी का क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Har Rai Ji for the development of Sikh religion ?)
उत्तर-
सिखों के सातवें गुरु, गुरु हर राय जी 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। उनका गुरुकाल सिख धर्म के शांतिपूर्वक विकास का काल था। गुरु हर राय साहिब ने सिख धर्म का प्रचार करने के लिए पंजाब के कई स्थानों का भ्रमण किया। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब से बाहर अपने प्रचारक भेजे। परिणामस्वरूप सिख धर्म का काफ़ी प्रसार हुआ। गुरवाणी का गलत अर्थ बताने के कारण गुरु हर राय साहिब ने अपने बड़े पुत्र राम राय को गुरुगद्दी से बेदखल कर दिया। गुरु जी ने अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 62.
धीरमल संबंधी एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note about Dhirmal.) .
उत्तर-
धीरमल गुरु हर राय जी का बड़ा भाई था। वह चिरकाल से गुरुगद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था। जब धीर मल को यह समाचार मिला कि सिख संगतों ने तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु मान लिया है तो उसके क्रोध की कोई सीमा न रही। उसने शींह नामक एक मसंद के साथ मिल कर गुरु जी की हत्या का षड्यंत्र रचा। शीह के साथियों ने गुरु साहिब के घर का बहुत-सा सामान लूट लिया। बाद में धीरमल तथा शींह द्वारा क्षमा याचना करने पर गुरु साहिब ने उन्हें क्षमा कर दिया।

प्रश्न 63.
गुरु हरकृष्ण जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। उनको बाल गुरु क्यों कहा जाता है ? (Write a brief note on Guru Harkrishsn Ji. Why is he called Bal Guru ?)
अथवा
सिख धर्म में गुरु हरकृष्ण जी का क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Harkrishan Ji in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हरकृष्ण जी पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर-
सिखों के आठवें गुरु, गुरु हरकृष्ण जी गुरु हर राय जी के छोटे पुत्र थे। वह 1661 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए। उस समय उनकी आयु केवल पाँच वर्ष थी। इस कारण उनको ‘बाल गुरु’ के नाम से याद किया जाता है। गुरु हरकृष्ण जी के बड़े भाई रामराय के उकसाने पर औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली आने का आदेश दिया। गुरु साहिब 1664 ई० में दिल्ली गए। उन दिनों दिल्ली में भयानक चेचक एवं हैजा फैला हुआ था। गुरु जी ने वहाँ पर बीमारों की अथक सेवा की। वह 30 मार्च, 1664 ई० को ज्योति-जोत समा गए।

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प्रश्न 64.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने अपनी गुरुगद्दी के दौरान (1664-1675 ई०) पंजाब और बाहर के प्रदेशों की अनेक यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख सिद्धांतों का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने पंजाब तथा पंजाब के बाहर अनेक स्थानों की यात्राएं कीं। गुरु साहिब की इन यात्राओं ने सिख पंथ के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इससे गुरु साहिब की ख्याति चारों ओर फैल गई।

प्रश्न 65.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की तलाश किसने की ओर क्यों ? (Who found Guru Tegh Bahadur Ji and why ?)
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी ने अपने ज्योति-जोत समाने से पूर्व सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। इसलिए 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा ने इसका हल ढूँढ़ा। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में डूबने लगा था तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेंट करेगा। गुरु कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह बकाला पहुँचा। जब मक्खन शाह ने तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेंट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेंट करने का वचन दिया था।” यह सुनकर मक्खन शाह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” अर्थात् गुरु मिल गया है।

प्रश्न 66.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के उत्तरदायी कारणों का वर्णन करें। (Highlight the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-

  1. गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में सबसे प्रमुख योगदान औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता का था।
  2. औरंगजेब सिख धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।
  3. राम राय ने गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए औरंगज़ेब को गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध भड़काया।
  4. कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी।

प्रश्न 67.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Discuss the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र सरहिंद था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति और सिख मत का बढ़ रहा प्रचार असहनीय था। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाई करने के लिए औरंगजेब के कान भरने आरंभ कर दिए। उनकी कार्यवाई ने जलती पर तेल डालने का काम किया। अत: औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया।

प्रश्न 68.
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmans ?)
उत्तर-
औरंगजेब चाहता था कि कश्मीर के ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के पास पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया।,

प्रश्न 69.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनका बलिदान राजनीतिक कारणों से हुआ अथवा धार्मिक कारणों से ? व्याख्या करें।
(When and where was Guru Tegh Bahadur Ji martyred ? Did his martyrdom take place due to political or religious causes ? Discuss.)
अथवा
क्या गुरु तेग बहादुर जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was Guru Tegh Bahadur Ji a political offender ? Give arguments in support of your answer.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी पंजाब के इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। गुरु साहिब को 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद किया गया था। गुरु साहिब को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया था। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह औरंगजेब का शासन था। वह भारत में इस्लाम के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म को सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया था। हिंदुओं को पुनः जजिया कर देने के लिए विवश किया गया। औरंगज़ेब सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था।

प्रश्न 70.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की ऐतिहासिक महत्ता का वर्णन करो। (Explain the historical importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी की महत्ता बताओ। (Explain the importance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कारण समूचा पंजाब क्रोध और रोष की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य रहेगा, तब तक अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। तत्पश्चात् सिखों और मुग़लों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया।

प्रश्न 71.
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(What difficulties were faced by Guru Gobind Singh Ji when he attained the Gurgaddi ?)
उत्तर-

  1. गुरु गोबिंद सिंह जी स्वयं बाल्यावस्था में थे। उनकी आयु केवल 9 वर्ष थी।
  2. मुग़ल सम्राट औरंगजेब बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं था।
  3. औरंगजेब के बढ़ते हुए अत्याचारों पर अंकुश लगाना आवश्यक था।
  4. धीरमल तथा रामराय गुरुगद्दी न मिलने के कारण गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे।

प्रश्न 72.
भंगाणी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhangani.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के भंगाणी युद्ध का वर्णन करें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Describe Guru Gobind Singh’s battle of Bhangani and also explain its importance.)
उत्तर-
भंगाणी के युद्ध के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। गुरु गोबिंद सिंह जी की सैनिक तैयारियों से पहाड़ी राजाओं को अपनी स्वतंत्रता खतरे में अनुभव होने लगी। पहाड़ी राजा सिख संगतों को बहुत परेशान करते थे। मुग़ल सरकार भी इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध भड़का रही थी। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद तथा श्रीनगर के शासक फ़तह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं ने 22 सितंबर, 1688 ई० को भंगाणी के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में सिखों की शानदार विजय हुई।

प्रश्न 73.
नादौण की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle on Nadaun.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई में पराजय के बाद पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह जी से मित्रता स्थापित कर ली थी। उन्होंने मुग़लों को वार्षिक खिराज (कर) भेजना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप आलिफ खाँ के अधीन एक सेना पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध भेजी गई। उसने 20 मार्च, 1690 ई० को पहाड़ी राजाओं के नेता भीम चंद की सेना पर नादौण में आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी ने भीम चंद का साथ दिया। इस संयुक्त सेना ने मुग़ल सेना को परास्त कर दिया।

प्रश्न 74.
खालसा की स्थापना के कारणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Give in brief the causes of the creation of Khalsa.)
अथवा
गरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सजन क्यों किया? (Why did Guru Gobind Singh Ji create the Khalsa ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के लिए उत्तरदायी मुख्य कारणों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए। (Give a brief description of the circumstances responsible for the creation of Khalsa.)
अथवा
1699 ई० में खालसा की स्थापना के लिए उत्तरदायी कोई चार कारण लिखें। (Write any four causes that led to the creation of Khalsa in 1699 A.D.)
अथवा
खालसा पंथ की स्थापना के क्या कारण थे ? (What were the causes of the foundation of the Khalsa Panth ?)
उत्तर-

  1. मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। उन्होंने गैर-मुसलमानों को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया था।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी खालसा की स्थापना करके मसंद प्रथा का अंत करना चाहते थे।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी जाटों का सहयोग प्राप्त करने के लिए खालसा की स्थापना करना चाहते थे।

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प्रश्न 75.
खालसा पंथ की स्थापना कब, कहाँ और कैसे हुई ? (When, where and how was the Khalsa founded ?)
अथवा
खालसा की स्थापना पर संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की स्थापना किस प्रकार की ? (How Khalsa was created by Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
खालसा पंथ की सजना कैसे की गई ? (How was Khalsa sect created ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन श्री आनंदपुर साहिब में केशगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया। गुरु जी ने म्यान से तलवार निकाली और एकत्रित सिखों को संबोधित किया, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है, जो धर्म के लिए अपना शीश भेंट करे ?” इस पर भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए आगे आया। गुरु जी के आदेश पर भाई धर्म दास जी, भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया और खालसा पंथ की स्थापना की।

प्रश्न 76.
खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन करो। (Explain the main principles of the Khalsa.)
उत्तर-

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक को ‘खंडे का पाहुल’ छकना पड़ेगा।
  2. प्रत्येक खालसा पुरुष अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  3. प्रत्येक खालसा एक ईश्वर की पूजा करेगा।
  4. प्रत्येक खालसा पाँच कक्कार-केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण अवश्य धारण करेगा।

प्रश्न 77.
खालसा पंथ की स्थापना के महत्त्व पर एक नोट लिखो। (Write a note on the importance of the Khalsa.)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था? (What was the importance of the foundation of Khalsa ?)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था? (Study the importance of the creation of Khalsa.)
उत्तर-

  1. खालसा की स्थापना के पश्चात् लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे।
  2. खालसा की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ।
  3. खालसा की स्थापना करके गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में नव प्राण फूंके।
  4. खालसा की स्थापना के कारण मसंद प्रथा का अंत हुआ।

प्रश्न 78.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the first battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की बढ़ रही शक्ति के कारण पहाड़ी राजाओं के मन की शांति भंग हो गई। कहलूर के राजा भीम चंद ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने यह माँग मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि, गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह भूमि उचित मूल्य देकर खरीदी थी। इस पर भीम चंद ने पहाड़ी राजाओं से मिल कर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले का घेरा कई दिनों तक जारी रहा। जब पहाड़ी राजाओं को कोई सफलता न मिली तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली।

प्रश्न 79.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the second battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर–
पहाड़ी राजाओं और मुग़ल सेना ने 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। घेरे के लंबे हो जाने के कारण 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़कर चले गए। दूसरी ओर शाही सेना ने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन झूठी कसमों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ अन्य सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने 20 दिसंबर, 1704 ई० को श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

प्रश्न 80.
चमकौर साहिब की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the battle of Chámkaur Sahib.) .
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ने के पश्चात् मुग़ल सेना ने उनका पीछा जारी रखा। गुरु साहिब ने चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में 40 सिखों सहित शरण ली। शीघ्र ही मुग़ल सैनिकों ने इस गढ़ी को घेर लिया। 22 दिसंबर, 1704 ई० में हुई चमकौर साहिब की यह लड़ाई बहुत घमासान लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादों-साहिबज़ादा अजीत सिंह जी तथा साहिबजादा जुझार सिंह जी ने वीरता प्रदर्शित की और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।

प्रश्न 81.
खिदराना (श्री मुक्तसर साहिब) की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। [Write a brief note on the battle of Khidrana (Sri Mukatsar Sahib.)]
उत्तर-
सरहिंद के नवाब वजीर खाँ ने 29 दिसंबर, 1705 ई० को एक विशाल सेना के साथ गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में गुरु जी को शानदार विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में वे 40 सिख भी लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, जो श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उन 40 सिखों को गुरु जी ने मुक्ति का वरदान दिया। उस समय से खिदराना श्री मुक्तसर साहिब के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 82.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख पंथ में सांप्रदायिक बँटवारे तथा बाह्य खतरों की समस्या को किस प्रकार हल किया ?
(How did Guru Gobind Singh Ji settle the sectarian divisions and external dangers to Sikhism ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख पंथ में सांप्रदायिक बँटवारे तथा बाह्य खतरों से निपटने के लिए 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु जी ने इस बात की घोषणा की कि सारे सिख उनके ‘खालसा’ है और प्रत्यक्ष रूप से उनसे जुड़े हुए हैं । इस प्रकार मसंदों की मध्यस्थता समाप्त हो गई। मीणों, धीरमलियों, रामरइयों तथा हिंदालियों को सिख पंथ से निकाल दिया गया । बाझ खतरों से निपटने के लिए गुरु जी ने सारे सिखों को शस्त्रधारी रहने का आदेश दिया।

प्रश्न 83.
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the literary activities of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में बताइए। (Describe the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक गतिविधियों पर रोशनी डालिए।
(Evaluate the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वह उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। गुरु साहिब ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, हिंदी, फारसी, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं का प्रयोग किया। जापु साहिब, बचित्तर नाटक, ज़फ़रनामा, चंडी दी वार आपकी महान् रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं आपकी रचनाओं से हमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दरबार में 52 उच्चकोटि के कवियों को संरक्षण दिया था।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 84.
ज़फ़रनामा क्या है ? (What is Zafarnama ?)
अथवा
ज़फ़रनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें । (Write a short note on Zafarnama.)
उत्तर-
जफ़रनामा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को फ़ारसी में लिखे गए एक पत्र का नाम है। इसे गुरु जी ने दीना कांगड़ नामक स्थान से लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगज़ेब तथा पहाड़ी राजाओं की ओर से कुरान की झूठी शपथ लेकर धोखा करने का वर्णन निर्भीकता से किया है। गुरु जी के इस पत्र को भाई दया सिंह जी ने औरंगज़ेब तक पहुँचाया था। इस पत्र का औरंगजेब पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 85.
गुरु गोबिंद सिंह जी के सामाजिक सुधारों का इतिहास में क्या महत्व है ? (What is the importance of social reforms of Guru Gobind Singh Ji in History ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके समाज में एक क्रांति ला दी। इसमें सम्मिलित होने वाले निम्न जातियों के लोगों को भी उच्च जातियों के बराबर स्थान दिया गया। गुरु जी ने अपने अनुयायियों को शराब, भांग तथा अन्य मादक पदार्थों से दूर रहने के लिए कहा। गुरु जी ने सिखों को महिलाओं का पूर्ण सम्मान करने के लिए कहा। मसंद प्रथा का अंत कर गुरु जी ने सिखों को उनके शोषण से बचाया।

प्रश्न 86.
“गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् संगठनकर्ता थे ।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं ?
(“Guru Gobind Singh Ji was a builder par-excellence”. Do you agree to this statement ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। सचमुच यह एक महान् कार्य था । इसने लोगों में नया जोश उत्पन्न किया। वे महान योद्धा बन गए और धर्म के नाम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गए । उन्होंने तब तक सुख की साँस न ली जब तक पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों के शासन का अंत न कर लिया गया तथा पंजाब में एक स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना न कर ली गई।

प्रश्न 87.
गुरु गोबिंद सिंह जी के व्यक्तित्व की कोई चार विशेषताएँ बताएँ । (Mention any four characteristics of Guru Gobind Singh Ji’s personality.)
उत्तर-

  1. गुरु गोबिंद सिंह जी बड़े उच्च चरित्र के स्वामी थे।
  2. गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्च कोटि के कवि तथा साहित्यकार थे।
  3. गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् समाज सुधारक थे।
  4. गुरु गोबिंद सिंह जी में एक महान् योद्धा तथा सेनापति के गुण विद्यमान थे।

प्रश्न 88.
गुरु नानक देव जी की सिख पंथ को देन के संबंध में संक्षिप्त जानकारी दें। (Give a brief account of the contribution of Guru Nanak Dev Ji to Sikhism.)
उत्तर-
15वीं शताब्दी में, जब गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ तो उस समय भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा बहुत शोचनीय थी। मुसलमान शासक वर्ग से संबंधित थे। वे हिंदुओं से बहुत घृणा करते थे और उन पर भारी अत्याचार करते थे। धर्म केवल एक दिखावा बन कर रह गया था। लोग अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे थे। समाज में महिलाओं की दशा बहुत खराब थी। गुरु नानक देव जी ने लोगों में प्रचलित अंध-विश्वासों को दूर करने के लिए तथा उनमें नई जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से देश तथा विदेश की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं के दौरान गुरु जी ने लोगों से एक ईश्वर की पूजा करने, आपसी भ्रातृत्व, महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने, शुद्ध व पवित्र जीवन व्यतीत करने तथा अंध-विश्वासों को त्यागने का प्रचार किया। गुरु जी जहाँ भी गए उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा लोगों पर गहरा प्रभाव डाला। गुरु जी ने शासक वर्ग तथा उसके कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उन्होंने संगत तथा पंगत नामक संस्थाओं की नींव डाली। गुरु जी के जीवन काल में ही एक नया भाईचारा अस्तित्व में आ चुका था। गुरु नानक देव जी ने 1539 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गुरु अंगद देव जी की नियुक्ति सिख पंथ के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाणित हुई।

प्रश्न 89.
उदासियों से क्या भाव है ? गुरु नानक देव जी की उदासियों के क्या उद्देश्य थे ? (What do you mean by Udasis ? What were the aims of Guru Nanak Dev Ji’s Udasis ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य तथा महत्त्व था ? (What were the aims and importance of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की उदासियों से अभिप्राय उनकी यात्राओं से था। गुरु नानक साहिब की उदासियों का मुख्य उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता तथा अंध-विश्वासों को दूर करना था। वह एक ईश्वर की पूजा तथा आपसी भ्रातृत्व का संदेश जन-साधारण तक पहुँचाना चाहते थे। उस समय हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही धर्म के वास्तविक सिद्धांतों को भूल कर अपने मार्ग से भटक चुके थे। हिंदू ब्राह्मण तथा जोगी, जिनका मुख्य कार्य भटके हुए लोगों का उचित दिशा निर्देशन करना था, वह स्वयं ही भ्रष्ट तथा चरित्रहीन हो चुके थे। जब धर्म के ठेकेदार स्वयं ही अंधकार में भटक रहे हों तो जन-साधारण की दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लोगों ने अनगिनत देवीदेवताओं, कब्रों, वृक्षों, साँपों तथा पत्थरों आदि की पूजा आरंभ कर दी थी। इस प्रकार धर्म की सच्ची भावना समाप्त हो चुकी थी। समाज जातियों तथा उपजातियों में विभाजित था। एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते थे। समाज में महिलाओं की दशा दयनीय थी। उन्हें पुरुषों की जूती के समान समझा जाता था। गुरु नानक देव जी ने अज्ञानता के अंधेरे में भटक रहे इन लोगों को प्रकाश का एक नया मार्ग दिखाने के लिए यात्राएँ कीं।

प्रश्न 90.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की किन्हीं पाँच महत्त्वपूर्ण उदासियों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of any five important Udasis of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपनी उदासियों का आरंभ सैदपुर से किया। यहाँ उन्हें मलिक भागो नाम के ज़मींदार ने ब्रह्म भोज पर आमंत्रित किया परंतु गुरु साहिब एक निर्धन बढ़ई भाई लालो के घर ठहरे। मलिक भागो द्वारा पूछने पर गुरु जी ने बताया कि हमें कभी भी हराम की कमाई नहीं खानी चाहिए तथा ईमानदारी का जीवन व्यतीत करना चाहिए। तालुंबा के स्थान पर गुरु साहिब की भेंट सज्जन ठग से हुई। वह यात्रियों को अपनी सराय में ठहराता और रात्रि में उन्हें लूट कर उनकी हत्या कर देता था। वह गुरु नानक देव जी की वाणी से प्रभावित होकर उनका अनुयायी बन गया। उसने अपना शेष जीवन सिख धर्म के प्रचार में लगाया। गोरखमत्ता में गुरु नानक देव जी ने सिद्ध योगियों को बताया कि कानों में कुंडल डालने, शरीर पर भस्म मलने, शंख बजाने आदि से मुक्ति नहीं मिलती अपितु मुक्ति तो आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है। जगन्नाथ पुरी में गुरु नानक देव जी ने लोगों को समझाया कि वह औपचारिक आरती को कोई महत्त्व न दें। उस परम पिता परमात्मा की आरती प्रकृति सदैव करती रहती है। मक्का में गुरु नानक देव जी ने काज़ी रुकनुद्दीन को यह समझाया कि अल्लाह सर्वव्यापक है।

प्रश्न 91.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में बताइए।
(Describe the prime teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the teachings of Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की कोई पाँच शिक्षाओं का वर्णन कीजिए। (Describe any five teachings of Guru Nanak Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है। वह निराकार तथा सर्वव्यापक है। वह अजर-अमर है। वह सर्व-शक्तिमान तथा दयालु है। वह निर्गुण भी है तथा सगुण भी। वह इस संसार का रचयिता, पालनकर्ता तथा नाशवानकर्ता है। अतः हमें उस ईश्वर को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा नहीं करनी चाहिए। गुरु जी माया को मुक्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मानते थे। मनमुख व्यक्ति सदैव माया के चक्र में फंसा रहता है । माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है। गुरु जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को मनुष्य के पाँच शत्रु बताते हैं । इन के कारण मनुष्य आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित अंध-विश्वासों तथा धर्म के बाह्य आडंबरों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु जी उस व्यक्ति के धर्म को सत्य मानते थे जिसका हृदय सच्चा हो। गुरु जी के अनुसार गुरु के बिना मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं है। वह परमात्मा को सच्चा गुरु मानते हैं जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है। गुरु नानक देव जी के अनुसार उचित आचार के बिना मुक्ति प्राप्त करना असंभव है। वह अंजन में निरंजन रहने के समर्थक थे।

प्रश्न 92.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर संबंधी क्या विचार थे ? (What was Guru Nanak’s concept of God ?)
अथवा
मूल-मंत्र के आधार पर गुरु नानक देव जी द्वारा परमात्मा के बताए स्वरूप की व्याख्या करें। (Describe the nature of God according to Mul Mantra of Guru Nanak Dev Ji.)
अथवा
गुरु नानक साहिब जी के अनुसार परमात्मा एक है। चर्चा कीजिए। (As per Guru Nanak Sahib Ji God is One. Discuss.)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी एक ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने अपनी वाणी में बार-बार ईश्वर की एकता पर बल दिया है। अन्य देवी-देवता ईश्वर के सम्मुख उसी प्रकार हैं जैसे तेजमय सूर्य के सम्मुख एक लघु तारा। मुहम्मद सैंकड़ों-हज़ारों हैं परंतु ईश्वर एक है। केवल ईश्वर ही संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं नाशवानकर्ता है। ईश्वर के दो रूप हैं। वह निर्गुण भी है और सगुण भी। पहले ईश्वर अपने आप में रहता था। यह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप था। बाद में उसने संसार की रचना की तथा इस रचना द्वारा अपना रूपमान किया। यह ईश्वर का सगुण स्वरूप था। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह जो चाहता है वही होता है। उसकी इच्छा के विपरीत कुछ नहीं हो सकता। वह अमर है। वह आवागमन और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। वह निराकार भी है और सर्वव्यापक भी। उसका कोई आकार नहीं है। उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। वह जल, थल और आकाश प्रत्येक जगह विद्यमान है। वह सबसे महान् है। उसकी महानता अवर्णनीय है। वास्तव में वह अपनी महानता का ज्ञाता स्वयं है।

प्रश्न 93.
गुरु नानक देव जी ने किन प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा प्रथाओं का खंडन किया ?
(Which prevalent religious beliefs and conventions were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी ने कौन-से प्रचलित धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों का खंडन किया ? (What type of religious beliefs and rituals were condemned by Guru Nanak Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने समाज में प्रचलित समस्त अंध-विश्वासों का खंडन किया। उन्होंने वेद, शास्त्र, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा तथा जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण अवसरों से संबंधित संस्कारों का विरोध किया। इन रस्मों के मुख्य समर्थक ब्राह्मण थे। उन्होंने जोगियों की पद्धति को भी स्वीकार न किया। इसके दो कारण थे—

  1. जोगियों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव था।
  2. वे अपने सामाजिक दायित्व से दूर भागते थे।

गुरु नानक देव जी अवतारवाद में विश्वास नहीं रखते थे। इसलिए उन्होंने वैष्णव भक्ति को भी रद्द कर दिया। उन्होंने इस्लाम धर्म के नेताओं, जिन्हें मल्ला कहा जाता था, के धार्मिक विश्वासों का खंडन किया। भगवे वस्त्र धारण करना, कानों में कुंडल डालना, शरीर पर लगाना, माथे पर तिलक लगाना, शंख बजाना, कब्रों तथा मस्जिदों आदि की पूजा को गुरु जी धर्म नहीं मानते थे। गुरु नानक देव जी ने उस व्यक्ति के धर्म को सत्य माना जिसका हृदय सत्य है।

प्रश्न 94.
गुरु नानक देव जी का माया का संकल्प क्या है ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of Maya ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार माया मनुष्य के लिए मुक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। मनमुख व्यक्ति सदैव सांसारिक वस्तुओं जैसे धन-दौलत, उच्च पद, ऐश्वर्य, सुंदर नारी, पुत्र आदि के चक्रों में फंसा रहता है। इसे ही माया कहते हैं। मनमुख रचयिता और उसकी रचना के अंतर को नहीं समझ सकता। गुरु नानक देव जी ने माया को सर्पगी माया ममता मोहणी, माया मोह, त्रिकुटी तथा सूहा रंग इत्यादि के नामों से पुकारा है। माया जिससे वह इतना प्रेम करता है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाती। माया के कारण वह ईश्वर से दूर हो जाता है और आवागमन के चक्र में फंसा रहता है। गुरु जी कहते हैं कि मनुष्य सोना-चाँदी आदि एकत्रित करके सोचता है कि वह संसार का बहुत बड़ा व्यक्ति बन गया है परंतु वास्तव में वह व्यक्ति अपने जीवन के लिए विष एकत्रित कर रहा होता है। इसी प्रकार वह दुविधा में फंस कर अपने जीवन का नाश कर लेता है। संक्षेप में माया मनुष्य की खुशियों का स्रोत नहीं अपितु उसके दु:खों का भंडार है। जो व्यक्ति माया का शिकार होता है उसे ईश्वर के दरबार में कोई स्थान नहीं मिलता।

प्रश्न 95.
गुरु नानक देव जी के उपदेशों में गुरु का क्या महत्त्व है ? (What is the importance of ‘Guru’ in Guru Nanak Dev’s teachings ?)
अथवा
गरु नानक देव जी के गुरु संबंधी विचार क्या थे ? (What was Guru Nanak Dev Ji’s concept of ‘Guru’ ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ईश्वर तक पहुँचने के लिए गुरु का बहुत महत्त्व मानते हैं। उनके अनुसार गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली एक वास्तविक सीढ़ी है। गुरु ही मनुष्य को मोह और अहं के रोग से दूर करता है। वही नाम और शब्द की आराधना द्वारा भक्ति के मार्ग का अनुसरण करने का ढंग बताता है। गुरु के बिना भक्ति भाव और ज्ञान संभव नहीं होता। गुरु के बिना मनुष्य को चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। गुरु ही मनुष्य को अंधकार (अज्ञानता) से प्रकाश की ओर ले जाता है। वह प्रत्येक असंभव कार्य को संभव बना सकता है। अत: उसके साथ मिलने से ही मनुष्य की जीवनधारा बदल जाती है। वह सदा निरवैर रहता है। दोस्त तथा दुश्मन उसके लिए एक हैं। यदि कोई दुश्मन भी उसकी शरण में आ जाए तो वह उसे माफ कर देता है। सच्चे गुरु का मिलना कोई सरल कार्य नहीं है। परमात्मा की दया के बिना मनुष्य को गुरु की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह बात यहाँ विशेष उल्लेखनीय है कि गुरु नानक साहिब जब गुरु की बात करते हैं तो उनका अभिप्राय किसी मानवीय गुरु से नहीं है। सच्चा गुरु तो ईश्वर स्वयं है, जो शब्द द्वारा शिक्षा देता है।

प्रश्न 96.
गुरु नानक देव जी के स्त्री जाति संबंधी क्या विचार थे? (What were the views of Guru Nanak Dev Ji about women ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के समय समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी। समाज में उनका स्तर पुरुषों की जूती के समान था तथा उन्हें केवल भोग-विलास की एक वस्तु समझा जाता था तथा उन्हें जानवरों की भाँति खरीदा अथवा बेचा जा सकता था। उनमें अनेक कुरीतियाँ जैसे बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा तथा तलाक
प्रथा इत्यादि प्रचलित थीं। इन्हीं कारणों से लड़की के जन्म को अशुभ माना जाता था। गुरु नानक देव जी ने स्त्रियों में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। उन्होंने समाज में स्त्रियों का सम्मान बढ़ाने हेतु एक जोरदार अभियान चलाया। वह बाल-विवाह, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा इत्यादि कुरीतियों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का समर्थन किया। इस संबंध में उन्होंने स्त्रियों को संगत एवं पंगत में सम्मिलित होने की आज्ञा दी। गुरु जी का विचार था कि हमें स्त्रियों से जो कि महान् सम्राटों को जन्म देती हैं, के साथ कभी भी बुरा बर्ताव नहीं करना चाहिए। वह स्त्रियों को शिक्षा दिए जाने के पक्ष में थे।

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प्रश्न 97.
गुरु नानक देव जी के संदेश का सामाजिक अर्थ क्या था ? (What was the social meaning and significance of Guru Nanak Dev Ji’s message ?)
अथवा
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ा ? (What was the impact of teachings of Guru Nanak Dev Ji on Punjab ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के संदेश के सामाजिक अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उनका संदेश प्रत्येक के लिए था। कोई भी स्त्री-पुरुष गुरु जी द्वारा दर्शाए गए मार्ग को अपना सकता था । मुक्ति का मार्ग सबके लिए खुला था। गुरु जी ने सामाजिक समानता का प्रचार किया। उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। सामाजिक समानता के संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु जी ने संगत तथा पंगत (लंगर) नामक दो संस्थाएँ चलाईं। लंगर तैयार करते समय जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। गुरु नानक देव जी ने अपने समय के शासकों में प्रचलित अन्याय की नीति और व्याप्त भ्रष्टाचार की जोरदार शब्दों में निंदा की। शासक वर्ग के साथ-साथ गुरु जी ने अत्याचारी सरकारी कर्मचारियों की भी आलोचना की। इस प्रकार गुरु नानक देव जी ने पंजाब के समाज को एक नया स्वरूप देने का उपाय किया।

प्रश्न 98.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से किस प्रकार भिन्न थीं ? (How far were the teachings of Guru Nanak different from the Bhakti reformers ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ भक्ति प्रचारकों से कई पक्षों से भिन्न थीं। गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा निराकार है। वह कभी भी मानवीय रूप को धारण नहीं करता। भक्ति प्रचारकों ने कृष्ण तथा राम को परमात्मा का अवतार माना। गुरु नानक देव जी मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे जबकि भक्ति प्रचारकों का इसमें पूर्ण विश्वास था। गुरु नानक देव जी ने सिख धर्म का प्रसार करने के लिए गुरु अंगद देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके गुरुगद्दी को जारी रखा। दूसरी ओर बहुत कम भक्ति प्रचारकों ने गुरुगद्दी की परंपरा को जारी रखा। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उनका अस्तित्व खत्म हो गया। गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन में विश्वास रखते थे। भक्ति प्रचारक गृहस्थ जीवन को मुक्ति की राह में आने वाली एक बड़ी रुकावट मानते थे। गुरु नानक साहिब ने संगत तथा पंगत नामक दो संस्थाएँ स्थापित की। इनमें प्रत्येक स्त्री, पुरुष अथवा बच्चे बिना किसी भेद-भाव के सम्मिलित हो सकते थे। भक्ति प्रचारकों ने ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं की। गुरु नानक देव जी संस्कृत को पवित्र भाषा नहीं मानते थे। उन्होंने अपनी शिक्षाओं का प्रचार लोगों की आम भाषा पंजाबी में किया। अधिकतर भक्ति प्रचारक संस्कृत को पवित्र भाषा समझते थे।

प्रश्न 99.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष कहाँ तथा कैसे व्यतीत किए ? (How and where did Guru Nanak Dev Ji spend last 18 years of his life ?)
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने रावी नदी के तट पर 1521 ई० में करतारपुर (अर्थात् ईश्वर का नगर) नामक नगर की स्थापना की। इसी स्थान पर गुरु साहिब ने अपने परिवार के साथ जीवन के अंतिम 18 वर्ष व्यतीत किए। इस समय के मध्य गुरु साहिब ने ‘संगत’ और ‘पंगत’ नामक संस्थाओं की स्थापना की। संगत’ से अभिप्राय उस सभा से था जो प्रतिदिन गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए होती थी। इस संगत में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को शामिल होने का अधिकार था। इसमें केवल एक परमात्मा के नाम का जाप होता था। ‘पंगत’ से अभिप्राय था-एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकना। लंगर में जाति अथवा धर्म इत्यादि का कोई भेद-भाव नहीं किया जाता था। ये दोनों संस्थाएँ गुरु साहिब के उपदेशों का प्रसार करने में सहायक सिद्ध हुईं। इनके अतिरिक्त गुरु जी ने 976 शब्दों की रचना की। गुरु साहिब का यह कार्य सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। गुरु साहिब की प्रमुख वाणियों के नाम जपुजी साहिब, वार माझ, आसा दी वार, सिद्ध गोष्टि, वार मल्हार, बारह माह और पट्टी इत्यादि हैं।

प्रश्न 100.
गुरु अंगद देव जी का सिख पंथ के विकास में योगदान बताएँ। (Explain the contribution of Guru Angad Dev Ji to the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव ने क्या-क्या कार्य किए ? (What did Guru Angad Dev Ji do for the development of Sikh Panth ?)
अथवा
गुरु अंगद देव जी की किन्हीं पाँच ऐसी सफलताओं का वर्णन करें जिनके कारण सिख धर्म का विकास हुआ ? (Write any five achievements of Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी के कार्यों का मूल्याँकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Angad Dev Ji for the spread of Sikhism)
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने सिख धर्म के विकास के लिए क्या योगदान दिया ? जानकारी दीजिए।
(What contribution has been given by Guru Angad Dev Ji for the development of Sikhism ? Describe.)
अथवा
गुरु अंगद देव जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Angad Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी 1539 ई० से लेकर 1552 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस समय के दौरान गुरु साहिब ने सिख पंथ के विकास के लिए कई महत्त्वपूर्ण पग उठाए। उन्होंने खडूर साहिब को अपने प्रचार का मुख्य केंद्र बनाया। गुरमुखी लिपि को एक नया रूप प्रदान किया ताकि लोग उसे सरलतापूर्वक समझ सकें। गुरु अंगद साहिब ने गुरु नानक देव जी की वाणी को एकत्रित किया। गुरु जी ने स्वयं ‘नानक’ के नाम के अंतर्गत वाणी की रचना की। यह गुरु अर्जन देव जी द्वारा संकलित ग्रंथ साहिब की तैयारी का प्रथम चरण सिद्ध हुआ। संगत और पंगत संस्थाओं को अधिक विकसित किया गया। इन संस्थाओं ने जाति प्रथा पर कड़ा प्रहार किया। गुरु अंगद देव जी ने अपने अनुयायियों में कठोर अनुशासन लागू किया। उन्होंने सिख पंथ को उदासी मत से पृथक् करके बहुत प्रशंसनीय कार्य किया। सिख पंथ के विकास के लिए गोइंदवाल साहिब नामक एक नए ‘नगर की स्थापना की गई। यहाँ पर एक बाऊली का निर्माण आरंभ किया गया। सिख पंथ के विकास कार्यों को जारी रखने के लिए गुरु अंगद साहिब ने अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 101.
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए क्या योगदान दिया ? (What contribution was made by Guru Angad Dev Ji to improve Gurmukhi script ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अंगद देव जी द्वारा गुरमुखी को लोकप्रिय बनाने का क्या प्रभाव पड़ा ?
(What impact did the popularisation of Gurmukhi by Guru Angad Dev Ji leave on the growth of Sikhism ?)
उत्तर-
गुरमुखी लिपि यद्यपि गुरु अंगद देव जी से पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे उस समय लंडे-महाजनी लिपि कहा जाता था। इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति भ्रम में पड़ सकता था इसलिए गुरु अंगद देव जी ने इस लिपि में वांछित सुधार करके इसे एक नया रूप प्रदान किया। फलस्वरूप इस लिपि को समझना सामान्य जन के लिए सरल हो गया। यह लिपि सिखों को उनके गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य का स्मरण करवाती थी। इस लिपि में सिखों के सभी धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। इस लिपि के प्रचलित होने के कारण ब्राह्मण वर्ग को कड़ा आघात पहुँचा क्योंकि वे संस्कृत को ही धर्म की भाषा मानते थे। यह लिपि सिखों को उनके गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य का स्मरण करवाती थी। इस लिपि के लोकप्रिय होने के कारण सिख मत के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। यह लिपि सिखों में विद्या के प्रसार के लिए भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। इनके अतिरिक्त इस लिपि के कारण सिखों का हिंदुओं से अलग अस्तित्व स्थापित किया जा सका। निस्संदेह गुरमुखी लिपि का प्रचार सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 102.
“गुरु अंगद देव जी बहुत अनुशासन प्रिय थे।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? (Guru Angad Dev Ji was a great disciplinarian.’ Do you agree to it ?)
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी बहुत अनुशासन प्रिय थे। एक बार गुरु जी के दरबार में कीर्तन करने वाले दो रागियों जिनके नाम सत्ता और बलवंड थे, अपनी मधुर आवाज़ के कारण बहुत गर्व करने लग पड़े थे। उनका ख्याल था कि उनके मधुर कीर्तन के कारण ही गुरु जी की संगत में वृद्धि होनी आरंभ हुई है। अपने अहंकार में आकर उन्होंने गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया। गुरु जी की विनतियों के बावजूद वे अपनी जिद्द पर कायम रहे। गुरु जी यह बात सहन नहीं कर सकते थे। फलस्वरूप उन्होंने इन दोनों रागियों को अपने दरबार से निकाल दिया। शीघ्र ही उन्हें अपनी गलती अनुभव हुई। तत्पश्चात् क्षमा माँगने पर और भाई लद्धा जी के कहने पर गुरु जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस प्रकार गुरु जी ने गुरु घर में कठोर अनुशासन बनाए रखने की मर्यादा को बनाए रखा।

प्रश्न 103.
संगत एवं पंगत के महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the importance of Sangat and Pangat.)
अथवा
संगत के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Sangat ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर से आपका क्या भाव है ? (What do you mean by Pangat or Langar ?)
अथवा
पंगत अथवा लंगर व्यवस्था पर एक नोट लिखें। (Write a note on Pangat or Langar.)
उत्तर-

1. संगत-संगत संस्था से अभिप्राय एकत्रित रूप में मिलकर बैठने से था। यह संगत सुबह-शाम गुरु जी के उपदेशों को सुनने के लिए एकत्रित होती थी। इस संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इस संस्था को अधिक संगठित किया। संगत में कोई भी स्त्री अथवा पुरुष बिना किसी जाति-पाति अथवा धर्म के भेद-भाव के सम्मिलित हो सकता था। संगत को ईश्वर का रूप समझा जाता था। संगत में जाने वाले व्यक्ति का काया कल्प हो जाता था। उसके सभी पाप धुल जाते थे तथा उसमें ज्ञान का नया प्रकाश हो जाता था। उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती थीं। वह भवसागर से पार हो जाता था। इस संस्था ने समाज से सामाजिक असमानता को दूर करने में और सिखों को संगठित करने में बहुत सहायता प्रदान की। निस्संदेह यह संस्था सिख पंथ के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई।

पंगत-पंगत (लंगर) संस्था की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। गुरु अंगद देव जी ने इसे जारी रखा और गुरु अमरदास जी ने इस संस्था को अधिक विकसित किया। गुरु अमरदास जी ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री लंगर खाए बिना उनके दर्शन नहीं कर सकता। पहले पंगत और पीछे संगत का नारा दिया गया। मुग़ल सम्राट अकबर और हरिपुर के राजा ने भी गुरु अमरदास जी के दर्शन करने से पूर्व लंगर खाया था। यह देर रात्रि तक चलता रहता था। शेष लंगर पक्षियों और जानवरों को खिला दिया जाता था। लंगर प्रत्येक धर्म और जाति के लोगों के लिए खुला था। सिख धर्म के प्रसार में लंगर संस्था का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। इस संस्था ने समाज में जाति प्रथा और छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने में भी बड़ी सहायता की। इस संस्था के कारण सिखों में परस्पर भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ।

प्रश्न 104.
गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु अमरदास जी को जिन आरंभिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनका संक्षेप वर्णन कीजिए।
(What problems did Guru Amar Das face in the early years of his pontificate ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के शीघ्र पश्चात् गुरु अमरदास जी को सर्वप्रथम गुरु अंगद देव जी के दोनों पुत्रों दासू तथा दातू के विरोध का सामना करना पड़ा। उनका कहना था कि गुरु पुत्र होने के कारण वे गुरुगद्दी के वास्तविक अधिकारी हैं। उन्होंने गुरु अमरदास जी को गुरु मानने से इंकार कर दिया। उनका कथन था कि कल तक हमारे घर का पानी भरने वाला आज गुरु कैसे बन सकता है? बाबा श्रीचंद जी जो कि गुरु नानक देव जी के बड़े सुपुत्र थे, गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझते थे। इसलिए गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए उन्होंने गुरु अमरदास जी का विरोध करना आरंभ कर दिया। गुरु अमरदास जी की बढ़ती हुई ख्याति देख कर गोइंदवाल साहिब के मुसलमान सिखों से ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सिखों के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। पर गुरु अमरदास जी ने सिखों को शाँत बने रहने के लिए कहा। उनका कथन था कि संतों के लिए प्रतिशोध लेना ठीक नहीं। व्यक्ति जो बीजेगा उसे वही काटना पड़ेगा। गुरु अमरदास जी के सामाजिक सुधारों के कारण उच्च जाति के हिंदू भी गुरु साहिब का विरोध करने लग पड़े क्योंकि वे इन सुधारों को अपने धर्म में एक हस्तक्षेप मानते थे।

प्रश्न 105.
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान के बारे में बताओ। (Give the contribution of Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अमरदास जी द्वारा की गई पाँच मुख्य सेवाओं का वर्णन करो।
(Write down the five services done by Guru Amar Das Ji for the development of Sikh religion.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए। (Form an estimate of the works of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के कार्यों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the works of Guru Amar Das Ji for the spread of Sikhism 🙂
अथवा
सिख पंथ के विकास में गुरु अमरदास जी के योगदान का अध्ययन करें। (Study the contribution of Guru Amar Das Ji to the growth of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु अमरदास जी की भूमिका के बारे में जानकारी दीजिए।
(Describe the role of Guru Amar Das Ji for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी 1552 ई० से 1574 ई० तक गुरुगद्दी पर विराजमान रहे। इस समय के दौरान गुरु अमरदास जी ने सिख पंथ के विकास के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए। उन्होंने सर्वप्रथम गोइंदवाल साहिब में आरंभ की गई बाऊली के निर्माण को पूर्ण किया। शीघ्र ही यह सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। लंगर संस्था का अधिक विस्तार किया गया। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि कोई भी यात्री उनसे भेंट करने से पर्व लंगर अवश्य खाए। मंजी प्रथा की स्थापना सिख धर्म के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई। गरु साहिब ने सिख मत को उदासी मल से अलग रखकर सिख धर्म को हिंदू धर्म में लुप्त होने से बचा लिया। गुरु अमरदास जी ने समाज में प्रचलित कुरीतियों जसे… सती प्रथा, पर्दा प्रथा, विधवा विवाह की मनाही, जाति प्रथा और नशीले पदार्थों के सेवन इत्यादि का जोरदार शब्दों में खंडन किया। गुरु जी ने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में तेयार की। उन्होंने नानक नाम के अंतर्गत वाणी की रचना की। गुरु अमरदास जी ने भाई जेठा जी । गुरु रामदास जी) को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 106.
सिख इतिहास में गोइंदवाल साहिब की बाऊली के निर्माण का क्या महत्त्व है ?
(What is the importance of the construction of the Baoli oi Goindwal Sanih in sviles History ?)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी का सिख पंथ के विकास की ओर पहला पग गोडं बाल साहिब में एक बाऊला का निर्माण करना था। इस बाऊली का निर्माण-कार्य 1552 ई० में आरंभ किया गया था और यह 1559 ई० में संपण हुआ था। इस बाऊली के निर्माण के पीछे गुरु साहिब के दो उद्देश्य थे। पहला, वह सिखों को क म तीर्थ न देना चाहते थे ताकि उन्हें हिंदू धर्म से अलग किया जा सके। दूसरा, वह वहाँ के लंगों की पानी के संबंध में कठिनाई को दूर करना चाहते थे। इस बाऊली तक पहुँचने के लिए 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। बाऊली का निमा काम पूर्ण होने पर गुरु जी ने यह घोषणा की कि जो यात्री प्रत्येक सीढ़ी पर शुद्ध हृदय से जपुजी साहिब का पाठ करेगा तथा पाठ के पश्चात् बाऊली में स्नान करेगा वह 84 लाख योनियों से मुक्त हो जाएगा। बाऊली का निर्माण सिख पंथ के विकास के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य प्रमाणित हुआ। इससे सिखों को एक पवित्र तीर्थ स्थान मिल गया। अब सिरमों को हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं थी। इस कारण सिख धर्म अधिक लोकप्रिय होने लगा। गोहंदगन साहिब सिख गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया।

प्रश्न 107.
गुरु अमरदास जी के द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें। (Describe briefly the social reforms of Guru Amar Das Ji.)
अथवा
गुरु अमरदास जी के कोई पाँच सामाजिक सुधारों का वर्णन करें। (Describe any five social reforms of Guru Amar Das Ji.) i
अथवा
गुरु अमरदास जी को समाज सुधारक क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Amar Das called a social reformer ?)
अथवा
समाज सुधारक के रूप में गुरु अमरदास जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Amar Das Ji as a social reformer.)
उत्तर-
गुरु अमरदास जी एक महान् समाज सुधारक थे। उन्होंने समाज में शताब्दियों से चली आ रही सती प्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया। इस प्रथा के अनुसार यदि किसी दुर्भाग्यशाली स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी लो उस स्त्री को बलपूर्वक उसके पति की चिता के साथ ही जीवित जला दिया जाना था। गुरु साहिब ने बाल विवाह और पर्दा प्रथा का भी विरोध किया। इन कुरीतियों के कारण समाज में स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय हो गई। गुरु साहिब विधवा विवाह के पक्ष में थे। उन्होंने समाज में प्रचलित जाति प्रथा और छुआछूत की बड़े जोरदार शब्दों में निंदा की। इन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए गुरु साहिब ने उनके दर्शन के लिए आने वाले सभी यात्रियों के लिए लंगर छकना (भोजन करना) आवश्यक कर दिया। इस प्रकार गुरु साहिब ने परस्पर भ्रातृभाव का प्रचार किया। गुरु अमरदास जी नशीले पदार्थों के सेवन के विरुद्ध थे। उन्होंने सिखों के जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों के लिए विशेष रस्में बनाईं। इस प्रकार गुरु अमरदास जी ने एक नए समाज का सूत्रपात किया।

प्रश्न 108.
मंजी प्रथा क्या थी ? सिख धर्म के विकास में इसने क्या योगदान दिया?
(What was the Manji System ? How did it contribute to the development of Sikhism ?)
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Manji System ?)
अथवा
मंजी प्रथा पर एक नोट लिखें।
(Write a note on Manji System.)
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी का एक महान् कार्य था। उनके समय सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए उनका व्यक्तिगत रूप में प्रत्येक सिख के पास पहुँचना संभव नहीं था। इस कारण गुरु साहिब ने अपने उपदेशों को दूर के क्षेत्रों में निवास करने वाले सिखों तक पहुँचाने के लिए 22 मंजियों की स्थापना की। प्रत्येक मंजी के मुखिया को मंजीदार कहते थे। मंजीदार का पद केवल बहुत ही श्रद्धालु सिखों को दिया जाता था। उनका पद पैतृक नहीं होता था। मंजीदार का प्रचार क्षेत्र किसी विशेष क्षेत्र तक सीमित नहीं था। वे प्रचार के संबंध में अपनी इच्छानुसार किसी भी क्षेत्र में जा सकते थे। मंजीदार अधिक-से-अधिक लोगों को सिख धर्म में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करते थे। वे गुरु साहिब के हुकमों को सिख संगत तक पहुँचाते थे। वे लोगों को धार्मिक शिक्षा देते थे । वे सिखों से धन एकत्रित करके गुरु साहिब तक पहुँचाते थे। क्योंकि मंजीदार मंजी पर बैठकर धार्मिक उपदेश देते थे इसलिए यह प्रथा इतिहास में मंजी प्रथा के नाम से विख्यात हुई। मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास एवं संगठन में बहुमूल्य योगदान दिया।

प्रश्न 109.
गुरु रामदास जी का सिख धर्म को क्या योगदान था ? (What was the contribution of Guru Ram Das Ji to Sikh religion ?) .
अथवा
सिख मत के विकास में गुरु रामदास जी द्वारा दिये गए योगदान का वर्णन करो। (Explain the contribution of Guru Ram Das Ji to the growth of Sikhism.)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु रामदास जी ने मुख्य भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
(Guru Ram Das Ji played a vital role for the development of Sikhism. Discuss.)
उत्तर-
गुरु रामदास जी 1574 ई० से 1581 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। गुरु साहिब ने सर्वप्रथम रामदासपुरा (अमृतसर) की स्थापना की। यहाँ पर गुरु साहिब ने अलग-अलग व्यवसायों से संबंधित 52 व्यापारियों को बसाया। यह बाज़ार ‘गुरु का बाज़ार’ के नाम से विख्यात हुआ। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने यहाँ पर दो सरोवरों अमृतसर और संतोखसर की खुदाई का कार्य आरंभ किया। गुरु साहिब ने सिख धर्म का प्रचार करने के लिए और सिखों से विकास कार्यों के लिए वांछित धन एकत्रित करने के लिए मसंद प्रथा की स्थापना की। मसंद प्रथा ने सिख पंथ को संगठित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुरु रामदास जी ने सिखों और उदासियों के मध्य चले आ रहे दीर्घकालीन मतभेदों को समाप्त करके एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरु साहिब ने संगत और पंगत संस्थाओं को जारी रखा और वाणी की रचना की । उन्होंने समाज में प्रचलित कुरीतियों का जोरदार शब्दों में खंडन किया। 1581 ई० में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु रामदास जी ने सिख पंथ को बहुमूल्य देन प्रदान की।

प्रश्न 110.
रामदासपुरा ( अमृतसर) की स्थापना का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? [What is the importance of the foundation of Ramdaspura (Amritsar) in Sikh History ?]
उत्तर-
गुरु रामदास जी की सिख पंथ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन 1577 ई० में रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना करना था। गुरुगद्दी प्राप्त करने के पश्चात् गुरु साहिब स्वयं यहाँ आ गए थे। इस शहर को बसाने के लिए गुरु साहिब ने यहाँ भिन्न-भिन्न व्यवसायों से संबंधित 52 अन्य व्यापारियों को बसाया। इन व्यापारियों ने जो बाज़ार बसाया वह ‘गुरु का बाज़ार’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।शीघ्र ही यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र बन गया। गुरु साहिब ने रामदासपुरा में दो सरोवरों अमृतसर एवं संतोखसर की खुदवाई का विचार बनाया। पहले अमृतसर सरोवर की खुदवाई का कार्य आरंभ किया गया। अमृतसर की स्थापना सिख पंथ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे सिखों को एक अलग तीर्थ स्थान मिल गया जो शीघ्र ही उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्म-प्रचार केंद्र बन गया। इसे सिखों का मक्का कहा जाने लगा। इस के अतिरिक्त यह सिखों की एकता एवं स्वतंत्रता का प्रतीक भी बन गया।

प्रश्न 111.
उदासी मत पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Udasi Sect.)
अथवा
उदासी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Udasi System ?)
अथवा
बाबा श्रीचंद जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on Baba Sri Chand Ji.)
उत्तर-
उदासी मत की स्थापना गुरु नानक साहिब के बड़े पुत्र बाबा श्रीचंद जी ने की थी। बहुत-से सिख बाबा श्रीचंद की त्याग वृत्ति से प्रभावित होकर उदासी मत में सम्मिलित होने लग पड़े थे। यह मत संन्यास अथवा त्याग के जीवन पर बल देता था जबकि गुरु नानक साहिब गृहस्थ जीवन के पक्ष में थे। उदासी मत के शेष सभी सिद्धांत गुरु नानक साहिब के सिद्धांतों से मिलते थे। ऐसी परिस्थितियों में यह संकट उत्पन्न हो गया कि कहीं सिख गुरु नानक साहिब के उपदेशों को भुलाकर उदासी मत को ही न अपना लें। इसलिए गुरु अंगद साहिब और गुरु अमरदास जी ने ज़ोरदार शब्दों में उदासी मत का खंडन किया। उनका कहना था कि कोई भी सच्चा सिख उदासी नहीं हो सकता। गुरु रामदास जी के समय में उदासियों एवं सिखों के बीच समझौता हो गया। इससे एक नए युग का सूत्रपात हुआ। अब उदासियों ने सिख मत का प्रचार करने में कोई कसर बाकी न रखी। फलस्वरूप सिख मत बहुत तीव्र गति से विकसित होने लगा।

प्रश्न 112.
गुरुगद्दी पर बैठने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? . (What were the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji after he ascended the Gurgaddi.)
अथवा
गुरु बनने के उपरांत गुरु अर्जन देव जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
(Write a brief note on the difficulties faced by Guru Arjan Dev Ji immediately after his accession to Gurgaddi.)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठने के पश्चात् गुरु अर्जन देव जी को सर्वप्रथम अपने बड़े भाई पृथी चंद के विरोध का सामना करना पड़ा। बड़ा भाई होने के नाते वह गुरुगद्दी पर अपना अधिकार समझता था। उसने यह घोषणा की कि जब तक वह गुरुगद्दी प्राप्त नहीं कर लेता वह कभी भी गुरु अर्जन देव जी को सुख की साँस नहीं लेने देगा। उसने मुग़ल बादशाह को गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध भड़काने का हर संभव प्रयत्न किया। पंजाब के कट्टर मुसलमान पंजाब में सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को कभी सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने पहले अकबर तथा फिर जहाँगीर के कान भरे। अकबर पर तो इन बातों का कोई प्रभाव न पड़ा पर कट्टर मुसलमान होने के कारण जहाँगीर पर इनका बहुत प्रभाव पड़ा। चंदू शाह लाहौर का दीवान था। उसके दूतों ने उसे अपनी लड़की का रिश्ता गुरु अर्जन देव जी के सुपुत्र हरगोबिंद जी से करने का सुझाव दिया। यह सुनकर चंदू शाह तिलमिला उठा। उसने गुरु जी के संबंध में कई अपमानजनक शब्द कहे। तत्पश्चात् चंदू शाह की पत्नी के विवश करने पर वह रिश्ता करने के लिए सहमत हो गया। परंतु गुरु जी ने अब यह रिश्ता मानने से इंकार कर दिया। इस कारण चंदू शाह गुरु जी का घोर शत्रु बन गया तथा वह गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा।

प्रश्न 113.
गुरु अर्जन देव जी ने सिख पंथ के विकास में क्या योगदान दिया ? (What was Guru Arjan Dev Ji’s contribution to the development of Sikhism ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास में गुरु अर्जन देव जी के द्वारा दिए गए योगदान के बारे में बताओ।
(Describe the contribution of Guru Arjan Dev Ji for the development of Sikhism.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की तीन महत्त्वपूर्ण सफलताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालें। (Throw a brief light on three important achievements of Guru Arjan Devji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के संगठनात्मक कार्यों का संक्षिप्त वर्णन करो। (Give a brief account of the organisational works of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
सिख पंथ के विकास में गुरु अर्जन देव जी का योगदान बड़ा महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने अपनी गुरुगद्दी के समय (1581-1606 ई०) सिख पंथ के विकास के लिए बहुत प्रशंसनीय कार्य किए। अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण करके गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को उनका सबसे पावन तीर्थं स्थान प्रदान किया। गुरु साहिब ने बारी दोआब और जालंधर दोआब में तरन तारन, हरगोबिंदपुर और करतारपुर नामक नए नगरों की स्थापना की। लाहौर में एक बाऊली का निर्माण करवाया। मसंद प्रथा का विकास गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक था। मसंद सिख धर्म के प्रचार के साथ-साथ सिखों से दशांस भी एकत्रित करते थे। 1604 ई० में आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन गुरु अर्जन देव जी का सिख पंथ के लिए सबसे महान् कार्य माना जाता है। सिख इसे अपना सर्वाधिक पावन धार्मिक ग्रंथ मानते हैं। गुरु अर्जन देव जी ने सिखों को आर्थिक पक्ष से समृद्ध बनाने के लिए अरब देशों के साथ घोड़ों के व्यापार को प्रोत्साहित किया। 1606 ई० में गुरु अर्जन देव जी ने अपना बलिदान देकर सिख पंथ में नव प्राण फूंके।

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प्रश्न 114.
गुरु अर्जन देव जी द्वारा हरिमंदिर साहिब की स्थापना और इसकी महत्ता के बारे में बताइए।
(Describe briefly the importance of the foundation of Harmandir Sahib by Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब पर एक संक्षेप नोट लिखें। (Write a brief note on Harmandir Sahib.)
अथवा
हरिमंदिर साहिब की स्थापना एवं महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। (Give a brief account of the foundation and importance of Harmandir Sahib.)
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब जी की स्थापना गुरु अर्जन देव जी के महान् कार्यों में से एक थी। इसका निर्माण अमृत सरोवर के मध्य आरंभ किया गया। गुरु अर्जन देव जी ने इसकी नींव 1588 ई० में विख्यात सूफी संत मीयाँ मीर द्वारा रखवाई थी। हरिमंदिर साहिब से अभिप्राय था-ईश्वर का मंदिर। गुरु साहिब ने हरिमंदिर साहिब का भवन इर्द-गिर्द के सभी भवनों से निम्न रखवाया क्योंकि गुरु साहिब का कथन था कि जो निम्न होगा, वही उच्च कहलाने के योग्य होगा। हरिमंदिर साहिब के चारों ओर द्वार बनवाए गए जिससे अभिप्राय था कि इस मंदिर में विश्व की चारों दिशाओं के लोग बिना किसी भेद-भाव के आ सकते हैं। हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य 1601 ई० में संपूर्ण हुआ। गुरु अर्जन देव जी ने यह घोषणा की कि हरिमंदिर साहिब की यात्रा करने वाले को हिंदुओं के 68 तीर्थ स्थानों की यात्रा के समान फल प्राप्त होगा। यदि कोई यात्री सच्ची श्रद्धा से अमृत सरोवर में स्नान करेगा तो उसे इस भव सागर से मुक्ति प्राप्त होगी। इसका लोगों के दिलों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचने लगे। शीघ्र ही हरिमंदिर साहिब सिखों का सबसे विख्यात तीर्थ-स्थान बन गया।

प्रश्न 115.
मसंद व्यवस्था तथा इसके महत्त्व पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Masand System and its importance.)
अथवा
मसंद प्रथा के विकास तथा संगठन का वर्णन कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand System.)
अथवा
मसंद प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें। (What do you know about Masand System ? Explain.)
अथवा
मसंद प्रथा किसने शुरू की ? इसके उद्देश्य क्या थे ?
(Who started Masand System ? What were its aims ?)
अथवा
मसंद प्रथा को किसने शुरू किया था ?
(Who started Masand System ?)
अथवा
मसंद प्रथा के संगठन तथा विकास की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Examine the organisation and development of Masand System.)
अथवा
मसंद प्रथा संबंधी संक्षिप्त ब्योरा दें। (Give a brief description of Masand System.)
उत्तर-
मसंद फ़ारसी भाषा के शब्द ‘मसनद’ से बना है जिससे अभिप्राय है ‘उच्च स्थान’ । इस प्रथा की स्थापना गुरु रामदास जी ने की थी। परंतु इसका वास्तविक विकास गुरु अर्जन देव जी के समय में हुआ। उस समय तक सिखों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। इसलिए गुरु अर्जन देव जी को लंगर और सिख पंथ के अन्य विकास कार्यों के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि प्रत्येक सिख अपनी आय में से दशांस (दशम भाग) गुरु साहिब को भेंट करे । इस धन को एकत्रित करने के लिए उन्होंने मसंदों को नियुक्त किया। ये मसंद धन एकत्रित करने के साथ-साथ सिख धर्म का प्रचार भी करते थे। मसंद सिखों से एकत्रित किए धन को वैसाखी और दीवाली के अवसरों पर अमृतसर में गुरु साहिब के पास आ कर जमा करवाते थे। मसंद प्रथा आरंभ में बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुई। इससे एक तो सिख धर्म का प्रचार दूर-दूर के क्षेत्रों में किया जा सका और दूसरे, गुरु घर की आय भी निश्चित हो गई। बाद में मसंद भ्रष्टाचारी हो गए और उन्होंने गुरु साहिब के लिए कई मुश्किलें उत्पन्न करनी आरंभ कर दीं। फलस्वरूप गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।

प्रश्न 116.
तरन तारन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Write a short note on Tarn Taran and its importance.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने माझा के क्षेत्र में सिख धर्म का प्रचार करने के लिए 1590 ई० में अमृतसर से 24 किलोमीटर दक्षिण की ओर तरन तारन नगर की स्थापना की। यहाँ तरन तारन नामक एक सरोवर की खुदवाई भी आरंभ करवाई। तरन तारन से अभिप्राय था कि इस सरोवर में स्नान करने वाला यात्री इस भव सागर से पार हो जाएगा। तरन तारन शीघ्र ही सिखों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान बन गया। इसके प्रभाव के कारण माझा के बहुत से जाटों ने सिख धर्म का अपना लिया। इन जाटों ने बाद में सिख पंथ की बहुमूल्य सेवा की। इन जाटों ने अपने स्वभाव तथा आदतों के कारण सिख धर्म को एक सैनिक धर्म में परिवर्तित किया। इन सैनिकों ने बाद में पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों का अंत किया तथा स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना की।

प्रश्न 117.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन और महत्त्व के संबंध में बताएँ। [Write a note on the compilation and importance of Adi Granth (Guru Granth Sahib Ji.)]
अथवा
गुरु अर्जन देव जी ने कौन-से पवित्र ग्रंथ का संपादन किया ?
(Which sacred Granth was edited by Guru Arjan Dev Ji ? Describe.)
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी पर संक्षेप में नोट लिखें। (Write a note on Adi Granth Sahib Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन करना था। इसका उद्देश्य गुरुओं की वाणी को एक स्थान पर एकत्रित करना था और सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ देना था। गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी का कार्य रामसर में आरंभ किया। इसमें गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन देव जी की वाणी सम्मिलित की गई। गुरु अर्जन साहिब जी के सर्वाधिक 2,216 शब्द सम्मिलित किए गए। इनके अतिरिक्त गुरु अर्जन देव ने कुछ अन्य संतों और भक्तों की वाणी को सम्मिलित किया। आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य भाई गुरदास जी ने किया। यह महान कार्य 1604 ई० में संपूर्ण हुआ। बाद में गुरु तेग़ बहादुर जी की वाणी भी इसमें सम्मिलित की गई। आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन सिख इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इससे सिखों को एक अलग धार्मिक ग्रंथ प्राप्त हुआ। गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी में भिन्न-भिन्न धर्म और जाति के लोगों की रचनाएँ सम्मिलित करके एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 15वीं तथा 17वीं शताब्दी के पंजाब के लोगों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति जानने के लिए आदि ग्रंथ साहिब जी हमारा मुख्य स्रोत है। इनके अतिरिक्त आदि ग्रंथ साहिब जी भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य तथा भाषाओं का एक अमूल्य खजाना है।

प्रश्न 118.
पृथी चंद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Write a short note on Prithi Chand.)
अथवा
पृथी चंद कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Prithi Chand ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
पृथी चंद अथवा पृथिया गुरु रामदास जी का सबसे बड़ा पुत्र और गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था। उसने मीणा संप्रदाय की स्थापना की थी। वह बहुत स्वार्थी एवं लोभी स्वभाव का था। इसके कारण गुरु रामदास जी ने उसे गुरुगद्दी सौंपने की अपेक्षा गुरु अर्जन देव जी को सौंपी। पृथी चंद यह जानकर क्रोधित हो उठा। वह तो गुरुगद्दी पर बैठने के लिए काफी समय से स्वप्न देख रहा था। परिणामस्वरूप गुरुगद्दी प्राप्त करने के लिए उसने गुरु अर्जन देव का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया। उसने घोषणा की कि वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक उसे गुरुगद्दी प्राप्त नहीं हो जाती। उसका यह विचार था कि गुरु अर्जन देव जी के पश्चात् गुरुगद्दी उसके पुत्र मेहरबान को अवश्य मिलेगी, परंतु जब गुरु साहिब के घर हरगोबिंद जी का जन्म हुआ तो उसकी सभी आशाओं पर पानी फिर गया। इसलिए वह गुरु अर्जन देव जी के प्राणों का शत्रु बन गया। उसने मुग़ल अधिकारियों के साथ मिलकर गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रचने आरंभ कर दिए। उसके ये षड्यंत्र गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक कारण बने।

प्रश्न 119.
चंदू शाह कौन था ? उसने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ? (Who was Chandu Shah ? Why did he oppose Guru Arjan Dev Ji ?)
अथवा
चंदू शाह पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Chandu Shah.)
उत्तर-
चंदू शाह लाहौर का दीवान था। वह अपनी लड़की के लिए किसी योग्य वर की तलाश में था। चंद्र शाह के परामर्शदाताओं ने उसे अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन देव जी के लड़के हरगोबिंद से करने का परामर्श दिया। इससे चंदू तिलमिला उठा। उसने गुरु अर्जन देव जी की शान में बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बाद में चंदू शाह की पत्नी द्वारा विवश करने पर वह रिश्ता करने के लिए तैयार हो गया। उसने इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए गुरु अर्जन साहिब को शगुन भेजा, क्योंकि अब तक गुरु साहिब को चंदू शाह द्वारा उनके संबंध में कहे गए अपमानजनक शब्दों का पता चल चुका था। इसलिए उन्होंने इस शगुन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। जब चंदू शाह को यह ज्ञात हुआ तो उसने गुरु साहिब से अपने इस अपमान का प्रतिशोध लेने का निर्णय किया। उसने पहले मुग़ल बादशाह अकबर तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। इसका जहाँगीर पर वांछित प्रभाव पड़ा और उसने गुरु जी के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का निर्णय किया। अत: चंदू शाह का विरोध गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ।

प्रश्न 120.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कोई पाँच मुख्य कारण बताएँ। (Mention five main causes for the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कोई तीन मुख्य कारण बताएं। (Examine three major causes of martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहादत के कारणों के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss about the causes of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के क्या कारण थे? (What were the causes of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर की धर्मांधता गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बनी। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इसलिए वह इस्लाम धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित नहीं देखना चाहता था। पंजाब में सिखों का दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा प्रभाव उसे अच्छा नहीं लग रहा था। इसे समाप्त करने के लिए वह किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। इस संबंध में हमें उसकी आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी से स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है । गुरु अर्जन देव जी द्वारा आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन भी उनके बलिदान का एक कारण बना। गुरु साहिब के विरोधियों ने जहाँगीर के यह कहकर कान भरने आरंभ कर दिए कि इस ग्रंथ में बहुत-सी बातें इस्लाम धर्म के विरुद्ध लिखी गई हैं। जहाँगीर ने गुरु साहिब को आदेश दिया कि वे गुरु ग्रंथ साहिब जी से कुछ शब्दों को निकाल दें परंतु गुरु साहिब ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। लाहौर का दीवान चंदू शाह अपनी लड़की के लिए किसी अच्छे वर की खोज में था। उसके परामर्शदाताओं ने उसे यह परामर्श दिया कि वह अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जन साहिब के लड़के हरगोबिंद से कर दे। इस पर चंदू शाह ने गुरु अर्जन देव जी के विरुद्ध कुछ अपमानजनक शब्द कहे। इस कारण गुरु साहिब ने यह रिश्ता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप चंदू शाह गुरु साहिब का घोर शत्रु बन गया। गुरु अर्जुन देव जी द्वारा जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो को दी गई सहायता भी उनके बलिदान का कारण बनी। यह कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो को अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह करने में सहायता दी थी।

प्रश्न 121.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका का वर्णन करें। (Describe the role of Naqashbandis in the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान में नक्शबंदियों का बड़ा हाथ था। नक्शबंदी कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा आरंभ किया गया एक आंदोलन था। इस आंदोलन का मुख्य केंद्र सरहिंद में था। यह आंदोलन पंजाब में सिखों के तीव्रता से बढ़ रहे प्रभाव को देखकर बौखला उठा था। इसका कारण यह था कि यह आंदोलन इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता देख कभी सहन नहीं कर सकता था।शेख अहमद सरहिंदी जो कि उस समय नक्शबंदियों का नेता था बहुत कट्टर विचारों का था। उसका मुग़ल दरबार में काफी प्रभाव था। इसलिए उसने जहाँगीर को गुरु अर्जन साहिब जी के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया। उसका कथन था कि यदि समय रहते सिखों का दमन न किया गया तो इसका इस्लाम पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव के विरुद्ध कार्यवाही करने का निश्चय किया।

प्रश्न 122.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji ?)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी द्वारा शहज़ादा खुसरो की सहायता उनके बलिदान का तुरंत कारण बना। शहज़ादा खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता के विरुद्ध राज्य सिंहासन प्राप्त करने के लिए विद्रोह कर दिया था। जब शाही सेनाओं ने खुसरो को पकड़ने का यत्न किया तो वह भाग कर पंजाब आ गया। पंजाब पहुँच कर खुसरो गुरु अर्जन देव जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तरन तारन पहुँचा। अकबर का पौत्र होने के कारण, जिसके सिख गुरुओं के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध थे, यह स्वाभाविक था कि गुरु अर्जन देव जी उससे सहानुभूति रखते। साथ ही गुरुघर में आकर कोई भी व्यक्ति गुरु साहिब को आशीर्वाद देने की याचना कर सकता था। कहा जाता है कि गुरु साहिब ने खुसरो के माथे पर तिलक लगाया और उसे काबुल जाने के लिए कुछ वांछित सहायता भी प्रदान की। जब जहाँगीर को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसे गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का स्वर्ण अवसर मिल गया। उसने लाहौर के गवर्नर मुर्तज़ा खाँ को आदेश दिया कि गुरु साहिब को गिरफ्तार कर लिया जाए। उन्हें घोर यातनाएँ देकर मौत के घाट उतार दिया जाए तथा उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाए।

प्रश्न 123.
गुरु अर्जन देव जी को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनके बलिदान का मुख्य कारण धार्मिक था। अपने पक्ष में तर्क दें।
(When and where was Guru Arjan Dev Ji martyred ? The main reason of his martyrdom was religious. Give arguments in its favour.)
अथवा
क्या गुरु अर्जन देव जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। (Was Guru Arjan Dev Ji a political offender ? Briefly explain.)
अथवा
क्या गुरु अर्जन देव जी को राजनीतिक कारणों से शहीद किया गया अथवा धार्मिक कारणों से ? संक्षिप्त जानकारी दें।
(Was Guru Arjan Dev Ji martyred for political or religious causes ? Write briefly.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० में लाहौर में शहीद किया गया था। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के लिए धार्मिक कारण उत्तरदायी थे। गुरु साहिब ने खुसरो की कोई सहायता नहीं की थी। गुरु साहिब द्वारा खुसरो के माथे पर तिलक लगाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता क्योंकि ऐसा करना सिख परंपरा के विपरीत था। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुज़क-ए-जहाँगीरी में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं किया कि गुरु अर्जन साहिब ने शहज़ादा खुसरो की कोई सहायता की थी। गुरु साहिब शहज़ादा खुसरो को उन्हें दंड दिए जाने से लगभग एक माह पूर्व मिले थे। यदि गुरु साहिब ने कोई अपराध किया होता तो उन्हें शीघ्र दंड दिया जाना था। तुज़क-एजहाँगीरी को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँगीर धार्मिक कारणों से गुरु साहिब को शहीद करना चाहता था। वह पंजाब में सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। वह भारत में केवल इस्लाम धर्म को प्रफुल्लित देखना चाहता था। वह गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए किसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने गुरु अर्जन देव जी पर शहज़ादा खुसरो की सहायता का आरोप लगाकर उन्हें शहीद कर दिया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 124.
गुरु अर्जन देव जी के बलिदान का महत्त्व लिखें। (Write the importance of Guru Arjan Dev Ji’s martyrdom.)
अथवा
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly describe the importance of the martyrdom of Guru Arjan Dev Ji.)
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान सिख इतिहास में एक नया मोड़ प्रमाणित हुआ। इस बलिदान के कारण सिख धर्म का स्वरूप ही बदल गया। इससे शांतिपूर्वक रह रहे सिख भड़क उठे। उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि अब धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अपनाई। उन्होंने मीरी तथा पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। इस प्रकार गुरु जी ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु अर्जन देव जी के बलिदान के कारण सिखों एवं मुग़लों में मित्रतापूर्ण संबंधों का अंत हो गया। इसके पश्चात् सिखों और मुग़लों के मध्य एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ। यह संघर्ष मग़लों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। दूसरी ओर इसने सिखों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन के अतिरिक्त गुरु अर्जन देव जी की शहीदी के कारण सिख धर्म पहले से अधिक लोकप्रिय हो गया। निस्संदेह गुरु अर्जन देव जी की शहीदी सिख इतिहास में एक मील पत्थर सिद्ध हुई।

प्रश्न 125.
सिख पंथ के रूपांतरण में गुरु हरगोबिंद साहिब ने क्या योगदान दिया ?
(What contribution was made by Guru Hargobind Sahib in transformation of Sikhism ?)
अथवा
सिख धर्म के विकास के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब के योगदान के बारे में चर्चा कीजिए।
(Discuss the contribution of Guru Hargobind Sahib for the development of Sikhism.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब 1606 ई० से 1645 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। सिख पंथ के रूपांतरण में गुरु हरगोबिंद साहिब का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह बहुत शानो-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने सच्चा पातशाह की उपाधि तथा मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण की : मोरी तलवार सांसारिक सत्ता की और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। गुरु जी ने मुग़ल अत्याचारियों का सामना करने के लिए एक सेना का गठन करने का निर्णय किया। उन्होंने सिखों को घोड़े और शस्त्र भेट करने के लिए कहा। अमृतसर की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों का सांसारिक मामलों में निर्देशन करने के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। गुरु साहिब के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर जहाँगीर ने उन्हें कुछ समय के लिए ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बना लिया था। शाहजहाँ के समय में गुरु हरगोबिंद साहिब ने मुग़लों के साथ चार लड़ाइयाँ लड़ीं जिनमें गुरु साहिब को विजय प्राप्त हुई। गुरु जी ने कीरतपुर साहिब नामक एक नए नगर की स्थापना की। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गुरु हरगोबिंद साहिब ने सिख धर्म का खूब प्रचार किया।

प्रश्न 126.
गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी नीति को क्यों धारण किया ?
(What were the main causes of the adoption of New Policy or Miri and Piri by Guru Hargobind Ji ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी ने आगे दिये कारणों से नई नीति अथवा मीरी एवं पीरी की नीति धारण की—

  1. जहाँगीर से पूर्व मुग़लों तथा सिखों के मध्य संबंध मैत्रीपूर्ण चले आ रहे थे। 1605 ई० में जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक नए युग का आरंभ हुआ। वह बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के बिना किसी अन्य धर्म को प्रफुल्लित होता नहीं देख सकता था। इस बदली हुई स्थिति ने गुरु साहिब को नई नीति अपनाने के लिए बाध्य कर दिया।
  2. 1606 ई० में जहाँगीर ने सिखों की बढ़ती हुई शक्ति का अंत करने के उद्देश्य से गुरु अर्जन देव जी को लाहौर में शहीद कर दिया। इस शहीदी का गुरु हरगोबिंद साहिब पर गहरा प्रभाव पड़ा। अतः उन्होंने मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के उद्देश्य से सिखों को हथियारों से लैस करने का निर्णय किया।
  3. गुरु अर्जन देव जी ने अपनी शहीदी से पूर्व अपने पुत्र हरगोबिंद को यह संदेश भेजा कि वह हथियारों से सुसज्जित होकर गुरुगद्दी पर बैठे तथा अपनी योग्यता के अनुसार सेना भी रखे। अपने पिता के इस अंतिम संदेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति को अपनाया।
  4. पंजाब के जाट बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित थे। वे अत्याचारी के समक्ष झुकना नहीं जानते थे। उन्होंने गुरु हरगोबिंद साहिब को नई नीति अपनाने के लिए प्रेरित किया।

प्रश्न 127.
गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई नई नीति की मुख्य विशेषताएँ क्या थी ? (What were the main features of Guru Hargobind’s New Policy ?)
अथवा
मीरी एवं पीरी के संबंध में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी-पीरी के सिद्धांत के बारे में जानकारी दीजिए।
(Discuss the concept of Miri-Piri.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कौन-सी नई नीति अपनाई ? प्रकाश डालें। (Which New Policy was adopted by Guru Hargobind Sahib Ji’? Elucidate ?)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। ( Mention any five features of New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए नई नीति अपनाने का निर्णय किया। वे बहुत शान-शौकत से गुरुगद्दी पर बैठे। उन्होंने सम्राट् की भाँति चमकीले वस्त्र पहनने आरंभ किए और सच्चा पातशाह की उपाधि धारण की। उन्होंने मीरी और पीरी नामक दो तलवारें धारण की। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी और पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। सिख पंथ की रक्षा के लिए गुरु साहिब ने एक सेना का गठन करने का निर्णय किया। गुरु साहिब ने यह घोषणा की कि सिख उन्हें धन के स्थान पर शस्त्र और घोड़े भेट करें। अमृतसर शहर को पूर्णतः सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से गुरु साहिब ने लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण करवाया। सिखों के राजनीतिक एवं अन्य सांसारिक मामलों के समाधान के लिए गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के निकट अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद साहिब ने अपने सिखों को संत सिपाही बना दिया। इस नई नीति के फलस्वरूप सिखों एवं मुगलों के परस्पर संबंध बिगड़ने आरंभ हो गए। यदि गुरु हरगोबिंद साहिब ने नई नीति न अपनाई होती तो सिखों का पावन भ्रातृत्व या तो समाप्त हो गया होता अथवा फिर वे फ़कीरों और संतों की एक श्रेणी बन कर रह जाता।

प्रश्न 128.
मीरी और पीरी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about Miri and Piri ?)
अथवा
मीरी और पीरी से क्या भाव है ? इसकी ऐतिहासिक महत्ता बताएँ। (What is Miri and Piri ? Describe its historical importance.)
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें। (Briefly describe the importance of the New Policy of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने गुरुगद्दी पर बैठने के समय बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए मीरी एवं पीरी नामक दो तलवारें धारण करने का निर्णय किया। मीरी तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी जबकि पीरी तलवार धार्मिक सत्ता की प्रतीक थी। गुरु साहिब द्वारा ये दोनों तलवारें धारण करने से अभिप्राय यह था कि आगे से वे अपने अनुयायियों का धार्मिक नेतृत्व करने के अतिरिक्त सांसारिक मामलों में भी नेतृत्व करेंगे। गुरु हरगोबिंद साहिब ने एक ओर सिखों को सतनाम का जाप करने और दूसरी ओर अपनी रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का आदेश दिया। इस प्रकार गुरु हरगोबिंद ने सिखों को संत सिपाही बना दिया। गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई इस मीरी और पीरी की नीति का सिख इतिहास पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इसके कारण सर्वप्रथम सिखों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ। दूसरा, अब उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का निर्णय किया। तीसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस नीति का अनुसरण करते हुए खालसा पंथ का सृजन किया। चौथा, इस नीति के कारण सिखों और मुग़लों और अफ़गानों के बीच एक लंबा संघर्ष आरंभ हुआ जिसमें अंतत: सिख विजयी रहे।

प्रश्न 129.
गुरु हरगोबिंद जी के ग्वालियर में बंदी बनाए जाने पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the imprisonment of Guru Hargobind Ji at Gwalior.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के गुरुगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही वह मुग़ल सम्राट् जहाँगीर द्वारा बंदी बनाकर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिए गए। गुरु साहिब को बंदी क्यों बनाया गया, इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इसके लिए चंदू शाह का षड्यंत्र उत्तरदायी था। गुरु जी द्वारा उसकी पुत्री के साथ विवाह करने से पुनः इंकार करने पर उसने जहाँगीर को गुरु साहिब के विरुद्ध भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने उन्हें बंदी बना लिया। दूसरी ओर अधिकाँश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं कि जहाँगीर ने गुरु साहिब को उनके द्वारा अपनाई गई नई नीति के कारण बंदी बनाया। इस नीति से उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो गई थीं तथा गुरु साहिब के विरोधियों ने भी जहाँगीर के कान भरे कि गुरु जी विद्रोह करने की तैयारियाँ कर रहे हैं। इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है कि गुरु हरगोबिंद साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे। अधिकाँश इतिहासकारों का कहना है कि गुरु साहिब 1606 ई० से 1608 ई० तक दो वर्ष ग्वालियर में बंदी रहे।

प्रश्न 130.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़ल सम्राट् जहाँगीर के संबंधों पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on relations between Guru Hargobind Sahib and Mughal Emperor Jahangir.)
उत्तर-
1605 ई० में मुग़ल सम्राट जहाँगीर के सिंहासन पर बैठने के साथ ही मुग़ल-सिख संबंधों में एक नया मोड़ आया। जहाँगीर बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। सिंहासन पर बैठने के तुरंत पश्चात् उसने गुरु अर्जन देव जी को शहीद करवा दिया था। इस कारण मुग़ल-सिख संबंधों में तनाव पैदा हो गया। मुग़ल अत्याचारों का मुकाबला करने के उद्देश्य के साथ गुरु हरगोबिंद जी ने नई नीति धारण की। उन्होंने अपनी योग्यता के अनुसार कुछ सेना भी रखी। जहाँगीर यह सहन करने के लिए तैयार न था। चंद्र शाह ने भी गुरु हरगोबिंद साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए जहाँगीर को भड़काया। परिणामस्वरूप जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी बना कर ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया। गुरु साहिब ग्वालियर के दुर्ग में कितना समय बंदी रहे इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। भाई जेठा जी तथा सूफी संत मीयाँ मीर जी के कहने पर जहाँगीर ने गुरु जी को रिहा करने का आदेश दिया। गुरु जी के कहने पर जहाँगीर ने ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बनाए 52 अन्य राजाओं को भी रिहा करने का आदेश दिया। इस कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड़ बाबा’ कहा जाने लगा। इसके बाद गुरु हरगोबिंद साहिब तथा जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए।

प्रश्न 131.
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों के बीच लड़ाइयों के क्या कारण थे ?
(What were the causes of battles between Guru Hargobind Sahib and the Mughals ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब तथा मुग़लों (शाहजहाँ) के मध्य लड़ाइयों के मुख्य कारण निम्नलिखित थे—

  1. मुग़ल सम्राट शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसने गुरु अर्जन साहिब द्वारा लाहौर में बनवाई गई बाऊली को गंदगी से भरवा दिया था। सिख इस अपमान को किसी हालत में सहन करने को तैयार नहीं थे।
  2. शाहजहाँ के समय नक्शबंदियों के नेता शेख मासूम ने सम्राट को सिखों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करने के लिए भड़काया।
  3. गुरु जी ने अपनी सेना में बहुत से मुग़ल सेना के भगौड़ों को भर्ती कर लिया था। इसके अतिरिक्त गुरु जी ने कई राजसी चिह्नों को धारण कर लिया था। सिख श्रद्धालु गुरु जी को ‘सच्चा पातशाह’ कहने लगे थे। निस्संदेह शाहजहाँ भला यह कैसे सहन करता।
  4. कौलां लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की बेटी थी। वह गुरु अर्जन साहिब की वाणी से प्रभावित होकर गुरु जी की शरण में चली गई थी। इस काजी द्वारा भड़काने पर शाहजहाँ ने गुरु जी के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया।

प्रश्न 132.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य हुई अमृतसर की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
(Give a brief account of the battle of Amritsar fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals.)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय में मुग़लों और सिखों के मध्य अमृतसर में 1634 ई० में प्रथम लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई का मुख्य कारण एक बाज़ था। कहा जाता है कि उस समय मुग़ल बादशाह शाहजहाँ अपने कुछ सैनिकों सहित अमृतसर के निकट एक वन में शिकार खेल रहा था। दूसरी ओर गुरु हरगोबिंद साहिब और उनके कुछ सिख भी उसी वन में शिकार खेल रहे थे। शिकार खेलते समय शाहजहाँ का एक विशेष बाज़ जो उसे ईरान के सम्राट ने भेट किया था, उड़ गया। सिखों ने इस को पकड़ लिया। उन्होंने यह बाँज़ मुग़लों को लौटाने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप शाहजहाँ ने सिखों को सबक सिखाने के उद्देश्य से मुखलिस खाँ के नेतृत्व में 7000 सैनिक भेजे। सिख सैनिकों ने मुग़ल सैनिकों का डटकर सामना किया। इस लड़ाई में मुखलिस खाँ मारा गया। इस कारण मुग़ल सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार मुग़लों और सिखों के मध्य हुई इस प्रथम लड़ाई में सिख विजयी रहे। इस विजय के कारण सिखों के हौसले बुलंद हो गए।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 133.
गुरु हरगोबिंद जी के समय हुई लहिरा की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Lahira fought in the times of Guru Hargobind Ji.)
उत्तर-
अमृतसर की लड़ाई के शीघ्र पश्चात् मुग़लों तथा सिखों के मध्य लहिरा (भटिंडा के निकट) नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई। इस लड़ाई का कारण दो घोड़े थे जिनके नाम दिलबाग तथा गुलबाग थे। इन दोनों घोड़ों को, जो कि बहुत बढ़िया नस्ल के थे बखत मल और तारा चंद नामक दो मसंद काबुल से गुरु साहिब को भेट करने के लिए ला रहे थे। मार्ग में ये दोनों घोड़े मुग़लों ने छीन लिए और उन्हें शाही घुड़साल में पहुँचा दिया। यह बात गुरु साहिब का एक सिख भाई बिधी चंद सहन न कर सका। वह भेष बदल कर दोनों घोड़े शाही घुड़साल से निकाल लाया और गुरु साहिब के पास पहुँचा दिया। जब शाहजहाँ को यह सूचना मिली तो वह क्रोधित हो उठा। उसने तुरंत लल्ला बेग तथा कमर बेग के नेतृत्व में एक भारी सेना सिखों के दमन के लिए भेजी। लहिरा नामक स्थान पर मुग़लों तथा सिखों के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मुग़लों की भारी प्राण हानि हुई और उनके दोनों सेनापति लल्ला बेग तथा कमर बेग भी मारे गए। इस लड़ाई में भाई जेठा जी भी शहीद हो गए। इस लड़ाई में सिख विजयी रहे।

प्रश्न 134.
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के बीच हुई करतारपुर की लड़ाई के बारे में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about the battle of Kartarpur fought between Guru Hargobind Ji and the Mughals ?)
उत्तर-
1635 ई० में मुग़लों तथा सिखों के मध्य करतारपुर में तीसरी लड़ाई हुई। यह लड़ाई पैंदा खाँ के कारण हुई। वह गुरु हरगोबिंद जी की सेना में पठान टुकड़ी का सेनापति था। अमृतसर की लड़ाई में उसने वीरता का प्रमाण दिया, परंतु अब वह बहुत अहंकारी हो गया था। उसने गुरु साहिब का एक बाज़ चोरी करके अपने दामाद को दे दिया। गुरु साहिब के पूछने पर उसने इस बात से इंकार कर दिया कि उसे बाज़ के संबंध में कुछ पता है। तत्पश्चात् जब गुरु जी को पैंदा खाँ के झूठ का पता चला तो उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। पैंदा खाँ ने इस अपमान का बदला लेने का निर्णय किया। वह मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की शरण में चला गया। उसने शाहजहाँ को गुरु जी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के लिए खूब भड़काया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ ने पैंदा खाँ और काले खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना गुरु हरगोबिंद जी के विरुद्ध भेजी। करतारपुर में दोनों सेनाओं के मध्य भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई में गुरु जी के दो पुत्रों भाई गुरदित्ता जी तथा तेग़ बहादुर जी ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। इस लड़ाई में गुरु साहिब से लड़ते हुए काले खाँ, पैंदा खाँ और उसका पुत्र कुतब खाँ मारे गए। मुग़ल सेना को भारी जन हानि हुई। इस प्रकार गुरु जी को एक और शानदार विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 135.
गुरु हरगोबिंद जी को ‘बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता है ? (Why is Guru Hargobind Ji known as ‘Bandi Chhor Baba’ ?)
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में बंदी बना कर भेज दिया था। उस समय इस दुर्ग में 52 राजा राजनीतिक कारणों से बंदी बनाए हुए थे। ये सभी राजा गुरु जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। गुरु साहिब की मौजूदगी में वे अपने सभी कष्ट भूल गए थे। पर जब जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को रिहा करने का निर्देश दिया तो दुर्ग में बंदी दूसरे राजाओं को बहुत निराशा हुई। क्योंकि गुरु साहिब को इन राजाओं से काफी हमदर्दी हो गई थी इसलिए गुरु साहिब ने जहाँगीर को यह संदेश भेजा कि वह तब तक रिहा नहीं होंगे जब तक उनके साथ बंदी 52 राजाओं को भी रिहा नहीं कर दिया जाता। अंततः मजबूर होकर जहाँगीर ने इन राजाओं की रिहाई का निर्देश जारी कर दिया। इसी कारण गुरु हरगोबिंद साहिब को बंदी छोड़ बाबा’ कहा जाने लगा।

प्रश्न 136.
अकाल तख्त साहिब पर एक नोट लिखें। (Write a note on Akal Takht.)
अथवा
अकाल तख्त साहिब के निर्माण का सिख इतिहास में क्या महत्त्व है ? (What is the importance of building Sri Akal Takht in Sikh History ?)
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब द्वारा अपनाई गई नई नीति के विकास में अकाल तख्त साहिब का निर्माण बहुत सहायक सिद्ध हुआ।वास्तव में यह गुरु साहिब का एक महान् कार्य था।अकाल तख्त (ईश्वर की गद्दी) साहिब का निर्माण कार्य गुरु हरगोबिंद साहिब ने हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ई० में आरंभ करवाया था। यह कार्य 1609 ई० में संपूर्ण हुआ। इसके भीतर एक 12 फीट ऊँचे चबूतरे का निर्माण किया गया जो एक तख्त के समान था। इस तख्त पर बैठकर गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के राजनीतिक एवं सांसारिक मामलों का नेतृत्व करते थे। यहाँ वे सिखों को सैनिक प्रशिक्षण देते थे तथा उनके मल्ल युद्ध तथा अन्य सैनिक कारनामे देखते थे। यहीं पर वे मसंदों से घोड़े और शस्त्र स्वीकार करते थे। सिखों में जोश उत्पन्न करने के लिए यहाँ ढाडी वीर-रस की वारें सुनाते थे। यहाँ पर बैठकर ही गुरु हरगोबिंद जी सिखों के परस्पर झगड़ों का भी निपटारा करते थे। वास्तव में अकाल तख्त सिखों की राजनीतिक गतिविधियों का एक प्रमुख स्थल बन गया।

प्रश्न 137.
गुरु हरगोबिंद जी के मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के साथ संबंध कैसे थे ? संक्षिप्त वर्णन करें।
(Give a brief account of the relations of Guru Hargobind Ji with the Mughal Emperor Shah Jahan.)
उत्तर-
जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् 1628 ई० में शाहजहाँ मुग़लों का नया बादशाह बना। उसके शासनकाल में कई कारणों से मुग़ल-सिख संबंधों में तनाव पैदा हो गया। प्रथम, शाहजहाँ बहुत कट्टर सुन्नी बादशाह था। उसने गुरु अर्जन देव जी द्वारा लाहौर में बनाई गई बावली को गंदगी से भरवा दिया था तथा लंगर के लिए बनाए गए भवन को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था। दूसरा, नक्शबंदियों ने सिखों के विरुद्ध शाहजहाँ को भड़काने में कोई प्रयास न छोड़ा। तीसरा, गुरु हरगोबिंद जी द्वारा सेना तैयार किए जाने तथा उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें ‘सच्चा पातशाह’ कह कर संबोधन करना एक आँख नहीं भाता था। चौथा, लाहौर के एक काजी की लड़की जिसका नाम कौलां था, गुरु जी की शिष्या बन गई थी। इस कारण उस काजी ने शाहजहाँ को सिखों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने के लिए उत्तेजित किया। 1634-35 ई० के समय के दौरान सिखों तथा मुगलों के मध्य अमृतसर, लहिरा, करतारपुर तथा फगवाड़ा नामक लड़ाइयाँ हुईं। इन लड़ाइयों में सिख विजयी रहे तथा मुग़लों को पराजय का सामना करना पड़ा। परिणामस्वरूप गुरु जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।

प्रश्न 138.
सिख पंथ के विकास में गुरु हर राय जी का समय क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
(Why is pontificate of Guru Har Rai Ji considered important in the development of Sikhism ?)
अथवा
गुरु हर राय जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Guru Har Rai Ji.)
अथवा
गुरु हर राय जी के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about Guru Har Rai Ji ?)
उत्तर-
गुरु हर राय जी 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे। उनकी गुरुगद्दी का समय सिख इतिहास में शांति का काल कहा जा सकता है। गुरु हर राय साहिब जी सिख धर्म का प्रचार करने के लिए पंजाब के कई स्थानों पर जैसे जालंधर, अमृतसर, करतारपुर, गुरदासपुर, फिरोज़पुर, पटियाला, अंबाला, करनाल और हिसार इत्यादि स्थानों पर गए। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ने पंजाब से बाहर अपने प्रचारक भेजे । अपने प्रचार दौरे के दौरान गुरु साहिब ने अपने एक श्रद्धालु फूल को यह आशीर्वाद दिया कि उसकी संतान शासन करेगी। गुरु साहिब की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। शाहजहाँ का बड़ा पुत्र दारा गुरु घर का बहुत प्रेमी था। 1658 ई० में राज्य सिंहासन की प्राप्ति के लिए उत्तराधिकार युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में दारा की पराजय हुई और वह गुरु हर राय के पास आशीर्वाद लेने के लिए आया। गुरु साहिब ने उसके साहस को बढ़ावा दिया। बादशाह बनने के पश्चात् औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली बुलाया। गुरु साहिब ने अपने बड़े पुत्र राम राय को दिल्ली भेजा। गुरुवाणी का गलत अर्थ बताने के कारण गुरु हर राय साहिब ने उसे गुरुगद्दी से बेदखल कर दिया और अपने छोटे पुत्र हरकृष्ण साहिब को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

प्रश्न 139.
गुरु हरकृष्ण जी पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। उनको बाल गुरु क्यों कहा जाता है ? (Write a brief note on Guru Harkrishan Ji. Why is he called Bal Guru ?)
अथवा
गुरु हरकृष्ण जी पर संक्षेप नोट लिखो। (Write a short note on Guru Harkrishan Ji.)
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी गुरु हर राय जी के छोटे पुत्र थे। वह 1661 ई० में गुरुगद्दी पर बैठे। वह सिखों के आठवें गुरु थे। जिस समय वह गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु केवल पाँच वर्ष थी। इस कारण उनको ‘बाल गुरु’ के नाम से स्मरण किया जाता है। गुरु हरकृष्ण जी के बड़े भाई राम राय ने आप जी को गुरुगद्दी दिए जाने का कट्टर विरोध किया, क्योंकि वह अपने आपको गुरुगद्दी का वास्तविक अधिकारी मानता था। जब वह अपनी कुटिल चालों में सफल न हो सका तो उसने औरंगजेब से सहायता माँगी। इस संबंध में औरंगजेब ने गुरु साहिब को दिल्ली आने का आदेश दिया। गुरु साहिब 1664 ई० में दिल्ली गए। वहाँ वह राजा जय सिंह के यहाँ ठहरे। उन दिनों दिल्ली में भयानक चेचक एवं हैजा फैला हुआ था। गुरु जी ने इन बीमारों, गरीबों एवं अनाथों की भरसक सेवा की। वह स्वयं भी चेचक के कारण बीमार पड़ गए। वह 30 मार्च, 1664 ई० को ज्योति-जोत समा गए। ज्योति-जोत समाने से पूर्व आपके मुख . से ‘बाबा बकाला’ नामक शब्द निकले, जिससे भाव था कि सिखों का अगला उत्तराधिकारी बाबा बकाला में है।

प्रश्न 140.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the travels of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं के संबंध में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the travels of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी गुरुगद्दी के समय (1664-75 ई०) के दौरान पंजाब और पंजाब से बाहर के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं का उद्देश्य लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और सिख धर्म का प्रचार करना था। गुरु साहिब ने अपनी यात्राएँ 1664 ई० में अमृतसर से आरंभ की। तत्पश्चात् गुरु साहिब ने वल्ला, घुक्केवाली, खडूर साहिब, गोइंदवाल साहिब, तरन तारन, खेमकरन, कीरतपुर साहिब और बिलासपुर इत्यादि पंजाब के प्रदेशों की यात्राएँ कीं। पंजाब की यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी पूर्वी भारत की यात्राओं पर निकल पड़े। अपनी इस यात्रा के दौरान गुरु साहिब सैफाबाद, धमधान, दिल्ली, मथुरा, वृंदावन, आगरा, कानपुर, प्रयाग, बनारस, गया, पटना, ढाका और असम इत्यादि स्थानों पर गए। इन यात्राओं के पश्चात् गुरु तेग़ बहादुर जी अपने परिवार सहित पंजाब आ गए। यहाँ पर आकर गुरु साहिब ने एक बार फिर पंजाब के विख्यात स्थानों की यात्राएँ कीं। गुरु साहिब की ये यात्राएँ सिखपंथ के विकास के लिए बहुत लाभप्रद प्रमाणित हुईं। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग सिख मत में सम्मिलित हुए।

प्रश्न 141.
किस श्रद्धालु सिख ने नवम् गुरु की तलाश की और क्यों ? (Name the sincere Sikh, who searched for the Ninth Guru and why ?)
उत्तर-
1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाने से पूर्व गुरु हरकृष्ण जी ने सिख संगतों को यह संकेत दिया कि उनका अगला गुरु बाबा बकाला में है। जब यह समाचार बाबा बकाला पहुँचा कि गुरु साहिब आगामी गुरु का नाम बताए बिना ज्योति-जोत समा गए हैं तो 22 सोढियों ने वहाँ अपनी 22 मंजियाँ स्थापित कर लीं। हर कोई स्वयं को गुरु कहलवाने लगा। ऐसे समय में मक्खन शाह लुबाणा नामक एक सिख ने इसका समाधान ढूँढा। वह एक व्यापारी था। एक बार जब उसका जहाज़ समुद्री तूफान में घिर कर डूबने लगा तो उसने अरदास की कि यदि उसका जहाज़ किनारे पर पहुँच जाए तो वह गुरु साहिब के चरणों में सोने की 500 मोहरें भेट करेगा। गुरु साहिब की कृपा से उसका जहाज़ बच गया। वह गुरु साहिब को 500 मोहरें भेट करने के लिए सपरिवार बाबा बकाला पहुँचा। यहाँ वह 22 गुरु देख कर चकित रह गया। उसने वास्तविक गुरु को ढूंढने की एक योजना बनाई। वह बारी-बारी प्रत्येक गुरु के पास गया तथा उन्हें दो-दो मोहरें भेट करता गया। झूठे गुरु दो-दो मोहरें लेकर प्रसन्न हो गए। जब मक्खन शाह ने अंत में तेग़ बहादुर जी के पास जाकर दो मोहरें भेट की तो गुरु साहिब ने कहा, “जहाज़ डूबते समय तो तूने 500 मोहरें भेट करने का वचन दिया था, परंतु अब केवल दो मोहरें ही भेट कर रहा है।” यह सुनकर मक्खन शाह बहुत प्रसन्न हुआ और वह एक मकान की छत पर चढ़ कर ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा “गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे।” अर्थात् गुरु मिल गया है। इस प्रकार सिख संगतों ने गुरु तेग़ बहादुर जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 142.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के बलिदान के कारणों के बारे में जानकारी दें।
(Describe the reasons for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के क्या कारण थे ? (What were the causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के लिए उत्तरदायी कारणों का अध्ययन करें। (Study the causes responsible for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के कोई पाँच कारण लिखें। (Write any five causes of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
उत्तर-
औरंगज़ेब की कट्टरता गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का एक प्रमुख कारण बना। औरंगज़ेब 1658 ई० में मुग़लों का नया बादशाह बना था। वह भारत में इस्लाम धर्म को छोड़कर अन्य किसी धर्म के अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई प्रसिद्ध मंदिरों को गिरवाकर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी थीं। हिंदुओं के त्योहारों और रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। उसने सिखों के कई विख्यात गुरुद्वारों को गिरवा देने का आदेश जारी किया। ऐसे समय में नक्शबंदियों ने जो कि कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था, ने भी सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ कर दिया था। नक्शबंदी पंजाब और पंजाब से बाहर सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन नहीं कर सकते थे। राम राय ने गुरुगद्दी को प्राप्त करने के लिए गुरु तेग़ बहादुर जी के विरुद्ध षड्यंत्र करने आरंभ कर दिए थे। इन षड्यंत्रों का औरंगजेब पर वांछित प्रभाव पड़ा। कश्मीरी पंडितों की पुकार गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान का तत्कालीन कारण बनी। उस समय औरंगज़ेब कश्मीर के सभी पंडितों को मुसलमान बनाने पर तुला हुआ था। इंकार करने वालों की हत्या कर दी जाती। कोई मार्ग दिखाई न देता देखकर उन्होंने गुरु तेग़ बहादुर जी से सहायता के लिए निवेदन किया जो गुरु साहिब ने स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 143.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों की भूमिका की समीक्षा कीजिए।
(Evaluate the role played by Naqshbandis in the martyrdom of Guru Tegh . Bahadur Ji.)
उत्तर-
नक्शबंदी कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था। इस संप्रदाय का औरंगज़ेब पर बहुत प्रभाव था। इस संप्रदाय के लिए गुरु साहिब की बढ़ रही ख्याति, सिख मत का बढ़ रहा प्रचार और मुसलमानों की गुरु घर के प्रति बढ़ रही प्रवृत्ति असहनीय थी। नक्शबंदियों को यह खतरा हो गया कि कहीं लोगों में आ रही जागृति और सिख धर्म का विकास इस्लाम के लिए कोई गंभीर चुनौती ही न बन जाए। ऐसा होने की दशा में भारत में मुस्लिम समाज की जड़ें हिल सकती थीं। इसलिए उन्होंने सिखों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए औरंगज़ेब को भड़काना आरंभ किया। उनकी इस कार्यवाही ने जलती पर तेल डालने का कार्य किया। उस समय शेख़ मासूम नक्शबंदियों का नेता था। वह अपने पिता शेख़ अहमद सरहिंदी से भी अधिक कट्टर था। उसका विचार था कि यदि पंजाब में सिखों का शीघ्र दमन नहीं किया गया तो भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव डगमगा सकती है। परिणामस्वरूप औरंगज़ेब ने गुरु जी के विरुद्ध कदम उठाने का निर्णय किया। निस्संदेह हम कह सकते हैं कि गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी में नक्शबंदियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

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प्रश्न 144.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का तात्कालिक कारण क्या था ? (What was the immediate cause of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी ब्राह्मणों की सहायता क्यों की ? (Why did Guru Tegh Bahadur Ji help the Kashmiri Brahmins ?)
उत्तर-
कश्मीर में रहने वाले ब्राह्मणों का सारे भारत के हिंदू बहुत आदर करते थे। औरंगज़ेब ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों को किसी प्रकार मुसलमान बना लिया जाए तो भारत के शेष हिंदू स्वयंमेव ही इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लेंगे। इसी उद्देश्य से उसने शेर अफ़गान को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। शेर अफ़गान ने ब्राह्मणों को तलवार की नोक पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया। जब उन्हें अपने धर्म के बचाव का कोई मार्ग दिखाई न दिया तो पंडित कृपा राम के नेतृत्व में उनका एक दल मई, 1675 ई० में श्री आनंदपुर साहिब गुरु तेग बहादुर जी के पास अपनी करण याचना लेकर पहुँचा। जब गुरु जी ने उनकी रौंगटे खड़े कर देने वाली अत्याचारों की कहानी सुनी तो वह सोच में पड़ गए। गुरु साहिब के मुख पर गंभीरता देख बालक गोबिंद राय, जो उस समय 9 वर्ष के थे, ने पिता जी से इसका कारण पूछा। गुरु साहिब ने बताया कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। बालक गोबिंद राय ने झट से कहा, “पिता जी आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है ?” बालक के मुख से यह उत्तर सुन कर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना बलिदान देने का निर्णय कर लिया। गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वे जाकर मुग़ल अधिकारियों को बता दें कि यदि वे मुरु तेग़ बहादुर को मुसलमान बना लें तो वे इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे। जब औरंगज़ेब को इस बात का पता चला तो उसने गुरु जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनाने का निश्चय किया।

प्रश्न 145.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कब और कहाँ शहीद किया गया था ? उनका बलिदान राजनीतिक कारणों से हुआ अथवा धार्मिक कारणों से ?
(When and where was Guru Tegh Bahadur Ji martyred ? Did his martyrdom took place due to political or religious causes ? Discuss.)
अथवा
क्या गुरु तेग़ बहादुर जी एक राजनीतिक अपराधी थे ? अपने पक्ष में तर्क दें।
(Was Guru Tegh Bahadur Ji a political offender ? Give arguments in support of your answer.)
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० में दिल्ली में शहीद किया गया था। गुरु साहिब को धार्मिक कारणों से शहीद किया गया। उस समय भारत में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का शासन था। वह बहुत कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह भारत में इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म का अस्तित्व सहन नहीं कर सकता था। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया था और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया। हिंदुओं को राज्य की नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें पुनः जजिया कर देने के लिए विवश किया गया। उनके धार्मिक रीतिरिवाजों को मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। औरंगज़ेब सिखों के बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना चाहता था। नक्शबंदी जो कि कट्टर सुन्नी मुसलमानों का एक संप्रदाय था, को पंजाब में तीव्रता के साथ सिखों के बढ़ रहे प्रभाव के कारण इस्लाम धर्म के लिए खतरा अनुभव हुआ। इसलिए उसने औरंगजेब को भड़काया। उस समय कश्मीर में औरंगजेब के सूबेदार शेर अफ़गान ने कश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म में सम्मिलित करने के लिए अत्याचारों का एक दौर आरंभ किया हुआ था। प्रतिदिन बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म को स्वीकार न करने वाले पंडितों को मौत के घाट उतारा जाने लगा। इन पंडितों की पुकार पर गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपना बलिदान देने का निर्णय किया।

प्रश्न 146.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the historical importance of martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के कारणों के बारे में जानकारी दें। (Describe the reasons for the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji.)
अथवा
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी का क्या महत्त्व है ? (What is the significance of the martyrdom of Guru Tegh Bahadur Ji ?)
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले । संसार के इतिहास में गुरु साहिब जी का बलिदान एकमात्र ऐसा बलिदान था जो किसी अन्य धर्म की रक्षा के लिए दिया गया था। इस बलिदान के कारण समूचा पंजाब क्रोध और प्रतिशोध की भावना से भड़क उठा। गुरु साहिब के इस बलिदान ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थापित रहेगा, तब तक उनके अत्याचार भी बने रहेंगे। इसलिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुग़लों के अत्याचारों को समाप्त करने का निर्णय किया। इस उद्देश्य से उन्होंने 1699 ई० में खालसा पंथ का सृजन किया। तत्पश्चात् सिखों और मुगलों के बीच एक लंबे संघर्ष की शुरुआत हुई। इस संघर्ष ने मुग़ल साम्राज्य की नींव को हिलाकर रख दिया था। गुरु तेग़ बहादुर जी के बलिदान के पश्चात् सिखों में धर्म के लिए बलिदान देने की एक परंपरा आरंभ हो गई। अंत में महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत सिख पंजाब में एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफल हुए। इसके अतिरिक्त हिंदू धर्म के अस्तित्व को पूर्ण रूप से खत्म होने से बचा लिया गया।

प्रश्न 147.
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ? (What difficulties were faced by Guru Gobind Singh Ji when he attained the Gurugaddi ?)
उत्तर-
गुरुगद्दी पर बैठते समय गुरु गोबिंद सिंह जी को आंतरिक तथा बाह्य अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी की आयु केवल 9 वर्ष थी परंतु उनके सामने पहाड़ जैसी चुनौतियाँ थीं। प्रथम, उस समय मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का शासन था। वह बड़ा कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के अस्तित्व को सहन करने को तैयार नहीं था। इसी कारण उसनें गुरु तेग़ बहादुर जी को शहीद कर दिया। औरंगज़ेब के बढ़ते हुए अत्याचारों को नुकेल डालना आवश्यक था। द्वितीय, पहाड़ी राजा अपने निहित स्वार्थों के कारण गुरु गोबिंद सिंह जी के विरुद्ध थे। तीसरा, धीरमलिए तथा रामसइए गुरुगद्दी न मिलने के कारण गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे। चौथा, उस समय मसंद प्रणाली में अनेकों दोष आ गए थे। मसंद अब बहुत भ्रष्ट हो गए थे। वे सिखों को लूटने में प्रसन्नता अनुभव करते थे। पाँचवां, उस समय हिंदू भी सदियों की गुलामी के कारण उत्साहहीन थे। परिणामस्वरूप सिखों को फिर से संगठित करने की आवश्यकता थी।

प्रश्न 148.
भंगाणी की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Bhangani.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के भंगाणी युद्ध का वर्णन करें तथा इसका महत्त्व भी बताएँ। (Describe Guru Gobind Singh’s battle of Bhangani and also explain its importance.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई गुरु गोबिंद सिंह जी तथा पहाड़ी राजाओं के बीच हुई प्रथम लड़ाई थी। यह लड़ाई 22 सितंबर, 1688 ई० में हुई थी। इस लड़ाई के लिए कई कारण उत्तरदायी थे। पहला, गुरु गोबिंद सिंह जी की चल रही सैनिक तैयारियों को देखकर पहाड़ी राजाओं में घबराहट फैल गई थी। उन्हें अपनी स्वतंत्रता ख़तरे में अनुभव होने लगी। दूसरा, गुरु गोबिंद सिंह जी के समाज-सुधार के कार्यों को पहाडी राजा अपने धर्म में हस्तक्षेप समझते थे। तीसरा, ये पहाड़ी राजा सिख संगतों को बहुत तंग करते थे। चौथा, मुग़ल सरकार भी इन पहाड़ी राजाओं को गुरु साहिब के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भड़का रही थी। पाँचवां, कहलूर का राजा भीम चंद गुरु साहिब से बहुत ईर्ष्या करता था। फलस्वरूप कहलूर के शासक भीम चंद तथा श्रीनगर के शासक फ़तह शाह के नेतृत्व में पहाड़ी राजाओं के एक गठबंधन ने 22 सितंबर, 1688 ई० में भंगाणी के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सढौरा के पीर बुद्ध शाह ने गुरु साहिब को सहायता दी। सिखों ने पहाड़ी राजाओं का डटकर सामना किया। इस लड़ाई में अंततः सिखों की विजय हुई। इस विजय के कारण सिखों का उत्साह बहुत बढ़ गया तथा गुरु साहिब की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। पहाड़ी राजाओं ने गुरु साहिब का विरोध छोड़कर उनसे मित्रता करने में ही अपनी भलाई समझी।

प्रश्न 149.
नादौन की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the battle of Nadaun.)
उत्तर-
भंगाणी की लड़ाई के पश्चात् गुरु गोबिंद सिंह जी पाऊँटा साहिब छोड़कर पुनः आनंदपुर साहिब आ गए। इस समय औरंगज़ेब दक्षिण के युद्धों में उलझा हुआ था। यह स्वर्ण अवसर देखकर पहाड़ी राजाओं ने मुग़लों को दिया जाने वाला वार्षिक खिराज (कर) देना बंद कर दिया। जब औरंगज़ेब को इस संबंध में ज्ञात हुआ तो उसने जम्मू के सूबेदार मीयाँ खाँ को इन पहाड़ी राजाओं को पाठ पढ़ाने का आदेश दिया। मीयाँ खाँ ने तुरंत आलिफ खाँ के अंतर्गत मुग़लों की एक भारी सेना इन पहाड़ी राजाओं के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए भेजी। ऐसे गंभीर समय में भीम चंद ने गुरु साहिब को सहायता के लिए निवेदन किया। गुरु साहिब ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया और वे स्वयं अपने सिखों को साथ लेकर सहायता के लिए पहुँचे। 20 मई, 1690 ई० को काँगड़ा से लगभग 30 किलोमीटर दूर नादौन में भीम चंद और आलिफ खाँ की सेनाओं में लड़ाई आरंभ हुई। इस लड़ाई में काँगड़ा के राजा कृपाल चंद ने आलिफ खाँ का साथ दिया। इस लड़ाई में गुरु साहिब और उनके सिखों ने अपनी वीरता के ऐसे जौहर दिखाए कि आलिफ खाँ और उसके सैनिकों को रणभूमि से भागने के लिए विवश होना पड़ा। इस प्रकार गुरु साहिब के सहयोग से भीम चंद और उसके साथी पहाडी राजाओं को विजय प्राप्त हुई।

प्रश्न 150.
खालसा की स्थापना के कारणों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। (Give in brief the causes of the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन क्यों किया ? । (Why did Guru Gobind Singh create the Khalsa ?) .
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के लिए उत्तरदायी मुख्य कारणों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए।
(Give a brief description of the circumstances responsible for the creation of Khalsa.)
अथवा
1699 ई० में खालसा की स्थापना के लिए उत्तरदायी कोई पाँच कारण लिखें। (Write any five causes that led to the creation of Khalsa in 1699 A.D.)
उत्तर-
जहाँगीर के समय से मुग़लों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। औरंगज़ेब तो सारी सीमाएँ ही लांघ गया। उसने हिंदुओं के कई विख्यात मंदिरों को गिरवा दिया और उनके रीति-रिवाजों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने गैर-मुसलमानों को तलवार के बल पर इस्लाम धर्म में सम्मिलित करना आरंभ कर दिया। 1675 ई० में उसने गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया। पहाड़ी राजा बहुत स्वार्थी और विश्वासघाती थे। गुरु गोबिंद सिंह जी को ऐसे सैनिकों की आवश्यकता पड़ी जो मुग़लों का डटकर सामना कर सकें। इसके अतिरिक्त गुरु साहिब ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान न हो। वे मसंद प्रथा को समाप्त करने के लिए सिखों को एक नए रूप में संगठित करना चाहते थे। अब तक सिख-धर्म में सम्मिलित होने वाले लोगों में बहुसंख्या जाटों की थी। वे स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे योद्धाओं का सहयोग प्राप्त करना चाहते थे। बचित्तर नाटक में गुरु गोबिंद सिंह जी लिखते हैं कि उनके जीवन का उद्देश्य संसार में धर्म-प्रचार का कार्य करना एवं अत्याचारियों का नाश करना है। अपने इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

प्रश्न 151.
खालसा पंथ की स्थापना कब, कहाँ और कैसे हुई ?
(When, where and how was the Khalsa founded ?)
अथवा
खालसा की स्थापना पर संक्षिप्त नोट लिखें।
(Write a short note on the creation of Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ख़ालसा की स्थापना किस प्रकार की? (How Khalsa was created by Guru Gobind Singh Ji ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च, 1699 ई० को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में केसगढ़ नामक स्थान पर एक भारी दीवान सजाया। इस दीवान में 80,000 सिखों ने भाग लिया। जब सभी लोग बैठ गए तो गुरु जी मंच पर आए। उन्होंने म्यान से तलवार निकाली और एकत्रित सिखों को संबोधित किया, “क्या आप में से कोई ऐसा सिख है जो धर्म के लिए अपना शीश भेट करे ?” ये शब्द सुनकर दीवान में सन्नाटा छा गया। जब गुरु जी ने अपने शब्दों को तीन बार दोहराया तो भाई दया राम जी अपना बलिदान देने के लिए उपस्थित हुआ। गुरु जी उसे पास ही एक तंबू में ले गए जहाँ उन्होंने दया राम को बिठाया और खून से भरी तलवार लेकर पुनः मंच पर आ गए। गुरु जी ने एक और सिख से बलिदान की माँग की। अब भाई धर्मदास जी उपस्थित हुआ। इस क्रम को तीन बार और दोहराया गया। गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए भाई मोहकम चंद जी, भाई साहिब चंद जी और भाई हिम्मत राय जी अपने बलिदानों के लिए उपस्थित हुए। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘पाँच प्यारों’ का चुनाव किया। गुरु साहिब ने इन पाँच प्यारों को पहले खंडे का पाहुल पिलाया और बाद में स्वयं इन प्यारों से पाहुल पिया। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन किया।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 152.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन कब किया और इसके मुख्य सिद्धांत क्या हैं ?
(When was the Khalsa created by Guru Gobind Singh Ji and what are its main principles ?)
अथवा
खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांतों का वर्णन करो। (Explain the main principles of the Khalsa.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा स्थापित किए गए ‘खालसा पंथ’ के मुख्य सिद्धाँत लिखो। (Write the main principles of the ‘Khalsa Panth’ founded by Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० में बैसाखी के दिन किया। खालसा पंथ के मुख्य सिद्धांत ये थे—

  1. खालसा पंथ में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए ‘खंडे का पाहुल’ छकना आवश्यक है।
  2. प्रत्येक खालसा अपने नाम के साथ ‘सिंह’ और खालसा स्त्री ‘कौर’ शब्द का प्रयोग करेगी।
  3. प्रत्येक खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा नहीं करेगा।
  4. प्रत्येक खालसा पाँच कक्कार–केश, कंघा, कड़ा, कच्छहरा और कृपाण अवश्य धारण करेगा।
  5. प्रत्येक खालसा भोर होते ही जागकर स्नान करने के पश्चात् गुरवाणी का पाठ करेगा।
  6. प्रत्येक खालसा श्रम द्वारा अपनी आजीविका कमाएगा और अपनी आय का दशांस धर्म के लिए दान देगा।
  7. प्रत्येक खालसा शस्त्र धारण करेगा और धर्म युद्ध के लिए सदैव तैयार रहेगा।
  8. प्रत्येक खालसा सिगरेट, नशीले पदार्थों के सेवन, पर-स्त्री गमन इत्यादि बुराइयों से कोसों दूर रहेगा।
  9. प्रत्येक खालसा परस्पर मिलते समय ‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह’ कहेगा।

प्रश्न 153.
खालसा पंथ की स्थापना के महत्त्व पर एक नोट लिखो। (Write a note on the importance of the Khalsa.)
अथवा
खालसा की स्थापना का क्या महत्त्व था ? (What was the importance of the foundation of Khalsa ?)
अथवा
खालसा की स्थापना के महत्त्व का अध्ययन कीजिए। (Study the importance of the creation of Khalsa.)
उत्तर-
खालसा पंथ की स्थापना सिख इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसके दूरगामी परिणाम निकले। खालसा की स्थापना के पश्चात् लोग बड़ी संख्या में सिख धर्म में सम्मिलित होने लगे। खालसा की स्थापना से एक आदर्श समाज का जन्म हुआ। इसमें ऊँच-नीच का कोई स्थान नहीं था। समस्त जातियों को समान समझा जाने लगा। इस प्रकार निम्न और पिछड़े वर्गों को एक नया सम्मान प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त इस समाज में अंध-विश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं था। खालसा की स्थापना करके गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों में नव प्राण फूंके। अत्याचारियों के सम्मुख झुकने की अपेक्षा अब उन्होंने शस्त्र उठा लिए। दुर्बल से दुर्बल सिख भी अब स्वयं को शेर की भाँति वीर समझने लगा। उन्होंने वीरता की नई उदाहरणें स्थापित की। अंत में वे पंजाब से मुग़लों तथा अफ़गानों के अत्याचारी शासन का उन्मूलन करके और महाराजा रणजीत सिंह के अंतर्गत एक स्वतंत्र सिख राज्य स्थापित करने में सफल हुए।

प्रश्न 154.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a brief note on the first battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना के पश्चात् भारी संख्या में लोग खालसा पंथ में सम्मिलित होने लगे थे। गुरु जी की दिन-प्रतिदिन बढ़ रही इस शक्ति के कारण पहाड़ी राजाओं के मन की शांति भंग हो गई थी। कहलूर के राजा भीम चंद, जिसकी रियासत में श्री आनंदपुर साहिब स्थित था, ने गुरु जी को श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए कहा। गुरु जी ने यह माँग मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि गुरु तेग़ बहादुर जी ने यह भूमि उचित मूल्य देकर क्रय की थी। इस पर भीम चंद ने कुछ अन्य पहाड़ी राजाओं से मिल कर 1701 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण कर दिया। किले का घेरा कई दिनों तक जारी रहा। किले के भीतर यद्यपि सिखों की संख्या बहुत कम थी, फिर भी उन्होंने पहाड़ी राजाओं की सेनाओं का खूब डट कर सामना किया। जब पहाड़ी राजाओं को सफलता मिलने की कोई आशा न रही तो उन्होंने गुरु जी से संधि कर ली। यह संधि पहाड़ी राजाओं की एक चाल थी तथा वह अवसर देखकर गुरु गोबिंद सिंह जी पर एक ज़ोरदार आक्रमण करना चाहते थे।

प्रश्न 155.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on the second battle of Sri Anandpur Sahib.)
उत्तर-
पहाड़ी राजा गुरु गोबिंद सिंह जी से अपनी हुई निरंतर पराजयों के अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने मुग़ल सेनाओं से मिलकर मई, 1704 ई० में श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग पर दूसरी बार आक्रमण कर दिया। इस संयुक्त सेना ने दुर्ग के भीतर जाने के अनेक प्रयास किए, परंतु सिख योद्धाओं ने इन सभी प्रयासों को असफल बना दिया। घेरे के लंबे हो जाने के कारण दुर्ग के भीतर खाद्य-सामग्री कम होनी आरंभ हो गई। इसलिए सिखों के लिए अधिक समय तक लड़ाई को जारी रखना संभव नहीं था। अतः कुछ सिखों ने गुरु साहिब को श्री आनंदपुर साहिब का दुर्ग छोड़ने का निवेदन किया। गुरु साहिब ने सिखों को कुछ दिन और संघर्ष जारी रखने का परामर्श दिया। इस परामर्श को न मानते हुए 40 सिख गुरु जी को बेदावा देकर दुर्ग छोड़कर चले गए। दूसरी ओर इतने लंबे समय से घेरे के कारण शाही सेना भी बहुत परेशान थी। इसलिए उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने कुरान और गायों की कसम खाकर गुरु साहिब को विश्वास दिलाया कि यदि वे श्री आनंदपुर साहिब छोड़ दें तो उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचाई जायेगी। गुरु साहिब को इन झूठी कसमों पर कोई विश्वास नहीं था, परंतु माता गुजरी और कुछ अन्य सिखों के निवेदन पर गुरु साहिब ने 20 दिसंबर, 1704 ई० को श्री आनंदपुर साहिब के दुर्ग को छोड़ दिया।

प्रश्न 156.
चमकौर साहिब की लड़ाई का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Give a brief account of the battle of Chamkaur Sahib.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा श्री आनंदपुर साहिब का दुर्ग छोड़ने के पश्चात् मुग़ल सेनाएँ बहुत तीव्रता से उनका पीछा कर रही थीं। गुरु साहिब ने चमकौर साहिब की एक कच्ची गढ़ी में 40 सिखों सहित शरण ली। 22 दिसंबर, 1704 ई० को हजारों की संख्या में मुग़ल सैनिकों ने इस गढ़ी को घेरे में ले लिया। चमकौर साहिब की यह लड़ाई बहुत घमासान लड़ाई थी। इस लड़ाई में गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह तथा जुझार सिंह ने र ह वीरता प्रदर्शित की कि मुग़लों को दिन में तारे दिखाई देने लगे। उन्होंने असंख्य मुसलमानों को मृत्यु की गोद में सुलाया और अंततः लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। चमकौर साहिब की उस लड़ाई में जो वीरता सिखों ने दिखाई उसकी कोई अन्य उदाहरण मिलना बहुत कठिन है । पाँच सिखों के अनुरोध पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने चमकौर साहिब की गढ़ी को छोड़ दिया। गढ़ी छोड़ते समय गुरु जी ने मुगल सेना को ललकारा, परंतु वह गुरु साहिब का कुछ न बिगाड़ सकी।

प्रश्न 157.
खिदराना (मुक्तसर ) की लड़ाई पर एक संक्षिप्त नोट लिखो। [Write a brief note on the battle of Khidrana (Mukatsar).]
उत्तर-
खिदराना की लड़ाई गुरु जी तथा मुग़ल सेना में लड़ी जाने वाली अंतिम निर्णायक लड़ाई थी। गुरु गोबिंद सिंह जी माछीवाड़ा के जंगलों में अनेक कठिनाइयाँ झेलते हुए खिदराना पहुँचे थे। जब मुग़लों को इस बात का पता चला तो सरहिंद के नवाब वज़ीर खाँ ने खिदराना में गुरु साहिब पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उसने 29 दिसंबर, 1705 ई० को एक विशाल सेना के साथ गुरु जी की सेना पर खिदराना के स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में सिखों ने बड़ी वीरता दिखाई। उन्होंने मुग़ल सेना के ऐसे छक्के छुड़ाए कि वे युद्ध स्थल छोड़ कर भाग गए। इस प्रकार गुरु जी को अपनी इस अंतिम लड़ाई में बड़ी शानदार विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में वह 40 सिख भी लड़ते-लड़ते शहीद हो गए थे जो आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई में गुरु जी का साथ छोड़ गए थे। उनकी कुर्बानी से प्रभावित होकर और उनके नेता महा सिंह, जो जीवन की अंतिम साँसें ले रहा था, की विनती को स्वीकार करके गुरु साहिब ने उनके द्वारा लिखे गए बेदावे को फाड़ दिया और उन्हें मुक्ति का वर दिया। इस कारण खिदराना का नाम श्री मुक्तसर साहिब पड़ गया।

प्रश्न 158.
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में आप क्या जानते हैं ? (What do you know about the literary activities of Guru Gobind Singh Ji ?)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक सरगर्मियों के बारे में बताइए। (Describe the literary activities of Guru Gobind Singh Ji.)
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक उपलब्धियों का मूल्यांकन करें। (Evaluate the literary achievements of Guru Gobind Singh Ji.)
उत्तर-
साहित्य के क्षेत्र में गुरु गोबिंद सिंह जी का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह स्वयं उच्चकोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। उनके द्वारा रचित अधिकाँश साहित्य सिरसा नदी में बह गया था। फिर भी जो साहित्य हम तक पहुँचा है, उससे आपके महान् विद्वान् होने का पर्याप्त प्रमाण मिलता है। गुरु साहिब ने अपनी रचनाओं में पंजाबी, हिंदी, फ़ारसी, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं का प्रयोग किया। जापु साहिब, बचित्तर नाटक, ज़फ़रनामा, चंडी दी वार आप की महान् रचनाएँ हैं। इनमें आपने विभिन्न विषयों पर भरपूर प्रकाश डाला है। ये रचनाएँ आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं। इनसे हमें ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी भी प्राप्त होती है। आपकी ये रचनाएँ इतनी जोश से भरी हैं कि इन्हें पढ़ कर मुर्दा दिलों में भी जान आ जाती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने दरबार में 52 उच्चकोटि के कवियों को संरक्षण दिया था। इन में से नंद लाल, सैनापत, गोपाल तथा उदै राय के नाम उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 159.
ज़फ़रनामा क्या है ? (What is Zafarnama ?)
अथवा
ज़फ़रनामा पर एक संक्षिप्त नोट लिखें। (Write a short note on Zafarnama.)
उत्तर-
ज़फ़रनामा गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए एक पत्र का नाम है। यह पत्र फ़ारसी में लिखा गया था। इसे गुरु जी ने दीना काँगड़ (फरीदकोट) नामक स्थान से लिखा था। इस पत्र में गुरु जी ने औरंगजेब का तथा पहाड़ी राजाओं तथा मुग़ल सेनापतियों की ओर से कुरान की झूठी शपथ लेकर भी गुरु जी से धोखा करने का उल्लेख बड़े साहस से किया है। गुरु गोबिंद सिंह जी लिखते हैं—
“ऐ औरंगजेब तू झूठा दीनदार बना घूमता है, तुझ में तनिक भी सत्य नहीं, तुझे खुदा तथा मुहम्मद में कोई विश्वास नहीं। यह भी कोई वीरता नहीं कि हमारे 40 भूखे सिंहों पर तेरी लाखों की सेना आक्रमण करे। तू तथा तेरे सैन्य अधिकारी सभी मक्कार तथा कायर हैं। तुम झूठे तथा धोखेबाज़ हो। निस्संदेह तुम राजाओं के राजा तथा विख्यात सेनापति हो, परंतु तुम सच्चे धर्म से कोसों दूर हो। तुम्हारे मुँह में कुछ और है तो दिल में कुछ और।”
गुरु जी के इस पत्र का औरंगजेब के दिल पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उसने गुरु जी से भेंट का संदेश भेजा, परंतु गुरु जी अभी मार्ग में ही थे कि औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई।

प्रश्न 160.
“गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् संगठनकर्ता थे।” क्या आप इस विचार से सहमत हैं ? (“Guru Gobind Singh Ji was a builder par-excellence.” Do you agree to this statement ?)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी उच्चकोटि के संगठनकर्ता थे। उस समय औरंगज़ेब के अधीन मुग़ल सरकार किसी भी लहर, विशेष रूप से सिख लहर को सहन करने के लिए तैयार नहीं थी। उसने गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया था। सिखों में मसंद प्रथा बहुत भ्रष्ट हो गई थी। हिंदू बहुत समय से निरुत्साहित थे। पहाड़ी राजा अपने स्वार्थी हितों के कारण मुग़ल सरकार से मिले हुए थे। ऐसे विरोधी तत्त्वों के बावजूद गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके अपनी संगठन शक्ति का प्रमाण दिया। संचमुच यह एक महान् कार्य था। इसने लोगों में नया जोश उत्पन्न किया। वे महान योद्धा बन गए और धर्म के नाम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो गए। उन्होंने तब तक सुख की साँस न ली जब तक पंजाब में से मुग़लों तथा अफ़गानों के शासन का अंत न कर लिया गया तथा पंजाब में एक स्वतंत्र सिख साम्राज्य की स्थापना न कर ली गई।

प्रश्न 161.
गुरु गोबिंद सिंह जी के व्यक्तित्व की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ। (Mention any five characteristics of Guru Gobind Singh Ji’s personality.)
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी अपने समय के महान् योद्धा तथा सेनानी थे। वह घुड़सवारी, तीरअंदाज़ी तथा शस्त्र चलाने में बहुत कुशल थे। वह प्रत्येक लड़ाई में अपने सैनिकों का नेतृत्व करते थे। वह लड़ाई के मैदान में भारी कठिनाइयों के बावजूद चट्टान की भाँति अडिग रहते थे। अपने सीमित साधनों के बावजूद गुरु साहिब ने पहाडी राजाओं तथा मुग़लों के विरुद्ध शानदार सफलता प्राप्त की। गुरु गोबिंद सिंह जी सिंह की भाँति वीर तथा निडर थे। यद्यपि गुरु जी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने कभी भी अत्याचारियों से समझौता न किया। गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखा गया ज़फ़रनामा (पत्र) उनकी निडरता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान् नेता थे। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने मुग़लों के साथ युद्ध किए तथा अपना सर्वस्व न्योछावर किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को एक ईश्वर की पूजा और गुरु वाणी का पाठ करने के लिए प्रेरित किया। गुरु गोबिंद सिंह जी एक उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। जाप साहिब, बचित्तर नाटक तथा ज़फ़रनामा आपकी महान् रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में गुरु साहिब ने पंजाबी, हिंदी, संस्कृत, अरबी तथा फ़ारसी आदि भाषाओं का प्रयोग किया है। निस्संदेह गुरु गोबिंद सिंह जी की साहित्यिक धरोहर अमूल्य है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सिख धर्म में कितने गुरु हुए हैं ?
उत्तर-
सिख धर्म में दस गुरु हुए हैं।

प्रश्न 2.
सिख धर्म के संस्थापक कौन थे ?
उत्तर-
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी थे।

प्रश्न 3.
सिख धर्म का आरंभ किसने और कब किया?
उत्तर-
सिख धर्म का आरंभ गुरु नानक देव जी ने 1469 ई० में किया।

प्रश्न 4.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में तलवंडी (पाकिस्तान) में हुआ था।

प्रश्न 5.
‘सतिगुरु नानक प्रगटिआ मिटी धुंध जगि चानणु होआ’ किसकी रचना है ?
उत्तर-
यह रचना भाई गुरदास जी की है।

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी के जन्म स्थान को आजकल क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
ननकाणा साहिब ।।

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
मेहता कालू।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी के पिता जी किस जाति से संबंधित थे ?
उत्तर-
वे बेदी जाति के क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे।

प्रश्न 9.
मेहता कालू जी कौन थे ?
उत्तर-
मेहता कालू जी गुरु नानक देव जी के पिता थे।

प्रश्न 10.
तृप्ता देवी जी कौन थी ?
उत्तर-
तृप्ता देवी जी गुरु नानक देव जी की माता जी थीं।

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी का नाम नानक क्यों रखा गया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी का नाम नानक इसलिए रखा गया क्योंकि उनका जन्म अपने ननिहाल में हुआ था।

प्रश्न 12.
गुरु नानक देव जी की बहन का क्या नाम था ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की बहन का नाम नानकी जी था।

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी के किन्हीं दो अध्यापकों के नाम बताओ जिनसे उन्होंने बचपन में शिक्षा प्राप्त की थी।
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने बचपन में पंडित गोपाल तथा मौलवी कुतुबुद्दीन से शिक्षा प्राप्त की थी।

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर-
बीबी सुलक्खनी जी

प्रश्न 15.
गुरु नानक देव जी के दोनों सुपुत्रों के नाम बताएँ।
उत्तर-
श्रीचंद तथा लखमी दास।

प्रश्न 16.
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी क्यों भेजा गया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को नौकरी करने के लिए भेजा गया।

प्रश्न 17.
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी किसके पास भेजा गया था?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को सुल्तानपुर लोधी अपनी बहन बीबी नानकी के पास भेजा गया था।

प्रश्न 18.
गुरु नानक देव जी को ज्ञान की प्राप्ति कब और कहाँ हुई ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी को ज्ञान की प्राप्ति 1499 ई० में बेईं नदी (सुल्तानपुर) में हुई।

प्रश्न 19.
गुरु नानक देव जी ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम कौन-से शब्द कहे ?
उत्तर-
“न को हिंदू न को मुसलमान”

प्रश्न 20.
गुरु नानक देव जी की उदासियों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी की उदासियों से अभिप्राय उनकी यात्राओं से है।

प्रश्न 21.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-
लोगों में फैली अज्ञानता को दूर करना और नाम का प्रचार करना।

प्रश्न 22.
गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी कब और कहाँ से आरंभ की ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने अपनी प्रथम उदासी 1499 ई० में सैदपुर (ऐमनाबाद) से आरंभ की।

प्रश्न 23.
गुरु नानक देव जी ने लगभग कितने वर्ष उदासियों में व्यतीत किए ?
उत्तर-
21 वर्ष।

प्रश्न 24.
कौन-सा व्यक्ति गुरु नानक साहिब के साथ सदैव रहता था?
उत्तर-
भाई मरदाना जी।

प्रश्न 25.
कौन-सा व्यक्ति गुरु नानक देव जी का प्रथम शिष्य बना ?
उत्तर-
भाई लालो जी।।

प्रश्न 26.
गुरु नानक देव जी सैदपुर (ऐमनाबाद) में मलिक भागो का भोजन खाने से क्यों इंकार कर दिया था ?
उत्तर-
उसकी कमाई ईमानदारी की नहीं थी।

प्रश्न 27.
गुरु नानक देव जी सज्जन ठग को कहाँ मिले ?
उत्तर-
तालुंबा में।

प्रश्न 28.
गुरु नानक देव जी ने कुरुक्षेत्र में लोगों को क्या शिक्षा दी ?
उत्तर-
उन्हें बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा अपनी आत्मा को पवित्र रखने की ओर ध्यान देना चाहिए।

प्रश्न 29.
हरिद्वार में गुरु नानक देव जी ने किस प्रकार से लोगों के अंधविश्वासों का खंडन किया ?
उत्तर-
उनके द्वारा दिया जाने वाला पानी दूसरे लोक में नहीं पहुँच सकता।

प्रश्न 30.
गुरु नानक देव जी ने किस स्थान पर सूर्य को पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की ओर पानी दिया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने हरिद्वार में सूर्य को पूर्व की जगह पश्चिम दिशा की ओर पानी दिया।

प्रश्न 31.
गुरु नानक देव जी ने गोरखमता में जोगियों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर-
मुक्ति बाह्याडंबरों से नहीं बल्कि आत्मा की शुद्धि से प्राप्त होती है।

प्रश्न 32.
नूरशाही कौन थी ?
उत्तर-
कामरूप की प्रसिद्ध जादूगरनी।

प्रश्न 33.
बनारस में गुरु नानक देव जी का किस पंडित से वाद-विवाद हुआ ?
उत्तर-
पंडित चतरदास।।

प्रश्न 34.
उड़ीसा के किस मंदिर में गुरु साहिब ने लोगों को आरती का सही अर्थ बताया ?
उत्तर-
जगन्नाथ पुरी के मंदिर में।

प्रश्न 35.
गुरु नानक साहिब ने कैलाश पर्वत के सिद्धों को क्या उपदेश दिया ?
उत्तर-
वह मानवता की सेवा करें।

प्रश्न 36.
गुरु नानक देव जी लंका में कौन-से शासक को मिले थे ?
उत्तर-
शिवनाथ को।

प्रश्न 37.
मक्का में गुरु नानक साहिब के साथ क्या घटना हुई ?
उत्तर-
यहाँ काज़ी रुकुनुद्दीन ने गुरु जी के पाँव पकड़ कर दूसरी ओर किए तो काबा भी उसी ओर घूम गया।

प्रश्न 38.
हसन अब्दाल अब.किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर-
पंजा साहिब के नाम से।

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प्रश्न 39.
गुरु नानक देव जी को किस मुग़ल बादशाह ने कब और कहाँ कुछ समय के लिए बंदी बना लिया था ?
उत्तर-
बाबर ने 1520 ई० में सैदपुर (ऐमनाबाद) में।

प्रश्न 40.
गुरु नानक देव जी के ईश्वर के संबंध में क्या विचार थे ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी के अनुसार ईश्वर एक है।

प्रश्न 41.
गुरु नानक देव जी की कोई एक मुख्य शिक्षा बताएँ।
उत्तर-
ईश्वर एक है और वह सर्वशक्तिमान् है।

प्रश्न 42.
गुरु नानक साहिब के श्रम के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
हमें परिश्रम करके अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिए।

प्रश्न 43.
गुरु नानक देव जी के अनुसार मनुष्य के कितने शत्रु हैं?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 44.
गुरु नानक देव जी की शिक्षा में गुरु का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
गुरु मुक्ति तक ले जाने वाली वास्तविक सीढ़ी है।

प्रश्न 45.
गुरु नानक देव जी के अनुसार नाम जपने का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
नाम के बिना मनुष्य का इस संसार में आना व्यर्थ है।

प्रश्न 46.
मनमुख व्यक्ति की कोई एक विशेषता बताएँ।
उत्तर-
मनमुख व्यक्ति इंद्रिय-जन्य भूख से घिरा रहता है।

प्रश्न 47.
आत्म-समर्पण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आत्म-समर्पण से अभिप्राय अहं का त्याग है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ऐसा करना आवश्यक है।

प्रश्न 48.
नदरि से क्या भाव है ?
उत्तर-
नदरि से अभिप्राय ईश्वर की दया से है।

प्रश्न 49.
आदेश से क्या भाव है ?
उत्तर-
आदेश से अभिप्राय ईश्वर की इच्छा से है।

प्रश्न 50.
‘किरत’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किरत से अभिप्राय मेहनत तथा ईमानदारी के श्रम से है।

प्रश्न 51.
‘अंजन माहि निरंजन’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
‘अंजन माहि निरंजन’ से अभिप्राय संसार की बुराइयों में रहते हुए सत्य जीवन व्यतीत करने से है।

प्रश्न 52.
गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के सारांश का तीन शब्दों में उल्लेख करें।
उत्तर-
श्रम करो, नाम जपो तथा बाँट कर खाओ।

प्रश्न 53.
कीर्तन की प्रथा किस गुरु ने आरंभ की ?
उत्तर-
कीर्तन की प्रथा गुरु नानक देव जी ने आरंभ की।

प्रश्न 54.
गुरु नानक देव जी एक समाज सुधारक थे। अपने पक्ष में कोई एक तर्क दीजिए।
उत्तर-
उन्होंने स्त्रियों में प्रचलित कुप्रथा का जोरदार शब्दों में खंडन किया।

प्रश्न 55.
गुरु नानक देव जी ने कब और किस नगर की स्थापना की ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने 1521 ई० में करतारपुर की स्थापना की।

प्रश्न 56.
रावी किनारे किस गुरु ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
रावी किनारे गुरु नानक देव जी ने करतारपुर नामक नगर बसाया।

प्रश्न 57.
करतारपुर से क्या भाव है ?
उत्तर-
परमात्मा का शहर।

प्रश्न 58.
करतारपुर में गुरु नानक साहिब ने कौन-सी दो संस्थाएँ स्थापित की ?
उत्तर-
‘संगत और पंगत’।

प्रश्न 59.
संगत एवं पंगत की स्थापना कौन-से गुरु ने कहाँ की ?
अथवा
संगत की स्थापना किसने की थी ?
अथवा
पंगत की स्थापना किसने की थी?
उत्तर-
संगत एवं पंगत की स्थापना गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में की थी।

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प्रश्न 60.
संगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संगत से अभिप्राय उस समूह से है जो एकत्रित होकर गुरु जी के उपदेश सुनते हैं।

प्रश्न 61.
पंगत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
पंगत से अभिप्राय पंक्तियों में बैठकर लंगर खाने से है।

प्रश्न 62.
लंगर प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 63.
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन का अंतिम समय कहाँ व्यतीत किया ?
उत्तर-
करतारपुर (पाकिस्तान) में।

प्रश्न 64.
गुरु नानक देव जी की किसी दो मुख्य वाणियों के नाम बताओ।
उत्तर-

  1. जपुजी साहिब
  2. बारह माह।

प्रश्न 65.
बाबर वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की ?
उत्तर-
बाबर वाणी की रचना गुरु नानक साहिब ने की थी।

प्रश्न 66.
गुरु नानक देव जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
उत्तर-
1539 ई० में।

प्रश्न 67.
गुरु नानक देव जी ने किसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी को।

प्रश्न 68.
भाई लहणा जी को अंगद का नाम किसने दिया ?
उत्तर-
गुरु नानक देव जी ने।

प्रश्न 69.
गुरु नानक देव जी द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
इससे सिख धर्म में गुरुगद्दी की परंपरा चल पड़ी।

प्रश्न 70.
सिख धर्म के दूसरे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
सिखों के दूसरे गुरु, गुरु अंगद साहिब जी थे।

प्रश्न 71.
गुरु अंगद देव जी ने कब-से-कब तक गुरुगद्दी का संचालन किया ?
उत्तर-
1539 ई० से लेकर 1552 ई०

प्रश्न 72.
गुरु अंगद देव जी का जन्म कब और कहाँ हआ ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब का जन्म 1504 ई० में मत्ते दी सराय (मुक्तसर) नामक गाँव में हुआ।

प्रश्न 73.
गुरु अंगद देव जी के माता का नाम बताएँ।
उत्तर-
सभराई देवी जी।

प्रश्न 74.
गुरु अंगद देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
फेरुमल जी।

प्रश्न 75.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई लहणा जी।

प्रश्न 76.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का प्रसिद्ध केंद्र कौन-सा था ?
उत्तर-
खडूर साहिब।

प्रश्न 77.
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का सुधार किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का खडूर साहिब में सुधार किया

प्रश्न 78.
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का और कहाँ सुधार किया ?
अथवा
गुरु अंगद देव जी ने किस लिपि का संशोधन किया ?
उत्तर-
गुरु अंगद देव जी ने गुरमुखी लिपि का खडूर साहिब में सुधार किया।

प्रश्न 79.
दूसरे गुरु ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
दूसरे गुरु ने गोइंदवाल पहिब का नगर बसाया।

प्रश्न 80.
गोइंदवाल साहिब की नींव किसने तथा कब रखी ?
अथवा
गोइंदवाल साहिब की स्थापना किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु अंगद साहिब जी ने गोइंदवाल साहिब की नींव 1546 ई० में रखी थी।

प्रश्न 81.
गुरु अंगद साहिब जी ने किन दो संस्थाओं का विकास किया ?
उत्तर-
संगत और पंगत।

प्रश्न 82.
सिख पंथ के विकास में गुरु अंगद देव जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण योगदान बताएँ।
उत्तर-
उन्होंने गुरुमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया।

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प्रश्न 83.
गुरु अंगद साहिब जी के समय में खडूर साहिब में लंगर का प्रबंध कौन करता था ?
उत्तर–
बीबी खीवी जी।

प्रश्न 84.
लंगर संस्था की मुखी किस गुरु की पत्नी व कौन थी ?
उत्तर-
लंगर संस्था की मुखी गुरु अंगद देव जी की सुपत्नी बीबी खीवी जी थी।

प्रश्न 85.
लंगर संस्था का सिखों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर-
लंगर संस्था के कारण हिंदुओं की जाति प्रथा को गहरा आघात पहुँचा।

प्रश्न 86.
उदासी मत का संस्थापक कौन था ?
उत्तर-
बाबा श्रीचंद जी।

प्रश्न 87.
उदासी मत से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उदासी मत में संन्यासी जीवन पर बल दिया जाता था।

प्रश्न 88.
गुरु अंगद साहिब के काल के कौन-से मुख्य रागी थे जिन्होंने संगत का अनुशासन भंग किया ?
अथवा
सिख धर्म में अनुशासन लाने के लिए गुरु अंगद देव जी ने कौन-से दो गायकों को सज़ा दी ?
उत्तर-
सत्ता तथा बलवंड।

प्रश्न 89.
कौन-सा मुग़ल बादशाह गुरु अंगद देव जी से मिलने आया था ?
उत्तर-
हुमायूँ।

प्रश्न 90.
गुरु अंगद साहिब जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी को।

प्रश्न 91.
सिखों के तीसरे गरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 92.
गुरु अमरदास जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
1552 ई० से 1574 ई० तक।

प्रश्न 93.
गुरु अमरदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1479 ई० में।

प्रश्न 94.
गुरु अमरदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
तेज भान भल्ला।

प्रश्न 95.
गुरु अमरदास जी जिस समय गुरुगद्दी पर बैठे तो उस समय उनकी आयु क्या थी ?
उत्तर-
73 वर्ष।

प्रश्न 96.
गुरु अमरदास जी के पुत्रों के नाम बताएँ।
अथवा
मोहन और मोहरी कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी के पुत्रों का नाम बाबा मोहन तथा बाबा मोहरी थे।

प्रश्न 97.
गुरु अमरदास जी की पुत्रियों के नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी की पुत्रियों के नाम बीबी भानी तथा बीबी दानी थे।

प्रश्न 98.
बीबी भानी कौन थी ?
उत्तर–
बीबी भानी गुरु अमरदास जी की सपत्री थी।।

प्रश्न 99.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 100.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली के निर्माण का उद्देश्य क्या था ?
उत्तर-
सिखों को एक नया तीर्थ स्थल देना।

प्रश्न 101.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी सीढ़ियाँ बनाई गई थीं ?
उत्तर-
गोइंदवाल साहिब में 84 सीढ़ियाँ बनाई गई थीं।

प्रश्न 102.
सिख धर्म के प्रसार के लिए गुरु अमरदास जी द्वारा किया गया कोई एक कार्य बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किया।

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प्रश्न 103.
मंजी प्रथा की स्थापना किस गुरु साहिब ने तथा क्यों आरंभ की थी ?
अथवा
मंजी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
मंजी प्रथा की स्थापना गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म के प्रचार के लिए की थी।

प्रश्न 104.
मंजी संस्था किस गुरु ने प्रारंभ की तथा कुल मंजियाँ कितनी थीं ?
उत्तर-
मंजी संस्था गुरु अमरदास जी ने प्रारंभ की तथा कुल 22 मंजियाँ थीं।

प्रश्न 105.
मंजी प्रथा ने सिख धर्म के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर-
मंजी प्रथा ने सिख धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 106.
गुरु अमरदास जी की सर्वाधिक प्रसिद्ध वाणी कौन-सी है ?
उत्तर-
अनंदु साहिब।

प्रश्न 107.
अमंदु साहिब वाणी की रचना किस गुरु साहिब ने की ?
अथवा
अनंदु साहिब किस की रचना है ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी।

प्रश्न 108.
गुरु अमरदास जी का कोई एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार बताएँ।
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने के पक्ष में प्रचार किया।

प्रश्न 109.
स्त्री जाति के सुधार के लिए गुरु अमरदास जी ने कौन-सा एक कार्य किया ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का खंडन किया।

प्रश्न 110.
गुरु अमरदास जी से भेंट करने कौन-सा मुग़ल बादशाह गोइंदवाल साहिब आया था ?
उत्तर-
अकबर।

प्रश्न 111.
किस मुग़ल बादशाह ने गोइंदवाल साहिब पंगत में बैठकर लंगर छका ?
उत्तर-
मुग़ल बादशाह अकबर ने गोइंदवाल साहिब में पंगत में बैठकर लंगर छका।

प्रश्न 112.
गुरुगद्दी को वंशानुगत किस गुरु ने बनाया था ?
उत्तर-
गुरु अमरदास जी ने।

प्रश्न 113.
गुरु अमरदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी को।

प्रश्न 114.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
1574 ई० में।

प्रश्न 115.
सिखों के चौथे गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी।

प्रश्न 116.
गुरु रामदास जी का गुरुकाल कौन-सा था ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी का गुरुकाल 1574 ई० से 1581 ई० तक था।

प्रश्न 117.
गुरु रामदास जी का जन्म कब हुआ ?
उत्तर-
1534 ई० में ।

प्रश्न 118.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
भाई जेठा जी।

प्रश्न 119.
गुरु रामदास जी के पिता जी का क्या नाम था ?
उत्तर-
हरीदास सोढी।

प्रश्न 120.
गुरु रामदास जी की पत्नी का नाम लिखें।
उत्तर-
बीबी भानी जी।

प्रश्न 121.
पृथी चंद कौन था ?
उत्तर-
पृथी चंद गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरु अर्जन देव जी का बड़ा भाई था।

प्रश्न 122.
गुरु रामदास जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
उत्तर-
1574 ई० में।

प्रश्न 123.
गुरु रामदास जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता का उल्लेख करें।
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने रामदासपुरा शहर की स्थापना की।

प्रश्न 124.
चौथे गुरु रामदास जी ने कौन-सा नगर बसाया ?
उत्तर-
रामदासपुरा।

प्रश्न 125.
रामदासपुरा की स्थापना का महत्त्व बताएँ।
उत्तर-
रामदासपुरा की स्थापना से सिखों को उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 126.
अमृतसर नगर की नींव कब और किस गुरु ने रखी थी?
अथवा
अमृतसर की स्थापना किसने की ?
उत्तर-
अमृतसर नगर की नींव 1577 ई० में गुरु रामदास जी ने रखी थी।

प्रश्न 127.
सिखों और उदासियों के बीच समझौता किस गुरु के समय में हुआ ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी के समय।

प्रश्न 128.
गुरु रामदास जी तथा उदासियों के मध्य समझौता सिख पंथ के लिए किस प्रकार लाभदायक सिद्ध हुआ?
उत्तर-
इस समझौते के कारण सिखों तथा उदासियों के मध्य चली आ रही शत्रुता समाप्त हो गई।

प्रश्न 129.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
अथवा
सिख धर्म में मसंद प्रथा किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

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प्रश्न 130.
मसंद प्रथा का एक उद्देश्य बताओ।
उत्तर-
सिख धर्म का प्रचार करना।

प्रश्न 131.
कौन-सा मुगल बादशाह गुरु रामदास जी के पास आया था ?
उत्तर-
अकबर।

प्रश्न 132.
विवाह के समय लावाँ प्रथा का आरंभ किस गुरु साहिब ने की थी ?
उत्तर-
गुरु रामदास जी ने।

प्रश्न 133.
गुरु रामदास जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे बनाया ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को।

प्रश्न 134.
सिखों के पाँचवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 135.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कब हुआ?
उत्तर-
15 अप्रैल, 1563 ई में।

प्रश्न 136.
गुरु अर्जन देव जी के माता-पिता का नाम बताओ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की माता जी का नाम बीबी भानी तथा पिता जी का नाम गुरु रामदास जी था।

प्रश्न 137.
गुरु अर्जन देव जी कब से लेकर कब तक गुरुगद्दी पर बने रहे ?
उत्तर-
1581 ई० से लेकर 1606 ई० तक।

प्रश्न 138.
पृथिया कौन था ?
उत्तर-
पृथिया गुरु रामदास जी का ज्येष्ठ पुत्र तथा गुरु अर्जन देव जी का ज्येष्ठ भाई था।

प्रश्न 139.
पृथी चंद ने किस संप्रदाय की नींव रखी ?
उत्तर-
मीणा संप्रदाय की।

प्रश्न 140.
पृथिया ने गुरु अर्जन देव जी का विरोध क्यों किया ?
उत्तर-
क्योंकि पृथिया स्वंय को गुरुगदी का वास्तविक अधिकारी मानता था ।

प्रश्न 141.
मेहरबान किसका पुत्र था ?
उत्तर-
मेहरबान पृथी चंद का पुत्र था।

प्रश्न 142.
गुरु अर्जन देव जी की कोई एक महत्त्वपूर्ण सफलता बताएँ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने अमृतसर में हरिमंदिर साहिब की स्थापना की।

प्रश्न 143.
हरिमंदिर साहिब से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब से अभिप्राय है हरि (परमात्मा) का मंदिर (घर)।

प्रश्न 144.
हरिमंदिर साहिब का निर्माण किस गुरु ने करवाया ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी ने।

प्रश्न 145.
हरिमंदिर साहिब की आधारशिला किसने और कब रखी ?
उत्तर-
सूफ़ी संत मीयाँ मीर ने 1588 ई० में।

प्रश्न 146.
श्री दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-
बाबा बुड्डा जी।

प्रश्न 147.
हरिमंदिर साहिब की चारों दिशाओं में चार द्वार क्यों बनाए गए हैं ?
अथवा
हरिमंदिर साहिब के चार दरवाजे किस उपदेश का संकेत करते हैं ?
उत्तर-
यह मंदिर चार जातियों और चार दिशाओं से आने वाले लोगों के लिए खुला है।

प्रश्न 148.
करतारपुर शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
करतारपुर शब्द से अभिप्राय है ईश्वर का नगर।

प्रश्न 149.
‘तरन तारन’ का भावार्थ क्या है ?
उत्तर-
तरन तारन का अर्थ यह है कि इस सरोवर में स्नान करने वाला व्यक्ति इस भवसागर से पार हो जाएगा।

प्रश्न 150.
तरन तारन नगर का निर्माण किसने किया ?
उत्तर-
तरन तारन नगर का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने किया ।

प्रश्न 151.
मसंद प्रथा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधियों को मसंद कहते थे।

प्रश्न 152.
मसंद प्रथा के आरंभ किए जाने का एक मुख्य कारण क्या था ?
उत्तर-
सिख धर्म का प्रसार करने के लिए।

प्रश्न 153.
मसंद प्रथा का महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
इससे सिख धर्म लोकप्रिय हुआ।

प्रश्न 154.
आदि ग्रंथ साहिब जी के संकलन की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
उत्तर-
सिखों के नेतृत्व के लिए एक पवित्र धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकता थी।

प्रश्न 155.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में रामसर में किया गया था।

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प्रश्न 156.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब और किसने किया था, ?
अथवा
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब तथा किस गुरु ने किया ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन 1604 ई० में गुरु अर्जन साहिब जी ने किया था।

प्रश्न 157.
आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने के लिए गुरु अर्जन देव जी ने किसकी सहायता ली ?
उत्तर-
भाई गुरदास जी की।

प्रश्न 158.
आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कहाँ किया गया था ?
उत्तर-
हरिमंदिर साहिब में।

प्रश्न 159.
हरिमंदिर साहिब जी में आदि ग्रंथ साहिब जी का प्रथम प्रकाश कब किया गया था ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी का हरिमंदिर साहिब में प्रथम प्रकाश 16 अगस्त, 1604 ई० को किया गया था।

प्रश्न 160.
हरिमंदिर साहिब के पहले मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
उत्तर-
बाबा बुड्डा जी।

प्रश्न 161.
आदि ग्रंथ साहिब जी में सर्वाधिक शब्द किसके हैं ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी के।

प्रश्न 162.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भक्तों की वाणी शामिल की गई है ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी में 15 भक्तों की वाणी शामिल की गई है।

प्रश्न 163.
आदि ग्रंथ साहिब जी में कितने भट्टों की बाणी संकलित है ?
उत्तर-
11 भट्टों की।

प्रश्न 164.
उन दो भक्तों के नाम लिखो जिनकी वाणी को गुरु ग्रंथ साहिब जी में शामिल किया गया।
उत्तर-

  1. कबीर जी,
  2. फरीद जी।

प्रश्न 165.
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों की केंद्रीय धार्मिक पुस्तक का नाम आदि ग्रंथ साहिब जी अथवा गुरु ग्रंथ साहिब जी है।

प्रश्न 166.
बाबा बुड्डा जी कौन थे ?
उत्तर-
वह दरबार साहिब अमृतसर के प्रथम मुख्य ग्रंथी थे।

प्रश्न 167.
सिखों के केंद्रीय धार्मिक गुरुद्वारे का नाम बताएँ।
उत्तर-
सिखों के केंद्रीय धार्मिक गुरुद्वारे का नाम श्री हरिमंदिर साहिब (अमृतसर) है।

प्रश्न 168.
चंदू शाह कौन था ?
उत्तर-
चंदू शाह लाहौर का दीवान था।

प्रश्न 169.
शेख अहमद सरहिंदी कौन था ?
उत्तर-
शेख अहमद सरहिंदी नक्शबंदी संप्रदाय का नेता था। वह बहुत कट्टर विचारों का था।

प्रश्न 170.
खुसरो कौन था ?
उत्तर-
खुसरो जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 171.
शहीदी प्राप्त करने वाले सिखों के प्रथम गुरु कौन थे ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

प्रश्न 172.
गुरु अर्जन देव जी की शहादत किस मुगल बादशाह के समय में हुई ?
उत्तर-
जहाँगीर के समय।

प्रश्न 173.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
जहाँगीर की धार्मिक कट्टरता।

प्रश्न 174.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी कब हुई ?
उत्तर-
30 मई, 1606 ई० को।

प्रश्न 175.
गुरु अर्जन देव जी को कब तथा कहाँ शहीद किया गया था ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी को 30 मई, 1606 ई० को लाहौर में शहीद किया गया था।

प्रश्न 176.
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी का एक प्रभाव बताओ।
उत्तर-
इस शहीदी के कारण सिखों की भावनाएँ भड़क उठीं।

प्रश्न 177.
सिखों के छठे गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी।

प्रश्न 178.
छठे गुरु जी ने कौन-सी नई रीति रचाई ?
उत्तर-
उन्होंने मीरी तथा पीरी नाम की नई नीति अपनाई।

प्रश्न 179.
गुरु हरगोबिंद जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
उनका गुरुकाल 1606 ई० से 1645 ई० तक था।

प्रश्न 180.
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी का जन्म 1595 ई० में अमृतसर जिले में वडाली गाँव में हुआ।

प्रश्न 181.
गुरु हरगोबिंद जी के पिता का नाम क्या था ?
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी।

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प्रश्न 182.
बीबी वीरो कौन थी ?
उत्तर-
वह गुरु हरगोबिंद जी की सुपुत्री थी।

प्रश्न 183.
गुरु हरगोबिंद जी द्वारा नई नीति अपनाने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
गुरु अर्जन देव जी की शहीदी।

प्रश्न 184.
गुरु हरगोबिंद जी की नई नीति की कोई एक विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर-
मीरी और पीरी की तलवारें धारण करना।

प्रश्न 185.
‘मीरी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘मीरी’ तलवार सांसारिक सत्ता की प्रतीक थी। प

प्रश्न 186.
‘पीरी’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘पीरी’ तलवार आध्यात्मिक नेतृत्व की प्रतीक थी।

प्रश्न 187.
अकाल तख्त साहिब का निर्माण किस गुरु साहिब ने तथा कहाँ किया था ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब ने अमृतसर में दरबार साहिब के सामने।

प्रश्न 188.
अकाल तख्त साहिब से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
अकाल तख्त साहिब से अभिप्राय है-ईश्वर की गद्दी।

प्रश्न 189.
अकाल तख्त साहिब पर बैठ कर गुरु हरगोबिंद साहिब कौन-सा मुख्य कार्य करते थे?
उत्तर-
वह राजनीतिक तथा सांसारिक मामलों पर विचार करते थे।

प्रश्न 190.
छठे गुरु हरगोबिंद साहिब को किस बादशाह ने कहाँ कैद किया ?
उत्तर-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने ग्वालियर के दुर्ग में।

प्रश्न 191.
मुग़ल सम्राट् जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के दुर्ग में क्यों नज़रबंद किया था? कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
जहाँगीर एक कट्टर सुन्नी बादशाह था।

प्रश्न 192.
गुरु हरगोबिंद साहिब को ‘बंदी छोड़ बाबा’ क्यों कहा जाता था?
अथवा
बंदी छोड़ बाबा किसको और क्यों कहा जाता है ?
अथवा
सिखों के किस गुरु को ‘बंदी छोड़’ कहा जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि अपनी रिहाई के समय उन्होंने वहाँ 52 अन्य बंदी राजाओं को रिहा करवाया था।

प्रश्न 193.
कौलां कौन थी?
उत्तर-
कौलां लाहौर के काजी रुस्तम खाँ की लड़की तथा गुरु हरगोबिंद साहिब की अनुयायी थी।

प्रश्न 194.
शाहजहाँ तथा सिखों में संबंध बिगड़ने का कोई एक कारण बताएँ।
अथवा
गुरु हरगोबिंद जी तथा मुग़लों के मध्य लड़ाइयों का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर-
शाहजहाँ का धार्मिक कट्टरपन।

प्रश्न 195.
गुरु हरगोबिंद साहिब एवं मुग़लों के मध्य प्रथम लड़ाई कब तथा कहाँ हुई ?
उत्तर-
1634 ई० में अमृतसर में।

प्रश्न 196.
अमृतसर की लड़ाई में विजय किसकी हुई ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी की।

प्रश्न 197.
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने किस नए नगर की स्थापना की?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कीरतपुर साहिब नामक नए नगर की स्थापना की।

प्रश्न 198.
‘कीरतपुर’ शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
‘कीरतपुर’ शब्द का अर्थ है-जहाँ ईश्वर की कीर्ति होती हो।

प्रश्न 199.
गुरु हरगोबिंद साहिब कब तथा कहाँ ज्योति-जोत समाए थे?
उत्तर-
1645 ई० में कीरतपुर साहिब में।

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प्रश्न 200.
गुरु हरगोबिंद जी का उत्तराधिकारी कौन था?
अथवा
गुरु हरगोबिंद साहिब ने किसको अपना उत्तराधिकारी बनाया ?
उत्तर-
गुरु हरगोबिंद जी के उत्तराधिकारी का नाम गुरु हर राय जी था।

प्रश्न 201.
गुरु हर राय जी का जन्म कब और कहाँ हुआ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी का जन्म 30 जनवरी, 1630 ई० को कीरतपुर साहिब में हुआ।

प्रश्न 202.
सिखों के सातवें गुरु कौन थे ?
उत्तर-
सिखों के सातवें गुरु, गुरु हर राय जी थे।

प्रश्न 203.
सातवें गुरु हर राय जी का गुरुकाल लिखें।
उत्तर-
वह गुरुगद्दी पर 1645 ई० से लेकर 1661 ई० तक आसीन रहे।

प्रश्न 204.
गुरु हर राय जी कब ज्योति-जोत समाये ?
उत्तर-
गुरु हर राय जी 1661 ई० में ज्योति-जोत समाये।

प्रश्न 205.
गुरु हर राय जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
उत्तर-
हरकृष्ण जी को।

प्रश्न 206.
सिखों के आठवें गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी थे।

प्रश्न 207.
गुरु हरकृष्ण जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?
उत्तर-
उनका जन्म 7 जुलाई, 1656 ई० को कीरतपुर साहिब में।

प्रश्न 208.
सिखों के बाल गुरु कौन थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण साहिब जी थे।

प्रश्न 209.
गुरु हरकृष्ण जी का गुरुकाल बताएँ।
उत्तर-
1661 ई० से 1664 ई० तक।

प्रश्न 210.
गुरु हरकष्ण जी कब और कहाँ ज्योति-जोत समा गए थे?
उत्तर-
गुरु हरकृष्ण जी 1664 ई० में दिल्ली में ज्योति-जोत समाए थे।

प्रश्न 211.
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर साहिब का जन्म 1 अप्रैल, 1621 ई० को अमृतसर में हुआ था।

प्रश्न 212.
गुरु तेग बहादुर साहिब के माता-पिता का नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी की माता जी का नाम नानकी तथा पिता जी का नाम गुरु हरगोबिंद साहिब था।

प्रश्न 213.
गुरु तेग बहादुर जी का बचपन का क्या नाम था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी का प्रथम नाम क्या था ?
उत्तर-
त्याग मल।

प्रश्न 214.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम क्या था ?
उत्तर-
गोबिंद राय अथवा गोबिंद दास।

प्रश्न 215.
“गुरु लाधो रे, गुरु लाधो रे” नामक शब्द किसने तथा किसके बारे में कहे थे ?
उत्तर-
ये शब्द मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी के संबंध में कहे थे।

प्रश्न 216.
गुरु तेग़ बहादुर जी का गुरुगद्दी पर बने रहने का समय बताएँ।
उत्तर-
1664 ई० से 1675 ई० तक।

प्रश्न 217.
धीर मल कौन था?
उत्तर-
धीर मल बाबा गुरदित्ता जी का बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 218.
रामराय कौन था ?
उत्तर-
रामराय गुरु हर राय जी का बड़ा पुत्र था।

प्रश्न 219.
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य क्या था?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी की यात्राओं का उद्देश्य सिख धर्म का प्रचार करना और लोगों में फैले अंधविश्वासों को दूर करना था।

प्रश्न 220.
पंजाब से बाहर किन्हीं दो स्थानों के नाम बताएँ जहाँ गुरु तेग़ बहादुर जी ने यात्राएँ कीं।
उत्तर-
दिल्ली तथा आसाम।

प्रश्न 221.
पंजाब के किन्हीं दो प्रसिद्ध स्थानों के नाम बताएँ जिनकी यात्रा गुरु तेग़ बहादुर जी ने की थी।
उत्तर-
अमृतसर तथा गोइंदवाल साहिब।

प्रश्न 222.
श्री आनंदपुर साहिब का पहला (प्रारंभिक) नाम क्या था?
उत्तर-
श्री आनंदपुर साहिब का पहला नाम माखोवाल अथवा चक नानकी था।

प्रश्न 223.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी का कोई एक मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर-
औरंगज़ेब सिखों के बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने को तैयार नहीं था।

प्रश्न 224.
गुरु तेग़ बहादुर साहिब की शहीदी का मुख्य कारण क्या था?
उत्तर-
कश्मीरी पंडितों की पुकार।

प्रश्न 225.
गुरु तेग़ बहादुर जी के समय में कश्मीर का गवर्नर कौन था?
उत्तर-
शेर अफ़गान।

प्रश्न 226.
नवम् गुरु. तेग़ बहादुर जी की शहादत के समय किस बादशाह की हुकूमत थी ?
उत्तर-
नवम् गुरु तेग़ बहादुर जी की शहादत के समय मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की हुकूमत थी।

प्रश्न 227.
गुरु तेग बहादुर जी को कौन-से मुग़ल बादशाह ने कब शहीद करवाया था ?
अथवा
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी कब, कहाँ तथा किस मुग़ल बादशाह के समय में हुई ?
उत्तर-
गुरु तेग़ बहादुर जी को मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने 11 नवंबर, 1675 ई० को दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद करवाया था।

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प्रश्न 228.
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहीदी कब और कहाँ हुई ?
उत्तर-
गुरु तेग बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० में दिल्ली के चाँदनी चौक में शहीद किया गया था।

प्रश्न 229.
गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान का कोई एक महत्त्वपूर्ण परिणाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु साहिब के बलिदान के पश्चात् सिखों और मुग़लों में संघर्ष का एक लंबा अध्याय आरंभ हुआ।

प्रश्न 230.
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द किस गुरु के लिए प्रयोग किए जाते हैं ?
उत्तर-
‘हिंद की चादर’ नामक शब्द गुरु तेग़ बहादुर जी के लिए प्रयोग किए जाते हैं।

प्रश्न 231.
सिखों के दशम तथा अंतिम गुरु कौन थे?
उत्तर-
सिखों के दशम और अंतिम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी थे।

प्रश्न 232.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश 26 दिसंबर, 1666 ई० को पटना में हुआ था।

प्रश्न 233.
गुरु गोबिंद सिंह जी के माता-पिता का नाम बताएँ।
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम माता गुजरी जी था और पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर जी था।

प्रश्न 234.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम क्या था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम गोबिंद दास अथवा गोबिंद राय था।

प्रश्न 235.
गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन कहाँ व्यतीत हुआ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन पटना साहिब में व्यतीत हुआ।

प्रश्न 236.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब से लेकर कब तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी 1675 ई० से लेकर 1708 ई० तक गुरुगद्दी पर आसीन रहे।

प्रश्न 237.
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादों (सुपुत्रों) के नाम बताएँ।
उत्तर-

  1. साहिबज़ादा अजीत सिंह,
  2. साहिबजादा जुझार सिंह,
  3. साहिबज़ादा जोरावर सिंह तथा
  4. साहिबजादा फ़तह सिंह थे।

प्रश्न 238.
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में कहलूर (बिलासपुर) का शासक कौन था?
उत्तर-
भीम चंद।

प्रश्न 239.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा बनाए गए नगारे का क्या नाम था ?
उत्तर-
रणजीत नगारा।

प्रश्न 240.
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं में कब और कहाँ प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी?
अथवा
भंगाणी की लड़ाई कब तथा किनके मध्य लड़ी गई?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं में प्रथम लड़ाई 1688 ई० में भंगाणी में हुई थी।

प्रश्न 241.
नादौन की लड़ाई कब और किसके मध्य हुई थी?
उत्तर-
नादौन की लड़ाई 1690 ई० में गुरु गोबिंद सिंह जी तथा मुग़लों के मध्य हुई थी।

प्रश्न 242.
श्री आनंदपुर साहिब का आरंभिक नाम क्या था ?
उत्तर-
माखोवाल।

प्रश्न 243.
श्री आनंदपुर साहिब का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
यहाँ गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई० में खालसा पंथ की स्थापना की थी।

प्रश्न 244.
किस गुरु साहिब ने तथा कब मसंद प्रथा का अंत कर दिया था?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी ने मसंद प्रथा का अंत 1699 ई० में खालसा पंथ के सृजन के समय किया था।

प्रश्न 245.
खालसा सजना किस गुरु साहिब ने कहाँ और कब की ?
उत्तर-
खालसा सृजना गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में 1699 ई० में की।

प्रश्न 246.
खालसा पंथ का सृजन कब और किस गुरु ने किया था ?
उत्तर-
खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० को गुरु गोबिंद सिंह जी ने किया था।

प्रश्न 247.
खालसा पंथ का सृजन कब और कहाँ हुआ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का सृजन कब और कहाँ किया था ?
उत्तर-
खालसा पंथ का सृजन 30 मार्च, 1699 ई० को आनंदपुर साहिब में किया गया था।

प्रश्न 248.
खालसा की स्थापना का कोई एक मुख्य कारण लिखें।
उत्तर-
मुग़लों के अत्याचारों का सामना करने के लिए।

प्रश्न 249.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की सजना के समय कितने प्यारे सजाए थे ?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 250.
पाँच प्यारों की साजना कौन-से गुरु ने कब और कहाँ की ?
उत्तर-
पाँच प्यारों की साजना गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में की।

प्रश्न 251.
खालसा का कोई एक सिद्धांत बताएँ।
उत्तर-
प्रत्येक खालसा एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा नहीं करेगा।

प्रश्न 252.
खालसा सदस्य एक-दूसरे से मिलते समय कैसे संबोधित करते थे.?
उत्तर-
‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तह।

प्रश्न 253.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने प्रत्येक खालसा को कितने कक्कार धारण करने के लिए कहा ?
उत्तर–
पाँच।

प्रश्न 254.
प्रत्येक सिख के लिए कौन से पाँच कक्कार धारण करने अनिवार्य हैं ?
उत्तर-
केश, कड़ा, कंघा, कच्छहरा एवं कृपाण।

प्रश्न 255.
खालसा की स्थापना का महत्त्व क्या था ?
उत्तर-
इसकी स्थापना से सिखों में एक नया जोश उत्पन्न हुआ।

प्रश्न 256.
श्री आनंदपुर साहिब की प्रथम लड़ाई कब हुई थी ?
उत्तर-
1701 ई० में।

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प्रश्न 257.
सरहिंद के उस फ़ौजदार का नाम बताएँ जिसने गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को जीवित ही दीवार में चिनवाने का आदेश दिया।
उत्तर-
वज़ीर खाँ।

प्रश्न 258.
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय सरहिंद का फ़ौजदार कौन था ?
उत्तर-
वज़ीर खाँ।

प्रश्न 259.
चमकौर साहिब की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
चमकौर साहिब की लड़ाई 22 दिसंबर, 1704 ई० को हुई।

प्रश्न 260.
गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादे किस लड़ाई में शहीद हुए थे ?
उत्तर-
चमकौर साहिब की लड़ाई में।

प्रश्न 261.
दशम गुरु जी के चारों साहिबजादे कहाँ-कहाँ शहीद हुए ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादे कहां-कहां शहीद हुए ?
उत्तर-
दशम गुरु जी के दो बड़े साहिबज़ादे चमकौर साहिब में और दो छोटे साहिबज़ादे सरहिंद में शहीद हुए।

प्रश्न 262.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब को कौन-सी चिट्ठी लिखी थी ?
उत्तर-
ज़फ़रनामा (विजय पत्र)।

प्रश्न 263.
ज़फ़रनामा की रचना किसने और किस स्थान पर की ?
उत्तर-
ज़फ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीना काँगड़ के स्थान पर की।

प्रश्न 264.
भाई दया सिंह कौन थे ?
उत्तर-
भाई दया सिंह जी ने गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखी ज़फ़रनामा नामक चिट्ठी औरंगजेब को पहुँचाई थी।

प्रश्न 265.
गुरु गोबिंद सिंह जी और मुगलों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई कौन-सी थी ?
उत्तर-
खिदराना की।

प्रश्न 266.
‘चाली मुक्ते’ कौन-सी लड़ाई से संबंध रखते हैं ?
उत्तर-
खिदराना की।

प्रश्न 267.
भाई महां सिंह ने कहाँ तथा कब शहीदी प्राप्त की ?
उत्तर-
भाई महां सिंह ने खिदराना के स्थान पर दिसंबर, 1705 ई० में शहीदी प्राप्त की।

प्रश्न 268.
खिदराना की लड़ाई कब हुई ?
उत्तर-
1705 ई० में।

प्रश्न 269.
तलवंडी साबो को ‘गुरु की काशी’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
क्योंकि यहाँ गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने बहुत से साहित्य की रचना की।

प्रश्न 270.
बचित्तर नाटक तथा जफ़रनामा की रचना किसने की ?
उत्तर-
बचित्तर नाटक तथा ज़फ़रनामा की रचना गुरु गोबिंद सिंह जी ने की।

प्रश्न 271.
गुरु गोबिंद सिंह जी की अधूरी स्वैजीवनी उनकी किस रचना में मिलती है ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी की स्वैजीवनी उनकी रचना बचित्तर नाटक में मिलती है।

प्रश्न 272.
आदि ग्रंथ साहिब जी को कब, कहाँ तथा किस गुरु ने गुरु ग्रंथ साहिब का दर्जा दिया ?
अथवा
गुरु गोबिंद सिंह ने गुरुतागही किसको और कब दी ?
उत्तर-
आदि ग्रंथ साहिब जी को 6 अक्तूबर, 1708 ई० में नदेड़ के स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब का दर्जा दिया।

प्रश्न 273.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब तथा कहाँ ज्योति-जोत समाए ?
उत्तर-
गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ के स्थान पर 7 अक्तूबर, 1708 ई० को ज्योति-जोत समाए।

नोट-रिक्त स्थानों की पूर्ति करें—

प्रश्न 1. ……………. में गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ।
उत्तर-1469 ई०

प्रश्न 2. गुरु नानक देव जी के पिता जी का नाम ……………. था। ‘
उत्तर-मेहता कालू

प्रश्न 3. गुरु नानक देव जी की माता जी का नाम ………………. था।
उत्तर-तृप्ता देवी

प्रश्न 4. गुरु नानक देव जी की बहन का नाम ……………….. था।
उत्तर-नानकी

प्रश्न 5. गुरु नानक देव जी ने सच्चा सौदा ……………. रुपयों से किया।
उत्तर-20

प्रश्न 6. गुरु नानक देव जी ने ……………… के मोदीखाने में नौकरी की।
उत्तर-सुल्तानपुर लोधी

प्रश्न 7. गुरु नानक देव जी के ज्ञान-प्राप्ति के समय उनकी आयु ………… थी।
उत्तर-30 वर्ष

प्रश्न 8. गुरु नानक देव जी ने ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम …………….. शब्द कहे।
उत्तर-न को हिंदू, न को मुसलमान

प्रश्न 9. गुरु नानक देव जी की उदासियों से भाव है
उत्तर-यात्राएँ

प्रश्न 10. गुरु नानक देव जी की उदासियों का मुख्य उद्देश्य ……………. था।
उत्तर-लोगों की अज्ञानता को दूर करना

प्रश्न 11. गुरु नानक देव जी की यात्राओं के समय ……….. सदैव उनके साथ रहता था।
उत्तर- भाई मरदाना

प्रश्न 12. गुरु नानक देव जी की सज्जन ठग के साथ मुलाकात …………….. में हुई।
उत्तर-तालुंबा

प्रश्न 13. गुरु नानक देव जी ने ……… और …….. नामक दो संस्थाओं की स्थापना की।
उत्तर-संगत, पंगत

प्रश्न 14. गुरु नानक देव जी ……………….. में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-1539 ई०

प्रश्न 15. गुरु नानक देव जी ने ……………. को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
उत्तर- भाई लहणा जी

प्रश्न 16. सिखों के दूसरे गुरु …………….. थे।
उत्तर-गुरु अंगद देव जी

प्रश्न 17.गुरु अगद देव जी का आराभक नाम ……………… था।
उत्तर-भाई लहणा जी

प्रश्न 18. गुरु अंगद देव जी …………….. में गुरुगद्दी पर बैठे थे।
उत्तर-1539 ई०

प्रश्न 19. गुरु अंगद देव जी ने ……………. लिपि को लोकप्रिय बनाया।
उत्तर-गुरमुखी

प्रश्न 20. ………. उदासी मत के संस्थापक थे।
उत्तर-बाबा श्रीचंद जी

प्रश्न 21. सिखों के तीसरे गुरु ………………. थे।
उत्तर-गुरु अमरदास जी

प्रश्न 22. गुरु अमरदास जी ……………….. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1552 ई०

प्रश्न 23. गुरु अमरदास जी ने ……………. में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-गोइंदवाल साहिब

प्रश्न 24. मंजी प्रथा की स्थापना ………………… ने की थी।
उत्तर-गुरु अमरदास जी

प्रश्न 25. ……………… सिखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-गुरु रामदास जी

प्रश्न 26. गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-भाई जेठा जी

प्रश्न 27. गुरु रामदास जी …………………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1574 ई०

प्रश्न 28. गुरु रामदास जी ने ………………. में रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-1577 ई०

प्रश्न 29. ……………… ने मसंद प्रथा की स्थापना की।
उत्तर-गुरु रामदास जी

प्रश्न 30. गुरु अर्जन देव जी सिखों के …………….. गुरु थे।
उत्तर-पाँचवें

प्रश्न 31. गुरु अर्जन देव जी ………………. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1581 ई०

प्रश्न 32. पृथी चंद ने ……………… संप्रदाय की स्थापना की।
उत्तर-मीणा

प्रश्न 33. चंदू शाह …………….. का दीवान था।
उत्तर-लाहौर

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प्रश्न 34. हरिमंदिर साहिब का निर्माण …………… ने करवाया।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 35. हरिमंदिर साहिब की नींव पत्थर ……………….. ने रखा।
उत्तर-मीयाँ मीर

प्रश्न 36. ……………. ने आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन किया।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 37. आदि ग्रंथ साहिब जी के लेखन का महान् कार्य ………….. में संपूर्ण हुआ।
उत्तर-1604 ई०

प्रश्न 38. हरिमंदिर साहिब में पहला मुख्य ग्रंथी ……………… को नियुक्त किया गया।
उत्तर–बाबा बुड्डा जी

प्रश्न 39. गुरु अर्जन देव जी को …………….. में शहीद किया गया।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 40. गुरु हरगोबिंद साहिब का. जन्म ……………. में हुआ।
उत्तर-1595 ई०

प्रश्न 41. गुरु हरगोबिंद साहिब जी के पिता जी का नाम ………….. था।
उत्तर-गुरु अर्जन देव जी

प्रश्न 42. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ……………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 43. ………….. ने मीरी और पीरी नीति को अपनाया।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 44. अकाल तख्त साहिब का निर्माण …………… ने करवाया था।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 45. ……….. में अकाल तख्त साहिब का निर्माण आरंभ किया गया था।
उत्तर-1606 ई०

प्रश्न 46. ……………..को बंदी छोड़ बाबा कहा जाता है।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 47. अमृतसर की लड़ाई …………… में हुई।
उत्तर-1634 ई०

प्रश्न 48. लहरा की लड़ाई का मुख्य कारण ………..और ……… नामक दो घोड़े थे।
उत्तर-दिलबाग, गुलबाग

प्रश्न 49. गुरु हरगोबिंद साहिब ने ……………. नामक नगर की स्थापना की।
उत्तर-कीरतपुर साहिब

प्रश्न 50. गुरु हरगोबिंद साहिब ने …………… को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
उत्तर-गुरु हर सय जी

प्रश्न 51. ………………. सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-गुरु हर राय जी

प्रश्न 52. गुरु हर राय जी का जन्म …………… में हुआ।
उत्तर-1630 ई०

प्रश्न 53. गुरु हर राय जी ……………. में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1645 ई०

प्रश्न 54. ………………….. सिखों के आठवें गुरु थे।
उत्तर-गुरु हरकृष्ण जी

प्रश्न 55. गुरु हरकृष्ण जी ……………… में गुरुगद्दी पर बैठे।
उत्तर-1661 ई०

प्रश्न 56. …………… को बाल गुरु के नाम से याद किया जाता है।
उत्तर-गुरु हरकृष्ण जी

प्रश्न 57. …………………. सिखों के नवम् गुरु थे।
उत्तर-गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 58. गुरु तेग बहादुर जी का जन्म ……………. में हुआ था।
उत्तर-अमृतसर

प्रश्न 59. गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम ……………. था।
उत्तर-गुरु हरगोबिंद जी

प्रश्न 60. गुरु तेग़ बहादुर जी की माता जी का नाम ……………..था।
उत्तर-नानकी

प्रश्न 61. गुरु तेग बहादुर जी का आरंभिक नाम ……………. था।
उत्तर-त्याग मल

प्रश्न 62. गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम …………. था।
उत्तर-गोबिंद राय

प्रश्न 63. गुरु तेग बहादुर जी की.खोज ……………. ने की थी।
उत्तर-मक्खन शाह लुबाणा

प्रश्न 64. गुरु तेग़ बहादुर जी ………….. में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-1664 ई०

प्रश्न 65. गुरु तेग़ बहादुर जी को…….. के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-औरंगजेब

प्रश्न 66. गुरु तेग़ बहादुर जी को ……..में शहीद किया गया।
उत्तर-11 नवंबर, 1675 ई०

प्रश्न 67. गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के……..गुरु थे।
उत्तर-दशम

प्रश्न 68. गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म……..को हुआ।
उत्तर-26 दिसंबर, 1666 ई०

प्रश्न 69. गुरु गोबिंद सिंह का जन्म……..में हुआ।
उत्तर-पटना साहिब

प्रश्न 70. गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का नाम……..था।
उत्तर-गुरु तेग़ बहादुर जी

प्रश्न 71. गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम…….. था।
उत्तर-गुजरी

प्रश्न 72. गुरु गोबिंद सिंह जी……….में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-1675 ई०

प्रश्न 73. गुरु गोबिंद सिंह जी और पहाड़ी राजाओं के मध्य पहली लड़ाई……में हुई।
उत्तर-भंगाणी

प्रश्न 74. भंगाणी की लड़ाई………में हुई।
उत्तर-1688 ई०

प्रश्न 75. नादौन की लड़ाई……में हुई।
उत्तर-1690 ई०

प्रश्न 76. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन……….को किया।
उत्तर-30 मार्च, 1699 ई०

प्रश्न 77. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा का सृजन……..में किया।
उत्तर-श्री आनंदपुर साहिब

प्रश्न 78. गुरु गोबिंद सिंह जी के पहले प्यारे ……..थे।
उत्तर-भाई दया राम जी

प्रश्न 79. ………में श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई हुई।
उत्तर-1701 ई०

प्रश्न 80. …….. में श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई हुई।
उत्तर-1704 ई०

प्रश्न 81. गुरु गोबिंद सिंह जी और मुग़लों के मध्य लड़ी गई अंतिम लड़ाई …….की लड़ाई थी।
उत्तर-खिदराना

प्रश्न 82. गुरु गोबिंद सिंह जी………में ज्योति ज्योत समा गए।
उत्तर-1708 ई०

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

नोट-निम्नलिखित में से ठीक अथवा गलत चुनें—

प्रश्न 1. गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 ई० में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 2. गुरु नानक देव जी के जन्म स्थान को आजकल पंजा साहिब कहा जाता है।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 3. गुरु नानक देव जी के पिता जी का नाम मेहता कालू था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 4. गुरु नानक देव जी की माता जी का नाम सभराई देवी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 5. गुरु नानक देव जी की बहन का नाम नानकी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 6. गुरु नानक देव जी बेदी जाति के साथ संबंधित थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 7. गुरु नानक देव जी ने 40 रुपयों से सच्चा सौदा किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 8. गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी सैदपुर से आरंभ की।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 9. गुरु नानक देव जी ने संगत और पंगत नामक दो संस्थाओं की स्थापना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 10. गुरु नानक देव जी एक परमात्मा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 11. गुरु नानक देव जी जाति प्रथा और मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 12. गुरु नानक देव जी स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने के पक्ष में थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 13. गुरु नानक देव जी 1539 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 14. गुरु अंगद देव जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 15. गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम भाई लहणा जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 16. गुरु अंगद देव जी 1539 ई० में सिखों के दूसरे गुरु बने।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 17. उदासी मत की स्थापना बाबा श्रीचंद जी ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 18. गुरु अंगद देव जी की मुग़ल बादशाह अकबर के साथ भेंट हुई थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 19. गुरु अमरदास जी सिखों के तीसरे गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 20. गुरु अमरदास जी 1552 ई० में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 21. गुरु अमरदास जी ने गोइंदवाल गहिब में बाऊली का निर्माण करवाया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 22. गुरु रामदास जी ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 23. गुरु रामदास जी सिंखों के चौथे गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 24. गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम भाई जेठा जी था। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 25. गुरु रामदास जी ने 1578 ई० को रामदासपुरा की स्थापना की।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 26. गुरु अमरदास जी ने मसंद प्रथा को आरंभ किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 27. गुरु अर्जन देव जी सिखों के पाँचवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 28. मीणा संप्रदाय की स्थापना पृथी चंद ने की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 29. चंदू शाह मुलतान का दीवान था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 30. हरिमंदिर साहिब का निर्माण गुरु अर्जन साहिब ने करवाया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 31. हरिमंदिर साहिब का निर्माण कार्य 1688 ई० में आरंभ किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 32. हरिमंदिर साहिब की नींव सूफी संत मीयाँ मीर ने रखी थी।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 33. मसंद प्रथा के विकास में गुरु अर्जन देव जी ने सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 34. बाबा बुड्डा जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी की बाणी को लिखने का कार्य किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 35. गुरु अर्जन देव जी को 1606 ई० में शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 36. गुरु अर्जन देव जी को औरंगजेब के आदेश पर शहीद किया गया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 37. गुरु हरगोबिंद साहिब जी सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 38. गुरु हरगोबिंद साहिब का जन्म 1595 ई० में हुआ था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 39. गुरु हरगोबिंद साहिब जी के पिता जी का नाम गुरु अर्जन देव जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 40. गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1606 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 41. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने मीरी और पीरी नीति का प्रचलन किया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 42. गुरु अर्जन देव जी ने अकाल तख्त साहिब के निर्माण का कार्य किया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 43. गुरु हरगोबिंद साहिब जी को बंदी छोड़ बाबा कहा जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 44. सिखों और मुग़लों के मध्य पहली लड़ाई अमृतसर में हुई।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 45. गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने कीरतपुर साहिब नामक एक नगर की स्थापना की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 46. गुरु हरगोबिंद साहिब जी 1635 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 47. गुरु हर राय जी सिखों के सातवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 48. गुरु हर राय जी का जन्म 1630 ई० में हुआ था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 49. गुरु हर राय जी के पिता जी का नाम बाबा बुड्डा जी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 50. गुरु हर राय जी की माता जी का नाम बीबी निहाल कौर था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 51. गुरु हर राय जी 1661 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 52. गुरु हरकृष्ण जी सिखों के आठवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 53. गुरु हरकृष्ण जी को बाल गुरु के नाम से भी जाना जाता है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 54. गुरु हरकृष्ण जी 1664 ई० में ज्योति-ज्योत समाए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 55. गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 56. गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म अमृतसर में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 57. गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म 1621 ई० में हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 58. गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का नाम गुरु हरकृष्ण जी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 59. गुरु तेग बहादुर जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 60. गुरु तेग़ बहादुर जी का आरंभिक नाम त्याग मल था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 61. गुरु तेग़ बहादुर जी के पुत्र का नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 62. मक्खन शाह लुबाणा ने गुरु तेग़ बहादुर जी की खोज की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 63. गुरु तेग बहादुर जी 1664 ई० में गुरुगद्दी पर बिराजमान हुए।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 64. गुरु तेग़ बहादुर जी ने अपनी यात्राओं का आरंभ 1666 ई० में किया था।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 65. गुरु तेग़ बहादुर जी अपनी यात्राओं के दौरान सर्वप्रथम अमृतसर पहुँचे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 66. औरंगजेब ने 1664 ई० में हिंदुओं पर पुनः जज़िया कर लगाया।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 67. गुरु तेग़ बहादुर जी के समय शेर अफ़गान कश्मीर का गवर्नर था। .
उत्तर-ठीक

प्रश्न 68. औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली में शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 69. गुरु तेग़ बहादुर जी को 11 नवंबर, 1675 ई० को शहीद किया गया था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 70. गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु थे।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 71. गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 26 दिसंबर, 1666 ई० को हुआ।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 72. गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर जी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 73. गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का नाम गुजरी था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 74. गुरु गोबिंद सिंह जी का आरंभिक नाम गोबिंद राय था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 75. भंगाणी की लड़ाई 1688 ई० में लड़ी गई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 76. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सृजना 1699 ई० में की थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 77. गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सजना के समय पाँच प्यारों का चुनाव किया।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 78. श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई 1701 ई० में हुई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 79. श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1706 ई० में हुई थी।
उत्तर-ग़लत

प्रश्न 80. चमकौर साहिब की लड़ाई 1704 ई० में हुई थी।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 81. गुरु गोबिंद सिंह जी ने ज़फ़रनामा को फ़ारसी भाषा में लिखा था।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 82. खिदराना की लड़ाई 1705 ई० में लड़ी गई।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 83. गुरु गोबिंद सिंह जी की आत्म-कथा का नाम बचित्तर नाटक है।
उत्तर-ठीक

प्रश्न 84. गुरु गोबिंद सिंह जी नंदेड़ में ज्योति-ज्योत समाए थे।
उत्तर-ठीक

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

नोट-निम्नलिखित में से ठीक उत्तर चुनें—

प्रश्न 1.
सिख धर्म के संस्थापक कौन थे ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 2.
गुरु नानक देव जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1459 ई० में
(ii) 1469 ई० में
(iii) 1479 ई० में
(iv) 1489 ई० में।
उत्तर-(ii)

प्रश्न 3.
गुरु नानक देव जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) मेहता कालू
(ii) जैराम
(iii) श्री चंद
(iv) फेरुमलं।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन गुरु नानक देव जी की बहन थी ?
(i) नानकी जी
(ii) भानी जी
(iii) दानी जी
(iv) खीवी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 5.
गुरु नानक देव जी ने सच्चा सौदा कितने रुपयों के साथ किया था ?
(i) 10
(ii) 20
(iii) 30
(iv) 50
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 6.
गुरु नानक देव जी की उदासियों का उद्देश्य क्या था ?
(i) लोगों में फैले अंधविश्वास को दूर करना
(ii) नाम का प्रचार करना
(iii) आपसी भाईचारे का प्रचार करना
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 7.
गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी कहाँ से आरंभ की ?
(i) गोरखमता
(ii) हरिद्वार
(iii) सैदपुर
(iv) कुरुक्षेत्र।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी की मुलाकात सजन ठग से कहाँ हुई थी ?
(i) तालुंबा में
(ii) सैदपुर में।
(iii) दिल्ली में
(iv) धुबरी में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 9.
मक्का में कौन-से काजी ने गुरु नानक साहिब को काबे की तरफ पाँव करके सोने से रोका था ?
(i) बहाउदीन
(ii) कुतुबुदीन
(iii) रुकनुदीन
(iv) शमसुदीन।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 10.
गुरु नानक देव जी ने करतारपुर में कब निवास किया ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1520 ई० में
(iii) 1521 ई० में
(iv) 1522 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 11.
गुरु नानक देव जी के अनुसार परमात्मा का क्या स्वरूप है ? ।
(i) वह सर्वशक्तिमान है
(ii) वह सदैव रहने वाला है
(iii) वह निर्गुण और सगुण है
(iv) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 12.
कीर्तन की प्रथा किस गुरु ने आरंभ की ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया ?
(i) भाई जेठा जी को
(ii) भाई दुर्गा जी को
(iii) भाई लहणा जी को
(iv) श्री चंद जी को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 14.
गुरु नानक देव जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1519 ई० में
(ii) 1529 ई० में
(iii) 1539 ई० में,
(iv) 1549 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 15.
सिखों के दूसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अंगद देव जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 16.
गुरु अंगद देव जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई जेठा जी
(ii) भाई लंहणा जी
(iii) भाई गुरदित्ता जी
(iv) भाई दासू जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 17.
गुरु अंगद देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1529 ई० में
(ii) 1538 ई० में
(iii) 1539 ई० में
(iii) 1552 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 18.
गुरु अंगद देव जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) गोइंदवाल साहिब
(ii) अमृतसर
(iii) खडूर साहिब
(iv) सुल्तानपुर लोधी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 19.
किस गुरु साहिब ने गुरमुखी लिपि को लोकप्रिय बनाया ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अंगद देव जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 20.
उदासी मत का संस्थापक कौन था
(i) बाबा श्री चंद जी
(ii) बाबा लख्मी दास जी
(iii) बाबा मोहन जी
(iv) बाबा मोहरी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 21.
सिखों के तीसरे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु रामदास जी
(iii) गुरु अमरदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 22.
गुरु अमरदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1539 ई० में
(ii) 1550 ई० में
(iii) 1551 ई० में
(iv) 1552 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 23.
गोइंदवाल साहिब में बाऊली का निर्माण किसने करवाया ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने ।
(iii) गुरु रामदास जी ने
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 24.
गोइंदवाल साहिब की बाऊली में कितनी पौड़ियाँ बनाई गई थीं ?
(i) 62
(ii) 72
(iii) 73
(iv) 84
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 25.
किस गुरु साहिबान ने मंजी प्रथा की स्थापना की थी ?
(i) गुरु अंगद देव जी ने
(ii) गुरु अमरदास जी ने
(iii) गुरु रामदास जी ने ।
(iv) गुरु अर्जन देव जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 26.
गुरु अमरदास जी की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र कौन-सा था ?
(i) अमृतसर
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) लाहौर।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 27.
गुरु अमरदास जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1552 ई० में
(ii) 1564 ई० में
(iii) 1568 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 28.
सिखों के चौथे गुरु,कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 29.
गुरु रामदास जी का आरंभिक नाम क्या था ?
(i) भाई बाला जी
(ii) भाई जेठा जी
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई मेरदाना जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 30.
गुरु रामदास जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1534 ई० में
(ii) 1552 ई० में
(iii) 1554 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 31.
रामदासपुरा अथवा अमृतसर की स्थापना किस गुरु साहिबान ने की थी ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु रामदास जी ने
(iii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iv) गुरु हरगोबिंद जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 32.
मसंद प्रथा का आरंभ किस गुरु ने किया था ?
(i) गुरु रामदास जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु अमरदास जी ने
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 33.
किस गुरु साहिबान के समय उदासियों और सिखों के बीच समझौता हुआ था ?
(i) गुरु अंगद देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु रामदास जी
(iv) गुरु अर्जन देव जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 34.
सिखों के पाँचवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु रामदास जी
(ii) गुरु अर्जन देव जी
(iii) गुरु हरगोबिंद जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 35.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1539 ई० में
(ii) 1560 ई० में
(iii) 1563 ई० में
(iv) 1574 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 36.
गुरु अर्जन देव जी का जन्म कहाँ हुआ था ?
(i) अमृतसर
(ii) खडूर साहिब
(iii) गोइंदवाल साहिब
(iv) तरन तारन।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 37.
पृथिया ने किस संप्रदाय की स्थापना की थी ?
(i) मीणा
(ii) उदासी
(iii) हरजस
(iv) निरंजनिया।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 38.
गुरु अर्जन देव जी कब गुरुगद्दी पर बैठे ?
(i) 1580 ई० में
(ii) 1581 ई० में
(iii) 1585 ई० में
(iv) 1586 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 39.
चंदू शाह कौन था ?
(i) लाहौर का दीवान
(ii) जालंधर का फ़ौजदार
(iii) पंजाब का सूबेदार
(iv) मुलतान का दीवान।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 40.
गुरु अर्जन देव जी ने हरिमंदिर साहिब की नींव कब रखी थी ?
(i) 1581 ई० में
(ii) 1585 ई० में
(iii) 1587 ई० में
(iv) 1588 ई० में।
उत्तर-
(iv)

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प्रश्न 41.
हरिमंदिर साहिब की नींव किसने रखी थी ?
(i) गुरु अर्जन साहिब जी ने
(ii) बाबा फ़रीद जी ने
(iii) संत मीयाँ मीर जी ने
(iv) बाबा बुड्डा जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 42.
गुरु अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ साहिब जी को लिखने का कार्य किसको दिया ?
(i) बाबा बुड्डा जी को
(ii) भाई गुरदास जी को
(iii) भाई मोहकम चंद जी को
(iv) भाई मनी सिंह जी को।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 43.
आदि ग्रंथ साहिब जी का संकलन कब पूर्ण हुआ ?
(i) 1600 ई० में
(ii) 1601 ई० में ।
(iii) 1602 ई० में
(iv) 1604 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 44.
हरिमंदिर साहिब जी के पहले मुख्य ग्रंथी कौन थे ?
(i) भाई गुरदास जी
(ii) भाई मनी सिंह जी
(iii) बाबा बुड्डा जी
(iv) बाबा दीप सिंह जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 45.
जहाँगीर की आत्मकथा का क्या नाम था ?
(i) तुजक-ए-बाबरी
(ii) तुज़क-ए-जहाँगीरी
(iii) जहाँगीरनामा
(iv) आलमगीरनामा।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 46.
शहीदी देने वाले प्रथम गुरु कौन थे ?
(i) गुरु नानक देव जी
(ii) गुरु अमरदास जी
(iii) गुरु अर्जन देव जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 47.
गुरु अर्जन देव जी को कहाँ शहीद किया गया था ?
(i) दिल्ली
(ii) अमृतसर
(iii) लाहौर
(iv) मुलतान।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 48.
गुरु अर्जन देव जी को कब शहीद किया गया था ?
(i) 1604 ई० में
(ii) 1605 ई० में
(iii) 1606 ई० में
(iv) 1609 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 49.
सिखों के छठे गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अर्जन देव जी
(ii) गुरु हरगोबिंद जी
(iii) गुरु हर राय जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 50.
गुरु हरगोबिंद जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1506 ई० में
(ii) 1556 ई० में
(iii) 1605 ई० में
(iv) 1606 ई० में।

प्रश्न 51.
मीरी और पीरी की प्रथा किस गुरु साहिब ने आरंभ की ?
(i) गुरु अर्जन देव जी ने
(ii) गुरु हरगोबिंद जी ने
(iii) गुरु तेग बहादुर जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 52.
अकाल तख्त साहिब का निर्माण किस गुरु साहिब ने करवाया था ?
(i) गुरु अमरदास जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने
(iv) गुरु तेग बहादुर जी ने।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 53.
‘बंदी छोड़ बाबा’ किसको कहा जाता है ?
(i) बंदा सिंह बहादुर को
(ii) भाई मनी सिंह जी को
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी को
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी को।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 54.
गुरु हरगोबिंद साहिब और मुग़लों में लड़ी गई अमृतसर की लड़ाई कब हुई थी ?
(i) 1606 ई० में
(ii) 1624 ई० में
(iii) 1630 ई० में
(iv) 1634 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 55.
गुरु हरगोबिंद साहिब जी कब ज्योति-जोत समाए थे ?
(i) 1628 ई० में
(ii) 1635 ई० में
(iii) 1638 ई० में
(iv) 1645 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 56.
सिखों के सातवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरगोबिंद साहिब जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 57.
गुरु हर राय जी गुरुगद्दी पर कब बैठे ?
(i) 1635 ई० में
(ii) 1637 ई० में
(iii) 1645 ई० में
(iv) 1655 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 58.
सिखों के आठवें गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरकृष्ण जी
(ii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iii) गुरु हर राय जी
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 59.
सिख इतिहास में ‘बाल गुरु’ के नाम से किसको जाना जाता है ?
(i) गुरु रामदास जी को
(ii) गुरु हर राय जी को
(ii) गुरु हरकृष्ण जी को
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी को।
उत्तर-
(ii)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 60.
गुरु हरकृष्ण जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1645 ई० में
(ii) 1656 ई० में
(iii) 1661 ई० में
(iv) 1664 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 61.
गुरु हरकृष्ण जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1662 ई० में
(iii) 1663 ई० में
(iv) 1664 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 62.
सिखों के नवम् गुरु कौन थे ?
(i) गुरु अमरदास जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 63.
गुरु तेग बहादुर जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1601 ई० में
(ii) 1621 ई० में
(iii) 1631 ई० में
(iv) 1656 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 64.
गुरु तेग़ बहादुर जी के बचपन का क्या नाम था ?
(i) हरी मल
(ii) त्याग मल
(iii) भाई लहणा जी
(iv) भाई जेठा जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 65.
गुरु तेग़ बहादुर जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) बाबा गुरदित्ता जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 66.
उस व्यक्ति का नाम .बताएँ जिसने यह प्रमाणित किया कि गुरु तेग़ बहादुर जी सिखों के वास्तविक गुरु हैं ?
(i) मक्खन शाह मसतूआना
(ii) मक्खन शाह लुबाणा
(iii) बाबा बुड्डा जी ,
(iv) भाई गुरदास जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 67.
गुरु तेग बहादुर जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हए ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1666 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 68.
किस मुग़ल बादशाह के आदेशानुसार गुरु तेग बहादुर जी को शहीद किया गया ?
(i) जहाँगीर
(ii) शाहजहाँ
(iii) औरंगजेब
(iv) बहादुरशाह प्रथम।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 69.
गुरु तेग़ बहादुर जी को कहाँ शहीद किया गया ?
(i) लाहौर में
(ii) दिल्ली में
(iii) अमृतसर में
(iv) पटना में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 70.
गुरु तेग बहादुर जी को कब शहीद किया गया ?
(i) 1661 ई० में
(ii) 1664 ई० में
(iii) 1665 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 71.
सिखों के दशम् तथा अंतिम गुरु कौन थे ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु गोबिंद सिंह जी
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी
(iv) गुरु हरकृष्ण जी।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 72.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कब हुआ ?
(i) 1646 ई० में
(ii) 1656 ई० में
(iii) 1666 ई० में
(iv) 1676 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 73.
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कहाँ हुआ ?
(i) पटना साहिब
(ii) गोइंदवाल साहिब
(iii) खडूर साहिब
(iv) श्री आनंदपुर साहिब।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 74.
गुरु गोबिंद सिंह जी के पिता जी का क्या नाम था ?
(i) गुरु हरगोबिंद जी
(ii) गुरु हर राय जी
(iii) गुरु हरकृष्ण जी
(iv) गुरु तेग़ बहादुर जी।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 75.
गुरु गोबिंद सिंह जी की माता जी का क्या नाम था ?
(i) गुजरी जी
(ii) नानकी जी
(iii) सुलक्खनी जी
(iv) खीवी जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 76.
गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रारंभिक नाम क्या था ?
(i) गोबिंद नाथ
(ii) गोबिंद दास
(iii) भाई जेठा जी
(iv) भाई लहणा जी।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 77.
गुरु गोबिंद सिंह जी गुरुगद्दी पर कब विराजमान हुए ?
(i) 1666 ई० में
(ii) 1670 ई० में
(iii) 1672 ई० में
(iv) 1675 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 78.
भंगाणी की लड़ाई कब लड़ी गई ?
(i) 1686 ई० में
(ii) 1687 ई० में
(iii) 1688 ई० में
(iv) 1690 ई० में।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 79.
नादौन की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1688 ई० में
(ii) 1690 ई० में
(iii) 1694 ई० में
(iv) 1695 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 80.
खालसा पंथ की स्थापना किस गुरु ने की थी ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 81.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कब की थी ?
(i) 1688 ई० में
(ii) 1690 ई० में
(iii) 1695 ई० में
(iv) 1699 ई० में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 82.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना कहाँ की थी ?
(i) अमृतसर
(ii) श्री आनंदपुर साहिब
(iii) कीरतपुर साहिब
(iv) गोइंदवाल साहिब।
उत्तर-
(i)

PSEB 12th Class Religion Solutions सिख धर्म का उत्थान तथा विकास : 1469-1708 ई०

प्रश्न 83.
खालसा की सृजना के समय गुरु गोबिंद सिंह जी ने प्रत्येक खालसा को कितने कक्कार धारण करना ज़रूरी बताया ?
(i) दो
(ii) तीन
(iii) चार
(iv) पाँच।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 84.
श्री आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई कब हुई ?
(i) 1699 ई० में
(ii) 1701 ई० में
(iii) 1703 ई० में
(iv) 1704 ई० में।
उत्तर-
(i)

प्रश्न 85.
श्री आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई कब हुई
(i) 1707 ई० में
(ii) 1702 ई० में
(iii) 1704 ई० में
(iv) 1705 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 86.
चमकौर साहिब की लड़ाई कब हुई ?
(i) 1702 ई० में
(ii) 1703 ई० में
(iii) 1704 ई० में
(iv) 1706 ई० में।
उत्तर-
(iii)

प्रश्न 87.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने ज़फ़रनामा को किस भाषा में लिखा था ?
(i) हिंदी में
(ii) संस्कृत में
(iii) पंजाबी में
(iv) फ़ारसी में।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 88.
चाली मुक्ते कौन-सी लड़ाई के साथ संबंधित हैं ?
(i) चमकौर साहिब की लड़ाई के साथ
(ii) खिदराना की लड़ाई के साथ
(iii) आनंदपुर साहिब की पहली लड़ाई के साथ
(iv) आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई के साथ।
उत्तर-
(ii)

प्रश्न 89.
बचित्तर नाटक की रचना किसने की ?
(i) गुरु नानक देव जी ने
(ii) गुरु अर्जन देव जी ने
(iii) गुरु तेग़ बहादुर जी ने
(iv) गुरु गोबिंद सिंह जी ने।
उत्तर-
(iv)

प्रश्न 90.
गुरु गोबिंद सिंह जी कब ज्योति-जोत समाए ?
(i) 1705 ई० में
(ii) 1706 ई० में
(iii) 1707 ई० में
(iv) 1708 ई० में।
उत्तर-
(iv)

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

Punjab State Board PSEB 9th Class Physical Education Book Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Physical Education Chapter 4 प्राथमिक सहायता

PSEB 9th Class Physical Education Guide प्राथमिक सहायता Textbook Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक सहायता के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-
डॉक्टरी सहायता के मिलने से पहले जो रोगी या घायल की चिकित्सा की जाती है, उसे प्राथमिक सहायता (First Aid) कहते हैं।

प्रश्न 2.
फ्रैक्चर का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
किसी हड्डी के टूटने या उसमें दरार पड़ जाने को फ्रैक्चर कहा जाता है।

प्रश्न 3.
बेहोशी क्या है ?
उत्तर-
बेहोशी का अर्थ है चेतना का खोना।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्रश्न 4.
विद्युत् का झटका क्या है ?
उत्तर-
विद्युत् की नंगी तार जिसमें धारा प्रवाहित हो रही हो, के अचानक हाथ से लगने से जो झटका लगता है।

प्रश्न 5.
फ्रैक्चर की किन्हीं दो किस्मों के नाम लिखें।
उत्तर-
(1) सरल फ्रैक्चर (2) बहुखण्ड फ्रैक्चर ।

प्रश्न 6.
जटिल फ्रैक्चर अधिक हानिकारक होता है। ठीक अथवा ग़लत?
उत्तर-
ठीक।

प्रश्न 7.
दबी हुई फ्रैक्चर का नुकसान नहीं होता ? ठीक अथवा ग़लत ?
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 8.
बेहोशी के कोई दो चिन्ह लिखें।
उत्तर-

  1. रोगी की नब्ज़ धीरे-धीरे चलती है
  2. त्वचा ठण्डी हो जाती है।

प्रश्न 9.
जोड़ का उतरना क्या होता है ?
उत्तर-
हड्डी का जोड़ वाले स्थान से खिसकना, जोड़ उतरना (Dislocation) कहलाता

प्रश्न 10.
पट्टे के तनाव अथवा मोच में अन्तर होता है ?
उत्तर-
हां, अन्तर होता है।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक सहायता के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(What do you know about First Aid ?)
उत्तर-
हमारे दैनिक जीवन में प्रायः दुर्घनाएं तो होती रहती हैं। स्कूल जाते समय साइकिल से टक्कर, खेल के मैदान में चोट लग जाना आदि। प्रायः घटना स्थल पर डॉक्टर उपस्थित नहीं होता। डॉक्टर के पहुंचने से पहले रोगी या घायल को जो सहायता दी जाती है, उसे प्राथमिक सहायता (First Aid) कहते हैं।

प्रश्न 2.
प्राथमिक सहायता के क्या नियम हैं ?
(Describe the various rules of First Aid ?)
उत्तर-
प्राथमिक सहायता के मुख्य नियम इस प्रकार हैं –

  • रोगी को हमेशा आरामदायक हालत में रखो।
  • रोगी को हमेशा धैर्य देना चाहिए।
  • रोगी को प्रेम और हमदर्दी देनी चाहिए।
  • यदि खून बह रहा हो तो सबसे पहले खून बन्द करने का प्रबन्ध करना चाहिए।
  • भीड़ को अपने इर्द-गिर्द से दूर कर दो।
  • रोगी के कपड़े इस ढंग से उतारो जिससे उसे कोई तकलीफ़ न हो।
  • उसे तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।
  • उतनी देर तक सहायता देते रहना चाहिए जितनी देर तक उसमें प्राण बाकी हैं।
  • यदि सांस रुकता हो तो बनावटी सांस देने का प्रबन्ध करना चाहिए।
  • यदि ज़ख्म छिल गया हो तो उसे साफ़ करके पट्टी बांध दो।
  • दुर्घटना के समय जिस चीज़ की पहले आवश्यकता हो उसे पहले करना चाहिए।
  • रोगी को नशीली चीज़ न दो।
  • हड्डी टूटने की हालत में रोगी को ज्यादा हिलाना-जुलाना नहीं चाहिए।
  • रोगी को हमेशा खुली हवा में रखो।
  • यदि रोगी सड़क पर धूप में पड़ा हो तो उसे ठंडी छांव में पहुंचाना चाहिए।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायता क्या होती है ? इसकी हमें क्यों ज़रूरत है ?
(What is First Aid ? Why we need it ?)
उत्तर-
हमारे जीवन में प्रायः दुर्घटनाएं होती रहती हैं। खेल के मैदान में खेलते समय, सड़क पर चलते समय, स्कूल की प्रयोगशाला में काम करते समय, घर में सीढ़ियां चढ़तेउतरते समय, रसोई घर में काम करते हुए या स्नानागृह में स्नान करते समय व्यक्ति किसी भी प्रकार की दुर्घटना का शिकार हो सकता है। कई बार खेल के मैदान में अनेक दुर्घटनाएं हो जाती हैं। इन दुर्घटनाओं से बचाव के लिए आवश्यक है कि खेल का मैदान न ही अधिक कठोर हो और नन्ही अधिक नर्म। खेल का सामान भी ठीक प्रकार का बना हो और खेल किसी कुशल-प्रबन्धक की देख-रेख में खेली जाए। ऐसे समय यह तो सम्भव नहीं कि डॉक्टर हर जगह मौजूद हो। डॉक्टर के पहुंचने से पहले या डॉक्टर तक ले जाने से पहले उपलब्ध साधनों से दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को जो सहायता दी जाती है, उसे प्राथमिक सहायता कहते हैं।

इस प्रकार डॉक्टरी सहायता के मिलने से पहले जो रोगी या घायल की चिकित्सा की जाती है, उसे प्राथमिक सहायता (First Aid) कहते हैं।
यदि घायल या दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को प्राथमिक सहायता प्रदान न की जाए तो हो सकता है कि घटना स्थल पर ही दम तोड़ दे।
अन्त में हम यह कह सकते हैं कि प्राथमिक सहायता घायल या रोगी के लिए जीवनरूपी अमृत के समान है। इसलिए प्राथमिक सहायता जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

प्रश्न 4.
हॉकी खेलते समय यदि तुम्हारे घुटने की हड्डी उतर जाए तो आप क्या करोगे ?
(What will you do if you got dislocation of your knee joint while playing Hockey ?)
उत्तर-
यदि हॉकी खेलते समय मेरे घुटने की हड्डी उतर जाये तो मैं इसका इलाज इस प्रकार करूंगा हड्डी को इलास्टिक वाली पट्टी बांधूगा। मैं यह पूरी कोशिश करूंगा कि चोट वाली जगह पर किसी भी प्रकार का भार न पड़े। चोट वाली जगह पर स्लिग डाल लूंगा ताकि हड्डी में हिलजुल न हो।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
प्राथमिक सहायक (First Aider) के गुणों और कर्तव्यों का वर्णन करो।
(What are the qualities and duties of First Aider ?)
उत्तर–
प्राथमिक सहायक में निम्नलिखित गुण होने चाहिएं –

  • प्राथमिक सहायक चुस्त तथा समझदार हो।
  • वह शैक्षणिक योग्यता रखता हो।
  • उसमें सहन-शक्ति होनी चाहिए।
  • उसका दूसरों से व्यवहार अच्छा हो।
  • दूसरों से किसी प्रकार का भेद-भाव न करे।
  • प्रत्येक कार्य को तेज़ी से करे।
  • उसका स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए।
  • उसका चरित्र अच्छा हो।
  • उसमें यह शक्ति होनी चाहिए कि कठिन से कठिन कार्य को आसानी से करे।
  • वह ईमानदार होना चाहिए।
  • वह चुस्त होना चाहिए।
  • उसमें योजना बनाने की शक्ति होनी चाहिए।
  • प्राथमिक सहायक सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए।
  • वह साहस वाला होना चाहिए।
  • प्राथमिक सहायक सोचने की शक्ति वाला होना चाहिए।

प्राथमिक सहायक के कर्त्तव्य इस प्रकार हैं –

  1. पहला कार्य पहले करना चाहिए।
  2. रोगी को सदैव हौसला देना चाहिए।
  3. जितना शीघ्र हो सके डॉक्टर का प्रबन्ध करना चाहिए।
  4. यदि आवश्यक हो तो रोगी के कपड़े आवश्यकतानुसार उतार देने चाहिएं।
  5. रोगी के प्राण बचाने के लिए अन्तिम श्वास तक सहायता करनी चाहिए।
  6. रोगी को सदैव आराम की दशा में रखें।
  7. रोगी के इर्द-गिर्द शोर न हो।
  8. यदि रक्त बह रहा हो तो रक्त को बन्द करने का प्रबन्ध पहले करना चाहिए।
  9. रोगी को सदैव खुली वायु में रखें।
  10. यदि दुर्घटना बिजली के करंट या गैस से हुई हो तो एक-दम बिजली या गैस बन्द कर दें।

प्रश्न 2.
पट्टे के तनाव से क्या अभिप्राय है ? इसके कारण, चिन्ह तथा उपचार का वर्णन करो।
(What is strain ? Describe its causes, symptoms and treatment.)
उत्तर-
मांसपेशियों के खिंचाव को ही मांसेपशियों का तनाव कहते हैं। ऐसी दशा में मांसपेशियों में सूजन आ जाती है तथा अत्यधिक पीड़ा होती है।
मांसपेशियों में तनाव के कारण (Causes of Strain) मांसपेशियों में तनाव के . कारण निम्नलिखित हैं –

  • शरीर में से पसीने के रूप में पानी का निकास हो जाना।
  • आवश्यकता से अधिक थकावट।
  • शरीर के अंगों का परस्पर समन्वय न होना।
  • खेल के मैदान का अधिक कठोर होना।
  • मांसपेशियों को एक दम हरकत में लाना।
  • शरीर को गर्म (Warm up) न करना।
  • खेल के सामान का ठीक न होना।
  • शरीर की शक्ति का उचित अनुपात में न होना।

चिन्ह (Symptoms)-

  • मांसपेशियों में अचानक खिंचाव सा आ सकता है।
  • मांसपेशियां कमज़ोरी के कारण काम करने के योग्य नहीं रहतीं।
  • चोट लगने के एक दम बाद पीड़ा महसूस होती है।
  • चोट वाली जगह पर गड्डा दिखाई देता है।
  • कभी-कभी चोट वाली जगह के आस-पास की जगह नीले रंग की हो जाती है।
  • चोट वाली जगह नर्म लगती है।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

बचाव (Safety Measures) –

  • खेल का मैदान समतल व साफ़-सुथरा होना चाहिए। इसमें कंकर आदि बिखरे नहीं होने चाहिएं।
  • ऊंची तथा लम्बी छलांग के अखाड़े नर्म रखने चाहिएं।
  • खिलाड़ियों को चोटों से बचने के लिए आवश्यक शिक्षा देनी चाहिए।
  • खेल आरम्भ करने से पहले कुछ हल्के व्यायाम करके शरीर को गर्म (Warm up) करना चाहिए।
  • गीले या फिसलन वाले मैदान पर नहीं खेलना चाहिए।
  • खेल का सामान अच्छी प्रकार का होना चाहिए।
  • खिलाड़ियों को परस्पर सद्भावना रखनी चाहिए। खेल कभी क्रोध में आकर नहीं खेलना चाहिए।

इलाज (Treatment)-

  • चोट वाली जगह पर ठंडे पानी की पट्टी या बर्फ़ रखनी चाहिए।
  • चोट वाली जगह पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • चोट वाली जगह के अंग को हिलाना नहीं चाहिए।
  • चोट वाली जगह पर 24 घण्टे पश्चात् सेंक या मालिश करना चाहिए।

प्रश्न 3.
मोच के क्या कारण हैं ? इसकी निशानियों तथा उपचार के बारे में वर्णन करो।
(What is sprain ? Discuss its causes, symptoms and treatment.)
उत्तर-
किसी जोड़ के बन्धनों के फट जाने को मोच कहते हैं।

कारण (Causes)-

  • गीले या फिसलन वाले मैदान में खेलना।
  • मैदान में पड़े कंकर आदि का पांव के नीचे आ जाना।
  • खेल के मैदान में गड्डे आदि का होना।
  • अनजान-खिलाड़ी का गलत ढंग से खेलना।
  • अखाड़ों की ठीक तरह से गोडी न करना।

चिन्ह (Symptoms)-

  • थोड़ी देर के बाद मोच वाली जगह पर सूजन होने लगती है।
  • सूजन वाली जगह पर पीड़ा होने लगती है।
  • मोच वाले भाग की सहन करने, कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है।
  • गम्भीर मोच की दशा में जोड़ की ऊपरी त्वचा का रंग नीला हो जाता है।

इलाज (Treatment)-मोच.का इलाज इस प्रकार है-

  • मोच वाले स्थान को अधिक हिलाना नहीं चाहिए।
  • घाव वाले स्थान पर 48 घण्टे तक पानी की पट्टियां रखनी चाहिएं।
  • मोच वाले स्थान पर आठ के आकार की पट्टी बांधनी चाहिए।
  • मोच वाले स्थान पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • यदि हड्डी टूटी हो तो एक्सरे करवाना चाहिए।
  • 48 से 72. घण्टे के पश्चात् ही सेंक देना चाहिए।
  • मोच वाले स्थान को सदैव ध्यान से रखना चाहिए। जहां एक बार मोच आ जाए, दोबारा फिर आ जाती है। (“Once a sprain, always a sprain.”)
  • मोच ठीक होने के पश्चात् ही क्रियाएं करनी चाहिएं।

प्रश्न 4.
जोड़ के उतरने के कारण, चिन्ह तथा इलाज बताओ।
(Write down the causes, symptoms and treatment of dislocation of joints.)
उत्तर-
हड्डी का जोड़ वाले स्थान से खिसकना जोड़ उतरना (Dislocation) कहलाता है।

कारण (Causes)-

  • किसी बाहरी भार के तेज़ी से हड्डी से टकराने से हड्डी अपनी जगह छोड़ देती है।
  • खेल का सामान शारीरिक शक्ति से अधिक भारी होना।
  • खेल के मैदान का असमतल या अधिक कोठर या नर्म होना।
  • खेल में भाग लेने से पहले शरीर को हल्के व्यायामों से गर्म (Warm up) करना।
  • खिलाड़ी का अचानक गिर जाना।

चिन्ह (Symptoms) –

  • चोट वाली जगह बेढंगी सी दिखाई देती है।
  • चोट वाली जगह अपने आप हिल नहीं सकती।
  • चोट वाली जगह पर सूजन आ जाती है।
  • सोट वाली जगह पर पीड़ा होती है।

इलाज (Treatment)—जोड़ के खिसकने के इलाज इस प्रकार हैं –

  •  ह को इलास्टिक वाली पट्टी बांधनी चाहिए।
  • घाव वाले स्थान पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • घ. पाले स्थान पर स्लिग डाल देना चाहिए ताकि हड्डी हिल न सके।
  • जोड़ को अधिक हिलाना नहीं चाहिए।
  • जोड़ को 48 से 72 घण्टे के पश्चात् ही सेंक देना चाहिए।

प्रश्न 5.
हड्डी की टूट या फ्रैक्चर के कारण, चिन्ह तथा इलाज बताओ।
(Mention the causes of Fracture, its symptoms and treatment.)
उत्तर-
हड्डी की टूट के कारण (Causes of Fracture) हड्डी की टूट के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –

  • खिलाड़ी का बहुत जोश, खुशी या क्रोध में बेकाबू होकर खेलना।
  • बहुत सख्त या नर्म मैदान में खिलाड़ी का गिरना।
  • असमतल या फिसलने वाले मैदान में खेलना।
  • किसी योग्य और कुशल व्यक्ति की देख-रेख में खेल न खेला जाना।

चिन्ह (Symptoms)-

  • टूट वाली जगह के समीप सूजन हो जाती है।
  • टूट वाली जगह शक्तिहीन हो जाती है।
  • टूट वाली जगह पर पीड़ा होती है।
  • टूट वाली जगह बेढंगी हिल-जुल होती है।
  • अंग कुरुप हो जाता है।
  • हाथ लगा कर हड्डी की टूट का पता लगाया जा सकता है।

इलाज (Treatment)-

  • टूट वाली जगह को हिलाना नहीं चाहिए।
  • रक्त बहने की दशा में पहले रक्त को रोकने का प्रयास करना चाहिए।
  • घाव वाली जगह पर पट्टी बांध देनी चाहिए।
  • घायल को एक्स-रे के लिए ले जाना चाहिए।
  • टूट वाली जगह पर पट्टियों तथा चपटियों का सहारा बांधना चाहिए।
  • घायल को और इलाज के लिए डॉक्टर के पास पहुंचाना चाहिए।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्रश्न 6.
मोच किसे कहते हैं ? इसके लिए प्राथमिक सहायता क्या हो सकती है ?
(What is sprain ? How you will render a first Aid to a person who got Sprain ?)
उत्तर-
मोच (Sprain)—किसी जोड़ के बन्धन (ligaments) का फट जाना मोच (Sprain) कहलाता है। साधारणतया टखने, घुटने, रीढ़ की हड्डी तथा कलाई को मोच आती है।
मोच के प्रकार (Type of Sprain)-मोच निम्नलिखित तीन प्रकार की होती है—

  • नर्म मोच (Mild Sprain)—इस दशा में मोच की जगह में कुछ कमज़ोरी, सूजन तथा पीड़ा अनुभव होती है।
  • दरमियानी मोच (Mediocre Sprain)—इस दशा में सूजन तथा पीड़ा में वृद्धि हो जाती है।
  • पूर्ण मोच (Complete Sprain)—इस दशा में पीड़ा इतनी अधिक हो जाती है कि सहन नहीं की जा सकती।

प्राथमिक सहायता (First Aid) –

  • जिस जगह पर चोट आई हो वहां ज़रा भी हिल-जुल नहीं होनी चाहिए।
  • चोट वाली जगह पर 48 घण्टे तक ठंडे पानी की पट्टियां रखनी चाहिएं।
  • मोच वाली जगह पर भार नहीं डालना चाहिए।
  • टखने में मोच आने की दशा में ‘आठ’ के आकार की पट्टी बांधनी चाहिए।
  • मोच वाली जगह पर 48 घण्टे से 72 घण्टे के पश्चात् सेंक देना वा मालिश करनी चाहिए।
  • हड्डी टूटने की आशंका होने पर एक्सरे करवाना चाहिए।
  • मोच ठीक होने के बाद योग क्रियाएं करनी चाहिएं।

प्रश्न 7.
फ्रैक्चर (टूट) की कितनी किस्में हैं ? सबसे खतरनाक टूट कौन-सी है ?
(Describe the types of Fracture ? Which is the most dangerous fracture ?)
उत्तर-
फ्रैक्चर का अर्थ (Meaning of Fracture)-किसी हड्डी के टूटने या उसमें दरार पड़ जाने को फ्रैक्चर कहा जाता है।
फ्रैक्चर के कारण-हड्डियों के टूटने या उसमें दरार पड़ जाने के कई कारण हो सकते हैं। इसमे से सबसे बड़ा कारण किसी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चोट (Direct of Indirect Injury) हो सकती है।

फ्रैक्चर के प्रकार (Types of Fracture)
1. सरल या बन्द फ्रैक्चर (Simple or Closed Fracture)-जब कोई बाह्य घाव न हो जो टूटी हुई हड्डी तक जाता हो। देखें चित्र।
PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (1)

2. खुला फ्रैक्चर (Compound or Open Fracture)-जब कोई ऐसा घाव हो जो टूटी
PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (2)

हड्डी तक जाता हो अथवा जब हड्डी के टूटे हुए भाग चमड़ी या मांस को चीर कर बाहर निकल आते हैं और कीटाणु फ्रैक्चर वाले स्थान में प्रविष्ट हो जाते हैं। देखें चित्र।

3. जटिल फ्रैक्चर (Complicated Fracture)-हड्डी टूटने के साथ-साथ दिमाग़, फेफड़े, जिगर, गुर्दे पर चोट लगने से जोड़ भी उतर जाता है। एक जटिल फ्रैक्चर सरल या खुला हो सकता है।
इसके अतिरिक्त कई अन्य फैक्चर भी होते हैं जो प्राथमिक चिकित्सक को पता नहीं चलते। इनमें से मुख्य फ्रैक्चरों का विवरण नीचे दिया जाता है

4. बुहखण्ड फ्रैक्चर (Comminuted Fracture)-जब हड्डी कई स्थानों से टूट जाती है। देखो चित्र।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (3)

5. पचड़ी फ्रैक्चर (Impacted Fracture) जब टूटी हड्डियों के सिरे एक-दूसरे में धंस जाते हैं। देखो चित्र।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (4)

6. कच्चा या हरी लकड़ी जैसी फ्रैक्चर (Green Stick Fracture)—ऐसा फ्रैक्चर प्रायः छोटे बच्चों में होता है। उनकी हड्डियां कोमल होती हैं । जब उनकी हड्डी टूट जाती है तो वह पूरी तरह आर-पार निकल कर टेढ़ी हो जाती है या उसमें दराड़ आ जाती है। देखो चित्र।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता (5)

7. दबा हुआ फ्रैक्चर (Depressed Fracture)—जब खोपड़ी के ऊपर वाले भाग या उसके आस-पास कहीं हड्डी टूट जाए या अन्दर धंस जाए। देखें चित्र-पचड़ी फ्रैक्चर।। इनमें सबसे खरतनाक टूट या फ्रैक्चर जटिल फ्रैक्चर है। इस टूट के कारण मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जाता है। इसलिए यह फ्रैक्चर सबसे भयानक है।

प्रश्न 8.
बेहोशी क्या है ? इसके चिन्हों तथा इलाज के बारे में बताओ।
(What is unconsciousness ? Mention its symptoms and treatment.)
उत्तर-
बेहोशी (Unconsciousness) बेहोशी का अर्थ है चेतना का खोना। चिन्ह (Symptoms) बहोशी के निम्नलिखित लक्षण होते हैं –

  • नब्ज़ धीमी चलती है।
  • त्वचा ठण्डी और चिपचिपी हो जाती है।
  • चेहरा पीला पड़ जाता है।
  • रक्त का दबाव कम हो जाता है।

इलाज (Treatment) –

  • रोगी की नब्ज़ और दिल की धड़कन अच्छी तरह देख लेनी चाहिए।
  • रोगी की जीभ को पिछली ओर खिसकने नहीं देना चाहिए।
  • यदि शरीर के कपड़े तंग हों तो उतार देने चाहिएं।
  • खुली वायु आने देनी चाहिए।
  • दिल पर मालिश करनी चाहिए।
  • सांस की गति कम होने की दशा में कृत्रिम सांस देना चाहिए।
  • रोगी को पूरा होश न आने तक मुंह के द्वारा कुछ खाने के लिए नहीं देना चाहिए।
  • जब तक रोगी होश में न आए उसे पानी या गर्म चीज़ पीने के लिए देनी चाहिए।
  • रोगी को स्पिरिट अमोनिया सुंघा देनी चाहिए। यदि यह न मिल सके तो प्याज़ ही सुंघा देना चाहिए।
  • जिस कारण से बेहोशी हुई हो उसका इलाज करना चाहिए।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्रश्न 9.
सांप के काटने की अवस्था में रोगी को आप कैसी प्राथमिक सहायता देंगे?
(What First Aid will you render to a patient in case of snake bite ?)
उत्तर-
सांप के काटने की अवस्था में प्राथमिक सहायता
(First Aid in case of Snake-bite) सांप के काटने से व्यक्ति की मृत्यु होने की सम्भावना हो सकती है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को तुरन्त प्राथमिक सहायता दी जानी चाहिए। सांप द्वारा डंसे व्यक्ति को निम्नलिखित विधि द्वारा प्राथमिक सहायता देनी चाहिए –

  • रक्त परिभ्रमण को रोकना (Stopping the circulation of blood) सर्वप्रथम जिस अंग पर सांप ने डंसा है उस अंग में रक्त परिभ्रमण को रोकना चाहिए। इसके लिए हृदय की ओर वाले भाग के ऊपर के भाग को कपड़े के साथ या रस्सी के साथ कस कर बांध देना चाहिए। यह बन्धन पैर या भुजा के गिर्द घुटने या कुहनी के ऊपर बांधना चाहिए। प्रत्येक 10-20 मिनट के पश्चात् इस को आधे मिनट के लिए ढीला छोड़ना चाहिए। .
  • पानी या लाल दवाई से धोना (Washing with water or Potassium per-manganate)-जिस स्थान पर सांप ने डंक मारा हो उस स्थान को पानी या लाल दवाई (Potassium permanganate) के साथ धो लेना चाहिए।
  • कटाव लगाना (To make an incision)-डंक वाले स्थान को चाकू या ब्लेड के साथ 1″ (2.5 सम) लम्बा और 1″ (1.25 सम) गहरा कटाव लगाना चाहिए। चाकू या ब्लेड को पहले कीटाणु रहित कर लेना चाहिए। कटाव लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी बड़ी रक्त नली को कोई हानि न हो।
  • रोगी को घूमने-फिरने न देना (Not allowing the patient to move)-रोगी को घूमने-फिरने न दिया जाए। रोगी के चलने-फिरने से शरीर में विष फैल जाता है।।
  • शरीर को गर्म रखना (Keeping the body warm) रोगी के शरीर को गर्म रखा जाए। उसको पीने के लिए गर्म चाय देनी चाहिए।
  • कृत्रिम श्वास देना (Administering artificial respiration) रोगी का सांस रुकने की दशा में उसको कृत्रिम श्वास देना चाहिए।
  • रोगी को उत्साहित करना (Encouraging the patient)-रोगी को उत्साहित करना चाहिए।
  • डॉक्टर के पास या अस्पताल में पहुंचाना (Taking toadoctor or hospital)रोगी को शीघ्र ही किसी डॉक्टर के पास या अस्पताल में पहुंचाना चाहिए।

प्रश्न 10.
पानी में डूबने पर आप रोगी को कैसी प्राथमिक सहायता देंगे ?
(What First Aid will you render to a patient of drowning ?)
उत्तर-
पानी में डूबने का उपचार
(The Treatment of Drowning)

नहरों, तालाबों और नदियों में कई बार स्नान करते या इनको पार करते समय कई व्यक्ति डूब जाते हैं।
यदि डूबे हुए व्यक्ति को पानी में से निकाल कर प्राथमिक सहायता दी जाए तो उसके जीवन की रक्षा की जा सकती है। पानी में डूबे हुए व्यक्ति को निम्नलिखित विधि से प्राथमिक सहायता देनी चाहिए –

  • पेट में से पानी निकालना (Removing water from the belly)-डूबे हुए व्यक्ति को पानी से बाहर निकालो। फिर उसको पेट के बल घड़े पर लिटा कर उस के पेट में से पानी निकाला जाएगा। घड़ा न मिलने की अवस्था में उसको पेट के बल लिटा कर । उसे कमर से पकड़ कर ऊपर को उछालो। ऐसा करने से उसके पेट में से पानी निकल जाएगा।
  • रोगी को सूखे कपड़े पहनाना (Making the patient wear dry clothes)रोगी को सूखे कपड़े पहनने के लिए दो।

प्रश्न 11.
जले हुए व्यक्ति को आप कैसी प्राथमिक सहायता देंगे ? (What First Aid will you render to a patient in case of burning ?)
उत्तर-
जलना (Burning)-
कारक तथा प्रभाव (Causes and Effects) – कई बार आग, गर्म बर्तनों, रासायनिक पदार्थ, तेज़ाब तथा विद्युत्धारा से व्यक्ति जल जाता है। इस से त्वचा, मांसपेशियां और ऊतक (Tissues) नष्ट हो जाते हैं।
कभी-कभी गर्म चाय, गर्म दूध, गर्म काफी, भाप या तेजाब से घाव (Scalds) हो जाते हैं। त्वचा लाल हो जाती है, जल जाती है या कपड़े शरीर से चिपक जाते हैं। असहनीय दर्द होता है। कभी-कभी व्यक्ति अधिक जलने से मर भी जाता है।

उपचार (Treatment)-

  • जले हुए भाग का ध्यानपूर्वक उपचार करना चाहिए।
  • यदि कपड़ों को आग लग जाए तो भागना नहीं चाहिए। व्यक्ति को लेट जाना चाहिए और करवटें बदलनी चाहिएं।
  • जिस व्यक्ति के कपड़ों को आग लग जाए उसे कम्बल या मोटे कपड़े से ढक देना चाहिए।

प्रश्न 12.
बिजली के झटके से क्या अभिप्राय है ? आप रोगी को कैसी प्राथमिक सहायता देंगे ?
(What do you mean by electric shock ? How will you treat it ?)
उत्तर-
विद्युत् का झटका (Electric Shock)-

विद्युत् की नंगी तार जिसमें धारा प्रवाहित हो रही हो, को अचानक हाथ लगाने से या लग जाने से झटका लगता है। कई बार व्यक्ति तार से चिपक जाता है, परन्तु कई बार दूर जा गिरता है। विद्युत् के झटके के साथ रोगी बेसुध हो जाता है। कई बार शरीर झुलस भी जाता है। यदि किसी कारण (Main Switch) न मिले तो निम्नलिखित ढंग प्रयोग करने चाहिएं –

  • रबड़ के दस्ताने और सूखी लकड़ी का प्रयोग करना (Using the rubber gloves and dry wood) यदि विद्युत् की शक्ति 5 वोल्ट तक हो तो रबड़ के दस्ताने या सूखी लकड़ी का प्रयोग करके व्यक्ति को बचाना चाहिए। इसमें विद्युत् की धारा नहीं गुज़रती। गीली वस्तु या धातु का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • प्लग निकालना (Removing the plug) यदि विद्युत् की तार किसी दूर के स्थान से आ रही है तो प्लग (Plug) निकाल देना चाहिए या फिर तार तोड़ देनी चाहिए।

उपचार (Treatment)-

  • कृत्रिम सांसदेना (Giving artificial respiration)यदि रोगी का सांस बन्द हो तो उसको कृत्रिम सांस देना चाहिए।
  • झुलसे या सड़े अंगों का उपचार (Treatment of Scalded or Burnt part)यदि कोई अंग झुलस या सड़ गया हो तो उसका उपचार करना चाहिए।
  • रोगी को उत्साहित करना (Encouraging the patient) रोगी को उत्साहित करना चाहिए।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 प्राथमिक सहायता

प्राथमिक सहायता PSEB 9th Class Physical Education Notes

  • प्राथमिक सहायता-डॉक्टर के पास ले जाने से पहले रोगी को जो प्राथमिक सहायता दी जाती है ताकि उसकी जीवन रक्षा हो सके, उसे प्राथमिक सहायता कहते
    हैं।
  • प्राथमिक सहायता की ज़रूरत-अगर दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को प्राथमिक सहायता न दी जाए तो हो सकता है कि उसकी मृत्यु हो जाए। इसलिए प्राथमिक सहायता रोगी के लिए जीवन रूपी अमृत है।
  • पुट्ठों का तनाव-मांसपेशियों के खिंचें जाने को पुट्ठों का तनाव कहते हैं। आवश्यकता से अधिक थकावट और शरीर के अंगों का आपसी तालमेल न होने के कारण पुट्ठों का तनाव हो जाता है।
  • मोच-किसी जोड़ के बन्धन का फट जाना ही मोच है। मोच वाली जगह को हिलाना नहीं चाहिए और 48 घंटों तक सर्द पानी की पट्टियां करनी चाहिएं और उसके बाद उन्हें गर्म करना चाहिए।
  • फ्रैक्चर-हड्डी टूटना फ्रैक्चर होता है।
  • बेहोशी-बेहोशी का अर्थ चेतना गंवाना है। बेहोशी में नब्ज़ धीरे-धीरे चलती है और चमड़ी ठण्डी हो जाती है।
  • फ्रैक्चर की किस्में-फ्रैक्चर, सादी, गुंझलदार, दबी हुई और बहुखण्डीय हो … सकती है।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

Punjab State Board PSEB 9th Class Social Science Book Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Social Science Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

SST Guide for Class 9 PSEB एक गांव की कहानी Textbook Questions and Answers

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

रिक्त स्थान भरें:

  1. मानव की आवश्यकताएं
  2. …………. जोखिम उठाता है।
  3. ………… उत्पादन का प्राकृतिक साधन है।
  4. एक वर्ष में एक भूखण्ड पर एक से अधिक फसलें पैदा करने को ………. कहते हैं।
  5. जो श्रमिक एक राज्य से दूसरे राज्य में श्रम करने के लिए जाते हैं उन्हें ………….. श्रमिक कहते हैं।
  6.  पंजाब को देश के ……………. के रूप में जाना जाता है।

उत्तर-

  1. असीमित
  2. उद्यमी
  3. भूमि
  4. बहुविविध फसल प्रणाली
  5. प्रवासी श्रमिक
  6. अन्न के कटोरे।

बहुविकल्पी प्रश्न :

प्रश्न 1.
उत्पादन का कौन-सा कारक अचल है ?
(क) भूमि
(ख) श्रम
(ग) पूंजी
(घ) उद्यमी।
उत्तर-
(क) भूमि

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

प्रश्न 2.
वह आर्थिक क्रिया जो वस्तुओं व सेवाओं के मूल्य अथवा उपयोगिता की वृद्धि के साथ जुड़ी हुई है, कहलाती है
(क) उत्पादन
(ख) उपभोक्ता
(ग) वितरण
(घ) उपयोगिता।
उत्तर-
(क) उत्पादन

प्रश्न 3.
कृषि में विशेषकर गेहूँ व धान के उत्पादन में असाधारण वृद्धि को क्या कहते हैं ?
(क) हरित क्रांति
(ख) गेहूं क्रांति
(ग) धान क्रांति
(घ) श्वेत क्रांति।
उत्तर-
(क) हरित क्रांति

प्रश्न 4.
इग्लैंड की मुद्रा कौन-सी है ?
(क) रुपए
(ख) डॉलर
(ग) यान
(घ) पौंड।
उत्तर-
(घ) पौंड।

सही/गलत :

  1. भूमि की पूर्ति सीमित है।
  2. मनुष्य की सीमित आवश्यकताएं असीमित साधनों के साथ पूरी होती हैं।
  3. श्रम की पूर्ति को बढ़ाया एवं घटाया नहीं जा सकता।
  4. उद्यमी जोखिम उठाता है।
  5. मशीन व पशुओं द्वारा करवाया कार्य श्रम है।
  6. बाज़ार में वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाने से उनकी मांग बढ़ जाती है।

उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. ग़लत
  6. ग़लत।

(क) अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
अर्थशास्त्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
अर्थशास्त्र मनुष्यों के व्यवहार का अध्ययन है जो यह बताता है कि किस प्रकार एक मनुष्य अपनी असीमित आवश्यकताओं को सीमित साधनों से पूरा कर सकता है।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

प्रश्न 2.
भारत के गांवों की मुख्य उत्पादन क्रिया कौन-सी है ?
उत्तर-
खेती, भारत के गांवों की मुख्य उत्पादन है।

प्रश्न 3.
गांवों में सिंचाई के दो प्रमुख साधन कौन-से हैं।
उत्तर-

  1. टयूबवैल
  2. नहरें।

प्रश्न 4.
अर्थशास्त्र में श्रम से क्या अभिप्राय है ? .
उत्तर-
अर्थशास्त्र में श्रम का कार्य उन सभी मानवीय प्रयासों से हैं, जो धन कमाने के उद्देश्य से किए जाते हैं। ये प्रयास शारीरिक या बौद्धिक दोनों हो सकते हैं।

प्रश्न 5.
माँ द्वारा अपने बच्चे को पढ़ाने की क्रिया श्रम है अथवा नहीं ?
उत्तर-
इस कार्य को श्रम नहीं माना जाएगा क्योंकि यह कार्य धन प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं किया गया है।

प्रश्न 6.
श्रमिकों को परिश्रमिक किस रूप में मिलता हैं ?
उत्तर-
श्रमिक अपनी मजदूरी नकद या किस्म के रूप में प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 7.
गांव के लोगों द्वारा की जाने वाली कोई दो गैर कृषि क्रियाएं बताएं।
उत्तर-
गैर कृषि क्रियाएं निम्न हैं1. डेयरी 2. मुर्गीपालन।

प्रश्न 8.
बड़े व लघु किसान कृषि के लिए वांछित पूंजी कहां से प्राप्त करते हैं ?
उत्तर-
बड़े किसान कृषि क्रियाओं के लिए पूंजी अपनी कृषि क्रियाओं से होने वाली बचतों से प्राप्त करते हैं जबकि छोटे किसान बड़े किसानों से ऊंची ब्याज दर पर रकम लेते हैं।

प्रश्न 9.
भूमि की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर-
भूमि प्रकृति का निःशुल्क उपहार है।

प्रश्न 10.
मज़दूर एक राज्य से दूसरे राज्यों में प्रवास क्यों करते हैं ?
उत्तर-
श्रमिक अपनी आजीविका कमाने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य को प्रवास करते हैं।

प्रश्न 11.
किसान पराली को क्यों जलाते हैं ?
उत्तर-
धान के अवशिष्ट भाव पराली का कोई निवेष प्रबंध न होने के कारण किसान उस पराली को आग लगाते हैं।

(स्व) लघु उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
हम अर्थशास्त्र का अध्यायन क्यों करते हैं ?
उत्तर-
हम अर्थशास्त्र का अध्ययन इसलिए करते हैं क्योंकि यह एक विज्ञान है जो हमें यह बताता है कि किस प्रकार हम अपने सीमित साधनों का प्रयोग करके अपनी असीमित आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं। अर्थशास्त्र का अध्ययन करके ही हम अपनी आय को इस प्रकार व्यय कर सकते हैं जिससे हमें अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त हो।

प्रश्न 2.
आर्थिक क्रिया क्या है ? एक उदाहरण दें।
उत्तर-
आर्थिक क्रिया वह क्रिया है जो एक व्यक्ति द्वारा अपनी असीमित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सीमित साधनों को कम करके की जाती है। इस क्रियाओं को किए जाने का मुख्य उद्देश्य धन प्रकट करना होता है।
उदाहरण-एक शिक्षक द्वारा विद्यालय में पढ़ाना।

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प्रश्न 3.
सिंचाई के लिए टयूबवैल का निरन्तर प्रयोग भूमि के नीचे के जलस्तर को कैसे प्रभावित करता है ?
उत्तर-
सिंचाई के लिए टयूबवैल द्वारा पानी के निरंतर प्रयोग किए जाने से भूमिगत जल का स्तर कम होता जा रहा है। पंजाब में भूमिगत जल स्तर का कम होना एक गंभीर समस्या है। पंजाब में हर वर्ष अधिक से अधिक जल का प्रयोग करने हेतु भूमि के नीचे से नीचे स्तर से भी जल निकाला जा रहा है। इस तरह 20 वर्ष के बाद भूमिगत के पूरी तरह कम हो जाने का माप उत्पन्न होने लगा है।

प्रश्न 4.
भूमि के एक ही भाग पर उत्पादन वृद्धि के कोई दो भिन्न ढंग बताएं।
उत्तर-
एक ही भूमि के टुकड़ें पर एक वर्ष में एक से अधिक फसलें एक साथ उगाने से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। इसे बहुविविध फसल प्रणाली कहते हैं। भूमि के एक ही टुकड़े पर उत्पादन बढ़ाने की यह एक सामान्य प्रक्रिया है। यह विद्युत टयूवबैल तथा किसानों को विद्युत की लगातार पूर्ति से संभव हो सका है।
दूसरी ओर, एक ही भूमि के टुकड़े पर उत्पादन बढ़ाने का अन्य तरीका आधुनिक विधियों का प्रयोग करना है जैसे उच्च पैदावार वाले बीज, रासायनिक खाद की पर्याप्त मात्रा कीटनाशक आदि।

प्रश्न 5.
बहुफसली विधि से क्या अभिप्राय है ? वर्णन करें।
उत्तर-
एक वर्ष में भूमि के एक टुकड़े पर एक साथ एक से अधिक फसलें उगाने की क्रिया को बहुविविध फसल प्रणाली कहते हैं। यह भूमि के एक ही टुकड़े पर उत्पादन बढ़ाने का साधारण तरीका है। यह विद्युत टयूवबैल तथा किसानों को निरंतर विद्युत की पूर्ति से संभव हो सका है। छोटी-छोटी नहरों से भी किसानों को कृषि के लिए जल उपलब्ध होता रहता है। जिसने वर्ष भर किसानों को कृषि करने के लिए प्रेरित किया है।

प्रश्न 6.
हरित क्रांति से क्या अभिप्राय है ? यह कैसे संभव हुई है ?
उत्तर-
भारत में योजनाओं की अवधि में अपनाए गए कृषि सुधारों के फलस्वरूप 1967-68 में अनाज के उत्पादन में 1966-67 की तुलना में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई। किसी एक वर्ष में अनाज के उत्पादन में इतनी अधिक वृद्धि किसी क्रांति से कम नहीं थी। इसलिए इसे हरित क्रांति का नाम दिया गया। हरित क्रांति से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई नीति को अपनाने के कारण हुई।

प्रश्न 7.
भूमि पर आधुनिक कृषि पद्धति व ट्यूबवैल सिंचाई के कौन-से हानिकारक प्रभाव पड़े हैं ?
उत्तर-
भूमि एक प्राकृतिक संसाधन हैं, आधुनिक कृषि विधियां इसकी उपजाऊ शक्ति को कम कर रही हैं। आधुनिक कृषि विधियों के प्रयोग द्वारा प्रारंभिक स्तर में तो कृषि उत्पादन बढ़ता रहता है परंतु बाद में यह धीरे-धीरे घटता जाता है।
भूमिगत जल का स्तर भी टयूवबैल का अधिक प्रयोग करने से घटता जा रहा है। प्रत्येक वर्ष पंजाब के किसान भूमि को और अधिक नीचे तक खोदते रहते हैं। इन स्थितियों के द्वारा 20 वर्ष के बाद भूमिगत जल के पूरी तरह कम हो जाने का संकट उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 8.
गांव के किसानों में भूमि किस प्रकार वितरित हुई है ?
उत्तर-
इस गांव में दुर्भाग्यवश सभी लोग कृषि योग्य भूमि की पर्याप्त मात्रा न होने के कारण कृषि कार्यों में संलग्न नहीं हैं। लगभग 20 परिवार ऐसे हैं जो अपनी भूमि के स्वामी हैं और 100 परिवार ऐसे हैं जिनके पास कृषि योग्य थोड़ी सी भूमि उपलब्ध है। जबकि 50 परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास अपनी कृषि योग्य भूमि नहीं है। यह लोग अन्य लोगों की भूमि पर काम करके अपनी आजीविका कमाते हैं।

प्रश्न 9.
गांव में कृषि के लिए श्रम के कोई दो स्त्रोत बताएं।
उत्तर-
किसानों कृषि कार्यों के लिए श्रम का स्वयं प्रबंध करते हैं। इसके अलावा, कुछ निर्धन परिवार अपनी आजीविका कमाने के लिए बड़े कृषकों की भूमि पर श्रम का कार्य करते हैं। ज़मींदारों की भूमि पर नाम करने के लिए कुछ प्रवासी श्रमिक अन्य राज्यों जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश से भी गांव में आए हैं। इन्हें प्रवासी श्रमिक कहते हैं।

प्रश्न 10.
बड़े व मध्यम वर्गीय किसान कृषि के लिए आवश्यक पूंजी का प्रबंध कैसे करते हैं ?
उत्तर-
मझौले और बड़े किसानों के पास अधिक भूमि होती है अर्थात् उनकी जोतों का आकार काफ़ी बड़ा होता है जिससे वे उत्पादन अधिक करते हैं।
उत्पादन अधिक होने से वे इसे बाज़ार में बेच कर काफी पूंजी प्राप्त कर लेते हैं जिसका प्रयोग वे उत्पादन को आधुनिक विधियों को अपनाने में करते हैं।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

प्रश्न 11.
आर्थिक तथा अनार्थिक क्रिया में अंतर लिखें।
उत्तर-

आर्थिक  क्रियाएं अनार्थिक क्रियाएं
1. आर्थिक क्रियाएं अर्थव्यवस्था में वस्तुओं  व सेवाओं का प्रवाह करती हैं। 1. अनार्थिक क्रियाओं से वस्तुओं व सेवाओं का कोई प्रवाह अर्थव्यवस्था में नहीं होता।
2. जब आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि होती है तो इसका अर्थ है कि अर्थव्यवस्था प्रगति 2. अनार्थिक क्रियाओं में होने वाली कोई भी वृद्धि अर्थव्यवस्था की प्रगति का निर्धारक नहीं है। में है।
3. आर्थिक क्रियाओं से वास्तविक व राष्ट्रीय आय व आय में वृद्धि होती है। 3. अनार्थिक क्रियाओं में से कोई राष्ट्रीय व्यक्तिगत आय में वृद्धि नहीं होती है।

प्रश्न 12.
श्रम की मुख विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
श्रम की मुख्य विशेषताएं निम्न हैं-

  1. श्रम उत्पादन का एकमात्र सक्रिय साधन है।
  2. श्रम को पूर्ति घटाई व बढ़ाई जा सकती है।
  3. भारत में श्रम प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
  4. धन कमाने के उद्देश्य से किए गए सभी मानवीय प्रयास श्रम है।
  5. श्रम को खरीदा व बेचा जा सकता है।
  6. श्रम गतिशील है।

प्रश्न 13.
लघु किसान कृषि के लिए वांछित पूंजी का प्रबंध कैसे करते हैं ?
उत्तर-
छोटे किसानों की पूंजी की आवश्यकता बड़े किसानों से भिन्न होती है क्योंकि छोटे किसानों के पास भूमि कम होने के कारण उत्पादन उनके भरण-पोषण के लिए भी कम बैठता है। उन्हें अधिकतम प्राप्त न होने के कारण बचतें नहीं होती। इसलिए खेती के लिए उन्हें पूंजी बड़े किसानों या साहूकारों से उधार लेकर पूरी करनी पड़ती है, जिस पर उन्हें काफी ब्याज चुकाना पड़ता है।

प्रश्न 14.
बड़े किसान अतिरिक्त कृषि उत्पादों को क्या करते हैं ?
उत्तर-
बड़े किसान अपने कृषि उत्पाद को नज़दीक के बाजार में बेचते हैं और बहुत अधिक धन कमा लेते हैं। इस कमाई हुई अतिरिक्त पूंजी का प्रयोग वे छोटे किसानों को ऊंची ब्याज दर पर ऋण देने के लिए करते हैं। इसके अलावा वो इस आधिक्य का प्रयोग अगले कृषि मौसम में उपज उगाने के लिए भी करते हैं और अपनी जमाओं को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 15.
भारत के गांवों में कौन-सी गैर-कृषि क्रियाएं की जाती हैं ?
उत्तर-
ग्रामीण क्षेत्र में जो गैर-कृषि कार्य हो रहे हैं वे निम्नलिखित हैं-

  1. पशुपालन द्वारा दुग्ध क्रियाएं।
  2. छोटे-छोटे उद्योग हैं जिसमें आटा चक्कियां, बुनकर उद्योग टोकरियां बनाना, फर्नीचर बनाना, लोहे के औज़ार बनाना आदि शामिल हैं।
  3. दुकानदारी।
  4. यातायात के साधनों का संचालन आदि।

प्रश्न 16.
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कौन-कौन सी गैर-कृषि क्रियाएं (गतिविधियां) चलाई जा रही है ?
उत्तर-
गैर-कृषि क्रियाओं को कम मात्रा में भूमि की आवश्यकता होती है । वर्तमान में, गांवों में गैर-कृषि क्षेत्र अधिक विस्तृत नहीं हैं। गांवों में प्रत्येक 100 श्रमिकों में से केवल 24 श्रमिक ही गैर-कृषि क्रियाओं में संलग्न हैं। लोग गैर-कृषि क्रियाएं या तो अपनी बचतों से या ऋण लेकर शुरू कर सकते हैं। गांवों को आधुनिक सुविधाएं प्रदान करवा कर जैसे सड़क, बिजली, संचार, यातायात आदि से शहर के साथ जोड़ा जा सकता है तथा गैर-कृषि क्रियाओं को शुरू किया जा सकता है।

प्रश्न 17.
फसलों के अवशिष्ट को खेतों में जलाने से भूमि की गुणवत्ता में पतन क्यों आता है ?
उत्तर-
फसलों के अवशिष्ट को खेतों में जलाने से ज़मीन की उपरी सतह का तापमान बढ़ जाता है, जिस कारण ज़मीन में मिलने वाले सूक्ष्म जीव, बैक्टीरिया, मित्रकीट, फफूंद, पक्षी मौत का शिकार हो जाते हैं। इसके साथ-साथ ज़मीन के लाभदायक तत्त्व और यौगिक भी तापमान में बढ़ौतरी के कारण नष्ट हो जाते हैं, परिणामस्वरूप भूमि की गुणवत्ता में पतन हो जाता है।

अन्य अभ्यास के प्रश्न

गतिविधि-1

अपने निकटतम खेत में जाकर कुछ किसानों से चर्चा कीजिए तथा मालूम करने की कोशिश कीजिए।
प्रश्न 1.
किसान कृषि में परम्परावादी अथवा आधुनिक में किस विधि का प्रयोग कर रहे हैं : व क्यों।
उत्तर-
मेरे पड़ोस के खेतों में जिन किसानों की छोटी जोतें थीं वे खेती की पुरानी विधि का प्रयोग कर रहे हैं तथा जिन किसानों की जोतें बड़ी थीं वे नयी विधि का प्रयोग कर रहे थे। इन विधियों को प्रयोग करने का मुख्य कारण यही था कि जिन किसानों की जोतें छोटे आकार की हैं वे आधुनिक विधियों को प्रयोग करने में कम आय होने के कारण असमर्थ हैं। दूसरी ओर बड़े किसानों की आय अधिक होने के कारण वे आधुनिक विधि का प्रयोग करने में समर्थ हैं।

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प्रश्न 2.
उसके द्वारा सिंचाई के कौन-से स्त्रोत का प्रयोग हो रहा हैं ?
उत्तर-
मेरे गांव में अधिकतर किसान सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर हैं परंतु कुछ बड़े किसान ट्यूवबैल, पंपसैट से भी सिंचाई करते हैं।

प्रश्न 3.
किसानों द्वारा बोई जाने वाली फसलों के प्रकार तथा इन फसलों को बीजने तथा काटने का समय क्या है ?
उत्तर-
मेरे गांव के किसान खरीफ़ तथा रवी दोनों प्रकार की फसलें उगाते हैं। खरीफ मौसम में मक्की, सूरजमुखी तथा चावल उगाते हैं तथा सर्दी से पहले इनकी कटाई हो जाती है। सर्दी में रवी फसल जैसे गेहूं, जौ, चना, सरसों उगाते हैं तथा अप्रैल मास में इनकी कटाई करते हैं।

प्रश्न 4.
किसानों द्वारा प्रयुक्त खादों व कीटनाशक दवाइयों के नाम लिखिए।
उत्तर-
खादों के नाम-

  1. यूरिया (Urea)
  2. वर्मीकंपोस्ट (Vermicompost)
  3. जिप्सम (Gypsum)

कीटनाशक-

  1. Emanection Benzoate
  2. RDX BIO Pesticide
  3. Bitentrin 2.5% Ec
  4. Star one.

गतिविधि-2

प्रश्न 1.
अपने गांव या निकटवर्ती गांव के खेतों में जाकर पता करें कि किसान खेतों में पराली जला रहे हैं या नहीं ? यदि वे ऐसा कर रहे हैं तो उन्हें ऐसा करने से होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में समझाइए।
उत्तर-
गांव के खेतों में जाने से मालूम हुआ कि किसान अगली फसल की बुआई करने की जल्दी के कारण विशेष रूप से धान की कटाई के बाद व गेहूं की बुआई से पहले अवशेषों को ठिकाने लगाने की व्यवस्था के अभाव में जल्दी हल के लिए वे खेतों में ही खूटी (Stubble) को जला रहे थे। मैंने उन्हें ऐसा करने से होने वाले बुरे परिणामों से अवगत करवाया उन्हें बताया कि इससे पर्यावरण प्रदूषित होता है जो कि वातावरण असंतुलन फैलाता है। इससे भूमि की ऊपरी सतह का तापमान बढ़ जाता है जिसने विभिन्न प्रकार के जीवाणु, कवक, मित्र कीट आदि मर जाते हैं तथा भूमि के आवश्यक तत्वों का नाश होता है।

आइए चर्चा करें:

प्रश्न 1.
लघु स्तर के किसानों को बड़े स्तर के किसानों के खेतों में श्रमिकों की तरह कार्य क्यों करना पड़ता है ?
उत्तर-
उन्हें अपनी आजीविका कमाने के लिए श्रमिक के रूप में काम करना पड़ता है क्योंकि उन्होंने बड़े किसानों से निर्धनता के कारण ऋण लिए होते हैं जिसकी अदायगी के लिए उन्हें अपने खेतों को भी देना पड़ जाता है।

प्रश्न 2.
क्या कृषि श्रमिकों को पूरे वर्ष के लिए रोजगार उपलब्ध हो जाता है ?
उत्तर-
नहीं, खेतिहर मजदूरों को पूरे वर्ष भर रोज़गार नहीं मिलता। उन्हें दैनिक मज़दूरी आधार पर अथवा किसी विशेष खेती पर होने वाले क्रियाकलाप के दौरान जैसे कटाई या बुआई के समय ही काम मिलता है। वे मौसमी रोज़गार प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 3.
कृषि श्रमिक को अपना पारिश्रमिक किस रूप में मिलता है।
उत्तर-
वे नकदी अथवा प्रकार में भी जैसे अनाज (चावल या गेहूँ) के रूप में भी मज़दूरी प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 4.
प्रवासी श्रमिक किन्हें कहा जाता हैं ?
उत्तर-
जब बड़े किसानों के खेतों में अन्य राज्यों से लोग आकर मजदूरी पर काम करते हैं तो उन्हें प्रवासी मजदूर कहते हैं।

प्रश्न 5.
श्रमिक प्रवास क्यों करते हैं ? अपने अध्यापक महोदय के साथ चर्चा करें।
उत्तर-
श्रमिक इसलिए प्रवास करते हैं क्योंकि उनके स्थान पर आजीविका कमाने के लिए काम उपलब्ध नहीं होता है। हमने अपने गांव में देखा है कि अन्य राज्यों से लोग अपने वहां काम के अभाव से यहां गांव में आते हैं। इन्हें प्रवासी मज़दूर के नाम से जाना जाता है।

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PSEB 9th Class Social Science Guide एक गांव की कहानी Important Questions and Answers

रिक्त स्थान भरें:

  1. वे सभी वस्तुएं जो मनुष्य की आवश्यकताओं को संतुष्ट करती हैं, ……. कहलाती हैं।
  2. किसी वस्तु की प्रति इकाई को ………… लागत कहते हैं।
  3. पूर्ण प्रतियोगिता में औसत आय तथा सीमांत आय ……… होती है।
  4. उत्पादन के मुख्य …………. साधन हैं।
  5. ……….. में समरूप वस्तु के बहुत सारे क्रेता और विक्रेता होते हैं।
  6. आर्थिक लगान केवल …………. की सेवाओं के लिए प्राप्त होता है।
  7. दुर्लभता का अर्थ किसी वस्तु अथवा सेवा की पूर्ति का उसकी मांग से ……. होता है।
  8. …………. वह इकाई है जो लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से बिक्री के लिए उत्पादन करती है।
  9. …………. वह स्थिति है जिसमें एक बाज़ार में केवल एक ही उत्पादक होता है।
  10. किसी वस्तु की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने की शक्ति है।

उत्तर-

  1. पदार्थ
  2. औसत
  3. समान
  4. चार
  5. पूर्ण प्रतियोगिता
  6. भूमि
  7. कम
  8. फर्म :
  9. एकाधिकार
  10. उपयोगिता।।

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
इनमें से कौन मुद्रा का एक कार्य है ?
(क) विनिमय का माध्यम
(ख) मूल्य का मापदंड
(ग) धन का संग्रह
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
इनमें से कौन पदार्थ का प्रकार नहीं हैं ?
(क) भौतिक
(ख) संतुलित
(ग) नाशवान
(घ) टिकाऊ।
उत्तर-
(ख) संतुलित

प्रश्न 3.
इनमें से कौन उद्यमी का पारितोषिक है ?
(क) लाभ
(ख) लगान
(ग) मजदूरी
(घ) ब्याज।
उत्तर-
(क) लाभ

प्रश्न 4.
ब्याज किसकी सेवाओं के बदले में दिया जाता है?
(क) भूमि
(ख) श्रम
(ग) पूंजी
(घ) उद्यमी।
उत्तर-
(ग) पूंजी

प्रश्न 5.
किसी वस्तु की बिक्री करने पर एक फ़र्म को जो राशि प्राप्त होती है उसे कहते हैं ?
(क) आगम
(ख) उपयोगिता
(ग) मांग
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर-
(क) आगम

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प्रश्न 6.
दुर्लभता का अर्थ किसी वस्तु की पूर्ति का उसकी मांग से होना है-
(क) कम
(ख) अधिक
(ग) समान
(घ) इनमें कोई नहीं।
(ख) उत्पादन की मात्रा
उत्तर-
(क) कम

प्रश्न 7.
औसत आय निकालने का सूत्र क्या है ?
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(ग) कुल आय × उत्पादन की मात्रा
(घ) इनमें कोई नहीं।
उत्तर-
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प्रश्न 8.
इनमें से कौन पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषता है ?
(क) समरूप वस्तु
(ख) समान कीमत
(ग) पूर्ण ज्ञान
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 9.
एक विक्रेता व अधिक क्रेता किस बाज़ार का लक्ष्य है ?
(क) एकाधिकार
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता
(ग) अल्पाधिकार
(घ) एकाधिकार प्रतियोगिता।
उत्तर-
(क) एकाधिकार

प्रश्न 10.
इनमें से कौन बाज़ार का एक प्रकार है ?
(क) अल्पाधिकार
(ख) पूर्ण प्रतियोगिता
(ग) एकाधिकार
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

सही/गलत :

  1. U.S.A. की करंसी डॉलर है।
  2. अध्यापक द्वारा घर में अपने बच्चे को पढ़ाना एक आर्थिक क्रिया है।
  3. भूमि की पूर्ति असीमित है।
  4. एक एकड़ 8 कनाल के बराबर होता है।
  5. हमारे देश में कुल खेती योग्य क्षेत्र का केवल 40 प्रतिक्षत क्षेत्र ही सिंचाई योग्य है।
  6. पंजाब पांच नदियों की भमि है।
  7. भूमिगत जल का स्तर पंजाब में बढ़ रहा है।
  8. भारत में लगभग 70% स्त्रोतों का आकार 2 हैक्टेयर से भी कम है।
  9. श्रम को हम बेच अथवा खरीद नहीं सकते हैं।
  10. पूंजी में घिसावट होती है।

उत्तर-

  1. सही
  2. गलत
  3. ग़लत
  4. सही
  5. सही
  6. सही
  7. ग़लत
  8. सही
  9. ग़लत
  10. सही।

अति लघु उत्तरों वाले प्रश्न।।

प्रश्न 1.
उपयोगिता की परिभाषा दें।
उत्तर-
उपयोगिता किसी वस्तु की वह शक्ति अथवा गुण है जिसके द्वारा हमारी आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है।

प्रश्न 2.
सीमांत उपयोगिता की परिभाषा दें।
उत्तर-
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उपयोग करने से कुल उपयोगिता में जो वृद्धि होती है, उस सीमांत उपयोगिता कहते हैं।

प्रश्न 3.
पदार्थ की परिभाषा दें।
उत्तर-
मार्शल के शब्दों में, “वे सभी वस्तुएं जो मनुष्य की आवश्यकताओं को संतुष्ट करती हैं, अर्थशास्त्र में पदार्थ कहलाती हैं।”

प्रश्न 4.
मध्यवर्ती और अंतिम वस्तुओं से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मध्यवर्ती वस्तुएं वे वस्तुएं हैं जिनका प्रयोग अन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए किया जाता है, जिनकी पुनः बिक्री की जाती है। अंतिम वस्तुएं वे वस्तुएं हैं जो उपभोग या निवेश के उद्देश्य से बाज़ार में बिक्री के लिए उपलब्ध

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प्रश्न 5.
पूंजीगत वस्तुओं की परिभाषा दें।
उत्तर-
वे पदार्थ जिनके द्वारा किसी दूसरी वस्तु का उत्पादन होता है, जैसे कच्चा माल, मशीन इत्यादि, पूंजीगत वस्तुएं कहलाती हैं।

प्रश्न 6.
वस्तुओं और सेवाओं में क्या अंतर है ?
उत्तर-
वस्तुओं को देखा, छुआ तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। सेवाओं को देखा, छुआ और हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
धन की परिभाषा दें।
उत्तर-
अर्थशास्त्र में वे सभी वस्तुएं जो विनिमय साध्य हैं, जिनमें उपयोगिता है तथा जो सीमित मात्रा में हैं. धन कहलाती हैं।

प्रश्न 8.
दुर्लभता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
दुर्लभता का अर्थ किसी वस्तु अथवा सेवा की पूर्ति का उसकी मांग से कम होता है।

प्रश्न 9.
क्या बी०ए० की डिग्री और व्यवसाय की साख धन है ?
उत्तर-

  1. बी०ए० की डिग्री धन नहीं है क्योंकि यह उपयोगी और दुर्लभ तो है पर हस्तांतरणीय नहीं होती।
  2. व्यवसाय की साख धन है क्योंकि इसमें धन के तीन गुण-उपयोगिता, दुर्लभता तथा विनिमय साध्यता हैं।

प्रश्न 10.
मुद्रा की परिभाषा दें।
उत्तर-
मुद्रा कोई भी वस्तुं हो सकती है जिसको सामान्य रूप से, वस्तुओं के हस्तांतरण में विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है।

प्रश्न 11.
मांग से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मांग किसी वस्तु की वह मात्रा है जिसे एक उपभोक्ता समय की एक निश्चित अवधि में, एक निश्चित कीमत पर खरीदने के लिए इच्छुक तथा योग्य है।

प्रश्न 12.
पूर्ति की परिभाषा दें।
उत्तर-
किसी वस्तु की पूर्ति से अभिप्राय वस्तु की उस मात्रा से है जिसको एक विक्रेता एक निश्चित कीमत पर निश्चित समय-अवधि में बेचने के लिए तैयार होता है।

प्रश्न 13.
मौद्रिक लागत की परिभाषा दें।
उत्तर-
किसी वस्तु का उत्पादन और बिक्री करने के लिए मुद्रा के रूप में जो धन खर्च किया जाता है, उसे उस वस्तु की मौद्रिक लागत कहते हैं।

प्रश्न 14.
सीमांत लागत की परिभाषा दें।
उत्तर-
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने पर कुल लागत में जो वृद्धि होती है, उसे सीमांत लागत कहते हैं।

प्रश्न 15.
औसत लागत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
किसी वस्तु की प्रति इकाई को औसत लागत कहते हैं। कुल लागत को उत्पादन की मात्रा में भाग देने पर औसत लागत निकल आती है।

प्रश्न 16.
आय की परिभाषा दें।
उत्तर-
किसी वस्तु की बिक्री करने पर एक फ़र्म को जो राशि प्राप्त होती है, उसे फर्म की आय या आगम कहा जाता है।

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प्रश्न 17.
सीमांत आय की परिभाषा दें।
उत्तर-
एक फ़र्म द्वारा अपने उत्पादन की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल आगम में जो वृद्धि होती है, उसे सीमांत आगम कहते हैं।

प्रश्न 18.
कीमत की परिभाषा दें।
उत्तर-
किसी वस्तु अथवा सेवा की एक निश्चित गुणवत्ता की एक इकाई प्राप्त करने के लिए दी जाने वाली मुद्रा की राशि को कीमत कहते हैं।

प्रश्न 19.
पूर्ण प्रतियोगिता में सीमांत आय और औसत आय में क्या संबंध होता है ?
उत्तर-
पूर्ण प्रतियोगिता में चूंकि कीमत (औसत आय) एक समान रहती है, इसलिए औसत आय तथा सीमांत आय दोनों बराबर होती हैं।

प्रश्न 20.
एकाधिकार की स्थिति में सीमांत आगम और औसत आगम में क्या संबंध होता है ?
उत्तर-
एकाधिकार की स्थिति में अधिक उत्पादन बेचने के लिए कीमत (औसत आगम) कम करनी पड़ती है। इसलिए अगर औसत आगम और सीमांत आगम दोनों नीचे की ओर गिर रही होती हैं।

प्रश्न 21.
पूर्ण प्रतियोगिता की परिभाषा दें।
उत्तर-
पूर्ण प्रतियोगिता वह स्थिति है जिसमें किसी समरूप वस्तु के बहुत सारे क्रेता और विक्रेता होते हैं और वस्तु की कीमत उद्योग द्वारा निर्धारित होती है।

प्रश्न 22.
एकाधिकार की परिभाषा दें।
उत्तर-
एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें किसी वस्तु या सेवा का केवल एक ही उत्पादक होता है, पर वस्तु का कोई निकटतम प्रतिस्थानापन्न नहीं होता।

प्रश्न 23.
बाज़ार की परिभाषा दें।
उत्तर-
अर्थशास्त्र में बाज़ार का अर्थ किसी विशेष स्थान से नहीं है बल्कि ऐसे क्षेत्र से है जहां क्रेता और विक्रेता में एक-दूसरे से इस प्रकार स्वतंत्र संपर्क हो कि एक ही प्रकार की वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति आसानी से एक होने की पाई जाए।

प्रश्न 24.
उत्पादन के साधनों से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल होने वाली सेवाओं के स्रोतों को उत्पादन साधन कहा जाता है।

प्रश्न 25.
भूमि की परिभाषा दें।
उत्तर-
भूमि से अभिप्राय केवल ज़मीन की ऊपरी सतह से नहीं है, बल्कि उन सभी पदार्थों और शक्तियों से है जिन्हें प्रकृति, भूमि, पानी, हवा, प्रकाश और गर्मी के रूप में मनुष्य, की सहायता के लिए मुफ़्त प्रदान करती है।

प्रश्न 26.
पूंजी की परिभाषा दें।
उत्तर-
मार्शल के शब्दों में, “प्रकृति के मुफ़्त उपहारों को छोड़कर सब प्रकार की संपत्ति जिससे आय प्राप्त होती है, पूंजी कहलाती है।”

प्रश्न 27.
श्रम से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मनुष्य के वे सभी शारीरिक तथा मानसिक कार्य जो धन प्राप्ति के लिए किए जाते हैं, श्रम कहलाते हैं।

प्रश्न 28.
उद्यमी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
उद्यमी उत्पादन का वह साधन है जो भूमि, श्रम, पूंजी तथा संगठन को इकट्ठा करता है, आर्थिक निर्णय करता है और जोखिम उठाता है।

प्रश्न 29.
लगान की परंपरागत परिभाषा दें।
उत्तर-
परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार, “आर्थिक लगान वह लगान है जो सिर्फ़ भूमि की सेवाओं के लिए प्राप्त होता है।”

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प्रश्न 30.
लगान की आधुनिक परिभाषा दें।
उत्तर-
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार, “उत्पादन के प्रत्येक साधन से आर्थिक लगान उत्पन्न होता है जबकि उसकी पूर्ति सीमित हो। किसी साधन की वास्तविक आय और हस्तांतरण आय के अंतर को लगान कहा जाता है।”

प्रश्न 31.
मज़दूरी की परिभाषा दें।
उत्तर-
मजदूरी से अभिप्राय उस भुगतान से है जो सभी प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक परिश्रम के लिए दिया जाता है।

प्रश्न 32.
वास्तविक मजदूरी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
वास्तविक मज़दूरी से अभिप्राय वस्तुओं तथा सेवाओं की उस मात्रा से है जो एक श्रमिक अपनी मजदूरी के बदले में प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 33.
नकद मज़दूरी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
नकद मजदूरी मुद्रा की वह मात्रा है जो प्रति घंटा, प्रतिदिन, प्रति सप्ताह, प्रति मास के हिसाब से प्राप्त होती

प्रश्न 34.
ब्याज की परिभाषा दें।
उत्तर-
ब्याज वह कीमत है जो मुद्रा को एक निश्चित समय के लिए प्रयोग करने के लिए ऋणी द्वारा ऋणदाता को दी जाती है।

प्रश्न 35.
कुल ब्याज तथा शुद्ध ब्याज में क्या अंतर है ?
उत्तर-
कुल ब्याज से अभिप्राय उस सारे धन से है जो ऋणी ऋणदाता को देता है जबकि शुद्ध ब्याज कुल ब्याज का वह अंग है जो केवल पूंजी के उपयोग के लिए दिया जाता है।

प्रश्न 36.
लाभ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
एक उद्यमी अपने व्यवसाय की कुल आय में से कुल लागत को घटाकर जो धनात्मक (-) शेष प्राप्त करता है, उसे लाभ कहते हैं।

प्रश्न 37.
कुल लाभ तथा शुद्ध लाभ में क्या अंतर है ?
उत्तर-
शुद्ध लाभ का अभिप्राय है कुल लाभ तथा आंतरिक लागतों का अंतर जबकि कुल लाभ का अभिप्राय है कुल आय तथा कुल बाहरी लागतों का अंतर।

प्रश्न 38.
कुल लाभ की परिभाषा दें।
उत्तर-
कुल लाभ वह अधिशेष है जो उत्पादन कार्य में उत्पादन के सभी साधनों को उनके परिश्रम का पुरस्कार चुकाने के बाद उद्यमी को प्राप्त होता है।

प्रश्न 39.
शुद्ध लाभ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
शुद्ध लाभ का अनुमान लगाने के लिए कुल लाभ में से आंतरिक.लागतों, घिसावट और बीमा आदि का खर्च . घटा दिया जाता है।

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छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
उपयोगिता की परिभाषा दें। उसकी विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
उपयोगिता की परिभाषा-उपयोगिता किसी वस्तु की वह शक्ति है जिसके द्वारा मनुष्य की आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है। उपयोगिता की विशेषताएं

  1. उपयोगिता एक भावगत तथ्य है-उपयोगिता को हम केवल अनुभव कर सकते हैं, उसे स्पर्श अथवा देखा नहीं जा सकता।
  2. उपयोगिता सापेक्षिक है-यह समय, स्थान तथा व्यक्ति के साथ बदल जाती है।
  3. उपयोगिता का लाभदायक होना आवश्यक नहीं है-यह ज़रूरी नहीं कि जिस वस्तु की उपयोगिता है, वह लाभदायक भी हो।
  4. उपयोगिता का नैतिकता के साथ संबंध नहीं है-यह ज़रूरी नहीं कि जो वस्तु उपयोगी है, वह नैतिक दृष्टि से भी ठीक हो।

प्रश्न 2.
कुल उपयोगिता, सीमांत उपयोगिता और औसत उपयोगिता की धारणाओं को उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर-

  1. कुल उपयोगिता-किसी वस्तु की विभिन्न मात्राओं के उपभोग से प्राप्त उपयोगिता की इकाइयों के जोड़ को कुल उपयोगिता कहा जाता है।
  2. सीमांत उपयोगिता-किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उपभोग करने से कुल उपयोगिता में जो परिवर्तन आता है, उसे सीमांत उपयोगिता कहते हैं। माना पहला रसगुल्ला खाने से एक व्यक्ति को 15 इंकाई उपयोगिता प्राप्त होती है। दूसरा रसगुल्ला खाने के फलस्वरूप दोनों रसगुल्लों से मिलने वाली कुल उपयोगिता 25 इकाई हो जाती है। अत: 25 – 15 = 10 इकाई सीमांत उपयोगिता है। इस प्रकार प्रारंभिक उपयोगिता 15 इकाई होगी।
  3. औसत उपयोगिता-किसी वस्तु की कुल इकाइयों की कुल उपयोगिता को इकाइयों की मात्रा से विभाजित करने से हमारे पास औसत उपयोगिता आ जाती है। 3 वस्तुओं से 15 उपयोगिता मिलती है तो एक वस्तु की औसत उपयोगिता \(\frac{15}{3}\) = 5 है।

प्रश्न 3.
पदार्थ की परिभाषा दें और उसका वर्गीकरण करें।
उत्तर-
पदार्थ की परिभाषा-मार्शल के शब्दों में, “वे सब पदार्थ जो मनुष्य की आवश्यकताओं को संतुष्ट करते हैं, अर्थशास्त्र में पदार्थ कहलाते हैं।”
पदार्थ का वर्गीकरण-

  1. भौतिक पदार्थ-जिन्हें देखा जा सकता है।
  2. अभौतिक पदार्थ या सेवाएं-जिन्हें देखा नहीं जा सकता।
  3. आर्थिक पदार्थ-ये वे पदार्थ हैं जो मूल्य द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।
  4. निःशुल्क पदार्थ-वे पदार्थ हैं जो बिना किसी मूल्य के मिल जाते हैं।
  5. उपभोक्ता पदार्थ उपभोक्ता की आवश्यकता को प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट करते हैं।
  6. उत्पादक पदार्थ-अन्य वस्तुओं का उत्पादन करने में सहायक होते हैं।
  7. नाशवान् पदार्थ-जिनका केवल एक बार ही प्रयोग किया जा सकता है।
  8. टिकाऊ पदार्थ-वे पदार्थ जो काफ़ी समय तक काम में लाए जा सकते हैं।
  9. मध्यवर्ती पदार्थ-मध्यवर्ती पदार्थ वे पदार्थ हैं जिनका प्रयोग अन्य वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए किया जाता है।
  10. अंतिम पदार्थ-अंतिम पदार्थ वे पदार्थ हैं जो उपभोग या निवेश के उद्देश्य से बाज़ार में बिक्री के लिए उपलब्ध
  11. सार्वजनिक पदार्थ-जिन पदार्थों पर सरकार का स्वामित्व होता है।
  12. निजी पदार्थ-वे पदार्थ जिन पर किसी व्यक्ति का निजी अधिकार होता है।
  13. प्राकृतिक पदार्थ-जो प्रकृति ने लोगों को उपहार के रूप में प्रदान किए हैं।
  14. मानव द्वारा निर्मित पदार्थ-जिनका उत्पादन मानव द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 4.
मुद्रा की परिभाषा दें। मुद्रा के मुख्य कार्य कौन-से हैं ?
उत्तर-
मुद्रा का अर्थ-मुद्रा कोई भी वस्तु हो सकती है जिसको सामान्य रूप से, वस्तुओं के हस्तांतरण में विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है।
मुद्रा के कार्य-

  1. विनिमय का माध्यम-सभी वस्तुएं मुद्रा के द्वारा खरीदी और बेची जाती हैं।
  2. मूल्य का मापदंड-सभी वस्तुओं का मूल्य मुद्रा में ही व्यक्त किया जाता है।
  3. भावी भुगतान का मान-सभी प्रकार के ऋण मुद्रा के रूप में ही लिए और दिए जाते हैं।
  4. धन का संग्रह- मुद्रा के रूप में धन का संग्रह करना सरल हो जाता है।
  5. विनिमय शक्ति का हस्तांतरण-मुद्रा के रूप में धन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से भेजा जा सकता है।

प्रश्न 5.
मांग से क्या अभिप्राय है ? एक तालिका और रेखाचित्र की सहायता से मांग की धारणा को स्पष्ट करें।
उत्तर-
मांग का अर्थ-“मांग किसी वस्तु की वह मात्रा है जिसको एक उपभोक्ता समय की एक निश्चित अवधि में, एक निश्चित कीमत पर खरीदने के लिए इच्छुक और योग्य है।”
मांग तालिका–मांग की धारणा को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

कीमत (₹) मांग की मात्रा (कि० ग्रा०)
1 40
2 30
3 20
4 10

तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की कीमत बढ़ती जाती है, उसकी मांग कम होती जाती है।
PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी (3)
मांग वक्र-मांग वक्र वह वक्र है जो मांग और कीमत का संबंध प्रकट करता है। मांग वक्र की सहायता से भी मांग को स्पष्ट किया जा सकता है। जब कीमत ₹ 1 है तो मांग 40 इकाइयां है, जब कीमत ₹4 है तो मांग 10 इकाइयां है। इस प्रकार मांग वक्र का ढलान ऊपर से बाईं ओर तथा नीचे दाईं
ओर होता है जो यह दर्शाता है कि कीमत अधिक होने पर मांग कम होती है और कीमत कम होने पर मांग अधिक होती है।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

प्रश्न 6.
पूर्ति की परिभाषा दें। एक तालिका और रेखाचित्र द्वारा पूर्ति की धारणा को स्पष्ट करें।
उत्तर-
पूर्ति की परिभाषा-किसी वस्तु की पूर्ति से अभिप्राय वस्तु की उस मात्रा से है जिसको एक विक्रेता एक निश्चित समय में किसी कीमत पर बेचने के लिए तैयार होता है।
पूर्ति तालिका-पूर्ति तालिका एक ऐसी तालिका है जिसके द्वारा वस्तु की पूर्ति की मात्रा का उसकी कीमत से संबंध दिखाया जा सकता है।
पूर्ति तालिका-पूर्ति की धारणा को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है

कीमत (₹) मांग की मात्रा (कि० ग्रा०)
1 0
2 10
3 20
4 30

तालिका से स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे वस्तु की कीमत बढ़ रही है, उसकी पूर्ति की मात्रा भी बढ़ रही है। इस प्रकार पूर्ति तालिका कीमत और बेची जाने वाली मात्रा के संबंध को दिखाती है।
PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी (4)
पूर्ति वक्र-पूर्ति वक्र वह वक्र है जो किसी वस्तु की कीमत तथा पूर्ति का संबंध प्रकट करता है। रेखाचित्र में पूर्ति वक्र है जो बाएं से दाएं ऊपर को जा रहा है। SS पूर्ति वक्र के धनात्मक ढलान से ज्ञात होता है कि कीमत के बढ़ने पर पूर्ति बढ़ती है और कीमत के कम होने पर पूर्ति कम होती है।

प्रश्न 7.
लागत की परिभाषा दें। कुल लागत, सीमांत लागत और औसत लागत की धारणाओं की व्याख्या करें।
उत्तर-
लागत की परिभाषा-किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों को जो कुल मौद्रिक भुगतान करना पड़ता है, उसे मौद्रिक उत्पादन लागत कहते हैं।
कुल लागत-किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन पाने के लिए जो धन खर्च करना पड़ता है, उसे कुल लागत कहते हैं।
औसत लागत-किसी वस्तु की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहते हैं। कुल लागत को उत्पादन की मात्रा से भाग देने पर औसत लागत का पता लगता है।
कुल लागत
PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी (5)
सीमांत लागत-सीमांत लागत कुल लागत में वह परिवर्तन है जो एक वस्तु की एक और इकाई पैदा करने पर खर्च आती है।

प्रश्न 8.
आय की परिभाषा दें। कुल आय, सीमांत आय और औसत आय से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
आय की परिभाषा-किसी वस्तु की बिक्री करने पर एक फ़र्म को जो कुल राशि प्राप्त होती है, उसे फ़र्म की आगम (आय) कहा जाता है।
कुल आय-एक फ़र्म द्वारा अपने उत्पादन की एक निश्चित मात्रा बेच कर जो धन प्राप्त होता है, उसे कुल आय कहते हैं।
सीमांत आय–एक फ़र्म द्वारा अपने उत्पादन की एक इकाई अधिक बेचने से कुल आगम में जो वृद्धि होती है, उसको सीमांत आय कहा जाता है।
औसत आय-किसी वस्तु की बिक्री से प्राप्त होने वाली प्रति इकाई आगम औसत आय कहलाती है।
PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी (6)

प्रश्न 9.
फ़र्म की परिभाषा दें। एक उत्पादक के रूप में फ़र्म के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
फ़र्म की परिभाषा-फ़र्म उत्पादन की वह इकाई है जो लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से बिक्री के लिए उत्पादन करती है।
एक उत्पादक के रूप में फ़र्म के कार्य-उत्पादक के रूप में फ़र्म वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करती है और उनकी बिक्री करती है। एक फ़र्म अपना उत्पादन न्यूनतम लागत पर करने का प्रयत्न करती है और वह उसको बेचकर अधिकतम लाभ प्राप्त करना चाहती है। एक उत्पादक के रूप में फ़र्म वास्तव में उद्यमी का ही एक रूप होती है।

प्रश्न 10.
बाजार की परिभाषा दें। बाजार की मख्य विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
बाज़ार की परिभाषा-कूरनो के शब्दों में, “अर्थशास्त्री बाज़ार का अर्थ किसी विशेष स्थान से नहीं लेते जहां वस्तुएं खरीदी या बेची जाती हैं बल्कि उस सारे क्षेत्र से लेते हैं जहां क्रेता और विक्रेता में एक-दूसरे से इस प्रकार स्वतंत्र संपर्क हो कि एक ही प्रकार की वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति आसानी और शीघ्रता से एक होने की पाई जाए।”
बाज़ार की मुख्य विशेषताएं-

  1. क्षेत्र-अर्थशास्त्र में ‘बाज़ार’ शब्द से आशय किसी स्थान विशेष से नहीं है बल्कि बाज़ार का बोध उस संपूर्ण क्षेत्र से होता है, जिसमें बेचने वाले और खरीदने वाले फैले होते हैं।
  2. एक वस्तु-अर्थशास्त्र में ‘बाजार’ एक ही वस्तु का माना जाता है; जैसे घी का बाज़ार, फल का बाज़ार इत्यादि।
  3. क्रेता-विक्रेता-क्रेता एवं विक्रेता दोनों ही बाजार के महत्त्वपूर्ण एवं अभिन्न अंग हैं।
  4. स्वतंत्र प्रतियोगिता-बाज़ार में क्रेताओं एवं विक्रेताओं में स्वतंत्र रूप से प्रतियोगिता होनी चाहिए।
  5. एक कीमत-जब बाज़ार में क्रेताओं एवं विक्रेताओं में स्वतंत्र प्रतियोगिता होगी तो इसका परिणाम यह होगा कि वस्तु की कीमत एक समय में एक ही होगी।

प्रश्न 11.
संतुलन की धारणा से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
संतुलन का अर्थ-“संतुलन वह अवस्था है, जिसमें विरोधी दिशा में परिवर्तन लाने वाली शक्तियां पूर्ण रूप से एक-दूसरे के बराबर होती हैं अर्थात् परिवर्तन की कोई प्रवृत्ति नहीं पाई जाती।”
उदाहरण के लिए, जब एक फ़र्म को अधिकतम लाभ प्राप्त होते हैं, उसमें परिवर्तन की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। फ़र्म की इस स्थिति को संतुलन की स्थिति कहा जाएगा।

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प्रश्न 12.
पूर्ण प्रतियोगिता की परिभाषा दें। इसकी विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
पूर्ण प्रतियोगिता की परिभाषा-पूर्ण प्रतियोगिता बाज़ार की वह स्थिति है जिसमें बहुत सारी फ़र्मे होती हैं और वे सभी एक समरूप वस्तु की बिक्री करती हैं। इस अवस्था में फ़र्म कीमत स्वीकार करने वाली होती है न कि निर्धारित करने वाली।
पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषताएं-पूर्ण प्रतियोगिता की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या
  2. समरूप वस्तुएं
  3. पूर्ण ज्ञान
  4. फ़र्मों का स्वतंत्र प्रवेश व निकास
  5. समान कीमत
  6. साधनों में पूर्ण गतिशीलता।

प्रश्न 13.
एकाधिकार की परिभाषा दें। इसकी विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
एकाधिकार की परिभाषा-एकाधिकार वह स्थिति है जिसमें बाजार में एक वस्तु का केवल एक ही उत्पादक होता है।
एकाधिकार की विशेषताएं-एकाधिकार बाजार की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं

  1. एक विक्रेता तथा अधिक क्रेता-एकाधिकार बाज़ार में वस्तु का केवल एक ही विक्रेता होता है। वस्तु के क्रेता बहुत अधिक संख्या में होते हैं।
  2. नई फ़र्मे बाज़ार में नहीं आ सकतीं-एकाधिकारी बाज़ार में कोई नई फ़र्म प्रवेश नहीं कर सकती।
  3. निकटतम स्थानापन्न नहीं होता-एकाधिकार बाज़ार में उत्पादित वस्तुओं का कोई निकटतम स्थानापन्न नहीं होता।
  4. कीमत पर नियंत्रण-एकाधिकारी का वस्तु की कीमत पर नियंत्रण होता है।

प्रश्न 14.
आर्थिक क्रियाएं क्या हैं ? उनके मुख्य प्रकार कौन-से हैं ?
उत्तर-
आर्थिक क्रियाओं का अर्थ-आर्थिक क्रियाएं वे क्रियाएं हैं जिनका संबंध धन के उपभोग, उत्पादन, विनिमय तथा वितरण से होता है। इन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य धन की प्राप्ति होता है।
आर्थिक क्रियाओं के प्रकार-

  1. उपभोग-उपभोग वह आर्थिक क्रिया है जिसका संबंध आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओं की उपयोगिता के उपभोग से होता है।
  2. उत्पादन-उत्पादन वह आर्थिक क्रिया है जिसका संबंध वस्तुओं और सेवाओं की उपयोगिता या कीमत में वृद्धि करने से है।
  3. विनिमय-विनिमय वह क्रिया है जिसका संबंध किसी वस्तु के क्रय-विक्रय से है।
  4. वितरण-वितरण का संबंध उत्पादन के साधनों की कीमत अर्थात् भूमि की कीमत (लगान), श्रम की कीमत (मज़दूरी), पूंजी की कीमत (ब्याज) और उद्यमी को प्राप्त होने वाली कीमत (लाभ) के निर्धारण से है।

प्रश्न 15.
आर्थिक और अनार्थिक क्रियाओं में अंतर बताओ।
उत्तर-
यदि कोई क्रिया धन प्राप्त करने के लिए की जाती है तो इस क्रिया को आर्थिक क्रिया कहा जाता है। इसके विपरीत यदि वह ही क्रिया मनोरंजन, धर्म, प्यार, दया, देश-प्रेम, समाज-सेवा, कर्त्तव्य आदि उद्देश्यों के लिए की जाती है तो उसको अनार्थिक क्रिया कहा जायेगा। इस अंतर को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। माना अर्थशास्त्र के अध्यापक 500 रुपए प्रति माह फीस लेकर आपको एक घंटा घर पर ही अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं तो उनकी यह क्रिया आर्थिक क्रिया कहलाती है। इसके विपरीत यदि वह आपको एक निर्धन विद्यार्थी होने के नाते बिना कोई फीस लिए मुफ्त में अर्थशास्त्र पढाते हैं, तो उनकी यह क्रिया अनार्थिक क्रिया कहलाती है।

प्रश्न 16.
भूमि की परिभाषा दें। इसकी मुख्य विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
भूमि की परिभाषा-अर्थशास्त्र में भूमि के अंतर्गत भूमि की ऊपरी सतह ही नहीं बल्कि पृथ्वी के तल पर, उसके नीचे और उसके ऊपर, प्रकृति द्वारा निःशुल्क प्रदान की जाने वाली सब वस्तुएं सम्मिलित हो जाती हैं, जो धनोत्पादन में मनुष्य की सहायता करती हैं।
भूमि की मुख्य विशेषताएं-

  1. भूमि परिमाण में सीमित है।
  2. भूमि उत्पादन का प्राथमिक साधन है।
  3. भूमि स्थिर है।
  4. भूमि उपजाऊपन की दृष्टि से भिन्नता रखती है।
  5. भूमि अक्षय है।
  6. भूमि का मूल्य स्थिति पर निर्भर करता है।
  7. भूमि प्रकृति की नि:शुल्क देन है।
  8. भूमि उत्पादन का निष्क्रिय साधन है।

प्रश्न 17.
श्रम से क्या अभिप्राय है ? इसकी मुख्य विशेषताएं बताएं।
उत्तर-
श्रम का अर्थ-साधारण भाषा में श्रम का आशय उस प्रयत्न या चेष्टा से है जो किसी कार्य के संपादन हेतु किया जाता है लेकिन श्रम का यह व्यापक अर्थ अर्थशास्त्र में नहीं लिया जाता। अर्थशास्त्र में किसी प्रतिफल के लिए किया गया मानवीय प्रयत्न, मानसिक या शारीरिक श्रम कहलाता है।
श्रम की मुख्य विशेषताएं-

  1. श्रम एक मानवीय साधन है।
  2. श्रम एक सक्रिय साधन है।
  3. श्रम को श्रमिक से अलग नहीं किया जा सकता है।
  4. श्रम नाशवान होता है।
  5. श्रमिक अपने श्रम को बेचता है अपने आपको नहीं बेचता है।
  6. श्रमिक उत्पादन का साधन और साध्य दोनों है।
  7. श्रमिक की कार्यकुशलता में विभिन्नता पाई जाती है।
  8. श्रम में गतिशीलता होती है।

प्रश्न 18.
पूंजी की परिभाषा दें। इसकी मुख्य विशेषताएं कौन-सी हैं ?
उत्तर-
पूंजी की परिभाषा–मार्शल के शब्दों में, “प्रकृति प्रदत्त उपहारों के अतिरिक्त पूंजी में सभी प्रकार की संपत्ति शामिल होती है जिससे आय प्राप्त होती है।”
पूंजी की विशेषताएं-

  1. पूंजी उत्पादन का निष्क्रिय साधन है।
  2. पूंजी में उत्पादकता होती है।
  3. पूंजी अत्यधिक गतिशील होती है।
  4. पूंजी श्रम द्वारा उत्पादित होती है।
  5. पूंजी में ह्रास होता है।
  6. पूंजी बचत किए गए धन का एक रूप है।

PSEB 9th Class SST Solutions Economics Chapter 1 एक गांव की कहानी

प्रश्न 19.
उद्यमी से क्या अभिप्राय है ? उद्यमी के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रत्येक व्यवसाय में चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, कुछ-न-कुछ जोखिम अथवा लाभ-हानि की अनिश्चितता अवश्य बनी रहती है। इस जोखिम को सहन करने वाले व्यक्ति को ‘साहसी’ या ‘उद्यमी’ कहा जाता है।
उद्यमी के कार्य-

  1. व्यवसाय का चुनाव करता है।
  2. उत्पादन का पैमाना निर्धारित करता है।
  3. साधनों का अनुकूलतम संयोग प्राप्त करता है।
  4. उत्पादन के स्थान का निर्धारण करता है।
  5. वस्तु का चयन करता है।
  6. वितरण संबंधी कार्य करता है।
  7. जोखिम उठाने का दायित्व उद्यमी पर होता है।

प्रश्न 20.
लगान की धारणा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
साधारण बोलचाल की भाषा में लगान या किराया शब्द का प्रयोग उस भुगतान के लिए किया जाता है जो किसी वस्तु जैसे मकान, दुकान, फर्नीचर, क्राकरी आदि की सेवाओं का उपयोग करने के लिए अथवा उत्पादन के साधनों के रूप में प्रयोग करने के लिए नियमित रूप से एक निश्चित अवधि के लिए दिया जाता है। परंतु अर्थशास्त्र में लगान शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता है। प्रो० कारवर के अनुसार, “भूमि के प्रयोग के लिए दी गई कीमत लगान है।” परंतु आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार अर्थशास्त्र में लगान शब्द का प्रयोग उत्पादन के उन साधनों को दिए जाने वाले भुगतान के लिए ही किया जाता है जिनकी पूर्ति बेलोचदार होती है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार किसी साधन की वास्तविक आय तथा हस्तान्तरण आय के अंतर को लगान कहते हैं।

प्रश्न 21.
मज़दूरी की परिभाषा दें। नकद और वास्तविक मजदूरी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मजदूरी की परिभाषा-मजदूरी से अभिप्राय उस भुगतान से है जो सभी प्रकार की मानसिक तथा शारीरिक क्रियाओं के लिए दिया जाता है।
नकद मजदूरी-जो मजदूरी रुपयों के रूप में दी जाती है, उसे नकद मज़दूरी कहते हैं। यह दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक हो सकती है।
वास्तविक मजदूरी-श्रमिक को मुद्रा के अतिरिक्त जो वस्तुएं या सुविधायें प्राप्त होती हैं, उसे असल या वास्तविक मज़दूरी कहते हैं; जैसे—मुफ़्त मकान, पानी, बिजली, चिकित्सा सुविधा, शिक्षा आदि।

प्रश्न 22.
ब्याज की परिभाषा दें। शुद्ध और कुल ब्याज से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
ब्याज की परिभाषा-ब्याज वह कीमत है जो मुद्रा को एक निश्चित समय के लिए प्रयोग करने के लिए ऋणी द्वारा ऋणदाता को दी जाती है।
कुल ब्याज-एक ऋणी द्वारा वास्तव में ऋणदाता को ब्याज के रूप में जो कुल भुगतान किया जाता है, उसको कुल ब्याज कहते हैं।
शुद्ध ब्याज-शुद्ध ब्याज वह धनराशि है जो केवल मुद्रा के प्रयोग के बदले में चुकाई जाती है। चैपमैन के शब्दों में, “शुद्ध ब्याज पूंजी के ऋण के लिए भुगतान है, जबकि कोई जोखिम न हो, कोई असुविधा न हो, (बचत की असुविधा को छोड़कर) और उधार देने वाले के लिए कोई कार्य न हो।”

प्रश्न 23.
लाभ की धारणा से क्या अभिप्राय है ? कुल और शुद्ध लाभ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
लाभ का अर्थ-साहसी को जोखिम के बदले में जो कुछ मिलता है, वह लाभ कहलाता है अर्थात् राष्ट्रीय आय का वह भाग जो किसी साहसी को अपने साहस के कारण प्राप्त होता है, उसे लाभ कहते हैं। कुल आय में से यदि कुल खर्च निकाल दिया जाए तो जो शेष बचे, उसे लाभ कहते हैं।
कुल लाभ-कुल आगम में से यदि हम उत्पादन की स्पष्ट लागतें घटा दें तो जो अतिरेक बचता है, उसे कुल लाभ कहा जाता है।
कुल लाभ = कुल आगम – स्पष्ट लागत
शुद्ध लाभ-यदि कुल आगम में से स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों लागतें घटा दें तो जो अतिरेक बचता है, उसे शुद्ध लाभ कहा जाता है।
शुद्ध लाभ = कुल आगम – (स्पष्ट लागत + अस्पष्ट लागत)

दीर्घ उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
बाज़ार किसे कहते हैं ? बाज़ार के वर्गीकरण के मुख्य आधारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
बाज़ार का अर्थ-बाज़ार वह सम्पूर्ण क्षेत्र होता है जहां क्रेता और विक्रेता सम्पर्क में आते हैं।
बाज़ार के वर्गीकरण का आधार-बाज़ार का विस्तृत रूप से निम्नलिखित भागों में वर्गीकरण किया जाता है। जैसे-

  1. पूर्ण प्रतियोगी
  2. एकाधिकार
  3. एकाधिकारी प्रतियोगिता।

इस वर्गीकरण के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं-

  1. क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या-यदि बाज़ार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या बहुत है तो वह पूर्ण प्रतियोगी अथवा एकाधिकारी प्रतियोगिता का बाज़ार होता है। यदि बाज़ार में वस्तु का केवल एक विक्रेता हो और क्रेताओं की संख्या अधिक हो तो वह एकाधिकारी बाज़ार होगा। यदि बाज़ार में वस्तु के थोड़े विक्रेता हों तो वह अल्पाधिकारी बाज़ार होगा।
  2. वस्तु की प्रकृति-यदि बाज़ार में बेची जाने वाली वस्तु एकसमान है तो वह पूर्ण प्रतियोगी बाज़ार की स्थिति होगी और इसके विपरीत वस्तु की विभिन्नता एकाधिकारी प्रतियोगिता का आधार माना जाता है।
  3. कीमत नियन्त्रण की डिग्री-बाज़ार में बेची जाने वाली वस्तु की कीमत पर यदि फ़र्म का पूर्ण नियन्त्रण हो तो वह एकाधिकारी होगा। आंशिक नियन्त्रण हो तो एकाधिकारी प्रतियोगिता होगी। शून्य नियन्त्रण पर पूर्ण प्रतियोगिता होती है।
  4. बाज़ार का ज्ञान-यदि क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाज़ार की स्थितियों का पूर्ण ज्ञान हो तो पूर्ण प्रतियोगिता होगी। इसके विपरीत अपूर्ण ज्ञान एकाधिकार तथा एकाधिकारी प्रतियोगिता की विशेषता है।
  5. साधनों की गतिशीलता- पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में उत्पादन साधनों की गतिशीलता पूर्ण होती है परन्तु बाज़ार के अन्य प्रकारों में साधनों की गतिशीलता सामान्य नहीं होती।

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प्रश्न 2.
मुद्रा के प्रमुख कार्य क्या-क्या हैं ?
उत्तर-
मुद्रा के निम्नलिखित कार्य हैं

  1. विनिमय का माध्यम-मुद्रा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य विनिमय का माध्यम है। इसका अभिप्राय यह है कि मुद्रा के रूप में एक व्यक्ति अपनी वस्तुओं को बेचता है तथा दूसरी वस्तुओं को खरीदता है। मुद्रा क्रय तथा विक्रय दोनों में ही एक मध्यस्थ का कार्य करती है। मुद्रा को विनिमय के माध्यम के रूप में लोग सामान्य रूप से स्वीकार करते हैं। इसलिए मुद्रा के द्वारा लोग अपनी इच्छा से विभिन्न वस्तुएं खरीद सकते हैं।
  2. मूल्य की इकाई-मुद्रा का दूसरा कार्य वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य को मापना है। मुद्रा लेखे की इकाई के रूप में मूल्य का माप करती है। लेखे की इकाई से अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु तथा सेवा का मूल्य मुद्रा के रूप में मापा जाता है।
  3. स्थगित भुगतानों का मान-जिन लेन-देनों का भुगतान तत्काल न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिया जाता है, उन्हें स्थगित भुगतान कहा जाता है। मुद्रा के फलस्वरूप स्थगित भुगतान सरल हो जाता है।
  4. मूल्य का संचय-मुद्रा मूल्य के संचय के रूप में कार्य करती है। मुद्रा के मूल्य संचय का अर्थ है धन का संचय। इससे अभिप्राय यह है कि मुद्रा को वस्तुओं तथा सेवाओं के लिए खर्च करने का तुरन्त कोई विचार नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय का कुछ भाग भविष्य के लिए बचाता है। इसे ही मूल्य का संचय कहा जाता है।
  5. मूल्य का हस्तान्तरण-मुद्रा के कारण मूल्य का हस्तांतरण सुविधाजनक बन गया है। आज इस युग में लोगों की आवश्यकताएं बढ़ गई हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूर-दूर से वस्तुएं खरीदी जाती हैं। मुद्रा में तरलता तथा सामान्य स्वीकृति का गुण होने के कारण इसका एक स्थान से दूसरे स्थान पर हस्तान्तरण आसान हो जाता है।
  6. साख निर्माण का आधार-आज लगभग सभी देशों में चेक, ड्राफ्ट, विनिमय-पत्र इत्यादि साख-पत्रों का प्रयोग किया जाता है। इन साख-पत्रों का आधार मुद्रा ही है। लोग अपनी आय में से कुछ राशि बैंकों में जमा करवाते हैं। इस जमा राशि के आधार पर ही बैंक साख का निर्माण करते हैं।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 3 नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव

Punjab State Board PSEB 9th Class Physical Education Book Solutions Chapter 3 नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Physical Education Chapter 3 नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव

PSEB 9th Class Physical Education Guide नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव Textbook Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
किन्हीं दो नशीली वस्तुओं के नाम लिखें।
उत्तर-

  1. शराब
  2. हशीश।

प्रश्न 2.
नशीली वस्तुएं किन दो क्रियाओं पर अधिक प्रभाव डालती हैं ?
उत्तर-

  1. पाचन क्रिया पर
  2. खेलने की शक्ति पर।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 3 नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव

प्रश्न 3.
नशीली वस्तुओं के कोई दो दोष लिखें।
उत्तर-

  1. चेहरा पीला पड़ जाता है।
  2. मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है।

प्रश्न 4.
नशीली वस्तुओं के खिलाड़ियों पर कोई दो बुरे प्रभाव लिखें।
उत्तर-

  1. लापरवाई तथा बेफिक्री।
  2. खेल भावना का अन्त।

प्रश्न 5.
खेल में हार नशीली वस्तुओं के प्रयोग के कारण हो जाती है। ठीक अथवा ग़लत ।
उत्तर-
ठीक।

प्रश्न 6.
शराब का असर पहले दिमाग पर होता है। ठीक अथवा ग़लत ।
उत्तर-
ठीक।

प्रश्न 7.
तम्बाकू खाने से या पीने से नज़र कमजोर हो जाती है। ठीक अथवा ग़लत ।
उत्तर-
ठीक।

प्रश्न 8.
तम्बाकू से कैंसर की बीमारी का डर बढ़ता है अथवा कम होता है ?
उत्तर-
डर बढ़ जाता है।

प्रश्न 9.
तम्बाकू के प्रयोग से खांसी नहीं लगती और टी० बी० भी नहीं हो सकती। ठीक अथवा ग़लत ।
उत्तर-
ग़लत।

प्रश्न 10.
नशे वाला खिलाड़ी लापरवाह हो जाता है। सही अथवा ग़लत ।
उत्तर-
सही।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नशीली वस्तुओं की सूची बनाएं और यह भी बताएं कि नशीली वस्तुएं पाचन क्रिया और सोचने की शक्ति पर कैसे प्रभाव डालती हैं?
(Prepare a list of intoxicants and describe how these intoxicants affect on digestion and memory or thinking of a person ?)
उत्तर-
मादक पदार्थ ऐसे नशीले पदार्थ हैं जिनके सेवन से किसी-न-किसी प्रकार की उत्तेजना या शिथिलता आ जाती है। मनुष्य के स्नायु संस्थान पर सभी किस्म के मादक पदार्थों का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे कई प्रकार के विचार, कल्पनाएं तथा भावनाएं पैदा होती हैं। इससे व्यक्ति में घबराहट, गुस्सा और व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करने से व्यक्ति का अपने व्यवहार और शरीर पर नियन्त्रण नहीं रहता। नशीली वस्तुएं निम्नलिखित हैं –

  1. शराब
  2. अफीम
  3. तम्बाकू
  4. भांग
  5. हशीश
  6. चरस
  7. कोकीन
  8. एलडरविन।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 3 नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव

पाचन क्रिया पर प्रभाव (Effects on Digestion)- नशीली वस्तुओं का पाचन क्रिया पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इनमें अम्लीय अंश बहुत अधिक होते हैं। इन अंशों के कारण आमाशय की कार्य करने की शक्ति कम हो जाती है और कई प्रकार के पेट के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

सोचने की शक्ति पर प्रभाव (Effects on Thinking) नशीली वस्तुओं के प्रयोग से व्यक्ति अच्छी तरह बोल नहीं सकता और वह बोलने के स्थान पर तुतलाने लगता है। वह अपने पर नियन्त्रण नहीं रख सकता। वह खेल में आई अच्छी स्थितियों के विषय में सोच नहीं सकता और न ही ऐसी स्थितियों से लाभ उठा सकता है।

प्रश्न 2.
खेल में हार नशीली वस्तुएं के प्रयोग के कारण हो सकती है, कैसे ?
(Intoxicants cause defeat in sports. How ?)
उत्तर-

  1. नशे में खेलते समय खिलाड़ी बहुत-से ऐसे काम कर जाता है जिससे टीम हार जाती है।
  2. नशे में खिलाड़ी विरोधी टीम की चालें नहीं समझ सकता और अपनी टीम के लिए पराजय का कारण बनता है।
  3. यदि किसी खिलाड़ी को नशे में खेलते हुए पकड़ लिया जाए तो उसे खेल में से बाहर निकाल दिया जाता है। यदि उसे इनाम मिलना है तो नहीं दिया जाता। इस प्रकार उसकी विजय पराजय में बदल जाती है।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
नशीली वस्तुएं क्या हैं ? इनके दोषों का वर्णन करो। (What are intoxicants ? Discuss their harms.)
उत्तर-
मनुष्य प्राचीन काल से ही नशीली वस्तुओं का प्रयोग करता आ रहा है। उसका विश्वास था कि इनके प्रयोग से रोग दूर होते हैं तथा मन ताजा होता है। परन्तु बाद में इनके कुप्रभाव भी देखने में आये हैं। आज के वैज्ञानिक युग में अनेक नई-नई नशीली वस्तुओं का आविष्कार हुआ है जिसके कारण क्रीड़ा जगत् दुविधा में पड़ गया है। इन नशीली वस्तुओं के सेवन से भले ही कुछ समय के लिए अधिक काम लिया जा सकता है, परन्तु नशे और अधिक काम से मानव रोग का शिकार हो कर मृत्यु को प्राप्त करता है। इन घातक नशों में से कुछ नशे तो कोढ़ के रोग से भी बुरे हैं। शराब, तम्बाकू, अफीम, भांग, हशीश, एडरनलिन तथा निकोटीन ऐसी नशीली वस्तुएं हैं जिनका सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।

प्रत्येक व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए किसी-न-किसी खेल में भाग लेता है। वह अपने साथियों तथा पड़ोसियों के साथ मेल-मिलाप तथा सद्भावना की भावना रखता है। इसके विपरीत एक नशे का गुलाम व्यक्ति दूसरों की सहायता करना तो दूर रहा, अपना बुरा-भला भी नहीं सोच सकता। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए बोझ होता है। वह दूसरों के लिए सिरदर्दी बन जाता है। वह न केवल अपने जीवन को दुःखद बनाता है, बल्कि अपने परिवार और सम्बन्धियों के जीवन को भी नरक बना देता है। सच तो यह कि नशीली वस्तुओं का सेवन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव डालता है। इससे ज्ञान शक्ति, पाचन शक्ति, दिल, रक्त, फेफड़े आदि से सम्बन्धित अनेक रोग लग जाते हैं।
नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना खिलाड़ियों के लिए ठीक नहीं होता।

नशीली वस्तुओं के दोष-जो खिलाड़ी नशीली वस्तुओं का प्रयोग करते हैं उनके दोष निम्नलिखित हैं –

  • चेहरा पीला पड़ जाता है।
  • कदम लड़खड़ाते हैं।
  • मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है।
  • खेल का मैदान लड़ाई का मैदान बना जाता है।
  • पाचन शक्ति खराब हो जाती है।
  • तेजाबी अंश आमाशय की शक्ति को कम करते हैं।
  • पेट में कई प्रकार के रोग लग जाते हैं।
  • पेशियों के काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
  • खेल के मैदान में खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता।
  • कैंसर और दमे की बीमारियां लग जाती हैं।
  • खिलाड़ियों की स्मरण-शक्ति कम हो जाती है।
  • नशे में डूबे खिलाड़ी खेल की परिवर्तित अवस्थाओं को नहीं समझ सकते और अपनी टीम की पराजय का कारण बन जाते हैं।
  • नशे वाला खिलाड़ी लापरवाह हो जाता है।
  • उसके शरीर में समन्वय नहीं होता।
  • नशे वाले खिलाड़ी के पैरों का तापमान सामान्य व्यक्ति के तापमान से 1.8°C सैंटीग्रेड कम होता है।

प्रश्न 2.
नशीली वस्तुओं के खिलाड़ियों तथा खेल पर बुरे प्रभावों के बारे में जानकारी दो।
(Mention the adverse effects of intoxicants on the players and their performance.)
उत्तर-
नशीली वस्तुओं के सेवन का खिलाड़ियों तथा खेल पर बुरा प्रभाव पड़ता है जो इस प्रकार है –

1. शारीरिक समन्वय एवं स्फूर्ति का अभाव (Loss of Co-ordination and Alertness)-नशे करने वाले खिलाड़ी में शारीरिक तालमेल तथा स्फूर्ति नहीं रहती। अच्छे खेल के लिये इनका होना बहुत ज़रूरी है। हॉकी, फुटबाल, वालीबाल आदि ऐसी खेलें हैं।

2. मन के सन्तुलन और एकाग्रचित्त का अभाव (Loss of Balance and Concentration) किसी खिलाड़ी की मामूली सी सुस्ती खेल का पासा पलट देती है। इतना ही नहीं, नशे में धुत खिलाड़ी एकाग्रचित्त नहीं हो सकता। इसलिए वह खेल के दौरान ऐसी गलतियां कर देता है जिसके फलस्वरूप उसकी टीम को पराजय का मुंह देखना पड़ता है।

3. लापरवाही तथा बेफिक्री (Carelessness) नशे में ग्रस्त खिलाड़ी बहुत लापरवाह और बेफिक्र होता है। वह अपनी शक्ति तथा दक्षता का उचित अनुमान नहीं लगा सकता। कई बार जोश में आकर वह ऐसी चोट खा जाता है जिससे उसे आयु पर्यन्त पछताना पड़ता है।

4. खेल भावना का अन्त (Lack of Sportsmanship) नशे में रहने से खिलाड़ी की खेल भावना का अन्त हो जाता है। नशा करने वाले खिलाड़ी की स्थिति अर्द्ध बेहोशी की होती है। उसके मन का सन्तुलन बिगड़ जाता है। वह खेल में अपनी ही हांकता है और साथी खिलाड़ी की कोई बात नहीं सुनता।

5. सोचने का अभाव (Lack of Thinking)-वह रैफरी या अम्पायर के उचित निर्णयों के प्रति असन्तोष व्यक्त करता है। सहनशीलता की शक्ति की कमी हो जाती है। अतः वह इस तरह करता है।

6. नियमों की अवहेलना (Breaking of Rules)—वह खेल के नियमों की अवहेलना करता है।

7.मैदान का लड़ाई का अखाड़ा बन जाना (Playfield Becomes Battlefield)नशे में रहने वाला खिलाड़ी खेल के मैदान को लड़ाई का अखाड़ा बना देता है।

अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी ने खेल के दौरान नशीली वस्तुओं के प्रयोग पर पाबन्दी लगा दी है। यदि खेल के दौरान कोई खिलाड़ी नशे की दशा में पकड़ा जाता है तो उसका जीता हुआ इनाम वापस ले लिया जाता है। इसलिए खिलाड़ियों को चाहिए कि वे स्वयं को हर प्रकार की नशीली वस्तुओं के सेवन से दूर रखें और सर्वोत्तम खेल का प्रदर्शन करके अपने और अपने देश के नाम को चार चांद लगायें।

प्रश्न 3.
शराब का हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ? शराब की हानियां लिखें।
(What are the effects of Alcohol on our body? Discuss harms of alcohol.)
उत्तर-
शराब का सेहत पर प्रभाव (Effect of Alcohol on Health) शराब एक नशीला तरल पदार्थ है। शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बाज़ार में बेचने से पहले प्रत्येक शराब की बोतल पर यह लिखना ज़रूरी है। फिर भी बहुत-से लोगों को इस की लत (आदत) लगी हुई है जिससे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर को कई तरह के रोग लग जाते हैं। फेफड़े कमज़ोर हो जाते हैं और व्यक्ति की आयु घट जाती है। ये शरीर के सभी अंगों पर बुरा प्रभाव डालती है। पहले तो व्यक्ति शराब को पीता है। कुछ समय पीने के बाद शराब आदमी को पीने लग जाती है। भाव शराब शरीर के अंगों को नुकसान पहुंचाने लगा जाती है।

शराब पीने के नुकसान निम्नलिखित हैं –

  1. शराब का असर पहले दिमाग़ पर होता है। नाड़ी प्रबन्ध बिगड़ जाता है और दिमाग कमज़ोर हो जाता है। मनुष्य के सोचने की शक्ति घट जाती है।
  2. शरीर में गुर्दे कमजोर हो जाते हैं।
  3. शराब पीने से पाचन रस कम पैदा होना शुरू हो जाता है जिससे पेट खराब रहने लग जाता है।
  4. श्वास की गति तेज़ और सांस की अन्य बीमारियां लग जाती हैं।
  5. शराब पीने से रक्त की नाड़ियां फूल जाती हैं। दिल को अधिक काम करना पड़ता है और दिल के दौरे का डर बना रहता।
  6. लगातार शराब पीने से मांसपेशियों की शक्ति घट जाती है। शरीर बीमारियों का मुकाबला करने के योग्य नहीं रहता।
  7. आविष्कारों से पता लगा है कि शराब पीने वाला मनुष्य शराब न पीने वाले व्यक्ति से काम कम करता है। शराब पीने वाले व्यक्ति को बीमारियां भी जल्दी लगती हैं।
  8. शराब से घर, स्वास्थ्य, पैसा आदि बर्बाद होता है और यह एक सामाजिक बुराई है।

प्रश्न 4.
सिगरेट या तम्बाकू का हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ? तम्बाकू की हानियां लिखें।
(What is the effect of cigarettes and tobacco on our body ? What are the harms of smoking ?)
उत्तर-
तम्बाकू से स्वास्थ्य पर प्रभाव (Effect of Smoking on Health)हमारे देश में तम्बाकू पीना-खाना एक बहुत बुरी आदत बन चुका है। तम्बाकू पीने के अलग-अलग ढंग हैं, जैसे बीड़ी, सिगरेट पीना, सिगार पीना, हुक्का पीना, चिल्म पीना आदि। इस तरह खाने के ढंग भी अलग हैं जैसे तम्बाकू चूने में मिला कर सीधे मुंह में रख कर खाना, या रगने में रख कर खाना, या गले में रख कर खाना आदि। तम्बाकू में खतरनाक ज़हर निकोटीन (Nicotine) होता है। इसके अलावा कार्बन डाइऑक्साइड आदि भी होता है। निकोटीन का बुरा प्रभाव सिर पर पड़ता है जिससे सिर चकराने लग जाता है और फिर दिल पर प्रभाव करता है।

तम्बाकू के नुकसान इस तरह हैं –

  1. तम्बाकू खाने या पीने से नज़र कमजोर हो जाती है।
  2. इससे दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। दिल का रोग लग जाता है जो कि मृत्यु का कारण बना सकता है।
  3. आविष्कारों से पता लगा है कि तम्बाकू पीने या खाने से रक्त की नाड़ियां सिकुड़ जाती हैं।
  4. तम्बाकू शरीर के तन्तुओं को उत्तेजित रखता है, जिससे नींद नहीं आती और नींद न आने की बीमारी लग सकती है।
  5. तम्बाकू के प्रयोग से पेट खराब रहने लग जाता है।
  6. तम्बाकू के प्रयोग से खांसी लग जाती है जिससे फेफड़ों को टी० बी० होने का खतरा बढ़ जाता है।
  7. तम्बाकू से कैंसर की बीमारी का डर बढ़ जाता है। विशेषकर छाती का कैंसरऔर गले का कैंसर।
  8. तम्बाकू के प्रयोग से खुराक नली, मुंह के कैंसर का डर भी रहता है।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 3 नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव

नशीली वस्तुओं का खेल योग्यता पर बुरा प्रभाव PSEB 9th Class Physical Education Notes

  • अध्याय की संक्षेप रूपरेखा (Brief Outline of the Chapter)
  • नशीली वस्तुएं-शराब, तम्बाकू, अफीम, भंग, चरस, हशीश, कोकीन, आदि नशीली वस्तुएं होती हैं।
  • नशीली वस्तुओं से हानियां-मानसिक सन्तुलन और पाचन क्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कार्यक्षमता कम हो जाती है और बहुत तरह के रोग लग जाते हैं।
  • खिलाड़ियों के खेल पर नशीली वस्तुओं का प्रभाव-शारीरिक तालमेल और फुर्ती कम हो जाती है। मन में बेचैनी और मन की एकाग्रता कम हो जाती है। बेफिक्री और खेल भावना का अन्त नशीली वस्तुओं के कारण हो जाता है।
  • नशीली वस्तुओं द्वारा खेल में हार-नशे से खिलाड़ी खेल में बहुत गलतियां करता है और विरोधी खिलाड़ी की चालों को नहीं समझ पाता जिससे उसकी हार हो जाती है।
  • शराब के शरीर पर प्रभाव-शराब द्वारा नाड़ी प्रणाली और गुर्दो को रोग लग जाता है। इससे सांस के और दूसरे रोग लग जाते हैं।
  • तम्बाकू के शरीर पर प्रभाव-तम्बाकू खाने से हृदय, सांस और कैंसर के रोग हो जाते हैं। पेट खराब हो जाता है और दमा आदि रोग हो जाते हैं।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 2 खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप

Punjab State Board PSEB 9th Class Physical Education Book Solutions Chapter 2 खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Physical Education Chapter 2 खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप

PSEB 9th Class Physical Education Guide खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप Textbook Questions and Answers

बहुत छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
खेलों के कोई दो लाभ लिखो।
उत्तर-

  1. स्वास्थ्य प्रदान करती हैं
  2. सुडौल शरीर।

प्रश्न 2.
एक स्पोर्ट्समैन कैसा व्यवहार करता है ? दो पंक्तियां लिखो।
उत्तर-

  1. पराजय को बड़ी शान से स्वीकार करे।
  2. प्रत्येक टीम को बराबर समझता हो।

प्रश्न 3.
खिलाड़ी के कोई दो गुण लिखें।
उत्तर-

  1. सहयोग की भावना
  2. सहनशीलता।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 2 खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप

प्रश्न 4.
विजय-पराजय को समान समझने की भावना को क्या कहा जाता है ?
उत्तर-
खिलाड़ी का गुण।

प्रश्न 5.
आज्ञा देने और मानने की योग्यता किस प्रकार आती है ?
उत्तर-
खेलों में भाग लेने से।

प्रश्न 6.
आत्मविश्वास की भावना और उत्तरदायित्व की भावना खिलाड़ी को क्या बनाती है ?
उत्तर-
अच्छा सामाजिक प्राणी।

छोटे उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
एक स्पोर्ट्समैन के लिए कौन-सी व्यवहार प्रणाली स्वीकृत है ? (What system of behaviour is accepted by a sportsman ?)
उत्तर-
स्पोर्ट्समैन के लिए व्यवहार प्रणाली (System of behaviour for a sportsman) विश्व के सारे खिलाड़ी (स्पोर्ट्समैन) निम्नलिखित प्रणाली को मानते हैं और इसी के अनुसार व्यवहार करना अपना परम कर्त्तव्य मानते हैं। इसके अनुसार व्यवहार प्रणाली की मुख्य बातें इस प्रकार हैं –

  1. अधिकारियों के निर्णय ठीक और अन्तिम होते हैं।
  2. खेलों के नियम वास्तव में अच्छे पुरुषों की सन्धि होते हैं।
  3. टीमों के लिए जान तोड़ कर साफ़-सुथरा खेलना ही सब से बड़ा आश्वासन है।
  4. पराजय को बड़ी शान से लो।
  5. जीत को बड़े सहज ढंग से स्वीकार करो।
  6. दूसरों के अच्छे गुणों का सम्मान करने से मान मिलता है।
  7. पराजय या बुरे खेल के लिए बहाने ढूंढ़ना ठीक नहीं।
  8. किसी राष्ट्र या टीम को उसके व्यवहार के अनुसार सम्मान दिया जाता है।
  9. बाहर से आई हुई टीमों का सम्मान होना चाहिए।
  10. प्रत्येक टीम को बराबर समझा जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
दर्शक किस प्रकार अच्छे स्पोर्ट्समैन बन सकते हैं ? (How can the spectators become good sportsmen ?)
उत्तर-
दर्शकों में अच्छे स्पोर्ट्समैन बनने के लिए निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है –

  1. वे अच्छे खेल की प्रशंसा और उसको उत्साहित करने में बाधा न बनें।
  2. यदि निर्णायक उनकी इच्छा के विरुद्ध निर्णय दे दे तो उसके विरुद्ध बुरे शब्दों का प्रयोग न करें।
  3. वे जिस टीम का पक्ष ले रहे हों यदि वह कमजोर है या अयोग्य है तो उसकी जीत देखना न चाहें क्योंकि खेल में अच्छी टीम ही विजय की पात्र है।
  4. वे अपने साथी दर्शकों से केवल इसलिए न झगड़ें क्योंकि वे विरोधी टीम का समर्थन करते हैं।
  5. वे जिस टीम का पक्ष ले रहे हैं यदि वह हार रही है तो अभद्र व्यवहार का प्रदर्शन न करें जैसे खेल के मैदान में कूड़ा-कर्कट, पत्थर आदि फेंक कर खेल रुकवाना ताकि खेल में हार-जीत का फैसला ही न हो।

बड़े उत्तरों वाले प्रश्न

प्रश्न 1.
खेलों के लाभों या गुणों का वर्णन करें। (Describe the Values of Sports.)
उत्तर-
खेलों के गुण (Values of Sports)-खेलों में व्यक्ति का आकर्षण उनके गुणों के कारण है। आजकल खेलों पर अधिक बल दिए जाने के निम्नलिखित कारण हैं-

1. स्वास्थ्य प्रदान करती हैं (Sound Health)-स्वास्थ्य एक अमूल्य देन है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है । स्वस्थ व्यक्ति से दारिद्रय, आलस्य तथा थकावट कोसों दूर रहती है। खेलें स्वास्थ्य प्रदान करती हैं। खिलाड़ी के भागने दौड़ने तथा उछलने-कूदने से शरीर के सभी अंग हरकत करते हैं। दिल, फेफड़े, पाचक अंग आदि सारे अंग सुचारु रूप से कार्य करने लगते हैं। मांसपेशियों में ताकत और लचक बढ़ जाती है। जोड़ भी लचकदार हो जाते हैं और शरीर स्फूर्तिवान हो जाता है। इस प्रकार खेलों से स्वास्थ्य में सुधार होता है।

2. सुडौल शरीर (Sound Body)-खेलों में भाग लेते हुए खिलाड़ी को भागना पड़ता है, उछलना पड़ता है, कूदना पड़ता है, जिससे उसका शरीर सुडौल हो जाता है। कद ऊंचा हो जाता है। शरीर पर कपड़े खूब सजते हैं, जिससे उसके व्यक्तित्व को चार चांद लग जाते हैं। मांसपेशियों और सूक्ष्म नाड़ियों का तालमेल भी खेलों द्वारा ही पैदा होता है। इससे खिलाड़ी की चाल-ढाल आकर्षक हो जाती है । इस प्रकार खेलें व्यक्ति का रूप निखारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करती हैं।

3. संवेगों का सन्तुलन (Full Control on Emotions)—संवेगों का सन्तुलन सफल जीवन के लिए अत्यावश्यक है। यदि इन पर नियन्त्रण न रखा जाए तो क्रोध, उदासी तथा घमण्ड मनुष्य को चक्कर में डाल कर उसके व्यक्तित्व को नष्ट कर देते हैं। खेलें मनुष्य का मन जीवन की उलझनों से परे हटाती हैं, उसका मन प्रसन्न करती हैं तथा उसे संवेगों पर काबू पाने में सफल बनाती हैं। इस दिशा में खेलों द्वारा उत्पन्न स्पोर्ट्समैनशिप की भावना काफ़ी सहायक सिद्ध होती है।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 2 खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप

4. सतर्क बुद्धि का विकास (Development of Sound Reason)—मनुष्य को जीवन में कदम-कदम पर कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं को सुलझाने के लिए सतर्क बुद्धि का विकास खेलों के द्वारा ही हो सकता है। खेल के समय खिलाड़ी को प्रत्येक पल किसी-न-किसी समस्या का सामना करना पड़ता है । अड़चन या समस्या को उसी समय शीघ्रातिशीघ्र हल करना पड़ता है। हल ढूंढने में तनिक देरी हो जाने पर सारे खेल का पासा उल्ट सकता है। इस प्रकार के वातावरण में प्रत्येक खिलाड़ी हर समय किसी-न-किसी समस्या के समाधान में लगा रहता है। उसे अपनी समस्याओं को स्वयं हल करने का अवसर मिलता रहता है। इस तरह उस में सतर्क बुद्धि का विकास होता है।

5. चरित्र का विकास (Development of Character)-चरित्रवान् व्यक्ति का सब जगह सम्मान होता है। वह लोभ-लालच में नहीं फंसता। खेल के समय विजयपराजय के लिए खिलाड़ियों को कई बार प्रलोभन दिए जाते हैं। अच्छा खिलाड़ी भूलकर भी इस जाल में नहीं फंसता तथा अपने विरोधी पक्ष के हाथों नहीं बिकता। यदि कोई खिलाड़ी भूल कर लालच में आकर अपने पक्ष से विश्वासघात करता है तो खिलाड़ियों तथा दर्शकों की नज़र में गिर जाता है। ऐसा खिलाड़ी बाद में पछताता है। एक अच्छा खिलाड़ी कभी भी छल-कपट का सहारा नहीं लेता। खेल के दर्शकों के सम्मुख होने तथा रैफरी के निरीक्षण में होने के कारण प्रत्येक खिलाड़ी कम-से-कम फाऊल खेलने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार खेलें मनुष्य में कई चारित्रिक गुणों का विकास करती हैं।

6. इच्छा शक्ति प्रबल करती हैं (Development of Strong Wil-power) – खेलें इच्छा शक्ति को प्रबल करती हैं। परिणामस्वरूप खिलाड़ी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दत्तचित्त होकर प्रयत्न करते हैं और भावी जीवन में सफलता उनके कदम चूमती है। खेलों में खिलाड़ी एक-चित्त होकर खेलता है। उसके सम्मुख उसका उद्देश्य जीत प्राप्त करना होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह अपनी सारी शक्ति लगा देता है और प्रायः सफल भी हो जाता है। जीवन के श्रेयों की प्राप्ति ही उसके लिए यही आदत बन जाती है। इस प्रकार खेलें इच्छा शक्ति को प्रबल करती हैं।

7. भ्रातृत्व की भावना का विकास (Development of Brotherhood) खेलों द्वारा भ्रातृत्व की भावना का विकास होता है। इसका कारण यह है कि खिलाड़ी सदैव ग्रुपों में खेलता है तथा ग्रुप के नियम के अनुसार व्यवहार करता है। यदि उसकी कोई आदत ग्रुप आदत के अनुकूल नहीं होती तो उसे उसका त्याग करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त ग्रुप में खेलने वालों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। उनका एक-दूसरे से प्रेम-पूर्ण तथा भाइयों जैसा व्यवहार हो जाता है। इस प्रकार उनका जीवन भ्रातृत्व के आदर्शों के अनुसार ढल जाता है तथा समाज में वे सम्मान प्राप्त करते हैं।

8. आत्म-अभिव्यक्ति (Self-expression)-खेलें व्यक्तियों को आत्म-अभिव्यक्ति अर्थात् स्वयं को खुल कर प्रकट करने के अवसर प्रदान करती हैं। खेल के मैदान में खिलाड़ी खुल कर अपने गुणों तथा कौशल को दर्शकों के समक्ष प्रकट करता है। इस गुण का विकास केवल क्रीड़ा-क्षेत्र में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं।

9. नेतृत्व (Leadership) खेलों का अच्छा नेतृत्व करने वाले में नेतृत्व के गुणों का विकास हो जाता है। एक अच्छा नेता अपने देश के नाम को चार चांद लगा देता है। इसके विपरीत एक बुरा अथवा अयोग्य नेता देश की नाव को मंझदार में फंसा देता है। खेल के मैदान से ही हमें अनुशासनबद्ध, आत्म-संयमी, आत्म-त्यागी तथा मिलजुलकर देश के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाले सैनिक व अफसर प्राप्त होते हैं। इसीलिए तो ड्यूक ऑफ़ विलिंगटन ने नेपोलियन को वाटरलू (Waterloo) की लड़ाई में परास्त करने के बाद कहा, “वाटरलू की लड़ाई ऐटन तथा हैरो के क्रीड़ा-क्षेत्र में जीती गई।” (“The Battle of Waterloo was won at the playing-fields of Eton and Harrow.”)

10. फालतू समय का प्रयोग (Proper Use of Leisure Time) दिन भर काम करने के पश्चात् भी काफ़ी समय बच जाता है। इसलिए आज की मुख्य समस्या है कि इस फालतू समय का किस प्रकार प्रयोग किया जाए ? यदि हम इस फालतू समय का सदुपयोग न करेंगे तो इस समय में शरारतें ही सूझेंगी क्योंकि एक बेकार आदमी का दिमाग़ शैतान का घर होता है। इस फालतू समय को ठीक ढंग से गुज़ारने के लिए खेलें हमारी सहायता करती हैं। खेलों में भाग लेकर न केवल फालतू समय का ही उचित प्रयोग होता है वरन् इसके साथ शारीरिक विकास भी होता है।

11. जातीय भेदभाव मिटता है और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ता है (Free from Casteism and Development of International Understanding) खेलें जातीय भेदभाव को मिटाती हैं जो कि देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा होता है। प्रत्येक टीम में विभिन्न जातियों के खिलाड़ी होते हैं। उनके एक साथ मिलने-जुलने तथा टीम के लिए एक जान होकर संघर्ष करने की भावना के कारण जात-पात की दीवारें गिर जाती हैं और उनका जीवन विशाल दृष्टिकोण वाला हो जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में एक देश के खिलाड़ी दूसरे देशों के खिलाड़ियों से खेलते हैं तथा उनसे मिलते-जुलते हैं। इससे उनमें मैत्री की भावना बढ़ जाती है। अतः खेलें अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने में भी सहायक होती हैं।

12. प्रतियोगिता तथा सहयोग की भावना (Spririt of Competition and Cooperation)-प्रतियोगिता ही प्रगति का आधार है और सहयोग महान् उपलब्धियों का साधन है। प्रतियोगिता तथा सहयोग की भावनाएं प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। इनके विकास द्वारा ही समुदाय, समाज तथा देश प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। इन भावनाओं का विकास खेलों द्वारा ही होता है। हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट आदि खेलों की टीमों में खूब मुकाबला होता है। मैच जीतने के लिए टीमें ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देती हैं, परन्तु मैच जीतने के लिए सभी खिलाड़ियों के सहयोग की भी आवश्यकता होती है क्योंकि किसी भी एक खिलाड़ी के प्रयत्नों से मैच नहीं जीता जा सकता। अत: प्रतियोगिता तथा सहयोग की भावनाओं का विकास करने के लिए खेलें बहुत उपयोगी हैं।

13. अनुशासन की भावना (Spirit of Discipline)-खेल का मैदान एक ऐसा स्थान है जहां खिलाड़ी अनुशासन में रहते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। हम कह सकते हैं कि खेलों द्वारा व्यक्ति या खिलाड़ी खेल के नियमों के अनुशासन में रह कर अनुशासन में रहने का आदी हो जाता है। इस प्रकार हमें अनुशासन खेलों द्वारा प्राप्त होता है।

14. सहनशीलता (Tolerance) खेलों द्वारा खिलाड़ियों के मन में सहनशीलता पैदा होती है, क्योंकि खेलों द्वारा हम एक-दूसरे के विचार सुनते हैं और अपने विचार उन्हें बताते हैं। हम में मेल-मिलाप बढ़ता है और सहनशीलता की भावना पैदा होती है।

15. अच्छी नागरिकता (Good Citizenship) खेलों द्वारा खिलाड़ियों में एक अच्छे नागरिक के गुण पैदा होते हैं क्योंकि खिलाड़ी आपस में मिल कर खेलते हैं। नियमों, कर्त्तव्यों, अनुशासन में रहना आदि गुणों के कारण खिलाड़ी अच्छे नागरिक बन जाते हैं।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि खेलें व्यक्ति में सहयोग, भ्रातृत्व, नेतृत्व, समन्वय आदि सद्गुणों का विकास करती हैं और उसे अच्छे नागरिक बनने में सहायता प्रदान करती हैं।

प्रश्न 2.
स्पोर्ट्समैनशिप से क्या अभिप्राय है ? एक स्पोर्ट्समैन में कौन-कौन से गुण होने चाहिएं ?
(What do you understand by Sportsmanship ? What should be the qualities of a good Sportsman ?)
उत्तर-
स्पोर्ट्समैनशिप का अर्थ (Meaning of Sportsmanship)—जहां भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के अनेक शब्द अच्छी तरह से अपना लिए गए हैं, वहीं स्पोर्ट्समैनशिप और स्पोर्ट्समैन भी खेलों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। स्पोर्ट्समैनशिप (Sportsmanship) एक अच्छे खिलाड़ी की वह भावना या वह विशेषता है, या ऐसे कहें कि वह स्पिरिट है जिसके आधार पर कोई भी खिलाड़ी खेल के मैदान में आरम्भ से लेकर अन्त तक बड़ी योग्यता से भाग लेता है। स्पोर्ट्समैनिशप अच्छे गुणों का वह समूह है, जिनका होना एक खिलाड़ी के लिए जरूरी समझा जाता है। जैसे कि एक खिलाड़ी के लिए जरूरी है कि वह शारीरिक रूप से स्वस्थ, मानसिक रूप से भरपूर, अनुशासनबद्ध, अच्छा सहयोगी, चुस्त और अपनी टीम के कैप्टन की आज्ञा का पालन करने वाला हो। वास्तव में इस तरह के गुणों का समूह ही स्पोर्ट्समैनशिप कहलाता है।

स्पोट्र्समैनशिपया खिलाड़ी के गुण (Qualities of Sportsman) -एक स्पोर्ट्समैन या खिलाड़ी में निम्नलिखित गुणों का होना ज़रूरी है-

1. अनुशासन की भावना (Spirit of Discipline)-स्पोर्ट्समैन का सबसे बड़ा और मुख्य गुण है नियम से अनुशासन में बन्धकर कार्य करना। वास्तविक स्पोर्ट्समैन वही कहा जा सकता है जो खेल आदि के सारे नियमों का पालन बड़े अच्छे ढंग से करे और अनुशासनबद्ध हो ।

2. सहनशीलता (Tolerance)-सहनशीलता स्पोर्ट्समैनशिप के गुणों में एक बहत ही महत्त्वपूर्ण गुण है। खेल में कई प्रकार के अवसर आते हैं। अपनी विजय प्राप्त होने से बहुत प्रसन्नता होती है और पराजित हो जाने से उदासी के बादल घेर लेते हैं। परन्तु स्पोर्ट्समैन वही है, जो विजयी होने पर भी पराजित टीम या खिलाड़ी को प्रसन्नता से उत्साहित करे और स्वयं पराजित हो जाने पर भी विजयी को पूर्ण सम्मान के साथ बधाई दे।

3. सहयोग की भावना (Spirit of Co-operation)-स्पोर्ट्समैन में तीसरा गुण सहयोग की भावना का होना है। खेल के मैदान में यह सहयोग की भावना ही है जो टीम के विभिन्न खिलाड़ियों को इकट्ठे रखती है और वे एक होकर अपनी विजय के लिए संघर्ष करते हैं। दूसरे शब्दों में, स्पोर्ट्समैन अपने कोच, कैप्टन, खिलाड़ियों और विरोधी टीम के साथ सहयोग की भावना रखता है। ___4. विजय-पराजय को समान समझने की भावना (No Difference between Defeat or Victory) खेल में हर एक अच्छा खिलाड़ी विजय प्राप्त करने की अनथक चेष्टा करता है और उसके लिए प्रत्येक सम्भव ढंग प्रयुक्त करता है। परन्तु उसे स्पोर्ट्समैन तभी कहा जा सकता है जब वह केवल विजय के उद्देश्य के साथ न खेले बल्कि उसका उद्देश्य अच्छे खेल का प्रदर्शन करना हो। यदि इसी मध्य सफलता उसके पग चूमती है तो उसे पागल होकर विरोधी टीम या खिलाड़ी का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए और यदि उसे पराजय का सामना करना पड़ता है तो उसे उत्साहहीन नहीं होना चाहिए। वह खेल में विजयी होने पर भी पराजित खिलाड़ियों को हीन समझने की बजाये अपने समान समझता है।

खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप PSEB 9th Class Physical Education Notes 1
चित्र-स्पोर्ट्समैन विजयी होते हुए पराजित खिलाड़ियों को समान समझते हुए

5. आज्ञा देने और मानने की योग्यता (Ability of Obedience and Order)स्पोर्ट्समैन के लिए इस ज़रूरी है कि आज्ञा देने और आज्ञा मानने की योग्यता रखता हो। कई बार यह देखा गया है कि खिलाड़ी कुछ कारणों से आपे से बाहर होकर स्वयं को ठीक समझ कर खेल में अपने कैप्टन की आज्ञा का पालन नहीं करते और मनमानी करने लगते हैं। वे सच्चे अर्थों में स्पोर्ट्समैन नहीं होते हैं।

6. त्याग की भावना (Spirit of Sacrifice)-स्पोर्ट्समैन में त्याग की भावना बहुत ज़रूरी है। एक टीम में खिलाड़ी केवल अपने लिए नहीं खेलता बल्कि उसका मुख्य उद्देश्य समस्त टीम को विजय दिलाने का होता है। इससे प्रकट होता है कि खिलाड़ी निजी हित को त्याग देता है। बस यही स्पोर्ट्समैन का एक साथ महत्त्वपूर्ण गुण है। एक दूसरे पक्ष से भी एक स्पोर्ट्समैन अपने लिए तो खेलता ही है, साथ-साथ अपने स्कूल, प्रान्त, क्षेत्र और समस्त राष्ट्र के लिए भी वह अपनी विजय का श्रेय अपने राष्ट्र और अपने देश को देता है।

7. भ्रातृत्व की भावना (Spirit of Brotherhood) स्पोर्ट्समैन का यह गुण भी कोई कम महत्त्व नहीं रखता। एक स्पोर्ट्समैन खेल में जाति-पाति, धर्म, रंग, सभ्यता और संस्कृति आदि को एक ओर रखकर प्रत्येक व्यक्ति के साथ एक जैसा ही व्यवहार करता

8. प्रतियोगिता की भावना (Spirit of Competition) एक अच्छे स्पोर्ट्समैन में प्रतियोगिता की भावना का होना भी आवश्यक है । इसी भावना से प्रेरित होकर वह खेल के मैदान में अन्य खिलाड़ियों से बाज़ी ले जाने के लिए ऐडी-चोटी का जोर लगा देता है। वास्तव में सारी प्रगति का रहस्य प्रतियोगिता की भावना में ही छुपा हुआ है, परन्तु यह हर प्रकार के द्वेष से मुक्त होनी चाहिए।

9. समय पर कार्य करने की भावना (Spirit of Punctuality) स्पोर्ट्समैन किसी भी खेल में समय का पूर्ण सम्मान करते हुए प्रत्येक अवसर का पूर्ण लाभ उठाता है।
खेल में एक-एक सैकिण्ड महत्त्वपूर्ण होता है। ज़रा-सी असावधानी विजय को पराजय में और सावधानी पराजय को विजय में परिवर्तित कर देती है।

10. चुस्त और फुर्तीले रहने की भावना (Spirit of Active and Alertness)स्पोर्ट्समैन प्रत्येक खेल में हर समय चुस्ती और फुर्तीलेपन से ही कार्य करता है। वह किसी भी अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं देता।

PSEB 9th Class Physical Education Solutions Chapter 2 खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप

11. आत्म-विश्वास की भावना (Spirit of Self-Confidence)-वास्तव में आत्म-विश्वास स्पोर्ट्समैन का महत्त्वपूर्ण गुण है। बिना आत्म-विश्वास के खेलना सम्भव नहीं है। खेल में प्रत्येक खिलाड़ी को अपनी योग्यता पर विश्वास होता है और वह प्रत्येक कार्य बहुत धैर्य और विश्वास से करता है। 1974 में तेहरान में हुई सातवीं एशियाई खेलों में जापान का सबसे अधिक स्वर्ण, रजत तथा कांस्य पदक प्राप्त कर प्रथम स्थान प्राप्त करने का एकमात्र कारण जापानी खिलाड़ियों का आत्म-विश्वास था। 1978 में बैंकाक में एशियाई खेलों में जापानियों ने पहला स्थान ही प्राप्त किया। इसी प्रकार ही जापान ने 1982 की नौवीं एशियाई खेलों में, जो दिल्ली में हुई थीं, प्रथम स्थान प्राप्त

किया और अपने आत्म-विश्वास को स्थिर रखा है। स्पोर्ट्समैन सदैव प्रसन्न, सन्तुष्ट, शान्त और स्वस्थ दिखाई देता है जिससे उसका आत्म-विश्वास प्रकट होता है।

12. उत्तरदायित्व की भावना (Spirit of Responsibility)-स्पोर्ट्समैन के लिए यह ज़रूरी है कि उसमें उत्तरदायित्व की भावना हो। खिलाड़ी को कभी गैर-उत्तरदायित्व से या लापरवाही से काम नहीं करना चाहिए। उसकी ज़रा-सी एक गलती से टीम हार सकती है। इसलिए खिलाड़ी को उत्तरदायित्व को सम्मुख रखकर खेलना चाहिए।

13. नये नियमों की जानकारी (Knowledge of New Rules)-स्पोर्ट्समैन को नये-नये नियमों की जानकारी होनी चाहिए। हर वर्ष खेलों के लिए नए कानून और नियम बनाए जाते हैं। स्पोर्ट्समैन को इनकी जानकारी होनी आवश्यक है।
संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि स्पोर्ट्समैन एक इकाई नहीं, अपितु कई अच्छे तत्त्वों से मिलकर बना एक गुलदस्ता है तथा एक स्पोर्ट्समैन में अनुशासन, सहनशीलता, आत्म-विश्वास, त्याग, सहयोग आदि के गुणों का होना अत्यावश्यक है।

खेलों के गुण तथा स्पोर्ट्समैनशिप PSEB 9th Class Physical Education Notes

  • खेलों के गुण-शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक विकास, सहयोग की भावना और सहनशीलता खेलों द्वारा हमें मिलती है।
  • स्पोर्ट्समैनशिप–यह उन सभी अच्छे गुणों का सुमेल है जिसका खिलाड़ी में होना आवश्यक माना जाता है।
  • खिलाड़ी में अनुशासन की भावना, स्वस्थ और मानसिक रूप में प्रफुल्लित, अच्छा सहयोगी और चुस्ती आदि गुण उसमें विराजमान होने चाहिए।
  • स्पोर्ट्समैन एक दूत-स्पोर्ट्समैन अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में अपने देश का प्रतिनिधित्व करता है और विदेश में ऐसा कोई काम नहीं करता जिससे अपने देश का नुकसान हो।
  • स्पोर्ट्समैन का व्यवहार–प्रत्येक टीम को एक जैसा समझता है और अपनी पराजय को शान से स्वीकार करता है।
  • खेलों से लाभ-शरीर स्वस्थ रहता है और रोगों से छुटकारा मिलता है।

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 7 भोजन के कार्य और पोषण

Punjab State Board PSEB 9th Class Home Science Book Solutions Chapter 7 भोजन के कार्य और पोषण Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 9 Home Science Chapter 7 भोजन के कार्य और पोषण

PSEB 9th Class Home Science Guide भोजन के कार्य और पोषण Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
भोजन से आप क्या समझते हो ?
उत्तर-
शरीर को नीरोग तथा स्वस्थ रखने वाला कोई भी ठोस, तरल अथवा अर्द्ध-ठोस पदार्थ जिसको शरीर द्वारा निगला, पचाया तथा शोषित किया जाता है, को भोजन कहते हैं।

प्रश्न 2.
पौष्टिक तत्त्वों से आप क्या समझते हो ?
उत्तर-
शरीर की वृद्धि के लिए, ऊर्जा प्रदान करने के लिए तथा शरीर में चलती रासायनिक क्रियाओं को नियन्त्रण में रखने के लिए तथा शरीर के हर सैल की बनावट, रचना के लिए जिन तत्त्वों की ज़रूरत होती है, को पौष्टिक तत्त्व कहते हैं।

प्रश्न 3.
भोजन में कौन-कौन से पौष्टिक तत्त्व होते हैं ?
उत्तर-
भोजन में पानी, प्रोटीन, चर्बी, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन तथा खनिज आदि पौष्टिक तत्त्व होते हैं।

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प्रश्न 4.
हड्डियों में कौन-से खनिज पदार्थ अधिक होते हैं ?
उत्तर-
हड्डियों में कैल्शियम तथा फॉस्फोरस खनिज पदार्थ होते हैं। दूध, राजमांह, मेथी, मछली आदि में इनकी काफ़ी मात्रा होती है।

प्रश्न 5.
विटामिन को रक्षक तत्त्व क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
एन्जाइम शारीरिक तापमान पर ही जोड़-तोड़ क्रियाएं करवाते हैं। इन एन्जाइमों के संश्लेषण तथा क्रियाशीलता के लिए विटामिन तथा खनिज पदार्थ आवश्यक होते हैं। यह बीमारियों से भी शरीर को बचाते हैं। इसलिए विटामिन को रक्षक तत्त्व कहा जाता है।

प्रश्न 6.
शरीर में कितने प्रतिशत खनिज पदार्थ होते हैं ?
उत्तर-
शरीर में 4% खनिज पदार्थ होते हैं। यह हैं-कैल्शियम, फॉस्फोरस, पोटाशियम, सोडियम, क्लोरीन, आयोडीन, सल्फर, तांबा, जिंक, कोबाल्ट, मैंग्नीज़, लोहा तथा मोलिब्डेनम आदि।

प्रश्न 7.
भोजन की ऊर्जा कैसे मापी जाती है ?
उत्तर-
शरीर को कई काम करने पड़ते हैं जैसे-खाने का पाचन, दिल का धड़कना, सांस लेना, दिमाग का हर समय काम करना, भागना-दौड़ना आदि। इन सभी कामों के लिए शरीर को ऊर्जा की ज़रूरत होती है। यह ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है।
ऊर्जा को किलो कैलोरी में मापा जाता है परन्तु पोषण विज्ञान में इसे कैलोरी ही कहा जाता है।

प्रश्न 8.
1 ग्राम प्रोटीन तथा 1 ग्राम वसा में कितनी कैलोरी होती है ?
उत्तर-
एक किलोग्राम पानी के तापमान में एक डिग्री सैल्सियस की वृद्धि करने के लिए जितने ताप की ज़रूरत होती है, उसे कैलोरी कहा जाता है।
एक ग्राम चर्बी में 9 कैलोरी तथा एक ग्राम प्रोटीन में 4 कैलोरी ऊर्जा होती है।

प्रश्न 9.
भोजन का शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कौन-सा है ?
उत्तर-
भोजन के कार्य हैं-शरीर को ऊर्जा प्रदान करना, शरीर की वृद्धि तथा टूटेफूटे तन्तुओं की मरम्मत, शारीरिक क्रियाओं का नियन्त्रण, रोगों से बचाव, तापमान सन्तुलित रखना आदि। __ शरीर को ऊर्जा प्रदान करना भोजन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। वास्तव में अन्य सभी कार्य ऊर्जा के कारण ही होते हैं।

प्रश्न 10.
भोजन का मनोवैज्ञानिक कार्य कौन-सा है ?
उत्तर-
अच्छे भोजन से मानसिक सन्तुष्टि मिलती है। जब मन खुश हो तो भोजन अच्छा लगता है तथा खाने को भी मन करता है तथा जब कोई चिन्ता हो तो वही भोजन बुरा लगता है। कई बार बच्चे को अच्छा काम करने जैसे अच्छे नम्बर आदि प्राप्त किये हों तो इनाम के रूप में आइसक्रीम अथवा पेस्ट्री आदि दी जाती है। इससे बच्चे को मानसिक सन्तुष्टि तथा खुशी प्राप्त होती है तथा इसी तरह दण्ड के रूप में इन चीजों की मनाही की जाती है। इस तरह भोजन मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखने का कार्य भी करता है।

प्रश्न 11.
भोजन का सामाजिक महत्त्व क्या है ?
उत्तर-
भोजन का सामाजिक महत्त्व-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए वह अपने सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करता है। इन सम्बन्धों को स्थापित करने के लिए भोजन भी एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसको अनेकों खुशी के मौकों पर परोसा जाता है तथा इसके अतिरिक्त किसी को घर पर बुलाना जैसे किसी नए पड़ोसी अथवा नव-विवाहित जोड़े को खाने पर बुलाकर उनसे मेल-जोल बढ़ाया जाता है। संयुक्त भोजन एक ऐसा वातावरण बना देता है जिसमें सभी आपसी भेदभाव भुलाकर इकट्ठे बैठते हैं। धार्मिक उत्सवों पर लंगर अथवा प्रसाद देने की प्रथा (रीति) भी भाइचारे की भावना पैदा करती है। इसी तरह किसी व्यक्ति को स्वागत का अनुभव करवाने के लिए अथवा रुखस्त करते समय भी उसे बढ़िया भोजन द्वारा सम्मानित किया जाता है।

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प्रश्न 12.
शारीरिक रूप में स्वस्थ व्यक्ति की क्या पहचान है ?
उत्तर-
शारीरिक रूप में स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जिसका –

  1. सुडौल शरीर होता है।
  2. भार आयु तथा कद के अनुसार होता है।
  3. वृद्धि पूर्ण होती है।
  4. चमड़ी साफ़ तथा आंखें चमकदार होती हैं।
  5. सांस में से बदबू नहीं आती।
  6. बाल चमकदार तथा बढ़िया बनावट वाले होते हैं।
  7. शरीर के सभी अंग ठीक काम करते हैं।
  8. भूख तथा नींद भी ठीक होती है।

प्रश्न 13.
रेशे (फोक) का हमारे शरीर में क्या कार्य है ?
उत्तर-
रेशे के कार्य –
रेशे शरीर से मल को बाहर निकालने में मदद करते हैं।

प्रश्न 14.
भोजन के कार्य के अनुसार भोजन का वर्गीकरण कैसे करोगे ?
उत्तर-
कार्य के अनुसार भोजन का वर्गीकरण-शरीर में कार्य के अनुसार भोजन को तीन मुख्य समूहों में बांटा गया है –

  1. ऊर्जा देने वाला भोजन-इसमें कार्बोहाइड्रेट्स तथा चर्बी पौष्टिक तत्त्व होते हैं।
  2. शरीर की बनावट के लिए भोजन-इसमें प्रोटीन होते हैं।
  3. रक्षक भोजन-इसमें खनिज पदार्थ तथा विटामिन होते हैं।

प्रश्न 15.
ऐसे दो भोजन पदार्थों के नाम बताओ जिनमें प्रोटीन अधिक होती है ?
उत्तर-
सोयाबीन, मांह साबुत, बकरे का मांस, पनीर, बादाम, मूंग, मसर, खोया, मछली आदि में अधिक मात्रा में प्रोटीन होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 16.
भोजन, पौष्टिक तत्त्व और पोषण विज्ञान के बारे बताओ।
उत्तर-
भोजन-भोजन मनुष्य की प्राथमिक ज़रूरतों में सबसे महत्त्वपूर्ण ज़रूरत है। वह पदार्थ जिन्हें खाने से शरीर को ऊर्जा तथा शक्ति मिलती है, उन्हें भोजन कहा जाता है। यह पदार्थ ठोस, अर्द्ध-ठोस तथा तरल रूप में भी हो सकते हैं। भोजन जीवित प्राणियों के शरीर के लिए ईंधन (Fuel) का कार्य करता है। भोजन ऊर्जा तथा शक्ति प्रदान करने के साथ-साथ शरीर की वृद्धि में भी सहायक होता है। इससे ही खून का निर्माण होता है। इसलिए मनुष्य का भोजन ऐसा होना चाहिए जिसमें शरीर की तंदरुस्ती के लिए सभी अनिवार्य तत्त्व मौजूद हों।

पौष्टिक तत्त्व-पौष्टिक तत्त्व भोजन का एक अंग हैं। यह विभिन्न रासायनिक तत्त्वों का मिश्रण होते हैं। इनकी शरीर को काफ़ी मात्रा में ज़रूरत होती है। यह रासायनिक तत्त्व हमारे शरीर में पाचन क्रिया में पाचन रसों द्वारा साधारण रूप में तबदील हो जाते हैं। यह तत्त्व पचने के पश्चात् आवश्यकतानुसार सभी अंगों में पहुंचकर उन्हें पोषण देते हैं।
निम्नलिखित विभिन्न पौष्टिक तत्त्व हैं –

  1. प्रोटीन (Protein)
  2. कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates)
  3. चर्बी (Fats)
  4. विटामिन (Vitamins)
  5. खनिज लवण (Minerals)
  6. पानी (Water)
  7. रुक्षांश (Roughage)।

पोषण विज्ञान-पोषण विज्ञान से हमें पता चलता है कि पौष्टिक तत्त्व कौन-से भोजन पदार्थों से मिल सकते हैं तथा सामान्य मिलने वाले तथा सस्ते भोजन पदार्थों से इन्हें कैसे प्राप्त किया जा सकता है ताकि पौष्टिक तत्त्वों की कमी से होने वाली बीमारियों से बच जा सके।

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प्रश्न 17.
पोषण सम्बन्धी विज्ञान से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
उत्तर-
पोषण विज्ञान हमें बताता है कि ठीक स्वास्थ्य के लिए कौन-से पौष्टिक तत्त्वों की शरीर को कितनी मात्रा में ज़रूरत है तथा कहां से प्राप्त होते हैं।

  1. कौन-से खाद्य पदार्थों से पौष्टिक तत्त्व प्राप्त किये जा सकते हैं।
  2. इनकी कमी से शरीर पर क्या बुरा प्रभाव होगा।
  3. इन तत्त्वों की लगभग तथा कितने अनुपात में शरीर को ज़रूरत है।
  4. इस ज्ञान के आधार पर भोजन सम्बन्धी अच्छी आदतें कैसे बनानी हैं।

प्रश्न 18.
शरीर की वृद्धि और विकास के लिए भोजन के किन पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है ?
उत्तर-
विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं के संयोजन में पुराने तथा घिसे हुए तन्तु टूटते रहते हैं। टूटी-फूटी कोशिकाओं की मरम्मत भोजन करता है। भोजन शरीर में नष्ट हुए तन्तुओं के स्थान पर नए तन्तु भी बनाता है। इस कार्य के लिए प्रोटीन, खनिज तथा पानी आवश्यक तत्त्व हैं। यह तत्त्व हमें दूध तथा दूध से बनी चीजें, मूंगफली, दालें, हरी सब्जियां, मांस, मछली आदि से प्राप्त होते हैं। मानवीय शरीर छोटी-छोटी कोशिकाओं का ही बना हुआ है। जैसे जैसे आयु बढ़ती है शरीर में नए तन्तु लगातार बनते रहते हैं जो शरीर की वृद्धि तथा विकास करते हैं। नए तन्तुओं के निर्माण के लिए भोजन पदार्थों की विशेष ज़रूरत होती है। इसलिए प्रोटीन युक्त भोजन पदार्थ आवश्यक होते हैं।

प्रश्न 19.
ऊर्जा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
शरीर को शक्ति तथा ऊर्जा प्रदान करना-जैसे मशीन को कार्य करने के लिए शक्ति की ज़रूरत है जो बिजली, कोयले अथवा पेट्रोल से प्राप्त की जाती है वैसे ही मानवीय शरीर को जीवित रहने तथा कार्य करने के लिए शक्ति की ज़रूरत पड़ती है जो भोजन से प्राप्त की जाती है। शरीर की विभिन्न प्रतिक्रियाओं के लिए शक्ति आवश्यक है जो भोजन ही प्रदान करता है। भोजन हमारे शरीर में ईंधन की तरह जल कर ऊर्जा पैदा करता है। पर यह शरीर की गर्मी को स्थिर रखता है ताकि शरीर का तापमान अधिक बड़े तथा घटे नहीं।

शरीर के लिए आवश्यक शक्ति का अधिकतर भाग कार्बोज़ तथा चर्बी वाले भोजन पदार्थों से प्राप्त होता है। कार्बोहाइड्रेट हमें स्टार्च, शर्करा तथा सैलूलोज़ से प्राप्त होते हैं। वनस्पति, मक्खन, घी, तेल, मेवे तथा चर्बी युक्त खाने वाले पदार्थ ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं। प्रोटीन से भी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। पर यह बहुत महंगा स्रोत होता है। ऊर्जा को कैलोरी में मापा जाता है। विभिन्न पौष्टिक तत्त्वों से प्राप्त कैलोरी की मात्रा इस तरह है –

(i) 1 ग्राम कार्बोहाइड्रेट – 4 कैलोरी
(ii) 1 ग्राम चर्बी – 9 कैलोरी
(iii) 1 ग्राम प्रोटीन – 4 कैलोरी

विभिन्न कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए ऊर्जा की ज़रूरत अलग-अलग होती है। जैसे कि मानसिक कार्य करने वाले व्यक्तियों की ऊर्जा की ज़रूरत एक शारीरिक कार्य करने वाले व्यक्ति की ऊर्जा से कम होती है। इसी तरह विभिन्न शारीरिक दशाओं में भी ऊर्जा की ज़रूरत बदल जाती है। जैसे कि बच्चा पैदा करने वाली औरत अथवा दूध पिलाने वाली मां को अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है।

प्रश्न 20.
भोजन के शारीरिक कार्य कौन-से हैं ? किसी दो के बारे लिखें।
उत्तर-
भोजन के कार्य हैं-शरीर को ऊर्जा प्रदान करना, शरीर की वृद्धि तथा टूटेफूटे तन्तुओं की मरम्मत, शारीरिक क्रियाओं का नियन्त्रण, रोगों से बचाव, तापमान सन्तुलित रखना आदि।

(i) शरीर को नीरोग रखना-भोजन शरीर को शक्ति प्रदान करता है तथा यह शक्ति मनुष्य को रोगों से संघर्ष करने के योग्य बनाती है। भोजन में कई पदार्थ कच्चे ही खाए जाते हैं। इनमें ऐसे पौष्टिक तत्त्व होते हैं जो शरीर की रक्षा करते हैं। इन्हें सुरक्षात्मक भोजन तत्त्व कहा जाता है। यह तत्त्व विशेषकर खनिज, लवण तथा विटामिनों से प्राप्त होते हैं। यदि भोजन में इनमें से एक अथवा एक से अधिक तत्त्वों की कमी हो जाये तो स्वास्थ्य खराब हो जाता है तथा शरीर बीमारी का शिकार हो जाता है। यह तत्त्व फल, सब्जियां, दूध, मांस, कलेजी तथा मछली से प्राप्त होता है।

(ii) शारीरिक प्रक्रियाओं को नियमित करना-बढ़िया भोजन अच्छी सेहत के लिए बहुत आवश्यक है। शरीर की आन्तरिक क्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह, श्वास क्रिया, पाचन शक्ति, शरीर के तापमान को स्थिर रखना आदि को नियमित रखने के लिए भोजन की ज़रूरत होती है। यदि यह आन्तरिक क्रियाएं नियमित न रहें तो हमारा शरीर अनेकों रोगों से पीड़ित हो सकता है। कार्बोज़ के अतिरिक्त अनेकों पौष्टिक तत्त्व मिलकर शारीरिक प्रक्रियाओं को नियमित करते हैं।
चर्बी युक्त पदार्थों में आवश्यक चर्बी अम्ल (Fatty acid), प्रोटीन, विटामिन, खनिज तथा पानी आदि यह कार्य करते हैं।

प्रश्न 21.
भोजन शारीरिक कार्य के अतिरिक्त हमारे शरीर में अन्य कौन-कौन से कार्य करता है ?
उत्तर-
मनोवैज्ञानिक कार्य-शारीरिक कार्यों के अतिरिक्त भोजन मनोवैज्ञानिक कार्य भी करता है। इसके द्वारा कई भावनात्मक ज़रूरतों की पूर्ति होती है। भोजन के पौष्टिक होने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि वह पूर्ण सन्तुष्टि प्रदान करे। इसके अतिरिक्त घर में जब गृहिणी परिवार अथवा मेहमानों को बढ़िया भोजन परोसती है तो परिणामस्वरूप वह उसकी प्रशंसा करते हैं तथा गृहिणी को प्रशंसा से आनन्द प्राप्त होता है जो उसके मानसिक विकास के लिए बहुत आवश्यक है।

सामाजिक तथा धार्मिक कार्य-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए वह अपने सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करता है। इन सम्बन्धों को स्थापित करने के लिए भोजन भी एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसको अनेकों खुशी के अवसरों पर परोसा जाता है तथा इसके अतिरिक्त किसी को घर पर बुलाना जैसे किसी नए पड़ोसी अथवा नवविवाहित जोड़े को खाने पर बुलाकर उनसे मेल-जोल बढ़ाया जाता है। धार्मिक उत्सवों पर लंगर अथवा प्रसाद देने की प्रथा (रीति) भी भाईचारे की भावना पैदा करती है। इसी तरह किसी व्यक्ति को स्वागत का अनुभव करवाने के लिए अथवा रुखस्त करते समय भी उसे बढ़िया भोजन द्वारा सम्मानित किया जाता है। संयुक्त भोजन एक ऐसा वातावरण बना देता है जिसमें सभी आपसी भेदभाव भुला कर इकट्ठे बैठते हैं।

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निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 22.
हमारे शरीर के लिए कौन-कौन से पौष्टिक तत्त्व आवश्यक हैं ? जल और रेशे हमारे शरीर में क्या कार्य करते हैं ? ।
उत्तर-
निम्नलिखित विभिन्न पौष्टिक तत्त्व आवश्यक हैं –

  1. प्रोटीन (Protein)
  2. कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates)
  3. चर्बी (Fats)
  4. विटामिन (Vitamins)
  5. खनिज लवण (Minerals)
  6. पानी (Water)
  7. रुक्षांश (Roughage)|

पानी-पानी में कोई कैलोरी नहीं होती पर शरीर की लगभग सभी प्रक्रियाओं में पानी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पानी के बिना हम थोड़े दिन भी जीवित नहीं रह सकते। यह शरीर के सभी तरल पदार्थों में होता है। रक्त में 90% पानी होता है। पाचक रसों में भी काफ़ी मात्रा पानी की ही होती है। इस तरह पानी विभिन्न पदार्थों को शरीर में एक से दूसरे स्थान पर ले जाने में सहायक है जैसे कि हार्मोन्ज़ भोजन के पाचन के पश्चात् पदार्थ तथा बाहर निकलने वाले पदार्थों को एक से दूसरे स्थान पर ले जाना आदि। पानी शरीर की बनावट तथा शरीर का तापमान नियमित रखने में भी आवश्यक है।

पानी को हम पानी के रूप अथवा पेय पदार्थ अथवा अन्य भोजन पदार्थों द्वारा प्राप्त करते हैं।

रुक्षांश-रुक्षांश भोजन का ऐसा हिस्सा है जो हमारी पाचन प्रणाली में पचाया नहीं जा सकता। यह पौधों से मिलने वाले भोजन पदार्थ जैसे फल, सब्जियां तथा अनाजों में होता है। यह शरीर में से मल को बाहर निकालने में सहायता करता है।

प्रश्न 23.
भोजन हमारे शरीर में क्या-क्या कार्य करता है ?
उत्तर-
भोजन के कार्य हैं-शरीर को ऊर्जा प्रदान करना, शरीर की वृद्धि तथा टूटेफूटे तन्तुओं की मरम्मत, शारीरिक क्रियाओं का नियन्त्रण, रोगों से बचाव, तापमान सन्तुलित रखना आदि।

1. शरीर को नीरोग रखना-भोजन शरीर को शक्ति प्रदान करता है तथा यह शक्ति मनुष्य को रोगों से संघर्ष करने के योग्य बनाती है। भोजन में कई पदार्थ कच्चे ही खाए जाते हैं। इनमें ऐसे पौष्टिक तत्त्व होते हैं जो शरीर की रक्षा करते हैं। इन्हें सुरक्षात्मक भोजन तत्त्व कहा जाता है। यह तत्त्व विशेषकर खनिज, लवण तथा विटामिनों से प्राप्त होते हैं। यदि भोजन में इनमें से एक अथवा एक से अधिक तत्त्वों की कमी हो जाये तो स्वास्थ्य खराब हो जाता है तथा शरीर बीमारी का शिकार हो जाता है। यह तत्त्व फल, सब्जियां, दूध, मांस, कलेजी तथा मछली से प्राप्त होता है।

2. शारीरिक क्रियाओं को नियमित करना-बढ़िया भोजन अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। शरीर की आन्तरिक क्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह, श्वास क्रिया, पाचन शक्ति, शरीर के तापमान को स्थिर रखना आदि को नियमित रखने के लिए भोजन की ज़रूरत होती है। यदि यह आन्तरिक क्रियाएं नियमित न रहें तो हमारा शरीर अनेकों रोगों से पीड़ित हो सकता है। कार्बोज़ के अतिरिक्त अनेकों पौष्टिक तत्त्व मिलकर शारीरिक प्रक्रियाओं को नियमित करते हैं।
चर्बी युक्त पदार्थों में आवश्यक चर्बी अम्ल (Fatty acid), प्रोटीन, विटामिन, खनिज तथा पानी आदि यह कार्य करते हैं।

3. शारीरिक कोशिकाओं का निर्माण करना तथा तन्तुओं की मरम्मत-करना विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं के संयोजन में पुराने तथा घिसे हुए तन्तु टूटते रहते हैं। टूटीफूटी कोशिकाओं की मरम्मत भोजन करता है। भोजन शरीर में नष्ट हुए तन्तुओं के स्थान पर नए तन्तु भी बनाता है। इस कार्य के लिए प्रोटीन, खनिज तथा पानी आवश्यक तत्त्व हैं। यह तत्त्व हमें दूध से बनी चीज़ों, मूंगफली, दालें, हरी सब्जियों, मांस, मछली आदि से प्राप्त होते हैं। मानवीय शरीर छोटी-छोटी कोशिकाओं का ही बना हुआ है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है शरीर में नए तन्तु लगातार बनते रहते हैं जो शरीर की वृद्धि तथा विकास करते हैं। नए तन्तुओं के निर्माण के लिए भोजन पदार्थों की विशेष ज़रूरत होती है। इसलिए प्रोटीन युक्त भोजन पदार्थ आवश्यक होते हैं।

4. शरीर को शक्ति तथा ऊर्जा प्रदान करना-जैसे मशीन को कार्य करने के लिए शक्ति की ज़रूरत है जो बिजली, कोयले अथवा पेटोल से प्राप्त की जाती है वैसे ही मानवीय शरीर को जीवित रहने तथा कार्य करने के लिए शक्ति की ज़रूरत पड़ती है जो भोजन से प्राप्त की जाती है। शरीर की विभिन्न प्रतिक्रियाओं के लिए शक्ति आवश्यक है जो भोजन ही प्रदान करता है। भोजन हमारे शरीर में ईंधन की तरह जल कर ऊर्जा पैदा करता है। पर यह शरीर की गर्मी को स्थिर रखता है ताकि शरीर का तापमान अधिक बढ़े तथा घटे नहीं।

शरीर के लिए आवश्यक शक्ति का अधिकतर भाग कार्बोज़ तथा चर्बी वाले भोजन पदार्थों से प्राप्त होता है। कार्बोहाइड्रेट हमें स्टार्च, शर्करा, तथा सैलूलोज़ से प्राप्त होते हैं। वनस्पति, मक्खन, घी, तेल, मेवे तथा चर्बी युक्त खाने वाले पदार्थ ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं। प्रोटीन से भी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। पर यह बहुत महंगा स्रोत होता है। ऊर्जा के ताप को कैलोरी में मापा जाता है। विभिन्न पौष्टिक तत्त्वों से प्राप्त कैलोरी की मात्रा इस तरह है –

(i) 1 ग्राम कार्बोहाइड्रेट – 4 कैलोरी
(ii) 1 ग्राम चर्बी – 9 कैलोरी
(iii) 1 ग्राम प्रोटीन – 4 कैलोरी।

विभिन्न कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए ऊर्जा की ज़रूरत अलग-अलग होती है। जैसे कि मानसिक कार्य करने वाले व्यक्तियों की ऊर्जा की ज़रूरत एक शारीरिक कार्य करने वाले व्यक्ति की ऊर्जा से कम होती है। इसी तरह विभिन्न शारीरिक दशाओं में भी ऊर्जा की ज़रूरत बदल जाती है। जैसे कि बच्चा पैदा करने वाली औरत अथवा दूध पिलाने वाली मां को अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है।

5. शरीर का तापमान संतुलित करना-प्रत्येक मौसम में हमारे शरीर का तापमान नियमित रहता है। गर्मियों में हमें पसीना आता है। पसीना सूखने पर वाष्पीकरण से ठण्ड पैदा होती है जिससे शरीर का तापमान नियमित रहता है। विभिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न ढंगों से क्रिया करने का संकेत दिमाग से आता है जिसके लिये ऊर्जा की आवश्यकता होती है तथा यह ऊर्जा हमें भोजन से ही प्राप्त होती है। पानी शरीर का तापमान नियमित रखने के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।

6. मनोवैज्ञानिक कार्य-शारीरिक कार्यों के अतिरिक्त भोजन मनोवैज्ञानिक कार्य भी करता है। इसके द्वारा कई भावनात्मक ज़रूरतों की पूर्ति होती है। भोजन के पौष्टिक होने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि वह पूर्ण सन्तुष्टि प्रदान करे। इसके अतिरिक्त घर में जब गृहिणी परिवार अथवा मेहमानों को बढ़िया भोजन परोसती है तो परिणामस्वरूप वह उसकी प्रशंसा करते हैं तथा गृहिणी को प्रशंसा से आनन्द प्राप्त होता है जो उसके आन्तरिक विकास के लिए बहुत आवश्यक है।

7. सामाजिक तथा धार्मिक कार्य-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए वह अपने सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करता है। इन सम्बन्धों को स्थापित करने के लिए भोजन भी एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसको अनेकों खुशी के अवसरों पर परोसा जाता है तथा इसके अतिरिक्त किसी को घर पर बुलाना जैसे किसी नए पड़ोसी अथवा नव-विवाहित जोड़े को खाने पर बुलाकर उनसे मेल-जोल बढ़ाया जाता है। धार्मिक उत्सवों पर लंगर अथवा प्रसाद देने की प्रथा (रीति) भी भाईचारे की भावना पैदा करती है। इसी तरह किसी व्यक्ति को स्वागत का अनुभव करवाने के लिए अथवा रुखस्त करते समय भी उसे बढ़िया भोजन द्वारा सम्मानित किया जाता है। संयुक्त भोजन एक ऐसा वातावरण बना देता है जिसमें सभी आपसी भेदभाव भुलाकर इकट्ठे बैठते हैं।

प्रश्न 24.
भोजन के शारीरिक कार्य क्या हैं ? और इनके लिए किन-किन पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता है ?
उत्तर-
भोजन के शारीरिक कार्य-

भोजन समूह पौष्टिक तत्त्व कार्य
1. ऊर्जा देने वाले भोजन

(i) अनाज तथा जड़ वाली सब्जियां।

(ii) शक्कर तथा गुड़, तेल, घी तथा मक्खन।

कार्बोहाइड्रेट तथा चर्बी ऊर्जा प्रदान करना
2. शरीर की बनावट तथा वृद्धि के लिए भोजन

(i) दूध तथा दूध से बने पदार्थ

(ii) मांस, मछली तथा अण्डे

(iii) दालें तथा

(iv) सूखे मेवे।

प्रोटीन शरीर की वृद्धि तथा टूटे फूटे तन्तुओं की मरम्मत करने के लिए
3. रक्षक भोजन

(i) पीले तथा संतरी रंग के फल

(ii) हरी सब्जियां

(iii) अन्य फल तथा सब्ज़ियां।

विटामिन तथा खनिज पदार्थ बीमारियों से शरीर की रक्षा करना तथा शारीरिक क्रियाओं को कण्ट्रोल करना।

Home Science Guide for Class 9 PSEB भोजन के कार्य और पोषण Important Questions and Answers

रिक्त स्थान भरें

  1. शरीर में ………………… प्रतिशत खनिज पदार्थ होते हैं।
  2. पानी शरीर के ……………. को नियमित करता है।
  3. ऊर्जा को ……………….. में मापा जाता है।
  4. रक्त में …………………. पानी होता है।
  5. राइबोफ्लेबिन ……………… में घुलनशील है।

उत्तर-

  1. 4%
  2. तापमान
  3. किलो कैलोरी
  4. 90%
  5. पानी।

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एक शब्द में उत्तर दें

प्रश्न 1.
एक 65 किलोग्राम भार वाले पुरुष के शरीर में कितना प्रोटीन होता है ?
उत्तर-
11 किलोग्राम।

प्रश्न 2.
हमारे शरीर में कितने प्रतिशत जल है ?
उत्तर-
70%

प्रश्न 3.
कार्बोज़ तथा वसा का क्या कार्य है ?
उत्तर-
ऊर्जा प्रदान करना।

प्रश्न 4.
वसा में घुलनशील एक विटामिन बताएं।
उत्तर-
विटामिन ए।

प्रश्न 5.
विटामिन तथा खनिज पदार्थों को कैसे तत्त्व कहा जाता है ?
उत्तर-
रक्षक तत्त्व।

ठीक/ग़लत बताएं

  1. हमारे शरीर में 70% पानी होता है।
  2. विटामिन बी (B) पानी में अघुलनशील है।
  3. दूध में प्रोटीन, विटामिन तथा कैल्शियम होता है।
  4. पानी से शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है।
  5. प्रोटीन शरीर की मुरम्मत करने के काम आता है।
  6. खनिज पदार्थ तथा विटामिन रक्षक भोजन है।

उत्तर-

  1. ठीक
  2. ग़लत
  3. ठीक
  4. ग़लत,
  5. ठीक
  6. ठीक।

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वस्थ व्यक्ति के लिए ठीक तथ्य नहीं हैं –
(A) शरीर सुडौल होता है
(B) भूख तथा नींद कम होती है
(C) भार, आयु तथा लम्बाई अनुसार होता है
(D) सभी ठीक।
उत्तर-
(B) भूख तथा नींद कम होती है

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प्रश्न 2.
ठीक तथ्य हैं –
(A) शरीर में 4% खनिज पदार्थ होते हैं
(B) एक ग्राम चर्बी में 9 कैलोरी ऊर्जा होती है
(C) सोयाबीन में अधिक प्रोटीन होता है
(D) सभी ठीक।
उत्तर-
(D) सभी ठीक।

प्रश्न 3.
शरीर में ………………….. तथा रक्त में ………………….. पानी होता है –
(A) 70%, 90%
(B) 90%, 70%
(C) 100%, 100%
(D) 70%, 20%.
उत्तर-
(D) 70%, 20%

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
एस्कीमो आदि की मुख्य खुराक क्या है ?
उत्तर-
इनकी मुख्य खुराक मांस, मछली तथा अण्डा है।

प्रश्न 2.
यदि ठीक भोजन न खाया जाये तो इसका हमारे शरीर पर क्या प्रभाव होगा ?
उत्तर-
भोजन तथा स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध है। यदि ठीक भोजन न खाया जाये तो हमारे शरीर की रोगाणुओं से लड़ने की शक्ति में कमी आ जाती है जिस कारण हमें कोई भी बीमारी आसानी से हो सकती है। शरीर की कार्य करने की क्षमता भी कम हो जाती है।

प्रश्न 3.
दूध के पौष्टिक गुणों के क्या कारण हैं ?
उत्तर-
दूध में प्रोटीन, विटामिन तथा कैल्शियम होता है जिस कारण इसमें पौष्टिक गुण होते हैं।

प्रश्न 4.
भोजन किसे कहा जाता है ?
उत्तर-
जिस खाद्य पदार्थ को खाने से शरीर को ऊर्जा तथा शक्ति मिलती है, उसे भोज कहा जाता है।

प्रश्न 5.
पौष्टिक तत्त्व क्या हैं ?
उत्तर-
भोजन के रासायनिक तत्त्वों के मिश्रण को पौष्टिक तत्त्व कहा जाता है।

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प्रश्न 6.
कौन-से भोजन पदार्थों से शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है ?
उत्तर-
घी, तेल, मेवे, दालों तथा चर्बी युक्त पदार्थों से शरीर को ऊर्जा मिलती है।

प्रश्न 7.
शरीर के निर्माण के लिए कौन-से भोजन पदार्थ आवश्यक हैं ?
उत्तर-
दूध तथा दूध से बने पदार्थ, साबुत दालें, मांस, अण्डे आदि।

प्रश्न 8.
कौन-से भोजन पदार्थ शरीर को सुरक्षित रखते हैं ?
उत्तर-
फल, सब्जियां तथा पानी शरीर को सुरक्षित रखते हैं।

प्रश्न 9.
शरीर के लिए आवश्यक पौष्टिक तत्त्वों के नाम लिखो।
उत्तर-
प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, चर्बी, विटामिन, खनिज पदार्थ, रुक्षांश तथा पानी आवश्य पौष्टिक तत्त्व हैं।

प्रश्न 10.
पोषण क्या होता है ?
उत्तर-
यह एक ऐसी परिस्थिति है जो शरीर को विकसित करती है तथा बनाये रखती है।

प्रश्न 11.
भोजन शरीर के लिए क्या कार्य करता है ?
उत्तर-

  1. शारीरिक क्रियाओं को चालू तथा नीरोग रखता है।
  2. मनोवैज्ञानिक कार्य।
  3. सामाजिक कार्य।

प्रश्न 12.
शरीर में ऊर्जा कैसे पैदा होती है ?
उत्तर-
शरीर में ऊर्जा कार्बन यौगिकों के ऑक्सीकरण से पैदा होती है।

प्रश्न 13.
कौन-से पौष्टिक तत्त्वों से ऊर्जा पैदा होती है ?
उत्तर-
कार्बोहाइड्रेट्स, चर्बी तथा प्रोटीन से ऊर्जा पैदा होती है।

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 7 भोजन के कार्य और पोषण

प्रश्न 14.
शरीर में कौन-से तत्त्व कम मात्रा में आवश्यक हैं ?
उत्तर-
कैल्शियम, मैग्नीशियम, जिंक, विटामिन आदि शरीर को कम मात्रा में आवश्यक हैं।

प्रश्न 15.
एक 65 किलो के पुरुष के शरीर में पानी, प्रोटीन, कैल्शियम, तांबा तथ थाइयोमिन की कितनी मात्रा होती है ?
उत्तर-
पानी – 40 किलोग्राम
प्रोटीन – 11 किलोग्राम
कैल्शियम – 1200 ग्राम
तांबा – 100-150 मिलिग्राम
थाइयोमिन – 25 मिलिग्राम।

प्रश्न 16.
65 किलो के पुरुष के शरीर में चर्बी, लोहा, आयोडीन तथा विटामिन सी कितनी मात्रा में होते हैं ?
उत्तर-
चर्बी – 9 किलोग्राम
लोहा — 3-4 ग्राम
आयोडीन – 25-50 मिलिग्राम
विटामिन सी – 5 ग्राम।

प्रश्न 17.
हमारे शरीर में पानी की मात्रा कितनी होती है ?
उत्तर-
हमारे शरीर में पानी 70% होता है।

प्रश्न 18.
रक्त बनाने के लिए कौन-से तत्त्वों की ज़रूरत होती है ?
उत्तर-
रक्त बनाने के लिए लोहा तथा प्रोटीन की ज़रूरत होती है।

प्रश्न 19.
गर्मियों में शरीर का तापमान कैसे नियमित रहता है ?
उत्तर-
गर्मियों में पसीना आता है तथा पसीने के वाष्पीकरण से ठण्डक पैदा होती है। इससे शरीर का तापमान नियमित रहता है।

प्रश्न 20.
सर्दियों में शरीर का तापमान कैसे नियमित रहता है ?
उत्तर-
सर्दियों में शरीर द्वारा काफ़ी ऊर्जा पैदा की जाती है जिससे शरीर का तापमान नियमित रहता है।

प्रश्न 21.
मानसिक पक्ष से कौन-सा व्यक्ति ठीक होता है ?
उत्तर-
मानसिक पक्ष से वह व्यक्ति ठीक होता है जिसे –

  1. अपने गुणों तथा अवगुणों के बारे में पता हो।
  2. जो चिंता अथवा किसी प्रकार के तनाव से मुक्त हो।
  3. जो चौकस तथा फुर्तीला हो।
  4. जो समझदार तथा सीखने वाला हो।

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प्रश्न 22.
सामाजिक रूप में सन्तुष्ट व्यक्ति कौन होता है ?
उत्तर–
सामाजिक रूप में सन्तुष्ट व्यक्ति वह होता है –

  1. जो अपने इर्द-गिर्द के लोगों को साथ लेकर चलता है।
  2. जो अच्छे तौर तरीके तथा शिष्टाचार अपनाता है।
  3. जो दूसरों की मदद करने में खुशी महसूस करता है।
  4. जो समाज तथा परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी समझता है।

प्रश्न 23.
विटामिन कितनी प्रकार के होते हैं, विस्तारपूर्वक लिखो।
उत्तर-
विटामिन दो तरह के होते हैं –
(i) पानी में घलनशील विटामिन ‘सी’ तथा ‘बी’ ग्रप के विटामिन जैसे कि थायामिन. राइबोफ्लेबिन, निकोटिनिक अम्ल, पिरडॉक्सिन, फौलिक अम्ल तथा विटामिन बी,, पानी में घुलनशील हैं।
(ii) चर्बी में घुलनशील विटामिन-विटामिन ‘ए’, ‘डी’ तथा ‘के’ चर्बी में घुलनशील हैं।

प्रश्न 24.
सबसे अधिक प्रोटीन, चर्बी, खनिज पदार्थ, कार्बोज़, कैल्शियम तथा लोहा, ऊर्जा कौन-से भोजन पदार्थों में होते हैं ?
उत्तर-
प्रोटीन – सोयाबीन (43.2 ग्राम)
चर्बी – मक्खन (81 ग्राम)
खनिज पदार्थ – सोयाबीन (4.6 ग्राम)
कार्बोज़ – गुड़ (95 ग्राम)
कैल्शियम – खोया (956 मिलिग्राम)
लोहा – सरसों (16.3 मिलिग्राम)
ऊर्जा – मक्खन (किलो कैलोरी)
यह मात्रा 100 ग्राम भोजन पदार्थ के लिए है।

प्रश्न 25.
पानी का शरीर में कार्य बतायें।
उत्तर–
पानी के कार्य –
(i) पानी विभिन्न पदार्थों को शरीर में एक से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य करता है।
(ii) पानी शरीर के तापमान को नियमित करता है।

PSEB 9th Class Home Science Solutions Chapter 7 भोजन के कार्य और पोषण

भोजन के कार्य और पोषण PSEB 9th Class Home Science Notes

  • सभी जीवित प्राणियों को भोजन की ज़रूरत होती है।
  • पोषण विज्ञान से हमें यह पता चलता है कि कौन-से भोजन पदार्थों में कौन-से पौष्टिक तत्त्व होते हैं।
  • शरीर में ऊर्जा कार्बन यौगिकों से पैदा होती है।
  • डण्डी को नीरोग तथा स्वस्थ रखने वाला कोई भी ठोस, तरल अथवा अर्द्ध-ठोस खाद्य पदार्थ जिसको शरीर द्वारा निगला, पचाया तथा शोषित किया जाता है, को भोजन कहते हैं।
  • भोजन के शारीरिक काम हैं-शरीर को ऊर्जा देना, शरीर की वृद्धि, टूटे-फूटे तन्तुओं की मुरम्मत, शारीरिक क्रियाओं का नियन्त्रण, रोगों से बचाव, शरीर का तापमान नियमित करना आदि।
  • भोजन मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा धार्मिक कार्य भी करता है।
  • पौष्टिक तत्त्व वह रासायनिक पदार्थ हैं जो हमें भोजन से मिलते हैं तथा शरीर की विभिन्न जोड़-तोड़ क्रियाओं के लिए ऊर्जा का साधन हैं तथा शरीर के सैलों की रचना तथा बनावट के लिए ज़रूरी हैं।
  • पौष्टिक तत्त्व हैं-प्रोटीन, चर्बी, खनिज पदार्थ, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट तथा पानी।
  • पोषण विज्ञान में ऊर्जा को कैलोरी में मापा जाता है।
  • 1 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा चर्बी में बारी-बारी 4,4 तथा 9 कैलोरी ऊर्जा होती है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 14 सरकारों के रूप-प्रजातन्त्र एवं अधिनायकवादी सरकारें

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 14 सरकारों के रूप-प्रजातन्त्र एवं अधिनायकवादी सरकारें Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 14 सरकारों के रूप-प्रजातन्त्र एवं अधिनायकवादी सरकारें

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
प्रजातन्त्र क्या है ? स्पष्ट कीजिए।
(What is democracy ? Explain.)
उत्तर-
लोकतन्त्र का अर्थ (Meaning of Democracy)-आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है। अधिकांश साम्यवादी देशों में साम्यवादी दल की तानाशाही समाप्त करके लोकतन्त्र की स्थापना की गई है। प्रजातन्त्र का अर्थ है वह शासन प्रणाली जिसमें राज्य की सत्ता प्रजा अर्थात् जनता के हाथ में हो। अरस्तु ने इसे बहुतन्त्र या शुद्ध जनतन्त्र (Polity) कहा है और इसे ही सर्वोत्तम शासन बताया है। यह ग्रीक भाषा के दो शब्दों डिमोज (Demos) और क्रेटिया (Cratia) से मिल कर बना है। डिमोज का अर्थ है ‘लोक’ और क्रेटिया का अर्थ है शक्ति या ‘सत्ता’। इसलिए डैमोक्रेसी का शाब्दिक अर्थ वह शासन है जिसमें शक्ति या सत्ता लोगों के हाथों में हो। दूसरे शब्दों में, प्रजातन्त्र सरकार का अर्थ है प्रजा का शासन।
लोकतन्त्र की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

  • प्रो० डायसी (Prof. Dicey) का कहना है कि, “प्रजातन्त्र ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें शासक वर्ग समाज का अधिकांश भाग हो।” (“Democracy is a form of government in which the governing body is comparatively a large fraction of the entire nation.”)
  • प्रो० सीले (Prof. Seeley) के विचारानुसार, “प्रजातन्त्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति भाग लेता है।” (“Democracy is a government in which everyone has a share.”)
  • ग्रीक लेखक हैरोडोटस (Herodotus) का कहना है कि, “प्रजातन्त्र ऐसा शासन है जिसमें सर्वोच्च सत्ता समस्त जाति को प्राप्त हो।” (“Democracy is that form of government in which the supreme power of the State is in the hands of the community as a whole.”)
  • प्रजातन्त्र की बहुत ही सरल, सुन्दर तथा लोकप्रिय परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन (Abraham Lincoln) ने इस प्रकार दी है कि, “प्रजातन्त्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।” (“Democracy is a government of the people, by the people and for the people.”)

उपर्युक्त परिभाषाओं के फलस्वरूप हम यह कह सकते हैं कि प्रजातन्त्र एक ऐसी सरकार को कहा जाता है जिसमें जनता को राजसत्ता का अन्तिम स्रोत समझा जाता है और जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से या अपने प्रतिनिधियों द्वारा सरकार के कार्यों में भाग लेती हो, परन्तु श्री गुरमुख निहाल सिंह के शब्दों के अनुसार न तो जनता तथा न ही उसमें से अधिक संख्या शासन का संचालन कर सकती है और न ही उनमें शासन करने की योग्यता और निपुणता होती है। जिस बात की जनता से प्रजातन्त्र में मांग की जाती है वह है योग्य प्रतिनिधियों का चुनाव करना, शासन तथा प्रबन्ध की नीतियों सम्बन्धी उचित और अनुचित का निर्णय करना-शासन तथा उसके चलाने के लिए अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के कार्यों के सम्बन्ध में सावधान रहना आदि।

प्रजातन्त्र की विशेषताएं (Characteristics of Democracy)-प्रजातन्त्र की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं

  • जनता की प्रभुसत्ता-प्रजातन्त्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है और जनता ही शक्ति का स्रोत होती है।
  • जनता का शासन-प्रजातन्त्र में शासन जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर चलाया जाता है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से लिया जाता है।
  • जनता का हित-प्रजातन्त्र में शासन जनता के हित के लिए चलाया जाता है।
  • समानता-समानता प्रजातन्त्र का मूल आधार है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक मनुष्य को समान समझा जाता है। जन्म, जाति, शिक्षा, धन आदि के आधार पर मनुष्यों में भेद-भाव नहीं किया जाता। सभी मनुष्यों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होते हैं।
  • शासन में भाग लेने का अधिकार-प्रजातन्त्र में प्रत्येक नागरिक को शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है।
  • स्वतन्त्रता-सभी नागरिकों को स्वतन्त्रता के अधिकार प्राप्त होते हैं। प्रत्येक नागरिक को वोट देने का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, सरकार की आलोचना करने का अधिकार, अपने विचार प्रकट करने का अधिकार इत्यादि प्राप्त होते हैं।
  • कानून के समक्ष समानता-प्रजातन्त्र में कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं होता। कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होते हैं।
  • सरकार की आलोचना करने का अधिकार-प्रजातन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है।
  • मौलिक अधिकार-प्रजातन्त्र में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त होते हैं जिनकी रक्षा न्यायाधीशों द्वारा की जाती है।
  • स्वतन्त्र न्यायपालिका-प्रजातन्त्र में स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है ताकि लोगों के अधिकारों की रक्षा की जा सके और सरकार को तानाशाही बनने से रोका जा सके।
  • राजनीतिक दल-बिना राजनीतिक दलों के प्रजातन्त्र को सफल नहीं बनाया जा सकता। लोकतन्त्र का आधार जनमत होता है और राजनीतिक दल जनमत को संगठित करते हैं। जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है वह दल शासन चलाता है और अन्य दल विरोधी दल के रूप में कार्य करते हैं।
  • धर्म-निरपेक्षता-प्रजातन्त्रीय राज्य का धर्म-निरपेक्ष होना आवश्यक है जिसमें किसी विशेष धर्म को विशेष स्थिति प्राप्त नहीं होनी चाहिए तथा सभी धर्मों के लोगों को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।
  • वयस्क मताधिकार-प्रजातन्त्रीय सरकार में वयस्क मताधिकार लागू किया जाता है। प्रजातन्त्र में मताधिकार प्राप्त करते समय जन्म, जाति, रंग, नसल, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता।

प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र के गुणों और दोषों की व्याख्या करें। (Discuss the merits and demerits of democracy.)
उत्तर-
प्रजातन्त्र के गुण (Merits of Democracy)-
प्रजातन्त्र में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं
1. यह सर्वसाधारण के हितों की रक्षा करता है (It Safeguards the Interest of the Common Man)प्रजातन्त्र की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें राज्य के किसी विशेष वर्ग के हितों की रक्षा न करके समस्त जनता के हितों की रक्षा की जाती है। प्रजातन्त्र में शासक सत्ता को एक अमानत मानते हैं और उसका प्रयोग सार्वजनिक कल्याण के लिए किया जाता है। इसीलिए अब्राहम लिंकन ने कहा था, प्रजातन्त्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।

2. यह जनमत पर आधारित है (It is based on Public Opinion)—प्रजातन्त्र शासन जनमत पर आधारित है अर्थात् शासन जनता की इच्छानुसार चलाया जाता है। जनता अपने प्रतिनिधियों को निश्चित अवधि के लिए चुनकर भेजती है। यदि प्रतिनिधि जनता की इच्छानुसार शासन नहीं चलाते तो उन्हें दोबारा नहीं चुना जाता है। इस शासन प्रणाली में सरकार जनता की इच्छाओं की ओर विशेष ध्यान देती है।

3. यह समानता के सिद्धान्त पर आधारित है (It is based on the Principal of Equality)—प्रजातन्त्र में सभी नागरिकों को समान माना जाता है। किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, लिंग के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं दिए जाते। प्रत्येक वयस्क को बिना भेदभाव के मतदान, चुनाव लड़ने तथा सार्वजनिक पद प्राप्त करने का समान अधिकार प्राप्त होता है। सभी मनुष्यों को कानून के सामने समान माना जाता था।

4. यह स्वतन्त्रता तथा बन्धुता पर आधारित है (It is based on Liberty and Fraternity)—प्रजातन्त्र सरकार में नागरिकों को जितनी स्वतन्त्रता प्राप्त होती है उतनी अन्य किसी सरकार से प्राप्त नहीं होती। नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए जाते हैं ताकि नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। चूंकि प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता तथा समानता का वातावरण होता है, इसलिए नागरिकों में बन्धुता की भावना उत्पन्न होती है। एक नागरिक दूसरे को भाई समझता है और वे परस्पर सहयोग से कार्य करते हैं।

5. स्थायी तथा उत्तरदायी शासन (Stable and Responsible Government)—प्रजातन्त्र में शासन जनमत पर आधारित होता है। इसलिए शासन में शीघ्रता से परिवर्तन नहीं आ पाता है। स्थायी शासन के साथ-साथ सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। सरकार सदा जनमत के अनुसार कार्य करती है। सरकार जनता की नौकर होती है और जिस तरह नौकर का कर्त्तव्य अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करना होता है, उसी तरह प्रजातन्त्र में शासकों का कर्तव्य जनता की इच्छाओं की पूर्ति करना होता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 14 सरकारों के रूप-प्रजातन्त्र एवं अधिनायकवादी सरकारें

6. दृढ़ तथा कुशल शासन-व्यवस्था (Strong and Efficient Government)—प्रजातन्त्र में शासन दृढ़ तथा कुशल होता है। प्रजातन्त्र में शासकों को जनता का समर्थन प्राप्त होता है, जिस कारण वे अपने निर्णयों को दृढ़ता से लागू करते हैं। शासकों पर जनता का नियन्त्रण होता है और वे अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इससे शासक अधिक कुशलता से कार्य करते हैं।

7. जनता को राजनीतिक शिक्षा मिलती है (People get Political Education)-प्रजातन्त्र में नागरिकों को अन्य शासन प्रणालियों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक शिक्षा मिलती है। प्रजातन्त्र में चुनावों में प्रत्येक राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के लिए प्रचार करते हैं और अपनी नीतियों की घोषणा करते हैं। देश की समस्याओं को जनता के सामने रखा जाता है और प्रत्येक राजनीतिक दल इन समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने सुझाव जनता के सामने पेश करते हैं। जनता को इस तरह राजनीतिक शिक्षा मिलती है और साधारण नागरिक भी शासन में रुचि लेने लगता है।

8. क्रान्ति का डर नहीं (No fear of Revolution)—प्रजातन्त्र में क्रान्ति की सम्भावना बहुत कम होती है। प्रजातन्त्र में सरकार जनता की इच्छानुसार कार्य करती है। वास्तव में जनता ही शासन नीतियों को निर्धारित करती है। यदि सरकार जनता की इच्छाओं के अनुसार शासन न चलाए तो जनता सरकार को बदल सकती है। इससे क्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती है।

9. यह देशभक्ति या राष्ट्रीय एकता की भावना में वृद्धि करता है (It promotes the spirit of patriotism and national unity)-प्रजातन्त्र जनता में देश भक्ति तथा राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न करती है। प्रजातन्त्र में जनता यह समझती है कि यह सरकार उनकी अपनी है, इसलिए उन्हें इसको पूरा सहयोग देना चाहिए। जनता राष्ट्र को अपना राष्ट्र समझती है और देश की रक्षा के लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान करने को तैयार रहती है।
प्रजातन्त्र में सभी नागरिकों को समान अधिकार तथा स्वतन्त्रताएं प्राप्त होती हैं। सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का पूरा अवसर दिया जाता है इससे नागरिकों में बन्धुता की भावना उत्पन्न होती है जिससे राष्ट्रीय एकता का विकास होता है।

10. यह राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करता है (It builds National Character)-जे० एस० मिल के मतानुसार प्रजातन्त्र की मुख्य विशेषता जनता के चरित्र को सुन्दर तथा स्वच्छ बनाना है। प्रजातन्त्र जनता का अपना शासन होता है जिससे मनुष्यों में आत्मनिर्भरता, निर्भीकता तथा स्वावलम्बन के गुणों को बढ़ावा मिलता है। स्वतन्त्रता तथा स्वशासन से न केवल मनुष्य का चरित्र-निर्माण होता है बल्कि इससे राष्ट्रीय चरित्र का भी निर्माण होता है।

11. व्यक्ति के जीवन का पूर्ण विकास (Fullest Development of the Individual)-राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन का विकास करना है और इस उद्देश्य की पूर्ति प्रजातन्त्र में ही हो सकती है। इसका कारण यह है कि शासन प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को अधिक-से-अधिक अधिकार और स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिनका प्रयोग करके वह अपनी इच्छानुसार अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास कर सकता है। यह बात अन्य किसी शासन-प्रणाली में सम्भव नहीं

12. उदारवादी सरकार (Liberal Government)—प्रजातन्त्र में सरकार उदारवादी होती है जिस कारण देश की बदलती परिस्थितियों के अनुसार राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक सुधार सम्भव हो सकते हैं।

13. कला, विज्ञान तथा संस्कृति में अधिक वृद्धि (Better progress in Art, Science and Literature)प्रजातन्त्र में कला, विज्ञान तथा संस्कृति का अच्छा विकास होता है क्योंकि नागरिकों को किसी प्रकार के प्रतिबन्धों के अधीन काम नहीं करना पड़ता।

14. संकटकाल में प्रजातन्त्र सरकार सर्वोत्तम होती है (In time of Emergency, Democratic Government is the Best)-दो महायुद्धों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि संकटकाल में प्रजातन्त्र सरकार तानाशाही से अधिक अच्छी है। तानाशाही में शासन की शक्ति एक व्यक्ति के पास होती है और जनता को शासन के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं होती जिसका परिणाम यह होता है कि यदि संकटकाल में शासक की मृत्यु हो जाए तो जनता हतोत्साहित हो जाती है। द्वितीय महायुद्ध में हिटलर और मुसोलिनी के हट जाने से जर्मनी और इटली की ऐसी ही दशा हुई। परन्तु प्रजातन्त्र में यदि एक नेता किसी कारण हट जाता है तो अन्य नेता शासन की बागडोर सम्भाल लेता है। सरकार जनता के सहयोग एवं समर्थन से बड़े-से-बड़े संकट का मुकाबला कर सकती है।

15. सभी शासन प्रणालियों में उत्तम (Best among all fiilms of Governments)-प्रजातन्त्र अन्य शासन प्रणालियों से उत्तम है क्योंकि लोकतन्त्र में सभी व्यक्तियों की ३-छाओं की ओर ध्यान दिया जाता है। इस सम्बन्ध में लावेल (Lowell) ने लिखा है, “एक पूर्ण लोकतन्त्र में कोई भी यह शिकायत नहीं कर सकता कि उसे अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिला।”

प्रजातन्त्र के दोष (Demerits of Democracy) –

प्रजातन्त्र में जहां अनेक गुण पाए जाते हैं वहां दूसरी ओर इसमें अनेक दोष भी पाए जाते हैं। प्रजातन्त्र में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

1. यह अज्ञानियों, अयोग्य तथा मूों का शासन है (It is the Government of Ignorant, Incapable and Fools)-प्रजातन्त्र को अयोग्यता की पूजा (Cult of Incompetence) बताया जाता है। इसका कारण यह है कि जनता में अधिकतर व्यक्ति अज्ञानी, अयोग्य तथा मूर्ख होते हैं। सर हेनरी मेन (Sir Henry Maine) का कहना है, “प्रजातन्त्र अज्ञानी और बुद्धिहीन व्यक्तियों का शासन है।”

2. यह गुणों के स्थान पर संख्या को अधिक महत्त्व देता है (It gives Importance of Quantity rather than to Quality)-प्रजातन्त्र में गुणों की अपेक्षा संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से किया जाता है। यदि किसी विषय को 50 मूर्ख ठीक कहें और 49 बुद्धिमान ग़लत कहें तो मूों की बात मानी जाएगी। समाज में मूल् तथा अज्ञानियों की संख्या अधिक होने के कारण उनके प्रतिनिधियों को ही बहुमत प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रजातन्त्र में बहुमत के शासन को मूल् का शासन भी कहा जा सकता है।

3. यह उत्तरदायी शासन नहीं है (It is not a Responsible Government)—प्रजातन्त्र सैद्धान्तिक तौर पर उत्तरदायी शासन है, परन्तु व्यवहार से यह अनुत्तरदायी है। वास्तव में प्रजातन्त्र में नागरिक चुनाव वाले दिन ही सम्प्रभु होते हैं। चुनाव से पहले बड़े-बड़े नेता साधारण नागरिक के पास वोट मांगने आते हैं, परन्तु चुनाव के पश्चात् वे जनता की इच्छाओं की परवाह नहीं करते। जनता अपने प्रतिनिधियों का अगले चुनाव से पहले कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जिससे प्रतिनिधि जनता की इच्छाओं के प्रति लापरवाह हो जाते हैं।

4. राजनीतिक दलों के अवगुण (Defects of Political Parties)—प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों के सभी अवगुण आ जाते हैं। राजनीतिक दलों का नागरिकों के चरित्र तथा राष्ट्रीय चरित्र का बुरा प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दल अपने सदस्यों से वफादारी की मांग करते हैं जिससे उनकी स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है। राजनीतिक दल एकता को भी नष्ट करते हैं क्योंकि सारा देश उतने भागों में बंट जाता है जितने राजनीतिक दल होते हैं।

5. यह बहुत खर्चीला है (It is Highly Expensive)—प्रजातन्त्र शासन प्रणाली बहुत खर्चीली है। प्रजातन्त्र में निश्चित अवधि के पश्चात् संसद् के सदस्यों का चुनाव होता है। प्रजातन्त्र में आम चुनावों के प्रबन्ध पर बहुत धन खर्च हो जाता है। मन्त्रियों के वेतन और भत्तों पर जनता का बहुत-सा धन खर्च होता रहता है। मन्त्री देश के धन को बिना सोचे-समझे खर्च करते रहते हैं।

6. यह अमीरों का शासन है (It is a Government of the Rich)—प्रजातन्त्र कहने में तो प्रजा का शासन है परन्तु कस्तव में अमीरों का शासन है। चुनाव लड़ने के लिए धन की आवश्यकता होती है। चुनावों में लाखों रुपये खर्च होते हैं। इसलिए या तो अमीर व्यक्ति ही चुनाव लड़ सकते हैं या उनकी सहायता से ही चुनाव लड़ा जा सकता है। राजनीतिक दल भी चुनाव लड़ने के लिए पूंजीपतियों से पैसा लेते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 14 सरकारों के रूप-प्रजातन्त्र एवं अधिनायकवादी सरकारें

7. बहुमत की तानाशाही (Dictatorship of Majority)-प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से किया जाता है जिस कारण प्रजातन्त्र में बहुमत की तानाशाही की स्थापना हो जाती है। मन्त्रिमण्डल उसी दल का बनता है जिस दल को विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त होता है। जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है वह अगले चुनाव तक मनमानी करता है।

8. यह वास्तव में बहुमत का शासन नहीं है (In Reality it is not a Rule of Majority)-आलोचकों का कहना है कि प्रजातन्त्र वास्तव में बहुमत का शासन नहीं है। यह देखा गया है कि अधिकतर व्यक्ति शासन में रुचि नहीं लेते और न ही अपने मत का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त जो दल सरकार बनाता है उसके समर्थन में डाले गए वोट कुल डाले गए वोटों का बहुमत नहीं होता।

9. यह राष्ट्र की सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक उन्नति को रोकता है (It Checks the Cultural and Scientific Development of the Nation)—प्रजातन्त्र में राजनीति पर बहुत ज़ोर दिया जाता है पर साहित्य, कला, विज्ञान आदि की उन्नति की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। ____10. अस्थायी तथा कमज़ोर शासन (Unstable and Weak Government)-जिन देशों में बहु-दलीय प्रणाली होती है वहां पर सरकारें जल्दी-जल्दी बदलती हैं। बहु-दलीय प्रणाली के अन्तर्गत किसी भी दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण मिली-जुली सरकार बनायी जाती है जो किसी भी समय टूट सकती है। मिली-जुली सरकार अस्थायी होने के कारण कमज़ोर भी होती है।

11. नैतिकता का स्तर गिर जाता है (The Standard of Morality is Lowered Down)-राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए झूठ, बेईमानी तथा रिश्वतखोरी का सहारा लेते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात् मन्त्री सभी साधनों से अधिक-से-अधिक धन इकट्ठा करने का प्रयत्न करते हैं। इस तरह प्रजातन्त्र में नैतिकता का महत्त्व बहुत कम हो जाता

12. संकटकाल का मुकाबला करने में कमज़ोर (It is weak in time of Emergency)—किसी भी संकट का सामना करने के लिए एकता और शक्ति की ज़रूरत होती है। संकटकाल के समय निर्णय शीघ्र लेने होते हैं और उन्हें दृढ़तापूर्वक लागू करना आवश्यक होता है। परन्तु प्रजातन्त्र में निर्णय शीघ्र नहीं लिए जाते और न ही दृढ़ता से लागू किए जाते हैं। तानाशाही सरकारें संकटकाल का मुकाबला प्रजातन्त्र की अपेक्षा अधिक अच्छी प्रकार कर सकती हैं।

13. प्रजातन्त्र एक कल्पना है (Democracy is a Myth)—प्रजातन्त्र को कई लेखक व्यावहारिक नहीं मानते और उसे केवल कल्पना कहते हैं। उनका कहना है कि जनता को शासन में भाग लेने का अधिकार वास्तविक नहीं होता। केवल वयस्कों को ही वोट देने का अधिकार मिलता है और चुनाव के बाद बहुमत दल अपनी मनमानी करता है, मतदाताओं को कोई नहीं पूछता।

14. समातना का सिद्धान्त अप्राकृतिक है (Principle of Equality is Unnatural)—प्रजातन्त्र का मुख्य आधार समानता का सिद्धान्त है। परन्तु आलोचना के अनुसार समानता अप्राकृतिक है। प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान पैदा नहीं किया। जब प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान नहीं बनाया तो, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समानता कैसे स्थिर रह सकती है।

15. राजनीति एक व्यवसाय बन जाता है (Politics becomes a Profession)-प्रजातन्त्र में राजनीतिज्ञों का बोलबाला रहता है और उनका एक अलग वर्ग बन जाता है। ये लोग जनता को जोशीले भाषणों और झूठे वायदों से अपने पीछे लगा लेते हैं। आम व्यक्ति चालाक और स्वार्थी राजनीतिज्ञों की बातों में आ जाते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-प्रजातन्त्र के लाभ भी हैं और दोष भी। परन्तु दोषों के होते हुए भी इस प्रणाली को आजकल सर्वोत्तम माना जाता है। यही एक शासन प्रणाली है जिस में लोगों को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, राजनीतिक अधिकार, समानता, शासन की आलोचना करने और उसे प्रभावित करने का अवसर तथा अपने जीवन का विकास करने का अवसर सबसे अधिक मिलता है। मेजिनी का कथन है कि प्रजातन्त्र में, “सबसे अधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ व्यक्तियों के नेतृत्व में सर्वसाधारण की प्रगति सर्वसाधारण के द्वारा होती है।”

प्रश्न 3.
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र से क्या अभिप्राय है ? प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की विशेष संस्थाओं की विवेचना करें।
(What do you understand by direct democracy ? Discuss the special institutions of direct democracy.)
उत्तर-
प्रजातन्त्र के दो रूप हैं-

  1. प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र तथा
  2. अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र।

1. प्रत्यक्ष या शुद्ध प्रजातन्त्र (Direct or Pure Democracy)-प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र ही प्रजातन्त्र का शुद्ध या वास्तविक रूप है। जब जनता स्वयं कानून बनाए, राजनीति को निश्चित करे तथा सरकारी कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखे, उस व्यवस्था को प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कहते हैं। समय-समय पर समस्त नागरिकों की सभा एक स्थान पर बुलाई जाती है
और उनमें सार्वजनिक मामलों पर विचार होता है तथा शासन सम्बन्धी प्रत्येक बात का निर्णय होता है। प्राचीन समय में ऐसे प्रजातन्त्र विशेष रूप से यूनान और रोम में विद्यमान थे, परन्तु आधुनिक युग में बड़े-बड़े राज्य हैं जिनकी जनसंख्या भी बहुत अधिक होती है और भू-भाग भी लम्बा-चौड़ा है। नागरिकों की संख्या भी पहले से अधिक हो गई है। आज प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र सम्भव नहीं है। रूसो (Rousseau) प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का ही पुजारी था। इसलिए तो उसने कहा कि इंग्लैंड के लोग केवल चुनाव वाले दिन ही स्वतन्त्र होते हैं।

2. अप्रत्यक्ष या प्रतिनिधि प्रजातन्त्र (Indirect or Representative Democracy)-अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में प्रभुत्व शक्ति जनता के पास होती है, परन्तु जनता उसका प्रयोग स्वयं न करके अपने प्रतिनिधियों द्वारा करती है। अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधि चुन लेती है और वे प्रतिनिधि जनता की इच्छानुसार कानून बनाते तथा शासन करते हैं। इन प्रतिनिधियों का चुनाव एक निश्चित अवधि के लिए होता है। भारत में ये प्रतिनिधि पांच वर्ष के लिए चुने जाते हैं। ब्लंटशली (Bluntschli) के शब्दों में, “प्रतिनिधि प्रजातन्त्र का यह नियम है, कि जनता अपने अधिकारियों द्वारा शासन करती है और प्रतिनिधियों द्वारा कानून का निर्माण करती है तथा प्रशासन पर नियन्त्रण रखती है।”

प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की संस्थाएं (Institutions of Direct Democracy)—प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र पूर्ण रूप से लागू करना तो आज के युग में सम्भव नहीं, परन्तु अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र के दोषों को कम करने के लिए कुछ देशों में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की कुछ संस्थाएं अपनाई गई हैं। इसके लिए स्विट्ज़रलैंड बड़ा प्रसिद्ध है। स्विट्ज़रलैंड को प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का घर (Home of Direct Democracy) कहा जाता है। इन संस्थाओं द्वारा नागरिकों को कानून बनवाने और संसद् के कानूनों को लागू होने से रोकने का अधिकार दिया जाता है। स्विट्ज़रलैण्ड के कुछ कैंटनों (Cantons) में समस्त मतदाता एक स्थान पर एकत्र होकर कानून आदि बनाते हैं तथा सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति करते हैं। परन्तु समस्त देशों में ऐसा सम्भव नहीं। प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की आधुनिक संस्थाएं कुछ देशों में मिलती हैं जैसे प्रस्तावाधिकार (Initiative), जनमत संग्रह (Referendum), प्रत्यावर्तन या वापसी (Recall) तथा लोकमत संग्रह (Plebiscite), इनका सविस्तार वर्णन दिया जाता है-

1. प्रस्तावाधिकार (Initiative)-इसके द्वारा मतदाताओं को अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनाने का अधिकार होता है। यदि मतदाताओं की एक निश्चित संख्या किसी कानून को बनवाने की मांग करे तो संसद् अपनी इच्छा से उस मांग को रद्द नहीं कर सकती। यदि संसद् उस प्रार्थना के अनुसार कानून बना दे तो सबसे अच्छी बात है। यदि संसद् उस मांग से सहमत न हो तो वह समस्त जनता की राय लेती है और यदि मतदाता बहुमत से उस मत का समर्थन कर दें तो संसद् को वह कानून बनाना ही पड़ता है। स्विट्ज़रलैंड में एक लाख मतदाता कोई भी कानून बनाने के लिए संसद् को कह सकते हैं।

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2. जनमत संग्रह (Referendum)—जनमत संग्रह द्वारा संसद् के बनाए हुए कानून लोगों के सामने रखे जाते हैं। वे कानून तभी पास हुए समझे जाते हैं यदि मतदाताओं का बहुमत उनके पक्ष में हो, नहीं तो वह कानून रद्द हो जाता है। इस प्रकार यदि संसद् कोई ऐसा कानून बना भी दे जिसे जनता अच्छा न समझती हो तो उसे लागू होने से रोक सकती है। स्विट्ज़रलैण्ड में यह नियम है कि कानूनों को लागू करने से पहले जनता की राय ली जाती है। वहां पर जनमतसंग्रह दो प्रकार के होते हैं-(i) अनिवार्य जनमत संग्रह (Compulsory Referendum) तथा (ii) ऐच्छिक जनमत संग्रह (Optional Referendum) । महत्त्वपूर्ण कानून लागू होने से पहले जनमत संग्रह के लिए भेजा जाता है। यदि बहुमत कैन्टनों में तथा कुल मतदाताओं का बहुमत उनके पक्ष में हो तो, उसे लागू कर दिया जाता है अन्यथा वह कानून रद्द हो जाता है। ऐच्छिक जनमत संग्रह में संसद् की इच्छा होती है कि वह साधारण कानून को लागू होने से पहले जनता की राय के लिए भेजे या न भेजे । ऐसा साधारण कानून पर होता है। परन्तु यदि 50,000 मतदाता इस बात की मांग करें कि कानून पर जनमत-संग्रह कराया जाए तो वह कानून भी जनता की राय के लिए अवश्य भेजा जाता है। ऐसे कानून पर जब बहुमत का समर्थन मिल जाए तभी वह लागू होता है। रूस में ऐच्छिक जनमत-संग्रह का सिद्धान्त अपनाया गया है। 23 अप्रैल, 1993 को रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसीन ने अपनी आर्थिक सुधार नीतियों के पक्ष में जनमत-संग्रह करवाया और लोगों ने भारी बहुमत से उनके पक्ष में मतदान किया।

3. वापसी (Recall)-इस नियम द्वारा जनता को अपने प्रतिनिधि अवधि समाप्त होने से पहले भी वापस बुलाने और दूसरा प्रतिनिधि चुन कर भेजने का अधिकार दिया जाता है। इस अधिकार द्वारा मतदाताओं की एक निश्चित संख्या अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने का प्रस्ताव रख सकती है। इससे प्रतिनिधियों पर मतदाताओं का स्थायी प्रभाव बना रहता है और वे कभी भी उनकी इच्छा की अवहेलना नहीं कर सकते। अमेरिका के कुछ राज्यों तथा स्विट्जरलैंड में यह नियम लागू है।

4. लोकमत संग्रह (Plebiscite)-लोकमत संग्रह राजनीतिक प्रश्न पर होता है। कानूनों पर जनता की राय जनमतसंग्रह कहलाती है। पाकिस्तान यह मांग करता है कि कश्मीर में लोकमत-संग्रह कराया जाए कि वहां के लोग भारत में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में ? 1935 में लोकमत-संग्रह के आधार पर ही सार (Saar) को जर्मनी में मिलाया गया। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्तों (N.W.F.P.) को भी पाकिस्तान में लोकमत संग्रह के आधार पर ही मिलाया गया था। लोकमत-संग्रह का एक अन्य रूप भी है जिसे मतसंख्या (Opinion Poll) कहते हैं। सन् 1967 में गोवा, दमन और दियू में यह जानने के लिए कि वहां के लोग संघीय क्षेत्र ही चाहते हैं या महाराष्ट्र अथवा गुजरात में मिलना चाहते हैं। लोकमत संग्रह करवाया गया और लोगों ने संघीय क्षेत्र में बने रहने की ही इच्छा व्यक्त की।

निष्कर्ष (Conclusion)—प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की संस्थाएं देखने में बहुत अच्छी प्रतीत होती हैं। ये संस्थाएं अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र के कुछ दोषों को दूर करती हैं। परन्तु सभी देशों में इन संस्थाओं का संचालन ठीक नहीं हो सकता। इनका सफलतापूर्वक प्रयोग तो ऐसे राज्यों में हो सकता है जो छोटे हों और जहां लोग पढ़े-लिखे हों।

प्रश्न 4.
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र के बीच अन्तर बताइए।
(Distinguish between Direct and Indirect Democracy.)
उत्तर-
आधुनिक युग प्रजातन्त्र का युग है। प्रजातन्त्र एक सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है। प्रजातन्त्र एक ऐसी सरकार को कहा जाता है जिसमें जनता को राजसत्ता का अन्तिम स्रोत समझा जाता है। प्रजातन्त्र जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा सरकार है।
प्रजातन्त्र के दो रूप हो सकते हैंप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र (Direct Democracy)-प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता प्रत्यक्ष रूप में शासन में भाग लेती है।
अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र (Indirect Democracy)-अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में शासन जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा चलाया जाता है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र के बीच अन्तर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में लोग स्वयं शासन में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेते हैं, जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में शासन जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के द्वारा चलाया जाता है।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को शासक समझता है, जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में केवल प्रतिनिधि ही शासक समझते जाते हैं।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता स्वयं कानून के निर्माण में भाग लेती है। इसलिए जनता अपने ही बनाए गए कानूनों का अधिक पालन करती है जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता स्वयं कानून निर्माण में भाग लेने के कारण कानूनों के पालन की मात्रा इतनी अधिक नहीं होती।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र की अपेक्षा जनता को अधिक राजनीति शिक्षण प्राप्त होता है।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र जनता की प्रभुसत्ता पर आधारित है। प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में ही जनता अपनी इच्छा को ठीक ढंग से प्रकट कर सकती है। अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता अपने प्रतिनिधियों द्वारा अपनी इच्छा को ठीक ढंग से प्रकट नहीं कर सकती और न ही अपनी सत्ता का ठीक ढंग से प्रयोग कर सकती है।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में मतदाताओं का अपने प्रतिनिधियों के साथ समीप का सम्बन्ध बना रहता है, परन्तु अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में चुनाव के पश्चात् प्रायः यह समाप्त हो जाता है।
  • प्रत्यक्ष लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों का महत्त्व इतना अधिक नहीं होता जितना कि अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों का महत्त्व होता है।
  • यद्यपि प्रत्यक्ष लोकतन्त्र अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र की अपेक्षा अधिक लोकतन्त्रीय होता है, परन्तु प्रत्यक्ष लोकतन्त्र जनसंख्या और आकार की दृष्टि से बड़े-बड़े राज्यों में व्यावहारिक नहीं है जबकि अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र एक व्यावहारिक व्यवस्था है।

प्रश्न 5.
उन शर्तों का उल्लेख कीजिए जो प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक हैं। (Describe the conditions which are necessary for the success of Democracy.)
अथवा
प्रजातन्त्र की सफलता के लिए किन-किन स्थितियों का होना आवश्यक है ? आपके विचार में भारत में वे कहां तक मौजूद हैं ?
(What conditions are necessary for the successful working of Democracy ? In your opinion, how far do they exist in India ?)
उत्तर-
प्रजातन्त्र शासन व्यवस्था सबसे उत्तम मानी जाती है, परन्तु वास्तव में यह ऐसा शासन है जो प्रत्येक देश में सफल नहीं हो सकता। यदि उपयुक्त वातावरण में लागू किया जाए तो इसके लाभ हैं, नहीं तो इसका बुरा परिणाम निकल सकता है। इसकी सफलता के लिए एक विशेष वातावरण चाहिए। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् बहुत-से देशों ने लोकतन्त्र शासन को अपनाया, परन्तु इसमें से कई देशों में यह प्रणाली अधिक देर तक न चल पाई। इसका प्रमुख कारण यह था कि इन देशों में वह वातावरण और परिस्थितियां उपस्थित नहीं थीं जो कि प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक मानी जाती हैं। लोकतन्त्र के सफलतापूर्वक काम के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना आवश्यक समझा जाता है-

1. जागरूक नागरिकता (Englihtened Citizenship)-जागरूक नागरिकता प्रजातन्त्र की सफलता की पहली शर्त है। निरन्तर देख-रेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है। (Eternal vigilance is the price of liberty.) नागरिक अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने चाहिएं। सार्वजनिक मामलों पर हर नागरिक को सक्रिय भाग लेना चाहिए। राजनीतिक समस्याओं और घटनाओं के प्रति सचेत रहना चाहिए। राजनीतिक चुनाव में बढ़-चढ़ कर भाग लेना चाहिए आदि-आदि।

2. प्रजातन्त्र से प्रेम (Love for Democracy)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातन्त्र के लिए प्रेम होना चाहिए। बिना प्रजातन्त्र के प्रेम के प्रजातन्त्र कभी सफल नहीं हो सकता।

3. शिक्षित नागरिक (Educated Citizens)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए शिक्षित नागरिकों का होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला है। शिक्षा से ही नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान होता है। शिक्षित नागरिक शासन की जटिल समस्याओं को समझ सकते हैं और उनको सुलझाने के लिए सुझाव दे सकते हैं।

4. स्थानीय स्व-शासन (Local Self-Government) प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना आवश्यक है। स्थानीय संस्थाओं के द्वारा नागरिकों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है। ब्राइस (Bryce) का कहना है कि लोगों में स्वतन्त्रता की भावना स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के बिना नहीं आ सकती। स्थानीय शासन को प्रशासनिक शिक्षा की आरम्भिक पाठशाला कहा जाता है। लॉर्ड ब्राइस (Lord Bryce) प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन को सर्वोत्तम स्कूल और गारंटी बताता है।

5. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा (Protection of Fundamental Rights)-प्रजातन्त्र में लोगों को कई तरह के मौलिक अधिकार दिए जाते हैं जिनके द्वारा वे शासन में भाग ले सकते हैं और अपने जीवन का विकास कर सकते हैं। इन अधिकारों की सुरक्षा संविधान द्वारा की जानी चाहिए ताकि कोई व्यक्ति या शासन उनको कम या समाप्त करके प्रजातन्त्र को हानि न पहुंचा सके।

6. आर्थिक समानता (Economic Equality)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आर्थिक समातना का होना अति आवश्यक है। लॉस्की (Laski) के कथनानुसार, “आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है।” राजनीतिक प्रजातन्त्र केवल एक हास्य का विषय बन जाता है यदि इससे पहले आर्थिक, प्रजातन्त्र को स्थापित न किया जाए। लोगों को वोट डालने के अधिकार से पहले पेट भर भोजन मिलना चाहिए।

7. सामाजिक समानता (Social Equality)—प्रजातन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक समानता की भावना का होना आवश्यक है। समाज में धर्म, जाति, रंग आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं होना चाहिए।

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8. प्रेस की स्वतन्त्रता (Freedom of Press)—प्रेस को प्रजातन्त्र का पहरेदार (Watchdog of Democracy) कहा गया है। समाचार-पत्र सरकार की आलोचना करने के साथ-साथ लोगों को राजनीति की भी जानकारी देते हैं और उनको देश में होने वाली सभी घटनाओं से सूचित भी करते हैं। इन समाचार-पत्रों पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, नहीं तो लोगों को ठीक जानकारी नहीं मिल सकेगी और सरकार की आलोचना भी न हो सकेगी।

9. आपसी सहयोग की भावना (Spirit of Mutual Co-operation)—वैसे तो सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में लोगों के आपसी सहयोग की आवश्यकता होती है, परन्तु लोकतन्त्र में इस भावना का विशेष महत्त्व है। यदि लोगों में फूट और एक-दूसरे के प्रति असहयोग की भावना होगी, तो प्रजातन्त्र शासन प्रणाली की सफलता असम्भव है।

10. सहनशीलता (Toleration)-लोगों के अन्दर सहनशीलता की भावना का होना भी प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक समझा जाता है। यदि लोगों में सहनशीलता की भावना न होगी तो वे शान्ति से एक-दूसरे की बात न सुनकर आपस में लड़ते-झगड़ते रहेंगे।

11. सुसंगठित राजनीतिक दल (Well-Organised Political Parties)-दलों का संगठन जाति, धर्म, प्रान्त के आधार पर न होकर आर्थिक तथा राजनीतिक आधारों पर होना चाहिए। जो दल आर्थिक तथा राजनीतिक आधारों पर संगठित होते हैं उनका उद्देश्य देश का हित होता है। यदि देश में दो दल हों तो बहुत अच्छा है। इंग्लैंड तथा अमेरिका में प्रजातन्त्र की सफलता का मुख्य कारण इन देशों की दो दलीय प्रणाली है।

12. विवेकी और ईमानदार नेता (Wise and Honest Leaders)-नेताओं को जनता का नेतृत्व करने में विवेक और ईमानदारी से काम लेना चाहिए। यदि नेता स्वार्थी और विवेकहीन होंगे तो नाव मंझधार में फंस जाएगी और प्रजातन्त्र असफल हो जाएगा। “प्रजातन्त्र में नेता ऐसे होने चाहिएं जो दृढ़ निर्णय ले सकें और जो वास्तविक योग्यता, असाधारण कार्य सम्पदा वाले और महान् चरित्रवान् हों।”

13. शान्ति और सुरक्षा (Peace and Order)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए देश में शान्ति और सुरक्षा का वातावरण होना आवश्यक है। जिस देश में अशान्ति की व्यवस्था रहती है वहां पर नागरिक अपने व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयत्न नहीं करते। युद्धकाल में न तो चुनाव हो सकते हैं और न ही नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। इसलिए प्रजातन्त्र की सफलता के लिए शान्ति की व्यवस्था का होना आवश्यक है।

14. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता (Independence of Judiciary)—प्रजातन्त्र को सफल बनाने में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता भी आवश्यक है। स्वतन्त्र न्यायपालिका लोगों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखती है और लोग अपने अधिकारों का स्वतन्त्रता से प्रयोग कर सकते हैं।

15. लिखित संविधान (Written Constitution)-कुछ विद्वानों का विचार है कि प्रजातन्त्र की सफलता के लिए लिखित संविधान का होना भी आवश्यक है। लिखित संविधान में सरकार की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन होता है जिसके कारण सरकार जनता पर अत्याचार नहीं कर सकती। जनता को भी सरकार की सीमाओं का पता होता है।

16. स्वतन्त्र चुनाव (Independent Election)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि देश में चुनाव निष्पक्ष रूप से करवाये जाएं।

17. लोगों का उच्च नैतिक चरित्र (High Moral Character of the People)-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए लोगों का चरित्र बड़ा उच्च होना भी आवश्यक है। लोग ईमानदार, निःस्वार्थी, देश-भक्त तथा नागरिकता के गुणों से ओत-प्रोत होने चाहिएं।

18. सेना का अधीनस्थ स्तर (Subordinate Status of Army)-देश की सेना को सरकार के असैनिक अन्य (Civil Power) के अधीन रखा जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो सेना प्रजातन्त्रात्मक संस्थाओं की सबसे बड़ी विरोधी सिद्ध होगी।

19. स्वस्थ जनमत (Sound Public Opinion)-प्रजातन्त्रात्मक सरकार जनमत पर आधारित होती है, जिस कारण प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्वस्थ जनमत होना अति आवश्यक है।

20. अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व (Representation of Minorities) प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जाए। यदि अल्पसंख्यकों को संसद् में प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता तो सदैव असन्तुष्ट रहेंगे। मिल (Mill) का कहना है कि “प्रजातन्त्र के लिए यह आवश्यक है कि अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।”

क्या ये शर्ते भारत में विद्यमान हैं ? (Are these Conditions Present in India ?) –

यह प्रश्न बहुत-से लोगों के मन में उत्पन्न होता है कि क्या भारत में प्रजातन्त्र की सफलता के लिए उचित वातावरण है ? भारतवर्ष में प्रजातन्त्र की स्थापना के इतने वर्षों बाद भी बहुत-से लोगों का विचार है कि भारत प्रजातन्त्र के लिए उपर्युक्त नहीं है। जिन लोगों को इसमें सन्देह है कि भारत में प्रजातन्त्र सफल नहीं हो सकता है, उनका कहना है कि भारत में प्रजातन्त्र की सफलता के लिए उचित वातावरण नहीं है। भारतवर्ष में निम्नलिखित परिस्थितियों का अभाव है-

  1. सचेत नागरिकता का अभाव- भारत के नागरिक शासन में रुचि नहीं लेते और न ही अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करते हैं।
  2. अशिक्षित नागरिक-भारत के अधिकतर नागरिक अनपढ़ तथा गंवार हैं। अशिक्षित नागरिक चालाक नेताओं की बातों में आकर अपने मत का प्रयोग करके गलत प्रतिनिधियों को चुन लेते हैं।
  3. उच्च नैतिक स्तर का अभाव-भारत के नागरिकों का नैतिक स्तर ऊंचा नहीं है। आज कोई भी कार्य रिश्वत और सिफारिश के बिना नहीं होता है।
  4. आर्थिक असमानता-देश का धन कुछ ही लोगों के हाथ में एकत्रित है। लाखों बेरोजगार हैं जिन्हें दो समय भर पेट भोजन भी नहीं मिलता। गरीब व्यक्ति अपनी वोट को बेच देते हैं।
  5. सामाजिक असमानता–छुआछूत अभी व्यवहार में पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई। जात-पात का बहुत बोलबाला है।
  6. बहु-दलीय प्रणाली-भारत में बहुत-से दल विद्यमान हैं। रोज किसी नए दल की स्थापना हो जाती है। कई दल धार्मिक आधार पर संगठित हैं। कई दल हिंसात्मक साधनों में विश्वास करते हैं। बहु-दलीय प्रणाली के कारण केन्द्र में सरकारें बड़ी तेजी से बदलती रहती हैं। भारत में मई, 1996 से अप्रैल, 1999 तक बहु-दलीय प्रणाली के कारण चार प्रधानमन्त्रियों को त्याग-पत्र देना पड़ा।
  7. चुनावों में हिंसा-चुनावों में हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, जो लोकतन्त्र के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।

इन सब बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। इसलिए कुछ लोगों का विचार है कि भारत में प्रजातन्त्र को समाप्त करके तानाशाही की स्थापना करनी चाहिए।

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इसमें कोई शक नहीं कि भारत में वे सब बातें नहीं है जो प्रजातन्त्र को सफल बनाने में सहायक हैं, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रजातन्त्र को समाप्त कर दिया जाए। भारत सरकार ने आरम्भ से ही ऐसे कार्य करने शुरू कर दिए हैं जिससे उचित वातावरण उत्पन्न हो जाए। शिक्षा के प्रचार की ओर विशेष ध्यान दिया गया। आर्थिक समानता को लाने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं अपनाई गई हैं। स्वशासन की स्थापना की गई है। पिछले सोलह आम चुनावों ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारतीय जनता अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों को समझती है। भारतीय जनता में अब जाग्रति आ चुकी है। हमारे देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू ने लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किया। श्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान के हमले के समय देश का बहुत अच्छा नेतृत्व किया।

भारत में अब तक 16 आम चुनाव हो चुके हैं। भारत में प्रत्येक आम चुनाव ने सिद्ध कर दिया कि भारतीय जनता लोकतन्त्र में पूरी-पूरी श्रद्धा रखती है। भारत में प्रजातन्त्र के विकास और प्रगति के बारे में कोई शंका निराधार नहीं होगी। पाकिस्तान के साथ हुए 1965 और 1971 के युद्धों ने सिद्ध कर दिया कि भारतीय प्रजातन्त्र बहुत सबल है। भारतीय जनता में राजनीतिक परिपक्वता (Political Maturity) को देखते हुए कई विदेशी विद्वानों ने भी भारतीय प्रजातन्त्र के अच्छे स्वास्थ्य की गवाही दी है।

नि:संदेह भारतीय जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करना जानती है और प्रजातन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्ते हैं। अन्त में, हम नि:संकोच यह कह सकते हैं कि भारत में लोकतन्त्रीय परम्पराओं की नींव दृढ़ होती जा रही है।

प्रश्न 6.
आप किस प्रकार की सरकार को समग्रवादी या अधिनायकवादी सरकार कहेंगे ? उदाहरण दें।
(Which government would you call a totalitarian government ? Give examples.)
अथवा अधिनायकवाद या तानाशाही क्या है ? संक्षेप में व्याख्या करें।
(What is dictatorship ? Explain briefly.)
उत्तर-
यद्यपि आधुनिक युग को प्रजातन्त्र का युग कहा जाता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि यह युग अधिनायकतन्त्र का युग बनता जा रहा है। यह सत्य है कि सुन्दर व उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रजातन्त्र का होना अनिवार्य है, परन्तु आज संसार के कई देशों में तानाशाही पाई जाती है। लेटिन अमेरिका, अफ्रीका व एशिया के कई देशों में अधिनायकतन्त्र व्यवस्थाओं का बोलबाला है।

अधिनायकतन्त्र का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and definition of Dictatorship)-तानाशाही में शासन की सत्ता एक व्यक्ति में निहित होती है। अधिनायक अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है और वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। वह तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक शासन की शक्ति उसके हाथ में रहती है।

फोर्ड (Ford) ने तानाशाही की परिभाषा देते हुए कहा है, “तानाशाही राज्य के अध्यक्ष के द्वारा गैर कानूनी शक्तियां प्राप्त करना है।” (“Dictatorship is the assumption of extra legal authority by the Head of state.”Ford).

न्यूमैन (Newman) ने तानाशाही की परिभाषा करते हुए लिखा है कि, “तानाशाही एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का वह शासन है जिन्होंने राज्य में सत्ता पर नियन्त्रण कर लिया है। वह उस सत्ता का उपभोग बिना किसी रोक से करते हैं।”

अल्फ्रेड (Alfred) ने अधिनायकतन्त्र की बड़ी सुन्दर और व्यापक परिभाषा यों दी है : “अधिनायकतन्त्र उस एक व्यक्ति का शासन है जिसने स्तर और स्थिति को पैतृक अधिकार से प्राप्त न करके शक्ति या स्वीकृति सम्भवतः दोनों के मिश्रण द्वारा प्राप्त किया हो। उसके पास निरंकुश प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य है अर्थात् यह समस्त राजनीतिक सत्ता का स्रोत है और उस सत्ता पर सीमा नहीं होनी चाहिए। वह शक्ति का प्रयोग कानून के द्वारा नहीं बल्कि स्वेच्छापूर्ण ढंग से आदेशों द्वारा करता है। अन्ततः उसकी सत्ता किसी निश्चित कार्यकाल तक सीमित नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की सीमा निरंकुश शासन से मेल नहीं खाती है।”

अल्फ्रेड की तानाशाही की परिभाषा के विश्लेषण से निम्नलिखित बातें मालूम होती हैं-

  1. यह एक व्यक्ति का शासन है।
  2. यह शक्ति या स्वीकृति या दोनों के मिश्रण पर आधारित होती है।
  3. किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।
  4. तानाशाह की शक्तियां असीमित होती हैं।
  5. तानाशाह शासन को कानून की बजाय आदेश के अनुसार चलाता है।
  6. तानाशाही की अवधि निश्चित नहीं होती।

प्रथम महायुद्ध के पश्चात् प्रजातन्त्र शासन के विरुद्ध ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि अनेक देशों में तानाशाही की स्थापना हुई। रूस में साम्यवादी दल की तानाशाही स्थापित हो गई। जर्मनी में हिटलर ने अपनी तानाशाही स्थापित कर ली और इटली में मुसोलिनी ने फासिस्ट पार्टी के आधार पर अपनी तानाशाही को स्थापित कर लिया।

आधुनिक तानाशाही के लक्षण (Features of Modern Dictatorship)-

आधुनिक तानाशाही के निम्नलिखित लक्षण हैं-

1. राज्य की निरंकुशता (Absoluteness of the State)-आधुनिक तानाशाही में राज्य निरंकुशवादी होते हैं। तानाशाही सरकार की शक्तियां असीमित होती हैं। जिन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। हिटलर और मुसोलिनी का कहना था, “सब कुछ राज्य के अन्दर है, राज्य के बाहर कुछ भी नहीं तथा राज्य के ऊपर कुछ भी नहीं है।”

राज्य सर्वशक्ति-सम्पन्न होता है। तानाशाही सरकार जो चाहे कर सकती है। जनता को सरकार का विरोध करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है।

2. राज्य साध्य है और व्यक्ति एक साधन है (State is an End and individual is a Means) तानाशाही में राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना जाता है। तानाशाही के समर्थकों का कहना है कि राज्य के हित में ही नागरिक का हित है। अतः नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे राज्य की आज्ञाओं का पालन करें और राज्य के हित के लिए अपना बलिदान करने के लिए सदा तैयार रहें।

3. राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं किया जाना (No distinction is made between State and Society)-आधुनिक तानाशाही में राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं माना जाता। आधुनिक तानाशाही के समर्थकों के अनुसार राज्य को व्यक्ति के प्रत्येक क्षेत्र को नियमित करने तथा उसके प्रत्येक कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार
है।

4. राजनीतिक दल का अभाव या एकदलीय (Either Partyless or One Party System)-अधिनायकतन्त्र में या तो कोई भी राजनीतिक दल नहीं होता जैसा कि पाकिस्तान में अयूब खां और याहिया खां के समय में था या फिर एक दल होता है। तानाशाही में एक दल का शासन होता है। जर्मनी में नाजी पार्टी तथा इटली में फासिस्ट पार्टी का शासन था। चीन में साम्यवादी दल का शासन है। अतः तानाशाही राज्यों में विरोधी दल का निर्माण नहीं किया जा सकता।

5. एक नेता का गुण-गान (Glorification of one Leader)-तानाशाही में एक पार्टी का शासन होता है, . पार्टी के नेता को ही देश का नेता माना जाता है। नेता को दूसरे व्यक्तियों से श्रेष्ठ माना जाता है। नेता में पूर्ण विश्वास किया जाता है और उसे राष्ट्रीय एकता का प्रतीक माना जाता है। उसकी सत्ता का कोई विरोध नहीं कर सकता। इस प्रकार तानाशाही में एक पार्टी, एक नेता तथा एक प्रोग्राम होता है।

6. अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का न होना (Absence of Rights and Liberties) तानाशाही में नागरिकों को अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं से वंचित कर दिया जाता है। यदि नागरिकों को अधिकार दिए भी जाते हैं तो वे नाममात्र के होते हैं। तानाशाही में नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं वे वास्तव में अधिकार नहीं होते क्योंकि उनके अधिकार तानाशाह की दया पर निर्भर करते हैं।

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7. कार्यकाल निश्चित नहीं होता (Term not Fixed)-अधिनायक का कार्यकाल निश्चित नहीं होता। जब तक वह अपनी सैनिक शक्ति को बनाए रखेगा वह अपने पद पर आसीन रह सकता है।

8. हिंसा तथा शक्ति में विश्वास (Faith in Violence and Force)-आधुनिक तानाशाही शक्ति पर आधारित है। तानाशाही शासन शान्ति तथा अहिंसा के स्थान पर युद्ध तथा हिंसात्मक साधनों में विश्वास करते हैं।

9. साम्राज्यवादी नीति (Imperialistic Policy) तानाशाही साम्राज्यवादी नीति में विश्वास करते हैं। तानाशाह शक्ति के बल पर अपने राज का विस्तार करने के पक्ष में है।

10. प्रेस तथा रेडियो पर नियन्त्रण (Control over Press and Radio) तानाशाही में प्रेस तथा रेडियो पर नियन्त्रण होता है। प्रेस तथा रेडियो का प्रयोग सरकार की नीतियों का प्रसार करने के लिए किया जाता है।

11. अन्तर्राष्ट्रीयवाद का विरोध (Opposed to Internationalism) आधुनिक तानाशाह अन्तर्राष्ट्रीयवाद में विश्वास नहीं करते। तानाशाह प्रत्येक समस्या का समाधान शक्ति के आधार पर करना चाहते हैं। 1965 ई० में पाकिस्तान ने कश्मीर को शक्ति द्वारा हड़पना चाहा। 1962 में साम्यवादी चीन ने भारत पर आक्रमण करके भारत के एक विस्तृत भाग पर कब्जा कर लिया।

12. धर्म के विरुद्ध (Hostile to Religion)—सर्वशक्तिमान राज्य धर्म के विरुद्ध होता है। साम्यवादी देशों में धर्म को ‘जनता के लिए अफीम’ माना जाता है।

13. जातीयता (Racialism)-तानाशाही अपनी जाति को अन्य जातियों के मुकाबले में श्रेष्ठ मानते हैं और इसका प्रचार भी करते हैं। जर्मनी के लोग अपने आप को संसार के सब लोगों से श्रेष्ठ मानते थे। मुसोलिनी ने अपनी जाति की श्रेष्ठता का प्रचार किया था।

प्रश्न 7.
अधिनायकवादी सरकार के गुण एवं दोषों की व्याख्या करें। (Describe the merits and demerits of Dictatorship.)
उत्तर-
अधिनायकवाद अथवा तानाशाह के गुण-तानाशाही में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं-
1. दृढ़ तथा स्थिर शासन (Strong and Stable Government) तानाशाही का प्रमुख गुण यह है कि इस शासन व्यवस्था में शासन दृढ़ तथा स्थिर होता है। शासन की सब शक्तियां एक ही व्यक्ति में निहित होती हैं और शक्ति के आधार पर ही तानाशाही सरकार स्थापित की जाती है। तानाशाह अपनी पदवी के लिए किसी पर निर्भर नहीं करता। उसे चुनाव लड़ने नहीं पड़ते और न ही वह किसी के प्रति उत्तरदायी होता है। वह एक बार जो संकल्प कर लेता है उसी पर दृढ़ रहता है। शासन में स्थिरता आती है जिससे शासन की नीति में निरन्तरता बनी रहती है।

2. शासन में कुशलता (Efficiency in Administration)-तानाशाह ऊंचे पदों पर योग्य व्यक्तियों को नियुक्त करता है और शासन में से घूसखोरी, लाल फीताशाही (Red Tapism) तथा पक्षपात को समाप्त करता है। वह आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकता है। इस प्रकार तानाशाह शीघ्र ही निर्णय लेकर शासन की नीति को जल्दी लागू करता है और शासन में कुशलता आती है।

3. संकटकाल के लिए उचित सरकार (Suitable Government in time of Emergency) तानाशाही सरकार संकटकाल के लिए उचित है। शासन की समस्त शक्तियां तानाशाह में केन्द्रित होती हैं। निर्णय शीघ्र हो सकते हैं और उन निर्णयों को दृढ़ता से लागू किया जा सकता है।

4. नीति में एकरूपता (Consistent Policy) तानाशाही में नीति में एकरूपता रहती है। जब तक एक तानाशाही सत्ता में रहता है तब तक नीति में एकरूपता बनी रहती है। तानाशाह प्रायः अपनी नीतियों में परिवर्तन नहीं करते क्योंकि ऐसा करना उन के हित में नहीं होता।

5. राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण (Building of National Character)-अधिनायकतन्त्र में शिक्षा प्रणाली में सुधार करके नवयुवकों में देशभक्ति, आत्मत्याग तथा बलिदान की भावनाएं भरी जाती हैं। अधिनायकतन्त्र में राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है।

6. उचित नियमों पर आधारित (It is based on sound Principles)-तानाशाही इस उचित नियम पर आधारित है कि प्रत्येक शासन चलाने के योग्य नहीं है। योग्य व्यक्ति ही देश का शासन चला सकते हैं। तानाशाही में योग्य व्यक्तियों को ही उचित पदों पर नियुक्त किया जाता है। तानाशाही में तानाशाह सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति होता है, जो जनता का नेतृत्व करता है।

7. प्रशासन खर्चीला नहीं है (Administration is not Costly)-प्रजातन्त्र में चुनावों पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं और राज्यों में दर्जनों मन्त्री, गवर्नर, सैंकड़ों संसद् सदस्य होते हैं जबकि तानाशाही में एक व्यक्ति का शासन होता है। तानाशाही में चुनाव नहीं होते जिसमें करोड़ों रुपयों की बचत होती है।

8. राष्ट्र का सम्मान बढ़ता है (National Prestige is Enhanced)-तानाशाही व्यवस्था में शक्तिशाली सरकार
की स्थापना की जाती है जिससे राष्ट्र की शक्ति बढ़ती है और शक्ति की वृद्धि से राष्ट्र का सम्मान बढ़ता है। हिटलर ने जर्मनी की प्रतिष्ठा को बढ़ाया और मुसोलिनी ने इटली की खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से कायम किया। साम्यवादी क्रान्ति के बाद सोवियत संघ ने अपने राज्य का अत्यधिक विकास किया था क्योंकि वहां साम्यवादी दल की तानाशाही पाई जाती थी।

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9. सामाजिक तथा उत्सर्धक विकास (Social aod Economic Progress).- तानाशाही में देश की सामाजिक तथा आर्थिक उन्नत बहुत होती है । तानाशाही जनता क आर्थिक विकास की ओर विशेष ध्यान देता है और देश को आत्मनिर्भर बनाने का यह करता है। कृषि वियोग, साहिरक कला आदि क्षेत्रों में बहुत उन्नति होती है।

10. राष्ट्रीय एकता (National Solidarity)-तानाशाही में शासक का लोगों पर और लोगों के हर पक्ष पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। लोगों को चुनाव, भाषण आदि सम्वनी अधिकार नहीं मिलते। ये अधिकार लोगों में किसी हद तक फूट आदि के कारण बन जाते हैं। दूसरे तानाशाह युद्ध का वातावरण बनाए रखते हैं। इन सब बातों से देश के लोगों में आपसी एकता और देशभवित की भावना प्रकण्ड हो अन्दा है।

तानाशाही शासन के दोष (Demerits Of Dictattirship)-

तानाशाही में अनेक गुण के होते हुए भी इस शास:: :: गली का अच्छा नहीं समझा जाता। तानाशाह व्यवस्था में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • यह शक्ति और हिंसा पर आधारित है (It is based on Force and Violence) तानाशाही शासन शक्ति पर आधारित होता है। इसमें शक्ति और हिंसात्मक साधनों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। वास्तव में राज्य का आधार शक्ति न हो कर जनता की इच्छा होनी चाहिए। जो शासनवता की इच्छा पर निर्भर करता है वही स्थिर हो सकता
  • व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता (No Importance is given to the Individual) तानाशाही में व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। तानाशाही में राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना जाता है। शासन का उद्देश्य व्यक्ति का विकास न होकर राज्य का विकास करना होता है।
  • नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती (No rights and Liberties to the Citizens)तानाशाही में नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रताएं प्राप्त नहीं होतीं। अधिकारों के बिना व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता ! इस शासन-व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को समाप्त कर दिया जाता है।
  • अन्तर्राष्ट्रीयता का विरोध करता है (It opposes Internationalism)-आज का युग अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है। एक देश दूसरे देश के सहयोग पर निर्भर करता है, परन्तु तानाशाही व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास नहीं करती। मुसोलिनी तथा हिटलर ने लीग ऑफ नेशन्ज़ (League of Nations) को असफल बनाने के भरसक प्रयत्न किए। इस प्रकार तानाशाही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए खतरा है।
  • विस्तार की नीति (Policy of Expansion) तानाशाही साम्राज्यवाद में विश्वास करती है। तानाशाह सदैव राज्य के विस्तार की नीति को अपनाता है। मुसोलिनी कहा करता था—“इटली का विस्तार करो या मिट जाओ।” विस्तार की नीति से युद्धों का उदय होता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि तानाशाह सदैव युद्ध में लगे रहते हैं।
  • निर्बल उत्तराधिकारी (Weak Successors)—यह आवश्यक नहीं कि तानाशाह का उत्तराधिकारी योग्य और बुद्धिमान् हो। इतिहास से पता चलता है कि बुद्धिमान् तानाशाह के उत्तराधिकारी अयोग्य और निर्बल ही हुए हैं। मुसोलिनी और हिटलर के पश्चात् इटली तथा जर्मनी को कोई योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिल सका।
  • क्रान्ति का डर (Fear of Revolution)-तानाशाह शक्ति के ज़ोर पर शासन चलाता है और अपने प्रतिद्वन्द्वियों को कुचल डालता है। तानाशाह के विरोधियों को शासन बदलने के लिए क्रान्ति का सहारा लेना पड़ता है।
  • चरित्र के विकास में बाधा (It hinders the development of Character) तानाशाही में लोगों में आत्मनिर्भरता की भावना का अभाव होता है। उनका धैर्य कम हो जाता है और उनकी सार्वजनिक मामलों में रुचि कम हो जाती है। इससे उनके चरित्र के निर्माण में बाधा उत्पन्न होती है जिससे उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता।
  • यह नागरिकों में उदासीनता उत्पन्न करता है (It creates a feelins of apathy among the Citizens)- तानाशाही में शासन की सत्ता एक काका के पास केन्द्रित होती है। साधारण जनता को शासन से दूर रखा जाता है, जिससे जनता में शासन के प्रति उदासीनत उत्पन्न हो जाती है अतः वे राज्य के कार्यों में रुचि लेना बन्द कर देते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-तानाशाही के गुणों तथा अवगुणों के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि तानाशाही सरकार संकटकाल के लिए तथा आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए अच्छी सरकार है। परन्तु स्थायी रूप में यह शासन प्रणाली अच्छी नहीं है। तानाशाही प्रजातन्त्र का विकल्प नहीं हो सकता। प्रजातन्त्रीय सरकार के मुकाबले में तानाशाही सरकार दोषपूर्ण है, क्योंकि इसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को नष्ट किया जाता है। आज का युग तानाशाही का युग नहीं है। इसलिए संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को अपनाया गया है।

प्रश्न 8.
लोकतान्त्रिक और अधिनायकतन्त्रीय सरकारों में क्या अन्तर है ? उदाहरण सहित समझाइए।
(What is the distinction between a D mocratic and an authoritarian Governacht? Give example.)
अथवा
यदि तुम से प्रजातन्त्र और तानाशाही में से एक को चनन को कहा जाmissing तो किस चुनोगे ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(If you were to choose between Democracy and Dictatorship which one would you prefer? Give arguments to support your answer.)
उत्तर-
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् इटली तथा जर्मनी से प्रनारान्त्रिक सरकारों को समाप्त करके मुसोलिनी तथा हिटलर ने तानाशाही को स्थापित किया। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् चीन, युगोस्लाविया, बुल्गारिया, रूमानिया, हंगरी, पोलैंड इत्यादि साम्यवादी देशों में साम्यवादी दल की तानाशाही स्थापित की गई। परन्तु अब रूमानिया, पोलैंड, युगोस्लाविया, हंगरी, रूस आदि देशो में बहु-दलीय पद्धति को अपनाया गया है। चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि देशों में साम्यवादी दल की तानाशाही ही पाई जाती है।

परन्तु संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्रीय सरकारें पाई जाती हैं । इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, स्विट्ज़रलैण्ड, जापान तथा भारत इत्यादि महान् देशों में प्रजातन्त्र को ही अपनाया गया है। 1989 में अनेक साम्यवादी देशों में साम्यवादी दल की तानाशाही समाप्त करके बहु-दलीय लोकतन्त्र को अपनाया गया है। यहां तक कि साम्यवाद के आधार स्तम्भ सोवियत संघ का विघटन होने के बाद वहां भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है। प्रजातन्त्र तथा तानाशाही शासन एक-दूसरे के विरोधी हैं। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। प्रजातन्त्र और तानाशाही शासन में तुलनः ऋना बड़ा ही मनोरंजक है। यदि मुझे प्रजातन्त्र और तानाशाही में से एक चुनने को कहा जाए तो मैं प्रजातन्त्र को करूंगा। इन दोनों में अन्तर करने पर हम देखते हैं कि अग्र कारणों से लोकतन्त्र को तानाशाही की अपेक्षा अधिक किया जाता है

प्रजातन्त्र (Democracy) –

  • जनता का शासन-प्रजातन्त्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है। प्रजातन्त्र में जनता स्वयं प्रत्यक्ष तौर पर अथवा अपने प्रतिनिधियों के द्वारा शासन में भाग लेती है।
  • जनमत पर आधारित-प्रजातन्त्र जनमत पर आधारित है।
  • सरकार को शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा बदला जा सकता है-जनता जिस सरकार को पसन्द नहीं करती, उसे चुनावों में हटा दिया जाता है। प्रजातन्त्र में निश्चित अवधि के पश्चात् चुनाव करवाए जाते हैं, जिससे नागरिकों को सरकार बदलने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
  • व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास-प्रजातन्त्र में व्यक्ति को महत्त्व दिया जाता है। राज्य का उद्देश्य करना न होकर राज्य का विकास करना होता है। राज्य साध्य तथा व्यक्ति साधन होता है।
  • व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर बल-प्रजातन्त्र में नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है।
  • समानता पर आधारित-सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त होता है और कानून के सामने भी नागरिकों को समान माना जाता है।
  • शान्ति तथा व्यवस्था में विश्वास-प्रजातन्त्र शान्ति तथा व्यवस्था में विश्वास रखता है। प्रजातन्त्र हिंसात्मक साधनों को अनुचित मानता है।
  • साम्राज्यवाद के विरुद्ध-प्रजातन्त्र साम्राज्यवाद के विरुद्ध है। प्रजातन्त्र का विश्वास है कि प्रत्येक राष्ट्र को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए अर्थात् प्रत्येक राष्ट्र का राज्य होना चाहिए।
  • प्रत्येक निर्णय तर्क तथा वाद-विवाद से लिया जाता है-प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय पर पहुंचने से पहले वाद-विवाद होता है और फिर निर्णय किया जाता है।
  • सरकार की आलोचना का अधिकार-प्रजातन्त्र में जनता को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त होता है।
  • दलों का होना अनिवार्य-प्रजातन्त्र में कम-से- कम दो दल अवश्य होते हैं। बिना राजनीतिक दलों के प्रजातन्त्र को सफल नहीं बनाया जा सकता।
  • राज्य और सरकार में भेद-प्रजातन्त्र में राज्य और सरकार में भेद किया जाता है। सरकार राज्य का एक अंग होती है। सरकार की शक्तियां सीमित होती हैं। सरकार अपनी शक्तियां जनता से प्राप्त करती है।
  • सरकार का उत्तरदायित्त्व-प्रजातन्त्र में सरकार अपने सब कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती है और विशेष कर संसदीय शासन प्रणाली में विधानमण्डल के प्रति भी उत्तरदायी होती है।

तानाशाही (Dictatorship) –

  •  एक व्यक्ति अथवा एक पार्टी का शासन तानाशाही के शासन की सत्ता एक व्यक्ति में केन्द्रित होती है। साधारण जनता को शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं होता।
  • शक्ति पर आधारित तानाशाही का आधार निरंकुश शक्ति है।
  • सरकार को केवल क्रान्ति द्वारा बदला जा सकता है-तानाशाही में सरकार को केवल विद्रोह अथवा क्रान्ति के द्वारा ही बदला जा सकता है। सरकार को शान्तिपूर्ण ढंग से नहीं बदला जा सकता, क्योंकि इस शासन-व्यवस्था में चुनाव की कोई व्यवस्था नहीं होती।
  • राज्य का विकास-तानाशाही में राज्य को महत्त्व दिया जाता है। प्रजातन्त्र में राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों का विकास व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास करना होता है।
  • अधिकार व स्वतन्त्रताएं नाममात्र की तानाशाही में नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रताएं नाममात्र की ही प्राप्त होती हैं। तानाशाही में नागरिकों के कर्त्तव्य पर बहुत बल दिया जाता है।
  • समानता के सिद्धान्त को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता-तानाशाही में कुछ व्यक्तियों को श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं होता।
  • युद्ध तथा हिंसा में विश्वास-तानाशाही युद्ध तथा हिंसा में विश्वास रखता है। तानाशाह का विश्वास है कि प्रत्येक समस्या का समाधान शक्ति द्वारा किया जा सकता है।
  • साम्राज्यवाद में विश्वास-तानाशाह विस्तार की नीति में विश्वास रखता है। तानाशाही में यह नारा लगाया जाता है कि “विस्तार करो या मिट जाओ।” तानाशाही अन्तर्राष्ट्रीयता का विरोध करता है।
  • वाद-विवाद का कोई महत्त्व नहीं- तानाशाही में वाद-विवाद से काम नहीं किया जाता। तानाशाह बिना किसी की सलाह लिए भी निर्णय कर लेता है।
  • सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता-तानाशाही में किसी को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता।
  • कोई दल नहीं अथवा एक दल-तानाशाही में या तो दल होता ही नहीं और यदि होता है तो केवल एक दल। तानाशाह उसी दल का नेता होता है।
  • राज्य और सरकार में कोई भेद नहीं-तानाशाह को ही राज्य तथा सरकार माना जाता है। राज्य की समस्त शक्तियां तानाशाह के पास होती हैं और उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता।
  • अनुत्तरदायित्व सरकार-तानाशाही में शासक जनता अथवा विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। शासक अपनी मनमानी कर सकता है और शासक पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं होता है।

कौन-सी प्रणाली सबसे अधिक अच्छी है (Which of them is better ?)-दोनों प्रणालियों के गुणों और दोषों को सम्मुख रखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्रजातन्त्र अधिक अच्छी प्रणाली है। इस प्रणाली में व्यक्ति को व्यक्ति ही समझा जाता है, पशु नहीं। व्यक्ति के विकास और उत्थान के लिए आवश्यक वातावरण केवल प्रजातन्त्र में ही मिल सकता है। अनेक साम्यवादी देशों में बहु-दलीय लोकतन्त्र की स्थापना हो जाना लोकतन्त्र की श्रेष्ठता को ही साबित करता है।

इसमें शक नहीं कि प्रजातन्त्र के कई दोष भी हैं परन्तु ये दोष प्रजातन्त्र शासन प्रणाली के अपने नहीं हैं बल्कि लोगों में कुछ आवश्यक गुणों के अभाव से उत्पन्न होते हैं। अनुभव इस बात को स्पष्टतया सिद्ध करता है कि जिन देशों में ये आवश्यक गुण और परिस्थितियां जितनी अधिक विद्यमान होती हैं, प्रजातन्त्र उतना ही सफलतापूर्वक काम करता है। इंग्लैण्ड में राजतन्त्रीय ढांचे के होते हुए भी लोकतन्त्रीय प्रणाली बड़े अच्छे ढंग से कार्य कर रही है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकतन्त्र का अर्थ बताओ।
उत्तर-
आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। लोकतन्त्र ग्रीक भाषा के दो शब्दों डिमोस (Demos) और क्रेटिया (Cratia) से मिलकर बना है। डिमोस का अर्थ है लोग और क्रेटिया का अर्थ है ‘शक्ति’ या ‘सत्ता’। इस प्रकार डेमोक्रेसी का शाब्दिक अर्थ वह शासन है जिसमें शक्ति या सत्ता लोगों के हाथ में हो। दूसरे शब्दों में लोकतन्त्र सरकार का अर्थ है प्रजा का शासन।

  • प्रो० डायसी का कहना है कि, “प्रजातन्त्र ऐसी शासन प्रणाली है, जिसमें शासक वर्ग समाज का अधिकांश भाग हो।”
  • प्रो० सीले के अनुसार, “प्रजातन्त्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति भाग लेता है।”
  • लोकतन्त्र की बहुत सुन्दर, सरल तथा लोकप्रिय परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राह्म लिंकन ने इस प्रकार दी है कि, “प्रजातन्त्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।”

प्रश्न 2.
लोकतन्त्र की चार विशेषताएं लिखें।
उत्तर-
लोकतन्त्र की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • जनता की प्रभुसत्ता-प्रजातन्त्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है और जनता ही शक्ति का स्रोत होती है।
  • जनता का शासन-प्रजातन्त्र में शासन जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर चलाया जाता है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से लिया जाता है।
  • जनता का हित-प्रजातन्त्र में शासन जनता के हित के लिए चलाया जाता है।
  • समानता-समानता प्रजातन्त्र का मूल आधार है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक मनुष्य को समान समझा जाता है। जन्म, जाति, शिक्षा, धन आदि के आधार पर मनुष्यों में भेद-भाव नहीं किया जाता। सभी मनुष्यों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। कानून के सामने सभी व्यक्ति समान होते हैं।

प्रश्न 3.
प्रजातन्त्र के चार गुण लिखें।
उत्तर-
प्रजातन्त्र में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं

  • यह सर्वसाधारण के हितों की रक्षा करता है-प्रजातन्त्र की यह सब से बड़ी विशेषता है कि इसमें राज्य के किसी विशेष वर्ग के हितों की रक्षा न करके समस्त जनता के हितों की रक्षा की जाती है।
  • यह जनमत पर आधारित है-प्रजातन्त्र शासन जनमत पर आधारित है अर्थात् शासन जनता की इच्छानुसार चलाया जाता है। जनता अपने प्रतिनिधियों को निश्चित अवधि के लिए चुनकर भेजती है। यदि प्रतिनिधि जनता की
    इच्छानुसार शासन नहीं चलाते तो उन्हें दोबारा नहीं चुना जाता है। इस शासन प्रणाली में सरकार जनता की इच्छाओं की ओर विशेष ध्यान देती है।
  • यह समानता के सिद्धान्त पर आधारित है-प्रजातन्त्र में सभी नागरिकों को समान माना जाता है। किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, लिंग के आधार पर कोई विशेष अधिकार नहीं दिए जाते। प्रत्येक वयस्क को बिना भेदभाव के मतदान, चुनाव लड़ने तथा सार्वजनिक पद प्राप्त करने का समान अधिकार प्राप्त होता है। सभी मनुष्यों को कानून के सामने समान माना जाता है।
  • जनता को राजनीतिक शिक्षा मिलती है-प्रजातन्त्र में नागरिकों को अन्य शासन प्रणालियों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

प्रश्न 4.
लोकतन्त्र के चार दोष लिखें।
उत्तर-
जहां एक ओर लोकतन्त्र में इतने गुण पाए जाते हैं वहीं दूसरी ओर इसमें निम्नलिखित अवगुण भी पाए जाते हैं-

  • यह अज्ञानियों, अयोग्य तथा मूल् का शासन है-प्रजातन्त्र को अयोग्यता की पूजा बताया जाता है। इसका कारण यह है कि जनता में अधिकांश व्यक्ति अयोग्य, मूर्ख, अज्ञानी तथा अनपढ़ होते हैं।
  • यह गुणों के स्थान पर संख्या को अधिक महत्त्व देता है-प्रजातन्त्र में गुणों की अपेक्षा संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यदि किसी विषय को 60 मूर्ख ठीक कहें और 59 बुद्धिमान् ग़लत कहें तो मूों की ही बात को माना जाएगा। इस प्रकार लोकतन्त्र में मूल् का शासन होता है।
  • यह उत्तरदायी शासन नहीं है-वास्तव में प्रजातन्त्र अनुत्तरदायी शासन है। इसमें नागरिक केवल चुनाव वाले दिन ही सम्प्रभु होते हैं । परन्तु चुनावों के पश्चात् नेता जानते हैं कि जनता उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती अतः वे अपनी मनमानी करते हैं।
  • बहुमत की तानाशाही-प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से किया जाता है, जिस कारण प्रजातन्त्र में बहुमत की तानाशाही की स्थापना हो जाती है।

प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र किसे कहते हैं ?
उत्तर-
प्रत्यक्ष या शुद्ध प्रजातन्त्र-प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र ही प्रजातन्त्र का वास्तविक रूप है। जब जनता स्वयं कानून बनाए, राजनीति को निश्चित करे तथा सरकारी कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखे, उस व्यवस्था को प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र कहते हैं। समय-समय पर समस्त नागरिकों की सभा एक स्थान पर बुलाई जाती है और उसमें सार्वजनिक मामलों पर विचार होता है तथा शासन-सम्बन्धी प्रत्येक बात का निर्णय होता है। प्राचीन समय में ऐसे प्रजातन्त्र विशेष रूप से यूनान और रोम में विद्यमान थे, परन्तु आधुनिक युग में बड़े-बड़े राज्य हैं जिनकी जनसंख्या भी बहुत अधिक है और भू-भाग भी बड़ा है। नागरिकों की संख्या भी पहले से अधिक हो गई है। अतः प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र सम्भव नहीं है। रूसो प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का ही पुजारी था इसीलिए उसने कहा है कि इंग्लैंड के लोग केवल चुनाव वाले दिन ही स्वतन्त्र होते हैं।

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प्रश्न 6.
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की संस्थाओं के नाम लिखें और किन्हीं दो का वर्णन करें।
उत्तर-
प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की संस्थाएं कुछ देशों में मिलती हैं जैसे प्रस्तावाधिकार, जनमत संग्रह, प्रत्यावर्तन या वापसी, लोकमत संग्रह आदि।

1. प्रस्तावाधिकार-इसके द्वारा मतदाताओं को अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनाने का अधिकार होता है। यदि मतदाताओं की एक निश्चित संख्या किसी कानून को बनवाने की मांग करे तो संसद् अपनी इच्छा से उस मांग को रद्द नहीं कर सकती। यदि संसद् उस प्रार्थना के अनुसार कानून बना दे तो सबसे अच्छी बात है। यदि संसद् उस मांग से सहमत न हो तो वह समस्त जनता की राय लेती है और यदि मतदाता बहुमत से उस मत का समर्थन कर दें तो संसद् को वह कानून बनाना ही पड़ता है। स्विट्ज़रलैंड में 1,00,000 मतदाता कोई भी कानून बनाने के लिए संसद् को कह सकते हैं।

2. जनमत संग्रह-जनमत संग्रह द्वारा संसद् के बनाए हुए कानून लोगों के सामने रखे जाते हैं। वे कानून तभी पास हुए समझे जाते हैं यदि मतदाताओं का बहुमत उनके पक्ष में हो, नहीं तो वह कानून रद्द हो जाता है। इस प्रकार यदि संसद् कोई ऐसा कानून बना भी दे जिसे जनता अच्छा न समझती हो तो जनता उसे लागू होने से रोक सकती है। स्विट्जरलैंड में यह नियम है कि कानूनों को लागू करने से पहले जनता की राय ली जाती है। रूस में ऐच्छिक जनमतसंग्रह का सिद्धान्त अपनाया गया है।

प्रश्न 7.
आधुनिक युग में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र क्यों नहीं सम्भव है ?
उत्तर-
आधुनिक युग में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि आधुनिक राज्य आकार और जनसंख्या दोनों ही दृष्टियों में विशाल है। भारत, चीन, अमेरिका, रूस आदि देशों की जनसंख्या करोड़ों में है। इन देशों में प्रत्यक्ष लोकतन्त्र को अपनाना सम्भव नहीं है। भारत में जनमत-संग्रह करवाना आसान कार्य नहीं है और न ही प्रस्तावाधिकार या उपक्रमण (Initiative) द्वारा जनता की इच्छानुसार कानून बनाए जा सकते हैं। भारत में आम चुनाव करवाने पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं और चुनाव व्यवस्था पर बहुत अधिक समय लगता है। अतः प्रत्यक्ष लोकतन्त्र की संस्थाओं को लागू करना सम्भव नहीं है। आधुनिक युग में लोकतन्त्र का अर्थ लोगों द्वारा अप्रत्यक्ष शासन ही है।

प्रश्न 8.
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में चार अन्तर लिखें।
उत्तर-
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र के बीच अन्तर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में लोग स्वयं शासन में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेते हैं जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में शासन जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के द्वारा चलाया जाता है।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को शासक समझता है जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में केवल प्रतिनिधि ही शासक समझे जाते हैं।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता स्वयं कानून के निर्माण में भाग लेती है। इसलिए जनता अपने ही बनाए गए कानूनों का अधिक पालन करती है जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जनता के स्वयं कानून निर्माण में भाग लेने के कारण कानूनों के पालन की मात्रा इतनी अधिक नहीं होती।
  • प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की अपेक्षा जनता को अधिक राजनीतिक शिक्षण मिलता है।

प्रश्न 9.
प्रजातन्त्र की सफलता के लिए किन्हीं चार आवश्यक शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकतन्त्र के सफलतापूर्वक काम करने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना आवश्यक समझा जाता है-

  • जागरूक नागरिक-जागरूक नागरिकता प्रजातन्त्र की सफलता की पहली शर्त है। निरन्तर देख-रेख ही स्वतन्त्रता की कीमत है। नागरिक अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने चाहिएं।
  • प्रजातन्त्र से प्रेम-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नागरिकों के दिलों में प्रजातन्त्र के लिए प्रेम होना चाहिए। बिना प्रजातन्त्र से प्रेम के प्रजातन्त्र कभी सफल नहीं हो सकता।
  • शिक्षित नागरिक-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए शिक्षित नागरिकों का होना आवश्यक है। शिक्षित नागरिक प्रजातन्त्र शासन की आधारशिला हैं। शिक्षा से ही नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान होता है।
  • स्थानीय स्वशासन-प्रजातन्त्र की सफलता के लिए स्थानीय स्वशासन का होना आवश्यक है। स्थानीय संस्थाओं के द्वारा नागरिकों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 14 सरकारों के रूप-प्रजातन्त्र एवं अधिनायकवादी सरकारें

प्रश्न 10.
अधिनायकवाद या तानाशाही का अर्थ एवं परिभाषा लिखें।
उत्तर-
तानाशाही में शासन की सत्ता एक व्यक्ति में निहित होती है। अधिनायक अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है और वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। वह तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक शासन की शक्ति उसके हाथों में रहती है।
फोर्ड ने तानाशाही की परिभाषा देते हुए कहा है, “तानाशाही राज्य के अध्यक्ष द्वारा गैर-कानूनी शक्ति प्राप्त करना है।”
अल्फ्रेड ने अधिनायकतन्त्र की बड़ी सुन्दर और विस्तृत परिभाषा इस प्रकार दी है, “अधिनायकतन्त्र उस व्यक्ति का शासन है जिसने स्तर और स्थिति के पैतृक अधिकार से प्राप्त न करके शक्ति या स्वीकृति सम्भवतः दोनों के मिश्रण से प्राप्त किया हो। उसके पास निरंकुश प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य है अर्थात् वह समस्त राजनीतिक सत्ता का स्रोत है और उस सत्ता पर सीमा नहीं होनी चाहिए। वह शक्ति का प्रयोग कानून के द्वारा नहीं स्वेच्छापूर्ण ढंग से आदेशों द्वारा करता है। अन्ततः उसकी सत्ता किसी निश्चित कार्यकाल तक सीमित नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस प्रकार की सीमा निरंकुश शासन से मेल नहीं खाती है।”

प्रश्न 11.
आधुनिक तानाशाही की चार विशेषताएं बताओ।
उत्तर-
आधुनिक तानाशाही की निम्नलिखित चार विशेषताएं हैं-

  • राज्य की निरंकुशता-आधुनिक तानाशाही में राज्य निरंकुशवादी होते हैं। तानाशाही सरकार की शक्तियां असीमित हैं जिन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता।
  • राज्य साध्य है और व्यक्ति एक साधन है-तानाशाही में राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना जाता है। तानाशाही के समर्थकों का कहना है कि राज्य के हित में ही नागरिक का हित है। अत: नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य की आज्ञाओं का पालन करें और राज्य के हित के लिए अपना बलिदान करने के लिए सदा तैयार रहें।
  • राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं किया जाता-आधुनिक तानाशाही में राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं माना जाता। आधुनिक तानाशाही के समर्थकों के अनुसार राज्य को व्यक्ति के प्रत्येक क्षेत्र को नियमित करने तथा उसके प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
  • अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का न होना-तानाशाही में नागरिकों को अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं से वंचित कर दिया जाता है।

प्रश्न 12.
तानाशाही के चार गुण लिखो।।
उत्तर-
तानाशाही में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं –

  • दृढ़ तथा स्थिर शासन-तानाशाही का प्रथम गुण यह है कि इससे शासन में स्थिरता आती है। वह एक बार जो संकल्प कर लेता है उसी पर दृढ़ रहता है, इससे शासन में स्थिरता और नीतियों में निरन्तरता आती है।
  • शासन में कुशलता-तानाशाह ऊंचे पदों पर योग्य व्यक्तियों को नियुक्त करता है और शासन में घूसखोरी, लाल फीताशाही तथा पक्षपात को समाप्त करता है। वह आवश्यकता के अनुसार निर्णय लेता है। इस प्रकार तानाशाह शीघ्र ही निर्णय लेकर शासन की नीतियों को लागू करता है जिससे शासन में कार्यकुशलता आती है।
  • संकटकाल के लिए उचित सरकार-तानाशाही सरकार संकटकाल के लिए उचित है। शासन की समस्त शक्तियां तानाशाह में केन्द्रित होती हैं। निर्णय शीघ्र ही ले लिए जाते हैं और उन निर्णयों को कठोरता एवं दृढ़ता से लागू किया जाता है।
  • नीति में एकरूपता-तानाशाही में नीति में एकरूपता बनी रहती है।

प्रश्न 13.
तानाशाही के कोई चार दोष लिखो।
उत्तर-
तानाशाही में अनेक गुणों के होते हुए भी इस शासन प्रणाली को अच्छा नहीं समझा जाता। इसमें निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

  • यह शक्ति और हिंसा पर आधारित है-तानाशाही शासन शक्ति पर आधारित होता है। इसमें शक्ति और हिंसात्मक साधनों को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  • व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता-तानाशाही में व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। तानाशाही में राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना जाता है। शासन का उद्देश्य व्यक्ति का विकास न होकर राज्य का विकास करना होता है।
  • नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती-तानाशाही में नागरिकों को अधिकार तथा स्वतन्त्रताएं प्राप्त नहीं होतीं। अधिकारों के बिना व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। इस शासन व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को समाप्त कर दिया गया है।
  • विस्तार की नीति-तानाशाही विस्तार की नीति अर्थात् साम्राज्यवाद में विश्वास करती है।

प्रश्न 14.
लोकतन्त्र तथा तानाशाही में कोई चार अन्तर बताएं।
उत्तर-
लोकतन्त्र तथा तानाशाही में निम्नलिखित मुख्य अन्तर पाए जाते हैं
प्रजातन्त्र

  • जनता का शासन-प्रजातन्त्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है। प्रजातन्त्र में जनता स्वयं प्रत्यक्ष तौर पर अथवा अपने प्रतिनिधियों के द्वारा शासन में भाग लेती है।
  • जनमत पर आधारित-प्रजातन्त्र जनमत पर आधारित है।
  • सरकार को शान्तिपूर्ण साधनों द्वारा बदला जा सकता है-जनता जिस सरकार को पसन्द नहीं करती, उसे चुनावों में हटा दिया जाता है।
  • व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास-प्रजातन्त्र में राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास करना होता है।

तानाशाही

  • एक व्यक्ति अथवा एक पार्टी का शासन तानाशाही के शासन की सत्ता एक व्यक्ति में केन्द्रित होती है। साधारण जनता को शासन में भाग लेने का
    अधिकार प्राप्त नहीं होता।
  • शक्ति पर आधारित-तानाशाही का आधार निरंकुश शक्ति है।
  • सरकार को केवल क्रान्ति द्वारा बदला जा सकता है-तानाशाही में सरकार को केवल विद्रोह अथवा क्रान्ति के द्वारा ही बदला जा सकता है।
  • राज्य का विकास-तानाशाही राज्य में राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों का विकास करना न होकर राज्य का विकास करना होता है।

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प्रश्न 15.
यदि आपको प्रजातन्त्र व राजतन्त्र में चयन करने के लिए कहा जाए तो आप किस सरकार को पसन्द करेंगे ? अपने मत के समर्थन में चार तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर-
यदि मुझे प्रजातन्त्र और राजतन्त्र में चयन करने के लिए कहा जाए तो मैं प्रजातन्त्र को पसन्द करूंगा। प्रजातन्त्र को पसन्द करने के कई कारण हैं, जिनमें महत्त्वपूर्ण कारण इस प्रकार हैं-

  • प्रजातन्त्र जनता का अपना शासन है। शासन जनता के हित में चलाया जाता है जबकि राजतन्त्र में एक व्यक्ति का शासन होता है।
  • प्रजातन्त्र में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त होते हैं, परन्तु राजतन्त्र में ऐसा अनिवार्य नहीं।
  • प्रजातन्त्र में चुनाव होते हैं जिससे लोगों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है, परन्तु राजतन्त्र में जनता को राजनीतिक शिक्षा नहीं मिलती।
  • प्रजातन्त्र में लोगों को अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता होती है, जबकि राजतन्त्र में ऐसा नहीं होता।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लोकतन्त्र से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। लोकतन्त्र ग्रीक भाषा के दो शब्दों डिमोस (Demos) और क्रेटिया (Cratia) से मिलकर बना है। डिमोस का अर्थ है लोग और क्रेटिया का अर्थ है ‘शक्ति’ या ‘सत्ता’। इस प्रकार डेमोक्रेसी का शाब्दिक अर्थ वह शासन है जिसमें शक्ति या सत्ता लोगों के हाथ में हो। दूसरे शब्दों में लोकतन्त्र सरकार का अर्थ है प्रजा का शासन।

प्रश्न 2.
प्रजातन्त्र (लोकतंत्र) की कोई दो परिभाषाएं दें।
उत्तर-

  1. प्रो० सीले के अनुसार, “प्रजातन्त्र ऐसा शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति भाग लेता है।”
  2. लोकतन्त्र की बहुत सुन्दर, सरल तथा लोकप्रिय परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस प्रकार दी है कि, “प्रजातन्त्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।”

प्रश्न 3.
लोकतन्त्र की दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर-

  1. जनता की प्रभुसत्ता– प्रजातन्त्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है और जनता ही शक्ति का स्रोत होती है।
  2. जनता का शासन-प्रजातन्त्र में शासन जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर चलाया जाता है। प्रजातन्त्र में प्रत्येक निर्णय बहुमत से लिया जाता है।

प्रश्न 4.
अधिनायकवाद या तानाशाही का अर्थ लिखें।
उत्तर-
तानाशाही में शासन की सत्ता एक व्यक्ति में निहित होती है। अधिनायक अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करता है और वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। वह तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक शासन की शक्ति उसके हाथों में रहती है।

प्रश्न 5.
आधुनिक तानाशाही की दो विशेषताएं बताओ।
उत्तर-

  • राज्य की निरंकुशता-आधुनिक तानाशाही में राज्य निरंकुशवादी होते हैं।
  • राज्य साध्य है और व्यक्ति एक साधन है-तानाशाही में राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना जाता है। तानाशाही के समर्थकों का कहना है कि राज्य के हित में ही नागरिक का हित है। अत: नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य की आज्ञाओं का पालन करें और राज्य के हित के लिए अपना बलिदान करने के लिए सदा तैयार रहें।

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प्रश्न 6.
तानाशाही के दो गुण लिखो।
उत्तर-

  • दृढ़ तथा स्थिर शासन-तानाशाही का प्रथम गुण यह है कि इससे शासन में स्थिरता आती है। शासन की समस्त शक्तियां एक ही व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित होती हैं।
  • शासन में कुशलता-तानाशाह शीघ्र ही निर्णय लेकर शासन की नीतियों को लागू करता है जिससे शासन में कार्यकुशलता आती है।

प्रश्न 7.
तानाशाही के कोई दो दोष लिखो।
उत्तर-

  • यह शक्ति और हिंसा पर आधारित है-तानाशाही शासन शक्ति पर आधारित होता है। इसमें शक्ति और हिंसात्मक साधनों को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  • व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता-तानाशाही में व्यक्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। तानाशाही में राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना जाता है। शासन का उद्देश्य व्यक्ति का विकास न होकर राज्य का विकास करना होता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. प्रजातन्त्र का क्या अर्थ है ?
उत्तर-प्रजातन्त्र का अर्थ है वह शासन प्रणाली जिसमें राज्य की सत्ता प्रजा अर्थात् जनता के हाथ में हो।

प्रश्न 2. प्रजातन्त्र (Democracy) किन दो शब्दों से मिलकर बना है ?
उत्तर-

  1. डिमोस (Demos)
  2. एवं क्रेटिया (Cratia)।

प्रश्न 3. डिमोस (Demos) और क्रेटिया (Cratia) का क्या अर्थ है ?
उत्तर-डिमोस का अर्थ है, लोक और क्रेटिया का अर्थ है शक्ति या सत्ता। इसलिए डेमोक्रेसी का शाब्दिक अर्थ वह शासन है, जिसमें शक्ति या सत्ता लोगों के हाथों में हो।

प्रश्न 4. प्रजातन्त्र की कोई एक परिभाषा दें।
उत्तर-अब्राहिम लिंकन के अनुसार, “प्रजातन्त्र जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार है।”

प्रश्न 5. प्रजातन्त्र की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर-प्रजातन्त्र में प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है और जनता ही शक्ति का स्रोत होती है।

प्रश्न 6. किस देश में प्रजातन्त्र नहीं पाया जाता है?
उत्तर-चीन में प्रजातन्त्र नहीं पाया जाता ।

प्रश्न 7. एक पार्टी का शासन किसकी विशेषता है?
उत्तर-एक पार्टी का शासन तानाशाही की विशेषता है।

प्रश्न 8. तानाशाही शासन का एक लक्षण लिखें।
उत्तर-तानाशाही शासन में राज्य निरंकुश होता है।

प्रश्न 9. तानाशाही का कोई एक रूप लिखें।
उत्तर-सैनिक राज तानाशाही का एक रूप है।

प्रश्न 10. किसी एक तानाशाही शासन का नाम लिखें।
उत्तर-हिटलर एक तानाशाही शासक था।

प्रश्न 11. मुसोलिनी ने किस देश में अपनी तानाशाही स्थापित की ?
उत्तर-मुसोलिनी ने इटली में अपनी तानाशाही स्थापित की।

प्रश्न 12. हिटलर ने किस देश में अपनी तानाशाही स्थापित की?
उत्तर-हिटलर ने जर्मनी में अपनी तानाशाही स्थापित की।

प्रश्न 13. अंग्रेजी भाषा का ‘डैमोक्रेसी’ (Democracy) शब्द किस से लिया गया है?
उत्तर-यूनानी भाषा के शब्द डीमास (Demos) और क्रेटीआ (Cratia) से लिया गया है।

प्रश्न 14. आजकल कौन-सा लोकतन्त्र अधिक प्रचलित है?
उत्तर-आजकल प्रतिनिधि लोकतन्त्र अधिक प्रचलित है।

प्रश्न 15. प्रत्यक्ष लोकतन्त्र (Direct Democracy) शासन किसे कहते हैं?
उत्तर-लोग देश के शासन में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं, उसे प्रत्यक्ष लोकतन्त्र कहते हैं।

प्रश्न 16. प्रजातन्त्र में किस प्रकार का शासन होता है?
उत्तर-प्रजातन्त्र में जनता का शासन होता है।

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प्रश्न 17. भारत में मतदान करने की कम-से-कम आयु कितनी है?
उत्तर-भारत में मतदान करने की कम-से-कम आयु 18 वर्ष है।

प्रश्न 18. प्रजातन्त्र का एक गुण लिखें।
उत्तर-प्रजातन्त्र में सर्वसाधारण के हितों की रक्षा की जाती है।

प्रश्न 19. प्रजातन्त्र का एक दोष लिखें।
उत्तर-प्रजातन्त्र में गुणों के स्थान पर संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

प्रश्न 20. स्विट्ज़रलैण्ड में कितने मतदाता एक कानून बनाने के लिए संसद् को कह सकते हैं?
उत्तर-स्विट्ज़रलैण्ड में एक लाख मतदाता एक कानून बनाने के लिए संसद् को कह सकते हैं।

प्रश्न 21. स्विट्जरलैण्ड में कितने मतदाता इस बात की मांग कर सकते हैं, कि किसी कानून पर जनमत संग्रह कराया जाए।
उत्तर-स्विट्ज़रलैण्ड में 50000 मतदाता इस बात की मांग कर सकते हैं, कि किसी कानून पर जनमत संग्रह कराया जाए।

प्रश्न 22. प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में लोग स्वयं शासन में प्रत्यक्ष रूप में भाग लेते हैं, जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में शासन जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है।

प्रश्न 23. भारत में प्रजातन्त्र की असफलता का क्या कारण है?
उत्तर-सचेत नागरिकता का अभाव।

प्रश्न 24. अधिनायकतन्त्र का कोई एक गुण लिखें।
उत्तर-अधिनायकतन्त्र में नीति में एकरूपता बनी रहती है।

प्रश्न 25. अधिनायक तन्त्र का कोई एक दोष लिखें।
उत्तर-अधिनायक तन्त्र हिंसा पर आधारित होता है।

प्रश्न 26. प्रजातन्त्र एवं अधिनायकतन्त्र में कोई एक अन्तर लिखें।
उत्तर-प्रजातन्त्र जनता का शासन है, जबकि अधिनायक तन्त्र एक व्यक्ति या एक पार्टी का शासन है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ……………. शासन जनमत पर आधारित है।
2. प्रजातन्त्र में सभी नागरिकों को …………… माना जाता है।
3. प्रजातन्त्र स्वतन्त्रता एवं …………… पर आधारित है।
4. आलोचकों द्वारा प्रजातन्त्र को ………….. की पूजा बताया गया है।
5. ………….. को प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का घर कहा जाता है।
उत्तर-

  1. प्रजातन्त्र
  2. समान
  3. बन्धुता
  4. अयोग्यता
  5. स्विट्ज़रलैण्ड।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को शासक समझता है, जबकि अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में केवल प्रतिनिधि ही शासक समझे जाते हैं।
2. प्रजातन्त्र की सफलता के लिए नागरिकों की जागरूकता आवश्यक नहीं है।
3. तानाशाही में शासन की सत्ता एक व्यक्ति में निहित होती है।
4. तानाशाह की शक्तियां सीमित होती हैं।
5. तानाशाही की अवधि निश्चित नहीं होती।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

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प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
अधिनायकतन्त्र उस एक व्यक्ति का शासन है, जिसने अपने स्तर और स्थिति को पैतृक अधिकार से प्राप्त न करके शक्ति या स्वीकृति, सम्भवतः दोनों के मिश्रण द्वारा प्राप्त किया हो।” किसका कथन है ?
(क) अरस्तु
(ख) प्लेटो
(ग) अल्फ्रेड
(घ) ग्रीन।
उत्तर-
(ग) अल्फ्रेड

प्रश्न 2.
अधिनायकतन्त्र के गुण हैं
(क) स्थिर शासन
(ख) नीति में एकरूपता
(ग) संकटकाल के लिए उचित
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 3.
अधिनायकतन्त्र के दोष हैं
(क) हिंसा पर आधारित
(ख) क्रान्ति का डर
(ग) अधिकारों का अभाव
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

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प्रश्न 4.
प्रजातन्त्र एवं अधिनायकतन्त्र में अन्तर है
(क) प्रजातन्त्र जनता का शासन है, जबकि अधिनायकतन्त्र एक व्यक्ति या एक पार्टी का शासन है।
(ख) प्रजातन्त्र जनमत पर आधारित होता है, जबकि अधिनायकतन्त्र जनमत पर आधारित नहीं होता।
(ग) प्रजातन्त्र में लोगों को अधिकार प्राप्त होते हैं, जबकि अधिनायकतन्त्र में नहीं।
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(घ) उपरोक्त सभी।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 समाज, राज्य एवं राष्ट्र

Punjab State Board PSEB 11th Class Political Science Book Solutions Chapter 10 समाज, राज्य एवं राष्ट्र Textbook Exercise Questions and Answers.

PSEB Solutions for Class 11 Political Science Chapter 10 समाज, राज्य एवं राष्ट्र

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
समाज की परिभाषा दीजिए। इसके आवश्यक तत्त्व कौन-से हैं ? इसके उद्देश्यों की भी व्याख्या करें।
(Define Society. What are its essential elements ? Discuss its aims also.)
उत्तर-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। मनुष्य दूसरे मनुष्यों से मिले बिना नहीं रह सकता। मनुष्य स्वभाव से आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में रहता है।
समाज का अर्थ (Meaning of the Society)—साधारण शब्दों में समाज व्यक्तियों का समूह है जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इकट्ठे हुए हैं और परस्पर मिल-जुल कर रहते हैं ताकि अपने साझे उद्देश्य की पूर्ति कर सकें। विभिन्न लेखकों ने समाज शब्द की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं, जिनमें मुख्य इस प्रकार हैं :-

  • डॉ० जैक्स Jenks) के अनुसार, “मनुष्यों के मैत्रीपूर्ण या शान्तिमय सम्बन्धों का नाम ही समाज है।” (“The term society means harmonious or at least peaceful relationship.”‘) .
  • मैकाइवर (MacIver) के अनुसार, “मनुष्यों का एक-दूसरे के साथ ऐच्छिक सम्बन्ध ही समाज है।” (“Society includes every willed relationship of man to man.”)
  • प्लेटो (Plato) ने समाज की परिभाषा इस प्रकार दी है, “समाज मनुष्य का बृहद् रूप है।” (“Society is a writ large of man.”)
  • गिडिंग्ज़ (Giddings) ने समाज की परिभाषा करते हुए लिखा है, “समाज व्यक्तियों का एक समूह है जो एकदूसरे के साथ कुछ सामान्य आदर्शों की पूर्ति के लिए सहयोग करते हैं।”
  • जी० डी० एच० कोल (G.D.H. Cole) का कहना है कि, “समाज बिरादरी में संगठित समुदायों व संस्थाओं का संयुक्त संगठन है।” (“Society is the complex of associations and institutions within the community.”)
  • डॉ० लीकॉक (Leacock) का कहना है कि, “समाज केवल राजनीतिक सम्बन्धों को ही नहीं बतलाता जिनसे कि मनुष्य आपस में बन्धे हुए हैं बल्कि यह मनुष्य के सभी प्रकार के सम्बन्धों और अनेक सामूहिक गतिविधियों की जानकारी कराता है।”
  • मैकाइवर (MacIver) ने कहा है कि “समाज सभी सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है।” (“Society is the web of social relationship.”)
  • समर और केलर (Summer and Keller) के शब्दों में, “समाज ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो आजीविका उपार्जित करने के लिए और मनुष्य जाति की स्थिरता के लिए एक-दूसरे के साथ मिलकर रहते हैं।”
    सरल भाषा में मनुष्यों के सभी प्रकार के सम्बन्धों, समुदायों और संस्थाओं को जिनके द्वारा वे अपनी सामान्य आवश्यकताओं और उद्देश्यों की पूर्ति, जीवन रक्षा और उसके विकास का प्रयत्न करते हैं, समाज कहा जाता है।

समाज के आवश्यक तत्त्व (Essential Elements of Society)-

अथवा

समाज की विशेषताएं (Characteristics of Society)-

समाज की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाज के आवश्यक तत्त्व इस प्रकार हैं :

1. जनसमूह (Collection of People)—समाज के निर्माण के लिए पहला आवश्यक तत्त्व लोगों का समूह है। जिस प्रकार पति और पत्नी के बिना परिवार नहीं बन सकता तथा विद्यार्थियों के बिना स्कूल नहीं बन सकता है, उसी प्रकार लोगों के समूह के बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता।

2. संगठन (Organisation) समाज के निर्माण के लिए व्यक्तियों में किसी किस्म का संगठन होना अनिवार्य है। मेले में इकट्ठे हुए लोगों को समाज नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन लोगों में संगठन नहीं होता।

3. सामान्य उद्देश्य (Common Aims)-समाज के सदस्यों के उद्देश्य सामान्य होते हैं। समाज का निर्माण किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं होता बल्कि मानव-जीवन की सब समस्याओं की पूर्ति के लिए ही समाज प्रयत्न करता है।

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4. शान्ति और सहयोग (Peace and Co-operation)-जन-समूह में शान्ति तथा सहयोग का होना आवश्यक है। समाज अपने उद्देश्यों की पूर्ति शान्तिमय वातावरण में ही कर सकता है। मनुष्यों में परस्पर सहयोग का होना भी आवश्यक है। बिना सहयोग के समाज अपना कार्य नहीं चला सकता।

5. ऐच्छिक सदस्यता (Voluntary Membership)—समाज की सदस्यता अनिवार्य नहीं बल्कि इसके सदस्य अपनी इच्छा द्वारा ही इसके सदस्य बनते हैं।

6. समान अधिकार (Equal Rights)-समाज के सभी सदस्य समान हैं और समाज से जो भी लाभ हो सकते हैं, सभी उनमें समानता के आधार पर भागीदार बन सकते हैं।

7. वफादारी (Loyalty) समाज के सदस्यों में समाज के प्रति वफादारी की भावना होना बहुत आवश्यक है। व्यक्ति को समाज के नियमों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।

समाज के उद्देश्य (Aims of Society)-
समाज के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • सामाजिक भावना की पूर्ति (Fulfilment of Social Instinct)—मनुष्य के अन्दर सामाजिक भावना है अर्थात् यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह दूसरों के साथ मिल-जुल कर रहना चाहता है। अकेला व्यक्ति उदास रहता है और ऐसे में वह न तो खुद ही आनन्द ले सकता है न ही दुःखों को सहन कर सकता है। मनुष्य की यह सामाजिक भावना समाज द्वारा ही पूरी की जा सकती है।
  • भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति (Fulfilment of Physical Wants)—समाज अपने सदस्यों की सभी आवश्यकताएं पूरी करने का प्रयत्न करता है ! अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। समाज का सहारा लेकर उसे किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता। रोटी, पानी, कपड़े आदि के अतिरिक्त जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा की व्यवस्था करना समाज का उद्देश्य है।
  • व्यक्ति का पूर्ण विकास (Full Development of Individual)-समाज अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ उनके जीवन का पूर्ण विकास करने का भी प्रयत्न करता है। समाज का यह कर्त्तव्य है कि वह ऐसा वातावरण उत्पन्न करे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का हर पहलू से पूर्ण विकास कर सके।
  • समस्त मानव जाति का कल्याण (Welfare of Mankind)-समाज की कोई संख्या निश्चित नहीं है। एक समाज बढ़ कर समस्त संसार में फैल सकता है, इसीलिए प्रत्येक समाज का यह भी उद्देश्य है कि वह अपने सदस्यों में विश्व-बन्धुत्व तथा विश्व शान्ति की भावना उत्पन्न करे और ऐसे कार्य करे जिनसे समस्त मानव-जीवन का कल्याण हो। व्यक्ति जिएं और जीने दें।

प्रश्न 2.
राज्य और समाज में अन्तर करो। (Distinguish between State and Society.)। (Textual Question) (P.B. Sept., 1988)
उत्तर-
प्राचीनकाल में राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं किया जाता था। प्लेटो तथा अरस्तु ने राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं किया। आदर्शवादी लेखक हीगल, कांट, बोसांके इत्यादि ने भी राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं माना। फासिस्टों ने भी राज्य और समाज को एक माना था, परन्तु वास्तव में इन दोनों में अन्तर है।

समाज और राज्य में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

1. समाज की उत्पत्ति राज्य से पहले हुई-समाज की उत्पत्ति राज्य से पहले हुई। समाज का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ हुआ। अरस्तु के अनुसार, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना मनुष्य नहीं रह सकता। परन्तु राज्य की स्थापना उस समय हुई जब समाज में राजनीतिक संगठन की स्थापना हुई। राजनीतिक संगठन की स्थापना उस समय हुई जब मनुष्यों में राजनीतिक चेतना की उत्पत्ति हुई।

2. समाज का उद्देश्य राज्य के उद्देश्य से व्यापक है-समाज का उद्देश्य मनुष्य के जीवन के सभी पहलुओं की उन्नति करना है। इसमें मनुष्य का आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन आ जाता है। परन्तु राज्य का उद्देश्य मनुष्य के राजनीतिक जीवन को उन्नत करना होता है। राज्य मनुष्य के दूसरे पहलुओं की उन्नति के लिए विशेष ध्यान नहीं देता। समाज व्यक्ति के हर प्रकार के सम्बन्धों में हस्तक्षेप कर सकता है, परन्तु राज्य व्यक्ति के सभी कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। राज्य व्यक्ति के उन्हीं कार्यों में हस्तक्षेप करता है जिनका दूसरे लोगों के साथ सम्बन्ध हो और जिन्हें राजनीतिक तौर पर नियमित किया गया हो।

3. राज्य के पास निश्चित भू-भाग होता है, समाज के पास नहीं-राज्य के निर्माण के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक है। राज्य की सीमाएं निश्चित होती हैं। परन्तु समाज के निर्माण के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक नहीं है। समाज का क्षेत्र निश्चित नहीं होता। समाज का क्षेत्र दो-चार कुटुम्बों तक भी हो सकता है, एक राज्य तक भी हो सकता है, दो चार राज्यों तक भी हो सकता है।

4. राज्य संगठित होता है, समाज के लिए संगठन आवश्यक नहीं है-राज्य के निर्माण के लिए संगठन का होना आवश्यक है। इस संगठन को सरकार के नाम से जाना जाता है। सरकार राज्य का आवश्यक तत्त्व है। परन्तु समाज के निर्माण के लिए संगठन आवश्यक नहीं है। समाज संगठित भी हो सकता है और असंगठित भी अर्थात् समाज में संगठित और असंगठित दोनों तरह के समुदाय शामिल होते हैं।

5. राज्य समाज से छोटा है-समाज का क्षेत्र राज्य की अपेक्षा अधिक व्यापक होता है, समाज में सामाजिक भावना में बन्धे सभी सदस्य होते हैं, परन्तु राज्य में केवल वे ही व्यक्ति होते हैं जो राजनीतिक रूप से संगठित होते हैं।

6. राज्य के पास प्रभुसत्ता है, समाज के पास नहीं राज्य के पास सर्वोच्च शक्ति अर्थात् प्रभुसत्ता होती है। प्रभुसत्ता राज्य की आत्मा है। बिना प्रभुसत्ता के राज्य की स्थापना नहीं हो सकती। राज्य के नियमों को तोड़ने वाले को सज़ा दी जाती है। अतः राज्य अपने नियमों को शक्ति के ज़ोर पर लागू करता है, परन्तु दूसरी ओर समाज के पास प्रभुसत्ता नहीं होती। समाज के नियम तोड़ने वाले को कोई सजा नहीं मिलती। समाज के नियमों का पालन नैतिक शक्ति के आधार पर करवाया जाता है।

7. राज्य व्यक्ति के केवल बाहरी कार्यों को नियमित करता है जबकि समाज आन्तरिक कार्यों को भी राज्य केवल व्यक्तियों के बाहरी कार्यों को नियमित करता है। व्यक्ति क्या करता है, राज्य का इससे सम्बन्ध है। व्यक्ति क्या सोचता है, इससे राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु समाज का सम्बन्ध व्यक्ति के बाहरी और आन्तरिक दोनों प्रकार के कार्यों से है।

8. राज्य की सदस्यता अनिवार्य है, समाज की नहीं- प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी राज्य का नागरिक अवश्य होता है और नागरिक होने के कारण उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के अधिकार और सुविधाएं प्राप्त होती हैं। राज्य की सदस्यता के बिना कोई भी व्यक्ति नहीं रह सकता। इसके विपरीत यद्यपि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथापि वह समाज के बिना नहीं रह सकता, फिर भी उसके लिए समाज में रहना आवश्यक नहीं। वह समाज को छोड़ कर एकान्त में रह सकता है।

9. समाज मनुष्य की प्राकृतिक रुचियों का परिणाम है जबकि राज्य इसकी आवश्यकताओं का-समाज मनुष्य के लिए स्वाभाविक और प्राकृतिक है। मनुष्य की रुचियां उसको समाज में रहने की प्रेरणा देती हैं। परन्तु राज्य एक मानवीय संस्था है जो मनुष्य की आवश्यकताओं के कारण अस्तित्व में आई। ____ 10. राज्य कानूनों द्वारा तथा समाज रीति-रिवाज़ों द्वारा कार्य करता है-राज्य अपने सभी कार्य कानून की सहायता से करता है जबकि समाज अपने कार्यों को रीति-रिवाज़ों द्वारा करता है। राज्य के नियम और कानून स्पष्ट और सुनिश्चित होते हैं और इनको विधानमण्डल द्वारा बनाया जाता है। समाज के नियम, समाज के रीति-रिवाज, आदतें, प्रथाएं आदि हैं जोकि स्पष्ट और सुनिश्चित होते हैं।

PSEB 11th Class Political Science Solutions Chapter 10 समाज, राज्य एवं राष्ट्र

निष्कर्ष (Conclusion)-राज्य और समाज में आपसी भिन्नता के बावजूद आपसी घनिष्ठता भी है। यह दोनों व्यक्ति के जीवन-निर्वाह और जीवन विकास के लिए अपने-अपने ढंग से परिस्थितियों व साधनों को जुटाते हैं। राज्य का क्षेत्र भले ही समाज के क्षेत्र से सीमित है, परन्तु समाज को बनाए रखने में राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य है। राज्य के बिना, समाज का अस्तित्व कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है।

प्रश्न 3. राज्य और राष्ट्र के अन्तर पर लेख लिखें। (Write a note on the distinction between State and Nation.) (Textual Question)
उत्तर-साधारणत: राज्य और राष्ट्र में कोई अन्तर नहीं माना जाता। राष्ट्र राज्य के बहुत ही समीप है, इसमें भी कोई शक नहीं। राज्यों के संघों को प्रायः राष्ट्रों का संघ ही कहा जाता है जैसे कि राष्ट्र संघ (League of Nations), संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organisation) । आधुनिक युग में राष्ट्र राज्य (Nation States) ही प्रायः मिलते हैं जो एक राष्ट्र एक राज्य अलग-अलग हैं और इनमें निश्चित रूप से भेद हैं। वैसे यदि ध्यान से सोचा जाए तो One Nation, One State का सिद्धान्त भी इन दोनों में आपसी अन्तर की ओर संकेत करता है।

राष्ट्र और राज्य में निम्नलिखित भेद पाए जाते हैं-

1. राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं, राष्ट्र के अनेक तत्त्व हैं-राज्य के चार आवश्यक तत्त्व हैं-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। इनके मिलने से ही राज्य का निर्माण होता है। इनमें से यदि एक भी तत्त्व का अभाव हो तो राज्य नहीं बन सकता, परन्तु राष्ट्र के निर्माण के लिए कोई तत्त्व अनिवार्य नहीं है। राष्ट्र तो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भावनाओं द्वारा संगठित समुदाय है। राष्ट्र का निर्माण लोगों में एकता की चेतना से ही होता है। एकता की यह चेतना कई तत्त्वों के आधार पर पैदा होती है जैसे कि समान भाषा, समान धर्म, समान इतिहास, समान रीतिरिवाज़ और परम्पराएं आदि। किसी राष्ट्र में एक तत्त्व प्रबल है तो किसी राष्ट्र में दूसरा।

2. राष्ट्र के लिए लोगों में एकता की भावना का होना आवश्यक है, राज्य के लिए नहीं-राष्ट्र उस जनसमुदाय को ही कहा जा सकता है जिसमें एकता या ऐक्य की भावना हो। परन्तु राज्य के लोगों में एकता की भावना का होना आवश्यक नहीं। राज्य के लिए लोगों का राजनीतिक दृष्टि से संगठित होना ही आवश्यक है।

3. राज्य के लिए एक निश्चित भू-भाग आवश्यक है, राष्ट्र के लिए नहीं-राज्य एक प्रादेशिक संस्था है, जिसका प्रभाव एक निश्चित भू-भाग तक ही रहता है, परन्तु राष्ट्र के लिए निश्चित भू-भाग का होना आवश्यक नहीं। राष्ट्र का सम्बन्ध लोगों में उत्पन्न एकता की भावना से है, किसी निश्चित प्रदेश से नहीं।

एक राज्य में कई राष्ट्र और एक राष्ट्र में कई राज्य हो सकते हैं-यह आवश्यक नहीं कि एक राज्य में एक राष्ट्र हो या एक राष्ट्र में एक राज्य की प्रभुसत्ता लागू होती हो। एक राज्य की प्रभुसत्ता दो या इससे भी अधिक राष्ट्रों पर लागू हो सकती है, जैसे कि ऑस्ट्रिया और हंगरी से मिला कर एक बार एक राज्य स्थापित कर लिया गया था, फिर भी उसके दो अलग-अलग राष्ट्र रहे। ऐसे ही दिसम्बर 1971 से पूर्व पाकिस्तान में दो राष्ट्र विद्यमान थे, एक पश्चिमी पाकिस्तान और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान (बांग्ला देश)। इसके विपरीत एक राष्ट्र दो राज्यों में फैला हो सकता है जैसे कि जर्मन राष्ट्र तो एक है, परन्तु वह अक्तूबर, 1990 से पूर्व दो अलग-अलग राज्यों पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी में फैला हुआ था। कोरिया राष्ट्र तो एक है परन्तु वह दो अलग-अलग राज्यों उत्तरी कोरिया व दक्षिणी कोरिया में फैला हुआ है।

5. राज्य के लिए प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य है, राष्ट्र के लिए नहीं-राज्य के पास प्रभुसत्ता होती है और इसका होना उसके अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। इसके बिना राज्य का निर्माण हो ही नहीं सकता, परन्तु राष्ट्र के पास कोई प्रभुसत्ता नहीं होती। राष्ट्र स्वतन्त्रता प्राप्त करने का प्रयत्न करता है और स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर प्रभुसत्ता की भी प्राप्ति हो जाती है, परन्तु इसके साथ ही राज्य बन सकता है जो इस प्रभुसत्ता का प्रयोग करता है।

6. राज्य न तो राष्ट्र को उन्नत कर सकता है और न ही उसे समाप्त कर सकता है-राज्य के पास प्रभुसत्ता होने के कारण अपने भू-भाग में स्थित सब व्यक्तियों तथा व्यक्तियों की संस्थाओं पर उसका पूरा नियन्त्रण रहता है, परन्तु राष्ट्र को बनाने वाली एकता की भावना को न तो वह उन्नत कर सकता है और न ही उसे समाप्त कर सकता है। इसका उदाहरण अपने ही देश से दिया जा सकता है। अंग्रेज़ी शासकों के भारतीयों पर और पाकिस्तानी शासकों के बंगला देशियों पर हर प्रकार के सम्भव अत्याचारों के बावजूद भी वे शासक इसके राष्ट्र निर्माण में बाधक न बन सके। लोगों में राष्ट्रीय भावना अपने आप उत्पन्न होती है जिसके कई आधार हो सकते हैं।

अन्ततः इन दोनों में इतनी भिन्नता होते हुए यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि ज्यों-ज्यों ‘एक राष्ट्र, एक राज्य’ के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप में स्वीकृति मिलती जाएगी और राष्ट्र राज्य स्थापित होते जाएंगे, राष्ट्र और राज्य में भिन्नता की अपेक्षा समीपता अधिक आती जाएगी।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
समाज का अर्थ एवं परिभाषा का वर्णन करें।
उत्तर-
साधारण शब्दों में समाज व्यक्तियों का समूह है जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इकट्ठे हुए हैं और परस्पर मिल-जुल कर रहते हैं ताकि अपने सांझे उद्देश्य की पूर्ति कर सकें। विभिन्न लेखकों ने समाज की परिभाषाएं विभिन्न प्रकार दी हैं जो इस प्रकार हैं-

  • डॉ० जैक्स के अनुसार, “मनुष्यों के मैत्रीपूर्ण या शान्तिमय सम्बन्धों का नाम ही समाज है।”
  • मैकाइवर के अनुसार, “मनुष्यों का एक-दूसरे के साथ ऐच्छिक सम्बन्ध ही समाज है।”
  • कोल का कहना है कि, “समाज बिरादरी में संगठित समुदायों व संस्थाओं का संयुक्त संगठन है।”

प्रश्न 2.
समाज के चार आवश्यक तत्त्व बताइये।
उत्तर-
समाज के मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • जनसमूह-समाज के निर्माण के लिए पहला आवश्यक तत्त्व जनसमूह है। जिस प्रकार पति, पत्नी के बिना परिवार नहीं बन सकता तथा विद्यार्थियों के बिना स्कूल नहीं बन सकता, उसी प्रकार लोगों के समूह के बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
  • संगठन–समाज के निर्माण के लिए व्यक्तियों में किसी भी प्रकार के संगठन का होना आवश्यक है। मेले में इकट्ठे हुए लोगों के समूह को समाज नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनमें संगठन नहीं होता।
  • सामान्य उद्देश्य-समाज के सदस्यों के उद्देश्य सामान्य होते हैं। समाज का निर्माण किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं होता बल्कि समाज के द्वारा तो मानव जीवन की सब समस्याओं की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है।
  • शान्ति और सहयोग-जन-समूह में शान्ति और सहयोग का होना आवश्यक है।

प्रश्न 3.
राष्ट्र क्या है ?
उत्तर-
राष्ट्र’ की विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं। बर्गेस के अनुसार, “राष्ट्र वह जनसंख्या है जो जातीय एकता के सूत्र में बंधी हो और भौगोलिक एकता वाले प्रदेशों में बसी हो।” __होज़र के अनुसार, “राष्ट्र का निर्माण जाति या भाषा के आधार पर नहीं बल्कि लोगों के इकट्ठे रहने की भावना के आधार पर होता है।”
गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राष्ट्र = राज्य + राष्ट्रीयता” है।

परन्तु ये सभी परिभाषाएं ठीक नहीं हैं और राष्ट्र शब्द की परिभाषा किसी एक दृष्टिकोण के आधार पर नहीं की जा सकती। वास्तव में राष्ट्र ऐसे लोगों के समूह को कहते हैं जो जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति, ऐतिहासिक या किसी और बात या बातों की समानता के आधार पर अपने आपको आत्मिक या मानसिक तौर पर एक समझें और इकट्ठे रहने में ही अपने जीवन और अपनी संस्कृति आदि को सुरक्षित महसूस करें।

प्रश्न 4.
राज्य और समाज में चार अन्तर लिखें।
उत्तर-
समाज और राज्य में निम्नलिखित मुख्य अन्तर पाए जाते हैं-

  • समाज की उत्पत्ति राज्य से पहले हुई-समाज का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ हुआ। अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना मनुष्य रह नहीं सकता परन्तु राज्य की स्थापना उस समय हुई जब मनुष्य में राजनीतिक चेतना जागृत हुई और उसे राजनीतिक संगठन की आवश्यकता महसूस हुई।
  • समाज का उद्देश्य राज्य के उद्देश्य से व्यापक है-समाज का उद्देश्य मानव जीवन के सभी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक पहलुओं को उन्नत करना है जबकि राज्य का उद्देश्य मनुष्य के केवल राजनीतिक पहलू को विकसित करना है। इस प्रकार समाज का उद्देश्य, राज्य के उद्देश्य से व्यापक है।
  • राज्य के पास निश्चित भू-भाग होता है समाज के पास नहीं-राज्य के निर्माण के लिए निश्चित भू-भाग का होना आवश्यक है। राज्य की सीमाएं निश्चित होती हैं। परन्तु समाज के निर्माण के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक नहीं है। समाज का क्षेत्र निश्चित नहीं होता।
  • राज्य समाज से छोटा है-समाज का क्षेत्र राज्य की अपेक्षा अधिक व्यापक होता है।

प्रश्न 5.
राज्य और राष्ट्र में चार अन्तर बताओ।
उत्तर-
राज्य और राष्ट्र में निम्नलिखित भेद पाए जाते हैं-

  • राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं, राष्ट्र के अनेक तत्त्व हैं-राज्य के चार आवश्यक तत्त्व हैं-जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। राज्य के निर्माण के लिए ये चारों तत्त्व अनिवार्य हैं परन्तु राष्ट्र के निर्माण के लिए कोई तत्त्व अनिवार्य नहीं है। राष्ट्र तो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भावनाओं द्वारा संगठित समूह है। राष्ट्र का निर्माण लोगों में एकता की चेतना की भावना से होता है।
  • राष्ट्र के लिए लोगों में एकता की भावना होना आवश्यक है, राज्य के लिए नहीं-राष्ट्र उस जन-समुदाय को ही कहा जा सकता है जिसमें एकता की भावना हो। परन्तु राज्य में लोगों में एकता की भावना का होना आवश्यक नहीं है। राज्य के लिए लोगों का राजनीतिक दृष्टि से संगठित होना ही आवश्यक है।
  • राज्य के लिए एक निश्चित भू-भाग आवश्यक है, राष्ट्र के लिए नहीं-राज्य एक प्रादेशिक संस्था है, जिसका प्रभाव एक निश्चित भू-भाग तक रहता है। परन्तु राष्ट्र के लिए निश्चित भू-भाग का होना अनिवार्य नहीं है।
  • राज्य के लिए प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य है, राष्ट्र के लिए नहीं-राज्य के पास प्रभुसत्ता होती है और इसका होना राज्य के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। परन्तु राष्ट्र के पास कोई प्रभुसत्ता नहीं होती।

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प्रश्न 6.
राष्ट्र के निर्माण में सहायक तत्त्वों की व्याख्या करें।
उत्तर-
किसी भी राष्ट्र के निर्माण के लिए लोगों में भावनात्मक एकता होना ज़रूरी है और इस भावनात्मक एकता के विकास के तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. जातीय एकता-जिन लोगों के बीच अपनी जाति के प्रति लगाव होता है, उस जाति के लोग स्वाभाविक रूप से ही अपने आप को एक महसूस करते हैं।
  2. भाषा-समान भाषा के द्वारा विभिन्न जातियों व धर्मों में विश्वास रखने वाले लोग आपस में जुड़ते हैं। समान भाषा विभिन्न क्षेत्र में रहने वाले लोगों में भावनात्मक एकता पैदा करती है।
  3. एक धर्म-एक धर्म में विश्वास रखने वाले लोग ही भावनात्मक रूप से एक-दूसरे के साथ जुड़े होते हैं।
  4. समान उद्देश्य-राष्ट्रीय एकता और समान उद्देश्यों में गहरा सम्बन्ध है। जिन लोगों के उद्देश्य समान होते हैं वह आपस में इकट्ठे हो जाते हैं।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य और समाज में दो अन्तर लिखें।
उत्तर-

  • समाज की उत्पत्ति राज्य से पहले हुई-समाज का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ हुआ। अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना मनुष्य रह नहीं सकता परन्तु राज्य की स्थापना उस समय हुई जब मनुष्य में राजनीतिक चेतना जागृत हुई और उसे राजनीतिक संगठन की आवश्यकता महसूस हुई।
  • समाज का उद्देश्य राज्य के उद्देश्य से व्यापक है-समाज का उद्देश्य मानव जीवन के सभी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक पहलुओं को उन्नत करना है जबकि राज्य का उद्देश्य मनुष्य के केवल राजनीतिक पहलू को विकसित करना है। इस प्रकार समाज का उद्देश्य, राज्य के उद्देश्य से व्यापक है।

प्रश्न 2.
राज्य और राष्ट्र में दो अन्तर बताओ।
उत्तर-

  • राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं, राष्ट्र के अनेक तत्त्व हैं-राज्य के चार आवश्यक तत्त्व हैंजनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार तथा प्रभुसत्ता। राज्य के निर्माण के लिए ये चारों तत्त्व अनिवार्य हैं परन्तु राष्ट्र के निर्माण के लिए कोई तत्त्व अनिवार्य नहीं है। राष्ट्र का निर्माण लोगों में एकता की चेतना की भावना से होता है।
  • राष्ट्र के लिए लोगों में एकता की भावना होना आवश्यक है, राज्य के लिए नहीं-राष्ट्र उस जन-समुदाय को ही कहा जा सकता है जिसमें एकता की भावना हो। परन्तु राज्य में लोगों में एकता की भावना का होना आवश्यक नहीं है। राज्य के लिए लोगों का राजनीतिक दृष्टि से संगठित होना ही आवश्यक है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न I. एक शब्द/वाक्य वाले प्रश्न-उत्तर-

प्रश्न 1. समाज किसे कहते हैं ?
उत्तर-समाज व्यक्तियों का समूह है जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एकत्र हुए हैं और परस्पर मिलजुल कर रहते हैं, ताकि अपने साझे उद्देश्य की पूर्ति कर सकें।”

प्रश्न 2. समाज की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर-डॉ० जैक्स के अनुसार, “मनुष्यों के मैत्रीपूर्ण या शान्तिमय सम्बन्धों का नाम ही समाज है।”

प्रश्न 3. समाज का कोई एक आवश्यक तत्त्व लिखें।
उत्तर-समाज के निर्माण के लिए पहला आवश्यक तत्त्व लोगों का समूह है।

प्रश्न 4. समाज का कोई एक उद्देश्य लिखें।
उत्तर-समाज मनुष्यों की सामाजिक भावना की पूर्ति करता है।

प्रश्न 5. राज्य और समाज में कोई एक अन्तर बताएं।
उत्तर-समाज की उत्पत्ति राज्य से पहले हुई।

प्रश्न 6. राष्ट्र की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर-बर्गेस के अनुसार, “राष्ट्र वह जनसंख्या है जो जातीय एकता के सूत्र में बन्धी हो और भौगोलिक एकता वाले प्रदेश में बसी हो।”

प्रश्न 7. राज्य और राष्ट्र में एक अन्तर बताइए।
उत्तर-राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं, राष्ट्र के अनेक तत्त्व हैं।

प्रश्न 8. राष्ट्रवाद की भावना को प्रोत्साहित करने वाले किन्हीं चार कारकों के नाम लिखें।
उत्तर-(1) सामान्य मातृभूमि (2) वंश की समानता (3) सामान्य भाषा (4) सामान्य धर्म।

प्रश्न 9. समाज राज्य से पहले है। व्याख्या करें।
उत्तर-राजनीतिक संगठन की स्थापना उस समय हुई, जब मनुष्यों में राजनीतिक चेतना की उत्पत्ति हुई। इसलिए समाज राज्य से पहले है।

प्रश्न 10. राज्य के सप्तांग सिद्धान्त के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर-कौटिल्य ने राज्य के सात अंग बताए हैं। राज्य के सात अंगों के कारण ही राज्य की प्रकृति के सम्बन्ध में कौटिल्य ने इस सिद्धान्त को राज्य का सप्तांग सिद्धान्त कहा है।

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प्रश्न 11. कौटिल्य के अनुसार राज्य के सात अंग लिखो।
उत्तर-(1) स्वामी, (2) आमात्य, (3) जनपद, (4) दुर्ग, (5) कोष, (6) दण्ड, (7) मित्र ।

प्रश्न 12. “समाज सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन मैकाइवर का है।

प्रश्न 13. “किसी समूह के अन्दर संगठित समुदायों और संस्थाओं का योग ही समाज है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन जी० डी० एच० कोल का है।

प्रश्न 14. “समाज मनुष्य का वृहत्त रूप है।” किसका कथन है?
उत्तर-यह कथन प्लेटो का है।

प्रश्न 15. “समाज व्यक्तियों का एक समूह है जो एक-दूसरे के साथ कुछ सामान्य आदर्शों की पूर्ति के लिए सहयोग करते हैं। किसका कथन है?”
उत्तर-यह कथन गिडिंग्ज का है।

प्रश्न 16. समाज का कोई एक उद्देश्य लिखें।
उत्तर-समाज सामाजिक भावना की पूर्ति करता है।

प्रश्न 17. राष्ट्र को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं?
उत्तर-राष्ट्र को अंग्रेजी में नेशन (Nation) कहते हैं।

प्रश्न 18. ‘नेशन’ शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर-‘नेशन’ शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है।

प्रश्न 19. ‘नेशन’ शब्द किन दो शब्दों से मिलकर बना है?
उत्तर-नेशन शब्द नेशिया और नेट्स से मिलकर बना है।

प्रश्न 20. ‘नेशियो’ (Natio) शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-नेशियो शब्द का अर्थ जन्म या नस्ल है।

प्रश्न 21. ‘नेट्स’ (Natus) शब्द का अर्थ क्या है?
उत्तर-नेट्स शब्द का अर्थ पैदा हुआ है।

प्रश्न II. खाली स्थान भरें-

1. ………….. के पास निश्चित भू-भाग होता है, समाज के पास नहीं।
2. राज्य संगठित होता है, ……………… के लिए संगठन अवश्यक नहीं है।
3. राष्ट्र शब्द को अंग्रेज़ी में ……….. कहा जाता है।
4. ………….. के अनुसार “राष्ट्र से अभिप्राय एक जाति अथवा वंश वाला संगठन है।”
5. हैयज़ के अनुसार एक राष्ट्रीयता एकता और प्रभु-सम्पन्न स्वतन्त्रता प्राप्त करने से ………….. बन जाता है।
उत्तर-

  1. राज्य
  2. समाज
  3. नेशन (Nation)
  4. लीकॉक
  5. राष्ट्र ।

प्रश्न III. निम्नलिखित में से सही एवं ग़लत का चुनाव करें-

1. राज्य के चार अनिवार्य तत्त्व हैं, राष्ट्र के अनेक तत्त्व हैं।
2. राष्ट्र के लिए एक निश्चित भू-भाग होना आवश्यक है, राज्य के लिए नहीं।
3. राष्ट्र के लिए लोगों में एकता की भावना होना आवश्यक है, राज्य के लिए नहीं।
4. राष्ट्र के लिए प्रभुसत्ता का होना आवश्यक है, जबकि राज्य के लिए नहीं।
5. राज्य न तो राष्ट्र को उन्नत कर सकता है और न ही उसे समाप्त कर सकता है।
उत्तर-

  1. सही
  2. ग़लत
  3. सही
  4. ग़लत
  5. सही।

प्रश्न IV. बहुविकल्पीय प्रश्न-

प्रश्न 1.
‘नेशन’ शब्द किस भाषा से लिया गया है ?
(क) लैटिन
(ख) यूनानी
(ग) हिब्रू
(घ) फ़ारसी।
उत्तर-
(क) लैटिन

प्रश्न 2.
‘नेशन’ शब्द किन दो शब्दों से मिलकर बना है ?
(क) डिमोस और क्रेटिया
(ख) नेशियो और नेट्स
(ग) स्टेट और स्टेट्स
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(ख) नेशियो और नेट्स

प्रश्न 3.
‘नेशयो’ (Natio) शब्द का अर्थ है-
(क) जन्म या नस्ल
(ख) भाषा
(ग) क्षेत्र
(घ) उपरोक्त सभी।
उत्तर-
(क) जन्म या नस्ल।

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प्रश्न 4.
नेट्स (Natus) शब्द का अर्थ है-
(क) जन्म या नस्ल
(ख) क्षेत्र
(ग) पैदा हुआ
(घ) भाषा।
उत्तर-
(ग) पैदा हुआ।